84. अपनी जगह का पता लगाना जरूरी है
एक बार बातचीत के दौरान, एक कलीसिया अगुआ ने कहा, "बहन गाओ बहुत काबिल है, चीजों को अच्छे से समझती है और सत्य पर व्यावहारिक संगति करती है। सोचती हूँ उसे कलीसिया के कार्य के लिए प्रशिक्षित करूं।" अगुआ की बातें सुनकर, मेरा दिल बैठने लगा। पहले बहन गाओ और मैं दोनों ही सामान्य कार्य करते थे, लेकिन अब वह अगुआ बन जाएगी और मैं वहीं की वहीं रहूँगी। मुझमें इतनी कमियाँ क्यों हैं? मैं दिनभर उदास रही, काम में मन ही नहीं लगा। बाद में, बहन गाओ का तबादला हो गया, अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या मैं बहन गाओ का काम संभालूँगी और साथ ही, क्या सामान्य कार्य की निरीक्षक बनना चाहूँगी। उस समय मैं थोड़ी दुखी थी। हालाँकि निरीक्षक का पद मिल रहा था, लेकिन कार्य वही था। चाहे मैं कितना भी अच्छा कर लूँ, लेकिन किसी की नजर में नहीं आएगा, यह अगुआ होने जैसा नहीं था जहाँ कलीसिया विकसित करती है और सारे भाई-बहन सम्मान कर सहयोग करते हैं। मुझे सामान्य काम निचले दर्जे का लगता था, तो स्वीकारने का मेरा मन नहीं हुआ। मैंने सोचा, "अगर मैं यह काम ले लूँ, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि बरसों परमेश्वर में आस्था रखते हुए मैंने सत्य का अनुसरण या प्रगति नहीं की, इसी के चलते मैंने हमेशा सामान्य कार्य किया है? यह तो बहुत शर्मनाक होगा!" लेकिन दोबारा सोचा, तो लगा यह कार्य मुझे परमेश्वर की इच्छा से मिला है। अगर मेरी इच्छा न भी हो, तो भी मुझे निजी पसंद को न देखते हुए, समर्पित होना चाहिए, मैंने भारी मन से अगुआ को इस काम के लिए स्वीकृति दे दी।
कुछ समय बाद, मैंने अगुआ को यह कहते सुना, "भाई वांग बहुत काबिल है, जीवन प्रवेश में थोड़े से प्रयास से उसे विकसित किया जा सकता है।" यह सुनकर मुझे बहुत ही बुरा लगा। मैं भाई वांग के काम का निरीक्षण करती थी और अगुआ उसे विकसित करना चाहती है, किसी ने मेरा नाम क्यों नहीं लिया? मैं उसके काम की निरीक्षक थी, लेकिन मुझे पदोन्नत नहीं किया गया, मैं जहाँ की तहाँ थी। लोग मुझे कैसे देखेंगे? क्या मैं सच में इतनी बुरी थी? मैं प्रबंधन-कार्य में, समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में सक्षम थी। जब कभी अगुआ किसी काम पर चर्चा करती, तो मैं भी अपनी राय और सुझाव देती थी। अगुआ को मेरी योग्यता क्यों नहीं दिखी? मुझे खुशी होती अगर अगुआ मेरा नाम लेकर कहती कि मैं पदोन्नति के लिए उपयुक्त हूँ, लेकिन सामान्य कार्य की निगरानी को मेरी ज्यादा जरूरत है। इससे यह तो साबित होता कि मैं इतनी बुरी नहीं हूँ और मुझे भी अच्छा लगता। उन दिनों यह सब सोच-सोचकर मैं बहुत परेशान रहती। कहीं मन न लगता, भाई-बहनों से बात करने की इच्छा न होती, मैं कार्य का भार भी वहन नहीं कर पा रही थी। जब कोई समस्याएँ लेकर आता, तो मैं उन मुद्दों पर पहले जितना ध्यान न देती।
एक बार निरीक्षक ने पत्र भेजकर मुझे कोई काम करने के लिए कहा, लेकिन मैंने पत्र को ध्यान से नहीं पढ़ा, जिससे मेरे काम पर असर पड़ा। एक दिन, अगुआ ने मुझे बहन गाओ के समूह की सभा में कुछ पहुँचाने को कहा। यह सुनकर मैं जाने से झिझकी कि बहन गाओ मेरे बारे में क्या सोचेगी। हम दोनों पहले एक ही काम करते थे, लेकिन उसकी तरक्की हो गई थी और मैं वही काम कर रही थी। क्या हिकारत से देखते हुए वो मुझे बेकार समझेगी? लेकिन फिर लगा, अगर मैं नहीं गई तो इससे काम प्रभावित होगा, काम तो करना ही पड़ेगा। मैं वहाँ पहुँचकर आधे घंटे तक सिर झुकाकर फोन देखने के बहाने मुँह छिपाए खड़ी रही ताकि बहन गाओ मुझे पहचान न ले। इस दौरान कुछ लोगों ने मुझसे