56. मेरा कर्तव्य लेनदेन वाला कैसे हो गया?

शेनचिंग, चीन

2008 में, मुझे अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य मिला। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे यह समझ में आ गया कि अंत के दिनों में परमेश्वर के देहधारण और उसके सत्य अभिव्यक्त करने का उद्देश्य मानवता को पूरी तरह से स्वच्छ बनाना, लोगों को पाप से बचाना और उन्हें एक खूबसूरत मंज़िल तक पहुँचाना है। मैं बहुत ज़्यादा उत्साहित थी और परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाने में खुद को खपाना चाहती थी। जल्द ही कलीसिया के एक अगुआ ने मेरे लिए नवांगतुकों का सिंचन करने और कुछ सभा-समूहों का प्रभार संभालने की व्‍यवस्‍था कर दी। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए मैंने अपनी वर्षों पुरानी क्लिनिक बंद कर दी और कलीसिया में काम करते हुए दिन बिताने लगी। बाद में, साम्यवादी पार्टी द्वारा की गई गिरफ्तारियों और उत्पीड़न के कारण मेरे पति ने मुझे तलाक दे दिया। उन वर्षों में, मैं हमेशा अपना कर्तव्‍य निभाने के लिए घर से दूर रहती थी और कभी-कभी कमजोर भी महसूस करती थी पर जैसे ही मुझे यह ख्याल आता कि परमेश्वर मेरे दुख को याद रखेगा, मुझे आस्था और शक्ति मिलती।

अप्रैल 2017 में, कलीसिया के अगुआ ने मेरे हाई ब्लड प्रेशर और खराब सेहत को देखते हुए मुझे कुछ समय के लिए अपना काम रोक देने को कहा ताकि मैं थोड़ा आराम कर सकूँ। इस बात से मैं बहुत परेशान हो गई और मैंने सोचा, “परमेश्वर अपना कार्य खत्म करने वाला है, इसलिए अभी अपना कर्तव्य निभाने और अच्छे कर्म करने का सबसे अहम वक्त है। जब निभाने के लिए कोई कर्तव्‍य ही नहीं होगा, तो क्या मुझे अच्छी मंज़िल और परिणाम मिल सकेंगे? अगर अंत में मुझे आशीष नहीं मिला तो क्या इतने सालों तक कड़ी मेहनत करना और कीमत चुकाना बेकार हो जाएगा?” बाद में एक बहन ने मुझे आश्रय दिया। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा के बारे में मेरे साथ सहभागिता की और मेरी मदद की लेकिन उन्हें हमेशा अपने कर्तव्य में व्यस्त देखकर मैं उनसे बहुत जलती। मैं अपनी खराब सेहत के कारण अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी। क्या परमेश्वर मेरे कर्तव्‍य की योग्‍यता छीनने के लिए मेरी खराब सेहत का इस्‍तेमाल कर रहा था, क्‍या वह मुझे उजागर करके त्‍याग देने की कोशिश कर रहा था? इस विचार ने मुझे निढाल कर दिया, मैं बेहद दुखी और हताश महसूस करने लगी। मेरे मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और शिकायतें भी आने लगीं; मैं सोचने लगी कि कैसे पिछले इन कुछ सालों में मैंने अपना सब कुछ त्याग दिया था और बिना कोई शिकायत किए इतनी पीड़ा सहती रही थी। आखिर मेरा यह हश्र कैसे हो सकता था? उस समय, मैं परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ सकी और नहीं जानती थी कि उससे प्रार्थना में भी क्‍या कहूँ। मुझे भूख लगनी बंद हो गई और नींद भी ठीक से नहीं आती थी। मेरे हृदय में अंधकार भरा हुआ था। मेरी हालत देखकर, उस बहन ने यह कहते हुए मेरी काट-छाँट की, “दरअसल, आप परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ रही हैं, आप तो जैसे कोई और ही इंसान हैं हैं। आप सत्य की खोज नहीं कर रहीं।” इस तरह से मेरी काट-छाँट होना मेरे लिए वाकई में कठिन था और मैंने अपनी खोज में परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं नहीं जानती कि इस परिस्थिति से कैसे निपटना है, मैं आपकी इच्‍छा को नहीं समझती और नहीं जानती कि मुझे कौनसा रास्‍ता अपनाना चाहिए। मैं अंधकार में जी रही हूँ और मेरी हालत वाकई में बहुत दयनीय है। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो।”

अगले कुछ दिनों तक मैं प्रार्थना और खोज करती रही। एक सुबह, परमेश्वर के वचनों का यह वाक्‍यांश अचानक मेरे मन में आया : “क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है?” इस अंश को देखने के लिए मैंने फौरन अपना कंप्यूटर खोला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है। जिस मनुष्य को मैं देखता हूँ, वह मनुष्य के भेस में एक जानवर है, वह एक जहरीला साँप है, मेरी आँखों के सामने वह कितना भी दयनीय बनने की कोशिश करे, मैं उसके प्रति कभी दयावान नहीं बनूँगा, क्योंकि मनुष्य को काले और सफेद के बीच, सत्य और असत्य के बीच अंतर की समझ नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सुन्न हो गई है, फिर भी वह आशीष पाना चाहता है; उसकी मानवता बहुत नीच है, फिर भी वह एक राजा का प्रभुत्व पाने की कामना करता है। ऐसी समझ के साथ वह किसका राजा बन सकता है? ऐसी मानवता के साथ वह सिंहासन पर कैसे बैठ सकता है? सच में मनुष्य को कोई शर्म नहीं है! वह दंभी अभागा है! तुम लोगों में से जो आशीष पाने की कामना करते हैं, उनके लिए मेरा सुझाव है कि पहले शीशे में अपना बदसूरत प्रतिबिंब देखो—क्या तुम एक राजा बनने लायक हो? क्या तुम्हारे पास आशीष पा सकने लायक मुँह है? तुम्हारे स्वभाव में जरा-सा भी बदलाव नहीं आया है और तुमने किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, फिर भी तुम एक बेहतरीन कल की कामना करते हो। तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभव या ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए श्रम करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है। शायद अपना कर्तव्य निभाते हुए या कलीसिया का जीवन जीते हुए उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार त्यागने और खुद को खुशी-खुशी परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम हैं, और अब वे आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा को जानकर इसे दरकिनार भी कर चुके हैं, और अब उससे नियंत्रित या विवश नहीं होते। फिर वे सोचते हैं कि उनमें अब आशीष पाने की प्रेरणा नहीं रही, लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। लोग मामलों को केवल सतही तौर पर देखते हैं। परीक्षणों के बिना, वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं। अगर वे कलीसिया नहीं छोड़ते या परमेश्वर के नाम को नहीं नकारते, और परमेश्वर के लिए खपने में लगे रहते हैं, तो वे मानते हैं कि वे बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि वे अब अपने कर्तव्य-पालन में व्यक्तिगत