अध्याय 41

परमेश्वर मनुष्य पर कैसे काम करता है? क्या तुमने इसे समझ लिया है? क्या तुम्हें यह स्पष्ट है? और वह कलीसिया में कैसे काम करता है? इन चीजों के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं? क्या तुमने कभी इन सवालों पर गौर किया है? कलीसिया में अपने कार्य के जरिये वह क्या संपन्न करना चाहता है? क्या ये सभी चीजें तुम्हें स्पष्ट हैं? अगर नहीं, तो जो भी तुम करते हो, वह सब व्यर्थ और खोखला है! क्या इन वचनों ने तुम्हारे दिल को छुआ है? निष्क्रिय रूप से पीछे हटे बिना महज सक्रिय रूप से प्रगति करना—क्या यह परमेश्वर की इच्छा पूरी करेगा? क्या अंधा सहयोग पर्याप्त है? अगर तुम्हें दर्शन स्पष्ट न हों, तो क्या किया जाना चाहिए? क्या आगे खोज न करना ठीक होगा? परमेश्वर कहता है, “एक बार मैंने मनुष्यों के बीच एक महान उपक्रम आरंभ किया, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया, और इसलिए मुझे उनके सामने उसे चरण-दर-चरण प्रकट करने के लिए अपने वचन का उपयोग करना पड़ा। फिर भी मनुष्य मेरे वचनों को समझ नहीं पाया, और मेरी योजना के उद्देश्य से अनजान रहा।” इन वचनों का क्या अर्थ है? क्या तुमने कभी इस उद्देश्य पर विचार किया है? क्या मैंने इसे वाकई लापरवाही से और बिना किसी उद्देश्य के बनाया था? और अगर ऐसा है, तो इसका मतलब क्या होता? अगर यह उद्देश्य तुम्हें अस्पष्ट और अबूझ है, तो वास्तविक सहयोग कैसे प्राप्त किया जा सकता है? परमेश्वर कहता है कि मानव-जाति की समस्त खोज असीम समुद्रों के ऊपर, खोखले वचनों से लिखे सिद्धांत के बीच में है। जहाँ तक तुम लोगों की खोजों का संबंध है, तुम भी यह नहीं बता सकते कि वे किस श्रेणी की हैं। परमेश्वर मनुष्य में क्या संपन्न करना चाहता है? तुम्हें इन सभी चीजों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। क्या यह केवल बड़े लाल अजगर को नकारात्मक रूप से लज्जित करने के लिए है? बड़े लाल अजगर को लज्जित करने के बाद क्या परमेश्वर खाली हाथ पहाड़ों में जाएगा और वहाँ एकांत में रहेगा? तो फिर परमेश्वर चाहता क्या है? क्या वह वाकई मनुष्यों के दिल चाहता है? या वह उनका जीवन चाहता है? या उनकी संपत्ति और वस्तुएँ? ये किस काम के हैं? ये परमेश्वर के किसी काम के नहीं। क्या परमेश्वर ने मनुष्य में इतना कार्य सिर्फ उसे शैतान पर विजय के साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल करने के लिए किया है, ताकि वह अपनी “क्षमताएँ” जाहिर कर सके? क्या तब परमेश्वर क्षुद्र प्रतीत नहीं होगा? क्या परमेश्वर इस तरह का परमेश्वर है? उस बच्चे जैसा, जो दूसरे बच्चों के साथ अपने झगड़े में बड़ों को घसीट लेता है? इसका क्या अर्थ होगा? मनुष्य परमेश्वर को मापने के लिए लगातार अपनी धारणाओं का इस्तेमाल करता है। परमेश्वर ने एक बार कहा था, “वर्ष में चार मौसम होते हैं और प्रत्येक मौसम में तीन महीने होते हैं।” मनुष्य ने उसके ये वचन सुने, उन्हें स्मृति के हवाले किया, और हमेशा कहा कि एक मौसम में तीन महीने और एक वर्ष में चार मौसम होते हैं। जब परमेश्वर ने पूछा, “वर्ष में कितने मौसम होते हैं? और एक मौसम में कितने महीने?” तो मनुष्यों ने एक स्वर में उत्तर दिया, “चार मौसम, तीन महीने।” मनुष्य हमेशा नियमों के माध्यम से परमेश्वर को परिभाषित करने का प्रयास करता है, और अब, “वर्ष में तीन मौसम और एक मौसम में चार महीने” के युग में प्रवेश करके भी मनुष्य अनजान बना रहता है, मानो अंधा हो गया हो, और हर चीज