85. अपनी गवाही लिखने से मुझे क्या मिला

जोआन, दक्षिण कोरिया

हाल ही में मैंने कई भाई-बहनों को परमेश्वर की गवाही देने के लिए अनुभवजन्य लेख लिखते देखा, तो मैं भी लिखने का अभ्यास करना चाहती थी। मैं वर्षों से विश्वासी रही हूँ, परमेश्वर के वचनों के पोषण का बहुत आनंद उठाया है और मेरे पास कुछ अनुभव भी हैं। मैं अपनी भक्ति का कुछ समय लेख लिखने में लगाना चाहती थी, पर जब लिखना शुरू करती तो मुझे पता नहीं होता था कि आगे क्या लिखूँ। मैंने सोचा कि मैं कई बार बर्खास्तगी और विफलताओं से गुजरी हूँ, गलतियां की हैं, और कई बार मेरी काट-छाँट हुई है। एक हद तक मुझे कुछ अनुभव हुए थे। मगर जैसे ही मैं लिखने वाली होती, मेरा दिमाग खाली क्यों हो जाता था? इस तरह एक-दो महीने बीते, आखिर में कभी कोई लेख नहीं लिख पाई। मुझे लगा जैसे यह बहुत कठिन है तो मैं खुद को अनुकूल बनाना चाहती थी। अगुआ भी जानती थी कि मुझमें काबिलियत और विचारों की कमी है। मुझे खुद पर सख्ती नहीं करनी चाहिए। मुझे रोज कई चीजों से निपटना होता था और मैं खुद को परमेश्वर के वचनों पर मनन करने में नहीं लगा पाती थी। जबकि अच्छी काबिलियत और अनुभव वाले दूसरे भाई-बहन लिख सकते थे। उनके लिए लेख लिखना ठीक था—मुझे लिखने की जरूरत नहीं थी। इसलिए मैंने लेख लिखने का विचार पूरी तरह त्याग दिया। कभी-कभी भाई-बहन याद दिलाते कि मैं अपने खाली समय में लिख सकती हूँ, पर मैं नाराज हो जाती और उनके संदेशों का जवाब भी नहीं देना चाहती थी। कुछ समय बाद मेरी भक्ति नियमित रूप से नहीं हो पा रही थी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े पर मेरे पास पवित्र आत्मा का प्रबोधन नहीं था, और मैं परमेश्वर को महसूस नहीं कर सकी। काम में बहुत सी समस्याएं थीं जिन्हें मैं समझ या हल नहीं कर सकी, वो एक के बाद एक सामने आती गईं। मैं बहुत दबाव और पीड़ा में थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मुझे प्रबुद्ध कर रास्ता दिखाने को कहा, ताकि अपनी समस्याएं समझ सकूँ।

एक दिन अपनी भक्ति में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “सत्य का अनुसरण स्वैच्छिक होता है। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य करेगा। यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, यदि तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर निर्भर होते हो, तुम पर चाहे जो भी अत्याचार या क्लेश आन पड़े तुम आत्मचिंतन कर स्वयं को जानने का प्रयास करते हो और यदि तुम पता चली समस्याओं का समाधान करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य खोजते हो और मानव-स्तर के तरीके से अपना कर्तव्य करने में समर्थ हो, तो तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहने में सक्षम रहोगे। यदि लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो ये अभिव्यक्तियाँ उनमें सहज ही दिखती हैं। वे स्वतः, खुशी से, बिना किसी दबाव और बिना किसी अतिरिक्त शर्त के घटित होती हैं। अगर लोग परमेश्वर का इस तरह अनुसरण कर सकें, तो अंततः वे सत्य और जीवन प्राप्त कर पाएंगे और वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करेंगे, और मनुष्य की छवि जिएंगे। ... अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे द्वारा दिए गए किसी भी औचित्य या बहाने में दम नहीं होगा। तुम चाहे जैसे तर्क करने का प्रयास करो, खुद के लिए जैसी मर्जी हो वैसी मुसीबत खड़ी करो—क्या परमेश्वर परवाह करेगा? क्या परमेश्वर तुमसे बात करेगा? क्या वह तुमसे बहस और बातचीत करेगा? क्या वह तुमसे परामर्श लेगा? जवाब क्या है? नहीं। वह बिल्कुल नहीं करेगा। तुम्हारा तर्क चाहे जितना भी मजबूत हो, वह टिक नहीं पाएगा। तुम्हें परमेश्वर के इरादों को गलत नहीं समझना चाहिए और ये नहीं सोचना चाहिए कि अगर तुम तमाम कारण दो और बहाने बनाओ तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं। परमेश्वर चाहता है कि तुम हर तरह के परिवेश में और खुद पर पड़ने वाले हर मामले में सत्य खोजने में सक्षम बनो, और अंततः सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त करो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चाहे जिन परिस्थितियों की व्यवस्था की हो, चाहे जिन लोगों और घटनाओं से तुम्हारा सामना हो और चाहे जिस परिवेश में तुम खुद को पाओ, तुम्हें उनका सामना करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए। ये ही वे सबक हैं, जो तुम्हें सत्य का अनुसरण करने में सीखने चाहिए। यदि तुम हमेशा इन