4. सच्चे और झूठे मार्गों में, तथा सच्ची और झूठी कलीसियाओं में विभेदन
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
सच्चे मार्ग की खोज करने में सबसे बुनियादी सिद्धांत क्या है? तुम्हें देखना होगा कि इस मार्ग में पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं, ये वचन सत्य की अभिव्यक्ति हैं या नहीं, किसके लिए गवाही देनी है, और यह तुम्हारे लिए क्या ला सकता है। सच्चे मार्ग और झूठे मार्ग के बीच अंतर करने के लिए बुनियादी ज्ञान के कई पहलू आवश्यक हैं, जिनमें सबसे मूलभूत है यह बताना कि इसमें पवित्र आत्मा का कार्य मौजूद है या नहीं। क्योंकि परमेश्वर पर लोगों के विश्वास का सार परमेश्वर के आत्मा पर विश्वास है, और यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर पर उनका विश्वास इसलिए है, क्योंकि यह देह परमेश्वर के आत्मा का मूर्त रूप है, जिसका अर्थ यह है कि ऐसा विश्वास अभी भी पवित्र आत्मा पर विश्वास है। आत्मा और देह के मध्य अंतर हैं, परंतु चूँकि यह देह पवित्रात्मा से आता है और वचन देह बनता है, इसलिए मनुष्य जिसमें विश्वास करता है, वह अभी भी परमेश्वर का अंतर्निहित सार है। अत:, यह पहचानने के लिए कि यह सच्चा मार्ग है या नहीं, सर्वोपरि तुम्हें यह देखना चाहिए कि इसमें पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं, जिसके बाद तुम्हें यह देखना चाहिए कि इस मार्ग में सत्य है या नहीं। सत्य सामान्य मानवता का जीवन-स्वभाव है, अर्थात्, वह जो मनुष्य से तब अपेक्षित था, जब परमेश्वर ने आरंभ में उसका सृजन किया था, यानी, अपनी समग्रता में सामान्य मानवता (मानवीय भावना, अंतर्दृष्टि, बुद्धि और मनुष्य होने के बुनियादी ज्ञान सहित) है। अर्थात्, तुम्हें यह देखने की आवश्यकता है कि यह मार्ग लोगों को एक सामान्य मानवता के जीवन में ले जा सकता है या नहीं, बोला गया सत्य सामान्य मानवता की आवश्यकता के अनुसार अपेक्षित है या नहीं, यह सत्य व्यावहारिक और वास्तविक है या नहीं, और यह सबसे सामयिक है या नहीं। यदि इसमें सत्य है, तो यह लोगों को सामान्य और वास्तविक अनुभवों में ले जाने में सक्षम है; इसके अलावा, लोग हमेशा से अधिक सामान्य बन जाते हैं, उनका मानवीय बोध हमेशा से अधिक पूरा बन जाता है, उनका दैहिक और आध्यात्मिक जीवन हमेशा से अधिक व्यवस्थित हो जाता है, और उनकी भावनाएँ हमेशा से और अधिक सामान्य हो जाती हैं। यह दूसरा सिद्धांत है। एक अन्य सिद्धांत है, जो यह है कि लोगों के पास परमेश्वर का बढ़ता हुआ ज्ञान है या नहीं, और इस प्रकार के कार्य और सत्य का अनुभव करना उनमें परमेश्वर के लिए प्रेम को प्रेरित कर सकता है या नहीं और उन्हें परमेश्वर के हमेशा से अधिक निकट ला सकता है या नहीं। इसमें यह मापा जा सकता है कि यह सही मार्ग है अथवा नहीं। सबसे बुनियादी बात यह है कि क्या यह मार्ग अलौकिक के बजाय यर्थाथवादी है, और यह मनुष्य के जीवन के लिए पोषण प्रदान करने में सक्षम है या नहीं। यदि यह इन सिद्धांतों के अनुरूप है, तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह मार्ग सच्चा मार्ग है। मैं ये वचन तुम लोगों से तुम्हारे भविष्य के अनुभवों में अन्य मार्गों को स्वीकार करवाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, न ही किसी भविष्यवाणी के रूप में कह रहा हूँ कि भविष्य में एक अन्य नए युग का कार्य होगा। मैं इन्हें इसलिए कह रहा हूँ, ताकि तुम लोग निश्चित हो जाओ कि आज का मार्ग ही सच्चा मार्ग है, ताकि आज के कार्य के प्रति अपने विश्वास में तुम लोग केवल आधे-अधूरे ही निश्चित न रहो और इसमें अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में असमर्थ न रहो। यहाँ ऐसे कई लोग हैं, जो निश्चित होने के बावजूद अभी भी भ्रम में अनुगमन करते हैं; ऐसी निश्चितता का कोई सिद्धांत नहीं होता, और ऐसे लोगों को देर-सबेर हटा दिया जाना चाहिए। यहाँ तक कि वे भी, जो अपने अनुसरण में विशेष रूप से उत्साही हैं, तीन भाग ही निश्चित हैं