49. कर्तव्य के प्रति सही रवैया

मेलनी, फ़िलीपीन्स

मैं कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन किया करती थी, लेकिन चूँकि मुझमें क्षमता की थोड़ी कमी थी, इसलिए ऐसे कई सत्य थे जिन पर मैं स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाती थी और नए सदस्यों की समस्याएँ हल नहीं कर पाती थी। इसके अलावा, मैं हमेशा अपनी छवि और रुतबे की रक्षा करती रहती थी। जब ऐसी चीजें होती थीं जिन पर मैं अस्पष्ट होती थी, तो मुझे मदद के लिए दूसरों की तलाश करने में शर्मिंदगी महसूस होती थी। नतीजतन, मैंने नए सदस्यों के सिंचन का काम अच्छे से नहीं किया और इस वजह से मुझे बर्खास्त कर दिया गया। तब अगुआ ने मेरे लिए सामान्य मामलों का काम करने की व्यवस्था की। कर्तव्य में इस समायोजन का सामना करके मैं बहुत परेशान हुई। मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाई, खासकर जब ज़्यादा लोग परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने लगे, और उन्हें सिंचन की सख्त ज़रूरत थी। उस वक्त मेरे कर्तव्य में बदलाव होने से मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि कहीं मैं उजागर तो नहीं हो गई। मुझे चिंता थी कि अगर दूसरों को पता चला तो वो मेरे बारे में क्या सोचेंगे, उन्हें लगेगा मुझमें काबिलियत नहीं है, मैं सिर्फ मेहनत-मजदूरी और छोटे-मोटे काम ही कर सकती हूँ, मेरा कोई भविष्य नहीं है। पहले मैं अन्य लोगों के साथ नए विश्वासियों का सिंचन करती थी, लेकिन अब मैं सिर्फ सामान्य मामले और छोटे-मोटे काम निपटाती हूँ, ऐसा कर्तव्य निभाने का क्या मतलब? मैं कितनी भी मेहनत करूँ, बस एक श्रमिक बनकर रह जाऊँगी, अंत में हटा दी जाऊँगी। जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, मैं उतनी ही ज्यादा परेशान हो गई। मैं अपने काम अच्छे से नहीं कर रही थी, बिना उनमें मन लगाए उन्हें जैसे-तैसे निपटाकर संतुष्ट हो जाती थी। कभी-कभी शाम में बहुत काम करना होता था, लेकिन मैं जल्दी ही झपकी लेने लगती थी। एक बार सिंचन-कार्य की प्रभारी बहन ने मुझे एक संदेश भेजकर पहले के काम के कुछ दस्तावेज़ इकठ्ठा करने में मेरी मदद माँगी। उसे पढ़कर मैंने प्रतिरोध महसूस किया। मैं अब सिंचन-कार्य नहीं कर रही थी, तो वह मुझसे ऐसा करने के लिए कैसे कह सकती थी। लेकिन मैं मना नहीं कर पाई, इसलिए न चाहते हुए भी हाँ कर दी। अगले दिन एक अन्य सिंचनकर्मी बहन ने मुझसे कुछ मदद माँगी। मैं वाकई अनिच्छुक थी, इसलिए मैंने सोचा, “सामान्य मामले असल में छोटे-मोटे काम ही हैं, और कोई भी मुझसे कह सकता है कि मुझे क्या करना है। यह असल में मेरा काम नहीं है, फिर वह मुझसे मदद क्यों चाहती है?” मुझे डर था कि अगर मैंने मना किया, तो कहीं वह यह न सोचे कि मैं कलीसिया के कार्य में सहयोग नहीं कर रही। मजबूरी में मैंने उससे कह दिया कि मैं इसे कर दूँगी।

कुछ दिन मैंने बिल्कुल भी आत्मचिंतन नहीं किया। कर्तव्य में बदलाव की परमेश्वर की इच्छा मैं नहीं स्वीकार पाई, अगुआ का प्रतिरोध किया, क्योंकि मुझे लगता था वो मेरी मुश्किलें बढ़ा रही हैं। मैंने जानबूझकर अपनी एक पुरानी साथी बहन से कहा, “मैंने सिंचन-कार्य में कभी आलस नहीं दिखाया, और मैंने वह सब किया जो मुझे करना चाहिए था। कोई समस्या आने पर, अगुआ कभी मेरी मदद नही करती थीं, फिर भी उन्होंने मुझे बिना सोचे बर्खास्त कर दिया। खैर, जो भी हो! इस बर्खास्तगी में मेरे लिए कोई न कोई सबक जरूर होगा।” यह सुनकर उस बहन को भी लगा कि अगुआ ने मेरे साथ गलत किया था। उस वक्त मुझे लगा, मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है। मुझे सामान्य मामले संभालने का काम क्यों दिया गया? क्या मैं सिर्फ ऐसे छोटे-मोटे काम के लायक थी? क्या