कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?

पिछली सभा के दौरान हमारी संगति का मुख्य विषय यह था कि न्याय और ताड़ना स्वीकार कर व्यक्ति को पूर्ण बनाए जाने के लिए चार बुनियादी शर्तें हैं। तो ये चार बुनियादी शर्तें क्या हैं? (पहली शर्त है कर्तव्य का समुचित निर्वहन। दूसरी है परमेश्वर के प्रति समर्पण की मानसिकता होना। तीसरी है मूलतः एक ईमानदार व्यक्ति होना। और चौथी शर्त है पश्चात्ताप करने वाला हृदय रखना।) इनमें हर शर्त में कुछ विवरण के साथ ही ठोस अभ्यास और विशिष्ट संदर्भ हैं। इन चारों विषयों पर दरअसल वर्षों से चर्चा होती रही है। अगर आज हम फिर से इनके बारे में बात करें तो क्या इसे पुरानी बात दोहराना माना जाएगा? (नहीं।) ऐसा क्यों नहीं माना जाएगा? क्योंकि इन चार शर्तों में, प्रत्येक में सत्य और जीवन प्रवेश की वास्तविकता अंतर्निहित हैं, जो कभी समाप्त न होने वाले विषय हैं। अधिकतर लोग अभी तक सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के बिंदु तक नहीं पहुँचे हैं; वे केवल सत्य का सतही अर्थ समझते हैं, वे केवल कुछ सरल धर्म-सिद्धांत समझते हैं। भले ही वे कुछ वास्तविकताओं पर संगति कर लेते हैं, फिर भी वे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने से चूक जाते हैं। इसलिए सत्य का चाहे कोई भी पहलू सामने हो, इस पर बार-बार संगति की जानी चाहिए और इसे बार-बार सुना जाना चाहिए। इस तरह विभिन्न सत्यों के बारे में लोगों की समझ उनके वास्तविक अनुभव के माध्यम से गहरी होती जाएगी और उनके अनुभव अधिक सटीक होते जाएँगे।

न्याय और ताड़ना स्वीकार करके मनुष्य को पूर्ण बनाए जाने के लिए हमने अभी-अभी चार बुनियादी शर्तों का सारांश बताया। आइए, अब हम अपनी चर्चा की शुरूआत पहली शर्त से करते हैं : कर्तव्य का समुचित निर्वहन। कुछ लोग कहते हैं : “पिछले दो वर्षों में सभी चर्चाएँ कर्तव्य निर्वहन के बारे में ही हुई हैं; खासकर, कर्तव्य का निर्वहन कैसे करना है, इसका ठीक से निर्वहन कैसे करना है, इसका निर्वहन करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना है—मेरा हृदय इन चीजों की रग-रग से वाकिफ है, ये और अधिक स्पष्ट नहीं हो सकती हैं। और पिछले कुछ वर्षों से मेरा दैनिक जीवन अपने कर्तव्य निर्वहन से जुड़े सत्यों पर आधारित रहा है। जब से मैंने कर्तव्य निभाना शुरू किया है, मैंने इससे संबंधित सत्यों को खोजा है, खाया-पीया है और सुना है, और अब भी इसी विषय पर चर्चा हो रही है। मैं इसे अपने हृदय में बहुत पहले ही समझ चुका हूँ; क्या यह वाकई अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वहन नहीं है? क्या इन सिद्धांतों का पालन ही कर्तव्य का समुचित निर्वहन नहीं है? अपने परमेश्वर प्रभु से अपने पूरे हृदय से, पूरे प्राण से, पूरे मन से और सारी शक्ति से प्रेम करो; सिद्धांत खोजो, अपनी इच्छाओं पर भरोसा मत करो और अपना कर्तव्य निभाते समय समरस होकर समन्वय करो; अपने कर्तव्य निर्वहन की लय जीवन प्रवेश के साथ मिला दो—इसके लिए बस इतना ही बहुत है।” तुम लोग अपने दैनिक जीवन में जिन चीजों का सामना और अनुभव करते हो, वे केवल यही विषय हैं, इसलिए तुम लोग बस इतना ही समझते हो। तुम लोग चाहे कितना भी समझते होगे, हमें फिर भी इस सत्य पर चर्चा करने की आवश्यकता है। यदि कोई बात दोहराई जाती है, तो इससे तुम्हें भी फायदा ही होगा और तुम लोग उस पर दोबारा चिंतन कर सकते हो; यदि इस पर पहले चर्चा नहीं की गई है, तो इसे ग्रहण करो। चाहे यह दोहराव हो या न हो, तुम्हें इसे ध्यान से सुनना चाहिए। विचार करो कि इसमें कौन-से सत्य शामिल हैं, क्या इन सत्यों से तुम लोगों के जीवन प्रवेश में कोई फायदा है और क्या ये समुचित कर्तव्य निर्वहन में तुम लोगों की मदद कर सकते हैं। इसलिए समुचित कर्तव्य निर्वहन के विषय पर फिर से चर्चा करना वास्तव में आवश्यक है।

समुचित कर्तव्य निर्वहन के संबंध में आइए थोड़ी देर “समुचित” को अलग रखकर पहले इस बारे में बात करते हैं कि कर्तव्य क्या है। अंत तक पहुँचते-पहुँचते तुम लोगों को पता चल जाएगा कि कर्तव्य क्या है, समुचित किसे माना जाता है और कर्तव्य का निर्वहन कैसे किया जाना चाहिए; एक मानक स्तर तक कर्तव्य निर्वहन के लिए तुम्हें अभ्यास का मार्ग मिल जाएगा। तो कर्तव्य क्या है? (कर्तव्य वह है जिसे परमेश्वर करने के लिए मनुष्य को सौंपता है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए।) यह कथन केवल आधा सही है। सैद्धांतिक तौर पर इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन करीब से जाँच करने पर यह व्याख्या अधूरी है; इसमें एक पूर्व शर्त होनी चाहिए। आइए इस विषय पर गहराई से विचार करते हैं। प्रत्येक विश्वासी और अविश्वासी के लिए, वे अपना जीवन कैसे जीते हैं, वे इस मानव संसार में क्या करते हैं, और उनके जीवन की नियति क्या है—क्या ये सब चीजें परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित नहीं हैं? (हाँ, ये हैं।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग इस दुनिया में संगीत से जुड़ते हैं। संगीत रचना उनके जीवन का मिशन है; क्या यह मिशन उनका कर्तव्य माना जा सकता है? (नहीं।) कुछ लोगों ने दुनिया में असाधारण चीजें की हैं, पूरी मानवजाति को प्रभावित किया है, योगदान दिया है और यहाँ तक कि युग-परिवर्तन भी किया है; यह उनके जीवन का मिशन है। क्या जीवन का यह मिशन उनका कर्तव्य माना जा सकता है? (नहीं।) लेकिन जीवन का यह मिशन और उन्होंने अपने जीवनकाल में जो किया है वह, क्या उन्हें परमेश्वर द्वारा नहीं सौंपा गया है? क्या एक सृजित प्राणी को यह नहीं करना चाहिए? (हाँ।) यह सही है। परमेश्वर ने उन्हें एक मिशन दिया है, उन्हें यह आदेश सौंपा है, और, संपूर्ण मानवजाति के भीतर, स्वयं मानवजाति का एक हिस्सा होते हुए, उनके पास कुछ है जो उन्हें करना चाहिए, उनके पास एक जिम्मेदारी है जो उन्हें निभानी चाहिए। वे चाहे किसी भी क्षेत्र—कला, व्यवसाय, राजनीति, अर्थशास्त्र, वैज्ञानिक अनुसंधान इत्यादि—में संलग्न हों, सभी परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। लेकिन एक बात में अंतर है; परमेश्वर ने इसे चाहे कैसे भी निर्धारित किया हो, ये लोग परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से बाहर हैं। उन्हें अविश्वासी माना जाता है और वे जो करते हैं वह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से बाहर है। तो क्या उनकी जिम्मेदारियों को, उनके द्वारा स्वीकार किए गए आदेश और उनके जीवन के मिशन को कर्तव्य कहा जा सकता है? (नहीं।) वे कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे जो कुछ करते हैं उसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध नहीं है। इस संसार में सभी मनुष्य सृष्टिकर्ता के आदेश और मिशन को निष्क्रिय रूप से स्वीकारते हैं, लेकिन परमेश्वर में विश्वास न करने वाले लोग जिस मिशन को स्वीकारते हैं और जो जिम्मेदारियाँ निभाते हैं वे कर्तव्य नहीं हैं, क्योंकि उनका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं है और मानवजाति को बचाने की प्रबंधन योजना में उनकी कोई भूमिका नहीं है। वे परमेश्वर को नहीं स्वीकारते और परमेश्वर उन पर कार्य नहीं करता है, इसलिए चाहे वे कोई भी जिम्मेदारी लें, कोई भी आदेश स्वीकार करें या इस जीवन में कोई भी मिशन पूरा करें, यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं। तो कर्तव्य क्या है? इस अवधारणा और इससे संबंधित सत्य को स्पष्ट, सटीक और समग्र ढंग से समझाने के लिए किस प्रकार की पूर्वापेक्षाएँ जोड़ी जानी चाहिए? क्या तुम लोगों ने अभी-अभी हमारी संगति से कोई अवधारणा समझी है? कौन-सी अवधारणा? मानवजाति में किसी भी व्यक्ति के, चाहे उसने कितना भी महान मिशन स्वीकार किया हो या उसने जिस स्तर का भी परिवर्तन किया हो या मानवजाति के लिए उसका कितना भी योगदान रहा हो, ऐसे मिशन और आदेशों को कर्तव्य नहीं कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध नहीं है; वे महज मिशन हैं। ऐसे लोग चाहे सक्रिय रूप से कार्य करें या निष्क्रिय रूप से, वे केवल एक मिशन पूरा कर रहे हैं; यह परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। दूसरे शब्दों में, जब तक उनके कार्यों का परमेश्वर की प्रबंधन योजना से और मानवता को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है, तब तक ऐसे मिशन पूरे करना कर्तव्य निर्वहन नहीं कहा जा सकता है। यह निश्चित है, सभी संदेहों से परे। तो कर्तव्य क्या है? इसे इस प्रकार समझना चाहिए : कर्तव्य मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में उसके द्वारा दिया गया आदेश और मिशन है। क्या इसे इस तरह से कहना पूर्ण और सटीक नहीं है? केवल वही सत्य है जो सटीक है; जो सटीक नहीं है और एकांगी है वह सत्य नहीं है, बल्कि महज सिद्धांत है। कर्तव्य को पूरी तरह समझे पहचाने बिना तुम नहीं जान पाओगे कि कर्तव्य से संबंधित सत्य क्या है। पहले, लोगों को कर्तव्य की समझ में कई गलतफहमियाँ रही होंगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने सत्य को नहीं समझा, जिसके कारण सभी प्रकार की धारणाएँ और अस्पष्टताएँ पैदा हुईं। फिर लोगों ने कर्तव्य समझाने के लिए इन धारणाओं और अस्पष्टताओं का उपयोग किया, और बाद में इन विचारों के आधार पर उसकी व्याख्या की। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सोचते हैं कि चूँकि व्यक्ति का पूरा जीवन परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है—वह किस प्रकार के परिवार में पैदा हुआ है, अमीर है या गरीब है, कौन-सी आजीविका अपनाता है, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित है—तो वह अपने जीवनकाल में जो कुछ भी करता है और जो कुछ भी हासिल करता है वे सभी परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश हैं और उसके मिशन हैं। सिर्फ इसलिए क्योंकि इसमें एक मिशन शामिल है, लोग सोचते हैं कि यह कर्तव्य है। इस तरह कर्तव्य की अपनी अवधारणा में वे बेतरतीब ढंग से लड़खड़ाते हैं। क्या यह गलतफहमी नहीं है? कुछ लोग, जो शादी करते हैं और बच्चे पैदा करते हैं, कहते हैं : “बच्चे पैदा करना परमेश्वर का आदेश है जो उसने हमें सौंपा है, यह हमारा मिशन है। अपने बच्चों को वयस्क होने तक बड़ा करना हमारा कर्तव्य है।” क्या यह समझ गलत नहीं है? और कुछ दूसरे लोग कहते हैं : “हमें इस धरती पर खेती करने के लिए रखा गया है। चूँकि यही हमारी नियति है, बेहतर होगा कि हम इसमें अच्छा काम करें, क्योंकि यह परमेश्वर का आदेश और हमारा मिशन है। चाहे हम कितने भी गरीब हो जाएँ या चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, हम शिकायत नहीं कर सकते। इस जीवन में अच्छे से खेती करना हमारा कर्तव्य है।” वे व्यक्ति के भाग्य को उसके मिशन और कर्तव्य के बराबर मानते हैं। क्या यह गलतफहमी नहीं है? (बिल्कुल है।) यह वास्तव में एक गलतफहमी है। और दुनिया में व्यवसाय करने वाले कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं : “मैं पहले किसी भी चीज में सफल नहीं हुआ, लेकिन व्यवसाय करने के बाद जीवन काफी अच्छा और स्थिर हो गया है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने मेरे लिए इस जीवनकाल में व्यवसाय करना और इसके माध्यम से अपने परिवार का भरण-पोषण करना ही नियत किया है। इसलिए इस जीवनकाल में अगर मैं व्यवसाय में अच्छा प्रदर्शन करता हूँ और अपने कामकाज का विस्तार करता हूँ, अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य का भरण-पोषण करता हूँ, तो यह मेरा मिशन है, और शायद यह मिशन मेरा कर्तव्य है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? लोग मिशन से संबंधित सभी चीजों—अपने रोजमर्रा के मामलों, आजीविका के तरीकों, जीवन शैली और जीवन की गुणवत्ता जिसका वे आनंद लेते हैं—को अपना कर्तव्य मानते हैं। यह गलत है; यह कर्तव्य की विकृत समझ है।

तो फिर कर्तव्य क्या है? इस मामले में अधिकांश लोग कुछ विकृत-सी, गलत समझ रखते हैं। यदि परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए अनाज और सब्जियाँ उगाने की व्यवस्था करता है तो इस व्यवस्था को कैसे देखते हो? कुछ लोग शायद इसे नहीं समझ पाते और कहते हैं : “खेती तो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए है; यह कर्तव्य नहीं है। कर्तव्य की अवधारणा में यह पहलू शामिल नहीं है।” वे चीजों को इस तरह क्यों समझते हैं? क्योंकि वे न तो कर्तव्य निभाने से जुड़े सत्यों को समझते हैं, न ही यह समझते हैं कि कर्तव्य क्या है। यदि लोग सत्य के इस पहलू को समझ लेते हैं, तो वे धरातल पर जाकर काम करने के लिए तैयार हो जाएँगे। वे जान जाएँगे कि परमेश्वर के घर में खेती उनके परिवार का भरण-पोषण करने के लिए नहीं की जाती है, बल्कि इसलिए की जाती है ताकि जो लोग पूरे समय कर्तव्य का निर्वहन करते हैं वे इसका निर्वहन सामान्य रूप से जारी रख सकें। वास्तव में यह भी एक परमेश्वर का आदेश है; यह कार्य अपने आप में शायद राई के दाने जितना या रेत के एक कण जितना भी महत्वपूर्ण न हो लेकिन यह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में उत्पन्न काम है, चाहे इसका महत्व कुछ भी हो। परमेश्वर अब कहता है कि तुम्हें यह काम पूरा करना है—तुम इसे कैसे लोगे? तुम्हें इसे अपने कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए और बिना कोई बहाना बनाए इसे स्वीकार करना चाहिए। यदि तुम निष्क्रिय तरीके से समर्पण कर खेत में काम करने जाते हो क्योंकि तुम्हारे लिए यही व्यवस्था की गई है, तो इससे काम नहीं चलेगा। यहाँ एक सिद्धांत है जिसे तुम्हें अवश्य समझना चाहिए : कलीसिया तुम्हारे लिए खेती का काम करने और साग-सब्जियाँ लगाने की व्यवस्था इसलिए नहीं कर रहा है कि तुम अमीर बन सको या अपने परिवार का भरण-पोषण कर सको। यह आपदा के समय परमेश्वर के घर में कार्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए कर रहा है। यह यह सुनिश्चित करने के लिए कर रहा है कि जो लोग पूरे समय परमेश्वर के घर में कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, उन्हें दैनिक भरण-पोषण मिलता रहे ताकि वे परमेश्वर के घर का कार्य रोके बिना सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकें। इसलिए, कुछ लोगों को जो कलीसिया के खेत में खेती कर कहे हैं, अपना कर्तव्य निर्वहन करने वाला माना जाता है; यह सामान्य किसानों की खेती से अलग है। सामान्य किसानों के लिए खेती की प्रकृति क्या है? सामान्य किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने और जीवित रहने के लिए खेती करते हैं; परमेश्वर ने उनके लिये यही नियत किया है। यह उनकी नियति है, इसलिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी खेती करते हैं; इसका उनके कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं है। अब, तुम परमेश्वर के घर आ गए हो और खेती भी कर रहे हो, लेकिन यह परमेश्वर के घर के कार्य की आवश्यकता है; यह परमेश्वर के लिए खपने का एक रूप है। यह तुम्हारी अपनी जमीन पर खेती करने से अलग प्रकृति का है। इसका संबंध अपनी जिम्मेदारियों और उत्तरदायित्वों को पूरा करने से है। यह वह कर्तव्य है जिसका हर व्यक्ति को निर्वहन करना चाहिए; यह सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें सौंपा गया आदेश और जिम्मेदारी है। तुम्हारे लिए यह तुम्हारा कर्तव्य है। तो इस कर्तव्य की तुलना तुम्हारे सांसारिक मिशन से की जाए तो अधिक महत्वपूर्ण कौन-सा है? (मेरा कर्तव्य।) ऐसा क्यों है? कर्तव्य वह है जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, जो उसने तुम्हें सौंपा है—एक कारण तो यही है। दूसरा, प्राथमिक कारण यह है कि जब तुम परमेश्वर के घर में कर्तव्य निर्वहन करते हुए परमेश्वर का आदेश स्वीकारते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के लिए प्रासंगिक हो जाते हो। परमेश्वर के घर में, जब भी तुम्हारे लिए कोई व्यवस्था की जाती है, चाहे वह कठिन हो या थका देने वाला काम हो, और चाहे वह तुम्हें पसंद हो या नहीं, वह तुम्हारा कर्तव्य है। अगर तुम उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश और जिम्मेदारी मान सकते हो, तो तुम मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के लिए प्रासंगिक हो। और अगर तुम जो करते हो और जो कर्तव्य निभाते हो, वे मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य के लिए प्रासंगिक हैं, और तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को गंभीरता और ईमानदारी से स्वीकार कर सकते हो, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? वह तुम्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में देखेगा। यह आशीष है या शाप? (आशीष।) यह एक बड़ा आशीष है। कर्तव्य पालन के दौरान जब थोड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है तो कुछ लोग शिकायत करने लगते हैं और इस बात की सुध नहीं लेते कि उन्हें कितने बड़े आशीष मिले हुए हैं। क्या इतने सारे फायदे उठाकर भी परमेश्वर के बारे में शिकायत करना मूर्खता नहीं है? इस बिंदु पर, सत्य को समझना महत्वपूर्ण है, यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि यह तुम्हारा कर्तव्य है और इसे परमेश्वर से स्वीकार किया जाना चाहिए। अब, क्या तुम लोगों के पास कोई नई समझ या नई अंतर्दृष्टि है कि कर्तव्य क्या है? क्या तुमने इसे गहराई से समझ लिया है? क्या उद्धार प्राप्ति के लिए कर्तव्य महत्वपूर्ण है? (बिल्कुल।) यह कितना महत्वपूर्ण है? कहा जा सकता है कि कर्तव्य निर्वहन और उद्धार प्राप्ति के बीच सीधा संबंध है। इस जीवन में तुम चाहे जो भी मिशन पूरा कर लो, यदि तुमने अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया, तो उद्धार प्राप्त करना भूल जाओ। दूसरे शब्दों में, अन्य मनुष्यों के बीच इस जीवन में तुमने चाहे कितनी भी बड़ी उपलब्धि हासिल की हो, तुम बस एक मिशन पूरा कर रहे थे; तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा नहीं किया है, इसलिए उद्धार प्राप्ति या मानव जाति के प्रबंधन हेतु परमेश्वर के कार्य से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है।

परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; ख़ास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में जिन विभिन्न कार्यों में लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीच या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर हैं? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य की उत्पत्ति और परिभाषा है। परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के बिना, क्या पृथ्वी के लोगों के पास—चाहे वे कैसे भी रहते हों—कर्तव्य होंगे? नहीं। अब तुम स्पष्ट रूप से समझ पा रहे हो। व्यक्ति का कर्तव्य किससे संबंधित है? (यह मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से संबंधित है।) सही कहा। मानवजाति के कर्तव्यों, सृजित प्राणियों के कर्तव्यों और मानवजाति के उद्धार के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में एक प्रत्यक्ष संबंध है। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार के बिना और उस प्रबंधन कार्य के बिना जो देहधारी परमेश्वर ने मनुष्यों के बीच आरम्भ किया है, लोगों के पास बताने के लिए कोई कर्तव्य न होता। कर्तव्य परमेश्वर के कार्य से उत्पन्न होते हैं; यही परमेश्वर लोगों से चाहता है। इसे इस परिप्रेक्ष्य से देखते हुए परमेश्वर का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्तव्य महत्वपूर्ण है, है ना? यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। मोटे तौर पर, तुम परमेश्वर की प्रबंधन योजना के काम में हिस्सा ले रहो हो; खासतौर पर, तुम परमेश्वर के विभिन्न प्रकार के कामों में सहयोग कर रहे हो, जिनकी अलग-अलग समय और लोगों के अलग-अलग समूहों के बीच में आवश्यकता है। भले ही तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो, यह परमेश्वर ने तुम्हें एक लक्ष्य दिया है। कभी-कभी शायद तुम्हें किसी महत्वपूर्ण वस्तु की देखभाल या सुरक्षा करने की जरूरत पड़ सकती है। यह अपेक्षाकृत एक नगण्य-सा मामला हो सकता है जिसे केवल तुम्हारी ज़िम्मेदारी कहा जा सकता है, लेकिन यह एक ऐसा कार्य है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है; इसे तुमने परमेश्वर से स्वीकार किया है। तुमने इसे परमेश्वर के हाथों से स्वीकार किया है और यह तुम्हारा कर्तव्य है। मुद्दे की बात करें तो तुम्हारा कर्तव्य तुम्हें परमेश्वर ने सौंपा है। इसमें मुख्य रूप से सुसमाचार फैलाना, गवाही देना, वीडियो बनाना, कलीसिया में अगुवा या कार्यकर्ता बनना शामिल है, या यह ऐसा काम हो सकता है जो और भी जोखिम भरा और महत्वपूर्ण हो। चाहे जो हो, जब तक इसका संबंध परमेश्वर के कार्य और सुसमाचार के प्रसार के कार्य की आवश्यकता से है, तब तक लोगों को इसे परमेश्वर से प्राप्त कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इसे और भी व्यापक शब्दों में कहें तो कर्तव्य व्यक्ति का लक्ष्य होता है, परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश होता है; खासतौर पर, यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी बाध्यता है। ऐसा मानते हुए कि यह तुम्हारा लक्ष्य है, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया आदेश है, तुम्हारा दायित्व और बाध्यता है, कर्तव्य निर्वहन का तुम्हारे व्यक्तिगत मामलों से कोई लेना-देना नहीं है। कर्तव्य का व्यक्तिगत मामलों से कोई लेना-देना नहीं है—यह विषय क्यों उठाया जा रहा है? क्योंकि लोगों को यह समझना होगा कि अपने कर्तव्य का निर्वाह कैसे करना है और उसे कैसे समझना है। कर्तव्य वह आदेश है जिसे सृजित प्राणी स्वीकार करते हैं और वह मिशन है जिसे उन्हें परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में पूरा करना चाहिए। लोग समग्र आधार तो जानते हैं, लेकिन क्या वे सूक्ष्म विवरण के बारे में भी जानते हैं? व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन किस प्रकार करना चाहिए ताकि उसे सही समझ वाला माना जा सके? कुछ लोग अपने कर्तव्य को अपना निजी मामला मानते हैं; क्या यह सही सिद्धांत है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? अपने लिए कुछ करना अपना कर्तव्य पूरा करना नहीं है। अपना कर्तव्य पूरा करना अपने लिए कुछ करना नहीं है, बल्कि वह कार्य करना है जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है—दोनों में अंतर है। जब अपने लिए कुछ करने की बात आती है तो इसका सिद्धांत क्या है? यह दूसरों से परामर्श किए बिना, और परमेश्वर से प्रार्थना किए बिना या उसकी खोज किए बिना वही करना है जो तुम करना चाहते हो; यह तुम्हारी अपनी मर्जी से, परिणाम की परवाह किए बिना तब तक कार्य करना है जब तक इससे तुम्हें लाभ होता है। क्या यह सिद्धांत परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए स्वीकार्य है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “मैं अपने मामलों को भी उतनी गंभीरता से नहीं लेता या उतना प्रयास नहीं करता। मैं अपने कर्तव्य को ऐसे मानता हूँ जैसे यह मेरा अपना व्यवसाय हो, और यह सिद्धांत निश्चित रूप से उपयुक्त है।” क्या यह कर्तव्य स्वीकार करने का सही तरीका है? निश्चित रूप से नहीं। तो फिर कर्तव्य के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या होना चाहिए? (इसे परमेश्वर से स्वीकार करो।) “इसे परमेश्वर से स्वीकार करो।” ये पाँच शब्द कहने में आसान हैं लेकिन इनमें निहित सत्य को वास्तव में कैसे व्यवहार में लाया जाए, यह इस पर निर्भर करता है कि तुम अपने कर्तव्य का पालन कैसे करते हो। अभी हमने परिभाषित किया कि कर्तव्य क्या है। कर्तव्य परमेश्वर से आता है, यह परमेश्वर द्वारा सौंपा गया एक आदेश है, यह उसकी प्रबंधन योजना और मनुष्य के उद्धार कार्य से संबंधित है। इस दृष्टिकोण से क्या कर्तव्य का तुम्हारे आचरण के व्यक्तिगत सिद्धांतों से कोई लेना-देना है? क्या इसका तुम्हारी निजी प्राथमिकताओं, जीवन की आदतों या जीवन की दिनचर्या से कोई लेना-देना है? कतई नहीं। तो फिर कर्तव्य का संबंध किससे है? इसका संबंध सत्य से है। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि यह कर्तव्य मुझे सौंपा गया है, तो यह मेरा अपना मामला है। और मेरे पास कर्तव्य निर्वहन का सर्वोच्च सिद्धांत है, जो तुम लोगों में से किसी के पास नहीं है। परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने कर्तव्य को पूरे हृदय, प्राण, दिमाग और शक्ति से पूरा करें। लेकिन इसके अलावा मेरे पास एक और भी ऊँचा सिद्धांत है : अपने कर्तव्य को ऐसे मानना जैसे यह मेरी अपनी चिंता का प्रमुख विषय हो, और इसे लगन से करना और सर्वोत्तम परिणाम के लिए प्रयास करना।” क्या यह सिद्धांत सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? यदि तुम परमेश्वर से अपना कर्तव्य स्वीकार करते हो और अपने हृदय में तुम स्पष्ट हो कि वह इसे तुम्हें सौंपता है, तो तुम्हें इस आदेश को कैसे लेना चाहिए? इसका संबंध कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों से है। क्या कर्तव्य को अपने व्यवसाय के बजाय परमेश्वर का आदेश मानना अधिक ऊँचा नहीं है? ये दोनों बातें एक नहीं हैं, हैं क्या? यदि तुम अपने कर्तव्य को परमेश्वर के आदेश के रूप में, परमेश्वर के समक्ष अपना कर्तव्य पूरा करने के रूप में, और कर्तव्य-पालन के माध्यम से परमेश्वर को संतुष्ट करने के रूप में मानते हो, तो कर्तव्य पालन का तुम्हारा सिद्धांत इसे केवल अपना निजी व्यवसाय मानना नहीं है। अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए, जिसे कि सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कहा जा सके? पहली बात, तुम यह विश्लेषण नहीं कर सकते कि उसकी व्यवस्था किसने की है, उसे किस स्तर की अगुआई द्वारा सौंपा गया है—तुम्हें उसे परमेश्वर की ओर से स्वीकार करना चाहिए। तुम इसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। यह एक शर्त है। इसके अलावा, तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, “हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।” क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता। कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? पहले तो तुम्हें यह पता लगाने की कोशिश में कि वह कौन था जिसने तुम्हें यह सौंपा था, इसका विश्लेषण नहीं करना चाहिए; इसके बजाय तुम्हें उसे परमेश्वर से मिला हुआ, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया मानना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए और परमेश्वर से अपने कर्तव्य को ग्रहण करना चाहिए। दूसरे, ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो, और उसकी प्रकृति के बारे में न सोचो, क्या वह तुम्हें लोगों के बीच खास बनाता है, यह सभी के सामने किया जाता है या पर्दे के पीछे। इन चीजों पर गौर मत करो। एक और रवैया भी है : आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग। अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और काहिल हो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण उस काम को करने के लिए अनुगृहीत तो महसूस करते हो, लेकिन तुम उस काम को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, “अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर चलने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई इनाम तो मिलने से रहा, लेकिन खराब काम करने पर मुझसे निपटा जाएगा और मेरी काट-छाँट की जाएगी। निपटा जाना फिर भी इतना बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे हटा ही दिया गया या निकाल दिया गया, तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा खेल खत्म नहीं हो जाएगा?” ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह सतर्कता और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक हताशा से भरा और नकारात्मक रवैया है। तो सकारात्मक रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें खुले दिल वाला और स्पष्टवादी होना चाहिए, और दायित्व उठाने का साहस रखना चाहिए।) यह आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग वाला रवैया होना चाहिए। तुम लोग जो कहते हो वह थोड़ा-सा खोखला है। जब तुम इस तरह इतने डरे हुए हो, तो खुले दिल वाले और स्पष्टवादी कैसे हो सकते हो? और दायित्व उठाने का साहस रखने का क्या अर्थ है? कौन-सी मानसिकता तुम्हें दायित्व उठाने का साहस देगी? यदि तुम हमेशा डरते रहते हो कि कुछ गलत हो जाएगा और मैं इसे संभाल नहीं पाऊँगा, और तुम्हारे पास कई अंदरूनी बाधाएँ हैं, तो तुममें दायित्व उठाने के साहस की मौलिक रूप से कमी होगी। तुम जिस “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने,” “दायित्व उठाने का साहस रखने,” या “मौत के सामने भी कभी पीछे नहीं हटने” की बात करते हो, वह कुछ हद तक आक्रोश से भरे युवाओं की नारेबाजी जैसा लगता है। क्या ये नारे व्यावहारिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? अब जरूरत है सही रवैये की। सही रवैया रखने के लिए तुम्हें सत्य के इस पहलू को समझना होगा। तुम्हारी अंदरूनी कठिनाइयाँ हल करने का एकमात्र तरीका यही है, और यह तुम्हें इस आदेश, इस कर्तव्य को आसानी से स्वीकार करने देता है। यह अभ्यास का मार्ग है, और केवल यही सत्य है। यदि तुम अपना डर भगाने के लिए “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने” और “दायित्व उठाने का साहस रखने” जैसे शब्दों का उपयोग करोगे, तो क्या यह प्रभावी होगा? (नहीं।) इससे जाहिर होता है कि ये बातें सत्य नहीं हैं, न ही ये अभ्यास का मार्ग हैं। तुम कह सकते हो, “मैं खुले दिल वाला, स्पष्टवादी और अदम्य आध्यात्मिक कद का व्यक्ति हूँ, मेरे मन में कोई अन्य विचार या दूषित तत्त्व नहीं हैं और मुझमें दायित्व उठाने का साहस है।” बाहरी तौर पर तो तुम अपने कर्तव्य स्वीकारते हो, लेकिन बाद में, कुछ देर विचार करने पर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम इस दायित्व को नहीं उठा सकते। तुम्हें अभी भी डर लग सकता है। इसके अलावा, तुम दूसरों से अपनी काट-छाँट होते देखकर और भी डर जाते हो, जैसे कोड़े खाया हुआ कुत्ता पट्टे से भी डरता है। तुम्हें लगातार लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह काम एक विशाल, अगाध खाई की तरह है, और अंततः तुम अभी भी इस दायित्व को नहीं उठा पाओगे। इसलिए नारेबाजी करने से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और आज्ञाकारिता और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएं कम होंगी। हालांकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर इससे कई लाभ भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। इसी रवैये के साथ तुम्हें अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना चाहिए।

