43. परमेश्वर के वचनों के आधार पर मैंने दूसरों का भेद पहचानना सीखा
2017 में मैं कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी। एक सभा के दौरान मैंने सुना कि चेन शिया को बर्खास्त कर दिया गया था और उसे मसीह-विरोधी मानकर उसके निष्कासन के लिए सामग्री तैयार की जा रही थी। यह समाचार सुनकर मेरे मन में उथल-पुथल हो गई और मैं शांत नहीं हो पाई—मैं बस इसे स्वीकार नहीं कर पाई। मैं चेन शिया से तब मिली थी जब हम दोनों ने प्रभु को पाया था और परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद हमने साथ मिलकर अपने कर्तव्य किए थे। चेन शिया उस समय बहुत उत्साही थी। उसका पति उसकी आस्था के रास्ते में आ गया था और उसने इस पर बहुत आँसू बहाए थे। आखिरकार उसने अपने पति को तलाक दे दिया। तलाक के बाद उसने पूरी जिम्मेदारी की भावना के साथ अपने कर्तव्य करना जारी रखा। मेरे लिए यह खासकर ध्यान देने वाली बात थी कि चेन शिया को परमेश्वर के वचन पढ़ना कितना पसंद था और जब मैंने उसका सहयोग किया तो वह परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए सर्दियों के दिनों में तड़के ही उठ जाती थी। वह परमेश्वर के वचनों से महत्वपूर्ण अंश एक नोटबुक में लिख लेती थी और जब भी समय मिलता था, उन्हें पढ़ने लगती थी। वह अक्सर मुझसे कहती थी, “हमें परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ने और उनमें प्रयास करने की जरूरत है, वरना हम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाएँगे।” मैंने मन ही मन सोचा, “उसे परमेश्वर के वचन पढ़ना इतना पसंद है, इसलिए वह जरूर सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान होगी।” और मैं अपने दिल में उसका बहुत सम्मान करती थी, सोचती थी कि न सिर्फ वह त्याग करने और अपने कर्तव्य करने में सक्षम है, बल्कि वह परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए भी बहुत प्रयास करने में सक्षम है और इस संबंध में उसकी तुलना मुझसे नहीं की जा सकती और मुझे उससे सीखने की जरूरत है। उसके बाद जब भी मुझे मुश्किलों का सामना करना पड़ता या कुछ समझ नहीं आता था तो मैं उससे संगति लेना और उसका नजरिया और सलाह सुनना पसंद करती थी। बाद में जब चेन शिया को किसी और जगह पर कर्तव्य करने के लिए नियुक्त कर दिया गया तो मुझे वाकई नुकसान का एहसास हुआ, मैंने सोचा कि पिछले साल ही वह लोगों को निकालने के लिए सामग्री व्यवस्थित कर रही थी। तब से अब तक कुछ ही समय बीता था और अब उसे निष्कासित किया जा रहा था? क्या कोई गलती हुई होगी? लेकिन फिर मैंने सोचा कि कलीसिया में लोगों को बाहर निकालने के कैसे सिद्धांत हैं और वे बिना किसी कारण उसके निष्कासन के लिए सामग्री तैयार नहीं करेंगे। मेरा दिल बार-बार भटक रहा था और मैं सभा पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी। अगुआ ने मुझे चेन शिया का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा और मैं अपने वास्तविक विचार व्यक्त किए बिना अनमने ढंग से मान गई।
जब मैं घर पहुँची और चेन शिया के बारे में सोचने लगी तो मैं बेचैन हो गई। मैंने सोचा, “चेन शिया इतनी समर्पित है और उसने अपने कर्तव्य करने के लिए अपना परिवार और करियर तक त्याग दिया है। उसने परमेश्वर के वचनों में इतनी मेहनत की है, लेकिन अब उसे निष्कासित किया जा रहा है। मैंने उसके जितने कष्ट नहीं झेले हैं या खुद को उतना नहीं खपाया है, न ही मैंने अपने कर्तव्यों में उतना काम किया है और मैंने निश्चित रूप से परमेश्वर के वचनों में उतनी मेहनत नहीं की है। क्या इसका मतलब यह है कि मैं भी हटाई जा सकती हूँ और यहाँ तक कि निष्कासित भी की जा सकती हूँ?” इन विचारों ने मेरे कर्तव्यों में मेरी प्रेरणा कम कर दी। जब मैंने बहनों को काम पर चर्चा करते देखा तो मैं भाग नहीं लेना चाहती थी। मुझे लगा कि बहुत ज्यादा प्रयास करना या कीमत चुकाना व्यर्थ है क्योंकि अंत में कौन जानता है कि मेरा क्या परिणाम होगा? इस तरह उस अवधि के दौरान मैंने अपने कर्तव्यों में जिम्मेदारी की भावना गँवा दी।
बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था गलत थी, इसलिए मैंने प्रार्थना की और इसके बारे में परमेश्वर से पूछा। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोगों के बीच कई सोच, विचार और स्थितियाँ होती हैं जो अक्सर उनकी कुछेक राय, परिप्रेक्ष्यों और दृष्टिकोणों को प्रभावित करती हैं। यदि तुम सत्य की खोज के माध्यम से इन सोच, विचारों और स्थितियों को एक-एक करके हल कर सकते हो, तो वे परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध को प्रभावित नहीं करेंगी। अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा हो सकता है, तुम्हारी सत्य की समझ भी सतही हो सकती है, और क्योंकि तुमने केवल कुछ समय के लिए ही परमेश्वर में विश्वास किया है या कई अन्य कारणों से तुम बहुत से सत्य नहीं समझते हो—लेकिन तुम्हें एक सिद्धांत ठीक से समझ लेना चाहिए : मुझे परमेश्वर की हर बात के लिए समर्पण करना चाहिए, बाहर