52. बरखास्त होने के बाद मैंने क्या सीखा
2021 में मैं कलीसिया में नवागंतुकों का सिंचन करती थी। अपने कर्तव्य के प्रति मेरे लापरवाह दृष्टिकोण के कारण कई नवागंतुक सभाओं में नियमित रूप से नहीं आते थे। इसके ऊपर मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण हमेशा दूसरे मेरे साथ सहयोग करने में बेबस महसूस करते थे। इसलिए अगुआओं ने मुझे बरखास्त कर दिया और सामान्य मामले सँभालने का काम सौंप दिया। यह खबर सुनकर मैंने बहुत व्यथित महसूस किया। मैंने सोचा कि कैसे मैंने दस साल से अधिक समय तक परमेश्वर में विश्वास रखा है और अपनी पढ़ाई छोड़ने के बाद मैं हमेशा से ही कलीसिया में अपने कर्तव्य कर रही थी। इसके अलावा क्योंकि मुझे एक विदेशी भाषा का कुछ ज्ञान था, मुझे हमेशा लगता था कि मैं अन्य भाई-बहनों की तुलना में अधिक सक्षम हूँ। मुझे उम्मीद नहीं थी कि राज्य के सुसमाचार प्रसार के इस महत्वपूर्ण क्षण में मुझे बरखास्त करके सामान्य मामले सँभालने का एक निम्न-स्तरीय कर्तव्य सौंपा जाएगा। क्या यह बरखास्तगी मुझे बेनकाब कर हटाने का परमेश्वर का तरीका हो सकता है? इस बारे में सोचते हुए मुझ पर निराशा, पीड़ा और चिंता की मिली-जुली भावनाएँ हावी हो गईं। मैंने अपने दिल में कहा, “भविष्य में मुझे अपने कर्तव्य करने के दौरान सतर्क और सावधान रहना होगा ताकि कोई समस्याएँ न हों जिनके कारण मुझे फिर से बरखास्त होना पड़े। अन्यथा मैं सचमुच बचाए जाने की सारी उम्मीद गँवा दूँगी।”
कुछ समय बाद मैंने सुना कि कुछ भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों में खराब नतीजों के कारण बरखास्त कर दिया गया। मैंने अचानक चिंतित होकर सोचा, “हाल ही में मैंने अपने कर्तव्य कैसे किए हैं? क्या मुझे भी बरखास्त किए जाने का खतरा है?” मैंने जल्दी से विचार करना शुरू किया कि मेरे कर्तव्यों में अभी भी क्या समस्याएँ हो सकती हैं, पर्यवेक्षक का मेरे प्रति क्या रवैया है और क्या मुझे बरखास्त किए जाने के कोई संकेत हैं। जब मैंने देखा कि मेरे कर्तव्यों में कुछ समस्याएँ थीं और नतीजे बहुत अच्छे नहीं थे, तो मुझे यह सोचकर बहुत बेचैनी महसूस हुई, “क्या पर्यवेक्षक मुझे एक दिन बरखास्त कर देगी? अगर मुझे फिर से बरखास्त किया गया, तो मैं पूरी तरह से हटाई जा सकती हूँ।” उस दौरान मैंने अपने कर्तव्य बहुत सावधानी से किए, इस डर से कि मैं कोई गलती न कर दूँ। कभी-कभी जब मेरी पर्यवेक्षक मुझे संदेश भेजती थी, तो मुझे चिंता होने लगती थी कि शायद वह मुझे बरखास्त करने की योजना बना रही है। मैं सतर्कता के साथ और संदेह की दशा में रहती थी, अत्यधिक दमित महसूस करती थी, मानो कोई भारी पत्थर मुझे दबाता जा रहा हो।
एक दिन एक सभा के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपनी दशा के बारे में कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। ... अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब-कुछ ठीक चल रहा हो, तब तो उन्हें परमेश्वर को निश्चित रूप से गलत नहीं समझना चाहिए। उसे लगता है कि परमेश्वर नेक है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें वह सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, ‘लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।’ क्या यह गलतफहमी नहीं है? ऐसा कैसे हुआ कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? वह क्या चीज है जिसने इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम यकीनी तौर पर कह सकते हो कि वह क्या है? वह कौन सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? कहो, ताकि सभी लोग समझ और जान सकें कि तुम्हारे पास एक ठोस आधार है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी स्थिति का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो उसका रवैया कैसा होना चाहिए? (सत्य और समर्पण की खोज करने का।) उसे पहले समर्पित होकर विचार करना चाहिए : ‘मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं समर्पण करूँगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं।’ क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर न तो असर डालेगी और न ही कोई परेशानी पैदा करेगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैं वैसी ही थी जैसा परमेश्वर ने वर्णन किया था : जब मैं अपने कर्तव्य में गलतियाँ करती थी, तो मुझे हमेशा बरखास्त किए जाने का डर रहता था। इसका कारण परमेश्वर के प्रति मेरी सतर्कता और गलतफहमी थी, परमेश्वर के घर में लोगों को बरखास्त करने के पीछे के सिद्धांत न समझना या परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को न पहचान पाना था। मैं सोचती थी कि जब किसी के कर्तव्य करने में कुछ समस्याएँ या गलतियाँ होंगी या अगर कुछ समय के लिए नतीजे अच्छे नहीं रहेंगे, तो उसे बरखास्त कर दिया जाएगा, ठीक वैसे ही जैसे अविश्वासियों की दुनिया में काम करते समय जहाँ गलतियाँ फटकार और संभावित बरखास्तगी का कारण बनती हैं, इसलिए किसी को अपना पद बनाए रखने के लिए बेहद सतर्क रहना पड़ता है। लेकिन परमेश्वर के घर में परमेश्वर लोगों को यथासंभव पश्चात्ताप करने के मौके देता है और लोगों को बरखास्त करना भी सिद्धांतों पर आधारित होता है। ऐसा नहीं होता कि किसी को सिर्फ इसलिए बरखास्त कर दिया जाएगा क्योंकि उसने अपने कर्तव्य में कोई छोटी-सी गलती की है या कुछ समय के दौरान उसके नतीजे खराब रहे हैं। बल्कि यह उस व्यक्ति के लगातार प्रदर्शन और प्रकृति सार के व्यापक मूल्यांकन पर आधारित होता है, खास तौर से इस बात पर कि क्या वह आत्म-चिंतन कर खुद को जान सकता है और गलती करने के बाद सच्चा पश्चात्ताप प्रदर्शित कर सकता है। उदाहरण के लिए, जब मैं नए लोगों के सिंचन का अपना कर्तव्य कर रही थी, तो अपने अहंकारी स्वभाव के कारण मैं हमेशा दूसरों के साथ सहयोग करने के दौरान उन्हें बेबस करती थी। मेरे भाई-बहनों ने इस मुद्दे के बारे में बताया था। हालाँकि मैं कुछ समय के लिए ही परेशान होती थी और फिर अपना अहंकारी स्वभाव ठीक करने पर ध्यान नहीं देती थी। इसके अलावा नए लोगों के सिंचन के दौरान मैं लापरवाह रहती थी और सतही स्तर पर काम करती थी। जब नए लोगों को मुश्किलें आती थीं और वे नियमित रूप से सभाओं में शामिल नहीं होते थे, तो मैं मदद या समर्थन नहीं करती थी। काम का सारांश देते समय और बहुत से नवागंतुकों की अनियमित उपस्थिति देखकर मैं कुछ समय के लिए ही परेशान हुई, बाद में मैंने इन मुद्दों को हल करने का कोई प्रयास नहीं किया। कलीसिया ने मेरे लगातार प्रदर्शन के आधार पर मुझे बरखास्त कर दिया, लेकिन मेरा कर्तव्य करने का अवसर नहीं छीना और इसके बजाय मुझे सामान्य मामलों का कर्तव्य सौंप दिया, जिससे मुझे पश्चात्ताप करने का मौका मिला; लेकिन मैंने ठीक से आत्म-चिंतन नहीं किया और खुद को नहीं समझा, बल्कि परमेश्वर के प्रति सतर्कता और गलतफहमी पाले रही। मैं सचमुच बहुत धोखेबाज थी! अब भले ही मेरे सामान्य मामलों के कर्तव्य में कुछ समस्याएँ और भटकाव थे, इस बारे में पता चलने पर पर्यवेक्षक मुझे कुछ सलाह देगी या सिद्धांतों पर मेरे साथ संगति करेगी। जब मैंने इन सुझावों का पालन किया, तो मेरे कर्तव्य में समस्याएँ हल हो गईं और कलीसिया ने मुझे उनके कारण बरखास्त नहीं किया। मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में लोगों की बरखास्तगी वास्तव में सिद्धांतों के अनुसार की जाती है और यह कि मेरी सतर्कता और गलतफहमी वास्तव में खुद को धोखा देना और खुद को बाधित करना था।
बाद में मैंने और अधिक विचार किया और महसूस किया कि अपनी सतर्कता और गलतफहमी हल करने के अलावा मुझे अपने कर्तव्य में गलती करने पर बरखास्त किए जाने के इस डर को भी खत्म करने की जरूरत थी। मैंने सोचा : मैं क्यों डर रही थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और इस मुद्दे के बारे में खोजा। एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोगों को अतीत में कुछ असफलताओं का अनुभव करना पड़ा है, जैसे कि एक अगुआ होने के नाते कोई भी वास्तविक काम न करने या रुतबे के फायदों की लालसा करने के लिए बर्खास्त किया जाना। कई बार बर्खास्त होने के बाद इनमें से कुछ लोगों में थोड़ा-बहुत सच्चा बदलाव आ जाता है, तो क्या बर्खास्त होना लोगों के लिए अच्छी चीज है या बुरी? (यह एक अच्छी चीज है।) जब लोग पहली बार बर्खास्त किए जाते हैं तो उन्हें लगता है कि उन पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है। मानो किसी ने उनका दिल ही तोड़ दिया हो। वे खुद को संभाल भी नहीं पाते और उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्हें किस दिशा में जाना है। लेकिन इस अनुभव के बाद वे सोचते हैं, ‘यह कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं थी। मेरा आध्यात्मिक कद पहले इतना छोटा क्यों था? आखिर मैं इतना अपरिपक्व कैसे हो सकता था?’ इससे साबित होता है कि उन्होंने अपने जीवन में कुछ तरक्की कर ली है और यह भी कि वे परमेश्वर के इरादों, सत्य और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के उद्देश्य को थोड़ा-बहुत समझ गए हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की यही प्रक्रिया है। तुम्हें इन तरीकों को मान और स्वीकार लेना चाहिए जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य में उपयोग करता है, अर्थात्, लगातार तुम्हारी काट-छाँट करना या तुम्हारे मामले में फैसला करना, यह कहना कि तुम निकम्मे हो, तुम बचाये नहीं जाओगे, और यहाँ तक कि तुम्हारी निंदा करना और तुम्हें धिक्कारना। हो सकता है कि तुम्हें नकारात्मक लगे लेकिन फिर सत्य खोजकर और आत्म-चिंतन करके और खुद को जान कर तुम जल्द ही इससे उबर लोगे, और परमेश्वर का अनुसरण कर अपने कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने लगोगे। इसी को जीवन में संवृद्धि करना कहते हैं। तो, क्या अधिक बार बर्खास्त होना अच्छा है या बुरा? क्या परमेश्वर के कार्य का यह तरीका सही है? (बिल्कुल सही है।) लेकिन, कभी-कभी लोग इसे नहीं पहचानते और इसे स्वीकार नहीं कर पाते। विशेष रूप से पहली बार बर्खास्त होने पर उन्हें लगता है कि जैसे उनके साथ अन्याय किया जा रहा है, वे हमेशा परमेश्वर से तर्क-वितर्क कर उसके बारे में शिकायतें करते हैं और इस बाधा को पार नहीं कर पाते। वे इसे पार क्यों नहीं कर पाते? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर और सत्य के साथ समस्या खोज रहे हैं? इसका कारण यह है कि लोग सत्य को नहीं समझते, वे आत्म-चिंतन करना नहीं जानते, और वे अपने भीतर की समस्याओं की तलाश नहीं करते हैं। वे हमेशा दिल से आज्ञा मानने से इनकार करते हैं और जब उन्हें बर्खास्त किया जाता है तो वे परमेश्वर को चुनौती देना शुरू कर देते हैं। वे अपनी बर्खास्तगी को स्वीकार नहीं पाते और आक्रोश से भर जाते हैं। इस समय उनके भ्रष्ट स्वभाव बहुत तीव्र होते हैं, लेकिन जब वे बाद में इस मामले पर दुबारा नजर डालेंगे तो वे समझ लेंगे कि बर्खास्त होना उनके लिए सही था—यह उनके लिए एक अच्छी बात साबित हुई जिसने उन्हें जीवन में कुछ प्रगति करने में मदद की। जब उन्हें भविष्य में फिर से बर्खास्त किया जाएगा तो क्या वे तब भी इसे इसी तरह से चुनौती देंगे? (हर बार पहले से कम चुनौती देते जाएँगे।) इसमें धीरे-धीरे सुधार होना सामान्य बात है। लेकिन यदि कुछ भी नहीं बदलता तो इससे यह साबित हो जाएगा कि वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते और वे छद्म-विश्वासी हैं। फिर वे पूरी तरह बेनकाब कर हटा दिए जाते हैं और उनके पास उद्धार प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं होता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं गहराई से प्रभावित हुई। चाहे हम बरखास्तगी का अनुभव करें या किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित हों जिसे बचाया नहीं जा सकता, हमें इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए। यदि हम समर्पण कर पाएँ, सत्य खोज सकें, आत्म-चिंतन कर सकें और खुद को जान पाएँ, तो हमारा जीवन प्रगति करेगा और यह एक अच्छी बात है। लेकिन यदि हम आत्म-चिंतन किए बिना तर्क करना और शिकायत करना जारी रखते हैं, तो हम असल में बेनकाब कर हटा दिए जाएँगे। अपने सिंचन के कर्तव्य से बरखास्त किए जाने के समय पर आत्म-चिंतन करना भले ही बहुत दर्दनाक था, पर इसने मुझे जगा दिया। इसने मुझे आत्म-चिंतन करने और खुद को समझने के लिए प्रेरित किया और मुझे अपने कर्तव्य करने में अपनी लापरवाही और अभिमानी स्वभाव की कुछ समझ मिली। अतीत में जब मैं नवागंतुकों को नियमित रूप से सभाओं में न जाते देखती थी, तो मुझे लगता था कि उनकी कठिनाइयाँ समझना और उनकी समस्याएँ हल करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजना बहुत परेशानी भरा है, इसलिए मैं ये मुद्दे हल करने के लिए निष्ठापूर्वक त्याग नहीं करना चाहती थी और केवल कुछ सरल कार्य करना चाहती थी ताकि मैं अच्छी दिखूँ। बरखास्त होने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं विशेष रूप से आलसी थी और भौतिक सुख-सुविधा में लिप्त थी। मैंने देखा