पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें

तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों के “सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है” शीर्षक वाले खंड पर काफी लंबे समय तक संगति की है। इसमें किन मुद्दों पर चर्चा की गई है, और इसका संबंध किन सत्यों से है? (इसका संबंध उस पथ से है जिस पर कोई व्यक्ति विश्वासी के रूप में चलता है।) इसकी विषय-वस्तु मुख्यतः पतरस और पौलुस द्वारा अपनाए गए पथों के इर्द-गिर्द घूमती है, क्या मैं सही कह रहा हूँ? इतने लंबे समय तक संगति करने के बाद मुझे विश्वास है कि तुम लोगों को इससे कुछ हासिल हुआ होगा—शायद बहुत सी चीजें हासिल हुई होंगी। तुम लोगों को इस दौरान सुने गए उपदेशों के निचोड़ को संक्षेपित कर लेना चाहिए और फिर इसके मुख्य सूत्रों को सुलझाना चाहिए और विचार करने के इस तरीके तथा सारांशित की गई महत्वपूर्ण बातों और सूत्रों के अनुरूप अनुभव प्राप्त करना चाहिए। इससे तुम लोगों को मदद मिलेगी कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें, अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभाएं और वास्तविक जीवन में अच्छी गवाही कैसे दें। मुझे आशा है कि जब तुम लोग संक्षेपित करने की प्रक्रिया पूरी कर लोगे तो तुम लोगों का जीवन प्रवेश और आध्यात्मिक कद काफी आगे बढ़ जाएगा। तो, जब तुम उन सत्य वास्तविकताओं का संक्षेपण करोगे जिन्हें तुमको उस अध्याय से समझना अपेक्षित था, तो तुम पौलुस के अनुभव से शुरू करोगे, या पतरस के अनुभव से? (पौलुस के।) क्यों? (पौलुस के विफल होने के कारणों के आधार पर अपने बारे में विचार करने से हमें पता चल सकेगा कि क्या हम पौलुस के पथ पर हैं। फिर, हम देखेंगे कि पतरस किस प्रकार के मार्ग पर था, ताकि हमारे पास अनुसरण के लिए एक लक्ष्य और दिशा हो।) वास्तव में, यह ऐसे ही होना चाहिए। पौलुस जिन-जिन हालात से गुजरा और जिस रास्ते पर चला, उससे सबक लो और अनुभवों का सारांश तैयार करो। समझो कि वह किस रास्ते पर था, कि परमेश्वर विश्वासियों से सही रास्ते पर ही चलने को क्यों कहता है, और सही रास्ता है क्या। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकते हो, तो तुम वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में भटकाव से बच सकोगे, साथ ही तुम अपने कर्तव्यपालन के दौरान परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर रहे होगे। तुम परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने, चूक से गलत रास्ते पर पड़ने, या पौलुस की तरह अंततः दंड का भागी बनने से भी बच सकोगे।

अब, पौलुस के अनुभवों के प्रकाश में उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग की विशेषताओं, परमेश्वर में उसके विश्वास के तरीकों तथा उसने जिन लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण किया उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। हम सबसे पहले इन कोणों से पौलुस की मानवता की गुणवत्ता और उसके स्वभाव पर नजर डालेंगे। पौलुस के जीवन और उसके साथ जो हुआ उसके बारे में कहानियों के आधार पर निर्णय करने पर हम पाते हैं कि अहंकार, आत्मतुष्टि, धोखेबाजी, सत्य से घृणा, दुष्टता और क्रूरता आदि उसके स्वभाव के कुछ पक्ष हैं। लोग पौलुस के स्वभाव के चाहे जितने मुख्य पक्षों को देखने या सारांशित करने में सक्षम हों, यदि तुम उसके स्वभाव के केवल इन पहलुओं के बारे में बात करते हो, तो तुम्हें शायद लगेगा कि यह काफी खोखला है। क्या मैं सही कह रहा हूँ? जब तुम लोग उसके स्वभाव के इन पहलुओं का उल्लेख करते हो, तो क्या उनका संबंध उसके लक्ष्यों, उसके जीवन की दिशा और एक विश्वासी के रूप में उसके द्वारा अपनाए गए रास्ते से होता है? जब तुम उसके अहंकार के बारे में बात करते हो, तो क्या तुम्हारे पास इस बात का समर्थन करने वाले कोई तथ्य होते हैं? तुम उसे अहंकारी क्यों मानते हो? तुम उसे धोखेबाज के रूप में क्यों देखते हो? क्या चीज उसे तुम्हारी दृष्टि में सत्य से घृणा करने वाला बनाती है? यदि तुम उसके स्वभाव के केवल इन पक्षों के सार का संक्षेपण करते हो और उसके लक्ष्यों, उसके जीवन की दिशा और एक विश्वासी के रूप में उसके द्वारा अपनाए गए रास्ते के बारे में बात नहीं करते, तो वे खोखले शब्द भर हैं और लोगों के लिए उनका कोई सकारात्मक या लाभकारी उपयोग नहीं होगा। बेहतर है कि पौलुस के लक्ष्यों और उसके पथ के परिप्रेक्ष्य से कुछ कहा जाए। किसी व्यक्ति के सार को समझना कोई साधारण बात नहीं है। किसी व्यक्ति के प्रकृति सार का अनुमान तब नहीं किया जा सकता जब वह कुछ न कर रहा हो, या बस कुछ महत्वहीन चीजें कर रहा हो। तुम्हें देखना चाहिए कि ऐसे लोग नियमित रूप से खुद को कैसे उजागर करते हैं और उनके क्रियाकलापों के पीछे इरादा और प्रेरणा क्या है, यानी उनके प्रयासों, इच्छाओं और उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग को देखो। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है यह देखना कि जब कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा उसके लिए बनाई गई किसी स्थिति का सामना करता है, या जब परमेश्वर उसके लिए व्यक्तिगत रूप से कुछ करता है, जैसे कि उसे आजमाना, परिष्कृत करना, उसकी काट-छाँट करना, या व्यक्तिगत रूप से उसे प्रकाशित करना और मार्गदर्शन करना आदि, तो वह इसे कैसे संभालता है। परमेश्वर मुख्य रूप से इन्हीं पक्षों को देखता है। ये पक्ष किससे संबंधित हैं? ये उन सिद्धांतों से संबंधित हैं जिनके अनुसार कोई व्यक्ति काम करता है, जीवन जीता है, आचरण करता है और दुनिया के साथ सम्पर्क करता है तथा जिन लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करता है, जिस मार्ग पर चलता है, जिस तरह से जीता है, जिसके सहारे जीता है, और जो उसके अस्तित्व का आधार होता है। उनका संबंध इसी से है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि अगर हम इन सभी चीजों को छोड़ कर केवल पौलुस के प्रकृति सार के बारे में बात करते हैं, तो हम चाहे जितना भी कहें या कितनी ही व्यापकता से बात करें, वे सिर्फ खोखले शब्द होंगे। यदि हम पौलुस के सार का हर पक्ष देखना चाहें कि वह कौन है, और आज लोगों की मदद करना चाहें, या उन्हें एक दर्पण देना चाहें जिसमें वे खुद को देख सकें, तो हमें सबसे पहले पौलुस द्वारा अपनाए गए पथ, जिन लक्ष्यों की प्राप्ति का उसने प्रयास किया, और उसके अस्तित्व के आधार तथा परमेश्वर के प्रति उसके रवैये का सारांश निकालना होगा। यदि हम उसके स्वभाव के हर पहलू को इन कोणों से देखते हुए विश्लेषण करें, तो क्या हमारे पास कोई आधार नहीं होगा? इस तरह से संगति और संक्षेपण करना अंशतः इसलिए है कि तुम पौलुस को अधिक स्पष्ट रूप से देख सको, लेकिन यह मुख्यतः इसलिए है कि जब आज के लोग परमेश्वर के उद्धार और संप्रभुता का सामना करें तो वे जान सकें कि इन्हें कैसे ग्रहण करें, और यह कि उन्हें सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए ताकि वे पौलुस के नक्शेकदम पर चलने से बच सकें और उसकी तरह से दंड का भागी होने से बच सकें। यही सबसे कारगर तरीका है।

जब तुम पौलुस द्वारा स्वयं को प्रस्तुत करने के सभी तरीकों को देखते हो, तो तुम्हें उसका प्रकृति सार देखने में सक्षम होना चाहिए और यह निष्कर्ष निकालने में पूरी तरह सक्षम होना चाहिए कि उसकी दिशा, लक्ष्य, स्रोत और उसके प्रयासों की प्रेरणाएं गलत थीं और कि वे चीजें विद्रोही तथा परमेश्वर की प्रतिरोधी थीं, परमेश्वर को नाराज करने वाली और ऐसी थीं जिनसे उसे घिन थी। पौलुस द्वारा स्वयं को प्रस्तुत करने का पहला मुख्य तरीका क्या है? (उसने मुकुट के बदले में कड़ी मेहनत की और काम किया।) तुम लोगों ने उसे खुद को इस तरह प्रस्तुत करते हुए कहाँ देखा, या यह देखा कि वह इस स्थिति में था? (उसके शब्दों के माध्यम से।) उनके प्रसिद्ध कथनों के माध्यम से। आम तौर पर, प्रसिद्ध कहावतें सकारात्मक होती हैं और संकल्प, आशा और आकांक्षा रखने वाले लोगों के लिए सहायक और लाभदायक होती हैं; वे ऐसे लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित कर सकती हैं, लेकिन पौलुस के प्रसिद्ध कथनों का काम क्या था? बहुत से काम थे। क्या तुम उसके ज्यादा प्रसिद्ध कथनों में से किसी एक का उल्लेख कर सकते हो? (“मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)।) ये शब्द उसके प्रकृति सार के किस पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं? हमें इसे सत्य के अनुसार कैसे परिभाषित करना चाहिए? (अभिमानी, आत्म-तुष्ट, और परमेश्वर के साथ सौदा करने वाले के रूप में।) यह उसकी अहंकारी प्रकृति ही थी जिसने उसे ये शब्द कहने के लिए प्रेरित किया—यदि सारे प्रयासों के अंत में मुकुट न मिलना होता तो वह दौड़ में भाग नहीं लेता, काम नहीं करता या परमेश्वर में विश्वास भी नहीं करता। इतने सारे उपदेशों को सुनने के बाद लोगों को अब पौलुस द्वारा उजागर की गई इस अभिव्यक्ति और स्थिति को पहचानने में सक्षम होना चाहिए, लेकिन क्या तुम इसे परिभाषित कर सकते हो? जब हम “सारांश” निकालने को कहते हैं, तो हमारा मतलब किसी चीज को परिभाषित करने से होता है; किसी चीज को परिभाषित करने के लिए तुम जिन शब्दों का उपयोग करते हो वही उस मामले की सच्ची समझ होती है। जब तुम किसी चीज को सटीक तरीके से परिभाषित कर सकते हो, तो यह साबित होता है कि तुम उस मामले को स्पष्ट रूप से देख पा रहे हो; जब तुम किसी चीज को परिभाषित नहीं कर पाते और केवल अन्य लोगों की परिभाषाओं की नकल करते हो, तो साबित होता है कि तुम इसे सच में नहीं समझते। उस समय किस मानसिकता या स्थिति ने पौलुस को ये शब्द बोलने के लिए प्रेरित किया? उसने किस इरादे से ऐसा किया? इन शब्दों से तुम्हें उसके प्रयासों का क्या सार दिखता है? (आशीष पाना।) वह तेजी से भागा, खुद को खपाया और अपने को इतना अधिक समर्पित किया क्योंकि उसका इरादा था आशीर्वाद पाना। यह उसका प्रकृति सार था जो उसके हृदय के अंतःस्थल में रहता था। ठीक अभी, जब तुम सब लोग इस मुद्दे का विश्लेषण कर रहे थे, तो तुमने कहा कि पौलुस परमेश्वर के साथ सौदा कर रहा था। पौलुस का कौन सा रवैया इसे दिखाता है? बिलकुल अभी हम मुकुट पाने, आशीष पाने और परमेश्वर में विश्वास करने के प्रति पौलुस के सबसे सच्चे रवैये को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं; हम इसका संक्षेपण नहीं कर रहे हैं कि पौलुस परमेश्वर के साथ सौदा कर रहा था या नहीं और वह सच्चा विश्वासी था या नहीं। मुझे फिर से बताओ। (उसे सत्य से प्रेम नहीं था और उसका रवैया हिकारत भरा था।) यह कोई रवैया नहीं है; यह उसके स्वभाव का हिस्सा है। फिलहाल, हम उसके रवैये की बात कर रहे हैं। (वह लालची था।) यह उसके प्रकृति सार का एक पक्ष है, एकदम उसके आशीष पाने के इरादे और इच्छा की तरह। रवैया क्या होता है? उदाहरण के लिए, मैं कहूँ कि हर समय मसालेदार चीजें खाना पेट के लिए हानिकारक है, और कोई जवाब दे कि “मुझे पता है कि मसालेदार खाना खाना बुरा है, लेकिन मुझे मसालेदार खाना ही पसंद है! अगर मैं मसालेदार खाना नहीं खाऊंगा, तो क्या खा सकूंगा?” इस पर मैं जवाब देता हूँ, “तुम्हारे स्वास्थ्य की खातिर जब तक तुम कोई मसालेदार खाना नहीं खाओगे, मैं तुम्हें हर बार भोजन के समय कुछ और खाद्य सामग्री खरीदने के लिए पाँच डॉलर दूँगा।” फिर, वह सच में खुश हो जाता है और कहता है, “ठीक है, मैं मसालेदार खाना नहीं खाऊंगा!” एक सौदा हो गया है और वह उस पर कायम है। लेकिन वह खुद को मसालेदार खाना खाने से क्यों रोक सका? दरअसल, यह पैसे की वजह से हुआ। यदि मैं उसे धन न दूँ, तो वह अपने पर वश नहीं रख सकेगा; वह पहले की तरह ही मसालेदार खाना खाता रहेगा। उसने मसालेदार भोजन करना केवल इसलिए बंद कर दिया है क्योंकि इससे कुछ हासिल हो रहा है—पैसा। यही उसका रवैया है। यही बात उसके हृदय की गहराइयों में छिपी हुई है। क्या उसने मसालेदार भोजन करना इसलिए बंद कर दिया है कि वह जैसा उसे बताया गया है उसके मुताबिक सत्य का अभ्यास कर रहा है या परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए ऐसा कर रहा है? (नहीं।) नहीं, यह इनमें से किसी भी कारण से नहीं है। उसने स्वयं को मसालेदार भोजन करने से इसलिए नहीं रोका है क्योंकि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है, या उसकी एक निगाह अपने स्वास्थ्य पर है; उसका रवैया बेपरवाही का और सतही है; वह इसे लेन-देन के रूप में देखता है, और लाभ पाने के लिए ऐसा कर रहा है। यदि वह अपने उद्देश्य को प्राप्त न कर सके और धन न मिले, तो वह अपनी मर्जी के खाने की ओर वापस चला जाएगा और पहले से भी ज्यादा मसालेदार भोजन खा सकता है। यह सबसे बढ़िया उदाहरण भले न हो, लेकिन जब हम इसकी तुलना पौलुस से करते हैं तो इसमें क्या समानताएँ दिखती हैं? (यह वैसा ही है जैसे पौलुस ने आशीष पाने के लिए प्रेरित होकर परमेश्वर के साथ एक सौदा किया।) पौलुस ने अच्छी लड़ाई लड़ने, दौड़ लगाने, काम करने, खुद को खपाने और यहाँ तक कि कलीसिया का सिंचन करने जैसे काम भी उन सिक्कों के रूप में किए जिनके बदले धार्मिकता का मुकुट और उस दिशा में जाने वाला पथ मिल सकता था। इसलिए, चाहे उसने कष्ट उठाया हो, खुद को खपाया हो, या दौड़ में भाग लिया हो, उसने चाहे जितना भी कष्ट सहा हो, धार्मिकता का मुकुट हासिल करना ही उसके दिमाग में एकमात्र लक्ष्य था। उसने धार्मिकता का मुकुट और आशीष पाने के लिए प्रयासरत होने को ही परमेश्वर में विश्वास करने के उचित उद्देश्य के रूप में लिया और कष्ट उठाने, खुद को खपाने, काम करने और दौड़ में भाग लेने को इस उद्देश्य की दिशा में जाने वाले पथों के रूप में माना। उसका सारा बाहरी अच्छा व्यवहार दिखावे के लिए था; उसने यह सब अंत में आशीष प्राप्त करने के बदले में किया। यह पौलुस के बड़े पापों में से पहला पाप है।

पौलुस ने जो कुछ भी कहा और किया, जो उसने प्रकट किया, उसके काम और जिस दौड़ में वह दौड़ा उसका इरादा और लक्ष्य, साथ ही इन दोनों चीजों के प्रति उसके रवैये के बारे में क्या कुछ ऐसा है जो सत्य के अनुरूप हो? (नहीं, ऐसा नहीं है।) उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो सत्य के अनुरूप हो, और उसने जो कुछ भी किया वह उसके मुताबिक नहीं था जो प्रभु यीशु ने लोगों से करने को कहा था, लेकिन क्या उसने इस पर विचार किया? (नहीं, उसने विचार नहीं किया।) उसने कभी इस पर विचार ही नहीं किया, न ही कोई तलाश की, तो फिर उसके पास यह मानने का क्या आधार था कि उसकी सोच सही थी? (उसकी धारणाएँ और कल्पनाएँ।) इसमें एक मसला है; वह कुछ ऐसा कैसे बना जिसकी उसने जीवन भर अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य के रूप में कल्पना की थी? क्या उसने कभी इस पर कोई विचार किया या खुद से पूछा था कि “क्या मैं जो सोच रहा हूँ वह सही है? मेरे अलावा दूसरे लोग तो ऐसा नहीं सोचते। क्या ये कोई समस्या है?” न केवल उसे ऐसे संदेह नहीं थे, बल्कि उसने अपने विचारों को पत्रों में लिखा और उन्हें सभी कलीसियाओं को भेजा, ताकि हर कोई उन्हें पढ़ सके। ऐसे व्यवहार की प्रकृति क्या है? इसमें एक समस्या है; उसने कभी यह सवाल क्यों नहीं किया कि क्या उसकी सोच सत्य के अनुरूप है, सत्य की खोज करती है, या इसकी तुलना प्रभु यीशु ने जो कहा है उससे क्यों नहीं की? इसके बजाय, उसने जो कल्पना की थी और जो उसे अपनी धारणाओं में सही लगा, उसे ही वह लक्ष्य माना जिसे प्राप्त करने का उसे प्रयास करना चाहिए। यहाँ समस्या क्या है? उसने जो कल्पना की और जो सोचा उसे सत्य के रूप में सही माना और प्राप्त करने योग्य लक्ष्य के रूप में अपनाया। क्या यह अत्यधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना नहीं है? क्या उसके हृदय में तब भी परमेश्वर के लिए स्थान था? क्या वह तब भी परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में सक्षम था? यदि वह परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मान सकता था, तो परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या होगा? क्या वह परमेश्वर भी बनना चाहता था? यदि ऐसा न होता, तो वह अपने विचारों और धारणाओं में कल्पित बातों को अनुसरण योग्य लक्ष्यों के रूप में नहीं देखता, न ही वह अपनी धारणाओं या कल्पनाओं का अनुसरण इस तरह करता जैसे वे सत्य ही हों। उसका मानना था कि उसने जो सोचा वह सत्य था, और कि वह सत्य और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप था। वह जिस बात को सही समझता था उसे ही उसने कलीसियाओं में भाई-बहनों के साथ साझा किया और उनके मन में यह बात बिठाई, जिससे हर कोई उसकी कही हास्यास्पद बातों का पालन करने लगा; उसने प्रभु यीशु के शब्दों को अपने शब्दों से बदल दिया, और अपने इन हास्यास्पद शब्दों का इस्तेमाल यह गवाही देने के लिए किया कि उसके लिए जीवित रहना मसीह होना है। क्या यह पौलुस का दूसरा बड़ा पाप नहीं है? यह समस्या अत्यंत गंभीर है!

हर युग में पौलुस से मिलते-जुलते लोग रहे हैं, तो हम पौलुस का उपयोग एक श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में क्यों करते हैं? क्योंकि वह बाइबल में दर्ज है, और उसने जो विधर्मी तथा भ्रांतिपूर्ण बातें कहीं उनका एवं स्वयं उसका सभी ईसाइयों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। तुम कह सकते हो कि उसने जो नुकसान पहुँचाया वह बहुत बड़ा है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें उसने गुमराह किया और विष दिया है। उसने न केवल कई पीढ़ियों को विष दिया है, बल्कि वह विष बहुत गहरा है। कितना गहरा? (सभी ईसाई उसे एक आदर्श के रूप में देखते हैं और उसकी नकल करते हैं; वे उसके शब्दों का अभ्यास ऐसे करते हैं जैसे कि वे परमेश्वर के वचन हों।) यदि तुम मसीह के शब्दों और परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हो, तो कोई भी इसके बारे में ज्यादा बात नहीं करता। लेकिन जब तुम पौलुस के शब्दों पर संगति करते हो, तो लोग तुरंत उठ बैठते हैं और ध्यान से सुनते हैं। इसका क्या अर्थ है? (कि वे पौलुस के साथ मसीह जैसा व्यवहार करते हैं।) जब लोग पौलुस के साथ मसीह जैसा व्यवहार करते हैं, तो उसने उनके दिलों में प्रभु यीशु मसीह का स्थान ले लिया होता है। क्या यह बहुत भारी पाप नहीं है? (बिलकुल है।) पौलुस इतिहास का सबसे बड़ा मसीह-विरोधी है! उसके शब्दों का आशय अत्यंत स्पष्ट है; उसके लक्ष्य और उसका कपट स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हैं; उसका सार अत्यधिक कपटी और विषाक्त है। इसकी प्रकृति गंभीर समस्याग्रस्त है! इसीलिए मुझे इस प्रकरण को सामने लाना पड़ा और इसका विश्लेषण करना पड़ा। यदि मैं ऐसा नहीं करता तो लोग उससे गुमराह होते रहते। हालाँकि, अगर मैं पौलुस के मुद्दों का विश्लेषण करने जा रहा था, तो आज मुझे लोगों के लिए उसका बेहतर उपयोग करते हुए उसे इस बात के उदाहरण के तौर पर रखना था कि क्या नहीं करना चाहिए। अभी-अभी हमने पौलुस के दो पापों का सारांश प्रस्तुत किया है। पहला क्या था? (पौलुस ने काम करने और दौड़ लगाने को ऐसे सिक्कों के रूप में देखा, जिनके बदले वह मुकुट पा सकता था। उसने आशीष और मुकुट हासिल करने को ऐसे उचित लक्ष्य के रूप में देखा, जिसे पाने का उसे सतत प्रयास करना चाहिए।) यह सही है। पौलुस की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह इन चीजों को ऐसा लक्ष्य मानता था जिन्हें पाने का उसे सतत प्रयास करना चाहिए। शुरू से यह ऐसा लेन-देन था जिसमें विद्रोह और दुष्ट प्रकृति शामिल थे, लेकिन पौलुस इसे प्राप्त करने योग्य उचित लक्ष्य मानता था। यह सबसे गंभीर समस्या है। दूसरा पाप क्या था? (पौलुस अपनी कल्पनाओं और जिन चीजों को अपनी धारणाओं में सही समझता था, उन्हें सत्य मानता था। उसने कभी इस पर विचार नहीं किया और इसके बारे में खोज भी नहीं की; इसके बजाय उसने लोगों को गुमराह किया तथा भाई-बहनों को अपने शब्दों और बेतुके सिद्धांतो का पालन करने के लिए बाध्य किया जिससे लोग उसे मसीह जैसा समझने लगे।) यह विशेष रूप से गंभीर मुद्दा है। इन मुद्दों का बिलकुल ठीक-ठीक नोट बनाओ; जब हम उनका सारांश बनाने की प्रक्रिया पूरी कर लें, तो तुम्हें उनसे अपनी तुलना करनी चाहिए। जब हम किसी विषय पर चर्चा करते हैं, तो हमें पहले सत्य के उस विशेष पहलू के बारे में बात करनी चाहिए, फिर तुलना करनी चाहिए। पौलुस के स्वयं को प्रदर्शित करने के तरीके का विश्लेषण करना सभी के लिए एक चेतावनी है, साथ ही यह लोगों को बताता है कि उन्हें सही मार्ग चुनना चाहिए, फिर अभ्यास का एक सटीक मार्ग खोजना चाहिए और पौलुस के नक्शेकदम पर चलने से बचना चाहिए। तभी तुम पूरी तरह से प्रभावी होगे।

पौलुस का एक और गंभीर पाप है, और वह यह है कि उसने अपना काम पूरी तरह से अपनी मानसिक क्षमता, शैक्षणिक ज्ञान, धार्मिक ज्ञान और सिद्धांत के आधार पर किया। यह ऐसी बात है जो उसके प्रकृति सार से संबंधित है। तुम लोगों को इसका सारांश प्रस्तुत करना चाहिए और फिर जाँच करनी चाहिए कि इन चीजों के प्रति उसका रवैया क्या है। यह एक बहुत ही अहम और महत्वपूर्ण पाप है और इसे लोगों को अवश्य समझना चाहिए। एक पल के लिए विचार करो कि इस पाप में पौलुस की कौन सी अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं; इन अभिव्यक्तियों के माध्यम से देखो कि उसका प्रकृति सार क्या है, और इस बात की स्पष्ट तस्वीर बनाओ कि वह अंदर से किस चीज को महत्व देता है तथा उसके लक्ष्य क्या हैं। उसके इरादे और लक्ष्य ही इस बात के मूल में हैं कि उसने गलत रास्ते पर चलना क्यों शुरू किया। ये तुम्हारे लिए स्पष्ट रूप से समझने वाली सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं। पौलुस के पास क्या विशेष गुण थे? (पौलुस को व्यवस्था के युग से जुड़े बाइबिल के बहुत सारे ज्ञान की अच्छी समझ थी।) उस समय केवल पुराना नियम ही अस्तित्व में था। पौलुस इन धर्मग्रंथों से परिचित था, और आज के धार्मिक शिक्षकों, पादरियों, उपदेशकों और फादर की तरह उनके बारे में बहुत जानकार था। उसका धार्मिक ज्ञान शायद आज के लोगों से भी अधिक व्यापक रहा होगा, लेकिन यह ज्ञान उसने इस दुनिया में जन्म लेने के बाद हासिल किया था। पौलुस के पास जन्म से क्या था? (उसकी जन्मजात योग्यताएं।) पौलुस स्वाभाविक रूप से चतुर था, अच्छा वक्ता था, अपनी बात को अच्छी तरह से व्यक्त करता था, और सार्वजनिक रूप से बोलने में हिचकता नहीं था। आओ, अब हम उसकी जन्मजात योग्यताओं, प्रतिभाओं, बुद्धिमत्ता, क्षमताओं के साथ-साथ उसके द्वारा जीवन भर अर्जित किए गए ज्ञान के बारे में बात करने पर ध्यान केंद्रित करें। इस तथ्य का क्या मतलब है कि वह अच्छा वक्ता था? उसने स्वयं को किस प्रकार से प्रकट एवं प्रस्तुत किया? वह ऊँचे सिद्धांतों के बारे में बात करना पसंद करता था; वह लगातार गहन आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों, सिद्धांतों और ज्ञान तथा अपने प्रसिद्ध ग्रंथों और लोगों द्वारा प्रायः उद्धृत कथनों के बारे में बात करता था। वह कौन सा एक शब्द है जो पौलुस के शब्दों का सार प्रस्तुत करता है? (खोखला।) क्या खोखले शब्द लोगों के लिए रचनात्मक हैं? जब वे उन शब्दों को सुनते हैं, तो उन्हें साहस का अनुभव होता है, लेकिन थोड़ी देर बाद उनका उत्साह ठंडा पड़ जाता है। पौलुस जिन चीजों के बारे में बात करता था वे अस्पष्ट और भ्रम पैदा करने वाली थीं, जिन चीजों को तुम ठोस शब्दों में नहीं बता सकते। जिन सिद्धांतों के बारे में वह बात करता था, उनमें तुम्हें अभ्यास का कोई मार्ग या दिशा नहीं मिल सकती; तुमको ऐसा कुछ भी नहीं मिल सकता जिसे तुम सटीक तरीके से वास्तविक जीवन में लागू कर सको—चाहे सिद्धांत हों या आधार, कोई भी वास्तविक जीवन में लागू नहीं होता। इसीलिए मैं कहता हूँ कि वह जिन धार्मिक सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों की बात करता था, वे खोखली और अव्यावहारिक बातें थीं। इन चीजों के बारे में बात करने में पौलुस का लक्ष्य क्या था? कुछ लोग कहते हैं, “वह हमेशा इन चीजों के बारे में बात करता था क्योंकि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी ओर खींचना चाहता था जिससे वे उसे सम्मान और आदर की दृष्टि से देखें। वह प्रभु यीशु का स्थान लेना चाहता था और अधिक लोगों का मन जीतना चाहता था, ताकि उसे आशीष मिले।” क्या यही वह विषय है जिस पर हम आज बात करना चाहते हैं? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए बेहद सामान्य बात है जिसकी काट-छाँट न की गई हो, जिस पर कोई फैसला न लिया गया हो या जिसकी ताड़ना न की गई हो, जो परीक्षणों या शुद्धिकरण से न गुजरा हो, जिसके पास उसके जैसे विशेष गुण हों और जिसका प्रकृति सार ऐसे मसीह विरोधी का हो जो इस तरह से दिखावा करता हो और उसके जैसे आचरण का प्रदर्शन करता हो। इसलिए हम इस मामले की गहराई में नहीं जाएंगे। हम किस बात की गहराई में जाने वाले हैं? उसकी इस समस्या के सार, उसके ऐसा करने के पीछे के मूल कारण और प्रेरणा, और किस चीज ने उसे इस तरह कार्य करने के लिए प्रेरित किया उसकी गहराई में जाएंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आज लोग उन सभी चीजों को धर्म-सिद्धांत, सिद्धांत, धार्मिक ज्ञान, सहज प्रतिभा या चीजों की उसकी अपनी व्याख्या के रूप में देखेंगे या नहीं, आम तौर पर कहें तो, पौलुस की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह मानवीय इच्छा से उत्पन्न चीजों को सत्य के रूप में ग्रहण करता था। इसीलिए उसमें लोगों को आकर्षित करने और उन्हें सिखाने के लिए इन धार्मिक सिद्धांतों का निर्णायक, साहसपूर्ण और खुला उपयोग करने की हिम्मत थी। यही समस्या का सार है। क्या यह एक गंभीर समस्या है? (हाँ, यह गंभीर समस्या है।) किन चीजों को वह सत्य मानता था? वह खूबियों के साथ पैदा हुआ था और साथ ही उसने जीवन भर ज्ञान अर्जित किया और धार्मिक सिद्धांत सीखे थे। उसने धार्मिक सिद्धांत शिक्षकों से प्राप्त किया, धर्मग्रंथों को पढ़ कर प्राप्त किया तथा उसने जो समझा और और कल्पना की उससे भी ज्ञान उत्पन्न किया। उसने अपनी मानवीय समझ की धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य माना, लेकिन यह सबसे गंभीर समस्या नहीं थी, एक समस्या इससे भी बड़ी थी। उसने उन बातों को सत्य माना, लेकिन क्या उसने उस समय सोचा था कि वे बातें सत्य थीं? क्या उसके पास ऐसी कोई अवधारणा थी कि सत्य है क्या? (नहीं, उसने ऐसा नहीं किया।) तो फिर वह उन चीजों को किस रूप में देखता था? (जीवन के रूप में।) उसने उन सभी चीजों को जीवन माना। उसे लगता था कि वह जितने अधिक उपदेश दे सकेगा, या जितनी ऊँची बातें करेगा, उसका जीवन उतना ही महान होगा। वह उन चीजों को जीवन मानता था। क्या यह गंभीर मामला है? (हाँ, यह गंभीर मामला है।) इसका क्या प्रभाव पड़ा? (इसका प्रभाव उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग पर पड़ा।) यह इसका एक पक्ष है। और क्या? (वह सोचता था कि इन चीजों को प्राप्त कर लेने से उसका उद्धार हो जाएगा और वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेगा।) इसका संबंध अभी भी आशीष प्राप्त करने से है; उसने सोचा कि उसका जीवन जितना महान होगा, उसके स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और स्वर्गारोहण की संभावना उतनी ही अधिक होगी। “स्वर्गारोहण” कहने का दूसरा तरीका क्या है? (परमेश्वर के साथ शासन करना और शक्ति सम्पन्न होना।) स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का उसका उद्देश्य परमेश्वर के साथ शासन करना और सत्ता का संचालन करना था, लेकिन यह उसका अंतिम लक्ष्य नहीं था, उसका एक और भी लक्ष्य था। वह इस बारे में बात करता था उसने इसे कैसे व्यक्त किया है? (“क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)।) उसने कहा कि उसके लिए जीना मसीह है, और मरना लाभ है। इसका अर्थ क्या है? कि वह मरने के बाद परमेश्वर बन जायेगा? उसकी महत्वाकांक्षा सीमाहीन है! उसकी समस्या बहुत गंभीर है! तो, क्या पौलुस के मामले का विश्लेषण करना हमारे लिए गलत है? बिल्कुल नहीं। उसे अपनी खूबियों और प्राप्त किए ज्ञान को कभी भी जीवन नहीं मानना चाहिए था। यह उसका तीसरा बड़ा पाप है। तुम इन तीन पापों में से किसी एक में पौलुस की प्रकृति का सार देख सकते हो। प्रत्येक पाप में उसके प्रकृति सार के लक्षण उजागर होते हैं; कुछ भी न छिपा है, न छूटा है। उन सभी में उसका प्रकृति सार दर्शित होता है।

