10. बचाए जाने के लिए ईमानदार बनना जरूरी है

ऐगुआंग, फ्रांस

अगस्त 2021 में, मैं फ्रेंच नवांतुक कलीसिया में नए विश्वासियों का सिंचन करने पहुंची। कुछ समय बाद, मैंने पाया कि एक नवांतुक बहुत अहंकारी थी, अपने विचारों पर ही अड़ी रहती थी, दूसरे भाई-बहनों के साथ ठीक से काम नहीं कर पाती थी। जब दूसरे उसकी समस्याओं पर उंगली उठाते, तो वह इसे स्वीकार न करती और बहस करती थी, पीठ पीछे लोगों की आलोचना और निंदा करती थी, जिससे दूसरे बेबस महसूस करते और परमेश्वर के घर के काम में बाधा पड़ती थी। सिद्धांतों के अनुसार, वह कर्तव्य के अयोग्य थी, मुझे उसके साथ संगति करके उसे बर्खास्त कर देना चाहिए था। पर उस समय, मुझे कुछ समस्या थी। मैं पहली बार अगुआ बनी थी, मैंने इस विषय पर पहले कभी संगति नहीं की थी तो पता नहीं था ये कैसे करना है, पर मैं निरीक्षक से भी पूछना नहीं चाहती थी क्योंकि मुझे डर था कि वह सोचेगी कि मुझे इतना भी नहीं पता। उसे मेरी कमियों का पता चल जाएगा, वह मुझे महत्व नहीं देगी, आगे नहीं बढ़ाएगी। मैंने यह भी सोचा कि मैं फ्रेंच अच्छे से नहीं बोल पाती, अगर मैं उस नवांतुक की बातें नहीं समझ पाई, या मैं अपनी बात नहीं समझा पाई, तो वह धारणाएँ बनाकर पीछे हट जाएगी, और सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ जाएगी। मैं इसी उधेड़बुन में थी, आखिर में मैंने यह मसला नवांतुक कलीसिया के अगुआ भाई क्लॉद पर छोड़ दिया। मैंने खुद को यह कहकर समझा लिया कि यह भाई क्लॉद के लिए एक प्रशिक्षण होगा, वह खुद समस्याएँ सुलझाना सीखेगा। पर बाद में, भाई क्लॉद साफ ढंग से संगति नहीं कर पाया, इसलिए नवांतुक ने विश्वास करना छोड़ दिया। इस कारण भाई क्लॉद बहुत दुखी हो गया। उसने कहा कि वह मूर्ख है, संगति करने लायक नहीं है। उस समय, मैंने खुलकर अपनी समस्या का विश्लेषण नहीं किया। मैंने उसके साथ इस तरह संगति की जैसे कुछ भी न हुआ हो, उसके भटकावों की बात करती रही। मैंने अपनी असली स्थिति उजागर नहीं की, उसे यही सोचने दिया कि मैं समस्याएँ सुलझा सकती हूँ।

कुछ दिन बाद, एक बैठक में, हमारी अगुआ ने कहा कि कुछ सिंचन कार्यकर्ता अपना काम गैर-जिम्मेदारी से कर रहे हैं। वे खुद समस्याएँ न सुलझाकर इसे नवांतुक अगुआओं को दे रहे हैं, जिससे समस्याएँ सुलझ नहीं पातीं और नवांतुक चले जाते हैं। जब अगुआ ने इस तरह सीधे-सीधे मेरी समस्या पर उंगली उठाई, तो मुझे बड़ी शर्म आई। मुझे बहुत झेंप महसूस हो रही थी। मैंने सोचा, "हर कलीसिया के निरीक्षक और सिंचन कार्यकर्ता यहाँ हैं। सब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे यही सोचेंगे कि मैं भरोसे के लायक नहीं हूँ।" अगुआ ने अपनी बात खत्म करके सभी से कुछ कहने के लिए कहा। मैं सोच रही थी, "अगुआ ने सीधे और साफ बोला था, और मैं दोषी थी। अगर मैंने अभी खुलकर संगति नहीं की, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मुझमें काट-छांट और निपटान स्वीकारने का रवैया नहीं है? इससे अगुआ पर मेरी बहुत बुरी छाप पड़ेगी।" अपनी छवि बचाने के लिए, मैंने पहले संगति की, फिर धीरे-से रुआंसी आवाज़ में कहा, "मुझे बहुत पछतावा है कि मैंने ऐसा कुछ होने दिया। अब मैं समझ गई हूँ कि मैं बहुत गैर-जिम्मेदार हूँ।" अपना यह "आत्मज्ञान" जताकर, मैं अपना पक्ष समझाने लगी, मैंने कहा, "पहले-पहल, मैंने नवांतुक की समस्याओं को जानाने के लिए बड़ी कीमत चुकाई, परमेश्वर के वचनों पर उसके साथ बहुत प्रेम से संगति की, पर क्योंकि मेरे पास काम का अनुभव नहीं है, भाषा की अड़चन भी है, तो मैंने नवांतुक अगुआ से इसे संभालने के लिए कहा। मैंने ऐसा करने के परिणामों पर ध्यान नहीं दिया, जिससे नवांतुक कलीसिया छोड़ कर चली गई।" बातचीत के बाद, एक बहन ने मुझे संदेश भेजकर दो-टूक कहा, "तुम्हारे बोलने का लहजा कुछ ज्यादा ही नरम था। यह नकली और असहज लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि तुम्हें अपनी गलती पहले से पता थी, पर नहीं चाहती थी कि हम तुम्हें गलत कहें।" यह संदेश पढ़कर मेरा चेहरा अपमान से सुलग उठा। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी चालाकी पकड़ी गई हो। यह बहुत शर्मनाक था। इसके बाद, इस बहन के शब्द मेरे दिल में गूँजते रहे। उसने बेबाकी से मेरी समस्याएँ बताई थीं, इसमें जरूर परमेश्वर की इच्छा होगी। मुझे ठीक-से आत्मचिंतन करके इसे समझना चाहिए। आत्मचिंतन से मुझे अहसास हुआ कि जब भी मैं कुछ गलत करती थी और मेरा निपटान किया जाता था, तो मैं अपनी समस्याएँ स्वीकार करने के बाद दुखी और उदास लहजे में अपनी असली मुश्किलें बताती थी, ताकि मैं दूसरों की हमदर्दी पा सकूँ और वे मुझे समझें, मुझे माफ कर दें और मुझे जवाबदेह न मानें। इससे दूसरों को भी लगता था कि मैं काट-छांट और निपटान स्वीकार सकती हूँ, जिससे मेरी अच्छी छवि बनती। आत्मचिंतन के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत चालाकी से बात करती थी। इसके बाद, इस मसले पर परमेश्वर के वचनों के अंश ढूँढे।

एक दिन, मैंने बाइबल में परमेश्वर और शैतान के संवाद को याद किया। "यहोवा ने शैतान से पूछा, 'तू कहाँ से आता है?' शैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, 'पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ'" (अय्यूब 1:7)। फिर मैंने शैतान के बोलने के अंदाज का परमेश्वर का विश्लेषण पढ़ा, जिसमें कहा गया है, "शैतान के शब्दों की एक निश्चित विशेषता है : शैतान जो कुछ कहता है, वह तुम्हें अपना सिर खुजलाता छोड़ देता है, और तुम उसके शब्दों के स्रोत को समझने में असमर्थ रहते हो। कभी-कभी शैतान के इरादे होते हैं और वह जानबूझकर बोलता है, और कभी-कभी वह अपनी प्रकृति से नियंत्रित होता है, जिससे ऐसे शब्द अनायास ही निकल जाते हैं, और सीधे शैतान के मुँह से निकलते हैं। शैतान ऐसे शब्दों को तौलने में लंबा समय नहीं लगाता; बल्कि वे बिना सोचे-समझे व्यक्त किए जाते हैं। जब परमेश्वर ने पूछा कि वह कहाँ से आया है, तो शैतान ने कुछ अस्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया। तुम बिलकुल उलझन में पड़ जाते हो, और नहीं जान पाते कि आखिर वह कहाँ से आया है। क्या तुम लोगों के बीच में कोई ऐसा है, जो इस प्रकार से बोलता है? यह बोलने का कैसा तरीका है? (यह अस्पष्ट है और निश्चित उत्तर नहीं देता।) बोलने के इस तरीके का वर्णन करने के लिए हमें किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए? यह ध्यान भटकाने वाला और गुमराह करने वाला है, है कि नहीं? मान लो, कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि दूसरे यह जानें कि उसने कल क्या किया था। तुम उससे पूछते हो : 'मैंने तुम्हें कल देखा था। तुम कहाँ जा रहे थे?' वह तुम्हें सीधे यह नहीं बताता कि वह कहाँ गया था। इसके बजाय वह कहता है 'कल क्या दिन था। बहुत थकाने वाला दिन था!' क्या उसने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया? दिया, लेकिन वह उत्तर नहीं दिया, जो तुम चाहते थे। यह मनुष्य के बोलने की चालाकी की 'प्रतिभा' है। तुम कभी पता नहीं लगा सकते कि उसका क्या मतलब है, न तुम उसके शब्दों के पीछे के स्रोत या इरादे को ही समझ सकते हो। तुम नहीं जानते कि वह क्या टालने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसके हृदय में उसकी अपनी कहानी है—वह कपटी है। क्या तुम लोगों में भी कोई है, जो अक्सर इस तरह से बोलता है? (हाँ।) तो तुम लोगों का क्या उद्देश्य होता है? क्या यह कभी-कभी तुम्हारे अपने हितों की रक्षा के लिए होता है, और कभी-कभी अपना गौरव, अपनी स्थिति, अपनी छवि बनाए रखने के लिए, अपने निजी जीवन के रहस्य सुरक्षित रखने के लिए? उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, यह तुम्हारे हितों से अलग नहीं है, यह तुम्हारे हितों से जुड़ा हुआ है। क्या यह मनुष्य का स्वभाव नहीं है? ऐसी प्रकृति वाले सभी व्यक्ति अगर शैतान का परिवार नहीं हैं, तो उससे घनिष्ठ रूप से जुड़े अवश्य हैं। हम ऐसा कह सकते हैं, है न? सामान्य रूप से कहें, तो यह अभिव्यक्ति घृणित और वीभत्स है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV')। अतीत में, जब मैं परमेश्वर का विश्लेषण पढ़ती थी कि शैतान भटकाने और गुमराह करने वाले अंदाज में बोलता है, तो मुझे हमेशा लगता था कि ऐसे तरीके इस्तेमाल करने वाला जरूर एक चालबाज और धूर्त व्यक्ति होगा। पर जब मैंने इसे दोबारा पढ़ा तो मुझे एहसास हुआ कि मुझमें भी ये चीजें झलकती हैं। जब अगुआ ने भाई-बहनों के सामने मुझे उजागर किया तो मैंने ऊपर से इसे स्वीकार कर लिया और मान लिया कि मैं गैर-जिम्मेदार थी, पर इसे सचमुच स्वीकार नहीं किया, इसे