उत्साह या क्षणिक आवेगों से प्रेरित नहीं हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार सत्य की तलाश और अभ्यास कर सकते हैं, ताकि उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो सकें और वे कुछ वास्तविक बदलाव हासिल कर सकें। लेकिन जब सीधे लोगों की मंजिल और अंत से संबंधित कोई बात हो जाती है तो वे किस प्रकार व्यवहार करते हैं? सच्चाई पूरी तरह से प्रकट हो जाती है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के न्याय के वचनों से मैं बहुत शर्मिंदा हुई। पहले, मैं सिद्धांत के तौर पर जानती थी कि आस्था आशीष पाने के लिए नहीं हो सकती, पर मैं खुद को अच्छे से नहीं जानती थी। इस स्थिति अचानक ने मेरी आशीष पाने की इच्छा के पीछे के मकसद को उजागर कर दिया। मैंने पिछले कुछ सालों में अपने घर और नौकरी को छोड़ा था ताकि हर हाल में अपना कर्तव्‍य निभा सकूँ। मैंने सोचा था कि ये सब कीमतें चुकाने के कारण मुझे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष ज़रूर मिलेंगे और मेरी एक अच्छी मंज़िल होगी, इसलिए मैं अपने कर्तव्य को लेकर वाकई उत्साहित थी। अब जबकि मैं अपनी खराब सेहत के कारण कर्तव्य नहीं निभा पाई, तो मुझे लगा कि मैंने अपनी मंज़िल खो दी और आशीष पाने के मेरे सपने चकनाचूर हो गए। मुझे न केवल सब-कुछ छोड़ देने का पछतावा हुआ, बल्कि मैंने परमेश्वर को दोष दिया, उससे तर्क-कुतर्क किया और उसका विरोध किया। मुझमें निराशा के कारण कुछ भी करने की हिम्‍मत नहीं बची थी। मैंने अपने त्याग को परमेश्वर से आशीष पाने के लिए लेन-देन का ज़रिया समझ लिया, सोचा कि मेरी तकलीफों और योगदान के बदले परमेश्वर को मुझे अच्छी मंज़िल और परिणाम देना ही होगा। जब ऐसा नहीं हुआ, तो मैंने शिकायत की, उसे दोषी ठहराया। मेरी नकारात्‍मकता के पीछे मेरी आशीष पाने की मंशा थी। अपनी आस्था में ऐसा दृष्टिकोण रखकर, मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रही थी, आशीष पाने के लिए उसका इस्तेमाल कर रही थी। यह परमेश्वर को धोखा देना और उसका विरोध करना था। पौलुस ने परमेश्वर से सौदेबाजी करने और उससे धार्मिकता का ताज माँगने के लिए खुद को खपाया था और सारे योगदान किए थे। इससे परमेश्वर के स्वभाव का गंभीरअपमान हुआ, और पौलुस दंडित हुआ। थोड़े-बहुत त्याग करने और खुद को थोड़ा सा खपाने के बाद, मैं भी परमेश्वर से इनाम, वायदे और आशीष की माँग करने लगी। जब मुझे उम्मीद के मुताबिक नहीं मिला, तो मैं परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष देने लगी, उसे धोखा देने तक की सोची। मैं पौलुस से कहाँ अलग थी? क्‍या मुझमें ज़रा भी तर्क या विवेक था? मैंने कर्तव्‍यपालन में थोड़ा समय दिया था और थोड़ी-बहुत कीमत चुकाई थी, लेकिन सत्‍य सिद्धांतों को न समझने और अब तक भ्रष्‍टाचार और छल से भरे होने के कारण मैं अपने कर्तव्‍य में अच्छे नतीजे प्राप्त नहीं कर पाई, बल्कि कभी-कभी तो बाधक ही बनती थी। इस तरह से मैं पूंजी की तरह खुद को खपाने और अपने योगदानों का इस्‍तेमाल परमेश्वर से सौदेबाजी करने और उससे आशीष पाने के लिए कर रही थी। मैं बेहद बेशर्म थी! अगर मैं अपनी सेहत के कारण अपने कर्तव्य