प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन)

III. मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार

क. दुष्टता

2. मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति क्या करते हैं

पिछली सभा के दौरान हमने मुख्य रूप से मसीह-विरोधी के स्वभाव-सार पर संगति कर उसका सारांश दिया था, जिसमें भ्रष्ट मानवता के छह स्वभावों में से तीन लक्षणों का चयन कर उनका विश्लेषण किया गया था। ये तीन लक्षण हैं सत्य से विमुख होना, क्रूरता और दुष्टता। पिछली बार हमने दुष्टता के बारे में संगति की थी और मसीह-विरोधियों की दुष्ट अभिव्यक्तियों के विश्लेषण के माध्यम से, अर्थात् यह कि उनके विचार पूरे दिन बुराई से भरे रहते हैं, हमने मसीह-विरोधियों की पहचान की और इन अभिव्यक्तियों के माध्यम से उनके दुष्ट स्वभाव-सार की पुष्टि की। हम इस तथ्य का विश्लेषण कर रहे हैं कि उनके विचार पूरे दिन दो पहलुओं से बुराई से भरे रहते हैं : पहला, जब वे दूसरों के साथ पेश आते हैं तो उनके विचारों में क्या होता है, वे अपने भ्रष्ट सार में कौन-से नजरिये और अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं; दूसरा, परमेश्वर के बारे में उनके विचार क्या हैं। हमने इस बारे में संगति समाप्त कर ली थी कि वे लोगों के साथ कैसे पेश आते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों के विचारों, धारणाओं, दृष्टिकोणों और प्रेरणाओं का, यहाँ तक कि उनके मन में पूर्वनिर्धारित क्रियाकलापों का भी सवाल है, हमने पिछली बार इस बारे में आंशिक रूप से संगति की थी : उदाहरण के लिए, संदेह, जाँच-पड़ताल, और क्या? (संशय और सतर्कता।) संदेह, जाँच-पड़ताल, संशय और सतर्कता। आओ, अब मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की परीक्षा लेने के बारे में संगति करते हैं।

v. परीक्षा लेना

परीक्षा लेने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? कौन-से नजरिये या विचार परीक्षा लेने की अवस्था या सार को अभिव्यक्त करते हैं? (अगर मैंने कोई अपराध किया है या कुछ बुरा किया है, तो मैं हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना चाहता हूँ, स्पष्ट उत्तर चाहता हूँ और देखना चाहता हूँ कि मुझे अच्छा परिणाम या गंतव्य मिलेगा या नहीं।) इसका संबंध विचारों से है; इसलिए आम तौर पर जब कोई बोलता या कार्य करता है, या जब वह किसी चीज का सामना करता है, तो उसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ परीक्षा लेने वाली होती हैं? अगर किसी ने कोई अपराध किया है और उसे लगता है कि परमेश्वर उसका अपराध याद रख सकता है या उसकी निंदा कर सकता है, और वह खुद अनिश्चित है, नहीं जानता कि परमेश्वर वास्तव में उसकी निंदा करेगा या नहीं, तो वह यह देखने के लिए इसकी परीक्षा लेने का तरीका खोजता है कि परमेश्वर का रवैया वास्तव में क्या है। वह प्रार्थना करने से शुरू करता है, और अगर कोई रोशनी या प्रबुद्धता नहीं मिलती, तो वह अनुसरण के अपने पिछले तरीके पूरी तरह से छोड़ने के बारे में सोचता है। पहले वह चीजें अनमने ढंग से करता था, जहाँ 50% प्रयास कर सकता था वहाँ सिर्फ 30% प्रयास करता था, या जहाँ वह 30% प्रयास कर सकता था वहाँ 10% प्रयास करता था। अब अगर वह 50% प्रयास कर सकता है, तो वह करेगा। वह गंदा या थकाऊ काम करता है जिसे करने से दूसरे लोग बचते हैं, उसे हमेशा दूसरों के सामने करता है और सुनिश्चित करता है कि ज्यादातर भाई-बहन इसे देखें। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह देखना चाहता है कि परमेश्वर इस मामले को कैसे देखता है और क्या उसे उसके अपराध से छुटकारा मिल सकता है। जब कठिनाइयों या ऐसी चीजों से सामना होता है जिन पर ज्यादातर लोग काबू नहीं पा सकते, तो वह देखना चाहता है कि परमेश्वर क्या करेगा, क्या वह उसे प्रबुद्ध कर उसका मार्गदर्शन करेगा। अगर वह परमेश्वर की उपस्थिति और उसका विशेष अनुग्रह महसूस कर सके, तो वह मान लेता है कि परमेश्वर ने उसके अपराध को याद नहीं किया है या उसकी निंदा नहीं की है, जिससे यह साबित होता है कि उसे क्षमा किया जा सकता है। अगर वह इस तरह से खुद को खपाता है और ऐसी कीमत चुकाता है, अगर उसका रवैया काफी बदल जाता है लेकिन फिर भी वह परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं करता, और वह पहले से बिल्कुल कोई स्पष्ट अंतर महसूस नहीं करता, तो यह संभव है कि परमेश्वर ने उसके पिछले अपराध की निंदा की हो और अब वह उसे नहीं चाहता। चूँकि परमेश्वर उसे नहीं चाहता, इसलिए वह भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते समय उतना प्रयास नहीं करेगा। अगर परमेश्वर अभी भी उसे चाहता है, उसकी निंदा नहीं करता, और उसे अभी भी आशीष प्राप्त होने की उम्मीद है, तो वह अपना कर्तव्य निभाने में कुछ ईमानदारी दिखाएगा। क्या ये अभिव्यक्तियाँ और विचार परीक्षा लेने का एक रूप हैं? क्या यह एक विशिष्ट नजरिया है? (बिल्कुल।) अभी तुम लोगों ने सिर्फ एक सैद्धांतिक पहलू का जिक्र किया, लेकिन तुम विशेष रूप से परमेश्वर की परीक्षा लेने की विस्तृत अभिव्यक्ति में नहीं गए हो कि इस मामले के प्रति उनके हृदय में क्या ठोस नजरिये और योजनाएँ होती हैं, या यह उजागर नहीं किया कि जब मसीह-विरोधी इस गतिविधि में लिप्त होते हैं तो उनके क्या दृष्टिकोण और अवस्थाएँ होती हैं।

कुछ लोगों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसके द्वारा मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल के बारे में लगातार कोई ज्ञान या अनुभव नहीं होता। उनमें परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल के बारे में वास्तविक संकल्पना का भी अभाव होता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे इस मामले को लेकर संदेह से भरे होते हैं। हालाँकि अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में वे यह मानना चाहते हैं कि परमेश्वर मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है, लेकिन उनके पास इसका निर्णायक प्रमाण नहीं होता। नतीजतन, वे अपने हृदय में कुछ चीजों की योजना बना लेते हैं और साथ ही उनका निष्पादन और कार्यान्वयन करना शुरू कर देते हैं। जब वे उन्हें लागू करते हैं, तो लगातार देखते हैं कि क्या परमेश्वर वास्तव में उनके बारे में जानता है, क्या उनके मामले उजागर होंगे, और अगर वे चुप रहते हैं तो क्या कोई उनका पता लगा सकता है या क्या परमेश्वर किसी परिवेश-विशेष के माध्यम से उन्हें प्रकट कर सकता है। बेशक, साधारण लोगों में परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसके द्वारा मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल के बारे में कमोबेश कुछ अनिश्चितताएँ हो सकती हैं, लेकिन मसीह-विरोधी सिर्फ अनिश्चित नहीं होते—वे संदेह से भरे होते हैं और साथ ही परमेश्वर से पूरी तरह सतर्क भी होते हैं। इसलिए वे परमेश्वर की परीक्षा लेने के लिए कई नजरिये विकसित करते हैं। चूँकि वे परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल पर संदेह करते हैं, और इससे भी बढ़कर, इस तथ्य से इनकार तक करते हैं कि परमेश्वर उसकी जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए वे अक्सर कुछ मामलों के बारे में सोचते हैं। फिर थोड़े डर या किसी अवर्णनीय दहशत की भावना के साथ वे कुछ लोगों को गुमराह करके अकेले में गुप्त रूप से इन विचारों को फैलाते हैं। इस बीच वे लगातार अपने तर्क और विचार थोड़ा-थोड़ा करके उजागर करते रहते हैं। उन्हें उजागर करते हुए वे देखते हैं कि परमेश्वर उनके इस व्यवहार को बाधित करेगा या उजागर। अगर वह उसे उजागर या परिभाषित करता है, तो वे तुरंत पीछे हटकर दूसरा नजरिया अपना लेते हैं। अगर ऐसा लगता है कि किसी को इसके बारे में पता नहीं है और कोई उन्हें समझ नहीं सकता या उनकी असलियत नहीं जान सकता, तो वे अपने दिलों में और भी पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हैं कि उनकी अंतर्दृष्टि सही है और परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान उचित है। उनके विचार में परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल मूल रूप से अस्तित्वहीन है। यह किस तरह का नजरिया है? यह परीक्षा लेने का नजरिया है।

मसीह-विरोधी अपने अंतर्निहित दुष्ट स्वभाव के कारण कभी सीधे-सीधे बात या काम नहीं करते। वे चीजों को ईमानदार रवैये और निष्ठा से नहीं सँभालते या ईमानदार शब्दों में बात और हृदयस्पर्शी रवैये से काम नहीं करते। जो कुछ भी वे कहते या करते हैं, वह बेबाक नहीं होता, बल्कि घुमावदार और लुका-छिपा होता है, और वे कभी अपने विचार या प्रयोजन सीधे तौर पर व्यक्त नहीं करते। चूँकि वे मानते हैं कि अगर वे उन्हें व्यक्त करेंगे, तो उन्हें पूरी तरह से समझ और जान लिया जाएगा, उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ प्रकाश में उजागर हो जाएँगी और वे दूसरे लोगों के बीच उच्च या कुलीन नहीं माने जाएँगे या दूसरे उनका आदर और आराधना नहीं करेंगे; इसलिए वे हमेशा अपने बदनाम उद्देश्य और इच्छाएँ ढकने-छिपाने की कोशिश करते हैं। तो वे कैसे बोलते और काम करते हैं? वे विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं। जैसी कि गैर-विश्वासियों के बीच कहावत है, “स्थिति का पता लगाना,” मसीह-विरोधी भी ऐसा ही नजरिया अपनाते हैं। जब वे कुछ करना चाहते हैं और उनका कोई खास दृष्टिकोण या रवैया होता है, तो वे उसे कभी सीधे तौर पर व्यक्त नहीं करते; बल्कि वे कुछ खास तरीके इस्तेमाल करते हैं, जैसे कि धूर्ततापूर्ण या पूछताछ करने वाले तरीके या लोगों से बातें निकालकर वह जानकारी जुटाना जो वे चाहते हैं। अपने दुष्ट स्वभाव के कारण मसीह-विरोधी कभी सत्य नहीं खोजते, न ही वे उसे समझना चाहते हैं। उनकी एकमात्र चिंता अपनी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत को लेकर होती है। वे उन गतिविधियों में लिप्त होते हैं जो उन्हें प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत दे सकती हो, और उनसे बचते हैं जो ऐसी चीजें नहीं देतीं। वे प्रतिष्ठा, हैसियत, अलग पहचान और महिमा से संबंधित गतिविधियों में उत्सुकता से शामिल होते हैं, जबकि उन चीजों से बचते हैं जो कलीसिया के काम की रक्षा करती हों या दूसरों को नाराज कर सकती हों। इसलिए मसीह-विरोधी किसी भी चीज को खोज के रवैये से नहीं देखते; बल्कि वे परीक्षा लेने के तरीके का इस्तेमाल चीजों का पता लगाने के लिए करते हैं और फिर यह तय करते हैं कि आगे बढ़ना है या नहीं—मसीह-विरोधी इतने चालाक और दुष्ट होते हैं। उदाहरण के लिए, जब वे यह जानना चाहते हैं कि परमेश्वर की नजर में वे कैसे व्यक्ति हैं, तो वे खुद को जानने के द्वारा परमेश्वर के वचनों के माध्यम से अपना आकलन नहीं करते। इसके बजाय वे चारों ओर पूछताछ करते हैं और निहित भाषणों को सुनते हैं, अगुआओं और ऊपर वाले के लहजे और रवैये को देखते हैं, और परमेश्वर के वचनों में यह देखते हैं कि परमेश्वर उनके जैसे लोगों के परिणाम कैसे निर्धारित करता है। वे इन मार्गों और तरीकों का उपयोग यह देखने के लिए करते हैं कि वे परमेश्वर के घर में किस स्थिति में हैं और यह पता लगाते हैं कि उनका भावी परिणाम क्या होगा। क्या इसमें किसी तरह की परीक्षा लेना शामिल नहीं है? उदाहरण के लिए, जब कुछ लोगों की काट-छाँट की जाती है, तो उसके बाद वे यह जाँच-पड़ताल करने के बजाय कि उनकी काट-छाँट क्यों की गई, अपने क्रियाकलापों के दौरान उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों और गलतियों की जाँच-पड़ताल क्यों की गई, और खुद को जानने और अपने पिछले दोष सुधारने के लिए उन्हें सत्य के कौन-से पहलू खोजने चाहिए, वे अपने प्रति ऊपर वाले के वास्तविक रवैये का पता लगाने के लिए अप्रत्यक्ष साधनों का उपयोग करके दूसरों पर झूठी छाप छोड़ते हैं। उदाहरण के लिए, काट-छाँट किए जाने के बाद वे जल्दी से एक महत्वहीन मुद्दा उठाकर उससे ऊपर वाले को खोजते हैं, यह देखने के लिए कि ऊपर वाले का लहजा कैसा है, क्या वह धैर्यवान है, क्या जो सवाल वे पूछ रहे हैं उनका गंभीरता से जवाब दिया जाएगा, क्या वह उनके प्रति नरम रवैया अपनाएगा, क्या वह उन्हें काम सौंपेंगा, क्या वह अब भी उनका सम्मान करेगा, और ऊपर वाला वास्तव में उनके द्वारा पहले की गई गलतियों के बारे में क्या सोचता है। ये सभी नजरिये एक तरह से परीक्षा लेना है। संक्षेप में, जब वे ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं और ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, तो क्या लोग अपने दिल में इसे जानते हैं? (हाँ, वे जानते हैं।) तो जब तुम जानते हो और ये चीजें करना चाहते हो, तो तुम लोग इसे कैसे सँभालते हो? पहले, सबसे सरल स्तर पर, क्या तुम अपने खिलाफ विद्रोह कर सकते हो? समय आने पर कुछ लोगों को अपने खिलाफ विद्रोह करना चुनौतीपूर्ण लगता है; वे इस पर सोचते हैं, “इसे भूल जाओ, इस बार यह मेरे आशीषों और परिणाम से संबंधित है। मैं अपने खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता। अगली बार करूँगा।” जब अगली बार आता है और वे फिर से अपने आशीषों और परिणाम से जुड़े किसी मुद्दे का सामना करते हैं, तो तब भी वे खुद को अपने खिलाफ विद्रोह करने में असमर्थ पाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में जमीर होता है और हालाँकि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव-सार नहीं होता, फिर भी यह उनके लिए काफी परेशानी भरा और खतरनाक होता है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी अक्सर ये विचार मन में रखते हैं और ऐसी अवस्था में रहते हैं, लेकिन वे कभी अपने खिलाफ विद्रोह नहीं करते, क्योंकि उनमें जमीर नहीं होता। अगर कोई उनकी अवस्थाएँ इंगित करते हुए उनकी काँट-छाँट करता भी है, तो भी वे डटे रहकर अपने खिलाफ बिल्कुल भी विद्रोह नहीं करेंगे, न ही वे इसके कारण खुद से घृणा करेंगे या इस अवस्था को छोड़कर इसका समाधान ही करेंगे। बर्खास्त किए जाने के बाद कुछ मसीह-विरोधी सोचते हैं, “बर्खास्त होना एक सामान्य बात लगती है, लेकिन कुछ हद तक अपमानजनक महसूस होती है। हालाँकि यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है, लेकिन एक निर्णायक चीज है जिसे मैं नहीं छोड़ सकता। अगर मुझे बर्खास्त कर दिया जाता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि परमेश्वर का घर अब मुझे विकसित नहीं करेगा? फिर मैं परमेश्वर की नजर में किस तरह का व्यक्ति रहूँगा? क्या मेरे पास अभी भी आशा होगी? क्या मैं अभी भी परमेश्वर के घर में किसी काम का रहूँगा?” वे इस पर विचार कर एक योजना बनाते हैं, “मेरे पास दस हजार युआन हैं और अब उनका उपयोग करने का समय है। मैं ये दस हजार युआन चढ़ावे के रूप में अर्पित कर देखूँगा कि क्या मेरे प्रति ऊपरवाले का रवैया थोड़ा बदल सकता है और क्या वह मेरे प्रति कुछ अनुग्रह दिखा सकता है। अगर परमेश्वर का घर पैसे स्वीकार कर लेता है, तो इसका मतलब है कि मेरे पास अभी भी आशा है। अगर वह पैसे अस्वीकार कर देता है, तो यह साबित होता है कि मेरे पास कोई आशा नहीं है और मैं अन्य योजनाएँ बनाऊँगा।” यह किस तरह का नजरिया है? यह परीक्षा लेना है। संक्षेप में, परीक्षा लेना दुष्ट स्वभाव-सार की अपेक्षाकृत स्पष्ट अभिव्यक्ति है। लोग इच्छित जानकारी प्राप्त करने, निश्चितता प्राप्त करने और फिर मन की शांति प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग करते हैं। परीक्षा लेने के कई तरीके हैं, जैसे कि परमेश्वर से बातें उगलवाने के लिए शब्दों का उपयोग करना, उसकी परीक्षा लेने के लिए चीजों का उपयोग करना, अपने मन में चीजों के बारे में सोचना और उन पर विचार करना। परमेश्वर की परीक्षा लेने का तुम लोगों का सबसे आम तरीका क्या है? (कभी-कभी परमेश्वर से प्रार्थना करते समय मैं अपने प्रति परमेश्वर के रवैये की जाँच-पड़ताल करता हूँ और देखता हूँ कि मेरे दिल में शांति है या नहीं। मैं परमेश्वर की परीक्षा लेने के लिए इस तरीके का उपयोग करता हूँ।) इस तरीके का उपयोग काफी आम है। एक और तरीका यह देखना है कि सभा में संगति के दौरान किसी के पास कहने के लिए कुछ है या नहीं, परमेश्वर प्रबुद्धता या रोशनी प्रदान करता है या नहीं, और इसका यह जाँच-पड़ताल करने के लिए उपयोग करना कि क्या परमेश्वर अभी भी उनके साथ है, क्या वह अभी भी उनसे प्रेम करता है। साथ ही, अपना कर्तव्य निभाने के दौरान यह देखना कि क्या परमेश्वर उन्हें प्रबुद्धता देता है या उनका मार्गदर्शन करता है, क्या उनके कोई विशेष विचार, भाव या अंतर्दृष्टियाँ हैं—इनका यह जाँच करने के लिए उपयोग करना कि परमेश्वर का उनके प्रति कैसा रवैया है। ये सभी तरीके काफी आम हैं। और कुछ? (अगर मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने कोई संकल्प लिया है लेकिन उसे पूरा करने में विफल रहता हूँ, तो मैं देखता हूँ कि क्या परमेश्वर मेरे साथ मेरी शपथ के अनुसार व्यवहार करेगा।) यह भी एक तरह का तरीका है। परमेश्वर के साथ पेश आने के लिए लोग चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करें, अगर उनके मन में इसके बारे में अपराध-बोध होता है और फिर वे इन क्रियाकलापों और स्वभावों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और तुरंत उन्हें बदल सकते हैं, तो फिर समस्या उतनी महत्वपूर्ण नहीं है—यह एक सामान्य भ्रष्ट स्वभाव है। लेकिन अगर कोई लगातार और हठपूर्वक ऐसा कर सकता है, भले ही उसे पता हो कि यह गलत है और परमेश्वर को इससे घृणा है, लेकिन वह इसमें लगा रहता है, कभी इसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता या इसे छोड़ता नहीं, तो यह मसीह-विरोधी का सार है। मसीह-विरोधी का स्वभाव-सार साधारण लोगों से अलग होता है, जिसमें वे कभी आत्मचिंतन नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, बल्कि लगातार और हठपूर्वक परमेश्वर, लोगों के प्रति उसके रवैये, किसी व्यक्ति के बारे में उसके निष्कर्ष और किसी व्यक्ति के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में उसके विचारों और भावों की परीक्षा लेने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं। वे कभी परमेश्वर के इरादे, सत्य और खास तौर से यह नहीं खोजते कि अपने स्वभाव में बदलाव लाने के लिए सत्य के प्रति कैसे समर्पित हों। उनके तमाम क्रियाकलापों के पीछे का उद्देश्य परमेश्वर के विचारों और भावों की जाँच-पड़ताल करना है—यह मसीह-विरोधी है। मसीह-विरोधियों का यह स्वभाव स्पष्ट रूप से दुष्ट होता है। जब वे इन क्रियाकलापों में संलग्न होते हैं और ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, तो उनमें अपराध-बोध या पश्चात्ताप का नामोनिशाँ तक नहीं होता। अगर वे खुद को इन चीजों से जोड़ते भी हैं, तो भी वे कोई पश्चात्ताप या रुकने का इरादा नहीं दिखाते, बल्कि तब भी अपने तौर-तरीकों पर कायम रहते हैं। परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार, रवैये और उनके नजरिये से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परमेश्वर को अपना विरोधी मानते हैं। उनके विचारों और दृष्टिकोणों में परमेश्वर को जानने, परमेश्वर से प्रेम करने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानने का कोई विचार या रवैया नहीं होता; वे सिर्फ परमेश्वर से इच्छित जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं और अपने प्रति परमेश्वर का सटीक रवैया और अपने बारे में उसकी परिभाषा सुनिश्चित करने के लिए अपने ही तरीके और साधन इस्तेमाल करते हैं। ज्यादा गंभीर बात यह है कि भले ही वे अपने दृष्टिकोण परमेश्वर के प्रकाशन के वचनों के अनुरूप रखते हों, अगर उन्हें इस बात की थोड़ी-सी भी जानकारी हो कि यह व्यवहार परमेश्वर को घृणास्पद लगता है और किसी व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए, तो भी वे इसे कभी नहीं छोड़ेंगे।