अपने कर्तव्य निर्वहन के विषय से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है; यह कोई नया विषय नहीं है। लेकिन जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है; यह एक ऐसा सत्य है जिसे समझना और उसमें प्रवेश करना जरूरी है। सृष्टिकर्ता की स्वीकृति पाने से पहले सृजित प्राणियों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने चाहिए। इसलिए लोगों का यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि कर्तव्य निर्वहन का क्या मतलब है। कर्तव्य निर्वहन किसी तरह का सिद्धांत नहीं है, न ही कोई नारा है; यह सत्य का ही एक पहलू है। तो कर्तव्य निर्वहन का क्या मतलब है? और सत्य के इस पहलू को समझकर किन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है? कम-से-कम यह इस मामले को तो हल कर ही सकता है कि तुम्हें कैसे परमेश्वर का आदेश स्वीकारकर इससे पेश आना चाहिए और परमेश्वर का आदेश पूरा करते समय किस प्रकार का रवैया और संकल्प रखना चाहिए। तुम यह भी कह सकते हो कि लगे हाथ यह लोगों और परमेश्वर के बीच कुछ असामान्य संबंधों को भी हल करेगा। कुछ लोग अपने कर्तव्य निर्वहन को पूँजी के रूप में देखते हैं, कुछ इसे अपने व्यक्तिगत कार्यों के रूप में देखते हैं तो कुछ इसे अपने कार्य और उद्यमों के रूप में देखते हैं या एक तरह के मनबहलाव, मनोरंजन या शौक के रूप में देखते हैं। संक्षेप में कहें तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा चाहे जो रवैया हो, अगर तुम इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और अगर तुम इसे एक ऐसा कार्य नहीं मानते जिसे परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के भीतर एक सृजित प्राणी को करना चाहिए या जिसके साथ उसे सहयोग करना चाहिए, तो फिर तुम जो कर रहे हो उसे कर्तव्य निभाना नहीं कहेंगे। क्या अपने कर्तव्य को अपना पारिवारिक व्यवसाय मानना उचित है? क्या इसे अपने रोजगार या शौक का हिस्सा मानना उचित है? क्या इसे निजी मामला मानना उचित है? तुम्हारे लिए इनमें से कोई भी बात उचित नहीं है। इन विषयों का उल्लेख करना क्यों आवश्यक है? इन विषयों पर संगति करने से किस समस्या का समाधान होगा? इससे अपने कर्तव्य के प्रति गलत रवैया अपनाने की समस्या का समाधान हो जाएगा और उन असंख्य तरीकों का समाधान हो जाएगा जिनसे लोग अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं। कर्तव्य निर्वहन से जुड़े सत्य के इस पहलू को समझकर ही अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया बदलेगा। उनका रवैया धीरे-धीरे सत्य के अनुकूल हो जाएगा, यह परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करेगा और उसके इरादों के अनुरूप होगा। यदि लोग अपने कर्तव्य निर्वहन से जुड़े सत्य के इस पहलू को नहीं समझते तो अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैये और इसके पीछे के सिद्धांतों में समस्याएँ खड़ी होंगी और वे कर्तव्य निर्वहन के नतीजे हासिल नहीं कर पाएँगे। कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपे गए काम हैं; वे लोगों द्वारा पूरा करने के लिए मिशन हैं। लेकिन, कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय तो कतई नहीं है, न यह भीड़ में अलग दिखने की सीढ़ी है। कुछ लोग कर्तव्यों का उपयोग अपने प्रबंधन और गिरोह बनाने के लिए करते हैं; कुछ अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए करते हैं; कुछ अपने अंदर का खालीपन भरने के लिए करते हैं; और कुछ अपनी भाग्य-भरोसे रहने वाली मानसिकता को संतुष्ट करने के लिए करते हैं यह सोचकर कि जब तक वे अपने कर्तव्य निभाते रहेंगे, तब तक परमेश्वर के घर में और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए व्यवस्थित अद्भुत गंतव्य में उनका भी एक हिस्सा होगा। कर्तव्य के बारे में इस तरह के दृष्टिकोण गलत हैं; परमेश्वर इनसे घृणा करता है और इन्हें तत्काल दूर किया जाना चाहिए।

कर्तव्य क्या है, लोगों को अपने कर्तव्य के साथ कैसे पेश आना चाहिए और कर्तव्य के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण क्या होने चाहिए, इन मामलों पर पहले ही बहुत संगति की जा चुकी है। तुम सभी को इन पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए; इन पहलुओं की सच्चाई समझना सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी है। वह कौन-सा सत्य है जिसे तुम लोगों को अभी इस वक्त समझने की सबसे अधिक आवश्यकता है? एक लिहाज से, तुम्हें इस पहलू में दर्शनों से संबंधित सत्य समझने की जरूरत है; दूसरे लिहाज से, तुम्हें यह समझने की जरूरत है कि इन सत्यों को लेकर तुम्हारे अभ्यास और वास्तविक जीवन में कहाँ-कहाँ गलतफहमी और विकृत समझ है। जब तुम कर्तव्य निर्वहन के सत्यों से जुड़े मुद्दों का सामना करते हो, तब यदि ये वचन और सत्य तुम्हारी आंतरिक मनोदशा हल कर सकते हैं, तो यह साबित होता है कि तुमने संगति की विषयवस्तु को वास्तव में और पूरी तरह से समझ लिया है; यदि अपने कर्तव्य निर्वहन में रोज सामने आने वाली कठिनाइयों का समाधान ये नहीं कर सकते तो यह दर्शाता है कि तुमने इन सत्यों में प्रवेश नहीं किया है। ये सत्य सुनने के बाद क्या तुम लोगों ने इनका निचोड़ तैयार कर इन पर चिंतन किया है? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि हर बार अपनी टिप्पणी दर्ज करते वक्त तुम इसे समझ लेते हो लेकिन समय बीतने के साथ भूल जाते हो, मानो तुमने इन्हें कभी सुना ही न हो? (बिल्कुल होता है।) ऐसा इसलिए है कि तुम लोगों में प्रवेश का कतई अभाव है; तुम लोग जो अभ्यास करते हो मूल रूप से उसका इन सत्यों से कोई लेना-देना नहीं है और यह सत्य से पूर्णतः असंबद्ध है। वास्तव में, कर्तव्य निर्वहन के बारे में ये सबसे बुनियादी सत्य हैं जिन्हें व्यक्ति को समझना चाहिए और परमेश्वर में विश्वास करने की प्रक्रिया में इनमें प्रवेश करना चाहिए। यदि सत्य के वचन सुनने के बाद भी तुम भ्रमित और ढुलमुल रहते हो तो वास्तव में तुम्हारी काबिलियत बहुत कम है और तुम्हारा कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। तुम केवल परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हो, केवल प्रार्थना कर सकते हो और सभाओं में भाग ले सकते हो; बिल्कुल किसी धार्मिक विश्वास में संलग्न व्यक्ति की तरह तुम जो कहा जाए बस वो करते हो। इसका मतलब है कि तुम्हारे पास कोई भी जीवन प्रवेश नहीं है, तुम्हारा कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। कोई आध्यात्मिक कद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, जैसे ही कोई तुम्हें गुमराह करता है तुम उसका अनुसरण कर परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हो; यदि कुछ गलत कर बैठने पर कोई तुम्हारी थोड़ी-सी काट-छाँट करता है, तुमसे तनिक कठोरता से बात करता है, तो तुम अपना विश्वास छोड़ सकते हो; यदि तुम्हारे जीवन में असफलताएँ या तरह-तरह की कठिनाइयाँ आती हैं तो शायद तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत कर सकते हो, और जब तुम देखते हो कि वह तुम्हें अनुग्रह नहीं दे रहा है या तुम्हारी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर रहा है, तो तुम विश्वास करना बंद कर परमेश्वर का घर छोड़ सकते हो। यदि तुमने कर्तव्य निर्वहन के सत्य के कुछ पहलुओं में प्रवेश कर लिया है—जो सबसे मौलिक सत्य है—तो यह साबित होता है कि तुम पहले से ही सत्य से जुड़े हुए हो; तुम पहले से ही सत्य वास्तविकता से जुड़े हुए हो और कुछ प्रवेश कर चुके हो। यदि तुम्हारे पास इस सत्य वास्तविकता का नाममात्र भी नहीं है, रत्ती भर भी नहीं है, तो यह साबित करता है कि सत्य ने अभी तक तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाई हैं।

लोगों को यह समझाने के लिए कि कर्तव्य वास्तव में क्या होता है, मैंने अभी-अभी कर्तव्य और इसके उद्गम और उद्भव के बारे में संगति की। इसे जानने से क्या लाभ हैं? जब लोग कर्तव्य की सच्चाई समझ लेंगे तो वे कर्तव्य का महत्व जानेंगे। कम-से-कम, अंदर से उन्हें लगेगा कि कर्तव्य के प्रति उनका सही रवैया होना चाहिए और उन्हें मनमाने ढंग से पेश नहीं आना चाहिए। उनके मन में कम-से-कम यह सोच रहेगी। भले ही कर्तव्य वह है जिसे तुम्हें पूरा निभाना चाहिए और यह तुम्हें परमेश्वर से मिला आदेश और मिशन है, फिर भी यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला नहीं है, न ही यह तुम्हारा अपना काम है। यह बात विरोधाभासी लग सकती है, लेकिन यही सत्य है। सत्य जो भी हो उसका एक व्यावहारिक पक्ष होता है और यह लोगों के अभ्यास और प्रवेश के साथ-साथ परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़ा होता है। यह खोखला नहीं होता है। सत्य ऐसा ही होता है; केवल अनुभव करने और इस सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने से ही तुम सत्य के इस पहलू को अधिकाधिक समझ सकते हो। यदि तुम हमेशा सत्य पर सवाल उठाते हो, संदेह करते रहते हो और जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते रहते हो, तो सत्य कभी भी तुम्हारे लिए सत्य नहीं होगा। यह तुम्हारे वास्तविक जीवन से असंबद्ध होगा और तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदल पाएगा। यदि कोई अपने दिल की गहराई से सत्य स्वीकारता है और इसे जीवन जीने और कार्य करने के लिए, स्वयं के आचरण और परमेश्वर में विश्वास के लिए एक मार्गदर्शक मानता है तो सत्य उसका जीवन बदल देगा। यह उसके जीवन लक्ष्य, उसके जीवन की दिशा और दुनिया के साथ उसके मिलने-जुलने के तरीके बदल देगा। यही सत्य का असर है। कर्तव्य क्या है, यह समझने से लोगों को अपना कर्तव्य निभाने में निश्चित रूप से बहुत लाभ होगा और मदद मिलेगी। कम-से-कम उन्हें पता चल जाएगा कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले हर व्यक्ति के लिए कर्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है और यह उन लोगों के लिए तो और भी अधिक महत्वपूर्ण है जो बचाए जाने और पूर्ण होने में रुचि रखते हैं या जो इसके लिए विशिष्ट अपेक्षाएँ या आकांक्षाएँ रखते हैं। यह सबसे बुनियादी सत्य है जिसे हर व्यक्ति को खुद को बचाए जाने के लिए समझना चाहिए और यह ऐसा सबसे बुनियादी सत्य भी है जिसमें व्यक्ति को प्रवेश करना चाहिए। यदि तुम यह नहीं समझते हो कि कर्तव्य क्या है, तो तुम नहीं जान पाओगे कि अपना कर्तव्य ठीक से कैसे पूरा किया जाए, न ही तुम अपना कर्तव्य स्वीकारने और उसका सम्मान करने का उचित रवैया जान पाओगे। यह खतरनाक है—एक तरफ तुम संभवतः अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाओगे और मनमाने और अनमने ढंग से पेश आओगे; दूसरी तरफ, तुम ऐसे काम कर सकते हो जो कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हों या ऐसे बुरे कर्म तक कर सकते हो जो परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हों। इसे कुछ रूढ़िवादी तरीके से कहूँ तो तुम्हें चिंतन के लिए अलग-थलग किया जा सकता है और गंभीर मामलों में तुम्हें निकाला भी जा सकता है। इसलिए कर्तव्य को समझना भले ही सत्य का एक बहुत-ही बुनियादी पहलू है, यह किसी के उद्धार से संबंधित है; यह अप्रासंगिक नहीं है—यह बहुत महत्वपूर्ण है। कर्तव्य क्या है यह समझने के बाद, यह किसी धर्म-सिद्धांत से परिचित होना भर नहीं है; इसका वांछित नतीजा लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने और उचित रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाने देना है। कर्तव्य निभाने में केवल प्रयास करने से कोई नतीजा नहीं मिल सकता; हमेशा यह सोचना कि केवल प्रयास करने से कर्तव्य ठीक से निभाया जा सकता है, आध्यात्मिक समझ की कमी दर्शाता है। वास्तव में कर्तव्य निभाने का वास्ता कई बातों से है जिनमें सही मानसिकता, अभ्यास के सिद्धांत और सच्चे समर्पण के साथ-साथ आध्यात्मिक बुद्धि का होना भी शामिल है। जब किसी के पास सत्य के ये पहलू होते हैं, तभी वह अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकता है और अनमने ढंग से कर्तव्य निभाने की समस्या पूरी तरह हल कर सकता है। जिन लोगों में अपने कर्तव्यों के प्रति सही रवैया नहीं है, उनमें सत्य वास्तविकता नहीं है; ऐसे लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता और वे विवेक और तर्क से रहित हैं। लिहाजा परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए व्यक्ति को कर्तव्य निभाने का महत्व समझना होगा; परमेश्वर के अनुसरण के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।

यह समझने के बाद कि कर्तव्य क्या है और इसका उद्गम क्या है, तुम कर्तव्य की प्रकृति और समाज में कार्य की प्रकृति में भेद करोगे। परमेश्वर के घर से सौंपे गए कार्य को कर्तव्य मानने और इसे सांसारिक कार्य मानने में क्या अंतर है? यदि तुम इसे कर्तव्य मानते हो तो तुम्हें परमेश्वर के इरादे और सत्य खोजने की जरूरत है। तुम कहोगे, “यह मेरा कर्तव्य है तो मुझे इसे कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षा क्या है? कलीसिया के नियम क्या हैं? मुझे इसके पीछे के सिद्धांत स्पष्ट रूप से जानने होंगे।” केवल इस तरह से अभ्यास करना ही अपने कर्तव्य से पेश आने का सही रवैया है; लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति केवल यही रवैया अपनाना चाहिए। लेकिन सांसारिक कार्यों या अपने निजी जीवन के मामलों से निपटते समय लोगों को किस प्रकार का रवैया अपनाना चाहिए? क्या सत्य या सिद्धांत खोजने की कोई आवश्यकता है? तुम भी सिद्धांत खोज सकते हो, लेकिन वे केवल अधिक पैसा कमाने, अच्छा जीवन जीने, धन बटोरने, कामयाबी पाने और प्रसिद्धि और लाभ दोनों हासिल करने से जुड़े होंगे—केवल ऐसे सिद्धांत ही खोज सकते हो। ये सिद्धांत पूरी तरह से सांसारिक हैं, वर्तमान प्रवृत्तियों से संबंधित हैं; ये शैतान और इस दुष्ट मानवजाति के सिद्धांत हैं। तो कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांत कैसे होते हैं? ये सिद्धांत निश्चित रूप से परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने वाले होने चाहिए; ये सत्य से और परमेश्वर की अपेक्षाओं से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं और इन्हें सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं से पृथक नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, दुनिया में लोग जिन व्यवसायों या नौकरियों में जुटे हैं, उनका सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई सरोकार नहीं है। जब तक तुम सक्षम हो, कठिनाई सहने को तैयार हो, और मेहनती, दुष्ट और साहसी हो, तब तक तुम समाज में अलग पहचान बना सकते हो और अपने पेशे में बहुत तरक्की कर सकते हो। लेकिन इन सिद्धांतों और फलसफों की परमेश्वर के घर में जरूरत नहीं है। परमेश्वर के घर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस प्रकार के कर्तव्य का निर्वहन करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस कर्तव्य की प्रकृति क्या है, चाहे उसे उच्च या निम्न, महान या तुच्छ माना जाता हो, चाहे वह उच्च-कोटि का हो या निम्न-कोटि का, चाहे वह तुम्हें परमेश्वर ने सौंपा हो या कलीसिया के किसी अगुआ ने—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर का घर तुम्हें क्या कार्य सौंपता है, तुम अपना कार्य करने में जिन सिद्धांतों का पालन करते हो, वे सत्य के सिद्धांतों से बाहर नहीं होने चाहिए। उन्हें सत्य से जुड़ा होना चाहिए, परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़ा होना चाहिए, और परमेश्वर के घर के नियमों और कार्य-व्यवस्थाओं से जुड़ा होना चाहिए। संक्षेप में कहें तो अपने कर्तव्य और सांसारिक कार्य में परस्पर भेद किया जाना चाहिए।

हम कर्तव्य निभाने और सांसारिक कार्य करने में अंतर होने के विषय पर संगति क्यों कर रहे हैं? क्या यह महत्वपूर्ण है? (हाँ।) इसका महत्व कहाँ निहित है? यह अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति लोगों के रवैये से संबंधित है। अपने सांसारिक कार्यों के प्रति अपने रवैये और सिद्धांतों को कर्तव्य निर्वहन के क्षेत्र में लागू मत करो। यदि तुम ऐसा करते हो तो दुष्परिणाम क्या होंगे? (अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना।) अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना एक आम समस्या है; इसका मतलब है कार्य करते समय दूसरों से विचार-विमर्श न करना, अपनी बात निर्णायक होने की इच्छा रखना और जो मन में आए वही करना, यह महसूस करना कि इस तरह से कार्य करने से उत्पीड़न या दुःख के भाव से मुक्त होकर सुकून और संतोष मिलता है। इसके अतिरिक्त इससे व्यक्ति अक्सर साजिश, ईर्ष्या, विवादों और गुटबाजी के साथ-साथ पुरस्कार और मान्यता की चाह, दिखावे, अनमने होकर पेश आने, गैर-जिम्मेदारी, अपने से ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा देने और स्वयं का राज्य स्थापित करने की ओर बढ़ता है। संक्षेप में कहें तो कर्तव्य निर्वहन सांसारिक कार्य करने से अलग है; कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर की एक अपेक्षा और परमेश्वर की एक व्यवस्था है—कर्तव्य निर्वहन और सांसारिक कार्य करने के बीच यह सबसे बड़ा अंतर है। कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और सत्य सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। यह किसी का निजी प्रबंधन नहीं है, न ही किसी का निजी व्यवसाय है और यह किसी का निजी मामला तो कतई नहीं है। इसका संबंध निजी हितों, गुरूर, रुतबे, रसूख या भविष्य की संभावनाओं से कतई नहीं है; यह केवल लोगों के जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन से संबंधित है और यह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से संबंधित है। इसके विपरीत जब तुम सांसारिक कार्यों में संलग्न होते हो तो तुम्हारा ध्यान पूरी तरह से व्यक्तिगत प्रबंधन पर होता है। चाहे तुम नौकरी कर रहे हो या व्यवसाय, चाहे तुम कितनी ही बड़ी कीमत चुकाते हो, चाहे तुम कितना ही त्याग करते हो या कितना ही कष्ट सहते हो—ये चाहे भावनात्मक हों या शारीरिक पहलू—या चाहे तुम धमकाए और अपमानित किए गए हो या गलत समझे गए हो, या तुम्हें जबरदस्त सार्वजनिक दबाव का सामना करना पड़ा हो, तुम जो कुछ भी करते हो वह तुम्हारी व्यक्तिगत इच्छा, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और अभिलाषाओं के इर्द-गिर्द घूमता है। यह केवल इसी प्रकृति का है। यह केवल व्यक्तिगत प्रबंधन में संलग्न होने और व्यक्तिगत उद्यम चलाने की प्रकृति है। मानवजाति में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो आगे बढ़कर कहे कि “मैं मानवजाति के लिए सार्वजनिक सेवा कर रहा हूँ; मैं स्वर्ग से प्राप्त दैवीय नीतियों और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहता हूँ।” ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है। यदि कोई आगे बढ़कर यह कहता भी है कि “मैं मानवजाति के लिए सबसे परोपकारी और महानतम प्रयास करना चाहता हूँ, लोगों का कल्याण और उनके लिए अच्छे कर्म करना चाहता हूँ” तो उसका लक्ष्य इतना शुद्ध नहीं है; वह प्रसिद्धि के लिए ऐसा कर रहा है। क्या यह व्यक्तिगत प्रबंधन में लगे रहना नहीं है? यह सब व्यक्तिगत प्रबंधन के लिए ही है। ऐसे व्यक्ति के शब्द चाहे कितने ही अच्छे लगते हों, उसने कितने ही कष्ट सहे हों, उसने कितनी ही बड़ी कीमत चुकाई हो, उसने कितना ही बड़ा योगदान दिया हो या चाहे उसने मानवजाति को बदल दिया हो, एक युग बदल दिया हो या एक नया युग शुरू किया हो, ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी करता है उसका प्रयोजन दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए होता है। सभी भ्रष्ट मनुष्य इसी तरह कार्य करते हैं। चाहे कोई कुछ बड़ा करे या छोटा, उसका इरादा या तो प्रसिद्धि पाना होता है या लाभ कमाना। ऐसे लोगों के कार्यों की प्रकृति क्या होती है? यह व्यक्तिगत प्रबंधन में लगे रहने वाली होती है। क्या व्यक्तिगत प्रबंधन का परमेश्वर के प्रबंधन से कोई लेना-देना है? इसका उससे कोई संबंध नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “यह सच नहीं है। कुछ लोग इस दुनिया में आकर एक युग बदल देते हैं; क्या यह भी परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित नहीं है? क्या इसका भी उसके प्रबंधन से कोई लेना-देना नहीं है?” क्या ये बातें आपस में संबंधित हैं? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि इनमें कोई संबंध नहीं है? (क्योंकि इसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से कोई लेना-देना नहीं है।) सही कहा; यदि इसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं है तो इसका परमेश्वर के प्रबंधन से कोई संबंध नहीं है। लेकिन यह कथन केवल आधा ही सही है; यहाँ एक और पूर्व शर्त है, सार का प्रश्न। यदि इसका परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध नहीं है, तो यह सब केवल मानव प्रबंधन है। यह तो रहा एक पहलू, लेकिन तुम लोगों के लिए मुझे कुछ और भी कहना है : वे जो कर रहे हैं उसकी प्रकृति व्यक्तिगत प्रसिद्धि पाने और लाभ कमाने की प्रकृति है; अंतिम लाभार्थी वे स्वयं हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उसकी प्रकृति, सिद्धांत और अंतिम परिणाम किसके लिए होते हैं? (स्वयं के लिए।) ये उनके स्वयं के लिए होते हैं—और थोड़े और दबे-छिपे अर्थ में पूछूँ तो किसके लिए होते हैं? (शैतान के लिए।) सही कहा, ये शैतान के लिए होते हैं। शैतान के लिए कार्य करने की प्रकृति क्या है? (परमेश्वर का शत्रु होना।) और परमेश्वर का शत्रु होने के पीछे अंतर्निहित सार क्या है? हम यह क्यों कहते हैं कि यह परमेश्वर का शत्रु होना है? (उनके कार्यों के प्रारंभिक बिंदु, उद्गम और सिद्धांत सब कुछ परमेश्वर के वचनों के विरुद्ध होते हैं।) यह एक पहलू है, और यह एक बुनियादी समस्या है। वे जो कार्य कर रहे हैं उनके प्रारंभिक बिंदु, उद्गम और सिद्धांत सब कुछ शैतान के हैं और ये कुटिल हैं, तो अंतिम नतीजा क्या निकलता है? वे किसकी गवाही दे रहे होते हैं? (शैतान की।) सही कहा, वे शैतान की गवाही दे रहे होते हैं। संपूर्ण मानव इतिहास में क्या कोई ऐसा इतिहासकार या लेखक हुआ है जिसने प्रत्येक युग में मनुष्यों की उपलब्धियों का श्रेय सृष्टिकर्ता को दिया हो? (नहीं।) वे केवल यही कहेंगे कि ये मानवजाति के भव्य उपक्रमों से छोड़ी गई विरासतें या महान उपलब्धियाँ हैं। जो ये चीजें पीछे छोड़ जाते हैं वे प्रसिद्ध हस्तियाँ और महान लोग मानवजाति की नजर में किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? किसी भी प्रसिद्ध या महान व्यक्ति की, या जिसने भी मानवजाति के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उन सभी की पूजा भ्रष्ट मनुष्य करते हैं। लोगों के दिलों में उनके लिए जो जगह है उसे लोग परमेश्वर का स्थान मानते हैं। क्या यह इस समस्या का सार नहीं है? (हाँ, है।) हमने अभी-अभी चर्चा की कि लोगों के कार्यों के उद्गम, उद्देश्य, प्रारंभिक बिंदु और सिद्धांत सभी की जड़ें शैतानी तर्क में हैं और ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं। लोग मानवीय साधनों या अपने गुणों के माध्यम से कुछ हासिल करते हैं और दूसरों के बीच प्रसिद्ध हो जाते हैं, और अंतिम परिणाम यह होता है कि मानवजाति इन सबका श्रेय शैतान को देती है; ठीक उसी तरह जैसे कुछ लोग अब कन्फ्यूशियस और गुआन यू जैसी इतिहास की प्रसिद्ध हस्तियों और महान लोगों की पूजा करते हैं। इन लोगों ने चाहे जितने महान कार्य किए हों, मूल रूप से कहूँ तो इन विभिन्न चरित्रों के लिए इस दुनिया में आने और विभिन्न युगों में विशिष्ट कार्य करने की व्यवस्था दरअसल परमेश्वर ने ही की। लेकिन समूचे लिखित मानव इतिहास में, चाहे वह प्राचीन हो या आधुनिक, एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जो सृष्टिकर्ता के कार्यों की गवाही देता हो। केवल बाइबल ही व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य के दो चरणों के कुछ तत्व दर्ज करती है, लेकिन वहाँ भी परमेश्वर के काफी सीमित वचन ही दर्ज हैं। वास्तव में परमेश्वर ने बहुत-से वचन कहे हैं और असंख्य कार्य किए हैं, लेकिन मनुष्यों ने जो दर्ज किया है वह बेहद सीमित है। इसके विपरीत, अनगिनत किताबें हैं जो प्रसिद्ध और महान लोगों के बारे में लिखी गई हैं, उनकी गवाही देती हैं या उनकी प्रशंसा करती हैं। क्या यह उस समस्या का सार स्पष्ट नहीं करता जिस पर हमने अभी-अभी चर्चा की? अभी हमने उल्लेख किया कि पूरे इतिहास में प्रसिद्ध और महान लोगों ने अपने लिए कार्य किया है; सारतः, शैतान के लिए कार्य किया है। इससे पता चलता है कि वे अपने कर्तव्य नहीं निभा रहे थे, बल्कि अपने स्वयं का प्रबंधन कर रहे थे या अपने स्वयं के उद्यमों में संलग्न थे। दुनिया में लोग जो भी कार्य करते हैं उसकी प्रकृति, सार क्या है? (व्यक्तिगत प्रबंधन में लगे रहना।) इसे व्यक्तिगत प्रबंधन में लगे रहना क्यों माना जाता है? इसका मूल कारण क्या है? क्योंकि वह शैतान ही है जिसकी वे गवाही देते हैं; उनके सिद्धांत हों या कार्य करने की प्रेरणाएँ, सब कुछ शैतान से आता है और सत्य या परमेश्वर की अपेक्षाओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन कर्तव्य की प्रकृति क्या है? इसका अर्थ परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार किए गए कार्य से है, यानी कार्य सत्य पर आधारित होना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए और परमेश्वर की माँगों के अनुरूप होना चाहिए। इसके फलस्वरूप लोग परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं और उसे जान सकते हैं; उनके पास सृष्टिकर्ता की गहरी समझ और उसके प्रति अधिक सच्चा समर्पण हो, और इससे कहीं अधिक, ताकि वे वह कर सकें जो सृजित प्राणियों को करना चाहिए। दोनों के बीच यही सबसे बड़ा अंतर है। जब लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं तो परमेश्वर के साथ उनका संबंध तेजी से सामान्य हो जाता है। और, लोग दुनिया में जो भी काम करते हैं क्या उससे ऐसा प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, परिणाम ठीक उलटा है। कोई व्यक्ति सांसारिक कार्य करने में जितने अधिक वर्ष बिताता है, उतना ही अधिक वह परमेश्वर से विद्रोह करता जाता है और उससे दूर होता जाता है। व्यक्ति का व्यक्तिगत प्रबंधन जितना बेहतर होता जाता है, वह परमेश्वर से उतना ही दूर होता जाता है; व्यक्तिगत प्रबंधन जितना अधिक सफल होता है, वह परमेश्वर की अपेक्षाओं से उतना ही दूर भटकता जाता है। इसलिए कर्तव्य निभाना और सांसारिक कार्य में लगे रहना, पूरी तरह से दो भिन्न प्रकृतियाँ हैं।