परिस्थितियों से निकल भागने के लिए बहाने खोजोगे, इनसे बचोगे, नकारोगे, विरोध करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें त्याग देगा। तर्क करने, हठी या टेढ़ा होने का कोई अर्थ नहीं है—अगर परमेश्वर तुमसे सरोकार नहीं रखता, तो तुम उद्धार का अवसर खो दोगे। परमेश्वर के लिए, ऐसी कोई समस्या नहीं जिसे हल नहीं किया जा सकता; उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यवस्था की है, और उसके पास उन्हें सँभालने का तरीका है। परमेश्वर तुमसे इस बात की चर्चा नहीं करेगा कि तुम्हारे कारणों और बहानों का औचित्य है या नहीं। परमेश्वर यह नहीं सुनेगा कि अपने बचाव में तुम जो तर्क दे रहे हो, वह विवेकपूर्ण है या नहीं। वह तुमसे केवल यही पूछेगा, ‘क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं? क्या तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है? क्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए?’ तुम्हें बस एक ही तथ्य के बारे में स्पष्ट होने की आवश्यकता है : परमेश्वर सत्य है, तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें खुद ही सत्य तलाशने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। कोई भी समस्या या कठिनाई, कोई भी कारण या बहाना नहीं चलेगा—अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम नष्ट हो जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे तुरंत जगा दिया। सत्य का अनुसरण एक निजी, स्वैच्छिक मामला है। मुझे लेख न लिखने या सत्य का अनुसरण न करने के पीछे कोई कारण या कोई बहाना नहीं तलाशना चाहिए। परमेश्वर को इसकी परवाह नहीं करता कि कारण कितने सही हैं। परमेश्वर चाहता है कि हम हर हाल में उसके वचन सुनें और उसकी अपेक्षाओं के मुताबिक चलें, फिर चाहे कुछ भी घटित हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे यही करना चाहिए। परमेश्वर ने यह भी कहा : “मुझ पर तुम्हारे विश्वास का कर्तव्य है मेरी गवाही देना, मेरे प्रति वफादार होना, और किसी और के प्रति नहीं, और अंत तक समर्पित बने रहना(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर की गवाही देना ही वह चीज है जो उसे चाहिए, और ये हमारा कर्तव्य है। सत्य के बारे में मेरी समझ चाहे गहरी हो या उथली, मुझे परमेश्वर की गवाही देने के लिए लिखना चाहिए कि मैंने अपनी आस्था से क्या पाया। लेकिन मैंने सत्य की खोज या परमेश्वर के वचनों पर मनन करने का प्रयास नहीं किया। लेख न लिखने और विरोध करने के सौ बहाने मेरे पास थे। मैं कहती रहती कि मुझमें काबिलियत नहीं है, समय नहीं है क्योंकि मैं काम में बहुत व्यस्त हूँ। मुझे लगा कि लेख न लिखना सामान्य बात है। कभी-कभी जब दूसरे मुझसे कहते कि मुझे लेख लिखना चाहिए, तो मैं नाराज होकर बहाने बनाती। मैं उनके संदेशों का जवाब भी नहीं देना चाहती थी। मगर अब शांत मन से इस बारे में सोचा, तो लगा भले ही मुझे अगुआ के बतौर अपने काम के हर पहलू पर ध्यान देना था, पर सभी समस्याएं तुरंत ही हल नहीं करनी थी—मैं कई चीजों के लिए वक्त निकाल सकती थी। फिर, रोजमर्रा के काम पूरा करने में भी इतना समय नहीं लगता था। मैं इतनी व्यस्त भी नहीं थी कि मेरे पास लेख लिखने का समय न हो। वो तो बस मैंने बहाने ढूंढ लिए थे। मुझे लगा कि रोजमर्रा के काम करना सहज और आसान था, उनमें ज्यादा मानसिक प्रयास नहीं करने होते थे, पर लिखना मेरा मजबूत पक्ष नहीं था, तो मैं इससे बचना चाहती थी। मैंने यह तर्क भी दिया कि अगुआ को पता था कि मेरे पास काबिलियत और विचारों की कमी है। मैं असल में चीजों को खराब करने और भ्रांतियां फैलाने में माहिर थी। वास्तव में, गवाही लेख लिखना हमें सत्य के अनुसरण का प्रयास करने को प्रेरित कर सकता है। परमेश्वर के वचनों पर विचार और सत्य की खोज करके हम अपनी भ्रष्टता को दूर कर सकते हैं, सिद्धांतों के साथ कार्य करके अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं। परमेश्वर के गवाही लेख लिखना हमारा कर्तव्य है और ऐसा न करने का कोई बहाना नहीं हो सकता। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर सत्य है, तुम एक भ्रष्ट मनुष्य हो, इसलिए तुम्हें खुद ही सत्य तलाशने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। कोई भी समस्या या कठिनाई, कोई भी कारण या बहाना नहीं चलेगा—अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो तुम नष्ट हो जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। तब मुझे एहसास हुआ कि बहानों में फँसना, सत्य की तलाश न करना या उसे स्वीकार न करना मुझे पूरी तरह नष्ट कर देगा, और मेरा अंतिम परिणाम विनाश होगा। कितनी भयावह स्थिति होगी! तो मैं प्रार्थना करने के लिए दौड़ी : “परमेश्वर! मुझे अभी महसूस हुआ कि मैं वो इंसान नहीं जो सत्य स्वीकारे। मैंने आपके बहुत से वचन पढ़े हैं, इतने सारे उपदेश सुने हैं, पर मेरे पास कोई सत्य सत्य वास्तविकता नहीं है और मैं गवाही लेख लिखने का अभ्यास करने को तैयार नहीं हूँ। यह वाकई शर्मनाक है। अब मैंने अपनी कमियां, खामियां देख ली हैं। मैं ये गलत स्थिति बदलना चाहती हूँ और तुम्हारे कहे अनुसार चलना चाहती हूँ।”