अतीत में परमेश्वर के घर में एक विनियम था : उन लोगों के बारे में जिन्हें निकाल या हटा दिया गया हो, अगर उन्होंने बाद में सच्चा पश्चात्ताप अभिव्यक्त किया हो और वे परमेश्वर के वचन पढ़ने में लगे रहे हों, सुसमाचार फैलाते रहे हों और परमेश्वर के लिए गवाही देते रहे हों, सच में पश्चात्ताप किया हो तो उन्हें कलीसिया में फिर से प्रवेश दिया जा सकता है। कोई व्यक्ति था जिसने हटाए जाने के बाद ये मानदंड पूरे किए और कलीसिया ने उसे खोजने, उसके साथ संगति करने और उसे यह बताने के लिए किसी को भेजा कि उसे कलीसिया में वापस प्रवेश दे दिया गया है। यह सुनकर वह काफी प्रसन्न हुआ, लेकिन उसने सोचा, “यह स्वीकृति वास्तविक है या इसके पीछे कोई विचार है? क्या परमेश्वर ने वाकई मेरा पश्चात्ताप देखा है? क्या उसने वाकई मुझ पर दया दिखाकर मुझे क्षमा कर दिया है? क्या वाकई मेरे पिछले क्रियाकलाप नजरंदाज कर दिए गए हैं?” उसे इस पर विश्वास नहीं हुआ और उसने सोचा, “भले ही वे मुझे वापस लेना चाहते हों, लेकिन मुझे संयमित रहना चाहिए और तुरंत सहमत नहीं होना चाहिए, मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मानो मैंने निष्कासित होने के बाद इन वर्षों के दौरान बहुत कष्ट सहे हों और मैं बहुत दयनीय रहा हूँ। मुझे थोड़ा संयमित व्यवहार करना चाहिए और वापस प्रवेश मिलने के तुरंत बाद इस बारे में पूछताछ नहीं करनी चाहिए कि मैं कलीसियाई जीवन में कहाँ भाग ले सकता हूँ या मैं कौन-से कर्तव्य निभा सकता हूँ। मैं बहुत उत्साही नहीं दिख सकता। हालाँकि मैं अंदर से बहुत खुश महसूस कर रहा हूँ, फिर भी मुझे शांत रहने और यह देखने की जरूरत है कि परमेश्वर का घर वाकई मुझे वापस चाहता है या मुझे कुछ खास कार्यों में इस्तेमाल करने के लिए सिर्फ कपटी बन रहा है।” इसे मद्देनजर रखते हुए उसने कहा, “अपने निष्कासन के बाद मैंने चिंतन किया और जाना कि मैंने जो गलतियाँ कीं, वे बहुत बड़ी थीं। मैंने परमेश्वर के घर के हितों को जो नुकसान पहुँचाया वह बहुत बड़ा था और मैं कभी उसकी भरपाई नहीं कर सकता। मैं वास्तव में एक दानव और परमेश्वर द्वारा शापित शैतान हूँ। लेकिन मेरा आत्मचिंतन अभी भी अधूरा है। चूँकि परमेश्वर का घर मुझे वापस लेना चाहता है, इसलिए मुझे परमेश्वर के वचन और भी ज्यादा खाने-पीने और आत्मचिंतन कर खुद को जानने की जरूरत है। फिलहाल मैं परमेश्वर के घर लौटने के योग्य नहीं हूँ, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हूँ, अपने भाई-बहनों से मिलने के योग्य नहीं हूँ, और निश्चित रूप से इतना शर्मिंदा हूँ कि परमेश्वर का सामना नहीं कर सकता। मैं कलीसिया में तभी वापस आऊँगा, जब मुझे लगेगा कि मेरा आत्मज्ञान और आत्मचिंतन पर्याप्त है, ताकि हर कोई मुझे मान्यता दे सके।” यह कहते हुए, वह यह सोचकर घबरा भी गया, “मैं यह कहने का सिर्फ दिखावा कर रहा हूँ। अगर अगुआ मुझे कलीसिया में वापस न आने देने पर सहमत हो गए तो? क्या मैं खत्म नहीं हो जाऊँगा?” वास्तव में, वह काफी चिंतित था, लेकिन फिर भी उसे इस तरह से बोलना पड़ा और ऐसा दिखावा करना पड़ा जैसे कि वह कलीसिया में वापस लौटने के लिए बहुत उत्सुक नहीं था। ये चीजें कहने का उसका क्या मतलब था? (वह परीक्षा ले रहा था कि क्या कलीसिया वाकई उसे वापस स्वीकारेगी।) क्या यह जरूरी है? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे दानव और शैतान करेंगे? क्या कोई सामान्य व्यक्ति इस तरह से व्यवहार करेगा? (नहीं, वह नहीं करेगा।) सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं करेगा। इतने शानदार अवसर के बावजूद, उसका ऐसा कदम उठा सकना दुष्टता है। कलीसिया में फिर से प्रवेश देना परमेश्वर के प्रेम और दया की अभिव्यक्ति है, उसे अपनी भ्रष्टता और कमियों पर चिंतन कर उन्हें जानना चाहिए और पिछले ऋणों की भरपाई करने के तरीके खोजने चाहिए। अगर कोई अभी भी इस तरह से परमेश्वर की परीक्षा ले सकता है और परमेश्वर की दया को इस तरह से ले सकता है, तो वह वाकई उसकी दया को समझने में विफल है! लोग इस तरह के विचार और नजरिये अपने दुष्ट सार के कारण विकसित कर लेते हैं। अनिवार्य रूप से, जब लोग परमेश्वर की परीक्षा लेते हैं, तो वे सैद्धांतिक रूप से जो कुछ भी अभिव्यक्त और प्रकट करते हैं, वह अन्य चीजों के अलावा, हमेशा परमेश्वर के विचारों और साथ ही लोगों के बारे में उसके विचारों और परिभाषाओं की परीक्षा लेने से संबंधित होता है। अगर लोग सत्य खोजते हैं, तो वे सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य और व्यवहार करते हुए ऐसे अभ्यासों के खिलाफ विद्रोह कर उन्हें छोड़ देंगे। लेकिन मसीह-विरोधी के स्वभाव-सार वाले व्यक्ति न सिर्फ इस तरह के अभ्यास नहीं छोड़ सकते और उन्हें घृणित नहीं पाते, बल्कि ऐसे साधन और तरीके रखने के लिए अक्सर खुद को सराहते भी हैं। वे सोच सकते हैं, “देखो, मैं कितना चतुर हूँ। मैं तुम मूर्ख लोगों की तरह नहीं हूँ, जो सिर्फ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होना और उनका आज्ञापालन करना जानते हैं—मैं तुम लोगों जैसा बिल्कुल नहीं हूँ! मैं इन चीजों का पता लगाने के लिए साधनों और तरीकों का उपयोग करने की कोशिश करता हूँ। अगर मुझे समर्पित होना और आज्ञापालन करना भी पड़े, तो भी मैं चीजों की तह तक जाऊँगा। ऐसा मत सोचो कि तुम मुझसे कुछ भी छिपा सकते हो या मुझे धोखा देकर मूर्ख बना सकते हो।” यह होता है उनका विचार और दृष्टिकोण। मसीह-विरोधी कभी समर्पण, भय या ईमानदारी नहीं दिखाते, और देहधारी परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में वफादारी तो वे बिल्कुल भी नहीं दिखाते। यहाँ परीक्षा लेने से संबंधित अभिव्यक्तियों पर हमारी चर्चा समाप्त होती है।

vi. माँग करना

अगली मद यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर से माँग करते हैं, और इसकी और ज्यादा विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं। मसीह-विरोधियों को उस चीज के द्वारा वर्णित किया जा सकता है, जिसे गैर-विश्वासी “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम न करना” कहते हैं। और कुछ? (वे “जब तक कोई लाभ नहीं दिखता, काम शुरू नहीं करते।”) वे जब तक कोई लाभ नहीं दिखता, काम शुरू नहीं करते—अगर लाभ हो तो वे उसे करेंगे, लेकिन अगर कोई लाभ न हो तो वे नहीं करेंगे। स्थिति चाहे जो भी हो, उन्हें यह सोचते हुए अपने मन में तोलना होता है, “मुझे इसे करने से कितना बड़ा लाभ मिल सकता है? मैं कितना लाभ प्राप्त कर सकता हूँ? क्या इसके लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाना उचित है? अगर मैं बड़ी कीमत चुकाता हूँ लेकिन लाभ दूसरों को मिल जाता है और मुझे खुद को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का मौका नहीं मिलता, तो मैं निश्चित रूप से इसे नहीं करूँगा!” क्या परमेश्वर के आदेश और अपेक्षाओं के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया नहीं होता? अगर वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में थोड़ा-सा प्रयास करते हैं लेकिन कोई लाभ प्राप्त नहीं करते, और अनुग्रह प्राप्त किए बिना कुछ कष्ट सहते हैं, तो वे यह कहते हुए तुरंत मन ही मन प्रतिक्रिया देते हैं, “मैंने इतना प्रयास किया—मुझे कोई लाभ क्यों नहीं मिला? मेरा पारिवारिक व्यवसाय लाभदायक है या नहीं?” अगर वे गणना करके पाते हैं कि उनकी आय पिछले महीने की तुलना में ज्यादा है, तो वे जोखिमों के बावजूद निडर होकर सुसमाचार फैलाना जारी रखते हैं। लेकिन जब पारिवारिक व्यवसाय में कोई समस्या आती है और उनका लाभ पिछले महीने की तुलना में काफी कम होता है, तो वे यह सोचते हुए तुरंत अपने दिल में परमेश्वर के बारे में शिकायत और उस पर संदेह करते हैं, “हे परमेश्वर, मैंने आलसी या चालाक हुए बिना अपना कर्तव्य निभाया, मैंने उसे बेमन से भी नहीं किया। इस महीने मैंने पिछले महीने से ज्यादा यात्रा की और ज्यादा काम किया। तुम मेरे परिवार को आशीष क्यों नहीं दे रहे? मेरा पारिवारिक व्यवसाय अच्छा क्यों नहीं चल रहा?” परमेश्वर और उसके आदेश के प्रति उनका रवैया तुरंत बदल जाता है और वे सोचते हैं, “अगर तुम मेरे परिवार को आशीष नहीं देते, तो मुझे अपना कर्तव्य बेमन से करने के लिए दोष न देना। अगले महीने मैं इतना प्रयास नहीं करूँगा। अगर मुझसे पाँच बजे उठना अपेक्षित है, तो मैं छह बजे उठूँगा। अगर मुझसे आठ बजे निकलना अपेक्षित है, तो मैं दस बजे निकलूँगा। पहले मैं एक महीने में पाँच सुसमाचार-प्राप्तकर्ताओं को धर्मांतरित कर लेता था; इस बार मैं सिर्फ दो को ही धर्मांतरित करूँगा। यह पर्याप्त होना चाहिए!” वे क्या गणना कर रहे हैं? यही कि वे जो निवेश और योगदान करते हैं वह, परमेश्वर जो उन्हें देता है, उसके बराबर है या नहीं। इसके अलावा, वे इसे तभी किफायती और कष्ट सहने और कीमत चुकाने योग्य पाते हैं, जब परमेश्वर जो उन्हें जो देता है वह उनकी माँग और इच्छा से कई गुना ज्यादा होता है। वरना, परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें जो भी कार्य या कर्तव्य सौंपा जाता है, वे हर काम को एक ही ढंग से करते हैं—बेमन से कार्य करते हैं, जब भी संभव हो बच निकलते हैं, जब संभव हो खानापूरी करते हैं, और कभी जरा भी ईमानदारी नहीं बरतते। यह अभिव्यक्ति माँग और सौदा करना दोनों है; लोग माँग तभी करते हैं जब कोई सौदा करना होता है, और सौदे के बिना उनकी कोई माँग नहीं होती।

मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर के आदेश, परमेश्वर के घर के कार्य या अपने कर्तव्यों के प्रति जरा-सी भी ईमानदारी या वफदारी नहीं होती। वे अपनी बुद्धि, ऊर्जा, समय और शारीरिक कष्ट और जो कीमत वे चुकाते हैं, उसका इस्तेमाल सिर्फ आशीष पाने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए, उन पुरस्कारों के लिए जो वे प्राप्त करना चाहते हैं, और निश्चित रूप से इस जीवनकाल में शांति, आनंद, आंतरिक स्थिरता, पारिवारिक खुशी, यहाँ तक कि अपने आस-पास के माहौल में सहजता के साथ-साथ दूसरे लोगों द्वारा सम्मान, प्रशंसा और सकारात्मक मूल्यांकन के लिए करते हैं। संक्षेप में, मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाते और वे बिल्कुल भी वफादारी नहीं बरतते। चाहे कठिनाइयाँ सह रहे हों और कीमत चुका रहे हों या बेमन से बचकर निकल रहे हों, उनका अंतिम लक्ष्य परमेश्वर से अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए वही माँगना होता है जो वे चाहते हैं। इसलिए जब भी वे विपत्ति, काट-छाँट या ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हैं जो उन्हें अप्रिय लगती हैं, तो वे तुरंत सोचते हैं, “क्या इन चीजों के आने से मेरे हितों पर असर पड़ेगा? क्या ये मेरी प्रतिष्ठा को प्रभावित करेंगी? क्या ये मेरी संभावनाओं और भावी विकास को प्रभावित करेंगी?” अपने कर्तव्य निभाने के दौरान उनकी अभिव्यक्तियाँ सकारात्मक हों या नकारात्मक, किसी भी सूरत में वे कभी सत्य-सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करते। उनके दिमाग लेनदेन से भरे होते हैं, वे एक व्यवसायी की तरह जो चुकाते और चढ़ाते हैं उसके मूल्य का आकलन करते रहते हैं, यह आकलन करते रहते हैं कि उनकी लागत से कितना ज्यादा लाभ हासिल किया जा सकता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “हम उद्धार प्राप्त करने के उद्देश्य से सत्य और जीवन पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं।” लेकिन मसीह-विरोधी यह सोचते हैं, “उद्धार का कितना मूल्य है? सत्य को समझने का कितना मूल्य होगा? इन चीजों का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में कुछ मूल्यवान है, तो इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाना है। इस जीवन में दूसरों से आदर-सम्मान प्राप्त होना, परमेश्वर के घर में महान व्यक्ति के रूप में सम्मानित होना और आने वाले संसार में सभी राष्ट्रों पर अधिकार प्राप्त करना—यह वास्तव में बड़ा लाभ है।” यह मसीह-विरोधियों की महत्वाकांक्षा होती है, एक गणना जो वे अपने कर्तव्य के प्रदर्शन के पीछे अपने दिलों की गहराई में करते हैं। यह गणना लेनदेन और माँगों से भरी होती है। अपने कर्तव्य और परमेश्वर के प्रति उनकी थोड़ी-सी “ईमानदारी” सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि परमेश्वर उन्हें शाश्वत जीवन प्रदान करे, उन्हें आपदा से बचाए, उन्हें आशीष और अनुग्रह प्रदान करे और उनकी तमाम इच्छाएँ पूरी करे। इसलिए मसीह-विरोधियों के दिल परमेश्वर से विभिन्न माँगों से भरे होते हैं, सामूहिक रूप से जिन्हें माँग करना कहा जाता है। सत्य को न चाहने के अलावा मसीह-विरोधी बाकी सब-कुछ चाहते हैं—भौतिक और अभौतिक दोनों चीजें।

