भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन

अंश 49

मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में बेहूदगियों और बुराइयों के अलावा और कुछ भी नहीं है। इनमें से सबसे गंभीर बात है मनुष्य का अहंकारी स्वभाव और इससे प्रकट होने वाली चीजें, यानी, खास आत्मतुष्टता और अभिमान, खुद को दूसरों से इक्कीस मानना, किसी के भी प्रति समर्पण करने की अनिच्छा, अंतिम निर्णय स्वयं का ही हो इसके लिए लगातार आग्रह करना, सभी मामलों में दिखावा करना, अपने कार्यों में चापलूसी और प्रशंसा की चाहत रखना, दूसरों से घिरे रहने की निरंतर इच्छा रखना और हमेशा आत्म-केंद्रित रहना, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पाले रखना और हमेशा एक राजा के रूप में शासन करने तथा ताज और पुरस्कार पाने की चाहत रखना—ये सभी मुद्दे गंभीर भ्रष्ट स्वभाव की श्रेणी में आते हैं। बाकी तो बस आम समस्याएँ हैं। उदाहरण के लिए, कुछ गलत विचार रखना, बेतुकी सोच, कुटिलता और धूर्तता, ईर्ष्या, स्वार्थ, विवादप्रिय होना और सिद्धांतों के बिना कार्य करना, ये सब सबसे आम भ्रष्ट स्वभाव हैं। ऐसे बहुत सारे प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभावों में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और प्रमुख है वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभावों का मूल कारण है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए उतने ही प्रवृत्त होते हैं। यह समस्‍या कितनी गंभीर है? चूँकि लोगों के अहंकारी स्‍वभाव होते हैं, न केवल वे बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर के प्रति कोई सम्मान नहीं रखते और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते हैं, फिर भी वे उससे परमेश्वर मानकर कतई पेश नहीं आते हैं। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। अहंकारी स्वभाव का यही सार और जड़ है और यह शैतान से आता है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसे परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्‍थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह के व्‍यक्ति के पास रत्ती भर भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है, परमेश्वर से प्रेम या उसके प्रति समर्पण करने की तो बात ही क्या की जाए। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे जो इतने घमंडी होते हैं कि अपना विवेक खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते, यहाँ तक कि अपनी ही बड़ाई कर गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का प्रतिरोध सबसे अधिक करते हैं और उनके पास बिल्कुल भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है। यदि लोग उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल हो तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना ही अधिक तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो, सत्य हासिल कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं।

अंश 50

मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव जैसे कि अहंकार, आत्म-तुष्टता और हठधर्मिता, एक प्रकार की जिद्दी बीमारियाँ हैं। वे मानव शरीर में उठने वाली घातक रसौली की तरह हैं और बिना कुछ कष्ट उठाए इनका समाधान नहीं किया जा सकता है। कुछ दिनों में समाप्त हो जाने वाली अस्थायी बीमारियों से भिन्न, यह जिद्दी बीमारी कोई मामूली बीमारी नहीं है और इसे ठीक करने के लिए एक सशक्त दृष्टिकोण का उपयोग किया जाना चाहिए। हालाँकि, एक तथ्य यह भी है जो तुम लोगों को अवश्य जानना चाहिए—ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान नहीं किया जा सकता; जैसे-जैसे तुम सत्य का अनुसरण करोगे, जीवन में आगे बढ़ोगे और जैसे-जैसे सत्य के बारे में तुम्हारी समझ और अनुभव गहरे होंगे, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे कम होते चले जाएँगे। भ्रष्ट स्वभाव किस हद तक कम होने पर शुद्ध माने जाने चाहिए? जब तुम उनके द्वारा बाधित नहीं होते हो और तुम उनका भेद पहचानने और त्यागने में सक्षम हो जाते हो। हालाँकि ये भ्रष्ट स्वभाव कभी-कभी उभर सकते हैं, फिर भी तुम अपना कर्तव्य निभाने और हमेशा की तरह सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो और कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार बने रहते हो और तुम उनके द्वारा बाधित नहीं होते हो। उस समय, ये भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे लिए कोई समस्या नहीं रह जाते हैं और तुम पहले ही उन पर काबू पा चुके हो और उनसे ऊपर उठ चुके हो। जीवन में बड़े होने का यही अर्थ है, जहाँ सामान्य परिस्थितियों में, तुम अब अपने भ्रष्ट स्वभावों से बाधित या बँधे नहीं हो। कुछ लोग, चाहे वे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप, कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, उनके स्वभाव अपरिवर्तित रहते हैं। वे सोचते हैं, “जब भी मैं कुछ करता हूँ, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता हूँ; अगर मैं कुछ भी करने से बचूँगा तो उन्हें प्रकट नहीं करूँगा। क्या इससे समस्या का समाधान नहीं होता?” क्या यह गले में फँस जाने के डर से खाने से ही परहेज करना नहीं है? इसका परिणाम क्या होगा? यह केवल भुखमरी की ओर ले जा सकता है। यदि कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है और उनका समाधान नहीं करता है, तो यह सत्य को स्वीकार न करने और खड़े-खड़े मर जाने के समान है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और सत्य का अनुसरण नहीं करते हो तो परिणाम क्या होंगे? तुम खुद ही अपनी कब्र खोद रहे होगे। भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के दुश्मन हैं; वे तुम्हारे सत्य अभ्यास, परमेश्वर के कार्य के तुम्हारे अनुभव और उसके प्रति तुम्हारे समर्पण में बाधा डालते हैं। परिणामस्वरूप, अंत में तुम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। क्या यह अपनी ही कब्र खोदना नहीं है? शैतानी स्वभाव सत्य को स्वीकार करने और उसका अभ्यास करने से तुम्हें रोकते हैं। तुम उनसे बच नहीं सकते; तुम्हें उनका सामना करना होगा। यदि तुम उन पर विजय नहीं पाते हो, तो वे तुम्हें काबू में कर लेंगे। यदि तुम उन पर विजय पा सकते हो, तो अब तुम उनके द्वारा बाधित नहीं रहोगे और तुम स्वतंत्र हो जाओगे। कभी-कभी, भ्रष्ट स्वभाव अभी भी तुम्हारे हृदय में उभरेंगे और खुद को प्रकट करेंगे, तुम्हारे भीतर दुष्ट सोच और गलत विचारों को जन्म देंगे, ऐसे विचार प्रकट होकर तुम्हें आत्म-मुग्ध या दूसरों से श्रेष्ठ महसूस कराएँगे; हालाँकि, जब तुम कार्य करोगे, तो अब तुम्हारे हाथ-पैर उनसे बंधे हुए नहीं होंगे और तुम्हारा हृदय अब उनके वश में नहीं होगा। तुम कहोगे, “मेरा इरादा परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करने, परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए काम करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निभाने और समर्पित होने का है। भले ही मैं अब भी कभी-कभी इस तरह का स्वभाव प्रकट करता हूँ, लेकिन इसका मुझ पर बिल्कुल भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।” यह पर्याप्त है। इस प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव का मूलतः समाधान हो चुका होगा। क्या मनुष्य का स्वभावगत परिवर्तन अस्पष्ट और अमूर्त है? (ऐसा नहीं है।) यह कितना व्यावहारिक है। कुछ लोग कहते हैं, “हालाँकि मैं सत्य को थोड़ा-बहुत समझता हूँ, फिर भी कभी-कभी मेरे मन में भ्रष्ट सोच और विचार होते हैं और मैं अभी भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता हूँ। मुझे क्या करना चाहिए?” यदि तुम वास्तव में ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो जब भी तुम्हारे मन में गलत सोच और विचार हों, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हों, तो उन्हें हल करने के लिए तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और सत्य की तलाश करनी चाहिए। यह अभ्यास का सबसे बुनियादी सिद्धांत है; तुम यह नहीं भूलोगे, है ना? इसके अलावा, तुम्हें यह भी पता होना चाहिए कि जब तुम्हारे मन में गलत विचार हों तो तुम्हें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। तुम उनके द्वारा बाधित और बाध्य नहीं हो सकते, उनका पालन करना तो दूर की बात है। जब तक तुम सत्य को थोड़ा-बहुत समझते हो, इसे पूरा करना आसान होना चाहिए। यदि तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो उन्हें हल करने के लिए तुम्हें सत्य की तलाश करने का प्रयास करना चाहिए। तुम यह नहीं कह सकते, “हे परमेश्वर, मैंने फिर से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, मुझे अनुशासित कर! मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों पर नियंत्रण नहीं रख सकता।” यदि तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तो यह दर्शाता है कि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करते हो। यह दर्शाता है कि तुम नकारात्मक और निष्क्रिय हो और तुमने खुद को छोड़ दिया है—तुम अपने लिए ताबूत तैयार कर सकते हो और अपने अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर सकते हो। बताओ, कैसा व्यक्ति ऐसी प्रार्थना करता है? केवल कोई निकम्मा ही परमेश्वर से ऐसी प्रार्थना करेगा। सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति कभी भी ऐसे शब्द नहीं बोलेगा। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है, तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुनना चाहिए और तुम्हें यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि अभ्यास कैसे करना है। यदि तुम नहीं जानते कि जब ऐसी बहुत ही सामान्य समस्याएँ तुम्हारे सामने आएँ तो कैसे अभ्यास करें, तो तुम कतई निकम्मे हो। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना एक आजीवन प्रयास है, यह ऐसा नहीं है जिसे केवल कुछ वर्षों में हासिल किया जा सकता है। तुम सत्य और जीवन को प्राप्त करने के बारे में कल्पनाएँ क्यों पालते हो? क्या यह मूर्खता और नादानी नहीं है?

जीवन स्वभाव में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया में, भ्रष्ट स्वभाव की बाधाएँ प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे बड़ी कठिनाई पैदा करती हैं। जब लोग थोड़ा सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, या इसे बार-बार प्रकट करते हैं और जब वे इसे काबू करने में असमर्थ महसूस करते हैं, तो वे खुद की निंदा करते हैं, यह निर्धारित करते हुए कि उनका काम हो गया है और वे बदल नहीं सकते हैं। यह एक भ्रम और गलत धारणा है जो ज्यादातर लोगों में मौजूद है। वर्तमान में, सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोगों ने महसूस किया है कि जब तक लोगों के भीतर भ्रष्ट स्वभाव मौजूद हैं, वे बार-बार उन्हें प्रकट कर सकते हैं, जिससे उनके कर्तव्य का प्रदर्शन प्रभावित होगा और सत्य के उनके अभ्यास में बाधा आएगी और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करने के लिए यदि वे आत्म-चिंतन नहीं कर सकते हैं, वे अपना कर्तव्य इस तरह नहीं निभा पाएँगे जो मानक स्तर का हो। इसलिए जो लोग हमेशा अपने कर्तव्य नकारात्मक और अनमने ढंग से निभाते हैं, उन्हें गंभीरता से आत्म-चिंतन करना चाहिए और अपनी समस्या का मूल कारण खोजकर उसका समाधान करना चाहिए। हालाँकि, कुछ लोगों की विकृत समझ होती है और वे सोचते हैं, “जो अपना कर्तव्य निभाते समय भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, उन सभी को रुक जाना चाहिए और अपना कर्तव्य जारी रखने से पहले भ्रष्ट स्वभावों को पूरी तरह हल करना चाहिए।” क्या यह एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है? यह एक मानवीय कल्पना है और यह पूरी तरह से तर्कहीन है। दरअसल, अधिकांश लोगों के लिए, चाहे वे अपना कर्तव्य निभाते समय किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करें, जब तक वे उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश करते हैं, वे धीरे-धीरे भ्रष्टाचार के उजागर होने की संख्या को कम कर सकते हैं और अंततः अपना कर्तव्य इस तरह निभा सकते हैं जो मानक स्तर का हो। यह परमेश्वर का कार्य अनुभव करने की प्रक्रिया है। जैसे ही तुम कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तुम्हें इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए और अपने शैतानी स्वभाव का भेद पहचानना और उसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। यह तुम्हारे शैतानी स्वभाव से लड़ने की प्रक्रिया है और यह तुम्हारे जीवन के अनुभव के लिए आवश्यक है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए और अपने स्वभाव को बदलते हुए, तुम उन सत्यों को प्रयोग में लाते हो जिन्हें तुम समझते हो, अपने शैतानी स्वभाव के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने के लिए, अंततः अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करते हुए और शैतान पर विजय प्राप्त करते हुए, तुम स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करते हो। व्यक्ति के स्वभाव को बदलने की प्रक्रिया सत्य को खोजना और स्वीकारना है ताकि मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और शैतान से आने वाले विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों और सांसारिक आचरण के फलसफों को हटाकर इन चीजों को धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बदला जा सके। सत्य को प्राप्त करने और व्यक्ति के स्वभाव को बदलने की यही प्रक्रिया है। यदि तुम यह जानना चाहते हो कि तुम्हारा स्वभाव कितना बदल गया है, तो तुम्हें यह स्पष्ट रूप से देखना होगा कि तुम कितने सत्यों को समझते हो, तुम कितने सत्यों को अभ्यास में लाए हो और तुम कितने सत्यों को जीने में सक्षम हो। तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि तुम्हारे कितने भ्रष्ट स्वभावों को उन सत्यों से प्रतिस्थापित किया गया है जिन्हें तुमने समझा और प्राप्त किया है और वे किस हद तक तुम्हारे भीतर के भ्रष्ट स्वभावों को नियंत्रित करने में सक्षम हैं, अर्थात्, तुम जिन सत्यों को समझते हो वे किस हद तक तुम्हारे विचारों और इरादों और तुम्हारे दैनिक जीवन और अभ्यास में मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि क्या, जब चीजें तुम्हारे ऊपर आती हैं, तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का ही बोलबाला होता है, या जिन सत्यों को तुम समझते हो, वे प्रबल होते हैं और तुम्हारा मार्गदर्शन करते हैं। यह वह मानक है जिसके द्वारा तुम्हारे आध्यात्मिक कद और जीवन प्रवेश को मापा जाता है।

अंश 51

जब किसी व्यक्ति को फटकारे जाने और उसकी काट-छाँट किए जाने के बाद उसमें बहस करने की प्रवृत्ति होती है तब क्या चल रहा होता है? यह एक बहुत ही ज्यादा अहंकारी, आत्मतुष्ट और उद्दंड स्वभाव है। अहंकारी और उद्दंड लोगों को सत्य स्वीकारना मुश्किल लगता है। जब वे ऐसी कोई छोटी-सी भी बात सुनते हैं जो उनके अपने विचारों, राय और परिप्रेक्ष्यों के तालमेल में नहीं होती तब वे उसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरे जो कह रहे हैं वह सही है या गलत या इसे कौन कह रहा है या यह बात किस संदर्भ में कही जा रही है या क्या यह उनकी अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से संबंधित है। उन्हें इन चीजों की कोई परवाह नहीं है। उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता अपनी खुद की भावनाओं को संतुष्ट करना है। क्या यह मनमानी करना नहीं है? मनमानी करने से लोगों को आखिर क्या नुकसान होते हैं? इससे उनके लिए सत्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। सत्य को स्वीकार नहीं करने की वजह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है, और अंतिम परिणाम यह होता है कि ऐसा व्यक्ति आसानी से सत्य प्राप्त नहीं कर पाता। जो कुछ भी मनुष्य के प्रकृति सार से स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वह सत्य के विरोध में होता है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता; ऐसी कोई भी चीज न तो सत्य के अनुरूप होती है और न ही सत्य के आस-पास होती है। इसलिए, उद्धार पाने के लिए सत्य को स्वीकारना और उसका अभ्यास करना आवश्यक है। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता है और हमेशा अपनी पसंदों के अनुसार कार्य करना चाहता है तो वह उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता है। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहते हो तो तुम्हें सबसे पहले यह करना होगा कि जब चीजें तुम्हारे पक्ष में नहीं हो रही हों तब तुम्हें आवेगशील होने से बचना होगा। तुम्हें सबसे पहले खुद को शांत करना होगा और परमेश्वर के सामने शांत रहना होगा, और अपने दिल में तुम्हें उससे प्रार्थना करनी होगी और उससे खोजना होगा। उद्दंड मत बनो; पहले समर्पण करो। सिर्फ इस प्रकार की मानसिकता से ही तुम समस्याओं को बेहतर ढंग से हल कर सकते हो। अगर तुम परमेश्वर के सामने जीवन जीने में दृढ़ रह सकते हो, अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो और खोज सकते हो और चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो जाए, तुम समर्पण की मानसिकता से चीजों का सामना कर सकते हो तो फिर इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के कितने खुलासे हो चुके हैं या तुमने क्या-क्या अपराध किए हैं—जब तक तुम सत्य की तलाश करते हो तब तक वे सभी हल किए जा सकते हैं और चाहे तुम्हारा कोई भी परीक्षण क्यों न लिया जाए, तुम अडिग रह पाओगे। जब तक तुम्हारी मानसिकता सही है तब तक तुम सत्य स्वीकार करने में सक्षम हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसके प्रति समर्पित हो तब तक तुम सत्य को अभ्यास में लाने में पूरी तरह से सक्षम होगे। भले ही तुम कभी-कभी थोड़े-से विद्रोही और प्रतिरोधी होते हो और कभी-कभी बहस करने की प्रवृत्ति रखते हो और समर्पण नहीं कर सकते हो, लेकिन अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सके और अपनी विद्रोही स्थिति को बदल सके तो तुम सत्य स्वीकार कर सकोगे। ऐसा करने के बाद इस बात पर चिंतन करो कि तुम्हारे भीतर ऐसा विद्रोह और प्रतिरोध क्यों उत्पन्न हुआ। इसका कारण ढूँढ़ो, फिर उसे दूर करने के लिए सत्य खोजो और इस प्रकार तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का वह पहलू शुद्ध हो सकता है। जब तुम ऐसी कई असफलताओं और ठोकरों का अनुभव कर लोगे और सत्य को अभ्यास में लाने में समर्थ हो जाओगे, उसके बाद तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे छोड़ दोगे। फिर सत्य तुम्हारे भीतर राज करेगा और तुम्हारा जीवन बन जाएगा और सत्य के तुम्हारे अभ्यास में और बाधाएँ नहीं रहेंगी। तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर पाओगे और तुम सत्य वास्तविकता को जियोगे। इस दौरान तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का व्यावहारिक अनुभव होगा। बाद में तुम्हारे साथ जब कुछ घटित होगा तो तुम जान जाओगे कि किस तरीके से अभ्यास करना है ताकि यह परमेश्वर के प्रति समर्पणकारी हो और किस प्रकार का व्यवहार परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है। अपने दिल में इतनी स्पष्टता होने पर क्या तुम अब भी सत्य वास्तविकता की संगति करने में असमर्थ होगे? अगर तुम्हें अपनी अनुभवजन्य गवाहियाँ साझा करने को कहा जाए, तो तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि तुमने कई चीजों का अनुभव किया होगा और इसमें शामिल अभ्यास के सिद्धांतों को जानते होगे। तुम जो भी कहोगे, तुम्हारे शब्दों में वास्तविकता होगी और तुम चाहे जैसे भी बोलोगे, वह व्यावहारिक होगा। और अगर तुमसे शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने के लिए कहा जाए तो तुम इसके लिए तैयार नहीं होगे—अपने दिल में तुम इसके प्रति विमुख होगे। क्या तुम तब सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर चुके होगे? जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे कुछ ही वर्षों में अनुभव प्राप्त कर सकते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं है, भले ही वे ऐसा करना चाहते हों। क्योंकि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, उनमें विद्रोहीपन बहुत ही ज्यादा होता है और क्योंकि जब भी उन्हें सत्य का अभ्यास करने की जरूरत होती है—चाहे मामला कुछ भी हो—तब वे हमेशा अपनी खुद की दलीलें पेश करते हैं और उनकी अपनी खुद की कठिनाइयाँ होती हैं, इसलिए उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना बहुत कठिन होता है। हालाँकि हो सकता है कि वे प्रार्थना करें, तलाश करें और सत्य का अभ्यास करने को तैयार हों, लेकिन जब उनके साथ कुछ घटित होता है या उनके सामने कठिनाइयों आती हैं तब उनका भ्रमित होना तेजी से सतह पर आ जाता है, उनका विद्रोही स्वभाव बाहर आ जाता है और उनके मन पूरी तरह से धुँधले हो जाते हैं। उनका विद्रोही स्वभाव कितना गंभीर है! अगर उनके दिलों का छोटा-सा हिस्सा भी भ्रमित है, और बड़ा हिस्सा परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहता है तो उनके लिए सत्य का अभ्यास करना थोड़ा कम कठिन होगा। शायद प्रार्थना के जरिए या जब कोई उनके साथ सत्य पर संगति करता है, जब तक वे इसे उस क्षण समझ लेते हैं तब तक वे इसे आसानी से अभ्यास में ला सकते हैं। अगर वे इतने भ्रमित हैं कि यह पहलू उनके दिल के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लेता है—जिसमें बहुत ज्यादा मात्रा में विद्रोहीपन और थोड़ा-सा समर्पण है—तो उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान नहीं होगा क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है। और जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते वे सभी अत्यधिक या पूरी तरह से विद्रोही हैं; वे पूरी तरह से भ्रमित हैं। ये भ्रमित लोग हैं और कभी भी सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाएँगे और उन पर कितना भी प्रयास क्यों न किया जाए, उसका कोई फायदा नहीं होगा। सत्य से प्रेम करने वाले लोगों में सत्य के प्रति जोरदार जोश होता है। अगर यह जोश काफी जोरदार है और उन्हें सत्य की संगति स्पष्ट रूप से की जाती है तो वे निश्चित रूप से उसे अभ्यास में ला पाएँगे। सत्य से प्रेम करना कोई सरल मामला नहीं है और सिर्फ जरा-सी तत्परता होने का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है। व्यक्ति को उस बिंदु तक पहुँचना चाहिए जहाँ एक बार परमेश्वर के वचन को समझ लेने के बाद वह सत्य को अभ्यास में लाने के लिए प्रयास कर सके, कष्ट सह सके और कीमत चुका सके। सिर्फ यही लोग सत्य से प्रेम करते हैं। सत्य से प्रेम करने वाले लोग सत्य की तलाश में लगे रह सकते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं या उन्होंने क्या अपराध किए हैं। चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए, वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, सत्य की खोज कर सकते हैं और सत्य स्वीकार सकते हैं। ऐसे अनुभव के दो या तीन वर्ष के बाद उनके प्रयास नतीजे लाएँगे और साधारण मुश्किलें उनके लिए बाधा नहीं बनेंगी। अगर उन्हें गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़े तो भले ही वे असफल हो जाएँ, तो भी यह सामान्य होगा क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है। जब तक वे सामान्य परिस्थितियों में सत्य का अभ्यास कर सकते हैं तब तक उम्मीद रहेगी। एक बार जब वे परमेश्वर को जान लेंगे और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होगा तो उनके लिए बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को भी हल करना आसान हो जाएगा। कोई भी कठिनाई उनके लिए मुद्दा नहीं होगी। जब तक लोग परमेश्वर के वचनों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ते हैं और सत्य पर ज्यादा संगति करते हैं और चाहे उन पर कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आ पड़ें, अगर वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं और समस्याओं का समाधान करने के लिए पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा कर सकते हैं तो उनके लिए सत्य को समझना आसान होगा, वे सत्य को अभ्यास में ला पाएँगे और अपने भ्रष्ट स्वभाव को धीरे-धीरे छोड़ते जाएँगे। हर बार जब वे सत्य का अभ्यास करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का जरा-सा हिस्सा छोड़ देते हैं और सत्य के ज्यादा अभ्यास के साथ वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को और भी ज्यादा छोड़ते चले जाते हैं। यह प्राकृतिक नियम है। अगर लोग देख लें कि वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं और वे इसका समाधान आत्मसंयम और धैर्य से करें तो क्या वे सफल होंगे? यह आसान नहीं होगा। अगर वे उसी ढंग से समाधान निकाल सकें, तो परमेश्वर को न्याय और ताड़ना का अपना कार्य करने की कोई जरूरत नहीं होगी। भ्रष्ट स्वभाव के समाधान के लिए व्यक्ति को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसी पर भरोसा करना चाहिए, सत्य की तलाश और आत्मचिंतन और आत्मज्ञान पर भरोसा करना चाहिए और पवित्र आत्मा के कार्य पर भरोसा करना चाहिए। तभी धीरे-धीरे इसका समाधान किया जा सकता है। अगर लोग सहयोग नहीं करते हैं या आत्मचिंतन नहीं करते हैं, सत्य स्वीकार नहीं कर सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने का प्रयास नहीं करते हैं, कोई पछतावा महसूस नहीं करते हैं और देह और शैतान से घृणा नहीं करते हैं, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव अपने आप नहीं छोड़ दिया जाएगा। यहाँ पवित्र आत्मा का कार्य सबसे अद्भुत है। जब तक लोग सत्य के लिए प्यासे रहेंगे और अपने स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करेंगे तब तक परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा और उनका मार्गदर्शन करेगा और बिना इसका एहसास किए लोग सत्य को समझेंगे और खुद को जानने में भी समर्थ हो जाएँगे। और इस बिंदु पर वे सत्य से प्रेम करना शुरू कर देंगे और इसके लिए लालायित रहेंगे। वे अपने दिलों से शैतान की प्रकृति और स्वभाव से नफरत कर पाएँगे। इस तरीके से उनके लिए देह के खिलाफ विद्रोह करना आसान होगा और उन्हें सत्य का अभ्यास करना और भी ज्यादा आसान महसूस होगा। इस बिंदु पर धीरे-धीरे उनका भ्रष्ट स्वभाव बदलेगा और अब वे परमेश्वर के खिलाफ बिल्कुल भी और विद्रोह नहीं करेंगे। वे किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज से बाधित हुए बिना पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकेंगे। यह उनके जीवन स्वभाव में एक पूर्ण परिवर्तन है।