फिर मैंने सत्य खोजते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की : सत्य का अनुसरण न करने का वास्तविक कारण क्या था और अपनी गवाही क्यों नहीं लिखना चाहती थी? आत्मचिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर पर अपने विश्वास में, बहुत-से लोग सिर्फ परमेश्वर के लिए काम करने पर ध्यान देते हैं, वे सिर्फ कष्ट उठाने और कीमत चुकाने से ही संतुष्ट हो जाते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते। नतीजतन दस, बीस, तीस साल तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके पास परमेश्वर के कार्य का सच्चा ज्ञान नहीं होता, और वे सत्य या परमेश्वर के वचनों के को लेकर किसी भी तरह के अनुभव या ज्ञान के बारे में नहीं बोल पाते। सभाओं के दौरान, जब वे अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में थोड़ी बात करने की कोशिश करते हैं, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; उन्हें बचाया जाएगा या नहीं, इसका उन्हें बिल्कुल भी पता नहीं होता। यहाँ क्या समस्या है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे ऐसे ही होते हैं। चाहे वे कितने भी वर्षों से विश्वासी रहे हों, वे सत्य समझने में असमर्थ होते हैं, उसका अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते। जो सत्य को बिल्कुल-भी स्वीकार ही नहीं करता, वह भला सत्य वास्तविकता में प्रवेश कैसे कर सकता है? कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस समस्या की असलियत नहीं देख पाते। वे मानते हैं कि अगर वचन और धर्म-सिद्धांत रटने वाले लोग सत्य का अभ्यास करते हैं, तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। क्या यह सही है? जो लोग स्वाभाविक रूप से वचन और धर्म-सिद्धांत रटते हैं, वे सत्य नहीं समझते हैं—तो भला वे उसका अभ्यास कैसे कर सकते हैं? वे जिनका अभ्यास करते हैं, वे सत्य का उल्लंघन करते प्रतीत नहीं होते, और अच्छे कर्म, अच्छे व्यवहार लगते हैं, पर उन अच्छे कर्मों और अच्छे व्यवहारों को सत्य वास्तविकता कैसे कहा जा सकता है? जो लोग सत्य नहीं समझते, वे नहीं जानते कि सत्य वास्तविकता क्या है; वे लोगों के अच्छे कर्मों और अच्छे व्यवहारों को ही सत्य का अभ्यास मानते हैं। यह बेतुका है, है न? यह धार्मिक लोगों के विचारों और दृष्टिकोणो से किस प्रकार भिन्न है? और विकृत समझ की ऐसी समस्याओं का समाधान कैसे किया जा सकता है? लोगों को पहले परमेश्वर के वचनों से उसके इरादे समझने चाहिए, उन्हें जानना चाहिए कि सत्य समझना क्या है, और सत्य का अभ्यास क्या है, ताकि वे दूसरों को देखकर उन्हें पहचान पाएँ कि वे वास्तव में क्या हैं, और यह बता पाएँ कि उनमें सत्य वास्तविकता है या नहीं। परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के उद्धार का उद्देश्य है लोगों को सत्य समझाकर उनसे उसका अभ्यास करवाना; तभी लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ पाएँगे, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होंगे, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेंगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, और सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के लिए खपने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने से संतुष्ट हो, तो क्या तुम जो कुछ भी करते हो, वह तुम्हारे सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण को दर्शाएगा? क्या वह साबित करेगा कि तुमने अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव किए हैं? क्या वह दर्शाएगा कि तुम्हारे पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है? नहीं। तो, तुम जो कुछ भी करते हो, वह क्या दर्शाता है? वह सिर्फ तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद, समझ और खयाली पुलाव को ही दर्शा सकता है। ये वे चीजें होंगी जिन्हें