5. ईमानदारी से बोलने का संघर्ष

वेनीला, फ़िलीपीन्स

मैंने 2017 में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। भाई-बहनों के साथ सहभागिता में मेरा समय बहुत अच्छा बीतता था, क्योंकि मुझे हमेशा हर संगति से अधिक सत्य सीखने और कुछ हासिल करने को मिलता था। पहले यह सब चैट मैसेज लिखकर किया जाता था, यानी हम चैट बॉक्स से ऑनलाइन ही बात करते थे। इसलिए मैंने कुछ भी नहीं छिपाया, मैं परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ पर बड़ी सक्रियता से बात करती थी। अगुआ अक्सर कहती कि मुझे अच्छी समझ है और भाई-बहन भी मेरा आदर करते थे। वे कहते कि उन्हें मेरी संगति पसंद है और मेरी अंग्रेज़ी भी अच्छी थी। उनकी प्रशंसा सुनकर मैं रोमांचित हो गई, लगा मैं अच्छा काम कर रही हूँ। फिर एक बहन ने सुझाव दिया कि वॉइस कॉल से सभा करनी चाहिए, तब मेरी समस्याएं सामने आने लगीं।

वॉइस कॉल वाली सभा में, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, पहले कुछ बहनों ने उस अंश के बारे में अपनी समझ साझा की। मगर घबराहट के मारे मैंने उनकी सहभागिता सुनी ही नहीं। पहले यह सब टेक्स्ट मैसेज के ज़रिए होता था, मुझे वॉइस कॉल से सीधे सहभागिता करने की आदत नहीं थी। आमने सामने बात करना मेरी कमज़ोरी थी। मैसेज लिखकर सहभागिता करने पर, मैं अपने शब्दों को चुनकर उसे संवार सकती थी। मगर लाइव चैट में, मेरे पास तैयारी करने का समय नहीं होता था। भले ही मुझे परमेश्वर के वचनों की कुछ समझ थी, मगर मुझे डर था कि मेरी सहभागिता बहुत गड़बड़ और बेतरतीब होगी, मैं ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पाऊँगी, इसलिए डरती थी कि भाई-बहन मुझसे निराश होंगे। पूरी सभा में मेरा मन इन्हीं समस्याओं में लगा रहता था। संगति साझा करनी चाहिए, नहीं करनी चाहिए इसी हिचकिचाहट में रहती। अगर मैंने नहीं किया, तो दूसरों को पक्का लगेगा कि मैं संगति में सक्रिय रूप से भाग नहीं ले रही और अगुआ मुझसे निराश होंगी। अगर साझा किया, तो मुझे माइक्रोफोन ऑन करना पड़ेगा, और मुझे डर लगता कि कोई गड़बड़ हो गई, तो भाई-बहन मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचेंगे। इससे उनके बीच बनी मेरी अच्छी छवि बिगड़ जाएगी। ये सोचकर मुझे इतनी घबराहट हुई कि मैंने संगति कि ही नहीं। जिन दो बहनों ने मेरा मत-परिवर्तन किया था वे भी सभा में मौजूद थीं, मुझे लगा कि अगर मैंने ठीक से संगति नहीं की तो उन्हें निराशा होगी। फिर एक अगुआ, फ्लोरा शी ने मुझसे कहा, “बहन वेनीला, क्या आप कुछ कहेंगी? सबने अपनी बात कह ली है। क्या आप सहभागिता करना भूल गईं?” उनके लहजे से मुझे लगा कि वो बहुत निराश हैं। मुझे बहुत बुरा लगा और शर्मिंदगी भी हुई। अपनी इस कमी को छिपाने और उनकी नज़रों में अच्छी छवि बनाये रखने के लिए, मैंने तय किया कि अब से मुझे सहभागिता में जो भी कहना होगा, वो मैं सभा से पहले लिख लूंगी, मेरी बारी आने पर बस उसे पढ़कर सुना दूँगी। तब मुझे घबराहट नहीं होगी। इससे उनको लगेगा कि मैं धाराप्रवाह वक्ता हूँ, मेरी सहभागिता बिल्कुल सटीक है। मुझे लगा यह एक अच्छा विचार है।

एक दिन शाम को, चीन की दो बहनों ने हमारी सभा की मेजबानी की। हम सबने सुविधा के लिए अंग्रेज़ी में बातचीत की। कुछ भाई-बहनों को बहुत संकोच हो रहा था क्योंकि उनकी अंग्रेज़ी बहुत अच्छी नहीं थी, मगर फिर भी उन्होंने परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ पर सहभागिता की। जब मेरी बारी आई, तो मैं अपनी सहभागिता में सक्रिय थी और काफी आत्मविश्वासी दिख रही थी, क्योंकि मुझे जो कहना था वो मैंने पहले ही लिख लिया था। मैं सहभागिता करने वाली अंतिम थी। मैंने बिल्कुल स्वाभाविक तरीके से बोलने की पूरी कोशिश की, ताकि उन्हें पता न चले कि मैं पढ़ रही हूँ। उसके बाद, उन सबने मेरी सहभागिता की प्रशंसा की और कहा कि यह उनके लिए मददगार थी और मेरी अंग्रेज़ी भी अच्छी थी। उनकी प्रशंसा सुनकर मैं मन-ही-मन बहुत खुश थी, मैंने उनका मन जीत लिया था। फिर मुझे समूह की अगुआ चुन लिया गया और दूसरे मेरे बारे में जो सोचते, मैं इस पर और ध्यान देने लगी। पर जब दूसरे मेरी प्रशंसा करते, तो मुझे अपराध-बोध होने लगता क्योंकि मैं उन्हें अपना असली चेहरा देखने नहीं दे रही