35. मैं इतनी अहंकारी क्यों थी
एक दिन कुछ कलीसिया अगुआओं ने मुझे एक समस्या बताई। उन्होंने कहा कि सुसमाचार कार्य की प्रभारी, बहन झांग के कार्य सिद्धांत के अनुसार नहीं होते, वह कलीसिया अगुआओं से काम पर चर्चा नहीं करती, बल्कि लोगों को बेतरतीब ढंग से सुसमाचार साझा करने का कार्य सौंप देती है, इससे भाई-बहन जो कार्य कर रहे होते हैं, वह तो प्रभावित होता ही है, कलीसिया का काम भी बाधित होता है। मैंने तुरंत जवाब दिया, "बहन झांग काम की जरूरतों के हिसाब से ही लोगों के काम बदलती होगी।" एक अगुआ ने कहा, "बहन झांग में काबिलियत की कमी है और अपने काम में योग्य नहीं है। स्टाफ की व्यवस्था ठीक से नहीं की गई है और कोई भी इससे खुश नहीं है। इससे कुछ लोग नकारात्मक स्थिति में चले गए हैं जिससे हमारा सुसमाचार कार्य प्रभावित हो रहा है। क्या वह इस काम को संभालने के लिए नाकाबिल नहीं है?" उसे बर्खास्त किए जाने की बात सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने कहा, "क्या? अगर बहन झांग सुसमाचार कार्य की प्रभारी नहीं रहेगी, तो क्या तुम कोई और बेहतर व्यक्ति ढूंढ पाओगे? क्या हमारे पास कोई उपयुक्त व्यक्ति है? तुमने जिन मुद्दों की बात की, वो हैं, लेकिन वे इतने भी गंभीर नहीं हैं। उसे सुसमाचार कार्य में परिणाम मिलते हैं—हम उसे इन छोटी-मोटी बातों पर बर्खास्त नहीं कर सकते! हमें कलीसिया के काम की रक्षा करनी होगी।" कलीसिया अगुआओं का खंडन करते हुए मैं सोच रही थी कि वे बाल की खाल निकाल रहे हैं, कोई भी पूर्ण नहीं होता! हम सब में भ्रष्टता और त्रुटियाँ हैं, तो क्या यह मांग करना उचित है कि लोग सब-कुछ सही करें? वे काम के परिणामों को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? अगर हमने उसे बर्खास्त कर दिया और काम की प्रगति गिर गई तो क्या होगा? इससे ऐसा लगेगा मानो मैं किसी नकली अगुआ की तरह व्यावहारिक काम नहीं कर सकती। लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? और अगर वरिष्ठ अगुआ को पता चला तो क्या वे मुझे बर्खास्त नहीं कर देंगे? मेरी बात सुनकर दोनों कलीसिया अगुआ अवाक रह गए और विवश होकर बोले, "चलो अभी के लिए उसे रहने देते हैं।" कुछ दिनों बाद वरिष्ठ अगुआ ने मुझसे ऑनलाइन संपर्क कर पूछा कि बहन झांग अब अपना काम कैसा कर रही है। मैंने कहा, "बढ़िया कर रही है। अच्छा काम करके उपलब्धियाँ हासिल कर रही है।" तो अगुआ ने फिर पूछा, "कौन-सी उपलब्धियाँ हासिल कर रही है? क्या तुमने जाँच की है कि उसने कितने लोगों को सुसमाचार के कार्य के जरिए वाकई हासिल किया है? तुम्हें पता है कि वह झूठे आँकड़े पेश कर रही है? उसमें न तो काबिलियत है और न ही वह बहुत सक्षम है। वह समस्याएँ हल नहीं कर सकती। तुम्हें इन बातों की जानकारी है? तुम्हें पता है वह बिना सिद्धांतों के लोगों को काम सौंपकर, सुसमाचार कार्य को बाधित कर रही है?" एक के बाद एक सवालों की झड़ी लगी देखकर, मेरा दिल धड़कने लगा और दिमाग सुन्न हो गया। मुझे निरुत्तर देखकर, अगुआ ने आगे कहा : "तुम जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वासी हो! बहुत अधिक आत्मविश्वासी लोगों में जागरूकता की कमी होती है। अगर तुम वाकई खुद को जानती हो, तो तुमने खुद की इच्छाओं का त्याग क्यों नहीं किया? खुद को नकारा क्यों नहीं? लोगों ने इस मुद्दे को उठाया, लेकिन तुमने इसे स्वीकार नहीं किया। तुम कितनी अहंकारी हो? क्या तुममें सत्य की वास्तविकता है? जिसमें वाकई सत्य की वास्तविकता होती है, वह इतना आत्मविश्वासी नहीं होता। जब दूसरे लोग सही कह रहे हों, तो वह उनकी बात सुनता है। वह सत्य स्वीकार कर समर्पित हो पाता है। वह सामान्य मानवता वाला होता है। किस तरह का व्यक्ति बेहद अहंकारी और आत्मविश्वासी होता है? क्या वह सत्य स्वीकार सकता