तुम करना पसंद करते हो, जिन्हें करने के तुम इच्छुक हो; तुम जो कुछ भी करते हो, वह सिर्फ तुम्हारी इच्छाओं, संकल्पों और आदर्शों को ही संतुष्ट करता है। जाहिर है, यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है। तुम्हारे किन्हीं भी क्रियाकलापों या व्यवहारों का सत्य से या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे सभी क्रियाकलाप और व्यवहार अपने लिए हैं; तुम सिर्फ अपने आदर्शों, प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए काम कर रहे हो, लड़ और दौड़ रहे हो—यह तुम्हें कोई पौलुस से अलग नहीं बनाता, जिसने अपने पूरे जीवन में केवल पुरस्कृत होने, मुकुट पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए मेहनत और कार्य किया—यह दर्शाता है कि तुम स्पष्ट रूप से पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2))। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के वचनों ने मुझे मेरे छिपने के लिए कोई जगह न छोड़ी। मैं कई साल से विश्वासी थी, परमेश्वर के बहुत से वचन पढ़े थे, असफलताएं और नाकामियां देखी थींऔर काट-छाँट का सामना किया था, मगर मैंने कोई गवाही लेख नहीं लिखे थे। मैं सत्य के बारे में अपनी अनुभवजन्य समझ भी व्यक्त नहीं कर पाई, क्योंकि मैंने सत्य की खोज ही नहीं की थी। मैं केवल यही देखकर खुश थी कि अपनी जिम्मेदारी वाले काम में बिना गलती या चूक के पीड़ा झेलकर कीमत चुका सकती थी। असल में कुछ रोजमर्रा के काम बहुत आवश्यक नहीं थे, पर डर था कि दूसरे कहेंगे कि मैंने वास्तविक काम नहीं किया या वास्तविक समस्याएं हल नहीं कीं। फिर अगर अगुआ पता चलने के बाद मुझे बर्खास्त कर दे तो? यही सोचकर मैंने लेख लिखना और परमेश्वर के वचनों पर मनन करना छोड़ दिया और कभी-कभी मैं उठकर थोड़ी भक्ति करना भी चाहती थी, पर जब मैं अपना कंप्यूटर खोलती और जवाब चाहने वाले कई तरह के संदेश देखती, तो मैं भक्ति छोड़ समस्याएं संभालने वाले जवाब देना शुरू कर देती। लेकिन असल में हर चीज तुरंत सँभालने की जरूरत नहीं होती। अगर मैं जवाब देने से पहले कुछ समय निकाल सकती, तो भी देर नहीं होती। मगर चूँकि मैं उन कामों में व्यस्त थी, तो मैंने परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और मनन करने में समय नहीं दिया। मैंने यह भी सोचा कि मैं अपने कर्तव्य में जिम्मेदार थी, काम का बोझ उठाती थी और वास्तविक कार्य कर सकती थी, पर वास्तव में मैं अपनी दिखावटी पीड़ा और प्रयासों का उपयोग तारीफ पाने के लिए करना चाहती थी। यह कैसा कर्तव्य निभाना था? मैं अपना नाम और हैसियत बचाने, निजी महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए अपने कर्तव्य का उपयोग करना चाहती थी। मैं परमेश्वर के खिलाफ चल रही थी। मैं जानती थी कि लेख लिखना सत्य की खोज की प्रक्रिया है, पर मैंने सत्य की खोज नहीं की और मैं परमेश्वर की गवाही देने के लिए लेख नहीं लिखना चाहती थी। मैं हर दिन चीजों में व्यस्त थी, और जब समय मिलता तब भी मुझे न लिखने का कोई बहाना मिल ही जाता था। क्या मैं सत्य का अनुसरण किए बिना इस तरह से अपना कर्तव्य करके महज मजदूरी नहीं कर रही थी? मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया : “तुम्हारे किन्हीं भी क्रियाकलापों या व्यवहारों का सत्य से या परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे सभी क्रियाकलाप और व्यवहार अपने लिए हैं; तुम सिर्फ अपने आदर्शों, प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए काम कर रहे हो, लड़ और दौड़ रहे हो—यह तुम्हें कोई पौलुस से अलग नहीं बनाता।” मैंने आत्मचिंतन किया कि मैं पौलुस के मार्ग पर जा रही थी। मैं हमेशा उन चीजों को करने में जुटी होती थी, जो मुझे पसंद था, जो मुझे आसानी से मिल जाता था, पर परमेश्वर द्वारा अपेक्षित कलीसिया के आवश्यक कार्य के लिए मैंने न केवल सत्य नहीं खोजा बल्कि मैं सत्य से विमुख थी और उससे परहेज करती थी। परिणामस्वरूप, कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, मैं अभी भी सत्य को नहीं समझ पाई थी और कार्य के कुछ प्रमुख पहलू ऐसे थे जिनमें भाग लेने के लिए मैं पूरी तरह से अयोग्य थी, जिससे मुझे केवल सामान्य मामलों के काम को ही संभालना पड़ा। मैं सिर्फ हैसियत की इच्छा पूरी करने के लिए काम कर रही थी। मैं परमेश्वर की शत्रु होने की राह पर थी। अगर ऐसा ही चलता रहता तो चाहे मैंने जितना भी काम किया हो, अंत में परमेश्वर मुझे हटा देता। यह जानकर मैं डर गई और तुरंत स्थिति बदलना चाहती थी।

