अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (22)

पिछली बार, हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तेरहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति की थी : “परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मसीह-विरोधियों द्वारा बाधित किए जाने, गुमराह किए जाने, नियंत्रित किए जाने और गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाए जाने से बचाओ, और उन्हें मसीह-विरोधियों को पहचानने और अपने दिलों से त्यागने में सक्षम बनाओ।” अब, आइये समीक्षा करें : अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तेरहवीं जिम्मेदारी की विशिष्ट विषय-वस्तु से संबंधित कौन-सी विशिष्टमदों पर हमने संगति की थी? (हमने पाँच मदों पर संग‍ति की थी : उजागर करना, काट-छाँट करना, गहन-विश्लेषण करना, प्रतिबंधित करना, और निगरानी करना।) ये पाँच विशिष्ट मदें अगुआओं और कार्यकर्ताओं की इस जिम्मेदारी में शामिल विशिष्ट कार्य हैं; अगुआओं और कार्यकर्ताओं को मसीह-विरोधियों के संबंध में ये विशिष्ट कार्य करना जरूरी है। तो, इन कार्यों के संबंध में झूठे अगुआओं में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या हमने पिछली बार भी कुछ बारीकियों पर संगति की थी? (हाँ।) झूठे अगुआओं की अभिव्यक्तियाँ निम्नानुसार है : पहली अभिव्यक्ति यह है कि वे लोगों को नाराज करने से डरते हैं और मसीह-विरोधियों को हटाने या निष्कासित करने का साहस नहीं जुटा पाते। दूसरी यह है कि वे मसीह-विरोधियों को नहीं पहचान सकते। तीसरी यह है कि वे मसीह-विरोधियों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं। चौथी यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के प्रति गैर-जिम्मेदार होते हैं। गैर-जिम्मेदारी कैसी दिखाई देती है? मसीह-विरोधियों द्वारा उत्पन्न बाधाओं का सामना करने और गुमराह किए जाने पर झूठे अगुआ भाई-बहनों की सुरक्षा नहीं कर सकते, मसीह-विरोधियों के बुरे कार्यों को उजागर नहीं कर सकते, शैतान के षडयंत्रों को उजागर नहीं कर सकते, और मसीह-विरोधियों की पहचान करने में भाई-बहनों की मदद करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर सकते—वे ऐसा कार्य नहीं नहीं करते हैं। इसके अलावा, ऐसे लोग जिनका आध्यात्मिक कद छोटा है और जिनमें विवेक की कमी है, जिन्हें मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किया जाता है, वे न केवल सुधारात्मक कार्य करने में विफल होते हैं, अपितु “तुम्हें अभी ठीक करता हूँ” जैसी अमानवीय बातें भी कहते हैं। गैर-जिम्मेदारी की यह एक विशिष्ट अभिव्यक्ति है जो दर्शाती है कि झूठे अगुआओं को कलीसिया के काम की कोई चिंता नहीं है। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह और परेशान करते हैं तब झूठे अगुआओं के विशिष्ट कार्यकलाप और दृष्टिकोण ही ये अभिव्यक्तियाँ हैं। इस काम के प्रति उनका विशिष्ट रवैया गैर-जिम्मेदाराना और विश्वासघात है। वे मसीह-विरोधियों को अनुमति देने के लिए अनेक बहाने बनाते हैं और विभिन्न तरीके इस्तेमाल करते हैं, मसीह-विरोधियों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं, जबकि कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के अधिकारों और हितों की सुरक्षा करने में विफल रहते हैं। यदि झूठे अगुआ मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परेशान करने, गुमराह करने, नियंत्रित करने, और नुकसान पहुँचाने जैसी समस्याओं का तुरंत समाधान कर सकें, और फिर मसीह-विरोधियों को प्रतिबंधित और अलग-थलग कर सकें, और हटा सकें या निष्कासित कर सकें, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सबसे ज्यादा सुरक्षा प्राप्त होगी। परन्तु, अगुआओं के रूप में, वे इस काम के लिए अयोग्य हैं। एक निश्चित परिप्रेक्ष्य में, ऐसा कहा जा सकता है कि वे गुप्त रूप से मसीह-विरोधियों की सुरक्षा कर रहे हैं और उनके लिए मार्ग प्रश्स्त कर रहे हैं, और ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करना, नियंत्रित करना, और नुकसान पहुँचाना जारी रख सकें, और कलीसिया के सामान्य जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के कर्तव्य पालन में बाधा डाल सकें। झूठे अगुआओं की ये विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।

मद चौदह : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो (भाग एक)

अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तेरहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति समाप्त करने के बाद, आज हम चौदहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति करेंगे। चौदहवीं जिम्मेदारी की विषय-वस्तु कुछ मायनों में तेरहवीं जिम्मेदारी के समान ही है। चौदहवीं जिम्मेदारी में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो विशिष्ट कार्य करना होता है वह कार्य न केवल मसीह-विरोहधियों से संबंधित होता है अपितु विभिन्न बुरे लोग भी उसमें शामिल होते हैं, जो इसके दायरे को तेरहवीं जिम्मेदारी से अधिक व्यापक बना देता है। चौदहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति करने से पहले, आइये पहले इसकी विषय-वस्तु को पढ़ो। (अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी : सभी प्रकार के बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को तुरंत पहचानो और फिर बहिष्कृत या निष्कासित कर दो।) यह वाक्य लंबा नहीं है, लेकिन जब उस विशिष्ट कार्य की बात आती है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना जरूरी होता है, तो यह उतना सरल नहीं है जितना सतही तौर पर दिखाई देता है। इस वाक्य में उल्लिखित अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ वास्तव में क्या हैं? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो कार्य करना जरूरी होता है उस कार्य का निशाना कौन लोग होते हैं? (विभिन्न बुरे लोग और मसीह-विरोधी।) वह कौन-सा विशिष्ट कार्य है जिसे करना जरूरी है? (तुरंत उन्हें पहचानना। एक बार उनकी पहचान हो जाने पर, उन्हें हटाना या निष्कासित करना।) बिना किसी विलंब के तुरंत उन्हें पहचानना; एकबार संकेतों की पहचान हो जाने पर, सटीक निर्णय लिए जाने चाहिए और सटीक लक्षण बताए जाने चाहिए, और उसके बाद शामिल व्यक्तियों को हटा कर उनसे निपटा जाना चाहिए। वास्तव में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो विशिष्ट कार्य करना जरूरी होता है उसमें दो काम शामिल होते हैं : लोगों को पहचानना और समस्याओं को हल करना। सतही तौर पर, यह सरल लगता है : पहले पहचान करो, फिर उन विभिन्न बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को निशाना बनाकर तुरंत समाधान और उपाय करो जिन्हें परमेश्वर का घर हटाना या निष्कासित करना चाहता है। इस परिप्रेक्ष्य में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए, बिना किसी ज्यादा कठिनाई के, अच्छे से यह काम करना और इस जिम्मेदारी को पूरा करना आसान लगता है, क्योंकि परमेश्वर के घर ने पहले भी विभिन्न लोगों को पहचानने और उन्हें हटाने की बारीकियों पर व्यापक संगति की है, और इस मामले पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। सतही तौर पर, चौदहवीं जिम्मेदारी में शामिल कार्य कुछ मायनों में इससे पहले संगति की गई बारहवीं और तेरहवीं जिम्मेदारियों की विशिष्ट विषय-वस्तु के समान लगता है, लेकिन चौदहवीं जिम्मेदारी में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले कार्य का निशाना न केवल मसीह-विरोधी हैं अपितु विभिन्न बुरे लोग भी हैं। इससे विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को शामिल करने का दायरा बढ़ जाता है, जिसके लिए सुव्यवस्थित और विशिष्ट संगति की अपेक्षा होती है। क्योंकि यह एक ही प्रकार के बुरे व्यक्तियों की अभिव्यक्तियों के बारे में नहीं है, अपितु विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के बारे में है, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी के बारे में संगति करते समय, हम इस कार्य के निशानों को निर्दिष्ट करने पर फोकस करेंगे। यह एक पहलू है। इसके अलावा, इन लोगों के साथ किस तरह व्यवहार करना है—उन्हें प्रतिबंधित किया जाए, अलग-थलग किया जाए, हटाया जाए, या निष्कासित किया जाए—हम अगली संगति में इस बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

कलीसिया क्या है

इस कार्य के बारे में विस्तार से संगति करने से पहले, आइये पहले एक गौण विषय पर चर्चा करें। यह गौण विषय सुविख्‍यात हो सकता है, या यह ऐसा विषय हो सकता है जिसके बारे में तुम लोगों को विशिष्ट जानकारी ना हो? यह है “कलीसिया क्या है?” यह विषय कैसा प्रतीत होता है? कुछ लोग कहेंगे, “तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के बारे में संगति कर रहे हो, इसलिए बस विशेष रूप से उस बारे में संगति करो। कलीसिया क्या है इस बारे में संगति क्यों करना? क्या यह इस विषय से संबंधित है?” सतही तौर पर, यह असंबंधित प्रतीत हो सकता है, और कुछ लोग यह भी कहेंगे, “यह पूरी तरह से असंबंधित विषय है। इसे संगति के लिए क्यों लाना?” भले ही तुम लोग कैसे भी सोचो, इन विचारों को एक तरफ रख दो और पहले यह विचार करो कि कलीसिया क्या है। एक बार इस शब्द, “कलीसिया”, की परिभाषा की स्‍पष्ट रूप से समझ हो जाए, तो तुम लोग समझ जाओगे कि हम इस विषय पर संगति क्यों कर रहे हैं।

I. कलीसिया के बारे में अनेक तरह की समझ

कलीसिया क्या है इस बारे में संगति करने का अर्थ है “कलीसिया” नाम की स्पष्ट और सटीक व्याख्या प्रदान करना; इसका अर्थ है “कलीसिया” शब्द की विशिष्ट और सटीक परिभाषा बताना। सबसे पहले, तुम लोग चर्चा कर सकते हो कि तुम लोग “कलीसिया” शब्द को कैसे समझते और बूझ ते हो। कलीसिया क्या है? आइये सैद्धांतिक व्याख्या से आरंभ करें और फिर अधिक विशिष्ट और अपेक्षाकृत व्यावहारिक परिभाषा की ओर बढ़ें। (मेरी समझ में यह एक ऐसा स्थान जहाँ परमेश्वर में दिल से विश्वास करने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले भाई-बहन परमेश्वर की आराधना करने के लिए एकत्र होते हैं, उसे कलीसिया कहा जाता है।) यह परिभाषा उल्लेख करती है कि कलीसिया किस प्रकार का स्थान है; यह मूल रूप से मूर्त, भौतिक निकाय है। यह सैद्धांतिक परिभाषा है। क्या यह परिभाषा सटीक है? क्या इसमें कुछ कमियाँ हैं? सिद्धांत की दृष्टि से, यह परिभाषा स्वीकार्य है। इसके बारे में और कौन बता सकता है? (मैं थोड़ा बताऊँगा। परमेश्वर के रूप और कार्य और उसके सत्य अभिव्यक्त करने के कारण, लोगों का एक समूह बना हुआ है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं; वे जो समागम बनाते हैं उसे कलीसिया कहा जाता है।) यह परिभाषा वर्णन करती है कि कलीसिया किस प्रकार का समागम है। यह भी एक औपचारिक, सैद्धांतिक परिभाषा है। (मैं जोड़ूँगा कि लोगों का यह समूह पवित्र आत्मा का कार्य करता है, और जब वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के लिए एकत्र होते हैं, तो पवित्र आत्मा का प्रबोधन होता है, और वे सत्य का अभ्यास करने और जीवन में आगे बढ़ने में सक्षम होते हैं। कलीसिया ऐसे लोगों की एक सभा है।) कलीसिया की परिभाषा में जोड़ा गया यह कथन बताता है कि कलीसिया किस प्रकार की सभा है—इस सभा के लिए योग्यताएँ परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, पवित्र आत्मा का कार्य करना, और जीवन में आगे बढ़ना है। यह भी मूल रूप से कलीसिया की औपचारिक, सैद्धांतिक परिभाषा है। क्या कोई कुछ और जोड़ना चाहता है? (यह लोगों का समूह है जो परमेश्वर के वचनों को अभ्यास के सिद्धांत के रूप में लेता है, और जो सत्य और मसीह द्वारा शासित होता है। यह समूह परमेश्वर के कार्य को अनुभव कर सकता है, सत्य स्वीकार कर सकता है, जीवन में आगे बढ़ सकता है, और इसे बचाया जा सकता है। ऐसे समूह को कलीसिया कहा जाता है।) यह “समूह” ठीक अभी बताए गए “समागम” के समान ही है। और कोई कुछ जोड़ना चाहता है? यदि तुम लोगों के पास और कुछ जोड़ने के लिए नहीं हैं, तो तुम लोग ऊपर बताई गई चार विवेचनाओं को फिर से ता सकते हो; अर्थात्, तुम लोगों ने परमेश्वर में विश्वास की शुरूआत से लेकर अब तक कलीसिया की परिभाषा क्या मानी है। सैद्धांतिक रूप से इसे परिभाषित करना आसान होगा, है ना? उदाहरण के लिए, उन लोगों के समूह को कलीसिया कहा जा सकता है जो दिल से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और उसकी आराधना करते हैं; या उस समूह को कलीसिया कहा जा सकता है जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण का प्रयास करता है, और परमेश्वर की आराधना करता; या उस समूह को कलीसिया कहा जा सकता है जिसके पास पवित्र आत्मा का कार्य है, पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन है, और परमेश्वर की उपस्थिति है, और जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है। क्या ये कलीसिया की सैद्धांतिक परिभाषाएँ नहीं हैं? (हाँ।) तुम सभी लोग कलीसिया की परिभाषा में इन योग्यताओं की विषय-वस्तु को समझते और जानते हो, है ना? (बिल्कुल।) तो, इसे दोहराओ। (कलीसिया उन लोगों के समूह को कहते हैं जो दिल से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और मसीह का अनुसरण करते हैं। एक सच्ची कलीसिया के पास पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर का मार्गदर्शन होता है; यह मसीह और सत्य द्वारा शासित होती है, यहीं पर परमेश्वर के अनुयायी परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, और जीवन प्रवेश पाते हैं। यह सच्ची कलीसिया है। कलीसिया धार्मिक समुदायों से भिन्न होती है। कलीसिया धार्मिक अनुष्ठानों या परमेश्वर की आराधना करने के बाह्य रूपों में शामिल नहीं होती है।) यह मूलरूप से कलीसिया की सैद्धांतिक परिभाषा है। उदाहरण के लिए, कलीसिया को ऐसे स्थान के रूप में परिभाषित करना जहाँ परमेश्वर द्वारा बुलाए गए लोग इकट्ठा होते हैं, या कलीसिया को परमेश्वर द्वारा बुलाए गए लोगों के समागम के रूप में परिभाषित करना, इत्यादि—ये नाम विश्वासियों के विभिन्न समूहों द्वारा कलीसिया की कुछ बुनियादी समझ या परिभाषाओं को दर्शाते हैं। चलिए हम इस विषय पर गौर नहीं करते हैं कि अलग-अलग धर्म और संप्रदाय कलीसिया को कैसे परिभाषित करते हैं—परमेश्वर का अनुसरण करनेवाले हमारे जैसों के लिए, कलीसिया की क्या परिभाषा है? यह लोगों के उस समूह से अधिक नहीं है जो दिल से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पवित्र आत्मा का कार्य करते हैं, परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, और परमेश्वर के वचनों को खा और पी सकते हैं, सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण का प्रयास कर सकते हैं, और परमेश्वर की आराधना कर सकते हैं। चाहे इसे किसी स्थान, समागम, सभा, समूह, समुदाय, या किसी अन्य रूप में परिभाषित किया जाए—जो भी शब्द इस्तेमाल किया जाए—परिभाषा के लिए योग्यताएँ मूलतः ये ही हैं। लोगों की कलीसिया के प्रति बुनियादी समझ से, “कलीसिया” नाम को परिभाषित करने के लिए तुम लोगों द्वारा इस्तेमाल की गई योग्यताओं से, यह स्पष्ट है कि एक बार जब लोग परमेश्वर का अनुसरण करने लगते हैं और कुछ सत्य समझने लगते हैं, तो कलीसिया के बारे में उनकी समझ यह होती है कि यह कोई सामान्‍य समुदाय या समूह नहीं है। इसके बजाय, यह परमेश्वर में गहन विश्वास, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने, पवित्र आत्मा का कार्य करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी आराधना करने में सक्षम होने, या जीवन प्रवेश, स्वभाव में बदलाव, परमेश्वर के लिए गवाही देने, और अन्य पहलुओं से संबंधित है। इस तरह से देखें तो, जब परमेश्वर ने अपना कार्य शुरू कर दिया है, तो अधिकांश लोगों के दिलों में “कलीसिया” नाम ने ज्यादा गहरी, ज्यादा विशिष्ट समझ और बूझ प्राप्त कर ली है, जो कलीसिया के बारे में परमेश्वर के विचार से अधिक घनिष्ठता से जुड़ा हुई है। यह अब केवल एक भवन, एक सामाजिक समुदाय, विभाग, संस्था, या कुछ और नहीं है; बल्कि, यह परमेश्वर में विश्वास करने, परमेश्वर के वचनों, सत्य और परमेश्वर की आराधना जैसी चीजों से संबंधित है।