अंश 52

कुछ लोग अपने कर्तव्यों में कभी सत्‍य की तलाश नहीं करते। वे बस अपने विचारों और कल्‍पनाओं के अनुसार आचरण करते हैं और वे हमेशा स्‍वेच्‍छाचारी और लापरवाह बने रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर बिल्कुल नहीं चलते। “स्‍वेच्‍छाचारी और उतावला” होने का क्‍या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्‍हारा किसी समस्‍या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगैर उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि जब तुम्हारे साथ सत्य पर संगति की जाती है तो तुम उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हो। तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग सही कहते हैं, तब तुम सुनने से इनकार कर देते हो, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारे विचार सही हों, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। क्या इन मतों पर बिल्कुल ही विचार न करना अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। मान लो तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, “तुम सत्य के अनुसार कार्य नहीं कर रहे हो!” तो तुम जवाब देते हो, “भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं चीजें ऐसे ही करूँगा,” और फिर तुम जाके कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे उन्हें लगने लगे कि तुम जो कर रहे हो वह उचित है। वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, “तुम्हारे कार्यकलाप गड़बड़ी पैदा करते हैं और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,” और न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहस भी करते रहते हो : “मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं चीजें इसी तरह करूँगा।” यह कौन-सा स्वभाव होगा? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें मनमौजी बनाता है। तुममें अहंकारी प्रकृति है तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्‍वेच्‍छाचारी और लापरवाह ढंग से व्यवहार करते हो। तब तुम अपनी स्वेच्‍छाचारिता और लापरवाही का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर मान लो तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं। ऐसे में यह तय करने से पहले कि क्या करना है, तुम्हें अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए और तुम्हें कम-से-कम दूसरों के साथ यह संगति करनी चाहिए कि तुम इस मामले के बारे में क्या सोचते और मानते हो और दूसरों से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि क्या तुम्हारे विचार सही और सत्य के अनुरूप हैं और तुम्हें अपने लिए चीजें जाँचने को कहना चाहिए। मनमानी और लापरवाही का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोणों पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य खोजने की कोशिश कर सकते हो; मनमानी और लापरवाही का समाधान करने के अभ्यास का यह पहला कदम है। दूसरे कदम में जब दूसरे लोग अपनी विभिन्न राय सामने रखते हैं तो तुम्हें किस तरह का अभ्यास करना चाहिए कि तुम मनमानी या लापरवाही से काम न करो? पहले तुम्हें विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे किनारे रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम मानते हो कि तुम सही हो, तुम्‍हें अपने ही नजरियों अड़े नहीं रहना चाहिए। यह प्रगति है। यह सत्‍य खोजने, और स्‍वयं को नकारने और परमेश्वर के इरादे को संतुष्ट करने का रवैया दिखाता है। जैसे ही तुम यह रवैया अपनाते हो और साथ ही तुम अपनी राय से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के आधार पर काम करने का तरीका ढूँढ़ो। यही अभ्यास का सबसे उपयुक्त और सटीक तरीका है। जब लोग सत्य की तलाश करते हैं और कोई ऐसी समस्या रखते हैं जिस पर सभी लोग संगति करें और सत्य खोजें, तभी पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांतों के अनुसार प्रबुद्ध करता है—वह तुम्हारे रवैये को देखता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारे दृष्टिकोण सही हों या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; तुम्हें प्रकट करने और तुम्हारी कुरूपता को बेनकाब करने के लिए तुम्हें दीवार से टकराने देगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है—न अपने दृष्टिकोणों पर अड़े रहने वाला है, न ही वह आत्मतुष्ट, मनमाना या लापरवाह होना है—तुम्हारा सत्य की खोज करने और उसे स्वीकारने का रवैया है, और तुम सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य करेगा और वह शायद तुम्हें किसी की बातों के माध्यम से रोशनी देखने दे। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों से या तुम्हें कोई विचार देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में होश में आ जाते हो और तुम्हें एहसास होता है कि जिस धारणा से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और साथ ही तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती के दुष्परिणाम भुगतने से बच नहीं जाते हो? क्या यह परमेश्वर से मिली सुरक्षा नहीं है? (हाँ।) यह कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी हासिल होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है और जब तुम समर्पित हृदय से सत्य खोजते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा और तुम परमेश्वर के इरादे संतुष्ट कर लोगे। तुम्हारा इस तरह से सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना मुख्य रूप से किस चीज पर निर्भर करता है? मुख्य रूप से यह तुम्हारे सही इरादों और रवैये पर निर्भर करता है। यह सबसे अहम है। जब पवित्र आत्मा काम करता है, वह लोगों के इरादों और रवैयों की जाँच-पड़ताल करता है, और वह निर्णय लेता है कि क्या इन कारकों के आधार पर लोगों को प्रबुद्ध करना है या उन्हें राह दिखानी है। अगर लोग परमेश्वर का कार्य समझ सकें और इस मामले को स्पष्टता से देखें, तो वे जानेंगे कि परमेश्वर से कैसे प्रार्थना करनी है और सत्य कैसे खोजना है। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट देख सकते हो? अक्सर, लोग बुराई करने से बचना चाहते हैं, उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ वे सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों के अनुसार अनुसरण कर सकें। लेकिन यह सत्य के प्रति लोगों के रवैये पर और इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है और क्या वह परमेश्वर को समर्पित है। अगर तुम अपने निजी इरादों को जाने दे सको और तुममें परमेश्वर के प्रति समर्पण की मानसिकता हो, तुम सच्चे मन से परमेश्वर से प्रार्थना कर खोज रहे हो तो परमेश्वर से प्रबोधन पाने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। परमेश्वर किसी न किसी तरीके से तुम्हें समझा देगा कि सत्य के सिद्धांत क्या हैं और मुख्य बिंदु कहाँ निहित हैं। जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना और खोज करते हो, और अगर तुम्हारे पास सही मानसिकता है और तुम ईमानदार हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। चिंता की बस यही बात है कि जब लोग वास्तव में सत्य की खोज नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि दूसरों को दिखाने के लिए बस जैसे-तैसे काम करते हैं और औपचारिकताएँ निभा रहे होते हैं। इस प्रकार, वे परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। यदि तुम्हारा रवैया हठपूर्वक अपने दृष्टिकोणों पर अड़े रहना है, सत्य को ठुकराना, औरों की राय न मानना, सत्य न खोजना, केवल अपने आपमें विश्वास रखना और मनमर्जी करना है—यदि यह तुम्हारा रवैया है और तुम्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर क्या करता है या क्या अपेक्षा करता है—तो परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा और तुम्हें दरकिनार कर देगा। वह तुम्हें दरकिनार कर देता है। क्या तुम मनमाने नहीं हो? क्या तुम अहंकारी नहीं हो? क्या तुम हमेशा खुद को ही सही नहीं मानते हो? यदि तुममें समर्पण नहीं है, यदि तुम कभी खोज नहीं करते, और यदि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के लिए पूरी तरह से बंद और उसका प्रतिरोधी है, तो परमेश्वर तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं देगा। ऐसा क्यों है? चूँकि परमेश्वर की ओर से तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए बंद है, यदि परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करता है क्या तुम इसे स्वीकार करोगे? अगर परमेश्वर तुम्हें फटकारे तो क्या तुम उसे महसूस करोगे? लोग जब दुराग्रही होते हैं, जब उनकी शैतानी प्रकृति और बर्बरता सामने आने लगती है, तो वे परमेश्वर के किसी भी कार्य को महसूस नहीं कर पाते और उनका कोई फायदा नहीं होता। इसलिए परमेश्वर ऐसा बेकार का काम नहीं करता। यदि तुम्हारा रवैया ऐसा अड़ियल प्रतिरोधी है, तो परमेश्वर तुमसे बस छिपा रहेगा। परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता। अगर तुम इस हद तक अड़ियल प्रतिरोधी हो और इतनी सीमित सोच वाले हो, तो परमेश्वर कभी भी तुममें कुछ भी जबरन नहीं करेगा या तुम पर कुछ भी लादेगा नहीं, वह कभी भी तुम्हें प्रेरित और प्रबुद्ध करने की कोशिश नहीं करेगा। परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। ऐसा क्यों है? ऐसा मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने तुममें एक खास तरह का स्वभाव देख लिया है, ऐसी पाशविकता देख ली जो सत्य से विमुख है और तर्क से परे है। तुम्हें क्या लगता है, जब किसी जंगली जानवर की पाशविकता फट पड़ रही हो, तो क्या लोग उसे काबू में कर सकते हैं? क्या उस पर चीखना-चिल्लाना किसी काम आता है? क्या तर्क करने या उसे सुकून देने की कोशिश करने से कोई लाभ होता है? क्या लोग उसके नजदीक भी जाने की हिम्मत कर सकते हैं? ऐसे प्राणी का वर्णन करने का एक उचित तरीका है : तर्क देना विवेक से परे है। जब तुम्हारी पशुता फट पड़ रही होती है और तुम विवेक से परे हो जाते हो, तो परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब तुम विवेक से परे हो जाते हो, तो परमेश्वर तुमसे और क्या कहेगा? तुमसे और कुछ भी कहना निरर्थक होगा। जब परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देता, तो तुम धन्य होते हो या दुर्भाग्य सहते हो? तुम्हें लाभ मिलता है या नुकसान उठाते हो? निस्संदेह तुम्हें नुकसान होता है। और इसका कारण कौन है? (हम हैं।) तुम हो। किसी ने तुम्हें यह सब करने के लिए मजबूर नहीं किया और फिर भी तुम परेशान हो। क्या यह मुसीबत तुमने खुद पैदा नहीं की है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता, तुम परमेश्वर को महसूस नहीं कर पाते, तुम्हारा हृदय अंधेरे में है, और तुम्हारा जीवन नुकसान झेलता है। तुमने यह मुसीबत खुद बुलाई है और तुम इसी लायक हो।

किसी मामले का सामना करते वक्त अगर लोग सत्य खोजे बिना ही बहुत मनमानी करें और हमेशा अपने ही विचारों पर अड़े रहें तो यह बहुत खतरनाक है। परमेश्वर ऐसे लोगों को ठुकरा देगा और अलग कर देगा। इसका दुष्परिणाम क्या होगा? निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों पर हटाए जाने का खतरा है। लेकिन जो लोग सत्य खोजते हैं, वे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं और नतीजे में वे परमेश्वर की आशीष प्राप्त करते हैं। सत्य को खोजने और नहीं खोजने के दो अलग-अलग रवैये तुम्हारे अंदर दो अलग-अलग दशाएँ और दो अलग-अलग नतीजे ला सकते हैं। तुम लोग कैसा नतीजा पसंद करते हो? (मैं परमेश्वर का प्रबोधन पाना पसंद करता हूँ।) अगर लोग परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध और परमेश्वर द्वारा निर्देशित होना और उसका अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हैं, तो उनका रवैया किस तरह का होना चाहिए? उन्हें अक्सर खोजने और समर्पण करने के रवैये के साथ परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। चाहे तुम अपना कर्तव्य कर रहे हो, दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हो या अपने सामने आई एक विशेष समस्या से निपट रहे हो, तुममें खोज और समर्पण का रवैया होना चाहिए। इस तरह का रवैया होने पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। सत्य खोजने और इसके प्रति समर्पण में सक्षम होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। अगर तुममें खोज और समर्पण का रवैया नहीं है, बल्कि तुम अड़ियल प्रतिरोधी बनकर अपने विचारों पर अड़े रहते हो, सत्य को स्वीकारने से मना करते हो और उससे विमुख हो चुके हो तो तुम स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक बुराई करोगे। तुम खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पाओगे! अगर तुम इस समस्या को हल करने के लिए कभी सत्य नहीं खोजते तो अंतिम परिणाम यह होगा कि चाहे तुम कितना भी अनुभव कर लो, चाहे तुम कितनी भी स्थितियों में खुद को पा लो, चाहे परमेश्वर तुम्हारे लिए कितने ही सबक तैयार कर ले, तुम सत्य को नहीं समझोगे और अंततः सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहोगे। अगर तुममें सत्य वास्तविकता नहीं होगी तो तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ होगे, और अगर तुम कभी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकोगे, तो तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले व्यक्ति नहीं हो। लोग हमेशा कहते हैं कि वे अपने कर्तव्य निभाना और परमेश्वर का अनुसरण करना चाहते हैं। क्या चीजें सरल हैं? बिल्कुल नहीं। लोगों के जीवन में ये चीजें बेहद महत्वपूर्ण हैं! अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से कर परमेश्वर को संतुष्ट करना या उसका भय मानना, और बुराई से दूर रहना आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम लोगों को अभ्यास का एक सिद्धांत बताऊँगा : अगर अपने साथ कुछ होने पर तुममें खोज और समर्पण का रवैया रहता है, तो यह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारे लिए अंतिम लक्ष्य तुम्हारी रक्षा किया जाना नहीं है। यह तुम्हें सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में समर्थ बनाने के लिए है। यही अंतिम लक्ष्य है। अगर तुम सभी चीजों का अनुभव इसी रवैये से करते हो, तो तुम्हें कभी यह महसूस नहीं होगा कि अपना कर्तव्य करना और परमेश्वर के इरादे संतुष्ट करना एक खोखला वाक्यांश और नारा है। यह अब इतना कठिन नहीं लगेगा। और तो और, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम पहले ही कई सत्य समझ जाओगे। अगर तुम इस तरह चीजों का अनुभव करने का प्रयास करते हो, तो तुम निश्चित रूप से फल प्राप्त करोगे। चाहे व्यक्ति कोई भी हो, उसकी उम्र और शिक्षा चाहे जो हो, उसने जितने भी साल परमेश्वर में विश्वास किया हो, या वे कोई भी कर्तव्य निभाते हों, जब तक उनका रवैया खोजपूर्ण और समर्पण का रहता है—जब तक वे इस तरह से चीजों का अनुभव करते हैं—अंततः वे सत्य को समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में निश्चित रूप से समर्थ होंगे। हालाँकि, अगर अपने साथ होने वाली हर चीज में तुम्हारा खोज या समर्पण का रवैया नहीं रहता है, तो तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे, न ही तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। जो लोग कभी सत्य नहीं समझते और कभी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, वे सोचते हैं, “सत्य क्या है और धर्म-सिद्धांत क्या है? सत्य वास्तविकता क्या है और सत्य वास्तविकता नहीं होना क्या होता है? मुझे यह समझ क्यों नहीं आता?” अक्सर वे सत्य के बारे में संगति और उपदेश भी सुनते हैं, जल्दी उठते हैं और परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हुए देर तक जगे रहते हैं, ज्यादा सुनते हैं, ज्यादा सीखते हैं और ज्यादा लिखते हैं। जो शिक्षाप्रद बातें वे सुनते हैं, उन्हें अपनी कॉपी में लिख लेते हैं, और ऐसी कई कॉपियाँ भर देते हैं। उन्होंने बहुत ज्यादा मेहनत की, लेकिन, दुर्भाग्य से, वे कभी सत्य को नहीं समझ पाते। उन्हें लगता है कि सत्य बहुत गहरा है। कई वर्षों तक सुनने के बाद, वे कुछ धर्म-सिद्धांत समझ लेते हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि वे उन्हें अभ्यास में नहीं ला पाते? वे मामलों का सामना करते हुए उलझन में क्यों पड़ जाते हैं? वे सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को बहुत गूढ़ मानते हैं और महसूस करते हैं कि इन चीजों को प्राप्त करना बहुत मुश्किल है। दरअसल, उन्होंने इस मामले को गलत समझा है। परमेश्वर में विश्वास करना और सत्य समझना शब्दों का खेल खेलना नहीं है, या यह कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर बात कर पाना भर नहीं है। यह इस बारे में बिल्कुल नहीं है। परमेश्वर में विश्वास में जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वह है सत्य का अभ्यास करना और सत्य का अभ्यास करने में सिद्धांतों को समझने में सक्षम होना। सत्य का अभ्यास करना क्या है और सिद्धांतों के साथ मामलों को निपटाना क्या है, यह समझने पर ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति सत्य समझ गया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका है। सत्य का अभ्यास करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होना सबसे महत्वपूर्ण बात है।