से दूर नहीं होती, तो कभी भी अपनी आस्था में आशीष पाने के अपने गलत इरादों को नहीं देख पाती, गलत मार्ग पर ही चलती रहती, और मेरा अंत भी पौलुस जैसा ही होता। इन विचारों से मेरे मन में डर पैदा हो गयाऔर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर का ऐसी व्यवस्था करना मेरे प्रति उसका प्रेम और उद्धार ही था! परमेश्वर की इच्छा समझते ही मुझे बहुत पछतावा और आत्मग्लानि हुई और मैंने आंसुओं के साथ प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं तुम्हारे उद्धार की बहुत आभारी हूँ। अगर मुझे इस तरह उजागर नहीं किया जाता, तो मैं कारण जाने बिना ही तुम्हारा विरोध करती रहती। परमेश्वर, मैं आशीष पाने की चाह छोड़कर तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को हटाकर सत्य की खोज करते हुए, एक इंसान की तरह जीना चाहती हूँ।”

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े जो पतरस के शोधन अनुभवों से संबंधित थे। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मैंने उसके अनगिनत परीक्षण लिए—स्वाभाविक रूप से उन्होंने उसे अधमरा कर दिया—लेकिन इन सैकड़ों परीक्षणों के मध्य उसने कभी मुझमें अपनी आस्था नहीं खोई या मुझसे मायूस नहीं हुआ। यहाँ तक कि जब मैंने उससे कहा कि मैंने उसे त्याग दिया है, तो भी वह निराश नहीं हुआ और व्यावहारिक ढंग से तथा अभ्यास के पिछले सिद्धांतों के अनुसार मुझसे प्रेम करता रहा। मैंने उससे कहा कि भले ही वह मुझसे प्रेम करता है, तो भी मैं उसकी प्रशंसा नहीं करूँगा, और अंत में मैं उसे शैतान के हाथों में दे दूँगा। लेकिन ऐसे परीक्षणों के बीच भी, परीक्षण जो उसकी देह पर नहीं आए, बल्कि जो वचनों के परीक्षण थे, उसने मुझसे प्रार्थना की और कहा : ‘हे परमेश्वर! स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों के मध्य क्या ऐसा कोई मनुष्य, कोई प्राणी या कोई वस्तु है, जो तुझ सर्वशक्तिमान के हाथों में न हो? जब तू मुझ पर दया करता है, तब मेरा हृदय तेरी दया से बहुत आनंदित होता है। जब तू मेरा न्याय करता है, तो भले ही मैं उसके अयोग्य होऊँ, फिर भी मैं तेरे कर्मों के अथाहपन की और अधिक समझ प्राप्त करता हूँ, क्योंकि तू अधिकार और बुद्धि से भरा है। हालाँकि मेरा शरीर कष्ट सहता है, लेकिन मेरी आत्मा को चैन मिलता है। मैं तेरी बुद्धि और कर्मों की प्रशंसा कैसे न करूँ? अगर तुझे जानने के बाद मुझे मरना भी पड़े, तो मैं ऐसा हर्ष और प्रसन्नता के साथ कैसे नहीं कर सकता? हे सर्वशक्तिमान! क्या तू सचमुच नहीं चाहता है कि मैं तुझे देखूँ? क्या मैं सच में तेरा न्याय प्राप्त करने के अयोग्य हूँ? कहीं मुझमें ऐसा कुछ तो नहीं, जो तू नहीं देखना चाहता?’ इस प्रकार के परीक्षणों के दौरान, भले ही पतरस मेरी इच्छा को सटीकता से समझने में समर्थ नहीं था, लेकिन यह स्पष्ट था कि वह मेरे द्वारा उपयोग किए जाने के कारण खुद को बहुत गौरवान्वित और सम्मानित महसूस करता था (भले ही उसने मेरा न्याय पाया, ताकि मनुष्य मेरा प्रताप और क्रोध देख सके), और वह इन परीक्षणों से व्यथित नहीं था। मेरे समक्ष उसकी निष्ठा के कारण, और उस पर मेरे आशीषों के कारण, वह हजारों सालों से मनुष्यों के लिए एक उदाहरण और आदर्श रहा है। क्या तुम लोगों को उसकी ठीक इसी बात का अनुकरण नहीं करना चाहिए?