बात की, लेकिन मैंने सिर नहीं उठाया ताकि बहन गाओ की नजर में न आ जाऊँ। उस वक्त मुझे लगा मैं बेकार हूँ। मैंने इतनी परेशान हो गई कि रुआंसी हो गई। मैं भागकर दूसरे कमरे में गई, काले आसमान को देखकर चुपचाप रोने लगी। मैं बरसों पुरानी विश्वासी थी, लेकिन मुझे लगा कि अगुआ ने मेरी कद्र नहीं की। बाकी लोग अगुआ बन गए और मैं उसी कार्य में फँसकर रह गई। ऐसे जीने का क्या मतलब था? इस तरह के विचारों ने खुद मुझे चौंका दिया। मेरी सोच ऐसी कैसे हो सकती है? उस समय, मुझे परमेश्वर के वचन याद आ गए, "मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। ... तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी स्थिति बयाँ कर दी, मैंने ये अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे इसे कभी दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में ही सोचेंगे। हालाँकि मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन ही मन कहते हैं, 'क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?' वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनके पास शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, ताकि वे लाभ और हैसियत प्राप्त कर सकें—वे अक्सर ऐसी चीजों पर विचार करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे दौड़ते हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी अपने काम में पहले अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का ख्याल करते हैं, वे प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे भागना कभी नहीं छोड़ते, उनके लिए रुतबा अपनी जिंदगी जितना ही अहम होता है। मैंने आत्मचिंतन किया : "मैं कभी सामान्य कार्य क्यों नहीं करना चाहती? मैं अगुआ बनने के पीछे इतनी परेशान क्यों रहती हूँ?" मुझे समझ आया कि इसका कारण था कि मुझे लगता था अगुआओं के पास रुतबा है। भाई-बहन उनकी प्रशंसा और अनुमोदन करते हैं, इसके अलावा, वरिष्ठ अगुवा भी उन्हें महत्व देते हैं, कलीसिया उनके विकास पर ध्यान देती है। मुझे लगा अगुआ बनना अच्छा है, नाम होता है और सभी की स्वीकृति भी मिलती है, यानी अगुआ बनकर ही इंसान सफल कहलाता है। मुझे लगता था कि सामान्य कार्य करना बाहर का काम करना है, ऐसा काम वही लोग करते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, लोग उन्हें हिकारत से देखते हैं। इन गलत विचारों की वजह से, अपने बजाय दूसरों को पदोन्नत होते देख, मैं बहुत आहत हो जाती और चाहती कि अगुआ मेरा नाम भी ले। लेकिन जब अगुआ ने मेरे बजाय किसी और को पदोन्नत किया, तो मैं इतनी दुखी हो गई कि किसी से मिलने की इच्छा नहीं हुई और काम करने का भी मन नहीं हुआ। प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए दिन-रात तड़पना इतना भयानक था कि लगा अब जीवन जीने लायक नहीं रहा। क्या प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना मसीह-विरोधी मार्ग पर चलना नहीं था? इसका एहसास होने पर मुझे डर लगने लगा, पश्चात्ताप करते हुए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छा बहुत प्रबल है। मैं इस अवज्ञाकारी स्थिति में नहीं जीना चाहती। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं प्रसिद्धि और रुतबे की बेड़ियों से मुक्त हो जाऊँ।"
