स्वयं को जानने के बारे में वचन

अंश 44

अगर लोग खुद को जानना चाहते हैं, तो उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना होगा, और अपनी वास्तविक दशाओं को समझना होगा। अपनी दशा को जानने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू अपनी सोच और विचारों को समझना है। हर कालावधि में, लोगों की सोच और विचारों को एक ही बड़ी चीज ने नियंत्रित किया है। अगर तुम अपनी सोच और विचारों को समझ सकते हो, तो तुम उन चीजों को भी समझ पाओगे जो उनके पीछे होती हैं। लोग अपनी सोच और विचारों को नियंत्रित नहीं कर सकते। लेकिन, आपके लिए यह जानना आवश्यक है कि ऐसी सोच और विचार कहां से आते हैं, उनके पीछे की मंशाएँ क्या हैं, ऐसी सोच और विचार कैसे उत्पन्न होते हैं, उन्हें क्या चीज नियंत्रित करती है, और उनकी प्रकृति क्या है। जब किसी व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है, तो उसके बाद वह व्यक्ति जैसी सोच, विचारों, दृष्टिकोणों और लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है, जो उस बदले हुए भाग से उत्पन्न हुए हैं, वे पहले की तुलना में बहुत भिन्न होंगे—वास्तव में, वे सत्य की ओर जाएंगे और सत्य के अनुरूप रहेंगे। लोगों के भीतर जो चीजें बदली नहीं हैं, यानी उनकी पुरानी सोच, विचार, और दृष्टिकोण के साथ ही वे चीजें जिन्हें लोग पसंद करते हैं और जिनका अनुसरण करते हैं, वे बहुत ही गंदी, कुत्सित और घिनौनी होती हैं। सत्य को जान लेने के बाद, लोग इन चीजों को पहचानने और इन्हें स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाते हैं; इसलिए, वे इन चीजों को छोड़कर उनकी ओर से मुंह मोड़ पाते हैं। इस तरह के लोग निश्चित रूप से किसी न किसी तरह से बदल गए हैं। वे सत्य को स्वीकारने, सत्य पर अमल करने, और कुछ सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में समर्थ हो जाते हैं। जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं, वे इन भ्रष्ट या नकारात्मक चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, न ही उन्हें पहचान सकते हैं; इसलिए, वे इन चीजों की ओर से मुंह मोड़ना तो दूर, इन्हें छोड़ पाने में भी असमर्थ रहते हैं। इस अंतर का क्या कारण है? ऐसा क्यों है कि वे सब विश्वासी हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही लोग नकारात्मक और दूषित चीजों को पहचान सकते हैं, और उन्हें छोड़ सकते हैं, जबकि दूसरे इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, न ही खुद को उनसे मुक्त कर पाते हैं? यह स्पष्ट रूप से इस बात से जुड़ा है कि क्या वह व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है और उसे पाना चाहता है। जब वो लोग जो सत्य को पाना चाहते हैं, कुछ अवधि तक परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, और कुछ समय तक प्रवचनों को सुनते हैं, तब वे सत्य को समझ पाते हैं, और कुछ चीजों को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं; उन्होंने अपने जीवन में प्रगति कर ली है। इसके विपरीत, जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे भले ही उसी भांति सभाओं में जाएं, परमेश्वर के वचनों को पढ़ें, और प्रवचनों को सुनें, मगर वे सत्य को जान पाने में असमर्थ रहते हैं, और चाहे वे कितने ही वर्षों से विश्वासी रहे हों, जीवन प्रवेश नहीं कर पाते। ये लोग असफल रहे क्योंकि इन्होंने सत्य की खोज नहीं की। जो लोग सत्य की खोज नहीं करते वे सत्य को समझने में असमर्थ रहते हैं, चाहे उन्होंने कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया हो। जब उनका किसी हालात से सामना होता है तो वे उसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, लगभग वैसे ही जैसे कि वे कोई धार्मिक व्यक्ति हों। अपनी वर्षों की आस्था से उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है। अब तुम लोग कितना सत्य समझते हो? तुम किन चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो? क्या तुम नकारात्मक चीजों और लोगों को पहचान सकते हो? तुम नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास करना क्या होता है, न ही यह जानते हो कि तुम वास्तव में किसमें विश्वास करते हो। तुम अपने दैनिक जीवन के विचारों और इरादों को स्पष्ट रूप से नहीं पहचान सकते, तुम्हें पूरी तरह से यह भी पता नहीं है कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में तुम्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, और तुम यह भी नहीं जानते कि अपने कामकाज करते हुए या कर्तव्य निभाते समय तुम्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए। ये वे लोग हैं जिन्हें जीवन-प्रवेश प्राप्त नहीं है। केवल सही अर्थों में सत्य को समझकर, और यह जानकर कि सत्य पर कैसे चलना है, तुम विभिन्न तरह के लोगों को पहचान सकते हो, विभिन्न परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो, सत्य के अनुरूप काम कर सकते हो, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने में समर्थ हो सकते हो, और शीघ्रता से परमेश्वर की इच्छा के करीब पहुंच सकते हो। केवल इस तरह से अनुसरण करके ही तुम परिणाम प्राप्त करोगे।

अंश 45

इंसान में अक्सर कुछ नकारात्मक दशाएँ होती हैं। उनमें से कुछ दशाएँ लोगों को प्रभावित कर सकती हैं या उन्हें बाधित कर सकती हैं। कुछ दशाएँ व्यक्ति को सच्चे मार्ग से भटकाकर गलत दिशा में ले जा सकती हैं। लोग किसका अनुसरण करते हैं, किस पर ध्यान देते हैं, और किस मार्ग को चुनते हैं—ये सब उनकी आंतरिक दशाओं से जुड़ा होता है। लोग कमजोर हैं या मजबूत, यह भी सीधे-सीधे उनकी आंतरिक दशाओं से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, बहुत से लोग अब परमेश्वर के दिन पर विशेष रूप से जोर देते हैं। उन सबकी यही इच्छा है : वे चाहते हैं कि परमेश्वर का दिन जल्दी से आ जाए ताकि वे खुद को इस कष्ट से, इन बीमारियों से, इस यातना से, और अन्य प्रकार की पीड़ाओं से मुक्त कर सकें। लोग सोचते हैं कि जब परमेश्वर का दिन आएगा तो वे उन दुख-तकलीफ़ों से मुक्त हो जाएंगे जिन्हें वे अभी भोग रहे हैं, उन्हें फिर कभी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा, और वे आशीषों का आनंद ले पाएंगे। अगर कोई इस तरह की मनोस्थिति में परमेश्वर को समझने की कोशिश करता है या सत्य का अनुसरण करता है, तो उसकी