64. एक झूठे अगुआ का जागना
2019 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और मैंने अपने मन में कसम खाई कि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगी। अपना नया पद संभालने के बाद मैं हर दिन सभाओं में व्यस्त रहती थी, अपने भाई-बहनों के कर्तव्यों में आने वाली मुश्किलें और समस्याएँ सुलझाती थी और हमारे काम की प्रगति का जायजा लेती थी। इन सब से मुझे बहुत संतुष्टि मिलती थी। कुछ समय बाद चूँकि मुझे कुछ सामान्य मामलों के काम संभालने पड़े तो मेरा कार्यभार बहुत बढ़ गया। मैं हर दिन देर तक काम करती थी और लगता था कि मैं मुश्किल से ही काम पूरा कर पा रही हूँ। मैंने मन ही मन सोचा, “पूरे काम का प्रभार संभालने के चलते मुझे कई चीजों की चिंता करनी पड़ती है और इससे बहुत थकान हो जाती है। हर दिन मेरा दिमाग चक्करघिन्नी की तरह घूमता रहता है। यह सिर्फ एक ही तरह का कर्तव्य निभाने जितना आसान नहीं है।” बाद में मैं एक समूह की सभा में गई जिसकी देखरेख बहन झाओ जिंग कर रही थी। मैंने सोचा, “पहले जब मैं झाओ जिंग की साझेदार थी तो वह अपने कर्तव्यों में बहुत जिम्मेदार रहती थी और अपने सामने आने वाली किसी भी मुश्किल को सुलझाने के लिए सक्रियता से सत्य की तलाश करती थी। वह इस समूह में काम की देखरेख करती है, इसलिए मुझे बहुत ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है।” उसके बाद मैं शायद ही कभी उसके समूह की सभाओं में गई। एक शाम को कुछ भाई-बहनों ने यह बताने के लिए पत्र लिखा कि झाओ जिंग के समूह के काम में कुछ गलतियाँ और समस्याएँ हैं और उन्होंने मुझसे जल्द समस्याएँ सुलझाने को कहा। मेरा इरादा पहले से ही परमेश्वर के वचनों की खोज करने और समाधान तलाशने का था, लेकिन मैंने देखा कि इन समस्याओं को इतने कम समय में नहीं सुलझाया जा सकता, मैंने सोचा, “बहुत देर हो चुकी है और मैं बहुत थक गई हूँ। मैं यह काम अभी नहीं कर सकती। इसके अलावा, मैंने पहले ही इन गलतियों और समस्याओं के बारे में झाओ जिंग को पत्र लिख दिया है। वह जिम्मेदार इंसान है, इसलिए मुझे यकीन है कि वह संगति करने और उन्हें सुलझाने की पहल करेगी और मुझे खुद इसके लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। अगर मैं सब कुछ खुद ही करूँगी तो फिर मैं कोई भी काम कैसे करवा पाऊँगी? मैं बस इस बारे में समूह की सभा में संगति कर लूँगी।” बाद में जब मैंने इस पर गौर किया तो मैंने देखा कि झाओ जिंग पहले ही समूह के साथ संगति चुकी है और हर कोई इन समस्याओं के बारे में अभ्यास के मार्ग सुझाने में सक्षम है, जिससे मुझे और ज्यादा विश्वास हो गया कि झाओ जिंग के प्रभारी रहते मुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। उसके बाद मैंने समूह के काम के बारे में फिर नहीं पूछा।
कुछ समय बाद मैं झाओ जिंग के समूह की एक और सभा में गई। मैंने पाया कि अपनी अवस्था के बारे में उसकी संगति बहुत अप्रत्यक्ष है, बिना स्पष्टता के वह बहुत देर तक बोलती रही। मैंने मन ही मन सोचा, “क्या उसकी अवस्था खराब है? वह इतनी असंगत क्यों है?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “शायद वह सिर्फ इसलिए घबराई हुई है क्योंकि मैं यहाँ हूँ। जब वह खुद को थोड़ा व्यवस्थित कर लेगी तो ठीक हो जाएगी। मेरे पास और भी काम हैं, इसलिए शायद मुझे चले जाना चाहिए और उसे सभा करने देनी चाहिए।” और इसलिए मैं उसके साथ संगति किए बिना ही चली गई। बाद में मुझे पता चला कि समूह का काम अप्रभावी हो गया है। मैंने सोचा, “क्या समूह में कोई समस्या है?” लेकिन फिर मैंने विचार किया, “वे सिर्फ अपने कर्तव्य की समस्याओं और गलतियों के बारे में संगति कर रहे थे। मुझे यकीन है कि हर कोई अभी ठीक रास्ते पर वापस आ रहा है, इसलिए उनके काम का अभी कम फलदायी होना सामान्य है।” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने इसके बारे में और नहीं सोचा। बाद में बहन वांग शिनरुई ने मुझे बताया कि झाओ जिंग को रुतबे का जुनून है, वह दूसरों के साथ तालमेल से सहयोग नहीं कर सकती और वह समूह अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं है। मैंने सोचा, “झाओ जिंग अपने रुतबे पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देती है, लेकिन उसे अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी का एहसास है। अगर वह दूसरों के साथ तालमेल से सहयोग नहीं कर सकती तो इसकी वजह अभी उसकी अवस्था खराब होना है और वह अपने भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में है। उसे बस खुद को ठीक करने के लिए कुछ समय चाहिए।” यह सोचते हुए मैंने शिनरुई से कहा, “झाओ जिंग अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार है और वह अभी भी समूह अगुआ का काम कर सकती है। अगर वह भ्रष्टता बेनकाब करती है तो हमें उसकी और मदद करनी चाहिए और उसकी समस्याएँ उजागर करके उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। मैं आज व्यस्त हूँ, इसलिए मेरे पास समय नहीं है, लेकिन मैं बाद में उसके साथ संगति करूँगी।” शिनरुई ने मेरी बात सुनकर और कुछ नहीं कहा। बाद में मैं अन्य कार्यों में व्यस्त हो गई और झाओ जिंग के साथ संगति करना भूल गई। एक रात को मुझे अचानक याद आया, “अरे नहीं, मैं तो झाओ जिंग की अवस्था बारे में भूल ही गई। क्या मुझे उसकी अवस्था का पता लगाना चाहिए?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “उसकी काबिलियत अच्छी है और जब पहले उसकी अवस्था खराब थी तो वह सत्य की तलाश करके तुरंत खुद ही उसका समाधान कर पाई थी। वह इस बार भी खुद को ठीक कर लेगी। और फिर, वह बहुत दूर रहती है। अगर मैं वहाँ गई तो बहुत थक जाऊँगी और वह घर पर नहीं हुई तो क्या मेरी यात्रा बेकार नहीं जाएगी? रहने दो, मैं महीने के अंत में इसे देख लूँगी।” महीने के अंत में जब मैं उनके काम का निरीक्षण करने गई तो मैं पूरी तरह से हैरान रह गई। झाओ जिंग के काम में बहुत सारी समस्याएँ और गलतियाँ थीं और उसके काम के नतीजे न्यूनतम हो गए थे। जिन भाई-बहनों की वह देखरेख करती थी, वे सभी नकारात्मक अवस्था में थे और उनके काम पर बहुत बुरा असर पड़ा था। तभी मुझे एहसास हुआ कि चीजें कितनी गंभीर हैं। मैं जल्दी से संगति करने के लिए झाओ जिंग के पास गई और उसकी समस्याएँ बताई, लेकिन उसने इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया, बहस की, खुद को सही ठहराने की कोशिश की और दिखाया कि उसे अपने बारे में कोई जानकारी नहीं है। उसके बारे में अपनी साझेदार के साथ बात करके हमने फैसला किया कि झाओ जिंग अब समूह अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं है और आखिरकार उसे बर्खास्त कर दिया। उसके बाद भाई-बहनों ने भी रिपोर्ट दी कि झाओ जिंग वाकई ईर्ष्यालु थी, अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करती थी और विवादों में उलझी रहती थी। इसके चलते एक बहन उससे बेबस हो गई, दब गई और उसने अपना कर्तव्य छोड़ना चाहा। वांग शिनरुई ने झाओ जिंग की स्थिति के बारे में रिपोर्ट की थी, लेकिन उसे झाओ जिंग ने दबाया और बहिष्कृत कर दिया। अन्य बहनें भी झाओ जिंग से बेबस महसूस करती थीं और उनके कर्तव्य प्रभावित होते थे, जिससे कई महीनों तक काम में बाधा आई। झाओ जिंग के बर्खास्त होने के बाद न सिर्फ उसने पश्चात्ताप नहीं किया, बल्कि उसने दरअसल दूसरों से बदला लिया। उजागर होने पर भी उसे अपने बुरे कर्मों का कोई एहसास नहीं हुआ और न ही उसे कोई पछतावा हुआ। चूँकि मैं वास्तविक कार्य करने में विफल रही थी, अपने कर्तव्य की उपेक्षा की थी और समय रहते झाओ जिंग को बर्खास्त नहीं किया था, जिससे कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान हुआ था तो बाद में मुझे भी बर्खास्त कर दिया गया। इससे मैं बहुत दुखी हो गई। तभी मैंने खुद से पूछना शुरू किया कि मैं इतनी अंधी क्यों हो गई थी कि झाओ जिंग की पुरानी ईर्ष्या और कलह, साथ ही कलीसिया के काम में उसके द्वारा गंभीर बाधा डालने और गड़बड़ी पैदा करने को नहीं पहचान सकी। तब मैं सिर्फ इतना समझी कि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर रही थी और दूसरों को पहचानने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही थी, लेकिन मैंने कभी भी अपना भ्रष्ट स्वभाव समझने या उसका गहन-विश्लेषण करने पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया।
एक सभा में परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ने के बाद ही मुझे अपने बारे में कुछ समझ मिली, जिसमें वास्तविक कार्य न करने वाले झूठे अगुआओं के व्यवहार को उजागर किया गया है। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “नकली अगुआ कभी भी विभिन्न टीम सुपरवाइजरों की कार्य स्थितियों के बारे में नहीं पूछते या उनकी निगरानी नहीं करते। वे विभिन्न टीमों के सुपरवाइजरों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कार्मिकों के जीवन प्रवेश के साथ ही कलीसिया के कार्य और उनके कर्तव्यों के साथ-साथ परमेश्वर में आस्था, सत्य और स्वयं परमेश्वर के प्रति उनके रवैयों के बारे में भी न तो पूछते हैं, न ही इसकी निगरानी करते हैं या इस बारे में समझ रखते हैं। वे नहीं जानते कि इन व्यक्तियों में कोई परिवर्तन या विकास हुआ है या नहीं, न ही वे उनके कार्य से जुड़ी विभिन्न संभावित समस्याओं के बारे में जानते हैं; खासकर वे कार्य के विभिन्न चरणों में होने वाली त्रुटियों और विचलनों के कारण कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में नहीं जानते, साथ ही वे यह भी नहीं जानते कि इन त्रुटियों और विचलनों को कभी सुधारा गया है या नहीं। वे इन सभी चीजों से पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हैं। अगर उन्हें इन विस्तृत स्थितियों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता तो समस्याएँ आने पर वे निष्क्रिय हो जाते हैं। परंतु, नकली अगुए अपना काम करते समय इन विस्तृत मुद्दों की बिल्कुल परवाह नहीं करते। वे मानते हैं कि विभिन्न टीम सुपरवाइजरों की व्यवस्था करने और उन्हें काम सौंप देने पर उनका कार्य पूरा हो जाता है—इसे काम को अच्छी तरह से करना समझा जाता है और यदि अन्य समस्याएँ आती हैं तो वे उनकी चिंता का विषय नहीं हैं। चूँकि नकली अगुआ विभिन्न टीम सुपरवाइजरों की देख-रेख करने, उनका निर्देशन करने और उन पर निगरानी रखने में विफल रहते हैं और इन क्षेत्रों में अपनी जिम्मेदारियों को अच्छे से नहीं निभाते, नतीजतन कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी हो जाती है। इसे ही अगुआओं और कार्यकर्ताओं का अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही बरतना कहते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। “क्या तुम्हें लगता है कि नकली अगुआ बेवकूफ होता है? वे बेवकूफ और मूर्ख होते हैं। उन्हें क्या चीज बेवकूफ बनाती है? वे यह मानते हुए लोगों पर सहर्ष विश्वास कर लेते हैं कि चूँकि जब उन्होंने इस व्यक्ति को चुना था, तो इस व्यक्ति ने शपथ ली थी, संकल्प किया था और आँसू बहाते हुए प्रार्थना की थी, यानी वह भरोसे के लायक है और काम का प्रभार लेते हुए उसके साथ कभी कोई समस्या नहीं होगी। नकली अगुआओं को लोगों की प्रकृति की कोई समझ नहीं होती; वे भ्रष्ट मानव-जाति की असल स्थिति से अनजान होते हैं। वे कहते हैं, ‘पर्यवेक्षक के रूप में चुने जाने के बाद कोई कैसे बदल सकता है? इतना गंभीर और विश्वसनीय प्रतीत होने वाला व्यक्ति कामचोरी कैसे कर सकता है? वह कामचोरी नहीं करेगा, है न? उसमें बहुत ईमानदारी है।’ चूँकि नकली अगुआओं की अपनी कल्पनाओं और अनुभूतियों में बहुत ज्यादा आस्था होती है, यह अंततः उन्हें कलीसिया के काम में उत्पन्न होने वाली कई समस्याओं का समय पर समाधान करने में असमर्थ बना देती है, और संबंधित पर्यवेक्षक को तुरंत बर्खास्त करने और उसे दूसरी जगह भेजने से रोकता है। वे प्रामाणिक नकली अगुआ हैं। और यहाँ मुद्दा क्या है? क्या नकली अगुआओं के अपने काम के प्रति रवैये का अन्यमनस्कता से कोई संबंध है? एक लिहाज से वे देखते हैं कि बड़ा लाल अजगर पागलों की तरह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की गिरफ्तारियाँ कर रहा है, इसलिए वे खुद को सुरक्षित रखने के लिए यद्दृच्छया किसी को भी प्रभारी चुन लेते हैं कि इससे उनकी समस्या सुलझ जाएगी और उन्हें इस पर और ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होगी। वे मन ही मन क्या सोचते हैं? ‘यह बहुत ही शत्रुतापूर्ण परिवेश है, कुछ समय के लिए मुझे छिप जाना चाहिए।’ यह भौतिक सुखों का लोभ है, है न? एक अन्य संदर्भ में नकली अगुआओं में यह घातक कमी होती है कि यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? नकली अगुआ बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, ‘मैं इस व्यक्ति को परखने में गलत नहीं रहा हो सकता। जिस व्यक्ति को मैंने उपयुक्त समझा है, उसके साथ कोई समस्या नहीं होनी चाहिए; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो खाने, पीने और मस्ती करने में रमा रहे, आराम पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?’ यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या तुममें विशेष कौशल है? तुम किसी व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसके प्रकृति सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनका प्रकृति सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? किसी के साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर नकली अगुआ प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते है और ऐसे व्यक्ति को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या वे अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? क्या वे उतावली से काम नहीं ले रहे हैं? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))।