अपने साथ अन्याय माना। मुझे यह काम करते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था, इसलिए मुझे लगा कि मेरी समस्याएँ क्षमा-योग्य हैं। उसने बैठक में मुझे सीधे-सीधे उजागर क्यों किया, मेरी गरिमा पूरी तरह नष्ट क्यों की? इसके बाद, हर किसी ने यही सोचा होगा कि मैं भरोसे और जिम्मेदारी के योग्य नहीं हूँ। मैं आहत थी, पर लग रहा था कि अगर मैंने उस माहौल में अपनी बात नहीं रखी तो हर कोई यही सोचेगा कि मैंने काट-छांट और निपटान को स्वीकार नहीं किया था, और मैं अपनी समस्या नहीं समझती थी, तो फिर मेरी छवि और खराब हो जाएगी। अपनी छवि ठीक करने के लिए मैंने अपनी गलती पहले ही मान ली, रुआंसा होकर बहुत नरम लहजे में बात की, ताकि हर कोई यही समझे कि मैं पहले से जानती थी कि मैंने गलती की है, दोषी और दुखी महसूस करती हूँ, ताकि वे लोग मुझे अब दोषी न ठहराएँ। मैं यह बताना चाहती थी कि मैं अपनी गलतियाँ सुधारकर सत्य स्वीकार सकती हूँ। ऊपर से ऐसा लगता था कि मैं खुद को जानती हूँ, पर दरअसल यह दूसरों का मुंह बंद करने का तरीका था। मैं नहीं चाहती थी कि अगुआ मेरी समस्या के बारे में बात करती रहे, मुझे जवाबदेह माने। यह मेरी असली मंशा थी। मैंने इस पर मनन किया तो देखा कि मेरी प्रकृति शैतान जितनी ही दुष्ट और मक्कार थी। मेरी सभी बातें लोगों को झांसा देने की चालों से भरी हुई थीं। मैंने गैर-जिम्मेदारी से अपना काम किया, जब समस्या आई तो अगुआ ने मेरा नाम लिया। मैंने न सिर्फ प्रायश्चित नहीं किया, बल्कि अपना मान और रुतबा बचाने के लिए दूसरों के सामने खुद को जानने का दिखावा किया, ताकि वे लोग मुझे सत्य स्वीकारने वाली समझें। मैं सचमुच धूर्त और धोखेबाज थी। खुले दिल से बोलना और खुद को जानना यानी सत्य का अभ्यास कर पाना, पर मेरे गलती मानने के पीछे चालबाजी और तरकीबें थीं। ऊपर से मैं अपने आत्मज्ञान की बात कर रही थी, पर दरअसल मैं खुद को बचा रही थी, और जिम्मेदारी से कतरा रही थी। यह कितना घृणित था!

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा, जिसमें लोगों के दुष्ट स्वभाव को उजागर किया गया था। परमेश्वर कहते हैं, "धोखा अक्सर बाहर से नजर आ जाता है। जब कोई कोई घुमा-फिराकर या चालाकी और धूर्तता से बात करता है, तो यह धोखा होता है। और दुष्टता का प्रमुख लक्षण क्या होता है? दुष्टता वह होती है, जब लोग ऐसी बातें करते हैं जो कानों को अच्छी लगती हैं, जब सब कुछ सही और आलोचना से परे लगता है, और किसी भी तरह से देखने पर भला लगता है, तो वे इन्हीं तरीकों से बिना कोई स्पष्ट तकनीक का इस्तेमाल किए काम करते हैं और अपना मकसद हासिल करते हैं। वे लोग छिपकर काम करते हैं, वे उन्हें बिना किसी प्रत्यक्ष निर्देश या उपहार के हासिल करते हैं; मसीह-विरोधी इसी तरीके से लोगों को ठगते हैं, ऐसे कामों और ऐसे लोगों को पहचानना बहुत मुश्किल होता है। कुछ लोग अक्सर सही शब्द बोलते हैं, सुनने में मीठे लगने वाले जुमलों का प्रयोग करते हैं, और ऐसे सिद्धांतों, तर्कों और तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप होते हैं, ताकि उनकी आँखों पर पट्टी बांधी जा सके; वे एक तरफ जाने का दिखावा करते हैं पर दरअसल दूसरी तरफ जाते हैं, ताकि अपने गुप्त उद्देश्य हासिल कर सकें। यही दुष्टता है। लोग आम तौर पर इस बर्ताव को धोखा मानते हैं। उन्हें दुष्टता की कम जानकारी होती है, और वे उसे पहचानते भी कम हैं; दरअसल दुष्टता को पहचानना धोखे को पहचानने से ज्यादा मुश्किल है, क्योंकि यह ज्यादा लुकी-छिपी होती है, और इसमें शामिल तरीके और तकनीकें ज्यादा परिष्कृत होती हैं। जब किसी का स्वभाव कपटपूर्ण होता है, तो आम तौर से दो-तीन दिन में ही दूसरे यह भाँप लेते हैं कि वह धोखेबाज है, या उसकी हरकतें और उसके शब्द कपटपूर्ण स्वभाव को प्रकट करते हैं। पर जब किसी के बारे में यह कहा जाता है कि वह दुष्ट है, तो यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका कुछ दिनों में पता चल सके। क्योंकि अगर कुछ अवधि के भीतर कोई विशिष्ट या प्रमुख घटना नहीं होती, और तुम केवल उनकी बातें सुनते हो, तो तुम्हारे लिए उनकी असलियत बता पाना मुश्किल होगा। वे सही शब्द बोलते हैं, सही चीजें करते हैं, और एक के बाद एक सिद्धांतों की बौछार कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति के साथ कुछ दिन बिताने के बाद तुम उन्हें भला इंसान मानने लगते हो, ऐसा इंसान जो चीजों का त्याग कर सकता है और खुद को खपा सकता है, जो आध्यात्मिक मामले समझता है, जिसके दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम है, जो अपनी अंतरात्मा और चेतना के अनुसार व्यवहार करता है। लेकिन जब वे काम करना शुरू कर देते हैं, तो तुम्हें पता चलता है कि उनकी बातों और कार्यों में बहुत ज्यादा अशुद्धियाँ हैं या उनके विचार बहुत ज्यादा भटकाने वाले हैं, वे कपटी लोग हैं और उनमें कोई न कोई दुष्टता है। वे अक्सर बिलकुल सही शब्द चुनते हैं, ऐसे शब्द जो सत्य से मेल खाते हैं, जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप होते हैं, ऐसे शब्द जो सुनने में लोगों को बड़े मीठे लगते हैं। एक तरफ अपने-आपको स्थापित करने के लिए ऐसा करते हैं और दूसरी तरफ लोगों को ठगने की मंशा होती है, जिससे उन्हें लोगों के बीच रुतबा और प्रतिष्ठा मिल सके। ऐसे लोग बेहद कपटी होते हैं, एक बार जब उन्हें सत्ता और रुतबा मिल जाता है, तो वे बहुत से लोगों को मूर्ख बनाते हैं और उन्हें नुकसान पहुँचाते दुष्ट स्वभाव वाले लोग बेहद खतरनाक होते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर के वचनों से पता चला कि दुष्ट स्वभाव वाले लोगों का मुख्य लक्षण है लुके-छिपे ढंग से काम करना। दूसरों से अपनी मंशा छिपाने के लिए वे हमेशा सही शब्दों और तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जो ऊपर से सिद्धांतों पर आधारित लगते हैं, ताकि वे अपने गुप्त मकसद हासिल कर सकें। अपनी हरकतों के बारे में सोचा तो एहसास हुआ कि वे ऐसी ही चालें थीं : मैं नवांतुकों की समस्याएँ नहीं सुलझा पा रही थी, इसलिए अपनी निरीक्षक से अपनी असली कद-काठी छिपाने के लिए, मैंने मसला एक नवांतुक अगुआ को सौंप दिया। मैंने एक अच्छा लगने वाला बहाना भी ढूंढ निकाला : यह भाई क्लॉद का प्रशिक्षण है, जिससे वह समस्या सुलझाना सीखेगा। आखिर में, वह इसे ठीक-से संभाल नहीं सका, और मैंने उसके भटकाव समझा दिए। मैंने न सिर्फ अपनी असली अवस्था छिपाई, बल्कि उसके सामने अच्छी छवि बनाने की कोशिश की, ताकि वह सोचे कि मैं इन मसलों से निपटने में बहुत कुशल हूँ। जब मेरी अगुआ ने मुझे उजागर किया, तो हरेक के दिल में अपनी छवि को ठीक करने के लिए, मैंने आगे बढ़कर अपनी गलती मान ली, ताकि लोगों का मुंह बंद हो जाए, इतना ही नहीं, हरेक की हमदर्दी पाने के लिए मैंने रुआंसी आवाज़ में बात की, ताकि वे मुझे सत्य स्वीकारने और खुद को जानने वाली इंसान समझें, जिसमें प्रायश्चित का रवैया है। इस तरह, वे मुझे जवाबदेह नहीं ठहराएँगे। परमेश्वर के वचनों की मदद से अपनी कथनी और करनी पर चिंतन करने के बाद, मैंने देखा कि मैं कितनी बुरी थी। मैं ऐसे शब्द इस्तेमाल करती थी जो लोगों की भावनाओं और सत्य के अनुरूप थे, ताकि मेरे घृणित इरादों पर पर्दा पड़ा रहे, और इस तरह, हरेक को धोखा देकर, पूरी तरह से भ्रमित करके खुद को स्थापित कर सकूँ। यह एहसास होने के बाद ही मैं समझ पाई कि मैं कितनी दुष्ट, चालबाज और रहस्यमय इंसान थी। जब मैं परमेश्वर के वचनों में लोगों की दुष्टता को उजागर होते देखती थी, तो उन्हें खुद से नहीं जोड़ती थी, यह सोचकर कि मैं ऐसी इंसान नहीं हूँ, पर अपने परिवेश से उजागर होने और परमेश्वर के वचनों के आधार पर चिंतन के बाद, आखिर मुझे अपने दुष्ट स्वभाव का थोड़ा ज्ञान हुआ।

बाद में, मैंने आत्मचिंतन जारी रखा। मुझे एहसास हुआ कि मेरी बहुत-सी बातों में मेरा दुष्ट स्वभाव झलकता था। मुझे याद आया कि कुछ ही समय पहले, एक दिन निरीक्षक ने बहन वांग को एक काम सौंपने के लिए कहा था। यह जानकारी मिलते ही मैं निराश हो गई। मैं दो वर्षों से भी ज्यादा समय से अकेले यह काम सँभाल रही थी, मुझे लगता था कि कोई भी मेरी जगह नहीं ले सकता। मेरा काम किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता। मैं निरीक्षक से पूछना चाहती थी कि मैं ही यह काम संभालती रहूँ तो कैसा रहेगा, पर मुझे डर था कि वो सोचेगी कि मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूँ और अविवेकी हूँ, इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। मैंने ऊपरी तौर पर तो बात मान ली, पर काम सौंपते हुए मैं निरीक्षक और बहन वांग के सामने