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 6)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि पतरस अपनी किस्मत या मंज़िल से बंधा नहीं था। यहाँ तक कि जब परमेश्वर ने पतरस से कहा कि वह उसके प्रेम के बावजूद उसे स्वीकार नहीं करेगा और अंत में उसे शैतान के हवाले कर देगा, तब भी पतरस अपनी आखिरी साँस तक परमेश्वर से प्रेम करता रहा और उसके प्रति समर्पित रहा। परमेश्वर के प्रति पतरस के प्रेम में किसी प्रकार की सौदेबाजी या मिलावट नहीं थी। सिर्फ सच्चा प्रेम और आज्ञाकारिता थी। परमेश्वर के वचनों से मैंने अभ्यास का मार्ग पाया और पतरस की तरह ही परमेश्वर से प्रेम करने के मार्ग पर चलने को तैयार हो गई। परमेश्वर चाहे मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे, चाहे मुझे परिणाम या मंज़िल मिलें या न मिलें, मैं परमेश्वर के नियमों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी। हालाँकि, उस समय मैं कलीसिया में पहले की तरह अपना कर्तव्य तो नहीं निभा सकती थी, लेकिन उन पिछले कुछ सालों से मैं परमेश्वर के वचनों के पोषण का आनंद उठा रही थी और थोड़ा-बहुत अनुभव भी हासिल किया था, तो मैं परमेश्वर की गवाही देने के लिए उसके कार्य से मिले अनुभवों के बारे में लिख सकती थी। यह भी तो सृजित इंसान का कर्तव्य निभाना है। इसके बाद, मैं परमेश्वर के सामने खुद को बहुत शांत रखने लगी, उसके वचनों पर विचार करने और अनुभव की गवाहियाँ लिखने लगी। मैंने खुद को परमेश्वर के पहले से कहीं ज़्यादा करीब पाया, मैंने अपने भविष्य और संभावनाओं के बारे में चिंता करना छोड़ दिया। मुझे बहुत आज़ादी और सुकून का एहसास हुआ। कुछ समय तक स्‍वास्‍थ्‍य लाभ लेने पर, मेरा ब्लड प्रेशर सामान्य हो गया, और मैं कलीसिया में दोबारा अपना कर्तव्य निभाने लगी।

मुझे लगा कि इस अनुभव के बाद परमेश्वर में आस्था को लेकर अपने विचारों के बारे में मेरी थोड़ी समझ बनी है, और अब आशीष पाने की उम्मीदें मुझे सीमित नहीं करेंगी। मगर मैं गलत थी, लेकिन, कुछ समय बाद ही, आशीष पाने की इच्छा दोबारा सिर उठाने लगी।

उस समय मैं कलीसिया की अगुआ के तौर पर काम कर रही थी। एक सभा में, हमारी अगुआ ने हमें हर समूह के अगुआ की व्यावहारिक कार्य करने की काबिलियत जाँचने को कहा और हमें बताया कि कपटी या सत्य को स्वीकार नहीं करने वाले लोगों को उस पद के लिए कतई नहीं चुना जा सकता। यह सुनने पर मैं समझ गई कि मुझे जल्द से जल्द यह काम पूरा करना होगा, वरना गलत इंसान के होने से कलीसिया के काम के साथ ही भाई-बहनों का भी नुकसान होगा। इस मामले में, न केवल मुझे बरखास्‍त किया जा सकता था, बल्कि यह अपराध और बुरा कर्म भी होता। एक महीने बाद कार्मिकों में ज़रूरी बदलाव कर दिए गए और मैं बहुत खुश थी। लेकिन हैरत तब हुई, जब जल्द ही हमारे अगुआ को पता चला कि मेरे द्वारा चुने लोगों में से एक इंसान कपटी था। इस बात ने मुझे बहुत परेशान कर दिया। मुझे लगा कि मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाया था और कलीसिया के काम में