11. कर्तव्य में मेहनत न करने से मुझे हुआ नुकसान

2018 में, मैं कलीसिया में एक वीडियो संपादक के रूप में काम करता था। शुरू-शुरू में, वीडियो संपादन की पृष्ठभूमि न होने और प्रासंगिक सिद्धांतों से परिचित न होने के कारण, मैंने मेहनत से अध्ययन कर जरूरी हुनर पर महारत पाने की कोशिश की। कुछ समय बाद, मेरी तकनीकी क्षमता काफी सुधर गई, और मुझे एक समूह अगुआ चुन लिया गया। मैं रोमांचित होकर कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत करने को तैयार हो गया। बाद में, हमारे थोड़े जटिल वीडियो प्रोजेक्ट में एक समस्या आई, अगुआ ने मुझे इस पर गौर कर सुलझाने के लिए भेजा। जटिल काम और अपने कमजोर कौशल के चलते मैंने पहले तो हल ढूँढ़ने के लिए भाई-बहनों के साथ काम किया। लेकिन कुछ समय कड़ी मेहनत करने के बाद, जब चीजें ठीक से चलने लगीं और मेरा तकनीकी कौशल सुधर गया, तो मैं आलसी होने लगा। मैंने मन-ही-मन सोचा : “यह प्रोजेक्ट शायद अभी भी सही स्तर पर नहीं चल रहा होगा, मगर पहले से तो बहुत बेहतर है। मुझे इसे ऐसे ही चलते रहने देना होगा। बार-बार जाँचने की जरूरत नहीं है। हमेशा फिक्रमंद रहने से बड़ी थकान हो जाती है।” इसके बाद, मैंने नए कौशल पर कोई ध्यान नहीं दिया, और काम के बारे में ज्यादा सीखने की भी अनदेखी की। कई बार मेरे संपादित वीडियो में समस्याएँ आईं, और दूसरों ने मुझे अपना कामकाज सुधारने की सलाह दी। यह जानकर भी कि वे सही थे, मैंने मन-ही-मन सोचा : “वैसे ही मेरे पास बहुत काम है। अगर मुझे अध्ययन के लिए और समय निकालना पड़ा—तो इससे कितनी थकान हो जाएगी—ज्यादा समय और ऊर्जा खपाने के बाद भी नतीजे नहीं सुधरे, तो क्या होगा? क्या यह सारा अतिरिक्त काम करना बेकार नहीं होगा?” इसलिए मैंने दूसरों की सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसके बाद, अगुआ ने देखा कि हमारे काम की प्रगति धीमी थी, उसने मुझसे समस्या का पता लगाने को कहा। मेरे सहयोगी ने मुझे यह मसला सुलझाने की बार-बार याद दिलाई। तब, मैं थोड़ा प्रतिरोधी था। मैंने सोचा : “हम शायद थोड़ी धीमी गति से चल रहे हैं, लेकिन नतीजे पहले से बेहतर हैं। हमें हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए।” लेकिन अंदर से मुझे पता था कि अगर मैं सोच-विचार कर ज्यादा सावधानी से काम को नियोजित करता, तो सचमुच और सुधार करने की गुंजाइश थी। लेकिन हर बार जब सोचता कि काम का तनाव बहुत ज्यादा है, इस प्रोजेक्ट पर और ज्यादा समय लगाने से कितनी थकान होगी, तो मैं फिर से इसे टरका देता। बाद में, मेरे अगुआ ने दो बार और मुझसे समस्या पर बात की, तब जाकर मैंने बेमन से हालात की समीक्षा की। आखिरकार, मुझे कोई उपयुक्त हल नहीं मिल पाया।

इसके बाद, मैं समूह के काम पर ध्यान देने, या प्रगति के लिए त्याग करने को तैयार नहीं हुआ। खाली समय में मैं बस आराम करना चाहता था, कई बार तो मैं ज्यादा देर तक सोता रहता, और काम में देर कर देता। छुटपुट काम करते समय, मैं कभी-कभी थोड़ी देर के लिए कर्तव्य से जी चुराकर बाहर टहलता रहता। काम कम होने पर भी मैं अपने कौशल में सुधार के तरीके नहीं सोचता, बजाय इसके, मौका मिलते ही आराम करता। इस तरह मैं और ज्यादा आलसी होता गया, काम की निगरानी और सुपुर्दगी के दौरान बस काम करने का बहाना करता। मैंने कभी काम में गलतियाँ जाँचने में दूसरों की मदद नहीं की, और समस्याएँ आने पर, उन्हें सुलझाने के तरीकों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचना चाहता था। नतीजतन, हम वीडियो बनाने का काम पीछे खिसकाते रहे, जिन्हें समय से पहले ही पूरा किया जा सकता था। उस दौरान, मेरे संपादित किए हुए वीडियो में लगातार समस्याएँ आईं, और मेरे समूह के किसी भी भाई-बहन के काम में सुधार नहीं हुआ। काम में जरा भी मुश्किल आती, तो सारे लोग शिकायत करते। मैं संगति के जरिए इसे हल करने में न सिर्फ नाकाम रहता, बल्कि इस शिकायत में साथ भी देता। व्यावहारिक कार्य में नाकाम होने, और अगुआ के बार-बार संगति करने के बाद भी न सुधरने के कारण, मुझे शीघ्र ही समूह अगुआ के पद से बर्खास्त कर दिया गया। बर्खास्त होने के बाद, मुझे बहुत बुरा लगा, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर आत्म-चिंतन किया।