है? अहंकारी लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, सत्य के सामने बिल्कुल समर्पित नहीं होते। अहंकारी और आत्मविश्वासी लोग खुद को नहीं जानते, वे खुद की इच्छाओं का त्याग नहीं कर पाते, वे न तो सत्य का अभ्यास कर पाते हैं और न ही सत्य के सिद्धांतों को कायम रख पाते हैं। वे लोगों के साथ मिलकर नहीं चल पाते। वही लोग अहंकारी होते हैं जिनका स्वभाव नहीं बदलता। इन बातों से देखा जा सकता है कि अहंकारी लोग ऐसे पुराने शैतान होते हैं जिनमें कभी कोई बदलाव नहीं आता। तुम्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि कहीं तुम ऐसी ही इंसान तो नहीं हो।" मैं स्तब्ध रह गई—लगा जैसे मुझ पर बिजली गिरी हो। ऑफलाइन होने के बाद मैं वहीं बैठ गई, उसकी बातें मेरे दिमाग में घूम रही थीं : "जो सत्य स्वीकार नहीं करते," "सत्य को समर्पित नहीं होते," "दूसरों के साथ मिलकर नहीं चल पाते," "जिनका स्वभाव नहीं बदला है," और "ऐसे पुराने शैतान होते हैं जिनमें कभी कोई बदलाव नहीं आता।" सोच-सोचकर मेरा बुरा हाल था, मैं अपने आँसू नहीं रोक पा रही थी। डबडबाई आँखों से मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं ऐसी अहंकारी और आत्मविश्वासी इंसान हूँ जो सत्य नहीं स्वीकारती। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं आत्मचिंतन कर खुद को जान सकूँ।"
फिर एक दिन अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज़्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं, और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं, और उनके दिलों में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्ता स्थापित करने की ख़ातिर परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं होता। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन मेरे लिए काफी प्रबोधक थे। यह सच है। अहंकार भ्रष्टता की जड़ है। अहंकारी होने के कारण, मैं न केवल लोगों को हिकारत से देखती थी, बल्कि परमेश्वर का भी सम्मान नहीं करती थी। जब समस्याएं सामने आईं तो मैं न तो परमेश्वर के सामने आई, न उसकी इच्छा खोजी और न ही सत्य के सिद्धांत खोजे, बल्कि मनमानी करते हुए चाहा कि सब मेरी बात मानें। मैंने बहन झांग की समस्याओं पर कलीसिया अगुआओं की प्रतिक्रिया के बारे में सोचा। मैंने बिना विचारे ही उनकी हर बात का खंडन कर दिया। उन्होंने कहा कि बहन झांग सिद्धांतहीन है, वह कलीसिया अगुआओं से बात किए बिना यूं ही लोगों को काम सौंप देती है, जिससे चीजें इस हद तक बाधित हो जाती हैं कि लोगों को पता ही नहीं होता उन्हें क्या काम करना है। मैं उनकी बात सुने बिना ही हर चीज को सिरे से नकार रही थी। मैंने यह कहकर बहन झांग का बचाव किया कि सुसमाचार कार्य के लिए तत्काल लोगों की आवश्यकता थी, इसलिए उसने ऐसा बर्ताव किया, यह जरूरी था। कलीसिया अगुआओं ने कहा कि उसमें न तो काबिलियत थी और न ही काम करने की क्षमता, वह हमारे सुसमाचार कार्य के प्रबंधन के लिए उपयुक्त नहीं थी। मैंने वास्तविक स्थिति का पता नहीं लगाया, न ही यह सोचा कि क्या सिद्धांत के आधार पर उसका तबादला कर देना चाहिए। इसके बजाय, मैं विरोध कर रही थी और नाराज थी। मैंने कलीसिया अगुआओं से पूछा कि उसे प्रभारी क्यों नहीं होना चाहिए, क्या उन्हें उससे बेहतर सुपरवाइजर मिल सकता है। मैंने उन्हें दो टूक जवाब देकर दबा दिया। इस मुद्दे को उठाकर, कलीसिया अगुआ दायित्व निभा रहे थे और कलीसिया के काम को कायम रख रहे थे, लेकिन मुझे लगता था कि मुझमें सत्य की उनसे बेहतर समझ और अंतर्दृष्टि है, मैंने सोचा कि सत्य की उनकी समझ उथली है और वे चीजों को ठीक से नहीं देख पा रहे हैं, इसलिए मुझे उनकी बात सुनने की जरूरत नहीं है। मैं बेहद अहंकारी और आत्मविश्वासी थी! मैं हठपूर्वक अपने रास्ते