आगे हम पौलुस की सबसे महत्वपूर्ण और गंभीर समस्याओं पर नजर डालेंगे, जो उसका सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करती हैं। पौलुस ने जो पत्र लिखे उनमें वह अक्सर किन शब्दों का प्रयोग करता था? देखो कि बाइबल का मूल पाठ क्या कहता है, फिर हम इसका विश्लेषण और विच्छेदन करेंगे और देखेंगे कि वास्तव में उसके मन में क्या था और परमेश्वर क्यों उससे सख्त नफरत और घृणा करता था। पौलुस जैसे प्रसिद्ध और शुरुआती कलीसियों के काम में सहायक रहे व्यक्ति को अंत में दंडित क्यों होना पड़ा? परमेश्वर ने अपने मन में पौलुस का मूल्यांकन कैसे किया? परमेश्वर ने उसे कैसे देखा? परमेश्वर ने उसका मूल्यांकन इस तरीके से क्यों किया, और जो निर्णय सुनाया वह क्यों सुनाया? परमेश्वर ने अंततः किस आधार पर पौलुस को परिभाषित किया और उसका परिणाम निर्धारित किया? इन सभी चीजों की सूची बनाओ ताकि लोग उन तथ्यों को देख सकें कि उसने किस प्रकार परमेश्वर का प्रतिरोध किया, ताकि वे यह न सोचें कि उसे गलत तरीके से सजा दी गई थी। जब लोग सत्य को नहीं समझते, तो इस बात की सबसे ज्यादा संभावना होती है कि वे बाहरी दिखावे के आधार पर लोगों को परिभाषित करें। लोगों के पास दूसरों के बाहरी स्वरूप के अनुसार उन्हें परिभाषित करने का क्या आधार है? अंशतः यह पारंपरिक संस्कृति और सामाजिक शिक्षाओं के कारण होता है। इसका एक दूसरा हिस्सा है घरेलू शिक्षा, किताबी विचार और अवधारणाएँ, और सही-गलत संबंधी विचार तथा अवधारणाएँ। इसका एक और हिस्सा स्कूली शिक्षा है। ये सभी चीजें मिलकर पूरी तरह शैतानी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करती हैं। शैतान द्वारा लोगों के मन में ये बातें भरने का परिणाम यह हुआ कि लोग अपनी धारणाओं और प्राथमिकताओं के अनुसार इसे अच्छा, उसे बुरा, इसे सही और उसे गलत के रूप में परिभाषित करते हैं। लोगों की इन सभी परिभाषाओं का आधार क्या है? वास्तव में, वे शैतानी सिद्धांतों और फलसफों पर आधारित हैं; लोगों के पास ये जो आधार हैं वे परमेश्वर या सत्य से बिलकुल नहीं आए हैं। यही कारण है कि भ्रष्ट मनुष्य किसी व्यक्ति या घटना को चाहे जैसे भी परिभाषित करें, वे गलत ही होते हैं—उनकी परिभाषा का सत्य से कोई संबंध नहीं होता और न ही वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होती है; इसका परमेश्वर या उसके वचनों से कोई लेना-देना नहीं होता। परमेश्वर अपने स्वभाव और सार के अनुसार लोगों और घटनाओं के बारे में निर्णय सुनाता है। परमेश्वर का स्वभाव और सार क्या है? वह है सत्य। सत्य सभी सकारात्मक चीजों की अभिव्यक्ति है, और सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। परमेश्वर सभी सजीव चीजों, और सभी लोगों, घटनाओं और लोग जिन चीजों के संपर्क में आते हैं, उनके बारे में सत्य के अनुसार फैसला सुनाता है। परमेश्वर लोगों के बारे में अपने फैसले उनके प्रकृति-सार, उनके क्रियाकलापों को प्रेरित करने वाली चीजों, जिस पथ पर वे चलते हैं, और सकारात्मक चीजों एवं सत्य के प्रति उनके रवैये के आधार पर करता है। यह परमेश्वर के निष्कर्षों का आधार होता है। सभी चीजों पर परमेश्वर के फैसले सत्य के अनुरूप होते है। सभी चीजों को परिभाषित करने का शैतान का आधार क्या है? (उसका अपना तर्क।) शैतानी फलसफे और तर्क, जो सत्य के बिल्कुल विपरीत हैं। सारी मानवता शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई है। मनुष्य के पास सत्य नहीं है; वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसे साकार करते हैं। वे सभी चीजों को शैतानी फलसफों और तर्क के अनुसार परिभाषित करते हैं। इसलिए, जब वे चीजों को परिभाषित करते हैं तो वे किन निष्कर्षों पर पहुंचते हैं? ऐसे निष्कर्ष जो सत्य के बिल्कुल विपरीत और विरुद्ध होते हैं। क्या तुम लोगों को वे शब्द मिले जिन्हें पौलुस अपने पत्रों में अक्सर इस्तेमाल करता था? उन्हें पढ़ो। (“पौलुस की ओर से जो परमेश्वर की इच्छा से यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया” (1 कुरिन्थियों 1:1)।) देखा? पौलुस परमेश्वर और मसीह को किस क्रम में रखता है : “पौलुस की ओर से जो परमेश्वर की इच्छा से यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया।” इस श्रेणी में पौलुस का स्थान कहाँ है? (तीसरा।) पौलुस के मन में, नंबर एक पर कौन है? (परमेश्वर।) और नंबर दो? (प्रभु यीशु।) यीशु मसीह। तीसरा कौन है? (स्वयं पौलुस।) वह स्वयं है। “पौलुस की ओर से जो परमेश्वर की इच्छा से यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया।” पौलुस इस वाक्यांश का अक्सर उपयोग करता था, और इस वाक्यांश में बहुत सारी सूचनाएं हैं। शुरुआत करने वालों के लिए, हम जानते हैं कि पौलुस प्रभु यीशु मसीह का एक प्रेरित है। तो, पौलुस के परिप्रेक्ष्य से प्रभु यीशु मसीह कौन है? वह मनुष्य का पुत्र है और स्वर्ग में परमेश्वर के बाद दूसरा है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि पौलुस ने प्रभु यीशु मसीह को स्वामी कहा या प्रभु कहा, उसके परिप्रेक्ष्य से पृथ्वी पर मसीह परमेश्वर नहीं था, बल्कि एक मनुष्य था जो लोगों को ज्ञान दे सकता था और उनसे अपना अनुसरण करवा सकता था। ऐसे व्यक्ति के प्रेरित के रूप में पौलुस का क्या काम था? सुसमाचार साझा करना, कलीसियों में जाना, धर्मोपदेश देना और पत्र लिखना। उसका मानना था कि वह ये काम प्रभु यीशु मसीह की ओर से कर रहा था। अपने मन में उसने सोचा, “जहां तुम नहीं जा सकोगे, वहां जाकर मैं तुम्हारी मदद करूंगा और जिन जगहों पर तुम नहीं जाना चाहते, वहां मैं तुम्हारी ओर से नजर रखूंगा।” प्रेरित के बारे में पौलुस की अवधारणा यह थी। उसके दिमाग में क्रम संबंधी धारणा यह थी कि वह और प्रभु यीशु दोनों सामान्य लोग हैं। वह स्वयं को और प्रभु यीशु मसीह को एक समान मनुष्य मानता था। उसके मन में उन दोनों के पदों के बीच सार रूप में कोई अंतर नहीं था, न ही उनकी पहचान में कोई अंतर था और उनके सेवा-दायित्वों में अंतर की तो बात ही नहीं थी। केवल उनके नाम, उम्र, पारिवारिक परिस्थितियोँ और पृष्ठभूमियोँ में अंतर था और उनकी बाहरी खूबियाँ और ज्ञान अलग-अलग थे। पौलुस के मन में था कि वह हर तरह से प्रभु यीशु मसीह के समान था और उसे मनुष्य का पुत्र भी कहा जा सकता था। प्रभु यीशु मसीह के बाद उसके दूसरे नंबर पर होने का एकमात्र कारण यह था कि वह प्रभु यीशु का प्रेरित था; वह प्रभु यीशु मसीह की शक्ति का प्रयोग करता था, और प्रभु यीशु मसीह उसे कलीसियों के दौरे पर और कलीसियाई कामों के लिए भेजते थे। एक प्रेरित के रूप में पौलुस इसे ही अपनी स्थिति और पहचान मानता था—उसने इसकी इसी तरह व्याख्या की। इसके अलावा, वाक्यांश “पौलुस की ओर से जो यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया” में महत्वपूर्ण शब्द है “बुलाया गया।” इस शब्द से हम पौलुस की मानसिकता को देख सकते हैं। उसने छह शब्दों “परमेश्वर की इच्छा से ... बुलाया गया” का उपयोग क्यों किया? उसने यह नहीं सोचा कि उसे प्रभु यीशु मसीह ने अपना प्रेरित बनने के लिए बुलाया था; उसने सोचा, “प्रभु यीशु मसीह के पास मुझे कोई काम करने का आदेश देने की सामर्थ्य नहीं है। मैं वह नहीं कर रहा जो उसने आदेश दिया था; मैं उसके लिए कुछ नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं स्वर्ग में स्थित परमेश्वर की इच्छा के कारण ये चीजें कर रहा हूँ। मैं प्रभु यीशु मसीह के ही समान हूँ।” इससे एक और बात का संकेत मिलता है—पौलुस ने सोचा कि वह प्रभु यीशु मसीह की तरह ही मनुष्य का पुत्र है। ये छह शब्द “परमेश्वर की इच्छा से ... बुलाया गया” बताते हैं कि पौलुस अपने हृदय की गहराई में कैसे प्रभु यीशु मसीह की पहचान को नकारता था और उस पर संदेह करता था। पौलुस ने कहा कि वह परमेश्वर की इच्छा से प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित था, जो परमेश्वर ने उससे कहा था, उसे परमेश्वर द्वारा आदेशित और स्थापित किया गया था और वह प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित बना क्योंकि परमेश्वर ने उसे बुलाया और ऐसी इच्छा की। पौलुस के मन में उसके और प्रभु यीशु मसीह के बीच यही रिश्ता था। परंतु, यह भी इसका सबसे खराब अंश नहीं है। सबसे ख़राब अंश क्या है? यह कि पौलुस ने सोचा कि वह परमेश्वर की इच्छा से प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित है, न कि प्रभु यीशु मसीह की इच्छा से, कि उसे जिसने बुलाया था वह प्रभु यीशु नहीं थे, बल्कि स्वर्ग में स्थित परमेश्वर ने उससे ऐसा करवाया था। उसने सोचा कि किसी के पास उसे प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित बनाने की सामर्थ्य या योग्यता नहीं थी; कि केवल स्वर्ग में स्थित परमेश्वर के पास ही वह सामर्थ्य थी; और उसे सीधे स्वर्ग में बैठे परमेश्वर द्वारा निर्देशित किया जा रहा था। तो, यह क्या दर्शाता है? पौलुस हृदय की गहराई से मानता था कि स्वर्ग में परमेश्वर नंबर एक और वह खुद नंबर दो था। तो उसने प्रभु यीशु को किस स्थान पर रखा? (अपने समकक्ष स्थिति में।) यही समस्या है। अपनी जबान से उसने घोषणा की कि प्रभु यीशु ही मसीह था, लेकिन उसने यह नहीं पहचाना कि मसीह का सार परमेश्वर का सार था; वह मसीह और परमेश्वर के बीच के संबंध को नहीं समझता था। यह समझ की कमी ही थी जिससे इतनी गंभीर समस्या पैदा हुई। यह किस तरीके से गंभीर समस्या थी? (उसने यह नहीं स्वीकारा कि प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था। उसने प्रभु यीशु को नकार दिया था।) हाँ, यह वास्तव में बहुत गंभीर बात है। उसने इस बात से इनकार किया कि प्रभु यीशु मसीह देहधारी परमेश्वर था, कि जब प्रभु यीशु मसीह स्वर्ग से पृथ्वी पर आया तो वह परमेश्वर की देह था, और यह कि प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारी स्वरूप था। क्या यह ऐसा संकेत नहीं करता कि पौलुस ने पृथ्वी पर परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार किया? (हाँ, ऐसा ही है।) यदि उसने पृथ्वी पर परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार किया, तो क्या वह प्रभु यीशु के वचनों को स्वीकार कर सकता था? (नहीं, वह नहीं कर सकता था।) यदि उसने उसके वचनों को स्वीकार नहीं किया, तो क्या वह उसे स्वीकार कर सकता था? (नहीं, वह नहीं कर सकता था।) उसने प्रभु यीशु मसीह के वचनों, उसकी शिक्षाओं या पहचान को स्वीकार नहीं किया, तो क्या वह प्रभु यीशु मसीह के कार्यों को स्वीकार कर सकता था? (नहीं, वह नहीं कर सकता था।) उसने प्रभु यीशु मसीह द्वारा किए गए कार्य को या इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर था, फिर भी यह सबसे बुरा अंश नहीं था। सबसे बुरा अंश क्या था? दो हजार साल पहले, प्रभु यीशु सबसे बड़ा कार्य करने के लिए पृथ्वी पर आया—अनुग्रह के युग में छुटकारा दिलाने के कार्य के लिए, जहां उसने देहधारण किया और पापी देह के समान बन गया और समस्त मानवजाति के लिए पाप बलि के रूप में सूली पर चढ़ा दिया गया। क्या ये कोई बड़ा काम था? (हाँ, यह बड़ा काम था।) यह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने का काम था और यह स्वयं परमेश्वर द्वारा किया गया था, फिर भी पौलुस ने हठपूर्वक इसका खंडन किया। उसने इस बात से इनकार किया कि प्रभु यीशु ने छुटकारा दिलाने का जो कार्य किया था वह स्वयं परमेश्वर द्वारा किया गया था, जो इस तथ्य से इनकार करना था कि परमेश्वर ने पहले ही छुटकारा देने का कार्य पूरा कर लिया था। क्या यह गंभीर समस्या है? यह अत्यंत गंभीर है! पौलुस ने न केवल प्रभु यीशु मसीह के सूली पर चढ़ने के तथ्य को समझने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसने इसे स्वीकार भी नहीं किया और इसे स्वीकार न करने का मतलब इसे नकारना है। उसने यह स्वीकार नहीं किया कि वह परमेश्वर ही था जिसे सूली पर चढ़ाया गया और उसने समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाया, न ही उसने यह स्वीकार किया कि परमेश्वर ने समस्त मानवजाति के लिए पाप बलि के रूप में कार्य किया। इससे संकेत मिलता है कि उसने यह स्वीकार नहीं किया कि परमेश्वर द्वारा अपना कार्य करने के बाद समस्त मानवजाति को छुटकारा मिल गया था, या कि उनके पाप क्षमा कर दिए गए थे। साथ ही, उसने सोचा कि उसके पाप क्षमा नहीं किए गए हैं। उसने इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं किया कि प्रभु यीशु ने मानवजाति को छुटकारा दिलाया है। उसके दृष्टिकोण से, वह सब कुछ मिटा दिया गया था। यह सबसे गंभीर मुद्दा है। अभी-अभी मैंने उल्लेख किया कि पौलुस पिछले दो हजार वर्षों में सबसे बड़ा मसीह-विरोधी था; इस तथ्य का खुलासा पहले ही उजागर हो चुका है। यदि ये तथ्य बाइबल में दर्ज नहीं किए गए होते और परमेश्वर ने कहा होता कि पौलुस ने परमेश्वर की अवहेलना की थी और वह मसीह-विरोधी था, तो क्या लोग इस पर विश्वास करते? बिल्कुल नहीं करते। शुक्र है कि बाइबल ने पौलुस के पत्रों का लेखा-जोखा रखा, और उन पत्रों में तथ्यात्मक प्रमाण हैं; अन्यथा, मैं जो कह रहा हूँ उसके पक्ष में कुछ भी नहीं होता और हो सकता था कि तुम लोग इसे स्वीकार न करते। अब, जब हम पौलुस के शब्दों को निकाल कर उन्हें पढ़ते हैं, तो क्या पता चलता है कि प्रभु यीशु द्वारा कही गई सभी बातों को पौलुस कैसे देखता था? वह सोचता था कि प्रभु यीशु की कही बातें उसके अपने एक भी धार्मिक सिद्धांत के बराबर नहीं हैं। इसलिए, प्रभु यीशु के इस दुनिया से चले जाने के बाद, भले ही पौलुस सुसमाचार का प्रचार करता रहा, काम करता रहा, उपदेश देता रहा और कलीसियों की देखभाल करता रहा, फिर भी उसने कभी प्रभु यीशु के वचनों का प्रचार नहीं किया, उनका अभ्यास या अनुभव करने की तो बात ही दूर है। इसके बजाय, उसने पुराने नियम के बारे में अपनी समझ का प्रचार किया, जो कालातीत हो चुकी थी और खोखली बातें भर रह गई थी। पिछले दो हजार वर्षों से जो लोग प्रभु में विश्वास करते हैं वे बाइबल के अनुरूप ऐसा करते हैं, और वे जो कुछ भी स्वीकार करते हैं वे पौलुस के खोखले सिद्धांत हैं। इसके परिणामस्वरूप, लोग दो हजार वर्षों से अंधेरे में हैं। अगर तुम आज धार्मिक लोगों के किसी समूह से कहो कि पौलुस गलत था, तो वे विरोध करेंगे और इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि वे सभी पौलुस को ऊंची निगाह से देखते हैं। पौलुस उनका आदर्श और उनका संस्थापक पिता है और वे पौलुस के पुत्र और वंशज हैं। उन्हें किस हद तक गुमराह किया गया है? वे पहले से ही परमेश्वर के विरोध में पौलुस वाले पक्ष में खड़े हैं; उनके मत पौलुस जैसे हैं, उनका प्रकृति सार एक जैसा है और अनुसरण करने का तरीका भी वही है। उन्हें पौलुस द्वारा पूरी तरह से घुला-मिला लिया गया है। यह पौलुस का चौथा बड़ा पाप है। पौलुस ने प्रभु यीशु मसीह की पहचान को अस्वीकार किया, और उसने व्यवस्था के युग के बाद अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा किए गए कार्यों से इनकार किया। ये सबसे गंभीर बात है। एक और गंभीर बात यह है कि उसने स्वयं को प्रभु यीशु मसीह के समान श्रेणी में रखा। पौलुस जिस युग में रहा, उसमें वह प्रभु यीशु मसीह से मिला था, परन्तु उसने उसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखा; इसके बजाय, उसने प्रभु यीशु मसीह के साथ एक सामान्य व्यक्ति जैसा व्यवहार किया, जैसे कि वह मानव जाति का एक सामान्य सदस्य भर हो; एक ऐसा मनुष्य जिसका प्रकृति सार भ्रष्ट मनुष्यों के ही समान रहा हो। किसी भी तरह से पौलुस ने प्रभु यीशु को मसीह नहीं माना, उसे परमेश्वर मानने की तो बात ही छोड़ो। यह बहुत ही गंभीर मामला है। तो पौलुस ऐसा क्यों करता था? (उसने यह नहीं पहचाना कि देहधारी परमेश्वर में परमेश्वर का सार है, इसलिए उसने प्रभु यीशु मसीह को परमेश्वर नहीं माना।) (उसने प्रभु यीशु के वचनों को सत्य के रूप में नहीं देखा, न ही यह देखा कि प्रभु यीशु मसीह सत्य का प्रतिरूप था।) (ऊपरी तौर पर, पौलुस प्रभु यीशु पर विश्वास करने का दिखावा करता था, लेकिन वास्तव में उसका जिस पर विश्वास था वह स्वर्ग में अवस्थित अस्पष्ट परमेश्वर था।) (उसने सत्य की तलाश नहीं की, इसलिए वह यह जान पाने में असमर्थ रहा कि मसीह ही सत्य और जीवन था।) बताते रहो। (पौलुस ने कहा कि उसके लिए जीवित रहना मसीह होना था। वह परमेश्वर बनना चाहता था और प्रभु यीशु का स्थान लेना चाहता था।) तुम लोगों ने जो कुछ भी कहा वह तथ्यों के अनुरूप है। पौलुस ने जिन-जिन तरीकों से खुद को प्रकट किया और उसका हर एक पाप पहले उल्लिखित पापों से भी अधिक गंभीर था।