एक दिन, अपनी भक्ति के दौरान, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : “कुछ लोग हैं, जो अपने कर्तव्यों में कष्ट उठाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होते, जो किसी समस्या का सामना करने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार करते हैं। यह किस तरह का रवैया है? यह अनमना रवैया है। अपना कर्तव्य अनमनेपन से निभाने, और उसे हलकेपन से लेने का क्या परिणाम होता है? इसका परिणाम है कि तुम अपना कर्तव्य ठीक ढंग से नहीं निभाओगे, भले ही तुम इसे अच्छी तरह से करने के योग्य हो। तुम्हारा कार्य-निष्पादन कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा, और परमेश्वर तुम्हारे कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से संतुष्ट नहीं होगा। अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते, सत्य खोज सकते, और अपना पूरा दिल और दिमाग उसमें लगा सकते हो, अगर तुम इस तरह के सहयोग में सक्षम हो सकते, तो परमेश्वर तुम्हारे लिए सब-कुछ अग्रिम रूप से तैयार कर देता, ताकि जब तुम उसे करो तो सब-कुछ सही तरह से हो जाए, और परिणाम अच्छे हों। तुम्हें ज़्यादा प्रयत्न करने की ज़रूरत नहीं है; जब तुम सहयोग देने में कोई कसर नहीं छोड़ते, तो परमेश्वर पहले से ही तुम्हारे लिए सब कुछ व्यवस्थित कर देगा। यदि तुम मक्कार और विश्वासघाती हो, अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन रहते हो और हमेशा भटक जाते हो, तो परमेश्वर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो दोगे, और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम योग्य नहीं हो; तुम बेकार हो। दूर खड़े हो जाओ। तुम्हें धूर्त और कपटी होना पसंद है, है न? तुम्हें आलसी होना और आराम करना पसंद है, है न? तो फिर ठीक है, हमेशा के लिए आराम करो।’ परमेश्वर यह अनुग्रह और अवसर किसी और को दे देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह नुकसान है या फायदा? (नुकसान।) यह बहुत बड़ा नुकसान है!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे समूह अगुआ के तौर पर अपना दौर याद आया। मैंने देखा कि मैं ठीक वैसा ही था जैसा परमेश्वर के वचनों ने खुलासा किया था। मैं अपने कर्तव्य के प्रति अशिष्ट, गैर-जिम्मेदार और ढीला-ढाला था, मेहनत नहीं करना चाहता था। जब मैंने पहले-पहल समूह अगुआ के रूप में काम शुरू किया, तो मैंने समय और मेहनत लगाई, लेकिन कौशल में सुधार होने, और थोड़े नतीजे मिलने के बाद मैं बेपरवाह हो गया, अब तक हासिल प्रशंसा के भरोसे हमेशा देह-सुख में लिप्त रहने लगा। मैं हमेशा बस आराम करने और आसानी से निपटा देने की सोचता। मैं काम को बेहतर बनाने के लिए मेहनत करने को बिल्कुल तैयार नहीं था। समस्याएँ देखकर भी मैंने उन्हें फौरन दूर नहीं किया, और जब दूसरों ने उनके बारे में बताया, तो मैंने अनदेखी की। एक समूह अगुआ के रूप में, जब मैंने समूह के दूसरे लोगों को अपनी समस्याओं की शिकायत करते देखा, तो न सिर्फ मैं उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में नाकाम रहा, बल्कि मैं भी उनके साथ होकर उनसे सहमत हो गया। मानो वीडियो निर्माण कार्य में जितनी भी देर हो जाए, या लोगों को जितनी भी समस्याएँ हों, उसका मुझसे कोई सरोकार नहीं था। मैं बस खुश रहना चाहता था, खुद को थकाना नहीं चाहता था। नतीजतन, हमारे बनाए वीडियो में लगातार समस्याएँ आती रहीं, जिनसे वीडियो निर्माण की प्रगति गंभीर रूप से पिछड़ गई। मैं एक बड़े अहम कर्तव्य के साथ खिलवाड़ कर रहा था; आराम और देह-सुख के लिए, मैं बेपरवाही से काम करने, और परमेश्वर और दूसरों से छल करने को तैयार था। परमेश्वर के प्रति मेरी श्रद्धा कहाँ थी? काम के प्रति ऐसे रवैये से परमेश्वर घृणा कर उसे तिरस्कृत करता है। पीछे मुड़कर अपने काम की तमाम समस्याओं के बारे में सोचूँ, तो अगर मैंने सही समय लगाकर त्याग किए होते, तो चीजें इतनी नहीं बिगड़तीं। मगर मैं आलसी था, कष्ट और थकान नहीं झेलना चाहता था। नतीजतन, मैंने वीडियो निर्माण कार्य को नुकसान पहुँचाया। मैं बहुत स्वार्थी, घिनौना, और अविवेकी था! मैं बेहद गिरा हुआ, अनैतिक हो गया था, और मुझे एहसास भी नहीं हुआ! परमेश्वर ने मुझे याद दिलाने के बड़े आयोजन किए, फिर भी मैंने आत्म-चिंतन और प्रायश्चित्त नहीं किया। मैं इतना सुन्न और दुराग्रही कैसे हो सकता था? इन सबका एहसास कर मैंने दोषी और दुखी महसूस किया। इतना गैर-जिम्मेदार और दुराग्रही होकर मैं सच में अगुआ बनने लायक नहीं था। अपनी गलती के कारण ही मुझे बर्खास्त कर दिया गया था।

