अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3)
आज हम धारणाओं के मसले पर अपनी संगति जारी रखेंगे। पहले हम इस मसले पर दो बार संगति कर चुके हैं, और आज हम समापन करने के लिए इस पर एक बार और संगति करेंगे। पहले जिस बारे में संगति की गई थी, उस पर बाद में तुम लोगों को आपस में चर्चा करनी चाहिए, इन चीजों पर थोड़ा-थोड़ा कर चिंतन-मनन करके इन्हें अनुभव करना चाहिए। इन विषयों को सिर्फ एक या दो दिनों में पूरी तरह से समझा या ग्रहण नहीं किया जा सकता; कोई इन्हें धीरे-धीरे जीवन में अनुभव करके, महसूस करके ही समझ सकता है। अभी तुम लोग सिर्फ याददाश्त के आधार पर जो बता सकते हो वह महज रट्टा लगाकर सीखा है। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिए अनुभव की जरूरत होती है; सिर्फ कुछ समय तक असल जीवन का अनुभव करने के बाद ही किसी को सच्ची समझ और परख मिल सकती है। लोगों की धारणाओं में मुख्य रूप से परमेश्वर और उसके कार्य के बारे में धारणाएँ होती हैं। ये दो प्रकार की धारणाएँ लोगों के अनुसरणों, चीजों को देखने के उनके नजरियों, परमेश्वर की उनकी समझ और उसके प्रति उनके रवैये, और उससे भी ज्यादा परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके पथ, और अपने जीवन में उनके द्वारा चुनी गई दिशा और उद्देश्यों को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। हमारी पिछली दो संगतियों से, क्या तुम लोग अब ठीक-ठीक परिभाषित कर सकते हो कि धारणाओं का अर्थ क्या है? परमेश्वर में विश्वास के बारे में कल्पनाएँ एक प्रकार की धारणा हैं। ये कल्पनाएँ मुख्य रूप से लोगों के बोलों और आचरण के सतही व्यवहार, और साथ ही रोटी, कपड़ा, मकान और आवाजाही के साधन जैसी उनके दैनिक जीवन की बारीकियों में अभिव्यक्त होती हैं। यह सबसे बुनियादी स्तर है। एक कदम आगे बढ़ें, तो लोगों के परमेश्वर में विश्वास के अनुसरण और ऐसा करते समय उनके चलने के पथ और साथ ही परमेश्वर के कार्य से जुड़ी लोगों की कुछ माँगों, कल्पनाओं और गलतफहमियों को लेकर भी कुछ कल्पनाएँ होती हैं। इन गलतफहमियों में क्या शामिल हैं? इन्हें गलतफहमियाँ क्यों कहा जाता है? जब हम गलतफहमियाँ कहते हैं तो यकीनन यह एक उचित विचार नहीं है, बल्कि यह ऐसी चीज है जो तथ्यों से मेल नहीं खाती, सत्य से असंगत है, और परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के स्वभाव के विपरीत है; या इंसानी इच्छा की ऐसी चीज है जो इंसानी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान से परिकल्पित की गई है, जिसका स्वयं परमेश्वर या उसके कार्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जब इस तरह की धारणाएँ, कल्पनाएँ, गलतफहमियाँ और माँगें उभरती हैं, तो इसका अर्थ है कि स्वयं परमेश्वर और परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाएँ अपने चरम पर पहुँच चुकी हैं। इस मुकाम पर लोगों और परमेश्वर के बीच के संबंध का क्या हश्र होता है? (उनके बीच एक अवरोध बन जाता है।) लोगों और परमेश्वर के बीच एक अवरोध बन जाता है; क्या यह एक गंभीर मसला है? (बिल्कुल।) जब ऐसा अवरोध बन जाता है, तो इसका अर्थ है कि लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ बहुत गंभीर हैं। जब लोगों और परमेश्वर के बीच एक अवरोध बन जाता है, तो इसका अर्थ है कि वे परमेश्वर द्वारा की गई कुछ चीजों से असंतुष्ट हैं, वे अब परमेश्वर से अपने मन की बात नहीं कहना चाहते, परमेश्वर को परमेश्वर मानकर पेश नहीं आना चाहते, या परमेश्वर को समर्पित नहीं होना चाहते। वे परमेश्वर की धार्मिकता और उसके स्वभाव पर सवाल उठाने लगते हैं। इसके ठीक बाद कैसी अभिव्यक्तियाँ नजर आती हैं? (प्रतिरोध।) अगर लोग सत्य नहीं खोजते, तो यह गलतफहमी न सिर्फ उनके दिलों में एक अवरोध बनाती है, बल्कि इससे तुरंत प्रतिरोध पैदा हो जाता है—सत्य का प्रतिरोध, परमेश्वर के वचनों और उसकी संप्रभुता का प्रतिरोध। वे परमेश्वर के किए हुए कार्यों से असंतुष्ट हो जाते हैं, कहते हैं, “तुम जो कर रहे हो, वह अनुचित है; मैं न इसे अनुमोदित करता हूँ और न ही उससे सहमत हूँ!” निहित संदेश यह है, “मैं समर्पण नहीं कर सकता; यह मेरी पसंद है। मैं मतभेद व्यक्त करना चाहता हूँ, मैं ऐसी राय देना चाहता हूँ जो परमेश्वर के वचनों, सत्य और उसकी माँगों से भिन्न है।” यह किस प्रकार का व्यवहार है? (वे चीख-पुकार मचाते हैं।) प्रतिरोध के बाद, चीख-पुकार और विरोध पैदा होता है; यह बढ़त है। जब किसी का भ्रष्ट स्वभाव हावी हो जाता है, तो एक एकल विचार उसके और परमेश्वर के बीच एक अवरोध और गलतफहमियाँ पैदा कर सकता है। अगर सत्य खोजकर मुस्तैदी से इसका समाधान नहीं किया जाता, तो अवरोध बड़ा होकर एक मोटी दीवार बन जाता है। फिर तुम न परमेश्वर को देख पाते हो न ही उसके सच्चे अस्तित्व को, उसके दिव्य सार को देखना तो दूर की बात है। तुम्हें शक होने लगता है कि क्या देहधारी परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने में तुम्हारी दिलचस्पी नहीं रह जाती, और अब तुम परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहते। इस तरह परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध में और ज्यादा दूरियाँ आने लगती हैं। लोग ऐसा व्यवहार क्यों दिखा पाते हैं? क्योंकि उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने जो कुछ किया है उससे उनका दिल आहत हुआ है, उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुँची है, और उनके व्यक्तित्व का अपमान हुआ है। क्या वास्तव में यही बात है? (नहीं।) तो फिर वास्तव में क्या हो रहा है? (यह इसलिए है कि लोगों की आकांक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं, और जिस स्थिति से उनका सामना हुआ है उसने उनके हितों को हाथ लगाया है।) यह इसलिए है कि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है; जब उनकी अत्यधिक आकांक्षाएँ तुरंत पूरी नहीं होतीं, तो वे परमेश्वर के विरोधी बन जाते हैं, और बेहद असंतुष्ट हो जाते हैं कि उसने इस तरह कार्य किया जो इंसानी धारणाओं के अनुकूल नहीं है। वे न तो मानते, न ही स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सत्य है, परमेश्वर का प्रेम है, और यह लोगों को बचाने के उद्देश्य से है। वे परमेश्वर के किए कार्यों के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं और गलतफहमियाँ पाल लेते हैं, जिसका अर्थ है कि उन पर भ्रष्ट स्वभाव का नियंत्रण है। इन अवरोधों के उभरने के बाद, जब लोग धारणाओं के आधार पर जीते हैं, तो वे सभी प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों की कौन-सी अभिव्यक्तियों का प्रदर्शन करते हैं? वे खोजते नहीं, प्रतीक्षा या समर्पण नहीं करते, परमेश्वर का भय मानना या प्रायश्चित्त करना तो दूर की बात है। वे पहले जाँच और आलोचना करते हैं, और फिर वे निंदा करते हैं, और अंत में आता है प्रतिरोध। क्या ये व्यवहार, खोजने, प्रतीक्षा करने, समर्पण करने, स्वीकारने और प्रायश्चित्त करने की सकारात्मक अभिव्यक्तियों के ठीक विपरीत नहीं हैं? (बिल्कुल।) फिर ये तमाम व्यवहार अभिमुख चीजें हैं। ये भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटन हैं; उनका भ्रष्ट स्वभाव ही उनके कार्यकलापों, विचारों, और साथ ही लोगों, घटनाओं और चीजों को परखने के उनके रवैयों, इरादों और नजरियों पर नियंत्रण करता है। जब लोग जाँचने, विश्लेषण करने, राय बनाने, निंदा करने और प्रतिरोधी होने में जुट जाते हैं, तो उनका अगला कदम क्या होता है? (विरोध।) फिर आता है विरोध। विरोध की कुछ अभिव्यक्तियाँ कौन-सी हैं? (निराश होना, अपने कर्तव्य छोड़ देना।) निराश होना एक बात है; वे नकारात्मक तरीके से काम में ढिलाई बरतते हैं, और अपने कर्तव्य छोड़ देते हैं। और कुछ? (धारणाएँ फैलाना।) (आलोचनाएँ करना।) आलोचनाएँ करना, धारणाएँ फैलाना, ये सभी परमेश्वर के विरुद्ध चीखने-चिल्लाने और उसका विरोध करने की कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। और कुछ? (वे परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं, सच्चे मार्ग को धोखा दे सकते हैं।) यह इन सबमें सबसे ज्यादा गंभीर है; जब कोई इस मुकाम पर पहुँच जाता है, तो उसकी दानवी प्रकृति पूरी तरह से ऊपर आ जाती है, वह पूरी तरह से परमेश्वर को नकारने और उससे विश्वासघात करने लगता है, और किसी भी क्षण वह परमेश्वर से मुँह मोड़ सकता है।
अभी-अभी, परमेश्वर के विरुद्ध चीखने-चिल्लाने और उसका विरोध करने के व्यवहार की कौन-सी तरह-तरह की अभिव्यक्तियाँ सामने आईं? (नकारात्मक तरीके से काम में ढिलाई बरतना, अपने कर्तव्यों को छोड़ देना।) (परमेश्वर की आलोचना करना।) परमेश्वर और उसके कार्य की आलोचना करना। (फिर है धारणाएँ फैलाना, और अंततः परमेश्वर से विश्वासघात करना।) आओ, इसे और अधिक विस्तार से देखें। क्या धारणाएँ फैलाने में कोई शिकायत करने की बात जुड़ी होती है? (हाँ।) कभी-कभी धारणाएँ फैलाने के साथ शिकायत जुड़ी होती है, जैसे कि, “परमेश्वर जो करता है वह धार्मिक नहीं है,” “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, लोगों में नहीं,” और “मैं मानता हूँ कि परमेश्वर धार्मिक है।” इन बातों में शिकायत छुपी है। नकारात्मक तरीके से ढिलाई बरतना, धारणाएँ फैलाना और परमेश्वर की आलोचना करना, ये सभी थोड़े गंभीर व्यवहार हैं, लेकिन सबसे ज्यादा गंभीर है विश्वासघात करना। ये चारों बिल्कुल स्पष्ट हैं, बहुत गंभीर हैं, और ऐसी प्रकृति के हैं जो परमेश्वर का सीधे विरोध करती है। इन व्यवहारों के भीतर ऐसी कौन-सी कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं जो तुम लोगों को याद पड़ती हैं, जो तुमने देखी हैं या जो तुमने खुद की हैं? (भड़कावा भी है; परमेश्वर से असंतोष की भड़ास निकालने के लिए, कुछ लोग उसका विरोध करने के लिए और ज्यादा लोगों को भड़काते हैं।) यह धारणाएँ फैलाने की अभिव्यक्ति है। क्या ऐसे भी लोग हैं जो बाहर से समर्पित नजर आते हैं, मगर प्रार्थनाओं के दौरान कहते हैं, “परमेश्वर को इसका खुलासा करने दो; मैं जो कर रहा हूँ, वह सही है, समय के साथ सबका खुलासा हो जाएगा; मैं जानता हूँ कि परमेश्वर धार्मिक है”? ये बातें सही लग सकती हैं, विश्वस्त रूप से उचित लग सकती हैं, लेकिन इनमें परमेश्वर के प्रति अवज्ञा और असंतोष छिपा है। यह मानसिक विरोध है, यह नकारात्मक तरीके से ढिलाई बरतना है, और नकारात्मक विरोध है। क्या और भी दूसरे कुछ पहलू हैं? (नकारात्मक तरीके से काम में ढिलाई बरतने के मामले में, मायूसी में डूब जाना और हताशा में हाथ खड़े कर देना भी होता है, यह मान लेना कि वे बस ऐसे ही हैं, उनकी प्रकृति ऐसी ही है; वे सोचते हैं कि उन्हें कोई नहीं बचा सकता, तो अगर परमेश्वर उन्हें नष्ट करना चाहता है, तो करने दो।) यह एक प्रकार का मूक विरोध है; उनकी वास्तविक अवस्था नकारात्मक है, यह सोचकर कि परमेश्वर के कार्यकलाप समझे नहीं जा सकते, और लोग उन्हें सचमुच बूझ नहीं सकते, इसलिए परमेश्वर जो भी करना चाहे, उसे करने दो। ऊपर से तो ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित हैं, मगर वास्तविकता में अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं का जबरदस्त प्रतिरोध करते हैं, और खास तौर पर असंतुष्ट और अवज्ञाकारी हैं। वे पहले ही मान चुके हैं कि यह परमेश्वर की करनी है, और फिर आगे माँगें नहीं करते; तो फिर ऐसा क्यों कहा जाए कि यह एक विरोधी भावना है? इसे इस रूप में चित्रित क्यों करें? असल में, अपनी चेतना में, वे भी इस मामले की निंदा नहीं करना चाहते, वे ऐसा निर्धारण नहीं करना चाहते कि “परमेश्वर ने जो किया है वह गलत है; मैं इसे नहीं स्वीकारता। मैं परमेश्वर द्वारा किए गए दूसरे कार्यों को समर्पित हो सकता हूँ, मगर इसके प्रति नहीं। किसी भी स्थिति में, मैं इस कारण से नकारात्मक तरीके से अपने काम में ढिलाई बरतूँगा।” उनके अवचेतन मन में उनकी अवस्था ऐसी नहीं है, उनमें यह जागरूकता नहीं है; अपने दिलों में वे बस थोड़े अवज्ञापूर्ण हैं, असंतुष्ट हैं, या क्रोधित हैं। कुछ लोग परमेश्वर के कार्यकलापों की निंदा करते हुए उसे गलत भी ठहरा सकते हैं, लेकिन अपने दिलों की गहराई से, अपनी व्यक्तिपरक आकांक्षाओं के संबंध में, वे अपनी चेतना में वास्तव में परमेश्वर की निंदा नहीं करना चाहते, क्योंकि वे जिसमें विश्वास रखते हैं वह आखिर परमेश्वर ही है। तो ऐसा क्यों कहें कि यह व्यवहार विरोधात्मक है, यह नकारात्मक तरीके से अपने काम में ढिलाई बरतना है, और इसमें नकारात्मकता के तत्व हैं? नकारात्मकता स्वयं भी प्रतिरोध और विरोध का एक प्रकार है, और इसकी अनेक अभिव्यक्तियाँ हैं। अव्वल तो, जब लोग मायूसी में हार मान लेने और नकारात्मक तरीके से अपने काम में ढिलाई बरतने की अवस्थाएँ विकसित कर लेते हैं, तो क्या वे अपने दिलों में जानते होते हैं कि ये अवस्थाएँ गलत हैं? (बिल्कुल।) सभी लोग इससे अवगत हो सकते हैं, सिर्फ उनको छोड़कर जिन्होंने सिर्फ दो-तीन वर्षों से ही विश्वास रखा है, और विरले ही धर्मोपदेश सुनते हैं; वे ये चीजें नहीं समझते। लेकिन अगर वे कम-से-कम तीन वर्ष परमेश्वर में विश्वास रख चुके हैं, अक्सर धर्मोपदेश सुनते हैं, और सत्य को समझते हैं, तो उनमें यह जागरूकता हो सकती है। जब लोगों को यह एहसास होता है कि ऐसी अवस्थाएँ गलत हैं, तो उन्हें विरोधात्मक होने से बचने के लिए क्या करना चाहिए? सबसे पहले उन्हें खोजना चाहिए। क्या खोजना चाहिए? खोजना चाहिए कि परमेश्वर ने चीजों को इस तरह क्यों आयोजित किया है, उन पर ऐसी स्थितियाँ क्यों आन पड़ी हैं, परमेश्वर के इरादे क्या हैं और उन्हें क्या करना चाहिए। ये सकारात्मक हैं, लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए। और कुछ? (स्वीकारना, समर्पण करना और अपने विचारों को जाने देना।) क्या तुम्हारे अपने विचारों को जाने देना आसान है? (नहीं।) अगर तुम सोचते हो कि तुम सही हो, तो तुम उन्हें जाने नहीं दे पाओगे। जाने देने के मुकाम पर पहुँचने के कुछ चरण हैं। तो इसके लिए कौन-से अभ्यास हैं जो सबसे ज्यादा उपयुक्त और उचित हैं? (प्रार्थना।) अगर तुम्हारी प्रार्थना में सिर्फ थोड़े-से खोखले वाक्य हैं, और तुम सिर्फ दिखावा कर रहे हो, तो समस्या दूर नहीं होगी। तुम प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं समर्पण करना चाहता हूँ; मेरे लिए ऐसे हालात की व्यवस्था और आयोजन करो कि मैं समर्पण कर सकूँ। अगर मैं फिर भी समर्पण नहीं कर सका, तो मुझे सुधारो।” क्या ऐसे कुछ खोखले वाक्य बोल देने भर से तुम्हारी गलत अवस्था बदल जाएगी? यह बिल्कुल भी नहीं बदलती। आमूल परिवर्तन के लिए तुम्हें अभ्यास की एक विधि चाहिए। तो तुम्हें आमूल परिवर्तन लाने के लिए किस तरह अभ्यास करना चाहिए? (तुम्हें सक्रियता से परमेश्वर के इरादों को खोजना चाहिए, भीतर से मान लेना चाहिए कि परमेश्वर सही है, और तुम गलत हो, और अपने दैहिक सुखों को नकारने योग्य बनना चाहिए।) अभ्यास की ये दो विधियाँ हैं : परमेश्वर के इरादों की सक्रियता से खोज, और भीतर से यह मानना कि परमेश्वर सही है और तुम गलत हो। ये दोनों विधियाँ बहुत अच्छी हैं, ये दोनों सही बातें बताती हैं, मगर इनमें से एक अत्यंत व्यावहारिक है। कौन-सी विधि व्यावहारिक है? कौन-सी खोखली बात है? (परमेश्वर के इरादों की सक्रिय खोज व्यावहारिक है।) अक्सर परमेश्वर तुम्हें अपने इरादे सीधे नहीं बताएगा। इसके अलावा, वह तुम पर एकाएक समझ की रोशनी नहीं चमकाएगा। न ही वह तुम्हें इस दिशा में ले जाएगा कि तुम परमेश्वर के ठीक वही संगत वचन खाओ-पियो, जो तुम्हें समझने चाहिए। ये तमाम तरीके लोगों के लिए बहुत ज्यादा अवास्तविक हैं। तो क्या परमेश्वर के इरादों को सक्रियता से खोजने का यह तरीका तुम लोगों के लिए प्रभावी है? एक प्रभावी तरीका ही सर्वोत्तम तरीका है; यही सबसे वास्तविक और व्यावहारिक तरीका है। अप्रभावी तरीका, चाहे वह सुनने में जितना भी अच्छा लगे, सैद्धांतिक होता है, सिर्फ बातों के स्तर पर ही रह जाता है और इसके कुछ परिणाम नहीं मिलते। तो फिर कौन-सा तरीका व्यावहारिक है? (दूसरा तरीका, यह मानना कि परमेश्वर ही सत्य है और हम गलत।) सही है, अपनी गलतियाँ मान लेना—इसमें समझदारी है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें यह एहसास नहीं होता कि वे गलत हैं। इस स्थिति में, तुम्हें तर्कसंगत होना चाहिए और अपने दैहिक सुखों को नकारकर उन्हें जाने देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सोचता था कि मैं सही हूँ, और मैं अभी भी ऐसा ही सोचता हूँ। यही नहीं, बहुत-से लोग मेरी बात का अनुमोदन कर मुझसे सहमत हैं, और मैं अपने दिल में कोई पछतावा महसूस नहीं करता हूँ। इसके अलावा मेरा इरादा सही है तो फिर मैं गलत कैसे हो सकता हूँ?” बहुत-से कारण हैं जो अपने दैहिक सुखों को नकारने और जाने देने से तुम्हें रोक रहे हैं। इस स्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? खुद को सही मानने के तुम्हारे चाहे जो भी कारण हों, अगर यह “सही” परमेश्वर के विरोध में है और सत्य के विरुद्ध है, तो तुम बिल्कुल गलत हो। भले ही तुम्हारा रवैया चाहे जितना भी समर्पण करने वाला हो, भले ही तुम परमेश्वर से अपने दिल में चाहे जैसी प्रार्थना करो, या भले ही तुम मौखिक रूप से मान लो कि तुम गलत हो मगर अंतरतम में अभी भी परमेश्वर के विरुद्ध संघर्षरत हो, नकारात्मकता की अवस्था में हो, तो इसका सार अब भी परमेश्वर का विरोध करने का है। इससे साबित होता है कि तुम्हें अब भी यह एहसास नहीं है कि तुम गलत हो; तुम इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हो कि तुम गलत हो। जब लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और धारणाएँ पैदा होती हैं, तो उन्हें पहले यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है तथा लोगों में सत्य नहीं है और निश्चित रूप से गलत वही लोग हैं। क्या यह एक तरह की औपचारिकता है? (नहीं।) यदि तुम इस अभ्यास को केवल एक औपचारिकता समझोगे, सतही तौर पर लोगे, तो क्या तुम अपनी गलतियों को जान सकते हो? कभी नहीं। खुद को जानने के लिए कई कदमों की जरूरत होती है। पहले तुम्हें यह तय करना चाहिए कि तुम्हारे क्रियाकलाप सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं। पहले अपने इरादों को मत देखो; कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तुम्हारे इरादे तो सही होते हैं लेकिन तुम जिन सिद्धांतों पर अमल करते हो, वे गलत होते हैं। क्या ऐसी स्थिति अक्सर होती है? (बिल्कुल।) मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि अभ्यास के तुम्हारे सिद्धांत गलत हैं? तुमने खोज की होगी, लेकिन शायद तुम्हें सिद्धांतों की कोई समझ ही न हो; शायद तुमने खोज ही न की हो और तुम्हारे क्रियाकलाप मात्र नेक इरादों और उत्साह पर ही आधारित हों, तुम्हारी कल्पनाओं और अनुभव पर आधारित हों और नतीजतन तुमने गलती कर दी हो। क्या तुम इसकी कल्पना कर सकते हो? तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकते हो, और तुमसे गलती हो गई हो—तब क्या तुम उजागर नहीं हो जाते हो? उजागर हो जाने के बाद, अगर तुम परमेश्वर से विवाद करते रहते हो, तो इसमें गलती कहाँ है? (यह न मानने में है कि परमेश्वर सही है, और इस पर अड़े रहने में है कि मैं सही हूँ।) तुमने इस तरह गलती की है। तुम्हारी सबसे बड़ी गलती यह नहीं थी कि तुमने कुछ गलत किया और सिद्धांतों का उल्लंघन किया, जिसके कारण नुकसान हुआ या उसके कुछ और परिणाम हुए, बल्कि कुछ गलत करके भी तुम अपने तर्क पर अड़े रहे, अपनी गलती मान नहीं पाए; तुम अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर का विरोध करते रहे और उसके कार्य और उसके द्वारा व्यक्त सत्य को नकारते रहे—यही तुम्हारी सबसे बड़ी और सबसे भयंकर भूल थी। ऐसा क्यों कहा जाता है कि किसी व्यक्ति में ऐसी अवस्था परमेश्वर के विरोध की है? (क्योंकि वे नहीं मानते कि वे जो कर रहे हैं वह गलत है।) लोग इस बात को मानें या न मानें कि सब-कुछ परमेश्वर करता है और उसकी संप्रभुता उचित है और उनकी क्या महत्ता है, अगर वे पहले यही न समझ पाएँ कि वे गलत हैं, तो उनकी अवस्था परमेश्वर के विरोध की है। इस अवस्था को सुधारने के लिए क्या किया जाना चाहिए? पहले, अपने दैहिक-सुखों को नकारना चाहिए। अभी-अभी हमने पहले परमेश्वर के इरादों को खोजने की जरूरत के बारे में जो कहा, वह लोगों के लिए ज्यादा व्यावहारिक नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर यह ज्यादा व्यावहारिक नहीं है, तो क्या इसका मतलब यह है कि खोजना आवश्यक नहीं है? जिन कुछ चीजों को खोजा और समझा जा सकता है, उन्हें खोजना जरूरी नहीं है—मैं इस कदम को छोड़ सकता हूं।” क्या ऐसे चलेगा? (नहीं।) जो ऐसा करता है, क्या वह बचाए जाने से परे नहीं है? ऐसे लोग अपनी ग्राह्यता में सचमुच टेढ़े और गलत होते हैं। परमेश्वर के इरादों को खोजना दूर की कौड़ी है और इसे तुरंत हासिल नहीं किया जा सकता; शॉर्टकट लेना हो, तो यह ज्यादा वास्तविक होगा कि पहले खुद को जाने दें, जान लें कि उनके कार्य गलत हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और तब सत्य-सिद्धांतों को खोजना चाहिए। ये हैं वे कदम। ये देखने में सरल लग सकते हैं, लेकिन इन्हें व्यवहार में लाने में बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं, क्योंकि मनुष्यों का स्वभाव भ्रष्ट होने के साथ-साथ उनके अंदर तरह-तरह की कल्पनाएं हैं, तरह-तरह की अपेक्षाएँ हैं, इच्छाएं हैं, जो उन्हें अपने दैहिक-सुखों को नकारने और खुद को जाने देने से रोकती हैं। ये सब करना इतना आसान नहीं है। हम इस विषय की गहराई में नहीं जाएँगे; अपनी पिछली दो संगतियों में हमने धारणाओं के जिस मसले पर चर्चा की, आओ उसी चर्चा को आगे बढ़ाएँ।
अभी, हमारी संगति का मुख्य केंद्रबिंदु यह था कि धारणाएँ किस तरह से परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों की ओर ले जा सकती हैं, जिससे लोगों और परमेश्वर के बीच एक अवरोध बन जाता है और यह अवरोध उन्हें परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध विकसित करने की ओर ले जाता है। इस प्रतिरोध की प्रकृति क्या है? (विरोध।) यह विरोध है, विद्रोहशीलता है। इसलिए, जब लोगों में परमेश्वर के प्रति विरोध पैदा हो जाता है, और वे उसके विरुद्ध होहल्ला मचाते हैं, तो ऐसा नहीं है कि यह रातोरात होता है; इसकी जड़ें जमी होती हैं। यह ऐसा है जब किसी को एकाएक पता चलता है कि वह बीमार है, और उसका रोग अत्यंत गंभीर है; तो वह सोच में पड़ जाता है कि उसकी बीमारी इतनी तेजी से कैसे बढ़ गई। वास्तव में, रोग बड़े लंबे समय से शरीर में था और उसकी जड़ें मजबूत हो चुकी थीं—रोग उस दिन नहीं हुआ था जब यह नजर आया; बस रोग का पता उस दिन लगा था। ऐसा कहने का मेरा तात्पर्य क्या है? क्या पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद सभी लोग यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि उनमें परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने, उसका विरोध करने, उसके खिलाफ होहल्ला मचाने की क्षमता है? बिल्कुल नहीं। अंततः परमेश्वर के विरुद्ध होहल्ला मचाने और विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास रखने का शुरुआती इरादा क्या यही होता है? क्या किसी ने कभी कहा, “मैं आशीषों के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता; मैं बस परमेश्वर के विरुद्ध होहल्ला मचाना चाहता हूँ और उसे देखने के बाद विरोधात्मक होना चाहता हूँ, ताकि तब मैं प्रसिद्ध हो जाऊँ, अपने लिए बड़ा नाम कमा लूँ, और फिर मेरा जीवन योग्य हो जाए”? क्या किसी ने कभी ऐसी योजना बनाई थी? (नहीं।) कभी किसी ने ऐसी योजना नहीं बनाई, निरे मूर्ख, बेवकूफ या बुरे लोगों ने भी ऐसा नहीं किया। तमाम लोग चाहते हैं कि ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखें, नेक रहें, परमेश्वर के वचन सुनें और परमेश्वर उनसे जो भी कहे वह करें। हालाँकि वे परमेश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण प्राप्त नहीं कर सकते, फिर भी वे कम-से-कम परमेश्वर की न्यूनतम अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपनी संपूर्ण सामर्थ्य से परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं। यह कितनी अच्छी कामना है—यह अंत में परमेश्वर के खिलाफ होहल्ला मचाने और उसका विरोध करने में कैसे बदल गई? लोग खुद इसके इच्छुक नहीं होते और नहीं जानते कि यह कैसे हुआ। परमेश्वर के खिलाफ होहल्ला मचाने और उसका विरोध करने को लेकर वे यह सोच कर अंतर्मन में बुरा और परेशान महसूस करते हैं, “लोग ऐसा कैसे कर सकते थे? भले ही दूसरे लोग इस तरह करें, मुझे यूँ नहीं करना चाहिए था!” यह ठीक वैसा है जैसा पतरस ने कहा : “यदि सब तेरे विषय में ठोकर खाएँ तो खाएँ, परन्तु मैं कभी भी ठोकर न खाऊँगा” (मत्ती 26:33)। पतरस ने जो शब्द कहे वे उसके दिल से निकले थे, लेकिन उसका व्यवहार उसकी कामनाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं हो सका। इंसानी कमजोरी ऐसी चीज है जिसका लोग खुद अनुमान नहीं लगा सकते। जब कोई स्थिति उन पर वास्तव में आन पड़ती है तो उनकी भ्रष्टता उजागर हो जाती है। किसी का प्रकृति सार और भ्रष्ट स्वभाव उसके विचारों और व्यवहार पर नियंत्रण कर उन पर हुक्म चला सकता है। भ्रष्ट स्वभाव के साथ विभिन्न धारणाएँ पैदा हो सकती हैं, और साथ ही विभिन्न आकांक्षाएँ और माँगें उभर सकती हैं, जो व्यक्ति को हर तरह के विद्रोहपूर्ण व्यवहार की ओर आगे बढ़ाती हैं। इससे परमेश्वर के साथ व्यक्ति का रिश्ता सीधे प्रभावित होता है और उसका जीवन प्रवेश और स्वभावगत परिवर्तन सीधे प्रभावित होता है। पहले पहल परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते समय लोगों के ये इरादे नहीं होते, न ही ये वे होते हैं जो लोग अपने दिलों से करने को तैयार हैं या करने की उम्मीद लगाए हैं। ऐसे परिणामों का श्रेय परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाओं को जाता है। अगर ये धारणाएँ दूर न की जाएँ, तो व्यक्ति की संभावनाएँ, भाग्य और मंजिल सभी समस्या में घिर सकते हैं।
परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने के लिए इंसान को परमेश्वर और उसके कार्य, परमेश्वर के सार और उसके स्वभाव के बारे में अपनी धारणाओं को दुरुस्त करना चाहिए। इन धारणाओं को ठीक करने के लिए व्यक्ति को पहले उन्हें समझना, जानना और पहचानना चाहिए। तो ये धारणाएँ वास्तव में क्या हैं? यह हमें वापस मुख्य विषय पर ले आता है। हमें लोगों की इन धारणाओं और अभिव्यक्तियों के समाधान के लिए कुछ व्यावहारिक उदाहरणों से शुरू करना चाहिए जिससे इन घटनाओं से परमेश्वर के इरादे प्रकट हो जाएँ, लोग परमेश्वर के दिल में गहराई से देख सकें कि परमेश्वर का स्वभाव और सार क्या है और वह लोगों से कैसे पेश आता है, और साथ ही लोग किस तरह कल्पना करते हैं कि परमेश्वर को उनसे कैसे पेश आना चाहिए, और वे इन दो नजरियों के बीच भेद कर उनका स्पष्टीकरण और तुलना कर सकें, जिससे उन्हें परमेश्वर के लोगों से पेश आने और उन पर शासन करने के तरीके के बारे में और परमेश्वर के सार और स्वभाव की समझ और स्वीकृति मिल सके। एक बार लोग जब यह स्पष्ट समझ हासिल कर लेंगे कि परमेश्वर लोगों पर किस तरह से शासन करता है और उसका कार्य क्या है, फिर वे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ नहीं बनाएँगे। उनके और परमेश्वर के बीच का अवरोध भी गायब हो जाएगा, और उनके दिलों में परमेश्वर के प्रति विरोधात्मक या होहल्ला मचाने की अवस्थाएँ पैदा नहीं होंगी। परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोहशीलता और प्रतिरोध के इन मसलों का सीधा समाधान परमेश्वर के वचन पढ़कर और सत्य पर संगति करके किया जा सकता है। भले ही धारणाओं के जिस भी पहलू को संबोधित किया जा रहा हो, इसका आरंभ परमेश्वर के वचन पढ़कर और सत्य पर संगति करने से होना चाहिए। सभी चीजें सत्य से संबद्ध होनी चाहिए, सभी चीजों में सत्य शामिल होता है। तो ये धारणाएँ क्या हैं जो लोगों में हैं? आओ, परमेश्वर के कार्य के पीछे के सिद्धांतों को स्पष्ट करने और जिन सिद्धांतों और तरीकों से परमेश्वर लोगों से पेश आता है और उन पर शासन करता है, उन्हें स्पष्ट करने के लिए विशिष्ट उदाहरणों का प्रयोग करके परमेश्वर के कार्य पर चर्चा से शुरू करें। कोई उदाहरण परमेश्वर के कार्य के तरीके को छू सकता है; यह उस तरीके को भी छू सकता है जिससे परमेश्वर किसी व्यक्ति को वर्गीकृत करता है और उसका परिणाम तय करता है; या यह परमेश्वर के स्वभाव और सार को छू सकता है। इन मुद्दों को स्पष्ट करने के लिए अगर हमें खोखले ढंग से बोलना हो कि परमेश्वर कैसा है, परमेश्वर ने क्या किया है और वह अपने छह हजार साल के कार्य के दौरान लोगों से किस तरह पेश आया है—क्या तुम लोग सोचते हो कि यह उचित होगा? क्या तुम इसे आसानी से ग्रहण कर सकोगे? या अगर हम बात करें कि कैसे, मिसाल के तौर पर, परमेश्वर छह हजार साल से कार्य करता रहा है, और अपने कार्य के दूसरे चरण में, उसने यहूदिया में परिचालन किया; और हम चर्चा करें कि कैसे उस वक्त परमेश्वर ने यहूदी लोगों से बर्ताव किया, और हम इससे किस तरह परमेश्वर के स्वभाव का निरीक्षण कर सकते हैं—क्या इससे समझना आसान हो जाएगा? (नहीं।) मिसाल के तौर पर, अगर हम बात करें कि परमेश्वर इस संसार पर कैसे शासन करता है : वह विभिन्न नस्ली प्रजातियों के साथ कैसे पेश आता है, परमेश्वर क्या सोचता है, और वह उनके क्षेत्रों का सीमांकन कैसे करता है, और वह उन्हें विभिन्न स्थानों में कैसे विभाजित करता है—खास तौर से कुछ अच्छे लोग क्यों थोड़े मामूली स्थानों में बसाए जाते हैं, जबकि कुछ बुरे लोग काफी बेहतर स्थानों में बसे होते हैं, और चीजों का इस तरह आवंटन करने में परमेश्वर कौन-से सिद्धांत लगाता है, और इस विषय से देखें कि मानवजाति पर शासन करने के परमेश्वर के तरीके क्या हैं—क्या इससे समझना आसान हो जाएगा? (नहीं।) क्या ये विषय लोगों के स्वभावगत परिवर्तनों और दैनिक जीवन में जीवन प्रवेश से बहुत कटे हुए नहीं हैं? क्या ये बहुत अस्पष्ट नहीं हैं? (बिल्कुल।) हम क्यों कहते हैं कि ये इतने कटे हुए और अस्पष्ट हैं? क्योंकि असल जीवन में केवल दर्शनों से संबद्ध सत्यों को समझना, जैसे कि परमेश्वर मानवजाति पर कैसे शासन करता है, कैसे उसका मार्गदर्शन करता है, हमारे दैनिक जीवन की समस्याओं से बड़ी दूर की बातें लगती हैं, और इससे खास जुड़ी नहीं लगतीं। असल दुनिया की समस्याओं को संबोधित करने के लिए, हमें उन मिसालों से शुरुआत करनी चाहिए, जो तुम अपने जीवन में देख, सुन और महसूस कर सकते हो, और जिनसे फिर तुम सब अपनी अंतर्दृष्टि का विस्तार कर सकते हो। मैं चाहे जो भी कहानियाँ बताऊँ, या इन कहानियों में जिन भी लोगों या घटनाओं की बात हो—भले ही इनका संबंध उन बातों से हो जो तुमने पहले की हों—इन कहानियों का अंतिम परिणाम तुम्हें वे सत्य समझने में मदद करना है जिन पर आज चर्चा हो रही है। प्रत्येक कहानी का एक प्रयोजन है, और यह संबद्ध है उस मूल्य से जो बताना उसका आशय है और उस सत्य से जो वह व्यक्त करती है।
आओ अपनी कहानी शुरू करें। यह है पहला मामला। बहुत समय पहले की बात है, एक कलीसिया ने यह समझाते हुए खाँसी सिरप की एक बोतल भेजी : “परमेश्वर हमसे हमेशा बात करता है और उपदेश देता है, और बहुत ज्यादा बोलते समय कभी-कभी वह खाँसता है। परमेश्वर के उपदेशों को सुगम बनाने और खाँसी कम करने के लिए हम थोड़ी खाँसी सिरप भेज रहे हैं।” बोतल आने पर एक व्यक्ति ने उसे देखकर कहा : “इसे खाँसी सिरप कहा गया है, मगर कौन जाने इससे असल में किसका इलाज होता है। हम इसे परमेश्वर को पीने के लिए नहीं दे सकते—हो सकता है यह नुकसानदेह हो। यह दवा है; हर दवा में कुछ विष होते हैं। इसको पीने से कुछ बुरे प्रभाव हो सकते हैं!” उसकी बात सुनने वालों को लगा, “वह बहुत विचारशील है। फिर हम यह परमेश्वर को नहीं दे सकते।” इस वक्त मुझे इसकी जरूरत नहीं थी, तो मैंने उसे बाद के लिए रखने की सोची और बात वहीं खत्म हो गई। लेकिन क्या कहानी यहाँ खत्म हो जाती है? नहीं, इस दवा की कहानी उस दिन शुरू हुई। एक दिन, किसी को पता चला कि वही व्यक्ति खुद यह खाँसी सिरप पी रहा है, और जब तक यह पता चला, आधी बोतल दवा ही बची थी। इसके बाद क्या हुआ इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है; उसने पूरी बोतल खत्म कर दी। यही है पूरी कहानी। सोच-विचार करो कि इसका उन धारणाओं के साथ क्या लेना-देना है, जिनकी चर्चा आज हम कर रहे हैं। सबसे पहले, मुझे बताओ : क्या यह कहानी तुम लोगों को झटका देती है, क्या यह तुम लोगों को प्रवर्तित करती है? (बिल्कुल।) इसे सुनने के बाद तुम लोगों के विचार क्या हैं? किस बात ने तुम लोगों को प्रवर्तित किया? आम तौर पर, जो लोग प्रवर्तित हुए वे सोचेंगे, “हे, यह तो परमेश्वर को अर्पित की गई थी; कोई इसे कैसे पी सकता है?” यह पहली चीज है जो उन्हें प्रवर्तित करती है। दूसरी चीज है, “वह उसे पीता रहा। मुझे यकीन नहीं होता उसने यह पूरा पी लिया!” प्रवर्तित होने के अलावा, तुम लोग और क्या सोच सकते हो? इस व्यक्ति ने जो किया उस बारे में—उसके ये तमाम व्यवहार; यानी इस पूरी कहानी की प्रत्येक घटना—क्या तुम लोग विचार कर सकते हो कि परमेश्वर की प्रतिक्रिया क्या हो सकती है? परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर को क्या करना चाहिए? परमेश्वर को ऐसे व्यक्ति से कैसे पेश आना चाहिए? और क्या यह वह स्थान नहीं है जहाँ इंसानी धारणाएँ पैदा होने लगती हैं? चलो जिस विषयवस्तु ने तुम्हें प्रवर्तित किया उसे किनारे रख दें, और इस बारे में बात करें कि क्या प्रवर्तित होने का यह अनुभव अपने आप में किसी तरह से लाभकारी है। प्रवर्तित होने में, लोगों को अपने जमीर में महज एक तरह की बेचैनी महसूस होती है, मगर वे इसके बारे में स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते। फिर उनके मन में कहानी के उस व्यक्ति के प्रति निंदा और धिक्कार पैदा हो सकता है जिनकी जड़ें मूल आचारनीति, नैतिकता, धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों, या वचनों और धर्म-सिद्धांतों में होती हैं, मगर ये चीजें सत्य नहीं हैं। अगर हमें सत्य तक पहुँचना हो, तो वे इंसानी धारणाएँ जो इस घटना को लेकर बनीं, या वे माँगें जो इससे जुड़ी हैं कि परमेश्वर को क्या करना चाहिए—इन मसलों का समाधान जरूरी है। इस कहानी में, ऐसी स्थिति में परमेश्वर को क्या करना चाहिए, इस बारे में लोगों की धारणाएँ और विचार अहम हैं। सिर्फ अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया पर ध्यान न दो; किसी चीज से प्रवर्तित होने से तुम्हारी विद्रोहशीलता का समाधान नहीं हो सकता। अगर किसी दिन तुम्हें परमेश्वर के चढ़ावों में ऐसी कोई चीज मिल जाती है जो तुम्हें पसंद हो या जिसकी तुम्हें जरूरत हो और तुम ललचा जाओ, तो शायद तुम उसे अपने लिए ले लो; उस स्थिति में तुम जरा भी प्रवर्तित नहीं होगे। अब तुम्हारा प्रवर्तित होना महज जमीर का कृत्य है, मानवता के नैतिक मानकों का नतीजा; यह सत्य का कृत्य नहीं है। जब तुम इस स्थिति से पैदा होने वाली धारणाओं का समाधान कर सकोगे, तब तुम इस स्थिति के सत्य को समझ जाओगे। तुम ऐसे मामलों में परमेश्वर के प्रति अपनी किसी भी धारणा और गलतफहमी को दूर कर चुके होगे, और ऐसी स्थितियों में तुम सत्य को समझ जाओगे और कुछ हासिल कर लोगे। तो अब सोचो कि इस स्थिति में लोगों के मन में कैसी धारणाएँ विकसित हो सकती हैं। इनमें से कौन-सी धारणाएँ तुम्हें परमेश्वर को गलत समझने, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच अवरोध बनाने, या उसका विरोध करने की ओर ले जाएँगी? यही वह विषय है जिस पर हमें संगति करनी चाहिए। मुझे बताओ, जब यह घटना हुई, तो क्या इस व्यक्ति ने अपने जमीर में कोई धिक्कार महसूस किया? (नहीं।) तुम कैसे कह सकते हो कि उसने कोई धिक्कार महसूस नहीं किया? (उसने पूरा-का-पूरा खाँसी सिरप पी लिया।) इसका विश्लेषण करना बहुत आसान है, है कि नहीं? पहली घूँट से आखिरी घूँट तक, उसने कोई संयम नहीं दिखाया और रुका नहीं। अगर वह चख कर रुक गया होता, तो उसे आत्म-भर्त्सना महसूस करना माना जाता, क्योंकि वह रुक गया होता, अपना संयम रखा होता और पीना जारी नहीं रखा होता। लेकिन इस व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया; वह आरंभ से अंत तक पूरी बोतल पी गया। अगर और भी होता, तो वह पीता ही रहता। यह दर्शाता है कि उसने अपने जमीर में किसी भी तरह की भर्त्सना महसूस नहीं की; यह इसे इंसानी नजरिए से देखना है। अब, परमेश्वर इस मामले को किस दृष्टि से देखता है? यही बात है जो तुम लोगों को समझनी चाहिए। परमेश्वर इस स्थिति से कैसे पेश आता है, वह इसका आकलन कर इसे कैसे परिभाषित करता है, इससे तुम परमेश्वर के स्वभाव, उसके सार को देख सकते हो, और उन सिद्धांतों और तरीकों को भी समझ-बूझ सकते हो जिनसे परमेश्वर परिचालन करता है। साथ ही, यह कुछ इंसानी धारणाएँ भी प्रकट कर सकता है, जिस कारण से लोग कह सकते हैं, “तो लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया यह है; परमेश्वर लोगों को इस तरह सँभालता है। मैंने पहले इस तरह नहीं सोचा था।” यह तथ्य कि तुमने पहले इस तरह नहीं सोचा यह दर्शाती है कि तुम्हारे और परमेश्वर के बीच एक अवरोध है, तुम परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ विकसित कर सकते हो, और तुम्हारे मन में इस बारे में परमेश्वर के कार्य के तरीके और उसके परिचालन को लेकर कुछ धारणाएँ हैं। तो इस स्थिति का सामना होने पर परमेश्वर ने इसे कैसे सँभाला? व्यक्ति ने कहा, “यह दवा है; सभी दवाओं में थोड़ी विषाक्तता होती है, हम परमेश्वर को इसे पीने नहीं दे सकते; इसके बुरे परिणाम हो सकते हैं।” उसकी बातों के पीछे इरादा और प्रयोजन क्या था? ये बातें खरी थीं या खोटी? ये खरी नहीं थीं; ये धोखा देने वाली, झूठी और खोटी थीं। उसके बाद वाले क्रियाकलापों और उसके द्वारा प्रकट की गई चीजों ने साफ कर दिया कि उसके दिल में क्या चल रहा था। क्या परमेश्वर ने उसकी झूठी बातों और क्रियाकलापों को लेकर कुछ किया? (नहीं।) हमें कैसे मालूम कि परमेश्वर ने कुछ नहीं किया? ये बातें बोलते समय वह ईमानदार नहीं था; वह झूठा था। परमेश्वर किनारे खड़ा देख रहा था, न वह मार्गदर्शन का सकारात्मक कार्य कर रहा था न ही भर्त्सना का नकारात्मक कार्य। कभी-कभी लोग अपने जमीर में भर्त्सना महसूस करते हैं—यानी परमेश्वर कार्यरत है। क्या इस व्यक्ति ने उस वक्त भर्त्सना महसूस की? (नहीं।) न सिर्फ उसने भर्त्सना महसूस नहीं की, बल्कि उसने बुलंद ढंग से बड़ी-बड़ी बातें की। परमेश्वर ने उसकी भर्त्सना नहीं की; वह बस देख रहा था। परमेश्वर क्यों देख रहा था? क्या वह यह जानने के लिए देख रहा था कि तथ्य किस तरह सामने आते हैं? (नहीं।) जरूरी नहीं। ठीक उस वक्त जब कोई व्यक्ति किसी स्थिति को सामना करता है, तो अपना विकल्प चुनने से पहले या कोई तथ्य तैयार करने से पहले क्या परमेश्वर उस व्यक्ति को समझता है? (बिल्कुल।) परमेश्वर उसे सिर्फ बाहर से नहीं बल्कि उसके अंतर्मन को भी समझता है—उसका दिल नेक है या बुरा, सच्चा है या झूठा, परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या है, उसके दिल में परमेश्वर है या नहीं, उसकी आस्था सच्ची है या नहीं—परमेश्वर पहले ही ये बातें जान चुका है; उसके पास निर्णायक प्रमाण है, और वह हमेशा निरीक्षण करता रहता है। इस व्यक्ति के ऐसा कहने के बाद परमेश्वर ने क्या किया? पहले, परमेश्वर ने उसकी भर्त्सना नहीं की; दूसरे, परमेश्वर ने उसे प्रबुद्ध नहीं किया या उसे अवगत नहीं किया कि यह एक चढ़ावा है, और इंसानों को इसे लापरवाही से नहीं छूना चाहिए। क्या परमेश्वर को लोगों से यह स्पष्ट रूप से बताना चाहिए ताकि वे इसे जान जाएँ? (नहीं।) सामान्य मानवजाति में यह पता होना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “कुछ लोग बस नहीं जानते। क्या तुम उन्हें नहीं बताओगे? अगर तुम बस उन्हें बता दोगे तो क्या वे जान नहीं लेंगे? न जानना इंसान को पाप की छूट देता है—अभी वे नहीं जानते; अगर वे जानते होते, तो वे यह गलती नहीं करते, ठीक है? क्या यह उनकी रक्षा नहीं करेगा?” क्या परमेश्वर ने इस तरह कार्य किया? (नहीं।) परमेश्वर ने इस तरह कार्य क्यों नहीं किया? एक ओर, उस व्यक्ति को यह अवधारणा मालूम होनी चाहिए थी कि “यह परमेश्वर को दिया गया चढ़ावा है, इंसान इसे छू नहीं सकते।” दूसरी ओर, अगर उसे नहीं मालूम था, तो परमेश्वर ने उसे क्यों नहीं बताया? परमेश्वर ने उसे अवगत क्यों नहीं किया ताकि उसे ऐसा करने और ऐसे परिणाम भुगतने से रोक सके? क्या उसे बता देने से लोगों को बचाने की परमेश्वर की ईमानदारी का बेहतर खुलासा नहीं होता? क्या इससे परमेश्वर के प्रेम का बेहतर खुलासा नहीं होता? तो फिर परमेश्वर ने यह क्यों नहीं किया? (परमेश्वर उसे प्रकट करना चाहता था।) हाँ, परमेश्वर उसे प्रकट करना चाहता था। जब तुम स्थितियों का सामना करते हो, तो तुम्हारा इनसे सामना कोई संयोग नहीं है। किसी विशेष स्थिति का अर्थ तुम्हारा उद्धार हो सकता है, या हो सकता है इसका अर्थ तुम्हारा विनाश हो। इस दौरान परमेश्वर देखता है, मौन रहता है, तुम्हें इशारा देने के लिए कोई हालात आयोजित नहीं करता, न ही तुम्हें ऐसे वचनों से प्रबुद्ध करता है, “तुम्हें यह नहीं करना चाहिए; इसके अकल्पनीय परिणाम हो सकते हैं,” या “इसे इस तरह करने में विवेक और मानवता का अभाव होता है।” लोगों में ऐसी जागरूकता नहीं है। एक अर्थ में ऐसी जागरूकता का अभाव इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने उस वक्त उन्हें कोई इशारा नहीं दिया—परमेश्वर ने कार्य नहीं किया। एक और अर्थ में, अगर किसी व्यक्ति में जमीर हो और उसमें थोड़ी-बहुत मानवता हो, तो क्या परमेश्वर ऐसी बुनियाद पर कार्य करेगा? (बिल्कुल।) सही है। परमेश्वर उन पर ऐसा अनुग्रह करेगा। लेकिन परमेश्वर ने इस खास स्थिति की अनदेखी क्यों की? एक कारण यह है कि इस व्यक्ति में जमीर और तर्क का अभाव था, उसमें कोई प्रतिष्ठा, कोई सत्यनिष्ठा, कोई सामान्य मानवता नहीं थी। उसने इन चीजों का अनुसरण नहीं किया; उसके दिल में परमेश्वर नहीं था और वह परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं था। इसलिए, परमेश्वर ने उसे इस स्थिति के जरिये प्रकट करना चाहा। कभी-कभी परमेश्वर का किसी को प्रकट करना एक प्रकार का उद्धार होता है, और कभी-कभी नहीं होता है—परमेश्वर जानबूझकर इस प्रकार कार्य करता है। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें जमीर और विवेक है, तो परमेश्वर का तुम्हें प्रकट करना एक तरह से परीक्षण और एक प्रकार के उद्धार के रूप में कार्य करता है। लेकिन अगर तुम्हारे भीतर जमीर और विवेक नहीं है, तो परमेश्वर का तुम्हें प्रकट करना तुम्हें निकाल दिया जाना और नष्ट किया जाना है। तो अब इस पर गौर करें तो इस व्यक्ति का खुलासा करने का परमेश्वर का अर्थ क्या था? इसका अर्थ था निकाल दिया जाना; यह आशीष नहीं बल्कि शाप था। कुछ लोग कहते हैं : “उसने इतनी बड़ी गलती की, और यह बहुत शर्मनाक है। जब उसने चोरी-छिपे खाँसी सिरप पीना शुरू किया, तो क्या परमेश्वर ऐसे कुछ हालात व्यवस्थित नहीं कर सकता था कि वह रोक देता ताकि वह यह गलती नहीं करता और इसलिए उसे निकालने की जरूरत नहीं पड़ती?” क्या परमेश्वर ने यह किया? (नहीं।) परमेश्वर ने किस तरह कार्य किया? (उसने चीजों को अपने ढंग से होने दिया।) परमेश्वर चीजों को अपने ढंग से होने देता है—यह उसका एक सिद्धांत है। एक बार जब उसने खाँसी सिरप की बोतल खोल दी, तो क्या उसके पहली घूँट पीने और आखिरी घूँट पीने की प्रकृति में कोई फर्क था? (नहीं।) कोई फर्क क्यों नहीं था? (सार तत्व में वह ऐसा ही व्यक्ति है।) इस स्थिति ने उसकी मानवता, उसके अनुसरण और उसकी आस्था का पूरी तरह से खुलासा कर दिया।
पुराने नियम के युग में, एसाव ने अपने जन्मसिद्ध अधिकार का लाल स्टू के बदले सौदा किया। वह नहीं जानता था कि महत्वपूर्ण और मूल्यवान क्या है : “जन्मसिद्ध अधिकार कौन-सी बड़ी बात है? अगर मैं इसका सौदा कर दूँ तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा; मैं फिर भी जिंदा रहूँगा, है कि नहीं?” उसके मन की बात यही थी। ऐसा लग सकता है कि समस्या के प्रति उसका नजरिया थोड़ा वास्तविक था, मगर उसने जो खोया वह परमेश्वर का आशीष था, और उसके परिणाम अकल्पनीय हैं। अब, कलीसिया में ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के वादों और उसके आशीषों को गंभीरता से नहीं लेते हैं। क्या इसकी प्रकृति जन्मसिद्ध अधिकार खो देने जैसी नहीं है? क्या यह और भी अधिक गंभीर नहीं है? क्योंकि परमेश्वर द्वारा लोगों का उद्धार एक बार का अवसर है; अगर कोई यह अवसर गँवा देता है, तो सब खत्म। एक ऐसा व्यक्ति भी था जिसे आखिरकार सिर्फ खाँसी सिरप की एक बोतल की खातिर निकाल दिया गया, ऐसी चीज जिसका उसने नष्ट होने के परिणाम के बदले सौदा किया; इस बात की थाह नहीं पाई जा सकती! वास्तव में, हालाँकि इस मामले में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी थाह न पाई जा सके। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यह घटना एक मामूली बात जैसी लग सकती है। अगर लोगों के बीच ऐसी घटना हो जाए, तो इसे ज्यादा तूल नहीं दिया जाएगा। जैसे कोई अपराध करना, जैसे कि चोरी या दूसरों को चोट पहुँचाना, जिससे ज्यादा-से-ज्यादा तुम मृत्यु के बाद दंडित किए जाओगे और फिर पुनर्जन्म के नेक चक्रों के बाद एक इंसान के रूप में जन्म ले लोगे। ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन मैं फिलहाल जिस स्थिति की बात कर रहा हूँ, क्या वह इतनी सरल है? (नहीं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि यह सरल नहीं है? यह स्थिति चर्चा के लायक क्यों है? आओ हम खाँसी सिरप की बोतल से बात शुरू करें। वास्तव में, खाँसी सिरप की यह बोतल कोई ज्यादा मूल्यवान चीज नहीं थी, लेकिन एक बार परमेश्वर को अर्पित किए जाने के बाद, इसका सार बदल गया; यह एक चढ़ावा बन गई। कुछ लोग कहते हैं, “चढ़ावे प्राण-प्रतिष्ठित होते हैं; चढ़ावे लोगों के नहीं होते; लोगों को चढ़ावों को नहीं छूना चाहिए।” यह कहना भी सही है। चढ़ावा क्या है? चढ़ावा वह चीज है जिसे इंसान परमेश्वर को समर्पित करता है; वह चीज जो भी हो, इन सभी चीजों को चढ़ावा कहा जाता है। चूँकि ये परमेश्वर की होती हैं, इसलिए अब ये इंसान की नहीं होतीं। परमेश्वर को जो कुछ भी अर्पित किया जाता है—चाहे वह धन हो या भौतिक वस्तुएँ, और उसका कुछ भी मूल्य हो—वह पूरी तरह से परमेश्वर का हो जाता है, उस पर इंसान का अधिकार नहीं रहता, न ही वह उसके उपयोग का रहता है। परमेश्वर के चढ़ावे के बारे में क्या अवधारणा होनी चाहिए? ये चीजें परमेश्वर की हैं, वही उनका निपटान कर सकता है, और परमेश्वर के अनुमोदन से पूर्व कोई भी उन चीजों को छू नहीं सकता है या उनको हड़पने का इरादा नहीं बना सकता है। कुछ लोगों का कहना है, “यदि परमेश्वर किसी चीज का उपयोग नहीं कर रहा, तो हमें उसका उपयोग क्यों नहीं करने दिया जाता? अगर कुछ समय के बाद वह चीज खराब हो जाती है, तो क्या यह शर्म की बात नहीं होगी?” नहीं, तब भी नहीं; यह सिद्धांत है। चढ़ावे की चीजें परमेश्वर की होती हैं, इंसान की नहीं; चीजें चाहे बड़ी हों या छोटी, वे मूल्यवान हों या न हों, जब कोई व्यक्ति उन्हें परमेश्वर को अर्पित कर देता है, तो उनका सार बदल जाता है, भले ही परमेश्वर को उनकी आवश्यकता हो या न हो। एक बार जब कोई चीज चढ़ावा बन जाती है, तो वह सृष्टिकर्ता की धरोहर हो जाती है और उसके निपटान का अधिकार भी उसी को होता है। कोई चढ़ावे से किस तरह पेश आता है, उसमें क्या शामिल होता है? उसमें परमेश्वर के प्रति इंसान का रवैया शामिल होता है। यदि परमेश्वर के प्रति किसी व्यक्ति का रवैया धृष्टता, अवहेलना और लापरवाही का है, तो परमेश्वर की सभी चीजों के प्रति भी उस व्यक्ति का रवैया निश्चित रूप से वैसा ही होगा। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ चढ़ावों की देख-रेख करने वाला कोई नहीं होता। तो क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि वे सारी चीजें उसी व्यक्ति की हो गईं, जिसके कब्जे में वे चीजें हैं? चाहे कोई जाने या न जाने, यह ‘जिसे मिली, वही मालिक’ वाला मामला है; जो भी उन चीजों को हथिया लेता है, वही उनका मालिक हो जाता है।” इस सोच के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? साफ तौर पर, यह एकदम गलत है। चढ़ावों के बारे में परमेश्वर का रवैया क्या है? परमेश्वर को चाहे कुछ भी अर्पित किया जाए, और चाहे वह उसे स्वीकार करे या न करे, एक बार जब किसी वस्तु को चढ़ावा मान लिया जाता है, तो फिर उस वस्तु को हड़पने की सोचने वाला व्यक्ति अंततः “बारूदी सुरंग पर कदम” रख सकता है। इसका क्या मतलब है? (इसका मतलब है परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करना।) सही है। तुम सब इस अवधारणा को जानते हो, लेकिन तुम लोग इस मामले के सार को क्यों नहीं पहचानते? तो यह मामला लोगों को क्या बताता है? यह उन्हें बताता है कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्यों द्वारा किया गया कोई भी अपमान सहन नहीं करता, इसलिए उन्हें उसकी चीजों के साथ छेड़खानी नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के चढ़ावे की चीजों को अपनी मान लेता है या उन्हें नष्ट करता है और उनका दुरुपयोग करता है, तो वह परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने और दंड पाने का पात्र होगा। परमेश्वर के कोप के अपने सिद्धांत हैं; वह वैसा नहीं है जैसी लोग कल्पना करते हैं, कि परमेश्वर गलती करने वाले हर किसी पर प्रहार कर देता है। इसके बजाय परमेश्वर का कोप तब प्रवर्तित होता है जब अहम और महत्वपूर्ण मामलों में कोई परमेश्वर का अपमान करता है। खास तौर से परमेश्वर के देहधारण और परमेश्वर के चढ़ावों के मामले में लोगों को सावधानी बरतनी चाहिए और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए; सिर्फ इसी तरह से वे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान न करने को लेकर सुनिश्चित हो सकते हैं।
कुछ लोगों को परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर श्रद्धा होती है, और वे सिर्फ एक को छोड़कर बाकी सभी पहलुओं में अच्छा करके खुद को खपाने और कीमत चुकाने में समर्थ होते हैं। परमेश्वर के घर के प्रचुर संसाधनों को देख कर और यह जान कर कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सिर्फ धन अर्पित नहीं करते, बल्कि भोजन, कपड़े, विभिन्न दवाएँ जैसी कई चीजें भी अर्पित करते हैं, ऐसा व्यक्ति सोचता है, “परमेश्वर के चुने हुए लोग उसे इतनी सारी चीजें अर्पित करते हैं, और अकेला परमेश्वर इन तमाम चीजों का उपयोग नहीं कर सकता। हालाँकि सुसमाचार फैलाने के लिए कुछ चीजों की जरूरत होगी, फिर भी इन सारी चीजों का उपयोग नहीं होगा। इन चीजों को कैसे सँभाला जाए? शायद अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इनमें से कुछ को बाँट लेना चाहिए?” वह इस मामले को लेकर बेचैन और परेशान हो जाता है, भीतर एक “बोझ” महसूस करता है, और सोच-विचार करने लगता है, “अब चूँकि मैं इन चीजों का प्रभारी हूँ, मुझे कुछ का उपयोग करना चाहिए। वरना, जब यह संसार खत्म हो जाएगा, तब क्या ये सभी चढ़ावे व्यर्थ नहीं हो जाएँगे? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बाँट देना उचित है। परमेश्वर के घर में सभी लोग बराबर हैं; चूँकि हमने स्वयं को परमेश्वर को समर्पित कर दिया है, इसलिए परमेश्वर की चीजें हमारी भी होती हैं, और हमारी चीजें परमेश्वर की होती हैं। अगर मैं परमेश्वर के कुछ चढ़ावों का आनंद लूँ, तो कोई बड़ी बात नहीं है; वैसे भी यह परमेश्वर के आशीष का अंश है। चलो, मैं आगे बढ़कर कुछ का उपयोग कर ही लेता हूँ।” ऐसे विचारों के साथ, वह प्रलोभन में पड़ जाता है। उसकी आकांक्षाएँ थोड़ी-थोड़ी कर फूलने लगती हैं, और वह चढ़ावों का लालच करने लगता है, और दिल में कोई कचोट महसूस किए बिना चीजें लेने लगता है। वह सोचता है कि किसी को पता नहीं चलेगा, और यह कह कर सुकून पा लेता है, “मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है; कुछ चढ़ावों का आनंद लेना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर परमेश्वर जान भी जाए, तो वह मुझे क्षमा कर देगा। मैं अब थोड़े चढ़ावों का आनंद लूंगा।” नतीजतन, वह चढ़ावे चुराने लगता है, और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने लगता है। ऊपर से तो वह अपने लिए कई बहाने ढूँढ़ लेता है, जैसे कि “अगर इन्हें नहीं लिया गया तो कुछ वक्त बाद ये चीजें खराब हो जाएँगी! अकेला परमेश्वर इन सब चीजों का उपयोग नहीं कर सकेगा और अगर इन्हें बराबरी से बाँटा गया, तो लोग बहुत सारे होंगे और चीजें काफी नहीं होंगी। मैं इनका प्रबंध क्यों न करूँ? इसके अलावा क्या होगा अगर संसार के खत्म होते तक यह सारा पैसा खर्च नहीं हो सका? हम सभी को अपना हिस्सा ले लेना चाहिए, जो परमेश्वर का प्रेम और अनुग्रह भी दर्शाता है! हालाँकि परमेश्वर ने यह नहीं कहा है और ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है, फिर भी आगे बढ़ कर पहल क्यों न की जाए? यह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है!” वह कई सुनने में प्रभावशाली लगने वाले कारण तैयार करके काम शुरू कर देता है। लेकिन उसके काम शुरू करने के बाद चीजें उसके काबू से बाहर हो जाती हैं, और उसके मन में भर्त्सना कम होती जाती है। उसे यह भी लग सकता है कि यह न्यायसंगत है, वह सोच सकता है, “अगर परमेश्वर को इसकी जरूरत नहीं है, तो मुझे इसका इस्तेमाल करना चाहिए। यह कोई असली समस्या नहीं है।” यहीं पर चीजें गलत हो जाती हैं। तुम क्या सोचते हो, यह बड़ी बात है या नहीं? क्या यह गंभीर है? (हाँ।) हम क्यों कहते हैं कि यह गंभीर है? क्या यह मसला संगति के लायक है? (बिल्कुल।) यह संगति के लायक क्यों है? (इससे परमेश्वर का स्वभाव जुड़ा हुआ है और इसका संबंध मनुष्य के परिणाम और उसकी मंजिल से भी है।) मसला महत्वपूर्ण है, उसकी प्रकृति गंभीर है। अब, ऐसी क्या बात है जिसके बारे में मुझे तुम सबको चेताना चाहिए? चढ़ावे लेने का विचार मन में कभी न आने दो। कुछ लोग कहते हैं, “यह सही नहीं है; भाई-बहनों द्वारा अर्पित किए गए चढ़ावे परमेश्वर के घर के लिए हैं, कलीसिया के लिए हैं। इससे ये सभी की सामुदायिक संपत्ति बन जाते हैं।” क्या यह वक्तव्य सही है? ऐसा वक्तव्य कैसे आता है? मनुष्य के लालच से, इस प्रकार का सिद्धांत तैयार होता है। इस मसले में और क्या शामिल है? कोई एक ऐसी बात है जिसे हमने अब तक नहीं छुआ है—वह क्या है? कुछ लोग सोचते हैं, “परमेश्वर का घर एक बड़ा परिवार है। एक अच्छा परिवार दर्शाने के लिए प्रेम और सहिष्णुता होनी चाहिए; सब लोगों को भोजन, पेय और संसाधन बाँटने चाहिए, और ये तमाम चीजें बराबरी से बाँटी जानी चाहिए। मिसाल के तौर पर, सभी के पास कपड़े होने चाहिए, और ये सबके बीच बराबर बाँटे जाने चाहिए ताकि सब इनका समान आनंद ले सकें। परमेश्वर पक्षपात नहीं दिखाता; अगर कोई मोजे तक नहीं खरीद सकता, और परमेश्वर के पास अतिरिक्त जोड़े हों, तो उसे उस इंसान को राहत देनी चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर के वे चढ़ावे भाई-बहनों से आते हैं; परमेश्वर के पास पहले ही बहुत है, क्या थोड़ा गरीबों में बाँट नहीं देना चाहिए? क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं दिखाएगा?” क्या लोग ऐसा सोचते हैं? क्या ये इंसानी धारणाएँ नहीं हैं? लोग परमेश्वर की संपत्ति को जबरन हथिया लेते हैं और मंगलभाषी ढंग से इस पर परमेश्वर के अनुग्रह, उसके आशीष और परमेश्वर के महान प्रेम का तमगा लगा देते हैं। वे परमेश्वर के साथ हमेशा चीजों को बराबर-बराबर बाँटना चाहते हैं, हर चीज को बराबर तोड़ लेना चाहते हैं, हमेशा समतावाद की कवायद करते हैं। वे सोचते हैं कि यह सार्वभौम एकता, मानव सौहार्द, संतोषप्रद अस्तित्व का प्रतीक है, और इसे ऐसी स्थिति मानते हैं जो अभिव्यक्त होनी चाहिए। क्या ये इंसानी धारणाएँ नहीं हैं? खास तौर से परमेश्वर के घर में, वे सोचते हैं कि किसी को भूखा नहीं रहना चाहिए। अगर कोई भूखा हो, तो परमेश्वर को राहत देने के लिए अपने चढ़ावों का उपयोग करना चाहिए; परमेश्वर को इस मामले की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। क्या यह “चाहिए” वाली लोगों की मान्यता एक प्रकार की धारणा नहीं है? क्या यह परमेश्वर से एक इंसानी माँग नहीं है? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर में इतने वर्षों से विश्वास रखा है, और मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है; मेरा परिवार अभी भी गरीब है। ऐसा नहीं होना चाहिए; परमेश्वर को मेरे प्रति दयालु होना चाहिए, मुझे आशीष देना चाहिए ताकि मैं परमेश्वर का बेहतर महिमामंडन कर सकूँ।” चूँकि तुम्हारा परिवार गरीब है, इसलिए तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते; तुम परमेश्वर में विश्वास के जरिये अपनी गरीबी के हालात दूर करना चाहते हो, और सौदा करने के लिए परमेश्वर के महिमामंडन को एक बहाने के रूप में उपयोग करना चाहते हो। ये इंसानी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं; ये मनुष्य की असाधारण आकांक्षाएँ हैं। ऐसे मंसूबों के साथ परमेश्वर में विश्वास रखना क्या परमेश्वर से सौदेबाजी का प्रकार नहीं है? परमेश्वर से सौदेबाजी करने वाले लोगों में क्या जमीर और विवेक होता है? क्या ये ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर को समर्पित हैं? बिल्कुल नहीं। इन लोगों में जमीर और विवेक का अभाव होता है, ये सत्य को स्वीकार नहीं करते, परमेश्वर इन लोगों को ठुकरा देता है, और ये अविवेकी लोग हैं जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते।