थी। मुझे यह सब ठीक नहीं लगा, मगर फिर भी कोई बदलाव नहीं किया। सभाओं में, मैं दूसरों की सहभागिता नहीं सुनती थी क्योंकि मैं अपनी समझ के बारे में लिखने में व्यस्त रहती थी। मैं हमेशा ऐसा कुछ लिखने पर ध्यान देती थी जो सुनने में अच्छा लगे, जो मेरे अहंकार को संतुष्ट करे और मेरे रुतबे की रक्षा करे। इसके कारण मैं सभाओं से ज्यादा हासिल नहीं कर पा रही थी और मेरे लिए उनका कोई मतलब न रहा। मुझे पता था ऐसे काम करना बुरा है, और मैं बदलना चाहती थी, सबको सच बताना चाहती थी, मगर ऐसा करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मुझे डर था कि अगर सब जान गए कि मैं अपनी संगति की बातें पहले से लिख लेती हूँ, तो वे मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचेंगे, वे यह भी कह सकते हैं कि मैं बहुत कपटी हूँ, झूठ बोलकर धोखा दे रही थी। मैं कई बार ऐसा करने से खुद को रोकना चाहती थी, क्योंकि इससे मुझे कोई फायदा नहीं हो रहा था, मैं बहुत परेशान हो गई थी, मगर वह चिंता मेरी छवि और दूसरों की प्रशंसा के मुकाबले ज़्यादा देर ठहर नहीं पाई, क्योंकि मुझे अपने नाम और रुतबे की परवाह अधिक थी। मगर मैं जब भी ऐसी चीजें करती, मुझे बहुत अपराध-बोध होता। मैंने तो खुद को यह समझाने की भी कोशिश की, मैं ऐसा सिर्फ इसलिए कर रही हूँ ताकि अपनी समझ साफ और स्पष्ट तरीके से साझा कर सकूँ, इससे दूसरे मेरी बात को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। मैं खुद से यही कहती रही कि ये ठीक है, मगर अपराध-बोध और बेचैनी मुझे सताती रही। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं अपने अहंकार को त्यागकर सबको सच बता दूँ, तो इससे बच पाऊँगी। लेकिन मुझे डर लगा रहता है अगर उन्हें पता चल गया कि मेरी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं है, तो वे मुझ पर हँसेंगे। फिर मैं उनका सामना कैसे कर पाऊँगी?” मैं काफी समय तक इस समस्या से जूझती रही, मगर फिर भी खुलकर कुछ नहीं बोल पाई। जब कुछ भी समझ नहीं आया, तो मैं अपनी भाषा सुधारने में जुट गई। मैं घर पर अकेले सहभागिता का अभ्यास करने लगी, खुद की रिकॉर्डिंग करती फिर सुनकर देखती कि कैसा लग रहा है। मैंने सोचा, “अगर इस तरह धीरे-धीरे मैं अपने बोलने का तरीका सुधार लूं, फिर मुझे पहले से अपनी सहभागिता लिखकर नहीं रखनी होगी, और मैं सीधे इसे सभा में साझा कर पाऊँगी। उसके बाद सबको सच बताने की ज़रूरत नहीं होगी। अगर मैं धाराप्रवाह अंग्रेजी के साथ अच्छे से सहभागिता कर सकी, तो मेरे लिए उनका सम्मान बना रहेगा।” मगर मैं चाहे जितना भी अभ्यास करती, हर बार सभा में संगति करते हुए बहुत घबरा जाती थी, इसलिए मैं पहले की तरह अपनी सहभागिता पढ़कर सुनाती रही। मैं खुद से निराश थी और क्योंकि मैं एक नकारात्मक स्थिति में फंस गई थी, इसका असर मेरे कर्तव्यों पर भी पड़ा। अंत में मुझे बर्खास्त कर दिया गया।

एक बार सभा में, एक बहन ने परमेश्वर के वचनों का यह अंश साझा किया, जिसने मुझे बहुत प्रेरित किया, परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर भरोसा करें, तो पहले तुम्हें ईमानदार होना चाहिए। ईमानदार होने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल खोल कर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें बहुरुपिया बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली शर्त है। अगर तुम हमेशा बहाने बनाते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का दिखावा करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी सच्चाई पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और झूठ नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो बहुरुपिया मत बनो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपना दिल खोल कर रख दो। अगर तुम दूसरों के देखने के लिए अपना दिल खोल कर रख सकते हो, अगर तुम अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के विचारों और योजनाओं को खोल कर रख सकते हो—तो क्या यह ईमानदारी नहीं है? अगर तुम दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख सकते हो, तो परमेश्वर भी तुम्हें देखेगा। वह कहेगा : ‘अगर तुमने दूसरों के देखने के लिए खुद को खोल कर रख दिया है, तो तुम यकीनन मेरे समक्ष ईमानदार हो।’ लेकिन अगर तुम दूसरे लोगों की दृष्टि से दूर होने पर सिर्फ परमेश्वर के सामने खुद को खोल कर रखते हो, और दूसरे लोगों के साथ होने पर हमेशा महान, कुलीन या निस्वार्थ होने का दिखावा करते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? वह क्या कहेगा? वह कहेगा : ‘तुम पूरी तरह धोखेबाज हो। पूरी तरह पाखंडी और दुष्ट हो, तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो।’ परमेश्वर इस तरह तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम ईमानदार बनना चाहते हो, तो तुम चाहे परमेश्वर के सामने रहो या दूसरे लोगों के सामने, तुम्हें अपनी भीतरी दशा और अपने दिल की बातों का शुद्ध और खुला हिसाब पेश करने में समर्थ होना चाहिए। क्या ऐसा कर पाना आसान है? इसके लिए कुछ समय तक प्रशिक्षण और परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना कर उस पर भरोसा करने की जरूरत है। तुम्हें हर विषय पर अपने दिल की बात को सरल ढंग से खुलकर बोलने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना होगा। ऐसे प्रशिक्षण से तुम तरक्की कर सकोगे। अगर तुम्हारे सामने कोई बड़ी मुश्किल आए तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य को खोजना चाहिए; जब तक कि तुम सत्य का अभ्यास न कर लो, तुम्हें अपने दिल में युद्ध कर देह को जीतना चाहिए। खुद को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से थोड़ा-थोड़ा करके तुम्हारा दिल धीरे-धीरे खुल जाएगा। तुम और ज्यादा शुद्ध हो जाओगे, तुम्हारे कथन और कार्य के प्रभाव पहले से अलग होंगे। तुम्हारी झूठी बातें और चालबाजी धीरे-धीरे कम होती जाएँगी और तुम परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे। फिर तुम अनिवार्य रूप से ईमानदार व्यक्ति बन चुके होगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, उसे कपट और बेईमानी पसंद नहीं है। चाहे हमारा सच अच्छा हो या बुरा, सहभागिता में हमें सब कुछ दिल खोलकर बताना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, हमारे दिल में कपट नहीं होना चाहिए। हमें दूसरों के सामने ऐसा बनने का ढ़ोंग नहीं करना चाहिए जो हम नहीं हैं और हमें मुखौटा नहीं लगाना चाहिए। यही ईमानदार होना है। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर मैं खुद को दोषी समझने लगी, क्योंकि मैं ईमानदार इंसान नहीं थी। मैं सबके सामने खुलकर बोलना चाहती थी, ताकि अहंकार और प्रतिष्ठा को त्याग सकूँ, मैंने कई बार इसे त्यागने की कोशिश भी की, मगर कामयाब नहीं हो पाई। मुझे अपनी छवि की बहुत परवाह थी। मैं अपने ही अहंकार में कैद थी। मैंने देखा कि मैं वाकई बहुत भ्रष्ट थी। मुझे अपराध-बोध के साथ-साथ खीझ भी महसूस हुई। मैंने मन में सोचा, “मैं हमेशा दिखावा करके लोगों के बीच अपनी झूठी सकारात्मक छवि पेश क्यों करती थी? मैं सत्य पर अमल क्यों नहीं कर सकती, झूठ बोलना बंद क्यों नहीं कर सकती? क्या परमेश्वर में मेरी आस्था व्यर्थ थी? क्या वे सभी सभाएं और सत्य का अनुसरण करना बेकार हो गया?” मुझे लगा जैसे मैं कभी अपने अहंकार के बंधनों से नहीं निकल सकती। मैं अपने समूह को छोड़कर कुछ वक्त खुद को फिर से सही स्थिति में लाने में देना चाहती थी, एक बार खुद की स्थिति अच्छे से संभाल लेने के बाद सभाओं में लौटकर ऐसी चीज़ें करना बंद कर सकूँ। इसलिए मैं ग्रुप से निकल गई और अपने अकाउंट का इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया, मैं अकेले रहकर आत्मचिंतन करना चाहती थी। कुछ समय तक मैं बहुत निराश, परेशान और अकेली भी रही। मैं खुद से बेहद निराश थी। मैं दो सालों से विश्वासी थी, मगर अब तक ईमानदार बनने और अपने अहंकार को त्यागने में संघर्ष कर रही थी। मुझे अपने बारे में दूसरों की राय की बहुत परवाह थी। सच जानने के बाद दूसरों की प्रतिक्रिया के बारे में सोचते ही मैं बहुत शर्मिंदा हो जाती थी।