एक दिन परमेश्वर के वचन पढ़ा तो मेरे विचार बदले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "क्या तुम लोग हमेशा अपने पंख फैलाकर उड़ना चाहते हो, हमेशा अकेले उड़ना चाहते हो, नन्ही चिड़िया के बजाय चील बनना चाहते हो? यह कौन-सा स्वभाव है? क्या यही मानवीय आचरण का सिद्धांत है? तुम्हारा मानवीय आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुसार होना चाहिए; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। तुम लोग शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हो और हमेशा पारंपरिक संस्कृति यानी शैतान की बातों को सत्य समझते हो, उसे ही अपना लक्ष्य समझते हो, जिससे तुम्हारा गलत रास्ते पर निकल जाना, परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चलना आसान हो जाता है। भ्रष्ट इंसान के विचार, उसका दृष्टिकोण और जिन चीजों के लिए वह प्रयास करता है, वे सब परमेश्वर की इच्छा, सत्य, हर चीज पर परमेश्वर के शासन के नियमों, हर चीज के उसके आयोजन और इंसान की नियति पर उसके नियंत्रण के विपरीत होते हैं। इसलिए इंसानी विश्वास और धारणाओं के अनुसार इस प्रकार का अनुसरण कितना भी उपयुक्त और उचित क्यों न हो, परमेश्वर के दृष्टिकोण से वे सकारात्मक चीजें नहीं होतीं और न ही वे उसकी इच्छा के अनुरूप होती हैं। तुम्हारे लिए कुछ भी सहज नहीं होता क्योंकि तुम मानवजाति की नियति पर परमेश्वर के शासन के तथ्य के विरुद्ध जाते हो, तुम इसे अकेले करना चाहते हो, परमेश्वर के आज्ञाकारी हुए बिना उसके शासन और नियंत्रण से पिंड छुड़ा लेना चाहते हो। क्या ऐसा नहीं है? तुम्हारे लिए कुछ भी सहज क्यों नहीं होता? (हम परमेश्वर के शासन से पिंड छुड़ाना चाहते हैं।) वह क्या चीज होती है जो लोगों में इस इच्छा को भड़काती है, वे हमेशा अपनी नियति को नियंत्रित करना, भविष्य की योजना बनाना, अपनी संभावनाओं, दिशा और जीवन के लक्ष्यों को नियंत्रित क्यों करना चाहते हैं? यह शुरुआती बिंदु कहाँ से आता है? (भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से।) तो एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव लोगों के लिए क्या ले आता है? (परमेश्वर का विरोध।) जो लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं, उन्हें क्या होती है? (पीड़ा।) पीड़ा? नहीं पीड़ा नहीं बल्कि उनका विनाश होता है! पीड़ा तो इसकी आधी भी नहीं है। जो तुम अपनी आँखों के सामने देखते हो वो पीड़ा, नकारात्मकता, और दुर्बलता है, और यह विरोध और कष्ट है—ये चीज़ें क्या परिणाम लेकर आएँगी? सर्वनाश! यह कोई तुच्छ बात नहीं और यह कोई खिलवाड़ नहीं है। जिन लोगों का हृदय परमेश्वर का भय नहीं मानता, वे इसे नहीं देख पाते" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है)। मैं वैसी ही थी जैसा परमेश्वर के वचनों ने प्रकट किया था। मुझे बाज बनना था, चिड़िया नहीं, मुझे लगा सामान्य काम ने मुझे चिड़िया बना दिया है जिसे लोग हिकारत से देखते हैं और जो प्रशिक्षण के लायक नहीं है। मेरी नजर में अगुआ बाज थे। उनमें क्षमता थी, उनकी कीमत थी और लोग उनका सम्मान करते थे। जबकि मैं "आदमी ऊपर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," "जैसे एक पेड़ अपनी छाल के लिए जीता है, वैसे मनुष्य अपनी इज्ज़त के लिए जीता है," "लोगों को सम्मान पाने का प्रयास करना चाहिए," जैसे अन्य शैतानी जहर में जी रही थी। मुझे लगा, एक अच्छा जीवन जीने के लिए इंसान को ऊँचा उठते रहना चाहिए, रुतबा जितना ऊँचा हो, उतना अच्छा वरना आपका जीवन बेकार है। इन गलत विचारों के कारण, मैं जमीन से जुड़कर अपना काम नहीं कर पा रही थी, हमेशा अगुआ बनना चाहती कि लोग मुझे सम्मान दें। अपने आस-पास के भाई-बहनों को अगुआ बनते देख, मैं बेचैन हो गई, उसे स्वीकार न पाई, प्रतिरोध किया। सोचती थी, "मैं किसी के मुकाबले खराब नहीं हूँ। बाकी लोग अगुआ बन सकते हैं तो मैं ही क्यों सामान्य काम में ही फंसी रहूँ?" मुझे