65. मैं इतना व्यस्त क्यों था

स्टेनली, दक्षिण कोरिया

मैं कलीसिया में एक सिंचाई टीम का अगुआ हूँ। मुझे लगा कि जो भी एक योग्य और सक्षम टीम अगुआ बनना चाहता है, उसे हर काम को खुद ही संभालना होगा, और मैंने खुद से भी यही अपेक्षा की थी। जैसे ही मुझे हमारी टीम में कोई काम करने की जरूरत महसूस होती, चाहे वह कोई बड़ा काम हो या छोटा, तो मैं खुद ही पहल करके उस काम को करने लगता था, जिसमें कुछ सामान्य काम भी शामिल थे। यहाँ तक कि मैंने वे काम भी अपने हाथ में ले लिए जो मेरे भाई-बहन कर सकते थे, और मैंने उदारता से कहा, “मैं यह काम कर लूँगा, तुम्हें करने की जरूरत नहीं है।” जब भी ऐसा होता, तो मुझे एक अलग-सा गर्व महसूस होता था, और लगता था कि मैं वास्तव में एक ध्यान रखने वाला और जिम्मेदार टीम अगुआ हूँ। समय के साथ, मेरे भाई-बहन किसी भी प्रकार की समस्या होने पर मेरे पास आने लगे। मेरे सुपरवाइजर ने भी मेरे लंबे समय तक कर्तव्य निभाने, कष्ट सहने में सक्षम होने और कीमत चुकाने के लिए मेरी प्रशंसा की। यह सुनकर मुझे बहुत संतुष्टि मिली, क्योंकि इससे मुझे लगा कि मैं वास्तव में सक्षम टीम अगुआ हूँ।

बाद में, और अधिक नए विश्वासियों ने अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया, और मेरे पास पहले से कहीं अधिक नए लोगों को सींचने का काम आ गया था। हर दिन नए विश्वासियों के साथ सभाएँ करने के अलावा, मैं उन्हें प्रशिक्षण भी देता था, उन्हें यह सिखाता था कि सभाएँ कैसे आयोजित करें, सुसमाचार कैसे फैलाएँ, आदि। मेरा कार्यक्रम पहले से ही बहुत व्यस्त था, लेकिन इसके अलावा, मेरी टीम के भाई-बहन चाहते थे कि नए विश्वासियों के लिए सभाओं की व्यवस्था करने के सारे फैसले मैं ही लिया करूँ। इतने सारे काम होने के कारण, मैं अक्सर इन मामूली मामलों में उलझा रहता था, जिससे मेरा कार्यक्रम पूरी तरह से बिगड़ जाता था और मुझे अपने भक्ति कार्यों पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता था। हालाँकि मैं हर दिन वास्तव में बहुत व्यस्त होता था और कभी भी खाली नहीं रहता था, फिर भी मैं प्राथमिकता वाले कार्यों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रहा था। यह बात मुझे अक्सर चिंतित कर देती थी, लेकिन मुझे पता ही नहीं था कि मुझे इस बारे में क्या करना चाहिए। एक बार, जिस बहन के साथ मैं काम कर रहा था, उसने मुझसे पूछा, “तुम हमेशा कहते हो कि तुम व्यस्त हो, लेकिन वास्तव में तुम हर दिन क्या काम करते हो?” अपनी बहन के इस सवाल पर मुझे बहुत दुख हुआ कि उसने मेरे प्रति समानुभूति नहीं दिखाई। बाद में, जब भाई-बहन नए विश्वासियों के सिंचन में समस्याओं का सामना करते और मुझसे इस बारे में बात करने आते, तो मैं खुद से बड़बड़ाता, “यह तो एक बुनियादी सिद्धांत है जिसमें सिंचाई करने वालों को महारत होनी चाहिए। तुम ऐसी साधारण समस्याओं के समाधान के लिए मेरे पास क्यों आ रहे हो—क्या तुम इसे खुद से सीख नहीं सकते? क्या असल बात यह है कि तुम प्रयास ही नहीं करना चाहते?” मैं अब इन मामलों को सुलझाने में लगे नहीं रहना चाहता था और मुझे लग रहा था कि मेरे भाई-बहनों को उनसे खुद ही निपटना चाहिए। लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैं टीम का अगुआ हूँ। अगर मैं इन समस्याओं का ध्यान नहीं रखूँगा और भाई-बहनों को इनसे खुद ही निपटने दूँगा, तो क्या इससे अगुआ के रूप में मेरी अहमियत कम नहीं हो जाएगी? क्या कोई कहेगा कि मैंने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया और मैं अपने कर्तव्यों से भाग रहा हूँ? अगर अगुआ को पता चला, तो क्या वह कहेगी कि मैं अयोग्य हूँ? चलो छोड़ो—अगर यह काम