एक दिन अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा : “किसी दायित्व-बोध से युक्त व्यक्ति को लो, जब भी उससे कुछ कहा जाता है या उसे कुछ निर्देश दिया जाता है, चाहे वह किसी अगुआ, कार्यकर्ता या ऊपर वाले द्वारा दिया गया हो, तो वह हमेशा सोचता है, ‘ठीक है, चूँकि वे मुझे इतना ज्यादा मानते हैं, इसलिए मुझे इस मामले को अच्छी तरह सँभालना चाहिए और उन्हें निराश नहीं करना चाहिए।’ क्या तुम ऐसे कर्तव्यनिष्ठ और समझदार व्यक्ति को मामला सौंपने की हिम्मत करोगे? जिस व्यक्ति को तुम कोई मामला सँभालने के लिए सौंप सकते हो, वह ऐसा व्यक्ति होता है जिसे तुम भरोसेमंद मानते हो और जिसके बारे में तुम अच्छा सोचते हो। तुम इस प्रकार के व्यक्ति के बारे में अच्छी राय रखते हो, और तुम उसका बहुत सम्मान करते हो। खास तौर पर अगर उसने तुम्हारे लिए जो चीजें की हैं, वे सभी बहुत सावधानी से की गई हैं और पूरी तरह से तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरी उतरी हैं, तो तुम सोचोगे कि वह व्यक्ति भरोसे के काबिल है। तुम अंदर से वाकई उसकी प्रशंसा करोगे और उसका बहुत सम्मान करोगे। लोग इस प्रकार के व्यक्ति के साथ जुड़ने को तैयार होते हैं, परमेश्वर का तो कहना ही क्या। क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर कोई ऐसा कर्तव्य, जिसे मनुष्य निभाने के लिए बाध्य है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपेंगा जो भरोसेमंद नहीं है? (नहीं, वह नहीं सौंपेगा।) उस व्यक्ति से परमेश्वर की क्या अपेक्षा होती है, जिसे वह कलीसिया में कोई विशेष कार्य आवंटित करता है? पहली बात, परमेश्वर आशा करता है कि वह जिम्मेदार और मेहनती होगा, कार्य को बहुत महत्व देगा, और उसे अच्छी तरह से करेगा। दूसरे, परमेश्वर आशा करता है कि वह ऐसा व्यक्ति होगा जो भरोसे के काबिल है, कि चाहे उसे कितना भी समय लगे, और चाहे उसका परिवेश कैसे भी बदले, उसकी जिम्मेदारी की भावना डगमगाएगी नहीं, और उसका चरित्र परीक्षा में खरा उतरेगा। अगर वह भरोसेमंद व्यक्ति हो, तो परमेश्वर आश्वस्त होता है। वह फिर इस मामले की निगरानी या जाँच-पड़ताल नहीं करता, क्योंकि अंदर ही अंदर परमेश्वर उस पर भरोसा करता है। जब परमेश्वर उसे यह कार्य देता है, तो उसका इसे बिना किसी चूक के पूरा करना निश्चित है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मानवता वाला इंसान अपने काम में जिम्मेदार होता है, परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर पाता है, अपने कर्तव्य में अडिग रह पाता है, और भले ही वह कैसे भी हालात में हो, ठीक सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य पालन कर सकता है। अपने कर्तव्यों में हमें यही रवैया रखना चाहिए। यह देखते हुए कि कलीसिया ने मुझे वीडियो कार्य का प्रभारी बनाया था, कम-से-कम मुझे अपनी काबिलियत के अनुसार बढ़िया काम करना चाहिए था, और काम की समस्याएँ ढूँढकर उन्हें समय से दूर करना चाहिए था, ताकि हर हाल में हमारा काम सामान्य ढंग से आगे बढ़े। लेकिन खुशी-खुशी काम सँभालने को राजी होने के बाद भी, मैं सिर्फ अपने आराम और सुविधा की परवाह करता रहा, कोई व्यावहारिक कार्य नहीं किया, भले ही दूसरे मुझसे काम आगे बढ़ाने का बार-बार आग्रह करते रहे। मैंने “समूह अगुआ” का तमगा पहन लिया, लेकिन कोई काम नहीं करवाया, और मुझे सौंपे गए कामों का न्यूनतम हिस्सा भी पूरा करने में नाकाम रहा। नतीजतन, मैंने कलीसिया के वीडियो निर्माण कार्य में देर कर दी। मैं सचमुच अविवेकी था, भरोसे के लायक नहीं था! अपनी करतूतों के आधार पर, मुझे बहुत पहले ही त्याग दिया जाना चाहिए था। परमेश्वर की कृपा और सहिष्णुता के कारण ही मुझे उस समूह में काम करते रहने दिया गया था। तब मैंने सोचा : “मुझे यह मौका संजोकर अपने कर्तव्य में भरसक बढ़िया करना होगा।” इसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में चलताऊ रवैये से संतुष्ट रहना छोड़ दिया, और मुझे सौंपे गए वीडियो का कार्य पूरा करना ही नहीं, अपनी दक्षता बढ़ाने के तरीके भी ढूँढ़ता रहा, हमारे मसलों पर ध्यान देकर समूह अगुआ को समय से उनकी रिपोर्ट दी। मैंने दूसरे सभी लोगों के साथ समस्याएँ सुलझाने के तरीकों पर भी चर्चा की। हालाँकि इस प्रकार काम करने से ज्यादा थकान होती थी, मगर यह जानकर कि मैंने अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं, मुझे पहले से ज्यादा सुकून और आराम महसूस हुआ।