परमेश्वर से शिकायत होने लगी थी सोचती थी कि सामान्य कार्य करने वाले लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो मैं नकारात्मकता में जीने लगी, मैं अपने कर्तव्य में अनमनी और लापरवाह हो गई, जिसका असर मेरे काम पर पड़ा। परमेश्वर के प्रति मेरी निष्ठा और आज्ञाकारिता कहाँ थी? मैं बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी थी! मुझे पता था कि हर इंसान की काबिलियत और उसका कार्य परमेश्वर पहले ही निर्धारित कर चुका होता है, उसमें मेरा वर्तमान कार्य भी शामिल था, इसलिए मुझे स्वीकार कर उसका पालन करना चाहिए। यह सोचकर कि मेरे सामान्य काम को कोई महत्व नहीं देता, मैं दुखी रहती, लेकिन इसका कारण मेरा गलत चीजों के पीछे भागना और परमेश्वर के शासन का पालन न करना था। मैं परमेश्वर के नियमों और व्यवस्थाओं का पालन नहीं कर पाई, निष्क्रिय और शिकायती हो गई। संक्षेप में, मैं परमेश्वर का विरोध और उसका विद्रोह कर रही थी। इस तरह की हरकतों से मेरा नरक जाना तय था।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। "अगर लोगों में कलीसिया के कार्य के प्रति दायित्व की भावना है, और वे उसमें शामिल होना चाहते हैं, तो यह अच्छा है; लेकिन उन्हें इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्या वे सत्य समझते हैं, क्या वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की संगति करने में सक्षम हैं, क्या वे वास्तव में परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं, और क्या वे कलीसिया का कार्य, कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार ठीक से करने में सक्षम हैं। अगर वे ये मानदंड पूरे करते हैं, तो वे अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए आगे आ सकते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों को कम-से-कम खुद को जानना चाहिए। पहले देखो कि क्या तुम विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर करने में सक्षम हो, क्या तुम सत्य समझते हो और सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में सक्षम हो। अगर तुम ये अपेक्षाएँ पूरी करते हो, तो तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त हो। अगर तुम अपना मूल्यांकन न कर पाओ, तो तुम अपने आस-पास के उन लोगों से पूछ सकते हो, जो तुमसे परिचित हैं या तुम्हारे निकट हैं। अगर वे सब कहें कि अगुआ बनने के लिए तुम्हारी क्षमता अपर्याप्त है, और अच्छा होगा कि तुम अपना काम ही अच्छे से करो, तो खुद को जानने की कोशिश में समय बरबाद न करो। अगर तुम खराब क्षमता के हो, तो अपना सारा समय अगुआ बनने की चाह में न गँवाओ—बस वही करो जो कर सकते हो, धरातल पर रहते हुए अपना कर्तव्य ठीक से निभाओ, ताकि तुम्हें मानसिक शांति मिल सके। यह भी अच्छा है। और अगर तुम अगुआ बनने में सक्षम हो, अगर तुम वास्तव में ऐसी क्षमता और योग्यता रखते हो, अगर तुममें वास्तव में कार्य-कौशल और दायित्व की भावना है, तो तुम ठीक उस तरह के इंसान हो, जिसकी परमेश्वर के घर में कमी है, और तुम्हें निश्चित रूप से पदोन्नत और विकसित किया जाएगा; किंतु ये सब चीजें परमेश्वर द्वारा निर्धारित समय पर होती हैं। यह इच्छा—पदोन्नत होने की इच्छा—महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन तुममें अगुआ बनने की क्षमता होनी चाहिए और तुम्हें उसके मानदंड पूरे करने चाहिए। अगर तुम खराब क्षमता के हो, फिर भी अपना सारा समय अगुआ बनना चाहने या किसी महत्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने, या समग्र कार्य की जिम्मेदारी लेने, या कुछ ऐसा करने में लगाते