अंश 53

जब लोग अपने कर्तव्यों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, इन्हें अनमने ढंग से निभाते हैं, चापलूसों जैसे पेश आते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह चालाकी है, यह शैतान का स्वभाव है। चालाकी इंसान के सांसारिक आचरण के फलसफों का सबसे प्रमुख पहलू है। लोग सोचते हैं कि अगर वे चालाक न हों, तो वे दूसरों को नाराज कर बैठेंगे और खुद की रक्षा करने में असमर्थ होंगे; उन्हें लगता है कि कोई उनके कारण आहत या नाराज न हो जाए, इसलिए उन्हें पर्याप्त रूप से चालाक होना चाहिए, जिससे वे खुद को सुरक्षित रख सकें, अपनी आजीविका की रक्षा कर सकें, और दूसरे लोगों के बीच सुदृढ़ता से पाँव जमा सकें। सभी अविश्वासी शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं। वे सभी चापलूस होते हैं और किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। तुम परमेश्वर के घर आए हो, तुमने परमेश्वर के वचन पढ़े हैं और परमेश्वर के घर के उपदेश सुने हैं, तो तुम सत्य का अभ्यास करने, दिल से बोलने और एक ईमानदार इंसान बनने में असमर्थ क्यों हो? तुम हमेशा चापलूसी क्यों करते हो? चापलूस केवल अपने हितों की रक्षा करते हैं, कलीसिया के हितों की नहीं। जब वे किसी को बुराई करते और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाते देखते हैं, तो इसे अनदेखा कर देते हैं। उन्हें चापलूस होना पसंद है, और वे किसी को ठेस नहीं पहुँचाते। यह गैर-जिम्मेदाराना है, और ऐसा व्यक्ति बहुत चालाक होता है, भरोसे लायक नहीं होता। अपने घमंड और आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाए रखने के लिए कुछ लोग खुशी से दूसरों की मदद करने और हर कीमत पर अपने दोस्तों के लिए कोई भी खतरा उठाने को और कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। लेकिन जब उन्हें परमेश्वर के घर के हितों, सत्य और न्याय की रक्षा करनी होती है, तो उनके अच्छे इरादे छू-मंतर हो जाते हैं, वे पूरी तरह से गायब हो जाते हैं। जब उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, तो वे बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते। यह क्या हो रहा है? अपनी गरिमा और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए वे कोई भी कीमत चुकाएँगे और कोई भी कष्ट सहेंगे। लेकिन जब उन्हें वास्तविक कार्य करने और व्यावहारिक मामले सँभालने होते हैं, कलीसिया के कार्य और सकारात्मक चीजों की रक्षा करनी होती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करने और उन्हें पोषण प्रदान करने की आवश्यकता होती है, तो उनमें कोई भी कीमत चुकाने और कोई भी कष्ट सहने की ताकत क्यों नहीं रहती? यह अकल्पनीय है। असल में, उनका स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है? क्योंकि जब भी किसी चीज में परमेश्वर के लिए गवाही देना, सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करना, शैतान की चालों से लड़ना, या कलीसिया के कार्य की रक्षा करना शामिल होता है, तो वे भागकर छिप जाते हैं, और किसी भी उचित मामले पर ध्यान नहीं देते। कष्ट उठाने की उनकी वीरता और जज्बा कहाँ चला जाता है? उन चीजों का वे इस्तेमाल कहाँ करते हैं? यह देखना आसान है। भले ही कोई उन्हें फटकारे और कहे कि उन्हें इतना स्वार्थी और नीच नहीं होना चाहिए, और खुद को बचाते नहीं रहना चाहिए और उन्हें कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए, फिर भी वे वास्तव में इसकी परवाह नहीं करते। वे अपने मन में कहते हैं, “मैं ये चीजें नहीं करता, और इनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। इस तरह कार्य करने से मेरी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के अनुसरण को क्या फायदा होगा?” वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं होते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का अनुसरण करना पसंद करते हैं, और वह काम तो बिल्कुल नहीं करते जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपा होता है। इसलिए जब कलीसिया का कार्य करने के लिए उनकी जरूरत पड़ती है तो वे बस भाग जाना चुनते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अपने दिल में वे सकारात्मक चीजों को पसंद नहीं करते और सत्य में रुचि नहीं रखते। यह सत्य से विमुख होने की स्पष्ट निशानी है। जो सत्य से प्रेम करते हैं और जिनमें सत्य वास्तविकता होती है, वही लोग तब आगे आ सकते हैं, जब परमेश्वर के घर के काम को और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी आवश्यकता होती है, वही लोग खड़े होकर, बहादुरी और कर्तव्य-निष्ठा से, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, सत्य पर संगति कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सही मार्ग पर ले जा सकते हैं और उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम बना सकते हैं। यही जिम्मेदारी का रवैया है और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम लोगों में यह रवैया नहीं है, चीजों से निपटने में तुम एकदम लापरवाह रहते हो और सोचते हो, “मैं अपने कर्तव्य के दायरे में ही चीजों को करूँगा, लेकिन मुझे किसी और चीज की परवाह नहीं है। यदि तुम मुझसे कुछ पूछोगे तो मैं तुम्हें जवाब दूँगा—यदि मैं अच्छे मूड में हुआ तो जवाब दूँगा, नहीं तो जवाब नहीं दूँगा। यही मेरा रवैया है,” तो इस तरह का स्वभाव भ्रष्ट स्वभाव है, है न? केवल अपने रुतबे, अपनी प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान की रक्षा करना, और केवल अपने हित से संबंधित चीजों की रक्षा करना—क्या ऐसा करना एक न्यायोचित उद्यम की रक्षा करना है? क्या यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना है? इन ओछे, स्वार्थी मंसूबों के पीछे सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव है। तुम लोगों में से अधिकांश अक्सर इस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ दिखाते हैं, और जिस क्षण तुम्हारे सामने परमेश्वर के घर के हितों से संबंधित कोई बात आती है, तो तुम टालमटोल करते हो और कहते हो, “मैंने नहीं देखा,” या “मुझे पता नहीं,” या “मैंने सुना नहीं।” चाहे तुम सचमुच अनजान हो या सिर्फ अनजान होने का दिखावा कर रहे हो, अगर तुम महत्वपूर्ण क्षणों में इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह कहना मुश्किल होता है कि क्या तुम वाकई परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हो; मेरी नजर में तुम या तो अपने विश्वास के प्रति भ्रमित हो या फिर छद्म-विश्वासी हो। तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल भी नहीं हो।

तुम लोग समझ सकते हो कि सत्य से विमुख होने का क्या मतलब है, लेकिन मैं क्यों कहता हूँ कि सत्य से विमुख होना एक स्वभाव है? स्वभाव का कभी-कभार होने वाली, अस्थायी अभिव्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं होता और कभी-कभार होने वाली अस्थायी, अभिव्यक्तियों को स्वभावगत समस्या निरूपित करना पर्याप्त नहीं है। किसी व्यक्ति में चाहे जैसा भ्रष्ट स्वभाव हो, यह उनमें अक्सर या यहाँ तक कि लगातार प्रकट होता रहेगा; जब भी वह उपयुक्त स्थिति में होगा, यह उसमें प्रकट हो जाएगा। इसलिए कभी-कभार की अस्थायी अभिव्यक्तियों के आधार पर तुम किसी व्यक्ति की स्वभाव संबंधी समस्या को मनमाने तरीके से चिह्नित नहीं कर सकते। तो स्वभाव क्या होता है? स्वभावों का संबंध इरादों और प्रेरणाओं से होता है, और व्यक्ति की सोच तथा दृष्टिकोण से होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें इसका एहसास है कि वे चीजें हावी हो रही हैं और तुम्हें प्रभावित कररही हैं, लेकिन स्वभाव छिपे हुए और गुप्त भी हो सकते हैं, तथा सतही घटनाओं के कारण इसे देखना कठिन हो सकता है। संक्षेप में, जब तक तुम्हारे भीतर एक स्वभाव है, वह तुम्हारे काम में हस्तक्षेप करेगा, तुम्हें बाधित और नियंत्रित करेगा और तुम्हारे भीतर तरह-तरह के व्यवहार और अभिव्यक्तियों को जन्म देगा—यही होता है स्वभाव। सत्य से विमुख रहने का स्वभाव अक्सर किस तरह के व्यवहारों, विचारों, दृष्टिकोणों और रवैये को जन्म देता है? लोग सत्य से विमुख रहने के जो मुख्य लक्षण प्रदर्शित करते हैं उनमें से एक लक्षण यह है कि वे सकारात्मक चीजों और सत्य में रुचि नहीं दिखाते; साथ ही, जब सत्य का अभ्यास करने की बात आती है, वे सत्य के लिए प्रयास करने के प्रति अरुचि दिखाते हैं, दिल में जोश से रहित रहते हैं और ऐसा करने के अनिच्छुक होते हैं और सोचते हैं कि जो भी चल रहा है वह सब ठीक ही है। मैं एक आसान-सा उदाहरण देता हूँ। अक्सर लोग अच्छे स्वास्थ्य के संबंध में इस सहज ज्ञान की बात करते हैं कि फल और सब्जियाँ अधिक खाएँ, सादा भोजन अधिक और मांस कम खाएँ, और तला हुआ भोजन विशेष रूप से कम करें; यह लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए एक सकारात्मक मार्गदर्शिका है। हर कोई समझ और स्वीकार कर सकता है कि क्या अधिक खाना चाहिए और क्या कम। तो यह स्वीकृति सिद्धांत पर आधारित है या अभ्यास पर? (सिद्धांत पर।) सैद्धांतिक स्वीकृति कैसे व्यक्त होती है? ऐसा एक तरह की बुनियादी स्वीकृति से होता है। यह अपनी परखने की क्षमता पर आधारित भेद पहचान पाने के अनुसार यह सोचना है कि उक्त कथन सही और बहुत अच्छा है। लेकिन क्या तुम्हारे पास इस कथन की सत्यता प्रदर्शित करने के लिए कोई सबूत है? क्या तुम्हारे पास इस पर विश्वास करने का कोई आधार है? इसे स्वयं अनुभव किए बिना, इसके सही या गलत होने की पुष्टि के किसी आधार के बिना, और निश्चित ही पिछली गलतियों से कोई सबक लिए बिना, तथा किसी वास्तविक उदाहरण के बिना, तुमने बस इस दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया—यही सैद्धांतिक स्वीकृति है। चाहे तुम इस बात को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करो या व्यावहारिक रूप से, तुम लोगों को पहले यह पुष्टि करनी चाहिए कि “सब्जियाँ अधिक और मांस कम खाएँ,” यह कथन सही और सकारात्मक बात है। तो, सत्य से विमुख रहने का तुम्हारा स्वभाव कैसे देखा जा सकता है? इसका आधार यह है कि तुम इस कथन को कैसे ग्रहण करते हो और अपने जीवन में कैसे अपनाते हो; यह उस कथन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण को दर्शाता है, यह दिखाता है कि तुमने इसे सैद्धांतिक और धर्म-सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है, या कि तुमने वास्तविक जीवन में लागू करके इसे अपनी वास्तविकता बना ली है। यदि तुमने इस कथन को केवल धर्म-सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है, लेकिन वास्तविक जीवन में तुम जो करते हो वह इस कथन के पूरी तरह से उलट है, या तुम इस कथन को व्यवहार में बिल्कुल भी नहीं अपनाते, तो तुम्हें यह कथन पसंद है, या तुम इससे विमुख हो? उदाहरण के लिए, जब तुम थोड़ी-सी हरी सब्जियाँ खाते हो और उन्हें देखकर सोचते हो कि “हरी सब्जियाँ स्वास्थ्य के लिए तो अच्छी हैं, लेकिन उनका स्वाद बढ़िया नहीं होता है, और मांस का स्वाद बेहतर होता है, इसलिए मैं पहले थोड़ा मांस खाऊँगा,” और इसके बाद तुम केवल मांस खाते हो, हरी सब्जियाँ नहीं खाते—यह किस प्रकार का स्वभाव दर्शाता है? यह सही बातों को स्वीकार न करने का स्वभाव, सकारात्मक चीजों से विमुख रहने का स्वभाव और केवल दैहिक प्राथमिकताओं के आधार पर खाने की इच्छा रखने वाला स्वभाव दर्शाता है। ऐसा व्यक्ति जो पेटू है और सुख में लिप्त रहता है वह पहले ही सकारात्मक चीजों से बहुत विमुख, प्रतिरोधी और विकर्षित है और यह एक प्रकार का स्वभाव है। ऐसे भी लोग हो सकते हैं जो स्वीकार करें कि यह कथन काफी हद तक सही है, लेकिन वे स्वयं ऐसा नहीं कर सकते और यद्यपि वह ऐसा नहीं कर सकते, फिर भी वे दूसरों को ऐसा करने के लिए कहते हैं; बहुत बार दोहराने के बाद वह कथन उनके लिए एक प्रकार का सिद्धांत बन जाता है और उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे लोग मन में अच्छी तरह से जानते हैं कि ज्यादा सब्जियाँ खाना सही है और ज्यादा मांस खाना अच्छा नहीं है, लेकिन वे सोचते हैं, “कुछ भी हो, मेरा नुकसान नहीं हुआ है, मांस खाना फायदे की बात है और मुझे नहीं लगता कि यह स्वास्थ्य के लिए खराब है।” उनके लालच और इच्छाओं ने उन्हें गलत जीवनशैली चुनने पर मजबूर कर दिया है और उन्हें लगातार सही सामान्य ज्ञान और सही जीवनशैली के खिलाफ जाने पर मजबूर कर दिया है। उनमें एक ऐसा भ्रष्ट स्वभाव है जो फायदों और दैहिक आनंद की लालसा रखता है, तो क्या उनके लिए सही कथनों और सकारात्मक चीजों को स्वीकार करना आसान होगा? यह बिल्कुल भी आसान नहीं होगा। तो क्या उनकी जीवनशैली उनके भ्रष्ट स्वभाव से संचालित नहीं होती? यह उनके भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है और यह उनके भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति है। ऐसे ही व्यवहार और रवैये बाहरी तौर पर दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में, यह एक स्वभाव है जो उन्हें नियंत्रित कर रहा है। यह कौन-सा स्वभाव है? यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। सत्य से विमुख होने के स्वभाव का पता लगाना कठिन है; किसी को नहीं लगता कि वे सत्य से विमुख हैं, लेकिन उनकी सत्य विमुखता दिखाने के लिए यह तथ्य ही काफी है कि वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आने के बावजूद यह नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। लोग बहुत सारे धर्मोपदेश सुनते हैं और परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़ते हैं और परमेश्वर का इरादा यह है कि वे उसके वचनों को अपने हृदय से स्वीकार करें और इन वचनों का अपने वास्तविक जीवन में अभ्यास और उपयोग करें ताकि वे सत्य को समझें और उसे अपना जीवन बनाएँ। अधिकांश लोगों के लिए इस अपेक्षा को पूरा करना कठिन है और इसीलिए कहा जाता है कि अधिकांश लोगों का स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है।

जब कोई सत्य को समझता है, तो उसके लिए सत्य का अभ्यास करना कठिन नहीं होता और एक बार जब कोई सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाता है, तो वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है। कोई व्यक्ति जिन सत्यों को समझता हो, उन्हें क्या ऐसी वास्तविकताओं में बदलना सचमुच बहुत कठिन है जिन्हें वे जीते हैं? मैं एक उदाहरण देता हूँ। मान लो कि मौसम ठंडा है और तुम माथे पर पसीना लिए घर से बाहर जाने वाले हो और तुम्हारी माँ तुमसे कहती है कि बाहर जाने से पहले पसीना सुखा लो, नहीं तो सर्दी लग जाएगी। तुम जानते हो कि माँ तुम्हारा भला ही चाहती है लेकिन तुम उसकी सलाह को गंभीरता से नहीं लेते, और भले ही तुम्हें लगता हो कि उसका सुझाव सही है फिर भी तुम उसकी अनदेखी कर देते हो। तुम वैसे ही माथे पर पसीना लिए बाहर चले जाते हो और इस तरह बाहर जाने पर कभी-कभी तुम्हें सर्दी लग भी जाती है, लेकिन अगली बार जब तुम घर से बाहर निकलते हो तब भी तुम उसकी सलाह नहीं मानते। बेशक तुम जानते हो कि उसकी सलाह सही है और तुम्हारे सर्वोत्तम हित में है और तुम्हारी माँ के उद्देश्य और इरादे हमेशा तुम्हारे ही भले के लिए होते हैं, फिर भी तुम उसकी अनसुनी कर देते हो और बात नहीं मानते—क्या यह एक तरह का स्वभाव नहीं है? यदि तुम्हारा स्वभाव ऐसा नहीं होता, तो तुम क्या करते? (बात सुनता।) तुम इस सलाह का महत्व जानते और तुम इसे न सुनने के परिणामों और उस पीड़ा को जानते जिससे तुम्हें गुजरना पड़ सकता है और तुम इस सलाह का अर्थ जानते-समझते। तुम इस सलाह का सख्ती से पालन करने में सक्षम होते और हमेशा इसका पालन करते, और तब तुम्हें सर्दी से पीड़ित होने का खतरा नहीं होता। यह तो केवल एक उदाहरण है। परमेश्वर में विश्वास करने, परमेश्वर के वचनों का पाठ करने और सुनने के साथ भी बिल्कुल वैसा ही है, तो लोगों को परमेश्वर के वचनों से कैसे पेश आना चाहिए? यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। यदि कोई व्यक्ति सत्य के अनुरूप कुछ कहता है और सही बात कहता है तो उसकी बातें मानने से लोगों को लाभ होता है। परमेश्वर के वचन सत्य हैं और यदि लोग उन्हें स्वीकारेंगे, तो उन्हें न केवल लाभ होगा, बल्कि उन्हें जीवन भी प्राप्त होगा। बहुत-से लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते, और हमेशा परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह चाहे लोगों को उपदेश दे रहा हो, डाँट रहा हो, उन्हें कुछ याद दिला रहा हो, सांत्वना दे रहा हो या निष्ठापूर्वक अनुनय कर रहा हो, वह चाहे जिस भी तरीके से बोले, वह ऐसे लोगों के दिलों को नहीं जगा सकता। ऐसे लोग उसके वचनों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होते हैं और उसकी बात सुनने के बाद भी वे अनसुनी कर देते हैं। यह मनुष्य के स्वभावों में से एक है—हठधर्मिता और सत्य से विमुखता। अगर तुम परमेश्वर की बताई चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण और उसके आदेशों का पालन करने में परमेश्वर के वचनों का अनुसरण नहीं कर सकते, तो तुम इस स्वभाव को नहीं बदल सकोगे। तुम परमेश्वर द्वारा कहे गए प्रत्येक वचन को चाहे कितना ही स्वीकार करो या आमीन बोलो, परमेश्वर के वचनों को सत्य मानकर चाहे इसकी कितनी ही मौखिक प्रशंसा करो, यह सब बेकार है; तुम्हें परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करने योग्य होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन और अपनी वास्तविकता बनाना चाहिए, केवल यही काम की चीज है। उदाहरण के लिए, यदि धोखेबाज स्वभाव वाले किसी व्यक्ति में ईमानदार होने और सत्यतापूर्वक बोलने का संकल्प है तो उसके लिए ऐसा करना कुछ हद तक आसान है, लेकिन सत्य से विमुखता और हठधर्मिता का स्वभाव वह चीज है जिसे बदलना सबसे कठिन है। परमेश्वर कुछ भी कहे, ऐसे स्वभाव वाले लोग उसे अपने हृदय में गंभीरता से नहीं लेते, परमेश्वर कोई भी रवैया अपनाए, चाहे वह चेतावनी दे रहा हो, याद दिला रहा हो, उपदेश दे रहा हो या निष्ठापूर्वक अनुनय कर रहा हो, तथ्य प्रस्तुत कर रहा हो या तार्किक बातें कर रहा हो, उनके हृदय पर प्रभाव नहीं पड़ता, और इससे निपटना कठिन है। लोगों के लिए सत्य से विमुखता का स्वभाव पहचानना कठिन है और उन्हें बार-बार सत्य खोजकर अपनी दशाओं पर विचार करना चाहिए कि वे सत्य को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते और वे उन सत्यों का अभ्यास क्यों नहीं कर पाते जिन्हें वे समझते हैं। यदि वे इस समस्या को अच्छी तरह से समझ लें, तो वे जान जाएँगे कि सत्य से विमुख होने का मतलब क्या है।