पर चलकर सत्य को नकारती रही और एक भी सच्ची बात स्वीकारने को तैयार नहीं थी। मैंने उनकी हर बात का खंडन कर दिया और जब तक उन्होंने राय देनी बंद नहीं कर दी, मैं बहस करती रही। मैं सभी तर्कों से परे अहंकारी थी, मेरे मन में परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं थी। मैं सिद्धांत के अनुसार लोगों का उपयोग न करके पहले ही कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा रही थी, मैंने अपनी गलती स्वीकारने के बजाय, इसकी चर्चा करने पर उल्टे कलीसिया अगुआओं पर ही दोष मढ़ दिया। मैंने बाल की खाल निकालने और बहन झांग के साथ गलत व्यवहार करने के लिए उन्हें फटकार लगाई। क्या मैं भी वैसी ही पुरानी शैतान नहीं थी जिसके स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया, जो एकदम अपरिवर्तित थी? इस तरह मैं लोगों के साथ तालमेल बिठाकर सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग कैसे कर सकती हूँ? मैंने जब इस बारे में सोचा, तो खुद को दोषी महसूस किया, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप कर बहन झांग की स्थिति को संभालने के लिए तैयार हो गई। उन चीजों को सही तरीके से जाँचने पर मैंने जाना कि बहन झांग अपने कार्य की रिपोर्ट में धोखाधड़ी करके चीजों को अस्त-व्यस्त कर रही थी, बहुत से नए विश्वासी सभाओं में शामिल नहीं हो रहे थे क्योंकि उसने सिंचन-कर्मी नियुक्त नहीं किए थे। बहन झांग में काबिलियत की कमी थी, लेकिन वह अहंकारी और निरंकुश थी, वह अपने काम के बारे में किसी से चर्चा नहीं करती थी। जब कोई समस्या आती तो वह उसका समाधान न कर पाती और दूसरों से सुझाव भी नहीं लेती थी, तो ढेरों समस्याएँ काफी समय से अनसुलझी पड़ी थीं, जो सुसमाचार कार्य की प्रगति को रोक रही थी। इन तथ्यों के सामने आने पर, मैंने माना कि मैंने गलत इंसान को चुना है। जब कलीसिया अगुआओं ने उसे बदलने का सुझाव दिया तो मैं नहीं माना, बल्कि उन्हें डांटकर दबा दिया। इस बारे में सोचकर मुझे बहुत बुरा लगा, इतनी अहंकारी और आत्मविश्वासी होने के कारण मुझे खुद से घृणा हो गई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपनी समस्या का सार समझ सकूँ।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरे अहंकार के मुद्दे पर ही था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना लोगों का एकदम स्पष्ट शैतानी स्वभाव है, और अगर वे सत्य नहीं स्वीकारते, तो उन्हें शुद्ध करने का कोई तरीका नहीं है। जो लोग अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव के होते हैं, वे मानते हैं कि वे सही हैं, वे जो भी सोचते हैं, बोलते हैं और जो उनकी राय होती है, उनमें उन्हें हमेशा यही लगता है कि उनका दृष्टिकोण और उनकी सोच सही है, कोई और अगर कुछ कहता है तो वह उनकी बात जितना अच्छा या सही नहीं होता। वे अपनी राय पर अड़े रहते हैं, किसी और की नहीं सुनते; भले ही दूसरे जो कह रहे हों, वह सही हो, सत्य के अनुरूप हो, पर वे उसे स्वीकार नहीं करते, वे केवल सुनने का दिखावा करते हैं, लेकिन कुछ ग्रहण नहीं करते हैं। जब काम करने का समय आता है, तो वे अपने तरीके से ही चलते हैं; वे खुद को सही और न्यायसंगत मानते हैं। तुम सही हो सकते हो, न्यायसंगत हो सकते हो या हो सकता है कि तुम बिना समस्या के सही काम कर रहे हो, लेकिन तुम्हारा कौन-सा स्वभाव प्रकट हो रहा है? क्या यह अहंकार और आत्म-तुष्टि नहीं है? अगर तुम अहंकार और आत्म-तुष्टि वाला यह स्वभाव नहीं त्याग पाते, तो क्या इससे तुम्हारे काम पर असर पड़ेगा? क्या यह सत्य पर अमल करने की तुम्हारी क्षमता को प्रभावित करेगा? अगर तुम इस तरह का अभिमानी और आत्म-तुष्ट स्वभाव दूर नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हें आगे चलकर बड़ी असफलताओं का