मैं खुद कर सकता हूँ, तो खुद ही कर लूँगा।” तो अधिकतर समय, मैं टीम का सारा काम खुद ही करता रहा, चाहे वह सभाएँ आयोजित करने और नए विश्वासियों की समस्याएँ हल करने जैसे बड़े काम हों, या संदेश पहुँचाने में भाई-बहनों की मदद करने और सामान्य मामलों का ध्यान रखने वाले लोग ढूंढ़ने जैसे मामूली काम हों। मैं इन चीजों को करने के लिए दौड़ता रहा, भले ही वास्तव में मैं इन्हें करना ही नहीं चाहता था, ताकि कोई मुझ पर टीम अगुआ के रूप में शक न करे। मैं यह बता भी नहीं सकता कि कभी-कभी मुझे कितनी थकान महसूस होती थी, जब मैं एक साथ कई काम करने की कोशिश करता था। मैं सिर्फ खुद को यह सोच कर दिलासा देता था कि, “आखिरकार, मैं एक टीम अगुआ हूँ। टीम अगुआ को मेहनत करने के लिए तैयार रहना चाहिए।” और इसी तरह, मैंने सभी बड़े और छोटे मामलों को अपने हाथों में लिया और खुद निरंतर व्यस्तता की स्थिति में जीता रहा। हालाँकि हर दिन व्यस्त रहने से मुझे कुछ भाइयों और बहनों की प्रशंसा और स्वीकृति तो मिल जाती थी, फिर भी मेरे दिल में कोई शांति या खुशी नहीं थी। मुझे हमेशा यही लगता था कि मैं अपने कर्तव्य में सब गड़बड़ कर रहा हूँ, और बहुत सारे अहम कार्य करने के लिए मेरे पास समय ही नहीं बचता था क्योंकि मैं बहुत सारे मामूली मामलों में उलझा पड़ा था।

एक बार, मैंने अगुआ से अपनी कठिनाइयों का जिक्र किया, और मेरे साथ उसकी संगति के बाद ही मुझे अभ्यास के कुछ सिद्धांत समझ में आए। उसने मुझसे पूछा, “क्या तुम अपने ऊपर बहुत ज्यादा काम नहीं ले रहे हो? अगर तुम भाई-बहनों को उनका काम करने नहीं देते और इसके बजाय सब कुछ खुद ही संभालते हो, तो फिर तुम व्यस्त ही रहोगे। तुम उन्हें कुछ कम महत्वपूर्ण कामों का अभ्यास करने दे सकते हो। अगर वे उन कामों को अच्छी तरह से नहीं भी करते हैं, तो भी इसका कलीसिया के काम पर कोई बहुत बड़ा असर नहीं पड़ेगा। अगर यह वास्तव में ऐसा काम है जो कोई और नहीं कर सकता, तो फिर तुम्हें इसे खुद ही करना चाहिए। लेकिन अगर दूसरे लोग इसे कर सकते हैं, और तुम उन्हें कोशिश करने नहीं देते या उन्हें अभ्यास करने का मौका नहीं देते, और इसके बजाय खुद ही सब कुछ कर लेते हो, तो क्या तुम उन्हें कमतर नहीं समझ रहे, और सिर्फ दिखावा करने की कोशिश नहीं कर रहे? यह तो भ्रष्टता प्रकट करना है।” उसकी संगति ने मेरी स्थिति के बारे में सटीक निशाना साधा था। पहले मैं सोचता था कि ज्यादा काम करना यह दिखाता है कि मैं बोझ उठा रहा हूँ, लेकिन मैंने कभी यह नहीं सोचा कि क्या मेरे क्रियाकलाप सिद्धांतों पर आधारित थे, या उनमें कोई मिलावट थी। जब मैंने इस पर विचार किया, तो मैंने पाया कि सारे कामों को खुद करने के पीछे मेरी छिपी हुई मंशा सिर्फ दिखावा करने की थी, न कि कोई बोझ उठाने की। कई मामलों में बात यह नहीं थी कि दूसरे लोग वह कार्य नहीं कर सकते थे या उनके पास समय नहीं था, बल्कि ऐसा इसलिए था क्योंकि मुझे लगता था कि मैं जितना अधिक काम करूँगा, उतना ही अधिक हर कोई मेरी सराहना करेगा, और कहेगा कि मैं एक योग्य टीम अगुआ हूँ जो जिम्मेदार है और अपने कर्तव्य का बोझ उठाता है। मैंने अपना कर्तव्य पूरा करने को दूसरों से प्रशंसा पाने का एक साधन माना। मैं “व्यस्त” रहता था और “बोझ उठाता था” ताकि टीम अगुआ के रूप में अपनी अहमियत दिखा सकूँ और दूसरों के दिलों में जगह बना सकूँ। क्योंकि मेरे कर्तव्य निभाने के पीछे कुछ गलत मंशाएँ थीं और मैं हमेशा अपना रुतबा बचाए रखना चाहता था, इसलिए टीम का बहुत सारा काम मेरे कंधों पर आ गया, और मेरे भाई-बहनों को अभ्यास करने का कोई मौका नहीं मिला। और क्योंकि मेरे काम करने की क्षमता की भी एक सीमा थी, इसलिए कुछ मुख्य कामों में देरी हो गई, जिससे कलीसिया के काम और मेरे भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुँचा।