से चाहे वह अच्छी दिखे या बुरी, सही हो या गलत, मानवीय धारणाओं के अनुरूप हो या विपरीत। यह सही है या गलत इसकी आलोचना, मूल्यांकन, विश्लेषण या अध्ययन करने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। मुझे जो करना चाहिए वह यह कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करूँ और फिर उन सत्यों का अभ्यास करूँ जिन्हें मैं समझ सकता हूँ, ताकि परमेश्वर को संतुष्ट कर सकूँ और सच्चे मार्ग से विचलित न होऊँ” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे जानें)। “वास्तविक जीवन में तुम्हें पहले यह सोचना होगा कि कौन-से सत्य तुम्हारे सामने पेश आए लोगों, घटनाओं और चीज़ों से संबंध रखते हैं; इन्हीं सत्यों में तुम परमेश्वर के इरादे तलाश सकते हो और अपने सामने पेश आने वाली चीज़ों को उसके इरादों के साथ जोड़ सकते हो। यदि तुम नहीं जानते कि सत्य के कौन-से पहलू तुम्हारे सामने पेश आई चीज़ों से संबंध रखते हैं, और सीधे परमेश्वर के इरादे खोजने चल देते हो, तो यह एक ऐसा अंधा दृष्टिकोण है जिससे नतीजे नहीं मिलेंगे। यदि तुम सत्य खोजना और परमेश्वर के इरादे समझना चाहते हो, तो पहले तुम्हें यह देखने की आवश्यकता है कि तुम्हारे साथ किस प्रकार की चीज़ें घटित हुई हैं, वे सत्य के किन पहलुओ से संबंध रखती हैं, और परमेश्वर के वचन में उस विशिष्ट सत्य को देखो, जो तुम्हारे अनुभव से संबंध रखता है। तब तुम उस सत्य में अभ्यास का वह मार्ग खोजो, जो तुम्हारे लिए सही है; इस तरह से तुम परमेश्वर के इरादों की अप्रत्यक्ष समझ प्राप्त कर सकते हो” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जब ऐसी चीजों से सामना हो जो मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों तो मुझे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना चाहिए और पहले समर्पण करना चाहिए और परमेश्वर के खिलाफ शिकायत नहीं करनी चाहिए और मुझे यह देखना चाहिए कि यह मामला सत्य सिद्धांतों के किस पहलू से संबंधित है और परमेश्वर के इरादे समझने के लिए उसमें से सत्य की तलाश करनी चाहिए। मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। जब मैंने चेन शिया को निष्कासित किए जाने के बारे में सुना तो मैंने सत्य की बिल्कुल भी तलाश नहीं की थी। मैंने सोचा कि चूँकि उसने अपने कर्तव्य करने के लिए अपना परिवार और करियर त्याग दिया था और परमेश्वर के वचनों में इतना प्रयास किया था और यहाँ तक कि एक अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा की थी तो वह एक ऐसी व्यक्ति थी जो सत्य का अनुसरण करती थी और इसलिए मुझे लगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है और मैंने परमेश्वर के प्रति शिकायतें और गलतफहमियाँ पाल लीं और अपने कर्तव्यों में दिलचस्पी गँवा दी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय बिल्कुल नहीं है और जब ऐसे मामलों से सामना हुआ जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थे तो मैं प्रतिरोधी हो गई और शिकायत की और सत्य की तलाश बिल्कुल नहीं की। मेरी स्थिति बहुत खतरनाक थी! बाद में मैंने सुना कि लोगों को बाहर निकालने के लिए सामग्री व्यवस्थित करने के काम करते समय वह अक्सर भाई-बहनों को छोटे-मोटे एहसानों की रिश्वत देती थी ताकि वह रुतबे के लिए टीम अगुआ के खिलाफ प्रतिस्पर्धा कर सके और उसने भाई-बहनों के मन में टीम अगुआ के बारे में नकारात्मक नजरिया पैदा करने के लिए कलह भी फैलाई। वह अक्सर सबके सामने कहती थी कि टीम अगुआ में जीवन प्रवेश की कमी है, वह लोगों का भेद नहीं पहचानती है और उसके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, ऐसी बातें वह टीम अगुआ को नीचा दिखाने के लिए कहती थी। वह अक्सर भाई-बहनों की आलोचना करने के लिए उनके भ्रष्टता के खुलासे को बढ़ा-चढ़ाकर बताती थी जिससे हरेक का अपने कर्तव्यों के प्रति उत्साह कम हो जाता था। अगुआओं और भाई-बहनों ने मदद करने के लिए कई बार उसके साथ संगति की, लेकिन वह खुद को बिल्कुल नहीं जानती थी और अपनी हरकतों का बचाव करने पर जोर देती थी। उसके व्यवहार के बारे में सुनने के बाद मुझे एहसास हुआ कि चेन शिया में कुछ समस्याएँ थीं और मुझे उसका उस समय का व्यवहार याद आया जब मैं उसकी सहयोगी थी। 2012 में कलीसिया के चुनावों के दौरान चेन शिया और सिस्टर वांग हुई दोनों को अगुआ चुना गया था। हालाँकि वांग हुई की काबिलियत थोड़ी कम थी, लेकिन उसे अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास था और वह कुछ मुद्दे सुलझा पाती थी। मगर चेन शिया हमेशा दूसरी बहन को निर्वाचित करवाना चाहती थी क्योंकि वह बहन उसकी ज्यादा सुनती थी। अपना मकसद पाने के लिए चेन शिया ने वांग हुई की कमियों का फायदा उठाया और उन्हें बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया, भाई-बहनों के सामने वांग हुई को यह कहकर नीचा दिखाया कि उसकी कम काबिलियत के कारण वह अगुआ बनने के लिए लायक नहीं थी। यहाँ तक कि उसने वांग हुई को उसके सामने ही काबिलियत की कमी के कारण