हो जो तुम्हें सबसे अलग दिखाता हो, तो मैं तुमसे कहता हूँ : यह महत्वाकांक्षा है, और तुम्हें महत्वाकांक्षा से सावधान रहना चाहिए; महत्वाकांक्षा आपदा ला सकती है। लोग स्व-प्रेरित और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक होते हैं, जो कोई समस्या नहीं है; कुछ लोग अगुआ होने के मानदंड पूरे करते हैं और कुछ नहीं करते। जो लोग अगुआ बनने के मानदंड पूरे करते हैं, उनका उसके लिए प्रयास करना कोई बुरी बात नहीं है; लेकिन जो लोग ये मानदंड पूरे नहीं करते, उन्हें अपने कर्तव्य पर ही टिके रहना चाहिए, बेहतर है कि अभी उनके सामने जो कर्तव्य है, वे उसे ही ठीक से, सिद्धांत के अनुसार और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के मुताबिक करें। उनके लिए यही बेहतर, सुरक्षित, अधिक यथार्थपरक है" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। "लोगों में पदोन्नत और विकसित किए जाने के प्रति सही समझ और दृष्टिकोण होना चाहिए; इन मामलों में उन्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए, अपनी इच्छा का पालन नहीं करना चाहिए, महत्वाकांक्षी इच्छाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम्हें लगता है कि तुम अच्छी क्षमता के हो, लेकिन परमेश्वर के घर ने तुम्हें कभी पदोन्नत नहीं किया है, और न ही तुम्हें विकसित करने की उसकी कोई योजना है, तो निराश न हो, शिकायत न करने लगो, बस सत्य का अनुसरण करने और बेहतर बनने की कोशिश करने पर ध्यान केंद्रित करो; जब तुम्हारा कुछ अध्यात्मिक कद हो जाएगा और तुम वास्तविक कार्य करने में सक्षम हो जाओगे, तो परमेश्वर के चुने हुए लोग स्वाभाविक रूप से तुम्हें अगुआ चुन लेंगे। और अगर तुम्हें लगता है कि तुम खराब क्षमता के हो, और तुम्हारे पदोन्नत या विकसित होने की कोई संभावना नहीं, और तुम्हारी महत्वाकांक्षा पूरी होना असंभव है, तो क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह तुम्हारी रक्षा करेगा! जब तुम खराब क्षमता के होते हो और तुम्हें अंधे मूर्खों का ऐसा समूह मिल जाता है जो तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो क्या तुम खतरे में नहीं पड़ जाते? तुम कोई भी काम करने में असमर्थ होते हो और तुम्हें कुछ भी नहीं सूझता। तुम जो कुछ भी करते हो, सब गड़बड़ होता है; तुम्हारी हर हरकत दुष्कर्म होती है। बेहतर होगा कि तुम अपने कर्तव्य का कार्य ही अच्छी तरह से करो; कम से कम तुम शर्मिंदा तो नहीं होगे, और यह नकली अगुआ होने और पीठ-पीछे निंदा का लक्ष्य बनने से तो बेहतर है। एक इंसान के रूप में तुम्हें अपना माप पता होना चाहिए, तुम्हें खुद का ज्ञान होना चाहिए; ऐसा होने पर तुम गलत रास्ता अपनाने और गंभीर गलतियाँ करने से बच सकोगे" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं हिल गई। मुझे लगता था कि मैं अपने आसपास के भाई-बहनों से बेहतर हूँ, मैं अगुआ बनना चाहती थी, लेकिन क्या मैं वाकई अगुआ बनने लायक थी? मुझमें अगुआ होने की काबिलियत थी? अगुआ ऐसा होना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करता हो, काम के योग्य हो और नेक इंसान हो। यूँ ही कोई अगुआ नहीं बन सकता। अगुआ बनने की योग्यता न हो, व्यावहारिक कार्य न कर सकें, तो अगुआ बने भी तो ये थोड़े समय के लिए होगा, कुछ तो नकली अगुआ के तौर पर उजागर होते हैं। दरअसल, मैं पहले कलीसिया अगुआ के रूप में काम कर चुकी थी, लेकिन मुझमें काबिलियत या काम की योग्यता नहीं थी, मैं व्यावहारिक काम नहीं कर सकती थी, न ही लोगों की समस्याएँ और कठिनाइयाँ दूर कर पाती थी, जिससे उनके जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँच रहा था, इसलिए मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। जहाँ तक काबिलियत और कार्य-क्षमता का सवाल है, मैं वाकई अगुआ बनने योग्य नहीं थी। मैं सामान्य काम में ज्यादा अच्छी थी और वहाँ व्यावहारिक कार्य कर भी कर पाती थी और यह इतना तनावपूर्ण भी नहीं था। कलीसिया हर व्यक्ति की काबिलियत और क्षमता के आधार पर कार्य की व्यवस्था करती है। इससे लोग सामान्य रूप से अपना कार्य कर सकते हैं और कलीसिया के कार्य को लाभ होता है। लेकिन मुझे अपने बारे में कोई ज्ञान नहीं था। मुझमें अगुआ बनने की जरा भी काबिलियत और योग्यता नहीं थी, फिर भी मैं खुद को प्रतिभाशाली और श्रेष्ठ समझती थी, पदोन्नति चाहती थी। जब अगुआ मेरी बजाय दूसरों को तरक्की दे रही थी, तो मैंने शिकायत की कि अगुआ मेरी ओर ध्यान नहीं दे रही, मैं बेमन से काम करने लगी, परमेश्वर के प्रति भी नकारात्मक होकर उसकी शत्रु बन गई। मैं अहंकारी हो गई, मुझमें जरा भी समझदारी नहीं थी! जब खुद को पहचाना, तो मुझे अपराध-बोध हुआ, तब मैं अपने वर्तमान काम को ठीक से करने लगी, अपने मौजूदा पद पर रहकर विनम्र होकर सही ढंग से काम करने को तैयार हो गई।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना, "मैं हूँ बस एक अदना सृजित प्राणी।" "हे परमेश्वर, चाहे मेरी हैसियत हो या न हो, अब मैं स्वयं को समझती हूँ। यदि मेरी हैसियत ऊँची है तो यह तेरे उत्कर्ष के कारण है, और यदि यह निम्न है तो यह तेरे आदेश के कारण है। सब-कुछ तेरे हाथों में है। मेरे पास न तो कोई विकल्प हैं न ही कोई शिकायत है। तूने निश्चित किया कि मुझे इस देश में और इन लोगों के बीच पैदा होना है, और मुझे पूरी तरह से तेरे प्रभुत्व के अधीन आज्ञाकारी होना चाहिए क्योंकि सब-कुछ उसी के भीतर है जो तूने निश्चित किया है। मैं हैसियत पर ध्यान नहीं देती हूँ; आखिरकार, मैं मात्र एक प्राणी ही तो हूँ। यदि तू मुझे अथाह गड्ढे में, आग और गंधक की झील में डालता है, तो मैं एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। यदि तू मेरा उपयोग करता है, तो मैं एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण बनाता है, मैं तब भी एक प्राणी हूँ। यदि तू मुझे पूर्ण नहीं बनाता, तब भी मैं तुझ से प्यार करती हूँ क्योंकि मैं सृष्टि के एक प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ। मैं सृष्टि के परमेश्वर द्वारा रचित एक सूक्ष्म प्राणी से अधिक कुछ नहीं हूँ, सृजित मनुष्यों में से सिर्फ एक हूँ। तूने ही मुझे बनाया है, और अब तूने एक बार फिर मुझे अपने हाथों में अपनी दया पर रखा है। मैं तेरा उपकरण और तेरी विषमता होने के लिए तैयार हूँ क्योंकि सब-कुछ वही है जो तूने निश्चित किया है। कोई इसे बदल नहीं सकता। सभी चीजें और सभी घटनाएँ तेरे हाथों में हैं" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। गीतों पर चिंतन कर, मेरा मन रोशन हो गया। मेरा रुतबा ऊँचा होगा या नीचा, यह परमेश्वर पहले ही निर्धारित कर चुका था, रुतबा हो या न हो, पर मैं एक सृजित प्राणी हूँ। अगर मेरा रुतबा ऊँचा हो या नीचा, मैं रहूँगी तो सृजित प्राणी ही। मेरा सार कभी नहीं बदलेगा। कलीसिया ने मेरे लिए सामान्य कार्य की व्यवस्था की, तो मुझे वहीं रहना चाहिए, अपनी क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल और सामान्य कार्य अच्छे से करना चाहिए। एक सृजित प्राणी के नाते यही मेरा दायित्व था। इसे ध्यान में रखकर, मैंने हल्का महसूस किया, मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर! मुझे नकारात्मक होकर अपने काम की खातिर तेरा विरोध नहीं करना है। रुतबे की परवाह किए बगैर, तुझे संतुष्ट करने के लिए, मैं बस ईमानदारी से एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।" फिर, मैंने परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश का विरोध नहीं किया। अपने वर्तमान कर्तव्य को अच्छे से निभाने पर विचार करते हुए, मैंने जमीन से जुड़कर अपना काम किया। ऐसे अभ्यास कर मैं बहुत सुरक्षित महसूस कर रही थी।
विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि सामान्य काम से मेरी घृणा की एक और वजह यह थी कि सामान्य कार्य के बारे में मेरा दृष्टिकोण हास्यास्पद और बेतुका था। मुझे लगता था कि सामान्य काम करने वाले लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे कमतर होते हैं और उनके उद्धार की आशा नहीं होती, केवल महत्वपूर्ण पदों पर तरक्की पाने वाले ही सत्य का अनुसरण करते हैं, केवल उन्हीं के पास बचाए जाने का अवसर होता है। मैंने भ्रामक दृष्टिकोण दूर करने वाले परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के आदेश और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का अक्सर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; ख़ास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में, विभिन्न कार्य जिसमें लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, वे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीच या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर हैं? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य की उत्पत्ति और परिभाषा है। ... भले ही तुम्हारा कर्तव्य जो भी हो, यह परमेश्वर ने तुम्हें एक लक्ष्य दिया है। कभी-कभी शायद तुम्हें किसी महत्वपूर्ण वस्तु की देखभाल या सुरक्षा करने की जरूरत पड़ सकती है। यह अपेक्षाकृत एक नगण्य-सा मामला हो सकता है जिसे केवल तुम्हारी ज़िम्मेदारी कहा जा सकता है, लेकिन यह एक ऐसा कार्य है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है; इसे तुमने परमेश्वर से प्राप्त किया है। तुमने इसे परमेश्वर के हाथों से स्वीकार किया है, और यह तुम्हारा कर्तव्य है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। "ऐसा नहीं है कि लोग अपने कर्तव्य का पालन शुरू करते ही ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जिनके पास सत्य की वास्तविकताएँ होती हैं। अपना कर्तव्य करना एक विधि और एक माध्यम अपनाने से अधिक नहीं है। अपने कर्तव्यों के पालन में, लोग सत्य के अनुसरण का उपयोग, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य को धीरे-धीरे समझने, उसे स्वीकारने और फिर उसका अभ्यास करने के लिए करते हैं। फिर वे एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं, जहाँ वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग देते, खुद को शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों और नियंत्रण से मुक्त कर लेते हैं, और इसलिए वे ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जिनके पास सत्य की वास्तविकता होती है और जो सामान्य मानवता से युक्त होते हैं। जब तुममें सामान्य मानवता होगी, तभी तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन और तुम्हारे कार्य लोगों के लिए शिक्षाप्रद और परमेश्वर के लिए संतोषजनक होंगे। और जब परमेश्वर लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन की प्रशंसा करता है, तभी वे परमेश्वर के स्वीकार्य प्राणी हो सकते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने कार्य के प्रति मेरा गलत दृष्टिकोण पलट दिया। मैंने जाना