बाद में, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, मुझे अपनी समस्याओं की कुछ समझ आई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग भाषा का इस्तेमाल करके, और स्वयं का बखान करने वाले कुछ शब्द बोलकर अपनी गवाही देते हैं, जबकि अन्य लोग व्यवहारों का इस्तेमाल करते हैं। अपनी गवाही देने के लिए व्यवहारों का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के कौन-कौन से लक्षण हैं? सतही तौर पर, वे कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं जो अपेक्षाकृत लोगों की धारणाओं के अनुरूप हैं, जो लोगों का ध्यान खींचते हैं, और जिन्हें लोग बेहद नेक और अपेक्षाकृत नैतिक मानकों के अनुरूप मानते हैं। इन व्यवहारों के चलते लोग यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि वे सम्मान-योग्य हैं, उनमें ईमानदारी है, वे वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, वे बेहद पवित्र हैं, और उनमें वास्तव में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, और वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं। वे लोगों को गुमराह करने के लिए अक्सर कुछ ऊपरी अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करते हैं—क्या इसमें भी अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने की बू नहीं आती है? आमतौर पर लोग शब्दों के जरिये अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं, स्पष्ट भाषण देकर बताते हैं कि वे आम लोगों से किस प्रकार भिन्न हैं और उनके पास दूसरों के मुकाबले अधिक बुद्धिमान राय कैसे हैं, ताकि लोग उनके बारे में बहुत अच्छी राय कायम करें और उन्हें ऊँची नजरों से देखें। हालाँकि, कुछ ऐसे तरीके हैं जिनमें स्पष्ट भाषण शामिल नहीं होता है, जहाँ लोग दूसरों से बेहतर होने की गवाही देने के लिए इसके बजाय बाहरी अभ्यासों का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह के अभ्यास सुविचारित होते हैं, इनमें एक उद्देश्य और एक निश्चित इरादा होता है, और वे बेहद उद्देश्यपूर्ण होते हैं। उन्हें सम्मिलित और संसाधित किया जाता है ताकि लोगों को जो कुछ व्यवहार और अभ्यास दिखाई दें वो व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप हों, नेक हों, पवित्र हों, और संतोचित शालीनता के अनुरूप हों, और परमेश्वर-प्रेमी, परमेश्वर का भय मानने वाले, और सत्य के अनुरूप भी हों। इससे भी अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने और लोगों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और अपनी आराधना करवाने का वही लक्ष्य प्राप्त होता है। क्या तुम लोगों ने कभी ऐसी चीज का सामना किया है या ऐसी चीज देखी है? क्या तुम लोगों में ये लक्षण हैं? क्या ये चीजें और यह विषय जिसकी मैं चर्चा कर रहा हूँ असल जिंदगी से भिन्न हैं? वास्तव में, वे भिन्न नहीं हैं। ... कुछ लोग अपने कर्तव्य में देर तक जागते रहने के लिए शाम के समय अपनी ऊर्जा बढ़ाने के लिए कॉफी पीते हैं। भाई-बहनों को उनके स्वास्थ्य की चिंता होती है और वे उनके लिए चिकन सूप बनाते हैं। सूप खत्म होने पर, ये लोग कहते हैं, ‘परमेश्वर का धन्यवाद! मैंने परमेश्वर की अनुकंपा का आनंद लिया है। मैं इसके लायक नहीं हूँ। अब जब मैंने चिकन सूप खत्म कर लिया है, तो मुझे अपने कर्तव्य को अधिक कुशलता से निभाना होगा!’ वास्तव में, वे अपनी कुशलता में कोई सुधार किए बिना अपना कर्तव्य उसी तरीके से करना जारी रखते हैं जैसा वे आमतौर पर करते हैं। क्या वे दिखावा नहीं कर रहे हैं? वे दिखावा कर रहे हैं, और इस तरह का व्यवहार भी चोरी-चोरी अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना ही है; इसका यह परिणाम निकलता है कि लोग उन्हें स्वीकारते हैं, उनके बारे में बहुत अच्छी राय कायम करते हैं, और उनके कट्टर अनुयायी बन जाते हैं। यदि लोगों की इस प्रकार की मानसिकता है, तो क्या उन्होंने परमेश्वर को भुला नहीं दिया है? परमेश्वर अब और उनके दिलों में नहीं बसता, तो फिर वे दिन-रात किसके बारे में सोचते हैं? यह उनका ‘अच्छा अगुआ’ है, उनका ‘प्यारा’ है। कुछ मसीह-विरोधी सतही तौर पर अधिकांश लोगों के प्रति बहुत स्नेही होते हैं, और बोलते समय वे ऐसी तरकीबों का इस्तेमाल करते हैं, ताकि लोगों को दिखे कि वे बहुत स्नेही हैं, और वे उनके करीब आने के इच्छुक हैं। जो कोई भी उनके करीब जाता है वे खुशी जाहिर करते हैं और उनसे बातचीत करने लगते हैं, और वे ऐसे लोगों से बेहद कोमल लहजे में बात करते हैं। अगर उन्हें दिखाई भी देता है कि कुछ भाई-बहन अपने कार्यों में सिद्धांतहीन रहे हैं, और इस प्रकार कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाया है, वे उनकी थोड़ी-सी भी काट-छाँट नहीं करते हैं, वे केवल उन्हें समझाते और दिलासा देते हैं, और जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं तो उन्हें मनाते हैं—वे लोगों को तब तक मनाते हैं जब तक कि वे हर किसी को अपने सामने नहीं ले आते हैं। लोग धीरे-धीरे इन मसीह-विरोधियों से प्रभावित हो जाते हैं, हर कोई उनके स्नेही दिलों को बहुत पसंद करता है और उन्हें परमेश्वर-प्रेमी कह कर पुकारता है। अंततः, हर कोई उनकी आराधना करता है और हर मामले में उनकी सहभागिता चाहता है, इन मसीह-विरोधियों को इस हद तक अंतरमन के अपने सारे विचार और भावनाएँ बताता है कि वे अब परमेश्वर से प्रार्थना भी नहीं करते हैं या परमेश्वर के वचनों में सत्य की तलाश भी नहीं करते हैं। क्या ये लोग इन मसीह-विरोधियों से गुमराह नहीं हुए हैं? यह एक दूसरा उपाय है जिसका इस्तेमाल मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करने के लिए करते हैं। जब तुम लोग इन व्यवहारों और अभ्यासों में सम्मिलित हो जाते हो, या इन इरादों को पालते हो, तो क्या तुम लोगों को जानकारी है कि इसमें एक समस्या है? और जब तुम्हें इसकी जानकारी होती है, तो क्या तुम अपने कामकाज के तरीकों में बदलाव कर सकते हो? तुम्हें जानकारी होने पर अगर तुम आत्मचिंतन करो और सच में ग्लानि महसूस करो और जाँच करो कि तुम्हारा व्यवहार, अभ्यास, या इरादे समस्या पैदा करने वाले हैं, तो यह साबित करता है कि तुमने अपने तरीके बदल दिए हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से, मैंने देखा कि लोग बाहरी तौर पर विभिन्न “अच्छे” व्यवहार अपनाते हैं जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप होते हैं ताकि वे दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त कर सकें, लेकिन अपने सार में, ये व्यवहार बस चोरी-छिपे से खुद का उन्नयन करने और अपनी ही गवाही देने का तरीका होते हैं, यह बहुत पाखंडी व्यवहार है और इससे लोग आसानी से गुमराह हो सकते हैं। जब मैंने इस पर विचार किया, तो मैंने देखा कि मैं भी उसी प्रकार का व्यक्ति था। बाहरी तौर पर, मैं हर दिन अपने कर्तव्य का पालन करते हुए, कष्ट उठाते हुए, कीमत चुकाते हुए, और सारे काम अपने ऊपर लेते हुए व्यस्त दिखाई देता था—ऐसा लगता था कि मैं एक योग्य और सक्षम टीम अगुआ हूँ। लेकिन इन सब के पीछे, मेरी अपनी ही एक घृणित, छिपी हुई मंशा थी, और वह थी लोगों की प्रशंसा प्राप्त