स्वयं को जानने के बारे में वचन

अंश 42

स्वभाव में बदलाव लाने की कुंजी अपनी प्रकृति को जानना है और यह परमेश्वर के प्रकाशन के अनुसार ही होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचनों में ही व्यक्ति अपनी घिनौनी प्रकृति, अपनी प्रकृति के भीतर छिपे शैतान के विभिन्न विषों, अपनी मूर्खता और अज्ञानता, और अपनी प्रकृति के कमजोर और नकारात्मक तत्वों को जान सकता है। इन बातों को तुम्हारे पूरी तरह से जानने के बाद, और तुम्हारे सच में खुद से नफरत करने, देह से विद्रोह करने, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में लगे रहने, स्वभाव में बदलाव लाने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य के अनुसरण में लगे रहने और सच में परमेश्वर से प्रेम करने वाले व्यक्ति बनने में सक्षम हो जाने के बाद, तुम पतरस के मार्ग पर चल पड़ते हो। परमेश्वर के अनुग्रह या पवित्रात्मा से मिलने वाले प्रबोधन और मार्गदर्शन के बिना, इस मार्ग पर चलना मुश्किल होगा, क्योंकि सत्य के बिना, लोग खुद से विद्रोह नहीं कर सकते। पतरस के पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलना मुख्य रूप से संकल्प रखने, आस्था रखने और परमेश्वर पर निर्भर रहने पर निर्भर करता है। इसके अलावा, व्यक्ति को पवित्रात्मा के कार्य के प्रति समर्पण करना चाहिए और सभी चीजों में, परमेश्वर के वचनों से कभी भी भटकना नहीं चाहिए। ये वे महत्वपूर्ण पहलू हैं जिनका कभी भी उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। अपने अनुभवों के दौरान, खुद को जानना बहुत मुश्किल होता है और पवित्रात्मा के कार्य के बिना, कोई परिणाम नहीं मिलेगा। पतरस के मार्ग पर चलने के लिए, व्यक्ति को खुद को जानने और अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। पौलुस का मार्ग जीवन का अनुसरण करने या आत्म-ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करने का नहीं था, बल्कि काम करने पर और किए गए काम की भव्यता और प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान देने का मार्ग था। उसका इरादा अपने काम और कष्ट के बदले में परमेश्वर के आशीष और पुरस्कार पाने का था। यह इरादा गलत था। पौलुस ने जीवन पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, न ही उसने अपने स्वभाव के बदलाव को कोई महत्व दिया। उसने केवल पुरस्कारों पर ध्यान केंद्रित किया। जिस लक्ष्य का उसने अनुसरण किया, वह गलत था; स्वाभाविक रूप से, फिर जिस मार्ग पर वह चला, वह भी गलत था। यह उसकी घमंडी और दंभी प्रकृति के कारण हुआ। स्पष्ट रूप से, पौलुस में जरा भी सत्य नहीं था, न ही उसमें कोई जमीर या विवेक था। लोगों को बचाने और बदलने में, परमेश्वर मुख्य रूप से उनके स्वभाव को बदलता है। परमेश्वर के वचनों का उद्देश्य लोगों के स्वभाव में परिवर्तन लाना है और लोगों को उसे जानने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम बनाना है और एक सामान्य तरीके से उसकी आराधना करने में सक्षम बनाना है। यही परमेश्वर के वचनों और कार्य का उद्देश्य है। पौलुस का अनुसरण करने का तरीका सीधे तौर पर परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध और उनके साथ टकराव में था। यह पूरी तरह से उनके विपरीत था। हालाँकि, पतरस का अनुसरण करने का तरीका पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप था। पतरस ने जीवन पर और स्वभाव में बदलाव पर ध्यान केंद्रित किया, जो कि वास्तव में वही है जो परमेश्वर अपने कार्य से लोगों में पूरा करना चाहता है। इसलिए, पतरस का मार्ग परमेश्वर द्वारा धन्य और स्वीकृत था, जबकि पौलुस का मार्ग ठीक वही था जिससे परमेश्वर घृणा करता था और जिसे शाप देता था क्योंकि वह उसके इरादों के विपरीत था। पतरस के मार्ग पर चलने के लिए, व्यक्ति को परमेश्वर के इरादों को जानना होगा। वे किस मार्ग का अनुसरण करें, इसकी सटीक समझ उन्हें तभी हो सकती है जब वे उसके वचनों के माध्यम से परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह से समझने में सक्षम हों—जिसका अर्थ यह समझना है कि परमेश्वर इंसान में क्या पूरा करना चाहता है और अंततः, वह किस तरह के परिणाम हासिल करना चाहता है। अगर तुम पतरस का मार्ग पूरी तरह से नहीं समझते और केवल उसका अनुगमन करना चाहते हो, तो तुम उस पर चल नहीं पाओगे। दूसरे शब्दों में, तुम बहुत सारे धर्म-सिद्धांत जान सकते हो, लेकिन अंततः, तुम वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे। भले ही तुम थोड़ा-बहुत सतही प्रवेश पा भी लो, तुम कोई वास्तविक परिणाम हासिल नहीं कर पाओगे।

अधिकतर लोगों को अपनी बहुत सतही समझ होती है। वे अपनी प्रकृति के भीतर की चीजों को बिल्कुल भी साफ तौर पर नहीं जानते। उन्हें सिर्फ अपनी कुछ भ्रष्ट अवस्थाओं की जिन्हें वे प्रकट करते हैं, अपनी प्रवृत्तियों की या अपनी कमियों की ही जानकारी होती है और इससे उन्हें लगता है कि वे खुद को जानते हैं। फिर अगर वे कुछ विनियमों का पालन कर लेते हैं, यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि वे कुछ क्षेत्रों में गलतियाँ न करें, और कुछ अपराध करने से बच जाते हैं, तो वे सोचने लगते हैं कि परमेश्वर में उनके विश्वास में वास्तविकता है और मान लेते हैं कि वे बचा लिए जाएँगे। यह सिर्फ इंसानी कल्पना है, और कुछ नहीं। अगर तुम उन चीजों का पालन करते हो, तो क्या तुम सच में अपराध करने से बचने में समर्थ हो जाओगे? क्या तुमने सच में अपने स्वभाव में कोई बदलाव प्राप्त कर लिया होगा? क्या तुमने सच में एक मानव के स्वरूप को जी लिया होगा? क्या तुम सच में परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे? बिल्कुल नहीं। यह निश्चित है। लोगों को परमेश्वर में विश्वास करने का एक ऊँचा मानक रखना चाहिए : सत्य प्राप्त करना और अपने जीवन स्वभाव में कुछ बदलाव लाना। इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि लोग खुद को जानने की कोशिश करें। अगर किसी व्यक्ति का खुद के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो इससे कोई भी समस्या कतई हल नहीं होगी और उसका जीवन स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलेगा। तुम्हें खुद को बहुत गहराई से जानना होगा। इसका मतलब है अपनी प्रकृति को जानना, यह जानना कि उसमें कौन-से तत्व शामिल हैं, ये चीजें कहाँ से पैदा होती हैं और कहाँ से आती हैं। इसके अलावा, क्या तुम सच में इन चीजों से नफरत करने में समर्थ हो? क्या तुमने अपनी बदसूरत आत्मा और अपनी दुष्ट प्रकृति को देखा है? अगर तुम सच में अपनी सच्चाई देख लो, तो तुम खुद से नफरत करने लगोगे। जब तुम खुद से नफरत करते हो और फिर परमेश्वर के वचनों पर अमल करने की कोशिश करते हो, तो तुम देह से विद्रोह कर पाओगे और सत्य का अभ्यास करने की ताकत पा लोगे, और तब यह संघर्ष जैसा महसूस नहीं होगा। कई लोग अपनी दैहिक पसंद के अनुसार काम क्यों करते हैं? क्योंकि वे खुद को काफी अच्छा समझते हैं और महसूस करते हैं कि उनके काम काफी उचित और जायज हैं, उनमें कोई कमी नहीं है और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं और इसलिए वे पूरी आत्म-निश्चितता से काम करते हैं। जब वे सच में जान लेंगे कि उनकी प्रकृति कैसी है—यह कितनी बदसूरत, घिनौनी और दयनीय है—तो वे खुद को इतना बड़ा समझना और इतना घमंड करना बंद कर देंगे और वे इतने आत्ममुग्ध नहीं रहेंगे। वे सोचेंगे, “मुझे जमीन से जुड़े रहकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। वरना, मैं मानव होने के मानक पर खरा नहीं उतरूँगा और परमेश्वर के सामने जीने में मुझे शर्म आएगी।” वे सच में खुद को छोटा और नितांत तुच्छ समझेंगे। इस मुकाम पर, उनके लिए सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाएगा और वे कुछ-कुछ वैसे दिखने लगेंगे जैसा एक इंसान को दिखना चाहिए। जब कोई व्यक्ति सच में खुद से नफरत करता है, केवल तभी वह देह से विद्रोह कर पाता है। अगर वह खुद से नफरत नहीं करता, तो वह देह से विद्रोह नहीं कर पाएगा। खुद से सचमुच नफरत करना कोई आसान मामला नहीं है। ऐसा करने के लिए, एक व्यक्ति में कई चीजें होनी चाहिए। सबसे पहले, व्यक्ति को अपनी प्रकृति का ज्ञान होना चाहिए। दूसरे, उसे यह देखना चाहिए कि वह दीन-हीन और दयनीय है, वह अत्यंत छोटा और तुच्छ है, और उसे अपनी दयनीय, गंदी आत्मा को देखना चाहिए। जब वह पूरी तरह से देख लेता है कि वह असल में क्या है—जब यह नतीजा हासिल हो जाता है—तो उसे सच में खुद का ज्ञान मिलता है और तब कहा जा सकता है कि खुद के बारे में उसका ज्ञान बिल्कुल सटीक है। केवल इस मुकाम पर वह खुद से नफरत कर सकता है, यहाँ तक कि खुद को कोस सकता है और सच में यह महसूस कर सकता है कि शैतान ने इंसानों को इतनी गहराई तक भ्रष्ट कर दिया है कि उनमें मानवता का कोई स्वरूप ही नहीं बचा है। एक दिन, अगर उस पर सच में मौत का खतरा मँडराएगा, तो वह सोचेगा, “यह परमेश्वर का धार्मिक दंड है। परमेश्वर सच में धार्मिक है। मैं मरने के ही लायक हूँ!” इस मुकाम पर, वह अपनी कोई शिकायत व्यक्त नहीं करेगा, परमेश्वर की शिकायत करने की तो बात ही दूर है—वह सिर्फ यह महसूस करेगा कि वह अत्यंत दीन-हीन, दयनीय, गंदा और भ्रष्ट है और उसे परमेश्वर द्वारा हटाकर नष्ट कर दिया जाना चाहिए और वह महसूस करेगा कि उसकी जैसी आत्मा इस धरती पर जीने के लायक नहीं है। इसलिए, वह परमेश्वर की शिकायत या उसका प्रतिरोध नहीं करेगा और उसे धोखा देने का तो सवाल ही नहीं उठता। लेकिन अगर वह खुद को नहीं जानता और अब भी खुद को काफी अच्छा समझता है, तो जब मौत का खतरा करीब आएगा, तो वह सोचेगा, “मैंने अपनी आस्था में बहुत अच्छा किया है। मैंने इतनी मेहनत से सत्य का अनुसरण किया है, इतना कुछ त्यागा है और इतने कष्ट सहे हैं, लेकिन आखिर में, परमेश्वर मुझे मरने दे रहा है। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है। वह मुझे क्यों मरने दे रहा है? अगर मुझ जैसा इंसान भी मरेगा, तो फिर कौन बचेगा? क्या इसका मतलब पूरी मानवजाति का अंत नहीं होगा?” सबसे पहले, उसके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ बनेंगी। दूसरे, वह परमेश्वर की शिकायत करेगा और उसमें जरा भी समर्पण नहीं होगा। वह बिल्कुल पौलुस की तरह है, जो मरते दम तक खुद को नहीं जान पाया। जब परमेश्वर का दंड उन पर आएगा, तब बहुत देर हो चुकी होगी।

अंश 43

यद्यपि सभाओं में प्रायः सत्य पर संगतियाँ होती हैं, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव का गहन-विश्लेषण होता है, खुद को जानने की बातें होती हैं और लोगों की विभिन्न दशाओं और व्यवहारों की चर्चाएँ होती हैं, पर अभी भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की पहचान नहीं है। कुछ लोग बस इतना स्वीकारते हैं कि उनके पास भ्रष्ट स्वभाव है, लेकिन जब वे इसे प्रकट करते हैं तो उन्हें इसकी पहचान नहीं होती। कुछ लोगों में समझने की क्षमता होती है और परमेश्वर के वचनों का पाठ करते समय वे स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वह जो कहता है वह व्यावहारिक है। परंतु जब उनके साथ कुछ होता है तो उनकी समझ सतही हो जाती है। वे हमेशा विश्वास करते हैं कि उनका व्यवहार अब भी अच्छा है, वे अभी भी अच्छे व्यक्ति हैं और यद्यपि वे मानते हैं कि उनका स्वभाव थोड़ा भ्रष्ट है तब भी वे खुद को अच्छे लोगों की श्रेणी में रखते हैं। वे अपने भ्रष्ट स्वभाव की प्रकृति नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि इसके क्या परिणाम होंगे। क्या यह वास्तव में स्वयं को जानना है? परमेश्वर में कुछ वर्षों से विश्वास करने के बाद, उसके वचन पढ़ने से, धर्मोपदेश और संगतियाँ सुनने से, और काट-छाँट से गुजरने से उनमें से ज्यादातर लोगों को साफ-साफ पता चला है कि उनकी मानवता अच्छी नहीं है और उनका स्वभाव वास्तव में भ्रष्ट है और वे ऐसे काम कर सकते हैं जो सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का विरोध करते हों। परंतु, बहुत-से लोग सच में इसे नहीं पहचानते; वे केवल मौखिक रूप से स्वीकारते हैं कि वे दानव हैं, वे शैतान हैं, और उन्हें शापित होना चाहिए। क्या इस तरह की समझ व्यावहारिक है, या नहीं? क्या यह कुछ ऐसी बात है जो दिल से आती है? क्या यह खुद के प्रति सच्ची नफरत से कही गई बात है? उदाहरण के लिए, एक अगुआ या कार्यकर्ता था जिसे वास्तविक काम नहीं करने के कारण पदच्युत कर दिया गया था, और सभी को अपनी “आत्मग्लानि” दिखाने के लिए उसने एक पश्चात्ताप पत्र लिखा : “मैंने परमेश्वर को निराश किया है और मैं उसका ऋणी हूँ। मैं उसके उद्धार या उसके हृदय के रक्त के योग्य नहीं हूँ, जो उसने मेरे लिए खपाया है। मैं दानव हूँ, शैतान हूँ, मेरी मानवता खराब है। मुझे शापित होना चाहिए, और मुझे नरक में जाना चाहिए और नष्ट हो जाना चाहिए!” इस पश्चाताप पत्र के हर वाक्य में उसने खुद को नकारा और अपनी निंदा की, ऐसे शब्द बोले जो कोई अविश्वासी कभी नहीं बोलता। हालाँकि उसने स्वीकार किया कि वह दानव और एक शैतान है, पर क्या इनमें से एक भी शब्द सच्चा है? (नहीं। उसने यह नहीं बताया कि उसने क्या भ्रष्टताएँ प्रकट की थीं, कौन-सी बुरी चीजें की थीं या उसने कलीसिया के काम को क्या नुकसान पहुँचाए थे।) इसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जो यह विवरण देता हो कि वास्तविक स्थिति क्या है, या बताता हो कि उसके दिल में क्या है; वे सारे खोखले शब्द हैं। क्या यह सच्ची समझ है? (नहीं।) अगर यह सच्ची समझ नहीं है, तो क्या वह अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है? (नहीं।) आओ, उसके लिए एक निष्कर्ष निकालते हैं : यह व्यक्ति अपनी भ्रष्टता स्वीकार नहीं करता है। उसने एक पश्चाताप पत्र लिखा और बाहर से ऐसा लगता है कि वह खुद को जानता है और अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है। इसके बाद तुम्हें यह देखना चाहिए कि आगे अपने दैनिक जीवन में वह कैसा व्यवहार करता है और क्या पर्दे के पीछे उसका असली व्यवहार भी बदल गया है; केवल तभी तुम सटीक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हो। उसके किन व्यवहारों से हम जान सकते हैं कि वह वास्तव में अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है, और स्वयं को सचमुच जानता है? (कोई व्यक्ति जब स्वयं को वास्तव में समझ लेता है, तो उसमें वास्तविक परिवर्तन आता है।) ठीक बात है। परमेश्वर देखता है कि क्या किसी व्यक्ति में वास्तविक परिवर्तन हुआ है। अगर कोई पश्चात्ताप का पत्र लिखता है और उसके शब्द दिल से निकले लगते हैं और लगता है कि उसे सच्ची समझ है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसने सचमुच पश्चात्ताप किया है? क्या इससे सिद्ध हो सकता है कि उसने सचमुच पश्चात्ताप किया है? नहीं, हमें यह देखना चाहिए कि क्या उसमें कोई वास्तविक बदलाव आया है—यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। लेकिन बर्खास्त किए जाने के बाद, ऐसे लोग अक्सर भाई-बहनों के सामने खुद को सही ठहराते हैं और अपना बचाव करते हैं, जो अभी भी अपनी भ्रष्टता स्वीकार नहीं करने और अपने बारे में कोई वास्तविक समझ नहीं रखने जैसा ही है। उनके प्रतिरोध, अपना बचाव करने और पर्दे के पीछे खुद को सही ठहराने से इसकी पुष्टि होती है। इसके अलावा, जब ऊपरवाला उनके कार्यों का गहन-विश्लेषण करता है और कहता है कि वे मसीह-विरोधी, झूठे अगुआ और वास्तविक कार्य नहीं करने वाले व्यक्ति हैं, तो ऊपरवाले द्वारा उजागर किए जाने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? वे तर्क-वितर्क करते हैं, अपना बचाव करते हैं और खुद को सही ठहराते हैं, इन मामलों की हर जगह व्याख्या करते हैं और यह स्वीकार नहीं करते कि वे वास्तविक कार्य नहीं करते, उनमें काबिलियत की कमी है, वे सत्य नहीं समझते और वे एक झूठे अगुआ हैं। उनके स्वीकार न करने और खुद का बचाव करने के पीछे किस प्रकार का स्वभाव है? यह एक तरह का अड़ियल और अभिमानी स्वभाव है, ऐसा स्वभाव जो सत्य से विमुख है। जब उसने पश्चात्ताप का पत्र लिखा, तो कहा कि वह एक दानव और एक शैतान है, कि वह परमेश्वर के लायक नहीं है और परमेश्वर का ऋणी है, कि उसकी मानवता अच्छी नहीं है, लेकिन यह सब स्वीकारने के तुरंत बाद वह अपने पुराने तौर-तरीकों पर लौट आया। यहाँ क्या हो रहा है? (उसकी स्वीकृति सच्ची नहीं है।) उसका असली पक्ष कौन-सा है? उसका असली आध्यात्मिक कद क्या है? (अपना बचाव करना और खुद को सही ठहराना।) पर्दे के पीछे खुद को सही ठहराना और अपने पक्ष में तर्क देना, हर जगह अपना स्पष्टीकरण देना—यही उसका असली पक्ष है। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह इस बात को नहीं स्वीकारता है कि वह वास्तविक कार्य नहीं कर सकता और उसमें सत्य वास्तविकता नहीं है? वह इसे जरा भी स्वीकार नहीं करता। अगर वह इसे भी स्वीकार नहीं करता, तो क्या वह वास्तव में खुद को जानता है? अगर वह खुद को नहीं जानता, तो क्या खुद को दानव और एक शैतान के रूप में चित्रित करना लोगों को गुमराह करना नहीं है? इसका मतलब यह है कि खुद को जानने के बारे में वह जो कुछ भी कहता है, वह सब झूठ है; वह सब धोखा है। वह इस बात को स्वीकार नहीं करता कि वह कार्य नहीं कर सकता, और कि उसकी मानवता अच्छी नहीं है, तो फिर उसने आत्म-निंदा के वे शब्द क्यों कहे? यह अथाह है। अगर वह खुद को नहीं जानता, तो भी दिखावा क्यों करता है कि वह जानता है? यह लोगों को धोखा देने के लिए है। हमारे सामने मौजूद तथ्यों ने पहले ही सिद्ध कर दिया है कि वह पाखंडी व्यक्ति है। तो क्या वह स्वीकारता है कि उसके पास भ्रष्ट स्वभाव है? (वह इसे स्वीकार नहीं करता।) वह इस बात को स्वीकारने से इनकार करता है, और यह साबित करने के लिए बहुत-से बहाने और कारण तलाशता है कि उसने जो कुछ किया था, वह गलत नहीं था। वह मानता है कि वह जो भी करता है वह ठीक है, और ऊपर वाले को इसकी निंदा या गहन-विश्लेषण नहीं करना चाहिए। उसे बर्खास्तगी मंजूर है, लेकिन इन चीजों के कारण अपने साथ अन्याय होना मंजूर नहीं है। उसकी बर्खास्तगी का कारण कुछ भी हो, वह समर्पण कर सकता है और उसे स्वीकार सकता है; इसका एकमात्र कारण यह है कि उसे विशेष रूप से उसके इन्हीं चीजों के कारण बर्खास्त किया गया था कि उसने जो कुछ किया उसे स्वीकार नहीं कर सकता या समर्पण नहीं कर सकता। क्या खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने की जड़ यही नहीं है? इस तरह का व्यक्ति दानव और एक शैतान होने की बात कहता है, कहता है कि उसे शाप दिया जाना चाहिए और नरक में भेजा जाना चाहिए और बार-बार जोर-जोर से ये नारे लगाते हुए अपने पक्ष में तर्क देना और खुद को सही ठहराना जारी रखता है—क्या वह सच में खुद को जानता है? (नहीं।) वह बार-बार चिल्लाता है कि वह एक दानव है, एक शैतान है, फिर भी अपने किसी भी गलत काम को स्वीकार नहीं करता। क्या वह स्वीकारता है कि उसके पास भ्रष्ट स्वभाव है? (नहीं।) ऐसा क्यों कहते हैं कि वह इसे स्वीकार नहीं करता? इस तरह के लोग स्वीकारते हैं कि वे एक दानव और एक शैतान हैं, तो वे यह क्यों नहीं स्वीकारते कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं? कौन-सा परिणाम अधिक गंभीर है—यह स्वीकारना कि उसके पास भ्रष्ट स्वभाव है या यह स्वीकारना कि वह एक दानव और एक शैतान है? दरअसल वे अपने दिलों में समझते हैं कि अगर वे यह स्वीकार लेते हैं कि वे एक दानव और एक शैतान हैं, तो वे दूसरों को गुमराह कर सकते हैं और अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकते हैं और लोग उनके साथ कुछ नहीं करेंगे। परंतु, यदि वे अपने गलत कामों को स्वीकारते हैं, या यह स्वीकारते हैं कि उनमें मानवता नहीं है, तो लोग उनसे दूर भागेंगे और उनसे नफरत करेंगे। इसलिए, वे सभी को गुमराह करने और धोखा देने के लिए एक लोक-लुभावन नारा चुनते हैं। वे इस तरह के सूत्र-वाक्य क्यों चिल्लाते हैं और ऐसे नारे क्यों लगाते हैं? इसका उद्देश्य क्या है? (यह कि लोग देखें कि वे खुद को कितना जानते हैं।) एक तरह से, वे अपनी आध्यात्मिकता का दिखावा कर रहे होते हैं। दूसरी तरह से देखा जाए तो वे सोचते हैं : “हर एक कहता है कि वे एक दानव और एक शैतान हैं। अगर मैं भी कहूँ कि मैं एक दानव हूँ, एक शैतान हूँ, तो मुझे कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा और लोग इससे सहमत भी हो सकते हैं। क्यों न ऐसा ही करें?” क्या उनका यही विचार नहीं है? क्या इस तरह से खुद को जानना बहुत चालाकी भरा काम नहीं है? (हाँ, यह गुमराह करने वाला काम है।) इस काम की प्रकृति ही गुमराह करने वाली और धोखा देने वाली है, और इसमें धार्मिक चालबाज के लक्षण हैं! धार्मिक चालबाज क्या कहते हैं? “हम सभी पापी हैं; हम सभी ने पाप किया है!” वे यह नहीं कहते कि वे किस तरह बुरे हैं, न ही वे अपने किए बुरे कामों का विवरण देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि “हम सभी पापी हैं, और हमें पश्चात्ताप करना चाहिए। देखो कि प्रभु यीशु ने हमारे लिए कितना कीमती खून बहाया है!” इन शब्दों से वे क्या लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं? यह सब खुद को आध्यात्मिक दिखाने के लिए है। वे दिखावा कर रहे होते हैं और कोशिश करते हैं कि दूसरे उनके बारे में अच्छा सोचें, ताकि वे लोगों के दिल और मन जीतने का लक्ष्य हासिल कर सकें। जो लोग यह स्वीकारने का दावा करते हैं कि वे दानव और शैतान हैं, क्या वे भी यही नतीजा पाना चाहते हैं? क्या उनका भी उद्देश्य यही नहीं है? पहली नज़र में, ऐसा लगता है कि वे खुद को जानते हैं, और वे वास्तव में पश्चात्ताप करने वाले लगते हैं जो खुद को दानव और शैतान घोषित करते हैं, नरकवासी मानते हैं, और जिन्हें मर जाना चाहिए। उनके शब्द कितने सच्चे और दिल से निकले हैं! हालाँकि वे बहुत सच्चे दिल से बोलते हैं, लेकिन वे जो कुछ पर्दे के पीछे वास्तव में करते हैं क्या उसमें भी उतने ही सच्चे होते हैं? बिल्कुल नहीं। वे पाखंड और धोखे वाली नजरिया अपनाते हैं : एक ओर वे सार्वजनिक रूप से खुद को दानव और शैतान मान रहे होते हैं, लेकिन दूसरी ओर, वे अपना बचाव करते हैं, खुद को सही ठहराते हैं, यह समझाते हैं कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया। वे कहते हैं कि उनके साथ ऊपर वाले ने अन्याय किया है, कि ऊपर वाले को वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं है, और यह कि इन चीजों को करने में उन्होंने बहुत कठिनाइयाँ और परेशानियाँ सहन की हैं और बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, और उनके साथ इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए था। वे ये बातें ज्यादा सहानुभूति बटोरने के लिए कहते हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को गलतफहमी हो कि वे खुद को दानव और शैतान मानते हैं और कि वे सच में खुद को जानते हैं, कि ऊपर वाले ने उनके साथ अन्याय किया है और उन्हें बहुत छोटी-सी बात पर पदच्युत कर दिया गया था। वे यह दिखाना चाहते हैं कि वे खुद को जानते हैं और अगुआ बनने के लायक हैं। वास्तव में वे पूरी ताकत से अपना बचाव करते हुए खुद को सही साबित कर रहे होते हैं। छद्म-भेष धारण करने, खुद को सही साबित करने और आध्यात्मिक नारे लगाने में माहिर ये लोग क्या वास्तव में खुद को जान सकते हैं? (वे नहीं जान सकते।) उनका कथित आत्म-ज्ञान केवल बाहरी दिखावा है, दूसरों को धोखा देना है और दूसरों पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए मुखौटा लगाना भर है। वे असल में पश्चात्ताप करने और अपना अपराध स्वीकार करने परमेश्वर के सामने नहीं आते, और न ही वे परमेश्वर द्वारा काट-छाँट किया जाना, उजागर किया जाना, अनुशासित किया जाना या निकाल दिया जाना स्वीकार करते हैं। उनका रवैया ऐसा है ही नहीं।

