11. कर्तव्य में मेहनत न करने से मुझे हुआ नुकसान
2018 में, मैं कलीसिया में एक वीडियो क्रिएटर के रूप में काम करता था। शुरू-शुरू में, तकनीकी कौशल और विभिन्न सिद्धांतों से परिचित न होने के कारण, मैंने मेहनत से अध्ययन कर जरूरी हुनर पर महारत पाने की कोशिश की। कुछ समय बाद, मेरी तकनीकी क्षमता काफी सुधर गई, और मुझे एक टीम अगुआ चुन लिया गया। मैं रोमांचित होकर कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत करने को तैयार हो गया। बाद में, एक थोड़े जटिल वीडियो प्रोजेक्ट में एक समस्या आई, अगुआ ने मुझे इसकी खोज-खबर लेकर सुलझाने के लिए भेजा। जटिल कार्य-प्रगति और तकनीकी कौशलों की कमी के चलते मैंने पहले तो हल ढूँढ़ने के लिए भाई-बहनों के साथ काम किया। लेकिन कुछ समय कड़ी मेहनत करने के बाद, जब चीजें ठीक से चलने लगीं और मेरा तकनीकी कौशल सुधर गया, तो मैं ढीला पड़ने लगा। मैंने मन-ही-मन सोचा, “यह प्रोजेक्ट शायद अभी भी सही स्तर पर नहीं चल रहा होगा, मगर पहले से तो बहुत बेहतर है। मुझे इसे ऐसे ही चलते रहने देना होगा। बार-बार जाँचने की जरूरत नहीं है। हमेशा फिक्रमंद रहने से बड़ी थकान हो जाती है।” इसके बाद, मैंने नए कौशल पर कोई ध्यान नहीं दिया, और तकनीकी कौशलों के बारे में ज्यादा सीखने की भी अनदेखी की। कई बार मेरे बनाए वीडियो में समस्याएँ आईं, और दूसरों ने मुझे अपने कौशल सुधारने की सलाह दी। यह जानकर भी कि वे सही थे, मैंने मन-ही-मन सोचा, “वैसे ही मेरे पास बहुत काम है। अगर मुझे अध्ययन के लिए और समय निकालना पड़ा—तो इससे कितनी थकान हो जाएगी—ज्यादा समय और ऊर्जा खपाने के बाद भी नतीजे ज्यादा नहीं सुधरे, तो क्या होगा? क्या यह सारा अतिरिक्त काम करना बेकार नहीं होगा?” इसलिए मैंने दूसरों की सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसके बाद, अगुआ ने देखा कि हमारे काम की प्रगति धीमी थी, उसने मुझसे समस्या का पता लगाने को कहा। मेरे सहयोगी ने मुझे यह मसला सुलझाने की बार-बार याद दिलाई। तब, मैं थोड़ा प्रतिरोधी था। मैंने सोचा, “हम शायद थोड़ी धीमी गति से चल रहे हैं, लेकिन नतीजे पहले से बेहतर हैं। हमें हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए।” लेकिन अंदर से मुझे पता था कि अगर मैं सोच-विचार कर ज्यादा सावधानी से काम को नियोजित करता, तो सचमुच और कार्य-क्षमता में सुधार करने की गुंजाइश थी। लेकिन हर बार जब सोचता कि काम का तनाव बहुत ज्यादा है, इस काम पर और ज्यादा समय लगाने से कितनी थकान होगी, तो मैं इसे लगातार टालता रहा। बाद में, मेरे अगुआ ने दो बार और मुझसे समस्या पर बात की, तब जाकर मैंने बेमन से लापरवाही करते हुए हालात की समीक्षा की। आखिरकार, मुझे कोई उपयुक्त हल नहीं मिल पाया।
इसके बाद, मैं टीम के काम पर ध्यान देने, या बेहतर करने के लिए कीमत चुकाने करने को तैयार नहीं हुआ। खाली समय में मैं बस आराम करना चाहता था, एक साथ कई मौकों पर तो मैं ज्यादा देर तक सोता रहता, और काम में देर कर देता। छुटपुट काम करते समय, मैं कभी-कभी थोड़ी देर के लिए कर्तव्य से जी चुराकर बाहर टहलता रहता। काम कम होने पर भी मैं अपने कौशल में सुधार के तरीके नहीं सोचता, बजाय इसके, मौका मिलते ही आराम करता। इस तरह मैं और ज्यादा ढीला पड़ता गया, काम की खोज-खबर लेते और सुपुर्दगी के दौरान बस काम करने का बहाना करता। मैंने कभी काम में विचलनों को सारांशित करने में दूसरों की मदद नहीं की, और समस्याएँ आने पर, उन्हें सुलझाने के तरीकों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचना चाहता था। नतीजतन, हम वीडियो बनाने का काम पीछे खिसकाते रहे, जिन्हें समय से पहले ही पूरा किया जा सकता था। उस दौरान, मेरे बनाए हुए वीडियो में लगातार समस्याएँ आईं, और मेरे टीम के किसी भी भाई-बहन के काम में सुधार नहीं हुआ। काम में जरा भी मुश्किल आती, तो सारे लोग शिकायत करते। मैं संगति के जरिए इसे हल करने में न सिर्फ नाकाम रहता, बल्कि इस शिकायत में साथ भी देता। असल कार्य करने में नाकाम होने, और अगुआओं और कार्यकर्ताओं के बार-बार मेरे साथ संगति करने के बाद भी न सुधरने के कारण, मुझे शीघ्र ही बर्खास्त कर दिया गया। मुझे बहुत बुरा लगा, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर आत्म-चिंतन किया।