कि कर्तव्य लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से पैदा होता है, उसमें ऊँच-नीच या बड़े-छोटे का कोई भेद नहीं होता। चाहे कोई भी काम हो, वह लोगों के लिए एक दायित्व और जिम्मेदारी होती है और लोगों को उसे बेहतरीन ढंग से करने का प्रयास करना चाहिए। कलीसिया के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए, प्रत्येक कार्य में लोगों का सहयोग आवश्यक होता है। हर कार्य परम आवश्यक होता है। सामान्य कार्य भी अगुआओं के कार्य जितना ही महत्वपूर्ण होता है। अगर कोई कड़ी गायब हो, तो कलीसिया का काम प्रभावित होता है। कर्तव्य एक सकारात्मक चीज है, इस मार्ग के द्वारा लोग सत्य का अनुसरण कर उद्धार प्राप्त करते हैं। यह सबसे शानदार काम है जो एक सृजित प्राणी कर सकता है। अपना कर्तव्य निभाना मेरे लिए सम्मान की बात है। लेकिन मैं इसे संजोना और आभारी होना नहीं जानती थी, मैंने काम को ऊँचे-नीचे दर्जे में बाँटना चाहा, और मान लिया कि सामान्य कार्य निचले दर्जे का, बेकार और शर्मनाक होता है। क्या मैं अपने कर्तव्य की अवमानना नहीं कर रही थी? चाहे कोई भी काम हो, सत्य का अनुसरण कर अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग देना चाहिए और एक योग्य सृजित प्राणी बनना चाहिए। परमेश्वर द्वारा उद्धार पाने का यही एकमात्र तरीका है। ऐसा नहीं है कि अगुआ बनकर तुम सत्य पा लोगे और बचा लिए जाओगे। तुम कितने भी पुराने अगुआ हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारेगा। उन मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं के बारे में सोचो जो उजागर हुए हैं। कलीसिया उन्हें महत्वपूर्ण कामों के लिए तैयार करता है, लेकिन वे अपने काम में सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, निजी उद्यम में लिप्त रहते हैं और परमेश्वर से शत्रुता रखते हैं, अंतत: उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है। परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर लोगों के परिणाम उनकी महत्वपूर्ण भूमिका या ऊँचे रुतबे के आधार पर तय नहीं करता। अहम यह है कि क्या उनका जीवन स्वभाव बदला है और क्या उन्होंने सत्य पा लिया है। अगर तुम परमेश्वर के बरसों पुराने विश्वासी होकर भी, सत्य का अनुसरण नहीं करते और तुम्हारा जीवन स्वभाव नहीं बदला है, तो फिर तुम चाहे जो भी काम करो, आखिरकार तुम्हें उजागर कर त्याग दिया जाएगा। परमेश्वर धार्मिक है, वह लोगों से भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं करता। इससे मुझे परमेश्वर के ये वचन आ गए, "सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास की सफलता तुम्हारे चुने मार्ग पर निर्भर है। सत्य का अनुसरण करना और सादगी से एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना सबसे महत्वपूर्ण होता है। इस दौरान अपने अनुभव से मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने की प्रकृति को थोड़ा और स्पष्टता से जाना। प्रसिद्धि और पद के पीछे भागना सही नहीं है, यह परमेश्वर-विरोधी मार्ग है। सत्य के अनुसरण से ज्यादा महत्वपूर्ण और कुछ नहीं है। इसके अलावा, मैं खुद को थोड़ा समझी और अपने बारे में सही दृष्टिकोण मिला, अगुआ बनने की मेरी महत्वाकांक्षा अब उतनी प्रबल नहीं है। जब किसी भाई-बहन के अगुआ चुने जाने के बारे में सुनती हूँ, तो अभी भी इसका थोड़ा भावनात्मक असर तो पड़ता है, लेकिन प्रार्थना और दैहिक-सुखों को त्याग कर, अब मैं अब उतनी विवश नहीं होती और भाई-बहनों के साथ सामान्य रूप से काम में सहयोग करती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!