उस दौरान मैं सिर्फ परमेश्वर के वचन पढ़ सक ती थी। एक दिन मैंने ये अंश देखा : “सत्य का अनुसरण करने के लिए हमें सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन सत्य का अभ्यास कहाँ से शुरू किया जाए? इसके लिए कोई नियम नहीं हैं? तुम सत्य के जिस किसी पहलू को समझते हो, उसका अभ्यास करना चाहिए। अगर तुम कर्तव्य निभाना शुरू कर चुके हो, तो अपने कर्तव्य पालन में सत्य का अभ्यास करना शुरू कर दो। अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अभ्यास करने के लिए कई पहलू होते हैं, और तुम जिस किसी पहलू को समझते हो उसका अभ्यास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, तुम ईमानदार इंसान बनकर, ईमानदारी से बात करके और अपना दिल खोलकर शुरुआत कर सकते हो। अगर ऐसी कोई बात है जिस पर अपने भाई-बहनों से चर्चा करते हुए तुमको शर्म आती है, तो तुम्हें परमेश्वर के आगे घुटनों के बल झुककर, प्रार्थना के माध्यम से उनसे अपनी बात कह देनी चाहिये। तुमको परमेश्वर से क्या कहना चाहिए? तुम परमेश्वर से अपने दिल की बात कहो। तुम उनसे खुश करने वाली खोखली बातें न करो या उन्हें धोखा देने की कोशिश न करो। ईमानदार होने से शुरुआत करो। अगर तुम दुर्बल हो, तो उनसे कहो कि तुम दुर्बल हो; अगर तुम दुष्ट हो, तो कहो कि तुम दुष्ट हो; अगर कपटी हो, तो कहो कि तुम कपटी हो; अगर तुम्हारे मन में गंदे और धोखेबाजी के विचार आते हैं, तो तुम परमेश्वर से ऐसा कहो। अगर तुम हमेशा पद के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहते हो, तो उसे यह भी बताओ। परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने दो; उसे तुम्हारे लिये परिवेश बनाने दो। परमेश्वर को अवसर दो कि वह तमाम मुश्किलें पार करने और सारी समस्याएँ दूर करने में तुम्हारी मदद करे। तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना दिल खोल देना चाहिये; उसे बंद न रखो। अगर तुम परमेश्वर के लिये अपने दिल के दरवाजे बंद भी कर देते हो, तो भी वह तुम्हारे अंदर देख सकता है। लेकिन अगर तुम उसके सामने अपना दिल खोलते हो, तो तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो। तो तुम्हें कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए? तुम्हें अपना दिल खोलकर परमेश्वर से अपने दिल की बात कहनी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें कोई झूठी बात नहीं कहनी चाहिए या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तुम्हें ईमानदार इंसान बनकर शुरुआत करनी चाहिए। बरसों से हम ईमानदार इंसान बनने संबंधी सत्य पर संगति करते आ रहे हैं, फिर भी अभी तक ऐसे अनेक लोग हैं जो इसके प्रति उदासीन बने हुए हैं जो सिर्फ अपने इरादों, इच्छाओं और लक्ष्यों के अनुरूप बोलते और काम करते हैं और जिन्होंने कभी भी पश्चात्ताप करने की नहीं सोची है। यह ईमानदार लोगों का रवैया नहीं है। परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा क्यों करता है? क्या इसका उद्देश्य लोगों को सरलता से समझना है? बेशक नहीं। परमेश्वर लोगों को ईमानदार बनने को इसलिए कहता है क्योंकि वह ईमानदार लोगों से प्रेम करता है और उन्हें आशीष देता है। ईमानदार इंसान होने का अर्थ है अंतरात्मा और विवेक युक्त व्यक्ति होना। इसका अर्थ है भरोसेमंद होना, ऐसा व्यक्ति जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, और जो सत्य का अभ्यास और परमेश्वर से प्रेम कर सके। ईमानदार इंसान होना सामान्य मानवता होने और सच्चे मनुष्य जैसा जीवन जीने की सबसे मूल अभिव्यक्ति है। अगर कोई व्यक्ति कभी भी ईमानदार नहीं रहा या उसने ईमानदार बनने की नहीं सोची, तो फिर उसके लिए सत्य हासिल करना तो बहुत दूर रहा, वह सत्य को समझ भी नहीं सकता है। अगर तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते, तो जाओ और खुद परख लो या इसका खुद अनुभव कर लो। केवल ईमानदार बनकर ही तुम्हारे दिल के द्वार परमेश्वर के लिए खुल पाएँगे, तुम सत्य स्वीकार कर पाओगे, सत्य तुम्हारा जीवन बन सकेगा और तुम सत्य को समझ और हासिल कर सकोगे। अगर तुम्हारे दिल के दरवाजे हमेशा बंद रहते हैं, अगर तुम खुलकर नहीं बोलते हो या अपने दिल की बात किसी को नहीं बताते, इस कदर कि कोई भी तुम्हें समझ नहीं सकता तो फिर तुम बड़े ही घुन्ने हो और सबसे धोखेबाज लोगों में शामिल हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन खुद को परमेश्वर के सामने शुद्ध मन से नहीं खोल सकते, अगर तुम परमेश्वर से झूठ बोल सकते हो या उसे धोखा देने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर बात कर सकते हो, अगर तुम परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलने में असमर्थ हो, और अब भी घिसी-पिटी बातें करके अपनी मंशा छिपा सकते हो, तो फिर तुम अपना ही नुकसान कर रहे होगे और परमेश्वर तुम्हारी उपेक्षा करेगा और तुम पर कार्य नहीं करेगा। तुम न कोई सत्य समझ पाओगे, न कोई सत्य हासिल कर सकोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। इस अंश से मुझे पता चला कि सत्य को समझना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, मेरी इज़्ज़त और अहंकार से कहीं ज़्यादा। सत्य को पाने के लिए, मुझे ईमानदार बनने की कोशिश करनी होगी। सब कुछ साफ होना चाहिए, कोई दिखावा या धोखेबाजी नहीं चलेगी। काफी समय से, मैं दिखावा कर रही थी, दूसरों को धोखा दे रही थी। जो सहभागिता करना चाहती, उसे लिख लेती थी, ताकि उनको लगे कि मुझमें अच्छी समझ है और मैं अच्छी अंग्रेज़ी बोलती हूँ, जिससे कि वे मेरी प्रशंसा करते रहें और मुझे सम्मान की नज़र से देखें। भले ही मैं अपराध-बोध और घबराहट से परेशान थी, मगर मुझमें भाई-बहनों के सामने खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं थी। मैं नहीं चाहती थी कि वे मेरी कमियां देखें और मेरे बारे में नीचा सोचें या मुझे झूठी कहें। मैंने सच कहने के बजाय अपने समूह को छोड़ देना ही बेहतर समझा। मैं वाकई कपटी थी। मुझे एहसास हुआ, इतनी निराश होने का मतलब है कि शैतान मुझे नुकसान पहुंचा रहा था और इस तरह से जीना मेरे जीवन प्रवेश के रास्ते की रुकावट भी था। ये मुझे बर्बाद भी कर सकता था। मुझमें दूसरों को अपने दिल की बात बनाते की हिम्मत करनी चाहिए, ताकि मैं थोड़ी ईमानदारी का अभ्यास कर सकूँ। सच बताने में चाहे कितना भी बुरा क्यों न लगे, मैं जानती थी कि मुझे गलत तरीके से काम करने से बचना ही होगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद और कपटी लोगों से नफ़रत करता है। अगर मैं दिखावा करती रही, दूसरों के बीच अपनी झूठी छवि बनाती रही और साफदिल नहीं रही, तो मैं अँधेरे में जीती रहूँगी और कभी पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करने में समर्थ नहीं होऊँगी। मैं कभी सत्य को नहीं पा सकूँगी। मुझे परमेश्वर के सामने सब खुलकर बताना होगा ताकि वह मेरे भीतर की इस धूर्तता को खत्म करने में मेरी मदद कर सके। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वो मुझे सत्य पर अमल करके ईमानदार इंसान बनने में मेरा मार्गदर्शन करे।

आखिरकार, मैंने अपनी अगुआ, बहन कॉनी से खुलकर संगति की, कि क्यों मैंने अपना ग्रुप छोड़ा और अपना अकाउंट बंद किया। मेरी बातें सुनने के बाद, बहन कॉनी ने कहा, “इसके लिए मैं कभी आपको नीचा नहीं समझूँगी, मैं आपकी ईमानदारी की बहुत सराहना करती हूँ।” उनके साथ खुलकर संगति करके मुझे बहुत राहत मिली। मैंने सचमुच अनुभव किया कि ईमानदार बनना कितना अच्छा है, क्योंकि सत्य के अभ्यास ने मुझे सारी चिंताओं से मुक्त कर दिया। बहन कॉनी ने मुझे कुछ सलाह भी दी, जैसे परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ को साझा करते समय, मुझे बहुत कुशलता से बोलने या किसी तरह का उच्च-स्तरीय सिद्धांत साझा करने की ज़रूरत नहीं है। बस दिल से अपनी बात कह देना ही काफी है, जो मैं सचमुच महसूस करती और जानती हूँ वही कहना काफी है। मैं उनके सुझाव को मानकर फौरन इसे अमल में लाने को तैयार हो गई।

उसके बाद, एक और बहन ने परमेश्वर के वचनों का यह अंश मुझे भेजा, जो बहुत प्रबोधक था। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका सम्मान करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं। वे हर चमकने वाली चीज के पीछे भागते हैं, जिससे सभी को पता चल जाता है कि वे उसका हिस्सा थे। इसका वास्तव में उनसे कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन वे कभी पृष्ठभूमि में नहीं रहना चाहते, वे हमेशा अन्य लोगों द्वारा नीची निगाह से देखे जाने से डरते हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों द्वारा यह कहे जाने से डरते हैं कि वे कुछ नहीं हैं, कि वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कि उनके पास कोई कौशल नहीं है। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? जब तुम इज्जत और हैसियत जैसी चीजें छोड़ने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भीतर अधिक निश्चिंत और अधिक मुक्त हो पाते हो; तुम ईमानदार होने की राह पर कदम रख देते हो। लेकिन कई लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान नहीं होता। मिसाल के लिए, जब कैमरा दिखता है, तो लोग आगे आने के लिए धक्कामुक्की करने लगते हैं; वे कैमरे में दिखना पसंद करते हैं, जितनी ज्यादा कवरेज, उतनी बेहतर; वे पर्याप्त कवरेज न मिलने से डरते हैं और उसे प्राप्त करने का अवसर पाने के लिए हर कीमत चुकाते हैं। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? ये उनके शैतानी स्वभाव हैं। तो तुम्हें कवरेज मिल जाती है—फिर क्या? लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखते हैं—तो क्या? वे तुम्हारी आराधना करते हैं—तो क्या? क्या इनमें से कोई भी चीज साबित करती है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? इसमें से किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं है। जब तुम इन चीजों पर काबू पा लेते हो—जब तुम इनके प्रति उदासीन हो जाते हो और इन्हें महत्वपूर्ण नहीं समझते, जब इज्जत, अभिमान, हैसियत, और लोगों की सराहना तुम्हारे विचारों और व्यवहार को अब नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारे कर्तव्य-पालन के तरीके को तो बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं करते—तब तुम्हारा कर्तव्य-पालन और भी प्रभावी हो जाता है, और भी शुद्ध हो जाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर यह खुलासा करता है कि कैसे लोग अपने जीवन से ज़्यादा अपनी इज़्ज़त और रुतबे को अहमियत देते हैं, कोई समस्या आने पर वे परमेश्वर की इच्छा के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते, बल्कि सबसे पहले अपने रुतबे, अहंकार और पद के बारे में सोचते हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि हम दिखावा करें, अपने रुतबे को सबसे पहले रखें या लोगों के बीच अपने रुतबे की परवाह करें। इन चीजों से हमें परमेश्वर की स्वीकृति पाने में मदद नहीं मिलेगी, ये हमारा स्वभाव नहीं बदल सकतीं या हमें बचा नहीं सकतीं। नाम और रुतबे वे तरीके हैं जिनसे शैतान हमें भ्रष्ट करता और बाँधता है, इन चीज़ों के पीछे भागने से हम कहीं ज़्यादा अहंकारी और कपटी बन जाते हैं। इस तरह हम परमेश्वर द्वारा उद्धार का मौका भी खो देंगे। परमेश्वर कपटी लोगों को पसंद नहीं करता, वह नहीं चाहता कि दूसरों से प्रशंसा या सराहना पाने के लिए लोग खेल खेलें। वह चाहता है कि हम इज़्ज़त और रुतबे की परवाह न करें, सत्य की खोज कर ईमानदार बनें। परमेश्वर के सामने हो या दूसरों के सामने, हम कपटी या धूर्त नहीं बन सकते। मैं दूसरों के सामने खुलकर बोलने या अपने संघर्ष की बातें साझा करने में निरंतर विफल रही, क्योंकि मुझे अपनी इज़्ज़त और अहंकार की बहुत अधिक परवाह थी। अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़ी, मैं सत्य पर अमल नहीं कर पाई। इज़्ज़त और रुतबे की मेरी चाह बहुत तीव्र थी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “क्या तुम कहोगे कि लोगों को खरीदने और फुसलाने के लिए छोटे-मोटे एहसानों का उपयोग करना या दिखावा करना या लोगों को भ्रमित कर धोखा देना एक अच्छा मार्ग है, भले ही इससे व्यक्ति को बाहरी तौर पर कितने भी लाभ और कितनी भी संतुष्टि मिलती प्रतीत हो? क्या यह सत्य की खोज का मार्ग है? क्या यह ऐसा मार्ग है, जो किसी का उद्धार कर सकता है? बहुत स्पष्ट रूप से, नहीं। ये तरीके और तरकीबें चाहे कितने भी शानदार तरीके से कल्पित की गई हों, परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकतीं, और अंततः परमेश्वर उन सभी की निंदा और उनसे घृणा करता है, क्योंकि इस तरह के व्यवहारों के पीछे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और अपने आप को परमेश्वर के खिलाफ रखने के एक तरह के रवैये और इच्छा का सार छिपा होता है। मन ही मन परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को कभी भी ऐसे इंसान के रूप में नहीं पहचानेगा, जो अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है, बल्कि उन्हें कुकर्मी के रूप में परिभाषित करेगा। कुकर्मियों के साथ व्यवहार करते समय परमेश्वर का निष्कर्ष क्या होता है? ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ जब परमेश्वर कहता है, ‘मेरे पास से चले जाओ,’ तो वह ऐसे लोगों को कहाँ भेजना चाहता है? वह उन्हें शैतान को सौंप रहा होता है, ऐसे स्थानों में जहाँ शैतानों का जमावड़ा है। उनका अंतिम परिणाम क्या होता है? उन्हें बुरी आत्माओं द्वारा यातना दे-देकर मार दिया जाता है, जिसका अर्थ है कि उन्हें शैतान द्वारा निगल लिया जाता है। परमेश्वर को अब ऐसे व्यक्ति की जरूरत नहीं। उसे जरूरत न होने का मतलब है कि वह उसे नहीं बचाएगा। वह परमेश्वर के झुंड में से एक नहीं है, उसके अनुयायियों में से एक तो बिल्कुल भी नहीं है, इसलिए वह उन लोगों में नहीं है, जिन्हें वह बचाएगा। ऐसा व्यक्ति इसी तरह परिभाषित किया जाता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने जाना कि लोग पाखंडी और नकली होते हैं ताकि दूसरे लोगों के दिलों में जगह बना सकें। भले ही वे दूसरों का सम्मान पाकर अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर लेते हैं, मगर अंत में उन्हें क्या हासिल होता है? इस तरह काम करके वे कुछ पल के लिए लोगों को मूर्ख बना सकते हैं, मगर परमेश्वर को नहीं। अंत में वे परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिए और निकाल दिए जाएंगे। क्योंकि परमेश्वर पवित्र है, वह ऐसे लोगों से नफ़रत करता है जो सत्य नहीं खोजते और अपनी मंशाएं रखते हैं, जो चोरी से लोगों के दिलों में जगह बनाना चाहते हैं। परमेश्वर उन्हें कुकर्मी मानता है और उनके कर्तव्यों को स्वीकार नहीं करता है। मैंने अपने व्यवहार पर चिंतन किया और मुझे एहसास हुआ कि मैं सचमुच परमेश्वर का विरोध करने के गलत मार्ग पर चल पड़ी थी, क्योंकि मेरे सारे विचार और कर्म दूसरों की प्रशंसा और सम्मान पाने के लिए थे। अगर मैं ऐसे ही काम करती रही, तो आखिर में बर्बाद हो जाउंगी। इस बात पर, मुझे कई बातों का डर सताने लगा, मुझे डर था कि परमेश्वर मुझे छोड़ देगा, मुझे डर था कि परमेश्वर मुझे शैतान को सौंप देगा और मुझे डर था कि मैं परमेश्वर का उद्धार गंवा दूँगी। मैं सचमुच बदलना चाहती थी, उस स्थिति से बचकर खुद को जानना चाहती थी, और फिर कभी झूठ बोलना या धोखा देना नहीं बनना चाहती थी।

पर जब सच में अभ्यास करने का समय आया, तो अपनी भ्रष्टता और कमियों के बारे में भाई-बहनों से खुलकर बात करने के विचार पर, मुझे बहुत संकोच हुआ। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे साहस मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना किसी बंधन या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन-प्रवेश की ओर पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखने की आवश्यकता है, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों से पीछा छुड़ाओ जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपने चालाक स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठ बोलना और धोखेबाजी है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से घृणा करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और आज्ञाकारिता की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते, दिखावा नहीं करते, ढोंग नहीं करते, चीजें नहीं छिपाते, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर के वचन वाकई लोगों को बदल सकते हैं। जब हम अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बोलना और सत्य खोजना सीख जाते हैं, तो हमारे गलत विचार और भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे बदल सकते हैं। परमेश्वर ने मेरी गलत सोच को उजागर किया, नाम और रुतबे के पीछे भागने की मेरी गलत मंशा का खुलासा किया, फिर उसने अपने वचनों के ज़रिए अभ्यास का सही मार्ग ढूंढने में मेरा मार्गदर्शन किया। मुझे दूसरों के सामने खुलकर बोलने के लिए, अपने नाम और इज़्ज़त के बारे में नहीं सोचने, और दुष्ट, धूर्त और कपटी नहीं बनने के लिए पहला कदम उठाना था। मुझे परमेश्वर के वचनों पर अमल करना था और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने देना था।

