30. तथाकथित आत्म-ज्ञान

जोसेफ, दक्षिण कोरिया

परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद मैं हमेशा उन भाई-बहनों के साथ सभा करता था जिनका लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास था। जब मैंने देखा कि परमेश्वर के वचनों पर संगति करते समय हर कोई उस भ्रष्टता के बारे में बात कर सकता है जो उसने प्रकट की थी, और वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार जाँच कर आत्म-चिंतन कर अपनी भ्रष्टता का गहन विश्लेषण कर सकता है, तो मैं ईर्ष्यालु हो गया और उनकी नकल करने लगा। धीरे-धीरे, मैं भी परमेश्वर के सामने अपने आपको जाँचने और अपनी भ्रष्टता को स्वीकारने योग्य हो गया। मैंने सोचा कि यह आत्म-ज्ञान है। कुछ भाई-बहनों ने देखा कि मुझे परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अभी दो-तीन साल ही हुए हैं, लेकिन जब मैं आत्म-ज्ञान पर बात करता था, तो काफी व्यवस्थित और गहन तरीके से बात करता था, वे मेरी ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखते थे। मुझे यह सोचकर बहुत गर्व हुआ कि मुझमें काबिलियत है और मुझे पता है कि मुझे खुद को कैसे जानना है और अगर मैं इसी तरह से आगे बढ़ता रहा, तो जल्द ही मेरे स्वभाव और उद्धार में बदलाव आएगा। उसके बाद, मैं अपने आत्म-ज्ञान के बारे में संगति करने पर ज्यादा ध्यान देने लगा, अक्सर लोगों को उजागर करने वाले परमेश्वर के कठोर वचन उद्धृत करते हुए अपनी जाँच करता ताकि दूसरों को दिखे कि मेरी समझ गहरी और पैनी है, और मेरा जीवन प्रवेश दूसरों से बेहतर है। मैंने कभी इस बात पर आत्म-चिंतन नहीं किया कि समझ का यह तरीका सही भी है या नहीं, काफी बाद में जाकर, जब मेरी कई बार काट-छाँट की गई, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरा सारा आत्म-ज्ञान नकली है।

नवंबर 2020 में, मैं दो बहनों के साथ कुछ भाई-बहनों द्वारा बनाए गए वीडियो की समीक्षा कर रहा था। उस दौरान, बहुत सारे वीडियो प्रस्तुत किए गए थे और भाई-बहनों ने कई मुद्दे उठाए, उनमें से कुछ ऐसे थे जिनके बारे में मुझे पता नहीं था कि उन्हें कैसे हल करना है। उस समय, मेरा लापरवाहीपूर्ण रवैया सामने आया। मैंने सोचा, “मैं कई समूहों के लिए जिम्मेदार हूँ, इसलिए मैं काफी व्यस्त हूँ और अभी भी कुछ वीडियो ऐसे हैं जिनकी समीक्षा करने की जरूरत है। अगर मैं सिद्धांतों के आधार पर हर वीडियो पर ध्यान से विचार और मूल्यांकन करने गया, और भाई-बहनों द्वारा उठाए गए हर मुद्दे को ईमानदारी से हल करने का प्रयास किया, तो उसमें काफी मेहनत लगेगी। फिर मेरे पास समय ही कितना बचेगा? फिलहाल मैं ऐसे मुद्दों को एक तरफ रख देता हूँ जिन्हें समझ नहीं पा रहा हूँ। इसके अलावा, मेरी सहयोगी दोनों बहनें वीडियो की समीक्षा करने में थोड़ी धीमी हैं, इसलिए अगर मैं जल्दबाजी में वीडियो की जाँच करूँगा, तो क्या मैं अपना ही नुकसान नहीं करूँगा? मैं भी बाकी लोगों की तरह ही गति बनाए रखूंगा। इसके अलावा, कोई भी अपना कर्तव्य पूर्णता से नहीं निभा सकता। फिर ऐसे कई सत्य हैं जिन्हें मैं भी पूरी तरह नहीं समझता। हर मुद्दे को पूरी तरह से हल करना संभव भी नहीं है, जितना हो जाए, उतना काफी है।” यही सोच कर मैंने वीडियो के कुछ मुद्दों या भाई-बहनों की उलझनों को सुलझाने में ज्यादा मेहनत नहीं की। बाद में, मैंने अपने पास मौजूद सभी वीडियो की समीक्षा पूरी कर ली, और चूँकि मैंने अपनी सहयोगी बहनों से ज्यादा वीडियो की समीक्षा की थी, इसलिए मुझे कुछ हद तक आत्म-संतुष्टि का एहसास हुआ और मुझे लगा कि मैं अपने कर्तव्य में काफी मेहनती और जिम्मेदार हूँ। लेकिन कुछ समय बाद, सुपरवाइजर ने हमारे द्वारा प्रस्तुत किए गए वीडियो की समीक्षा की, उसे कई सिद्धांत-आधारित मुद्दे मिले, और हमारी काट-छाँट करने के लिए उसने हमें एक कठोर पत्र लिखा, “तुम इतने समय से यह कार्य कर रहे हो, फिर भी सिद्धांत के ये बुनियादी मुद्दे बार-बार आते रहते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए! ऐसा नहीं है कि तुम सिद्धांत नहीं समझते—यह लापरवाहीपूर्ण व्यवहार का गंभीर मामला ज्यादा है। तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये पर सही ढंग से विचार करना चाहिए!” सुपरवाइजर की कठोर काट-छाँट सुनकर, मुझे लगा मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैंने प्रतिरोधी महसूस किया। मैंने सोचा, “हाल में मैं अपने कार्य में काफी मेहनत करता रहा हूँ। तुम हमारे बारे में कुछ भी सकारात्मक क्यों नहीं बता रहे और सारा ध्यान केवल हमारी समस्याओं को उजागर करने लगा रहे हो? इसके अलावा, कोई भी अपना कर्तव्य पूरी तरह से नहीं निभा सकता, और हमेशा कमियाँ तो रहती ही हैं। हमें सत्य की उथली समझ है और हम कुछ मुद्दों की असलियत नहीं जान पाते, इसलिए यह सामान्य-सी बात है कि हमने जो वीडियो प्रस्तुत किए हैं, उनमें समस्याएं हैं—तुम यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे?” मैं मन ही मन बहस करता रहा। सहयोगी बहनों के साथ अपनी बातचीत में, मैंने जानबूझकर या अन्यथा, अपने विचार व्यक्त कर दिए, कहा, “सुपरवाइजर बहुत ज्यादा अपेक्षा कर रहा है। पूर्णता जैसी कोई चीज नहीं होती। किसी वीडियो को आप कितनी बार भी जाँच लें, फिर भी समस्याएं होंगी...।” बाद में, जब मैंने दोनों बहनों को अपने विचारों और ज्ञान के बारे में लिखते देखा, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं पूरी तरह से प्रतिरोधी था और काट-छाँट होने पर पलटकर बहस करना चाहता था, और यह आत्म-ज्ञान बिल्कुल नहीं था! यह काट-छाँट परमेश्वर की ओर से आई थी, और मुझे इसे स्वीकारकर आत्म-चिंतन करना था और खुद को जानना था। इसलिए मुझे अपने कार्य में अपनी लापरवाही पूर्ण अवस्था को हल करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचन मिले, और मैंने विचार किया कि मैं अपने आत्म-चिंतन के बारे में और अधिक गहराई से कैसे लिख सकता हूँ। मैंने परमेश्वर के और भी गंभीर वचन उद्धृत किए जो लोगों की लापरवाही उजागर करते हैं, जैसे अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाही बरतना परमेश्वर के साथ गंभीर विश्वासघात है, अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतना मानवता का न होना दर्शाता है, और लोगों को गुमराह करने के लिए भ्रांतियाँ फैलाने ने मुझे सड़ा हुआ सेब बना दिया। लिखने के बाद, मैंने अपने चिंतन की तुलना दोनों बहनों के चिंतन से की और मुझे लगा कि मेरे चिंतन अधिक गहरे हैं। मैं यह सोचकर खुश हो गया कि काट-छाँट होने पर मैं आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाया, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में गहराई से आत्म-विश्लेषण कर सका, और मान लिया कि मैंने सबक सीख लिया है। मुझे यह सोचकर थोड़ा गर्व भी हुआ कि मेरे विचारों को पढ़कर सुपरवाइजर को निश्चित रूप से महसूस होगा कि टीम अगुआ के रूप में मेरी समझ मेरी सहयोगी बहनों से अधिक गहरी है, और मेरा जीवन प्रवेश उनसे बेहतर है। साथ ही, मैंने अपने बारे में बहुत नकारात्मक लिखा था, इसलिए सुपरवाइजर के पास इस बार कहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होगा। लेकिन मुझे हैरानी हुई जब कुछ दिनों बाद, मुझे सुपरवाइजर का एक और पत्र मिला। यह पत्र पहले वाले से भी अधिक कठोर था, सीधे तौर पर लिखा था कि मेरा आत्म-चिंतन और ज्ञान सतही है, मैं सच में खुद को नहीं जानता, मेरे भ्रामक विचारों ने बहनों को गुमराह कर दिया और सभी को आत्म-ज्ञान की उपेक्षा करने के लिए उकसाया। उसमें यह भी कहा गया था कि इसके परिणाम गंभीर हैं और मुझे इस पर आगे और विचार करना होगा। मैं यह सोचकर उजागर किए जाने के इन कठोर वचनों को स्वीकार नहीं कर पा रहा था, “ऐसा कैसे हुआ कि मैं सच में खुद को नहीं जान पाया? मैं अपनी भ्रष्टता पर विचार करने और उसका विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों का सहारा ले रहा हूँ, और मेरी समझ मेरी सहयोगी बहनों से अधिक गहरी है। क्या यह सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं है? अगर बहनें स्वयं को नहीं जानतीं, तो वे मेरे द्वारा गुमराह कैसे हो गयीं? मैं बस यूं ही बोल रहा था—मैं उन्हें कैसे गुमराह कर रहा था?” कई दिनों तक मुझे प्रतिरोध और गहरा अन्याय महसूस हुआ, मुझे लगता रहा कि सुपरवाइजर मुझे निशाना बना रहा है और मेरे लिए मुश्किलें पैदा करने की कोशिश कर रहा है। मेरा पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित रहा और खुद पर ठीक से विचार नहीं किया या खुद को नहीं जाना। मेरा हृदय लगातार अंधकारमय और उदास होता गया, मैं अपने कर्तव्य में अपने हृदय को शांत नहीं कर सका, और मेरी प्रार्थनाएँ परमेश्वर को नहीं पा सकीं। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था में कुछ गड़बड़ है। इस मुकाम पर, मुझे वह पत्र याद आया जो मैंने सुपरवाइजर को लिखा था। मैंने यह पत्र अच्छे से लिखा था, और स्वीकार किया था कि मैंने नकारात्मकता फैलाई है और अपनी सहयोगी बहनों को गुमराह करके अपने साथ मिला लिया था और सुपरवाइजर से असंतुष्ट हो गया था, मैंने यह भी स्वीकार किया था कि भ्रांतियाँ फैलाकर और लोगों को गुमराह करके मैं सड़ा हुआ सेब बन गया हूँ, लेकिन ऐसा क्यों हुआ, जब सुपरवाइजर ने मुझे इस तरह उजागर कर मेरी काट-छाँट की, मैं इस चीज को स्वीकार क्यों नहीं कर पाया और इतना प्रतिरोधी क्यों हो गया था? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी पिछली समझ झूठी थी? यह सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं था! मुझे यह भी एहसास हुआ कि मैंने खुद को जाँचने और जानने के लिए जो कुछ लिखा था, वह मजबूरी में लिखा था ताकि सुपरवाइजर पर अच्छा प्रभाव पड़े। क्या इस प्रकार का आत्म-ज्ञान मिथ्या और भ्रामक नहीं था? इस मुकाम पर, धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि मैंने सच में काट-छाँट किया जाना स्वीकार नहीं किया था, मुझे वाकई कोई सच्चा आत्म-ज्ञान नहीं था, और वह अंधेरा और निराशा जो मैंने अपने दिल में महसूस की वह इसलिए थी क्योंकि परमेश्वर मेरी करनी से खुश नहीं था और मुझसे अपना चेहरा छिपा रहा था। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध करे ताकि मैं अपने अंदर की समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख पाऊँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जब कुछ लोग आत्म-ज्ञान के बारे में संगति करते हैं, तो उनके मुँह से पहली बात यह निकलती है, ‘मैं एक राक्षस, एक जीवित शैतान हूँ, जो परमेश्वर का विरोध करता है। मैं उसके विरुद्ध विद्रोह करता हूँ और उसके साथ विश्वासघात करता हूँ; मैं एक साँप हूँ, एक दुष्ट व्यक्ति, जिसे शापित होना चाहिए।’ क्या यही सच्चा आत्म-ज्ञान है? वे केवल सामान्य बातें बोलते हैं। वे उदाहरण क्यों नहीं देते? वे गहन-विश्लेषण के लिए उनके द्वारा की गई शर्मनाक चीजों को सबके सामने क्यों नहीं लाते? कुछ अविवेकी लोग उनकी बात सुनकर सोचते हैं, ‘हाँ, यह सच्चा आत्म-ज्ञान है! खुद को एक दानव के रूप में जानना, यहाँ तक कि खुद को कोसना—ये कितनी ऊँचाई तक पहुँच गए हैं!’ बहुत-से लोग, खासकर नए विश्वासी, इस बात से गुमराह हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि वक्ता शुद्ध है और उसके पास आध्यात्मिक समझ है, सत्य से प्रेम करता है, और अगुआई करने योग्य है। लेकिन जब वे उससे थोड़ी देर बातचीत करते हैं तो पाते हैं कि ऐसा नहीं है, यह वैसा इंसान नहीं है जैसी उन्होंने कल्पना की थी, बल्कि असाधारण रूप से झूठा और धोखेबाज है, स्वाँग रचने और ढोंग करने में कुशल है, जिससे उन्हें बड़ी निराशा होती है। ... उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति यह जान सकता है कि वह धोखेबाज है, कि वह तुच्छ षड्यंत्रों और साजिशों से भरा हुआ है, और वह यह भी बता सकता है कि दूसरे कब धोखेबाजी दिखाते हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि वह धोखेबाज है यह स्वीकार करने के बाद वास्तव में पश्चात्ताप करता है और अपनी धोखेबाजी छोड़ता है या नहीं। और अगर वह फिर से धोखेबाजी करता है, तो देखो कि क्या वह ऐसा करने पर तिरस्कार और शर्मिंदगी महसूस करता है या नहीं, वह ईमानदारी से पश्चात्ताप करता है या नहीं। अगर उसमें शर्मिंदगी का भाव नहीं है, पश्चात्ताप बिल्कुल भी नहीं है, तो उसका आत्म-ज्ञान सतही, और लापरवाही से भरा है। वह सिर्फ बेमन से काम कर रहा है; उसका ज्ञान सच्चा नहीं है। वह यह नहीं सोचता कि धोखा देना बुरी या राक्षसी बात है और वह निश्चित रूप से महसूस नहीं करता कि धोखा देना कितना बेशर्मी भरा, घिनौना व्यवहार है। वह सोचता है, ‘सभी लोग धोखेबाज हैं। जो लोग धोखेबाज नहीं हैं वे मूर्ख हैं। थोड़ी-सी धोखेबाजी तुम्हें बुरा व्यक्ति नहीं बनाती। मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है; मैं दुनिया का सबसे धोखेबाज व्यक्ति नहीं हूँ।’ क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में खुद को जान सकता है? वह निश्चित रूप से नहीं जान सकता। इसका कारण यह है कि उसे अपने धोखेबाज स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है, वह धोखे से नफरत नहीं करता और आत्मज्ञान के बारे में उसकी सभी बातें ढोंग हैं और खोखली हैं। खुद के भ्रष्ट स्वभाव को न पहचानना सच्चा आत्मज्ञान नहीं है। धोखेबाज लोग अपने आपको वास्तव में इसलिए नहीं जान पाते, क्योंकि उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता। इसलिए चाहे वे कितने भी शब्द और सिद्धांत बोल लें, वे वास्तव में नहीं बदलेंगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। “कैसे पहचाना जा सकता है कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? एक संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के वचन के आधार पर स्वयं को जान सकता है, क्या वह आत्मचिंतन कर सच्चा पश्चात्ताप महसूस कर सकता है; दूसरे संबंध में, यह देखना चाहिए कि क्या वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है। अगर वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर के कार्य को समर्पित हो सकता है। अगर वह केवल सत्य को पहचानता है, पर उसे कभी स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं करता, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं सारा सत्य समझता हूँ, लेकिन मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता,’ तो यह साबित करता है कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य से प्रेम करता है। कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और यह भी कहते हैं कि वे पश्चात्ताप करने और खुद को नया रूप देने के लिए तैयार हैं, लेकिन उसके बाद बिल्कुल भी कोई बदलाव नहीं होता। उनकी बातें और हरकतें अभी भी वैसी ही होती हैं, जैसी पहले होती थीं। जब वे खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा लगता है मानो कोई चुटकुला सुना रहे हों या कोई नारा लगा रहे हों। वे अपने दिल की गहराइयों में आत्मचिंतन नहीं करते या खुद को नहीं जान पाते; मुख्य समस्या यह है कि उनमें पश्चात्ताप का रवैया नहीं होता। वास्तव में आत्मचिंतन करने के लिए अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात तो वे बिल्कुल भी नहीं करते। बल्कि वे बेमन से ऐसा करने की प्रक्रिया से गुजरने का दिखावा करके खुद को जानने का नाटक करते हैं। वे ऐसे लोग नहीं हैं, जो वास्तव में खुद को जानते या सत्य स्वीकारते हैं। जब ऐसे लोग खुद को जानने की बात करते हैं, तो वे यंत्रवत ढंग से काम करते हैं; वे स्वाँग, धोखाधड़ी और झूठी आध्यात्मिकता में संलग्न रहते हैं। कुछ लोग धोखेबाज होते हैं, और जब वे दूसरों को आत्म-ज्ञान पर सहभागिता करते हुए देखते हैं, तो वे सोचते हैं, ‘बाकी सब खुलकर बोलते हैं और अपने-अपने छल का गहन-विश्लेषण करते हैं। अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो सभी सोचेंगे कि मैं खुद को नहीं जानता, तब मुझे बेमन से ऐसा करना पड़ेगा!’ जिसके बाद वे अपने छल को अत्यधिक गंभीर बताते हैं और नाटकीयता के साथ उसका वर्णन करते हैं, और उनका आत्म-ज्ञान विशेष रूप से गहरा प्रतीत होता है। सुनने वाला हर व्यक्ति महसूस करता है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, और फिर उन्हें ईर्ष्या से देखता है, जिससे उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे गौरवशाली हों, मानो उन्होंने खुद को प्रभामंडल से सजा लिया हो। बेमन से काम करने से प्राप्त इस प्रकार का आत्म-ज्ञान, उनके स्वांग और धोखाधड़ी के साथ मिलकर, दूसरों को गुमराह कर देता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। परमेश्वर के वचनों से उजागर होकर और उनके सामने खुद को जाँचकर, मुझे एहसास हुआ कि मेरा आत्म-ज्ञान पाखंड और धोखे के अलावा कुछ नहीं था। मेरा आत्म-ज्ञान केवल अपने सुपरवाइजर को खुश करने का एक दिखावा-मात्र था। मुझे लगा कि वह हमारे मुद्दों की ओर ध्यान दिलाकर, हमें हमारे कर्तव्यों में गैर-जिम्मेदार और लापरवाह बता रहा है, और जिन बहनों के साथ मैं काम कर रहा हूँ, वे सभी आत्म-चिंतन कर रही हैं, अगर मैंने खुद को नहीं जाना, तो ऐसा लगेगा कि मैं काट-छाँट स्वीकार नहीं कर रहा। अगर टीम अगुआ के रूप में मेरा चिंतन दूसरों से उथला हुआ, तो क्या इससे ऐसा नहीं लगेगा कि मेरा जीवन प्रवेश खराब है? इस इरादे से, मैंने अनिच्छा से चिंतन और आत्म-ज्ञान की कुछ बातें लिखीं, लेकिन यह हृदय से निकला वास्तविक ज्ञान नहीं था, न ही यह परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने से आई वास्तविक समझ थी। मुझे पीड़ा या ऋणी होने का कोई एहसास नहीं हुआ। यह सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए था, जैसे मैं सिर्फ नारे लगा रहा था और बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था। मैंने मौखिक रूप से तो अपने लापरवाहीपूर्ण रवैये को पहचान लिया था, लेकिन अपने मन में, मैं इस पर विश्वास नहीं करता था। मैंने यहाँ तक सोचा, “अगर मेरे कार्य में कुछ समस्याएं या विचलन हैं तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। बिना किसी समस्या के कौन अपना कर्तव्य निभा सकता है? सुपरवाइजर ने मेरी काट-छाँट करने और मुझे डाँटने के लिए बस एक छोटी-सी समस्या पकड़कर रहा है। वह मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षा