II. कलीसिया के अस्तित्व और इसके कार्य का मूल्य

जहाँ तक कलीसिया की विशिष्ट संकल्पना और परिभाषा की बात है, तो हम ठीक अभी निष्कर्ष पर पहूँचने की जल्दबाजी नहीं करेंगे। “कलीसिया” नाम या इसकी परिभाषा की बुनियादी संकल्पना का ज्ञान होने के बाद, क्या तुम लोगों को कलीसिया के अस्तित्व के महत्व, कलीसिया के अस्तित्व से उत्पन्न कार्य, और लोगों में कलीसिया द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका जैसी चीजों के बारे में स्पष्टता है? क्या इन पहलुओं की विषय-वस्तु भी कलीसिया की परिभाषा से संबंधित है? सीधे शब्दों में कहें, तो कलीसिया जो कार्य करती है वह इसके अस्तित्व का महत्व है। उदाहरण के लिए, एक घर की बात करें—इस घर का क्या उद्देश्य है? इसमें रहने वाले और इसे इस्तेमाल करने वाले लोगों के लिए इसका क्या मूल्य और महत्व है? कम से कम, यह हवा और बरसात से आश्रय तो प्रदान करता है, जो इसके मूल्यों में से एक है; दूसरा मूल्य है कि जब तुम बेहाल और थके हुए होते हो और तुम्हारे पास ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ तुम आराम कर सको, तो घर एक ऐसा स्थान है जहाँ तुम आराम कर सकते हो और शांति तथा संतोष से रह सकते हो। इसे घर कहा जाता है, लेकिन तुम्हारे लिए इसका कार्य क्या है? यह हवा और बरसात से आश्रय, विश्राम, आराम, स्वतंत्रता का आनंद लेने की क्षमता, इत्यादि प्रदान करता है; ये कार्य तुम्हारे लिए इस घर का मूल्य हैं। अब, एक बार फिर से, कलीसिया की क्या भूमिका है? इसके गठन और अस्तित्व का मूल्य और महत्व क्या है? सीधे शब्दों में कहें, तो कलीसिया क्या काम करती है, यह कौन-सी भूमिका निभाती है? क्या तुम्हें इसकी स्पष्ट जानकारी है? कलीसिया को कौन-सा विशिष्ट कार्य या किस प्रकार का कार्य करना चाहिए, और इस कार्य का दायरा क्या होना चाहिए, ताकि इसे कलीसिया कहा जा सके, इस कार्य को करने के लिए एक सच्ची कलीसिया को क्या करना चाहिए? कलीसिया की परिभाषा के संबंध में यह थोड़ी वि‍षय-वस्तु है जिस पर संगति की जानी चाहिए। सबसे पहले, कलीसिया क्या काम करती है? (मुख्‍य रूप से, यह परमेश्वर के वचनों की घोषणा करती है, परमेश्वर के कार्य की गवाही देती है, और सुसमाचार का प्रसार करती है, जिससे अधिकाधिक लोग परमेश्वर के समक्ष आ सकें और उसके उद्धार को स्वीकार कर सकें।) क्या यह विशिष्ट कार्य है? (हाँ।) यह कलीसिया के अस्तित्व का महत्व है और इसके द्वारा किए जाने वाले विशिष्ट कार्यों में से एक है, लेकिन यह सब कुछ नहीं है। परमेश्वर के वचनों का प्रसार करना और परमेश्वर के कार्य की गवाही देना विशिष्ट कार्य है। इस कार्य के लिए कौन जिम्मेदार है? वर्तमान सुसमाचार टीम जिम्मेदार है। कलीसिया और कौन-सा कार्य करती है? (भाई-बहनों को एक साथ एक स्थान पर एकत्र करना, परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, और परमेश्वर के वचनों की संगति करना, उन्हें निरंतर सत्य समझने और अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने में सक्षम बनाना।) यह विशिष्ट कार्य परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने, सत्य समझने, और अपने कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने के लिए लोगों की अगुआई करना है। परमेश्वर के वचनों का प्रसार कलीसिया का प्रमुख और महत्वपूर्ण कार्य है। परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने, सत्य समझने, और अपने कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने के लिए लोगों की अगुआई करना कलीसिया का अनिवार्य कार्य है; यह आंतरिक रूप से निर्देशित होता है। ये दो कार्य, एक बाह्य और एक आंतरिक, कलीसिया के अस्तित्व से उत्पन्न कार्य हैं। उन्हें वे दो महत्वपूर्ण कार्य भी कहा जा सकता है जो कलीसिया को करने चाहिए। क्या कोई और कार्य हैं? (एक अन्य कार्य परमेश्वर के न्याय का अनुभव करने में लोगों की अगुआई करना है ताकि वे शुद्ध हो सकें और स्वभाव में बदलाव ला सकें।) यह कलीसिया का विशिष्ट आंतरिक कार्य है। ये सभी कार्य जो तुम लोगों ने बताए हैं मूल रूप से प्रतिनिधिक कार्य हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना विशिष्ट कार्य है जैसे कि विभिन्न परिवेशों का अनुभव करना, न्याय, ताड़ना, काट-छाँट इत्यादि का अनुभव करना, और आखिरकार स्वभाव में बदलाव और उद्धार प्राप्त करना। कलीसिया के गठन और अस्तित्व का लोगों पर यह प्रभाव और असर होता है। परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने और परमेश्वर की गवाही देने का कार्य केवल सुसमाचार देने वाली टीम द्वारा ही नहीं किया जाता है; इसे विभिन्न अनुभवजन्य गवाही लेखों, भजनों, विभिन्न वीडियो और फिल्मों, इत्यादि के माध्यम से भी किया जाता है, जो परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने के कार्य में शामिल विशिष्ट विषय-वस्तु और परियोजनाएँ भी हैं। इसके अलावा, कलीसियाई जीवन से संबंधित कार्य हैं : सत्य समझने के लिए परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में सक्षम होना और परमेश्वर को जानना, और कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर के कार्य और उसके द्वारा व्यवस्थित विभिन्न परिवेशों का अनुभव करना ताकि स्वभाव में बदलाव और उद्धार प्राप्त हो सके। कलीसिया के गठन के बाद इसके अस्तित्व के आधार पर उत्पन्न कई कार्य हैं। इन मुख्य कार्यों के अलावा, कोई गौण कार्य हैं? गौण कार्य क्या हैं? वे गैर-महत्वपूर्ण या सामान्य विषयों के कार्य हैं, जिनका, हालाँकि, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने में कुछ लाभ भी है; ये कार्य लोगों के जीवन विकास और मामलों में उनके विचारों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। विशेष परिस्थितियों में, क्या लोगों के शारीरिक अस्तित्व से संबंधित सामान्य विषयों का कार्य जो कलीसिया के कार्य से उत्पन्न होता है, कलीसिया के आवश्यक कार्य के रूप में गिना जाता है? उदाहरण के लिए, खेती करना, पशुपालन करना और अन्य गतिविधियाँ जो अपना कर्तव्य निभाने वाले लोगों के लिए कुछ आवश्यक भोजन प्रदान करती हैं—क्या इन्हें कलीसिया के अनिवार्य कार्य के रूप में गिना जाता है? (नहीं।) अपना कर्तव्य निभाने वाले उन लोगों के लिए कंप्‍यूटर, उपकरण और अन्य चीजें प्रदान करने के बारे में क्या कहा जाएगा—क्या इन्हें कलीसिया के अनिवार्य कार्य के रूप में गिना जाता है? (नहीं।) फिर कलीसिया का अनिवार्य कार्य किसे कहा जाता है? इसमें कलीसिया की परिभाषा शामिल है। तुम लोगों द्वारा दी गई कलीसिया की पिछली परिभाषाएँ अच्छी थीं; मैं उनसे काफी संतुष्ट था क्योंकि तुम्हारी परिभाषाओं की योग्यताएँ लोगों के जीवन प्रवेश, परमेश्वर में उनके सच्चे विश्वास और उसका अनुसरण करने, परमेश्वर को जानने, और यहाँ तक कि स्वभाव में बदलाव, परमेश्वर के प्रति समर्पण, और परमेश्वर की आराधना करने जैसे उच्चतर सत्यों से संबंधित हैं। इस बिंदु के मद्देनजर, कलीसिया का अस्तित्व लोगों के दैहिक जीवन और रुचियों से संबंधित चीजों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है, जैसे उन्हें गर्म रखना और उन्हें खाना खिलाना, उन्हें स्वस्थ रखना, या उनकी संभावनाओं की तलाश करना। कलीसिया का अस्तित्व लोगों के दैहिक अस्तित्व को सहारा देने, या उन्हें दैहिक जीवन का बेहतर आनंद उठाने देने के लिए नहीं है। कुछ लोगों का कहना है, “यह सही नहीं है। हमारे दैहिक जीवन और अस्तित्व का परमेश्वर के वचनों में उल्लेख किया गया है, जो हमें स्वस्थ रहने के लिए कुछ आधुनिक कलाएँ और ज्ञान सीखने के बारे में बताते हैं। क्या ये हमारे अस्तित्व से संबंधित नहीं हैं?” क्या इन्हें कलीसिया का अनिवार्य कार्य माना जाता है? (नहीं।) चूँकि कलीसिया विश्वासियों से बनी होती है और लोगों की जिंदगी में खाना, वस्त्र, आश्रय, परिवहन, और रोजाना की जरूरतें स्वाभाविक रूप से शामिल होती हैं, इसलिए कलीसिया इन मुद्दों को आवश्यकतानुसार हल करने में मदद करती है। इनका समाधान होने के बाद, लोग सोचते हैं, “हमारी रोजाना की जरूरतों के लिए कलीसिया भी जिम्मेदार है। यह कलीसिया का नियमित कार्य और अनिवार्य कार्य है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? (बिल्कुल है।) इस गलतफहमी का कारण क्या है? (वे इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं हैं कि कलीसिया का अनिवार्य कार्य क्या है।) वे अब भी इसे लेकर असमझ की स्थिति में क्यों हैं? क्या उनकी समझ में कोई समस्या नहीं है? (हाँ, है।) उनकी समझ में समस्या क्यों है? यह काबिलियत का सवाल है। अंततः, खराब काबिलियत ही सबसे महत्वपूर्ण कारकहै।

कलीसिया के अनिवार्य कार्य के संबंध में, तीन मदों के बारे में अभी बताया गया था : एक है परमेश्वर के वचनों की गवाही देना और उनका प्रसार करना। दूसरी है परमेश्वर के वचन खाने और पीने में लोगों की अगुआई करना, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना, और सत्य समझने, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने, और अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाने में लोगों की मदद करना। और एक अन्य मद है परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव करने और परमेश्वर के वचनों की समझ के आधार पर स्वभाव में बदलाव लाने के लिए भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने में उनकी अगुआई करना। इन सब का एक ही उद्देश्य है कि लोगों को उद्धार प्राप्त हो सके। इन तीन मदों को अच्छे से संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है; ये वे कार्य हैं जो कलीसिया के लिए करने जरूरी हैं और वे मानवजाति, कलीसिया के सदस्यों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए कलीसिया के अस्तित्व का मूल्य और महत्व हैं। लेकिन इसे पर्याप्त रूप से विस्तारपूर्वक नहीं बताया गया है। इन अनिवार्य कार्यों के अतिरिक्त, इस बारे में फिर से विचार करें कि लोगों को कलीसियाओं के द्वारा किए जाने वाले इस कार्य के अनुभव के अलावा और कौन से अन्य लाभ प्राप्त होते हैं। (लोग भिन्न-भिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों को पहचानना सीखते हैं।) भिन्न-भिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचानना कुछ हद तक इसके करीब है; यह कलीसिया के अनिवार्य कार्य से संबंधित है। जब हम अनिवार्य कार्य की बात करते हैं, तो हम प्रतिनिधिक कार्य की बात कर रहे होते हैं। हमनें जिसकी अभी संगति की वे लोगों को प्राप्त होने वाले सकारात्मक लाभ, या कलीसियाओं द्वारा किए जाने वाले उन कुछ कार्यों के बारे में है, लोग जिनमें शामिल होते हैं या जिनका अनुभव करते हैं। इन अनिवार्य कार्यों के अलावा, कलीसिया के अस्तित्व का एक अन्य महत्व मानवजाति, दुनिया और अंधकार के प्रभाव को समझने में लोगों की मदद करना है। क्या यह तुम लोगों द्वारा संगति किए गए तीन कार्यों के अलावा कलीसिया का एक अनिवार्य कार्य है? क्या यह एक विशिष्ट कार्य है? (हाँ, है।) पहले तीन कार्यों की तुलना में, इसे गौण कार्य समझा जाता है। इसे गौण क्यों समझा जाता है? क्योंकि यह प‍हले तीन कार्यों के अनुभव से लोगों को प्राप्त हुआ परिणाम है—यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, परमेश्वर के वचन खाने और पीने, सत्य समझने, अपने खुद के भ्रष्ट स्वभाव को समझने और परमेश्वर को जानने से प्राप्त होता है। इसका परिणाम यह होता है कि लोग इस दुष्ट मानवजाति, इस अंधकारमयी दुनिया और अंधकार के प्रभाव को समझने लगते हैं। क्या यह परिणाम अभी आंशिक रूप से प्राप्त हुआ है? (हाँ।) क्या यह कलीसिया के अस्तित्व का महत्व नहीं है? क्या यह वह कार्य और प्रभाव नहीं है जो कलीसिया के अस्तित्व का परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों पर होना चाहिए? (हाँ।) एक बात तो यह है कि इसका अभीष्ट प्रभाव पड़ता है; इसके अतिरिक्त, कलीसिया भी सकारात्मक और सक्रिय रूप से इस कार्य को अंजाम दे रही हैं। इस कार्य में कौन-सी विशिष्ट परियोजनाएँ शामिल हैं? उदाहरण के लिए, परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा गिरफ्तारी और यातना का अनुभव करने के बारे में फिल्में बनाना—एक बात तो यह है कि ये उन लोगों द्वारा प्रस्तुत गवाहियाँ हैं जो शैतान के क्रूर उत्पीड़न से पीड़ित होने पर परमेश्वर का अनुसरण करते हैं; दूसरी बात यह है कि ये उजागर करती हैं कि कैसे यह दुष्ट मानवजाति, यह अंधकारमयी दुनिया और अंधकार का प्रभाव परमेश्वर और सत्य का विरोध और निंदा करते हैं, और साथ ही ये उन भिन्न-भिन्न तरीकों को उजागर करती हैं जिनसे वे परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोगों को क्रूरता से सताते हैं। इन चीजों को उजागर करते हुए, ये फिल्में लोगों को इस दृष्टिकोण से मानवजाति, दुनिया और अंधकार के प्रभाव को समझने में मदद करती हैं। कुछ लोगों का कहना है, “‘मानवजाति और दुनिया को समझने’ से तुम्हारा क्या मतलब है?” तुम सभी लोगों के विचार से इसका क्या मतलब है? (अंधकार और मानवजाति तथा दुनिया की दुष्टता को समझना, और साथ ही इस सार को समझना कि सारी मानवजाति परमेश्वर की दुश्मन है।) सही है। इसका अर्थ है मानवजाति की दुष्टता और अंधकार को समझना, तथा परमेश्वर के शत्रु के रूप में समस्त मानवजाति के कुरूप चेहरों और असली रंगों को समझना। यातना और व्यक्तिगत अनुभवजन्य गवाहियों के वीडियो कलीसिया द्वारा किए जाने वाले इस कार्य के विशिष्ट उदाहरण हैं। इसके अलावा, पारंपरिक संस्कृति, मानव के नैतिक दृष्टिकोणों, कुछ नस्लीय समूहों या जातियों के विचारों, और साथ ही चीन में ताओवाद और कन्फ्यूशीवाद के पारंपरिक धर्म-सिद्धांतों, कुछ छद्म सत्यों, और लोगों को बाँध कर रखने वाले और उनके विचारों को सीमित रखने वाले परिवार के नियमों और पालन-पोषण को उजागर करना—इन्हें उजागर करने का क्या उद्देश्य है? कौन-सी श्रेणी का कार्य इसके अंतर्गत आता है? क्या मैंने पहले “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” वाली कहानी में जिस विषय-वस्तु का गहन-विश्लेषण किया था वह दुनिया, मानवजाति और अंधकार के प्रभाव को समझने का हिस्सा नहीं है? (हाँ, है।) यह इस कार्य की विशिष्ट विषय-वस्तु का एक उदाहरण है। इसलिए, यह भी एक विशिष्ट कार्य है जिसे कलीसिया द्वारा किया जाना चाहिए। संक्षेप में, एक दृष्टि से, कलीसिया का कार्य लोगों का सत्य के माध्यम से सत्य वास्तविकता की ओर सकारात्मक रूप से मार्गदर्शन करना है, जो उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की ओर अग्रसर करता है। दूसरे दृष्टिकोण से, कलीसिया का कार्य शैतानी, अंधकारमयी दुनिया को उजागर करना, सत्य और परमेश्वर के प्रति शैतान की शत्रुता के विभिन्न कृत्यों को उजागर करना, और मानव समाज में बुरी प्रवृत्तियों, भ्रष्‍ट मानवजाति के भिन्न-भिन्न विचारों और धारणाओं, और साथ ही उनके पाखंड़ों और भ्रांतियों इत्यादि को उजागर करना है, ताकि लोग इस दुष्ट युग की असली प्रकृति और सार समझ सकें। क्या यह कलीसिया का अनिवार्य कार्य नहीं है? (हाँ, है।) वास्तव में, तुम लोगों ने कलीसिया के कार्य से पहले ही बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है और महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लिए हैं। जब बात कलीसिया के लोगों की आती है, तो चाहे वे सत्य में रुचि लेने वाले लोग हों, या वे लोग हों जिनकी सत्य में कोई रुचि नहीं है, तीन से पाँच वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करने के बाद, सत्य के बारे में संगति करने के लिए सभाओं के माध्यम से परमेश्वर के वचनों को प्रार्थनापूर्वक पढ़ने के बाद और अविश्वासियों से उत्पीड़न और अपमान का अनुभव करने के बाद, बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों और सभी तरह के अन्य लोगों, घटनाओं और चीजों से बाधाओं का अनुभव करने के बाद, वे अनजाने में, इस अंधेरी दुनिया, दुष्ट मानवजाति, सत्तारूढ़ अधिकारियों और संपूर्ण दुनिया के अंधकारमयी प्रभाव को पहचानने और समझने लगेंगे। उन्हें ये लाभ प्राप्त होते हैं। और ये लाभ कैसे प्राप्त होते हैं? क्या ये कलीसियाओं के अस्तित्व के कारण आते हैं? क्या ये क‍लीसियाओं द्वारा किए जाने वाले कार्य के कारण आते हैं? (हाँ।) एक तरफ, लोगों ने परमेश्वर के वचनों, कार्य और स्वभाव की कुछ समझ प्राप्त की है; और दूसरी तरफ, उन्होंने दुनिया, मानवजाति, और अंधकार के प्रभाव के प्रति तदनुरूपी जागरूकता और विवेक भी प्राप्त किया है। लोगों पर इन दो लाभों के परिणाम एवं सकारात्मक प्रभाव ही वे चीजें हैं जो उन्हें उद्धार प्राप्त करने के लिए हासिल करनी चाहिए।