कुछ मसीह-विरोधी हैं जिन्होंने कभी भाई-बहनों या कलीसिया के लिए छोटा-मोटा योगदान दिया था। उदाहरण के लिए, उन्होंने कलीसिया में कुछ जोखिम भरे काम किए होंगे या उन भाई-बहनों की मेजबानी की होगी जो घर वापस नहीं आ पाए। परमेश्वर में उनकी आस्था की अपेक्षाकृत लंबी अवधि को जोड़ते हुए, ज्यादातर लोग उन्हें मेधावी और योग्य व्यक्ति मानते हैं। साथ ही, वे खुद भी श्रेष्ठता और लाभ की भावना महसूस करते हैं। वे अपनी वरिष्ठता पर भरोसा करते हैं और इस बारे में शेखी बघारते हुए कहते हैं, “मैंने इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है और परमेश्वर के घर में कुछ योगदान दिया है। क्या परमेश्वर को मेरे साथ विशेष व्यवहार नहीं करना चाहिए? उदाहरण के लिए, विदेश जाना ऐसा आशीष है, जिसका लोग आनंद लेते हैं। लोगों की वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुए क्या मुझे प्राथमिकता नहीं मिलनी चाहिए? चूँकि मैंने परमेश्वर के घर में योगदान दिया है, इसलिए मुझे प्राथमिकता दी जानी चाहिए, मेरी विशेष देखभाल की जानी चाहिए, और मेरा आकलन सिद्धांतों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए।” कुछ लोगों को तो जेल भी हो चुकी है और रिहा होने के बाद खुद को बेघर पाकर उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर को उनकी विशेष देखभाल करनी चाहिए : उदाहरण के लिए, उन्हें घर खरीदने में मदद करने के लिए कुछ धन आवंटित करना चाहिए, उनके जीवन के उत्तरार्ध में उनकी आजीविका की जिम्मेदारी लेनी चाहिए या उनकी तमाम भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करनी चाहिए। अगर उन्हें जरूरत हो, तो परमेश्वर के घर को उन्हें कार मुहैया करानी चाहिए। अगर उन्हें कुछ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ हों, तो परमेश्वर के घर को उन्हें स्वास्थ्य संबंधी पूरक पदार्थ खरीदकर देने चाहिए। क्या वे अपनी वरिष्ठता से अनुचित लाभ नहीं उठा रहे और अपनी योग्यताओं पर इतरा नहीं रहे? ये लोग मानते हैं कि उन्होंने योगदान दिया है, इसलिए वे बेशर्मी से और खुलेआम परमेश्वर से माँग करते हैं। वे कारें, घर और शानदार जीवन-शैली की माँग करते हैं। यहाँ तक कि वे भाई-बहनों से उनके सेवक या दास बनकर मुफ्त में उनके लिए चीजें सँभालने और बाहर के काम करने के लिए भी कहते हैं। क्या वे कलीसिया पर आश्रित रहने वाले व्यक्ति नहीं बन गए हैं? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था असल में तुम्हारी अपनी खातिर है और तुम अपनी खातिर ही जेल जाते हो। तुम जो भी कर्तव्य निभाते हो, वह तुम्हारी जिम्मेदारी है। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो और सत्य प्राप्त करते हो, तो यह तुम्हारी अपनी खातिर ही होता है। परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास स्वैच्छिक है, कोई तुम्हें मजबूर नहीं करता। जीवन प्राप्त करना तुम्हारी अपनी खातिर है, यह कोई दूसरों के लिए नहीं है। अगर तुमने परमेश्वर के घर या कलीसिया के लिए कुछ जोखिम भरे काम किए भी हैं, तो क्या उसे खूबी माना जाएगा? यह कोई खूबी नहीं है; यह तो तुम्हें करना ही चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा उत्कर्ष कर तुम्हें ऐसा अवसर देना है; यह परमेश्वर का आशीष है। इसका इस्तेमाल तुम कलीसिया पर आश्रित होने के लिए पूँजी के रूप में नहीं कर सकते। तो क्या ये लोग मसीह-विरोधी हैं? विशेष रूप से, ये लोग किसी सत्य-वास्तविकता पर संगति नहीं कर सकते, और जब ये उन भाई-बहनों के साथ होते हैं जिन्हें विश्वास रखे कम समय हुआ है और जो उम्र में छोटे हैं, तो वे सिर्फ अपने पुराने अनुभवों के बारे में संगति करते हैं और अपनी योग्यताओं पर इतराते हैं; वे मूल्यवान जीवन-अनुभवों के बारे में किसी संगति या ज्ञान से रहित होते हैं। वे दूसरों को शिक्षित नहीं करते, बल्कि शान बघारते हुए दर्प से चूर रहते हैं। वे परमेश्वर के घर में कोई महत्वपूर्ण कार्य करने में सक्षम नहीं होते, न ही वे कोई वास्तविक कार्य ठीक से कर सकते हैं। फिर भी वे कलीसिया पर आश्रित रहते हैं और परमेश्वर से माँग करने के लिए अपने हाथ फैलाते हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? अगर हम योग्यताओं की बात करें, तो क्या मैं तुम लोगों से ज्यादा योग्य नहीं हूँ? क्या मैंने तुम्हारे सामने शान बघारी है? क्या मैंने तुम लोगों से कुछ माँगा है? (नहीं।) तो फिर मसीह-विरोधी ऐसी हरकतें कैसे कर सकते हैं? इसलिए कि वे बेशर्म हैं। जब वे अपने कर्तव्य स्वीकारते हैं, तो उनके दिमाग लेनदेन से भरे होते हैं। जब वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो उनमें सही दृष्टिकोण का अभाव होता है और वे उन्हें अपने कर्तव्य या दायित्व नहीं मानते, जो कि सृजित प्राणी को मानना चाहिए। हालाँकि वे कुछ कर्तव्य निभा सकते हैं, कुछ कष्ट सह सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं, लेकिन वे अपने दिल में क्या सोचते हैं? “यह कार्य ऐसा है, जिसे कोई और नहीं कर सकता। अगर मैं इसे करता हूँ, तो मैं परमेश्वर के घर में प्रसिद्ध हो जाऊँगा, जहाँ भी जाऊँगा मेरा सम्मान किया जाएगा और मैं हर जगह सर्वश्रेष्ठ का आनंद लेने योग्य हो जाऊँगा। मैं परमेश्वर के घर में बड़ी हस्ती बन जाऊँगा, जो चाहूँगा वो पा सकूँगा, और कोई कुछ कहने की हिम्मत नहीं करेगा क्योंकि मेरे पास योग्यताएँ हैं!” अपने चरित्र के आधार पर मसीह-विरोधी परमेश्वर, उसके आदेश या परमेश्वर के घर के कार्य के साथ थोड़ी-सी भी ईमानदारी या तत्परता से पेश नहीं आ सकते। अगर वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने के इच्छुक और उसमें सक्षम दिखाई देते भी हों, तो भी इसके तुरंत बाद वे परमेश्वर से माँग करने और पुरस्कार माँगने के लिए अपने हाथ फैलाने को तैयार हो जाते हैं और कलीसिया पर आश्रित होकर हर जगह लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। इसलिए उनके दृष्टिकोणों से आँकें तो, उनके मसीह-विरोधी स्वभाव-सार को दुष्ट के रूप में परिभाषित करना सबसे उपयुक्त है। अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के आदेश के बारे में उनके विचार और दृष्टिकोण दुष्ट होते हैं, सत्य के अनुरूप नहीं होते और जमीर के मानक के अनुरूप तो बिल्कुल नहीं होते।

मसीह-विरोधी जो भी काम करते हैं, उसमें वे अपनी मरजी चलाते हैं, व्यक्तिगत प्रसिद्धि और हैसियत खोजते हैं। वे कभी सत्य नहीं खोजते या आत्मचिंतन नहीं करते। अपने काम में होने वाले किसी विचलन या समस्याओं के सामने उनका रवैया न तो सत्य खोजने का होता है और न ही उसे स्वीकारने का। इसके बजाय, वे हमेशा तथ्यों को छिपाने, अपनी इज्जत और झूठी महिमा बनाए रखने और हर पहलू में खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं, लोगों का सम्मान हासिल करते हैं। संक्षेप में, उनके दिल दुष्टता, शैतान के फलसफे और इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से भरे रहते हैं, उनमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जो सत्य के अनुरूप हो। मसीह-विरोधी जो भी काम करते हैं, उसमें कभी सत्य नहीं खोजते और वे कभी परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का इरादा नहीं रखते। वे हमेशा काम करने के अपने तरीके से ही चिपके रहते हैं और अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार काम करते हैं। उनके हाथ में जो भी काम हो, वे मन ही मन हिसाब लगाते हैं कि उन्हें कैसे लाभ हो सकता है। वे सिर्फ यह मापते हैं कि कौन-से कर्तव्य करने से उन्हें प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत, दूसरे लोगों का आदर और थोड़ा सम्मान मिल सकता है। जब वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो उम्मीद करते हैं कि उनकी उपलब्धियाँ परमेश्वर की रिकॉर्ड-बुक में दर्ज हो जाएँ, वे उनका मानसिक लेखा-जोखा रखते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि हर योगदान अच्छी तरह से दर्ज हो और कुछ भी अनदेखा न रहे। वे मानते हैं कि जितना ज्यादा वे काम करेंगे और जितना ज्यादा उनका योगदान होगा, उतनी ही ज्यादा उन्हें राज्य में प्रवेश करने और पुरस्कार और मुकुट प्राप्त करने की उम्मीद होगी। मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों के प्रति जो रवैये और दृष्टिकोण रखते हैं, वे बिल्कुल ऐसे ही होते हैं। उनके मन लेनदेन और माँगों से भरे होते हैं—क्या यह उनके प्रकृति-सार को स्पष्ट रूप से उजागर नहीं करता? उनके मन लेनदेन और परमेश्वर से की जाने वाली माँगों से क्यों भरे रहते हैं? इसका कारण यह है कि उनका स्वभाव-सार दुष्ट होता है—यह बिल्कुल सच है। यह उन विचारों और दृष्टिकोणों के माध्यम से देखा जा सकता है, जो मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों के बारे में रखते हैं—वे पूरी तरह से पुष्टि करते हैं कि उनका स्वभाव-सार दुष्ट है। चाहे सत्य की कितनी भी संगति कर ली जाए या लोगों के भ्रष्ट स्वभाव कैसे भी उजागर किए जाएँ और उनका कैसे भी विश्लेषण किया जाए, मसीह-विरोधी अपने स्वभाव-सार का कोई ज्ञान नहीं दिखाते। न सिर्फ वे सत्य को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, बल्कि वे अपने दिलों में आक्रोश भी विकसित कर लेते हैं। जब उन्हें लगता है कि आशीष और पुरस्कार पाने की उनकी उम्मीदें टूट गई हैं, तो वे मानते हैं कि परमेश्वर धोखा दे रहा है, और सोचते हैं कि परमेश्वर द्वारा उजागर और विश्लेषण करना पुरस्कार रोकने का जानबूझकर किया गया प्रयास है, जिससे लोग अंत में कुछ भी हासिल न करते हुए व्यर्थ ही खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं। उनके दिलों में न सिर्फ परमेश्वर के कार्य और सत्य की सकारात्मक समझ नहीं होती, बल्कि वे धारणाएँ और गलतफहमियाँ भी पाल लेते हैं, जिससे परमेश्वर के प्रति उनका प्रतिरोध और भी बढ़ जाता है। इसलिए जितना ज्यादा भ्रष्ट मानवजाति के शैतानी स्वभाव और सार का विश्लेषण किया जाता है, जितना ज्यादा शैतान की योजनाओं, प्रेरणाओं और उद्देश्यों को उजागर किया जाता है, उतना ही ज्यादा मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते और उसके प्रति घृणा पैदा कर लेते हैं। ऐसा क्यों होता है? वे मानते हैं कि जितनी ज्यादा सत्य पर संगति की जाती है, आशीष प्राप्त करने की उनकी उम्मीद उतनी ही कम हो जाती है। जितनी ज्यादा सत्य पर संगति की जाती है, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि पुरस्कार और मुकुट के लिए कष्ट का आदान-प्रदान करने और कीमत चुकाने का मार्ग दुर्गम हो जाता है, जिससे उन्हें विश्वास हो जाता है कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं है। जितनी ज्यादा इस तरह सत्य की संगति की जाती है और जितना ज्यादा इस तरह का खुलासा होता है, मसीह-विरोधी परमेश्वर में अपनी आस्था में उतनी ही कम दिलचस्पी लेते हैं। यह देखते हुए कि परमेश्वर जो कुछ कहता है, उसमें यह नहीं बताया जाता कि कितना कष्ट सहने और कितनी कीमत चुकाने से उन्हें समतुल्य इनाम मिल सकता है, उसने सिर्फ कड़ी मेहनत के आधार पर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के बारे में कुछ नहीं कहा है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर के साथ लेनदेन करने का उनका मार्ग समाप्त हो गया है। मन ही मन उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन्हें दंडित करने के लिए दृढ़संकल्प है, वे एक बेचैन कर देने वाले भय और इस भावना का अनुभव करते हैं कि उनके दिन गिने-चुने हैं, मानो उनका अंत समय आ गया हो। मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले धर्मोपदेश पर धर्मोपदेश सुनने के बाद तुम लोगों को कैसा लग रहा है? मैं देख रहा हूँ कि तुम सभी लोग शर्म से अपना सिर झुका रहे हो; क्या तुम लोगों को थोड़ी निराशा हो रही है? क्या तुम लोगों को एहसास हो गया है कि तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहे हो? क्या तुम लोगों के विचार भी परमेश्वर के साथ सौदेबाजी के इन दुष्ट विचारों से भरे हुए हैं? क्या अब तुम्हें कोई बोध हुआ है? क्या तुम तुरंत बदलाव ला सकते हो? (मैं भी सोच रहा हूँ कि मुझे तुरंत बदलाव लाने की जरूरत है; मैं इन मसीह-विरोधी स्वभावों के साथ जीते नहीं रह सकता।) हालाँकि तुम सभी लोगों में मसीह-विरोधियों के स्वभाव और परमेश्वर से सौदेबाजी कर आशीष प्राप्त करने का इरादा है, फिर भी तुम लोग अभी मसीह-विरोधी नहीं हो। इसलिए तुम्हें समाधान के लिए तुरंत सत्य खोजना चाहिए, खुद को खाई के किनारे से वापस खींच लेना चाहिए और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहिए। क्या तब समस्या हल नहीं हो जाती? मसीह-विरोधियों का स्वभाव होना और उनके मार्ग पर चलना ऐसी समस्या है, जिसका समाधान आसानी से किया जा सकता है। अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, आत्मचिंतन कर सकते हो, अपने भीतर के भ्रष्ट स्वभाव को जान सकते हो, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे दौड़ने की समस्या के सार को समझ सकते हो, और फिर अनुसरण के इस गलत तरीके को त्याग सकते हो, परमेश्वर में आस्था का गलत दृष्टिकोण त्याग सकते हो, आशीष प्राप्त करने का इरादा त्याग सकते हो, सिर्फ सत्य का अनुसरण करने और एक नया व्यक्ति बनने के उद्देश्य से परमेश्वर में विश्वास कर सकते हो, सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति बनने का प्रयास कर सकते हो और मनुष्यों का पूजन या अनुगमन न करके सिर्फ परमेश्वर की आराधना कर सकते हो, तो तुम्हारी अवस्था धीरे-धीरे सामान्य हो जाएगी। तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम रखोगे—इसमें कोई संदेह नहीं। अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, अगर तुम सत्य से विमुख हो और अगर तुम यह जानते हुए भी जिद्दी बने रहते हो कि परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना गलत है और प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे दौड़ना भी गलत है और कभी पश्चात्ताप नहीं करते, तो इस बात से डरना चाहिए। ऐसी सूरत में, तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव-सार है और तुम्हें हटा दिया जाना चाहिए। अगर तुम बहुत सारे बुरे काम करते हो, तो तुम्हें दंड भुगतना पड़ेगा।

मसीह-विरोधियों और आम भ्रष्ट मनुष्यों के बीच अंतर इस तथ्य में निहित है कि प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और आशीषों का अनुसरण और परमेश्वर के साथ लेनदेन करना मसीह-विरोधियों की कोई अस्थायी या कभी-कभार की अभिव्यक्ति नहीं है—वे इन्हीं चीजों के सहारे जीते हैं। वे सिर्फ एक ही मार्ग चुनते हैं जो मसीह-विरोधियों का मार्ग है और मसीह-विरोधियों की प्रकृति और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं। साधारण भ्रष्ट मनुष्य दूसरे विकल्प पर पहुँच सकते हैं और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों को सत्य पसंद नहीं है और उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं है। उनकी प्रकृति शैतानी फलसफों से भरी होती है और वे सही विकल्प नहीं चुनते। मसीह-विरोधी कभी सत्य नहीं स्वीकारते; वे अंत तक अपने गलत कामों में लगे रहते हैं, कभी अपना रास्ता नहीं बदलते, न ही कभी पश्चात्ताप करते हैं। वे जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के साथ भरपूर सौदे करने हैं, हर मोड़ पर उसकी परीक्षा लेनी है और उसका विरोध करना है। लेकिन उनके पास अपने कारण होते हैं और वे सोचते हैं, “इसमें क्या गलत है? कुछ सांसारिक आशीषों के लिए परमेश्वर से माँग करना और हैसियत के कुछ लाभों का आनंद लेना शर्मनाक कार्य नहीं हैं। मैंने हत्या और आगजनी तो की नहीं है, न ही मैंने सार्वजनिक रूप से परमेश्वर का विरोध किया है। यह सही है कि मैं एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए काम कर रहा हूँ और कुछ हद तक मैंने मनमाने ढंग से काम भी किया है, लेकिन मैंने न तो किसी का नुकसान किया है, न चोट पहुँचाई है, न ही मैंने परमेश्वर के घर के कार्य को प्रभावित किया है या उसे नुकसान पहुँचाया है।” क्या यह कभी न सुधर सकने योग्य नहीं है? चाहे परमेश्वर का घर उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति करे या उन्हें कैसे भी उजागर कर उनकी काँट-छाँट करे, वे अपनी गलतियाँ स्वीकार करने से इनकार करते हैं—वे कभी नहीं सुधरते। यही मसीह-विरोधियों का सार है। अगर तुम कहते हो कि वे बुरे या दुष्ट हैं, तो वे परवाह नहीं करते और बुराई और दुष्टता करते रहते हैं। यह दर्शाता है कि मसीह-विरोधी पश्चात्ताप न करने वाले कट्टर व्यक्ति होते हैं। क्या तुम अभी भी ऐसे लोगों के साथ सत्य के बारे में संगति करोगे? वे यह तक नहीं जानते कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक; तुम उनसे क्या कह सकते हो? कहने को कुछ नहीं है। मसीह-विरोधी दुष्ट स्वभाव-सार से भरे होते हैं और वे इसी स्वभाव में जीते हैं। परमेश्वर की परीक्षा लेना और उसके साथ लेनदेन करना उनकी अंतर्निहित प्रकृति होती है और कोई उन्हें बदल नहीं सकता—उनमें किसी भी हालत में बदलाव नहीं आता। वे क्यों नहीं बदलते? वे इसलिए नहीं बदलते, क्योंकि उनके साथ चाहे कितने भी सत्यों की संगति की जाए, चाहे वचन कितने भी समझने योग्य और पूरी तरह से उजागर करने वाले क्यों न हों, वे वास्तविक मुद्दे से अवगत नहीं होते। वे सत्य नहीं समझ सकते और नहीं जानते कि सत्य क्या है और नकारात्मक चीजें क्या हैं; यही कारण है।