सामना करना पड़ सकता है? निस्संदेह तुम्हें करना पड़ेगा, ऐसा होना अपरिहार्य है। क्या परमेश्वर लोगों में इन चीजों को प्रकट होते हुए देख सकता है? हाँ, बहुत अच्छी तरह देख सकता है; परमेश्वर न केवल मनुष्य के अंतर्मन की निगरानी करता है, बल्कि मनुष्य के हर शब्द और काम पर उसकी नजर रहती है। जब परमेश्वर इन चीजों को तुम्हारे अंदर प्रकट होते देखता है, तो वह क्या कहेगा? परमेश्वर कहेगा, 'तुम जिद्दी हो! जब तुम अपनी गलती को न जानते हुए अपनी बात पर अड़े रहते हो, तो समझ आता है, लेकिन अपनी गलती अच्छी तरह जानते हुए भी अगर तुम अपनी बात पर अड़े रहते हो और पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम अड़ियल और मूर्ख इंसान हो और तुम मुसीबत में हो। चाहे कोई भी सलाह दे, तुम नकारात्मक और विरोधी दृष्टिकोण अपनाकर प्रतिक्रिया देते हो और जरा-भी सत्य नहीं स्वीकारते—अगर तुम्हारे मन में केवल विरोध, संकीर्णता और अस्वीकृति भरी है—तो तुम बेहूदे हो, बेतुके मूर्ख हो! तुमसे निपटना बहुत मुश्किल है।' तुममें ऐसा क्या है जिससे निपटना इतना मुश्किल है? तुम्हारे बारे में कठिनाई यह है कि तुम्हारा व्यवहार चीजों को करने का गलत तरीका या गलत प्रकार का आचरण नहीं है, बल्कि वह एक खास तरह के स्वभाव को उजागर करता है। वह किस तरह के स्वभाव को उजागर करता है? तुम सत्य से ऊब गए हो और सत्य से नफरत करते हो। जब तुम सत्य से नफरत करने वाले के रूप में परिभाषित कर दिए जाते हो, तो परमेश्वर की नजर में तुम संकट में हो; परमेश्वर तुम्हें ठुकरा देता है, तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जहाँ तक लोगों की बात है, सबसे बुरा यही हो सकता है कि वे कह सकते हैं, 'इस व्यक्ति का स्वभाव अच्छा नहीं है—यह अड़ियल, जिद्दी और ढीठ है! इसके साथ मिलजुलकर रहना मुश्किल है, न तो यह सत्य से प्रेम करता है और न ही कभी उसे स्वीकारेगा या उसका अभ्यास करेगा।' सबसे बुरा यही हो सकता है कि सभी तुम्हारा आकलन इसी प्रकार करेंगे, लेकिन क्या ऐसा आकलन तुम्हारे भाग्य का फैसला करने में सक्षम होगा? लोग आकलन करके तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर पाएँगे, लेकिन एक बात तुम्हें नहीं भूलनी चाहिए, और वह यह कि परमेश्वर इंसान के हृदय में देखता है, और साथ ही वह वो सब-कुछ भी देखता है, जो इंसान करता और कहता है। यदि परमेश्वर सिर्फ इतना कहने के बजाय कि तुममें कुछ भ्रष्ट स्वभाव है और तुम थोड़े अवज्ञाकारी हो, तुम्हारे बारे में निश्चय कर लेता है और कहता है कि तुम सत्य से घृणा करते हो—क्या यह एक गंभीर समस्या है? (हाँ, है।) ऐसे में, आगे तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी है। इस मुसीबत का संबंध इस बात से नहीं है कि लोग तुम्हें कैसे देखते हैं या वे तुम्हारा आकलन कैसे करते हैं, बल्कि इससे है कि परमेश्वर सत्य से घृणा करने वाले तुम्हारे इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे देखता है। तो फिर, परमेश्वर तुम्हें किस नजर से देखेगा? क्या परमेश्वर तुम्हें केवल ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत करेगा जो सत्य से नफरत करता है और उससे प्रेम नहीं करता, और कुछ नहीं? क्या यह इतना आसान है? सत्य कहाँ से आता है? सत्य किसका प्रतीक है? (यह परमेश्वर का प्रतीक है।) ठीक है, तो तुम लोग इस पर गहन विचार करो, कि यदि कोई सत्य से नफरत करता है, तो यह परमेश्वर को कैसा लगेगा? (उसे लगेगा कि वह परमेश्वर का शत्रु है।) क्या यह गंभीर मामला नहीं होगा? जो व्यक्ति सत्य से करता है, वह अपने हृदय में परमेश्वर से नफरत करता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन का मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। मैंने अपने अहंकार और आत्म-तुष्टि की निकृष्ट भ्रष्टता