कलीसिया के कार्य को संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर के वचनों और कार्य का प्रसार करना और गवाही देना, और परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने में लोगों की अगुआई करना है ताकि वे सत्य समझ सकें, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकें और अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से निभा सकें। इसके अलावा, सत्य की समझ की बुनियाद पर, वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकें, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकें और स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकें। इन तीन पहलुओं के अलावा, इसमें दुष्ट मानवजाति, अंधकारमयी दुनिया, और अंधकार के प्रभाव को समझने में लोगों की मदद करना शामिल है। यद्यपि कलीसिया के कार्य की परियोजनाएँ अधिक नहीं हैं, लेकिन विशिष्ट विषय-वस्तु बेहद व्यापक है। सारी विषय-वस्तु परमेश्वर के वचनों, सत्य, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से संबंधित है; बेशक, यह व्यक्ति को बचाए जाने से ज्यादा संबंधित है। यह कलीसिया का कार्य है और कलीसिया के अस्तित्व का महत्व है। कलीसिया के कार्य का हर पहलु परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश से गहरे से संबंधित है क्योंकि इसमें परमेश्वर के वचनों के साथ लोगों का व्यवहार, परमेश्वर के प्रति उनका रवैया, उनका उद्धार, और दुनिया, मानवजाति और अंधकार के प्रभाव के प्रति उनके विचार और दृष्टिकोण शामिल होते हैं। संक्षेप में, कलीसिया का अस्तित्व प्रत्येक व्यक्ति से घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है, और कलीसिया का कार्य, और इसके अस्तित्व का मूल्य और महत्व, परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति से अवियोज्य है।

कलीसिया को जो विशिष्ट कार्य करने की आवश्यकता होती है, उसके बारे में संगति करने के बाद, आइए “कलीसिया” के नाम और कलीसिया के अस्तित्व के महत्व के बारे लोगों की अनुचित परिभाषाओं और दृष्टिकोणों पर चर्चा करें। सबसे पहले तो लोग कलीसिया को एक अपेक्षाकृत आरामदायक जगह मानते हैं, एक ऐसी जगह जो गर्मजोशी और धूप से भरी होती है, एक अपेक्षाकृत मित्रवत जगह जो संघर्ष, युद्ध, हत्या या रक्तपात से मुक्त होती है—एक आदर्श जगह जिसके लिए लोगों के दिल तरसते हैं, जो खुशियों से भरी होती है। यहाँ न तो ईर्ष्या या कलह है, न कोई षड्यंत्र, न बुरी प्रवृत्तियाँ, और न ही सांसारिक दुनिया में पाए जाने वाली कोई अन्य घटनाएँ होती हैं। इसे एक आदर्श बंदरगाह के रूप में देखा जाता है जहाँ लोग अपने दिल के लंगर डाल सकते हैं। भले ही “कलीसिया” नाम के बारे में लोगों की कल्पनाएँ कितनी भी सुंदर क्यों न हों, कुल मिलाकर एक कलीसिया उन्हें एक निश्चित मात्रा में आत्मिक पोषण प्रदान करती है। यह आत्मिक पोषण लोगों के लिए अधिक ठोस कार्य करता है : जब वे कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो वे कलीसिया में आकर अपनी परेशानियों को व्यक्त कर सकते हैं, और कलीसिया उनकी चिंताओं को कम करने और उनकी कठिनाइयों को हल करने में उनकी मदद कर सकती है। उदाहरण के लिए, अगर वे काम या जीवन में कठिनाइयों का सामना करते हैं, अगर उनके बच्चे आज्ञा नहीं मानते, अगर उनके पति या पत्नी के कोई नाजायज संबंध हैं, अगर सास-बहू के बीच संघर्ष होते हैं, अगर सहकर्मियों या पड़ोसियों से विवाद होते हैं, अगर उनके बच्चों को तंग किया जाता है, अगर उनकी जमीन किसी स्थानीय तानाशाह द्वारा हड़प ली जाती है, और इसी तरह की अन्य समस्याएँ होती हैं—इन चीजों के होने पर, लोग आशा करते हैं कि कलीसिया में कोई उनके लिए खड़ा हो सके और इन मुद्दों को हल करने और सुलझाने में उनकी मदद कर सके। लोगों के मन में, कलीसिया एक ऐसी ही जगह है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोगों के मन में कलीसिया एक शरणस्थल, एक आदर्श स्वर्ग, चिंताओं को कम करने और कठिनाइयों को हल करने की जगह, हिंसा खत्म करने और भले लोगों को शांति से जीने देने की जगह, और न्याय की रक्षा करने की जगह है। अगर जीवन कठिन हो जाता है तो कलीसिया को राहत प्रदान करनी चाहिए; अगर खाने के लिए सब्जियाँ नहीं हैं और पकाने के लिए चावल नहीं हैं तो कलीसिया को उनका वितरण करना चाहिए; अगर पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं तो कलीसिया को उन्हें खरीदना चाहिए; अगर कोई बीमार हो जाता है तो कलीसिया को इलाज के लिए भुगतान करना चाहिए। जब किसी को काम में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तो कलीसिया वाले भाइयों और बहनों को उनके लिए मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए, अपनी जान पहचान वालों से संपर्क करना चाहिए, संबंधों का लाभ उठाना चाहिए या उसका मार्गदर्शन करना चाहिए। जब किसी के बच्चे कॉलेज में प्रवेश की परीक्षा दे रहे होते हैं, तो वे कलीसिया का रुख करते हैं ताकि और अधिक लोग उनके लिए प्रार्थना कर सकें और यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि उनके बच्चे सफलतापूर्वक कॉलेज में प्रवेश पा सकें। चाहे किसी भी प्रकार की कठिनाइयों से सामना हो, जब तक कोई कलीसिया में आता है, इन सभी कठिनाइयों को हल किया जा सकता है और सुलझाया जा सकता है। भले ही किसी को दुष्ट लोगों के हाथों अत्याचार सहना पड़े, कलीसिया इन सभी चीजों को सुलझा सकती है क्योंकि इसके बहुत सारे सदस्य हैं और इसकी बहुत प्रतिष्ठा है। कई लोगों का प्रोत्साहन और समर्थन पाकर, व्यक्ति डरपोक नहीं रहेगा या गुंडों द्वारा धमकाए जाने से नहीं डरेगा। तंग किए जाने पर, बहिष्कृत किए जाने पर और जीविका कमाने के लिए समाज में निरंतर संघर्ष कर रहा हो, तब व्यक्ति कलीसिया से मदद और अच्छी सलाह प्राप्त कर सकता है और उपयुक्त काम पा सकता है। ये सभी बातें, तथा और भी बहुत कुछ, ऐसी भूमिकाएँ हैं जो लोग मानते हैं कि एक कलीसिया को निभानी चाहिए और वह कार्य है जो इसे करना चाहिए। लोगों के विचारों और धारणाओं, या कलीसिया से उनकी मांगोंके आधार पर यह स्पष्ट है कि वे निस्संदेह कलीसिया को एक कल्याणकारी संस्थान, कोई धर्मार्थ संगठन, विवाह के लिए जोड़ियाँ बनाने वाली या नौकरियाँ दिलाने वाली एजेंसी, या रेड क्रॉस सोसाइटी के रूप में देखते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक सोचते हैं कि वे चाहे कितने भी सक्षम क्यों न हों या समाज और मानवजाति में उनका कोई भी स्थान हो, उन्हें हमेशा एक शक्तिशाली इकाई पर निर्भर रहने की आवश्यकता होती है। जब वे समाज में कठिनाइयों का सामना करते हैं या सत्ताधारियों का सामना करते हैं, तो उन्हें एक मजबूत शक्ति की आवश्यकता होती है जो उनका समर्थन करे, उनके लिए बोले, उनके लिए व्यवस्था करे और उनके अधिकारों और हितों की वकालत करे। उनके दृष्टिकोण में, कलीसिया इस भूमिका को निभा सकती है और उनके अपेक्षित उद्देश्य को प्राप्त कर सकती है, इसलिए कलीसिया उनके लिए एकमात्र विकल्प बन जाती है। यह स्पष्ट है कि वे कलीसिया को एक सामाजिक संघ या संगठन के रूप में देखते हैं, जैसे कि शिक्षकों का संघ, परिवहन संघ, किसानों का संघ, महिलाओं का संघ, बुजुर्गों का संघ इत्यादि—इस प्रकार के सामाजिक समूह और संगठन। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों की कलीसिया की परिभाषाएँ वास्तव में क्या हैं, एक कलीसिया के कार्य और कलीसिया की सही परिभाषा के आधार पर यह स्पष्ट है कि लोगों के कलीसिया के प्रति दृष्टिकोण और मांगें बिल्कुल गलत और अमान्य हैं और लोगों को इन्हें नहीं मानना चाहिए। कलीसिया “धनवानों से लूटकर गरीबों को खिलाने,” हिंसा को समाप्त करने और भले लोगों को शांति से जीने देने, या न्याय को बनाए रखने की जगह नहीं है और न ही यह दुनिया की मदद करने और लोगों को बचाने की जगह है और न ही लोगों की चिंताओं को दूर करने और उनकी कठिनाइयों को हल करने की जगह है। कलीसिया कोई धर्मार्थ संगठन, या कल्याण संस्थान, या कोई सामाजिक संघ नहीं है। कलीसिया की स्थापना और उपस्थिति सामाजिक समूह या संगठन के रूप में कार्य करने के लिए नहीं होती है। कलीसिया को केवल कुछ आवश्यक कार्य करने होते हैं, जैसे कि परमेश्वर के वचनों की गवाही देना और उन्हें फैलाना, लोगों को परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना सिखाना, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना, और अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागकर उद्धार प्राप्त करना। इसके अलावा, कलीसिया की समाज या किसी जातीय समूह को कोई भी कार्य या सहायता प्रदान करने की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। इसके अतिरिक्त, कलीसिया लोगों के अधिकारों और हितों के लिए लड़ने का स्थान नहीं है और न ही इसकी कोई जिम्मेदारी होती है कि लोगों के शारीरिक जीवन, सामाजिक स्थिति, नौकरी के पद, वेतन, सामाजिक कल्याण आदि की सुनिश्चितता करे। अपनी धारणाओं में, लोग मानते हैं कि कलीसिया के कार्यों में हिंसा समाप्त करना और भले लोगों को शांति से जीने देना, न्याय बनाए रखना, लोगों की चिंताओं को दूर करना और उनकी कठिनाइयों को हल करना, दुनिया की मदद करना और लोगों को बचाना, और लोगों के अधिकारों और हितों के लिए लड़ना—मूल रूप से ये सभी कार्य शामिल हैं। इसलिए, लोग मानते हैं कि कलीसिया उनकी तात्कालिक मददगार है और यह कि किसी भी कठिनाई को कलीसिया द्वारा हल किया जा सकता है। स्पष्ट रूप से, लोग कलीसिया को एक सामाजिक संस्थान, संगठन, या समूह के रूप में देखते हैं। लेकिन, क्या कलीसिया ऐसी कोई संस्था है? (ऐसा नहीं है।) अगर लोग यह मानते हैं कि कलीसिया के कार्य और भूमिकाएँ हिंसा समाप्त करना, भले लोगों को शांति से जीने देना, न्याय बनाए रखना, लोगों की चिंताओं को दूर करना और उनकी कठिनाइयों को हल करना, दुनिया की मदद करना और लोगों को बचाना, और लोगों के अधिकारों और हितों के लिए लड़ना हैं, तो ऐसी कलीसिया को कलीसिया नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसका परमेश्वर के वचनों, पवित्रात्मा के कार्य या लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध नहीं है। ऐसे समूह या संगठन को बस एक समूह या संगठन कहा जाना चाहिए, जिसका कलीसिया से कोई संबंध नहीं है, और न ही कलीसिया के कार्य से कोई जुड़ाव है। अगर कोई संगठन, परमेश्वर में विश्वास करने के नाम पर, सेवाओं में भाग लेने, परमेश्वर की आराधना करने, बाइबल पढ़ने, प्रार्थना करने, भजन गाने और स्तुति करने जैसी गतिविधियों में संलग्न होता है, या भले ही इसके पास औपचारिक सभाएँ और आराधना, साथ ही तथाकथित बाइबल अध्ययन सभाएँ, प्रार्थना सभाएँ, सहकर्मी सभाएँ, विचार-विनिमय सभाएँ आदि हों, इसके सदस्यों और संरचना का प्रकार चाहे जो भी हो, इनका सच्ची कलीसिया से कोई संबंध नहीं है। तो, वास्तव में एक सच्ची कलीसिया क्या है? यह कैसे अस्तित्व में आती है? सच्ची कलीसिया परमेश्वर के प्रकट होने, उसके कार्य, और मानवजाति को बचाने के लिए उसके द्वारा व्यक्त किए गए सत्य के कारण बनाई जाती है। यह तब बनती है जब लोग परमेश्वर की वाणी सुनते हैं, उसकी ओर मुड़ते हैं, और उसके कार्य के प्रति समर्पण करते हैं। यही एक सच्ची कलीसिया है। एक कलीसिया का संगठन और स्थापना मनुष्यों द्वारा नहीं किया जाता, बल्कि इसे परमेश्वर स्वयं स्थापित करता है और व्यक्तिगत रूप से इसकी अगुआई और चरवाही करता है। इसलिए, परमेश्वर की अपनी कलीसियाओं के लिए विशेष जिम्मेदारियाँ होती हैं। एक कलीसिया का उद्देश्य परमेश्वर के वचनों का प्रसार करना, परमेश्वर के कार्य की गवाही देना, लोगों को परमेश्वर की आवाज सुनने, उसके समक्ष लौटने, परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने, उसके कार्य का अनुभव करके परमेश्वर के उद्धार को प्राप्त करने और परमेश्वर के लिए गवाही देने में मदद करना है—यह बस इतना ही सरल है। यही एक कलीसिया के अस्तित्व का मूल्य और महत्व है।