कुछ लोग सोचते हैं, “जब लोगों के मन में कुछ अनुचित विचार आएँ या वे कुछ अनुचित क्रियाकलाप करें, जिनसे परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन हो और उसके स्वभाव का अपमान हो, तो परमेश्वर को उन्हें रोकने के लिए दखल देना चाहिए। यह परमेश्वर का उद्धार है, यह उसका प्रेम है।” क्या ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? क्या लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर इसी तरह कार्य करता है? परमेश्वर सत्य व्यक्त करके लोगों को बचाता है। क्या कोई बचाया जा सकेगा यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को स्वीकार कर सकता है। इसके अलावा एक चीज है जिसे परमेश्वर और ज्यादा अहम मनाता है, और वह है लोगों का जमीर और मानवता। अगर तुम्हारी मानवता में कोई जमीर नहीं है, कोई सत्यनिष्ठा नहीं है, कोई विवेक नहीं है—यानी तुम पर कोई विपदा आने पर, तुम्हारा जमीर और तार्किकता सामान्य रूप से कार्य नहीं कर सकते, तुम्हारे क्रियाकलापों को संयमित और नियमित नहीं कर सकते, तुम्हारे इरादों और नजरियों को सुधार नहीं सकते—तो परमेश्वर यकीनन कुछ नहीं करेगा। परमेश्वर तुम्हें बदल सके, इसके लिए वह पहले तुम्हारे जमीर और तार्किकता को कार्य करने देता है। जब तुम्हारा जमीर धिक्कार महसूस करता है, तब तुम सोच-विचार करोगे, “मैं जो कर रहा हूँ वह गलत है; परमेश्वर मुझे किस दृष्टि से देखेगा?” और यह तुम्हें आगे खोज और सक्रिय सकारात्मक प्रवेश की ओर आगे बढ़ाएगा। पर अगर किसी में इस शुरुआती कदम का भी अभाव हो, उसमें जमीर न हो, और उसका दिल बुनियादी तौर पर उसे न धिक्कारे, तो किसी चीज से उसका सामना होने पर परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर कुछ भी नहीं करेगा। तो, परमेश्वर द्वारा बोले जाने वाले ये सभी वचन और उसकी ये सभी माँगें और सत्य जिनकी शिक्षा वह लोगों को देता है, किस बुनियाद पर आधारित हैं? वे इस पर आधारित हैं कि लोगों में जमीर और तार्किकता होती है। जहाँ तक उस व्यक्ति की बात है जिसका जिक्र पहले किया गया था, अगर उसमें जमीर होता और एक हद तक तार्किकता होती, तो खाँसी सिरप की बोतल को देखने के बाद उसने कौन-से कदम उठाए होते? उसका व्यवहार कैसा रहा होता? जब उसके मन में यह विचार आया : “यह परमेश्वर को दिया गया था, तो यह बहुत अच्छा होगा; परमेश्वर को इसे पीने देने के बजाय मैं इसे क्यों न पी लूँ?” अगर उसके पास जमीर होता, तो उसने क्या किया होता? क्या उसने बोतल खोलकर पहली घूँट पी होती? (नहीं।) यह “नहीं” किस प्रकार से आती? (जमीर का भान होने से।) उसके जमीर से नियंत्रित होकर यह कार्यरत हुआ होता, और इस मामले में कोई अगला कदम नहीं रहा होता; उसने वह पहली घूँट ली ही नहीं होती। उस मामले का नतीजा बिल्कुल उल्टा हुआ होता, और परिणाम बिल्कुल अलग होता। लेकिन इसके विपरीत, उसमें जमीर या तार्किकता नहीं थी—उसमें इनका बिल्कुल अभाव था—तो नतीजा क्या हुआ? ऐसे विचार मन में आने पर, जमीर का अंकुश न होने के कारण उसने अनैतिक ढंग से बोतल खोल कर पहली घूँट पी ली। बाद में न तो उसने कोई आत्म-भर्त्सना महसूस की, न ही आत्माभियोग, बल्कि उसे वास्तव में मजा आया। उसे लगा कि यह करके भी वह बच गया है : “देखो मैं कितना चालाक हूँ, मौके का फायदा उठा लिया। तुम सब बेवकूफ हो; तुम लोग ये चीजें नहीं समझते। अनुभव हमेशा जवानी पर विजय पाता है! तुम लोगों में से किसी को यह ख्याल नहीं आया, तुममें से किसी की यह करने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन मैंने कर दिखाया। बुरे-से-बुरा क्या होगा? मैंने पहली घूँट पी चुका हूँ; कौन जान पाएगा?” उसे लगा कि वह आगे निकल चुका है, उसने भीतर से संतुष्ट महसूस किया; उसने यह भी सोचा कि उस पर कृपा बरसाई जा रही है, कि यह परमेश्वर का अनुग्रह था। एक बार यह गलती करने के बाद वह उसे दोहराता रहा, और फिर यह काबू से बाहर हो गई, जब तक कि उसने पूरी बोतल खाली नहीं कर दी। इस पूरे वक्त उसके जमीर को कभी भी आत्माभियोग या भर्त्सना महसूस नहीं हुई। उसके जमीर और तार्किकता ने उसे कभी नहीं बताया, “यह तुम्हारी चीज नहीं है; भले ही परमेश्वर इसे न पिए, भले ही परमेश्वर इसे फेंक दे, या किसी कुत्ते-बिल्ली को दे दे, अगर परमेश्वर यह न कहे कि यह तुम्हारे लिए है, तो तुम्हें इसका उपयोग नहीं करना चाहिए; यह तुम्हारे मजे के लिए नहीं है।” उसके जमीर ने उसे यह नहीं बताया क्योंकि उसमें जमीर था ही नहीं। बिना जमीर के इंसान क्या है? उसे जानवर कहा जाता है। जिन लोगों में जमीर नहीं होता है, वे ही ऐसा व्यवहार करते हैं; वे शुरुआत में ही ऐसे विचार मन में पैदा कर लेते हैं, और अपने जमीर से लेशमात्र भी भर्त्सना पाए बिना, अंत तक इसी ढंग से आगे बढ़ते रहते हैं। हो सकता है अब तक उस व्यक्ति को इस घटना को भुलाए लंबा समय हो चुका हो; या अगर उसकी याददाश्त अच्छी है, तो हो सकता है उसे अब भी याद हो, और वह सोचे कि उसने उस वक्त सही चीज की थी। वह कभी नहीं सोचता कि ऐसा करना गलत था, और उसे अपने कृत्य की गंभीरता और प्रकृति का एहसास नहीं होता। वह इसे पहचान नहीं सकता। क्या ऐसे लोगों का परमेश्वर का वर्गीकरण सही है? (बिल्कुल।) जब परमेश्वर ऐसे लोगों को वर्गीकृत कर, प्रकट कर उन्हें निकाल देता है, उन्हें ऐसे परिणाम देता है, तो वह किन सिद्धांतों और किस आधार पर उन्हें वर्गीकृत करता है? (उनके प्रकृति सार के आधार पर।) जिस व्यक्ति में जमीर और तार्किकता नहीं है, क्या वह सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने की शर्तें पूरी करता है? क्या उसका सार ऐसा है? (नहीं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि ऐसा नहीं है? जब वह इस मामले में अपनी सोच व्यक्त करने लगता है, तो उसके दिल की गहराई में उसका परमेश्वर कहाँ है? उसके दिल का परमेश्वर कौन है? वह कहाँ खड़ा होता है? क्या उसके दिल में परमेश्वर है? हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि ऐसे व्यक्ति के दिल में परमेश्वर नहीं है। किसी के दिल में परमेश्वर के न होने का क्या अर्थ है? (वह छद्म-विश्वासी है।) सही है। वह परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं है; वह भाई या बहन नहीं है; वह महज एक छद्म-विश्वासी है। उसका कौन-सा व्यवहार दिखाता है कि वह छद्म-विश्वासी है? अपने दिल में परमेश्वर के बिना, वह जो भी करता या बोलता है, वो पूरी तरह से उसकी अपनी मर्जी से होता है, उसकी अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और पसंद पर आधारित होता है। जब वह सत्य नहीं समझता, तो उसके जमीर में हलचल नहीं होती; वह शुद्ध रूप से अपनी ही पसंद के आधार पर, सिर्फ अपने निजी फायदे और लाभ के लिए कार्य करता है। क्या उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह है? बिल्कुल नहीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि उसकी कथनी-करनी की अभिप्रेरणा, उद्गम, दिशा और अभिव्यक्तियाँ भी उसके अपने ही हितों को साधने के उद्देश्य से होती हैं; जिसे वह अपने लिए फायदेमंद मानता है उसी के आधार पर वह बोलता और काम करता है। वह जिस भी चीज पर विचार करता है, वह उसके अपने हितों और उद्देश्यों के लिए ही होती है, और वह बिना कोई भर्त्सना महसूस किए या संयम बरते परिचालन करता है। इस व्यवहार के आधार पर परखें, तो वह परमेश्वर को क्या मानकर बर्ताव करता है? (हवा।) बिल्कुल ठीक। अगर वह परमेश्वर की मौजूदगी महसूस कर पाता, कि परमेश्वर इंसान के दिल की पड़ताल करता है, परमेश्वर लोगों के पास है, निरंतर उनकी पड़ताल कर रहा है, तो क्या उसके कार्यों में संयम की कोई कमी होती? क्या वह ऐसी लापरवाह ढंग से धृष्टता दिखाता? बिल्कुल नहीं। यहाँ एक प्रश्न उठता है : क्या ऐसे लोग जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वह वास्तव में है? (नहीं।) यही मसले का सार है। जिस परमेश्वर में वे विश्वास रखते हैं उसका अस्तित्व ही नहीं है; उनका परमेश्वर सिर्फ हवा है। इसलिए, वे भले ही मौखिक रूप से कैसा भी दावा करें कि परमेश्वर कैसा है, वे परमेश्वर से कैसे भी प्रार्थना करें, भले ही उन्होंने कितने भी वर्षों से विश्वास रखा हो, या उन्होंने जो भी किया हो या जितने भी बलिदान दिए हों, उनकी बातों और व्यवहार, परमेश्वर के प्रति उनके रवैये, और परमेश्वर से जुड़ी सभी चीजों के प्रति उनके रवैये के आधार पर उनकी प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो जाती है। वे परमेश्वर से ऐसे पेश आते हैं मानो वह हवा हो; क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा करना नहीं है? (बिल्कुल।) इसे ईशनिंदा क्यों माना जाता है? वे सोचते हैं, “वे कहते हैं कि परमेश्वर मनुष्य के दिल की पड़ताल करता है—लेकिन परमेश्वर है कहाँ? मैंने यह महसूस क्यों नहीं किया है? वे यह भी कहते हैं कि चढ़ावे चुराने पर परमेश्वर दंड देगा, लेकिन मैंने चढ़ावे चुराने के लिए किसी को प्रतिकार झेलते नहीं देखा है।” वे परमेश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं; यह परमेश्वर की ईशनिंदा है। वे कहते हैं, “परमेश्वर का तो अस्तित्व ही नहीं है; वह कोई कार्य कैसे कर सकता है? वह लोगों को कैसे बचा सकता है? उसने लोगों की भर्त्सना कैसे की है? उसने किसी को कभी दंडित किया भी है? मैंने ऐसा होते कभी नहीं देखा है, तो परमेश्वर को अर्पित कोई भी चढ़ावा बिना रोक-टोक के इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर आज मुझे यह दिख जाए, तो यह मेरा है—मैं मान लूँगा कि परमेश्वर इसके द्वारा मुझ पर कृपा कर रहा है। जो भी इसे देखे या यह जिसके भी हाथ लगे, यह उसका है; उसी व्यक्ति पर परमेश्वर ने कृपा की है।” यह कैसा तर्क है? यह शैतान का तर्क है, लुटेरों का तर्क है; यह व्यक्ति की दानवी प्रकृति का बाहर आना है। क्या ऐसे व्यक्ति में सच्ची आस्था है? (नहीं।) इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद, वे दानवी बातों की ऐसी बाढ़ उगलते हैं; क्या सत्य में उनकी जरा भी कोई बुनियाद है? (नहीं।) तो ये सब धर्मोपदेश सुनने से उन्हें क्या मिला? उन्होंने परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं किए, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते, और वे परमेश्वर से परमेश्वर की तरह पेश नहीं आते। बात बस यही है।
कुछ लोग सचमुच अपने दिल से यकीन करते हैं कि परमेश्वर है और उनके मन में परमेश्वर के देहधारण को लेकर लेशमात्र भी संदेह नहीं है। लेकिन हालाँकि उन्होंने अनेक वर्षों से उसका अनुसरण किया है, थोड़ी मुश्किलें झेली हैं, थोड़ी कीमत चुकाई है, फिर भी उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर की जरा भी समझ नहीं है। वास्तविकता में, वे जिसमें विश्वास रखते हैं वह अभी भी एक अस्पष्ट, काल्पनिक परमेश्वर है; परमेश्वर की उनकी परिभाषा महज हवा है। परमेश्वर ऐसे लोगों से कैसे पेश आता है? वह बस उनकी अनदेखी करता है। कुछ लोग पूछते हैं : “अगर परमेश्वर उनकी अनदेखी करता है, तो वे परमेश्वर के घर में क्यों रहते हैं?” वे श्रम कर रहे हैं। श्रम करने की संकल्पना कैसे की जाए? श्रम करने वालों को सत्य में रुचि नहीं होती, या कहा जाए तो उनकी काबिलियत इतनी कमजोर होती है कि वे उस तक पहुँच ही नहीं सकते। वे परमेश्वर और सत्य से यूँ पेश आते हैं मानो वे खोखले और अस्पष्ट हों, लेकिन आशीष प्राप्त करने के लिए वे आशीष के बदले में सिर्फ थोड़ा प्रयास करने पर ही भरोसा कर सकते हैं। हालाँकि बाहर से वे सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते, उसे शाप नहीं देते या उसका विरोध नहीं करते, उनका सार अभी भी शैतान की किस्म का है—ऐसा जो परमेश्वर को नकारता और उसका प्रतिरोध करता है। जो भी व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता वह अच्छा नहीं है, परमेश्वर ने अपने हृदय में फैसला ले लिया है कि ऐसे लोगों को नहीं बचाना है। परमेश्वर जिन लोगों को बचाने का इरादा नहीं रखता, क्या वह अब भी उनके साथ गंभीरता बरतेगा? क्या परमेश्वर उनसे कहेगा, “तुम सत्य के इस पहलू को नहीं समझते, तुम्हें सावधानी से सुनना चाहिए; तुम सत्य के उस पहलू को नहीं समझते, तुम्हें और प्रयास कर उस पर चिंतन-मनन करना चाहिए”? इसके अलावा, परमेश्वर जानता है कि ये लोग सत्य नहीं समझते और परमेश्वर से परमेश्वर की तरह पेश नहीं आते। क्या परमेश्वर को उन्हें अपने अस्तित्व से अवगत कराने के लिए कुछ चमत्कार और आश्चर्य-कर्म दिखाने चाहिए, या उन्हें और अधिक प्रबुद्ध या रोशन करना चाहिए ताकि वे जान लें कि परमेश्वर का अस्तित्व है। क्या परमेश्वर इस तरह कार्य करेगा? (नहीं।) ये चीजें करने के लिए परमेश्वर के सिद्धांत हैं; वह किसी के भी प्रति इस तरह से कार्य नहीं करता है। जो लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, उनके लिए परमेश्वर हमेशा कार्य करता रहता है। जो लोग सत्य स्वीकार नहीं कर सकते या उस तक नहीं पहुँच सकते, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? (वह उन्हें नजरअंदाज करता है।) लोगों की धारणाओं के अनुसार, अगर परमेश्वर किसी को नजरअंदाज करता है, तो फिर यह व्यक्ति एक भिखारी की तरह भटकता रहता है। उसे सत्य का अनुसरण करते हुए नहीं देखा जा सकता, न ही उन लोगों पर परमेश्वर का कोई कार्य देखा जा सकता है; वे महज श्रम कर रहे होते हैं, और वे सत्य नहीं समझते। क्या बात बस इतनी ही है? असल में, ये लोग भी परमेश्वर के थोड़े अनुग्रह और आशीषों का आनंद ले सकते हैं। जब वे खुद को खतरनाक स्थितियों में पाएँगे, तो परमेश्वर उन्हें सुरक्षित भी रखेगा। जब वे गंभीर रूप से बीमार होंगे, तो परमेश्वर उनका उपचार भी करेगा। वह उन्हें कुछ विशेष प्रतिभाएँ भी दे सकता है, या कुछ विशेष हालात में उन पर कुछ चमत्कारी कार्य भी कर सकता है, या कुछ खास चीजें कर सकता है। यानी, अगर ये लोग सचमुच परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकें, और बिना कोई बाधा पैदा किए अच्छी तरह से श्रम कर सकें, तो परमेश्वर उनके विरुद्ध भेदभाव नहीं करता है। इस मामले में लोगों की धारणाएँ क्या हैं? “परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा, इसलिए वह जैसे चाहे वैसे उनका इस्तेमाल करेगा और बाद में उन्हें त्याग देगा।” क्या परमेश्वर इस तरह कार्य करेगा? नहीं। मत भूलो कि परमेश्वर कौन है; वह सृष्टिकर्ता है। पूरी मानवजाति में, चाहे वे विश्वासी हों या अविश्वासी, किसी भी समुदाय या नस्ली प्रजाति के हों, परमेश्वर की दृष्टि में, वे सभी उसके सृजित प्राणी हैं। इसीलिए प्रभु यीशु ने कहा, “क्योंकि वह भले और बुरे दोनों पर अपना सूर्य उदय करता है।” यह वक्तव्य एक सिद्धांत है कि किस तरह परमेश्वर—सृष्टिकर्ता—कार्य करता है। किसी व्यक्ति के सार के आधार पर अंततः परमेश्वर चाहे उसे जो भी परिणाम दे, या उसका सार चाहे जो भी हो, परमेश्वर परिणाम देने से पहले उसे बचाए या न बचाए, अगर वह परमेश्वर के घर में और परमेश्वर के कार्य के लिए कुछ काम और श्रम कर सकता हो, तो परमेश्वर का अनुग्रह नहीं बदलता है; वह अभी भी बिना किसी पक्षपात के, उससे अपने सिद्धांतों के अनुसार पेश आएगा। यह परमेश्वर का प्रेम है, उसके कार्यों का सिद्धांत और उसका स्वभाव है। लेकिन इन लोगों के सार के अनुसार, परमेश्वर के प्रति उनकी सोच और उनका रवैया हमेशा ऐसा होता है कि वे उसे अस्पष्ट और धुंधला समझते हैं, मानो वह अस्तित्व में होकर भी अस्तित्व में न हो। वे न तो परमेश्वर के वास्तविक अस्तित्व को पहचान सकते हैं, न उसका अनुभव कर सकते हैं, और आखिर में वे परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व के बारे में अभी भी सुनिश्चित नहीं हैं। इसलिए जब उनकी बात आती है, तो परमेश्वर बस उतना ही कर सकता है जितना उसे करना चाहिए, वह उन्हें थोड़ा अनुग्रह दे दे सकता है, इस जीवन में उन्हें थोड़े आशीष और रक्षा दे सकता है, उन्हें परमेश्वर के घर की गर्मजोशी महसूस करने, और परमेश्वर के अनुग्रह, कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता का आनंद लेने दे सकता है। बस इतना ही—इस जीवन में वे बस इतने ही आशीष प्राप्त कर पाएँगे। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि परमेश्वर इतना सहिष्णु है, और वे परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद भी लेते हैं, इसलिए क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इसे एक कदम आगे बढ़ाकर उन्हें परमेश्वर का उद्धार भी प्राप्त करने दें?” यह एक इंसानी धारणा है, परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता है। वह क्यों नहीं करता है? क्या तुम परमेश्वर को किसी ऐसे के दिल में बिठा सकते हो जिसके दिल में उसके लिए कोई जगह न हो? नहीं बिठा सकते। तुम उसके साथ सत्य पर चाहे जितनी भी संगति करो, या तुम जितनी भी बातें बताओ, कोई फर्क नहीं पड़ेगा; इससे परमेश्वर के बारे में उसकी धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं बदलेंगी। इसलिए, ऐसे व्यक्ति के लिए परमेश्वर बस इतना कर सकता है कि उसे थोड़ा अनुग्रह, आशीष, देखभाल और सुरक्षा दे दे। कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं : “चूँकि वे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद ले सकते हैं, इसलिए अगर परमेश्वर उन्हें और ज्यादा प्रबुद्ध और रोशन कर दे, तो क्या वे तब परमेश्वर के वास्तविक अस्तित्व को नहीं पहचानेंगे?” क्या ऐसे लोग सत्य को समझ सकते हैं? क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) अगर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो यह उन्हें ऐसे लोगों के रूप में निर्धारित कर देता है जो बचाए नहीं जा सकते। इसलिए, परमेश्वर बेकार या बेतुके कार्य में नहीं लगेगा। कुछ लोग कहते हैं : “यह सही नहीं है। कभी-कभी वे परमेश्वर के अनुशासन का सामना करते हैं या परमेश्वर से उन्हें थोड़ी प्रबुद्धता मिलती है और वे उससे थोड़ा सत्य प्राप्त करते हैं।” यह भी परमेश्वर के कार्य से जुड़ा हुआ है। जिन लोगों को परमेश्वर बचाना चाहता है, उनमें परमेश्वर द्वारा बचाए जाने और उसके उद्धार की वस्तु बनने के लिए क्या होना जरूरी है? लोगों को यह समझना चाहिए। परमेश्वर भी यह जानता है; वह बस किसी को भी नहीं बचाता। भले ही परमेश्वर कुछ चमत्कार, आश्चर्य-कर्म और शक्ति प्रदर्शित करे, ताकि लोग उसे मानने लगें फिर भी क्या इन लोगों को इस तरह बचाया जा सकेगा? ऐसा नहीं होता है। लोगों को बचाने के परमेश्वर के अपने मानक हैं; व्यक्ति में सच्ची आस्था होनी चाहिए, और उसे सत्य से प्रेम भी करना चाहिए। इसलिए, न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन से जुड़ा जो कार्य परमेश्वर लोगों पर करता है, उसके अपने मानक हैं। कुछ लोग कहते हैं : “हम अक्सर न्याय और ताड़ना से गुजरते हैं। क्या न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन का सामना करना इस बात का संकेत है कि हम परमेश्वर द्वारा बचाए जाएँगे?” क्या ऐसा है? (नहीं।) तुम कैसे सुनिश्चित हो सकते हो कि ऐसा नहीं है? चूँकि कुछ लोग परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की शर्तें पूरी नहीं करते, तो क्या फिर भी परमेश्वर उन पर न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन थोपेगा? इससे यह प्रश्न उठता है कि परमेश्वर किन लोगों पर अपना न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन थोपता है; इससे लोगों की गलतफहमियाँ भी जुड़ी हुई हैं। मुझे बताओ, क्या कोई व्यक्ति जो यह भी नहीं जानता कि परमेश्वर कौन है, परमेश्वर कहाँ है, या परमेश्वर का अस्तित्व है भी या नहीं, वह परमेश्वर का न्याय और ताड़ना पा सकता है? जो व्यक्ति परमेश्वर को महज हवा मानता है, क्या वह परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त कर सकता है? जिस व्यक्ति के दिल में परमेश्वर है ही नहीं, क्या वह परमेश्वर के परीक्षण और शोधन प्राप्त कर सकता है? यकीनन नहीं। तो ऐसे लोग कभी-कभार कैसी चीजों का सामना कर सकते हैं? (अनुशासन।) सही है, अनुशासन। जो लोग परमेश्वर को महज हवा मानते हैं, जो परमेश्वर के अस्तित्व को बुनियादी रूप से नहीं पहचानते या उस पर यकीन नहीं करते, वे यकीनन परमेश्वर का न्याय और ताड़ना या परीक्षण और शोधन प्राप्त नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि ऐसे सार और व्यवहार वाले लोग परमेश्वर के उद्धार के पात्र नहीं हैं। वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते, लेकिन ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता—इसका फैसला उनके प्रकृति सार से होता है, जो सत्य से विमुख है और उससे घृणा करता है। उनमें सत्य से प्रेम करने और उसे स्वीकारने का सही रवैया नहीं होता, और इसलिए वे बचाए जाने की शर्तें पूरी नहीं करते। तो जब वे आशीषों की आशा में परमेश्वर के घर में घुसपैठ करते हैं, तो परमेश्वर उनसे कैसे पेश आता है? उन्हें कुछ आशीष, अनुग्रह, देखभाल और रक्षा प्रदान करने के अलावा, परमेश्वर सृष्टिकर्ता की अपनी भूमिका निभाने के लिए कौन-से तरीके इस्तेमाल करता है? परमेश्वर अपने वचनों से याद दिलाने वाले संदेश, चेतावनियाँ और संबोधन जारी करता है। बाद में, वह उनकी काट-छाँट और भर्त्सना करता है और उन्हें अनुशासित करता है; उन पर परमेश्वर का कार्य यहीं समाप्त हो जाता है, यह सब इस दायरे में है। लोगों पर परमेश्वर के इन कार्यों का क्या असर होता है? इससे वे परमेश्वर के घर में श्रम करते समय, प्रतिबंधों का निष्ठा से पालन कर पाते हैं, बिना कोई बाधा पैदा किए या बुरे काम किए अच्छा व्यवहार कर पाते हैं। परमेश्वर जो कुछ करता है क्या उससे ऐसे लोग वफादारी से अपना कर्तव्य निभाने लायक बन पाते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या उनके द्वारा प्राप्त अनुग्रह, आशीष, देखभाल और सुरक्षा—और साथ ही परमेश्वर के वचनों से दिलाई गई याद, काट-छाँट, ताड़ना और अनुशासन आदि—क्या उनके स्वभाव में परिवर्तन ला पाते हैं? (नहीं।) ये उनके स्वभाव में बदलाव नहीं ला सकते, तो परमेश्वर के कार्य उन पर कैसे प्रभाव हासिल कर पाते हैं? इससे वे कुछ हद तक अपने व्यवहार में संयमित हो जाते हैं, उन्हें नियमों का पालन करने में मदद मिलती है, और देखने में उनमें थोड़ी मानवीय सदृशता आ जाती है। इसके अलावा, यह उन्हें अपेक्षाकृत आज्ञाकारी बना देता है; वे परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों की खातिर अनिच्छा से काट-छाँट को स्वीकार कर लेंगे, और परमेश्वर के घर के विनियमों और प्रशासनिक आदेशों के अनुसार चीजें कर सकेंगे, बस इतना ही। क्या ये सब हासिल कर लेने का अर्थ है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? वे अभी भी इससे दूर हैं, क्योंकि वे जो करते हैं वह मूल रूप से सिर्फ परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों में निहित सिद्धांतों, और साथ ही कुछ सख्त दिशानिर्देशों के अनुसार होता है। यह बस व्यवहार में बदलाव है, और कुछ नहीं। तो क्या यह कहा जा सकता है कि चूँकि इन लोगों ने अपना व्यवहार बदल लिया है, इसलिए यह और भी बेहतर होगा कि उन्हें अपना स्वभाव भी बदल लेने दिया जाए? (वे इसके काबिल नहीं हैं।) वे इसके काबिल नहीं हैं, वे यह हासिल नहीं कर सकते—यह एक कारण है। और सबसे मुख्य कारण क्या है? वह यह है कि उनके दिलों में बुनियादी रूप से परमेश्वर नहीं है; वे परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते। तो क्या ऐसे लोग परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं? कुछ लोग समझ सकते हैं, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के वचन अच्छे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, मैं उनका अभ्यास नहीं कर सकता। उनका अभ्यास करना ओपन हार्ट सर्जरी से भी ज्यादा तकलीफदेह है।” जब उनके हितों से समझौता होता है, या जब उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध जाना होता है, तो वे पूरी तरह से डगमगा जाते हैं और आगे नहीं बढ़ पाते। वे भले ही खुद को पूरी तरह थका लें, फिर भी वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते। साथ ही, वे कभी इस तथ्य को नहीं मानते या स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे इसे आत्मसात नहीं कर सकते; वे नहीं समझ पाते कि परमेश्वर के वचन सत्य क्यों हैं। मिसाल के तौर पर, जब परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने को कहता है, तो वे कहते हैं, “ठीक है, तुम ऐसा कहते हो, तो मैं ईमानदार बन जाता हूँ, लेकिन ईमानदार इंसान बनने को सत्य क्यों माना जाता है?” वे नहीं जानते और इसे स्वीकार नहीं कर सकते। जब परमेश्वर कहता है कि लोगों को उसके प्रति समर्पण करना चाहिए, तो वे सवाल करते हैं, “क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से पैसे बनेंगे? क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने से वह आशीष प्रदान करेगा? क्या यह किसी की मंजिल बदल सकेगा?” उन्हें नहीं लगता कि परमेश्वर जो भी कहता या करता है वह सत्य है। उन्हें कोई अंदाजा नहीं है कि इंसान के लिए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं की महत्ता क्या है और नहीं बूझ पाते कि कौन-से क्रियाकलाप सही और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं। परमेश्वर से आने वाली सभी चीजें—परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर का सार, परमेश्वर के वचन, उसकी माँगें—उनकी दृष्टि में, इन सभी चीजों को परमेश्वर की संपत्ति और उसके अस्तित्व के रूप में निर्धारित नहीं किया जा सकता। वे नहीं जानते कि परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है; वे नहीं समझते कि सृष्टिकर्ता क्या है या परमेश्वर क्या है। क्या यह समस्याजनक नहीं है? लेकिन कुछ लोग ठीक इसी तरह बर्ताव करते हैं। दूसरे लोग कहते हैं : “यह सही नहीं हो सकता है। अगर उनके मन में ये विचार और नजरिये हैं, तो वे अभी भी परमेश्वर के घर में स्वेच्छा से अपने कर्तव्य कैसे निभा सकते हैं?” यहाँ “स्वेच्छा से” शब्द उद्धरण चिह्नों में होने चाहिए। इसे कैसे समझाया जाए? एक अर्थ में, वे अपने कर्तव्य इसलिए निभाते हैं क्योंकि वे हालात से या फिर आशीषों की अपनी जरूरत के कारण बाध्य हैं; दूसरे अर्थ में, उन्हें लगता है कि उनके पास फिलहाल अनिच्छा से इसके साथ बने रहने, कुछ कर्तव्य निभाते रहने और थोड़े प्रयास करते रहने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अपने दिलों में, वे मानते हैं कि उन्हें यही करना चाहिए, लेकिन चूँकि वे सत्य में रुचि नहीं रखते, इसलिए वे परमेश्वर के आशीषों के बदले सिर्फ प्रयास कर सकते हैं और कर्तव्य निभा सकते हैं। इस मानसिकता के साथ, क्या वे सत्य स्वीकार सकते हैं? (नहीं।) वे तो यह भी नहीं जानते कि सत्य क्या है, तो फिर वे उसे कैसे स्वीकार कर सकते हैं?
अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय कार्य इस युग का अंत करने के लिए है। कोई बचाया जा सकेगा या नहीं यह अहम रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकता है या नहीं, और क्या वह सत्य को स्वीकार सकता है। कुछ लोग मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन वे सत्य को नहीं स्वीकारते। उनके लिए सत्य को स्वीकारना हृदय प्रतिरोपण जैसा है; उन्हें यह उतना ही तकलीफदेह लगेगा। जब व्यक्ति सत्य से इस प्रकार से पेश आता है, चाहे जो भी हो जाए सत्य स्वीकारने से मना करता है, तो उसे न बचाने के लिए परमेश्वर को दोष नहीं दिया जा सकता—सत्य न स्वीकारने के लिए सिर्फ उस व्यक्ति को ही दोष दिया जा सकता है; उसे यह आशीष प्राप्त नहीं है। परमेश्वर का लोगों को शैतान के प्रभाव से बचाना उतनी सरल बात नहीं है जैसी लोग कल्पना करते हैं। एक ओर, परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को परमेश्वर के वचनों के जरिये ताड़ना और काट-छाँट को स्वीकार करना चाहिए; यह एक चरण है। दूसरी ओर, उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को भी स्वीकार करना चाहिए। न्याय और ताड़ना एक चरण हैं; परीक्षण और शोधन दूसरा चरण हैं। कुछ लोग अनिच्छा से काट-छाँट को स्वीकार कर सकते हैं, यह सोच कर कि उन्होंने समर्पण प्राप्त कर लिया है, और फिर वे कोई तरक्की नहीं करते और सत्य की ओर कोई प्रयास नहीं करते। दूसरे लोग खास तौर से सत्य से प्रेम करते हैं, और सत्य प्राप्त करने के लिए कोई भी पीड़ा सह सकते हैं। वे न सिर्फ परमेश्वर के वचनों की ताड़ना और सुधार को सह सकते हैं, बल्कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने के चरण में भी प्रवेश कर सकते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना परमेश्वर का उत्कर्ष है, परमेश्वर का प्रेम है, और एक महिमामय बात है; उन्हें कष्टों से डर नहीं लगता। ये लोग, न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बाद, परीक्षणों और शोधन को भी स्वीकार सकते हैं और फिर भी सत्य का अनुसरण कर सकते हैं। परीक्षण और शोधन चाहे जितने भी बड़े हों, वे अभी भी परमेश्वर का प्रेम देख सकते हैं, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए खुद को अर्पित कर सकते हैं। उनकी चाहे जितनी भी काट-छाँट हो, वे इसे कठिनाई नहीं मानते; इसके बजाय, उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर से मिला और भी महान प्रेम है। और भी कई परीक्षणों और शोधनों का अनुभव करने के बाद वे अंततः संपूर्ण शुद्धिकरण और पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं। यह उच्चतम चरण तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना है। अब मुझे बताओ, क्या उन लोगों के बीच कोई फर्क है जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उसके वचनों के जरिये परमेश्वर की ताड़ना और सुधार के केवल पहले चरण का अनुभव करते हैं और जो दो चरणों का अनुभव करते हैं—परमेश्वर के न्याय और ताड़ना और साथ ही परीक्षणों और शोधन का? निश्चित रूप से फर्क है। कुछ लोगों के लिए, परमेश्वर उन्हें ताड़ना देने और सुधारने के बाद ही रुक जाता है, और बाकी सब उन लोगों की अपनी पसंद और जागरूकता पर छोड़ देता है। अगर वे सत्य नहीं स्वीकारते और सही मार्ग नहीं चुनते, तो यह किस बात का संकेत देता है? यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के पास ऐसे लोगों को बचाने का कोई तरीका नहीं है। कुछ लोग अक्सर कामकाज, संभावनाओं, घर, जीवनसाथी, स्नेह के कष्ट झेलने की बात करते हैं—उनके लिए हर चीज एक कष्ट है, और अंतिम नतीजा क्या है? (यह सत्य से संबद्ध नहीं है।) सही है, यह सत्य से संबद्ध नहीं है, परमेश्वर के कार्य से संबद्ध नहीं है। इस मामले में तुम जो कर रहे हो वह निरुद्देश्य कष्ट झेलना है; तुम महज संघर्ष कर रहे हो, और परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य को खोजने की प्रक्रिया के बिना बस समय गुजार रहे हो। शोधन में इस किस्म का “कष्ट” नहीं होता, क्योंकि यह परमेश्वर का कार्य नहीं है और इसका उससे कोई लेना-देना नहीं है। तुम बस खुद कष्ट झेल रहे हो, परमेश्वर के शोधन से नहीं गुजर रहे हो। फिर भी तुम सोचते हो कि परमेश्वर तुम्हारा शोधन कर रहा है; तुम कुछ ज्यादा ही आशावादी हो रहे हो। यह महज खयाली पुलाव पकाना है! तुम तो परमेश्वर द्वारा शुद्ध किए जाने के लायक भी नहीं हो। तुम ताड़ना और न्याय के चरण से होकर भी नहीं गुजरे हो, और तुम परमेश्वर से अपेक्षा रखते हो कि वह तुम्हें परीक्षणों और शोधन से गुजारेगा? क्या ऐसा संभव भी है? क्या यह खयाली पुलाव नहीं है? क्या साधारण लोग परीक्षण और शोधन सह सकते हैं? क्या यह ऐसी चीज है जो कोई साधारण इंसान स्वीकार कर सकता है? क्या यह ऐसी चीज है जो परमेश्वर साधारण इंसान को प्रदान करता है? बिल्कुल नहीं। जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को सुधारता है, अगर उसके बाद वह व्यक्ति अपने अहंकारी स्वभाव, अपने हठ, कपटीपन, दुष्टता या किसी और स्वभाव के कारण परमेश्वर द्वारा एक या कई मामलों में अनुशासित किया जाता है, वह उसका न्याय करता है या स्पष्ट रूप से ताड़ना देता है, जिससे उसे यह एहसास होता है कि उसे परमेश्वर द्वारा क्यों अनुशासित किया जा रहा है—और परिणामस्वरूप वह परमेश्वर की और अपनी खुद की सच्ची समझ विकसित कर लेता है, उसके स्वभाव में सच्चा बदलाव होता है, और धीरे-धीरे वह सत्य के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर लेता है—यही वह प्रक्रिया है जिससे परमेश्वर लोगों का न्याय कर उन्हें ताड़ना देता है। परमेश्वर किस आधार पर यह कार्य करता है? एक शर्त है : ऐसा कार्य प्राप्त करने वाले व्यक्ति को परमेश्वर के घर में पर्याप्त रूप से अपना कर्तव्य निर्वहन करने में समर्थ होना चाहिए। इस पर्याप्तता के लिए सिर्फ दो चीजें अपेक्षित हैं : समर्पण और निष्ठा। पहले तो व्यक्ति के पास जमीर और विवेक होना चाहिए; सिर्फ जमीर और विवेक वाले लोग ही सत्य को स्वीकार करने के लिए जरूरी शर्त पूरी करते हैं। जब जमीर और विवेक वाले ऐसे लोग परमेश्वर की ताड़ना और सुधार प्राप्त करते हैं, तो वे सत्य खोजकर समर्पण करने में समर्थ हो जाते हैं। इसी के बाद परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य आगे बढ़ाता है। परमेश्वर के कार्य का यही क्रम है। लेकिन अगर परमेश्वर के घर का कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य कभी भी निष्ठा से नहीं निभा पाता, परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति जरा भी समर्पण नहीं दिखा पाता, और पर्याप्त रूप से अपने कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो जब वह विपदाओं, खुलासा या काट-छाँट किए जाने का सामना करता है, तो ज्यादा-से-ज्यादा वह परमेश्वर के सुधार और अनुशासन का अनुभव करता है। वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का पात्र नहीं बनता, परीक्षण और शोधन तो दूर की बात हैं। दूसरे शब्दों में, वह आधारभूत रूप में परमेश्वर के लोगों को पूर्ण किए जाने के कार्य में शामिल नहीं होता।
जिस विषयवस्तु पर हमने अभी संगति की वह परमेश्वर के लोगों को बचाने और पूर्ण करने के कार्य, परमेश्वर के कार्य के तरीकों और उद्देश्यों, और साथ ही जिन लोगों पर परमेश्वर अपना न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधनों का कार्य करता है, उनसे संबद्ध है। उसमें इस पर भी बात हुई कि परमेश्वर के इस कार्य के अधीन होने पर लोगों का जीवन प्रवेश किस सीमा तक होता है और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने के लिए लोगों में कम-से-कम किस प्रकार का सार होना चाहिए और उन्हें कौन-सी शर्तें पूरी करनी चाहिए। तो इस बारे में लोगों की धारणाएँ क्या हैं? लोग सोचते हैं, “अगर कोई परमेश्वर का अनुसरण करता है, अगर उसने परमेश्वर के कार्य के इस कदम को स्वीकार कर लिया है, तो उसे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरना ही पड़ेगा। फिर इसके जल्द बाद परमेश्वर द्वारा परीक्षण और शोधन भी होंगे। इसलिए, हम अक्सर काट-छाँट, परीक्षणों और शोधनों का सामना करते हैं, और परिवार, स्नेह, हैसियत और संभावनाओं से वंचित हो जाते हैं। फिर हम स्नेह, हैसियत और संभावनाओं के संदर्भ में लगातार कष्ट झेलते हैं।” क्या ये वक्तव्य सही हैं? (नहीं।) लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य के एक शब्द को किसी एक ऐसी चीज में बदल सकते हैं जिसे वे एक आध्यात्मिक शब्द मानते हैं—ऐसा क्यों है? दरअसल, वे जिस तरह कष्ट झेलते हैं, वह बस एक संघर्ष है, यह बस समय बिताना है; इसकी बिल्कुल भी कोई महत्ता नहीं है। लेकिन वे इसे यह कह कर परीक्षण और शोधन मान लेते हैं कि यह परमेश्वर का शोधन है। यह एक भयानक गलती है; यह ऐसी चीज है जो लोग परमेश्वर पर जबरन थोप देते हैं, और यह बिल्कुल भी परमेश्वर के इरादों को नहीं दर्शाता। क्या यह परमेश्वर को लेकर गलतफहमी नहीं है? यह सचमुच एक गलतफहमी है। और ऐसी गलतफहमी कैसे विकसित होती है? चूँकि लोग सत्य नहीं समझते, इसलिए वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर ऐसी गलतफहमियाँ पाल लेते हैं। फिर वे अंधाधुंध तरीके से इनका हर जगह प्रचार-प्रसार करते हैं, जिससे अंततः “कष्ट” को लेकर विभिन्न वक्तव्य पैदा होते हैं। इस तरह, मैं कुछ लोगों को अक्सर यह कहते हुए सुनता हूँ, “किसी व्यक्ति को बदल दिया गया और इससे वह निराश हो गया; वह ‘हैसियत का कष्ट’ झेल रहा है!” हैसियत का कष्ट झेलना परीक्षणों और शोधनों का अनुभव करना नहीं है; यह बस किसी व्यक्ति का हैसियत खोना है, भावनात्मक हताशा झेलना है, और नाकामी के दौरान आतंरिक पीड़ा से संघर्ष करना है। चूँकि लोग जिसे “कष्ट” कहते हैं और परमेश्वर जिसे शोधन कहता है, वे अलग-अलग हैं, तो वास्तविक शोधन सच में किससे जुड़ा है? अव्वल तो, यह समझ लो कि लोगों को परीक्षणों और शोधनों से गुजारने से पहले परमेश्वर बहुत सारी तैयारियां करता है। एक तो वह लोगों को चुनता है; वह सही इंसानों को चुनता है। पहले हमने चर्चा की थी कि परमेश्वर की दृष्टि में किस प्रकार का व्यक्ति सही माना जाता है और उसे कौन-सी शर्तें पूरी करनी चाहिए : पहले, उसकी मानवता में जमीर और विवेक होना चाहिए। दूसरे, उसे पर्याप्त ढंग से अपने कर्तव्य निभाने में समर्थ होना चाहिए, और उन्हें निष्ठा और समर्पण के साथ निभाना चाहिए। फिर उसे वर्षों तक काट-छाँट, अनुशासन और ताड़ना से गुजरना चाहिए। तुम लोगों के मन में शायद यह स्पष्ट न हो कि अनुशासन और ताड़ना का अर्थ क्या है, क्योंकि शायद ये अवधारणाएँ तुम्हारे लिए बहुत पुख्ता न हों। हो सकता है ये लोगों को अपेक्षाकृत अमूर्त और अस्पष्ट लगें। लेकिन जब काट-छाँट किए जाने की बात आती है, तो यह ऐसी चीज है जिसे लोग सुन और महसूस कर सकते हैं; इसमें एक विशिष्ट भाषा और निश्चित लहजा होता है, तो लोग जानते हैं कि क्या चल रहा है। अगर कोई कुछ गलत करता है, सिद्धांतों के विरुद्ध जाता है, लापरवाही से काम करता है, या परमेश्वर के घर के हितों या कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाने वाले एकतरफा फैसले लेता है और उसकी काट-छाँट की जाती है, तो काट-छाँट किए जाने का अर्थ यही होता है। तो फिर सुधार और अनुशासन का क्या? मिसाल के तौर पर, अगर कोई व्यक्ति समूह अगुआ होने लायक नहीं है, उसमें वफादारी नहीं है, वह ऐसे काम करता है जो सत्य सिद्धांतों या कलीसिया विनियमों का उल्लंघन करते हैं, और उसे बाद में पद से हटा दिया जाता है, तो क्या यह सुधार है? वाकई यह एक प्रकार का सुधार है। भले ही ऊपरी तौर पर ऐसा प्रतीत हो कि उसे कलीसिया द्वारा संभाला जा रहा है, या किसी अगुआ द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है, परमेश्वर की दृष्टि में, यह उसकी करनी है और उसके कार्य का अंश है; यह सुधार का एक रूप है। साथ ही, जब लोग अच्छी दशा में होते हैं, तो वे आम तौर पर रोशनी से भरे होते हैं और उनके पास नई अंतर्दृष्टि हो सकती है; हालाँकि जब उनका काम कुछ स्थितियों या विशिष्ट कारणों से बिखर जाए और वे प्रकट कर दिए जाएँ, तो क्या यह सुधार का रूप नहीं है? यह भी सुधार का एक रूप है। क्या इन्हें न्याय और ताड़ना कहा जा सकता है? इस मुकाम पर, उन्हें अभी न्याय और ताड़ना नहीं कहा जा सकता, इसलिए उन्हें यकीनन शोधन और परीक्षण नहीं माना जा सकता। ये महज व्यक्ति के कर्तव्य निर्वहन के दौरान प्राप्त सुधार हैं। सुधार की अभिव्यक्तियों में कभी-कभी बीमारी का सामना करना या बार-बार काम बिगाड़ देना, या जिन मामलों में वे कभी प्रवीण थे उन्हें न कर पाना और न जान पाना कि क्या करें, शामिल होते हैं। ये सब सुधार हैं। बेशक कभी-कभी सुधार आसपास के लोगों से सुराग के रूप में या कोई घटना जो प्रकट करती है उसके जरिये आते हैं, जिससे कि व्यक्ति शर्मिंदा हो जाता है, या गहन आत्मनिरीक्षण और चिंतन करने लगता है। यह भी सुधार है। क्या परमेश्वर से सुधार प्राप्त करना अच्छी चीज है या बुरी? (यह अच्छी चीज है।) सैद्धांतिक रूप से कहें, तो यह अच्छी चीज है। लोग इसे स्वीकार कर सकें या न कर सकें, यह अच्छी चीज ही है, क्योंकि यह कम-से-कम यह सिद्ध करता है कि परमेश्वर तुम्हारी जिम्मेदारी ले रहा है, उसने तुम्हें छोड़ा नहीं है, वह तुम पर कार्य कर रहा है, और तुम्हें प्रेरणा और मार्गदर्शन दे रहा है। यह तथ्य कि परमेश्वर तुम पर कार्यरत है, इस बात की पुष्टि करता है कि उसका अभी भी तुम्हें छोड़ देने का कोई इरादा नहीं है। इसका एक निहितार्थ यह है कि शायद परमेश्वर तुम्हारा सुधार और अनुशासन जारी रखे, या अगर तुम्हारा कामकाज ठीक हो, और तुम सही पथ पर हो, तो वह तुम्हें न्याय और ताड़ना के अधीन कर दे। लेकिन हम बहुत आगे न चले जाएँ; अभी के लिए, परमेश्वर कई बार तुम्हें सुधारेगा और अनुशासित करेगा। फिर, चूँकि तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तुम्हारे पास समर्पण है, और तुम सही व्यक्ति हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हें न्याय और ताड़ना के अधीन कर देगा; यह शुरुआती कदम है। ज्यादातर लोग पहले ही सिर्फ काट-छाँट का अनुभव कर चुके हैं; केवल नवागतों ने अभी इसका अनुभव नहीं किया है। ज्यादातर समय लोग अपने जमीर की भावनाओं के आधार पर काम करते हैं, आतंरिक भर्त्सना महसूस करते हैं, उन्हें अपने कानों या हृदय में ऐसा आभास होता है कि परमेश्वर के वचन उन्हें प्रेरित कर रहे हैं : “मुझे यह नहीं करना चाहिए, यह विद्रोहशीलता है”; ये परमेश्वर के वचन हैं जो उन्हें प्रेरणा और प्रोत्साहन देकर चेतावनी दे रहे हैं। ये काट-छाँट के विभिन्न रूप हैं जो लोग अनुभव करते हैं : यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं, भाई-बहनों, ऊपर वालों और सीधे परमेश्वर से भी आ सकता है। बहुत-से लोगों ने इनका अनुभव किया है, लेकिन कम ही लोगों ने परमेश्वर के सुधार और अनुशासन का अनुभव किया है। कम लोगों का यहाँ क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि बहुत ज्यादा लोग अभी परमेश्वर का न्याय और ताड़ना पाने से दूर हैं—और परमेश्वर के परीक्षणों और शोधनों का क्या? वे इनसे और भी ज्यादा दूर हैं; अंतर और ज्यादा है, दूरी और भी ज्यादा। पहले लोग सोचते थे : “परमेश्वर ने मेरा न्याय कर मुझे ताड़ना दी है, मेरे मुँह में छाला दिया है,” “परमेश्वर ने मेरा न्याय कर मुझे ताड़ना दी है, मैंने गलती की, कुछ गलत बोला, और कई दिन तक मुझे सिरदर्द रहा; अब मैं समझता हूँ कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना क्या हैं”—क्या ये गलतफहमियाँ नहीं हैं? परमेश्वर के बारे में ऐसी गलतफहमी सबसे ज्यादा आम है; ज्यादातर लोग परमेश्वर को इसी तरह गलत समझते हैं। इस गलतफहमी से कुछ नकारात्मक प्रभाव भी उपजते हैं, जिससे लोगों को लगता है कि एक भी गलत शब्द बोलने के फलस्वरूप परमेश्वर अनुशासित करेगा। यह विशुद्ध रूप से परमेश्वर को लेकर एक गलतफहमी है, और पूरी तरह परमेश्वर के कार्य से असंगत है। परमेश्वर के बारे में ऐसी गलतफहमी रखकर क्या कोई आखिरकार परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकता है? वह यकीनन नहीं कर पाएगा।
अब, ज्यादातर लोगों ने परमेश्वर के सुधार और अनुशासन का अनुभव किया है, काट-छाँट किए जाने का अनुभव किया है, और परमेश्वर के वचनों से प्रेरणा और प्रोत्साहन पाया है, मगर बस इतना ही। यहाँ एक सवाल उठता है : इस कदम तक अनुभव करने के बावजूद लोगों ने परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव क्यों नहीं किया है? काट-छाँट, परमेश्वर के वचनों की प्रेरणा या अनुशासन और सुधार को न्याय और ताड़ना क्यों नहीं माना जाता है? परमेश्वर के वचनों की प्रेरणा, काट-छाँट किए जाने और लोगों द्वारा अनुभव किए गए सुधार और अनुशासन के परिप्रेक्ष्य में, क्या नतीजा हासिल हुआ है? (वे अपने बाहरी व्यवहार को नियंत्रित करने लगे हैं।) उनके व्यवहार में कुछ बदलाव हुए हैं, लेकिन क्या यह स्वभाव में बदलाव का संकेत है? (नहीं।) यह स्वभाव में बदलाव नहीं दर्शाता। कुछ लोग कहते हैं : “हमने परमेश्वर में अनेक वर्षों से विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी हमारे स्वभाव में बदलाव नहीं हुआ है। क्या हमारे साथ गलत नहीं हुआ है? हमारे व्यवहार में सिर्फ थोड़ा-सा बदलाव आया है; क्या यह बहुत दयनीय नहीं है? परमेश्वर हमें कब बचाना शुरू करेगा? हमें उद्धार कब प्राप्त होगा?” तो आओ इस बात पर चर्चा करें कि जिन लोगों ने परमेश्वर के कार्य के इन विभिन्न पहलुओं का अनुभव किया है, उन्होंने क्या प्राप्त किया है और क्या बदलाव किए हैं। अभी-अभी किसी ने व्यवहार संबंधी बदलावों का जिक्र किया; यह एक सामान्य वक्तव्य है। विशिष्ट रूप से कहें, तो पहली बार कलीसिया में आने और अपने कर्तव्य सँभालने पर, लोगों की काट-छाँट नहीं की गई है, और वे नागफनी जैसे कँटीले हैं, वे चाहते हैं कि हर चीज में उन्हीं की राय अंतिम हो। ऐसे लोग मन-ही-मन सोचते हैं : “अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझे कलीसिया में अधिकार और स्वतंत्रता है, इसलिए मैं जैसा ठीक समझूँगा, वैसा ही करूँगा।” आखिरकार जब वे निपटान और काट-छाँट के एक दौर से गुजर लेते हैं, अनुशासित कर दिए जाते हैं, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ लेते हैं, धर्मोपदेश सुन लेते हैं, और सत्य के बारे में संगति सुन चुके होते हैं, तो फिर वे इस तरह का व्यवहार करने की हिम्मत नहीं करते। दरअसल, वे पूरी तरह से आज्ञाकारी नहीं हुए हैं; उन्होंने बस चुटकी भर समझ हासिल की है, और कुछ धर्मसिद्धांतों को समझा है। जब दूसरे लोग ऐसी बातें कहते हैं जो सत्य के अनुकूल हैं, तो वे उनकी शुद्धता को स्वीकार कर सकते हैं, और भले ही वे उन चीजों को अच्छी तरह से न समझ पाएँ, तो भी वे उन्हें स्वीकार कर सकते हैं। तब क्या वे पहले से कहीं अधिक आज्ञाकारी नहीं हो जाते? उनका इन चीजों को स्वीकार कर पाना दर्शाता है कि उनके व्यवहार में कुछ बदलाव आए हैं। ये बदलाव कैसे आए हैं? ये परमेश्वर के वचनों के उपदेश, प्रेरणा और आश्वासन से उत्पन्न हुए हैं। कभी-कभी ऐसे लोगों को कुछ अनुशासित, निपटे और काट-छाँट किए जाने के साथ-साथ सिद्धांतों पर कुछ संगति की आवश्यकता होती है, यह बताने के लिए कि कोई चीज एक निश्चित तरीके से ही की जानी चाहिए, अन्य तरीके से नहीं। वे सोचते हैं : “मुझे स्वीकार करना होगा। सत्य वहाँ बिछा हुआ है। कौन इस पर आपत्ति करने की हिम्मत करेगा?” परमेश्वर के घर में परमेश्वर महान है, सत्य महान है और सत्य का बोलबाला है; इस सैद्धांतिक आधार के साथ कुछ जाग्रत हो गए हैं और उन्होंने समझ लिया है कि परमेश्वर में आस्था रखना क्या होता है। किसी ऐसे व्यक्ति को लो, जो मूलतः क्रूर और लंपट था, पूरी तरह से स्वच्छंद था, और परमेश्वर में आस्था, परमेश्वर के घर, कलीसिया के नियमों से, और परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य-निर्वहन के सिद्धांतों से अनजान था : जब ऐसा व्यक्ति—जो कुछ नहीं जानता—दयालुता और उत्साह के साथ, “महान” आशा-आकांक्षाओं से भरा हुआ परमेश्वर के घर में आता है, और वहाँ परमेश्वर के वचनों से बार-बार प्रेरित और प्रोत्साहित, सिंचित और पोषित किया जाता है, उससे निपटा जाता है और उसकी काट-छाँट की जाती है, उसे ताड़ना दी जाती है और अनुशासित किया जाता है, तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति की मानवता में कुछ परिवर्तन होंगे। वे परिवर्तन क्या हैं? वह मानव आचरण के कुछ सिद्धांतों को समझने लगता है और जान जाता है कि पहले उसमें मानवता की कमी थी; वह क्रूर, अहंकारी, अवज्ञाकारी और रुष्ट था; वह वास्तविक मनुष्य की तरह नहीं बोलता था और बिना नियमों के काम करता था और सत्य की खोज करना नहीं जानता था; वह सोचता था कि परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर जो कहे, वह करने और जहाँ जाने के लिए कहे, वहाँ जाने जैसा आसान मामला है; यानी उसमें पाशविक शक्ति थी, हमेशा यह मानते हुए कि यह परमेश्वर के प्रति वफादारी और प्रेम है। अब वह व्यक्ति इन सभी चीजों को नकारता है और जानता है कि ये इंसानी कल्पनाओं की उपज हैं, महज अच्छा व्यवहार हैं, और कुछ तो शैतान से भी उपजे हैं। परमेश्वर के विश्वासियों को उसके वचनों का पालन करना चाहिए, और सत्य को सभी चीजों से ऊपर रखना चाहिए, सभी चीजों में सत्य को अपनी शक्ति का प्रयोग करने देना चाहिए। संक्षेप में, सिद्धांत रूप में और अपने दिल की गहराई में सभी लोग सैद्धांतिक रूप से समझ और मान चुके हैं, और अपने दिल की गहराई में स्वीकार कर चुके हैं परमेश्वर द्वारा कहे गए ये वचन सही हैं—ये सत्य हैं, सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं—चाहे इन वचनों ने उनके दिल में जितनी भी गहरी पैठ बनाई हो और चाहे इन वचनों ने कितनी भी बड़ी भूमिका निभाई हो। बाद में, ताड़ना और अनुशासन की एक अमूर्त मात्रा से गुजरकर उनकी चेतना में कुछ सच्चा विश्वास पैदा होता है। परमेश्वर के संबंध में उनकी शुरुआती अस्पष्ट कल्पनाओं से लेकर उनकी वर्तमान भावना तक—कि परमेश्वर है और वह काफी वास्तविक है—जब लोगों में परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में ये भावनाएँ होती हैं, तो उनके विचार और दृष्टिकोण, चीजों को देखने का उनका तरीका और नैतिक मानदंड, और साथ ही उनके सोचने का तरीका धीरे-धीरे बदलना शुरू हो जाता है। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर अपेक्षा रखता है कि लोग ईमानदार हों। भले ही तुम अभी भी झूठ बोल सकते हो, और धोखेबाज हो सकते हो, फिर भी अंतर्मन में तुम जानते हो कि धोखा गलत है, और परमेश्वर से झूठ बोलना और उसे धोखा देना पाप है, एक दुष्ट स्वभाव है—लेकिन तुम खुद को रोक नहीं पाते। मिसाल के तौर पर, मान लो तुम फिलहाल अहंकारी स्वभाव वाले हो। कभी-कभार तुम खुद को रोक नहीं पाते। तुम अक्सर यह स्वभाव प्रकट करते हो, और तुम अक्सर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो, हमेशा हावी होना चाहते हो और एकतरफा ढंग से आखिरी फैसला लेना चाहते हो। लेकिन तुम यह भी जानते हो कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, और तुम इस बारे में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो। भले ही कोई देखने योग्य परिवर्तन न हुआ हो, फिर भी तुम्हारे व्यवहार में धीरे-धीरे बदलाव शुरू हो गया है। न्याय और ताड़ना से गुजरे बिना ही और भले ही तुम्हारा स्वभाव नहीं बदला है, लेकिन सत्य और परमेश्वर के वचन धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय की गहराइयों को रोशन कर रहे हैं, और तुम्हारे व्यवहार का मार्गदर्शन और परिवर्तन कर रहे हैं, जिससे तुम अधिकाधिक रूप से एक मनुष्य की तरह जीने लगे हो, धीरे-धीरे अपने जमीर को जाग्रत कर रहे हो। अगर तुम अपने जमीर से विश्वासघात करने वाला कोई काम करते हो, तो तुम्हें दिल में बेचैनी महसूस होगी। वह मामला उठाने से तुम्हारे मन में कुछ-कुछ होने लगता है; तुम पहले जितने संवेदनहीन नहीं हो, तुम्हें खेद होता है, और तुम खुद को सुधारने को तैयार हो। भले ही इस बारे में तुम अपना स्वभाव तुरंत न बदल सको, अगर यह तुम्हारी दशा को स्पर्श करता है, तुम जान सकते हो कि तुम इस दशा में हो; तुम्हारे भीतर जागरूकता है, और यह जागरूकता तुम्हारे व्यवहार को बदल रही है। ऐसा परिवर्तन पूरी तरह से व्यवहार का परिवर्तन है। हालाँकि यह हो रहा है और होता ही रहता है, फिर भी यह स्वभाव में परिवर्तन नहीं दर्शाता; यह स्वभाव में परिवर्तन है ही नहीं। यह सुनने के बाद कुछ लोग बेचैन हो सकते हैं, कह सकते हैं, “ऐसा अहम परिवर्तन, और फिर भी यह स्वभाव का बदलाव नहीं है? तो फिर स्वभाव का बदलाव क्या है? कौन-से बदलाव स्वभावगत परिवर्तन की श्रेणी में आते हैं?” चलो, अभी के लिए इस बात को यहीं छोड़ दें; आओ उन बदलावों पर चर्चा जारी रखें जो लोग पहले ही हासिल कर चुके हैं, जोकि परमेश्वर के वचनों, और लोगों में किए गए उसके सभी कार्यों के प्रभाव और परिणाम हैं। लोग सत्य से मेल न खाने वाले अपने विचारों और नजरियों को बदलने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। मामलों से सामना होने पर उनमें जागरूकता आएगी; वे यह कह कर मामले की सत्य से तुलना करेंगे, “यह मामला सत्य के अनुरूप नहीं है, लेकिन मैं अभी भी अपने दृष्टिकोण को जाने नहीं दे पा रहा; यह अभी भी है।” तुम सिर्फ अवगत हो गए हो और जान गए हो कि तुम्हारी सोच परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है; क्या इससे यह साबित हो सकता है कि तुम्हारा दृष्टिकोण पहले ही बदल चुका है या इसे जाने दिया गया है? नहीं हो सकता। तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदला है, और इसे जाने नहीं दिया गया है, जो यह साबित करता है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अक्षुण्ण बना हुआ है, और उसमें बदलाव आना शुरू नहीं हुआ है; बस इतना ही है कि तुम्हारे जमीर, तुम्हारे अंतःकरण ने पहले ही परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर लिया है, और उन्हें सत्य के रूप में मान लिया है। लेकिन यह महज सैद्धांतिक है, एक व्यक्तिपरक कामना है—परमेश्वर के वचन अभी भी तुम्हारा जीवन नहीं बन पाए हैं, तुम्हारी वास्तविकता नहीं बन पाए हैं। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारी वास्तविकता बन जाएँ तो तुम अपने दृष्टिकोणों को जाने दोगे, और परमेश्वर के वचनों के नजरियों का प्रयोग कर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों और साथ ही अपने आसपास हो रही तमाम चीजों से पेश आओगे।
तुम लोगों का जीवन-प्रवेश इस समय किस चरण में है? तुम पहले ही जान चुके हो कि तुम्हारे नजरिए गलत हैं, लेकिन तुम अभी भी जीने के लिए अपने नजरियों पर भरोसा करते हो और तुम इनका उपयोग परमेश्वर के कार्य को मापने के लिए करते हो। तुम अपने विचारों और नजरियों का प्रयोग उसके द्वारा तुम्हारे लिए बनाए गए हालात की आलोचना करने के लिए करते हो तुम अपने विचारों और नजरियों के जरिए परमेश्वर की संप्रभुता के साथ पेश आते हो। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या यह बेतुका नहीं है? लोग थोड़े-से धर्म-सिद्धांत ही समझते हैं, फिर भी वे परमेश्वर के कार्यकलापों का आकलन करना चाहते हैं। क्या यह अत्यधिक अहंकारी होना नहीं है? अभी तुम बस यह स्वीकार करते हो कि परमेश्वर के वचन अच्छे और सही हैं, तुम्हारे बाहरी व्यवहार को देखने से ऐसा नहीं लगता कि तुम ऐसा कुछ करते हो जो जाहिर तौर पर सत्य के खिलाफ हो, ऐसा तो बिल्कुल ही नहीं लगता तुम परमेश्वर की आलोचना करने वाला कोई काम करते हो। तुम परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्था के प्रति भी समर्पित हो पाते हो। यह एक अविश्वासी से एक संत की शालीनता वाले परमेश्वर का अनुयायी हो जाना है। तुम दृढ़ता से शैतान के फलसफों, शैतान की अवधारणाओं और विधियों और ज्ञान के सहारे जीवनयापन करने वाले व्यक्ति से, एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हो, जिसे परमेश्वर के वचन सुनकर लगता है कि वे सत्य हैं, जो उन्हें स्वीकार करता है और सत्य का अनुसरण करता है, ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जो परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में अपना सके। यह वैसी ही प्रक्रिया है—और कुछ नहीं। इस अवधि में, तुम्हारे व्यवहार और काम करने के तरीके में निश्चित रूप से कुछ परिवर्तन आएँगे। तुम चाहे कितने भी बदल जाओ, तुममें जो अभिव्यक्त होगा, वह परमेश्वर की दृष्टि में तुम्हारे व्यवहार और तरीकों में बदलाव, तुम्हारे अंतरतम की आकांक्षाओं और अभिलाषाओं में बदलाव से अधिक कुछ नहीं होगा। यह तुम्हारे विचारों और नजरियों में बदलाव से ज्यादा कुछ नहीं होगा। अपनी शक्ति का आह्वान कर आवेग में होने पर अब तुम अपना जीवन परमेश्वर को अर्पित कर सकते हो, लेकिन जो मामला तुम्हें विशेष रूप से अरुचिकर लगता है, उसमें तुम परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण प्राप्त नहीं कर सकते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। शायद, तुम्हारा दयालु हृदय तुम्हें यह कहते हुए परमेश्वर के लिए अपना जीवन और सब-कुछ न्योछावर करने योग्य बना देता है, “मैं परमेश्वर के लिए अपने जीवन का रक्त देने को तैयार और इच्छुक हूँ। इस जीवन में, मुझे कोई पछतावा और कोई शिकायत नहीं है! मैंने वैवाहिक जीवन, सांसारिक संभावनाओं, सारी महिमा और ऐश्वर्य को त्याग दिया और मैं उन परिस्थितियों को स्वीकार करता हूँ जो परमेश्वर ने मेरे लिए व्यवस्थित की हैं। मैं दुनिया के सारे उपहास और बदनामी झेल सकता हूं।” लेकिन जैसे ही परमेश्वर ऐसी कोई परिस्थिति बनाता है जो तुम्हारी धारणाओं के मुताबिक नहीं होता, तुम उसके विरुद्ध खड़े हो कर पर होहल्ला मचा सकते हो और उसका विरोध कर सकते हो। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। यह भी संभव है कि तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दो, उन लोगों या चीज को छोड़ दो दो, जिनसे तुम सबसे अधिक प्रेम करते हो या उन चीजों का त्याग कर दो, जिनका त्याग तुम्हारा दिल सह न पाए—लेकिन जब तुमसे परमेश्वर से दिल से बोलने को कहा जाए और एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए कहा जाए, तो यह तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होता है और तुम ऐसा नहीं कर पाते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। और फिर, शायद तुम्हें इस जीवन में दैहिक सुखों की लालसा न हो, अच्छा खाना खाने और अच्छे कपड़े पहनने की लालसा न हो, और तुम हर दिन अपने कर्तव्य में काम कर-करके थककर चूर हो जाते हो। तुम हर तरह के शारीरिक कष्ट झेल सकते हो, लेकिन यदि परमेश्वर की व्यवस्थाएँ तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हों, तो तुम समझ नहीं पाते और तुम्हारे अंदर परमेश्वर के खिलाफ शिकायतें पैदा हो जाती हैं, उसके बारे में गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं। परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध और ज्यादा असामान्य होने लगता है। तुम हमेशा प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी रहते हो, परमेश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग देने को तैयार हो, तुम उससे एक ईमानदार बात क्यों नहीं कह सकते? तुम अपने से बाहर की हर चीज को दूर रखने को तैयार हो, तो फिर उस कार्य के प्रति पूरे निष्ठावान क्यों नहीं हो सकते जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है? तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागने को तैयार हो, तो तुम, जब तुम चीजें करने और दूसरों से अपने संबंध बनाए रखने के लिए अपनी भावनाओं पर भरोसा करते हो, तो तुम आत्मचिंतन क्यों नहीं कर सकते? तुम कलीसिया कार्य और परमेश्वर के घर के हितों का मान रखने के लिए अपना नजरिया क्यों नहीं बना सकते? क्या यह व्यक्ति ऐसा कोई है जो परमेश्वर एक समक्ष जीवन-यापन करता है? तुम परमेश्वर के सामने आजीवन उसके लिए खुद को खपाने और उस राह में आने वाले तमाम कष्टों को सहने की पहले ही शपथ ले चुके हो, तो फिर तुम्हारे कर्तव्य से बर्खास्तगी की सिर्फ एक घटना तुम्हें इतनी निराशा में क्यों डुबो देती है कि तुम कई दिनों तक उससे बाहर ही नहीं आ पाते? तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध, शिकायत, गलतफहमी और नकारात्मकता से क्यों भरा है? यह क्या हो रहा है? यह दर्शाता है कि तुम्हारा दिल हैसियत से सबसे ज्यादा प्यार करता है, और यह तुम्हारी अहम कमजोरी से जुड़ा है। इसलिए जब तुम बर्खास्त किए जाते हो, तो तुम गिर पड़ते हो और उठ कर खड़े नहीं हो पाते। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि हालाँकि तुम्हारा व्यवहार बदल गया है, मगर तुम्हारा जीवन स्वभाव नहीं बदला है। यह व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच का अंतर है।
