10.1. परमेश्वर में आस्था होना क्या है, इसे उजागर करने पर वचन

331. यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यद्यपि लोग "परमेश्वर" शब्द और "परमेश्वर का कार्य" जैसे वाक्यांशों से परिचित हैं, लेकिन वे परमेश्वर को नहीं जानते और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे सभी, जो परमेश्वर को नहीं जानते, उसमें अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहते हैं। लोग परमेश्वर में विश्वास करनेको गंभीरता से नहीं लेते और यह सर्वथा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करना उनके लिए बहुत अनजाना, बहुत अजीब है। इस प्रकार वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर और उसके कार्य को नहीं जानते, तो वे उसके इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उसकी इच्छा पूरी करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं। "परमेश्वर में विश्वास" का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है: इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही "परमेश्वर में विश्वास" कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दशः और खोखले सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें: क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना

332. आज परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपनी जीवन-वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट कहूँ तो : परमेश्वर में विश्वास इसलिए है, ताकि तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सको, उससे प्रेम कर सको, और वह कर्तव्य निभा सको, जिसे परमेश्वर के एक प्राणी द्वारा निभाया जाना चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर की मनोहरता का और इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य है, कैसे अपने द्वारा सृजित प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—ये परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की एकदम अनिवार्य चीज़ें हैं। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह-उन्मुख जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है; भ्रष्टता के भीतर जीने से परमेश्वर के वचनों के जीवन के भीतर जीना है; यह शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीना है; यह देह की आज्ञाकारिता को नहीं, बल्कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता को प्राप्त करने में समर्थ होना है; यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने और तुम्हें पूर्ण बनाने देना है, और तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से मुक्त करने देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इसलिए है, ताकि परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा पर चल सको, और परमेश्वर की योजना संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेत और चमत्कार देखने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की कोशिश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही परमेश्वर में विश्वास करने के मुख्य उद्देश्य हैं। व्यक्ति परमेश्वर के वचन को परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाता और पीता है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, जिसके बाद ही तुम उसका आज्ञा-पालन कर सकते हो। केवल परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और यह वह लक्ष्य है, जिसे मनुष्य को परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में रखना चाहिए। यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम सदैव संकेत और चमत्कार देखने का प्रयास कर रहे हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप से परमेश्वर के वचन को जीवन-वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। परमेश्वर का उद्देश्य उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाने और उन्हें अपने भीतर पूरा करने से हासिल किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने में मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता के लिए प्रयास करना चाहिए। यदि तुम बिना शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की इच्छाओं के प्रति विचारशील हो सकते हो, पतरस का आध्यात्मिक कद प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली ग्रहण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुम परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर चुके होगे, और यह इस बात का द्योतक होगा कि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है

