53. मैंने अपने कर्तव्य में जिम्मेदार होना सीखा
जुलाई 2021 में मुझे कलीसिया का अगुआ चुना गया। मैंने सोचा, “साठ वर्ष से अधिक उम्र में इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य का बीड़ा उठा पाना वास्तव में परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया जाना है।” मैंने इस कर्तव्य में अपना पूरा प्रयास लगाने का संकल्प लिया। इसके बाद मैं पूरी तरह से इस कर्तव्य में डूब गई, मैंने समूह सभाओं में भाग लिया भाई-बहनों की समस्याओं को हल किया और हर दिन खुद को व्यस्त रखा। कुछ समय बाद कलीसिया के कार्य के विभिन्न मदों में कुछ सुधार दिखने लगे और मुझे काफ़ी ख़ुशी महसूस हुई। अगले वर्ष अगस्त में मुझे प्रचारक के रूप में चुना गया और दो कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी सौंपी गई। मैंने सोचा, “मैं पहले से ही एक कलीसिया के साथ काफी व्यस्त हूँ और अब मुझ पर दूसरी कलीसिया की जिम्मेदारी भी है। क्या यह मुझे और अधिक थका नहीं देगा? क्या मेरा शरीर इस तरह कार्य करने में सक्षम होगा? इसके अलावा दूसरी कलीसिया में कार्य के अच्छे परिणाम नहीं आ रहे हैं जिससे मुझे और अधिक चिंता करनी होगी!” इन सब पर विचार करने के बाद मैंने तय किया कि मैं इस कर्तव्य को स्वीकार नहीं करना चाहती। मैंने सोचा, “इसे अस्वीकार करने के लिए क्या बहाना बना सकती हूँ? शायद मैं कह सकती हूँ कि मैं बहुत बूढ़ी हूँ और मुझमें इतनी ऊर्जा और ताकत नहीं है कि मैं एक और कलीसिया की ज़िम्मेदारी ले सकूँ, और इससे कार्य में देरी होगी फिर मैं सुझाव दे सकती हूँ कि वे किसी युवा व्यक्ति को चुनें।” लेकिन ऐसा सोचकर मुझे थोड़ा असहज महसूस हुआ। क्या मैं सिर्फ अपने कर्तव्य से बचने की कोशिश नहीं कर रही थी? जो शब्द मेरे होंठों पर थे उन्हें मैंने रोक लिया और चुप रहने का फैसला किया। इसलिए मैंने प्रचारक का कर्तव्य स्वीकार कर लिया।
इसके बाद हर दिन और हर घंटा व्यवस्थाओं से भरा होता था और कभी-कभी तो मुझे भोजन तेज़ी से खाना पड़ता और मैं काम भी जल्दबाजी में निपटाती। इस व्यस्तता में मैं सोचने लगी, “मैं पहले ही बूढ़ी हूँ क्या मेरा शरीर इस तरह काम करते रहने में सक्षम है? अगर मैं थकावट से गिर पड़ी तो क्या होगा? दोनों कलीसियाओं के पास अगुआ हैं और वे कार्यों का जायजा लेने में काफी सक्रिय हैं। उनके सहयोग से मुझे इतनी बारीकी से कार्यों का जायजा लेने की जरूरत नहीं होगी। मुझे अधिक आराम करना चाहिए। मेरी उम्र में मुझे अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। क्या हर समय इतनी चिंता करने से मैं और बूढ़ी नहीं दिखने लगूंगी?” यह सोचकर मैंने राहत की साँस ली और सोचा, “अगर मैंने यह पहले किया होता, तो मैं इतनी व्यस्त नहीं होती। शायद मुझे यह पता नहीं था कि कार्यक्रम कैसे निर्धारित किया जाए! अगर मैं चीजों को सही तरीके से व्यवस्थित करूँ तो यह कर्तव्य उतना बोझिल नहीं होगा जितना मैंने सोचा था।” इसके बाद मैंने सुसमाचार और सिंचन कार्य का जायजा लेना कम कर दिया। जब मैं सभाओं के बाद घर लौटती तो कार्य के बारे में ज्यादा नहीं सोचती थी, मैंने मान लिया था कि कलीसिया के अगुआ कार्यों का जायजा ले रहे हैं। मैं बस अनुभवजन्य गवाही वाले वीडियो देखती और भाई-बहनों के सवालों के जवाब देती, खुद पर बहुत कम दबाव महसूस करती और यह सोचती कि सेहत सुधारने के लिए स्वादिष्ट और पौष्टिक खाना कैसे बनाया जाए। एहसास भी नहीं हुआ और एक महीना बीत गया। मैं कलीसियाओं में कार्य की स्थिति देखने गई तो पाया कि उस महीने किसी भी कलीसिया में कोई नया विश्वासी नहीं आया। यह खबर सुनकर मैं चौंक गई और सोचा, “यह क्या हो रहा है? कलीसिया के अगुआ सहयोग में व्यस्त थे फिर भी सुसमाचार कार्य का कोई परिणाम क्यों नहीं आया? कलीसिया के अगुआ के रूप में मेरा कार्य पहले इतना निष्फल नहीं था!” मैं तुरंत परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आई, “परमेश्वर इस महीने सुसमाचार कार्य में दोनों कलीसियाओं में