आजकल ज्यादातर लोगों का अनुभव बहुत उथला है, और उनका आत्म-ज्ञान बहुत कम है। बहुत-से लोग केवल अपने तौर-तरीकों में गलतियाँ और अपने दोष स्वीकार करते हैं, जबकि कम ही लोग अपनी खराब काबिलियत, विकृत समझ, आध्यात्मिक समझ में कमी और मानवता में कमी को स्वीकारते हैं। उनसे भी कम लोग यह स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के उजागर करने वाले वचन पूर्ण तथ्य हैं, कि ये वचन उनकी अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को उजागर करते हैं, या कि उसके वचन पूरी तरह से सटीक और त्रुटिहीन हैं। यह इस बात का सबूत है कि लोग अभी भी खुद को सही मायने में नहीं जानते हैं। यह स्वीकार नहीं करना कि वे अपने शैतानी स्वभाव और शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं, बताता है कि वे खुद को सही मायने में नहीं जानते। वे चाहे जैसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, उसे स्वीकार नहीं करते। वे उसे ढक कर, लपेट कर रखते हैं, ताकि दूसरे लोग उनकी भ्रष्टता को न देख सकें। ऐसे लोग खुद को छिपाने में बहुत माहिर और पाखंडी होते हैं। आजकल ज्यादातर लोगों का झुकाव सत्य की ओर है और उनकी दशा कुछ हद तक सुधरी है, लेकिन वे अभी भी सच में खुद को नहीं जानते। बहुत-से लोग गलती करने पर आदतन बस इतना ही स्वीकारते हैं कि उस क्षण उनसे गलती हुई थी। यदि तुम उनसे पूछो कि “इस मामले में तुम वास्तव में कहाँ गलत थे? तुमने किन सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया? तुमने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए?” तो वे जवाब देंगे कि “इसका भ्रष्ट स्वभाव से कोई लेना-देना नहीं है। यह बस एक क्षणिक चूक थी; मैंने इसके बारे में बहुत सोचा नहीं और आवेग में आकर काम किया था। मेरा ऐसा इरादा नहीं था।” बिना इरादे के किए गए काम और त्रुटियाँ उनके द्वारा प्रकट हुए भ्रष्ट स्वभावों की ढाल और बहाने बन गए हैं। क्या यह उनकी अपनी भ्रष्टता की असली अभिस्वीकृति है? ऐसा नहीं है। यदि तुम अक्सर बहाने बनाते हो या अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों के लिए कारण ढूँढ़ते हो, तो तुम वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभावों का सामना नहीं कर सकते, न ही तुम उन्हें स्वीकार कर सकते हो या समझ सकते हो। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति कुछ समय तक अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से पालन करता है; उसकी दशा स्थिर है, वह जो भी करता है वह सब सहजता से और बिना किसी अड़चन के होता है और वह कुछ सकारात्मक नतीजे लाकर दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करता है। उसे लगता है कि उसने बहुत बड़ा योगदान दिया है और परमेश्वर को उसे पुरस्कृत करना चाहिए। परिणामस्वरूप, वह अभिमानी और अपने आप को बड़ा समझने वाला भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है—वह खुद को दूसरों से बेहतर मानता है, और किसी की बात सुनने से इनकार करता है और किसी अन्य के साथ सौहार्दपूर्वक सहयोग करने में असमर्थ रहता है। बहुत जल्द, वह अपने कर्तव्यों के निर्वहन में गलतियाँ करता है, और उसके भाई-बहन उसकी काट-छाँट करते हैं और यह कहते हुए उसे उजागर करते हैं कि वह बहुत अहंकारी है। उसे इस तथ्य को स्वीकारने में कठिनाई होती है और वह इस मामले पर लगातार विचार करता है : “क्या मैं अहंकारी हूँ? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। मैंने तो किसी चीज के बारे में डींग नहीं हाँकी थी, तो मैं अहंकारी कैसे हो गया?” वह “अहंकारी” शब्द पर अटका हुआ है और इससे पीछा नहीं छुड़ा पा रहा है। इस शब्द को स्वीकारने में उसकी अक्षमता से दिखता है कि वह विवेकहीन है, खुद को बिल्कुल नहीं जानता और अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकार नहीं करता। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है और तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तब यदि कोई तुम्हारी आलोचना करता है या तुम्हारी काट-छाँट करता है, और कहता है कि तुमने जो किया वह सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, फिर भी तुम केवल उस विशेष मामले में ही अपनी गलती स्वीकारते हो और यह मानने को तैयार नहीं होते कि यह उजागर हुए भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न परिणाम था, और भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने की सच्चाई स्वीकार किए बिना केवल उस गलती को सुधारने के लिए तैयार हो, तो तुम वास्तव में स्वयं को नहीं जानते। क्या गलतियाँ स्वीकारना अपने आप में आत्म-ज्ञान का प्रतिनिधित्व कर सकता है? आत्म-ज्ञान का अर्थ है अपनी गलतियों का मूल कारण पहचानना और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना। यदि तुम स्वीकारते हो कि तुमने कुछ गलत किया है, और उसके बाद तुम्हारा व्यवहार बदल जाता है जिससे लगता है कि अब तुम वही गलती नहीं करते, लेकिन तुमने अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ा है और गलती का मूल कारण दूर नहीं हुआ है, तो इसका परिणाम क्या होगा? तुम अब भी अनिवार्य रूप से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध करोगे। यह मत समझो कि व्यवहार में कुछ परिवर्तन तुम्हारे स्वभाव में बदलाव के बराबर है। स्वयं को जानना एक अंतहीन प्रक्रिया है; यदि कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव के मूल कारणों को नहीं जानता या यह नहीं जानता कि परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और विरोध करने की जड़ कहाँ है, तो वह अपने स्वभाव में बदलाव नहीं ला सकता। किसी का स्वभाव बदलने में यही वह चीज है जो कठिन है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले बहुत-से लोग केवल अपना व्यवहार ही क्यों बदलते हैं, अपना जीवन स्वभाव क्यों नहीं बदलते? समस्या यहीं पर है। यदि तुम स्वीकारते हो कि तुम जो उजागर करते हो वह भ्रष्ट स्वभाव है जिसके कारण तुम अपने मन-मुताबिक काम करते हो, मनमाने निर्णय लेते हो, दूसरों के साथ सौहार्दपूर्वक सहयोग नहीं करते, और खुद को औरों से ऊपर रखते हो, और फिर इन बातों को स्वीकारने के बाद तुम यह भी स्वीकारते हो कि यह सब अहंकारी स्वभाव के कारण हैं, तो तुम्हें इससे क्या फायदा होगा? केवल ऐसा होने पर ही तुम इन मामलों पर वास्तव में चिंतन करोगे, और पहचानोगे कि भ्रष्ट स्वभाव ही परमेश्वर का विरोध करने का मूल कारण है, और यह शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने का ठोस सबूत है। तुम यह पहचान जाओगे कि यदि कोई इस भ्रष्ट स्वभाव को नहीं छोड़ता है, तो वह व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक नहीं है और परमेश्वर के सामने रहने लायक नहीं है। परंतु, यदि तुम केवल यह स्वीकारते हो कि तुमने कुछ गलत किया है, तो इसका परिणाम क्या होगा? तुम केवल अपने काम करने के तरीकों पर ध्यान केंद्रित करोगे और उन्हें सुधारने का प्रयास करोगे, कोशिश करोगे कि चीजों को ऐसे कैसे किया जाए कि वे ऊपरी तौर पर उचित दिखें, और अपने अहंकारी स्वभाव के उजागर होने को कैसे छिपाया जाए। तुम और अधिक धूर्त बनोगे और दूसरों को धोखा देने के तुम्हारे तरीके और अधिक परिष्कृत होते जाएँगे। तुम सोचोगे : “मैंने इस बार गलती की और सभी ने इसे देख लिया क्योंकि मैं सावधान नहीं था। अगली बार मैं ऐसा नहीं करूँगा।” इसका नतीजा यह होगा कि तुम्हारा काम करने का तरीका ऊपरी तौर पर बदल जाएगा और दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखेगी, क्योंकि तुमने अपने भ्रष्ट स्वभाव को छिपा लिया होगा। ऐसा करके तुम क्या बन चुके हो? तुम और अधिक धूर्त और पाखंडी बन गए होगे। यदि कोई अपने बोलने और काम करने के तरीकों पर ध्यान केंद्रित करता है और इसके लिए प्रयास करता है ताकि ऊपरी तौर पर कोई भी उसकी कोई समस्या न देख सके या उसमें कोई दोष न निकाल सके और उसके काम दोषरहित लगें, लेकिन वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को थोड़ा भी नहीं बदलता, तो क्या वह फरीसी नहीं बन रहा है? पाखंड करके लोगों को धोखा दिया जा सकता है, लेकिन क्या इससे परमेश्वर को भी धोखा दिया जा सकता है? सत्य का अनुसरण करने का वास्तव में क्या अर्थ है? मुख्य रूप से, इसका अर्थ है अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए प्रयास करते रहना। यदि कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव को कभी जाने ही नहीं, तो उसके स्वभाव में परिवर्तन होना असंभव है। यह स्वीकारने के साथ ही कि उसके पास भ्रष्ट स्वभाव है, उसे सत्य भी स्वीकारना चाहिए, इस पर चिंतन करना चाहिए कि उससे वास्तव में कहाँ गलती हुई और वह कहाँ असफल हुआ, और तब उसे अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। केवल इस तरह से ही कोई व्यक्ति धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग सकता है, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सत्य का अभ्यास कर सकता है, और सिद्धांतों के साथ काम कर सकता है। ऐसा करने से वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करेगा। केवल सत्य की तलाश और सत्य का अभ्यास कर सकने वाले ही सत्य का अनुसरण करते हैं। वे ही लोग हैं जो सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुरूप काम करने का निरंतर प्रयास कर सकते हैं और जो अपने अनुभवों को सारांशित कर सकते हैं और सबक सीख सकते हैं। जब वे सत्य का अभ्यास करते हैं और वास्तविकता में प्रवेश करते हैं, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं, और कम गलतियाँ करते हैं, तो वे धीरे-धीरे परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने के उपयुक्त हो जाते हैं। कोई यदि ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता हो, तो चाहे वह खुद को जानने के बारे में कितनी भी खोखली बातें करे या खुद को एक दानव और एक शैतान के रूप में कैसे भी चित्रित करे, अंततः वह सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकेगा। तो, इन दोनों के बीच क्या अंतर है? एक अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारता है, सत्य सिद्धांतों की खोज करता है, और सत्य के अनुसार अभ्यास करता है—यह सत्य के अनुसरण का मार्ग है। दूसरा यह स्वीकार नहीं करता है कि उसका स्वभाव भ्रष्ट है और वह अपने भ्रष्ट स्वभाव की सच्चाई स्वीकार नहीं करता, इसके बजाय वह चीजों को करने के तरीके को बेहतर करने का प्रयास करता है। परंतु, इससे केवल उसके बाहरी व्यवहार में परिवर्तन होता है, उसके जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता, जिसके कारण उसका व्यवहार और अधिक भ्रांतिकर हो जाता है। इस तरह के लोग जो करते हैं, क्या वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? उनके काम पूरी तरह से मानक स्तर से कम हैं और सिद्धांतों के आस-पास भी नहीं हैं। वे भेष बदलने, झूठा दिखावा करने और धोखा देने का काम करते हैं और उनका लक्ष्य परमेश्वर के चुने हुए लोगों को धोखा देना होता है। वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, फिर भी चाहते हैं कि हर कोई उनकी प्रशंसा करे, उनको स्वीकृति दे और उनका समर्थन करे ताकि उन्हें कलीसिया में रुतबा हासिल हो सके। क्या यह भेष बदलने और धोखाधड़ी की अभिव्यक्ति नहीं है? वे भेष बदल कर खुद को छिपाते हैं और दूसरों को अपने पक्ष में करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। काम करने के इस तरीके में क्या कोई सत्य सिद्धांत है? बिल्कुल नहीं—यह पूरी तरह से मानव मन की कल्पनाओं, मानवीय तरीकों, और सांसारिक व्यवहार के मानवीय फलसफों पर आधारित है, और यह अभी भी शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीना है। पाखंड के इस अभ्यास का संबंध नकली आध्यात्मिकता से है; यह लोगों को धोखा देना है और इसमें जरा-सी भी सत्य वास्तविकता नहीं है।