333. क्योंकि यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम्हें उसके वचन को खाना-पीना चाहिए, उसका अनुभव करना चाहिए और उसे जीना चाहिए। केवल यही परमेश्वर पर विश्वास करना है! यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, परंतु उसके किसी वचन पर अमल नहीं कर सकते या वास्तविकता उत्पन्न नहीं कर सकते तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। ऐसा करना "भूख शांत करने के लिए रोटी की खोज" करने जैसा है। बिना किसी वास्तविकता के केवल छोटी-छोटी बातों की गवाही, अनुपयोगी और सतही मामलों पर बातें करना, परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं है, और तुमने बस परमेश्वर पर विश्वास करने के सही तरीके को नहीं समझा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को क्यों अधिक से अधिक खाना-पीना चाहिए? यदि तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं और केवल स्वर्ग की ऊँचाई चढ़ना चाहते हो तो क्या यह विश्वास माना जाएगा? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले का पहला कदम क्या होता है? परमेश्वर किस मार्ग से मनुष्य को पूर्ण बनाता है? क्या परमेश्वर के वचन को बिना खाए-पिए तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो? क्या परमेश्वर के वचन को बिना अपनी वास्तविकता बनाए, तुम परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति माने जा सकते हो? परमेश्वर में विश्वास रखना वास्तव में क्या है? परमेश्वर में विश्वास रखने वालों का कम-से-कम बाहरी तौर पर आचरण अच्छा होना चाहिए; और सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन के अधीन रहना। किसी भी परिस्थिति में तुम उसके वचन से विमुख नहीं होगे। परमेश्वर को जानना और उसकी इच्छा को पूरा करना, सब उसके वचन के द्वारा हासिल किया जाता है। सभी देश, संप्रदाय, धर्म और प्रदेश भी भविष्य में वचन के द्वारा जीते जाएँगे। परमेश्वर सीधे बात करेगा, सभी लोग अपने हाथों में परमेश्वर का वचन थामकर रखेंगे; इसके द्वारा लोग पूर्ण बनाए जाएँगे। परमेश्वर का वचन सब तरफ फैलता जाएगा : इंसान परमेश्वर के वचन बोलेगा, परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करेगा, और अपने हृदय में परमेश्वर का वचन रखेगा, भीतर और बाहर पूरी तरह परमेश्वर के वचन में डूबा रहेगा। इस प्रकार मानवजाति को पूर्ण बनाया जाएगा। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने वाले और उसकी गवाही देने में सक्षम लोग वे हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को वास्तविकता के रूप में अपनाया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

334. आज, व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करने के लिए तुम्हें सही रास्ते पर कदम रखना होगा। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें सिर्फ़ परमेश्वर के आशीष की ही कामना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर को जानने की कोशिश भी करनी चाहिए। परमेश्वर द्वारा प्रबुद्धता प्राप्त कर और अपनी व्यक्तिगत खोज के माध्यम से, तुम उसके वचनों को खा और पी सकते हो, परमेश्वर के बारे में सच्ची समझ विकसित कर सकते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति एक सच्चा प्रेम अपने हृदयतल से आता महसूस कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम बेहद सच्चा हो, और इसे कोई नष्ट नहीं कर सके या उसके लिए तुम्हारे प्रेम के मार्ग में कोई खड़ा नहीं हो सके, तब तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में सही रास्ते पर हो। यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर के हो, क्योंकि तुम्हारे हृदय पर परमेश्वर द्वारा कब्जा कर लिया गया है और अब कोई भी दूसरी चीज तुम पर कब्जा नहीं कर सकती है। तुम अपने अनुभव, चुकाए गए मूल्य, और परमेश्वर के कार्य के माध्यम से, परमेश्वर के लिए एक स्वेच्छापूर्ण प्रेम विकसित करने में समर्थ हो जाते हो। फिर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त हो जाते हो और परमेश्वर के वचन के प्रकाश में जीने लग जाते हो। तुम अंधकार के प्रभाव को तोड़ कर जब मुक्त हो जाते हो, केवल तभी यह माना जा सकता है कि तुमने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है। परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में, तुम्हें इस लक्ष्य की खोज की कोशिश करनी चाहिए। यह हर एक व्यक्ति का कर्तव्य है। किसी को भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति दुविधा में नहीं रह सकते, और न ही इसे हल्के में ले सकते हो। तुम्हें हर तरह से और हर समय परमेश्वर के बारे में विचार करना चाहिए, और उसके लिए सब कुछ करना चाहिए। जब तुम कुछ बोलते या करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के हितों को सबसे पहले रखना चाहिए। ऐसा करने से ही तुम परमेश्वर के हृदय को पा सकते हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है

335. तुम सोच सकते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने के बारे में है, या उसके लिए कई चीजें करना है; शायद तुम सोचो कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शान्ति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी ज़िन्दगी में सब कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो, सब कुछ में सहज रहो। परन्तु इनमें से कोई भी ऐसा उद्देश्य नहीं है जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। यदि तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है और तुम्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता है। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता, इन सभी बातों को मनुष्यों को अवश्य समझना चाहिए। इस समझ को पा लेने के बाद तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय के व्यक्तिगत अनुरोधों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा पाने के लिए करना चाहिए। केवल इन्हें दूर करके ही तुम परमेश्वर के द्वारा माँग की गई शर्तों को पूरा कर सकते हो। केवल ऐसा करने के माध्यम से ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करना उसे संतुष्ट करने के वास्ते और उस स्वभाव को जीने के लिए है जो वह अपेक्षा करता है, ताकि इन अयोग्य लोगों के समूह के माध्यम से परमेश्वर के कार्यकलाप और उसकी महिमा प्रदर्शित हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए यही सही दृष्टिकोण है और यह वो लक्ष्य भी है जिसे तुम्हें खोजना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने की आवश्यकता है, और तुम्हें सत्य को जीने, और विशेष रूप से उसके व्यवहारिक कर्मों को देखने, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यवहारिक कार्य को देखने में सक्षम होना चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों के द्वारा, लोग इस बात की सराहना कर सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है, उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। यह सब लोगों के भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर करने के लिए है। अपने भीतर की सारी अशुद्धता और अधार्मिकता बाहर निकाल देने, अपने गलत इरादों को निकाल फेंकने, और परमेश्वर में सच्चा विश्वास उत्पन्न करने के बाद—केवल सच्चे विश्वास के साथ ही तुम परमेश्वर को सच्चा प्रेम कर सकते हो। तुम केवल अपने विश्वास की बुनियाद पर ही परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास किए बिना उसके प्रति प्रेम को प्राप्त कर सकते हो? चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम इसके बारे में नासमझ नहीं हो सकते हो। कुछ लोगों में जोश भर जाता है जैसे ही वे देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना उनके लिए आशीषें लाएगा, परन्तु सम्पूर्ण ऊर्जा को खो देते हैं जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शुद्धिकरणों को सहना पड़ेगा। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंतत:, अपने विश्वास में परमेश्वर के सामने तुम्हें पूर्ण और अतिशय आज्ञाकारिता हासिल करनी होगी। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परन्तु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक अवधारणाएँ हैं जिन्हें तुम छोड़ नहीं सकते हो, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम त्याग नहीं सकते हो, और तब भी देह की आशीषों को खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे—ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों के व्यवहार हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, तब भी वे अपने स्वभाव को बदलने का प्रयास नहीं करते हैं, परमेश्वर के बारे में ज्ञान की खोज नहीं करते हैं, और केवल अपने देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम में से कई लोगों के विश्वास ऐसे हैं जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी से सम्बन्धित हैं। यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों के पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे इन दो शर्तों को पूरा नहीं करते हैं तब तक परमेश्वर पर उनका विश्वास मान्य नहीं है, और वे स्वभाव में परिवर्तनों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। केवल वे लोग जो वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर के बारे में ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

336. मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को देखा है। उनके विश्वास ने परमेश्वर को उनके मन में क्या आकार दिया है? कुछ लोग तो परमेश्वर में ऐसे विश्वास करते हैं मानो वह मात्र हवाबाज़ी हो। इन लोगों के पास परमेश्वर के अस्तित्व के प्रश्नों के बारे में कोई उत्तर नहीं होता क्योंकि वे परमेश्वर की उपस्थिति या अनुपस्थिति को महसूस नहीं कर पाते, न ही उसका बोध कर पाते हैं, इसे साफ-साफ देखने या समझने की तो बात ही छोड़ दो। अवचेतन रूप से, ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। कुछ लोग परमेश्वर को मनुष्य समझते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन सभी कार्यों को करने में असमर्थ है जिन्हें करने में वे भी असमर्थ हैं, और परमेश्वर को वैसा ही सोचना चाहिए जैसा वे सोचते हैं। उनकी परमेश्वर की परिभाषा एक "अदृश्य और अस्पर्शनीय व्यक्ति" की है। कुछ लोग परमेश्वर को कठपुतली समझते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर के अंदर कोई भावनाएँ नहीं होतीं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर मिट्टी की एक मूर्ति है, और जब कोई समस्या आती है, तो परमेश्वर के पास कोई प्रवृत्ति, कोई दृष्टिकोण, कोई विचार नहीं होता; वे मानते हैं कि वह मानवजाति की दया पर है। जो दिल चाहे लोग उस पर विश्वास कर लेते हैं। यदि वे उसे महान बनाते हैं, तो वह महान हो जाता है; वे उसे छोटा बनाते हैं, तो वह छोटा हो जाता है। जब लोग पाप करते हैं और उन्हें परमेश्वर की दया, सहिष्णुता और प्रेम की आवश्यकता होती है, वे मानते हैं कि परमेश्वर को अपनी दया प्रदान करनी चहिए। ये लोग अपने मन में एक "परमेश्वर" को गढ़ लेते हैं, और फिर उस "परमेश्वर" से अपनी माँगें पूरी करवाते हैं और अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करवाते हैं। ऐसे लोग कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करें, वे परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में, और परमेश्वर में अपने विश्वास में इसी कल्पना का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी होते हैं, जो परमेश्वर के स्वभाव को भड़काकर भी सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें बचा सकता है, क्योंकि वे मानते हैं कि परमेश्वर का प्रेम असीम है, उसका स्वभाव धार्मिक है, चाहे कोई परमेश्वर का कितना भी अपमान करे, परमेश्वर कुछ याद नहीं रखेगा। उन्हें लगता है चूँकि मनुष्य के दोष, अपराध, और उसकी अवज्ञा इंसान के स्वभाव की क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, इसलिए परमेश्वर लोगों को अवसर देगा, और उनके साथ सहिष्णु एवं धैर्यवान रहेगा; परमेश्वर तब भी उनसे पहले की तरह प्रेम करेगा। अतः वे अपने उद्धार की आशा बनाए रखते हैं। वास्तव में, चाहे कोई व्यक्ति परमेश्वर पर कैसे भी विश्वास करे, अगर वह सत्य की खोज नहीं करता, तो परमेश्वर उसके प्रति नकारात्मक प्रवृत्ति रखेगा। क्योंकि जब तुम परमेश्वर पर विश्वास कर रहे होते हो उस समय, भले ही तुम परमेश्वर के वचन की पुस्तक को संजोकर रखते हो, तुम प्रतिदिन उसका अध्ययन करते हो, उसे पढ़ते हो, फिर भी तुम वास्तविक परमेश्वर को दरकिनार कर देते हो। तुम उसे निरर्थक मानते हो, या मात्र एक व्यक्ति मानते हो, और तुममें से कुछ तो उसे केवल एक कठपुतली ही समझते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जिस प्रकार से मैं इसे देखता हूँ, उसमें चाहे तुम लोगों का सामना किसी मसले से हो या किसी परिस्थिति से, वे बातें जो तुम्हारे अवचेतन मन में मौजूद होती हैं, जिन बातों को तुम भीतर ही भीतर विकसित करते हो, उनमें से किसी का भी संबंध परमेश्वर के वचन से या सत्य की खोज करने से नहीं होता। तुम केवल वही जानते हो जो तुम स्वयं सोच रहे होते हो, जो तुम्हारा अपना दृष्टिकोण होता है, और फिर तुम अपने विचारों, और दृष्टिकोण को ज़बरदस्ती परमेश्वर पर थोप देते हो। तुम्हारे मन में वह परमेश्वर का दृष्टिकोण बन जाता है, और तुम इस दृष्टिकोण को मानक बना लेते हो जिसे तुम दृढ़ता से कायम रखते हो। समय के साथ, इस प्रकार का चिंतन तुम्हें परमेश्वर से निरंतर दूर करता चला जाता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

337. तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? अधिकांश लोग इस प्रश्न से हैरान हैं। उनके पास व्यावहारिक परमेश्वर और स्वर्ग के परमेश्वर के बारे में हमेशा से दो बिल्कुल भिन्न दृष्टिकोण रहे हैं, जो दिखाता है कि वे आज्ञापालन के लिए नहीं, बल्कि कुछ निश्चित लाभ प्राप्त करने या आपदा के साथ आने वाली तकलीफ़ से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं; केवल तभी वे थोड़े-बहुत आज्ञाकारी होते हैं। उनकी आज्ञाकारिता सशर्त है, यह उनकी व्यक्तिगत संभावनाओं की गरज़ से है, और उन पर जबरदस्ती थोपी गई है। तो, तुम परमेश्वर में विश्वास आखिर क्यों करते हो? यदि यह केवल तुम्हारी संभावनाओं, और तुम्हारे प्रारब्ध के लिए है, तो बेहतर यही होता कि तुम विश्वास ही न करते। इस प्रकार का विश्वास आत्म-वंचना, आत्म-आश्वासन और आत्म-प्रशंसा है। यदि तुम्हारा विश्वास परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की नींव पर आधारित नहीं है, तो तुम्हें उसका विरोध करने के लिए अंततः दण्डित किया जाएगा। वे सभी जो अपने विश्वास में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की खोज नहीं करते, उसका विरोध करते हैं। परमेश्वर कहता है कि लोग सत्य की खोज करें, वे उसके वचनों के प्यासे बनें, उसके वचनों को खाएँ-पिएँ और उन्हें अभ्यास में लाएँ, ताकि वे परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी बन सकें। यदि ये तुम्हारी सच्ची मंशाएँ हैं, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें उन्नत करेगा और तुम्हारे प्रति अनुग्रही होगा। कोई भी न तो इस पर संदेह कर सकता है और न ही इसे बदल सकता है। यदि तुम्हारी मंशा परमेश्वर के आज्ञापालन की नहीं है और तुम्हारे उद्देश्य दूसरे हैं, तो जो कुछ भी तुम कहते और करते हो—परमेश्वर के सामने तुम्हारी प्रार्थनाएँ, यहाँ तक कि तुम्हारा प्रत्येक कार्यकलाप भी परमेश्वर के विरोध में होगा। तुम भले ही मृदुभाषी और सौम्य हो, तुम्हारा हर कार्यकलाप और अभिव्यक्ति उचित दिखायी दे, और तुम भले ही आज्ञाकारी प्रतीत होते हो, किन्तु जब परमेश्वर में विश्वास के बारे में तुम्हारी मंशाओं और विचारों की बात आती है, तो जो भी तुम करते हो वह परमेश्वर के विरोध में होता है, वह बुरा होता है। जो लोग भेड़ों के समान आज्ञाकारी प्रतीत होते हैं, परन्तु जिनके हृदय बुरे इरादों को आश्रय देते हैं, वे भेड़ की खाल में भेड़िए हैं। वे सीधे-सीधे परमेश्वर का अपमान करते हैं, और परमेश्वर उन में से एक को भी नहीं छोड़ेगा। पवित्र आत्मा उन में से एक-एक को प्रकट करेगा और सबको दिखाएगा कि पवित्र आत्मा उन सभी से, जो पाखण्डी हैं, निश्चित रूप से घृणा करेगा और उन्हें ठुकरा देगा। चिंता नहीं : परमेश्वर बारी-बारी से उनमें से एक-एक से निपटेगा और उनका हिसाब करेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए

338. परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में लोगों का सबसे बड़ा दोष यह है कि उनका विश्वास केवल शाब्दिक होता है, और परमेश्वर उनके रोजमर्रा के जीवन से पूरी तरह अनुपस्थित होता है। दरअसल सभी लोग परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास तो करते हैं, लेकिन परमेश्वर उनके दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं होता। परमेश्वर से बहुत सारी प्रार्थनाएँ लोग अपने मुख से तो करते हैं, किन्तु उनके हृदय में परमेश्वर के लिए जगह बहुत थोड़ी होती है, और इसलिए परमेश्वर बार-बार मनुष्य की परीक्षा लेता है। चूँकि मनुष्य अशुद्ध है, इसलिए परमेश्वर के पास मनुष्य की परीक्षा लेने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है, ताकि वह शर्मिंदगी महसूस करे और इन परीक्षाओं से गुजरते हुए स्वयं को पहचान ले। अन्यथा, मानवजाति प्रधान दूत की वंशज बन जाएगी, और निरंतर और भ्रष्ट होती जाएगी। परमेश्वर में अपने विश्वास की प्रक्रिया में, हर व्यक्ति अपने बहुत सारे व्यक्तिगत इरादे और उद्देश्य छोड़ता चलता है, जैसे-जैसे वह परमेश्वर के निरंतर शुद्धिकरण से गुजरता है। अन्यथा, परमेश्वर के पास किसी भी व्यक्ति को उपयोग में लाने का कोई रास्ता नहीं होगा, और न ही वह लोगों के लिए अपेक्षित कार्य ही कर पाएगा। परमेश्वर सबसे पहले मनुष्य को शुद्ध करता है। इस प्रक्रिया में, मनुष्य स्वयं को जान सकता है, और परमेश्वर मनुष्य को बदल सकता है। इसके बाद ही परमेश्वर मनुष्य को उसके जीवन में अपनी उपस्थिति का बोध कराता है, और सिर्फ़ इसी ढंग से मनुष्य के हृदय को पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मोड़ा जा सकता है। इसलिए, मैं कहता हूं कि परमेश्वर में विश्वास करना इतना आसान नहीं है जितना कि लोग कहते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में, यदि तुम्हारे पास सिर्फ़ ज्ञान है किन्तु जीवन के रूप में उसका वचन नहीं है; यदि तुम केवल स्वयं के ज्ञान तक ही सीमित हो, और सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते या परमेश्वर के वचन को जी नहीं सकते, तो यह भी एक प्रमाण है कि तुम्हारे पास परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय नहीं है, और यह दर्शाता है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करके ही उसे जाना जा सकता है : यह अंतिम लक्ष्य है, मनुष्य की तलाश का अंतिम लक्ष्य। तुम्हें परमेश्वर के वचन को जीने का प्रयास करना चाहिए ताकि अपने अभ्यास में तुम्हें उनकी अनुभूति हो सके। यदि तुम्हारे पास सिर्फ़ सैद्धांतिक ज्ञान है, तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास बेकार हो जाएगा। यदि तुम इसे अभ्यास में लाते हो और उसके वचन को जीते हो तभी तुम्हारा विश्वास पूर्ण और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप माना जाएगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है

339. तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और इसलिए अपने ह्रदय में तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना ही चाहिए। तुम्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव जरूर छोड़ देना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति की खोज अवश्य करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना ही चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तुम्हें अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या माँगें नहीं करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति करनी चाहिए। चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु का आज्ञापालन करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर स्वाभाविक कोई प्रभुत्व नहीं है, और स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। चूँकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, इसलिए तुम्हें पवित्रता और परिवर्तन की खोज करनी चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर के सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, और अपनी स्थिति के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए, और तुम्हें अपने कर्तव्य का अतिक्रमण कदापि नहीं करना चाहिए। यह तुम्हें सिद्धांत के माध्यम से बाध्य करने, या तुम्हें दबाने के लिए नहीं है, बल्कि इसके बजाय यह वह पथ है जिसके माध्यम तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हो, और यह उन सभी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है—और प्राप्त किया जाना चाहिए—जो धार्मिकता का पालन करते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

340. परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास की सबसे मूलभूत आवश्यकता यह है कि उसका हृदय ईमानदार हो, और वह स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दे, और सच्चे अर्थ में आज्ञापालन करे। मनुष्य के लिए सबसे कठिन है सच्चे विश्वास के बदले अपना संपूर्ण जीवन प्रदान करना, जिसके माध्यम से वह समूचा सत्य प्राप्त कर सकता है, और परमेश्वर का सृजित प्राणी होने के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकता है। यह वह है जो उन लोगों द्वारा अप्राप्य है जो विफल रहते हैं, और उन लोगों द्वारा तो और भी अधिक अप्राप्य है जो मसीह को पा नहीं सकते हैं। चूँकि मनुष्य परमेश्वर के प्रति स्वयं को पूर्णतः समर्पित करने में निपुण नहीं है; चूँकि मनुष्य सृष्टिकर्ता के प्रति अपना कर्तव्य निभाने का अनिच्छुक है, चूँकि मनुष्य ने सत्य देखा तो है किंतु उसे अनदेखा करता है और स्वयं अपने पथ पर चलता है, चूँकि मनुष्य हमेशा उन लोगों के पथ का अनुसरण करते हुए तलाश करता है जो विफल हो चुके हैं, चूँकि मनुष्य हमेशा स्वर्ग की अवज्ञा करता है, इसलिए मनुष्य हमेशा विफल होता है, हमेशा शैतान के छल-कपट के झाँसे में आ जाता है, और स्वयं अपने जाल में फँस जाता है। चूँकि मनुष्य मसीह को नहीं जानता है, चूँकि मनुष्य सत्य को समझने और अनुभव करने में पारंगत नहीं है, चूँकि मनुष्य पौलुस की बहुत अधिक आराधना के भाव से और स्वर्ग की अत्यधिक लालसा से परिपूर्ण है, चूँकि मनुष्य हमेशा माँग करता रहता है कि मसीह उसकी आज्ञा माने और परमेश्वर को जहाँ-तहाँ आदेश देता रहता है, इसलिए वे महान हस्तियाँ और वे लोग जिन्होंने संसार के उतार-चढ़ावों का अनुभव किया है अब भी नश्वर हैं, और परमेश्वर की ताड़ना के बीच अब भी मरते हैं। ऐसे लोगों के विषय में मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि वे एक दुखद मौत मरते हैं, और उनका यह परिणाम—उनकी मृत्यु—औचित्य से रहित नहीं है। क्या उनकी विफलता स्वर्ग की व्यवस्था के लिए और भी अधिक असहनीय नहीं है? सत्य मनुष्य के संसार से आता है, किंतु मनुष्य के बीच सत्य मसीह द्वारा लाया जाता है। यह मसीह से, अर्थात् स्वयं परमेश्वर से उत्पन्न होता है, और यह कुछ ऐसा नहीं है जिसमें मनुष्य समर्थ हो। फिर भी मसीह सिर्फ़ सत्य प्रदान करता है; वह यह निर्णय लेने के लिए नहीं आता है कि मनुष्य सत्य के अपने अनुसरण में सफल होगा या नहीं। इस प्रकार इसका अर्थ है कि सत्य में सफलता या विफलता पूर्णतः मनुष्य के अनुसरण पर निर्भर करती है। सत्य में मनुष्य की सफलता या विफलता का मसीह के साथ कभी कोई लेना-देना नहीं रहा है, बल्कि इसके बजाय यह उसके अनुसरण से निर्धारित होती है। मनुष्य की मंज़िल और उसकी सफलता या विफलता परमेश्वर के मत्थे नहीं मढ़ी जा सकती, ताकि स्वयं परमेश्वर से ही इसका बोझ उठवाया जाए, क्योंकि यह स्वयं परमेश्वर का विषय नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध उस कर्तव्य से है जो परमेश्वर के सृजित प्राणियों को निभाना चाहिए। अधिकांश लोगों को पौलुस और पतरस के अनुसरण और मंज़िल का थोड़ा-सा ज्ञान अवश्य है, फिर भी लोग पतरस और पौलुस के परिणामों से अधिक कुछ नहीं जानते हैं, और वे पतरस की सफलता के पीछे के रहस्य, और पौलुस को विफलता की ओर ले गई कमियों से अनजान हैं। और इसलिए, यदि तुम लोग उनके अनुसरण का सार अच्छी तरह समझ पाने में पूरी तरह असमर्थ हो, तो तुम लोगों में से अधिकांश का अनुसरण अब भी विफल हो जाएगा, और यदि तुममें से एक छोटी-सी संख्या सफल भी हो जाती है, तब भी वे पतरस के समकक्ष नहीं होंगे। यदि तुम्हारे अनुसरण का पथ सही पथ है, तो तुम्हारे पास सफलता की आशा है; सत्य का अनुसरण करते हुए तुमने जिस पथ पर क़दम रखा है यदि वह ग़लत पथ है, तो तुम सदा के लिए सफलता के अयोग्य होगे, और वही अंत प्राप्त करोगे जो पौलुस का हुआ था।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

341. यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो तो तुम्हें अवश्य परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना चाहिए, सत्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें उन बातों को अवश्य समझना चाहिए जिनका तुम्हें अनुभव करना चाहिए। यदि तुम केवल व्यवहार किए जाने, अनुशासित किए जाने और न्याय का ही अनुभव करते हो, यदि तुम केवल परमेश्वर का आनन्द लेने में ही समर्थ हो, परन्तु जब परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हारे साथ निपट रहा हो तब तुम उसका अनुभव करने में असमर्थ हो, तो यह स्वीकार्य नहीं है। शायद शुद्धिकरण के इस उदाहरण में तुम अपनी स्थिति बनाए रखने में समर्थ हो, तब भी यह पर्याप्त नहीं है, तुम्हें अवश्य आगे बढ़ते रहना चाहिए। परमेश्वर से प्रेम करने का पाठ कभी रुकता नहीं है, और इसका कोई अंत नहीं है। लोग परमेश्वर पर विश्वास करने की बात को बहुत ही साधारण समझते हैं, परन्तु एक बार जब उन्हें कुछ व्यवहारिक अनुभव प्राप्त हो जाता है, तो उन्हें एहसास होता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना, उतना आसान नहीं है जितना लोग कल्पना करते हैं। जब परमेश्वर मनुष्य को शुद्ध करने के लिए कार्य करता है, तो मनुष्य को कष्ट होता है। जितना अधिक मनुष्य का शुद्धिकरण होगा, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम उतना अधिक विशाल होगा, और परमेश्वर की शक्ति उसमें उतनी ही अधिक प्रकट होगी। इसके विपरीत, मनुष्य का शुद्धिकरण जितना कम होता है, उतना ही कम परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम होता है, और परमेश्वर की उतनी ही कम शक्ति उस में प्रकट होगी। एक व्यक्ति का शुद्धिकरण एवं दर्द जितना ज़्यादा होता है तथा जितनी अधिक यातना वो सहता है, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम उतना ही गहरा होगा एवं परमेश्वर में उसका विश्वास उतना ही अधिक सच्चा होगा, और परमेश्वर के विषय में उसका ज्ञान भी उतना ही अधिक गहन होगा। तुम अपने