इस्तीफा देने के लिए कह दिया। जब चेन शिया ने देखा कि वांग हुई ने इस्तीफा नहीं दिया है तो उसने भाई-बहनों के सामने परेशानी खड़ी करनी शुरू कर दी, कहा कि वांग हुई को अपने पद से बहुत ज्यादा लगाव है और वह काबिलियत न होने के बावजूद छोड़ना नहीं चाहती। कुछ भाई-बहन चेन शिया से गुमराह हो गए और उसके साथ मिल गए, दावा करने लगे कि वांग हुई अगुआई के लिए अयोग्य है और फिर से चुनाव की माँग करने लगे। इससे कलीसिया में अराजकता फैल गई और वांग हुई नकारात्मक अवस्था में चली गई। इसके अलावा 2013 में चेन शिया के अगुआ होने के समय में एक भाई ने देखा कि अगुआ अपने कर्तव्य निर्वहन में सिद्धांतों के खिलाफ काम करते हैं और उसने एक सुझाव दिया, लेकिन जब चेन शिया को इसका पता चला तो उसने अपनी साझेदार से कहा कि उन्हें उस पर नजर रखनी चाहिए और उसकी हर बात रिकॉर्ड करनी चाहिए क्योंकि बाद में उसे बाहर निकालने के लिए सामग्री व्यवस्थित करते समय यह सबूत के तौर पर काम आएगी। चेन शिया ने अगुआओं की आलोचना करने और कलीसिया के काम में बाधा डालने के लिए इस भाई की निंदा भी की। यह सुनने के बाद भाई-बहन अगुआओं को सुझाव देने से डर गए क्योंकि उन्हें डर था कि उनकी निंदा की जा सकती है और उन्हें निष्कासित किया जा सकता है। बाद में चेन शिया को इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह प्रसिद्धि और लाभ के लिए होड़ करती थी और अपने सहकर्मियों से सलाह लिए बिना काम करती थी, अक्सर अपने सहकर्मियों के सुझाव खारिज कर देती थी और अपना हुक्म चलाती थी, जिससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा था।
चेन शिया के कई व्यवहारों की तुलना करते हुए मैं परमेश्वर के वचनों में खोजती रही। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करने वालों को निकाल कर उन पर आक्रमण कैसे करते हैं? वे अक्सर उन तरीकों का उपयोग करते हैं, जो दूसरों को उचित और उपयुक्त लगते हैं, यहाँ तक कि अन्य लोगों पर आक्रमण करने, उनकी निंदा करने और उन्हें गुमराह करने में लाभ उठाने के लिए वे सत्य पर बहस का उपयोग भी करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर एक मसीह-विरोधी सोचता है कि उसके साथी सत्य का अनुसरण करते हैं और वे उसकी स्थिति को खतरे में डाल सकते हैं, तो मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करने और उनसे अपना आदर करवाने के लिए उत्कृष्ट उपदेश देता है और आध्यात्मिक सिद्धांतों पर बात करता है। इस तरह वे अपने साथियों और सहकर्मियों का महत्व घटाकर उन्हें दबा सकते हैं, और लोगों को यह महसूस करा सकते हैं कि हालाँकि उनके अगुआ के साथी सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, लेकिन वे क्षमता और काबिलियत के मामले में उनके अगुआ के बराबर नहीं हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, ‘हमारे अगुआ के उपदेश होते उत्कृष्ट हैं, कोई उनसे तुलना नहीं कर सकता।’ किसी मसीह-विरोधी के लिए इस प्रकार की टिप्पणी सुनना अत्यंत संतोषजनक होता है। मन ही मन सोचते हैं, ‘तुम मेरे साथी हो, क्या तुम्हें कुछ सच्चाई नहीं मालूम? तुम मेरी तरह वाक्पटुता और ऊँचेपन से क्यों नहीं बोल सकते? अब तुम पूरी तरह से अपमानित हो चुके हो। तुममें काबिलियत की कमी है, फिर भी मुझसे लड़ने की हिम्मत करते हो!’ मसीह-विरोधी यही सोच रहा होता है। मसीह-विरोधी का लक्ष्य क्या होता है? वह दूसरों को दबाने, उन्हें नीचा दिखाने और खुद को उनसे ऊपर रखने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। ... कलीसिया में जिन लोगों से एक मसीह-विरोधी सबसे अधिक नफरत करता है, वे लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, विशेष रूप से वे लोग जो न्याय की भावना रखते हैं और जो झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी को उजागर करने और उसकी रिपोर्ट करने की हिम्मत करते हैं। एक मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को अपनी आँख की किरकिरी और रास्ते के काँटे के रूप में देखता है। अगर वह किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो सत्य का अनुसरण करता है और जो स्वेच्छा से अपना कर्तव्य निभा रहा है, तो उसके दिल में द्वेष और शत्रुता की भावना पैदा हो जाती है और उसमें जरा सा भी प्रेम नहीं होता। एक मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की सहायता या समर्थन कतई नहीं करेगा, चाहे उनकी कठिनाइयाँ कितनी भी हों या वे कितने भी कमजोर और नकारात्मक क्यों न हों—वह बस इसे नजरअंदाज कर देगा। इसके बजाय वह मन ही मन इससे खुश होगा। और अगर किसी ने कभी उस पर आरोप लगाया हो या उसे उजागर किया हो, तो ऐसा इंसान जब भी किसी मुश्किल में होगा तो वह उसे और अधिक परेशानी में डालने के लिए इस अवसर का फायदा उठाएगा, उसे सबक सिखाने, उसकी निंदा करने, उसके लिए सभी रास्ते बंद करने के लिए और आखिरकार उसे इतना नकारात्मक बनाने के लिए हर तरह का आरोप लगाएगा कि वह अपना कर्तव्य ही न निभा सके। तब मसीह-विरोधी को खुद पर गर्व होता है