एक दिन मैंने अपनी भक्ति में परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “सत्य से विमुख होने वालों की सबसे स्पष्ट दशा यह होती है कि उन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, यहाँ तक कि वे उनसे दूर भागकर घृणा करते हैं, वे प्रवृत्तियों के पीछे भागना खास पसंद करते हैं। वे अपने दिल में उन चीजों को स्वीकार नहीं करते जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और जिन्हें करने की अपेक्षा परमेश्वर लोगों से करता है। इसके बजाय, उनके प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण और उदासीन होता है, कुछ लोग तो उन मानकों और सिद्धांतों का अक्सर तिरस्कार भी करते हैं जिनकी परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। वे सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं, अपने दिलों में उन चीजों के प्रति प्रतिरोधी, विरोधी होते हैं और घृणा से भरे रहते हैं। यह सत्य से विमुख होने की प्राथमिक अभिव्यक्ति है। कलीसियाई जीवन में परमेश्वर के वचन पढ़ना, प्रार्थना करना, सत्य पर संगति करना, कर्तव्यपालन करना और सत्य के द्वारा समस्याओं का समाधान करना सकारात्मक बातें हैं। ये चीजें परमेश्वर को प्रिय हैं, लेकिन कुछ लोग इन सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं, इनकी परवाह नहीं करते और इनके प्रति उदासीन रहते हैं। ... क्या यह सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव दिखाना नहीं है? ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जो उसके लिए कार्य करना और उत्साहपूर्वक भाग-दौड़ करना पसंद करते हैं, और बात जब अपने गुणों और शक्तियों का प्रयोग करने, दिखावा करने, अपनी प्राथमिकताओं में लिप्त होने की होती है, तो उनमें असीम ऊर्जा होती है। लेकिन अगर तुम उन्हें सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए कहो, तो उनकी हवा निकल जाती है, उनका उत्साह भंग हो जाता है। अगर उन्हें दिखावा न करने दिया जाए, तो वे उदासीन और निराश हो जाते हैं। दिखावा करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों होती है? और सत्य का अभ्यास करने के लिए उनमें ऊर्जा क्यों नहीं होती? यहाँ क्या समस्या है? सभी लोग अपनी अलग पहचान बनाना पसंद करते हैं; वे सभी खोखले यश के लिए लालायित रहते हैं। आशीष और पुरस्कार पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करने की बात हो तो हर किसी के पास असीम ऊर्जा होती है, तो फिर सत्य का अभ्यास करने और देह-सुख से विद्रोह करने की बात आने पर वे निराश क्यों हो जाते हैं, उदासीन क्यों रहते हैं? ऐसा क्यों होता है? इससे साबित होता है कि लोगों के दिलों में मिलावट है। वे पूरी तरह से आशीष पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं—स्पष्ट रूप से कहें तो, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए विश्वास करते हैं। पाने के लिए आशीष या लाभ न होने पर लोग उदासीन और निराश हो जाते हैं, और उनमें कोई उत्साह नहीं रहता। यह सब सत्य से विमुख रहने वाले भ्रष्ट स्वभाव की देन है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन प्रबुद्ध करने वाले थे। मैं लेख लिखने से बच रही थी और सत्य से विमुख होने के अपने शैतानी स्वभाव के कारण पूरी तरह सत्य के अनुसरण पर काम नहीं करना चाहती थी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि परमेश्वर चाहता है हम गवाही देने वाले लेख लिखें, अगर कोई गहरी बात नहीं, तो कुछ आसान बातें ही लिख दूँ। अगर यह व्यावहारिक है, इसमें अनुभवजन्य समझ है, शिक्षाप्रद है, तो यह ठीक है। परमेश्वर लोगों की गवाहियां संजोता है, और अच्छी वाली उसके दिल को सर्वाधिक सुकून देती है। इसलिए परमेश्वर को उम्मीद है कि हम उसकी गवाही देने के लिए अपने अनुभवों और उपलब्धियों पर लेख लिखेंगे। मगर परमेश्वर जो चाहता है उसके लिए प्रयास करने के बजाय मैंने उसे चकमा देने, मना करने के कारण ढूंढे। मैं सत्य से विमुख होने का शैतानी स्वभाव दिखा रही थी। परमेश्वर सत्य से विमुख होने के स्वभाव के बारे में क्या सोचता है? मैंने अपनी भक्ति में परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम लोगों के विचार में किस तरह के लोग सत्य से विमुख होते हैं? क्या वे वो लोग होते हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करते हैं? हो सकता है कि वे खुलकर परमेश्वर का विरोध न करें, लेकिन उनका प्रकृति-सार परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाला होता है, जो परमेश्वर से खुले तौर पर यह कहने के समान है, ‘मुझे तुम्हारी बातें सुनना पसंद नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं करता, और चूँकि मैं नहीं मानता कि तुम्हारे वचन सत्य हैं, इसलिए मैं तुम पर विश्वास नहीं करता। मैं उस पर विश्वास करता हूँ, जो मेरे लिए फायदेमंद और लाभकारी है।’ क्या यह गैर-विश्वासियों का रवैया है? यदि सत्य के प्रति तुम्हारा यह रवैया है, तो क्या तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता नहीं रखते? और यदि तुम खुले तौर पर परमेश्वर के प्रति शत्रुता रखते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें बचाएगा? नहीं बचाएगा। परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने वाले सभी लोगों के प्रति परमेश्वर के कोप का यही कारण है। ... जब कोई व्यक्ति सत्य से विमुख हो जाता है, तो यह निस्संदेह उसकी उद्धार प्राप्ति के लिए घातक बात है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे माफ किया या नहीं किया जा सकता, यह व्यवहार का एक रूप या कुछ ऐसा नहीं है जो उनमें क्षणिक रूप से अभिव्यक्त हुआ हो। यह किसी व्यक्ति का स्वभाव सार है, और परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे अधिक चिढ़ता है। यदि तुम कभी-कभी सत्य से विमुख होने का भ्रष्टाचार प्रकट करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर जांच करनी चाहिए कि ये प्रकाशन सत्य के प्रति तुम्हारी नापसंदगी के कारण हैं या सत्य की समझ की कमी के कारण। इसकी खोज करने की आवश्यकता है, और उसके लिए परमेश्वर की प्रबुद्धता और सहायता की आवश्यकता है। यदि तुम्हारा स्वभाव सार ऐसा है कि तुम सत्य से विमुख हो, और तुम सत्य को कभी स्वीकार नहीं करते, और विशेष रूप से इससे घृणा करते हो और इसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो, तो परेशानी की बात है। निश्चय ही तुम दुष्ट हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचन सीधे मेरे दिल में चुभ गए। सत्य से विमुख होना खुले तौर पर परमेश्वर का विरोध है, खुले आम उसका दुश्मन होना है। मेरा दावा था कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर में मेरी आस्था है, मैं उसके नाम पर प्रार्थना कर रही थी, उसके व्यक्त किए सत्य खा-पी रही थी, हर सभा में परमेश्वर के वचनों पर संगति कर भाई-बहनों में उनका प्रचार कर रही थी। मगर जिस तरह मैं काम कर रही थी, जिस तरह जी रही थी वह परमेश्वर के वचनों के मुताबिक नहीं था और यह उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप भी नहीं था। इसके बजाय मैं सत्य से विमुख होने लगी थी। इस तरह मैं सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास कैसे करती? विश्वासी के बतौर बचाए जाने का एकमात्र तरीका सत्य स्वीकार करना है। पर मुझे वो सत्य पसंद नहीं थे जो परमेश्वर ने व्यक्त किए हैं। मन में कहीं गहरे मैं परमेश्वर के खिलाफ थी। सत्य से ऊब जाने का शैतानी स्वभाव मुझे बर्बाद कर सकता था। तब मैंने देखा कि सत्य से विमुख होने का स्वभाव वास्तव में डरावना है, यह उद्धार के रास्ते का रोड़ा है। फिर मैं पश्चात्ताप के लिए परमेश्वर के सामने आई : “हे परमेश्वर! मैं सत्य से विमुख हो चुकी हूँ, मेरा ध्यान लेख लिखने या सत्य की खोज करने पर नहीं है और अब मैंने देखा कि सत्य से विमुख होने के स्वभाव से तुम्हें घृणा है। मैं पश्चात्ताप कर सत्य का ठीक से अनुसरण करना चाहती हूँ—कृपया मुझे रास्ता दिखाओ।”

मैंने उसके बाद परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अगर तुम वास्तव में अपने दिल में सत्य से प्रेम करते हो, और बात सिर्फ इतनी है कि तुम कुछ हद तक कम काबिलियत वाले हो और तुममें अंतर्दृष्टि की कमी है, थोड़े मूर्ख हो और तुम अक्सर गलतियाँ करते हो, लेकिन तुम बुराई करने का इरादा नहीं रखते, और तुमने बस कुछ मूर्खतापूर्ण काम किए हैं; अगर तुम सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनने के दिल से इच्छुक हो, और तुम सत्य के लिए दिल से लालायित हो; अगर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदारी और ललक भरा रवैया अपनाते हो, और तुम परमेश्वर के वचन बहुमूल्य समझकर सँजो सकते हो—तो यह काफी है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। भले ही तुम कभी-कभी थोड़ी मूर्खता करते हो, परमेश्वर तुम्हें फिर भी पसंद करता है। परमेश्वर तुम्हारे दिल से प्रेम करता है, जो सत्य के लिए तरसता है, और वह सत्य के प्रति तुम्हारे ईमानदार रवैये से प्रेम करता