96. चेहरे से मुखौटा हटाने का मार्ग

डेज़ी, दक्षिण कोरिया

2021 की शुरुआत में मुझे टीम-अगुआ चुना गया, मेरे पास कई टीमों के सिंचन-कार्य की जिम्मेदारी थी। उस वक्त मुझे लगा, इस पद के लिए चुने जाने का मतलब है, मेरे पास कुछ काबिलियत और क्षमता है, कि सत्य और जीवन-प्रवेश की अपनी समझ में मैं अधिकतर भाई-बहनों से आगे हूँ। लगा, जैसे मुझे खुद को सत्य से लैस कर अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने में दिल लगाना चाहिए, ताकि सबको लगे कि मैं वह काम करने के काबिल हूँ।

पहले मुझे काम के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए जब ऐसी चीजें सामने आतीं, जिन्हें मैं पूरी तरह से न समझ पाती, तो मैं अगुआ या अपने साथ काम करने वाले भाई-बहनों से पूछ लेती। मुझे लगा, चूँकि मैं इस काम में नई हूँ, इसलिए हर कोई यह समझेगा कि कुछ चीजें होंगी, जिनके बारे में मुझे पता नहीं होगा, और ज्यादा खोज करने से मुझे ज्यादा तेजी से आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है। इस तरह, मैं सभी पर अच्छा प्रभाव छोड़ूँगी और वे सोचेंगे कि मैंने ईमानदारी से सत्य की खोज की है। लेकिन बाद में मेरे सामने बहुत सारी समस्याएँ आने लगीं और मुझे पूछने में झिझक होने लगी। तब तक उस कर्तव्य को निभाते हुए मुझे काफी समय हो गया था, ऐसे में अगर मैं लगातार इतने सारे सवाल पूछती रही, तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या उन्हें नहीं लगेगा कि मेरी क्षमता बहुत अच्छी नहीं है, मैं साधारण समस्याएँ भी हल नहीं कर सकती, और मैं टीम-अगुआ के तौर पर इस काम में सक्षम नहीं हूँ? इसलिए जब मेरे पास ऐसी अन्य समस्याएँ आईं, जिन्हें मैं पूरी तरह से नहीं समझ पाई, तो मैं खुद को यह सोचने से नहीं रोक पाई कि क्या ये प्रश्न पूछने लायक हैं, क्या उनसे पूछना सही रहेगा। मैं चिंतित थी कि मेरी सोच लोगों को एकांगी लगेगी। जटिल प्रतीत न होने वाली कुछ समस्याओं के बारे में पूछने के बजाय मैं खुद ही उनका हल ढूँढ़ने की कोशिश करती। नतीजतन, ढेरों समस्याएँ इकट्ठी हो गईं और काफी समस्याएँ समय पर हल नहीं हो पाईं। इसने मुझे और अधिक चिंतित कर दिया कि क्या हर कोई यह नहीं सोचेगा कि मैं टीम की अगुआ बनने के काबिल नहीं हूँ। सभाओं के दौरान, खास तौर पर जब कोई अगुआ उपस्थित होता, परमेश्वर के वचनों पर सहभागिता करते हुए मैं लगातार इस बात से चिंतित रहती : “क्या मेरी सहभागिता व्यावहारिक है? क्या मेरी समझ शुद्ध है?” सहभागिता के बाद मैं हर किसी की प्रतिक्रिया देखती और अगर कोई मेरी कही बातों के आधार पर अपनी बात कहता, तो उसका मतलब होता कि मेरी सहभागिता दूसरों को प्रभावित कर रही है, कि उसमें प्रबुद्धता है, और वह यह भी दर्शाती कि मुझे परमेश्वर के वचनों की शुद्ध समझ है और मैं काम सँभाल सकती हूँ। लेकिन अगर सहभागिता के बाद किसी की प्रतिक्रिया न आती, तो मैं बहुत परेशान हो जाती। कुछ समय बाद मेरा कर्तव्य बहुत थकाऊ लगने लगा। अपने कहे हर शब्द और व्यक्त किए हर मत पर मैं हमेशा बहुत ज्यादा विचार करती, और मुझे सुकून न मिलता। मैं कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती थी, लेकिन हमेशा घबराई रहती थी, विकसित नहीं हो पा रही थी या कुछ सीख नहीं पा रही थी।