जल्दी ही, कलीसिया अगुआ ने मुझमें सुधार देखकर मुझे एक वीडियो प्रोजेक्ट की देखरेख का काम सौंपा। मैंने इस काम के मौके को संजोया, और भरसक बढ़िया करने की कोशिश की। मैं हर दिन काम की जाँच करता, तमाम मसलों की सूची बनाता। समस्याएँ दिखने पर मैं उन्हें फौरन दूर करने के तरीके ढूँढ़ता, खुद सुलझा न पाता, तो समूह अगुआ से परामर्श और चर्चा करता। लेकिन कुछ समय बाद, जब हमें काम में सफलता मिलने लगी, और मेरे कौशल में सुधार हुआ, तो मेरा पुराना आलस वापस मुँह उठाने लगा। मैंने सोचा : “इन दिनों काम समय पर हो रहा है, कोई बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। मुझे थोड़ा आराम कर लेना चाहिए। अगर मैंने हर दिन इतना काम किया, इतनी चिंता की, तो आखिरकार यह मेरे बूते के बाहर होगा।” ऐसा सोचते ही मैं सुस्त पड़ गया, बस काम करने का नाटक करने लगा, मैंने न अपना कौशल सुधारने की फिक्र की, न ही मसले और गलतियाँ सुधारने की, दूसरों से उनके काम की मौजूदा हालत की जाँच की भी फिक्र नहीं की। जब भी खाली समय होता, मैं बस आराम करना चाहता, कभी-कभार काम या अध्ययन के दौरान मैं समय बिताने के लिए मनोरंजक वीडियो या नाटिकाएं देखता। नतीजतन, जो वीडियो समय से पहले बन सकते थे, वे अटक जाते, और मेरा कामकाज पिछड़ने लगता। उन दिनों, मैं बिल्कुल उलझन और असमंजस में रहता था। वीडियो संपादन में मेरी सोच स्पष्ट नहीं होती थी, परमेश्वर के वचन पढ़ने में आनंद नहीं आता था, लगता था कि मेरे भीतर अंधेरा फैल रहा है। परमेश्वर से प्रार्थना करने पर मुझे उसकी मौजूदगी महसूस नहीं होती थी। यह जानकर भी कि यूँ पड़े रहना खतरनाक था, मैं खुद पर काबू नहीं कर पा रहा था, मैं सचमुच पीड़ित और संतप्त महसूस कर रहा था। तब, संयोग से मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर पड़ी : “यदि विश्वासी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। ऐसा लगा मानो परमेश्वर के वचनों ने मेरी सही स्थिति का खुलासा किया था। मुझे अनेक वर्षों से परमेश्वर में आस्था थी, फिर भी मैं अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहा, और काम के समय आराम करना चाहा। यह सिर्फ वफादारी की कमी नहीं थी; मैं हमारे काम के बुनियादी मानकों पर भी खरा नहीं उतर पा रहा था। लौकिक संसार में, व्यक्ति को अपनी कंपनी के बनाये गए नियमों का पालन करना होता है, काम के समय, उसे ढिलाई बरतने के बजाय मेहनत से काम करना होता है। लेकिन कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते समय मुझमें जिम्मेदारी की मूल भावना भी नहीं थी, मैं देह-सुख में लिप्त होने के लिए अपने कर्तव्य से कतराता था। कैसे अंधाधुंध और बेरोकटोक तरीके से मैंने काम किया था, यह देखते हुए क्या मैं सचमुच ईसाई कहलाने योग्य था? मैं कर्तव्य पर्याप्त रूप से निभाना तो दूर, सेवा भी नहीं कर रहा था। मैंने देह-सुख में लिप्त रहने पर खुद से घृणा की—मुझमें देह-सुख त्यागने का मामूली-सा संकल्प भी क्यों नहीं था? मैंने चीन के अपने भाई-बहनों के बारे में सोचा, जो अपना कर्तव्य छोड़ने से पहले सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी और यातना का जोखिम मोल लेते थे, और एक मैं था जो चीन से भागकर एक आजाद, लोकतांत्रिक देश में अपना कर्तव्य निभा रहा था, पर अपने काम में थोड़ी और कोशिश या थोड़े त्याग नहीं करना चाहता था। मैं पूरी तरह एक बेकार इंसान जैसे कर्म कर रहा था—मुझमें जरा भी मर्यादा या चरित्र नहीं था। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे परमेश्वर या दूसरों का सामना करने में शर्मिंदगी हुई। तब, मैंने आत्म-चिंतन शुरू किया : “देह-सुख में लिप्त होने और अपने कर्तव्य से जी चुराने के कारण मैं पहले एक बार नाकाम हो चुका था। मैंने अपनी पिछली गलतियों से कुछ क्यों नहीं सीखा था? मैं अपने काम में इतना बेपरवाह और ढुलमुल क्यों था?” मैंने परमेश्वर से निरंतर प्रार्थना की, मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की, ताकि मैं अपनी समस्या का मूल कारण जान सकूँ।

एक दिन, अपनी भक्ति के दौरान मेरा ध्यान इन अंशों पर गया। “लोग हमेशा अनुशासनहीन और आलसी क्यों होते हैं, मानो वे नींद में चलते हुए जीवन गुजार रहे हों? यह उनकी प्रकृति की एक समस्या से जुड़ा है। मानव-प्रकृति में एक प्रकार का आलस्य होता है। लोग चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, उन्हें हमेशा किसी के द्वारा निगरानी किए जाने और उन्हें प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता होती है। कभी-कभी लोग देह के विचारों में डूबे रहते हैं, शारीरिक आराम के लिए तरसते हैं, अपने लिए उनके पास हमेशा एक आकस्मिक योजना होती है—ये लोग बड़े धूर्त होते हैं, और वे वास्तव में अच्छे लोग नहीं होते। वे कभी भरसक प्रयास नहीं करते, चाहे वे कोई भी महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों। यह गैरजिम्मेदार और विश्वासघाती होना है। मैंने ये बातें आज तुम्हें यह याद दिलाने के लिए कही हैं कि तुम काम में निष्क्रिय न होना। तुम्हें जो कुछ भी मैं कहता हूँ, उसे करने में सक्षम होना चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “झूठे अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे अधिकारी बनना जानते हैं। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? वे लोगों का दिल जीतने की कोशिश करते हैं। वे ‘एक नए प्रबंधक को अपनी सशक्त छवि बनानी चाहिए’ का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों का दिल जीतने वाले कुछ काम करते हैं, लोगों के जीवन को आरामदायक बनाने के लिए कुछ काम शुरू कर देते हैं, उन पर एक अच्छा प्रभाव बनाने की कोशिश करते हैं, यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे कि वे उनके अभिभावक की तरह हैं, जिसके बाद वे आधिकारिक तौर पर पदभार संभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि अब उन्हें लोकप्रिय समर्थन मिल गया है और उनका पद सुरक्षित है, अब उनके लिए अपने रुतबे का सुख लेना सही और उचित है। उनका आदर्श वाक्य होता है, ‘जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,’ ‘चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो’ और ‘आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।’ वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, भरपूर मजा करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और किन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वे सिद्धांत के कुछ शब्दों और वाक्यांशों की तोता-रटंत करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं। लेकिन वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते, वे कलीसिया की समस्याओं को पूरी तरह हल करने के लिए उन्हें गहराई से समझने की कोशिश नहीं करते। ऐसे सतही काम करने की क्या तुक है? क्या यह धोखेबाजी नहीं है? क्या ऐसे नकली अगुआ को गंभीर जिम्मेदारियां सौंपी जा सकती हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती और फिर भी वे आधिकारिक तौर पर एक कलीसिया-अगुआ के रूप में सेवा करना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों होते हैं? कुछ लोग जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, वे खराब क्षमता के होते हैं और वे अगुआ नहीं हो सकते—फिर उस इंसानी कचरे की तो बात ही क्या करें जिसमें जिम्मेदारी का रत्तीभर भी एहसास नहीं होता; उनमें अगुआ बनने की योग्यता तो और भी कम होती है। ऐसे अकर्मण्य नकली अगुआ कितने आलसी होते हैं? वे कोई समस्या खोजते हैं, वे जानते हैं कि यह समस्या है, लेकिन वे उसे बेकार समझकर उस ओर ध्यान नहीं देते। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! हो सकता है कि वे अच्छे वक्ता हों और उनमें थोड़ी-बहुत क्षमता भी नजर आए, लेकिन जब कलीसिया में कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, तो वे उनका समाधान नहीं कर पाते। हालाँकि कलीसिया की समस्याएं बढ़ती जाती हैं और पारिवारिक विरासत की तरह बन जाती हैं, फिर भी ये अगुआ उनकी परवाह नहीं करते, बल्कि आदतन कुछ तुच्छ कार्य करने पर जोर देते रहते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? क्या वे कलीसिया के काम को बिगाड़ नहीं देते, क्या वे उसका कबाड़ा नहीं कर देते? क्या वे कलीसिया में अराजकता और विखंडन पैदा नहीं कर देते? यह परिणाम तो आना ही है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर, मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य में मेरे बेपरवाह होने और पहल न करने का कारण, मेरा प्रकृति से आलसी और आनंद-भोगी होना था। मेरे दिमाग में ऐसे शैतानी फलसफे भरे हुए थे, “जीवन सिर्फ खाने-पीने और कपड़े पहनने के बारे में है,” “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना,” और “खाओ, पियो, मौज करो, क्योंकि जीवन है चार दिन का।” यह सोचकर कि इस जीवन में मुझे मौज करना चाहिए, मैं इन शैतानी भ्रांतियों के अनुसार जी रहा था। मैं निरंतर कष्ट और थकान को सही नहीं ठहरा पाता था। नतीजतन, मैं अपने किसी भी काम में मेहनत नहीं कर पाता था। मैं काम में मिले छोटे-से-छोटे नतीजे को पूँजी मान लेता और बेपरवाह होकर पतन की ओर चला जाता था। यह बस मेरे स्कूल के वर्षों जैसा था : जब भी मुझे अच्छे ग्रेड