अनुभवों में देखोगे कि जो शुद्धि पाते हुए अत्यधिक दर्द सहते हैं, जिनके साथ काफी निपटारा तथा अनुशासन का व्यवहार किया जाता है, और तुम देखोगे कि यही लोग हैं जिनके पास परमेश्वर के प्रति गहरा प्रेम होता है, और उनके पास परमेश्वर का अधिक गहन एवं तीक्ष्ण ज्ञान होता है। ऐसे लोग जिन्होंने निपटारा किए जाने का अनुभव नहीं किया है, जिनके पास केवल सतही ज्ञान होता है, और जो केवल यह कह सकते हैं: "परमेश्वर बहुत अच्छा है, वह लोगों को अनुग्रह प्रदान करता है ताकि वे परमेश्वर में आनन्दित हो सकें।" यदि लोगों ने निपटारा किए जाने का अनुभव किया है और अनुशासित किए गए हैं, तो वे परमेश्वर के विषय में सच्चे ज्ञान के बारे में बोलने में समर्थ हैं। अतः मनुष्य में परमेश्वर का कार्य जितना ज़्यादा अद्भुत होता है, उतना ही ज़्यादा यह मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण होता है। यह तुम्हारे लिए जितना अधिक अभेद्य होता है और यह तुम्हारी धारणाओं के साथ जितना अधिक असंगत होता है, परमेश्वर का कार्य उतना ही अधिक तुम्हें जीतने और तुम्हें प्राप्त करने में समर्थ होता है, और तुम्हें परिपूर्ण बना पाता है। परमेश्वर के कार्य का महत्व बहुत अधिक है! यदि उसने मनुष्य को इस तरीके से शुद्ध नहीं किया, यदि उसने इस पद्धति के अनुसार कार्य नहीं किया, तो उसका कार्य अप्रभावी और महत्वहीन होगा। पहले यह कहा गया था कि परमेश्वर इस समूह को चुनेगा और प्राप्त करेगा, वह उन्हें अंत के दिनों में पूर्ण बनाएगा; इसमें असाधारण महत्व है। वह तुम लोगों के भीतर जितना बड़ा काम करता है, उतना ही ज़्यादा तुम लोगों का प्रेम गहरा एवं शुद्ध होता है। परमेश्वर का काम जितना अधिक विशाल होता है, उतना ही अधिक उसकी बुद्धि के बारे में समझने में तुम लोग समर्थ होते हो और उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान उतना ही अधिक गहरा होता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

342. परमेश्वर पर विश्वास के लिए उसका आज्ञापालन करना और उसके कार्य का अनुभव करना आवश्यक है। परमेश्वर ने बहुत कार्य किया है—यह कहा जा सकता है कि लोगों के लिए यह सब पूर्ण बनाना, शुद्धिकरण, और इससे भी बढ़कर, ताड़ना है। परमेश्वर के कार्य का एक भी चरण ऐसा नहीं रहा है, जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप रहा हो; लोगों ने जिस चीज का आनंद लिया है, वह है परमेश्वर के कठोर वचन। जब परमेश्वर आता है, तो लोगों को उसके प्रताप और उसके कोप का आनंद लेना चाहिए। हालाँकि उसके वचन चाहे कितने ही कठोर क्यों न हों, वह मानवजाति को बचाने और पूर्ण करने के लिए आता है। प्राणियों के रूप में लोगों को वे कर्तव्य पूरे करने चाहिए, जो उनसे अपेक्षित हैं, और शुद्धिकरण के बीच परमेश्वर के लिए गवाह बनना चाहिए। हर परीक्षण में उन्हें उस गवाही पर कायम रहना चाहिए, जो कि उन्हें देनी चाहिए, और परमेश्वर के लिए उन्हें ऐसा ज़बरदस्त तरीके से करना चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति विजेता होता है। परमेश्वर चाहे कैसे भी तुम्हें शुद्ध करे, तुम आत्मविश्वास से भरे रहते हो और परमेश्वर पर से कभी विश्वास नहीं खोते। तुम वह करते हो, जो मनुष्य को करना चाहिए। परमेश्वर मनुष्य से इसी की अपेक्षा करता है, और मनुष्य का दिल पूरी तरह से उसकी ओर लौटने तथा हर पल उसकी ओर मुड़ने में सक्षम होना चाहिए। ऐसा होता है विजेता। जिन लोगों का उल्लेख परमेश्वर "विजेताओं" के रूप में करता है, वे लोग वे होते हैं, जो तब भी गवाह बनने और परमेश्वर के प्रति अपना विश्वास और भक्ति बनाए रखने में सक्षम होते हैं, जब वे शैतान के प्रभाव और उसकी घेरेबंदी में होते हैं, अर्थात् जब वे स्वयं को अंधकार की शक्तियों के बीच पाते हैं। यदि तुम, चाहे कुछ भी हो जाए, फिर भी परमेश्वर के समक्ष पवित्र दिल और उसके लिए अपना वास्तविक प्यार बनाए रखने में सक्षम रहते हो, तो तुम परमेश्वर के सामने गवाह बनते हो, और इसी को परमेश्वर "विजेता" होने के रूप में संदर्भित करता है। यदि परमेश्वर द्वारा तुम्हें आशीष दिए जाने पर तुम्हारा अनुसरण उत्कृष्ट होता है, लेकिन उसके आशीष न मिलने पर तुम पीछे हट जाते हो, तो क्या यह पवित्रता है? चूँकि तुम निश्चित हो कि यह रास्ता सही है, इसलिए तुम्हें अंत तक इसका अनुसरण करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखनी चाहिए। चूँकि तुमने देख लिया है कि स्वयं परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाने के लिए पृथ्वी पर आया है, इसलिए तुम्हें पूरी तरह से अपना दिल उसे समर्पित कर देना चाहिए। भले ही वह कुछ भी करे, यहाँ तक कि बिलकुल अंत में तुम्हारे लिए एक प्रतिकूल परिणाम ही क्यों न निर्धारित कर दे, अगर तुम फिर भी उसका अनुसरण कर सकते हो, तो यह परमेश्वर के सामने अपनी पवित्रता बनाए रखना है। परमेश्वर को एक पवित्र आध्यात्मिक देह और एक शुद्ध कुँवारापन अर्पित करने का अर्थ है परमेश्वर के सामने ईमानदार दिल बनाए रखना। मनुष्य के लिए ईमानदारी ही पवित्रता है, और परमेश्वर के प्रति ईमानदार होने में सक्षम होना ही पवित्रता बनाए रखना है। यही वह चीज़ है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। जब तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, तब तुम प्रार्थना करो; जब तुम्हें संगति में एक-साथ इकट्ठे होना चाहिए, तो तुम इकट्ठे हो जाओ; जब तुम्हें भजन गाने चाहिए, तो तुम भजन गाओ; और जब तुम्हें शरीर को त्यागना चाहिए, तो तुम शरीर को त्याग दो। जब तुम अपना कर्तव्य करते हो, तो तुम उसमें गड़बड़ नहीं करते; जब तुम्हें परीक्षणों का सामना करना पड़ता है, तो तुम मजबूती से खड़े रहते हो। यह परमेश्वर के प्रति भक्ति है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति बनाए रखनी चाहिए