देखी। मैंने जिस इंसान को चुना था, उसे लेकर कुछ बहनों ने कुछ सुझाव भी दिए, लेकिन मैंने स्वीकार नहीं किए—मुझे लगा मैं सही हूँ। मैंने उन्हें बोलने का मौका ही नहीं दिया, उन्हें डांटती और रोकती रही। मैंने बहुत-सी अहंकारी बातें कहीं, उनसे बहस की और वे पीछे हट गए। यह मेरे दृष्टिकोण और व्यवहार में केवल एक त्रुटि नहीं थी, बल्कि यह सत्य से ऊबने और घृणा करने का शैतानी स्वभाव था। मैंने अगुआओं से जिस ढंग से बात की थी, व्यवहार किया था और बहस की थी, उस बारे में सोचकर मुझे मतली आने लगी। मुझे अपनी मूर्खता पर शर्मिंदगी और अपमान महसूस हुआ। परमेश्वर की नजर में, सत्य से ऊबना और घृणा करना परमेश्वर से घृणा करना और उसका शत्रु होना है, परमेश्वर के सभी शत्रु शैतान होते हैं। वरिष्ठ अगुआ का मुझे अपरिवर्तित पुराने शैतान के रूप में उजागर करना एकदम सटीक था। यही मेरी प्रकृति और सार है। समस्या आने पर, मैं प्रतिरोधी और उद्दंड बन जाती और सत्य स्वीकार न करती, मैं अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के अनुसार काम करती थी। मैं परमेश्वर का विरोध और उसके स्वभाव का अपमान कैसे न करती? और मैं आलोचना से कैसे बच सकती थी? उस समय मुझे एहसास हुआ कि काट-छाँट और निपटारा करना परमेश्वर की धार्मिकता है। हालांकि खुलासे और आलोचना से मेरा अभिमान आहत हुआ जिसे बर्दाश्त करना मुश्किल था, लेकिन इससे मुझे अपनी अहंकारी प्रकृति को जानने में मदद मिली और मुझमें परमेश्वर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई।
बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े जिससे मुझे अपनी स्थिति को जानने-समझने का अवसर मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कर रहे हों, उनके हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे होते हैं, वे अपनी योजना के अनुसार काम करते हैं। परमेश्वर के घर की व्यवस्था और कार्य के प्रति उनका दृष्टिकोण ऐसा होता है, 'हो सकता है कि तुम्हारी हजार योजनाएं हों, लेकिन मेरा एक नियम है'; यह सब मसीह-विरोधी के स्वभाव से निर्धारित होता है। क्या कोई मसीह-विरोधी अपनी मानसिकता बदलकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है? यह बिल्कुल असंभव होगा, जब तक कि ऊपर वाला उसे मजबूर न करे, उस स्थिति में वह अनिच्छा और मुश्किल से थोड़ा-बहुत कर पाता है। अगर बिलकुल कुछ न करने पर उसे उजागर कर बरखास्त किया जाए, तभी वह थोड़ा-बहुत व्यावहारिक कार्य कर सकता है। सत्य का अभ्यास करने के प्रति मसीह-विरोधी का यही रवैया होता है : जब यह उनके लिए फायदेमंद होता है, जब हर कोई इसके लिए उनकी प्रशंसा और आदर करता है, तो वे अवश्य कृतज्ञ होते हैं और दिखावे के लिए कुछ सांकेतिक प्रयास करते हैं। यदि सत्य का अभ्यास करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता, यदि इस पर कोई ध्यान नहीं देता और वरिष्ठ अगुआ मौजूद न हों, तो ऐसे समय में उनके सत्य का अभ्यास करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। सत्य का उनका अभ्यास प्रसंग पर, समय पर निर्भर करता है, इस पर निर्भर करता है कि यह सार्वजनिक रूप से किया जाता है या अकेले में या इस पर कि लाभ कितना बड़ा है; जब ऐसी चीजों की बात आती है तो वे असाधारण रूप से समझदार और हाजिर-जवाब हो जाते हैं, कोई लाभ न मिलना या खुद की नुमाइश न करना उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। यदि उनके प्रयासों को मान्यता न मिले, यदि उनके कितना भी काम करने पर कोई न देखे तो वे कोई काम नहीं करते। यदि सीधे परमेश्वर के घर ने उनके लिए किसी कार्य की व्यवस्था की है और उनके पास उसे करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, तो भी वे इस बात पर विचार करते हैं कि इससे उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा को लाभ होगा या नहीं। यदि यह उनकी हैसियत के लिए अच्छा है और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ सकती है, तो वे उस काम में अपना सब कुछ लगा देते हैं और अच्छा काम करते हैं; उन्हें लगता है कि वे एक तीर से दो निशाने लगा रहे हैं। यदि उससे उनकी हैसियत या प्रतिष्ठा को कोई लाभ नहीं होता, उसे खराब ढंग से करने पर उनकी साख को बट्टा लग सकता है, तो वे उससे छुटकारा पाने का कोई तरीका या बहाना सोच लेते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, हमेशा एक ही सिद्धांत पर टिके रहते हैं : उन्हें कुछ लाभ प्राप्त होना चाहिए। मसीह-विरोधी ऐसा काम सबसे ज्यादा पसंद करते हैं जिसके लिए उन्हें कोई कीमत न देनी हो, उन्हें कष्ट न उठाना पड़े या कोई मूल्य न चुकाना पड़े और उससे उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को लाभ होता हो। संक्षेप में, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य का पालन नहीं करते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य के सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी की जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान होता है और लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है उनकी प्रकृति और सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि व्यावहारिक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, या उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की अवहेलना करने का चुनाव कभी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि औरों द्वारा उठाए गए बहन झांग के मुद्दे पर मेरा विरोध करना, चिड़चिड़ाना और उसे हटाने पर सहमत न होना, महज अहंकारी स्वभाव के कारण नहीं था। उसके पीछे मेरी स्वार्थी, नीच मंशाएं छिपी हुई थीं। मैंने अगुआओं के सुझाव नकार दिए ताकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा कर सकूं। वे दोनों अगुआ बहन झांग के मुद्दों पर सही थे। वह सुपरवाइजर बनने योग्य नहीं थी और सुसमाचार कार्य में पहले ही विलंब कर रही थी। मुझे उसे तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए था, लेकिन मैं तमाम बहाने बनाकर अड़ गई ताकि अपना नाम और रुतबा कायम रख सकूँ। नतीजतन, दोनों कलीसिया अगुआ समझ नहीं पा रहे थे कि चीजों को व्यवस्थित कैसे किया जाए, इससे हमारा सुसमाचार कार्य और लंबा खिंच गया। मेरे अहंकार, कलीसिया के काम को बनाए रखने में मेरी नाकामी और केवल अपने नाम और रुतबे की चिंता ने हमारे सुसमाचार कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को प्रभावित किया। मैं कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी। कलीसिया के काम को कायम रखने का दिखावा कर रही थी, लेकिन वास्तव में, मैं सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को कायम रख रही थी। बस मेरा रुतबा कायम रहना चाहिए, फिर चाहे मेरे द्वारा चुने व्यक्ति में समस्याएँ हों या कलीसिया का काम बाधित हो, मुझे कोई फिक्र नहीं थी। मैं अपना रुतबा बचाने के लिए कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचने देने को तैयार थी। क्या यह मसीह-विरोधी व्यवहार नहीं है? परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से मैंने अपनी परमेश्वर-विरोधी प्रकृति और सार को जाना, साफ तौर पर अपनी घिनौनी और दुष्ट मंशाएं देखी। उस समय मैं थोड़ा डर गई, मैं परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने, बुराई से बचने और अहंकार में उसका विरोध न करने को तैयार थी।
