सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन-प्रवेश

जीवन-प्रवेश में पहला कदम उठाते समय व्यक्ति को कहाँ से शुरुआत करनी चाहिए? जीवन-प्रवेश प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के पास क्या होना चाहिए? सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को किन सबसे महत्वपूर्ण और अहम चीजों का अनुसरण कर उन्हें प्राप्त करना चाहिए? क्या तुमने कभी इन प्रश्नों पर विचार किया है? जीवन-प्रवेश क्या है? जीवन-प्रवेश व्यक्ति के दैनिक जीवन में, उसके कार्यों में, उसके जीवन की दिशा में, और उसकी तलाश के लक्ष्य में होने वाला परिवर्तन है। अतीत में मूर्ख और अज्ञानी रहने, और हमेशा दैहिक विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करने के बाद व्यक्ति अब परमेश्वर के प्रकाशन, सिंचन और पोषण के माध्यम से यह समझ सकता है कि उसे परमेश्वर के वचनों के अनुरूप कार्य करना चाहिए। इसके अतिरिक्त, ऐसा व्यक्ति दैनिक जीवन में, अपने दृष्टिकोणों और स्वयं को संचालित करने की शैली में, और जीवन में अपनी दिशा और लक्ष्यों के बारे में परमेश्वर के वचनों के परिणामस्वरूप एक परिवर्तन से गुजरा है। यही जीवन-प्रवेश है। जीवन-प्रवेश का क्या आधार है? (परमेश्वर के वचन।) यह सही है। जीवन-प्रवेश परमेश्वर के वचनों से अविभाज्य है; वह सत्य से अविभाज्य है; परमेश्वर द्वारा बोला गया प्रत्येक वचन सत्य है। जिन्होंने जीवन-प्रवेश हासिल कर लिया है, उन लोगों में क्या प्रकट होता है? (वे जीने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करने में सक्षम होते हैं।) यह सही है। वे जीने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करने में सक्षम होते हैं। उनके कार्य, उनका बोलना, समस्याओं के बारे में उनके विचार, दृष्टिकोण, भंगिमाएँ और परिप्रेक्ष्य, सभी परमेश्वर के वचनों और सत्य पर निर्भर होते हैं। ये जीवन-प्रवेश हासिल कर लेने की अभिव्यक्तियाँ हैं। तो, जीवन-प्रवेश मुख्य रूप से किससे जुड़ा है? (परमेश्वर के वचनों से।) यह परमेश्वर के वचनों और सत्य से जुड़ा है। तो, अब, क्या जीवन-प्रवेश कर लेने वाले व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो सत्य का अनुसरण करता है और सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने जीवन-प्रवेश कर लिया है? (हाँ।) चीजों को इस प्रकार परिभाषित करने का क्या उद्देश्य है? हमें अपनी संगति का लक्ष्य किस दिशा में रखना चाहिए? (सत्य का अनुसरण करने की ओर।) सत्य का अनुसरण करना वह मुख्य विषय है, जिस पर मैं आज संगति करना चाहता हूँ। फिलहाल, तुम लोग जीवन-प्रवेश और सत्य के अनुसरण में संबंध के बारे में स्पष्ट नहीं हो—यह तुम्हारे लिए बहुत प्रत्यक्ष नहीं है। मैं हमेशा जीवन प्रवेश और स्वभावगत बदलावों और पौलुस के मार्ग का विश्लेषण करने पर संगति करता रहता हूँ। ये सब किस मुख्य विषय पर आकर सिमट जाते हैं? वह विषय है सत्य का अनुसरण करना। चाहे मैं पौलुस द्वारा अपनाए गए मार्ग का विश्लेषण करूँ या पूर्णता के उस मार्ग के बारे में बात करूँ जिसका पतरस ने अनुसरण किया था—मैं चाहे जिसके बारे में बात करूँ, अंततः वह किस तरह का मार्ग है जिसका सभी से अनुसरण करवाना मेरा लक्ष्य है? (सत्य के अनुसरण का मार्ग।) जब लोग सत्य का अनुसरण करने, सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने, परमेश्वर के इरादे समझने और परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार चीजें करने में सक्षम होते हैं, तो क्या वे लक्ष्य जिनका अनुसरण लोग करते हैं और वे मार्ग जिन पर वे चलते हैं, स्पष्ट नहीं होते? (हाँ, होते हैं।) सत्य का अनुसरण एक ऐसा विषय है जिससे बचना लोगों के लिए तब असंभव होता है जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अपना स्वभाव बदलना और उद्धार प्राप्त करना चाहते हैं। सिर्फ सत्य का अनुसरण करने वाले ही सच्चे विश्वासी होते हैं और वे ही उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। कुछ लोगों में जुनून होता है और वे परमेश्वर के लिए खपने को तैयार रहते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हों। हालाँकि सभी लोग सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं लेकिन कुछ लोगों में कम काबिलियत होती है, उनमें समझने की क्षमता नहीं होती और वे सत्य नहीं समझ सकते। कुछ लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती; चाहे वे कैसे भी उपदेश सुनें, वे कभी नहीं समझते, न ही वे तब समझते हैं जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं। वे हमेशा चीजों की व्याख्या तोड़-मरोड़कर करते हैं और अधिनियम लागू करने की कोशिश करते हैं। ये वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती। कलीसिया में ऐसे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ होती है, और ऐसे लोग भी हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती; कम काबिलियत वाले ऐसे लोग हैं जिनमें समझने की क्षमता का अभाव है और अच्छी काबिलियत वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्हें परमेश्वर के वचनों की शुद्ध समझ है; ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और ऐसे लोग भी हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। इन विभिन्न प्रकार के लोगों की अलग-अलग अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं और तुम्हें उनमें स्पष्ट रूप से अंतर करने में सक्षम होना चाहिए।

आओ, चर्चा की शुरुआत करते हैं पहले प्रकार के लोगों से—उन लोगों से जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। उदाहरण के लिए, हम सत्य के एक पहलू पर संगति करते हैं और जब हम सत्य के इस पहलू पर और लोगों की अवस्थाओं, रवैयों, इरादों और अभिव्यक्तियों पर संगति समाप्त कर चुके होते हैं तो कुछ लोग होते हैं जो यह नहीं समझते कि क्या कहा गया था, किस चीज पर संगति की गई थी, वे उससे अपनी तुलना नहीं कर सकते और नहीं जानते कि उनके व्यवहार और अभिव्यक्तियों, उनके भ्रष्ट स्वभाव और उनके प्रकृति सार का उस सत्य से क्या संबंध है जिस पर संगति की गई थी। वे यह भी नहीं जानते कि इसका उन चीजों से क्या लेना-देना है जिनका वे अपने जीवन में अनुसरण करते हैं या यह उपदेश क्यों दिया गया था—वे इससे सिर्फ धर्म-सिद्धांत समझते हैं, और वे इसमें अधिनियम पढ़ते हैं। जब कोई उनसे पूछता है कि उन्होंने क्या समझा तो वे कहते हैं, “हालाँकि आज कई विषयों पर संगति की गई लेकिन मुख्य विषय एक ही था : अगर कुछ होता है तो ज्यादा प्रार्थना करो।” कुछ दूसरे लोग भी हैं जो कहते हैं, “मैं समझता हूँ। परमेश्वर लोगों को अच्छा बनने, बुरी चीजें न करने और बहुत सारे अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। परमेश्वर को यह पसंद है।” कुछ और लोग भी हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर लोगों से कहता है कि उन्हें परमेश्वर के लिए खपना और उसे अपना बहुत-कुछ देना चाहिए।” क्या उन्होंने परमेश्वर के वचन समझे हैं? (नहीं।) इन सभी लोगों को लगता है कि उन्होंने उसके वचन समझ लिए हैं लेकिन असल में वे अँधेरे में इधर-उधर टटोल रहे हैं और उसके वचनों में से सिर्फ एक वाक्य ही समझ पाए हैं। उनकी समझ बहुत एकतरफा है और वे बिल्कुल नहीं समझते कि परमेश्वर क्या कहना चाहता है। चाहे परमेश्वर कितना भी कहे, जो लोग परमेश्वर के वचन नहीं समझते उन्हें वे सिर्फ नियम, धर्म-सिद्धांत, एक तरह का सिद्धांत, एक तरह का परिप्रेक्ष्य, या एक तरह की कहावत ही दिखाई देते हैं। जब इसे अभ्यास में लाने की बात आती है तो वे इसे कैसे अभ्यास में लाते हैं? उदाहरण के लिए, जब हम परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के सत्य के बारे में बात करते हैं तो इसे सुनने के बाद वे कहते हैं, “परमेश्वर मुझसे जो भी करने के लिए कहेगा, मैं वह करूँगा। उसके वचन सुनने और उसके प्रति समर्पित होने का यही अर्थ है।” क्या यह ज्यादा ही सरल नहीं हो गया? वे बस इतना ही समझ सकते हैं। वे नहीं समझते कि परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का कौन-सा तरीका उसके प्रति सच्चा समर्पण है, परमेश्वर के इरादे कैसे खोजें और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे प्राप्त करें, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का अनुगमन कैसे करें, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य का अभ्यास कैसे करें, और यह तो वे बिल्कुल नहीं समझते कि परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर कलीसिया के कार्य की रक्षा कैसे करें। उन सत्यों को जो परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की कुंजी हैं जितना अधिक समझना होता है, उतना ही अधिक वे उन्हें समझने में असमर्थ होते हैं। वे सिर्फ अधिनियमों का पालन करना ही जानते हैं। आध्यात्मिक समझ न होने का यही अर्थ है। अधिनियमों का पालन करने और अपनी सोच की लीक में फँसने के अलावा, जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं है उन लोगों पर विवेक का असर नहीं होता। जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं है उन लोगों की प्राथमिक अभिव्यक्ति क्या होती है? (अधिनियमों का पालन करना।) उन लोगों की प्राथमिक अभिव्यक्ति अधिनियमों का पालन करना होती है। वे अक्सर किसी वाक्य या घटना को ले लेकर उसे अनुसरण करने के अधिनियम या तरीके के रूप में नियत कर लेते हैं। क्या ये लोग फिर सत्य के साथ इसी तरह से पेश आते हैं? (बिलकुल।) जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे सत्य की उन अभिव्यक्तियों में से जिस पर तुमने आज संगति की है, एक पहलू को याद रखते हैं; वे उन वचनों और व्यवहारों को अभ्यास करने के अधिनियमों के रूप में नियत कर लेते हैं और उनमें से प्रत्येक को बिना चूके याद रखते हैं। फिर, अगली बार, एक अलग स्थिति सामने आने पर अगर कोई संगति नहीं कर रहा होता है तो वे उन पुराने तरीकों और अधिनियमों को विवेकहीन ढंग से लागू करते हैं और उनका अभ्यास करने लगते हैं। यह जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होतीउन लोगों की एक ठोस अभिव्यक्ति है। ऐसे लोग अधिनियमों का पालन करते हुए कैसा महसूस करते हैं? (थके हुए।) वे थके हुए महसूस नहीं करते; अगर करते तो रुक जाते। उन्हें लगता है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं; उन्हें नहीं लगता कि वे अधिनियमों के एक समुच्चय का पालन कर रहे हैं और न ही उन्हें लगता है कि उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है। उन्हें यह तो बिलकुल भी नहीं लगता कि उन्होंने सत्य नहीं समझा है, न ही उन्हें इस बात की कोई समझ होती है कि सत्य सिद्धांत क्या होते हैं। इसके विपरीत, उन्हें लगता है कि उन्होंने सत्य के व्यावहारिक पहलू को और साथ ही सत्य के उस पहलू के सिद्धांतों को भी समझ लिया है; साथ ही, उन्हें लगता है कि उन्होंने परमेश्वर के इरादे समझ लिए हैं और अगर वे उसके अधिनियमों के अनुरूप कार्य कर सकें तो वे सत्य वास्तविकता के उस पहलू में प्रवेश कर चुके होंगे, परमेश्वर के इरादे पूरे कर चुके होंगे और सत्य को अभ्यास में ला चुके होंगे। क्या आध्यात्मिक मामलों की समझ न रखने वाले लोग यही नहीं सोचते? (हाँ, यही सोचते हैं।) क्या सोचने का यह तरीका परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों के अनुरूप है? क्या अधिनियमों के पालन द्वारा अभ्यास करना वास्तव में सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्ति है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) क्यों नहीं है? (क्योंकि जब कुछ घटित होता है तो वे सत्य नहीं खोजते और मामले पर विचार करने का प्रयास नहीं करते; वे बस हठपूर्वक उसी तरीके से चिपके रहते हैं जिस तरीके से वे हमेशा चीजें करते आए हैं।) जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे इसी तरह कार्य करते हैं—वे हठपूर्वक पुराने तरीकों से चिपके रहते हैं, आलसी होते हैं, जब चीजें घटित होती हैं तो सत्य नहीं खोजते और चीजों के बारे में सोचते नहीं या जाँच नहीं करते। और यदि वे जाँच करते भी हैं तो क्या वे समझ पाते हैं कि इसका क्या मतलब है? (नहीं।) वे क्यों नहीं समझते? (क्योंकि उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है।) सही कहा। इसका निष्कर्ष यह है कि इस तरह के लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती और वे सत्य कभी नहीं समझेंगे।

दरअसल, जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक तो होते हैं लेकिन वे इसे गलत तरीके से करते हैं। सटीक रूप से कहें तो, वे मुख्य रूप से अधिनियमों का पालन करने, परंपरागत तरीके से कार्य करने और धर्म-सिद्धांत का पालन करने या अन्य लोगों के काम करने के तरीके खुद पर लागू करने और उनके शब्दों की नकल करने पर भरोसा करते हैं। तो इस तरह के व्यक्ति का सार क्या होता है? वे अधिनियमों का पालन करने को सत्य का अभ्यास करने के समान क्यों मानते हैं और ऐसा क्यों सोचते हैं कि इस तरह से अभ्यास करना सत्य का अनुसरण करना है? यह समस्या क्यों उत्पन्न होती है? इस समस्या की एक जड़ है—क्या तुम लोग उसे देख सकते हो? (वे अपने विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य मानते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते और उन्होंने वास्तव में परमेश्वर के इरादे नहीं समझे हैं।) यह इसका हिस्सा है। इसके अलावा क्या है? (वे अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं और जब कुछ होता है तो वे सत्य नहीं खोजते। वे जिन चीजों को सही समझते हैं उन्हें सत्य मानते हैं।) आध्यात्मिक मामले की समझ न रखने वाले कुछ लोग ऐसे ही होते हैं, लेकिन समस्या की जड़ यह नहीं है। ऐसे लोगों ने खुद को इस तरह किसलिए अभिव्यक्त किया? आध्यात्मिक समझ न रखने वाले और अधिनियमों का पालन करना पसंद करने वाले लोग उपदेश बहुत गंभीरता से सुनते हैं, खासकर जब वे उनके अभ्यास से संबंधित हों। उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्य कैसे निभाएँ और जो चीजें उन्हें करनी चाहिए उन्हें अच्छे से कैसे करें। वे ध्यान तो देते हैं लेकिन मुख्य समस्या यह है कि वे अपनी अवस्था और उपदेश में सुनी हुई चीज के बीच तुलना नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, अगर लोगों की विद्रोहशीलता के बारे में बात की जाती है तो उसे सुनने के बाद वे सोचते हैं, “विद्रोही? मैं नहीं! अगर लोगों को विद्रोही होने की इजाजत नहीं है तो भविष्य में ऐसी स्थिति सामने आने पर मुझे नहीं बोलना चाहिए। मुझे बस इसे सहन करना चाहिए और लोगों का लहजा और भाव पढ़ने चाहिए। मैं देखूँगा कि मेरे आस-पास के लोग क्या कहते हैं और कैसे करते हैं और मैं भी वैसा ही करूँगा। तब मैं विद्रोही नहीं होऊँगा, है ना?” उपदेश सुनने के बाद वे जो निष्कर्ष निकालते हैं वह उनके अपने तर्क और अभ्यास के तरीकों का एक पुंज मात्र होता है। उपदेश में उजागर की गई तमाम अवस्थाओं पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती और वे उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकते। उनका दिमाग भ्रमित होता है। “भ्रमित” से मेरा क्या तात्पर्य है? वे नहीं जानते कि उपदेश में वास्तव में किस बारे में बात की जा रही है। मन ही मन वे सोचते हैं, “किस बात पर संगति की जा रही है? इसे स्पष्ट शब्दों में क्यों नहीं रखा जाता? आज इस चीज पर संगति की जा रही है, कल किसी और चीज पर की जाएगी।” उनके परिप्रेक्ष्य से सत्य का अभ्यास करना आसान है : बस वही करो जो तुमसे करने के लिए कहा जाए। जहाँ तक उपदेश में उजागर की जाने वाली तमाम अवस्थाओं और भ्रष्ट स्वभावों की बात है, वे उनकी तुलना खुद से नहीं कर सकते। वे अस्पष्ट होते हैं और जीवन-प्रवेश की प्रक्रिया के दौरान हर तरह की परिस्थिति में लोगों द्वारा प्रकट किए जाने वाले विचारों, भावों और विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों की बात आने पर वे किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते। वे विवरणों में अंतर नहीं कर सकते, न ही खुद से तुलना कर सकते हैं। खुद से तुलना न कर सकने वाले लोगों को सत्य सुनने के बाद कैसा महसूस होता है? (उन्हें लगता है कि अन्य लोगों के बारे में बात हो रही है और इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं है।) यह सही है। यह मुख्य विशेषता है; वे खुद से तुलना नहीं कर सकते। जब वे लोगों की भ्रष्ट अवस्थाएँ उजागर करने वाले वचन देखते हैं तो उन्हें लगता है कि वे सिर्फ दूसरे लोगों के बारे में बात कर रहे हैं। जब लोगों की औसत या सामान्य समस्याएँ उजागर होती हैं तो वे उन्हें स्वीकार सकते हैं, लेकिन जब भ्रष्ट स्वभावों या लोगों के सार से संबंधित वचनों की बात आती है तो स्पष्ट रूप से वे इसे नहीं स्वीकारते; वे इसे किसी भी परिस्थिति में नहीं स्वीकारेंगे—ऐसा लगता है मानो उन्हें स्वीकारने का मतलब होगा कि उनकी निंदा की गई है। आध्यात्मिक समझ न रखने वाले तमाम लोगों में यह समस्या होती है। जब उनका सामना परमेश्वर द्वारा लोगों की हर तरह की अवस्था और अभिव्यक्ति उजागर करने से होता है और हर तरह से उनका प्रकृति सार खुद को प्रकट करता है तो वे इनमें से किसी को भी नहीं स्वीकारते, न ही वे इसके साथ अपनी तुलना करते हैं या न ही इस पर चिंतन करते हैं। इसके बजाय, वे अक्सर इन वचनों और समस्याओं को दूसरे लोगों पर थोप देते हैं, यह सोचते हुए कि इनका अपने से कोई लेना-देना नहीं है। इस तरह के लोग न सिर्फ सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि उनके पास सामान्य विचार-प्रक्रियाएँ भी नहीं होतीं, उनकी बातें टालमटोल करने और गोल-गोल घुमाने वाली होती हैं और वे जिस प्रश्न का उत्तर देते हैं वह वो नहीं होता जो तुमने पूछा था। उदाहरण के लिए, अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उन्होंने खाना खा लिया है तो वे कहते हैं कि उन्हें पानी नहीं चाहिए; अगर तुम उनसे पूछो कि क्या उन्हें नींद आ रही है तो वे कहते हैं कि उन्हें प्यास नहीं लगी है। वे अक्सर इस तरह की भ्रमित अवस्था और हैरानी में रहते हैं। जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे खुद को इसी तरह अभिव्यक्त करते हैं। हर कलीसिया में ऐसे लोग हैं जिनको आध्यात्मिक समझ नहीं होती। हालाँकि उन सबकी समस्याएँ एक समान होती हैं, फिर भी उनमें सूक्ष्म अंतर होते हैं। क्या ऐसे भी लोग हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ बिल्कुल नहीं होती? (हाँ।) जो लोग तीन साल से कम समय से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं वे परमेश्वर में विश्वास, जीवन-प्रवेश, सत्य का अनुसरण, अपने स्वभावों में बदलाव का प्रयास करने और पूर्ण बनाए जाने जैसे मामलों में बहुत अस्पष्ट होते हैं। परमेश्वर के लिए तरह-तरह की चीजें करते हुए वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ जुनून पर भरोसा करते हैं और वे प्रयास और श्रम करने के स्तर पर होते हैं। वे जीवन-प्रवेश से संबंधित मामले नहीं समझते हैं और उनके पास जीवन-प्रवेश और सत्य का अनुसरण करने की कोई अवधारणा नहीं होती। वे बस वही चीजें करना पसंद करते हैं जो बाहर से दिखाई देती हैं और उन्हें करने के लिए जुनून के भरोसे जुट जाते हैं। ये वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ बिल्कुल भी नहीं होती। क्या इस चरण में बिल्कुल भी आध्यात्मिक समझ न रखने वाले व्यक्ति को सत्य का अनुसरण न करने वाला व्यक्ति करार दिया जा सकता है? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास करते हुए उसे पर्याप्त लंबा समय नहीं हुआ है, इसलिए उसे अभी ऐसा करार नहीं दिया जा सकता। चूँकि वह अभी भी जुनूनी अवस्था में हैं इसलिए वह परमेश्वर की प्रबंधन-योजना के उद्देश्यों, लोगों के उद्धार के मार्ग या हर तरह के व्यक्ति द्वारा अपनाए जाने वाले विभिन्न मार्गों के बारे में कुछ नहीं समझता, और इसलिए उसकी आध्यात्मिक नासमझी क्षम्य है; यह एक सामान्य चीज है। लेकिन, जहाँ तक उन लोगों की बात है जो पहले से समझते हैं कि जीवन-प्रवेश क्या है और जो जीवन-प्रवेश और स्वभावों के बदलाव से संबंधित तमाम सत्यों से परिचित होना शुरू कर चुके हैं, क्या उनमें ऐसे लोग हैं जिन्हें बिल्कुल भी आध्यात्मिक समझ न हो? (हाँ, हैं।) वे अभी भी मौजूद हैं। यहाँ तक कि अगर बिल्कुल भी आध्यात्मिक समझ न रखने वाला कोई व्यक्ति अपने दिल में सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हो, तो भी वह इसे हासिल नहीं कर सकता, इसलिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसा कोई तरीका नहीं है कि बिल्कुल भी आध्यात्मिक समझ न रखने वाले लोग सत्य का अनुसरण करने वाले हों, और ऐसा हरगिज नहीं है कि उनकी अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की तरह हों।

वे कौन-से तरीके हैं जिनसे आध्यात्मिक समझ रखने वाले और आध्यात्मिक समझ न रखने वाले लोग खुद को अभिव्यक्त करते हैं? जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे मूलभूत रूप से उन सत्यों से जिन पर परमेश्वर ने संगति की होती है, और साथ ही, उसके वचनों की अवस्था, संदर्भ और संकेतों से भी अनजान और अनभिज्ञ होते हैं, और वे उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकते। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है वे इसके ठीक विपरीत होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर मैं लोगों की विद्रोहशीलता पर संगति करता हूँ और विद्रोहशीलता के भीतर कट्टरता, स्वार्थ और हठपूर्ण मूर्खता, और साथ ही, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और उसके प्रति प्रतिरोध और विरोध होता है, जब मैं इस विषय से संबंधित अवस्थाओं के बारे में बात करता हूँ, चाहे मैं कोई उदाहरण दूँ या सत्य के किसी पहलू के बारे में बात करूँ या तुम्हारे दिल में मौजूद किसी अवस्था को छूऊँ या सत्य सिद्धांतों के विषयों पर संगति करूँ, अगर तुम जो सुनते हो उसे वास्तव में समझते हो तो तुम आध्यात्मिक समझ वाले व्यक्ति हो। अगर तुम जो सुनते हो उसे समझते हो और उसे अभ्यास में लाने में सक्षम हो तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करता है। जब आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोग परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो वे शुद्ध रूप से समझने में सक्षम होते हैं, यहाँ तक कि वे सत्य भी समझ सकते हैं। परमेश्वर चाहे किसी भी चीज के बारे में बात करे, वे उसे समझ पाते हैं, अपनी अवस्था और परमेश्वर के वचनों के बीच तुलना कर पाते हैं और अभ्यास का मार्ग खोज सकते हैं। यह आध्यात्मिक समझ होने की अभिव्यक्ति है। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोगों का दिल उज्ज्वल हो जाता है और वे इससे कुछ हासिल करते हैं। उनकी आत्मा विशेष रूप से स्वतंत्र होती है और उन्हें महसूस होता है कि एक मार्ग है जिसका वे अनुसरण कर सकते हैं। इसलिए, हर बार जब वे कोई उपदेश सुनते हैं तो उन्हें उससे कुछ हासिल होता है और हर बार जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे समृद्ध होते हैं। आध्यात्मिक समझ इसी तरह अभिव्यक्त होती है। परमेश्वर चाहे कुछ भी संगति करे, उसे सुनने के बाद आध्यात्मिक समझ रखने वालों के दिमाग में छवियाँ उभरेंगी और जब परमेश्वर लोगों की अवस्थाएँ उजागर करता है तो वे तुलना कर सकते हैं। जब परमेश्वर अपने बारे में गलतफहमियों की बात करता है तो वे उसे अपनी अवस्था पर लागू करते हैं और महसूस करते हैं, “मेरी यह माँग और मेरी ये कल्पनाएँ असल में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ हैं।” उन्होंने संबंध जोड़ लिया है। जब परमेश्वर अपने प्रति प्रतिरोध और विरोध के बारे में बात करता है तो अगर उनमें वैसी ही भावनाएँहैं, वे वैसी ही अवस्था में रहते हैं और उनके अंदर ये स्वभाव और सार हैं, तो वे उनके बीच तुलना कर सकते हैं। तुलना करने के लिए वे किस तरह की चीजें इस्तेमाल कर सकते हैं? विचार, भाव या स्वयं द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले क्रियाकलाप और व्यवहार; ये सभी तुलना करने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। जब लोग समझ सकते हैं कि परमेश्वर क्या कह रहा है और वह वास्तव में किस बारे में बात कर रहा है, और जान सकते हैं कि उनका कौन-सा व्यवहार, कौन-से प्रकाशन, अभिव्यक्तियाँ, अवस्थाएँ और सार उन अवस्थाओं से मेल खाते हैं जिन्हें परमेश्वर ने उजागर किया है और जिनके बारे में उपदेशों में बात की जाती है तो वे आध्यात्मिक समझ अभिव्यक्त करते हैं। क्या तुम लोग बता सकते हो कि तुममें आध्यात्मिक समझ है या नहीं? (कभी-कभी होती है और कभी-कभी नहीं होती है।) इसका समाधान किया जा सकता है, लेकिन अगर तुममें बिल्कुल भी आध्यात्मिक समझ नहीं है तो यह परेशानी का कारण है। अगर तुम अधिकांश समय यह जान जाते हो कि परमेश्वर के वचन किस बारे में बात कर रहे हैं तो भले ही तुम खुद से कोई तुलना नहीं कर पाओ, लेकिन तुम जानते हो कि तुम्हारे पास ऐसी अवस्थाएँ हैं या तुमने उन्हें अन्य लोगों में देखा है और तुम सत्य के इस पहलू को जानते हो, और यह भी जानते हो तुम्हें कैसे प्रवेश करना चाहिए तो यह पहले से ही माना जाता है कि तुममें आध्यात्मिक समझ है। लेकिन क्या ऐसा व्यक्ति हर बार उपदेश सुनने पर आध्यात्मिक समझ अभिव्यक्त कर पाता है? नहीं, कभी-कभी उनमें आध्यात्मिक समझ होती है और कभी-कभी नहीं होती। क्योंकि जीवन-प्रवेश सत्य के कई पहलू छूता है। कुछ सत्य हैं जिन्हें तुम समझते हो और जिनमें प्रवेश कर चुके हो, और कुछ सत्य हैं जिन्हें तुम नहीं समझते और जिनमें तुमने अभी तक प्रवेश नहीं किया है। कुछ सत्य हैं जिनका तुमने बिल्कुल भी सामना नहीं किया है, यहाँ तक कि उनके बारे में तुमने सुना भी नहीं है। अब तुमने इसे सुन लिया है लेकिन यह कहना कठिन है कि तुम इसे समझ सकते हो या नहीं, और यहाँ तक कि तुम्हारे मन में इसके बारे में धारणाएँ या गलतफहमियाँ भी हो सकती हैं। लेकिन यह सामान्य है। अगर सत्य के कुछ ऐसे पहलू हैं जिन्हें तुम समझते हो तो वे वो पहलू हैं जिनकी तुम्हें आध्यात्मिक समझ है; अगर सत्य के कुछ ऐसे पहलू हैं जिन्हें तुम नहीं समझते तो वे वो पहलू हैं जिनकी तुम्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है; अगर सत्य के कुछ ऐसे पहलू हैं जिनके बारे में तुमने कभी नहीं सुना और जो अभी भी तुम्हारे लिए बिल्कुल अनजाने हैं, या यहाँ तक कि उनके बारे में तुम्हारी कुछ धारणाएँ भी हैं, तो वे वो पहलू हैं जिनकी आध्यात्मिक समझ तुम्हें और भी कम है। उन पहलुओं में आध्यात्मिक समझ हासिल करने से पहले तुम्हें सत्य समझने तक अनुभव के दौर से गुजरना होगा। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ हैं लेकिन फिर भी वे सोचते हैं, “मैंने परमेश्वर को गलत नहीं समझा है; मैंने परमेश्वर को कभी गलत नहीं समझा है। मैं परमेश्वर से इससे अधिक प्रेम नहीं कर सकता! तो मैं उसे गलत कैसे समझ सकता हूँ?” ये वे शब्द हैं जिन्हें वे लोग बोलते हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है। अगर तुम कहते हो, “लोग अक्सर परमेश्वर को गलत समझते हैं लेकिन वे इस पर नियंत्रण नहीं रख सकते; गलतफहमियाँ कभी भी कहीं भी उत्पन्न हो जाती हैं। लेकिन, अभी तक, मैं ऐसे किसी भी पहलू से अनभिज्ञ लगता हूँ जिसमें मैंने परमेश्वर को गलत समझा है या मैं उसके विरोध में रहा हूँ। मुझे बहुत ध्यान से चीजें देखनी होंगी, अनुभव लेना होगा और परमेश्वर से प्रार्थना करके कहना होगा कि मुझ पर ये चीजें प्रकट करने के लिए वह स्थितियाँ आयोजित करे।” यह आदर्श है। तुम्हारे मन में यही इच्छा होनी चाहिए—तुम्हें सुधरने का प्रयास करते रहना चाहिए। अगर कोई कहता है कि “मैंने परमेश्वर को कभी गलत नहीं समझा। यहाँ दूसरे लोगों के बारे में बात हो रही हैं,” तो यह तथ्य कि वे इतनी बेतुकी बात कह सकते हैं दर्शाता है कि उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है। जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे मुख्य रूप से कौन-से स्वभाव प्रकट करते हैं? अहंकार और हठपूर्ण मूर्खता। हठपूर्ण मूर्खता क्या होती है? इसका मतलब है कि तुम मूर्ख और हठी दोनों हो। यह ठोस रूप में कैसे अभिव्यक्त होता है? (वे उन भ्रष्ट स्वभावों से अनभिज्ञ होते हैं जिन्हें हर कोई देख सकता है और सोचते हैं कि उनमें ये स्वभाव नहीं हैं। वे खास तौर से आत्मतुष्ट भी होते हैं और सोचते हैं कि वे पूरी तरह से सही हैं।) वे न सिर्फ यह सोचते हैं कि उनमें भ्रष्टता का यह पहलू नहीं है, बल्कि यह भी सोचते हैं कि वे अच्छा कर रहे हैं। वे अंदर से अपने अहंकारी स्वभाव से नियंत्रित होते हैं और सोचते हैं कि वे ऐसा कुछ कभी नहीं करेंगे। दूसरे लोग चाहे कुछ भी कहें, जब तक वे खुद कुछ महसूस नहीं करते, नहीं देखते या अनुभव नहीं करते, तब तक उन्हें लगता है कि इस पर विचार करने, इसे समझने या स्वीकारने की कोई जरूरत नहीं। यही हठपूर्ण मूर्खता है। हठपूर्ण मूर्खता का वर्णन करने का दूसरा तरीका क्या है? यह तब होती है जब तुम पर विवेक का असर नहीं होता। क्या कोई अन्य शब्द भी है? (मूढ़ता।) हाँ, हठपूर्ण मूर्खता काफी हद तक मूढ़ता से जुड़ी है—वे मूर्ख और हठी दोनों होते हैं। उदाहरण के लिए, दूसरे लोग कहते हैं, “तुम्हें सावधान रहना चाहिए। हमेशा ठंडा पानी पीने से पाचन धीमा हो सकता है और तुम्हें पेटदर्द हो सकता है।” और वे जवाब देते हैं, “मेरा शरीर सुस्वस्थ है। मेरे साथ कुछ भी गलत नहीं है। तुम बेकार ही चिंता कर रहे हो।” क्या यह हठपूर्ण मूर्खता नहीं है? (हाँ, बिलकुल है।) वे बहुत हठी और मूर्ख इसलिए लगते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ अनुभव नहीं किया है, फिर भी वे इतने आत्मतुष्ट हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वे हठी और मूर्ख हैं? क्योंकि उनके पास कोई अनुभव नहीं है, फिर भी वे किसी अनुभवी व्यक्ति की बात का खंडन करने का साहस करते हैं। वे इन वचनों की सटीकता की पुष्टि नहीं करते या उनसे कोई सबक नहीं सीखते; इसके बजाय, वे सोचते हैं कि वे बहुत सही हैं, और दूसरे लोग जो कहते हैं उसे वे नहीं स्वीकारते। यह हठी और मूर्ख होने के साथ-साथ अहंकारी और आत्मतुष्ट होना भी है। अपने जीवन-प्रवेश में पतरस दूसरों की असफलताओं से सीखने में सक्षम था। परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं? (परमेश्वर कहता है कि पतरस ने “बीते हुए समय में जो कुछ अच्छा था उसे आत्मसात किया, और जो कुछ खराब था उसे अस्वीकार किया” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, वास्तविकता को कैसे जानें)।) हठी और मूर्ख लोग अपनी आँखों के सामने घटी चीजें भी नहीं स्वीकार सकते और उनसे कुछ नहीं सीखते। लोग इसे मूढ़ होना समझते हैं, लेकिन वास्तव में यह उनके स्वभाव के साथ समस्या है—यह अहंकारी स्वभाव के कारण होता है।