लोगों के स्वभाव में कुछ ऐसा छिपा है जो ऐसे रवैये में अभिव्यक्त होता है जिसमें न अहंकार होता है और न ही जी हुजूरी। सोचने और खुद को अभिव्यक्त करने का उनका अपना तरीका होता है और वे सोचते हैं कि वही सबसे उपयुक्त तरीका है। दूसरे जो चाहे कहें या करें, वे उनसे प्रभावित नहीं होते और वही काम करने पर जोर देते हैं जिससे उन्हें लगता है कि लोग उनका आदर करेंगे, उनका मानना है कि यही सही काम है। वे सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं करते, तथ्यों का सही ढंग से सामना नहीं कर सकते और उनके पास कोई भी सत्य सिद्धांत नहीं होता। यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकारी, आत्मतुष्ट और सत्य से विमुख होने वाला स्वभाव है। जो लोग शैतान के हैं और सत्य से विमुख रहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और कर्मों के प्रति अंधे-बहरे बने रहते हैं, फिर चाहे परमेश्वर कितना भी बोल ले या काम कर ले। शैतान कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानता, वह उनकी अनदेखी करता है, लोगों को परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकार नहीं करने देता और लोगों को गुमराह भी करता है ताकि वे उसके प्रति समर्पित हों—इसी तरीके से शैतान परमेश्वर का प्रतिरोध करता है। परमेश्वर मानवजाति को बचाने, जगाने और शुद्ध करने के लिए सत्य व्यक्त करता है और शैतान पूरी ताकत से परमेश्वर के काम में बाधा डालने और बरबाद करने का प्रयास करता है; मानवजाति को गुमराह करने के पीछे शैतान का उद्देश्य मानवों को भ्रष्ट और पीड़ित करना और अंततः मानवजाति को खा जाना और मिटा देना है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने मानवजाति को सभी प्रकार का भोजन दिया है, उसने तमाम तरह के अनाज और सब्जियाँ बनाईं और इन्हें उगाने लायक जमीन भी बनाई। लोग जब तक कड़ी मेहनत करेंगे, तब तक उनके पास खाने और उपयोग करने के लिए पर्याप्त वस्तुएँ होंगी और वे स्वास्थ्यप्रद आहार पाना सुनिश्चित कर सकते हैं। लेकिन लोग संतुष्ट नहीं होते और हमेशा धनी बनना चाहते हैं। इसीलिए वे फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए आनुवांशिक परिवर्धन के तरीकों के बारे में अनुसंधान पर जोर देते हैं जिससे अनाज का असली पोषण नष्ट हो जाता है और जैविक भोजन जैविक नहीं रह जाता। जब लोग इन चीजों को खाते हैं, तो उन्हें तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। क्या यह शैतान का कृत्य नहीं है? शैतान ने लोगों को एक निश्चित सीमा तक भ्रष्ट कर दिया है जिससे वे सभी जीते-जागते शैतान और राक्षस बन गए हैं। अतीत में, केवल शैतान और बुरी आत्माएँ ही परमेश्वर का प्रतिरोध करती थीं, लेकिन अब पूरी भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर का प्रतिरोध करती है। तो क्या भ्रष्ट मनुष्य राक्षस और शैतान नहीं हैं? क्या वे शैतान के वंशज नहीं हैं? (वे हैं।) यह शैतान द्वारा सहस्राब्दियों तक मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने का परिणाम है। तुम शैतानी स्वभाव को कैसे जान और भेद पहचान सकते हो? शैतान जो चीजें करना पसंद करता है, उनके साथ ही उन तरीकों और तरकीबों के आधार पर जिनके द्वारा वह काम करता है, यह देखा जा सकता है कि उसे सकारात्मक चीजें कभी पसंद नहीं आतीं, वह बुराई पसंद करता है और वह हमेशा खुद को निपुण और हर काम नियंत्रित करने में सक्षम समझता है। यह शैतान की अहंकारी प्रकृति है। इसलिए शैतान निरंकुश ढंग से परमेश्वर को नकारता है, उसका प्रतिरोध और विरोध करता है। शैतान सभी नकारात्मक और बुरी चीजों का प्रतिनिधि और मूल है। अगर तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देख पाते हो, तो तुम शैतानी स्वभावों का भेद पहचान पाते हो। लोगों के लिए सत्य को स्वीकारना और सत्य का अभ्यास करना कोई साधारण बात नहीं है, क्योंकि उन सभी में शैतानी स्वभाव होते हैं, और वे सभी अपने शैतानी स्वभावों के द्वारा बाधित और बंधे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग समझते हैं कि एक ईमानदार व्यक्ति होना अच्छा होता है, और जब वे किसी को ईमानदार होते, सच बोलते और सरल व खुले दिल से बोलते देखते हैं, तो वे ईर्ष्या और जलन महसूस करते हैं, फिर भी यदि तुम उन्हें ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए कहो, तो यह उन्हें मुश्किल लगता है। वे ईमानदारी की बातें कहने और करने में अविचल रूप से अक्षम हैं। क्या यह शैतानी स्वभाव नहीं है? वे बातें तो अच्छी-अच्छी करते हैं, लेकिन उनका अभ्यास नहीं करते। यह होता है सत्य से विमुख होना। जो लोग सत्य से विमुख होते हैं, उनके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होता है, उनके लिए सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने का कोई रास्ता नहीं होता। सत्य से विमुख होने वालों की सबसे स्पष्ट दशा यह होती है कि उन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, यहाँ तक कि वे उनसे दूर भागकर घृणा करते हैं, वे प्रवृत्तियों के पीछे भागना खास पसंद करते हैं। वे अपने दिल में उन चीजों को स्वीकार नहीं करते जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और जिन्हें करने की अपेक्षा परमेश्वर लोगों से करता है। इसके बजाय, उनके प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण और उदासीन होता है, कुछ लोग तो उन मानकों और सिद्धांतों का अक्सर तिरस्कार भी करते हैं जिनकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। वे सकारात्मक चीजों से विकर्षित होते हैं और वे उनके प्रति अपने दिलों में हमेशा प्रतिरोध, विरोध और निरादर से भरा हुआ महसूस करते हैं। यह सत्य से विमुख होने की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। कलीसियाई जीवन में परमेश्वर के वचन पढ़ना, प्रार्थना करना, सत्य पर संगति करना, कर्तव्यपालन करना और सत्य के द्वारा समस्याओं का समाधान करना सकारात्मक बातें हैं। ये चीजें परमेश्वर को प्रिय हैं, लेकिन कुछ लोग इन सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं, इनकी परवाह नहीं करते और इनके प्रति उदासीन रहते हैं। सबसे घृणित बात तो यह है कि वे सकारात्मक लोगों के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाते हैं, जैसे कि ईमानदार लोग, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग, अपने कर्तव्य समर्पित होकर निभाने वाले लोग और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने वाले लोग। वे हमेशा इन लोगों पर हमला करने और उन्हें बाहर करने की कोशिश करते हैं। अगर उन्हें पता चल जाए कि उनमें कमियाँ हैं या उन्होंने कोई भ्रष्टता दिखाई है, तो वे इस बात को पकड़ लेते हैं, तिल का ताड़ बनाते हैं, और इस कारण उन्हें निरंतर नीचा दिखाते हैं। यह कैसा स्वभाव है? वे सकारात्मक लोगों से इतना बैर क्यों पालते हैं? वे दुष्ट लोगों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों से इतना प्यार क्यों करते हैं और उनके साथ मिलजुल कर क्यों रहना चाहते हैं, वे ऐसे लोगों के साथ अक्सर समय बर्बाद क्यों करते हैं? जहाँ नकारात्मक और बुरी चीजें होती हैं, वे उत्साह और उल्लास से भर जाते हैं, लेकिन जब सकारात्मक चीजों की बात आती है, तो उनका रवैया प्रतिरोधी होने लगता है; खासकर तब जब वे लोगों को सत्य पर संगति करते सुनते हैं या समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करते देखते हैं तो वे इसके प्रति दिल से विमुख और असंतुष्ट होकर शिकायतें करने लगते हैं। क्या यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा नहीं है? ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जो उसके लिए कार्य करना और उत्साहपूर्वक भाग-दौड़ करना पसंद करते हैं, और बात जब अपने गुणों और शक्तियों का प्रयोग करने, दिखावा करने, अपनी प्राथमिकताओं में लिप्त होने की होती है, तो उनमें असीम ऊर्जा होती है। लेकिन अगर तुम उन्हें सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए कहो, तो उनकी हवा निकल जाती है, उनका उत्साह भंग हो जाता है। अगर उन्हें दिखावा न करने दिया जाए, तो वे उदासीन और हताश हो जाते हैं। दिखावा करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों होती है? और सत्य का अभ्यास करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों नहीं होती? यहाँ क्या समस्या है? सभी लोग अपनी अलग पहचान बनाना पसंद करते हैं; वे सभी खोखले यश के लिए लालायित रहते हैं। आशीष और पुरस्कार पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करने की बात हो तो हर किसी के पास असीम ऊर्जा होती है, तो फिर सत्य का अभ्यास करने और देह से विद्रोह करने की बात आने पर वे हताश क्यों हो जाते हैं, उदासीन क्यों रहते हैं? ऐसा क्यों होता है? इससे साबित होता है कि लोगों के दिलों में मिलावट है। वे पूरी तरह से आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं—स्पष्ट रूप से कहें तो, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए विश्वास करते हैं। पाने के लिए आशीष या लाभ न होने पर लोग उदासीन और हताश हो जाते हैं, और उनमें कोई उत्साह नहीं रहता। यह सब सत्य से विमुख रहने वाले भ्रष्ट स्वभाव की देन है। इस तरह के स्वभाव के नियंत्रण में होने पर लोग सत्य के अनुसरण का मार्ग चुनने के अनिच्छुक होते हैं, वे अपनी ही राह चलते हैं और गलत रास्ता चुनते हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने में लगे रहना गलत है, फिर भी इन चीजों को छोड़ना या दरकिनार कर देना उनसे सहन नहीं होता और वे अभी भी शैतान के रास्ते पर चलते हुए इन चीजों के लिए प्रयासरत रहते हैं। इस तरह के मामलों में, लोग परमेश्वर का नहीं, बल्कि शैतान का अनुसरण कर रहे होते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह सब शैतान की सेवा में होता है और वे शैतान की सेवा कर रहे होते हैं।

क्या सत्य से विमुख होने के भ्रष्ट स्वभाव को बदलना आसान है? सत्य से विमुखता मानवजाति की गहरी भ्रष्टता का लक्षण है और इसे बदलना सबसे कठिन है। क्योंकि स्वभाव में बदलाव केवल सत्य को स्वीकार करके ही किया जा सकता है। सत्य से विमुख रहने वाला व्यक्ति आसानी से सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता, ठीक वैसे ही जैसे बहुत गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति भोजन को मना करता है। यह बहुत खतरनाक है और जो व्यक्ति सत्य से विमुख हो उसे आसानी से बचाया नहीं जा सकता, भले ही वह परमेश्वर में विश्वास रखता हो। यदि कोई व्यक्ति कुछ वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करता रहा है, परंतु यह नहीं जानता कि सत्य क्या है, सकारात्मक चीजें क्या हैं और उद्धार पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने के जीवन लक्ष्य के बारे में भी साफ समझ नहीं रखता, तो क्या वह ऐसा दृष्टिहीन आदमी नहीं है जो रास्ता भटक गया हो? इसलिए, सत्य से विमुख होने के कारण सत्य को स्वीकार करना असंभव हो जाता है और इस तरह के भ्रष्ट स्वभाव को बदलना आसान नहीं होता। जो लोग सत्य को स्वीकार करने और सही मार्ग का अनुसरण करने में सक्षम हैं, वे सत्य से प्रेम करते हैं और ऐसे लोग आसानी से अपने भ्रष्ट स्वभाव बदल सकते हैं। यदि किसी का स्वभाव सत्य से विमुख होने का है, फिर भी वह अपने हृदय में परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की उम्मीद रखता है तो उसे कहाँ से शुरुआत करनी चाहिए? कहाँ से शुरू करने पर यह काम आसान होगा? सबसे तेज रास्ता कौन सा है? (यह समझने के बाद कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और सिद्धांत क्या हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों और मानकों का कसौटी के रूप में प्रयोग करना चाहिए और यदि कोई चीज सिद्धांतों के विपरीत जाए और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप न हो तो उन्हें सिद्धांतों पर कायम रहते हुए उस काम को नहीं करना चाहिए।) पहले उन्हें प्रत्येक सत्य के सिद्धांतों को समझना चाहिए—यह बहुत महत्वपूर्ण है। इसके बाद क्या होगा? (जब वे सत्य से विमुख होने की दशा प्रकट करते हैं और इसका संबंध उनके कर्तव्य और सिद्धांतों से होता है तो उन्हें देह से विद्रोह कर सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करना चाहिए।) सही कहा, उनके पास एक मार्ग होना चाहिए और वह मार्ग तथा लक्ष्य स्पष्ट होने चाहिए। फिलहाल, महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश लोगों को यह नहीं पता होता कि उनके स्वभाव का कौन-सा पहलू किस संदर्भ में और किस समय प्रकट होता है और वह किस तरह से प्रकट होता है। यदि वे यह सब जान लें तो क्या उनके लिए खुद को बदलना आसान नहीं रहेगा? अब देखें तो, लोगों की विभिन्न प्रकार की सोच या रवैयों का संबंध दरअसल उनके स्वभाव से होता है। विभिन्न प्रकार के स्वभावों के हावी न होने पर, अपने भ्रष्ट स्वभावों से कोई चुनौती या बाधा न मिलने पर, लोगों के लिए अपने गलत विचारों को सुधारना आसान होगा। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारी माँ तुमसे कहती है कि घर से निकलने से पहले अपना पसीना सुखा लो। यदि तुम आज्ञाकारी और नेक संतान हो तो तुम्हें अपनी माँ के श्रमसाध्य इरादों का एहसास होगा, साथ ही तुम यह भी समझ सकते हो कि उसकी सलाह सही है, इसके फायदे जान सकते हो और इसे स्वीकार कर सकते हो। यदि तुममें ऐसा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है जो परेशानी खड़ी करके तुम्हें पीछे खींचे, तो तुम्हारे लिए इस सुझाव को स्वीकार करना आसान होगा। यद्यपि यह सलाह बहुत ही सरल और पालन करने में आसान है और तुम्हें पता है कि यह सही है, फिर भी यदि तुम्हारा स्वभाव सत्य से विमुख रहने और हठधर्मिता वाला है, तो वह तुम्हें जानबूझकर इसके विरुद्ध जाने के लिए प्रेरित कर सकता है और इसके परिणामस्वरूप तुम्हारी माँ की भावनाएँ आहत हो सकती हैं और उन्हें तुम्हारे बारे में चिंता हो सकती है तथा कष्ट उठाना पड़ सकता है। संक्षेप में, कोई व्यक्ति चीजों के सामने आने पर उनसे कैसे निपटता है, सकारात्मक चीजों को कैसे ग्रहण करता है और अपने भ्रष्ट स्वभावों से कैसे लगातार लड़ता और जूझता है, वह सत्य का अनुसरण करने के उसके संकल्प को दर्शाता है। यदि तुममें यह संकल्प है और तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने, सत्य को स्वीकार करने, परमेश्वर के वचन को अपना जीवन बनाने और मनुष्य के समान जीने के इच्छुक हो, तो तुम बदल सकते हो। सत्य का अनुसरण करने का तुम्हारा संकल्प जितना अधिक महान होगा, तुममें परिवर्तन भी उतना ही होगा।

उद्धार का तात्पर्य मुख्यतः किस बात से है? इसका तात्पर्य मुख्य रूप से स्वभाव में बदलाव से है। जब किसी व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है केवल तभी वह शैतान का प्रभाव त्याग सकता है और बचाया जा सकता है। इसलिए जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए स्वभावगत बदलाव एक प्रमुख मुद्दा है। जब किसी व्यक्ति का स्वभाव बदल जाता है, तो वह मानव के समान जिएगा और पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। हो सकता है कि कोई देखने में बहुत अच्छा, विशेष गुण संपन्न या प्रतिभाशाली न हो, अकुशलतापूर्वक बोलता हो और बहुत वाक्पटु न हो या पहनने-ओढ़ने में बेढंगा हो और बाहरी तौर पर बहुत सामान्य दिखता हो, लेकिन जब उसके साथ कोई घटना हो जाए तो वह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने या अपने लिए योजना बनाने के बजाय सत्य खोजने में सक्षम हो तथा जब परमेश्वर उसे कोई कर्तव्य निभाने का आदेश दे तो वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो और उसे जो भी दायित्व सौंपा गया हो उसे पूरा कर सकता हो। तुम लोग ऐसे व्यक्ति के बारे में क्या सोचते हो? भले ही वह बाहरी तौर पर आकर्षक या देखने में प्रभावशाली नहीं होता लेकिन उनके पास परमेश्वर का भय मानने और उसके प्रति समर्पण करने वाला दिल होता है और इसी से उसकी ताकतों का पता चलता है। यह देखकर लोग कहेंगे कि, “इस व्यक्ति का स्वभाव स्थिर है और जब कुछ घटित होता है, तो वह बिना लापरवाही के या कोई मूर्खतापूर्ण कार्य किए बिना चुपचाप परमेश्वर के सामने खोज सकता है। उसका रवैया गंभीर और जिम्मेदार है; वह कर्तव्यपरायण है और अपने कर्तव्य को ईमानदारी से पूरा करने के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर सकता है।” ऐसे व्यक्ति बोलचाल और काम करने के तरीके में संयमित होते हैं, उनमें सामान्य तार्किकता होती है और वे जिस तरह से जीते हैं तथा जैसा स्वभाव प्रदर्शित करते हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। यदि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है तो क्या उनके कार्यों के पीछे कोई सिद्धांत है? निश्चय ही वे सिद्धांत खोजते हैं और अंधाधुंध दुष्कर्म नहीं करते। यह सत्य का अभ्यास करने और स्वभाव में बदलाव लाने के लिए प्रयासरत होने से हासिल अंतिम परिणाम है। उनकी वाणी नपी-तुली और सटीक होती है, वे गैर-जिम्मेदाराना तरीके से नहीं बोलते, वे आश्वस्तकारी और भरोसेमंद तरीके से कार्य करते हैं और उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण और बुराई से दूर रहने की वास्तविकताएँ होती हैं। ये सभी अभिव्यक्तियाँ ऐसे व्यक्तियों में देखी जा सकती हैं। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जिन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है और जिनका स्वभाव बदल चुका है। इन चीजों का ढोंग नहीं किया जा सकता है। किसी व्यक्ति का स्वभाव ही उसका जीवन होता है। जिस व्यक्ति का स्वभाव जैसा होगा, उसका व्यवहार वैसा ही होगा। लोगों का व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ उनके स्वभाव से नियंत्रित होती हैं और लोग जो चीज लगातार व्यक्त करते रहते हैं वह उनके स्वभाव का खुलासा होता है, न कि व्यक्तित्व का। स्वभावगत समस्याओं और विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों को पहचानने में सक्षम होना और फिर सत्य खोजकर उन्हें हल करना ही वह सबसे बुनियादी चीज है जिसे किसी व्यक्ति को स्वभाव में बदलाव लाने का प्रयास करने के लिए हासिल करना ही चाहिए।