एक बार अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। "जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्यक्त करते हैं—ऐसे में स्वेच्छाचारी और अविवेकी होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्य की खोज करने, स्वयं को नकारने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर तय करो कि काम कैसे करना है। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब लोग सत्य की तलाश करते हैं और सभी के लिए एक-साथ संगति करने हेतु कोई समस्या रखते हैं और उसका उत्तर ढूँढ़ते हैं, तो ऐसा तब होता है जब पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांत के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह तुम्हारे रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें दीवार से टकराने देगा, तुम्हें उजागर करेगा और तुम्हारी बदसूरत हालत जाहिर करेगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह दंभी, मनमाना और अंधाधुंध रवैया है, बल्कि सत्य की खोज और उसे स्वीकार करने का रवैया है, अगर तुम इसकी सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी के वचनों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें समझ देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस बात से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती का परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच जाते हो? इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब तुम आज्ञाकारी हृदय से सत्य की खोज करते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो, तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा, और तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम हो जाओगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मैं कर्तव्य-निर्वहन में बुराई न करूँ या कलीसिया का काम बाधित न करूँ, उसके लिए महत्वपूर्ण है कि समस्या आने पर मैं सत्य खोजने वाला रवैया और परमेश्वर के प्रति श्रद्धालु हृदय रखूँ, लोगों के साथ सहयोग करूँ अपने हितों को दरकिनार करूँ, अलग-अलग मत होने पर पहले प्रार्थना और खोज करूँ। पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने, सही ढंग से कार्य करने और गलतियाँ कम करने का यही एकमात्र तरीका है। इस बात को समझना मेरे लिए प्रबोधक था, मुझे समझ आ गया कि कैसे आगे बढ़ना है। उसके बाद मैंने बहन झांग को बर्खास्त कर एक नया सुपरवाइजर चुन लिया। कुछ समय बाद ही सुसमाचार कार्य में उल्लेखनीय सुधार हुआ। लेकिन इन परिणामों को देखकर तो मुझे और भी ज्यादा खेद और अपराध-बोध हुआ। मुझे अपने पहले के अहंकार से घृणा हो गई कि कैसे मैंने जानबूझ कर बहन झांग को बनाए रखा और कलीसिया के काम को बाधित कर अपराध किया। मैंने प्रार्थना में कहा कि हर चीज में सत्य खोजूँगी, अब से मनमाने ढंग से काम नहीं करूंगी और अहंकार में नहीं जिऊँगी।
जल्दी ही मेरे सामने एक और स्थिति आ गई। सुसमाचार उपयाजकों के साथ चर्चा के दौरान मैंने कुछ सुझाव दिए, जैसे ही मैंने अपनी बात कही कि सबने उन्हें एक स्वर में ठुकरा दिया। मैंने थोड़ा अपमानित महसूस किया और सोचा, क्या मेरे सुझाव इतने बेतुके हैं? क्या तुम लोग सब एकदम सही होते हो? अगर मेरी राय खारिज कर दी जाती है, तो बतौर अगुआ, मेरे बारे में लोग क्या सोचेंगे? यकीनन वे यही सोचेंगे कि मुझे सत्य की समझ नहीं है और व्यावहारिकता की कमी है। क्या वे इसके बाद मेरी बात मानेंगे? क्या इसके बाद सबकी नजर में एक अगुआ के रूप में में मेरा सम्मान बचेगा? यही सोचकर, मैंने अपनी इज्जत की खातिर बोलना चाहा और दूसरों के विचारों को फिर से नकारना चाहा। तब मुझे लगा कि मैं ही दोषी हूँ, मेरी स्थिति सही नहीं है। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझे पता है कि वे सही हैं, लेकिन मेरा अभिमान आहत हुआ है, मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाना चाहती हूँ। मुझ पर नजर रख और मदद कर ताकि मैं उनके सही सुझाव मान लूँ, सत्य के सिद्धांतों का पालन करूँ और भ्रष्टता में न जिऊँ।" प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "व्यक्ति जो भी काम करता है, उसे दूसरों से उसकी चर्चा करनी चाहिए। पहले बाकी सभी को जो कहना हो, उसे सुनो। अगर बहुमत का दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप हो, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम जो भी करो, उसमें बडबोलेपन का सहारा मत लो। किसी भी जन-समूह में बडबोलापन कभी अच्छी बात नहीं होती। ... सहभाग और सहयोग करना, सुझाव देना और अपने विचार व्यक्त करना तुम्हारा कर्तव्य और स्वतंत्रता है। लेकिन अंतिम निर्णय लिए जाते वक्त अगर तुम अकेले ही अंतिम निर्णय जारी कर देते हो, सभी से अपने कहा करवाते और अपनी इच्छा का पालन करवाते हो, तो तुम सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं। ... अगर तुम्हें कुछ भी स्पष्ट न हो और तुम्हारे कोई विचार न हों, तो सुनना और मानना, सत्य की तलाश करना सीखो। यह वह कर्तव्य है, जो तुम्हें करना चाहिए; यह स्पष्टवादिता का रवैया है। अगर व्यक्ति के अपने कोई विचार न हों और फिर भी वह हमेशा मूर्ख दिखने, खुद को न पहचान पाने, अपमानित होने से डरता हो; अगर उसे दूसरों द्वारा खारिज किए जाने और उनके दिलों में कोई हैसियत न होने का डर हो, और इसलिए वह हमेशा विशिष्ट दिखने की कोशिश करता हो और हमेशा बड़े बोल बोलता हो, ऐसे बेतुके दावे करता हो जो वास्तविकता से मेल नहीं खाते, और उन्हें दूसरों से स्वीकार करवाना चाहता हो—तो क्या यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है? (नहीं।) यह क्या कर रहा है? यह विनाशकारी हो रहा है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन प्रबोधक थे। काम में भाग लेना, राय और सुझाव देना मेरे काम और मेरी जिम्मेदारियों का हिस्सा थे, लेकिन हर किसी से अपनी मनमानी करवाना और बात मनवाना सिर्फ मेरा अहंकार था। काम की चर्चाओं में, हर एक को अपनी बात कहने का हक होता है, हमें सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करके कलीसिया के कार्य को लाभ पहुँचाना चाहिए। यह सत्य-स्वीकारने वाला रवैया है। उसके बाद मैं सत्य का अभ्यास करने लगी और जब कभी काम की चर्चाओं में अलग-अलग राय व्यक्त की जाती, तो मैं आम सहमति बनाने के लिए और भी लोगों की राय लेती ताकि सही विचार को लागू किया जा सके। मुझे याद है एक बार, मैंने अपने बूते कोई काम किया, लेकिन मुझे थोड़ी बेचैनी होने लगी। प्रार्थना और चिंतन करके मुझे एहसास हुआ कि आम सहमति बनाने के लिए मैंने अपने सहयोगियों से बात नहीं की जो कि सही रवैया नहीं था। मैंने संगति में खुलकर कहा कि निर्णय लेने से पहले मैंने अहंकारवश उस कार्य पर किसी से चर्चा नहीं की, तो मेरा रवैया गलत था, अब मैं खुद को बदलूंगी और आगे से ऐसी हरकत नहीं करूँगी। मैंने सभी से मुझ पर नजर रखने को भी कहा। खुद को दरकिनार कर सत्य का अभ्यास करने से मुझे बहुत मानसिक शांति मिली।
मैंने अगली कुछ चर्चाओं में ऐसा करने का अभ्यास किया और बिना किसी परेशानी के काम अच्छे से हुआ। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। इससे मैंने अनुभव किया कि अहंकार-रहित होकर, मिलजुलकर काम करने से, हम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं और काम भी आसानी से हो जाता है। अब मुझे अपने अहंकारी, आत्म-तुष्ट भ्रष्ट स्वभाव की थोड़ी-बहुत समझ हासिल हो गई है। सत्य का अभ्यास कर मुझमें थोड़ा बदलाव आया है। यह परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है। केवल परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, काट-छाँट और निपटारा ही लोगों को बदलकर शुद्ध कर सकता है।