III. कलीसिया की परिभाषा

कलीसिया क्या है इस विषय पर संगति करने के बाद, अब तुम लोगों को कलीसिया के गठन, कलीसिया द्वारा किए जाने वाले कार्य और इससे प्राप्त होने वाले परिणामों के बारे में कुछ समझ आ गई होगी। अब तुम लोग कलीसिया के अस्तित्व के मूल्य और महत्व को भी थोड़ा समझ सकते हो। तो, क्या अब हम इसकी एक सटीक परिभाषा बना सकते हैं कि वास्तव में कलीसिया क्या है? सबसे पहली बात तो यह है कि कलीसिया लोगों को भावनात्मक सांत्वना प्रदान करने की जगह नहीं है, और न ही यह लोगों को भोजन और वस्त्र प्रदान करने या शरण देने की कोई जगह है। कलीसिया लोगों के शारीरिक अधिकारों और हितों को सुनिश्चित करने या उनके जीवन की कठिनाइयों को हल करने की जगह नहीं है। यह लोगों के आध्यात्मिक खालीपन को भरने और उन्हें आध्यात्मिक पोषण प्रदान करने की जगह भी नहीं है। चूँकि कलीसियाएँ वह नहीं हैं जो लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार उन्हें मानते हैं, तो फिर कलीसिया की विशिष्ट परिभाषा क्या है? कलीसिया वास्तव में क्या है? बाइबल में, प्रभु यीशु ने कलीसिया शब्द का एक बुनियादी विवरण दिया है। उसने इसे ठीक किस तरह से समझाया है? (“क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ” (मत्ती 18:20)।) इन शब्दों का मतलब है कि चाहे कितने भी लोग एकत्रित हों, जब तक उनके पास पवित्रात्मा का कार्य है और वे परमेश्वर को अपने साथ महसूस करते हैं, वह स्थान एक कलीसिया है—बिल्कुल यही बात है। अंत के दिनों में, परमेश्वर कार्य करने और सत्य व्यक्त करने के लिए प्रकट हुआ है। जब लोग परमेश्वर के वचन को खाने और पीने, प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ने और उन पर संगति करने के लिए इकट्ठा होते हैं, तब परमेश्वर वहाँ मौजूद होता है, और पवित्रात्मा की प्रबुद्धता भी वहाँ होती है, जिसका मतलब है कि परमेश्वर इसे एक कलीसिया के रूप में पहचानता है। अगर लोग इकट्ठा होते हैं लेकिन परमेश्वर के वचन खाते और पीते नहीं है, अगर वे केवल आध्यात्मिक सिद्धांतों की नकल करते हैं और वे पवित्रात्मा के कार्य को महसूस नहीं कर पाते हैं, तो यह एक कलीसिया नहीं है, क्योंकि परमेश्वर इसे कलीसिया के रूप में नहीं पहचानता है और इसलिए इसमें पवित्रात्मा का कार्य नहीं होता है। वे सभाएँ जहाँ परमेश्वर उपस्थित होता है, वे उसके द्वारा धन्य और निर्देशित होती हैं, और जब लोग ऐसी सभाओं में इकट्ठा होते हैं, चाहे वे परमेश्वर के वचन को खा और पी रहे हों, सत्य पर संगति कर रहे हों, या समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर रहे हों, ये सभी परमेश्वर की अपेक्षाओं और अगुआई से जुड़े होते हैं और इसलिए वे सभी उसके द्वारा धन्य होते हैं। इसलिए, जब तक किसी प्रकार की सभा में परमेश्वर का मार्गदर्शन, अगुआई, और उपस्थिति होती है, इसे एक कलीसिया कहा जा सकता है। यह कलीसिया की सबसे सरल और बुनियादी परिभाषा है, और यह अनुग्रह के युग में कलीसिया की परिभाषा थी। यह उस समय परमेश्वर के कार्य के संदर्भ में अस्तित्व में आई थी, और इसलिए यह सटीक है और सत्य है। लेकिन अंतिम दिनों में न्याय के इस कार्य के चरण में, क्योंकि परमेश्वर ने अधिक वचन कहे हैं और अधिक बड़े कार्य किए हैं, इसलिए कलीसिया की परिभाषा अनुग्रह के युग की उस बुनियादी परिभाषा से अधिक गहरी होनी चाहिए। परमेश्वर का कार्य अब और आगे बढ़ चुका है। एक कलीसिया अब केवल पवित्रात्मा के कार्य और परमेश्वर की उपस्थिति से नहीं जुड़ी है। अब परमेश्वर स्वयं अपनी कलीसियाओं में कार्य कर रहा है, उनकी अगुआई और उनका मार्गदर्शन कर रहा है; परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके वर्तमान वचनों को खाते और पीते हैं और मसीह का अनुसरण करते हुए उसके हक में गवाही देते हैं। इसलिए, अंतिम दिनों में कलीसिया की परिभाषा अनुग्रह के युग की तुलना में अधिक उन्नत है; यह पहले से अधिक गहरा, अधिक सटीक और अधिक विशिष्ट विवरण है, और यह निश्चित रूप से सत्य और परमेश्वर के वचनों से अवियोज्य है। तो फिर एक कलीसिया को परिभाषित करने का सबसे सटीक और उचित तरीका क्या है? पहली बात, इसकी बुनियादी परिभाषा यह होनी चाहिए कि यह उन लोगों का एक समूह है जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। अधिक स्पष्टता के साथ कहें तो कलीसिया का मतलब है लोगों का एक समूह जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो उसके वचनों द्वारा शासित होता है, सत्य का अनुसरण करता है, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करता है, परमेश्वर की आज्ञा का पालन और उसकी आराधना करता है, उसकी इच्छा पर चलता है और उसका उद्धार प्राप्त करता है। इस परिभाषा का मुख्य हिस्सा है “लोगों का एक समूह”। कलीसिया कोई स्थान, समूह या समुदाय नहीं है, और न ही यह सिर्फ आस्था रखने वाले लोगों का एक साधारण जमावड़ा है। यह “समूह” एक दर्जन या उससे अधिक लोगों का हो सकता है या तीस से पचास लोगों का हो सकता है और निश्चित रूप से इससे भी बड़ी संख्या का हो सकता है। वे एक साथ भी सभा कर सकते हैं या छोटे समूहों में विभाजित होकर भी सभा कर सकते हैं; यह लचीला होता है और परिवर्तनीय भी होता है। संक्षेप में कहें तो, जब परमेश्वर के ये अनुयायी उसका गुणगान करते हैं, उसके हक में गवाही देते हैं, उसकी आराधना करते हैं, और उसकी इच्छा का पालन करते हैं, तो वे एक कलीसिया हैं। चाहे उनमें से कितने भी लोग सभा करें, वे फिर भी एक कलीसिया ही हैं। उदाहरण के लिए, 50 लोगों को एक छोटी कलीसिया कहा जाता है, और 100 लोगों को एक बड़ी कलीसिया कहा जाता है—कलीसिया का आकार उसके सदस्यों की संख्या से निर्धारित होता है। बड़ी, मध्यम और छोटी कलीसियाएँ होती हैं, कलीसिया में लोगों की संख्या निश्चित नहीं होती। आओ, कलीसिया की परिभाषा पर एक बार और नजर डालें : लोगों का एक समूह जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो उसके वचनों द्वारा शासित होता है, सत्य का अनुसरण करता है, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करता है, परमेश्वर की आज्ञा का पालन और उसकी आराधना करता है, उसकी इच्छा पर चलता है और उसका उद्धार प्राप्त करता है। कलीसिया को इस तरह परिभाषित क्यों किया जाता है? क्योंकि परमेश्वर कलीसियाओं में काम करना चाहता है, और परमेश्वर उस समूह के लोगों को बचाना चाहता है। केवल इस प्रकार के लोगों के समूह को ही कलीसिया कहा जा सकता है। और यह केवल तभी संभव है जब इस तरह के लोगों का एक समूह एक-साथ आकर सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को खा और पी सकता है और उनका अभ्यास कर सकता है, और वास्तव में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता है, उसके प्रति समर्पण कर सकता है, और उसकी आराधना कर सकता है। लोगों का वह समूह परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित और संचालित होता है, इसलिए, ऐसे लोगों के समूह के माध्यम से ही कलीसिया की परिभाषा निर्मित होती है। चूँकि धर्मों से संबंध रखने वाले लोग सत्य स्वीकार नहीं करते और न ही परमेश्वर का कार्य स्वीकार करते हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता, इसलिए वे एक कलीसिया नहीं हैं, बल्कि वे एक धार्मिक समुदाय हैं। यही एक कलीसिया और धर्म के बीच का सबसे स्पष्ट अंतर है। केवल एक कलीसिया ही परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होती है, और केवल वही कलीसिया परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होती है जिसकी मसीह व्यक्तिगत रूप से चरवाही करता है। परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होने का क्या मतलब है? क्या हमें यहाँ पवित्रात्मा के कार्य, या पवित्रात्मा के मार्गदर्शन, प्रबुद्धता, और प्रकाश का उल्लेख करने की आवश्यकता है? (नहीं।) मुझे बताओ, अधिक व्यावहारिक क्या है : परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होना या पवित्रात्मा का कार्य होना? (परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होना।) परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होना अधिक व्यावहारिक और ठोस है। पवित्रात्मा का कार्य केवल लोगों को कुछ प्रबुद्धता और प्रकाश प्रदान करता है ताकि वे सत्य समझ सकें और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांतों को खोज सकें। इसका परिणाम यह होता है कि वे परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होते हैं। अगर पवित्रात्मा कार्य नहीं करता, तो भी क्या लोग परमेश्वर के वचनों को समझकर और सिद्धांतों को पकड़कर अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं? (हाँ।) अब, परमेश्वर के वचन बहुत अधिक बोले जा चुके हैं; लोग अक्सर उपदेश सुनते हैं और परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं। पवित्रात्मा के कार्य के बिना भी लोग यह जानते हैं कि उन्हें क्या करना है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं और जब तक वे सत्य समझते हैं, तब तक परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद भी उन्हें नहीं समझेंगे, और अगर थोड़ा बहुत समझ भी लेते हैं, तो वे उनका अभ्यास करने के इच्छुक नहीं होंगे, और इस प्रकार केवल हटा दिए जाएँगे। अंत के दिनों में, परमेश्वर सत्य को सीधे व्यक्त करके लोगों का व्यक्तिगत रूप से नेतृत्व और चरवाही करता है। पवित्रात्मा का कार्य केवल सहायक होता है। यह वैसा ही है जैसे जब कोई बच्चा चलना सीख रहा होता है; कभी-कभी एक वयस्क उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाता है। एक बार जब बच्चा स्थिरता से चलने और दौड़ने लगता है, तो फिर उसे सहारा देने की जरूरत नहीं होती। इसलिए, पवित्रात्मा का कार्य न तो अनिवार्य है, और न ही यह महत्वपूर्ण है। जब लोग परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होते हैं, तो इसका मतलब यह होता है कि वे परमेश्वर के वचन समझते हैं, सत्य समझते हैं, और यह जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों का क्या मतलब है और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांत और मानक क्या हैं, और वे इन सिद्धांतों और मानकों को समझकर उन्हें लागू कर सकते हैं। लोगों के दिलों का परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होने का यही मतलब होता है। परमेश्वर पहले ही इन बातों को पर्याप्त स्पष्टता और सटीकता के साथ बता चुका है, इसलिए यहाँ पवित्रात्मा के कार्य का उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अंतिम दिनों में, परमेश्वर ने इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, प्रत्येक सत्य को लोगों के लिए स्पष्ट और समझने योग्य बना दिया है। इसलिए, पवित्रात्मा का कार्य उतना महत्वपूर्ण नहीं है और केवल सहायक है। जब लोग सत्य नहीं समझते या जब परमेश्वर ने इतनी गहराई और स्पष्टता के साथ इतने वचन नहीं बोले होते, केवल तभी पवित्रात्मा कुछ सहायक, प्रेरक प्रकृति का कार्य करता है, जोकि स्वाभाविक रूप से लोगों को थोड़ी सरल प्रबुद्धता प्रदान करता है और उन्हें थोड़ा प्रेरित करता है, जिससे उन्हें सही विकल्प चुनने और अपने जीवन और विभिन्न वातावरणों में सही मार्ग पर चलने में मदद मिलती है। अब परमेश्वर के वचनों का युग है, जहाँ परमेश्वर स्वयं मनुष्यों की अगुआई करने के लिए बोलता है, और परमेश्वर के वचन हर चीज पर प्रभुत्व रखते हैं। पवित्रात्मा का कार्य केवल सहायक होता है। जब लोग सत्य समझते हैं, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकते हैं, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, तब परमेश्वर के इरादे संतुष्ट होते हैं।

आओ, कलीसिया की बुनियादी परिभाषा के पहले वाक्यांश पर नजर डालते हैं : “वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है।” यह “वास्तव में” एक विशेष अर्थ रखता है। इसका तात्पर्य उन लोगों से नहीं है जो केवल समय गुजार रहे हैं, केवल नाम मात्र के सदस्य हैं, जो केवल रोटियाँ तोड़ रहे हैं, जो उद्धार के लिए अनुग्रह पर आश्रित हैं, या जिनके कोई छिपे हुए उद्देश्य और लक्ष्य हैं। तो, “वास्तव में” का क्या अर्थ है? सबसे बुनियादी और सरल व्याख्या यह है : जैसे ही कोई परमेश्वर, सत्य या सृष्टिकर्ता के बारे में सुनता है, उसके दिल में एक लालसा उत्पन्न होती है, वह स्वेच्छा से त्याग करता है, स्वेच्छा से खुद को समर्पित करता है, स्वेच्छा से कष्ट सहता है, और परमेश्वर की पुकार स्वीकार करने के लिए परमेश्वर के सामने आने और परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्यागने को तैयार रहता है। जब तक उसके पास एक सच्चा दिल है, यह पर्याप्त है। कुछ लोग कहते हैं : “तुम यह क्यों नहीं कहते कि यह परमेश्वर का अनुसरण करने वाले आस्था से भरे लोगों का एक समूह है?” लोग उस स्तर तक नहीं पहुँच सकते। जो लोग अभी अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, उनमें से कुछ लगभग दस वर्षों से विश्वास कर रहे हैं, और कुछ बीस या तीस वर्षों से; उनके पास यह वास्तविकता होना मूल रूप से पर्याप्त है। इसे आस्था से भरा होने के रूप में परिभाषित करना सटीक नहीं है। हमारी कलीसिया की परिभाषा एक बुनियादी और विशिष्ट स्थिति पर आधारित है, बिना शब्दों की नुक्ताचीनी किए या परिभाषा और मानक को बहुत ऊँचा निर्धारित किए, क्योंकि ऐसा करना अव्यवहारिक होगा। कुछ लोग कहते हैं, “सिर्फ ‘वास्तविक’ और ‘आस्था से भरा’ कहना पर्याप्त नहीं है। इसे परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले धार्मिक लोगों का एक समूह कहा जाना चाहिए—यह बेहतर होगा!” अगर हम मानक को इतना ऊँचा निर्धारित करते हैं, तो इसके बाद वाले वाक्यांश, “सत्य का अनुसरण करता है, उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करता है,” सभी अनावश्यक हो जाएँगे। मुख्य बात यह है कि कलीसिया के सभी सदस्य वे हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। लोगों का यह समूह शैतान के भ्रष्ट स्वभावों से भरा हुआ है और परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरा हुआ है। अधिक यथार्थवादी ढंग से कहूँ तो, वे विद्रोह से भरे हुए हैं, उनमें समर्पण की कमी है, वे सत्य नहीं समझते, और उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं है—यह सबसे अधिक वास्तविक स्थिति है। इसलिए, परमेश्वर की नजरों में, कलीसिया के सदस्य ऐसी वास्तविक स्थिति और वास्तविक हैसियत में हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों का चयन इस बुनियादी शर्त पर आधारित होता है : क्या वे वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, और खुद को सच्चे मन से खपा सकते हैं और त्याग सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “अगर वे वास्तविक हैं, तो फिर भी उनके पास अब भी अत्यधिक इच्छाएँ क्यों हैं? अगर वे वास्तविक हैं, तो वे अब भी आशीष क्यों प्राप्त करना चाहते हैं?” जैसे-जैसे लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करेंगे, ये चीजें धीरे-धीरे बदल जाएँगी। अभी, हम कलीसिया की बुनियादी अवधारणा को परिभाषित कर रहे हैं। यह बुनियादी अवधारणा परमेश्वर द्वारा चुने गए लोगों के लिए न्यूनतम आवश्यकता और सबसे निम्न मानक है। ये मानक बिल्कुल भी खोखले नहीं हैं या बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताए गए हैं; ये विशेष रूप से तुम लोगों की वास्तविक स्थिति के अनुरूप हैं। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर तुम लोगों को चुनता है और तुम लोगों में से किसी को भी बचाने का निर्णय करता है, तो यही वे मानदंड होते हैं जिन पर परमेश्वर गौर करता है। अगर तुम इन अपेक्षाओं को पूरा करते हो, तो तुम परमेश्वर के द्वारा परमेश्वर के घर में लाए जाते हो और तुम कलीसिया के सदस्य बन जाते हो। यही वास्तविक स्थिति है। इसलिए, कलीसिया की परिभाषा में पहला वाक्यांश है “वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है”; यह अपेक्षाकृत सटीक है। ये लोग परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असफल रहते हैं, वे अंधकारमय प्रभाव से पूरी तरह बाहर निकलने में असफल रहते हैं, और वे संसार और बड़े लाल अजगर के खिलाफ पूरी तरह विद्रोह करने में असफल रहते हैं। वे इन सभी चीजों में असफल रहते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि इस परिभाषा में आगे परमेश्वर के वचनों के अभ्यास का प्रयास करने में सक्षम होने का उल्लेख किया गया है। इस प्रयास करने की प्रक्रिया में, लोग परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास कर सकते हैं, क्योंकि उनके दिल में सत्य से प्रेम करने और सत्य के लिए तरसने का भाव होता है, और अंततः, वे परमेश्वर की आराधना कर सकते हैं। परमेश्वर की आराधना करने में परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, उसके वचनों को सुनना, उसके आयोजनों को स्वीकार करना, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना शामिल है। अंततः, लोगों का यह समूह उद्धार प्राप्त कर सकता है। यह परमेश्वर की नजरों में कलीसिया के सदस्यों की वास्तविक स्थिति है। क्या यह सबसे बुनियादी शर्त नहीं है? (बिल्कुल है।) कुछ लोग कहते हैं, “तुमने शैतान के भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने और शुद्धिकरण प्राप्त करने का उल्लेख नहीं किया। कलीसिया की इस परिभाषा में ये सब शामिल नहीं हैं।” क्या ये इस परिभाषा में शामिल हैं? (हाँ, हैं।) उन्हें किस भाग में शामिल किया गया है? परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना। अगर तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास कर सकते हो, तो क्या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे हल नहीं हो जाते? क्या तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने और स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो जाते? (हाँ।) स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने की अवधि के दौरान, तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचन समझते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करते हो। जब तुम अपने कुछ भ्रष्ट स्वभाव हल कर रहे होते हो, क्या तुम्हारी परमेश्वर में आस्था और परमेश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है? क्या इनमें कोई संबंध है? (बिल्कुल है।) जितनी अधिक तुम परमेश्वर की आराधना करते हो, उतना ही अधिक तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण अनुभव करते हो। जैसे-जैसे तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण बढ़ता है, क्या तुम उद्धार प्राप्त करने के करीब नहीं पहुँच रहे हो? (बिल्कुल पहुँच रहे हैं।) तो, यह समूह किस तरह के लोगों का है? ये वे लोग हैं जो उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। यही कलीसिया के सदस्यों की वास्तविक स्थिति है। कुछ लोग कहते हैं, “कलीसिया की इस परिभाषा में यह उल्लेख नहीं है कि कलीसिया क्या कार्य करती है।” क्या इसमें कोई भाग है जो कलीसिया द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य से संबंधित है? (उद्धार प्राप्त करने का अनुसरण करना।) यह भाग कलीसिया द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य से बहुत करीब से जुड़ा हुआ है। एक कलीसिया का जो कार्य है, चाहे वह परमेश्वर के वचनों का प्रचार करना हो या परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के लिए लोगों का मार्गदर्शन करना हो, स्वयं को जानने और शैतान के भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने में लोगों की मदद करना हो, अंततः इसका उद्देश्य उद्धार प्राप्त करने में लोगों की मदद करना होता है। तो क्या तुम लोग अब कलीसिया के इस सबसे बुनियादी और सरल सिद्धांत को स्वीकार कर सकते हो? (हाँ।) यह परिभाषा न तो बढ़ा चढ़ा कर है और न ही खोखली है, और न ही यह बड़े-बड़े शब्दों और वाक्यांशों का उपयोग करती है, बल्कि इसमें कलीसिया के गठन या उसकी परिभाषा के लिए सबसे बुनियादी आवश्यकताओं को शामिल किया गया है।