और वह उस व्यक्ति के दुर्भाग्य पर खुश होता है। मसीह-विरोधी इसी तरह के कामों में माहिर होते हैं; सत्य का अनुसरण करने वालों को निकालना, उन पर आक्रमण करना और उनकी निंदा करना ही उनकी सबसे बड़ी विशेषज्ञता होती है। ... संक्षेप में, मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों के आधार पर, हम यह तय कर सकते हैं कि वे अगुआई का कर्तव्य नहीं निभा रहे, क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने और सत्य के बारे में संगति करने में लोगों की अगुआई नहीं कर रहे, और लोगों की सिंचाई नहीं कर रहे या पोषण नहीं दे रहे हैं। इसके बजाय, वे कलीसियाई जीवन को बाधित और अव्यवस्थित करते हैं, कलीसिया के काम को ध्वस्त और नष्ट करते हैं, और लोगों को सत्य के अनुसरण और उद्धार पाने के मार्ग पर चलने से रोकते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पथभ्रष्ट करना चाहते हैं, जिससे वे उद्धार पाने का अवसर गँवा दें। यह अत्यंत पापपूर्ण लक्ष्य है, जिसे मसीह-विरोधी कलीसिया के कार्य को बाधित और अव्यवस्थित करके हासिल करना चाहते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद तीन : सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी कलीसिया में राज करना चाहते हैं, धर्म-सिद्धांतों और वचनों का इस्तेमाल करके भेद नहीं पहचान पाने वाले लोगों को गुमराह करते हैं और वे सत्य का अनुसरण करने वालों पर हमला करने और उन्हें बहिष्कृत करने में किसी भी हद तक जा सकते हैं। वे उन लोगों से भी नफरत करते हैं जो उन्हें सुझाव देते हैं। वे इन लोगों को बाधाओं के रूप में देखते हैं, उनकी कमियों और भ्रष्टता के खुलासे का फायदा उठाते हैं और इन बातों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, जानबूझकर उन्हें कमतर आँकते हैं और उनकी आलोचना करते हैं और उन्हें गलत तरीके से वर्गीकृत करते हैं। इससे ऐसे भाई-बहन हाशिए पर चले जाते हैं और दब जाते हैं और आखिरकार इतने नकारात्मक हो जाते हैं कि वे अपने कर्तव्य भी नहीं कर पाते। इसमें मसीह-विरोधियों के मकसद पूरे हो जाते हैं, जिससे वे कलीसिया में अपनी इच्छानुसार सत्ता का इस्तेमाल कर पाते हैं। चेन शिया ठीक ऐसा ही व्यवहार कर रही थी। वह कलीसिया में राज करना चाहती थी, जानबूझकर वांग हुई की कमियों का फायदा उठाकर उसे नीचा दिखाती, उसकी आलोचना करती और उस पर हमला करती थी ताकि वह शर्मिंदा होकर इस्तीफा दे दे, ऐसा करने के अपने प्रयासों में वह भाई-बहनों को वांग हुई के खिलाफ अपने पक्ष में करने के लिए गुमराह करती थी। जब चेन शिया कलीसिया अगुआ के रूप में काम करती थी, अगर कोई भी उसके पद को प्रभावित करने वाले सुझाव देता था तो वह उन्हें सताने के तरीके खोजती थी, उन्हें बाहर निकालने के अपने प्रयासों में अनुचित आरोपों का तमगा लगाती थी। टीम अगुआ की जगह लेने के लिए नए कर्तव्य में लगाए जाने बाद वह अक्सर टीम अगुआ की भ्रष्टता के खुलासे का फायदा उठाकर उसे नीचा दिखाती थी, उसकी आलोचना करती थी और उस पर हमला करती थी, टीम अगुआ को अलग-थलग करने के लिए लोगों को गुमराह करके अपनी ओर मिलाती थी। इससे काम बुरी तरह से बाधित हो जाता था। रुतबे के लिए चेन शिया की निर्मम महत्वाकांक्षा को देखते हुए मैंने पाया कि उसकी कथनी और करनी वाकई कितनी कपटी, चतुर और द्वेषपूर्ण थी। अगुआओं ने उसके कार्य-कलापों के सार और उनसे मिले नतीजों का गहन-विश्लेषण किया, फिर भी उसने इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया और बस बहस करती रही और खुद को सही ठहराती रही। यह सिर्फ एक व्यक्तिगत विवाद नहीं था; बल्कि इसमें वह बुराई कर रही थी और परमेश्वर की प्रतिरोधी थी और अंत तक परमेश्वर का विरोध करती रही! मुझे एहसास हुआ कि चेन शिया की समस्याएँ गंभीर थीं और वह एक मसीह-विरोधी थी जिसने कलीसिया के काम में बाधा डाली थी। इसका एहसास होने पर मैं बहुत व्यथित हो गई। मैंने देखा कि मैं कितनी मूर्ख और अंधी थी और मैं कितनी भ्रमित थी और भेद नहीं पहचानती थी, मैं असल में इस मसीह-विरोधी का पक्ष ले रही थी और मेरी नकारात्मकता और गलतफहमी की अवस्था से मेरे कर्तव्यों में देरी हुई थी। मैंने पश्चात्ताप के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की और चेन शिया के कुकर्मों की सूचना कलीसिया को दे दी। अंत में सिद्धांतों के आधार पर सभी ने तय किया कि चेन शिया एक मसीह-विरोधी थी और उसे कलीसिया से निष्कासित कर दिया।