ज्यादातर लोग अब अच्छा व्यवहार दर्शाते हैं, लेकिन बहुत कम ही लोग सत्य खोज रहे हैं या उसे स्वीकार रहे हैं, और लगभग किसी में भी सच्चा समर्पण नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य से देखें, तो बहुत-से लोग महज अपने व्यवहार में बदलाव और अपने विचारों और नजरियों में हेर-फेर का अनुभव कर रहे हैं; उनमें परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारने और उसके प्रति समर्पित होने की इच्छाशक्ति और आभिलाषा है, और उनके हृदय में कोई रोष नहीं है। मुझे बताओ, क्या इन लोगों ने परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव किया है? (नहीं।) दुर्भाग्य से, तुम लोगों ने जो अनुभवात्मक गवाहियाँ पहले साझा की थीं उनमें परमेश्वर का न्याय और ताड़ना शामिल नहीं है; ये सभी परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। अगर तुमने अभी तक परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं किया है, तो तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन शुरू नहीं हुआ है। अगर तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन शुरू नहीं हुआ है, तो तुम्हें जिन बदलावों का बोध हो रहा है, वे महज व्यवहारगत हैं। ऐसे व्यवहारगत बदलाव तुम्हारे अपने सहयोग के कारण हैं, ये आंशिक रूप से तुम्हारी अच्छी मानवता के कारण हैं, और ये परमेश्वर के कार्य का प्रभाव हैं। क्या तुम सचमुच सोचते हो कि लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर बस इतनी ही दूर तक जाएगा? (नहीं।) फिर परमेश्वर आगे क्या करेगा? लोगों को बचाते समय परमेश्वर कौन-से मुख्य कार्य में लगा होता है? (न्याय और ताड़ना।) लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर जो मुख्य तरीका प्रयोग करता है वह न्याय और ताड़ना है। लेकिन दुर्भाग्य से लगभग कोई भी व्यक्ति अब तक परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं कर पाया है। इसलिए, लोगों को बचाने, उन्हें पूर्ण करने और उनके स्वभावों में परिवर्तन करने का परमेश्वर का कार्य अभी तक आधिकारिक रूप से शुरू नहीं हुआ है। यह आधिकारिक रूप से शुरू क्यों नहीं हुआ है? क्योंकि परमेश्वर का यह कार्य अभी लोगों पर कार्यान्वित नहीं किया जा सकता। यह कार्यान्वित क्यों नहीं किया जा सकता? क्योंकि लोगों की मौजूदा स्थिति, आध्यात्मिक कद और उनकी मौजूदा काबिलियतों को देखें, तो वे अभी भी परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों पर खरे नहीं उतरते, इसलिए परमेश्वर अपना कार्य शुरू नहीं कर सकता है। क्या इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर अपना कार्य रोक देगा? नहीं, परमेश्वर प्रतीक्षा कर रहा है। प्रतीक्षा करते समय भी वह क्या कर रहा है? वह कलीसिया को शुद्ध कर रहा है, उसमें से विघ्नकर्ताओं और उपद्रवियों, मसीह-विरोधियों, दुष्ट आत्माओं, दुष्ट लोगों, छद्म-विश्वासियों और उन लोगों को निकाल रहा है, जो वास्तव में उसमें विश्वास नहीं रखते, और जो श्रम तक नहीं कर सकते। इसे खेत की सफाई करना कहा जाता है; इसे ओसाई भी कहा जाता है। क्या इस अवधि में खेत की सफाई परमेश्वर का मुख्य कार्य है? नहीं, इस दौरान परमेश्वर तुम्हें वचनों से प्रेरित करते हुए, सिंचित और पोषित करते हुए, काट-छाँट, सुधार और अनुशासित करने के जरिये तुम लोगों पर अपना कार्य करना जारी रखेगा। किस हद तक? एक बार जब लोग न्याय और ताड़ना स्वीकारने की बुनियादी शर्तें पूरी कर लेंगे तब ही परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करेगा। अब मुझे बताओ, तुम लोगों के कयासों और फैसलों के आधार पर परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करे इससे पहले लोगों को कौन-सी शर्तें पूरी करनी चाहिए? तुम देख सकते हो कि परमेश्वर सब-कुछ समय पर करता है। वह बेतरतीब ढंग से काम नहीं करता। उसका प्रबंधन-कार्य उसके द्वारा बनाई गई योजना का अनुसरण करता है, और वह सब-कुछ कदम-दर-कदम शैली में करता है, बेतरतीब ढंग से नहीं। और वे कदम कैसे होते हैं? परमेश्वर द्वारा लोगों पर किए जाने वाले कार्य का प्रत्येक कदम प्रभावी होना चाहिए, और जब वह उसे प्रभावी होता देख लेता है, तो कार्य का अगला कदम पूरा करता है। परमेश्वर जानता है कि उसका कार्य कैसे प्रभावी हो सकेगा, उसे क्या कहना और करना है। वह लोगों की जरूरत के अनुसार अपना कार्य करता है, बेतरतीब ढंग से नहीं। लोगों पर जो भी कार्य प्रभावकारी होगा, उसे ही परमेश्वर करता है, और प्रभावशीलता की दृष्टि से जो कुछ भी सारहीन है, परमेश्वर उसे निश्चित रूप से नहीं करता। उदाहरण के लिए, जब नकारात्मक वस्तुनिष्ठ पाठों की आवश्यकता होती है, जिनके आधार पर परमेश्वर के चुने हुए लोग अपनी समझ विकसित कर सकते हैं, तो नकली मसीह, विरोधी-मसीह, दुष्ट आत्माएँ, दुष्ट लोग, और विघ्नकर्ता और उपद्रवी कलीसिया में दिखाई देंगे, जिन पर अन्य लोग अपनी समझ विकसित कर सकते हैं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य समझकर ऐसे लोगों की पहचान कर सकें, तो उन लोगों ने अपनी सेवा प्रदान कर दी होती है, और फिर उनके अस्तित्व का कोई मूल्य नहीं रह जाता। उस समय, परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें उजागर कर उनकी रिपोर्ट करने के लिए उठेंगे, और कलीसिया उन्हें तुरंत निकाल देगी। परमेश्वर के समस्त कार्य के अपने कदम होते हैं, और उन सभी कदमों की परमेश्वर द्वारा इस आधार पर व्यस्था की जाती है कि मनुष्य को अपने जीवन में और अपने आध्यात्मिक कद के लिए क्या चाहिए। लोगों को सच में क्या चाहिए, और कलीसिया में मसीह-विरोधी और बुरे लोग क्यों प्रकट होते हैं? लोग आम तौर पर इन मामलों को लेकर पसोपेश में होते हैं, और नहीं समझते कि इन मामलों में चल क्या रहा है। कुछ लोग, परमेश्वर के कार्य को समझे बिना, मन में धारणाएँ पाल लेते हैं, और यह कहकर शिकायत भी करते हैं, “परमेश्वर की कलीसिया में मसीह-विरोधी कैसे प्रकट हो सकते हैं? परमेश्वर इस पर ध्यान क्यों नहीं देता है?” केवल परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ने के बाद ही कि ये घटनाएँ लोगों के सबक सीखने और समझ-बूझ विकसित करने के आशय से होती हैं, उन्हें प्रभुप्रकाश मिलता है और वे परमेश्वर के इरादों को समझ पाते हैं। शुरुआत में, लोगों को बुरे लोगों की पहचान नहीं होती। जब कलीसिया ऐसे लोगों को निष्कासित कर देती है, तो लोग धारणाएँ पाल लेते हैं; वे सोचते हैं कि जिन लोगों को निष्कासित कर दिया गया उन्होंने बहुत चढ़ावे अर्पित किए थे, वे कठिनाइयाँ झेलने में सक्षम थे, और सोचते हैं कि उन्हें निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए था। फिर वे परमेश्वर ने जो किया उसके प्रतिरोधी हो जाते हैं। लेकिन कुछ समय के अनुभव के बाद, लोग सत्य समझ पाते हैं, और बुरे लोगों को पहचानने की काबिलियत विकसित कर लेते हैं। अब जब किसी बुरे व्यक्ति को निष्कासित किया जाता है, तो वे धारणाएँ नहीं पालते, न ही प्रतिरोध करते हैं। जब वे किसी बुरे व्यक्ति को फिर से बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, तो वे उसे पहचान सकते हैं, और कोई भारी नुकसान होने से पहले ही सभी लोग एकजुट होकर उस व्यक्ति की रिपोर्ट कर उसे हटा देते हैं। फिर इन बुरे लोगों का परमेश्वर के घर में कोई आधार नहीं रह जाता। यह कैसे हासिल किया जाता है? लोगों में यह समझ-बूझ कैसे पैदा होती है? यह परमेश्वर की करनी है। परमेश्वर के कार्य के बिना, लोग इन चीजों को नहीं समझ सकते थे। परमेश्वर का कार्य एक क्रम में होता है, और इस क्रम के कदम मानव जीवन की जरूरत के आधार पर तय होते हैं। लेकिन खुद लोगों के मन में यह स्पष्ट नहीं होता कि उन्हें वास्तव में किस चीज की जरूरत है, वे उलझे हुए होते हैं। इसलिए, परमेश्वर केवल अपना कार्य करता रह सकता है, लोगों के सीखने के लिए अनगिनत सबक की व्यवस्था कर सकता है, ताकि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने योग्य बनें और वे परिणाम प्राप्त करें जिनकी वह माँग करता है। लोग समझें या नहीं, परमेश्वर अनथक रूप से अपना कार्य करता रहता है—यह परमेश्वर का प्रेम है। यह ठीक वैसा ही है जैसे परमेश्वर किसी की काट-छाँट करता है; अगर वह कोई गलती करता है, तो परमेश्वर उसकी काट-छाँट करता है; अगर वह गलती दोहराता है, तो वह उसकी फिर से काट-छाँट करता है। अगर उसे फिर से प्रकट किया जाए, तो परमेश्वर उसकी फिर एक बार काट-छाँटकरता है। वह सब्र से तब तक कार्य करता है जब तक कि व्यक्ति सच में समझ हासिल न कर ले, अब संवेदनहीन न रहे, और इतना संवेदनशील हो जाए कि ऐसी स्थितियों का दोबारा सामना करते समय उसे लगे कि उसने बिजली वाले तार को छू लिया हो, और अब गलतियाँ न करे। तब यह काफी है, और परमेश्वर अपना कार्य रोक देगा। इन मामलों का फिर से सामना होने पर जब तुम उन्हें स्वतंत्र रूप से और सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो परमेश्वर को अब फिक्र करने की जरूरत नहीं पड़ती। इससे साबित होता है कि तुमने परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के सत्य को समझ लिया है, उन्हें अपने हृदय में बसा लिया है, और वे तुम्हारा जीवन बन गए हैं। उस मुकाम पर, परमेश्वर अपना काम रोक देता है। ये परमेश्वर के कार्य के कदम हैं, और इनका अनुभव कर लेने के बाद, तुम परमेश्वर के सार और बुद्धिमत्ता को समझ लोगे; इसे नकारा नहीं जा सकता और यह सौ फीसदी सुनिश्चित है।
अभी-अभी जिक्र किया गया था कि परमेश्वर के कार्य के चरण लोगों के स्वभावगत परिवर्तन से जुड़े हुए हैं। परमेश्वर का कार्य इस बारे में नहीं है कि लोग थोड़े व्यवहारगत परिवर्तन से गुजरें, कुछ नियम समझ लें, थोड़ी मनुष्यता पा लें और फिर इसे एक महान सफलता घोषित कर दिया जाए। अगर यह बात होती, तो अनुग्रह के युग में ही कार्य समाप्त हो चुका होता। परमेश्वर क्या चाहता है? (लोगों का स्वभावगत परिवर्तन।) सही है, जो लोग सचमुच बचाए गए हैं उन्हें स्वभावगत परिवर्तन प्राप्त होना चाहिए। परमेश्वर जो चाहता है वह महज लोगों के व्यवहार में बदलाव नहीं, बल्कि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, उनके स्वभाव में बदलाव है; बचाए जाने का मानक यही है। अभी-अभी कुछ व्यवहार संबंधी बदलावों का भी जिक्र किया गया था, जैसे कि चीजों का त्याग कर पाना, और परमेश्वर के लिए अपने प्राण न्योछावर कर पाना—ये स्पष्ट रूप से व्यवहारगत परिवर्तन हैं। लेकिन अगर परमेश्वर द्वारा सौंपे गए आदेशों के प्रति वफादारी न हो, अगर कोई अभी भी अनमने ढंग से कामकाज कर सकता हो, अभी भी धोखेबाजी हो, तो इसका अर्थ है कि अभी स्वभाव में परिवर्तन नहीं हुआ है। लोग अभी सिर्फ व्यवहार से प्रशंसनीय हैं; वे किसी संत के व्यवहार की बेहतर बराबरी करते हुए-से लगते हैं, वे अधिक मानवता से व्यवहार करते हैं, और उनमें थोड़ी गरिमा और सत्यनिष्ठा है। हालाँकि, भले ही कोई कितना भी अच्छा व्यवहार दिखाए, अगर वह सत्य के अभ्यास से जुड़ा हुआ न हो, और उसके अपने जमीर, विवेक और सामान्य मानवता द्वारा जिया हुआ न हो, तो इसका स्वभाव में बदलाव से कोई लेना-देना नहीं है और यह वह नहीं है जो परमेश्वर चाहता है। इस पर इस तरह से गौर करें, तो तुम्हारे मौजूदा व्यवहार के संदर्भ में, तुम चाहे नियमों का जितना भी पालन करो, तुम चाहे जितने भी आज्ञाकारी हो, चाहे तुम अपने प्राण कैसे भी न्योछावर कर सको, या तुम्हारी अभिलाषाएँ चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हों, क्या तुम परमेश्वर को संतृप्त कर पाए हो? क्या तुमने परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी की हैं? (नहीं।) क्या ऐसा है कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत ऊँची हैं? कुछ लोग सोचते हैं, “लोग तो अब बहुत आज्ञाकारी हैं, उन्होंने अभी तक परमेश्वर की अपेक्षाएँ कैसे पूरी नहीं की हैं?” तुम लोग क्या सोचते हो, क्या यह आज्ञापालन सच्चा समर्पण है? (नहीं।) सही है। यह अनुपालन बस थोड़ी-सी तार्किकता का होना है, जोकि पूरा-का-पूरा परमेश्वर के अनुशासन का परिणाम है। यह पूरी तरह से परमेश्वर के अनुशासन से प्राप्त प्रभाव है; केवल परमेश्वर के कड़ी मेहनत से इतने सारे वचन बोलने के बाद ही लोगों का जमीर जाग्रत हुआ, लोगों की जमीर की भावना में हलचल हुई, और वे थोड़ी मानवता के साथ जीने लगे, काम करने के नियम मानने लगे, जान गए कि उन्हें अपने हर काम में पूछताछ करनी है, और सिद्धांतों के विरुद्ध काम करते समय थोड़ी उलाहना महसूस करने लगे। संक्षेप में कहें, तो व्यवहार में बदलाव परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को प्राप्त करने की शर्तों को पूरा नहीं करते; परमेश्वर लोगों का व्यवहारगत परिवर्तन नहीं चाहता। तो फिर परमेश्वर क्या चाहता है? वह उनका स्वभावगत परिवर्तन चाहता है। और आखिर स्वभावगत परिवर्तन की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उन्हें विभिन्न पहलुओं में किस हद तक बदलना चाहिए कि वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के योग्य हो जाएँ? उन्हें उस हद तक बदलना चाहिए कि परमेश्वर हर पहलू में उनका प्रदर्शन देख सके—वे खास तौर पर अपने कर्तव्य पर्याप्त रूप में निभा सकें, काट-छाँट को स्वीकार सकें, सभी चीजों में सत्य खोज सकें, मुसीबतों और परीक्षणों का सामना होने पर परमेश्वर का अनुसरण कर सकें, और आधारभूत ढंग से परमेश्वर की कही हर बात को स्वीकार कर उसे समर्पित हो सकें; तब भी जब दूसरे उनकी निगरानी न कर रहे हों, और प्रलोभनों से सामना होने पर, वे दुष्कर्म से बच सकें, और जरा भी बुराई न करें। परमेश्वर की दृष्टि में, ऐसे लोग मानक स्तर के हैं; वे औपचारिक रूप से उसका न्याय और ताड़ना प्राप्त करने योग्य हैं, जोकि उन्हें बचाने और पूर्ण बनाने का परमेश्वर के कार्य का अगला कदम है। यहाँ किस प्रकार का संकेत, किस प्रकार का मानक है—क्या तुम जानते हो? (मैंने सोचा है कि परमेश्वर द्वारा सुधार और अनुशासन के जरिये कोई व्यक्ति धीरे-धीरे अपना जमीर और विवेक दोबारा पा सकता है और अपने व्यवहार में थोड़े परिवर्तन के साथ वह अपने कर्तव्य अंततः वफादारी से निभाने में समर्थ हो सकता है। तब शायद परमेश्वर उस व्यक्ति पर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करेगा।) क्या तुम सभी इस कथन से सहमत हो? (हाँ।) अच्छी बात है, लेकिन यह केवल एक शर्त है। परमेश्वर किसी व्यक्ति पर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करे, इससे पहले, वह उस व्यक्ति का आकलन करेगा। वह उसका आकलन कैसे करेगा? परमेश्वर के कई मानक हैं। पहले, वह निरीक्षण करता है कि उसके सौंपे हुए आदेशों के प्रति उस व्यक्ति का रवैया क्या है; यानी उसे जो कर्तव्य निभाने चाहिए उनके प्रति उसका रवैया क्या है, क्या वह अपने कर्तव्य पूरी लगन से, अपनी पूरी काबिलियत के साथ और वफादारी से कर सकता है। संक्षेप में कहें, तो वह निरीक्षण करता है कि क्या लोग समुचित कर्तव्य निर्वहन के मानक पर खरे उतरते हैं—यह पहला पहलू है। यह सीधे तौर पर लोगों के परमेश्वर में विश्वास रखने के जीवन और उनके दैनिक कामकाज से जुड़ा हुआ है। परमेश्वर इस पहलू को एक शर्त, आकलन के एक मानक के रूप में क्यों तय करता है? इसके पीछे क्या कारण है—क्या तुम सब जानते हो? जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को कोई काम सौंपता है, तो उस व्यक्ति का रवैया अहम होता है—परमेश्वर इसी तरह उसका आकलन करता है। यह काम उसे परमेश्वर द्वारा सौंपा गया है; जिस व्यक्ति में जमीर नहीं है उसके मुकाबले जमीर वाला कोई व्यक्ति इससे कैसे पेश आएगा? किसी तर्कहीन व्यक्ति के मुकाबले कोई तर्कयुक्त व्यक्ति इससे कैसे पेश आएगा? इनके बीच अंतर है। जमीर और तार्किकता वे गुण हैं जो किसी की मानवता में होने चाहिए। इसके अलावा, सिर्फ थोड़े-से जमीर का होना या थोड़ी-सी तार्किकता का होना काफी नहीं है। अगर लोग अपना जमीर और तार्किकता फिर से पा लें, तो फिर क्या वे इंसानों जैसे हो जाएँगे? क्या इस तरह उन्होंने सत्य वास्तविकता प्राप्त कर ली है? नहीं, यह अभी भी काफी नहीं है; लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जिस पथ पर चलते हैं परमेश्वर उसका भी निरीक्षण करता है। लोग जिन पथों पर चलते हैं, उनमें से किस प्रकार का पथ परमेश्वर के अपेक्षित मानक पर खरा उतर सकता है? पहले, कर्तव्य निर्वहन के समय बुरे काम न करना और समर्पण भाव रखना न्यूनतम मानक है। अगर कोई बुराई करने में सक्षम है, तो इस व्यक्ति का काम तमाम हो चुका है; यह इस प्रकार का व्यक्ति नहीं है जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है। इसके अलावा, परमेश्वर द्वारा सौंपे गए आदेशों से पेश आने में, उन्हें जमीर और तार्किकता के साथ संभालने के अलावा सत्य को खोजने और परमेश्वर के इरादों को समझने की ज्यादा जरूरत है। हालात चाहे जो हों, भले ही तुम्हारे सामने का मामला तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या न हो, तुम्हें समर्पण का रवैया बनाए रखना चाहिए। इस मोड़ पर परमेश्वर को जो चाहिए वह है तुम्हारा समर्पण का रवैया। अगर तुम सिर्फ यह मानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य और सही हैं, तो क्या यह समर्पण का रवैया है? बिल्कुल नहीं। समर्पण की प्रवृत्ति का व्यावहारिक पक्ष क्या है? यह है : तुम्हें परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने के लिए अपने आपको तैयार करना चाहिए। हालाँकि तुम्हारा जीवन प्रवेश उथला है, तुम्हारा आध्यात्मिक कद नाकाफी है और सत्य के व्यावहारिक पक्ष का तुम्हारा ज्ञान अभी पर्याप्त गहरा नहीं है, तब भी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर उसे समर्पित हो पा रहे हो—तो यह समर्पण का रवैया है। इससे पहले कि तुम पूर्ण समर्पण कर सको, तुम्हें सबसे पहले समर्पण का रवैया अपनाना चाहिए, यानी तुम्हें परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना चाहिए, मानना चाहिए कि वे सही हैं, परमेश्वर के वचनों को सत्य और अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में लेना चाहिए, और भले ही सिद्धांतों की तुम्हारी पकड़ अच्छी न हो, उन्हें नियमों के तौर पर कायम रखने में तुम्हें समर्थ होना चाहिए। यह समर्पण का एक प्रकार का रवैया है। चूँकि तुम्हारा स्वभाव अभी भी नहीं बदला है, तो अगर तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले समर्पण की मानसिकता और और समर्पित होने की अभिलाषा रखनी चाहिए, कहना चाहिए, “परमेश्वर चाहे जो भी करे मैं समर्पण करूँगा। मैं ज्यादा सत्य नहीं समझता हूँ, लेकिन जानता हूँ कि जब परमेश्वर मुझे बताएगा कि क्या करना है, तो मैं वह करूँगा।” परमेश्वर इसे समर्पण के एक रवैए के रूप में देखता है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में गलत हुआ तो?” क्या परमेश्वर गलत करने में सक्षम है? परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है। परमेश्वर गलतियाँ नहीं करता; परमेश्वर ऐसी बहुत-सी चीजें करता है जो लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं। तुम्हें कहना चाहिए, “चाहे परमेश्वर के कार्य मेरी अपनी धारणाओं के अनुरूप हों या न हों, मैं बस सुनने, समर्पित होने, स्वीकारने और परमेश्वर का अनुसरण करने पर ध्यान दूँगा। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे यही करना चाहिए।” भले ही ऐसे लोग हों जो आँखें बंद कर समर्पण करनेवाले के रूप में तुम्हारी आलोचना करें, फिर भी तुम्हें परवाह नहीं होनी चाहिए। तुम्हारा दिल आश्वस्त है कि परमेश्वर सत्य है और तुम्हें समर्पण करना चाहिए। यह सही है, और ऐसी ही मानसिकता के साथ इंसान को समर्पण करना चाहिए। केवल ऐसी मानसिकता वाले लोग ही सत्य हासिल कर सकते हैं। यदि तुम्हारी मानसिकता ऐसी नहीं है, लेकिन तुम कहते हो, “मुझे कोई गुस्सा दिलाए इससे मुझे दुख नहीं होता। मुझे कोई बेवकूफ नहीं बना सकता। मैं बहुत चालाक हूँ और मुझसे किसी के भी आगे समर्पण नहीं करवाया जा सकता! जो भी चीज मेरे रास्ते में आएगी, मुझे उस पर गौर करके उसका विश्लेषण करना चाहिए। जब वह मेरी सोच के अनुरूप होगी और मैं उसे स्वीकार कर सकूँगा तभी मैं समर्पण करूँगा”—क्या यह समर्पण का रवैया है? यह समर्पण का रवैया नहीं है; इसमें दिल में समर्पण के किसी इरादे के बिना आज्ञाकारी मानसिकता की कमी है। अगर तुम कहते हो, “भले ही यह परमेश्वर हो, मुझे तब भी इस पर गौर करना होगा। राजाओं और रानियों के साथ भी मैं ऐसे ही पेश आता हूँ। तुम मुझसे जो कह रहे हो वह निरर्थक है। यह सच है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, लेकिन मैं कोई पुतला नहीं हूँ—इसलिए मुझसे वैसा व्यवहार मत करो,” तो फिर तुम्हारी कहानी खत्म; तुम्हारे पास सत्य को स्वीकारने के हालात नहीं हैं। ऐसे लोगों में तार्किकता नहीं होती। उनमें सामान्य मानवता नहीं होती, तो क्या ऐसे लोग जानवर नहीं हैं? तार्किकता के बिना कोई व्यक्ति समर्पण कैसे कर सकता है। समर्पण करने के लिए, किसी व्यक्ति में सबसे पहले आज्ञाकारी मानसिकता होनी चाहिए। केवल समर्पण की मानसिकता के साथ ही किसी व्यक्ति में कोई उल्लेखनीय तार्किकता हो सकती है। अगर उसमें समर्पण की मानसिकता नहीं है, तो उसमें कोई तार्किकता नहीं है। लोग सृजित प्राणी हैं; वे सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप से कैसे देख सकते हैं? पूरी मानवजाति 6,000 वर्षों तक परमेश्वर के एक भी विचार को समझ नहीं पाई है, तो लोग एकाएक कैसे समझ सकते हैं कि परमेश्वर क्या कर रहा है? तुम नहीं समझ सकते हो। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो परमेश्वर हजारों वर्षों से करता रहा है, और जिनका खुलासा परमेश्वर मानवजाति को पहले ही कर चुका है, लेकिन अगर उसने लोगों को स्पष्ट रूप से न बताया होता तो लोग उसे अभी भी न समझ पाए होते। हो सकता है अब तुम उसके वचनों के शाब्दिक अर्थ समझते हो, लेकिन तुम सचमुच में इसका अर्थ कुछ बीस वर्ष बाद ही समझ सकोगे। लोगों और परमेश्वर की माँगों के बीच इतनी बड़ी खाई है। इसके प्रकाश में लोगों में तार्किकता और समर्पण की मानसिकता होनी चाहिए। लोग सिर्फ चींटियाँ और कीड़े-मकोड़े हैं, फिर भी वे सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप से देखना चाहते हैं। यह सबसे अनुचित चीज है। कुछ लोग हमेशा शिकायत करते हैं कि परमेश्वर उन्हें अपने रहस्य नहीं बताता, और सत्य सीधे नहीं समझाता, हमेशा लोगों से खोज करवाता है। लेकिन ऐसी बातें कहना सही नहीं है, और यह अनुचित है। परमेश्वर ने तुम्हें जितने वचन बताए हैं, उनमें से तुम कितनों को समझते हो? परमेश्वर के कितने वचनों का तुम अभ्यास कर सकते हो? परमेश्वर का कार्य हमेशा चरणों में होता है। अगर परमेश्वर ने 2,000 वर्ष पहले अंत के दिनों के अपने कार्य के बारे में लोगों को बता दिया होता, तो क्या वे समझ सके होते? अनुग्रह के युग में, प्रभु यीशु पापी देह के सदृश बना और संपूर्ण मानवजाति के लिए पाप बलि बना। अगर उसने उस वक्त लोगों को बताया होता, तो कौन समझता? और अब, तुम जैसे लोग कुछ अवधारणात्मक सिद्धांतों को समझते हैं, लेकिन परमेश्वर के वास्तविक स्वभाव, मानवजाति से प्रेम करने में परमेश्वर के इरादे और उस वक्त परमेश्वर द्वारा की गई चीजों के उद्गम और उनके पीछे की योजना जैसे सत्यों को लोग कभी भी समझ नहीं पाएँगे। यही सत्य का रहस्य है; यही परमेश्वर का सार है। लोग इसे स्पष्टता से कैसे देख सकते हैं? सृष्टिकर्ता को स्पष्ट रूप में देखने की तुम्हारी कामना तुम्हारे लिए पूरी तरह अनुचित है। तुम बहुत अहंकारी हो और अपनी काबिलियतों को बहुत ज्यादा आंकते हो। लोगों को परमेश्वर को स्पष्ट रूप से देखने की कामना नहीं करनी चाहिए। यदि वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, तो यह पहले ही अच्छी बात है। जहाँ तक तुम्हारी बात है, थोड़ा-सा सत्य समझ लेना पहले ही पर्याप्त उपलब्धि है। इसलिए, क्या समर्पण की मानसिकता रखना तार्किक है? ऐसा करना बिल्कुल एक तार्किक चीज है। समर्पण की मानसिकता और रवैया वह न्यूनतम चीज है जो प्रत्येक सृजित प्राणी में होनी चाहिए।
अपने कर्तव्य का पर्याप्त और निष्ठापूर्ण निर्वहन करने और समर्पण की मानसिकता प्राप्त करने में कितना समय लगता है? क्या इसके लिए कुछ निर्धारित वर्ष चाहिए? कोई तय समयसीमा नहीं है, और यह व्यक्ति के प्रयास, उसकी अभिलाषा और सत्य के प्रति उसकी लालसा की सीमा पर निर्भर करता है। यह उसके सहज अंतःकरण, विवेक, काबिलियत और अंतर्दृष्टि पर भी निर्भर करता है। समर्पण का रवैया अपना लेने के तुरंत बाद, व्यक्ति की बातों, क्रियाकलापों और व्यवहार में और भी परिवर्तन होंगे। ये परिवर्तन क्या हैं? परमेश्वर की दृष्टि में, तुम अब मूल रूप से एक ईमानदार इंसान हो। मूल रूप से एक ईमानदार इंसान होने का मतलब क्या है? इसका अर्थ है कि तुम्हारी बातों और व्यवहार में जानबूझकर झूठ बोलने का अंश कम हो गया है; तुम्हारी 80 प्रतिशत बातें सच हैं। कभी-कभी नीचता, हालात या किसी और कारण से तुम अनजाने ही झूठ बोलते हो, और इससे उतनी ही तकलीफ होती है जितनी किसी मरी हुई मक्खी को निगल जाने से हो; तुम कई दिनों तक परेशान रहते हो। तुम परमेश्वर के सामने अपनी गलती मानकर प्रायश्चित्त करते हो, और उसके बाद, बदलाव होते हैं—तुम्हारे झूठ निरंतर कम होते जाते हैं और तुम्हारी दशा सुधर जाती है। परमेश्वर की दृष्टि में, तुम मूल रूप में एक ईमानदार इंसान हो। कुछ लोग कहते हैं, “अगर कोई मूल रूप से ईमानदार है, तो क्या उसका स्वभाव बदल नहीं गया है?” क्या बात ऐसी है? नहीं, यह सिर्फ व्यवहार में बदलाव है। परमेश्वर की दृष्टि में, ईमानदार इंसान होने में समर्थ होने में आचरण और व्यवहार में परिवर्तन के साथ और भी बहुत कुछ लगता है; इसमें व्यक्ति की मानसिकता और विभिन्न मामलों पर उसके नजरियों में अनिवार्य परिवर्तन भी शामिल होते हैं। उसमें अब झूठ बोलने और धोखा देने का इरादा नहीं होता है, और उसकी बातों या कृत्यों में बिल्कुल भी झूठ या धोखा नहीं होता है। उसकी बातें और कृत्य ज्यादा-से-ज्यादा सच्चे हो जाते हैं, वह ज्यादा-से-ज्यादा ईमानदारी के बोल बोलता है। मिसाल के तौर पर, जब तुम से पूछा जाए कि क्या तुमने कुछ किया है, तो मान लेने पर भले ही थप्पड़ लगे या कोई दंड मिले, तुम सत्य बोल पाते हो। इसे मानने से भले ही तुम पर कोई भारी जिम्मेदारी आ जाए, फाँसी या विनाश का सामना करना पड़े, फिर भी तुम सत्य बताकर परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने को तैयार हो जाते हो। यह एक संकेत है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम्हारा रवैया बहुत दृढ़ हो गया है। चाहे जब भी हो, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित अभ्यास के किसी एक मानक को चुनना तुम्हारे लिए कोई समस्या नहीं रही; तुम इसे सहज ही प्राप्त कर बाहरी हालात के नियंत्रणों के बिना, अगुआओं और कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन के बिना या अपने भीतर परमेश्वर की पड़ताल का एहसास किए बिना इसका अभ्यास कर सकते हो। तुम इन चीजों को अपने आप बड़ी आसानी से कर पाते हो। बाहरी हालात के नियंत्रणों के बिना, और परमेश्वर के अनुशासन के डर से नहीं, अपने जमीर की उलाहना के डर से नहीं और निश्चित रूप से दूसरों द्वारा उपहास या निरीक्षण के डर से नहीं—इनमें से किसी की वजह से नहीं—तुम सक्रिय रूप से अपने व्यवहार को जाँच सकते हो, उसकी शुद्धता को माप सकते हो और आकलन कर सकते हो कि क्या यह सत्य के अनुरूप है और परमेश्वर को संतुष्ट करता है। उस मुकाम पर, तुम मूल रूप से परमेश्वर की दृष्टि में एक ईमानदार इंसान होने के मानक पर खरे उतरे हो। मूल रूप से ईमानदार इंसान होना परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार करने की तीसरी बुनियादी शर्त है।