और पाँच भाग अनिश्चित हैं, जो दर्शाता है कि उनका कोई आधार नहीं है। चूँकि तुम लोगों की क्षमता बहुत कमज़ोर है और तुम्हारी नींव बहुत सतही है, इसलिए तुम लोगों को अंतर करने की समझ नहीं है। परमेश्वर अपने कार्य को दोहराता नहीं है, वह ऐसा कार्य नहीं करता जो वास्तविक न हो, वह मनुष्य से अत्यधिक अपेक्षाएँ नहीं रखता, और वह ऐसा कार्य नहीं करता जो मनुष्यों की समझ से परे हो। वह जो भी कार्य करता है, वह सब मनुष्य की सामान्य समझ के दायरे के भीतर होता है, और सामान्य मानवता की समझ से परे नहीं होता, और उसका कार्य मनुष्य की सामान्य अपेक्षाओं के अनुसार किया जाता है। यदि यह पवित्र आत्मा का कार्य होता है, तो लोग हमेशा से अधिक सामान्य बन जाते हैं, और उनकी मानवता हमेशा से अधिक सामान्य बन जाती है। लोग अपने शैतानी स्वभाव का, और मनुष्य के सार का बढ़ता हुआ ज्ञान प्राप्त करते हैं, और वे सत्य के लिए हमेशा से अधिक ललक भी प्राप्त करते हैं। अर्थात्, मनुष्य का जीवन अधिकाधिक बढ़ता जाता है और मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव बदलाव में अधिकाधिक सक्षम हो जाता है—जिस सबका अर्थ है परमेश्वर का मनुष्य का जीवन बनना। यदि कोई मार्ग उन चीजों को प्रकट करने में असमर्थ है जो मनुष्य का सार हैं, मनुष्य के स्वभाव को बदलने में असमर्थ है, और, इसके अलावा, लोगों को परमेश्वर के सामने लाने में असमर्थ है या उन्हें परमेश्वर की सच्ची समझ प्रदान करने में असमर्थ है, और यहाँ तक कि उसकी मानवता के हमेशा से अधिक निम्न होने और उसकी भावना के हमेशा से अधिक असामान्य होने का कारण बनता है, तो यह मार्ग सच्चा मार्ग नहीं होना चाहिए, और यह दुष्टात्मा का कार्य या पुराना मार्ग हो सकता है। संक्षेप में, यह पवित्र आत्मा का वर्तमान कार्य नहीं हो सकता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं
परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण में मनुष्य से तद्नुरूपी अपेक्षाएँ भी होती हैं। जो लोग पवित्र आत्मा की धारा के भीतर हैं, वे सभी पवित्र आत्मा की उपस्थिति और अनुशासन के अधीन हैं, और जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में नहीं हैं, वे शैतान के नियंत्रण में और पवित्र आत्मा के किसी भी कार्य से रहित हैं। जो लोग पवित्र आत्मा की धारा में हैं, वे वो लोग हैं जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करते हैं और उसमें सहयोग करते हैं। यदि इस मुख्य धारा में मौजूद लोग सहयोग करने में अक्षम रहते हैं और इस दौरान परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें अनुशासित किया जाएगा, और सबसे खराब बात यह होगी कि उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा त्याग दिया जाएगा। जो पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में जीएँगे और पवित्र आत्मा की देखभाल और सुरक्षा प्राप्त करेंगे। जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं, उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, और जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने के अनिच्छुक हैं, उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा अनुशासित किया जाता है, यहाँ तक कि उन्हें दंड भी दिया जा सकता है। चाहे वे किसी भी प्रकार के व्यक्ति हों, यदि वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के भीतर हैं, तो परमेश्वर उन सभी लोगों की ज़िम्मेदारी लेगा, जो उसके नाम की खातिर उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं। जो लोग उसके नाम को महिमामंडित करते हैं और उसके वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं, वे उसके आशीष प्राप्त करेंगे; जो लोग उसकी अवज्ञा करते हैं और उसके वचनों को अभ्यास में नहीं लाते, वे उसका दंड प्राप्त करेंगे। जो लोग पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं, वे वो लोग हैं जो नए कार्य को स्वीकार करते हैं, और चूँकि उन्होंने