ऐसा क्यों होता है कि दूसरों की तरह ही अपने कर्तव्यों का पालन करते-से दिखते कुछ लोग अचानक ही कहीं से आकर अंत में कोई बड़ा बुरा काम करके लोगों को चौंका देते हैं? क्या ऐसी घटना एक या दो दिन में ही घटित हो सकती है? बिल्कुल नहीं। तीन फुट गहरी बर्फ एक दिन में नहीं जम सकती। बाहर से वे निष्कपट और सरल दिखते हैं और किसी को उनमें कोई दोष नहीं दिखता, लेकिन अंत में, वे जो बुरे काम करते हैं, वे किसी और के बुरे कामों की तुलना में बहुत ज्यादा गंभीर और स्तब्ध कर देने वाले होते हैं। ये काम ये तथाकथित “निष्कपट” लोग करते हैं। क्या तुम लोग जानते हो कि इस प्रकार के लोगों का सामान्य लक्षण क्या होता है? (वे अच्छे व्यवहार वाले दिखते हैं और आमतौर पर काफी निष्कपट लगते हैं।) वे जैसा जीवन जीते हैं उसमें और उनके प्रकृति सार में दो विशिष्ट लक्षण होते हैं—क्या तुम लोग इन मुख्य बिंदुओं को समझ सकते हो? (वे न तो सत्य से प्रेम करते हैं और न ही अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारते हैं। जब वे स्वयं को जानने की बात करते हैं, तो वे छद्मवेश धारण कर पाखंड कर रहे होते हैं।) पाखंड करना इसका एक पहलू है, तो तुम कैसे पता लगा सकते हो और पुष्टि कर सकते हो कि ये लोग पाखंडी हैं? तुम कैसे पुष्टि कर सकते हो कि वे जो अच्छा व्यवहार कर रहे हैं, वह केवल दिखावा है? (ऊपरी तौर पर वे बहुत अच्छी बातें करते हैं, लेकिन अपने वास्तविक कार्यों में वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार किए बिना स्वयं के हितों की रक्षा करते हैं।) पाखंड करने की यह विशिष्ट अभिव्यक्ति है। यद्यपि ये पाखंडी लोग अच्छी बातें करते हैं, लेकिन वास्तव में वे लोगों को धोखा दे रहे होते हैं, गुमराह कर रहे होते हैं। इसके अतिरिक्त, वे अपना स्वार्थ और नीचता उजागर करते हैं, केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते—वे किसी वेश्या की तरह जीना चाहते हैं लेकिन उम्मीद करते हैं कि उनकी पवित्रता का स्मारक खड़ा किया जाएगा। यह सब उनके मानवता-रहित प्रकृति सार का प्रतिनिधित्व करता है। मैंने अभी उल्लेख किया है कि उनके प्रकृति सार में दो विशिष्ट लक्षण हैं। पहला लक्षण यह है कि इस तरह के लोग अक्सर नारे लगाते हैं और धर्म-सिद्धांतों की बात ऐसे करते हैं जैसे वे बहुत आध्यात्मिक हों, लेकिन वास्तव में वे सत्य से तनिक भी प्रेम नहीं करते, और सत्य से प्रेम किए बिना उनके लिए इसका अभ्यास करना असंभव है। इस बिंदु के आधार पर, तुम लोगों ने पहले जिस बात का जिक्र किया है कि वे केवल अपने हितों पर विचार करते हैं, क्या वह इन अभिव्यक्तियों में से एक नहीं है? वे अपने हितों पर विचार क्यों करते हैं? क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? (वे सत्य से प्रेम नहीं करते; वे केवल हितों को पसंद करते हैं।) वे केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं और परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर बिल्कुल विचार नहीं करते। क्या यह सत्य से तनिक भी प्रेम न करने वाला व्यवहार नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “यदि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, तो वे हमेशा सत्य से संबंधित चीजों के बारे में संगतियाँ क्यों करते हैं?” तुम लोग इसकी कैसे व्याख्या करोगे? (वे दूसरों पर प्रभाव जमाने, खुद को छिपाने और कपटपूर्ण चोला पहनने के लिए ऐसा करते हैं।) यह इसका एक पहलू है, लेकिन इसके अलावा क्या वे वास्तव में सत्य के बारे में संगतियाँ कर रहे होते हैं? यह बिल्कुल भी सत्य के बारे में नहीं होता है; यह केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत होता है। यदि उनकी संगतियाँ स्पष्ट रूप से केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं, तो उन्हें सत्य कैसे कहा जा सकता है? केवल मूर्ख ही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को सत्य के बराबर मानेंगे। दानव लोगों को गुमराह करने के लिए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने में अत्यधिक कुशल होते हैं, वे दूसरों को और परमेश्वर को धोखा देने के लिए ऐसे व्यक्ति होने का दिखावा भी करना चाहते हैं जिनके पास सत्य है। लोग चाहे जितने गहरे शब्द और धर्म-सिद्धांत क्यों न बोलें, वे सत्य नहीं हैं; केवल परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन ही सत्य हैं। मनुष्य द्वारा बोले गए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उल्लेख सत्य के बराबर कैसे किया जा सकता है? वे दो अलग-अलग चीजें हैं। पहला पहलू यह है कि इन लोगों को सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं होता। क्या यह पहलू उनका प्रकृति सार है? (हाँ।) हम क्यों कहते हैं कि यह उनका प्रकृति सार है, न कि केवल एक अस्थायी खुलासा या व्यवहार? ऐसा इसलिए कि जब हम उनके सभी खुलासों और व्यवहारों को देखते हैं, तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनका मानवता सार यह है कि उन्हें सत्य से जरा भी प्रेम नहीं है। इन विभिन्न व्यवहारों के कारण, यह निर्धारित किया जा सकता है कि वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते। यह पहली विशेषता है। अब, दूसरी विशेषता क्या है? वह यह है कि ये लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। इसका क्या मतलब है कि वे इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते? अगर यह कहा जाता है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव स्वीकार नहीं करते, तो वे हमेशा खुद को जानने की बात क्यों करते हैं? वे न केवल खुद को जानने की बात करते हैं, बल्कि वे खुद को जानने में बेशर्मी से दूसरों की मदद भी करते हैं। वे अक्सर यह भी कहते हैं कि वे पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं, कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं, कि वे दानव और शैतान हैं और शापित होने के लायक हैं। इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है? (जब वे स्वयं को जानने की बात करते हैं, तो उसमें कोई सच्ची विषय-वस्तु या विवरण नहीं होता। उदाहरण के लिए, उनकी बात में इस बारे में कोई व्यावहारिक विषय-वस्तु नहीं होती है कि उन्होंने कौन-सी भ्रष्टता उजागर की, उनके मन में कौन-से गलत इरादे हैं, वे किन भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में हैं, उनके पास कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं, या वे किस प्रकृति सार से संबंधित हैं, इत्यादि। वे सच्ची भावनाएँ और समझ व्यक्त किए बिना केवल अस्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे दानव और शैतान हैं।) (स्वयं को वास्तव में जानने का एक परिणाम यह है कि कोई व्यक्ति स्वयं से वास्तव में घृणा करने में सक्षम हो जाता है। इस प्रकार के लोग मौखिक रूप से अपनी भ्रष्टता स्वीकारते हैं लेकिन अपने दिल में अपने आप से बिल्कुल भी घृणा नहीं करते, और वे अपना बचाव करने और खुद को सही ठहराने के लिए सभी प्रकार के कारण भी खोज लेते हैं। कभी-कभी, वे स्वयं को बाहरी रूप से स्पष्ट नहीं करते, लेकिन वे आंतरिक रूप से अपनी भ्रष्टता को नहीं स्वीकारते और उसे नहीं पहचानते। वे सत्य स्वीकारने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं और बिल्कुल भी नहीं बदलते।) वे अपनी स्वयं की भ्रष्टता को स्वीकार नहीं करते—इसकी क्या व्याख्या हो सकती है? (जब उनके साथ कुछ घटित होता है और उनका खुलासा हो जाता है, तो उन्हें लगता है कि वे ऐसा कुछ कर ही नहीं सकते और इसलिए वे स्वीकार नहीं करते कि उनके पास इस प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है।) इस प्रकार के लोग हमेशा खुद को जानने की बात करते हैं, लेकिन वे वास्तव में क्या जानते हैं? क्या वे अपने व्यवहार और अभिव्यक्तियों को जानते हैं, या वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानते हैं? या वे केवल इतना ही जानते हैं कि उन्होंने कौन-सी चीजें गलत की हैं? ज्ञान के इन प्रकारों में एक बड़ा अंतर है। कुछ ज्ञान सच्चे ज्ञान होते हैं, जबकि कुछ सतही होते हैं और उनमें सार नहीं होता है। कुछ लोगों का ज्ञान और भी उथला होता है, और वे केवल यह जानते हैं कि उन्होंने कौन-सी चीजें गलत की हैं या वे उन चीजों को स्वीकारते हैं जो उन्होंने नैतिकता या कानून के खिलाफ की हैं। यह धार्मिक लोगों द्वारा प्रभु के सामने अपने पाप कबूल करने से अलग किस्म की बात नहीं है; इससे वास्तविक पश्चात्ताप नहीं होता। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खुद को जानने की बात करते समय केवल कुछ धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, या जो आत्म-ज्ञान के बारे में दूसरों की कही बातों की नकल करते हैं। भेष बदलने और धोखाधड़ी करने का यह और भी बड़ा रूप है। ये लोग सच में खुद को क्यों नहीं जानते? सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि वे कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करते, इसलिए उनके सभी कार्य और व्यवहार पूरी तरह से उनकी अपनी प्राथमिकताओं, उनके अपने शैतानी फलसफों और उनके अपने हितों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं पर आधारित होते हैं। अपने दिल की गहराई में, वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को भ्रष्ट नहीं मानते; जो कुछ भी उन्हें चाहिए, वह भ्रष्ट नहीं है, इसलिए वे वही करते हैं जो वे चाहते हैं, जो उन्हें पसंद है। उनके कार्यों के शुरुआत से इसका आकलन किया जाए तो क्या वे अपनी भ्रष्टताओं को स्वीकारते हैं? (वे उन्हें नहीं स्वीकारते।) जो लोग अपनी भ्रष्टता स्वीकारते हैं, वे कैसे कार्य करते हैं? क्या वे सत्य सिद्धांतों की तलाश करके कार्य करते हैं, या वे केवल प्रार्थना करते हैं, चिंतन करते हैं, और अपने मन में जो हो, उसके मुताबिक कार्य करते हैं? वे इनमें से किसका अनुसरण करते हैं? (वे सत्य सिद्धांतों की तलाश करते हैं।) इसलिए, उपर्युक्त प्रकार के लोगों के कार्यों को देखने से यह स्पष्ट है कि वे हमेशा वही करते हैं जो वे चाहते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर के वचन दूसरों के लिए हैं और वे जिन धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, उन्हें दूसरों को बताते हैं, जिसका अर्थ है कि वे दूसरों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करने के लिए कहते हैं, जिसका अर्थ है कि “तुम सभी भ्रष्टताएँ उजागर करते हो, लेकिन मैं अपने हर काम में सत्य की तलाश करता हूँ और शायद ही कोई भ्रष्टता प्रकट करता हूँ।” क्या ये लोग वास्तव में खुद को जानते हैं? वे अपनी स्वयं की भ्रष्टताओं को स्वीकारने की हिम्मत नहीं करते; यही इस मामले का सत्य है। वे मानते हैं कि अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए कीमत चुकाना, साथ ही थोड़ा ज्यादा बोलना, थोड़ी और कठिनाइयाँ सहना या यहाँ तक कि खुद को त्यागना और खपाना आदि सब कुछ सत्य के अनुरूप और सही है। यदि तुम उनसे पूछो कि “चूँकि सभी मनुष्यों में भ्रष्टता है, तो क्या तुम्हें ऐसा सोचने पर गलत होने का डर नहीं लगता?” तो वे कहेंगे : “नहीं, कोई दिक्कत नहीं है; मैं नहीं डरता। मैं अपने इरादों में सही हूँ।” यह देखो कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और इरादों को कैसे सकारात्मक मानते हैं। क्या इस तरह के लोग अपनी भ्रष्टता स्वीकारते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं करते।) वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से, वे अपनी भ्रष्टता स्वीकार नहीं करते। क्या कोई व्यक्ति जो अपनी भ्रष्टता स्वीकार नहीं करता, वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है? (नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता।) वह बिल्कुल पश्चात्ताप नहीं करेगा; कभी नहीं करेगा। क्या उसके पास सच्चा समर्पण है? (नहीं।) इसकी संभावना और भी कम है। वह तो यह भी नहीं जानता कि सत्य क्या है, तो वह समर्पण कैसे कर सकता है? वह केवल अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के आगे समर्पण करता है। वह अपना जीवन सभी मामलों में अपनी इच्छाओं के अनुसार चल कर गुजारता है, और वह हमेशा सत्य की खोज किए बिना, केवल अपनी इच्छा के आधार पर बोलता है, कार्य करता है और अपना मार्ग चुनता है। कुछ लोग कहते हैं : “वे कभी सत्य की खोज नहीं करते, तो वे धर्मोपदेश क्यों सुनते हैं?” धर्मोपदेश सुनने का आवश्यक रूप से यह मतलब नहीं है कि वे सत्य की खोज करने में सक्षम हैं; यह परमेश्वर में विश्वास करने का केवल एक पहलू है। यदि वे धर्मोपदेश नहीं सुनेंगे या सभाओं में शामिल नहीं होंगे, तो क्या वे तब उजागर नहीं हो जाएँगे? इसलिए, उनके लिए इस प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है, लेकिन धर्मोपदेश सुनने का मतलब यह नहीं है कि वे सत्य स्वीकारते हैं या अपने स्वयं की भ्रष्टता स्वीकारते हैं; इसका ऐसा कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता। किसी का यह स्वीकारना कि उसमें भ्रष्टता है, कोई आसान बात नहीं है, और जो सत्य से प्रेम नहीं करते उनके लिए ऐसा करना मुश्किल है।

अभी-अभी हमने जिक्र किया कि जो लोग खुद को नहीं जानते हैं, उनके दो विशिष्ट लक्षण होते हैं : एक तो यह कि वे मूल रूप से सत्य से प्रेम नहीं करते, और दूसरा यह कि वे कभी स्वीकार नहीं करते कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है। तो, तुम लोग खुद को जानने से कितनी दूर हो? (अभी, हम खुद को नहीं जानते, और हम खुद से घृणा करने की हद तक नहीं पहुँचे हैं।) तुम लोग बहुत दूर हो। खुद को जानने का मुख्य अर्थ है अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी प्राथमिकताओं और अपने गलत विचारों और व्यवहारों को जानना। यह कुंजी है, और आत्म-ज्ञान के अन्य पहलू गौण हैं। तुम केवल तभी सत्य स्वीकार सकते हो और सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हो जब तुम स्वीकारो कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, कि तुममें वे सभी प्रकृति सार और भ्रष्टता के प्रकाशन हैं जिन्हें परमेश्वर ने लोगों में उजागर किया है, और जब तुम उन्हें साफ-साफ सूचीबद्ध कर सको और स्वीकार सको कि ये सभी विशिष्ट तथ्य, व्यवहार और प्रकाशन सत्य के विपरीत हैं, सभी परमेश्वर के विरुद्ध हैं, और सभी से परमेश्वर को बेइंतहा नफरत है। आजकल, जब लोग सत्य स्वीकारने का दावा करते हैं, तो वे बस सिद्धांततः इसे स्वीकार रहे होते हैं और कुछ हद तक अपने व्यवहार को बदल रहे होते हैं। लेकिन इसके बाद भी, वे शैतानी भ्रष्ट स्वभावों को जीते हैं और शैतानी फलसफे के अनुसार जीते हैं; वे बिल्कुल भी नहीं बदलते। व्यवहार में परिवर्तन स्वभाव में परिवर्तन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। अपने स्वभाव को बदलने के लिए, अपने स्वयं के प्रकृति सार और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना चाहिए—यह शुरुआती कदम है। जो केवल इतना ही पहचानता है कि उसके अपने क्रियाकलापों में समस्या है, कि वह अच्छा व्यक्ति नहीं है, या कि वह एक दानव और एक शैतान है, वह अभी भी अपने प्रकृति सार को जानने और अपने स्वभाव को बदलने से बहुत दूर है।

अंश 44

अगर लोग खुद को जानना चाहते हैं, तो उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना होगा और अपनी वास्तविक दशाओं के बारे में गहरी पकड़ बनानी होगी। अपनी दशा को समझने में सबसे महत्वपूर्ण चीज है अपनी सोच और विचारों की गहरी पकड़ होना। हर अवधि में, एक व्यक्ति की सोच और उसके विचार एक मुख्य चीज द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। अगर तुम अपनी सोच और विचारों पर पकड़ बना सकते हो, तो तुम उन चीजों पर भी पकड़ बना पाओगे जो उनके पीछे होती हैं। कोई अपनी सोच और विचारों को नियंत्रित नहीं कर सकता। लेकिन, तुम्हारे लिए यह जानना आवश्यक है कि ऐसी सोच और विचार कहां से आते हैं, उनके पीछे की मंशाएँ क्या हैं, वे कैसे उत्पन्न होते हैं, उन पर किस चीज का शासन है, और उनकी प्रकृति क्या है। जब किसी व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है, तो उसके बाद वह व्यक्ति अपने बदले हुए इस भाग से उत्पन्न हुई जिस सोच, विचारों, दृष्टिकोणों और लक्ष्यों का अनुसरण करता है, वे बहुत भिन्न होंगे। वे मूल रूप से सत्य की ओर जाएंगे और सत्य के अनुरूप रहेंगे। लोगों के भीतर जो चीजें बदली नहीं हैं, यानी उनकी पुरानी सोच, विचार, और दृष्टिकोण, साथ ही वे चीजें जिन्हें वे पसंद करते हैं और जिनका अनुसरण करते हैं, वे गंदी, कुत्सित और घिनौनी होती हैं। सत्य को समझ लेने के बाद, लोग इन चीजों का भेद पहचानने और इन्हें स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाते हैं। इसलिए, वे इन चीजों के खिलाफ विद्रोह कर पाते और इन्हें छोड़ पाते हैं। इस तरह के लोग निश्चित रूप से किसी न किसी तरह के बदलाव से गुजरे हैं। वे सत्य को स्वीकारने और उसे अभ्यास में लाने और कुछ सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में समर्थ हो जाते हैं। जो सत्य को नहीं समझते हैं, वे इन भ्रष्ट या नकारात्मक चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और वे उनका भेद नहीं पहचान सकते हैं। इसलिए, वे इन चीजों को छोड़ नहीं पाते, इनके खिलाफ विद्रोह करना तो दूर की बात है। इस अंतर का कारण आखिर क्या है? ऐसा क्यों है कि वे सब विश्वासी हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही लोग नकारात्मक और गंदी चीजों का भेद पहचान सकते हैं और उन्हें अस्वीकार कर सकते हैं, जबकि दूसरे इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते या खुद को उनसे छुड़ा नहीं पाते हैं? यह सीधे तौर पर इस बात से जुड़ा है कि क्या व्यक्ति सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है। जब वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं, कुछ अवधि तक परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, प्रवचनों को सुनते हैं, तब वे सत्य को समझ पाते हैं और कुछ चीजों को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। वे अपने जीवन में प्रगति करेंगे। इसके विपरीत, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे भले ही उसी भांति सभाओं में जाएं, परमेश्वर के वचनों को पढ़ें, और प्रवचनों को सुनें, मगर वे सत्य को जान पाने में असमर्थ रहते हैं और चाहे वे कितने ही वर्षों से विश्वासी रहे हों, उन्हें जीवन प्रवेश प्राप्त नहीं होता है। ये लोग असफल होते हैं क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते वे सत्य को समझने में असमर्थ रहते हैं, चाहे उन्होंने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो। जब उनका किसी हालात से सामना होता है तो वे उसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, और वे काफी हद तक धार्मिक लोगों से अलग नहीं होते। अपनी वर्षों की आस्था से उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है। अब तुम लोग कितना सत्य समझते हो? तुम क्या स्पष्ट रूप से देख सकते हो? क्या तुम नकारात्मक चीजों और लोगों का भेद पहचान सकते हो? अगर तुम इस बात को लेकर भी उलझन में हो कि परमेश्वर में विश्वास करना क्या होता है, न ही यह जानते हो कि तुम वास्तव में किसमें विश्वास करते हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से अपने दैनिक जीवन के विचारों और इरादों का भेद नहीं पहचान सकते, अगर तुम्हें पूरी तरह से यह भी पता नहीं है कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में तुम्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए और अगर तुम्हें यह स्पष्ट नहीं है कि अपने कामकाज करते हुए या कर्तव्य निभाते समय तुम्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें कोई जीवन प्रवेश नहीं है। केवल सही अर्थों में सत्य को समझकर, और यह जानकर कि सत्य पर कैसे चलना है, तुम विभिन्न तरह के लोगों को पहचान सकते हो, विभिन्न मामलों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो, सत्य के अनुरूप काम कर सकते हो, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हो और परमेश्वर के इरादों के सर्वाधिक करीब हो सकते हो। केवल इस तरह से अनुसरण करके ही तुम परिणाम प्राप्त करोगे।