है। तो, तुम पर परमेश्वर की दया है और वह तुम पर हमेशा अनुग्रह कर रहा है। वह तुम्हारी खराब क्षमता या तुम्हारी मूर्खता पर विचार नहीं करता, न ही वह तुम्हारे अपराधों पर विचार करता है। चूँकि सत्य के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण सच्चा और उत्सुकता भरा है, और तुम्हारा हृदय सच्चा है, इसलिए तुम्हारे हृदय की सच्चाई और इस रवैये का ध्यान रखते हुए वह हमेशा तुम्हारे प्रति दयालु रहेगा—और पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और तुम्हें उद्धार की आशा होगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगाया और अभ्यास का मार्ग दिया। मेरा मन खिल उठा और मुझे सुकून का एहसास हुआ। परमेश्वर लोगों की कम काबिलियत या अज्ञानता की परवाह नहीं करता। जब तक लोग सत्य के प्यासे हैं और सत्य के साथ ईमानदारी का व्यवहार करते हैं, तब तक उन पर परमेश्वर की दया रहेगी। मैंने देखा कि औसत दर्जे की काबिलियत वाले अन्य भाई-बहन भी थे जो परमेश्वर के वचनों के प्यासे थे और समस्याएं सामने आने पर उन्हें हल करने के लिए उन्होंने पूरे मन से विचार कर सत्य की खोज की। वे परमेश्वर की गवाही के अपने अनुभवों के बारे में सचमुच मर्मस्पर्शी निबंध लिख पाए। और जो कुछ ही समय पहले आस्थावान हुए थे, चाहे उन्हें कर्तव्य में कितनी भी कठिनाई आई हो, वे छोड़कर भागे नहीं, बल्कि परमेश्वर संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर सत्य की तलाश और कठिनाई दूर करने के लिए उस पर निर्भर रहे। आखिर वे मर्मस्पर्शी गवाही दे पाए। कुछ नए विश्वासियों ने भ्रष्टता प्रकट होने पर सत्य की खोज करने पर ध्यान हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़कर आत्मचिंतन किया। उनकी साझा की गई समझ सचमुच असली और व्यावहारिक थी। परमेश्वर को परवाह नहीं कि किसकी आस्था कितनी पुरानी है, वे अज्ञानी हैं या उनकी काबिलियत खराब है, बल्कि वह देखता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करते हैं, उससे प्रेम करते हैं, और क्या वे परमेश्वर के वचनों को ईमानदारी से स्वीकारते हैं। खराब काबिलियत घातक नहीं है। मुख्य बात यह है कि क्या हमारा दिल सत्य से प्रेम करता है, क्या हम सत्य स्वीकार कर अभ्यास कर सकते हैं। परमेश्वर भरोसेमंद और धार्मिक है, उसे परवाह नहीं कि किसकी काबिलियत अच्छी है या किसकी खराब। अगर हम सत्य के प्यासे हैं और उसके लिए प्रयासरत हैं, जो जानते हैं उसे लागू करते हैं, तो हम पवित्र आत्मा का प्रबोधन पा सकते हैं, इससे हमारी समझ और अंतर्दृष्टि सुधरेगी। मुझे कम काबिलियत होने से पीछे नहीं हटना चाहिए या लेख लिखने से बचने के बहाने नहीं खोजने चाहिए। मैं वाकई परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना और अनुभव करना चाहती थी, अपने अनुभवों को परमेश्वर की गवाही वाले लेख में लिखना चाहती थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे परमेश्वर का इरादा समझ आ गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “उद्धार प्राप्त करने के लिए कोई भी मार्ग सत्य को स्वीकार करने और खोजने से ज्यादा वास्तविक या व्यावहारिक नहीं है। अगर तुम सत्य को नहीं पा सकते तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास खोखला है। जो लोग खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत झाड़ते हैं, जो हमेशा तोते की तरह नारे लगाते हैं, ऊंची प्रतीत होती बातें कहते हैं, विनियमों का पालन करते हैं, और कभी भी सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं देते, वे कुछ भी हासिल नहीं करते, चाहे वे कितने ही वर्षों पुराने विश्वासी क्यों न हों। वे कौन-से लोग हैं जो कुछ हासिल करते हैं? वे लोग जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं और सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होते हैं, जो परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को अपना मिशन समझते हैं, जो खुशी-खुशी अपना सारा जीवन परमेश्वर के लिए खपा देते हैं और खुद अपने लिए योजनाएँ नहीं बनाते, जो अपने पाँव जमीन पर टिकाए रखकर आचरण करते हैं और जो परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते हैं और सभी मामलों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देते हैं, इससे उन्हें परमेश्वर की गवाही देने के परिणाम को हासिल करने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने का अवसर मिलता है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और परमेश्वर