नए कार्य को स्वीकार कर लिया है, इसलिए उन्हें परमेश्वर के साथ उचित सहयोग करना चाहिए, और उन विद्रोहियों के समान कार्य नहीं करना चाहिए, जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते। यह मनुष्य से परमेश्वर की एकमात्र अपेक्षा है। यह उन लोगों के लिए नहीं है, जो नए कार्य को स्वीकार नहीं करते : वे पवित्र आत्मा की धारा से बाहर हैं, और पवित्र आत्मा का अनुशासन और फटकार उन पर लागू नहीं होते। पूरे दिन ये लोग देह में जीते हैं, अपने मस्तिष्क के भीतर जीते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह सब उनके अपने मस्तिष्क के विश्लेषण और अनुसंधान से उत्पन्न हुए सिद्धांत के अनुसार होता है। यह वह नहीं है, जो पवित्र आत्मा के नए कार्य द्वारा अपेक्षित है, और यह परमेश्वर के साथ सहयोग तो बिलकुल भी नहीं है। जो लोग परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं करते, वे परमेश्वर की उपस्थिति से वंचित रहते हैं, और, इससे भी बढ़कर, वे परमेश्वर के आशीषों और सुरक्षा से रहित होते हैं। उनके अधिकांश वचन और कार्य पवित्र आत्मा की पुरानी अपेक्षाओं को थामे रहते हैं; वे सिद्धांत हैं, सत्य नहीं। ऐसे सिद्धांत और विनियम यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि इन लोगों का एक-साथ इकट्ठा होना धर्म के अलावा कुछ नहीं है; वे चुने हुए लोग या परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य नहीं हैं। उनमें से सभी लोगों की सभा को मात्र धर्म का महासम्मेलन कहा जा सकता है, उन्हें कलीसिया नहीं कहा जा सकता। यह एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। उनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य नहीं है; जो कुछ वे करते हैं वह धर्म का द्योतक प्रतीत होता है, जैसा जीवन वे जीते हैं वह धर्म से भरा हुआ प्रतीत होता है; उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति और कार्य नहीं होता, और वे पवित्र आत्मा का अनुशासन या प्रबुद्धता प्राप्त करने के लायक तो बिलकुल भी नहीं हैं। ये समस्त लोग निर्जीव लाशें और कीड़े हैं, जो आध्यात्मिकता से रहित हैं। उन्हें मनुष्य की विद्रोहशीलता और विरोध का कोई ज्ञान नहीं है, मनुष्य के समस्त कुकर्मों का कोई ज्ञान नहीं है, और वे परमेश्वर के समस्त कार्य और परमेश्वर की वर्तमान इच्छा के बारे में तो बिलकुल भी नहीं जानते। वे सभी अज्ञानी, अधम लोग हैं, और वे कूडा-करकट हैं जो विश्वासी कहलाने के योग्य नहीं हैं! वे जो कुछ भी करते हैं, उसका परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य के साथ कोई संबंध नहीं है, और वह परमेश्वर के कार्य को बिगाड़ तो बिलकुल भी नहीं सकता। उनके वचन और कार्य अत्यंत घृणास्पद, अत्यंत दयनीय, और एकदम अनुल्लेखनीय हैं। जो लोग पवित्र आत्मा की धारा में नहीं हैं, उनके द्वारा किए गए किसी भी कार्य का पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ कोई लेना-देना नहीं है। इस वजह से, चाहे वे कुछ भी क्यों न करें, वे पवित्र आत्मा के अनुशासन से रहित होते हैं, और, इससे भी बढ़कर, वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से रहित होते हैं। कारण, वे सभी ऐसे लोग हैं, जिन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है, और जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत कर दिया गया है। उन्हें कुकर्मी कहा जाता हैं, क्योंकि वे देह के अनुसार चलते हैं, और परमेश्वर के नाम की तख्ती के नीचे जो उन्हें अच्छा लगता है, वही करते हैं। जब परमेश्वर कार्य करता है, तो वे जानबूझकर उसके प्रति शत्रुता रखते हैं और उसकी विपरीत दिशा में दौड़ते हैं। परमेश्वर के साथ सहयोग करने में मनुष्य की असफलता अपने आप में चरम रूप से विद्रोही है, इसलिए क्या वे लोग, जो जानबूझकर परमेश्वर के प्रतिकूल चलते हैं, विशेष रूप से अपना उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं करेंगे?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास
संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण :
यदि संपूर्ण धार्मिक समुदाय इसके प्रति शत्रुतापूर्ण और विरोध में नहीं होते, तो यह सत्य मार्ग नहीं होता। स्मरण रखें: सत्य मार्ग का अधिकांश लोगों द्वारा, यहाँ तक कि समस्त संसार द्वारा अवश्य विरोध किया जायेगा। जब प्रभु यीशु पहली बार कार्य करने और उपदेश देने आया, तो क्या समस्त यहूदीवादियों ने उसका विरोध नहीं किया था? हर बार जब भी परमेश्वर नया काम आरंभ करता है, तो भ्रष्ट मानवजाति को इसे स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई होती है, क्योंकि परमेश्वर का कार्य मनुष्यों की धारणाओं के असंगत होता है और उनका खण्डन करता है; लोगों में समझने की क्षमता का अभाव है, और आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने में अक्षम हैं, और यदि यह पवित्र आत्मा के कार्य के लिए नहीं होता, तो वे सच्चे मार्ग को स्वीकार करने में असमर्थ होते। यदि इसे परमेश्वर का काम मान लिया जाता, किन्तु धार्मिक समुदाय द्वारा उसका विरोध नहीं किया जाता, और संसार की ओर से विरोध और शत्रुता का अभाव होता, तो इससे साबित होता कि परमेश्वर का कार्य झूठा है। मानवजाति सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ क्यों है? सबसे पहले, मनुष्य देह का है, वह भौतिक सार वाला है। भौतिक वस्तुएँ आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने में असमर्थ हैं। "आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने में असमर्थ" का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, आत्माओं को, आत्माओं और आध्यात्मिक क्षेत्र की गतिविधियों को देखने में असमर्थ होना, परमेश्वर क्या कर और कह रहा है वह अनदेखा रह जाना। लोग आध्यात्मिक क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है प्रति अंधे हो जाएँगे। भौतिक जगत में लोग केवल ठोस चीज़ों को देखते हैं। तुम नहीं देख सकते कि कौन सी आत्मा लोगों में क्या करती है या देख सकते कि परमेश्वर का आत्मा क्या करने और कहने आया है। कभी-कभी तुम्हें उसकी आवाज सुनाई दे सकती है, लेकिन तुम नहीं जानते कि यह कहाँ से आती है; तुम पुस्तक से परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकते हो, पर फिर भी तुम नहीं जानते हो कि परमेश्वर ने कैसे या कब इन वचनों को कहा, या कि उनका अर्थ क्या है। लोग आध्यात्मिक क्षेत्र में घुसने, या परमेश्वर के वचनों के स्रोत को समझने में असमर्थ हैं, और इसलिए सत्य को समझने के लिए उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्धता और रोशनी, और पवित्र आत्मा के कार्य की आवश्यकता है। दूसरा, मानवजाति बहुत गहराई तक भ्रष्ट है, उसके भीतर शैतान का बहुत सा विष और बहुत सा ज्ञान भरा हुआ है, यदि वह हर चीज का मूल्यांकन शैतान की विभिन्न दार्शनिकताओं और उसके ज्ञान का उपयोग करके करता है, तो वह कभी भी यह स्थापित करने में समर्थ नहीं होगा कि सत्य क्या है। पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्धता और रोशनी के बिना मनुष्य सत्य को समझने में अक्षम होगा। और इसलिए सच्चे मार्ग को अपरिहार्य रूप में मनुष्य के उत्पीड़न और अस्वीकरण के अधीन किया जाता है। मनुष्य के लिए शैतान के ज्ञान और उसकी दार्शनिकता को स्वीकार करना क्यों आसान है? सबसे पहले, क्योंकि यह उनकी धारणाओं और उनके देह के हितों के अनुरूप है, और यह उनकी देह के लिए लाभदायक है। वे अपने आप से कहते हैं कि, "इस तरह के ज्ञान को स्वीकार करना मेरी सहायता करता है: यह मेरी उन्नति करवाएगा, यह मुझे सफल बनाएगा, और मुझे वस्तुओं को प्राप्त करने की अनुमति देगा। इस तरह के ज्ञान के साथ लोग मेरी ओर देखेंगे।" जिन बातों से लोगों लाभ मिलता है वे उनकी धारणाओं के अनुरूप हैं। ... इस हद तक भ्रष्ट हो जाने और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने में असमर्थ हो जाने पर, लोग केवल परमेश्वर का विरोध ही कर सकते हैं, और इस प्रकार परमेश्वर के कार्य को मनुष्य का अस्वीकरण, विरोध और निंदा ही मिली है। यह सामान्य है। यदि परमेश्वर के काम को संसार और मानवजाति की ओर से निंदा और विरोध नहीं मिला होता, तो इससे यह साबित होता कि यह सत्य नहीं है। यदि परमेश्वर द्वारा कही गई सब बातें लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती, तो क्या वे उसकी भर्त्सना करते? क्या वे उसका विरोध करते? वे निश्चित रूप से नहीं करते।