अंश 45

इंसान में अक्सर कुछ नकारात्मक दशाएँ होती हैं। उनमें से कुछ दशाएँ लोगों को प्रभावित कर सकती हैं या उन्हें बाधित कर सकती हैं। कुछ दशाएँ व्यक्ति को सच्चे मार्ग से भटकाकर गलत दिशा में ले जा सकती हैं। लोग किसका अनुसरण करते हैं, किस पर ध्यान देते हैं, और किस मार्ग को चुनते हैं—ये सब उनकी आंतरिक दशाओं से जुड़ा होता है। लोग कमजोर हैं या मजबूत, यह और भी अधिक सीधे-सीधे उनकी आंतरिक दशाओं से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, बहुत-से लोग अब परमेश्वर के दिन पर विशेष रूप से जोर देते हैं। उन सबकी यही इच्छा है : वे इसके लिए लालायित हैं कि परमेश्वर का दिन जल्दी से आ जाए ताकि वे खुद को इस कष्ट से, इन बीमारियों से, इस उत्पीड़न से और अन्य प्रकार की पीड़ाओं से मुक्त कर सकें। लोग सोचते हैं कि जब परमेश्वर का दिन आएगा तो वे उन दुख-तकलीफ़ों से मुक्त हो जाएंगे जिन्हें वे अभी भोग रहे हैं, उन्हें फिर कभी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा, और वे आशीषों का आनंद ले पाएंगे। अगर कोई इस तरह की मनोस्थिति में परमेश्वर को समझने का प्रयास करता है या सत्य का अनुसरण करता है, तो उसकी जीवन प्रगति बहुत सीमित होगी। जब उन्हें कोई असफलता मिलती है या उनके साथ कुछ अप्रिय होता है तो उनके भीतर की सारी कमजोरी, सारी नकारात्मकता और विद्रोहशीलता बाहर आ जाती है। तो अगर किसी की दशा असामान्य या गलत है, तो उसके अनुसरण का लक्ष्य भी गलत होगा और निश्चय ही नापाक होगा। कुछ लोग गलत दशाओं से प्रवेश का अनुसरण करते हो, मगर फिर भी वे सोचते हैं कि वे अपने अनुसरण में अच्छा कर रहे हैं, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप काम कर रहे हैं, और सत्य के अनुरूप अभ्यास कर रहे हैं। वे यह नहीं मानते कि वे परमेश्वर की इच्छाओं के विरुद्ध जा चुके हैं या उसके इरादों से भटक गए हैं। तुम ऐसा महसूस कर सकते हो, लेकिन जब कोई अप्रिय घटना या माहौल तुम्हें कष्ट देता है, तुम्हारे संवेदनशील बिंदुओं को और उन चीजों को छूता है जिनसे तुम्हें प्रेम है और जिनका तुम दिल की गहराइयों से अनुसरण करते हो, तो तुम नकारात्मक हो जाओगे, तुम्हारी उम्मीदें और आकांक्षाएँ टूट जाएँगी और तुम स्वाभाविक रूप से कमजोर हो जाओगे। तो उस समय तुम्हारी दशा तय करती है कि तुम मजबूत हो या कमजोर। अभी तो बहुत-से ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि वे बहुत मजबूत हैं, उनके पास थोड़ा आध्यात्मिक कद है, और उनके अंदर पहले से कहीं ज्यादा आस्था है। उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग को अपनाया है और उन्हें उस पर चलने के लिए खींच-तान करने को दूसरे लोगों की जरूरत नहीं है। इस मामले में, जब वे खास परिस्थितियों का सामना करते हैं या मुश्किल में पड़ते हैं, तो वे नकारात्मक या कमजोर क्यों हो जाते हैं? फिर वे शिकायत करते हुए अपनी आस्था क्यों त्याग देते हैं? यह दर्शाता है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कुछ नकारात्मक और असामान्य दशाएँ होती हैं। कुछ अशुद्धियों को छोड़ना मनुष्य के लिए आसान नहीं होता। भले ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो भी तुम उन्हें पूरी तरह नहीं छोड़ सकते। इसे अवश्य परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर करना चाहिए। अपनी स्वयं की दशाओं पर चिंतन-मनन करने के बाद लोगों को परमेश्वर के वचन से उनकी तुलना अवश्य करनी चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना चाहिए। केवल तभी धीरे-धीरे उनकी दशाएँ बदलेंगी। ऐसा नहीं है कि जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे, और अपनी दशाओं के बारे में जानेंगे, तो वे तुरंत ही उन्हें बदल पाएंगे। अगर लोग अक्सर परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे, अपनी दशाओं को स्पष्ट रूप से देखेंगे, और परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य की दिशा में प्रयत्न करेंगे, तो जब भविष्य में वे फिर से भ्रष्टता दिखाएँगे, या जब वे किसी असामान्य दशा में होंगे तो वे उसे पहचानने में सक्षम हो पाएंगे, और वे परमेश्वर से प्रार्थना करने में समर्थ हो पाएंगे, और समस्या को हल करने के लिए सत्य का इस्तेमाल कर पाएंगे और उनकी गलत दशा पूरी तरह परिवर्तित हो सकेगी और वे धीरे-धीरे बदल पाएंगे। इस तरह, वे अशुद्धियों और उन चीजों को छोड़ने में समर्थ हो पाएंगे जिन्हें छोड़ देना चाहिए, जिन्हें लोग अपने भीतर पाले रहते हैं। परिणाम पाने से पहले लोगों के पास एक निश्चित स्तर का अनुभव होना चाहिए।

परमेश्वर में अपने विश्वास के आरंभ से ही, बहुत-से लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर आशीष पाने के पीछे भागते हैं, और जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं। वे परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं और उसे लेकर धारणाएँ बना लेते हैं या गलतफहमियां पाल लेते हैं। अगर कोई सत्य पर उनके साथ संगति नहीं करता है, तो वे दृढ़ नहीं बने रह पाएंगे और वे किसी भी पल परमेश्वर से विश्वासघात कर सकते हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं। मान लो कि किसी ने परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर हमेशा से धारणाएँ और कल्पनाएं पाल रखी हैं। इस व्यक्ति का मानना है कि अगर वह अपने परिवार का त्याग करके अपने कर्तव्य को करता है, तो परमेश्वर उसकी रक्षा करेगा और उसे आशीष देगा, और उसके परिवार का ध्यान रखेगा, और परमेश्वर को यही तो करना चाहिए। फिर किसी दिन उसके साथ कुछ ऐसा हो जाता है जो वह नहीं चाहता था—वह बीमार पड़ जाता है। अपने मेजबान परिवार के साथ रहना इतना आरामदेह नहीं है जितना अपने खुद के घर में रहना होता और शायद वे उसका बहुत अच्छी तरह ध्यान भी नहीं रखते। वह इसे सहन नहीं कर पाता है, और लंबे समय के लिए नकारात्मक और निराश हो जाता है। वह सत्य का अनुसरण भी नहीं करता, और सत्य को स्वीकार भी नहीं करता। इसका मतलब है कि लोगों के भीतर कुछ दशाएँ होती हैं, और अगर वे इन्हें न तो पहचानें, न इनके प्रति जागरूक हों और न ही यह महसूस करें कि ये दशाएँ गलत हैं, तो भले ही उनके भीतर अभी भी जुनून हो, वे बहुत कुछ अनुसरण करते हों, मगर किसी न किसी बिंदु पर उनका सामना किसी ऐसी परिस्थिति से होगा जो उनकी आंतरिक दशा को प्रकट कर देगी और उन्हें लड़खड़ाकर गिरा देगी। आत्मचिंतन करने या खुद को जानने में सक्षम नहीं होने का यही नतीजा होता है। वे सभी लोग जो सत्य को नहीं समझते हैं, ऐसे ही होते हैं; तुम नहीं जानते कि वे कब लड़खड़ाकर गिर जाएंगे, कब वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएंगे या कब वे परमेश्वर से विश्वासघात कर सकते हैं। देख लो, जो लोग सत्य को नहीं समझते, उन्हें कितना खतरा का सामना करना पड़ता है! लेकिन सत्य को समझना सरल बात नहीं है। इसमें बहुत समय लगता है जब तुम अंततः प्रकाश की हल्की सी झलक पा सको, रत्ती भर भी सच्चा ज्ञान पा सको, और जरा से भी सत्य को समझ सको। अगर तुम्हारे इरादे बुरी तरह से दूषित हैं और उनका समाधान नहीं किया जा सकता, तो वे कभी भी तुम्हारे ज्ञान के हल्के से प्रकाश को बुझा देंगे, तुम्हारी मामूली सी आस्था को भी धीरे-धीरे कम कर देंगे और यह निश्चित रूप से बहुत खतरनाक है। फिलहाल तो अहम मुद्दा यह है कि सभी लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर कुछ निश्चित धारणाएँ और कल्पनाएं होती हैं, लेकिन जब तक उनका खुलासा नहीं होता, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते; वे अंदर ही छिपी रहती हैं, और तुम नहीं जानते कि किस समय, या किन परिस्थितियों में वे बाहर आ जाएंगी और लोगों को लड़खड़ा देंगी। भले ही सबकी इच्छाएँ अच्छी होती हैं, और वे अच्छे विश्वासी बनना और सत्य को पाना चाहते हैं, मगर उनके इरादे बहुत अधिक दूषित होते हैं, और उनमें बहुत सी धारणाएँ और कल्पनाएं होती हैं जो उनके सत्य का अनुसरण करने और जीवन प्रवेश पाने में भारी बाधा डालती हैं। वे ये चीजें करना चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते। उदाहरण के लिए, लोगों के लिए तब समर्पण करना मुश्किल हो जाता है जब उनके साथ काट-छांट की जाती है; जब उनके परीक्षण होते हैं या उनका शोधन किया जाता है, तब वे परमेश्वर से बहस करना चाहते हैं। जब भी वे बीमार पड़ते हैं या किसी आपदा का सामना करते हैं तो वे अपनी रक्षा न करने के लिए परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं। इस तरह के लोग कैसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकते हैं? वे परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल होने के न्यूनतम मानक तक भी नहीं पहुँच पाते, तो वे सत्य को कैसे पा सकते हैं? कुछ लोग छोटी से छोटी चीज के भी उनके अनुरूप न होने पर नकारात्मक हो जाते हैं; वे दूसरे लोगों की आलोचना के कारण लड़खड़ा जाते हैं और गिरफ्तार होने पर परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं। यह तो सच है कि तुम कभी नहीं जान सकते कि भविष्य में क्या होना है, सुख मिलेगा या बर्बादी आएगी। हर व्यक्ति के अंदर ऐसा कुछ होता है जिसके पीछे वह जाना और उसे पाना चाहता है; उनके पास ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें पसंद होती हैं। ऐसी चीजों के पीछे जाना जो उन्हें पसंद होती हैं, उनके लिए दुर्भाग्य ला सकती है, लेकिन वे इसे महसूस नहीं करते, वे अभी भी यही मानते हैं कि जिन चीजों का वे अनुसरण करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं, वे सही हैं और इन चीजों में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर किसी दिन दुर्भाग्य आ पड़ता है और वे चीजें जिनके लिए वे कोशिश करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं उनसे छीन ली जाती हैं, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं और वापसी नहीं कर पाते। वे जान नहीं पाएंगे कि क्या हुआ था, वे अन्यायी होने के लिए परमेश्वर के बारे में शिकायत करेंगे, और परमेश्वर के विरुद्ध उनके विश्वासघात की भावना सामने आ जाएगी। अगर लोग खुद को नहीं जानेंगे, तो वे समझ नहीं पाएंगे कि उनकी घातक कमजोरी क्या है, न ही वे यह समझ पाएंगे कि उनके लिए कहां असफल होना या लड़खड़ाना आसान होगा। यह वाकई दयनीय है। इसीलिए हम कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति खुद को नहीं जानता है तो वह कभी भी लड़खड़ा सकता है या असफल हो सकता है और खुद को बरबाद कर सकता है।

बहुत-से लोगों ने कहा है : “मैं सत्य के हर पक्ष को समझता हूं, मगर मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता।” यह लोगों के सत्य का अभ्यास न करने के मूल कारण को उजागर करता है। वे किस तरह के लोग हैं जो सत्य को समझते तो हैं पर फिर भी उसका अभ्यास नहीं कर सकते? निश्चित रूप से, केवल वही लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते हैं जो सत्य से विमुख हो गए हैं और उससे घृणा करते हैं, और यह समस्या उनकी प्रकृति में है। सत्य को न समझ पाने वाले लोग भी यदि सत्य से प्रेम करते हैं, तो वे अपनी अंतरात्मा के अनुसार काम करेंगे और कोई बुरा काम नहीं करेंगे। अगर किसी व्यक्ति की प्रकृति सत्य से विमुख हो गई है, तो वह कभी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाएगा। जो लोग सत्य से विमुख हो चुके हैं, वे केवल परमेश्वर की आशीष पाने के लिए उसमें विश्वास करते हैं, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के लिए नहीं। यदि वे अपने कर्तव्यों को करते भी हैं, तो ऐसा सत्य को पाने की खातिर नहीं होता बल्कि पूरी तरह से आशीष पाने के लिए होता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जिन पर अत्याचार होता है और वे अपने घरों को नहीं लौट पाते हैं, अपने हृदय में सोचते हैं, “परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण मुझ पर जुल्म हुआ है और मैं अपने घर नहीं लौट सकता। एक दिन परमेश्वर मुझे एक बेहतर घर देगा; परमेश्वर मुझे व्यर्थ ही कष्ट नहीं भोगने देगा,” या “मैं जहां भी हूं, परमेश्वर मुझे खाने के लिए भोजन देगा, और वह मुझे किसी अंधी गली में नहीं जाने देगा। अगर वह मुझे किसी अंधी गली में जाने देगा, तो वह वास्तविक परमेश्वर नहीं होगा। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा।” क्या ऐसी चीजें मनुष्य के भीतर मौजूद नहीं होतीं? कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवार का त्याग कर दिया है और अब परमेश्वर को मुझे उन लोगों के हाथों में नहीं छोड़ना चाहिए जो सत्ताधारी हैं; मैंने इतने उत्साह से अनुसरण किया है, परमेश्वर को मेरी रक्षा कर मुझे आशीष देनी चाहिए। हम परमेश्वर के दिन के आगमन की इतनी कामना करते हैं, तो परमेश्वर का दिन जल्द से जल्द आ जाना चाहिए। परमेश्वर को मनुष्य की इच्छाओं को पूरा करना चाहिए।” बहुत-से लोग इस प्रकार सोचते हैं—क्या यह मनुष्य की अतिवादी इच्छा नहीं है? लोगों ने हमेशा परमेश्वर से अतिवादी माँगें की हैं, हमेशा ऐसा सोचा है : “हमने अपने कर्तव्यों को करने के लिए अपने परिवारों का त्याग किया है, तो परमेश्वर को हमें आशीष देनी चाहिए। हमने परमेश्वर की माँगों के अनुरूप काम किया है, इसलिए परमेश्वर को हमें पुरस्कृत करना चाहिए।” बहुत-से लोग परमेश्वर में विश्वास करते हुए इस तरह की बातों को अपने दिल में पालते हैं। वे दूसरे लोगों को स्वयं को परमेश्वर की खातिर खपाने के लिए बड़ी सहजता से अपने परिवारों से दूर जाते और सब कुछ त्याग करते देखते हैं, और सोचते हैं, “उन्होंने इतने समय से अपने परिवारों को छोड़ा हुआ है, ऐसा कैसे कि वे अपने परिवारों को याद नहीं करते? वे इस स्थिति से कैसे उबरते हैं? मैं इससे कैसे नहीं उबर सकती? ऐसा कैसे कि मैं अपने परिवार को, पति (या पत्नी) को, और बच्चों को नहीं छोड़ सकती? ऐसा कैसे कि परमेश्वर उन पर मेहरबान है लेकिन मुझ पर नहीं है? पवित्र आत्मा मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करता या मेरे साथ क्यों नहीं रहता?” यह कैसी दशा है? लोगों में समझ का कितना अभाव है; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और फिर वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, और वे वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए। लोगों को सत्य का अनुसरण करने वाले मार्ग को चुनना चाहिए, लेकिन वे सत्य से विमुख हो गए हैं, वे दैहिक सुखों की लालसा रखते हैं और हमेशा आशीष पाना और कृपाओं का सुख भोगना चाहते हैं, साथ ही शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर की मनुष्य से बहुत अधिक माँगें हैं। वे परमेश्वर से अपेक्षा करते रहते हैं कि वह उनके प्रति कृपालु हो और उन पर और अधिक कृपा बरसाए, और उन्हें दैहिक सुखों का अनुभव करने की अनुमति दे—क्या ये लोग सच्चे दिल से परमेश्वर में विश्वास करते हैं? वे सोचते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए अपने परिवार का त्याग कर दिया है और मैंने इतने कष्ट भोगे हैं। परमेश्वर को मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए, ताकि मैं घर को याद न करूँ और ताकि मुझमें त्याग करने का संकल्प रहे। उसे मुझे शक्ति प्रदान करनी चाहिए, फिर मैं नकारात्मक और कमजोर नहीं बनूँगा। दूसरे लोग इतने मजबूत हैं, परमेश्वर को मुझे भी मजबूत बनाना चाहिए।” ये शब्द जो लोग बोलते हैं, पूरी तरह से विवेक और आस्था से रहित हैं। ये इसलिए बोले जाते हैं कि लोगों की अतिवादी माँगें पूरी नहीं हुई हैं, जिसने उन्हें परमेश्वर के प्रति असंतोष से भर दिया है। ये वे बातें हैं जो उनके हृदयों से प्रकट होती हैं, और वे पूरी तरह से लोगों की प्रकृति को दर्शाती हैं। ये चीजें लोगों के अंदर बसी होती हैं, और अगर इन्हें त्यागा न जाए, तो वे कभी भी और कहीं भी लोगों को परमेश्वर को लेकर शिकायतें करने और उसे गलत समझने की ओर ले जा सकती हैं। बहुत संभावना है कि लोग ईशनिंदा करें और वे किसी भी पल और किसी भी स्थान पर सच्चे मार्ग को छोड़ सकते हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। क्या अब तुम लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से देखते हो? लोगों को उन चीजों को जानना चाहिए जो उनकी प्रकृति से प्रकट होती हैं। यह बहुत ही गंभीर मामला है जिसके साथ गंभीरता से पेश आना चाहिए, क्योंकि यह इस मुद्दे को स्पर्श करता है कि लोग अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे या नहीं, और इस मुद्दे को कि क्या वे परमेश्वर में अपने विश्वास में उद्धार पा सकेंगे या नहीं। जहां तक उन लोगों की बात है जो थोड़ा सा सत्य समझते हैं, अगर वे यह समझें कि उनके भीतर ये चीजें प्रकट हो रही हैं, और अगर इस समस्या का पता चलने पर, वे इसकी छानबीन कर सकें और इसकी गहराई में जा सकें, तो वे इस समस्या को हल करने में सक्षम होंगे। अगर वे यह नहीं समझेंगे कि उनके अंदर ये चीजें प्रकट हो रही हैं, तो उनके लिए इस समस्या को हल कर पाने का कोई तरीका नहीं होगा, और वे केवल परमेश्वर के प्रकाशन या तथ्यों के खुलासे की ही प्रतीक्षा कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे आत्म-परीक्षण को महत्व नहीं देते। वे हमेशा यही मानते हैं कि यह एक महत्वहीन चीज है और वे यह सोचकर बहाने बनाते हैं, “सब लोग ऐसे ही होते हैं—थोड़ी-बहुत शिकायत करना कोई बड़ी बात नहीं है। परमेश्वर इसे क्षमा कर देगा और इसे याद नहीं रखेगा।” लोग नहीं जानते कि आत्मचिंतन कैसे करें या समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य कैसे खोजें, वे इनमें से किसी भी चीज का अभ्यास नहीं कर सकते। वे सभी भ्रमित और विशेष रूप से आलसी हैं, साथ ही वे किसी पर निर्भर रहते हैं और कल्पनाओं में डूबे रह सकते हैं। वे कामना करते हैं : “एक दिन परमेश्वर हमारे भीतर आमूलचूल परिवर्तन लाएगा, और फिर हम ऐसे आलसी नहीं रह जाएँगे, हम पूरी तरह से पवित्र हो जाएँगे, और परमेश्वर की शक्ति को ऊँचा मानेंगे।” कल्पना करने के लिए यह एकदम बेतुकी चीज है और यह सच में अवास्तविक है। अगर इतने सारे प्रवचन सुनने के बाद भी कोई व्यक्ति इस तरह की धारणा व्यक्त कर सकता है और ऐसी कल्पनाएं कर सकता है, तो उसे परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है, और आज भी, वह स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया है कि परमेश्वर किस तरह लोगों को बचाता है। इस तरह के लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। परमेश्वर का घर क्यों हमेशा खुद को जानने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने के बारे में संगति करता है? यह हर व्यक्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगर तुम वाकई स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि परमेश्वर किस तरह लोगों को बचाता है, तो तुम्हें खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और तुम्हें नियमित रूप से आत्मचिंतन करना चाहिए—तभी तुम्हें वास्तविक जीवन प्रवेश मिलेगा। जब तुम्हें एहसास होगा कि तुम भ्रष्टता दिखा रहे हो, तो क्या तुम सत्य की खोज कर पाओगे? क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर पाओगे और देह के खिलाफ विद्रोह कर पाओगे? सत्य का अभ्यास करने के लिए यह पहली शर्त है, और यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है। अगर जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, और जो कुछ भी तुम करते हो, उन सबमें तुम इससे अवगत रह सकते हो कि कैसे इस तरह से अभ्यास करें जो सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान हो जाएगा, और तुम जीवन प्रवेश पा सकोगे। अगर तुम खुद को जानने में समर्थ नहीं हो, तो तुम्हारा जीवन कैसे प्रगति कर सकता है? भले ही तुम कितने भी नकारात्मक और कमजोर हो, अगर तुम आत्मचिंतन नहीं करते और खुद को नहीं जान पाते हो या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो, तो इससे बस यही साबित होता है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम कभी सत्य को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे।

पहले, कुछ लोग सोचते थे : “हम बड़े लाल अजगर के शीघ्र पतन की कामना करते हैं और हमें आशा है कि परमेश्वर का दिन शीघ्र ही आएगा। क्या ये उचित माँगें नहीं हैं? क्या परमेश्वर के दिन के शीघ्र आने की कामना करना वैसा ही नहीं है जैसा कि यह कामना करना कि परमेश्वर की महिमा जितनी जल्दी हो सके लाई जाए?” वे गुपचुप रूप से इसे व्यक्त करने के लिए कुछ अच्छे लगने वाले तरीके ढूंढ़ लेते हैं, लेकिन वास्तव में, वे इन चीजों की स्वयं अपने लिए आशा कर रहे होते हैं। अगर वे अपनी खातिर इसकी कामना नहीं कर रहे होते, तो किस चीज की कामना करते? लोग बस यही कामना करते हैं कि जल्दी से अपनी दुखद स्थितियों और इस दर्द भरी दुनिया से मुक्त हो जाएं। कुछ लोग विशेष रूप से ऐसे होते हैं जो पूर्व में परमेश्वर के पहलौठे पुत्रों को दिए गए वादों को देखते हैं और इसके लिए उनके अंदर गहरी प्यास जग जाती है। वे जब भी उन शब्दों को पढ़ते हैं, तो यह मरीचिका को देखकर अपनी तृष्णा को शांत करने जैसा होता है। मनुष्य की स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ अभी पूरी तरह त्यागी नहीं गई हैं, इसलिए तुम चाहे जैसे भी सत्य का अनुसरण करो, इसमें हमेशा पूर्ण प्रयास की कमी रहेगी। बहुत-से लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, हमेशा परमेश्वर के दिन के आने की कामना करते हैं ताकि वे अपने कष्टों से मुक्त हो सकें और स्वर्ग के राज्य की आशीषों का आनंद ले सकें। जब यह नहीं आता है, तो वे पीड़ा से भर जाते हैं, और कुछ लोग चिल्लाते हैं : “परमेश्वर का दिन कब आएगा? मेरा अभी तक विवाह भी नहीं हुआ है, मैं अब और इंतजार नहीं करता रह सकता! मुझे अपने माता-पिता के प्रति संतान का धर्म निभाना है, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता! मुझे अभी संतान पैदा करनी है ताकि वे मेरे वृद्ध होने पर मेरी देखभाल करें! परमेश्वर का दिन जल्दी से आना चाहिए! हम सब मिलकर इसके लिए प्रार्थना करें!” जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्होंने बिना कोई शिकायत किए अब तक का सफर कैसे तय किया है? क्या परमेश्वर के वचन उनका मार्गदर्शन नहीं करते और उन्हें परमेश्वर के वचन का पूरा साथ नहीं मिलता? लोगों के भीतर बहुत सारी अशुद्धियां होती हैं, क्या शोधन को स्वीकार न करना उनके लिए व्यवहार्य है? वे कष्ट पाए बिना कैसे बदल सकते हैं? लोगों को कुछ हद तक शोधित किया जाना चाहिए और उन्हें आगे बिना कोई शिकायत किए परमेश्वर को अपना आयोजन करने देने के लिए इच्छुक रहना चाहिए—तभी वे पूरी तरह से बदल पाएँगे।