में नियम खोज रहा है। और अब मनुष्य अपने नियम परमेश्वर पर लागू करने का प्रयास करते हैं! वे सचमुच अंधे हैं! क्या वे नहीं देखते कि अब कोई “सर्दी” नहीं होती, केवल “वसंत, ग्रीष्म और पतझड़” होते हैं? मनुष्य सचमुच मूर्ख है! वर्तमान स्थिति में आकर भी वह इस बात से अनजान है कि परमेश्वर को कैसे जाने, ठीक 1920 के दशक में रहने वाले आदमी के समान, जो सोचता है कि परिवहन असुविधाजनक है, और सब लोगों को पैदल चलना चाहिए, या छोटे गधे को हाँकना चाहिए, या जो सोचता है कि लोगों को तेल के दीयों का इस्तेमाल करना चाहिए, या जो मानता है कि अभी भी जीवन का आदिम ढंग प्रचलित है। क्या ये सभी धारणाएँ नहीं हैं, जो लोगों के दिमाग में मोजूद हैं? क्यों वे आज भी दया और प्रेममय कृपालुता की बात करते हैं? इसका क्या उपयोग है? यह किसी बुढ़िया द्वारा अपने अतीत के बारे में बकबक करने जैसा है—इन बातों का क्या मतलब है? वर्तमान आखिर वर्तमान है; क्या समय 20-30 साल पीछे जा सकता है? सब लोग भेड़चाल चलते हैं; यह स्वीकार करने में वे इतना हिचकते क्यों हैं? ताड़ना के वर्तमान युग में दया और प्रेममय कृपालुता की बात करने का क्या फायदा है? दया और प्रेममय कृपालुता—क्या परमेश्वर के पास बस यही सब है? “आटे और चावल” के इस युग में लोग “जौ-बाजरे की भूसी और जंगली सब्जियाँ” क्यों परोसे चले जाते हैं? परमेश्वर जो नहीं करना चाहता, मनुष्य उसे वही करने के लिए बाध्य करता है। अगर परमेश्वर विरोध करता है, तो उस पर “प्रतिक्रांतिकारी” होने का ठप्पा लगा दिया जाता है, और हालाँकि बार-बार यह कहा गया है कि परमेश्वर स्वभाव से दयालु या प्रेममय नहीं है, पर कौन सुनता है? मनुष्य बहुत बेतुका है। यह ऐसा है, मानो परमेश्वर के वचन का कोई प्रभाव ही न हो। मनुष्य मेरे वचनों को हमेशा एक अलग आलोक में देखते हैं। परमेश्वर को मनुष्यों द्वारा हमेशा धौंस दी जाती रही है, मानो निर्दोष लोगों पर निराधार अपराध मढ़ दिए गए हों—इसलिए परमेश्वर के साथ एकचित्त कौन हो पाएगा? तुम लोग हमेशा परमेश्वर की दया और प्रेममय कृपालता में जीने के इच्छुक हो, तो परमेश्वर के पास मनुष्य के अपमान सहने के सिवाय चारा ही क्या है? किंतु मुझे आशा है कि तुम लोग परमेश्वर के साथ बहस करने से पहले इस बात की पूरी तरह से छानबीन करोगे कि पवित्र आत्मा कैसे काम करता है। फिर भी, मैं तुमसे परमेश्वर के वचनों का मूल अर्थ ध्यान से समझने का आग्रह करता हूँ—परमेश्वर के वचनों को हलके मानकर अपने आपको चतुर मत समझो। इसकी कोई जरूरत नहीं है! कौन बता सकता है कि परमेश्वर के वचन किस तरह “हलके” है? जब तक कि परमेश्वर सीधे तौर पर यह नहीं कहता, या स्पष्ट रूप से इंगित नहीं करता। अपने आपको इतना ऊँचा मत समझो। अगर तुम उसके वचनों से अभ्यास का मार्ग देख सको, तो तुम उसकी अपेक्षाएँ पूरी कर चुके होगे। तुम लोग और क्या देखना चाहते हो? परमेश्वर ने कहा था, “मैं मनुष्य की कमजोरी पर दया दिखाना बंद कर दूँगा।” अगर तुम इस स्पष्ट और सरल वक्तव्य का अर्थ भी नहीं समझ सकते, तो आगे अध्ययन और अन्वेषण का क्या मतलब है? यांत्रिकी का सबसे बुनियादी ज्ञान न होने पर भी क्या तुम रॉकेट बनाने के योग्य हो सकते हो? क्या ऐसा व्यक्ति बेकार की डींगें हाँकने वाला नहीं होता? मनुष्य के पास परमेश्वर का कार्य करने के संसाधन नहीं हैं; परमेश्वर ही है, जो उनका उत्कर्ष करता है। यह जाने बिना ही उसकी सेवा करना कि उसे किस चीज से प्रेम है और किस चीज से घृणा—क्या यह आपदा का नुस्खा नहीं है? मनुष्य स्वयं को तो समझते नहीं, परंतु अपने को असाधारण समझते हैं। वे अपने आपको क्या समझते हैं! उन्हें इसका जरा भी अंदाजा नहीं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। अतीत के बारे में सोचो, और भविष्य की ओर देखो—वह कैसा लगता है? उसके बाद अपने आपको जानो।