अभी-अभी यह चर्चा की गई कि व्यक्ति के कर्तव्य और उसके सांसारिक कार्य में लगे रहने में क्या अंतर है। इस चर्चा का उद्देश्य लोगों को सत्य का कौन-सा पहलू समझने में मदद करना है? तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य मिले, जैसा परमेश्वर कहता है तुम्हें वैसे ही इसे निभाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब तुम्हें किसी कलीसिया का अगुआ चुना जाता है तो तुम्हारा कर्तव्य कलीसिया के अगुआ का कार्य करना है। और जब तुमने इस कार्य को अपना कर्तव्य मान लिया तो तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, यह जान लो कि एक अगुआ के रूप में अपना कार्य पूरा करना ही तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन है। तुम बाहरी दुनिया के किसी अधिकारी के रूप में सेवा नहीं कर रहे हो; यदि तुम अगुआ बनकर स्वयं को एक अधिकारी समझते हो, तो तुम भटक गए हो। लेकिन अगर तुम कहते हो कि “अब जब मैं कलीसिया का अगुआ बन गया हूँ तो मुझे सरपरस्त नहीं बन जाना चाहिए, मुझे खुद को औरों से नीचे रखना चाहिए, उन्हें अपने से ऊँचा और अधिक महत्वपूर्ण बनाना चाहिए” तो यह मानसिकता भी गलत है; यदि तुम सत्य को नहीं समझते तो कोई भी ढोंग करना बेकार है। अपने कर्तव्य की सही समझ के अलावा कुछ भी काम नहीं आएगा। सबसे पहले तुम्हें कलीसिया के अगुआ के कार्य के महत्व की सराहना करनी चाहिए : एक कलीसिया में दर्जनों सदस्य हो सकते हैं और तुम्हें यह सोचना चाहिए कि इन लोगों को परमेश्वर के सामने कैसे लाया जाए, उनमें से ज्यादातर लोगों को किस प्रकार सत्य को समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने दिया जाए। तुम्हें नकारात्मक और कमजोर लोगों के सिंचन-पोषण में भी अधिक समय देना चाहिए ताकि उन्हें नकारात्मक और कमजोर पड़ने से रोककर कर्तव्य निर्वहन में सक्षम बनाया जा सके। जिन लोगों में अपना कर्तव्य निभाने की काबिलियत है, तुम्हें उन सबका भी मार्गदर्शन सत्य को समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और अपना कर्तव्य ठीक ढंग से और इस प्रकार प्रभावशाली ढंग से निभाने में करना चाहिए। कुछ लोग वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन वे काफी बुरी मानवता के हैं, वे हमेशा कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा कर बाधा डालते हैं—इन लोगों की अपेक्षित ढंग से काट-छाँट की जानी चाहिए; जो लोग पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार करते हैं उन्हें हटा देना चाहिए। सिद्धांत के अनुसार निपटकर उनके लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात ये भी है : कलीसिया में कुछ लोगों के पास अपेक्षाकृत अच्छी मानवता और थोड़ी-सी काबिलियत होती है और वे कार्य के किसी खास पहलू को करने में सक्षम होते हैं; ऐसे सभी लोगों का बिना किसी देरी के, जितनी जल्दी हो सके पोषण किया जाना चाहिए; उन्हें सक्षम बनने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ेगी और यदि उन्हें कभी कोई प्रशिक्षण न मिला तो वे कुछ भी अच्छा नहीं कर पाएँगे। क्या ये ऐसे काम नहीं हैं जिन्हें किसी अगुआ या कार्यकर्ता को अच्छा प्रदर्शन करने के लिए तत्काल करने की आवश्यकता है? यदि तुम अगुआ बन गए हो और ये बातें ध्यान में नहीं रखते, और इस तरह कार्य नहीं करते तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो? (नहीं।) एक अगुआ के रूप में कलीसिया के कार्य के एक-एक पहलू को सुलझाना आवश्यक है : पहला, सबसे महत्वपूर्ण मामला प्रतिभाशाली लोगों को विकसित करना है। उन लोगों को ऊपर उठाओ जो अच्छी मानवता वाले हैं और जिनके पास काबिलियत है, और उन्हें विकसित और प्रशिक्षित करो। दूसरा, भाई-बहनों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश कराओ और उन्हें आत्म-चिंतन करने, स्वयं को जानने, मतांतरों और भ्रांतियों को पहचानने, लोगों को पहचानने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम बनाओ—यह जीवन प्रवेश का एक हिस्सा है। तीसरा, जो अपने कर्तव्य निभा सकते हैं उनमें से (घटिया मानवता वाले लोगों को छोड़कर) ज्यादातर लोगों को वास्तव में कर्तव्य निभा पाने में सक्षम बनाओ, और यह सुनिश्चित करो कि वे अनमने ढंग से कार्य करने के बजाय अपने कर्तव्य निर्वहन में नतीजे हासिल कर सकें। चौथा, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने वालों से तुरंत निपटो। यदि वे संगति के बाद भी सत्य को नकारते हैं, तो उनकी काट-छाँट की जानी चाहिए। फिर भी उन्हें पश्चात्ताप न हो तो उन्हें चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए, यहाँ तक कि हटा या निष्कासित कर देना चाहिए। पाँचवाँ, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को छद्म-विश्वासियों, झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने में सक्षम बनाओ, यह सुनिश्चित करो कि वे गुमराह न हों और जितनी जल्दी हो सके परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर प्रवेश कर सकें। ये पाँचों बिंदु महत्वपूर्ण हैं और अगुआ के मूल काम हैं। कार्य के इन पाँच पहलुओं को पूरा करना ही व्यक्ति को कलीसिया का एक योग्य अगुआ बनाता है। साथ ही, विशेष परिस्थितियाँ भी ठीक से संभालनी चाहिए। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि कुछ लोगों की नकारात्मकता और कमजोरी अस्थायी हो और ऐसे में तुम्हें उनके साथ उचित ढंग से पेश आना चाहिए। सबको एक ही लपेटे में नहीं लेना चाहिए; यदि कोई अस्थायी रूप से नकारात्मक है और तुम उस पर “नकारात्मक नैन्सी” या “दीर्घकालिक नकारात्मक” का ठप्पा लगाकर कहो कि परमेश्वर अब उसे नहीं चाहता तो यह उचित नहीं है। यही नहीं, सभी को अपनी व्यक्तिगत भूमिका निभानी चाहिए और अपनी क्षमताओं के अनुसार योगदान देना चाहिए। व्यक्तियों के गुणों, प्रतिभा, काबिलियत, उम्र और उनके परमेश्वर में विश्वास की अवधि को ध्यान में रखते हुए उचित रूप से कर्तव्य पालन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस दृष्टिकोण को विभिन्न प्रकार के लोगों के उपयुक्त बनाया जाना चाहिए ताकि वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाकर अपनी उपयोगिता अधिकतम बढ़ा सकें। यदि तुम ये बातें ध्यान में रखते हो तो तुममें एक जिम्मेदारी की भावना आएगी और तुम्हें हमेशा अवलोकन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। किस चीज का अवलोकन? इस बात का नहीं कि कौन अच्छा दिखता है ताकि उसके साथ तुम ज्यादा मिल-जुल सको; इस बात का नहीं कि जिसे तुम बदसूरत समझते हो उसे अपनी संगत से बाहर कर सको; इस बात का नहीं कि किसके पास काबिलियत और हैसियत है ताकि तुम उससे जुड़ सको; और निश्चित रूप से इस बात का अवलोकन भी नहीं कि कौन तुम्हारे सामने नहीं झुकता ताकि तुम उसे दंडित करने का प्रयास कर सको। अवलोकन इनमें से किसी का भी नहीं। तो तुम्हें किस चीज का अवलोकन करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर विभिन्न प्रकार के लोगों के प्रति उसके रवैये और उनसे उसकी अपेक्षाओं के आधार पर लोगों को समझना चाहिए और सिद्धांतों के आधार पर उनके साथ व्यवहार करना चाहिए; यह सत्य के अनुरूप है। सबसे पहले कलीसिया में तमाम लोगों को वर्गीकृत करो : जिनमें खूब काबिलियत और सत्य स्वीकारने की क्षमता है उन्हें एक श्रेणी में रखो, जो कम काबिल हैं और सत्य नहीं स्वीकार सकते उन्हें अलग श्रेणी में रखो; जो अपने कर्तव्य निभा सकते हैं उनकी अलग श्रेणी बनाओ और जो नहीं निभा सकते उनकी अलग श्रेणी बनाओ। अंत में ऐसे छद्म-विश्वासियों को भी एक ही श्रेणी में रखना चाहिए जो हमेशा शिकायतें करते रहते हैं, धारणाएँ फैलाते हैं, नकारात्मकता से घिरे रहते हैं और अशांति पैदा करते हैं। एक बार जब तुमने सबको वर्गीकृत कर स्पष्ट रूप से जान लिया कि किसे बचाया जा सकता है और किसे नहीं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रत्येक समूह की वास्तविक स्थिति को अच्छी तरह से समझ लिया तो तुम तमाम लोगों की असलियत जान लोगे; तुम परमेश्वर के इरादे समझ लोगे और जान लोगे कि परमेश्वर किसे बचाना चाहता है और किसे निकाल देना चाहता है। क्या यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी की भावना के कारण नहीं होता है? क्या यह कर्तव्य के प्रति सही रवैया नहीं है? यदि तुम्हारे पास यह सही रवैया है और तुम्हारे अंदर एक जिम्मेदारी की भावना आती है, तो तुम अपना काम अच्छी तरह कर सकते हो। यदि तुम अपने कर्तव्यों के साथ इस तरह पेश नहीं आते और इसके बजाय अपने कर्तव्य निर्वहन को ऐसे देखते हो जैसे कि तुम एक आधिकारिक पद पर हो और हमेशा यही सोचते हो कि “अगुआ होना पद धारण करने जैसा है; यह परमेश्वर का आशीष है! अब जब मेरे पास रुतबा है तो लोगों को मेरी बात सुननी होगी और यह अच्छी बात है!”—अगर तुम सोचते हो कि अगुआ होना अधिकारी होने के समान है, तो तुम मुसीबत में हो। तुम निश्चित रूप से एक अधिकारी की तरह और जिस तरीके से अधिकारी काम करते हैं उस आधार पर नेतृत्व करोगे; तो फिर तुम कलीसिया का कार्य क्या ठीक से कर सकते हो? इस तरह का दृष्टिकोण होने के कारण तुम्हें यकीनन उजागर कर निकाल दिया जाएगा। तुम अपनी कल्पना हमेशा एक अधिकारी के रूप में करते रहोगे, जिसमें तुम जहाँ भी जाते हो लोगों से घिरे रहते हो और तुम जो भी कहते हो लोग उसकी पालना करते हैं। इसके अलावा, कलीसिया में होने वाले किसी भी फायदे पर पहला दावा तुम्हारा होगा। कलीसिया का कोई भी काम हो, तुम्हें केवल आदेश देना होगा और स्वयं कुछ भी नहीं करना होगा। ये कैसी मानसिकता है? क्या यह रुतबे का फायदा उठाना नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? वे सभी लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, शैतानी स्वभाव के आधार पर अपने कर्तव्य निभाते हैं। बहुत-से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बेनकाब कर निकाल दिया गया है क्योंकि उन्होंने हमेशा शैतानी स्वभाव के आधार पर अपने कर्तव्य निभाए और सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया। अब भी कुछ अगुआ इसी तरह का आचरण करते हैं। अगुआ बनने के बाद वे अंदर से थोड़े-से उत्साहित और थोड़े-से आत्म-संतुष्ट महसूस करते हैं। इस अनुभूति का वर्णन करना कठिन है, लेकिन हर हाल में उन्हें लगता है कि उन्होंने काफी अच्छा काम किया है। लेकिन फिर वे सोचते हैं, “मैं इतना ढीठ नहीं हो सकता। ढीठ होना अहंकार का प्रतीक है और अहंकार विफलता का अग्रदूत है। मुझे विनम्र रहना चाहिए।” ऊपरी तौर पर वे विनम्र व्यवहार करते हैं और हर किसी को बताते हैं कि यह परमेश्वर की ओर से एक उत्थान और आदेश है, और उनके पास ऐसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अंदर ही अंदर वे खुश होते हैं : “आखिरकार, मुझे ही चुना गया! कौन कहता है कि मेरी काबिलियत अच्छी नहीं है? खराब होती तो मुझे कैसे चुना जाता? किसी और को क्यों नहीं चुना गया? ऐसा लगता है कि दूसरों की तुलना में मैं बेहतर हूँ।” जब यह कर्तव्य उन पर आन पड़ता है तो सबसे पहले वे अपने हृदय में इन्हीं चीजों के बारे में सोचते हैं। वे यह नहीं सोचते, “अब जबकि यह कर्तव्य मेरे ऊपर आन पड़ा है तो मैं इसे कैसे निभाऊँ? अतीत में किसने अच्छा काम किया होगा जिससे मैं कुछ सीख लूँ? इस कर्तव्य को निभाने के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? क्या कलीसिया की कार्य व्यवस्था में ऐसी कोई अपेक्षाएँ हैं? मैं कलीसिया के कार्य के इन पहलुओं के बारे में कभी चिंता नहीं करता था, लेकिन अब जबकि मुझे अगुआ चुन लिया गया है तो मुझे क्या करना चाहिए?” दरअसल, जब तक तुममें संकल्प है और तुम सत्य खोज सकते हो, तब तक एक रास्ता है। यदि तुम कार्य को अपना कर्तव्य मानते हो तो इसे अच्छी तरह से करना आसान होगा। कुछ लोग अगुआ बन जाते हैं और कहते हैं, “ये लोग अब मुझे सौंप दिए गए हैं? वे कैसे सभा करते हैं और उनके लिए कार्य की क्या व्यवस्था की जानी है यह मुझ पर निर्भर करेगा? हे परमेश्वर, मैं इस वक्त अपने दिल पर बहुत भार महसूस कर रहा हूँ।” ये शब्द क्या दर्शाते हैं? यही कि मानो वे महान कार्य पूरे कर सकते हैं; ये सब खोखली बातें और सिद्धांत हैं। क्या इस प्रकार का व्यक्ति थोड़ा-सा पाखंडी नहीं है? क्या तुम लोगों में से किसी ने कभी ऐसी बातें कही हैं? (बिल्कुल।) तो फिर तुम सब भी बड़े पाखंडी हो। वैसे, लोगों का ऐसा व्यवहार सामान्य है। जो छोटे अधिकारी बनते हैं उन्हें भी थोड़ा दिखावा करना पड़ता है। उन्हें अचानक महसूस होता है कि उनकी अपनी अहमियत बढ़ गई है और कुछ रुतबे और प्रसिद्धि का स्वाद चखते ही उनके दिल उफनते समुद्र की तरह हिलोरें मारने लगते हैं, और वे एक अलग-ही व्यक्ति बन जाते हैं। उनके भ्रष्ट स्वभाव हों या असयंमित इच्छाएँ, सब कुछ उभर कर सामने आ जाता है। ऐसे नकारात्मक, निष्क्रिय व्यवहार हर किसी में होते हैं। यह भ्रष्ट मानवजाति के चरित्र की समानता है। हर भ्रष्ट मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है। कुछ लोग अगुआ बनने के बाद आश्वस्त नहीं होते कि उन्हें अब कैसे चलना चाहिए; कुछ लोग आश्वस्त नहीं होते कि उन्हें लोगों से कैसे बात करनी चाहिए। उन्हें कैसे बात करनी चाहिए इसके बारे में आश्वस्त न होने का कारण बेशक कायरता नहीं है, बल्कि एक अगुआ को कैसा आचरण करना चाहिए इसके बारे में अनिश्चितता के कारण ऐसा है। अन्य लोग अगुआ बनने के बाद इस बात को लेकर अनिश्चित होते हैं कि क्या खाएँ या क्या पहनें। ऐसे तमाम व्यवहार हैं। क्या तुम लोगों में से कोई भी इस तरह का व्यवहार दिखाता है? तुम सभी लोग निश्चित रूप से अलग-अलग मात्रा में ऐसा करते हो। तो इन मनोदशाओं और व्यवहारों को छोड़ने में कितना समय लगेगा? एक-दो साल, चार-पाँच साल या दस साल? यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति में सत्य का अनुसरण करने का कितना संकल्प है और वह किस हद तक सत्य का अनुसरण करता है।

सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में कुछ लोगों की सत्य की समझ उनके प्रवेश के समानुपात में होती है; दोनों एक दूसरे पर टिके हुए हैं। वे उतने ही सत्य में प्रवेश कर सकते हैं जितना सत्य वे समझने में सक्षम हैं; सत्य की उनकी समझ की गहराई उनके प्रवेश की गहराई भी है, साथ ही उनकी समझ-बूझ, अनुभूतियों और अनुभवों की गहराई भी है। फिर भी कुछ लोग बहुत सारे सिद्धांत समझते हैं, लेकिन उनका अभ्यास और प्रवेश शून्य है। इसलिए उन्होंने चाहे कितने ही उपदेश सुने हों, वे अपनी आंतरिक कठिनाइयों का समाधान कभी नहीं कर पाते। जब किसी मामूली समस्या से सामना होता है तो उनका बदसूरत पहलू तुरंत सामने आ जाता है और वे चाहे जितनी कोशिश कर लें, इसे नियंत्रित नहीं कर सकते; वे इसे चाहे जैसे छिपा लें, उनकी भ्रष्टता प्रकट हो ही जाती है। वे समाधान के लिए सत्य स्वीकारने या सत्य खोजने में असमर्थ रहते हैं। वे ढोंग करना, धोखा देना और अच्छे होने का दिखावा करना भी सीख लेते हैं। उनके भ्रष्ट स्वभाव बरकरार और अपरिवर्तित रहते हैं; यह सत्य पाने का प्रयास न करने का परिणाम है। इसलिए सब कुछ विचार करने के बाद अब बात घुम-फिरकर वापस उसी कथन पर आ जाती है : सत्य का अनुसरण बहुत महत्वपूर्ण है। यही बात अपना कर्तव्य निभाने पर भी लागू होती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें क्या कर्तव्य मिला है, या तुम पर कौन सा कर्तव्य आन पड़ा है, चाहे यह कोई बड़ी जिम्मेदारी हो या कोई आसान कर्तव्य हो, या भले ही यह इतना विशिष्ट भी न हो, यदि तुम सत्य खोजने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाने में सक्षम हो तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा लोगे। यही नहीं, अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम अपने जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन दोनों में अलग-अलग मात्रा में वृद्धि का अनुभव करोगे। लेकिन, यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और अपने कर्तव्य को केवल अपना निजी प्रबंधन, अपना निजी काम मानते हो या इसे निजी पसंद या निजी कार्य मानते हो तो तुम्हें परेशानी होगी। कर्तव्य को अपना निजी व्यवसाय मानना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाना अलग-अलग बातें हैं। जब तुम अपने कर्तव्य को अपना प्रबंधन मानते हो, तो तुम किस चीज का अनुसरण कर रहे हो? तुम प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का पीछा कर रहे हो और अपनी माँगें पूरी करने की औरों से उम्मीद कर रहे हो। अपना कर्तव्य इस तरीके से निभाने का अंतिम नतीजा क्या होगा? एक लिहाज से, इस तरीके से कर्तव्य निर्वहन मानक पर खरा नहीं उतरेगा; यह बेकार की मेहनत है। भले ही तुमने सतह पर बहुत प्रयास किए हों, फिर भी तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया, इसलिए तुम्हारे कर्तव्य के नतीजे खराब निकलेंगे और परमेश्वर प्रसन्न नहीं होगा। दूसरे लिहाज से, तुम अक्सर अपराध करोगे, अक्सर गड़बड़ी कर बाधा डालोगे और अक्सर गलतियाँ करोगे जिनके प्रतिकूल नतीजे निकलेंगे। अब बहुत से लोग अपने कर्तव्य निभाने में खरे नहीं उतरते। वे जानबूझकर और मनमाने ढंग से पेश आते हैं और वास्तव में कोई नतीजा हासिल नहीं कर पाते और कभी-कभी कलीसिया के कार्य को नुकसान भी पहुँचाते हैं। इस तरह कर्तव्य निभाना वास्तव में कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करना और बाधा डालना है; यह एक कतई दुष्ट व्यक्ति का व्यवहार है। जो लोग अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमना रवैया अपनाते हैं उन्हें उजागर किया जाना चाहिए, ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें। यदि वे वास्तव में आत्म-चिंतन कर अपनी गलतियाँ पहचान सकें और खुद से नफरत कर सकें तो वे यहाँ रुके रह सकते हैं और अपने कर्तव्य निभाना जारी रख सकते हैं। लेकिन अगर वे अपनी गलतियाँ कभी न स्वीकारें और अपना बचाव कर खुद को सही ठहराएँ, यह दावा करें कि परमेश्वर के घर में कोई प्रेम नहीं है और उनके साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है, तो यह हठपूर्वक पश्चात्ताप न करने का एक संकेत है, और उन्हें कलीसिया से बाहर कर देना चाहिए। इन लोगों के गड़बड़ी करने और बाधा पहुँचाने का मूल कारण क्या है? क्या ऐसा इसलिए है कि उन्होंने जानबूझकर गड़बड़ी करने और बाधा डालने की योजना बनाई है? नहीं, इसका मुख्य कारण यह है कि उन्हें सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं है और उनकी मानवता बहुत घटिया है। इनमें से कुछ व्यक्तियों में थोड़ी-सी काबिलियत होती है और वे सत्य को समझ सकते हैं, लेकिन वे सत्य को तनिक भी नहीं स्वीकारते, इसका अभ्यास करना तो दूर की बात है। उनकी मानवता अत्यंत घिनौनी है। वे चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे हमेशा गड़बड़ियाँ पैदा कर बाधा डाल रहे होते हैं, कलीसिया के कार्य को छिन्न-भिन्न कर रहे होते हैं और भयंकर प्रभाव वाले कई बुरे परिणाम ला रहे होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये लोग छद्म-विश्वासी हैं, ये सभी दुष्ट लोग हैं। मुख्यतः यही कारण है कि उन्हें निकाल दिया जाता है। अब ज्यादातर लोग छद्म-विश्वासियों को पहचान सकते हैं। इन व्यक्तियों के विभिन्न व्यवहार देखकर उन्हें गुस्सा आता है। इन लोगों को परमेश्वर में विश्वास करने वाला कैसे माना जा सकता है? वे शैतान के चाकर हैं जिन्हें कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करने और बाधा डालने के लिए भेजा गया है। कुछ लोग निपट मुफ्तखोर हैं, वे आरामतलब और काम से जी चुराने वाले लोगों में होते हैं; वे कोई काम नहीं करना चाहते, फिर भी रोजाना अच्छे से खाना चाहते हैं। क्या वे परजीवी नहीं हैं? वे पहरेदार कुत्तों से भी घटिया हैं। इस तरह इन लोगों को निकाल दिया गया है। जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक और उत्सुक होते हैं। भले ही ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि वास्तव में कर्तव्य का क्या अर्थ है, वे अपने हृदय में कम-से-कम इतना तो जानते ही हैं कि लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और वे इसके इच्छुक होते हैं। लेकिन क्या अपने कर्तव्य निभाने का इच्छुक होने का यह मतलब है कि व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर रहा है? क्या इस आंतरिक इच्छा का मतलब यह है कि उसने अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाए हैं? कदापि नहीं। यह माने जाने के लिए कि उसने अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभा लिए हैं, व्यक्ति को सत्य व्यवहार में लाना होगा और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के मानक पूरे करने होंगे। सत्य को अमल में लाने से पहले तुम चाहे अपने में कितनी ही आस्था होने का दावा करो, या तुम अपने को कितना भी उत्सुक और इच्छुक बताओ—जैसे कि तुम अपनी जान जोखिम में डालने में सक्षम हो, आग और पानी से गुजरने से भी नहीं झिझकते हो—ये सब सिर्फ नारे हैं और इनसे कोई मकसद हल नहीं होता। इस इच्छा के आधार पर तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार भी कार्य करना चाहिए। तुम कहते हो, “सत्य मुझे वास्तव में पसंद नहीं है, न ही मैं इसका अनुसरण करता हूँ, और अपने कर्तव्य निभाते हुए मेरे स्वभाव में बहुत बदलाव नहीं आया है। लेकिन एक बात पर मैं कायम रहता हूँ : मुझे जो भी करने को कहा जाता है, वह करता हूँ। मैं गड़बड़ी नहीं करता, बाधा नहीं डालता; हो सकता है कि मैं समर्पण न कर पाऊँ, लेकिन मैं सुनता अवश्य हूँ।” जो ऐसा कर सकता है क्या उसे कलीसिया में बने रहने और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभाने का मौका नहीं मिलेगा? लेकिन जिन दुष्ट लोगों और छद्म-विश्वासियों को हटा दिया गया, वे इस न्यूनतम अपेक्षा को भी पूरा नहीं कर सके, और उन्होंने गड़बड़ियाँ भी फैलाई। ऐसे छद्म-विश्वासियों या दुष्ट लोगों को अपने कर्तव्य निभाने के लिए कलीसिया में बने रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को छद्म-विश्वासियों और दुष्ट लोगों की पहचान होनी चाहिए; अन्यथा, वे आसानी से उनसे गुमराह हो जाएँगे। हर विवेकशील और तार्किक व्यक्ति को छद्म-विश्वासियों और दुष्ट लोगों को नकारने का रवैया अपनाना चाहिए।

अपने कर्तव्य निभाना परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। सबसे पहले, व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि कर्तव्य क्या है और फिर धीरे-धीरे इसका वास्तविक अनुभव और समझ हासिल करनी चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति किसी व्यक्ति का कम-से-कम क्या रवैया होना चाहिए? यदि तुम कहते हो कि “यह कर्तव्य मुझे परमेश्वर के घर ने दिया है, इसलिए यह मेरा कर्तव्य है। मैं इसे जैसे चाहूँ वैसे कर सकता हूँ, क्योंकि यह मेरा सरोकार है और इसमें कोई दखल नहीं दे सकता” तो क्या यह स्वीकार्य रवैया है? बिल्कुल भी नहीं। यदि अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हारा रवैया ऐसा है, तो तुम मुसीबत में हो, क्योंकि तुम्हारा रवैया सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। तुम्हारा रवैया सत्य खोजने के बजाय जो चाहो वो करने का है, परमेश्वर से भय मानने वाला हृदय होने की तो बात ही दूर है। यदि कोई व्यक्ति बहुत ही उद्दंड है तो वह अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने उचित कार्य के प्रति कुछ हद तक लापरवाह होगा। अपना कर्तव्य निभाते समय लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? उनमें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसे संतुष्ट करने की इच्छा होनी चाहिए। यदि वे परमेश्वर का सौंपा आदेश पूरा नहीं करते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर को निराश किया है; और यदि उन्होंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया है, तो उन्हें लगता है कि वे मानव कहलाने योग्य नहीं हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय इस प्रकार का रवैया अपनाना तुम्हें वफादार बनाता है। अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए तुम्हें सबसे पहले यह जानना होगा कि परमेश्वर क्या माँग करता है, सत्य खोजना होगा और सिद्धांत खोजने होंगे। एक बार जब तुमने यह सुनिश्चित कर लिया कि परमेश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिया है वही तुम्हारा कर्तव्य है तो तुम्हें यह सोचना और खोजना चाहिए, “मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभा सकता हूँ? मुझे किन सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर लोगों से क्या माँग करता है? मुझे क्या काम करना चाहिए? मुझे कार्य कैसे करना चाहिए ताकि मैं अपनी जिम्मेदारियाँ निभाऊँ और वफादार रहूँ?” तुम किसके प्रति वफादार हो? परमेश्वर के प्रति। तुम्हें परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहिए और लोगों के लिए अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रहना चाहिए। अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रहने का क्या मतलब है? उदाहरण के लिए, यदि तुम्हें एक-दो साल के लिए कोई कर्तव्य सौंपा गया है, लेकिन अभी तक किसी ने तुम्हारी जाँच नहीं की है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि कोई पूछताछ नहीं करता है तो क्या इसका मतलब है कि कर्तव्य खत्म हो गया है? नहीं। इस बात पर कोई ध्यान मत दो कि कोई तुम्हारी जाँच करता है या नहीं, कोई तुम्हारे काम का निरीक्षण करता है या नहीं; यह कार्य तुम्हें सौंपा गया था, इसलिए यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हें यह सोचना चाहिए कि यह काम कैसे करना है और इस काम को कैसे बेहतर ढंग से किया जा सकता है और इसी तरह तुम्हें इसे करना चाहिए। यदि तुम हमेशा इसी इंतजार में रहते हो कि दूसरे तुमसे पूछताछ करें, वे तुम्हारा निरीक्षण करें और तुम्हें प्रोत्साहित करें तो क्या इस तरह का रवैया तुम्हारे कर्तव्य में होना चाहिए? यह किस तरह का रवैया है? यह नकारात्मक रवैया है; तुम्हें अपने कर्तव्य में इस तरह का रवैया नहीं रखना चाहिए। यदि तुम यह रवैया अपनाते हो तो तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन निश्चित रूप से अधूरा रहेगा। समुचित रूप से कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास सबसे पहले एक उचित रवैया होना चाहिए, और तुम्हारा रवैया सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की गारंटी देने का यही एकमात्र तरीका है।

कर्तव्य क्या होता है, कर्तव्य के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या है, साथ ही अपना कर्तव्य निभाने और किसी भी प्रकार के सांसारिक कार्य में संलग्न होने में अंतर क्या होता है, इन विषयों पर हमारी संगति फिलहाल यहीं समाप्त होने वाली है। संगति के दौरान बताई गई बातों पर तुम सबको विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अपना कर्तव्य निभाने और निजी प्रबंधन में जुटने के संबंध पर चर्चा क्यों की गई? इन विषयों पर चर्चा का वांछित परिणाम क्या है? एक ओर यह चर्चा लोगों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए सही मार्ग, सही दिशा और सही सिद्धांत प्रदान कर सकती है। दूसरी ओर यह चर्चा लोगों को यह पहचानने में भी मदद कर सकती है कि कौन-कौन सा व्यवहार निजी प्रबंधन में लगा रहना माना जाता है। ये दोनों पहलू आपस में जुड़े हुए भी हैं तो एक दूसरे से भिन्न भी हैं। इन दोनों पहलुओं को समझने का मतलब सत्य के शब्दों को समझने के बारे में नहीं है; तुम्हें यह समझना होगा कि इनमें कौन-सी मनोदशाएँ और अभिव्यक्तियाँ शामिल होती हैं। एक बार इन मनोदशाओं और अभिव्यक्तियों की पूरी समझ पा लेने और इन्हें पहचान सकने के बाद अगली बार जब तुम ये गलत मनोदशाएँ और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करोगे तो तुम यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने के लिए सत्य खोजोगे, बशर्ते तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम सत्य के इस पहलू को नहीं समझते हो तो तुम यह सोचकर निजी प्रबंधन में जुट सकते हो कि तुम स्वयं को परमेश्वर के लिए खपा रहे हो, और यहाँ तक कि यह भी मान सकते हो कि तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो और बहुत वफादार हो। सत्य को न समझने से ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न होंगे। उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में जब तुम्हारे कुछ विचार व तौर-तरीके, और कार्य करने के तुम्हारे इरादे व उद्देश्य उजागर होते हैं, तो तुम्हें एहसास होता है कि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो और अपने कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों व दायरे से पहले ही भटक चुके हो; प्रकृति बदल चुकी है, और तुम वास्तव में निजी प्रबंधन में लगे हुए हो। जब तुम इन सत्यों को समझोगे, केवल तभी यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता मिलेगा और तुम ऐसे विचारों, कार्यों और अभिव्यक्तियों पर पूर्ण-विराम लगा पाओगे। लेकिन यदि तुम सत्य को नहीं समझते और अपना कर्तव्य निभाते समय निजी प्रबंधन में लगे रहते हो तो इस तथ्य से बेखबर रहोगे कि तुम सिद्धांतों का उल्लंघन तो पहले ही कर चुके हो। उदाहरण के लिए, पौलुस की तरह जो इतने वर्षों तक काम और भाग-दौड़ करने के बाद अंत में परमेश्वर पर चिल्लाकर बोला, “यदि तुम मुझे मुकुट नहीं देते हो, तो तुम परमेश्वर नहीं हो!” तुम देख लो, उसके मुँह से तब भी ऐसे शब्द निकल गए। यदि लोग आज सत्य को समझने के बाद भी पौलुस के मार्ग पर चलते हैं तो वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है तो फिर तुम्हारे लिए सत्य को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य को समझे बिना तुम निश्चित रूप से शैतानी स्वभाव के आधार पर जी रहे हो। बहुत हुआ तो तुम केवल कुछ नियमों का पालन कर लोगे और जगजाहिर गड़बड़ियाँ करने से बच लोगे, फिर भी यह सोचोगे कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। यह काफी दयनीय बात हो जाएगी। इसलिए यदि कोई सत्य का अनुसरण करना चाहता है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को अपना लक्ष्य बनाता है तो उसे पहले सत्य को समझना होगा। सत्य को समझने का उद्देश्य यह है कि लोग अन्य लोगों और घटनाओं को सटीक रूप से समझ सकें, विवेकवान बनें, उनके पास कार्य के सिद्धांत हों, वे अभ्यास का मार्ग अपनाएँ और परमेश्वर के प्रति समर्पण करें। जब तुम सत्य को समझ जाते हो, तो तुम तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचान सकते हो, अभ्यास का सही मार्ग चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार बोल और कार्य कर सकते हो, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो। यदि तुम सत्य को नहीं समझते तो तुम जिस मार्ग पर चलोगे वह निश्चित रूप से गलत होगा, तुम्हें कोई जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा, न ही तुम बचाए जा सकोगे। कुछ लोग अपना भेष बदलने में खासे माहिर होते हैं, ऐसे दिखते हैं जैसे वे सत्य का अनुसरण कर रहे हों, लेकिन उनके कार्यकलापों में कोई सिद्धांत नहीं होता है और वे जो कुछ भी करते हैं उससे गड़बड़ियाँ और बाधाएँ खड़ी होने से कलीसिया के कार्य में बहुत परेशानी पैदा होती है; ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता। इसलिए बार-बार धर्मोपदेश सुनने और बार-बार परमेश्वर के वचन खाने-पीने का उद्देश्य आँख-कान को संतुष्ट करना या मन को खुश करना नहीं है, न ही यह स्वयं को सिद्धांतों से लैस करना या वाक्पटुता का अभ्यास करना है; इसका उद्देश्य स्वयं को सत्य से सुसज्जित कर सत्य की समझ प्राप्त करना है। अभी जो चर्चा की गई थी उसमें परमेश्वर को जानने के सत्य के संदर्भ में वाकई ज्यादा गहराई नहीं है; यह तो सबसे बुनियादी सत्य है। सत्य के बारे में लोगों की समझ सीमित होने के साथ ही अलग-अलग गहराई लिये होती है और यह व्यक्ति की काबिलियत पर निर्भर करती है। कुछ लोग इसे अधिक गहराई से समझते हैं; यानी उनमें समझने की क्षमता होती है। अन्य लोग काफी सतही तौर पर समझते हैं। किसी व्यक्ति की समझ की गहराई चाहे जो भी हो, सबसे महत्वपूर्ण बात है सत्य का अभ्यास। लेकिन सत्य को छोटे-बड़े, तुच्छ-महान में नहीं बाँटा जा सकता है, न ही इसे उथले-गहरे में बाँटा जा सकता है। यानी सत्य को सबसे बुनियादी या सबसे प्राथमिक श्रेणी में तो रखा जा सकता है, लेकिन इसे गहराई के स्तरों के आधार पर नहीं बाँटा जा सकता है; बात बस इतनी है कि लोग इसे अलग-अलग गहराई तक समझते और अनुभव करते हैं। सत्य के सार को छूनी वाली हर चीज ही समान रूप से गहरी होती है और यह कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसे कोई भी पूरी तरह अनुभव कर सके या पूरी तरह अपने वश में कर सके। सत्य का चाहे कोई भी पहलू हो, लोगों को इसे समझने और अभ्यास में लाने के लिए सबसे उथले स्तर से शुरूआत करनी पड़ती है और फिर धीरे-धीरे गहराई की ओर बढ़कर सत्य की सच्ची समझ तक पहुँचना और वास्तविकता में प्रवेश करना पड़ता है। सत्य का सबसे उथला हिस्सा वह है जिसे शब्दशः समझा जा सकता है। यदि लोग इसका अभ्यास नहीं कर सकते या इसमें प्रवेश नहीं कर सकते तो वे केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही समझते हैं। केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझना सत्य के सार से बहुत पीछे रह जाने की बात है। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे शाब्दिक अर्थ समझाने की क्षमता को हमेशा सत्य को समझना मानते हैं; यह सिर्फ मानवीय अज्ञानता है। यदि तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास केवल नियमों का पालन करना और बिना किसी सिद्धांत के उन्हें कठोरता से लागू करना है तो यह मत सोचो कि यह सत्य का अभ्यास और वास्तविकता में प्रवेश करना है; तुम अभी भी इससे बहुत दूर हो। यदि तुम कई और वर्षों तक अभ्यास और अनुभव करना जारी रखते हो, और भी अधिक रोशनी खोज लेते हो, जो तुम्हारे लिए कई महीनों या वर्षों तक अभ्यास और अनुभव करने के लिए पर्याप्त होगी, और बाद में और भी अधिक अनुभव के साथ तुम इस तरह उथले से गहरे की ओर कदम-दर-कदम बढ़ते हुए नई रोशनी खोज लेते हो तो तुम वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हो। जिसने सत्य वास्तविकता में पूरी तरह प्रवेश कर लिया, समझो सिर्फ उसी ने सत्य हासिल किया है। भले ही एक दिन तुम सत्य की वास्तविकता को जी लो और भले ही यह कहा जा सके कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है, लेकिन हकीकत यह है कि तुमने जो अनुभव किया और जाना है वह अभी भी सीमित है। चूँकि सत्य बहुत गहरा है और कोई अपने जीवनकाल के कई दशकों में जो कुछ अनुभव कर और समझ सकता है वह अत्यंत सीमित होता है इसलिए तुम यह नहीं कह सकते कि तुम सत्य हो, न ही तुम पौलुस की तरह दावा कर सकते हो कि “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है” (फिलिप्पियों 1:21)। तो फिर जाहिर है कि लोगों के लिए सत्य को समझना कुछ हद तक संभव है लेकिन सत्य हासिल करना किसी भी सूरत में आसान मामला नहीं है। यदि कोई सबसे उथला सत्य भी नहीं समझ सकता या इसे अभ्यास में नहीं ला सकता तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता और निश्चित रूप से उसे आध्यात्मिक समझ भी नहीं है; जो लोग सत्य के आस-पास भी नहीं फटकते उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग कभी सत्य को नहीं समझते वे अपने कर्तव्य भी अच्छी तरह नहीं निभा सकते; वे जीवन का कूड़ा-करकट हैं, मानव के वेश में जानवर हैं। कुछ लोग कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हैं और सिर्फ इसी कारण उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझते हैं। यदि वे वास्तव में कुछ सत्य समझते हैं तो फिर वे अपने कर्तव्य ठीक से क्यों नहीं निभा सकते? उनके कार्यों में कोई सिद्धांत क्यों नहीं है? इससे पता चलता है कि धर्म-सिद्धांतों को समझना बेकार है; अधिक धर्म-सिद्धांत समझने का मतलब सत्य को समझना नहीं है।