अब जबकि मैंने तुम लोगों को कलीसिया की अवधारणा की परिभाषा के पीछे की पृष्ठभूमि समझा दी है, क्या यह तुम लोगों की समझ में आ गई है? (हाँ।) अगर मैंने इसे इस तरह नहीं समझाया होता, तो तुम लोगों को लगता कि कलीसिया का आवश्यक कार्य और कलीसिया की परिभाषा बहुत गहन है। अब जबकि तुमने कलीसिया की परिभाषा को समझ लिया है, तो तुम्हें लगता है कि कलीसिया के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सतही है। कलीसिया की परिभाषा स्पष्ट कर दी गई है—यह बहुत व्यावहारिक है। चीजें जितनी अधिक व्यावहारिक होती हैं, लोग अक्सर उन्हें उतनी ही अधिक सतही महसूस करते हैं। वास्तव में, अगर तुम करीब से देखो, तो इस परिभाषा का हर शब्द व्यावहारिक और विशिष्ट परिस्थितियों से से जुड़ा हुआ है और उनसे निकटता से संबंधित है, और यह बिल्कुल भी सतही नहीं है। कलीसिया की परिभाषा में पहला वाक्यांश है “वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है”। परमेश्वर यही “वास्तव में” तो चाहता है। कितने लोग ऐसी वास्तविकता रखते हैं? क्या लोगों के लिए यह वास्तविकता रखना आसान होता है? यह आसान नहीं है। जहाँ तक “परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित” होने की बात है, क्या तुमने अभी तक इसे हासिल कर लिया है? तुम्हें लगता है कि यह वाक्यांश सतही है और आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। अगर परमेश्वर कहता है, “उठो, मेरा अनुसरण करो, और अपना कर्तव्य निभाओ,” और लोग उसकी आज्ञा मानते हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के वचनों के द्वारा शासित हैं? इसका मतलब केवल यही है कि लोग परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन वे अभी तक उस मुकाम तक नहीं पहुँचे हैं जहाँ वे परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित हो सकें—वे अभी भी इससे बहुत दूर हैं! परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? इसके लिए न्यूनतम आवश्यकता यह है कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों को समझना चाहिए; तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में बताई गई अपेक्षाएँ किन संदर्भों से संबंधित हैं, परमेश्वर के वचनों द्वारा किन सिद्धांतों की अपेक्षा की जाती है, और विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों का सामना करते समय, परमेश्वर के वचनों को कैसे लागू करना है, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के वचनों को अपने अभ्यास में कैसे बदलना है। यह आसान नहीं है। धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों के द्वारा कुछ हद तक शासित होने के लिए परमेश्वर के वचनों का लंबे समय तक खाना और पीना, प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ना, उनका अनुभव करना, उनसे जुड़ना और उन्हें समझना, और परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के स्वभाव को समझना आवश्यक है। इसलिए, यह वाक्यांश “परमेश्वर के वचनों द्वारा शासित होता है” सतह पर तो सरल लगता है, जैसे कि अधिकांश लोग परमेश्वर के वचनों के द्वारा ही शासित होते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। लोगों की वास्तविक स्थितियों से यह स्पष्ट होता है कि यह वाक्यांश केवल परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाएँ हैं, जिन्हें वे अभी तक बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर पाए हैं। अगला वाक्यांश, “उसके वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना,” लोगों से परमेश्वर की अपेक्षा है। तुमने अभी तक परमेश्वर के वचनों का अभ्यास प्राप्त नहीं किया है; तुम केवल परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास कर रहे हो। तुम्हें इसका प्रयास कैसे करना चाहिए? जब तुम्हारा सामना किसी स्थिति से हो, तो परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करो। झूठ मत बोलो; एक ईमानदार व्यक्ति बनो। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? यह करना आसान नहीं है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, तो तुम्हें समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए, और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? अगर यह करना कठिन महसूस होता है या तुम्हारी अपनी इच्छा बहुत प्रबल है और तुम हमेशा अपने उतावलेपन को प्रकट होने देना चाहते हो, तो तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार मामलों से निपटने का प्रयास करना चाहिए और अपने उतावलेपन को प्रकट नहीं करना चाहिए या मनमाने और स्वेच्छाचारी तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए, अपने अपराधों को जानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि तुम कहाँ गलत थे। इसे कहते हैं परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना। क्या परमेश्वर के वचनों का अभ्यास शुरू करना यह दर्शाता है कि किसी व्यक्ति में परिवर्तन आ गया है? यह इतना सरल नहीं है। अगर तुम्हें एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुना जाता है, तो क्या तुम मनमाने और स्वेच्छापूर्ण ढंग से कार्य करने से बच सकते हो? यह आसान नहीं है; इसके लिए आवश्यक है कि तुम लोग सत्य समझो, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में सक्षम बनो और एक निश्चित अवधि तक इसका अनुभव करो; तभी तुम लोग इसे प्राप्त कर सकते हो। अगर तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो, लेकिन यह केवल तुम्हारी मौखिक इच्छा है और तुम्हारे दिल में कोई प्रेरणा नहीं है, तो फिर यह पर्याप्त नहीं है। जब तुम्हारा दिल तैयार हो, और तुम वास्तव में सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, तो फिर तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो। लेकिन जब तुम्हारे दिल में सत्य का अभ्यास करने की इच्छा ही न हो, तो फिर चाहे तुम कसम भी खा लो या दूसरे लोग तुम्हारी मदद भी करें, तो यह सब बेकार ही होगा। तुम्हारे अंदर दृढ़ संकल्प होना चाहिए, अर्थात, तुम्हारे दिल में परमेश्वर को प्राप्त करने के प्रति गहरी इच्छा होनी चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किसी मामले को कैसे परिभाषित करता है और उसके संबंध में उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, इस पहलू से संबंधित परमेश्वर के सभी वचनों को ढूँढकर एकत्रित करो और फिर प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ो और समझो। उन्हें एक कॉपी में लिखो या ऐसी जगह लटका दो जहाँ पर तुम उन्हें आसानी से देख सको। अपने काम के ब्रेक के दौरान उन्हें देखो, पढ़ो और समय के साथ-साथ, तुम परमेश्वर के इन वचनों को याद कर लोगे और उन्हें अपने दिल में रखोगे। हर दिन परमेश्वर के वचनों के सही मतलब पर विचार करो और सोचो कि वास्तव में किस तरह से बोलना और कार्य करना परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना कहलाता है। इसे कहते हैं परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का प्रयास करना। क्या इसे हासिल करना आसान है? यह आसान नहीं है; यह ऐसा नहीं है जिसे एक ही रात में या एक बार के प्रयास से पूरा किया जा सके। कुछ लोग कहते हैं, “मैं खून की कसम खाता हूँ,” लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। तुम कहते हो, “मैं उपवास करूँगा और बिना खाए-पीए प्रार्थना करूँगा,” लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। तुम कहते हो, “मैं सारी रात जागकर कष्ट उठाऊँगा,” लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए; तुम्हारे अंदर सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए, और तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने का एक मार्ग होना चाहिए; तुम्हारे पास सही साधन और तरीके होने चाहिए। चाहे तुम्हारे पास किसी भी प्रकार के साधन या तरीके हों, तुम परमेश्वर के वचनों से पीछे नहीं हट सकते; तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रयास करना चाहिए, हर चीज की तुलना परमेश्वर के वचनों से करनी चाहिए, हर परिस्थिति में समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहिए और परमेश्वर के वचनों को ही अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाना चाहिए। इसे कहते हैं सत्य का अनुसरण करना। उदाहरण के लिए, जब दूसरों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें यह देखना चाहिए कि इस बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं और दूसरों के साथ बातचीत करने से संबंधित परमेश्वर के वचनों को ढूँढना चाहिए। सामंजस्यपूर्ण सहयोग के लिए, इस पहलू से संबंधित परमेश्वर के वचनों को भी खोजो। अपने कर्तव्य वफादारी से निभाने के बारे में, कर्तव्यों के मानक स्तर पर निर्वाह से संबंधित परमेश्वर के वचनों को ढूँढो और परमेश्वर के आवश्यक वचनों को याद करो, उन्हें अपने दिल में रखो। जहाँ तक यह बात है कि एक झूठा अगुआ क्या होता है, झूठे अगुओं में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं, क्या उनमें अंतरात्मा और सूझ-बूझ होती है या नहीं और परमेश्वर झूठे अगुओं को कैसे परिभाषित करता है, परमेश्वर के इन सभी प्रमुख वचनों को खोजो और उन्हें एक कॉपी में लिखो, उन्हें ऐसी जगह पर लटका दो जहाँ पर तुम उन्हें आसानी से देख सको और जब भी समय मिले, प्रार्थना करते हुए उन्हें पढ़ो। तुम्हारे जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन से संबंधित हर मामले के लिए, इसी तरह अभ्यास करो और प्रयास करो। इसे कहते हैं सत्य का अनुसरण करना। अगर तुम्हारा प्रयास इस स्तर तक नहीं पहुँचता, तो फिर इसे सत्य का अनुसरण करना नहीं कहा जा सकता; इसे आधे-अधूरे मन से काम करना, सतही रूप से काम करना और बस जैसे-तैसे अपने दिन बिताना कहा जाता है।

चलो अब “परमेश्वर की आराधना करता है” को देखते हैं। परमेश्वर की आराधना करने में वास्तविक भय, आदर, सम्मान, और वास्तविकता शामिल होती है, साथ ही इसमें परमेश्वर को परमेश्वर मानना, अपने दिल में परमेश्वर के लिए एक खास स्थान रखना, परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए गए वातावरणों और दिए गए आदेशों के प्रति तर्कसंगत रवैया रखना और परमेश्वर के हर वचन को गंभीरता और जिम्मेदारी से लेना आदि शामिल हैं। इन सभी अभिव्यक्तियों को आराधना कहा जाता है। चाहे वे परमेश्वर द्वारा तुमसे आमने-सामने कहे गए वचन हों या वे सभी वचन हों जो उसने कभी किसी भी समय व्यक्त किए हैं, जब तक तुम उन्हें जानते और याद रखते हो, और जब तक तुम उन्हें अपने दिल ही दिल में समझते और स्वीकार करते हो, तुम्हें उन्हें अपने आचरण, जीवन, आदि के मापदंड के रूप में मानना चाहिए—यह परमेश्वर की आराधना करने की अभिव्यक्ति है। जब तुम्हारा सामना किसी भी मामले से हो, तो चाहे वह तुम्हारी पसंद, इच्छाओं या धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, तुम्हें फिर भी अपने दिल को शांत करने में सक्षम होना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि, “क्या यह परमेश्वर द्वारा किया गया था? क्या इसकी शुरुआत परमेश्वर से हुई थी? परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया? परमेश्वर मुझ में क्या शोधन करना चाहता है, वह मुझ में क्या बदलना चाहता है? वास्तव में परमेश्वर का इरादा क्या है? मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए? मुझे परमेश्वर के इरादे को कैसे संतुष्ट करना चाहिए? एक मानव होने के नाते मुझे अपनी जिम्मेदारी कैसे निभानी चाहिए?” कुछ अन्य ऐसी अभिव्यक्तियों के साथ-साथ ये सभी अभिव्यक्तियाँ भी परमेश्वर की आराधना करने की अभिव्यक्तियाँ हैं। भले ही तुम लोग अधिक सत्य न समझ पाओ, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति के रूप में, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, तुम्हें कम से कम परमेश्वर के प्रति यही रवैया अपनाना चाहिए। परमेश्वर से संबंधित हर चीज, परमेश्वर के वचनों से संबंधित हर चीज, परमेश्वर द्वारा तुम लोगों को दिए गए आदेश, तुम्हारे कर्तव्य और तुम्हारी जिम्मेदारी, इन सभी चीजों को तुम्हें, लापरवाही से नहीं, उदासीनता से नहीं, तिरस्कारपूर्वक नहीं, बल्कि ध्यानपूर्वक और सावधानी से देखना चाहिए—इसे ही परमेश्वर की उपासना करना कहते हैं। परमेश्वर से संबंधित हर चीज से एक सतर्क, सावधान, परमेश्वर का भय मानने वाले, और परमेश्वर से डरने वाले दिल के साथ निपटना—इसे ही परमेश्वर की उपासना करना कहते हैं। क्या इसे हासिल करना आसान है? यह आसान नहीं है। वास्तविक अनुभव के बिना, केवल “परमेश्वर की आराधना करता है” इन पाँच शब्दों को ही समझना कठिन है, तो परमेश्वर की वास्तविक आराधना करने का अभ्यास करना तो दूर की बात है। कलीसिया की परिभाषा का अंतिम वाक्यांश है “उसका उद्धार प्राप्त करता है”। इसे कैसे समझा जाना चाहिए? उद्धार प्राप्त करने का मार्ग लंबा होता है और यहाँ इसके लिए और भी अधिक की आवश्यकता है। सबसे पहले तो जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह सही होना चाहिए; तुम्हें परमेश्वर के वचनों में शामिल सभी सत्यों को स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए और तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने प्रयास करता हो और परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो। तुम्हारा जीवन परमेश्वर के वचनों के द्वारा शासित होना चाहिए। तुम्हें केवल परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करना चाहिए, बल्कि सत्य से प्रेम भी करना चाहिए और सत्य के अनुसार कार्य भी करना चाहिए; तुम्हारे दिल में परमेश्वर का वास्तविक भय और उसके प्रति सच्चा समर्पण होना चाहिए, और तुम्हें अक्सर अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और धीरे-धीरे परमेश्वर की आराधना करने की ओर बढ़ना चाहिए। तब तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है; तुम ठीक वही व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है। जो व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है, उसे एक सही व्यक्ति होना चाहिए। एक सही व्यक्ति होने का क्या फायदा है? फायदा यह है कि फिर तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत मुश्किल नहीं होगा; तुम्हारे दिल में इसे प्राप्त करने की आशा होगी। कलीसिया की परिभाषा के विशिष्ट विवरणों पर हम केवल इतनी ही संगति करेंगे।