मसीह-विरोधी विभिन्न मामलों में परमेश्वर के साथ लेनदेन और उससे माँग करते हैं। बेशक, वे बहुत-सी चीजों की माँग करते हैं—मूर्त और अमूर्त, भौतिक और अभौतिक, वर्तमान और भावी। अगर वे किसी चीज की कल्पना कर सकते हैं, अगर वे मानते हैं कि वे उसके लायक हैं और अगर वह ऐसी चीज है जिसकी वे इच्छा करते हैं, तो वे यह उम्मीद करते हुए निर्लज्जतापूर्वक परमेश्वर से माँग करते हैं कि वह उन्हें वह चीज प्रदान करेगा। उदाहरण के लिए, जब वे कोई निश्चित कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो अलग दिखने और एक असाधारण हस्ती बनने के लिए, सुर्खियों में आने और ज्यादा लोगों से सम्मान के साथ-साथ अपनी इच्छित हैसियत प्राप्त करने का मौका पाने के लिए वे आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें कुछ विशेष योग्यताएँ प्रदान करेगा। वे उससे प्रार्थना करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर, मैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने के लिए तैयार हूँ। तुमसे यह कर्तव्य स्वीकारने के बाद मैं रोज इस बारे में सोचता हूँ कि इसे कैसे अच्छी तरह से निभाऊँ। मैं इसके लिए जीवन भर की ऊर्जा समर्पित करने, तुम्हें अपनी जवानी और अपना सर्वस्व देने के लिए तैयार हूँ; मैं इसके लिए कष्ट सहने को तैयार हूँ। मुझे बोलने के लिए वचन प्रदान करो, मुझे प्रज्ञा और बुद्धि प्रदान करो और मुझे इस कर्तव्य के प्रदर्शन के दौरान अपने पेशेवर कौशल और अपनी क्षमताएँ सुधारने दो।” अपनी निष्ठा व्यक्त करने और अपना दृष्टिकोण बताने के बाद मसीह-विरोधी ये चीजें माँगने के लिए सीधे परमेश्वर के पास पहुँच जाते हैं। हालाँकि ये चीजें अमूर्त हैं और लोग मानते हैं कि परमेश्वर से इन्हें माँगना उचित है, लेकिन क्या यह लेनदेन और माँग करने का एक रूप ही नहीं है? (हाँ, है।) इस लेनदेन का केंद्र-बिंदु क्या है? हम किस सार का विश्लेषण कर रहे हैं? मसीह-विरोधियों में परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्यों के प्रति कोई ईमानदारी नहीं होती, न ही वे इस मामले में वफादार होने का इरादा रखते हैं। ऐसा करने से पहले उनके विचार इस धुरी पर घूमते हैं कि अपनी प्रतिभा दिखाने और लोगों के बीच प्रसिद्धि पाने के लिए इस अवसर का लाभ कैसे उठाया जाए, बजाय इसके कि वे इस अवसर का उपयोग अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए और वे सत्य और सिद्धांत खोजने के लिए करें, जो इसके प्रदर्शन में उन्हें समझने और खोजने चाहिए। इसलिए जब मसीह-विरोधी प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं, तो वे पहले उन चीजों के लिए अनुरोध करते हैं जो उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत को लाभ पहुँचाती है, जैसे कि प्रज्ञा, बुद्धि, अद्वितीय अंतर्दृष्टियाँ, उत्कृष्ट कौशल, उनकी आध्यात्मिक आँखें खुलना, इत्यादि। वे ये चीजें सत्य को समझने या अपनी ईमानदारी अर्पित कर अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए नहीं चाहते। स्पष्ट रूप से, उनके ये अनुरोध सौदेबाजी और माँगों से भरे हुए होते हैं और फिर भी वे खुद को उचित मानते हैं। जब लोगों द्वारा की जाने वाली ऐसी प्रार्थना और ऐसे लेनदेन की बात आती है, तो भले ही लोग अपने कर्तव्य के पालन में कष्ट उठाते और कीमत चुकाते हों, और भले ही वे कुछ समय और ऊर्जा खर्च करते हों, लेकिन क्या परमेश्वर इसे स्वीकारेगा? परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, वह किसी के कर्तव्य के ऐसे प्रदर्शन को बिल्कुल नहीं स्वीकारेगा, क्योंकि ऐसे लोगों में कोई ईमानदारी, कोई वफादारी और निश्चित रूप से कोई वास्तविक समर्पण नहीं होता। इस पहलू के आधार पर, व्यक्तिपरक रूप से वे हैसियत और प्रसिद्धि के पीछे भागना चाहते हैं, दूसरों से सम्मान और प्रशंसा पाना चाहते हैं, लेकिन अपने कर्तव्य निभाने के दौरान उनके जीवन-प्रवेश या स्वभावगत बदलाव में कोई सुधार नहीं हुआ होता।

जब मसीह-विरोधियों पर कोई मुसीबत आती है, तो वे तुरंत अपने दिलों में षडयंत्र करना, हिसाब-किताब लगाना और योजना बनाना शुरू कर देते हैं। वे मुनीम की तरह होते हैं, जो हर चीज में परमेश्वर के साथ लेनदेन करते हैं, परमेश्वर से बहुत-सी चीजें चाहते हैं और बहुत-सी माँगें करते हैं। संक्षेप में, ये सभी अपेक्षाएँ परमेश्वर की नजर में अनुचित हैं; ये वे चीजें नहीं हैं जो परमेश्वर लोगों को देना चाहता है, न ही ये वे चीजें हैं जो लोगों को प्राप्त करनी चाहिए, क्योंकि ये चीजें लोगों के स्वभावगत बदलाव या उद्धार की प्राप्ति के प्रयास में जरा-सा भी लाभ नहीं पहुँचातीं। भले ही अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन के दौरान परमेश्वर तुम्हें तुम्हारे पेशे के बारे में कुछ प्रकाश या कुछ नए विचार देता हो, लेकिन यह परमेश्वर से माँग करने की तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए नहीं होता, लोगों के बीच तुम्हारी लोकप्रियता या प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए तो यह बिल्कुल नहीं होता। परमेश्वर से ऐसा प्रकाश और प्रबुद्धता प्राप्त करने के बाद सामान्य व्यक्ति उन्हें अपने कर्तव्य में लागू करता है, अपने कर्तव्य को बेहतर ढंग से निभाता है, सिद्धांतों को ज्यादा सटीक रूप से समझने के लिए प्रेरित होता है, और धीरे-धीरे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है कि कैसे उसे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन के दौरान परमेश्वर से बहुत ज्यादा प्रबुद्धता, रोशनी और अनुग्रह प्राप्त होता है—यह सब परमेश्वर द्वारा किया जाता है। जितना ज्यादा वे अनुभव करते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें लगता है कि परमेश्वर जो करता है वह महान होता है, और उतना ही ज्यादा उन्हें एहसास होता है कि उनके पास शेखी बघारने के लिए कुछ नहीं है, यह सब परमेश्वर का अनुग्रह और मार्गदर्शन है। यह ऐसी चीज है जिसे सामान्य व्यक्ति महसूस कर सकता है और इसके बारे में जागरूक हो सकता है। लेकिन मसीह-विरोधी अलग होते हैं, चाहे परमेश्वर उन्हें कितनी भी प्रबुद्धता और रोशनी दे दे, वे इसका सारा श्रेय खुद को ही देते हैं। एक दिन, जब वे अपने योगदानों का हिसाब लगाते हैं और पुरस्कार माँगने के लिए परमेश्वर के पास पहुँचते हैं, जब वे परमेश्वर से हिसाब-किताब करते हैं, तो वह अपनी प्रबुद्धता और रोशनी वापस ले लेता है और मसीह-विरोधी उजागर हो जाते हैं। पहले वे जो कुछ भी करने में सक्षम थे, वह पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण था। वे अन्य लोगों से अलग नहीं हैं : परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी के बिना वे अपने गुण, प्रज्ञा, बुद्धि, अच्छे भाव और अच्छे विचार खो देते हैं—वे बेकार और मूर्ख बन जाते हैं। जब मसीह-विरोधी ऐसी चीजों का सामना करते हैं और इस हद तक चले जाते हैं, तब भी वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि उनका मार्ग गलत है, और इस बात से अनजान रहते हैं कि वे परमेश्वर के साथ लेनदेन और उससे अनुचित माँगें कर रहे हैं। उन्हें अभी भी लगता है कि वे किसी भी चीज के लिए सक्षम और योग्य हैं, दूसरों द्वारा उच्च सम्मान दिए जाने, प्रशंसा, आदर, समर्थन और उन्नत किए जाने के पात्र हैं। अगर उन्हें ये चीजें न मिलें, तो वे स्थिति को निराशाजनक समझते हैं और, और भी ज्यादा लापरवाही से कार्य करते हैं, परमेश्वर और भाई-बहनों दोनों के प्रति आक्रोश से भर जाते हैं। वे यह कहते हुए मन ही मन परमेश्वर को कोसते और उसके बारे में शिकायत करते हैं कि परमेश्वर अधार्मिक है, भाई-बहनों को अंतरात्मा न होने और पुरानी स्थिति में लौट पाने को नामुमकिन बना देने के लिए कोसते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर पर उनका उपयोग कर लेने के बाद उनसे छुटकारा पाने का प्रयास करने का आरोप भी लगाते हैं। यह क्या है? एक बेशर्म व्यक्ति! क्या सभी मसीह-विरोधी ऐसे ही नहीं होते? क्या वे अक्सर ऐसी चीजें नहीं कहते? वे कहते हैं, “जब मैं उपयोगी था और मुझे महत्वपूर्ण पद पर रखा गया था, तो हर कोई मेरे इर्द-गिर्द चक्कर लगाता था। अब जब मैं महत्वपूर्ण पद पर नहीं हूँ, तो कोई भी मेरी ओर ध्यान नहीं देता, हर कोई मुझे नीची निगाह से देखता है और तुम सब मुझसे बात करते समय मुझे ऐंठ दिखाते हो।” ये शब्द कहाँ से आते हैं? क्या इनके मूल में मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव नहीं है? उनका दुष्ट स्वभाव लोगों और परमेश्वर के साथ सौदेबाज़ी करने, परमेश्वर और लोगों से अपेक्षाएँ करने से भरा होता है, मानो कह रहे हों, “मैं तुम लोगों के लिए चीजों का ध्यान रखता हूँ, खुद को खपाता हूँ, कीमत चुकाता हूँ और तुम्हारी एवज में चिंता करता हूँ, इसलिए तुम लोगों को मेरे पास सम्मान के साथ आना चाहिए और मुझसे विनम्रता से बात करनी चाहिए। चाहे मेरे पास हैसियत हो या न हो, तुम लोगों को हमेशा वह सब याद रखना चाहिए जो मैंने किया है, मुझे हमेशा अपने दिमाग में रखना चाहिए और मुझे कभी भूलना नहीं चाहिए—मुझे भूलने का मतलब है कि तुममें जमीर नहीं है। जब भी तुम लोग अच्छी चीजें खाओ या इस्तेमाल करो, तुम्हें मेरे बारे में सोचना चाहिए और मुझे हमेशा प्राथमिकता देनी चाहिए।” क्या मसीह-विरोधी अक्सर ऐसी अपेक्षाएँ नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) तुम लोग शायद ऐसे लोगों से मिले होगे, जो कहते हैं, “तुम लोग जो परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें पढ़ते हो, उन्हें किसने छापा? उन्हें तुम्हारे हाथों में किसने दिया? अगर मैं जोखिम न उठाता और गिरफ्तार होने, कैद होने या मौत की सजा सुनाए जाने के खतरों का सामना न करता, तो क्या तुम लोग ये पुस्तकें पढ़ पाते? अगर मैं तुम लोगों का सिंचन करने के लिए कष्ट न सहता और कीमत न चुकाता, तो क्या तुम लोग कलीसियाई जीवन जी पाते? अगर मैं सुसमाचार फैलाने के लिए कष्ट न सहता और कीमत न चुकाता, तो क्या कलीसिया इतने सारे लोगों को प्राप्त कर पाती? अगर मैं पूरे दिन तुम लोगों के साथ परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति न करता, तो क्या तुम लोगों की आस्था इतनी गहरी होती? अगर मैं तुम लोगों को लॉजिस्टिक सहायता प्रदान करने के लिए भाग-दौड़ न करता, तो क्या तुम लोग अब शांति से अपने कर्तव्य निभा पाते? अगर मैं अगुआई न कर रहा होता, तो क्या कलीसिया का कार्य इतना विकसित हो पाता, जितना अब है?” यह सुनकर ऐसा लगता है, मानो उनके बिना परमेश्वर के घर का काम आगे नहीं बढ़ सकता और धरती घूमना बंद कर देगी। क्या यह मसीह-विरोधियों की मानसिकता नहीं है? चिल्ला-चिल्लाकर ये शब्द बोलने का उनका क्या उद्देश्य है? वे चीजों का श्रेय ले रहे हैं या अफसोस और शिकायत कर रहे हैं? वे मानते हैं कि परमेश्वर के घर को अब उनकी जरूरत नहीं है, भाई-बहनों ने उन्हें उपेक्षित कर दिया है, परमेश्वर का घर लोगों के साथ अन्याय करता है, परमेश्वर का घर उनका पोषण नहीं करता, सम्मान नहीं करता या उन्हें वहाँ बुढ़ापा नहीं गुजारने देता। क्या उनके चिल्लाने में शाप का तत्त्व भी नहीं है? वे दूसरों को कोसते हैं, कहते हैं कि उनमें जमीर नहीं है। मसीह-विरोधी वास्तव में क्या सेवा प्रदान करते हैं? जो कुछ भी वे करते हैं, वह विघ्नकारी और विघटनकारी होता है, और जो कुछ भी वे कहते हैं वह गुमराह करने वाला होता है। उनमें मानवता नहीं होती; वे दानव हैं। व्यक्ति को उनके प्रति जमीर क्यों इस्तेमाल करना चाहिए? क्या ऐसा करना उपयोगी है? (नहीं।) यह उपयोगी क्यों नहीं है? क्या व्यक्ति उनका अनुगमन करके सत्य समझ सकता है? (नहीं।) मसीह-विरोधियों की आराधना और अनुगमन करने वाले हर व्यक्ति को क्या लाभ होता है? वे सब इन मसीह-विरोधियों के साथ मिलकर परमेश्वर को धोखा देते हैं और उनके द्वारा नरक में ले जाए जाते हैं। मसीह-विरोधी खुद को क्या मानते हैं? (वे खुद को परमेश्वर मानते हैं।) यह एक बेशर्मी भरा विचार है। लोगों में परमेश्वर के प्रति जमीर होना चाहिए, लेकिन परमेश्वर कभी लोगों से ऐसा करने की अपेक्षा नहीं करता; वह सिर्फ लोगों से सत्य समझने, सत्य का अभ्यास कर उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होने और योग्य सृजित प्राणी होने की अपेक्षा करता है। मैंने तुम लोगों से कब कहा है कि जब तुम अच्छा खाना खा रहे हो तो मेरे बारे में सोचो और मेरे लिए कुछ बचाओ, या जब तुम किसी अच्छी जगह पर रह रहे हो तो मेरे बारे में सोचो? जब तुम लोग अच्छा खा रहे होते हो, अच्छी तरह से रह रहे होते हो और खुश होते हो, तो मुझे कब ईर्ष्या हुई है? मैंने कब कहा है कि तुम लोगों में जमीर नहीं है? लेकिन मसीह-विरोधी ऐसी बातें कहने और जमीर न होने के लिए लोगों को कोसने का दम रखते हैं—क्या यह बेशर्मी नहीं है? जब परमेश्वर का घर उन्हें बर्खास्त कर देता है, जब भाई-बहन उनके प्रति पहले की तरह उत्साहित नहीं रहते, तो वे ऐसी बातें कहने, अपनी शिकायतों का रोना रोने और लोगों और परमेश्वर को कोसने की जुर्रत करते हैं। उनके मुँह से तमाम तरह की बातें निकल सकती हैं और उनकी राक्षसी प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो जाती है। ये मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव द्वारा प्रकट की जाने वाली विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। चूँकि उनके दिल परमेश्वर के साथ सौदे करने से भरे होते हैं, इसलिए यह उससे विभिन्न अपेक्षाएँ और माँगें करने की ओर ले जाता है। जब मसीह-विरोधियों को पदोन्नत या बर्खास्त किया जाता है, जब परमेश्वर का घर उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद पर रखता है या नहीं रखता, तो उनमें से उभरने वाली तमाम विभिन्न अभिव्यक्तियाँ उनके दुष्ट सार से संबंधित होती हैं—यह पूरी तरह से सच है।