एक दिन, अपनी भक्ति के दौरान, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : “कुछ लोग कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, कोई भी समस्या सामने आने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम अपना कार्य खराब ढंग से करोगे, भले ही तुम इस काबिल हो कि इसे अच्छे से कर सको—तुम्हारा प्रदर्शन मानक पर खरा नहीं उतरेगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत नाराज रहेगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को संभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे मिलें। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हरसंभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त या काहिल हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। तुम एक तरफ खड़े रहते हो। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है ना? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है ना? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!’ परमेश्वर यह अवसर और अनुग्रह किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह प्रचंड हानि है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे टीम अगुआ के तौर पर अपना दौर याद आया। मैंने देखा कि मैं ठीक वैसा ही था जैसा परमेश्वर के वचनों ने उजागर किया था। मैं अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन, गैर-जिम्मेदार और लापरवाह और धूर्त था। जब मैंने पहले-पहल टीम अगुआ के रूप में काम शुरू किया, तो मैंने समय और मेहनत लगाई, लेकिन कौशल में सुधार होने, और थोड़े नतीजे मिलने के बाद मैं बेपरवाह हो गया, अब तक हासिल प्रशंसा के भरोसे हमेशा देह-सुख में लिप्त रहने लगा। मैं हमेशा बस आराम करने और आसानी से निपटा देने की सोचता। मैं काम को बेहतर बनाने के लिए मेहनत करने को बिल्कुल तैयार नहीं था। समस्याएँ देखकर भी मैंने उन्हें फौरन दूर नहीं किया, और जब दूसरों ने उनके बारे में बताया, तो मैंने अनदेखी की। एक टीम अगुआ के रूप में, जब मैंने टीम के दूसरे लोगों को अपनी समस्याओं की शिकायत करते देखा, तो न सिर्फ मैं उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने में नाकाम रहा, बल्कि मैं भी उनके साथ होकर उनसे सहमत हो गया। मानो वीडियो निर्माण कार्य में जितनी भी देर हो जाए, या भाई-बहनों को जितनी भी समस्याएँ हों, उसका मुझसे कोई सरोकार नहीं था। मैं बस शारीरिक आनंद लेना चाहता था, खुद को थकाना नहीं चाहता था। नतीजतन, हमारे बनाए वीडियो में लगातार समस्याएँ आती रहीं, जिससे वीडियो निर्माण की प्रगति गंभीर रूप से पिछड़ गई। मैं एक बड़े अहम कर्तव्य के साथ खिलवाड़ कर रहा था; आराम और देह-सुख के लिए, मैंने खुल आँखों से बेपरवाही से काम करने, और परमेश्वर को धोखा देना और दूसरों को बेवकूफ बनाने का साहस किया। मेरा परमेश्वर का भय मानने वाला दिल कहाँ था? कर्तव्य के प्रति ऐसे रवैये से परमेश्वर घृणा कर उससे नफरत करता है। पीछे मुड़कर अपने काम की तमाम समस्याओं के बारे में सोचूँ, तो अगर मैंने सही समय लगाकर कीमत चुकाई होती, तो चीजें इतनी नहीं बिगड़तीं। मगर मैं आलसी था, कष्ट और थकान नहीं झेलना चाहता था। नतीजतन, मैंने वीडियो निर्माण कार्य को नुकसान पहुँचाया। मैं बहुत स्वार्थी, घिनौना, और मानवता से रहित था! मैं बेहद गिरा हुआ, अनैतिक हो गया था, और मुझे एहसास भी नहीं हुआ। परमेश्वर ने मुझे याद दिलाने के बड़े आयोजन किए, फिर भी मैंने आत्म-चिंतन और प्रायश्चित्त नहीं किया। मैं इतना सुन्न और दुराग्रही कैसे हो सकता था? इन सबका एहसास कर मैंने दोषी और परेशान महसूस किया। मैं इतना गैर-जिम्मेदार और मानवता से रहित था, यह देखते हुए मैं सच में अगुआ बनने लायक नहीं था। अपनी गलती के कारण ही मुझे बर्खास्त कर दिया गया था।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा : “जब तक उन्हें कुछ बताया जाता है या उन्हें कुछ सौंपा जाता है—चाहे ऐसा किसी अगुआ, कार्यकर्ता या ऊपरवाले द्वारा किया गया हो—जिन लोगों में जिम्मेदारी की भावना है, वे हमेशा सोचेंगे, ‘ठीक है, चूँकि वे मुझे इतना ज्यादा मानते हैं, इसलिए मुझे इस मामले को अच्छी तरह सँभालना चाहिए और उन्हें निराश नहीं करना चाहिए।’ क्या तुम ऐसे लोगों को कार्य सौंपने में सहज महसूस नहीं करोगे जिनके पास जमीर और सूझ-बूझ है? तुम जिन लोगों को कार्य सौंप सकते हो, वे यकीनन ऐसे हैं जिन्हें तुम प्रशंसा की दृष्टि से देखते हो और जिन पर तुम्हें भरोसा है। विशेष रूप से, अगर उन्होंने तुम्हारे लिए कई कार्य संभाले हैं और उन सभी को बहुत कर्त्तव्यनिष्ठ रूप से पूरा किया है, और तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी की हैं, तो तुम सोचोगे कि वे भरोसेमंद हैं। अपने दिल में, तुम वाकई उसकी प्रशंसा करोगे और उसका बहुत सम्मान करोगे। लोग इस प्रकार के व्यक्ति के साथ जुड़ने को तैयार होते हैं, परमेश्वर का तो कहना ही क्या। क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर कलीसियाई कार्य और वह कर्तव्य, जिसे करने के लिए मनुष्य बाध्य है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपेंगा जो भरोसेमंद नहीं है? (नहीं, वह नहीं सौंपेगा।) जब परमेश्वर किसी को कलीसियाई कार्य सौंपता है, तो परमेश्वर की उससे क्या अपेक्षा होती है? सबसे पहले, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह मेहनती और जिम्मेदार होगा, कि वह कार्य के इस अंश को एक बड़ा मामला मानेगा और इसे उसी के अनुसार संभालेंगा, और इसे अच्छी तरह से करेगा। दूसरा, परमेश्वर उम्मीद करता है कि वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो भरोसे के काबिल है, कि चाहे उसे कितना भी समय लगे, और चाहे परिवेश कैसे भी बदले, उसकी जिम्मेदारी की भावना डगमगाएगी नहीं, और उसकी सत्यनिष्ठा प्रलोभन की कसौटी पर खरी उतरेगी। अगर वह एक भरोसेमंद व्यक्ति है, तो परमेश्वर आश्वस्त हो जाएगा, और वह अब इस मामले का पर्यवेक्षण या उस पर अनुवर्ती कार्रवाई नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि, अपने दिल में, वह उस पर भरोसा करता है, और वह बिना किसी गड़बड़ी के यकीनन वह कार्य पूरा करेगा जो उसे दिया गया है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सच्ची मानवता वाला इंसान अपने कर्तव्य में जिम्मेदार होता है, परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर पाता है, अपने कर्तव्य में अडिग रह पाता है, और भले ही वह कैसे भी हालात में हो, ठीक सिद्धांतों के अनुसार अपनी ज़िम्मेदारी और निष्ठा का पालन कर सकता है। अपने कर्तव्यों में हमें यही रवैया रखना चाहिए। यह देखते हुए कि कलीसिया ने मुझे वीडियो कार्य का प्रभारी बनाया था, कम-से-कम मुझे अपनी काबिलियत के अनुसार बढ़िया काम करना चाहिए था, और काम की समस्याएँ और कठिनाइयाँ ढूँढकर उन्हें समय से दूर करना चाहिए था, ताकि हर हाल में हमारा काम सामान्य ढंग से आगे बढ़े। जब मैंने इस कर्तव्य का बीड़ा उठाया, मैंने खुशी-खुशी वादा किया पर बाद में, मैं सिर्फ अपने आराम और सुविधा की परवाह करता रहा, कोई असल कार्य बिल्कुल नहीं किया, भले ही दूसरे मुझसे काम आगे बढ़ाने का बार-बार आग्रह करते रहे। मैंने “टीम अगुआ” का तमगा पहन लिया, लेकिन कोई काम नहीं करवाया, और मुझे जो जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए थी, उस का न्यूनतम हिस्सा भी पूरा करने में नाकाम रहा। नतीजतन, मैंने कलीसिया के वीडियो निर्माण कार्य में देर कर दी। मुझमें सच में मानवता नहीं थी, और मैं विश्वास के लायक नहीं था! अपनी करतूतों के आधार पर, मुझे बहुत पहले ही हटा दिया जाना चाहिए था। परमेश्वर की कृपा और सहिष्णुता के कारण ही मुझे उस टीम में कर्तव्य करने दिया गया था। तब मैंने सोचा, “मुझे यह मौका संजोकर अपने कर्तव्य में भरसक बढ़िया करना होगा।” इसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में चलताऊ रवैये से संतुष्ट रहना छोड़ दिया, और मुझे हर दिन सौंपे गए वीडियो का कार्य पूरा करना ही नहीं, अपनी दक्षता बढ़ाने के तरीके भी ढूँढ़ता रहा, हमारे मसलों और विचलनों पर ध्यान देकर टीम अगुआ को समय से उनकी रिपोर्ट दी। मैंने दूसरे सभी लोगों के साथ समस्याएँ सुलझाने के तरीकों पर भी चर्चा की। हालाँकि इस प्रकार काम करने से ज्यादा थकान होती थी, मगर यह जानकर कि मैंने अपनी कुछ जिम्मेदारियां निभाई हैं, मुझे पहले से ज्यादा सुकून और आराम महसूस हुआ।