करना। मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे भाई-बहन अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान छोटे-बड़े सभी मामलों के बारे में मुझसे पूछने आते थे, और कैसे वे अपने सारे मसले हल करने के लिए मुझ पर निर्भर रहते थे। सच तो यह था कि इनमें से कुछ समस्याओं को वे बिना मेरी भागीदारी के ही चर्चा करके हल कर सकते थे। लेकिन यह सोचकर कि हर कोई मुझ पर भरोसा करता है और मेरी प्रशंसा करता है, मैं सिर्फ अपने गौरव और रुतबे की रक्षा करने के लिए, हमारे प्राथमिकता वाले कामों को दरकिनार कर सारे काम खुद ही करने के लिए प्रेरित होता था, भले ही मेरे पास समय न हो। कभी-कभी, अगर मैं नए विश्वासियों के लिए सभा आयोजित करने में खाना भी छोड़ देता था, तो मेरी बहनें मुझे जाकर खाना खाने के लिए कहती थीं। मुझे यह सोचकर अंदर ही अंदर खुशी होती थी कि वे मुझे मेरे कर्तव्यों में इतना व्यस्त देख रही थीं कि मुझे खाने का भी समय नहीं मिल रहा था। मुझे लगता था कि वे जरूर मेरी प्रशंसा करती होंगी और सोचती होंगी कि मैं सच में कठिनाइयाँ सह सकता हूँ, कीमत चुका सकता हूँ, और यह कि मैं एक योग्य टीम अगुआ हूँ। “व्यस्त” रहने के कारण मुझे सभी तरह की “विशेष सुविधाएँ” मिलती थीं और दूसरों से सहानुभूति भी प्राप्त होती थी, मैंने इनका उपयोग अपनी कुछ गलतियों और कमियों को छुपाने के लिए किया। उदाहरण के लिए, अगर मैं जीवन के अनुभव की गवाही वाला लेख नहीं लिख पाता था, तो मैं यह कहकर खुद को सही ठहराता कि मैं बहुत व्यस्त था। जब टीम के कुछ कार्य, जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर थी, समय पर पूरे नहीं हो पाते थे, तो मैं खुद को यह कहकर ढील दे देता था कि इसका कारण मेरी व्यस्तता है। और जब मेरे कर्तव्य में कमियाँ और गलतियाँ आने लगीं और नए विश्वासियों की सिंचाई में अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, तो मैं भाई-बहनों को वही बहाना देने लगा ताकि वे यह सुनकर मुझे छूट दे सकें। तो बस इसी तरह, मैं सारा दिन व्यस्त रहता था, और लोगों को दिखाता था कि मैं अच्छा टीम अगुआ हूँ जो अपने काम में लगा रहता है। मुझे न केवल मेरे सुपरवाइजर की सराहना मिली, बल्कि कुछ भाई-बहनों ने मेरी प्रशंसा की और वे मुझ पर भरोसा करने लगे। लेकिन साथ ही साथ मैं अपने कामों में आने वाली कमियों और गलतियों को छुपा भी रहा था। मेरी मंशा वास्तव में बहुत ही घृणित थी! मैंने इस बात पर विचार किया कि जब भी भाई-बहनों को कोई समस्या होती थी, तो वे आखिर मेरे पास ही क्यों आते थे और हर काम के लिए मुझ पर निर्भर रहते थे—इसका मुख्य कारण यह था कि मैं हर काम खुद से करने की कोशिश करता था। मेरे भाई-बहन मेरी प्रशंसा करते थे, उनके दिलों में मेरे लिए एक जगह थी, और जब भी उन्हें कोई समस्या होती थी, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करके उस पर निर्भर नहीं रहते थे, या सत्य सिद्धांतों को नहीं ढूँढते थे, वे बस मदद मांगने मेरे पास आ जाते थे। इस तरह से व्यस्त रहकर, मैं वास्तव में अपनी मनमानी कर रहा था, चोरी-छिपे दिखावा कर रहा था, लोगों के दिल जीत रहा था, और उन्हें परमेश्वर से दूर रख रहा था।