कोई परिणाम नहीं मिला और मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि समस्या कहाँ है। कृपया इसका कारण खोजने में मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं हाल ही में अपनी देह के लिए जी रही थी मैं केवल अच्छा खाने, अच्छा पीने और आराम करने के बारे में सोच रही थी, मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी का कोई भाव नहीं था। मैं कार्य की समस्याओं की समय पर जाँच और समाधान नहीं कर रही थी और कार्य में परिणाम न आने के लिए मैं सीधे तौर पर जिम्मेदार थी! इसलिए मैं तुरंत कारणों को सारांशित करने कलीसिया के अगुआओं के पास गई। मैंने पाया कि कलीसिया के अगुआओं ने कार्य को लागू तो किया था लेकिन उन्होंने कार्य सिर्फ दूसरों को सौंप दिए थे और कार्यों का न तो जायजा लिया, न इसकी निगरानी की, इसका मतलब था कि कार्य पूरी तरह से लागू नहीं हुआ था। यह विशेष रूप से सुसमाचार कार्य में स्पष्ट था जहाँ भाई-बहन कठिनाइयों में पड़े हुए थे और कलीसिया के अगुआ इन्हें वास्तविक कठिनाइयाँ मानते थे पर उन्हें हल करना नहीं जानते थे। स्थिति को समझने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कर्तव्यों में लापरवाह रही थी इसलिए मैंने देरी करने कि हिम्मत न करते हुए कलीसिया के अगुआओं को अपनी हालिया स्थिति के बारे में खुलकर बताया और तुरंत उनके साथ इस पर संगति की कि काम का जायजा कैसे लिया जाए।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हर टीम के कार्य का सक्रिय रूप से निरीक्षण करना चाहिए, हर टीम के सदस्यों की परिस्थितियों को इस संबंध में सत्यापित करना चाहिए कि क्या वहाँ कोई छद्म-विश्वासी सिर्फ गिनती पूरी करनी के लिए मौजूद है या वहाँ कोई ऐसा छद्म-विश्वासी है जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालने के लिए नकारात्मकता और धारणाएँ फैला रहा है, और पता चलने पर इन लोगों को पूरी तरह से उजागर किया जाना चाहिए और उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित किया जाना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही कार्य करना चाहिए; उन्हें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए, कार्य करने के लिए ऊपरवाले से आदेश और आग्रह प्राप्त करने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए और ना ही उन्हें सिर्फ तभी थोड़ा-सा कार्य कर देना चाहिए जब सभी भाई-बहन इसकी माँग करें। अपने कार्य में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए और उसके प्रति वफादार रहना चाहिए। उनके लिए व्यवहार करने का सबसे अच्छा तरीका सक्रिय रूप से समस्याओं को पहचानना और हल करना है। उन्हें निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए, खासकर तब जब उनके पास कार्य करने के लिए आधार के रूप में ये मौजूदा वचन और संगति है। उन्हें सत्य पर संगति करके वास्तविक समस्याओं और मुश्किलों को पूरी तरह से सुलझाने की पहल करनी चाहिए, और अपना कार्य ठीक उसी तरह से करना चाहिए जैसा उनसे अपेक्षित है। उन्हें कार्य की प्रगति पर फौरन और सक्रियता से खुद आगे बढ़कर अनुवर्ती कार्यवाही करनी चाहिए; वे अनिच्छा से क्रियाकलाप करने से पहले हमेशा ऊपरवाले से आदेशों और आग्रह की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते हैं। अगर अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा नकारात्मक और निष्क्रिय रहते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते हैं, तो वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करने के लायक नहीं हैं, और उन्हें बर्खास्त करके कोई दूसरा काम दे दिया जाना चाहिए। फिलहाल ऐसे बहुत-से अगुआ और कार्यकर्ता हैं जो अपने काम में बहुत निष्क्रिय हैं। वे थोड़ा सा भी कार्य सिर्फ तभी करते हैं जब ऊपरवाला आदेश भेजता है और उन्हें प्रेरित करता है; अन्यथा, वे सुस्त पड़ जाते हैं और टालमटोल करते हैं। ... ऊपरवाले द्वारा कार्य की व्यवस्था किए जाने के बाद वे