हमने अभी-अभी परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने की तीन शर्तों पर संगति की : पहली है समुचित ढंग से अपना कर्तव्य निर्वहन करना, दूसरी है समर्पण का रवैया अपनाना, और तीसरी है मूल रूप से एक ईमानदार इंसान होना। इस तीसरी शर्त का आकलन कैसे किया जाता है? इसके मानदंड क्या हैं? (व्यक्ति जानबूझकर झूठ कम बार बोलता है, और ज्यादातर बार सत्य बोलता है।) इसका अर्थ है ज्यादातर समय सच बोल पाना; तुम सभी लोगों को इसका आलकन करने लायक होना चाहिए, है न? एक ईमानदार इंसान होना परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने की तीसरी शर्त है। दूसरी शर्त है समर्पण का रवैया अपनाना, जिसमें कुछ विवरण शामिल हैं, मुख्य रूप से परमेश्वर के कार्य की पड़ताल और विश्लेषण न करना, बल्कि केवल समर्पण की मानसिकता रखना। इसके अलावा इसमें शामिल हैं, एक ईमानदार इंसान होना, एक ऐसे मुकाम पर पहुँचना जहाँ तुम्हारे झूठ घट जाएँ, और ज्यादातर वक्त तुम सच बोल सको, अपनी सच्ची भावनाएँ व्यक्त कर सको। यहाँ सबसे अहम पहलू लोगों का व्यक्तिपरक सहयोग है, जिसका अर्थ है सक्रियता से प्रगति करना, और सत्य तक पहुँचने का प्रयास करना। समर्पण की मानसिकता रखना व्यक्तिपरक स्तर पर हासिल किया गया परिणाम है; एक ईमानदार इंसान बन पाना—मूल रूप से ईमानदार होना—भी एक व्यक्तिपरक मामला है, और यह व्यक्ति के श्रमसाध्य अनुसरण का नतीजा है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने की एक और मुख्य शर्त है। मैं पहले तुम लोगों को एक संकेत देता हूँ, और अगर तुम सब मेरे कहे अनुसार सोचो, तो इसे समझ पाओगे। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने से अंत तक क्या लोगों ने इस जीवन में अनेक गलतियाँ की हैं? क्या परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोहशीलता के अनेक कृत्य हुए हैं? (बहुत हुए हैं।) तो गलती करने पर या विद्रोही होने पर किसी को क्या करना चाहिए? (उसके हृदय में पछतावा होना चाहिए।) पछताने वाला हृदय व्यक्ति के जमीर और विवेक से युक्त होने का संकेत है। जमीर और विवेक वे न्यूनतम गुण हैं जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने वाले व्यक्ति में होने चाहिए; जिन लोगों में जमीर और विवेक का अभाव होता है वे परमेश्वर का उद्धार नहीं पा सकते। अगर कोई गलतियाँ करने के बाद कभी भी प्रायश्चित्त करना नहीं जानता, तो वह किस तरह की चीज है? जो व्यक्ति कभी प्रायश्चित्त करना नहीं जानता क्या वह परमेश्वर का अंत तक अनुसरण कर सकता है? क्या वह वास्तविक बदलाव पा सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं। (क्योंकि उसके पास पछताने वाला हृदय नहीं है।) बिल्कुल ठीक, और यह हमें अंतिम शर्त तक ले आता है : व्यक्ति के पास पछताने वाला हृदय होना चाहिए। परमेश्वर का अनुसरण करते हुए, अपनी मूर्खता और अज्ञानता के कारण और अपने विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों के कारण, लोग अक्सर खुद को अवज्ञाकारी के रूप में प्रकट कर देते हैं और वे कभी-कभी परमेश्वर को गलत समझते हैं या उसकी शिकायत कर देते हैं। वे भटक जाते हैं, और अपने मन में परमेश्वर को ले कर कुछ धारणाएँ भी बना लेते हैं, निराश होकर कुछ समय तक अपने काम में ढीले हो जाते हैं और अपनी आस्था खो देते हैं। लोगों के जीवन के प्रत्येक चरण में अवज्ञाकारी व्यवहार दिखाई दे जाता है। उनके दिल में परमेश्वर बसा होता है और कुछ होने पर वे जानते हैं कि वह कार्यरत है, फिर भी कभी-कभी वे उस तथ्य को समझ नहीं पाते। हालाँकि वे सतही रूप से तो समर्पण कर देते हैं, लेकिन उसे गहराई से स्वीकार नहीं कर पाते। किस बात से यह स्पष्ट होता है कि वे इसे स्वीकार नहीं कर पाते? एक तो अभिव्यक्त करने का तरीका यह है कि सब कुछ जानने के बावजूद, जो कुछ उन्होंने किया है, वे उसे दरकिनार कर परमेश्वर के सामने आकर अपनी गलतियों को स्वीकार करके, यह नहीं कह पाते, “परमेश्वर, मैं गलत था। मैं अब ऐसा नहीं करूँगा। मैं तेरे इरादों का पता लगाऊँगा और वैसा ही करूँगा जैसा तू चाहता है। मैं तेरी बातों पर ध्यान नहीं देता था; मेरा आध्यात्मिक कद छोटा था, मैं मूर्ख और अज्ञानी था, अक्सर अवज्ञाकारी था। अब मुझे इसका पता है।” यदि लोग अपनी गलतियाँ मान सकें तो वे कौन-सा रवैया अपनाए हुए होते हैं? (वे परिवर्तित होना चाहते हैं।) यदि लोगों में जमीर और विवेक हो, और वे सत्य के लिए तरसते हों, फिर भी वे गलतियाँ करने के बाद आत्मचिंतन कर परिवर्तित होना कभी न जानते हों, और इसके बजाय यह मानते हों कि रात गई बात गई और सुनिश्चित हों कि वे गलत नहीं हैं, तो यह कैसा स्वभाव दर्शाता है? किस तरह का व्यवहार? ऐसे व्यवहार का सार क्या है? (हठी होना।) ऐसे लोग हठी होते हैं, और चाहे जो हो जाए, वे इसी मार्ग का अनुसरण करेंगे। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। जब योना ने पहली बार नीनवे के लोगों के सामने परमेश्वर के वचन व्यक्त किए, तो उसने क्या कहा? (“अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा” (योना 3:4)।) नीनवे के लोगों ने इन वचनों पर क्या प्रतिक्रिया दी? जब उन्होंने देखा कि परमेश्वर उन्हें नष्ट करने जा रहा है, तो उन्होंने जल्दी से बोरी और राख ले ली, जल्दी से अपने पाप स्वीकार कर लिए, और बुराई का पथ छोड़ दिया। प्रायश्चित्त करने का यही अर्थ है। यदि मनुष्य प्रायश्चित्त कर पाता है, तो यह मनुष्य को एक बड़ा अवसर प्रदान करता है। वह क्या अवसर है? यह जीवित रहने का अवसर है। वास्तविक प्रायश्चित्त के बिना, आगे बढ़ते रहना कठिन होगा, चाहे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में या फिर उद्धार के तुम्हारे अनुसरण में। प्रत्येक चरण में—जब परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या सुधार रहा हो, या जब वह तुम्हें याद दिला रहा हो और तुम्हें उपदेश दे रहा हो—अगर तुम्हारे और परमेश्वर के बीच टकराव हुआ है, फिर भी तुम अपने आप में बदलाव नहीं लाते और अपने विचारों, दृष्टिकोण और प्रवृत्ति से चिपके रहते हो, उस समय भले ही तुम्हारे कदम आगे बढ़ रहे हों, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच संघर्ष, उसके प्रति तुम्हारी गलतफहमियों, उसके खिलाफ तुम्हारी शिकायतों और विद्रोह में कोई सुधार नहीं आएगा और तुम्हारा हृदय उसकी तरफ नहीं मुड़ेगा। तब परमेश्वर अपने स्तर पर तुम्हें निकाल देगा। हालाँकि तुमने हाथ लिया हुआ कर्तव्य छोड़ा नहीं है, तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभा रहे हो और तुम्हारे अंदर परमेश्वर के आदेश के प्रति थोड़ी-बहुत निष्ठा बची है, लोग इसे संतोषजनक मान लेते हैं, लेकिन तुम्हारे और परमेश्वर के बीच के विवाद ने स्थायी गाँठ बना दी है। तुमने इसे सुलझाने और परमेश्वर के इरादों की सही समझ हासिल करने के लिए सत्य का प्रयोग नहीं किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारी गलतफहमी बढ़ रही है, और तुम्हें हमेशा परमेश्वर ही गलत लगता है, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ नाइंसाफी की जा रही है। इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे अंदर बदलाव नहीं आया है। तुममें अभी भी विद्रोह का भाव है, धारणाएँ हैं और अभी भी परमेश्वर के प्रति गलतफहमी बनी हुई है, जिसकी वजह से तुम्हारी मानसिकता अवज्ञाकारी है, तुम हमेशा विद्रोही रवैया अपनाए रहते हो और परमेश्वर का विरोध करते हो। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विद्रोह नहीं करता है, उसका विरोध नहीं करता है और अड़ियल बनकर प्रायश्चित करने से इंकार नहीं करता है? परमेश्वर लोगों के बदलाव लाने को इतना महत्व क्यों देता है? सृष्टिकर्ता के प्रति सृजित प्राणी का रवैया क्या होना चाहिए? उसे इस प्रवृत्ति से देखना चाहिए कि सृष्टिकर्ता चाहे कुछ भी करे, वह सही है। यदि तुम इस बात को स्वीकार नहीं करते हो कि सृष्टिकर्ता सत्य, मार्ग और जीवन है, तो फिर तुम्हारे लिए ये शब्द खोखले हैं, और यदि ये शब्द तुम्हारे लिए खोखले हैं, तो क्या तुम उसके बावजूद उद्धार पा सकोगे? तुम उद्धार नहीं पा सकते। तुम पात्र नहीं होगे; परमेश्वर तुम जैसे लोगों को नहीं बचाता। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर चाहता है कि लोगों का हृदय प्रायश्चित्तपूर्ण हो और वे परिवर्तित होना जानें। लेकिन ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनमें मैं परिवर्तित नहीं हुआ हूँ। क्या मेरे पास अभी भी ऐसा करने का समय है?” हां, अभी भी समय है। इसके अतिरिक्त, कुछ लोग कहते हैं, “मुझे किन चीजों में परिवर्तित होना है? अतीत की बातें भूली जा चुकी हैं।” जब तक तुम्हारे स्वभाव में बदलाव न आए, जब तक तुम यह न जान सको कि तुम्हारा कौन-सा काम सत्य के अनुरूप नहीं है और कौन-सा काम परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकता, तो वह गाँठ जो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच मौजूद है, वह अभी खुली नहीं है; तो मामला अभी सुलझा नहीं है। यह स्वभाव तुम्हारे अंदर ही है; परमेश्वर की अवज्ञा करने वाला यह विचार, दृष्टिकोण और रवैया तुम्हारे अंदर ही है। जैसे ही सही परिस्थितियां सामने आएँगी, तुम्हारा यह दृष्टिकोण एक बार फिर से उभर आएगा और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संघर्ष फिर से भड़क उठेगा। इस प्रकार, हालांकि तुम अतीत को तो सुधार नहीं सकते, लेकिन तुम्हें भविष्य में होने वाली चीजों को सुधारना होगा। उन्हें कैसे सुधारोगे? तुम्हें बदलाव लाकर अपने विचारों और इरादों को अलग रखना चाहिए। जब तुम्हारा यह इरादा होगा, तो सहज ही तुम्हारी प्रवृत्ति भी समर्पण की होगी। हालाँकि, थोड़ा और अधिक सटीक रूप से बात करें तो, यह ऐसे लोगों से संबंधित है जो परमेश्वर, यानी सृष्टिकर्ता के प्रति अपनी प्रवृत्ति में बदलाव लाते हैं; यह इस तथ्य की मान्यता और पुष्टि है कि सृष्टिकर्ता सत्य, मार्ग और जीवन है। यदि तुम अपने अंदर बदलाव ले आते हो, तो इससे ज़ाहिर होता है कि तुम उन चीजों को अलग रख सकते हो जिन्हें तुम सही समझते हो, या जिन चीजों को भ्रष्ट मानवजाति सामूहिक रूप से सही समझती है; जबकि तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और सकारात्मक बातें हैं। यदि तुम ऐसी प्रवृत्ति रख सको, तो इससे यह सिद्ध होता है कि तुम सृष्टिकर्ता की पहचान को मान्यता देते हो। परमेश्वर मामले को इसी ढंग से देखता है, और इसलिए वह मनुष्य के बदलने को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानता है।
कुछ लोग हैं जो कहते हैं, “अगर किसी व्यक्ति ने कुछ भी गलत नहीं किया है, तो उन्हें परिवर्तित होने की क्या जरूरत है?” भले ही तुमने इस क्षण कुछ भी गलत न किया हो, फिर भी तुम्हें पहले प्रायश्चित्त का सत्य समझना चाहिए। यह ऐसी चीज है जो तुम्हारे पास होनी चाहिए। एक बार जब तुम सत्य समझ लोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे किए गए कुछ काम अनुचित थे, और तुम्हें ऐसी समस्याओं का पता चलेगा जिनका तुम्हारे इरादों और मानसिकता से सरोकार हो—यानी तुम्हारे स्वभाव की समस्याएँ। तुम्हारे जाने बिना ही ये चीजें सतह पर आ जाएँगी और इससे तुम समझ जाओगे कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध वास्तव में इंसानों और परमेश्वर के बीच का सरल संबंध नहीं है। परमेश्वर तो परमेश्वर ही है, मगर तुम मानक पर खरे न उतरने वाले एक सृजित प्राणी हो। जिन मामलों में लोग अपने उचित स्थान पर रहने में विफल रहे हैं, और जो उन्हें करना चाहिए, उसे पूरा करने में असफल रहे हैं—यानी, जब वे अपने कर्तव्य में विफल होते हैं—तो यह उनके भीतर एक गाँठ बन जाएगा। यह एक बहुत ही व्यावहारिक समस्या है, और इसे हल किया जाना है। तो इसे हल कैसे किया जाए? लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? सबसे पहले, उन्हें खुद को परिवर्तित करने के लिए तैयार रहना चाहिए। और परिवर्तित होने की इस इच्छा का अभ्यास कैसे किया जाए? मिसाल के तौर पर, कोई व्यक्ति एक-दो वर्ष तक अगुआ होता है, लेकिन काबिलियत कम होने के कारण वह अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा पाता, किसी भी हालत को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकता, नहीं जानता कि समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग कैसे करें, कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकता; इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया जाता है। अगर बर्खास्त होने जाने के बाद, वह आज्ञापालन कर पाता है, अपना कर्तव्य निर्वहन जारी रख पाता है, और परिवर्तित होने को तैयार है, तो उसे क्या करना चाहिए? सबसे पहले, उसे यह बात समझनी चाहिए, “परमेश्वर ने जो किया वह सही था। मेरी काबिलियत बहुत खराब है, और इतने लंबे समय से मैंने कोई वास्तविक काम नहीं किया है, बल्कि कलीसिया कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बाधित ही किया है। मैं भाग्यशाली हूँ कि परमेश्वर के घर ने मुझे पूरी तरह से निष्कासित नहीं किया है। मैं वास्तव में बहुत बेशर्म रहा हूँ, इतने समय तक अपने स्थान से चिपका रहा हूँ और यह मानता भी रहा हूँ कि मैंने बहुत महान काम किया है। मैं कितना नासमझ था!” आत्म-घृणा और पछतावे की भावना महसूस करने में सक्षम होने के लिए : क्या यह सुधार कर वापस मुड़ने के लिए तैयार होने की अभिव्यक्ति है या नहीं है? यदि वह ऐसा कह पाता है, तो इसका अर्थ है कि वह तैयार है। यदि वह अपने मन में कहे, “इतने वर्षों तक अगुआ रहने के दौरान, मैंने हमेशा हैसियत के लाभ पाने के प्रयास किए हैं, मैं हमेशा धर्मसिद्धांत का प्रचार करता रहा हूँ, अपने आप को सिद्धांत से युक्त करता रहा हूँ; मैंने जीवन प्रवेश के लिए प्रयास नहीं किया, अब जबकि मुझे हटा दिया गया है, तब जाकर मैं समझ सका हूँ कि मेरे अंदर कितनी कमियाँ हैं, मैं कितना नाकाफी हूँ। परमेश्वर ने सही किया, और मुझे आज्ञापालन करना चाहिए। पहले, मेरे पास हैसियत थी, भाई-बहन मेरे साथ अच्छा व्यवहार करते थे; मैं जहाँ भी जाता लोग मुझे घेर लेते थे। अब कोई मेरी ओर ध्यान भी नहीं देता, मैं त्याग दिया गया हूँ; यह तो मेरे साथ होना ही था, मैं इस प्रतिकार के ही लायक हूँ। इसके अलावा, परमेश्वर के सामने किसी सृजित प्राणी की कोई हैसियत कैसे हो सकती है? किसी की हैसियत चाहे जितनी भी ऊँची क्यों हो, यह न तो अंत है और न ही गंतव्य; परमेश्वर मुझे इसलिए आदेश नहीं सौंपता कि मैं अपना भाव दिखाता फिरूँ या अपनी हैसियत के मजे लूटूं, बल्कि इसलिए सौंपता है कि मैं अपना कर्तव्य निभाऊँ, और जो कुछ मैं कर सकता हूँ, वह करूँ। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता का रवैया रखना चाहिए। हालाँकि आज्ञाकारिता कठिन हो सकती है, लेकिन मुझे आज्ञापालन करना चाहिए; परमेश्वर जो करता है, ठीक ही करता है, यदि मेरे पास हजारों-हज़ार बहाने होते, तो भी उनमें से कोई भी सत्य नहीं होता। परमेश्वर का आज्ञापालन करना ही सत्य है!” ये सभी परिवर्तित होने की इच्छा की सटीक अभिव्यक्तियाँ हैं। और यदि किसी के अंदर ये सारे गुण हों, तो परमेश्वर ऐसे व्यक्ति का मूल्यांकन कैसे करेगा? परमेश्वर कहेगा कि यह व्यक्ति जमीर और विवेकपूर्ण है। क्या यह मूल्यांकन ऊँचा है? यह बहुत अधिक ऊँचा नहीं है; केवल जमीर और विवेक का होना परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मानकों से कम है—लेकिन जहाँ तक इस प्रकार के व्यक्ति का संबंध है, यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। समर्पण करने में समर्थ होना मूल्यवान है। इसके बाद, व्यक्ति अपने बारे में परमेश्वर की सोच को किस तरह बदलने का प्रयास करता है यह इस पर निर्भर करता है कि वह कौन-सा पथ चुनता है। यदि उसने सचमुच में प्रायश्चित्त नहीं किया है, और चूँकि उसकी कोई हैसियत नहीं है, वह अपने कर्तव्य में वफादार नहीं होता, और हमेशा अनमना रहता है, तो उसकी कहानी खत्म हो चुकी है; उसे निकाल दिया जाएगा। यदि उसके मन में अभी भी रंज है, और वह शिकायत करता है, “अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल में मैंने बहत कष्ट सहे, और भले ही कोई गुण नहीं थे, कड़ी मेहनत जरूर थी। वे कहते हैं कि मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया, लेकिन मैंने बहुत काम किया। चाहे मैंने कुछ नतीजे हासिल किए हों या नहीं, कम-से-कम मैं निठल्ला नहीं था। सिर्फ इसलिए कि मैं निठल्ला नहीं था, परमेश्वर को मुझे इस तरह यूँ ही निकाल नहीं देना चाहिए। हैसियत न होने पर भी, अभी भी मुझसे यह या वह काम करवाया जा रहा है—क्या यह मेरे साथ खिलवाड़ नहीं है?”—अगर पद से हटा दिए जाने के बाद, उन लोगों में कर्तव्य निभाने का कोई उत्साह न बचा हो, तो यहाँ क्या कोई वफादारी या समर्पण है? उनमें कोई वफादारी, कोई समर्पण, और खुद में पूर्ण बदलाव करने की कोई इच्छा नहीं है; उन लोगों में इनमें से कुछ भी नहीं है। क्या यह दयनीय नहीं है? यह बहुत दयनीय है; उन्होंने इतने वर्ष तक बेकार ही विश्वास रखा। इतने वर्षों तक धर्मोपदेश सुनकर भी, सत्य का अभ्यास नहीं किया, हमेशा दूसरों को वचनों और धर्मसिद्धांतों पर भाषण दिया, मगर खुद कुछ भी न कर पाए—उन्होंने परमेश्वर में बस इसी तरह विश्वास रखा; उन्होंने दूसरों को बहुत-से धर्मसिद्धांतों का उपदेश दिया, लेकिन अंत में, वे अपनी समस्याएँ भी सुलझा नहीं सके। यह बहुत दयनीय है! और वे अभी भी परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त करना चाहते हैं? पद से हटा दिए जाने के बाद, वे अभी भी परमेश्वर से लड़ते हैं और यातना सहते हैं, जरा भी समर्पण नहीं दिखाते। क्या यह आँखें बंद करके कष्ट झेलना नहीं है? तुम्हारा कष्ट झेलना बेकार है! हर चीज को किनारे रखकर और सिर्फ इस तथ्य को देखते हुए कि कलीसिया द्वारा तुम्हें उस पद से हटा दिए जाने पर तुम आगबबूला और झगड़ालू हो गए थे—सिर्फ इस एक आधार पर ही, तुम इंसान होने लायक नहीं हो, परमेश्वर का एक सृजित प्राणी होने के योग्य नहीं हो। तो फिर तुम किस चीज को लेकर बहस कर रहे हो? तुम्हारी तमाम दलीलें बेकार हैं। तुमने अनेक वर्षों तक विश्वास रखा है, फिर भी तुममें यह लेशमात्र भी समर्पण नहीं है; तुम्हारे इतने वर्षों की आस्था का फल कहाँ है? दयनीय, घिनौना और घृणित! तुम्हें हैसियत दी गई और तुम इससे आधिकारिक भूमिका की तरह पेश आए; क्या हैसियत होने का अर्थ यह है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है? क्या यह सिर्फ परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है? परमेश्वर ने तुम्हें यह आदेश सौंपने का अनुग्रह किया, फिर भी तुमने इसे एक आधिकारिक भूमिका की तरह लिया—क्या यह घृणित बात नहीं है? क्या परमेश्वर के घर में कोई अधिकारी हैं? युगों-युगों से संतों के बीच कोई अधिकारी नहीं था। दो हजार वर्ष तक, लोगों ने पौलुस की आराधना की, लेकिन कभी किसी ने नहीं कहा कि पौलुस की कोई आधिकारिक पदवी थी। इसलिए “आधिकारिक” शब्द उचित नहीं है; यह न तो एक पुरस्कार है और न ही परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश है, तुम्हें इसे जाने देना चाहिए। यदि तुम निरंतर एक अधिकारी बनने का अनुसरण करते हो, तो क्या परमेश्वर इसकी स्वीकृति देगा? क्या यह तुम्हें उद्धार प्राप्त करने की अनुमति देगा? यकीनन नहीं। अभी अभी हमने जिक्र किया कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने के लिए व्यक्ति में परिवर्तित होने की इच्छा होनी चाहिए। क्या यह महत्त्वपूर्ण है? (बिल्कुल।) ऐसा रवैया रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है! अगर तुम अपने और सृष्टिकर्ता के बीच बचाने वाले और बचाए जाने वाले का कोई संबंध स्थापित करना चाहते हो, और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हें बचाए, तो तुम्हें अपनी स्थिति को सुधारना चाहिए, और अपने दिल में परमेश्वर का स्थान और हैसियत सुनिश्चित करना चाहिए। तो फिर तुम्हारी स्थिति क्या है? (एक सृजित प्राणी।) एक सृजित प्राणी क्या है? वह मनुष्य है, कोई पशु नहीं। किसी भी समय तुम्हें याद रखना चाहिए कि तुम एक सृजित प्राणी हो, एक साधारण मनुष्य, और तुम्हें अपनी सही स्थान नहीं भूलना चाहिए। जब परमेश्वर तुम पर थोड़ा अनुग्रह करता है, थोड़े आशीष देता है, तो तुम यह नहीं देख पाते कि तुम कौन हो। जब अपनी विनम्रता और छिपे होने में परमेश्वर तुम्हें सुकून देने के लिए कुछ हृदयस्पर्शी वचन बोलता है, तो वह तुम्हें ऊपर उठाता है; फिर भी तुम खुद को ऊपर उठाकर परमेश्वर की बराबरी करना चाहते हो—ऐसा कौन करता है? क्या मनुष्य ऐसा करेगा? (नहीं।) परमेश्वर तुम जैसे सृजित प्राणी को नहीं पहचानता है—तुम किनारे हट सकते हो! अगर परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानता तो क्या वह तुम्हें पूर्ण बनाएगा? तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की शर्तों पर खरे नहीं उतरते। क्या इस बिंदु तक चर्चा का निचोड़ तुम तक स्पष्ट रूप से पहुँचा नहीं दिया गया है? इस प्रकार राह पलटने की इच्छा रखना बहुत अहम है; यह मन की एक दशा है, और साथ ही यह एक रवैया भी है। यह रवैया अभ्यास का एक अहम सिद्धांत है जो परमेश्वर का उद्धार और उसके द्वारा पूर्णता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में होना चाहिए। तुम खुद को बहुत महान, बहुत कुलीन मत समझो या यह मत मानो कि तुम बिल्कुल सही और अचूक हो। तुम महान, गौरवशाली या सही नहीं हो; तुम बहुत तुच्छ, दीन-हीन हो, मानवजाति के एक सृजित प्राणी हो जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है। तुम्हें सृष्टिकर्ता का उद्धार स्वीकारने की जरूरत है। तुम पहले से बचाए हुए नहीं हो, तुम पूर्ण नहीं हो; तुममें यह विवेक होना चाहिए।
परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकारने की चार शर्तें हैं : कर्तव्य का समुचित निर्वहन करना, समर्पण की मानसिकता रखना, मूल रूप से ईमानदार होना, और प्रायश्चित्तपूर्ण हृदय होना। इन चार शर्तों को याद रखो और स्थितियों से सामना होने पर इनकी कसौटी पर खुद को कसो। यदि किसी स्थिति में समर्पण करने की जरूरत हो, तो समर्पण का अभ्यास करो। परमेश्वर का वचन लोगों से समर्पण का रवैया रखने की अपेक्षा करता है; यदि तुम परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना करो, और एक बहुत बड़ा अंतर पाओ, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? वैसा करो जैसा परमेश्वर कहे, विश्लेषण या बहस किए बिना परमेश्वर के वचनों का अनुसरण करो। अगर तुम बहस करने की कोशिश करोगे, तो परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा। परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा, तो तुम क्या करोगे? एक उपचार है, जो कि तुरंत पीछे मुड़ जाना है। एक तुच्छ मामले को लेकर परमेश्वर का दिल मत दुखाओ, और फिर उसका दिल दुखाते हुए उसकी अनदेखी न करो। इंसान कुछ नहीं है; अगर तुम परमेश्वर की अनदेखी करोगे, तो वह अब तुम्हें नहीं चाहेगा। अगर परमेश्वर तुम्हारी अनदेखी करेगा और तुम्हें नहीं चाहेगा तो फिर तुम क्या करोगे? तुम कहते हो, “मैं पीछे मुड़ जाऊँगा। हे परमेश्वर, मुझे मत त्यागो, तुम्हारे बिना मैं कुछ नहीं कर सकता।” लेकिन सिर्फ यह कहना बेकार है। परमेश्वर को तुम्हारी मीठी बातें नहीं चाहिए; वह तुम्हारे रवैये, तुम्हारे अभ्यास, बाद में तुम जिस पथ पर चलोगे उस पर और तुम्हारे कार्य निर्वहन पर गौर करेगा। मत सोचो कि परमेश्वर एक साधारण इंसान है, जिसे तुम थोड़ी-सी मीठी बातों से बहला सकते हो; परमेश्वर ऐसा नहीं है, वह तुम्हारे रवैये पर गौर करता है। तुम्हारे पीछे मुड़ जाने पर परमेश्वर देखता है कि तुम हठी न होकर समर्पणशील बन गए हो, सत्य को स्वीकार कर सकते हो, और परमेश्वर से अब होड़ नहीं लगा रहे हो। तुम्हारी हठधर्मिता बदल गई है, तुम जान गए हो कि तुम कौन हो, और तुम अपने परमेश्वर को पहचानते हो; इसके जल्द बाद परमेश्वर तुम पर कुछ कार्य शुरू कर देगा। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे महसूस नहीं होता कि परमेश्वर का कुछ करने का इरादा है।” अपनी भावनाओं के भरोसे मत रहो। क्या तुम्हारी भावनाएँ सही हैं? परमेश्वर ने तुम पर बहुत कार्य किया है—क्या तुमने इसमें से कुछ भी महसूस किया है? जब परमेश्वर का दिल टूट गया था, तो क्या तुम्हें महसूस हुआ था? तुम्हें कुछ पता नहीं चला—शायद तुम कहीं और ही खुश थे। तो अपनी भावनाओं के आधार पर परमेश्वर की भावनाओं की व्याख्या मत करो और अपनी भावनाओं से परमेश्वर की भावनाओं को मत मापो; यह बेकार है। अगर परमेश्वर तुम्हारी अनदेखी करे, और तुम कुछ भी महसूस न करो, और कोई प्रबुद्धता या स्वीकृति न पाओ, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक बात याद रखो : तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे करते रहना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को पूरे करने चाहिए, और तब भी वैसे ही सच्चाई से बोलना चाहिए जैसे कि तुम्हें बोलना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि परमेश्वर तुम्हारी अनदेखी करता है, या तुम्हें अब नहीं चाहता है, तुम अपने पुराने झूठ दोबारा बोलने शुरू मत करो, वैसे मत बोलो जैसे तब बोलते थे; अगर तुम ऐसा करोगे, तो तुम्हारी कहानी खत्म। यह परमेश्वर के साथ होड़ लगाना और उसका विरोध करना है। तुम्हें अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से बने रहना चाहिए, और वैसे ही समर्पण करना चाहिए जैसे कि तुम्हें करना चाहिए। इसमें लाभ क्या है? जब परमेश्वर देखेगा कि तुम पीछे मुड़ गए हो, तो उसका दिल पसीज जाएगा, और तुम्हारे प्रति उसका क्रोध और गुस्सा धीरे-धीरे उतर जाएगा। क्या परमेश्वर का क्रोध उतर जाना तुम्हारे लिए अच्छा संकेत नहीं है? इसका अर्थ है कि तुम्हारे जीवन का मोड़ आ गया है। जब तुम भावनाओं के आधार पर जीना छोड़ दोगे, परमेश्वर की अभिव्यक्तियों का निरीक्षण करने की कोशिश छोड़ दोगे, और परमेश्वर से उसकी स्थिति बताने की बड़बोली माँगें करना छोड़ दोगे, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों और परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कर्तव्यों और अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें अभ्यास करने और चलने के लिए बताए गए पथ के अनुसार जीने लगोगे; यदि तुम इन सबके अनुसार जियो, और परमेश्वर चाहे तुमसे जैसा भी बर्ताव करे या वह तुम पर ध्यान दे या न दे, तुम वैसे ही करते रहो जैसे तुम्हें करना चाहिए—तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देगा। वह तुम्हें स्वीकृति क्यों देगा? क्योंकि परमेश्वर तुम्हारे साथ चाहे जो करे, तुम पर ध्यान दे या न दे, तुम्हें अनुग्रह, आशीष, प्रकाश, प्रबुद्धता, देखभाल या रक्षा दे या न दे, और चाहे तुम इसे जितना भी महसूस करो, फिर भी तुम उसका अंत तक अनुसरण कर सकते हो। तुम उस स्थिति पर कायम हो जिस पर एक सृजित प्राणी को बिना बदले बने रहना चाहिए; तुमने परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के लक्ष्य और दिशा के रूप में लिया है, और उसके वचनों को अपने जीवन में सत्य और बुद्धिमत्ता के सर्वोत्तम वचनों के रूप में लिया है। ऐसे व्यवहार का सार क्या है? यह अपने दिल में यह पहचानना है कि सृष्टिकर्ता ही तुम्हारा जीवन है, वही तुम्हारा परमेश्वर है। इस प्रकार, परमेश्वर फिर से आश्वस्त हो जाता है और तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जीने वाले एक सामान्य व्यक्ति बन जाते हो; ऐसा व्यक्ति स्वभाव में परिवर्तन की बुनियादी शर्तें पूरी करता है। इस आधार पर, क्या लोगों द्वारा हासिल समझ और बदलावों को स्वभाव में बदलाव माना जा सकता है? ये अभी भी इससे दूर हैं। इसलिए, तुम्हें सृष्टिकर्ता की पहचान को मानना चाहिए, और साथ ही तुममें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार रवैया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, तुम्हारा रवैया ऐसा होना चाहिए जो सत्य को स्वीकार कर उसे समर्पित हो सके। तुममें ये गुण आने के बाद, फिर परमेश्वर तुम पर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करेगा। बचाए जाने की प्रक्रिया यहीं से शुरू होती है। कुछ लोग कहते हैं : “यदि हममें ये गुण हों, तो क्या इसका यह अर्थ है कि हमारा स्वभाव पहले ही बदल चुका है? इतना बदल जाने के बाद, परमेश्वर के पास न्याय करने और ताड़ना देने के लिए क्या रह गया है?” परमेश्वर किस चीज का न्याय करता है, ताड़ना देता है? यह लोगों का प्रकृति सार है, जोकि उनका भ्रष्ट स्वभाव है। अगर कोई ये चार शर्तें पूरी करे और वह इन पर खरा उतर पाए, तो उसके भ्रष्ट स्वभाव का कौन-सा पहलू पूरी तरह से बदल गया है? कोई भी नहीं। बस थोड़ा-सा व्यवहारगत बदलाव हुआ है, मगर यह काफी नहीं है। कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ है। यानी, परमेश्वर के तुम पर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करने से पहले, तुम्हारा आत्मज्ञान सदा सतही और उथला रहेगा। यह तुम्हारे भ्रष्ट सार जितना नहीं होगा; यह उससे बहुत दूर है, अंतर बहुत ज्यादा है। इसलिए, परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य शुरू करे इससे पहले, तुम चाहे खुद को जितना भी नेक, निष्कपट, नियम-पालक मानो, या अपने रवैये को चाहे जितना भी आज्ञाकारी मानो, तुम्हें एक बात जाननी चाहिए : तुम्हारा स्वभाव अभी भी औपचारिक रूप से बदलना शुरू नहीं हुआ है। अभ्यास के तुम्हारे तरीके और तुम्हारी ये विधियाँ सिर्फ व्यवहारगत बदलाव दिखाती हैं, और वह बुनियादी मानवता बनाती हैं जो परमेश्वर द्वारा बचाए जाने वाले व्यक्ति में होनी चाहिए। ईमानदारी, समर्पण, पीछे मुड़ जाने की काबिलियत, वफादारी—किसी की मानवता में ये चीजें होनी चाहिए। बेशक इसमें जमीर और विवेक भी शामिल हैं; परमेश्वर तुम्हारे ऊपर अपना न्याय और ताड़ना का कार्य करे इससे पहले तुममें ये गुण होने चाहिए। एक बार जब कोई इन चारों शर्तों—कर्तव्य का समुचित निर्वहन, समर्पण की मानसिकता, मूल रूप से ईमानदार होना, और एक प्रायश्चित्तपूर्ण हृदय रखना—को पूरा कर ले, तो उस व्यक्ति पर परमेश्वर न्याय और ताड़ना का अपना कार्य शुरू कर देगा।