उस काम के बारे में कुछ खास बातें बताना नहीं भूली। मैं चाहती थी कि उन्हें मेरे अनुभव और मेरे द्वारा काम के दौरान सीखे गए उन सिद्धांतों का पता चले, जिन्हें सिर्फ कुछ हफ्तों में नहीं सीखा जा सकता था, ताकि निरीक्षक मुझे आगे भी यह काम करने दे। यही हुआ भी, काम सौंपने के बाद निरीक्षक ने मुझसे कहा कि मैं कुछ समय तक बहन वांग का मार्गदर्शन करती रहूँ। यह सुनकर मैं खुश हो गई। भले ही अब मैं काम की प्रभारी नहीं थी, पर मेरा उद्देश्य पूरा हो गया था। इसके बाद, बहन वांग को जब भी कोई समस्या या मुश्किल आती तो वह मेरे पास आती, मुझे फैसला लेने के लिए कहती, वह हर बात में मेरी राय पूछती। इस तरह, सत्ता एक बार फिर मेरे हाथ में आ गई थी। मैं उस समय के अपने व्यवहार को देखती हूँ तो यह साफ है कि मैं नहीं चाहती थी कि वो मेरी जगह ले, या निरीक्षक मुझे अहंकारी और अड़ियल समझे, इसलिए मैंने काम सौंपते समय अपनी खूबियाँ गिना दी थीं। अनजाने में, मैंने निरीक्षक का समर्थन पा लिया था। मैंने वैध तरीके से कब्जा हासिल कर लिया था, और "चालाकी से" खुद के इरादों को छिपा लिया था। कुटिल चालों और तरकीबों में मैं कितनी कुशल थी! मैंने अपने व्यवहार के बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतना ही मुझे डर लगता रहा। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मैं ऐसी इंसान थी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढे, जिनमें मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव को उजागर किया गया था। इनसे मुझे अपने बारे में कुछ ज्ञान मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधियों की बुराई की एक प्रमुख विशेषता है—मैं तुम लोगों के साथ उसे पहचानने का रहस्य साझा करूँगा। रहस्य यह है—पहला, अपनी वाणी या कार्यों में, वे तुम्हारे लिए अथाह होते हैं; तुम उन्हें पढ़ नहीं सकते। जब वे तुमसे बात कर रहे होते हैं, तो उनकी आँखें हमेशा इधर-उधर घूमती रहती हैं, और तुम यह नहीं बता सकते कि वे किस तरह की योजना बना रहे हैं। कभी-कभी वे तुम्हें ऐसा महसूस कराते हैं कि वे 'निष्ठावान' या खास तौर पर 'ईमानदार' हैं, लेकिन बात ऐसी नहीं है, तुम उनकी असलियत कभी नहीं समझ सकते। तुम्हारे दिल में एक विशेष भावना रहती है, यह भावना कि उनके विचारों में एक गहरी सूक्ष्मता है, एक अथाह गहराई है। वे अजीब और रहस्यमय लगते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो)')। "'अजीब और रहस्यमय'—यहाँ 'अजीब' शब्द का अर्थ असामान्य है और 'रहस्यमय' शब्द का अर्थ कपटी और चालाक है। एक वाक्यांश के रूप में, इनका मतलब कपटी, चालाक और व्यवहार में विशेष रूप से असामान्य होना है। 'असामान्य' से तात्पर्य किसी ऐसी बात से है जो कहीं गहरे में छिपी होती है, कुछ इस तरह कि सामान्य लोग जान नहीं पाते या समझ नहीं पाते कि छिपाने वाला क्या सोच रहा है या क्या कर रहा है। इसका अर्थ है कि ऐसे लोगों के काम करने का ढंग और प्रेरणा या उनके पीछे की मंशा की लोग थाह नहीं पा सकते। कई बार तो ऐसे लोग रात में चोरों जैसी हरकत भी करते हैं। एक वाक्यांश है जो व्यवहार में अजीब और रहस्यमय होने की व्यावहारिक अभिव्यक्ति और अवस्था को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकता है और वह है 'पारदर्शिता की कमी', दूसरों की आस्था और समझ से परे होना। मसीह-विरोधियों के कार्यों में यह विशेषता होती है—तुम यह जान या समझकर बहुत डर जाते हो कि कुछ करने की उनकी मंशा बिल्कुल भी सरल नहीं है, लेकिन कम समय या किसी और कारण से तुम उनकी मंशा या इरादे को नहीं समझ पाते, अनजाने में तुम्हें लगता है कि उनका व्यवहार काफी अजीब और रहस्यमय है। तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? क्योंकि कोई भी उनके कार्यों या भाषण की तह तक नहीं जा पाता–यह कारण का एक हिस्सा है। इसके अलावा, उनके हर काम में, तुम्हारे लिए उनकी बातचीत से या उनके काम करने के अंदाज और तरीकों से यह तय करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि वास्तव में वे करना क्या चाहते हैं। वे अक्सर 'घुमा-फिराकर' बातचीत करते हैं और शायद ही कभी सच्ची बात बोलते हैं, अंततः तुम्हें लगता है कि वे जो सच्ची बातें कहते हैं वे झूठी हैं और झूठी बातें सच हैं। तुम्हें पता नहीं होता कि