रुकावट डाली थी। कुछ समय बाद, कुछ भाई-बहनों ने शिकायत की कि मेरे चुने गए लोगों में से एक और इंसान बहुत अहंकारी स्‍वभाव का था। वह अपने कर्तव्‍यों को लेकर निरंकुश था, दूसरों के सुझावों को स्वीकार नहीं करता था और भाइयों-बहनों को फटकार लगाता और नियंत्रित करता था। काम में एक के बाद एक समस्या आती देख मैं अचानक सुन्न पड़ गई। मैं ऐसा महसूस कर रही थी जैसे मेरा सत्य का ज्ञान उथला है, मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं है। अगर और कोई गड़बड़ हुई और कलीसिया का काम प्रभावित हुआ तो यह बहुत बुरी बात होगी। ऐसा हुआ तो मेरे भविष्‍य और मेरी मंज़िल का क्या होगा? मैं फौरन अपना कर्तव्य त्याग कर कोई और काम करने की सोचने लगी। एक सुबह मुझे चक्कर सा आने लगा और मैंने देखा कि मेरा ब्लड प्रेशर सामान्य से बहुत ज़्यादा है। मैंने अपनी अगुआ को मेरी सेहत के बारे में बताया, और सोचा कि मेरी सेहत ठीक न होने के कारण अगरवे मुझे कोई दूसरा कर्तव्य सौंप दें तो अच्‍छा रहेगा। इससे मेरी ज़िम्मेदारियाँ भी कम हो जाएँगी। जो बहन मेरे साथ काम करती थी, मैंने अपने साथ काम करने वाली बहन से कहा, “अगर मुझे घर लौटने को कहा जाता है तो मैं ऐसा ही करना चाहूँगी और लौटने पर मुझे जो भी कर्तव्‍य दिया जाता है, उसे निभाऊँगी।” मेरे यह कहने पर बहन ने यह कहते हुए मेरी काट-छाँट की कि मैं नकारात्मकता दिखा रही हूँ, और मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। मैं यह मानना नहीं चाहती थी। मैंने सोचा कि मैं कोई भी कर्तव्य निभाने और उसका पालन करने को तैयार हूँ। इसमें नकारात्मकता दिखाने वाली कौनसी बात है? लेकिन, फिर मुझे एहसास हुआ कि उनकी बात में परमेश्वर की इच्छा है, इसलिए मैंने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, ताकि अपनी स्थिति जान सकूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपने देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंततः उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुस्कुराते, ‘उदार-हृदय’ व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के न्याय के वचनों और प्रकाशन से मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। क्या मैं बिल्‍कुल वैसी इंसान नहीं थी जैसा परमेश्वर ने उजागर किया? जब मुझे लगा कि मेरे कर्तव्य से मुझे आशीष मिलेगा, तो मैंने पूरे उत्साह से कड़ी मेहनत की। इसके विपरीत हुआ तो मैंन अचानक विरोधी बन गईऔर अब उस कर्तव्य को नहीं करना चाहती थी। मैं केवल अपने भविष्य और मंज़िल के बारे में सोच रही थी। अपने कर्तव्‍य में गलतियाँ करने के बाद भी, मैंने अपनी विफलताओं की रोशनी में न तो आत्मचिंतन किया, न ही सत्य खोजा, अपनी कमियाँ दूर करने और अपने कर्तव्‍य को बेहतरीन तरीके से निभाने की कोशिश तक नहीं की; बल्कि मैं तो ज़िम्मेदारी उठाने और अपना भविष्य खतरे में डालने से डरती रही। ब्लड प्रेशर की बीमारी का बहाना बनाकर, मैं इस कर्तव्य को कम करके इसकी जगह कम ज़िम्मेदारी वाला काम चाहती थी। मेरी बातें बाहर से तो तर्कपूर्ण लग रही थीं, लेकिन उनके पीछे मेरी घिनौनी मंशा छिपी हुई थी। मैं बहुत कपटी थी!