कर रहा है!” मैं भी सुपरवाइजर की पीठ पीछे उसके खिलाफ असंतोष फैला रहा था। यह सच्चा आत्मज्ञान कैसे हुआ? इससे भी बुरी बात तो यह थी कि मैंने मन से सुपरवाइजर की काट-छाँट को बिल्कुल स्वीकार नहीं किया था, लेकिन मैं दिखा ऐसे रहा था मानो मैंने स्वीकार कर लिया हो, लोगों की लापरवाही को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों को खुद पर लागू कर रहा था। मेरी आंतरिक और बाहरी अवस्था में एक विरोधाभास था, मैं दूसरों को धोखा दे रहा था और उन पर झूठा प्रभाव डाल रहा था। मैं सचमुच धोखेबाज था! तथ्यों के खुलासे से ही मैं पूरी तरह आश्वस्त हो सका। मुझे अपने बारे में कोई वास्तविक समझ नहीं थी। मेरा आत्म-ज्ञान केवल औपचारिक और खोखले शब्दों का पुलिंदा था, यह दिखावा और कपट से ज्यादा कुछ नहीं था। मेरा चिंतन कितना भी गहरा या विस्तृत दिखता हो, लेकिन यह था केवल नकली और झूठा ही। इसका एहसास होने पर, मैं अंततः अपने होशो-हवास में आ गया। इतने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, मैंने हमेशा आत्म-ज्ञान की बातें की थीं और सभाओं के दौरान खुद का गहन विश्लेषण किया था, लेकिन इतने सारे ज्ञान के बावजूद, मुझमें अभी भी बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया था। मेरा आत्म-ज्ञान केवल दूसरों की सराहना और प्रशंसा पाने करने के लिए था, अपने तथाकथित अच्छे जीवन प्रवेश का दिखावा करने के लिए था, यहाँ तक कि सभाओं में गुप्त रूप से अपनी संगति और ज्ञान की तुलना बहनों की संगति से करने के लिए था, यह देखने के लिए कि किसके पास अधिक गहरी और अधिक गहन समझ है। मेरा आत्म-ज्ञान सिर्फ कागज पर था, हालाँकि मैं भव्य नारों से भरा हुआ था और मैं खुद को कठोरता से उजागर करता था, कभी-कभी तो यह तक कहता था कि मैं राक्षस हूँ, शैतान और मसीह-विरोधी हूँ, लेकिन यह वास्तव में परमेश्वर के वचनों के न्याय को स्वीकार करना नहीं था, और यह दिल से स्वीकारना नहीं था। बल्कि, मैं बस बड़े-बड़े धर्म-सिद्धांत बोलने के लिए परमेश्वर के वचनों से उद्धरण उठाता था जो बहुत गहरे लगते थे, लेकिन दरअसल अपनी भ्रष्ट अवस्था की वास्तविक समझ के बिना वे खोखले थे। इस किस्म के आत्म-ज्ञान ने दूसरों को धोखा दिया और मुझे अंधा कर दिया। मुझे हमेशा यही लगता था कि अपनी भ्रष्टता स्वीकार करके और मनुष्यों के भ्रष्ट सार को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के सामने अपनी जाँच करके, मैं खुद को जान रहा हूँ, बल्कि मैं तो इसके लिए अपनी प्रशंसा भी करता था। जबकि सच्चाई यह है कि मैं एक भी सही राय स्वीकार नहीं कर पाता था, और जब काट-छाँट की जाती, तो मैं बहस करता और खुद को सही ठहराने की कोशिश करता। अगर मैं यही सब करता रहा, तो भले ही मैं पूरी जिंदगी परमेश्वर में विश्वास रखूँ और हर दिन आत्म-ज्ञान की बातें करूँ, मैं कभी सच्चा पश्चात्ताप या खुद को नहीं बदल पाऊँगा, और अंत में, मेरा शैतानी स्वभाव ज्यों का त्यों रहेगा, और यकीनन परमेश्वर त्यागकर हटा देगा। इसका एहसास होने पर, मैंने देखा कि मैं कितना मूर्ख हूँ और कितने बड़े खतरे में हूँ!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “कुछ मसीह-विराधी विशेष रूप से दिखावा करने, लोगों को धोखा देने, और मुखौटा लगाने में माहिर होते हैं। जब उनका सत्य समझने वाले लोगों से सामना होता है, तो वे अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करना शुरू कर देते हैं, और यह भी कहते हैं कि वे दानव और शैतान हैं, कि उनकी मानवता बुरी है, और यह कि वे शापित होने लायक हैं। मान लो कि तुम उनसे पूछते हो, ‘चूंकि तुम्हारा कहना है कि तुम एक दानव और शैतान हो, तो तुमने कौन-से बुरे काम किए हैं?’ वो कहेंगे : ‘मैंने कुछ नहीं किया, लेकिन मैं एक दानव हूँ। और मैं केवल एक दानव नहीं हूँ; मैं एक शैतान भी हूँ!’ फिर तुम उनसे पूछते हो, ‘चूंकि तुमने कहा कि तुम एक दानव और शैतान हो, तो तुमने दानव और शैतान वाले कौन-से बुरे काम किए, और तुमने परमेश्वर का प्रतिरोध कैसे किया? क्या तुम उन बुरे कामों के बारे में सत्य बता सकते हो जो तुमने किए थे?’ वो कहेंगे : ‘मैंने कुछ भी बुरा नहीं किया!’ फिर तुम और दबाव डालते हुए पूछो, ‘यदि तुमने कोई बुरा काम नहीं किया, तो तुमने ऐसा क्यों कहा कि तुम एक दानव और शैतान हो? ऐसा कह कर तुम क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो?’ जब तुम उनके साथ इस तरह गंभीर हो जाते हो, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। वास्तव में, उन्होंने कई बुरे काम किए हैं, लेकिन वे उनसे संबंधित तथ्यों को तुम्हारे साथ बिल्कुल भी साझा नहीं करेंगे। वे बस कुछ बड़ी-बड़ी बातें करेंगे और खोखले तरीके से अपने आत्म-ज्ञान के बारे में कुछ सिद्धांत उगलेंगे। जब यह बात आती है कि उन्होंने लोगों को विशेष रूप से कैसे आकर्षित किया, लोगों को कैसे धोखा दिया, लोगों का उनकी भावनाओं के आधार पर कैसे इस्तेमाल किया, परमेश्वर के घर के हितों को गंभीरता से लेने में कैसे विफल हुए, कार्य व्यवस्थाओं के खिलाफ कैसे गए, ऊपरवाले को कैसे धोखा दिया, भाई-बहनों से बातें कैसे छिपाई, और परमेश्वर के घर के हितों को कितना नुकसान पहुँचाया, तो वे इन तथ्यों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहेंगे। क्या यह सच्चा आत्म-ज्ञान है? (नहीं।) ऐसा कहकर कि वे एक दानव और शैतान हैं, क्या वे अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने के लिए आत्म-ज्ञान का नाटक नहीं कर रहे हैं? क्या यह उनके द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक तरीका नहीं है? (हाँ, है।) एक औसत व्यक्ति इस तरीके को समझ नहीं सकता है। ... शैतान कभी अपनी बड़ाई करके और अपनी गवाही देकर दूसरे लोगों को गुमराह करता है तो कभी जब उसके पास कोई विकल्प नहीं होता तो वह घुमा-फिरा कर अपनी गलतियाँ स्वीकार कर सकता है, लेकिन यह सब दिखावा है, और उसका उद्देश्य लोगों की सहानुभूति और समझ हासिल करना है। वह यह भी कहेगा, ‘कोई भी पूर्ण नहीं है। हर किसी का स्वभाव भ्रष्ट होता है और हर कोई गलतियाँ करने में सक्षम होता है। जब तक कोई अपनी गलतियों को सुधार सकता है, तब तक वह अच्छा इंसान है।’ जब लोग यह सुनते हैं, तो उन्हें लगता है कि वह सही है, और वे शैतान की आराधना और उसका अनुसरण करना जारी रखते हैं। अति-सक्रिय रूप से अपनी ग़लतियों को स्वीकार करना, और गुप्त रूप से अपनी बड़ाई करना और लोगों के दिलों में अपनी स्थिति को मजबूत करना शैतान का तरीका है, ताकि लोग उसके बारे में हर चीज स्वीकार करें—यहाँ तक कि उसकी त्रुटियों को भी—और फिर इन त्रुटियों को क्षमा कर दें, धीरे-धीरे उनके बारे में भूल जाएँ, और अंततः शैतान को पूरी तरह से स्वीकार लें, मृत्यु तक उसके प्रति वफादार रहें, उसे कभी न छोड़ें या त्यागें, और अंत तक उसका अनुसरण करते रहें। क्या यह शैतान के कार्य करने का तरीका नहीं है? शैतान इसी तरह से कार्य करता है, और मसीह-विरोधी भी इस तरह केतरीके का उपयोग करते हैं जब वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और लोगों से अपनी आराधना और अनुसरण करवाने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए कार्य करते हैं। इसके होने वाले परिणाम भी वैसे ही होते हैं, और शैतान द्वारा लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के परिणामों से बिल्कुल भी भिन्न नहीं होते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)। आत्म-चिंतन किया तो पता चला कि मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ जैसा परमेश्वर ने उजागर किया था। मेरी काट-छाँट होने पर, मैं साफ तौर पर बहस कर रहा था और मन से समर्पण नहीं कर रहा था, बल्कि दिखावा कर रहा था ताकि लोग कहें कि मैं सत्य स्वीकार कर सकता हूँ, और अपने प्रति सुपरवाइजर की नकारात्मक धारणा को एक अच्छी धारणा में बदलने के लिए, मैंने गहन विश्लेषण किया और बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी समस्याओं को जाना और खुद को जाँचने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग किया, जैसे मुझमें “मानवता की कमी है,” “दूसरों को गुमराह कर रहा हूँ,” और “कलीसिया के काम में बाधा पहुँचा रहा हूँ,” ताकि लोग यह सोचें कि मैंने खुद को गहराई से और पूरी तरह से समझ लिया है। दरअसल, मैं दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे हट रहा था, लोगों को चुप कराने के लिए अपनी गलती को तुरंत स्वीकार कर रहा था ताकि सब मेरा समर्थन करें, मेरी सराहना करें, और कहें कि मैं सत्य स्वीकार सकता हूँ, जीवन प्रवेश पा सकता हूँ और अपनी गलतियों का पता चलने पर उन्हें सुधार सकता हूँ। मैंने खुद को अच्छे से पेश करने के लिए झूठे दिखावों और खोखले धर्म-सिद्धांतों का इस्तेमाल किया, जबकि असल में, मैं केवल दिखावा करना, खुद को ऊँचा उठाना और दूसरों को धोखा देना चाहता था। मेरे ज्ञान के पीछे कई शर्मनाक मंशाएँ, खुद को अच्छा दिखाने के षड्यंत्र, लोगों को गुमराह करने और उनकी प्रशंसा पाने के इरादे छिपे हुए थे। मैं वाकई घृणित था! इसके अलावा, मुझे वास्तव में नहीं लगता था कि मेरी समस्याएँ इतनी गंभीर हैं, लेकिन मैं खुद को घृणित और नीच कहता था। दरअसल, मैं लोगों को गुमराह करने के लिए झूठी गवाही दे रहा था। इस खुलासे से मुझे पता चला कि मेरी प्रकृति इतनी कपटपूर्ण है कि मैं अपने आत्म-ज्ञान को नकली और झूठा भी बना सकता हूँ। सुपरवाइजर का मुझे उजागर करना और मेरी काट-छाँट बिल्कुल सही थी!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, और मुझे गलत मार्ग पर चलने को लेकर कुछ समझ हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “उन लोगों में जो जीवन की तलाश करते हैं, पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो स्वयं अपना सार नहीं जानता था। वह किसी भी तरह विनम्र या समर्पित नहीं था, न ही वह अपना सार जानता था, जो परमेश्वर के विरुद्ध था। और इसलिए, वह ऐसा व्यक्ति था जो विस्तृत अनुभवों से नहीं गुजरा था, और ऐसा व्यक्ति था जो सत्य को अभ्यास में नहीं लाया था। पतरस भिन्न था। वह सृजित प्राणी होने के नाते अपनी अपूर्णताएँ, कमजोरियाँ, और अपना भ्रष्ट स्वभाव जानता था, और इसलिए उसके पास अभ्यास का एक मार्ग था जिसके माध्यम से वह अपने स्वभाव को बदल सके; वह उन लोगों में से नहीं था जिनके पास केवल सिद्धांत था किंतु जो वास्तविकता से युक्त नहीं थे। वे लोग जो परिवर्तित होते हैं नए लोग हैं जिन्हें बचा लिया गया है, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करने की योग्यता से संपन्न हैं। वे लोग जो नहीं बदलते हैं उन लोगों में आते हैं जो स्वाभाविक रूप से पुराने और बेकार हैं; ये वे लोग हैं जिन्हें बचाया नहीं गया है, अर्थात्, वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर तिरस्कृत कर चुका है। उनका कार्य चाहे जितना भी बड़ा हो, उन्हें परमेश्वर द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। जब तुम इसकी तुलना स्वयं अपने अनुसरण से करते हो, तब यह स्वतः स्पष्ट हो जानना चाहिए कि तुम अंततः उसी प्रकार के व्यक्ति हो या नहीं जैसे पतरस या पौलुस थे। यदि तुम जो खोजते हो उसमें अब भी कोई सत्य नहीं है, और यदि तुम आज भी उतने ही अहंकारी और अभद्र हो जितना पौलुस था, और अब भी उतने ही बकवादी और शेखीबाज हो जितना वह था, तो तुम बिना किसी संदेह के पतित व्यक्ति हो जो विफल होता है। यदि तुम पतरस के समान खोज करते हो, यदि तुम अभ्यासों और सच्चे बदलावों की खोज करते हो, और अहंकारी या उद्दंड नहीं हो, बल्कि अपना कर्तव्य निभाने की तलाश करते हो, तो तुम सृजित प्राणी होगे जो विजय प्राप्त कर सकता है। पौलुस स्वयं अपना सार या भ्रष्टता नहीं जानता था, वह अपने विद्रोहीपन को तो और भी नहीं जानता था। उसने मसीह के प्रति अपनी कुत्सित अवज्ञा का कभी उल्लेख नहीं किया, न ही वह बहुत अधिक पछतावे से भरा था। उसने बस एक स्पष्टीकरण दिया, और, अपने हृदय की गहराई में, वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से नहीं झुका था। यद्यपि वह दमिश्क के रास्ते पर गिर पड़ा था, फिर भी उसने अपने भीतर गहराई से झाँककर नहीं देखा था। वह मात्र काम करते रहने से ही संतुष्ट था, और वह स्वयं को जानने और अपना