उनकी बातचीत के कौन-से हिस्से झूठे हैं और कौन से सच, अक्सर तुम्हें लगता है कि तुम्हें धोखा दिया जा रहा है, तुम्हारे साथ खिलवाड़ हो रहा है। ऐसी भावना क्यों पैदा होती है? यह भावना इस प्रकार के व्यक्ति के कार्यों में पारदर्शिता की निरंतर कमी से पैदा होती है। तुम साफ तौर पर यह नहीं देख पाते कि वे क्या कर रहे हैं या वे किस काम में व्यस्त हैं, तो तुम्हें उन पर संदेह होने लगता है, जब तक कि तुम यह नहीं जान जाते कि उनका स्वभाव कपटी, कुटिल और दुष्ट है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अजीब और रहस्यमय तरीके से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं')। परमेशवर के वचनों से खुलासा हुआ कि मसीह-विरोधियों के स्वभाव अत्यंत दुष्ट होते हैं। उनकी कथनी-करनी में छिपा मकसद होता है, जिस कारण उन्हें भाँपना मुश्किल होता है। अपने मकसद को हासिल करने के लिए, वे अक्सर लोगों को झांसा देने और उलझाने के लिए भ्रमों और धूर्त तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। वे हर किसी को फांस लेते हैं, ताकि कोई भी न जान सके कि उनकी बात सच है या झूठ। मैंने देखा कि मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी की तरह ही कुटिल था। मेरी कथनी और करनी में हमेशा कोई मकसद छिपा रहता था। मेरे काम में कोई मुश्किल आती, तो मैं इसे टालने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाती रहती थी, अपने असली आध्यात्मिक कद को निरीक्षक के सामने उजागर करने से बचती थी। जब अगुआ ने मेरे कर्तव्य की समस्याओं को उजागर किया, तो मैं बस यही सोचती रही कि लोगों को यकीन दिलाऊँ कि मैं सत्य स्वीकार कर सकती हूँ, साथ ही मैं अपनी जिम्मेदारी से भी बचती थी। जब मैं अपने ओहदे को कायम रखके अपना कब्जा जमाए रखना चाहती थी तो मैंने अपनी महत्वाकांक्षा उजागर न करने, और निरीक्षक के समर्थन से काम और आखिरी फैसला अपने हाथ में रखने का ही ध्यान रखती थी। जब भी किसी चीज से मेरे नाम और रुतबे को खतरा होता, तो मैं सिर्फ यह सोचती थी कि मैं खुद को छिपाते हुए दूसरों को भ्रमित कैसे करूँ। खासतौर से अगुआओं और निरीक्षकों के सामने, मैं हर शब्द तौलकर बोलती थी, कि किन बातों से मेरा उद्देश्य भी हल होगा और मेरे इरादे भी छिपे रहेंगे। परमेश्वर कहता है कि इस तरह के धूर्त काम करने वाले मसीह-विरोधियों जैसे काम करते हैं। इस पर चिंतन करते हुए मैं थोड़ी डर गई। परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार रहें, वही कहें जो हम सोच रहे हैं, जो भ्रष्टता हम उजागर करते हैं, जो हम नहीं समझते या जानते हैं, वो सब बताएं। पर मैं सिर्फ खुद को छिपाने और दूसरों का सम्मान पाने, और अपनी छवि बनाएरखने के बारे में सोच रही थी। मैं सब कुछ हिसाब लगाकर, कुटिल और धूर्त तरीके से करती थी, शैतान के कपटी और दुष्ट स्वभाव को उजागर करती थी। फिर, मेरे सामने एक-के-बाद-एक कई दृश्य घूमने लगे। मुझे अपना बचपन याद आया। मेरी माँ ने मुझे सिखाया था, "तेज घोड़ों को चाबुक की जरूरत नहीं होती, ऊंची आवाज वाले ड्रमों को भारी छड़ों की जरूरत नहीं होती।" इसलिए मैं हमेशा "तेज घोडा" और "ऊंची आवाज़ वाला ड्रम" बनना चाहती थी, साथ ही एक "आज्ञाकारी" सुशील बच्ची भी। अगर मुझसे कोई गलती हो जाती तो मैं झट-से इसे मान लेती थी। मेरे माता-पिता ने शायद ही कभी मुझे डांटा या अनुशासित किया था, इसलिए मुझे लगता था कि होशियारी बरतकर और अपनी गलती मानकर मैं बहुत-सी परेशानी से बच सकती थी। मिसाल के तौर पर, फेल होने पर, माँ-बाप मुझे दोष या सजा न दें, इसलिए मैं उनके कुछ कहने से पहले ही रोना शुरू कर देती, खुद को बहुत दुखी और लाचार दिखाने लगती, क्योंकि मैं जानती थी कि वे मुझे रोते हुए नहीं देख सकते। उन्हें लगता था कि मैं और दबाव नहीं झेल पाऊँगी, इसलिए वे मुझे दोषी नहीं ठहराते थे। इसके बजाय वे मुझे प्यार से तसल्ली देते थे। मैं जब भी रोकर दुखी होने का नाटक करती तो माता-पिता की डांट से बच जाती। मेरा आत्म-सम्मान बरकरार रहता, मैं जिम्मेदारी उठाने से भी बच जाती। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं ऐसी ही थी। अच्छे से कर्तव्य नहीं कर पाने पर जब इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होती तो मैं चालें चलती, दुखी होने का दिखावा करती, और बहस करती ताकि कर्तव्य में अपनी गैर-जिम्मेदारी और लापरवाही छिपा सकूँ, और कोई भी मेरी काट-छांट या निपटान न करे। मैं समझ गई कि इन शैतानी फलसफ़ों से जीती रही तो मैं अधिक धूर्त और चालबाज हो जाऊँगी। मैं हमेशा हवा का रुख देखकर ही बात करूंगी, बहुत-सी घृणित चालें सीख जाऊँगी, खुद को एक जीता-जागता शैतान बना लूँगी। सबसे बुरा था कि यह धोखेबाजी और चालबाजी मुझे आम बात लगती थी। अगर भाई-बहनों ने मुझे याद दिलाकर उजागर न किया होता, तो मुझमें जरा-भी जागरूकता या शर्म की भावना पैदा न होती। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए, "परमेश्वर जिन्हें चाहता है वे हैं ईमानदार लोग। यदि तू झूठ और धोखे में सक्षम है, तो तू एक धोखेबाज, कुटिल और कपटी व्यक्ति है, और एक ईमानदार व्यक्ति नहीं है। और यदि तू एक ईमानदार व्यक्ति नहीं है, तो कोई अवसर नहीं है कि परमेश्वर तुझे बचाएगा, ना ही तू संभवतः बचाया जा सकता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। "यदि तुम्हारी बातें बहानों और महत्वहीन तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'तीन चेतावनियाँ')। इनसे हम देख सकते हैं कि परमेश्वर चालबाज लोगों से घृणा करता है। ऐसे लोगों के दिलों में बहुत सारे अंधेरे पहलू होते हैं। उनकी कथनी-करनी झांसा देने और भ्रमित करने वाली होती है, वे कभी भी परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते। वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करके भीउनके भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। यह एहसास होने के बाद, मैंने देखा कि मैं सचमुच खतरे में थी! मैंने प्रार्थना में प्रायश्चित की इच्छा जाहिर की, और सच्चे बदलाव के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन और मदद मांगी।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा, "ईमानदार व्यक्ति बनो; अपने हृदय में मौजूद धोखे से छुटकारा दिलाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। हर समय प्रार्थना के माध्यम से अपने आपको शुद्ध करो, प्रार्थना के माध्यम से परमेश्वर के आत्मा द्वारा प्रेरित होओ, और तुम्हारा स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में')। "कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। जीवन में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन में प्रवेश करने का पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखने की आवश्यकता है, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों को अस्वीकार करो जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपने चालाक स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठा और धोखेबाज है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से घृणा करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और आज्ञाकारिता की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते हो, दिखावा नहीं करते हो, ढोंग नहीं करते हो, मुखौटा नहीं लगाते हो, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं हो, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर की अपेक्षा बहुत सीधी-सी है। वह चाहता है कि हमारी कथनी और करनी सही और ईमानदार हो, हमारे दिल में कपट, छलावा या धोखा न हो, परमेश्वर के प्रति हमारा दिल ईमानदार हो, हम दूसरों के साथ भी ईमानदार हों। कुछ गलत किया हो, या झूठ बोला हो, तो हमें इसे स्वीकार कर आत्म-चिंतन करना चाहिए, ईमानदार रवैये के साथ सत्य स्वीकारना चाहिए। सिर्फ इस तरीके से ही हमारा शैतानी स्वभाव धीरे-धीरे सुधर सकता है। जब कुछ भाई-बहनों की काट-छांट और निपटान होता है, तो भले ही उस समय उन्हें शर्म आए, पर वे इसे स्वीकार करके इसका पालन कर सकते हैं। बाद में, वे सत्य की खोज और आत्मचिंतन करके अपनी विफलता का कारण तलाश सकते हैं। समय के साथ, वे निरंतर प्रगति करके अपने कर्तव्यों में बेहतर हो सकते हैं, उन्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष प्राप्त होता है। पर जहां तक मेरी बात थी, अपनी छवि और रुतबे के लिए, मैं हमेशा खास तरीकों से अपनी जिम्मेदारियों से बचती रहती थी, ताकि मैं काट-छांट, निपटान और न्याय से बच सकूँ, मुझे लगता था मैं बहुत होशियारी से काम कर