अंश 54

तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहे हो या किसी भी पेशे का अध्ययन कर रहे हो, तुम जितना ज्यादा अध्ययन करते हो, तुम्हें उतना कुशल बनना चाहिए, और पूर्णता हासिल करने का प्रयास करना चाहिए; तभी तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन निरंतर बेहतर होता जाएगा। कुछ लोग किसी भी कर्तव्य को करते वक्त कर्तव्यनिष्ठ नहीं होते, और सामने आने वाली किसी भी मुश्किल का हल निकालने के लिए सत्य नहीं खोजते। वे हमेशा चाहते हैं कि दूसरे उनका मार्गदर्शन करें और उनकी मदद करें, वे इस हद तक चले जाते हैं कि दूसरों को उनका हाथ पकड़कर सिखाने और उनका काम करने के लिए भी कह देते हैं, अपनी तरफ से कोशिश ही नहीं करते। वे हमेशा दूसरों पर निर्भर रहते हैं और उनकी मदद के बिना कुछ नहीं कर सकते। वे ऐसा करते हैं इसलिए वे कचरा हैं, है ना? तुम चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हें चीजों का अध्ययन करने में अपना दिल लगाने की जरूरत है। अगर तुममें पेशेवर ज्ञान की कमी है, तो पेशेवर ज्ञान का अध्ययन करो। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो सत्य की तलाश करो। अगर तुम सत्य समझ लोगे और पेशेवर ज्ञान प्राप्त कर लोगे, तो तुम अपना कर्तव्य निभाते समय उनका उपयोग करने में सक्षम होगे और परिणाम प्राप्त करोगे। यह सच्ची प्रतिभा और वास्तविक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति है। अगर तुम अपने कर्तव्य के दौरान किसी पेशेवर ज्ञान का बिल्कुल भी अध्ययन नहीं करते, सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हारे द्वारा किया गया परिश्रम भी मानक स्तर का नहीं होगा; तो, तुम अपना कर्तव्य निभाने की बात कैसे कह सकते हो? अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हें बहुत सारे उपयोगी ज्ञान का अध्ययन करना चाहिए और खुद को कई सत्यों से लैस करना चाहिए। तुम्हें कभी सीखना बंद नहीं करना चाहिए, कभी खोजना बंद नहीं करना चाहिए और कभी दूसरों से सीखकर अपनी कमजोरियाँ सुधारना बंद नहीं करना चाहिए। चाहे दूसरे लोगों की कुछ भी खूबियाँ हों, या वे किसी भी तरह से तुमसे अधिक मजबूत हों, तुम्हें उनसे सीखना चाहिए। और इससे भी बढ़कर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से सीखना चाहिए, जो सत्य तुमसे बेहतर समझता हो। कई वर्षों तक इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से तुम सत्य को समझोगे और इसकी वास्तविकताओं में प्रवेश करोगे और तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन भी मानक स्तर का होगा। तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जिसके पास सत्य और मानवता है, एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास सत्य वास्तविकता है। यह सत्य का अनुसरण करने से प्राप्त होता है। कोई कर्तव्य निभाए बिना तुम ऐसे नतीजे कैसे प्राप्त कर सकते हो? यह परमेश्वर का उत्कर्ष है। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाते वक्त सत्य का अनुसरण नहीं करते और सिर्फ मजदूरी करके ही संतुष्ट हो जाते हो तो इसके क्या दुष्परिणाम निकलेंगे? एक लिहाज से तुम अपने कर्तव्य मानक स्तर पर नहीं निभा पाओगे। दूसरे, तुम्हारे पास वास्तविक अनुभवजन्य गवाहियों की कमी होगी और तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। इन दोनों संदर्भों में से एक में भी दिखाने के लिए कुछ नहीं होने पर क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकोगे? यह असंभव होगा। इसलिए व्यक्ति सिर्फ मजदूरी करने से संतुष्ट होकर परमेश्वर की स्वीकृति बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर सकता। यह सोचना कि तुम मात्र मजदूरी करके पुरस्कार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकते हो, सिर्फ ख्याली पुलाव है! यह किस तरह का रवैया है? मात्र मजदूरी करके आशीष प्राप्त करने की इच्छा रखना स्पष्ट रूप से परमेश्वर के साथ मोल-भाव करना है, परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास है। परमेश्वर ऐसे मजदूरों को स्वीकृति नहीं देता। कोई व्यक्ति किस स्वभाव के नियंत्रण में आकर अपने कर्तव्य निभाने में अनमना हो जाता है या धोखेबाजी में शामिल हो जाता है? अहंकार, हठ और सत्य से प्रेम नहीं करना—क्या वह इन चीजों के नियंत्रण में नहीं है? (बिल्कुल, है।) क्या तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ भी ऐसी हैं? (बिल्कुल, ऐसी ही हैं।) अक्सर, कभी-कभार या सिर्फ कुछ मामलों में? (अक्सर।) ऐसी स्थितियों को स्वीकार करने में तुम लोगों का रवैया काफी ईमानदार है, और तुम्हारे पास ईमानदार हृदय है, लेकिन सिर्फ उन्हें स्वीकार करना ही काफी नहीं है; इससे उनमें बदलाव नहीं आएगा। तो उन्हें बदलने के लिए क्या करना होगा? जब भी अपने कर्तव्य निभाते समय तुम अनमने हो जाओ, अहंकारी स्वभाव सामने आए या सम्मानरहित रवैया हो, तुम्हें तुरंत परमेश्वर के सामने आकर आत्मचिंतन कर यह पहचानना चाहिए कि तुम कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो। इससे भी ज्यादा, तुम्हें समझना होगा कि उस तरह का स्वभाव उत्पन्न कैसे होता है और इसे कैसे बदला जा सकता है। इसे समझने का मकसद बदलाव लाना है। तो बदलाव लाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? परमेश्वर के वचनों के न्याय और खुलासे के माध्यम से उन्हें यह जानना चाहिए कि उनके भ्रष्ट स्वभाव का सार क्या है—यह कितना भद्दा और क्रूर है, यह शैतान या दानवों से जरा भी अलग नहीं है। सिर्फ तभी वे खुद से और शैतान से नफरत कर सकते हैं; सिर्फ तभी वे अपने और शैतान के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। यही वह तरीका है जिससे व्यक्ति सत्य को अभ्यास में ला सकता है। जब व्यक्ति अपने संकल्प कोसत्य के अभ्यास में लगा देता है तो उसे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और उसके अनुशासन को भी स्वीकार करना होगा। उसकी तरफ से सक्रिय सहयोग का एक तत्व जरूर होना चाहिए। उसे कैसे सहयोग करना चाहिए? कोई भी कर्तव्य निभाते समय, जब किसी को विचार आए, “इतना बहुत है” तो उसे इसे सुधारना चाहिए। किसी को ऐसे विचार मन में नहीं रखने चाहिए। जब कोई अहंकारी स्वभाव पैदा हो तो परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारकर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए, परमेश्वर के वचन खोजने चाहिए, और उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। इस तरह से, व्यक्ति पश्चात्ताप करने वाला हृदय प्राप्त करने में सक्षम होगा, और उसकी आंतरिक स्थिति बदल चुकी होगी। ऐसा करने का उदेश्य क्या है? इसका उद्देश्य है कि तुम्हारे अंदर वास्तव में बदलाव हो, तुम लगन के साथ काम करने में सक्षम बनो, और बिना किसी शर्त के परमेश्वर की ओर से फटकार और उसके अनुशासन को स्वीकार करो और उसके लिए समर्पण करो। ऐसा करने में तुम्हारी दशा उलट जाएगी। जब तुम फिर से अनमने होने लगोगे और फिर से अपने कर्तव्यों को सम्मानरहित रवैये से देखने लगोगे तो अगर तुम तुरंत परमेश्वर के अनुशासन और फटकार की ओर मुड़ जाओ, तो क्या तुम एक अपराध करने से बच नहीं जाओगे? तुम्हारे जीवन के विकास के लिए यह एक अच्छी बात या बुरी बात है? यह एक अच्छी बात है। जब तुम सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर को संतुष्ट करते हो, तुम्हारा हृदय सहज, आनंदित और पछतावे से रहित होता है। यह वास्तविक शांति और आनंद है।

जब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं तो उनके लिए परमेश्वर से विद्रोह कर उसका प्रतिरोध करना आसान होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर लोगों को बचाने का काम करने के लिए आया है और उसने कई सत्य व्यक्त किए हैं; अब बात यह है कि क्या लोग इन सत्यों को स्वीकार सकते हैं। अगर कोई सत्य स्वीकार कर सकता है, तो उसका उद्धार हो सकता है। अगर वह सत्य को स्वीकार नहीं करता और परमेश्वर को नकार सकता है और धोखा दे सकता है, तो उसका सब खत्म हो जाता है—वह सिर्फ महा विनाश में नष्ट होने का इंतजार कर सकता है। इस नियति से कोई नहीं बच सकता। लोगों को इस तथ्य का सामना करना होगा। कुछ लोग कहते हैं, “मैं लगातार भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता रहता हूँ और मैं कभी नहीं बदल सकता। मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं ऐसा ही हूँ? क्या परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता? क्या वह मुझसे घृणा करता है?” क्या इस तरह का रवैया सही है? क्या इस तरह से सोचना ठीक है? (नहीं।) अगर किसी व्यक्ति में भ्रष्ट स्वभाव हैं, तो वह स्वाभाविक रूप से इन्हें प्रकट करेगा। वह उन्हें चाहते हुए भी दबा नहीं सकता, और इसलिए उसे लगता है कि उसके लिए कोई उम्मीद नहीं बची है। वास्तव में, ऐसा होना जरूरी नहीं है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर सकता है, या क्या वह परमेश्वर पर निर्भर हो सकता है और उसका आदर कर सकता है। लोगों का अक्सर भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करना यह साबित करता है कि उनका जीवन शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होता है, और उनका सार शैतान का ही सार है। लोगों को इस तथ्य को मानना और स्वीकार करना चाहिए। इंसान के प्रकृति-सार और परमेश्वर के सार के बीच अंतर होता है। इस तथ्य को स्वीकार करने के बाद उन्हें क्या करना चाहिए? जब लोग भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं; जब वे देह के भोगों में लिप्त होते और परमेश्वर से दूर हो जाते हैं; या जब परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है जो उनके अपने विचारों के विपरीत होता है, और उनके भीतर शिकायतें पैदा होती हैं, तो उन्हें तुरंत ही खुद को अवगत करा देना चाहिए कि यह कोई समस्या है, और भ्रष्ट स्वभाव है; यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, परमेश्वर का विरोध है; इसका सत्य के साथ मेल नहीं है, और परमेश्वर इससे घृणा करता है। जब लोगों को इन चीजों का एहसास होता है, तो उन्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए, या नकारात्मक होकर ढीला नहीं पड़ जाना चाहिए, और उन्हें परेशान तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए; इसके बजाय, उन्हें अधिक गहराई से खुद को जानने में सक्षम होना चाहिए। इसके अलावा, उन्हें अग्रसक्रिय रूप से परमेश्वर के सामने आने में सक्षम होना चाहिए, और परमेश्वर की फटकार और अनुशासन को स्वीकार करना चाहिए, और उन्हें तुरंत अपनी स्थिति पलट देनी चाहिए, ताकि वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हो जाएँ, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकें। इस तरह, परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता निरंतर सामान्य होता जाएगा, और साथ ही तुम्हारी अंदरूनी स्थिति भी। तुम भ्रष्ट स्वभावों, भ्रष्टता के सार, और शैतान की भिन्न कुरूप स्थितियों की पहचान एक बढ़ती स्पष्टता के साथ करने में सक्षम होगे। फिर तुम इस तरह की मूर्खतापूर्ण और बचकानी बातें नहीं करोगे जैसे कि “यह शैतान था जो मेरे साथ दखलंदाजी कर रहा था,” या “यह ख्याल शैतान ने मुझे दिया था।” इसके बजाय, तुम्हें भ्रष्ट स्वभावों के बारे में, परमेश्वर का विरोध करने वाले इंसानी सार और शैतान के सार के बारे में सटीक जानकारी होगी। तुम्हारे पास इन चीजों को हल करने का एक अधिक सटीक तरीका होगा, और ये चीजें तुम्हें विवश नहीं करेंगी। तुम इसलिए कमजोर नहीं होगे या परमेश्वर और उसके उद्धार में विश्वास नहीं गंवा दोगे क्योंकि तुमने अपना थोड़ा भ्रष्ट स्वभाव दिखाया है, या अपराध किया है, या अनमनेपन से अपना कर्तव्य निभाया है, या क्योंकि तुम अक्सर खुद को निष्क्रिय, नकारात्मक स्थिति में पाते हो। तुम ऐसी दशाओं में नहीं रहोगे, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव का ठीक से सामना करोगे, और सामान्य आध्यात्मिक जीवन जी पाओगे। जब कोई भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करता है, तब अगर वह आत्मचिंतन कर सके, परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करे, सत्य खोजे, और अपने भ्रष्ट स्वभावों का सार इस तरह पहचाने और विश्लेषण करे, कि वह अपने भ्रष्ट स्वभावों से और नियंत्रित और बाधित न हो, बल्कि सत्य का अभ्यास कर सके तो वह उद्धार के मार्ग पर चल चुका होगा। इस तरह के अभ्यास और अनुभव के साथ, कोई भी अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर सकता है और शैतान के प्रभाव से मुक्त हो सकता है। तो क्या वह परमेश्वर के सामने नहीं रहने लगा है और उसने स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त नहीं कर ली है? यह सत्य का अभ्यास करने और सत्य को प्राप्त करने का मार्ग है, यही उद्धार का मार्ग भी है। मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभावों की जड़ें काफी गहरी हैं; शैतान का सार और उसकी प्रकृति लोगों के विचारों, व्यवहार और हृदय पर नियंत्रण करते हैं। हालाँकि, सत्य के सामने, परमेश्वर के कार्य के सामने और परमेश्वर के उद्धार के सामने यह सब फीका है; इससे कोई रुकावट नहीं आती। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, ना इससे कि उसे किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, ना इससे कि उसकी विवशताएँ क्या हैं, एक मार्ग है जिसे अपनाया जा सकता है, उन्हें हल करने की एक विधि है, और उनका समाधान करने के लिए संबंधित सत्य भी हैं। इस तरह से, क्या लोगों के उद्धार की उम्मीद नहीं है? हाँ, लोगों के उद्धार की उम्मीद है।

अंश 55

चाहे कोई अपना कर्तव्य पालन कर रहा हो या फिर पेशेवर ज्ञान अर्जित कर रहा हो, उसे परिश्रमी होना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार चीजों को सँभालना आना चाहिए। इन चीजों के साथ अनमने ढंग से मत पेश आओ और न ही लापरवाही करो। पेशेवर ज्ञान के अध्ययन का उद्देश्य अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाना है और व्यक्ति को इसके लिए प्रयास झोंकने चाहिए—यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें लोगों को अपने हिस्से की भूमिका निभानी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य ठीक से करने का इच्छुक नहीं है और हमेशा पेशेवर ज्ञान का अध्ययन न करने के कारण और बहाने ढूँढ़ता है तो इससे पता चलता है कि वह ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपा रहा है और उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से नहीं करना चाहता है। क्या ऐसे व्यक्ति में अंतरात्मा और विवेक की कमी नहीं है? क्या इस प्रकार के चरित्र वाला व्यक्ति परेशानी खड़ी नहीं करता है? क्या उन्हें सँभाल पाना अत्यंत कठिन नहीं है? भले ही कोई व्यक्ति किसी पेशे का अध्ययन कर रहा है, तब भी उसे सत्य को तलाशना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्यों को करना चाहिए। सभी को इसी दायरे में रहना चाहिए और किसी को भी एक अविश्वासी जैसा भ्रमित नहीं होना चाहिए। कार्य के प्रति अविश्वासियों का क्या रवैया होता है? उनमें से बहुत-से लोग बस अपने दिन काटते हैं और अपना समय नष्ट करते हैं, हर रोज बस अपनी दैनिक मजदूरी पाने के लिए जैसे-तैसे काम करते हैं और जब भी मौका मिलता है, वे काम में लापरवाही करते हैं। उन्हें कार्यकुशलता से या अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करने की परवाह नहीं होती, उनमें गंभीर और जिम्मेदार रवैये की कमी होती है। वे यह नहीं कहते, “यह कार्य मुझे सौंपा गया है, तो इस कार्य के पूरा होने तक मुझे इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, मुझे इस मामले को अच्छे से सँभालना चाहिए और यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए।” उनमें ऐसी अंतरात्मा नहीं होती है। इसके अलावा, अविश्वासियों में एक विशेष तरह का भ्रष्ट स्वभाव होता है। जब वे अन्य लोगों को कोई पेशेवर ज्ञान या कौशल का कुछ हिस्सा सिखाते हैं, तो वे सोचते हैं, “जब कोई छात्र हर वो चीज सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी। अगर मैं दूसरों को वह सब कुछ सिखा देता हूँ जो मैं जानता हूँ, तो फिर कोई मेरा आदर या प्रशंसा नहीं करेगा और मैं एक शिक्षक के रूप में अपनी सारी प्रतिष्ठा खो बैठूँगा। यह नहीं चलेगा। मैं उन्हें वह सब कुछ नहीं सिखा सकता जो मैं जानता हूँ, मुझे कुछ बचाकर रखना चाहिए। जो कुछ मैं जानता हूँ उसका केवल अस्सी प्रतिशत ही मैं उन्हें सिखाऊँगा और बाकी बचाकर रखूँगा; यह दिखाने का यही एकमात्र तरीका है कि मेरे कौशल दूसरों के कौशल से श्रेष्ठ हैं।” यह किस तरह का स्वभाव है? यह कपट है। दूसरों को सिखाते समय, उनकी सहायता करते समय या उनके साथ अपनी पढ़ी हुई कोई चीज साझा करते समय तुम लोगों को कैसा रवैया अपनाना चाहिए? (मुझे कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए और कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहिए।) कोई व्यक्ति कैसे कुछ भी बचाकर नहीं रखता? अगर तुम कहते हो, “जब बात उन चीजों की आती है जिन्हें मैंने सीखा है, तो मैं कुछ भी बचाकर नहीं रखता और मुझे तुम सब को उन चीजों के बारे में बताने में कोई परेशानी नहीं है। वैसे भी मैं तुम सबसे ज्यादा काबिल हूँ और अभी भी मैं अधिक उन्नत चीजों को समझ सकता हूँ”—यह अभी भी चीजों को बचाकर रखने वाली और काफी षड्यंत्रकारी बात है। या अगर तुम कहते हो, “मैं तुम लोगों को वे सभी बुनियादी चीजें सिखाऊँगा जो मैंने सीखी हैं, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। मेरे पास अभी भी अधिक ज्ञान है, और यहाँ तक कि अगर तुम सब लोग यह सब सीख भी लेते हो, तब भी तुम मेरी बराबरी नहीं कर पाओगे”—यह अभी भी चीजों को बचाकर रखना है। अगर कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो उसे परमेश्वर का आशीष प्राप्त नहीं होगा। लोगों को परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना सीखना चाहिए। परमेश्वर के घर में तुम्हें उन सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक चीजों का योगदान करना चाहिए जिनमें तुम पारंगत हो चुके हो ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें सीखकर उनमें महारत हासिल कर सकें—यही परमेश्वर का आशीष पाने का एकमात्र रास्ता है और वह तुम्हें और भी बहुत कुछ देगा। जैसा कि कहा जाता है, “लेने से देना धन्य है।” अपनी सभी खूबियों और गुणों को परमेश्वर को समर्पित कर दो, उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में प्रदर्शित करो ताकि हर किसी को इसका लाभ मिल सके और अपने कर्तव्यों में परिणाम प्राप्त हो सकें। अगर तुम अपने गुणों और खूबियों का संपूर्ण योगदान करते हो तो ये कलीसिया के कार्य के लिए और उन सभी के लिए फायदेमंद होंगे जो उस कर्तव्य को निभाते हैं। सभी को कुछ साधारण बातें बताकर यह मत सोचो कि तुमने काफी अच्छा किया है या फिर तुमने किसी चीज को बचाकर नहीं रखा है—ऐसे नहीं चलेगा। तुम केवल वे कुछ सिद्धांत या चीजें ही सिखाते हो जिन्हें लोग शब्दशः समझ सकते हैं, लेकिन सार या महत्वपूर्ण बिंदु किसी नौसिखिए की समझ से परे होते हैं। तुम विस्तार में जाए बिना या विवरण दिए बिना, सिर्फ एक संक्षिप्त वर्णन देकर सोचते हो, “खैर, मैंने तुम्हें बता दिया है, और मैंने जानबूझकर कोई भी चीज छिपाकर नहीं रखी है। अगर तुम नहीं समझ पा रहे हो, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी काबिलियत बहुत खराब है, इसलिए मुझे दोष मत दो। हमें बस यह देखना होगा कि अब परमेश्वर तुम्हें आगे कैसे ले जाता है।” इस तरह की मंशा में छल होता है, है कि नहीं? क्या यह स्वार्थी और घिनौना नहीं है? तुम लोग क्यों दूसरों को अपने दिल की हर बात और हर वो चीज सिखा नहीं सकते जो तुम समझते हो? इसके बजाय तुम ज्ञान को क्यों रोकते हो? यह तुम्हारे इरादों और तुम्हारे स्वभाव की समस्या है। अधिकांश लोगों को जब पहली बार व्यवसाय-संबंधी ज्ञान के कुछ विशिष्ट पहलुओं से परिचित कराया जाता है, तो वे केवल इसके शाब्दिक अर्थ को समझ सकते हैं; मुख्य बिंदु और सार समझ पाने के लिए एक अवधि तक अभ्यास अपेक्षित होता है। अगर तुम पहले ही इन बारीकियों में महारत हासिल कर चुके हो, तो तुम्हें उनके बारे में दूसरों को सीधे बता देना चाहिए; उन्हें इस तरह के घुमावदार रास्ते पर जाने और टटोलने में इतना ज्यादा समय मत लगाने दो। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है; तुम्हें यही करना चाहिए। जिन चीजों को तुम मुख्य बातें और सार मानते हो, अगर तुम उन्हें दूसरों को बता दोगे तो तुम किसी भी चीज को बचाकर नहीं रखोगे और न ही स्वार्थी बनोगे। जब तुम लोग अन्य लोगों को कौशल सिखाते हो, उनसे अपने पेशे के बारे में बातचीत करते हो या फिर जीवन प्रवेश के बारे में उनसे संगति करते हो, यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों के स्वार्थी और घृणित पहलुओं का समाधान नहीं कर पाते हो, तो तुम अच्छी तरह से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर पाओगे; इस स्थिति में, तुम लोग वो नहीं हो जिनमें मानवता या अंतरात्मा और विवेक है या जो सत्य का अभ्यास करता है। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए और उस बिंदु पर पहुँचना चाहिए, जहाँ पर तुम स्वार्थी मंशाओं से दूर रहो और केवल परमेश्वर के इरादों पर विचार करो। इस प्रकार तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी। लोगों का सत्य का अनुसरण न करना और अविश्वासियों की तरह शैतानी स्वभावों के अनुसार जीवन जीना बहुत ही थकाऊ है। अविश्वासियों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी कौशल या पेशे के सार में महारत हासिल करना कोई आसान बात नहीं है और जब कोई इसके बारे में जान लेगा और स्वयं इसमें महारत हासिल कर लेगा तो तुम्हारी आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। अपनी आजीविका की सुरक्षा के लिए लोग इस तरह से कार्य करने के लिए मजबूर होते हैं—उन्हें हर समय सजग रहना चाहिए। जिसमें उन्हें महारत हासिल है, यही उनकी सबसे मूल्यवान मुद्रा है, यही उनकी आजीविका है, उनकी पूँजी है, उनकी जीवनधारा है और उन्हें इसके बारे में किसी अन्य व्यक्ति को नहीं बताना चाहिए। परंतु तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो—यदि तुम परमेश्वर के घर में इस तरह सोचते हो और इस तरह काम करते हो तो तुम में और अविश्वासियों में कोई अंतर नहीं है। यदि तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते रहते हो, तो तुम वह व्यक्ति नहीं हो जिसे वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास है। यदि तुम अपना कर्तव्य पालन करते समय हमेशा स्वार्थी मंशा और तुच्छ मानसिकता रखते हो, तो तुम्हें परमेश्वर का आशीष नहीं मिलेगा।

परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने के बाद तुमने उसके वचनों को खाया और पीया है, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार किया है तो क्या तुमने अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार किया है और उन्हें समझ लिया है? जिन सिद्धांतों के अनुसार तुम बोलते और कार्य करते हो, चीजों के प्रति तुम्हारा नजरिया और तुम्हारे स्व-आचरण के सिद्धांतों और लक्ष्यों में क्या कोई बदलाव आया है? यदि तुममें और एक अविश्वासी के बीच अभी भी कोई अंतर नहीं आया है तो परमेश्वर अपने प्रति तुम्हारे विश्वास को मान्यता नहीं देगा। वह यही कहेगा कि तुम अभी भी अविश्वासी हो और अविश्वासियों की राह पर चल रहे हो। इसलिए चाहे तुम्हारे स्व-आचरण की बात हो या फिर कर्तव्य पालन की, तुम्हें इनमें परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास करना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए; तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को सुलझाना चाहिए और अपने गलत विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यासों का समाधान करना चाहिए। एक ओर, तो तुम्हें आत्म-चिंतन और स्व-परीक्षण के जरिए समस्याओं का पता लगाना चाहिए। दूसरी ओर, तुम्हें समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज भी करनी चाहिए और जब तुम भ्रष्ट स्वभावों का पता लगा लोगे तो तुम्हें उनका समाधान तुरंत करना होगा, देह के खिलाफ विद्रोह कर अपनी इच्छा का भी त्याग करना चाहिए। एक बार जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लोगे, तब तुम उनके वशीभूत होकर कार्य नहीं करोगे और तुम अपने इरादों और हितों का त्याग करने में सक्षम होगे और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकोगे। यही सत्य वास्तविकता है जो परमेश्वर के एक सच्चे अनुयायी में होना आवश्यक है। यदि तुम आत्म-चिंतन कर सकते हो, स्वयं को जान सकते हो, इस प्रकार अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोज सकते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है। परमेश्वर में विश्वास करने के लिए इस प्रकार का सहयोग आवश्यक होता है और इस प्रकार अभ्यास करने में सक्षम होना, परमेश्वर की सबसे बड़ी आशीष है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुम कलीसिया के कार्य की खातिर, परमेश्वर के घर के हितों के लिए और अपने भाई-बहनों के भले के लिए काम कर रहे हो; साथ ही, तुम सत्य का अभ्यास भी कर रहे हो। यही है वह चीज जिसे परमेश्वर पहचानता है; ये सब अच्छे कर्म हैं और इस तरह से सत्य का अभ्यास करके तुम परमेश्वर के लिए गवाही दे रहे हो। लेकिन यदि तुम ऐसा नहीं करते हो, अगर तुममें और किसी अविश्वासी में कोई भेद नहीं है, अगर तुम चीजों को निपटाने के लिए अविश्वासियों के सिद्धांतों और उनके स्व-आचरण के तरीकों के अनुसार पेश आते हो तो क्या यह गवाही देना है? (नहीं।) इसका क्या दुष्परिणाम निकलेगा? (इससे परमेश्वर का अनादर होता है।) इससे परमेश्वर का अनादर होता है! तुमने ऐसा क्यों कहा कि इससे परमेश्वर का अनादर होता है? (क्योंकि परमेश्वर ने हमें चुना है, उसने बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं, व्यक्तिगत तौर से हमें राह दिखाई है, हमें सत्य प्रदान किया है और हमारा सिंचन किया है, इसके बावजूद हम सत्य को नहीं स्वीकारते या इसका अभ्यास नहीं करते और अभी भी हम लोग शैतानी चीजों के हिसाब से जीते हैं और शैतान के सामने गवाही नहीं देते हैं। इससे परमेश्वर का अनादर होता है।) (यदि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले किसी व्यक्ति ने उसे इतने सारे सत्यों और अभ्यास के मार्गों के बारे में संगति करते सुना है और इसके बावजूद कार्य करते हुए वह अविश्वासियों के सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीवन जीता है और निहायत धोखेबाज और स्वार्थी है तो वह अविश्वासियों से भी ज्यादा बुरा और दुष्ट है।) तुम सभी इस बारे में थोड़ा तो समझ ही गए होगे। लोग परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, परमेश्वर जो भी देता है उसका आनंद उठाते हैं, इसके बावजूद भी वे शैतान का अनुसरण करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके सामने कैसी चीजें या कैसी कठिन परिस्थितियाँ आती हैं, वे तब भी परमेश्वर के वचनों पर ध्यान नहीं देते या परमेश्वर के प्रति स्वयं को समर्पित नहीं कर पाते हैं, वे सत्य नहीं खोजते और न ही अपनी गवाही में मजबूती से कायम रहते हैं। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात नहीं है? यह वाकई परमेश्वर से विश्वासघात है। जब परमेश्वर को तुम्हारी आवश्यकता होती है, तब तुम उसकी पुकार या उसके वचन नहीं सुनते, बल्कि अविश्वासी संसार की प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हो, शैतान की बात को ध्यान से सुनते हो, शैतान का अनुसरण करते हो और शैतान के तर्क, उसके सिद्धांतों और जीवन यापन के तरीकों के अनुसार अभ्यास करते हो। यह परमेश्वर से विश्वासघात है। क्या परमेश्वर से विश्वासघात करना उसकी ईशनिंदा और उसका अनादर करना नहीं है? अदन के बगीचे में आदम और हव्वा की बातों पर ध्यान दो—परमेश्वर ने कहा था, “भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना : क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:17)। ये किसके वचन हैं? (परमेश्वर के वचन हैं।) क्या ये वचन साधारण हैं? (नहीं।) क्या हैं वे? वे सत्य हैं, लोगों को उनका पालन करना चाहिए और उसी तरीके से उनका अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्यों को बताया कि भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के साथ क्या करना चाहिए। अभ्यास का सिद्धांत इसके फल को नहीं खाना था और फिर उसने मनुष्यों को इसका परिणाम बताया—जिस दिन वे इसके फल को खा लेंगे, उस दिन उनकी मृत्यु अवश्य ही हो जाएगी। मनुष्यों को अभ्यास के सिद्धांत बताए गए और यह भी कि दाँव पर उनका क्या लगा है। यह सब सुनने के बाद भी क्या उन्हें कुछ समझ आया था या नहीं? (वे समझ गए थे।) दरअसल, उन्होंने परमेश्वर के वचनों को समझा, लेकिन बाद में साँप को यह कहते सुना, “परमेश्वर ने कहा कि जिस दिन तुम लोग उस वृक्ष का फल खाओगे उस दिन तुम अवश्य मर जाओगे, लेकिन यह जरूरी नहीं कि तुम मर ही जाओगे। तुम इसे आजमा सकते हो,” और फिर शैतान के बोलने के बाद उन्होंने उसके वचनों को मान लिया और भले और बुरे के ज्ञान के उस वृक्ष का फल खा लिया। यह परमेश्वर से विश्वासघात था। उन्होंने परमेश्वर के वचनों को मानने और उनके अनुसार अभ्यास करने का विकल्प नहीं चुना। उन्होंने परमेश्वर के आदेश का पालन नहीं किया, बल्कि शैतान के वचनों पर विश्वास करके उसे स्वीकारा और उसी के अनुसार कार्य किया। इसका क्या परिणाम था? उनके व्यवहार की प्रकृति और उनका तरीका परमेश्वर से विश्वासघात करने और उसका अनादर करने की थी और इसके परिणामस्वरूप शैतान ने उन्हें भ्रष्ट कर दिया और वे पतित हो गए। लोग अभी भी उस जमाने के आदम और हव्वा की तरह ही हैं। वे परमेश्वर के वचनों को सुनते तो हैं परन्तु उनका अभ्यास नहीं करते, यहाँ तक कि वे सत्य को समझकर भी उसका अभ्यास नहीं करते। इसकी प्रकृति आदम और हव्वा के जैसी ही है जिन्होंने न तो परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दिया और न ही उसकी आज्ञाओं का पालन किया—यह परमेश्वर से विश्वासघात और उसका अनादर करना है। जब लोग परमेश्वर से विश्वासघात और उसका अनादर करते हैं तो उसका नतीजा यह होता है कि शैतान उन्हें भ्रष्ट और अपने काबू में करता रहता है, और वे अपने शैतानी स्वभावों के द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसी कारण उन्हें कभी भी शैतान के प्रभाव से मुक्ति नहीं मिल पाती है और न ही वे शैतान के प्रलोभन, लालच, हमलों, चालाकी, और उनके द्वारा निगले जाने से बच पाते हैं। यदि तुम्हें इन चीजों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता, तो तुम्हारा जीवन अत्यधिक कष्टकारी और परेशानी भरा होगा और न ही उसमें कोई शांति और आनंद होगा। तुम्हें हर चीज खोखली लगेगी और यहाँ तक कि तुम इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए स्वयं को खत्म करने का प्रयास भी करोगे। जो लोग शैतान की सत्ता के अधीन रहते हैं उनकी दयनीय स्थिति ऐसी ही है।

अंश 56

जब कुछ लोग अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं, तो उन्हें हमेशा कुछ गलत करने, प्रकट किए जाने और हटाए जाने का डर रहता है, इसलिए वे अक्सर दूसरों से कहते हैं, “तुम्हें सच में अगुआ नहीं बनना चाहिए। जैसे ही कुछ गलत होगा, तुम्हें हटा दिया जाएगा और वापस आने का कोई अवसर नहीं मिलेगा!” क्या यह कथन भ्रांति नहीं है? “वापस आने का कोई अवसर नहीं मिलेगा” का क्या मतलब है? जिन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हटा दिया जाता है वे कौन हैं? वे सभी बुरे व्यक्ति हैं जो बेलगाम हो जाते हैं, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करते हैं और बाधा डालते हैं और बार-बार की चेतावनियों के बावजूद बदलने से इनकार कर देते हैं। अगर कोई सिर्फ इसलिए गलती करता है क्योंकि उसका आध्यात्मिक कद छोटा है, या उसकी काबिलियत कम है, या उसके पास अनुभव की कमी है, लेकिन वह सत्य स्वीकार कर सके और सचमुच पश्चात्ताप कर सके, तो क्या परमेश्वर का घर उसे हटा देगा? भले ही वह व्यक्ति वास्तविक कार्य नहीं कर सकता हो तो भी केवल उसकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाएगा। तो क्या ऐसी बातें कहने वाले लोग तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश नहीं कर रहे हैं? क्या वे दूसरों को गुमराह करने के लिए धारणाएँ नहीं फैला रहे हैं? परमेश्वर के घर में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को लोकतांत्रिक तरीके से चुना जाता है, ऐसा नहीं है कि जो कोई भी ये भूमिकाएँ चाहता है उसे ये मिल सकती हैं। परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ सत्य सिद्धांतों के आधार पर व्यवहार करता है; केवल वे झूठे अगुआ जो सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं और मसीह-विरोधी जो शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं और जो हठपूर्वक पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं, हटा दिए जाएँगे। वे सभी जो सत्य स्वीकार कर सकते हैं, काट-छाँट किया जाना स्वीकार कर सकते हैं और सही मायने में पश्चात्ताप कर सकते हैं, नहीं हटाए जाएँगे। जो कोई भी यह धारणा फैलाता है कि “अगुआ होना बहुत ही जोखिम भरा है”, उसके इरादे और मकसद होते हैं। उनका लक्ष्य लोगों को गुमराह करना, दूसरों को अगुआ बनने से रोकना और इस वजह से मिले अवसर का फायदा उठाना है। क्या यह गुप्त इरादा रखना नहीं है? यदि तुम हटाए जाने को लेकर चिंतित हो, तो तुम्हें सतर्क रहना चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे पश्चात्ताप करना चाहिए, सत्य स्वीकार करना चाहिए और अपनी गलतियों को सुधारने में समर्थ होना चाहिए। क्या इससे समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा? यदि कोई गलती करता है, और जब उसकी काट-छाँट होती है, तब वह सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है, और सचमुच पश्चात्ताप करने का उसका कोई इरादा नहीं होता है और वह लापरवाह बने रहना जारी रखता है, और बेकाबू होकर खराब चीजें करता है, तो फिर उसे हटा दिया जाना चाहिए। जब कुछ लोग अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं, तब वे दुस्साहस और लापरवाही से कार्य करते हैं और वे बिल्कुल किसी झिझक के बिना बोलते हैं और चीजें करते हैं, सब कुछ नियंत्रित करने और दूसरों को अँधेरे में रखने का प्रयास करते हैं। न केवल वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में विफल रहते हैं, बल्कि वे उन लोगों का भी पता लगाकर उन्हें अलग-थलग कर देते हैं जो ऊपरवाले तक समस्याओं की रिपोर्ट करते हैं। जब ऊपरवाले को इस मुद्दे के बारे में पता चलता है और वह उन्हें जवाबदेह ठहराता है, तो वे चूहे की तरह डरपोक हो जाते हैं, और हठपूर्वक अपनी करनी स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। वे सोचते हैं कि यदि वे इसे मानने से हठपूर्वक इनकार कर दें, तो वे इससे बच सकते हैं और परमेश्वर का घर इस मामले को आगे नहीं बढ़ाएगा। क्या यह वास्तव में इतना आसान है? परमेश्वर का घर तथ्यों को स्पष्ट रूप से सत्यापित करेगा और फिर सिद्धांतों के आधार पर इसे सँभालेगा; जो भी जिम्मेदार पाया जाएगा, वह बच नहीं पाएगा। जब वे लोग चीजें करते हैं तब वे सत्य की तलाश नहीं करते हैं, वे मनमाने ढंग से, लापरवाही से और अपनी मर्जी से कार्य करते हैं और जब चीजें बिगड़ जाती हैं तब वे कुतर्क और दिखावे का सहारा लेते रहते हैं और हठपूर्वक अपने किए को मानने से इनकार कर देते हैं। यह किस तरह की समस्या है? क्या यह सही रवैया है? क्या कुतर्क और दिखावा करने और हठपूर्वक अपने किए को मानने से इनकार करने से समस्या हल हो जाती है? क्या यह रवैया सत्य से मेल खाता है? क्या इसमें सच्चा समर्पण है? वे गलतियाँ करने और उजागर होने और रिपोर्ट किए जाने से डरते हैं, वे परमेश्वर के घर द्वारा जिम्मेदार ठहराए जाने से डरते हैं और वे डरते हैं कि उनका न्याय किया जाएगा और उनकी निंदा की जाएगी और वे हटा दिए जाएँगे। क्या इस डर में कोई समस्या है? यह डर कोई सकारात्मक चीज नहीं है; यह कहाँ से आता है? (उनके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से आता है।) सही है। तो वास्तव में इस डर में क्या है? आओ इसका गहन-विश्लेषण करते हैं। वे क्यों डरते हैं? उनका डर इस चिंता से उपजता है कि जब चीजें उजागर हो जाएँगी, तो उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा, जिससे वे अपना रुतबा और आजीविका खो बैठेंगे। इसलिए वे झूठ और कुतर्क का सहारा लेते हैं और अपने किए को मानने से हठपूर्वक इनकार कर देते हैं। सिर्फ इस रवैये के आधार पर यहाँ यह प्रकट किया गया है कि वे सत्य को स्वीकार करने वाले लोग हैं या नहीं, वे अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग हैं या नहीं, और वे धोखेबाज लोग हैं या नहीं। क्या वे दानव नहीं हैं? आखिरकार उन्होंने अपना असली रंग दिखा ही दिया। लोग सबसे ज्यादा कब बेनकाब होते हैं? जब उन पर कोई चीज पड़ जाती है, और विशेष रूप से जब उनके कुकर्म प्रकट हो जाते हैं, तब देखो कि उनका रवैया क्या होता है—ये क्षण उन्हें सबसे अधिक प्रकट करते हैं। उनके आशीषें प्राप्त करने के इरादे, धोखेबाजी, चालाकी, और अपनी गलतियों को स्वीकार करने से हठपूर्वक इनकार करना वगैरह-वगैरह—ये सभी भ्रष्ट स्वभाव एक ही बार में उजागर हो जाते हैं। क्या यह लोगों का भेद पहचानने का सबसे आसान समय नहीं है? कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ न्यायपूर्वक व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य क्यों न करता हो, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उसे कर्तव्य करने की उसकी योग्यता से वंचित कर देगा, उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या मामला वाकई ऐसा ही है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे और उसका रवैया देखता है। खासतौर से वह यह देखता है कि जब वह व्यक्ति गलती करता है तब क्या वह आत्मचिंतन कर सकता है, क्या उसे प्रायश्चित होता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है जिससे वह सत्य को समझने लगे और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी व्यक्ति में यह सही रवैया नहीं है और वह पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों से दूषित है, यदि वह छोटी-मोटी योजनाओं से भरा हुआ है और सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है और यदि, जब समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तब वह दिखावा, कुतर्क और खुद को सही ठहराने तक का सहारा लेता है और अपने किए को मानने से हठपूर्वक इनकार करता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही लोग नहीं हैं और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम करने वाले छद्म-विश्वासियों को प्रकट किया और हटाया न जाए? एक छद्म-विश्वासी, भले ही वह कोई भी कर्तव्य करे, सबसे जल्दी प्रकट हो जाता है, क्योंकि वह जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है वे बहुत ही ज्यादा तादाद में और बहुत ही ज्यादा स्पष्ट होते हैं और क्योंकि वह सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है और यहाँ तक कि लापरवाही से और मनमाने ढंग से कार्य भी कर सकता है। अंत में जब उसे हटा दिया जाता है और वह अपना कर्तव्य करने का अवसर खो देता है तो वह चिंता करने लगता है और सोचता है, “मेरा तो काम तमाम हो गया। यदि मुझे अपना कर्तव्य करने की अनुमति नहीं दी गई, तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। मुझे क्या करना चाहिए?” वास्तव में स्वर्ग हमेशा मनुष्य के लिए एक रास्ता छोड़ेगा। एक अंतिम रास्ता होता है, जो सचमुच पश्चात्ताप करने का रास्ता है, और सुसमाचार प्रचार करने और लोगों को प्राप्त करने के लिए जल्दी करने और सराहनीय कर्म करके अपने दोषों की भरपाई करने का रास्ता है। यदि वह यह रास्ता नहीं अपनाता है, तो उसका पूरा काम तमाम हो जाता है। यदि उसमें कुछ विवेक है और वह जानता है कि उसमें कोई क्षमता नहीं है तो उसे खुद को सत्य से पूरी तरह से लैस करना चाहिए और सुसमाचार के प्रचार का प्रशिक्षण लेना चाहिए—यह भी कर्तव्य करना है। यह पूरी तरह से संभव है। यदि वह यह स्वीकार करता है कि उसने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया और उसे हटा दिया गया, लेकिन वह अभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करता और उसके पास थोड़ा-सा भी प्रायश्चितपूर्ण दिल नहीं है और यहाँ तक कि स्वयं से हार मान लेता है तो क्या वह मूर्ख और अज्ञानी नहीं है? अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है, लेकिन वह सही समझ प्राप्त कर लेता है और पश्चात्ताप करने को तैयार है, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करने की जरूरत है। लेकिन अगर तुम में कोई अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते हो, अगर तुमने कोई कर्तव्य करने का अवसर प्राप्त किया है, लेकिन तुम उसे सँजोना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो तो तुम तुम्हारा खुलासा हो जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य करने में लगातार लापरवाह रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य को करने के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन होता है, शैतान का नहीं और हर चीज पर परमेश्वर का फैसला ही अंतिम होता है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो तब तुम्हें सत्य स्वीकार करना चाहिए और अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करते हो तो परमेश्वर का घर कर्तव्य करने की तुम्हारी योग्यता से तुम्हें वंचित नहीं करेगा। अगर तुम हटाए जाने से हमेशा डरते हो, खुद को हमेशा सही ठहराते हो, खुद को बचाने के लिए हमेशा कुतर्कों का उपयोग करते हो तो यह एक समस्या है। दूसरे देखेंगे कि तुम सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं करते हो और तुम पूरी तरह से अविवेकपूर्ण हो। यह मुसीबत का कारण बनेगा और कलीसिया को तुमसे निपटना पड़ेगा। तुम अपना कर्तव्य करने में सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हो और हमेशा बेनकाब किए जाने और हटाए जाने से डरते हो। तुम्हारा यह डर मानवीय इरादों से दूषित है; इस डर में भ्रष्ट शैतानी स्वभाव और साथ ही संदेह, सतर्कता और गलतफहमी भी शामिल हैं। इनमें से कोई भी ऐसा रवैया नहीं है जो एक व्यक्ति में होना चाहिए। तुम्हें अपने डर को हल करने से शुरुआत करनी होगी और साथ ही तुम्हें परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों को भी हल करना होगा। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब कुछ ठीक चल रहा हो, तो वह निश्चित रूप से परमेश्वर को गलत नहीं समझता है और वह यह भी मानता है कि परमेश्वर अच्छा है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है और कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें वह सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, “लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? ऐसा कैसे है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? वह क्या चीज है जिसने इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से कह सकते हो? आखिर वह कौन-सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? यह कहो, ताकि हर कोई भेद पहचान सके और देख सके कि क्या तुम्हारे पास खड़े होने के लिए कोई आधार है। और जब कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी चीज का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है तो उसका क्या रवैया होना चाहिए? (सत्य खोजने और समर्पण का रवैया।) उसे पहले समर्पण करना चाहिए और विचार करना चाहिए : “मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं समर्पण करूँगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं।” क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर न तो असर डालेगी और न ही उसमें बाधा डालेगी। मुझे बताओ, क्या कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निष्ठा से तब कर सकता है जब उसके भीतर गलतफहमियाँ हैं या तब जब नहीं हैं? (वह अपना कर्तव्य निष्ठा से तब कर सकता है जब उसके भीतर गलतफहमियाँ नहीं हैं।) तो सबसे पहले तुम्हारा समर्पण का रवैया होना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें कम से कम यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है, कि परमेश्वर धार्मिक है और यह कि वह जो कुछ भी करता है सही होता है। ये वे पूर्वापेक्षाएँ हैं जो यह निर्धारित करती हैं कि तुम अपना कर्तव्य करने में समर्पित हो सकते हो या नहीं। यदि तुममें ये दोनों ही हैं तो क्या तुम्हारे दिल में गलतफहमियाँ तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? (नहीं।) वे नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि तुम इन गलतफहमियों को अपने कर्तव्यपालन में नहीं लाओगे। तुम उन्हें शुरू से ही हल कर चुके होगे, यह सुनिश्चित कर चुके होगे कि उन्हें कभी विकसित होने का मौका न मिले। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उनका जड़ से समाधान करो। उनका समाधान तुम्हें कैसे करना चाहिए? इस मामले के संबंध में सभी के साथ परमेश्वर के वचनों के कई प्रासंगिक अंश पढ़ो और फिर एक साथ इस पर संगति करो कि परमेश्वर इस तरीके से क्यों कार्य करता है, परमेश्वर का इरादा क्या है, और परमेश्वर के इस तरह से कार्य करने से क्या परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। इन मामलों पर स्पष्ट रूप से संगति करो, तब तुममें परमेश्वर की समझ आएगी और तुम समर्पित होने में सक्षम होगे। यदि तुम परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों को दूर नहीं करते और अपने कर्तव्य के निर्वाह में यह कहते हुए धारणा रखते हो, “इस मामले में परमेश्वर ने जो किया वह गलत है, और मैं समर्पण नहीं करूँगा। मैं इसका विरोध करूँगा, मैं परमेश्वर के घर के साथ बहस करूँगा। मैं नहीं मानता कि यह परमेश्वर का कार्य है”—यह कौन-सा स्वभाव है? यह एक विशिष्ट शैतानी स्वभाव है। एक व्यक्ति को ये शब्द नहीं कहने चाहिए और न ही एक सृजित प्राणी का यह रवैया होना चाहिए। यदि तुम इस तरह से परमेश्वर का विरोध कर पाते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य करने के योग्य हो? तुम नहीं हो। चूँकि तुम दानव हो और तुममें मानवता नहीं है, इसलिए तुम कोई कर्तव्य करने के योग्य नहीं हो। यदि थोड़ा-बहुत विवेक रखने वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पाल लेता है तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगा और वह परमेश्वर के वचनों में सत्य भी खोजेगा और वह देर-सवेर मामले को स्पष्ट रूप से देख लेगा। लोगों को यही करना चाहिए।

परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में ऐसी कई चीजें हैं जिनके साथ लोग समझौता नहीं कर सकते या जिन्हें समझ नहीं सकते। अगर उनके पास समर्पित दिल हो तो ये मुद्दे धीरे-धीरे हल हो जाएँगे, और उन्हें परमेश्वर के वचनों में उनके उत्तर मिल जाएँगे। भले ही वे इस समय परिणाम प्राप्त न कर सकें, कई वर्षों के अनुभव के बाद वे स्वाभाविक रूप से इन चीजों को समझ जाएँगे। यदि समस्याओं का सामना करने पर व्यक्ति कभी भी उन्हें समझ नहीं पाता और अगुआओं और कार्यकर्ताओं से भिड़ने का या परमेश्वर के घर से बहस करने का प्रयास करता है, तो क्या यह वह व्यक्ति है जिसके पास विवेक है? परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए एक व्यक्ति में कम-से-कम सामान्य मानवता का विवेक तो होना ही चाहिए और उसमें मूलभूत आस्था भी होनी चाहिए—सिर्फ तभी उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान होगा। अगर तुम परमेश्वर के प्रति हमेशा प्रतिरोधी होते हो और उससे भिड़ने का प्रयास करते हो और बाद में तुम सत्य नहीं खोजते या पश्चात्ताप करने वाला हृदय नहीं रखते तो तुम कर्तव्य करने या परमेश्वर का अनुसरण करने के योग्य नहीं हो और तुम उसका आदेश स्वीकार करने के योग्य नहीं हो। यदि तुममें सच्ची आस्था नहीं है, लेकिन फिर भी तुम कोई कर्तव्य करते हो और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो तुम डटे नहीं रह पाओगे और तुम निश्चित रूप से हटा दिए जाओगे। क्या यह तुम्हारे लिए बस परेशानी खड़ी नहीं कर रहा है? इसे कहते हैं परेशानी को न्योता देना। इसलिए, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों को दूर करने के लिए लोगों का रवैया सबसे पहले समर्पण का होना चाहिए। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। अपनी आँखों और परख पर भरोसा मत करो—यदि तुम हमेशा अपनी परख और आँखों पर भरोसा करते हो, तो यह परेशानी की बात है। तुम परमेश्वर नहीं हो; तुम्हारे पास सत्य नहीं है। तुम भ्रष्ट स्वभावों वाले व्यक्ति हो; तुम गलतियाँ कर सकते हो, और तुम अभी भी सत्य नहीं समझते। क्या सत्य नहीं समझने के लिए परमेश्वर तुम्हारी निंदा करता है? परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करता, लेकिन तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। परमेश्वर तुम्हें खोजने का अवसर और समय देता है, और वह प्रतीक्षा कर रहा है। किस चीज की प्रतीक्षा कर रहा है? यह प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम इस दौरान सत्य खोजो। जब तुम समझ जाओगे और समर्पण करोगे तो सब कुछ ठीक हो जाएगा और परमेश्वर न तो इसे याद रखेगा और न ही तुम्हारी निंदा करेगा। लेकिन यदि तुम वही पुरानी गलतियाँ करते रहते हो तो तुम पूरी तरह खत्म हो चुके हो और छुटकारे से परे हो।

अंश 57

तुम लोगों को अब स्वयं द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव का थोड़ा-बहुत भेद पहचानने को मिला है। जब तुम्हें यह स्पष्टता से समझ आ जाता है कि तुम अब भी नियमित रूप से कौन-सी भ्रष्ट चीजें प्रकट कर सकते हो और संभावित रूप से ऐसी कौन-सी चीजें कर सकते हो जो सत्य के विपरीत हैं, तब अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करना आसान हो जाएगा। क्यों, कई मामलों में, लोग खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते? क्योंकि हर समय, और हर तरह से, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में होते हैं, जो उन्हें सभी चीजों में विवश और परेशान करते हैं। जब सब कुछ अच्छा चल रहा होता है, और वे लड़खड़ाते नहीं या नकारात्मक नहीं होते, तो कुछ लोग हमेशा यह महसूस करते हैं कि उनके पास आध्यात्मिक कद है, और जब किसी कुकर्मी, झूठे अगुआ या किसी मसीह-विरोधी का खुलासा कर उसे निकाला जाता है, तो यह देखकर वे इसे कोई गंभीर बात नहीं मानते। वे सभी के सामने यह शेखी भी बघारते हैं कि, “कोई भी लड़खड़ा सकता है, लेकिन मैं नहीं। हो सकता है कि कोई और परमेश्वर से प्रेम न करे, लेकिन मैं करता हूँ।” उन्हें लगता है कि वे किसी भी स्थिति या हालात में अपनी गवाही पर अडिग रह सकते हैं। और नतीजा क्या होता है? एक दिन आता है जब उनका परीक्षण किया जाता है और वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते और कुड़कुड़ाते हैं। क्या यह विफल होना नहीं है, क्या यह लड़खड़ाना नहीं है? कोई चीज ऐसी नहीं है जो परीक्षणों की तुलना में लोगों का अधिक खुलासा करती हो। परमेश्वर इंसान के अंतरतम हृदय की पड़ताल करता है, और लोगों को किसी भी समय डींग नहीं मारनी चाहिए। वे जिस चीज के बारे में डींग मारते हैं, वहीं देर-सबेर, एक दिन वे लड़खड़ाएँगे। दूसरों को लड़खड़ाते और किसी परिस्थिति में असफल होते देखकर वे इसे कोई गंभीर बात नहीं मानते, और यहाँ तक सोचते हैं कि वे खुद कुछ गलत नहीं कर सकते, कि वे मजबूती से खड़े हो सकेंगे—लेकिन उस परिस्थिति में वे खुद भी लड़खड़ा जाते और असफल हो जाते हैं। यह कैसे हो सकता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोग अपने प्रकृति सार को पूरी तरह से नहीं समझते; अपने प्रकृति सार की समस्याओं के बारे में उनके ज्ञान की गहराई अभी भी अपर्याप्त है, इसलिए सत्य को अभ्यास में लाना उनके लिए बहुत कठिन है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बहुत धोखेबाज होते हैं, और अपनी कथनी-करनी में बेईमान होते हैं, लेकिन अगर तुम उनसे पूछो कि उनका भ्रष्ट स्वभाव किस संबंध में सबसे गंभीर है, तो वे कहेंगे, “मैं थोड़ा धोखेबाज हूँ।” वे केवल इतना कहते हैं कि वे थोड़े धोखेबाज हैं, लेकिन वे यह नहीं कहते कि उनकी प्रकृति ही धोखा देने की है, और वे यह नहीं कहते कि वे धोखेबाज हैं। अपनी भ्रष्ट अवस्था के बारे में उनका ज्ञान उतना गहरा नहीं होता, और वे उसे न तो उतनी गंभीरता से देखते हैं और न ही उतनी पूरी तरह से, जितनी गंभीरता और पूरी तरह से दूसरे देखते हैं। दूसरे लोगों के परिप्रेक्ष्य से, यह व्यक्ति बहुत धोखेबाज और बहुत कुटिल है, और उसके हर शब्द में चाल है, उसकी बातें और कार्य कभी ईमानदार नहीं होते—लेकिन वह व्यक्ति खुद को इतनी गहराई से नहीं जान पाता। उसके पास जो भी ज्ञान होता है, वह केवल सतही होता है। जब भी वह बोलता और कार्य करता है, तो वह अपनी प्रकृति का कुछ भाग प्रकट करता है, लेकिन वह इससे अनजान होता है। वह मानता है कि उसका इस तरह से कार्य करना भ्रष्टता का खुलासा करना नहीं है, उसे लगता है कि वह पहले ही सत्य को अभ्यास में ला चुका है—लेकिन देखने वालों के लिए, यह व्यक्ति बहुत कुटिल और धोखेबाज है, उसकी बातें और काम बेईमानी से भरे हैं। कहने का अर्थ यह है कि लोगों को अपनी प्रकृति की बहुत सतही समझ होती है, और उनकी इस समझ तथा परमेश्वर के उन वचनों के बीच बहुत बड़ा अंतर होता है, जो उनका न्याय कर उन्हें उजागर करते हैं। परमेश्वर जो उजागर करता है उसमें कोई गलती नहीं है, बल्कि इंसान अपनी ही प्रकृति को भली-भाँति गहराई से नहीं समझता। लोगों को स्वयं की मौलिक या सारभूत समझ नहीं है; इसके बजाय, वे अपने कार्यों और बाहरी खुलासों को जानने पर ध्यान केंद्रित करते और अपनी ऊर्जा लगाते हैं। भले ही कुछ लोग कभी कभार अपने आत्मज्ञान के बारे में कुछ कहने में समर्थ हों, यह बहुत अधिक गहरा नहीं होगा। किसी ने कभी भी नहीं सोचा है कि कोई एक काम करने या कोई चीज प्रकट करने के कारण वह एक निश्चित प्रकार का व्यक्ति है या उसकी एक निश्चित प्रकार की प्रकृति है। परमेश्वर ने मनुष्य की प्रकृति और सार को उजागर कर दिया है, लेकिन लोग समझते हैं कि उनके चीजों को करने के तरीके और बोलने के तरीके दोषपूर्ण और खराब हैं; नतीजतन, उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना अपेक्षाकृत अधिक मेहनत का काम होता है। लोग सोचते हैं कि उनकी गलतियाँ बस लापरवाही से प्रकट क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हैं, न कि उनकी प्रकृति के खुलासे हैं। जब लोग इस तरह से सोचते हैं, तो उनके लिए स्वयं को वास्तव में जानना बहुत कठिन हो जाता है, और उनके लिए सत्य को समझना और उसका अभ्यास करना बहुत कठिन हो जाता है। चूँकि वे सत्य को नहीं जानते और उसके लिए उनमें प्यास नहीं होती, इसलिए सत्य को अभ्यास में लाते समय वे केवल अनमने ढंग से विनियमों का पालन करते हैं। लोग अपनी स्वयं की प्रकृति को बहुत बुरा नहीं मानते हैं, और उन्हें नहीं लगता कि वह इतनी बुरी है कि उसे नष्ट या दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के मानकों के अनुसार, लोग अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं, वे अभी भी उद्धार के मानकों से दूर हैं, क्योंकि लोगों के पास केवल कुछ तरीके हैं जो बाहर से सत्य का उल्लंघन करते नहीं प्रतीत होते, जबकि वस्तुतः वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होते।

लोगों के व्यवहार या आचरण में बदलाव का अर्थ उनकी प्रकृति में बदलाव नहीं है। इसका कारण यह है कि लोगों के आचरण में बदलाव मौलिक रूप से उनके मूल स्वरूप को नहीं बदल सकते, उनकी प्रकृति को तो वे बिल्कुल भी नहीं बदल सकते। केवल जब लोग सत्य समझते हैं, अपने प्रकृति सार को जानते हैं, और सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं, तभी उनका अभ्यास पर्याप्त रूप से गहरा, और कुछ तय विनियमों का पालन करने से भिन्न हो सकता है। आज जिस तरह से लोग सत्य का अभ्यास करते हैं वह अभी भी मानक स्तर पर नहीं पहुँचा है और यह वह सब पूरी तरह हासिल नहीं कर सकता जिसकी माँग सत्य करता है। लोग केवल सत्य के एक अंश का अभ्यास करते हैं, और केवल कुछ विशेष अवस्थाओं और परिस्थितियों में होने पर ही थोड़ा-सा सत्य अभ्यास में ला सकते हैं; ऐसा नहीं है कि वे सभी हालातों और परिस्थितियों में सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं। जब किसी अवसर पर व्यक्ति खुश होता है और उसकी अवस्था अच्छी होती है, या जब वह दूसरों के साथ सहभागिता कर रहा होता है और उसके दिल में अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, तो वह अस्थायी रूप से कुछ ऐसे काम करने में सक्षम होता है जो सत्य के अनुरूप होते हैं। लेकिन जब वह ऐसे लोगों के साथ रहता है, जो नकारात्मक होते हैं और सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वह इन लोगों से प्रभावित हो जाता है, तो वह अपने हृदय में अपना मार्ग खो देता है और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो जाता है। इससे पता चलता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और वह अभी भी वास्तव में सत्य को नहीं समझता। कुछ इंसान ऐसे होते हैं, जो सही लोगों द्वारा मार्गदर्शन और अगुआई किए जाने पर सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होते हैं; लेकिन किसी झूठे अगुआ या मसीह-विरोधी से गुमराह और जिनके द्वारा बाधा डाली जाती है, ऐसे हालात में वे न केवल सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि यह भी संभावना होती है कि वे गुमराह होकर उन्हीं लोगों का अनुसरण भी करने लगें। ऐसे लोग अभी भी खतरे में हैं, है न? ऐसे लोग, इस तरह के आध्यात्मिक कद के साथ, सभी मामलों और स्थितियों में सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो ही नहीं सकते। अगर वे सत्य का अभ्यास करते भी हैं, तो यह केवल तभी होगा जब वे अच्छे मूड में हों या दूसरों द्वारा उनका मार्गदर्शन किया जाए; किसी अच्छे इंसान द्वारा उनकी अगुआई न किए जाने पर, वे कभी-कभार ऐसी चीजें कर सकते हैं जो सत्य का उल्लंघन करती हैं, और वे परमेश्वर के वचनों से भटक जाएँगे। और यह क्यों होता है? यह इस वजह से होता है, क्योंकि तुम केवल अपनी कुछ ही अवस्थाएँ जान पाए हो, और तुम्हें अपने प्रकृति सार का ज्ञान नहीं है, और तुम्हें अभी देह से विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने वाला आध्यात्मिक कद प्राप्त करना है; इसलिए भविष्य में तुम क्या करोगे, इस पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है, और तुम इस बात की गारंटी नहीं दे सकते कि तुम किसी भी स्थिति या परीक्षण में दृढ़ रह सकोगे। कई बार तुम ऐसी अवस्था में होते हो कि तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो और ऐसा लगता है कि तुम कुछ बदल गए हो, लेकिन फिर भी, एक भिन्न परिस्थिति में तुम सत्य को अभ्यास में लाने में असमर्थ होते हो। यह कुछ ऐसा है जो तुम्हारे नियंत्रण से परे होता है। कभी तुम सत्य का अभ्यास कर पाते हो, और कभी तुम नहीं कर पाते। किसी क्षण, तुम समझते हो, और अगले ही क्षण तुम भ्रमित हो जाते हो। वर्तमान में, तुम कुछ बुरा नहीं कर रहे, लेकिन शायद कुछ ही देर में करोगे। इससे साबित होता है कि भ्रष्ट चीजें अभी भी तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, और यदि तुम सचमुच खुद को नहीं जान पाते, तो इन चीजों का समाधान करना आसान नहीं होगा। यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव की पूरी समझ हासिल नहीं कर पाते, और अंततः उन चीजों को करने में सक्षम होते हो जो परमेश्वर का विरोध करती हैं, तो तुम खतरे में हो। यदि तुम अपनी प्रकृति की असलियत समझ सकते हो और उससे नफरत कर सकते हो, तो तुम अपने आपको नियंत्रित करने, अपने आपसे विद्रोह करने और सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होगे।

आजकल लोग सत्य में प्रवेश करने और इसका अभ्यास करने को प्राथमिकता नहीं देते, वे सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने और समझने पर ही ध्यान देते हैं, उन्हें लगता है कि उनकी अपनी मनोवैज्ञानिक जरूरतों को पूरा करना, और उदास न होना या नकारात्मक न होना ही काफी है। चाहे सत्य पर संगति करने पर तुम्हें उस समय कितनी ही मदद मिली हो, तुम बाद में सत्य का अभ्यास नहीं करते—यहाँ समस्या क्या है? समस्या यह है कि तुम सिर्फ सत्य सुनने या समझने पर ही ध्यान देते हो, लेकिन इसका अभ्यास करने पर ध्यान नहीं देते। क्या तुममें से किसी ने सारांश निकाला है कि सत्य के एक तत्व का अभ्यास कैसे किया जाए, या सत्य का वह तत्व कितनी अवस्थाओं से संबंधित है? नहीं! तुम इन चीजों का सारांश कैसे निकाल सकते हो? इन चीजों का सारांश निकालने के लिए तुम्हें खुद उनका अनुभव करना होगा; शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की संगति करने से कोई फायदा नहीं। यह मनुष्य की सभी मुश्किलों में सबसे बड़ी मुश्किल है—सत्य का अभ्यास करने में दिलचस्पी न होना। कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है या नहीं, यह उसके अनुसरण पर निर्भर करता है। कुछ लोग सुसमाचार प्रचार करने के लिए खुद को सत्य से लैस कर लेते हैं, बाकी लोग दूसरों को बताने और दिखावा करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, न कि सत्य का अभ्यास करने और खुद को बदलने के लिए। जो लोग इन चीजों पर ध्यान देते हैं, उन्हें सत्य का अभ्यास करने में संघर्ष करना पड़ता है। यह भी मनुष्यों की मुश्किलों में से एक है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे लगता है कि मैं अब कुछ सत्यों का अभ्यास करने में सक्षम हूँ; ऐसा नहीं है कि मैं किसी भी सत्य का अभ्यास करने में पूरी तरह से अक्षम हूँ। कुछ परिस्थितियों में, मैं सत्य के अनुसार कार्य कर सकता हूँ, इसका मतलब है कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य का अभ्यास करता है और इसे धारण करता है।” पहले की तुलना में या जब तुमने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, तब से तुम्हारी अवस्था थोड़ी ही बदली है। अतीत में, तुम्हें कुछ समझ नहीं आता था, न ही तुम्हें पता था कि सत्य क्या है या भ्रष्ट स्वभाव क्या है। अब तुम उनके बारे में कुछ चीजें जानते हो, और तुम्हारे पास कुछ अच्छे रास्ते हैं, लेकिन तुम्हारे अंदर बस एक छोटे से हिस्से में ही बदलाव हुआ है; यह तुम्हारे स्वभाव का वास्तविक परिवर्तन नहीं है, क्योंकि तुम उच्चतर और गहरे सत्यों को अभ्यास में लाने में सक्षम नहीं हो जो तुम्हारी प्रकृति से संबंधित हैं। तुम्हारे अतीत के सापेक्ष, तुम्हारे अंदर कुछ बदलाव जरूर आए हैं, लेकिन यह परिवर्तन तुम्हारी मानवता में आया छोटा-सा बदलाव ही है; स्वभावगत परिवर्तन से तुलना करने पर तुम बहुत पीछे रह जाते हो। इसका मतलब है कि तुम सत्य का अभ्यास करने के मुकाम तक अभी नहीं पहुँचे हो। कई बार, लोग उस अवस्था में होते हैं जहाँ वे नकारात्मक नहीं होते हैं, और उनके पास ऊर्जा होती है, लेकिन उन्हें लगता है कि उनके पास सत्य को जानने और उसका अभ्यास करने का कोई रास्ता नहीं है, और वे यह जानने के इच्छुक नहीं होते कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। यह कैसे होता है? कई बार तुम मार्ग को नहीं पकड़ पाते, इसलिए तुम सिर्फ विनियमों का पालन करते हो और सोचते हो कि तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो, और परिणाम यह होता है कि तुम अभी भी मुश्किलों का हल निकालने में सक्षम नहीं होते। तुम अपने हृदय में महसूस करते हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो और समर्पित हो, और तुम हैरान होते हो कि अभी भी समस्याएँ क्यों आ रही हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम अपने अच्छे इरादों के आधार पर काम कर रहे हो, अपने व्यक्तिपरक प्रयासों का प्रयोग कर रहे हो—तुम परमेश्वर के इरादे नहीं खोजते, सत्य की अपेक्षाओं के अनुसार काम नहीं करते या सिद्धांतों का पालन नहीं करते हो। परिणामतः, तुम खुद को हमेशा परमेश्वर के मानकों से बहुत नीचे महसूस करते हो, तुम्हारा हृदय व्याकुल रहता है, और तुम अनायास ही नकारात्मक बन जाते हो। एक व्यक्ति की व्यक्तिपरक इच्छाएँ और व्यक्तिपरक प्रयास सत्य की अपेक्षाओं से बहुत अलग हैं, और वे प्रकृति में भी अलग हैं। लोगों के बाहरी तरीके सत्य की जगह नहीं ले सकते, और वे पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार नहीं होते, जबकि सत्य परमेश्वर के इरादों की वास्तविक अभिव्यक्ति है। कुछ लोग जो सुसमाचार प्रचार करते हैं वे यह सोचते हैं, “मैंने काफी कष्ट सहा है और कीमत चुकाई है, और मैं पूरा दिन सुसमाचार का उपदेश देने में व्यस्त रहता हूँ। तुम कैसे कह सकते हो कि मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा हूँ?” तो मैं तुमसे पूछता हूँ : तुम अपने हृदय में कितने सत्य रखते हो? जब तुम सुसमाचार का उपदेश देते हो तब सत्य के अनुरूप कितनी चीजें करते हो? क्या तुम परमेश्वर के इरादों को समझते हो? यहाँ तक कि तुम खुद भी नहीं बता सकते कि तुम सिर्फ काम कर रहे हो या सत्य का अभ्यास कर रहे हो, क्योंकि तुम केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए अपने कार्यों का उपयोग करने पर ध्यान देते हो, और तुम खुद को मापने के लिए “सभी चीजों में सत्य के अनुरूप होने के लिए परमेश्वर के इरादे खोजकर उसे संतुष्ट करने” के मानक का प्रयोग नहीं करते। अगर तुम कहते हो कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो इस अवधि के दौरान तुम्हारे स्वभाव में कितना बदलाव हुआ है? परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम कितना बढ़ा है? खुद को इस तरह से मापते हुए, तुम्हारे हृदय में साफ हो जाएगा कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या नहीं।