जीवन प्रगति बहुत सीमित होगी। जब उन्हें कोई असफलता मिलती है या उनके साथ कुछ अप्रिय होता है तो उनके भीतर की सारी कमजोरी, सारी नकारात्मकता, और विद्रोह बाहर आ जाता है। तो अगर किसी की दशा असामान्य या गलत है, तो उसके अनुसरण का लक्ष्य भी गलत होगा और निश्चय ही नापाक होगा। कुछ लोग गलत दशाओं से प्रवेश पाने की कोशिश करते हैं, मगर फिर भी वे सोचते हैं कि वे अपने अनुसरण में अच्छा कर रहे हैं, वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप काम कर रहे हैं, और सत्य के अनुरूप अभ्यास कर रहे हैं। वे यह नहीं मानते कि वे परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध गए हैं या उसकी इच्छा से भटक गए हैं। तुम ऐसा महसूस कर सकते हो, लेकिन जब कोई अप्रिय घटना या माहौल तुम्हें कष्ट देता है, तुम्हारे कमजोर पहलुओं को और उन चीजों को छूता है जिनसे तुम्हें प्रेम है और जिनका तुम दिल की गहराइयों से पालन करते हो, तो तुम नकारात्मक हो जाओगे, तुम्हारी उम्मीदें और सपने टूट जाएंगे, और तुम स्वाभाविक रूप से कमजोर हो जाओगे। तो उस समय तुम्हारी स्थिति तय करती है कि तुम मजबूत हो या कमजोर। अभी तो बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि वे बहुत मजबूत हैं, उनके पास थोड़ा आध्यात्मिक कद है, और उनके अंदर पहले से कहीं ज्यादा आस्था है। उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग को अपनाया है, और उन्हें उस पर चलने के लिए प्रेरित करने को दूसरे लोगों की जरूरत नहीं है। इस मामले में, जब वे खास परिस्थितियों का सामना करते हैं या मुश्किल में पड़ते हैं, तो वे नकारात्मक या कमजोर क्यों हो जाते हैं? फिर वे शिकायत क्यों करते हैं और अपनी आस्था को त्याग देते हैं? यह दर्शाता है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कुछ नकारात्मक और असामान्य दशाएँ होती हैं। कुछ मानवीय अशुद्धियों को छोड़ना आसान नहीं होता। भले ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो भी तुम उन्हें पूरी तरह नहीं छोड़ सकते। इसे परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आधार पर करना चाहिए। अपनी स्वयं की दशाओं पर चिंतन-मनन करने के बाद लोगों को परमेश्वर के वचन से उनकी तुलना करनी चाहिए, और अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना चाहिए। केवल तभी धीरे-धीरे उनकी दशाएँ बदलेंगी। ऐसा नहीं है कि जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे, और अपनी दशाओं के बारे में जानेंगे, तो वे तुरंत ही उन्हें बदल पाएंगे। अगर लोग अक्सर परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे, अपनी दशाओं को स्पष्ट रूप से देखेंगे, और परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य की दिशा में प्रयत्न करेंगे, तो जब भविष्य में उनके अंदर से भ्रष्टता दिखेगी, या जब वे किसी असामान्य दशा में होंगे तो वे उसे पहचानने में सक्षम हो पाएंगे, और वे परमेश्वर से प्रार्थना करने में समर्थ हो पाएंगे, और समस्या को हल करने के लिए सत्य का इस्तेमाल कर पाएंगे, और उनकी गलत दशा में परिवर्तन आ सकेगा और वे धीरे-धीरे बदल पाएंगे। इस तरह, वे अशुद्धियों और उन चीजों को छोड़ने में समर्थ हो पाएंगे जिन्हें छोड़ देना चाहिए, जिन्हें लोग अपने भीतर सहेजे रहते हैं। परिणाम पाने से पहले लोगों के पास एक निश्चित स्तर का अनुभव होना चाहिए।

परमेश्वर में अपने विश्वास के आरंभ से ही, बहुत से लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर आशीष पाने के पीछे भागते हैं, और जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं। वे परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं और उसे लेकर धारणाएं बना लेते हैं या गलतफहमियां पाल लेते हैं। अगर कोई सत्य पर उनके साथ संगति नहीं करता है, तो वे दृढ़ नहीं बने रह पाएंगे, और वे किसी भी पल परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं। मान लो कि किसी नेपरमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर हमेशा से धारणाएं और कल्पनाएं गढ़ रखी हैं। इस व्यक्ति का मानना है कि अगर वह अपने परिवार को त्यागकर अपने कर्तव्य को पूरा करता है, तो परमेश्वर उसकी रक्षा करेगा और उसे आशीष देगा, और उसके परिवार का ध्यान रखेगा, और परमेश्वर को यही तो करना चाहिए। फिर किसी दिन उसके साथ कुछ ऐसा हो जाता है जो वह नहीं चाहता था—वह बीमार पड़ जाता है। अपने मेजबान परिवार के साथ रहना इतना आरामदेह नहीं है जितना अपने खुद के घर में रहना होता, और शायद वे उसका बहुत अच्छी तरह ध्यान भी नहीं रखेंगे। वह इसे सहन नहीं कर पाता है, और लंबे समय के लिए नकारात्मक और निराश हो जाता है। वह सत्य का अनुसरण भी नहीं करता, और सत्य को स्वीकार भी नहीं करता। इसका मतलब है कि लोगों के भीतर कुछ दशाएँ होती हैं, और अगर वे न तो पहचानें, न समझें, और न ही यह महसूस करें कि ये दशाएँ गलत हैं, तो भले ही उनके भीतर अभी भी जुनून हो, और वे बहुत कुछ अनुसरण करते हों, मगर किसी न किसी बिंदु पर उनका सामना किसी ऐसी परिस्थिति से होगा जो उनकी आंतरिक दशा को उजागर कर देगी, और उन्हें लड़खड़ाकर गिरा देगी। जब तुम चिंतन-मनन करने या खुद को जान पाने में सक्षम नहीं होते हो तो यही होता है। वे सभी लोग जो सत्य को नहीं समझते हैं, ऐसे ही होते हैं; तुम नहीं जानते कि वे कब लड़खड़ाकर गिर जाएंगे, कब वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएंगे, या कब वे परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। देख लो, जो लोग सत्य को नहीं समझते, उन्हें कितने संकट का सामना करना पड़ता है! लेकिन सत्य को समझना सरल बात नहीं है। इसमें बहुत समय लगता है जब तुम अंततः प्रकाश की हल्की सी झलक पा सको, रत्ती भर भी सच्चा ज्ञान पा सको, और जरा से भी सत्य को समझ सको। अगर तुम्हारे इरादे बुरी तरह से दूषित हैं और उन्हें सुधारा नहीं जा सकता, तो वे कभी भी तुम्हारे ज्ञान के हल्के से प्रकाश को बुझा देंगे, और तुम्हारी मामूली सी आस्था तक को मिटा देंगे, और यह निश्चय ही बहुत खतरनाक है। फिलहाल तो अहम मुद्दा यह है कि सभी लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर कुछ निश्चित धारणाएं और कल्पनाएं होती हैं, लेकिन जब तक वे उजागर नहीं होतीं, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते; वे अंदर ही छिपी रहती हैं, और तुम नहीं