vii. इनकार, निंदा, आलोचना और ईशनिंदा

इसके बाद, आओ इनकार, निंदा, आलोचना और ईशनिंदा शब्दों के बारे में संगति करते हैं। परमेश्वर के बारे में संदेहों से भरे होने के कारण मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किसी भी सत्य में कोई रुचि नहीं दिखाते। उनके दिल घृणा और नफरत से भरे होते हैं और वे कभी स्वीकार नहीं करते कि मसीह सत्य है, किसी तरह का समर्पण दिखाना तो दूर की बात है। चूँकि वे अक्सर अपने दिलों में परमेश्वर पर संदेह और शक करते हैं, परमेश्वर के क्रियाकलापों के बारे में अक्सर धारणाएँ और विभिन्न विचार बनाते हैं, इसलिए वे यह सोचते हुए लगातार और अनजाने ही मूल्यांकन करते हैं, “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? वह जो कहता है, उसका क्या मतलब है? अगर ज्ञान और धर्मसिद्धांत के दृष्टिकोणों से मूल्यांकन किया जाए, तो इन वचनों को कैसे समझा जाना चाहिए? इन चीजों को कहने से परमेश्वर का क्या मतलब है? इस शब्द का इस्तेमाल करने से उसका क्या मतलब है? वह किसे संबोधित कर रहा है?” वे शोध पर शोध करते हैं और वर्षों के ऐसे अन्वेषण के बाद भी वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए जाने वाले वचनों और उसके द्वारा किए गए कार्य में सबसे महत्वपूर्ण सत्य नहीं देख पाते : कि परमेश्वर सत्य, जीवन और मार्ग है—वे इसे समझ या देख नहीं पाते। जब लोग कहते हैं कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, तो मसीह-विरोधी विचार करते हैं और सोचते हैं, “क्या उसके सभी वचन सत्य हैं? क्या वे साधारण वचन नहीं हैं? सिर्फ कुछ परंपरागत कथन? उनमें कुछ भी गहन नहीं है।” परमेश्वर के कार्य को देखते हुए वे सोचते हैं, “कलीसिया में या अपने चुने हुए लोगों के बीच वह जो कुछ भी करता है, मैं उसमें परमेश्वर की आभा नहीं देखता। वे कहते हैं कि परमेश्वर सब पर संप्रभु है, लेकिन मैं इसे नहीं देख पाता। चाहे मैं आवर्धक लेंस से देखूँ या खगोलीय दूरबीन से, मैं परमेश्वर के रूप को नहीं देख पाता, चाहे मैं कैसे भी देखूँ, मैं उसके कर्म नहीं खोज पाता। इसलिए फिलहाल तो मैं शत-प्रतिशत पुष्टि करने में असमर्थ हूँ कि क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है। लेकिन अगर मैं कहता हूँ कि परमेश्वर मौजूद नहीं है, तो मैंने दुनिया में कुछ अजीब और असाधारण चीजों के अस्तित्व के बारे में सुना है; इसलिए उस स्थिति में परमेश्वर मौजूद होना चाहिए। लेकिन परमेश्वर वास्तव में दिखता कैसा है? परमेश्वर कार्य कैसे करता है? मुझे नहीं पता। सबसे सरल तरीका यह देखना है कि परमेश्वर अपना अनुगमन करने वालों में क्या करता है और उनसे क्या कहता है।” अवलोकन के माध्यम से, वे देखते हैं कि परमेश्वर का घर अक्सर लोगों की काट-छाँट करता है, अक्सर लोगों को पदोन्नत और बर्खास्त करता है, अक्सर लोगों के साथ विभिन्न कर्तव्यों और विभिन्न व्यवसायों से संबंधित कार्य के बारे में संगति, चर्चा, विचार-विनिमय और बहुत-कुछ करता है। वे सोचते हैं, “क्या ये सभी वही चीजें नहीं हैं जो लोग करते हैं? इनमें से कोई भी चीज अलौकिक नहीं है; ये सभी बहुत सामान्य हैं और मैं नहीं देख पाता या महसूस कर पाता कि परमेश्वर का आत्मा कैसे काम कर रहा है। अगर मैं इसे महसूस नहीं कर पाता, तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि पवित्र आत्मा का कार्य मौजूद नहीं है? क्या यह सब लोगों द्वारा अपनी चेतना और दिमाग में की गई कल्पना नहीं है? अगर पवित्र आत्मा का कार्य मौजूद नहीं है, तो क्या परमेश्वर का आत्मा वास्तव में मौजूद है? ऐसा लगता है कि यह भी संदेहास्पद है। अगर परमेश्वर का आत्मा मौजूद नहीं है, तो क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? कहना मुश्किल है।” पाँच साल के अनुभव के बाद वे पुष्टि नहीं कर पाते और दस या पंद्रह साल के अनुभव के बाद भी नहीं कर पाते। ये कैसे लोग हैं? ये प्रकट कर दिए गए हैं—ये छद्म-विश्वासी हैं। ये छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर में ऐसे ही बेकार भटकते रहते हैं, बहाव के साथ बहते रहते हैं। अगर दूसरे लोग सुसमाचार फैला रहे होते हैं, तो वे भी फैलाते हैं; अगर दूसरे लोग अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो वे भी निभाते हैं। अगर उन्हें पदोन्नति का अवसर मिलता है, तो वे सोचते हैं कि वे परमेश्वर के घर में “पद सँभाल” सकते हैं और हैसियत की खातिर वे थोड़े-बहुत प्रयास भी करते हैं। साथ ही, वे लापरवाही से दुष्कर्म भी कर सकते हैं, जिससे व्यवधान और गड़बड़ी पैदा हो सकती है; अगर वे बिना किसी हैसियत के साधारण कलीसिया-सदस्य होते हैं, तो वे दिखावे के लिए कुछ काम करके उसे जैसे-तैसे निपटाने के तरीके खोज सकते हैं। बेकार भटकने का यही मतलब है। मैं “बेकार भटकना” क्यों कहता हूँ? अपने दिलों में वे परमेश्वर के प्रति संदेह और इनकार रखते हैं, परमेश्वर के अस्तित्व और सार के प्रति इनकार का रवैया बनाए रखते हैं, जिसके कारण वे परमेश्वर के घर में अनिच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। वे समझते नहीं और हमेशा मन ही मन सोचते रहते हैं, “इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुगमन करने का क्या मतलब है? मैं नौकरी करके पैसा नहीं कमा रहा हूँ या सामान्य जीवन नहीं जी रहा हूँ। कुछ युवा लोग तो परमेश्वर के लिए खपने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं, लेकिन उन्हें मिलेगा क्या? इसलिए मैं पहले निरीक्षण करूँगा। अगर मैं वाकई चीजों की तह तक पहुँच पाया और आशीष प्राप्त करने की आशा दिखी, तो प्रयास करना और खुद को खपाना व्यर्थ नहीं होगा। अगर मैं परमेश्वर के सटीक वचन प्राप्त नहीं कर पाया या चीजों की तह तक नहीं पहुँच पाया, तो बेकार भटकने में कोई हरजा नहीं। आखिरकार, मैं थकूँगा नहीं और मैंने ज्यादा कुछ नहीं दिया होगा।” क्या यह सिर्फ बेकार भटकना नहीं है? वे जो कुछ भी करते हैं उसमें ईमानदार नहीं होते, वे किसी भी चीज पर टिक नहीं पाते या उसमें उत्कृष्टता हासिल नहीं कर पाते और वे वास्तव में कीमत नहीं चुका पाते। बेकार भटकने का यही मतलब है। भले ही वे बेकार भटकते रहते हों, लेकिन उनके विचार खाली नहीं रहते—वे बहुत व्यस्त रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा की जाने वाली कई चीजों के बारे में धारणाओं और विचारों से भरे रहते हैं और जो कई चीजें उनकी धारणाओं से मेल नहीं खातीं, वे ज्ञान, कानूनों, सामाजिक नैतिकता, परंपरागत संस्कृति इत्यादि का इस्तेमाल करके अपने दिलों में उनका मूल्यांकन करते हैं। अपने तमाम मूल्यांकनों के बावजूद, वे न सिर्फ आकलन के माध्यम से सत्य देखने या सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत खोजने में विफल रहते हैं, बल्कि परमेश्वर और उसके कार्य के प्रति तमाम तरह की निंदा, आलोचना, यहाँ तक कि ईशनिंदा भी करते हैं। मसीह-विरोधी पहले किसकी आलोचना करते हैं? वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर का सारा काम लोगों द्वारा तय किया जाता है; वह सब मनुष्यों द्वारा किया जाता है। मैं परमेश्वर को काम करते या पवित्र आत्मा को अगुआई या मार्गदर्शन करते बिल्कुल नहीं देख पाता।” क्या यह छद्म-विश्वासियों का कथन नहीं है? यह दावा करना कि सब-कुछ लोगों द्वारा किया जाता है, कई मुद्दे प्रकट करता है। उदाहरण के लिए, अगर परमेश्वर का घर किसी ऐसे व्यक्ति को चुनकर उसे विकसित करता है जो उनकी पसंद का नहीं है, तो उनके दिल जिद्दी हो जाते हैं। क्या मसीह-विरोधी वास्तव में समर्पण कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) तो वे क्या करेंगे? वे उसे कमजोर करने की कोशिश करेंगे। अगर उसे कमजोर करने में सफलता नहीं मिलती और कोई भाई-बहन उनकी बात नहीं सुनता या उनका समर्थन नहीं करता, तो वे यह कहते हुए उसकी निंदा करना शुरू कर देंगे, “परमेश्वर का घर लोगों के साथ व्यवहार करने में अनुचित और सिद्धांतहीन है। दुनिया में कई तेज घोड़े हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं जो उन्हें पहचान सके।” इसका क्या मतलब है? इसका तात्पर्य है कि वे तेज घोड़े हैं, लेकिन दुर्भाग्य से परमेश्वर के घर में ऐसा कोई नहीं जो उन्हें पहचान सके। परमेश्वर के घर द्वारा किए गए इस मामले की निंदा करने के बाद, जो कि उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, वे अफवाहें, धारणाएँ और नकारात्मकता जैसी चीजें फैलाना शुरू कर देंगे। बेशक, उनके तमाम शब्द कठोर होंगे। कुछ लोग तो यह तक कह सकते हैं, “ये लोग पढ़े-लिखे, सुदर्शन, स्मार्ट तरीके से कपड़े पहने हुए और शहर से हैं; हम ग्रामीण लोग हैं, हममें कुछ प्रतिभा है लेकिन हम खुद को व्यक्त करने या ऊपर वाले से बातचीत करने में सक्षम नहीं हैं—हमारे लिए पदोन्नत होना आसान नहीं है। परमेश्वर के घर में पदोन्नत होने वाले तमाम लोग वाक्पटु होते हैं, चापलूसी करने में अच्छे होते हैं और उनके पास रणनीतियाँ होती हैं। दूसरी ओर, मैं स्पष्टवादी या वाक्पटु नहीं हूँ और सिर्फ आंतरिक प्रतिभा होना बेकार है। इसलिए परमेश्वर के घर में ‘तेज घोड़े तो बहुत-से हैं, मगर उन्हें पहचानने वाले बहुत कम हैं’ कहावत ठीक वैसे ही लागू होती है, जैसे दुनिया में होती है।” इस कथन का क्या अर्थ है? क्या यह आलोचना करना नहीं है? वे परमेश्वर के घर के काम की आलोचना करते हैं और पर्दे के पीछे अपनी आलोचनाएँ फैलाते हैं। परमेश्वर, उसके कार्य, उसकी अभिव्यक्तियों, उसके वचनों, उसके स्वभाव और उसके काम करने के विभिन्न तरीकों के प्रति अपने नजरिये में मसीह-विरोधी उनका आकलन करने, शोध करने और उनके बारे में तर्क करने के लिए ज्ञान और फलसफे का इस्तेमाल करते हैं। अंततः, वे एक गलत निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं। इसलिए वे अपने दिल में परमेश्वर द्वारा कहे गए किसी भी वचन को कभी गंभीरता से नहीं स्वीकारते, समझते या उस पर विचार नहीं करते। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों को सिर्फ एक तरह के सिद्धांत या अच्छे लगने वाले शब्दों के रूप में लेते हैं। जब मामले उठते हैं, तो वे परमेश्वर के वचनों को इस चीज के आधार और सिद्धांत के रूप में नहीं लेते कि वे प्रत्येक मामले को कैसे देखते, परिभाषित करते और मापते हैं। इसके बजाय, वे इन मामलों का आकलन करने के लिए इंसानी परिप्रेक्ष्यों और शैतान के फलसफे और सिद्धांतों का इस्तेमाल करते हैं। वे जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह यह है कि कुछ भी उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं है और परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया प्रत्येक वचन और उसके द्वारा किया गया प्रत्येक क्रियाकलाप उनकी पसंद के अनुसार नहीं है। अंत में, मसीह-विरोधियों के परिप्रेक्ष्य से, परमेश्वर द्वारा किए गए हर कार्य की निंदा की जाती है।

कुछ मसीह-विरोधी हमेशा परमेश्वर के घर में सत्ता पाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन उनमें काबिलियत और विशेष कौशल नहीं होते, इसलिए वे अनिवार्य रूप से परमेश्वर के घर में कुछ तुच्छ कार्य करके ही रह जाते हैं, जैसे कि सफाई करना, सामान बाँटना और दूसरे सरल, साधारण कार्य। संक्षेप में, ऐसे लोग निश्चित रूप से कलीसिया के अगुआ, प्रचारक या ऐसे ही अन्य पदाधिकारी नहीं बन सकते। लेकिन वे साधारण अनुयायी होने या ऐसा काम करने से संतुष्ट नहीं होते जिसे वे औसत दर्जे का समझते हैं, क्योंकि वे महत्वाकांक्षा से भरे होते हैं। महत्वाकांक्षा से भरा होना कैसे अभिव्यक्त होता है? वे परमेश्वर के घर में हर छोटे-बड़े मामले में दरियाफ्त करना, उसके बारे में पूछना, जानना और खासकर हस्तक्षेप करना चाहते हैं। अगर कोई ऐसा काम होता है जिसके लिए उनसे श्रम करना अपेक्षित होता है, तो वे हमेशा पूछते रहते हैं, “हमारे परमेश्वर के घर के लिए पुस्तकों की छपाई कैसी चल रही है? हमारी कलीसिया के फिल्म-निर्देशक का चयन कैसा चल रहा है? वर्तमान निर्देशक कौन है? पटकथाएँ कौन लिख रहा है? यहाँ जिला-अगुआ कौन है और वह कैसा है?” इन चीजों के बारे में पूछने का उनका क्या मतलब है? क्या उन्हें इन मामलों में पूछताछ करनी चाहिए या इनमें संलग्न होना चाहिए? (नहीं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।) ये सभी सामान्य मामले हैं जो सत्य से संबंधित नहीं हैं। ये “नेकनीयत लोग” हमेशा पूछताछ क्यों करते रहते हैं? क्या यह पूछताछ वास्तविक चिंता की वजह से होती है या उनके पास करने के लिए कुछ बेहतर नहीं होता? दोनों में से कुछ नहीं—ऐसा इसलिए है कि उनमें महत्वाकांक्षाएँ होती हैं और वे पदोन्नत होकर सत्ता हासिल करना चाहते हैं। क्या वे समझ सकते हैं कि यह महत्वाकांक्षा और सत्ता हासिल करने की इच्छा है? नहीं, वे नहीं समझ सकते; उनमें वह विवेक नहीं होता। अपनी घृणित मानवता और कम काबिलियत के कारण वे कुछ भी संपन्न नहीं कर पाते या सरलतम कर्तव्य भी अच्छी तरह से नहीं निभा पाते। अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन के दौरान वे लगातार खराब व्यवहार करते हैं, आलसी होते हैं, आराम करने में प्रवृत्त रहते हैं, यहाँ तक कि विभिन्न मामलों के बारे में पूछताछ भी करते रहते हैं। अंत में, इन अभिव्यक्तियों के कारण उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है। क्या परमेश्वर के घर द्वारा उन्हें बाहर निकालना सही है? (हाँ।) क्या उन्हें इसलिए बाहर निकाला जाता है, क्योंकि वे अत्यधिक चिंतित और जिज्ञासु होते हैं? (नहीं।) ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे उचित मामले नहीं सँभालते और परमेश्वर के घर में लगातार मुफ्तखोरी करना चाहते हैं, इसलिए उन्हें चलता कर दिया जाता है और बेकार भटकने नहीं दिया जाता। वे कुछ भी अच्छे से नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें रखना परेशानी उठाने लायक नहीं है—क्या वे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? क्या उन्हें बाहर नहीं निकाला जाना चाहिए? जब उन्हें बाहर निकाले जाने का समय आया, तो वे चिंतित हो गए और तभी उन्होंने सत्य-सिद्धांतों की खोज की और पूछा, “मुझे यह खोजना है कि परमेश्वर के घर से लोगों को बाहर निकालने और उन्हें निष्कासित करने के लिए वास्तव में क्या सिद्धांत हैं : मुझे किस आधार पर बाहर निकाला जा रहा है?” तुम्हें उन्हें यह जवाब देना चाहिए : “तुम जैसे व्यक्ति, जो आरामपसंद हैं और काम से नफरत करते हैं, जो कुछ भी करते हैं उसी में गड़बड़ी और विनाश का कारण बनते हैं, बाहर निकाले जाने के सिद्धांतों पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं।” क्या इतने सारे बुरे काम करने के बाद उनका बिना यह समझे कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं, लोगों को बाहर निकालने के सिद्धांत खोजना बहुत हास्यास्पद नहीं लगता? (हाँ, लगता है।) ऐसे कुछ लोगों को बाहर निकाल दिया गया है, जबकि अन्य को साधारण कलीसियाओं में भेज दिया गया है। वे परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और वे अपने कर्तव्य निभाने की शर्तें पूरी नहीं करते। क्या ऐसे व्यक्ति यह महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर ने जो किया है, वह सत्य के अनुरूप है? मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि मसीह-विरोधी कभी इसे महसूस नहीं करेंगे, क्योंकि वे छद्म-विश्वासी हैं और वे ऐसी किसी भी सकारात्मक चीज की निंदा कर उसकी आलोचना करते हैं जो सत्य के अनुरूप होती है। मसीह-विरोधी को, जो हमेशा पूछताछ करने के लिए उत्सुक रहता है, महत्वाकांक्षा से भरा रहता है और लगातार ऊँचा उठने की कोशिश करता है, जबकि अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उसमें कोई ईमानदारी और निष्ठा नहीं होती, जब चलता किया जाता है तो वह जमीन पर बैठकर जोर से विलाप करने लगता है। वह कहता है, “कोई भी मेरे नेकनीयत दिल, मेरी ईमानदारी और निष्ठा को नहीं समझता। मुझे चलता क्यों किया जा रहा है? मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैं इच्छुक नहीं हूँ! कोई भी परमेश्वर के लिए इतना चिंतित नहीं है और कोई भी परमेश्वर के घर में इतना वफादार नहीं है। मेरे जबर्दस्त उत्साह और विशाल दयालुता को दुर्भावना के रूप में लिया जा रहा है—परमेश्वर बहुत अन्यायी है!” क्या यह बेगुनाही की दलील नहीं है? क्या उनके कोई भी शब्द ऐसे हैं जो लोगों को कहने चाहिए? क्या उनमें से कोई भी वास्तविक तथ्यों के अनुरूप हैं? (नहीं।) वे सब अनुचित, बेतुके, छद्म-विश्वासियों के शब्द हैं जो शिकायतों, उलाहनों और निंदा से भरे हुए हैं। यह उनका प्रकट होना है। अगर उन्हें चलता न किया जाता, तो वे अपना ढोंग जारी रखते और परमेश्वर के घर के स्वामी बनने की आकांक्षा रखते। क्या कोई स्वामी इस तरह से व्यवहार करेगा? क्या कोई स्वामी इस तरह गुस्से से फट पड़ेगा? क्या कोई स्वामी परमेश्वर के घर का इस तरह से प्रबंधन करेगा? उन्हें सफाई करने के लिए कहा गया, लेकिन वे हर जगह निष्प्रयोजन घूमते रहे और कोई काम नहीं किया। उन्हें भोजन बनाने के लिए कहा गया, लेकिन वे दो लोगों के लिए भी भोजन बनाने को तैयार नहीं थे। वे थक जाने से डरते थे और सोचते थे कि यह निम्न श्रेणी का है—तो वे और क्या कर सकते हैं? क्या वे अगुआ होने और आदेश जारी करने के अलावा कुछ और करने में सक्षम हैं? क्या परमेश्वर के घर के लिए उन्हें बाहर निकालना उचित नहीं है? (हाँ, है।) यह पूरी तरह से उचित है, फिर भी वे पर्दे के पीछे से कोसना, गुस्से से फट पड़ना और मुँहजोर महिलाओं की तरह व्यवहार करना जारी रखते हैं। क्या ये मसीह-विरोधी नहीं हैं? यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार की अभिव्यक्ति है। जब उनका सामना ऐसे मामलों से होता है जो उनके हितों या प्राथमिकताओं से मेल नहीं खाते, जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जो उनकी इच्छाएँ या अभिलाषाएँ पूरी नहीं करतीं, तो क्या वे जरा भी समर्पण करते हैं? क्या वे सत्य खोज सकते हैं? क्या वे शांत हो सकते हैं, अपने पाप स्वीकार सकते हैं और पश्चात्ताप कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया उठ खड़े होकर परमेश्वर के लिए निंदा, आलोचना, ईशनिंदा और शाप के शब्दों से भरकर चिल्लाने की होती है। वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर का घर मुझे नहीं चाहता, तो ठीक है। तुम कोई दया नहीं दिखाते, तो मुझे हृदयहीन होने का दोष न देना। आ जाओ भिड़ते हैं और देखते हैं कौन ज्यादा निर्दयी है!” क्या यह सत्य खोजने की अभिव्यक्ति है? क्या ऐसी अभिव्यक्ति एक सामान्य सृजित प्राणी में होनी चाहिए? (नहीं, यह वह अभिव्यक्ति नहीं है।) तो फिर यह कैसी अभिव्यक्ति है? परमेश्वर में सच्चा विश्वास और उसका अनुगमन करने वालों को उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए? उन्हें और बिना शर्त परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए। सिर्फ परमेश्वर के शत्रु—शैतान और दानव—ही परमेश्वर को नकारेंगे, उसकी निंदा करेंगे, आलोचना करेंगे, ईशनिंदा करेंगे और उसे कोसेंगे, यहाँ तक कि उसके विरुद्ध शोर मचाएँगे और उसका विरोध करेंगे। अगर तुम अभी यह तथ्य न स्वीकार सको और यह दावा करते हुए सौ कारण बताओ कि परमेश्वर के घर ने तुम्हारे साथ अनुचित व्यवहार किया है, तो भी अगर तुममें तर्कशीलता, मानवता और परमेश्वर का थोड़ा-सा भी भय है, तो क्या तुम परमेश्वर के साथ इस तरह से पेश आ सकते हो? बिल्कुल नहीं! अगर कोई ऐसा कर सकता है, तो क्या उसमें जमीर का लेश मात्र भी है? क्या उसमें मानवता है? क्या उसे परमेश्वर का भय है? (नहीं, उसमें ये चीजें नहीं हैं।) स्पष्ट रूप से, वह परमेश्वर की भेड़ों में से नहीं है। उसने कभी परमेश्वर को अपना स्वामी नहीं माना; उसने कभी परमेश्वर को अपना परमेश्वर नहीं माना। उसके हृदय में, परमेश्वर उसका शत्रु है, उसका परमेश्वर नहीं। परमेश्वर के शत्रु मसीह-विरोधी और शैतान हैं; इसके विपरीत, मसीह-विरोधी परमेश्वर के शत्रु हैं—वे शैतान और दानव हैं। मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर द्वारा की गई कोई चीज नहीं स्वीकारेंगे और परमेश्वर द्वारा कहे गए किसी वचन पर कभी आमीन नहीं कहेंगे। यह परमेश्वर के शत्रु—शैतान—का सार है और यही मसीह-विरोधियों का अंतर्निहित सार है। वे अकारण ही परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं और अकारण ही परमेश्वर की निंदा करते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? यह सरासर दुष्टता है।