रही हूँ। इससे मुझे आखिर में क्या मिला? परमेश्वर में वर्षों विश्वास करने के बाद भी मेरा जीवन स्वभाव नहीं बदला। मैं अब भी कितनी धूर्त, चालबाज, दुष्ट और स्वार्थी थी। सिद्धांत समझे बिना ही मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, समस्या हल करना नहीं जानती थी। आखिर मुझे एहसास हुआ कि चालबाजी द्वारा जिम्मेदारी, काट-छांट और निपटान से बचकर मैं दरअसल परमेश्वर के उद्धार को ठुकरा रही थी, सत्य जानने का अवसर गंवा रही थी। जिम्मेदारी से बचने के लिए जब मैं हर बार तरकीबें भिड़ाती थी, तो मुझे अपने कथनों और बहानों के लिए बहुत अधिक सोचना पड़ता था। इन सबसे मैं एक बार बच सकती थी, पर जब अगली बार मेरे नाम और रुतबे के लिए खतरा पैदा होता तो मुझे लोगों को झांसा देने के लिए दूसरा तरीका सोचना पड़ता। रोज-रोज ऐसी चालबाजी और बेईमानी भरी अवस्था में जीना बहुत थकाऊ था, और परमेश्वर इससे घृणा करता है, और आखिर में, मैं सत्य पाने और बचाए जाने का अवसर भी खो बैठूँगी। यह कोई होशियारी नहीं थी। यह अज्ञानता और मूर्खता थी। जब मुझे यह एहसास हुआ, तो मैं अपने कपटी और दुष्ट स्वभाव को बदलने और ईमानदार इंसान बनने को तत्पर हो गई।

बाद में, याद आया कि भाई क्लॉद को अभी भी मालूम नहीं था कि उसे नवांतुक के साथ संगति करने के लिए कहने के पीछे मेरे घृणित इरादे क्या थे। अगर मैंने उसके सामने खुलकर बात नहीं की, तो वह मुझे जान नहीं पाएगा, और मुझे ऊंची नजर से देखेगा, नकारात्मक अवस्था में रहकर सोचता रहेगा कि वह काम नहीं कर पाया। इसलिए मैं भाई क्लॉद के पास गई, उसे नवागंतुक से संगति के लिए भेजने की अपनी असली मंशा बताई, और यह भी कि मैंने इससे क्या सीखा। मैंने यह भी कहा कि इसमें मेरा ज्यादा दोष था, मैं स्वार्थी और घिनौनी थी। अपने नाम और हितों को बचाने के लिए, मैंने उसके साथ छल करके उसे जिम्मेदारी सौंप दी थी। तब, उसने भी खुलकर अपने आत्मचिंतन, और इस मामले से मिले ज्ञान और लाभ के बारे में बताया। उसकी संगति को सुनने के बाद मुझे काफी राहत महसूस हुई। मुझे सचमुच यह अनुभव हुआ कि सिर्फ सत्य का आभ्यास करके और ईमानदार बनकर ही हम सच्ची शांति और सुरक्षा पा सकते हैं।

इसके बाद, मेरी निरीक्षक ने एक बैठक बुलाकर हमारे काम में भटकावों पर चर्चा की। उस महीने मेरी प्रभावशीलता बहुत कम हो गई थी। मुझे साफ पता था कि इस बैठक में परमेश्वर मेरे व्यवहार को जाँचने के लिए मेरी हर कथनी-करनी पर नजर रखेगा, कि क्या अपनी छवि और रुतबे को बचाने के लिए मैं फिर से छल-कपट करूँगी, और अपनी कमियों और समस्याओं पर पर्दा डालूँगी, या अपनी समस्याओं का सामना करूंगी, खुलकर बोलूंगी और ईमानदार इंसान बनूँगी। मैंने खुद को सत्य का अभ्यास करने के लिए कहा, भले ही इससे मेरी छवि खराब होती हो। इसलिए मैंने दिल खोलकर बताया कि उस अवधि में कैसे मैंने अपना काम जैसे-तैसे किया, चालें चलीं, और फिर कहा कि मैं अपने भटकावों और समस्याओं को दूर करके अपने काम के प्रति अपने रवैये को बदलूंगी, और ज्यादा प्रभावकारी बनने की कोशिश करूंगी। इस संगति के बाद, मुझे बहुत राहत महसूस हुई, मुझमें कर्तव्य अच्छी तरह निभाने की इच्छाशक्ति थी। बात खत्म हुई तो, किसी ने मुझे तिरस्कार से नहीं देखा, उन्होंने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के अभ्यास के रास्तों पर चर्चा की। इस संगति से मुझे बहुत लाभ हुआ, मुझे अपने भटकावों से उबरने के भी और रास्ते मिले। इसके बाद, मैंने इन रास्तों के अनुसार अभ्यास किया, और धीरे-धीरे अपने काम में ज्यादा असरदार होती गई। यह देखकर, मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई।

इस अनुभव के जरिए, मुझे सचमुच ही महसूस हुआ कि चाहे हम जो भी गलतियाँ करें, अपने काम में जो भी भ्रष्टता उजागर करें, अगर हम चीजों का शांति से सामना कर सकते हैं, दिल खोल सकते हैं, सत्य खोज सकते हैं, तो न सिर्फ कोई हमें नीची नजर से नहीं देखेगा, बल्कि हम आत्मचिंतन करके अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा सकेंगे। मैंने सचमुच यह भी महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करने वाले ईमानदार लोगों के पास ही चरित्र और गरिमा होती है, सिर्फ वही सच्चा सकून और मुक्ति महसूस करते हैं।

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