मैं प्रार्थना और खोज के लिए परमेश्वर के सामने आई, और उसके वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोग स्वयं भी सृजित प्राणी हैं। क्या सृजित प्राणी सर्वशक्तिमान हो सकते हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकते हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकते हैं, हर चीज समझ सकते हैं, हर चीज की असलियत देख सकते हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। हालांकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या असाधारण व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, या कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। जब कुछ लोगों से कुछ करने के लिए कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि उन्हें पता है कि इसे कैसे करना है, जबकि वे वास्तव में कुछ नहीं जानते होते। बाद में, वे चुपके-चुपके इसके बारे में जानने और यह सीखने की कोशिश करते हैं कि इसे कैसे किया जाए, लेकिन कई दिनों तक इसका अध्ययन करने के बाद भी वे नहीं समझ पाते कि इसे कैसे करें। यह पूछे जाने पर कि उनका काम कैसा चल रहा है, वे कहते हैं, ‘जल्दी ही, जल्दी ही!’ लेकिन अपने दिलों में वे सोच रहे होते हैं, ‘मैं अभी उस स्तर तक नहीं पहुँचा हूँ, मैं कुछ नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि क्या करना है! मुझे अपना भंडा नहीं फूटने देना चाहिए, मुझे दिखावा करते रहना चाहिए, मैं लोगों को अपनी कमियाँ और अज्ञानता देखने नहीं दे सकता, मैं उन्हें अपना अनादर नहीं करने दे सकता!’ यह क्या समस्या है? यह हर कीमत पर इज्जत बचाने की कोशिश करने का एक जीवित नरक है। यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, उन्होंने अपना सारा विवेक खो दिया है। वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, असाधारण व्यक्ति या कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक सामान्य मानवता के भीतर की कमजोरियों, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता और समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। ... क्या ऐसे लोग कल्पना-लोक में नहीं रहते हैं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। यदि तुम कल्पना-लोक में रहकर दिन गुजारते हो, जैसे-तैसे काम करते रहते हो, यथार्थ में रहकर काम नहीं करते, हमेशा अपनी कल्पना के अनुसार जीते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। इस पर विचार करके मुझे अपनी हालत की थोड़ी समझ मिली। मैंने अपने आपको कुछ ज्यादा ही समझ लिया था, मैं ऐसा महसूस कर रही थी कि टीम की अगुआ चुने जाने का मतलब है कि मुझमें कुछ काबिलियत और क्षमता है। जब मैंने खुद को उस नज़रिये से देखा, तो मैं इस बात की परवाह करने लगी कि बाकी लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे, और मैं जितनी जल्दी हो सके, खुद को उस कार्य के काबिल साबित करना चाहती थी। इसलिए जब मेरे कर्तव्य में और अधिक समस्याएँ और परेशानियाँ आईं, तो मैं उन्हें सामने ला ही नहीं पाई और हमेशा चिंतित रहती कि लोग मेरी असलियत जान लेंगे, कहेंगे कि मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं इस काम के लायक नहीं हूँ। मैंने दिखावा करना शुरू कर दिया, समस्याएँ सामने आने पर मैं चुप रहती और खुद ही उनका हल ढूँढ़ती। इस कारण मेरे कर्तव्य की बहुत-सी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाया, जिससे हमारे काम में भी रुकावट आई और मेरी हालत पर भी असर पड़ा। मेरी सोच में स्पष्टता नहीं रही, और मैं उन चीजों में भी भ्रमित रहने लगी, जिन्हें मैं पहले समझती थी। यहाँ तक कि मैं सभाओं में अपनी सहभागिता के परिणामों के बारे में सोचती रहती, और इस बात से डरती रहती कि अगर वह अच्छी न रही, तो लोग मेरा तिरस्कार करेंगे। हर मोड़ पर मैं खुद को बेबस महसूस करती। मुझे एहसास हुआ कि यह सब पूरी तरह से मेरी ही गलती थी। मैं बहुत घमंडी और अविवेकी थी, और अपनी खामियों और कमियों का ठीक तरह से सामना नहीं कर पा रही थी। हमेशा दिखावा करती थी, ताकि दूसरे मेरे बारे में अच्छी राय रखें। असल में, वह कर्तव्य कलीसिया द्वारा मुझे खुद को प्रशिक्षित करने के लिए दिया गया एक मौका था, और इसका किसी भी तरह से यह मतलब नहीं था कि मैं सत्य समझती थी या काम अच्छे से कर सकती थी। मुझमें बस समझने की थोड़ी क्षमता थी, लेकिन ऐसी बहुत-सी बातें थीं जिन्हें मैं नहीं समझती थी और जिनका कोई निजी अनुभव मेरे पास नहीं था। मुझमें बिलकुल भी कुछ खास नहीं था, लेकिन मैं खुद को बहुत बड़ा समझती थी, उत्कृष्ट और ऐसी इंसान होने का दिखावा करती थी, जो सत्य को समझता है। मैंने खुद को बहुत ऊँचा आँका! मुझे बस अपने पाँव जमीन पर रखने चाहिए और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, कुछ समझ में न आए तो दूसरों से पूछना चाहिए, जो व्यावहारिक और उचित काम है।