आओ, इस विषय पर वापस लौटते हैं कि जिन्हें आध्यात्मिक समझ है वे खुद को कैसे अभिव्यक्त करते हैं और जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे खुद को कैसे अभिव्यक्त करते हैं। अभी मैंने जो कहा, क्या वह आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोगों द्वारा खुद को अभिव्यक्त करने का मुख्य तरीका है? मुझे बताओ। (जिन्हें आध्यात्मिक समझ है, वे समझ सकते हैं कि परमेश्वर के वचन किन इंसानी अवस्थाओं को उजागर कर रहे हैं, और वे उनसे अपने दैनिक जीवन में अपनी सोच, विचारों, कार्यों और व्यवहार की तुलना करते हैं। वे समझ सकते हैं कि परमेश्वर क्या कह रहा है।) तुमने ज्यादातर मुख्य बिंदु बता दिए। जब आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोग परमेश्वर के प्रकट करने वाले वचन पढ़ते हैं तो वे खुद से तुलना करने में सक्षम होते हैं और जान जाते हैं कि परमेश्वर के वचन किन सत्यों के बारे में बात कर रहे हैं, लोगों को किस सत्य में प्रवेश करना चाहिए, उसके वचन किन इंसानी स्वभावों को उजागर कर रहे हैं और वे कौन-सी इंसानी अवस्थाओं और अभिव्यक्तियों का खुलासा कर रहे हैं। वे इन सभी चीजों से अपनी तुलना करने और उनके प्रति जागरूक रहने में सक्षम होते हैं। आध्यात्मिक समझ इसी तरह अभिव्यक्त होती है। पहले, जब मैं इस बारे में संगति कर रहा था कि आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोग खुद को कैसे अभिव्यक्त करते हैं तो हमने एक सवाल उठाया था, जो यह था कि क्या आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोगों को सभी मामलों की आध्यात्मिक समझ होती है। होती है क्या? (नहीं होती। कुछ मामलों में वे अपनी तुलना उन अवस्थाओं से करने में सक्षम होते हैं जिन्हें परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं, इसलिए वे आध्यात्मिक समझ अभिव्यक्त करते हैं; जबकि जिन मामलों को उन्होंने अभी तक अनुभव नहीं किया है उनसे वे अपनी तुलना करने में असमर्थ होते हैं, इसलिए उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती।) अगर उन्होंने कोई चीज अभी तक अनुभव नहीं की है और वे खुद से तुलना करने में असमर्थ हैं तो उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती। तो फिर, अगर ऐसी चीजें हैं जिनका उन्होंने अनुभव किया है लेकिन वे उनमें निहित सत्य नहीं समझते और इसलिए वे उन्हें नहीं स्वीकारते या उन्हें सत्य नहीं मानते—क्या यह आध्यात्मिक समझ होना माना जाता है? (नहीं।) यह भी आध्यात्मिक समझ होना नहीं है। अगर वे यह नहीं समझते कि जो कुछ वे सुनते हैं वह सत्य है तो क्या होगा—क्या इसे आध्यात्मिक समझ होना माना जाता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों में से कोई खुद को इन तरीकों से अभिव्यक्त करता है? उदाहरण के लिए, जब समर्पण के बारे में सत्यों की बात आती है तो कुछ लोग कहते हैं, “हमें इस मामले में आज्ञाकारी होना चाहिए। लोगों के पास डींगें हाँकने को कुछ नहीं है और आज्ञाकारी होना उनका कर्तव्य और दायित्व है।” यह सुनकर तुम मन ही मन सोचते हो, “यह किस तरह का सत्य है? क्या इस मामले में भी आज्ञाकारी हों? मेरे विचार से यहाँ आज्ञाकारी होने की कोई जरूरत नहीं!” क्या इस मामले में तुम्हें आध्यात्मिक समझ की कमी नहीं है? (हाँ, है।) दरअसल, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि तुम्हारे अनुभव कितने गहरे या उथले हैं; यह पूरी तरह से तुम्हें आध्यात्मिक समझ होने या न होने का सवाल है। मैं एक उदाहरण देता हूँ। जब अय्यूब की परीक्षा हुई तो उसने क्या कहा? (“यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)।) जब लोग उसे यह कहते हुए सुनते हैं तो क्या वे इसमें निहित सत्य समझ सकते हैं? (नहीं।) तो क्या लोगों को इस मामले की आध्यात्मिक समझ है? (नहीं।) नहीं, उन्हें यह समझ नहीं है। हर इंसान परमेश्वर द्वारा देने और छीन लेने की दो बातें अनुभव करने में सक्षम है, है न? (हाँ।) तुम पहले ही उनका अनुभव कर चुके हो लेकिन तुम उनमें निहित सत्य नहीं समझते तो क्या तुम्हें इन मामलों की आध्यात्मिक समझ है? (नहीं।) नहीं, तुम्हें इन मामलों की आध्यात्मिक समझ नहीं है। अय्यूब के कहे वचनों में कौन-सा सत्य निहित है? (यह कि परमेश्वर संप्रभु है और सभी पर शासन करता है।) वह यह है कि परमेश्वर सभी मामलों और सभी चीजों पर संप्रभु है और देने या छीन लेने का निर्णय उसी का होता है। तो, लोगों को किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? (आज्ञाकारिता का।) यह सही है। उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता के समक्ष समर्पण करना चाहिए, परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता की प्रशंसा करनी चाहिए। जब लोग ये वचन और इनमें निहित सत्य समझते हैं तो उन्हें इस मामले की आध्यात्मिक समझ होती है। अगर लोग इन वचनों में निहित सत्य नहीं समझते तो उन्हें इस मामले की आध्यात्मिक समझ नहीं होती। इस समय, क्या तुम लोगों को अय्यूब के वचनों की आध्यात्मिक समझ है? (नहीं।) अगर तुम जो समझते हो वह धर्म-सिद्धांत है तो तुम कहते हो, “अय्यूब का अनुभव अच्छा था। परमेश्वर ने कहा कि अय्यूब एक धार्मिक व्यक्ति है, इसलिए उसने जो कुछ भी किया वह निश्चित रूप से सत्य के अनुरूप और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में सक्षम होना चाहिए।” तुम धर्म सिद्धांत समझते हो। तो, यह धर्म सिद्धांत तुम्हारी सत्य वास्तविकता कब बनेगा? (जब परमेश्वर वास्तव में ऐसी परिस्थितियाँ आयोजित करता है जिनमें चीजें मुझसे छीन ली जाती हैं, और मैं परमेश्वर को धन्यवाद देने और उसकी स्तुति करने, परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने, और शिकायत न करने में सक्षम रहता हूँ और इस तरह सत्य के इस पहलू का अभ्यास करता हूँ।) तुम इसका अभ्यास करने में सक्षम तो रहते हो, लेकिन क्या तुम्हारा अभ्यास अधिनियमों का पालन करने और दूसरों की नकल करने का है या तुम्हारे दिल में परमेश्वर की संप्रभुता की गहरी सच्ची समझ है? इनमें फर्क है, है न? इनमें से कौन-सा सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है? अब ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अय्यूब द्वारा प्रस्तुत उदाहरण देखने के बाद वही चीजें कहने में सक्षम हैं जो अय्यूब ने कही थीं लेकिन जब वे ये चीजें कहते हैं तो वे बस उसकी नकल कर रहे होते हैं या उनके शब्द, अय्यूब की ही तरह, कई दशकों के अनुभव के बाद इस सत्य और तथ्य का बोध होने पर बोले गए होते हैं कि परमेश्वर मानवजाति पर संप्रभु है? इनमें से कौन-सी सत्य वास्तविकता है? (यह कि जो अनुभव से आता है, वह वास्तविकता है।) केवल वे चीजें जिन्हें तुम अनुभव के माध्यम से महसूस करते और समझते हो सत्य वास्तविकता हैं; दूसरे लोग जो कहते हैं उसकी नकल करना वास्तविकता नहीं है। जो वाक्यांश अय्यूब ने बोला था उसमें वास्तविकता का एक पहलू था, लेकिन जब वही वाक्यांश उन लोगों द्वारा बोला जाता है जो उसके वचनों की नकल करते हैं तो यह एक नारा बन जाता है जिसका उपयोग वे स्वयं को सजा-धजाकर आध्यात्मिक लोगों का भेष धारण करने के लिए करते हैं। ये लोग धार्मिक ठग हैं। कुछ लोग, जिन्हें कलीसिया में अगुआ बनने के लिए चुना जाता है और जिनके पास जिम्मेदारी और हैसियत होती है, अक्सर भाई-बहनों के साथ उन वचनों पर संगति करते हैं जो अय्यूब ने कहे थे : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।” सुनने वाले लोगों को कैसा लगता है? वे यह महसूस करते हैं, “ये वचन परमेश्वर के हैं। ये पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और परमेश्वर के मार्गदर्शन के माध्यम से प्रकट किए गए थे। ये बेहद व्यावहारिक हैं।” एक साल से भी कम समय के बाद उन अगुआओं को वास्तविक कार्य न करने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में देरी करने और कलीसिया के कार्य की प्रगति में विलंब करने के लिए बर्खास्त कर दिया जाता है और बाद में वे नकारात्मक होकर शिकायत करते हैं। इस तरह के लोग वही वचन बोलते हैं जो अय्यूब ने बोले थे लेकिन उन्होंने उन चीजों का अनुभव नहीं किया होता जिनका अय्यूब ने किया था और उन्हें इन वचनों की गहरी समझ, अनुभव या बोध नहीं होता। इसलिए जब वे बोलते हैं तो क्या वे नकल कर रहे होते हैं या ईमानदारी से बोल रहे होते हैं? (वे नकल कर रहे होते हैं।) जब बात यह आती है कि वे अंतर्मन में क्या सोचते हैं तो जब वे बोलते हैं तब उनके शब्दों में उनकी व्यक्तिगत भावनाएँ शामिल होती हैं और वे ईमानदार होते हैं। उनकी एक इच्छा होती है, जो यह है कि जब परमेश्वर उन्हें चीजें दे तो वे हमेशा उसकी स्तुति कर सकें और उसके द्वारा दिए गए आशीषों और गुणों के लिए उसे धन्यवाद दे सकें और जब परमेश्वर उनसे चीजें छीन ले तो वे शिकायत बिल्कुल न करें बल्कि अय्यूब की तरह परमेश्वर की स्तुति कर पाएँ और परमेश्वर के मार्गदर्शन और संप्रभुता के लिए उसे धन्यवाद दें। लेकिन, यह सिर्फ इच्छा ही होती है और यह अभी ऐसी चीज नहीं होती जिसे उन्होंने अनुभव किया हो। जब उनका पद और पदवी चली जाती है और वे सिर्फ आम विश्वासी रह जाते हैं तो क्या वे अपने कहे पर अमल करते हैं? (नहीं।) मैं यह नहीं कह सकता कि वे अपने कहे पर बिल्कुल भी अमल नहीं करते; यह इस पर निर्भर करता है कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे अपने व्यवहार का मूल्यांकन करने के लिए इन वचनों का उपयोग करते हैं और उनका अपने अनुभव के लिए मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल करते हैं, उनके साथ अपनी तुलना करने में सक्षम होते हैं और उनमें अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ते हैं। वे बहुत परेशान या नकारात्मक नहीं होते और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम रहते हैं। इसके विपरीत, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और इसके बजाय नारे लगाते हैं, वे संकट में हैं; वे खुद को अलग ढंग से अभिव्यक्त करते हैं। इस तरह के लोगों के खुद को प्रकट करने के सबसे स्पष्ट तरीके कौन-से हैं, जो तुम लोगों ने देखे हैं? (बर्खास्त किए जाने के बाद कुछ अगुआ खुद को जानने की कोशिश नहीं करते और समर्पित नहीं होते। उन्हें लगता है कि उनकी बर्खास्तगी अनुचित है और वे नकारात्मक होकर शिकायत करते हैं। अगली बार जब चुनाव होता है तो वे पुनः सत्ता हासिल करने के लिए संघर्ष करते हैं और अंततः मसीह-विरोधी बन जाते हैं और निष्कासित कर दिए जाते हैं।) यह सबसे गंभीर मामला है। और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? (कुछ लोग बर्खास्त होने के बाद बस नियमित नौकरी करते हैं और कोई कर्तव्य नहीं निभाते।) ये किस तरह के व्यक्ति हैं? इन्होंने पहले शेखी क्यों बघारी और नारे क्यों लगाए? वे दूसरों को सुनाने के लिए बोल रहे थे और उहोंने खुद की छवि संवारने, लोगों का दिल जीतने और लोगों से अपना सम्मान करवाने के लिए इन नारों, धर्म-सिद्धांत और कर्णप्रिय शब्दों का इस्तेमाल किया। यही उनका लक्ष्य था। और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? (बर्खास्त किए जाने से पहले कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बाहरी तौर पर कड़ी मेहनत करते हुए दिखाई देते हैं और कहते हैं, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया,” लेकिन बर्खास्त किए जाने के बाद वे नकारात्मक हो जाते हैं और खुद को सँभाल नहीं पाते, यहाँ तक कि यह सोचते हुए लोगों पर भड़क जाते हैं और क्रोधित होते हैं कि उन्होंने पहले जो कुछ भी खपाया और अपना जो कुछ भी दिया वह सब व्यर्थ गया, मानो परमेश्वर का घर उनका ऋणी हो।) जो लोग ये बातें कहते हैं और इस तरह से कार्य करते हैं, उनके साथ एक गंभीर समस्या है। सबसे पहले, व्यक्ति को ये बातें कहने वाले की प्रकृति समझनी चाहिए। वे सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे अय्यूब के वचनों की नकल करते हैं; वे अपने सिर के लिए एक सुंदर मुकुट की कल्पना करते हैं, और लोगों के सामने दिखावा करने और उन्हें गुमराह करने के लिए खुद को आध्यात्मिक लोगों के रूप में पेश करते हैं। क्या यह सत्य के साथ खिलवाड़ करने और परमेश्वर की निंदा करने की अभिव्यक्ति नहीं है? मुझे बताओ, अपनी कीर्ति, लाभ और हैसियत खो देने पर, किस तरह के लोग खास तौर से बड़ी प्रतिक्रिया देते हैं, नकारात्मकता में डूब जाते हैं, अपना कर्तव्य निभाना बंद कर देते हैं, खुद को नाकारा मानकर खराब स्थिति को और भी खराब बना देते हैं, यहाँ तक कि विश्वास करना भी बंद कर देते हैं? (खराब मानवता वाले लोग और दुष्ट लोग।) यह सही है। खराब मानवता वाले लोग और दुष्ट लोग निश्चित रूप से वे लोग नहीं होते जो सत्य का अनुसरण करते हैं लेकिन अगर अच्छी मानवता वाले लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते तो क्या वे भी खुद को इसी तरह अभिव्यक्त करेंगे? निश्चित रूप से करेंगे। दुष्ट लोगों द्वारा खुद को इस तरह अभिव्यक्त करने के अलावा एक और स्थिति है जो सीधे तौर पर इस बात से जुड़ी है कि लोग किसका अनुसरण करते हैं और किस मार्ग पर चलते हैं। भले ही सतही तौर पर ऐसा लगे कि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते उनमें कुछ मानवता है लेकिन इससे कोई फायदा नहीं होगा और उन सभी के सार बुरे हैं, वे सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का विरोध करने में सक्षम हैं और अगर उनके पास हैसियत है तो वे बुरा करने में सक्षम हैं। एक सबसे गंभीर समस्या और है, जो यह है कि इस तरह के लोग खास तौर से हैसियत के पीछे दौड़ने के लिए उत्सुक रहते हैं। अगर उन्हें हैसियत हासिल नहीं करने दी जाती या अगुआ नहीं बनने दिया जाता तो यह ऐसा होता है मानो उनका जीवन छीना जा रहा हो। क्या वे इसे स्वीकार सकते हैं? जब उनके पास हैसियत होती है तो चाहे वे कितना भी कष्ट उठाएँ या कितना भी दुर्व्यवहार सहें, वे इच्छुक रहते हैं। लेकिन, कोई यह नहीं कह सकता कि वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि वे इसके इच्छुक होते हैं या इसलिए कि वे कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं। यह गलत होगा। वे कीर्ति, लाभ और हैसियत के पीछे दौड़ते हैं; वे हैसियत के लाभों के पीछे दौड़ते हैं। यह किस तरह पौलुस के समान है? (वह मुकुट के पीछे दौड़ा था।) यह सही है। वह मुकुट के पीछे दौड़ा था और वह धार्मिकता का मुकुट था। पौलुस जैसे लोग इसी का अनुसरण करते हैं—वे मुकुट के अनुसरण को उचित अनुसरण मानते हैं और उसे सत्य का अनुसरण समझते हैं। इसके बाद, क्या तुम लोगों को इस तरह के लोगों के बारे में कुछ समझ होगी? (हाँ।) मान लो, कोई व्यक्ति बर्खास्त किए जाने और अपनी हैसियत खोने के बाद लोगों पर भड़कता है और क्रोधित होता है, और जो भाई-बहन उसकी देखरेख में हैं उन पर कोई ध्यान नहीं देता या उनसे बात नहीं करता, और जब उससे सुसमाचार फैलाने के लिए कहा जाता है तो वह कहता है, “मैं सुसमाचार नहीं फैलाऊँगा। मैं तुम्हारे लिए सेवा नहीं दूँगा! जब तुम्हें मेरी जरूरत होती है तो तुम मेरे बारे में सोचते हो लेकिन जब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं होती तो मुझे लात मारकर किनारे करते हुए बर्खास्त कर देते हो। मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” ये किस तरह के शब्द हैं? क्या ऐसे व्यक्ति को पहचानना आसान है? यह विश्वासी कैसे है? यह किसी भी तरह का सच्चा विश्वासी या किसी भी तरह का अच्छा व्यक्ति नहीं है। बर्खास्त किए जाने के बाद किस तरह के लोगों की सबसे बड़ी प्रतिक्रिया होती है? (जो लोग कीर्ति, लाभ और हैसियत के पीछे दौड़ते हैं उनकी।) अभी तुम लोगों ने कहा था कि इस तरह के लोगों में खराब मानवता होती है या वे सत्य या जीवन प्रवेश का अनुसरण नहीं करते। क्या यह इस समस्या के सार से संबंधित है? (नहीं।) तुम जो कहते हो वह कुछ अर्थपूर्ण लगता है लेकिन इसका इस समस्या के सार से कोई संबंध नहीं है। यह इस समस्या का सार नहीं है। अभी-अभी, तुम लोगों ने कहा कि बर्खास्त होने के बाद कुछ लोग इसलिए शिकायत करते हैं और खुद को नाकारा मान लेते हैं क्योंकि उनमें खराब मानवता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह धर्म-सिद्धांत है? वह इसलिए, क्योंकि कुछ लोगों में काफी अच्छी मानवता होती है और वे ईमानदारी से खुद को समर्पित करते और खपाते हैं, बस वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और हमेशा प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे दौड़ते हैं। नतीजतन, जब अंततः उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है तो उनकी भारी प्रतिक्रिया होती है। यह दर्शाता है कि जिस तरह से वे खुद को अभिव्यक्त करते हैं, वह सिर्फ खराब मानवता की समस्याएँ नहीं हैं, बल्कि उनके स्वभाव के साथ समस्याएँ हैं—उनका स्वभाव बुरी तरह से भ्रष्ट है! कुछ लोग इसे एक वाक्यांश में सारांशित करते हुए कहते हैं, “यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता। यही कारण है।” यह कथन बहुत व्यापक है। ऐसे कई तरीके हैं जिनसे सत्य का अनुसरण न करना अभिव्यक्त हो सकता है : शिकायत करना, अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक निर्वहन न करना आदि सभी इसके उदाहरण हैं। व्यक्ति हर समस्या सिर्फ एक वाक्यांश—“वे सत्य का अनुसरण नहीं करते”—से नहीं समझा सकता। यह अत्यधिक व्यापक है और ठोस नहीं है। यह धर्म-सिद्धांत पर आधारित व्याख्या है।