जल्दी ही, कलीसिया अगुआ ने देखा कि मैं थोड़ा-बहुत बदला हूँ और उसने मुझे एक वीडियो प्रोजेक्ट की देखरेख का काम सौंपा। मैंने इस कर्तव्य के मौके को संजोया, और भरसक बढ़िया करने की कोशिश की। मैं हर दिन सक्रियता से काम की जाँच करता, तमाम विचलनों की सूची बनाता। समस्याएँ दिखने पर मैं उन्हें फौरन दूर करने के तरीके ढूँढ़ता, खुद सुलझा न पाता, तो उन पर टीम अगुआ से परामर्श और चर्चा करता। लेकिन कुछ समय बाद, जब हमें काम में थोड़े नतीजे मिलने लगे, और मेरे कौशल में सुधार हुआ, तो मेरा पुराना आलस वापस मुँह उठाने लगा। मैंने सोचा : “इन दिनों काम समय पर हो रहा है, कोई बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। मुझे थोड़ा आराम कर लेना चाहिए। अगर मैंने हर दिन इतना काम किया, इतनी चिंता की, तो आखिरकार यह मेरे बूते के बाहर होगा।” ऐसा सोचते ही मैं दीला पड़ गया, फॉर से अपने काम में कार्यक्रम के अनुसार चीजें करने लगा, मैंने न अपना कौशल सुधारने की सोची, न ही मसले और विचलनों को सुधारने की, भाई-बहनों से उनके काम की मौजूदा स्थिति की जाँच की भी फिक्र नहीं की। जब भी खाली समय होता, मैं बस आराम करना चाहता, काम करने या तकनीकी कौशल सीखने के दौरान मैं समय बिताने के लिए मनोरंजक वीडियो या नाटिकाएं देखता। नतीजतन, जो वीडियो समय से पहले बन सकते थे, वे अटक जाते, और हमारे काम का नतीजा पिछड़ने लगता। उन दिनों, मैं बिल्कुल उलझन और भ्रम में रहता था। परमेश्वर के वचन पढ़ने में मुझे कोई प्रकाश नहीं मिलता था, लगता था कि मेरे भीतर अंधेरा फैल रहा है। परमेश्वर से प्रार्थना करने पर मुझे उसकी मौजूदगी महसूस नहीं होती थी। यह जानकर भी कि यूँ पड़े रहना खतरनाक था, मैं खुद पर काबू नहीं कर पा रहा था, मैं सचमुच पीड़ित और संतप्त महसूस कर रहा था। तब, संयोग से मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक अंश पर पड़ी : “यदि विश्वासी अपनी बोली और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। ऐसा लगा मानो परमेश्वर के वचन सीधे मुझे उजागर कर रहे हैं। मुझे अनेक वर्षों से परमेश्वर में आस्था थी, फिर भी मैं अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहा, और काम के समय आराम करना चाहा, थोड़ी भी ईमानदारी नहीं दिखाई। लौकिक संसार में, व्यक्ति को अपनी कंपनी के बनाये गए नियमों का पालन करना होता है, काम के समय, उसे ढिलाई बरतने के बजाय व्यक्ति को मेहनत से उसका काम करना होता है। लेकिन कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते समय मुझमें जिम्मेदारी की मूल भावना भी नहीं थी, मैं देह को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य से कतराता था। यह देखते हुए कि मैंने कैसे हठधर्मिता और निरंकुशता से मैंने काम किया था, मैं किस तरह से सचमुच ईसाई कहलाने योग्य था? मैं कर्तव्य में श्रम करने में भी अच्छा नहीं था, मानक एसटीआर तक कर्तव्य करने की तो बात ही दूर है। मैंने देह-सुख में लिप्त रहने पर खुद से घृणा की—मुझमें इसका विद्रोह करने का मामूली-सा संकल्प भी क्यों नहीं था? मैंने चीन के अपने भाई-बहनों के बारे में सोचा, जो अपना कर्तव्य छोड़ने से पहले सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी और यातना का जोखिम मोल लेते थे, और एक मैं था जो चीन से भागकर एक आजाद, लोकतांत्रिक देश में अपना कर्तव्य निभा रहा था, पर अपने काम में थोड़ी और कोशिश या कीमत चुकाना नहीं करना चाहता था। मैं पूरी तरह एक बेकार इंसान जैसे कर्म कर रहा था—मुझमें जरा भी मर्यादा या चरित्र नहीं था। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे भाई-बहनों का सामना करने में शर्मिंदगी हुई, परमेश्वर का सामना करने की तो बात ही दूर है। और मैंने आत्म-चिंतन शुरू किया, “देह-सुख में लिप्त होने और अपने कर्तव्य से जी चुराने के कारण मैं पहले एक बार नाकाम हो चुका था। मैंने अपनी पिछली गलतियों से कुछ क्यों नहीं सीखा था? मैं अपने काम में इतना बेपरवाह और ढुलमुल क्यों था?” मैंने परमेश्वर से निरंतर प्रार्थना की, मुझे प्रबुद्ध और रोशन करने की विनती की, ताकि मैं अपनी समस्या का मूल कारण जान सकूँ।
एक दिन, परमेश्वर के वचनों दौरान मेरा ध्यान इन अंशों पर गया : “लोग हमेशा अनुशासनहीन और आलसी क्यों होते हैं, मानो वे जिंदा लाशें हों? यह उनकी प्रकृति के मुद्दे से जुड़ा है। मानव-प्रकृति में एक प्रकार का आलस्य होता है। लोग चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, उन्हें हमेशा किसी-न-किसी निगरानी करनेवाले और आग्रह करनेवाले की जरूरत पड़ती है। कभी-कभी लोग देह के लिए विचारशील होते हैं, देह-सुख के लिए ललचाते हैं, और हमेशा अपने लिए कुछ न कुछ छिपाकर रख लेते हैं—ये लोग शैतानी इरादों और धूर्त योजनाओं से भरे होते हैं; ये लोग सचमुच बिल्कुल अच्छे लोग नहीं होते। वे कभी भरसक प्रयास नहीं करते, चाहे वे कोई भी महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न कर रहे हों। यह गैर-जिम्मेदार और बेवफा होना है। मैंने ये बातें आज तुम्हें यह याद दिलाने के लिए कही हैं कि तुम काम में निष्क्रिय मत होना। तुम लोगों को मेरी कही हर बात का अनुसरण करने में समर्थ होना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (26))। “झूठे अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे जानते हैं कि एक अधिकारी की तरह कैसे कार्य करना है। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? वे लोगों का दिल जीतने की कोशिश करते हैं। यह लोगों का अनुग्रह खरीदने के लिए है। वे ‘नए अधिकारी दूसरों को प्रभावित करने के लिए तत्पर रहते हैं’ का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों को खुश करने के लिए कुछ चीजें करते हैं और कुछ चीजें संभालते हैं जो हर किसी के रोजमर्रा के कल्याण में सुधार करती हैं। पहले वे लोगों में एक अच्छी छवि बनाने, सबको यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे, ‘यह अगुआ हमारे साथ माता-पिता जैसा व्यवहार करता है!’ फिर वे आधिकारिक तौर पर पदभार सँभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास जनता का समर्थन है और कि उनकी स्थिति सुरक्षित हो गई है; फिर वे रुतबे के फायदों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं, मानो उन पर उनका उचित अधिकार हो। उनका आदर्श वाक्य होता है, ‘जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,’ ‘चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो,’ और ‘आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।’ वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, जब तक हो सके मौजमस्ती करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और कौन-से कर्तव्य करने चाहिए। वे सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ शब्दों और सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं—वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे कलीसिया में वास्तविक समस्याओं का पता नहीं लगा रहे हैं और उन्हें पूरी तरह से हल नहीं कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा ऐसे सतही कार्य करने का क्या अर्थ है? क्या यह भ्रामक नहीं है? क्या इस किस्म के झूठे अगुआ को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जा सकते हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती, और फिर भी वे कलीसिया में कोई आधिकारिक पद संभालना, अगुआ बनना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों हैं? कुछ लोग, जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, अगर खराब क्षमता के हों, तो वे अगुआ नहीं हो सकते—और उन बेकार लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती है; वे अगुआ बनने के लिए और भी कम योग्य हैं। ऐसे लालची और निकम्मे झूठे अगुआ आखिर कितने आलसी होते हैं? जब उन्हें किसी समस्या का पता लगता है और वे जानते हैं कि यह एक मुद्दा है, तो भी वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! वैसे तो वे बातचीत करने में अच्छे होते हैं और उनमें थोड़ी क्षमता भी प्रतीत होती है, लेकिन वे कलीसिया के काम में आने वाली विभिन्न समस्याएँ हल नहीं कर सकते, जिससे कार्य ठप्प हो जाता है; समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं, लेकिन ये अगुआ उन पर ध्यान नहीं देते हैं, और सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ सतही कार्य पूरे करने पर अड़े रहते हैं। और इसका क्या परिणाम होता है? क्या वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी नहीं करते, क्या वे उसे खराब नहीं कर देते? क्या उनके कारण कलीसिया में अराजकता नहीं फैलती है और एकता में कमी नहीं होती है? यह अपरिहार्य परिणाम है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर, मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य में मेरे बेपरवाह होने और पहल न करने का कारण, मेरा प्रकृति से आलसी और आनंद-भोगी होना था। मेरे दिमाग में ऐसे सांसरिक आचरण के शैतानी फलसफे भरे हुए थे, “जीवन सिर्फ अच्छा खाने और सुंदर कपड़े पहनने के बारे में है,” “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना,” और “खुद से अच्छे से पेश आओ, क्योंकि जीवन है चार दिन का।” यह सोचकर कि इस जीवन में मुझे मौज करना चाहिए, मैं इन शैतानी भ्रांतियों के अनुसार जी