कुछ समय के लिए व्यस्त रहते हैं, लेकिन जैसे ही वह जरा-सा कार्य पूरा हो जाता है, तो वे नहीं जानते हैं कि आगे क्या करना है, क्योंकि उन्हें समझ नहीं आता है कि उन्हें कौन से कर्तव्य करने चाहिए। जहाँ तक अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के दायरे में आने वाले कार्य की बात है, उन्हें कभी पता नहीं होता है कि कौन-से कार्य करने हैं; उनकी नजर में ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे करने की जरूरत है। जब लोगों को लगता है कि ऐसा कोई काम ही नहीं है जिसे करना जरूरी है तो इसका मतलब क्या है? (वे कोई भार वहन नहीं करते।) सटीक रूप से कहें तो वे कोई भार वहन नहीं करते; वे बेहद आलसी भी होते हैं और सुख-सुविधाओं के लालची होते हैं, यथासंभव अवकाश ले लेते हैं और किसी भी अतिरिक्त कार्य से बचने का प्रयास करते हैं। ये आलसी लोग अक्सर सोचते हैं, ‘मैं इतनी चिंता क्यों करूँ? बहुत ज्यादा चिंता करने से मेरी उम्र तेजी से बढ़ने लगेगी। ऐसा करके और इतनी भागदौड़ से और अपने आपको इतना थकाकर मुझे क्या लाभ होगा? अगर मैं जी-तोड़ मेहनत करके बीमार पड़ गया तो? मेरे पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं। और जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तो मेरी देखभाल कौन करेगा?’ ये आलसी लोग इतने निष्क्रिय और पिछड़े होते हैं। उनमें रत्ती भर भी सत्य नहीं होता और वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। जाहिर है कि वे भ्रमित लोगों का एक समूह हैं, है न? वे सब भ्रमित होते हैं; वे सत्य से बेखबर होते हैं और उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती है, तो उन्हें कैसे बचाया जा सकता है? लोग हमेशा अनुशासनहीन और आलसी क्यों होते हैं, मानो वे जिंदा लाशें हों? यह उनकी प्रकृति के मुद्दे से जुड़ा है। मानव-प्रकृति में एक प्रकार का आलस्य होता है। लोग चाहे कोई भी काम कर रहे हों, उन्हें हमेशा किसी-न-किसी निगरानी करने वाले और आग्रह करने वाले की जरूरत पड़ती है। कभी-कभी लोग देह के प्रति विचारशील होते हैं, देह-सुख के लिए ललचाते हैं और हमेशा अपने लिए बच निकलने का रास्ता छोड़कर रखते हैं—ये लोग शैतानी इरादों और धूर्त योजनाओं से भरे होते हैं; ये लोग सचमुच बिल्कुल अच्छे लोग नहीं होते। वे कभी भरसक प्रयास नहीं करते, चाहे वे कोई भी महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न कर रहे हों। यह गैर-जिम्मेदार और बेवफा होना है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26))। मैंने देखा कि परमेश्वर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से अपेक्षा करते हैं कि वे सक्रिय रूप से कार्यों का जायजा लें, सक्रिय रूप से समस्याओं को सुलझाएँ और यह सुनिश्चित करें कि कार्य की विभिन्न मदें सही तरीके से लागू हों। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मुझे पहली बार कलीसिया के अगुआ के रूप में चुना गया था। तब मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी और बोझ की भावना थी और मैंने अपने कर्तव्य को निभाने में परमेश्वर का मार्गदर्शन भी महसूस किया था। मैं कार्य में समस्याओं की पहचान कर पाती थी और उन्हें हल कर पाती थी और इससे मुझे संतुष्टि महसूस होती थी और मैं आत्मविश्वास के साथ जीती थी। जब मुझे दो कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी सौंपी गई तो मैं हर दिन व्यस्त थी और मुझे चिंता हुई कि मेरी उम्र को देखते हुए इस स्तर का परिश्रम मेरे शरीर के लिए अधिक हो सकता है इसलिए मैं यह कर्तव्य निभाने के लिए अनिच्छुक थी। मैंने देखा कि कलीसिया के अगुआ कार्य को लागू कर रहे थे तो मैंने इस स्थिति का फायदा उठाया और सोचा कि अगुआ कार्य कर रहे हैं तो मुझे कार्य पर कम ध्यान देने की जरूरत है और ऊपरी अगुआओं को यह पता नहीं चलेगा। मैं केवल खाने, पीने और अपने शरीर पर ध्यान रखने लगी और परिणामस्वरूप एक महीने बाद दोनों कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य