मुझे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता? मुझे लगा अब मेरा कोई काम नहीं रहा, अंत तक आस्था रखने के बाद भी शायद मुझे हटा दिया जाए। ये सब सोचकर मैं और भी ज़्यादा दुखी हो गयी। मुझे एहसास हुआ मेरी हालत ठीक नहीं थी, इसलिए मैंने तुरंत परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और कहा, “परमेश्वर, मुझे क्या हुआ है? ये भी तो एक कर्तव्य है, फिर क्यों मैं सामान्य मामले संभालने पर इतनी असंतुष्ट हूँ? परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध बनाओ, मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं खुद को समझकर भ्रष्टता में जीना छोड़ सकूँ।” मैंने कर्तव्य में बदलाव को लेकर मसीह-विरोधियों के रवैये पर परमेश्वर के वचनों को याद किया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम्हारे लिए कौन-सा कर्तव्य उचित है, यह तुम्हारी खूबियों पर आधारित होना चाहिए। अगर कभी कलीसिया द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित कर्तव्य ऐसा न हो, जिसे तुम अच्छे से कर सकते हो या ऐसा हो, जिसे तुम करना नहीं चाहते, तो तुम इस मुद्दे को उठा सकते हो और बातचीत के माध्यम से इसे हल कर सकते हो। लेकिन अगर तुम वह कर्तव्य निभा सकते हो, और वह ऐसा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए, और तुम उसे सिर्फ इसलिए नहीं निभाना चाहते कि तुम कष्ट उठाने से डरते हो, तो तुम्हारे साथ समस्या है। अगर तुम आज्ञा मानने को तैयार हो और देह के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो, तो तुम्हें तुलनात्मक रूप से उचित कहा जा सकता है। लेकिन अगर तुम हमेशा इसका हिसाब लगाने की कोशिश करते हो कि कौन-से कर्तव्य अधिक प्रतिष्ठित हैं, और यह मानते हो कि कुछ कर्तव्य निभाने से दूसरे तुम्हें हेय समझेंगे, तो यह साबित करता है कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है। तुम अपने कर्तव्यों की समझ में इतने पूर्वाग्रही क्यों हो? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम वह कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो, जिसे तुम अपने विचारों के आधार पर चुनते हो? जरूरी नहीं कि यह सच हो। यहाँ जो चीज सबसे ज्यादा मायने रखती है, वह यह है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करो, और अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाओगे, भले ही उससे तुम्हें आनंद मिलता हो। कुछ लोग सिद्धांतों के बिना अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं, और उनके कर्तव्य का प्रदर्शन हमेशा उनकी प्राथमिकताओं पर आधारित होता है, इसलिए वे कभी भी कठिनाइयाँ हल करने में सक्षम नहीं होते, वे हमेशा अपना हर कर्तव्य मुश्किल से निभा पाते हैं, और अंततः उन्हें हटा दिया जाता है। क्या ऐसे लोग बचाए जा सकते हैं? ... बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों का अपने कर्तव्यों में कभी भी सही रवैया नहीं होता। जब उनका तबादला किया जाता है, तो वे क्या सोचते हैं? ‘क्या तुम्हें लगता है कि मैं सिर्फ एक सेवाकर्ता हूँ? जब तुम मेरा इस्तेमाल करते हो, तुम मुझे अपनी सेवा देने के लिए कहते हो, और जब तुम्हारा काम पूरा हो जाता है, तो तुम मुझे दूर भेज देते हो। खैर, मैं इस तरह से सेवा नहीं करूँगा! मैं अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहता हूँ, क्योंकि यहाँ वही एकमात्र सम्मानजनक काम है। अगर तुम मुझे अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बनने दोगे और फिर भी मेहनत कराना चाहते हो, तो भूल जाओ!’ यह किस तरह का रवैया है? क्या वे समर्पण कर रहे हैं? किस आधार पर वे अपने कर्तव्य में तबादला किए जाने को लेते हैं? अपनी उग्रता, विचारों और भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर, है न? और उसे इस तरह लेने के क्या नतीजे होते हैं? पहली बात, क्या वे अपने अगले कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और ईमानदार हो पाएँगे? नहीं, वे नहीं हो पाएँगे। क्या उनका रवैया सकारात्मक होगा? वे किस तरह की स्थिति में होंगे? (मायूसी की स्थिति में।) मायूसी का सार क्या है? प्रतिरोध। और एक प्रतिरोधी और मायूस मनःस्थिति का आखिरी नतीजा क्या होता है? क्या ऐसा महसूस करने वाला इंसान अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? (नहीं।) अगर कोई हमेशा नकारात्मक और प्रतिरोधी रहता है, तो क्या वह कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होता है? चाहे वह कोई भी कर्तव्य करे, वह उसे अच्छी तरह से नहीं कर सकता। यह एक दुष्चक्र है, और इसका अंत अच्छा नहीं होगा। ऐसा क्यों? ऐसे लोग अच्छे रास्ते पर नहीं होते; वे सत्य की खोज नहीं करते, वे समर्पित नहीं होते, और वे अपने प्रति परमेश्वर के घर का रवैया और नजरिया ठीक से नहीं समझ सकते। यह परेशानी है, है न? यह कर्तव्य में पूरी तरह से उचित बदलाव है, लेकिन मसीह-विरोधी कहते हैं कि यह उन्हें तंग करने के लिए किया जा रहा है, उनके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, परमेश्वर के घर में प्यार की कमी है, उन्हें मशीन समझा जा रहा है, जब जरूरत हुई, बुला लिया, जब जरूरत नहीं रही, लात मारकर एक तरफ कर दिया। क्या यह बात को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है? क्या इस तरह की बात कहने वाले इंसान के पास अंतःकरण या तर्क-शक्ति है? उसमें इंसानियत नहीं है! वह पूरी तरह से उचित मामले को विकृत कर देता है; वह पूरी तरह से उपयुक्त अभ्यास को नकारात्मक चीज में बदल देता है—क्या यह मसीह-विरोधी की दुष्टता नहीं है? क्या इतना दुष्ट इंसान सत्य समझ सकता है? बिल्कुल नहीं। यह मसीह-विरोधियों की समस्या है; उनके साथ जो कुछ भी होता है, वे उसके बारे में विकृत तरीके से सोचेंगे। वे विकृत तरीके से क्यों सोचते हैं? क्योंकि उनका प्रकृति सार इतना दुष्ट होता है। एक मसीह-विरोधी का प्रकृति सार मुख्य रूप से दुष्ट होता है, जिसके बाद उसकी दुष्टता आती है, ये उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति उन्हें किसी भी चीज को सही ढंग से समझने से रोकती है, इसके बजाय वे हर चीज को विकृत करते हैं, वे चरम सीमाओं पर चले जाते हैं, वे बाल की खाल निकालते हैं, और वे चीजों को ठीक से नहीं सँभाल पाते या सत्य की खोज नहीं कर पाते। इसके बाद, वे सक्रिय रूप से लड़ते हैं, बदला लेने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि धारणाएँ फैलाते और नकारात्मकता को बाहर निकालते हैं, कलीसिया के काम को बाधित करने के लिए दूसरों को उकसाते और मनाते हैं। वे गुप्त रूप से कुछ शिकायतें फैलाते हैं, इसका आकलन करते हैं कि परमेश्वर के घर में लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, उसके कुछ प्रशासनिक नियमों, कुछ अगुआ कैसे काम करते हैं, और इन अगुआओं की निंदा करते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह शातिर स्वभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से पता चला कि कोई समस्या आने पर मसीह-विरोधी परमेश्वर के इरादे नहीं समझ पाते, हमेशा चीजों को गलत समझते हैं। कर्तव्य में साधारण से बदलाव को भी वे ऐसे लेते हैं मानो उन्हें पदावनत किया जा रहा हो, और सोचते हैं कि उनके लिए मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं। वे नकारात्मक और प्रतिरोधी बन जाते हैं, कलीसिया के कार्य की अवहेलना कर कभी भी अपना कर्तव्य छोड़ सकते हैं। मसीह-विरोधियों की प्रकृति कितनी बुरी होती है! मैंने देखा कि मैं भी बिल्कुल वैसा ही कर रही