7. क्या किस्मत के आधार पर चीजों के बारे में राय बनाना सही है
अगस्त 2023 में बहन शू शिन और मुझे सुसमाचार कार्य के लिए सुपरवाइजर के रूप में चुना गया। शू शिन को चेंगबेई कलीसिया का प्रभारी बनाया गया और मुझे चेंगनान कलीसिया का प्रभारी बनाया गया। चेंगनान कलीसिया में सुसमाचार कार्य कुछ ज्यादा प्रभावी नहीं था। कुछ साल पहले मैं इस कलीसिया में सुसमाचार कार्य की जिम्मेदार थी और उस समय भी परिणाम ज्यादा अच्छे नहीं थे इसलिए जब मुझे फिर से इस कलीसिया की जिम्मेदारी दी गई तो मुझे कुछ अनिच्छा महसूस हुई। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अब तो कई साल बीत चुके हैं तो शायद अब तक कार्य की प्रभावशीलता में कुछ सुधार हो गया होगा।” इसलिए मैंने खुद को दीवानों की तरह कार्य में व्यस्त करना शुरू कर दिया।
जल्द ही कार्य का सारांश तैयार करने का समय आ गया। मैंने देखा कि परिणाम अब भी अच्छे नहीं थे, कि सुसमाचार कर्मी सिद्धांतों को नहीं समझते थे, सुसमाचार का प्रचार करने के लिए सत्य की उनकी समझ बहुत स्पष्ट नहीं थी और सुसमाचार कर्मियों या सिंचनकर्ताओं को विकसित करने में भी कोई प्रगति नहीं हुई थी। जब अगुआ को इस स्थिति के बारे में पता चला तो उसने हमें एक पत्र लिखा जिसमें उसने हमारे मुद्दों पर संगति की और इनकी तरफ इशारा किया और हमें याद दिलाया कि अगर कार्य प्रभावी नहीं है तो हमें इस बात पर आत्म-चिंतन करना चाहिए कि क्या हम वास्तविक कार्य कर रहे हैं। उसने यह भी उल्लेख किया कि चेंगबेई कलीसिया के परिणाम बेहतर हैं और उसने मुझे उनसे जानने और सीखने की सलाह दी। इस पत्र को पढ़ने के बाद मैंने मन ही मन में सोचा, “शू शिन और मुझे सुसमाचार कार्य की देखरेख के लिए एक ही समय में चुना गया था लेकिन शू शिन खुशकिस्मत रही कि उसे एक ऐसी कलीसिया सौंपी गई जिसमें परिणाम बेहतर थे जबकि मुझे एक ऐसी कलीसिया सौंपी गई जिसमें परिणाम खराब थे। मैंने अभी-अभी शुरुआत ही की है और पहले ही इतनी सारी समस्याओं की ओर इशारा किया जा चुका है। क्या ही खराब किस्मत है! अगर परिणाम आगे भी खराब ही रहे तो सुपरवाइजर कहेगी कि मैं कार्य करने में सक्षम नहीं हूँ। यह तो बहुत शर्मनाक बात होगी! मेरी किस्मत सच में खराब है!” उस समय हमारी कलीसिया में सुसमाचार कार्य के परिणाम खराब ही रहे और कुछ लोग जो सच्चे मार्ग की जाँच कर रहे थे, वे निराधार अफवाहों से प्रभावित होकर धारणाएँ भी बना बैठे और वे जाँच करने की हिम्मत नहीं कर पाए। कुछ सुसमाचार कर्मी संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं द्वारा उठाए गए प्रश्नों पर स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाए थे इसलिए उन्होंने मुझसे मदद माँगने के लिए पत्र लिखा और मैंने उनमें से हर एक को जवाब दिया लेकिन कार्य में फिर भी कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ। इससे मुझे इस बात पर और भी अधिक विश्वास हो गया कि मेरी किस्मत ही खराब है और मैंने सोचा, “आखिर ऐसी कलीसिया मेरे ही सिर क्यों मढ़ी गई? सुपरवाइजर मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह कहेगी कि मैं वास्तविक कार्य नहीं करती और अपने कर्तव्य में आलसी हूँ?” जितना अधिक मैं इस बारे में सोचती, उतनी ही अधिक मैं हताश हो जाती थी। मैं नकारात्मक भावनाओं से भरी हुई थी और अपने हर कार्य में मेरी रुचि खत्म हो गई थी। एक दिन मैंने देखा कि एक सुसमाचार कर्मी की स्थिति खराब है और इसके कारण उसके कर्तव्य में उसका प्रदर्शन प्रभावित हो रहा था लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं देना चाहा और मैंने सोचा, “चूँकि मेरी किस्मत ही खराब है इसलिए चाहे मैं कितना भी प्रयास कर लूँ परिणाम वैसे ही रहेंगे।” मैंने समय पर संगति करके इस समस्या को हल नहीं किया। जब कोई मुझे कार्य से संबंधित प्रश्न पूछने के लिए पत्र भेजता तो मैं कई दिनों तक उत्तर नहीं देती और मैं कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर विचार करने या इनका समाधान खोजने के लिए भी इच्छुक नहीं थी। प्रत्येक दिन के अंत में, मुझे अंदर ही अंदर खालीपन महसूस होता था और ऐसा लगता मानो मेरा दिल परमेश्वर से बहुत दूर हो गया है। मुझे यह भी नहीं पता था कि प्रार्थना में क्या कहूँ। मैं जानती थी कि अगर मैंने अपनी इस स्थिति को ठीक नहीं किया तो यह खतरनाक बन जाएगी, इसलिए मैंने अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए सचेत रूप से सत्य की तलाश करनी शुरू कर दी।
एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक ऐसा अंश पढ़ा जो मेरी स्थिति से पूरी तरह से मेल खाता था। परमेश्वर कहता है : “खुद को हमेशा अभागा माननेवालों के साथ समस्या आखिर क्या है? उनके कार्य सही हैं या गलत यह मापने के लिए, और उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, किन चीजों का अनुभव करना चाहिए, और सामने आनेवाली समस्याओं के आकलन के लिए वे हमेशा भाग्य के मानक का प्रयोग करते हैं। यह सही है या गलत? (गलत।) वे बुरी चीजों को दुर्भाग्यपूर्ण और अच्छी चीजों को भाग्यशाली या फायदेमंद बताते हैं। यह नजरिया सही है या गलत? (गलत।) ऐसे नजरिये से चीजों को मापना गलत है। यह चीजों को मापने का एक अतिवादी और गलत तरीका और मानक है। ऐसा तरीका लोगों को अक्सर अवसाद में डुबो देता है, यह अक्सर उन्हें परेशान कर देता है, और कभी कोई चीज उनके चाहे जैसे नहीं होती, और उन्हें कभी अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती, जिससे आखिरकार वे निरंतर बेचैन, चिड़चिड़े और परेशान रहने लगते हैं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ दूर नहीं होतीं, तो ये लोग निरंतर अवसाद में डूब जाते हैं, और उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन पर कृपा नहीं करता। उन्हें लगता है कि परमेश्वर दूसरों से ज्यादा अनुग्रह से पेश आता है, उनसे नहीं, और परमेश्वर दूसरों की देखभाल करता है, उनकी नहीं। ‘हमेशा मैं ही क्यों परेशान और बेचैन रहता हूँ? हमेशा मेरे ही साथ बुरी चीजें क्यों होती हैं? अच्छी चीजें मेरे हाथ क्यों नहीं आतीं? मैं बस एक ही बार माँग रहा हूँ!’ जब तुम चीजों को ऐसे गलत तरीके की सोच और नजरिये से देखोगे, तो अच्छे और खराब भाग्य के झाँसे में फँस जाओगे। जब तुम लगातार इस झाँसे में गिरते रहते हो, तो तुम निरंतर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हो। इस अवसाद के बीच, तुम खास तौर से इस बात को लेकर संवेदनशील रहते हो कि जो चीजें तुम्हारे साथ हो रही हैं वे भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली। ऐसा होने पर, यह साबित हो जाता है कि अच्छे और खराब भाग्य के इस नजरिये और विचार ने तुम्हें नियंत्रण में ले लिया है। जब तुम ऐसे नजरिये से नियंत्रित होते हो, तो लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और रवैये सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के दायरे में नहीं रह जाते, बल्कि एक प्रकार की अति में डूब चुके होते हैं। जब तुम ऐसी अति में डूब जाओगे, तो फिर अपने अवसाद में से निकल नहीं पाओगे। तुम बार-बार फिर से अवसाद-ग्रस्त होते रहोगे, और भले ही तुम आम तौर पर अवसाद-ग्रस्त महसूस न करो, मगर जैसे ही कुछ गलत होगा, जैसे ही तुम्हें लगेगा कि कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हो गया है, तुम तुरंत अवसाद में डूब जाओगे। यह अवसाद तुम्हारी सामान्य परख और निर्णय-क्षमता और तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को भी प्रभावित करेगा। जब यह तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को प्रभावित करता है, तो यह तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह और साथ ही परमेश्वर का अनुसरण करने की तुम्हारे संकल्प और आकांक्षा को भी बाधित और नष्ट करता है। जब ये सकारात्मक चीजें नष्ट हो जाती हैं, तो जो थोड़े-से सत्य तुमने समझे हैं, उन्हें तुम भूल जाते हो और तुम्हारे लिए ये जरा भी उपयोगी नहीं रह जातीं। इसीलिए, इस क्रूर चक्र में फँसने पर, जिन थोड़े-से सत्य सिद्धांतों को तुम समझते हो, उन्हें अमल में लाना तुम्हारे लिए मुश्किल होता है। सिर्फ यह महसूस करने पर ही कि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे साथ है, और जब तुम अवसाद से दबे नहीं होते, तभी तुम अनिच्छा से थोड़ी-सी कीमत चुका सकते हो, थोड़ी कठिनाई सह सकते हो, और तुम जो कार्य करने