—ऊपर से संगति
कलीसिया उनसे बनती है जो परमेश्वर के द्वारा सचमुच पूर्वनियत और चयन किए जा चुके हैं—यह उनसे बनती है जो सत्य से प्रेम करते हैं, सत्य की खोज करते हैं, और पवित्र आत्मा के काम से संपन्न हैं। केवल जब ऐसे लोग परमेश्वर के वचन को खाने और पीने, कलीसियाई जीवन जीने, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, और परमेश्वर के प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए एकत्रित होते हैं तभी यह एक कलीसिया हो सकती है। यदि एक जमावड़ा कहता है कि वह सचमुच परमेश्वर पर विश्वास और प्रार्थना करता है और परमेश्वर के वचन पढ़ता है, किन्तु सत्य से प्रेम या सत्य की खोज नहीं करता है, और पवित्र आत्मा के कार्य से रहित है, और धार्मिक रीति-रिवाजों, करता है, तो वह कलीसिया नहीं है। अधिक सटीकता से, पवित्र आत्मा के कार्य से रहित कलीसियाएँ कलीसियाएँ नहीं हैं; वे केवल धार्मिक स्थल हैं और ऐसे लोग हैं जो धार्मिक समारोह करते हैं। वे वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाले और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने वाले लोग नहीं हैं। ...
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... कलीसिया उन लोगों का समूह है जो परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं, और उनमें कोई भी दुष्ट नहीं होता है—वे कलीसिया से संबंधित नहीं होते हैं। यदि ऐसे लोगों का एक समूह एक साथ इकट्ठा होता है जिन्होंने सत्य की खोज नहीं की और सत्य को अभ्यास में लाने के लिए कुछ नहीं किया, तो यह कलीसिया नहीं होगी। यह एक धार्मिक स्थल या कोई जमावड़ा होगा। कलीसिया अवश्य ऐसे लोगों से बनी होनी चाहिए जो परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं, जो लोग परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, और परमेश्वर की आराधना करते हैं, अपने कर्तव्य को करते हैं, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त कर चुके हैं। केवल यही एक कलीसिया है। इस प्रकार, जब तुम कलीसिया का मूल्यांकन करते हो कि यह वास्तविक कलिसिया है या नहीं, तो तुम्हें सबसे पहले यह अवश्य देखना चाहिए कि उसमें किस प्रकार के लोग हैं। दूसरा, तुम्हें अवश्य देखना चाहिए कि उनमें पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं; यदि उनकी सभा पवित्र आत्मा के कार्य से रहित है, तो वह कलीसिया नहीं है, और यदि यह उन लोगों का जनसमूह नहीं है जो सत्य की खोज करते हैं, तो यह कलीसिया नहीं है। यदि किसी कलीसिया में एक भी ऐसा नहीं है जो सचमुच सत्य की खोज करता है, तो यह कलीसिया पवित्र आत्मा के कार्य से रहित है, यदि इसमें कोई व्यक्ति हो जो सत्य की खोज करना चाहता हो, और वह ऐसी कलीसिया में बना रहता है, तो उस व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता है। उन्हें उस जमावड़े को छोड़ देना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके किसी कलीसिया को ढूँढना चाहिए। यदि, किसी कलीसिया के भीतर, तीन या पाँच ऐसे लोग हों जो सत्य की खोज करते हों, और 30 या 50 ऐसे लोग हों जो केवल जमावड़ा हों, तो उन तीन या पाँच लोगों को जो परमेश्वर पर वास्तव में विश्वास करते हैं और सत्य की खोज करते हैं एक साथ इकट्ठा हो जाना चाहिए; यदि वे एक साथ एकत्रित हो जाते हैं तो उनका जनसमूह तब भी एक कलीसिया, बहुत कम सदस्यों वाली एक कलीसिया है, किन्तु जो शुद्ध है।
—जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति
धार्मिक जगत के अगुवों और पादरियों ने परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया है, न ही वे पवित्र आत्मा के द्वारा पूर्ण किए या बनाए गए हैं, बल्कि इसके बजाय वे किसी शिक्षालय से स्नातक होने और डिप्लोमा दिए जाने के बाद धार्मिक समुदाय में अगुवे या पादरी बन गये हैं। उनमें पवित्र आत्मा के कार्य और पुष्टि के बिना हैं, उनके पास परमेश्वर का जरा सा भी सच्चा ज्ञान नहीं है, और उनके मुँह केवल आध्यात्मविद्या संबंधी का ज्ञान और सिद्धांतों के अलावा और कुछ नहीं बोल सकते हैं। उन्होंने वास्तव में कुछ भी अनुभव नहीं किया है। ऐसे लोग परमेश्वर के द्वारा उपयोग किये जाने के सर्वथा अयोग्य है; वे कैसे परमेश्वर के सामने लोगों की अगुवाई कर सकते हैं? वे अपनी पात्रता के साक्ष्य के रूप में शिक्षालय से प्राप्त स्नातकता को दर्शाते हैं, वे बाइबल के अपने ज्ञान पर इठलाने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, करते हैं, वे असह्य रूप से अभिमानी हैं—और इस कारण से, परमेश्वर द्वारा उनकी निंदा की जाती है, और परमेश्वर द्वारा उनसे घृणा की जाती है, और ये पवित्र आत्मा का कार्य खो चुके हैं। इस बारे में कोई संदेह नहीं है। क्यों धार्मिक समुदाय मसीह का प्राणघातक शत्रु बन गया है एक बहुत विचारोत्तेजक प्रश्न है। क्या यह इस बात को दर्शाता है कि, अनुग्रह के युग में, यहूदीवादियों ने प्रभु यीशु मसीह को सलीब पर चढ़ाया था? अंत के दिनों के राज्य के युग में धार्मिक समुदाय ने एकता बनाई है और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य का विरोध और आलोचना करने में पूरे प्रयास समर्पित किए, यह अंत के दिनों में मसीह के देहधारण को इनकार और अस्वीकृत करता है, इसने देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर की कलीसिया के बारे में बहुत सी अफवाहें बनाई, और इनके विरुद्ध आक्रमण किए, इनका तिरस्कार किया, और ईशनिंदा की है, और इसने बहुत पहले ही लौटकर आये, अंत के दिनों के मसीह, यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया है। यह प्रमाणित करता है कि धार्मिक समुदाय बहुत पहले से ही शैतान की सेनाओं में पतित हो चुका है जो परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करती हैं। धार्मिक समुदाय परमेश्वर के द्वारा शासित नहीं होता है, और यह सत्य के द्वारा तो बिल्कुल भी शासित नहीं होता है; वह पूरी तरह से भ्रष्ट मानवों, और उससे भी अधिक मसीह के विरोधियों के द्वारा शासित होता है।
जब लोग परमेश्वर पर इस तरह के—एक ऐसे जो शैतान से संबंधित है और दुष्टात्माओं तथा महीस के विरोधियों के द्वारा शासित और नियंत्रित होती है—धार्मिक स्थलों में विश्वास करते हैं तो वे केवल धार्मिक सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते है, वे केवल धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों का पालन कर सकते हैं, और वे कभी भी सत्य को नहीं समझेंगे, परमेश्वर के काम का अनुभव नहीं करेंगे, और बचाए जाने में सर्वथा अक्षम हैं। क्योंकि धार्मिक स्थलों में पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में कुछ भी नहीं है, और ये ऐसे स्थान हैं जो परमेश्वर को अप्रिय हैं, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, और जिन्हें परमेश्वर निंदित और श्रापित करता है। परमेश्वर ने धर्म को कभी भी मान्यता नहीं दी, इसकी प्रशंसा को कभी भी बिल्कुल नहीं की है, और प्रभु यीशु के समय से ही धार्मिक समुदाय की परमेश्वर द्वारा निंदा की गई है। इसलिए, जब तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो तो तुम्हें उन स्थानों को अवश्य खोजना चाहिए जो पवित्र आत्मा के कार्य से युक्त हों; केवल ये ही सच्ची कलीसिया हैं, और केवल सच्ची कलीसियाओं में ही तुम परमेश्वर की वाणी को सुनने, और परमेश्वर के कार्य के पदचिह्नों को खोजने में समर्थ होगे। यही वे साधन हैं जिनके द्वारा परमेश्वर की खोज की जाती है।
—ऊपर से संगति