अब मैं इस पर संगति करूँगा कि आध्यात्मिक समझ की कमी कैसे अभिव्यक्त होती है। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, उनका सत्य के प्रति क्या रवैया होता है? वे अपनी अवस्था, अभिव्यक्तियों और स्वयं द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता को कैसे लेते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ रखने में सक्षम होते हैं? (नहीं।) यहाँ सबसे बड़ी समस्या क्या है? (वे नहीं समझते कि परमेश्वर के वचन कौन-सी इंसानी अवस्थाएँ या अभिव्यक्तियाँ उजागर कर रहे हैं, और खुद से तुलना करने के लिए इन चीजों का इस्तेमाल करने में असमर्थ रहते हैं।) बात मुख्य रूप से यह है कि वे खुद से तुलना नहीं कर सकते। अगर वे खुद से तुलना करने में असमर्थ रहते हैं तो क्या यह कहा जा सकता है कि वे सत्य समझते हैं? (नहीं।) तुम एक चीज के बारे में बात कर रहे हो लेकिन वे हमेशा इससे बिल्कुल विपरीत चीज के बारे में बात करते हैं; वे हमेशा तुमसे असहमत रहते हैं और तुमसे बहस करते हैं। जिस मुद्दे पर तुम और वे बहस करते हो, उसमें कोई समान बिंदू नहीं होता और तुम लोग एक ही मामले पर बहस नहीं कर रहे होते हो, लेकिन फिर भी उन्हें लगता है कि वे काफी सही हैं। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे लोग खुद को इसी तरह अभिव्यक्त करते हैं। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे सत्य नहीं समझ सकते। क्या वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं? (नहीं।) यह तकलीफदेह है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम नहीं हैं तो क्या वे जीवन प्रवेश पा सकते हैं? (नहीं।) जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे संभवतः जीवन प्रवेश नहीं पा सकते; यह सुनिश्चित है। अगर कोई व्यक्ति कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन सत्य बिल्कुल नहीं समझता तो क्या वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है? निश्चित रूप से नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “हमेशा ऐसा नहीं होता। हालाँकि कुछ लोग सत्य नहीं समझते लेकिन वे बहुत जुनूनी होते हैं और परमेश्वर के लिए खपने हेतु सब-कुछ त्याग देते हैं। वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति कैसे नहीं हो सकते?” क्या यह दृष्टिकोण सही है? यह आकलन करते समय कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, कोई सिर्फ यह नहीं देख सकता कि वह परमेश्वर के लिए खपने हेतु सब-कुछ त्यागता है या नहीं। मुख्य बात जो व्यक्ति को देखनी चाहिए, यह है कि उसका हृदय किस चीज को महत्व देता है। अगर उसका हृदय सत्य का अभ्यास करने, सत्य में प्रवेश करने और सत्य प्राप्त करने को महत्व देता है और वे जीवन प्रवेश में कारगर हैं तो वह ऐसा व्यक्ति हैं जो सत्य का अनुसरण करता है। अगर वह मुकुट और पुरस्कार पाने के लिए खुद को त्यागता और खपाता है और उसने कई वर्षों तक खुद को त्यागा और खपाया है और बहुत कष्ट सहा है लेकिन सत्य समझने या वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम नहीं हुआ और परमेश्वर को नहीं समझ पाया तो क्या उसका त्यागना और खपना वास्तव में सत्य का अनुसरण है? यह स्पष्ट है कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करता है क्योंकि उसका त्यागना और खपना उसके सत्य समझने या सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में परिणत नहीं हुआ है। इसलिए, इस तथ्य का कि वह त्याग करता और खपता है, यह मतलब नहीं कि वह सत्य का अनुसरण करता है। ऐसे लोग बिल्कुल पौलुस की तरह होते हैं। पौलुस ने अपना आधा जीवन उपदेश देने और प्रभु के लिए काम करने में बिताया लेकिन उसे सत्य प्राप्त नहीं हुआ, न ही उसने प्रभु को प्राप्त किया। तो, क्या तुम कह सकते हो कि पौलुस वह व्यक्ति था जिसने सत्य का अनुसरण किया? जब यह बात आती है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं तो यह महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति यह देखे कि वह लक्ष्य जिसका वह अनुसरण कर रहा है और उसका इरादा सत्य प्राप्त करने को महत्व देता है या नहीं। अगर वह वास्तव में सत्य के लिए प्रयास करने को महत्व देता है और सत्य का अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने जैसी चीजों में प्रभावी रहा है, सिर्फ तभी वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति होता है। वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाला हर व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होता है और सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के पास ही जीवन प्रवेश होता है। अगर कोई कहता है कि वह एक ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है लेकिन वह सत्य का अभ्यास नहीं करता तो क्या तुम लोग कहोगे कि इस व्यक्ति के पास जीवन प्रवेश है? उसके पास जीवन प्रवेश निश्चित रूप से नहीं है। जो व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता, उसके पास जीवन प्रवेश कैसे हो सकता है? यह बिल्कुल असंभव है। अगर वह सोचता है कि वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है और उसके पास जीवन प्रवेश है, तो तुम्हें उससे पूछना चाहिए, “तुम्हारे जीवन प्रवेश का प्रमाण क्या है?” बिना जाँचे-परखे ही उसकी बात मान लेना काफी नहीं है। अगर कोई सबूत नहीं है तो वह जो कहता है उसमें कोई दम नहीं है। अगर तुम कहते हो कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है तो तुम कितने सत्य समझते हो? तुम कितने सत्य अभ्यास में लाए हो? तुमने सत्य वास्तविकताओं के किन पहलुओं में प्रवेश किया है? क्या तुम अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात कर सकते हो? अगर तुम अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात नहीं कर सकते तो तुम यह कहकर लोगों को धोखा दे रहे हो और उन्हें गुमराह कर रहे हो कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो। मैं यह क्यों कहता हूँ कि पौलुस सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं था? वह इसलिए कि पौलुस ने जो पत्रियाँ लिखीं, उनमें जीवन के अनुभव की कोई गवाही बिल्कुल नहीं थी; वह परमेश्वर की सच्ची समझ के बारे में बात करने में सक्षम नहीं था, प्रभु यीशु के प्रति प्रेम या समर्पण के बारे में बात करने में सक्षम होने की तो बात ही छोड़ दो। यहाँ तक कि उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव की भी समझ नहीं थी। उसने बस इतना कहा कि वह सबसे बड़ा पापी है। उसने यह इस तथ्य के आधार पर कहा कि उसे प्रभु यीशु का विरोध करने के लिए दंडित किया गया था। यह कहकर कि वह सबसे बड़ा पापी है, वह बस इस तथ्य को स्वीकार रहा था कि उसने प्रभु यीशु का कट्टर विरोध करके पाप किया था। क्या इसका मतलब यह है कि वह वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव और सार को समझता था? (नहीं।) इसीलिए मैं कहता हूँ कि जब यह बात आती है कि सत्य का अनुसरण करना क्या है और किस तरह के व्यक्ति के पास जीवन प्रवेश होता है तो इसका निर्धारण इस आधार पर किया जाना चाहिए कि वह सत्य समझता है या नहीं और उसका अभ्यास करता है या नहीं, न कि सिर्फ इस आधार पर कि वह खुद क्या कहता है। क्या तुम अब समझते हो कि मैं क्या कह रहा हूँ? हम इतने विस्तार से संगति क्यों कर रहे हैं? क्या यह जरूरी है? (हाँ।) यह जरूरी क्यों है? मैं इस तरह से संगति इसलिए कर रहा हूँ ताकि तुम लोगों के भ्रामक विचारों का विश्लेषण कर सकूँ, उन चीजों को ठीक कर सकूँ जिन्हें तुम लोग गलती से सही समझते हो, तुम लोगों की कठिनाई से बचने का कोई मार्ग ढूँढ़ने, जिन चीजों को तुम गलती से सही समझते हो उन्हें छोड़ने और फिर सत्य के सच्चे अनुसरण के मार्ग में प्रवेश करने में मदद कर सकूँ। तब लोगों के पास वास्तव में जीवन प्रवेश होगा और वे सत्य का सच्चा अनुसरण प्राप्त करने में सक्षम होंगे। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे जीवन प्रवेश के या स्वभावों को बदलने के मामले नहीं समझते। उन्हें लगता है कि उन्होंने पहले ही अपने कई पहलू बदल लिए हैं और जीवन प्रवेश प्राप्त कर लिया है। उदाहरण के लिए, उन्होंने कुछ बुरी आदतें बदल दी हैं : वे बहुत ज्यादा नहीं खाते, बहुत ज्यादा नहीं सोते, आलसी नहीं हैं और पहले से ज्यादा मेहनती हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि इसका मतलब है कि उनके पास जीवन प्रवेश है। दूसरे लोग हैं जो सोचते हैं कि कैसे वे हमेशा लोगों को डाँटते थे लेकिन अब नहीं डाँटते; वे लोगों से अच्छी और रचनात्मक बातें कह पाते हैं और कभी-कभी लोगों की मदद भी कर पाते हैं। चूँकि वे ये काम कर सकते हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि वे पहले ही सत्य का अभ्यास कर रहे हैं और बदलाव से गुजर चुके हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि उनके पास जीवन प्रवेश है, क्योंकि वे कीर्ति, लाभ, हैसियत और भौतिक सुखों की दौड़ छोड़ सकते हैं। यह सभी लोगों की आम समस्या है। उन्होंने उसका अभ्यास किया है जिसे वे समझते हैं, जो उन्हें अपनी धारणाओं के अनुसार सही और अच्छा लगता ह, और वे पहले ही कई बुरी आदतों और देह के समस्यात्मक लक्षणों से निपट चुके हैं या परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने के कारण अपनी जीवनशैली के नियम-कायदे बदल चुके हैं। साथ ही, उन्होंने कई दैहिक लाभ त्याग दिए हैं, अपना परिवार और कार्य त्याग दिया है, और अपनी शादी और सांसारिक जीवन त्याग दिया है। वे सोचते हैं कि वे बदल गए हैं और बचा लिए गए हैं, और कहते हैं, “अगर मैं परमेश्वर में विश्वास न करता तो क्या यह सब छोड़ पाता? क्या मैं इतना बड़ा बदलाव कर पाता?” क्या यह विश्वासियों को होने वाली सबसे बड़ी गलतफहमी नहीं है? (हाँ, है।) चाहे लोग आध्यात्मिक समझ रखते हों या नहीं, उन सभी को यह गलतफहमी होती है। मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह गलतफहमी है? मैं यह क्यों कहता हूँ कि यहाँ एक गंभीर समस्या मौजूद है? इसका मुख्य कारण यह है कि लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन उसका इरादा नहीं समझते, जिसका अर्थ है कि वे यह नहीं समझते कि परमेश्वर लोगों से वास्तव में क्या चाहता है। इसके बजाय, वे इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार सोचते हैं और यह मानते हैं कि अपने परिवार, काम, भावनाओं, सांसारिक जीवन, देह की उलझनों और अपनी संपत्ति तक छोड़ने में सक्षम होने का मतलब है कि उनके पास जीवन प्रवेश है। यह एक गलतफहमी है। वास्तव में, परमेश्वर का इरादा यह है कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं तो उन्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करना चाहिए, परमेश्वर का विरोध करने की अपनी समस्या ठीक करनी चाहिए और स्वयं द्वारा किए जाने वाले पापों की जड़ का समाधान करना चाहिए। ऐसा करने के लिए लोगों को अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त करने से पहले सत्य समझना होगा और परमेश्वर का स्वभाव भी समझना होगा। परमेश्वर लोगों से यही अपेक्षा करता है और यही लोगों को बचाने का वह कार्य भी है जो वह करता है। लोग परमेश्वर के कार्य के बारे में कुछ नहीं जानते; वे वह लक्ष्य और प्रभाव नहीं देखते जिसे वह इस कार्य के माध्यम से पूरा करना चाहता है, इसलिए वे सत्य को इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से बदल देते हैं, और लोगों के अनुसरणों को और वे जो पूरा करने में सक्षम होते हैं उसे, परमेश्वर का इरादा और लोगों से उसकी अपेक्षा मान लेते हैं। परमेश्वर पर विश्वास करते समय लोगों को यही गलतफहमी होती है। ये चीजें, जिन्हें वे पूरा करने में सक्षम होते हैं, सिर्फ उनका जुनून प्रदर्शित करती हैं, और जब वे चीजें त्यागते हैं तो वे असल में परमेश्वर के साथ लेनदेन करना चाहते हैं—यह पुरस्कार और मुकुट के बदले में किया जाता है। उन्हें लगता है कि इस तरह के लेनदेन वास्तव में करने लायक हैं और वे एक अच्छा सौदा कर रहे हैं। उनके सब-कुछ त्यागने का यही कारण होता है। चीजें त्यागने का मतलब यह नहीं कि उनके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं, न ही इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के समक्ष समर्पम करने में सक्षम हैं। जब वे त्यागते और खपते हैं, तब क्या वे वास्तव में सत्य समझते हैं? (नहीं, वे नहीं समझते।) अगर वे सत्य नहीं समझते, तो क्या उनका त्याग करना और खपना दूषित होता है? सर्वाधिक निश्चित रूप से। तो फिर इस तरह खपकर और पीड़ा सहकर वे वास्तव में किस चीज का अनुसरण करते हैं? ऐसे लोगों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि सत्य क्या है या परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं; वे हमेशा सोचते हैं कि इन चीजों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। अपने हृदय में, जो कुछ वे सोचते हैं वह सही है, जो कुछ वे सोचते हैं वह अच्छा है, और जो कुछ वे सोचते हैं वह जीवन प्रवेश है, उसी का वे अभ्यास करते हैं, और उसका अभ्यास करने के बाद वे सोचते हैं कि परमेश्वर ने इसका स्मरण कर लिया है। वे इन चीजों को व्यापार की मुद्राएँ और पूँजी मानते हैं। क्या ये सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ हैं? (नहीं।) यह उन लोगों द्वारा निर्मित गलतफहमी है, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। यह उन तरीकों में से एक है जिनसे जीवन प्रवेश को गलत समझने वाले लोग चीजों की व्याख्या करते हैं। तो, कोई कैसे मूल्यांकन कर साबित करे कि ये चीजें उनके सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं और उनके पास जीवन प्रवेश नहीं है? यह सत्यापित करने के लिए किन तथ्यों का उपयोग किया जा सकता है कि ये चीजें, जो वे कहते हैं, गलत हैं? (वे सत्य सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं।) यह इसका हिस्सा है। वे जो कल्पना करते हैं उसके आधार पर कार्य करते हैं। बाहर से, वे सच्चे विश्वासियों जैसे दिखते हैं; वे चीजें त्यागने और खुद को खपाने में तो सक्षम होते हैं, लेकिन अपने कार्यों में सिद्धांतहीन होते हैं। वे सिद्धांतहीन क्यों होते हैं? क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। जिन परिप्रेक्ष्यों से वे चीजों को देखते हैं, वे अभी भी वही धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, जिनसे उन्होंने शुरुआत की थी। ऐसे लोगों की सबसे बड़ी समस्या है : क्या वे परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेशों के प्रति समर्पित होते हैं? क्या वे समझते हैं कि परमेश्वर ने ये परिवेश क्यों आयोजित किए? (नहीं।) क्या यह ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उनके पास सच्चा जीवन प्रवेश नहीं है? (हाँ।) उन्होंने अपनी बुरी आदतों और समस्यात्मक लक्षणों में कई बदलाव किए हैं और कई बलिदान दिए हैं। अंततः, जब उनका परीक्षण किया जाता है, तो न सिर्फ वे परमेश्वर का इरादा नहीं समझते, बल्कि वे अभी भी शिकायत करने में सक्षम हैं और समर्पित नहीं हो सकते। यह कौन-सी समस्या है? यही कि उनके पास जीवन प्रवेश नहीं है। जिन लोगों के पास जीवन प्रवेश नहीं है, उनके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं, क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) जब चीजें घटित होती हैं तो वे पूरी तरह से अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और प्राकृतिक प्राथमिकताओं पर भरोसा करते हैं। जब तुम वास्तव में उनके प्रति गंभीर होकर उनसे समर्पण करने के लिए कहते हो तो वे बिल्कुल भी आज्ञाकारी नहीं होते; वे सिर्फ इंसानी कारणों, बहानों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं और अपना बचाव करने के लिए तमाम तरह के तरीके तलाशते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण न करने और परमेश्वर के कार्य को नकारने का अपना लक्ष्य पूरा करते हैं। कुछ लोग तो इतनी अति करते हैं कि वे न सिर्फ समर्पण करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि इसके बावजूद अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को सही साबित करने के लिए तमाम तरीके सोचते हैं और आजमाते हैं, जिन तरीकों और मार्गों के बारे में वे सोचते हैं उन्हें सही समझते हैं, और यह भी सोचते हैं कि जरूरी नहीं कि परमेश्वर के कार्य और आयोजन सही ही हों। इससे जाहिर होता है कि उनके पास कोई जीवन प्रवेश नहीं है; वे जो कुछ भी करते हैं और दूसरों की मदद के लिए जो कुछ भी श्रम और ऊर्जा लगाते हैं या खुद में बदलाव करते हैं, वे जीवन प्रवेश नहीं हैं, वे सिर्फ बुरी आदतें हैं जो अब मौजूद नहीं हैं। उनकी व्यक्तिगत आदतें, नियम-कायदे और जीने का तरीका थोड़ा बदल गया है, और हो सकता है कुछ लोगों का मिजाज भी बदल गया हो; वे ज्यादा नरमी से और ज्यादा सुसंस्कृत तरीके से बोलते हैं और उनका बाहरी व्यवहार ज्यादा मानक हो सकता है लेकिन जब वे चीजें करते हैं तो उनके पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं होती और वे कभी परमेश्वर के वचनों या सत्य के अनुसार चीजें नहीं करते; ये सब उनकी अपनी निजी कल्पनाएँ और इच्छाएँ होती हैं। उन्हें परमेश्वर की कोई वास्तविक समझ नहीं होती; वे सिर्फ आध्यात्मिक सिद्धांत के बारे में थोड़ी-सी बात करना जानते हैं और इंसानी धारणाओं, कल्पनाओं और भावनाओं में फँस गए हैं। तुम लोग क्या सोचते हो, क्या ये लोग दयनीय हैं? (हाँ।) और क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं? (हाँ।) तुम लोग कैसे जानते हो कि ऐसे बहुत-से लोग हैं? (क्योंकि मैं उनमें से एक हूँ।) यह तुमसे मेल खाता है, है न? तो फिर तुम लोग इस संबंध में अपने अनुभवों के बारे में बात करो। (मैं एक अनुभव साझा करता हूँ। एक भाई ने कई और भाई-बहनों के सामने मेरी कमियाँ बताईं और उस समय मैंने अपमानित महसूस किया। अपना गौरव वापस पाने के लिए मैंने अपना बचाव करने और खुद को सही ठहराने की कोशिश की। मैंने भाई की टिप्पणियाँ स्वीकार नहीं कीं।) तुम अपने गौरव से विवश थे। लोग हमेशा गौरव से विवश क्यों रहते हैं? क्योंकि सभी गौरवयुक्त लोगों की चमड़ी पतली होती है, बस यही बात है न? (नहीं।) दरअसल, लोग ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि वे दूसरे लोगों की नजरों में अपनी एक आदर्श छवि बनाए रखना चाहते हैं। वे अपनी हैसियत का ध्यान रखते हैं और खुद को दोषों से मुक्त, एक विशेष रूप से उत्कृष्ट तरीके से प्रस्तुत करना चाहते हैं। वे लोगों के मन पर एक उत्कृष्ट छाप छोड़ना चाहते हैं और लोगों को यह सत्य नहीं देखने देना चाहते कि वे वास्तव में कैसे हैं। यह अहंकारी स्वभाव का परिणाम है। क्या अब यह समस्या हल हो गई है? (अभी नहीं। मैं अभी भी इसे अक्सर प्रकट करता हूँ।) अगर व्यक्ति आत्म-चिंतन करने और अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में सक्षम हो, तो उसे बदलना आसान होगा। अगर वह आत्म-चिंतन न करे, अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में असमर्थ रहे, अपनी समस्याओं के प्रति सुन्न हो और उसमें कोई जागरूकता न हो तो बदलाव करना मुश्किल होगा। अगर उसमें पहले से ही जागरूकता है और उसे लगता है कि उसका अहंकारी स्वभाव गंभीर है, उसके लक्ष्य टेढ़े-मेढ़े हैं और वह सत्य का अनुसरण करने से अभी भी बहुत दूर है, लेकिन जब उसकी काट-छाँट की जाती है तो वह कुछ दिनों के लिए नकारात्मक हो जाता है और हमेशा हर स्थिति में गौरव पुनः हासिल करने के तरीके ढूँढ़ता है तो क्या ऐसा व्यक्ति बदल सकता है? उसके लिए बदलना कठिन है। तो, उसे इस समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? सिर्फ सत्य स्वीकारने और आत्म-चिंतन करने से ही अभी भी उसकी समस्या के समाधान की आशा है। अगर वह सत्य नहीं स्वीकार सकता, तो उसके पास समस्या हल करने का कोई उपाय नहीं। मुख्य बात यह है कि लोगों में सत्य का अनुसरण करने का संकल्प और इच्छा होनी चाहिए। जब उनके पास ऐसा हृदय होगा जो सत्य के लिए अत्यधिक प्यासा हो तो वह सत्य से प्रेम कर उसे स्वीकार पाएगा और उसके पास सत्य का अभ्यास करने और दैहिक-इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने की ताकत होगी। सिर्फ सत्य स्वीकार करके ही लोग भ्रष्ट स्वभाव की समस्या पूरी तरह से ठीक कर सकते हैं, और जब उनका भ्रष्ट स्वभाव ठीक हो जाएगा तो वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होंगे, और फिर उनके पास जीवन प्रवेश होगा।

जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है और जो हमेशा सत्य और जीवन प्रवेश की गलत व्याख्या करते हैं, उन्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण करना आसान है, यह सिर्फ कुछ बुरी आदतों या समस्यात्मक लक्षणों को बदलना है, या कभी-कभी उन चीजों को छोड़ देना है जो उनके हित में हैं, उन्हें लगता है कि अगर वे बुराई नहीं करते और अंत तक अपने विश्वास में दृढ़ रहते हैं तो उन्होंने जीवन प्राप्त कर लिया है और इन चीजों के बदले वे परमेश्वर के पुरस्कार और आशीष ले सकते हैं। क्या इन दृष्टिकोणों के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग सत्य का अनुसरण करने वाले होते हैं? (नहीं।) क्या वे लोग जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जीवन प्रवेश पाने में सक्षम हैं? (नहीं।) ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो इस बारे में बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं हैं कि जीवन प्रवेश होता क्या है। उन्हें लगता है कि सिर्फ कुछ प्रयास करने, कुछ कर्तव्य निभाने, कुछ बुरी आदतें और समस्यात्मक लक्षण बदलने, जैसा कहा जाए वैसा करने और थोड़ा-सा समर्पण करने से ही व्यक्ति जीवन प्रवेश पा लेता है। वे जीवन प्रवेश को बेहद सरल तरीके से देखते हैं। इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करके क्या वे अपना जीवन स्वभाव बदल लेंगे? (नहीं, वे सिर्फ खुद को बाहरी तौर पर बदलते हैं, उनका सार नहीं बदलता।) अब तुम लोग थोड़ा बदल गए हो लेकिन क्या तुम्हारे बाहरी व्यवहार में बदलाव आए हैं या क्या तुम्हारे जीवन स्वभाव में कुछ बदलाव आए हैं? क्या तुम लोगों ने जीवन प्रवेश के बारे में अपने गलत विचारों से बाहर निकलने का कोई रास्ता ढूँढ़ लिया है और जीवन प्रवेश प्राप्त करना शुरू कर दिया है? क्या तुम लोग यह मूल्यांकन करने में सक्षम हो कि तुम्हारे कौन-से हिस्से बदले हैं और कौन-से हिस्से नहीं बदले? अगर तुम्हें कोई कर्तव्य निभाने के लिए दिया गया था और तुम मूल रूप से समर्पण करने में असमर्थ थे, तो अब तुम किस हद तक समर्पण करने में सक्षम हो? उदाहरण के लिए, तुम एक भाई हो और अगर तुमसे रोजाना अन्य भाई-बहनों के लिए भोजन बनाने और बर्तन धोने के लिए कहा जाता है तो क्या तुम समर्पण करोगे? (मुझे ऐसा लगता है।) शायद तुम अल्पावधि के लिए ऐसा कर सको लेकिन अगर तुमसे यह कर्तव्य लंबे समय तक निभाने के लिए कहा जाए तो क्या तुम समर्पण करोगे? (मैं कभी-कभी समर्पण कर सकता हूँ लेकिन समय बीतने के साथ शायद मैं ऐसा न कर पाऊँ।) इसका मतलब है कि तुमने समर्पण नहीं किया है। लोगों के समर्पण न करने का क्या कारण है? (ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोगों के दिलों में परंपरागत धारणाएँ हैं। वे सोचते हैं कि पुरुषों को घर से बाहर काम करना चाहिए और महिलाओं को घर का काम सँभालना चाहिए, कि खाना बनाना महिलाओं का काम है और खाना बनाने से पुरुष का सम्मान घट जाता है। इसलिए समर्पण करना आसान नहीं है।) यह सही है। जब श्रम-विभाजन की बात आती है तो लैंगिक भेदभाव होता है। पुरुष सोचते हैं, “हम पुरुषों को आजीविका कमाने के लिए बाहर जाना चाहिए। खाना बनाने और कपड़े धोने जैसी चीजें महिलाओं को करनी चाहिए। हमें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।” लेकिन अब ये विशेष परिस्थितियाँ हैं और तुमसे ऐसा करने के लिए कहा जा रहा है तो तुम क्या करोगे? समर्पण करने से पहले तुम्हें किन मुश्किलों से पार पाना होगा? यही समस्या की जड़ है। तुम्हें इस लैंगिक भेदभाव से उबरना होगा। ऐसा कोई काम नहीं है जो पुरुषों द्वारा ही किया जाना चाहिए और ऐसा भी कोई काम नहीं है जो महिलाओं द्वारा ही किया जाना चाहिए। श्रम को इस तरह मत बाँटो। लोगों द्वारा निभाया जाने वाला कर्तव्य उनके लिंग के अनुसार निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए। तुम अपने घर और दैनिक जीवन में तो इस तरह से श्रम को विभाजित कर सकते हो लेकिन अब इसका संबंध तुम्हारे कर्तव्य से है तो तुम्हें इसकी व्याख्या कैसे करनी चाहिए? तुम्हें यह कर्तव्य परमेश्वर से प्राप्त कर स्वीकारना चाहिए और अपने अंदर के गलत विचार बदलने चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए, “यह सच है कि मैं एक पुरुष हूँ लेकिन मैं कलीसिया का सदस्य हूँ और परमेश्वर की नजर में एक सृजित प्राणी हूँ। कलीसिया मुझे जो भी काम करने के लिए सौंपेगी, मैं उसे करूँगा; चीजें लिंग के अनुसार विभाजित नहीं हैं।” पहले तुम्हें अपने गलत विचार त्यागने चाहिए, फिर अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहिए। क्या अपना कर्तव्य स्वीकारना सच्चा समर्पण है? (नहीं।) आने वाले दिनों में, अगर कोई कहता है कि तुम्हारे भोजन में बहुत नमक है, या उसमें पर्याप्त स्वाद नहीं है, या कहता है कि तुमने कोई चीज अच्छी नहीं बनाई और वे उसे खाना नहीं चाहते, या तुमसे कुछ नया बनाने के लिए कहता है तो क्या तुम इसे स्वीकार पाओगे? उस समय तुम असहज महसूस करोगे और सोचोगे, “मैं एक स्वाभिमानी व्यक्ति हूँ और पहले ही इन तमाम भाई-बहनों के लिए भोजन बनाने हेतु अपना स्तर गिरा चुका हूँ, फिर भी ये लोग ये तमाम कमियाँ निकालते हैं। मेरा स्वाभिमान बिल्कुल नहीं बचा है।” इस समय तुम समर्पण नहीं करना चाहते, क्या तुम चाहते हो? (नहीं।) यह एक कठिनाई है। जब भी तुम समर्पण नहीं कर पाते तो ऐसा भ्रष्ट स्वभाव के स्वयं के प्रकट करने और परेशानी पैदा करने के कारण होता है और यह तुम्हें सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर का समर्पण करने में असमर्थ बनाता है। इस समय तुम्हारा दिल उलझन में होगा—तुम्हारे विचार तुम्हें नियंत्रित कर यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि तुमने अपना सम्मान खो दिया है और तुम अंदर से परेशान होते हो। इस समय तुम्हें क्या करना चाहिए? (सत्य खोजना चाहिए।) तुम सत्य कैसे खोजते हो? तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर, चाहे दूसरे लोग मुझसे कुछ भी कहें, मैं इसे अपना कर्तव्य मानूँगा। चाहे मैं बाहरी तौर पर किसी की भी सेवा कर रहा हूँ या किसी के लिए भी काम कर रहा हूँ, मैं यह सब परमेश्वर से स्वीकारूँगा। यह मेरा कर्तव्य है और मुझे समर्पण करना चाहिए; मुझे अपना स्वाभिमान नहीं चाहिए। परमेश्वर के घर में कर्तव्य उच्च-स्तरीय और निम्न-स्तरीय, उच्च हैसियत वाले और निम्न हैसियत वाले, पुरुषों के लिए कर्तव्य, महिलाओं के लिए कर्तव्य, बुजुर्गों के लिए कर्तव्य और युवाओं के लिए कर्तव्य में विभाजित नहीं किए जाते। कर्तव्य सिर्फ ऐसे हैं जो अच्छी तरह से किए जाते हैं और जो अच्छी तरह से नहीं किए जाते, कर्तव्य जो निष्ठा से किए जाते हैं और जो निष्ठा से नहीं किए जाते।” अपने स्वाभिमान, हैसियत, पद और गरिमा त्यागने के बाद क्या तुम खुद को पूरी तरह से त्याग चुके हो? (नहीं।) तुम्हारी अभी भी प्रतिक्रिया होगी। कभी-कभी लोग तुम्हारा अनादर करेंगे, सोचेंगे कि तुम मूर्ख हो और तुम्हें हीन समझेंगे और कहेंगे “जो आदमी खाना बनाकर इतना खुश होता है उसका कोई मूल्य नहीं होगा! मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा।” वे तुम्हें गलत दिशा में ले जाएँगे, तुम्हारे मन में गलत विचार और धारणाएँ बैठाएँगे और तुम्हारे अभ्यास को प्रभावित करेंगे। तुम्हारे द्वारा जीवन प्रवेश को महत्व देने, एक सामान्य व्यक्ति होने और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होने जैसी सकारात्मक चीजों को वे अपमान समझते हैं और इसलिए तुम्हें हीन मानते हैं और तुम्हारी आलोचना करते हैं। अगर तुम इसे सहन न कर पाए तो तुम तुरंत नकारात्मकता में पड़ जाओगे और सोचोगे कि यह कर्तव्य तुम्हें हमेशा दूसरों के सामने नीचा दिखाता है और लोगों को तुम्हारे साथ हीन व्यवहार करने और तुम्हारे ऊपर हुक्म चलाने के लिए बाध्य करता है। तो फिर तुम दोबारा समर्पण नहीं करोगे, है न? जब कोई तुम्हें हीन नहीं समझता या तुम्हारी आलोचना नहीं करता तो तुम सोचते हो कि तुम पहले से ही समर्पण करने में सक्षम हो, तुम्हारे पास पहले से ही जीवन प्रवेश है, कुछ सत्य वास्तविकता है और कुछ आध्यात्मिक कद है। क्या सोचने का यह तरीका सही है? तो फिर जब कोई तुम्हारी आलोचना करता है और तुम्हारे आध्यात्मिक कद को चुनौती दी जाती है तो तुम नकारात्मक होकर यह क्यों सोचते हो, “यह खत्म होने से पहले मुझे कब तक खाना पकाते रहना होगा? यह व्यक्ति हमेशा मुझे नीची निगाह से देखता है। इसका मुझे नीची निगाह से देखना ठीक नहीं है और मैं इसे स्वीकार नहीं सकता!”? मुसीबत फिर खड़ी हो गई है। जब तुम इसे स्वीकार नहीं पाते तो क्या तुम साथ ही शिकायत भी करते हो और कहते हो, “अगुआ मुझे ऐसा कर्तव्य कैसे सौंप सकता है? उसने किसी और को चुनने के बजाय खास तौर से मुझे ही क्यों चुना? क्या मुझे धौंस देना आसान लगता है? लोग मुझे धौंस देते हैं, अगुआ मुझ पर अनुकूल दृष्टि नहीं रखता और परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं करता”? तुम्हारे विद्रोही स्वभाव ने फिर से सिर उठा लिया है। यहाँ क्या समस्या है? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा हो? तुम यह छोटा-सा अपमान भी बर्दाश्त नहीं कर सकते और यह तुम्हें नकारात्मक बनने और शिकायत करने पर मजबूर कर देता है। क्या यही सत्य वास्तविकताओं का होना है? तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है। इस समस्या को हल करने का एक बहुत ही सरल तरीका है : अपने दिल में तुम्हें सोचना चाहिए, “चाहे कोई भी मेरा अनादर करे या मुझे तिरस्कार से देखे, मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मैं परमेश्वर का आदेश नहीं छोड़ सकता। मैं इसे दूसरे लोगों के लिए नहीं कर रहा हूँ, न ही मैं इसे इसलिए कर रहा हूँ ताकि दूसरे मेरे बारे में कुछ सोचें—दूसरों का मेरे बारे में कुछ सोचना किस काम का है? मुझे अपना कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए निभाना चाहिए।” तुम्हें अपने हृदय में इसी तरह सोचना चाहिए। अब जब तुम खाना पकाते हो तो क्या तुम आश्वस्त महसूस नहीं करते? तो क्या समस्या हल हो गई? दरअसल, वह पूरी तरह से हल नहीं हुई है। आखिरकार, तुम लगातार संघर्ष की अवस्था में हो, लगातार कमजोरी और नकारात्मकता में पड़ रहे हो और फिर खुद को वापस ऊपर खींच रहे हो; तुम लगातार संयमित हो रहे हो। तुमने हर अवस्था जाँच ली है और तुम हमेशा ऐसे कठिन तरीके से जीने के लिए तैयार नहीं हो। तुम नहीं चाहते कि ये कठिनाइयाँ हमेशा तुम्हें त्रस्त करें, परेशान करें या विवश करें। तुम अपना कर्तव्य आसानी से और सरलता से निभाना चाहते हो। तो तुम इसे कैसे पूरा करते हो? तुम्हें लगातार सत्य खोजना चाहिए, लगातार अपने निश्चय पर कायम रहना चाहिए और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना हमेशा सही है। तुम कहते हो, “मुझे कोई परेशान नहीं कर सकता। यह मेरा कर्तव्य है; यह वह आदेश है जो परमेश्वर ने मुझे दिया है; यह मेरी जिम्मेदारी और मेरा दायित्व है। चाहे कोई भी मेरा मजाक उड़ाए, मुझे गुमराह करे या प्रलोभन दे, मुझ पर इनका कोई असर नहीं होगा। अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना मेरे लिए सम्मान की बात है और अगर मैं इसे सँभाल सकूँ तो सारी महिमा परमेश्वर को जाती है। अगर मैं इसे नहीं सँभाल सका तो मैं खुद को शर्मिंदा करूँगा। जो कोई मेरा मजाक उड़ाता है और इस कर्तव्य को तुच्छ समझता है, वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं है।” क्या यह तथ्य नहीं है? (है।) यह तथ्य है। जब अय्यूब की परीक्षा हुई तो शैतान ने उसे परेशान किया और प्रलोभन दिया लेकिन क्या अय्यूब ने संदेह किया? (नहीं।) क्योंकि सत्य, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर का मार्ग उसके हृदय में थे। परिस्थितियों और परीक्षणों से सामना होने पर तुम सत्य और परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश कायम रखने में सक्षम होते हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम किस हद तक सत्य जानते, समझते और स्वीकारते हो। कुछ लोग हमेशा सत्य के प्रति संदेह से ग्रस्त रहते हैं और उसके बारे में निश्चितता के स्थान तक नहीं पहुँच पाते, या अपने कर्तव्य के संबंध में वे कभी निश्चित नहीं होते कि उन्हें कुछ कैसे करना चाहिए और क्या यह इसे करने का सही तरीका है। वे कभी उन चीजों पर टिके नहीं रह पाते जो सही होती हैं; वे हमेशा कुछ लोगों, घटनाओं व चीजों से परेशान रहते हैं और जब बुरे लोग, दुष्ट लोग, राक्षस या शैतान उनसे नजदीकी बढ़ाते हैं और ऐसी चीजें कहते हैं जो उन्हें लुभाती हैं या परेशान करती हैं तो वे कमजोर और गुमराह हो जाते हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं कि उनका आध्यात्मिक कद छोटा है? (हाँ।) क्या छोटे आध्यात्मिक कद को ठीक करना आसान है? सिद्धांततः यह आसान है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम इस बात से आश्वस्त हो सकते हो या नहीं कि जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो वह परमेश्वर की अगुआई वाला मार्ग है। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए और परमेश्वर का आदेश स्वीकारना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है। डरने की एकमात्र चीज यह है कि तुम्हारे दिल में अपने कर्तव्य के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण है और तुम सोचते हो कि तुम्हारा कर्तव्य तुम्हारा सम्मान घटाता है और महत्वहीन है। जब तुम्हारे दृष्टिकोण पक्षपातपूर्ण हों और ऊपर से दूसरे लोग तुम्हें परेशान भी करते हों तो यह और भी ज्यादा परेशानी भरा हो जाता है। जब तुम्हारा हृदय परेशान होता है तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते। जब अय्यूब की परीक्षा हुई तो उसके आस-पास बहुत-से लोग थे जो उसे परेशान करते थे। उसकी पत्नी ने क्या कहा था? (“परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा” (अय्यूब 2:9)।) जिससे उसका तात्पर्य था, “विश्वास मत करो। तुम जिस पर विश्वास करते हो, अगर वह वास्तव में परमेश्वर है तो तुम्हारे साथ ये चीजें क्यों घटित होती हैं?” अय्यूब ने क्या कहा? (“तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है” (अय्यूब 2:10)।) अय्यूब ने अपनी पत्नी की निंदा की, क्योंकि वह पहले से ही निश्चित था कि परमेश्वर सच्चा परमेश्वर है, यह परमेश्वर ने किया है, यह उसकी संप्रभुता है और यह परमेश्वर के हाथों का काम है। अय्यूब इतना निश्चित था तो जब आज लोग सत्य समझ जाते हैं तब क्यों वे सच्चे मार्ग पर टिक नहीं पाते और अपनी गवाही पर दृढ़ नहीं रह पाते? ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोगों के दिल बहुत दूषित हैं; न सिर्फ वे सत्य नहीं समझते, बल्कि वे ऐसे लोग भी नहीं हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं या सत्य खोजते हैं। इसलिए, लोग चाहे कितने भी वचनों और सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हों या कितने भी जबरदस्त नारे लगा सकते हों, अंततः, वे दृढ़ नहीं रह सकते। जैसे ही कलीसिया में कोई कुछ अलग बात कहता है, या कोई ऐसी चीजें कहता है जो परेशान करने वाली या गुमराह करने वाली होती हैं या जो निंदा और अपमान करती हैं तो उन्हें लगता है कि उनका मजाक उड़ाया जा रहा है और अपमान किया जा रहा है और वे पूरी तरह से नष्ट हो गए हैं। अगर लोग खुद को इस तरह से अभिव्यक्त करते हैं, अंदर से लगातार द्वंद्व में रहते हैं और लगातार अपने विचार समायोजित करते रहते हैं लेकिन साथ ही, लगातार परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ भी स्वीकारते हैं, सत्य समझते रहते हैं, धीरे-धीरे सत्य के विभिन्न पहलुओं में प्रवेश करते हैं, सभी सत्यों में प्रवेश करते हैं और अंततः किसी भी तरह के व्यक्ति, घटना व चीज से परेशान, प्रभावित या नियंत्रित होने से बचने में सक्षम रहते हैं और दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि जिन सत्य सिद्धांतों का वे अभ्यास करते हैं वे सही हैं तो उन्होंने अपना स्वभाव बदल लिया है।