कर्तव्य के विषय पर संगति करने के बाद अब हम कर्तव्य के समुचित निर्वहन के मुद्दे पर आगे बढ़ेंगे। कर्तव्य के समुचित निर्वहन के संबंध में—इसमें “समुचित” शब्द पर जोर दिया गया है। तो, “समुचित” को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? इसमें भी, तलाश करने के लिए सत्य हैं। क्या केवल काम चलाऊ कार्य करना ही पर्याप्त है? “समुचित” शब्द को कैसे समझना और उस पर विचार करना है, इसके विशिष्ट विवरण के लिए, तुम्हें अनेक सत्य समझने होंगे और बहुत से सत्यों पर और अधिक संगति करनी होगी। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान तुम्हें सत्य और सिद्धांतों को समझना चाहिए; तभी तुम कर्तव्य का समुचित निर्वहन कर सकते हो। लोगों को अपने कर्तव्य क्यों निभाने चाहिए? एक बार जब वे परमेश्वर में विश्वास करके उसके आदेश को स्वीकार कर लेते हैं, तो परमेश्वर के घर के काम में और परमेश्वर के कार्य-स्थल के प्रति जिम्मेदारी और दायित्व में लोगों की भी हिस्सेदारी होती है और बदले में, इस जिम्मेदारी और दायित्व के कारण, वे परमेश्वर के कार्य का एक तत्व, उसके कार्य के प्राप्तकर्ताओं में से एक, और उसके उद्धार के प्राप्तकर्ताओं में से एक बन गए हैं। लोगों के उद्धार का इन प्रश्नों से खासा संबंध है कि वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन कैसे करते हैं, क्या वे इनका निर्वहन अच्छी तरह से कर सकते हैं या नहीं और क्या वे इनका समुचित निर्वहन कर सकते हैं या नहीं। चूँकि तुम परमेश्वर के घर का एक हिस्सा बन गए हो और तुमने उसका आदेश स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे पास अब कर्तव्य है। यह बताना तुम्हारा काम नहीं है कि यह कर्तव्य कैसे निभाया जाना चाहिए; यह बताना परमेश्वर का कार्य है; यह बताना सत्य का कार्य है; और यह सत्य के मानकों से तय होता है। इसलिए लोगों को यह जानना, समझना चाहिए और इस बात पर स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर चीजों का आकलन कैसे करता है, वह उनका आकलन किस आधार पर करता है—अनुसरण के लिए यह एक उपयुक्त चीज है। परमेश्वर के कार्य में, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। अर्थात अलग-अलग प्रतिभा, काबिलियत, उम्र और स्थिति वाले लोगों को अलग-अलग समय पर अलग-अलग कर्तव्य मिलते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें क्या कर्तव्य मिला है, और कब और किन परिस्थितियों में मिला है, तुम्हारा कर्तव्य केवल एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसका निर्वहन तुम्हें करना है, यह तुम्हारा प्रबंधन नहीं है, तुम्हारा व्यवसाय तो यह बिल्कुल भी नहीं है। तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के लिए परमेश्वर का यह मानक है कि यह “समुचित” हो। “समुचित” होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर उसे संतुष्ट करना। यह परमेश्वर को कहना चाहिए कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित है और इसके लिए उसकी स्वीकृति मिलनी चाहिए। तभी तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित होगा। यदि परमेश्वर कहता है कि यह समुचित नहीं है, तो तुम चाहे जितने समय से अपना कर्तव्य निभा रहे हो या चाहे तुमने जितनी भी कीमत चुकाई हो, यह समुचित नहीं है। तो फिर नतीजा क्या निकलेगा? यह सब श्रम की श्रेणी में रखा जाएगा। निष्ठावान हृदय वाले श्रमिकों के एक छोटे-से वर्ग को ही बख्शा जाएगा। यदि वे अपने श्रम में निष्ठावान नहीं हैं तो उन्हें बख्शे जाने की कोई आशा नहीं है। स्पष्ट रूप से कहूँ तो वे किसी विपत्ति में नष्ट हो जाएँगे। यदि कोई अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी लक्ष्य पूरा नहीं करता है तो उससे कर्तव्य निर्वहन का अधिकार छीन लिया जाएगा। यह अधिकार छिन जाने के बाद कुछ लोग दरकिनार कर दिए जाएँगे। दरकिनार कर दिए जाने के बाद उनका ख्याल अलग तरीकों से रखा जाएगा। क्या “अलग तरीकों से ख्याल रखने” का मतलब निकाल दिया जाना है? यह जरूरी नहीं है। परमेश्वर मुख्य रूप से यह देखता है कि किसी व्यक्ति ने पश्चात्ताप किया है या नहीं। इसलिए तुम अपना कर्तव्य निर्वहन कैसे करते हो यह महत्वपूर्ण है, और लोगों को इसे गंभीरता व कर्तव्यनिष्ठा से करना चाहिए। चूँकि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन सीधे तौर पर तुम्हारे जीवन प्रवेश और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश के साथ ही तुम्हारे उद्धार और तुम्हें पूर्ण बनाए जाने जैसे बड़े मुद्दों से जुड़ा है, इसलिए तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करते समय अपने कर्तव्य निर्वहन को सर्वोपरि कार्य मानना चाहिए। तुम इसके बारे में भ्रमित नहीं हो सकते। अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न लोग भाँति-भाँति के व्यवहार प्रदर्शित करेंगे। ये भिन्न-भिन्न व्यवहार लोगों को ही नहीं बल्कि परमेश्वर को भी दिखाई देते हैं। कर्तव्य निभाने वाले लोगों को अंक देने और उनका मूल्याँकन करने का काम सिर्फ कलीसिया ही नहीं करती है; अंततः परमेश्वर भी उन सबका मूल्याँकन कर उन्हें अंक देता है। कुछ लोग वास्तव में मानक पूरा करते हैं, जबकि अन्य सरासर अयोग्य हैं। कुछ अयोग्य लोग अभी भी निगरानी में होंगे, जबकि कुछ परमेश्वर द्वारा पहले से ही निश्चित रूप से वर्गीकृत किए जा चुके होंगे। वे कौन लोग हैं जिन्हें परमेश्वर अयोग्य मानता है? ये वे लोग हैं जिनमें खराब मानवता है और जिनमें विवेक और तर्क की कमी है, जो लगातार अनमने होकर अपने कर्तव्य निभाते हैं। उन्हें परमेश्वर का चाहे कितना ही अनुग्रह क्यों न मिल जाए, वे इसका प्रतिफल चुकाने में रुचि नहीं लेते और कृतज्ञहीन होते हैं। बेशक इसमें स्वाभाविक रूप से दुष्ट लोग भी शामिल हैं। यह कहा जा सकता है कि खराब मानवता वाला कोई भी विवेकहीन और तर्कहीन व्यक्ति अपने कर्तव्य समुचित रूप से नहीं निभाता है। जो लोग स्पष्ट रूप से बुरे हैं वे अपने कर्तव्य निभाते समय अनिवार्य रूप से अनगिनत गलतियाँ करेंगे। जब तक उन्हें बाहर नहीं निकाला जाएगा, वे दुष्टता करते रहेंगे। ऐसे लोगों को तुरंत बाहर किया जाना चाहिए। निःसंदेह, ऐसे भी कुछ लोग हैं जिनमें मानवता की कुछ झलक दिखती है और जो बुरे नहीं दिखते हैं लेकिन वे अनमने होकर कर्तव्य निभाते हैं और कोई नतीजे नहीं दे पाते। काट-छाँट होने और सत्य पर संगति प्राप्त करने के बाद यह इस पर निर्भर करेगा कि अंततः वे कैसा प्रदर्शन करते हैं और उन्होंने ईमानदारी से पश्चात्ताप किया है या नहीं। परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों का इंतजार और अवलोकन कर रहा है। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिनकी मानवता खराब है और जिनमें विवेक और तर्क की कमी है, साथ ही जो स्पष्ट रूप से बुरे हैं, परमेश्वर उनके बारे में पहले ही एक निर्णायक फैसले पर पहुँच चुका है—उन्हें पूरी तरह से निकाल दिया जाना है।

आइए, इसके बाद हम इस बारे में संगति करें कि अपर्याप्त कर्तव्य निर्वहन की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं। पहले मैं एक व्यक्ति का उदाहरण दूँगा और इसके जरिये तुम सब लोग समझ सकते हो कि क्या वह अपने कर्तव्य का निर्वहन समुचित रूप से और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कर रहा है कि नहीं। एक व्यक्ति कलीसिया में अगुआ बनने के लिए चुना गया और उसकी मेजबानी एक ऐसे अर्ध-विश्वासी परिवार ने की जिसके कुछ सदस्य विश्वासी थे और कुछ नहीं थे। लेकन उन सभी में एक अजीब खासियत थी, वह यह कि वे सत्ता में बैठे लोगों की मनोदशा समझने और उनकी चापलूसी करने में खासे माहिर थे। उनकी यह खासियत अनजाने में अगुआ के लिए क्या बनेगी? (एक प्रलोभन बनेगी।) इस खासियत ने एक प्रलोभन तैयार किया। यह उसके लिए आशीष था या दुर्भाग्य? यह उसके लिए आशीष था या दुर्भाग्य, यह बाद में देखेंगे; फिलहाल हम आगे बढ़ते हैं। इस परिवार ने अगुआ की मेजबानी करने के बाद उसे हर बार मांसाहार और अच्छा भोजन परोसा। उन्होंने अगुआ का इस तरह स्वागत क्यों किया? क्या इसका कारण प्रेम था? क्या उन्होंने भाई-बहनों का स्वागत भी इसी तरह किया होता? बिल्कुल नहीं। जब अगुआ वहाँ था, तो वे हर दिन उसके लिए मांसाहार पकाते थे। आखिर भोजन से प्रसन्न होकर अगुआ ने कहा, “तुम्हारा पूरा परिवार परमेश्वर से प्यार करता है। तुम्हारी माँ राज्य में प्रवेश कर सकती है, तुम्हारा बेटा राज्य में प्रवेश कर सकता है और तुम और तुम्हारी पत्नी भी राज्य में प्रवेश कर सकते हो। भविष्य में तुम्हारा पूरा परिवार राज्य में प्रवेश कर सकता है।” यह सुनकर परिवार प्रसन्न हो गया, सोचने लगा “हमारा पूरा परिवार राज्य में प्रवेश कर सकता है, यहाँ तक कि परिवार के अविश्वासी लोग भी राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि जो मांसाहार हम उसे परोस रहे हैं वह बेकार नहीं गया; उसे मांसाहार खिलाते रखना चाहिए।” हकीकत में तो इस परिवार को इस बात की कम ही समझ थी कि राज्य में प्रवेश करना होता क्या है, लेकिन वे जानते थे कि यह एक अच्छी बात है। परमेश्वर में विश्वास करने वालों में कौन नहीं चाहेगा कि वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करे और आशीष प्राप्त करे? उन्होंने सोचा, “अगर अगुआ कहता है कि हम राज्य में प्रवेश कर सकते हैं तो हम कर सकते हैं, है ना? अगुआ की बात निर्णायक है; आखिरकार वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है!” बाद में अगुआ ने जितना अधिक कहा कि वे राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, उतना ही अधिक शानदार भोजन वे परोसते गए। धीरे-धीरे अब अगुआ अन्य परिवारों से मिलने नहीं जाना चाहता था क्योंकि वे उसे ऐसी अच्छी चीजें नहीं परोसते थे या उसकी इस तरह चापलूसी नहीं करते थे। जल्दी ही, अगुआ का वजन बढ़ता गया; उसका सिर भी मोटा हो गया और “मानव सिर” से “सुअर का सिर” बन गया। सहकर्मियों की एक सभा में वह अलग ही दिखाई दे रहा था। सिर्फ एक महीने बाद देखने पर ही उसका वजन इतना बढ़ गया था कि उन्होंने तुरंत उससे उसके काम के बारे में पूछा। उन्हें गंभीर समस्याओं का पता चला और इस झूठे अगुआ की उन्होंने सख्ती से काट-छाँट की; अंततः उसकी समस्या के सार का विश्लेषण कर उसे पद से हटा दिया। आगे की जाँच में और भी समस्याएँ सामने आईं : इस झूठे अगुआ ने कोई वास्तविक काम नहीं किया था और रोज अपने रुतबे के फायदे उठा रहा था। वह अपने चापलूसों का पक्ष लेता था, उन्हें आगे बढ़ाता था, जबकि जो लोग उसे उपहार नहीं देते थे उनका दमन करता था। उसने यहाँ तक माँग की कि उसकी पत्नी उसके खाने में और चिकन लाया करे। तो तुम लोग इस झूठे अगुआ के कर्तव्य निर्वहन के बारे में क्या सोचते हो? अपने कर्तव्यों के प्रति उसका रवैया क्या था? वह वास्तव में कार्य नहीं कर रहा था; यह तो ऐसी ही बात हुई कि मानो वह सिर्फ अधिकारी का रुतबा दिखाने के लिए ही कहीं जाता हो। वरना उसका वजन इतना कैसे बढ़ जाता? इसके दो कारण हैं : एक तरफ, उसने जानबूझकर उन मेजबान परिवारों को चुना जहाँ रहकर और लगातार भोग-विलास करते हुए वह मांसाहार खा सकता था; दूसरी तरफ, अपना कर्तव्य निभाते समय निश्चित रूप से उसमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं थी, और उसने कोई कठिनाई नहीं सही। यदि किसी अगुआ या कार्यकर्ता में कलीसिया के व्यापक कार्यभार और तत्काल समाधान की आवश्यकता वाले कई मुद्दों को देखकर जिम्मेदारी का एहसास है, तो क्या वह तनावग्रस्त और चिंतित नहीं होगा? यह चिंता उसे कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करेगी; वह तुरंत इन मुद्दों को हल करना शुरू कर देगा, अपनी ऊर्जा खर्च करेगा और कुछ कठिनाइयाँ झेलेगा। शारीरिक रूप से देखें तो उसका वजन कम ही होगा; यह एक प्राकृतिक नियम है। किन परिस्थितियों में कोई व्यक्ति अधिक खाता रहेगा और उसका वजन बढ़ता रहेगा? ऐसा केवल दिनभर भरपेट भोजन करने और किसी अन्य चीज पर ध्यान न देने, जिम्मेदारी से मुक्त रहने, घमंड में चूर रहने, समुदाय और कार्यस्थल से अलग-थलग रहने, शारीरिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहने से ही हो सकता है। केवल तभी किसी का वजन बढ़ता रह सकता है और सिर्फ एक महीने से कुछ अधिक समय में ही वह “मानव सिर” से “सुअर के सिर” में बदल सकता है। तो, यह अगुआ अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह निभा रहा था? एक अगुआ के रूप में उसकी भूमिका की प्रकृति बदल गई थी; यह अब अपने कर्तव्य निभाने वाली प्रकृति नहीं बल्कि आरामपरस्ती और रुतबे के फायदों में लिप्त रहने वाली प्रकृति थी। वह एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आ रहा था। उसने न केवल असली कार्य से मुँह मोड़ लिया, बल्कि वह गलत कामों में भी लिप्त हो गया। यदि कोई उसकी चापलूसी नहीं करता था या उसे स्वादिष्ट भोजन नहीं खिलाता था, तो ऐसे लोगों को वह दबाता था। यही नहीं, ऐसे लोगों की काट-छाँट करने के लिए उसने भाई-बहनों को अपने साथ शामिल होने के लिए उकसाया, जिससे अंततः जनता का गुस्सा भड़क गया। लोग उससे विमुख होकर दूरी बनाने लगे। उसके पद से हटा दिए जाने के कारणों को अलग रखते हुए, चलो हम उसके कर्तव्य निर्वहन की समुचितता पर ही चर्चा करते हैं। उसका रुतबे के फायदों में लिप्त होना और वास्तविक कार्य न करना सबसे गंभीर मुद्दा है। वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सेवा नहीं कर रहा था; वह उनके साथ एक अधिकारी की तरह पेश आ रहा था, और किसी भी तरह अपने कर्तव्य नहीं निभा रहा था। उसने एक अगुआ के रूप में अपने काम में, अपने कर्तव्य निर्वहन में रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई, अपना हृदय और ऊर्जा समर्पित करना तो दूर की बात है। उसने अपना हृदय और ऊर्जा केवल खाने-पीने और मौज करने में लगा दी। उसने यह सोचने में अपना दिमाग खूब दौड़ाया कि अपने रुतबे के फायदे कैसे उठाए जाएँ और उसने इस तरह के चापलूसी भरे व्यवहार रोकने के लिए मेजबान परिवार के साथ सत्य के बारे में संगति नहीं की। यही नहीं, उसने यह कहकर उन्हें धोखा दिया कि केवल ऐसी मेजबानी से ही वे राज्य में प्रवेश कर पाएँगे और पुरस्कार अर्जित कर सकेंगे। क्या यह दुष्टता नहीं है? जब उसने मेजबान परिवार के साथ ऐसा व्यवहार किया तो वह कलीसिया के कार्य में क्या करेगा? वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ कैसा व्यवहार करेगा? निश्चय ही यह छल-कपट और आनाकानी से भरा व्यवहार होगा। क्या यह व्यक्ति सचमुच जानता था कि कर्तव्य क्या होता है? क्या वह जानता था कि परमेश्वर ने उसे जो कार्य सौंपा था वह क्या था? उसने इस आदेश को क्या समझा? उसने इसे पूँजी समझा और इसे अपने रुतबे के फायदे भोगने का आधार बनाया और परिणामस्वरूप उसने कई बुरे कर्म किए, कलीसियाई जीवन को विघ्न पहुँचाया और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचाया। कर्तव्य निर्वहन का ऐसा तरीका न केवल अपर्याप्त है, बल्कि यह दुष्ट कर्म भी बन गया। किसी व्यक्ति के कर्तव्य निर्वहन में किसी भी समुचित घटक के अभाव में क्या उसे परमेश्वर याद रख सकता है? (नहीं।) स्पष्ट रूप से ऐसे लोगों को परमेश्वर याद नहीं रख सकता, जो काफी दयनीय बात है। सत्य को न समझना दयनीय है—सत्य को समझना लेकिन उसका अभ्यास न करना क्या और भी अधिक दयनीय है? (बिल्कुल।) यह प्रथम प्रकरण है, “मानव सिर जो सुअर के सिर में बदल गया” का प्रकरण। यह प्रकरण अपेक्षाकृत सरल है : इसमें रुतबे के फायदों में लिप्त होना, जरा-सी भी वफादारी के बिना अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर का जरा-सा भी भय मानने वाला हृदय न होना शामिल हैं। इस अगुआ ने अपने रुतबे के फायदे उठाने के लिए परमेश्वर प्रदत्त अपने कर्तव्य को पूँजी माना। इसे पहचानना आसान है। प्रथम प्रकरण का नाम याद रखो ताकि भविष्य में तुम लोग तुलना कर सको, दूसरों को पहचान सको और अपना हौसला बढ़ा सको। मैंने जिस प्रकरण की बात की है उसके बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या तुम लोग ऐसे लोगों और ऐसे कार्यों का तिरस्कार करते हो? (बिल्कुल।) यदि तुम परमेश्वर का आदेश स्वीकारते हो तो क्या ऐसे कार्य कर सकते हो? यदि तुम्हारे पास उस झूठे अगुआ से अधिक तर्क हो और तुम कुछ हद तक संयमित हो और सत्य के लिए प्रयास कर सको, तो अभी भी कुछ आशा बची है। परन्तु यदि तुम उसकी तरह खाने-पीने और अपने रुतबे के फायदे उठाने में लिप्त रहोगे तो तुम्हारा पर्दाफाश कर तुम्हें निकाल दिया जाएगा; तुम पूरी तरह झूठे अगुआ और परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत व्यक्ति साबित होओगे। अब तुम लोगों के पास कुछ विवेक है और तुम कुछ सच्चाइयों को समझते हो। तुम्हारे उद्धार की कितनी आशा है यह इससे निर्धारित होता है कि तुम खुद को किस हद तक संयम और नियंत्रण में रख सकते हो; ये दोनों चीजें समानुपातिक हैं। यदि तुम स्वयं को संयम में नहीं रख सकते और अपनी पसंद-नापसंद के अनुसार कार्य करते रहते हो, भ्रष्ट स्वभाव में जीते हो और रुतबे के फायदे उठाने में लिप्त रहते हो, जब कोई तुम्हारी चापलूसी करता है तो बिना किसी आत्म-चिंतन या वास्तविक पश्चात्ताप के मगन और मदहोश रहते हो तो तुम्हारे उद्धार पाने की आशा शून्य है।

आगे एक और प्रकरण की बात करते हैं। सुसमाचार प्रसार के दौरान कलीसिया के कई लोग सुसमाचार फैलाने विभिन्न स्थानों पर जाते हैं। सुसमाचार फैलाने का कार्य हर व्यक्ति के लिए एक कर्तव्य है। इसके साथ तुम चाहे कैसा भी व्यवहार करो या यह कर्तव्य तुम्हें चाहे अच्छा लगे या न लगे, आम तौर पर यह लोगों को परमेश्वर का दिया हुआ आदेश है। लोगों को दिए परमेश्वर के आदेशों की बात करें तो इनका संबंध लोगों की जिम्मेदारी से है और इनका संबंध लोगों के कर्तव्य से भी है। चूँकि इनका संबंध लोगों के कर्तव्य से है, इसलिए इसका संबंध इस बात से भी है कि कोई अपना कर्तव्य कैसे निभाता है। सुसमाचार फैलाने की प्रक्रिया में कुछ लोग विशेष रूप से अमीर इलाकों और अमीर घरों की तलाश करते हैं। जब वे किसी को अच्छी-सी कार चलाते या बड़े घर में रहते देखते हैं, तो उनके मन में ईर्ष्या और द्वेष पैदा होने लगता है। यदि उन्हें कोई ऐसा घर मिलता है जो उनकी अच्छी तरह से मेजबानी करता है, तो वे लालायित होकर वहीं टिके रहते हैं। वे सोचते हैं कि उन्होंने सुसमाचार फैलाने में योगदान दिया है, इसलिए उन्हें कुछ अनुग्रह का आनंद भी लेना चाहिए। तो उनका सुसमाचार-प्रसार क्या बन जाता है? वे केवल दैहिक सुखों में लिप्त रहते हैं, शारीरिक आनंद के बदले अपना श्रम देते हैं; यह उनके श्रम की बिक्री बन जाता है। दो-तीन वर्षों में वे वहाँ सुसमाचार फैलाकर कुछ लोगों को प्राप्त कर लेते हैं और एक कलीसिया की स्थापना भी कर चुके होते हैं और इस प्रकार कुछ पूँजी जुटा लेते हैं। फिर वे बहकने लगते हैं और जब वे “शान-ओ-शौकत के साथ” अपने गृहनगर लौटते हैं, तब तक वे चमक-दमक वाले और फैशनपरस्त-से बन चुके होते हैं। वे महँगे घरेलू उपकरण और इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद लेकर घर आते हैं और सिर से पाँव तक बने-ठने रहते हैं। स्थानीय लोग अब उन्हें यह सोचकर मान्यता नहीं देते कि ये कहीं से अंधी कमाई करके आए हैं। क्या यहाँ कोई समस्या नहीं है? वे इतने वर्षों से विश्वासी रहे हैं, हमेशा घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभाते रहे हैं। शुरुआत में उनके घर में वास्तव में कुछ भी कीमती सामान नहीं था, लेकिन अब वे लोगों के दिए सारे अच्छे कपड़े और अच्छे उपकरण ले आते हैं; अब उनके पास अच्छे कपड़े भी हैं और अच्छे उपकरण भी। वे इसे परमेश्वर का अनुग्रह मानते हैं। लेकिन वास्तव में ये चीजें कहाँ से आईं? कहा जा सकता है कि ये चीजें उन्हें सुसमाचार फैलाने के प्रयास के बदले मिलीं। कुछ अन्य लोगों ने उनकी कई वर्षों की आस्था और सुसमाचार-प्रसार में उनकी कड़ी मेहनत देखी, इसलिए उन्होंने इन लोगों को कुछ अच्छी चीजें दीं। क्या यह “देना” दान-पुण्य है? क्या यह करुणा है? यदि ये अच्छी चीजें सुसमाचार-प्रसार के कारण प्राप्त हुईं, दूसरों ने चापलूसी में उन्हें दीं, तो क्या इस व्यक्ति काइन चीजों को परमेश्वर का उपकार या परमेश्वर का अनुग्रह मानना उचित है? खरे ढंग से कहें तो ये चीजें प्राप्त करने के लिए वे लोग सुसमाचार फैलाने के मौके का फायदा उठा रहे हैं। यदि वे हमेशा दूसरों के सामने अपनी गरीबी का रोना रोते रहें, साथ ही यह भी कहते रहें कि उन्हें अमुक-अमुक चीज पसंद है, और फिर लोग बेमन से उन्हें वह चीज दे दें तो क्या यह जबरन वसूली या ब्लैकमेल करने जैसा नहीं है? सुसमाचार प्रचार करने वाले कुछ लोग दूसरों को यह बताना पसंद करते हैं, “सुसमाचार फैलाने वाले हम लोग परमेश्वर के दूत हैं, परमेश्वर ने हमें भेजा है। तुम लोग हमसे परमेश्वर का सुसमाचार प्राप्त करते हो—तुम कितना भरपूर आशीष और लाभ प्राप्त कर रहे हो! यह देखते हुए कि तुम कितने अमीर हो और तुमने परमेश्वर के अनुग्रह का कितना आनंद लिया है, क्या तुम्हें कुछ आभार प्रकट नहीं करना चाहिए? क्या तुम्हें अपनी कुछ फालतू या उपयोग में न ली हुई चीजें हमें नहीं दे देनी चाहिए?” इस तरह मनाने के बाद कुछ लोग शर्मिंदगी के कारण उनकी बात मान लेते हैं और सुसमाचार फैलाने वाले सोचते हैं कि वे पूरी तरह से उचित हैं। क्या जो लोग देते हैं वे सचमुच स्वेच्छा से ऐसा करते हैं? भले ही देने वाले इच्छुक हों या नहीं, क्या ये चीजें सुसमाचार फैलाने वालों को मिलनी चाहिए? (नहीं।) कुछ लोग तर्क देते हैं : “मुझे ये चीजें क्यों नहीं लेनी चाहिए? मैंने सुसमाचार प्रचार करने के लिए कड़ी मेहनत की है; क्या ये कुछ चीजें प्राप्त करना केवल परमेश्वर का अनुग्रह नहीं है?” जब तुम सुसमाचार प्रचार करते हो तो तुम क्या कर रहे होते हो? क्या यह तुम्हारा आजीविका कमाने का काम है? सुसमाचार प्रचार करना कोई लेन-देन नहीं है; यह तुम्हारा कर्तव्य है। जब तुम लोगों से चीजें माँगते हो, तो तुम दरअसल परमेश्वर से चीजें माँग रहे होते हो। लेकिन चूँकि तुम परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकते हो और तुममें उससे माँगने की हिम्मत नहीं है, इसलिए तुम उसके बजाय लोगों तक पहुँचते हो और कई सारे आध्यात्मिक सिद्धांत सुनाकर उन्हें गुमराह करते हो। तुम्हें लगता है कि तुमने सुसमाचार-प्रसार के माध्यम से कुछ लोगों को लाभान्वित करके योग्यता अर्जित की है और अपने इन प्रयासों के लिए तुम कुछ प्रतिफल लेने के हकदार हो। तुम्हें लगता है कि सीधे पैसे माँगना अच्छी बात नहीं होगी, इसलिए तुम इसके बजाय चीजें माँगते हो, यह मानते हुए कि इस तरह तुम्हारे प्रयास व्यर्थ नहीं हुए। क्या यह तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन है? (नहीं है।) तुम्हारे कार्यों की प्रकृति बदल गई है। तुमने सुसमाचार-प्रसार को क्या बना दिया है? तुमने परमेश्वर के सुसमाचार को व्यवसाय बना दिया है, तुम इन भौतिक चीजों के बदले इसे बेच रहे हो। यह कैसा व्यवहार है? (यह अवसरवाद है।) यह अवसरवाद है? क्या इसे अवसरवाद कहना इसकी गंभीरता को कम करना है? क्या यह वास्तव में बुराई नहीं है, क्या यह बुरा कर्म नहीं है? (बिल्कुल है।) इसे बुरा कर्म क्यों माना जाता है? सुसमाचार-प्रसार कर्तव्य निभाना और परमेश्वर की गवाही देना है; जब तुम परमेश्वर की गवाही देते हो तो उसके साथ ही तुम एक व्यक्ति तक सुसमाचार पहुँचाते हो और वह व्यक्ति परमेश्वर का हो जाता है, और इस प्रकार तुम अपना मिशन पूरा कर लेते हो। तुम्हें अपना मिशन पूरा करने के लिए जो कुछ भी मिलना चाहिए वह परमेश्वर तुम्हें देगा; तुम्हें किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं है, न ही किसी के पास इस सुसमाचार के बदले दान-पुण्य करने का कोई कारण है। परमेश्वर का सुसमाचार अमूल्य है; न तो इसे किसी भी धनराशि से खरीदा जा सकता है, न ही किसी चीज के बदले इसका सौदा किया जा सकता है। जब तुम सुसमाचार-प्रसार का उपयोग भौतिक लाभ प्राप्त करने के अवसर के रूप में करते हो, तो तुम अपनी गवाही खो देते हो; यह दृष्टिकोण परमेश्वर की निंदा करने जैसा है और परमेश्वर का अपमान करने की निशानी है। यही नहीं, सुसमाचार फैलाने के बाद लोगों को अपना आभारी बनाने की प्रकृति को क्या कहेंगे? यह परमेश्वर की महिमा को चुराना है! परमेश्वर का सुसमाचार और परमेश्वर का कार्य व्यापार की वस्तुएँ नहीं हैं। परमेश्वर मनुष्य को अपना सुसमाचार मुक्त रूप से प्रदान करता है; यह मुफ्त में मिलता है और इसमें किसी भी प्रकार का लेन-देन नहीं होता। फिर भी लोग परमेश्वर के सुसमाचार को बेचने की वस्तु में बदल देते हैं और इसके बदले में दूसरों से पैसे और भौतिक चीजें माँगते हैं। इसमें गवाही का अभाव है और इससे परमेश्वर के नाम का अपमान होता है। क्या यह एक बुरा कर्म नहीं है? (बिल्कुल है।) यह वास्तव में एक बुरा कर्म है। क्या यह कर्तव्य का समुचित निर्वहन है? (नहीं।) क्या यह प्रकरण उस प्रकरण से अधिक गंभीर प्रकृति का है जिसके बारे में हमने अभी बात की थी, “मानव सिर जो सुअर के सिर में बदल गया”? (हाँ।) गंभीरता कहाँ है? (परमेश्वर का अपमान करने में।) यह परमेश्वर का अपमान है, परमेश्वर की निन्दा है और परमेश्वर की महिमा को चुराना है। परमेश्वर का सुसमाचार लेकर इसे लोगों को बेचना, उन्हें इस तरह बेचना जैसे कि यह कोई व्यापार की वस्तु हो और फिर अत्यधिक मुनाफा कमाना और इससे व्यक्तिगत लाभ पाने का प्रयास करना—किस प्रकार के प्राणी ऐसा करेंगे? ये डाकू और बुरे लोग हैं जो शैतान की तरह व्यवहार कर रहे हैं! परमेश्वर ने स्पष्ट रूप से स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों के साथ-साथ मानवजाति की भी रचना की, फिर भी शैतान और दुष्ट आत्माएँ लोगों को यह कहकर गुमराह करते रहते हैं कि उन्होंने ही मनुष्य, स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है, और वे परमेश्वर और सृष्टिकर्ता के रूप में अपनी आराधना कराने के लिए लोगों को बाध्य करते रहते हैं। क्या यह परमेश्वर की महिमा की चोरी नहीं है? यह पाप है, यह बुरा कर्म है, यह परमेश्वर का विरोध है। क्या मनुष्य का सुसमाचार बेचना शैतान के व्यवहार के समान है? (बिल्कुल।) सुसमाचार बेचने का उनका उद्देश्य क्या है? ताकि लोग उन्हें सुसमाचार का दूत मानें, मानो सुसमाचार उन्हीं से उत्पन्न हुआ हो और उनमें निर्णय लेने की शक्ति हो। क्या यह परमेश्वर की महिमा की चोरी नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर की महिमा चुराकर किस प्रकार का पाप किया गया है? इसकी प्रकृति क्या है? यह परमेश्वर का विरोध करने का बुरा कर्म है; यह परमेश्वर की निंदा करने वाला व्यवहार है। क्या इस तरह से सुसमाचार फैलाना अभी भी कर्तव्य का निर्वहन माना जाता है? यह पूरी तरह से बुराई करना है; यह परमेश्वर का विरोध है। इस तरह से सुसमाचार फैलाना परमेश्वर के लिए गवाही देना बिल्कुल भी नहीं है, इसलिए यह कर्तव्य निर्वहन नहीं है; यह विशुद्ध रूप से बुराई करना है। कुछ लोग कहते हैं : “सुसमाचार फैलाना बहुत कठिन काम है; बदले में कुछ अच्छी चीजें प्राप्त कर लेना उचित ही है। इसमें क्या बड़ी बात है? अविश्वासियों के बीच इसमें कुछ भी गलत नहीं माना जाता है।” क्या यह कथन सही है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे इरादे क्या हैं, तुम क्या चाह रहे हो और इसकी प्रकृति क्या है। यदि तुम इसे व्यक्तिगत लाभ के लिए कर रहे हो, तुम परमेश्वर का सुसमाचार बेच रहे हो, तुम सत्य बेच रहे हो और अंततः तुम इसके बदले अपना व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करते हो—तो यह वास्तव में एक बुरा कर्म है। क्या इसे एक बुरा कर्म बताना ज्यादती है? (नहीं।) यह जरा भी ज्यादती नहीं है। जब कोई अपना कर्तव्य प्राप्त कर उसे निभा चुका होता है, लेकिन फिर ऐसे दुष्परिणाम सामने आते हैं, तो दोषी कौन है? (स्वयं व्यक्ति ही दोषी है।) ऐसे लोग केवल स्वयं को ही दोषी ठहरा सकते हैं। तो ये दुष्परिणाम कैसे आये? इस बात का सीधा संबंध लोगों की दुष्ट प्रकृति से है। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, लेकिन उनमें शर्म, चरित्र और अंतरात्मा का बोध होता है, इसलिए वे ऐसी चीजें नहीं करेंगे। यदि कोई ऐसे कार्यों में लिप्त होता है तो यह दर्शाता है कि इस व्यक्ति में मानवता नहीं है; वह लालची और शातिर स्वभाव का है। इससे न केवल लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन समुचित रूप से नहीं कर पाते, बल्कि वास्तव में यह बुराई करने में बदल जाता है। कुछ लोग कहते हैं : “इसे बुराई करना कैसे कहा जा सकता है? अपने सुसमाचार-प्रसार के माध्यम से वे काफी लोगों को प्राप्त करने में सफल रहे हैं; चूँकि उन्हें स्पष्ट नतीजे मिले हैं, यह विचार नकार दिया जाना चाहिए कि वे बुरा कर रहे हैं, है ना?” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? सुसमाचार फैलाना उनका कर्तव्य है, उनकी जिम्मेदारी है। उनके कर्तव्य के पीछे इरादा और उद्देश्य क्या है? कौन से सिद्धांत उनके कर्तव्य का मार्गदर्शन करते हैं? क्या वे अपने कार्यों में जिम्मेदारी बरतते हैं? इन कारकों के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है या बुराई कर रहा है। भले ही वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन उनके निर्वहन की शुरुआत गलत है; उन्होंने सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं किया है और कई बुरे कर्म किये हैं। उनके कर्तव्य निर्वहन में सत्य का अभ्यास करने की थोड़ी-सी भी अभिव्यक्ति नहीं है। इस प्रकार के सुसमाचार-प्रसार का सार क्या है? (सुसमाचार बेचना।) इस प्रकरण को क्या कहा जाना चाहिए? “सुसमाचार बेचने वाला” प्रकरण। यह नाम सुनकर ही तुम जान लेते हो कि मामला कितना गंभीर है। कोई व्यक्ति परमेश्वर का सुसमाचार कैसे बेच सकता है? सुसमाचार बेचने के इस मुद्दे की प्रकृति बहुत गंभीर है। इसलिए जब भी सुसमाचार बेचने का उल्लेख हो, तो क्या लोगों को यह नहीं जानना चाहिए कि मामला क्या है, इसकी दशाएँ, व्यवहार और तरीके क्या हैं? यह प्रकरण संख्या दो है, और इस प्रकरण की प्रकृति पिछले प्रकरण से अधिक गंभीर है।