कि ऐसी घटिया प्रकृति के साथ अपने कर्तव्य करने से मैं मूल रूप से गैर-भरोसेमंद बन गई हूँ। अब सामान्य मामलों के कर्तव्य करते समय मैंने अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से करने के बारे में सोचना शुरू कर दिया। अपनी कार्य क्षमताओं की परवाह किए बिना मैंने बस इसे अपने पूरे दिल और क्षमता से करने पर ध्यान केंद्रित किया। भले ही यह कभी-कभी थकाऊ होता था, लेकिन मैं अपने दिल में सहज महसूस करती थी। इसके अतिरिक्त अतीत में मैं हमेशा खराब काबिलियत या कमजोर पेशेवर क्षमताओं वाले भाई-बहनों को नीची नजर से देखती थी। काम पर चर्चा करते समय मेरा लहजा अक्सर कठोर होता था, जिससे वे बेबस होते थे और उन्हें नुकसान होता था। बरखास्त होने के बाद मैं शांत होने लगी और आत्म-चिंतन करने लगी। मुझे एहसास हुआ कि दूसरों के प्रति मेरी अवमानना मेरे अभिमानी स्वभाव के कारण थी। बाद में जब मैं उन भाई-बहनों से मिली, जिन्हें मैं पहले नीची नजर से देखती थी, तो मैंने पाया कि उनमें कई क्षमताएँ और गुण थे। अब जब भाई-बहन मेरी समस्याएँ और कमियाँ बताते थे, तो मैं उन्हें स्वीकारने, आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने में सक्षम थी। भाई-बहन अब मुझसे बेबस नहीं थे। इसने मुझे यह दिखाया कि दूसरे कार्य सौंपा जाना और बरखास्तगी का मतलब किसी को बेनकाब करना या हटाना नहीं है। मैं शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी थी और मुझमें कई भ्रष्ट स्वभाव थे, इसलिए मुझे अपना कर्तव्य निभाते समय कई असफलताओं और खुलासों का अनुभव करना था। अगर मैं सत्य खोज पाती, आत्म-चिंतन कर सकती और ईमानदारी से पश्चात्ताप कर पाती, तो यह मेरे लिए अच्छी बात होती और मेरे स्वभाव के परिवर्तन के लिए एक अहम मोड़ होता। लेकिन मैं अपने कर्तव्य में असफलताओं और खुलासों को सही ढंग से नहीं ले पाई। मैं सत्य की खोज के लिए शांत नहीं हो सकी और ठीक से आत्म-चिंतन नहीं कर पाई। इसके बजाय मैंने हमेशा अपने अंतिम गंतव्य और परिणाम के बारे में योजना बनाई और चिंतित रही, जिससे मेरी नकारात्मकता और पीड़ा बढ़ गई। मैं परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों के प्रति प्रतिरोध से भरी थी। अगर मैं पश्चात्ताप न करती, तो मैं वास्तव में खुद को बरबाद कर लेती। अब मुझे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों को स्वीकारना और उसके प्रति समर्पित होना था, सत्य की खोज करने और अपनी भ्रष्टता और कमियों पर आत्म-चिंतन करने और उन्हें जानने पर ध्यान केंद्रित करना, सबक सीखना और अपने जीवन प्रवेश में प्रगति करना था। इस समझ के बाद मेरा दिल और सहज हो गया।
कुछ महीनों बाद कलीसिया ने मुझे फिर से नवागंतुकों के सिंचन का कार्य सौंपा। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मुझे इस कर्तव्य को करने का एक और मौका दिया जाएगा, मुझे एक अवर्णनीय भावना महसूस हुई और मैंने अपने दिल में परमेश्वर को धन्यवाद दिया। कुछ समय बाद मुझे नवागंतुकों के सिंचन में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनमें से कुछ काम में बहुत व्यस्त थे, कुछ बीमार थे और कुछ की परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ थीं, इसलिए उन्होंने सभाओं में जाना बंद कर दिया। कुछ समय तक उनका सिंचन और समर्थन करने के बाद कोई स्पष्ट नतीजे न देखकर मैं बहुत चिंतित हो गई, “अगर मैं इन समस्याओं को जल्द ही हल न कर पाई, तो क्या मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा? आपदाएँ अधिक गंभीर होती जा रही हैं और परमेश्वर का कार्य अपने अंत के करीब है। अगर मुझे इस महत्वपूर्ण क्षण में बरखास्त कर दिया गया, तो क्या मैं अभी भी बचाई जा सकूँगी?” इन विचारों ने मुझे बहुत परेशान कर दिया। जब पर्यवेक्षक मेरे काम की जाँच करने आई, तो उसने मुझे और अधिक मेहनत करने और इन समस्याओं को जल्द से जल्द हल करने की याद दिलाई। मैं काफी निराश महसूस कर रही थी, “मैं हाल ही में प्रयास करती रही हूँ, लेकिन नतीजे में सुधार क्यों नहीं हुआ है? अगर मैं अपने कर्तव्य में अप्रभावी बनी रही, तो मुझे बरखास्त किया जा सकता है। अगर मुझे कोई दूसरा कर्तव्य सौंपा जाता है, तो मुझे शुरुआत से सीखना होगा। अगर मैं अप्रभावी ही रही और फिर से बरखास्त कर दी गई तो क्या होगा? फिर मैं पूरी तरह से बेनकाब हो जाऊँगी और हटा दी जाऊँगी!” जितना