अंश 58

स्वभाव में परिवर्तन के बारे में तुम लोग क्या जानते हो? स्वभाव में परिवर्तन के सार व्यवहार में परिवर्तन के सार से भिन्न हैं, और वे अभ्यास में परिवर्तन के मामले में भी अलग हैं—सार में वे सभी अलग-अलग हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में व्यवहार पर विशेष ज़ोर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में कुछ निश्चित परिवर्तन आते हैं। परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करने के बाद, वे धूम्रपान और मदिरापान बंद कर देते हैं, दूसरों से होड़ नहीं करते और नुकसान होने पर संयम रखते हैं। उनमें कुछ व्यवहार संबंधी परिवर्तन आते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद परमेश्वर के वचन पढ़कर उन्हें सत्य समझ आ गया है, उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव कर लिया है और उन्हें मन में सच्चा आनंद मिलता है, जिससे वे खास तौर पर उत्साहित हो जाते हैं, और कुछ भी ऐसा नहीं होता है जिसका वे त्याग नहीं कर सकते या जिसे वे सहन नहीं कर सकते। लेकिन फिर भी आठ-दस या बीस-तीस साल तक विश्वास करने के बाद भी, जीवन-स्वभावों में कोई परिवर्तन न होने के कारण, वे पुराने तौर-तरीके फिर से अपना लेते हैं; उनका अहंकार और दंभ बढ़कर और अधिक मुखर हो जाता है, वे सत्ता और लाभ के लिए होड़ करना शुरू कर देते हैं, वे कलीसिया के धन के लिए ललचाते हैं, वे उन लोगों से ईर्ष्या रखते हैं जिन्होंने परमेश्वर के घर का लाभ उठाया होता है। वे परमेश्वर के घर में परजीवी और कीट बन जाते हैं और कुछ को तो झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी के तौर पर खुलासा कर निकाल दिया जाता है। और ये तथ्य क्या साबित करते हैं? महज व्यावहारिक बदलाव देर तक नहीं टिकते हैं; अगर लोगों के जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता है, तो देर-सबेर वे अपना असली चेहरा दिखाएँगे। क्योंकि व्यवहार में परिवर्तन का स्रोत उत्साह है, और पवित्र आत्मा द्वारा उस समय किए गए कुछ कार्य का साथ पाकर, उनके लिए उत्साही बनना या कुछ समय के लिए अच्छे इरादे रखना बहुत आसान होता है। जैसा कि अविश्वासी लोग कहते हैं, “एक अच्छी चीज करना आसान है; मुश्किल तो जीवन भर अच्छी चीजें करने में है।” लोग आजीवन अच्छी चीजें करने में असमर्थ क्यों होते हैं? क्योंकि प्रकृति से लोग दुष्ट, स्वार्थी और भ्रष्ट होते हैं। किसी व्यक्ति का व्यवहार उसकी प्रकृति से निर्देशित होता है; जैसी भी उसकी प्रकृति होती है, वह वैसा ही व्यवहार करता है, और केवल जो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वही व्यक्ति की प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। जो चीजें नकली हैं, वे टिक नहीं सकतीं। जब परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, यह मनुष्य को केवल अच्छे व्यवहार की सजावट से सँवारने के लिए नहीं होता—परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य लोगों के स्वभाव को रूपांतरित करना, उन्हें नए लोगों के रूप में पुनर्जीवित करना है। परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, परीक्षण और मनुष्य का शोधन, ये सभी उसके स्वभाव को बदलने के वास्ते हैं, ताकि वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और वफादारी पा सके और उसकी सामान्य ढंग से आराधना कर सके। यही परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य है। अच्छी तरह से व्यवहार करना परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के समान नहीं है, और यह मसीह के अनुरूप होने के बराबर तो और भी नहीं है। व्यवहार में परिवर्तन सिद्धांत पर आधारित होते हैं, और उत्साह से पैदा होते हैं; वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान पर या सत्य पर आधारित नहीं होते हैं, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर आश्रित होना तो दूर की बात है। यद्यपि ऐसे मौके होते हैं जब लोग जो भी करते हैं, उसमें से कुछ को पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन मिला होता है, यह उनके जीवन का खुलासा नहीं है। उन्होंने अभी तक सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है और उनके जीवन स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया है। चाहे किसी व्यक्ति का व्यवहार कितना भी अच्छा हो, इससे यह साबित नहीं होता कि वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है या वह सत्य का अभ्यास करता है। व्यवहार संबंधी बदलावों का मतलब यह नहीं है कि जीवन स्वभाव में परिवर्तन आ गया और इन्हें जीवन के खुलासे नहीं माना जा सकता है। तो जब तुम लोग देखते हो कि कुछ लोग अपने उत्साह के दौर में कलीसिया के लिए कुछ करने में सक्षम होते हैं, और कुछ चीजों को त्यागने में भी सक्षम होते हैं, तो उनकी प्रशंसा या खुशामद मत करो, यह मत कहो कि वे ऐसे लोग हैं जिनके पास सत्य वास्तविकता है या वे परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग हैं। ऐसा कहना उनके लिए गलत, गुमराह करने वाला और नुकसानदेह है। लेकिन, साथ ही उनका उत्साह भी ठंडा मत करो; बस सत्य और जीवन के अनुसरण के मार्ग की ओर उनका मार्गदर्शन करो। जो लोग अक्सर उत्साही होते हैं उनके पास आमतौर पर आगे बढ़ने की चाह के साथ ही संकल्प भी होता है। उनमें से अधिकतर लोग सत्य के लिए तरसते हैं और ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारण किया और चुना है। जिनके पास उत्साही हृदय है और जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, वे ज्यादातर परमेश्वर के सच्चे विश्वासी होते हैं। जो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में ईमानदार नहीं हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं हैं। जो अपनी आस्था में उदासीन हैं और आसानी से नकारात्मक हो जाते हैं, वे मजबूती से डटे नहीं रह सकते। जब थोड़ी सी कठिनाई का सामना करना पड़ता है तो वे पीछे हट जाते हैं और उत्पीड़न और क्लेश का सामना होने पर वे भाग खड़े होते हैं और अपनी आस्था त्याग देते हैं। जिन लोगों में मजबूत आस्था और उत्साह होता है, वे लंबे समय तक दृढ़ता से डटे रहते हैं, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजते हैं, और धीरे-धीरे परमेश्वर में विश्वास करने के सही रास्ते में प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन जिन लोगों में आस्था और उत्साह की कमी होती है उनके लिए अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना मुश्किल होता है।

यदि किसी व्यक्ति के व्यवहार में कई अच्छाइयाँ हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें सत्य वास्तविकताएं हैं। केवल सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने से ही तुम सत्य वास्तविकताएँ धारण कर सकते हो। केवल परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से ही तुम सत्य वास्तविकताएँ धारण कर सकते हो। कुछ लोगों में उत्साह होता है, वे सिद्धांत बोल सकते हैं, विनियमों का पालन करते हैं और कई अच्छी चीजें करते हैं, लेकिन उनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि उनमें थोड़ी-सी मानवता है। यह जरूरी नहीं कि जो लोग सिद्धांत बोल सकते हों और हमेशा विनियमों का पालन करते हों, वे सत्य का अभ्यास भी करते हों। भले ही वे जो कुछ कहते हैं वह सही होता है और ऐसा लगता है यह समस्या-मुक्त है, लेकिन सत्य के सार से संबंधित मामलों में उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। इसलिए, कोई कितने भी सिद्धांत बोले, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे सत्य की समझ है, वह चाहे कितना भी सिद्धांत समझता हो, कोई समस्या नहीं सुलझा सकता। धार्मिक सिद्धांतकार बाइबल की व्याख्या कर सकते हैं, लेकिन अंत में, उन सभी का पतन हो जाता है, क्योंकि वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त संपूर्ण सत्य नहीं स्वीकारते। जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य सिद्धांत के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो उनसे प्रकट होती है। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह से विद्रोह कर सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन इसी तरह से दिखता है। जिन लोगों का स्वभाव बदल चुका है, उनकी मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि उन्होंने सत्य को स्पष्ट रूप से समझ लिया है और कार्य करते समय तो वे काफी सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता प्रकट नहीं करते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्मतुष्टता और अहंकार प्रकट नहीं करते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता की असलियत जान लेते हैं और उसका भेद पहचान लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। उन्हें कौन-सा स्थान लेना चाहिए और कौन-सी चीजें करनी चाहिए जो तर्कसंगत हों, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, क्या कहना और क्या नहीं कहना चाहिए, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना चाहिए—इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इस प्रकार जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं और सही मायनों में ऐसे लोग ही मानव के समान जीवन जीते हैं। क्योंकि उन्हें सत्य की समझ होती है, वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, घटना या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य सिद्धांतों को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव काफी स्थिर होता है, वे भावनात्मक रूप से अस्थिर नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि बाहरी तौर पर ऐसा क्या करना चाहिए ताकि दूसरे उनके बारे में अच्छा सोचें; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस बारे में उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कोई महत्वपूर्ण काम किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से बहुत-सी सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके कार्यकलाप के सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, उनके जीवन स्वभाव में बिल्कुल कोई परिवर्तन नहीं हुआ होता है। स्वभाव में परिवर्तन कैसे लाया जाता है? मनुष्यों को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया गया है, वे सभी परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, और परमेश्वर का प्रतिरोध करना ही उनकी प्रकृति है। जिन लोगों की प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करना है और जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, परमेश्वर उन सभी को अपने प्रति समर्पण करने और भय मानने वाला बनाकर बचा लेता है। स्वभाव में बदलाव युक्त व्यक्ति होने का यही अर्थ है। कोई व्यक्ति कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो या उसके पास कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, अगर वह सत्य स्वीकार सकता है, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकता है, विभिन्न परीक्षण और शोधन स्वीकार सकता है, तो उसमें परमेश्वर की सच्ची समझ होगी, और साथ ही, वह स्पष्ट रूप से अपने प्रकृति-सार को भी देख पाएगा। जब वह स्वयं को वास्तव में जान लेगा, तो उसे स्वयं से और शैतान से घृणा हो जाएगी, और वह शैतान से विद्रोह करने को तैयार हो जाएगा और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने लगेगा। जब किसी व्यक्ति में यह संकल्प आ जाता है तो वह सत्य का अनुसरण कर सकता है। यदि लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो, यदि उनका शैतानी स्वभाव शुद्ध कर दिया जाए, और परमेश्वर के वचन उनके भीतर जड़ें जमा लेते हैं, और वे उनका जीवन और अस्तित्व का आधार बन जाते हैं, यदि वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, पूरी तरह से बदलकर नए इंसान बन गए हैं—तो उसे उनके जीवन-स्वभाव में बदलाव माना जाता है। स्वभाव में बदलाव का मतलब परिपक्व और अनुभवी मानवता नहीं है, न ही यह है कि लोगों का बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में कोमल हो गया है, कि वे अभिमानी हुआ करते थे लेकिन अब समझदारी से बोलते हैं, या वे पहले किसी की नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात थोड़ा-बहुत सुन सकते हैं; ऐसे बाहरी परिवर्तन स्वभाव के रूपान्तरण नहीं कहे जा सकते। बेशक स्वभाव के परिवर्तन में ये लक्षण शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि अंदर से उनका जीवन बदल गया है। यह पूरी तरह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचनों और सत्य ने उनमें अंदर जड़ें जमा ली हैं, उन पर उनका शासन हो गया है और वे उनका जीवन बन गए हैं। चीजों पर उनके विचार भी बदल गए हैं। वे असलियत जान सकते हैं कि दुनिया में क्या चल रहा है और मानवजाति के साथ क्या हो रहा है, कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, कैसे बड़ा लाल अजगर परमेश्वर का प्रतिरोध करता है, और बड़े लाल अजगर की असलियत जान सकते हैं। वे अपने दिल में बड़े लाल अजगर और शैतान से घृणा कर पाते हैं और वे पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मुड़कर उसका अनुसरण करने लगते हैं। इसका अर्थ है कि उनका जीवन स्वभाव बदल गया है और वे परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए हैं। जीवन स्वभाव में परिवर्तन मौलिक परिवर्तन होता है, जबकि व्यवहार में परिवर्तन सतही होता है। जिन लोगों ने जीवन स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर लिया है, उन्हीं लोगों ने सत्य प्राप्त किया है और वही परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए हैं।

सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है और जब वे परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं, वे अलग हैं, उन्हें लगता है कि अर्थ सत्य के अनुसार जीने से आता है, कि इंसान होने का आधार परमेश्वर के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है, कि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारना ऐसी जिम्मेदारी है जो पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, कि सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करने वाले लोग ही मनुष्य कहलाने के योग्य हैं—और अगर वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रेम का प्रतिफल देने में सक्षम नहीं हैं, तो वे इंसान कहलाने योग्य नहीं हैं। उन्हें लगता है कि अपने लिए जीना खोखला और अर्थहीन है, लोगों को परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से पूरे करने के लिए जीना चाहिए, और उन्हें सार्थक जीवन जीना चाहिए, ताकि जब उनके मरने का समय हो तब भी, वे संतुष्ट महसूस करें और उनमें जरा-सा भी पछतावा न हो, और वे समझें कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया। इन दो अलग-अलग स्थितियों की तुलना करने में, यह देखा जा सकता है कि बाद वाले वे लोग हैं जिनके स्वभाव बदल गए हैं। अगर किसी व्यक्ति का जीवन स्वभाव बदल गया है, तो जीवन के बारे में भी उसका नजरिया निश्चित रूप से बदल गया है। अब अलग मूल्यों के साथ, वे फिर कभी अपने लिए नहीं जिएँगे, और न ही फिर कभी सिर्फ आशीष पाने के मकसद से परमेश्वर पर विश्वास करेंगे। ऐसे लोग यह कह सकते हैं, “परमेश्वर को जानना बहुत सार्थक है। परमेश्वर को जानने के बाद अगर मैं मर गया, तो वह बहुत बड़ी बात होगी! अगर मैं परमेश्वर को जानकर उसके प्रति समर्पित हो सकता हूँ, और एक सार्थक जीवन जी सकता हूँ, तो मेरा जीना व्यर्थ नहीं गया है, न ही मैं किसी पछतावे के साथ मरूँगा; मुझे कोई शिकायतें नहीं होगी।” जीवन के प्रति इस व्यक्ति का नजरिया बदल गया है। किसी व्यक्ति के जीवन स्वभाव में परिवर्तन का मुख्य कारण यह है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है, उसने सत्य प्राप्त कर लिया है और उसे परमेश्वर का ज्ञान है; इसलिए जीवन के प्रति उस व्यक्ति का नजरिया बदल गया है, और उसके मूल्य पहले के मुकाबले अलग हैं। परिवर्तन व्यक्ति के हृदय से और उसके जीवन के भीतर से शुरू होते हैं; यकीनन यह एक बाहरी परिवर्तन नहीं है। कुछ नए विश्वासी, परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद, लौकिक संसार को पीछे छोड़ देते हैं। बाद में जब उनका सामना अविश्वासियों से होता है, तो उन विश्वासियों के पास कहने को कुछ नहीं होता, और वे अपने अविश्वासी रिश्तेदारों और दोस्तों से शायद ही कभी संपर्क करते हैं। अविश्वासी कहते हैं, “यह व्यक्ति बदल गया है।” फिर विश्वासी सोचते हैं, “मेरा जीवन स्वभाव बदल गया है; क्योंकि ये अविश्वासी कहते हैं कि मैं बदल गया हूँ।” क्या ऐसे व्यक्ति का स्वभाव वास्तव में बदल गया है? नहीं, यह नहीं बदला है। वे सिर्फ बाहरी बदलाव दिखाते हैं। उनके जीवन में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया है, और उनकी शैतानी प्रकृति उनके हृदय में जड़ें जमा चुकी है, जो पूरी तरह से अछूती है। कभी-कभी, लोग पवित्र आत्मा के कार्य की वजह से उत्साह से भरे होते हैं; ऐसे में कुछ बाहरी बदलाव हो सकते हैं, और वे कुछ अच्छी चीजें भी कर सकते हैं। हालाँकि, यह स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने जैसा नहीं है। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और चीजों के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदला है, यहाँ तक कि यह अविश्वासियों से जरा भी अलग नहीं है, और अगर जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये और तुम्हारे मूल्यों में कोई बदलाव नहीं आया है, या अगर तुम्हारे अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है—जो कम-से-कम तुममें होना ही चाहिए—तो तुम स्वभाव में बदलाव हासिल करने के आस-पास भी नहीं फटकते। स्वभाव में बदलाव हासिल करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें परमेश्वर का ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए और तुम्हारे पास उसका सच्चा ज्ञान होना चाहिए। पतरस का ही उदाहरण लो। जब परमेश्वर उसे शैतान को सौंपना चाहता था, तो उसने कहा, “अगर तुम मुझे शैतान को सौंप दो, तब भी तुम परमेश्वर हो। तुम सर्वशक्तिमान हो, और सब कुछ तुम्हारे हाथों में है। तुम जो चीजें करते हो उसके लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा कैसे नहीं कर सकता? लेकिन अगर मैं मरने से पहले तुम्हें जान सकूँ, तो क्या वह बेहतर नहीं होगा?” उसने महसूस किया कि लोगों के जीवन में, परमेश्वर को जानना सबसे महत्वपूर्ण है; परमेश्वर को जानने के बाद किसी भी प्रकार की मौत ठीक ही होगी, और परमेश्वर इसे चाहे जैसे भी सँभाले, यह ठीक ही होगा। उसे लगता था कि परमेश्वर को जानना सबसे महत्वपूर्ण चीज है; अगर वह सत्य हासिल न करता, तो वह कभी संतुष्ट नहीं होता, लेकिन वह परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत भी नहीं करता। उसे सिर्फ इस तथ्य से घृणा होती कि उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया। पतरस की भावना को देखते हुए, परमेश्वर को जानने की उसकी गंभीर लगन से पता चलता है कि जीवन और मूल्यों के प्रति उसका दृष्टिकोण बदल गया था। परमेश्वर को जानने की उसकी गहरी लालसा से यह साबित होता है कि वह सचमुच परमेश्वर को जानता था। इस प्रकार, इस बात से पता चल जाता है कि उसका स्वभाव बदल गया था; वह ऐसा इंसान था जिसका स्वभाव परिवर्तित हो गया था। उसके अनुभव के एकदम आखिरी पड़ाव में, परमेश्वर ने कहा कि वह ऐसा इंसान है जो परमेश्वर को सबसे अच्छी तरह जानता है; वह ऐसा इंसान है जो परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करता है। सत्य के बिना, किसी का जीवन स्वभाव वास्तव में कभी नहीं बदल सकता। अगर तुम लोग सचमुच सत्य का अनुसरण कर सकते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो, तभी तुम अपने जीवन स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकते हो।

पिछला: स्वयं को जानने के बारे में वचन

अगला: असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 9) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें