31. “विशेषज्ञ” न रहकर मिली बड़ी आज़ादी
मैं एक अस्पताल के हड्डी रोग विभाग में उपप्रमुख हुआ करती थी। चार दशकों तक मैं अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित थी और मेरे पास व्यापक नैदानिक अनुभव था। मरीज और साथी सभी मेरी चिकित्सा विशेषज्ञता को स्वीकारते थे और जहाँ भी मैं जाती थी मुझे सम्मान मिलता था और मेरा आदर होता था। मुझे लगता था कि मैं भीड़ से अलग हूँ और अन्य लोगों से बेहतर हूँ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन कलीसिया के अगुआ और उपयाजक के रूप में सेवा करते थे और अक्सर समस्याएँ सुलझाने के लिए दूसरों के साथ सत्य के बारे में संगति करते थे। कुछ भाई-बहन पाठ-आधारित काम कर रहे थे या वीडियो बना रहे थे। मुझे उनसे वाकई ईर्ष्या होती थी और लगता था कि ऐसे कर्तव्य करने के लिए लोग जरूर उनका सम्मान करते होंगे। मैं मेजबानी या सामान्य मामले सँभालने को नीची नजरों से देखती थी क्योंकि मुझे लगता था कि वे कर्तव्य साधारण और गुमनाम थे। मैंने सोचती थी, “मैं कभी भी उस तरह का कर्तव्य नहीं कर सकती। मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा है और मैं खूब पढ़ी-लिखी हूँ। मेरा कर्तव्य मेरी पहचान और रुतबे से मेल खाना चाहिए।”
2020 में चीनी नववर्ष के बाद एक कलीसिया अगुआ ने मुझसे कहा, “कुछ बहनें पाठ-आधारित कार्य कर रही हैं, जिनके पास रहने के लिए सुरक्षित जगह नहीं है। परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते, इसलिए तुम्हारा घर अपेक्षाकृत सुरक्षित होना चाहिए। क्या तुम इन बहनों की मेजबानी कर सकती हो?” मैंने सोचा, “मैं अपना कर्तव्य करने को तैयार हूँ, लेकिन मेरे जैसी प्रतिष्ठित उप-प्रमुख, अपने क्षेत्र की विशेषज्ञ को भाई-बहनों की मेजबानी करने, थाली-गिलास सँभालने और हर दिन चूल्हा-चौका करने के लिए कैसे मजबूर किया जा सकता है? क्या यह काम वाली होने जैसा नहीं है?” मैं इच्छुक नहीं थी और सोच रही थी, “कोई भी कर्तव्य मेजबानी से अधिक सम्मानजनक है। तुम जो भी करो, तुम्हें मेरे लिए एक ऐसे कर्तव्य की व्यवस्था करनी है जिसमें रुतबा हो या जिसके लिए किसी कौशल की जरूरत हो। इस तरह मैं अपनी गरिमा नहीं खोऊँगी! क्या बहनों की मेजबानी करना मेरी प्रतिभा की बर्बादी नहीं है? अगर मेरे दोस्तों और परिवार को पता चले कि मैंने घर पर रहने और दूसरों के लिए खाना बनाने के लिए विशेषज्ञ होने का अपना रुतबा छोड़ दिया है तो क्या वे हँसते-हँसते लोटपोट नहीं हो जाएँगे?” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही खिन्न हो गई। लेकिन उस समय कलीसिया को तत्काल एक मेजबान घर की जरूरत थी। इसलिए भले ही वह कर्तव्य मुझे पसंद न हो, ऐसे महत्वपूर्ण समय पर मैं इनकार नहीं कर सकती थी—यह मानवता की कमी दर्शाता। बाद में मुझे लगा कि मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है और मुझे सत्य की बहुत कम समझ है। लेकिन अगर मैं हमेशा उन बहनों के साथ बातचीत करूँ जो पाठ-आधारित काम करती हैं तो मैं उनसे सीख सकती हूँ। तब शायद कलीसिया मुझे वह कर्तव्य भी करने के लिए कहेगी। बहनों की मेजबानी करना अस्थायी होगा। इसके अलावा उस समय अस्पताल में काम करने के आर्थिक लाभ बहुत अच्छे नहीं थे और मैं काम पर नहीं जाना चाहती थी। इसलिए मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और आसानी से मेजबानी का कर्तव्य सँभाल लिया।
पहले मैं हमेशा काम में व्यस्त रहती थी और शायद ही कभी खाना बनाती थी। लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि बहनें स्वादिष्ट भोजन का आनंद लें, मैंने खुद को खाना बनाना सीखने में झोंक दिया। लेकिन खाना पकाने के बाद मैं इसे मेज पर नहीं ले जाना चाहती थी क्योंकि मुझे हमेशा लगता था कि यह दूसरों की सेवा करने का काम है। जब मैं अस्पताल में काम करती थी तो दूसरे लोग मेरे लिए खाना बनाते थे, हर विभाग में सहकर्मी मेरे आने पर खड़े होकर मुझसे बात करते थे और मैं जहाँ भी जाती थी, मुझे अहमियत दी जाती थी। लेकिन अब हर दिन मैं एप्रन और तेल से सने कपड़े पहनती थी और चिकने बर्तन-भांडे साफ करती थी, जबकि बहनें साफ कपड़े पहनती थीं और कंप्यूटर के सामने बैठती थीं। मुझे दिल में तकलीफ होती थी और मैं खिन्न रहती थी, सोचती थी, “‘जो लोग अपने दिमाग से परिश्रम करते हैं वे दूसरों पर शासन करते हैं, और जो अपने हाथों से परिश्रम करते हैं, वे दूसरों के द्वारा शासित होते हैं,’ और ‘एक पंख वाले पक्षी झुंड में रहते हैं।’ खाना बनाना और मेजबान बनना शारीरिक काम है और इन बहनों के काम के समान स्तर का नहीं है।” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही बुरा लगा। यह एक भारी बोझ उठाने जैसा था जिसे मैं उतार नहीं सकती थी और मैं लंबे समय तक यह काम नहीं करना चाहती थी। मैंने सोचा, “मैंने चिकित्सा शोधपत्र लिखे हैं और अपने क्षेत्र में मेरी प्रशंसा की जाती है, इसलिए मेरा लेखन कौशल इतना बुरा नहीं हो सकता। अगर मैं कुछ अच्छे अनुभवात्मक गवाही लेख लिख सकूँ तो शायद अगुआ देखेगा कि मुझमें प्रतिभा है और मुझे पाठ-आधारित काम में लगा देगा।” इसलिए मैंने अनुभवात्मक लेख लिखने के लिए सुबह जल्दी उठना और देर तक जागना शुरू कर दिया। बहनों ने उन्हें पढ़ा और कहा कि मेरा लेखन बहुत अच्छा है। मैं बहुत खुश हो गई और लेख अगुआ को भेज दिए। मैं इंतजार पर इंतजार करती रही लेकिन अगुआ ने फिर भी मुझे पाठ-आधारित काम में नहीं लगाया। मैं बहुत निराश हो गई और धीरे-धीरे लेख लिखने के लिए मेरा उत्साह खत्म हो गया।
कुछ दिनों बाद मैंने सुना कि कलीसिया को वीडियो बनाने के लिए कर्मियों की जरूरत है और मैंने सोचा, “वीडियो प्रोडक्शन एक ऐसी भूमिका है जिसके लिए कुछ कौशल की जरूरत होती है। यह एक अवसर है और अगर मैं वीडियो बनाना सीख जाती हूँ तो मेरे पास विशेष कौशल होगा।” इसलिए मैंने सुबह जल्दी उठना और फिर देर तक जागना शुरू कर दिया और वीडियो प्रोडक्शन का कौशल सीखने के लिए काम करने लगी। लेकिन चूँकि मैं बूढ़ी हूँ, इसलिए मैं युवा लोगों के साथ तालमेल बिठाने के लिए पर्याप्त तेजी से काम नहीं कर सकी। इसलिए वह उम्मीद भी टूट गई। मैं निराश हो गई। ऐसा लग रहा था कि मुझे और अधिक “उच्च-स्तरीय” कर्तव्य नहीं मिलने वाला था और मैं शारीरिक श्रम में ही फँस गई थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी उपेक्षा की जा रही है और कुछ दिनों तक मैंने न तो ठीक से खाना खाया और न ही सो पाई। मैं खाना बनाते समय यह भी भूल जाती थी कि मैं क्या कर रही हूँ और किसी भी चीज पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती थी। कभी-कभी मैं सब्जियाँ काटते समय खुद हाथ काट लेती थी या अपना हाथ जला लेती थी। मैं कटोरे, चम्मच और ढक्कन फर्श पर गिराती रहती थी, जिससे भयानक शोर होता था जिससे मैं चौंक जाती थी। जब बहनें शोरगुल सुनती थीं तो वे अपना काम छोड़कर मेरी मदद करने के लिए दौड़ पड़ती थीं। जब मैं देखती थी कि मैं बहनों को उनके कर्तव्य के दौरान किस तरह प्रभावित कर रही थी तो मुझे बहुत अपराध बोध होता था। अपनी पीड़ा के बीच मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! इन बहनों की मेजबानी करना हमेशा मुझे दूसरों से कमतर महसूस कराता है। मुझे लगता है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैं समर्पण नहीं कर पाती। मुझे नहीं पता कि इससे कैसे पार पाऊँ। मेरा मार्गदर्शन करो।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, ‘हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।’ क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया, वह मेरी अपनी अवस्था का एकदम सही प्रतिबिंब था। मैं खुद को उच्च दर्जे की विशेषज्ञ मानती थी जिसे अहमियत दी जाती थी और जहाँ भी मैं जाती थी मुझे सम्मान मिलता था। उस आधार पर मुझे लगता था कि मैं भीड़ से अलग हूँ। जब मुझे बहनों की मेजबानी करने के लिए नियुक्त किया गया था तो मुझे लगा था कि मैंने अपना “विशेषज्ञ” दर्जा खो दिया है और यह अन्याय था। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मैं मेजबानी के काम को इतना तुच्छ क्यों समझती थी क्योंकि मैं हमेशा एक अविश्वासी के नजरिए से कर्तव्यों को देखती थी। मैं कर्तव्यों को उच्च या निम्न के संदर्भ में देखती थी, उन्हें पदानुक्रम में रखती थी। मैं कोई भी ऐसा कर्तव्य करने में खुश थी जो मुझे पहचान और प्रसिद्धि दिला सकता था, लेकिन छिपे रहने वाले कर्तव्यों को हीन समझती थी। चूँकि मैं उन दृष्टिकोणों से बँधी हुई थी, मैं अनिच्छा से अपना कर्तव्य करती थी और यहाँ तक कि इसे पूरी तरह से छोड़ने के बारे में सोचती थी। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य निर्वहन में मैंने परमेश्वर के इरादों पर जरा भी विचार नहीं किया था। यह साफ तौर पर भीड़ से अलग दिखने और प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना था। यह परमेश्वर का अनुग्रह ही था जिससे मुझे अपना कर्तव्य करने का अवसर मिला था, लेकिन मैं अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर चुन-चुन कर काम कर रही थी। मेरे पास वाकई विवेक की कोई समझ नहीं थी। जब मुझे इसका एहसास हुआ तो मुझे परमेश्वर के प्रति बहुत ऋणी महसूस हुआ और चुपचाप अपना मन शांत करने का संकल्प लिया ताकि मैं अपना कर्तव्य करने की पूरी कोशिश कर सकूँ।
उसके बाद मैंने सचेत होकर परमेश्वर के वचनों को खाया और पिया और अपनी अवस्था के बारे में उससे प्रार्थना की और शांत होकर बहनों की मेजबानी कर पाई। लेकिन उसके बाद जो हुआ उसने मुझे फिर से झकझोर कर रख दिया। जिन बहनों की मैं मेजबानी कर रही थी, उनमें से एक को कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे उससे वाकई ईर्ष्या हुई और मैंने सोचा, “मैं देख सकती हूँ कि जो लोग पाठ-आधारित काम करते हैं, उन्हें अहमियत दी जाती है। उनका सम्मान किया जाता है और वे दूसरों से अलग दिखते हैं और वे कलीसिया अगुआ भी बन सकते हैं। लेकिन बहनों की मेजबानी करते हुए मुझे देखो, मेरे पास खुद को अलग दिखाने का क्या मौका है? हर दिन मैं एप्रन पहनती हूँ और लगातार खाना पकाने से मुझसे तेल और धुएँ की गंध आती है। हर बार जब मैं खाने का सामान खरीदने के लिए बाहर जाती थी तो मुझे डर लगता था कि कहीं कोई मुझे पहचान न ले और पूछ न ले कि मेरे जैसी बेहतरीन चिकित्सा कौशल वाली अच्छी डॉक्टर काम क्यों नहीं कर रही है। इसलिए हर बार जब भी मैं बाहर जाती थी तो मैं अपना सिर झुकाए रखती थी, दीवार के साथ चलती थी और चुपके से निकल जाने की कोशिश करती थी। घर पहुँच कर ही मैं आखिरकार राहत की साँस ले पाती थी। पहले किसी भी अवसर पर मैं सबसे आगे खड़ी होती थी और अक्सर बोलने के लिए मंच पर जाती थी। और जहाँ भी मैं जाती थी, हर कोई मुझसे हाथ मिलाने की पहल करता था। लेकिन अब मैं नहीं चाहती थी कि कोई मुझे देखे और जब मैं सब्जियाँ खरीदती थी तो मुझे ऐसा लगता था कि मैं छिपकर घूम रही हूँ।” जितना मैं इसके बारे में सोचती थी, मुझे अंदर से उतनी ही तकलीफ होती थी। मैं लौकिक समाज में अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के बारे में सोचने से खुद को रोक नहीं पाती थी और मुझे खासकर “विशेषज्ञ,” “निदेशक” और “प्रोफेसर” जैसे खिताब याद आते थे। न चाहते हुए भी मुझे याद आता था कि अगुआ मुझे बहुत सम्मान देते थे, सहकर्मी मेरी प्रशंसा करते थे और मरीज मुझे धन्यवाद कहने के लिए घेरे रहते थे, मुझे एहसास दिलाते थे कि मैं एक बेहतर और गरिमामय जीवन जी रही हूँ। मुझे लगा कि मैं अर्श से फर्श पर पहुँच गई हूँ और मैंने सोचा कि मेरा वर्तमान कर्तव्य कब खत्म होगा। मैं न चाहते हुए भी उदास हो गई। मैंने देखा कि बहनें अपने भोजन का आनंद लेती थीं लेकिन मेरा खाने का मन ही नहीं करता था और जल्द ही मेरा वजन काफी कम हो गया। फिर मुझे अस्पताल के निदेशक से एक अप्रत्याशित कॉल आया जिसमें मुझे काम पर वापस आने के लिए आमंत्रित किया गया। इससे मैं फिर लड़खड़ा गई और मैंने सोचा, “काम पर वापस जाना और ऐसा जीवन जीना बेहतर होगा जहाँ लोग मेरा सम्मान करें और मैं एक विशेषज्ञ के रूप में अपनी प्रतिष्ठा फिर से हासिल करूँ। लेकिन मेजबानी करना बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे घर पर रहना है और बहनों की सुरक्षा करनी है और अगर मैं काम पर वापस गई तो मैं यह कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी।” मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अपने अतीत का रुतबा और महिमा नहीं छोड़ पाती। मुझे खुद को जानने और समर्पित होने के लिए मार्गदर्शन करो।”
अपनी खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “इस बारे में सोचो—तुम्हें मनुष्य के मूल्य, सामाजिक हैसियत और पारिवारिक पृष्ठभूमि के प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए? तुम्हारा सही रवैया क्या होना चाहिए? सबसे पहले तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों से यह देखना चाहिए कि वह इस मामले के प्रति क्या रवैया अपनाता है; केवल तभी तुम सत्य समझ पाओगे और ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जो सत्य के खिलाफ हो। तो, परमेश्वर किसी की पारिवारिक पृष्ठभूमि, सामाजिक हैसियत, उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा और समाज में उनके पास मौजूद धन को कैसे देखता है? अगर तुम परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को नहीं देखते और परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते और परमेश्वर की ओर से चीजों को स्वीकार नहीं करते, तुम्हारा चीजों को देखने का तरीका निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादे से बिल्कुल अलग होगा। अगर इसमें कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है और केवल थोड़ा सा ही अंतर है, तो यह कोई बड़ी समस्या नहीं है; लेकिन अगर तुम्हारा चीजों को देखने का तरीका पूरी तरह से परमेश्वर के इरादे के खिलाफ है, तो यह चीज सत्य के विपरीत है। जहाँ तक परमेश्वर का सवाल है, वह लोगों को जो कुछ भी देता है और जितना देता है, यह उसी पर निर्भर करता है, और समाज में लोगों की जो भी हैसियत है वह परमेश्वर द्वारा ही निर्धारित की जाती है, लोग इसे स्वयं प्राप्त नहीं करते हैं। अगर परमेश्वर किसी को पीड़ा और गरीबी से पीड़ित करता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि उनके पास बचाए जाने की कोई आशा नहीं है? अगर उनका मूल्य कम है और उनकी सामाजिक स्थिति निचली है, तो क्या परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा? अगर उनकी समाज में हैसियत कम है, तो क्या वे परमेश्वर की नजर में भी छोटी हैसियत रखते हैं? जरूरी नहीं है। यह सब किस पर निर्भर करता है? यह इस पर निर्भर करता है कि यह व्यक्ति किस रास्ते पर चलता है, किस चीज का अनुसरण करता है और सत्य और परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या है। अगर किसी की सामाजिक हैसियत बहुत छोटी है, उनका परिवार बहुत गरीब है और उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की है, लेकिन फिर भी वे व्यावहारिक रूप से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, तो परमेश्वर की नजरों में उनका मूल्य ऊँचा होगा या नीचा, क्या वे महान होंगे या तुच्छ? वे मूल्यवान होते हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से देखें, तो किसी का मूल्य—चाहे अधिक हो या कम, उच्च हो या निम्न—किस पर निर्भर करता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। अगर परमेश्वर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो सत्य का अनुसरण करता है, तो फिर तुम मूल्यवान हो और तुम कीमती हो—तुम एक कीमती पात्र हो। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो और तुम ईमानदारी से उसके लिए खुद को नहीं खपाते, तो फिर तुम उसके लिए बेकार हो और मूल्यवान नहीं हो—तुम एक तुच्छ पात्र हो। चाहे तुमने कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त की हुई हो या समाज में तुम्हारी हैसियत कितनी भी ऊँची हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या उसे नहीं समझते, तो तुम्हारा मूल्य कभी भी ऊँचा नहीं हो सकता; भले ही बहुत से लोग तुम्हारा समर्थन करते हों, तुम्हारी प्रशंसा करते हों और तुम्हारा आदर सत्कार करते हों, फिर भी तुम एक नीच कमबख्त ही रहोगे। तो आखिर परमेश्वर लोगों को इस नजर से क्यों देखता है? ऐसे ‘कुलीन’ व्यक्ति को जिसकी समाज में इतनी ऊँची हैसियत है, जिसकी इतने लोग प्रशंसा और सराहना करते हैं, जिसकी प्रतिष्ठा इतनी ऊँची है, उसे परमेश्वर निम्न क्यों समझता है? परमेश्वर लोगों को जिस नजर से देखता है वह दूसरों के बारे में लोगों के विचार से बिल्कुल विपरीत क्यों है? क्या परमेश्वर जानबूझकर खुद को लोगों के विरुद्ध खड़ा कर रहा है? बिल्कुल भी नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर धार्मिकता है, जबकि मनुष्य भ्रष्ट है और उसके पास कोई सत्य या धार्मिकता नहीं है, और परमेश्वर मनुष्य को अपने खुद के मानक के अनुसार मापता है और मनुष्य को मापने के लिए उसका मानक सत्य है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मेरा हृदय उज्ज्वल कर दिया। मेरे दुख का मूल कारण यही था कि मैं परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर चीजें नहीं देखती थी। इसके बजाय मैं कर्तव्यों को उच्च या निम्न और पदों के पदानुक्रम के रूप में रखने के लिए शैतान के नजरिए का इस्तेमाल करती थी और सफलता के मानकों के रूप में सामाजिक रुतबे, प्रतिष्ठा, शिक्षा, और पेशेवर उपलब्धियों का इस्तेमाल करती थी। इन नजरियों से प्रभावित होकर मैं खुद को एक श्रेष्ठ और महान व्यक्ति के रूप में देखती थी। मुझे लगता था कि मैं एक विशेषज्ञ हूँ, जिसके पास रुतबा और अच्छा ओहदा है, मैं भीड़ से अलग हूँ और अन्य लोगों से बेहतर हूँ। यहाँ तक कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मेरा यही दृष्टिकोण बना रहा। इसलिए मैंने अगुआ और कार्यकर्ता जैसे कर्तव्यों को और उच्च कौशल की जरूरत वाले कर्तव्यों को अहमियत दी। लेकिन मेजबानी या सामान्य मामलों को सँभालना मेरे लिए महत्वहीन था और मुझे लगता था कि वे नीचे के रुतबे वाले पद थे जो मेरी सामाजिक स्थिति से मेल नहीं खाते। जब अगुआ चाहते थे कि मैं बहनों की मेजबानी करूँ तो मैं समर्पण नहीं कर सकी। अपना कर्तव्य निभाते समय मुझे अपनी पुरानी प्रतिष्ठा की कमी खल रही थी इसलिए मैं ठीक से खा या सो नहीं पाती थी। मैं परेशान रहती थी और मेरा वजन बहुत कम हो गया था। यह असहनीय रूप से दर्दनाक था। लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन और न्याय के माध्यम से मैंने उसकी धार्मिकता देखी। उसे इस बात की परवाह नहीं है कि किसी का रुतबा ऊँचा है या नीचा या उसकी योग्यताएँ या शैक्षिक उपलब्धियाँ क्या हैं। परमेश्वर इस बात की परवाह करता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं और वे किस मार्ग पर हैं। चाहे उनका रुतबा कितना भी ऊँचा हो या उनकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ और प्रतिष्ठा कितनी भी बढ़िया क्यों न हो, अगर वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और सत्य से विमुख हैं तो वे परमेश्वर की नजर में नीच हैं। परमेश्वर उन लोगों को महत्व देता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं और उसे प्राप्त करते हैं, भले ही उनका कोई रुतबा न हो। मैंने सीखा कि चाहे कितने भी लोग मेरा समर्थन करें और मेरी प्रशंसा करें और चाहे मेरा रुतबा कितना भी ऊँचा क्यों न हो, अगर मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो सकती और सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा सकती तो मैं पूरी तरह से बेकार हूँ।
बाद में मुझे हैरानी हुई कि स्पष्ट रूप से इसका विवेक होते हुए भी कि मेरा दृष्टिकोण गलत है, लेकिन फिर भी मैं उन कर्तव्यों के पीछे भागने से खुद को क्यों नहीं रोक पाई जो अधिक प्रतिष्ठित थे और मुझे दूसरों से अलग दिखा सकते थे। अपनी खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसमें कहा गया था : “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मैंने देखा कि शैतान मुझे प्रसिद्धि और लाभ के माध्यम से पीड़ित कर रहा था और मुझे जकड़ रहा था, मुझ पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा था। जब मैं छोटी थी तभी से मैंने अपने माता-पिता द्वारा सिखाई गई, स्कूलों में पढ़ाई और धर्मनिरपेक्ष समाज द्वारा बताई गई बातें स्वीकार कर ली थीं जैसे कि “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,” “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” और “जो लोग अपने दिमाग से परिश्रम करते हैं वे दूसरों पर शासन करते हैं, और जो अपने हाथों से परिश्रम करते हैं, वे दूसरों के द्वारा शासित होते हैं।” बहुत पहले से ही यह शैतानी फलसफे और भ्रांतियाँ मेरे दिल में समा चुकी थीं। इसने मुझे जीवन में प्रसिद्धि और लाभ को सही लक्ष्य मानने के लिए प्रेरित किया और मुझे लगा कि अगर मैं उन्हें पा लूँगी तो दूसरे लोग मेरे बारे में ऊँचे विचार रखेंगे और मेरा समर्थन करेंगे। इसलिए चाहे स्कूल हो, समाज हो या कलीसिया, मैंने पद और रुतबे को महत्व दिया। मैंने विशेषज्ञ कौशल विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत की, समूह के भीतर ऊँचा रुतबा और प्रतिष्ठा पाने की उम्मीद की। मुझे लगा कि यही एकमात्र ऐसा जीवन है जो मेरे अस्तित्व का मूल्य दर्शाता है। जब मैं प्रसिद्धि और रुतबा नहीं पा सकी तो मुझे लगा कि भविष्य अंधकारमय, दयनीय लग रहा है और मैं अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन हो गई। रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ बेड़ियों की तरह थे, जो लगातार मुझे नियंत्रित कर रहे थे, इसलिए मैं परमेश्वर से दूर रहने और उससे विश्वासघात करने से खुद को नहीं रोक पाई। मैंने यह भी महसूस किया कि भले ही बहनों की मेजबानी करना बहुत साधारण लगता हो, लेकिन उस परिवेश ने मुझे इसका एहसास कराने में मदद की कि अनुसरण करने को लेकर मेरा दृष्टिकोण भ्रांतिपूर्ण था और मैं अपने कर्तव्य करने में सत्य का अनुसरण कर पाई और प्रसिद्धि और लाभ की बेड़ियां तोड़ने में सक्षम हो सकी। एक बार जब मैंने परमेश्वर के अच्छे इरादे समझ लिए तो मैंने अपने दिल की गहराई से उसका धन्यवाद किया और पश्चात्ताप से भर गई। मैंने उससे प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरे भटके हुए दृष्टिकोण को बेनकाब करने के लिए ऐसा परिवेश बनाने के लिए तुम्हारा धन्यवाद। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ और रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागना बंद करना चाहती हूँ। मैं समर्पण करना चाहती हूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहती हूँ।” फिर मैंने विनम्रतापूर्वक अस्पताल का प्रस्ताव अस्वीकार दिया और घर पर रहकर अपना कर्तव्य करना जारी रखा।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े : “परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो महान हो, मशहूर हो, अभिजात हो, या संसार को हिला देने वाला हो? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए? (एक ऐसा व्यक्ति जिसके पैर मजबूती से जमीन पर टिके हों और जो एक सृजित प्राणी की भूमिका पूरी करता हो।) हाँ, उसमें और क्या होना चाहिए? (परमेश्वर एक ईमानदार व्यक्ति चाहता है जो उसका भय मानता हो और बुराई से दूर रहता हो और उसके प्रति समर्पण करता हो।) (एक ऐसा व्यक्ति जो सभी मामलों में परमेश्वर के साथ हो, जो परमेश्वर से प्रेम करने के लिए पर्यासरत हो।) ये उत्तर भी सही हैं। वह ऐसा कोई भी व्यक्ति है जिसका परमेश्वर जैसा दिल और मन है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है)। “आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसके आयोजन की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर को ऐसे लोग नहीं चाहिए जो कुलीन हों। वह ऐसे लोग चाहता है जो जमीन से जुड़े रहकर सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे कर सकें। हालाँकि लौकिक संसार में मेरी कुछ पहचान और रुतबा था, लेकिन सत्य के बारे में मेरी समझ बहुत उथली थी। अगुआ और कार्यकर्ता होने या पाठ-आधारित काम करने के लिए सत्य की समझ की जरूरत होती है, और सिर्फ रुतबा, ज्ञान और शिक्षा होने से ऐसा नहीं हो सकता। मुझे विवेकशील होना चाहिए और जो भी कर्तव्य मैं कर सकती हूँ, उसे करना चाहिए। चूँकि मेरा घर मेजबानी के लिए उपयुक्त था तो मुझे बहनों की मेजबानी व्यावहारिक तरीके से करनी चाहिए और सत्य का अनुसरण करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। मेरे पास यही विवेक होना चाहिए। चाहे हम कोई भी कर्तव्य करें, भले ही पद नाम और कार्य अलग-अलग हों, सृजित प्राणी की पहचान और सार अपरिवर्तित रहता है। मेरी अपने बारे में अतिरंजित राय हुआ करती थी और सोचती थी कि मैं बहुत कुलीन हूँ। मैं हमेशा खुद को एक विशेषज्ञ और प्रसिद्ध चिकित्सक के रूप में देखती थी, मानो मैं बाकी सभी से बेहतर हूँ। मुझे लगता था कि भाई-बहनों की मेजबानी करने वालों का रुतबा कम है और मैं ज्यादा प्रतिष्ठित और प्रमुख कर्तव्य की लालसा करती थी। मुझे लगा कि दूसरे की थाली में लड्डू हमेशा बड़ा होता है और मैं जमीन से जुड़कर अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाई। यहाँ तक कि अपने दिल में मैंने परमेश्वर का विरोध भी किया। मैं पूरी तरह से अनुचित होने की हद तक अहंकारी थी। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा, जो पूर्व के सभी लोगों में सबसे महान था। उसका रुतबा ऊँचा था और उसकी बहुत प्रसिद्धि थी, लेकिन वह खुद को रुतबे के चश्मे से नहीं देखता था या इससे मिलने वाली प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करता था। चाहे उसका रुतबा हो या न हो, अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और उसे महान मानने में सक्षम था। अय्यूब तार्किक था। भले ही मैं अय्यूब से तुलना नहीं कर सकती, लेकिन मैं उसके उदाहरण का अनुसरण करना चाहती हूँ और एक योग्य सृजित प्राणी बनने का प्रयास करना चाहती हूँ। एक बार जब मैंने प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागना बंद कर दिया तो मेरा रवैया भी बदल गया। मैंने देखा कि हर कर्तव्य महत्वपूर्ण और अपरिहार्य है। अगर कोई मेजबानी नहीं करेगा तो भाई-बहनों को ऐसा उपयुक्त परिवेश नहीं मिल पाएगा जहाँ वे सहज महसूस कर सकें और अपना कर्तव्य कर सकें। इसके बाद मैंने खुद के खिलाफ विद्रोह करने का सचेत प्रयास किया और अपने प्रयासों को अच्छा भोजन तैयार करने और बहनों की सुरक्षा की रक्षा करने में समर्पित कर दिया ताकि वे शांति से अपना कर्तव्य कर सकें। धीरे-धीरे मुझे अब हमारे बीच रुतबे का कोई अंतर महसूस नहीं हुआ और खाना बनाते समय मैं चुपचाप अपने लिए भजन गाती थी। अपना काम पूरा करने के बाद मैं प्रार्थना करती-परमेश्वर के वचन पढ़ती, अपना मन शांत करती और अपने अनुभवों से मिली सीख पर चिंतन करती और फिर अपने अनुभवात्मक लेख लिखती। हर दिन मैं एक बहुत ही संतुष्ट जीवन जीती हूँ। मुझे लगता है कि यह जीने का एक शांतिपूर्ण तरीका है और मेरा दिल मुक्त हो गया है।