उस समय, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने एक बार पढ़ा था : “कुछ लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर बहुत उत्साही प्रतीत होते हैं। उन्हें कलीसिया के मामलों में शामिल होना और उनमें दिलचस्पी लेना अच्छा लगता है, और वे इसमें हमेशा जोर-शोर से सबसे आगे रहते हैं। और फिर भी, अगुआ बनने के बाद, अप्रत्याशित रूप से, वे सभी को निराश कर देते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, इसके बजाय वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कार्य करने के लिए भरसक प्रयास करने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे दूसरों से अपना सम्मान करवाने के लिए दिखावा करना पसंद करते हैं, और वे हमेशा इस बारे में बात करते रहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए खुद को कैसे खपाते हैं और कष्ट सहते हैं, लेकिन फिर भी वे सत्य की और अपने जीवन प्रवेश की खोज करने का प्रयास नहीं करते हैं। यह वह चीज नहीं है जिसकी उनसे उम्मीद की जाती है। हालाँकि वे खुद को अपने कार्य में व्यस्त रखते हैं, हर अवसर पर दिखावा करते हैं, कुछ शब्दों और सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, कुछ लोगों से सम्मान और आराधना हासिल करते हैं, लोगों के दिलों को गुमराह करते हैं और अपने रुतबे को मजबूत करते हैं, लेकिन आखिर में इसका क्या परिणाम होता है? चाहे ये लोग दूसरों को रिश्वत देने के लिए थोड़ी-बहुत मदद करते हों, या अपने गुण और अपनी योग्यताएँ दिखाते हों, या लोगों को गुमराह करने के लिए अलग-अलग तरीकों का उपयोग करते हों और इससे उनकी अपने प्रति अच्छी राय बनवाते हों, वे लोगों के दिल जीतने और उनमें जगह बनाने के लिए चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करते हों, उन्होंने क्या खो दिया है? उन्होंने एक अगुआ के कर्तव्य करते हुए सत्य हासिल करने का अवसर खो दिया है। साथ ही, अपनी अलग-अलग अभिव्यक्तियों के कारण, उन्होंने बुरे कर्म भी जमा कर लिए हैं जो उनके आखिरी परिणाम का कारण बनेंगे। चाहे वे लोगों को रिश्वत देने और फँसाने के लिए थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग कर रहे हों, या अपनी खूबियाँ दिखा रहे हों, या लोगों को गुमराह करने के लिए मुखौटों का उपयोग कर रहे हों, और भले ही बाहरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता हो कि ऐसा करके वे कितने सारे फायदे और कितनी सारी संतुष्टि हासिल कर रहे हैं, अब इसे देखते हुए, यह बताओ कि क्या यह मार्ग सही है? क्या यह सत्य की खोज करने का मार्ग है? क्या यह ऐसा मार्ग है जो किसी को उद्धार दिला सकता है? स्पष्ट रूप से, यह नहीं है। ये तरीके और युक्तियाँ चाहे कितनी भी चतुराईपूर्ण क्यों ना हों, वे परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती हैं, और आखिर में, परमेश्वर इनकी निंदा और इनसे घृणा करता है, क्योंकि ऐसे व्यवहारों के पीछे मनुष्य की महत्वाकांक्षा और परमेश्वर के प्रति विरोध का रवैया और सार छिपा होता है। परमेश्वर अपने दिल में इन लोगों को कभी ऐसे लोगों के रूप में नहीं पहचानेगा जो अपने कर्तव्य कर रहे हैं, और इसके बजाय वह उन्हें कुकर्मियों के रूप में परिभाषित करेगा। कुकर्मियों से निपटते समय परमेश्वर क्या फैसला सुनाता है? ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ जब परमेश्वर कहता है, ‘मेरे पास से चले जाओ,’ तो वह ऐसे लोगों को कहाँ भेजना चाहता है? वह उन्हें शैतान को सौंप रहा है, उन्हें ऐसी जगह भेज रहा है जहाँ शैतानों की भीड़ रहती है। उनके लिए आखिरी परिणाम क्या है? उन्हें दुष्ट आत्माएँ पीड़ा पहुँचाकर मौत के घाट उतार देती हैं, जिसका मतलब है कि शैतान उन्हें निगल जाता है। परमेश्वर इन लोगों को नहीं चाहता है, जिसका मतलब है कि वह उन्हें नहीं बचाएगा, वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं, उसके अनुयायी होना तो दूर की बात है, इसलिए वे उन लोगों में शामिल नहीं हैं जिन्हें वह बचाएगा। परमेश्वर इस तरह से इन लोगों को परिभाषित करता है। तो, फिर दूसरों के दिल जीतने का प्रयास करने की प्रकृति क्या