बाद में मैंने अक्सर इस मामले पर आत्म-चिंतन किया, हैरानी जताई, “मैंने इतने सालों तक चेन शिया के साथ बातचीत की है तो मैं कैसे उसका जरा भी भेद नहीं पहचान पाई? मैंने तो यह भी सोचा कि वह एक ऐसी व्यक्ति थी जो सत्य का अनुसरण करती थी और मैं उसका बहुत सम्मान और आराधना करती थी।” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिनसे मुझे इसके पीछे का कारण पता चला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग कठिनायाँ सह सकते हैं; वे कीमत चुका सकते हैं; उनका बाहरी आचरण बहुत अच्छा होता है, वे बहुत आदरणीय होते हैं; और लोग उनकी सराहना करते हैं। क्या तुम लोग इस प्रकार के बाहरी आचरण को, सत्य को अभ्यास में लाना कह सकते हो? क्या तुम लोग कह सकते हो कि ऐसे लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हैं? लोग बार-बार ऐसे व्यक्तियों को देखकर ऐसा क्यों समझ लेते हैं कि वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने के मार्ग पर चल रहे हैं, और वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्यों कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं? इसका केवल एक ही स्पष्टीकरण है। और वह स्पष्टीकरण क्या है? स्पष्टीकरण यह है कि बहुत से लोगों को, ऐसे प्रश्न—जैसे कि सत्य को अभ्यास में लाना क्या है, परमेश्वर को संतुष्ट करना क्या है, और यथार्थ में सत्य वास्तविकता से युक्त होना क्या है—ये बहुत स्पष्ट नहीं हैं। अतः कुछ लोग अक्सर ऐसे लोगों से गुमराह हो जाते हैं जो बाहर से आध्यात्मिक, कुलीन, ऊँचे और महान प्रतीत होते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो वाक्पटुता से शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, और जिनकी कथनी-करनी सराहनीय लगती है, तो जो लोग उनके हाथों धोखा खा चुके हैं उन्होंने उनके कार्यकलापों के सार को, उनके कर्मों के पीछे के सिद्धांतों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं, इसे कभी नहीं देखा है। उन्होंने यह कभी नहीं देखा कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं या नहीं, वे लोग सचमुच परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं या नहीं। उन्होंने इन लोगों के मानवता सार को कभी नहीं पहचाना। बल्कि, उनसे परिचित होने के साथ ही, थोड़ा-थोड़ा करके वे उन लोगों की तारीफ करने, और आदर करने लगते हैं, और अंत में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मन में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, मानते हैं कि वे अपने परिवार एवं नौकरियाँ छोड़ सकते हैं, और सतही तौर पर कीमत चुका सकते हैं—ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और एक अच्छा परिणाम और एक अच्छी मंजिल प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें मन में लगता है कि परमेश्वर इन आदर्श लोगों की प्रशंसा करता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। “मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों में लगाए गए प्रयास और सत्य का अनुसरण करने वालों के प्रयास में क्या अंतर है? (इरादा और उद्देश्य अलग हैं। मसीह-विरोधी अपने निजी लाभ और रुतबे के लिए, अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाएँ पूरी करने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करते हैं।) मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में कौन-से प्रयास लगाते हैं? वे अपनी धारणाओं से मेल खाने वाले परमेश्वर के वचनों के हिस्से रटते हैं, मानवीय भाषा का इस्तेमाल कर परमेश्वर के वचनों को समझाना सीखते हैं और कुछ आध्यात्मिक नोट्स और अंतर्दृष्टियों को लिख लेते हैं। वे परमेश्वर के विभिन्न कथनों को छानते भी हैं, इनका निचोड़ तैयार करते हैं और इन्हें व्यवस्थित करते हैं, जैसे वे कथन जिन्हें लोग अपेक्षाकृत मानवीय धारणाओं के अनुरूप मानते हैं, जिनमें परमेश्वर के कहने का लहजा आसानी से दिखता है, रहस्य संबंधी कुछ वचन और परमेश्वर के कुछ ऐसे लोकप्रिय वचन जिनका कुछ समय से कलीसिया में अक्सर उपदेश दिया जाता है। अंतर्दृष्टियों को रटने, व्यवस्थित करने, इनका निचोड़ तैयार करने और इन्हें लिखने के अलावा भी बेशक कई और अजीब-सी हरकतें भी होती हैं। मसीह-विरोधी अपना रुतबा पाने, अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने और कलीसिया को नियंत्रित करने और परमेश्वर बनने का अपना लक्ष्य पूरा के लिए हर कीमत चुकाएँगे। वे अक्सर देर रात तक काम करते हैं और पौ फटते ही जाग जाते हैं, वे रतजगा करते हैं और सवेरे-सवेरे अपने उपदेशों का पूर्वाभ्यास करते हैं, वे दूसरों की कही शानदार बातों को नोट भी करते हैं, ताकि खुद को उस सिद्धांत से लैस कर सकें जिसके बारे में उन्हें भारी-भरकम उपदेश देने हैं। वे हर दिन यही सोचते हैं कि भारी-भरकम उपदेश किस तरह देने हैं, परमेश्वर के कौन-से वचनों का चयन सबसे उपयोगी रहेगा, किन वचनों से परमेश्वर के चुने हुए लोगों से सराहना और प्रशंसा मिलेगी, और फिर वे उन वचनों को रट लेते हैं। फिर वे यह विचार करते हैं कि उन वचनों की व्याख्या इस तरह कैसे की जाए कि उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमानी झलके। परमेश्वर के वचनों को वास्तव में अपने हृदय पर अंकित करने के लिए वे उन्हें कई गुना ज्यादा सुनने का प्रयास करते हैं। यह सब करने के लिए वे वैसे ही प्रयास करते हैं, जैसे प्रयास छात्र कॉलेज में उच्च स्थान प्राप्त करने की होड़ में करते हैं। जब कोई अच्छा उपदेश देता है या कुछ रोशनी प्रदान करने वाला या कुछ सिद्धांत प्रदान करने वाला उपदेश देता है, तो