पुराना स्वभाव बदलने को सबसे महत्वपूर्ण विषय नहीं मानता था। वह तो बस सत्य बोलकर, स्वयं अपने अंतःकरण के लिए औषधि के रूप में दूसरों को पोषण देकर, और अपने अतीत के पापों के लिए अपने को सांत्वना देने और अपने को माफ करने की ख़ातिर यीशु के शिष्यों को अब और न सताकर ही संतुष्ट था। उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भविष्य के मुकुट और क्षणिक कार्य से अधिक कुछ नहीं था, उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भरपूर अनुग्रह था। उसने पर्याप्त सत्य की खोज नहीं की थी, न ही उसने उस सत्य की अधिक गहराई में जाने की खोज की थी जिसे उसने पहले नहीं समझा था। इसलिए स्वयं के विषय में उसके ज्ञान को झूठ कहा जा सकता है, और उसने ताड़ना और न्याय स्वीकार नहीं किया था। वह कार्य करने में सक्षम था इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं अपनी प्रकृति या सार के ज्ञान से युक्त था; उसका ध्यान केवल बाहरी अभ्यासों पर था। यही नहीं, उसने जिसके लिए कठिन परिश्रम किया था वह बदलाव नहीं, बल्कि ज्ञान था। उसका कार्य पूरी तरह दमिश्क के मार्ग पर यीशु के प्रकटन का परिणाम था। यह कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे उसने मूल रूप से करने का संकल्प लिया था, न ही यह वह कार्य था जो उसके द्वारा अपने पुराने स्वभाव की काँट-छाँट स्वीकार करने के बाद हुआ था। उसने चाहे जिस प्रकार कार्य किया, उसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था, और इसलिए उसके कार्य ने उसके अतीत के पापों का प्रायश्चित नहीं किया बल्कि उस समय की कलीसियाओं के मध्य एक निश्चित भूमिका मात्र निभाई थी। इस जैसे व्यक्ति के लिए, जिसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था—कहने का तात्पर्य यह, जिसने उद्धार प्राप्त नहीं किया था, तथा सत्य से और भी अधिक रहित था—वह प्रभु यीशु द्वारा स्वीकार किए गए लोगों में से एक बनने में बिल्कुल असमर्थ था(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचन उन मार्गों को उजागर करते हैं जिन पर पतरस और पौलुस चले थे। परमेश्वर में विश्वास रखने में पतरस की सफलता उसकी सत्य की सच्ची खोज और आत्म-ज्ञान पर ध्यान देने में निहित थी। उसने मानवता को उजागर करने वाले प्रभु यीशु के वचनों के सामने खुद को कठोरता से जाँचा, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में आत्म-चिंतन किया, और अंततः सच्चा आत्म-ज्ञान प्राप्त किया। पौलुस की विफलता अपने भ्रष्ट सार के ज्ञान की कमी के कारण थी। वह केवल मौखिक मान्यता से ही संतुष्ट था, खुद को पापी और पापियों का मुखिया कहता था। लेकिन उसने कभी इसका गहन विश्लेषण या खुलासा नहीं किया कि उसने प्रभु यीशु के खिलाफ कैसे विद्रोह और उसका विरोध किया, या उसने कौन सा बुरा काम किया। उसका आत्म-ज्ञान खोखला और झूठा था। इसकी वजह से उसके जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया, बल्कि इसने उसे और भी अहंकारी बना दिया, और अंत में, यह कहकर उसने बेशर्मी से अपनी गवाही दी, कि वह मसीह के रूप में जी रहा है। परमेश्वर के वचनों के खुलासे से, मुझे एहसास हुआ कि मैं भी पौलुस के मार्ग पर ही चल रहा हूँ। परमेश्वर में विश्वास रखने के इन बरसों में, मैंने यह कहते हुए सभाओं में और भाई-बहनों के सामने आत्म-ज्ञान के बारे में बात कीं, कि मैं अहंकारी, स्वार्थी, नीच और मानवता-रहित हूँ, बल्कि मैंने खुद को राक्षस और शैतान बताया, जबकि मेरे मुँह से धाराप्रवाह आत्म-ज्ञान के वचन निकलते थे, चाहे मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के किसी भी पहलू को पहचानूँ, मैं उस पर दस-बीस मिनट तक बोल सकता था। लेकिन अपने मन में, मुझे न कोई पीड़ा होती थी और न ही कोई बेचैनी। लेकिन मैं खुद से सवाल किए बिना न रह पाता, “इस सारे आत्म-ज्ञान को लेकर, इतने बरसों में, क्या मैंने सच में परमेश्वर के किसी भी वचन का न्याय स्वीकार किया है? क्या मुझे सच में खुद से नफरत होती है? मेरे भ्रष्ट स्वभाव का कौन सा पहलू वाकई बदला है?” जब भी सभाओं में या दूसरे लोग मुझे उजागर करते, तो मैं बेमन से केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों के ज्ञान पर चर्चा करने लगता, लेकिन मेरे मन में न तो कोई ग्लानि होती और न ही मुझे ऋणी होने का एहसास होता, और उसके बाद, मैं कभी न सोचता कि खुद में बदलाव कैसे लाऊँ। मैं इस तरह जितना ज्यादा खुद को पहचानता गया, उतना ही ज्यादा लापरवाह होता गया और मैंने अपने कर्तव्यों में प्रगति करने की प्रेरणा गँवा दी। मेरे आत्म-ज्ञान से मुझमें कोई परिवर्तन नहीं आया। बल्कि इसने मुझे आत्म-संतुष्ट और आत्म-प्रशंसक बना दिया। मुझे लगा मैंने अपनी अकर्मण्यता, स्वार्थ और नीचता को स्वीकार लिया है और अपनी मानवता की कमी को पहचान लिया है। मुझे यह भी लगा कि मेरी समझ दूसरों की तुलना में अधिक गहरी और गहन है और इसका मतलब है कि मैं सत्य में प्रवेश कर चुका हूँ। ऐसे पाखंडी आत्म-ज्ञान ने न केवल दूसरों को धोखा दिया बल्कि मुझे भी गुमराह किया, और अंत में, मुझे ही नुकसान उठाना पड़ा। दरअसल, कुछ भाई-बहन मेरे इस तथाकथित आत्म-ज्ञान को समझ गए। एक भाई ने तो मुझसे यहाँ तक कहा, “तुम जिस आत्म-ज्ञान की बात करते हो, वह भव्य और अधिकांश लोगों की पहुंच से परे लगता है, पहले तो मैंने इसे सराहा, लेकिन समय के साथ, मैंने नहीं देखा कि तुममें बहुत बदलाव आया हो या प्रवेश हुआ हो!” विचार करने पर, यह सचमुच दयनीय है! इतने बरसों में, अपने कर्तव्य निभाते समय, परमेश्वर ने मेरे लिए कई परिवेशों की व्यवस्था की और मुझे बहुत सारी काट-छाँट का भी सामना करना पड़ा, लेकिन मैंने ये सारे अवसर गँवा दिए और मैंने इन मामलों में ठीक से आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को नहीं जाना। परमेश्वर ने बहुत सारे वचन व्यक्त किये हैं, इस उम्मीद से मानव भ्रष्ट स्वभाव के सभी पहलुओं को उजागर किया है कि लोग उसके वचनों के न्याय को स्वीकार कर सकें, अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर उद्धार प्राप्त कर सकें। लेकिन मैंने परमेश्वर के शाब्दिक वचनों को केवल दिखावे के एक उपकरण के रूप में उपयोग किया, खुद को ढेरों धर्म-सिद्धांतों से युक्त कर लिया, लेकिन मेरे भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया। मैं बिल्कुल पाखंडी फरीसियों की तरह था। ये सोच कर, मुझे संकट महसूस हुआ, और एहसास हुआ कि मैं यही सब करता नहीं रह सकता, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं गलत अनुसरण न करूँ और खुद को जानूँ।