आओ, पौलुस के कहे इस वाक्यांश का विश्लेषण करें : “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है।” ये प्रभावोत्पादक शब्द हैं। उसके शब्दों का चयन देखो : “धर्म का मुकुट।” आमतौर पर, “मुकुट” शब्द का प्रयोग करना ही काफी साहस का काम है, लेकिन मुकुट को परिभाषित करने के लिए एक गुणात्मक अभिव्यक्ति के रूप में “धर्म” का प्रयोग करने का साहस कौन करेगा? केवल पौलुस ही इस शब्द का उपयोग करने का साहस कर सकता था। उसने इसका प्रयोग क्यों किया? इस शब्द का एक मूल है, और इसे सावधानी से चुना गया है; उसके शब्दों के गहरे संकेतार्थ हैं! कैसे संकेतार्थ? (वह इस शब्द के प्रयोग से परमेश्वर के हाथ को अपनी इच्छित दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहा था।) परमेश्वर के हाथ पर दबाव डालने की चाह इसका एक पहलू है। निश्चित ही उसका इरादा लेन-देन करने का था और इसमें भी एक बात परमेश्वर के साथ शर्तें तय करने की कोशिश से संबंधित है। हमेशा इस धर्म के मुकुट के बारे में उपदेश देने के पीछे क्या इसके अलावा कोई और उद्देश्य था? (वह लोगों को गुमराह करना चाहता था और उन्हें यह सोचने को बाध्य़ करना चाहता था कि अगर उसे मुकुट नहीं मिला तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है।) इस बारे में उसके प्रचार में उकसाने और गुमराह करने का एक तत्व है और यह पौलुस की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा है। धर्म का मुकुट अंततः पा लेने की अपनी इच्छा को साकार करने और पूरा करने के लिए उसने हर जगह इसके बारे में प्रचार करने की रणनीति का इस्तेमाल किया। अंशतः, इन शब्दों का प्रचार करने का उसका लक्ष्य लोगों को भड़काना और गुमराह करना देना था; यह सुनने वालों में ऐसा विशेष विचार पैदा करने के लिए था कि “मेरे जैसा व्यक्ति जो खुद को इतना खपाता है, जो चारों ओर इतनी यात्राएं करता है और मेरी तरह अनुसरण करने का प्रयास करता है, वह धर्म का मुकुट पाने में सफल होगा।” इसे सुनने के बाद लोगों को स्वाभाविक रूप से लगता था कि परमेश्वर तभी धार्मिक है जब पौलुस जैसे व्यक्ति को मुकुट मिले। उन्हें लगता था कि उन्हें भी पौलुस की तरह ही अनुसरण करना चाहिए, चतुर्दिक यात्राएं करनी चाहिए और खुद को खपाना चाहिए, कि वे प्रभु यीशु की बातें नहीं सुन सकते और पौलुस ही मानक है, वही प्रभु है, और वही वह दिशा और लक्ष्य है जिसकी ओर लोगों को चलना चाहिए। वे यह भी सोचते थे कि अगर लोग पौलुस की तरह काम करेंगे, तो वे उसके जैसा ही मुकुट, परिणाम और मंजिल पाएंगे। एक लिहाज से पौलुस लोगों को भड़का रहा था और उन्हें गुमराह कर रहा था। दूसरे लिहाज से उसका एक अत्यंत दुष्टतापूर्ण लक्ष्य था। अपने हृदय की गहराई में, वह सोचता था कि “ऐसा होना तो नहीं चाहिए, किंतु यदि मुझे मुकुट नहीं मिलता है और पता चलता है कि यह सिर्फ मेरी अपनी कल्पना और मेरी अपनी कामना थी, तो इसका मतलब यह होगा कि मुझ समेत मसीह में विश्वास करने वाले सभी लोग अपनी आस्था के मामले में गुमराह हुए थे। इसका मतलब होगा कि पृथ्वी पर कोई परमेश्वर मौजूद नहीं है, और, परमेश्वर, मैं स्वर्ग में भी तुम्हारे अस्तित्व को नकार दूंगा और तुम इस संबंध में कुछ भी नहीं कर सकोगे।” वह जो जताना चाह रहा था वह था : “अगर मुझे यह मुकुट नहीं मिला, तो न केवल भाई-बहन तुमको नकार देंगे, बल्कि मैं तुमको उन सभी लोगों को जीतने से रोक दूंगा जिन्हें मैंने उकसाया है और जो इन शब्दों को जानते हैं। मैं उन्हें भी तुम्हें हासिल करने से रोक दूंगा और इसी के साथ मैं स्वर्ग में परमेश्वर के रूप में तुम्हारे अस्तित्व को भी नकार दूंगा। तुम धार्मिक नहीं हो। अगर मैं, पौलुस, मुकुट नहीं पा सकता, तो वह किसी को भी नहीं मिलना चाहिए!” यह पौलुस का भयावह हिस्सा था। क्या यह किसी मसीह-विरोधी का सा व्यवहार नहीं है? यह किसी मसीह-विरोधी दानव का व्यवहार है : लोगों को भड़काना, गुमराह करना और उन्हें अपने आकर्षण में फंसाने के साथ ही खुले तौर पर परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाना और उसका विरोध करना। हृदय की गहराई में पौलुस सोचता था, “यदि मुझे मुकुट नहीं मिलता, तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यदि मुझे मुकुट मिलता है, तभी वह धर्म का मुकुट है, और केवल तभी परमेश्वर की धार्मिकता वास्तव में धार्मिक है।” यह उसके “धर्म का मुकुट” का मूल बिंदु है। इस तरह वह कर क्या रहा था? वह खुले तौर पर उन लोगों को भड़का रहा था और गुमराह कर रहा था जो परमेश्वर का अनुसरण करते थे। साथ ही साथ, वह खुले आम परमेश्वर के विरुद्ध शोर मचाने और उसका विरोध करने के लिए इन तरीकों का उपयोग कर रहा था। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका व्यवहार एक विद्रोह का व्यवहार था। इसकी प्रकृति क्या थी? सतही तौर पर, पौलुस द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द सौम्य और उचित प्रतीत होते हैं और उनमें कुछ भी गलत नहीं लगता—धर्म का मुकुट पाने और धन्य होने के लिए कौन परमेश्वर में विश्वास नहीं करेगा? यहां तक कि बिना काबिलियत वाले लोग भी कम से कम स्वर्ग जाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। वे स्वर्ग की सड़कों पर झाड़ू लगाने या वहां दरबानी करने का मौका पाने पर भी खुश होंगे। परमेश्वर पर विश्वास में इस इरादे और उद्देश्य का होना उचित और समझ में आने लायक माना जा सकता है। परंतु, यह पौलुस का एकमात्र उद्देश्य नहीं था। जब उसके धर्म के मुकुट के बारे में प्रचार करने की बात आई तो उसने बहुत प्रयास किया, बहुत सारी ऊर्जा खर्च की, और बहुत हो-हल्ला मचाया। पौलुस ने जो बातें कहीं उनसे उसकी दुर्भावनापूर्ण प्रकृति के साथ-साथ उसके गहरे भीतर छिपी कालिमायुक्त बातें भी उजागर हो गईं। उस समय, पौलुस ने बड़ा नाम कमाया और ऐसे बहुत से लोग थे जो उसे अपना आदर्श मानते थे। वह जगह-जगह घूमकर इन सिद्धांतों और ऊंचे लगने वाले विचारों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ-साथ अपने अध्ययन के दौरान सीखी गई चीजों और अपने मस्तिष्क में पैदा हुए निष्कर्षों का प्रचार करता था। जब पौलुस हर जगह इन बातों का प्रचार करता था, तो उस समय के लोगों पर इसका कितना भारी प्रभाव पड़ा होगा, और इससे उन्हें कितना गंभीर नुकसान पहुँचा होगा और उनके दिलों की गहराई में कितना जहर भर गया होगा? इसके अलावा, उसके पत्रों से ये बातें सीखने वाली बाद की पीढ़ियों के लोगों पर इसका कितना बड़ा प्रभाव पड़ा होगा? जिन लोगों ने उसके शब्दों को पढ़ा है, वे कितनी भी कोशिश कर लें, इन चीजों से छुटकारा नहीं पा सकते—उनमें बहुत गहरे तक विष भर दिया गया है! कितने गहरे तक? एक घटना सामने आई है, जिसे “पौलुस प्रभाव” कहा जाता है। पौलुस प्रभाव क्या है? यह धर्म में एक ऐसी घटना है जिसमें लोग पौलुस के विचारों, नजरिये, तर्कों और उसके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों के प्रभाव में आते हैं। यह विशेष रूप से उन लोगों को प्रभावित करता है जिनके परिवार कई पीढ़ियों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं—वे परिवार जो कई दशकों से मसीह का अनुसरण करते रहे हैं। वे कहते हैं, “हमारा परिवार पीढ़ियों से प्रभु में विश्वास रखता आया है और सांसारिक प्रवृत्तियों का पालन नहीं करता। हमने खुद को लौकिक दुनिया से दूर कर लिया है, और खुद को परमेश्वर की सेवा में अर्पित करने के लिए अपने परिवार और करियर छोड़ दिए हैं। हम जो भी करते हैं वह सब बिलकुल पौलुस जैसे ही करते हैं। यदि हमें मुकुट नहीं मिलता है या स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिलता है, तो परमेश्वर के आने पर हम उससे झगड़ा करेंगे।” क्या लोग यह तर्क नहीं देते? (हाँ, वे देते हैं।) और यह प्रवृत्ति काफी महत्वपूर्ण है। यह प्रवृत्ति कहां से आती है? (पौलुस ने जो उपदेश दिए उससे।) यह पौलुस द्वारा बनाई गई गांठ का घातक परिणाम है। यदि पौलुस ने लोगों को इस तरह नहीं भड़काया होता और हमेशा यह नहीं कहा होता कि, “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” और “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है,” तो इतिहास के उस युग की पृष्ठभूमि के बिना आज के लोगों को उन चीजों का कोई ज्ञान न होता। यदि उनका सोचने का तरीका ऐसा ही होता, तो भी उनमें पौलुस जैसी धृष्टता नहीं होती। यह सब पौलुस के प्रोत्साहन और उकसावे के कारण हुआ था। यदि कोई ऐसा दिन आता है जब उन्हें आशीर्वाद नहीं मिलता, तो इन लोगों में इतनी हिम्मत होगी कि वे प्रभु यीशु को खुलेआम चुनौती दें, और वे तो तीसरे स्वर्ग तक जाना चाहेंगे ताकि वे प्रभु के साथ इस मुद्दे पर विवाद कर सकें। क्या यह धार्मिक जगत का प्रभु यीशु के विरुद्ध विद्रोह करना नहीं है? यह स्पष्ट है कि धार्मिक जगत पर पौलुस का गंभीर प्रभाव पड़ा है! अब जब मैंने इस बिंदु तक बात कर ली है, तो तुम निष्कर्ष निकाल सकते हो कि पौलुस का पाँचवाँ पाप क्या था, है न? जब पौलुस ने जिस “धर्म का मुकुट” की बात की थी, उसकी उत्पत्ति को सारांशित करने की बात आती है, तो ध्यान “धर्म” शब्द पर केंद्रित होता है। उसने “धर्म” का उल्लेख क्यों किया? ऐसा इसलिए था क्योंकि वह पृथ्वी पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भड़काना और गुमराह करना चाहता था, ताकि वे वैसा ही सोचें जैसे वह सोचता था। स्वर्ग में, वह इस शब्द के माध्यम से परमेश्वर पर दबाव डालना, और उसके विरुद्ध हल्ला-गुल्ला करना चाहता था। यही पौलुस का लक्ष्य था। भले ही उसने कभी इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया, परंतु “धर्म” शब्द के इस्तेमाल ने पहले ही उसके लक्ष्य और परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाने की प्रवृत्ति को पूरी तरह उजागर कर दिया था। वह बात पहले से ही सबके सामने थी; ये सभी तथ्य हैं। इन तथ्यों के आधार पर, क्या पौलुस के प्रकृति सार को केवल अभिमानी, आत्म-तुष्ट, धोखेबाज और सत्य से प्रेम न करने वाले के रूप में समेटा जा सकता है? (नहीं।) ये शब्द उसे पूरी तरह से नहीं व्यक्त कर सकते। मेरे द्वारा इन तथ्यों को सामने लाने और उनका विच्छेदन तथा विश्लेषण करने और परिभाषित करने के बाद, तुम्हें पौलुस के प्रकृति सार को अधिक स्पष्ट और अच्छी तरह से देखने में सक्षम होना चाहिए। यह वह प्रभाव है जो तथ्यों के आधार पर किसी के सार का विश्लेषण करके पाया जा सकता है। जब पौलुस ने परमेश्वर के विरुद्ध शोर-शराबा किया तो वह अकेले में घटित हुआ कोई मामूली भावनात्मक क्षण, थोड़ा सा विद्रोही स्वभाव या समर्पण करने में असमर्थता नहीं थी। यह भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाली कोई साधारण समस्या नहीं थी, बल्कि यह पत्रों के माध्यम से लोगों को उकसाने और गुमराह करने के लिए सभी प्रकार के तरीकों का खुले तौर पर उपयोग करने तक बढ़ चुका सार्वजनिक प्रयास था ताकि सभी लोग गुस्से में एक साथ उठकर परमेश्वर का विरोध और हो-हल्ला करें। पौलुस ने न केवल परमेश्वर के विरुद्ध शोर-शराबा किया बल्कि उसने अन्य सभी को भी परमेश्वर के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए उकसाया—वह केवल अहंकारी नहीं, बल्कि दानव था! यह पाप पहले वाले पापों से भी अधिक गंभीर है। यह अच्छी बात है या बुरी कि हम पहले से ज्यादा गंभीर होते जा रहे पापों के बारे में बात कर रहे हैं? (यह अच्छी बात है।) यह अच्छी बात कैसे है? (क्योंकि हम पौलुस के बारे में अधिक समझ हासिल कर रहे हैं।) जब तुम्हारे पास अधिक समझ होगी, तो तुम पौलुस की विभिन्न अभिव्यक्तियों, भ्रष्टाचार के प्रकाशनों और उसके असली चेहरे को पूरी तरह से उजागर करने और स्पष्ट रूप से देख पाने में सक्षम होगे। क्या ऐसा करने से तुम हम सब के लक्ष्य को पा लोगे? (नहीं, ऐसा नहीं होगा।) तुमको पौलुस की उन सभी अभिव्यक्तियों को लेना चाहिए जिन्हें हमने संक्षेपित किया है। इसी के साथ उन अभिव्यक्तियों के मुख्य कथ्य, विषय-वस्तु और सार को लेना चाहिए और उन्हें अपने और अपने आस-पास के लोगों से जोड़ना चाहिए। जब तुम स्पष्ट रूप से देख लोगे कि तुम जिस पथ पर चल रहे हो और तुम्हारे सार में पौलुस की तुलना में कितना अंतर है तो तुम परिणामों को पूरी तरह से पा लोगे और पौलुस का गहन-विश्लेषण करने के हमारे लक्ष्य को भी पा लोगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं, “मुझमें पौलुस की तरह धर्म का मुकुट पाने के लिए सतत प्रयासरत होने जैसी कोई अभिव्यक्ति नहीं है।” हो सकता है कि तुम्हारी अभिव्यक्तियां और तुम्हारा सार पौलुस की तरह गंभीर न हो, लेकिन तुम्हारे और उसके सार के बीच कुछ न कुछ एक समान है। उसकी अभिव्यक्तियां ऐसी थीं, और तुम्हारी दशाएँ इस तरह की हैं। अगर कहें कि पौलुस की अभिव्यक्तियां एक पैमाने पर 10 या 12 थीं, तो तुम्हारी किस स्तर पर हैं? (मैं सातवें या आठवें स्तर पर हूँ।) पौलुस इन चीजों को हर समय दिखाता था, और हर समय इन चीजों से भरा रहता था। यद्यपि संभव है कि तुम इन चीजों को हर समय प्रकट नहीं करते, फिर भी तुम इन्हें अक्सर प्रकट करते हो। तुम शायद अपना आधा जीवन इन्हीं चीजों को करने में और इन्हीं दशाओं में बिताते हो। खास तौर पर तब जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, जब परमेश्वर के कार्य तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाते, जब वह तुम्हारे साथ काट-छाँट कर रहा होता है, और जब वह तुम्हारे लिए जो वातावरण तैयार करता है वह तुम्हारी अपेक्षाओं से मेल नहीं खाता, तब तुम्हारे भीतर इस प्रकार की दशाएँ जन्म ले सकती हैं; तुम परमेश्वर के विरुद्ध हो-हल्ला कर सकते हो और उसका विरोध कर सकते हो। ऐसे मौकों पर पौलुस द्वारा लोगों को उकसाने और गुमराह करने के तरीकों के बारे में हमारा विश्लेषण तुम्हारे काम आ सकता है। क्यों? क्योंकि अब, तुम्हारा मन जानता है कि पौलुस की अभिव्यक्तियां कितनी गंभीर प्रकृति की थीं; वे भ्रष्ट स्वभाव के साधारण प्रकाशन नहीं थे, बल्कि दानवी प्रकृति सार था जो परमेश्वर का विरोध करता है। जब तुम्हारे भीतर ऐसी दशाएँ उत्पन्न होंगी, तो तुमको पता चल जाएगा कि यह समस्या कितनी गंभीर है। तब तुम्हें लौट आना चाहिए, पश्चात्ताप करना चाहिए और इस गलत दशा को त्याग देना चाहिए। तुम्हें इससे दूर चले जाना चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए और परमेश्वर के प्रति समर्पण का मार्ग खोजना चाहिए। यही वह सच्चा पथ है जिस पर मनुष्यों को चलना चाहिए और यही वह विधान है जिसका सृजित प्राणियों को पालन करना चाहिए। यह संगति लोगों के लिए मददगार है।

पौलुस का एक और प्रसिद्ध वाक्यांश है—वह क्या है? (“क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है” (फिलिप्पियों 1:21)।) उसने प्रभु यीशु मसीह की इस पहचान को स्वीकार नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीह पृथ्वी पर सजीव देहधारी परमेश्वर था, न ही इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर का प्रतिरूप था। इसके विपरीत, पौलुस स्वयं को मसीह के रूप में देखता था। क्या यह विद्रोह नहीं है? (बिलकुल है।) यही विद्रोह करना है और इस समस्या का सार बहुत गंभीर है। पौलुस के मन में मसीह वास्तव में कौन था? उसकी पहचान क्या थी? पौलुस में मसीह होने की इतनी तीव्र इच्छा कैसे पैदा हुई थी? अगर पौलुस के मन में मसीह भ्रष्ट स्वभाव वाला कोई सामान्य व्यक्ति, या साधारण भूमिका निभाने वाला कोई महत्वहीन या कोई शक्तिहीन व्यक्ति, किसी तरह की श्रेष्ठ पहचान न रखने वाला, सामान्य लोगों की सीमा से परे कोई क्षमता या कौशल न रखने वाला व्यक्ति होता, तो क्या पौलुस तब भी मसीह बनना चाहता? (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) निश्चित रूप से वह ऐसा नहीं करता। वह स्वयं को सुशिक्षित समझता था और वह सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि अतिमानव या महान व्यक्ति बनना और दूसरों से आगे निकलना चाहता था—वह ऐसा मसीह कैसे बनना चाहता जिसे दूसरे लोग विनम्र और मामूली समझते हों? इसके मद्देनजर पौलुस के दिल में मसीह की क्या हैसियत और भूमिका रही होगी? मसीह होने के लिए किसी की क्या पहचान और हैसियत होनी चाहिए, और उसे कौन से अधिकार, सामर्थ्य और प्रभाव प्रदर्शित करने चाहिए? इससे जाहिर होता है कि पौलुस ने मसीह के कैसा होने की कल्पना की थी, और वह मसीह के बारे में क्या जानता था, अर्थात, वह मसीह को कैसे परिभाषित करता था। यही कारण है कि पौलुस में मसीह बनने की महत्वाकांक्षा और इच्छा थी। इसका एक निश्चित कारण है कि पौलुस मसीह क्यों बनना चाहता था, और यह उसके पत्रों में आंशिक रूप से प्रकट होता है। आओ, कुछ मामलों का विश्लेषण करें। जब प्रभु यीशु काम कर रहा था, तो उसने कुछ ऐसी चीजें कीं जो मसीह के रूप में उसकी पहचान का प्रतिनिधित्व करती थीं। ये चीजें वे प्रतीक और अवधारणाएँ हैं जिन्हें पौलुस ने मसीह की पहचान के रूप में देखा। ये कौन सी चीजें थीं? (संकेत और चमत्कार दिखाना।) बिल्कुल ठीक। ये चीजें थीं मसीह का लोगों की बीमारियां ठीक करना, दानवों को बाहर करना और संकेत दिखाना, आश्चर्यजनक काम और चमत्कार करना। भले ही पौलुस ने माना था कि प्रभु यीशु मसीह था, यह सिर्फ उसके द्वारा प्रदर्शित संकेतों और चमत्कारों के कारण हुआ था। इसलिए, जब पौलुस प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करता था, तो वह कभी भी प्रभु यीशु के बोले वचनों या उसके दिए उपदेशों के बारे में बात नहीं करता था। छद्म-विश्वासी पौलुस की निगाह में प्रभु यीशु की पहचान और हैसियत के प्रति एक निश्चित सम्मान इस तथ्य ने पैदा किया कि मसीह इतनी सारी बातें बोल सकता था, इतने अधिक उपदेश दे सकता था, इतने ज्यादा काम कर सकता था और इतने सारे लोगों को अपना अनुगामी बना सकता था; उसमें अनंत महिमा और श्रेष्ठता थी जिससे मनुष्यों के बीच प्रभु यीशु की हैसियत विशेष रूप से महान और प्रतिष्ठित हो गई थी। यही वह बात थी जिसे पौलुस ने देखा। अपने काम करते समय प्रभु यीशु मसीह ने जो व्यक्त और प्रकट किया, उसके साथ ही उसकी पहचान और सार से पौलुस ने जो देखा वह परमेश्वर का सार, सत्य, मार्ग या जीवन नहीं था, न ही परमेश्वर की सुंदरता या बुद्धि थी। पौलुस ने क्या देखा? आधुनिक शब्दों में कहें, तो उसे जो दिखा वह प्रसिद्धि की चमक थी, और वह प्रभु यीशु का प्रशंसक बनना चाहता था। जब प्रभु यीशु कुछ कहता या कोई काम करता था, तो बहुत से लोग ध्यान से सुनते थे—वह सब कितना भव्य रहा होगा! यह कुछ ऐसी बात थी जिसकी पौलुस ने लंबे समय तक प्रतीक्षा की थी, वह इस क्षण के आगमन का तीव्र आकांक्षी था। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था जब वह प्रभु यीशु की तरह अंतहीन उपदेश दे सके, जिसकी ओर बहुत से लोग पूरे ध्यान से, आँखों में प्रशंसा और तीव्र लालसा के भाव के साथ देखते थे और उसका अनुसरण करना चाहते थे। पौलुस प्रभु यीशु के असरदार प्रभाव के सामने नतमस्तक हो गया था। दरअसल, वह वास्तव में इससे हारा नहीं था बल्कि वह ऐसी पहचान और प्रभाव के प्रति ईर्ष्यालु था जिसे लोग आदर देते थे, जिस पर ध्यान देते थे, जिसे आदर्श मानते थे और जिसके बारे में ऊँचा सोचते थे। इसी बात से उसे ईर्ष्या थी। तो वह इसे कैसे हासिल कर सका? उसे विश्वास नहीं था कि प्रभु यीशु मसीह ने ये चीजें अपने सार और पहचान के माध्यम से हासिल की हैं, बल्कि उसका मानना था कि यह उसकी उपाधि के कारण था। इसलिए, पौलुस बड़े व्यक्तित्व वाला बनने और कोई ऐसी भूमिका निभाने की इच्छा रखता था जिससे कि वह मसीह का नाम धारण कर सके। पौलुस ने खुद को ऐसी भूमिका में ढालने के लिए बहुत प्रयास किया, है ना? (हाँ।) उसने क्या प्रयास किए? उसने हर जगह उपदेश दिए और चमत्कार भी दिखाए। अंततः, उसने खुद को परिभाषित करने के लिए एक ऐसे वाक्यांश का इस्तेमाल किया जो उसकी आंतरिक इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करता था। उसने खुद को परिभाषित करने के लिए किस वाक्यांश का प्रयोग किया? (“क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है।”) जीवित रहना मसीह है। यही वह मुख्य चीज है जिसे वह पाना चाहता था; उसकी मुख्य इच्छा मसीह बनने की थी। इस इच्छा का उसके व्यक्तिगत अनुसरणों और जिस रास्ते पर वह चला, उससे क्या संबंध है? (वह ताकत का सम्मान करता था और चाहता था कि लोग उसे सम्मान से देखें।) यह सिद्धांत भर है; तुम्हें कुछ तथ्य बताने चाहिए। पौलुस ने मसीह बनने की अपनी इच्छा व्यावहारिक तरीकों से प्रकट की; उसके बारे में मेरी परिभाषा उसके कहे केवल एक वाक्यांश पर आधारित नहीं है। उसके क्रियाकलापों की शैली, तरीकों और सिद्धांतों से, हम देख सकते हैं कि उसने जो कुछ भी किया वह सब मसीह बनने के उसके लक्ष्य के इर्द-गिर्द घूमता था। यही इस बात का मूल और सार है कि पौलुस ने इतनी सारी चीजें क्यों कहीं और कीं। पौलुस मसीह बनना चाहता था, और इस बात ने उसके अनुसरणों, जीवन में उसके मार्ग और उसके विश्वास को प्रभावित किया। यह प्रभाव किस प्रकार व्यक्त हुआ? (पौलुस ने अपने सभी कार्यों और उपदेशों में दिखावा किया और अपनी गवाही दी।) यह एक तरीका है; पौलुस ने हर मोड़ पर दिखावा किया। उसने लोगों को साफ तौर पर बताया कि उसने कैसे कष्ट सहे, कैसे काम किए और उसके इरादे क्या थे, ताकि जब लोग वे बातें सुनें तो सोचें कि वह बिलकुल मसीह जैसा दिखता है और वे वास्तव में उसे मसीह कहना चाहें। यही उसका लक्ष्य था। यदि लोग सचमुच उसे मसीह कहते, तो क्या उसने इससे मना किया होता? क्या उसने इसे अस्वीकार कर दिया होता? (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) निश्चय ही उसने अस्वीकार न किया होता—वह निश्चित रूप से अति प्रसन्न होता। यह उसके अनुसरणों से व्यक्त हुए प्रभाव का एक तरीका है। और क्या तरीके थे? (उसने पत्र लिखे।) हाँ, उसने कुछ पत्र लिखे ताकि वे युगों-युगों तक चलते रहें। अपने पत्रों, काम और कलीसियों की देखरेख की पूरी प्रक्रिया में उसने एक बार भी प्रभु यीशु मसीह के नाम का उल्लेख नहीं किया, न ही प्रभु यीशु मसीह के नाम पर कुछ काम किया, न प्रभु यीशु मसीह के नाम का उत्कर्ष ही किया। हमेशा इस तरह से काम करने और बोलने का क्या नकारात्मक प्रभाव हुआ? प्रभु यीशु का अनुसरण करने वाले लोगों को इसने कैसे प्रभावित किया? इसने लोगों से प्रभु यीशु मसीह को अस्वीकृत करवाया और पौलुस ने उनका स्थान ले लिया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि लोग पूछें, “प्रभु यीशु मसीह कौन है? मैंने उसके बारे में कभी नहीं सुना। हम मसीह के रूप में पौलुस में विश्वास करते हैं।” इस तरह से वह खुश रहेगा। यही उसका लक्ष्य था, और उसकी चाहतों में से एक चीज थी। उसका प्रभाव प्रकट होने के तरीकों में एक था उसके काम करने का तरीका; वह खोखले विचारों की बकबक करता रहा और लोगों को अपनी कार्यक्षमता और कटिबद्धता दिखाने के लिए खोखले सिद्धांतों के बारे में अंतहीन बातें करता रहा, दिखाता रहा कि उसने लोगों की कितनी मदद की, और कि उसका एक निश्चित प्रभाव था मानो प्रभु यीशु मसीह फिर से प्रकट हो गया हो। वह प्रभाव प्रकट होने का एक अन्य तरीका यह था कि वह कभी भी प्रभु यीशु मसीह का उत्कर्ष नहीं करता था, और उसने निश्चित ही कभी उनके नाम का उत्कर्ष नहीं किया, न ही उसने प्रभु यीशु मसीह के वचनों और कार्यों की गवाही दी, या यह बताया कि उन चीजों से लोगों को कैसे लाभ हुआ। क्या पौलुस ने यह उपदेश दिया कि लोगों को किस प्रकार पश्चात्ताप करना चाहिए? निश्चय ही उसने ऐसा नहीं किया। पौलुस ने कभी भी प्रभु यीशु मसीह के किए कार्यों, उनके बोले वचनों या लोगों को उनके सिखाए सत्यों के बारे में उपदेश नहीं दिया—पौलुस अपने दिल में इन चीजों को नकारता था। पौलुस ने न केवल प्रभु यीशु मसीह के बोले वचनों और लोगों को सिखाए सत्यों से इनकार किया, बल्कि वह अपने शब्दों, कार्यों और शिक्षाओं को ही सत्य मानता था। इन चीजों का इस्तेमाल वह प्रभु यीशु के वचनों को प्रतिस्थापित करने के लिए करता था और लोगों से इस तरह अपने शब्दों का अभ्यास और पालन करवाता था मानो वे सत्य हों। इन अभिव्यक्तियों और प्रकाशनों की वजह क्या थी? (उसकी मसीह बनने की इच्छा।) उसकी सभी गतिविधियां मसीह बनने के उसके इरादे, इच्छा और महत्वाकांक्षा से प्रेरित थीं। उसके अभ्यास और अनुसरणों से इसका नजदीक का संबंध था। यह पौलुस का छठा पाप है। क्या यह गंभीर मामला है? (हाँ, यह गंभीर है।) दरअसल, उसके सभी पाप गंभीर हैं। वे सभी मृत्यु की ओर ले जाते हैं।