अंश 46

भ्रष्ट मानवजाति में लोगों का प्रकृति सार एक जैसा होता है, सिवाय उन लोगों के जिन्होंने बुरे राक्षसों से पुनर्जन्म लिया है या जो दुष्ट आत्माओं के कब्जे में हैं। कुछ लोग हमेशा यह अध्ययन करना पसंद करते हैं कि विभिन्न लोगों के अंदर किस तरह की आत्माएँ होती हैं, लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है; इस पर ध्यान केंद्रित करना आसानी से भटकावों की ओर ले जा सकता है। कुछ लोगों को हमेशा ऐसा लगता है कि उनमें सही तरह की आत्मा नहीं है क्योंकि उन्हें कुछ अलौकिक घटनाओं के अनुभव हुए हैं, जबकि कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी आत्मा में कोई समस्या है क्योंकि वे कभी नहीं बदल सकते। वास्तव में किसी की आत्मा के साथ समस्या हो या न हो, मानवीय प्रकृति समान ही होती है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके साथ विश्वासघात करती है। लोगों की भ्रष्टता की सीमा भी काफी कुछ समान होती है तो उसी प्रकार उनकी प्रकृति में साझा विशेषताएँ भी काफी कुछ समान होती हैं। कुछ लोग हमेशा यह संदेह करते हैं कि उनमें सही प्रकार की आत्मा नहीं होती है और सोचते हैं, “मैं कैसे ऐसी चीज कर सकता हूँ? मैं तो ऐसा कभी सोच भी नहीं सकता था! क्या मुझमें सही तरह की आत्मा नहीं है?” उन्हें यह भी संदेह होने लगता है कि उन्हें परमेश्वर ने चुना भी है या नहीं, और परिणामस्वरूप वे और अधिक नकारात्मक हो जाते हैं। कुछ लोग चीजों को शुद्ध रूप में समझते हैं और उन्होंने चाहे कुछ भी किया हो, वे बस सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्मचिंतन करते हैं : “मैं ऐसा कैसे कर सका? मैंने कैसा स्वभाव प्रकट किया? इसे कैसी प्रकृति नियंत्रित करती है? मैं सत्य के अनुसार कैसे काम कर सकता हूँ?” इस तरह आत्मचिंतन करने से तुम आसानी से सत्य समझ सकते हो और अभ्यास का एक मार्ग ढूँढ़ सकते हो और तुम खुद को जानने का नतीजा भी प्राप्त कर सकते हो। आत्मपरीक्षण के सबके तरीके और मार्ग भिन्न होते हैं; कुछ लोग सत्य को खोजने और खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि दूसरे लोग हमेशा काल्पनिक और अवास्तविक चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे प्रगति करना मुश्किल और नकारात्मकता में फँस जाना आसान हो जाता है। तुम्हें अब यह समझने की जरूरत है कि तुम्हारे पास चाहे जैसी भी आत्मा हो, तुम्हें इस मामले पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। कोई भी आत्मा की चीजों को देख या छू नहीं सकता। अगर तुम इस मामले पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हो तो यह तुम्हारी जीवन संवृद्धि में विलंब करेगा। ध्यान केंद्रित करने के लिए अहम चीज है लोगों का प्रकृति सार, जिसका संबंध लोगों का भेद पहचानने से है और अगर तुम लोगों के प्रकृति सार का भेद पहचान सकते हो तो तुम लोगों का भेद भी पहचान सकते हो। स्पष्ट रूप से यह देखकर कि किसी के प्रकृति सार में क्या चीजें मौजूद हैं, इससे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव बेनकाब किए जा सकते हैं, और उन्हें हल करने के लिए सत्य के कौन से पहलुओं की आवश्यकता होगी—परमेश्वर पर विश्वास करते समय इसी पर ध्यान केंद्रित करना सबसे महत्वपूर्ण है। इस तरीके से परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके ही तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो और अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध कर सकते हो। तुम खुद को कैसे जान सकते हो? तुम अपनी खुद की प्रकृति को कैसे जान सकते हो? तुम अपने क्रियाकलापों के जरिए जो स्वभाव प्रकट करते हो सिर्फ उसी के अनुसार यह देख सकते हो कि तुम्हारा प्रकृति सार क्या है, इसलिए खुद को जानने की कुंजी अपने ही भ्रष्ट स्वभाव को जानना है। सिर्फ इसी के जरिए तुम अपने प्रकृति सार को समझ पाओगे और अपने प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से देखना ही खुद को पूरी तरह से समझना है। खुद को जानना एक गहन सबक है और किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसकी कुंजी यह है कि वह खुद को कैसे जानता है। केवल जब कोई वास्तव में खुद को जान लेता है, तभी वह सच में पश्चात्ताप कर सकता है, आसानी से सत्य को स्वीकार कर सकता है, और उद्धार के मार्ग पर कदम रख सकता है। जो लोग खुद को नहीं जान पाते हैं, उनके लिए सत्य स्वीकार करना असम्भव है, सच में पश्चात्ताप करना तो दूर की बात है। इसलिए अहम मुद्दा अपना खुद का भ्रष्ट स्वभाव समझना है। लोगों को झूठी आध्यात्मिकता का अनुसरण बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। कुछ व्यक्ति हमेशा लोगों की आत्माओं का अध्ययन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि लोगों की आत्माएँ किस प्रकार की होती हैं—क्या किसी की मानवीय आत्मा है, क्या उसकी बुरी आत्मा है, इत्यादि। लोग इन चीजों की असलियत नहीं देख सकते हैं और हमेशा इन पर ध्यान केंद्रित करने से विचलन होने और लोगों के गुमराह होने और उन्हें नुकसान पहुँचने की प्रबल संभावना होती है। सत्य का अनुसरण करने में लोगों को खुद को जानने, अपने भ्रष्ट स्वभाव समझने और मनुष्य के प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से देखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह व्यावहारिक होता है और यह करना भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान करने और लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए लाभकारी होगा।

शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद लोगों का प्रकृति सार केवल मामूली अंतर के साथ मूल रूप से समान ही होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सबके पूर्वज समान हैं, एक ही संसार में रहते हैं, और उन्होंने समान भ्रष्टता का अनुभव किया है। वे सभी एक जैसे सामान्य लक्षण साझा करते हैं। फिर भी कुछ लोग एक माहौल में एक तरह के काम करने में सक्षम होते हैं, और कुछ लोग एक अन्य माहौल में अन्य किस्म के काम करने में सक्षम होते हैं; कुछ लोग कुछ हद तक शिक्षित हैं क्योंकि उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है, जबकि दूसरे लोग शिक्षित नहीं हैं क्योंकि उन्होंने शिक्षा प्राप्त नहीं की है; कुछ लोगों का चीजों के प्रति एक तरह का दृष्टिकोण होता है, जबकि कुछ दूसरे लोगों का चीजों के बारे में एक दूसरे तरह का नजरिया होता है; कुछ लोग एक तरह के सामाजिक परिवेश में रहते हैं, कुछ दूसरी तरह के सामाजिक परिवेश में रहते हैं, उनके पीढ़ियों से चले आ रहे रीति-रिवाज और रहन-सहन की आदतें भिन्न होती हैं। लेकिन लोगों की प्रकृति से जो चीजें बेनकाब होती हैं, उनका सार एक ही है। इसलिए इसकी कोई जरूरत नहीं है कि तुम हमेशा इस चिंता में लगे रहो कि तुम्हारे पास किस तरह की आत्मा है, या हमेशा चिंतित रहो कि कहीं वह दुष्ट आत्मा तो नहीं है। यह कुछ ऐसी चीज है जिस तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता और सिर्फ परमेश्वर ही इसे जान सकता है; अगर मनुष्य इसे जान भी सकता हो तो भी उसके लिए इसे जानना किसी काम का नहीं होगा। हमेशा अपनी आत्मा का गहन-विश्लेषण करने या उसका अध्ययन करने की चाह रखने का कोई लाभ नहीं है; ऐसा सबसे अज्ञानी और भ्रमित लोग करते हैं। जब तुम कुछ गलत करते हो या किसी तरह का अपराध करते हो तो यह कहकर खुद पर संदेह न करो : “क्या मुझमें सही तरह की आत्मा नहीं है? क्या मुझमें किसी बुरी आत्मा का कार्य है? मैं ऐसा बेतुका काम कैसे कर सकता था?” तुम चाहे जो भी करो, समस्या की जड़ में जाने के लिए तुम्हें अपनी प्रकृति को देखना चाहिए, और उन सत्यों को खोजना चाहिए जिनमें लोगों को प्रवेश करना चाहिए। अगर तुम अपनी आत्मा की जाँच करोगे, तो तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा—अगर तुम यह जान भी गए कि तुम्हारे अंदर किस तरह की आत्मा है, तो भी तुम अपनी प्रकृति नहीं जान पाओगे, न ही अपनी समस्याओं को हल कर पाओगे। इसलिए जब कुछ लोग हमेशा यह बात कर रहे होते हैं कि उनमें किस तरह की आत्मा होती है, मानो वे असाधारण रूप से आध्यात्मिक या पेशेवर हों तब दरअसल वे और भी ज्यादा अनाड़ी और मूर्ख होते हैं। कुछ लोग खासतौर पर आध्यात्मिक रूप से बोलते हैं, सोचते हैं कि उनके बोले हुए शब्द बहुत गहन हैं, और साधारण लोग उन्हें नहीं समझेंगे। वे कहते हैं, “यह महत्वपूर्ण है कि हम जाँच करें कि हमारी आत्माएँ क्या हैं। अगर हमारे अंदर मानव आत्माएँ नहीं हैं, तो फिर भले ही हम परमेश्वर में विश्वास रखते हों, हमें बचाया नहीं जा सकता। हमें परमेश्वर को नाराज नहीं करना चाहिए।” यह सुनकर कुछ लोग विषाक्त और गुमराह हो जाते हैं, गहराई से यह महसूस करते हैं कि ये शब्द तर्कपूर्ण हैं इसलिए वे भी यह जाँचना शुरू कर देते हैं कि उनमें किस तरह की आत्मा है। चूँकि वे अपनी आत्मा पर इतना विशेष ध्यान देते हैं कि वे बेहद संवेदनशील हो जाते हैं, कुछ भी करते समय अपनी आत्मा की जाँच करने लगते हैं और अंततः वे कोई समस्या खोज लेते हैं : “मैं जो भी करता हूँ उसमें मैं सत्य के विरुद्ध क्यों जाता हूँ? मेरे अंदर लेशमात्र भी मानवता या समझ क्यों नहीं है? मैं निश्चित रूप से एक बुरी आत्मा हूँ।” वास्तव में बुरी प्रकृति के साथ और सत्य के बिना लोग ऐसी कोई भी चीज कैसे कर सकते हैं जो सत्य के अनुसार हो? उनके क्रियाकलाप चाहे कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे अभी भी सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं और वे अभी भी परमेश्वर के प्रति विरोधीपूर्ण हैं। लोगों की प्रकृति बुरी है और यह शैतान द्वारा भ्रष्ट और संसाधित कर दी गई है; उनमें मानव के समान बस कुछ है ही नहीं, वे सिर्फ परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं और वे परमेश्वर से बहुत ही दूर हैं। वे संभवतः ऐसा कुछ नहीं कर सकते हैं जो परमेश्वर के इरादों के हिसाब से हो। उनकी जन्मजात प्रकृति में ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के अनुरूप हो। यह एकदम स्पष्ट है।

कुछ लोग हमेशा बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं और इस बात को बहुत महत्व देते हैं कि उनमें आध्यात्मिक समझ है या नहीं, या उनमें किस तरह की आत्मा है, और इस सबके दौरान अपनी प्रकृति को समझने की बात भुला ही देते हैं। यह तरबूज को गंवाकर तिल चुनने वाली बात है। क्या वास्तविक की अनदेखी करते हुए भ्रामक से चिपकना मूर्खता नहीं है? क्या तुमने अध्ययन के इन वर्षों में आत्मा की चीजों या जीवात्मा के मामलों को अच्छी तरह समझ लिया है? क्या तुमने देख लिया है कि तुम्हारी आत्मा कैसी है? तुम अपनी आत्मा की गहराई में बसे प्रकृति सार की सामग्री की छानबीन नहीं करते, बल्कि हमेशा यह अध्ययन करते रहते हो कि तुममें क्या आत्मा है, लेकिन क्या तुम्हारे अध्ययन से कोई नतीजा उत्पन्न होगा? क्या यह किसी नेत्रहीन व्यक्ति द्वारा मोमबत्ती जलाने और मोम बर्बाद करने जैसा ही नहीं है? तुम अपनी वास्तविक कठिनाइयों को दरकिनार कर देते हो और हल ढूँढ़ने का प्रयास नहीं करते, हमेशा टेढ़-मेढ़े अभ्यासों में लगे रहते हो और लगातार यह अध्ययन करते रहते हो कि तुम्हारी आत्मा किस तरह की है—क्या इससे कोई समस्या हल हो सकती है? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते या अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते, बल्कि हमेशा अपनी आत्मा का अध्ययन करते रहते हो तो तुम सबसे मूर्ख व्यक्ति हो। वाकई बुद्धिमान लोगों का रवैया यह होता है : “भले ही परमेश्वर कुछ भी करे या मुझसे कैसा भी व्यवहार करे, भले ही मैं कितना भी भ्रष्ट होऊं या मेरी मानवता कैसी भी हो, मैं सिर्फ अटल होकर सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को जानने का प्रयास करने पर ध्यान केन्द्रित करूँगा!” केवल परमेश्वर को जानकर ही व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकता है और परमेश्वर के इरादे पूरे करने के अपने कर्तव्य को पूरा कर सकता है; यही मानव जीवन की दिशा है, मनुष्यों को यही पाने की कोशिश करनी चाहिए और यही उद्धार का एकमात्र मार्ग है। तो, यथार्थवादी है सत्य का अनुसरण करना, अपनी भ्रष्ट प्रकृति को जानना, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने के लिए सत्य समझना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य को पूरा करना। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और सच में मानव के समान जीना—यही यथार्थवादी है। यथार्थवादी है परमेश्वर से प्रेम करना, परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना, और परमेश्वर का साक्षी बनना। परमेश्वर यही परिणाम चाहता है। उन चीजों पर शोध करना व्यर्थ है जिन्हें न तो छुआ जा सकता है न देखा जा सकता है। जो यथार्थवादी है उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है, और न ही परमेश्वर के कार्य के प्रभावों से कोई लेना-देना है। चूँकि अब तुम एक भौतिक शरीर में रहते हो, इसलिए तुम्हें खोजकर सत्य समझने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से करने, ईमानदार व्यक्ति बनने और अपने स्वभाव को बदलने का प्रयास करना चाहिए। ये वे चीजें हैं जो अधिकांश लोग प्राप्त कर सकते हैं।

कुछ लोगों में स्पष्ट रूप से बुरी आत्माओं का काम होता है और वे उनके शरीर पर हावी हो सकती हैं। क्या इस तरह का इंसान परमेश्वर में विश्वास करके बच सकता है? यह कहना मुश्किल है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे उचित रूप से कार्य करते हैं या नहीं और उनकी मानसिक स्थिति सामान्य होती है या नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या वे सत्य समझ सकते हैं और उसे अभ्यास में ला सकते हैं। अगर वे इस कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते, तो उन्हें किसी भी तरह से नहीं बचाया जा सकता। अब तुम सबके पास सामान्य समझ है, तुम सामान्य रूप से बात करते हो और तुमने किसी अलौकिक या असामान्य घटना का अनुभव नहीं किया है। हालाँकि कभी-कभी तुम्हारी दशाएँ थोड़ी असामान्य होती हैं और तुम्हारे काम करने के कुछ तरीके गलत होते हैं, मगर ये सब मानव प्रकृति के खुलासे हैं। वास्तव में, दूसरे लोगों के साथ भी ऐसा ही है—बस उनके खुलासों की पृष्ठभूमि और समय भिन्न होते हैं। ऐसा लगता है कि अभी तुम लोगों का कुछ आध्यात्मिक कद हो गया है और दूसरों को आत्मा के मामलों और कथनों के बारे में बोलते सुनने के बाद तुम भी उनकी नकल करते हो और उनका अनुसरण करते हो, मानो तुम आत्मा के मामलों को बहुत अच्छी तरह से समझते हो और बहुत ही महान व्यक्ति हो। आध्यात्मिक क्षेत्र की बातों को केवल परमेश्वर जानता और नियंत्रित करता है, और लोग परमेश्वर के वचनों के जरिये इसे थोड़ा भी समझ सकें तो यही बहुत है। कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र को पूरी तरह से कैसे समझ सकता है? क्या इन्हीं चीजों पर हमेशा सोचते रहने से भटक जाना आसान नहीं है? अब सभी लोगों के भीतर यह अवस्था है। तुम भले ही इन मामलों पर हमेशा गंभीरता से चर्चा न करो और हो सकता है कि तुम उनके कारण कमजोर नहीं हो गए हो या गिर नहीं पड़े हो, मगर फिर भी तुम दूसरों के इन शब्दों से अस्थायी रूप से प्रभावित हो सकते हो। भले ही तुम इस तरह के मामले पर बहुत ध्यान न दो, फिर भी तुम अपने दिल में आत्मा की चीजों पर ध्यान केंद्रित करने की ओर प्रवृत्त होते हो। अगर वह दिन आता है जब तुम सचमुच कुछ चीजें गलत कर बैठते हो, तुम्हें कोई असफलता मिलती है और तुम लड़खड़ा जाते हो तो तुम खुद पर शक करोगे, कहोगे : “क्या मेरी आत्मा भी गलत है?” तुम आमतौर पर कभी संदेह नहीं करते, और दूसरों को संदेह से ग्रस्त देखकर सोचते हो कि वे बेतुके हैं। लेकिन अगर ऐसा दिन आता है जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, या कोई और कहता है कि तुम शैतान हो, या कि तुम बुरी आत्मा हो, तो तुम भी इस पर विश्वास कर लोगे, और उनकी ही तरह तुम भी संदेह से ग्रस्त हो जाओगे, और खुद को उससे निकाल पाने में असमर्थ होगे। वास्तव में, अधिकांश लोग इस समस्या से आसानी से प्रभावित हो सकते हैं, वे आत्मा के मामलों को अविश्वसनीय रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं और अपनी प्रकृति को समझने या जीवन प्रवेश जैसे मामलों को नजरअंदाज कर देते हैं। यह उन्हें वास्तविकता से बिल्कुल अलग-थलग कर देता है और यह एक अनुभवात्मक विचलन होता है।