अब तुम सबके मन में इस बारे में कोई अवधारणा होनी चाहिए कि परमेश्वर लोगों पर खास तौर पर किस तरह से न्याय और ताड़ना का कार्य करता है। मिसाल के तौर पर, दुष्टता को लेकर लोग अक्सर परमेश्वर को परखते हैं, बेवजह उसकी पड़ताल करना चाहते हैं, और परमेश्वर के वचनों के बारे में संदेह, आशंकाएँ और सवाल पालते हैं। हमेशा जानने की चाह में वे कयास लगाते रहते हैं कि लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया सचमुच में क्या है। क्या यह दुष्टता नहीं है? क्या फिलहाल लोगों को मालूम है कि उनकी कौन-सी दशा या व्यवहार इस प्रकार का स्वभाव दर्शाता है? लोगों के मन में यह स्पष्ट नहीं है। तुम्हारे न्याय और ताड़ना के दौरान परमेश्वर तुम्हें खुलकर अपना और अपनी विभिन्न दशाओं का भेद खोलने देगा ताकि तुम अपने मन में उनके बारे में स्पष्टता पा सको। बेशक, अपना भेद खोलते समय, तुम शायद बहुत शर्मिंदा महसूस न करो; कम-से-कम यह तुम्हें ये जानने देगा कि परमेश्वर तुम्हारा न्याय कर तुम्हें ताड़ना क्यों दे रहा है। तुम समझ लोगे कि परमेश्वर के न्याय के वचन और उसके द्वारा उजागर किया जाना तथ्यात्मक है, और तुम पूरी तरह आश्वस्त हो जाओगे और समझ लोगे कि वे बिना किसी अपवाद के सही हैं। फिर, यह तुम्हारे मन में स्पष्ट हो जाएगा कि ये तमाम चीजें वही हैं जो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं; ये सिर्फ व्यवहार या क्षणिक खुलासे नहीं हैं, बल्कि तुम्हारा स्वभाव हैं। फिर, परमेश्वर के अपना न्याय और ताड़ना का कार्य करने के दौरान तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण निरंतर प्रकट किए जाओगे और तुम्हारी काट-छाँट होगी, जिससे तुम कष्ट झेलोगे और शोधन से गुजरोगे। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के प्रति शक्की होना दुष्टता की अभिव्यक्ति है। लोग अक्सर परमेश्वर पर शक करते हैं, मगर उन्हें कभी एहसास नहीं होता कि यह दुष्टता है; यह समस्या दूर की जानी चाहिए। जब परमेश्वर तुम्हारा न्याय कर तुम्हें ताड़ना देता है, तो अगर तुम परमेश्वर पर शक करते हो, तो वह तुम्हें यह बता देगा कि यह दुष्टता है। तुम दुष्ट स्वभाव में जीते हो, और जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो, उससे पेश आने, अपने परमेश्वर से होड़ लगाने, और अपने परमेश्वर पर शक करने के लिए उस दुष्ट स्वभाव का प्रयोग करते हो—और तुम्हारे हृदय में वेदना होगी। तुम ऐसा नहीं करना चाहते, मगर तुम मजबूर हो। चूँकि तुममें यह भ्रष्ट स्वभाव है, परमेश्वर तुम्हारा शोधन करने के लिए हालात व्यवस्थित करेगा, और तुमसे अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ, अपनी तार्किक सोच, और अपने विचार और नजरिये अनजाने ही छुड़वा देगा। उस मुकाम पर, तुम कष्ट झेलोगे; यह सच्चा शोधन है, और इस भ्रष्ट स्वभाव के कारण ही तुम्हारा शोधन होगा। यह शोधन कैसे होता है? अगर तुम सोचते हो कि यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, मानते हो कि तुममें ऐसी कोई अभिव्यक्तियाँ या दशाएँ नहीं हैं, तुम वैसे व्यक्ति नहीं हो, और तुम्हें लगता है कि भ्रष्ट स्वभाव का यह पहलू तुम्हारे भीतर मौजूद नहीं है, तो जब परमेश्वर तुम्हारा न्याय करेगा, तो क्या तुम्हारा शोधन होगा? (नहीं।) जब तुम मान लेते हो कि तुमने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, जानते हो कि परमेश्वर ने तुम्हारा न्याय किया है, और देखते हो कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव उसके न्याय के लायक है, मगर फिर भी उचित ठहरा कर उस भ्रष्ट स्वभाव में ही जीते रहते हो, मुक्त नहीं हो पाते—इसी तरह से शोधन होता है। तुम जानते हो कि परमेश्वर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को नापसंद करता है, उससे घृणा करता है, तुम परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने से कोसों दूर हो; साफ तौर पर जानते हो कि तुम गलत हो, और परमेश्वर सही है, मगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, न ही परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर सकते हो—तब उस पल तुम्हारी पीड़ा उभरती है। क्या तुम लोगों को अब ऐसी पीड़ा है? (नहीं।) तो कम-से-कम तुम लोगों ने अपने भ्रष्ट स्वभाव को लेकर शोधन नहीं सहा है; तुम गलतियाँ या अपराध करने पर उलाहना दिए जाने और अनुशासित किए जाने से बस थोड़ी पीड़ा महसूस करते हो, लेकिन यह बिल्कुल भी शोधन नहीं है। मान लो कि तुम लोग ऐसे जीवन में प्रवेश कर सकते हो, ऐसे पथ पर कदम रख सकते हो, और कहते हो : “मैं अब स्नेह या हैसियत का दुख नहीं सह रहा हूँ, बल्कि सचमुच में शोधन झेल रहा हूँ। मुझे एहसास हो गया है कि मैं सचमुच में परमेश्वर से बेमेल हूँ, मेरे भ्रष्ट स्वभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं, और मैं इसे झटक नहीं सकता हूँ। परमेश्वर को मेरा शोधन कर मुझे उजागर करने दो।” जब तुम ऐसी दशा में जीते हो, तो तुम बचाए जाने के पथ पर हो। अब ऐसा कहकर तुम सब उस दिन के आगमन के लिए तरस रहे हो और उसकी बाट जोह रहे हो, लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वास्तव में तुम लोगों में से कितनों को इतने आशीष मिलेंगे कि तुम ऐसे व्यवहार का आनंद ले सको। यह बड़ी शानदार बात है और एक बहुत बड़ा आशीष है। बचाया जाना आसान नहीं है। यदि सृष्टिकर्ता की दृष्टि में सचमुच तुम्हारा कोई मूल्य है, वह तुम्हें चुनता है और अपना अनुयायी बनने देता है, तो यह तुम्हें बचाए जाने की दिशा में सिर्फ एक पहला कदम है। यदि सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम्हारा मूल्य है, और वह कहता है कि तुम उसका न्याय और ताड़ना प्राप्त करने के योग्य हो, तो यह दूसरा कदम है। यदि तुम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से उबर सको, ऐसी दशा में पहुँच सको जहाँ तुम्हारा स्वभाव बदल जाए, और तुम सृष्टिकर्ता के अनुकूल हो जाओ, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के पथ पर चलने लगो, तो यह अंतिम परिणाम है। अब, तुम सब में से किसे इतने आशीष मिलेंगे कि तुम उस दिन तक पहुँच जाओ, किसे ऐसा उद्धार प्राप्त करने का आशीष प्राप्त होगा? क्या यह किसी के रंग-रूप से पहचाना जा सकता है? किसी की काबिलियत से? किसी के शिक्षा स्तर से? (नहीं पहचाना जा सकता।) क्या यह इससे तय हो सकेगा कि कोई अभी कौन-से कर्तव्य निभाता है? या उस परिवार से तय हो सकेगा जिसमें वह पैदा हुआ है? इनमें से कोई भी घटक इसका खुलासा नहीं कर सकते। कुछ लोग कहते हैं, “मेरे परिवार ने तीन पीढ़ियों से प्रभु में विश्वास रखा है; मैंने अपनी माँ की कोख में था, तबसे ही विश्वास करने लगा था, इसलिए मुझे तो यकीनन बचाया जाएगा।” ये मूर्खतापूर्ण और बेहद अज्ञानी बातें हैं; परमेश्वर ऐसी चीजों पर गौर नहीं करता। फरीसियों ने परमेश्वर में कई पीढ़ियों तक विश्वास किया, और अब उनका क्या हश्र हुआ है? परमेश्वर उन्हें अपने अनुयायियों के रूप में नहीं चाहता; उन्हें पूरी तरह से निकाल दिया गया है; वे परमेश्वर के उद्धार कार्य से असंबद्ध हैं, और उसमें वे शामिल नहीं हैं।
कोई परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकता है या नहीं, इसका सीधा संबंध स्वभावगत परिवर्तन के अहम मसले से है। फिर भी लोग परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बारे में अनेक धारणाएँ रखने को प्रवृत्त होते हैं। इन मसलों को सुलझाने के लिए यह आवश्यक है कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य पर अक्सर संगति की जाए। यह सबसे जरूरी है। परमेश्वर लोगों का न्याय कर उन्हें ताड़ना क्यों देता है? मानवजाति किस हद तक भ्रष्ट हो चुकी है? न्याय और ताड़ना का उद्देश्य किन मसलों को सुलझाना है, और इनसे कैसे परिणाम हासिल होते हैं? वे कौन-से मानक हैं जिनकी मांग परमेश्वर लोगों से करता है? यदि ये सत्य समझे नहीं गए, तो किसी के लिए न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना आसान नहीं होगा; वे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ, और साथ ही विद्रोहशीलता और प्रतिरोध आसानी से विकसित कर लेंगे, और शायद वे परमेश्वर की ईशनिंदा भी करें और उसके प्रति शत्रुता दिखाएँ। परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है? परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को कौन स्वीकार कर सकता है? सत्य के अनुसरण और पूर्ण बनाए जाने के पथ पर कौन कदम रख सकता है? परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य से किसे निकाला जाएगा? यदि इन सत्यों पर स्पष्ट संगति की गई, तो क्या न्याय और ताड़ना के बारे में लोगों की धारणाएँ दूर नहीं हो जाएँगी? कम-से-कम, वे बुनियादी रूप में दूर हो जाएँगी—जो मसले बच जाएँगे उन्हें सिर्फ अपने अनुभव के जरिये ही दूर किया जा सकेगा; वे सहज ही तब दूर हो जाएँगी जब सत्य को समझ लिया जाएगा। कुछ लोग कहते हैं : “हमारे पापों को क्षमा कर दिया गया है, तो फिर हमें अभी भी न्याय और ताड़ना का अनुभव करने की जरूरत क्यों है?” पापों के लिए क्षमा किया जाना परमेश्वर का अनुग्रह है; यह लोगों को परमेश्वर के सामने आने योग्य बनाता है। मगर न्याय और ताड़ना का लक्ष्य लोगों को पाप और शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाना है; ये दोनों परस्पर विरोधात्मक नहीं हैं। अनुग्रह के युग में, परमेश्वर लोगों को छुटकारा दिलाता है, और उनके पापों को क्षमा करता है; राज्य के युग में, परमेश्वर लोगों का न्याय करता है और उनके भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध करता है। ये परमेश्वर के कार्य के दो चरण हैं। धर्म के अनेक हास्यास्पद लोग न्याय और ताड़ना को लेकर हमेशा धारणाएँ पालते हैं; वे इस वाक्यांश “पापों को क्षमा मिल जाने के बाद आस्था द्वारा धर्मी ठहराया जाता है,” से पूरी तरह चिपके रहते हैं, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने से साफ इनकार कर देते हैं। क्या किसी को ऐसे लोगों से बहस करनी चाहिए? अगर तुम लोगों का ऐसे लोगों से सामना हो, और अगर वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकार सकें, तो तुम उनके साथ सत्य पर संगति कर सकते हो, और उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुना सकते हो। अगर वे सत्य स्वीकार करने से साफ इनकार कर दें, तो उनके साथ माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है; वे बिल्कुल भी परमेश्वर के उद्धार के प्राप्तकर्ता नहीं हैं। परमेश्वर सिर्फ उन्हीं लोगों को बचाता है, जो उसके वचनों और सत्य को स्वीकार कर सकते हैं; जो लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं सकते, परमेश्वर उन्हें बिल्कुल नहीं बचाएगा। जो लोग सत्य को स्वीकार सकते हैं, वे अपनी धारणाओं को आसानी से दूर कर सकते हैं, चाहे वे जितनी भी हों; उन्हें बस परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने और सत्य को और ज्यादा खोजने की जरूरत है। जो लोग सत्य को स्वीकार सकते हैं, वे मानवता वाले होते हैं और उनमें जमीर और विवेक होता है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने से पहले लोग अपने मन में बहुत-सी धारणाएँ और अनेक गलत विचार और साथ ही कुछ नकारात्मक दशाएँ विकसित कर लेंगे। सबसे ज्यादा आम नकारात्मक स्थिति है, “मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है और अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है; इन सभी चीजों में परमेश्वर को मेरी रक्षा कर मुझे आशीष देने चाहिए। मुझ पर विपत्तियाँ क्यों टूट पड़ी हैं?” यह सबसे सामान्य दशा है। एक और किस्म की दशा भी होती है : दूसरों को अच्छे हालत में जीते हुए, मजे लेते हुए देखकर, और खुद को मुश्किलों और गरीबी में जीता हुआ पाकर वे परमेश्वर के अधर्मी होने की शिकायत करते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि वे दूसरों को अपने कर्तव्य निर्वहन में बेहतर परिणाम पाते हुए देखें, और वे ईर्ष्यालु और निराश हो जाएँ। वे तब भी निराश हो जाते हैं जब दूसरों के परिवार सद्भाव के साथ मिल-जुल कर रहते हों, दूसरों की काबिलियत उनसे ऊँची हो, उनका अपना कर्तव्य निर्वहन थका देने वाला हो, या कोई चीज उनके मन मुताबिक न हो। संक्षेप में कहें, तो वे ऐसे हर हालात में निराश हो जाते हैं, जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होते। अगर इस व्यक्ति में कोई काबिलियत है, और वह सत्य स्वीकार सकता है, तो उसकी मदद की जानी चाहिए। अगर ऐसे लोग सत्य समझते हैं, तो उनकी निराशा का मसला आसानी से दूर किया जा सकता है। अगर वे सत्य नहीं खोजते और निराश बने रहते हैं, हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पाले रहते हैं, तो परमेश्वर उन्हें किनारे कर देगा और उन पर कोई ध्यान नहीं देगा, क्योंकि पवित्र आत्मा फालतू काम नहीं करता। ऐसे लोग अत्यंत दुराग्रही होते हैं, सत्य को स्वीकार नहीं करते, हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालते हैं, और हमेशा अपनी माँगें रखते हैं; इसमें समझ का अत्यधिक अभाव है और इसके कारण वे बात समझ नहीं पाते। वे सत्य समझ सकते हैं, मगर उसे स्वीकार नहीं करते। क्या यह कुछ हद तक जानबूझकर अपराध करने जैसा नहीं है? इसलिए परमेश्वर उन पर ध्यान नहीं देता है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं अक्सर निराश रहता हूँ, और परमेश्वर मेरी अनदेखी करता है। इसका मतलब है कि परमेश्वर मुझसे प्यार नहीं करता!” ऐसा कथन बेतुका है। क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर किससे प्यार करता है? क्या तुम्हें पता है कि परमेश्वर का प्रेम कैसे प्रदर्शित होता है? क्या तुम्हें मालूम है कि परमेश्वर किससे प्रेम नहीं करता और किसे अनुशासित करता है? परमेश्वर के प्रेम के सिद्धांत हैं; यह वैसा नहीं है जैसे लोग कल्पना करते हैं, निरंतर लोगों को झेलना और उन्हें कृपा और अनुग्रह दिखाना, वे चाहे जो भी हों उन सबको बचाना, चाहे जो भी पाप किए हों उन सबको क्षमा कर देना, और आखिरकार बिना किसी को छोड़े सभी को परमेश्वर के राज्य में ले आना। क्या ये सब महज लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? अगर ऐसा होता तो परमेश्वर को न्याय कार्य करने की जरूरत ही नहीं होगी। परमेश्वर अक्सर निराश रहने वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, उसके सिद्धांत हैं। जब लोग निरंतर निराश रहते हैं, तो इसमें एक समस्या है। परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है, बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं, और अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखता है, तो परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य समझने के बाद उसके भीतर की नकारात्मक चीजें निरंतर कम होती जाएँगी। अगर लोग हमेशा निराश रहते हैं, तो यह निश्चित है कि वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और इसलिए जैसे ही वे अपनी धारणाओं के विपरीत किसी चीज का सामना करेंगे, वे निराश हो जाएँगे। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य क्यों नहीं खोजते? वे सत्य को स्वीकार क्यों नहीं करते? निश्चित रूप से इसलिए क्योंकि उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं, और यही नहीं वे कभी भी सत्य नहीं खोजते। तो जब वे सत्य के साथ इस तरह से पेश आते हैं, तो क्या परमेश्वर अब भी उन पर ध्यान देगा? क्या ऐसे लोग तर्क के लिए अभेद्य नहीं होते हैं? जो लोग तर्क के लिए अभेद्य होते हैं उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? वह उन्हें त्याग देता है और उनकी अनदेखी करता है। तुम जिस भी तरह से चाहो विश्वास रखो; तुम विश्वास रखोगे या नहीं यह तुम पर है; अगर तुम सच में विश्वास रखते हो, और सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम सत्य प्राप्त करोगे; यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, तो तुम इसे प्राप्त नहीं करोगे। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति से उचित ढंग से पेश आता है। यदि तुम्हारे भीतर सत्य की स्वीकृति का रवैया नहीं है, यदि तुम आज्ञाकारिता का रवैया नहीं रखते, यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास नहीं करते हो, तो तुम जैसे चाहे विश्वास रख सकते हो; साथ ही यदि तुम छोड़ देना चाहो, तो फौरन ऐसा कर सकते हो। यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हो, तो परमेश्वर का घर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा; तुम जहाँ भी चाहो जा सकते हो। परमेश्वर ऐसे लोगों से रुकने का आग्रह नहीं करता। यह उसका रवैया है। तुम साफ तौर पर एक सृजित प्राणी हो, फिर भी तुम कभी भी एक सृजित प्राणी नहीं बनना चाहते हो। तुम हमेशा प्रधान देवदूत बनना चाहते हो, परमेश्वर को समर्पित होने की इच्छा नहीं रखते, और हमेशा परमेश्वर के बराबर स्थान पर रहना चाहते हो। यह परमेश्वर का अंधाधुंध प्रतिरोध करना है; यह ऐसी चीज है जो परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करती है। जाहिर तौर पर तुम एक साधारण व्यक्ति हो, फिर भी तुम हमेशा विशेष व्यवहार चाहते हो, हैसियत पाना चाहते हो, और कुछ खास बनना चाहते हो, हर तरह से दूसरों से बेहतर बनना चाहते हो, महान आशीष पाना चाहते हो और सभी को पीछे छोड़ देना चाहते हो। यह समझ का अभाव दिखाता है। जिन लोगों में समझ का अभाव होता है उन्हें परमेश्वर किस दृष्टि से देखता है? परमेश्वर उनका आकलन कैसे करता है? ऐसे लोग तर्क के परे होते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “यदि तुम कहते हो कि मैं तर्क के परे हूँ, तो मैं अब श्रम नहीं करूँगा!” तुमसे श्रम करने को किसने कहा? यदि तुम यह करने की इच्छा नहीं रखते, तो परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा; जल्दी करो, चले जाओ—परमेश्वर का घर तुम्हें नहीं रखेगा। भले ही तुम श्रम करने को तैयार हो, तो भी परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ हैं। यदि तुम्हारा श्रम मानक स्तर का नहीं है, और तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन से परमेश्वर के घर में अत्यधिक मुसीबतें आती हैं, इसके कारण फायदे से ज्यादा नुकसान होता है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें निश्चित रूप से निकाल देगा; भले ही तुम श्रम करना चाहो, परमेश्वर का घर तुम्हें नहीं चाहेगा। यदि लोग श्रम करने को तैयार हों, सत्य को स्वीकार सकें और काट-छाँट से गुजरना स्वीकार कर लें, तो वे परमेश्वर के घर में रहने के योग्य हैं। यदि वे सत्य का अनुसरण कर सकें, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकें, बचाए जा सकें और पूर्ण बनाए जा सकें, तो यह बहुत बड़ी आशीष है। यह मत सोचो कि परमेश्वर तुमसे फरियाद कर रहा है, और उसे तुम्हारा न्याय करने और तुम्हें ताड़ना देने की जरूरत है; परमेश्वर तुमसे फरियाद नहीं करेगा। परमेश्वर एक विशिष्ट लक्ष्य और सिद्धांतों के साथ लोगों को चुन कर उन्हें बचाता और पूर्ण बनाता है; परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सभी लोग उसके द्वारा बचाए नहीं जाएँगे—बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं। तुम्हें परमेश्वर के अनेक मानकों पर खरा उतरना पड़ेगा—समुचित रूप से अपना कर्तव्य निर्वहन करना, समर्पण की मानसिकता रखना, मूल रूप से ईमानदार होना, और प्रायश्चित्तपूर्ण हृदय रखना होगा—और तभी परमेश्वर औपचारिक रूप से तुम्हारा न्याय करना और तुम्हें ताड़ना देना शुरू करेगा, शुद्ध और पूर्ण बनाएगा। कुछ लोग कहते हैं : “न्याय और ताड़ना का अनुभव करने का अर्थ है कष्ट झेलना!” भले ही यह सच है कि तुम कष्ट सहोगे, लेकिन फिर भी तुम्हें इसके योग्य होना होगा। यदि तुम योग्य नहीं हो तो तुम कष्ट सहने के भी योग्य नहीं हो! क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर का कार्य और उसका लोगों को पूर्ण बनाना इतनी सरल बात है? जो लोग न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं करते, या जो न्याय और ताड़ना से दूर भागते हैं, उन्हें आखिरकार अपने सभी कृत्यों के लिए जिम्मेदार माना जाएगा। वह व्यक्ति चाहे जो हो, या परमेश्वर के प्रति उसका रवैया चाहे जो हो, यदि यह रवैया परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप न हो, तो परमेश्वर दखल नहीं देगा और उन्हें अपनी डगर जाने देगा। परमेश्वर के सभी वचन यहीं हैं; यदि तुम उसके कहे मुताबिक कर सकते हो, तो करो। यदि तुम करने को तैयार हो तो करो। अगर तुम करने को तैयार नहीं हो या नहीं कर सकते, तो परमेश्वर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा। क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर तुमसे फरियाद करेगा? क्या तुम सोचते हो कि परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करेगा? आश्वस्त रहो, परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। परमेश्वर कहेगा : “यदि तुम्हें सत्य स्वीकारना पसंद नहीं, यदि तुम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से विमुख हो, तो ठीक है। तुम थोड़े अनुग्रह का पहले ही आनंद ले चुके हो, तो दुनिया में वापस चले जाओ, जल्दी करो, चले जाओ; तुमसे जबरदस्ती नहीं की जाएगी। तुम स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद लेने के योग्य नहीं हो, और तुम चाहकर भी इन्हें हासिल नहीं कर सकते।” इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर लोगों को अपना न्याय और ताड़ना स्वीकार करने पर मजबूर नहीं करता? इसका अर्थ है कि यदि लोग परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं करते हैं, तो परमेश्वर न उन्हें अनुशासित करता है न ताड़ना देता है, न याद दिलाता है न प्रोत्साहित करता है; पवित्र आत्मा से कोई प्रबुद्धता या प्रकाश प्राप्त नहीं होगा। ऊपर से तो ये लोग बड़े आराम से जीते हुए लगते हैं। उन्हें इस बात के लिए अनुशासित नहीं किया जाता है कि उन्होंने अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाया है, काम में वे नकारात्मक तरीके से ढिलाई बरतते हैं, या वे यूँ ही परमेश्वर की आलोचना करते हैं। परमेश्वर को गलत समझने पर, उसके खिलाफ शिकायत करने पर, उसका प्रतिरोध करने पर वे अपने दिलों में कुछ भी महसूस नहीं करते, जब तक कि वे चढ़ावे की चोरी या दुरुपयोग करने जैसी बड़ी बुराई नहीं करते हैं, फिर भी वे अनजान बने रहते हैं। ऐसे बड़े दुष्कर्म करने वाले लोग सालोंसाल आत्मचिंतन किए बिना, थोड़ा-सा भी प्रायश्चित्त किए बिना, ऐसे किसी पूर्वानुमान के बिना जीते रहते हैं कि आगे उन्हें कौन-सा दंड या परिणाम मिलने वाला है। एक सामान्य व्यक्ति को किसी-न-किसी प्रकार का पूर्वानुमान होना चाहिए, लेकिन उन्हें नहीं होता क्योंकि परमेश्वर उनके भीतर कुछ भी नहीं करता है। परमेश्वर की निष्क्रियता एक प्रकार का रवैया है। यह क्या दर्शाती है? क्या तुम लोग कल्पना कर सकते हो कि परमेश्वर दिल में क्या सोच रहा है? उसने ऐसे लोगों को पूरी तरह से छोड़ दिया है। परमेश्वर ऐसे लोगों को क्यों छोड़ देता है? वह ऐसे लोगों से घृणा करता है; वे किसी पंख से, किसी चींटी से भी ज्यादा तुच्छ हैं; वे जिक्र के लायक ही नहीं हैं, और उनके परिणाम का फैसला ऐसे होता है। ऐसा व्यक्ति जब किसी दिन कहता है, “मैं परमेश्वर का एक सृजित प्राणी बनना चाहता हूँ, मैं तुम्हें अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार करता हूँ,” तो क्या परमेश्वर उसे चाहेगा? परमेश्वर नहीं चाहेगा। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे खेद है, मैं अब वापस लौट रहा हूँ।” क्या उनके लिए बहुत देर हो चुकी है? बहुत देर हो चुकी है। चूँकि उनकी प्रकृति एक दानव की है और कभी नहीं बदलने वाली, इसलिए परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। उन्हें चाहे जितना भी पछतावा हो, वे चाहे जितनी भी बुरी तरह रोएँ, क्या वे बदल सकेंगे? क्या वे सचमुच प्रायश्चित्त कर सकेंगे? बिल्कुल नहीं। इसलिए चाहे तुम सत्य का अनुसरण करो या न करो, अगर तुम परमेश्वर में सच्चाई से विश्वास रखते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों को समझना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के चढ़ावे पर बिल्कुल नजर नहीं रखनी चाहिए; उसे चुराने या इस्तेमाल करने के बारे में सोचना भी अस्वीकार्य है। ऐसा कृत्य करते ही तुम बहुत बड़ी तबाही लाओगे, जिससे तुम्हारा परिणाम प्रभावित होगा। एक बार तुम्हारा परिणाम तय हो जाने के बाद, पुरानी बातें सोचना कि परमेश्वर ने क्या कहा या परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और फिर पछतावा करना बेकार होगा। फिलहाल परमेश्वर का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन कुछ लोगों के परिणाम तय हो चुके हैं। परमेश्वर ने इस मामले की घोषणा नहीं की है, न ही उसने किसी को बताया है। ये लोग अभी भी सोचते हैं कि वे अच्छा कर रहे हैं, अभी भी अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हैं। उनके दरवाजे पर मौत दस्तक दे रही है, पर वे इससे पूरी तरह अनजान हैं; ये ऐसे लोगों का जत्था हैं, जो भ्रमित हैं और किसी काम के नहीं हैं।