मसीह-विरोधी उसे याद और संकलित कर लेगा और उसे अपने उपदेश में शामिल कर लेगा। मसीह-विरोधी के लिए कोई भी प्रयास बहुत बड़ा नहीं होता। तो उनकी इस कोशिश के पीछे क्या मंसूबा और इरादा होता है? वह है—परमेश्वर के वचनों का उपदेश देने, इन्हें सहज और स्पष्ट रूप से कहने और उन पर धाराप्रवाह पकड़ रखने में सक्षम होना, ताकि दूसरे लोग देख सकें कि मसीह-विरोधी उनसे अधिक आध्यात्मिक है, परमेश्वर के वचनों को अधिक सँजोने वाला है, परमेश्वर से अधिक प्रेम करने वाला है। इस तरह से मसीह-विरोधी अपने आस-पास के कुछ लोगों से सराहना बटोर कर अपनी आराधना करवा सकता है। मसीह-विरोधी को लगता है कि यह करने योग्य चीज है और किसी भी प्रयास, कीमत या कठिनाई के लायक है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैंने चेन शिया को बहुत महत्व दिया था और सोचा था कि वह सत्य का अनुसरण करती है क्योंकि मेरा दृष्टिकोण गलत था। मैंने उन लोगों को देखा जिन्होंने खुद को त्यागा, खपाया और कड़ी मेहनत की थी और जिन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़ने में बहुत मेहनत की थी, ऐसे लोगों के रूप में जिनके पास वास्तविकताएँ थीं और जिन्होंने सचमुच सत्य का अनुसरण किया था। अब मुझे समझ आया कि सिर्फ अपने कर्तव्यों का पालन करना, त्यागना, खुद को खपाना, कष्ट सहना और कीमत चुकाना सिर्फ अच्छे व्यवहार हैं और इनका मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति वाकई सत्य का अनुसरण या अभ्यास करता है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचन पढ़ने में बहुत मेहनत करने का मतलब जरूरी तौर पर यह नहीं है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को सँजोता है या सत्य से प्रेम करता है। इसका मूल्यांकन किसी व्यक्ति के कार्य-कलापों में उसके इरादों के आधार पर किया जाना चाहिए कि क्या वह परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करता है और क्या उसका जीवन स्वभाव बदल गया है। परमेश्वर को पाने के बाद चेन शिया ने कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाए और मुश्किलें झेल पाई, लेकिन उसका त्याग और खपाना परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने की खातिर नहीं था, बल्कि उसने दूसरों से प्रशंसा और आराधना पाने के लिए प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा किया। कड़ाके की ठंड में चेन शिया परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए तड़के ही उठ जाती थी, कभी-कभी परमेश्वर के वचन पढ़ने, लिखने और याद करने के लिए देर रात तक जागती थी। उसने परमेश्वर के वचनों में बहुत मेहनत की थी लेकिन उसकी अंतर्निहित प्रेरणा अभी भी अपने पद के लिए थी। उसने परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल प्रतिष्ठा और रुतबा पाने के लिए एक औजार की तरह किया था, भाई-बहनों से प्रशंसा और आराधना पाने के लिए परमेश्वर के वचन साझा करने के अवसरों का इस्तेमाल किया था। उसने परमेश्वर के बहुत से वचन पढ़े, लेकिन उसने उनका अभ्यास करने या अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने का कोई संकेत नहीं दिखाया। इसके बजाय उसने हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा किया, अक्सर दूसरों को उपदेश देने और बेबस करने के लिए निरंकुश रवैया अपनाया। जब दूसरे लोग उसकी समस्याओं की ओर इशारा करते थे तो वह उनकी बातें नहीं स्वीकारती थी और उन्हें दबाने और सताने की कोशिश करती थी। यह स्पष्ट था कि उसने सत्य का अभ्यास करने के लिए परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े थे, वरना वह अपने स्वभाव में किसी भी बदलाव के बिना परमेश्वर के इतने सारे वचन कैसे पढ़ सकती थी? इसके बजाय वह ज्यादा घमंडी हो गई और प्रतिष्ठा और रुतबे की उसकी खोज और अधिक तीव्र हो गई। इसने चेन शिया के सत्य के प्रति विमुख होने और तिरस्कार करने के सार का पूरी तरह से खुलासा कर दिया। जो लोग वाकई सत्य से प्रेम करते हैं वे परमेश्वर के वचन सँजोते हैं और उनका अभ्यास करते हैं। ठीक पतरस की तरह जो अक्सर परमेश्वर के वचनों पर विचार करता था और उन्हें अपने वास्तविक जीवन में एकीकृत करता था और वह अपने सामने आने वाली चीजों में परमेश्वर के वचनों के अनुसार सख्ती से अभ्यास करने और प्रवेश करने में सक्षम था और आखिरकार उसका जीवन स्वभाव बदल गया। इससे मैंने देखा कि यह आकलन करने के लिए कि कोई सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है या नहीं, हम सिर्फ उसके बाहरी त्याग और खपाने को नहीं देख सकते, उसने परमेश्वर के कितने वचन पढ़े हैं या वह दूसरों के साथ संगति कर पाता है या नहीं और हमें खासकर इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वह अपने सामने आने वाली परिस्थितियों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर सकता है या नहीं, सत्य की खोज करने, आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने पर ध्यान देता है या नहीं और क्या उसके पास कोई जीवन प्रवेश है। मैंने सिर्फ चेन शिया में खुद को त्यागने, खपाने और परमेश्वर के वचन पढ़ने में मेहनत करने की स्पष्ट क्षमता देखी थी और इसीलिए मैं उसकी आराधना करती थी, यहाँ तक कि अपने दिल में उसे आदर्श माना था। जब मैंने कलीसिया से उसके निष्कासन के बारे में सुना तो मैं उसके लिए बोलना चाहती थी। मैंने पाया कि मैं सत्य नहीं समझती थी और परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों का आकलन करने में नाकाम रही थी। मैं कितनी मूर्ख थी!