जानते कि किस समय, या किन परिस्थितियों में वे बाहर आ जाएंगी और लोगों को लड़खड़ा देंगी। भले ही सबकी आकांक्षाएं अच्छी होती हैं, और वे अच्छे विश्वासी बनना और सत्य को पाना चाहते हैं, मगर उनके इरादे बहुत अधिक दूषित होते हैं, और उनमें बहुत सी धारणाएं और कल्पनाएं होती हैं जो उनके सत्य का अनुसरण करने और जीवन में प्रवेश करने में भारी बाधा डालती हैं। वे ये चीजें करना चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते। उदाहरण के लिए, लोगों के लिए तब समर्पण करना मुश्किल हो जाता है जब उनके साथ काट-छांट की जाती है और उनसे निपटा जाता है; जब उनकी परीक्षा ली जाती है या उनका शोधन किया जाता है, तब वे परमेश्वर से बहस करना चाहते हैं। जब वे बीमार पड़ते हैं या किसी संकट में घिर जाते हैं तो वे अपनी रक्षा न करने के लिए परमेश्वर को दोष देते हैं। इस तरह के लोग कैसे परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सकते हैं? उनके पास तो परमेश्वर का आज्ञापालन करने की बुनियादी इच्छा भी नहीं होती, तो वे सत्य को कैसे पा सकते हैं? कुछ लोग छोटी से छोटी चीज के भी उनके अनुरूप न होने पर नकारात्मक हो जाते हैं; वे दूसरे लोगों के फैसलों के कारण लड़खड़ा जाते हैं, और गिरफ्तार होने पर परमेश्वर से विश्वासघात करते हैं। यह तो सच है कि तुम कभी नहीं जान सकते कि भविष्य में क्या होना है, सुख मिलेगा या बर्बादी आएगी। हर व्यक्ति के अंदर ऐसा कुछ होता है जिसके पीछे वह जाना और उसे पाना चाहता है; उनके पास ऐसी चीजें होती हैं जो उन्हें पसंद होती हैं। ऐसी चीजों के पीछे जाना जो उन्हें पसंद होती हैं, उन पर आपदा ला सकती है, लेकिन वे इसे महसूस नहीं करते, वे अभी भी यही मानते हैं कि जिन चीजों के लिए वे कोशिश करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं, वे सही हैं, और इन चीजों में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर किसी दिन दुर्भाग्य आ पड़ता है, और वे चीजें जिनके लिए वे कोशिश करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं उनसे छीन ली जाती हैं, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, और खुद को संभाल नहीं पाते। वे जान नहीं पाएंगे कि क्या हुआ था, वे अन्यायी होने के लिए परमेश्वर को दोष देंगे, और परमेश्वर के विरुद्ध उनके विश्वासघात की भावना सामने आ जाएगी। अगर लोग खुद को नहीं जानेंगे, तो वे समझ नहीं पाएंगे कि उनका कमजोर पहलू क्या है, न ही वे यह समझ पाएंगे कि उनके लिए कहां असफल होना या लड़खड़ाना आसान होगा। यह वाकई दुखद है। इसीलिए हम कहते हैं कि अगर तुम खुद को नहीं जानते हो तो तुम कभी भी लड़खड़ा सकते हो या असफल हो सकते हो, और खुद को खत्म कर सकते हो।

बहुत से लोगों ने कहा है : “मैं सत्य के हर पक्ष को समझता हूं, मगर मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता।” यह लोगों के सत्य का अभ्यास न करने के मूल कारण को उजागर करता है। वे किस तरह के लोग हैं जो सत्य को समझते तो हैं पर फिर भी उसका अभ्यास नहीं कर सकते? निश्चित रूप से, केवल वही लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते हैं जो सत्य से उकता गए हैं और उससे घृणा करते हैं, और यह समस्या उनकी प्रकृति में है। सत्य को न समझ पाने वाले लोग भी यदि सत्य से प्रेम करते हैं, तो वे अपनी अंतरात्मा के अनुसार काम करेंगे और कोई बुरा काम नहीं करेंगे। अगर किसी व्यक्ति की प्रकृति सत्य से उकता गई है, तो वह कभी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाएगा। जो लोग सत्य से उकता चुके हैं, वे केवल परमेश्वर की आशीष पाने के लिए उसमें विश्वास करते हैं, सत्य पर चलने और उद्धार पाने के लिए नहीं। यदि वे अपने कर्तव्यों को पूरा भी करते हैं, तो ऐसा सत्य को पाने की खातिर नहीं होता बल्कि पूरी तरह से आशीष पाने के लिए होता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जिन पर अत्याचार होता है और वे अपने घरों को नहीं लौट पाते हैं, अपने हृदय में सोचते हैं, “परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण मुझ पर जुल्म हुआ है और मैं अपने घर नहीं लौट सकता। एक दिन परमेश्वर मुझे एक बेहतर घर देगा; परमेश्वर मुझे व्यर्थ ही कष्ट नहीं भोगने देगा,” या “मैं जहां भी हूं, परमेश्वर मुझे खाने के लिए भोजन देगा, और वह मुझे किसी अंधी गली में नहीं जाने देगा। अगर वह मुझे किसी अंधी गली में जाने देने देगा, तो वह वास्तविक परमेश्वर नहीं होगा। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा।” क्या ऐसी चीजें मनुष्य के भीतर मौजूद नहीं होतीं? कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया, और अब परमेश्वर को मुझे उन लोगों के हाथों में नहीं छोड़ना चाहिए जो सत्ताधारी हैं; मैंने इतने उत्साह से अनुसरण किया है, परमेश्वर को मेरी रक्षा कर मुझे आशीष देनी चाहिए। हम परमेश्वर के दिन के आगमन की इतनी कामना करते हैं, तो परमेश्वर का दिन जल्द से जल्द आ जाना चाहिए। परमेश्वर को मनुष्य की इच्छाओं को पूरा करना चाहिए।” बहुत से लोग इस प्रकार सोचते हैं—क्या यह मनुष्य की अनावश्यक माँग नहीं है? लोगों ने हमेशा परमेश्वर से अनावश्यक माँगें की हैं, हमेशा ऐसा सोचा है : “हमने अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपने परिवारों को त्याग दिया, तो परमेश्वर को हमें आशीष देनी चाहिए। हमने परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप काम किया है, इसलिए परमेश्वर को हमें पुरस्कृत करना चाहिए।” बहुत से लोग परमेश्वर में विश्वास करते हुए इस तरह की बातों को अपने दिल में पालते हैं। वे दूसरे लोगों को स्वयं को परमेश्वर की खातिर खपाने के लिए बड़ी सहजता से अपने परिवारों से दूर जाते और सब कुछ त्यागते देखते हैं, और सोचते हैं, “उन्होंने इतने समय से अपने परिवारों को छोड़ा हुआ है, ऐसा कैसे कि वे अपने परिवारों को याद नहीं करते? वे इस स्थिति से कैसे उबरते हैं? मैं इससे कैसे नहीं उबर सकती? ऐसा कैसे कि मैं अपने परिवार को, पति (या पत्नी) को, और बच्चों को नहीं छोड़ सकती? ऐसा कैसे कि परमेश्वर उन पर मेहरबान है लेकिन मुझ पर नहीं है? पवित्र आत्मा मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करता या मेरे साथ क्यों नहीं रहता?” यह कैसी स्थिति है? लोगों में समझ का कितना अभाव है; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और फिर वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, और वे वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए। लोगों को सत्य का अनुसरण करने वाले मार्ग को चुनना चाहिए, लेकिन वे सत्य से उकता गए हैं, वे दैहिक सुखों की इच्छा करते हैं, और हमेशा आशीष पाना और कृपाओं का सुख भोगना चाहते हैं, साथ ही शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर की मनुष्य से बहुत अधिक अपेक्षाएँ हैं। वे परमेश्वर से अपेक्षा करते रहते हैं कि वह उनके प्रति कृपालु हो और उन पर और अधिक कृपा बरसाए, और उन्हें दैहिक सुखों का अनुभव करने की अनुमति दे—क्या ये लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं? वे सोचते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने परिवार को त्याग दिया है और मैंने इतने कष्ट भोगे हैं। परमेश्वर को मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए, ताकि मैं घर को याद न करूं और त्याग करने का संकल्प ले सकूं। उसे मुझे शक्ति प्रदान करनी चाहिए, फिर मैं नकारात्मक और कमजोर नहीं बनूंगा। दूसरे लोग इतने मजबूत हैं, परमेश्वर को मुझे भी मजबूत बनाना चाहिए।” ये शब्द जो लोग बोलते हैं पूरी तरह से तर्क और आस्था से रहित हैं। ये इसलिए बोले जाते हैं कि लोगों की अनावश्यक मांगें पूरी नहीं हुई हैं, जिसने उन्हें परमेश्वर के प्रति असंतोष से भर दिया है। ये वे बातें हैं जो उनके हृदयों से निकलती हैं, और वे पूरी तरह से लोगों की प्रकृति को दर्शाती हैं। ये चीजें लोगों के अंदर बसी होती हैं, और अगर इन्हें दूर न किया जाए, तो वे कभी भी और कहीं भी लोगों को परमेश्वर को लेकर शिकायतें करने और उसे गलत समझने की ओर ले जा सकती हैं। संभव है लोग ईशनिंदा करें, और वे किसी भी पल और किसी भी स्थान पर सच्चे मार्ग को छोड़ सकते हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। क्या अब तुम लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से देखते हो? लोगों को उन चीजों को जानना चाहिए जो उनकी प्रकृति से उपजती हैं। यह बहुत ही गंभीर मामला है जिसे सावधानी के साथ देखना चाहिए, क्योंकि यह इस मुद्दे को स्पर्श करता है कि लोग अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे या नहीं, और इस मुद्दे को कि क्या वे परमेश्वर में अपने विश्वास में उद्धार पा सकेंगे या नहीं। जहां तक उन लोगों की बात है जो थोड़ा सा सत्य समझते हैं, अगर वे यह समझें कि उनके भीतर ये चीजें पनप रही हैं, और अगर इस समस्या का पता चलने पर, वे इसकी छानबीन कर सकें और इसकी गहराई में जा सकें, तो वे इस समस्या को हल करने में सक्षम होंगे। अगर वे यह नहीं समझेंगे कि उनके अंदर ये चीजें पनप रही हैं, तो उनके लिए इस समस्या को हल कर पाने का कोई तरीका नहीं होगा, और वे केवल परमेश्वर के खुलासे या तथ्यों के उजागर होने की ही प्रतीक्षा कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे आत्मचिंतन का मोल नहीं जानते। वे हमेशा यही मानते हैं कि यह एक महत्वहीन चीज है, और वे यह सोचकर खुद को बहला लेते हैं, “सब लोग ऐसे ही होते हैं—थोड़ी-बहुत शिकायत करना कोई बड़ी बात नहीं है। परमेश्वर इसे क्षमा कर देगा और इसे याद नहीं रखेगा।” लोग नहीं जानते कि आत्मचिंतन कैसे करें या समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य कैसे खोजें, वे इनमें से किसी भी चीज का अभ्यास नहीं कर सकते। वे सभी भ्रमित, और अत्यंत आलसी हैं, और साथ ही वे कल्पनाओं पर निर्भर रहते हैं और उनमें डूबे रह सकते हैं। वे कामना करते हैं : “एक दिन परमेश्वर हमारे भीतर आमूलचूल परिवर्तन लाएगा, और फिर हम ऐसे आलसी नहीं रह जाएंगे, हम पूरी तरह से पवित्र हो जाएंगे, और परमेश्वर की शक्ति को ऊँचा मानेंगे।” कल्पना करने के लिए यह एक आकर्षक चीज है, लेकिन यह अवास्तविक है। अगर इतने सारे प्रवचन सुनने के बाद भी कोई व्यक्ति इस तरह की धारणा व्यक्त कर सकता है और ऐसी कल्पनाएं कर सकता है, तो उसे परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है, और आज भी, वह स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया है कि परमेश्वर किस तरह लोगों को बचाता है। इस तरह के लोग बेहद अज्ञानी होते हैं। परमेश्वर का घर क्यों हमेशा खुद को जानने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने के बारे में संगति करता है? यह हर व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। अगर तुम वाकई स्पष्ट रूप से देख सकते हो कि परमेश्वर किस तरह लोगों को बचाता है, तो तुम्हें खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और तुम्हें नियमित रूप से आत्मचिंतन करना चाहिए—तभी तुम्हें जीवन में वास्तविक प्रवेश मिलेगा। जब तुम्हें एहसास होगा कि तुम भ्रष्टता दिखा रहे हो, तो क्या तुम सत्य की खोज कर पाओगे? क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर पाओगे और दैहिक सुखों को त्याग पाओगे? सत्य का अभ्यास करने के लिए यह पहली शर्त है, और यह एक महत्वपूर्ण कदम है। अगर जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, और जो कुछ भी तुम करते हो, उन सबमें तुम इससे अवगत रह सकते हो कि कैसे इस तरह से अभ्यास करें जो सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान हो जाएगा, और तुम जीवन में प्रवेश पा सकोगे। अगर तुम खुद को जानने में समर्थ नहीं हो, तो तुम्हारा जीवन कैसे प्रगति कर सकता है? भले ही तुम कितने भी नकारात्मक और कमजोर हो, अगर तुम आत्मचिंतन नहीं करते और खुद को नहीं पहचान पाते हो, या परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो, तो इससे बस यही साबित होता है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम कभी सत्य को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे।