मैं अपनी आस्था में हमेशा आशीष के पीछे भागते रहने की असली वजह के बारे में विचार करने लगी। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह पुरस्कार पाने के लिए होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य निभाते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं दुःख का भी सामना कर सकते हैं : मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के इन वचनों से मैंने यह सीखा कि मैं हमेशा अपने भविष्‍य और मंज़िल के बारे में इसलिए सोचती रहती थी, क्योंकि शैतान ने मुझे गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “फ़ायदा न हो तो उंगली भी मत उठाओ,” जीवन जीने के ये शैतानी नियम लंबे समय सेमेरी प्रकृति बन चुके थे, जिससे मैं बहुत स्वार्थी, नीच, और खुदगर्ज़ बन गई थी। मैं अपने हर काम में सबसे पहले अपना फायदा देखती थी। जब मैंने बीते सालों में अपनी आस्था के मार्ग पर ध्यान दिया, तो कर्तव्य निभाने का मेरा पहला मकसद आशीष और इनाम पाकर आखिरकार स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करके एक अच्‍छी मंज़िल पाना था। मेरा अनेक वर्षों तक कड़ी मेहनत करना और कष्ट सहना परमेश्वर के लिए खुद को पूरी शिद्दत से खपाना या सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना नहीं था। ये सब परमेश्वर का इस्तेमाल करने, उसे धोखा देने और उससे सौदा करने के लिए था। यह परमेश्वर से प्रेम या उसे संतुष्ट करने के लिए कतई नहीं था। फिर मैं विश्वासी कैसे कहला सकती थी? यह परमेश्वर का अनुग्रह है कि मुझे एक अगुआ का प्रशिक्षण मिला—परमेश्वर की इच्छा थी कि मैं सत्य का इस्तेमाल करने का अभ्यास कर समस्या हल कर सकूँ, विवेक और समझ हासिल करूँ, लेकिन मैंने यह मौका नहीं सँजोया। मैंने खुद को सत्‍य से सु‍सज्जित नहीं किया, बस इस काम में घुस गई और अपने ही भविष्य और किस्मत के बारे में सोचती रही। मैं परमेश्वर के शत्रु केमार्ग पर चल रही थी। मैं जानती थी मुझे पश्चात्ताप करके सत्य खोजना होगा, नहीं तो कोई शक नहीं किमैं अंततः नष्‍ट हो जाऊँगी।

एक दिन मैंने धार्मिक कार्य के दौरान परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : “भ्रष्ट इंसान की आवश्यकताओं के कारण ही देहधारी परमेश्वर देह में आया है। परमेश्वर के समस्त बलिदान और कष्ट मनुष्य की आवश्यकताओं की वजह से हैं, न कि परमेश्वर की आवश्यकताओं के कारण, न ही वे स्वयं परमेश्वर के लाभ के लिए हैं। परमेश्वर के लिए कोई फायदे-नुकसान या प्रतिफल नहीं हैं; परमेश्वर भविष्य की कोई फसल नहीं काटेगा, बल्कि जो मूल रूप से उसका था, बस वही प्राप्त करेगा। वह इंसान के लिए जो कुछ करता और त्यागता है, इसलिए नहीं है कि वह कोई बड़ा प्रतिफल प्राप्त कर सके, बल्कि यह पूरी तरह इंसान के लिए ही है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है)। जब मैंने इस पर विचार किया, तो परमेश्वर के प्रेम से बहुत प्रेरित हुई। परमेश्वर जो किसर्वोच्च, पवित्र और सम्माननीय है, उसने अत्यंत भ्रष्ट मानवजाति को बचाने के लिए दो बार देहधारण किया, भयंकर अपमान और कष्ट का सामना किया। प्रभु यीशु अपना जीवन देकर मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए क्रूस पर चढ़ गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में चीन आया, वह इंसान को स्‍वच्‍छ बनाने और बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, और धार्मिक दुनिया और सीसीपी उसके पीछे पड़कर उसका उत्पीड़न औरतिरस्कार कर रही है। वह हमारे बीच काम करने के लिए सब सहता है, बदले में बिना कुछ पाए हमें अपने वचन देता है, ताकि हमें शैतान के प्रभाव से बचा सके। परमेश्वर अपने फायदे या नुकसान की सोचे बिना मानवजाति को बचाने के लिए कितनी बड़ी कीमतें चुकाता है। बदले में वह हमसे किसी भी चीज़ या किसी इनाम की उम्मीद नहीं रखता। वह हमसे कुछ नहीं चाहता। उसका प्रेम निस्वार्थ और सच्चा है। परमेश्वर का सार कितना सुंदर और अच्छा है! फिर खुद को देखा, मैं कहती हूँ कि मुझमें आस्था है, परमेश्वर को खुश करने की चाह है, लेकिन मैं उसके प्रति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी। मैं उसके लिए खुद को खपाने की बात सिर्फ इसलिए करतीथी ताकि आशीष पाने के लिए सौदेबाजीकर सकूँ। यह परमेश्वर का इस्तेमाल करना और उसे धोखा देना था। मैंने जाना कि मैं कितनी स्वार्थी, कपटी, नीच और बेशर्म थी। मेरे जैसी इंसान कितना भी बड़ा त्याग क्यों न करे, उसे परमेश्वर की स्वीकृति कभी नहीं मिलेगी। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह भी पढ़ा : “परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सृजित प्राणियों के तौर पर हमेंआशीष पाने के लिए आस्था नहीं रखनी चाहिए। सृजित प्राणियों के रूप में हमें परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण करना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। इसी में जीवन की सार्थकता है। मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं आशीष पाने के पीछे भागना बंद करकेतुम्हारे सामने पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मेरी अंतिम मंज़िल चाहे जैसी भी हो, मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान देना चाहती हूँ।” अपनी स्थिति ठीक करने के बाद, मेरा ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश भी पढ़े : “मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। “आखिरकार, लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर नहीं है कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि इस बात पर निर्भर है कि वे सत्य को समझ और हासिल कर सकते हैं या नहीं, और अंत में, वे पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं या नहीं, खुद को उसकी व्यवस्था की दया पर छोड़ सकते हैं या नहीं, अपने भविष्य और नियति पर कोई ध्यान न देकर एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हैं या नहीं। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और ये वे मानक हैं जिनका उपयोग वह पूरी मानवजाति को मापने के लिए करता है। ये मानक अपरिवर्तनीय हैं, और यह तुम्हें याद रखना चाहिए। इन मानकों को अपने मन में अंकित कर लो, और किसी अवास्तविक चीज को पाने की कोशिश करने के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूँढ़ने की मत सोचो। उद्धार पाने की इच्छा रखने वाले सभी लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक हमेशा के लिए अपरिवर्तनशील हैं। वे वैसे ही रहते हैं, फिर चाहे तुम कोई भी क्यों न हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के इन वचनों से मुझे यह समझने में मदद मिली कि हमें अंत में आशीष मिलेगा या श्राप, इसका हमारे कर्तव्य से कोई संबंध नहीं। पूरी तरह से बचाए जाने की कुंजी है कि क्या हम सत्य खोज और उसे प्राप्त कर पाते हैं, और अपने स्वभाव को बदल पाते हैं। मैं कब और क्या कर्तव्य निभाती हूँ, सब कुछ परमेश्वर तय करता है, मेरा परिणाम और मेरी मंज़िल तो और भी परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं के अधीन है। मुझे परमेश्वर के आयोजनों को स्वीकार करते हुए पूरे समर्पण के साथ अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरा कलीसिया के अगुआ के तौर पर कार्य करना परमेश्वर का मुझे पदोन्नत करना था और अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान वह मुझे अभ्यास करने और अपनी कमियों और खामियों को देखने का मौका दे रहा था। सत्य को खोजने और सत्य सिद्धांतों के सभी पहलुओं को समझने से जीवन में मेरी प्रगति बेहतर हो सकती थी। यह समझकर, मैंने अपने भविष्य और किस्मत के बारे में चिंता करना छोड़ दिया और अब मैं अपना कर्तव्य भी नहीं बदलना चाहती थी। अब मैं हर तरह की समस्या का हल करने के लिए, सत्य को खोजते हुए जड़ों से जुड़कर काम कर सकती थी। समय के साथ मैंने धीरे-धीरे कुछ सिद्धांतों को अच्छे से समझा और धीरे-धीरे अपने कर्तव्य में कम गलतियाँ करने लगी। परमेश्वर के शब्दों के अनुसार अभ्यास करना और अपने कर्तव्य में आशीष पाने की चाह न करना वास्तव में मेरे लिए मुक्त करने वाला था। परमेश्वर मेरे कर्तव्यों के निर्वहन में मुझे राह दिखाता रहा है, नतीजे भी बेहतर होते गए हैं। उद्धार के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर का शुक्रिया।

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