रहा था। मैं निरंतर कष्ट और थकान को सही नहीं ठहरा पाता था। नतीजतन, मैं अपने किसी भी काम में मेहनत नहीं कर पाता था। मैं काम में मिले छोटे-से-छोटे नतीजे को पूँजी मान लेता और बेपरवाह होकर पतन की ओर चला जाता था। यह बस मेरे स्कूल के वर्षों जैसा था : जब भी मुझे अच्छे ग्रेड मिलते, मेरे शिक्षक और सहपाठी मेरी प्रशंसा करते, मुझे अपनी पढ़ाई में दिमाग और ऊर्जा खपाने का मन नहीं होता था, मैं बस मौज करना चाहता था। मैं कक्षा में ध्यान से सुनने या अपना होमवर्क करने की परवाह न करता। मगर जैसे ही मेरे ग्रेड गिरने लगते और मेरे माता-पिता और शिक्षक मुझसे सख्ती करते, मैं अपनी पढ़ाई में तेजी लाता, ज्यादा मेहनत करता, और मेरे ग्रेड अच्छे हो जाते, तो मैं फिर से निश्चिंत होकर मौज करना चाहता। उन वर्षों में, मैं निरंतर इन घटिया विचारों के काबू में रहकर, बेहद आलसी और ज्यादा मायूस हो गया था, कोई पहल नहीं करता था। अपने हर काम में मैं बेपरवाह और ढुलमुल था, मैं कष्ट उठाने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं था, अपने कर्तव्य में मेहनत करने का मन ही नहीं होता था। टीम अगुआ की अपनी पुरानी भूमिका और कार्य की प्रगति की जाँच करने वाले टीम के सदस्य की मौजूदा भूमिका में, मैं वैसा ही आलसी था, कोई पहल नहीं करता था। थोड़े नतीजे मिलते ही मैं किनारे हो जाता, और काम के साथ-साथ आराम करना चाहता था, ताकि मुझे नुकसान और थकान न हो। काम में साफ तौर पर समस्याएँ देखकर भी, मैं उन्हें नहीं सुलझाता था, अपना समय फालतू मनोरंजन में गँवाना पसंद करता था, बजाय इसके कि मैं अपने कर्तव्य के लिए थोड़ा और त्याग करूँ और थोड़ी अधिक कीमत चुकाऊँ। मैं बस नजर आने और बहाने बनाकर अगुआ से छल करने जितना ही काम करता था। मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ आलसी ही नहीं, कपटी और धूर्त भी था, सिर्फ आराम और सुविधा वाला जीवन जीने से ज्यादा कुछ नहीं चाहता था। मैं परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण और साथ ही परमेश्वर की परवाह और उसके संरक्षण का बहुत आनंद उठा चुका था, मगर थोड़ी-सी भी जिम्मेदारिया उठाने में नाकाम था। क्या मैं जगह जाया करने वाला निठल्ला, कलीसिया का एक परजीवी नहीं था? मेरी मानवता और विवेक कहाँ था? मुझे बाइबल की एक पंक्ति याद आती, जिसमें कहा गया है : “और निश्चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्ट होंगे” (नीतिवचन 1:32)। अगर मैंने प्रायश्चित्त नहीं किया, तो कलीसिया भले ही मुझे फिलहाल न हटाए, तो भी परमेश्वर हर चीज को जाँचता है, और पवित्र आत्मा मुझमें काम करना बंद कर देगा। देर-सवेर, मुझे हटा दिया जाएगा।
इसके बाद, परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर, मैंने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये को बदलना शुरू किया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है, वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, और वे सबसे शानदार चीजें हैं। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर का आदेश पूरा करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। “मनुष्य को अर्थपूर्ण जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और उसे अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। पतरस की छवि के अनुरूप अपना जीवन जीने के लिए, उसमें पतरस के ज्ञान और अनुभवों का होना जरूरी है। मनुष्य को ज़्यादा ऊँची और गहन चीजों के लिए अवश्य प्रयास करना चाहिए। उसे परमेश्वर को अधिक गहराई एवं शुद्धता से प्रेम करने का, और एक ऐसा जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए जिसका कोई मोल हो और जो सार्थक हो। सिर्फ यही जीवन है; तभी मनुष्य पतरस जैसा बन पाएगा। तुम्हें सकारात्मक तरीके से प्रवेश के लिए सक्रिय होने पर ध्यान देना चाहिए, और अधिक गहन, विशिष्ट और व्यावहारिक सत्यों को नजरअंदाज करते हुए क्षणिक आराम के लिए निष्क्रिय होकर पीछे नहीं हट जाना चाहिए। तुम्हारा प्रेम व्यावहारिक होना चाहिए, और तुम्हें जानवरों जैसे इस निकृष्ट और बेपरवाह जीवन को जीने के बजाय स्वतंत्र होने के रास्ते ढूँढ़ने चाहिए। तुम्हें एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो अर्थपूर्ण हो और जिसका कोई मोल हो; तुम्हें अपने-आपको मूर्ख नहीं बनाना चाहिए या अपने जीवन को एक खिलौना नहीं समझना चाहिए। परमेश्वर से प्रेम