अगला प्रकरण भी सुसमाचार फैलाने की प्रक्रिया के दौरान घटित हुआ। अतीत में परमेश्वर के घर ने सुसमाचार फैलाने के लिए कुछ सिद्धांत और तरीके स्थापित किए थे, जिनमें करुणा और मैत्री से संबंधित तरीके भी शामिल थे। इससे कुछ लोगों को खामियों का फायदा उठाने के मौके मिल गए। इन खामियों का फायदा किन लोगों ने उठाया? दुष्ट प्रकृति के लोगों ने जो सत्य से प्रेम नहीं करते। वास्तव में कुछ ऐसे दुष्ट लोग हैं जो सुसमाचार फैलाने की प्रक्रिया में रोमानी साथी ढूँढ़ने और रोमानी व अंतरंग संबंधों में लिप्त होने का मौका तलाशते हैं। जब ऐसी चीजें होती हैं, तो वे सोचते हैं कि इनके कुछ कारण हैं, जबकि वास्तव में ये शैतान के दुष्ट व्यक्ति हैं जो खामियों का फायदा उठा रहे हैं। वे सुसमाचार फैलाने के अवसर को विपरीत लिंग के संपर्क में आने का जरिया बनाते हैं और जब उन्हें कोई उपयुक्त या पसंदीदा व्यक्ति मिल जाता है तो वे उसके साथ बातचीत करने और उसे लुभाने का मौका तलाशने में अपनी पूरी क्षमता लगा देते हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि वे सुसमाचार फैलाकर लोगों को प्राप्त करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे अपनी हवस मिटाने के लिए ऐसा कर रहे होते हैं। वे ये सब चीजें सुसमाचार फैलाने के नाम पर, परमेश्वर के कार्य का विस्तार करने के नाम पर, परमेश्वर के लिए गवाही देने और स्वयं को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने के नाम पर करते हैं, और अपने कर्तव्य निर्वहन के नाम पर भी करते हैं। ये काम कोई भी बिना इरादे के नहीं करता; वास्तव में सब कुछ जानते हुए भी वे हठपूर्वक भ्रमित होने का नाटक करते हैं। ऐसा करते समय प्रत्येक व्यक्ति दिल से जानता है कि यह पाप है, परमेश्वर इससे घृणा करता है, और परमेश्वर से ऐसा करने की अनुमति नहीं है, लेकिन वे अपनी देह की वासना नियंत्रित नहीं कर सकते और वे अपने किए गए पापों के लिए बहाने बनाने और उनका औचित्य सिद्ध करने की भरपूर कोशिश करते हैं। क्या इससे उनकी अपनी समस्याएँ छुप सकती हैं? यदि तुम एक-दो बार ऐसे पाप करते हो और फिर पश्चात्ताप कर लेते हो तो परमेश्वर तुम्हें अभी भी माफ कर सकता है, लेकिन यदि तुम बदलने से लगातार इनकार करते हो तो तुम खतरे में हो। कुछ लोग ऐसा पाप करने पर हर बार कुछ हद तक यह सोचते हुए असहज महसूस कर सकते हैं, “अगर मैं इस तरह से कार्य करता हूँ तो क्या मुझे बचाया जा सकेगा?” लेकिन फिर वे सोचते हैं, “यह कोई बहुत बड़ी बुराई नहीं है; यह अधिक से अधिक सिर्फ भ्रष्टता का खुलासा होना है। मैं इसे दोबारा नहीं करूँगा; यह मेरे परिणाम और गंतव्य को प्रभावित नहीं करेगा।” क्या अपराध के प्रति यह रवैया वास्तविक पश्चात्ताप है? यदि उनके हृदय में जरा भी पश्चात्ताप नहीं है, तो क्या वे यह अपराध करना जारी नहीं रखेंगे? मुझे लगता है कि इसमें बहुत जोखिम है। क्या ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह समुचितता से कर सकता है? अपने कर्तव्य निर्वहन में, अभी भी “निजी प्रचालन” के तत्व मौजूद हैं; वे “सार्वजनिक और निजी” का मिश्रण कर रहे हैं, जो एक गंभीर मिलावट है! इससे निश्चित ही परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचेगी। इन लोगों को अपने कर्तव्य निर्वहन में “समुचित” नहीं माना जा सकता; यह चीजें माँगने या सुसमाचार बेचने से भी अधिक गंभीर मामला है। यह अधिक गंभीर कैसे है? यह बहुत घृणित है; यह देह और वासना का व्यापार है। तो इस समस्या की प्रकृति क्या है? यह सत्य को जानते हुए भी जान-बूझकर पाप किए जाने का मामला है। “जान-बूझकर” शब्द समस्या की प्रकृति बदल देता है। वास्तव में, वे जानते हैं कि कार्य व्यवस्थाओं में विनियम और सिद्धांत लोगों को बुद्धिमत्ता का अभ्यास कराने और शैतान को उन पर बढ़त हासिल करने से रोकने के लिए बनाए गए हैं। इनका उद्देश्य लोगों को परमेश्वर के सामने लाना है, लेकिन वे खामियों का फायदा उठाते हैं और अपनी दुष्ट वासनाओं को खुलकर प्रकट करने के लिए अवसरों को भुनाते हैं; इसे कहते हैं जान-बूझकर पाप करना। बाइबल इस बारे में क्या कहती है? (“क्योंकि सच्‍चाई की पहिचान प्राप्‍त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं” (इब्रानियों 10:26)।) यदि अब सलीब की पाप-बलि भी उपलब्ध नहीं है तो क्या इन लोगों का अभी भी उद्धार से कोई लेना-देना है? यह स्थिति पर निर्भर करता है। कुछ लोग जरूरत के कारण ऐसा करते हैं या वे अंदर ही अंदर स्वयं की निंदा करते हैं, लेकिन उस समय की परिस्थितियों के कारण उन्हें इस तरह से कार्य करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यदि यह अपराध बार-बार नहीं हो, तीन से अधिक बार न हो, तो उन्हें क्षमा किया जा सकता है। उन्हें क्षमा किया जा सकता है इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि पहले अपराध के बाद यदि वे होश में आ सकते हैं, सत्य खोज सकते हैं, पश्चात्ताप के लक्षण दिखा सकते हैं, और दोबारा अपराध नहीं करते हैं, तो उन्हें अपना कर्तव्य निर्वहन करने के लिए कहते हुए अपने पापों का प्रायश्चित करने का मौका दिया जा सकता है। ऐसे मामलों में अभी भी उद्धार की आशा है, लेकिन कितनी आशा है यह व्यक्ति के अनुसरण पर निर्भर करता है। कोई भी तुम्हारे लिए निश्चित निर्णय नहीं ले सकता, कोई तुम्हें गारंटी नहीं दे सकता; यह मुख्य रूप से तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है। मैं तुम लोगों से यह कहते हुए कोई वादा नहीं करूँगा कि जब तक तुम यह पाप दोबारा नहीं करोगे, तुम निश्चित रूप से बचा लिए जाओगे; मैं यह वादा नहीं करूँगा क्योंकि मुझे नहीं पता कि भविष्य में तुम्हारा प्रदर्शन कैसा होगा। यदि तुम उस संख्या को पार कर जाते हो जिस तक के लिए क्षमा संभव है, तुम बदलने से बार-बार इनकार करते हो, और सुसमाचार का प्रचार करने के दौरान तुमने कोई ऐसे अच्छे कर्म नहीं किए हैं जो तुम्हारे बुरे कर्मों की भरपाई कर सकें, तो तुम पूरी तरह से खत्म हो चुके हो। तुमने बुरे कर्म तो बहुत सारे किये हैं लेकिन अच्छे कर्मों का नामोनिशान भी नहीं है; तुम्हारे लिए सुसमाचार प्रसार का उद्देश्य केवल अनाश-शनाप ढंग से अंतरंग संबंधों में लिप्त होना है, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना नहीं—इसका तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन से कोई जुड़ाव नहीं है। यह अब पाप-बलि होने या न होने का मुद्दा नहीं रहा। ऐसे लोगों को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? उन्हें गंदे दानवों और बुरी आत्माओं की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। वे सामान्य इंसान नहीं हैं। वे पाप ही नहीं कर रहे हैं; उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन से भी कोई लेना-देना नहीं रहा। क्या अब भी उनके उद्धार की आशा है? नहीं, कोई आशा नहीं है। ऐसे लोग परमेश्वर के घर से बाहर निकाले जा चुके है; वे अलग कर दिये गये हैं और परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। उनके कार्य और व्यवहार न केवल उनके कर्तव्य को छूने में विफल रहते हैं; बल्कि इसे कर्तव्य के समुचित निर्वहन का मामला भी नहीं माना जा सकता। ऐसे लोगों के लिए अंतिम नतीजा और उनका परिणाम उनके वर्गीकरण के आधार पर निर्धारित किया जाएगा। क्या ये प्रकरण काफी घिनौना नहीं है? इसकी प्रकृति उस दूसरे प्रकरण से भी अधिक गंभीर है जिसकी हमने अभी चर्चा की है। इन लोगों में कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके मामले अधिक गंभीर प्रकृति के होते हैं। क्या वे वापस लौट सकते हैं? क्या उनके पास पश्चात्ताप करने वाला हृदय हो सकता है और वे ऐसी चीजें करना बंद कर सकते हैं, और अब भी सुसमाचार फैलाकर परमेश्वर के घर में श्रम कर सकते हैं? क्या ऐसे भी लोग हैं? (नहीं।) क्या वे स्वेच्छा से श्रम कर सकते हैं? (नहीं।) वास्तव में, इनमें से कुछ लोगों ने सुसमाचार फैलाने के दौरान कुछ लोगों को प्राप्त किया है। लेकिन अब उन्होंने जो यह सब काम किया है उसका क्या मतलब है? यह श्रम माना जाएगा, अपना कर्तव्य निभाना नहीं। दरअसल, इन लोगों के प्रयास में कोई भी कमी नहीं है, लेकिन उन्होंने जो रास्ता अपनाया है, उसने उनकी नियति और परिणाम को निर्धारित किया है। जो भी लोग सुसमाचार फैलाते हैं, क्या उनमें से प्रत्येक को ऐसे प्रलोभनों का सामना करना पड़ेगा? यह कहा जा सकता है कि हर किसी को अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग स्तर तक इस प्रकार के प्रलोभनों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि उनमें से हर व्यक्ति प्रलोभन में फँस जाएगा और पाप करेगा? (नहीं।) हर कोई पाप नहीं कर सकता, हर कोई ऐसी गतिविधियों में लिप्त नहीं हो सकता—यह उन लोगों को दोषी ठहराता है जो इस प्रकार की गतिविधियों में लिप्त होते हैं, और इस प्रकार उनका खुलासा हो जाता है। इससे पता चलता है कि उनके स्वभाव और उनकी मानवता में कुछ गड़बड़ है। ऐसे परिणाम के लिए वे किसे दोषी ठहरा सकते हैं? (स्वयं को।) वे केवल स्वयं को दोषी ठहरा सकते हैं, किसी और को नहीं।

कुछ लोग सुसमाचार फैलाने के दौरान चाहे जो भी अपराध करें, वे उनका समाधान करने के लिए कभी भी सत्य नहीं खोजते हैं, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हैं और कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करते हैं, जिससे पता चलता है कि वे बिल्कुल भी पश्चात्ताप करने वाले नहीं हैं। अंत में इन लोगों को निकाल दिया जाता है। मैंने एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सुना है, जिसने सुसमाचार फैलाते समय एक महिला को अपने कब्जे में ले लिया और उसे जीवनसाथी नहीं ढूँढ़ने दिया और शादी भी नहीं करने दी; इस मामले की प्रकृति बहुत गंभीर है। यह कैसा व्यक्ति है? (एक दुष्ट व्यक्ति।) क्या ऐसे दुष्ट व्यक्ति परमेश्वर के घर में रह सकते हैं? (नहीं।) परमेश्वर के घर में ऐसे अत्याचारियों के लिए कोई जगह नहीं है; वे परमेश्वर का अपमान करते हैं! ऐसी चीजें करके वे परमेश्वर के प्रति असंख्य लोगों की धारणा को प्रभावित कर परमेश्वर को गलत समझे जाने का सबब बनते हैं! लोग कहेंगे, “परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति ऐसे काम कैसे कर सकता है?” यह पहले से ही परमेश्वर का अपमान है। यदि कलीसिया ऐसे व्यक्तियों को निष्कासित कर उनसे निपटता नहीं है, बल्कि उनसे सुसमाचार फैलाने का काम करवाना जारी रखता है और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देता है, तो यह पूरी तरह से गलत है। इस व्यक्ति ने पहली बार अपराध नहीं किया है; उसका व्यवहार गंभीर प्रकृति का है और उसे सीधे निष्कासित किया जाना चाहिए। अन्यथा इससे परमेश्वर का अपमान होगा और शैतान को परमेश्वर के घर के बारे में राय बनाने और उसकी निंदा करने का अवसर मिलेगा। इसलिए शैतान को फायदा उठाने का अवसर नहीं दिया जा सकता; जो लोग आदतन लंपट हैं उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। ऐसे व्यक्ति लंपट आत्माएँ हैं जो पहले ही परमेश्वर को अपमानित कर चुकी हैं, और परमेश्वर उन्हें बिल्कुल भी नहीं बचाएगा। उनका सुसमाचार प्रचार चाहे कितना ही प्रभावी हो या उन्होंने कितने ही लोगों को प्राप्त किया हो, यदि वे सही रास्ते पर नहीं चलते तो उन्होंने खुद ही स्वयं को नष्ट कर लिया है और अपने अधिकार खो दिये हैं। ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर में रहने की अनुमति नहीं है; वे अलग किए जाने के निशाने पर हैं। तो क्या उनके कर्म उनके कर्तव्य निर्वहन के रूप में मायने रखते हैं? नहीं, उनका पूरा योगदान परमेश्वर की नजर से पूरी तरह से मिटाया जा चुका है और वह उन्हें याद नहीं रखेगा। वे केवल अपर्याप्त ही नहीं हैं; बल्कि उनके कर्तव्य निर्वहन की प्रकृति बदल गई है और यह बुराई करना बन गया है। परमेश्वर उन लोगों से कैसे निपटता है जो बुराई करते हैं? वह उन्हें अलग-थलग कर देता है। अलग-थलग कर दिए जाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उन्हें उन लोगों के बीच से हटा दिया जाता है जिन्हें परमेश्वर ने चुना है और बचाने के लिए तैयार किया है—वे उनमें से नहीं हैं। इसके बजाय उन्हें बुरी आत्माओं, गंदे दानवों और बचाए न गए लोगों की श्रेणी में रखा जाता है। उनके उद्धार प्राप्त करने की संभावनाएँ कितनी हैं? (शून्य।) यद्यपि उन्होंने अपना कर्तव्य निर्वहन किया है और उसी प्रकार परमेश्वर का अनुसरण भी किया है, फिर भी ऐसा व्यक्ति अंत में इस बिंदु तक पहुँच जाता है और निकाल दिया जाता है। तो तुम देखते हो, यह एक अलग किस्म का व्यक्ति है। क्या इस प्रकरण की प्रकृति पिछले प्रकरण से ज्यादा गंभीर है? (हाँ।) यह और भी अधिक गंभीर है; यह लक्षित है। इस प्रकरण को तीसरे प्रकरण के साथ मिला दिया जाना चाहिए; यह तीसरे उदाहरण में एक विशेष, विशिष्ट मामले की श्रेणी में आता है, और यह लक्षित है। इस प्रकरण को क्या कहा जाना चाहिए? “दुष्ट लोगों को अलग-थलग कर दिया जाएगा,” आइए यही पक्का कर देते हैं। इन तीन प्रकरणों में तीन प्रकार के लोगों के लिए, वस्तुतः उनका कर्तव्य निर्वहन श्रम करने को अप्रभावी बनाना था। श्रम करने को अप्रभावी बनाने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उन्होंने अपने कर्तव्य को केवल श्रम करने में बदल दिया—और तब भी, उन्होंने अच्छी तरह से श्रम नहीं किया या अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया। उन्होंने अपने कर्तव्य को कर्तव्य नहीं माना, और यहाँ तक कि विभिन्न गलत और बुरे कर्म भी किए और अंततः कोई अच्छा परिणाम नहीं मिलने पर उन्हें बाहर कर दिया गया। इन तीनों प्रकरणों की प्रकृति बेहद गंभीर है।

हम यहाँ एक और प्रकरण की बात करेंगे और इसकी प्रकृति भी काफी गंभीर है। एक व्यक्ति था जिसने कई वर्षों तक कार्य किया और ऊपरी तौर पर वह सत्य का अनुसरण करता हुआ और वास्तव में खुद को खपाता हुआ प्रतीत होता था। विवाह और परिवार को त्याग कर, अपने पेशे और संभावनाओं को त्याग कर वह अपना कर्तव्य निभाने के लिए कई स्थानों पर गया और उसने कुछ ऐसा काम भी किया जो कुछ खास नहीं था। लेकिन अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में वह कुछ ही सत्य समझ पाया क्योंकि वह वास्तव में सत्य का अनुसरण नहीं करता था और कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात कर सकने के आधार पर ही उसने यह सोच लिया कि वह अच्छा काम कर रहा है। इससे भी अधिक गंभीर बात यह थी कि यह व्यक्ति सत्य का अभ्यास बिल्कुल भी नहीं करता था। इसलिए उसका कर्तव्य निर्वहन आमतौर पर दूसरों के साथ दयापूर्वक व्यवहार करते हुए और किसी को नाराज न करते हुए महज कुछ धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना और कुछ विनियमों का पालन करना भर था। कलीसिया का काम कैसे करना है और कौन-सी समस्याएँ अभी भी मौजूद हैं, इसे लेकर वह चौकन्ना नहीं था और इन समस्याओं को हल करने के लिए वह न तो प्रयास करता था और न ही सत्य खोजता था। संक्षेप में, काम के प्रति उसका रवैया सतही और रुखा था; ऐसा लगता था कि वह सुस्ती नहीं बरतता है लेकिन वह खुद को थका भी नहीं रहा था। वह अनमने ढंग से काम करता नहीं दिखता था, लेकिन उसके काम के नतीजे कुछ खास अच्छे नहीं रहे। अपनी लापरवाही और अनमने रवैये के कारण एक विशेष घटना में उसने परमेश्वर को आने वाले चढ़ावे में एक करोड़ आरएमबी (रेनमिनबी या चीनी युआन) से अधिक का नुकसान करवा दिया। एक करोड़ आरएमबी किस प्रकार का आँकड़ा है? आम लोगों के लिए यह आँकड़ा एक बहुत बड़ी रकम है। इस आँकड़े को सुनकर आम आदमी का मुँह खुले का खुला रह जाएगा और शायद ही वह इसके बारे में सोचने की हिम्मत कर पाए क्योंकि अपने जीवनकाल में उसने इतना पैसा कभी नहीं देखा होगा। लेकिन चढ़ावे में एक करोड़ आरएमबी से अधिक का नुकसान करवाने के बाद भी इस “वृद्ध सज्जन” को कोई पछतावा नहीं था, उसके मन में न तो पश्चात्ताप का कोई संकेत था, न वह दुखी ही था। जब कलीसिया ने उसे निष्कासित कर दिया, तब भी वह शिकायत करता रहा। कैसा प्राणी ऐसा करेगा? आइए, दो बिंदुओं पर चर्चा करते हैं। सबसे पहले, यह धनराशि तब खोई जब तुम काम कर रहे थे और चाहे गलती किसी की भी हो, जिम्मेदार तुम हो। इसकी सुरक्षा करना तुम्हारी जिम्मेदारी थी, लेकिन तुम ऐसा करने में विफल रहे। यह कर्तव्य की अवहेलना है, क्योंकि यह मनुष्य का धन नहीं है; यह चढ़ावा है और लोगों को इसके साथ अत्यंत निष्ठापूर्वक व्यवहार करना चाहिए। यदि चढ़ावे में घाटा हो जाए तो क्या सोचना चाहिए? इसका बदला चुकाने के लिए मौत भी काफी नहीं है! मानव जीवन का मूल्य ही कितना है? यदि हानि बहुत बड़ी है, तो अपनी जान गँवाकर भी इसकी भरपाई नहीं की जा सकती! मुख्य बात यह है कि इस मुद्दे की प्रकृति बहुत गंभीर है। इस “वृद्ध सज्जन” ने चढ़ावे के इतने बड़े नुकसान को गंभीरता से नहीं लिया; यह व्यक्ति बहुत घृणित है! चढ़ावे में एक करोड़ आरएमबी से अधिक की राशि का खोना उसके लिए यही कोई 100 आरएमबी खोने जैसा था; उसने ऊपरवाले को इसकी बिल्कुल भी सूचना नहीं दी, उसे इसका बिल्कुल भी पछतावा नहीं था और उसने अपने आस-पास के लोगों से यह नहीं कहा, “आइए, पता करें कि यह पैसा कैसे खो गया और अब क्या किया जाना चाहिए। क्या हमें इसे चुकाना चाहिए या कोई और समाधान खोजना चाहिए? या शायद हमें ऊपरवाले को सूचित करना चाहिए, जिम्मेदारी स्वीकार कर इस्तीफा दे देना चाहिए और परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने पाप कबूलने चाहिए?” उसका यह रवैया भी नहीं था; क्या यह घिनौनी बात है? (बिल्कुल।) यह बहुत ही घिनौनी बात है! इतना बड़ा बुरा काम करने की उसकी क्षमता अपने कर्तव्य और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये को प्रकट करती है। दूसरी बात, निष्कासित होने के बाद भी न तो उसने इसे स्वीकार किया, न अपना पाप कबूल किया, न ही पश्चात्ताप किया, बल्कि उसे शिकायत भी थी। ऐसा व्यक्ति तर्क से परे होता है। जरा सोचो कि उसे किस बारे में शिकायत हो सकती थी। उसे यह शिकायत थी, “मैं 20 वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, मैंने कभी शादी नहीं की, मैंने बहुत कुछ त्याग किया, बहुत कष्ट सहे और अब उन्होंने मुझे निष्कासित कर दिया, मुझे नकार दिया। मैं अपनी जगह खुद ढूँढ़ लूँगा!” कुछ समय बाद ही उसने शादी कर ली। मुझे बताओ, क्या कोई सामान्य व्यक्ति—ऐसा व्यक्ति जिसमें अंतरात्मा और मानवता होती है—जो अपनी अंतरात्मा के बारे में थोड़ा-सा भी सचेत हो, वह इतनी जल्दी शादी कर लेगा? क्या उसका शादी करने का मन होगा? आम तौर पर थोड़ी-सी भी अंतरात्मा और मानवता वाला व्यक्ति इस तरह की गंभीर समस्या का सामना करने पर यह सोचकर मृत्यु के बारे में भी विचार करने लगेगा सोचेगा कि “मेरा जीवन समाप्त हो गया है, 20 वर्षों से अधिक समय तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैं ऐसा कृत्य कैसे कर सकता हूँ? केवल मैं ही दोषी हूँ और निष्कासित किये जाने के योग्य हूँ! एक करोड़ के बारे में भूल जाओ; मैं तो दस लाख चुकाने में भी सक्षम नहीं हूँ। मुझे बेच कर भी मैं इसकी भरपाई नहीं कर सकता, मेरे जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं है!” जब तुम्हें पता था कि तुम इसे वहन नहीं कर सकते तो फिर तुमने ऐसा किया ही क्यों? क्या तुम नहीं जानते कि वह पैसा परमेश्वर को अर्पित चढ़ावा था? वह पैसा तुम्हारा नहीं था; तुम्हारी जिम्मेदारी उसे सुरक्षित रखने की थी। ऐसा नहीं है कि तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं था; तुम्हें उसे सुरक्षित रखना था। यह सबसे महत्वपूर्ण बात थी और तुम्हारी लापरवाही कर्तव्य की अवहेलना थी। इस पैसे को गँवाकर तुम अपनी जिम्मेदारी से पल्ला तो बिल्कुल नहीं झाड़ सकते। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति के नाते क्या इन चढ़ावों को सुरक्षित रखना और कोई भी अप्रिय घटना रोकना तुम्हारा दायित्व और जिम्मेदारी नहीं है? क्या तुम्हें कुछ गड़बड़ होने का जोखिम कम नहीं करना चाहिए था? यदि तुम ऐसा भी नहीं कर सकते, तो तुम क्या हो? क्या तुम जीते-जागते दानव नहीं हो? (हाँ।) यह पूरी तरह से घिनौनी और मानवता से रहित बात है! यही नहीं, निष्कासित होने के बाद उसने न केवल परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर शादी कर ली बल्कि उसने अपने परिवार में विश्वासियों को भी परेशान किया—इसकी प्रकृति और भी गंभीर है। उसने कई वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया, बहुत कुछ त्यागा, कई बलिदान दिए, काफी काम किया, जोखिम उठाया और जेल काटी। लेकिन ये बाहरी कारक किसी की नियति तय नहीं करते। तो नियति किस चीज से तय होती है? व्यक्ति जो रास्ता चुनता है उससे। यदि उसने सत्य के अनुसरण का रास्ता अपनाया होता तो उसका ऐसा हश्र न होता और परमेश्वर के घर को इतना बड़ा नुकसान नहीं हुआ होता। इतनी बड़ी अप्रिय घटना होना बिल्कुल भी आकस्मिक नहीं था; इसका सीधा संबंध उसकी मानवता की गुणवत्ता और उसके चुने रास्ते से था। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर जानता है कि वह व्यक्ति किस रास्ते पर है? (बिल्कुल।) परमेश्वर जानता है। तो क्या यह घटना उसका खुलासा करने के लिए थी या उसे निकालने के लिए? यह उसका खुलासा करने और निकालने, दोनों के लिए थी। मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो लगता है कि वह वफादारी, खुद को खपाने, कीमत चुकाने की इच्छा और कठिनाई सहने की क्षमता के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा रहा था। तो परमेश्वर उसके साथ ऐसा क्यों करेगा? परमेश्वर उसका खुलासा क्यों करेगा? किस चीज का खुलासा किया जाना था? क्या यह सब केवल उसका परिणाम प्रकट करने के लिए था? नहीं, इसका उद्देश्य उसकी आस्था, उसकी मानवता, उसके सार और उसकी प्रकृति का खुलासा करना था—ये सभी अब उघड़कर सामने आ चुके हैं। क्या परमेश्वर अब भी ऐसे व्यक्ति को बचा सकता है? क्या परमेश्वर को उससे तनिक भी आशा है? ऐसे व्यक्ति के लिए परमेश्वर के दिल में बिल्कुल भी आशा नहीं है। क्या परमेश्वर के हृदय में उसके लिए कोई प्रेम या दया बची है? बिल्कुल भी नहीं। कुछ लोग कह सकते हैं : “यदि परमेश्वर के हृदय में उसके लिए कोई प्रेम या दया नहीं है, तो क्या केवल धार्मिकता, प्रताप और क्रोध ही बचा है?” सही कहा। ऐसे बुरे व्यक्ति को अब प्रेम या दया की आवश्यकता नहीं है और इसकी अब कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसने परमेश्वर के स्वभाव को गंभीर रूप से ठेस पहुँचाई है। परमेश्वर की ओर से उसके लिए जो कुछ बचा है वह धार्मिकता, प्रताप और क्रोध ही है। उसके परिणाम का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य से कोई लेना-देना नहीं रहा, इसका मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं रहा; उसे निकालकर हटा दिया गया है। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह व्यक्ति अब कहाँ है, परमेश्वर की नजरों में वह एक जिंदा मुर्दा है; वह गंदे दानवों और बुरी आत्माओं, मानवीय चेहरे पहनकर जानवर का दिल रखने वालों और मानव के भेष में जानवरों के बीच रहने वाली एक चलती-फिरती लाश है। ये उसके गुण हैं और वह सृष्टिकर्ता की दृष्टि से दूर कर दिया गया है। उसके जीवन में घटी इस प्रमुख घटना के प्रति उसके परिणाम और अंतिम रवैये को ध्यान में रखते हुए क्या इस पूरी अवधि में उसके कर्तव्य निर्वहन का “समुचित” शब्द से कोई लेना-देना है? (नहीं।) तुम कैसे जानते हो कि इस घटना के घटित होने से पहले भी उसका कर्तव्य निर्वहन समुचित नहीं था? क्या तुम अपने आकलन और निष्कर्ष के जरिये ऐसा जानते हो या तुमने उसके सार को देखकर यह मूल्याँकन किया है? (उसके सार को देखकर।) सही कहा। पौलुस का उदाहरण देख लो—अगर उसने सत्य का अनुसरण किया होता, अगर उसने पतरस की तरह पूर्ण होने की कोशिश की होती तो उसने ऐसे निंदनीय शब्द नहीं बोले होते। प्रत्येक परिणाम का एक कारण होता है; इस व्यक्ति को जो परिणाम मिला उसके अंतर्निहित कारण हैं। यह व्यक्ति आज इस बिंदु तक पहुँचने में सक्षम था इस तथ्य से और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये से, चढ़ावे के प्रति उसके रवैये से और अपने स्वयं के बुरे कर्मों के प्रति उसके रवैये से लोग स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि वह किस मार्ग पर चल रहा था और परमेश्वर में उसका विश्वास वास्तव में क्या था। यह पूरी तरह से उसके सार और उस रास्ते का खुलासा करता है जिस पर वह चल रहा था। यदि वह सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर होता, और यदि वह वास्तव में अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी और दायित्व मान पाता, तो जब यह अनहोनी हो ही गई तो वह इस स्थिति को कैसे संभालता? निश्चित रूप से उसका वह रवैया नहीं होता जो अब है—प्रतिरोध और शिकायत का रवैया। उसका दानवीय पक्ष उजागर हो गया है; उसकी आत्मा की गहराई का प्रकृति सार पूरी तरह उजागर हो गया है। वह मानव नहीं, शैतान है। यदि वह मानव होता, तो 20 वर्षों से अधिक समय तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसका ऐसा हश्र नहीं होता। यदि वह मानव होता तो चढ़ावे के इतने बड़े नुकसान पर उसे कितना पछतावा हुआ होता? वह कितना रोया होता? वह किस हद तक काँप गया होता? वह भयानक पाप के लिए स्वयं को अपरिहार्य रूप से जिम्मेदार और दोषी महसूस करता और खुद को माफी के लायक न मानकर यह महसूस करता कि उसे पश्चात्ताप करना चाहिए और परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूल करने चाहिए। भले ही कलीसिया ने उसे निष्कासित कर दिया हो, वह कम-से-कम परमेश्वर में विश्वास करना तो बंद न करता, परमेश्वर को धोखा तो न देता, परमेश्वर में अपने परिवार की आस्था भंग करना तो दूर की बात है। इस व्यक्ति के बाद के विभिन्न व्यवहारों से हमें क्या पता चलता है? यही कि वह एक छद्म-विश्वासी है जिसे सत्य से कोई प्रेम नहीं है और यह भी कि उसकी मानवता भी दुर्भावनापूर्ण है। यह चौथा प्रकरण है। हमें इस प्रकरण को क्या नाम देना चाहिए? (“चढ़ावे के मामले में एक करोड़ का नुकसान।”) हमें इसमें उसकी प्रतिक्रिया जोड़कर इसे “पश्चात्ताप के किसी संकेत के बिना चढ़ावे में एक करोड़ का नुकसान” कहना चाहिए। क्या वह नाम बेहतर नहीं है? यह दूसरों के लिए चेतावनी का काम करता है; कम-से-कम यह लोगों को इस बात से अवगत कराता है कि उनके कार्यों की गंभीरता कहाँ होती है।