परमेश्वर ने उजागर किया कि झूठे अगुआ आलसी होते हैं, आराम की लालसा रखते हैं और अपने कर्तव्यों में पूरी तरह से गैर-जिम्मेदार होते हैं। एक बार जब वे किसी को प्रभार सौंपते हैं तो झूठे अगुआ अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर उन पर आसानी से भरोसा कर लेते हैं। वे न तो काम का जायजा लेते हैं और न ही उसकी निगरानी करते हैं, इसकी जाँच करने के लिए कीमत भी चुकाना नहीं चाहते। जहाँ भी संभव हो, वे बच निकलते हैं, जिसके कारण कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान होता है। जब परमेश्वर ने झूठे अगुआओं के वास्तविक काम न करने के विभिन्न व्यवहारों को उजागर किया तो लगा जैसे परमेश्वर मेरे सामने ही मुझे उजागर कर रहा है। यह बहुत असहज था और मुझे अपराध-बोध हुआ। एक अगुआ के रूप में मैं अपने कर्तव्य के प्रति बहुत गैर-जिम्मेदार थी। खुद को चिंता और दैहिक कष्टों से बचाने के लिए मैं धूर्त बन गई और काम का जायजा नहीं लिया। मैंने झाओ जिंग के बारे में बस अपनी प्रारंभिक धारणा पर भरोसा किया, सोचा कि वह अपने कर्तव्य में जिम्मेदार है और समूह अगुआ के रूप में उपयुक्त है, इसलिए मैंने पल्ला झाड़ने का रवैया अपनाना शुरू कर दिया और उसके काम की निगरानी नहीं की। जब मैंने देखा कि उसके काम से अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे हैं और मुझे इस समस्या को सुलझाने के लिए कष्ट सहना होगा और कीमत चुकानी पड़ेगी, मैंने वास्तविक काम नहीं किया और इसके बजाय खुद को व्यस्त रखने के लिए बहाने बनाए, कहा कि हर कोई अभी भी स्थिति के अनुसार खुद को ढाल रहा है और वे जल्द ही सही रास्ते पर आ जाएँगे। जब दूसरों ने बताया कि झाओ जिंग में समस्याएँ हैं और वह अनुपयुक्त समूह अगुआ है, तब भी मैंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मान लिया यह भ्रष्टता का अस्थायी तौर पर प्रकट होना ही है और इससे उसके कर्तव्य पर असर नहीं पड़ेगा। मैंने झाओ जिंग की समस्याएँ सुलझाने में बार-बार देरी की, जब तक कि समूह का काम रुक नहीं गया और मेरे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में भारी नुकसान हुआ। मैं बहुत जिद्दी, मूर्ख और गैर-जिम्मेदार थी। मैं झूठी अगुआ थी जो आराम चाहती थी और वास्तविक काम नहीं करती थी! सच तो यह है कि मेरे साथ ही कलीसिया द्वारा चुने गए अगुआ और कार्यकर्ता पूर्ण नहीं बनाए गए हैं; हममें कई भ्रष्ट स्वभाव हैं और हम किसी भी समय अपने कर्तव्यों में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा कर सकते हैं। भले ही हम अच्छा व्यवहार करते दिखें, इसका मतलब यह नहीं है कि हम किसी काम के लायक हैं। हम सत्य नहीं समझते हैं और लोगों का सार देखे बिना हम सिर्फ उनकी शक्ल-सूरत देखते हैं, इसलिए हमें काम के प्रति जिम्मेदार होने के लिए बार-बार काम का जायजा लेने और निगरानी करने की जरूरत है। मैंने सत्य नहीं समझा और लोगों को नहीं पहचाना, लेकिन मुझमें अंधा आत्मविश्वास था इसलिए मैंने कलीसिया के काम को बहुत नुकसान पहुँचाया और मेरे लिए बस अपराध और भ्रष्टता ही रह गई। इसका एहसास होने पर मुझे बहुत पछतावा हुआ। अगर मैं इतनी आत्मतुष्ट, आलसी या आराम की लालची नहीं होती तो जब शिनरुई ने मुझे झाओ जिंग के बारे में याद दिलाया था, तभी मैंने समय रहते इस मुद्दे की जाँच, खोज और समाधान करके झाओ जिंग को बर्खास्त कर दिया होता तब मेरी वजह से कलीसिया के काम में इतनी देर नहीं होती। मैं न सिर्फ अपने कर्तव्य में कलीसिया के काम को लाभ पहुँचाने में विफल रही, बल्कि मैंने शैतान के अनुचर के रूप में काम किया और झूठे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बचाया। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही व्यथित और दुखी हुई। मैंने सोचा कि जब देहधारी परमेश्वर कार्य करता है तो वह व्यावहारिक रूप से कष्ट सहता है और कीमत चुकाता है। हमारी सारी भ्रष्टता और कमियों के जवाब में परमेश्वर अथक रूप से सत्य की संगति करता है, हमारा साथ देता है और हमारी मदद करता है, हमें शैतान की शक्ति से पूरी तरह से बचाने के लिए अपने सभी श्रमसाध्य प्रयास करता है। लेकिन मैं एक ऐसी सृजित प्राणी हूँ जो सत्य नहीं समझती थी, अंधी थी और चीजें साफ नहीं देख पाती थी और मैं वाकई अपने कर्तव्यों में कष्ट झेलना या कीमत चुकाना नहीं चाहती थी। मैं समय रहते समस्याएँ नहीं सुलझाना चाहती थी और मैंने काम को बहुत नुकसान पहुँचाया। इस तरह से अपने कर्तव्य निभाना वाकई परमेश्वर के लिए घृणित और घिनौना था! इन बातों का एहसास होने पर मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं गलत थी। मैं आत्म-चिंतन करना चाहती हूँ और तुमसे पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”
मैंने कुछ और अंश पढ़े जिनमें परमेश्वर झूठे अगुआओं को उजागर करता है : “कलीसिया का कार्य सिर्फ इसलिए रुक जाता है क्योंकि नकली अगुआ गंभीर रूप से अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं, वास्तविक कार्य नहीं करते या कार्य की खोज-खबर नहीं लेते और उसकी निगरानी नहीं करते और समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में असमर्थ होते हैं। बेशक, इसका यह कारण भी है कि नकली अगुआ रुतबे के लाभों में लिप्त होते हैं, सत्य का लेशमात्र भी अनुसरण नहीं करते और सुसमाचार फैलाने के कार्य की खोज-खबर लेने, निरीक्षण या निर्देशन करने को तैयार नहीं होते—लिहाजा कार्य धीमी गति से आगे बढ़ता है और बहुत-से मानव-जनित भटकाव, बेतुकेपन और लापरवाह गलत काम मुस्तैदी से सुधारे या सुलझाए नहीं जाते, जिससे सुसमाचार फैलाने की प्रभावशीलता पर गंभीर असर पड़ता है। जब ऊपरवाले को इन समस्याओं का पता चलता है और अगुआओं और कार्यकर्ताओं को बताया जाता है कि उन्हें इनको ठीक करना चाहिए, तभी ये समस्याएँ सुधारी जाती हैं। अंधे लोगों की तरह ये नकली अगुआ किसी भी समस्या का पता नहीं लगा पाते, उनके काम करने के तरीके में कोई भी सिद्धांत नहीं होता, तो भी वे अपनी ही गलतियों का एहसास करने में अक्षम होते हैं और ऊपरवाले द्वारा काट-छाँट किए जाने के बाद ही वे अपनी त्रुटियाँ स्वीकार करते हैं। तो इन नकली अगुआओं द्वारा पहुँचाई गई हानि की जिम्मेदारी भला कौन उठा सकता है? उन्हें उनके पदों से हटाने के बावजूद वे जो हानि पहुँचा चुके हैं उसकी भरपाई कैसे की जा सकती है? इस प्रकार जब यह पता चले कि कोई भी वास्तविक कार्य करने में अक्षम नकली अगुआ मौजूद हैं, तो उन्हें तुरंत बरखास्त कर देना चाहिए। कुछ कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य खासी धीमी गति से आगे बढ़ता है और यह केवल नकली अगुआओं के वास्तविक कार्य न करने और साथ ही उनकी ओर से उपेक्षा और गलतियाँ करने के अनेक उदाहरणों के कारण होता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। “नकली अगुआओं द्वारा किए जानेवाले कार्य की विभिन्न मदों में दरअसल ऐसे अनगिनत मसले, भटकाव और खामियाँ होती हैं जिनका उन्हें समाधान करने, दुरुस्त करने और उपचार करने की जरूरत है। लेकिन ये नकली अगुआ दायित्व की भावना न होने, बिना कोई वास्तविक कार्य किए सिर्फ रुतबे के लाभों में लिप्त रहने के कारण कार्य को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। कुछ कलीसियाओं में लोग एक-मन नहीं होते, सभी लोग दूसरों पर शक करते हैं, एक-दूसरे से सतर्क रहते हैं, एक-दूसरे को नीचे गिराते हैं और पूरा समय परमेश्वर के घर द्वारा हटा दिए जाने से डरते रहते हैं। इन स्थितियों का सामना होने पर नकली अगुआ उनका समाधान करने के लिए कदम नहीं उठाते और कोई भी वास्तविक, विशिष्ट कार्य करने में विफल होते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। “बाहरी तौर पर देखें तो नकली अगुआ मसीह-विरोधियों की तरह जानबूझकर असंख्य बुरे काम नहीं कर रहे होते, न ही अपने तरीके से काम कर रहे होते हैं और न अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर रहे होते हैं। लेकिन नकली अगुआ कलीसिया के कार्य में आने वाली विभिन्न समस्याओं को तुरंत हल करने में सक्षम नहीं होते और जब विभिन्न टीमों के सुपरवाइजरों में समस्याएँ आती हैं और जब ये सुपरवाइजर अपने कार्य की जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ होते हैं तो नकली अगुआ उनके कर्तव्यों को तुरंत बदल नहीं पाते या उन्हें बरखास्त नहीं कर पाते, जिससे कलीसिया के कार्य को गंभीर नुकसान होता है। और इस सबका कारण यह है कि नकली अगुआ अपनी जिम्मेदारी में लापरवाही बरतते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। परमेश्वर झूठे अगुआओं की लापरवाही उजागर करता है : असल में कैसे वे काम का जायजा नहीं लेते या उसकी जाँच नहीं करते, कैसे वे प्रभारी लोगों की निगरानी और निरीक्षण नहीं करते और कैसे इसके कारण काम की कई समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता है, जिससे कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान होता है। अपने क्रियाकलापों पर आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि चूँकि मैं आराम चाहती थी, इसलिए मैंने अपने कर्तव्य की उपेक्षा की, गैर-जिम्मेदार रही, और झाओ जिंग के काम की निगरानी या जाँच किए बिना अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा किया। जब दूसरों ने उसकी समस्याओं के बारे में बताया तो मैंने उनकी उपेक्षा की, वास्तविक मुद्दे नहीं सुलझाए या उसे समय पर बर्खास्त नहीं किया, जिससे उसे लंबे समय तक ईर्ष्या और विवादों में फँसे रहने, समूह को अस्त-व्यस्त करने और अपने कर्तव्य में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभाने का मौका मिला। इससे समूह का काम महीनों तक अप्रभावी रहा और प्रगति में गंभीर रूप से देरी हुई। जब उसके भाई-बहन उसे सलाह देते तो वह उन्हें दबाती, बहिष्कृत करती और उन्हें लंबे समय तक दबाव में रखती जिससे समूह अपने कर्तव्यों में बेबस और लापरवाह हो जाता था। और फिर भी मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था, यहाँ तक कि मैं हमेशा सोचती रही कि वह अच्छा कर रही है। एक अगुआ के रूप में न सिर्फ मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रही, बल्कि कलीसिया के काम से जुड़ी कई समस्याओं को समय पर पहचानने और सुलझाने में असमर्थ रही, जबकि वे मेरे सामने ही थीं। इससे कलीसिया के काम और मेरे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को बहुत नुकसान हुआ। मैं अपने कर्तव्यों में गंभीर रूप से लापरवाह थी! भले ही मैंने कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डालने के लिए जानबूझकर एक मसीह-विरोधी की तरह बुराई नहीं की, लेकिन मेरे कर्तव्य की उपेक्षा ने कलीसिया के काम को गंभीर नुकसान पहुँचाया। मुझे इतनी अंधी, नासमझ और गैर-जिम्मेदार होने के लिए खुद से नफरत हो गई कि मैंने परमेश्वर की उपस्थिति में अपराध किया। मुझे गहरा दुख और अपराध बोध हुआ और लगा कि मैं परमेश्वर के साथ-साथ अपने भाई-बहनों की भी ऋणी हूँ।
बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया। मैं हमेशा अपने देह-सुख के बारे में क्यों सोचती रहती थी, अपने कर्तव्य में झूठी और गैर-जिम्मेदार क्यों रहती थी? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जो मेरे लिए बहुत मददगार था। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है। शैतान का हर काम अपनी आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं और उद्देश्यों के लिए होता है। वह परमेश्वर से आगे जाना चाहता है, परमेश्वर से मुक्त होना चाहता है, और परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों पर नियंत्रण पाना चाहता है। आज लोग शैतान द्वारा इस हद तक भ्रष्ट कर दिए गए हैं : उन सभी की प्रकृति शैतानी है, वे सभी परमेश्वर को नकारने और उसका विरोध करने की कोशिश करते हैं, और वे अपने भाग्य पर अपना नियंत्रण चाहते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का विरोध करने की कोशिश करते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाओं बिल्कुल शैतान की महत्वाकांक्षाओं और भूख जैसी हैं। इसलिए, मनुष्यों की प्रकृति शैतान की प्रकृति है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करके मुझे एहसास हुआ कि मैं आलसी थी, अपने कर्तव्य के प्रति गैर-जिम्मेदार थी और मेरे पास अंतरात्मा और विवेक की कमी थी, मुख्यतः इसलिए क्योंकि अस्तित्व का शैतानी नियम “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” मेरे अंदर इतनी गहराई तक समा चुका था, यही मेरी प्रकृति बन गई थी। मैं हमेशा इसके अनुसार जीती थी, हर चीज में सिर्फ अपने दैहिक हितों के बारे में सोचती था और बहुत स्वार्थी और नीच बनती जा रही थी। जब किसी बात को लेकर मुझे ज्यादा चिंता होती और कष्ट होता या ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती तो इससे बचने के लिए मैं छल-कपट का सहारा लेती और कम से कम कष्ट सहने के लिए हर संभव प्रयास करती। जब मैंने देखा कि पूरे काम का प्रभार लेने के लिए और चिंता करनी होगी और कष्ट सहना पड़ेगा तो मैंने इसके बजाय एक ही तरह का काम करना चाहा। जब मेरा कार्यभार बढ़ गया तो मैंने कम चिंता करना चाहा और कम कीमत चुकानी चाही, जिसके कारण मैंने झाओ जिंग के काम से अपना पल्ला झाड़ लिया। बाद में जब मैंने उसे बुरी स्थिति में देखा तो मैं आलसी हो गई और इसे सुलझाना नहीं चाहा। हालाँकि शिनरुई ने मुझे याद दिलाया कि वह काम के लायक नहीं है तो मैंने काम में व्यस्त होने का बहाना बनाकर झाओ जिंग के मामले की जाँच और पुष्टि टाल दी जब तक कि यह इतना गंभीर नहीं हो गया कि उसे बर्खास्त करना पड़ा। कलीसिया ने मुझे एक अगुआ के रूप में चुना और मुझे अभ्यास करने का मौका दिया, उम्मीद जताई में कि मैं जिम्मेदारी लूँगी और अपना कर्तव्य निभाऊँगी। लेकिन मैंने क्या किया? अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के बारे में सोचने के बजाय मैंने आराम की लालसा के अलावा कुछ नहीं किया, वही करती रही जिससे मुझे कम से कम चिंता और कष्ट हुए। मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा और परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का बहुत आनंद लिया था, लेकिन जब मुझसे कोई भी अपेक्षा की जाती तो मैं सिर्फ अपने आराम की परवाह करती थी, वास्तविक कार्य नहीं करती थी। मैं स्वार्थी और नीच थी, मैंने परमेश्वर से घृणा की! मुझे अपनी मानवता और विवेक की कमी से नफरत हुई और मैं परमेश्वर के नेक इरादे पर खरा नहीं उतर पाई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने अपने देह-सुख की परवाह की और वास्तविक कार्य नहीं किया, जिससे कलीसिया के कार्य को बहुत नुकसान हुआ। मैं तुमसे पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। भविष्य में चाहे मेरा कर्तव्य कुछ भी हो, मैं अपने देह-सुख के बारे में सोचना और आराम की लालसा करना नहीं चाहती। मैं जिम्मेदार बनना चाहती हूँ और अपना कर्तव्य व्यावहारिक तरीके से अच्छी तरह से निभाना चाहती हूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “हृदय रखने वाले लोग परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील रह पाते हैं; हृदयहीन लोग खाली खोल होते हैं, मूर्ख होते हैं, वे परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील होना नहीं जानते। उनकी मानसिकता यह होती है : ‘मुझे परवाह नहीं कि यह परमेश्वर के लिए कितना जरूरी है, मैं इसे जैसे चाहूँगा वैसे करूँगा—वैसे मैं आलस या निकम्मापन नहीं दिखा रहा।’ ऐसा रवैया, ऐसी नकारात्मकता, सक्रियता का पूर्णतया अभाव—यह कोई ऐसा इंसान नहीं है जो परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील है, न ही वह यह समझता है कि परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील कैसे हुआ जाए। इस स्थिति में, क्या उसमें सच्ची आस्था होती है? बिल्कुल नहीं। नूह परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील था, उसमें सच्चा विश्वास था, और इस प्रकार परमेश्वर के आदेश को पूरा कर पाया। तो केवल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और कुछ प्रयास करने का इच्छुक रहना ही पर्याप्त नहीं होता। तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील भी होना चाहिए, अपना सर्वस्व देना चाहिए और वफादार होना चाहिए—इसके लिए तुममें जमीर और विवेक होना जरूरी है; यही लोगों में होना चाहिए और यही नूह में था। तुम लोग क्या कहते हो, यदि नूह धीरे-धीरे काम करता, उसमें शीघ्रता का भाव न होता, कोई फिक्र न होती, कोई दक्षता न होती, उस समय इतनी बड़ी नाव बनाने में कितने साल लग जाते? क्या 100 साल में यह काम खत्म हो पाता? (नहीं।) अगर वह लगातार बनाता तो भी कई पीढ़ियाँ लग जातीं। एक ओर, नाव जैसी ठोस चीज के निर्माण में वर्षों लग जाते; इसके अलावा, सभी जीवों को इकट्ठा करने और उनकी देखभाल करने में भी वर्षों लगते। क्या इन जीवों को इकट्ठा करना आसान था? (नहीं।) यह आसान नहीं था। तो, परमेश्वर के आदेश सुनने के बाद, और परमेश्वर का उत्कट इरादा समझने के बाद, नूह ने महसूस किया कि यह न तो आसान होगा और न ही सीधा-सरल। उसे समझ आ गया कि उसे इसे परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार संपन्न कर परमेश्वर द्वारा दिया गया कार्य पूरा करना है, ताकि परमेश्वर संतुष्ट और आश्वस्त हो, ताकि परमेश्वर के कार्य का अगला चरण सुचारू रूप से आगे बढ़ सके। ऐसा था नूह का हृदय। और यह कैसा हृदय था? यह ऐसा हृदय था, जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील था” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो))। “कोई अगुआ या कर्मी चाहे जो भी महत्वपूर्ण कार्य करे, और उस कार्य की प्रकृति चाहे जो हो, उसकी पहली प्राथमिकता यह समझना और पकड़ना है कि कार्य कैसे चल रहा है। चीजों की खोज-खबर लेने और प्रश्न पूछने के लिए उन्हें व्यक्तिगत रूप से वहाँ होना चाहिए और उनकी सीधी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें केवल सुनी-सुनाई बातों के भरोसे नहीं रहना चाहिए या दूसरे लोगों की रिपोर्टों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहिए कि कार्मिकों की स्थिति क्या है और काम कैसे आगे बढ़ रहा है, और समझना चाहिए कि कठिनाइयाँ क्या हैं, कोई क्षेत्र ऊपरवाले की अपेक्षाओं के विपरीत तो नहीं है, कहीं सिद्धांतों का उल्लंघन तो नहीं हुआ, कहीं कोई बाधा या गड़बड़ी तो नहीं है, आवश्यक उपकरण की या पेशेवर कामों से जुड़े कार्य में निर्देशात्मक सामग्री की कमी तो नहीं है—उन्हें इन सब पर नजर रखनी चाहिए। चाहे वे कितनी भी रिपोर्टें सुनें या सुनी-सुनाई बातों से वे कितना भी कुछ छान लें, इनमें से कुछ भी व्यक्तिगत दौरे पर जाने और अपनी आँखों से देखने की बराबरी नहीं करता; चीजों को अपनी आँखों से देखना अधिक सटीक और विश्वसनीय होता है। एक बार वे स्थिति के सभी पक्षों से परिचित हो जाएँ, तो उन्हें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि क्या चल रहा है। उन्हें खासतौर पर इस बात की स्पष्ट और सटीक समझ होनी चाहिए कि कौन अच्छी क्षमता का है और विकसित किए जाने योग्य है, क्योंकि इसी से वे लोगों को सटीक ढंग से विकसित कर उनका उपयोग कर पाते हैं, जो इस बात के लिए अहम है कि अगुआ और कार्मिक अपना काम ठीक से करें। अगुआओं और कर्मियों के पास अच्छी काबिलियत वाले लोगों को विकसित और प्रशिक्षित करने का मार्ग और सिद्धांत होने चाहिए। इतना ही नहीं, उन्हें कलीसिया के कार्य में मौजूद विभिन्न प्रकार की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने की अच्छी पकड़ और गहरी समझ होनी चाहिए, और उन्हें पता होना चाहिए कि मुश्किलों को कैसे दूर किया जाए, उनके पास अपने विचार