IV. कलीसिया के प्रति लोगों की धारणाएँ और विचार

अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि कलीसिया क्या है, वह क्या आवश्यक कार्य करती है, और लोग अपनी धारणाओं के दायरे में कलीसिया के बारे में क्या कल्पना करते हैं और उससे क्या अपेक्षा रखते हैं। अंततः, हमने कलीसिया की अवधारणा की एक परिभाषा बनाई। अब जबकि इसे परिभाषित कर दिया गया है, तो तुम्हें “कलीसिया” पदनाम की सटीक समझ होनी चाहिए; तुम्हें उस कार्य की जो एक कलीसिया को करना चाहिए, सत्य और उद्धार की प्राप्ति में लोगों की सहायता करने में कलीसिया की भूमिका की, तथा परमेश्वर का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए कलीसिया के महत्व की बुनियादी समझ होनी चाहिए। हमने संक्षेप में एक प्रतिनिधि गहन-विश्लेषण और प्रकाशन भी किया कि लोगों की धारणाओं में कलीसिया के अस्तित्व का क्या महत्व है और उनकी धारणाओँ के अनुसार कलीसिया को क्या काम करना चाहिए। लोगों की धारणाओं में कलीसियाओं से जुड़ी जो समझ और व्याख्याएँ हैं क्या उनमें ऐसा कुछ है जिसे समझने में तुम लोग असमर्थ हो? कुछ लोग सोचते हैं कि कलीसिया को समाज में किसी तरह का काम करना चाहिए या समाज में किसी तरह की भूमिका निभानी चाहिए, जैसे कि न्याय की रक्षा करना। लोगों की धारणाओं में कलीसिया एक सकारात्मक छवि का प्रतिनिधित्व करती है, तो यह न्याय की रक्षा क्यों नहीं कर सकती? क्या न्याय की रक्षा का कलीसिया के कार्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना है? (नहीं।) लोग जिस “न्याय की रक्षा” की बात करते हैं, उसका क्या मतलब है? (जिसे लोग न्याय की रक्षा करना कहते हैं, वह सच्चा न्याय नहीं है। वह केवल देह के हितों की रक्षा करना है और वह सत्य के अनुरूप नहीं है।) क्या इस न्याय का सत्य से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इसे ही मानवजाति न्याय कहती है। उदाहरण के लिए, कुछ दुष्ट शक्तियों को परास्त करना, कुछ अन्यायों, और लोगों के साथ हो रहे गलत व्यवहार और अपमान के मामलों को सुधारना, या बुरे लोगों को उचित दंड देना, और कमजोर समूहों के हितों को बहाल करना और उनकी रक्षा करना, इत्यादि—इन्हें ही लोग न्याय की रक्षा करना कहते हैं। न्याय की रक्षा करने का मुख्य उद्देश्य क्या है? क्या लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने से इसका कोई संबंध है? क्या लोगों को बचाए जाने से इसका कोई संबंध है? (नहीं।) यह मानवीय धार्मिकता और नैतिकता के आधार पर उत्पन्न होने वाली एक कहावत भर है; इसका सत्य से जरा भी लेना-देना नहीं है। क्या हम कह सकते हैं कि यह बात सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचती है? (हाँ।) क्या हम सचमुच ऐसा कह सकते हैं? (नहीं; दोनों असंबंधित हैं।) ठीक है, वे पूरी तरह से असंबंधित हैं; वे दो अलग-अलग चीजें हैं। मानवजाति किस तरह के न्याय का समर्थन करती है? यह वह न्याय है, जिसमें थोड़े से नीचे के सामाजिक स्तर के आम आदमी को दुष्ट लोगों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने, या उसे किसी भी अधिकार या हित से वंचित किए जाने के बाद दुष्ट लोगों को उचित रूप से दंडित किया जाता है, और तब आम या साधारण व्यक्ति को दुर्व्यवहार नहीं सहना पड़ता। इसका संबंध लोगों के शारीरिक हितों को बहाल करने और उनकी गारंटी देने, लोगों के बीच सापेक्ष समानता लाने, सामाजिक स्तरों के बीच अंतराल को खत्म करने और यह सुनिश्चित करने से है कि दुष्ट लोग अपने कुकर्मों में सफल न हों और जिनके साथ कुछ गलत हुआ है उनकी शिकायतों का निवारण हो जाए। मानवजाति इसे ही न्याय कायम रखना कहती है, और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम लोग अब भी कैसे कह सकते हो कि यह बात सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचती? क्या यह सत्य से संबंधित है? नहीं, यह नहीं है। मुझे बताओ, क्या वे साधारण और आम लोग जिन्होंने दुख भोगे हैं, वे जरूरी तौर पर अच्छे लोग हैं? (जरूरी नहीं।) उन्हें दुख भोगने से रोकना—क्या यह न्याय है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? तब, क्या उन लोगों को बचाया जा सकता है? ये स्पष्ट रूप से दो अलग-अलग मामले हैं—उनमें घालमेल कैसे किया जा सकता है? इसके सत्य के स्तर तक पहँचने का कोई सवाल ही नहीं है; यह सत्य जैसी चीज ही नहीं है। यदि तुम लोगों के मन में इस मुद्दे पर कुछ विवाद हैं, तो शायद तुममें से अधिकांश लोग न्याय की रक्षा के मामले को ठीक से समझ नहीं पा रहे हो और अभी भी कुछ हद तक इससे जुड़े हुए हो, और सोचते हो कि, “यह गलत कैसे हो सकता है? यह वह कार्य क्यों नहीं हो सकता जो किसी कलीसिया को करना चाहिए?” वास्तव में, इसका कलीसिया के काम से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि कलीसिया को ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ दुष्टता को दंडित किया जाए और अच्छाई को बढ़ावा दिया जाए, कि उसे यह कार्य करना चाहिए कि बुरे कर्मों और बुरी, काली शक्तियों को दंडित करते हुए अच्छी और नेक चीजों को बढ़ावा दे। क्या यही मामला है? क्या बुराई को दंडित करना और अच्छाई को बढ़ावा देना सत्य के स्तर तक उठ सकता है? जब बुराई और अच्छाई की बात आती है, तो लोग उनके बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं कर पाते। लोगों का “बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने” से क्या मतलब है? क्या यह बुराई को दंडित करने, अच्छाई को पुरस्कृत करने, और परमेश्वर के कहे के मुताबिक सभी को उनकी किस्म के आधार पर अलग-अलग करने से संबंधित है? (नहीं।) यह उससे संबंधित नहीं है। बुराई और अच्छाई को परिभाषित करने के लिए मानवजाति का मानक क्या है? चीनी लोगों की परिभाषा के अनुसार बुराई क्या है और अच्छाई क्या है? बुराई और अच्छाई की उनकी परिभाषा का आधार क्या है? यह आधार बौद्ध संस्कृति है। बौद्ध धर्म की अवधारणाओं में दुनिया की मदद करने और लोगों को बचाने, हत्या से दूर रहने जैसी बातें है—इन्हें अच्छा माना जाता है, जबकि मुर्गा, मछली, गोमांस या भेड़ का मांस खाना बुरा माना जाता है और ऐसा करने वाले को दंडित किया जाना चाहिए। मांस नहीं खाना चाहिए, और किसी भी जीवित प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए। हत्या करना बुरा माना जाता है, और जो लोग हत्या करते हैं उन्हें बुद्ध के सामने अपराध स्वीकार करते हुए क्षमायाचना करनी चाहिए। यह बुराई की बौद्ध परिभाषा है; क्या यह वही बुराई है जिसके बारे में परमेश्वर कहता है? (नहीं।) वे दो अलग-अलग चीजें हैं, इसलिए बुराई की उस परिभाषा का सत्य से कोई मतलब नहीं है और यह निश्चित रूप से सत्य के स्तर तक नहीं पहुँच सकती। तो, बौद्ध धर्म में अच्छाई का क्या अर्थ है? यह अर्थ और भी बेतुका, सतही और पाखंडी है। बौद्धों का मानना है कि किसी भी जीवित प्राणी को न मारना अच्छी बात है और बंदी जानवरों को छोड़ देना अच्छी बात है। किसी दुष्ट व्यक्ति ने चाहे जितने लोगों को मारा हो या कितने ही पाप किए हों, अगर वह हथियार डाल दे, तो वह तुरंत बुद्ध बन सकता है—इसे अच्छा माना जाता है। एक कहावत भी है, “एक जीवन बचाना सात-मंजिला मंदिर बनाने से बेहतर है,” जिसका अर्थ है बिना किसी शर्त और बिना किसी सिद्धांत के लोगों को बचाना—यहां तक कि शैतानों, दुष्ट लोगों, ठगों, गुंडों और किसी को भी बचाना अच्छा माना जाता है। यह किस तरह की अच्छाई है? ऐसे लोग मंदबुद्धि होते हैं, जिनमें कोई समझ, रुख या सिद्धांत नहीं होते। किसी को बचाना और किसी को माफ करना—क्या इसे अच्छा माना जा सकता है? यह कृत्य इस शब्द के लायक भी नहीं है; यह शैतान और दानवों का दिखावा है। वे जानवरों को नहीं मारते लेकिन अनगिनत आत्माओं को खा गए। यह उनकी तथाकथित अच्छाई है, जो वास्तव में सिर्फ दिखावा है। तो, क्या यह मानवीय धारणा सही है कि कलीसिया को बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने की भूमिका निभानी चाहिए? (नहीं।) किसी भी जाति या धर्म की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना, बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने का कलीसिया के काम या कलीसिया की गवाही से कोई संबंध नहीं है। ऐसा मत सोचो कि न्यायसंगत और प्रशंसनीय लगने के कारण इन शब्दों को कलीसिया के काम से जोड़ा जाना चाहिए या यह वह भूमिका है जो कलीसिया को समाज में निभानी चाहिए। यह एक मानवीय धारणा और कल्पना है। “न्याय को कायम रखने” और “बुराई को दंडित करने और अच्छाई को बढ़ावा देने” के अलावा, मानवीय धारणाओं के अनुसार अन्य अच्छे शब्दों जैसे “लोगों के अधिकारों और हितों के लिए लड़ना” और “लोगों की चिंताएं दूर करना और कठिनाइयों का समाधान करना” आदि का भी कलीसिया के काम या कलीसिया की गवाही से कोई संबंध नहीं है। तुम सभी को यह समझने में सक्षम होना चाहिए। कलीसिया की परिभाषा, कलीसिया को जो काम करना चाहिए, और कलीसिया के अस्तित्व के मूल्य और महत्व पर कमोबेश स्पष्ट शब्दों में संगति पूरी हो चुकी है।

विभिन्न प्रकार के बुरे लोगों को पहचानने के मानक और आधार

आओ, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की चौदहवीं जिम्मेदारी पर लौटते हैं : सभी तरह के बुरे लोगों और मसीह विरोधियों को तुरंत पहचानना और फिर उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करना। आओ देखें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो काम करना चाहिए, क्या वह कलीसियाओं के बारे में उन सभी विवरणों से संबंधित है जिनके बारे में मैंने अभी-अभी संगति की है। हमें इन विशिष्ट विवरणों पर संगति करने की आवश्यकता क्यों है? इन विवरणों और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जो काम करना चाहिए, उनके बीच क्या संबंध है? (ये बुरे लोग और मसीह-विरोधी कलीसिया के सदस्य नहीं हैं और उन्हें दूर किए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा, उनका अस्तित्व कलीसियाओं द्वारा किए जाने वाले काम में रोड़े डालता है और उसे बाधित करता है।) तो, इनके बीच एक संबंध है; यह संगति व्यर्थ नहीं है। कलीसिया के पदनाम या परिभाषा के बारे में प्रत्येक विवरण को समझने के बाद, आओ जाँचें कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, उन्हें उन विभिन्न लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए जिन्हें कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित करने की आवश्यकता है, वे इस काम को कैसे अच्छी तरह से कर सकते हैं, और उन्हें अपनी जिम्मेदारी कैसे पूरी करनी चाहिए और कलीसिया के काम को कैसे जारी रखना चाहिए। सबसे पहले, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समझना चाहिए कि कलीसिया की परिभाषा क्या है, कलीसिया का अस्तित्व क्यों होना चाहिए, और कलीसिया को क्या काम करना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, उन्हें देखना चाहिए कि कलीसिया के कौन-से मौजूदा सदस्य कलीसिया के अस्तित्व या उसके काम के महत्व के मामले में सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते, या कौन कलीसिया के आवश्यक काम में विघ्न-बाधा और नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं, या कलीसिया की प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं और परमेश्वर के नाम को बदनाम भी कर सकते हैं। इन लोगों को स्पष्ट रूप से पहचानना और तुरंत बहिष्कृत या निष्कासित करना—क्या यह वह काम नहीं है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए? (बिल्कुल है।) तो, इस काम को अच्छी तरह से करने में क्या शामिल है? हर तरह के बुरे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करने और कलीसिया को शुद्ध करने, और कलीसिया के अस्तित्व के महत्व को अभिव्यक्त करने और कलीसिया को अपनी भूमिका निभाने देने के लिए, साथ ही साथ कलीसिया के काम को सुचारू रूप से आगे बढ़ने देने के लिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले कलीसिया में बुरे और मसीह-विरोधी लोगों को पहचानना चाहिए। यही वह जानकारी या वास्तविक स्थिति है जिसे इस कार्य को करते समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले समझना चाहिए। इस कार्य में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सामने जो सबसे पहला मामला आता है वह हैविभिन्न प्रकार के लोगों को पहचानना। विभिन्न प्रकार के लोगों को पहचानने का उद्देश्य क्या है? यह उन्हें उनकी अपनी किस्म के मुताबिक अलग करने और कलीसिया के सच्चे सदस्यों की सुरक्षा करने के लिए होता है। परंतु, इन लोगों की सुरक्षा करने मात्र का मतलब यह नहीं है कि चौदहवीं जिम्मेदारी में उल्लिखित कार्य सफलतापूर्वक किया जा रहा है। तो, इस कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू क्या है? यह पहलू है सभी प्रकार के ऐसे छद्म-विश्वासी और बुरे लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करना जिनका संबंध कलीसिया से नहीं हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि इन्हें बुरे लोगों के रूप में परिभाषित किया जाता है या मसीह-विरोधियों के रूप में, अगर वे बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने की शर्तों को पूरा करते हैं, तो इस काम की आवश्यकता पैदा होती है, और वह समय अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का होता है। आओ, सबसे पहले इस बात पर संगति करें कि विभिन्न प्रकार के लोगों को कैसे पहचाना जाए।

I. परमेश्वर में विश्वास रखने के उद्देश्य के आधार पर

हमें अलग-अलग तरह के लोगों को कैसे पहचानना चाहिए? पहला मानदंड है कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य के अनुसार पहचाना जाए। दूसरा मानदंड है कि उन्हें उनकी मानवता के अनुसार पहचाना जाए। और, तीसरा मानदंड है कि उन्हें उनके कर्तव्य के प्रति उनके रवैये के अनुसार पहचाना जाए। अगर हम कुछ सरल, संक्षिप्त शीर्षकों का उपयोग करें, तो वे होंगे : पहला, परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य; दूसरा, उनकी मानवता; और तीसरा, उनके कर्तव्य के प्रति उनका रवैया। अब जब हमारे पास ये तीन शीर्षक हैं, तो उनमें से प्रत्येक के बारे में तुम लोगों की समझ क्या है? हमने पहले लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने के उद्देश्य के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं की है। हमने लोगों की मानवता और उनके कर्तव्य के प्रति उनके रवैये के बारे में अधिक बात की है, इसलिए तुम लोग इन चीजों से ज्यादा परिचित हो। लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य भी वास्तव में तुम लोगों के लिए बिल्कुल नया विषय नहीं है, क्योंकि स्वयं तुम लोगों ने भी एक उद्देश्य के साथ परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था। कुछ लोग परमेश्वर पर इसलिए विश्वास करते हैं कि वे नरक में नहीं जाना चाहते, कुछ इसलिए कि वे स्वर्ग में जाना चाहते हैं, कुछ इसलिए कि वे मरना नहीं चाहते, कुछ लोग इसलिए कि वे विपत्तियों से बचना चाहते हैं, कुछ अन्य लोग इसलिए कि वे अच्छे व्यक्ति बनना चाहते हैं, और कुछ इसलिए कि वे दुर्व्यवहार से बचना चाहते हैं, आदि-आदि। यह विषय तुम लोगों के लिए नया नहीं होना चाहिए; बात सिर्फ इतनी है कि मैं जिन विवरणों के बारे में बात करूँगा, तुम लोग उनसे कुछ हद तक अपरिचित हो सकते हो—तुमको उनके बारे में अनिश्चितता महसूस हो सकती है क्योंकि तुम नहीं जानते कि मैं उनके बारे में क्या कहने जा रहा हूँ या मैं कहाँ से शुरू करने जा रहा हूँ। तो आओ, इस बारे में संक्षेप में बात करते हैं। मुझे बताओ कि परमेश्वर में विश्वास करने में किस प्रकार के इरादे और उद्देश्य रखने वाले लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए? (वे जो केवल प्रसिद्धि और रुतबे का पीछा करते हैं और केवल सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं, और जो अपने रुतबे की खातिर कलीसिया को अनैतिक रूप से बाधित करेंगे।) यह एक प्रकार का व्यक्ति है। क्या अन्य प्रकार के लोग भी हैं? (छद्म-विश्वासी जो केवल आशीष पाने के पीछे लगे रहते हैं और पेट भरने की तलाश में रहते हैं।) छद्म-विश्वासी, यह एक और प्रकार है। क्या और भी श्रेणियाँ हैं? तुम लोग शायद कुछ लोगों की अभिव्यक्तियों के बारे में सोच रहे होगे, लेकिन तुम स्पष्ट रूप से यह नहीं समझ सकते कि ये लोग सिर्फ़ भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट कर रहे हैं या फिर ये वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने के लिहाज से अशुद्ध उद्देश्य वाले लोग हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। तुम इसे नहीं समझ सकते और महसूस करते हो कि यह थोड़ा अस्पष्ट है, इसलिए तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते। लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने के उद्देश्य का विषय काफी व्यापक है। हर किसी के परमेश्वर में विश्वास करने के कुछ इरादे और उद्देश्य होते हैं। परंतु, परमेश्वर में विश्वास करने के लिहाज से अशुद्ध उद्देश्यों वाले जिस प्रकार के लोगों के बारे में हम यहाँ बात कर रहे हैं, वे परमेश्वर के उद्धार की शर्तों को पूरा नहीं करते। वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते और श्रमिक होने के न्यूनतम मानक तक भी नहीं पहुँच सकते। इन लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का चाहे जो भी उद्देश्य हो, किसी भी स्थिति में, किसी उद्देश्य के साथ परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग अवसर दिए जाने पर अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे, और यदि उन्हें अवसर नहीं मिलता है, तो वे बुरे काम करेंगे और बाधाएँ पैदा करेंगे। इसके कलीसिया के काम पर या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर अकल्पनीय दुष्परिणाम होंगे, और ये लोग बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने के निशाने पर होने चाहिए। अभी इन लोगों की मानवता या अपने कर्तव्यों के प्रति उनके रवैये को अलग रखते हुए, केवल परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य के संदर्भ में बात करें, तो यह सत्य स्वीकार करना और उद्धार प्राप्त करना बिल्कुल नहीं है, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसकी आराधना करना तो उससे भी कम है। इसलिए, परमेश्वर में उनका विश्वास स्वाभाविक रूप से उद्धार में परिणत नहीं होगा। इन लोगों को कलीसिया में रहने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों—असली भाई-बहनों—को लगातार परेशान करने देने के बजाय, बेहतर है कि उन्हें यथाशीघ्र सटीक रूप से पहचाना और परिभाषित किया जाए, और फिर उन्हें तुरंत कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाए। उनके साथ कलीसिया के सदस्यों या भाई-बहनों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। तो, ये लोग कौन हैं? ठीक अभी, तुम लोगों ने कुछ अवधारणाओं के बारे में व्यापक रूप से बात कही थी। मैं कुछ ठोस उदाहरण दूँगा, और उन्हें सुनने के बाद तुम लोग समझ जाओगे।