को तैयार हो, उन्हें करते समय थोड़ी-सी ईमानदारी दिखा सकते हो। जैसे ही तुम महसूस करते हो कि भाग्य ने तुम्हारा साथ छोड़ दिया है, और तुम्हारे साथ फिर से दुर्भाग्यपूर्ण चीजें हो रही हैं, वैसे ही तुम्हारा अवसाद तुम्हें फिर से जल्द काबू में कर लेता है, और तुम्हारी ईमानदारी, निष्ठा और कठिनाइयाँ सहने की इच्छा तुम्हें फौरन छोड़ देती है। इसलिए, जो लोग खुद को अभागा मानते हैं, या जो लोग भाग्य को बड़ी गंभीरता से लेते हैं, वे उन लोगों जैसे हैं जिन्हें लगता है कि उनका भाग्य खराब है। उनकी भावनाएँ अक्सर अत्यंत तीव्र होती हैं—खास तौर पर वे अवसाद जैसी नकारात्मक भावनाओं में बार-बार डूब जाते हैं। वे खास तौर पर निराश और कमजोर होते हैं, और उनकी मनःस्थितियाँ भी एकाएक बदल सकती हैं। भाग्यशाली महसूस करने पर, वे उल्लास से भर जाते हैं, स्फूर्तिवान हो जाते हैं, कठिनाइयाँ झेल सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं; रात में कम सो सकते हैं, दिन में कम खाना खा सकते हैं, वे कोई भी कठिनाई झेलने को तैयार रहते हैं, और क्षणिक तौर पर जोश में आने पर, वे खुशी-खुशी अपने प्राण भी दे सकते हैं। लेकिन, जिस क्षण वे महसूस करते हैं कि हाल में वे दुर्भाग्यशाली थे, उनके साथ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था, तो अवसाद की भावना उनके दिल पर फौरन कब्जा कर लेती है। उनके द्वारा पहले लिए हुए शपथ और संकल्प नकार दिए जाते हैं; वे अचानक एक पिचकी हुई गेंद जैसे हो जाते हैं और कोई जोश नहीं जुटा पाते, या लुंजपुंज हो जाते हैं, कुछ भी करने या कहने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है, ‘सत्य सिद्धांत, सत्य का अनुसरण करना, उद्धार प्राप्त करना, परमेश्वर को समर्पित होना—इन सबका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं अभागा हूँ, कितने भी सत्य का अभ्यास करूँ या कितनी भी कीमत चुकाऊँ, मैं कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। मेरा काम तमाम हो चुका है। मैं एक अशुभ टोटका हूँ, एक अभागा व्यक्ति। जाने दो, किसी भी हाल में मैं दुर्भाग्यशाली ही हूँ!’ देखा, एक क्षण वे हवा से भरी हुई गेंद जैसे हैं, जो फटने ही वाली है, और अगले ही क्षण वे पिचक जाते हैं। क्या यह कष्टप्रद नहीं है? यह कष्ट कैसे आता है? इसका मूल कारण क्या है? वे हमेशा अपने भाग्य को ताकते रहते हैं मानो वे शेयर बाजार को देख रहे हों कि यह ऊपर जा रहा है या नीचे, तेजी का बाजार है या मंदी का। वे हमेशा तंत्रिका विकार से ग्रस्त होते हैं, अपने भाग्य को लेकर बेहद संवेदनशील, और बेहद जिद्दी। ऐसा अतिवादी व्यक्ति अक्सर अवसाद की भावना में फँसा रहता है, क्योंकि वह अपने भाग्य की बड़ी परवाह करता है और अपनी मनःस्थितियों के आधार पर जीता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि मेरी हताशा की स्थिति इसलिए थी क्योंकि मैंने हमेशा खुशकिस्मती या बदकिस्मती जैसी गलत सोच के आधार पर परमेश्वर द्वारा मेरे लिए बनाए गए परिवेशों के बारे में आकलन किया। मैं हमेशा सोचती थी कि ऐसा कर्तव्य करना जिसमें कोई दबाव या कठिनाइयाँ न हों, जहाँ मुझे कोई कष्ट सहना या कीमत चुकानी न पड़े और जहाँ मुझे दूसरों से प्रशंसा और स्तुति भी मिले तो इसका मतलब यह होगा कि मेरी किस्मत अच्छी है। अगर मेरे कर्तव्य में हमेशा कठिनाइयाँ ही आती हों, कार्य का कोई परिणाम न निकलता हो या मेरी काट-छाँट की जाती हो तो मैं इसे बदकिस्मती मानती, हताशा की भावनाओं में जीती और अपना कर्तव्य निभाने का उत्साह खो देती। मेरा कार्य अप्रभावी था और अगुआ ने मार्गदर्शन प्रदान किया, सहायता दी और हमें बेहतर परिणामों वाली कलीसिया से सीखने की सलाह दी। यह एक अच्छी बात थी क्योंकि यह मुझे आत्म-चिंतन करने और खुद को समझने और अपने कार्य की समस्याओं और विचलनों को सारांशित करने और उन्हें समय पर सुधारने को प्रोत्साहित कर सकता था। इससे मेरे जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य दोनों को लाभ होता। लेकिन क्योंकि ये अप्रभावी परिणाम मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को प्रभावित कर रहे थे इसलिए मैंने सोचा कि यह सब मेरी खराब किस्मत के कारण है। मैंने