वर्तमान समय में, जब तुम लोग अपने कर्तव्य निर्वहन करते हो, तब क्या अब भी तुम्हारे लिए हर तरह के व्यक्ति, घटना व चीज से विवश होना संभव है? क्या तुम सत्य पर टिके रहने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम हो? (नहीं।) तो फिर तुम्हें आम तौर पर कौन-सी कठिनाइयाँ होती हैं? (कभी-कभी, जब मैं अन्य लोगों को ऐसी चीजें करते देखता हूँ जो परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाती हैं, तब मैं इसके बारे में बताता हूँ लेकिन जब मैं देखता हूँ कि वे इसे नहीं स्वीकारते, या उनका रवैया बुरा है तो मैं बहस शुरू करने से डरता हूँ, इसलिए मैं समझौता कर लेता हूँ।) समझौता करना सही है या गलत? (यह गलत है लेकिन मैं डरता हूँ कि अगर मैंने मामले पर जोर दिया तो विवाद छिड़ जाएगा और माहौल बिगड़ जाएगा, और लोगों के मन में मेरे बारे में अच्छी धारणा नहीं बनेगी।) अगर तुम बहस से बचना चाहते हो, तो क्या समझौता ही एकमात्र उपाय है? तुम किन स्थितियों में समझौता कर सकते हो? अगर इसका संबंध छोटी-मोटी बातों से है, जैसे कि तुम्हारा स्वार्थ या तुम्हारा गौरव, तो इसके बारे में बहस करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम सहनशील होना या समझौता करना चुन सकते हो। लेकिन जो मामले कलीसिया का कार्य प्रभावित कर सकते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा सकते हैं, उनमें तुम्हें सिद्धांतों पर टिके रहना चाहिए। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हो। अगर तुम अपनी इज्जत बचाने या अपने पारस्परिक संबंध बनाए रखने के लिए सत्य-सिद्धांतों से समझौता करने और उन्हें त्यागने का चुनाव करते हो, तो क्या यह तुम्हारा स्वार्थ और नीचता नहीं है? क्या यह अपने कर्तव्य में गैरजिम्मेदार और परमेश्वर के प्रति निष्ठाहीन होने का प्रतीक नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, अगर तुम्हारे कर्तव्य के दौरान एक ऐसा समय आता है, जब हर कोई असहमत होता है, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? क्या अपनी पूरी ताकत से बहस करने से समस्या का समाधान हो जाएगा? (नहीं।) तो फिर तुम्हें समस्या का समाधान कैसे करना चाहिए? इस स्थिति में, जो इंसान सत्य समझता है, उसे मुद्दा हल करने के लिए आगे आना चाहिए, पहले मुद्दे को मेज पर रखना चाहिए और दोनों पक्षों को अपनी राय रखने देनी चाहिए। फिर, सभी को एक-साथ सत्य की तलाश करनी है, और परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद, संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों में प्रासंगिक सत्य खोज निकालना है। सत्य-सिद्धांतों पर संगति करने और स्पष्टता प्राप्त करने के बाद दोनों पक्ष समर्पण कर पाएँगे। उन्हें सत्य के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए। अगर ज्यादातर लोग सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो सत्य के प्रति समर्पित नहीं होते या जिन्हें व्यक्ति तर्क नहीं समझा सकता तो वे ऐसे लोग हैं जो सत्य नहीं स्वीकारते और उनकी प्रकृति बुरे लोगों की होती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें आसानी से पहचान लेंगे। कलीसिया में वाद-विवाद का मुद्दा सुलझाने का यह सबसे अच्छा तरीका है। समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है और व्यक्ति सिद्धांतहीन समझौते नहीं कर सकता। अगर तुम अपने व्यक्तिगत रिश्ते, स्वाभिमान और स्वार्थ सुरक्षित रखने के लिए परमेश्वर के घर के हितों का त्याग करने में सक्षम हो तो तुम शैतान के साथ समझौता कर रहे हो। यह सिद्धांतहीन है और ईश्वर के प्रति विश्वासघात है। अगर हर व्यक्ति अपनी इज्जत बचाने के लिए लड़ता है और अपने ही तर्कों पर जोर देता है तो क्या यह सत्य खोजने का रवैया है? क्या व्यक्ति को अपने कर्तव्य में यही रवैया रखना चाहिए? (नहीं।) अपने कर्तव्य में निष्ठा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को प्रतिष्ठा या स्वार्थ के लिए नहीं लड़ना चाहिए, उसे ईश्वर को अधिकार रखने देना चाहिए और सत्य को अपना स्वामी बनने देना चाहिए; परमेश्वर के घर के हित प्रथम और सर्वोपरि हैं, और प्रभावी कार्य प्रथम और सर्वोपरि है। क्या यह सिद्धांत सही नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम सभी लोग इस सिद्धांत का पालन करने में सक्षम हो तो लोगों के साथ बहस करने के लिए क्या बचता है? कोई बहस नहीं होगी। जो लोग हमेशा अपने हितों की रक्षा करते हैं और सत्य का अभ्यास बिल्कुल नहीं करते, वे अच्छे लोग नहीं हैं, और जो लोग हमेशा दूसरों का अनुग्रह हासिल करने के लिए परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करते हैं, वे और भी बुरे हैं। ये सभी लोग छद्म-विश्वासी हैं और परमेश्वर को धोखा देने वाले लोग हैं। अगर कोई इंसान परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के काम की प्रभावशीलता की रक्षा के लिए दूसरों के साथ संघर्ष और बहस करता है, और उसका रवैया थोड़ा अडिग है, तो क्या तुम लोग कहोगे कि यह एक समस्या है? (नहीं।) क्योंकि उसका इरादा सही है; यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने के लिए है। यह एक ऐसा व्यक्ति है, जो परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होता है और सत्य-सिद्धांतों पर टिका रहता है, एक ऐसा व्यक्ति जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता है। परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते समय एक मजबूत, दृढ़ रवैया रखना, एक दृढ़ रुख और सिद्धांतों पर टिके रहने का प्रतीक है, और परमेश्वर इसका अनुमोदन करता है। लोगों को लग सकता है कि इस रवैये में कोई समस्या है, लेकिन यह कोई बड़ी समस्या नहीं है; इसका भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कोई लेना-देना नहीं है। याद रखो, सत्य-सिद्धांतों पर टिके रहना सबसे महत्वपूर्ण है।

जीवन प्रवेश सबसे महत्वपूर्ण चीज है। जीवन प्रवेश मुख्य रूप से किससे जुड़ा है? (सत्य के अनुसरण से।) यह सही है। यह मुख्य रूप से सत्य का अनुसरण करने से जुड़ा है। सिर्फ सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के पास ही जीवन प्रवेश होता है। अगर लोग जीवन प्रवेश चाहते हैं तो इसका संबंध सत्य का अभ्यास करने से है। व्यक्ति को यह कैसे पहचानना चाहिए कि कोई सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? किस प्रकार का व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता? क्या तुम जानते हो? पहला प्रकार, जिसके बारे में मैंने बात की, उन लोगों का था, जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं हैं। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है उन लोगों का सार क्या होता है? (परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ने के बाद, जो लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और अपनी अवस्थाओं और अभिव्यक्तियों के बीच संबंध बनाने में असमर्थ रहते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर अन्य लोगों के बारे में बात कर रहा है।) मुख्य बात यह है कि वे परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना करने में असमर्थ रहते हैं लेकिन क्या वे यह जानते हैं? (नहीं।) जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे लोग ये चीजें समझने में असमर्थ होते हैं। उनके हृदय फिर भी प्रसन्न रहते हैं; उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर के कई वचन समझते हैं लेकिन वास्तव में, उनकी नजर में हर वचन सिर्फ एक अधिनियम है। वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर मुझसे कुछ कराएगा तो मैं वह करूँगा। अगर वह मुझसे किसी चीज का त्याग कराएगा तो मैं उसे त्याग दूँगा; अगर वह चाहेगा कि मैं खुद को खपाऊँ तो मैं वैसा ही करूँगा। परमेश्वर के समक्ष इस प्रकार समर्पण करने से मैं बचा लिया गया हूँ।” कई वर्षों तक इस तरह विश्वास करने के बाद उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है, जैसा कि पौलुस ने कहा था, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। तुम इसे चाहे जैसे भी कहो, पौलुस में आध्यात्मिक समझ का अभाव था। यह सचमुच अफसोस की बात है। उसे आध्यात्मिक समझ न होना ही कम परेशानी की बात न थी, ऊपर से उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया। उसने अपने सभी सिद्धांतों, नारों, कल्पनाओं, धारणाओं, ज्ञान और फलसफों को ऐसे माना जैसे कि वे सत्य हों और उन्हें अपने गतिविधियों का विस्तार करने के लिए एक नींव के रूप में इस्तेमाल किया। नतीजतन, चाहे उसने कुछ भी किया हो, वह सत्य वास्तविकताओं को नहीं जी रहा था और चाहे उसने जो भी किया, वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं था। उसकी यह समस्या गंभीर थी! जब आध्यात्मिक समझ की कमी की बात आती है तो पौलुस सबसे खराब उदाहरण है, क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? बिलकुल नहीं, क्योंकि जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे सत्य समझने में असमर्थ होते हैं और अगर वे सत्य नहीं समझते तो वे सत्य से प्रेम हरगिज नहीं कर सकते। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे स्वयं को कैसे अभिव्यक्त करते हैं? प्राथमिक अभिव्यक्ति यह है कि चाहे लोग परमेश्वर के वचनों पर उनके साथ कैसे भी संगति करें, वे फिर भी नहीं समझते और चाहे लोग सत्य पर कितनी भी स्पष्टता से उनके साथ संगति करें, वे फिर भी उसे समझने में असमर्थ रहते हैं। इसका सीधा संबंध बहुत कम क्षमता होने से है। क्या आध्यात्मिक मामले न समझने वाले लोग सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? वे चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे नहीं समझ सकते कि परमेश्वर किस बारे में बात कर रहा है, वे नहीं जानते कि परमेश्वर कौन-सी अवस्थाएँ उजागर करता है और वे खुद से तुलना नहीं कर सकते। वे परमेश्वर के सभी वचनों को अधिनियम, वाक्यांश, नारे और धर्म-सिद्धांत समझते हैं और कभी नहीं जानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। यहाँ क्या समस्या है? यही कि उनकी क्षमता बहुत कम है, उनमें समझने की क्षमता बिल्कुल नहीं है और वे आध्यात्मिक समझ की कमी अभिव्यक्त कर रहे हैं।

दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ है। जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ है वे सत्य समझ सकते हैं, परमेश्वर के वचन खाने-पीने पर उनकी खुद से तुलना कर सकते हैं और समझ सकते हैं कि परमेश्वर के वचन क्या उजागर कर रहे हैं, परमेश्वर के वचनों में कौन-से सत्य हैं और परमेश्वर क्या अपेक्षा करता है। क्या समझने की क्षमता प्रवेश पाने के समकक्ष है? (नहीं।) तो जब मैं कहता हूँ कि वे समझ सकते हैं, इसका क्या तात्पर्य है? यह क्या बताता है? (वे परमेश्वर के वचनों और खुद के बीच तुलना कर सकते हैं।) खुद से तुलना करने की क्षमता इसका एक हिस्सा है। वे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव और हर तरह की अवस्था स्वीकारते हैं जिसे परमेश्वर उजागर करता है। तो, क्या वे यह जानने में सक्षम होते हैं कि परमेश्वर क्या अपेक्षा करता है? उन्हें कुछ हद तक जानना चाहिए—परमेश्वर की अपेक्षाएँ जाननी चाहिए, यह जानना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में किन सिद्धांतों के बारे में बात की गई है और उसके इरादे क्या हैं। वे इन चीजों के बारे में स्पष्ट होते हैं और इन्हें समझते हैं; इसीलिए उन्हें आध्यात्मिक समझ वाले लोग कहा जाता है। आध्यात्मिक समझ वाले लोग जब परमेश्वर के वचन खाते-पीते हैं तो वे उनकी खुद से तुलना कर पाते हैं, समझ पाते हैं कि परमेश्वर के वचन किसकी बात कर रहे हैं और उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं। यह दर्शाता है कि इस तरह के व्यक्ति के पास सत्य समझने की क्षमता और काबिलियत होती है। तो, क्या यह क्षमता और काबिलियत होने का अनिवार्य रूप से यह मतलब है कि उसके पास जीवन प्रवेश है? (नहीं।) कई अलग-अलग परिदृश्य हैं। कुछ लोग परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं और उन्हें बूझने की क्षमता और काबिलियत रखते हैं, लेकिन कभी उनकी खुद से तुलना नहीं करते। वे बस परमेश्वर के वचनों और दूसरे लोगों के बीच तुलना करते हैं, दूसरे लोगों में खामियाँ तलाशते हैं, उनकी कमियों से उन्हें डराते हैं, उनकी अवस्थाओं में मीनमेख निकालते हैं और उनका दिमाग पढ़ने की कोशिश करते हैं, मानो वे कोई डिटेक्टर हों। जब उनके पास करने के लिए और कुछ नहीं होता, तो वे इस बात पर विचार करते हैं कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि लोग अपने दिल में क्या सोच रहे हैं, उनके दिलों में क्या विचार और भाव हैं, उनका इरादा क्या है, उनका उद्देश्य क्या है, उनकी प्रेरणा क्या है, वे क्या आशा करते हैं, और चीजें करते समय वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। इन चीजों का पता लगाने में उनका क्या लक्ष्य होता है? परमेश्वर के वचनों और दूसरे लोगों के बीच तुलना करना, फिर उनकी समस्याएँ हल करना। उदाहरण के लिए, “मि. स्मिथ” किस परिवेश में रहता है, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी है, वह कितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा है, आम तौर पर उसे क्या समस्याएँ होती हैं, अपने स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश करते समय उसमें क्या कमजोरियाँ होती हैं, जब चीजें घटित होती हैं तो उसे अक्सर कौन-सी कठिनाइयाँ होती हैं, किन स्थितियों में वह आसानी से नकारात्मक हो जाता है, वह अपना कर्तव्य निर्वहन कितनी अच्छी तरह से करता है, वह परमेश्वर के वचनों को कैसे लेता है, और क्या उसका आध्यात्मिक जीवन सामान्य है—इन सभी चीजों के बारे में उन्हें स्पष्ट समझ होती है। वे बहुत बुद्धिमान होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वे अपनी बुद्धि का प्रयोग सही जगहों पर नहीं करते। वे दूसरे लोगों की समस्याएँ हल करते हैं, लेकिन खुद सत्य का अभ्यास नहीं करते। इस तरह का व्यक्ति अक्सर अगुआ या कार्यकर्ता होता है, या ऐसा व्यक्ति होता है जिसके पास थोड़ी-बहुत जिम्मेदारी होती है। क्या ऐसे व्यक्ति के अनुसरण का यह तरीका समस्यात्मक है? (हाँ।) अनुसरण का यह तरीका समस्यात्मक है, और गंभीर रूप से समस्यात्मक है। कितना गंभीर रूप से? हमें इस पर संगति करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक समझ रखता है, परमेश्वर के वचन समझ सकता है, और जानता है कि परमेश्वर के वचनों के साथ तुलना कैसे की जाए, लेकिन उसने कभी परमेश्वर के वचनों और खुद के बीच तुलना नहीं की होती है; इसके बजाय, वह परमेश्वर के वचनों और दूसरे लोगों के बीच तुलना करता है। दूसरे लोगों के साथ तुलना करने के पीछे उसका क्या लक्ष्य होता है? (दिखावा करना।) सही कहा। वह अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के लिए, अपनी हैसियत और ज्यादा सुरक्षित करने के लिए और लोगों के दिलों पर कब्जा करने में और ज्यादा सक्षम बनने के लिए दिखावा करता है। यह तथ्य कि वह ऐसा कर सकता है, उसकी प्रकृति से जुड़ा है और सीधे तौर पर इस बात से जुड़ा है कि परमेश्वर में विश्वास करते समय वह किस चीज का अनुसरण करता है। अगर किसी को इस तथ्य के आधार पर आँकना हो कि यह आदमी अपना काम पूरे दिल से और पूरी तरह से करता है और यह आदमी दूसरे लोगों की तमाम विभिन्न अवस्थाएँ अच्छी तरह से समझने में सक्षम है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह आदमी सत्य का अनुसरण करने वाला है? जरूरी नहीं। तो फिर कोई यह कैसे बता सकता है कि कोई आदमी सत्य का अनुसरण करने वाला है या नहीं? अगर भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की बात आने पर वह आदमी खास तौर से जिम्मेदार होता है, चीजों में खूब दिल और मेहनत लगाता है, अपना काम बहुत अच्छी तरह से करता है, भाई-बहनों की हर तरह की अवस्था के संबंध में अक्सर सत्य खोजता है और फिर समस्याएँ हल करता है, तो इस तरह अपना कर्तव्य निभाने पर क्या वह एक योग्य अगुआ होता है? उसकी इन अभिव्यक्तियों और खुलासों से आकलन करने पर क्या कोई आश्वस्त हो सकता है कि वह सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान है? (जरूरी नहीं।) क्यों? (वह दूसरे लोगों की समस्याएँ हल कर सकता है, लेकिन उसने कभी परमेश्वर के वचनों और खुद के बीच तुलना नहीं की होती।) अगर उसने कभी अपनी ही समस्याएँ हल नहीं की, तो वह दूसरे लोगों की समस्याएँ कैसे हल करता है? (उन्हें हल करने के लिए वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर भरोसा करता है।) वह कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझता है, उसके पास कुछ चतुराइयाँ होती हैं, अच्छी याददाश्त होती है, वह चीजों पर तुरंत प्रतिक्रिया करता है, और जैसे ही वह कोई उपदेश सुनता है, तुरंत जाकर दूसरों को दिखाने में सक्षम होता है। इन चीजों से आँकते हुए, क्या उसके पास प्रवेश होता है? (नहीं।) दूसरे लोगों की कठिनाइयाँ हल करना लेकिन अपनी कठिनाइयाँ कभी हल न करना सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्ति नहीं है। वह दूसरे लोगों को मनाने व समझाने के लिए बस धर्म-सिद्धांत और परमेश्वर के वचनों या तमाम तरह की चालों और तरीकों का उपयोग करता है; वह उन वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपयोग करता है जिन्हें वह समझता है, या लोगों को कठिनाई से बाहर निकालने में मदद करने के लिए जीवन अनुभव के वचनों का अनुकरण और नकल करता है। दूसरे लोगों की कठिनाइयाँ हल करने के लिए वह उन चीजों का जिनसे वह व्यक्तिगत रूप से गुजरा है, और अपने वास्तविक अनुभवों का उपयोग करने के बजाय इन तरीकों का उपयोग करता है। इससे साबित होता है कि यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं है। वह क्या चीज है जो वह दूसरे लोगों को प्रदान करता है? (धर्म-सिद्धांत।) हम इसे धर्म-सिद्धांत क्यों कहते हैं? क्योंकि यह उसके अपने अनुभवों से नहीं आता, यह ऐसी चीज नहीं है जिससे वह वास्तव में गुजरा हो और यह उसकी सच्ची समझ नहीं है। वह क्या चीज है जिससे वह असल में दूसरों का सिंचन करता है? धर्म-सिद्धांत, वाक्यांश और शब्द जो लोगों को फुसलाते और सांत्वना देते हैं। वह इंसानी तरीकों, चालों और चालाकियों का भी उपयोग करता है और चाहे कुछ भी हो, वह सोचता है कि लोगों के सवालों का जवाब देना समस्याओं का समाधान करना है और काम करना यही है। उसकी अभिव्यक्तियों से, उसके द्वारा दूसरों को प्रदान की जाने वाली चीजों से, उसके काम करने के तरीके से, और जिस रास्ते पर वह चलता है उससे आँकते हुए, क्या यह ऐसा आदमी है जो सत्य का अनुसरण करता है? (नहीं।) यह ऐसा आदमी नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता है। जब अपने पास ही कोई प्रवेश न हो तब समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना क्या थोड़ा कपटपूर्ण नहीं है? (हाँ, है।) यह कपट है; यह पाखंड है, और यह दूसरों को धोखा देना है। तो क्या ऐसे लोग अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और सत्य समझने के बीच सीधा संबंध है। उदाहरण के लिए, कलीसिया का सिंचन करने के लिए व्यक्ति को सत्य समझना चाहिए; समस्याएँ हल करने के लिए व्यक्ति को सत्य समझना चाहिए; समस्याओं से निपटने के लिए भी व्यक्ति को सत्य समझना चाहिए; लोगों को पहचानने के लिए तो सत्य समझना और भी आवश्यक है। कलीसिया के कार्य का प्रत्येक पहलू सत्य से संबंधित है; अगर व्यक्ति सत्य नहीं समझता तो वह कलीसिया का आवश्यक कार्य अच्छी तरह से नहीं करेगा, और सिर्फ सामान्य कार्य ही ठीक से करेगा। इसलिए, अगर कोई अगुआ सत्य का अनुसरण नहीं करता तो वह चाहे कितना भी व्यस्त क्यों न हो, कितनी भी भागदौड़ क्यों न करे या कितना भी कष्ट क्यों न सहे, वह अच्छा काम नहीं करेगा, और अपना कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ पूरी तरह से निभाने में असमर्थ होगा। जब वह कार्य करता है, तो वह अकारण इधर-उधर दौड़कर देखता है कि समस्याएँ कहाँ हैं, और फिर उन्हें सरल तरीके से ठीक करता है। जब किसी को किसी तरह की कठिनाई होती है तो वह थोड़ा धर्म-सिद्धांत पर संगति कर देता है, और जब कोई नकारात्मक और कमजोर होता है तो वह उसे प्रोत्साहित और प्रेरित कर देता है; ये ही वो चीजें हैं जो वह करता है। उसे लगता है कि अगर वह उन लोगों पर नजर रखता है जिनकी वह अगुआई करता है, जब तक हर कोई व्यस्त है और निष्क्रिय नहीं है तो वह अपना काम अच्छी तरह से कर रहा है, और अगर वह हर जगह घूम-फिरकर कार्य का निरीक्षण और निर्देशन कर सकता है, कोई उसकी रिपोर्ट कर उसे उजागर नहीं करता, जहाँ भी जाता है उपदेश देने और बोलने में सक्षम रहता है, और हर चीज बिना किसी बाधा के सुचारु रूप से चलती है, तो वह अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभा रहा है। यह हैसियत के स्थान से कार्य करना है, न कि व्यावहारिक अर्थों में समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना। वह काम करने को महत्व देता है और काम करने को महत्व देते समय वह अपनी हैसियत के लिए कुछ नहीं कर सकता—वह बस इतना करता है कि इस व्यक्ति को प्रेरित या उस व्यक्ति को प्रोत्साहित करने के लिए एकचित्त होकर धर्म-सिद्धांत और नारों का उपयोग करता है, एकचित्त होकर इस कार्य में व्यस्त रहता है। उसे लगता है कि जब तक वे निष्क्रिय नहीं हैं, तब तक सब ठीक है। पहली बात यह है कि वह ढीला नहीं पड़ सकता, दूसरी बात यह है कि उसे मेहनती होना चाहिए और तीसरी बात यह है कि उसे कष्ट सहने में सक्षम होना चाहिए। वह पूरे दिन भागदौड़ करता रहता है—अगर कहीं कोई समस्या है तो उसे यथाशीघ्र दूर किया जाना चाहिए, और उसे आसपास हमेशा पूछना चाहिए कि किसी को कोई समस्या तो नहीं हैं। उसे लगता है कि ऐसा करना सत्य का अनुसरण करना है। हकीकत में, क्या इन अभिव्यक्तियों के होने का मतलब अनिवार्य रूप से यह है कि वह सत्य का अनुसरण करता है? क्या इसका अनिवार्य रूप से यह मतलब है कि उसके पास जीवन प्रवेश है? यह मामला अभी भी सवालों के घेरे में है। यह उन लोगों की पहली अभिव्यक्ति होती है, जिन्हें आध्यात्मिक समझ है लेकिन जो सत्य का अनुसरण नहीं करते।

जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ है लेकिन जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनकी दूसरी अभिव्यक्ति होती है उनका परमेश्वर के वचन समझने में, व उसके वचन क्या कह रहे हैं उसका व्यावहारिक पक्ष समझने में सक्षम होना और परमेश्वर के वचनों और खुद के बीच तुलना करने में सक्षम होना, लेकिन इसे कभी अभ्यास में न लाना। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के अनुसार या सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें नहीं करता, न ही वह खुद को नियंत्रित करता है। जब कुछ होता है, तो वह बस लोगों को अपने प्रति समर्पण कराना और उन्हें अपनी बात सुनने के लिए बाध्य करना चाहता है, लेकिन वह खुद सत्य के प्रति समर्पण नहीं करना चाहता। वह सत्य का अभ्यास करने और सत्य के प्रति समर्पण करने को दूसरे लोगों की जिम्मेदारी, दायित्व और कर्तव्य मानता है, और ऐसी चीज मानता है जो दूसरे लोगों को करनी चाहिए। वह अपने बारे में ऐसा समझता है, मानो उसे बाकी सबसे अलग रखा गया हो। वह चाहे कितना भी समझता हो, या परमेश्वर के कितने भी वचनों को खुद से जोड़ सकता हो, उसे लगता है कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह दूसरे लोगों के लिए होता है, उसका उससे कोई लेना-देना नहीं होता। तो, वह करता क्या है? वह बहुत व्यस्त भी रहता है। वह कलीसिया जाता है और देखता है कि कौन उसकी आलोचना करता है, फिर उसे नोट कर लेता है। फिर, वह इसे “ठीक” करने के तरीके सोचने के लिए दिमाग लड़ाता है। वह कहता है, “आओ, खुलकर संगति करते हैं। तुम मन में जो भी सोचते हो, मेरे बारे में तुम्हारी जो भी राय है, और मेरे बारे में तुम्हारी जो भी आलोचना है, बस मुझे बताओ, मैं बदलने और चीजें अलग ढंग से करने की पूरी कोशिश करूँगा।” बदलने में उसका क्या लक्ष्य होता है? दूसरे लोगों से खुद को पसंद करवाना। इसके अलावा, वह देखता है कि कौन उसकी आलोचना करता है और कौन उसके प्रति समर्पण नहीं करता, और फिर इसे “ठीक” करने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश ढूँढ़ता है। वह कहता है, “जब परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनता है, तो परमेश्वर ही मालिक होता है। परमेश्वर के घर में सत्य ही सत्ता है। भाई-बहन जिसे भी अगुआ चुनते हैं, परमेश्वर यही चाहता है और तुम लोगों को इसके प्रति समर्पण करना चाहिए। तुम मेरे प्रति नहीं, बल्कि पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सत्य के प्रति समर्पण कर रहे हो। अगर तुम समर्पण नहीं करते, तो तुम्हें दंडित किया जाएगा!” सुनने के बाद, कुछ लोग जानते हैं कि अगुआ परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या कर रहा है और लोगों को गुमराह करने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहा है, और वे उसकी बात नहीं सुनते। जब अगुआ देखता है कि ये लोग उसके प्रति बिल्कुल समर्पण नहीं कर रहे हैं, तो वह सोचता है, “तुम मेरे प्रति समर्पण करने से इनकार कर रहे हो, है न? मेरे पास तुमसे निपटने के दूसरे तरीके हैं। मैं नरमी का रवैया छोड़ने जा रहा हूँ।” अगुआ अपने प्रति समर्पण न करने वाले लोगों से कहता है, “क्या तुमने वो कार्य पूरा कर लिया है जो मैंने तुम्हें दिया था?” और लोग कहते हैं, “खत्म होने ही वाला है, बस थोड़ा-सा ही बाकी रह गया है। इससे कोई देरी नहीं होगी।” अगुआ कहता है, “थोड़ा-सा बाकी रहना देरी कैसे नहीं है? परमेश्वर की नजर में थोड़े-से का मतलब बहुत ज्यादा है। यह निष्ठाहीनता की अभिव्यक्ति है। तुम इसे अपना कर्तव्य निभाना कहते हो?” असल में, क्या यह अगुआ सचमुच यही कहना चाहता है? उसके दिल में क्या लक्ष्य है? वह दूसरे लोगों को समर्पण के लिए मजबूर करना चाहता है, उन्हें हराना और नीचा दिखाना चाहता है, लेकिन वह स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं कह सकता। अगर वह ऐसा करेगा, तो भाई-बहन उसकी असलियत जानकर उसे उजागर कर देंगे, इसलिए उसे चीजें करने के लिए कोई उचित कारण और बहाना ढूँढ़ना होगा; उसे लोगों को “सम्मानजनक और उचित” तरीके से दबाना होगा, ताकि जब वह लोगों को दबा ले तो यह दूसरों को न दिखे, संबंधित लोगों को आज्ञापालन करने के लिए बाध्य कर दे, और अपनी हैसियत मजबूत करने और सुदृढ़ बनाने का अगुआ का लक्ष्य हासिल कर ले। यह कैसा स्वभाव है? (वह कपटी और षड्यंत्रकारी है।) वह कपटी, षड्यंत्रकारी, विषैला है, और हैसियत की खातिर काम करता है। वह उन चीजों पर ध्यान नहीं देता जो उसकी हैसियत से संबंधित नहीं होतीं, और उनमें दिल नहीं लगाता, लेकिन जब उन चीजों की बात आती है जो उसकी हैसियत, कीर्ति, लाभलाभ, स्वाभिमान और कलीसिया में उसके पद को प्रभावित करती हैं, तो वह उन्हें पकड़ लेता है, उन्हें जाने नहीं देता और गंभीर होना शुरू हो जाता है। अपनी आम सभाओं में सत्य पर संगति करते समय वह कभी-कभी खुद को जानेगा, परमेश्वर के वचनों और खुद के बीच तुलना करेगा, और अपना भ्रष्ट स्वभाव उजागर करेगा, लेकिन इसके पीछे एक उद्देश्य, एक इरादा होता है : वह है दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाना, दूसरों को अपने से ईर्ष्या करवाना और दूसरों से अपना आदर करवाना, और अपनी हैसियत मजबूत करना। उसकी महत्वाकांक्षाएँ और उद्देश्य होता है। अगर यह अपनी हैसियत की खातिर न हो, तो वह एक शब्द भी नहीं कहता; अगर यह अपनी हैसियत सुरक्षित रखने की खातिर न हो, तो वह कुछ नहीं करता—वह जो कुछ भी करता है अपनी हैसियत की खातिर करता है। अपनी हैसियत की खातिर वह कमरतोड़ मेहनत करेगा, लेकिन अगर यह कलीसिया के काम की खातिर हो तो समस्याओं का पता चलने पर वह उनका समाधान नहीं करेगा, जब दूसरे लोग समस्याएँ बताएँगे तब वह उन्हें हल नहीं करेगा, और कुछ भी करने के लिए वह एक तिनका भी नहीं तोड़ेगा; वह दूसरे लोगों को अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त देखता है लेकिन खुद कुछ नहीं करता। यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक नीच और घृणित व्यक्ति जो सिर्फ कीर्ति, लाभ और हैसियत के लिए जीता है।) जो आदमी सिर्फ हैसियत के लिए जीता है, क्या वह कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो सत्य का अनुसरण करता है? क्या वह सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होता है? (नहीं।) यह कहना कठिन है। अगर उसका जमीर थोड़ा-सा भी जगा हुआ है, उसमें शर्म की भावना है, गरिमा और चरित्र है, और कुछ ताड़ना और न्याय का अनुभव करने, काट-छाँट या परीक्षण और शोधन का अनुभव करने के बाद वह सत्य स्वीकारने में सक्षम है, तो संभव है वह चीजें बदल सके। लेकिन अगर वह सुन्न, मंदबुद्धि, हठधर्मी है और सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारता, तो चाहे वह कितना भी समझता हो, क्या इसका कोई फायदा है? (नहीं।) चाहे वह कितना भी समझता हो, यह उसके दिल को नहीं छू पाएगा। बाहर से वह चाहे कितना भी व्यस्त दिखता हो, सड़कों पर भाग-दौड़ करने में कितना भी समय बिताता हो, कितना भी बलिदान करता हो, त्याग करता हो और खपता हो, क्या ऐसे लोग जो हमेशा हैसियत की खातिर ही बोलते और कार्य करते हैं, सत्य का अनुसरण करने वाले माने जा सकते हैं? बिल्कुल नहीं। हैसियत के लिए वे कोई भी कीमत चुकाएँगे। हैसियत के लिए वे कोई भी कष्ट सह लेंगे। हैसियत के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार रहेंगे। वे दूसरों में कमियाँ निकालने, उन्हें फँसाने, या उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश करते हैं, उन्हें पैरों तले रौंदते हैं। वे सजा और प्रतिफल के जोखिम से भी नहीं डरते; वे नतीजों के बारे में सोचे बिना हैसियत की खातिर कार्य करते हैं। ऐसे लोग किस चीज का अनुसरण करते हैं? (हैसियत का।) उनकी पौलुस के साथ कहाँ समानता है? (मुकुट का अनुसरण करने में।) वे धार्मिकता के मुकुट का अनुसरण करते हैं, हैसियत, कीर्ति और लाभ का अनुसरण करते हैं, और सत्य के अनुसरण के बजाय हैसियत, कीर्ति और लाभ के अनुसरण को वैध अनुसरण मानते हैं। ऐसे लोगों की सबसे प्रमुख विशेषता क्या होती है? यही कि सभी मामलों में वे हैसियत, कीर्ति और लाभ की खातिर काम करते हैं। इस तरह का आदमी, जो कीर्ति, लाभ और हैसियत की खातिर काम करता है, दूसरों को गुमराह करने में सबसे निपुण होता है। जब तुम उससे पहली बार मिलते हो, तो तुम उसे समझ नहीं पाते। तुम देखते हो कि जो धर्म-सिद्धांत वह बोलता है वह अच्छा लगता है, जो वह कहता है वह व्यावहारिक लगता है, जिस कार्य की वह व्यवस्था करता है वह बहुत उपयुक्त होता है, और ऐसा लगता है कि उसमें कुछ क्षमता है, और तुम उसकी बहुत प्रशंसा करते हो। इस तरह का आदमी अपना कर्तव्य निभाते समय कीमत चुकाने को भी तैयार रहता है। वह रोजाना कड़ी मेहनत करता है, लेकिन कभी थके होने की शिकायत नहीं करता। उसमें रत्ती भर भी कमजोरी नहीं होती। जब दूसरे लोग कमजोर होते हैं, तो वह कमजोर नहीं होता। वह दैहिक सुखों की लालसा भी नहीं करता और खाने में नखरेबाज भी नहीं होता। जब उसका मेजबान परिवार उसके लिए कुछ खास बनाता है तो वह उसे मना कर देता है और नहीं खाता। वह सिर्फ रोजमर्रा का खाना खाता है। ऐसे लोगों को जो भी देखता है, उनकी प्रशंसा करता है। तो, कोई यह कैसे पहचान सकता है कि वे हैसियत की खातिर काम कर रहे हैं या नहीं? पहले, व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं। यह कहाँ दिखेगा? (चीजें करते समय उनके इरादे और शुरुआत में।) यह तो इसका एक हिस्सा हुआ। यह मुख्य रूप से उस लक्ष्य में स्पष्ट होगा, जिसका वे अनुसरण कर रहे हैं। अगर यह सत्य ग्रहण करने की खातिर है, तो वे अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य समझने और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खुद को जानने को महत्व देंगे। अगर वे अक्सर खुद को जानने पर संगति करते हैं, तो वे देख पाएँगे कि उनके पास बहुत-सी चीजों का अभाव है, उनके पास सत्य नहीं है, और वे स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने का प्रयास करेंगे। जितना ज्यादा लोग खुद को जानते हैं, उतना ही ज्यादा वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। जो लोग हमेशा हैसियत की खातिर ही कुछ कहते और करते हैं, वे स्पष्ट रूप से सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं होते। जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे इसे स्वीकार नहीं करते—वे अपनी प्रतिष्ठा खराब होने से बहुत डरते हैं। तो, क्या वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के वचन स्वीकारने और आत्मचिंतन करने में सक्षम होते हैं? क्या वे वास्तव में अपने अनुभव में भटकाव को समझ सकते हैं? अगर उनमें इनमें से कोई अभिव्यक्ति नहीं है, तो निश्चित हुआ जा सकता है कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं। मुझे बताओ, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और हैसियत के पीछे दौड़ते हैं, उनकी अन्य अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? (जब दूसरे लोग उनकी आलोचना करते हैं तो वे इसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि रक्षात्मक हो जाते हैं, खुद को सही ठहराते हैं और कारण बताते हैं। वे अपना स्वाभिमान और हैसियत बनाए रखने के लिए बोलते हैं। अगर कोई उनका समर्थन नहीं करता, तो वे उस पर हमला कर उसकी आलोचना करते हैं।) जब लोग दूसरों पर हमला कर उनकी आलोचना करते हैं और अपने स्वाभिमान और हैसियत की खातिर बोलकर अपना बचाव करते हैं, तो उनके कार्यों के पीछे का इरादा और लक्ष्य स्पष्ट रूप से गलत होते हैं, और वे पूरी तरह से हैसियत के लिए जीते हैं। क्या ऐसे लोग, जो हर चीज हैसियत की खातिर कहते और करते हैं, परमेश्वर के इरादों का ध्यान रख सकते हैं? क्या वे सत्य स्वीकार सकते हैं? बिल्कुल नहीं। उन्हें लगता है कि अगर वे परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखेंगे तो उन्हें सत्य का अभ्यास करना होगा, और अगर वे सत्य का अभ्यास करेंगे तो उन्हें कष्ट सहना होगा और कीमत चुकानी होगी। तब वे हैसियत से मिलने वाला आनंद खो देंगे और हैसियत के लाभ उठाने में असमर्थ रहेंगे। इसलिए, वे सिर्फ कीर्ति, लाभ और हैसियत का अनुसरण करना और पुरस्कार प्राप्त करने के पीछे दौड़ना चुनते हैं। हैसियत के पीछे दौड़ने वाले लोग खुद को और किन अन्य तरीकों से अभिव्यक्त करते हैं? वे और क्या चीजें करते हैं? (अगर वे अपने आस-पास कुछ ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति देखते हैं जो सत्य का अनुसरण करने के प्रति ज्यादा समर्पित हैं और पोषित किए जाने योग्य होते हैं, और जिनका समर्थन करने के लिए भाई-बहन ज्यादा इच्छुक होते हैं, तो इस डर से कि ये लोग खड़े होकर उनकी जगह ले लेंगे और उनकी हैसियत खतरे में डाल देंगे, वे उन प्रतिभाशाली व्यक्तियों को दबाने के तरीके सोचते हैं, और उन्हें नीचे गिराने के लिए तमाम तरह के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं। सबसे आम तरीका है उन्हें अत्यधिक अहंकारी, आत्म-तुष्ट और हमेशा दूसरों को विवश करने वाला करार देना और लोगों को विश्वास दिलाना कि ये चीजें सच हैं, और परमेश्वर के घर को इन व्यक्तियों को बढ़ावा न देने देना या पोषित न करने देना।) यह सबसे आम अभिव्यक्ति है। क्या तुम कुछ और जोड़ना चाहते हो? (वे हमेशा अपनी गवाही देना और दिखावा करना पसंद करते हैं। वे हमेशा अपने बारे में कुछ अद्भुत चीजें कहते हैं; वे कभी अपने बुरे पक्ष के बारे में बात नहीं करते, और अगर वे कुछ बुरा करते हैं तो वे अपने कार्यों पर विचार या उनका विश्लेषण नहीं करते।) वे हमेशा इस बारे में बात करते हैं कि वे कैसे कष्ट सहते और कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर कैसे उनका मार्गदर्शन करता है, और अपना किया हुआ काम दिखाते हैं। यह भी हैसियत सुरक्षित और मजबूत करने की अभिव्यक्ति के तरीके का हिस्सा है। जो लोग हैसियत के पीछे दौड़ते हैं और हैसियत की खातिर चीजें करते हैं, उनमें एक और—सबसे प्रमुख—विशेषता होती है, जो यह है कि चाहे कुछ भी हो जाए, चलेगी उन्हीं की। वे हैसियत के पीछे इसलिए दौड़ते हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि उन्हीं की चले। वे वो व्यक्ति बनना चाहते हैं जो निर्णय लेता है, वो अकेला व्यक्ति बनना चाहते हैं जिसके पास अधिकार होता है। स्थिति कोई भी हो, हर किसी को उसकी बात सुननी चाहिए, और चाहे किसी को भी समस्या हो, उसे दिशा-निर्देश माँगने और पाने के लिए उसके पास आना चाहिए। वे हैसियत के यही लाभ उठाना चाहते हैं। स्थिति चाहे जो भी हो, वे अपनी ही चलाना चाहते हैं। चाहे उनकी बात सही हो या गलत, चाहे वह गलत ही क्यों न हो, फिर भी उन्हें अपनी ही चलानी होती है, और दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए बाध्य कर उनसे अपना आज्ञापालन करवाना होता है। यह एक गंभीर समस्या है। स्थिति चाहे जो भी हो, उन्हीं की चलनी चाहिए; चाहे वह ऐसी स्थिति हो या नहीं जिसे वे समझते हों, उन्हें उसमें अपनी टाँग घुसेड़नी होती है और अपनी चलानी होती है। अगुआ और कार्यकर्ता चाहे जिस भी मुद्दे पर संगति कर रहे हों, निर्णय उन्हें ही लेना होता है, और इसमें दूसरों के बोलने की कोई गुंजाइश नहीं होती। चाहे वे जो भी हल सुझाएँ, उन्हें हर किसी से उसे स्वीकार करवाना होता है, और अगर दूसरे लोग उसे न स्वीकारें, तो वे क्रोधित होकर उनकी काट-छाँट करते हैं। अगर कोई आलोचना करता है या अलग राय रखता है, भले ही वह सही और सत्य के अनुरूप हो, तो उन्हें उस पर आपत्ति करने के लिए तमाम तरह के तरीके सोचने होंगे। वे कुतर्क करने में खास तौर से माहिर होते हैं, दूसरे आदमी को चिकनी-चुपड़ी बातों से मना लेते हैं और अंततः उन्हें अपने तरीके से काम करने पर मजबूर कर देते हैं। हर बात में अंतिम निर्णय उनका ही होना चाहिए। वे अपने सहकर्मियों या साथियों के साथ कभी बातचीत नहीं करते; वे लोकतांत्रिक नहीं होते। यह ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वे अत्यधिक अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं, सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकार सकते, और सत्य के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं होते। अगर कुछ बड़ा या महत्वपूर्ण होता है, और वे हर किसी को आकलन करने और अपनी राय देने के लिए प्रेरित कर पाते हैं, और अंततः बहुमत की राय के अनुसार अभ्यास के किसी तरीके पर सहमत हो जाते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि इससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान नहीं पहुँचेगा, और इससे समग्र रूप से कार्य को लाभ होगा—अगर उनका यह रवैया होता है, तो वे ऐसे व्यक्ति हैं जो परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करते हैं, और जो सत्य स्वीकार सकते हैं, क्योंकि चीजें इस तरह करने के पीछे सिद्धांत होते हैं। लेकिन क्या हैसियत के पीछे दौड़ने वाले लोग चीजें इस तरह से करेंगे? (नहीं।) वे चीजें कैसे करेंगे? अगर कुछ हुआ, तो उन्हें इसकी परवाह नहीं होगी कि दूसरे लोगों ने क्या सलाह दी है। लोगों द्वारा अपनी सलाह साझा करने से बहुत पहले ही वे अपने मन में कोई समाधान या निर्णय कर चुके होंगे। अपने दिलों में उन्होंने पहले ही तय कर लिया होगा कि वे क्या करेंगे। इस समय, लोग चाहे कुछ भी कहें, वे उस पर ध्यान नहीं देंगे। अगर कोई उन्हें डाँट भी दे, तो उसकी भी वे कोई परवाह नहीं करेंगे। वे सत्य सिद्धांतों पर कोई विचार नहीं करते, चाहे इससे कलीसिया के काम को लाभ ही क्यों न होता हो, या भाई-बहन इसे स्वीकार कर सकें या नहीं। ये चीजें उनके विचार के दायरे में नहीं आतीं। वे किस चीज पर विचार करते हैं? उन्हें अपनी ही चलानी होती है; वे इस मामले में निर्णयकर्ता होना चाहते हैं; यह मामला उनके तरीके से किया जाना चाहिए; उन्हें देखना होगा कि यह मामला उनकी हैसियत के लिए फायदेमंद है या नहीं। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिससे वे मामले देखते हैं। क्या यह ऐसा व्यक्ति है, जो सत्य का अनुसरण करता है? (नहीं।) जब सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग चीजें करते हैं, तो वे हमेशा अपनी हैसियत, कीर्ति और लाभ पर ध्यान देते हैं; वे हमेशा इस बात पर विचार करते हैं कि इससे उन्हें कैसे लाभ होता है। चीजें करने की उनकी शुरुआत यहाँ से होती है।

कुछ लोगों को आध्यात्मिक समझ होती है लेकिन वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। वाकई कुछ लोग ऐसे होते हैं। जहाँ तक उनकी प्रमुख अभिव्यक्तियों का सवाल है, तो उनका पहला प्रकार है करने की खातिर चीजें करना; वे काम करना पसंद करते हैं और शांत नहीं बैठ सकते। जब तक वे कुछ करने में व्यस्त रहते हैं, तब तक वे खुश रहते हैं, उपलब्धि की भावना रखते हैं और जीवंत महसूस करते हैं। दूसरे प्रकार की अभिव्यक्ति हैसियत की खातिर कार्य करना है। ऐसे लोगों में खास तौर से प्रबल महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं। वे हमेशा लोगों को नियंत्रित करना और जीतना चाहते हैं और हमेशा परमेश्वर का स्थान लेने की इच्छा रखते हैं। परमेश्वर का स्थान लेने की इच्छा रखना—यह पौलुस के किस अनुसरण से संबंधित है? (उसका मसीह बनने का अनुसरण।) हैसियत के पीछे दौड़ने का उनका उद्देश्य सिर्फ ऐसा व्यक्ति बनना नहीं होता जो औरों से ऊपर हो, बल्कि हैसियत वाला ऐसा व्यक्ति बनना होता है जिसका दूसरे लोग आदर करते हों। उनका अंतिम लक्ष्य लोगों को जीतने और उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम होना, दूसरों से अपना सम्मान करवाना और उन्हें इस बात के लिए प्रेरित करना कि वे उन्हें परमेश्वर जैसा समझें, और हर किसी से अपना अनुसरण करवाना, अपने प्रति समर्पण करवाना और अपने में विश्वास करवाना है। यह सब क्या सूचित करता है? यही कि वे लोगों के दिलों में परमेश्वर बन जाएँगे। यह सत्य का अनुसरण नहीं है, बल्कि शैतान का अनुसरण है। हैसियत का अनुसरण स्पष्ट रूप से सत्य का अनुसरण नहीं है, और न कार्य या प्रतिष्ठा का अनुसरण ही सत्य का अनुसरण है। उनकी और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? (वे आशीषों का अनुसरण करते हैं।) यह सही है। वे कीमत चुकाते हैं, खुद को खपाते हैं, कष्ट सहते हैं और सभी तरह के मामलों में स्वार्थ त्याग सकते हैं, लेकिन वे ऐसा आशीष पाने की खातिर करते हैं। वे सिर्फ आशीष और एक अच्छा गंतव्य पाने की खातिर खुद को इस तरह से अभिव्यक्त करते हैं। यह सत्य का अनुसरण भी नहीं है। यह तीसरा तरीका है, जिससे वे लोग खुद को अभिव्यक्त करते हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ है लेकिन जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। पौलुस की तरह ही वे आशीष पाने और अपने गंतव्य की खातिर चीजें करते और कष्ट सहते हैं, और इसमें कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। चीजें करने में उनका उद्देश्य स्पष्ट होता है : जो कुछ भी आशीष पाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक होता है, वे सिर्फ वही करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। अगर उन्हें भाई-बहनों से अनुमोदन और समर्थन मिलता है, तो यह ठीक है। वे पूरी तरह से इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि हर कोई उन्हें कैसे देखता है, ऊपर वाला उन्हें कैसे देखता है, और वे परमेश्वर के दिल में हैं या नहीं। अगर यह निश्चित हो कि उन्हें आशीष और पुरस्कार मिलेगा, तो यह ठीक है। लेकिन, वे जो करते हैं, उसका मूल्यांकन करने के लिए कभी सत्य का उपयोग नहीं करते, और आशीष पाने की इच्छा कभी नहीं छोड़ते; वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं होते। अगर वे कुछ खराब करते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, अगर ऊपर वाला उनसे प्रसन्न नहीं होता, और उन्हें लगता है कि आशीष मिलने या शायद अच्छा गंतव्य पाने की कोई उम्मीद नहीं है, तो वे नकारात्मक हो जाएँगे और प्रयास छोड़ देंगे, अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहेंगे। कुछ तो ऐसे भी हैं जो विश्वास ही नहीं करना चाहते; उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। अनुसरण के उपर्युक्त तीनों तरीके वे मार्ग हैं जिन पर वे लोग चलते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। प्रत्येक कलीसिया में इस तरह के लोगों की अच्छी-खासी संख्या है, और वे सभी ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते। वे चाहे जो भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसे हमेशा अपने स्वार्थ, आशीष पाने और पुरस्कृत होने से जोड़ लेते हैं और अपने जीवन प्रवेश, सत्य समझने या अपना स्वभाव बदलने से कभी नहीं जोड़ते। चाहे उन्होंने जितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया ह या जितने भी वर्षों तक कर्तव्य निभाए हों, उन्होंने कभी आत्म-ज्ञान का अनुसरण नहीं किया है, कभी जीवन प्रवेश का अनुसरण नहीं किया है और कभी परमेश्वर से प्रेम करने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का अनुसरण नहीं किया है। वे चाहे कुछ भी कर रहे हों, वे सत्य नहीं खोजते। वे चाहे जो भी भ्रष्टता प्रकट करें, वे उसके और परमेश्वर के वचनों के सत्य के बीच संबंध नहीं जोड़ते। वे चाहे कुछ भी कर रहे हों, उनके इरादे स्वार्थपूर्ण और घटिया होते हैं, उन सबका उद्देश्य आशीष और व्यक्तिगत लाभ हासिल करना होता है। उनकी चाहे कैसे भी काट-छाँट की जाए, वे आत्मचिंतन नहीं करते और यही सोचते रहते हैं कि वे सही हैं। इस तरह के लोग कम ही नकारात्मक होते हैं। कष्ट कितना भी बड़ा हो, वे उससे नहीं डरते, बशर्ते इसका अर्थ यह हो कि उन्हें आशीष मिलेगा और वे राज्य में प्रवेश करेंगे। उनमें दृढ़ता तो होती है, लेकिन उनके लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन होता है। वे आत्मचिंतन कर आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के बजाय मरना पसंद करेंगे, और उन्हें लगता है कि वे बहुत अच्छा कर रहे हैं। जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ होती है लेकिन जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनकी एक और अभिव्यक्ति यह होती है : कुछ लोगों ने कई उपदेश सुने होते हैं, लेकिन उन्हें परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों या उसके उन वचनों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, जो लोगों की विभिन्न अवस्थाएँ उजागर करते हैं। अगर वे ये चीजें समझते भी हैं तो भी उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती। तो, अगर उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती तो फिर भी वे परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हैं? उनके हृदय में निश्चित रूप से एक तरह का अस्पष्ट और अवास्तविक विचार होता है। वे कहते हैं, “पता नहीं, पृथ्वी पर परमेश्वर क्या करने में सक्षम है। मैं नहीं बता सकता। ऐसा लगता है, मानो वह मुख्य रूप से सत्य पर संगति करने में सक्षम हो। मैं ये तथाकथित सत्य पूरी तरह से नहीं समझता, लेकिन जो भी हो, जो चीजें वह कहता है वे काफी अच्छी होती हैं और लोगों को सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं। लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि वह वास्तव में परमेश्वर है या नहीं।” जब वे परमेश्वर पर इतना संदेह करते हैं तो वे परमेश्वर के घर में क्यों रहते हैं, चले क्यों नहीं जाते? वह इसलिए, क्योंकि उनके दिल में एक अस्पष्ट दृष्टिकोण और फंतासी होती है। वे सोचते हैं, “अगर मैं यहाँ समय काटता रहूँ, तो शायद अंततः मृत्यु से बच जाऊँ, और अंततः स्वर्ग में प्रवेश कर जाऊँ और महान आशीष प्राप्त कर पाऊँ।” इसलिए, दूसरे लोग जहाँ स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करते हैं और काट-छाँट किया जाना स्वीकारते हैं, वहीं वे यह कहते हुए स्वर्ग में परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, इन कठिनाइयों में मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे काट-छाँट किए जाने को स्वीकारने में सक्षम बनाओ। मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ।” तुम सुनते हो कि वे जिन शब्दों में प्रार्थना करते हैं वे गलत नहीं हैं, लेकिन वे कभी यह नहीं स्वीकारते कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है या वे गलत हैं। अपने हृदय में वे सिर्फ स्वर्ग में परमेश्वर को ही स्वीकारते हैं। जहाँ तक पृथ्वी पर परमेश्वर—देहधारी परमेश्वर—और परमेश्वर के न्याय के वचनों की बात है, वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते, मानो इन चीजों का उनसे कोई लेना-देना ही न हो। परमेश्वर में उनका विश्वास कितना सरल और खोखला है। चाहे दूसरे लोग मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभाव और उसमें बदलाव की जरूरत के बारे में कैसे भी बात करते हों, वे सोचते हैं, “ऐसा कैसे है कि तुम सभी इतने भ्रष्ट हो और मैं नहीं हूँ?” उन्हें लगता है कि वे पूर्ण और दोषरहित हैं और उनमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। कभी-कभी वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं या दूसरों को नीची निगाह से देखते हैं, लेकिन वे इसे सामान्य मानते हैं और सोचते हैं कि यह सिर्फ एक बुरा विचार है और अगर वे इसे दबा देंगे तो यह चला जाएगा। या, जब वे दूसरे लोगों को परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते देखते हैं तो सोचते हैं, “मैंने कभी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया है। मेरे दिल में उसके लिए जो प्रेम है, वह कभी डगमगाया नहीं है।” वे बस ये कुछ वाक्य कहते हैं और आत्मचिंतन नहीं करते, न सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना ही जानते हैं। क्या ऐसे ही लोग सत्य का अनुसरण करने वाले लोग होते हैं? (नहीं।) तो फिर भी वे अपने बारे में इतना अच्छा क्यों सोचते हैं और क्यों यह सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का यह तरीका बुरा नहीं है? यहाँ क्या चल रहा है? यह दर्शाता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। लोगों की धारणाओं के अनुसार वे किस तरह के लोग होते हैं? वे खुद को किस तरह से प्रकट करते हैं? वे वाक्पटु, चतुर, तेजी से सीखने वाले और चीजों को समझने की मजबूत क्षमता रखने वाले होते हैं। तुम्हारे मुँह से शब्द निकलते ही वे समझ जाते हैं कि तुम क्या कह रहे हो और वे धर्म-सिद्धांत समझने में खास तौर से तेज होते हैं। लेकिन, चाहे वे कुछ भी समझते हों, आशीष पाने के उनके अनुसरण की दिशा और उद्देश्य अपरिवर्तित रहता है। इसके अलावा, वे जिन सत्यों को समझते हैं, उन्हें धर्मशास्त्रीय सिद्धांत या एक तरह का मत या शिक्षाएँ मानते हैं। वे यह नहीं सोचते कि वे सत्य हैं, इसलिए वे उनका अभ्यास नहीं करते या उन्हें अनुभव नहीं करते, उन्हें अपने जीवन पर लागू करना तो दूर की बात है। वे सिर्फ उन धर्म-सिद्धांतों को स्वीकारते और प्रचारित करते हैं जो उन्हें पसंद होते हैं और जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने कुछ हासिल किया है। धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने और कई लोगों को प्रभावित करने में सक्षम होना वह सबसे बड़ी चीज होती है, जो उन्हें परमेश्वर में विश्वास करने से मिलती है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि क्या वे सत्य का अभ्यास करते हैं या क्या उनके पास कोई आत्म-ज्ञान है तो उन्हें लगता है कि ये कम महत्व के तुच्छ मामले हैं, और आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने, सवालों के जवाब देने और दूसरे लोगों से अपनी प्रशंसा करवाने में सक्षम होना सबसे महत्वपूर्ण है और यही उन्हें हैसियत के लाभों का आनंद लेने के योग्य बनाता है। इसलिए वे सत्य का अभ्यास करने पर कोई ध्यान नहीं देते, आत्मचिंतन नहीं करते, और सिर्फ उदात्त उपदेश देने में सक्षम होने से संतुष्ट रहते हैं। यह समस्या अपेक्षाकृत गंभीर है, यहाँ तक कि उन लोगों की तुलना में भी अधिक गंभीर है जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, क्योंकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि यह सत्य है लेकिन इसका अभ्यास या अनुभव नहीं करते। ये वे व्यक्ति हैं जो सत्य से विमुख हैं और उससे खिलवाड़ करते हैं। क्या इस समस्या की प्रकृति बहुत गंभीर नहीं है?