मैं इस बारे में सोचती, उतनी ही हताश हो जाती और मेरा मन भ्रमित और भारी महसूस करने लगा। जब मैंने देखा कि नवागंतुक नियमित रूप से सभाओं में शामिल नहीं हो रहे हैं, तो मुझे उनसे इसका पता लगाने का मन नहीं हुआ। मेरे दिल में कुछ शिकायतें भी थीं, “मैं हाल में इतनी मेहनत करती रही हूँ, परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन क्यों नहीं किया? चाहे मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ, कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा। इन समस्याओं को हल करना आसान नहीं है और शायद मेरे सभी प्रयासों के बाद भी मुझे बरखास्त कर ही दिया जाएगा।” उस दौरान मैं बहुत नकारात्मक थी और अपना कर्तव्य करने के लिए ऊर्जा भी नहीं जुटा पा रही थी। बाद में मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया, “जब भी कुछ होता है तो मैं हमेशा इसकी चिंता क्यों करती हूँ कि मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा?” मुझे एहसास हुआ कि मैं आशीष पाने की इच्छा से प्रेरित थी, इसलिए मैंने खाने और पीने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को खोजा।
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब किसी मसीह-विरोधी के पास परमेश्वर के घर में रुतबा और शक्ति होती है, जब वह हर मोड़ पर फायदा उठाकर लाभ ले सकता है, जब लोग उसका सम्मान और उसकी चापलूसी करते हैं और जब उसे आशीष और पुरस्कार और एक सुंदर गंतव्य सभी अपनी पहुँच में दिखते हैं, तो ऊपरी तौर पर लगता है कि वह परमेश्वर में, परमेश्वर के वचनों में और मानवजाति से उसके वादों में और परमेश्वर के घर के कार्य और संभावनाओं में आस्था से लबालब है। लेकिन जैसे ही उसकी काट-छाँट की जाती है, जब आशीष की उसकी इच्छा खतरे में पड़ जाती है, तो वह परमेश्वर के प्रति संदेह और गलतफहमी विकसित कर लेता है। पलक झपकते ही उसकी तथाकथित प्रचुर आस्था गायब हो जाती है, और फिर कहीं नहीं दिखती। वह चलने या बात करने के लिए भी मुश्किल से ही ऊर्जा जुटा पाता है, वह अपना कर्तव्य निभाने में रुचि खो देता है और वह सारा उत्साह, प्रेम और आस्था खो बैठता है। उसमें जो थोड़ी-बहुत सद्भावना थी वह उसे भी खो देता है और वह उन लोगों पर ध्यान नहीं देता जो उससे बात करते हैं। वह एक पल में ही पूरी तरह से अलग व्यक्ति बन जाता है। वह बेनकाब हो जाता है, है न? जब ऐसा व्यक्ति आशीष पाने की अपनी उम्मीदों पर टिका रहता है, तो ऐसा लगता है कि उसके पास असीम ऊर्जा है, वह परमेश्वर के प्रति वफादार है। वह सुबह जल्दी उठ सकता है और देर रात तक काम कर सकता है, और कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम है। लेकिन जब वह आशीष पाने की उम्मीद खो देता है, तो वह एक पिचके हुए गुब्बारे की तरह निराश हो जाता है। वह अपनी योजनाएँ बदलना चाहता है, दूसरा रास्ता ढूँढ़ना चाहता है और परमेश्वर में अपनी आस्था त्याग देना चाहता है। वह परमेश्वर से हतोत्साहित और निराश हो जाता है, और शिकायतों से भर जाता है। क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति की अभिव्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करता है, किसी ऐसे व्यक्ति की जिसमें मानवता और सत्यनिष्ठा है? (नहीं।) वह खतरे में है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीषों को प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। ... कोई व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि वह क्या कर्तव्य करता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसमें सत्य है, क्या वह सचमुच परमेश्वर को समर्पित होता है, क्या वह निष्ठावान है। ये बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार के दौरान, लोगों को कई परीक्षणों से गुजरना होता है। विशेष रूप से अपने कर्तव्य निर्वहन में, उन्हें अनेक असफलताएँ और आघात सहने पड़ते हैं, लेकिन अंततः, यदि वे सत्य समझते हैं और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। कार्य-संबंधी स्थानांतरण के मामले में यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधी सत्य नहीं समझते, उनमें समझने की क्षमता बिल्कुल नहीं होती” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों में फिर से कार्य सौंपे जाने या बरखास्तगी को सही तरीके से नहीं ले पाते क्योंकि वे अपने कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए करते हैं, परमेश्वर से सौदेबाजी करने का प्रयास करते हैं, वे सत्य प्राप्त करने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के लिए कर्तव्य नहीं करते। इसलिए जब कुछ गलत होता है या जब उनके कर्तव्य फिर से सौंपे जाते हैं या उन्हें बरखास्त किया जाता है, तो वे हमेशा इसे आशीष प्राप्त करने से जोड़ते हैं। जब वे देखते हैं कि उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं है, तो वे निराश, हतोत्साहित होकर शिकायतों से भर जाते हैं, वे अपने कर्तव्य करने की प्रेरणा खो देते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर में विश्वास रखने की इच्छा भी खो देते हैं। मुझमें भी मसीह-विरोधियों की ये अभिव्यक्तियाँ थीं। जब मेरे कर्तव्य सुचारू रूप से चलते थे और मुझे लगता था कि मुझे आशीष प्राप्त करने की उम्मीद है, तो मैं अपना अध्ययन छोड़ पाती थी और पीड़ा सह सकती थी और अपने कर्तव्यों के लिए कीमत चुका सकती थी। हालाँकि जब मुझे अपने कर्तव्यों में खराब नतीजे मिले और मुझे बरखास्त किए जाने का भी खतरा था, तो मुझे लगा कि आशीष प्राप्त करने की मेरी उम्मीद धराशायी हो गई है। परिणामस्वरूप मैं निराश, हतोत्साहित, नकारात्मक और सुस्त हो गई और अपने कर्तव्य पूरी तरह से एक अलग व्यक्ति की तरह करने लगी। दरअसल बरखास्त किया जाना या किसी के कर्तव्यों में समस्याएँ आना और सलाह पाना या काट-छाँट होना दोनों ही बहुत सामान्य बातें हैं। लेकिन मैं लगातार चिंतित रहती थी, “क्या मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा? अगर मुझे फिर से बरखास्त किया जाता है, तो क्या मैं पूरी तरह से बेनकाब कर हटा नहीं दी जाऊँगी? तब मेरे पास बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का ज्यादा मौका नहीं होगा।” मैंने अपने कर्तव्यों को लेन-देन में बदल दिया था, मैं अपने त्याग, खुद को खपाने और कार्य के नतीजों के बदले स्वर्ग के राज्य के आशीष पाने की कोशिश कर रही थी। यह ठीक पौलुस की तरह ही था। उसने सुसमाचार का प्रचार पूरी तरह से पुरस्कार और आशीष पाने के लिए किया, न कि सत्य प्राप्त करने के लिए; उसने तो यह भी कह दिया, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। निहितार्थ यह था कि उसने अपना कर्तव्य करने में एक बड़ी कीमत चुकाई थी और परमेश्वर को उसे पुरस्कार और आशीष प्रदान करना था, वरना वह परमेश्वर से बहस करता और उसका विरोध करता। क्या मैं पौलुस जैसे ही मार्ग पर नहीं चल रही थी? मैं आशीष प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाने को तैयार थी, लेकिन जब मुझे लगा कि मैं उन्हें प्राप्त नहीं कर सकती, तो मैं नकारात्मक होकर सुस्त हो गई, यहाँ तक कि शिकायत करने लगी कि परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन नहीं कर रहा है। क्या यह चुपचाप परमेश्वर का विरोध करना नहीं था। इस बारे में सोचकर मुझे बहुत डर लगा, मुझे महसूस हुआ कि केवल आशीष प्राप्त करने और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करने के लिए कर्तव्य करना बेहद खतरनाक है। यह परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और समर्पण में असमर्थ हो जाते हो। तुम समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपना कर्तव्य त्याग देना चाहते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, ‘मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।’ जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाओगे? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद को बाधित नहीं करने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण का उद्देश्य बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, ‘सत्य का अनुसरण एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह हो, मैं उसे अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करने दूँगा, मैं उसे परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करने दूँगा; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।’ और इसमें, क्या तुमने दैहिक विवशताएँ पार नहीं कर लीं? कुछ लोग कह सकते हैं, ‘अच्छा, अगर मैं अभी भी नकारात्मक हूँ तो क्या?’ तो इसे हल करने के लिए दोबारा सत्य की तलाश करो। तुम चाहे कितनी बार भी नकारात्मकता में पड़ो, अगर तुम उसे हल करने के लिए बस सत्य की तलाश करते रहते हो, और सत्य के लिए प्रयत्नशील रहते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर निकल आओगे। और एक दिन, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे भीतर आशीष पाने की इच्छा नहीं है और तुम अपने गंतव्य और परिणाम से बाधित नहीं हो, और तुम इन चीजों के बिना अधिक आसान और स्वतंत्र जीवन जी रहे हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। “उसने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के भाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और तुम इसे चाहे जिस दृष्टिकोण से देखो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, इन्हें स्वीकार करे, इनका सामना करे और इनके प्रति समर्पण करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। ... क्योंकि अय्यूब का हृदय शुद्ध था, और परमेश्वर से छिपा हुआ नहीं था, और उसकी मानवता ईमानदार और दयालु हृदय थी, और वह न्याय से और जो सकारात्मक था उससे प्रेम करता था। केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही जो ऐसे हृदय और मानवता से युक्त था, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर पाने में समर्थ था, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम था। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता देख सकता था, उसका अधिकार और सामर्थ्य देख सकता था, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में समर्थ था। केवल इस जैसा व्यक्ति ही परमेश्वर के नाम की सच्ची स्तुति कर सकता था। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह यह नहीं देखता था कि परमेश्वर उसे आशीष देगा या उसके ऊपर आपदा लाएगा, क्योंकि वह जानता था कि सब कुछ परमेश्वर के हाथ से नियंत्रित होता है और यह कि मनुष्य का चिंता करना मूर्खता, अज्ञानता और तर्कहीनता का संकेत है, साथ ही सभी चीज़ों पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य पर संदेह करने का संकेत है, और परमेश्वर का भय न मानने का संकेत है। अय्यूब का ज्ञान ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचन बहुत व्यावहारिक हैं और उन्होंने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। जब हालात का सामना करते हुए मुझे लगता है कि आशीष प्राप्त करने की मेरी आशा बिखर गई है, तो मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उससे आशीष प्राप्त करने का अपना इरादा छोड़ देना चाहिए और अपनी माँगें अलग रख देनी चाहिए। भले ही अंत में मुझे आशीष न मिले और मुझे बचाया न जा सके, फिर भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए और सत्य का अनुसरण करना चाहिए और समर्पण के रवैये से परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेशों का अनुभव करना चाहिए। इस तरह आशीष पाने की इच्छा अब मुझे बाधित नहीं कर पाएगी। ठीक अय्यूब की तरह, उसने परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश नहीं की और उससे कोई माँग नहीं की। जब उस पर परीक्षण आए, तो उसने अपनी सारी संपत्ति और बच्चे खो दिए और यहाँ तक कि उसका शरीर दर्दनाक फोड़ों से भर गया, लेकिन उसने परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं की। वह समझता था कि लोगों का जीवन परमेश्वर के हाथों में है और हर चरण में कोई व्यक्ति जिन परिवेशों का अनुभव करता है, वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और व्यवस्थित होता है। इसलिए अय्यूब हमेशा एक ईमानदार और विनम्र रवैये के साथ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज का सामना करने में सक्षम हो पाया। अय्यूब की तुलना में मैं काफी पीछे रह गई थी! मैं हमेशा परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश करती रहती थी, लगातार इसकी चिंता करती थी कि अगर मुझे बरखास्त कर दिया गया, तो मैं बचाई नहीं जाऊँगी या आशीष प्राप्त नहीं कर पाऊँगी। मैं हमेशा परमेश्वर से यह या वह करने की माँग कर रही थी और मैंने खुद को उसके हवाले करने में सहज महसूस नहीं किया। वास्तव में मैं किस जगह कब जाऊँगी या कौन सा कर्तव्य करूँगी और कब मैं परीक्षणों का सामना करूँगी, यह पहले से ही परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हो चुका है। लोग जिन परिवेशों का अनुभव करते हैं, वे