देखा कि शू शिन द्वारा संचालित कलीसिया के सुसमाचार कार्य के अच्छे परिणाम आए थे और उसे अगुआ की तरफ से प्रशंसा और मान्यता मिली थी इसलिए मुझे बहुत ईर्ष्या महसूस हुई और मैंने सोचा कि वह तो बहुत खुशकिस्मत है। फिर मैं उस कलीसिया के सुसमाचार कार्य के खराब परिणामों को देखती जिसकी मैं जिम्मेदार थी और मुझे और भी अधिक यकीन हो जाता कि मैं बदकिस्मत हूँ। मैंने हमेशा अच्छी और बुरी किस्मत के इस गलत नजरिए का उपयोग परमेश्वर द्वारा मेरे लिए बनाए गए परिवेशों को देखने में किया और जब भी मैं अवांछनीय परिस्थितियों का सामना करती तो मैं शिकायत करती थी और सोचती थी कि परमेश्वर शू शिन के पक्ष में है और मुझ पर अनुग्रह नहीं रखता और मैं नकारात्मक भावनाओं में जीने लगती और निराश हो जाती और प्रतिरोधी बन जाती थी। गैर विश्वासी लोग जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते या सत्य को नहीं समझते, वे हमेशा अपने साथ होने वाली हर चीज का आकलन खुशकिस्मती या बदकिस्मती के नजरिए से करते हैं। जब वे प्रसिद्धि, लाभ, धन या तरक्की प्राप्त करते हैं तो वे खुद को खुशकिस्मत मानते हैं और जब चीजें ठीक से नहीं चलतीं तो स्वर्ग के अन्यायपूर्ण होने की शिकायत करते हैं या दूसरों को दोष देते हैं। लेकिन परमेश्वर के एक विश्वासी के रूप में मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि मेरे साथ जो कुछ भी होता है, चाहे वह मानवीय दृष्टिकोण से अच्छा लगे या बुरा, वह परमेश्वर द्वारा शासित और व्यवस्थित होता है और इसमें ऐसे सबक होते हैं जिनसे मुझे सीख लेने की जरूरत होती है लेकिन मैंने इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकार नहीं किया। इसके बजाय मैंने गैर विश्वासियों के दृष्टिकोण से परमेश्वर द्वारा मेरे लिए व्यवस्थित किए गए परिवेशों का आकलन किया। यह वास्तव में बेतुका था; ये एक छद्म-विश्वासी के विचार थे! इस बात का एहसास होते ही मुझे गहरी शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं इस गलत दृष्टिकोण को सुधारने के लिए सत्य की खोज करना चाहती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश पढ़े : “अच्छे भाग्य और खराब भाग्य के विषय पर वापस लौटें, तो अब सब जानते हैं कि भाग्य के बारे में यह कहावत निराधार है, और यह न अच्छा होता है न खराब। जिन भी लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम्हारा सामना होता है, वे चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था द्वारा तय किए जाते हैं, इसलिए तुम्हें उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। परमेश्वर से वह स्वीकार करो जो अच्छा है, और जो कुछ बुरा है, उसे भी परमेश्वर से स्वीकार करो। जब कुछ अच्छा घटे, तो मत कहो कि तुम भाग्यशाली हो, और बुरा घटे तो खुद को अभागा मत कहो। यही कहा जा सकता है कि इन सभी चीजों में लोगों के लिए सीखने के सबक होते हैं, और उन लोगों को इन्हें ठुकराना या इनसे बचना नहीं चाहिए। अच्छी चीजों के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करो, साथ ही बुरी चीजों के लिए भी उसका धन्यवाद करो, क्योंकि इन सभी चीजों की व्यवस्था उसी ने की है। अच्छे लोग, घटनाएँ, चीजें और परिवेश सबक देते हैं जो उन्हें सीखने चाहिए, मगर बुरे लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों से और भी ज्यादा सीखने को मिलता है। ये सभी वो अनुभव और कड़ियाँ हैं जो किसी के जीवन का भाग होनी चाहिए। इन्हें मापने के लिए लोगों को भाग्य के विचार का प्रयोग नहीं करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “अगर तुम यह ख्याल छोड़ दो कि तुम कितने खुशकिस्मत या बदकिस्मत हो, और इन चीजों से शांत और सही तरीके से पेश आओ, तो तुम्हें पता चलेगा कि ज्यादातर चीजें उतनी प्रतिकूल नहीं हैं या उनसे निपटना उतना मुश्किल नहीं है। जब तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं को जाने देते हो, जो भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना तुम्हारे साथ हो, उसे ठुकराना या उससे बचना बंद कर देते हो, और इन चीजों को तुम इस तराजू पर तोलना छोड़ देते हो कि तुम कितने खुशनसीब या बदनसीब हो, तो वे ज्यादातर चीजें