इन सभी घटनाओं का घटित होना, इन लोगों द्वारा प्रदर्शित विभिन्न व्यवहार, साथ ही इन घटनाओं के घटित होने के बाद परमेश्वर के प्रति उनका रवैया, ये सभी अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रक्रिया में उत्पन्न और उजागर हुए। इसलिए परमेश्वर में विश्वास करने के लिए व्यक्ति का अपनाया मार्ग और उसका अंतिम परिणाम कुछ हद तक उसके कर्तव्य निर्वहन से काफी संबंधित होते हैं; यह भी कहा जा सकता है कि उनमें सीधा संबंध है। कर्तव्य निर्वहन का विषय एक अनंत विषय होना चाहिए और इस पहलू से संबंधित सत्य भी एक अनंत विषय होना चाहिए। यह सत्य ही है जिसे लोगों को सबसे बुनियादी रूप से समझना चाहिए और यह एक ऐसा विषय है जिस पर लोगों के जीवन के विकास और परमेश्वर में विश्वास की प्रक्रिया में लगातार चर्चा होनी चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह लोगों के स्वभाव में परिवर्तन, उनके जीवन प्रवेश और वे किस प्रकार के मार्ग पर चलते हैं और अंततः उन्हें किस प्रकार का परिणाम मिलता है, इन सबसे अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। आज हमने कर्तव्य निभाने के बारे में विस्तार से संगति की और कई प्रकरणों पर भी संगति की। इसका मुख्य उद्देश्य यह समझाना है कि तुम लोग अपने कर्तव्यों को उस तरीके से कैसे निभाओ जैसा परमेश्वर को मंजूर हो, यदि तुम बुरा करते हो तो दुष्परिणाम क्या होंगे और अपने कर्तव्यों को मानक स्तर तक निभाने का महत्व क्या है। इन प्रकरणों में घटनाएँ उत्तरोत्तर अधिक गंभीर और भयावह होती चली गईं, लेकिन ये मेरी मनगढ़ंत घटनाएँ नहीं थीं। वे वास्तव में उन लोगों के बीच घटित हुईं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं और जो अपना कर्तव्य निभाने वालों की श्रेणी में आते हैं। यह क्या दर्शाता है? कुछ लोग कहते हैं : “अगर हम अपने कर्तव्य नहीं निभाते तो कोई समस्या नहीं आती, लेकिन जब निभाते हैं तो हमेशा समस्याएँ आती हैं। तो क्या अपने कर्तव्य न निभाना ही ठीक है?” यह कैसी सोच है? क्या यह दम घुटने के डर से खाना छोड़ देना नहीं है? क्या यह मूर्खता नहीं है? इन समस्याओं को हल करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए; यह एक सक्रिय रवैया है और इसी तरह का रवैया एक सामान्य व्यक्ति का होना चाहिए। यदि तुम्हें डर है कि अपने कर्तव्य निभाते समय समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं जिसके कारण तुम्हारी निंदा की जाएगी, तुम्हें निष्कासित कर दिया जाएगा, निकाल दिया जाएगा या अलग-थलग कर दिया जाएगा और अंत में उद्धार प्राप्त करने की कोई भी आशा नहीं रहेगी, और इस डर से तुम अपने कर्तव्य निभाना बंद कर देते हो या उनके प्रति नकारात्मक, विरोधी रवैया अपना लेते हो तो यह कैसा रवैया है? (एक बुरा रवैया।) कुछ और लोग कहते हैं : “हमारी मानवता कर्तव्य निभाने के लिए बहुत कमजोर है, तो हम केवल श्रम करके ही संतुष्ट क्यों नहीं हो लेते? श्रमिकों से परमेश्वर की कोई ऊँची अपेक्षाएँ नहीं होती हैं और उनके लिए कोई मानक या सिद्धांत भी नहीं हैं—सिर्फ प्रयास करना ही पर्याप्त है। जो भी कहा जाए वह कर दो, आज्ञाकारी बने रहो, कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मत लो और अगुआ या कार्यकर्ता बनने की कोई महत्वाकाँक्षा मत रखो। अंत तक टिके रह पाना ही सबसे बड़ा आशीष होगा।” ये मकसद कैसे हैं? क्या ये अधम और नीच नहीं हैं? क्या ऐसे महत्वाकाँक्षी व्यक्ति परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? क्या मानवता से रहित व्यक्ति समुचित रूप से श्रम कर सकता है? मानवता से रहित लोग समुचित रूप से श्रम नहीं कर सकते; वे ऐसे निष्ठावान श्रमिक नहीं बनेंगे जो अंत तक टिके रहें।

संगति में पिछले कुछ समय में उदाहरणों का जिक्र अपेक्षाकृत अधिक किया गया है। इन घटनाओं को याद रखना आसान है लेकिन मैंने जिन सत्यों पर संगति की उन्हें समझना कठिन है। हालाँकि इसका एक फायदा है : इन घटनाओं पर चर्चा करके तुम लोग उन सत्यों को याद कर सकते हो या समझ सकते हो जिन्हें ये घटनाएँ थोड़ा-सा छूती हैं। यदि हम इन प्रकरणों के बारे में बात नहीं करते तो इस प्रकार का नतीजा प्राप्त करने के लिए शायद अधिक प्रयास की आवश्यकता होती। इन प्रकरणों पर चर्चा करना प्रेरणा और चेतावनी दोनों के रूप में कार्य करता है जिससे लोगों को अपने भीतर से सही रास्ता खोजने में मदद मिलती है। ये प्रकरण यह जानने में तुम्हारा मार्गदर्शन करते हैं कि परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने, बड़ी गलतियाँ करने या गलत रास्ता अपनाने से बचने के लिए तुम्हें किस रास्ते पर चलना चाहिए। मुख्य लक्ष्य समुचित रूप से कर्तव्य निभाने में लोगों की मदद करना है। इन चार प्रकरणों के बारे में सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस कर रहे हो? क्या तुम्हारे पास कर्तव्यों के समुचित निर्वहन की नई समझ है? क्या लोगों के लिए अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन आसान है? (यह आसान नहीं है।) कठिनाई कहाँ है? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग सत्य को नहीं समझते हैं और सिद्धांत नहीं खोज पाते हैं, इसलिए गलतियाँ करते रहते हैं? (नहीं।) तो फिर कठिनाई कहाँ है? कठिनाई यह है : लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, न इसका अनुसरण ही करते हैं। अपने कर्तव्य निभाने के दौरान लोग अगर सत्य का अनुसरण और अभ्यास नहीं करते हैं तो इसके साथ ही अपने शातिर, दुष्ट और अहंकारी स्वभावों के कारण आसानी से कुछ ऐसे दुष्परिणाम और परिणाम मिल सकते हैं जिन्हें लोग नहीं चाहते हैं या जिनकी उम्मीद नहीं करते हैं। क्या कोई अपने लिए बुरे परिणाम की आशा करता है? (नहीं।) क्या ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हुए केवल एक औसत परिणाम की आशा करते हैं कि जब तक वे बिना मरे अंत तक टिक पाते हैं तो यह ठीक है? (हाँ, हैं।) ये किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे केवल मृत्यु तक का समय अंकित कर रहे हैं। ऐसे लोगों का कर्तव्य निर्वहन पूरी तरह से अनमना भरा होना तय है, जिससे उनके लिए गलतियाँ या पाप करना आसान हो जाता है और मानक स्तर तक अपने कर्तव्य निभाना बहुत कठिन हो जाता है। किस प्रकार के लोग मानक स्तर तक कर्तव्य निभा सकते हैं? (वे जो सत्य का अनुसरण करते हैं।) और कौन लोग ऐसा कर सकते हैं? (मानवता वाले लोग।) मानवता में क्या शामिल है? (अंतरात्मा और विवेक।) जिनके पास अंतरात्मा और विवेक है, जिनके पास मानवता है, यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं तो वे आसानी से मानक स्तर तक कर्तव्य निभाएँगे। कुछ लोग कहते हैं : “तुम लोग समुचित रूप से कर्तव्य निभाने में असफल रहने वाले लोगों के इन गंभीर नकारात्मक उदाहरणों के बारे में बात करते रहते हो और इससे हमारा आत्मविश्वास डोल जाता है। हम अपने कर्तव्यों के समुचित निर्वहन के मानक तक कब पहुँचेंगे? क्या इसके कोई सकारात्मक उदाहरण हैं?” तो फिर चलो, कुछ अधिक उत्साहवर्धक और सकारात्मक बातें करें। वर्तमान में बहुत से लोग सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान देने लगे हैं और वे अपने कर्तव्य निभाते समय अधिक सावधान भी रहने लगे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाते हुए दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण सहयोग कर सकते हैं। सौहार्दपूर्ण सहयोग का क्या अर्थ है? इसकी एक अभिव्यक्ति यह है : इसका केवल यह अर्थ नहीं है कि बिना झगड़े या साजिश के बाहरी तौर पर सबके साथ मिल-जुलकर रहो। सौहार्दपूर्ण सहयोग का मतलब है कि जब काम करते समय विभिन्न समस्याओं से सामना होता है—चाहे तुम्हारे पास उनके बारे में अंतर्दृष्टि हो या न हो और तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या न हो—फिर भी तुम दूसरों के साथ बातचीत और संगति कर सकते हो, सत्य सिद्धांत खोज सकते हो और फिर आम सहमति बना सकते हो। यह सौहार्दपूर्ण सहयोग है। आम सहमति बनाने का उद्देश्य क्या है? अपने कर्तव्यों को और भी अच्छे ढंग से निभाना, कलीसिया का कार्य बेहतर ढंग से करना और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होना। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे कर्तव्यों का निर्वहन मानक के अनुरूप हो, तो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान सबसे पहले सौहार्दपूर्ण सहयोग प्राप्त करना होगा। वर्तमान में कुछ लोग ऐसे हैं जो पहले से ही सौहार्दपूर्ण सहयोग का अभ्यास कर रहे हैं। सत्य को समझने के बाद भले ही वे पूरी तरह से सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हों और भले ही रास्ते में असफलताएँ, कमजोरियाँ व विचलन हों, फिर भी वे सत्य सिद्धांत पाने का प्रयास करते हैं। इसलिए उनके सौहार्दपूर्ण सहयोग प्राप्त कर लेने की आशा है। उदाहरण के लिए, कभी-कभी तुम्हें लग सकता है कि तुम जो कर रहे हो वह सही है, लेकिन तुम खुद को आत्मतुष्ट नहीं होने देते हो। तुम दूसरों के साथ चर्चा कर सकते हो और उनके साथ सत्य सिद्धांतों पर तब तक संगति कर सकते हो जब तक ये इतने स्पष्ट और प्रत्यक्ष न हो जाएँ कि हर कोई उन्हें समझ जाए और इस बात पर सहमत हो जाए कि ऐसा करने से सर्वोत्तम नतीजा प्राप्त होगा। साथ ही, हर कोई इस बात से सहमत हो जाए कि यह सिद्धांतों से बाहर नहीं है, यह परमेश्वर के घर के हितों को ध्यान में रखता है और यह परमेश्वर के घर के हितों की यथासंभव रक्षा करेगा। इस तरह से अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। हालाँकि अंतिम नतीजा हमेशा वैसा नहीं हो सकता जैसा तुमने सोचा था, लेकिन तुम्हारे अभ्यास का मार्ग, दिशा और लक्ष्य सही था। तो परमेश्वर इसे कैसे देखता है? परमेश्वर इस मामले को कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित है। क्या समुचितता का अर्थ यह है कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर के इरादों के अनुसार था? नहीं, ऐसा नहीं है। समुचितता परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने, परमेश्वर की पुष्टि प्राप्त करने और परमेश्वर की अपेक्षाओं का पूर्ण पालन करते हुए अभ्यास करने से अभी भी कोसों दूर है। समुचितता का सीधा सा मतलब है कि तुम सही रास्ते पर हो, तुम्हारे इरादे सही हैं और तुम्हारी दिशा सही है लेकिन तुम अभी भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के परमेश्वर द्वारा अपेक्षित उच्च मानक तक नहीं पहुँचे हो। समर्पण के संबंध में एक उदाहरण लेते हैं, मान लो कि परमेश्वर का घर तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के दौरान तुम्हारे लिए कुछ करने की व्यवस्था करता है। तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में मानक पर खरा उतरने के लिए किस प्रकार अभ्यास करना चाहिए? जब तुम पहली बार कार्य के बारे में सुनोगे, तो तुम्हारी कुछ राय हो सकती है। लेकिन कुछ विचार करने के बाद तुम सोचते हो, “परमेश्वर ने कहा है कि हम जिन मामलों को समझते नहीं हैं, उनमें हमें खोजना और समर्पण करना सीखना चाहिए। तो, मुझे खोजना ही होगा। हालाँकि मैं सत्य को नहीं समझता या अभ्यास का तरीका नहीं जानता, लेकिन कार्य मेरे ऊपर आ गया है इसलिए मुझे अनुपालन और समर्पण करना ही होगा। भले ही यह केवल विनियमों का पालन करने की बात हो, पहले मुझे इनका पालन करना चाहिए।” यदि तुम इस तरीके से अभ्यास कर सकते हो तो तुम मानक पूरा कर रहे हो। लेकिन क्या इस मानक को पूरा करने और परमेश्वर की पुष्टि प्राप्त करने के बीच कोई अंतर है? (बिल्कुल है।) यह अंतर इस बात से निर्धारित होता है कि तुम सत्य को किस हद तक समझते हो। भले ही तुम समर्पण कर सकते हो, तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो और तुमने सत्य सिद्धांतों की पूरी तरह से पहचान नहीं की है या उन्हें अभ्यास में नहीं लाए हो; तुमने केवल विनियमों का पालन किया है। तुमने अंतरात्मा और विनियमों के मानकों के अनुसार उन्हीं बुनियादी चीजों का पालन किया है जो किसी व्यक्ति को करनी चाहिए, इसलिए कार्यान्वयन के संदर्भ में कोई समस्या नहीं है और तुम्हारे कार्यों की प्रकृति के संदर्भ में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन यह सत्य का अभ्यास करने के मानक को पूरा नहीं करता है; तुम लोग अभी भी परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो। तुमने केवल निष्क्रिय और स्वचालित ढंग से अपने कर्तव्य निभाए हैं; तुमने इन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अच्छे से नहीं निभाया है। तुम उस स्तर तक नहीं पहुँचे हो जहाँ तुम परमेश्वर की गवाही दे सको या परमेश्वर के इरादे पूरे कर सको। तुमने गवाही देने के मानक पूरे नहीं किये हैं। इसलिए इस तरीके से अपना कर्तव्य निभाना केवल समुचित है, यह अभी भी परमेश्वर के अनुमोदन के अनुरूप नहीं है।

किसी व्यक्ति ने अपने कर्तव्य का समुचित निर्वहन किया है कि नहीं, यह निर्धारित करने का मानक क्या है? यदि कर्तव्य निर्वहन का मार्ग सही है, दिशा सही है और इरादा सही है; यदि शुरुआत सही है और सिद्धांत सही हैं—यदि ये सभी पहलू सही हैं तो किसी ने जो कर्तव्य निभाया है वह समुचित है। बहुत से लोग इसे सैद्धांतिक रूप से तो समझते हैं, लेकिन जब उनके साथ वास्तव में कुछ घटित होता है तो वे भ्रमित हो जाते हैं। इसको संक्षेप में समझाने के लिए मैं तुम लोगों को एक सिद्धांत बताता हूँ : परिस्थितियों का सामना करते समय मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य मत करो। तुम मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य क्यों नहीं कर सकते? पहली बात, इस तरह से कार्य करना कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। दूसरी बात, कर्तव्य तुम्हारा निजी मामला नहीं है; तुम इसका निर्वहन अपने लिए नहीं कर रहे हो, तुम अपने स्वयं के प्रबंधन में संलग्न नहीं हो, यह तुम्हारा निजी व्यवसाय नहीं है। परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, वह तुम्हारा अपना निजी उद्यम नहीं है; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, “यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।” यह पहली बात है जो लोगों को समझ लेनी चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी मामला मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यान्वित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और अपने निजी मामलों में स्पष्ट अंतर कर लेते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए।) बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहनों को खोजना चाहिए जो सत्य को समझते हों; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। कर्तव्य तुम्हारा अपना व्यक्तिगत मामला नहीं होता है; मामला चाहे बड़ा हो या छोटा, परमेश्वर के घर के मामले किसी के निजी मामले नहीं होते। अगर मामला कर्तव्य से जुड़ा है, तो यह तुम्हारा निजी मामला नहीं है, यह तुम्हारा अपना मामला नहीं है—इसका संबंध सत्य से है, इसका संबंध सिद्धांत से है। तो पहला काम तुम लोगों को क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और सिद्धांत खोजना चाहिए। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो पहले सिद्धांत खोजो; यदि तुम्हें सत्य की समझ पहले से है, तो सिद्धांतों की पहचान करना आसान होगा। यदि तुम सिद्धांतों को नहीं समझते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक तरीका है : तुम उन लोगों के साथ संगति कर सकते हो जो सिद्धांतों को समझते हैं। हमेशा यह मानकर मत चलो कि तुम सब कुछ समझते हो और हमेशा सही हो; यह गलतियाँ करने का एक आसान तरीका है। यह किस प्रकार का स्वभाव है जब तुम्हीं हमेशा निर्णायक बात सुनाना चाहते हो? यह अहंकार और आत्मतुष्टि का स्वभाव है, यह मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य करना है। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं कॉलेज तक पढ़ा हूँ, मैं तुम लोगों से अधिक सुसंस्कृत हूँ, मेरे पास समझने की क्षमता है, तुम सभी लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है और तुम लोग सत्य को नहीं समझते हो, इसलिए मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे तुम्हें गौर से सुनना चाहिए। अकेला मैं ही निर्णय ले सकता हूँ!” यह कैसा दृष्टिकोण है? यदि तुम्हारा इस प्रकार का दृष्टिकोण है, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे; तुम कभी भी अपना कर्तव्य निर्वहन अच्छे से नहीं करोगे। जब तुम सौहार्दपूर्ण सहयोग के बिना हमेशा निर्णायक बात सुनाने वाला व्यक्ति बनना चाहते हो तो तुम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हो? इस तरह से अपने कर्तव्य निभाने से तुम निश्चित रूप से मानक पर खरे नहीं उतरोगे। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? तुम हमेशा दूसरों को विवश कर अपनी बात सुनाना चाहते हो; लेकिन किसी और की बात तुम नहीं मानते हो। यह पूर्वाग्रह और जिद है, यह अहंकार और आत्मतुष्टि भी है। इस तरीके से तुम न केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाओगे, बल्कि तुम दूसरों को भी कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने से रोकोगे। यह अहंकारी स्वभाव का दुष्परिणाम है। परमेश्वर लोगों से सौहार्दपूर्ण सहयोग की अपेक्षा क्यों करता है? एक लिहाज से, यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करने में फायदेमंद है ताकि वे इस तरह खुद को जान सकें और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकें—यह उनके जीवन प्रवेश में फायदा पहुँचाता है। दूसरे लिहाज से, सौहार्दपूर्ण सहयोग कलीसिया के कार्य के लिए भी फायदेमंद है। चूँकि किसी व्यक्ति को सत्य की समझ नहीं है और सबमें स्वभाव भ्रष्ट हैं, इसलिए अगर सौहार्दपूर्ण सहयोग न हो तो वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम नहीं होंगे, जिसका असर कलीसिया के कार्य पर पड़ेगा। इसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं। संक्षेप में, कर्तव्य का समुचित निर्वहन में सफल होने के लिए व्यक्ति को सौहार्दपूर्ण सहयोग करना सीखना चाहिए और जब परिस्थितियों से सामना हो तो समाधान खोजने के लिए सत्य पर संगति करनी चाहिए। यह आवश्यक है—इससे कलीसिया के कार्य में ही नहीं, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में भी फायदा होता है। कुछ लोग यह बात समझ ही नहीं पाते; वे हमेशा यही सोचते हैं कि सौहार्दपूर्ण सहयोग बहुत ही परेशानी की बात है, और कभी-कभी सत्य पर संगति करने से आसानी से नतीजे नहीं मिलते हैं। ये लोग तब संदेह व्यक्त करते हुए कहते हैं, “कर्तव्य के समुचित निर्वहन में सफल होने के लिए क्या सौहार्दपूर्ण सहयोग करना वास्तव में आवश्यक है? जब किसी स्थिति से सामना होता है, तो क्या सभी की एक साथ संगति से निश्चित रूप से नतीजे मिलेंगे? मुझे लगता है कि यह सब सिर्फ आधे-अधूरे मन से चल रहा है; इन नियमों का पालन करना व्यर्थ है।” क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) यह दृष्टिकोण किस समस्या को उजागर करता है? (कर्तव्य निर्वहन के प्रति उनके रवैये में समस्या है।) कुछ लोगों का स्वभाव अहंकारी और आत्मतुष्टि वाला होता है; वे सत्य पर संगति करने के इच्छुक नहीं होते हैं और हमेशा निर्णायक बात सुनाना चाहते हैं। क्या कोई इतना अहंकारी और आत्मतुष्ट व्यक्ति दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण सहयोग कर सकता है? परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में सौहार्दपूर्ण सहयोग करें, ताकि उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण सीखने में मदद मिल सके, और उनके भ्रष्ट स्वभाव दूर किए जा सकें, जिससे कर्तव्य का समुचित निर्वहन प्राप्त हो सके। दूसरों के साथ सहयोग करने से इंकार करना और मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य करना, हर किसी को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करना—क्या अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा ऐसा रवैया होना चाहिए? अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति तुम्हारे रवैये का संबंध तुम्हारे जीवन प्रवेश से है। परमेश्वर इस बात से वास्ता नहीं रखता कि तुम्हारे साथ हर दिन क्या होता है, तुम कितना काम करते हो, कितनी मेहनत करते हो—वह सिर्फ यह देखता है कि इन चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है। और तुम इन चीजों को जिस रवैये और तरीके से करते हो, उसका संबंध किससे है? इसका संबंध तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने या न करने के साथ ही तुम्हारे जीवन-प्रवेश से भी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन-प्रवेश को देखता है, तुम जिस मार्ग पर चलते हो, उसे देखता है। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हो, तुम जीवन-प्रवेश कर चुके हो, तो तुम कर्तव्य निभाते समय दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग कर सकोगे और अपना कर्तव्य समुचित रूप से पूरा कर लोगे। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते हुए अगर तुम यह अकड़ दिखाते हो कि तुम्हारे पास पूँजी है, तुम अपने काम को समझते हो और अनुभवी हो, तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होकर किसी और से ज्यादा सत्य का अनुसरण करते हो, और फिर यह सोचते हो कि इन कारणों से तुममें अंतिम निर्णय लेने की योग्यता है और तुम किसी दूसरे के साथ कुछ भी चर्चा नहीं करते, हमेशा कानून अपने हाथ में लिए फिरते हो, अपने ही प्रबंधन में जुटे रहते हो, और हमेशा यह चाहते हो कि “बहार में अकेले फूल तुम ही खिलो,” तो क्या तुम जीवन-प्रवेश के मार्ग पर चल रहे हो? नहीं—यह रुतबे के पीछे भागना है, यह पौलुस की राह पर चलना है, यह जीवन-प्रवेश का मार्ग नहीं है। जिस तरह से परमेश्वर लोगों को जीवन प्रवेश के मार्ग पर और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलवाता है, उसमें ऐसे व्यवहार शामिल नहीं होते हैं या इन अभिव्यक्तियों को प्रदर्शित नहीं किया जाता है। कर्तव्य के समुचित निर्वहन का मानक क्या है? (हर चीज में सत्य खोजना, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होना।) सही कहा। अपने कर्तव्य के समुचित निर्वहन के लिए यह मायने नहीं रखता कि तुमने कितने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है, तुमने कितने कर्तव्य निभाए या तुमने परमेश्वर के घर में कितना योगदान दिया, तुम अपने कर्तव्य में कितने अनुभवी हो यह मायने रखना तो दूर की बात है। परमेश्वर मुख्यतः यह देखता है उस व्यक्ति ने कौन-सा मार्ग पकड़ा है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह देखता है कि सत्य और सिद्धांतों के प्रति व्यक्ति का रवैया क्या है और उसके कार्यों की दिशा, उत्पत्ति और प्रारंभिक बिंदु क्या है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान केंद्रित करता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं। तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में यदि तुम्हारे अंदर ये सकारात्मक बातें बिल्कुल न दिखाई दें और तुम्हारे कार्य के सिद्धांत, मार्ग और आधार तुम्हारे ही विचार, उद्देश्य और योजनाएँ हों, तुम्हारी शुरुआत अपने ही हितों की रक्षा करने, अपनी प्रतिष्ठा और ओहदे की रक्षा करने से हो, तुम्हारी कार्य-प्रणाली अकेले ही निर्णय लेने और काम करने और अपनी बात को ही निर्णायक मनवाने की हो, तुम कभी दूसरों के साथ किसी चीज पर विचार-विमर्श या सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं करते हो और गलती करने पर सत्य खोजना तो दूर रहा, तुम कभी किसी की सलाह नहीं मानते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम अपना कर्तव्य इस ढंग से निभाते हो तो तुम अभी तक उस मानक तक नहीं पहुँचे हो और तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम नहीं रखा है, क्योंकि कर्तव्य निभाते समय तुम सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और हमेशा अपनी इच्छानुसार कार्य करते हो, जो चाहते हो वही करते हो। यही कारण है कि ज्यादातर लोग अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन नहीं कर पाते। तो इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? तुम लोग क्या कहते हो, क्या किसी के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का एक भाव रखने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम कितने भी शिक्षित हो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कुछ भी उपलब्धियाँ हों, और तुम्हारा रुतबा और दर्जा कितना भी ऊँचा हो, तुम्हें इन सभी चीजों को छोड़ देना चाहिए, तुम्हें अपनी ऊँची गद्दी से उतर जाना चाहिए—इन सबका कोई मोल नहीं है। चाहे वे महिमामयी चीजें कितनी भी महान हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से बड़ी नहीं हो सकती हैं; क्योंकि ऐसी सतही चीजें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। तुम्हें यह मसला स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, “मैं बहुत गुणी हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है, इसलिए मैं अंतिम निर्णय लेने योग्य हूँ,” यदि तुम हमेशा इन चीजों को पूंजी के रूप में उपयोग करते हो, उन्हें कीमती और सकारात्मक मानते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। अगर तुम्हारा दिल इन चीजों के कब्जे में है, अगर इन चीजों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हों, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा—और इसके दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, सबसे पहले तुम उन चीजों का त्याग करो, उन्हें नकारो जो तुम्हें प्रिय हों, जो तुम्हें अच्छी लगती हों और जो तुम्हारे लिए बेशकीमती हों। वे बातें सत्य नहीं हैं बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं। अब सबसे जरूरी चीज यह है कि तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में सत्य की तलाश करनी चाहिए और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, ताकि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित हो जाए, क्योंकि कर्तव्य का समुचित निर्वहन जीवन-प्रवेश के मार्ग पर मात्र पहला कदम है। यहाँ “पहला कदम” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है यात्रा शुरू करना। सभी चीजों में, कुछ ऐसा होता है जिसके साथ यात्रा शुरू करनी होती है, कुछ ऐसा जो सबसे बुनियादी, सबसे मूलभूत होता है, और कर्तव्य का समुचित निर्वहन हासिल करना जीवन प्रवेश का मार्ग है। यदि तुम्हारा कर्तव्य-निर्वहन केवल इस दृष्टि से सही लगता है कि वह कैसे किया जाता है, लेकिन वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो तुम अपना कर्तव्य समुचित रूप से नहीं निभा रहे। तो फिर, इस पर कैसे कार्य करना चाहिए? सत्य सिद्धांतों पर काम करना चाहिए और उन्हें खोजना चाहिए; सत्य सिद्धांतों से लैस होना ही अहम है। अगर तुम केवल अपना बरताव और मिजाज सुधारते हो, लेकिन सत्य वास्तविकताओं से लैस नहीं होते, तो यह बेकार है। तुम्हारे पास कोई गुण या विशेषता हो सकती है। यह एक अच्छी बात है—लेकिन उसे अपना कर्तव्य निभाने में इस्तेमाल करके ही तुम उसका ठीक से उपयोग करते हो। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हारी मानवता या व्यक्तित्व में सुधार होना आवश्यक नहीं है, न ही ये आवश्यक है कि तुम अपना गुण या प्रतिभा अलग रख दो। महत्वपूर्ण यह है कि तुम सत्य को समझो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना सीखो। यह लगभग तय है कि अपना कर्तव्य निर्वहन करते समय तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे। ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें समस्या हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए। ऐसा करो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना तुम्हारे लिए समस्या नहीं रह जाएगी। तुम्हारा गुण या विशेषता जिस भी क्षेत्र में हो या जिसका भी तुम्हें कुछ व्यावसायिक ज्ञान हो, कर्तव्य निर्वहन में इन चीजों का उपयोग करना सबसे उचित है—अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाने का यही एकमात्र तरीका है। एक तरफ तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए जमीर और विवेक पर भरोसा करना चाहिए तो दूसरी तरफ अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस तरह अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जीवन प्रवेश प्राप्त करता है और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने में सक्षम हो जाता है।