उस रविवार की सुबह, मैं हमेशा की तरह सभा में शामिल हुई और खुद को समझाया कि मुझे ईमानदार बनना है। मैंने प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, इस बार में सत्य पर अमल करना चाहती हूँ, ताकि शैतान की बेड़ियों से बचकर अपने पाखंड और कपट का खुलासा कर सकूँ। अगर लोग मेरे बारे में नीचा सोचें तो भी, मैं बस एक ईमानदार इंसान बनना चाहती हूँ ताकि तुम्हें संतुष्ट कर सकूँ, मेरी मदद करो ताकि मैं खुलकर, ईमानदारी से अपनी बात कह सकूँ।” इस प्रार्थना के बाद मुझे और भी सुकून मिला। सभा के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, दूसरों के अनुभव और समझ से जुड़ी उनकी सहभागिता को बहुत मन लगाकर सुना। मैंने उस समय को अपनी सहभागिता लिखने में नहीं गंवाया और यह नहीं सोचा कि किस तरह की सहभागिता सबको पसंद होगी। ऐसा करने पर, मुझे दूसरों के अनुभवों से जुड़ी सहभागिता से नया प्रबोधन हासिल हुआ। जब मैं सहभागिता करने वाली थी, तो भले ही मैं थोड़ा घबराई हुई थी, मैं यह नहीं सोच रही थी कि मेरी सहभागिता कितनी अच्छी या स्पष्ट है, वे सब कुछ जानकर क्या कहेंगे इस बारे में नहीं सोचा। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश की बात की जिसने मुझे बहुत प्रेरित किया था : “ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। ... यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को मैंने अपने अनुभव से जोड़ दिया, और अपने भाई-बहनों के सामने अपना असली चेहरा पूरी तरह उजागर कर दिया। मैंने उन्हें बताया, “इस दौरान, मैं लगातार दिखावे करती रही, धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने का नाटक करती रही। सच तो ये है कि मैं पहले से अपनी सारी सहभागिता लिख लेती थी, अभ्यास करने के लिए इसे रिकॉर्ड भी करती थी, ताकि यह स्वाभाविक लगे और आप सोचें कि मैं अच्छे संगति कर सकती हूँ। यह सब सिर्फ आपकी प्रशंसा पाने और सराहना पाने के लिए था। मैं आप लोगों को धोखा दे रही थी। ...” मुझे लगा था वे मुझसे निराश होंगे, लेकिन ऐसा नहीं था, मगर उन्होंने कहा कि अच्छे से सहभागिता नहीं कर पाने को लेकर चिंता करने की ज़रूरत नहीं। परमेश्वर चाहता है हम ईमानदार बनें, लच्छेदार और अव्यावहारिक बातें न करें। अगर मैं दिल से सहभागिता न करूँ, सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांत की बात करूँ, तो इसका क्या फायदा? इससे मैं बहुत अधिक प्रेरित हुई। वे मेरे बारे में बिल्कुल भी नीचा नहीं सोच रहे थे, कुछ लोगों ने तो यह भी कहा कि वे समझ सकते हैं मैंने ये सब क्यों किया, और मेरे अनुभव से उन्हें मदद मिली है। यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था। अपनी भ्रष्टता के बारे में सबको खुलकर बता देने के बाद, मुझे मुक्ति का एहसास हुआ। शैतान हमें सत्य पर अमल करने से रोकने और मुझे बांधने के लिए अहंकार और रुतबे का इस्तेमाल करता है, मगर परमेश्वर के वचनों के ज़रिए खुद को जानने और ईमानदार इंसान बनकर दिल से अपनी बात कह देने के बाद, मुझे लगा कि मैं परमेश्वर के और करीब आ गई हूँ, मैंने अपने और भाई-बहनों के बीच की आशंकाओं और बाधाओं को दूर कर दिया है। काफी समय तक, मैंने अपने अहंकार को संतुष्ट करने और दूसरों की प्रशंसा का आनंद लेने के लिए भेष धारण किया, मगर परमेश्वर ऐसा नहीं चाहता था। दरअसल, मैं काफी समय से परमेश्वर का दिल दुखा रही थी। मगर परमेश्वर हमेशा मुझे माफ कर देता था और धीरज रखकर मेरे बदलने का इंतज़ार कर रहा था। मैं परमेश्वर के प्रेम की बहुत आभारी हूँ।

इस अनुभव ने मुझे सत्य का अनुसरण करने के अगाध महत्व के बारे में सिखाया। शैतानी स्वभाव की बेड़ियों से बचने का एकमात्र तरीका है ईमानदार इंसान बनना और सत्य पर अमल करना। सच्ची खुशी और सुकून पाने का एकमात्र तरीका है सत्य का अभ्यास करना। मैं बहुत चालाक और पाखंडी थी, मगर अब मैं सत्य पर अमल करके ईमानदार बनने का फैसला करती हूँ। यही मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है। मैं सिर्फ यही चाहती हूँ कि परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करता रहे, ताकि मैं और अधिक सत्य का अभ्यास कर सकूं।

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