343. जब मूसा ने चट्टान पर प्रहार किया, और यहोवा द्वारा प्रदान किया गया पानी उसमें से बहने लगा, तो यह उसके विश्वास के कारण ही था। जब दाऊद ने—आनंद से भरे अपने हृदय के साथ—मुझ यहोवा की स्तुति में वीणा बजायी तो यह उसके विश्वास की वजह से ही था। जब अय्यूब ने अपने पशुओं को जो पहाड़ों में भरे रहते थे और सम्पदा के गिने ना जा सकने वाले ढेरों को खो दिया, और उसका शरीर पीड़ादायक फोड़ों से भर गया, तो यह उसके विश्वास के कारण ही था। जब वह मुझ यहोवा की आवाज़ को सुन सका, और मुझ यहोवा की महिमा को देख सका, तो यह उसके विश्वास के कारण ही था। पतरस अपने विश्वास के कारण ही यीशु मसीह का अनुसरण कर सका था। उसे मेरे वास्ते सलीब पर चढ़ाया जा सका था और वह महिमामयी गवाही दे सका था, तो यह भी उसके विश्वास के कारण ही था। जब यूहन्ना ने मनुष्य के पुत्र की महिमामय छवि को देखा, तो यह उसके विश्वास के कारण ही था। जब उसने अंत के दिनों के दर्शन को देखा, तो यह सब और भी उसके विश्वास के कारण था। इतने सारे तथाकथित अन्य-जाति राष्ट्रों ने मेरा प्रकाशन प्राप्त कर लिया है, और जान गए हैं कि मैं मनुष्यों के बीच अपना कार्य करने के लिए देह में लौट आया हूँ, यह भी उनके विश्वास के कारण ही है। वे सब जो मेरे कठोर वचनों के द्वारा मार खाते हैं और फिर भी वे उनसे सांत्वना पाते हैं, और बचाए जाते हैं—क्या उन्होंने ऐसा अपने विश्वास के कारण ही नहीं किया है? लोग अपने विश्वास के कारण बहुत कुछ पा चुके हैं और वो हमेशा आशीष नहीं होता। उन्हें शायद उस तरह की प्रसन्नता और आनन्द का अनुभव न हो, जो दाऊद ने अनुभव किया था, या यहोवा के द्वारा प्रदान किया गया वैसा जल प्राप्त न हो, जैसा मूसा ने प्राप्त किया था। उदाहरण के लिए, अय्यूब को उसके विश्वास की वजह से यहोवा द्वारा आशीष प्रदान किया गया था, लेकिन वह विपत्ति से भी पीड़ित हुआ। चाहे तुम्हें आशीष प्राप्त हो, या तुम किसी आपदा से पीड़ित हो, दोनों ही आशीषित घटनाएँ हैं। विश्वास के बिना, तुम यह विजय-कार्य प्राप्त नहीं कर सकते, आज अपनी आँखों से यहोवा के कार्य को देख पाना तो दूर की बात है। तुम देख भी नहीं पाओगे, प्राप्त करना तो दूर की बात है। ये विपत्तियाँ, ये आपदाएँ, और ये समस्त न्याय-यदि ये तुम पर न टूटते, तो क्या तुम आज यहोवा के कार्य को देखने में समर्थ होते? आज, यह विश्वास ही है, जो तुम्हें जीत लिए जाने देता है, और यह तुम्हारा जीता जाना ही है जो तुम्हें यहोवा के प्रत्येक कार्य पर विश्वास करने देता है। यह मात्र विश्वास के कारण ही है कि तुम इस प्रकार की ताड़ना और न्याय पाते हो। इस ताड़ना और न्याय के द्वारा तुम जीते और पूर्ण किए जाते हो। आज, जिस प्रकार की ताड़ना और न्याय तुम पा रहे हो, उसके बिना तुम्हारा विश्वास व्यर्थ होगा, क्योंकि तुम परमेश्वर को नहीं जान पाओगे; इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम उसमें कितना विश्वास करते हो, तुम्हारा विश्वास फिर भी वास्तव में एक निराधार खाली अभिव्यक्ति ही होगी। जब तुम इस प्रकार के विजय कार्य को प्राप्त कर लेते हो, जो तुम्हें पूर्णत: आज्ञाकारी बनाता है, तभी तुम्हारा विश्वास सच्चा और विश्वसनीय बनता है और तुम्हारा हृदय परमेश्वर की ओर फिर जाता है। भले ही तुम "आस्था", इस शब्द के कारण न्याय और शाप झेलो, फिर भी तुम्हारी आस्था सच्ची है, और तुम सबसे वास्तविक और सबसे बहुमूल्य वस्तु प्राप्त करते हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्याय के इस मार्ग में ही तुम परमेश्वर की सृष्टि की अन्तिम मंजिल को देखते हो; इस न्याय में ही तुम देखते हो कि सृष्टिकर्ता से प्रेम करना है; इस प्रकार के विजय-कार्य में तुम परमेश्वर के हाथ को देखते हो; इसी विजय-कार्य में तुम मानव जीवन को पूरी तरह समझते हो; इसी विजय-कार्य में तुम मानव-जीवन के सही मार्ग को प्राप्त करते हो, और "मनुष्य" के वास्तविक अर्थ को समझ जाते हो; इसी विजय में तुम सर्वशक्तिमान के धार्मिक स्वभाव और उसके सुन्दर, महिमामय मुखमण्डल को देखते हो; इसी विजय-कार्य में तुम मनुष्य की उत्पत्ति को जान पाते और समस्त मनुष्यजाति के पूरे "अनश्वर इतिहास" को समझते हो; इसी विजय में तुम मनुष्यजाति के पूर्वजों और मनुष्यजाति के भ्रष्टाचार के उद्गम को समझते हो; इसी विजय में तुम आनन्द और आराम के साथ-साथ अनन्त ताड़ना, अनुशासन और उस मनुष्यजाति के लिए सृष्टिकर्त्ता की ओर से फटकार के वचन प्राप्त करते हो, जिसे उसने बनाया है; इसी विजय-कार्य में तुम आशीष प्राप्त करते हो और तुम वे आपदाएँ प्राप्त करते हो, जो मनुष्य को प्राप्त होनी चाहिए...। क्या यह सब तुम्हारे थोड़े से विश्वास के कारण नहीं है? और इन चीज़ों को प्राप्त करने के पश्चात क्या तुम्हारा विश्वास बढ़ा नहीं है? क्या तुमने बहुत कुछ प्राप्त नहीं कर लिया है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (1)

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