तुम लोगों को अपनी प्रकृति को जानने पर ध्यान देना चाहिए और यह कि किन पहलुओं में तुम आसानी से गलत चीजें कर सकते हो या भटक सकते हो और इस आधार पर, तुम्हें अनुभव और सीखों का सारांश प्रस्तुत करना चाहिए और विशेष रूप से सेवा करने, जीवन अनुभव, और अपनी प्रकृति को जानने के संदर्भ में तुम्हें धीरे-धीरे गहन ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सिर्फ तभी तुम अपनी अवस्था को समझ पाओगे और सही दिशा में विकासित हो पाओगे। अगर तुम सत्य के इन पहलुओं को आत्मसात कर सको, और उन्हें अपना आंतरिक जीवन बना सको, तो तुम कहीं अधिक स्थिर होगे, उन चीजों के बारे में गैर-जिम्मेदाराना और मनमानी टिप्पणी नहीं करोगे जिन्हें तुम समझते नहीं, जब तुम बोलते हो तब व्यावहारिक बातों पर ध्यान केंद्रित करोगे और वास्तविक चीजों की संगति करोगे। जब लोग अपनी खुद की प्रकृति का गहरा ज्ञान प्राप्त करते हैं और ज्यादा सत्य समझते हैं, तो फिर वे ज्यादा शालीनता के बोध से बोलेंगे और बेपरवाही से अब और नहीं बोलेंगे। जो सत्य से रहित हैं, वे हमेशा मूर्ख होते हैं। और कुछ भी कहने की हिम्मत रखते हैं; कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं जो परमेश्वर के वचन को प्रचारित करते हुए कुछ और लोगों को पाने की खातिर, धार्मिक लोगों का अनुसरण करने और परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा करने से नहीं हिचकिचाते। उन्हें अंदाजा ही नहीं है कि वे क्या हैं, न ही उन्हें अपनी प्रकृति की कोई समझ है और वे परमेश्वर से नहीं डरते। कुछ लोग मानते हैं यह कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन क्या यह वास्तव में बड़ी बात नहीं है? जब ऐसा दिन आएगा जब वे समस्या की गंभीरता को समझेंगे तो वे डर जाएँगे। यह बहुत ही गंभीर मामला है! वे इस मामले के सार की असलियत नहीं देख पाते और यहाँ तक कि वे सोचते हैं कि वे बहुत चतुर हैं और कि वे सब कुछ समझते हैं, लेकिन वे इस बात से बेखबर हैं कि उन्होंने परमेश्वर को नाराज किया है और वे बेखबर हैं कि उनकी मृत्यु कैसे होगी। भले ही तुम नरक या आध्यात्मिक क्षेत्र से संबंधित सभी मामलों को समझते हो, फिर भी अगर तुम अपनी प्रकृति को नहीं जानते हो तो यह अब भी व्यर्थ होगा। अब प्रमुख बात है खुद को जानने और अपने प्रकृति सार को जानने की मुश्किलों को सुलझाना। तुम्हें अपनी प्रकृति से प्रकट हर एक दशा में पारंगत होना होगा—अगर तुम यह नहीं कर सकते, तो किसी और चीज की समझ व्यर्थ होगी; यह सब कुछ व्यर्थ है चाहे तुम यह कितना भी गहन-विश्लेषण क्यों न कर लो कि तुम्हारे भीतर किस तरह की आत्मा या प्राण है। अपनी प्रकृति की उन विभिन्न चीजों में पारंगत होना ही कुंजी है जो वास्तव में तुम्हारे अंदर मौजूद हैं। तो तुम्हारे अंदर चाहे कोई-सी भी आत्मा हो, तुम सामान्य सोच वाले मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें सत्य की समझ का अनुसरण करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए। अगर तुम सत्य समझ सकते हो, तो तुम्हें सत्य के अनुरूप आचरण करना चाहिए—यह मनुष्य का कर्तव्य है। आत्मा के मामलों का अध्ययन करना तुम्हारे लिए बिल्कुल भी उपयोगी नहीं है और यह व्यर्थ है और इसका कोई लाभ नहीं है। आजकल, वे लोग जिनमें बुरी आत्माओं का काम होता है, वे तमाम कलीसियाओं में बेनकाब किए जा रहे हैं। ये लोग अगर सत्य समझ सकें तो इनके लिए अभी भी उम्मीद है, लेकिन अगर वे सत्य न तो समझ सकें न स्वीकार कर सकें तो उन्हें बस हटाया जा सकता है। अगर कोई सत्य समझ सकता है, तो इससे पता चलता है कि उसके अंदर अभी भी सामान्य विवेक है, और अगर वह और अधिक सत्य समझता है, तो शैतान उसे न तो गुमराह कर पाएगा न ही उसे नियंत्रित कर पाएगा, और इसकी उम्मीद है कि उसे बचाया जा सकता है। अगर ऐसे लोग दानवों के वशीभूत हैं और अधिकांश समय उनका विवेक बहुत सामान्य नहीं है, तो उनका काम तमाम हो चुका है और परेशानी मोल लेने से बचने के लिए उन्हें हटाना होगा। तुलनात्मक रूप से सामान्य विवेक वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, भले ही उसके अंदर कैसी भी आत्मा हो, यदि उसमें थोड़ी आध्यात्मिक समझ है, और वह सत्य को समझ और स्वीकार कर सकता है, तो उसके लिए उद्धार की आशा है। वैसे तो मनुष्य में सत्य स्वीकार करने की क्षमता नहीं होती है, लेकिन अगर कोई प्रभावी रूप से धर्मोपदेश सुनता है, सत्य पर संगति किए जाने पर उसे समझने और बूझने में समर्थ होता है और उसमें सामान्य समझ होती है और वह बेतुका नहीं होता है तो उसके पास उद्धार पाने की उम्मीद होती है। वास्तविक चिंता यह है कि ऐसे लोग होंगे जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है और जो मानवीय भाषा नहीं समझते हैं और जो सत्य पर चाहे कितनी भी संगति क्यों न की जाए, उसे समझ नहीं सकते हैं; ये लोग मुसीबत में हैं और यहाँ तक कि सेवाकर्मी भी नहीं हो सकते हैं। यही नहीं, परमेश्वर में विश्वास करने वालों को केवल सत्य और उसके अनुसरण पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्हें आध्यात्मिक होने पर बात करने या आत्मा का अध्ययन करने या उसे समझने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते रहना चाहिए। यह बेतुका और त्रुटिपूर्ण है। अब कुंजी यह है कि व्यक्ति सत्य स्वीकार कर सकता है या नहीं, सत्य समझ सकता है या नहीं और वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकता है या नहीं। यह अहम है और कोई व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है और आत्मचिंतन कर सकता है या नहीं और वह ऐसा व्यक्ति है या नहीं जो अपनी प्रकृति को समझता है, यह सबसे अहम है! यह अध्ययन करना कि तुममें कौन-सी आत्मा है निरर्थक है और उससे भी ज्यादा यह बेकार है। अगर तुम हमेशा यही अध्ययन करते रहोगे जैसे कि तुममें किस तरह की आत्मा है, तुम्हारे प्राण के साथ क्या चल रहा है, तुम्हारी आत्मा क्या है, क्या वह उच्च श्रेणी की आत्मा है या निम्न श्रेणी की, तुम्हें किस आत्मा से पुनर्जन्म मिला है, तुम पहले कितनी बार आ चुके हो, तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या निहित है—हमेशा इन चीजों का अध्ययन करते रहने से महत्वपूर्ण मामलों में देरी होगी। अगर तुम इनका पूर्ण अध्ययन कर भी लो, तो भी एक दिन जब दूसरे लोग सत्य समझ जाएँगे और वास्तविकताओं में प्रवेश कर लेंगे, तो तुम्हारे पास कुछ नहीं होगा। तुम महत्वपूर्ण मामलों में देरी का कारण बन चुके होगे और अपने ऊपर बरबादी ला चुके होगे। तुमने गलत मार्ग चुना और परमेश्वर में व्यर्थ ही विश्वास किया होगा। तब तुम किसे दोष दोगे? किसी को भी दोष देना बेकार है; यह सब तुम्हारे अपने अज्ञान के कारण हुआ है।

अंश 47

क्या तुम लोग अब स्पष्टता से देख सकते हो कि कैसे परमेश्वर का अनुसरण करना है और कैसे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना है? परमेश्वर पर विश्वास करना और परमेश्वर का अनुसरण करना वास्तव में किस बारे में है? क्या यह कुछ चीजों का त्याग करने, स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम होने और थोड़े से कष्ट सहने, और मार्ग के अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने के बारे में है, और बस इतना ही? क्या कोई इस तरह से परमेश्वर का अनुसरण कर सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या कोई उद्धार प्राप्त कर सकता है? क्या तुम्हारे हृदय में इन चीजों के प्रति स्पष्टता है? कुछ लोग सोचते हैं कि जब व्यक्ति न्याय किए जाने, ताड़ना दिए जाने, और काट-छाँट किए जाने का अनुभव कर लेता है, या उसका असली रंग बेनकाब हो चुका होता है, तो उसका परिणाम तय हो जाता है, और उसकी नियति में उद्धार की कोई उम्मीद नहीं होती है। बहुत-से लोग इस मामले को स्पष्टता से नहीं देख सकते, वे चौराहे पर पहुँचकर हिचकिचाने लगते हैं, वे नहीं जानते हैं कि इस मार्ग पर आगे कैसे चला जाए। क्या इसका यह मतलब नहीं है कि उनमें अभी भी परमेश्वर के कार्य के सच्चे ज्ञान की कमी है? क्या जो हमेशा परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के मनुष्य का उद्धार करने पर संदेह करते हैं, उनमें जरा भी सच्ची आस्था है? सामान्यतया, जब कुछ लोगों को अभी उनकी काट-छाँट करना बाकी होता है और उन्होंने कोई असफलता नहीं झेली होती है, तो उन्हें लगता है कि उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपनी आस्था में परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करना चाहिए। हालाँकि, जैसे ही उन्हें कोई झटका लगता है या कोई मुश्किल सामने आती है, वैसे ही उनकी विश्वासघाती प्रकृति प्रकट हो जाती है, जो देखने में बेहद घिनौनी लगती है। उसके बाद उन्हें भी ये घिनौना महसूस होता है और अंततः अपने परिणाम का फैसला खुद ही सुना देते हैं। वे कहते हैं, “मेरे लिए सब खत्म हो चुका है! अगर मैं ऐसी चीजें करने में सक्षम हूँ, क्या इसका यह मतलब नहीं कि मेरा काम तमाम हो गया है? परमेश्वर मुझे कभी नहीं बचाएगा।” बहुत-से लोग इसी अवस्था में हैं। यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि सभी लोग ऐसे ही हैं। लोग स्वयं के बारे में इस तरह के फैसले क्यों सुनाते हैं? इससे साबित होता है कि वे अभी भी मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का इरादा नहीं समझते हैं। सिर्फ एक बार काट-छाँट किए जाने के कारण तुम लंबे समय तक नकारात्मकता में पड़ सकते हो, जहाँ से बाहर निकलने में तुम असमर्थ रहते हो, इस हद तक कि तुम अपना कर्तव्य भी छोड़ देते हो; यहाँ तक कि एक छोटा-सा परिदृश्य भी तुम्हें इतना डरा सकता है कि तुम सत्य का अब और अनुसरण नहीं कर पाओगे, और फँस जाओगे। यह ऐसा है मानो लोग अपने अनुसरण में सिर्फ तभी तक उत्साही होते हैं जब तक उन्हें लगता है कि वे निष्कलंक और निर्दोष हैं, लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि वे बहुत ज्यादा भ्रष्ट हैं, तो उनका सत्य का अनुसरण करने का मन ही नहीं करता। बहुत-से लोगों ने हताशा और नकारात्मकता के शब्द बोले हैं जैसे, “मेरे लिए निश्चित रूप से सब खत्म हो चुका है; परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा। यहाँ तक कि अगर परमेश्वर मुझे क्षमा कर देता है, मैं खुद को माफ नहीं कर सकता; मैं कभी नहीं बदल सकता।” लोग परमेश्वर का इरादा नहीं समझते, जिससे पता चलता है कि वे अभी भी उसका कार्य नहीं जानते हैं। दरअसल, लोगों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे अपने अनुभवों के दौरान कभी-कभार कुछ भ्रष्ट स्वभाव जाहिर करें, या मिलावटी तरीके से, या गैर जिम्मेदारी से, या अनमने ढंग से और बिना लगन के काम करें। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के पास भ्रष्ट स्वभाव है; यह एक अपरिवर्तनीय सिद्धांत है। अगर ऐसे खुलासे नहीं होते, तो उन्हें भ्रष्ट मनुष्य क्यों कहा जाता? अगर मनुष्य भ्रष्ट न हों, तो परमेश्वर के उद्धार के कार्य का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। अब समस्या यह है कि, चूँकि लोग सत्य नहीं समझते या असल में खुद को नहीं समझते, और चूँकि वे अपनी अवस्था स्पष्टता से नहीं देख सकते, उन्हें प्रकाश देखने के लिए आवश्यकता होती है कि परमेश्वर प्रकाशन और न्याय के अपने वचन व्यक्त करे। वरना, वे संवेदनहीन और मंदबुद्धि बने रहेंगे। अगर परमेश्वर इस तरह से कार्य न करे, तो लोग कभी नहीं बदलेंगे। हर चरण में तुम लोगों पर चाहे जो भी मुश्किल आए, मैं तुम लोगों के साथ सत्य के बारे में संगति करूँगा, स्पष्टता और मार्गदर्शन प्रदान करूँगा, और तब तक करूँगा जब तक तुम लोग सही मार्ग में प्रवेश करने में सक्षम हो जाओ, इतना काफी है। वरना, लोगों का झुकाव हमेशा अति की ओर रहेगा। वे हमेशा बंद गली वाले मार्ग पर चल देंगे, उनके पास आगे का मार्ग नहीं होगा, और वे चलते हुए खुद पर निर्णय सुनाते जाएँगे। जब लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना शुरू ही करते हैं, तब वे अभी खुद को नहीं समझते। और कई बार असफल होने और बेनकाब किए जाने के बाद, वे अंततः खुद पर फैसला सुना देते हैं। वे कहते हैं : “मैं एक दानव हूँ; मैं एक शैतान हूँ! मेरे लिए सब खत्म हो चुका है। मेरे बचाए जाने की कोई संभावना नहीं है। मैं उद्धार से परे हूँ।” लोग वाकई बहुत नाजुक होते हैं और उनसे निपटना काफी कठिन होता है, और जैसे-जैसे वे आगे बढ़ेंगे, चरम सीमा तक गिर जाएंगे। जब लोग नहीं देख सकते कि उनकी भ्रष्टता इतनी गहरी है, कि वे दानव हैं, वे अहंकारी और आत्मतुष्ट बन जाते हैं; वे यही मानते हैं कि उन्होंने अनगिनत मुश्किलों का सामना किया है, और वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के योग्य हैं। लेकिन, जब लोगों को अपनी भ्रष्टता की गहराई का एहसास होता है, कि वे मनुष्य की तरह नहीं जी रहे थे, बल्कि वे दानव और शैतान हैं, तो वे खुद को निराशा के हवाले कर देते हैं और महसूस करते हैं जैसे कि वे उम्मीद से परे हैं; कि वे जरूर परमेश्वर द्वारा निंदित किए गए होंगे, और बेनकाब कर बाहर हटा दिए गए होंगे। लोग जब खुद को नहीं समझते तो वे अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, और जब खुद को समझ जाते हैं तो वे खुद को निराशा के हवाले कर देते हैं। लोग इतने झंझटपूर्ण और कठिन होते हैं। अगर वे सत्य स्वीकार सकें, अगर एक दिन वे वास्तव में परमेश्वर का इरादा समझ सकें, तो वे कहेंगे : “मेरी भ्रष्टता हमेशा से इतनी गहरी थी और मैं इसे अंततः पहचान चुका हूँ। सौभाग्य से, परमेश्वर मुझे बचाता है, और अब मैं एक शानदार जिंदगी देख सकता हूँ और जीवन के सच्चे मार्ग पर चल सकता हूँ। मुझे नहीं पता कि मैं कैसे परमेश्वर का धन्यवाद कर सकता हूँ।” यह एक सपने से जागने और प्रकाश को देखने जैसा है। क्या उन्हें महान उद्धार नहीं मिला है? उन्हें परमेश्वर की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए? कुछ लोग तब भी स्वयं को नहीं समझते जब मृत्यु करीब होती है; वे अभी भी अहंकारी होते हैं और तथ्यों द्वारा जो खुलासा होता है उसे स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें लगता है कि वे काफी अच्छे हैं : “मैं एक अच्छा व्यक्ति हूँ; मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?” ऐसा लगता है जैसे उन पर गलती से आरोप लगाए गए हैं। कुछ लोग कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं और अंत में, वे अभी भी अपनी प्रकृति नहीं समझ पाते। वे हमेशा सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उन्होंने एक क्षण के भ्रम में गलती की है, यहाँ तक कि इस दिन तक, जब उन्हें हटाया जाता है, वे समर्पण नहीं करते। इस तरह का व्यक्ति बहुत अहंकारी और अज्ञानी होता है और सत्य को स्वीकार नहीं करता। वे कभी भी बदलने और मनुष्य बनने में सक्षम नहीं होंगे। इससे तुम लोग पता लगा सकते हो कि भले ही लोगों की प्रकृति परमेश्वर की प्रतिरोधी और विश्वासघाती है, पर उनकी प्रकृतियों में अंतर है। इसके लिए मनुष्य की प्रकृतियों की गहरी समझ आवश्यक है।

लोगों की प्रकृतियों में कुछ निश्चित सामान्य लक्षण होते हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। सभी लोग परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं—यह एक सामान्य लक्षण है—हालाँकि, हर व्यक्ति की अपनी कोई न कोई घातक कमजोरी होती है। कुछ लोग सत्ता से प्रेम करते हैं, तो कुछ रुतबे से; कुछ धन की पूजा करते हैं, जबकि बाकी भौतिक सुखों की पूजा करते हैं। ये लोगों की प्रकृतियों के अंतर हैं। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के बाद बहुत-सी मुश्किलें झेलते हुए भी मजबूती से खड़े रहने में सक्षम होते हैं, जबकि बाकी लोग थोड़ी-सी कठिनाई का सामना होते ही नकारात्मक बन जाते हैं, शिकायत करते हैं, और मजबूती से खड़े रहने में नाकाम रहते हैं। तो, फिर ऐसा क्यों है कि, उन दोनों के परमेश्वर में विश्वास करने, और दोनों के परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के बावजूद, जब उन पर कोई परिस्थिति आती है तो उनकी प्रतिक्रिया भिन्न होती है? इससे पता चलता है कि, भले ही गहराई तक भ्रष्ट सभी मनुष्यों में शैतान का स्वभाव है, लेकिन उनका चरित्र भिन्न होता है। कुछ लोग सत्य से विमुख हैं और सत्य से घृणा करते हैं, जबकि अन्य इससे प्रेम करने और इसे स्वीकार करने में सक्षम हैं। कुछ लोगों में भ्रष्ट स्वभावों का प्रदर्शन बहुत गंभीर होता है, जबकि दूसरों का प्रदर्शन कम गंभीर होता है। कुछ लोग ज्यादा दयालु हृदय वाले होते हैं, जबकि अन्य बहुत क्रूर होते हैं। हालाँकि उनकी बातें, व्यवहार, और अभिव्यक्तियाँ अलग हो सकती हैं, लेकिन उनका भ्रष्ट स्वभाव एक ही है; वे सभी शैतान के भ्रष्ट मनुष्य हैं। यह उनके बीच सामान्य लक्षण है। किसी व्यक्ति की प्रकृति परिभाषित करती है कि वह कौन है। हालाँकि हर व्यक्ति की प्रकृति के संदर्भ में समानताएँ होती हैं, लेकिन हर व्यक्ति के साथ उसके सार के अनुसार भिन्न रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, बुरी वासनाएँ सभी लोगों में सामान्य लक्षण हैं। हर किसी में ये चीजें होती हैं और उनसे आसानी से पार नहीं पाया जा सकता। हालाँकि, कुछ लोगों में इसे लेकर विशेष रूप से मजबूत झुकाव होता है। जब भी ऐसे लोगों का सामना विपरीत लिंग से जुड़े प्रलोभनों से होता है, वे उनके आगे हार मान लेते हैं। उनके हृदय वशीभूत हो जाते हैं और वे प्रलोभनों में फँस जाते हैं; वे किसी भी वक्त दूसरे व्यक्ति के साथ भागने और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए तैयार रहते हैं। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों की बुरी प्रकृति है। जब कुछ लोग इस तरह की चीजों का सामना करते हैं, तो भले ही वे कुछ कमजोरियाँ दिखाएँ या बुरी वासनाओं को प्रकट करें, वे मर्यादा से बाहर नहीं जाएँगे। वे संयम बरतने और इस तरह की स्थिति से बचकर रहने में सक्षम हैं; वे देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं और प्रलोभन से दूर रह सकते हैं। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी प्रकृति बुरी है। मनुष्य देह में रहते हैं, इसलिए उनकी बुरी वासनाएँ होती हैं; लेकिन कुछ लोग मनमाने और उतावले होते हैं, वे अपनी वासना में लिप्त रहते हैं, ऐसी चीजें भी करते हैं जिससे कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है और गड़बड़ी होती है। हालाँकि, कुछ लोग ऐसे नहीं हैं। वे सत्य का अनुसरण करने और इसके अनुसार चलने में सक्षम हैं, और वे देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं। हालाँकि सभी लोगों में देह की वासनाएँ होती हैं, लेकिन वे एक ही तरह से व्यवहार नहीं करते। इस तरह से लोगों के प्रकृति सार में भिन्नता होती है। कुछ लोग धन के लालची होते हैं। जब भी वे धन या अच्छी चीज देखते हैं, वे उन्हें अपने लिए लेना चाहते हैं। उनके अंदर इन चीजों को हासिल करने की विशेष रूप से एक मजबूत इच्छा होती है। ऐसे लोग प्रकृति से लालची होते हैं। जो भी भौतिक संपत्तियाँ वे देखते हैं, उनका लोभ करते हैं, और यहाँ तक कि वे परमेश्वर के चढ़ावे को चुराने या उसका दुरुपयोग करने की भी धृष्टता करते हैं—वे हजारों या दसियों हजार रुपयों की रकम को छूने की भी हिम्मत करते हैं। जितना ज्यादा धन होता है, वे उतने ही साहसी बन जाते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय बिल्कुल नहीं होता। यह लालची प्रकृति है। कलीसिया के धन के कुछ रुपये या कुछ दर्जन भर रुपये खर्च करने के बाद कुछ लोगों की अंतरात्मा असहज हो जाती है। वे परमेश्वर के सामने तुरंत घुटने टेककर पश्चाताप के आँसुओं के साथ प्रार्थना करने लगते हैं, परमेश्वर से क्षमा की भीख माँगते हैं। हम नहीं कह सकते कि ऐसे लोग धन के लालची हैं, क्योंकि हर किसी के पास भ्रष्ट स्वभाव और कमजोरियाँ हैं, और इन लोगों की वास्तव में पश्चाताप करने की क्षमता बताती है कि उनके कार्यकलाप सिर्फ उनके भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन थे। कुछ लोग दूसरों के बारे में आलोचनात्मक होते हैं। वे कहेंगे, “चूँकि इस व्यक्ति ने इस बार कलीसिया के कुछ रुपये खर्च किए हैं, अगली बार वह दर्जनों रुपये खर्च कर सकता है। वह निश्चित रूप से ऐसा व्यक्ति है जो चढ़ावा चुराता है और उसे बाहर निकाल देना चाहिए।” इस तरीके से बोलने में थोड़ी-सी आलोचना करने वाली प्रवृत्ति होती है। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं, इसलिए वे निश्चित रूप से अपनी भ्रष्टता का खुलासा करेंगे और बहुत-सी बुरी चीजें करेंगे। यह सामान्य है, लेकिन किसी व्यक्ति का अपनी भ्रष्टता का खुलासा करना, किसी में बुरे व्यक्ति की प्रकृति होने के समान नहीं है। हालाँकि इन दोनों प्रकार के लोग कुछ एक जैसी चीजें कर सकते हैं, लेकिन वे प्रकृति में अलग हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलता है और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहता है, वह अनिवार्य रूप से समय-समय पर झूठ बोलता है, धोखेबाजी या कपट करता है, जबकि झूठ बोलना और धोखेबाजी करना दानव के स्वभाव का हिस्सा हैं, दानव हर समय और हर बात में झूठ बोलेगा। हालाँकि दोनों ही झूठ बोलने वाले व्यवहार का प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन दानव का सार और जो कोई सत्य का अनुसरण करता है उसका स्वभाव मूलरूप से अलग है। तो, क्या यह उचित है, सिर्फ क्षणिक रूप से भ्रष्टता का प्रकाशन होने के कारण, जो लोग ईमानदार बनना चाहते हैं उन्हें दानव या शैतान के रूप में चिह्नित कर दिया जाए? झूठ बोलने या दूसरों के साथ छल करने का अपराध करने का यह मतलब नहीं है कि वे दानव हैं जो हमेशा झूठ बोलते हैं और दूसरों के साथ छल करते हैं। क्योंकि लोगों के प्रकृति सार एक समान नहीं हैं, हम उन्हें एक साथ नहीं रख सकते। क्षणिक अपराध करने वाले किसी व्यक्ति की तुलना दानव से करना मनमाने ढंग से राय बनाने और निंदा करने का एक रूप है। यही चीज लोगों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाती है। अगर तुम्हारे अंदर भेद पहचानने की क्षमता की कमी है और तुम चीजें स्पष्टता से नहीं देख सकते, तो तुम्हें बिना सोचे नहीं बोलना चाहिए या अंधाधुंध विनियमों को लागू नहीं करना चाहिए, वरना तुम दूसरों को नुकसान पहुँचाओगे। जिन लोगों में कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती और विनियमों से चिपके रहना पसंद करते हैं, उनके दूसरों पर राय बनाने और निंदा करने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। जो लोग सत्य नहीं समझते, वे सिद्धांतों के बिना ही बोलते और कार्य करते हैं, और जो लोग लापरवाही से बोलते हैं और मनमाने ढंग से दूसरों पर राय बनाते और निंदा करते हैं, वे न तो अपना भला करते हैं और न ही दूसरों का।