पहले, कुछ लोग सोचते थे : “हम बड़े लाल अजगर के शीघ्र पतन की कामना करते हैं और हमें आशा है कि परमेश्वर का दिन शीघ्र ही आएगा। क्या ये वैध अपेक्षाएँ नहीं हैं? क्या परमेश्वर के दिन के शीघ्र आने की कामना करना वैसा ही नहीं है जैसा कि यह कामना करना कि परमेश्वर की महिमा जितनी जल्दी हो सके लाई जाए?” वे गुपचुप रूप से इसे व्यक्त करने के लिए कुछ अच्छे लगने वाले तरीके ढूंढ़ लेते हैं, लेकिन वास्तव में, वे इन चीजों की स्वयं अपने लिए आशा कर रहे होते हैं। अगर वे अपनी खातिर इसकी कामना नहीं कर रहे होते, तो किस चीज की कामना करते? लोग बस यही कामना करते हैं कि जल्दी से अपनी दुखद स्थितियों और इस दर्द भरी दुनिया से मुक्त हो जाएं। कुछ लोग विशेष रूप से ऐसे होते हैं जो पूर्व में परमेश्वर की प्रथम संतान को दिए गए वादों को देखते हैं और इसके लिए उनके अंदर गहरी तृष्णा जाग जाती है। वे जब भी उन शब्दों को पढ़ते हैं, तो यह मरीचिका को देखकर अपनी तृष्णा को शांत करने जैसा होता है। मनुष्य की स्वार्थपूर्ण इच्छाएं अभी पूरी तरह त्यागी नहीं गई हैं, इसलिए तुम चाहे जैसे भी सत्य का अनुसरण करो, यह हमेशा अधमना ही होगा। बहुत से लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, हमेशा परमेश्वर के दिन के आने की कामना करते हैं ताकि वे अपने कष्टों से मुक्त हो सकें और स्वर्ग के राज्य की आशीषों का आनंद ले सकें। जब यह नहीं आता है, तो वे पीड़ा से भर जाते हैं, और कुछ लोग चिल्लाते हैं : “परमेश्वर का दिन कब आएगा? मेरा अभी तक विवाह भी नहीं हुआ है, मैं अब और इंतजार नहीं करता रह सकता! मुझे अपने माता-पिता के प्रति संतान का धर्म निभाना है, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता! मुझे अभी संतान पैदा करनी है ताकि वे मेरे वृद्ध होने पर मेरी देखभाल करें! परमेश्वर का दिन जल्दी से आना चाहिए! हम सब मिलकर इसके लिए प्रार्थना करें!” वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं, अब तक बिना कोई शिकायत किए यहां तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या परमेश्वर के वचन उनका मार्गदर्शन नहीं करते, और परमेश्वर के वचन उनका साथ नहीं देते? लोगों के भीतर बहुत सारी अशुद्धियां होती हैं, क्या शोधन को स्वीकार न करना उनके लिए व्यवहार्य है? वे कष्ट पाए बिना कैसे बदल सकते हैं? लोगों को एक सीमा तक ही शोधित किया जाना चाहिए, और उन्हें आगे बिना कोई शिकायत किए परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करने के लिए इच्छुक रहना चाहिए—तभी वे पूरी तरह से बदल पाएंगे।

अंश 48

जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनमें से किस तरह के व्यक्ति को बचाए जाने की संभावना सबसे कम है, और किसी तरह की प्रकृति के कारण विनाश की संभावना सबसे ज्यादा है? क्या तुम लोग यह स्पष्ट रूप से समझते हो? चाहे कोई अगुआ हो या अनुयायी, मनुष्य की सामान्य प्रकृति क्या होती है? मनुष्य की प्रकृति में सामान्य तत्व परमेश्वर के प्रति विश्वासघात है; हर एक व्यक्ति परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम है। परमेश्वर को धोखा देना किसे कहते हैं? इसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं? क्या जो लोग परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हैं, वही उसे धोखा देते हैं? लोगों को मनुष्य का सार समझना चाहिए और इसकी जड़ तक जाना चाहिए। तुम्हारे नाज-नखरे, कमियाँ, बुरी आदतें या संस्कारों में कमी सभी सतही पहलू हैं। अगर तुम हमेशा इन मामूली चीजों से चिपके रहते हो, बिना सोचे-समझे नियम लागू करते हो और जो जरूरी है उसे समझने में नाकाम रहते हो, अपनी प्रकृति में निहित चीजों और अपने भ्रष्ट स्वभाव को अनसुलझा रहने देते हो, तो तुम अंततः भटक जाओगे और परमेश्वर का विरोध करने लगोगे। लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं—यह एक गंभीर समस्या है। शायद कुछ देर के लिए तुम्हारे पास थोड़ा-सा परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय हो, तुम उत्साह के साथ खुद को खपाओ और थोड़े-से समर्पण के साथ अपने कर्तव्य निभाओ; या इस दौरान तुम्हारे पास पूरी तरह सामान्य समझ और अंतरात्मा हो, लेकिन लोग अस्थिर और चंचल होते हैं, वे एक इकलौती घटना की वजह से कहीं भी और कभी भी परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी के पास पूरी तरह से सामान्य समझ हो सकती है, उसके पास पवित्रात्मा का कार्य, व्यावहारिक अनुभव, बोझ और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति समर्पण हो सकता है, लेकिन जब उसकी आस्था बहुत मजबूत हो, तभी परमेश्वर का घर एक ऐसे मसीह-विरोधी को निष्कासित कर दे जिसकी वह पूजा करता है, तो उसके मन में धारणाएँ पनपने लगती हैं। वह एकदम से नकारात्मक हो जाता है, अपने कार्य में उत्साह खो देता है, अपना कर्तव्य लापरवाह और अनमना होकर निभाता है, प्रार्थना नहीं करना चाहता, और शिकायत करता है, “प्रार्थना क्यों करूँ? अगर किसी इतने अच्छे इंसान को निष्कासित किया जा सकता है, तो किसे बचाया जा सकता है? परमेश्वर को लोगों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए!” उसके शब्दों की प्रकृति क्या है? सिर्फ एक घटना उसकी इच्छा के अनुसार नहीं होती और वह परमेश्वर पर फैसला सुनाने लगता है। क्या यह परमेश्वर को धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर से भटक सकते हैं; किसी स्थिति का सामना करने पर उनमें धारणाएँ पनप सकती हैं और वे परमेश्वर की निंदा और आलोचना कर सकते हैं—क्या यह परमेश्वर को धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? यह बहुत बड़ी बात है। अब शायद तुम्हें लगे कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति कोई धारणा नहीं है और तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो, लेकिन अगर तुम कुछ गलत कर बैठे और अचानक तुम्हारे साथ सख्ती से काट-छाँट की जाए और तुमसे निपटा जाए, तो क्या तब भी तुम समर्पण कर सकोगे? क्या तुम समाधान के लिए सत्य की खोज कर पाओगे? अगर तुम समर्पण नहीं कर सकते या अपने विद्रोहीपन की समस्या सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोज सकते, तो अब भी यह संभावना है कि तुम परमेश्वर को धोखा दे दो। हो सकता है तुमने वास्तव में यह न कहा हो कि “मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं करता,” लेकिन उस वक्त तुम्हारा हृदय उसे पहले ही धोखा दे चुका है। तुम्हें स्पष्ट रूप से समझना है कि मनुष्य की प्रकृति वास्तव में क्या है। क्या धोखा देना ही इस प्रकृति का सार है? बहुत कम लोग ही मनुष्य की प्रकृति का सार स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं। निस्संदेह, कुछ लोगों में थोड़ी-सी अंतरात्मा और अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है, तो कुछ में कोई मानवता नहीं होती, लेकिन चाहे किसी में अच्छी मानवता हो या बुरी, या चाहे वह खूब काबिल