मसीह-विरोधी के ये स्वभाव अलग-अलग मात्रा में हर व्यक्ति में मौजूद होते हैं, लेकिन लोग जब विश्वास करते हैं तब इन स्वभावों के प्रकाशन और उनके द्वारा चुने गए मार्ग के जरिये क्या तुम लोग यह तय कर सकते हो कि कौन मसीह-विरोधी है, कौन श्रमिक है और कौन परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक है जिसे बचाया जा सकता है? (हालाँकि वे सभी मसीह-विरोधी स्वभाव प्रकट करते हैं, फिर भी कुछ लोगों द्वारा अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बाद भी उनकी अंतरात्मा जगी रहती है, वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, पश्चात्ताप कर सकते हैं और सत्य का अभ्यास कर सकते हैं—ये वे लोग हैं जिन्हें बचाया जा सकता है। लेकिन जिन लोगों की अंतरात्मा जगी नहीं होती, जिन्हें लगता है कि गलतियाँ करने के बाद भी वे सही हैं, जो हठपूर्वक पश्चात्ताप करने से इनकार कर देते हैं और पूरी तरह से सत्य खारिज कर देते हैं—ये लोग मसीह-विरोधी होते हैं और उनके पास उद्धार का कोई मौका नहीं होता।) क्या ये दोनों कथन सही हैं? (हाँ।) अभी जो कहा गया, वह मूलभूत रूप से तो सही है, लेकिन पर्याप्त विशिष्ट नहीं है। हालाँकि उनमें भी मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, फिर भी जब कुछ लोग स्थितियों का सामना करते हैं, तो वे सत्य खोजने, देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने के बाद पछताने, कृतज्ञ महसूस करने, पीछे मुड़ने, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, सही मार्ग चुनने, सत्य का अभ्यास करने का चुनाव करने और अंततः सत्य की समझ प्राप्त कर सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है और वे परमेश्वर के चुने हुए लोग होते हैं। एक दूसरी तरह का व्यक्ति होता है, जो जानता है कि उसमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन स्थितियों का सामना करने पर वह अपनी जाँच नहीं करता। जब उसे पता चलता है कि उसने कुछ गलत किया है, तो उसे कोई वास्तविक समझ नहीं होती, वह अपने भीतर कृतज्ञता की प्रबल भावना विकसित नहीं कर सकता, पश्चात्ताप करने या पीछे मुड़ने में असमर्थ होता है और सत्य और उद्धार के बारे में भ्रमित होता है। परमेश्वर के घर में वह श्रम करने के लिए तैयार और इच्छुक होता है, उसे जो भी करने के लिए कहा जाता है उसे कर सकता है, लेकिन वह उसे गंभीरता से नहीं लेता; कभी-कभी वह व्यवधान और गड़बड़ी पैदा कर सकता है, लेकिन वह बुरा व्यक्ति नहीं होता। वह काट-छाँट स्वीकार सकता है, लेकिन कोई काम करते समय कभी सक्रिय रूप से सत्य नहीं खोज सकता या मामले सँभालते समय सत्य-सिद्धांतों का पालन नहीं कर सकता। वह परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य में कोई रुचि नहीं दिखाता। हालाँकि वह अपने कर्तव्यों में कामचलाऊ ढंग से प्रयास कर सकता है, लेकिन जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है तो उसमें उत्साह नहीं होता और ऐसा करने में उसकी कोई रुचि नहीं होती। वह अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में कोई निष्ठा नहीं दिखाता; वह तुलनात्मक रूप से कुछ इच्छा और ईमानदारी प्रदर्शित करता है। वह विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को जान सकता है, लेकिन स्थितियों का सामना करने पर कभी आत्मचिंतन नहीं करता और ऐसा व्यक्ति बनने का प्रयास नहीं करता जो सत्य को समझकर उसे व्यवहार में ला सके। ये श्रमिक होते हैं। अंतिम श्रेणी में मसीह-विरोधी शामिल हैं। वे परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों के दुश्मन होते हैं। उनके दिल दुष्टता, परमेश्वर के खिलाफ शोरगुल, परमेश्वर के विरोध, और न्याय, सकारात्मक चीजों और सत्य के खिलाफ निंदा, आलोचना और ईशनिंदा से भरे होते हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व, सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता में विश्वास नहीं करते और परमेश्वर को मानवता की नियति पर संप्रभुता रखने देने के प्रति और भी ज्यादा अनिच्छुक होते हैं। वे कभी खुद को नहीं समझते और चाहे वे कितनी भी गलतियाँ या अपराध करें, वे कभी उन्हें स्वीकार नहीं करते, पश्चात्ताप नहीं करते या पीछे नहीं मुड़ते। उनके दिलों में कोई पछतावा नहीं होता और वे सत्य को पूरी तरह से खारिज कर देते हैं। ये मसीह-विरोधी होते हैं। यह आकलन करना कि किसी व्यक्ति में सत्य के प्रति स्वीकार्यता का रवैया है या नहीं, आम तौर पर यह निर्धारित करने में सटीक रहता है कि वह किस श्रेणी का व्यक्ति है। तुम लोग किस श्रेणी के हो? क्या तुम लोग परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से हो जिन्हें बचाया जा सकता है या तुम मसीह-विरोधी या श्रमिक हो? क्या तुम पहली श्रेणी की ओर बढ़ रहे हो या तुम इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आते? ऐसा कोई नहीं है जो इनमें से किसी भी श्रेणी में न आता हो : हर कोई इन तीनों में से किसी एक श्रेणी में तो आता ही है। दुष्ट लोग, जिनमें मानवता नहीं होती, मसीह-विरोधियों के सार वाले होते हैं; जिनमें थोड़ी मानवता होती है, जिनमें जमीर और विवेक होता है, साथ ही अपेक्षाकृत अच्छा चरित्र होता है, जो सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, सकारात्मक चीजों और सत्य से प्रेम कर सकते हैं और जो परमेश्वर का भय मानते हैं और उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं, उन्हें बचाया जा सकता है—वे परमेश्वर के चुने हुए लोग होते हैं। जिनका चरित्र औसत है, न तो विशेष रूप से अच्छा है और न ही विशेष रूप से बुरा है, जिनकी सत्य में कोई रुचि नहीं है और जो उसका अनुसरण करने के लिए बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हैं, लेकिन अपने कर्तव्य कुछ ईमानदारी से निभाते हैं, वे श्रमिक होते हैं। यह आकलन का मानक है। क्या मसीह-विरोधी श्रमिक बन सकता है? (नहीं।) तो क्या श्रमिकों में लोगों का कोई ऐसा वर्ग है, जो परमेश्वर के चुने हुए लोग बन सकता हो? (हाँ।) यहाँ बदलाव की क्या गुंजाइश है? (उन्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत है।) शायद ज्यादा वर्षों की आस्था, ज्यादा अनुभवों और मुश्किलों का सामना करने और ज्यादा सत्यों की समझ के साथ वे धीरे-धीरे श्रमिक की अवस्था से परमेश्वर के चुने हुए लोग बनने की ओर बढ़ते हैं। चूँकि अभी सत्य के बारे में उनकी समझ कम है और परमेश्वर में उनकी आस्था विशेष रूप से कम है, इसलिए उनमें अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में बहुत कम रुचि है। उनमें सत्य का अनुसरण करने लायक आध्यात्मिक कद नहीं होता और वे अन्य विभिन्न दैहिक जरूरतों के अलावा अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं छोड़ सकते। इसलिए वे अभी सिर्फ श्रमिक की अवस्था में ही बने रह सकते हैं। लेकिन अपेक्षाकृत रूप से कहें तो, इन लोगों में जमीर होता है और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं; जैसे-जैसे वे सत्य समझने लगते हैं, वैसे-वैसे उनका परिवेश बदलता जाता है, वे परमेश्वर पर ज्यादा समय तक विश्वास करने लगते हैं, उन्हें ज्यादा गहरे अनुभव होने लगते हैं और वे परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित कर लेते हैं, वे धीरे-धीरे सत्य और सकारात्मक चीजों को ज्यादा स्पष्ट रूप से देखने लगते हैं, जिस मार्ग पर उन्हें चलना चाहिए वह ज्यादा स्पष्ट हो जाता है, वे सत्य में रुचि विकसित कर लेते हैं और सत्य से ज्यादा से ज्यादा प्रेम करने लगते हैं। ऐसे लोग धीरे-धीरे उद्धार के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग बन सकते हैं; उनमें सुधार और बदलाव की गुंजाइश होती है। दूसरी ओर, यह कहना कि मसीह-विरोधियों का सार रखने वाले लोग परमेश्वर के चुने हुए लोग बन सकते हैं और बचाए जा सकते हैं, ठीक नहीं है, क्योंकि मसीह-विरोधियों का सार दानवों और परमेश्वर के शत्रुओं का होता है—मसीह-विरोधी कभी नहीं बदल सकते।

अभी हम उनके उस दुष्ट स्वभाव-सार से निकलने वाले इनकार, निंदा, आलोचना और ईशनिंदा के बारे में संगति कर रहे हैं, जो वे परमेश्वर और उसके कार्य के साथ पेश आने के तरीके से प्रकट करते हैं। जब भी कोई चीज मसीह-विरोधियों की धारणाओं के विपरीत होती है या उनके हितों को नुकसान पहुँचाती है, तो उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया खड़े होकर यह कहते हुए उसका विरोध और निंदा करने की होती है : “यह गलत है, यह लोगों द्वारा किया गया है और मैं इसके आगे नहीं झुकूँगा। मैं शिकायत दर्ज करूँगा और इस मामले को स्पष्ट करने के लिए सबूत ढूँढूँगा। मैं अपनी स्थिति घोषित करूँगा, अपना बचाव करूँगा, इस मामले का पूरा विवरण स्पष्ट करूँगा और देखूँगा कि बीच में कौन परेशानी खड़ी करने वाला है जो मेरी प्रतिष्ठा और मेरे द्वारा शुरू की गई अच्छी चीजें बर्बाद कर रहा है।” “सभी चीजों में परमेश्वर के अच्छे इरादे होते हैं” वाक्यांश मसीह-विरोधियों के दिलों में एक खोखला कथन बनकर रह जाता है, जो उनके कार्य करने के साधन, तरीके और सिद्धांत निर्देशित या परिवर्तित करने में असमर्थ होता है। इसके विपरीत, जब वे किसी स्थिति का सामना करते हैं, तो वे उस पर भरोसा करते हैं जो उनके लिए स्वाभाविक होता है और कार्य करने के हर तरीके के बारे में सोचते हैं और उसमें अपनी तमाम योग्यताएँ और रणनीतियाँ नियोजित कर देते हैं। निस्संदेह, वे जो करते हैं वह परमेश्वर की निंदा, आलोचना और ईशनिंदा होती है। लोगों के विचार शैतान के तर्क और विचारों से परिपूर्ण होते हैं, जिनमें कोई सत्य नहीं होता। इसलिए जब ऐसे मामलों से सामना होता है, तो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ शैतान की अभिव्यक्तियों का ही अक्स होती हैं : जैसा व्यवहार शैतान परमेश्वर के साथ करता है, मसीह-विरोधी भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं और जो साधन या शब्द शैतान परमेश्वर के प्रति इस्तेमाल करता है, मसीह-विरोधी भी वही साधन या शब्द इस्तेमाल करते हैं। इस तरह मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार का परमेश्वर का शत्रु होना स्पष्ट है। भले ही वह कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने सिर्फ एक या दो दिन ही परमेश्वर में विश्वास किया हो, क्या वह अपनी सामान्य इंसानी सोच और तर्कसंगतता में मनुष्यों और परमेश्वर के बीच का अंतर समझता है? (हाँ, समझता है।) सामान्य मानवता वाले वयस्क के रूप में, क्या वह अपने हृदय में जानता है कि परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करना है? (हाँ।) क्या इंसानी तर्कसंगतता में किसी ऐसे व्यक्ति के साथ सबसे उपयुक्त और सर्वोत्तम तरीके से व्यवहार करने का कोई मानक है, जिसकी वह आराधना करता है? (हाँ।) लोग झुकते और चापलूसी करते हैं, कर्णप्रिय बातें कहते हैं और अनुग्रह प्राप्त करते हैं; अगर वह व्यक्ति उन्हें पीटता या कोसता भी हो, तो भी वे दब्बू और आज्ञाकारी होने का तरीका ढूँढ़ ही लेते हैं। तो जब बात उनके माता-पिता की आती है, तो क्या लोग जानते हैं कि सम्मान और प्रेम कैसे दिखाया जाए और कौन-सा व्यवहार नुकसान और घृणा है? क्या इसका आकलन करने के लिए कोई मानक है? (हाँ, है।) यह साबित करता है कि मनुष्य, मानव-त्वचा से ढके हुए जीवित प्राणी, जानवरों से अलग और उच्च होते हैं। तुम जानते हो कि अपने माता-पिता का सम्मान और उनसे प्रेम कैसे करना है, तो फिर तुम यह क्यों नहीं जानते कि परमेश्वर के साथ प्रेम और सम्मान से कैसे पेश आना है? तुम परमेश्वर के साथ इस तरह कैसे पेश आ सकते हो? यूँ ही निंदा और आलोचना करना, यूँ ही ईशनिंदा करने और शाप देने का साहस करना—क्या सामान्य लोग ऐसा करते हैं? (नहीं।) जानवर भी इस तरह व्यवहार नहीं करते। अगर कोई व्यक्ति किसी जानवर को पालता है, चाहे वह जंगली जानवर ही क्यों न हो और उसके साथ कुछ समय बिता लेता है और अगर वह पहचानता है कि उसका मालिक कौन है, तो वह हमेशा उस मालिक के प्रति श्रद्धालु रहेगा, मालिक को अपना रिश्तेदार, अपने परिवार का सदस्य समझेगा, उसके साथ उससे अलग व्यवहार करेगा जैसा वह अन्य जानवरों या लोगों के साथ करता है। मान लो तुम उसके मालिक हुआ करते थे : उसके दो-तीन अन्य घरों में जाने के बाद भी जब तुम उससे दोबारा मिलोगे, तो तुम्हारी गंध मिलते ही वह तुरंत तुमसे स्नेह करने लगेगा। अगर वह कोई खूँख्वार जानवर भी हुआ, तो भी वह तुम्हें नहीं खाएगा। उसकी खूँख्वारियत जन्मजात होती है, जो परमेश्वर के सृजन और पूर्वनियति से उपजी होती है। यह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई जीवित रहने की प्रवृत्ति है, न कि शातिर या दुष्ट स्वभाव—यह मसीह-विरोधियों की बुराई से अलग होती है। दो लोगों ने एक छोटा शेर का बच्चा गोद लिया। जैसे-जैसे शेर बड़ा होता गया, उसके मांस-आधारित आहार का खर्च उठाना चुनौतीपूर्ण होता गया, इसलिए जब वह एक साल का हो गया, तो वे उसे वापस उसके प्राकृतिक परिवेश में छोड़ आए। तीन साल बाद उनका दोबारा उस शेर से सामना हुआ। दूर से शेर ने उन्हें देखा और उत्सुकता से उनकी ओर दौड़ा। पहले तो वे चिंतित हुए और सोचने लगे, “यह हमें खाएगा तो नहीं? आखिर यह शेर है।” लेकिन हुआ यह कि शेर उनके पास आकर दोस्तों की तरह उनके गले लग गया और बदले में उन्होंने भी शेर को गले लगाकर उसका दुलार किया। शेर ने फिर अपने परिवार के सदस्यों को उनसे मिलवाया और जब वे जाने को हुए तो वह अलग होने को तैयार नहीं हुआ। जब जंगली जानवरों में सबसे क्रूर, यह मांसाहारी मनुष्यों के साथ पेश आता है, तो तुम इस तरह का दृश्य देख सकते हो। क्या यह बहुत मार्मिक नहीं है? (हाँ, है।) यहाँ तक कि खूँख्वार जानवरों में भी लोग उनका दोस्ताना पक्ष देख सकते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों में यह अनुपस्थित होता है। चूँकि मसीह-विरोधियों में शैतान का स्वभाव होता है और वे शैतानी स्वभाव-सार वाले लोग होते हैं, इसलिए वे परमेश्वर की आलोचना, निंदा और ईशनिंदा कर सकते हैं। ऐसे रवैये तदनुरूपी अभिव्यक्तियों और खासकर नजरियों की ओर ले जाते हैं। क्या मसीह-विरोधी जानवरों से भी बदतर नहीं हैं? लोग जानते हैं कि उन्हें अपने आराध्य लोगों, अपने निकटतम रिश्तेदारों, अपने माता-पिता के प्रति सम्मान और प्रेमपूर्ण देखभाल कैसे दिखानी है और उनके कौन-से क्रियाकलाप उन्हें चोट और नुकसान पहुँचा सकते हैं। वे इन चीजों का आकलन कर सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति ऐसे व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं, जो वास्तव में क्रोधित करने वाला हो। यह दर्शाता है कि ऐसे व्यक्तियों की अंतर्निहित प्रकृति मसीह-विरोधियों का सार होती है। सटीक रूप से कहें तो, ये लोग शैतान के प्रतिरूप होते हैं, वे जीवित शैतान और दानव हैं—वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। क्या परमेश्वर की भेड़ें उसे शाप देंगी? क्या परमेश्वर की भेड़ें उसकी निंदा करेंगी? (नहीं।) क्यों नहीं करेंगी? (क्योंकि वे परमेश्वर की बात सुनती हैं और उसके प्रति समर्पण करती हैं।) वे सुनती और समर्पण करती हैं—यह एक पहलू है। मुख्य बात है परमेश्वर में उनका सच्चा विश्वास। अगर तुम वाकई परमेश्वर की पहचान, हैसियत और सार में विश्वास करते हो, तो चाहे परमेश्वर कुछ भी करे या कैसे भी करे, चाहे उससे नुकसान ही क्यों न हो, तुम उसकी निंदा नहीं करोगे। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जिनका उसमें सच्चा विश्वास होता है, सिर्फ वे ही खुद को सृजित प्राणी की स्थिति में रखते हैं, हमेशा परमेश्वर को परमेश्वर समझते हैं। यह एक तथ्य है।