परमेश्वर ने मनुष्य के इरादों और उद्देश्यों के बारे में एक बड़ा खुलासा किया है। उसने कहा, “यही वह क्षण था, जब मैंने उस मनुष्य के इरादों और उद्देश्यों को देखा। मैंने बादलों के भीतर से आह भरी : मनुष्य को हमेशा अपने हितों के लिए ही काम क्यों करना चाहिए? क्या मेरी ताड़नाएँ उन्हें पूर्ण बनाने के लिए नहीं होतीं? या क्या मैं उनके सकारात्मक रवैये पर जानबूझकर हमला कर रहा हूँ?” इन वचनों से तुमने अपने बारे में कितना सीखा है? क्या मनुष्य के इरादे और उद्देश्य वास्तव में खो गए? क्या तुमने कभी खुद इस पर ध्यान दिया है? तुम्हें भी परमेश्वर के सामने आना चाहिए और यह सीखने की कोशिश करनी चाहिए : परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए ताड़ना के कार्य ने क्या परिणाम हासिल किया है? क्या तुमने इसे सारांशित किया है? शायद परिणाम बहुत छोटा है, वरना तुम उसके बारे में बहुत पहले ही बड़े बोल बोल चुके होते। परमेश्वर ने तुम लोगों में क्या हासिल किया है? तुम लोगों से कहे गए अनेक वचनों में से कितने फलित हुए हैं, और कितने व्यर्थ गए? परमेश्वर की दृष्टि में, उसके कुछ ही वचन फलित हुए हैं; और वह इसलिए, क्योंकि मनुष्य उसके मूल अर्थ को समझने में हमेशा असमर्थ रहता है, और जिसे वह स्वीकार करता है, वह दीवार से टकराने के बाद उछलकर लौटने वाली वचनों की गूँज भर होती है। क्या यह परमेश्वर की इच्छा जानने का तरीका है? निकट भविष्य में परमेश्वर के पास मनुष्य के करने के लिए और अधिक काम होगा; क्या मनुष्य अपने आज के बहुत छोटे आध्यात्मिक कद के साथ उस कार्य को पूरा कर सकता है? अगर विचलित नहीं होना, तो गलती करना, या अभिमानी होना—ऐसा लगेगा कि यही मनुष्य का स्वभाव है। मुझे यह समझना मुश्किल लगता है : हालाँकि परमेश्वर ने बहुत-कुछ कहा है, फिर भी मनुष्य उसमें से कुछ भी गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या ऐसा हो सकता है कि अपने वचन बोलकर परमेश्वर आदमी के साथ हँसी-मजाक कर रहा हो और कोई परिणाम न चाहता हो? या मनुष्य से “आनंद, क्रोध, दुख और सुख” नामक नाटक अभिनीत करवा रहा हो? मनुष्य को एक पल के लिए खुश करवा रहा हो, और अगले पल रुला रहा हो—और फिर उसके नेपथ्य में चले जाने पर उसे जैसा वह चाहे, वैसा करने देने के लिए छोड़ देता हो? इसका क्या परिणाम होगा? “ऐसा क्यों होता है कि मनुष्य से की जाने वाली मेरी अपेक्षाओं में से हमेशा कुछ निकलकर नहीं आता? क्या ऐसा है कि मैं किसी कुत्ते से पेड़ पर चढ़ने के लिए कहता हूँ? या बात का बतंगड़ बना देता हूँ?” परमेश्वर के समस्त वचन मनुष्य की वास्तविक स्थिति पर निर्देशित हैं। यह देखने के लिए कि कौन परमेश्वर के वचन के भीतर जी रहा है, सभी मनुष्यों के भीतर देखने में कोई हानि नहीं होगी। “अभी भी, अधिकांश पृथ्वी बदलती जा रही है। अगर किसी दिन पृथ्वी वास्तव में बदलकर किसी अन्य प्रकार की हो जाती है, तो मैं इसे अपने हाथ के एक झटके से अलग कर दूँगा—क्या यह मेरे कार्य का वर्तमान चरण नहीं है?” वास्तव में, अभी भी परमेश्वर इस कार्य को शुरू करने वाला है; परंतु उसने जो “मैं इसे अपने हाथ के एक झटके से अलग कर दूँगा” कहा है, वह