मैंने खुद से यह भी पूछा, “ऐसा क्यों था कि चेन शिया को निष्कासित करने की बात सुनकर मैं इतनी नकारात्मक और कमजोर हो गई थी और यहाँ तक कि अपना कर्तव्य निर्वहन भी बंद करना चाहती थी?” बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “एक बार जब लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ वे सिद्धांत और कसौटियाँ बन जाती हैं जिनके द्वारा वे लोगों और चीजों को देखते हैं, आचरण और कार्य करते हैं, तो चाहे वे परमेश्वर में कैसे भी विश्वास क्यों न रखें या कैसे भी अनुसरण क्यों न करें और चाहे वे कितना भी कष्ट क्यों न सहें या कितनी भी कीमत क्यों न चुकाएँ, यह सब कुछ निष्फल ही होगा। अगर कोई व्यक्ति अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीता है, तो वह परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहा होता है और उसके प्रति वैर-भाव रखता है; उसमें परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेशों या उसकी अपेक्षाओं के प्रति सच्चा समर्पण नहीं होता है। फिर अंत में उसका परिणाम बहुत दुखद होगा। अगर तुमने बहुत सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और उसके लिए खुद को खपाया है, हर तरफ दौड़-धूप की है और एक बड़ी कीमत चुकाई है, लेकिन तुम्हारे हर कार्य का प्रारंभिक बिंदु और स्रोत तुम्हारी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, तो तुम परमेश्वर को सही मायने में स्वीकार नहीं करते हो और उसके प्रति समर्पण नहीं करते हो। ... यह ठीक वैसा ही है जैसा पौलुस ने अभिव्यक्त किया था : उसने बहुत सारा कार्य किया और बहुत दौड़-धूप की, यूरोप के एक बड़े हिस्से में सुसमाचार प्रचार किया, लेकिन चाहे उसने कितना भी कष्ट क्यों न सहा हो और कितनी भी कीमत क्यों न चुकाई हो या उसने कितनी भी दौड़-धूप क्यों न की हो, उसके पास कभी भी ऐसे विचार और दृष्टिकोण नहीं थे जो सत्य के अनुरूप हों, उसने कभी भी सत्य स्वीकार नहीं किया और उसके पास कभी भी परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया और वास्तविक अनुभव नहीं था—वह हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीता था। उसकी विशिष्ट धारणा और कल्पना क्या थी? वह यह थी कि जब वह वह अपनी दौड़ पूरी कर लेगा और अच्छी लड़ाई लड़ लेगा, तो धार्मिकता का एक मुकुट उसका इंतजार कर रहा होगा—यही पौलुस की धारणा और कल्पना थी। उसकी धारणा और कल्पना का विशिष्ट सैद्धांतिक आधार क्या था? वह यह था कि परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर तय करेगा कि उसने कितनी दौड़-धूप की है, कितनी कीमत चुकाई है और कितना कष्ट सहा है। सिर्फ ऐसी धारणा और कल्पना के सैद्धांतिक आधार पर ही पौलुस अनजाने में मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़ा। नतीजन, जब वह रास्ते के अंत तक पहुँच गया, तो उसे अपने व्यवहार और परमेश्वर का प्रतिरोध करने की अभिव्यक्तियों या परमेश्वर का प्रतिरोध करने के अपने सार के बारे में बिल्कुल कोई समझ नहीं थी, फिर पश्चात्ताप होना तो दूर की बात है। वह परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अब भी अपनी मूल धारणा और कल्पना में जकड़ा हुआ था और न सिर्फ उसके पास परमेश्वर के प्रति रत्ती भर भी सच्चा समर्पण नहीं था, बल्कि वह यह मानता था कि बदले में वह परमेश्वर से एक अच्छा परिणाम और गंतव्य प्राप्त करने का और भी ज्यादा हकदार है। ‘बदले में’ इस बात को कहने का एक सुखद, सभ्य तरीका है, लेकिन दरअसल यह कोई विनिमय या लेन-देन भी नहीं था—वह परमेश्वर से सीधे इन चीजों के लिए बोल रहा था, परमेश्वर से सीधे इनकी माँग कर रहा था। उसने परमेश्वर से इनकी माँग कैसे की? जैसे कि उसने कहा, ‘मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ—महिमा का मुकुट अब मेरा है। मैं इसी का हकदार हूँ और परमेश्वर को न्यायपूर्वक इसे मुझे दे देना चाहिए।’ पौलुस ने जो मार्ग अपनाया वह परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध का मार्ग था, जो उसके विनाश का कारण बना और अंतिम परिणाम के रूप में उसे सजा दी गई। इसे परमेश्वर के बारे में उसकी धारणा और कल्पना से अलग करना असंभव था” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। जब मैंने सुना कि कलीसिया ने चेन शिया को निष्कासित कर दिया है, क्योंकि मेरा दृष्टिकोण भ्रामक था। मैंने सोचा कि जो लोग खुद को खपाते हैं और बहुत त्याग और कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें परमेश्वर से अच्छा परिणाम और मंजिल मिलती है। इसलिए जब मैंने देखा कि भले ही चेन शिया ने त्याग किए और कष्ट सहे और कई साल तक अपने कर्तव्य निभाने के बाद भी उसे आखिरकार कलीसिया द्वारा निष्कासित कर दिया गया तो मैं समझ नहीं पाई। मैंने यह भी सोचा कि मैंने उसके जितने त्याग नहीं किए हैं और न ही मैंने उसके जितने कर्तव्य किए हैं, इसलिए मुझे लगा कि देर-सवेर मुझे भी हटा दिया जाएगा और मैं इतना नकारात्मक हो गई कि मैं अब कीमत चुकाना या खुद को खपाना नहीं चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं में जी रही थी। परमेश्वर किसी व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण इस आधार पर नहीं करता कि उसने कितने समय तक विश्वास किया है, वह कितना सिद्धांत प्रचार कर सकता है, उसने कितना काम किया है, उसने कितना कष्ट सहा है या उसने परमेश्वर के कितने वचन याद किए हैं, बल्कि इस बात पर करता है कि क्या वह सत्य का अनुसरण करता है, क्या उसका भ्रष्ट स्वभाव बदल गया है और क्या उसके कर्तव्यों और कष्टों में उसका इरादा परमेश्वर को संतुष्ट करना है। अगर कोई परमेश्वर के वचनों का जरा भी अभ्यास नहीं करता है और सिर्फ परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए अपने कर्तव्य निभाता है तो भले ही ऐसा व्यक्ति त्याग कर पाए, खुद को खपा सके और कड़ी मेहनत कर सके, अंत में अगर उसका जीवन स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदलता है और वह खुले तौर पर परमेश्वर का प्रतिरोध करता है तो वह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर देगा। ठीक पौलुस की तरह, उसने बड़ी कीमत चुकाई और खुद को खूब खपाया, लेकिन उसने ऐसा सत्य पाने या अपना स्वभाव बदलने के लिए नहीं किया, बल्कि आशीष और मुकुट पाने के लिए किया। इसलिए कई वर्षों के काम के बाद भी उसकी घमंडी, दंभी और लाभ की लालसा रखने वाली प्रकृति जरा भी नहीं बदली और अंत में उसने परमेश्वर से धार्मिकता वाले मुकुट की माँग के लिए अपनी कड़ी मेहनत का इस्तेमाल भी किया, खुले तौर पर उसके खिलाफ बोलने लगा। इसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और पौलुस को सजा दी गई। मैं भी कष्ट सहने और खुद को खपाने के बदले अच्छा गंतव्य चाहती थी और जब मैंने देखा कि मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है तो मैं अपने कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी। क्या अनुसरण के बारे में मेरे विचार पौलुस जैसे नहीं थे? सृजित प्राणियों के लिए अपने कर्तव्य करना पूरी तरह से उचित और स्वाभाविक है। मैं सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य ईमानदारी से करने के लिए अपनी स्थिति में नहीं खड़ी नहीं हुई। इसके बजाय मैं अपने कर्तव्यों में कष्ट सहने और खुद को खपाने का इस्तेमाल अच्छा परिणाम और गंतव्य पाने के लिए करना चाहती थी और जब मुझे लगा कि मैं यह चीजें नहीं पा सकती तो मैंने सोचा कि परमेश्वर अधर्मी है। इस तरह मैं परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी और उसके स्वभाव को नाराज कर रही थी। यह समस्या प्रकृति में बहुत गंभीर थी। अगर मैंने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला तो मैं भी परमेश्वर द्वारा निकाल दी जाऊँगी! यह समझकर मुझे बहुत पछतावा और अपराध बोध हुआ और मैं परमेश्वर से पश्चात्ताप करना चाहती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढ़ने चाहिए या वह नहीं ढूँढ़ना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या निकाला जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करती थी। आसान शब्दों में कहूँ तो मैं व्यक्तिगत लाभ और अच्छी मंजिल के पीछे भाग रही थी और अंत में मुझे कोई सत्य न मिलता और मेरा स्वभाव नहीं बदलता, इसलिए तब भी मुझे परमेश्वर द्वारा निकाल दिया जाता। अब मैं देखती हूँ कि मैं पहले जिस मार्ग पर चल रही थी वह गलत था और परमेश्वर पर विश्वास करने का सही मार्ग परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करना, सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाना, अपने कर्तव्यों में सत्य का अनुसरण करना और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागना है। यह मूल्यवान और सार्थक है। यह ठीक वैसा ही है जैसा पतरस ने अपनाया था। उसने सभी चीजों में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित किया और उसने परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारी, अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ हासिल की और अंत में उसने परमेश्वर से प्रेम करने की वास्तविकता को जिया। इस पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने का लक्ष्य यह नहीं होना चाहिए कि किसी को आखिरकार आशीष मिलता है या नहीं और सत्य समझना और अपने कर्तव्यों में भ्रष्टता दूर करना सबसे सार्थक और सही मार्ग है। इस अनुभव ने मुझे एहसास दिलाया है कि लोगों और मामलों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर देखना बेहद महत्वपूर्ण है!