तुम लोग अपने हृदय में नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर में अपने विश्वास में किस लक्ष्य तक पहुँचना चाहिए। बहुत कम लोग परमेश्वर पर पूरी तरह उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप विश्वास करने में सक्षम होते हैं। तुम लोगों के साथ बहुत सारी समस्याएँ हैं, और शायद तुम्हें अभी तक उनका एहसास नहीं हुआ है और तुम उनके बारे में स्पष्ट नहीं हो। यह दिखाता है कि तुम लोग अभी भी सत्य नहीं समझते हो, तुम आत्मचिंतन करने में अक्षम हो, और तुमने अभी तक अपने अंदर की बातों का खुलासा नहीं किया है, और अपनी प्रकृति के विभिन्न विचारों और पहलुओं का गहन-विश्लेषण करने में अभी भी अक्षम हो। किसी दिन, जब तुम लोग बहुत-से धर्म उपदेश सुन चुके होगे, और तुम्हें अनुभव हो जाएगा, तब तुम लोग सत्य समझ जाओगे। सिर्फ तब ही तुम लोग सच्चे आत्म-ज्ञान के योग्य हो पाओगे। यद्यपि तुम लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुमने अभी तक अपने भ्रष्ट स्वभावों को नहीं त्यागा है, और तुम्हारी प्रकृति के अंदर बहुत-सी सतही चीजें हैं, तुम अभी भी अच्छे कपड़े पहनना और अच्छी चीजों का आनंद लेना पसंद करते हो। जब कुछ लोग अच्छे कपड़े पहनते हैं, या अच्छा मोबाइल फोन ले लेते हैं, उनके सुर ही बदल जाते हैं; जब कुछ महिलाएं ऊँची एड़ी के जूते पहनती हैं, उनकी चाल बदल जाती है, और उन्हें अब पता नहीं होता कि वे कौन हैं। जब यह बात आती है कि लोग अपने हृदय में किन चीजों को रखते हैं, और वह कौन-सी प्रकृति है जो उन्हें इन दुष्ट, भद्दी और सतही चीजों का खुलासा करने को मजबूर करती है, तो लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभावों और अपनी स्वयं की प्रकृति के अंदर की चीजों को जानने की जरूरत होती है। हालाँकि लोग इन भ्रष्ट स्वभावों को महसूस कर सकते हैं, वे उनका समाधान नहीं कर सकते, वे उन्हें नियंत्रित करने और बाहरी रूप में उन्हें प्रकट करने से रोकने के लिए सिर्फ अपनी स्वयं की इच्छा पर निर्भर रह सकते हैं। जैसे-जैसे उनके अनुभव गहरे होते जाते हैं, जैसे-जैसे उनकी प्रकृति और सत्य के सभी पहलुओं के बारे में उनका ज्ञान बढ़ता जाता है, और जैसे-जैसे वे धीरे-धीरे परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझते हैं और उनमें प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनकी प्रकृति के पहलू धीरे-धीरे बदलने लगते हैं। पहले, उनका आत्म-ज्ञान बहुत सतही होता है। वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को स्वीकार सकते हैं, लेकिन वे सत्य नहीं खोज पाते हैं और अपनी भ्रष्टता का सार नहीं जान पाते हैं। जब वे थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त करते हैं, वे कड़ी मेहनत के माध्यम से खुद को नियंत्रित करना चाहते हैं और देह के विरुद्ध विद्रोह करना चाहते हैं और परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन उनकी कोशिशें बेकार चली जाती हैं, और वे अभी भी अपनी समस्या का मूल नहीं देख पाते। जब बाद में वे वास्तव में सत्य समझते हैं, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से जान लेते हैं, तब वे खुद से घृणा करने लगते हैं। उस समय पर, उन्हें देह के विरुद्ध विद्रोह करने में बहुत ज्यादा प्रयास नहीं करने पड़ते, वे सक्रिय रूप से सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं। यद्यपि कभी-कभी वे पूरी तरह से सत्य नहीं समझते हैं, लेकिन कम से कम वे अंतरात्मा और विवेक के आधार पर पेश तो आ सकते हैं। जब लोग पहले-पहल परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना शुरू करते हैं, वे सभी परेशानियों का सामना करते हैं; क्योंकि वे सत्य नहीं समझते, और सिद्धांतों को आधार के रूप में लेना नहीं जानते, वे हमेशा पूछते हैं कि इस चीज को या उस चीज को कैसे किया जाए, और वे सिर्फ विनियमों के अनुसार चल सकते हैं। इसके अलावा, मनुष्य हमेशा नकारात्मक दशाओं द्वारा बाधा डाले जाते हैं, और कई बार उनके पास आगे बढ़ने का कोई मार्ग नहीं होता। जब नकारात्मक दशाओं की बात होती है, तो लोगों को उन दशाओं का संगति के साथ समाधान करना चाहिए जिनका समाधान संगति के साथ किया जा सकता है। जिनका समाधान संगति के माध्यम से नहीं किया जा सकता, उन्हें तुम नजरअंदाज कर सकते हो। तुम्हें इसके बजाय सामान्य रूप से अभ्यास करने और प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए‌, और सत्य पर ज्यादा संगति करनी चाहिए। एक दिन, जब तुम स्पष्टता के साथ सत्य समझ जाओगे, और बहुत-सी चीजों की असलियत देख लोगे, तब तुम्हारी नकारात्मक दशाएं स्वाभाविक रूप से गायब हो जाएँगी। क्या तुम लोगों की पुरानी नकारात्मक दशाएँ अभी तक गायब नहीं हुई हैं? कम से कम, तुम पहले की तुलना में उनका बहुत कम अनुभव करते हो। सिर्फ सत्य का अनुसरण करने में कड़ी मेहनत करने पर ध्यान दो, और तुम लोग अपनी सभी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम अपनी समस्याओं का समाधान कर लोगे, तब तुमने तरक्की कर ली होगी और तुम्हारा विकास हो चुका होगा। जब लोग उस दिन तक अनुभव करते हैं जब तक जीवन के बारे में उनका दृष्टिकोण और उनके अस्तित्व का अर्थ एवं आधार पूरी तरह से बदल नहीं जाते हैं, जब उनका सब कुछ परिवर्तित नहीं हो जाता और वे कोई अन्य व्यक्ति नहीं बन जाते हैं, क्या यह अद्भुत नहीं है? यह एक बड़ा परिवर्तन है; यह एक ऐसा परिवर्तन है जो सब कुछ उलट-पुलट कर देता है। केवल जब दुनिया की कीर्ति, लाभ, पद, धन, सुख, सत्ता और महिमा में तुम्हारी रुचि खत्म हो जाती है और तुम आसानी से उन्हें छोड़ पाते हो, केवल तभी तुम एक मनुष्य के समान बन पाओगे। जो लोग अंततः पूर्ण किए जाएंगे, वे इस तरह के एक समूह होंगे। वे सत्य के लिए, परमेश्वर के लिए और जो न्यायसंगत है उसके लिए जीएँगे। यही एक सच्चे मानव के समान होना है।

कुछ लोग पूछेंगे, “मनुष्य वास्तव में क्या है?” आजकल के लोगों में कोई भी मनुष्य नहीं है। अगर वे मनुष्य नहीं हैं, तो वे क्या हैं? तुम कह सकते हो कि वे पशु, जानवर, शैतान या दानव हैं; बात चाहे जो हो, वे सिर्फ मनुष्य की खाल ओढ़े हैं, लेकिन उन्हें मनुष्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके पास सामान्य मानवता नहीं है। उन्हें पशु कहना कुछ हद तक सही है, लेकिन लोगों के पास भाषा, दिमाग और विचार होते हैं, और लोग विज्ञान और निर्माण में शामिल हो सकते हैं, इसलिए उन्हें उच्च पशुओं के तौर पर ही सूचीबद्ध किया जा सकता है। हालाँकि, लोगों को शैतान द्वारा बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया जा चुका है, वे अपनी अंतरात्मा और विवेक बहुत पहले ही खो चुके हैं, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते और परमेश्वर का भय बिल्कुल नहीं मानते। उन्हें दानव और शैतान कहना पूरी तरह से उचित है। क्योंकि उनकी प्रकृति शैतान की है, और वे शैतानी स्वभावों का खुलासा करते हैं, और शैतानी विचार व्यक्त करते हैं, उन्हें दानव और शैतान कहना ज्यादा सटीक है। लोग बहुत ही ज्यादा गहराई तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं और वे मनुष्य जैसे नहीं हैं। वे पशुओं और जानवरों की तरह हैं, वे दानव हैं। अभी इस समय, लोग एक चीज या दूसरी चीज नहीं हैं, वे न तो मनुष्यों से, न ही राक्षसों से मेल खाते हैं, और उनके पास सच्चा मनुष्य जैसा स्वरूप भी नहीं है। बहुत-से वर्षों के अनुभव के बाद, कुछ दीर्घकालीन विश्वासी परमेश्वर के साथ थोड़ी आत्मीयता प्राप्त कर लेते हैं, और परमेश्वर को कमोबेश थोड़ा-बहुत समझ सकते हैं, और उन चीजों के बारे में थोड़ी-बहुत चिंता कर सकते हैं जिनके बारे में परमेश्वर चिंता करता है, और उन चीजों के बारे में थोड़ा-बहुत सोच सकते हैं जिनके बारे में परमेश्वर सोचता है—इसका मतलब है कि उनके पास मनुष्य का थोड़ा सा रूप है, और वे अर्ध-निर्मित हैं। नए विश्वासियों ने अभी तक ताड़ना और न्याय, या अधिक काट-छाँट का अनुभव नहीं किया है, उन्होंने सत्य भी ज्यादा नहीं सुना है, उन्होंने बस परमेश्वर के वचन ही पढ़े हैं, लेकिन उनके पास कोई असली अनुभव नहीं है। परिणामस्वरूप, वे मानक से बहुत दूर होते हैं। एक व्यक्ति के अनुभव की गहराई तय करती है कि वह कितना बदल सकता है। परमेश्वर के वचनों का तुम जितना कम अनुभव करोगे, तुम उतना ही कम सत्य समझोगे। अगर तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है, तो तुम अक्षुण्ण, जीते-जागते शैतान हो, और तुम एक दानव हो, यह सीधी-सरल बात है। क्या तुम इसमें विश्वास करते हो? तुम एक दिन उन वचनों को समझ जाओगे। क्या अब कोई अच्छे लोग भी हैं? अगर लोगों के पास मनुष्य का रूप नहीं है, तो हम उन्हें मनुष्य कैसे बोल सकते हैं? उन्हें अच्छे लोग कहने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उनके पास मनुष्य का सिर्फ आवरण है, लेकिन उनके पास मनुष्य का सार नहीं है, उन्हें मनुष्य की खाल ओढ़े जानवर कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अगर कोई परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए मनुष्य जैसा व्यक्ति बनना चाहता है, तो उसे परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन, ताड़ना और न्याय का अनुभव करना होगा, सिर्फ तभी वह अंततः परिवर्तन प्राप्त कर सकता है। यही मार्ग है; अगर परमेश्वर ऐसा न करे, तो लोग बदलने में सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर को इसी तरीके से धीरे-धीरे कार्य करना होगा। लोगों को न्याय और ताड़ना, और निरंतर काट-छाँट किए जाने का अनुभव करना होगा, और जिन तरीकों से वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा करते हैं उन्हें उजागर करना होगा। लोग सिर्फ तभी सही मार्ग पर चल सकते हैं जब वे स्वयं पर विचार करने और सत्य समझने में सक्षम होते हैं। अनुभव की एक अवधि और कुछ सत्य समझने के बाद ही लोगों के पास दृढ़ता से खड़े होने की कुछ निश्चितता आ पाती है। मैं देखता हूँ कि अभी भी तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, तुम बहुत ही कम सत्य समझते हो, और इस तरह अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते जो मानकों के अनुरूप है। यद्यपि तुम अपने कर्तव्यों को सक्रियता से निभाने में व्यस्त लगते हो, वास्तव में, तुम सब खतरे के कगार पर हो। मैं तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं देख पा रहा हूँ, और यह कहना मुश्किल है कि तुम लोग सत्य का अनुसरण करते हो। इससे तुम बड़े खतरे में आ जाते हो। मैंने इस तरह के वचन कई बार बोले हैं, लेकिन बहुत-से लोग नहीं समझ पाते कि इसका क्या मतलब है। कुछ लोग कहते हैं : “अब परमेश्वर में अपने विश्वास में मेरे पास बहुत ज्यादा उत्साह है, मैं अपने रास्ते में ठोकर नहीं खाऊँगा या रास्ता नहीं भटकूंगा। परमेश्वर मेरे साथ ऐसे अनुग्रह का व्यवहार करता है, मैं किसी खतरे में नहीं हूँ।” परमेश्वर हर व्यक्ति के साथ अनुग्रह का व्यवहार करता है, और उनकी रक्षा करता है, लेकिन तुमने सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम स्वाभाविक रूप से खतरे में हो। परीक्षणों का सामना करते हुए, क्या तुम गारंटी दे पाओगे कि तुम दृढ़ता के साथ खड़े रहने में सक्षम हो? कोई भी व्यक्ति इस तरह की गारंटी देने की हिम्मत नहीं कर सकता। बहुत-से लोग बस शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने में सक्षम होते हैं। इसका मतलब यह नहीं होता कि वे सत्य समझते हैं, और इसका निश्चित रूप से यह मतलब नहीं है कि उनके पास वास्तविक आध्यात्मिक कद है, और फिर भी वे सोचते हैं कि वे लगभग सफल हो गए हैं। अगर कोई व्यक्ति ऐसी कोई चीज बोल सकता है, इससे पता चलता है कि वह मानक से बहुत दूर है। हर व्यक्ति जिसके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, वह खतरे के कगार पर खड़ा है। यह पूरी तरह से सच है।