महत्वपूर्ण नहीं होते; मायने यह रखता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं। वे बचाए जाएँगे या हटाए जाएँगे, यह उन परिवेशों के कारण नहीं है जिनका वे सामना करते हैं। अगर मैं हमेशा परमेश्वर से सौदेबाजी करने और आशीष माँगने की कोशिश करती, लेकिन अंत में मेरा स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदलता, तो भले ही मुझे बरखास्त न किया जाता, फिर भी मैं हटा दी जाती। यदि मैं सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलूँ और अगर असफलताओं और खुलासों का सामना करते समय मैं सत्य खोज पाऊँ और आत्म-चिंतन कर पाऊँ और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव ला सकूँ, तो मैं अंततः परमेश्वर द्वारा बचा ली जाऊँगी। इन बातों को समझकर मुझे लगा जैसे एक भारी बोझ उतर गया हो और मुझे शांति और सहजता का एहसास हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर मैंने हमेशा अपने कर्तव्य करते समय बरखास्त होने को लेकर चिंता की है, जिसके कारण मैं नकारात्मक दशा में आ गई हूँ और अपने कर्तव्य में निष्क्रिय हो गई हूँ। परमेश्वर, मैं गलत थी। मुझे अय्यूब का अनुकरण करना चाहिए, आशीष पाने या दुर्भाग्य के बारे में नहीं सोचना चाहिए और बस सत्य की खोज करते हुए हर हालात में परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए।”
कुछ समय बाद कुछ नवागंतुक अभी भी सभाओं में नियमित रूप से नहीं आ रहे थे। मुझे बेचैनी होने लगी और बरखास्त होने की चिंता सताने लगी, इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना की और उससे हालात के प्रति समर्पित होने के लिए मार्गदर्शन करने को कहा। चाहे मुझे बरखास्त किया जाए या नहीं, मुझे बस आत्म-चिंतन और सत्य सिद्धांतों की खोज करना चाहिए। प्रार्थना करने के बाद मैंने बहुत शांत महसूस किया। मैं सोचने लगी कि नवागंतुकों के सिंचन में इन खराब नतीजों का मुद्दा कहाँ से उत्पन्न हुआ। अन्य भाई-बहनों के साथ चर्चा के दौरान मुझे अपने भटकावों का पता चला। जब नियमित रूप से उपस्थित न होने वाले नवागंतुकों की बात आई, तो मैंने केवल उनके साथ सभाओं के महत्व पर संक्षेप में संगति की, उनसे आग्रह किया और उनकी कठिनाइयों के लिए प्रार्थना की। नतीजतन, कुछ नवागंतुकों ने एक-दो सभाओं में भाग लिया, लेकिन फिर उनकी उपस्थिति अनियमित हो गई। मुख्य मुद्दा यह था कि मैंने समस्या की जड़ और मूल को नहीं पकड़ा था। इस मुद्दे को हल करने के लिए मुझे सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य करना सीखना था। एक तरह से मुझे कलीसियाई जीवन की गुणवत्ता सुधारनी थी। जब भाई-बहन कलीसियाई जीवन के माध्यम से आनंद लेते और प्रावधान पाते, तो वे स्वाभाविक रूप से सभाओं में भाग लेना चाहते। दूसरी तरह से, मुझे विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचानना सीखना था। सत्य का अनुसरण करने वाले नवागंतुकों के संबंध में मुझे उनके सिंचन पर ध्यान केंद्रित करना था, उन्हें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर के इरादों को समझने में मदद करनी थी। यह उनके लिए विभिन्न कठिनाइयों को दूर करने, सभाओं में भाग लेने और अपने कर्तव्य सामान्य रूप से करने के लिए जरूरी था। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते थे और सभाओं में रुचि नहीं लेते थे, उनके अगर छद्म-विश्वासी होने की पुष्टि हो जाए, तो मुझे निरर्थक काम करते रहने के बजाय उन पर ध्यान देना छोड़ देना चाहिए था। ये बातें समझने के बाद मुझे अपने कर्तव्य करने के लिए एक दिशा मिली। बाद में मैंने सिंचनकर्ताओं के लिए सिद्धांतों का एक साथ अध्ययन करने की व्यवस्था की। हमने कलीसियाई जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने के तरीके पर संगति की और उन्होंने एक-दूसरे के साथ प्रभावी तरीके भी साझा किए। कुछ समय बाद कलीसियाई जीवन में सुधार हुआ। अब मुझे अभी भी कभी-कभी अपने कर्तव्यों में अच्छे नतीजे नहीं मिलते, लेकिन अब मैं इसकी चिंता नहीं करती कि मुझे बरखास्त किया जाएगा या नहीं। इसके बजाय मैं परिस्थितियों का सामना विनम्र रवैये से करती हूँ, सत्य सिद्धांत खोजती हूँ और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने का प्रयास करती हूँ। इससे मुझे अपने दिल में सुकून महसूस होता है। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद!