केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है

संपूर्ण मानवजाति के भाग्य और सृष्टि की हर वस्तु पर परमेश्वर की प्रभुसत्ता है। लोग परमेश्वर की इस संप्रभुता के क्या तथ्य देखते हैं? यह कि दुनिया कितनी ही बड़ी और सृष्टि कितनी ही विराट क्यों न हो, विराटतम से लेकर लघुतम तक परमेश्वर हर वस्तु पर राज करता है और सभी चीजों का आयोजन करता है। मनुष्य की इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं, मांगें कुछ भी क्यों न हों, या वह जहां परमेश्वर खड़ा है, उससे किसी भी दिशा में विकसित क्यों न होना चाहता हो, परमेश्वर की संप्रभुता और उसके आयोजनों पर इन चीजों का जरा भी असर नहीं पड़ता। वह कौनसा सिद्धांत है जिसके अनुसार परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और उनका आयोजन करता है? यह किस बात पर आधारित है? यह सब करने के पीछे परमेश्वर का क्या लक्ष्य है? यह किस बात पर केंद्रित है? (यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना पर केंद्रित है।) यह सही जवाब है; परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसके केंद्र में उसकी प्रबंधन योजना होती है। ये शब्द थोड़े भ्रमित करने वाले हैं, पर इनका बहुत गहरा अर्थ है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर द्वारा किया गया समूचा कार्य मनुष्य की इच्छाओं से जरा-भी प्रभावित नहीं होता। परमेश्वर की संप्रभुता और उसके आयोजन; जिस तरह से वह देशों, लोगों, जातीय समूहों या किसी युग में जिस तरह की घटनाओं की व्यवस्था करता है, वे मनुष्य की इच्छाओं से प्रभावित नहीं होतीं। परमेश्वर समय, काल, भूगोल या लोगों की सीमाओं में बंधा हुआ नहीं है। वह जो कुछ भी करता है वह पूरी तरह से उसकी योजना के अनुसार होता है, और कोई भी मनुष्य इसमें कोई रुकावट या व्यवधान नहीं डाल सकता। चाहे तुम्हारी इच्छा हो या न हो, चाहे मानवजाति या किसी जातीय समूह की कुछ भी व्यक्तिपरक इच्छाएं हों, कोई भी मनुष्य या चीज परमेश्वर द्वारा लिए गए फैसले को बाधित, ध्वस्त या प्रभावित करने में सक्षम नहीं है। तुमने इस सबसे क्या सीखा? (हमने परमेश्वर के अधिकार के बारे में जाना।) यह परमेश्वर का अधिकार है। परमेश्वर ने जब पहले-पहल मनुष्यों का सृजन किया, तब से लेकर चरण-दर-चरण उनके विकास तक, मानवजाति में परमेश्वर के चुने हुए लोग, अन्यजातियों के लोग, और वे लोग भी जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही भावना रखते हैं, रहे हैं। परमेश्वर इन सभी तरह के लोगों को मनुष्य के रूप में देखता है, पर क्या इनके प्रति परमेश्वर के व्यवहार में कोई अंतर है? क्या परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों का किसी खास तरह से नेतृत्व करता है? (हां, करता है।) परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों के साथ दूसरों की तुलना में अलग व्यवहार करता है। पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों में भी कुछ उसका अनुसरण और आज्ञापालन करने में सक्षम होते हैं, जबकि कुछ अवज्ञाकारी होते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं। तो परमेश्वर उनके साथ कैसा व्यवहार करता है? परमेश्वर अपने प्रति उनके नजरिए को कैसे देखता है? (परमेश्वर आज्ञाकारी लोगों से प्रेम करता है और उनके प्रति दयालु होता है, पर जब लोग उसकी अवज्ञा करते हैं या उसका प्रतिरोध करते हैं, तो वह उन पर अपने धार्मिक स्वभाव का प्रकोप बरसाता है।) यह बिल्कुल सही है। चाहे तुम खुद को परमेश्वर के चुने हुए लोगों में या उसका अनुसरण करने वालों में समझो, या चाहे तुमने परमेश्वर के घर के काम में किसी तरह का कोई योगदान दिया हो, परमेश्वर जिस मुकाम पर है, वहां से वह ये सब सतही चीजें नहीं देखता। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है और लोगों के साथ अपने व्यवहार में वह सिद्धांतवादी है। जिनके न्याय की जरूरत होती है उनका न्याय किया जाता है; जिन्हें दंडित करने की जरूरत होती है उन्हें दंडित किया जाता है, जिन्हें नष्ट करने की जरूरत होती है उन्हें नष्ट किया जाता है। उदाहरण के लिए, तुम लोगों को इस तथ्य में कौनसी बात झकझोरती है कि यहूदियों को यहूदिया से बाहर धकेल दिया गया और प्रभु यीशु के राज्य के सुसमाचार को अन्यजातियों में फैलाया गया? लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, और यहूदी धर्म के अनुसार, सिर्फ यहूदी ही परमेश्वर के चुने हुए लोग हैं। वे परमेश्वर की अनमोल संतानें हैं, और ऐसे मनुष्य हैं जिनसे परमेश्वर का सबसे ज्यादा लगाव है; वे उसकी आंख के तारे हैं। लोगों के कथनों के अनुसार, यहूदी परमेश्वर की सबसे चहेती संतानें हैं, और अपने सबसे चहेते बच्चे से लाड़-प्यार करना चाहिए और उसकी रक्षा करनी चाहिए, और उसे किसी भी तरीके से चोट या हानि नहीं पहुंचनी देनी चाहिए। लोग सोचते हैं कि यहूदी चाहे कुछ भी मांगें, परमेश्वर उन्हें वह दे देगा और उन्हें उनकी मांग और कल्पना से बढ़चढ़कर देगा। पर क्या परमेश्वर ने ऐसा किया? (नहीं, ऐसा नहीं किया।) तो फिर परमेश्वर ने क्या किया? क्योंकि यहूदियों ने प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया था, परमेश्वर अत्यंत क्रोधित था और उसने रोम की सेना से यहूदिया पर चढ़ाई करवा कर यहूदियों को उनके घर से बाहर खदेड़ दिया। यह नरसंहार और आगजनी का भयंकर मंजर था; अनगिनत लोग मारे गए और खून की नदियां बहने लगीं। सिर्फ दूसरे देशों में भागकर ही बहुत-से यहूदी अपनी जान बचा सके। इन तथ्यों से, तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव में क्या सार देखते हो? (परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अपराध बर्दाश्त नहीं करता।) हम परमेश्वर के स्वभाव की बात से शुरुआत नहीं करते, चलो हम पहले लोगों को एक उदाहरण के रूप में देखते हैं। वास्तविक जीवन में, अगर कोई अपने बच्चे से बेहद प्यार करता है और अपना सब कुछ उसे विरासत में सौंपना चाहता है तो माता-पिता क्या करेंगे? एक तरफ तो वे उसके साथ सख्ती बरतेंगे, ताकि वह बड़ा होकर उनकी जगह लेने के योग्य बन सके, और दूसरी तरफ यह सबसे महत्वपूर्ण है कि वे उसकी रक्षा करेंगे और उसे किसी तरह की हानि या खतरे से दूर रखेंगे। इसका उद्देश्य यह है कि बच्चा सही-सलामत रहे और अपने माता-पिता की हर चीज का वारिस बन सके। लोगों को यह सब करने के लिए कौनसी चीज प्रेरित करती है? क्या लोग जिन बच्चों से प्यार नहीं करते या जो उनके लिए अजनबी हैं, उनके साथ भी यही व्यवहार करते हैं? क्या उनका रवैया यही होता है? (नहीं, ऐसा नहीं होता।) यह बिल्कुल जाहिर है कि लोग अपने चहेते बच्चे के लिए जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह से स्वार्थ, भावना और निजी इच्छा से प्रेरित होता है; और ये चीजें मनुष्य की प्रकृति के सार का हिस्सा हैं। क्या लोगों की भावनाओं और स्वार्थ में सत्य होता है? क्या इसमें निष्पक्षता होती है? (नहीं, नहीं होती।) मानवजाति इसी तरह खुद को अभिव्यक्त करती है। पर परमेश्वर द्वारा की गई चीजों को देखो—परमेश्वर चाहता था कि उसके चुने हुए लोग, यहूदी, यहूदिया से दुनिया भर की अन्यजातियों में सुसमाचार फैलाएं, एशिया, यूरोप, अफ्रीका और अमेरिका में। तो वे यह किस तरह फैलाते? परमेश्वर ने एक तरीका इस्तेमाल किया और विदेशी हमलावरों ने यहूदियों की भूमि पर चढ़ाई करके उस पर कब्जा कर लिया और वहां रहने वाले यहूदियों को बाहर खदेड़ दिया। उद्धारकर्ता यीशु का सुसमाचार फैलाने वाले यहूदी अपना घरेलू प्रदेश खो बैठे और वहां कभी लौट नहीं पाए। फिर पृथ्वी के विभिन्न कोनों में जा बसे यहूदी उद्धारकर्ता यीशु का सुसमाचार फैलाने लगे और धीरे-धीरे यह दुनिया के हर देश और पृथ्वी के हर कोने में पहुंच गया। इससे एक तथ्य प्रमाणित होता है : परमेश्वर का कार्य अत्यंत व्यावहारिक है। यह मुख्य तौर पर कहां झलकता है? इस तथ्य में कि परमेश्वर ने एक अत्यंत विशिष्ट और अनूठे तरीके का इस्तेमाल करके इस्राइलियों को बाहर खदेड़कर इन सभी अलग-अलग देशों में भेजा और प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रसार करवाया। अगर वह यह फैसला इस्राइलियों पर छोड़ देता कि वे सभी देशों में फैलकर सुसमाचार का प्रचार करें और परमेश्वर की गवाही दें, तो वे अपने परिवारों और पैतृक भूमि को छोड़ने के लिए अपने मन को तैयार न कर पते। यह कुछ इस तरह हुआ मानो परमेश्वर ने उन्हें इच्छित रास्ते पर लाने के लिए ठोकर लगाई हो, ताकि वे आगे जा सकें और प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार कर सकें। स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाने के लिए परमेश्वर को यह कीमत चुकानी पड़ी; उसे अपने चुने हुए लोगों को युद्ध, नरसंहार और निष्कासन से गुजारना पड़ा। यहूदियों को बेघर होकर पृथ्वी पर भटकने के लिए बाध्य होना पड़ा, और वे हर देश में सुसमाचार फैलाते चले गए। मनुष्य की नजर में, ये तरीके बहुत ज्यादा निष्ठुर हैं, पर क्या परमेश्वर के सार को “निष्ठुर” कहा जा सकता है? जाहिर है कि नहीं, क्योंकि यह निष्ठुर नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के स्वभाव और सार में कोई स्वार्थ या भावुकता नहीं है; उसने यह सब समूची मानवजाति की प्रगति के लिए किया, ताकि मानवजाति की प्रगति का अगला कदम सफल हो सके, और वह परमेश्वर की प्रबंधन योजना से पूरी तरह मेल खाते हुए फलीभूत हो सके। इसलिए, परमेश्वर के लिए ऐसा करना अनिवार्य था; कोई दूसरा तरीका नहीं था। परमेश्वर के कार्य के चरण पहले ही उस बिंदु तक पहुँच चुके थे, और उसके कृत्यों के तेजी से और अच्छे परिणाम सामने आए थे, इसलिए वे पूरी तरह से उपयुक्त थे। परमेश्वर के सार को देखते हुए, सिर्फ परमेश्वर ही ऐसा कर सकता था, कोई भी दूसरा देश या नस्ल नहीं। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है। यहूदियों के प्रति परमेश्वर के रवैये को देखते हुए, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को आज कुछ प्रबुद्धता मिल सकती है। परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की, उसके प्रति परमेश्वर के मन में प्रेम, लगाव, दया, और ममता भरी करुणा है, पर जब परमेश्वर लोगों को कोई मिशन सौंपता है, तो परमेश्वर की नजरों में ये लोग क्या होते हैं? क्या तुम लोग अर्थ के इस स्तर को समझ सकते हो? कुछ लोग कहते हैं, “इस परिपेक्ष्य से तो परमेश्वर की नजरों में मनुष्य का कोई मूल्य ही नहीं है। वे मोहरे मात्र हैं। तुम वहीं जाते हो जहां वह कहता है और वही करते हो जो वह कहता है।” क्या ये बातें सही हैं? ये बातें सही नहीं हैं। सतही तौर पर भले ही ऐसा लगता हो, पर असल में ऐसा नहीं है। मनुष्य के शब्दों का इस्तेमाल करें तो, जब परमेश्वर कुछ करता है तो वह सिर्फ उतने भर के बारे में नहीं सोचता। उसमें मनुष्य की परंपरागत सोच या धारणाएं नहीं हैं, और वह किसी भी चीज से सीमित नहीं है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह मुक्तिदायक, स्वतंत्र करने वाला, सार्वजनिक, पारदर्शी और सत्यनिष्ठ होता है। एक तरफ, वह अपनी प्रबंधन योजना के अनुसार चलता है, ताकि सब कुछ सामान्य ढंग से प्रगति कर सके; तो दूसरी तरफ, वह इस बात का भी ध्यान रखता है कि भविष्य में लोग उसकी प्रबंधन योजना के अनुसार परमेश्वर के हाथों में सामान्य ढंग से प्रगति कर सकें और आगे बढ़ सकें। मनुष्य की प्रगति बहुत ही घनिष्ठता से उसकी प्रबंधन योजना से बँधी हुई है। अगर परमेश्वर ऐसा नहीं करे, कोई कदम उठाने के लिए अपनी चहेती चीज के त्याग का दुख बर्दाश्त करना, तो मनुष्य के लिए जरा-सी भी प्रगति करना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि परमेश्वर द्वारा किए गए हर चुनाव में, उसके हर कदम में, और उसकी प्रबंधन योजना की हर चीज में उसकी अपार शक्ति, उसका अधिकार और उसकी बुद्धिमत्ता झलकती है। परमेश्वर द्वारा की गई हमेशा कुछ ऐसी चीजें होती हैं, जिन्हें लोग समझ नहीं पाते। वे क्यों नहीं समझ पाते? क्योंकि लोगों में धारणाएं होती हैं। इनमें से कुछ धारणाएं कल्पनाएं होती हैं, कुछ मनुष्य की पारंपरिक संस्कृति और सोच से प्रेरित होती हैं, और कुछ मनुष्य की स्वार्थी इच्छाओं और आकलनों से प्रेरित होती हैं। ये चीजें परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ और परमेश्वर के बारे में उसके विचारों को प्रभावित करती हैं।

यहूदियों को यहूदिया से बाहर खदेड़े जाने को लेकर तुम लोग किस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हो? (कि परमेश्वर का हृदय मनुष्यों की तरह स्वार्थी नहीं है। परमेश्वर सब कुछ सही और समूची मानवजाति की प्रगति के लिए करता है।) अगर ऐसी घटना तुम लोगों के साथ हुई होती, और तुम्हारे घर पर मारकाट, खून-खराबे, तबाही और मृत्यु की छाया मंडरा रही होती, तुम्हारा परिवार तहस-नहस हो गया होता, तो तुम लोग इसे क्या समझते? (हमारी मानवता और शैतान द्वारा हमें भ्रष्ट किए जाने की सीमा को देखते हुए, हम बहुत-सी गलतफहमियों, रोष और गलत व्याख्याओं के शिकार हो सकते हैं। पर अब परमेश्वर की संगति के माध्यम से हमें यह एहसास है कि परमेश्वर जो भी करता है उसके पीछे एक अर्थ और परमेश्वर की इच्छा होती है। हमें चाहे कितने ही कष्ट भोगने पड़ें, हमें परमेश्वर के सभी आयोजनों के आगे समर्पण करना चाहिए, और पूरे तन-मन से परमेश्वर के साथ सहयोग करना चाहिए, और अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य का प्रचार करना और उसकी गवाही देनी चाहिए।) इन तथ्यों को देखते हुए क्या मनुष्य के सामने कोई विकल्प है? मनुष्य को यह चुनाव करने का कोई अधिकार नहीं है कि परमेश्वर क्या करने का फैसला करे। यह बात सुनने के बाद, क्या लोग अब भी महसूस करते है कि परमेश्वर प्रेम है? वे निरुत्साहित होकर कहते हैं, “अगर इन तथ्यों को लेकर लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है, तो फिर परमेश्वर की प्रबंधन योजना में लोगों की आखिर क्या भूमिका है?” क्या तुम लोग जानते हो? (हम सृजित प्राणी हैं।) तुम सिर्फ सृजित प्राणी नहीं हो, तुम लोग एक विषम भूमिका निभाते हो। तुम परमेश्वर के न्याय और प्रताड़ना और इससे भी बढ़कर उसके उद्धार के पात्र हो। तुम लोगों की यही भूमिका है। एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारा क्या काम है? इसका संबंध व्यक्ति के अभ्यास और कर्तव्य से है। अगर तुम एक सृजित प्राणी हो, और अगर परमेश्वर ने तुम्हें गाने की भेंट दी है, और परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए गाने की व्यवस्था करता है, तो तुम्हें अच्छा गाना है। अगर तुम्हारे पास इंजीलवाद की भेंट है, और परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए बाहर जाकर सुसमाचार फैलाने की व्यवस्था करता है, तो तुम्हें बाहर जाकर सुसमाचार को अच्छी तरह फैलाना चाहिए। जब परमेश्वर के चुने हुए लोग तुम्हें अपना अगुआ चुनते हैं, तो तुम्हें अगुआ का कर्तव्य संभालना चाहिए और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की इस तरह अगुवाई करनी चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों को खाएं और पीएं, सत्य पर संगति करें, और वास्तविकता में प्रवेश करें। ऐसा करके तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओगे। परमेश्वर मनुष्य को जो कर्तव्य सौंपता है वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण होता है। तो तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए इस कर्तव्य को किस तरह संभालना चाहिए और अपना काम पूरा करना चाहिए? तुम्हारे सामने आने वाला यह एक बड़ा मुद्दा होता है, और तुम्हें चुनाव करना पड़ता है। शायद तुम कहोगे कि यह बड़ी विकट घड़ी होती है जो यह तय करती है कि क्या तुम सत्य को पा सकते हो और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हो। अगर तुम सिर्फ अपनी इच्छा पर निर्भर रहकर सभी तरह के गलत काम करते हो, तो तुम न सिर्फ परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य को नहीं निभाओगे, बल्कि परमेश्वर के घर के काम में भी विघ्न डालोगे। परिणामस्वरूप, तुम्हें पौलुस की तरह दंडित करना जरूरी होगा। जब परमेश्वर तुम्हें कुछ करने के लिए कहता है, तो फिर तुम्हारा काम क्या होता है? तुम्हारा काम अपने काम को अच्छी तरह से करना होता है, न कि उसे बिगाड़कर रख देना। ऐसा करके तुम एक अच्छी सेवा प्रदान करते हो। परमेश्वर तुम्हें चाहे कोई भी सेवा करने को कहे, तुम्हें उसे अच्छी तरह से और आज्ञाकारिता से करना चाहिए। अगर तुम ईमानदारी से कोई सेवा नहीं करते हो, और हमेशा निजी इरादे रखते हो, और हमेशा किसी राजा की तरह राज करना चाहते हो, तो तुम एक शैतान और एक मसीह-विरोधी हो, और तुम्हें दंडित किया जाना जरूरी है। कुछ लोग सत्य को समझते नहीं हैं या इसका अनुसरण नहीं करते हैं: वे सिर्फ अपने काम पर जोर लगाते हैं। तो एक सृजित प्राणी के रूप में उनकी भूमिका क्या है? सिर्फ काम और सेवा करना। तो कुल मिलाकर, वे सही-सही क्या कर्तव्य हैं जो परमेश्वर की नजरों में एक सृजित प्राणी को करने चाहिए और उसे किस तरह की मानवता के समान जीना चाहिए? इसका संबंध तुम लोगों के अभ्यास से है। मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, परमेश्वर सृजित प्राणियों से लगाव रखता है, उनकी परवाह, रक्षा और देखभाल करता है, और उन पर अपना अनुग्रह बरसाता है। फिर वह उन्हें अनुशासित करता है, उनकी काट-छांट और निपटारा करता है, अपने दिल में उनसे प्रेम करता है, और उन्हें अपने हाथों में थामता है। अंतत: परमेश्वर का एकचित्त लक्ष्य मनुष्यों को पूर्ण बनाना और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना और यह ध्यान रखना है कि पूर्ण किए जाने से पहले उनके साथ कुछ न हो। उनके अनुसार, परमेश्वर की नजरों में सृजित प्राणी ऐसे ही हैं। जब लोग इसका अनुभव करते है तो वे सोचते हैं, “परमेश्वर कितना प्यारा है! हमारा परमेश्वर कितना महान है! वह हमारे प्रेम का कितना अधिकारी है! परमेश्वर दयालु और स्नेही है! परमेश्वर अद्भुत है!” पर अगर तुम इसकी तुलना तथ्यों से करते हो, तो क्या परमेश्वर सिर्फ इन्हीं तरीकों से सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करता है? (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) तो फिर परमेश्वर लोगों से कैसा व्यवहार करता है? लोगों के साथ अपने व्यवहार को लेकर परमेश्वर के रवैये के बारे में लोगों की और क्या धारणाएं और कल्पनाएं हैं? क्या कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें लोग स्वीकार नहीं कर सकते? निस्संदेह, यह परमेश्वर का न्याय, प्रताड़ना, परीक्षण, परिशोधन, काट-छांट, अनुशासन, वंचना और निपटारा है। वे किस तरह के लोग होते हैं जो परमेश्वर के न्याय और प्रताड़ना को स्वीकार नहीं कर सकते? तुम कह सकते हो कि वे वही लोग होते है जो सत्य को स्वीकार नहीं करते, और तुम निश्चित ही कह सकते हो कि जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वे अविश्वासी होते हैं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के न्याय और प्रताड़ना को स्वीकार नहीं कर सकता, तो ऐसे लोग परमेश्वर के कार्य को भी स्वीकार नहीं कर सकते। इस समस्या की प्रकृति क्या है? यह कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और वे परमेश्वर के कार्य को ठुकराते हैं। ऐसे लोग सिर्फ तबाही और दंड का सामना करते हैं। तुम चाहे किसी भी किस्म के व्यक्ति हो, अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, पर सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने लगता है, तो परमेश्वर उन्हें उजागर करने के लिए चाहे उन्हें कैसे भी परिवेश में से गुजारे, तो उजागर होने की प्रक्रिया के दौरान क्या वे परमेश्वर के आशीषों, अनुग्रह, देखभाल और सुरक्षा को देख सकते हैं? (नहीं, वे नहीं देख सकते।) सतही तौर पर वे इसे नहीं देख सकते, पर परीक्षणों और परिशोधन से गुजरने के बाद क्या वे इसे देखने में सक्षम होंगे? वे निश्चित रूप से होंगे। तो ऐसे बहुत-से लोग हैं जो उसके न्याय और प्रताड़ना के अनुभव के बाद उसकी सुरक्षा और आशीषों को देख सकते हैं। पर जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे इन चीजों को बिल्कुल नहीं देख सकते। वे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहते हैं, और वे परमेश्वर के प्रति विरोध और विद्रोह से भरे होते हैं। ये ऐसे लोग होते है जो अविश्वासी, दुष्ट और मसीह-विरोधी होते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, वह जो नहीं किया जाना चाहिए उसका उदाहरण होता है। पौलुस ऐसा ही एक उदाहरण है। जब लोग पौलुस की तरफ देखते हैं तो उन्हें क्या दिखाई देता है? (कि पौलुस एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रहा था, और उसकी कहानी हमारे लिए एक चेतावनी है।) पौलुस ने सत्य का अनुसरण नहीं किया। उसने सिर्फ अपने दैहिक सुखों के भविष्य और गंतव्य के लिए परमेश्वर में विश्वास किया। वह सिर्फ फल और तख्त पाना चाहता था। परमेश्वर ने इतने सारे वचन कहे, उसे इतना अनुशासित, प्रबुद्ध और ज्ञानवान किया, पर फिर भी उसने परमेश्वर का आज्ञापालन या सत्य को स्वीकार नहीं किया। उसने हमेशा परमेश्वर की अवज्ञा की, उसका प्रतिरोध किया, और अंत में, वह एक मसीह-विरोधी बन गया और निंदा और दंड का भागी बना। पौलुस इस बात का उदाहरण है कि क्या नहीं करना चाहिए। पौलुस के उदाहरण की एक ठेठ मसीह-विरोधी के रूप में पड़ताल करके हम देख सकते हैं कि वह परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर था, और तबाही के रास्ते पर था। बहुत-से लोगों ने इससे सबक लिया है और लाभ उठाया है। वे सत्य के अनुसरण के रास्ते पर और एक विश्वासी के सही रास्ते पर आ गए हैं। जो लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और पौलुस के सबक से लाभ उठा चुके हैं, उनके लिए परमेश्वर की इच्छा क्या है? (उद्धार और प्रेम।) तो फिर परमेश्वर द्वारा पौलुस के खुलासे, न्याय, और निंदा से लोग परमेश्वर के स्वभाव के कौनसे पहलू को देख सकते हैं? (उसके धार्मिक स्वभाव को।) तो परमेश्वर की नजरों में, एक सृजित प्राणी के रूप में, पौलुस क्या बन गया था? वह एक सेवा की चीज बन गया था। सभी लोग सृजित प्राणी हैं, जो लाभ उठाते हैं और वे भी जो उजागर किए जाते हैं। लेकिन परमेश्वर इन दोनों तरह के लोगों के साथ बिल्कुल अलग व्यवहार करता है। वास्तव में, परमेश्वर की नजरों में ये दोनों तरह के लोग चींटियों और कीड़ों की तरह बेकार हैं, पर परमेश्वर दोनों के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। इन दोनों तरह के लोगों के प्रति परमेश्वर का अलग रवैया किस चीज पर आधारित है? (यह उनके द्वारा अपनाए गए रास्ते पर आधारित है।) यह इस बात पर आधारित है कि कोई व्यक्ति खुद को कैसे अभिव्यक्त करता है, उनके सार, सत्य के प्रति उनके रवैये और उनके द्वारा चुने गए रास्ते पर। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है मानो परमेश्वर के मन में मनुष्य के लिए कोई सहानुभूति न हो, कि वह भावशून्य हो और उसके कृत्य हृदयहीन हों। मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर, लोग सोचते हैं, “परमेश्वर को पौलुस के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था। पौलुस ने इतना कुछ किया था और सहा था। साथ ही वह परमेश्वर के प्रति अत्यंत निष्ठावान था। तो परमेश्वर उसके साथ ऐसा व्यवहार क्यों करेगा?” क्या लोगों के लिए ऐसा कहना उचित है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? पौलुस किस तरह परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और समर्पित था? क्या वे लोग सत्य को तोड़-मरोड़ नहीं रहे हैं? पौलुस अपने लिए आशीषें पाने के प्रति निष्ठावान और समर्पित था। क्या यह परमेश्वर के प्रति निष्ठा हुई? जब लोग सत्य को नहीं समझते, किसी समस्या के सार को साफ-साफ नहीं देख पाते, और अपनी भावनाओं के आधार पर आंख मूंदकर कुछ भी बोल देते हैं, तो क्या वे परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं? हैरानी की बात नहीं है कि हर कोई पौलुस पर मोहित है। जो लोग शैतान के लोग हैं वे हमेशा शैतान से ही मोह करते हैं, और अपनी भावनाओं के आधार पर शैतान की बात ही करते हैं। इसका मतलब है कि लोग भले ही शैतान से अलग हो गए हों, पर वे अब भी उससे जुड़े हुए हैं। असल में, जब लोग शैतान की बात कहते हैं, तो वे अपनी बात भी कह रहे होते हैं। लोग पौलुस से हमदर्दी जताते हैं क्योंकि वे खुद भी उसी की तरह हैं, और उसी के रास्ते पर चलते हैं। मनुष्य की आम समझ के अनुसार, परमेश्वर को पौलुस के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था, पर परमेश्वर ने जो किया वह मनुष्य के तर्क से ठीक उलट था। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है, और यह सत्य है। अगर कोई व्यक्ति मनुष्य की आम समझ के अनुसार बात करता है, तो वे कह सकते हैं, “भले ही पौलुस ने कुछ खास हासिल न किया हो, पर उसने बहुत परिश्रम और प्रयास किया। यह देखते हुए कि उसने कितने वर्षों तक कष्ट उठाए, उसे बख्श दिया जाना चाहिए था। चाहे वह सिर्फ एक सेवाकर्ता बनकर रह जाता, पर उसे दंडित करना या नरक में भेजना ठीक नहीं था।” ये मनुष्य के तर्क और भावनाएं हैं—यह सत्य नहीं है। परमेश्वर का सबसे प्यारा पहलू क्या है? यह कि उसमें मनुष्य की आम समझ नहीं है। वह जो कुछ भी करता है वह सत्य के अनुरूप और उसके खुद के सार के अनुरूप होता है। वह एक धार्मिक स्वभाव दिखाता है। परमेश्वर तुम्हारी व्यक्तिपरक इच्छाओं की परवाह नहीं करता, न ही तुम्हारे कृत्यों के वस्तुपरक तथ्यों की। परमेश्वर इस आधार पर कि तुम क्या करते हो, क्या उजागर करते हो, और किस रास्ते पर चलते हो, यह तय करता है कि तुम किस तरह के मनुष्य हो, और फिर तुम्हारे प्रति सबसे उपयुक्त रवैया अपनाता है। पौलुस का अंत इसी तरह से हुआ। पौलुस के मामले को देखते हुए, ऐसा लगता है कि परमेश्वर प्रेमविहीन है। पतरस और पौलुस दोनों ही सृजित प्राणी थे, पर परमेश्वर ने जहां पतरस की प्रशंसा की और उसे आशीष दिए, वहीं पौलुस को उजागर किया, उसका विश्लेषण और न्याय किया और उसकी निंदा की। पौलुस के अंत को लेकर परमेश्वर के फैसले को देखते हुए तुम्हें परमेश्वर का प्रेम दिखाई नहीं देता। तो फिर, पौलुस के साथ जो कुछ हुआ उसके आधार पर क्या तुम कह सकते हो कि परमेश्वर प्रेम नहीं करता। नहीं, तुम नहीं कह सकते, क्योंकि परमेश्वर ने कितनी ही बार उसे अनुशासित किया, ज्ञान दिया, और प्रायश्चित के बहुत-से अवसर दिए, पर पौलुस ने हठपूर्वक इन्हें ठुकरा दिया और परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर चलता रहा। इसलिए अंत में, परमेश्वर ने उसकी निंदा की और उसे दंडित किया। सतही तौर पर देखने पर, ऐसा लगता है कि परमेश्वर के कार्य और उद्धार को लेकर लोगों के पास कोई चुनाव नहीं है। हालांकि परमेश्वर लोगों के चयन को लेकर कोई दखलअंदाजी नहीं करता, अगर कोई व्यक्ति आशीषें पाने का रास्ता चुनता है तो परमेश्वर उनकी निंदा करेगा और उन्हें दंडित करेगा। ऐसा लगता है कि परमेश्वर लोगों को अपना रास्ता खुद चुनने की अनुमति नहीं देता, कि वह उन्हें सिर्फ सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने की अनुमति देता है, और यह पूरी तरह परमेश्वर पर निर्भर है कि क्या कोई व्यक्ति न्याय, शुद्धिकरण और पूर्ण बनाए जाने का पात्र है या नहीं। क्या परमेश्वर के कार्य को इस तरह देखना और उस पर इस तरह का ठप्पा लगाना एक बेहूदा भूल और और पूर्णत: हास्यास्पद नहीं है? मनुष्य को बिल्कुल भी यह भान नहीं है कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है; वह हमेशा अपने खुद के रास्ते पर चलना चाहता है—परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर, और वह परमेश्वर के न्याय और निंदा को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। यह पूरी तरह से अतर्कपूर्ण और अनुचित है! ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सोचते हैं, “लोग यह चुनाव नहीं कर सकते कि परमेश्वर उनके साथ कैसा व्यवहार करे, या परमेश्वर उन्हें कौनसा मिशन, काम या कर्तव्य सौंपे। अंतत: जो भी अपना खुद का रास्ता चुनना चाहता है, वह निंदा का भागी बनता है। परमेश्वर सिर्फ तभी तुम्हें आशीषें देता है और तुम्हारी प्रशंसा करता है अगर तुम उसके दिखाए रास्ते पर चलो, और सत्य का अनुसरण करने वाले रास्ते पर चलो।” कुछ लोग इसे परमेश्वर के अन्याय और लोगों के स्वतंत्र चुनाव के साथ दखलअंदाजी के रूप में देखते हैं। पर क्या असल में ऐसा ही मामला है? (नहीं।) परमेश्वर यह सब सिद्धांत के अनुसार करता है। जब तुम तथ्यों और सत्य को नहीं समझते हो, तो तुम्हारे लिए गलतफहमी का शिकार होना और परमेश्वर की आलोचना करना आसान हो जाता है। लेकिन जब तुम तथ्यों और सत्य को समझते हो, तो तुम इन गलतफहमियों को बिल्कुल फिजूल और पूरी तरह से घृणित समझोगे और इन्हें सर नहीं उठाने दोगे। इस बिंदु पर, तुम जान जाओगे कि परमेश्वर सब कुछ सही करता है। लोग यह देख नहीं पाते, क्योंकि वे बहुत ज्यादा स्वार्थी और मूर्ख होते हैं। वे सत्य को नहीं समझते और मामलों को साफ-साफ नहीं देख पाते, इसलिए वे अपनी खुद की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर पर ठप्पा लगा देते हैं। एक बार यह समझ लेने के बाद तुम पौलुस का बचाव नहीं करोगे, या परमेश्वर के बारे में कोई गलतफहमी नहीं पालोगे। तुम कहोगे, “परमेश्वर जो करता है, वह बिल्कुल सही होता है। मनुष्य ही भ्रष्ट होते हैं। वे संकुचित सोच के और मूर्ख होते हैं। वे स्थितियों को साफ-साफ नहीं देख सकते। चाहे कोई व्यक्ति इस मामले में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव देखे, या उसका प्रेम देखे, परमेश्वर जो कुछ भी करता है सही करता है, और यह उसके धार्मिक स्वभाव और उसके सार की अभिव्यक्ति होती है। यह पूरी तरह से सत्य के अनुरूप है, और यह गलत नहीं है!” आज जब परमेश्वर तुम लोगों में कार्य करेगा और तुम्हें बचाएगा, तो तुम लोगों को कौनसा रास्ता चुनना चाहिए? क्या परमेश्वर तुम लोगों के साथ दखलंदाजी करता है? तुम्हें क्या चुनाव करना चाहिए? क्या तुम्हें पौलुस की गलतियों से सबक लेना चाहिए? क्या तुम्हें पतरस की तरह होना चाहिए और सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनना चाहिए? तुम लोग इस मामले में कैसा रवैया अपनाते हो? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य को समझते हो। सत्य की समझ से कौनसी समस्याओं का समाधान होगा? सत्य को समझने का उद्देश्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव और उसकी बहुत-सी मुश्किलों का समाधान करना है। जब तुम ऐसी समस्याओं का सामना करते हो जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता; या ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों का जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खातीं, तो सत्य तुम्हारे भीतर अपना काम करने लगेगा। तो पौलुस के मामले से तुम्हें अपने जीवन प्रवेश और अपना रास्ता चुनने में कैसे मदद मिल सकती है? (यह हमें परमेश्वर के सम्मुख आने और आत्म-चिंतन करने के लिए प्रेरित कर सकता है।) (यह परमेश्वर और मनुष्य के बीच दीवारों को गिराकर गलतफहमियों को मिटा सकता है।) यह इसका एक अंग है, और तुमने इस बातचीत से कुछ हासिल किया है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सत्य के अनुसरण के रास्ते के चुनाव के महत्व को समझना है, और यह भी कि परमेश्वर ऐसा करने वालों की प्रशंसा करता है और उन्हें आशीष देता है। इस प्रश्न के उत्तर को समझना सबसे अहम बात है।

मैंने अभी-अभी यह जिक्र किया है कि यहूदियों को किस तरह निष्कासित कर दिया गया और वे भटकते हुए दुनिया के हर देश में फैल गए। लोग इस तथ्य को किस तरह देखते हैं? वे इससे कौनसे सत्य को समझते हैं? इस घटना पर लोगों को थोड़ा चिंतन-मनन करना चाहिए। पहली बात तो, लोगों को किस तरह अभ्यास करना चाहिए, और दूसरे, वे इस घटना के माध्यम से परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकें। पहले हम यह बात करते हैं कि इन परिस्थियों में लोगों को किस तरह अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर जो भी करता है, वह मनुष्य की इच्छाओं से प्रभावित नहीं होता; परमेश्वर की अपनी योजनाएं होती हैं, और चीजों को करने के अपने सिद्धांत होते हैं। तो लोगों का क्या रवैया होना चाहिए? वे चाहे किसी भी स्थिति का सामना कर रहे हों, या यह उनकी धारणाओं से मेल खाता हो या नहीं, लोगों को कभी भी परमेश्वर के विपरीत नहीं होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “भले ही मैं परमेश्वर की अवज्ञा और प्रतिरोध करता हूँ, पर क्या यह काफी नहीं है कि मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ?” यह किस तरह का रवैया है? यह स्पष्ट तौर पर स्वीकार्य नहीं है। यह सच्ची आज्ञाकारिता नहीं है। तो लोग इसका अभ्यास कैसे करें कि वे “परमेश्वर के विपरीत खड़े न हों” और इसे व्यवहार में लाएं? अभ्यास के दो सिद्धांत हैं: पहला यह कि परमेश्वर की इच्छा को जानने में पहल करें, किन सत्यों को समझें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य में किस तरह सहयोग करके उसे पूरा करें—यह लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये का सक्रिय पक्ष है। दूसरा पक्ष है यह जांच और पहचान करना कि तुम्हारे मन में परमेश्वर को लेकर कहां गलतफहमी है या आज्ञाकारिता का अभाव है, धारणाएं और कल्पनाएं हैं, और ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर से मेल नहीं खातीं। इससे यह सुनिश्चित हो जाएगा कि अपने कर्तव्य पालन के दौरान तुम सत्य का सही तरीके से अभ्यास करते हो, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार करते हो, परमेश्वर के आदेश को पूरा करते हो, और परमेश्वर द्वारा सराहे जाते हो। क्या अभ्यास के ये सिद्धांत सरल हैं? (हां, वे हैं।) “सरल” से मेरा क्या अर्थ है? कि तर्क और शब्द अपेक्षाकृत स्पष्ट हैं, “एक” का मतलब एक और “दो” का मतलब दो है; जैसे ही तुम इसे सुनो, तुम्हें पता हो कि इसका अभ्यास कैसे करना है। फिर भी, इसे सचमुच व्यवहार में लाना इतना सरल नहीं है, क्योंकि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। वे चीजों को लेकर हमेशा बहस करते हैं और बहुत-सी धारणाओं और कल्पनाओं और परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों के शिकार होते हैं। लोगों को इन चीजों का विश्लेषण करना चाहिए और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए, पर आध्यात्मिक समझ के अभाव वाले लोग नई धारणाएं बना लेते हैं : “सब लोग कहते हैं कि परमेश्वर प्रेम है, तो फिर परमेश्वर हमेशा लोगों के विचारों और धारणाओं को उजागर करके उनका न्याय क्यों करता रहता है? मुझे परमेश्वर का प्रेम दिखाई नहीं देता; मुझे सिर्फ यह दिखाई देता है कि परमेश्वर का स्वभाव अपमान को बर्दाश्त नहीं करता।” क्या यह भी मनुष्यों की धारणा मात्र नहीं है? अगर, भ्रष्ट मनुष्यों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप, परमेश्वर समूची मानवजाति के विकास के दौरान सिर्फ दया और करुणा ही दिखाता रहता, और कभी भी अपनी धार्मिकता या प्रकोप न दिखाता तो क्या मनुष्य जाति आज अस्तित्व में होती? (नहीं, यह नहीं होती।) शैतान ने बहुत पहले ही मनुष्य को डकार लिया होता। राक्षसों और शैतान, और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले भ्रष्ट मनुष्यों के मामलों से निपटने के लिए परमेश्वर प्रेम नहीं दिखाता या प्रेम के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त नहीं करता, बल्कि वह अपना धार्मिक स्वभाव दिखाता है; घृणा, वितृष्णा, न्याय, प्रताड़ना, दंड और विनाश दिखाता है। सिर्फ ऐसा करके ही परमेश्वर यह दिखाता है कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और वह अपराध को बर्दाश्त नहीं करता; वह शैतान को पूरी तरह शर्मिंदा करता है, और सच्ची मानवता को बचाता है। परमेश्वर ने हमेशा इसी तरह मानवजाति की अगुवाई की है, और साथ ही उसे बचाया है।

लोगों को अक्सर यह जांच करनी चाहिए कि उनके दिल में कुछ ऐसा तो नहीं है जो परमेश्वर से असंगत है या उसके बारे में किसी गलतफहमी से जुड़ा हुआ है। गलतफहमियां कैसे पैदा होती हैं? लोग परमेश्वर को गलत क्यों समझ बैठते हैं? (क्योंकि उनके निजी हित प्रभावित होते हैं।) यहूदियों के यहूदिया से निष्कासन के तथ्य को देखने के बाद लोग आहत महसूस करते हैं, और कहते हैं, “पहले परमेश्वर ने इस्राइलियों से इतना प्यार किया, मिस्र से बाहर जाने और लाल सागर को पार करने में उनकी अगुवाई की, उन्हें खाने के लिए स्वर्ग का अनाज और पीने के लिए झरने का जल दिया, फिर खुद उन्हें विधि-विधान दिए और उन्हें जीना सिखाया। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम मुहाने तक छलक रहा था—वे लोग जो तब जी रहे थे कितने धन्य थे! पर पलक झपकते ही परमेश्वर के रवैये में 180 डिग्री बदलाव कैसे आ गया? उसका सारा प्रेम कहां चला गया?” लोगों की भावनाएं इससे आगे नहीं जा सकतीं, और वे संदेह करते हुए कहते हैं, “परमेश्वर प्रेम है या नहीं है? इस्राइलियों के प्रति उसका मूल रवैया अब क्यों नहीं दिखाई देता? उसका प्रेम कोई चिन्ह छोड़े बिना लुप्त हो गया है। क्या उसके पास कोई प्रेम है भी?” यहीं से लोगों की गलतफहमी शुरू होती है। लोगों में गलतफहमियां पनपने का संदर्भ क्या है? क्या इसका कारण यह है कि परमेश्वर के कृत्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से संगत नहीं हैं? क्या यही तथ्य लोगों में परमेश्वर के प्रति गलतफहमी पैदा करता है? क्या इसका कारण यह नहीं है कि लोग परमेश्वर के प्रेम की सीमित परिभाषा करते हैं? वे सोचते हैं, “परमेश्वर प्रेम है। इसलिए, उसे लोगों की देखभाल और सुरक्षा करनी चाहिए, और उन्हें अनुग्रह और आशीषों से नवाजना चाहिए। यही परमेश्वर का प्रेम है! जब परमेश्वर इस तरह लोगों से प्रेम करता है तो मुझे अच्छा लगता है। मैंने खासतौर से उस समय देखा कि परमेश्वर लोगों से कितना प्रेम करता है जब उसने उन्हें लाल सागर पार करवाया। उस समय के लोग कितने धन्य थे! काश मैं भी उनमें शामिल होता।” जब तुम इस कहानी पर मुग्ध होते हो, तो तुम उस समय परमेश्वर द्वारा दिखाए गए प्रेम को उच्चतम सत्य और परमेश्वर के सार का अकेला चिन्ह मान लेते हो। तुम अपने दिल में परमेश्वर की परिभाषा को सीमित कर देते हो, और उस समय परमेश्वर द्वारा किए गए हर कृत्य को उच्चतम सत्य मान लेते हो। तुम सोचते हो कि यह परमेश्वर का सबसे प्यारा पक्ष है, और लोगों के मन में उसके लिए आदर और भय पैदा करने वाला पक्ष है, और यही परमेश्वर का प्रेम है। असलियत में, परमेश्वर के कृत्य अपने-आपमें सकारात्मक थे, पर तुम्हारी सीमित परिभाषा के कारण वे तुम्हारे दिमाग में धारणाएं बन गए, और परमेश्वर को परिभाषित करने का आधार भी। वे परमेश्वर के प्रेम को लेकर तुम्हारे मन में गलतफहमी को जन्म देते हैं, जैसेकि इसमें दया, देखभाल, रक्षा, अगुवाई, अनुग्रह और आशीषों के अलावा और कुछ भी न हो—कि परमेश्वर का प्रेम बस यही सब कुछ है। तुम प्रेम के इन पहलुओं को इतने चाव से क्यों देखते हो? क्या इसका कारण यह है कि यह तुम्हारे खुद के निजी हित से जुड़ा हुआ है? (हां, यही कारण है।) यह किस निजी हित से जुड़ा हुआ है? (दैहिक सुख और सुविधाजनक जीवन।) जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं तो वे उससे ये चीजें प्राप्त करना चाहते हैं, पर दूसरी चीजें नहीं। लोग न्याय, प्रताड़ना, परीक्षणों, शोधन और परमेश्वर के लिए कष्ट उठाने, त्याग करने, खुद को खपाने या अपने जीवन का उत्सर्ग करने के बारे में सोचना नहीं चाहते। लोग सिर्फ परमेश्वर के प्रेम, देखभाल, सुरक्षा, और मार्गदर्शन का आनंद लेना चाहते हैं, इसलिए वे परमेश्वर के प्रेम को उसके सार की एकमात्र विशिष्टता, उसके एकमात्र सार के रूप में परिभाषित करते हैं। क्या इस्राइलियों को लाल सागर पार करवाते हुए परमेश्वर ने जो चीजें कीं, वे लोगों की धारणाओं का स्रोत नहीं बनीं? (हां, वे बनीं।) यह एक संदर्भ बन गया, जिसके अनुसार लोगों ने परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएं बनाईं। अगर वे परमेश्वर के बारे में धारणाएं बनाते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के कार्य और स्वभाव की सच्ची समझ हासिल कर सकते हैं? यह स्पष्ट है कि वे न सिर्फ इसे समझ नहीं पाएंगे, बल्कि इसकी गलत व्याख्या करेंगे और इसके बारे में धारणाएं पाल लेंगे। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की समझ बहुत संकुचित है, और यह सच्ची समझ नहीं है। क्योंकि यह सत्य नहीं है, बल्कि एक तरह का प्रेम और ऐसी समझ है जो लोग अपनी खुद की धारणाओं, कल्पनाओं, स्वार्थी इच्छाओं और विश्लेषण के आधार पर परमेश्वर के बारे में रखते हैं, और यह परमेश्वर के सच्चे सार से मेल नहीं खाता। दया, उद्धार, देखभाल, सुरक्षा और लोगों की प्रार्थनाएं सुनने के अलावा और कौनसे तरीकों से परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है? (फटकार, अनुशासन, काट-छांट, निपटारे, न्याय, प्रताड़ना, परीक्षणों और परिशोधन के माध्यम से।) यह सही है। परमेश्वर बहुत-से तरीकों से अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है : प्रहार, अनुशासित और तिरस्कृत करके, और न्याय, प्रताड़ना, परीक्षणों, परिशोधन इत्यादि के माध्यम से। ये सभी परमेश्वर के प्रेम के पहलू हैं। सिर्फ यही परिपेक्ष्य समग्र और व्यापक है और सत्य के अनुरूप है। अगर तुम यह बात समझते हो, तो जब तुम अपनी जांच करके यह पाते हो कि तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में कोई गलतफहमी है तो क्या तुम अपनी गलती को पहचान नहीं जाते, और आत्म-चिंतन करके यह जानने की कोशिश नहीं करते कि तुमसे कहां गलती हुई है? क्या यह परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमी को दूर करने में मदद नहीं कर सकता? (हां, कर सकता है।) ऐसा करने के लिए तुम्हें सत्य को खोज करनी होगी। अगर लोग सत्य की खोज करते हैं तो वे परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमी को दूर कर सकते हैं, और एक बार अपनी गलतफहमी को दूर कर लेने के बाद वे परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमी को दूर करने में सक्षम हो, तो जब तुम यहूदिया से यहूदियों के निष्कासन को देखोगे तो कहोगे, “परमेश्वर का मनुष्य, अपने सृजित प्राणियों के प्रति रवैया सिर्फ प्रेम का रवैया नहीं है, वह प्रहार और निष्कासन के माध्यम से भी अगुवाई करता है। परमेश्वर के प्रति अपने रवैये में लोगों को खुद को कोई विकल्प नहीं देना चाहिए; यह समर्पण का रवैया होना चाहिए, न कि प्रतिरोध का।” मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के परिपेक्ष्य से, यहूदियों के प्रति परमेश्वर का रवैया बेपरवाही का प्रतीत होता है, पर अब अगर इसे देखा जाए तो परमेश्वर ने एक कमाल का काम किया, उसने जो कुछ भी दिखाया वह उसका धार्मिक स्वभाव था। परमेश्वर लोगों पर अनुग्रह और आशीषें बरसा सकता है, उन्हें उनका दैनिक भोजन दे सकता है, पर वह यह सब वापस भी ले सकता है। यह परमेश्वर का अधिकार, उसका सार और उसका स्वभाव है।

यहूदिया से यहूदियों के निष्कासन को लेकर बहुत-से लोगों के मन में धारणाएं है, पर सत्य की खोज करने वाले लोग इस घटना से प्रबुद्धता हासिल कर सकते हैं। अगर किसी व्यक्ति में समझने की क्षमता है, तो इस घटना से वे यह देख पाएंगे कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अपमान बर्दाश्त नहीं करता। पर कुछ लोगों में समझने की क्षमता नहीं होती। अगर उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने जो कुछ किया वह उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता, तो उन्हें पहले यह स्वीकार करना चाहिए कि परमेश्वर धार्मिक है और उसका स्वभाव अपमान को बर्दाश्त नहीं करता; यह निश्चित बात है। फिर, उन्हें प्रार्थना और सत्य की खोज करनी चाहिए, और यह देखना चाहिए कि यहूदियों ने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को भड़काने और उसके क्रोध का निशाना बनने के लिए क्या किया। सिर्फ इसी तरीके से लोग अपनी धारणाओं का समुचित समाधान कर सकते हैं, और इस घटना के माध्यम से परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकते हैं, और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर सकते हैं। लोगों के लिए सत्य को समझना आसान नहीं है। भले ही पहले तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन और आदेश को स्वीकार करके उसके अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेते रहे हो, भले ही तुमने चढ़ावे दिए हों या त्याग किए हों—भले ही लोग तुम्हें कुछ योगदान देने वाले के रूप में देखते हों, किसी भी स्थिति में तुम्हें इन चीजों को अपनी जमापूंजी के रूप में नहीं देखना चाहिए। यह पहली बात है। दूसरी बात यह है कि तुम्हें इन चीजों को ऐसी मुद्रा के रूप में नहीं देखना चाहिए जिसे तुम परमेश्वर पर इस्तेमाल कर सको और उसके व्यवहार को अपने हिसाब से नियंत्रित कर सको। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब परमेश्वर के वचन और उसका रवैया तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाता, या आम शिष्टाचार के विपरीत है, तो तुम्हें उसका प्रतिरोध और विरोध नहीं करना चाहिए। यह तीसरी बात है। क्या तुम लोग ये तीन चीजें कर सकते हो? ये तीन चीजें वास्तविकता से जुड़ी हुई हैं। क्या लोगों में ये अवस्थाएं होना आसान है? (हां, आसान है।) लोगों में ये अवस्थाएं क्यों होती है? ये खुद को इस तरीके से क्यों अभिव्यक्त करती हैं? परमेश्वर समूची मानव नस्ल का प्रबंधन करता है, और सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता है, पर क्या परमेश्वर इन चीजों को पूंजी के रूप में देखता है? क्या परमेश्वर इसका श्रेय लेता है? क्या परमेश्वर यह कहकर खुद को अभिव्यक्त करता है कि “मैंने तुम्हारे लिए ये सब महान चीजें की हैं, तुम लोग मेरा धन्यवाद क्यों नहीं करते?” (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) परमेश्वर के मन में ये चीजें नहीं हैं, तो फिर मनुष्य हर छोटे-से त्याग या जरा-सा खपने, या थोड़े-से योगदान के लिए परमेश्वर से श्रेय क्यों पाना चाहता है? मनुष्य खुद को इस तरह क्यों अभिव्यक्त और प्रदर्शित करता है? जवाब बहुत आसान है। यह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के कारण है। परमेश्वर क्यों खुद को इस तरह अभिव्यक्त और प्रदर्शित नहीं करता? ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर का सार सत्य है, और सत्य पवित्र है। इसका यह जवाब है। लोग खुद को इस तरह अभिव्यक्त और प्रदर्शित करते हैं क्योंकि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। क्या इस समस्या का समाधान हो सकता है? मैंने जिन तीन चीजों का जिक्र किया, क्या वे इसे सुलझा सकती हैं? (हां, सुलझा सकती हैं।) मैंने जिन तीन चीजों का जिक्र किया है, उनमें से किसी को भी व्यवहार में लाना आसान नहीं है, पर एक समाधान है। इन तीन चीजों को सुनने के बाद लोग कह सकते हैं कि “हमें यह करने की अनुमति नहीं है, हमें वह करने की अनुमति नहीं है। हमें बस खाली दिमाग वाली कठपुतली बनकर रहना है।” क्या सचमुच ऐसा ही है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर कैसा है? मैं तुम लोगों को यह बता दूं कि परमेश्वर तुम्हें ये चीजें इसलिए नहीं करने देता क्योंकि यह तुम्हारी सुरक्षा के लिए है। यह पहली चीज है। तुम्हारी खोज का तरीका सत्य के अनुरूप नहीं है, और यह सही रास्ता नहीं है। अपने से पहले आने वाले लोगों की गलतियों को मत दोहराओ। अगर तुम त्यागी गई चीजों और खुद को खपाने को पूंजी और मुद्रा के रूप में देखते हो, जिसे भुनाया जा सकता है, और जब तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया तुम्हारी इच्छाओं के उलट होता है, तो तुम उसका विरोध करते हो, तो तुम्हारा रवैया सत्य के अनुरूप नहीं है, उसमें कोई मानवता नहीं है, और यह सही नहीं है। तुम्हारे पास एक हजार कारण हों तो भी तुम्हारा रवैया गलत है; यह किसी भी तरह से सत्य से संगत नहीं है, और परमेश्वर का प्रतिरोध करने की तरह है। किसी भी व्यक्ति में ऐसा रवैया नहीं होना चाहिए। यह दूसरी चीज है। तीसरी चीज यह है कि अगर तुम इस रवैये से चिपके रहते हो, तो तुम कभी भी सत्य को समझ या हासिल नहीं कर सकोगे। न सिर्फ तुम सत्य को नहीं पा सकोगे बल्कि तुम बहुत कुछ खो दोगे; तुम वह गरिमा और कर्तव्य खो बैठोगे जो एक सृजित प्राणी के पास होने चाहिए। अगर तुम सोचते हो, “मैं अपने रवैये से चिपका रहूंगा, और कोई भी इस बारे में कुछ नहीं कर पाएगा! मुझे विश्वास है मैं सही हूं, इसलिए मैं अपने विचार पर अड़ा रहूंगा। मेरा विचार आम समझ और शिष्टाचार से मेल खाता है, इसलिए मैं आखिर तक इस पर टिका रहूंगा!” किसी चीज पर इतने अडिग ढंग से टिके रहने से तुम्हें किसी भी तरह का कोई लाभ नहीं होगा। तुम्हारे संकल्प या किसी बात पर अड़े रहने के कारण परमेश्वर अपना रवैया नहीं बदलेगा। दूसरे शब्दों में, सिर्फ इस वजह से कि तुम अपने रवैये पर अटल हो, परमेश्वर कभी भी अपना रवैया नहीं बदलेगा। उल्टे, परमेश्वर तुम्हारे प्रति ऐसा रवैया अपनाएगा जो तुम्हारे विद्रोहीपन और अटल प्रतिरोध के हिसाब से होगा। यह चौथी और सबसे महत्वपूर्ण चीज है। क्या कोई ऐसी बात है जो इन चार चीजों के बारे में तुम लोगों की समझ में नहीं आई? इन चार चीजों में क्या कोई ऐसी बात है जो खोखले शब्द मात्र हैं और मनुष्य की वास्तविक अवस्था के साथ फिट नहीं होते, और जो मनुष्य के जीवन के व्यावहारिक पक्ष में कोई मदद नहीं करते? (नहीं, सभी मददगार हैं।) क्या इनमें से कोई चीज धर्म-सिद्धांत मात्र है, न कि अभ्यास का मार्ग? (नहीं।) क्या ये चार चीजें अपने दैनिक जीवन में सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की मदद करती हैं? (हां, करती हैं।) अगर तुम लोग इन चार चीजों के बारे में अपनी समझ को लेकर स्पष्ट हो, इन्हें व्यवहार में लाते हो, और इन्हें अनुभव करते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध सामान्य रहेंगे। ये चार चीजें विभिन्न प्रलोभनों के दौरान या तरह-तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर तुम्हारी रक्षा करेंगी। जब तुम विद्रोही अवस्था में होते हो, तो सत्य के इन पहलुओं के बारे में सोचो, उनके साथ खुद की तुलना करो और इसी के अनुसार अभ्यास करो। अगर शुरू में, तुम इन्हें व्यवहार में नहीं ला पाते तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, और साथ ही यह पहचानना चाहिए कि परमेश्वर ने जो कुछ किया वह क्यों किया। तुम्हें चिंतन-मनन करके यह भी पहचानना चाहिए कि वे भ्रष्ट अवस्थाएं और प्रदर्शन कौनसे हैं जो तुम्हें अभ्यास या समर्पण करने में अक्षम बनाते हैं। अगर तुम इस तरीके से सत्य को खोजने में सक्षम होते हो, तो तुम्हारी अवस्था सामान्य रहेगी, और तुम स्वाभाविक तौर पर सत्य की इन वास्तविकताओं में प्रवेश करोगे।

चाहे कोई भी मामला हो, अगर तुम सत्य को नहीं समझते हो, तो या तो तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चलोगे, या अवज्ञा और प्रतिरोध का प्रदर्शन करोगे। यह सौ प्रतिशत निश्चित है। कभी-कभी ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है मानो तुम परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे, बुरे काम नहीं कर रहे, या विघ्न या व्यवधान पैदा नहीं कर रहे, पर जरूरी नहीं कि इसका यह मतलब हो कि तुम सत्य के अनुरूप चल रहे हो। कभी-कभी जब तुम धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चलते हो, तो भले ही इससे कोई व्यवधान या नुकसान न होता हो, पर अगर यह सत्य के अनुरूप नहीं है तो तुम्हारे कृत्य परमेश्वर की इच्छा के खिलाफ हैं। कई अन्य अवसरों पर भी ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारे मन में धारणाएं हों। भले ही तुम उन्हें शब्दों में व्यक्त न करो, तुम अपने भीतर इन धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहते हो, और सोचते हो कि परमेश्वर को यह या वह करना चाहिए, और तुम उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहते हो। ऊपरी तौर पर तुमने कुछ भी गलत नहीं किया होता, पर भीतर से तुम लगातार परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध की अवस्था में होते हो। उदाहरण के लिए, मैंने अभी-अभी परमेश्वर के बारे में धारणाएं रखने और उसके प्रेम की सीमित परिभाषा करने का जिक्र किया है। भले ही तुम्हारी ये धारणाएं और कल्पनाएं परमेश्वर के कार्य में रुकावट या व्यवधान डालने का कारण न बनती हों, तुम्हारी अवस्था यह साबित करती है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर को निरंतर सीमित कर रहा है और उसे गलत समझ रहा है। हम इससे क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं? यह कि तुम निरंतर परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हो। क्या मैं सत्य नहीं कह रहा हूँ? (हां, सत्य कह रहे हो।) अगर कभी कोई ऐसा दिन आता है जब यहूदिया से यहूदियों के निष्कासन की तरह तुम्हारे साथ भी कुछ ऐसा ही घट जाए, तो तुम्हारी धारणाएं तुम्हें परमेश्वर के कृत्यों को लेकर “आमीन” कहने या उसके कृत्यों का प्रशंसा, भय या आज्ञाकारिता से जवाब देने में असमर्थ बना देंगी। इसकी बजाय तुम गलतफहमियां पाल लोगे, शिकायत करोगे, और अपने दिल में परमेश्वर के लिए थोड़ा विरोध तक महसूस करोगे। अपने दिल के गहराइयों में तुम परमेश्वर से कहोगे, “परमेश्वर, तुम्हें यह नहीं करना चाहिए था। यह लोगों की इच्छा के खिलाफ है! तुम अपने सृजित प्राणियों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हो? तुम अपने चुने हुए लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हो? तुमने जो कुछ किया है, उसे देखकर मैं तुम्हारे कृत्यों की प्रशंसा या गुणगान नहीं कर सकता। मैं अपने भीतर बहुत पीड़ा और त्याग दिया गया महसूस कर रहा हूं, मानो मैं जिस परमेश्वर की आराधना करता हूं उस पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं कर सकता। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूं वह ऐसा नहीं है। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूं उसे अपने सृजित प्राणियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूं उसे निष्ठुर या क्रूर नहीं होना चाहिए। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूं वह मनुष्यों के साथ कोमलता और बहुत ध्यान से व्यवहार करता है, बिल्कुल शिशुओं की तरह, और उन्हें धन्य और आत्मीयता से भरपूर होने का एहसास करवाता है, न कि अब की तरह निष्ठुर और भावनाहीन होने का।” जब तुम्हारे भीतर से ऐसी आहें निकलती हैं, तो तुम अपने सामने घट रहे तथ्यों को परमेश्वर के कार्य के रूप में नहीं देखते। तुम इसे स्वीकार करके “आमीन” नहीं कहते, इसकी प्रशंसा करना तो दूर की बात है। इस तरह, तुम्हारी भावनाएं और अवस्था परमेश्वर की आज्ञाकारिता की है या विरोध की? (विरोध की।) यह स्पष्ट है कि यह सच्ची आज्ञाकारिता नहीं है। यहां कोई आज्ञाकारिता है ही नहीं, सिर्फ रोष, विरोध और अवज्ञा, और यहां तक कि क्रोध भी है। क्या एक सृजित प्राणी का परमेश्वर के प्रति यही रवैया होना चाहिए? (नहीं, यह रवैया नहीं होना चाहिए।) तुम्हारे दिल में विरोधाभास होता है; तुम सोचते हो, “अगर परमेश्वर ने ऐसा किया है तो मेरा दिल इसका समर्थन क्यों नहीं करता? लोगों की बहुसंख्या इसे स्वीकार क्यों नहीं करती? परमेश्वर के कृत्य मनुष्य की इच्छाओं के इतना विपरीत क्यों हैं, वे रक्त और संहार से भरे हुए क्यों हैं?” इन क्षणों में तुम्हारे दिल में बैठा परमेश्वर और वास्तविक जीवन में मौजूद सृष्टिकर्ता विरोधाभास में और एक-दूसरे से उलट प्रतीत होते हैं, नहीं होते क्या? (हां, होते हैं।) तो तुम्हें किस परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए? ऐसे क्षणों में, क्या तुम्हें अपने दिल में मौजूद अपनी धारणा के परमेश्वर में विश्वास चाहिए, या उस परमेश्वर में जो तुम्हारे सामने वास्तविक कृत्यों को कर रहा है? (हमारे सामने वास्तविक कृत्यों को करने वाले परमेश्वर में।) अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं के मामले में लोग अपने सामने कृत्यों को अंजाम देने वाले परमेश्वर में विश्वास करने के लिए तैयार हो जाते हैं। पर अपनी धारणाओं, स्वार्थी इच्छाओं, और भावनाओं के कारण लोग अपने दिल के परमेश्वर को पर्दे में छिपाए रखते हैं और खुद को अपने सामने वास्तविक कृत्य कर रहे परमेश्वर को स्वीकार करने के लिए बाध्य करते हैं। पर अपने दिल की गहराइयों में वे अब भी उन कृत्यों के सभी तथ्यों को स्वीकार करने में सक्षम नहीं होते जो सृष्टिकर्ता कर रहा होता है; वे खुद को छिपाए रखते हैं और अपनी छोटी-सी दुनिया में सिमटे रहते हैं, और अपनी कल्पनाओं के परमेश्वर से बात करते नहीं थकते, जबकि वास्तविक परमेश्वर हमेशा अस्पष्ट-सा प्रतीत होता है। ऐसे लोग भी हैं जो यह तक सोचते हैं कि “मैं चाहता हूं कि असली परमेश्वर हो ही नहीं। मेरा परमेश्वर वह है जिसकी मैं अपने दिल में कल्पना करता हूं, जो प्रेम से भरपूर है और लोगों को अपनी आत्मीयता का एहसास करवाता है। वही सच्चा परमेश्वर है। व्यावहारिक परमेश्वर वैसा नहीं है जैसी मैंने कल्पना की थी, क्योंकि वह जो कुछ करता है उससे मुझे निराशा होती है, और मैं उसकी तरफ से कोई आत्मीयता महसूस नहीं कर पाता। खासतौर से, मुझसे यह नहीं देखा जाता कि वह कैसे इतने सारे लोगों को अपने न्याय, प्रताड़ना, निंदा और परित्याग के शिकार बना सकता है।” ऐसी बातें किस तरह का व्यक्ति करेगा? अविश्वासी यही सब कहते हैं, और वे लोग जो सत्य को स्वीकार नहीं करते। जब लोग परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, और जब उनकी कल्पनाओं और परमेश्वर द्वारा किए गए वास्तविक कार्य में विरोधाभास होता है, तो लोग इन इस तरह की विविध अवस्थाओं के शिकार हो जाते हैं। तो ये अवस्थाएँ किस तरह पैदा होती हैं? एक चीज तो यह है कि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और दूसरे, जब कुछ घटता है और वह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता, उनका बुलबुला फूट जाता है और सपना टूट जाता है, और उन्हें ऐसा महसूस होता है कि आशीष पाने की उनकी मंशा और इच्छा पूरी नहीं हो सकती, तो वे आखिर में क्या करने का फैसला करते हैं? भाग खड़े होते हैं, समझौता करते हैं, और डटे रहते हैं। कुछ लोग बीच में लटके रहते हैं और कहते हैं, “मैं दोनों तरफ रहूंगा। मेरे दिल में पहले से जो परमेश्वर था वह परमेश्वर है और प्रेम है। और जो परमेश्वर मेरी आंखों के सामने महान कर्म कर रहा है और अपना अधिकार स्थापित किए हुए है, वह भी परमेश्वर है। मैं दोनों को स्वीकार करूंगा और किसी को नहीं छोडूंगा।” लोग अक्सर इस तरह की अवस्था में रहते हैं, बीच की दीवार पर बैठे हुए। लोग अक्सर अपने मन के परमेश्वर के विचार में फंसे रहते हैं। वे दौड़-भाग करते हैं, खुद को खपाते हैं, चढ़ावे देते हैं, और इस धुंधले-से परमेश्वर के लिए काम करते हैं। अपने कर्तव्य निभाने के लिए वे कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं, अपने खुद के जीवन का उत्सर्ग करने के लिए और अपना सब कुछ त्यागने के लिए भी। लोग चाहे कैसा भी व्यवहार करें, या वे चाहे जैसी भी अवस्था में हों, पर जब इस तरह का परमेश्वर उनके मन में मौजूद हो तो वास्तविक सृष्टिकर्ता की नजर में लोगों के कृत्य अच्छे होते हैं या बुरे? यह आज्ञाकारिता है या प्रतिरोध? यह साफ है कि ये अच्छे कर्म नहीं हैं और सराहना के योग्य नहीं हैं। इससे यह भी झलकता है