अंश 48

जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनमें से किस तरह के व्यक्ति को बचाए जाने की संभावना सबसे कम है, और किस तरह की प्रकृति के कारण विनाश की संभावना सबसे ज्यादा है? क्या तुम लोग यह स्पष्ट रूप से समझते हो? चाहे कोई अगुआ हो या अनुयायी, मनुष्य की सामान्य प्रकृति क्या होती है? मनुष्य की प्रकृति में सामान्य तत्व परमेश्वर के प्रति विश्वासघात है; हर एक व्यक्ति परमेश्वर के प्रति विश्वासघात करने में सक्षम है। परमेश्वर के प्रति विश्वासघात किसे कहते हैं? इसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या जो लोग परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हैं, वही उसका विश्वासघात करते हैं? लोगों को मनुष्य का सार समझना चाहिए और इसकी जड़ तक जाना चाहिए। तुम्हारा चिड़चिड़ापन, कमियाँ, बुरी आदतें या संस्कारों में कमी सभी सतही पहलू हैं। अगर तुम हमेशा इन मामूली चीजों से चिपके रहते हो, बिना सोचे-समझे विनियम लागू करते हो और जो जरूरी है उसे समझने में नाकाम रहते हो, अपनी प्रकृति में निहित चीजों और अपने भ्रष्ट स्वभाव को अनसुलझा रहने देते हो, तो तुम अंततः भटक जाओगे और परमेश्वर का विरोध करने लगोगे। लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं—यह एक गंभीर समस्या है। शायद कुछ देर के लिए तुम्हारे पास थोड़ा-सा परमेश्वर-प्रेमी हृदय हो, तुम उत्साह के साथ खुद को खपाओ और थोड़ी लगन के साथ अपने कर्तव्य निभाओ; या इस दौरान तुम्हारे पास पूरी तरह सामान्य विवेक और अंतरात्मा हो, लेकिन लोग अस्थिर और चंचल होते हैं, वे एक इकलौती घटना की वजह से कहीं भी और कभी भी परमेश्वर का विरोध करने और उसका विश्वासघात करने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी के पास पूरी तरह से सामान्य विवेक हो सकता है, उसके पास पवित्रात्मा का कार्य, व्यावहारिक अनुभव, बोझ और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति लगन हो सकती है, लेकिन जब उसकी आस्था बहुत मजबूत हो, तभी परमेश्वर का घर एक ऐसे मसीह-विरोधी को निष्कासित कर दे जिसकी वह पूजा करता है, तो उसके मन में धारणाएँ पनपने लगती हैं। वह एकदम से नकारात्मक हो जाता है, अपने कार्य में उत्साह खो देता है, अपना कर्तव्य अनमना होकर निभाता है, प्रार्थना नहीं करना चाहता, और शिकायत करता है, “प्रार्थना क्यों करूँ? अगर किसी इतने अच्छे इंसान को निष्कासित किया जा सकता है, तो किसे बचाया जा सकता है? परमेश्वर को लोगों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए!” उसके शब्दों की प्रकृति क्या है? सिर्फ एक घटना उसकी इच्छा के अनुसार नहीं होती और वह परमेश्वर पर फैसला सुनाने लगता है। क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की अभिव्यक्ति नहीं है? लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर से भटक सकते हैं; किसी स्थिति का सामना करने पर उनमें धारणाएँ पनप सकती हैं और वे परमेश्वर की निंदा और आलोचना कर सकते हैं—क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की अभिव्यक्ति नहीं है? यह बहुत बड़ी बात है। अब शायद तुम्हें लगे कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति कोई धारणा नहीं है और तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो, लेकिन अगर तुम कुछ गलत कर बैठे और अचानक तुम्हारे साथ सख्ती से काट-छाँट की जाए, तो क्या तब भी तुम समर्पण कर सकोगे? क्या तुम समाधान के लिए सत्य की खोज कर पाओगे? अगर तुम समर्पण नहीं कर सकते या अपने विद्रोहीपन की समस्या सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोज सकते, तो अब भी यह संभावना है कि तुम परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर दो। हो सकता है तुमने वास्तव में यह न कहा हो कि “मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करता,” लेकिन उस वक्त तुम्हारा हृदय उसके साथ पहले ही विश्वासघात कर चुका है। तुम्हें स्पष्ट रूप से समझना है कि मनुष्य की प्रकृति वास्तव में क्या है। क्या विश्वासघात ही इस प्रकृति का सार है? बहुत कम लोग ही मनुष्य की प्रकृति का सार स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं। निस्संदेह, कुछ लोगों में थोड़ी-सी अंतरात्मा और अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है, तो कुछ में कोई मानवता नहीं होती, लेकिन चाहे किसी में अच्छी मानवता हो या बुरी, या चाहे उसकी काबिलियत अच्छी हो या खराब, इनमें एक समान बात यह है कि ये सब परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं। मनुष्य की प्रकृति मूलतः परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की है। तुम लोग सोचा करते थे, “चूँकि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य प्रकृतिवश परमेश्वर के साथ विश्वासघात करते हैं, इसलिए धीरे-धीरे बदलने के सिवाय मैं इस मामले में और कुछ नहीं कर सकता।” क्या तुम लोग अभी भी इसी तरह सोचते हो? तो तुम्हीं बताओ, क्या कोई भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकता है? लोग भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं। जब परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया, उसने उन्हें स्वतंत्र इच्छा दी। मनुष्य विशेष रूप से नाजुक हैं; उनमें यह जन्मजात इच्छा नहीं होती कि वे परमेश्वर के करीब आकर कहें, “परमेश्वर हमारा सृष्टिकर्ता है, और हम सृजित प्राणी हैं।” मनुष्यों में ऐसी कोई संकल्पना नहीं होती है। उनमें स्वाभाविक रूप से सत्य का अभाव होता है, न उनमें परमेश्वर की आराधना से संबंधित कोई भी तत्व होता है। परमेश्वर ने मनुष्यों को स्वतंत्र इच्छा दी है, उन्हें सोचने की अनुमति दी है, लेकिन लोग सत्य नहीं स्वीकारते, परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं जानते, और वे नहीं जानते कि उसके प्रति समर्पण कैसे करें और उसकी आराधना कैसे करें। मनुष्यों में ये चीजें नहीं होतीं, इसलिए तुम भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हो। क्यों कहें कि तुम परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हो? जब शैतान तुम्हें ललचाने आता है, तुम शैतान का अनुसरण करते हो और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करते हो। तुम्हें परमेश्वर ने बनाया लेकिन तुम उसका अनुसरण नहीं करते, उसके बजाय शैतान का अनुसरण करते हो—क्या यह तुम्हें गद्दार नहीं बनाता? परिभाषा के अनुसार गद्दार वह होता है, जो विश्वासघात करता है। क्या तुम इसका सार पूरी तरह से समझते हो? इसलिए, लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं। लोग परमेश्वर के साथ विश्वासघात सिर्फ तब नहीं करेंगे जब वे पूरी तरह परमेश्वर के राज्य और उसके प्रकाश में रहेंगे, जब शैतान का सब कुछ नष्ट हो जाएगा और जब उन्हें पाप करने के लिए ललचाने या लुभाने वाली कोई चीज नहीं होगी। अगर उन्हें पाप करने के लिए लुभाने वाली कोई भी चीज है तो वे अभी भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने में सक्षम होंगे। इसलिए मनुष्य निकम्मे हैं। कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बघार लेने भर से तुम्हें लग सकता है कि तुम कुछ सत्य समझते हो और परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते, इसलिए तुम्हें कम से कम मिट्टी के बर्तनों से अधिक मूल्यवान समझा जाना चाहिए, सोने-चाँदी की तरह न सही, काँसा या लोहा तो मानना ही चाहिए, लेकिन तुम खुद को जरूरत से ज्यादा ऊँचा आँकते हो। क्या तुम जानते हो कि मनुष्य वास्तव में क्या हैं? लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं, उनकी कीमत धेले भर नहीं है; जैसा कि परमेश्वर ने कहा : मनुष्य जानवर हैं, बेकार दयनीय प्राणी हैं। लेकिन अपने हृदय में लोग इस तरह से नहीं सोचते। वे सोचते हैं, “मुझे नहीं लगता कि मैं बेकार दयनीय प्राणी हूँ। मैं इस मामले की असलियत क्यों नहीं जान सकता? मैंने इसका अनुभव कैसे नहीं किया है? परमेश्वर में मेरा सच्चा विश्वास है; मुझमें आस्था है, इसलिए मैं परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सत्य हैं, लेकिन मैं इस वाक्यांश को नहीं समझ सकता, ‘लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं।’ मैं पहले ही परमेश्वर का प्रेम देख चुका हूँ; मैं उसके साथ कभी विश्वासघात नहीं कर सकता।” लोग अपने हृदय में ऐसा ही सोचते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें ऐसे ही हवा में नहीं बोला गया है। तुम लोगों के सामने हर मामला स्पष्ट कर दिया गया है, तुम्हें पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया गया है; सिर्फ इसी तरह से तुम लोग अपनी भ्रष्टता पहचान सकोगे और विश्वासघात की समस्या का समाधान कर सकोगे। परमेश्वर के राज्य में कोई विश्वासघात नहीं होगा; जब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व में रहते हैं और शैतान के नियंत्रण में नहीं होते तो वे वास्तव में स्वतंत्र होते हैं। तब परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी; ऐसी चिंता अनावश्यक और व्यर्थ होगी। भविष्य में यह घोषणा की जा सकती है कि तुम लोगों में ऐसी कोई चीज नहीं है जो परमेश्वर के साथ विश्वासघात करे, लेकिन फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है। क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे कभी भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि कुछ विशेष परिस्थितियाँ ही विश्वासघात तक पहुँचा देती हैं, और ये विशेष परिस्थितियाँ या दबाव न होने पर तुम परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं करोगे—बिना दबाव के भी तुम उसके साथ विश्वासघात कर सकते हो। यह मनुष्य के भ्रष्ट सार की समस्या है, मनुष्य की प्रकृति की समस्या है। भले ही तुम अभी कुछ सोच या कर नहीं रहे हो, तुम्हारी प्रकृति की वास्तविकता का अस्तित्व वास्तव में है, और इसे कोई समूल नष्ट नहीं कर सकता। चूँकि तुम्हारे अंदर परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की प्रकृति है; परमेश्वर तुम्हारे हृदय में नहीं है; तुम्हारे अंतरतम में न तो परमेश्वर के लिए कोई जगह है, न सत्य की उपस्थिति है; इस तरह तुम कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हो। फरिश्तों की बात अलग है; उनमें परमेश्वर का स्वभाव या सार तो नहीं होता, लेकिन वे पूरी तरह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने विशेष रूप से अपनी सेवा के लिए बनाया है, हर जगह अपने आदेश पूरे कराने के लिए बनाया है। वे पूरी तरह से परमेश्वर के हैं। जहाँ तक मनुष्यों की बात है, परमेश्वर ने चाहा कि वे धरती पर रहें, लेकिन अपनी आराधना करने की क्षमता उन्हें नहीं दी। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं और उसका विरोध कर सकते हैं। इससे साबित होता है कि मनुष्यों को कोई भी इस्तेमाल कर सकता है और उन पर दावा कर सकता है; उनकी अपनी कोई संप्रभुता नहीं है। मनुष्य ऐसे प्राणी हैं, जिनकी कोई गरिमा नहीं है और वे निकम्मे हैं!

परमेश्वर लोगों की विश्वासघाती प्रकृति को उजागर इसलिए करता है कि वे इस मसले की और अपनी सच्ची समझ पा सकें। इस पहलू से लोग खुद को बदलना शुरू कर अभ्यास का मार्ग खोजने का प्रयास कर सकते हैं, यह समझ सकते हैं कि वे किन चीजों में परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हैं और उनके कौन-से भ्रष्ट स्वभाव उन्हें परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। एक बार तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम बहुत-से पहलुओं में परमेश्वर के प्रति विद्रोह नहीं करते और अधिकतर पहलुओं में उसके साथ विश्वासघात नहीं करते, तो जब तुम अपने जीवन की यात्रा के अंत पर पहुँचोगे, जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो चुका होगा, तुम्हें इस बारे में और चिंता करने की जरूरत नहीं होगी कि क्या तुम भविष्य में परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हो या नहीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? शैतान के हाथों भ्रष्ट होने से पहले लोग उसके बहकावे में आकर परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर देते थे। जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तो क्या लोग परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना बंद नहीं कर देंगे? वह समय अभी नहीं आया है। लोगों के अंदर अभी भी शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने में सक्षम हैं। एक बार तुमने एक निश्चित चरण तक जीवन का अनुभव कर लिया, जहाँ तुमने परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने और उसका विरोध करने के बारे में गलत विचार, धारणाएँ और कल्पनाएँ छोड़ दीं; तुमने सत्य समझ लिया, तुम्हारे हृदय में बहुत सारी सकारात्मक चीजें आ गईं; तुम खुद को और अपने क्रियाकलापों को वश में रख सकते हो; और तुम अब अधिकतर स्थितियों में परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं करते, तो जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तब तुम पूरी तरह बदल जाओगे। परमेश्वर के कार्य का वर्तमान चरण मनुष्य के विश्वासघात और विद्रोह का समाधान करने के लिए है। भविष्य की मानवजाति परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं करेगी क्योंकि शैतान को निपटाया जा चुका होगा। शैतान द्वारा मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट करने के मामले नहीं आएँगे; तब यह मामला मानवजाति से संबंधित नहीं रहेगा। अभी, लोगों को मनुष्य की विश्वासघाती प्रकृति को समझने के लिए कहा जा रहा है, जो अत्यंत महत्व का मुद्दा है। यहीं से तुम लोगों को शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर से विश्वासघात करने की प्रकृति में क्या-क्या शामिल है? विश्वासघात के खुलासे किन-किन रूपों में होते हैं? लोगों को कैसे चिंतन करना और समझना चाहिए? उन्हें कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? यह सब स्पष्ट रूप से देखना और समझना चाहिए। जब तक किसी के अंदर विश्वासघात की प्रकृति मौजूद रहती है, वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकता है। ऐसे लोग भले ही खुलेआम परमेश्वर को न नकारें या उसके साथ गद्दारी न करें, तो भी वे बहुत-सी ऐसी चीजें कर सकते हैं जिन्हें लोग विश्वासघात नहीं मानते, लेकिन मूलतः वे विश्वासघात ही हैं। इसका मतलब है कि लोगों के पास कोई स्वायत्तता नहीं है; शैतान ने उन पर पहले ही कब्जा कर लिया है। अगर तुम भ्रष्ट हुए बिना परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर सकते हो, तो अब जबकि तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से ओतप्रोत हो तो कितना ज्यादा विश्वासघात कर सकते हो? क्या तुम अब परमेश्वर के साथ कहीं भी और कभी भी विश्वासघात करने में और ज्यादा सक्षम नहीं हो? वर्तमान कार्य उन भ्रष्ट स्वभावों से पीछा छुड़ाने और उन चीजों को कम करने का है, जिनके कारण तुम परमेश्वर के साथ विश्वासघात करते हो, ताकि तुम्हें परमेश्वर द्वारा अपनी उपस्थिति में पूर्ण बनाने और स्वीकार किए जाने के और अवसर मिलें। जैसे-जैसे तुम्हें विभिन्न मामलों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव होगा, तुम कुछ सत्य प्राप्त करने और कुछ हद तक पूर्ण होने में सक्षम हो जाओगे। अगर शैतान और राक्षस अभी भी तुम्हें ललचाने आते हैं, या दुष्ट आत्माएँ तुम्हें गुमराह करने और बाधा डालने आती हैं, तो तुम कुछ भेद पहचान पाओगे और इस प्रकार परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने वाले तरीकों से कम पेश आओगे। यह चीज लोगों के अंदर समय के साथ विकसित होती है। जब शुरू में मनुष्यों को बनाया गया था तो वे परमेश्वर के प्रति समर्पण या उसकी आराधना करना नहीं जानते थे, न वे यह जानते थे कि उसके साथ विश्वासघात करना क्या होता है। जब शैतान उन्हें फुसलाने आया, तो उन्होंने उसका अनुसरण करके परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया, वे गद्दार बन गए, क्योंकि वे अच्छाई और बुराई में फर्क नहीं कर पाते थे, और उनमें परमेश्वर की आराधना करने की क्षमता नहीं थी—उससे भी कम उन्हें यह समझ थी कि मानवजाति का सृष्टिकर्ता परमेश्वर है और उसकी आराधना कैसे करनी चाहिए। अब परमेश्वर अपना ज्ञान कराने वाले सत्य—उसका सार, स्वभाव, सर्वशक्तिमत्ता, व्यावहारिकता, आदि—लोगों के अंदर ढालकर उन्हें बचाता है ताकि ये उनका जीवन बन सकें, और उन्हें स्वायत्तता देकर सत्य के अनुसार जीने के लायक बनाता है। जितनी गहराई से तुम परमेश्वर के वचनों और उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव करते हो, उतनी ही गहराई से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझोगे, और यह तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, उससे प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का संकल्प देगा। जितना ज्यादा तुम परमेश्वर को जानोगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव उतना ही ज्यादा त्याग सकोगे, और तुम्हारे अंदर ऐसी बहुत कम चीजें बचेंगी जो परमेश्वर को धोखा देती हैं और ऐसी चीजें ज्यादा होंगी जो उसके अनुरूप हैं, इस तरह से तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर विजय प्राप्त कर लोगे। सत्य के साथ लोग स्वायत्तता प्राप्त करेंगे और अब उन्हें शैतान न तो गुमराह कर पाएगा, न विवश कर पाएगा, और वे सच्चा मानव जीवन जिएँगे। कुछ लोग पूछते हैं : “अगर मनुष्य के भीतर भ्रष्ट प्रकृति है और वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है, तो परमेश्वर कैसे कह सकता है कि वह मनुष्य को पूर्ण किया है?” पूर्ण करने का मतलब है कि परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करके लोग परमेश्वर को और अपनी प्रकृति को जान लेते हैं, वे समझ जाते हैं कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है और उसके प्रति समर्पण कैसे करना है। वे परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में अंतर कर सकते हैं, पवित्र आत्मा के कार्य और दुष्ट आत्माओं के कार्य के बीच अंतर कर पाते हैं, और यह समझते हैं कि शैतान और राक्षस कैसे परमेश्वर का विरोध करते हैं, कैसे मानवजाति परमेश्वर का विरोध करती है, एक सृजित प्राणी क्या है, और सृष्टिकर्ता कौन है। ये सारी चीजें लोगों के अंदर उनके सृजन के बाद परमेश्वर के कार्य के माध्यम से जुड़ती हैं। इसलिए, अंत में पूर्ण किए गए मनुष्य उन मनुष्यों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं जिन्हें शुरू में भ्रष्ट नहीं किया गया था, क्योंकि परमेश्वर ने इनमें कुछ जोड़ा है, उनके अंदर कुछ गढ़ा है। इसलिए, अंत में तैयार किए गए मनुष्यों में आदम और हव्वा से ज्यादा स्वायत्तता है, साथ ही उन्हें इस सत्य की बेहतर समझ है कि खुद कैसा आचरण करना है, और परमेश्वर की आराधना और उसके प्रति समर्पण कैसे करना है। आदम और हव्वा इन चीजों को नहीं जानते थे। जब उन्हें साँप ने लुभाया तो उन्होंने नेकी और बुराई के ज्ञान के पेड़ से फल खा लिया, और इसके बाद उन्हें शर्म का अहसास हुआ, फिर भी वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की आराधना कैसे करें। तब से अब तक मानवजाति और ज्यादा भ्रष्ट होती गई है। यह बहुत गहन मामला है; कोई भी इसे स्पष्टता से नहीं समझता। मनुष्य देह की सहज प्रवृत्तियों की वजह से लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं, लेकिन अंततः परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करेगा और उसे अगले युग में ले जाएगा। यह बात समझना लोगों को मुश्किल लगती है; इसे धीरे-धीरे ही अनुभव किया जा सकता है। एक बार सत्य समझ में आ जाए, तो यह बात सहज रूप से स्पष्ट हो जाएगी।

लोगों के लिए परमेश्वर को जानना क्यों जरूरी है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर को जाने बिना लोग उसका विरोध करेंगे। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह गुमराह हो सकता है और शैतान और दुष्ट आत्माओं के हाथों इस्तेमाल हो सकता है। वह शैतान के प्रभाव से नहीं बच सकेगा, इस तरह वह उद्धार पाने में विफल हो जाएगा। लेकिन अगर कोई सत्य समझता है, तो उसके पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होगा, वह उसके प्रति वास्तव में समर्पण कर सकेगा, उसकी गवाही दे सकेगा और उसी का हो जाएगा। शैतान चाहकर भी ऐसे किसी व्यक्ति को गुमराह करने या उसका शोषण करने में सक्षम नहीं होगा; शैतान के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने और उद्धार प्राप्त करने का यही मतलब है, और यही महत्व परमेश्वर की इस अपेक्षा का है कि लोग उसे जानें। अगर तुम परमेश्वर को जानते हो, तो वह तुम्हें बचा सकता है; परमेश्वर को जाने बिना तुम उद्धार नहीं पा सकते। अगर कोई परमेश्वर के इरादों को नहीं समझता और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, इसके बजाय शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है, और सत्य को थोड़ा-बहुत समझने के बावजूद इसका अभ्यास नहीं करता, जानते हुए भी अपराध करता है, तो वह वास्तव में उद्धार से परे है। तुम लोग अब किस दशा में हो? अगर तुम लोगों के पास अभी थोड़ी-सी भी उम्मीद बची है, तो चाहे परमेश्वर तुम्हारे पुराने अपराध याद रखे या न रखे, तुम्हें कैसी मानसिकता बनाए रखनी चाहिए? “मुझे अपने स्वभाव में बदलाव लाना होगा, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना होगा, दोबारा कभी शैतान के बहकावे में नहीं आना होगा, और दोबारा ऐसा कुछ भी नहीं करना होगा जो परमेश्वर के नाम को शर्मसार करे।” लोग अब गहन रूप से भ्रष्ट हैं और किसी काम के नहीं हैं। ऐसे कौन से मुख्य क्षेत्र हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं और उनके लिए कोई उम्मीद बची है या नहीं? मुख्य बात है, किसी उपदेश को सुनने के बाद तुम सत्य को समझ सकते हो या नहीं, सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं, और तुम बदल सकते हो या नहीं। यही मुख्य क्षेत्र हैं। अगर तुम सिर्फ पछताते रहते हो और जब कुछ करने का समय आता है तो जो जी में आए वही करते हो, वही पुराने तरीके अपनाए रहते हो, न सिर्फ सत्य की खोज नहीं करते बल्कि अभी भी पुराने विचारों, तौर-तरीकों और विनियमों से चिपके रहते हो, न तो आत्म-चिंतन करते हो, न खुद को जानने का प्रयास करते हो, इसके बजाय और ज्यादा बिगड़ते जा रहे हो, और अभी भी अपने पुराने मार्ग पर चलने की जिद करते हो, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं बची होगी, और तुम्हारा पत्ता साफ कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के बारे में ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर और खुद को गहराई से जानकर तुम बुराई या पाप करने से खुद को बेहतर ढंग से रोक सकोगे। अपनी प्रकृति के बारे में तुम्हारा ज्ञान जितना गहन होगा, उतने ही बेहतर तरीके से तुम अपनी रक्षा कर सकोगे, और अपने अनुभवों और सबक का सारांश निकालने के बाद तुम दोबारा असफल नहीं होगे। असल तथ्य यह है कि सब में कुछ दोष होते हैं; बात सिर्फ इतनी है कि इनके लिए परमेश्वर उन्हें उत्तरदायी नहीं ठहराता। दोष सब में हैं, अंतर सिर्फ मात्रा का है; कुछ के बारे में बात की जा सकती है, तो कुछ के बारे में नहीं। कुछ लोग ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरे लोग जानते हैं, तो कुछ लोग ऐसे काम करते हैं कि इनके बारे में किसी को पता नहीं चलता। सबके अपने-अपने अपराध और दोष होते हैं, और वे सब कुछ निश्चित भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, जैसे अहंकार या आत्मतुष्टता; सभी अपने-अपने कार्य में कुछ भटकते हैं या कभी-कभार विद्रोही होते हैं। यह समझ में आने वाली बात है; भ्रष्ट मानवजाति इनसे बच नहीं सकती। लेकिन लोग जब एक बार सत्य समझ लें तो उन्हें इनसे बचने में सक्षम होना चाहिए और आगे से अपराध नहीं करने चाहिए; उन्हें अतीत के अपराधों से और परेशान होने की जरूरत नहीं है। मुख्य बात यह है कि लोग पश्चात्ताप करते हैं या नहीं, वे वास्तव में बदल चुके हैं या नहीं। जो पश्चात्ताप कर बदल जाते हैं उन्हें ही बचाया जाता है, जबकि जो पश्चात्ताप नहीं करते और नहीं बदलते उन्हें निकाल देना चाहिए। अगर सत्य समझने के बाद भी लोग जानबूझकर अपराध करते हैं, अगर वे कितनी भी काट-छाँट होने या चेतावनी मिलने के बावजूद पश्चात्ताप न करने पर अड़े रहते हैं और बिल्कुल भी नहीं बदलते, तो ऐसे लोगों का उद्धार नहीं हो सकता है।

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