में कोई परिणाम नहीं निकला। क्या मैंने कार्य में देरी नहीं की थी? शुरुआत में मेरी काबिलियत औसत थी और मेरे पास कोई विशेष प्रतिभा नहीं थी और मैं वास्तव में इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य के योग्य नहीं थी। परमेश्वर ने मुझे प्रशिक्षण का अवसर देकर मुझे ऊँचा उठाया था लेकिन मैंने इसकी सराहना नहीं की। मैंने अपना कर्तव्य सही तरीके से नहीं निभाया मैंने हमेशा अपने देह पर विचार किया और इसमें लिप्त रही, और अपने कर्तव्य में लापरवाह रही। मैं बस आलसी थी, और बिल्कुल वफादार नहीं थी। मैंने नूह के बारे में सोचा जो परमेश्वर का आदेश स्वीकार करते समय बहुत बूढ़ा था, फिर भी उसने अपने शरीर या कठिनाइयों की परवाह नहीं की। वह हर दिन मेहनत करता था, जहाज बनाते हुए सुसमाचार का प्रचार करता था, चाहे यह कितना भी थकाने वाला या कठिन हो वह मजबूती से खड़ा रहा। उसने परमेश्वर के आदेश को अपने दिल में रखा और जब परमेश्वर ने जहाज बनाने का निर्देश दिया तो उसमें जिम्मेदारी का भाव और दिल था और उसने वैसा ही किया जैसा परमेश्वर ने उससे कहा। अंत में उसने परमेश्वर का आदेश पूरा किया और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त की। मैंने कलीसिया के कुछ बुजुर्ग भाई-बहनों के बारे में भी सोचा, उनमें से कुछ अस्सी साल से ऊपर के हैं और फिर भी सुसमाचार का प्रचार कर रहे हैं। मैं केवल साठ के दशक में हूँ और मेरी सेहत अच्छी है। दो कलीसियाओं का कार्यक्षेत्र बड़ा नहीं है और इससे मेरी तबीयत खराब नहीं होगी या मैं थकावट से गिर नहीं जाऊँगी। लेकिन मैं अपनी क्षमता के भीतर की इन जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार नहीं थी। उनकी तुलना में मैं वास्तव में शर्मिंदा थी! मैंने यह कहते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर इस कर्तव्य को निभाने में सक्षम होना तेरा अनुग्रह और तेरे द्वारा ऊँचा उठाया जाना है, फिर भी मैं लापरवाह और धूर्त हूँ और मैंने कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाया है। मुझमें वास्तव में मानवता में कमी है! यह तू ही है जो मुझे प्रकट कर रहा है और बचा रहा है और मैं पश्चाताप करने को तैयार हूँ। अगर मैं अपने शारीरिक आराम में लिप्त रहती हूँ तो तेरी ताड़ना और अनुशासन मुझ पर पड़े!”
इसके बाद, मैंने अपने शारीरिक लिप्तता की स्थिति से संबंधित परमेश्वर के वचनों को खोजा। मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार अपने जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो। देह शैतान से संबंधित है। इसके भीतर हमेशा असंयमित इच्छाएँ होती हैं, यह केवल अपने बारे में सोचता है, यह हमेशा सुविधा की इच्छा रखता है और आराम भोगना चाहता है, सुस्ती और आलस्य में धँसा रहता है, और इसे एक निश्चित बिंदु तक संतुष्ट करने के बाद तुम अंततः इसके द्वारा खा लिए जाओगे। कहने का अर्थ है कि, यदि तुम इसे इस बार संतुष्ट करोगे, तो अगली बार यह फिर इसे संतुष्ट करने की माँग करेगा। इसकी हमेशा असंयमित इच्छाएँ और नई माँगें रहती हैं, और अपने आपको और अधिक पोषित करवाने और उसके सुख के बीच रहने के लिए तुम्हारे द्वारा अपने को दिए गए बढ़ावे का फायदा उठाता है—और यदि तुम इस पर कभी जीत नहीं हासिल करोगे, तो तुम अंततः स्वयं को बरबाद कर लोगे। तुम परमेश्वर के सामने जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, और तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपना विद्रोह कैसे कार्यान्वित करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है, और तुम्हें चुना और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार नहीं हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए तैयार नहीं हो, तुम अपनी देह के विरुद्ध एक सच्चे परमेश्वर-प्रेमी हृदय के साथ विद्रोह करने के लिए तैयार नहीं हो, तो अंततः तुम अपने आप को बरबाद कर लोगे, और इस प्रकार चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो, तो शैतान तुम्हें धीरे-धीरे निगल लेगा, और तुम्हें जीवन या पवित्रात्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता, जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते। जब तुम अंधकार में रहोगे, तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में अब परमेश्वर नहीं होगा, और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को नकार दोगे और उसे छोड़ दोगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। ... शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने देह में लिप्त रहने के नुकसान और परिणामों को समझा। जितना अधिक कोई देह में लिप्त रहता और उसकी परवाह करता है उतनी ही उसकी इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं जो अंततः व्यक्ति को विनाश की ओर ले जाती हैं। मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “जिंदगी छोटी है; जब तक उठा सकते हो आनंद उठाओ,” और “जीवन पूरी तरह अच्छा खाने और बढ़िया कपड़े पहनने के बारे में है,” जैसी शैतानी फलसफों के अनुसार जीती थी। इन्होंने मेरे विचारों और दृष्टिकोण को विकृत कर दिया जिससे मुझे लगने लगा कि जीवन बहुत थका देने वाला नहीं होना चाहिए और देह का आराम और शारीरिक सुख ही सच्चा सुख और अच्छे जीवन की बुनियाद है। अगर मुझे मौका मिलता तो मैं केवल अपनी देह की परवाह करती थी। इस तरीके से मैं परमेश्वर पर विश्वास करने से पहले जीती थी मुझे लगता था कि बिस्तर पर बैठकर फल और बीज खाते हुए टीवी देखना आनंददायक जीवन का प्रतिमान है इसलिए मैं जितना हो सके कार्य से बचती और समय मिलने पर आराम करती। कभी-कभी मैं बुजुर्ग लोगों को पेड़ों के नीचे आराम करते और पंखे झलते हुए देखती, तो मुझे उनके प्रति जलन होती और मैं सोचती कि काश मैं भी कभी ऐसा जीवन जी सकूँ। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद जब भी मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त होती तो मुझे असहज महसूस होता मुझे हमेशा कठिनाइयों और थकावट का डर रहता था और मैं ज्यादा चिंताएँ सिर लेना नहीं चाहती थी। मैं अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह थी और मेरे अंदर जिम्मेदारी का कोई भाव नहीं था। मैं वास्तव में स्वार्थी और घृणित थी, मुझमें मानवता नहीं थी और परमेश्वर के सामने जीने के योग्य नहीं थी! उस समय भले ही मैंने अच्छा खाया, अच्छा पिया और अपने शरीर का ध्यान रखा, लेकिन मैंने कलीसिया के कार्य में देरी की। यह तो बुराई करना था! मैंने देखा कि स्वार्थी और घृणित शैतानी स्वभाव के अनुसार जीना और शारीरिक सुख पर ध्यान केंद्रित करना लोगों को और आलसी बनाता है, उन्हें वास्तविक कार्य करने से बचने और अंततः नकली अगुआ और कार्यकर्ता बनने की ओर ले जाता है जिन्हें प्रकट कर निकाल दिया जाता है। इन बातों को समझने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चाताप किया, “परमेश्वर, मैंने अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा नहीं किया मैं तुम्हारी कर्जदार हूँ और भाई-बहनों से क्षमा चाहती हूँ। अब मैं देह में लिप्त रहने के नुकसान और परिणामों को समझती हूँ और मैं देह में लिप्त रहना और फिर से कलीसिया के कार्य में देरी नहीं करना चाहती।”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। मुझे बताओ, यदि जीवन भर किसी व्यक्ति के दैनिक क्रियाकलाप और विचार केवल बीमारी और मृत्यु से बचने, अपने शरीर को स्वस्थ और बीमारियों से मुक्त रखने और दीर्घायु होने की कोशिश पर केंद्रित होते हैं, तो क्या व्यक्ति के जीवन का यही मूल्य होना चाहिए? (नहीं, यह नहीं होना चाहिए।) किसी व्यक्ति के जीवन का यह मूल्य नहीं होना चाहिए। तो, व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या होना चाहिए? अभी-अभी, किसी ने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का जिक्र किया था, जो एक विशिष्ट पहलू है। क्या इसके अलावा कुछ और भी