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसने मुझे कुछ व्यावहारिक दृष्टिकोण दिए। परमेश्वर कहता है : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। इस पर विचार करने से मुझे यह समझने में मदद मिली कि चिंतामुक्त होकर अपना कर्तव्य निभाने का पहला कदम अपनी कमियों के बारे में खुलकर बोलना और दिखावा करना बंद करना सीखना है। मुझे सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना होगा। मैं सत्य को मुश्किल से समझने वाली एक भ्रष्ट इंसान थी, इसलिए निश्चित रूप से ऐसे कई मामले थे, जिन्हें मैं ज्यादा नहीं समझ सकती थी। यह बिल्कुल सामान्य बात थी। मुझे अपनी छवि की खातिर कोई दिखावा करने और कोई चीज छिपाने की जरूरत नहीं थी। अगर मेरे पास कुछ प्रश्न थे, तो मुझे अहंकार छोड़कर उनके बारे में खुलकर मार्गदर्शन और सहभागिता प्राप्त करनी चाहिए थी : अपने कर्तव्य में सुकून पाने का यही एकमात्र तरीका था। इस एहसास से मेरा दिल रोशन हो गया और मैंने इस तरह से अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। जब मैं किसी चीज के बारे में निश्चित न होती, तो मैं सक्रिय रूप से उसके बारे में पूछ लेती, और अपनी राय साझा करते वक्त मैं वही कहती जो मैं सोचती थी, और केवल उन्हीं बातों पर सहभागिता करती जो मुझे पता होतीं। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो धीरे-धीरे ऐसी कुछ बातें मेरी समझ में आने लगीं, जो पहले कभी समझ में नहीं आती थीं, और मैं अपने कर्तव्य में गलतियाँ ढूँढ़कर उन्हें ठीक कर पाती हूँ। मुझे अपनी कमियों की बेहतर समझ भी हासिल हो गई। अंततः मुझे समझ आ गया कि मैं जैसी हूँ, वैसी ही दिखना अच्छी बात है, इससे सत्य सिद्धांतों को समझने और अपनी खामियों का पता लगाने में मदद मिलती है। इस समय मैंने खुद को कहीं ज्यादा आजाद महसूस किया, और बाद में मैं अपना कर्तव्य सामान्य तरीके से करने में सक्षम हो गई।

जल्दी ही मेरी जिम्मेदारी वाले समूह कलीसियाई जीवन में अच्छा कार्य करने लगे, और भाई-बहन अपनी समस्याओं के बारे में मेरे साथ सहभागिता करना चाहने लगे। लेकिन अनजाने ही मैंने फिर से इस बात पर ध्यान देना शुरू कर दिया कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। एक बार सहकर्मियों की एक बैठक में मेरी अगुआ ने हमारी कलीसिया में उत्पन्न हुई कुछ समस्याएँ उठाईं और हमसे हमारे विचार पूछे। मैं सोच रही थी, “यहाँ बहुत सारे भाई-बहन हैं, और अगर मैं कुछ विशिष्ट अंतर्दृष्टियाँ प्रस्तुत कर सकी, तो यह दिखाएगा कि मैं कितनी काबिल हूँ।” लेकिन बहुत सोचने पर भी कुछ काम की बात दिमाग में नहीं आई। तभी मेरी अगुआ ने मेरी राय पूछी। काफी देर तक मेरी जबान लड़खड़ाती रही, फिर मैंने एक अस्पष्ट-सा सुझाव दे दिया। कुछ ही पल बाद, दो अन्य बहनों ने अपने विचार साझा किए, और उनके सुझाव मेरे सुझावों से उलट थे। उन्होंने जो कहा, वह वास्तव में तर्कसंगत था, और अगुआ उनसे सहमत हो गईं। मैं फौरन परेशान हो गई, सोचा, मैं खुद को अच्छा तो दिखा ही नहीं पाई, उलटे खुद को शर्मिंदा और कर लिया। अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या उसे यह नहीं लगेगा कि मेरे पास इतनी साधारण चीज में भी कोई अंतर्दृष्टि नहीं है और मैंने बिलकुल भी विकास नहीं किया? अगले