जैसा कि अब लगता ही है, कर्तव्य के समुचित निर्वहन को सत्य खोजने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने से अलग नहीं किया जा सकता। यदि कोई समस्याओं को हल करने के लिए सत्य नहीं खोज सकता और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के स्तर तक नहीं पहुँच सकता तो वह कर्तव्य के समुचित निर्वहन का लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता है। कर्तव्य के समुचित निर्वहन की परिभाषा इस प्रकार बताई गई है। क्या परमेश्वर मनुष्य से बड़ी अपेक्षाएँ रखता है? दरअसल, वे बड़ी नहीं हैं। वह तुमसे बस यही कहता है कि तुम अपने कार्यों के प्रति सही रवैया, सही इरादा और सही दृष्टिकोण रखो। इस आधार पर तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हो और अपने बारे में अपने ज्ञान को गहरा कर सकते हो। फिर तुम परीक्षण और शोधन से होकर गुजरने में सक्षम होओगे, जिससे तुम गहरे सत्य में प्रवेश कर सकोगे और स्वभाव में परिवर्तन ला सकोगे। परीक्षणों और शोधनों से होकर गुजरने से पहले सत्य की तुम्हारी समझ के आधार पर परमेश्वर तुम्हें कुछ न्याय और ताड़ना देगा। लेकिन न्याय और ताड़ना के साथ ही परीक्षण और शोधन का आधार क्या है? आधार यह है कि तुम अपने कर्तव्य के समुचित निर्वहन के स्तर तक पहुँचे हो कि नहीं—दूसरे शब्दों में कहें तो तुमने जीवन प्रवेश प्राप्त कर लिया है कि नहीं। तुम्हारा जीवन प्रवेश कलीसिया में तुम्हारे कार्य और जिम्मेदारियों से अलग नहीं है। यदि तुम पूरा दिन घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ने में बिताते हो और अपने कर्तव्य निर्वहन व जीवन प्रवेश के बारे में खोखली बातें करते हों, तो यह यथार्थ से परे व निरर्थक है। यह आरामकुर्सी पर बैठकर रणनीति बनाने जैसा है; तुम पूरे दिन अपने कर्तव्य के समुचित निर्वहन के बारे में, परमेश्वर का आदेश प्राप्त करने के बारे में बात करते हो, लेकिन तुम यह सब बिना किसी समर्पण या खुद को खपाए बिना करते हो और निश्चित तौर पर कोई भी कष्ट या कठिनाई सहे बिना करते हो। भले ही कभी-कभी भजन गाने या परमेश्वर के वचन पढ़ने से तुम्हारी आँखों में आँसू आ जाते हों, लेकिन इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस दृष्टिकोण से देखें तो क्या तुम्हारे कर्तव्य के समुचित निर्वहन के स्तर तक पहुँचने और उद्धार प्राप्त करने के बीच कोई संबंध है? या क्या परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त करने से इसका संबंध है? ये आपस में जुड़े हुए हैं। परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन हासिल करना होगा। परमेश्वर ने ऐसा मानक क्यों तय किया है जिससे लोगों को अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन हासिल करने की आवश्यकता होती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर तुम्हारे जीवन प्रवेश की मात्रा मापने के लिए तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन का उपयोग करता है। यदि तुमने अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन हासिल कर लिया है, तो इसका मतलब है कि तुम्हारा जीवन प्रवेश पहले ही एक मानक प्राप्त कर चुका है जो तुम्हें न्याय और ताड़ना स्वीकार करने के योग्य बनाता है, जिसका अर्थ यह भी है कि तुम अपने पर परमेश्वर के पूर्ण बनाने के कार्य को स्वीकार करने के योग्य हो। तो इसे प्राप्त करने के लिए परमेश्वर ने मनुष्य के सामने क्या शर्तें रखी हैं? तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन परमेश्वर की दृष्टि में समुचित माना जाना चाहिए, दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है, तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए एक बुनियादी मार्ग और दिशा है जिसे परमेश्वर स्वीकारता है और योग्य मानता है। परमेश्वर इसे कैसे परखता है? मुख्यतः तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के माध्यम से। एक बार जब तुम अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन कर परमेश्वर से पुष्टि प्राप्त कर लेते हो, तो अगला कदम तुरंत शुरू हो जाता है : परमेश्वर तुम्हें न्याय और ताड़ना के अधीन करना शुरू कर देगा। तुम चाहे जो भी गलतियाँ करो, तुम्हें अनुशासित किया जाएगा; यह ऐसा है मानो परमेश्वर ने तुम पर कड़ी निगरानी रखनी शुरू कर दी हो। यह अच्छी बात है—इसका मतलब है कि परमेश्वर ने तुम्हें मान्यता दे दी है, तुम अब खतरे से बाहर हो और तुम सही व्यक्ति हो जो घनघोर बुरे कार्य बिल्कुल भी नहीं करेगा। एक अर्थ में, परमेश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा; दूसरे अर्थ में, व्यक्तिगत रूप से कहूँ तो तुम जिस रास्ते पर हो वह रास्ता, तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और दिशा—सब सच्चे मार्ग पर स्थिर हो चुके हैं। तुम परमेश्वर को नहीं छोड़ोगे और न ही रास्ता भटकोगे। इसके बाद परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पूर्ण बनाएगा; तुम्हारे ऊपर यह आशीष है। इसलिए यदि कोई यह आशीष प्राप्त करना चाहता है और पूर्ण होने के मार्ग पर चलना चाहता है तो पहली शर्त है, अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन। परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये समझने के लिए परमेश्वर अपने घर में तुम्हारे विभिन्न कर्तव्य निर्वहनों के साथ-साथ तुम्हें दिए गए कार्य, आदेश और मिशन का भी अवलोकन करता है। इन रवैयों से परमेश्वर यह आकलन करता है कि तुम किस मार्ग पर चल रहे हो। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर हो तो तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक पर खरा उतरेगा और तुम्हें निश्चित रूप से जीवन प्रवेश भी मिलेगा और अलग-अलग मात्रा में तुम्हारे स्वभाव भी बदलेंगे। ये सभी तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया के दौरान हासिल किए जाते हैं। इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें औपचारिक रूप से पूर्ण बनाए, तुम मानवीय प्रयास पर भरोसा करके यहीं तक पहुँच सकते हो। परमेश्वर के कार्य के बिना तुम इस स्तर तक ही पहुँच सकते हो; आगे प्रयास करना कठिन होगा। तुम केवल अपने भरोसे रहकर उन्हीं चीजों को हासिल कर सकते हो जो तुम्हारे अपने साधनों और मानवीय क्षमता के दायरे में हैं, जैसे—इच्छाशक्ति से खुद पर संयम रखना, कष्ट सहना, कीमतें चुकाना, त्याग करना, भावनाओं की काट-छाँट करना, दुनियादारी त्यागना, बुरी प्रवृत्तियाँ पहचानना, दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना, निष्ठापूर्वक कर्तव्य निर्वहन करना, समझना और मनुष्य का अनुसरण न करना। जब तुम ये सब हासिल कर लेते हो तो तुम परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनाए जाने के योग्य हो जाते हो। मनुष्य जो कुछ हासिल कर सकता है परमेश्वर उसमें मूलतः हस्तक्षेप नहीं करता है। वह तुम्हें लगातार सत्य प्रदान करता है, लगातार तुम्हारा सिंचन करता है, सत्य को समझने में तुम्हारी मदद करता है, वह तुम्हें बताता है कि विभिन्न पहलुओं से सत्य को कैसे समझा जाए और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कैसे किया जाए। एक बार जब तुम इन्हें समझ लोगे और इनमें प्रवेश कर लोगे तो परमेश्वर तुम्हें एक योग्यता प्रमाणपत्र देगा और तुम्हारे बचाए जाने की संभावना 80 प्रतिशत होगी। हालाँकि 80 प्रतिशत तक पहुँचने से पहले तुम्हें अपनी सारी ऊर्जा व प्रयास इसमें लगाने होंगे; तुम यह जीवन व्यर्थ नहीं गँवा सकते। कुछ लोग कहते हैं : “मैं बीस सालों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हूँ; क्या मैंने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी है?” इसे सालों में नहीं मापा जाता है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं पाँच साल से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हूँ, और मुझे कुछ सत्य समझ में आ गए हैं। मैं अपना कर्तव्य निर्वहन समुचित रूप से करना जानता हूँ और इस दिशा में प्रयास कर रहा हूँ; मैं अब कुछ तरीके जानता हूँ और अपने दिल में कुछ हद तक शांति और सहजता महसूस करता हूँ।” यह भावना वास्तव में सही है, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारे बचाए जाने की 80 प्रतिशत संभावना है? नहीं; तुम वास्तव में कहाँ तक पहुँचे हो? 10 से 15 प्रतिशत के बीच। क्योंकि समुचित रूप से कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम्हें अभी भी कई बार काट-छाँट का अनुभव करना पड़ेगा; तुम्हें कई परिस्थितियों का अनुभव करना पड़ेगा। इन परिस्थितियों में सकारात्मक पक्ष यह है कि परमेश्वर तुम्हारे अनुभवों को काफी हद तक समृद्ध करेगा। इन लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आने की प्रक्रिया में—यानी, इन व्यावहारिक परिस्थितियों में—परमेश्वर तुम्हें कुछ सत्य समझने देता है। वह तुम्हें इन लोगों, घटनाओं और चीजों के माध्यम से सत्य क्यों समझने देता है? यदि तुम इन अनुभवों से नहीं गुजरते हो तो सत्य के बारे में तुम्हारी समझ हमेशा शब्दों, धर्म-सिद्धांतों और नारों के स्तर पर ही रहेगी। एक बार जब तुम जीवन में विभिन्न परिस्थितियों का अनुभव कर लेते हो तो वे धर्म-सिद्धांत जिन्हें तुम पहले समझते भर थे या जिन्हें अपनी स्मृति में ग्रहण करने व समझने में सक्षम थे, वे एक तरह की वास्तविकता बन जाएँगे। यह वास्तविकता सत्य का व्यावहारिक पक्ष है और तुम्हें इसे समझना और इसमें प्रवेश करना चाहिए।

अगर कोई व्यक्ति अभी तक अपने समुचित कर्तव्य निर्वहन के मानक पर खरा नहीं उतरा है तो उसके बचाए जाने की कितनी संभावना है? अधिक से अधिक यह संभावना 10 से 15 प्रतिशत के बीच है, क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता है और बिल्कुल भी सच्चा समर्पण नहीं कर सकता है। जो व्यक्ति सत्य को नहीं समझता क्या वह सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है? क्या वह अपना कर्तव्य गंभीरता और जिम्मेदारी से निभा सकता है? कदापि नहीं। जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं वे निश्चित रूप से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, अनमने होकर काम करते हैं, बहुत सारे स्वार्थी उद्देश्यों में पड़ जाते हैं और अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हैं। भले ही तुम कई धर्म-सिद्धांत सुना सकते हो और सिद्धांत व नारे उगल सकते हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, इसलिए तुम्हारे बचाए जाने की संभावना अधिक नहीं है। सच्चा उद्धार प्राप्त करने के लिए और शैतान के प्रभाव से मुक्त होकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने के लिए अगला कदम विभिन्न सत्यों के लिए प्रयास करना है। इस प्रयास का उद्देश्य क्या है? यह सत्य वास्तविकता में अधिक सटीक और ठोस रूप से प्रवेश करना है। जब तुम सत्य में प्रवेश कर लेते हो, केवल तभी तुम अपने जीवन के लिए सही मार्ग पर चल सकते हो। यदि तुम केवल धर्म-सिद्धांत और नारे उगलना ही जानते हो, लेकिन अपने कर्तव्य निर्वहन के सत्य सिद्धांतों को नहीं समझते हो, और यहाँ तक कि अपनी सनक के आधार पर लापरवाही से कार्य करने में भी सक्षम हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता का अभाव है; और इससे तुम अभी भी कोसों दूर हो। जब किसी को अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान कई चीजों का अनुभव हो जाता है और उसे एहसास हो जाता है कि वह सत्य को नहीं समझता है व उसमें कितनी कमी है तो वह सत्य के लिए अपना प्रयास करना शुरू कर देता है। धीरे-धीरे वह धर्म-सिद्धांत व नारे उगलने से हटकर सच्ची समझ पाने, सत्य का सटीक अभ्यास करने और वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की ओर बढ़ता है। इस तरह उसके बचाए जाने की उम्मीद बढ़ जाती है और संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। यह बढ़ोतरी किस पर आधारित है? (यह इस बात पर आधारित है कि वह सत्य को किस हद तक समझता है।) कोई व्यक्ति सत्य को किस हद तक समझता है, यह सबसे महत्वपूर्ण कारक नहीं है; सबसे महत्वपूर्ण है सत्य का अभ्यास और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश। सत्य का अभ्यास करके ही तुम इसे समझ सकते हो; यदि तुम इसका अभ्यास नहीं करते तो तुम सत्य को कभी नहीं समझ पाओगे। केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझना सत्य को समझने के समान नहीं है। तुम सत्य का जितना अधिक अभ्यास करते हो, तब तुम्हारे पास जितनी अधिक वास्तविकता होती है, तुम उतने ही अधिक बदलते हो और सत्य को उतने ही बेहतर ढंग से समझते हो। इसलिए तुम्हारे बचाए जाने की आशा भी उसी हिसाब से बढ़ जाएगी। सकारात्मक पक्ष की बात करें तो अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में यदि तुम अपने कर्तव्यों से सही ढंग से पेश आ सकते हो, चाहे तुम्हारे सामने कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न आएँ तुम कर्तव्यों को कभी नहीं छोड़ते हो और जब अन्य लोग आस्था खोकर अपने कर्तव्य निभाना बंद कर दें तब भी तुम अपने कर्तव्यों पर मजबूती से डटे रहते हो और शुरू से अंत तक उन्हें कभी नहीं छोड़ते हो, अंत तक अपने कर्तव्यों के प्रति दृढ़ और वफादार बने रहते हो तो फिर तुम वास्तव में अपने कर्तव्यों को कर्तव्य मान रहे हो और पूरी निष्ठा दिखा रहे हो। यदि तुम इस मानक पर खरे उतर सकते हो तो तुमने वास्तव में अपने कर्तव्यों के समुचित निर्वहन का लक्ष्य पूरा कर लिया है; यह सकारात्मक पक्ष है। हालाँकि, नकारात्मक पक्ष की बात करें तो इस मानक तक पहुँचने से पहले व्यक्ति को विभिन्न प्रलोभनों का सामना करने में सक्षम होना होगा। जब कोई अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में प्रलोभनों का सामना न कर पाने के कारण अपना कर्तव्य छोड़ देता है और अपने कर्तव्य से विश्वासघात करते हुए भाग जाता है तो यह किस प्रकार की समस्या है? यह परमेश्वर को धोखा देने के समान है। परमेश्वर के आदेश से विश्वासघात करना परमेश्वर से विश्वासघात करना है। क्या परमेश्वर को धोखा देने वाला अब भी बचाया जा सकता है? इस व्यक्ति का काम तमाम हो चुका है; अब कोई आशा नहीं बची और वह पहले जो कर्तव्य निभाता था वह मात्र श्रम करना था जो उसके विश्वासघात के साथ ही मिट्टी में मिल गया। इसलिए अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से टिके रहना आवश्यक है; ऐसा करने से आशा बनी रहती है। व्यक्ति अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाकर बचाया जा सकता है और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है। लोगों को अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से टिके रहने में कौन-सा हिस्सा सबसे कठिन लगता है? यही कि प्रलोभन का सामना करते समय क्या वे दृढ़ता से खड़े रह सकते हैं। इन प्रलोभनों में क्या-क्या शामिल है? पैसा, रुतबा, अंतरंग संबंध, भावनाएँ। और क्या हैं? यदि कुछ कर्तव्यों में जोखिम है, यहाँ तक कि जीवन का भी जोखिम है, और ऐसे कर्तव्यों का निर्वाह करने पर गिरफ्तारी व कारावास हो सकता है या यहाँ तक कि मौत की सजा भी हो सकती है तो क्या तुम तब भी अपना कर्तव्य निभा सकते हो? क्या तुम दृढ़ रह सकते हो? इन प्रलोभनों पर व्यक्ति कितनी आसानी से काबू पा सकता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं। यह सत्य का अनुसरण करते हुए इन प्रलोभनों को धीरे-धीरे समझने और पहचानने, उनके सार और उनके पीछे की शैतानी चालों को पहचानने की क्षमता पर निर्भर करता है। इसमें व्यक्ति के स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव, उसके प्रकृति सार और उसकी कमजोरियों को पहचानने की भी आवश्यकता होती है। व्यक्ति को लगातार परमेश्वर से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करनी चाहिए ताकि वह इन प्रलोभनों का सामना कर सके। यदि कोई उनका सामना कर सकता है और किसी भी परिस्थिति में विश्वासघात या पलायन किए बिना अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से कायम रह सकता है तो बचाए जाने की संभावना 50 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। क्या यह 50 प्रतिशत संभावना आसानी से प्राप्त की जा सकती है? प्रत्येक कदम एक चुनौती है, जोखिम से भरा है; इसे हासिल करना आसान नहीं है! क्या ऐसे भी लोग हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण इतना कठिन लगता है कि जीवन को बहुत थकाऊ मानकर वे मर जाना पसंद करेंगे? किस तरह के लोग ऐसा महसूस करते हैं? छद्म-विश्वासियों को ऐसा ही लगता है। केवल जीवित रहने के लिए लोग अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा सकते हैं, किसी भी कठिनाई को सहन कर सकते हैं और आपदाओं में भी दृढ़ता से जीवन से चिपके रह सकते हैं, अपनी अंतिम साँस तक हार नहीं मानते हैं—यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते और इस तरह की दृढ़ता के साथ सत्य का अनुसरण करते तो वे निश्चित रूप से नतीजे हासिल करते। यदि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और इसके लिए प्रयास नहीं करना चाहते हैं तो वे निकम्मे हैं! सत्य की खोज कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे केवल मानवीय प्रयास से प्राप्त किया जा सकता है; इसके लिए मानवीय प्रयास के साथ-साथ पवित्र आत्मा के कार्य की भी आवश्यकता होती है। इसमें लोगों के परीक्षण और शोधन के लिए परमेश्वर को विभिन्न परिवेशों का आयोजन करने की आवश्यकता होती है और पवित्र आत्मा को उन्हें प्रबुद्ध करने, रोशन करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए कार्य करने की आवश्यकता होती है। सत्य प्राप्त करने के लिए जो कष्ट सहना पड़ता है वह पूरी तरह से उचित है। ठीक उसी तरह जैसे पर्वतारोही अपनी जान जोखिम में डालकर चोटियों पर चढ़ते हैं, वे सीमाओं को चुनौती देने के अपने प्रयास में कठिनाई से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपनी जान जोखिम में डालने से भी नहीं डरते। क्या परमेश्वर में विश्वास करना और सत्य प्राप्त करना पहाड़ पर चढ़ने से भी कठिन है? वे किस प्रकार के लोग हैं जो आशीष की इच्छा रखते हैं लेकिन कष्ट उठाने को इच्छुक नहीं हैं? वे निकम्मे हैं। तुम इच्छाशक्ति के बिना सत्य का अनुसरण और इसे प्राप्त नहीं कर सकते; कष्ट सहने की क्षमता के बिना तुम ऐसा नहीं कर सकते। इसे प्राप्त करने के लिए तुम्हें कीमत चुकानी ही होगी।

लोग समुचितता की परिभाषा समझने लगे हैं तो यह भी समझने लगे हैं कि समुचितता का मानक क्या है, परमेश्वर ने समुचितता का यह मानक क्यों तय किया है, व्यक्ति के समुचित कर्तव्य निर्वहन और जीवन प्रवेश के बीच संबंध क्या है और समुचित कर्तव्य निर्वहन के सत्य से संबंधित ऐसे अन्य कारक क्या हैं। यदि वे फिर उस स्थिति तक पहुँच सकें जहाँ समय या स्थान की परवाह किए बिना वे अपने कर्तव्य पर अडिग रह सकें, इसमें सफल होने को लेकर उम्मीद न खोएँ, तमाम प्रलोभनों का सामना कर सकें और उसके बाद, परमेश्वर उनके लिए रची गई तमाम स्थितियों में उनसे जिन विभिन्न सत्यों की अपेक्षा करता है, वे उन्हें समझकर और उनका ज्ञान पाकर उनमें प्रवेश कर सकें तो फिर परमेश्वर की नजर में उन्होंने वास्तव में समुचितता हासिल कर ली है। कर्तव्य निर्वहन में समुचितता प्राप्त करने के तीन मूल तत्व हैं : पहला, अपने कर्तव्य के प्रति सही रवैया रखना और किसी भी समय अपना कर्तव्य नहीं छोड़ना; दूसरा, अपना कर्तव्य निभाते समय तमाम तरह के प्रलोभनों का सामना करने में सक्षम होकर लड़खड़ाना नहीं; तीसरा, अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य के हर पहलू को समझने में सक्षम होना और वास्तविकता में प्रवेश करना। जब लोग ये तीनों चीजें पूरी कर मानक हासिल कर चुके होंगे तो न्याय और ताड़ना स्वीकार करने और पूर्ण बनाए जाने की पहली पूर्वशर्त—अपने कर्तव्य का समुचित निर्वहन करना—पूरी हो चुकी होगी।

कर्तव्य के समुचित निर्वहन के संबंध में “समुचित” शब्द से संबंधित कुछ सामग्री पर पहले चर्चा की जा चुकी है। पिछली चर्चाओं में “समुचित” को मूलतः कैसे परिभाषित किया गया था? (सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के रूप में।) आज जिस “समुचितता” पर चर्चा की गई है वह परमेश्वर के इरादों और उन मानकों तक पहुँच गई है जिनकी अपेक्षा परमेश्वर मनुष्य से करता है। परमेश्वर यह अपेक्षा क्यों करता है कि लोग अपने कर्तव्य एक समुचित मानक के अनुसार निभाएँ? इसका संबंध लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे से है और लोगों को बचाने और पूर्ण बनाने के उसके मानकों से है। यदि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में समुचितता हासिल नहीं करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण नहीं बनाएगा; लोगों को पूर्ण बनाने के लिए यह परमेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। इसलिए किसी को परमेश्वर पूर्ण बना सकता है या नहीं, यह निर्णायक रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि उसका कर्तव्य निर्वहन समुचित है या नहीं। यदि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित नहीं है तो लोगों को पूर्ण बनाने के परमेश्वर के कार्य का तुमसे कोई वास्ता नहीं है। अब कुछ लोग अपने कर्तव्य निर्वहन के सही रास्ते पर हैं और उनकी दिशा भी सही है, फिर भी उन्हें समुचित कर्तव्य निर्वहन करने वाला नहीं माना जा सकता है। क्यों? क्योंकि लोग सत्य को बहुत कम समझते हैं। यह उन बच्चों जैसा मामला है जो अपने माता-पिता के साथ कुछ घरेलू जिम्मेदारियाँ साझा करना चाहते हैं लेकिन हो सकता है कि उनके पास ऐसा करने के लिए आध्यात्मिक कद न हो। कुछ घरेलू जिम्मेदारियाँ वास्तव में साझा करने के लिए उनके पास आध्यात्मिक कद कब आएगा? यह तब होगा जब वे वयस्कों को परेशान किए बिना स्वयं कुछ काम कर सकें; तब वे घरेलू कर्तव्य साझा कर सकते हैं—तभी वे ऐसा कर सकते हैं। हालाँकि अब तुम कुछ चीजें कर सकते हो, फिर भी तुम अभी भी मेहनत और मजदूरी करने के स्तर पर ही हो क्योंकि तुम जिस सत्य को समझते हो वह बहुत उथला है, जिस सत्य को तुम अभ्यास में ला सकते हो वह बहुत कम है और जो सिद्धांत तुम समझ सकते हो वे नगण्य हैं। तुम अक्सर टटोलने की प्रक्रिया में रहते हो, अक्सर भ्रमित स्थिति में काम करते हो इसलिए तुम्हारे लिए यह पुष्टि करना बहुत मुश्किल है कि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है या नहीं; तुम्हारा मन हमेशा अस्पष्ट रहता है। तो क्या तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित माना जा सकता है? यह अभी भी समुचित नहीं माना जा सकता क्योंकि तुम बहुत कम सत्य समझते हो और तुम्हारा जीवन प्रवेश उस स्तर तक नहीं पहुँचा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है; तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होने का क्या मतलब है? कुछ लोग कहते हैं कि इसका मतलब सत्य की सतही समझ से है लेकिन वास्तव में इसका मतलब केवल सत्य की सतही समझ से नहीं है। इसका सीधा संबंध व्यक्ति की अपरिपक्व मानवता या कम काबिलियत और उसमें बहुत अधिक नकारात्मक चीजें होने से भी है। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हें अभी कोई कर्तव्य मिलता है और तुम नहीं जानते कि इसे कैसे करना है तो तुम्हें लग सकता है कि तुम बेकार हो और परमेश्वर के इरादों का ध्यान नहीं रख पाते हो। यह सोच तुम्हें नकारात्मक और कमजोर बनाती है, यह महसूस कराती है कि परमेश्वर की व्यवस्थाएँ खराब हैं और तुम कुछ नहीं कर सकते और तुम्हारा निकाला जाना निश्चित है। तब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते। क्या यह बौने आध्यात्मिक कद की अभिव्यक्ति नहीं है? इसके अलावा, ऐसे कई युवा भाई-बहन हैं जिनकी अभी शादी नहीं हुई है। यदि उनका सामना किसी रूपवान पुरुष या महिला से होता है तो वे उस पर मोहित हो सकते हैं और उनके बीच नजरों के कुछ आदान-प्रदान से भावनाएँ पनप सकती हैं; इतना मजबूत प्यार पनपने के बावजूद क्या वे मिलना-जुलना शुरू करने के बाद भी अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं? यह प्रलोभन में पड़ना है। क्या यह बौने आध्यात्मिक कद का सूचक नहीं है? बिलकुल है। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के पास कुछ विशेष गुण होते हैं और वे परमेश्वर के घर में कुछ विशेष कर्तव्य निभाते हैं। इससे उन्हें लगता है कि उनके पास कुछ पूँजी है इसलिए वे रौब जमाना चाहते हैं, हमेशा दिखावा करना चाहते हैं। जैसे ही वे दिखावा करते हैं, वे कार्य करने के सिद्धांतों से चूक जाते हैं। और यदि दूसरे लोग उनकी थोड़ी-सी भी प्रशंसा करते हैं तो वे निश्चित रूप से कार्य करने के अपने सिद्धांतों से चूक जाएँगे, वे आत्मसंतुष्ट होकर अपने कर्तव्य भूल जाएँगे। यह भी प्रलोभन में पड़ना है। क्या यह बौने आध्यात्मिक कद का सूचक नहीं है? बौने आध्यात्मिक कद वाले व्यक्ति के लिए छोटी-छोटी बातें भी लड़खड़ाने का कारण बन सकती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग परमेश्वर के घर में अभिनेता के रूप में काम करते हैं; अपने रूप और करिश्मे के साथ वे कुछ फिल्मों में दिखाई देते हैं और फिर ऐसा महसूस करते हैं जैसे उन्होंने कुछ प्रसिद्धि हासिल कर ली हो। वे सोचते हैं, “मैंने अब कुछ नाम कमा लिया है; यदि यह लौकिक दुनिया में होता तो क्या लोग मुझसे मेरे ऑटोग्राफ नहीं माँग रहे होते? परमेश्वर के घर में मेरे ऑटोग्राफ किसी को भी क्यों नहीं चाहिए? मेरे लिए किसी दूसरी अच्छी फिल्म में अभिनय करना बेहतर होगा।” लेकिन जब उन्हें अगली फिल्म में मुख्य भूमिका नहीं मिलती तो वे अपने कर्तव्यों को निरर्थक मानकर उन्हें छोड़ने का मन बना लेते हैं। वे हमेशा प्रमुख भूमिकाएँ निभाकर प्रसिद्ध अभिनेता बनना चाहते हैं और जब इसमें सफल नहीं होते तो वे निराश और तुनकमिजाज बन जाते हैं और कर्तव्य छोड़ने पर भी विचार करने लगते हैं। यह बौने आध्यात्मिक कद का होना है। बौना आध्यात्मिक कद होने का मतलब है कि तुम महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के लिए अयोग्य हो। भले ही तुम्हें परमेश्वर ने कोई कर्तव्य सौंपा हो, फिर भी तुम उसका भरोसा अर्जित नहीं कर सकते। एक गलत विचार आने के साथ ही या अपनी इच्छाओं के विरुद्ध कोई एक चीज होने के साथ ही तुम अपने कर्तव्य छोड़कर परमेश्वर के खिलाफ हो सकते हो। क्या यह भी बौने आध्यात्मिक कद का संकेत नहीं है? (हाँ, है।) यह बहुत ही बौना आध्यात्मिक कद है। इतने बौने आध्यात्मिक कद और ऐसे व्यवहार के साथ कोई अपने कर्तव्यों के समुचित निर्वहन से कितना दूर है? फासला कहाँ पर है? फासला इसमें निहित है कि कोई सत्य से कितना प्रेम करता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान पता चलता है कि उनके परिवार का सबसे करीबी सदस्य बीमार पड़ गया है। फिर वे सभाओं में भाग लेना बंद कर देते हैं और अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं, यह सोचते हुए कि कुछ दिनों के लिए अपने कर्तव्य छोड़ने से कुछ नहीं होता है—आखिरकार, यदि उनके परिजन की मृत्यु हो जाती है तो वे हमेशा के लिए चले जाएँगे। लेकिन वे यह विचार नहीं करते कि अपना कर्तव्य निभाना जीवन प्राप्त करने से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मामला है, कि यह उद्धार प्राप्त करने का एकमात्र मौका है। वे अपने कर्तव्यों और उद्धार प्राप्ति से ज्यादा भावनाओं और परिवार को तरजीह देते हैं। क्या यह बौने आध्यात्मिक कद का द्योतक नहीं है? उनका आध्यात्मिक कद बहुत बौना है! इससे पता चलता है कि वे जीवन के उचित मामलों को नहीं समझते हैं और उचित कार्यों में संलग्न होना नहीं जानते हैं। क्या किसी के आध्यात्मिक कद का आकार उसकी उम्र पर निर्भर करता है? नहीं करता। सभी भ्रष्ट मनुष्यों का एक जैसा भ्रष्ट स्वभाव होता है, फिर चाहे वे महिला हों या पुरुष और चाहे उनकी कोई भी उम्र, जन्मस्थान या राष्ट्रीयता हो। उन सभी में शैतान की प्रकृति है और वे सभी प्रकार की बुराइयाँ करते हुए परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर सकते हैं। यदि कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो क्या उसे सच्चा पश्चात्ताप हो सकता है? कभी नहीं; वे नहीं बदलेंगे। कुछ लोग बीमार पड़ जाते हैं और परमेश्वर पर भरोसा करने और मृत्यु से न डरने के बारे में चिल्लाते हैं, लेकिन उन्हें यह भी लगता है कि वे यूँ ही हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह सकते। वे सोचते हैं कि यदि वे अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं करेंगे तो वे निश्चित रूप से मर जायेंगे इसलिए वे तुरंत अपना कर्तव्य निभाने चल पड़ते हैं। वे देखते हैं कि कौन-से कर्तव्य में सबसे व्यस्त कार्य हैं और कौन-सा कर्तव्य सबसे महत्वपूर्ण है, कौन-से कर्तव्य को परमेश्वर अहमियत देता है, और वे उसे स्वीकार करने के लिए दौड़ पड़ते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन की पूरी प्रक्रिया के दौरान वे सोचते रहते हैं, “क्या यह बीमारी ठीक हो सकती है? मुझे पूरी आशा है कि यह ठीक हो सकती है। मैंने अपना जीवन समर्पित कर दिया है; क्या मुझे ठीक नहीं किया जाना चाहिए?” वास्तव में उन्हें जो बीमारी है वह लाइलाज है; चाहे वे अपना कर्तव्य निभाएँ या न निभाएँ, वे मरेंगे ही। हालाँकि वे अब अपना कर्तव्य निभाने आए हैं, परमेश्वर मनुष्य के हृदय को देखता है—इतने बौने आध्यात्मिक कद और ऐसे इरादे के साथ क्या वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकते हैं? कदापि नहीं। इस प्रकार के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और उनकी मानवता अच्छी नहीं है। उनके दिमाग में हमेशा उनकी छोटी-छोटी चालाकियाँ भरी होती हैं। जब उनकी बीमारी बढ़ जाती है या वे जरा भी अस्वस्थ महसूस करते हैं तो वे सोचने लगते हैं, “क्या परमेश्वर ने वास्तव में मुझे आशीष दिया है? क्या उसने सचमुच मेरी परवाह की है और मेरी रक्षा की है? ऐसा लगता है कि उसने मेरी रक्षा और परवाह नहीं की है, इसलिए मैं अब अपने कर्तव्य नहीं निभाऊँगा।” जैसे ही वे थोड़ा असहज महसूस करते हैं, वे नाउम्मीद होकर अपने कर्तव्य निभाने के प्रयास नहीं करना चाहते हैं। क्या उनका कोई आध्यात्मिक कद है? (नहीं।) इसलिए यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि विभिन्न लोग यहाँ बैठ कर उपदेश सुन सकते हैं या वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और पेशे छोड़कर परमेश्वर के घर में किसी पद पर अपने पेशेवर कौशल या विशेषज्ञता से संबंधित कार्य कर रहे हैं तो वे अपना कर्तव्य निभा ही रहे हैं। न ही इसका यह मतलब है कि अपने कर्तव्य निभाने वाला हर व्यक्ति स्वेच्छा से ऐसा करता है और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि अपने कर्तव्य निभाने वाले सभी लोगों के पास एक निश्चित आध्यात्मिक कद होता है। ऊपरी तौर पर लोग व्यस्त दिखते हैं और परमेश्वर में सच्चे विश्वास की नींव पर स्वेच्छा से कार्य करते हुए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हुए दिखाई देते हैं। हकीकत में अपने दिल की गहराई में हर कोई अक्सर कमजोर होता है। अक्सर उनके मन में अपने कर्तव्य छोड़ने के विचार आते हैं, अक्सर उनकी अपनी योजनाएँ होती हैं, और वे अक्सर ही यह आशा करते हैं कि परमेश्वर का कार्य जल्द ही समाप्त हो जाए ताकि वे जल्दी से आशीष प्राप्त कर सकें। उनका लक्ष्य बस यही है। परमेश्वर का लक्ष्य इन मानवीय दुर्बलताओं, विद्रोहशीलता और बौने आध्यात्मिक कद के साथ-साथ लोगों के अज्ञानपूर्ण विचारों और कार्यों का समाधान करना है। जब ये सारी समस्याएँ हल हो जाती हैं और कोई समस्या नहीं रह जाती है, जब सामने आने वाली कोई भी चीज कर्तव्य निर्वहन की तुम्हारी क्षमता को प्रभावित नहीं कर सकती तो इतना ही काफी है और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ गया है। कोई व्यक्ति अंततः किस रास्ते पर चलेगा और वह उस पर कितनी दूर तक चलेगा, यह इस बात से तय नहीं होता कि वह कितनी जोर से नारे लगाता है, न ही उसकी अस्थिर भावनाओं या इच्छाओं से तय होता है। बल्कि यह उसके अनुसरण और सत्य के प्रति उसके प्रेम की मात्रा पर निर्भर करता है।