कि लोगों ने सच्चा आज्ञापालन या खुद को समर्पित नहीं किया है; उल्टे, वे प्रतिरोध, विद्रोह और विरोध से भरे हुए हैं। बिल्कुल इसी कारण से कि लोग ऐसी अवस्थाओं के शिकार होते हैं और ऐसी अवस्थाओं में रहते हैं, जब लोग अपने सपने से जागते हैं, तो उन्हें यह एहसास होता है कि वास्तविक जीवन में परमेश्वर के कृत्य उनकी मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। उल्टे, परमेश्वर के कृत्य लोगों को तरह-तरह से आहत करते हैं, और उन्हें यह सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि परमेश्वर कई तरह से निष्ठुर है, और मनुष्य की इच्छाओं के खिलाफ काम करता है। कुछ लोग तो संदेह करते हुए कहते हैं, “क्या परमेश्वर प्रेम है? क्या वह अब भी लोगों से प्रेम करता है? कहा जाता है कि परमेश्वर को मनुष्य की चिंता है और वह उससे खुद की तरह प्रेम करता है। यह तुम्हें कहां दिखाई देता है? मैं इसे कभी भी देख क्यों नहीं पाया?” यह एक समस्या है! लोग अक्सर इन अवस्थाओं में रहते हैं, और मनुष्य और परमेश्वर के बीच विरोधाभास को और भी गहरा कर देते हैं, और उनके बीच दूरी बढ़ती रहती है। जब लोग परमेश्वर को अपनी धारणाओं के अनुरूप कुछ करता देखते हैं, तो वे सोचते हैं, “मेरे परमेश्वर ने अद्भुत काम किया है, मैं सचमुच इसी परमेश्वर में विश्वास करना चाहता हूं। सिर्फ वही मेरा परमेश्वर है। मैं उसका सृजित प्राणी बनने के लिए तैयार हूं। सिर्फ वही मेरा सृष्टिकर्ता है।” पर जब दैनिक जीवन में उनका मुश्किलों, निष्क्रियता या कमजोरियों से सामना होता है, और उनकी कल्पनाओं का परमेश्वर उनकी मदद नहीं कर पाता या उनकी जरूरतें पूरी नहीं कर पाता, तो परमेश्वर में उनकी आस्था कमजोर पड़ जाती है या लुप्त ही हो जाती है। लोगों की इन तमाम अवस्थाओं और उनके विभिन्न प्रकार के व्यवहारों और प्रदर्शनों के क्या कारण हैं? इसका कारण यह है कि लोग सृष्टिकर्ता को बिल्कुल नहीं समझते। तुम उसे नहीं समझते; यही एकमात्र कारण है। मनुष्य और परमेश्वर के बीच सभी विरोधाभासों, दूरियों और गलतफहमियों की यही जड़ है। तो लोग इस समस्या को कैसे सुलझा सकते हैं? सबसे पहले तो, उन्हें अपनी धारणाओं का समाधान करना होगा। दूसरे, लोगों को अपने भीतर किए गए परमेश्वर के हर कार्य का अनुभव करने, खोज करने और विवेचन करने की जरूरत है, और उस बिंदु पर पहुंचने की जहां वे परमेश्वर द्वारा उनके लिए की गई हर व्यवस्था के आगे, और परमेश्वर द्वारा उनके लिए आयोजित सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के आगे पूरी तरह समर्पण कर सकें। इस समर्पण का उद्देश्य क्या है? इन सभी सत्यों को पहचानना और समझना।

हमने जिस विषय पर अभी-अभी संगति की है, क्या वह तुम लोगों को बहुत गूढ़ लगता है? क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? क्या तुम इसे ग्रहण कर पाने में सक्षम हो? (हां, हम सक्षम हैं।) तुम्हें इसे सिद्धांत के तौर पर समझ पाने में सक्षम होना चाहिए, पर क्या इसे सिद्धांत के तौर पर समझने का अर्थ सत्य को समझना और स्वीकार करना है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो सत्य को समझने और स्वीकार करने का क्या अर्थ है? तुम्हें अपने दैनिक जीवन में अक्सर खुद की जांच करते रहना चाहिए, पर तुम्हें क्या जांच करनी चाहिए? (यह जांच करनी चाहिए कि क्या हम अवस्थाओं के शिकार हैं या परमेश्वर द्वारा बताए गए तरीकों से खुद को प्रदर्शित करते हैं, और परमेश्वर के बारे में लोगों की क्या धारणाएं और गलतफहमियां होती हैं?) बिल्कुल सही। तुम्हें इन चीजों की जांच करनी चाहिए; यह जांचना चाहिए कि तुम कौनसी भ्रष्टता दिखाते हो, और तुममें कौनसी धारणाएं और कल्पनाएं हैं। कुछ लोग कहते है हैं कि वे खुद की जांच करने में सक्षम नहीं हैं। इसका सीधा-सा इलाज पहले दूसरों को देखना है। दूसरे लोग तुम्हारे लिए एक आईने की तरह हैं। जब तुम लोगों को कुछ विशिष्ट स्वभाव या अवस्थाएं प्रदर्शित करते देखते हो, तो पलटकर खुद को देखो और अपनी तुलना करो; यह देखो कि क्या तुम्हारे भीतर भी यही धारणाएं और कल्पनाएं हैं, क्या तुम भी उसी अवस्था में हो। अगर तुम हो, तो तुम्हें इसके बारे में क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें खुद को खोलकर रखते हुए इन चीजों का विश्लेषण करना चाहिए या इनसे चिपके रहकर इनके “फलने-फूलने” का इंतजार करना चाहिए? (हमें खुद को खोलकर इनका विश्लेषण करना चाहिए।) तुम्हें इन चीजों को बाहर निकालकर रखना और इनका विश्लेषण करना चाहिए, ताकि हर किसी को इसका लाभ मिल सके, और इसके माध्यम से, हर कोई भ्रष्ट अवस्थाओं की सही पहचान कर सके, सत्य को समझ सके, बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ सके और इस तरह की समस्याओं को एक साथ सुलझा सके। धारणाओं, और निष्क्रिय, नकारात्मक अवस्थाओं के विश्लेषण का क्या आशय है? (ताकि लोग अपनी धारणाओं और निष्क्रिय अवस्थाओं से बाहर निकलने के रास्ता पा सकें।) और बाहर निकलने का रास्ता ढूंढने का क्या आशय है? सत्य को प्राप्त करने के लिए। तुम्हारी धारणाओं के समाधान का आशय तुम्हें यह पहचान करवाना है कि तुम गलत हो, और वे कोई ऐसी चीज नहीं हैं जो तुम्हारे पास होनी चाहिए। तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए, उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। फिर सक्रियता से यह खोजना चाहिए कि सही क्या है, सकारात्मक चीजें वास्तव में क्या हैं, और सत्य वास्तव में क्या है। जब तुम सकारात्मक चीजों और सत्य को स्वीकार कर लेते हो, और उन्हें अभ्यास, विचार और अपनाए जाने वाले परिपेक्ष्य के सिद्धांत के रूप में देखते हो, तो एक बदलाव आता है और तुम सत्य को प्राप्त कर लेते हो। तो इन सत्यों की रोशनी में हमें यहूदिया से यहूदियों के निष्कासन को किस तरह देखना चाहिए? इस घटना के बारे में लोगों की आम धारणा क्या है? (यह कि परमेश्वर को यहूदियों को यहूदिया से बाहर नहीं खदेड़ना चाहिए था, और उसे यहूदियों की रक्षा करनी चाहिए थी। कि भले ही उन्होंने परमेश्वर का कैसे भी प्रतिरोध किया हो, और इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने उसे सलीब पर चढ़ा दिया, उसे उनके पापों को हमेशा के लिए माफ कर देना चाहिए था, और सिर्फ यही परमेश्वर का प्रेम है।) ये मनुष्य की धारणाएं हैं। क्या ये बेतुकी नहीं हैं? अगर परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं के अनुसार चलता तो क्या तब भी उसका धार्मिक स्वभाव होता? हालांकि लोग अपने निष्कासन को लेकर विचलित थे, पर परमेश्वर के उनके प्रतिरोध और निंदा ने परमेश्वर की नजर में सीमा पार कर ली थी; उनके कृत्य शैतान के कृत्यों से भिन्न नहीं थे, तो परमेश्वर इसे लेकर क्रोधित क्यों न होता? कुछ लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते, और सोचते हैं, “परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है? लोग इस तरह के प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकते, यह आम समझ से बिल्कुल उलट है! यह प्रेम जैसा प्रतीत नहीं होता, अगर परमेश्वर यहूदियों के साथ इस तरह का व्यवहार करता है तो परमेश्वर में प्रेम नहीं हो सकता।” परमेश्वर के प्रेम को नकारना मनुष्य की धारणा है। मनुष्य की धारणा क्या है? (मनुष्य परमेश्वर की अपनी परिभाषा को सीमित कर देता है।) हां, जब लोग किसी चीज की परिभाषा को सीमित कर देते हैं, तो यह एक धारणा बन जाती है, और यह सत्य के अनुरूप नहीं होती, न ही यह सत्य होती है। लोगों ने किस चीज की परिभाषा को सीमित कर दिया है? उन्होंने परमेश्वर के कार्य करने के तरीके की परिभाषा को सीमित कर दिया है; वे सोचते है कि परमेश्वर को कुछ विशिष्ट तरीकों से कार्य करना चाहिए, तभी यह परमेश्वर का कार्य होगा, और ये वे तरीके हैं जिनके अनुसार परमेश्वर को अपना कार्य करना चाहिए। परमेश्वर के काम करने के तरीके के बारे में लोगों की सीमित परिभाषा है, और यह सीमित परिभाषा उनकी धारणा है। तो परमेश्वर के कार्यों को लेकर लोगों की किस तरह की परिभाषा है? इस परिभाषा में ऐसा क्या है जो इस परिस्थिति में परमेश्वर के कार्य के प्रति उनके मन में अरुचि और परमेश्वर के बारे में गलतफहमी और विरोध की भावना पैदा करता है? (लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को यहूदियों पर अनुग्रह और आशीषों की बौछार करनी चाहिए थी, पर इसकी बजाय, उसने इन धारणाओं और कल्पनाओं के बाहर जाकर और लोगों की अपेक्षाओं के बाहर जाकर काम किया; उसने यहूदियों को बाहर खदेड़ दिया, और उन्हें पृथ्वी पर जगह-जगह भटकाया। लोग इसे समझ नहीं पाते, और इससे बहुत-सी धारणाएं पनपने लगती हैं।) यहूदियों को लेकर परमेश्वर के कृत्यों के बारे में बहुत-से लोगों के मन में धारणाएं और गलतफहमियां हैं। दूसरे शब्दों में, लोग परमेश्वर के कृत्यों को लेकर असहज महसूस करते हैं, और सोचते हैं उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्या यह एक धारणा है? (हां, है।) तो फिर, जब लोग सोचते हैं कि परमेश्वर ने जो किया “वैसा नहीं करना चाहिए था”, क्या यह परमेश्वर के कृत्यों को लेकर अपनी परिभाषा सीमित करना नहीं है? तुम्हें कैसे पता कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए था? तुम्हारे यह कहने के पीछे क्या आधार है कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए था? अगर तुम सोचते हो कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए था, पर उसने ऐसा किया, तो क्या इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर परमेश्वर नहीं है? क्या इसका अर्थ है कि परमेश्वर ने जो किया वह गलत था, और सत्य के अनुरूप नहीं था? क्या इस मामले में मनुष्य मूर्ख नहीं है? मनुष्य हद दर्जे का मूर्ख और अज्ञानी है, अहंकारी और हठधर्मी है; परमेश्वर के बारे में धारणाएं बनाना और उसकी परिभाषा को सीमित करना मनुष्य के लिए बड़ी आसान बात है। अगर इस तरह के लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते तो यह बहुत खतरनाक है, और उन्हें त्याग दिए जाने की प्रबल संभावना है।