अब मैं पौलुस के सातवें पाप पर संगति करूंगा। यह तो और भी गंभीर है। प्रभु द्वारा बुलाए जाने से पहले पौलुस यहूदी धर्म में विश्वास रखता था। यहूदी धर्म का विश्वास यहोवा परमेश्वर में है। जो लोग यहोवा परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनकी परमेश्वर के बारे में क्या अवधारणा है? इसका संबंध उन चीजों से है जिनका अनुभव उनके पूर्वजों ने तब किया था जब यहोवा परमेश्वर उन्हें मिस्र से बाहर कनान की उर्वर भूमि में ले गया था : यहोवा परमेश्वर ने कैसे मूसा को दर्शन दिए, कैसे उसने मिस्र पर दस बलाएं भेजीं, कैसे उसने इस्राएलियों की अगुआई करने के लिए बादल और आग के स्तंभों का उपयोग किया, और कैसे उसने अपनी व्यवस्थाएँ दीं, इत्यादि। यहूदी धर्म में विश्वास करने वाले क्या उस समय इन सभी बातों को केवल कल्पना, धारणाएँ और किंवदंतियाँ समझते थे या कि उन्हें तथ्य मानते थे? उस समय, परमेश्वर के चुने हुए लोग और जो सच्चे अनुयायी थे, वे यह मानते और स्वीकारते थे कि स्वर्ग में परमेश्वर का अस्तित्व है और वह वास्तविक है। वे सोचते थे, “यह तथ्य सही है कि मानवजाति की रचना परमेश्वर ने की है। यह बात चाहे जितनी पहले की हो, पर तथ्य तो सही ही रहेगा। हमें इस पर न केवल विश्वास करना चाहिए, बल्कि हमें इस बारे में निश्चित होना चाहिए और इस तथ्य को दूसरों के साथ साझा करना चाहिए। यह हमारी जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व है।” परंतु, छद्म-विश्वासी लोगों के एक अन्य समूह को लगता था कि ये बातें संभवतः केवल किंवदंतियाँ थीं। किसी ने भी इन कथाओं को सत्यापित करने या उन यह शोध करने की कोशिश नहीं की कि वे वास्तविक थीं या काल्पनिक, उन्हें उन कहानियों पर आधा-अधूरा विश्वास था। उन्हें जब परमेश्वर की जरूरत होती थी, तो उन्हें उम्मीद होती थी कि वह वास्तविक है और वह उन्हें वो सब दे सकता है जिसकी उन्हें तलाश है, जिसके लिए वे प्रार्थना कर रहे हैं और लालायित हैं; वे जब कुछ पाने की आशा से परमेश्वर से प्रार्थना करते थे, तो उन्हें उम्मीद होती थी कि परमेश्वर का अस्तित्व होगा। ऐसा करके वे परमेश्वर को एक मनोवैज्ञानिक आधार की तरह इस्तेमाल करते थे। उन्होंने इस तथ्य को नहीं देखा कि परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, न ही उन्होंने परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को स्वीकारा। यह परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं था; वे पहले से ही छद्म-विश्वासी थे। सबसे निम्न स्तर के लोग अपने आप को कैसे अभिव्यक्त करते थे? वे केवल कलीसिया में परमेश्वर की सेवा करते थे, उसे भेंट चढ़ाते थे, सारे अनुष्ठानों का पालन करते थे और यहां तक कि सभी प्रकार की किंवदंतियों पर विश्वास करते थे। परंतु, परमेश्वर उनके हृदय में नहीं था, और उनकी धारणाओं-कल्पनाओं का परमेश्वर अस्पष्ट और खोखला था। ऐसा व्यक्ति किस चीज में विश्वास करता था? भौतिकवाद में। वे केवल दिखाई देने वाली चीजों पर विश्वास करते थे। उनकी नजर में किंवदंतियों की बातें, अस्पष्ट चीजें और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह हर चीज अस्तित्वहीन थी जिसे वे अपने हाथों से नहीं छू सकते हों, अपनी आँखों से न देख सकते हों या अपने कानों से न सुन सकते हों। कुछ लोग कहते हैं, “तो फिर, क्या वे उन चीजों के अस्तित्व में विश्वास करते हैं जिन्हें वे नहीं देख सकते, जैसे सूक्ष्म जीव?” वे उन चीजों पर पूरा विश्वास करते हैं। वे विज्ञान, इलेक्ट्रॉन, सूक्ष्म जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान में पूर्ण विश्वास रखते हैं। छद्म-विश्वासियों का विश्वास है कि ये चीजें किसी भी अन्य चीज से कहीं अधिक सत्य हैं। वे सच्चे भौतिकवादी हैं। हम ये बातें इन तीन प्रकार के लोगों का विश्लेषण करने के लिए कर रहे हैं : सच्चे विश्वासी, वे जो आधा-अधूरा विश्वास करते हैं, और भौतिकवादी जो परमेश्वर के अस्तित्व में जरा भी विश्वास नहीं करते। कुछ लोग कहते हैं, “क्या सचमुच कोई परमेश्वर है? कहाँ है वह? वह कैसा दिखता है? मैंने सुना है कि परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में रहता है। तो, तीसरा स्वर्ग कितनी ऊँचाई पर है? यह कितनी दूर है और कितना बड़ा है? लोग यह भी कहते हैं कि कोई स्वर्ग है जिसके फर्श पर सोने की ईंटें और कीमती जेड पत्थर के टुकड़े लगे हैं और दीवारें भी सोने की हैं। ऐसी अद्भुत जगह का होना कैसे संभव है? ये बकवास है! मैंने सुना है कि व्यवस्था के युग में परमेश्वर ने अपनी व्यवस्थाएँ अपने चुने हुए लोगों दीं और जिन पट्टियों पर वे व्यवस्थाएँ लिखी गई थीं, वे पट्टियाँ अभी भी मौजूद हैं। शायद यह सब सिर्फ किंवदंती है, जिनका उपयोग शासक वर्ग जनता को नियंत्रित करने के लिए करता है।” क्या इस समूह के लोगों का परमेश्वर में सच्चा विश्वास है? (नहीं, उनका विश्वास नहीं है।) वे विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का वास्तव में अस्तित्व है, या यह तथ्य कि उसने मनुष्यों को बनाया है और आज तक मानवजाति की अगुआई की है। तो, वे फिर भी कलीसिया में सेवा क्यों करते हैं? (क्योंकि वे परमेश्वर की सेवा को नौकरी के रूप में देखते हैं और उसे अपने भोजन की व्यवस्था का माध्यम मानते हैं।) सही है। वे इसे नौकरी और भोजन की व्यवस्था के साधन के रूप में देखते हैं। तो, पौलुस किस प्रकार का व्यक्ति था? (तीसरे प्रकार का।) यह उसके प्रकृति सार से संबंधित है। पौलुस को खोखले सिद्धांतों के बारे में बकबक करना पसंद था। उसे खोखली चीजें, अस्पष्ट चीजें और काल्पनिक चीजें पसंद थीं। उसे ऐसी चीजें पसंद थीं जो गहरी और समझने में कठिन हों और जिन्हें स्पष्ट शब्दों में व्यक्त न किया जा सके। उसे चीजों के बारे में बहुत सोच-विचार करना पसंद था, वह पूर्वाग्रही और जिद्दी था और उसकी समझ विकृत थी। इस तरह के लोग मनुष्य नहीं हैं। वह इसी प्रकार का व्यक्ति था। भले ही पौलुस कलीसिया में सेवा करता था और एक प्रसिद्ध शिक्षक का छात्र था, परंतु उसके स्वभाव और प्रकृति सार के साथ-साथ उसकी प्राथमिकताओं, आशाओं, अनुसरणों और आकांक्षाओं को देखते हुए लगता है कि उसने जो ज्ञान अर्जित किया था वह उसके लिए अपनी इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, और अभिमान को संतुष्ट करने तथा भोजन, रुतबा और समाज में प्रतिष्ठा पाने का साधन मात्र था। पौलुस के प्रकृति सार और अनुसरणों को देखें, तो उसे यहोवा पर कितनी आस्था रही होगी? उसकी आस्था कोई पक्की बात नहीं, केवल खोखले शब्द थे। वह छद्म-विश्वासी, अनीश्वरवादी और भौतिकवादी था। कुछ लोग पूछते हैं, “यदि पौलुस छद्म-विश्वासी था, तो वह प्रभु यीशु मसीह का प्रेरित क्यों बना और उसने अनुग्रह के युग के सुसमाचार का प्रचार क्यों किया?” मुझे बताओ, वह इस मार्ग पर कैसे चल सका? किस बात ने उसे प्रेरित किया? उसके लिए वह निर्णायक मोड़ कौन सा था जिसने उससे यह भूमिका ग्रहण करवाई और उसके जैसे छद्म-विश्वासी व्यक्ति को ऐसी राह पर चलने और जीवन को पूरी तरह से दूसरी दिशा में मोड़ने में सक्षम बनाया? जब मैं “पूरी तरह से दूसरी दिशा में मोड़ने” के बारे में बात करता हूं तो मैं किस बात को संदर्भित कर रहा हूं? यह तब हुआ जब पौलुस दमिश्क की सड़क पर गिरा पड़ा था—यही उसके जीवन की दिशा उलट देने वाला समय था। उसने दो प्रकार के पूर्ण दिशा-परिवर्तन का अनुभव किया : एक यह कि वह परमेश्वर में विश्वास न करने वाले से बदलकर यह विश्वास करने वाला बन गया कि निश्चित रूप से परमेश्वर का अस्तित्व है क्योंकि प्रभु यीशु, जिसे वह शुरू में सता रहा था, दमिश्क की सड़क पर उसके सामने प्रकट हुआ। पौलुस ने ऊंची आवाज में कहा, “हे प्रभु, तू कौन है?” दरअसल, अंदर ही अंदर पौलुस को विश्वास नहीं था कि इस प्रभु और परमेश्वर का कोई अस्तित्व है, लेकिन वह खुद को यह कहने से नहीं रोक सका, “हे प्रभु, तू कौन है?” प्रभु यीशु ने क्या कहा? (“मैं यीशु हूँ, जिसे तू सताता है” (प्रेरितों 9:5)।) जिस क्षण प्रभु यीशु ने ऐसा कहा, पौलुस को इस तथ्य पर विश्वास हो गया : कोई प्रभु प्रकट हुआ है जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था, जिसकी कल्पना करने में वह असमर्थ था और जो उसकी कल्पना से भी अधिक सामर्थ्यवान है। वह कैसे आश्वस्त हुआ कि प्रभु उसकी कल्पना से भी अधिक सामर्थ्यवान है? क्योंकि जब पौलुस को इसकी कोई आशा नहीं थी तब वह यीशु, जिसके बारे में उसे बिल्कुल भी विश्वास नहीं था कि वह परमेश्वर है, ठीक उसके सामने प्रकट हो गया। प्रभु यीशु कितना सामर्थ्यवान है? पौलुस को तब उसकी सामर्थ्य की विराटता का विश्वास हो गया जब पौलुस की आँखें यीशु के प्रकाश से चौंधिया गईं। तब क्या वह आश्वस्त हो सका कि प्रभु यीशु ही परमेश्वर है? (नहीं।) क्यों नहीं हो सका? (क्योंकि पहली बात तो यही है कि पौलुस को परमेश्वर के अस्तित्व का विश्वास ही नहीं था।) बिलकुल ठीक, क्योंकि वह परमेश्वर के अस्तित्व पर जरा भी विश्वास नहीं करता था। अभी, तुम सभी के हृदय में आस्था और एक आधार है, इसलिए यदि परमेश्वर तुम्हारे सामने प्रकट हो जाए, भले ही सिर्फ उसकी आवाज आए या तुम्हारी ओर उसकी पीठ हो, और अगर वह तुमसे बात करे या तुम्हारा नाम पुकारे, तो तुम इस तथ्य से आश्वस्त हो जाओगे : “यही वह परमेश्वर है जिस पर मैं विश्वास करता हूं। मैंने उसे देखा है और मैंने उसकी आवाज सुनी है। परमेश्वर ने मुझसे संपर्क किया है।” तुम आश्वस्त होगे क्योंकि तुम्हारे हृदय में आस्था है, तुमने इस पल का सपना देखा है, और तुम्हें डर नहीं लगता। लेकिन क्या पौलुस ने यही सोचा था? (नहीं।) उसके हृदय में कभी आस्था नहीं थी। उसका पहला विचार क्या था? (डर।) वह डर गया था क्योंकि वह सामने खड़ा व्यक्ति उस पर हमला करने और उसकी हत्या कर देने में सक्षम था! इससे वह बहुत बुरी तरह से भयभीत और आतंकित हो गया, जो वह देख नहीं सका। वह बहुत अधिक डर गया। उसके हृदय में परमेश्वर पर जरा भी विश्वास नहीं था—तुम कह सकते हो कि उसके मन परमेश्वर के बारे में कोई अवधारणा ही नहीं थी। इसलिए, जब प्रभु यीशु अपना कार्य करता था, चाहे वह संकेत और चमत्कार दिखाना हो या उपदेश देना हो, चाहे कितने भी लोग उसका अनुसरण कर रहे हों, वह कितना ही प्रभावशाली हो, या वह कितना ही बड़ा दृश्य हो, पौलुस के मन में प्रभु यीशु एक सामान्य व्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं था। वह प्रभु यीशु को नीची निगाह से देखता था और प्रभु यीशु के प्रति उसके मन में कोई सम्मान नहीं था। परन्तु अब, वही साधारण मनुष्य का पुत्र, जिसे वह तुच्छ समझता था, उसके ठीक सामने खड़ा था, अब वह किसी साधारण व्यक्ति के शरीर में नहीं था, और उसके पास केवल एक आवाज ही नहीं, बल्कि प्रकाश का एक स्तंभ भी था! उसके लिए वह ऐसा क्षण था जिसे वह लाखों वर्षों में कभी नहीं भूलेगा। वहां फैला प्रकाश चकाचौंध कर देने वाला था! परमेश्वर ने पौलुस को कैसे नीचे गिराया था? जब परमेश्वर पौलुस के पास आया, तो पौलुस क्षण भर में अंधा हो गया और भूमि पर गिर पड़ा। यह क्या हो रहा था? क्या वह स्वेच्छा से और अपनी मर्जी से गिरा था, या वह इसके लिए पहले से ही तैयार था? (नहीं, वह इसे सहन ही नहीं कर सका था।) मनुष्य का शरीर तो केवल मांस है; यह इसे सहन नहीं कर सकता। जब परमेश्वर वास्तव में तुम्हारे पास आएगा, तो वह उस साधारण भौतिक शरीर में नहीं होगा जिसमें तुमने प्रभु यीशु को देखा था—इतना सुखद और सहज उपलब्ध, इतना विनम्र और सामान्य, मांस और रक्त का बना कोई ऐसा व्यक्ति जो तुम्हें साधारण लगता हो और जिसके बारे में तुम कुछ और नहीं सोचते। जब परमेश्वर वास्तव में तुम्हारे पास आता है, तो भले ही वह तुम पर हमला न करे, तुम उसे सहन नहीं कर पाओगे! पौलुस ने दिल की गहराई में जो पहली बात महसूस की वह थी, “प्रभु यीशु ने मुझसे संपर्क किया है, जिसे मैं सताता था और हेय दृष्टि से देखता था। यह प्रकाश बहुत शक्तिशाली है!” क्या परमेश्वर ने उससे कहा था कि वह झुके? क्या उसने कहा, “तुम्हें मेरे सामने सिर झुकाना चाहिए”? (नहीं, उसने ऐसा नहीं किया।) तो पौलुस ज़मीन पर औंधे मुंह क्यों गिर पड़ा था? (वह डरा हुआ था।) नहीं। मानवजाति को परमेश्वर ने बनाया, और मनुष्य इतने छोटे और कमजोर हैं कि जब परमेश्वर का प्रकाश उनके शरीर को छूता है, तो वे खुद को जमीन पर गिरने से रोक नहीं पाते। परमेश्वर बहुत बड़ा और शक्तिशाली है; उसे संभाल पाना मनुष्यों की क्षमताओं और तंत्रिकाओं के बस की बात नहीं है। पौलुस प्रभु यीशु को परमेश्वर या प्रभु नहीं मानता था, तो वह अपनी इच्छा से क्यों झुकेगा? वह मुँह के बल गिर पड़ा था क्योंकि वह पूरी तरह से अक्षम और पंगु हो गया था। उसका आरंभिक अभिमान, अहंकार, ढिठाई, आत्म-तुष्टि और खुदगर्जी उसी क्षण गायब हो गए। पौलुस के सामने तो परमेश्वर अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट भी नहीं हुआ; यह केवल उसका प्रकाश था जो पौलुस पर पड़ा था, और जब पौलुस ने उस प्रकाश को देखा तो उसका परिणाम यह हुआ; इसका उस पर इतना अधिक असर पड़ा। यहीं से पौलुस उलटे घूम गया। यदि इस पूर्ण दिशा-परिवर्तन के पीछे कोई अनोखा संदर्भ नहीं था, या यह कोई खास बात नहीं थी, तो सकारात्मक चीजों का अनुसरण करने वाले, सत्य का अनुसरण करने वाले, मानवता और अंतरात्मा वाले किसी सामान्य व्यक्ति के लिए तो यह अच्छी बात होगी क्योंकि जब कोई व्यक्ति परमेश्वर को देखता है तो इसका प्रभाव उसके पूरे जीवन के अनुसरण पर होता है। बाइबल में जो दर्ज है उसके मुताबिक बीती सदियों से किसी व्यक्ति के लिए परमेश्वर को बोलते हुए सुनना दुर्लभ था। अय्यूब से परमेश्वर ने उसकी परीक्षा लेने के बाद बहुत तेजी से बात की थी। अय्यूब ने अपना पूरा जीवन परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने और परमेश्वर की संप्रभुता को समझने की कोशिश में बिताया, लेकिन अय्यूब सत्तर वर्ष की आयु तक कभी परमेश्वर को नहीं देख सका था; उसने केवल परमेश्वर की संप्रभुता का अनुभव किया था, फिर भी अय्यूब की आस्था बरकरार रही। जब उसने अपने कानों से परमेश्वर को बात करते हुए सुना, तो क्या यह उसकी आस्था में एक बड़ा मोड़ नहीं था? (हाँ, ऐसा ही था।) यह मोड़ ऊंचाई देने वाला था, एक ऐसा मोड़ जिस पर उसका विश्वास और भी बढ़ गया था। इससे उसे पहले से ज्यादा पुष्टि हुई कि जिस परमेश्वर पर वह विश्वास करता था और जिसके प्रति वह समर्पित था, उसने लोगों के बीच जो कार्य किया वह सही और अच्छा था और लोगों को उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यह किसी औसत व्यक्ति के अनुभवों की तरह कोई छोटा सा बदलाव नहीं था जिसमें वे धीरे-धीरे संदेह युक्त आस्था से संदेह मुक्त सच्ची आस्था की ओर बढ़ते हैं। बल्कि, यह एक उन्नयन था जिसके माध्यम से उसकी आस्था ऊंचे स्तर पर पहुंच गई। पौलुस के संबंध में, उसे नीचे गिरा देने वाले रूप में परमेश्वर के प्रकट होने से क्या बदलाव आना चाहिए था? निश्चित रूप से यह उन्नयन नहीं था, क्योंकि इससे पहले उसने कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं किया था, इसलिए इसे उन्नयन नहीं कहा जा सकता। तो, इसका उस पर क्या प्रभाव पड़ा? यह एक बार फिर उसके अनुसरणों से जुड़ा मामला है। मुझे बताओ। (अपना जीवन बचाए रखने को पौलुस अपने पापों के प्रायश्चित के लिए सुसमाचार का प्रसार करने के माध्यम से श्रम करना चाहता था।) यह बिल्कुल सही है। वह मृत्यु से भी डरता था और बहुत अस्थिर था। जब उसे पता चला कि जिस यीशु को उसने सताया था वह वास्तव में परमेश्वर था, तो वह अपनी बुद्धि की सीमा से ज्यादा भयभीत हो गया और उसने सोचा, “मैं क्या करूं? मैं बस इतना कर सकता हूँ कि प्रभु के आदेशों को मानूँ, नहीं तो मैं मर जाऊँगा!” उस समय से उसने परमेश्वर के आदेश को स्वीकार किया और अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए सुसमाचार फैलाने का श्रम करना शुरू कर दिया। उसने सोचा, “अगर मैं वास्तव में सुसमाचार फैलाने में सफल रहा और प्रभु यीशु संतुष्ट हो गया, तो मुझे मुकुट और इनाम भी मिल सकता है!” ये जोड़-तोड़ उसके हृदय की गहराई में थे। उसने सोचा कि आखिरकार उसे आशीर्वाद प्राप्त करने का एक बेहतर मौका मिल गया है। पौलुस ने अपने पापों का प्रायश्चित करने और अपना जीवन बचाने के लिए प्रभु के आदेश को स्वीकार किया; प्रभु में विश्वास करने और उसे स्वीकार करने के पीछे उसका यही इरादा और लक्ष्य था। दमिश्क की सड़क पर प्रभु यीशु से मुलाकात होने और जमीन पर गिर पड़ने के बाद उसने पूर्ण दिशा-परिवर्तन किया जो उसके अनुसरणों और परमेश्वर में विश्वास के जीवन की एक नई शुरुआत को चिह्नित करता है। यह नई शुरुआत सकारात्मक थी या नकारात्मक? (यह नकारात्मक थी।) उसने परमेश्वर की धार्मिकता को नहीं पहचाना, और उसने प्रभु यीशु के आदेशों को लेन-देन की एक ऐसी पद्धति का उपयोग करते हुए स्वीकारा जो और भी अधिक फिसलन भरी, अकथनीय और कपटपूर्ण थी। ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उसे परमेश्वर की महिमा और मार गिराए जाने का डर था। ये तो और भी घृणित है। किंतु, आज मेरी संगति का मुद्दा यह नहीं है। परमेश्वर के महान प्रकाश का सामना करने के बाद पौलुस के बदलाव से, और जिन विभिन्न तरीकों से उसने स्वयं को व्यक्त किया, हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि पौलुस किस रास्ते पर था, और उसका प्रकृति सार उसे किस प्रकार के व्यक्ति के रूप में दिखाता है। ये बातें पूरी तरह से स्पष्ट हैं।

आघात से गिराए जाने के बाद से ही पौलुस यह मानता था कि प्रभु यीशु मसीह का अस्तित्व है और प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर है। वह जिस परमेश्वर पर विश्वास करता था वह तत्काल स्वर्ग में रहने वाले परमेश्वर से प्रभु यीशु मसीह में बदल गया था—वह पृथ्वी पर स्थित परमेश्वर में बदल गया था। उस क्षण से वह प्रभु यीशु के आदेशों को मानने से इनकार नहीं कर सका और देहधारी परमेश्वर—प्रभु यीशु—के प्रति समर्पण के बिना श्रम करने लगा। बेशक, उसके श्रम का लक्ष्य आंशिक रूप से खुद को पापों से मुक्त करने के साथ ही आंशिक रूप से आशीर्वाद पाने की अपनी इच्छा पूरी करना और अपनी इच्छित मंजिल प्राप्त करना भी था। जब पौलुस ने कहा “परमेश्वर की इच्छा से,” तो वहां “परमेश्वर” का तात्पर्य यहोवा से था या यीशु से? वह थोड़ा भ्रमित हो गया और सोचने लगा, “मैं यहोवा में विश्वास करता हूँ, तो यीशु मुझे कैसे गिरा सका? जब उसने मुझे गिराया तो यहोवा ने यीशु को रोका क्यों नहीं? उनमें से कौन वास्तव में परमेश्वर है?” वह इसका पता नहीं लगा सका। जो भी हो, वह कभी भी प्रभु यीशु को अपने परमेश्वर के रूप में नहीं देखेगा। भले ही उसने यीशु को मौखिक रूप से स्वीकार लिया था, पर अभी भी उसके मन में संदेह था। जैसे-जैसे समय बीता, वह धीरे-धीरे यह अपने इस विश्वास पर लौट गया कि “केवल यहोवा ही परमेश्वर है,” इसलिए उसके बाद पौलुस के सभी पत्रों में जब उसने “परमेश्वर की इच्छा से” लिखा तो संभवतः वहां “परमेश्वर” मुख्य रूप से यहोवा परमेश्वर को संदर्भित करता था। क्योंकि पौलुस ने कभी स्पष्ट रूप से नहीं कहा कि प्रभु यीशु यहोवा है, उसने हमेशा प्रभु यीशु को परमेश्वर के पुत्र के रूप में देखा, उसे “पुत्र” के रूप में संदर्भित किया, और कभी भी “पुत्र और पिता एक हैं” जैसी कोई बात नहीं कही। इससे साबित होता है कि पौलुस ने कभी प्रभु यीशु को एक सच्चे परमेश्वर के रूप में पहचाना ही नहीं; उसके मन में संदेह था और वह इस पर केवल आधा-अधूरा ही विश्वास करता था। परमेश्वर के प्रति उसके इस दृष्टिकोण और उसके अनुसरण के तरीके को देखते हुए कहा जा सकता है कि पौलुस कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो सत्य का अनुसरण करता रहा हो। उसने कभी भी देहधारण के रहस्य को नहीं समझा, और प्रभु यीशु को कभी एक सच्चा परमेश्वर नहीं माना। इससे यह कहना मुश्किल नहीं है कि पौलुस ऐसा व्यक्ति था जो ताकत का पुजारी था, वह झूठा और चालाक था। पौलुस के दुष्टता, ताकत और हैसियत का पुजारी होने का तथ्य हमें क्या दिखाता है कि उसका विश्वास क्या था? क्या उसे सच्चा विश्वास था? (नहीं।) उसका कोई सच्चा विश्वास नहीं था, तो क्या वह जिस परमेश्वर को परिभाषित करता था वह वास्तव में उसके हृदय में मौजूद था? (नहीं।) फिर भी वह क्यों घूमता रहा, खुद को खपाता रहा, और प्रभु यीशु मसीह के लिए काम करता रहा? (आशीर्वाद प्राप्त करने का उसका इरादा उसे नियंत्रित करता था।) (वह दंडित होने से डरता था।) हम चक्कर काटकर फिर से इसी बिंदु पर वापस आ गए हैं। ऐसा इसलिए था क्योंकि वह दंडित होने से डरता था, और क्योंकि उसके शरीर में एक कांटा था जिसे वह निकाल नहीं सका था, इसलिए उसे हमेशा इधर-उधर यात्राएं करनी पड़ती थीं और काम करना पड़ता था, ताकि उसके भीतर का कांटा उसके सहन करने की क्षमता से अधिक पीड़ा न दे। उसकी इन अभिव्यक्तियों से, उसके शब्दों से, दमिश्क के रास्ते में जो कुछ हुआ उस पर उसकी प्रतिक्रिया से, और दमिश्क को जाने वाली सड़क पर गिरा दिए जाने की तथ्यात्मक घटना के बाद उसके ऊपर पड़े प्रभाव से हम देख सकते हैं कि उसके हृदय में कोई विश्वास नहीं था; इससे कमोबेश आश्वस्त हुआ जा सकता है कि वह छद्म-विश्वासी और अनीश्वरवादी था। उसका दृष्टिकोण था कि “जिसके पास ताकत होगी, मैं उसी पर विश्वास करूंगा। जिसके भी पास मुझे वश में करने की ताकत होगी, मैं उसके लिए काम करूंगा और अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता से सेवा करूंगा। जो कोई भी मुझे एक मंजिल दे सके, मुकुट दे सके और आशीष पाने की मेरी इच्छा पूरी कर सके, मैं उसी का अनुसरण करूंगा। मैं अंत तक उसका अनुसरण करूंगा।” उसके हृदय में परमेश्वर कौन था? उससे अधिक ताकतवर और उसे अपने वश में कर सकने वाला कोई भी उसका परमेश्वर हो सकता था। क्या यह पौलुस का प्रकृति सार नहीं था? (बिलकुल था।) तो, वह कौन सी सत्ता थी जिस पर उसने अंततः विश्वास किया, जो दमिश्क के रास्ते में उस पर आघात कर उसे गिरा सकी थी? (प्रभु यीशु मसीह।) “प्रभु यीशु मसीह” वह नाम था जिसका उसने उपयोग किया था, लेकिन जिस सत्ता पर वह वास्तव में विश्वास करता था वह उसके हृदय में स्थित परमेश्वर था। उसका परमेश्वर कहाँ है? यदि तुम उससे पूछते कि, “तुम्हारा परमेश्वर कहाँ है? क्या वह स्वर्ग में है? क्या वह सभी सृजित वस्तुओं में से है? क्या वह वही है जिसकी समस्त मानवजाति पर संप्रभुता है?” तो वह कहता, “नहीं, मेरा परमेश्वर दमिश्क के रास्ते पर है।” वास्तव में वही उसका परमेश्वर था। क्या यही कारण है कि पौलुस प्रभु यीशु मसीह पर अत्याचार करने से लेकर उसका काम करने तक, खुद को खपाने तक और यहां तक कि प्रभु यीशु मसीह के लिए अपने जीवन का बलिदान करने में सक्षम था—यही कारण है कि वह इतना बड़ा बदलाव करने में सक्षम हुआ—क्योंकि उसका विश्वास बदल गया था? क्या इसलिए ऐसा हुआ कि उसकी अंतरात्मा जाग उठी थी? (नहीं।) तो, ऐसा किस कारण से हुआ? क्या बदला? उसका मनोवैज्ञानिक आधार बदल गया था। पहले उसका मनोवैज्ञानिक आधार स्वर्ग में था; वह एक खोखली, अस्पष्ट चीज थी। यदि इस आधार को यीशु मसीह से बदला जाता, तो पौलुस सोचता कि वह बहुत महत्वहीन है—यीशु एक सामान्य व्यक्ति मात्र था, वह मनोवैज्ञानिक आधार नहीं हो सकता था—और पौलुस के मन में तो प्रसिद्ध धार्मिक हस्तियों के प्रति और भी कम सम्मान था। पौलुस बस किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढना चाहता था जिस पर वह भरोसा कर सके, जो उसे वश में करने और आशीष दिलाने में सक्षम हो। उसे लगा कि दमिश्क के रास्ते पर उसे जिस सत्ता का सामना करना पड़ा था वह सबसे शक्तिशाली थी, और वह वही सत्ता थी जिस पर उसे विश्वास करना चाहिए। उसका मनोवैज्ञानिक आधार उसी समय बदल गया जब उसका विश्वास बदला। इसके आधार पर, पौलुस सचमुच परमेश्वर में विश्वास करता था या नहीं? (नहीं।) आओ, अब इसे एक वाक्य में संक्षेपित करें कि किस चीज ने पौलुस के अनुसरणों को और वह जिस रास्ते पर चल रहा था, उसे प्रभावित किया। (उनके मनोवैज्ञानिक आधार ने।) फिर, पौलुस के सातवें पाप को हमें कैसे परिभाषित करना चाहिए? सभी संदर्भों में, पौलुस का विश्वास एक मनोवैज्ञानिक आधार था; जो खाली और अस्पष्ट था। वह शुरू से आखिर तक छद्म-विश्वासी और अनीश्वरवादी था। उसके जैसे छद्म-विश्वासी और नास्तिक ने धार्मिक दुनिया को क्यों नहीं छोड़ा? एक तो उसकी अस्पष्ट कल्पना में मंजिल पाने का मुद्दा था। दूसरी बात यह कि उसके सामने जीवन में भोजन की व्यवस्था करने का मुद्दा था। प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और भोजन की व्यवस्था उसके जीवन के मुख्य अनुसरणों में शामिल थीं, और मृत्यु के बाद एक मंजिल पाने का विचार उसके लिए सुखद था। ये चीजें ही इस तरह के लोगों के अनुसरण और खुलासे के साथ-साथ वे जिस रास्ते पर चलते हैं उनकी जड़ों और बैसाखी का काम करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य से पौलुस क्या था? (छद्म-विश्वासी। एक अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करने वाला।) (अनीश्वरवादी।) यह कहना सही है कि वह एक अनीश्वरवादी था, और वह छद्म-विश्वासी और अवसरवादी था जो ईसाई धर्म में घात लगा कर बैठ गया था। यदि तुम उसे केवल फरीसी कहते हो, तो क्या यह उसे कम आँकना नहीं है? अगर तुम पौलुस द्वारा लिखे गए पत्रों को देखो, और पाओ कि ऊपरी तौर पर वे कहते हैं “परमेश्वर की इच्छा से,” तो तुम्हें लग सकता है कि पौलुस स्वर्ग में स्थित परमेश्वर को सर्वोच्च मानता था और यह केवल लोगों की धारणाओं के कारण या उनकी अज्ञानतावश और परमेश्वर को न समझने के कारण हुआ कि उन्होंने परमेश्वर को तीन स्तरों में विभाजित कर दिया : पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा, और यह सिर्फ मनुष्य की मूर्खता है और कोई बहुत गंभीर समस्या नहीं है, क्योंकि संपूर्ण धार्मिक जगत भी ऐसा ही सोचता है। परंतु, इसका विश्लेषण करने के बाद अब क्या यह वही मामला है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) पौलुस ने परमेश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया। यह अनीश्वरवादी और छद्म-विश्वासी होना है, और उसे अनीश्वरवादियों और गैर-विश्वासियों की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए।