मिलते, मेरे शिक्षक और सहपाठी मेरी प्रशंसा करते, मुझे अपनी पढ़ाई में दिमाग और ऊर्जा खपाने का मन नहीं होता था, मैं बस मौज करना चाहता था। मैं कक्षा में ध्यान से सुनने या अपना होमवर्क करने की परवाह न करता, मगर जैसे ही मेरे ग्रेड गिरने लगते और मेरे माता-पिता और शिक्षक मुझसे सख्ती करते, मैं अपनी पढ़ाई में तेजी लाता, ज्यादा मेहनत करता, और मेरे ग्रेड अच्छे हो जाते, तो मैं फिर से बेपरवाह होकर मौज करना चाहता। उन वर्षों में, मैं निरंतर इन घटिया फलसफों के काबू में रहकर, बेहद आलसी और ज्यादा मायूस हो गया था, कोई पहल नहीं करता था। अपने हर काम में मैं बेपरवाह और ढुलमुल था, मैं कष्ट उठाने या त्याग करने को तैयार नहीं था, मेहनत करने का मन ही नहीं होता था। समूह अगुआ की अपनी पुरानी भूमिका और कार्य की प्रगति की जाँच करने वाले सदस्य की मौजूदा भूमिका में, मैं वैसा ही आलसी था, कोई पहल नहीं करता था। थोड़े नतीजे मिलते ही मैं किनारे हो जाता, काम के साथ-साथ आराम करना चाहता था, ताकि मुझे नुकसान और थकान न हो। काम में साफ तौर पर समस्याएँ देखकर भी, मैं उन्हें नहीं सुलझाता था, अपना समय फालतू मनोरंजन में गँवाना पसंद करता था, बजाय इसके कि मैं अपने कर्तव्य के लिए थोड़ा और त्याग करूँ। मैं बस नजर आने और बहाने बनाकर अगुआ से छल करने जितना ही काम करता था। मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ आलसी ही नहीं, धूर्त और कपटी भी था, सिर्फ आराम और सुविधा वाला जीवन जीने से ज्यादा कुछ नहीं चाहता था। मैं परमेश्वर के वचनों के सिंचन और उसके संरक्षण का बहुत आनंद उठा चुका था, मगर थोड़ा-सा भी काम करने में नाकाम था। क्या मैं जगह जाया करने वाला निठल्ला, कलीसिया का एक परजीवी नहीं था? मेरी मानवता और तर्कशक्ति कहाँ थी? मुझे बाइबल की एक पंक्ति याद आती है, जिसमें कहा गया है : “और निश्‍चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्‍ट होंगे” (नीतिवचन 1:32)। अगर मैंने प्रायश्चित्त नहीं किया, तो कलीसिया भले ही मुझे फिलहाल न निकाले, तो भी परमेश्वर हर चीज को जाँचता है, और पवित्र आत्मा मुझमें काम करना बंद कर देगा। देर-सवेर, मुझे त्याग दिया जाएगा।

इसके बाद, परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर, मैंने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये को बदलना शुरू किया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दण्डित किया जाना चाहिए। इसे स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकार किया गया है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए; यह उनका सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो, और तुम यहूदा से भी अधिक शोकजनक हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी एक पूरी समझ पानी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह बोध होना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, ये सबसे महिमावान बातें हैं। अन्य सब कुछ छोड़ा जा सकता है; यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर के आदेश को पूरा करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “मनुष्य को अर्थपूर्ण जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और उसे अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। पतरस की छवि के अनुरूप अपना जीवन जीने के लिए, उसमें पतरस के ज्ञान और अनुभवों का होना जरूरी है। मनुष्य को ज़्यादा ऊँची और गहन चीजों के लिए अवश्य प्रयास करना चाहिए। उसे परमेश्वर को अधिक गहराई एवं शुद्धता से प्रेम करने का, और एक ऐसा जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए जिसका कोई मोल हो और जो सार्थक हो। सिर्फ यही जीवन है; तभी मनुष्य पतरस जैसा बन पाएगा। तुम्हें सकारात्मक तरीके से प्रवेश के लिए सक्रिय होने पर ध्यान देना चाहिए, और अधिक गहन, विशिष्ट और व्यावहारिक सत्यों को नजरअंदाज करते हुए क्षणिक आराम के लिए पीछे नहीं हट जाना चाहिए। तुम्हारा प्रेम व्यावहारिक होना चाहिए, और तुम्हें जानवरों जैसे इस निकृष्ट और बेपरवाह जीवन को जीने के बजाय स्वतंत्र होने के रास्ते ढूँढ़ने चाहिए। तुम्हें एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो अर्थपूर्ण हो और जिसका कोई मोल हो; तुम्हें अपने-आपको मूर्ख नहीं बनाना चाहिए या अपने जीवन को एक खिलौना नहीं समझना चाहिए। परमेश्वर से प्रेम