भविष्य के बारे में कहा है, क्योंकि हर चीज की एक प्रक्रिया होनी चाहिए। परमेश्वर के वर्तमान कार्य का रुझान यही है—क्या यह तुम्हें स्पष्ट है? मनुष्य के इरादों में खामियों हैं, और अशुद्ध आत्माओं को अंदर प्रवेश करने का अवसर मिल गया है। इस समय “पृथ्वी बदलकर किसी अन्य प्रकार की हो जाती है।” फिर लोग गुणात्मक रूप से बदल जाएँगे, हालाँकि उनके सार में बदलाव नहीं होगा, क्योंकि सुधरी हुई पृथ्वी पर दूसरी चीजें होंगी। दूसरे शब्दों में, मूल पृथ्वी निम्न कोटि की थी, लेकिन उसमें सुधार होने के बाद उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। परंतु एक निश्चित अवधि तक उसका इस्तेमाल कर लिए जाने के बाद, जब आगे इसका इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, तो वह धीरे-धीरे अपने मूल रूप में वापस आ जाएगी। यह परमेश्वर के कार्य के अगले कदम का सारांश है। भविष्य का कार्य अधिक जटिल होगा, क्योंकि वह हर चीज को उसकी श्रेणी के अनुसार अलग करने का समय होगा। मिलने की जगह पर जब चीजों का अंत आ जाएगा, तो अपरिहार्य रूप से अराजकता होगी, और मनुष्य दृढ़ संकल्पों से रहित होगा। यह ठीक वैसे ही है, जैसा कि परमेश्वर ने कहा था : “सभी मनुष्य कलाकार हैं, जो बजाई जाने वाली हर तरह की धुन के साथ गाते हैं।” मनुष्यों में बजाई जाने वाली धुन के साथ गाने की काबिलियत होती है, इसीलिए परमेश्वर उनके इस दोष का उपयोग अपने कार्य में अगला कदम उठाने के लिए करता है और इस तरह सभी मनुष्यों को इस दोष से मुक्त होने में सक्षम बनाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके पास वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है, जिससे वे दीवार पर उगने वाली घास बनकर रह जाते हैं। अगर वे आध्यात्मिक कद प्राप्त कर लेते, तो वे गगनचुंबी वृक्ष बन गए होते। परमेश्वर बुरी आत्माओं के कार्य के एक हिस्से का उपयोग मानव-जाति के एक हिस्से को पूर्ण बनाने के लिए करने का इरादा रखता है, ताकि ये लोग हैवानों के अन्यायपूर्ण कार्यों को पूरी तरह देखने में सक्षम हो सकें, और पूरी मानव-जाति वास्तव में अपने “पूर्वजों” को जान सकें। केवल इसी तरह से, न केवल शैतान के वंशजों को बल्कि शैतान के पूर्वजों को भी त्यागकर, मनुष्य पूरी तरह से स्वतंत्र हो सकते हैं। बड़े लाल अजगर को पूरी तरह से हराने के पीछे यह परमेश्वर का मूल इरादा है, ताकि सभी मनुष्य बड़े लाल अजगर का असली स्वरूप जान लें, उसका मुखौटा पूरी तरह से नोचकर उसका वास्तविक रूप देख सकें। परमेश्वर यही प्राप्त करना चाहता है, और यही पृथ्वी पर उसके द्वारा किए गए समस्त कार्य का अंतिम लक्ष्य है; और यही वह सभी मनुष्यों में संपन्न करना चाहता है। इसे परमेश्वर के प्रयोजन के लिए सभी चीजों को जुटाने के रूप में जाना जाता है।

जहाँ तक भविष्य के कार्य का संबंध है, क्या तुम्हें यह स्पष्ट है कि उसे कैसे किया जाएगा? इन चीजों को समझना चाहिए। उदाहरण के लिए : परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है कि मनुष्य कभी उस काम पर ध्यान नहीं देते जो उन्हें करना चाहिए? वह ऐसा क्यों कहता है कि बहुत लोग उसके द्वारा दिए गए “गृहकार्य” को पूरा करने में विफल रहते हैं? इन चीजों को कैसे हासिल किया जा सकता है? क्या तुमने कभी इन सवालों पर विचार किया है? क्या ये तुम्हारी सहभागिता का विषय बने हैं? कार्य के इस चरण में मनुष्य को परमेश्वर के वर्तमान इरादे समझने के लिए बाध्य करना होगा। एक बार यह हासिल हो