मैंने पौलुस के सात पापों को सारांशित करने का काम पूरा कर लिया है। मुझे संक्षेप में बताओ कि वे क्या हैं। (पहला पाप यह है कि पौलुस ने धर्म के मुकुट और आशीष की तलाश को उचित उद्देश्यों की श्रेणी में रखा; दूसरा पाप यह है कि पौलुस ने अपनी कल्पनाओं और अपनी धारणा में जिन चीजों को सही समझा, उन्हें ही सत्य माना और लोगों को गुमराह करते हुए हर जगह उनका प्रचार किया; तीसरा पाप, यह कि पौलुस ने अपने गुणों और ज्ञान को जीवन के रूप में ग्रहण किया; चौथा, यह कि पौलुस ने प्रभु यीशु मसीह की पहचान और सार को नकार दिया, और प्रभु यीशु के छुटकारा दिलाने के कार्य को नकार दिया; पाँचवाँ पाप यह था कि पौलुस उपदेश देता था कि “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है,” और खुले तौर पर लोगों को उकसाता और गुमराह करता था, जिससे वे परमेश्वर पर दबाव डालने और उसके खिलाफ हो-हल्ला करने और विरोध करने की कोशिश करें; छठा पाप यह है कि पौलुस का मानना था उसके लिए जीवित रहना ही मसीह होना है। उसने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को नकार दिया, प्रभु यीशु के वचनों की जगह अपने शब्दों का इस्तेमाल किया और लोगों से उनका अभ्यास और पालन कराया। पौलुस का सातवां पाप यह है कि उसने परमेश्वर में विश्वास को एक मनोवैज्ञानिक आधार की तरह इस्तेमाल किया और वह सिरे से अनीश्वरवादी और छद्म-विश्वासी था।) पौलुस से जुड़े इन मुद्दों पर हमारा विश्लेषण इतना विस्तृत है कि यह पौलुस की पूजा करने वाले हर व्यक्ति को होश में ला सकता है। यह सार्थक है। पौलुस द्वारा अभिव्यक्त और खुलासा किए गए इन स्वभावों और सारों में से तथा अनुसरण करने के उसके व्यक्तिगत तरीकों में से, किन-किन बातों का तुम लोगों के साथ स्पष्ट सह-संबंध है? (उन सभी का।) पहला पाप है धर्म के मुकुट और आशीर्वाद की तलाश को उचित उद्देश्य मानना। मैं यह क्यों कहता हूं कि यह गलत है और लोगों को इस पर विचार करके इसे बदलना चाहिए? जब पौलुस धर्म के मुकुट की तलाश में लगा, आशीर्वाद के पीछे पड़ा और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की कोशिश की, तो वह इन लाभों की खोज को उचित मानता था। तो, वास्तविक जीवन में तुम लोगों के कौन से खुलासे और अभिव्यक्तियाँ इस मनोदशा से मेल खाती हैं? (कभी-कभी मैं महत्वपूर्ण कार्य करना चाहता हूं और परमेश्वर के घर में योगदान देना चाहता हूं। मुझे लगता है कि इन चीजों का अनुसरण करने से परमेश्वर अंततः मुझे पूर्ण बना देगा। मैं जो काम करता हूं और जो कर्तव्य निभाता हूं उन्हें मैं उपलब्धियों के रूप में मानता हूं।) यह इसी का एक भाग है। निभाए गए कर्तव्यों को उपलब्धियों के रूप में मानना धर्म का मुकुट हासिल करने की कोशिश के समान है; यह वैसी ही चीज़ है; यह वही मनोदशा है। तुम इसी के लिए काम करते हो और कष्ट सहते हो। यही वह चीज है जो तुम्हारे दुःख के स्रोत को निर्देशित करता है और तुम्हारे दुःखों का प्रेरक है। यदि ये चीजें तुम्हें निर्देशित नहीं कर रही होतीं, तो तुम ऊर्जाहीन होते; पूरी तरह से पस्त होते। क्या किसी के पास कहने को कुछ और है? (अतीत की घटनाओं जैसे किन्हीं चीजों को छोड़ना, खुद को खपाना, पीड़ा सहन करना, गिरफ्तार होकर जेल में समय बिताना और इस तरह की चीजों को व्यक्तिगत पूंजी के रूप में देखना और उन्हें आशीर्वाद प्राप्ति का आधार और कारण मानना।) यह सिर्फ एक विवरण है। यहाँ अंतर्निहित मनोदशा क्या है? किस प्रकार की परिस्थिति तुम्हें ऐसी मनोदशा में लाती है? तुम अकारण ही तो इस तरह से नहीं सोचोगे। ऐसी कोई वजह नहीं है कि तुम खाते हुए, सोते हुए या अपने दैनिक कार्यों को करते हुए हमेशा यही सोचते रहो। तुम्हें यह जानना चाहिए कि कौन सी पृष्ठभूमि और परिस्थितियाँ तुम्हें इस मनोदशा में लाती हैं। मुझे बताओ। (जब मैं अपने कर्तव्यों में थोड़ा प्रभावी होता हूं, तो मुझे लगता है कि मैंने परमेश्वर के लिए यात्राएँ की हैं, उसके लिए खुद को खपाया है, कड़ी मेहनत की है और उसके लिए बहुत कुछ किया है। बिलकुल पौलुस की तरह, मुझे लगता है कि मैंने परमेश्वर के लिए अच्छी लड़ाई लड़ी है, और अच्छा योगदान किया है। ऐसा तभी होता है जब मेरी महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं सिर उठाती हैं।) दरअसल, तुम मूल रूप से महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से मुक्त नहीं थे; वे शुरू से ही तुम्हारे हृदय के अंदर छिपी हुई थीं, और अब वे सतह पर आ रही हैं और खुद को प्रकट कर रही हैं। जब ऐसा होता है, तो तुम विनम्र नहीं रह जाते, तुम्हारे शब्द अप्रत्यक्ष नहीं होते और तुम ढीठ बन जाते हो। पौलुस ने जो कुछ भी किया उसके मूल में उसके गलत विचार थे। चूँकि परमेश्वर में उसके विश्वास के पीछे के विचार गलत थे, इससे यह सुनिश्चित हो गया कि उसके कार्यों का मूल गलत था। यद्यपि, वह इस बात को समझा नहीं और इसे उचित भी मानता रहा, इसलिए वह गलत दिशा का अनुसरण करता रहा। इसके कारण उसके अनुसरण के परिणाम उसके इरादों के विपरीत चले गए; उनका परिणाम अच्छा नहीं हुआ और उसे सत्य नहीं प्राप्त हुआ। आजकल लोग वैसे ही हैं। यदि तुम्हारे अनुसरण को निर्देशित करने वाले विचार और दिशा गलत हों, फिर भी तुम उन्हें अनुसरण के सही तरीके मानते रहो, तो अंततः तुम्हें क्या हासिल होगा? यह संभवतः तुम्हें निराश करेगा या तुम्हारी प्रकृति को अहंकारी बना देगा। उदाहरण के लिए, यदि परमेश्वर तुमको किसी खास तरीके से आशीष देता है, या अकेले तुमको कुछ प्रदान करता है, तो तुम सोचोगे, “देखो, परमेश्वर मुझ पर दयालु है। इससे यह सिद्ध होता है कि मैंने जो कुछ भी किया है, परमेश्वर उसे ठीक मानता है। परमेश्वर ने उसे स्वीकार लिया है। मेरे बलिदान और प्रयास व्यर्थ नहीं गए। परमेश्वर लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता।” इस तरीके से तुम समझते हो कि परमेश्वर लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता, इसी तरीके से तुम उसकी आशीषों और स्वीकृति को समझते हो, लेकिन यह समझ गलत और विकृत है। अब मुख्य बात यह है कि इन गलत और विकृत इरादों, दृष्टिकोणों और अनुसरणों को सही और शुद्ध विचारों और दृष्टिकोणों में कैसे बदला जाए। केवल सही विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार कार्य करना ही सत्य का अभ्यास करना है, और यही एकमात्र तरीका है जिससे तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो। यही कुंजी है।

बार-बार उपदेश सुनने पर लोग अब आत्म-चिंतन करने लगे हैं और अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से कर रहे हैं। वे अपने कर्तव्यों का पालन करने में आने वाली समस्याओं को पहचानने लगे हैं, और अपने भीतर की असामान्य दशाओं, अनावश्यक इच्छाओं और भ्रष्टता के खुलासों का पता लगाने में सक्षम हैं। वे पूरी तरह से अबोध नहीं हैं। एकमात्र समस्या यह है कि जब उन्हें पता चलता है कि वे गलत मनोदशा में हैं, या भ्रष्टता दिखा रहे हैं, तो भी उनमें इसे रोकने की क्षमता नहीं होती और वे इसे हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते। कभी-कभी वे शैतान के फलसफों के अनुसार जीते हैं, किसी को ठेस नहीं पहुँचाते, और सोचते हैं कि वे बहुत अच्छे हैं। परंतु, वे किसी भी वास्तविक तरीके से नहीं बदले हैं; वे अपने दिन बर्बाद करने में उलझे हुए हैं और इसके परिणामस्वरूप एक दशक तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उनके पास बताने के लिए कोई वास्तविक अनुभवात्मक गवाही नहीं है और वे शर्मिंदा महसूस करते हैं। मुख्य समस्या जिसे अब हल करने की आवश्यकता है, वह यह है कि तुम्हारे अनुसरणों की गलत दिशा कैसे बदली जाए। तुम साफ-साफ जानते हो कि सत्य का अनुसरण करने का मार्ग सही है, फिर भी तुम प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत का अनुसरण करने पर जोर देते हो। इस समस्या को कैसे खत्म किया जा सकता है ताकि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर आ सको? यह ऐसी वास्तविक समस्या है जिसका समाधान विश्वासियों को अवश्य करना चाहिए। तुम लोगों को अक्सर इस बारे में संगति करनी चाहिए कि तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करते हो और देखना चाहिए कि किसके पास सत्य का अनुसरण करने की अनुभवात्मक गवाही है, और किसकी अनुभवात्मक गवाही अच्छी है, फिर उसे स्वीकार करते हुए तुम भी वैसा ही करने लगो ताकि तुम इससे लाभान्वित हो सको और अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाधाओं से मुक्त हो सको। सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना कोई आसान बात नहीं है—तुम्हें स्वयं ही समझना होगा, और न केवल अपने अपराधों को समझना होगा बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझना होगा, अपनी प्राथमिकताओं और अनुसरणों में जो गलत है उसे और उसके संभावित परिणामों को समझना होगा। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। ज्यादातर लोग प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का अनुसरण करते हैं। हर दिन वे सोचते हैं कि अगुआ कैसे बनें, दूसरों से सम्मान कैसे पाएं, अपना दिखावा कैसे किया जाए और गरिमापूर्ण जीवन कैसे जिया जाए। यदि लोग इन चीजों पर गहन विचार करने में असमर्थ रहें, इस तरह के जीवन का सार स्पष्ट रूप से न देख सकें, और इन चीजों में तब तक उलझे रहें जब तक कि बहुत वर्ष बीतने पर ईंट की किसी दीवार से टकराकर लड़खड़ाने के बाद अंततः होश में आएं, तो क्या उनके जीवन के विकास के महत्वपूर्ण मामले में देरी नहीं होगी? केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव और अपने चुने मार्ग पर स्पष्ट दृष्टि डालकर ही लोग सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम बढ़ा सकते हैं। यदि यही वह प्रभाव है जो वे पाना चाहते हैं, तो क्या स्वयं को समझना महत्वपूर्ण नहीं है? कुछ लोग खुद को जरा भी नहीं समझते, पर दूसरों के मामलों की छोटी से छोटी बातों के बारे में एकदम साफ जानकारी रखते हैं, और विशेष रूप से समझदार होते हैं। तो, जब वे दूसरों को समझते हैं, तो वे स्वयं को जांचने के लिए दर्पण के रूप में इसका उपयोग क्यों नहीं करते? यदि तुम हमेशा कहते हो कि दूसरे लोग अहंकारी, आत्म-तुष्ट, धोखेबाज, और सत्य के समर्पित नहीं हैं, लेकिन यह नहीं देख सकते कि तुम भी वैसे ही हो, तो तुम मुश्किल में हो। यदि तुम्हें कभी अपनी समस्याओं का पता नहीं चलता और सत्य पर चाहे जितने उपदेश सुन लो, उसे समझते हुए भी तुम उनसे अपनी तुलना नहीं करते, अपनी मनोदशा की जांच करने के इच्छुक नहीं हो, और अपनी समस्याओं से गंभीरता से निपटने और उनका समाधान करने में असमर्थ हो, तो तुम्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा। यदि लोग सदैव सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में असमर्थ रहेंगे, तो क्या उनके हृदय में खालीपन की अनुभूति नहीं होगी? उन्हें इस बात का बोध नहीं होगा कि परमेश्वर ने उनमें क्या कार्य किया है, जैसे कि उनमें कोई धारणा ही न हो। उनकी मनोदशा हमेशा धुंधलाई रहेगी, और उनके अनुसरण किसी सही उद्देश्य या दिशा की ओर नहीं होंगे। वे केवल अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार अनुसरण करेंगे और अपनी मर्जी के रास्ते पर चलेंगे। यह बात बिलकुल पौलुस जैसी है जो केवल पुरस्कार और मुकुट पाने को महत्व देते हुए सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता था और उसका अभ्यास नहीं करता था। यदि तुम्हारा मन हमेशा अस्पष्ट दशा में रहता है, और तुम्हारे पास अनुसरण का सही मार्ग नहीं है, तो कई वर्षों तक उपदेश सुनने के बाद भी तुम पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, और तुम्हारे हृदय में सच्चे मार्ग की जड़ें ही नहीं बन सकी हैं। यद्यपि तुम बहुत सारे धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करना जान सकते हो, लेकिन वह क्षमता तुम्हारी नकारात्मक मनोदशा या भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने में बिल्कुल असमर्थ है। जब तुम किसी तरह की कठिनाई का सामना करते हो, तो जिन धर्म-सिद्धांत की तुम्हें समझ है वह उस कठिनाई से उबरने में, या उससे आसानी से गुजरने में मदद नहीं करेगा; यह तुम्हारी मनोदशा को बदलने या सही करने में मदद नहीं करेगा, तुम्हें अंतरात्मा के बोध के साथ जीने नहीं देगा, स्वतंत्रता और मुक्ति नहीं देगा, न ही तुम्हें किसी भी चीज से विवश होने से रोकेगा। तुम पहले कभी भी ऐसी मनोदशा में नहीं रहे हो, इससे यह साबित होता है कि तुमने मौलिक रूप से सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं किया है। यदि तुम सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना चाहते हो, परमेश्वर के वचनों को समझना चाहते हो, परमेश्वर में सच्ची आस्था पाना चाहते हैं, परमेश्वर को जानना चाहते हो, और सुनिश्चित करना चाहते हो कि परमेश्वर वास्तव में मौजूद है, तो तुमको अपनी मनोदशा की तुलना परमेश्वर के वचनों से करनी चाहिए और उसके बाद परमेश्वर के वचनों में अभ्यास और प्रवेश का मार्ग ढूंढ़ना चाहिए। कुछ लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़कर उनसे अपनी तुलना करना चाहते हैं, लेकिन वे चाहे जितनी भी कोशिश करें, ऐसा करने में सक्षम नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर यह उजागर करता है कि मनुष्य का स्वभाव बहुत अहंकारी है, तो वे सोचते हैं, “मैं बहुत विनम्र हूँ और परदे के पीछे रहता हूँ। मैं अहंकारी नहीं हूं।” परमेश्वर जिसकी बात करता है वह अहंकार क्या है? यह एक प्रकार का स्वभाव है, न कि किसी घमंडी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति, या ऊँची आवाज में बोलना या किसी खास तरीके से ढिठाई दिखाना। बल्कि, यह तुम्हारे स्वभाव की किसी बात को संदर्भित करता है—ऐसा स्वभाव जिसमें तुम किसी भी बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते, हर चीज का तिरस्कार करते हो, हेय दृष्टि से देखते हो और किसी भी चीज की परवाह नहीं करते। तुम अहंकारी, दंभी, आत्मतुष्ट होते हो, हमेशा सोचते हो कि तुम सक्षम हो और किसी की नहीं सुनते। तुम सत्य वचन सुनते हो, फिर भी उनकी परवाह नहीं करते और तुम सत्य को महत्वहीन समझते हो। जब तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हो तब भी उसे कोई समस्या नहीं मानते और यहां तक सोचते हो कि कोई भी तुम्हारे बराबर नहीं है, हमेशा सोचते हो कि तुम बाकी लोगों से बेहतर हो, और चाहते हो कि दूसरे लोग तुम्हारी बात ध्यान से सुनें। ऐसा व्यक्ति अहंकारी और स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाला होता है। इस तरह के लोगों के पास न कोई जीवन प्रवेश होता है, और न ही सत्य वास्तविकताएं।

किसी व्यक्ति में सत्य वास्तविकताएं हैं या नहीं, इसका मूल्यांकन कैसे करना चाहिए? निःसंदेह, परमेश्वर के वचनों के अनुसार सटीक मूल्यांकन किया जाना चाहिए। सबसे पहले, यह देखो कि क्या तुम वास्तव में स्वयं को समझते हो, और क्या तुम वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझते हो। उदाहरण के लिए, क्या तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है? क्या तुम काम करते समय अहंकारपूर्ण स्वभाव दिखाते हो? यदि तुम यह नहीं जानते, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो स्वयं को नहीं समझता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी मनोदशा को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकता, उसे अपने द्वारा दिखाई भ्रष्टता की थोड़ी सी भी समझ नहीं है, वह अपने शब्दों और कार्यों का आधार सत्य को नहीं बनाता, सामने आने वाली स्थितियों में विवेक नहीं रखता और हर मामले को देखते समय आँख बंद करके विनियमों को लागू करता है, लेकिन यह नहीं जानता कि क्या सही है या क्या गलत, तो वह ऐसा व्यक्ति है जिसे सत्य की कोई समझ नहीं है। यदि तुम सत्य को समझते हो, तो तुम अपने आप को समझने में सक्षम होगे, यह जान पाओगे कि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है, अपनी वास्तविक मनोदशा को समझ सकोगे, वास्तव में पश्चाताप करने और बदलने में समर्थ होगे और यह जान सकोगे कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। परंतु, यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के सत्य के व्यावहारिक पक्ष की कोई समझ नहीं रखते, परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए लोगों के भ्रष्ट सार पर विचार नहीं करते, या उनसे अपनी तुलना नहीं करते, तो तुम हमेशा भ्रमित व्यक्ति बने रहोगे। केवल सत्य ही तुम्हें विवेकशील बनाने और सही-गलत तथा काले-सफेद के बीच अंतर करने में सक्षम बना सकता है; केवल सत्य ही तुम्हें चतुर और तर्कसंगत बना सकता है, बुद्धि दे सकता है, और तुम्हें सकारात्मक एवं नकारात्मक चीजों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करने की क्षमता दे सकता है। यदि तुम इन चीजों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं कर सकते, तो तुम हमेशा भ्रमित व्यक्ति बने रहोगे; तुम हमेशा उलझन में, अनिर्णय में और गड्ड-मड्ड स्थिति में रहोगे। इस तरह के लोगों के पास सत्य को समझने का कोई तरीका नहीं होता और वे चाहे जितने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करें, परंतु वे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में असमर्थ होते हैं। यदि उनका श्रम मानक के अनुरूप नहीं है, तो उन्हें बस हटाया जाना ही बाकी होता है। उदाहरण के लिए, कोई अत्यंत प्रसिद्ध व्यक्ति कुछ करता है जिसे अधिकांश लोग एक अच्छी बात के रूप में देखते हैं, लेकिन यदि सत्य को समझने वाला कोई व्यक्ति उसे देखता है, तो उसे इसकी पहचान होगी और वह तय कर सकेगा कि क्याउस व्यक्ति के कार्यकलाप में बुरे इरादे छिपे हुए हैं—कि उसकी अच्छाई नकली है, चालबाजी और धोखे से भरी है और यह कि केवल कोई बुरा व्यक्ति या शैतानों का बादशाह ही ऐसा कुछ कर सकता है। ऐसा कहने का आधार क्या है? इस “अच्छी चीज़” का सार सत्य के अनुसार निर्धारित किया गया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे लोग क्या कहते हैं, केवल सत्य का उपयोग करते हुए इसका मूल्यांकन करके ही तुम इसका सार स्पष्ट रूप से देख सकते हो : यदि यह अच्छा है, तो यह अच्छा है; बुरा है, तो यह बुरा है। परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसका मूल्यांकन करना बिल्कुल सटीक होगा। किंतु, यदि तुम सत्य को नहीं समझते, तो तुम्हारे अंदर धारणाएँ उत्पन्न होंगी और तुम कहोगे, “कुछ भला काम कर रहे व्यक्ति को क्यों उजागर किया जा रहा है और क्यों उसकी निंदा की जा रही है? उसके साथ उचित व्यवहार नहीं किया जा रहा है!” तुम इस तरीके से इसका मूल्यांकन करोगे। इस मामले के मूल्यांकन के लिए तुम्हारा आधार सत्य नहीं है, बल्कि तुम्हारे मन में कल्पित चीजें हैं। यदि तुम हमेशा चीजों को मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार देखते हों, तो तुम कभी भी समस्याओं के सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाओगे; तुम केवल बाहरी दिखावों से गुमराह हो जाओगे। जब तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो तुम चाहे जो कुछ देखो तुम्हारा दृष्टिकोण हमेशा भ्रमित, धुंधला, कोहरे में लिपटा और अस्पष्ट रहेगा, फिर भी तुम सोचोगे कि तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि और वैचारिक गहराई है। यह आत्मज्ञान की कमी की स्थिति है। उदाहरण के लिए, यदि परमेश्वर कहता है कि कोई व्यक्ति बुरा है और उसे दंडित किया जाना चाहिए, लेकिन तुम कहते हो कि वह अच्छा व्यक्ति है और उसने अच्छे काम किए हैं, तो क्या तुम्हारे शब्द परमेश्वर के वचनों के बिलकुल विरुद्ध और विपरीत नहीं हैं? ऐसा तब होता है जब लोग सत्य को नहीं समझते और उनमें विवेक नहीं होता। कुछ लोग बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, किंतु सत्य को नहीं समझते हैं। वे किसी भी मामले में सावधानी नहीं बरतते और कई मामले ऐसे होते हैं जिन्हें वे साफ तौर पर नहीं देख पाते। वे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों से आसानी से गुमराह हो जाते हैं; चाहे जो भी परिस्थिति उत्पन्न हो, अगर कोई बुरा व्यक्ति गड़बड़ी पैदा कर रहा होता है, वे सारे आपस में मिल जाते हैं और बिना जाने ही उस बुरे व्यक्ति की तरह बोलने लगते हैं। उन्हें तब होश आता है जब बुरे व्यक्ति को उजागर करके उसका खुलासा कर दिया जाता है। इस तरह के लोग अक्सर कुछ न समझ पाने की मानसिकता में जीते हैं और उनका सार किसी भ्रमित व्यक्ति जैसा होता है। इस तरह के लोगों में रत्ती भर भी काबिलियत नहीं होती; वे न केवल सत्य को नहीं समझते, बल्कि उन्हें किसी भी समय गुमराह किया जा सकता है और इसलिए उनके पास सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने का कोई रास्ता नहीं होता है। हर कलीसिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं—जब कोई नकली अगुआ कोई काम करता है, तो वे उसका अनुसरण करते हैं; जब कोई मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह कर रहा होता है, तो वे उसका अनुसरण करते हैं। संक्षेप में, वे उसी अगुआ का अनुसरण करेंगे चाहे वह व्यक्ति जो भी हो; वे उस स्त्री के समान होते हैं जो अपने पति के हर काम में उसका अनुसरण करती है। यदि अगुआ अच्छा व्यक्ति है, तो वे एक अच्छे व्यक्ति का अनुसरण करते हैं; यदि अगुआ बुरा व्यक्ति है, तो वे बुरे व्यक्ति का अनुसरण करते हैं। उनकी अपनी कोई राय या दृष्टिकोण नहीं होता। इसीलिए, ऐसे व्यक्ति से यह अपेक्षा न करो कि वह सत्य को समझने या वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगा। वे यदि थोड़ी भी श्रम कर सकें तो अच्छा है। पवित्र आत्मा उन लोगों में कार्य करता है जो सत्य से प्रेम करते हैं। सत्य से प्रेम करने वाले सभी लोग काबिलियत वाले हैं जो कम से कम परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम हैं और परमेश्वर के घर के उपदेशों और संगति को समझने योग्य हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि धार्मिक दुनिया कितने विधर्म और भ्रांतियों का प्रचार-प्रसार करती है और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि मसीह-विरोधी दुष्ट ताकतें कलीसिया को कैसे बदनाम करती हैं, निंदा और उत्पीड़न करती हैं, जो लोग सत्य से प्यार करते हैं वे अभी भी आश्वस्त हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे विश्वास करते हैं कि धर्मोपदेश, संगति और परमेश्वर के घर की अनुभवात्मक गवाही सत्य के अनुरूप हैं और वास्तविक गवाहियां हैं। समझने की क्षमता होने का यही मतलब है। यदि तुम समझते हो कि परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वचन ऐसे सत्य और जीवन वास्तविकताएं हैं जिन्हें लोगों में होना चाहिए, तो यह समझ सिद्ध करती है कि तुम पहले से ही सत्य के एक अंश को समझते हो। यदि तुम समझते हो कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्य सकारात्मक चीजें हैं और सत्य वास्तविकताएं हैं, और तुम सकारात्मकता से जानते हो कि यही असली मामला है और सौ प्रतिशत स्वीकार करते हो कि यही वह मसला है, तो तुम्हें परमेश्वर के कार्य की समझ है। सत्य को समझना कोई आसान बात नहीं है; यह कुछ ऐसी बात है जिसे केवल पवित्र आत्मा द्वारा प्रबोधित लोग ही हासिल कर सकते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं वे पहले से ही अपने दिल में गहराई से स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर द्वारा की गई हर चीज सकारात्मक है और वह सब सत्य है, और वह सब मानवजाति के लिए बहुत मूल्यवान है। जो लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं वे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि गैर-विश्वासियों की दुनिया में सब कुछ नकारात्मक है और सत्य के विरुद्ध जाता है। उनके सिद्धांत चाहे जितने भी अच्छे क्यों न लगें, वे लोगों को गुमराह करते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सकारात्मक है, सत्य है, और लोगों के लिए उद्धार है। शैतान और दानव जो कुछ भी करते हैं वह नकारात्मक, गलत और बेतुका होता है, और लोगों को गुमराह करता और नुकसान पहुँचाता है; यह परमेश्वर जो कुछ करता है उसके बिल्कुल विपरीत है। यदि तुम इस बारे में पूरी तरह से स्पष्ट हो, तो तुम्हारे पास अच्छे-बुरे की पहचान है। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने में भी सक्षम हो, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हो, स्वयं को परमेश्वर के वचनों के माध्यम से समझते हो और उनसे अपनी तुलना करते हो, अपनी भ्रष्टता को उसके वास्तविक रूप में देखते हो, परमेश्वर द्वारा अपने लिए पैदा की गई हर परिस्थिति में अपने द्वारा दिखाए भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करते हो और अंततः न केवल खुद को समझने में सक्षम होते हो, बल्कि दूसरों के प्रति भी विवेकवान होते हो और यह पहचान सकते हो कि कौन वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करता है, कौन छद्म-विश्वासी है, कौन नकली अगुआ है, कौन मसीह-विरोधी है, और कौन लोगों को गुमराह करता है—यदि तुम इन चीजों का सटीक मूल्यांकन करने और पहचानने में सक्षम हो—तो इसका मतलब है कि तुम सत्य को समझते हो और तुम्हारे पास कुछ वास्तविकता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे रिश्तेदार या माता-पिता परमेश्वर के विश्वासी हैं और उन्हें बुरे कर्म करने, रुकावटें पैदा करने या सत्य को जरा भी न स्वीकारने के कारण निकाल दिया जाता है। लेकिन तुम्हें उनकी पहचान नहीं है, तुम नहीं जानते कि उन्हें क्यों निकाला गया है, तुम बेहद परेशान हो जाते हो और हमेशा यह शिकायत करते हो कि परमेश्वर के घर में प्रेम नहीं है और यह लोगों के प्रति निष्पक्ष नहीं है। ऐसे में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य खोजना चाहिए, फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर यह मूल्यांकन करना चाहिए कि ये रिश्तेदार किस तरह के लोग हैं। अगर तुम वाकई सत्य को समझते हो, तो तुम उन्हें सटीक रूप से परिभाषित कर लोगे और देखोगे कि परमेश्वर जो भी करता है वह सही होता है, और वह धार्मिक परमेश्वर है। फिर तुम्हें कोई शिकायत नहीं रहेगी, तुम परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकोगे, और अपने रिश्तेदारों या माता-पिता का बचाव करने की कोशिश नहीं करोगे। यहाँ मुख्य बात अपनी रिश्तेदारी खत्म करना नहीं है, बल्कि सिर्फ यह परिभाषित करना है कि वे किस तरह के लोग हैं, और तुम्हें इस तरह का बनाना है कि तुम उनके प्रति विवेकवान हो जाओ, और जान सको कि उन्हें क्यों निकाला गया है। अगर ये चीजें तुम्हारे दिल में बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं, और तुम्हारे दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप होते हैं, तो तुम परमेश्वर की तरफ खड़े होने में सक्षम होगे, और इस मामले में तुम्हारे दृष्टिकोण पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों से मेल खाएंगे। अगर तुम सत्य को स्वीकारने में सक्षम नहीं हो या लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते हो, और लोगों को देखने में अभी भी दैहिक संबंधों और परिप्रेक्ष्यों को अहमियत देते हो, तो तुम इस दैहिक संबंध के बंधन से कभी नहीं निकल पाओगे, और अभी भी इन लोगों को अपने रिश्तेदार मानोगे—यहाँ तक कि उन्हें कलीसिया के अपने भाई-बहनों से भी अधिक करीब मानोगे, ऐसे में इस मामले में परमेश्वर के वचनों और अपने परिवार के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में विरोधाभास होगा—यहाँ तक कि टकराव भी होगा, और ऐसी परिस्थिति में तुम्हारे लिए परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना नामुमकिन हो जाएगा और तुम्हारे मन में उसके प्रति धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाएँगी। इस प्रकार, अगर लोगों को परमेश्वर के साथ सुसंगत होना है, तो सबसे पहले मामलों को लेकर उनके दृष्टिकोण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने में सक्षम होना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को सत्य मानना चाहिए, और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं को दरकिनार करने में सक्षम होना चाहिए। तुम चाहे किसी भी व्यक्ति या मामले का सामना करो, तुम अपने दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य परमेश्वर के समान बनाए रखने में सक्षम होगे, और तुम्हारे दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य सत्य के साथ समन्वय में होंगे। इस तरह, तुम्हारे दृष्टिकोण और लोगों के प्रति तुम्हारा रवैया, परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं होगा, तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाओगे और परमेश्वर के साथ सुसंगत होगे। ऐसे लोग संभवतः कभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर सकते; यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर पाना चाहता है।

सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश का पहला कदम है परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्मचिंतन करना और अपनी सभी स्थितियों की तुलना उसके वचनों से करना। यदि तुम गहरे उतरना चाहते हो, तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्यादा गहराई से विश्लेषण करना होगा और समझना होगा। इसे समझ लेने के बाद तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अभ्यास करने और प्रवेश करने का एक रास्ता खोजना चाहिए, और मनन करना चाहिए कि सत्य का अभ्यास कैसे करें और अपने भ्रष्ट स्वभाव को कैसे दूर करें; यही सही मार्ग है। कुछ लोग अपने बारे में समझ हासिल करने के बाद नकारात्मक हो जाते हैं; वे रोते-सुबकते हैं कि उन्हें निकाल दिया गया है, वे सेवाकर्मी और विषमता वाले लोग हैं, और वे अपना कर्तव्य भी नहीं करना चाहते। ये किस तरह के लोग हैं? ये बेतुके और नाटकबाज लोग हैं। तो, इसे ठीक करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? कम से कम उन्हें रोना-धोना या बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहिए, और इसके अलावा उन्हें हार नहीं माननी चाहिए, न ही परमेश्वर से शिकायत होनी चाहिए। जो सबसे महत्वपूर्ण काम उन्हें करने चाहिए वे हैं सत्य की खोज करना और यह समझना कि वास्तव में परमेश्वर का इरादा क्या है, कौन सी कार्रवाई सबसे समझदारी भरी है और उन्हें कौन सा रास्ता चुनना चाहिए; ये सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। लोग जब निरंतर आशीष पाने के इरादे के काबू में होते हैं तो उनके लिए सबसे आसान काम है अपनी सूझ-बूझ खो बैठना। सबसे दयनीय वे लोग होते हैं जिनमें विवेक नहीं होता, लेकिन जो लोग सभी मामलों में परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चुनते हैं और केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं, वे सबसे अधिक समझदार और सबसे बड़ी अंतरात्मा वाले होते हैं। जब किसी व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा उजागर किया जाता है, तो उसे इस स्थिति को कैसे संभालना चाहिए और उसे क्या विकल्प चुनना चाहिए? ऐसे लोगों को सत्य की खोज करनी चाहिए और किसी भी हाल में भ्रमित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करना और अपनी भ्रष्टता को हू-ब-हू देखना तुम्हारे लिए अच्छा है, फिर तुम नकारात्मक मनोदशा में क्यों हो? परमेश्वर तुम्हें उजागर करता है ताकि तुम अपने आप को समझ सको और तुम्हें बचाया जा सके। वास्तव में, तुम जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हो वह तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें उजागर करना चाहता है, लेकिन यदि वह तुम्हें उजागर न करे, तो क्या तुम वैसे स्वभाव दिखाना जारी नहीं रखोगे? परमेश्वर में विश्वास करने से पहले तक उसने तुम्हें उजागर नहीं किया था, तो क्या तुम जिन चीजों को जी रहे थे वह सब शैतानी भ्रष्ट स्वभाव नहीं था? तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो। तुमको इन बातों से इतना हैरान नहीं होना चाहिए। जब तुम थोड़ी सी भ्रष्टता दिखाते हो तो वह तुम्हें ऐसे डरा देता है मानो जान ही निकल जाएगी, और तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए सब खत्म हो गया है, कि परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता है और तुमने जो कुछ भी किया है वह व्यर्थ है। तिल का ताड़ न बनाओ। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्यों को ही बचाता है, रोबोटों को नहीं। भ्रष्ट मनुष्यों से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरे कहने का मतलब उन लोगों से है जो शैतानी भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, जो अहंकारी और आत्मतुष्ट हैं, जो सत्य को नहीं स्वीकारते, परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हैं, उसके प्रति वैरभाव रखते हैं, और जो पौलुस के नक्शेकदम पर चलने में सक्षम हैं। परमेश्वर ऐसे मनुष्यों को ही बचाता है। यदि तुम परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारना चाहते हो और उद्धार पाना चाहते हो, तो तुम्हें अपने हृदय में मौजूद भ्रष्ट स्वभाव का सामना करना होगा, उस भ्रष्ट स्वभाव का सामना करना होगा जिसे तुम हर दिन दिखाते हो, और हर दिन तुम्हें सत्य की तलाश और आत्म-चिंतन करना होगा, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपनी तुलना करनी होगी, अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान कर उसका गहन-विश्लेषण करना होगा, और उससे लड़ना होगा। कुछ लोग कई बार इससे लड़ते हैं लेकिन हार जाते हैं और कहते हैं, “मैं हमेशा अहंकार क्यों दिखाता हूँ? अन्य लोग ऐसा क्यों नहीं करते?” वास्तव में, हर व्यक्ति अहंकार दिखाता है। जब अन्य लोग इसे दिखाते हैं, तो तुम्हें नहीं पता होता, लेकिन उन्हें पता होता है। या, ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें खुद ही पता न चले कि वे कब अहंकार दिखा रहे हैं, परन्तु परमेश्वर जानता है। इसके अलावा, एक और मुद्दा है जिसे लोगों को याद रखना चाहिए : परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करता है; वह उनके काम करने के तरीके नहीं ठीक करता। कुछ करते समय तुम्हारे क्षणिक इरादों से, या काम करने के किसी विशेष तरीके से, या तुम्हारे कभी-कभार के आलस्य से या कोई कीमत न चुकाने से परमेश्वर घृणा नहीं करता; ये वे चीजें नहीं हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। परमेश्वर जिस बात से घृणा करता है, वह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें जब भी लगे कि तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखा रहे हो, तो इससे पहले कि परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करे, तुम्हें स्वयं ही इसके बारे में जान लेना चाहिए। तुम्हें यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि परमेश्वर तुमसे घृणा करता है या उसने तुम्हें निकाल दिया है; तुम्हें अपनी समस्या के बारे में जानना चाहिए, फिर यह तलाशना चाहिए कि तुम्हें कैसे पश्चात्ताप करना चाहिए, और सत्य का अभ्यास करने के किस तरीके से बदलाव आएगा। यह सामान्य विवेक की अभिव्यक्ति है। तुम्हें सबसे पहले जिस बात का पता होना चाहिए वह यह है कि “मेरे ये शब्द समझदारी भरे नहीं हैं और ये अहंकार दिखाते हैं। मैं इस कार्य को करने में सक्षम नहीं हूँ, फिर भी मैं अपने बारे में बड़ी बात करता हूँ और कहता हूँ कि मैं यह कर सकता हूँ, तो क्या यह सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें नहीं हैं? बड़ी-बड़ी बातें करना और अपनी बड़ाई करना दिखाता है कि मेरा स्वभाव अहंकारी है।” बड़ी-बड़ी बातें करने की वजह से परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करता, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें ऐसे ही करते रहना चाहिए? नहीं, तुम इसे ऐसे ही करना जारी नहीं रख सकते। तुम्हें इसका गहन-विश्लेषण करना चाहिए और कहना चाहिए कि “ऐसा क्यों है कि मैं अपने आप को बड़ा बताता हूँ और बड़ी-बड़ी बातें करता हूँ? मैं उन चीजों के बारे में डींग क्यों हाँकता हूँ जो मैं नहीं कर सकता, या जिन चीजों के बारे में मैं जानता तक नहीं कि उन्हें मैं कर सकता हूँ या नहीं? मुझमें यह ऐब क्यों है?” यह कोई ऐब नहीं है। कोई ऐब एक सतही स्तर की बुरी आदत होती है। बड़ी-बड़ी बातें करना अहंकारी स्वभाव दिखाने का एक तरीका है; यह तुम्हारा शैतानी स्वभाव है जो निर्देशित करता है कि तुम ऐसी मनोदशा में रहो—तुम पूरी तरह से अपने स्वभाव द्वारा निर्देशित होते हो। यदि तुम इसे दबा सकते हो, और अहंकारी स्वभाव दिखाना रोक सकते हो, तो क्या इसका मतलब यह है कि अब तुममें अहंकारी स्वभाव नहीं है? क्या इसका मतलब यह है कि इसे ठीक कर लिया गया है? यह किसी भी हाल में इतना आसान नहीं है। केवल तुम्हारे कोई काम करने के तरीके को बदलने से, बाहरी तौर पर नियमों का पालन करने वाला और सभ्य आचरण करने वाला होने से, ढीठ न होने और सुसंस्कृत तौर-तरीकों वाला होने से यह नहीं होता कि तुम अहंकारी नहीं हो। ये तो केवल मुखौटे हैं जो अहंकार के ऊपर नई समस्याएँ जोड़ते हैं और इनका परिणाम और भी अधिक कष्टदायी होता है। यदि तुम अपना अहंकार समाप्त करना चाहते हो, और हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय इसे ठीक करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। यही सही तरीका है। उदाहरण के लिए, मान लो कि अगुआ तुम्हारे लिए किसी निश्चित कर्तव्य का निर्धारण करता है, और उसकी बात सुनने के बाद तुम लापरवाही से कहते हो कि “मैंने पहले भी इस तरह के कर्तव्य निभाए हैं। यह तो चुटकियों में हो जाएगा!” लेकिन इसके तुरंत बाद तुम्हें एहसास होता है कि तुमने अहंकार दिखाया है, और सोचने का यह तरीका गलत है, और तुरंत प्रार्थना करते हुए और अपनी सोच में सुधार लाते हुए तुम कहते हो, “हे परमेश्वर! मैंने एक बार फिर अहंकार दिखाया है। कृपया मेरी काट-छाँट करो; मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता हूँ,” यह पहली चीज है जो तुम्हें करनी चाहिए। फिर, तुम्हें अपना कर्तव्य को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? तुम सोचते हो, “मैं यह परमेश्वर के लिए कर रहा हूँ, और मैं यह उसकी मौजूदगी में कर रहा हूँ, इसलिए मुझे यह काम सावधानी से करना चाहिए। मैं इसमें गड़बड़ नहीं कर सकता। अगर मैं ऐसा करूंगा तो यह बहुत शर्मनाक होगा!” फिर, तुम इस पर विचार करते हो और सोचते हो, “नहीं, यह सही नहीं है। मुझे शर्मिंदा होने से क्यों डरना चाहिए?” यह मनोदशा भी सही नहीं है; तुम पथ से भटकने लगे हो। तुम्हें इसे कैसे ठीक करना चाहिए? किस दिशा में जाना सही है? फिर से इसका संबंध समस्याएं दूर करने के लिए सत्य का अभ्यास करने से है। तुम्हें सोचना चाहिए, “मैं शर्मिंदा होने से नहीं डरता। मुख्य बात यह है कि मुझे कलीसिया के काम के लिए हानिकारक नहीं होना चाहिए,” और तुम्हारी मनोदशा बदल जाएगी। लेकिन यदि उस समय तुम सोचो, “क्या होगा अगर मैं कलीसिया के काम के लिए हानिकारक हो जाऊं और मेरी काट-छाँट की जाए? मेरा कोई मान नहीं रह जाएगा,” तुम्हारी मनोदशा फिर से गलत हो जाएगी। इसे कैसे सुधारा जा सकता है? अपने हृदय में तुम्हें सोचना चाहिए, “मैं कभी अपने कर्तव्य को महत्व नहीं देता, मैं इसे करने में आलसी हूँ, और मैं बहुत अहंकारी हूँ। मेरी काट-छाँट की जानी चाहिए। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे काम करने देना चाहिए। मैं कोई आसान चीज नहीं हूँ, लेकिन परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है, इसलिए मैं परमेश्वर पर निर्भर रहूँगा।” यह सही है; यही अभ्यास करने का सही तरीका है। परमेश्वर ने तुम्हें कुछ प्रतिभाएँ प्रदान की हैं, और तुम्हें कुछ ज्ञान प्राप्त करने का अवसर दिया है, लेकिन इस ज्ञान को प्राप्त करने का मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं है कि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ, है।) कोई व्यक्ति इस निष्कर्ष पर कैसे पहुँचता है? (अनुभव के माध्यम से।) इस अनुभव ने तुम्हें एक सबक सिखाया है और अंतर्दृष्टि दी है। मतलब कि परमेश्वर लोगों को जो देता है वह कुछ ऐसा नहीं है जो उनमें अंतर्निहित होता हो, न ही यह उनकी पूंजी होती है; परमेश्वर ने उन्हें जो दिया है, उसे वह किसी भी समय छीन सकता है। जब परमेश्वर तुम्हें उजागर करना चाहता है, तो तुम किसी चीज में कितने ही प्रतिभाशाली क्यों न हो, तुम उसे भूल जाओगे और उसका उपयोग करने में असमर्थ रहोगे—तुम कुछ भी नहीं रह जाओगे। अगर, ऐसे समय में तुम प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरे पास यह क्षमता केवल इसलिए है क्योंकि तुमने इसे मुझे दिया है। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे शक्ति दो! कृपया मुझे आशीर्वाद दो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं तुम्हारे कार्य के लिए हानिकारक न बनूँ।” क्या यह प्रार्थना करने का सही तरीका है? (नहीं, यह सही नहीं है।) इस बिंदु पर तुम्हें क्या बदलाव करने चाहिए? तुम कहते हो, “हे परमेश्वर! मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ। मैं हमेशा यह नहीं सोच सकता कि मैं ही सही हूँ। भले ही मैं इस कार्य क्षेत्र के बारे में कुछ बातें जानता हूँ, और इसमें कुछ दक्षता रखता हूँ, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह कार्य अच्छी तरह से कर सकता हूँ। चूँकि मेरा भ्रष्ट स्वभाव एक बाधा है, मैं अनमने और ढीले-ढाले तरीके से काम करने का आदी हूँ और अपने कर्तव्य को गंभीरता से नहीं लेता। मैं अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ हूँ और खुद को काबू में नहीं रख पा रहा हूँ। मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि मेरी रक्षा करो और मेरा मार्गदर्शन करो। मैं तुम्हारे प्रति समर्पित होने, अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ योगदान करने और तुम्हारी महिमा गाने को तैयार हूँ।” यदि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, और इसका 80 प्रतिशत श्रेय परमेश्वर को और 20 प्रतिशत स्वयं को देते हो, तो क्या यह उचित है? (नहीं, यह उचित नहीं है।) चीजों को इस तरह से बाँटना न्यायसंगत नहीं है। यदि परमेश्वर कार्य नहीं कर रहा होता, तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाते? बिल्कुल नहीं, क्योंकि न केवल तुममें सत्य का अभाव है, बल्कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव भी है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों के दिलों में किस प्रकार की भ्रष्ट मनोदशा मौजूद है, उन्हें हमेशा आत्म-चिंतन करना चाहिए, और इसे ठीक करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। एक बार उनके भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ हो गए, तो उनकी मनोदशा सामान्य हो जाएगी।

कभी-कभी व्यक्ति के हृदय में कोई गलत विचार या कल्पना आ जाती है और उसके कारण उसका मन परेशान हो जाता है। वह उस मनोदशा में फँस जाता है और दो-एक दिन तक उससे बाहर नहीं निकल पाता। ऐसे समय में व्यक्ति को क्या करना चाहिए? हालात को ठीक करने के लिए तुम्हें सत्य की तलाश करनी चाहिए। सबसे पहले, तुम्हें यह साफ तौर पर पता होना चाहिए कि गलत विचार या ख्याल कैसे पैदा हुआ, कैसे इसने तुम पर कब्जा जमाया, कैसे तुम्हें नकारात्मक और उदास करने के साथ ही तुम्हें सभी प्रकार की विद्रोहशीलता और भद्दे तौर-तरीके दिखाने के लिए प्रेरित कर गया। फिर, जब तुम्हें एहसास होता है कि ये चीजें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से निर्दिष्ट होती हैं, और परमेश्वर इससे घृणा करता है, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने खुद को शांत रखते हुए प्रार्थना करनी चाहिए, “परमेश्वर, मुझे अनुशासित करो और मुझे वे सबक सीखने दो जिनकी मुझे जरूरत है। मैं खुलासा किए जाने से नहीं डरता, न ही मैं शर्मिंदा होने या पहचान खोने से डरता हूँ। मुझे केवल इस बात का डर है कि मेरे कार्यों से तुम्हारे प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन न हो और तुम नाराज न हो जाओ।” यही सही मार्ग है, लेकिन क्या तुममें इस पर चलने का आध्य़ात्मिक कद है? (नहीं।) यदि तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद नहीं है, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम ऐसी प्रार्थना नहीं कर सकते? चूँकि यही सही मार्ग है, इसलिए तुम्हें इसी तरह की प्रार्थना करनी चाहिए। अब, चूंकि लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है, इसलिए उन्हें बार-बार परमेश्वर के सामने आना चाहिए, परमेश्वर पर निर्भर रहना चाहिए, और परमेश्वर को उन्हें अधिक सुरक्षा प्रदान करने तथा अधिक अनुशासित करने देना चाहिए। जब उनका आध्यात्मिक कद बड़ा हो जाएगा और वे बोझ उठा सकेंगे और अधिक काम कर सकेंगे, तो परमेश्वर को इतनी चिंता करने की आवश्यकता नहीं होगी, उसे लगातार उन लोगों का संरक्षण करने, उन्हें अनुशासित करने, उन्हें आजमाने या उनकी निगरानी करने की जरूरत नहीं होगी। यह दिल का मामला है, और परमेश्वर लोगों के दिलों को देखता है। परमेश्वर इस बात की परवाह नहीं करता कि तुम बाहर से कितने अच्छे आचरण वाले या आज्ञाकारी हो; वह तुम्हारे रवैये को देखता है। हो सकता है कि तुम दिन भर में कुछ न बोलो, लेकिन तुम्हारे दिल में क्या रवैया है? “मुझे यह कर्तव्य दिया गया है, इसलिए इसे अच्छी तरह से निभाना मेरी जिम्मेदारी है, लेकिन मेरी आदत बेलगाम होकर अपनी मनमानी करने की है। मैं जानता हूँ कि मुझमें यह समस्या है, लेकिन मैं खुद पर नियंत्रण नहीं रख सकता। मैं चाहता हूँ कि परमेश्वर मेरे लिए परिवेश आयोजित करे और मेरे आस-पास के उन लोगों, घटनाओं और चीजों को हटा दे जो मुझे बाधित कर सकते हैं, मेरे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित कर सकते हैं, या सत्य के मेरे अभ्यास को प्रभावित कर सकते हैं, ताकि मैं प्रलोभन में न पड़ूं, परमेश्वर के परीक्षणों को स्वीकार सकूं और उसके अनुशासन को स्वीकार सकूं।” तुममें समर्पण के लिए तैयार हृदय होना चाहिए। जब ये विचार तुम्हारे हृदय में होते हैं, तो परमेश्वर उन्हें कैसे नहीं देखेगा? वह उन पर ध्यान कैसे नहीं देगा? तो, परमेश्वर कार्य करता है। कभी-कभी जब तुम एक या दो बार ऐसे प्रार्थना करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी ओर ध्यान नहीं देता। जब वह किसी व्यक्ति के काम और ईमानदारी का परीक्षण करता है, तो वह कुछ नहीं कहता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने जो कुछ भी किया, वह गलत था। किसी भी परिस्थिति में तुम्हें परमेश्वर की परख नहीं करनी चाहिए। यदि तुम सदैव परमेश्वर को परखते हो, और कहते हो, “क्या मेरा ऐसा करना सही है? परमेश्वर, क्या तुमने इसे देखा?” तो तुम मुसीबत में हो। यह मनोदशा गलत है। बस काम करने पर ध्यान लगाओ। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा है, तुम्हारी अगुआई कर रहा है, परीक्षा ले रहा है, या तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है। इस पर ध्यान न दो। केवल उस सत्य को व्यवहार में लाने के प्रयास पर ध्यान केंद्रित करो जिसे तुम समझते हो और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करो। इतना ही पर्याप्त है। जहां तक यह बात है कि परिणाम क्या होगा, तो बहुत बार यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं होती। तुम्हें किस चीज की जिम्मेदारी लेनी चाहिए? जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए उसे निभाना, वह समय लगाना जो तुम्हें लगाना चाहिए, और जो कीमत तुम्हें चुकानी चाहिए, उसे चुकाना। इतना ही पर्याप्त है। सत्य से संबंधित किसी भी चीज की जाँच की जानी चाहिए, और उसे समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग उस रास्ते पर चलें जिस पर उन्हें चलना चाहिए। यह पर्याप्त है। लोगों को यही करना चाहिए। जहां तक तुम्हारे आध्यात्मिक कद के स्तर की बात है, तो तुम्हें किन परीक्षणों से गुजरना चाहिए, किस अनुशासन का अनुभव करना चाहिए, किन परिस्थितियों का अनुभव करना चाहिए, और परमेश्वर किस प्रकार संप्रभुता रखता है, इन बातों पर तुम्हें ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। यह परमेश्वर करेगा। तुम कहते हो, “मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है। परमेश्वर, मुझे किसी भी परीक्षा से न गुजारो, मुझे डर लगता है!” क्या परमेश्वर ऐसा करेगा? (नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा।) तुम्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम कहोगे, “मेरा आध्यात्मिक कद बहुत बड़ा है, और मैं काफी आस्थावान हूँ। परमेश्वर, तू मेरी कुछ परीक्षाएं क्यों नहीं लेता? जैसे तूने अय्यूब के साथ किया था, वैसे ही मुझे भी आजमा और मेरा सर्वस्व छीन ले!” परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। तुम अपना आध्यात्मिक कद नहीं जानते, परन्तु परमेश्वर इसे अच्छी तरह जानता है और यह बहुत स्पष्ट है; वह हर व्यक्ति का हृदय देख सकता है। क्या लोग परमेश्वर का हृदय देख सकते हैं? (नहीं, वे नहीं देख सकते।) लोग परमेश्वर का हृदय नहीं देख सकते, तो वे परमेश्वर को कैसे समझते हैं और उसके साथ सहयोग कैसे करते हैं? (उसके वचनों के माध्यम से।) उसके वचनों को समझकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह करके और लोगों के रूप में अपने स्थान पर दृढ़ता से टिके रहकर। लोगों का कर्तव्य क्या है? यही वह काम है जो लोगों को करना चाहिए और जिसे करने की उनमें क्षमता हैं। ये वे कार्य हैं जो परमेश्वर ने तुम्हें दिए हैं। तुम्हें जो कार्य दिए गए हैं उनमें क्या शामिल है? कार्य का वह क्षेत्र जिससे तुम परिचित हो, वे कार्य जो कलीसिया तुम्हें देता है, वे कार्य जो तुम्हें करने चाहिए और वे कार्य जिन्हें करने की तुममें योग्यता है। यह इसका एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा जीवन प्रवेश के मामले से संबंधित है। तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए। बस अभ्यास करने और सत्य में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित करो। इस पर ध्यान न दो कि दूसरे तुम्हारा मूल्यांकन कैसे करते हैं या परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। तुम्हें इन चीजों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, न ही तुम्हारे लिए इन चीजों पर ध्यान देना जरूरी है—ये वे चीजें नहीं हैं जिनके बारे में तुम्हें परेशान होना चाहिए। अपने सौभाग्य, दुर्भाग्य, आयु, जीवनकाल में अनुभव की जाने वाली सभी चीजों, अपने भाग्य या अपने जीवन में लोगों का अपना कोई नियंत्रण नहीं होता; इन चीजों को कोई नहीं बदल सकता। तुम्हें यह बात स्पष्ट होनी चाहिए। इन चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता है। लोगों को अपने हृदय में इस बात को बिलकुल स्पष्ट तरीके से जानना और समझना चाहिए। परमेश्वर की ओर से किसी भी चीज की चिंता मत करो; यह तय करने का प्रयास मत करो कि परमेश्वर क्या करना चाहता है। बस तुम्हें जो करना चाहिए, जिसमें प्रवेश करना चाहिए और जिस रास्ते पर चलना चाहिए उसे प्रभावी ढंग से संभालने पर ध्यान केंद्रित करो। इतना ही पर्याप्त है। जहां तक यह सवाल है कि भविष्य में तुम्हारा गंतव्य क्या होगा, तो क्या तुम्हारा इस पर कोई नियंत्रण है? (नहीं।) तो फिर तुम इस समस्या को हल कैसे कर सकते हो? इसका एक हिस्सा यह है कि वह सब कुछ करो जो तुम्हें हर दिन अच्छी तरह से करना चाहिए और एक व्यक्ति के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करो। यह वह आदेश है जो परमेश्वर हर किसी को देता है। तुम इस दुनिया में आए हो और परमेश्वर ने पूरे समय तुम्हें रास्ता दिखाया है—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने तुम्हें विभिन्न प्रकार के गुण दिए हैं, या तुम्हारा पालन-पोषण किया है और तुम्हें कोई प्रतिभा या योग्यता दी है, इससे पता चलता है कि परमेश्वर ने तुम्हें आदेश दिए हैं। यह बहुत साफ तौर पर दिखता है कि परमेश्वर ने तुम्हें क्या आदेश दिया है और परमेश्वर को तुम्हें सीधे तौर पर बताने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के लिए, अगर तुम अंग्रेजी जानते हो, तो निश्चित रूप से इस क्षेत्र में परमेश्वर को तुमसे अपेक्षाएं हैं। यह तुम्हारा कर्तव्य है। इस बात की कोई जरूरत नहीं है कि परमेश्वर स्वर्ग से आवाज देकर तुमसे सीधे तौर पर कहे, “तुम्हारा कर्तव्य अनुवाद करना है और यदि तुम ऐसा नहीं करते, तो मैं तुम्हें दंडित करूंगा।” ये कहने की जरूरत नहीं है। यह पहले से ही तुम्हें बहुत स्पष्ट है क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें सामान्य विवेक, सोच-विचार करने की प्रक्रिया के साथ-साथ इस भाषा को समझने की क्षमता भी दी है। इतना ही पर्याप्त है। परमेश्वर ने तुम्हें जो दिया है वह वही है जो वह तुमसे करने के लिए कह रहा है, और यह बात तुम अपने मन में बहुत स्पष्टता से जानते हो। अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में, और परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने की प्रक्रिया के दौरान तुम्हें वह सब कुछ स्वीकारना चाहिए जो परमेश्वर ने तुम्हारे साथ किया है, जिसमें तुम्हें दिया गया सकारात्मक मार्गदर्शन, सिंचन और पोषण भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए, बार-बार परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, धर्मोपदेश सुनना, कलीसियाई जीवन जीना, सत्य पर संगति करना और अपना कर्तव्य निभाते हुए दूसरों के साथ सौहार्दपूर्वक सहयोग करना आदि को तुम्हें स्वीकारना चाहिए। इसका दूसरा भाग व्यक्तिगत जीवन प्रवेश से जुड़ा है—यह सबसे महत्वपूर्ण है। कुछ लोग हमेशा जानना चाहते हैं कि क्या उनके पास जीवन है और क्या वे प्रभावी हैं। इन चीजों पर क्षणिक विचार करना ठीक है, लेकिन उन पर ध्यान मत केंद्रित करो। यह हर साल फसल बोने जैसा है—कोई भी किसान यह नहीं कहता कि किसी वर्ष में कितनी उपज होनी चाहिए और यदि उन्हें निर्धारित परिणाम प्राप्त नहीं हुए, तो वे मर जाएंगे। वे इतने मूर्ख नहीं होते। बुआई के मौसम में वे सभी बीज बोते हैं, फिर उन्हें पानी देते हैं, उनमें खाद डालते हैं और सामान्य रूप से उनकी देखभाल करते हैं। फिर, जब मौसम सही होता है, तो उन्हें फसल मिलना सुनिश्चित होता है। तुम्हें इस तरह की आस्था रखनी चाहिए; यह परमेश्वर में वास्तविक आस्था है। यह कहते हुए परमेश्वर के साथ बहुत जोड़-घटाव न करो कि “मैंने अंतिम पल में कुछ प्रयास किए हैं, क्या परमेश्वर मुझे इनाम देगा?” जैसे किसी कार्यालय का कर्मचारी महीने के अंत में अपना वेतन मांगता है, वैसे ही हमेशा पुरस्कार की मांग करना स्वीकार्य नहीं है। हमेशा पारिश्रमिक मांगते रहना स्वीकार्य नहीं है। लोगों की आस्था बहुत कमजोर है, और परमेश्वर में उनकी वास्तविक आस्था नहीं है। एक बार जब तुम साफ-साफ देख लेते हो कि परमेश्वर का अनुसरण करने का मार्ग ही उद्धार का मार्ग है, और वास्तविक जीवन है, यही वह सही मार्ग है जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, और यही वह जीवन है जो सृजित प्राणियों को मिलना चाहिए, तो बस सत्य का अनुसरण करने और वास्तविकता में प्रवेश करने, परमेश्वर के वचनों को सुनने और उस दिशा में चलने और उस कार्य को करने पर ध्यान केंद्रित करो जो परमेश्वर तुमसे कहता है। यही सही है। हमेशा परमेश्वर से यह न पूछो, “परमेश्वर तुम्हारा अनुसरण करने के मार्ग का अंत आने में और कितना समय लगेगा? मैं कब बचाया जाऊंगा? मुझे पुरस्कार और मुकुट कब मिलेगा? परमेश्वर का दिन कब आएगा?” ये सभी मनोदशाएँ लोगों में होती हैं, लेकिन इससे क्या यह सही हो जाता है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता,” लेकिन यह कहावत एक भ्रांति है, इसमें कोई दम नहीं है और यह सत्य के अनुरूप नहीं है। यह तथ्य कि हर किसी के पास ऐसी मनोदशाएँ होती हैं, यह साबित करता है कि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए सभी को इस समस्या का समाधान करना होगा और इस बाधा को पार करना होगा। तुम्हें हमेशा अपने दिल में अपनी जांच करनी चाहिए, न कि यह देखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि दूसरे क्या कर रहे हैं, और जब तुम अपनी जांच कर रहे होते हो, तो तुम्हें अपनी सभी भ्रष्ट मनोदशाओं को ठीक करना चाहिए। लोगों का दिमाग गतिशील होता है और वे हमेशा सक्रिय रूप से सोचते रहते हैं—एक पल में वे बाईं ओर झुकते हैं, तो दूसरे पल में दाईं ओर; उनके सोचने का तरीका हमेशा थोड़ा बेपटरी होता है। वे सही रास्ते पर नहीं चलते। वे दूसरों का अनुसरण करने, संसार की बुरी प्रवृत्तियों को अपनाने और गलत रास्ते पर चलने पर जोर देते हैं। यह लोगों का प्रकृति सार है और वे चाहकर भी इसे नियंत्रित नहीं कर सकते। यदि तुम इसे नियंत्रित नहीं कर सकते, तो इसे नियंत्रित न करो। जब कोई गलत इरादा या नजरिया सामने आए तो उसे ठीक कर लो। इस तरह, तुम्हारे द्वारा दिखाई जाने वाली भ्रष्टता धीरे-धीरे कम हो जाएगी। तो, तुम इसे कैसे ठीक कर सकते हो? प्रार्थना करके, लगातार समझ हासिल करके और चीजों में बदलाव लाकर। कभी-कभी, तुम चीजों को चाहे जैसे भी घुमाने की कोशिश करो, वे चीजें सतह पर आ जाती हैं, इसलिए उन पर ध्यान न दो और बस वही करो जो तुम्हें करना चाहिए। ये सबसे आसान तरीका है। तो फिर वह क्या है जिसे करना लोगों से अपेक्षित है? अपने कर्तव्यों को ठीक से निभाना और अपने कर्तव्य पर कायम रहना। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश को ठुकरा नहीं सकते; तुम्हें इसे अच्छे से पूरा करना ही चाहिए। इसके अलावा, व्यक्तिगत जीवन प्रवेश के संदर्भ में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य के लिए सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए, और जीवन प्रवेश के जिस भी स्तर को तुम हासिल कर सकते हो उसे पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। अंत में तुम अपेक्षाओं पर खरे उतरे या नहीं, इसका निर्णय परमेश्वर द्वारा किया जाएगा। लोगों की अपनी अनुभूतियां और निर्णय किसी काम के नहीं हैं। लोग अपना भाग्य स्वयं तय नहीं कर सकते और वे अपने व्यवहार का मूल्यांकन करने में या यह निर्धारित करने में असमर्थ होते हैं कि उनका अंतिम परिणाम क्या होगा। केवल परमेश्वर ही इन चीजों का मूल्यांकन और निर्धारण कर सकता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर धार्मिक है। गैर-विश्वासियों के शब्दों में कहें, तो तुम्हे कार्य करने का साहस करना चाहिए, अपने क्रियाकलापों के लिए जवाबदेह होने का साहस करना चाहिए, तथ्यों का सामना करने का साहस करना चाहिए और जिम्मेदारी लेने में सक्षम होना चाहिए। जिन लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक है उन्हें अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