है? मुझे उन आकांक्षाओं के बारे में बताओ जो आम तौर पर प्रार्थना करते या संकल्प लेते समय तुम लोगों के मन में होती हैं। (हमारे लिए परमेश्वर की जो व्यवस्थाएँ और आयोजन हैं, उनके प्रति समर्पित होना।) (परमेश्वर ने हमें जो भूमिका सौंपी है उसे अच्छी तरह से निभाना, और अपने लक्ष्य और जिम्मेदारी को पूरा करना।) और कुछ? एक ओर, यह सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के बारे में है। दूसरी ओर, यह अपनी क्षमता और काबिलियत के दायरे में रहकर अपना सर्वश्रेष्ठ और हरसंभव योगदान देने के बारे में है; यह कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने के बारे में है जहाँ तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोषी नहीं ठहराती है, जहाँ तुम अपनी अंतरात्मा के साथ शांति से रह सकते हो और दूसरों की नजरों में स्वीकार्य साबित हो सकते हो। इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, अपने पूरे जीवन में, चाहे तुम किसी भी परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारी शैक्षिक पृष्ठभूमि या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम्हें उन सिद्धांतों की थोड़ी समझ होनी चाहिए जिन्हें लोगों को जीवन में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, लोगों को किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, उन्हें कैसे रहना चाहिए, और एक सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए—तुम्हें कम से कम जीवन के असली मूल्य का थोड़ा पता लगाना चाहिए। यह जीवन व्यर्थ नहीं जिया जा सकता, और कोई इस पृथ्वी पर व्यर्थ में नहीं आ सकता। दूसरे संदर्भ में, अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं करेंगे; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए। ... जब कोई व्यक्ति इस संसार में आता है, तो यह केवल देह के आनंद के लिए नहीं होता, न ही यह केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए होता है। व्यक्ति को उन चीजों के लिए नहीं जीना चाहिए; यह मानव जीवन का मूल्य नहीं है, न ही यह सही मार्ग है। मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है और इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने की समझ रखने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम अपनी सारी ऊर्जा लगाने, सभी कीमतें चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करोगे। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम, आजादी और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीना। इसका अर्थ है कि अपने दिल में तुम कुछ प्राप्त कर चुके होगे और सुकून महसूस करोगे। उन लोगों का क्या जो अच्छा खाना खाते हैं और जिनके चेहरे पर मृत्यु तक गुलाबी चमक बनी रहती है? वे सार्थक जीवन नहीं जीते हैं, तो मरने पर उन्हें कैसा महसूस होता है? (मानो उनका जीवन व्यर्थ रहा।) ये तीन शब्द चुभने वाले हैं—जीवन व्यर्थ रहना” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि केवल सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करके ही कोई व्यक्ति मूल्यवान और सार्थक जीवन जी सकता है। यह सबसे सही चुनाव है। मैंने अपना ध्यान तो अच्छे से रखा लेकिन अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से नहीं निभाया। क्या इस तरह मैं अपना जीवन व्यर्थ नहीं गवाँ रही थी? जब वह दिन आएगा जब मुझे अपनी मृत्यु का सामना करना पड़ेगा तो मेरे पास केवल पछतावा और अफसोस बचेगा। जैसे सांसारिक लोग, जो भले ही अधिक शारीरिक सुख का आनंद लेते हैं और आराम से रहते हैं, जीवन के मूल्य और अर्थ को नहीं समझते और बिना दिशा या उद्देश्य के जीते हैं। मैंने जीवन में सही मार्ग पाया था और जान गई थी कि कैसे जीना है और अब मैं अपनी देह के लिए इस तरह जीना नहीं चाहती थी। मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहती थी, एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीना चाहती थी और अपना जीवन व्यर्थ नहीं गवाँना चाहती थी। वास्तव में अगुआ और प्रचारक के कर्तव्यों में प्रशिक्षण लेकर और कार्य को लागू करने के लिए भाई-बहनों के साथ अधिक बार संगति करके मैंने उन सत्यों को स्पष्ट रूप से समझा जो मैं पहले नहीं समझ पाई थी। हालाँकि इसमें कुछ शारीरिक थकावट और कठिनाई थी लेकिन सचमुच ऐसा नहीं लगा कि मैं बहुत कष्ट सह रही हूँ और अपने कर्तव्य में अपना सब कुछ झोंक देने से मुझे संतोष और आत्मविश्वास महसूस हुआ। वास्तविक सहयोग और परमेश्वर पर निर्भर रहने के द्वारा कई कठिनाइयों का समाधान भी हो गया और मुझे पता भी नहीं चला और अपने कर्तव्य के प्रदर्शन से परिणाम मिलते देखकर मेरे दिल में खुशी आई। केवल अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करके और वास्तविक कार्य करके ही मेरा दिल खुशी से भर सकता है और सच्ची स्थिरता और शांति का अनुभव कर सकता है। इन बातों को समझने के बाद मेरे दिल में उजाला और स्थिरता महसूस हुई।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उसकी पहली प्राथमिकता यह समझना और पकड़ना है कि कार्य कैसे चल रहा है। चीजों की खोज-खबर लेने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों के भरोसे नहीं रहना चाहिए या दूसरे लोगों की रिपोर्टों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहिए कि कार्मिकों की स्थिति क्या है और काम कैसे आगे बढ़ रहा है और समझना चाहिए कि कठिनाइयाँ क्या हैं, कोई क्षेत्र ऊपरवाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं है, कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कहीं कोई बाधा या गड़बड़ी तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या पेशेवर कामों से जुड़े कार्य में निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें या सुनी-सुनाई बातों से वे कितना भी कुछ छान लें, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे पर जाने की बराबरी नहीं करता; चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है। एक बार वे स्थिति के सभी पक्षों से परिचित हो जाएँ, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि क्या चल रहा है। उन्हें खासतौर पर इस बात की स्पष्ट और सटीक समझ होनी चाहिए कि कौन अच्छी क्षमता का है और विकसित किए जाने योग्य है, क्योंकि इसी से वे लोगों को सटीक ढंग से विकसित कर उनका उपयोग कर पाते हैं जो इस बात के लिए अहम है कि अगुआ और कार्मिक अपना काम ठीक से करें। अगुआओं और कर्मियों के पास अच्छी काबिलियत वाले लोगों को विकसित और प्रशिक्षित करने का मार्ग और सिद्धांत होने चाहिए। इतना ही नहीं, उन्हें कलीसिया के कार्य में मौजूद विभिन्न प्रकार की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की अच्छी पकड़ और गहरी समझ होनी चाहिए और उन्हें पता होना चाहिए कि मुश्किलों को कैसे दूर किया जाए, उनके पास अपने विचार और सुझाव भी होने चाहिए कि काम को कैसे आगे बढ़ाना है और इसकी भविष्य की क्या संभावनाएँ हैं। अगर वे बहुत आसानी से, बिना किसी संदेह या आशंका के ऐसी चीजों के बारे में स्पष्टता से बोलने में सक्षम हों तो यह काम करना बहुत आसान हो जाएगा। और इस प्रकार कार्य करके अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा होगा, है ना? उन्हें कार्य की उपरोक्त समस्याओं का समाधान करने के तरीकों से भली-भाँति परिचित होना चाहिए और उन्हें अक्सर इन बातों के बारे में सोचते रहना चाहिए। कठिनाइयाँ आने पर उन्हें सबके साथ इन बातों पर संगति और चर्चा करनी चाहिए और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस प्रकार दोनों पाँव दृढ़ता से जमीन पर रखे हुए वास्तविक कार्य करने से ऐसी कोई कठिनाई नहीं होगी जिसका समाधान न किया जा सके” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि एक सच्चा अच्छा अगुआ परमेश्वर के घर के कार्य को पूरी कर्तव्यनिष्ठता और जिम्मेदारी के साथ संभालता है देह में लिप्त नहीं