बहुत-से लोगों के मन में यहूदिया से यहूदियों के निष्कासन को लेकर धारणाएं और मत हैं, और वे परमेश्वर के इरादों को समझ नहीं पाते हैं, पर इस समस्या का समाधान बहुत आसान है। मैं तुम लोगों को एक सरल तरीका बताता हूं। सुनो और देखो कि क्या यह तुम लोगों की समस्या को सुलझाने में कारगर साबित हो पाता है। सबसे आसान तरीका, सबसे पहले लोगों के लिए यह जानना है कि वे सृजित प्राणी हैं, और यह स्वर्ग का आदेश और पृथ्वी की स्वीकृति है कि सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता की आज्ञा का पालन करें। अगर सृजित प्राणियों के मन में सृष्टिकर्ता को लेकर लगातार धारणाएं रहेंगी, और वे उसके सम्मुख समर्पण नहीं कर पाएंगे, तो यह एक महा अवज्ञा होगी। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो सर्वोच्च सिद्धांत है। सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसकी कार्य अपेक्षाओं पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे इसकी आवश्यकता है कि कोई व्यक्ति उससे सहमत हो। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है, और भले ही वह कुछ भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब सत्य के सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है, जिनके द्वारा सृष्टिकर्ता कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज़ है और वह है सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना; व्यक्ति को अपना कोई चुनाव नहीं करना चाहिए। यही विवेक है जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए, और अगर किसी व्यक्ति के पास यह नहीं है, तो वह व्यक्ति कहलाने योग्य नहीं हैं। लोगों को समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता हमेशा सृष्टि का प्रभु ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी पर जैसे चाहे वैसे आयोजन और शासन करने की शक्ति और योग्यता है, और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों में से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसके पास यह अधिकार हो या वह इतना पात्र हो कि वह इस बात की आलोचना कर सके कि सृजन का प्रभु जो कुछ करता है, वह सही है या गलत है, या उसे कैसे कार्य करना चाहिए। कोई भी प्राणी यह हक नहीं रखता कि यह चुन सके कि उसे सृष्टिकर्ता के शासन और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना है या नहीं; किसी भी प्राणी को यह हक नहीं है कि वह यह पूछ सके कि सृष्टिकर्ता को कैसे शासन करना चाहिए या उसे उनकी नियति की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टिकर्ता ने चाहे सृजित प्राणियों के साथ कुछ भी किया हो या कैसे भी किया हो, उसके द्वारा सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टिकर्ता द्वारा प्रस्तुत इस चीज को खोजना, इसके प्रति समर्पित होना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि सृष्टिकर्ता ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा, जिससे उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ेगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता का नियम और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं, और वे उसके शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गए हैं, इसलिए उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, सृष्टिकर्ता की इच्छा को समझ लिया होगा, और उसके स्वभाव को जान लिया होगा। एक और सिद्धांत है, जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, जिस भी तरह से अभिव्यक्त करे, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और गुणी क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष प्रतिभा दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी संपत्ति नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। परमेश्वर मुझे कभी दर-किनार नहीं करेगा। परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाज़ुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रोत्साहन का होगा।” इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीज़ों के बीच जैसी चाहे वैसी कोई भी भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह अच्छी समझ होनी चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज़्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।

इन वचनों को सुनने के बाद तुम लोग क्या सोचते हो? क्या तुम अब भी परमेश्वर को गलत समझते रहोगे? कुछ लोग कहते हैं, “यह देखते हुए कि परमेश्वर लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार करता है, जब परमेश्वर ने कहा था कि उसकी नजरों में लोग चींटियों की तरह और कीड़े-मकोड़ों से भी कमतर हैं, ऐसा लगता है कि यह सिर्फ सैद्धांतिक बात नहीं, बल्कि सच्चाई है! मनुष्य परमेश्वर को इतना प्यारा नहीं है और परमेश्वर मनुष्य के साथ इतना घनिष्ठ नहीं है जितनी कि लोग कल्पना करते हैं।” लोगों के दिल सर्द हो जाते हैं मानो किसी चिंगारी पर पानी डाल दिया गया हो, और उनका उत्साह कम हो जाता है। क्या तुम लोग कहोगे कि उनके दिलों का सर्द हो जाना या उनके दिल में परमेश्वर के लिए निरंतर गलतफहमियां पलते रहना बेहतर है? (उनके दिल का सर्द हो जाना बेहतर है।) सिर्फ कुछ समय तक सर्द पड़े रहने के बाद ही वे परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकते हैं। सृजित प्राणियों में यह समझ होनी चाहिए कि हर चीज के लिए सत्य को अपने सिद्धांत के तौर पर प्रयोग कर सकें; उन्हें सत्य को हर चीज को देखने का आधार बनाना चाहिए, और वे जो कुछ भी करते हैं, उसके लिए उन्हें सत्य को अपना सिद्धांत और आधार बनाना चाहिए। यह मनुष्य के लिए सबसे सही रास्ता है। पर इससे उलट, लोग अपने दिल में हमेशा यह सोचते हैं कि परमेश्वर के साथ उनके संबंध किसी व्यक्ति के साथ संबंधों की तरह हैं, और उनके बीच बराबरी का आदान-प्रदान होना चाहिए। क्या यह एक अच्छी स्थिति है? (नहीं, यह नहीं है।) ऐसा क्यों नहीं है? लोगों ने खुद को गलत स्थिति में डाल लिया है; वे परमेश्वर के साथ परमेश्वर की तरह व्यवहार नहीं करते। इसका कारण यह है कि लोगों में परमेश्वर के बारे में बहुत सारी गलतफहमियां हैं, पर परमेश्वर लोगों की गलतफहमियों या भ्रांतियों के कारण अपना रवैया नहीं बदलेगा। उल्टे, वह न सिर्फ अपना रवैया नहीं बदलेगा, बल्कि लोगों में पहले की तरह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता रहेगा, और समूची मानवजाति के जीवन पर अपनी संप्रभुता जारी रखते हुए उसके जीवन की व्यवस्था करता रहेगा। पर मनुष्य परमेश्वर के बारे में धारणाएं बनाने और उसका प्रतिरोध और विद्रोह करने से बच नहीं पाता, इसलिए मनुष्य को घोर कष्ट झेलना होगा। लोग परमेश्वर को खुश करना और उसके साथ अपने संपर्क को मजबूत दिखाना चाहते हैं। वे अपनी भावनाओं, पूंजी, प्रतिभाओं, क्षमताओं, अपनी पिछली उपलब्धियों, अपने योगदान, और हर तरह के अन्य कारणों की चर्चा करते हैं। हमेशा ऐसी अवस्थाओं में रहते हुए क्या लोग सत्य को प्राप्त कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का आज्ञाकारी दिल नहीं है, तुम हमेशा गलत विचार रखते हो, एक सृजित प्राणी की स्थिति अपनाने में अक्षम हो, निरंकुश महत्वाकांक्षाएं रखते हो, और हमेशा ऊंचे पदों की ताक में रहते हो, तो आखिर में तुम अपने कर्तव्य को सही तरीके से निभाने या परमेश्वर की मांगों और तुम्हारे प्रति उसके रवैये को सही तरीके से समझने में असमर्थ रहोगे। भले ही तुम निरंतर परिशोधित हो रहे हो, और कष्ट उठा रहे हो, तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से पीछा नहीं छुड़ा पाते, और यहां तक सोचते हो कि परमेश्वर सबसे ज्यादा प्रेम तुमसे करता है, और तुम्हारे साथ उसका सबसे ज्यादा लगाव है। इसका नतीजा यह होता है कि जब तुम देखते हो कि परमेश्वर असल में उस तरह काम नहीं करता और यह तुम्हारी खुशफहमी मात्र थी, तो तुम्हें एक झटका लगता है और तुम खुद पर एक प्रहार-सा महसूस करते हो, तुम्हें अपने साथ न्याय न होने और रोष का अनुभव होता है। तुम्हारी भावनाएं भी आहत महसूस करती हैं। क्या इस कष्ट का कोई महत्व या मूल्य है? (नहीं, नहीं है।) लोग अपनी खुशफहमी, धारणाओं और कल्पनाओं के कारण कष्ट मौल ले लेते हैं। यह उनके लिए एक बड़ी समस्या बन जाती है, जिससे उबरना बहुत जरूरी हो जाता है। उन्हें इससे कैसे उबरना चाहिए? यह स्वीकार करके कि परमेश्वर सबके प्रति धार्मिक है, और परमेश्वर का समूचा कार्य मानव नस्ल को बचाने के लिए है—उसका कोई दूसरा एजेंडा नहीं है। लोगों को यह करना चाहिए कि वे एक सृजित प्राणी की स्थिति में रहें, और सृष्टिकर्ता की संपभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करें; सृष्टिकर्ता जो भी करता है, उसके आगे समर्पण करें, इन चीजों में सत्य और परमेश्वर की इच्छा की खोज करें, और परमेश्वर के आचरण को पहचानें। अगर परमेश्वर के कृत्यों की समीक्षा और परिभाषा के लिए लोग हमेशा अपनी खुद की धारणाओं का उपयोग करेंगे, परमेश्वर से हमेशा अनुचित मांगें करेंगे, और यह आग्रह करेंगे कि परमेश्वर उनके हिसाब से चीजें करे, तो वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं, और वे न सिर्फ सत्य को समझ पाने में अक्षम हैं, बल्कि आखिर में उनके लिए परमेश्वर द्वारा घृणा किए जाने और त्याग दिए जाने के अलावा और कुछ न बचेगा। अगर लोग परमेश्वर के आशीष पाना चाहते हैं, तो उन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा की गई हर चीज को खोजना, पहचानना, स्वीकारना और उसके आगे समर्पण करना होगा। लोगों के लिए सत्य को समझने, परमेश्वर को जानने, परमेश्वर के सच्चे आज्ञाकारी बनने और बचाए जाने का यही एकमात्र तरीका है।

18 मई, 2018

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