यह महत्वपूर्ण है कि लोग बार-बार अपनी जाँच करें, और लोगों के लिए महत्वपूर्ण है कि वे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करें। खुद की जाँच में अपनी दशाओं या दृष्टिकोणों को गलत पाने पर लोगों के लिए सत्य की खोज करना, अपनी दशाओं और दृष्टिकोणों को पलटना और उनसे बाहर निकलना भी महत्वपूर्ण है। इस तरह, कुछ पता चले बिना ही तुम कम से कम गलत दशाओं का अनुभव करोगे, और उनके प्रति ज्यादा से ज्यादा समझदार हो जाओगे। अपनी गलत दशाओं को पलटने के बाद, तुम्हारे भीतर की सकारात्मक चीजें बढ़ेंगी, और तुम अधिक से अधिक शुद्धता के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे। यद्यपि, बाहर से तुम्हारे बोलने का तरीका और व्यक्तित्व पहले जैसा ही रहेगा, फिर भी तुम्हारा जीवन स्वभाव बदल चुका होगा। यह किन तरीकों से दिखाई पड़ेगा? तुम काम करते समय और अपना कर्तव्य निभाते समय सत्य सिद्धांतों का पालन करने और इन चीजों की जिम्मेदारी लेने में समर्थ होगे; जब तुम दूसरों को अनमने ढंग से काम करते हुए देखोगे तो क्रोधित होगे, और जब तुम दुष्ट घटनाओं के साथ-साथ भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने वाली निष्क्रिय, नकारात्मक, अनुचित और दुष्ट प्रथाओं को देखोगे तो तुम उनसे घृणा करोगे। तुम इन चीजों को जितना अधिक देखोगे, उतनी अधिक अरुचि महसूस करोगे, और उनकी उत्तरोत्तर अधिक समझ रखने वाले बन जाओगे। जब तुम कुछ ऐसे लोगों को देखोगे जो बहुत लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, और जो वचनों और सिद्धांतों के बारे में बहुत स्पष्टता से बोलते हैं, लेकिन कोई वास्तविक कार्य नहीं करते और सिद्धांतहीन हैं, तो तुम क्रोधित हो जाओगे और इससे सख्त नफरत करोगे। विशेष रूप से, जब तुम ऐसे अगुओं और कार्यकर्ताओं को देखोगे जो वास्तविक कार्य नहीं करते, हमेशा शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं, और वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं लेकिन बदले नहीं हैं, तो तुम्हें उनके बारे में समझ होगी, तुम उन्हें उजागर करने और उनकी रिपोर्ट करने में सक्षम होगे, और तुम्हारे भीतर न्याय का भाव होगा। तुम न केवल स्वयं से घृणा करोगे, बल्कि जब ये दुष्ट और अन्यायपूर्ण चीजें घटित होंगी तो तुम उससे भी नफरत करोगे। इससे सिद्ध होगा कि तुम्हारे भीतर एक बदलाव आया है। तुम समस्याओं को देखने और अपने आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों को सत्य के परिप्रेक्ष्य से, परमेश्वर के पक्ष से और सकारात्मक चीजों के परिप्रेक्ष्य से देखने में सक्षम हो जाओगे—यह दिखाएगा कि तुम्हारे भीतर एक बदलाव आया है। तो, क्या तुमको तब भी तुम्हारे मूल्यांकन के लिए परमेश्वर की आवश्यकता होगी? नहीं—तुम इसे खुद महसूस कर सकोगे। उदाहरण के लिए, पहले, यदि तुम किसी को अनमने ढंग से काम करते देखते थे, तो तुम सोचते थे, “यह सामान्य बात है। मैं भी वैसा ही हूँ। अगर वह उस तरीके से काम नहीं करता, तो मुझे लगता जैसे मैं अनमने ढंग से काम कर रहा हूँ।” चूंकि, हर कोई अनमने ढंग से काम कर रहा था, इसलिए तुमको लगता था कि तुम बहुत अच्छा कर रहे हो। उस समय, तुम इस तरह से सोचना बंद कर दोगे। तुम सोचोगे, “अनमने ढंग से काम करना अस्वीकार्य है। परमेश्वर के घर का कार्य महत्वपूर्ण है। यही बात काफी विद्रोहपूर्ण थी कि मैं चीजों को अनमने ढंग से कर रहा था—तुम लोग मेरे जैसे क्यों बन रहे हो, और चीजों को उसी तरह से क्यों कर रहे हैं?” तुम सोचोगे कि तुम पहले कितने अज्ञानी और अपरिपक्व थे, कि जिस तरह से तुम चीजों को देखते थे वह कितना घृणित और शर्मनाक था, और कि ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे तुम परमेश्वर को इसका हिसाब दे सको, और तुम्हारी अंतरात्मा इससे उबर नहीं सकेगी। इस तरह के विचार और भावनाएँ रखने में सक्षम होने का तथ्य यह सिद्ध करेगा कि सत्य और परमेश्वर के वचन तुम्हारे भीतर जड़ें जमा चुके हैं और अंकुरित हो चुके हैं। वह परिप्रेक्ष्य जिससे तुम चीजों को देखते हो, और वे मानक जिनके अनुसार तुम चीजों का मूल्यांकन करते हो, बदल गए होंगे। तुम पहले जब अपने भ्रष्ट स्वभाव में रहते थे, उसकी तुलना में पूरी तरह से अलग व्यक्ति बन चुके होगे। तुम पहले ही वास्तविक तरीके से बदल चुके होगे। क्या तुम लोग अब थोड़े बदल गए हो? (हाँ, थोड़ा सा।) अब तुम थोड़ा बदल गए हो, और कभी-कभी, जब तुम लोगों को अनमने ढंग से काम करते हुए देखते हो, जो सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, और हमेशा भौतिक सुख-सुविधा में उलझे रहते हैं, तो तुम ऐसा नहीं सोचते कि यह अच्छी बात है। परंतु, अगर तुमसे उनकी मदद करने और उनका समर्थन करने को कहा जाए, उस समय भी शैतानी फलसफे तुम्हें बेबस करेंगे। यद्यपि तुम लोगों में इस समस्या को खोज लेते हो, लेकिन उन्हें नाराज करने के डर से तुम कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं करते, और यहां तक कि सोचते हो, “किसी ने मुझे समूह अगुआ नहीं चुना है, इसलिए मुझे दूसरे लोगों के काम में दखल देने की कोई जरूरत नहीं है।” जब तुम इन अन्यायपूर्ण और नकारात्मक चीजों का सामना करते हो, तो तुम अपनी कथनी और करनी से सत्य के पक्ष में खड़े होने या जिम्मेदारी लेने में असमर्थ रहते हो; तुम बस आँखें मूँद लेते हो, और सोचते हो कि खुद को संतुलित और विवाद से दूर रखने का यह बढ़िया तरीका है। तुम सोचते हो, “अगर कुछ भी गलत होता है तो उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं होगा। मैं झंझट से बच रहा हूँ।” यदि अभी भी तुम्हारे विचार इस तरह के हैं, तो क्या तुम सत्य का अभ्यास कर सकोगे? क्या तुम्हें जीवन प्रवेश मिलेगा? अपने दिल में इस तरह के विचारों के होने पर तुम एक छद्म-विश्वासी हो, और सत्य को नहीं स्वीकार सकते। इसीलिए इस तरह के विचारों को बिना ठीक किए नहीं छोड़ा जा सकता। यदि तुम जीवन प्रवेश चाहते हो, तो एक लिहाज से, तुमको अपनी निगरानी करने में सक्षम होना चाहिए। दूसरे लिहाज से, तुम्हें प्राथमिक रूप से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारने की आवश्यकता है। यदि तुम देखते हो कि तुम्हारे हृदय में धिक्कार है, तो तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और पता करना चाहिए कि यह धिक्कार का भाव कहां से आ रहा है। यदि तुम महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर तुम्हारी जाँच-पड़ताल कर रहा है, और तुम मानते हो कि परमेश्वर तुम्हारी जाँच-पड़ताल कर रहा है, तो तुमको उसकी जाँच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए। सत्य का अभ्यास करने और सत्य में प्रवेश करने की प्रेरणा तुम्हें केवल तब मिलती है जब तुम दिल में बार-बार पश्चात्ताप, बेचैनी महसूस करो और उन दशाओं में होने के लिए खुद को परमेश्वर का ऋणी मानो। सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने के कुछ मानक और व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ हैं। अब तुम लोग उनमें किस हद तक प्रवेश कर चुके हो? (जब कोई परिस्थिति उत्पन्न होती है, तो मैं खुद में कई कमियां देख पाता हूँ, लेकिन मैं उसी दशा में फँसे-फँसे बहुत समय निकाल देता हूँ। मैं नहीं जानता कि मेरी जो समस्याएं हैं उनका गहन-विश्लेषण करने या समझने के लिए सत्य के परिप्रेक्ष्य को कैसे अपनाऊं; मुझमें अपने बारे में साफ समझ नहीं है; मैं खुद को साफ तौर पर नहीं देख पाता, और मैं अक्सर दूसरे लोगों की दशाओं को भी साफ तौर पर नहीं देख पाता।) यदि तुम खुद को साफ तौर पर नहीं देख सकते, तो तुम दूसरों को भी साफ-साफ नहीं देख सकते। यह कथन सही है। जब दूसरे लोगों को कोई समस्या होती है, तो तुम सोचते हो कि इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन वास्तव में, ये दशाएँ निरंतर और एक समान हैं। यदि तुम स्वयं अपनी दशा को साफ नहीं देख सकते, तो तुम अपनी समस्याओं को हल करने में सक्षम नहीं होगे, दूसरों की समस्याएं हल करने की तो बात ही छोड़ दो। एक बार जब तुम अपनी समस्याएं सुलझा लोगे, तो तुम दूसरों की समस्याओं को बहुत स्पष्ट रूप से देख पाओगे और उन्हें तुरंत ठीक कर पाओगे। यदि तुम जीवन प्रवेश पाना चाहते हो, तो तुमको इन दो बातों का पालन करना होगा : एक, यह कि तुमको अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, और दूसरे, यह कि अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें बार-बार अपनी जाँच करनी चाहिए, अपने विभिन्न अशुद्ध दृष्टिकोणों, विचारों, रुखों, इरादों और दशाओं को पलटने के लिए, और हर प्रकार की गलत दशा से बाहर आने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। यदि तुममें उनसे उबरने की ताकत है, तो तुम शैतान पर विजय पा लोगे और अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग दोगे। तब, तुमने स्वयं को बदल लिया होगा। तुम अपनी निष्क्रिय और नकारात्मक दशाओं से उबर चुके होगे, और इन दशाओं से बेबस या नियंत्रित नहीं होगे। यह अपने आप में एक कदम आगे बढ़ना है। तुम लोगों को पहले इस समस्या का समाधान करना होगा। तुम लोगों में कौन सी नकारात्मक या निष्क्रिय दशाएँ हैं? कुछ लोग सोचते हैं, “मैं ऐसा ही हूँ। अपने अहंकारी स्वभाव को ठीक करने के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता। जो भी हो, यह परमेश्वर जानता है, और मुझे लगता है कि उसने मुझे पहले ही वर्गीकृत कर दिया है। मैंने कई बार बदलने की कोशिश की है, लेकिन मैं अभी भी वैसा ही हूँ। मैं बस ऐसा ही हूँ।” अपने बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण बुरा है, लेकिन यह एक नकारात्मक दशा है; कुछ हद तक यह अपने आप को हताशा में डाल देने की मानसिकता है। तुमने इस समस्या के समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं की है, तो तुम क्यों सोचते हो कि तुम्हारे लिए कोई आशा नहीं है? लोग अक्सर इस तरह की दशाओं में रहते हैं; क्षणिक रूप से भी भ्रष्टता उजागर होती है तो वे सोचने लगते हैं कि उन्हें वर्गीकृत कर दिया गया है, और वे उसी प्रकार के व्यक्ति हैं। यह नकारात्मक दशा है; इसे पलटा जाना चाहिए, और तुमको इससे उबरना चाहिए। तुम लोगों के भीतर और कौन सी नकारात्मक या निष्क्रिय दशाएँ हैं? (मैं अक्सर ऐसी दशा में रहता हूँ जिसमें मैं अपने गुणों और काबिलियत के आधार पर काम करता हूँ, और जीवन प्रवेश नहीं होता। यह दशा बहुत गंभीर है।) जब लोग अपने गुणों और काबिलियत के आधार पर काम करते हैं, तो वे हमेशा दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करना पसंद करते हैं, सोचते हैं, “ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम इस काम को पूरा कर सकते हो लेकिन मैं नहीं कर सकता? मुझे इस काम में कड़ी मेहनत और प्रयास करना होगा, कोशिश करके इसे तुमसे बेहतर करना होगा!” इसमें तुम्हारी दानवी प्रकृति उभरकर आई है। इसके बारे में क्या किया जाना चाहिए? जब तुम काम कर रहे होते हो, यदि यह तुम्हारी प्रेरणा या शुरुआती बिंदु हो, तो इस पर ध्यान न दो। यह एक क्षणिक प्रकाशन है, या क्षणिक अज्ञानतापूर्ण विचार है। इसके अनुसार कार्य न करो, तो तुम ठीक रहोगे। तुम्हें व्यावहारिक तरीके से काम करना चाहिए, और निर्धारित तरीके से ही करना चाहिए। यदि तुम्हें कोई कठिनाई हो, तो पहल करके देखो कि दूसरे लोग इसे कैसे संभाल पाए। यदि वे इसे अच्छी तरह से संभाल पाए हैं, तो उनसे बात करो और सीखो। इस तरह से तुम अपनी गलत दशाओं को पलट सकोगे। अगर तुम्हारे भीतर ऐसे विचार हैं और तुम अपने भीतर भ्रष्टता दिखाते हो, लेकिन उस तरह से कार्य नहीं करते, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव विफल हो जाएगा। परंतु, यदि तुम्हारे पास वे विचार हैं और तुम उसी तरह से कार्य करते हो, और तुम्हारे कार्य तुम्हारे विचारों से भी अधिक गंभीर हैं, तो इससे समस्या खड़ी होती है, और इससे चीजों में गड़बड़ी होगी। लोगों का भ्रष्ट स्वभाव ही वह चीज है जिससे परमेश्वर सबसे अधिक नफरत करता है।

तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण यह नहीं है कि तुम उन्हें छिपाओ, ढँक दो, या उसका स्वरूप और पहचान बदल दो। बजाय इसके, वह तुम्हें अनुमति देता है कि उन्हें प्रकट करो, वह तुम्हें उजागर करता है और उनका ज्ञान प्राप्त कराता है। एक बार तुमको उनके बारे में ज्ञान हो जाए, तो क्या बात खत्म हो जाती है? नहीं। जब तुमको उनका ज्ञान हो जाए, और यह पता चल जाए कि अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार काम करना गलत है, और यह एक बंद गली है, तो तुमको परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों के समाधान के लिए उससे सत्य हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, और तुम्हें अभ्यास का सही मार्ग देगा। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि लोगों को क्या करना चाहिए, लेकिन लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, और कभी-कभी वे वैसा नहीं करना चाहते जैसा परमेश्वर कहता है; वे चीजों को अपने तरीके से करना चाहते हैं। तो, परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर तुमको स्वतंत्रता देता है, और कुछ समय के लिए तुमको इस तरह से कार्य करने की अनुमति देता है। जब तुम इस तरह से काम करते रहोगे, तो तुम एक दीवार से टकराओगे और महसूस करोगे कि तुमने गड़बड़ कर दी है। फिर, तुम परमेश्वर के पास वापस जाओगे और तलाशोगे कि तुमको क्या करना चाहिए। परमेश्वर कहेगा, “अपने दिल में, तुम मेरी अपेक्षाओं को समझते हो। तो, तुम उनकी क्यों नहीं सुनते?” और तुम कहोगे, “परमेश्वर, मुझे अनुशासित करो।” परमेश्वर तुमको अनुशासित करेगा, और इससे तकलीफ होगी, तो तुम सोचोगे, “परमेश्वर मुझसे प्यार नहीं करता। वह मेरे प्रति इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? वह बहुत हृदयहीन है।” परमेश्वर कहेगा, “ठीक है, मैं अब आगे से ऐसा नहीं करूंगा। तुम जैसा चाहो उसी तरीके से काम करते रहो,” और तुम उसी रास्ते पर वापस आ जाओगे जिस पर तुम पहले थे। तुम अपने मन की चीजें करोगे, फिर से एक दीवार से टकराओगे, और विचार करोगे, “मैं जो कर रहा हूँ उसमें कुछ तो है जो सही नहीं है। मुझे वापस जाकर अपने पाप स्वीकार करने होंगे। मैं परमेश्वर का ऋणी हूँ।” तुम वापस परमेश्वर के पास जाओगे और प्रार्थना करके सत्य खोजोगे, समझोगे कि परमेश्वर जो कहता है वह सही है, और फिर वैसा ही करोगे जैसा परमेश्वर कहता है। लेकिन जब तुम ऐसा कर रहे होगे, तो सोचोगे, “ऐसा करने से मेरे गौरव को ठेस लगेगी। शायद मैं पहले अपने गौरव का ख्याल रखूंगा।” यह करने पर तुम फिर मुसीबत में पड़ोगे, और फिर असफल रहोगे। समय बीतने के साथ तुम इसी तरह बार-बार आगे-पीछे होते रहोगे। यदि लोग आत्मचिंतन कर सकें, हमेशा अपने भीतर के भटकावों को पहचान सकें, अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार करके उन्हें समझ सकें, और फिर उनके समाधान के लिए सत्य की तलाश कर सकें, तो इस अनुभव के दौरान, उनका आध्यात्मिक कद भी लगातार बढ़ता जाएगा। जिन लोगों के पास दिल है, जो सत्य का अभ्यास करने और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने के इच्छुक हैं, उन्हें धीरे-धीरे कम बाधाओं और असफलताओं का अनुभव होगा, उनमें से जो लोग परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं उनमें वृद्धि होगी, और जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं उनमें वृद्धि होगी। यही कारण है कि जब तुम सत्य का अनुभव और अभ्यास करते हो तो परमेश्वर तुम्हें असफल होने और विद्रोह करने की अनुमति देता है; वह इन चीजों को नहीं देखता। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर अब तुमको नहीं चाहेगा, या वह तुमको नरक में भेज देगा, या किसी एक मौके पर उसकी बात न मानने पर तुम्हें मौत की सजा दे देगा। परमेश्वर ऐसा नहीं करता। ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर जब लोगों को बचाता है तो उसका प्रेम अत्यधिक विशाल होता है? यहीं पर परमेश्वर का प्रेम प्रकट होता है। यह लोगों के प्रति उसकी सहनशीलता और धैर्य में प्रकट होता है। वह लगातार तुम्हें सहन कर रहा है, लेकिन तुममें आसक्त नहीं है। परमेश्वर की सहिष्णुता इस बारे में है कि वह लोगों के आध्यात्मिक कद को जानता है, उनकी जन्मजात क्षमता को जानता है, यह जानता है कि लोग किसी निश्चित परिस्थिति में क्या प्रकट करते हैं, और वे आध्यात्मिक अपने कद के आधार पर क्या हासिल कर सकते हैं, और तुमको इन चीजों को प्रकट करने की अनुमति देता है, तुमको एक निश्चित दायरा देता है, और जब तुम उसके पास वापस आते हो और ईमानदारी से पश्चात्ताप करते हो तो तुम्हें स्वीकार करता है, साथ ही, तुम्हारे पश्चात्ताप की ईमानदारी को भी पहचानता है। इसलिए, जब तुम लौटकर परमेश्वर से पूछोगे कि क्या इस तरह से कार्य करना सही है, तो परमेश्वर तुमको बताता रहेगा और उत्तर देता रहेगा। परमेश्वर धैर्यपूर्वक तुमको बताएगा कि उस तरह से कार्य करना सही है, और तुम्हें मान्यता देगा। लेकिन जब तुम फिर से अपना मन बदल लेते हो, और कहते हो, “परमेश्वर, मैं यह नहीं करना चाहता। यह मेरे लिए फायदेमंद नहीं है, और मैं इससे दुःखी और असहज होता हूँ—मैं अब भी सोचता हूँ कि मुझे चीजें अपने तरीके से करनी चाहिए, इस तरह, मुझे शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा, मैं सहज और होशियार हो जाऊंगा, और मैं अपने आप को हर मामले में संतुष्ट कर सकूंगा—मैं पहले अपनी व्यक्तिगत इच्छाएं पूरी करूंगा,” तो परमेश्वर कहेगा, “तुम लक्ष्य से पीछे रह सकते हो, लेकिन ऐसा करने से, अंततः तुम ही हारोगे, मैं नहीं।” जब परमेश्वर तुमको बचा रहा होता है, तो कभी-कभी वह तुम्हें इस तरह मनमानी करने की अनुमति देता है; यह उसकी सहिष्णुता है और यही वह दया है जो वह लोगों पर करता है। परंतु, लोग उसकी दया देखकर आत्मानंदित नहीं हो सकते कि उसके धैर्य और सहनशीलता को किसी तरह की कमजोरी के रूप में देखें या इसे उसके खिलाफ विद्रोह करने और उसके वचनों पर ध्यान न देने के बहाने के रूप में देखें। यह लोगों का विद्रोहीपन और दुष्टता है। लोगों को यह स्पष्ट रूप से समझना चाहिए। परमेश्वर तुम्हारे प्रति जो सहनशीलता और धैर्य दिखाता है उसका विस्तार असीमित होता है। यदि तुम परमेश्वर के सच्चे इरादों को समझ सकते हो, तो यह अच्छी बात है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुमको बचाने के लिए चरम उपाय करने में असमर्थ है—तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर के कार्यों के पीछे सिद्धांत होते हैं। वह कई तरीकों से काम करता है, लेकिन वह चरम उपायों का उपयोग नहीं करता है। ऐसा क्यों है? परमेश्वर तुम्हें सभी तरह की दुरावस्थाओं, कुंठाओं, और क्लेशों के साथ-साथ बहुत सारी असफलताओं और नुकसानों का अनुभव करने देता है। आखिर में, तुम्हें इन चीजों से गुजरने देने की प्रक्रिया में, परमेश्वर तुम्हें बोध कराएगा कि उसने जो कुछ कहा है, वह सब सही और सत्य है। साथ ही, वह तुम्हें इसका भी बोध कराएगा कि तुम जो सोचते हो और कल्पना करते हो उनके साथ-साथ तुम्हारी धारणाएँ, ज्ञान, दार्शनिक सिद्धांत, फलसफे, और जो चीजें तुमने दुनिया से सीखीं, और जो चीजें तुम्हारे माता-पिता द्वारा सिखाई गईं, वे सभी गलत हैं, और ये चीजें तुम्हें जीवन में सही रास्ते पर नहीं ले जा सकतीं, और वे सत्य को समझने या परमेश्वर के सम्मुख आने में तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं कर सकतीं। अगर तुम अब भी इन चीजों के अनुसार जी रहे हो तो तुम विफलता की राह पर चल रहे हो, और परमेश्वर के प्रतिरोध और उससे विश्वासघात करने की राह पर हो। आखिर में, परमेश्वर तुम्हें यह सब साफ-साफ दिखाएगा। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका तुम्हें अनुभव होना चाहिए, और सिर्फ इसी तरीके से नतीजे हासिल किए जा सकते हैं, पर यह सब देखना परमेश्वर के लिए पीड़ाजनक भी है। लोग विद्रोही और भ्रष्ट स्वभाव के हैं, इसलिए उन्हें थोड़ी कठिनाइयों का सामना करना होगा और इन नाकामयाबियों का अनुभव करना होगा। यह कष्ट सहे बिना उनके पास शुद्ध होने का कोई उपाय नहीं होगा। अगर किसी व्यक्ति के पास सचमुच सत्य से प्रेम करने वाला दिल है, और वह सचमुच परमेश्वर के उद्धार के विभिन्न तरीकों को स्वीकारने और मूल्य चुकाने को तैयार है, तो उसे इतना कष्ट उठाने की जरूरत नहीं। परमेश्वर वास्तव में नहीं चाहता कि लोग इतनी अधिक पीड़ा सहें और वह उन्हें इतने नुकसानों और विफलताओं का भी शिकार नहीं होने देना चाहता। किंतु, लोग बहुत ज्यादा विद्रोही हैं; वे जैसा उनसे कहा जाए वैसा करने के अनिच्छुक हैं, समर्पण करने के अनिच्छुक हैं और सही रास्ते पर चलने या छोटा रास्ता अपनाने में असमर्थ हैं; वे सिर्फ अपने तरीके से चलते हैं, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं। लोग भ्रष्ट चीज हैं। परमेश्वर बस इतना कर सकता है कि वह उन लोगों को शैतान के हवाले कर दे और उन्हें निरंतर संतुलित करने के लिए विभिन्न परिस्थितियों में डालता रहे ताकि इस तरह से वे लोग सभी तरह के अनुभव प्राप्त कर सकें और सभी प्रकार के सबक ले सकें और सभी तरह की दुष्ट चीजों के सार को समझ सकें। इसके बाद, जब लोग वापस लौटेंगे और चीजों को दूसरी तरह से देखेंगे तो उन्हें अनुभव होगा कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वे स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और स्वीकार करेंगे कि परमेश्वर ही सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, और सिर्फ वही है जो लोगों से सचमुच प्रेम करता है, उनकी चिंता करता है, और उन्हें बचा सकता है। परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग इतना कष्ट झेलें, पर मनुष्य बहुत ज्यादा विद्रोही हैं, गलत रास्ते पर चलना चाहते हैं, और यह कष्ट सहना चाहते हैं। परमेश्वर के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि वह लोगों को विभिन्न परिस्थितियों में डालकर उन्हें लगातार संतुलित करे। लोग अंततः किस सीमा तक संतुलित होते हैं? इस सीमा तक कि तुम कहो, “मैंने हर तरह की परिस्थिति का अनुभव किया है, और अंततः अब मैं समझ गया हूँ कि परमेश्वर के अलावा कोई भी व्यक्ति, घटना या चीज ऐसी नहीं है जो मुझे सत्य को समझा सके, जो मुझे सत्य का आनंद दिला सके, या जो मुझे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करा सके। अगर मैं आज्ञाकारितापूर्वक परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करूँ, आज्ञाकारिता के साथ मनुष्यवत रहूँ, एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति और कर्तव्य को बनाए रखूँ, आज्ञाकारितापूर्वक परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करूँ, और परमेश्वर से और कोई शिकायतें या असंयमी इच्छाएँ न रखूँ और सृष्टिकर्ता के समक्ष सचमुच समर्पण कर सकूँ, केवल तभी मैं वह व्यक्ति बनूँगा जो सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है।” जब लोग इस स्तर तक पहुँच जाते हैं, तब वे परमेश्वर के सामने सचमुच शीश झुकाते हैं, और परमेश्वर को उन्हें अनुभव करवाने के लिए किन्हीं और परिस्थितियों का निर्धारण करने की आवश्यकता नहीं होती। तो, तुम लोग कौन-सा पथ अपनाना चाहते हो? कोई भी अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में कष्ट नहीं उठाना चाहता, और कोई भी नुकसान, विफलता, कठिनाई, हताशाओं या प्रतिकूलता का अनुभव नहीं करना चाहता, किंतु कोई दूसरा मार्ग नहीं है। लोगों की शैतानी प्रकृति होती है; वे बहुत विद्रोही होते हैं, उनके विचार और मत अत्यधिक जटिल होते हैं। प्रतिदिन तुम्हारा हृदय निरंतर विरोधाभास, कलह और उथल-पुथल में रहता है। तुम कुछ ही सत्यों को समझते हो, तुम्हारा जीवन प्रवेश उथला है, और तुम्हारे भीतर धारणाओं, कल्पनाओं और देह के भ्रष्ट स्वभावों पर विजय पाने की शक्ति का अभाव है। तुम केवल इतना कर सकते हो कि मनुष्य का सामान्य रवैया अपना लो : लगातार विफलता और हताशा झेलना, लगातार नीचे गिरना, विपत्तियों में फँसे रहना, और कीचड़ में लोटते रहना, जब तक कि वह दिन न आ जाए जब तुम कहो, “मैं थक गया हूँ, मैं तंग आ गया हूँ, मैं इस तरह नहीं जीना चाहता। मैं इन विफलताओं का अनुभव नहीं करना चाहता। मैं आज्ञाकारी बनकर सृष्टिकर्ता के सम्मुख आने का इच्छुक हूँ; परमेश्वर जो कहेगा मैं सुनूँगा, और वही करूँगा जो वह कहे। जीवन का यही सही रास्ता है।” जिस दिन तुम पूरी तरह सहमत हो जाओगे और हार स्वीकार कर लोगे, उसी दिन तुम परमेश्वर के सामने आ सकोगे। क्या इससे तुम परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ समझ सके? लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है? परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, लेकिन वह लोगों का सर्वाधिक हित चाहता है। वह तुम्हारे लिए चाहे जिस परिस्थिति का निर्माण करे या वह तुमसे कुछ भी करने के लिए कहे, वह हमेशा सर्वोत्तम परिणाम देखना चाहता है। मान लो, तुम्हारे ऊपर कुछ बीतता है और तुम बाधाओं तथा विफलताओं का सामना करते हो। परमेश्वर यह नहीं देखना चाहता कि विफल होने पर तुम निराश हो जाओ और सोचो कि तुम समाप्त हो गए हो और तुम्हें शैतान ने झपट लिया है, और तुम हिम्मत हार जाओ, दोबारा कभी आत्मविश्वास से खड़े न हो पाओ, और गहरी निराशा में डूब जाओ—परमेश्वर यह परिणाम नहीं देखना चाहता। परमेश्वर क्या देखना चाहता है? वह देखना चाहता है कि इस मामले में तुम भले ही विफल हो गए हो पर तुम सत्य को तलाशने और आत्मचिंतन करने एवं अपनी विफलता का कारण पता करने में समर्थ हो, तुम इस विफलता से मिली सीख को स्वीकारते हो, भविष्य में इसे याद रखते हो, जानते हो कि इस तरह से कार्य करना गलत है और केवल परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना ही सही है, और महसूस करते हो कि “मैं बुरा व्यक्ति हूँ। मेरा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है। मुझमें विद्रोहीपन है। परमेश्वर जिन धार्मिक लोगों की बात करता है, मैं उनसे दूर हूँ, और मेरे अंदर परमेश्वर से डरने वाला हृदय नहीं है।” तुमने इस तथ्य को साफ-साफ देखा है; तुम इस मामले के सत्य को पहचान गए हो, और इस बाधा, इस विफलता के माध्यम से तुमने थोड़ी समझ हासिल की है और परिपक्व हो गए हो। परमेश्वर यही देखना चाहता है। परिपक्व होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि परमेश्वर तुम्हें ग्रहण कर सकता है, कि तुम्हें बचाया जा सकता है, कि तुम सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकते हो, और तुम बुराई को छोड़कर परमेश्वर का भय मानने के रास्ते पर चल पड़े हो। परमेश्वर लोगों को सही रास्ते पर चलते देखने की उम्मीद करता है। परमेश्वर ये चीजें संजीदा इरादों के साथ करता है, यह सब उसका छिपा हुआ प्रेम होता है, पर लोग अक्सर इसे समझ नहीं पाते। लोग संकीर्ण मानसिकता वाले और अत्यंत तुच्छ होते हैं। जब भी उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद नहीं मिलता, वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं, नकारात्मक हो जाते हैं, और गुस्से में काम करते हैं, पर परमेश्वर इसकी गाँठ नहीं बाँधता। वह उनसे ऐसे पेश आता है जैसे वे नादान बच्चे हों, और उनके दोष नहीं गिनवाता। वह ऐसी परिस्थितियां निर्मित करता है जिनमें उन्हें पता चल जाता है कि अनुग्रह और आशीष कैसे प्राप्त किए जाते हैं, और उन्हें समझने देता है कि मनुष्य के लिए अनुग्रह का क्या अर्थ है, और मनुष्य उससे क्या प्राप्त कर सकता है। मान लो, तुम्हें कोई ऐसी चीज खाना पसंद है जिसे परमेश्वर कहता है कि अधिक मात्रा में खाना तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए बुरा है। तुम नहीं सुनते, और उसी चीज को खाने पर अड़े रहते हो, और परमेश्वर तुम्हें मुक्त रूप से ऐसा करने देता है। नतीजतन, तुम बीमार हो जाते हो। कई बार ऐसा अनुभव करने के बाद तुम्हें बोध होता है कि परमेश्वर जो बात कहता है वही वास्तव में सही है, कि वह जो कुछ कहता है वही सत्य है, कि तुम्हें उसके वचनों के अनुसार ही अभ्यास करना चाहिए और यही सही पथ है। तो, तुम जिन बाधाओं, अफलताओं और कष्ट का तुम अनुभव करते हो, उनसे क्या मिलता हैं? एक बात तो यह है कि तुम्हें परमेश्वर के संजीदा इरादों का भान हो जाता है। दूसरे कि यह तुम्हें विश्वास दिलाता है और पक्के तौर पर महसूस करवाता है कि परमेश्वर के वचन सही हैं और वे सभी व्यावहारिक हैं, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ जाती है। इसके अलावा, विफलता की इस अवधि का अनुभव करके तुम परमेश्वर के वचनों की सत्यता और सटीकता को पहचानने लगते हो, तुम देखते हो कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, और तुम सत्य का अभ्यास करने का सिद्धांत समझने लगते हो। इसलिए, विफलता का अनुभव करना तुम्हारे लिए अच्छा—यद्यपि यह कुछ ऐसा भी है जो तुम्हें पीड़ा पहुंचाता है, और तुम्हें संयमित करता है। किंतु यदि इस प्रकार संयमित होना अंततः तुम्हें परमेश्वर के समक्ष वापस लाता हो, तुम्हें उसके वचनों को समझा देता हो और उन्हें तुम्हारे हृदय में सत्य के रूप में स्वीकार करवा देता हो, और तुम्हें परमेश्वर को जान लेने देता हो, तो संयमित होने, बाधाएं और विफलताएँ सहने का तुम्हारा अनुभव व्यर्थ नहीं होगा। परमेश्वर यही परिणाम देखना चाहता है। किंतु, कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर लोगों के प्रति बहुत सहिष्णु है, इसलिए मैं तो बस अपने मन की करूंगा, जो मुझे अच्छा लगेगा वही करूँगा, और जैसे चाहूँगा वैसे जिऊँगा।” क्या यह ठीक है? (नहीं, यह ठीक नहीं है।) सृजित प्राणियों को जो करना चाहिए वह यह है कि वे उस सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करें जिसकी ओर परमेश्वर ने संकेत किया है, और उससे विचलित न हों। यदि वे पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बनने में असमर्थ हों, तब भी ठीक है, बशर्ते वे सत्य का उल्लंघन न करें, और परमेश्वर की जांच को स्वीकार सकते हों। यह न्यूनतम मानक है। यदि तुम सत्य से भटक गए हो, प्रार्थना नहीं करते, और खोज नहीं करते, तो तुम परमेश्वर से बहुत दूर भटक गए हो, और खतरनाक क्षेत्र की सीमा में प्रवेश कर चुके हो। जब तुम परमेश्वर से बहुत दूर हो जाओगे, कलीसिया में अपना कर्तव्य नहीं निभाओगे, और पहले ही वह स्थान छोड़ चुके होगे जहां परमेश्वर लोगों को बचाने का काम करता है, तो पवित्र आत्मा तुम पर काम करना बंद कर देगी, और तुम्हारे पास बताने लायक कोई मौका, और कोई उद्धार नहीं होगा। तुम्हारे लिए, परमेश्वर का प्रेम खोखले शब्द भर हैं।