थी। बर्खास्त होने के बाद मुझे अपनी असफलता पर चिंतन करना चाहिए था, और नए कर्तव्य के इस मौके को सँजोना चाहिए था। मगर मैंने चिंतन तक नहीं किया। मुझे लगा अगुआ मेरे साथ सख्ती कर रही हैं, और सामान्य मामले संभालना अपमानजनक और शर्मनाक है, लगा कि मैं सेवाकर्मी हूँ, छोटे-मोटे काम करती हूँ और श्रमिक बनाई जा रही हूँ, और बढ़ाने के लायक नहीं हूँ। मैं कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं हो पाई, लगा मेरे साथ बहुत गलत हुआ है, मैंने इस कर्तव्य का बहुत प्रतिरोध किया। मैं हमेशा लापरवाही से, जैसे-तैसे, और धीरे-धीरे काम करती थी। मैं खुद को परमेश्वर के खिलाफ कर रही थी और ऐसी नकारात्मकता के साथ उसका विरोध कर रही थी। जब सिंचन कर्मी बहनें मेरी मदद के लिए आईं तो मैं उनका सहयोग करने के बजाय शिकायत करती रही। मुझे लगा वो मुझे आदेश दे रही थीं, मुझसे मेहनत वाले छोटे-मोटे काम करवा रही थीं। मैं सबको बताना चाहती थी कि मेरे साथ गलत हुआ है, इसलिए मैंने अपनी शिकायतें अपनी पुरानी साथी को बताईं, उससे अगुआ की शिकायत की। इसका उस पर बुरा असर पड़ा और वो अगुआ के खिलाफ हो गयी। कर्तव्य में बदलाव ने मुझे पूरी तरह उजागर कर दिया था। मैं अपनी मनमर्जी से कर्तव्य निभाती थी, सिर्फ वही काम करना चाहती थी जिससे मेरी छवि अच्छी रहे। रुतबा कम होने पर, मुझे लगा लोग मेरा आदर नहीं करेंगे, मुझे आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं थी, तो मैं नकारात्मक और आलसी बन गयी, परमेश्वर का विरोध किया, और कर्तव्य में गुस्सा दिखाने लगी। मैंने अपने पूर्वाग्रह और धारणाएँ फैलाकर अपने लिए लड़ने को एक और इंसान पा लिया। यह मसीह-विरोधी से अलग कैसे था? मुझमें जरा भी सामान्य इंसानियत या समझ नहीं थी!

फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “कुछ लोग अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, वे हमेशा अन्यमनस्क रहते हैं, जिससे व्यवधान या गड़बड़ियाँ होती हैं, और अंततः उन्हें बदल दिया जाता है। लेकिन उन्हें कलीसिया से निकाला नहीं जाता, जो कि उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देना है। हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और हर किसी के सामने ऐसे दौर आते हैं जब वह असमंजस में या भ्रमित होता है, ऐसा दौर जब उसका आध्यात्मिक कद छोटा होता है। तुम्हें मौका देने का उद्देश्य यह है कि तुम यह सब उलट सको। और तुम इसे कैसे उलट सकते हो? तुम्हें अपनी पिछली गलतियों पर विचार कर उन्हें जानना चाहिए; बहाने मत बनाओ, और धारणाएँ मत फैलाओ। अगर तुम परमेश्वर को गलत समझते हो और ये गलतफहमियाँ बिना सोचे-विचारे दूसरों तक पहुँचा देते हो, ताकि वे भी तुम्हारे साथ परमेश्वर की गलत व्याख्या करें, और अगर तुम धारणाएँ बना लेते हो और उन्हें फैलाते जाते हो, ताकि तुम्हारी तरह हर किसी के पास धारणाएँ हों और तुम्हारे साथ वह भी परमेश्वर से बहस करने की कोशिश करे, तो क्या यह जन-भावनाएँ भड़काना नहीं है? क्या यह परमेश्वर का विरोध करना नहीं है? और क्या परमेश्वर का विरोध करने से कुछ भला हो सकता है? क्या तुम अभी भी बचाए जा सकते हो? तुम आशा करते हो कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा, फिर भी तुम उसका कार्य स्वीकारने से मना कर देते हो, और परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करते हो, तो क्या परमेश्वर अब भी तुम्हें बचाएगा? ये आशाएँ छोड़ दो। जब तुमने गलती की, तो परमेश्वर ने तुम्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया, और न ही इस एक गलती के कारण उसने तुम्हें हटाया। परमेश्वर के घर ने तुम्हें एक मौका दिया, और तुम्हें कर्तव्य निभाते रहने और पश्चात्ताप करने दिया, जो कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिया गया अवसर है; अगर तुममें जमीर और समझ है, तो तुम्हें इसे सँजोना चाहिए। कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाते समय हमेशा अन्यमनस्क रहते हैं, और उन्हें बदल दिया जाता है; कुछ का तबादला कर दिया जाता है। क्या इसका मतलब यह है कि उन्हें हटा दिया गया है? परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा है; तुम्हारे पास अभी भी मौका है। इसलिए तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए, और सच्चा पश्चात्ताप करना चाहिए; यही रास्ता है। लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं करते। वे पलटवार करते हैं और यह कहना शुरू कर देते हैं, ‘मुझे यह कर्तव्य नहीं निभाने दिया गया, क्योंकि मैंने गलत बात कहकर किसी को नाराज कर दिया।’ वे अपने भीतर की समस्या नहीं तलाशते, वे चिंतन नहीं करते, वे सत्य की खोज नहीं करते, वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करते, और वे धारणाएँ फैलाकर परमेश्वर का विरोध करते हैं। क्या वे शैतान नहीं बन गए? जब तुम वे चीजें करते हो जो शैतान करता है, तो तुम परमेश्वर के अनुयायी नहीं रह जाते। तुम परमेश्वर के शत्रु बन गए हो—क्या परमेश्वर अपने शत्रु को बचा सकता है? नहीं। परमेश्वर भ्रष्ट स्वभाव वाले लोगों को बचाता है, वास्तविक लोगों को—न कि शैतानों को, न कि अपने शत्रुओं को। जब तुम परमेश्वर के विरुद्ध जाते हो, परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो, परमेश्वर की गलत व्याख्या करते हो, और परमेश्वर के बारे में धारणाएँ फैलाते हुए उसकी आलोचना करते हो, तो तुम पूरी तरह से परमेश्वर के विरुद्ध हो जाते हो; तुम परमेश्वर के खिलाफ हो-हल्ला करते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। मैं परमेश्वर के वचनों से बहुत द्रवित हो गई। हालाँकि मुझे बर्खास्त कर दिया गया था, फिर भी कलीसिया ने मुझे कर्तव्य निभाने का मौका दिया। उसने यह नहीं कहा कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर सकती, कि मुझे हटा दिया जाएगा। मेरे लिए दूसरे कर्तव्य की व्यवश्ता कर दी गई, जिसने मुझे वाकई आत्मचिंतन कर खुद को समझने का मौका दिया। लेकिन परमेश्वर का इरादा न समझते हुए मैंने सोचा कि बर्खास्त किया जाना रुतबा और इज्जत खोना है, मैं निराश और प्रतिरोधी हो गई। मैं बहुत विद्रोही और विवेकहीन थी! जब मैं नए विश्वासियों का सिंचन करती थी, तब अच्छी काबिलियत न होने के कारण मैं सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर पाती थी, और नए सदस्यों के प्रश्न हल नहीं हो पाते थे। इस डर से कि लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे, मैं हमेशा दिखावा करती, अपनी समस्याएं खुलकर नहीं बताती, न मदद माँगती। उस कर्तव्य के सिद्धांतों और तरीकों के बारे में जब अगुआ ने मेरे साथ संगति की, तब मैंने उनकी बात सुन तो ली, पर उनका अभ्यास करने और उन पर अमल करने के बारे में कभी नहीं सोचा। इसलिए, कई बार की संगति के बाद भी मैं सिद्धांत नहीं समझी और मेरे सिंचन कार्य के अच्छे नतीजे नहीं मिले। मुझमें काबिलियत की कमी तो थी ही, मैं बहुत अहंकारी भी थी और सत्य खोजना नहीं चाहती थी। मैंने अपने कौशल नहीं सुधारे, और मेरे काम में कोई प्रगति नहीं हुई। इसलिए मेरा एक अलग कार्य पर तबादला किए जाने की जरूरत पड़ी। मगर मैंने अपनी भ्रष्टता और कमियों को नहीं स्वीकारा। अपने तबादले पर मैं पर गुस्सा हुई और मैंने उसे स्वीकारने से मना कर दिया। मुझे ये गलतफहमी भी हुई कि परमेश्वर मुझे उजागर करके मेरी छवि खराब कर रहा है, वह मुझे हटाने वाला है। मैं बहुत बेवकूफ और विवेकहीन थी। काबिलियत की कमी और नए सदस्यों के सिंचन में असफल होने से मैं अक्सर नकारात्मक महसूस करती