मैं दो और मामलों के साथ आगे बढ़ूँगा। पिछले मामले में एक पुरुष की चर्चा हुई थी, जबकि इन दो मामलों में दोनों मुख्य किरदार दो महिला अगुआ हैं। इस पदवी को सुनकर कोई भी यह तुरंत समझ सकता है कि उनकी हैसियत कम नहीं है; फिर भी ऐसी हैसियत के लोग बड़े दुष्कर्म कर सकते हैं। इनमें से एक महिला का एक अविश्वासी से मेल-जोल था जिसका व्यापार अपर्याप्त पूँजी के कारण डूबने की कगार पर था। चूँकि यह महिला कलीसिया में एक अगुआ के तौर पर काम करती थी और वित्तीय संसाधनों पर उसका नियंत्रण था, इसलिए अविश्वासी ने उससे ऋण लेने के लिए कहा। ऊपर वालों से पूछे बिना वह महिला अपने आप ही उसे हजारों हजार युआन का ऋण देने को राजी हो गई। लोगों का पैसा हो तो ऋण दिया जा सकता है, मगर परमेश्वर का धन एक चढ़ावा है, और परमेश्वर के चढ़ावे को छूने वाले किसी भी व्यक्ति को दंड का भागी होना ही पड़ेगा। उसने निजी रूप से चढ़ावे का गबन कर लिया, और वह राशि कुछ कम नहीं थी। गबन के बाद, कलीसिया ने उसके खिलाफ कार्रवाई की, धन चुकाने के लिए उससे काम करने की अपेक्षा की। इस तरह से कलीसिया ने इस मामले को संभाला; यह एक मानवीय तरीका था। वह धन चुकता कर पाई और बाहर से एक अच्छे रवैये वाली महिला दिखाई पड़ती थी। क्या यह दर्शाता है कि उसने खुद को परिवर्तित कर लिया? (नहीं।) उसके कृत्य बहुत दुस्साहसी थे, किसी बेपरवाह बेवकूफ के जैसे, जो उसके स्वभाव और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये का संकेत देते थे। क्या वह सत्य शुद्ध रूप में ग्रहण कर सकेगी? क्या वह विवेकपूर्ण ढंग से कार्य कर पाएगी? उसने परमेश्वर के चढ़ावे को अपना ही पैसा मानकर उससे हेराफेरी करने की हिमाकत की। परमेश्वर ने यह निर्देश नहीं दिया कि निधियों का आवंटन कैसे करें या यह नहीं बताया कि उसे नहीं छूना है, उस महिला के दिल में न कोई सिद्धांत थे न ही कोई सीमाएँ। उसका मानना था कि एक अगुआ के तौर पर उसके पास इस धन के नियंत्रण का अधिकार है, और उसने उसका गबन करने की हिम्मत की। गबन के बाद, परमेश्वर ने इस मामले को कैसे संभाला? परमेश्वर को कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ी; कलीसिया ने उसे दंड दे दिया। सिर्फ इन हजारों हजार युआन ने उसका परिणाम तय कर दिया : उसे परमेश्वर ने हमेशा के लिए अलग कर त्याग दिया। परमेश्वर ऐसा क्यों करेगा? यह परमेश्वर का क्रोध दर्शाता है; बेशक, यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पहलू भी है। परमेश्वर कोई अपमान सहन नहीं करता; यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, तो तुम एक सीमा लांघ देते हो। क्या यह प्रशासनिक आदेशों में अनुबद्ध है? (हाँ।) परमेश्वर के चुने हुए लोग इस बारे में स्पष्ट हैं : चढ़ावे का गबन करना परमेश्वर के स्वभाव का अपमान है। जब इस महिला ने चढ़ावे का गबन किया तो क्या परमेश्वर ने दखल दिया? परमेश्वर ने दखल नहीं दिया, उसे नहीं रोका, और उसने कुछ भी नहीं कहा; न ही उसने यह करते समय उसे प्रतिबंधित किया, डांटा या चेतावनी दी—पैसा बस यूँ ही ऋण के रूप में दे दिया गया। मामला उजागर होने से पहले वह अपने आप से बहुत खुश थी, और कलीसिया ने उसे संभाला। वह रोने और सुबकने लगी और फिर तुरंत पैसा चुकाने के लिए काम करने लगी। दरअसल, क्या परमेश्वर को पैसे की ही परवाह थी? नहीं; उसे जिसकी परवाह थी वह पैसा नहीं था, बल्कि इस मामले में उस महिला की रवैये की परवाह थी जो उसने उसके सामने प्रकट किया। परमेश्वर को इस बात की परवाह थी। धन के ही कारण परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करना—क्या यह मृत्यु के लायक नहीं है? इसे कहा जाता है जैसा करोगे वैसा भरोगे! यदि तुम थोड़े निराश या कमजोर हो, या अपना कर्तव्य निभाते समय कभी-कभी कुछ मिलावटें लिए रहते हो, या कभी-कभी किसी खास हैसियत के स्थान पर खड़े रहते हो और उसके लाभों का मजा लेते हो, तो परमेश्वर इसे भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटन मानता है। लेकिन जब तुम परमेश्वर से पूछे बिना उसके चढ़ावे से हेराफेरी करते हो, या उसकी अनुमति लिए बिना उसका दुरुपयोग करते हो, तो यह किस प्रकार की समस्या है? यह चढ़ावे को चुराना है। यह किस प्रकार का स्वभाव दर्शाता है? यह प्रधान देवदूत का स्वभाव है, शैतान का स्वभाव। क्या परमेश्वर के चढ़ावे को चुराना विश्वासघात नहीं है? (जरूर है।) शैतान ने ऐसा क्या किया था जिसे परमेश्वर ने विश्वासघात माना? (उसने परमेश्वर बनने का प्रयास किया।) जहाँ तक उस महिला की बात है जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, वह परमेश्वर के चढ़ावे पर नियंत्रण करना चाहती थी। वह अपने आपको क्या समझती थी? (वह सोचती थी कि वह परमेश्वर है।) वह खुद को वास्तव में परमेश्वर के रूप में देखती थी, और यही उसकी गलती थी। इसीलिए हम कहते हैं कि उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया था। क्या इसकी प्रकृति गंभीर है? (हाँ।) क्या हमारा चरित्र चित्रण सही है? (बिल्कुल सही है।) उसका अब कोई परिणाम नहीं है। उसका कोई परिणाम नहीं है—अब ऐसा ही दिखाई देता है। परमेश्वर की परिभाषा के संदर्भ में, वह बाद में जो दंड भुगतेगी उसके संदर्भ में, ये सब भविष्य के मामले हैं। यह है पहली महिला की कहानी। वह सचमुच दुस्साहसी थी, अपने ऊपर वालों और नीचे वालों को धोखा देने में समर्थ थी, परिणामों का विचार किए बिना बेपरवाही से काम करती थी, बेवकूफ और ढीठ दोनों ही थी। क्या उसमें समर्पण या खोजने की जरा भी आकांक्षा थी? (नहीं।) वह किसी की भी सहमति या किसी से भी चर्चा या संगति किए बिना परमेश्वर के चढ़ावे, परमेश्वर की संपत्ति पर नियंत्रण करना चाहती थी। उसने इस मामले को खुद अकेले ही संभालने का बीड़ा उठाया, और उसके ये परिणाम हुए। कुछ लोग कह सकते हैं : “क्या सिर्फ परमेश्वर के चढ़ावे को छूने का अर्थ है कि कोई उसके स्वभाव को अपमानित कर रहा है?” क्या ऐसा है? नहीं। परमेश्वर के चढ़ावे के आवंटन के लिए कलीसिया में कुछ सिद्धांत हैं, और यदि तुम इन सिद्धांतों के अनुसार काम करते हो, तो परमेश्वर दखल नहीं देगा। अगर तुम्हारे पास सिद्धांत हैं, फिर भी तुम उनका पालन नहीं करते हो, बल्कि बेपरवाही से और अपनी ही मर्जी से काम करने पर अड़े रहते हो, इन मामलों को खुद निजी तौर पर संभालना चाहते हो, तो तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर रहे हो। यही है इस पहली महिला की कहानी।
दूसरी महिला अगुआ की कहानी भी चढ़ावे से संबंधित है। कहानी यह रही : कलीसिया ने एक आराधना स्थल के रूप में प्रयोग करने के लिए एक मकान खरीदा, जिसे थोड़े नवीकरण की जरूरत थी। नवीकरण में डिजाइन बनाना और सामान खरीदना होता है, जिसमें पैसे लगते हैं। चूँकि यह परमेश्वर के घर का कार्य है, परमेश्वर के प्रबंधन से संबंधित है, इसलिए खर्च किया गया पैसा भी स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के घर का है, और यह परमेश्वर का चढ़ावा है। इस पैसे का परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार तर्कसंगत, वैध और उचित ढंग से इस्तेमाल किया जाता है। उस वक्त यह महिला एक अगुआ थी और इस परियोजना की जिम्मेदारी उसकी थी। उसने परियोजना की देखरेख के लिए एक नए विश्वासी को चुना, जिससे कोई परिचित नहीं था। यह व्यक्ति एक अविश्वासी जैसा था। बाद में, उस महिला ने इस अविश्वासी के साथ सांठ-गांठ की, अनेक उच्च स्तर का कीमती सामान खरीद लिया और बहुत फिजूलखर्ची की। क्या यह परमेश्वर के घर के पैसे का गबन नहीं है? यह परमेश्वर के चढ़ावे के साथ ठगी करना और उसे लुटाना है! इस अविश्वासी ने इससे काफी पैसा बनाया। क्या इस काम का उस महिला से कोई लेना-देना था? (हाँ।) उसने इसे सुगम बनाया, अविश्वासी को ऐसा काम करने दिया। जब किसी को इस बात का पता चला और उसने इसकी रिपोर्ट करनी चाही, तो उस महिला ने प्रबलता से उसे अवरुद्ध किया और उसे धमकी दी। उसने परमेश्वर के घर के हितों को धोखा दिया, उन्हें हानि पहुंचाई और चढ़ावे का भी बहुत ज्यादा नुकसान करवाया। इस दौरान क्या परमेश्वर ने उसे डांटा-फटकारा? (नहीं।) वह महिला अवगत नहीं थी। हम कैसे कह सकते हैं कि वह अवगत नहीं थी? कुछ तथ्य हैं जो यह साबित करते हैं; वह साफ तौर पर देख सकती थी कि अविश्वासी शुरू से क्या करने की योजना बना रहा था, मगर उसने उसे नहीं रोका, बल्कि उसे बढ़ावा देती रही और चुपचाप उसे अनुमोदित करती रही या, लगातार उसमें पैसे उंड़ेलती रही। नतीजतन, लागत खूब बढ़ गई, और अंतिम कार्य घटिया था। उसने इसे साफ तौर पर देखा, फिर भी और पैसा डुबाती रही। क्या तब परमेश्वर ने कुछ किया? नहीं किया। इस मामले को लेकर लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ क्या हैं? लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को अपने पैसे को लेकर जिम्मेदार होना चाहिए और उसे उस महिला को रोकना चाहिए था। यह एक इंसानी धारणा है, लेकिन परमेश्वर ने इस तरह कार्य नहीं किया। नवीकरण के पूरे होने और जाँच-पड़ताल के बाद परमेश्वर के घर ने पाया कि ज्यादातर चढ़ावे गायब थे। इस महिला के साथ क्या किया जाना चाहिए? परमेश्वर ने कुछ नहीं किया; कलीसिया ने उसे संभाला और दूसरी महिला ने पैसा चुकाना शुरू किया। उसके कृत्यों की प्रकृति क्या थी? एक अगुआ के तौर पर वह न सिर्फ गैर-जिम्मेदार थी, और चढ़ावे के खर्च को रोकने में नाकाम रही बल्कि उसने परमेश्वर के घर को धोखा देने और परमेश्वर के चढ़ावे का गबन करने के लिए एक बाहर वाले के साथ सांठ-गांठ की। यह मामला पिछले वाले मामले से भी ज्यादा गंभीर है। तो परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे व्यक्ति का परिणाम क्या है? विनाश; उसे दंड दिया जाएगा या नहीं यह भविष्य की बात है। हो सकता है ऐसे व्यक्ति को किसी दिन परमेश्वर दुष्ट आत्माओं और गंदे दानवों के बसेरे में डाल दे, इस जीवन में उसका भौतिक शरीर नष्ट कर दिया जाए और उसकी आत्मा को गंदे दानव और दुष्ट आत्माएँ दूषित और अशुद्ध कर दें; जहाँ तक अगले जीवन की बात है, वह अभी काफी दूर की बात है। यही है परिणाम। ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर इस तरह से क्यों पेश आता है? क्योंकि उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया। परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के बाद क्या परमेश्वर उससे प्रेम कर सकेगा? न कोई प्रेम बाकी रहता है, न दया, और न ही प्रेमपूर्ण दयालुता—केवल क्रोध। उसके कृत्यों का जिक्र होने पर परमेश्वर उससे घृणा करता है। वह उससे इस हद तक क्यों घृणा करता है? इसलिए कि उसने सच्चे मार्ग के बारे में जानने के बावजूद जानबूझकर पाप किए। न केवल उसके लिए अब कोई पाप बलि नहीं है, बल्कि उसे परमेश्वर के क्रोध का दंड भी भुगतना होगा। कोई परिणाम, मंजिल, या उद्धार का मौका नहीं—उसके पास इनमें से कुछ भी नहीं है। परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने का यही अर्थ होता है; जब कोई परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करता है तो यही होता है।
मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करना आसान है? वास्तविकता में, इसके इतने ज्यादा अवसर नहीं होते, न ही ऐसी बहुत-सी स्थितियाँ होती हैं जहाँ यह हो सके। अवसर कम हैं, संभावनाएँ कम हैं; फिर भी लोग ऐसे विरले अवसरों और कम संभावनाओं के साथ भी परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कैसे कर लेते हैं? इन दोनों महिलाओं ने बीस से भी ज्यादा वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा था, अनेक वर्ष तक धर्मोपदेश सुने थे, और लंबे समय तक अगुआओं और कार्यकर्ताओं के तौर पर सेवा की थी। वे ऐसी गंभीर गलतियाँ कैसे कर सकीं? मानवता के परिप्रेक्ष्य से, उनमें मनावता, जमीर और तार्किकता नहीं थी; परमेश्वर में उनकी आस्था के परिप्रेक्ष्य से उनमें सच्ची आस्था नहीं थी, उनके हृदय में परमेश्वर नहीं था। उनके हृदय में परमेश्वर की यह अनुपस्थिति किस तरह अभिव्यक्त हुई थी? उनके कृत्यों में, भय की कोई भावना नहीं थी, कोई आधार रेखा नहीं थी; उन्होंने यह नहीं सोचा, “मेरे ऐसा करने के बाद मेरा क्या होगा? इसके नतीजे क्या होंगे? शायद लोग इस बारे में न जान पाएँ, लेकिन अगर परमेश्वर जान गया तो क्या होगा? मुझे इस मामले की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, क्योंकि इसका संबंध मेरे परिणाम से है।” उन्होंने इन चीजों के बारे में नहीं सोचा—क्या यह परेशानी की बात नहीं है? यदि उन्होंने इन चीजों के बारे में नहीं सोचा, तो क्या उनमें जमीर या विवेक था? (नहीं।) इस तरह वे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के काबिल थीं, ऐसी बड़ी गलतियाँ करने के काबिल थीं। यदि किसी में सामान्य इंसानी सोच हो, तो उनकी यह मानसिकता होगी; जब कोई ऋण लेना चाहे तो वे विचार करेंगे : “पैसे उधार लेने हैं? यह परमेश्वर का पैसा है। यदि मैं क्षण भर का सम्मान जीतने के लिए परमेश्वर के पैसे से उधार दे दूँ, और फिर वे वापस चुकता न कर सकें, तो? मैं इस पैसे की भरपाई कैसे करूँगी? मैं कर भी सकूँ, तो भी इस पैसे से ऋण देना कैसा व्यवहार है? क्या परमेश्वर के पैसे को ऐसे यूँ ही छुआ जा सकता है? उसे यूँ ही नहीं छुआ जा सकता; यदि मैंने छू लिया, तो इस कृत्य की प्रकृति क्या होगी?” ऐसे लोग इन चीजों के बारे में सोचेंगे और बस किसी के माँगने पर आवेग में आकर पैसे उधार नहीं दे देंगे। यदि वे इस पर विचार न करें, या करें भी तो उसके परिणामों पर विचार न करें, तो यह परमेश्वर के प्रति उनकी सोच के बारे में क्या बताता है? वे किस तरह विश्वास रखते हैं? वे बुनियादी तौर पर परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, जो कि भयावह है! चूँकि वे परमेश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर उनका परिणाम तय करेगा, और परमेश्वर उन पर इसका प्रतिकार करेगा; वे इससे नहीं डरते, वे प्रतिकार में विश्वास नहीं रखते। आम तौर पर, यदि किसी को पचास से साठ प्रतिशत आस्था है, तो वह सावधानी से कार्य करेगा और संयम दिखाएगा। यदि उसे तीस प्रतिशत आस्था है, तो वह भी थोड़ा संयम बरत सकता है, लेकिन एक बार अवसर सामने आने पर ऐसे लोग उसका लाभ उठाएँगे; या यदि अवसर कम हैं और पक्के नहीं हैं, तो वे खुद को थोड़ा संयमित और सीमित रख पाएँगे। हालाँकि जिनमें विश्वास का कोई तत्व नहीं है, वे हर तरह का बुरा काम करने की हिम्मत करेंगे, परिणामों के बारे में सोचे बिना लापरवाही से काम करेंगे; यह एक पशु जैसा व्यवहार है। ऊपर से तो वे इंसान लगते हैं, लेकिन वे जो करते हैं वह वो काम नहीं है जो इंसानों को करने चाहिए; कम-से-कम यह कहा जा सकता है कि वे पशु हैं, और ज्यादा गंभीरता से कहें, तो शायद वे गंदे दानव और दुष्ट आत्माएँ हैं, जो परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ करने और उसे बाधित करने के लिए आए हैं, जिन्हें परमेश्वर के कार्य को नाकाम करने में विशेषज्ञता प्राप्त है। क्या परमेश्वर का ऐसे लोगों का वर्गीकरण सही है? (हाँ।) यह बहुत सही है; परमेश्वर जो करता है उसमें कुछ गलत नहीं है, परमेश्वर का किया हर काम सटीक होता है। यही नहीं, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर द्वारा लोगों के परिणामों का निर्धारण, क्षण भर के कामकाज पर आधारित नहीं होता। ये दो महिलाएँ बीस वर्ष तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी किसी तरह यहाँ पहुँच गईं, इस तरह अपना परिणाम तय करवा लिया। ऐसा कैसे हुआ? यह रातोंरात नहीं हुआ। आस्था के उनके अनुसरण और उनके द्वारा चुने गए पथ के परिप्रेक्ष्य से, वे सत्य का अनुसरण करने वाली महिलाएँ नहीं थीं; यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि उन्हें सत्य में लेशमात्र भी रुचि नहीं थी। यदि उन्हें जरा भी रुचि रही होती, तो उनकी मानवता में बदलाव आ गया होता। और मानवता में ऐसे बदलाव से उन्हें क्या मिला होता? इसका अर्थ होता कि वे संयम से काम लेतीं और सीमाओं का पालन करतीं, आकलन के लिए एक मानक रखतीं और चीजों को एक सामान्य व्यक्ति के विवेक और विचार प्रक्रिया से मापतीं। यदि वे देखतीं कि अमुक काम को करना अनुचित है, तो वे नहीं करतीं। पर इन दो महिलाओं ने कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया; उनमें इस बुनियादी सीमा और सोचने के तरीके का भी अभाव था। वे कुछ भी करने की हिम्मत करती थीं, और इसी प्रकृति ने उन्हें तबाही और यहाँ तक कि उनकी मृत्यु की ओर धकेल दिया। यही कारण है कि परमेश्वर में विश्वास रखने की उनकी यात्रा इस प्रकार समाप्त हुई।
इन दो मामलों को सुनने के बाद, तुम लोगों के विचार क्या हैं? कुछ लोग कहते हैं : “आज मैंने बहुत पाया है। मैंने सर्वोच्च सत्य हासिल किया है, जो यह है कि परमेश्वर की चीजों को मत छुओ; यह ख्याल भी अपने दिल में न लाओ, उनसे छेड़छाड़ मत करो। यदि तुम उनसे छेड़छाड़ करोगे, तो इसका कोई अच्छा नतीजा नहीं निकलेगा।” क्या वास्तव में मामला यही है? क्या यही सत्य है? (नहीं।) जो बात मायने रखती है वह यह नहीं है कि तुम परमेश्वर की चीजों के साथ छेड़छाड़ करते हो या नहीं, बल्कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया है। यदि तुम परमेश्वर से डरते हो, उससे तुम्हें दहशत होती है, उसके अस्तित्व में सचमुच विश्वास रखते हो, और सच में अपने परिणाम पर विचार करते हो, तो ऐसी कुछ चीजें हैं जो तुम नहीं करोगे; तुम उनके बारे में सोचोगे भी नहीं। इसलिए तुम्हें ऐसे प्रलोभन का सामना नहीं करना पड़ेगा; तुम्हारे मन में कभी ऐसी बातें आएँगी ही नहीं। क्या दहशत लाभकारी है? दहशत बेकार है। जब ये दोनों महिलाएँ ये काम कर रही थीं, तो परमेश्वर क्या कर रहा था? परमेश्वर ने ये चीजें अपने ढंग से होने दीं, इन दो दानवों को—परमेश्वर से जरा भी भयभीत न होने वाले इन दो गैर-इंसानों को—शैतान के प्रलोभन में डाल दिया, ताकि वे पूरी तरह से प्रकट होकर नष्ट हो जाएँ। क्या यह परमेश्वर का रवैया नहीं है? यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है, और इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए! लोग दूसरों से निपटने और दूसरों से प्रतिकार के लिए इंसानी साधनों का प्रयोग करते हैं, बुराई के बदले बुराई करते हैं। लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं करता है; परमेश्वर की अपनी आधाररेखा, सिद्धांत, और उसके अपने तरीके होते हैं। जब परमेश्वर किसी का प्रतिकार करता है, तो वह यूँ करता है कि उन्हें कुछ महसूस नहीं होता; वे अवगत नहीं होते, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, मसला पहले ही सुलझाया जा चुका है। वर्षों बाद, बाद के कष्ट थोड़ा-थोड़ा करके उभरेंगे। परमेश्वर जब उस व्यक्ति से अपना अनुग्रह, आशीष, प्रबुद्धता, रोशनी और सामान्य मनुष्य से किया जाने वाला सारा व्यवहार छीन लेता है, उसके बाद वे पूरी तरह से अमानुषिक बन जाते हैं; परमेश्वर की दृष्टि में, वे अब एक सृजित प्राणी नहीं बल्कि एक जंगली जानवर हो जाते हैं, वे पूरी तरह से कुछ और बन जाते हैं। परमेश्वर कहते हैं : “वह भले और बुरे दोनों पर अपना सूर्य उदय करता है।” ये लोग अच्छे हैं या बुरे? वे इनमें से कुछ भी नहीं हैं। परमेश्वर की दृष्टि में, उसके अभिलेखों में इस प्रकार के लोग हटा दिए गए हैं; वे जा चुके हैं, वे गैर-मानव हैं। गैर-मानव की परिभाषा क्या है? (बर्बर, इंसानी लिबास में जानवर।) कुछ लोग उनसे ईर्ष्या भी कर सकते हैं, कह सकते हैं, “वे बाहर काम करके पैसे बनाते हैं, अविश्वासियों के साथ जीते हैं; उनका जीवन सुबह से शाम तक कर्तव्य निभाते हुए कलीसिया में कष्ट झेलने के मुकाबले बहुत ज्यादा आरामदेह है।” मैं तुम्हें बता दूँ, उनके दुखदाई दिन अभी आए नहीं हैं। यदि तुम उनसे जलते हो, तो उनका अनुकरण करने के लिए तुम्हारा स्वागत है; परमेश्वर का घर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता है। कष्ट बीमारी से होने वाली शारीरिक पीड़ा तक सीमित नहीं है; यदि किसी का अंदरूनी कष्ट किसी सीमा तक पहुँच जाता है तो उसे बयान नहीं किया जा सकता, जैसे कि किसी के मानस पर आघात, खास तौर से जब परमेश्वर ने दंड दिया हो—यह मौत से भी बदतर है, यह ज्यादा दुखदाई है; एक प्रकार की मानसिक व्यथा है। ये दोनों महिलाएँ ऐसी स्थिति में इसलिए पहुँच गईं क्योंकि उन्होंने अपने लापरवाह कृत्यों के जरिये परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया। लोगों की धारणाओं में, ऐसा लगता है कि लोग चाहे जो भी गलतियाँ करें या जो भी करें, अगर वे पाप-स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आ सकें तो परमेश्वर उन्हें क्षमा कर सकेगा; इससे यह सिद्ध होगा कि परमेश्वर का प्रेम अगाध है, वह मानवजाति से सचमुच प्यार करता है। यह एक इंसानी धारणा है, जो यह दर्शाती है कि परमेश्वर के बारे में लोगों की समझ बहुत सारी कल्पनाओं और बहुत अधिक इंसानी इच्छा से पटी पड़ी है। यदि परमेश्वर इंसानी धारणाओं से परिसीमित होता, तो उसके कार्य बिना किसी सिद्धांत के होते, और परमेश्वर का कोई स्वभाव नहीं होता; ऐसा परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है। चूँकि परमेश्वर सचमुच अस्तित्व में है, जीवित और जीवंत है, और अकाट्य और ठोस रूप में वास्तविक है, ठीक इसलिए उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। उसके विभिन्न कार्यों और लोगों के प्रति रवैयों में ये अभिव्यक्तियाँ स्पष्ट हैं, और ये उसके सच्चे अस्तित्व के प्रमाण के रूप में मौजूद हैं। कुछ लोग कहते हैं : “ये लोग खुद नहीं जानते कि कब इनसे निपटा जाता है, तो हम परमेश्वर का अस्तित्व कैसे देख सकते हैं?” सिर्फ जिन मामलों का मैंने जिक्र किया है, वे लोगों को देखने देते हैं कि परमेश्वर का रवैया और स्वभाव क्या है, और साथ ही चीजें करने और लोगों से सलूक के परमेश्वर के सिद्धांत क्या हैं। क्या यह परमेश्वर के वास्तविक अस्तित्व का प्रमाण नहीं है? (बिल्कुल।) यदि यह परमेश्वर अस्तित्व में न हो, यदि वह वास्तव में हवा ही हो, तो वह जो कुछ भी करेगा, बिना किसी सिद्धांत या सीमा के होगा; इसका पता नहीं चल पाएगा, यह अस्पृश्य और खोखला होगा, लोगों के जीवन में लागू नहीं किया गया होगा, लोगों के जीवन, कार्यकलापों और उनकी किसी भी अभिव्यक्ति से असंबद्ध होगा। यह केवल एक सिद्धांत, दलील और खोखली बात होगी। ठीक इसलिए कि यह परमेश्वर अस्तित्व में है, इसलिए उसके किए गए अनेक कार्यों से लोग उसका रवैया देख सकते हैं।
परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं के मुख्य अंश पर हम बुनियादी तौर पर संगति कर चुके हैं। हमने किस मुख्य अंश पर ध्यान लगाया? यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को लेकर लोगों की विभिन्न धारणाओं, कल्पनाओं और विचारों के साथ ही इसे लेकर उनकी विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं के बारे में है कि स्वभावगत परिवर्तन क्या है। इसके अलावा, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य के पीछे के सिद्धांतों और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित मानकों के बारे में भी लोगों के मन में अनगिनत कल्पनाएँ होती हैं। लोगों के मन में ये अवधारणाएँ आम तौर पर धुंधली और अस्पष्ट होती हैं। स्पष्टता का यह अभाव क्या दर्शाता है? इसका अर्थ है कि लोग अभी भी सत्य नहीं समझते, न ही वे उन सत्यों को समझते हैं जो परमेश्वर द्वारा उन पर किए गए कार्य में होते हैं। आज की संगति के जरिये क्या तुम लोगों को न्याय और ताड़ना और साथ ही परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित मानकों की परिभाषा की रूपरेखा मिल गई है? (हाँ।) इस समझ के साथ, तुम लोगों को आगे क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम लोगों को यह पहचानना चाहिए कि परमेश्वर के ऐसे मानक हैं। क्या ये मानक लचीले हैं? ये जो वास्तव में हैं क्या ये उनसे ऊँचे या नीचे हो सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? अनुग्रह के युग से लेकर आज तक जिन लोगों को परमेश्वर ने पूर्ण बनाया है उनसे हम यह देख सकते हैं कि ये मानक कठोर और सुपरिभाषित हैं; परमेश्वर उन्हें कभी नहीं बदलेगा। उसने दो हजार साल पहले उन्हें नहीं बदला, और उसने अब तक उन्हें नहीं बदला है। बात बस इतनी है कि अब पूर्ण बनाए गए ज्यादा लोग होंगे क्योंकि परमेश्वर ने इतना कुछ कहा है। उस वक्त उसने छोटे पैमाने पर कार्य किया था और लोगों को स्पष्ट रूप से ज्यादा सत्य नहीं बताए थे। अब उसने लोगों को ज्यादा सत्य बताए हैं और उन्हें अपने ज्यादा इरादों से अवगत कराया है, और लोगों के जानने के लिए परमेश्वर ने अपने सभी अपेक्षित मानक और सत्य व्यक्त कर दिए हैं। साथ ही, परमेश्वर का आत्मा भी इस तरह से लोगों के बीच समन्वित ढंग से कार्य कर रहा है। ये दोनों पहलू संयुक्त रूप से यह सिद्ध करते हैं कि इस दौरान परमेश्वर और ज्यादा लोगों को पूर्ण बनाने का इरादा रखता है—यह लोगों का एक समूह है, सिर्फ एक या दो लोग नहीं। इस जानकारी से अंदाजा लगाएँ तो, क्या तुम लोगों में से ज्यादातर को पूर्ण बनाए जाने की उम्मीद है? कुछ लोग कहते हैं कि वे सुनिश्चित नहीं हैं, लेकिन अगर हम अनिश्चित हों, तो भी चलो कोशिश करते हैं; दया की भीख माँगने से बेहतर है नाकामयाब होना। इस वक्त दया की भीख माँगना कैसा व्यवहार है? यह कायर, नाकारा, नाकाबिल और घिनौना व्यवहार है, यह परमेश्वर का निरादर है। तुम्हें कायर नहीं होना चाहिए! पूर्ण बनाए जाने की शर्तें और मानक लोगों को स्पष्ट रूप से और सीधे-सीधे बता दिए गए हैं; अभ्यास कैसे करें और परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग कैसे करें बस यही बचा है। इस दौरान तुम चाहे जितनी भी बार नाकामयाब हो जाओ, अगर तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते हो, तो तुम्हें न तो हतोत्साहित होना चाहिए, और न ही छोड़ देना चाहिए; आगे प्रयास करते रहो। कुछ लोग कहते हैं कि उनकी काबिलियत कमजोर है। क्या परमेश्वर नहीं जानता कि उनकी काबिलियत कमजोर है? उनका यह मान लेना कि उनकी काबिलियत कमजोर है, परमेश्वर की दृष्टि में पहले ही अच्छी बात है, क्योंकि भ्रष्ट मानवजाति अहंकारी और आत्मतुष्ट है, और बहुत कम लोग यह मानते हैं कि उनकी काबिलियत कमजोर है। इसे स्वीकार कर लेना एक अच्छी बात है, एक अच्छी अभिव्यक्ति है। कुछ लोग इस बात का एहसास करके कि उनकी मानवता कमजोर और खराब है, अपने अनुभवों की चर्चा करते हैं। दूसरे लोगों को यह एहसास क्यों नहीं होता है? अपनी कमजोर मानवता, अपनी बुरी इंसानियत को मान लेना इस बात का संकेत है कि तुमने परमेश्वर के वचनों को समझ लिया है और उन्हें खुद से जोड़ लिया है; यह दर्शाता है कि तुम्हें परमेश्वर के उद्धार कार्य में आस्था है, तुममें परमेश्वर को संतुष्ट करने का संकल्प और तत्परता है—कम-से-कम तुम इस सच्चे कथन को मान पाए थे। अविश्वासियों में से कौन कहता है कि वह अभी बुरा है? बुरा होने पर भी वह अच्छा होने का दावा करता है; वह दावा करता है कि उसके दुष्कर्म शानदार नेक काम और पवित्र व्यवहार हैं, सही और गलत को खुले आम विकृत करता है। इसलिए, तुम चाहे जिन भी नाकामियों, चाहे जो भी विफलताओं या रुकावटों का सामना करो, तुम्हें यह देखने में समर्थ होना चाहिए कि आगे उम्मीद अभी बाकी है। आगे कौन है? परमेश्वर है! परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और अगुआई से लोग सही पथ पर कदम रख सकते हैं।
आज तीन मामलों के अध्ययनों पर संगति की गई, परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं का स्पष्टीकरण किया गया। क्या तुम सबने बताई हुई बातों को समझ लिया? (हाँ।) समझने की तुम्हारी क्षमता दर्शाती है कि तुम्हारे भीतर सत्य को स्वीकारने की काबिलियत और आतंरिक शक्तियाँ हैं—तुम्हारे लिए सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने की उम्मीद है। ये सत्य सिर्फ एक-दो घंटों या दो-तीन घंटों में स्पष्ट रूप से क्यों नहीं समझाए जा सकते? इसलिए कि आगे आने वाले विस्तृत विवरणों के बारे में चर्चा करने के लिए बहुत सारी प्रारंभिक विषयवस्तु तैयार करनी पड़ती है। पहले से कुछ जमीनी काम किए बिना तुम लोग बाद में आने वाली विषयवस्तु के साथ कदम नहीं मिला सकते। यदि मैं बिना किसी प्रारंभिक विषयवस्तु के संक्षेप में बोलूँ, तो तुम लोगों के लिए समझना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैं कुछ उदाहरणों के बारे में चर्चा करता हूँ, और फिर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही नजरियों से विचार-विमर्श करता हूँ ताकि तुम लोग समझ सको और भेद कर सको, जान सको कि इन मामलों के साथ आखिर हो क्या रहा है, और किसी को शुद्ध रूप से उन्हें कैसे समझना चाहिए। यदि तुम लोग यह हासिल कर सको, तो मेरा बोलना बेकार नहीं हुआ है। जिस पल से इन सत्यों को सुनने के बाद तुम इनकी थोड़ी अवधारणा बनाना शुरू करते हो, तब से उस मुकाम तक जब तुम पूरी तरह से समझ लेते हो, जब अपने दिल की गहराई से तुम्हें एहसास हो जाता है कि परमेश्वर ये बातें क्यों कहता है, परमेश्वर द्वारा बोले गए इन सत्यों में तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का कौन-सा अंश जुड़ा हुआ है, और परमेश्वर तुम्हें ये चीजें क्यों बताना चाहता है, उस समझ के स्तर तक पहुँचने के लिए एक विशेष चरण की जरूरत होती है। तुम्हें इन सत्यों को अपने भ्रष्ट स्वभाव, बातों, व्यवहार, सोच और विचारों से जोड़ने की जरूरत होती है—यानी इन्हें अपनी वास्तविक स्थिति पर लागू करो—और अनजाने ही तुम धीरे-धीरे इन सत्यों को समझ-बूझ लोगे। यदि तुम इनकी तुलना अपने मामले से न करो, बल्कि आज नोट्स लिखकर कल उन्हें दोहरा कर याद कर लो, और फिर उन लोगों को सुनाओ जिन्होंने कभी उन्हें सुना न हो, तो तुम्हें लग सकता है कि तुमने उन्हें प्राप्त कर लिया है, मगर असल में तुमने प्राप्त नहीं किया है। जिस दिन तुम धर्म-सिद्धांत उगलने में सक्षम हो जाते हो, उस दिन से ये सत्य तुम्हारे लिए सत्य नहीं रहते, और तुम्हारे लिए सत्य को बूझना मुश्किल हो जाता है, मानो सत्य पूरी तरह से गायब हो गया हो। एक बार जब सत्य तुम्हारे लिए महज एक धर्म-सिद्धांत में तब्दील हो जाता है, तो उसके लिए तुम पर प्रभाव डालना मुश्किल हो जाता है। तुम्हें सत्य को अपनी वास्तविकता में बदलना होगा, और धीरे-धीरे खोज और संगति द्वारा प्रत्येक सत्य के व्यावहारिक पहलू को खुद पर कार्यान्वित करना होगा, और अंततः समझना होगा कि इस सत्य में कौन-सी दशाएँ शामिल हैं, और इसमें क्या समाहित है, ताकि तुम परमेश्वर के इन वचनों को कहने के पीछे के अर्थ को समझ सको। यह सत्य को समझने की शुरुआत है। फिलहाल तुम लोग क्या समझते हो? (धर्म-सिद्धांत।) जब लोग पहले-पहल सत्य के संपर्क में आते हैं, तो वे जो समझते हैं वह एक प्रकार का धर्म-सिद्धांत है। हालाँकि धर्म-सिद्धांत को समझना सरल नहीं है; इसके लिए भी एक खास काबिलियत और समझने की क्षमता जरूरी होती है। इसके लिए तुम्हारे भीतर एक शांत और केंद्रित हृदय का होना भी जरूरी है, ताकि तुम धर्मोपदेशों को पूरे ध्यान से सुन सको। मैंने पाया है कि धर्मोपदेश सुनते समय कुछ लोग सोचते हैं, “तुम जो बोल रहे हो वह बेकार है, मैं सुनने को तैयार नहीं हूँ। मैं धर्मोपदेश सुनना चाहता हूँ, घटनाओं के बारे में नहीं।” वे मानते हैं कि मैं जो बोल रहा हूँ वह सही और गलत है। चूँकि वे यह नजरिया पाले हुए हैं, इसलिए वे जो सुनते हैं उसे ग्रहण नहीं कर पाते हैं; वे उनींदे हो जाते हैं, समझ नहीं पाते, और ताल नहीं मिला पाते। ऐसे लोगों में सत्य समझने की काबिलियत नहीं होती; उनमें काबिलियत का अभाव है। कुछ लोग जो खुद को आध्यात्मिक कहते हैं, जब वे मुझे कहानियाँ सुनाते हुए सुनते हैं, तो सुनना नहीं चाहते। वे या तो पानी पीते हैं, या जम्हाई लेते हैं, और हमेशा हिलते-डुलते रहते हैं। वे सोचते हैं, “आप जो कहानियाँ बता रहे हैं वे बाहरी मामलों के बारे में हैं; बहुत उथले हैं, और मैं इन्हें ग्रहण नहीं कर सकता। आपको आध्यात्मिक क्षेत्र के बारे में ज्यादा चर्चा करनी चाहिए; वह मुझे जंचेगा।” कुछ लोगों का ठीक यही रवैया होता है। जब उन्होंने एक अगुआ के तौर पर अनेक वर्ष कार्य किया हो, तो वे ऊँचे धर्मोपदेशों, भव्य सिद्धांतों, और तीसरे स्वर्ग के शब्दों के बारे में चर्चा करना चाहते हैं; वे जितना ज्यादा बोलते हैं, उतने ही ज्यादा जोश में आ जाते हैं। लेकिन अगर हम कलीसिया के मामलों, व्यावहारिक अनुभवों पर चर्चा करें या मानवीय मानस के उतार-चढ़ाव का विश्लेषण करें, तो यह उन्हें हमेशा उथला और ऊबाऊ लगता है। यह कैसा स्वभाव है? क्या इन लोगों के पास सत्य वास्तविकता है? क्या ऐसे लोग अपने काम में असली समस्याओं को सुलझा सकेंगे? क्या तुम लोग ऐसे लोगों को पसंद करते हो? सत्य पर संगति वास्तविकता से कटी हुई नहीं रह सकती। क्या जिन लोगों को वास्तविकता में रुचि नहीं है, वे सत्य से प्रेम कर सकते हैं? मुझे नहीं लगता; ऐसे लोग सत्य से विमुख होते हैं, और यह बहुत खतरनाक है।
8 नवंबर 2018