परमेश्वर में विश्वास करते समय सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर को, उसके इरादों को और मनुष्य के प्रति उसके रवैये को समझना चाहिए। ऐसा करने से तुमको पता चल जाएगा कि परमेश्वर अंततः तुम्हें कौन सा सत्य समझाना और उसमें प्रवेश कराना चाहता है, और तुम समझ जाओगे कि तुम्हें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। तुम्हारे इन चीजों को जानने के बाद, परमेश्वर जो करना चाहता है, और तुममें जो हासिल करना चाहता है, तुम्हें उसमें सहयोग करने के लिए अपना अधिकतम प्रयास करना चाहिए। यदि तुम वास्तव में सहयोग नहीं कर सकते और तुम्हारी ऊर्जा और शक्ति समाप्त हो गई है, तो क्या ही कर सकते हैं; परमेश्वर लोगों पर दबाव नहीं डालेगा। परंतु, अब लोग अपनी सारी ताकत इन चीजों में नहीं लगाते। यदि तुम सत्य का अभ्यास करने में अपनी पूरी शक्ति नहीं लगाते, बल्कि अपनी पूरी ताकत आशीष और धार्मिकता का मुकुट पाने में लगाते हो, तो तुम सही रास्ते से भटक गए हो। तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के दिए मकसदों और कर्तव्यों में सहयोग करने का प्रयास करना चाहिए; तुम्हें खुद को समर्पित करना चाहिए और अपने पूरे दिल से इन चीजों के लिए खुद को खपाना चाहिए। ऐसा करने पर तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बन सकोगे। परमेश्वर उन लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता है जो अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं करते, लेकिन उन पर ध्यान न देने का मतलब यह नहीं है कि उसके कार्यों के पीछे कोई सिद्धांत नहीं हैं। जब परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देता, तो इससे पता चलता है कि वह सहनशील, स्वीकार करने वाला और धैर्यवान है। उसे पता है कि लोगों को अपने जीवन में किन चीजों का अनुभव करना चाहिए, ये सृजित प्राणी क्या हासिल करने में सक्षम हैं और वे क्या हासिल नहीं कर सकते हैं, खास तरह के लोग किसी निश्चित उम्र में क्या हासिल कर सकते हैं और क्या नहीं। इन चीजों के बारे में परमेश्वर लोगों की तुलना में कहीं अधिक और एकदम स्पष्ट जानकारी रखता है। परंतु, इन चीजों के बारे में परमेश्वर को स्पष्ट जानकारी होने भर का मतलब यह नहीं है कि तुम कहो, “फिर, ठीक है, परमेश्वर! तुम जैसा चाहो, वैसा करो। मुझे किसी भी चीज के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है। मैं पूरे दिन बैठकर स्वर्ग से अमृत वर्षा होने का इंतजार करता रह सकता हूँ। यही ठीक है कि सब कुछ परमेश्वर ही सँभाले।” लोगों को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते समय, जो चीजें उन्हें करनी चाहिए उनके मामले में, जिन चीजों में उन्हें प्रवेश करना चाहिए, जिन चीजों का उन्हें अभ्यास करना चाहिए, और जिन चीजों को हासिल करना उनकी जन्मजात क्षमता के दायरे में है उनमें सहयोग के लिए अपना अधिकतम का प्रयास करना चाहिए। सहयोग के लिए अधिकतम प्रयास करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुमको अपने कर्तव्य में समय और ऊर्जा लगानी चाहिए, इसके लिए कष्ट सहना चाहिए और कीमत चुकानी चाहिए। कभी-कभी, तुम्हारे गौरव, अभिमान और स्वार्थ को नुकसान उठाना होगा, और तुम्हें एक मंजिल पाने की अपनी लालसा, और आशीष पाने की अपनी इच्छा को पूरी तरह से त्याग देना होगा। इन चीजों को त्याग दिया जाना चाहिए, तो तुम्हें इन्हें त्याग देना होगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है, “दैहिक सुखों की लालसा मत करो, क्योंकि यह तुम्हारे जीवन की प्रगति के लिए लाभप्रद नहीं है।” तुम उसके प्रति समर्पण करने में असमर्थ हो, और कई असफलताओं का अनुभव करने के बाद सोचते हो, “परमेश्वर सही कहता है। मैं इसका अभ्यास क्यों नहीं कर पाता, और दैहिक इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह क्यों नहीं कर पाता? क्या मैं बदलने में अक्षम हूँ? क्या परमेश्वर भी मुझे ऐसा ही समझता है? क्या वह मुझे नहीं बचाएगा? मेरा कुछ नहीं हो सकता, इसलिए मैं सिर्फ श्रमिक बना रहूँगा, और अंत तक श्रम ही करता रहूँगा।” क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं, यह स्वीकार्य नहीं है।) लोग अक्सर ऐसी अवस्था में होते हैं। वे या तो केवल आशीष और मुकुट पाना चाहते हैं या फिर—असफलता की कुछ घटनाओं का अनुभव करने के बाद—सोचते हैं कि वे उस काम के लायक नहीं हैं, और कि परमेश्वर ने उनके बारे में निर्णय कर दिया है। यह गलत है। अगर तुम समय रहते बदल सकते हो, अपना दिल और दिमाग बदल सकते हो, अपने हाथों हुई बुराई को छोड़ सकते हो, परमेश्वर के सामने लौट सकते हो, अपने पाप स्वीकार सकते हो और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर सकते हो, यह स्वीकार सकते हो कि तुम्हारे कार्य और वह मार्ग, जिस पर तुम चलते हो, गलत हैं, और अपनी विफलताएँ स्वीकार सकते हो, फिर परमेश्वर के बताए मार्ग के अनुसार अभ्यास कर सकते हो, और कितना ही दागी होने पर भी बिना हार मामने सत्य का अनुसरण कर सकते हो, तो तुम सही काम कर रहे हो। अपने स्वभाव में बदलावों का अनुभव करने और बचाए जाने के क्रम में लोगों को कठिनाइयों का सामना अवश्य करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्थितियों के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होना, अपने विभिन्न प्रकार के विचार, मत, कल्पनाएँ, भ्रष्ट स्वभाव, ज्ञान और खूबियाँ, या फिर उनकी अपनी विभिन्न समस्याएँ और दोष शामिल हैं। तुम्हें हर तरह की मुश्किलों से जूझना होगा। एक बार इन असंख्य कठिनाइयों और अवस्थाओं पर काबू पा लेने पर, जब तुम्हारे दिल का संघर्ष समाप्त हो जाएगा, तो तुम्हें सत्य वास्तविकताएं प्राप्त हो जाएगी, तुम इन चीजों के बंधन में नहीं रह जाओगे, और इस तरह तुम मुक्त किए जा चुके होगे। इस प्रक्रिया के दौरान लोगों को अकसर एक समस्या का सामना करना पड़ता है, जो यह है कि अपने भीतर समस्याओं को खोज लेने से पहले, ठीक पौलुस की तरह सोचते हैं कि वे बाकी सबसे बेहतर हैं, और भले ही किसी और को न मिले, लेकिन उन्हें आशीष जरूर मिलेगा। जब वे अपनी कठिनाइयाँ जान लेते हैं, तो वे खुद को बेकार मानने लगते हैं और सोचते हैं कि उनके लिए सब खत्म हो चुका है। हमेशा दो चरम स्थितियाँ होती हैं। तुम्हें इन दोनों चरम स्थितियों से उबरना होगा, ताकि तुम किसी भी तरफ अचानक न झुको। जब तुम किसी कठिनाई का सामना करते हो, तो भले ही तुम्हें पहले से पता हो कि यह समस्या बेहद कठिन है, और इसे हल करना कठिन होगा, फिर भी तुम्हें इसका ठीक से सामना करना चाहिए, और परमेश्वर के सामने आकर उस समस्या के हल के लिए उसकी मदद माँगनी चाहिए, और सत्य की खोज करके इसे थोड़ा-थोड़ा कुतरना चाहिए जैसे चींटियाँ किसी हड्डी को कुतरती हैं, और इस स्थिति को उलट देना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना चाहिए। पश्चात्ताप इस बात का प्रमाण होता है कि तुम्हारे पास सत्य को स्वीकार करने वाला हृदय और समर्पण करने वाला रवैया है, जिसका अर्थ है कि अभी भी आशा है कि तुम सत्य को हासिल कर सकोगे। और अगर इस बीच अन्य कोई कठिनाई आए, तो डरो मत। तुरंत परमेश्वर की प्रार्थना करो और उसके सहारे हो जाओ; परमेश्वर चुपके-चुपके तुम्हें देख रहा होता है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होता है, और जब तक तुम उसके प्रबंधन-कार्य की व्यवस्था, धारा और दायरे से दूर नहीं जाते, तब तक तुम्हारे लिए उम्मीद है—तुम्हें बिलकुल हार नहीं माननी चाहिए। अगर तुम जो दिखाते हो वह सामान्य भ्रष्ट स्वभाव है, तो जब तक तुम इसे समझ सकते हो और सत्य को स्वीकारते हो, और सत्य का अभ्यास करते हो, तब तक भरोसा रखो कि एक दिन आएगा जब ये समस्याएँ हल हो जाएँगी। तुम्हारी इस पर आस्था होनी चाहिए। परमेश्वर सत्य है—तुम्हें यह डर क्यों लगना चाहिए कि तुम्हारी यह छोटी-सी समस्या हल नहीं हो सकती? यह सब हल हो सकता है, तो तुम्हें नकारात्मक क्यों होना? परमेश्वर ने तुम पर ध्यान देना बंद नहीं किया है, तो तुम क्यों हिम्मत हारते हो? तुम्हें हार नहीं माननी चाहिए और नकारात्मक भी नहीं होना चाहिए। तुम्हें उचित तरीके से समस्या का सामना करना चाहिए। तुम्हें जीवन-प्रवेश के सामान्य नियमों का ज्ञान होना चाहिए, और भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों और अभिव्यक्ति के साथ-साथ कभी-कभार की नकारात्मकता, कमजोरी और भ्रम को सामान्य चीजों की तरह देखने में सक्षम होना चाहिए। किसी के स्वभाव में बदलाव की प्रक्रिया लंबी और दोहराव भरी होती है। जब तुम्हें यह बात स्पष्ट हो जाएगी तो तुम समस्याओं का उचित तरीके से सामना करने योग्य हो जाओगे। कभी-कभी तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बहुत बुरी तरह दिखता है, जिससे हर देखने वाले को नफरत होती है और तुम्हें अपने आप से घृणा होती है। या, कभी-कभी तुम बहुत बेपरवाह होते हो और परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करता है। यह किसी डर की वजह नहीं है। जब तक परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा है, जब तक वह तुम्हारी देखभाल और सुरक्षा कर रहा है, तुम्हारे भीतर काम कर रहा है, और हमेशा तुम्हारे साथ है, तो इससे साबित होता है कि परमेश्वर ने तुम पर ध्यान देना बंद नहीं किया है। यहाँ तक कि ऐसे क्षणों में भी, जिनमें तुम्हें लगे कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है और तुम अँधेरे में घिर गए हो, तो तुम डरो मत : जब तक तुम जीवित हो और जब तक तुम नरक में नहीं हो, तो तुम्हारे लिए एक मौका है। हालाँकि, अगर तुम पौलुस की तरह हो, जो अड़ियल बनकर मसीह विरोधी रास्ते पर चला, और जिसने अंततः यह गवाही दी कि जीवित रहना उसके लिए मसीह होना है, तो तुम्हारे लिए सब-कुछ समाप्त हो गया है। अगर तुम समझ सको, तो तुम्हारे पास अभी भी एक मौका है। तुम्हारे पास क्या मौका है? यह कि तुम परमेश्वर के सामने आ सकते हो, और तुम अभी भी उससे प्रार्थना कर सकते हो और यह कहते हुए सत्य खोज सकते हो, “हे परमेश्वर! कृपया मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं सत्य के इस पहलू को, और अभ्यास के इस मार्ग को समझ सकूँ।” अगर तुम परमेश्वर के अनुयायियों में से एक हो, तो तुम्हारे पास उद्धार की आशा है, और तुम अंततः इसमें सफल हो सकते हो। क्या ये शब्द पर्याप्त स्पष्ट हैं? क्या अभी भी तुम लोगों में नकारात्मक होने की संभावना है? (नहीं।) जब लोग परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, तो उनका मार्ग व्यापक हो जाता है। अगर वे उसके इरादों को नहीं समझते, तो वह संकीर्ण हो जाता है, उनके हृदयों में अँधेरा छा जाता है, और उनके पास चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे ऐसे होते हैं : वे संकीर्ण मानसिकता के होते हैं, वे हमेशा मीन-मेख निकालते हैं, और वे हमेशा परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हैं और उसे गलत समझते हैं। नतीजतन, जितना वे आगे चलते हैं, उतना ही उनका मार्ग लुप्त होता जाता है। वस्तुतः लोग परमेश्वर को नहीं समझते। अगर परमेश्वर लोगों के साथ उनकी कल्पना के अनुसार व्यवहार करता, तो मानवजाति बहुत पहले ही नष्ट हो गई होती।

पौलुस के सात पाप भ्रष्ट मानवता के सामान्य प्रकाशनों को दर्शाते हैं, लेकिन पौलुस का मामला सबसे गंभीर था। उसका प्रकृति सार पहले से ही निर्धारित था—वह वैसा ही व्यक्ति था। परंतु, ये भ्रष्ट स्वभाव सभी भ्रष्ट मनुष्यों में आम हैं; प्रत्येक व्यक्ति में ये अलग-अलग सीमा तक होते हैं। ये सभी दशाएँ भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं। यद्यपि तुम उसी प्रकार के व्यक्ति नहीं हो जैसा पौलुस था, पर तुममें भी ये भ्रष्ट स्वभाव हैं; बस, तुम उन्हें उतनी तीव्रता से प्रकट नहीं करते जितना उसने किया था। वर्तमान में, तुममें से अधिकांश लोगों की इस प्रकार की दशाओं को परमेश्वर भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों के रूप में देखता है। परंतु, पौलुस ने सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव नहीं दिखाया था; वह परमेश्वर का प्रतिरोध करने के मार्ग पर था, और उसने हठपूर्वक पश्चात्ताप करने से इनकार कर दिया था। उसे सजा सुनाई गई और दण्डित किया गया। उसमें दानवी प्रकृति थी, और सत्य से घृणा करने वाली उसकी इस दानवी प्रकृति का कुछ नहीं किया जा सकता था। इसके बाद, तुम लोगों को इस प्रवचन पर संगति करनी चाहिए, और अपनी तुलना इससे करनी चाहिए। इसका लक्ष्य पौलुस द्वारा की गई गलतियों की गंभीरता को पहचानना और उसके बाद तुम्हारे भीतर मौजूद पौलुस जैसी सभी भ्रष्ट दशाओं को उजागर करना, और उन्हें कदम-दर-कदम ठीक करना है। इन भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करने का उद्देश्य लोगों को अधिक से अधिक मनुष्य जैसा जीवन जीने और परमेश्वर के साथ अनुकूलता बढ़ाने में सक्षम बनाना है। केवल इन भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करके ही लोग वास्तव में परमेश्वर के सामने आ सकते हैं, उसके अनुकूल हो सकते हैं, सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हैं, और परमेश्वर को अपने आप से संतुष्ट कर सकते हैं। क्या तुम लोग अपनी तुलना करते हो? (इस संबंध में हममें थोड़ी कमी है।) जिस चीज की तुम लोगों में सबसे ज्यादा कमी है, वह है सत्य। सत्य वह चीज है जिसमें तुम्हें प्रवेश करना चाहिए। अब तुम लोगों के अंदर बहुत सी चीजें हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर चीजें भ्रष्ट और बुरी हैं। तुम लोगों के पास कुछ बेतुका सा ज्ञान है, तुम बहुत छोटे हो, हमेशा लेन-देन और व्यापार करने के बारे में सोचते हो, तुम्हारे पास नकारात्मक चीजों की अधिकता है, और जब तुम कोई कार्य अच्छी तरह से नहीं करते या कोई कठिनाई महसूस करते हो तो नकारात्मक हो जाते हो। जब तुम देखते हो कि परमेश्वर का कार्य तुम्हारी इच्छाओं के अनुरूप नहीं है, तो तुम्हारे अंदर नकारात्मक भावनाएँ जाग उठती हैं, और तुम उसके कार्य का विरोध करते हो और उससे लड़ते हो। जब तुम अपने काम में कोई छोटा सा भी परिणाम हासिल कर लेते हो, तो वह तुम्हारे दिमाग पर चढ़ जाता है और तुम खुद को भूल जाते हो। तुम अहंकारी हो जाते हैं और ब्रह्मांड में अपनी जगह भूल जाते हो, सोचते हो कि तुम बाकी सब से ऊपर हो, और चाहते हो कि परमेश्वर इसके बदले तुम्हें मुकुट और पुरस्कार दे; तुम सबके सामने बेलगाम होने का साहस भी करते हो। संक्षेप में, ये दशाएँ पौलुस की दशाओं के अनुरूप हैं—वे उसी जैसी हैं, और परमेश्वर उनसे घृणा करता है।

हमने पौलुस के सात प्रमुख पापों को सारांशित और परिभाषित कर लिया है। पौलुस अंततः सजा का पात्र बन गया था। जब परमेश्वर ने पौलुस के परिणाम का निर्णय लिया, तो क्या उसने इसका आधार केवल उसके किसी एक पाप को बनाया था? (नहीं।) सारे पापों को एक साथ देखते हुए उसने निर्णय लिया था कि यही वह अंत है जो उसका होना चाहिए; उसका अंत इसी तरह होना चाहिए था। ये तथ्य तुम्हारे सामने हैं; तुम उनसे इनकार नहीं कर सकते। यदि तुममें से कुछ लोग ऐसे हैं जो शुरू से अंत तक पौलुस की राह पर चलते हैं, पौलुस के सभी सात पापों को अभिव्यक्त करते हैं, और उनके समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं कर सकते, तो अंततः तुम्हारा परिणाम कैसा होगा? (ठीक पौलुस जैसा।) तुम पौलुस की तरह एक मसीह-विरोधी दानव बन जाओगे और दंडित किए जाओगे। जब तुम दंडित किए जाओ, तो परमेश्वर पर अधर्मी होने का आरोप मत लगाना। इसके बजाय, तुम्हें परमेश्वर की धार्मिकता की प्रशंसा करनी चाहिए, और कहना चाहिए, “परमेश्वर धार्मिक है! परमेश्वर ने पौलुस के सात पापों को उजागर किया, और उसके वचनों ने उन्हें समझाया। यह मैं ही था जिसने उसके वचनों में प्रवेश नहीं किया!” अब चीजें दो हज़ार साल पहले की तुलना में भिन्न हैं; परमेश्वर लोगों को हर सत्य के बारे में स्पष्ट और पारदर्शी तरीके से बताता है, और तुम्हारे लिए यह लिखा गया है, ताकि तुम इसे सुन और समझ सको, और यह भी देख सको कि वास्तविक जीवन में परमेश्वर किस तरह काम करता है और कैसे चीजों को हासिल करता है। यदि तुम अभी भी सत्य में प्रवेश करने में असमर्थ हो, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक नहीं कर सकते, तो परमेश्वर को उसके धार्मिक स्वभाव के अनुसार तुम्हें दंडित करने के लिए दोष न दो। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में परमेश्वर ने कहा, “हर एक के काम के अनुसार बदला देने के लिये प्रतिफल मेरे पास है” (प्रकाशितवाक्य 22:12)। परमेश्वर लोगों को उनके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देता है। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। जिन लोगों का परमेश्वर में विश्वास है, उन्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में, और परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए पौलुस के सात पापों के प्रकाश में आत्मचिंतन करना और समझना चाहिए, और सच्चा पश्चात्ताप हासिल करना चाहिए। परमेश्वर इसी को स्वीकृति देता है।

14 जून 2018

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