थी। अगर मैं वो कर्तव्य निभाती रहती, तो इससे मेरे जीवन को नुकसान होता, कलीसिया के कार्य में भी रुकावट आती। मेरी काबिलियत और खूबियों के हिसाब से ही अगुआ ने मुझे वह कर्तव्य सौंपा, जिसे मैं कर सकती थी। ये सिद्धांत का पालन करते हुए मेरे जीवन की ज़िम्मेदारी उठाना है। मेरे लिए क्या सही है, मैं नहीं जानती थी। मैंने खुद को जानने के लिए आत्मचिंतन करने के बजाय जवाबी हमला किया, पीठ पीछे अगुआ की आलोचना की, नकारात्मकता फैलाई। बाहर से ऐसा लगता था जैसे उसकी गलती निकाल रहीहूँ, पर असल में मैं परमेश्वर का विरोध कर उसके खिलाफ जा रही थी। इस तरह उजागर किये जाने पर, एहसास हुआ कि मुझमें सिर्फ काबिलियत की कमी नहीं थी, बल्कि मेरा स्वभाव भी बहुत भ्रष्ट था। अगर मैंने खुद को समर्पित करके ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं निभाया, तो मुझे उजागर करके हटा दिया जाएगा।

चिंतन करने पर मुझे मेरी एक भ्रामक सोच का भी पता चला। मैं सोचती थी कर्तव्य की कई श्रेणियाँ हैं, कुछ निचले दर्जे के तो कुछ ऊँचे दर्जे के होते हैं, और सिर्फ अगुआई या सिंचन-कार्य करना ही असली कर्तव्य है, सामान्य मामलों के कार्य को कर्तव्य नहीं माना जाता। मुझे लगता था कि यह निचले दर्जे का काम है, कि ऐसे काम करना सिर्फ श्रम करना है, और मेरे श्रम करने के बाद मुझे हटा दिया जाएगा। इसलिए, यह सुनकर कि मुझे सामान्य मामले संभालने होंगे, मैं छोटा महसूस करने लगी और मशीन की तरह पेश आने लगी। मैंने इसका बहुत प्रतिरोध किया, मुझमें कर्तव्य निभाने का उत्साह भी नहीं था। मगर कलीसिया में, सभी कर्तव्य मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना का हिस्सा हैं। हम अगुआ हों, सिंचनकर्मी हों, या सामान्य मामलों का कार्य कर रहे हों, यह सब कर्तव्य निभाना है, और सभी को अच्छी तरह सहयोग करना चाहिए। यह एक मशीन जैसा है, जिसके हर पुर्जे का कोई काम होता है, यानी कर्तव्य में कोई बड़ा छोटा, ऊँचा, नीचा, महान या साधारण नहीं होता, सबके अलग-अलग काम हैं। व्यक्ति कोई भी कर्तव्य निभा रहा हो, हरेक के पास सीखने के लिए सबक और अभ्यास और प्रवेश करने के लिए सत्य सिद्धांत होते हैं। अगर हम सत्य का अनुसरण करें, तो परमेश्वर हमें ज़रूर बचाएगा। मगर मैं हमेशा गलत सोचती थी। मैं सोचती कि सामान्य मामले संभालना सिर्फ मेहनत-मजदूरी और कुछ छोटे-मोटे काम करना है। अपने कर्तव्य में आये बदलाव के प्रति मेरा यही विकृत रवैया रहा और मैं परमेश्वर के इरादे को गलत समझ बैठी। परमेश्वर को इन चीजों से बहुत नफरत है। इससे मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे पूर्ण बनाया जाए, अंततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, उसके द्वारा उसे पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। चाहे मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिल्कुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बहुत प्रेरणा मिली, मगर शर्मिंदगी भी हुई। मैंने परमेश्वर का इरादा समझे बिना गलत समझकर उसे दोष दिया। मैंने सोचा कि मुझे कम काबिलियत के कारण सामान्य मामलों का काम सौंपा गया है और मुझे अपना श्रम समाप्त करने के बाद हटा दिया जाएगा। असल में, परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि वह कम काबिलियत वालों को नहीं बचाएगा, और वह लोगों से उनकी काबिलियत या उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य के आधार पर बर्ताव नहीं करता। ज़रूरी है कि लोग सत्य से प्रेम करें, सत्य का अनुसरण करें। यही तय करता है कि उन्हें बचाया जाएगा या नहीं। मैंने एक बुरे इंसान के बारे में सोचा, जिसे कलीसिया ने दूर कर दिया था। उसमें काबिलियत दिखती थी और उसका कर्तव्य सराहनीय था, पर वह हमेशा