और सुझाव भी होने चाहिए कि काम को कैसे आगे बढ़ाना है और इसकी भविष्य की क्या संभावनाएँ हैं। अगर वे बहुत आसानी से, बिना किसी संदेह या आशंका के ऐसी चीजों के बारे में स्पष्टता से बोलने में सक्षम हों, तो यह काम करना बहुत आसान हो जाएगा। और इस प्रकार कार्य करके अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा होगा, है ना? उन्हें कार्य की उपरोक्त समस्याओं का समाधान करने के तरीकों से भली-भाँति परिचित होना चाहिए और उन्हें अक्सर इन बातों के बारे में सोचते रहना चाहिए। कठिनाइयाँ आने पर उन्हें सबके साथ इन बातों पर संगति और चर्चा करनी चाहिए और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस प्रकार दोनों पाँव दृढ़ता से जमीन पर रखे हुए वास्तविक कार्य करने से ऐसी कोई कठिनाई नहीं होगी जिसका समाधान न किया जा सके” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने का मार्ग दिखाया जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना, परमेश्वर की चिंताओं के प्रति मनन करना, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना और कलीसिया के काम का नुकसान न होने देना है। ठीक नूह की तरह, जो वाकई परमेश्वर के इरादे के प्रति विचारशील था। जब परमेश्वर ने उसे जहाज बनाने के लिए कहा तो उसने अपने लाभ या हानि के बारे में नहीं सोचा, सिर्फ इस बारे में सोचा कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जहाज जल्दी से कैसे बनाया जाए। हालाँकि मैं नूह से अपनी तुलना नहीं कर सकती, मगर मैं नूह का अनुकरण करना चाहती थी, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना सीखकर परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहती थी। मैंने यह भी समझा कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को वास्तविक कार्य अच्छी तरह से करने के लिए हमें तालमेल से काम करना चाहिए और जब हमें काम में रुकावटें, बाधाएँ और गड़बड़ियाँ दिखाई दें तो हमें संगति करके समय पर उनसे निपटना चाहिए ताकि काम की सामान्य प्रगति सुनिश्चित हो सके।
कुछ समय बाद मेरे अगुआ ने मुझे कई कलीसियाओं के सुसमाचार और सिंचन कार्य का प्रभारी बना दिया। मैंने सोचा, “मैं इसे पिछली बार की तरह नहीं होने दे सकती। मैं सिर्फ दैहिक आराम की परवाह नहीं कर सकती और अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। मुझे व्यावहारिक तरीका अपनाकर अपने सारे प्रयास अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित करने चाहिए।” इसके बाद मैंने हर दिन अपना ध्यान दर्शनों का सत्य जानने पर लगाया। कोई संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता दिखने पर मैं उसे अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य के बारे में सक्रिय रूप से गवाही देती और उसकी धार्मिक धारणाओं के अनुसार परमेश्वर के वचनों की खोज करके खुद को तैयार करती। एक दिन जब मैं चेंग नैन कलीसिया के काम की जाँच करने जा रही थी तो मैंने सोचा, “इस कलीसिया के अगुआ और सुसमाचार उपयाजक लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं। उनमें अच्छी काबिलियत है और वे अपने कर्तव्यों में सक्षम और जिम्मेदार हैं। वे अपना काम अच्छी तरह से संभाल सकते हैं, इसलिए मुझे उनके काम का जायजा लेने की आवश्यकता नहीं है, जिससे मैं कुछ मेहनत बचा सकती हूँ।” एक बार मन में ये विचार आने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से काम की निगरानी न करने या उसका जायजा न लेने के कारण ढूँढ़कर ढिलाई बरत रही हूँ। अब जब मैं इन कई कलीसियाओं की प्रभारी हूँ तो कलीसिया का काम पूरा करना और उसकी निगरानी करना मेरी जिम्मेदारी और कर्तव्य है। मैं अब अपने देह-सुख के बारे में सोचने और अपने कर्तव्य टालने के लिए बहाने नहीं बना सकती। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने कलीसिया के काम की सावधानी से जाँच की। मैंने पाया कि कुछ नए लोग अनियमित रूप से सभाओं में भाग लेते हैं और सिंचन कर्मी अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं। अगले दिन मैंने सिंचन करने वालों के साथ सत्य पर संगति करने और उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए एक सभा की। कुछ समय बाद मैंने सुना कि ये नए लोग नियमित सभाओं में वापस आ गए हैं, जिससे मुझे शांति और सुकून मिला।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य निभाने के लिए वाकई कीमत चुकानी पड़ती है और काम की ज्यादा जाँच और निगरानी करनी पड़ती है। समय पर समस्याओं का पता लगाकर उन्हें सुलझाने और अच्छी तरह से कर्तव्य निभाने का यही एकमात्र तरीका है। यह परमेश्वर के वचनों से पाया नतीजा ही है कि मुझे आज यह एहसास और ऐसा बदलाव हुआ है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!