तुम लोग किन परिस्थितियों में अपना कर्तव्य छोड़ दोगे? जब तुम्हारा सामना मौत से होता है? या जब तुम्हारे जीवन में कुछ छोटी-मोटी निराशाएँ आती हैं? जब अपने कर्तव्य निर्वहन की बात आती है तो कुछ लोगों की बहुत-सी माँगें होती हैं। एक तरफ, उन्हें आँधी-धूप में बाहर न निकलना पड़े और उनके काम के लिए आरामदायक माहौल होना चाहिए। वे जरा-सी भी शिकायत सहन नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, वे अक्सर अपने पति (या पत्नी) के साथ रहना चाहते हैं, दो लोगों की दुनिया में रहना चाहते हैं और उनका अपना निजी जीवन भी होना चाहिए, जैसे मनोरंजन के लिए सैर-सपाटे पर जाना, छुट्टियाँ बिताना, इत्यादि, इन सबसे वे संतुष्ट होना चाहते हैं। यदि वे जरा भी संतुष्ट नहीं हैं तो अपने मन में असहज महसूस करेंगे व झल्लाते रहेंगे, और धारणाएँ फैलाकर दूसरों को परेशान भी करेंगे। सत्य को समझने वाले कुछ लोग जान जाते हैं कि ये लोग अच्छे नहीं हैं, कि ये छद्म-विश्वासी हैं और वे खुद को इनसे दूर कर लेते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सत्य को नहीं समझते हैं; उनका आध्यात्मिक कद छोटा है और उनमें सूझ-बूझ की कमी है, और वे इन लोगों के व्यवधानों से प्रभावित होंगे। मुझे बताओ, क्या ऐसे बुरे कर्म करने वालों को कलीसिया से निकाल देना चाहिए? (बिलकुल।) इस तरह के व्यक्ति जो लगातार कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डालते हैं, उन्हें उन लोगों को बचाने के लिए हटा दिया जाना चाहिए जिनका आध्यात्मिक कद छोटा है और जो अज्ञानी हैं। किन परिस्थितियों में तुम लोग स्वयं अपने कर्तव्यों का परित्याग कर सकते हो और बिना किसी सूचना के छोड़कर जा सकते हो? उदाहरण के लिए, सुसमाचार का प्रसार करते समय तुम्हारी मुलाकात किसी ऐसे व्यक्ति से होती है जो दिखने में विशेष रूप से सुंदर है और करिश्माई ढंग से बोलता है, और जितना अधिक तुम उसे देखते हो उतना ही अधिक तुम्हारा प्यार उसके प्रति बढ़ता जाता है, तुम सोचते हो, “कितना अच्छा होगा यदि मैं अपने कर्तव्यों का निर्वाह न करूँ और इस जैसा कोई साथी ढूँढ़ लूँ!” जब तुम इस तरह से सोचते हो तो तुम खतरे में हो; तब तुम्हारे लिए प्रलोभन के सामने झुकना आसान होगा। और एक बार जब तुम इस बारे में बहुत अधिक सोच लेते हो, तो तुम इस रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए उद्यत हो जाते हो। लेकिन जब तुम अंततः उसे हासिल कर लेते हो तो तुम्हें एहसास होता है कि वह भी एक भ्रष्ट इंसान हैं और इतना महान नहीं है, लेकिन अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। एक बार जब कोई रोमानी पचड़ों के प्रलोभन-रूपी जाल में फँस जाता है, तो उससे बाहर निकलना आसान नहीं होता है। इस जाल में एक-दो साल या चार-पाँच साल बिताए बिना वापस लौटना आसान नहीं होगा। ये जो चार-पाँच साल तुमने गँवाए हैं, उस दौरान तुम कितना सत्य जानने से चूक जाओगे? तुम्हारे जीवन को कितना नुकसान होगा? तुम्हारे जीवन की वृद्धि में कितनी देरी होगी? कुछ अन्य लोग औरों को लौकिक दुनिया में बहुत सारा पैसा कमाते, डिजाइनर कपड़े पहनते, अच्छा खाते-पीते देखते हैं और उनके मन में हलचल मच जाती है; वे भी पैसा कमाने जाना चाहते हैं। इसी प्रकार प्रलोभन उत्पन्न होता है। जिस किसी का भी मन परिस्थितियों का सामना करते समय अपने कर्तव्य छोड़ने के बारे में सोचने लगता है, वह प्रलोभन का सामना करने में सक्षम नहीं होता; वह ख़तरे में हैं। यह बौने आध्यात्मिक कद की निशानी है। जब तुम किसी को अच्छा खाना खाते हुए देखते हो तो तुम निराशा और असंतोष महसूस करते हो। जब तुम किसी को अच्छे जीवनसाथी के साथ देखते हो तो तुम्हें असंतोष महसूस होता है। और जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो तुम्हारा हमउम्र है और तुम्हारे ही जितना आकर्षक है, लेकिन तुमसे बेहतर कपड़े पहनता है और प्रसिद्ध भी है तो तुम दुखी हो जाते हो। तुम सोचने लगते हो, यदि तुमने अपनी पढ़ाई न छोड़ी होती और स्नातक होकर अपनी आजीविका का कोई मार्ग ढूँढ़ लिया होता तो तुम निश्चित रूप से उससे बेहतर स्थिति में होते। जब भी तुम इन परिस्थितियों का सामना करते हो तो तुम कई दिनों तक परेशान रहते हो। ये प्रलोभन तुम्हारे लिए एक प्रकार की बेबसी, एक प्रकार की झुंझलाहट है जो दर्शाती है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है। जब तुम सुसमाचार प्रसार कर रहे होते हो और तुम्हारी मुलाकात विपरीत लिंग के किसी लायक सदस्य, “लंबी कद-काठी वाले अमीर और सुंदर पुरूष” या गोरी, अमीर और सुंदर महिला से होती है तो जरूरी नहीं कि तुम प्रलोभन से बच सको। जरूरी नहीं कि तुम प्रलोभन से बच सको, इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद उस स्तर तक नहीं पहुँचा है जहाँ तुम विभिन्न प्रलोभनों पर काबू पा सको; तुम उनसे बच नहीं सकते, इसलिए तुम्हारा दिल उनके वश में आकर खिंचा चला जाता है। तुम क्या सोचते हो, अपने दिमाग में क्या विचार करते हो, यहाँ तक कि तुम क्या सपने देखते हो और दूसरों के साथ क्या चर्चा करते हो, ये सब इन्हीं मामलों के बारे में ही होता है। यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित करता है; सत्य पर संगति करते समय दूसरों के पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है जबकि तुम्हारा योगदान कम होता चला जाता है, और तुम परमेश्वर में विश्वास करने में अपनी रुचि खो देते हो। क्या यह बहकना नहीं है? यह प्रलोभन में फँसना है और यह खतरनाक है। कुछ लोग सोचते हैं कि तुम केवल तभी प्रलोभन में फँसते हो जब तुम किसी के साथ प्रेम-मिलाप शुरू करते हो या किसी के साथ भाग जाते हो, लेकिन जब तक तुम उस बिंदु पर पहुँचते हो, तब तक तुम्हारा काम तमाम हो चुका होता है। यदि तुम लोगों का सामना ऐसे मामलों से हो तो क्या ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं? (मुझे नहीं पता।) यदि तुम नहीं जानते हो तो यह साबित होता है कि तुम लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है। इससे तुम लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा क्यों साबित होता है? एक लिहाज से, तुमने कभी ऐसे मामलों का सामना नहीं किया है इसलिए तुम नहीं जानते कि तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी; तुम्हारा खुद पर नियंत्रण नहीं है। दूसरे लिहाज से, जब इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़े तो तुम्हारे पास इस तरह की समस्या से निपटने के लिए सही रवैया व दृष्टिकोण नहीं होता है। यदि तुम समस्या के समाधान के लिए सत्य नहीं खोज सकते तो इसका मतलब है कि तुम निष्क्रिय हो। निष्क्रिय होना यह साबित करता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है और तुम अज्ञानी हो। भले ही तुम सक्रिय रूप से दूसरों को आकर्षित नहीं कर सकते, लेकिन दूसरे लोग तो तुम्हें आकर्षित कर सकते हैं जो तुम्हारे लिए प्रलोभन लेकर आता है। यदि तुम इस पर काबू नहीं पा सकते तो यह एक समस्या है। उदाहरण के लिए, यदि कोई तुम्हें धन और रुतबा प्रदान करता है तो क्या होगा या यदि और भी बेहतर व्यक्ति आकर तुम्हें लुभाने की कोशिश करता है तो क्या होगा? क्या उस पर काबू पाना आसान होगा? कितनी संभावना है कि तुम इस प्रलोभन पर काबू पा लोगे? कहा जाता है कि कुछ लोग तो अपने चाहनेवाले से सिर्फ दो चॉकलेट पाकर मुग्ध हो जाते हैं और उस व्यक्ति के साथ रिश्ता शुरू करने के बारे में सोचने लगते हैं—उनका आध्यात्मिक कद इतना छोटा है। क्या यह पर्याप्त समय तक परमेश्वर में विश्वास न करने का मामला है? जरूरी नहीं। कुछ लोग एक दशक से अधिक समय से विश्वासी हैं लेकिन ऐसी परिस्थितियों का सामना होने पर अभी भी प्रलोभन में पड़ सकते हैं। चाहे ऐसी परिस्थितियाँ उनके सामने पहली, दूसरी या तीसरी बार आ रही हों, फिर भी उन्हें लुभाया जा सकता है। इसका कारण क्या है? उनका आध्यात्मिक कद छोटा है और उनमें वास्तव में कुछ सत्यों की समझ का अभाव है। उनमें समझ की कमी क्यों होती है? क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे हमेशा भ्रमित रहते हैं। उनकी नजर में ऐसे मामले महत्वपूर्ण नहीं हैं। वे सोचते हैं, “अगर वास्तव में कोई लायक साथी मिलता है तो मैं शादी क्यों नहीं कर सकती? बात सिर्फ इतनी है कि मैं अभी तक किसी उपयुक्त व्यक्ति से नहीं टकराई हूँ और मुझे कोई भी व्यक्ति पसंद नहीं है, बस इसलिए मैं अनमनी रहती हूँ।” यह अनमना रहना सत्य का अनुसरण करने वाला रवैया नहीं है; यह उद्धार प्राप्त करने और पूर्ण बनने के मार्ग पर चलना नहीं है—यह ऐसी मानसिकता नहीं है। वे बस समय गुजारना चाहते हैं, हर दिन को वैसे ही जीना चाहते हैं जैसे वह आता है, जीवन उन्हें जहाँ भी ले जाता है वे वहीं चले जाते हैं। और यदि वास्तव में कोई ऐसा दिन आता है जब वे इसे जारी नहीं रख सकते तो फिर ऐसा ही हो। उन्हें लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे या परमेश्वर के उद्धार कार्य में कोई रुचि नहीं है। इसके अलावा, वे परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार से संबंधित विभिन्न सत्यों की ईमानदारी से खोज नहीं करते हैं, न ही वे इसे गंभीरता से लेते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं : “लेकिन वे हमेशा धर्मोपदेश सुनने आते रहते हैं; तुम यह कैसे कह सकते हो कि वे इसे गंभीरता से नहीं लेते?” लेकिन केवल सभाओं में भाग लेने और धर्मोपदेश सुनने की रस्म निभाना सत्य स्वीकार करने से अलग है। बहुत से लोग हैं जो धर्मोपदेश सुनते हैं, लेकिन वास्तव में सत्य का अभ्यास कितने लोग करते हैं? ऐसे लोग तो और भी कम हैं जो सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो धर्मोपदेश सुनते समय केवल धर्म-सिद्धांतों को समझने और अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को समृद्ध करने पर ध्यान देते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे इसे खोजने और स्वीकारने के उद्देश्य से सुनते हैं। वे धर्मोपदेश सुनने और आत्म-चिंतन करने में सक्षम हैं, उन्होंने जो सुना है उसकी तुलना अपनी दशाओं से करते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने पर ध्यान देते हैं। वे सत्य के व्यावहारिक पहलुओं को समझते हैं; वे इन पहलुओं का अभ्यास व अनुभव करने और सत्य प्राप्त करने पर जोर देते हैं। इसलिए जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे जीवन प्राप्त करने, सत्य समझने और स्वयं को बदलने के लिए धर्मोपदेश सुनते हैं। वे सत्य को अपने हृदय में स्वीकार करते हैं और जब वे इसका अभ्यास करते हैं तो जिस सत्य को वे समझते हैं उससे उन्हें लाभ होता है; सत्य को समझने से एक मार्ग मिलता है। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे धर्मोपदेशों को बेतरतीब तरीके से सुनते हैं। वे शुरू से अंत तक पूरा उपदेश सुनेंगे, और इसके बाद जब तुम उनसे पूछोगे कि उन्होंने क्या समझा तो वे कहेंगे, “मुझे सब समझ में आ गया। मैंने हर चीज के बारे में स्पष्ट रूप से लिख लिया है।” लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि इससे उन्हें कैसे मदद मिलती है तो वे बस अस्पष्ट रूप से कहेंगे कि यह कुछ हद तक मददगार है। क्या यह वास्तव में मददगार है? नहीं, क्योंकि उन्होंने धर्मोपदेश के सत्य हासिल नहीं किए हैं। उन्होंने ये सत्य हासिल क्यों नहीं किए हैं? चूँकि उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया है तो वे इसे प्राप्त कैसे कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “उन्होंने इसे कैसे हासिल नहीं किया होगा? उन्होंने इसे कैसे स्वीकार नहीं किया होगा? उन्होंने इसे बहुत ध्यान से सुना और इसके खास-खास बिंदु लिख भी लिए थे।” कुछ लोग सिर्फ औपचारिकता के लिए लिखते हैं, इसलिए नहीं कि वे सत्य के लिए लालायित रहते हैं। कुछ लोग जो सत्य पर संगति करते हैं, जरूरी नहीं कि वे इसे स्वीकारें; यह इस पर निर्भर करता है कि क्या उनके हृदय में वास्तव में सत्य के लिए ललक है। तो फिर सत्य को सही मायने में स्वीकार करने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद कोई उन्हें अपनी दशाओं के अनुरूप बना सके, उन्हें अपने आचरण और कार्यों के अनुरूप, परमेश्वर में विश्वास के सिद्धांतों के अनुरूप, परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेशों और जिम्मेदारियों के और जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं उसके अनुरूप बना सके। वे इन सभी चीजों के संबंध में आत्म-चिंतन कर सकते हैं, इन्हें स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं, सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं और फिर सत्य का अभ्यास कर उसमें प्रवेश कर सकते हैं। केवल यही व्यक्ति है जो सत्य स्वीकारता है; केवल यही व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है।

अभी बौने आध्यात्मिक कद वाले लोगों की अभिव्यक्तियों पर चर्चा हुई। सत्य समझने की क्रमिक प्रक्रिया में लोग धीरे-धीरे अपने बौने आध्यात्मिक कद की समस्याओं, जैसे मूर्खता, अज्ञानता, कायरता और दुर्बलता को हल कर लेंगे। दुर्बलता का तात्पर्य क्या है? इसका मतलब है कि परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का घटक विशेष रूप से छोटा है; परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास बहुत कम है। सिद्धांततः तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर सब कुछ पूरा कर सकता है और वह सभी चीजों पर प्रभुत्व रखता है लेकिन जब वास्तविक परिस्थितियों से सामना होता है, तो तुम परमेश्वर पर भरोसा करने की हिम्मत नहीं करते हो; तुम पूरे मन से सब कुछ उसे सौंपने का साहस नहीं करते और तुम समर्पण नहीं कर सकते—यह दुर्बलता है। लोगों की मूर्खता, अज्ञानता, कायरता और विद्रोहशीलता, इन नकारात्मक चीजों को कर्तव्य निर्वहन में सत्य खोजकर ही धीरे-धीरे हल किया जा सकता है या विभिन्न मात्रा तक सुधारा जा सकता है। सुधार का मतलब क्या है? इसका मतलब है कि ये नकारात्मक चीजें धीरे-धीरे हल हो जाती हैं; तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन के परिणाम उत्तरोत्तर बेहतर होते जाते हैं और जब परिस्थितियों से सामना होता है तो तुम पहले से ज्यादा सहन कर सकते हो। उदाहरण के लिए, पहले जब ऐसी परिस्थितियों से सामना करना पड़ता था तो तुम्हारे बौने आध्यात्मिक कद के कारण तुम कमजोर हो जाते थे, तुम निष्क्रिय हो जाते थे और यह तुम्हारे कर्तव्यों को पूरा करने के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करता था। तुम नखरे दिखाते थे, कर्तव्य छोड़ देते थे, लापरवाही बरतते थे और वफादारी नहीं दिखाते थे। अब जब ऐसी स्थितियों से सामना करना पड़ता है तो अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति तुम्हारी निष्ठा कम नहीं होती है; यदि तुम्हारे मन में कठिनाइयाँ या दुर्बलताएँ हैं तो तुम उन्हें हल करने के लिए सत्य खोज सकते हो। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन प्रवेश का मुद्दा अब तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करेगा। तुम्हारी मनोदशाएँ, तुम्हारी स्थिति और तुम्हारी दुर्बलता अब तुम्हारे निर्दिष्ट कार्य को प्रभावित नहीं करेंगी, न ही वे तुम्हारी जिम्मेदारियों, कर्तव्यों और दायित्वों को प्रभावित करेंगी। क्या यह मामलों को सँभालने और बाहरी घटनाओं से निपटने की तुम्हारी क्षमता में वृद्धि नहीं है? यह आध्यात्मिक कद में वृद्धि है। कुछ लोगों को यदि प्रमुख भूमिका निभाने के लिए कहा जाए तो वे बहुत खुश हो जाते हैं और यहाँ तक कि ऐसे चलते हैं मानो हवा में उड़ रहे हों; लेकिन अगर उन्हें अतिरिक्त भूमिका निभाने के लिए कहा जाए तो वे अनिच्छुक हो जाते हैं और तुनकमिजाज बन जाते हैं और सिर झुकाकर चलने लगते हैं। कुछ लोग सुसमाचार फैलाते समय हमेशा अलग दिखना चाहते हैं लेकिन सत्य पर संगति नहीं कर पाते। वे प्रशिक्षण का अभ्यास नहीं करते हैं लेकिन फिर भी हमेशा ऊँचे स्थानों पर खड़े होकर अपना चेहरा दिखाना चाहते हैं। क्या यह सच्चा समर्पण है? क्या अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति यह सही रवैया है? जब किसी की मानसिकता गलत हो और उसकी दशा खराब हो तो उसे समाधान के लिए सत्य खोजना चाहिए, और अंततः चाहे कोई भी परिस्थिति आए उसे सत्य खोजने और इसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए; यह जीवन का अनुभव है। जब तुम सभी प्रकार के मामलों को समझ सकते हो तो तुमने प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर ली है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा सामना कब और किससे होता है, यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करेगा; न ही किसी छोटी-मोटी समस्या, किसी मामूली मनोदशा या लोगों, घटनाओं, चीजों व परिस्थितियों में बदलाव से तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ेगा; पाप पर विजय पाने और विभिन्न परिस्थितियों व मनोदशाओं पर विजय पाने की तुम्हारी क्षमता मजबूत हो जाएगी—इसका मतलब है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ गया है। आध्यात्मिक कद कैसे बढ़ता है? यह नतीजा तब प्राप्त होता है जब लोग समस्याओं के समाधान के लिए सत्य खोजकर धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। जब तुम कुछ सत्य समझ लेते हो और ये सत्य तुम्हारा जीवन बन जाते हैं, तुम्हारे आचरण की नींव बन जाते हैं, मामलों का अवलोकन करने के लिए तुम्हारा दृष्टिकोण बन जाते हैं और तुम्हारे मार्गदर्शक दीपस्तंभ बन जाते हैं, तो इसका मतलब है कि तुममें लचीलापन है; अब तुम बार-बार कमजोर नहीं पड़ोगे। उदाहरण के लिए, पहले यदि तुम्हें अगुआ बनाया जाता तो तुम बहुत खुश होते; यदि तुम्हें हटा दिया जाता तो तुम एक-दो महीने निराश रहते, तुमसे कुछ भी करने के लिए कहा जाता तो उसे करने के लिए अनिच्छुक रहते, किसी भी कार्य को नकारात्मक रवैये के साथ करते, लापरवाही से काम करते, यहाँ तक कि पूरी तरह से हार मानने की हद तक निराश हो जाते। अब यदि तुम्हें हटाया जा रहा होगा तो तुम कहोगे, “भले ही मुझे हटा दिया जाए, इसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं एक भी दिन नकारात्मक नहीं रहूँगा। यदि मुझे आज हटा दिया जाता है तो भी मैं वही करता रहूँगा जो मैं कल कर रहा होता। मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारता हूँ और उनके प्रति समर्पण करता हूँ।” यह लचीलापन है। यह लचीलापन कैसे आता है? यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, जब मामलों से सामना होता है तो इनके समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते हो और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने पर ध्यान नहीं देते हो तो क्या तुम्हारे पास यह आध्यात्मिक कद होगा? यदि तुम सांसारिक आचरण के लिए अविश्वासियों के फलसफे के अनुसार जीते हो तो तुम कभी भी लचीले नहीं होओगे। यदि तुम सत्य के अनुसार जीते हो तो ही तुम धीरे-धीरे अभिमान, रुतबा और घमंड छोड़ सकते हो ताकि अंत में कोई भी चीज तुम्हें गिरा न सके और अपने कर्तव्यों के अच्छी तरह से निर्वहन में कोई भी चीज तुम्हें प्रभावित न कर सके। यह आध्यात्मिक कद वाला होना है; यह लचीला होना है। जब तुम लचीले होते हो और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ जाता है, तो क्या तुम अपने कर्तव्य अधिकाधिक मानकों के अनुसार नहीं निभाते हो? जब तुम अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन करते हो तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास पहले से ही एक निश्चित आध्यात्मिक कद है? इस आध्यात्मिक कद में क्या शामिल है? परमेश्वर में सच्ची आस्था, परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण और परमेश्वर के प्रति निष्ठा, साथ ही अपने कर्तव्यों से सही ढंग से पेश आने की क्षमता; परमेश्वर से सब कुछ स्वीकारना, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होना। आध्यात्मिक कद बढ़ने की यही अभिव्यक्तियाँ हैं।

क्या अब तुम लोगों ने अपनी चेतना में महसूस किया है कि बचाया जाना कार्यसूची में शामिल होना चाहिए और अब तुम इस बारे में और भ्रमित नहीं रह सकते? बचाए जाने के लिए हरेक सत्य को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है; तुम किसी एक भी सत्य को लेकर भ्रमित नहीं हो सकते। परमेश्वर पर विश्वास करने का मतलब केवल कुछ प्रयास करना, इधर-उधर भागना, कुछ कष्ट सहना और बिना ठोकर खाए परीक्षणों में टिके रहने में सक्षम होना ही नहीं है। अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग बचाए जाने को वास्तव में जीवन का महत्वपूर्ण मामला मानते हैं और सत्य प्राप्त करने को जीवन में महत्वपूर्ण मामला मानते हैं तो वे किसी भी चीज को त्याग सकते हैं; उनके लिए त्याग देना आसान होगा। यदि किसी ने अभी तक यह महसूस नहीं किया है कि बचाया जाना कितना महत्वपूर्ण है तो यह मूर्खता और अज्ञानता है; उसकी आस्था बहुत कम है और वह अभी भी घोर संकट में जी रहा है। यदि कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसके लिए कर्तव्य का समुचित निर्वहन कर पाना कठिन होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि कर्तव्य का समुचित निर्वहन कर पाने के लिए व्यक्ति को कई सत्यों को समझने और कई सत्यों में प्रवेश करने की भी आवश्यकता होती है। सत्य को समझने और उसमें प्रवेश करने की प्रक्रिया में व्यक्ति जो कर्तव्य निभाता है, वह धीरे-धीरे समुचित हो जाएगा; उसकी विभिन्न दुर्बलताएँ और मनोदशाएँ धीरे-धीरे बदलेंगी और उसकी विभिन्न स्थितियाँ भी धीरे-धीरे सुधरेंगी। सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया में व्यक्ति के भीतर परमेश्वर में विश्वास और बचाए जाने से संबंधित दृष्टिकोण स्पष्ट होता जाएगा और साथ ही बचाए जाने की उसकी इच्छा और माँग उत्तरोत्तर अत्यावश्यक होती जाएगी। अत्यावश्यक का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम महसूस कर सकते हो कि बचाया जाना एक अत्यावश्यक मामला है, एक अत्यंत महत्वपूर्ण मामला है; और यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं करते हो तो यह बहुत खतरनाक हो सकता है और तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह उस प्रकार की मानसिकता है जिसमें अत्यावश्यकता की भावना है। शुरुआत में तुम्हारे पास बचाए जाने या पूर्ण बनाए जाने की कोई अवधारणा नहीं होती है। धीरे-धीरे तुम्हें यह समझ में आने लगता है कि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है और उसे बचाए जाने के लिए परमेश्वर की आवश्यकता है। तुम्हें पता चलता है कि लोग पाप में रहते हैं, बिना स्वतंत्रता के भ्रष्ट स्वभाव में फँसे हुए हैं, अत्यधिक कष्टमय जीवन जी रहे हैं और देर-सबेर वे शैतान की बुरी प्रवृत्तियों में बह जायेंगे। तुम्हें एहसास होता है कि लोग अपने बलबूते दृढ़ता से खड़े नहीं रह सकते हैं—चाहे तुम कितने भी लचीले या दृढ़ हो, तुम गारंटी नहीं दे सकते कि तुम अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करोगे—और तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, सत्य को समझने और स्वयं को जानने के लिए तुम्हें न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन का अनुभव करना होगा और केवल तभी तुम्हारे पास अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने का संकल्प होगा। इस बिंदु पर तुम्हें बचाए जाने की कुछ अत्यावश्यकता महसूस होने लगती है। बचाए जाने के लिए सत्य को समझना महत्वपूर्ण है। सत्य का अनुसरण करना एक महत्वपूर्ण मामला है जिसे कभी भी छोड़ना या अनदेखा नहीं करना चाहिए। तुम सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं, इसका बचाए जाने से सीधा संबंध है और यह इस बात से भी जटिलता से जुड़ा हुआ है कि क्या तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हो। अपने कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में अपने सामने आने वाली सभी समस्याओं और कठिनाइयों का समाधान सत्य खोज कर किया जाना चाहिए; तुम्हारी दुर्बलता, अज्ञानता और मूर्खता भी धीरे-धीरे बदलती जाएगी। इस परिवर्तन का आशय क्या है? इसका मतलब है कि पाप पर विजय पाने की तुम्हारी क्षमता मजबूत हो गई है और तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों और दुष्ट चीजों के प्रति तेजी से संवेदनशील होते जा रहे हो। तुम अपने हृदय में इन मामलों के प्रति अधिक सूझ-बूझ और अनुभूति प्राप्त कर रहे हो। वर्तमान में कुछ लोगों में अभी भी इस जागरूकता की कमी है और जब वे पाप, दुष्टता या शैतानी चीजें देखते हैं तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता है—यह अस्वीकार्य है और इससे पता चलता है कि उनका आध्यात्मिक कद अभी भी कुछ हद तक बौना है। कुछ अन्य लोगों के पास विभिन्न पापपूर्ण व्यवहारों और शैतान के विभिन्न दुष्ट पहलुओं के प्रति कोई भावनाएँ, कोई सूझ-बूझ और लेशमात्र भी वास्तविक घृणा नहीं है। न ही उनमें अपने कार्यों और अपनी भ्रष्टता के साथ ही अपने दिल की गहराई में मौजूद भ्रष्ट स्वभावों और बुरी चीजों के प्रति कोई जागरूकता या सूझ-बूझ है, घृणा तो बिल्कुल भी नहीं है—ये लोग अभी भी आध्यात्मिक कद पाने से कोसों दूर हैं। लेकिन फासला चाहे कितना भी हो, चाहे कोई कितना भी कमजोर हो या इस समय उसका आध्यात्मिक कद कितना भी छोटा हो, यह कोई समस्या नहीं है, क्योंकि इन मुद्दों को हल करने के लिए परमेश्वर ने लोगों को एक मार्ग और दिशा प्रदान की है। जैसे-जैसे तुम अपने कर्तव्यों के समुचित निर्वहन के मानक तक पहुँचते हो, तुम सत्य को समझने और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने के लिए प्रयास भी कर रहे होते हो। जैसे-जैसे तुम सत्य समझने और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने का प्रयास करते हो, पाप पर विजय पाने की तुम्हारी क्षमता मजबूत होती जाती है और दुष्ट चीजों को पहचानने की तुम्हारी क्षमता भी बढ़ती जाती है जिससे विभिन्न सीमाओं तक तुम्हारी दुर्बलता और विद्रोहशीलता का समाधान होता जाता है। उदाहरण के लिए, जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद बौना होता है और तुम्हारा सामना किसी परिस्थिति से होता है, तो इसे अच्छी न जानते हुए भी तुम उससे बेबस और बँधे हो सकते हो और उसमें शामिल भी हो सकते हो। जब तुम सत्य को समझते हो और कुछ सत्यों का अभ्यास कर सकते हो तो तुम अपने दिल में ऐसे मामलों से घृणा करने के साथ ही तुम उन्हें ठुकराकर उनमें शामिल होने से भी इनकार कर दोगे; साथ ही तुम उनसे मुक्त होने में औरों की भी मदद करोगे। यह प्रगति है; यह आध्यात्मिक कद की वृद्धि है। आध्यात्मिक कद में वृद्धि की निशानियाँ क्या हैं? सबसे पहले, व्यक्ति कर्तव्य निर्वहन में निष्ठा रखता है और कोई भी लापरवाही भरा व्यवहार नहीं करता है। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर में आस्था अधिक सच्ची और अधिक व्यावहारिक हो जाती है और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण होता है। इसके अलावा, वह शैतान के प्रलोभनों और व्यवधानों को समझकर उन पर काबू पा सकता है; शैतान अब उसे गुमराह या वश में नहीं कर सकता और वह शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकता है। ऐसा होने पर व्यक्ति वास्तव में बचाये जाने के मानक पर खरा उतर चुका होता है।

आज की संगति के बाद क्या तुम लोग यह मापना जानते हो कि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक पर खरा उतरता है या नहीं? यदि तुम यह जानते हो तो यह साबित होता है कि तुममें इन सत्यों की कुछ समझ है और तुमने प्रगति की है; यदि तुम नहीं जानते हो तो यह साबित होता है कि जो कहा गया था उसे तुम समझ नहीं पाए हो और तुम चूक गए हो। तुम्हें दो पहलुओं में स्पष्टता की आवश्यकता है : पहला पहलू है स्वयं का मूल्याँकन करने की क्षमता और दूसरा, यह जानना कि मानक पर खरा उतरने के लिए अपना कर्तव्य निर्वहन कैसे करना है और कर्तव्य निर्वहन के मार्ग को जानना। पहले ज्यादातर समय हमारी चर्चा कर्तव्य निर्वहन पर ही केंद्रित थी लेकिन इसे समुचित रूप से करने की चर्चा कम ही होती था। आज मुख्य चर्चा समुचित कर्तव्य निर्वहन के मानकों को लेकर हुई है। समुचितता के मानकों और इस पहलू में शामिल विभिन्न सत्यों पर मूल रूप से काफी स्पष्ट रूप से संगति की गई है। इसके अतिरिक्त, कर्तव्य निर्वहन की प्रक्रिया में किन मुद्दों से बचना चाहिए और किन सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए, साथ ही कौन-सी गलतियाँ नहीं की जानी चाहिए—ये सभी बहुत महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से, चढ़ावे मत चुराओ, रोमानी रिश्तों में बिना-विचारे मत पड़ो और कार्य व्यवस्था की अवहेलना मत करो। यदि तुम ये गलतियाँ करते हो तो तुम्हारा पूरा काम तमाम हो चुका है; बचने की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए गलत रास्ता मत अपनाओ, बुरे इंसान के रास्ते पर मत चलो। एक बार जब तुम उस मार्ग पर कदम रख देते हो तो वास्तव में कोई उम्मीद नहीं बचती; तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। यदि परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाता है तो तुम भी खुद को निश्चित रूप से नहीं बचा सकते। यदि कोई उस बिंदु तक पहुँच जाता है तो यह एक गंभीर समस्या है; यहाँ से पीछे मुड़ना आसान नहीं है। यह रास्ता दरअसल कहीं नहीं जाता।

28 नवंबर 2018

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