रुतबे के पीछे भागती थी, दूसरों को दबाती और अलग राय रखने वालों को निकाल देती थी। उसकी पहले ही बार-बार काट-छाँट की गई थी, लेकिन वो नहीं पछताई। अंततः उसे कलीसिया से निकाल दिया गया। फिर पिछले कुछ सालों में जिन झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को उजागर करके हटाया गया उनमें से ज्यादातर में बाहरी तौर पर काबिलियत और खूबियाँ थीं, पर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते थे। वे सब नाम और रुतबे के लिए बहुत बुराइयाँ करते थे और परमेश्वर विरोध के मार्ग पर चलते थे। किसी की काबिलियत चाहे कितनी भी महान हो, उनका रुतबा कितना भी बड़ा हो, अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो परमेश्वर उन्हें उजागर करके हटाने में जरा भी देरी नहीं करेगा। मैंने औसत काबिलियत वाले कुछ भाई-बहनों के बारे में भी सोचा, जिनके कर्तव्य बहुत बड़े नहीं हैं, पर वे सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर उन्हें मन लगाकर निभाने में सक्षम हैं। भ्रष्टता दिखने पर वे सत्य खोजने और प्रार्थना के लिए परमेश्वर के पास आते हैं, ताकि आत्मचिंतन करके उसके वचनों द्वारा खुद को पहचान पाएं। समय के साथ उनके भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव जरूर आता है। परमेश्वर का स्वभाव बहुत धार्मिक है। परमेश्वर किसी के साथ गलत नहीं करता। हमारी काबिलियत कैसी भी हो, हम कोई भी कर्तव्य निभाएं, परमेश्वर सबका एक जैसा पोषण और सिंचन करता है, वह ऐसे हालात पैदा करता है जिससे हम उसके वचनों का अनुभव कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। मनुष्य को बचाने वाला परमेश्वर का कार्य कितना व्यावहारिक है! परमेश्वर का इरादा समझकर, मैंने अपने मौजूदा कर्तव्य की उतनी विरोधी न रही, बल्कि समर्पित होकर उसे अच्छे से निभाना चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम्हारा आज परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य को पूरा कर पाना, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, और चाहे वह बाहरी मुद्दों को संभालना हो या आंतरिक कार्य को, किसी का भी अपना कर्तव्य निभाना संयोग नहीं है। यह तुम्हारी पसंद कैसे हो सकती है? यह सब परमेश्वर द्वारा किया गया है। यह सिर्फ परमेश्वर द्वारा तुम्हें आदेश सौंपे जाने के कारण ही है कि तुम इस तरह प्रेरित हुए हो, तुम्हारे पास मिशन और जिम्मेदारी का एहसास है और तुम इस कर्तव्य को पूरा कर सकते हो। अविश्वासियों में ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास अच्छी शक्ल-सूरत, ज्ञान या प्रतिभा है लेकिन क्या परमेश्वर उनकी तरफदारी करता है? नहीं, वह नहीं करता। परमेश्वर ने उन्हें नहीं चुना और वह सिर्फ तुम लोगों पर उपकार करता है। उसने अपने प्रबंधन कार्य में तुम सभी को हर प्रकार की भूमिका निभाने, सभी प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करने और विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियाँ उठाने का बीड़ा दिया है। जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना आखिरकार खत्म हो जाएगी और पूरी कर ली जाएगी तो यह कितनी महिमा और सौभाग्य की बात होगी! तो फिर जब लोग आज अपना कर्तव्य पूरा करते समय थोड़ी कठिनाई सहते हैं; जब उन्हें कुछ चीजें छोड़नी पड़ती हैं, खुद को थोड़ा खपाना पड़ता है और कुछ कीमत चुकानी पड़ती है; जब वे दुनिया में अपना रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ खो देते हैं और जब ये सभी चीजें खत्म हो जाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे यह सब परमेश्वर ने उनसे छीन लिया है लेकिन उन्होंने कुछ अधिक कीमती और अधिक मूल्यवान चीज हासिल कर ली होती है। लोगों ने परमेश्वर से क्या हासिल किया है? उन्होंने अपने कर्तव्य को पूरा करके सत्य और जीवन हासिल किया है। सिर्फ जब तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, तुमने परमेश्वर का आदेश पूरा कर लिया है, तुम अपना पूरा जीवन अपने मिशन और उस आदेश के लिए जीते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, तो तुम्हारे पास एक सुंदर गवाही है और तुम ऐसा जीवन जीते हो जिसका कोई मूल्य है—सिर्फ तभी तुम एक असली इंसान कहला सकते हो! और मैं यह क्यों कहता हूँ कि तुम एक असली इंसान हो? क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है और तुमसे अपने प्रबंधन के अंतर्गत एक सृजित प्राणी होने के नाते अपना कर्तव्य पूरा करवाया है। यह तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा मूल्य और सबसे बड़ा मतलब है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “परमेश्वर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि उसके सामने होने पर तुम क्या कहते हो या क्या वादा करते हो; परमेश्वर यह देखता है कि तुम जो कर रहे हो उसमें सत्य वास्तविकता है या नहीं। साथ ही इसकी परवाह नहीं करता कि तुम्हारे कार्य कितने ऊँचे, रहस्यमय या प्रबल हैं; भले ही तुम कोई छोटी चीज करो, अगर परमेश्वर तुम्हारे कार्यों में ईमानदारी देखता है, तो वह कहेगा, ‘यह व्यक्ति ईमानदारी से मुझ पर विश्वास करता है। इसने कभी अतिशयोक्ति नहीं की। यह अपने पद के अनुसार आचरण करता है। और भले ही उसने परमेश्वर के घर के लिए कोई बड़ा योगदान न दिया हो, और उसकी क्षमता खराब हो, फिर भी वह जो कुछ करता है, उस सबमें दृढ़ रहता है; उसमें ईमानदारी है।’ इस ‘ईमानदारी’ में क्या शामिल है? इसमें परमेश्वर के प्रति भय और समर्पण शामिल है, साथ ही सच्ची आस्था और प्रेम शामिल है; इसमें वह सब-कुछ शामिल है, जो परमेश्वर देखना चाहता है। दूसरों की नजर में ऐसे लोग मामूली हो सकते हैं, ये वे व्यक्ति हो सकते हैं जो खाना बनाते हैं या सफाई करते हैं, ऐसे व्यक्ति जो साधारण काम करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के लिए मामूली होते हैं, उन्होंने कुछ भी बड़ा हासिल नहीं किया होता, और उनके पास कुछ भी बहुमूल्य, सराहनीय या ईर्ष्यायोग्य नहीं होता—वे सिर्फ आम लोग होते हैं। और फिर भी, जो कुछ परमेश्वर चाहता है, वह उनमें पाया जाता है, वह सब उनमें जिया जाता है, और वे सब कुछ परमेश्वर को दे देते हैं। तुम लोगों के विचार से परमेश्वर और क्या चाहता है? परमेश्वर संतुष्ट है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि चाहे जो भी कर्तव्य मिले, वो परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं द्वारा है। मुझे समर्पित होकर दिल से वह सब निभाना चाहिए। मेरी काबिलियत कैसी भी हो या मैं जितना भी कर पाऊँ, मुझे उसमें अपना सब कुछ समर्पित करना चाहिए। यही परमेश्वर का इरादा है, यही असल में अपना कर्तव्य निभाना है।

इसके बाद मैंने सही रवैया अपनाया और सामान्य मामलों का कार्य लगन से किया, और कुछ समय बाद, मुझे एहसास हुआ कि वो मेहनत-मजदूरी नहीं था जैसा मैंने सोचा था। उसमें बहुत-से सिद्धांत समझने थे और उनमें प्रवेश करना था, जिसके लिए एक ईमानदार और सत्य खोजने वाला दिल होना जरूरी है। अभ्यास की एक अवधि के बाद, सामान्य मामले संभालने से मैंने बहुत कुछ पाया। मैंने कुछ कौशल सीखे और कुछ सिद्धांतों को समझा, मैंने यह भी अनुभव किया कि मानवजाति के लिए परमेश्वर का उद्धार कितना व्यावहारिक है। कर्तव्य में हुए इस बदलाव से, कर्तव्य को लेकर मेरी गलत सोच बदल गई, मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अच्छे से कर्तव्य निभाने को तैयार हो गयी। परमेश्वर का धन्यवाद!

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