हो या कम काबिल हो, इनमें एक समान बात यह है कि ये सब परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। मनुष्य की प्रकृति मूलत: परमेश्वर को धोखा देने की है। तुम लोग सोचा करते थे, “चूँकि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य प्रकृतिवश परमेश्वर को धोखा देते हैं, इसलिए धीरे-धीरे बदलने के सिवाय मैं इस मामले में और कुछ नहीं कर सकता।” क्या तुम लोग अभी भी इसी तरह सोचते हो? तो तुम्हीं बताओ, क्या कोई भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है? लोग भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। जब परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया, उसने उन्हें स्वतंत्र इच्छा दी। मनुष्य विशेष रूप से नाजुक हैं; उनमें यह जन्मजात इच्छा नहीं होती कि वे परमेश्वर के करीब आकर कहें, “परमेश्वर हमारा सृष्टिकर्ता है, और हम सृजित प्राणी हैं।” मनुष्यों में ऐसी कोई संकल्पना नहीं होती है। उनमें स्वाभाविक रूप से सत्य का अभाव होता है, न उनमें परमेश्वर की आराधना करने जैसा कोई भाव होता है। परमेश्वर ने मनुष्यों को स्वतंत्र इच्छा दी है, उन्हें सोचने की अनुमति दी है, लेकिन लोग सत्य नहीं स्वीकारते, परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं जानते, और वे नहीं जानते कि उसकी आज्ञा का पालन कैसे करें और उसकी आराधना कैसे करें। मनुष्यों में ये चीजें नहीं होतीं, इसलिए वे भ्रष्ट हुए बिना भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। क्यों कहें कि तुम परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हो? जब शैतान तुम्हें ललचाने आता है, तुम शैतान का अनुसरण करते हो और परमेश्वर को धोखा देते हो। तुम्हें परमेश्वर ने बनाया लेकिन तुम उसका अनुसरण नहीं करते, उसके बजाय शैतान का अनुसरण करते हो—क्या यह तुम्हें गद्दार नहीं बनाता? परिभाषा के अनुसार गद्दार वह होता है, जो धोखा देता है। क्या तुम इसका सार पूरी तरह से समझते हो? इसलिए, लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। लोग परमेश्वर को धोखा सिर्फ तब नहीं देंगे जब वे पूरी तरह परमेश्वर के राज्य और उसके प्रकाश में रहेंगे, जब शैतान का सब कुछ नष्ट हो जाएगा और जब उन्हें पाप करने के लिए ललचाने या लुभाने वाली कोई चीज नहीं होगी। अगर उन्हें पाप करने के लिए लुभाने वाली कोई भी चीज है तो वे अभी भी परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम होंगे। इसलिए मनुष्य निकम्मे हैं। कुछ वचन और सिद्धांत बघार लेने भर से तुम्हें लग सकता है कि तुम कुछ सत्य समझते हो और परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकते, इसलिए तुम्हें कम से कम मिट्टी के बर्तनों से अधिक मूल्यवान समझा जाना चाहिए, सोने-चाँदी की तरह न सही, काँसा या लोहा तो मानना ही चाहिए, लेकिन तुम खुद को जरूरत से ज्यादा ऊँचा आँकते हो। क्या तुम जानते हो कि मनुष्य वास्तव में क्या हैं? लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं, उनकी कीमत धेले भर नहीं है; जैसा कि परमेश्वर ने कहा : मनुष्य जानवर हैं, निकम्मे दुष्ट हैं। लेकिन अपने हृदय में लोग इस तरह से नहीं सोचते। वे सोचते हैं, “मुझे नहीं लगता कि मैं निकम्मा दुष्ट हूँ। मैं इस मामले की थाह क्यों नहीं ले सकता? मैंने इसका अनुभव कैसे नहीं किया है? परमेश्वर में मेरा सच्चा विश्वास है; मुझमें आस्था है, इसलिए मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकता। परमेश्वर के वचन बिल्कुल सत्य हैं, लेकिन मैं इस वाक्यांश को नहीं समझ सकता, ‘लोग परमेश्वर को कभी भी और कहीं भी धोखा दे सकते हैं।’ मैं पहले ही परमेश्वर का प्रेम देख चुका हूँ; मैं उसे कभी धोखा नहीं दे सकता।” लोग अपने हृदय में ऐसा ही सोचते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें ऐसे ही हवा में नहीं बोला गया है। तुम लोगों के सामने हर मामला स्पष्ट कर दिया गया है, तुम्हें पूरी तरह से समझा दिया गया है; सिर्फ इसी तरह से तुम लोग अपनी भ्रष्टता पहचान सकोगे और धोखा देने की समस्या का समाधान कर सकोगे। परमेश्वर के राज्य में कोई विश्वासघात नहीं होगा; जब लोग परमेश्वर के प्रभुत्व में रहते हैं और शैतान के नियंत्रण में नहीं होते तो वे वास्तव में स्वतंत्र होते हैं। तब परमेश्वर को धोखा देने के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी; ऐसी चिंता फिजूल और गौण होगी। भविष्य में यह घोषणा की जा सकती है कि तुम लोगों में ऐसी कोई चीज नहीं है जो परमेश्वर को धोखा दे, लेकिन फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है। क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे कभी भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। ऐसा नहीं है कि कुछ विशेष परिस्थितियाँ ही विश्वासघात की तरफ ले जाती हैं, और ये विशेष परिस्थितियाँ या दबाव न होने पर तुम परमेश्वर को धोखा नहीं दोगे—बिना दबाव के भी तुम उसे धोखा दे सकते हो। यह मनुष्य के भ्रष्ट सार की समस्या है, मनुष्य की प्रकृति की समस्या है। भले ही तुम अभी कुछ सोच या कर नहीं रहे हो, तुम्हारी प्रकृति की वास्तविकता का अस्तित्व वास्तव में है, और इसे कोई मिटा नहीं सकता। चूँकि तुम्हारे अंदर परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति है; परमेश्वर तुम्हारे हृदय में नहीं है; तुम्हारे अंतरतम में न तो परमेश्वर के लिए कोई जगह है, न सत्य की उपस्थिति है; इस तरह तुम कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हो। फरिश्तों की बात अलग है; उनमें परमेश्वर का स्वभाव या सार तो नहीं होता, लेकिन वे पूरी तरह परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर लेते हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने विशेष रूप से अपनी सेवा के लिए बनाया है, हर जगह अपने आदेश पूरे कराने के लिए बनाया है। वे पूरी तरह से परमेश्वर के हैं। जहाँ तक मनुष्यों की बात है, परमेश्वर ने चाहा कि वे धरती पर रहें, लेकिन अपनी आराधना करने की योग्यता उन्हें नहीं दी। इसलिए मनुष्य परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उसका विरोध कर सकते हैं। इससे साबित होता है कि मनुष्यों को कोई भी इस्तेमाल कर सकता है और चुनौती दे सकता है; उनकी अपनी कोई संप्रभुता नहीं है। मनुष्य ऐसे प्राणी हैं, जिनकी कोई गरिमा नहीं है और वे निकम्मे हैं!