कुछ दिनों में मेरी जिम्मेदारी वाले हर समूह में कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो गईं। मैं उन्हें समझ नहीं पाई, इसलिए मुझे फौरन मदद लेनी चाहिए थी। लेकिन फिर मैंने सोचा, अगर मैंने ये सब सवाल पूछे, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि मैं अपने काम में सक्षम नहीं हूँ? क्या इससे मेरे द्वारा बनाई गई छवि नष्ट नहीं हो जाएगी? दूसरी ओर, मुझे पता था कि अनसुलझी समस्याएँ हमारे काम में रुकावट डालेंगी, इसलिए मैंने एक कामचलाऊ रणनीति अपनाई : मैं अपने सवाल कई भागों में बाँट लूँगी और अलग-अलग लोगों से अलग-अलग सवाल पूछूँगी, इससे समस्याएँ भी हल हो जाएँगी और ऐसा भी नहीं लगेगा कि मैं बहुत सारे सवाल पूछती हूँ और मुझे कुछ नहीं आता। इस तरह दिखावा करने से मेरी स्थिति और अधिक खराब होने लगी। मेरी सोच और धुँधली हो गई और मैं बहुत-सी चीजों में संघर्ष करने लगी। फिर मैंने विचार किया तो पाया, चूँकि अब मैं उन चीजों को भी समझ नहीं पा रही जिन्हें पहले समझती थी, इसका मतलब समस्या मेरी हालत में है। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझमें स्पष्ट रूप से समस्याएँ हैं, लेकिन मैं अपनी गलतियों के बारे में ईमानदारी से खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती। मैं हमेशा कुछ बड़ा करना चाहती हूँ। कुछ समझ न आने पर पूछना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों होता है? ऐसा लगता है, जैसे मेरे होंठों पर ताला पड़ जाता हो। इस तरह अपना कर्तव्य निभाना थका देता है। कृपया मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं अपनी भ्रष्टता समझकर खुद को बदल सकूँ।”

उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिन्होंने मेरी स्थिति बखूबी उजागर कर दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “भ्रष्ट मनुष्य छद्मवेश धारण करने में कुशल होते हैं। चाहे वे कुछ भी करें या किसी भी तरह की भ्रष्टता प्रदर्शित करें, वे हमेशा छद्मवेश धारण करते ही हैं। अगर कुछ गलत हो जाता है या वे कुछ गलत करते हैं, तो वे दूसरों पर दोष मढ़ना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि अच्छी चीजों का श्रेय उन्हें मिले और बुरी चीजों के लिए दूसरों को दोष दिया जाए। क्या वास्तविक जीवन में इस तरह का छद्मवेश बहुत अधिक धारण नहीं किया जाता? ऐसा बहुत होता है। गलतियाँ करना या छद्मवेश धारण करना : इनमें से कौन-सी चीज स्वभाव से संबंधित है? छद्मवेश धारण करना स्वभाव का मामला है, इसमें अहंकारी स्वभाव, बुराई और विश्वासघात शामिल होता है; परमेश्वर इससे विशेष रूप से घृणा करता है। ... यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं हैं, वे मूर्ख होते हैं, और वे हमेशा पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। यह देखना घृणास्‍पद है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह करते रहते हो। लोगों को यह मसखरों जैसा प्रदर्शन लगता है। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? यह सच में मूर्खतापूर्ण ही है। मूर्ख लोगों में कोई अक्ल नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, फिर भी उन्हें न तो सत्य समझ में आता है, न ही वे चीजों की असलियत देख पाते हैं। वे अपने हवाई घोड़े से कभी नीचे नहीं उतरते और सोचते हैं कि वे बाकी सबसे अलग और अधिक सम्माननीय हैं; यह अहंकार और आत्मतुष्टि है, यह मूर्खता है। मूर्खों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, है न? जिन मामलों में तुम मूर्ख और नासमझ होते हो, वे ऐसे मामले होते हैं जिनमें तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, और तुम आसानी से सत्य को नहीं समझ सकते। मामले की सच्‍चाई यह