क. अधिकारी बनने की अपनी इच्छा पूरी करना

सबसे पहले, आओ प्रथम प्रकार के व्यक्तियों के बारे में बात करें जिन्हें कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। कुछ लोग हमेशा समाज में अधिकारी बनना और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करना चाहते हैं, लेकिन अपने करियर में असफल होते हैं। हालाँकि, अधिकारी बनने की उनकी इच्छा बिल्कुल भी कम नहीं होती। लेकिन उनके परिवार की सामाजिक स्थिति ऊँची नहीं होने के कारण उन्हें जीवन निराशाजनक लगता है और वे दुनिया को बहुत अन्यायपूर्ण मानते हैं जिसमें वे अपनी इस छोटी-सी इच्छा को भी पूरा नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास कुछ ज्ञान और योग्यता है लेकिन कोई भी उनकी सराहना नहीं करता है। उन्हें कोई समर्थक नहीं मिलता है और अधिकारी बनने की संभावना उन्हें बहुत दूर लगती है। इस निराशाजनक स्थिति में, उन्हें कलीसिया मिली। उन्हें लगता है कि अगर वे कलीसिया में अगुआ बन सकते हैं तो यह भी अधिकारी होने जैसा है और इससे उनकी इच्छा पूरी हो सकती है। इस तरह वे महानता प्राप्त करने की इच्छा से परमेश्वर के घर आते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी योग्यता और क्षमताएँ परमेश्वर के घर में उपयोग के लिए बिल्कुल ठीक हैं और एक अधिकारी और प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की उनकी उम्मीद साकार हो सकती है, जिससे उनके जीवन भर की एक इच्छा पूरी हो सकती है। परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण को इस तरह की कहावतों द्वारा संक्षेपित किया जा सकता है जैसे कि “एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो,” “सच्चा सोना अंततः चमकता ही है,” और “चतुर पक्षी अपना बसेरा बुद्धिमानी से चुनता है”—परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग पर चलने के उनके चुनाव की पृष्ठभूमि कुछ इसी तरह की होती है। इस व्यक्ति के सार को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि वह दुनिया में सत्य के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता और उद्धारकर्ता के अस्तित्व पर तो और भी कम विश्वास करता है। संक्षेप में, वह सच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता और सृष्टिकर्ता के अस्तित्व पर तो वह और भी कम विश्वास करता है। चाहे वे बाइबल में लिखी बातें हों या धार्मिक जगत में दिए जाने वाले उपदेश हों—जैसे कि दुनिया और मानवजाति को परमेश्वर ने बनाया है, परमेश्वर संप्रभु है और मानवजाति का नेतृत्व करता है—ऐसे लोगों के लिए ये सभी बातें सिर्फ ऐतिहासिक अभिलेख भर हैं। कोई उनकी जाँच नहीं करता है और कोई उनका सत्यापन नहीं कर सकता; वे सिर्फ किंवदंतियाँ और कहानियाँ हैं, एक तरह की धार्मिक संस्कृति हैं। यह उनकी आस्था की सबसे बुनियादी समझ है। इसी समझ के साथ वे परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं और सोचते हैं कि वे सही मार्ग पर चल रहे हैं, अंधकार को छोड़ कर प्रकाश में आ रहे हैं, वे वह “चतुर पक्षी” हैं जो अपना बसेरा बुद्धिमानी से चुनता है। बेशक, उन्होंने अधिकारी और प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की अपनी पसंद और इच्छा अभी त्यागी नहीं है। उन्हें लगता है कि इतने सारे लोगों वाली इस विशाल दुनिया में उनके लिए कोई जगह नहीं है, और केवल परमेश्वर का घर ही उनके लिए उम्मीदें ला सकता है। केवल कलीसिया में रह कर ही उन्हें अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करने और विशिष्ट व्यक्ति बनने की इच्छा साकार करने का मौका मिल सकता है। वर्तमान स्थिति को देखते हुए, चूँकि बाहरी दुनिया तेजी से दुष्टतापूर्ण और अंधकारमय होती जा रही है; केवल कलीसिया ही इस दुनिया में शुद्धता की भूमि है—कलीसिया ही दुनिया में एकमात्र ऐसी जगह है जो लोगों को आध्यात्मिक पोषण प्रदान कर सकती है और केवल कलीसिया ही लगातार फल-फूल रही है। वे ऐसी इच्छाओं और उद्देश्यों के साथ परमेश्वर पर विश्वास करने लगते हैं। आस्था ग्रहण कर लेने के बाद परमेश्वर पर विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने, या सत्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के कार्य से जुड़े मामलों के बारे में वे कुछ भी नहीं समझते हैं। वे इन मामलों का न तो अनुसरण करते हैं, न इन पर ध्यान देते हैं। अपने दिल में, उन्होंने रुतबा पाने और अधिकारी होने की इच्छाओं को बिल्कुल भी नहीं त्यागा होता; बल्कि, वे कलीसिया में रहते हुए भी इन धारणाओं और दृष्टिकोणों को कस कर पकड़े रहते हैं। वे कलीसिया को एक सामाजिक संगठन, एक धार्मिक समुदाय के रूप में देखते हैं और परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के वचनों को विश्वासियों द्वारा अंधविश्वासों के कारण बनाए गए भ्रमों के रूप में देखते हैं। इसलिए, जब भी सत्य का अनुसरण करने की बात आती है, जब भी परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के कार्य की बात आती है, तो वे गहरी खीझ और प्रतिरोध महसूस करते हैं। यदि कोई किसी चीज के बारे में बताता है कि यह परमेश्वर का कार्य है, यह परमेश्वर की संप्रभुता है या यह परमेश्वर का आयोजन है, तो वे घृणा महसूस करते हैं। परंतु, वे चाहे जितनी घृणा महसूस करें और चाहे वे सत्य को स्वीकारें या न स्वीकारें, अधिकार पाने की अपनी लालसा पूरी करने के लिए कलीसिया में रुतबे वाला कोई पद हासिल करने की उनकी इच्छा न कभी कम हुई होती है और न उन्होंने उसका त्याग किया होता है। चूँकि उनमें ऐसी महत्वाकांक्षा और इच्छा होती है, वे स्वाभाविक रूप से विभिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं। उदाहरण के लिए, वे लोगों को ऐसी बातें कहकर भड़काते हैं : “हर चीज को परमेश्वर के वचनों पर आधारित न करो, न ही हर चीज को परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर से जोड़ो। वास्तव में, लोगों के बहुत से विचार और कथन सही हैं; लोगों के अपने दृष्टिकोण और रुख होने चाहिए।” लोगों को गुमराह करने के लिए वे इन कथनों को फैलाते हैं। इसी के साथ, वे अपनी प्रतिभा, खूबियों और दुनिया में चली जा सकने वाली चालों और तिकड़मों का भी दमदार तरीके से प्रदर्शन करते हैं, ताकि लोगों की नजर में आ सकें, उनका ध्यान खींच सकें और उनसे खूब सम्मान प्राप्त कर सकें। उनके जोरदार प्रदर्शन का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य लोगों को उनके बारे में ऊँचे विचार रखने और उनका आदर करने के लिए प्रेरित करना है; इसका उद्देश्य लोगों के बीच रुतबा हासिल करना और इसके माध्यम से अधिकारी के रूप में करियर को आगे बढ़ाने और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करने की अपनी इच्छा को संतुष्ट करना है। वे तब संतुष्ट होते हैं जब लोग उनका सम्मान करें, उनकी प्रशंसा करें, उनका अनुसरण करें, समर्थन करें, उनसे गहरा प्रेम करें, और उनका आदर करें, और उनकी चापलूसी तक करें। इसके अलावा, वे बिना थके इन चीजों के लिए लगातार प्रयास करते हैं और उनका आनंद लेते हैं। यद्यपि परमेश्वर का घर लगातार मसीह-विरोधियों, दुष्ट लोगों और लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करता है, लेकिन अपने हृदय में इन्हें तिरस्कार योग्य मानते हुए वे इनसे विशेष घृणा महसूस करते हैं। दुनिया और समाज में पूरी न की जा सकी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे एकाग्रचित्त होकर, पद और दूसरों से प्रशंसा और सम्मान पाने की कोशिश करते हैं। तो, परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य क्या है? यह इस जीवन में सौ गुना और आने वाले संसार में अनंत जीवन पाने के लिए नहीं है, और यह निश्चित ही सत्य स्वीकार करने और बचाए जाने के लिए नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य किसी सृजित प्राणी के रूप में कार्य करना नहीं है, बल्कि अधिकारी और प्रभु बनना है, रुतबे के लाभों का आनंद लेना है। कलीसिया में निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं; ये कुकर्मी हैं जो कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। कलीसिया ऐसे लोगों को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच घुलने-मिलने की अनुमति बिल्कुल नहीं देती, इसलिए ऐसे लोगों को बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। क्या ऐसे लोगों के परमेश्वर में विश्वास करने के उद्देश्य को समझना आसान है? (हाँ, आसान है।) परमेश्वर में विश्वास करने के उनके इरादों और उद्देश्यों के साथ ही कलीसिया में उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के मद्देनजर, वे किस तरह के लोग हैं? (छद्म-विश्वासी।) हाँ, वे छद्म-विश्वासी हैं। छद्म-विश्वासी होने के अलावा, वे अधिकार की अपनी लालसा को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर के घर में रुतबे और संभावनाओं का भी लगातार अनुसरण करना चाहते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य अधिकारी बनना है। तो, ऐसा क्यों है कि इन लोगों को बाहर निकाल दिया जाना चाहिए? कोई कह सकता है कि “यदि छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर में श्रम करते हैं और कलीसिया के मित्रों के रूप में वे थोड़ी-बहुत मदद कर सकते हैं तो क्या उन्हें अपने आस-पास बने रहने देना ठीक नहीं है?” क्या यह कथन उचित है? (नहीं।) यह क्यों उचित नहीं है? (अधिकारी बनने की उनकी इच्छा निश्चित रूप से उन्हें ऐसे कामों की ओर ले जाएगी जिनसे दूसरों को परेशानी होगी, परमेश्वर के घर के काम को कोई लाभ नहीं होगा, और भाई-बहनों की सत्य की खोज पर प्रभाव पड़ेगा।) तुम इसे चाहे जैसे देखो, छद्म-विश्वासी सत्य का प्रतिरोध करते हैं और परमेश्वर को नकारते हैं, इसलिए परमेश्वर का घर उन्हें नहीं रख सकता। वे कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभाएँगे। वे अधिकारी बनने का प्रयास करें या न करें, छद्म-विश्वासियों के रूप में उनकी टिप्पणियाँ, अभिव्यक्तियाँ और कार्य मात्र ही बाधाएँ पैदा कर सकते हैं और उनका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं होगा। कुछ भाई-बहन, कुछ निश्चित परिवेशों का अनुभव होने पर कहते हैं, “यह परमेश्वर की संप्रभुता है और हमें इसके आगे समर्पण करना चाहिए।” क्या छद्म-विश्वासी समर्पण कर सकते हैं? इतना ही काफी है कि वे विघ्न डालने और विरोध करने के लिए खड़े न हों। अपने हृदय में वे यह तक कहते हैं कि “ऐसा मत कहो कि सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता है। लोगों की अपनी कुछ राय होनी चाहिए और उन्हें कुछ स्वतंत्रता होनी चाहिए; हर चीज का श्रेय परमेश्वर की संप्रभुता को मत दो!” वे न केवल दूसरों को नीचे खींचते हैं बल्कि लोगों को गुमराह करने के लिए कुछ अस्पष्ट और दिखावटी भ्रांतियाँ भी बोलते हैं। क्या यह बेशर्मी नहीं है? वे अविश्वासियों के बीच कुछ चतुराई-भरी चालें चलने और तिकड़म करने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन परमेश्वर का घर ऐसी चालों और तिकड़मों के लिए गलत जगह है! कुछ लोग क्लीनिक चलाते हैं जहाँ जाना सभी को पसंद होता है क्योंकि उनके मुताबिक वहाँ सूई लगवाने से दर्द नहीं होता। सूई लगवाने से दर्द क्यों नहीं होता? सूई की नोक को निश्चेतक में डुबोया जाता है, इसीलिए उससे दर्द का पता नहीं चलता। क्या यह बुद्धिमानी भरा काम है? (नहीं, यह घातक है।) फिर भी वे इसे बुद्धिमानी भरा कदम मानते हुए इस बारे में शेखी बघारते हैं और सोचते हैं कि यह उनकी क्षमता और कौशल को प्रदर्शित करता है, और कहते हैं, “तुम केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण, परमेश्वर के आयोजन और परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में बात करते हो। क्या तुममें वो हुनर है जो मेरे पास है?” क्या यह बेशर्मी नहीं है? (बिल्कुल है।) वे ऐसी घातक तिकड़मों के बारे में भी डींग हाँकते हैं! वे कलीसिया में घुसपैठ करने वाले छद्म-विश्वासियों के मकसद रखने वाले लोग ही हैं जिन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। क्यों? अपने हृदय में ये लोग सत्य का प्रतिरोध करते हैं और उससे विमुख होते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य चाहे जो भी हो, चाहे यह ऐसी बात हो जिसे वेछद्म-विश्वासी होने के अपने सार के आधार पर, खुले तौर पर स्वीकार कर सकते हों या नहीं, कलीसिया को उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देना चाहिए। ये छद्म-विश्वासी अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करने, महत्वाकांक्षाओं को साकार करने, और कलीसिया के भीतर अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करने के निश्चित उद्देश्य के साथ कलीसिया में घुसपैठ करते हैं। वे कलीसिया जैसे मूल्यवान स्थान का उपयोग सत्ता पर काबिज होने, दिखावा करने, और लोगों को गुमराह करने व नियंत्रित करने के लक्ष्य की प्राप्ति के साधन के रूप में करना चाहते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य के मद्देनजर, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा उत्पन्न करने में सक्षम लोग हैं। इसलिए, इन लोगों को परमेश्वर के घर से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनके छद्म-विश्वासी सार को अच्छी तरह समझना चाहिए। चाहे तुम इसे उनकी अभिव्यक्तियों पर आधारित करो या परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में उनके बार-बार के बयानों पर आधारित करो, एक बार जब तुम स्थिति को समझ लेते हो और स्पष्ट रूप से पहचान लेते हो कि वे छद्म-विश्वासी हैं, तो तुम्हें बिना किसी हिचकिचाहट के उन्हें निर्णायक रूप से ठुकरा देना चाहिए। उन्हें बाहर निकालने के लिए तुम चाहे कोई भी तरीका या बुद्धि लगाओ, कोई भी तरीका ढूँढ़ो—यही वह काम है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए; यही वह काम है जिसका भार उन्हें अपने कंधों पर उठाना चाहिए। यह प्रथम प्रकार के लोग हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए।

ख. विपरीत लिंग के व्यक्ति की तलाश करना

तो, दूसरे प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ कैसी होती हैं जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए? कुछ लोगों ने कभी भी परमेश्वर में विश्वास करने से कोई मतलब नहीं रखा होता; उनमें बस इस बारे में एक अनुकूल धारणा होती है। उन्हें यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं होती कि परमेश्वर में विश्वास करके किसका अनुसरण करना चाहिए या क्या पाना चाहिए। उन्होंने सुना होता है कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे काफी कर्तव्यनिष्ठ और निष्कपट होते हैं, इसलिए वे कलीसिया में एक रोमांटिक साथी ढूँढना चाहते हैं, फिर उससे शादी करके स्थिर जीवन जीना चाहते हैं। यही उनका इरादा और उद्देश्य है, इसलिए वे अपने आदर्श साथी को खोज में कलीसिया आते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने में इन छद्म-विश्वासियों की कोई दिलचस्पी नहीं होती; वे सृष्टिकर्ता, सत्य, बचाए जाने, परमेश्वर को जानने, कर्तव्य करने या ऐसे दूसरे मामलो की जरा भी परवाह नहीं करते। यदि वे परमेश्वर के वचनों और धर्मोपदेशों को सुनने के बाद इन मामलों को समझ भी सकें, तो वे इन्हें हृदय से ग्रहण नहीं करना चाहते। वे बस एक आदर्श साथी ढूँढना चाहते हैं और, वस्तुतः, उम्मीद करते हैं कि वे ज्यादा लोगों से मिल सकेंगे और अपने नेटवर्क का विस्तार कर सकेंगे। परमेश्वर में विश्वास करने का उनका उद्देश्य एक आदर्श जीवन-साथी खोजने का होता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम कैसे जानते हो कि उनका यही उद्देश्य है? उन्होंने तो तुमसे इस बारे में कुछ नहीं कहा या इसका उल्लेख नहीं किया!” इस बात को वे अपने व्यवहार से प्रदर्शित करते हैं। देखो कि जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं या किसी से संपर्क बनाते हैं, तो किस तरह वे हमेशा विपरीत लिंगी को ही खोजते हैं। जब वे किसी को पसंद कर लेते हैं, तो वे उसके साथ संगति करते रहते हैं और उसके करीब आते रहते हैं, हमेशा उसके बारे में जानकारी हासिल करते रहते हैं और उसे जानने की कोशिश करते हैं। इन असामान्य कार्यों और अभिव्यक्तियों की ओर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पर्याप्त ध्यान जाना चाहिए, उन्हें देखना चाहिए कि उनके इरादे क्या हैं और किस उद्देश्य की प्राप्ति उनका लक्ष्य है; उन्हें पता लगाना चाहिए कि उन्हें सुसमाचार का उपदेश किसने दिया, वे विशेष रूप से विपरीत लिंगियों से क्यों संपर्क करना चाहते हैं, उनके पास हमेशा विपरीत लिंगियों से कहने के लिए कुछ क्यों होता है, और उन्हें विपरीत लिंगियों से विशेष लगाव क्यों है, खास तौर पर उन्हें यह पता लगाना चाहिएकि वे उन लोगों के प्रति विशेष जिज्ञासा और चिंता क्यों दिखाते हैं जिन्हें वे पसंद करते हैं। ऐसे लोगों की परमेश्वर में विश्वास करने वालों के प्रति अनुकूल धारणा होती है। भले ही सभाओं में, धर्मोपदेश सुनने में, परमेश्वर के वचनों की संगति करने में, भजन गाने में, व्यक्तिगत अनुभवों की संगति करने में और इस तरह के अन्य मामलों में वे बहुत रुचि न रखते हों, परंतु वे आम तौर पर ऐसा कुछ नहीं कहते जिससे कोई विघ्न-बाधा पैदा होती हो। वे सारा ध्यान केवल एक रोमांटिक साथी खोजने पर केंद्रित करते हैं जिसके साथ बढ़िया जीवन व्यतीत किया जा सके। यदि उन्हें कोई साथी मिल जाता है तो वे परमेश्वर में विश्वास करने में उसका साथ दे सकते हैं; भले ही वे स्वयं उसका अनुसरण न करें, पर वे परमेश्वर में विश्वास करने में अपने साथी की सहायता कर सकते हैं। कुछ लोगों में अपेक्षाकृत स्वीकार्य मानवता होती है, वे मददगार होते हैं, और मैत्रीपूर्ण तथा दयालु होने की पूरी कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, वे दूसरों के प्रति सहिष्णु हो सकते हैं, समस्याओं से जूझ रहे लोगों की हरसंभव मदद करने की सोचते हैं, या कोई सलाह दे सकते हैं, आदि-आदि। वे दूसरों के प्रति अपेक्षाकृत दयालु होते हैं और किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखते, लेकिन परमेश्वर में विश्वास करने के उनके उद्देश्य और लक्ष्य बहुत सम्मानजनक नहीं होते। वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और चाहे कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करे, वे सत्य स्वीकार नहीं करते। छह महीने, या एक या दो साल तक अनुसरण करने के बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आता। यद्यपि वे विश्वास नहीं करने के बारे में कुछ नहीं कहते और वे कोई विघ्न-बाधा भी उत्पन्न नहीं करते, फिर भी उनमें परमेश्वर में विश्वास करने के मामलों में कोई रुचि नहीं होती। क्या ऐसे लोगों का कलीसिया में रहना उचित है? (नहीं।) क्या ऐसे लोगों को दूर कर दिया जाना चाहिए? (हाँ, उन्हें भी दूर कर दिया जाना चाहिए।) इसका कारण क्या है? (क्योंकि वे सत्य में रुचि नहीं रखते हैं, और वे उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं। यदि वे हमेशा साथी की तलाश करते हुए कलीसिया में रहते हैं, तो यह दूसरों के लिए परेशानी खड़ी करेगा और उन्हें प्रलोभन की ओर ले जाएगा; वे सकारात्मक भूमिका नहीं निभाएँगे।) यह बिल्कुल ऐसा ही है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को मांस खाना विशेष रूप से पसंद होता है। जब वे मांस खाते हैं तो वे अपने काम के बारे में भूल जाते हैं। मांस न होने पर वे फिर भी कुछ उचित कार्यों में भाग लेने में सक्षम होते हैं, लेकिन जब मांस उपलब्ध होता है तो उनके काम में देरी हो जाती है। मांस उनके लिए क्या है? (प्रलोभन।) बिल्कुल ठीक, यह एक प्रलोभन है। तो, क्या जो लोग हमेशा साथी की तलाश में रहते हैं उन्हें प्रलोभन का स्रोत माना जा सकता है? (हाँ।) वे वास्तव में प्रलोभन का स्रोत हैं। ऐसे लोगों को स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि, “तुममें परमेश्वर में विश्वास करने या अपना कर्तव्य करने के प्रति ईमानदारी नहीं है। तुम कभी भी कलीसिया में एकीकृत नहीं हो सके और तुम्हें कभी भी सच्चा विश्वासी नहीं माना गया। इन दो वर्षों के संपर्क में, हमने तुम्हारा उद्देश्य देखा है : तुम बस कलीसिया में एक साथी खोजना चाहते हो। क्या यह अच्छे लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहा है? कलीसिया के लोग तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं हैं। अविश्वासियों में तुम्हारे लिए उपयुक्त बहुत से लोग हैं। जाओ और अविश्वासियों के बीच किसी को खोजो।” निहितार्थ यह कि उन्हें बताना है, “हमने तुम्हारी असलियत जान ली है। तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से नहीं हो। तुम परमेश्वर के घर के व्यक्ति नहीं हो। तुम्हें हमारा भाई या बहन नहीं माना जा सकता।” परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार, ऐसे लोगों को कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इस तरह, ये लोग जो साथी की अंधाधुंध तलाश में और दूसरों को फुसलाने में लगे हैं, उन्हें दूर कर दिया जाएगा। क्या ऐसे लोगों को पहचानना आसान नहीं है? (हाँ, आसान है।) ये लोग छद्म-विश्वासी भी हैं। उन्हें कलीसिया से, धार्मिक आस्था से और परमेश्वर में विश्वास करने वालों से थोड़ा लगाव है। वे परमेश्वर में विश्वास करने के अवसर का उपयोग केवल विश्वासियों के बीच एक साथी खोजने के लिए करना चाहते हैं, जो उनके साथ रह सके और समर्पित होकर उनकी सेवा कर सके। मुझे बताओ, क्या ऐसा कुछ संभव है? क्या हमें उन्हें संतुष्ट करना चाहिए? क्या कलीसिया को ऐसे मामलों की व्यवस्था करनी चाहिए? (नहीं।) उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को संतुष्ट करना कलीसिया का दायित्व नहीं है। विश्वासियों को वे चाहे जितना भला समझें, या वे चाहे जितना सोचें कि वे इन विश्वासियों के साथ उचित तरीके से अपना जीवन जी सकेंगे, या मानें कि विश्वासी सही मार्ग पर चल सकते हैं, यह सब बेकार है—उनकी राय बेमतलब है। ज्यादातर कलीसियाओं में ऐसे छद्म-विश्वासी भी पाए जा सकते हैं। इन लोगों से निपटने का तरीका वही है जिसके बारे में हमने अभी संगति की है, या तुम लोगों के पास इससे बेहतर कोई तरीका हो तो उसका इस्तेमाल कर सकते हो, बशर्ते उन्हें सिद्धांतों के अनुसार सँभाला जाए। इन छद्म-विश्वासियों को विभिन्न प्रकार के दुष्ट लोगों में वर्गीकृत किया जाता है—क्या यह ज्यादा कठोरता है? (नहीं।) हम छद्म-विश्वासियों के साथ ठीक ऐसा ही व्यवहार करते हैं।