परमेश्वर लोगों की धोखेबाज प्रकृति का खुलासा इसलिए करता है कि वे इस मसले की और अपनी सच्ची समझ पा सकें। इस पहलू से लोग खुद को बदलना शुरू कर अभ्यास का मार्ग खोजने का प्रयास कर सकते हैं, यह समझ सकते हैं कि वे किन चीजों में परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उनके कौन-से भ्रष्ट स्वभाव उन्हें परमेश्वर को धोखा देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। एक बार तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम बहुत से पहलुओं में परमेश्वर के प्रति विद्रोह नहीं करते और अधिकतर पहलुओं में उसे धोखा नहीं देते, तो जब तुम अपने जीवन की यात्रा के अंत पर पहुँचोगे, जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो चुका होगा, तुम्हें इस बारे में और चिंता करने की जरूरत नहीं होगी कि क्या तुम भविष्य में परमेश्वर को धोखा दे सकते हो या नहीं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? शैतान के हाथों भ्रष्ट होने से पहले लोग उसके बहकावे में आकर परमेश्वर को धोखा दे देते थे। जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तो क्या लोग परमेश्वर को धोखा देना बंद नहीं कर देंगे? वह समय अभी नहीं आया है। लोगों के अंदर अभी भी शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा देने में सक्षम हैं। एक बार तुमने एक निश्चित चरण तक जीवन का अनुभव कर लिया, जहाँ तुमने परमेश्वर को धोखा देने और उसका विरोध करने के बारे में गलत विचार, धारणाएँ और कल्पनाएँ छोड़ दीं; तुमने सत्य समझ लिया, तुम्हारे हृदय में बहुत सारी सकारात्मक चीजें आ गईं; तुम खुद को और अपने क्रियाकलापों को वश में रख सकते हो; और तुम अब अधिकतर स्थितियों में परमेश्वर को धोखा नहीं देते, तो जब शैतान नष्ट हो जाएगा, तब तुम पूरी तरह बदल जाओगे। परमेश्वर के कार्य का वर्तमान चरण मनुष्य के विश्वासघात और विद्रोह का समाधान करने के लिए है। भविष्य की मानवजाति परमेश्वर को धोखा नहीं देगी क्योंकि शैतान को निपटाया जा चुका होगा। शैतान द्वारा मानवजाति को धोखा देने और भ्रष्ट करने के मामले नहीं आएँगे; तब यह मामला मानवजाति से संबंधित नहीं रहेगा। अभी, लोगों को मनुष्य की धोखा देने वाली प्रकृति को समझने के लिए कहा जा रहा है, जो अत्यंत महत्व का मुद्दा है। यहीं से तुम लोगों को शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति का संबंध किससे है? धोखा देने की अभिव्यक्तियाँ कैसी होती हैं? लोगों को कैसे चिंतन करना और समझना चाहिए? उन्हें कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? यह सब स्पष्ट रूप से देखना और समझना चाहिए। जब तक किसी के अंदर धोखा देने की प्रकृति मौजूद रहती है, वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है। ऐसे लोग भले ही खुलेआम परमेश्वर को न नकारें या उससे विद्रोह न करें, तो भी वे बहुत-सी ऐसी चीजें कर सकते हैं जिन्हें लोग धोखा नहीं मानते, लेकिन मूलतः वे धोखा ही हैं। इसका मतलब है कि लोगों के पास कोई स्वायत्तता नहीं है; शैतान ने उन पर पहले ही कब्जा कर लिया है। अगर तुम भ्रष्ट हुए बिना परमेश्वर को धोखा दे सकते हो, तो अब जबकि तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से ओतप्रोत हो तो कितना ज्यादा धोखा दे सकते हो? क्या तुम अब परमेश्वर को कहीं भी और कभी भी धोखा देने में और ज्यादा सक्षम नहीं हो? वर्तमान कार्य उन भ्रष्ट स्वभावों से पीछा छुड़ाने और उन चीजों को कम करने का है, जिनके कारण तुम परमेश्वर को धोखा देते हो, ताकि तुम्हें परमेश्वर द्वारा अपनी उपस्थिति में पूर्ण बनाने और स्वीकार किए जाने के और अवसर मिलें। जैसे-जैसे तुम्हें विभिन्न मामलों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव होगा, तुम कुछ सत्य प्राप्त करने और कुछ हद तक पूर्ण होने में सक्षम हो जाओगे। अगर शैतान और राक्षस अभी भी तुम्हें ललचाने आते हैं, या दुष्ट आत्माएँ तुम्हें धोखा देने या परेशान करने आती हैं, तो तुम विवेक का कुछ इस्तेमाल कर लोगे और इस प्रकार परमेश्वर को धोखा देने वाले तरीकों से कम पेश आओगे। यह चीज लोगों के अंदर समय के साथ विकसित होती है। जब शुरू में मनुष्यों को बनाया गया था तो वे परमेश्वर की आज्ञा का पालन या आराधना करना नहीं जानते थे, न वे यह जानते थे कि उसे धोखा देना क्या होता है। जब शैतान उन्हें लुभाने आया, तो उन्होंने उसका अनुसरण करके परमेश्वर को धोखा दिया, वे गद्दार बन गए, क्योंकि वे अच्छाई और बुराई में फर्क नहीं कर पाते थे, और उनमें परमेश्वर की आराधना करने की योग्यता नहीं थी—उससे भी कम उन्हें यह समझ थी कि मानवजाति का सृष्टिकर्ता परमेश्वर है और उसकी आराधना कैसे करनी चाहिए। अब परमेश्वर अपना ज्ञान कराने वाले सत्य—उसका सार, स्वभाव, सर्वशक्तिमत्ता, व्यावहारिकता, आदि—लोगों के अंदर ढालकर उन्हें बचाता है ताकि ये उनका जीवन बन सकें, और उन्हें स्वायत्तता देकर सत्य के अनुसार जीने के लायक बनाता है। जितनी गहराई से तुम परमेश्वर के वचनों और उसके न्याय और ताड़ना का अनुभव करते हो, उतनी ही गहराई से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझोगे, और यह तुम्हें परमेश्वर का आज्ञाकारी होने, उससे प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का संकल्प देगा। जितना ज्यादा तुम परमेश्वर को जानोगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव उतना ही ज्यादा पीछे छोड़ते जाओगे, और तुम्हारे अंदर ऐसी बहुत कम चीजें बचेंगी जो परमेश्वर को धोखा देती हैं और ऐसी चीजें ज्यादा होंगी जो उसके अनुरूप हैं, इस तरह से तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर विजय प्राप्त कर लोगे। सत्य के साथ लोग स्वायत्तता प्राप्त करेंगे और अब उन्हें शैतान न तो धोखा दे पाएगा, न विवश कर पाएगा, और वे सच्चा मानव जीवन जिएँगे। कुछ लोग पूछते हैं : “अगर मनुष्य के अंदर भ्रष्ट प्रकृति है और वह कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकता है, तो परमेश्वर कैसे कह सकता है कि वह मनुष्य को पूरा बना चुका है?” पूरा बनाने का मतलब है कि परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करके लोग परमेश्वर को और अपनी प्रकृति को जान लेते हैं, वे समझ जाते हैं कि परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है और उसकी आज्ञा का पालन कैसे करना है। वे परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में अंतर कर सकते हैं, पवित्र आत्मा के कार्य और दुष्ट आत्माओं के कार्य के बीच अंतर कर पाते हैं, और यह समझते हैं कि शैतान और राक्षस कैसे परमेश्वर का विरोध करते हैं, कैसे मानवजाति परमेश्वर का विरोध करती है, एक सृजित प्राणी क्या है, और सृष्टिकर्ता कौन है। ये सारी चीजें लोगों के अंदर उनके सृजन के बाद परमेश्वर के कार्य के माध्यम से जुड़ती हैं। इसलिए, अंत में तैयार किए गए मनुष्य उन मनुष्यों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं जिन्हें शुरू में भ्रष्ट नहीं किया गया था, क्योंकि परमेश्वर ने इनमें कुछ जोड़ा है, उनके अंदर कुछ गढ़ा है। इसलिए, अंत में तैयार किए गए मनुष्यों में आदम और हव्वा से ज्यादा स्वायत्तता है, साथ ही उन्हें इस सत्य की बेहतर समझ है कि खुद कैसा आचरण करना है, और परमेश्वर की आराधना और उसकी आज्ञा का पालन कैसे करना है। आदम और हव्वा इन चीजों को नहीं जानते थे। जब उन्हें साँप ने लुभाया तो उन्होंने नेकी और बुराई के ज्ञान के पेड़ से फल खा लिया, और इसके बाद उन्हें शर्म का अहसास हुआ, फिर भी वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर की आराधना कैसे करें। तब से अब तक मानवजाति और ज्यादा भ्रष्ट होती गई है। यह बहुत गहन मामला है; कोई भी इसे स्पष्टता से नहीं समझता। मनुष्य देह की सहज प्रवृत्तियों की वजह से लोग कभी भी और कहीं भी परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं, लेकिन अंततः परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाएगा और उन्हें अगले युग में ले जाएगा। यह बात समझना लोगों को मुश्किल लगती है; इसे धीरे-धीरे ही अनुभव किया जा सकता है। एक बार सत्य समझ में आ जाए, तो यह बात सहज रूप से स्पष्ट हो जाएगी।

लोगों के लिए परमेश्वर को जानना क्यों जरूरी है? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर को जाने बिना लोग उसका विरोध करेंगे। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह धोखा खा सकता है और शैतान और दुष्ट आत्माओं के हाथों इस्तेमाल हो सकता है। वह शैतान के प्रभाव से नहीं बच सकेगा, इस तरह वह उद्धार पाने में विफल हो जाएगा। लेकिन अगर कोई सत्य समझता है, तो उसके पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होगा, वह उसके प्रति वास्तव में समर्पण कर सकेगा, उसकी गवाही दे सकेगा और उसी का हो जाएगा। शैतान चाहकर भी ऐसे किसी व्यक्ति को धोखा देने या उसका उत्पीड़न करने में सक्षम नहीं होगा; शैतान के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने और उद्धार प्राप्त करने का यही मतलब है, और यही महत्व परमेश्वर की इस अपेक्षा का है कि लोग उसे जानें। अगर तुम परमेश्वर को जानते हो, तो वह तुम्हें बचा सकता है; परमेश्वर को जाने बिना तुम उद्धार नहीं पा सकते। अगर कोई परमेश्वर की इच्छा नहीं समझता और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, इसके बजाय शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है, और सत्य को थोड़ा-बहुत समझने के बावजूद इसका अभ्यास नहीं करता, जानते हुए भी अपराध करता है, तो वह वास्तव में बचाए जाने लायक नहीं है। तुम लोग अब किस दशा में हो? अगर तुम लोगों के पास अभी थोड़ी-सी भी उम्मीद बची है, तो चाहे परमेश्वर तुम्हारे पुराने अपराध याद रखे या न रखे, तुम्हें कैसी मानसिकता बनाए रखनी चाहिए? “मुझे अपने स्वभाव में बदलाव लाना होगा, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना होगा, दोबारा कभी शैतान के बहकावे में नहीं आना होगा, और दोबारा ऐसा कुछ भी नहीं करना होगा जो परमेश्वर के नाम को शर्मसार करे।” लोग अब गहन रूप से भ्रष्ट हैं और किसी काम के नहीं हैं। ऐसे कौन से मुख्य क्षेत्र हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं और उनके लिए कोई उम्मीद बची है या नहीं? मुख्य बात है, किसी उपदेश को सुनने के बाद तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं और तुम बदल सकते हो या नहीं। यही मुख्य क्षेत्र हैं। अगर तुम सिर्फ पछताते रहते हो और जब कुछ करने का समय आता है तो जो जी में आए वही करते हो, वही पुराने तरीके अपनाए रहते हो, न सिर्फ सत्य की खोज नहीं करते बल्कि अभी भी पुराने विचारों, तौर-तरीकों और नियमों से चिपके रहते हो, न तो आत्म-चिंतन करते हो, न खुद को जानने का प्रयास करते हो, इसके बजाय और ज्यादा बिगड़ते जा रहे हो, और अभी भी अपने पुराने मार्ग पर चलने की जिद करते हो, तो तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं बची होगी, और तुम्हारा पत्ता साफ कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के बारे में ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर और खुद को गहराई से जानकर तुम बुराई या पाप करने से खुद को बेहतर ढंग से रोक सकोगे। अपनी प्रकृति के बारे में तुम्हारा ज्ञान जितना गहन होगा, उतने ही बेहतर तरीके से तुम खुद को बचा सकोगे, और अपने अनुभवों और सबक का सारांश निकालने के बाद तुम दोबारा असफल नहीं होगे। असल तथ्य यह है कि सब में कुछ दोष होते हैं; बात सिर्फ इतनी है कि इनके लिए परमेश्वर उन्हें उत्तरदायी नहीं ठहराता। दोष सब में हैं, अंतर सिर्फ मात्रा का है; कुछ के बारे में बात की जा सकती है, तो कुछ के बारे में नहीं। कुछ लोग ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरे लोग जानते हैं, तो कुछ लोग ऐसे काम करते हैं कि इनके बारे में किसी को पता नहीं चलता। सबके अपने-अपने अपराध और दोष होते हैं, और वे सब कुछ निश्चित भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, जैसे अहंकार या खुदगर्जी; सभी अपने-अपने कार्य में कुछ भटकते हैं या कभी-कभार विद्रोही होते हैं। यह मानी हुई बात है; भ्रष्ट मानवजाति इनसे बच नहीं सकती। लेकिन लोग जब एक बार सत्य समझ लें तो उन्हें इनसे बचने में सक्षम होना चाहिए और आगे से अपराध नहीं करने चाहिए; उन्हें अतीत के अपराधों से और परेशान होने की जरूरत नहीं है। मुख्य बात यह है कि लोग पश्चात्ताप करते हैं या नहीं, वे वास्तव में बदल चुके हैं या नहीं। जो पश्चात्ताप कर बदल जाते हैं उन्हें ही बचाया जाता है, जबकि जो पश्चात्ताप नहीं करते और नहीं बदलते उन्हें बाहर निकाल देना चाहिए। अगर सत्य समझने के बाद भी लोग जानबूझकर अपराध करते हैं, अगर वे कितनी भी काट-छाँट होने, निपटाए जाने और चेतावनी मिलने के बावजूद पश्चात्ताप न करने पर अड़े रहते हैं और बिल्कुल भी नहीं बदलते, तो ऐसे लोगों का उद्धार नहीं हो सकता है।

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