है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। “जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा खास होने का ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे अंधेरे में कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या तक कर दें, किसी को भी उनकी शिकायत करने या उन्‍हें उजागर करने की अनुमति नहीं होती। वे डरते हैं कि लोग उनका राक्षसी चेहरा देख लेंगे, और वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और अमोघ हैं। यह शैतान की प्रकृति है। शैतान की प्रकृति की सबसे प्रमुख विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को दीर्घकालिक बनाने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि लोग उनके पक्ष में राय रखें और उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचे स्थान पर रखें। यह भ्रष्ट स्वभाव होता है, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो वे इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं। भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना सबसे कठिन है : स्वयं के दोषों और कमियों को पहचानना आसान है, लेकिन अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना आसान नहीं है। जो लोग स्वयं को नहीं जानते वे कभी भी अपनी भ्रष्ट दशाओं के बारे में बात नहीं करते—वे हमेशा सोचते हैं कि वे ठीक हैं। और यह एहसास किए बिना, वे दिखावा करना शुरू कर देते हैं : ‘अपनी आस्था के इतने वर्षों के दौरान, मैंने बहुत उत्पीड़न सहा है और बहुत कठिनाई झेली है। क्या तुम लोग जानते हो कि मैंने इन सब पर जीत कैसे पाई?’ क्या यह अहंकारी स्वभाव है? स्वयं को प्रदर्शित करने के पीछे क्या प्रेरणा है? (ताकि लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें।) लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें, इसके पीछे उनका मकसद क्या है? (ऐसे लोगों के मन में रुतबा पाना।) जब तुम्‍हें किसी और के मन में रुतबा मिलता है, तब वे तुम्‍हारे साथ होने पर तुम्हारे प्रति सम्मान दिखाते हैं, और तुमसे बात करते समय विशेष रूप से विनम्र रहते हैं। वे हमेशा प्रेरणा के लिए तुम्‍हारी ओर देखते हैं, वे हमेशा हर चीज पहले तुम्‍हें करने देते हैं, वे तुम्‍हें रास्ता देते हैं, तुम्‍हारी चापलूसी करते हैं और तुम्‍हारी बात मानते हैं। सभी चीजों में वे तुम्‍हारी राय चाहते हैं और तुम्‍हें निर्णय लेने देते हैं। और तुम्‍हें इससे आनंद की अनुभूति होती है—तुम्‍हें लगता है कि तुम किसी और से अधिक ताकतवर और बेहतर हो। यह एहसास हर किसी को पसंद आता है। यह किसी के दिल में अपना रुतबा होने का एहसास है; लोग इसका आनंद लेना चाहते हैं। यही कारण है कि लोग रुतबे के लिए होड़ करते हैं, और सभी चाहते हैं कि उन्हें दूसरों के दिलों में रुतबा मिले, दूसरे उनका सम्मान करें और उन्‍हें पूजें। यदि वे इससे ऐसा आनंद प्राप्त नहीं कर पाते, तो वे रुतबे के पीछे नहीं भागते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर मुझे समझ आया कि मुखौटा लगाकर सामने आने और गलतियाँ करने के बीच, मुखौटा लगाकर सामने आना दोनों में से ज्यादा गंभीर है। कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है, इसलिए अपने कर्तव्य में समस्याओं का सामना करना और गलतियाँ करना बिल्कुल सामान्य बात है। लेकिन मुखौटा लगाने के पीछे अहंकार, चालाकी और दुष्टता के शैतानी स्वभाव होते हैं। हमेशा अपनी खामियाँ और कमियाँ छिपाना, और लोगों को सिर्फ अपना अच्छा पहलू दिखाना ताकि वे आपके बारे में अच्छी राय रखें और आपकी प्रशंसा करें, परमेश्वर के लिए और भी ज्यादा घृणास्पद हैं। एक वास्तव में बुद्धिमान इंसान सही तरीके से अपनी कमियों का सामना कर सकता है, खुद को सत्य से लैस कर सकता है, और अपनी कमियों की भरपाई कर सकता है। इस तरह वह आगे बढ़ सकता है। लेकिन बेवकूफ और अज्ञानी लोग, जिनमें आत्म-जागरूकता की कमी होती है, अपनी कमियाँ कभी स्वीकार नहीं कर पाते, और वे बस मुखौटे लगा लेते हैं, जिसका मतलब है कि कुछ समस्याएँ कभी हल नहीं हो पातीं और वे जीवन में कभी प्रगति नहीं करते। अपने रवैये के बारे में फिर से सोचने पर, मुझे समझ आया कि मैं उन अहंकारी मूर्ख लोगों में से हूँ, जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है। जब मैं अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे प्राप्त करने लगी, तो मुझे लगा कि मैं वास्तव में बुरी नहीं हूँ और टीम-अगुआ के रूप में अपना काम करने के काबिल हूँ। साथ ही, मैं समस्याएँ हल करने में भी सक्षम हूँ। इन कारणों से मैंने वास्तव में खुद को ऊँचा और ज्यादा ही बड़ा समझ लिया। नतीजतन, जब मेरे सामने ऐसी चीजें आतीं, जिन्हें सँभालना मुझे नहीं आता था, तो मैं सतर्क होकर दुविधा में पड़ जाती, चिंता करती कि कहीं कोई गलत बात कहकर मैं अपनी अच्छी छवि खराब न कर लूँ। तब मैंने कम राय ज़ाहिर करने और कम सवाल पूछने का फैसला किया। यहाँ तक कि जब मैंने कोई मदद माँगी भी, तो अपनी काबिलियत दिखाने के लिए मुश्किल सवाल ही चुने, मैं नहीं चाहती थी कि हर कोई मेरी कमियाँ देखे। यहाँ तक कि मैंने मनोवैज्ञानिक खेल तक खेला, सवाल लोगों के बीच बाँट दिए ताकि वे मेरी असलियत न देख पाएँ। मैं सचमुच अहंकारी और धूर्त थी, और मुझमें आत्म-जागरूकता की कमी थी। मैंने बहुत दिखावे किए, ताकि लोग मेरा सम्मान करें। मैं बहुत बेवकूफ, परमेश्वर के लिए घृणित और लोगों के लिए घृणास्पद थी। मैंने अपना नाम और रुतबा बचाने के लिए अपनी कमियाँ छिपाईं, जिसके परिणामस्वरूप मेरे कर्तव्य में आई समस्याएँ अनसुलझी रहीं। मैं कलीसिया के कार्य में रुकावट डाल रही थी। मैं क्या सोच रही थी? मैं कितनी नीच और दुष्ट थी। दिखावा करके मैं कुछ समय तक अपने पद पर रह सकती थी, लेकिन परमेश्वर सब देखता है, और परमेश्वर को धोखा देने और कलीसिया के काम में देरी करने के कारण परमेश्वर कभी-न-कभी मुझे हटा ही देता। मुझे यह खयाल आया कि मसीह-विरोधी खास तौर पर रुतबे को सँजोते हैं, और अपने रुतबे की खातिर कलीसिया के हितों को भी ताक पर रख देते हैं। मेरे स्वभाव और अनुसरण के बारे में मेरे विचारों और किसी मसीह-विरोधी के स्वभाव और विचारों में क्या अंतर था? क्या रुतबे से मुझे बिलकुल भी लाभ हुआ? उसने मुझे अपनी कमियाँ स्वीकार करने या उनका सामना करने में असमर्थ बना दिया, और मेरा विवेक खत्म हो गया। समस्याएँ सामने आने पर मैंने खोज नहीं करनी चाही, बल्कि दिखावा किया और अधिक से अधिक धूर्त बन गई। नतीजतन मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल पड़ती, और परमेश्वर की घृणा की पात्र बनकर हटा दी जाती। इससे कलीसिया के कार्य को नुकसान होता और मैं तबाह हो जाती। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि उस मार्ग पर चलना कितना खतरनाक था। यह मेरे लिए एक चेतावनी थी कि मैं अब उस तरह अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती।

अभ्यास के मार्ग के साथ मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, और यह मेरे लिए और भी मुक्तिदायक रहा। परमेश्वर कहता है : “कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा बढ़ावा दिया जाता है और उनका विकास किया जाता है, उन्हें प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका मिलता है। यह अच्छी बात है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? पहला सिद्धांत है सत्य को समझना, जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। अगर उन्हें सत्य की समझ न हो, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर वे खोजने के बाद भी नहीं समझते, तो वे संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, ‘दूर रखा पानी तत्काल प्यास नहीं बुझाएगा।’ अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ तेजी से, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और पोषण के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह भावना होनी चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। इस पर विचार करके मैंने जाना कि कलीसिया लोगों को इसलिए उन्नत और विकसित करती है, ताकि उन्हें अभ्यास करने का मौका मिले। इसका मतलब यह हरगिज नहीं होता कि वे सत्य समझते हैं, कोई समस्या हल कर सकते हैं या परमेश्वर के इस्तेमाल के लायक हैं। अपने पूरे अभ्यास में उनके सामने सभी तरह की वास्तविक समस्याएँ आएँगी, और अगर वे खोज और सहभागिता करते रहे, तो धीरे-धीरे वे सिद्धांतों के अलग-अलग पहलू समझना शुरू कर देंगे। उस समय वे समस्याएँ हल करने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने में सक्षम होंगे। मैं जानती थी, मुझे अपनी कमियों का अच्छी तरह सामना करना होगा और जानना होगा कि मैं कौन हूँ, सत्य की अधिक खोज करनी होगी, समस्याएँ उत्पन्न होने पर दूसरों के साथ विचार-विमर्श और सहभागिता करनी होगी, और अपना पूरा योगदान देना होगा। फिर, अगर किसी दिन यह पता चल भी जाए कि मेरी काबिलियत वास्तव में पर्याप्त नहीं है, कि मैं इस काम के लायक नहीं हूँ, तो कम से कम मेरा जमीर साफ होगा। इस पर विचार करने के बाद मुझे काफी सुकून महसूस हुआ। मैं लगातार दिखावा करती नहीं रह सकती, बल्कि मुझे ईमानदार बनना होगा और अपनी खामियों और कमियों का सीधे सामना करना होगा।

उसके बाद अपनी टीम-चर्चाओं में मैंने ईमानदारी से अपनी राय साझा की। पहले मुझे थोड़ा संकोच होता था, चिंता होती थी कहीं कोई गलत बात न कह दूँ, और लोगों को ऐसा न लगे कि मेरी समझ उथली है और मुझमें काबिलियत नहीं है। खास तौर पर जब ऐसी समस्याएँ आतीं, जिन्हें मैं ठीक से न समझती, तो उन पर मेरी राय बहुत साफ न होती, और बोल चुकने के बाद मेरा दिल जोरों से धड़कने लगता, मैं सोचती कि हर कोई मेरी असलियत तो नहीं समझ जाएगा। लेकिन तब मैं खुद को याद दिलाती कि यही मेरा वास्तविक स्तर है, और अगर वे मेरा तिरस्कार करते हैं, तो ठीक है। महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर के सामने ईमानदार रहा जाए, और अपने विचार व्यक्त करना और चर्चाओं में हिस्सा लेना मेरा कर्तव्य है। शांति से जीने का यही एकमात्र तरीका है। इसके बाद जब मेरे कर्तव्य में कुछ प्रश्न होते, तो मैं जाकर दूसरों से उनकी राय पूछती। अभी भी कभी-कभार मुझे चिंता होती कि लोग मेरा तिरस्कार करेंगे, लेकिन जब मैंने यह महसूस किया कि अपना मान बचाने के लिए अपने दोष छिपाने से कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँच सकता है, तो मैं उस आवेग से मुँह मोड़ने की कोशिश करती और मदद माँगती। जब मैंने ऐसा किया, तो मुझे वे बातें समझ आने लगीं जो पहले समझ नहीं आती थीं, और मुझे पहले से अधिक शांति और सुकून महसूस हुआ। कभी-कभी मेरे भाई-बहनों की समझ मुझसे अधिक सटीक होती, और मैं सोचने लगती कि कहीं हर कोई यह तो नहीं सोच रहा कि मैं किसी काम की नहीं। लेकिन मैं समझ सकती थी कि यह चीजों को देखने का सही तरीका नहीं है। अपनी कमजोरियों की भरपाई करने के लिए मुझे दूसरों की खूबियों से सीखना होगा। क्या यह एक गुण नहीं है? इस बारे में इस तरह से सोचने पर मेरी घबराहट खत्म हो गई, और समय के साथ खुद को अधिकाधिक मुक्त महसूस करने लगी। मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन की आभारी हूँ, जिसने मुझे यह अनुभव कराया कि ईमानदार होना कितना मुक्तिदायक है, और अब परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के लिए मुझमें और अधिक आस्था है।

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