करने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है, और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके। तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसकी इच्छा को कैसे संतुष्ट करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुम्हारे अंदर ऐसी आकांक्षा और कर्मठता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन और निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है, तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए, और अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि जीवन का मूल्य और अर्थ एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने में मिलता है। अगर आप हमेशा आराम और सुविधा ढूँढ़ते हैं, पहल नहीं करते, और अपने कर्तव्य में ढीले हैं, तो यह परमेश्वर के साथ धोखा है, और वह ऐसे व्यवहार को श्राप देता है, उससे घृणा करता है। मैंने याद किया कि पतरस ने कैसे पूरा जीवन परमेश्वर से प्रेम कर उसे संतुष्ट करने की कोशिश की, हमेशा परमेश्वर के वचनों का पालन कर सुधरने की कोशिश की। उसने हमेशा सत्य पर अमल करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की कोशिश की, आखिरकार उसने शानदार गवाही दी, और उसे सूली पर उल्टा लटका दिया गया। और फिर नूह है। परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, उसने पोत बनाने के लिए 120 वर्ष काम किया, अनगिनत मुश्किलों और घोर कष्ट का सामना करने और पोत के पूरा बन जाने तक निरंतर प्रयास करने पर भी वह कभी निराश नहीं हुआ। परमेश्वर के प्रति नूह और पतरस के बर्ताव और उनके कर्तव्य निर्वाह से खुद की तुलना कर मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। मुझे एहसास हुआ कि मैं स्वार्थी और आलसी दोनों ही था, मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना ही नहीं थी, मैं ढीला था, टालमटोल करने वाला था। जैसे ही मुझसे ज्यादा करने को कहा जाता या काम बढ़ जाता, मैं थकान की शिकायत करने लगता, और अगुआ के आग्रह करने पर भी मैं ढीला होकर देह-सुख में लिप्त हो जाता। मुझमें परमेश्वर के प्रति जरा भी श्रद्धा नहीं थी। मैं एक गैर-विश्वासी से जरा भी अलग नहीं था! जिस तरह काम कर रहा था, उससे आखिर मैं खत्म ही होने वाला था। लेकिन मैं हमेशा खुद को सही मानता था, थोड़ी-सी कोशिश से ही संतुष्ट हो जाता था। मैं बेहद सुन्न, बेवकूफ और अज्ञानी था। मेरे इस तरह काम करने पर भी परमेश्वर ने मुझे अभी त्यागा नहीं था, प्रायश्चित्त के मौके दिए थे। पतित होकर मैं परमेश्वर की भावनाओं को आहत नहीं कर सकता था। इसलिए मैंने परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर, मैं समझता हूँ कि मैं आलसी प्रकृति का हूँ, मुझमें मानवता नहीं है। मैं इस प्रकार जीते नहीं रहना चाहता। मैं ईमानदारी से सत्य खोजकर अपना कर्तव्य निभाना चाहता हूँ। कृपा करके मेरे दिल को जांचो।”

तब से मैंने अपने कर्तव्य में ज्यादा समय और ऊर्जा लगाई, ज्यादातर दिन मेरी कार्य-सूची भरी हुई होने पर भी, मैं अध्ययन और अपने तकनीकी कौशल सुधारने के लिए थोड़ा समय जरूर निकाल लेता। मैंने नियमित रूप से अपने काम की समस्याओं का सारांश बनाया, कौशल सुधारने के लिए अथक मेहनत की। कुछ समय बाद, मेरे बनाए वीडियो के बेहतर नतीजे मिलने लगे। मैंने देखा कि जब मैंने भाई-बहनों के साथ अपनी सीखी हुई चीजें साझा कीं, तो ये उनके लिए भी फायदेमंद लगे। इससे मुझे सुकून और शांति मिली। इस प्रकार कर्तव्य निभाने में ज्यादा काम करना पड़ता, और आराम के लिए कम समय मिलता, मगर मैंने थकान महसूस नहीं की, ऐसा नहीं लगा कि मुझे कष्ट हो रहा है। दरअसल, मैंने पहले से ज्यादा स्पष्ट और ऊर्जावान महसूस किया—अब मैं पहले जैसा नहीं था जब हर दिन कुंद और अस्त-व्यस्त महसूस करता था। हमारे काम की समस्याओं को समझना भी आसान हो गया, भाई-बहनों के साथ संगति और परमेश्वर की प्रबुद्धता के जरिये हमने समय रहते बहुत-सी समस्याएँ सुलझा लीं। लेकिन शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किये जाने के कारण, आलस्य के उसके फलसफे समय-समय पर अभी भी मुझे प्रभावित करते थे। जब मुझे अच्छे नतीजे मिलने लगे, तो मैं फिर एक बार थोड़ा बेपरवाह हो गया, देह-सुख में लिप्त होने की इच्छा करने लगा। एक बार, हमारे एक वीडियो की जाँच करते समय, मैंने देखा कि मेरी फीड में एक ऐक्शन फिल्म आ गई थी। मैंने सोचा : “हाल में कामकाज बड़ा तनावपूर्ण था—थोड़ा देखकर तनाव दूर कर लें तो कुछ नहीं होगा।” देखते समय मुझे एकाएक एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने पुराने ढर्रे पर आ गया था। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। “अपना कर्तव्य निभाते हुए तुमने लापरवाह और आलसी होना चाहा। तुमने ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश की। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका था। फिर इस बारे में सोचो : ‘मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह की ढिलाई भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगी? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में सुस्त हो सकता हूँ, जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे लापरवाह या अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त, लापरवाह और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे इसमें कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।’ जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : ‘हे परमेश्वर! मैं आलसी और धोखेबाज हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरे अंतःकरण में एक बोध हो, और शर्म की भावना हो। मैं लापरवाह और अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।’ जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन और खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करता है, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होते हो, और तुम्हारे हृदय की गलत दशा बदलने लगती है, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होते हो, ‘मैं लापरवाह और अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढीला क्यों पड़ने लगता हूँ? इस प्रकार कार्य करना अंतरात्मा या समझदारी से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास नहीं लगाना चाहिए? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?’ नतीजतन, तुम एक संकल्प करते हो और शपथ लेते हो : ‘हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं अंतरात्मा या समझदारी से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।’ बाद में तुम्हारी मानसिकता में बदलाव आता है और तुम बदलने लगते हो। तुम कम लापरवाही से और कम अनमने होकर, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाते हो, और अब तुम कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम हो। तुम महसूस करते हो कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारा हृदय शांत और हर्षित होता है। जब व्यक्ति परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर पाता है, जब वह उससे प्रार्थना कर पाता है और उस पर भरोसा कर पाता है, तो उसकी अवस्था जल्दी ही बदल जाती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करने के बाद मुझे आगे का रास्ता मिला। मैं प्रकृति से आलसी था, आराम-पसंद था, कष्ट झेलने को तैयार नहीं था। मैं अपने-आप यह मसला हल नहीं कर सकता था; मुझे परमेश्वर से प्रार्थना कर उसका सहारा लेना होगा, उसकी जाँच मंजूर करनी होगी। अगली बार जब मुझे देह-सुख में लिप्त होकर ढीला पड़ने का मन हो, तो फौरन परमेश्वर से प्रार्थना कर मुझे अनुशासित करने और ताड़ना देने की विनती करनी होगी। तभी मैं देह-सुख त्याग कर अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाऊँगा। इसलिए मैंने प्रार्थना कर परमेश्वर को अपनी हालत के बारे में बताया और मुझे अनुशासित करने को कहा। प्रार्थना के बाद, मुझे एकाएक शांति का आभास हुआ, मैंने वीडियो की समीक्षा जारी रखी, सिद्धांतों पर बारीकी से ध्यान देकर जरूरी जानकारी पर गौर करता रहा। काम के बारे में सोचते समय, मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस हुआ, मैं फौरन वीडियो की समस्याएँ पहचान कर उन्हें सुलझाने का उपाय ढूँढ सका। उस अनुभव से मुझमें अपने आलस्य से निपटने का ज्यादा विश्वास पनपा। मैंने समझ लिया कि मुझे सचमुच परमेश्वर का सहारा लेना होगा, अपने काम में उसकी जाँच स्वीकारनी होगी। अगर मैं फिर से देह-सुख में लिप्त होने लगा, तो सचेत होकर खुद को रोकने के लिए परमेश्वर का सहारा ले सकता हूँ। इस प्रकार, मुझमें प्रबल होकर शांतिपूर्वक अपना कर्तव्य निभाने की शक्ति आएगी।

इन दिनों, अक्सर आराम और सुविधा की इस भ्रष्ट इच्छा के जागने पर भी, मुझे पता रहता है कि अगर मैं परमेश्वर के वचनों का अनुसरण कर उन पर लगातार अमल करूँ, तो आखिर खुद को इस भ्रष्ट स्वभाव से शुद्ध कर बदलाव हासिल कर पाऊँगा।

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