है? यह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना है; यह एक मसीह-विरोधी का व्यवहार और सार है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे होड़ करने का सार और भी गंभीर बात है; ऐसा करने वाले लोग परमेश्वर के दुश्मन हैं। इस तरह से मसीह-विरोधियों को परिभाषित और श्रेणीबद्ध किया जाता है और यह पूरी तरह से सटीक है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी समस्या को सटीक रूप से प्रकट किया। टीम अगुआ बनने के बाद से, मैंने हर काम को खुद ही संभालने की कोशिश की थी। बाहरी तौर पर, मैं एक समझदार और विचारशील टीम अगुआ था जो अपने भाई-बहनों की हर काम में सक्रिय रूप से मदद करता था, लेकिन मेरी असली मंशा और लक्ष्य अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम करना, लोगों का दिल जीतना और उनकी प्रशंसा प्राप्त करना था। यह तो एक प्रकार की धोखाधड़ी और चालाकी थी! मैं बड़े लाल अजगर के अधीन काम करने वाले अधिकारियों जैसा ही था, जो थोड़ा बहुत काम करके इस बात का दिखावा करने के लिए साधारण लोगों को धोखा देते हैं कि वे असल में “जनता की सेवा” कर रहे हैं, ताकि लोग उनके प्रति श्रद्धा रखें और उनके गुण गाएँ। मैं भी ठीक वैसा ही था—बाहर से मैं अपने कर्तव्य का पालन करने में व्यस्त था, लेकिन अंदर ही अंदर मैं चाहता था कि लोग मुझे मेहनती समझें, और मेरी प्रशंसा और आराधना करें। क्योंकि मैं खुद ही हर काम संभालता था, किसी और को अपने कर्तव्य का अभ्यास करने का ज्यादा मौका ही नहीं मिला। फिर भी वे मेरी प्रशंसा करते रहे, यहाँ तक कि जब भी उन्हें कोई समस्या होती थी, वे परमेश्वर को नहीं ढूँढ़ते थे, बल्कि मुझ पर भरोसा करते थे कि मैं उसे हल कर दूँगा। उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मैं अपना कर्तव्य बिल्कुल भी सही तरीके से नहीं निभा रहा था! साफ तौर पर, मैं बुराई कर रहा था और मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और सत्य सिद्धांतों को खोजने में मेरा मार्गदर्शन करने को कहा, ताकि मैं अपनी समस्याओं का समाधान कर सकूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर काम करना बंद कर दूँ।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, न ही अत्यधिक कार्य करने की जरूरत है, या ‘खिलने वाला एकमात्र फूल’ या सबसे अलग सोचने वाला बनने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय तुम्हें सीखना है कि दूसरों के साथ मिल-जुलकर कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करनी हैं और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी सामर्थ्य और रोशनी है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। कभी-कभी तुम एक ही वाक्य से किसी समस्या का समाधान कर सकते हो और सभी को लाभान्वित कर सकते हो; कभी-कभी सत्य के एक ही कथन पर तुम्हारी संगति के बाद हर किसी के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, और वह एक-साथ मिलकर काम करने में सक्षम होता है, और सभी एक समान लक्ष्य के लिए प्रयास करते हैं, और समान विचार और राय रखते हैं, और इसलिए काम विशेष रूप से प्रभावी होता है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि किसी को याद ही न रहे कि यह भूमिका तुमने निभाई है, और शायद तुम्हें भी ऐसा महसूस न हो मानो तुमने कोई बहुत अधिक प्रयास किए हों, लेकिन परमेश्वर देखेगा कि तुम वह इंसान हो जो सत्य का अभ्यास करता है, जो सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। तुम्हारे ऐसा करने पर परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। इसे कहते हैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने अपनी समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखा और कुछ अभ्यास के मार्ग पाए। अगर मुझे अपना कर्तव्य सही तरीके से निभाना है, तो मुझे दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण तालमेल करना सीखना होगा, और इस पर ध्यान देना होगा कि वे अपनी क्षमताओं का उपयोग कर सकें। एक अकेला व्यक्ति कितने ही काम कर सकता है—कोई भी अकेले सारे काम नहीं कर सकता। हम तभी अपने कर्तव्यों में अच्छे नतीजे प्राप्त कर सकते हैं, जब हम सभी एक दिल और एक मन होकर काम करें और जब हम सभी की अपनी-अपनी क्षमताओं का उपयोग हो। जब लोगों की मंशाएँ सही होती हैं, अर्थात् कलीसिया के कार्य की रक्षा करने की होती हैं, केवल तभी वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप अपने कर्तव्य निभा रहे होते हैं। यह एक व्यक्ति द्वारा सारा काम अपने ऊपर लेने की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी होता है। पहले, मैं न केवल इधर-उधर भागते हुए खुद को थका देता था और अकेले ही चमकने की कोशिश करता था, बल्कि अपने कर्तव्यों में भी गड़बड़ कर देता था। मेरे भाई-बहनों की क्षमताओं का बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया गया, और बहुत-से महत्वपूर्ण कामों में देरी हो गई। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन की तुलना अपने व्यवहार से करते हुए, आखिरकार मैं समझ गया कि परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है कि अपने कर्तव्य में हमेशा दिखावा करना और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग न करना कलीसिया के कार्य को बाधित करता है।

इसके बाद, मैंने पूरे होशोहवास में परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाना शुरू किया। फिर मैंने कामों को तार्किक रूप से बाँटा : मैंने मुख्य रूप से प्रमुख कामों की खोज-खबर लेने की जिम्मेदारी उठाई, और अन्य कामों को उनके क्षेत्रों की विशेषज्ञता के आधार पर उपयुक्त भाई-बहनों को सौंपा। जब दूसरों को ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ा जिन्हें वे हल नहीं कर सकते थे, तो हम सभी ने एक साथ मिलकर सिद्धांतों की खोज की। एक बार जब भाई-बहनों ने सिद्धांतों को समझ लिया, तो स्वाभाविक रूप से अपने कर्तव्य निभाने के लिए उनके पास एक दिशा और मार्ग था। अब जब मैं कुछ समय से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर रहा हूँ, तो मुझे लगता है कि मेरे भाई-बहन अपने कर्तव्यों में पहले से अधिक बोझ उठा रहे हैं। वे पहल कर सकते हैं और समस्याओं को हल करने के लिए सिद्धांतों की खोज कर सकते हैं, और वे परमेश्वर पर निर्भर होकर कुछ कामों को स्वतंत्र रूप से पूरा कर सकते हैं। कभी-कभी, जब मैं अपनी जिम्मेदारी वाले कार्यों में कठिनाइयों का सामना करता हूँ, तो मैं भी भाई-बहनों से मदद माँगता हूँ, और इससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इस प्रकार सहयोग करते हुए हमारी टीम को अपने काम में बेहतर नतीजे प्राप्त हो रहे हैं। भाई-बहन विभिन्न स्तरों पर अभ्यास करने में सक्षम हैं और उन्होंने कुछ प्रगति की है। मैं अब कहीं अधिक सुकून और शांति महसूस करता हूँ। धीरे-धीरे, मुझे अपने कार्य में समस्याओं पर चिंतन करने का समय मिलने लगा है, और मैंने फिर से अनुभव की गवाही वाले लेख सामान्य रूप से लिखना शुरू कर दिया है। मैं अब पहले जितना व्यस्त नहीं दिखता, लेकिन मुझे कार्य में गलतियों और समस्याओं की पहचान करना आसान लगने लगा है, और अपना कर्तव्य निभाने में मेरी दक्षता भी बढ़ गई है।

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