जाए, तो दूसरी चीजों पर चर्चा की जा सकती है—क्या यह काम करने का एक अच्छा तरीका नहीं है? परमेश्वर मनुष्य में जो कुछ करना चाहता है, उसे स्पष्ट रूप से बताए जाने की आवश्यकता है, अन्यथा सब-कुछ व्यर्थ हो जाएगा, और मनुष्य इसमें प्रवेश नहीं कर पाएगा, इसे हासिल करने की तो बात ही अलग है; और सब खोखली बात होगी। परमेश्वर ने आज जो कहा है—क्या उस पर अमल करने का कोई मार्ग तुमने ढूँढ़ा है? सभी लोगों में परमेश्वर के वचनों को लेकर घबराहट की भावना है। वे उन्हें पूरी तरह से समझ नहीं सकते, लेकिन वे परमेश्वर को नाराज करने से डरते भी हैं। अब तक खाने-पीने के कितने तरीके खोजे गए हैं? अधिकतर लोग नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाएँ-पीएँ; इसे कैसे हल किया जा सकता है? क्या तुम्हें आज के वचनों में खाने-पीने का कोई तरीका मिला? तुम अब ऐसा करने में किस तरह से सहयोग करने का प्रयास कर रहे हो? और जब तुम वचनों को खा-पी लोगे, तो तुम किन तरीकों से उनके बारे में अपने विचारों की चर्चा करोगे? क्या मनुष्य को ऐसा नहीं करना चाहिए? किसी दी गई बीमारी के लिए कोई किस तरह सही दवा लिखता है? क्या तुम्हें अभी भी परमेश्वर द्वारा सीधे एक कथन जारी किए जाने की आवश्यकता है? क्या यह जरूरी है? उपर्युक्त समस्याएँ पूरी तरह से कैसे समाप्त की जा सकती हैं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम लोग अपने व्यावहारिक कार्यों में पवित्र आत्मा के साथ सहयोग करने में सक्षम हो या नहीं। उपयुक्त सहयोग के साथ पवित्र आत्मा बड़ा काम करेगा। उपयुक्त सहयोग के बिना, बल्कि केवल भ्रम होने पर, पवित्र आत्मा अपना सामर्थ्य इस्तेमाल करने की स्थिति में नहीं होगा। “अगर तुम अपने को जानते हो और अपने शत्रु को भी जानते हो, तो विजय हमेशा तुम्हारी होगी।” मूल रूप से ये वचन चाहे जिसने भी कहे हों, ये तुम लोगों पर सबसे उपयुक्त तरीके से लागू किए सकते हैं। संक्षेप में, अपने शत्रुओं को जानने से पहले तुम्हें अपने आपको जानना होगा, और ये दोनों कार्य कर लेने के बाद ही तुम हर लड़ाई जीतने में सक्षम होगे। इन सभी चीजों को करने में तुम लोगों को सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर तुमसे चाहे कुछ भी माँगे, तुम्हें अपनी पूरी ताकत के साथ केवल इस ओर काम करने की आवश्यकता है, और मुझे आशा है कि अंत में तुम परमेश्वर के समक्ष आने और उसे अपनी परम भक्ति प्रदान करने में सक्षम होगे। अगर तुम सिंहासन पर बैठे परमेश्वर की संतुष्ट मुसकराहट देख सकते हो, तो भले ही यह तुम्हारी मृत्यु का नियत समय ही क्यों न हो, आँखें बंद करते समय भी तुम्हें हँसने और मुसकराने में सक्षम होना चाहिए। पृथ्वी पर अपने समय के दौरान तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपना अंतिम कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए। अतीत में, पतरस को परमेश्वर के लिए क्रूस पर उलटा लटका दिया गया था; परंतु तुम्हें अंत में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देनी चाहिए। एक सृजित प्राणी परमेश्वर के लिए क्या कर सकता है? इसलिए तुम्हें जल्दी से अपने आपको परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, ताकि वह अपनी इच्छा के अनुसार तुम्हारा निपटारा कर सके। अगर इससे परमेश्वर खुश और प्रसन्न होता हो, तो उसे अपने साथ जो चाहे करने दो। मनुष्यों को शिकायत के शब्द बोलने का क्या अधिकार है?

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