ग. आपदाओं से बचना

किस तरह के लोगों को कलीसिया से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए? (एक और प्रकार के लोग वे हैं जो केवल आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं।) केवल आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करना भी लोगों के विश्वास का एक उद्देश्य है। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों में भी इस तरह की मिलावट नहीं होती? (हाँ, होती है।) तो हमें यह भेद कैसे करना चाहिए कि किन लोगों को इस वजह से बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए, और कौन-से लोग केवल भ्रष्टाचार के सामान्य खुलासे का प्रदर्शन कर रहे हैं और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए? ज्यादातर लोगों के मामले में उनकी आस्था आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने के इनके उद्देश्य के साथ मिश्रित होती है—यह एक तथ्य है। तुम लोगों को आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने वालों में से उन अविश्वासियों को पहचानना चाहिए जो बहिष्कृत या निष्कासित किए जाने के मानदंडों को पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे लोग जब देखते हैं कि आपदाएँ पहले से ज्यादा गंभीर होने लगी हैं, तो वे ज्यादा मौकों पर सभाओं में भागीदारी करना शुरू कर देते हैं और यह कहते हुए कि वे अब गंभीरता से परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों की उन पुस्तकों को जल्दी से वापस ले लेते हैं जिन्हें वे पहले कलीसिया को लौटा चुके होते हैं। परंतु, आपदाओं के बीत जाने पर या उनका असर कम हो जाने पर वे व्यापार करने और पैसा कमाने में लग जाते हैं, और संपर्क करने के सभी तरीकों को अवरुद्ध कर देते हैं ताकि भाई-बहन उन्हें सभाओं में बुलाने के लिए ढूंढ न सकें या उन तक न पहुँच सकें। जब आपदाएँ आती हैं तो वे सक्रिय रूप से भाई-बहनों की तलाश करते हैं, लेकिन जब आपदाएँ खत्म हो जाती हैं तो भाई-बहनों के लिए उन्हें ढूँढ़ना बहुत मुश्किल हो जाता है, और उनसे कोई बहुत कम ही संपर्क कर पाता है। क्या ये अभिव्यक्तियाँ बिल्कुल प्रत्यक्ष नहीं हैं? (हाँ, हैं।) जब कोई आपदा नहीं होती तो वे कहते हैं, “लोगों को सामान्य जीवन जीना चाहिए। हमें अपने दिन गुजारने हैं। मुझे हर दिन घर पर खाना बनाना पड़ता है, और बच्चों को स्कूल छोड़ना और लाना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी मैं सभाओं में नहीं जा पाता। इसके अलावा, जीवनयापन के लिए पैसों की ज़रूरत होती है; जीवन में सभी खर्चों का भुगतान करना पड़ता है। पैसे कमाए बिना हम जिंदा नहीं रह सकते। इस दुनिया में, बिना पैसे के किसी का काम नहीं चल सकता। परमेश्वर में विश्वास करना व्यावहारिक होना चाहिए!” वे प्रशंसनीय ढंग से बोलते हैं और पर्याप्त कारण गिनाते हैं, वे पैसा कमाने और अपने दिन गुजारने पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करते हैं, केवल कभी-कभार किसी सभा में जाते हैं और परमेश्वर के वचनों को शायद ही कभी पढ़ते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति उनका रवैया हल्के उत्साह वाला होता है, वे न तो बिलकुल उत्साहहीन होते हैं और न ही बहुत उत्साहित। जब कोई आपदा आती है तो वे कहते हैं, “ओह, मैं परमेश्वर के बिना नहीं रह सकता; मुझे परमेश्वर की आवश्यकता है! मुझे प्रतिदिन परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए! मैं आपदाओं से बचने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मुख्य बात यह है कि मैं अपने हृदय में परमेश्वर की मौजूदगी के बिना नहीं रह सकता। हृदय में परमेश्वर के नहीं होने पर अच्छा जीवन जीना भी खाली-खाली-सा लगता है!” वे एक भी ऐसा शब्द नहीं बोल सकते जो परमेश्वर के बारे में किसी ज्ञान का प्रदर्शन करता हो; वे केवल अपने कार्यों और व्यवहार को सही ठहराने वाले शब्द बोलते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर का घर लोगों को कितनी पुस्तकें वितरित करता है; वे नहीं जानते कि धर्मोपदेश किस विषय तक पहुँचे हैं; वे नहीं जानते कि वर्तमान में कलीसियाई जीवन में किन सत्यों के बारे में संगति की जा रही है। वे हर छह महीने में या साल में एक बार किसी सभा में भाग लेते हैं। जब वे इन सभाओं में भाग लेते हैं, तो कहते हैं, “अविश्वासी बहुत बुरे होते हैं। समाज अन्यायपूर्ण है। यह दुनिया बुरी है। पैसा कमाने का प्रयास करना बहुत कठिन है! लोगों पर परमेश्वर का बोझ कम है...।” वे ऐसी बेकार की बातें करते रहते हैं जिनका सभा की संगति के विषय और विषय-वस्तु से कोई मतलब नहीं होता। वे अपनी प्रार्थना में कुछ खोखले शब्द और परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में कुछ सतही शब्द बोलते हैं और फिर अपने आप को विश्वासी मानते हुए अपने दिल में सहजता और शांति महसूस करते हैं। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? ये किस तरह के निकम्मे लोग हैं? अगर तुम उनसे पूछो कि “तुम नियमित रूप से सभाओं में क्यों नहीं जाते?”, तो वे कहते हैं, “मेरी परिस्थितियाँ इसकी अनुमति नहीं देतीं। परमेश्वर ने मेरे लिए इसी वातावरण की व्यवस्था की है, और मुझे इसके प्रति समर्पण करना चाहिए।” ये शब्द कितने अच्छे लगते हैं! वे यह भी कहते हैं, “देखो, परमेश्वर ने मेरे लिए यह वातावरण व्यवस्थित किया है। मेरा पूरा परिवार खाने-पीने के लिए मुझ पर निर्भर है, इसलिए मुझे गुजारा करने के लिए पैसे कमाने पड़ते हैं! फिलहाल, पैसा कमाना ही वो काम है जो परमेश्वर ने मुझे दिया है।” वे अपना कर्तव्य करने के बारे में, साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियों और दायित्वों के बारे में उल्लेख नहीं करते हैं, और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कैसे किया जाए इसका उल्लेख तो वे और भी नहीं करते; कभी-कभार ही वे किसी सभा में जाते हैं और कुछ युआन का चढ़ावा चढ़ाकर सोचते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के घर में योगदान दिया है। कुछ ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों के बीमार होने पर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और कुछ दिनों बाद, जब उनके बच्चे ठीक हो जाते हैं, तो वे तुरंत कुछ पैसे कलीसिया को चढ़ाते हैं और फिर से गायब हो जाते हैं। भाई-बहनों के साथ वे जब भी बातचीत करते हैं तो वे कभी भी सत्य के बारे में संगति नहीं करते हैं, न ही वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं। कोई आपदा या विपत्ति नहीं होने पर वे कभी भी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। उनकी दैनिक बातचीत हमेशा घरेलू तुच्छताओं, सही और गलत संबंधी विवादों, दैहिक-जीवन, विभिन्न सामाजिक परिघटनाओं और दिखाई-सुनाई पड़ने वाली विभिन्न चीजों के बारे में होती है; परमेश्वर के वचनों के बारे में वे बहुत कम मौकों पर संगति करते हैं और परमेश्वर में विश्वास करने के संबंध में कभी भी दिल से निकला एक भी शब्द नहीं बोलते। वे केवल परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा पाने के लिए कलीसिया में अपना स्थान बनाए रखते हैं। यह परमेश्वर में विश्वास करने का उनका तरीका है; वे सत्य का बिलकुल अनुसरण किए बिना सिर्फ शांति और आशीष की खोज में रहते हैं। उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती। परमेश्वर में विश्वास करके वे सिर्फ लाभ, अनुग्रह और आशीष पाना चाहते हैं। वे अगले जीवन की परवाह नहीं करते क्योंकि वे इसे देख नहीं सकते और इसमें तनिक भी विश्वास नहीं करते। वे केवल इस जीवन में परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेना चाहते हैं और सभी आपदाओं से बचना चाहते हैं। चूँकि परमेश्वर और कलीसिया उनकी शरणस्थली हैं, इसलिए सभाओं में उनका जाना निश्चित रूप से तभी होता है जब वे कठिनाइयों या आपदाओं का सामना कर रहे हों। क्या ऐसे लोग परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास करने वाले हैं? (नहीं।) वे किस तरह के लोग हैं? (अवसरवादी और छद्म-विश्वासी।) ये छद्म-विश्वासी हैं जो आपदाओं से बचने के लिए कलीसिया का उपयोग करना चाहते हैं। क्या ऐसे लोगों को कलीसिया में रहने दिया जाना चाहिए? (नहीं।) जब वे सभाओं में आते हैं तो वे दूसरों को बाधित करते हैं और उन्हें आंतरिक रूप से परेशान करते हैं। अधिकांश लोग बहुत विनम्र होते हैं और उन्हें रोकने की कोशिश करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं, इसलिए वे उन्हें बकबक करने देते हैं और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में बाधा डालने देते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए? क्या उन्हें ऐसे लोगों पर रोक लगाने, अधिकांश लोगों के हितों की रक्षा करने और कलीसियाई जीवन को सामान्य बनाए रखने की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? (हाँ।) तुम उनसे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें वापस ले सकते हो और उन्हें कलीसिया छोड़ने की सलाह दे सकते हो। किसी को कलीसिया छोड़ने के लिए राजी करने के कई तरीके हैं—तुम लोग खुद ये तरीके सोच सकते हो। बस यह सुनिश्चित करो कि वे भाई-बहनों से अब आगे संपर्क न कर सकें। मान लो कोई कहता है कि “यह व्यक्ति अच्छा है। वह कलीसिया में कुछ घरेलू तुच्छ विषयों पर बात करता है, लेकिन कलीसिया के काम में कोई बाधा नहीं डालता या हमारे कर्तव्य प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता, इसलिए हमें सहिष्णु होना चाहिए! परमेश्वर में विश्वास करने में क्या हमें सभी प्रकार के लोगों को सहन नहीं करना चाहिए? पहले, प्रायः ऐसा कहा जाता था कि परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले!” तब तुम्हें यह विचार करना चाहिए कि क्या वे उद्धार के लक्ष्य हैं। अगर वे उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं, तो क्या हमें उन्हें पहचान कर बाहर नहीं निकाल देना चाहिए? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “मैं बहुत विनम्र हूँ; मुझे उन्हें कलीसिया छोड़ने के लिए राजी करने में शर्मिंदगी महसूस होगी।” इस समस्या को हल करना आसान है। अगर तुम उनसे संपर्क ही नहीं करोगे, तो तुम उनसे बाधित या विवश नहीं होगे। अगर तुम्हारी उनसे मुलाकात हो भी जाती है, तो तुम्हें उनसे बात करने की ज़रूरत नहीं है। उनके साथ परमेश्वर में विश्वास करने के मामलों पर बात करने की कोई ज़रूरत नहीं है; बस उनके साथ अविश्वासियों जैसा व्यवहार करो। कुछ लोग कहते हैं, “क्या हम प्रेम से उनकी मदद नहीं कर सकते और जिन सत्यों को हम समझते हैं उन पर उनके साथ संगति नहीं कर सकते?” अगर तुममें वास्तव में प्रेम है, तो तुम ऐसी कोशिश कर सकते हो। अगर तुम सचमुच उन्हें बदल सकते हो तो उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करने की जरूरत नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अपना प्रयास व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। उनकी मदद करना बेकार है, यह वैसा ही है जैसे सुअर को नहलाना; चाहे तुम उसे कितना भी साफ धो दो, वह फिर भी कीचड़ में लोटेगा। यह बिल्कुल वैसा ही प्राणी है; यह नहीं बदलेगा!” अगर तुम इसे समझ सकते हो, तो तुम सही हो। क्या तुम अब भी ऐसे छद्म-विश्वासियों की मदद करने के लिए उनके साथ सत्य पर संगति करोगे? क्या तुम अब भी यह निरर्थक काम करोगे? (नहीं।) इस बिंदु पर तुम लोगों को एहसास होता है कि तुम मूर्ख थे और लोगों को नहीं समझ पाए थे। छद्म-विश्वासी बदल नहीं सकते। ये लोग यह भी जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग सत्कर्म करते हैं और कुकर्म करने से बचते हैं, वे दूसरों को धमकाते या ठगते नहीं है। वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों के बारे में अच्छी धारणा रखते हैं, इसलिए वे “परमेश्वर के होने में विश्वास रखने” और “परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है” के झंडे तले भेष बदल कर कलीसिया में घुस जाते हैं, जिससे लोग उन्हें भाई या बहन समझने लगते हैं। कुछ लोग वास्तव में इससे प्रभावित हो जाते हैं, उन्हें सचमुच भाई या बहन मानते हैं, अक्सर उनसे मिलने जाते हैं और उनकी मदद करते हैं। लंबे समय के बाद ही उन्हें एहसास होता है : “यह व्यक्ति कलीसिया में केवल तब आता है जब वह आपदाओं या कठिनाइयों का सामना कर रहा होता है, और बेकार और निरर्थक बातें करता है। जब चीजें सुचारू रूप से चल रही होती हैं और उसके लिए सब कुछ ठीक होता है, जब उसका जीवन अच्छा होता है, तो वह सभी को अनदेखी करता है। अगर हमें पहले पता होता कि वह इतना बदमाश है, तो हम उसकी मदद नहीं करते या इतना प्रयास नहीं करते!” अब पछताने से क्या कोई फायदा है? पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी है—तुम पहले ही बहुत कुछ व्यर्थ में बोल चुके हो! संक्षेप में, ऐसे छद्म-विश्वासियों की जल्द से जल्द पहचान की जानी चाहिए, उनसे निपटा जाना चाहिए और उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। उन्हें भाई-बहन मत समझो; वे भाई-बहन नहीं हैं। केवल वे लोग जो परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं, वे ही भाई-बहन हैं; केवल वे लोग जो बचाए जा सकते हैं और जो परमेश्वर की आराधना करते हैं, वे ही भाई-बहन हैं। जो लोग आपदाओं से बचने के लिए परमेश्वर के घर में मंडराते रहते हैं और सत्य स्वीकार किए बिना लालची होकर परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं, वे छद्म-विश्वासी हैं। वे भाई-बहन नहीं हैं, और निश्चित ही वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं। क्या तुम यह बात समझते हो? ऐसे छद्म-विश्वासियों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए; उनका यथोचित निपटारा किया जाना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की यही जिम्मेदारी है, और यह एक सिद्धांत भी है जिसके बारे में परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों को स्पष्ट होना चाहिए।

23 अक्टूबर 2021

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परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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