हम पहले ही मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर को कोसने, उसका विरोध करने और उसके खिलाफ शोर मचाने के बारे में संगति कर चुके हैं। कुछ लोग खुलेआम उसका विरोध करते हैं, गुट बनाते हैं, गठबंधन करते हैं और स्वतंत्र राज्य बनाते हैं। दूसरे लोग बंद दरवाजों के पीछे गुप्त रूप से उसे कोसते हैं, कुछ लोग अपने दिल में उसे कोसते हैं और अपने दिल में उसका विरोध करते हैं और उसके खिलाफ शोर मचाते हैं। चाहे वे उसे खुलेआम कोसें या गुप्त रूप से, वे सब मसीह-विरोधी हैं; वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं। वे शैतान की किस्म के हैं और निस्संदेह सामान्य लोग या योग्य सृजित प्राणी नहीं हैं। जब ज्यादातर लोग ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं जो उनकी अपनी धारणाओं से मेल नहीं खातीं या परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का सामना करते हैं, तो वे सिर्फ परेशान, भ्रमित महसूस करते हैं और उसे स्वीकार नहीं कर पाते। वे शिकायतें करते हैं या अड़ियलपन दिखाते हैं; वे नकारात्मक या ढीले भी हो सकते हैं, लेकिन वे विरोध और शोर मचाने की हद तक नहीं जाते। समय के साथ प्रार्थना करने, परमेश्वर के वचन पढ़ने, भाई-बहनों की मदद और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन और अनुशासन के जरिये वे धीरे-धीरे बदल सकते हैं। विपरीत परिस्थितियाँ आने पर साधारण भ्रष्ट मनुष्यों की यह अभिव्यक्ति होती है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधियों में ये सकारात्मक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं और वे अपना ढर्रा नहीं बदलते। अगर कोई स्थिति उनकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होती, तो वे शाप दे देते हैं। अगर अगली स्थिति भी उनकी इच्छाओं के अनुरूप न हो, तो भी वे शाप देते हैं। शाप देना विरोध करने और शोर मचाने के साथ-साथ चलता है। कुछ मसीह-विरोधी तो यहाँ तक कहते हैं, “अगर मुझ जैसे लोगों को नहीं बचाया जा सकता, तो फिर किसे बचाया जा सकता है?” क्या यह शोर मचाना नहीं है? क्या यह विरोध नहीं है? (हाँ, है।) यह विरोध है। उनमें समर्पण का लेशमात्र नहीं होता और वे परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने और उसका विरोध करने का साहस करते हैं—ये शैतान हैं। हम दुष्ट स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं।

ख. सत्य से विमुख होना

इसके बाद हम मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार की दूसरी मद—सत्य से विमुख होना—पर संगति करेंगे। हमने सत्य से विमुख होने की इस मद के कई विवरणों पर पहले भी संगति की है, लेकिन यहाँ हम मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों को उनके उस स्वभाव-सार का विश्लेषण करके वर्गीकृत करेंगे, जो सत्य से विमुख होना है। मसीह-विरोधी सत्य को कैसे लेते हैं, इसकी मुख्य स्वभावगत विशेषता मात्र अरुचि होना नहीं है, बल्कि विमुखता है। अरुचि सत्य के प्रति अपेक्षाकृत हलका रवैया मात्र है, जो शत्रुता, निंदा या विरोध के स्तर तक नहीं बढ़ा है। यह सिर्फ सत्य में रुचि न होना, उस पर ध्यान न देना और यह कहना है, “कौन-सी सकारात्मक चीजें, कौन-सा सत्य? अगर मैं ये चीजें प्राप्त कर भी लूँ, तो भी क्या हो जाएगा? क्या इनसे मेरा जीवन बेहतर हो जाएगा या मेरी योग्यताएँ बढ़ जाएँगी?” वे इन चीजों में रुचि नहीं रखते और इसलिए वे इनकी चिंता नहीं करते, लेकिन ये चीजें विमुखता के स्तर तक नहीं पहुँचतीं। विमुखता एक निश्चित रवैया इंगित करती है। कैसा रवैया? जैसे ही वे किसी सकारात्मक चीज या सत्य से जुड़ी किसी चीज के बारे में सुनते हैं, उन्हें घृणा, विकर्षण, प्रतिरोध और सुनने की अनिच्छा महसूस होती है। यहाँ तक कि वे सत्य की निंदा और अपमान करने के लिए सबूत ढूँढने की कोशिश भी कर सकते हैं। यह उनका सत्य से विमुख होने का स्वभाव-सार है।

अन्य लोगों की तरह मसीह-विरोधी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, परमेश्वर जो कहता है उसे सुन सकते हैं और परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकते हैं। देखने में ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ भी समझ सकते हैं, जान सकते हैं कि परमेश्वर ने क्या कहा है और यह भी जान सकते हैं कि ये वचन लोगों को सही मार्ग अपनाने और अच्छे लोग बनने में सक्षम बनाते हैं। लेकिन ये चीजें उनके लिए महज सैद्धांतिक ही रहती हैं। इसका क्या मतलब है कि वे सैद्धांतिक ही रहती हैं? यह उसी तरह है, जैसे कुछ लोग मानते हैं कि किसी पुस्तक में एक सिद्धांत-विशेष अच्छा है, लेकिन जब वे वास्तविक जीवन से उसकी तुलना करते हैं और बुरी प्रवृत्तियों, इंसानी भ्रष्टता और पूरी मानवजाति की विभिन्न आवश्यकताओं के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें वह सिद्धांत अव्यावहारिक और वास्तविक जीवन से कटा हुआ लगता है, और उन्हें एहसास होता है कि वह लोगों को इन बुरी प्रवृत्तियों और इस बुरे समाज के अनुकूल होने या उसका अनुगमन करने में मदद नहीं कर सकता। इसलिए उन्हें लगता है कि यह सिद्धांत अच्छा तो है, लेकिन यह सिर्फ बोलने के लिए है, सुंदर चीजों के लिए मानवजाति की इच्छाएँ और कल्पनाएँ पूरी करने के लिए है। उदाहरण के लिए, अगर किसी को रुतबा पसंद है और वह पदाधिकारी बनकर लोगों के बीच ऊँचा उठना और पुजना चाहता है, तो उसे यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए झूठ बोलने, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने और दूसरों के साथ अन्याय करने आदि जैसे असामान्य तरीकों पर निर्भर रहना होगा। लेकिन इन्हीं चीजों की तो सत्य निंदा करता है। वह मनुष्यों की इन इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की निंदा करता है और इन्हें नकारता है। वास्तविक जीवन में लोग सोचते हैं कि अपनी अलग पहचान बनाना एक वैध चीज है, लेकिन परमेश्वर और सत्य ऐसी माँगों की निंदा करते हैं। इसलिए परमेश्वर के घर में ये माँगें स्वीकार नहीं की जातीं, वहाँ इन्हें लागू करने का कोई मौका नहीं होता और इन्हें साकार करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन क्या मसीह-विरोधी इन्हें छोड़ देंगे? (वे इन्हें नहीं छोड़ेंगे।) सही कहा, वे इन्हें नहीं छोड़ेंगे। जैसे ही मसीह-विरोधी इसे देखते हैं, वे सोचते हैं, “अब मैं समझ गया। तो सत्य लोगों से निस्स्वार्थ होने, आत्म-बलिदान करने, सहनशील और उदार होने, अपना अहंकार त्यागकर दूसरों के लिए जीने की अपेक्षा करता है। यही सत्य है।” जब वे सत्य को इस तरह से परिभाषित कर देते हैं, तो वे सत्य में रुचि रखते हैं या उससे विकर्षित हो जाते हैं? वे उससे विकर्षित हो जाते हैं, परमेश्वर से भी विकर्षित हो जाते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर हमेशा सत्य बोलता है, वह हमेशा इंसानी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं जैसी अशुद्ध चीजें उजागर करता है और वह हमेशा इंसानी आत्माओं की तह में जो कुछ भी होता है उसे उजागर करता है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर लोगों को उनकी हैसियत, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुसरण से वंचित करने के उद्देश्य से सत्य के बारे में संगति करता है। शुरू में मुझे लगा कि परमेश्वर लोगों की इच्छाएँ पूरी कर सकता है, उनकी अभिलाषाएँ और सपने पूरे कर सकता है और लोग जो चाहते हैं वह उन्हें दे सकता है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर इस तरह का परमेश्वर है। वह उतना महान नहीं लगता। मैं महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से भरा हुआ हूँ : क्या परमेश्वर मुझ जैसे व्यक्ति को पसंद कर सकता है? परमेश्वर ने हमेशा जो कहा है उससे आँकते हुए और उसके वचनों का निहितार्थ समझने पर ऐसा लगता है कि परमेश्वर मुझ जैसे लोगों को पसंद नहीं करता, न ही वह मुझ जैसे किसी व्यक्ति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रख सकता है। ऐसा लगता है कि मैं ऐसे व्यावहारिक परमेश्वर के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं रख सकता। वह जो वचन बोलता है, जो कार्य करता है, उसके क्रियाकलापों के सिद्धांत और उसका स्वभाव—ये सब मुझे इतने अप्रिय क्यों लगते हैं? परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने, जमीर रखने, मुसीबतें आ पड़ने पर परमेश्वर की खोज करने, उसका आज्ञापालन करने, उसका भय मानने और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्यागने के लिए कहता है—ये ऐसी चीजें हैं जो मैं नहीं कर सकता! परमेश्वर जो माँग करता है वह न सिर्फ इंसानी धारणाओं के साथ असंगत है, बल्कि इंसानी भावनाओं के प्रति असंवेदनशील भी है। मैं उसमें विश्वास कैसे कर सकता हूँ?” अपने मन में इस तरह से सोचने के बाद उनमें परमेश्वर के प्रति अच्छी भावना विकसित होती है या वे उससे दूर हो जाते हैं? (वे उससे दूर हो जाते हैं।) कुछ समय के अनुभव के बाद मसीह-विरोधी तेजी से महसूस करते हैं कि उन जैसे लोगों का, जिनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं और जो आकांक्षाओं से भरे होते हैं, परमेश्वर के घर में स्वागत नहीं किया जाएगा, यहाँ उनके लिए अपने कौशल इस्तेमाल करने की कोई गुंजाइश नहीं है और वे यहाँ अपनी आकांक्षाएँ खुलकर पूरी नहीं कर सकते। वे सोचते हैं, “परमेश्वर के घर में मैं अपनी असाधारण प्रतिभा प्रकट नहीं कर सकता। मुझे कभी उत्कृष्टता प्राप्त करने का मौका नहीं मिलेगा। वे कहते हैं कि मुझमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, मैं सत्य नहीं समझता और मुझमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। न सिर्फ मुझे पदोन्नत नहीं किया गया है या किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा गया है, बल्कि मेरी निंदा भी की गई है। मेरे द्वारा अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में क्या गलत है? मेरे द्वारा दूसरों को दंडित करने में क्या गलत है? चूँकि मेरे पास शक्ति है, इसलिए मुझे ऐसा व्यवहार करना ही चाहिए! कौन होगा जो शक्ति होने पर ऐसा व्यवहार नहीं करेगा? तो चुनावों के दौरान मेरे द्वारा कुछ बेईमानी और धोखाधड़ी करने में क्या गलत है? क्या सभी गैर-विश्वासी ऐसा नहीं करते? परमेश्वर के घर में ऐसा क्यों नहीं करने दिया जाता? वे तो यहाँ तक कहते हैं कि यह बेशर्मी है। इसे बेशर्मी कैसे माना जा सकता है? आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है। यह उचित है! परमेश्वर का घर मजेदार नहीं है। लेकिन इस दुनिया में लोग बहुत ही दुष्ट हैं और उनके साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखना आसान नहीं है। तुलनात्मक रूप से, परमेश्वर के घर के लोग थोड़े बेहतर व्यवहार करने वाले हैं। अगर परमेश्वर न होता, तो यहाँ समय बिताना बहुत बढ़िया होता; अगर लोगों पर शासन करने वाला कोई परमेश्वर और कोई सत्य न होता, तो मैं परमेश्वर के घर में बॉस, मालिक और राजा होता।” परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते हुए वे लगातार विभिन्न चीजों का अनुभव करते हैं, उनकी लगातार काट-छाँट की जाती है और उन्हें बदल-बदलकर विभिन्न कर्तव्य दिए जाते हैं और अंततः उन्हें कुछ एहसास होता है और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में जो कुछ भी होता है, उसे सत्य का इस्तेमाल करके मापा और हल किया जाता है। सत्य पर हमेशा जोर दिया जाता है और परमेश्वर हमेशा उसके बारे में बात करता है। मैं यहाँ अपनी आकांक्षाएँ खुलकर पूरी नहीं कर सकता!” अपने अनुभवों में इस बिंदु पर पहुँचने के बाद वे सत्य से, सत्य द्वारा शासन करने से, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज के सत्य होने से और सत्य खोजने से अधिकाधिक विमुख हो जाते हैं। वे इन चीजों से किस हद तक विमुख महसूस करते हैं? वे सत्यों के उन धर्मसिद्धांतों को भी मानना या स्वीकारना नहीं चाहते, जिन्हें उन्होंने बिल्कुल शुरू में स्वीकार लिया था और वे अपने दिलों में बेहद घृणा महसूस करते हैं। इसलिए जैसे ही सभा का समय आता है, वे उनींदे और चिंतित हो जाते हैं। वे चिंतित क्यों होते हैं? वे सोचते हैं, “ये सभाएँ एक बार में तीन-चार घंटे तक चलती हैं—यह कब खत्म होगी? मैं अब और नहीं सुनना चाहता!” एक वाक्यांश है, जो उनकी मनःस्थिति का वर्णन कर सकता है, “काँटों पर लोटना।” उन्हें एहसास होता है कि जब तक परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, तब तक उन्हें कभी उत्कृष्टता हासिल करने का मौका नहीं मिलेगा, बल्कि वे हमेशा सभी के द्वारा प्रतिबंधित, खारिज और अस्वीकृत किए जाएँगे और चाहे वे कितने भी सक्षम हों, उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाएँ नहीं दी जाएँगी। नतीजतन, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनकी घृणा तीव्र हो जाती है। कोई पूछ सकता है, “उन्होंने शुरू से ही घृणा महसूस क्यों नहीं की?” वास्तव में, वे शुरू से ही घृणा महसूस करते थे, लेकिन उस समय परमेश्वर के घर में सब-कुछ उनके लिए अपरिचित था। उन्हें उसकी कोई संकल्पना नहीं थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें घृणा या विमुखता महसूस नहीं हुई। वास्तव में, वे अपने प्रकृति-सार के भीतर सत्य से विमुखता महसूस करते थे, उन्हें बस इसका एहसास नहीं था। इन लोगों का प्रकृति-सार निस्संदेह सत्य से विमुखता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? वे अन्याय, दुष्टता, शक्ति, बुरी प्रवृत्तियों, प्रभारी होने, लोगों को नियंत्रित करने और ऐसी तमाम नकारात्मक चीजों से सहज रूप से प्रेम करते हैं। इन चीजों से आँकें तो, जिनसे कि वे प्रेम करते हैं, इसमें कोई शक नहीं कि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख महसूस करते हैं। इसके अलावा, वे जिस चीज के लिए प्रयास करते हैं, उसके अनुसार वे हैसियत के लिए प्रयास करते हैं, वे खुद को औरों से अलग दिखाने का प्रयास करते हैं, वे अपने सिर पर प्रभामंडल रखने का प्रयास करते हैं, वे लोगों के बीच अगुआ बनने का प्रयास करते हैं, प्रभावशाली और शक्तिशाली होने का प्रयास करते हैं, जहाँ भी वे बोलते और काम करते हैं वहीं प्रतिष्ठा और ताकत पाने के साथ-साथ लोगों को नियंत्रित करने की योग्यता पाने का प्रयास करते हैं—वे इन चीजों के लिए प्रयास करते हैं। यह भी सत्य से विमुख महसूस करने की अभिव्यक्ति है। इसके अलावा, सत्य के प्रति उनके रवैये से आँकें तो, चाहे ये व्यक्ति इसे कितना भी सुन लें, यह बेकार होगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या ऐसा इसलिए है कि उनकी याददाश्त खराब है?” नहीं, ऐसा नहीं है। कुछ मसीह-विरोधियों की याददाश्त बहुत अच्छी होती है, वे विशेष रूप से वाक्पटु होते हैं और वे जो सीखते हैं उसे तुरंत लागू कर उसका प्रदर्शन कर सकते हैं। नतीजतन जिन लोगों में विवेक नहीं होता, उन्हें लगता है कि इन व्यक्तियों में काबिलियत है और इनमें पवित्र आत्मा काम कर रहा है। लेकिन विवेकशील लोग तुरंत पहचान सकते हैं कि वे जो कुछ भी बोलते हैं, वह सब धर्मसिद्धांत और खोखले शब्द हैं, उनमें कोई सत्य-वास्तविकता नहीं है और वे लोगों को गुमराह करने के इरादे से बोले गए हैं। मसीह-विरोधी ऐसे लोग होते हैं : वे विशेष रूप से ऊँचे उपदेश देना, आध्यात्मिक सिद्धांतों पर खोखले तरीके से चर्चा करना और शब्दों की झड़ी लगाना पसंद करते हैं, जो एक बार शुरू होने के बाद, विषय से हटकर और बकवास होती है। बहुत-से लोग उसे समझ नहीं पाते, और मसीह-विरोधी कहते हैं, “यह तीसरे स्वर्ग की भाषा है; तुम लोग इसे कैसे समझ सकते हो?” मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने की मुख्य अभिव्यक्ति उसके प्रति उनके रवैये में देखी जा सकती है और बेशक, यह उनके सामान्य दैनिक जीवन और गतिविधियों में भी अभिव्यक्त होता है, खासकर इसमें कि वे अपने कर्तव्य कैसे निभाते हैं। वे कई अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। पहली, वे कभी सत्य नहीं खोजते, तब भी नहीं जब उन्हें स्पष्ट रूप से पता होता है कि उन्हें खोजना चाहिए। दूसरी, वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते। चूँकि वे सत्य नहीं खोजते, इसलिए वे उसका अभ्यास कर ही कैसे सकते हैं? समझ सिर्फ खोजने से ही आ सकती है और सिर्फ समझ ही अभ्यास की ओर ले जा सकती है; वे न तो खोजते हैं, न ही सत्य-सिद्धांतों के बारे में गंभीरता से सोचते हैं। यहाँ तक कि वे उनका तिरस्कार भी करते हैं, उनसे विमुख महसूस करते हैं और उन्हें शत्रुता से देखते हैं। नतीजतन, वे कभी सत्य के अभ्यास को छूते तक नहीं, और अगर वे कभी-कभी सत्य को समझते भी हैं, तो भी वे उसका अभ्यास नहीं करते। उदाहरण के लिए, जब उनके साथ बुरा होता है और दूसरे लोग कोई अच्छा उपाय सुझाते हैं, तो वे पलटकर कह सकते हैं, “इसमें क्या अच्छा है? अगर मैं ऐसा करूँगा, तो क्या मेरे अपने विचार व्यर्थ नहीं चले जाएँगे?” कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर हम तुम्हारे तरीके से काम करेंगे तो परमेश्वर के घर को नुकसान होगा; हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए।” वे जवाब देते हैं, “कौन-से सिद्धांत! मेरा तरीका ही सिद्धांत है; मैं जो सोचता हूँ वही सिद्धांत है!” क्या यह सत्य का अभ्यास न करना नहीं है? (हाँ, है।) उनकी एक और मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि वे कभी परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते या आध्यात्मिक भक्ति में संलग्न नहीं होते। जब कुछ लोग काम में व्यस्त होते हैं और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते, तो वे चुपचाप चिंतन करते हैं या कुछ भजन गा लेते हैं और अगर उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़े कई दिन हो जाते हैं तो उन्हें खालीपन का एहसास होता है। अपनी व्यस्तता के बीच वे एक अंश पढ़कर खुद को समृद्ध करने के लिए एक पल चुराते हैं, तब तक चिंतन करते हैं जब तक परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर लेते और उनका दिल स्थिर नहीं हो जाता। ऐसे लोग परमेश्वर से दूर नहीं होते। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी अगर किसी दिन परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ पाते, तो उन्हें कोई परेशानी महसूस नहीं होती। अगर वे 10 दिनों तक भी परमेश्वर के वचन न पढ़ें, तो भी उन्हें कुछ महसूस नहीं होता। वे एक साल तक भी परमेश्वर के वचन पढ़े बिना काफी अच्छी तरह से रह सकते हैं और वे परमेश्वर के वचन पढ़े बिना तीन साल भी बिता सकते हैं और कुछ महसूस नहीं करते—उन्हें अपने दिल में डर या खालीपन महसूस नहीं होता और वे आराम से जीते रहते हैं। उन्हें परमेश्वर के वचनों से गहन विमुखता महसूस होती है! कोई व्यक्ति व्यस्तता के कारण परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक दिन या शायद उसी कारण से 10 दिन बिता सकता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़े बिना पूरा महीना बिता सकता है और फिर भी कुछ महसूस नहीं करता, तो फिर समस्या है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन पढ़े बिना एक साल भी बिता देता है, तो उसमें न सिर्फ परमेश्वर के वचनों के लिए ललक नहीं होती—बल्कि उसमें सत्य से विमुखता भी होती है।

मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने की एक और अभिव्यक्ति उनके द्वारा मसीह की अवहेलना है। हमने पहले भी उनके द्वारा मसीह की अवहेलना के बारे में संगति की है। तो, मसीह ने ऐसा क्या किया है जो वे उसकी अवहेलना करते हैं? क्या उसने उन्हें चोट पहुँचाई या नुकसान पहुँचाया या उनकी इच्छा के विपरीत कुछ किया? क्या उसने उनके किसी हित को नुकसान पहुँचाया? नहीं। मसीह उनसे कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं रखता और वे उससे मिले भी नहीं हैं। फिर वे उसकी अवहेलना कैसे कर सकते हैं? इसका मूल कारण मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने के सार में निहित है। मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख महसूस करने की एक और अभिव्यक्ति तमाम सकारात्मक चीजों की वास्तविकता के प्रति उनकी अवहेलना है। सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता में कई तरह की चीजें शामिल हैं, जैसे कि परमेश्वर द्वारा सृजित तमाम चीजें और उनके नियम, विभिन्न जीवित चीजें और उनके जीवन को नियंत्रित करने वाले नियम और मुख्य रूप से मनुष्य कहे जाने वाले इन जीवित प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करने वाले विभिन्न नियम। उदाहरण के लिए, जन्म, आयु, बीमारी और मृत्यु के मामले, जो मानव-जीवन के सबसे करीब होते हैं—सामान्य लोगों के पैर उम्र बढ़ने के साथ कमजोर हो जाते हैं, उनका स्वास्थ्य गिर जाता है, उनकी आँखें धुँधली हो जाती हैं, उन्हें सुनने में कठिनाई होती है, उनके दाँत ढीले हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि उन्हें वृद्धावस्था स्वीकार लेनी चाहिए। परमेश्वर इन सब पर संप्रभुता रखता है और कोई भी इस प्राकृतिक नियम के विरुद्ध नहीं जा सकता—सामान्य लोग ये तमाम चीजें स्वीकार सकते हैं। लेकिन कोई व्यक्ति चाहे कितने भी लंबे समय तक जीवित रहे या उसका शारीरिक स्वास्थ्य कैसा भी हो, कुछ चीजें नहीं बदलतीं, जैसे कि उन्हें अपना कर्तव्य किस तरह निभाना चाहिए, उन्हें कौन-सी स्थिति अपनानी चाहिए और उन्हें अपना कर्तव्य किस रवैये से निभाना चाहिए। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी झुकने से इनकार करते हैं। वे कहते हैं, “मैं कौन हूँ? मैं बूढ़ा नहीं हो सकता। मुझे हर समय साधारण लोगों से अलग होना चाहिए। क्या मैं तुम्हें बूढ़ा दिखता हूँ? कुछ काम होते हैं जो तुम इस उम्र में नहीं कर सकते, लेकिन मैं कर सकता हूँ। तुम्हारे पैर पचास की उम्र में कमजोर हो सकते हैं, लेकिन मेरे पैर फुर्तीले रहते हैं। मैं तो एक छत से दूसरी छत पर कूदने का भी अभ्यास करता हूँ!” वे हमेशा परमेश्वर द्वारा निर्धारित इन सामान्य नियमों को चुनौती देना चाहते हैं, वे लगातार इन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं और दूसरों को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे साधारण लोगों से अलग, असाधारण और श्रेष्ठ हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे परमेश्वर के वचनों को चुनौती देना चाहते हैं और इस बात को नकारना चाहते हैं कि उसके वचन सत्य हैं। क्या यह सत्य से विमुखता महसूस करने के मसीह-विरोधियों के सार की अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) एक और पहलू यह है कि मसीह-विरोधी बुरी प्रवृत्तियों और अँधेरे प्रभावों का सम्मान करते हैं; यह और पुष्टि करता है कि वे सत्य के दुश्मन हैं। मसीह-विरोधी शैतान के शासन, और किंवदंतियों में वर्णित बुरी आत्माओं की विभिन्न योग्यताओं, कौशलों और कर्मों के साथ-साथ बुरी प्रवृत्तियों और अँधेरे प्रभावों की गहराई से प्रशंसा करते हैं और उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं। इन चीजों में उनका विश्वास अडिग होता है और वे कभी उन पर संदेह नहीं करते। उनके दिल न सिर्फ उनके प्रति विमुखता से मुक्त होते हैं, बल्कि उनके लिए सम्मान, श्रद्धा और ईर्ष्या से भरे होते हैं। यहाँ तक कि अपने दिल की गहराई में वे इन चीजों का घनिष्ठता से अनुगमन करते हैं। मसीह-विरोधी इन बुरी और अँधेरी चीजों के संबंध में अपने दिलों में इसी तरह का रवैया रखते हैं—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वे सत्य से विमुख होते हैं? बिल्कुल है! जो व्यक्ति इन बुरी और अँधेरी चीजों से प्रेम करता है, वह सत्य से प्रेम कैसे कर सकता है? ये वे लोग हैं, जो बुरी शक्तियों और शैतान के गिरोह से संबंधित हैं। बेशक, वे शैतान की चीजों पर अडिग रूप से विश्वास करते हैं, जबकि उनके दिल सत्य और सकारात्मक चीजों से विरक्ति और तिरस्कार से भरे होते हैं। हम सत्य के प्रति विमुखता के विषय पर अपना सारांश कमोबेश यहीं समाप्त करेंगे।

ग. क्रूरता

मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार का एक और अंग क्रूरता है। मसीह-विरोधियों को एक वाक्यांश में सारांशित किया जा सकता है : मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं। जब उनके पास हैसियत होती है, तब तो यह स्पष्ट हो ही जाता है कि वे मसीह-विरोधी हैं। जब उनके पास हैसियत नहीं होती, तब तुम यह कैसे आँक सकते हो कि वे मसीह-विरोधी हैं या नहीं? तुम्हें उनकी मानवता देखनी चाहिए। अगर उनकी मानवता दुर्भावनापूर्ण, कपटपूर्ण और जहरीली हो, तो वे शत-प्रतिशत मसीह-विरोधी होते हैं। अगर किसी व्यक्ति के पास कभी हैसियत न रही हो, वह कभी अगुआ न रहा हो और उसकी मानवता अच्छी न हो, तब तुम कैसे तय कर सकते हो कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं? तुम्हें देखना होगा कि क्या उसकी मानवता जहरीली है और क्या वह बुरा व्यक्ति है। अगर वह बुरा व्यक्ति है, अगर उसके पास हैसियत न भी हो, तो भी वह शत-प्रतिशत मसीह-विरोधी होता है। इसलिए मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार का एक और विशिष्ट पहलू क्रूरता है। क्या मसीह-विरोधियों का क्रूर स्वभाव शिकार करने वाले शेरों या बाघों की क्रूरता जैसा ही होता है? (नहीं।) मांसाहारी पशु भूख के कारण शिकार करते हैं; यह शारीरिक आवश्यकता और सहज प्रवृत्ति है। लेकिन जब वे भूखे नहीं होते, तो वे शिकार नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों की क्रूरता से किस तरह अलग है? क्या ऐसा है कि मसीह-विरोधी तब उग्र नहीं होते, जब तुम उन्हें भड़काते नहीं हो और सिर्फ तभी उग्र होते हैं जब उन्हें भड़काया जाता है? या ऐसा है कि अगर तुम उनकी बात नहीं सुनते तो वे तुम्हें नियंत्रित नहीं करेंगे, लेकिन अगर तुम उनकी बात सुनते हो तो ही वे तुम्हें नियंत्रित करेंगे? या ऐसा है कि अगर तुम उनकी बात सुनते हो तो वे तुम्हें दंडित नहीं करेंगे, लेकिन अगर तुम उनकी बात नहीं सुनते तो वे तुम्हें दंडित करेंगे? (नहीं।) मसीह-विरोधियों की क्रूरता एक स्वभाव, एक सार होता है—वह एक वास्तविक शैतानी सार होता है। यह कोई सहज प्रवृत्ति नहीं होती, न ही दैहिक आवश्यकता होती है, बल्कि यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव की अभिव्यक्ति और विशेषता होती है। तो मसीह-विरोधियों के क्रूर स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ, प्रकाशन और नजरिये क्या होते हैं? उनके कौन-से क्रियाकलाप दर्शाते हैं कि उनका स्वभाव क्रूर है, उनमें बुरे लोगों का सार है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (वे दूसरों को दंडित करते हैं।) (वे उन लोगों को दबाते और बहिष्कृत करते हैं, जो उनसे अलग होते हैं।) (वे दूसरों को फँसाते हैं और उनके लिए जाल बिछाते हैं।) (वे लोगों को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं।) (वे गुट बनाते हैं और कलह के बीज बोते हैं।) गुट बनाना और कलह के बीज बोना थोड़ा कपटपूर्ण है; ये दुष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं, लेकिन वे क्रूरता के स्तर तक नहीं पहुँचतीं। धारणाएँ फैलाना, स्वतंत्र राज्य स्थापित करना—क्या ये क्रूरताएँ हैं? (हाँ।) कार्य-व्यवस्थाओं का विरोध करना, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालना, परमेश्वर के चढ़ावे हड़पना और सीधे परमेश्वर का विरोध करना—क्या ये क्रूरताएँ हैं? (हाँ।) चढ़ावे हड़पना सिर्फ लालच नहीं है; यह बुरे स्वभाव की अभिव्यक्ति भी है। मसीह-विरोधियों का चढ़ावे हड़पना एक अत्यंत क्रूर स्वभाव दर्शाता है, जो डाकुओं के स्वभाव के बराबर है। जो मदें हमने अभी सारांशित की हैं, उन्हें दोबारा बताओ। (वे दूसरों को दंडित करते हैं, उन लोगों को दबाते और बहिष्कृत करते हैं, जो उनसे अलग होते हैं, उन्हें फँसाते हैं और उनके लिए जाल बिछाते हैं, लोगों को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं, धारणाएँ फैलाते हैं, स्वतंत्र राज्य स्थापित करते हैं, कार्य-व्यवस्थाओं का विरोध करते हैं, परमेश्वर पर हमला करते हैं और चढ़ावे हड़प लेते हैं।) ये कुल नौ मदें हैं। ये कमोबेश मसीह-विरोधियों के क्रूर स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। दरअसल कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और भी हैं, लेकिन वे इनसे लगभग मिलती-जुलती ही हैं, इसलिए मैं उन्हें विस्तार से सूचीबद्ध नहीं करूँगा। संक्षेप में, जो लोग ये नजरिये और रणनीतियाँ अपनाते हैं, वे बुरे लोग होते हैं। एक ओर, उनके तरीके कपटपूर्ण होते हैं, उदाहरण के लिए, फँसाना, जाल बिछाना और धारणाएँ फैलाना, ये सभी अपेक्षाकृत कपटपूर्ण हैं। दूसरी ओर, उनकी रणनीतियाँ काफी जहरीली और भयंकर होती हैं, जो उन्हें क्रूर स्वभाव वाला बनाती हैं।

मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार के इन तीन पहलुओं से आँकें तो, क्या उन्हें बचाया जा सकता है? (नहीं, उन्हें नहीं बचाया जा सकता।) क्या वे परमेश्वर के घर में श्रम करने के लिए तैयार होते हैं? (नहीं, वे इसके लिए तैयार नहीं होते।) वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे सत्य से प्रेम नहीं करते और उनके हृदय परमेश्वर और सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता से भरे होते हैं। यहाँ तक कि वे सबसे बुनियादी चीजें करने के लिए भी तैयार नहीं होते—परमेश्वर के घर में श्रम करना और अपना कर्तव्य निभाना—यानी वे वह भी नहीं कर सकते जो एक व्यक्ति को सामान्य रूप से करना चाहिए। न सिर्फ वे ऐसा नहीं कर सकते, बल्कि इसके विपरीत वे भाई-बहनों द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के सामान्य क्रम को और साथ ही सामान्य कलीसियाई जीवन को अव्यवस्थित, बाधित और नष्ट भी करते हैं। साथ ही, वे परमेश्वर के घर के कार्य, लोगों के सामान्य जीवन-प्रवेश और लोगों में परमेश्वर के सामान्य कार्य को अव्यवस्थित भी करते हैं। इतना ही नहीं, वे परमेश्वर के घर में शासन करना और शक्ति का प्रयोग करना भी चाहते हैं; वे लोगों को गुमराह करना, उन्हें फुसलाना, नियंत्रित करना भी चाहते हैं, परमेश्वर के घर में अपने स्वतंत्र राज्य और गुट स्थापित करना चाहते हैं और परमेश्वर का अनुगमन करने वालों को पूरी तरह से अपना अनुयायी बना लेना चाहते हैं, ताकि वे सत्ता और प्रभाव का इस्तेमाल करने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने और परमेश्वर के प्रतिद्वंद्वी होने का प्रदर्शन करने की अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा पूरी कर सकें। तो क्या परमेश्वर के घर में मसीह-विरोधियों का इस्तेमाल करने का जरा भी मूल्य है? क्या वे परमेश्वर के घर में कोई अच्छा कार्य कर सकते हैं? (नहीं।) उनकी मानवता से लेकर उनके अनुसरणों तक, उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लेकर उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों तक और सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये से आँकें तो, परमेश्वर के घर में ऐसे लोग सिर्फ परमेश्वर के कार्य को अव्यवस्थित, बाधित और नष्ट करने का कार्य ही कर सकते हैं। वे थोड़ा-सा भी सकारात्मक कार्य नहीं कर सकते, क्योंकि वे कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, और अपने प्रकृति-सार में वे सत्य से विमुख होते हैं, सत्य और परमेश्वर के प्रति शत्रुता से भरे होते हैं। यही मसीह-विरोधियों का सार होता है।

अब तक हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति पूरी तरह से समाप्त कर ली है। आज हमने जिस बारे में संगति की है, उसके जरिये क्या अब तुम लोग मसीह-विरोधियों को पहचानने में सक्षम हो? इसे सरलतम वाक्यांश से सारांशित करें तो : बुरे लोग मसीह-विरोधी होते हैं और सभी मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं। इसे इस तरह से कहने से क्या चीजें तुम लोगों के लिए बहुत स्पष्ट नहीं हो गई हैं? क्या अब उन्हें समझना आसान नहीं हो गया है? हम पिछले दो वर्षों से लगातार मसीह-विरोधियों के प्रकृति-सार का विश्लेषण कर रहे हैं और तुम लोग बहुत ज्यादा शोधन से गुजरे हो, इस चिंता में कि तुम मसीह-विरोधी हो सकते हो। अब अंततः परिणाम सामने आ गया है। प्रक्रिया काफी चुनौतीपूर्ण रही है, लेकिन अंतिम परिणाम अच्छा है : तुम लोगों में मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन तुम मसीह-विरोधी नहीं हो। तुम इस समझ तक कैसे पहुँचे? मेरी संगति की किस पंक्ति ने तुम लोगों को इसका एहसास कराया? (पिछली बार, मसीह-विरोधियों और अन्य लोगों के चरित्र और स्वभाव-सार के बीच अंतर पर परमेश्वर की संगति के माध्यम से हम थोड़ा समझने लगे थे। जमीर और विवेक वाले लोग बुराई करने के बाद पश्चात्ताप कर बदल सकते हैं, जबकि मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार वाले लोग पश्चात्ताप न करने में कट्टर होते हैं, वे चाहे कितनी भी बुराई करें, उन्हें कुछ महसूस नहीं होता।) लोगों में मसीह-विरोधियों के स्वभाव के कुछ प्रकाशन होते हैं, लेकिन वे अनैच्छिक होते हैं और उनकी सक्रिय इच्छा से नहीं आते; जब इन प्रकाशनों का पता चलता है, तो लोग असुविधा, पीड़ा, पछतावा और कृतज्ञता की भावना महसूस करते हैं और फिर वे धीरे-धीरे अपना मार्ग बदल सकते हैं। जब लोग यह बात समझते हैं, तो वे बहुत ज्यादा सहज महसूस करते हैं और पाते हैं कि अभी भी उनके बचाए जाने की गुंजाइश है और वे मसीह-विरोधी नहीं हैं। हालाँकि उनका मसीह-विरोधियों के स्वभाव से कुछ संबंध होता है, लेकिन सौभाग्य से उनका मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार से कोई संबंध नहीं होता। अगर तुम बुरे व्यक्ति नहीं हो, तो तुम मसीह-विरोधी नहीं हो। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि तुममें मसीह-विरोधियों का स्वभाव नहीं है? (नहीं, इसका यह मतलब नहीं है।) अब जब मैं कहता हूँ कि हर किसी में मसीह-विरोधियों का स्वभाव है, तो क्या तुम लोग अपने दिलों में प्रतिरोध महसूस करते हो? (मैं नहीं करता।) तुम प्रतिरोध महसूस नहीं करते; तुम अब इस तथ्य को स्वीकार सकते हो। मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार की अभिव्यक्तियों को सारांशित करो। (मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य से घृणा करते हैं और कभी सत्य नहीं स्वीकारते।) यह सार तक पहुँचता है; मसीह-विरोधी कभी सत्य नहीं स्वीकारेंगे; वे सत्य से विमुख और शत्रुतापूर्ण महसूस करते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, लेकिन वे उसके प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं होते और वे यह भी सोचते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह सही और अच्छा होता है, वे उसकी प्रशंसा करते हैं और उसका अनुसरण करना चाहते हैं, लेकिन उनमें कम काबिलियत होती है और उनके पास कोई मार्ग नहीं होता। दूसरों की सत्य में कोई रुचि नहीं होती, लेकिन वे उसके प्रति शत्रुतापूर्ण भी नहीं होते; वे गुनगुने किस्म के होते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी अलग होते हैं; वे सत्य से विमुख और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण महसूस करते हैं। जैसे ही सत्य या परमेश्वर का उल्लेख किया जाता है, वे घृणा महसूस करते हैं और उनसे सत्य स्वीकार करवाने की कोशिश करने से वे असामान्य हो जाते हैं, वे अपने दिलों में विकर्षण महसूस करते हैं, उसे कभी नहीं स्वीकारते—यह मसीह-विरोधियों का सार होता है। और कुछ? (मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी गलत करें, वे पश्चात्ताप न करने में कट्टर होते हैं और वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे।) वे अपनी गलतियाँ नहीं पहचानेंगे, वे कभी पश्चात्ताप नहीं करेंगे और वे कई वर्षों के बाद भी नहीं बदलेंगे। वे यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर के वचन सत्य हैं, तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? उनमें मानवता नहीं होती, वे मानव नहीं होते, वे दानव, शैतान और परमेश्वर के दुश्मन होते हैं, इसलिए वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे।

26 दिसंबर 2020

पिछला: प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो)

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