जिन्हें तुम दुर्भाग्यपूर्ण और बुरी माना करते थे, वे अब तुम्हें अच्छी लगने लगेंगी—बुरी चीजें अच्छी में तब्दील हो जाएँगी। तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी, चीजों को देखने का तुम्हारा तरीका बदल जाएगा, इससे तुम अपने जीवन अनुभवों के बारे में अलग महसूस कर पाओगे और साथ-साथ तुम्हें मिलने वाले लाभ भी अलग होंगे। यह एक असाधारण अनुभव है, जो तुम्हें ऐसे लाभ पहुँचाएगा जिनकी तुमने कल्पना भी नहीं की थी। यह अच्छी बात है, बुरी नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि मेरे साथ जो कुछ भी होता है, चाहे वह मानवीय दृष्टिकोण से अच्छा दिखे या बुरा, वह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और उसके पीछे परमेश्वर का इरादा है। मुझे परमेश्वर की ओर से चीजों को स्वीकार करना चाहिए और उनके प्रति समर्पण करना चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए और सबक सीखने चाहिए। यह वह रवैया और अभ्यास है जो मुझे अपनाना चाहिए। मैंने यूसुफ के बारे में सोचा, जिसे उसके भाइयों ने मिस्र में गुलामी के लिए बेच दिया था और उसने कई कष्ट सहे थे। हालाँकि यह कोई अच्छी बात नहीं लग रही थी, लेकिन आखिरकार यूसुफ मिस्र का मुख्य प्रशासक बन गया। अकाल के दौरान यूसुफ भूख की पीड़ा से बच गया और वह परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में था। कुछ समय बाद यूसुफ के भाई अनाज खरीदने के लिए मिस्र आए और उनका पूरा परिवार मिस्र में बस गया और उनके वंशज वहाँ चार सौ वर्षों तक रहे। इस यह कहानी ने मुझे यह एहसास दिलाया कि कुछ चीजें जो मानवीय दृष्टिकोण से दुर्भाग्यपूर्ण लगती हैं, जरूरी नहीं कि वे बुरी हों और यह कि और इन सब बातों में परमेश्वर की शुभ इच्छा छुपी होती है। ठीक उसी तरह जैसे जब मुझे चेंगनान कलीसिया की देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी गई थी तो जहाँ एक तरफ यह कार्य की आवश्यकता पर आधारित था क्योंकि मैं इस कलीसिया के लोगों को बेहतर तौर पर जानती थी और सुसमाचार कार्य में शू शिन की तुलना में अधिक अनुभव रखती थी इसलिए यह व्यवस्था कलीसिया के कार्य के लिए लाभदायक थी और वहीं दूसरी तरफ यह मेरे जीवन प्रवेश के लिए भी आवश्यक थी। मैं एक ऐसी व्यक्ति थी जिसे शारीरिक आराम का आनंद लेना पसंद था और मैं समस्याओं का सामना करने पर सत्य की खोज करने में अच्छी नहीं थी और जिस कलीसिया के लिए मैं जिम्मेदार थी उसमें कई समस्याएँ और कठिनाइयाँ थीं जिसके लिए मुझे प्रयास करने, खोजने, आत्म-चिंतन करने, संवाद करने और चीजों को और अधिक सारांशित करने की आवश्यकता थी। ऐसा करने से मैं देह में जीने और आत्मसंतुष्ट होने से बच सकती थी। परमेश्वर ने मेरी घातक कमजोरियों के अनुसार इस परिवेश को व्यवस्थित किया था; यह मेरे लिए उसका उद्धार था! मैंने यह भी सोचा कि कैसे कुछ साल पहले मैं इस कलीसिया के लिए जिम्मेदार थी और उस समय मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया था। जब मैंने देखा कि भाई-बहनों के कर्तव्यों में खराब परिणाम निकल रहे हैं तो मैंने केवल उनका तिरस्कार किया और उनकी आलोचना की और उनके जीवन प्रवेश के लिए कोई मदद प्रदान नहीं की। मैंने अपने पीछे कई पछतावे और कर्ज छोड़े थे और अब मुझे उनके कार्य के लिए फिर से जिम्मेदार होने का मौका दिया जा रहा था। यह मेरे लिए अपने पिछले अपराधों की भरपाई करने का एक अवसर था और मुझे समय रहते अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये को सुधारना था, जितना संभव हो सके सहयोग करना था और अपने पीछे और कोई पछतावा नहीं छोड़ना था। उस पल मैंने महसूस किया कि परमेश्वर द्वारा मुझे इस कलीसिया की देखरेख करने का अवसर देना मेरे जीवन के लिए आवश्यक था, इससे परमेश्वर के अच्छे इरादे का पता चलता था और यह कि मैं अब गैर विश्वासियों के दृष्टिकोण से चीजों को नहीं देख सकती थी या परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों का विरोध नहीं कर सकती थी। सच्चाई यह है कि परमेश्वर चाहे किसी भी परिवेश की व्यवस्था करे, वह हमारे जीवन के लिए आवश्यक होता है और खुशकिस्मती या बदकिस्मती जैसी कोई चीज नहीं होती। जब मैंने किस्मत के आधार पर लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में राय बनाना बंद कर दिया और इसके बजाय उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखा तो मुझे राहत महसूस हुई और मैं अब नकारात्मक भावनाओं में नहीं जी रही थी।