प्रार्थना और खोज से, मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग और प्रवेश मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यदि तुम्हारे आत्मज्ञान में केवल सतही चीजों की सरसरी पहचान शामिल है—अगर तुम केवल कहते हो कि तुम अभिमानी और दंभी हो, कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो और उसका विरोध करते हो—तो यह सच्चा ज्ञान नहीं है, बल्कि सिद्धांत है। तुम्हें इसमें तथ्य एकीकृत करने चाहिए : जिन मामलों में तुम्हारे गलत इरादे और विचार हों या विकृत मत हों, तुम्हें उन्हें संगति और गहन-विश्लेषण के लिए प्रकाश में लाना चाहिए। केवल यही वास्तव में खुद को जानना है। तुम्हें केवल अपने कार्यों से अपने बारे में समझ हासिल नहीं करनी चाहिए; तुम्हें समस्या का मर्म समझकर समूल समाधान करना चाहिए। कुछ समय बीतने के बाद तुम्हें आत्मचिंतन कर यह सारांश निकालना चाहिए कि तुम किन समस्याओं का समाधान कर चुके हो और कौन-सी अभी बची हुई हैं। इसी तरह इन समस्याओं का भी समाधान करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा। तुम्हें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए, ऐसा न हो कि किसी काम को करने या राजी करने के लिए तुम्हें हमेशा दूसरों की जरूरत पड़े, न अपनी लगाम दूसरों को सौंपो; जीवन-प्रवेश के लिए तुम्हारे पास अपना रास्ता होना चाहिए। तुम्हें बार-बार यह जाँच करके देखना चाहिए कि तुमने ऐसी कौन-सी चीजें कही या की हैं, जो सत्य के विरुद्ध हैं, तुम्हारे कौन-से इरादे गलत हैं और तुमने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं। अगर तुम हमेशा इसी तरह से अभ्यास और प्रवेश करते हो—अगर तुम खुद से सख्त अपेक्षाएँ करते हो—तो तुम धीरे-धीरे सत्य समझने में सक्षम हो जाओगे और तुम्हारे पास जीवन-प्रवेश होगा। जब तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम देख लोगे कि तुम वास्तव में कुछ नहीं हो। इसका एक कारण तो यह है कि तुम्हारा स्वभाव गंभीर रूप से भ्रष्ट है; दूसरा कारण यह कि तुममें बहुत ज्यादा कमी है, और तुम किसी सत्य को नहीं समझते। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब तुम्हारे पास ऐसा आत्म-ज्ञान होता है, तो तुम अहंकार नहीं कर कर पाओगे, कई मामलों में तुम्हारे पास समझ होगी और तुम समर्पण करने में सक्षम होगे। अभी मुख्य मुद्दा क्या है? धारणाओं के सार पर संगति और उसके गहन-विश्लेषण के जरिये लोग यह समझने लगे हैं कि वे धारणाएँ क्यों बनाते हैं; वे कुछ धारणाओं का समाधान करने में सक्षम रहते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे हर धारणा का सार स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, इसका अर्थ सिर्फ यह है कि उनमें कुछ आत्म-ज्ञान है, लेकिन उनका ज्ञान अभी पर्याप्त गहरा या पर्याप्त स्पष्ट नहीं है। दूसरे शब्दों में, वे अभी भी अपना प्रकृति-सार स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, न ही वे यह देख सकते हैं कि उनके दिलों में किन भ्रष्ट स्वभावों ने जड़ें जमा ली हैं। इस बात की एक सीमा है कि इस तरीके से व्यक्ति अपने बारे में कितना ज्ञान प्राप्त कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं, ‘मुझे पता है कि मेरा स्वभाव बेहद अहंकारी है—क्या इसका यह मतलब नहीं कि मैं खुद को जानता हूँ?’ ऐसा ज्ञान बहुत सतही है; यह समस्या हल नहीं कर सकता। अगर तुम सचमुच खुद को जानते हो, तो तुम अभी भी व्यक्तिगत उन्नति क्यों चाहते हो, तुम अभी भी रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए क्यों लालायित रहते हो? इसका मतलब है कि तुम्हारी अहंकारी प्रकृति मिटी नहीं है। इसलिए बदलाव तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों से और तुम्हारी कथनी-करनी के पीछे छिपे इरादों से शुरू होना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे आत्म-ज्ञान के मार्ग पर थोड़ी स्पष्टता मिली। मैंने इस मामले पर विचार कर खुद को पहचाना और अपने आपसे पूछा, “मैं अपने कर्तव्य में इतना लापरवाह क्यों था? जब सुपरवाइजर ने मेरे गैरजिम्मेदाराना रवैये के लिए मुझे उजागर किया और मेरी काट-छाँट की तो मैं उसे स्वीकार करने को तैयार क्यों नहीं था? कौन से इरादे और दृष्टिकोण मुझे उकसा रहे थे?” आत्म-चिंतन कर, मुझे यह एहसास हुआ : एक ओर, मैं अपने दैहिक-सुख को बहुत अधिक महत्व देता था, और जब भी मुझे दैहिक कष्ट सहने की जरूरत होती, तो मैं ढीला पड़ जाना चाहता था। इसके अलावा, मेरे मन में घृणित विचार आता कि चूंकि काम तीन लोगों के बीच बांटा गया है, अगर मैंने अधिक समीक्षा की, अधिक प्रयास किया, या बहनों से अधिक कष्ट सहा, तो मैं मूर्ख बनूंगा और अपना ही नुकसान करूँगा। मैं अपना कर्तव्य ऐसे निभाता जैसे मैं किसी नियोक्ता के लिए काम कर रहा था, हमेशा अपना नफा-नुकसान देखता और अगर मैंने थोड़ा अधिक काम किया या दूसरों की तुलना में थोड़ा अधिक कष्ट सहा तो मुझे लगता मैं छला गया हूँ। ऐसा लगता मानो मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, लेकिन वास्तव में, मैं दुष्ट षड्यंत्रों से भरा होता था और केवल अपने लाभ के बारे में सोच रहा होता था। मैं बहुत स्वार्थी और घृणित था! इसके अलावा, मेरा एक और दृष्टिकोण गलत था, मेरा मानना था कि कोई भी पूर्ण नहीं होता, कि कोई भी अपना कर्तव्य पूर्णता से नहीं निभा सकता, और कुछ समस्याएँ या विचलन होना सामान्य बात है, इसलिए जब मेरी काट-छाँट की गई, तो मैंने खुद पर विचार नहीं किया या अपने आपको को नहीं जाना, और मुझे लगा कि सुपरवाइजर बहुत अधिक अपेक्षा कर रहा है। जब मैंने खुद पर विचार किया और गहन विश्लेषण किया, तो मुझे एहसास हुआ कि यह दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं है। हालाँकि परमेश्वर हमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि हम अपना कर्तव्य पूरी तरह से निभाएँ, पर वह यह अपेक्षा जरूर करता है कि हम अपने कर्तव्यों में अपना सर्वस्व लगा दें। अपने कर्तव्यों में हमें इस सिद्धांत का पालन अवश्य करना चाहिए। लेकिन मेरा दृष्टिकोण ही गलत था, जब थोड़ा-सा अधिक ध्यान देने से समस्याओं को रोका जा सकता था, तो भी मैं प्रयास करने को तैयार नहीं होता था। अपना दिल लगाना तो दूर, मैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास ही नहीं कर रहा था। इससे मेरे कार्य में और अधिक मुद्दे सामने आने लगे थे, जिससे सीधे तौर पर मेरे काम में बाधा पहुंच रही थी और नुकसान हो रहा था। इस बात का एहसास होने पर, मुझे अपनी आंतरिक अवस्था के बारे में थोड़ी-बहुत समझ आई।