के इरादों की थाह पाने की कोशिश करते हैं, वे परमेश्वर की तरफ से आने वाले आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित होने में सक्षम रहते हैं, और वे चीजें करते समय सत्य की खोज और उसका अभ्यास करते हैं। वे तोते की तरह नारे नहीं लगाते या ऊंची प्रतीत होने वाली बातें नहीं कहते, बल्कि अपने पाँव मजबूती से जमीन पर टिकाकर हर काम करने पर, और बहुत जतन से सिद्धांतों का पालन करने पर ही ध्यान देते हैं। वे हर काम दिल लगाकर करते हैं, हर चीज की तहेदिल से सराहना करना सीखते हैं, और कई मामलों में वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम रहते हैं, जिसके बाद वे ज्ञान और समझ हासिल कर लेते हैं, और वे सबक सीखने और सचमुच कुछ पा लेने में सफल हो जाते हैं। जब उनके विचार या स्थितियाँ गलत होती हैं तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और उनके समाधान के लिए सत्य की खोज करते हैं; वे चाहे जिन सत्यों को भी समझते हों, उनके मन में उनके लिए प्रशंसा की भावना होती है, और वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोग आखिर में सत्य को प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग लापरवाह और असावधान होते हैं वे कभी नहीं सोचते कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। वे केवल संघर्ष करने, काम में जुटे रहने, खुद को प्रदर्शित करने और दिखावा करने में ही लगे रहते हैं, लेकिन कभी सत्य का अभ्यास करने की खोज नहीं करते, जिसकी वजह से उनके लिए सत्य पाना मुश्किल हो जाता है। जरा सोचो, किस तरह के लोग सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकते हैं? (जिनके पैर जमीन पर होते हैं, जो व्यावहारिक होते हैं और काम में दिल लगाते हैं।) जिन लोगों के पैर जमीन पर होते हैं, जो काम में दिल लगाते हैं और जो दयालु होते हैं : ऐसे लोग वास्तविकता पर और कार्य करते समय सत्य सिद्धांतों के उपयोग पर अधिक ध्यान देते हैं। साथ ही, वे सभी चीजों में व्यावहारिकता पर ध्यान देते हैं, वे व्यावहारिक होते हैं, उन्हें सकारात्मक चीजें, सत्य और व्यावहारिक चीजें पसंद होती हैं। ऐसे ही लोग अंततः सत्य समझते हैं और उसे प्राप्त करते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि सत्य के खोजी परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देते हैं, अक्सर परमेश्वर के वचनों पर मनन कर उन्हें अभ्यास में लाते हैं। वे सत्य की तलाश कर आसपास के लोगों, चीजों और घटनाओं से सबक सीख सकते हैं और अपने अनुभवों से लाभान्वित हो सकते हैं। लेख लिखना हमें परमेश्वर के सामने आने, उसके वचनों पर सोचने और सत्य खोजने को प्रेरित करने का एक अच्छा तरीका है। जब मैं परमेश्वर का इरादा समझ गई तो मुझे जिम्मेदारी का एहसास हुआ और लेख लिखने की प्रेरणा मिली। मुझे लगा कि परमेश्वर के दिल को सुकून देने के लिए वह कर्तव्य करना चाहिए और एहसास हुआ कि मैं लेख लिखकर और अधिक सत्य खोज सकती हूँ और जीवन में प्रगति कर सकती हूँ।

उसके बाद मैंने हर दिन के काम की योजना बनानी शुरू की, तय किया कि मैं किस समस्या को तात्कालिक जरूरत के मुताबिक कितना समय दूँगी। समय मिलते ही मैं परमेश्वर के वचनों को खाती-पीती और लेख लिखने पर काम करती। पहली बार लिखना शुरू किया तो परमेश्वर के वचनों की मेरी समझ काफी सतही थी। मैं तब लिखना बंद कर देना चाहती थी, और परमेश्वर के वचनों पर मनन नहीं करना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मैं हार मानना नहीं चाहती। मैं जो भी जानती हूँ वह लिखने के लिए तुम्हारे वचनों पर सोचना चाहती हूँ, और अनुभव के साथ लिखना जारी रखना चाहती हूँ। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से नहीं जीना चाहती। मैं तुम्हारी गवाही देने के लिए तुम्हारे प्रबोधन और प्रकाशन के बारे में लिखना चाहती हूँ।” इस प्रार्थना के बाद मुझे बहुत शांति महसूस हुई। शांत होकर मैंने अपनी स्थिति और परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, तो मैं अपने प्रबोधन के बारे में लिखा। मैंने परमेश्वर के वचनों पर सोचा और समय मिलते ही अपनी समझ लिख दी। मैंने देखा कि कुछ हिस्से बहुत साफ नहीं थे, मैंने उन्हें संपादित करने की पूरी कोशिश की। जितना ज्यादा लिखा, उतनी ही ज्यादा स्पष्ट होती गई, उतनी ही बेहतर मैं अपनी स्थिति देख पाई। मुझे सत्य की ज्यादा से ज्यादा वास्तविक समझ भी मिली। मुझे लगा ऐसा अभ्यास सचमुच संतुष्टि देने वाला है।

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