मैंने इस बारे में भी सोचा कि आखिर मैं हमेशा यह क्यों मानती थी कि अवांछनीय परिस्थितियों का सामना करने का मतलब यह था कि मैं बदकिस्मत हूँ और मैं आशा करती रही कि मेरे साथ भी अच्छी चीजें घटित होंगी और मैं सोचती थी कि यह चीज किस भ्रष्ट स्वभाव से प्रेरित थी। अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तो, चीजें अच्छी हैं या बुरी, यह मापने के लिए भाग्य का प्रयोग करनेवाले लोगों की सोच और नजरिये क्या होते हैं? ऐसे लोगों का सार क्या होता है? वे अच्छे भाग्य और खराब भाग्य पर इतना अधिक ध्यान क्यों देते हैं? भाग्य पर अत्यधिक ध्यान देनेवाले लोग क्या आशा करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो या खराब? (वे आशा करते हैं कि यह अच्छा हो।) सही कहा। दरअसल, वे प्रयास करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो और उनके साथ अच्छी चीजें हों, और वे बस उनका लाभ उठाकर उनसे फायदा कमाते हैं। वे परवाह नहीं करते कि दूसरे कितने कष्ट सहते हैं, या दूसरों को कितनी मुश्किलें या कठिनाइयाँ सहनी पड़ती हैं। वे नहीं चाहते कि ऐसी कोई चीज उनके साथ हो, जिसे वे अशुभ समझते हैं। दूसरे शब्दों में, वे नहीं चाहते कि उनके साथ कुछ बुरा घटे : कोई रुकावट, कोई विफलता या शर्मिंदगी नहीं, काट-छाँट नहीं, चीजें खोना या हारना नहीं, और कोई धोखा न खाना। ऐसा कुछ भी हुआ, तो उसे खराब भाग्य के रूप में लेते हैं। अगर बुरी चीजें होती हैं, तो व्यवस्था चाहे जो भी करे, वे अशुभ ही हैं। वे आशा करते हैं कि तमाम अच्छी चीजें—पदोन्नति, सबमें श्रेष्ठ होना, दूसरों के खर्चे पर लाभ उठाना, किसी चीज से फायदा लेना, ढेरों पैसे बनाना, या कोई उच्च अधिकारी बनना—उन्हीं के साथ हों, और उन्हें लगता है कि यह अच्छा भाग्य है। वे भाग्य के आधार पर ही उन लोगों, घटनाओं और चीजों को मापते हैं, जिनसे उनका सामना होता है। वे अच्छे भाग्य का पीछा करते हैं, दुर्भाग्य का नहीं। जैसे ही कोई छोटी-से-छोटी चीज गलत हो जाती है, वे नाराज हो जाते हैं, तुनक जाते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। दो टूक कहें, तो इस तरह के लोग स्वार्थी होते हैं। वे दूसरे लोगों के खर्चे पर खुद फायदा उठाने, अपना फायदा करने, सबसे ऊपर आकर सबसे अलग दिखने का प्रयास करते हैं। यदि प्रत्येक अच्छी चीज सिर्फ उन्हीं के साथ हो तो वे संतुष्ट हो जाते हैं। यही उनका प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जो लोग अपनी बदकिस्मती के बारे में लगातार शिकायत करते रहते हैं, वे स्वार्थी और आत्म-केंद्रित लोग होते हैं। ऐसे लोग हमेशा चाहते हैं कि उनके साथ अच्छी चीजें हों, उनके लिए हर चीज सुचारू रूप से चले, उन्हें करियर में सफलता मिले, वे सबसे अलग दिखें और गौरव प्राप्त करें और वे किसी भी बाधा या असफलता का सामना न करें। यहाँ तक कि परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य के दौरान भी वे बिना कोई प्रयास किए परिणामों का आनंद लेना चाहते हैं और वे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए आवश्यक कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं होते और वे अपने साथ काट-छाँट के अनिच्छुक होते हैं। जैसे ही उनकी प्रतिष्ठा को थोड़ी सी ठेस पहुँचती है या कोई असंतोष महसूस होता है तो वे शिकायत करने लगते हैं। खुद पर चिंतन करते हुए मैंने महसूस किया कि मैं भी ऐसी ही थी। जब भी मैं अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों का सामना करती या विफलताओं का सामना करती, असफल होती या मेरे साथ काट-छाँट की जाती तो मैं परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश के बारे में शिकायत करने लगती थी और मैं हमेशा बिना किसी चिंता या कठिनाई को सहन किए नाम और लाभ कमाना चाहती थी और आराम से जीना चाहती थी। जिस चेंगनान कलीसिया के लिए मैं जिम्मेदार थी, उसमें कई समस्याएँ थीं और कार्य में प्रभावशीलता की कमी थी और हमारे साथ अक्सर काट-छाँट की जाती थी इसलिए मुझे लगा कि ऐसी कलीसिया की जिम्मेदारी लेने में कोई लाभ नहीं है और चाहे ही मैं हर दिन कितना भी काम कर लूँ, अन्य लोग इसे नहीं देखेंगे और इसलिए मुझे शिकायत की भावना महसूस हुई और मैं नकारात्मक हो गई और अपने कर्तव्यों में ढिलाई करने लगी। मैंने देखा कि भाई-बहनों की स्थिति और भी खराब हो गई थी और उनके कर्तव्यों पर इसका प्रभाव पड़ रहा था लेकिन मैंने इसकी परवाह नहीं की और मैं कार्य में समस्याओं को हल करने के लिए तैयार नहीं थी। मैंने “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” और और “कोई भी मुफ्त में काम नहीं करता,” जैसे शैतानी फलसफों पर भरोसा किया और मैं एक स्वार्थी, आत्म-केंद्रित, घृणित और घटिया व्यक्ति बन गई। अगर मैं यह सोचूँ कि कैसे कलीसिया ने मुझे एक सुपरवाइजर बनने के लिए विकसित किया था और प्रशिक्षण प्राप्त करने के कई अवसर दिए थे और अब यह मुझे एक ऐसी कलीसिया की निगरानी करने का कार्य सौंप रही थी जिसमें सुसमाचार कार्य के परिणाम खराब थे, तो मुझे परमेश्वर का इरादा समझना चाहिए था और अपने कर्तव्य में सक्रिय रूप से शामिल होकर कार्य में आने वाली समस्याओं और कठिनाइयों को हल करना चाहिए था। लेकिन इसके बजाय मैंने शारीरिक कष्ट और अपमान के डर से शिकायत की और अपने कर्तव्य को निभाने में विफल रही। मैं अपने कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं निभा रही थी बल्कि शारीरिक आनंद, प्रसिद्धि और रुतबा पाने के लिए निभा रही थी। मैं बहुत स्वार्थी और घृणित थी! यह एहसास होने पर मुझे बहुत अपराधबोध महसूस हुआ और अब मैं और अपने स्वार्थों का पीछा नहीं करना चाहती थी। मैं परमेश्वर के इरादे पर विचार करना और अपने कर्तव्यों को पूरा करने में उस पर भरोसा करना चाहती थी। बाद में, जब मैंने देखा कि सुसमाचार कर्मी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना कर रहे हैं या उनमें सुसमाचार के सिद्धांतों की समझ में कमी है तो मैंने फिर शिकायत नहीं की बल्कि बार-बार पत्र लिखकर उनके साथ संवाद किया और जब मैंने देखा कि उनकी स्थिति खराब है तो मैंने उनकी मदद करने और उनका समर्थन करने के लिए परमेश्वर के वचनों से संगति की। जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया तो मुझे लगने लगा कि हर दिन संतुष्टिदायक है और मैं लाभ प्राप्त कर रही हूँ।
एक दिन मुझे चेंगनान कलीसिया की एक सुसमाचार कर्मी का पत्र मिला जिसमें उसने यह लिखा था कि उसकी साथी बहन जिंग’आन ने इस्तीफा दे दिया था क्योंकि उसे लगा कि उसकी काबिलियत उसके कर्तव्यों के अनुरूप नहीं है। कुछ दिनों बाद मुझे एक टीम अगुआ का एक और पत्र मिला जिसमें लिखा था कि बहन वेई झेन की स्थिति भी खराब है और वह एक भ्रष्ट स्वभाव के साथ जी रही है और सुसमाचार का प्रचार करने की अनिच्छुक है। टीम अगुआ ने यह भी लिखा कि “मैं भी कठिनाई में जी रही हूँ और मुझे नहीं पता कि कैसे सहयोग किया जाए...।” इन समस्याओं को देखकर मैं बहुत निराश महसूस करने लगी और मैंने सोचा, “तुम लोगों को इतनी समस्याएँ क्यों हैं? तुम्हारे कार्य परिणामों में जो कमी है, वह तुम अपनी समस्याओं की संख्या से पूरी कर देते हो। एक दिन तुम में से कोई इस्तीफा दे देता है और अगले दिन किसी और की स्थिति खराब हो जाती है। सिर्फ तुम्हारी अपनी स्थितियों को ठीक करने में ही बहुत मेहनत लग रही है। मैं सुसमाचार का प्रचार करने के लिए समय कैसे निकालूँ? यह कोई शारीरिक कष्ट की बात भी नहीं है, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अगर कार्य अप्रभावी रहा तो सुपरवाइजर मेरे बारे में क्या सोचेगी? इस कलीसिया में इतनी समस्याएँ हैं; मेरी किस्मत सच में बहुत खराब है!” मैंने महसूस किया कि मेरी स्थिति गलत है इसलिए मैंने परमेश्वर के वचनों में इसका समाधान खोजा। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्या इस अवसाद से बाहर निकलना आसान है? दरअसल, यह आसान है। अपने गलत नजरियों को जाने दो, हर चीज के अच्छा होने, या ठीक तुम्हारे चाहे जैसा या आसान होने की उम्मीद मत करो। जो चीजें गलत होती हैं, उनसे डरो मत, उनका प्रतिरोध मत करो या उन्हें मत ठुकराओ। इसके बजाय, अपने प्रतिरोध को जाने दो, शांत हो जाओ, समर्पण के रवैये के साथ परमेश्वर के समक्ष आओ, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज को स्वीकार करो। तथाकथित ‘अच्छे भाग्य’ के पीछे मत भागो, और तथाकथित ‘खराब भाग्य’ को मत ठुकराओ। तन-मन से परमेश्वर को समर्पित हो जाओ, उसे कार्य और आयोजन करने दो, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दो। तुम्हें जब और जिस मात्रा में जो चाहिए वह परमेश्वर तुम्हें देगा। वह उस परिवेश, उन लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन तुम्हारी जरूरत और कमियों के अनुसार करेगा जिनकी तुम्हें आवश्यकता है, ताकि तुम जिन लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आओ, उनसे वे सबक सीख सको जो तुम्हें सीखने चाहिए। बेशक, इन सबके लिए शर्त यह है कि तुम्हारे पास परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण की मानसिकता हो। इसलिए, पूर्णता के पीछे मत भागो; अवाँछित, शर्मिंदा करने वाली या प्रतिकूल चीजों के होने को मत ठुकराओ या उनसे मत डरो; और बुरी चीजों के होने का अंदर से प्रतिरोध करने के लिए अपने अवसाद का प्रयोग मत करो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि इन परिस्थितियों में भी परमेश्वर की शुभ इच्छा है। मुझे समर्पण करने और परमेश्वर के इरादे की खोज करने से शुरुआत करनी चाहिए और जैसे ही कोई चीज मेरी प्रतिष्ठा या शारीरिक हितों पर प्रभाव डाले, वैसे ही मुझे इसका विरोध करके, इसकी शिकायत करके या इसके बारे में बड़बड़ाकर कोई प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए और न ही नकारात्मक भावनाओं में जीना चाहिए। यह वह रवैया नहीं है जो मेरा अपने कर्तव्यों के प्रति होना चाहिए। उस समय तीन बहनें नकारात्मक और कमजोर थीं, भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थीं और इससे बाहर नहीं आ पा रही थीं जो कि एक बहुत दुखद बात थी और अगर इसे संगति के माध्यम से समय रहते हल नहीं किया जाता तो इससे न केवल सुसमाचार कार्य प्रभावित होता बल्कि उनके जीवन प्रवेश में भी देरी होती। मुझे उनका तिरस्कार नहीं करना चाहिए था बल्कि प्रेम से उनके साथ संगति करनी और उनकी मदद करनी चाहिए थी और अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए थी। इसलिए मैंने जल्दी ही उन्हें लिखा और उनके साथ अपने अनुभव साझा किए और उनके साथ संगति की और परमेश्वर के इरादे को समझने और कठिनाइयों में जीना बंद करने में उनकी मदद की। मैंने सुसमाचार प्रचार में भी अपने अनुभव और लाभ साझा किए। कुछ दिनों बाद मुझे एक पत्र मिला जिसमें यह लिखा था कि परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के माध्यम से उनकी स्थिति में सुधार हुआ है और वे अब फिर से सामान्य रूप से अपने कर्तव्यों को निभाने में सक्षम हैं। ऐसे परिणाम देखकर मैंने बहुत राहत महसूस की और मेरी आस्था और मजबूत हुई। सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है और चाहे परमेश्वर मेरे लिए कोई भी कठिनाइयाँ या बाधाएँ क्यों न व्यवस्थित करे, मुझे उनका अनुभव करने के लिए उस पर भरोसा करना चाहिए और सत्य की खोज करनी चाहिए और सभी चीजों में उसमें प्रवेश करना चाहिए। यह वह रवैया है जो मेरा अपने कर्तव्यों के प्रति होना चाहिए। आराम की स्थिति में रहते हुए मैं इन लाभों और इस समझ को हासिल नहीं कर सकती थी!
इस अनुभव के बाद मुझे एहसास हुआ कि चीजों का आकलन खुशकिस्मती या बदकिस्मती के आधार पर करना वास्तव में बेतुका है! साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि परमेश्वर हर दिन मेरे लिए जो भी परिवेश व्यवस्थित करता है, चाहे वह मुझे अच्छा लगे या वह मेरी इच्छाओं के विरुद्ध हो, उसमें हमेशा मेरे सीखने के लिए कोई न कोई सबक होते हैं। ये सभी मेरे जीवन प्रवेश के लिए आवश्यक हैं और इनमें परमेश्वर की भलाई छुपी होती है। मुझे सत्य की खोज करने और उस स्तर तक पहुँचने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए जहाँ मैं परमेश्वर के वचनों के मापदंड के अनुसार लोगों और चीजों को देख सकूँ और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में जितनी जल्दी हो सके प्रवेश कर सकूँ।