जैसे ही मुझे कुछ समझ हासिल हो रही थी, सुपरवाइजर हमारे साथ एक सभा आयोजित करने आया और हमसे पूछा कि हमने हाल ही में अपनी काट-छाँट और प्रकटीकरण को कैसे समझा। मैं जो कहने वाला था उसे मैंने अपने दिमाग में व्यवस्थित करना शुरू कर दिया, मैं सोच रहा था, “मैं ऐसा क्या बोलूँ जिससे सुपरवाइजर को लगे कि मुझमें आत्म-ज्ञान है? मैं यह कैसे दिखा सकता हूँ कि मुझे गहरी समझ है? अगर मेरी समझ बहुत उथली लगती है, तो क्या सुपरवाइजर और मेरी सहयोगी बहनें खराब जीवन प्रवेश के लिए मुझे नीची नजर से देखेंगी?” जब मैंने इस तरह सोचा, तो मुझे तुरंत एहसास हुआ, “क्या मैं अभी भी दूसरों से प्रशंसा पाने के लिए खुद को गहन धर्म-सिद्धांतों से छिपाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ?” मैं जानता था कि यह एक अवसर है जो परमेश्वर ने मेरे लिए सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए निर्धारित किया है, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की और यह संकल्प लिया कि चाहे भाई-बहन मुझे कैसे भी देखें, मुझे दिल से सच बोलना है और उतना ही साझा करना है जितने की मुझे समझ है। इसके बाद, मैंने खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने और दूसरों को गुमराह करने के अपने व्यवहार और उसके पीछे के इरादों पर संगति की। मैंने यह भी स्वीकार किया कि उस पल, मैंने केवल इतना पहचाना था कि मेरी पिछली समझ नकली और झूठी है, और मैं अपने लापरवाही से भरे इरादे से अवगत था, लेकिन मुझे अपनी लापरवाही की प्रकृति और परिणाम का पूरी तरह से एहसास नहीं हुआ था। अपने सच्चे विचार और समझ व्यक्त करने के बाद, मुझे मन में सुकून मिला, क्योंकि अंततः मैंने लोगों को अपना असली स्वरूप दिखा दिया था, और अब मुझे खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने के लिए अपना दिमाग खपाने की जरूरत नहीं है। आगे चलकर, मैं अक्सर अपनी लापरवाहीपूर्ण अवस्था से जुड़े परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन वाले वचन खाता और पीता था, और अपनी अवस्था और व्यवहार पर विचार करता और पहचानता। अगर मुझे कुछ समझ न आता तो मैं भाई-बहनों से पूछता। सभी के मार्गदर्शन और सहयोग से, मुझे अपने बारे में कुछ वास्तविक समझ प्राप्त हुई, और जब मैंने दोबारा अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया तो मेरी लापरवाही कम हो गई। जब कभी मुझे अपने कार्य में समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता और समझ न आता कि उन्हें कैसे हल किया जाए, तो मैं उन समस्याओं के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना करता और उस पर भरोसा करता, प्रासंगिक सत्य सिद्धांत खोजता, या अपनी सहयोगी बहनों के साथ संगति करता, या सुपरवाइजर से पूछता, उन मुद्दों को पूरी तरह से समझने और स्पष्ट करने का प्रयास करता। हालांकि इस तरह से अभ्यास करने में अधिक समय और प्रयास लगा और मुझे सामान्य से थोड़ा अधिक कष्ट सहना पड़ा, लेकिन खोज और संगति से, मुझे कुछ सत्य बेहतर ढंग से समझ में आ गए, समस्याओं का तुरंत समाधान हो गया, और कार्य की प्रभावशीलता में भी धीरे-धीरे सुधार हुआ।

इस अनुभव से, मुझे आत्म-ज्ञान से संबंधित अभ्यास के कुछ मार्ग मिले। मुझे यह भी एहसास हुआ कि अपने विचारों, इरादों और भ्रष्टता के खुलासों को समझने और परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में उन पर चिंतन करने और समझने से ही, मैं पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता पा सकता हूँ, समस्याओं की प्रकृति को देख सकता हूँ, अपने भ्रष्ट स्वभाव और सार को पहचान सकता हूँ, खुद से घृणा कर सकता हूँ, और पश्चाताप करने और बदलने को तैयार हो सकता हूँ। खुद पर ठप्पा लगाना, नियमों का पालन करना, और स्वयं को पाखंडी के तौर पर पहचानना, ऐसी चीजें हैं जो दूसरों को तो प्रभावित कर सकती हैं लेकिन इनसे वास्तविक पछतावा या पश्चत्ताप नहीं होता। अधिक से अधिक, इन चीजों का परिणाम नियम-पालन और आत्म-संयम में होता है, लेकिन कुछ समय बाद पुरानी समस्याएं फिर से उभर आएंगी। यह धार्मिक लोगों की तरह है जो पाप करते हैं और फिर कबूल करते हैं। वे कितने भी बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखते आ रहे हों, उनके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आ सकता। मुझे एहसास हुआ कि खुद को सच में जानना कितना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका सीधा संबंध इस बात से है कि क्या हम पश्चात्ताप कर सकते हैं, बदल सकते हैं और बचाये जा सकते हैं। परमेश्वर में अपने बरसों के विश्वास को देखते हुए, लगता तो ऐसा था जैसे मैं हर दिन परमेश्वर के वचन खाता और पीता हूँ और अपना कर्तव्य-निर्वहन करता हूँ, लेकिन मैंने वास्तव में परमेश्वर के वचनों के न्याय या ताड़ना को स्वीकार नहीं किया था। अगर काट-छाँट का यह अनुभव न होता, तो मैं अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जी रहा होता और खुद को न जान पाता। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मेरे गलत अनुसरण को सुधारने के लिए इस स्थिति की व्यवस्था की।

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