करने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है, और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके। तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसके इरादों को कैसे पूरा करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुम्हारे अंदर ऐसी आकांक्षा और कर्मठता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन और निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है, तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए, और अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि जीवन का मूल्य और अर्थ एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने में मिलता है। अगर आप हमेशा आराम और सुविधा ढूँढ़ते हैं, पहल नहीं करते, और अपने कर्तव्य में अनमने हैं, तो यह परमेश्वर के साथ धोखा है, और वह ऐसे व्यवहार को श्राप देता है, उससे घृणा करता है। मैंने याद किया कि पतरस ने कैसे पूरा जीवन परमेश्वर से प्रेम कर उसे संतुष्ट करने की कोशिश की, हमेशा परमेश्वर के वचनों का पालन कर सुधरने की कोशिश की। उसने हमेशा सत्य पर अमल करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की कोशिश की, आखिरकार उसने शानदार गवाही दी, और उसे परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटका दिया गया। और फिर नूह है। परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, उसने पोत बनाने के लिए 120 वर्ष काम किया, अनगिनत मुश्किलों और घोर कष्ट का सामना करने और पोत के पूरा बन जाने तक निरंतर प्रयास करने पर भी वह कभी निराश नहीं हुआ। परमेश्वर के प्रति नूह और पतरस के बर्ताव और उनके कर्तव्य निर्वाह से खुद की तुलना कर मैंने अत्यधिक शर्मिंदगी महसूस की। मुझे एहसास हुआ कि मैं स्वार्थी और आलसी दोनों ही था, मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना ही नहीं थी, मैं अनमना था, टालमटोल करने वाला था। जैसे ही मुझसे ज्यादा करने को कहा जाता या काम बढ़ जाता, मैं थकान की शिकायत करने लगता, और आग्रह करने पर भी मैं ढीला होकर देह-सुख में लिप्त हो जाता। मुझमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं था। मैं जिस तरह काम कर रहा था, उससे आखिर मैं खत्म ही होने वाला था। लेकिन मैं हमेशा खुद को सही मानता था, थोड़ी-सी कोशिश से ही संतुष्ट हो जाता था। मैं बेहद सुन्न, बेवकूफ और अज्ञानी था! मेरे इस तरह काम करने पर भी परमेश्वर ने मुझे अभी भी प्रायश्चित्त के मौके दिए थे। पतित होकर मैं परमेश्वर की भावनाओं को आहत नहीं कर सकता था। इसलिए मैंने परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर, मैं समझता हूँ कि मैं आलसी प्रकृति का हूँ, मुझमें मानवता नहीं है। मैं इस प्रकार जीते नहीं रहना चाहता। मैं ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य निभाना चाहता हूँ। कृपा करके मेरे दिल को जांचो।”
तब से मैंने अपने कर्तव्य में ज्यादा समय और ऊर्जा लगाई, हर दिन मेरी कार्य-सूची भरी हुई होने पर भी, मैं अध्ययन और अपने तकनीकी कौशल सुधारने के लिए थोड़ा समय जरूर निकाल लेता। मैंने नियमित रूप से अपने काम की समस्याओं और विचलनों का सारांश बनाया, कौशल सुधारने के लिए अथक मेहनत की। कुछ समय बाद, मेरे बनाए वीडियो के बेहतर नतीजे मिलने लगे। मैंने देखा कि जब मैंने भाई-बहनों के साथ अपनी सीखी हुई चीजें साझा कीं, तो ये उनके लिए भी फायदेमंद लगे। इससे मुझे सुकून और शांति मिली। इस प्रकार कर्तव्य करने में ज्यादा काम करना पड़ता, और आराम के लिए कम समय मिलता, मगर मैंने थकान महसूस नहीं की, ऐसा नहीं लगा कि मुझे कष्ट हो रहा है। दरअसल, मैंने पहले से ज्यादा स्पष्ट मन का महसूस किया—अब मैं पहले जैसा नहीं था जब हर दिन कुंद और अस्त-व्यस्त महसूस करता था। हमारे काम की समस्याओं को समझना भी आसान हो गया, भाई-बहनों के साथ संगति और परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के जरिये हमने समय रहते बहुत-सी समस्याएँ सुलझा लीं। लेकिन शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किये जाने के कारण, आलस्य के उसके विचार समय-समय पर अभी भी मुझे प्रभावित करते थे। जब मुझे अच्छे नतीजे मिलने लगे, तो मैं फिर एक बार थोड़ा बेपरवाह हो गया, देह-सुख में लिप्त होने की इच्छा करने लगा। एक बार, हमारे एक वीडियो की जाँच करते समय, मैंने देखा कि मेरी फीड में एक ऐक्शन फिल्म आ गई थी। मैंने सोचा : “हाल में कामकाज बड़ा तनावपूर्ण था—थोड़ा देखकर तनाव दूर कर लें तो कुछ नहीं होगा।” देखते समय मुझे एकाएक एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने पुराने ढर्रे पर आ गया था। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा : “अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम अनमने रहना चाहते हो। तुम ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश करते हो। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका है। फिर इस बारे में सोचो : ‘मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह का अनमनापन भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगा? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में ढिलाई बरतकर जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।’ जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : ‘हे परमेश्वर! मैं आलसी और मक्कार हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरा अंतःकरण कुछ महसूस करे और मुझे शर्म आए। मैं अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।’ जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन कर खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करेगा, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होगे, और तुम्हारी गलत दशा बदलने लगेगी, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होगे, ‘मैं अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढिलाई बरतने की कोशिश क्यों करता हूँ? ऐसा कार्य करना अंतःकरण या विवेक से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास लगाने की जरूरत नहीं? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?’ नतीजतन, तुम एक संकल्प करोगे और शपथ लोगे : ‘हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं अंतःकरण या विवेक से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।’ बाद में तुम्हारी मानसिकता पूरी तरह बदल जाएगी और तुम बदलने लगोगे। तुम कम अनमने होकर कार्य करोगे, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाओगे और कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होगे। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा। जब लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकार पाते हैं, जब वे उससे प्रार्थना कर पाते हैं और उस पर भरोसा कर पाते हैं, तो उनकी अवस्थाएँ जल्दी ही बदल जाएँगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करने के बाद मुझे अभ्यास का रास्ता मिला। मैं प्रकृति से आलसी था, आराम-पसंद था, कष्ट झेलने को तैयार नहीं था। मैं अपने-आप यह मसला हल नहीं कर सकता था; मुझे परमेश्वर से प्रार्थना कर उसका सहारा लेना होगा, उसकी जाँच मंजूर करनी होगी। अगली बार जब मुझे देह-सुख में लिप्त होकर धूर्त और ढीला पड़ने का मन हो, तो फौरन परमेश्वर से प्रार्थना कर मुझे अनुशासित करने और ताड़ना देने की विनती करनी होगी। तभी मैं देह-सुख के खिलाफ विद्रोह कर अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाऊँगा। इसलिए मैंने प्रार्थना कर परमेश्वर को अपनी हालत के बारे में बताया और मुझे अनुशासित करने को कहा। प्रार्थना के बाद, मैं शांत हो गया और मैंने वीडियो की समीक्षा जारी रखी, सिद्धांतों पर बारीकी से ध्यान देकर जरूरी जानकारी पर गौर करता रहा। काम के बारे में सोचते समय, मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस हुआ, मैं फौरन वीडियो की समस्याएँ पहचान कर उन्हें सुलझाने का उपाय ढूँढ सका।
उस अनुभव से मुझमें अपने आलस्य से निपटने का ज्यादा आस्था पनपी। मैंने समझ लिया कि मुझे सचमुच परमेश्वर का सहारा लेना होगा, अपने काम में उसकी जाँच स्वीकारनी होगी। अगर मैं फिर से देह-सुख में लिप्त होने लगा, तो सचेत होकर खुद को रोकने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करनी और उसका सहारा ले सकता हूँ। इस प्रकार, मुझमें अपने आलस्य पर काबू पाने की शक्ति होगी और मैं शांतिपूर्वक अपना कर्तव्य कर पाऊँगा। इन दिनों, अब भी अक्सर आराम और सुविधा को लेकर मैं सोच और विचार प्रकट करता हूँ, तब मुझे पता रहता है कि अगर मैं परमेश्वर के वचनों का अनुसरण कर उन पर लगातार अभ्यास कर उनमें प्रवेश करना है, तो आखिर ये भ्रष्ट स्वभाव निश्चित रूप से शुद्ध कर बदल दिये जाएंगे।