होता, परमेश्वर के घर के हितों को सभी चीज़ों में प्राथमिकता देता है और कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करता है। जब भी किसी कार्य में कठिनाइयाँ आती हैं तो वह भाई-बहनों के साथ सत्य को खोजकर उन्हें हल करता है। एक अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में अच्छा कार्य करने के लिए उन्हें पूरी तरह से मैदान में उतरना चाहिए कार्य की जाँच और जायजा लेना चाहिए और समस्याओं को फौरन खोजना और समाधान करना चाहिए सिर्फ आदेश जारी करना या रिपोर्ट सुनना पर्याप्त नहीं है। इस तरह का दृष्टिकोण अच्छे परिणाम नहीं ला सकता। मैंने सोचा कि कैसे मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया मैं देह में लिप्त रही और केवल औपचारिकता निभाई मैंने न तो विवरणों की जाँच की और न ही समस्याओं को हल किया भले ही मुझे उनकी पहचान हो गई हो। मैंने एक अगुआ और कार्यकर्ता की जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया था और मैं सिर्फ एक झूठी अगुआ थी जो रुतबे के फायदे उठाती रही और इस कारण परमेश्वर मुझसे घृणा और घिन करता था। इसके बाद मैंने मैदान में उतरकर काम शुरू किया, समस्याओं की जांच और उन्हें हल करने, संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की कठिनाइयों का विस्तार से विश्लेषण करने और उनके समाधान पर संगति करने में समय देने लगी। कुछ समय के सहयोग के बाद कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों में कुछ सुधार हुआ।
बाद में, मुख्य रूप से सुसमाचार कार्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए मैंने कई और कलीसियाओं की जिम्मेदारी ली, और मैं लगभग हर दिन सुबह से देर रात तक व्यस्त रहती। कभी-कभी मैं सोचती, “मैं अब काफी बूढ़ी हूँ और मेरा रक्तचाप थोड़ा बढ़ा हुआ है क्या मेरा शरीर इस तरह चलते रहने में सक्षम होगा?” जब मैंने देखा कि सुसमाचार के उपयाजक और समूह अगुआ सहयोग कर रहे थे तो मुझमें विवरणों का जायजा लेने की इच्छा नहीं रही ताकि मैं अपनी देह को इतनी थकावट से बचा सकूँ। इस समय मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “अपने कर्तव्य और जो तुम्हें करना है, और उससे भी बढ़कर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और तुम्हारे दायित्व, साथ ही वह महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे कर्तव्य से बाहर है, मगर उसे पूरा करने में तुम्हारी जरूरत है, ऐसे कार्य जिसकी व्यवस्था तुम्हारे लिए हुई है और जिसे करने के लिए तुम्हें नामित किया गया है—यह कितना भी कठिन क्यों न हो, तुम्हें इसकी कीमत चुकानी चाहिए। भले ही तुम्हें अपनी पूरी शक्ति से इसमें जुट जाना हो, भले ही उत्पीड़न सामने मंडरा रहा हो, और भले ही इससे तुम्हारा जीवन जोखिम में पड़ जाए, तुम्हें यह कीमत चुकाने में संकोच न करते हुए अपनी मृत्यु तक अपनी वफादारी दिखाकर समर्पण करना है। वास्तविकता में, अपनी वास्तविक खपत और अपने वास्तविक अभ्यास में सत्य का अनुसरण इस प्रकार अभिव्यक्त होता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर मैं फिर से देह में लिप्त होने को ललचा रही हूँ और मुझे पता है कि अगर मैं इस तरह से अपना कर्तव्य निभाती हूँ तो यह कार्य में देरी करेगा। मैं अपनी देह पर ध्यान नहीं देना चाहती, और तेरी अपेक्षाओं और मानकों की ओर बढ़ने के लिए और अपना सारा प्रयास करने के लिए तैयार हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कर!” तो, मैं शामिल हो गई और भाई-बहनों के साथ मिलकर सुसमाचार कार्य में समस्याओं पर विस्तार से संगति और चर्चा की। सभी के एक मन और दिल से सहयोग करने से सुसमाचार कार्य के परिणाम पिछले महीने की तुलना में स्पष्ट रूप से बढ़े। जब मैंने अपनी देह के हितों की परवाह छोड़ दी और अपने कर्तव्य में दिल लगाया तो मुझे उतनी थकावट महसूस नहीं हुई बल्कि मेरे दिल में संतोष और आनंद था। परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए उसका धन्यवाद!