अब, तुम लोग उन लोगों को पहचानने में सक्षम हो, जिन्हें आध्यात्मिक समझ है लेकिन जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, है न? क्या तुम लोग किसी भी तरह से खुद को ऐसे व्यक्ति की तरह अभिव्यक्त करते हो? (हाँ, मुख्यतः इस वजह से कि मैं हैसियत की खातिर चीजें करता हूँ।) हैसियत की खातिर बातें कहना और हैसियत की खातिर चीजें करना—सब कुछ हैसियत के इर्द-गिर्द घूमता है; यह कष्टप्रद है। क्या इस तरह सत्य का अनुसरण करना संभव है? हैसियत की खातिर चीजें करने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? मुख्य रूप से, इसमें अपने ही चेहरे, छवि और गरिमा पर, और साथ ही दूसरों के दिलों में अपनी हैसियत पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है—कि दूसरे उनका सम्मान करते हैं या नहीं और उन्हें आदर देते हैं या नहीं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सिर्फ इन्हीं पहलुओं पर ध्यान देते हैं, कभी परमेश्वर की बड़ाई नहीं करते, उसकी गवाही नहीं देते। उदाहरण के लिए, जब कोई सत्य का अनुसरण न करने वाला व्यक्ति किसी नए विश्वासी से मिलता है तो अपने दिल में सोचता है, “तुमने कुछ ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, तुम कुछ नहीं समझते,” और उसे नीची निगाह से देखता है। अगर नया विश्वासी सत्य खोजना चाहता है तो वह पहले नए विश्वासी की शक्ल-सूरत, उसके बोलने के तरीके और इस बात पर विचार करेगा कि वह उसे पसंद करता है या नहीं। अगर नया विश्वासी कमजोर क्षमता का हुआ तो वह उसके साथ सत्य पर संगति करने का इच्छुक नहीं होगा; वह बस प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहेगा और चुप्पी साध लेगा। यहाँ क्या समस्या है? (उसे लगता है कि वह कई वर्षों से विश्वासी है और उसके पास पूँजी है, इसलिए वह अपनी वरिष्ठता का रोब झाड़ता है।) यह पूँजी उसकी अपनी हैसियत का दावा करने की अभिव्यक्ति है। पूँजी होने के कारण वह हैसियत की स्थिति से बोलने का हकदार महसूस करता है—हैसियत जो स्वयं-प्रदत्त होती है, दूसरों द्वारा दी गई नहीं होती। क्या ऐसे लोग, जो इस तरह से काम करते और बोलते हैं, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग होते हैं? (नहीं।) क्या तुम लोग खुद को इस तरह से अभिव्यक्त करते हो? तुम कहते हो, “मैंने दस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है। क्या मुझे किसी ऐसे व्यक्ति का जोड़ीदार बनाना, जिसने सिर्फ दो वर्षों से विश्वास किया है मेरा अपमान नहीं है? मैं उससे बात तक नहीं करना चाहता। यहाँ तक कि एक शब्द बोलना भी मुझे थका देगा। वह कुछ नहीं समझता!” यह अहंकारी स्वभाव के वशीभूत होने से उत्पन्न होता है। अगर तुम्हारे पास हैसियत को महत्व देने वाला दिल न होता, तुमने अनुभव या वरिष्ठता के आधार पर लोगों का श्रेणीकरण न किया होता, और यह न सोचा होता कि तुम्हारे पास पूँजी है तो क्या तुम किसी के साथ इस तरह से व्यवहार करते? स्पष्ट रूप से, अपने अंदर एक भ्रष्ट स्वभाव होने के कारण, जिस तरह से तुम लोगों के साथ व्यवहार करते हो, उसकी अभिव्यक्तियाँ दूसरों को लाभ नहीं पहुँचातीं, जो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारे अनुसरणों और तुम्हारे दिल की गहराई में में जो छिपा है उसे, उजागर करता है। एक और अभिव्यक्ति है हैसियत की खातिर काम करने की। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने पेशेवर ज्ञान प्राप्त कर लिया है या वे किसी निश्चित क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। लेकिन, उस क्षेत्र पर चर्चा करते समय अगर दूसरे लोग पहले बोल पड़ें तो वे परेशान होकर सोचते हैं, “तुम लोग अकारण ही कैसे बोल सकते हो? महानता तुम्हारे सामने भी होती तो भी तुम्हें उसका पता न चलता!” वह कहता है, “विश्वविद्यालय में मेरी पढ़ाई का यही प्रमुख विषय था और मैंने अपना सारा शोध इन्हीं मुद्दों को समर्पित किया था। स्नातक की पढ़ाई करने के बाद मैंने कई वर्षों तक इसी क्षेत्र में काम किया। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद से मैंने दस साल से ज्यादा समय से इस पेशे को छोड़ दिया है, लेकिन आँखें बंद करके भी मैं इसके बारे में सब-कुछ याद कर सकता हूँ। मुझे इसके बारे में बात करना पसंद नहीं है, ऐसा लगता है जैसे मैं दिखावा कर रहा हूँ।” तुम इन शब्दों के बारे में क्या सोचते हो? ये शब्द गैर-विश्वासी शिक्षाविदों के हैं, और शैतानी फलसफों के आधार पर बोले गए हैं, जिससे वे जानकार प्रतीत होते हैं और सभी का अनुमोदन प्राप्त करते हैं। उन्होंने दावा किया कि वे दिखावा नहीं करना चाहते, लेकिन कर वे यही रहे हैं, बस एक ज्यादा कुशल तरीके से। उन्होंने यह संदेश देने के लिए कि वे इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं इस तरीके का इस्तेमाल किया : अपने पास मौजूद पूँजी का उल्लेख किया, जैसे कि इस पेशे में उन्होंने कितने वर्षों तक अध्ययन किया और क्या हासिल किया। क्या किसी क्षेत्र का विशेषज्ञ होने का मतलब यह है कि तुम उस क्षेत्र को आवश्यक रूप से समझते हो? अगर तुम परमेश्वर के घर में काम करने के विशेषज्ञ हो तो क्या तुम्हें यही नजरिया अपनाना चाहिए? (नहीं।) तो तुम्हें क्या करना चाहिए? (सत्य खोजना चाहिए; भाई-बहनों के साथ मिलकर चर्चा करनी चाहिए और सत्य खोजना चाहिए।) सबको मिलकर सत्य खोजना चाहिए। तुम कहो, “मुझे ईमानदार होने की जरूरत है। मैंने कई वर्षों तक इस पेशे में काम किया है और इसके बारे में थोड़ा जानता हूँ, लेकिन मैं इसके पीछे के सिद्धांत नहीं जानता कि परमेश्वर का घर इस पेशे का उपयोग कैसे करता है। मैं नहीं जानता कि मेरे पास जो ज्ञान है, वह परमेश्वर के घर के लिए उपयोगी है या नहीं—हम मिलकर इस पर चर्चा कर सकते हैं। मैं तुम लोगों को इस क्षेत्र की बुनियादी बातों के बारे में कुछ बताऊँगा।” यह बोलने का एक उचित तरीका है। हालाँकि वे पेशे के बारे में जानकार हैं, फिर भी वे विनम्र हैं और घमंडी नहीं हैं। वे धोखा नहीं दे रहे; वे वास्तव में अच्छा काम करना चाहते हैं, और जो कुछ उन्होंने सीखा है और जो वे जानते हैं, उसे हर किसी के साथ साझा करना चाहते हैं, कुछ छिपाकर नहीं रखना चाहते। वे इसे पूरी तरह से अपना कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से करने की खातिर कर रहे हैं, चाहे दूसरे उन्हें कैसे भी देखें या उनके साथ कैसा भी व्यवहार करें। वे अपना कर्तव्य का निर्वहन पूरी तरह से परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए और सत्य प्राप्त करने और मानव-सदृश जीने की खातिर कर रहे हैं। इसलिए, अपने कर्तव्य निर्वहन के हर पहलू में वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर ध्यान देते हैं। चाहे वे कुछ भी करें, वे पहले सभी के साथ संगति करते हैं, फिर आम सहमति पर पहुँचने के लिए सामूहिक रूप से चर्चा करते हैं, भाई-बहनों को विचारों और प्रयास का योगदान करने देते हैं, वे सब कार्य अच्छी तरह से पूरा करने के लिए एकजुट होते हैं। तुम इस नजरिये के बारे में क्या सोचते हो? सिर्फ सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही इसे इस तरह से करेंगे। हालाँकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसके बावजूद जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जो नहीं करते, खुद को अलग-अलग तरीकों से अभिव्यक्त करते हैं। इनमें से किस तरह का व्यक्ति घृणित है? (जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे घृणित हैं।) अगर तुम किसी पेशे के बारे में थोड़ा जानते हो तो दिखावा करने की जरूरत नहीं है, और अगर तुम किसी पेशे के बारे में थोड़ा जानते हो तो दूसरों को नीचा दिखाने या उन्हें विवश करने की भी जरूरत नहीं है। कुछ लोग जब अगुआ या कार्यकर्ता बन जाते हैं तो उनका दिमाग आसमान में चढ़ जाता है, वे आडंबरपूर्ण चाल-ढाल के साथ चलते और बोलते हैं, यहाँ तक कि आधिकारिक चोचले भी दिखाते हैं। काम करने का यह तरीका और भी घृणित है। अगर तुम्हारे पास कोई रुतबा है भी, तो भी उस पर इतराने या अकड़ने की जरूरत नहीं है। अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में भाई-बहनों की अगुआई करने के लिए तुम्हें जिम्मेदारी से कार्य करना चाहिए। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है और यह वह चीज है जो तुम्हें पूरी करनी चाहिए। इसके अलावा, अगर तुममें मानवता है और तुम निष्ठावान हो तो चीजें करते समय तुम्हें जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम्हें जिम्मेदारी कैसे लेनी चाहिए? उन क्षेत्रों पर स्पष्ट रूप से संगति करके, जिन्हें लोग नहीं समझते, जिनमें लोगों द्वारा गलतियाँ करने या गुमराह होने की संभावना होती है, और जो गलतियाँ और भटकाव उत्पन्न होते हैं उन्हें सुधारकर तुम यह सुनिश्चित करते हो कि हर कोई सही तरीके का इस्तेमाल करके चीजें कर सकता है, ताकि वह आगे गलतियाँ न करे, न दूसरों द्वारा विवश ही हो। इस तरह तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर देते हो। यही है अपने कर्तव्य में जिम्मेदार और निष्ठावान होना। जब तुम इसे हासिल कर लेते हो, तो क्या तब भी दूसरे लोग कह सकते हैं कि तुम हैसियत के पीछे दौड़ते हो? नहीं, वे नहीं कह सकते। जिन सिद्धांतों का तुम पालन करते हो वे पहले से ही सही हैं, और वैसा ही तुम्हारा मार्ग है। ये उन लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं; सत्य का अनुसरण करने वालों को इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। इसका उलटा और कुछ नहीं, बल्कि बेशुमार अपमानजनक व्यवहार है। दिखावा करने और उच्च सम्मान पाने की इच्छा रखना, लेकिन साथ ही जो कुछ वे जानते हैं उसे न बताने और छिपाने की भी इच्छा रखना, इस डर से कि अगर दूसरों को ये चीजें पता चल गईं तो वे फिर खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाएँगे या उच्च सम्मान प्राप्त नहीं कर पाएँगे—यह बहुत विद्रोहमूलक है! वे परमेश्वर के घर के हितों की उपेक्षा करते हैं, यहाँ तक कि चुपचाप खड़े देखते रहते हैं, और मन ही मन हँसते हुए कहते हैं, “अगर मैं न बोलूँ, तो देखें कोई इस मामले को स्पष्ट रूप से समझा सकता है या नहीं! अगर मैं कुछ बोला भी, तो भी मैं सब-कुछ नहीं बोलूँगा। मैं थोड़ा खुलासा आज करूँगा और थोड़ा कल करूँगा, और फिर भी तुम लोगों को सत्य नहीं बताऊँगा। मैं तुम लोगों को इस पर खुद विचार करने दूँगा। मुझसे कुछ पाना इतना आसान नहीं! अगर मैं तुम लोगों को वह सब बता दूँगा जो मैं समझता हूँ, और तुम लोगों को उसे समझने दूँगा तो मेरे पास तो कुछ नहीं बचेगा, और तुम लोग मुझसे बेहतर हो जाओगे। तब तुम लोग मुझे कैसे देखोगे?” किस तरह का प्राणी इस तरह सोचेगा? यह व्यक्ति विषैला है! वह जरा भी अच्छा नहीं है। क्या वह एक ईमानदार व्यक्ति है? (नहीं।) क्या तुम लोगों में से किसी ने ऐसा किया है? (मैंने किया है। खास तौर से लंबे समय तक सुसमाचार फैलाने और कुछ परिणाम प्राप्त करने के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरे पास कुछ परिसंपत्तियाँ और पूँजी है। जब दूसरे लोगों ने पूछा कि क्या मैं किन्हीं अच्छे तरीकों के बारे में जानता हूँ या मेरे पास साझा करने के लिए कोई अच्छा अनुभव है, तो मैंने इनकार कर दिया। मैं शैतान की इस जहरीली कहावत के अनुसार जी रहा था, “जब कोई छात्र हर वो चीज़ सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी।” मुझे डर था कि दूसरे लोग मुझसे आगे निकल जाएँगे और फिर मैं अपनी हैसियत खो दूँगा।) इस डर पर काबू पाना कि दूसरे लोग तुम्हारी चमक चुरा लेंगे, आसान बात नहीं है। प्रतिष्ठा और स्वार्थ ऐसे लक्ष्य हैं, जिनके लिए लड़ने में लोग अपना पूरा जीवन बिता देते हैं, लेकिन वे दिल में घुपे दो खंजर भी हैं—वे तुम्हारी जान ले लेंगे!

कुछ लोग जिन्होंने ऐसी चीजें की हैं जिनसे कलीसिया के काम को और भाई-बहनों को लाभ होता है, सोचते हैं कि उन्होंने योगदान दिया है और कलीसिया के भीतर उनकी कुछ हैसियत है। हर बार जब वे दूसरों के सामने होते हैं तो स्वयं द्वारा की गई इन अच्छी चीजों का उल्लेख करते हैं ताकि हर किसी को उनके बारे में एक पूरी तरह से नई धारणा और समझ हो—उनकी पूँजी और हैसियत की समझ, और कलीसिया के भीतर उनकी प्रतिष्ठा और स्थान की समझ। वे यह क्यों करते हैं? (इसका दिखावा करने और इतराने के लिए।) और इस पर इतराने का क्या मतलब है? खुद को स्थापित करना। और खुद को स्थापित करके वे क्या कर सकते हैं? (दूसरे लोगों से अपना सम्मान करवा सकते हैं।) लोगों से अपना सम्मान करवा सकते हैं, अपने बारे में बात करवा सकते हैं और अपना आदर करवा सकते हैं। ये चीजें करवाकर वे अंदर से कैसा महसूस करते हैं? (वे इसका आनंद लेते हैं।) वे हैसियत के लाभों का आनंद लेते हैं। क्या तुम लोग भी इन चीजों के पीछे दौड़ते हो? लोगों के इन विचारों, भावों और सोचने के तरीकों का क्या कारण है? ये किस चीज से पैदा होते हैं? इनका स्रोत क्या है? इनका स्रोत मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है। यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव ही है जिसके कारण लोग खुद को इस तरह अभिव्यक्त करते हैं और जो इस तरह की दौड़ को जन्म देता है। कुछ लोग अक्सर परमेश्वर के घर में दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करते हैं। किस तरह से? उनके इस तरह दूसरों से श्रेष्ठ महसूस करने का क्या कारण है? उदाहरण के लिए, कुछ लोग विदेशी भाषा बोलना जानते हैं और उन्हें लगता है कि इसका मतलब है कि उनके पास एक गुण है और वे कुशल हैं, और अगर वे परमेश्वर के घर में न होते तो शायद उसके लिए अपने काम का विस्तार करना वास्तव में मुश्किल होता। नतीजतन, वे चाहते हैं कि वे जहाँ भी जाएँ, लोग उनका आदर करें। ऐसे लोग जब दूसरों से मिलते हैं तो क्या तरीका अपनाते हैं? अपने दिल में, वे उन लोगों की तमाम तरह की विभिन्न श्रेणियाँ निर्धारित करते हैं, जो परमेश्वर के घर में विभिन्न कर्तव्य निभाते हैं। अगुआ शीर्ष पर होते हैं, विशेष प्रतिभाओं वाले लोग दूसरे स्थान पर, फिर औसत प्रतिभाओं वाले लोग आते हैं और सबसे नीचे वे लोग होते हैं जो तमाम तरह के सहायक कर्तव्य निभाते हैं। कुछ लोग महत्वपूर्ण कर्तव्यों और विशेष कर्तव्यों को निभाने की क्षमता को पूँजी मानते हैं और इसे सत्य वास्तविकताओं से युक्त होना मानते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या यह बेतुका नहीं है? कुछ विशेष कर्तव्य निभाने से वे अहंकारी और घमंडी बन जाते हैं और सभी को तुच्छ समझते हैं। जब वे किसी से मिलते हैं तो पहली चीज हमेशा यह करते हैं कि उससे पूछते हैं कि वह कौन-सा कर्तव्य निभाता है। अगर वह व्यक्ति औसत कर्तव्य निभाता है तो वे उसका अनादर करते हैं और सोचते हैं कि यह व्यक्ति उनके ध्यान देने योग्य नहीं है। जब वह व्यक्ति उनके साथ संगति करना चाहता है तो वे सतही तौर पर तो इस पर सहमत होते हैं लेकिन मन ही मन सोचते हैं, “तुम मेरे साथ संगति करना चाहते हो? तुम कुछ भी तो नहीं हो। तुम जो कर्तव्य निभाते हो, उसे देखो—तुम मुझसे बात करने योग्य कैसे हो?” अगर उस व्यक्ति द्वारा निभाया जाने वाला कर्तव्य उनके कर्तव्य से ज्यादा महत्वपूर्ण हो तो वे उसकी चापलूसी करते हैं और उससे ईर्ष्या करते हैं। जब वे अगुआओं या कार्यकर्ताओं को देखते हैं तो चापलूस बनकर उनकी खुशामद करने लगते हैं। क्या वे लोगों के साथ व्यवहार करने के तरीके में सैद्धांतिक होते हैं? (नहीं। वे लोगों के साथ उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों और स्वयं द्वारा उन्हें दी गई विभिन्न श्रेणियों के अनुसार व्यवहार करते हैं।) वे लोगों को उनके अनुभव और वरिष्ठता के अनुसार, और उनकी योग्यताओं और गुणों के अनुसार श्रेणीबद्ध करते हैं। वे लोगों को इस तरह श्रेणीबद्ध करते हैं उससे क्या तथ्य प्रकट होता है? यह व्यक्ति के अनुसरण, उसका जीवन प्रवेश, उसप्रकृति सार और उसकी मानवता की गुणवत्ता प्रकट करता है। जब कुछ लोग किसी वरिष्ठ अगुआ को देखते हैं तो अपना सिर हिलाकर थोड़ा झुक जाते हैं और विनम्र हो जाते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसमें कुछ योग्यताएँ होती हैं, जो गुणी होता है, जो बोलने में कुशल होता है, जिसने परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाए होते हैं, या जिसे ऊपर वाले ने पदोन्नत किया होता है और जिसे वह महत्वपूर्ण मानता है तो वे उससे खास तौर से विनम्र तरीके से बात करते हैं। जब वे किसी कम क्षमता वाले या कोई औसत कर्तव्य निभाने वाले व्यक्ति को देखते हैं तो वे उसे नीची निगाह से देखते हैं और उसके साथ इस तरह व्यवहार करते हैं मानो वह अदृश्य हो—जिस तरह से वे उसके साथ व्यवहार करते हैं, वह अलग होता है। वे मन में क्या सोचते हैं? “तुम जैसा व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद अभी भी निम्न श्रेणी का है, फिर भी तुम इस तरह बात करना चाहते हो मानो तुम मेरे समान स्तर पर हो, और जीवन प्रवेश और ईमानदार होने के बारे में मेरे साथ संगति करना चाहते हो। तुम ऐसा करने के लिए उपयुक्त नहीं हो!” यह कौन-सा स्वभाव है? अहंकार, क्रूरता और दुष्टता। क्या कलीसिया में इस तरह के बहुत-से लोग हैं? (हाँ।) क्या तुम लोग इस तरह के व्यक्ति हो? (हाँ।) लोगों के साथ इस आधार पर अलग-अलग व्यवहार करना कि वे कौन हैं—इनमें से कोई भी चीज उन लोगों की अभिव्यक्ति नहीं है जो सत्य का अनुसरण करते हैं। वे किस चीज के पीछे दौड़ रहे हैं? (वे हैसियत के पीछे दौड़ रहे हैं।) लोगों का व्यवहार, उनके प्रकाशन और सामान्य अभिव्यक्तियाँ उनके तमाम विचार, दृष्टिकोण, इरादे और अनुसरण दिखा सकती हैं, साथ ही वह मार्ग भी दिखा सकती हैं जिस पर वे चलते हैं। तुम जो प्रकट करते हो और जो तुम नियमित रूप से अभिव्यक्त करते हो, उसी का तुम अनुसरण करते हो—तुम्हारा अनुसरण उजागर हो जाता है। भले ही इस तरह के लोगों को आध्यात्मिक समझ हो, वे परमेश्वर के वचन समझ सकते हों, उसके वचनों के साथ संबंध जोड़ सकते हों, और उसके वचनों की तुलना अपनी अवस्था से कर सकते हों, पर चाहे कुछ भी हो जाए वे सत्य नहीं खोजते, और परमेश्वर के वचनों के सत्य का इस्तेमाल अपने सिद्धांतों की तरह करके सत्य तक नहीं पहुँचते। बल्कि, वे अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, इरादों, उद्देश्यों और इच्छाओं के साथ-साथ अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर उस तक पहुँचते और कार्य करते हैं। क्या ऐसे लोग सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकते हैं? (नहीं।) उनके दिलों में अभी भी दुनिया से व्यवहार करने के वे सिद्धांत और तरीके मौजूद रहते हैं जो विश्वास न करने वाले लोगों के पास होते हैं; वे अभी भी लोगों को उनके अनुभव और वरिष्ठता के अनुसार श्रेणीबद्ध करते हैं, और परमेश्वर के घर में लोगों को तमाम तरह की विभिन्न श्रेणियाँ प्रदान करते हैं। वे लोगों का मूल्यांकन करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते, बल्कि उन लोगों के विचारों और मानकों का उपयोग करके लोगों का मूल्यांकन करते हैं, जो विश्वास नहीं करते। क्या यह सत्य का अनुसरण है? (नहीं।) हालाँकि जब वे बोलते और उपदेश देते हैं तो ऐसे व्यक्ति प्रतीत होते हैं जो सत्य समझता है, लेकिन जिस तरह वे अपने कर्तव्य निभाते हैं, क्या उसमें जरा भी सत्य वास्तविकता देखी जा सकती है? (नहीं।) तो फिर, क्या ये वे लोग हैं जिनके पास जीवन प्रवेश है? (नहीं।) उनके भीतर बहुत सारी भ्रष्ट चीजें होती हैं और वे उद्धार की अपेक्षाएँ पूरी करने के मामले में लक्ष्य से बहुत पीछे रहते हैं। अगर वे इन चीजों को हमेशा पूँजी मानते हैं तो परमेश्वर के जितने वचन वे समझते हैं उनमें से कितने वचन अभ्यास में ला सकते हैं? क्या उनके हृदय में वास्तव में सत्य या परमेश्वर के वचन होते हैं? उनकी नजर में जीवन प्रवेश और अपना स्वभाव बदलने का क्या महत्व है? वास्तव में वह क्या चीज है जिसने उनके हृदय में जड़ें जमा ली हैं? वे निश्चित रूप से तमाम शैतानी फलसफे और मनुष्य से विरासत में मिली चीजें, और साथ ही परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। अगर ये चीजें लोगों के दिलों में बहुत गहराई तक जड़ें जमा लें तो उनके लिए सत्य स्वीकारना बेहद मुश्किल हो जाएगा। वे हमेशा इसी बात पर विचार करते हैं कि ऊपर वाला उन्हें किस तरह देखता है, क्या ऊपर वाला उनकी सराहना करता है, क्या वे परमेश्वर के हृदय में हैं, और क्या परमेश्वर उन्हें जानता है। वे दूसरे लोगों को भी इसी तरह देखते हैं : वे देखते हैं कि क्या ऊपर वाला उनकी सराहना करता है, और क्या परमेश्वर उनसे प्रसन्न है—वे लोगों के साथ इस आधार पर अलग व्यवहार करते हैं कि वे कौन हैं। जब उनका दिल हमेशा इन चीजों को महत्व देता है तो सत्य का उन पर कितना प्रभाव हो सकता है? जो लोग हमेशा इन अवस्थाओं में रहते हैं और सांसारिक व्यवहारों के लिए इन फलसफों में जीते हैं, वे वास्तव में किसका अनुसरण कर रहे हैं? क्या वे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर सकते हैं? (नहीं।) तो फिर वे अपना जीवन किसके अनुसार जीते हैं? (वे सांसारिक व्यवहारों के शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं।) वे शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, फिर भी सोचते हैं कि उनके पास ज्ञान है, वे विद्वान और बुद्धिमान हैं, और अपने भीतर काफी आनंद महसूस करते हैं। वे परमेश्वर के घर को किस रूप में देखते हैं? (समाज के रूप में।) वे उसे समाज के रूप में देखते हैं। उन्होंने अभी तक यह नजरिया छोड़ा नहीं है। तो, वे इन मुद्दों को कैसे ठीक करते हैं? यह सिर्फ लोगों द्वारा परमेश्वर के वचन पढ़ने और परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए तथ्य स्वीकारने में सक्षम होने का मामला नहीं है। उन्हें काट-छाँट किए जाने, परीक्षणों, और शोधन का भी अनुभव करना चाहिए। उन्हें अपना प्रकृति सार जानने, पूँजी, गुणों, ज्ञान और योग्यताओं का सार स्पष्ट रूप से देखने, इन चीजों को छोड़ने, परमेश्वर के वचनों में सत्य स्वीकारने और सत्य के अनुसार जीने की भी जरूरत है। तभी भ्रष्ट प्रकृति की समस्या हल की जा सकती है।

सत्य का अनुसरण करना आसान नहीं है। लोगों को चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना सीखना चाहिए। अतीत में लोग बहुत-से गलत नजरिए रखते थे। अगर वे सत्य नहीं खोजते तो उन्हें उसका एहसास नहीं होगा, और वे यह सोचते हुए अभी भी पहले की तरह ही सोचते रहेंगे कि वे सही हैं, और अहंकारी और आत्मतुष्ट रहेंगे, जहाँ भले ही तुम उनकी काट-छाँट करो, वे फिर भी अपनी गलती नहीं स्वीकारेंगे। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जिस परिप्रेक्ष्य से चीजों को देखते हैं, उसे बदलना बहुत मुश्किल है। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग देखते हैं कि कलीसिया में एक ऐसा व्यक्ति है जो किसी कंपनी का नेतृत्व किया करता था तो उनके दिलों में सम्मान और प्रशंसा की भावनाएँ पैदा होती हैं। वे ऐसे लोगों से ईर्ष्या करते हैं, उन्हें सराहते हैं, उनका आदर करते हैं, यहाँ तक कि उनके प्रति श्रद्धा भी रखते हैं। यह व्यक्ति उनके दिलों में हैसियत रखता है। इस स्थिति में क्या करना चाहिए? तुम्हें इस व्यक्ति को पहचानकर उसके साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए, और देखना चाहिए कि क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और सत्य का अनुसरण करता है, और क्या वह सम्मान के योग्य व्यक्ति है। अगर उसके साथ बातचीत कर उसे पहचानने के बाद तुम्हें पता चलता है कि वह इस तरह का व्यक्ति नहीं है तो तुम अब अपने दिल में उस व्यक्ति का आदर नहीं करोगे और उसे ज्यादा महत्त्व नहीं दोगे। तुम्हें उसके साथ सामान्य ढंग से व्यवहार और बातचीत करनी चाहिए। उसके साथ सामान्य ढंग से व्यवहार करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है उसके साथ सही ढंग से व्यवहार करने में सक्षम होना। लोगों के दिल उनकी प्राथमिकताओं, इच्छाओं और अनुसरणों से भरे होते हैं और उनके मूल्य कई सूक्ष्म व्यवहारों में प्रकट होते हैं। अगर कोई ऐसा व्यक्ति होता है जिसका वे आदर करते हैं तो उसके बारे में बात करते समय उनके शब्द खास तौर से शिष्ट और विनम्र होंगे, और वे उसे खास तौर से सम्मानजनक तरीके से संदर्भित करेंगे। यह क्या दर्शाता है? यही कि यह व्यक्ति उनके दिल में हैसियत रखता है, और वे इस व्यक्ति का आदर करते हैं। इसके अलावा वे और भी चीजें कहते हैं। वे अक्सर कहते हैं, “यह व्यक्ति एक अधिकारी हुआ करता था। अगर यह परमेश्वर के घर आता है और इसके साथ आम आदमी जैसा व्यवहार किया जाता है तो यह ठीक नहीं होगा।” अपने मन में, उन्हें लगता है कि परमेश्वर का घर प्रतिभाशाली व्यक्तियों को महत्व नहीं देता। ऐसा अभिजात व्यक्ति विनम्र बनकर परमेश्वर के घर में आने, विश्वासी बनकर कर्तव्य निभाने में सक्षम रहा, फिर भी किसी ने उसका सम्मान नहीं किया या उसे बढ़ावा नहीं दिया, और ऊपर वाले ने उसे भाई-बहनों से मिलवाने का कोई विशेष ध्यान नहीं रखा। तुम उनसे पूछते हो कि इस व्यक्ति के कर्तव्य कैसे चल रहे हैं और वे कहते हैं, “यह व्यक्ति एक कंपनी का मालिक था और इसके अधीन कई हजार लोग थे। यह छोटा-सा काम करना तो इसके बाएँ हाथ का खेल है। परमेश्वर के घर में इससे ज्यादा क्षमता वाला कोई नहीं है। यह एक अभिजात व्यक्ति है। परमेश्वर के घर में अभिजात लोग नहीं हैं।” यह कैसी बात है? उन्हें लगता है कि सांसारिक जीवन में अभिजात लोग हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में नहीं हैं। परमेश्वर के घर के लोगों के पास सत्य है—क्या सांसारिक लोगों के पास सत्य है? तुम कहते हो कि सांसारिक जीवन में अभिजात लोग हैं तो तुम अभिजात लोगों में ही विश्वास क्यों नहीं करते? तुम यहाँ परमेश्वर में विश्वास करने क्यों आए हो? तुममें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं, और तुम्हें जल्दी से सांसारिक जीवन में लौट जाना चाहिए। क्या इस तथ्य का कि वे इस तरह की चीजें कहने में सक्षम हैं, यह मतलब नहीं कि यह शैतान की आवाज है? यह शैतान की ही आवाज है। वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर के घर में आते हैं, लेकिन बड़ाई शैतान की करते हैं। उन्होंने लगभग यह कहा, “अगर कोई प्रसिद्ध व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है तो वह उच्चतम क्षमता वाला व्यक्ति होगा। अगर उसे पूर्ण नहीं किया जा सकता तो हम बाकी लोगों के लिए कोई आशा नहीं है। उनकी राय में हम कुछ नहीं हैं।” उनके दिल और नजरों में, जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सांसारिक जीवन के प्रसिद्ध लोगों, उद्यमियों और अधिकारियों जितने अच्छे नहीं हैं। वे लोग ही अभिजात हैं और उन्हीं का महत्त्व है। जब तुम उनकी बातों की तह में जाते हो तो क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं? (नहीं।) वे चाहे जितने भी उपदेश सुन लें, उनके दृष्टिकोण और विचार, दुनिया के बारे में उनकी राय और प्रसिद्ध लोगों और अभिजात व्यक्तियों के बारे में उनकी राय और विचार नहीं बदलते। क्या उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है? क्या उनमें जीवन प्रवेश है? (नहीं।) यह व्यक्ति क्या है? (एक छद्म-विश्वासी।) वह एक छद्म-विश्वासी है। वह यहूदा और गद्दार है! उसके मन में परमेश्वर सर्वोच्च नहीं है और सत्य सर्वोच्च नहीं है। बल्कि सांसारिक सत्ता, प्रतिष्ठा, कीर्ति और लाभ सर्वोच्च हैं। यह व्यक्ति गद्दार है। ये यहूदा के विचार और दृष्टिकोण हैं। ये शैतान के विचार और तर्क हैं। हालाँकि ये लोग सत्य समझ सकते हैं लेकिन इनके विचार और दृष्टिकोण नहीं बदलेंगे। ये प्रतिष्ठा, हैसियत और सत्ता के पीछे दौड़ते हैं। जब तुम ऐसे किसी व्यक्ति के पास होते हो तो तुमसे बात करते समय उसकी अभिव्यक्ति सही नहीं होती, और यह तुम्हें एक निश्चित एहसास देता है : कि इस व्यक्ति के करीब जाना मुश्किल है, और आम आदमी इसके लिए अदृश्य है। इसीलिए वे परमेश्वर के बारे में इतनी सारी धारणाएँ रखने में सक्षम हैं। परमेश्वर चाहे कितने भी सत्य व्यक्त कर सकता हो, उनके हृदय में उनके और परमेश्वर के बीच हमेशा एक बाधा होती है। उन्हें लगता है कि देहधारी परमेश्वर की सामान्य मानवता साधारण है, महान या शक्तिशाली बिल्कुल नहीं है। इसीलिए वे ज्ञान और गुणों का सम्मान करने और महान व्यक्तियों को आदर्श मानने में सक्षम हैं। जब शैतानी स्वभाव से भरे हुए इस तरह के अभिमानी, अहंकारी और दंभी लोग मसीह को देखते हैं जिसमें सामान्य मानवता है और जो सत्य से भरा हुआ है तो वे झुककर उसकी आराधना कैसे कर सकते हैं? वे मन में सोचते हैं, “तुम परमेश्वर हो। तुम्हारे पास सिर्फ सत्य है। तुम्हारे पास ज्ञान नहीं है। मेरे पास गुण हैं; मेरा ज्ञान तुमसे ज्यादा उन्नत है; मेरी योग्यताएँ तुम्हारी योग्यताओं से ज्यादा उन्नत हैं; चीजें सँभालने में मैं तुमसे ज्यादा सक्षम हूँ, और मैं बाहरी दुनिया से बात करने में तुमसे बेहतर हूँ।” जब वे कलीसिया में कुछ काम करते हैं, उनके पास कुछ पूँजी होती है या वे कुछ योगदान करते हैं तो वे परमेश्वर के बारे में और भी कम सोचते हैं। क्या यह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है? (नहीं।) जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे असंख्य दुष्ट व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, और उनमें रत्ती भर भी विवेक नहीं होता। इसलिए ये लोग अक्सर लोगों, घटनाओं और चीजों के बाहरी तमाशों में फँस जाते हैं—एक पल उन्हें लगता है कि परमेश्वर सही है, दूसरे पल लगता है कि वह गलत है; एक पल उन्हें लगता है कि परमेश्वर है, दूसरे पल लगता है कि परमेश्वर नहीं है; एक पल उन्हें लगता है कि परमेश्वर ही स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों पर संप्रभु है, दूसरे पल उन्हें इस पर संदेह होता है कि परमेश्वर ही स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों पर संप्रभु है। उनका हृदय हमेशा द्वंद्व में और संघर्षरत रहता है। हालाँकि दूसरी तरह के व्यक्ति को आध्यात्मिक समझ है और वह सत्य को उसके सबसे उथले अर्थ में समझता है—जो कि सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का अर्थ है, जिसे अभी भी कुछ समझने की क्षमताएँ माना जाता है—हालाँकि वह कुछ सत्य समझने में सक्षम होता है, लेकिन वह उन्हें कभी अभ्यास में नहीं लाता। उसकी अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? कार्य का अनुसरण, आशीष पाने का अनुसरण, अपनी अस्पष्ट आस्था और आध्यात्मिक पोषण पूरा करने का अनुसरण, और प्रतिष्ठा और हैसियत का अनुसरण। यह दूसरी तरह का व्यक्ति है।

तीसरी तरह के लोग वे हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ है और जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है, वे समझ सकते हैं कि परमेश्वर के वचन क्या कह रहे हैं, वे परमेश्वर के वचनों में प्रकट विभिन्न अवस्थाओं को लेकर उनकी खुद से तुलना कर सकते हैं, और पहचान सकते हैं कि उनकी अवस्था में क्या समस्या है। लेकिन तुलना करने में सक्षम होने का मतलब यह नहीं कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है। अगर खुद से तुलना करने के बाद तुम अभ्यास कर उसमें प्रवेश करते हो, सिर्फ तभी तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति होते हो। अगर लोग परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हैं, और परमेश्वर के वचनों के उन सिद्धांतों का, जिन्हें वे समझते हैं, वास्तव में प्रवेश करने के लिए एक नींव की तरह उपयोग कर सकते हैं तो इस तरह के लोग सत्य का अनुसरण करने के संदर्भ में खुद को कैसे अभिव्यक्त करते हैं? एक तो यह कि वे परमेश्वर का आदेश स्वीकार सकते हैं और अपना कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वहन कर सकते हैं। दूसरे, जब वे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिस्थितियों का सामना करते हैं तो सत्य खोज सकते हैं और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं। एक अन्य पहलू यह है कि वे अपने दैनिक जीवन में अपनी अवस्थाओं और प्रकाशनों के हर पहलू की जाँच करने को महत्व देते हैं, और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद से तुलना करने में सक्षम होते हैं, समस्याएँ हल करते हैं, और उस बिंदु तक पहुँचने में सक्षम होते हैं जहाँ वे हर तरह के मामले को सैद्धांतिक ढंग से लेते हैं, और उनके पास हर तरह के मामले में अभ्यास करने का एक मार्ग होता है। उदाहरण के लिए, पिछली बार मैंने पौलुस के सात प्रमुख पापों पर संगति कर उनका विश्लेषण किया था तो तुम लोगों को खुद से तुलना करने में सक्षम होना चाहिए, वास्तव में इसे समझना चाहिए, और इसका अभ्यास कर इसमें प्रवेश करना चाहिए। तुलना करना और जीवन प्रवेश एक-दूसरे से गहनता से जुड़े हैं। खुद से तुलना करने में सक्षम होना जीवन प्रवेश का मुख्य द्वार है। मुख्य द्वार से गुजरने के बाद तुम कैसे प्रवेश करते हो, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि तुम सत्य के इस पहलू को समझते हो या नहीं। जब तुम सत्य के एक पहलू को समझते हो तो तुम वास्तविकता के एक पहलू में प्रवेश कर सकते हो, और जब तुम सत्य के दो पहलुओं को समझते हो तो तुम वास्तविकता के दो पहलुओं में प्रवेश कर सकते हो। अगर तुम सिर्फ धर्म-सिद्धांत समझते हो और तुम्हारे पास प्रवेश के सिद्धांत नहीं हैं तो तुम वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ होगे। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि तुम पहले बहुत सारे सत्य समझो। तुम उन्हें कैसे समझ सकते हो? तुम्हें परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़ने चाहिए, उसके वचनों पर विचार करना चाहिए, उन वचनों और अपने वास्तविक जीवन तथा स्वयं द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों के बीच संबंध जोड़ना चाहिए, अभ्यास के सिद्धांत ढूँढ़ने चाहिए, और अभ्यास के लिए मार्ग ढूँढ़ना चाहिए। तब वास्तविकता में प्रवेश करना आसान होगा। अगर कुछ वास्तविक समस्याएँ मौजूद हैं तो तुम्हें उनकी तुलना परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंशों से कर उनका समाधान करना चाहिए। अगर तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ या गलतफहमियाँ हैं तो परमेश्वर के वचनों के साथ तुलना करना और भी जरूरी है, ताकि यह समझ पाओ कि ये धारणाएँ या गलतफहमियाँ वास्तव में किस तरह से गलत हैं, और वे किस प्रकृति की समस्याएँ हैं। तुम्हें इन समस्याओं का विश्लेषण करने में सक्षम होना चाहिए, फिर उन्हें ठीक करने के लिए संबंधित सत्य खोजने चाहिए। यह जीवन प्रवेश का मार्ग है। पौलुस ने इतना काम किया, लेकिन क्या उसके पास जीवन प्रवेश का कोई मार्ग था? बिल्कुल नहीं। पौलुस के सात प्रमुख पापों में से पहला क्या था? उसने मुकुट के अनुसरण और आशीषों के अनुसरण को उचित उद्देश्य माना। आशीषों के अनुसरण को उचित उद्देश्य मानना किस तरह से गलत है? यह पूरी तरह से सत्य का विरोधी है, और लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और समर्पण में असमर्थ हो जाते हो। तुम समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपने कर्तव्य-पालन से छुटकारा पाने का प्रयास करते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, “मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।” जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाओगे? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद को बाधित नहीं करने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण का उद्देश्य बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, “सत्य का अनुसरण एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, वह मेरे द्वारा परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करेगी; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।” और इसमें, क्या तुमने दैहिक विवशताएँ पार नहीं कर लीं? कुछ लोग कह सकते हैं, “अच्छा, अगर मैं अभी भी नकारात्मक हूँ तो क्या?” तो इसे हल करने के लिए दोबारा सत्य की तलाश करो। तुम चाहे कितनी बार भी नकारात्मकता में पड़ो, अगर तुम उसे हल करने के लिए बस सत्य की तलाश करते रहते हो, और सत्य के लिए प्रयत्नशील रहते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर निकल आओगे। और एक दिन, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे भीतर आशीष पाने की इच्छा नहीं है और तुम अपने गंतव्य और परिणाम से बाधित नहीं हो, और तुम इन चीजों के बिना अधिक आसान और स्वतंत्र जीवन जी रहे हो। तुम महसूस करोगे कि तुमने जो जीवन पहले जिया था, जब हर दिन तुम आशीष और अपना गंतव्य पाने के उद्देश्य से जीते थे, वह थका देने वाला था। हर दिन आशीष पाने के लिए बोलना, काम करना और दिमाग चलाना—और इससे तुम्हें क्या मिलेगा? ऐसे जीवन का क्या मूल्य है? तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया, बल्कि अपने सर्वोत्तम दिन तुच्छ बातों में व्यतीत कर दिए। अंत में, तुमने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया, और तुम किसी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलने में असमर्थ रहे। तुमने खुद को मूर्ख बना लिया, पूरी तरह से बदनाम और असफल हो गए। और असल में इसका क्या कारण है? वह यह है कि आशीष पाने का तुम्हारा इरादा बहुत मजबूत था, तुम्हारे परिणाम और गंतव्य ने तुम्हारे दिल पर कब्जा कर लिया था और तुम्हें बहुत कसकर बाँध लिया था। लेकिन जब वह दिन आएगा, जब तुम अपनी संभावनाओं और भाग्य के बंधन से निकल जाओगे, तो तुम सब-कुछ पीछे छोड़कर परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हो जाओगे। तुम इन चीजों को पूरी तरह से कब छोड़ पाओगे? जैसे-जैसे तुम्हारा जीवन-प्रवेश निरंतर गहराता जाएगा, तुम अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करोगे, और तभी तुम उन्हें पूरी तरह से छोड़ने में सक्षम होगे। कुछ लोग कहते हैं, “मैं जब चाहूँ, इन चीजों को छोड़ सकता हूँ।” क्या यह प्राकृतिक नियम के अनुरूप है? (नहीं।) दूसरे लोग कहते हैं, “मैंने यह सब रातों-रात समझ लिया। मैं एक सरल इंसान हूँ, तुम सबकी तरह जटिल या नाजुक नहीं। तुन लोगों की महत्त्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत बड़ी हैं, जो दर्शाता हैं कि तुम मुझसे कहीं ज्यादा भ्रष्ट हो।” क्या यही स्थिति है? नहीं। सभी मनुष्यों की प्रकृति एक जैसी भ्रष्ट है, गहराई में कोई अंतर नहीं है। उनमें एकमात्र अंतर इस बात में है कि उनमें मानवता है या नहीं और वे किस तरह के इंसान हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकार करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का अपेक्षाकृत गहरा, स्पष्ट ज्ञान पाने में सक्षम होते हैं, और दूसरे लोग गलत ढंग से यह सोचते हैं कि ऐसे लोग बेहद भ्रष्ट हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते या उसे स्वीकारते नहीं, वे हमेशा सोचते हैं कि उनमें कोई भ्रष्टता नहीं है, कुछ और अच्छे व्यवहार करके वे पवित्र हो जाएँगे। यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से अमान्य है—वास्तव में, ऐसा नहीं है कि उनकी भ्रष्टता उथली है, बल्कि वे सत्य को नहीं समझते और उन्हें अपनी भ्रष्टता के सार और सत्य का कोई स्पष्ट ज्ञान नहीं है। संक्षेप में, परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए इंसान को सत्य स्वीकारना चाहिए, सत्य का अभ्यास करना चाहिए, वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए और अपनी खोज की गलत दिशा और मार्ग बदल सकने, आशीषों के पीछे दौड़ने और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या पूरी तरह से हल कर पाने से पहले अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव हासिल करने चाहिए। इस तरह, व्यक्ति परमेश्वर द्वारा बचाया और पूर्ण किया जा सकता है। मनुष्य का न्याय और शुद्धिकरण करने के लिए परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्य इसी लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं।

अब, क्या तुम लोगों में कोई ऐसा है, जिसमें अभी भी परमेश्वर बनने की इच्छा है? (नहीं।) क्या तुम्हारी यह इच्छा न होने का कारण यह है कि तुम में ऐसा करने की हिम्मत नहीं है या यह कि तुम्हें आशा नहीं है या तुम्हारे पास उपयुक्त पृष्ठभूमि और परिवेश नहीं है? कहना मुश्किल है। पहले, यह निश्चित है कि ऐसा कोई नहीं है जो सक्रिय रूप से परमेश्वर बनने की इच्छा रखता हो। लेकिन अगर, विशेष परिस्थितियों में, ऐसे लोग हों जो तुम्हारा सम्मान करते हों, तुम्हारी बड़ाई करते हों, अक्सर तुम्हारी प्रशंसा और सराहना करते हों, उनके हृदयों में तुम्हारा रुतबा हो, और वे अनजाने ही तुम्हें एक तरह की पूर्ण और शक्तिशाली छवि के रूप में स्थापित कर दें—भले ही उन्होंने यह गवाही न दी हो कि तुम परमेश्वर हो, और वे जानते हों कि तुम इंसान हो, फिर भी वे तुम्हारा सम्मान करते हों, तुम्हारा आज्ञापालन करते हों और तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करते हों मानो तुम परमेश्वर हो—तो तुम अंदर से कैसा महसूस करोगे? क्या तुम असाधारण आनंद और संतुष्टि महसूस नहीं करोगे? (हाँ, करूँगा।) यह ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि तुम में अभी भी यह इच्छा है। भ्रष्ट स्वभाव वाला हर व्यक्ति परमेश्वर बनने की इच्छा रखता है। बात बस इतनी है कि जब कोई तुम्हारे साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करता, तो तुम्हें लगता है कि तुम योग्य नहीं हो। जब तुम्हें लगता है कि तुम योग्य हो, माहौल सही है और परिस्थितियाँ पर्याप्त हैं, तो तुम खुद को उस पद तक उन्नत कर लोगे। या, हो सकता है तुम खुद को उन्नत न करो, लेकिन जब दूसरे लोग एकचित्त होकर तुम्हें उन्नत करें, तो क्या तुम तब भी विनम्र रहोगे? तुम “पूरी तरह से” उन्नयन स्वीकार लोगे। यहाँ क्या चल रहा है? शैतान की प्रकृति ने लोगों के भीतर गहराई तक अपनी पैठ बना ली है और इसका समाधान नहीं हुआ है—लोग कभी इंसान नहीं बनना चाहते, वे हमेशा परमेश्वर बनना चाहते हैं। क्या सिर्फ चाहने भर से कोई व्यक्ति परमेश्वर बन सकता है? शैतान हमेशा परमेश्वर बनना चाहता था, और उसका क्या हुआ? उसे स्वर्ग से धरती पर गिरा दिया गया। परमेश्वर बनने की चाहत रखने पर शैतान की यह नियति हुई। मुझे बताओ, मैं अपनी पहचान, हैसियत और सार के बारे में कैसा महसूस करता हूँ? तुम लोग निश्चित रूप से नहीं जानते। मैं कुछ महसूस नहीं करता; सब-कुछ बहुत सामान्य है। देहधारी परमेश्वर खास तौर से व्यावहारिक और सामान्य है। उसमें कुछ भी अलौकिक नहीं है, उसमें कोई विशेष भावनाएँ नहीं हैं। तुम जानते हो कि तुम क्या सोचते हो; तुम जानते हो कि तुम्हें क्या पसंद है; तुम जानते हो कि तुम्हारा जन्म किस परिवार में हुआ, तुम्हारी उम्र कितनी है और तुमने कितनी शिक्षा प्राप्त की है; तुम जानते हो कि तुम कैसे दिखते हो। लेकिन क्या यह जानना सामान्य है कि तुम्हारा आंतरिक सार क्या है, या न जानना सामान्य है? (न जानना सामान्य है।) इस बारे में कोई भावनाएँ न होना सामान्य है। इसके बारे में भावनाएँ होना अलौकिक होगा। यह दैहिक नहीं होगा, और यह सामान्य मानवता नहीं होगी। अलौकिकता असामान्य है। जो लोग हमेशा असामान्य तरीकों से व्यवहार करते हैं और असामान्य भावनाएँ रखते हैं, वे दुष्ट आत्माएँ हैं, न कि नश्वर प्राणी। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं जानता हूँ कि मैं कौन हूँ। मुझे बताओ, क्या मुझे पता होगा? क्या मुझे जानना चाहिए? मेरे पास सामान्य मानवता के बारे में सोचने के तर्क और तरीके हैं। मेरे विचार सामान्य हैं, और मेरी दैहिक रूप से सामान्य दिनचर्या है। मेरे पास सामान्य मानवता का जमीर, तार्किकता और निर्णय-क्षमता है, और मेरे पास आत्म-आचरण, मामले सँभालने और सामान्य मानवता वाले दूसरे लोगों के साथ बातचीत करने के सिद्धांत हैं। ये सारी बातें स्पष्ट हैं। जहाँ तक चीजें कैसे करनी हैं, विभिन्न लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना है, लोगों की मदद कैसे करनी है और किन लोगों की मदद करनी है, मेरे पास ये सभी सिद्धांत हैं। सामान्य मानवता में रहना और वे चीजें करना जो मुझे करनी चाहिए, सामान्य मानवता है। इसमें कुछ भी अलौकिक नहीं है। परमेश्वर अलौकिक चीजें नहीं करता। यह सामान्य है कि मैं नहीं जानता। अगर मैं जानता तो यह परेशानी का द्योतक होता। यह परेशानी का द्योतक क्यों होता? अगर मैं जानता, तो मुझ पर बोझ पड़ जाता; बहुत-से मामले हैं जो फँस जाते, और वे एक-दूसरे के विरोधी होते। जो हिस्सा जानता है, वह देह का या भौतिक संसार का नहीं है; वह अलौकिक है, और इस दुनिया के मामलों के विपरीत है। ठीक उसी तरह, जैसे कुछ लोग आध्यात्मिक क्षेत्र में होने वाली चीजें देख सकते हैं। वे देह और भौतिक संसार में रहते हैं, फिर भी मानवेतर, अभौतिक संसार देख लेते हैं। वे दो संसार देख सकते हैं और कुछ अजीब चीजें कह सकते हैं। यह सामान्य नहीं है। यह दूसरे लोगों के विचारों और कार्य को प्रभावित करेगा। इसके अलावा, जो लोग परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करते हैं, उनके लिए फिर भी आध्यात्मिक क्षेत्र के मामलों के बारे में कुछ जानना आवश्यक है। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें जानने का लोगों के पास कोई उपाय नहीं है, लेकिन न जानना वास्तव में कोई नुकसान नहीं है; जानना या न जानना दोनों ठीक हैं। परमेश्वर ने पहले ही उन चीजों की सीमा निर्धारित कर दी है, जिन्हें नश्वर प्राणी समझ, जान और महसूस कर सकते हैं। तुम्हें जो जानने की जरूरत है, परमेश्वर उससे एक वाक्य भी कम नहीं बोलता—वह तुम्हें सब-कुछ बताता है और तुम्हारे ज्ञान में कोई कमी नहीं छोड़ता। लेकिन वह उस चीज को पूरी तरह से सीलबंद कर देता है, जिसे तुम्हें जानने की जरूरत नहीं है। वह तुम्हें नहीं बताएगा और तुम्हारे विचारों और दिमाग को अस्थिर नहीं करेगा। दूसरा पहलू यह है कि नश्वर प्राणियों के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र के मामले एक तरह का रहस्य, अजीब घटनाएँ या एक अलग दुनिया के मामले हैं। अपने दिलों में, लोग उनके बारे में कुछ जानना चाहते हैं, लेकिन तुम इस तरह के ज्ञान का क्या कर सकते हो? क्या तुम उसे सत्यापित कर सकते हो? क्या तुम उसका हिस्सा बन सकते हो? आध्यात्मिक क्षेत्र के कई मामले गुप्त होते हैं और उन्हें समय से पहले प्रकट नहीं किया जा सकता। यह ऐसी चीज है जिसमें कोई भाग नहीं ले सकता—सीमित मात्रा जानना ही पर्याप्त है। परमेश्वर इस संसार और इस मानवजाति पर संप्रभु है, और बहुत सारे रहस्य हैं। हमें जो समझना चाहिए वह है परमेश्वर के वचन और सत्य, और उसके इरादे; हमें सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर की संपूर्ण संप्रभुता के प्रति समर्पण प्राप्त करना चाहिए, ताकि लोग उस तक पहुँच सकें, उसे समझ सकें और पहचान सकें, और फिर परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर को अपने सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकारने, इस तथ्य को स्वीकारने में कि परमेश्वर सभी पर संप्रभु है, और अंततः उन वचनों को बोलने में सक्षम हो जाएँ जो अय्यूब ने कहे थे : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। यह नतीजा प्राप्त करने के लिए लोगों को क्या अनुभव करना चाहिए? उन्हें न्याय और ताड़ना, काट-छाँट किए जाने, परीक्षण और शोधन किए जाने का अनुभव करना चाहिए, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित की जाने वाली हर तरह की परिस्थिति का अनुभव करना चाहिए, और इसके जरिये परमेश्वर के कर्मों को जानना चाहिए, उसके स्वभाव को जानना चाहिए, सृष्टिकर्ता के सार को समझना चाहिए, और अपने और परमेश्वर के जो वचन उन्होंने पढ़े हैं या जो उपदेश सुने हैं, उनके बीच तुलना करनी चाहिए। अंततः, चाहे परमेश्वर उनके साथ कैसा भी व्यवहार करता हो, उनसे छीनता हो या उन्हें देता हो, वे परमेश्वर के कर्मों की सही और सटीक समझ प्राप्त करते हैं, और सृजित प्राणियों के लिए उपयुक्त तरीके से उनके सामने समर्पण करते हैं और उन्हें स्वीकारते हैं। यही वह चीज है जिसे पूरा करना परमेश्वर का लक्ष्य है।

आओ, वापस आज की संगति के अपने विषय पर आते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ और सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ मूल रूप से इन्हीं तीन तरह की होती हैं। मैंने इन तीन तरह के लोगों के बीच अंतर विस्तार से बताया है : पहली तरह के लोग वे हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ नही है; दूसरी तरह के लोग वे हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ है लेकिन जो सत्य का अनुसरण नहीं करते; और तीसरी तरह के लोग वे हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ है और जो सत्य का अनुसरण करते हैं। इन तीन तरह के लोगों में से किस तरह के लोगों के सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने की आशा है और कौन-से लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? (तीसरी तरह के लोग।) किस तरह के व्यक्तियों के सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने की आशा है, जिसका अर्थ है कि वे ऐसे व्यक्ति के रूप में विकसित और परिवर्तित हो सकते हैं, जिसके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं? (दूसरी तरह के।) इस मामले में, क्या पहली तरह के व्यक्तियों को प्रभावी रूप से मौत की सजा दे दी गई है? क्या जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे ऐसे लोग बन सकते हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ है, या जिन्हें आधी समझ है? जिन लोगों को समझ नहीं है, उनके ऐसे लोग बनने की थोड़ी आशा है जिन्हें आधी समझ है; यह आध्यात्मिक समझ बिल्कुल न होने से कुछ हद तक बेहतर है। इन तीन तरह के लोगों में से किस तरह के लोगों को बचाए जाने की ज्यादा आशा है? (तीसरी तरह के लोगों को।) दूसरी तरह के लोगों के बारे में क्या विचार है? (यह उनके व्यक्तिगत अनुसरण पर निर्भर करता है। अगर वे वास्तव में चीजें बदलने, पश्चात्ताप करने और सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हों, तो वे बचाए जाने की आशा कर सकते हैं।) मैं तुम लोगों को स्पष्ट बता दूँ। तुम लोग अभी भी दूसरी तरह के व्यक्ति के बारे में पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो। हालाँकि दूसरी तरह के लोगों को आध्यात्मिक समझ है, लेकिन वे सभी ऐसे लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, और यह महत्वपूर्ण है। चाहे उन्हें आध्यात्मिक समझ हो या नहीं, अगर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो वे निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते। मैं यहाँ जिस चीज पर जोर देना चाहता हूँ, वह है पहली तरह के लोग, जिन्हें आध्यात्मिक समझ नही है। मान लो, उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है लेकिन उनमें अच्छी मानवता है, और वे स्वेच्छा से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं, परमेश्वर जो भी कहता है उसे मानते हैं, और उनके पास एक विनम्र दिल है—बस इतना है कि जब सत्य की बात आती है तो उनमें समझने की क्षमता नहीं होती—लेकिन वे परमेश्वर के कुछ वचन समझ सकते हैं और उनसे खुद को जाँच सकते हैं, और फिर अभ्यास कर सकते हैं और उनमें प्रवेश कर सकते हैं। ऐसे लोगों को बचाए जाने की आशा है। कुछ समय तक इस तरह के अनुभव से गुजरकर उन्हें धीरे-धीरे आध्यात्मिक समझ आ सकती है। जितना ज्यादा जी लगाकर वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, उतना ही ज्यादा पवित्र आत्मा उन्हें प्रबुद्ध करता है; वे परमेश्वर के वचनों के बारे में जो कुछ भी समझते हैं, उसकी तुलना अपनी अवस्थाओं से करने में सक्षम होते हैं, परमेश्वर की काट-छाँट, उसका न्याय और ताड़ना, और उसके परीक्षण, और शोधन स्वीकारते हैं, इसके लिए कीमत चुकाते हैं, और अंत में, अपने स्वभाव में तदनुरूप कुछ बदलाव हासिल करते हैं। ऐसे लोगों को भी सत्य का अनुसरण करने वालों में गिना जाता है। चूँकि उन्हें सत्य का अनुसरण करने वाला माना जाता है तो क्या उन्हें बचाए जाने की आशा होती है? (हाँ, होती है।) उन्हें बचाए जाने की आशा होती है—इसलिए ऐसे लोगों को मौत के हवाले नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, यह कहना कठिन है कि ऐसे लोगों के लिए क्या नतीजा होगा, जो सत्य समझ सकते हैं और उससे तुलना के लिए खड़े हो सकते हैं, लेकिन उसमें कभी प्रवेश नहीं करते। इस समस्या की जड़ क्या है? (सत्य के प्रति उनका रवैया।) यह सत्य के प्रति उनका रवैया है जो अनादर और तिरस्कार का होता है। “तिरस्कार” का क्या मतलब है? इसका मतलब है सत्य न स्वीकारना; इसका मतलब है सत्य का अनादर करना। इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों को सत्य न मानना और उन्हें गंभीरता से न लेना। वे जो सुनते हैं, उसे चाहे कितना भी समझते हों, वे सत्य का अभ्यास नहीं करते; और, चाहे वे उससे तुलना के लिए किस हद तक भी खड़े होते हों, भले ही वे जानते हों कि वे किस तरह के लोग हैं, फिर भी वे पश्चात्ताप नहीं करते। हालाँकि वे जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण पहलू सत्य का अभ्यास करना है, फिर भी “अभ्यास” शब्द ऐसे लोगों के लिए अप्रासंगिक होता है। ऐसे लोगों को आसानी से बचाया नहीं जा सकता।

अब, हमें सत्य के अनुसरण को कैसे परिभाषित करना चाहिए? असल में सत्य का अनुसरण क्या है? कौन बता सकता है मुझे? (परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने में सक्षम होना, आत्मचिंतन और खुद से तुलना करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना, और साथ ही जीवन प्रवेश करना। सिर्फ यही सत्य का अनुसरण माना जाता है।) सही है। सत्य स्वीकारकर उसका अभ्यास करके ही कोई सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति बन सकता है। अगर वह परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारता और आत्मचिंतन नहीं कर सकता तो उसके पास जीवन प्रवेश नहीं होगा और वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं है। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने और जीवन प्रवेश के बीच सीधा संबंध है। अगर कोई व्यक्ति बहुत सारे शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने में सक्षम है लेकिन उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया, वह परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं रखता, और भले ही वह स्पष्ट रूप से जानता हो कि फलाँ चीज परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था है और परमेश्वर से आती है, तो भी वह समर्पित नहीं होता और विरोध, आलोचना और विद्रोह करता है, और अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीता है और अपनी ही प्राथमिकताओं के अनुसार चीजें करता है तो वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य का अनुसरण करता है। कुछ लोगों को आध्यात्मिक समझ हो सकती है और वे परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं लेकिन सत्य से प्रेम नहीं करते, इसलिए वे सत्य का अभ्यास नहीं करते—ऐसे लोग सत्य का अनुसरण करने वाले नहीं होते। कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक होते हैं लेकिन उनकी क्षमता बहुत कम होती है, और वे सत्य तक पहुँचने में असमर्थ रहते हैं। नतीजतन, वे कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य नहीं समझ पाते। क्या सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं? नहीं। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनकी कौन-सी प्रमुख अभिव्यक्तियाँ होती हैं? सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियाँ ये हैं कि वे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते और परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए तैयार नहीं होते, सत्य पर संगति करना तो दूर की बात है, यहाँ तक कि सभाओं में भाग लेने या उपदेश सुनने के लिए भी तैयार नहीं होते। जब वे उपदेश सुनते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है मानो हर वचन उन्हीं पर निर्देशित हो और उन्हीं को उजागर कर रहा हो, जिससे वे बँधे हुए और असहज महसूस करते हैं। इसलिए, जब भी उपदेश सुनने का समय होता है, वे बस सोना या बेकार की बातचीत में लगे रहना चाहते हैं। ऐसे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है। वे सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं, सत्य स्वीकारने, सत्य प्राप्त करने, अपनी भ्रष्टता दूर करने, इंसान की तरह जीने या परमेश्वर से उद्धार प्राप्त करने के लिए नहीं। समस्या की जड़ मुख्य रूप से यह है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य में रुचि नहीं रखते। वे सिर्फ आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। यह उनकी ललक का एकमात्र केंद्र-बिंदु है। आशीष प्राप्त करने की खातिर वे श्रम कर सकते हैं और चीजें त्याग सकते हैं, लेकिन सत्य नहीं स्वीकार सकते और सत्य में रुचि नहीं रखते। उन्हें लगता है कि धर्म-सिद्धांत समझ लेना पर्याप्त है, कम बुरे कर्म करने का मतलब है कि वे बदल गए हैं, और श्रम करना, चीजें त्यागना और इनसे भी बढ़कर कष्ट सहना उन्हें आशीष पाने योग्य बनाता है। परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनका यही दृष्टिकोण है। इसलिए, चाहे वे कितने भी वर्षों से विश्वास करते हों, कितने भी धर्म-सिद्धांत समझते हों और प्रचार कर सकते हों, और चाहे सत्य के अनुरूप कितने भी शब्द उनके मुँह से निकलते हों, वे सत्य का अभ्यास करने में कभी सक्षम नहीं होते, उनके द्वारा प्रकट किए जाने वाले स्वभाव उद्दंड, भोगवादी और अनियंत्रित बने रहते हैं, वे हर मोड़ पर अपने स्वाभिमान और हितों की रक्षा करते हैं, वे खास तौर से स्वार्थी और नीच होते हैं, यहाँ तक कि जब उन्हें डाँटा जाता है, या उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे इसे स्वीकार नहीं पाते और उनमें रत्ती भर भी समर्पण नहीं होता। ऐसे लोग जो चाहते हैं वही करते हैं; वे कार्रवाई करने से पहले दूसरों के साथ विचार-विमर्श नहीं करते, और अगर वे दूसरों के साथ विचार-विमर्श करते भी हैं तो तभी करते हैं जब उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता और सिर्फ औपचारिकता की खातिर ऐसा करते हैं—वे अप्रत्यक्ष रूप से बात करते हैं, इधर-उधर की हाँकते हैं, और अंत में दूसरे लोगों को वैसा ही करने के लिए बाध्य करते हैं जैसा वे कहते हैं। चीजें करने के इस तरीके से कौन-सा स्वभाव प्रकट होता है? (धोखेबाजी का।) यह सिर्फ धोखेबाजी नहीं है; उससे भी ज्यादा गंभीर है। दूसरों को सलाह देते समय, यह समझाते समय कि ये परमेश्वर के घर की व्यवस्थाएँ हैं और दूसरे लोगों से समर्पण करवाते समय उनके शब्द चाहे कितने भी सुखद लगते हों, जब अपनी बात आती है तो वे ऐसा प्रदर्शन नहीं करते। इसके बजाय, वे अड़ियल और विद्रोही होते हैं, समर्पण नहीं करते, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में असमर्थ रहते हैं। इसके अलावा, दूसरों के साथ बातचीत करते समय वे खुद को कैसे अभिव्यक्त करते हैं? वे सांसारिक व्यवहार के लिए फलसफों के अनुसार कार्य करते हैं और हर मोड़ पर लाभ खोजते हुए अपने व्यक्तिगत संबंधों की रक्षा करते हैं। इस तरह के लोगों का स्वभाव खास तौर से कपटी होता है। इस कपट का अनिवार्य तत्त्व क्या है? इसका अनिवार्य तत्त्व है दुष्टता। आम तौर पर लोगों के लिए दुष्ट स्वभाव पहचानना आसान नहीं होता। जब दुष्ट स्वभावों वाले लोग दूसरों से बात करते हैं तो इसमें हमेशा परीक्षण और जानकारी की जाँच-पड़ताल का तत्त्व होता है। वे सीधे-सीधे चीजें नहीं कहते और अगर वे खुलकर बोलते भी हैं तो भी उनका उद्देश्य सिर्फ तुमसे तुम्हारे दिल की बात कहलवाना होता है—वे अपने बारे में कभी कोई वास्तविक बात प्रकट नहीं करते। कुछ लोग कहते हैं, “तुम यह कैसे कह सकते हो कि वे अपने बारे में कभी कोई वास्तविक बात प्रकट नहीं करते? वे तो हमेशा स्वयं द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव के संबंध में लोगों के साथ संगति करते रहते हैं।” वह थोड़ी-सी संगति किस गिनती में आती है? वे किसी को नहीं बताते कि वे वास्तव में अपने मन में क्या सोचते हैं। साथ ही, लोगों के सामने झूठी छवि पेश करते हुए वे अपने असली स्वरूप को जोरों से ढकने-छिपाने के लिए तमाम तरह की चालें और तरीके, या कहने के खास ढंग इस्तेमाल करते हैं। अगर कुछ लोगों को पता चल जाता है कि वे असल में कैसे हैं, और वे उनके द्वारा की गई बुरी चीजों के बारे में जान जाते हैं, तो वे सिर्फ दिखावा करते हुए पश्चात्ताप के कुछ शब्द कहते हैं, और लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए भ्रामक तरीके अपनाते हैं कि वे पश्चात्ताप करके बदल गए हैं। अगर वे फिर से कुछ बुरा करते हैं और उनके दुष्कर्म उजागर हो जाते हैं, तो वे लोगों को यह देखने देते हैं कि वे वास्तव में दुष्ट व्यक्ति हैं, और अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाकर इस तथ्य को छिपाने के हर संभव तरीके सोचते हैं और लोगों को इस बात के लिए मजबूर करते हैं कि वे अभी भी उनके साथ भाई-बहन जैसा व्यवहार करें। यह कौन-सा स्वभाव है? यह एक दुष्ट स्वभाव है। जिन लोगों में इस तरह का दुष्ट स्वभाव होता है, वे न सिर्फ किसी भी तरह से सत्य नहीं स्वीकारते, बल्कि वे दिखावा करने में भी कुशल होते हैं और हमेशा अपने लिए एक चतुराई भरी सफाई या कारण पेश करते हैं। वे पाखंडी फरीसी हैं। इस तरह का व्यक्ति जिनसे सबसे ज्यादा डरता है वे हैं सत्य पर संगति करने वाले लोग, खुद को जानने और आत्म-विश्लेषण करने के लिए अपना हृदय खोलने वाले लोग या किसी मामले के असली तथ्य उजागर करके उन्हें उजागर करने वाले लोग। जब भी कोई सत्य पर संगति कर रहा होता है तो वे खास तौर से नाराज हो जाते हैं और सुनना नहीं चाहते; उनका हृदय इसका विरोध करता है और वे इससे हताश हो जाते हैं। यह सत्य से विमुख होने के उनके कुत्सित पहलू को पूरी तरह से उजागर करता है। सत्य समझने लेकिन उसका अभ्यास न करने के अलावा, इस तरह के व्यक्ति के साथ एक समस्या और होती है कि उसमें सकारात्मक चीजों और सही विचारों के प्रति प्रतिरोध और तिरस्कार का रवैया होता है, खास तौर से उन वचनों के प्रति जो सत्य के अनुरूप होते हैं। जब किसी सकारात्मक चीज या सत्य के अनुरूप वचनों की बात आती है तो अगर ये वो न हों जिन्हें वे अच्छा मानते हैं या उनके द्वारा नहीं बल्कि किसी और के द्वारा बोले गए हों तो वे इन्हें नहीं स्वीकारेंगे। यह कौन-सा स्वभाव है? मूर्खता, हठधर्मिता और मूढ़ता। तुम्हें कैसे मूल्यांकन करना चाहिए कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? देखने वाली मुख्य बात यह है कि वह अपने कर्तव्यों और अपने कार्यों के सामान्य प्रदर्शन में क्या प्रकट और अभिव्यक्त करता है। इससे तुम्हें उस व्यक्ति के स्वभाव का पता चल जाएगा। उसके स्वभाव से तुम्हें ज्ञात हो जाएगा कि उसमें कोई परिवर्तन आया है या नहीं, उसने जीवन में प्रवेश किया है या नहीं। यदि कार्य करते समय कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभावों के अलावा कुछ प्रकट नहीं करता और उसमें कोई भी सत्य-वास्तविकता नहीं है, तो फिर वह व्यक्ति निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति नहीं है। क्या सत्य का अनुसरण न करने वालों के पास जीवन-प्रवेश होता है? नहीं, निश्चित रूप से नहीं होता। ऐसा व्यक्ति दिनभर जो काम करता है, उसकी भाग-दौड़, खुद को खपाना, कष्ट उठाना, कीमत चुकाना—वह चाहे जो कुछ भी करे, वह सब श्रम करना है, और वह श्रमिक है। कोई व्यक्ति कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता रहा हो, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या वह सत्य से प्रेम करता है। कोई व्यक्ति किससे प्रेम करता है, किसका अनुसरण करता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि वह सबसे ज्यादा क्या करना पसंद करता है। यदि किसी व्यक्ति के अधिकांश कार्य सत्य-सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होते हैं, तो वह वो व्यक्ति होता है, जो सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है। यदि वह सत्य का अभ्यास कर सकता है, उसका रोजमर्रा का कार्य उसके कर्तव्य के लिए है, तो वह जीवन में प्रवेश करता है और उसमें सत्य-वास्तविकताएँ होती हैं। हो सकता है कि कुछ मामलों में उसके कार्य उपयुक्त न हों या उसने सत्य-सिद्धांत ठीक से न समझे हों या इस संबंध में उसके हठपूर्ण पूर्वाग्रह हों या कभी-कभी वह अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो जाता हो, अपने ही तरीकों पर अड़े रहकर सत्य स्वीकारने में विफल रहता हो, लेकिन अगर बाद में वह प्रायश्चित करके सत्य का अभ्यास कर लेता है, तो निस्संदेह यह साबित हो जाता है कि उसके पास जीवन-प्रवेश है और वह सत्य का अनुसरण करता है। लेकिन अगर अपने कर्तव्य-प्रदर्शन के दौरान व्यक्ति जो प्रकट करता है, वह भ्रष्ट स्वभावों, मुँहभर झूठ, अभिमान, आसक्ति, भारी घमंड के अलावा कुछ नहीं होता, वह खुद को ही कानून समझता है, मनमर्जी करता है, इत्यादि, और चाहे उसने कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया हो या कितने भी उपदेश सुने हों, यदि उसके भ्रष्ट स्वभाव में थोड़ा-सा भी परिवर्तन नहीं आया है, तो यह निश्चित है कि ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता। ऐसे बहुत से लोग हैं जो बरसों से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हैं, जो देखने में दुष्ट लोग नहीं होते, यहाँ तक कि उनमें कुछ अच्छे व्यवहार भी होते हैं। वे पूरी लगन से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, लेकिन उनके जीवन-स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलते, यहाँ तक कि उनके पास साझा करने के लिए थोड़ी-सी अनुभवात्मक गवाही भी नहीं होती। क्या ऐसे लोग दयनीय नहीं होते? परमेश्वर में इतने वर्षों के विश्वास के बावजूद, वे थोड़ी-सी भी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात नहीं कर सकते। यह विशुद्ध रूप से श्रमिक है। यह वास्तव में दयनीय है! संक्षेप में, यह आँकने के लिए कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं और उसके पास जीवन प्रवेश है या नहीं, तुम्हें उसके द्वारा प्रकट और अभिव्यक्त किया गया स्वभाव और सार देखना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या उसके स्वभाव में कोई बदलाव आया है। हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना और स्वाँग और धोखे में लगे रहना लंबे समय तक कायम नहीं रह सकता। वे दूसरों को धोखा न देकर खुद को ही नुकसान पहुँचाते हैं। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते और सत्य का अनुसरण नहीं करते, उन्हें देर-सबेर प्रकट कर हटा दिया जाएगा। जो सत्य स्वीकारते हैं और उसका अभ्यास करते हैं, सिर्फ वे ही जीवन प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं और स्वभाव में बदलाव ला सकते हैं।

मैंने जीवन प्रवेश क्या होता है, सत्य का अनुसरण करना क्या होता है इन विषयों पर, और सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों की तमाम विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति समाप्त कर ली है। लोगों को खुद से तुलना के लिए इन चीजों को सामने रखना चाहिए और जब वे सत्य समझ लें तो उन्हें इसे अभ्यास में लाने की जरूरत है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोगों की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है? यही कि वे सत्य समझते तो हैं लेकिन उसका अभ्यास नहीं करते। हालाँकि वे परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद उनसे अपनी तुलना कर सकते हैं और अपने बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम रहते हैं, फिर भी वे सत्य को अभ्यास में क्यों नहीं ला पाते? ज्यादातर लोग इसका कारण नहीं ढूँढ़ सकते। उदाहरण के लिए, सभी लोगों में अहंकारी स्वभाव होते हैं—वे सभी खास तौर से अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। ज्यादातर लोग इसे पहचानने में सक्षम होते हैं लेकिन क्या वे अपना अहंकार प्रकट करने से बच पाते हैं? इसे हासिल करना आसान नहीं है। हालाँकि जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करने में सक्षम होते हैं, वे मानते हैं कि उनमें अहंकारी स्वभाव है, और उनके पास अभ्यास करने का मार्ग होता है, मुश्किल चीज यह है कि जब भी वे कुछ करते हैं, तो अक्सर उनकी अपनी प्राथमिकताएँ, अपने इरादे और लक्ष्य होते हैं, और वे यह नहीं देख पाते कि ये सब उनके भ्रष्ट स्वभाव से जुड़े हैं। उन्हें इन चीजों के बारे में विवेकशील होना सीखने की जरूरत है, और उन्हें सत्य समझना होगा, जिसे ठीक किया जाना चाहिए उसे ठीक करना होगा, और जिसे छोड़ा जाना चाहिए उसे छोड़ना होगा। अर्थात्, उन्हें अब अपने इरादों, इच्छाओं, स्वाभिमान, हैसियत और हितों की खातिर चीजें नहीं करनी चाहिए। उन्हें अपने बुरे कर्मों का सिलसिला रोक देना चाहिए, और अपने हितों के लिए कोई दूसरा वाक्य कहने या कोई दूसरा कार्य करने से बचना चाहिए। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुमने पहले ही पश्चात्ताप करने वाला हृदय प्राप्त कर लिया होगा और तुमने अपने नकारात्मक पक्ष में बदलाव लाना शुरू कर दिया होगा। अगर तुम और भी ज्यादा पहल करते हो, और अपनी खातिर न बोलने के अलावा आत्म-विश्लेषण करने में भी सक्षम होते हो, और भाई-बहनों को अपने अहंकारी स्वभाव की अभिव्यक्ति देखने देते हो ताकि वे इससे सीख सकें, कुछ सबक ग्रहण कर सकें, इससे लाभ उठा सकें और अभ्यास का मार्ग खोज सकें, तो यह और भी बेहतर होगा। मुश्किल चीज क्या है? मुश्किल चीज है अपने तमाम इरादे, लक्ष्य, महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और हित छोड़ना, चीजें अपनी खातिर न करना, और अपनी खातिर व्यस्त न रहना या अपने लिए भाग-दौड़ न करना। पौलुस ने कहा कि उसने अपनी दौड़ पूरी कर ली है। वह यह दौड़ किसके लिए दौड़ रहा था? (वह इसलिए दौड़ रहा था ताकि वह आशीष पा सके और मुकुट प्राप्त कर सके।) लेकिन पौलुस को यह समझ नहीं थी। वह संभवतः अभी भी यही सोच रहा था कि वह निश्चित रूप से अपनी खातिर नहीं बल्कि परमेश्वर के लिए और परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए दौड़ रहा है। इसीलिए उसने इतने शेखी बघारने वाले और निर्लज्ज तरीके से दिखावा करने और अपने लिए गवाही देने का साहस किया। वह स्पष्ट रूप से अपना बचाव कर रहा था और अपनी सफाई दे रहा था। साथ ही, यह इस बात का सबसे अच्छा प्रमाण भी है कि वह गवाही दे रहा था कि उसके लिए जीवित रहना मसीह था। वह खुल्लमखुल्ला अपनी गवाही दे रहा था और सत्य का विरोध कर रहा था; वह सत्य की निंदा कर रहा था। अब ऐसे बहुत-से लोग हैं जो पौलुस का आदर करते हैं, जिनके दिल महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से भरे हुए हैं, जो सभी अपने लिए यह गवाही देना चाहते हैं : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। ऐसा करके, क्या वे अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को खुली छूट नहीं दे रहे हैं, उन्हें लगातार बढ़ने नहीं दे रहे हैं, उन्हें साकार करने के लिए हर स्थिति में प्रकट नहीं कर रहे हैं? अगर तुम अपनी इच्छाओं पर काबू नहीं पा सकते तो यह तुम्हारे लिए पूरी तरह से खत्म है; तुम सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश नहीं कर पाओगे। इस मुद्दे का मूल बिंदु क्या है? (हमें अपने इरादों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए।) अपने इरादों के खिलाफ विद्रोह करना अभ्यास का एक नकारात्मक तरीका है। तुम्हें दूसरे लोगों को उजागर करने की ही तरह सक्रिय रूप से उन्हें उजागर करने में भी सक्षम होना चाहिए। अगर तुमने ऐसा कुछ कहा, “मैं तुम लोगों को अपने बारे में सत्य बताऊँगा : मुझमें बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षाएँ हैं और मैं तुम लोगों को जीतना चाहता हूँ। अभी मैं तुम सभी के सामने खुलकर बोल रहा हूँ। मैं देह के विरुद्ध विद्रोह करने को तैयार हूँ; मैं शैतान का साथी नहीं बनूँगा। खुद को इस तरह से उजागर करने का मेरा उद्देश्य तुम लोगों को अपना असली चेहरा स्पष्ट रूप से दिखाना है, ताकि तुम मेरा आदर न करो”—अभ्यास के इस तरीके का क्या प्रभाव होगा? हर कोई निश्चित रूप से तुम्हारी प्रशंसा करेगा। क्या यह उस आदर और उच्च सम्मान से कहीं बेहतर न होगा, जो तुम्हें तमाम तरह की नीच चालें चलने के बदले में मिलेगा? (हाँ, होगा।) कम से कम यह सकारात्मक तो है। हालाँकि हर कोई तुम्हारी कुछ न कुछ प्रशंसा करेगा, लेकिन क्या कोई तुम्हारा आदर करेगा? शायद कुछ लोग ऐसा करें, लेकिन तुम्हें उन्हें इस व्यवहार को त्यागने के तरीके खोजने के लिए प्रेरित करना चाहिए। हमेशा यह कहते हुए खुद को उजागर करो, “मैं भी विद्रोही हूँ और मेरी विद्रोहशीलता तुम लोगों के विद्रोह से ज्यादा गंभीर है। मैं भी धोखेबाज और दुष्ट हूँ। जब मैं उस समय बोला था तो मेरे मन में एक उद्देश्य था, जो यह था कि तुम लोग मेरा आदर करो, अनादर न करो।” यह सुनने के बाद हर कोई न सिर्फ अपने दिल में तुम्हें तुच्छ नहीं समझेगा, बल्कि तुम्हारा और भी ज्यादा सम्मान करेगा। यह अभ्यास करने का एक सच्चा तरीका है। सिर्फ सत्य से प्रेम करने वाले लोग ही ऐसा करेंगे; सत्य से प्रेम न करने वाले लोग ऐसा करने में असमर्थ होते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए। अगर अपने दिल में तुम सोचते हो कि ऐसा करना वास्तव में अच्छा और एक बड़ा विशेषाधिकार है, कि यह परमेश्वर को प्रसन्न करता है, और तुम इस तरह से कार्य करने की आकांक्षा रखते हो; अगर तुम्हारे दिल में एक प्रबल इच्छा है, तुम मानते हो कि तुम्हें ऐसा करना चाहिए और तुम्हें इसी तरह का व्यक्ति होना चाहिए—ऐसा व्यक्ति जो सच्चा है, ईमानदार है, जो कुछ भी वह कहता है उसमें कोई झूठ नहीं पाया जा सकता, ऐसा व्यक्ति जो अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के विरुद्ध पूरी तरह से विद्रोह करता है—सिर्फ तभी तुम उस तरह के व्यक्ति होगे जो वास्तव में प्रकाश में रहता है। और अगर तुम इस तरह का व्यक्ति होने की ओर आकर्षित होते हो और ऐसा व्यक्ति होना पसंद करते हो तो तुम सत्य से प्रेम कर पाओगे, सत्य में प्रवेश कर पाओगे और उन चीजों को छोड़ पाओगे जो शैतान की हैं। लेकिन अगर तुम अभी भी अपने इरादों, लक्ष्यों, महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और हितों में रुचि रखते हो, और अभी भी ज्ञान, कीर्ति, लाभ और हैसियत पर टिके रहने का शौक रखते हो तो ये चीजें अभी भी तुम्हारे दिल में जगह रखती हैं। तुम कहते हो, “जब तक मेरा उपयुक्त आध्यात्मिक कद नहीं हो जाता, मुझे आराम से रहने दो, फिर देखेंगे।” इसे भोग-विलास में लिप्त रहना और खुद के विरुद्ध पूरी तरह से विद्रोह करने में असमर्थ होना कहा जाता है। इस तरह से भोग-विलास में लिप्त रहने से तुम्हारा जीवन प्रवेश धीमा हो जाता है, और न सिर्फ तुम्हारे दैहिक सुखों की लालसा और हैसियत के लाभों की लालसा के मुद्दे हल नहीं हुए हैं, बल्कि वे अधिकाधिक अड़ियल भी हो गए हैं। तो, क्या तुम्हारे दिल में शैतान की चीजें पूरी तरह से साफ की जा सकती हैं? क्या तुम्हारा जीवन अनुभव अब भी गहरा हो सकता है और तुम्हारा जीवन बढ़ता रह सकता है? क्या तुम अब भी परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना हासिल कर सकते हो? तुम पहले ही दैहिक सुखों में गिर चुके हो और हैसियत के लाभों ने तुम्हें जकड़ लिया है—क्या तुम अब भी उनसे मुक्त हो सकते हो? तुम मुक्त नहीं होना चाहते; धीरे-धीरे, तुम ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जो लोगों को गुमराह करता है। यह कष्टदायक होगा और तुम्हारा पाप गंभीर होगा। पौलुस के लिए चीजें उस तरह समाप्त क्यों हुईं? वह इसलिए, क्योंकि उसने सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं किया। उसने हमेशा अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण किया, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना चाहा ताकि वे सब उसका अनुसरण करें, और जैसा वह करे वैसा ही करें। वह कड़ी मेहनत और कीमत चुकाने का इस्तेमाल परमेश्वर के साथ सौदा करने और पुरस्कार और मुकुट प्राप्त करने के लिए लाभ उठाने के रूप में भी करना चाहता था। आखिरकार परमेश्वर ने उसे दंडित किया। कोई व्यक्ति जिस मार्ग का अनुसरण करता है, अगर वह ठीक पौलुस के मार्ग के समान है, तो उसकी मदद नहीं की जा सकती और वह पूरी तरह से खत्म हो गया है। जो भी पौलुस की तरह का व्यक्ति है वह मसीह-विरोधी है जो चाहे कुछ भी हो जाए, वह पश्चात्ताप नहीं करेगा। अगर तुममें सिर्फ पौलुस जैसी कुछ अवस्थाएँ हैं, लेकिन तुम जिस लक्ष्य का अनुसरण करते हो वह पौलुस के लक्ष्य से थोड़ा अलग है तो तुम्हें तुरंत पश्चात्ताप करना चाहिए, और शायद तुम इसे समय रहते कर पाओ। अगर तुम वैसा ही करते हो जैसा पौलुस ने किया था, पौलुस का आदर करते हो, और ठीक पौलुस जैसे हो, तो तुम न सिर्फ छद्म-विश्वासी हो, बल्कि तुम परमेश्वर बनना चाहते हो और मसीह बनना चाहते हो। क्या यह परमेश्वर के बराबर होने की चाहत नहीं है? अपने हृदय में, तुम स्वर्ग में रहने वाले अस्पष्ट परमेश्वर की आराधना करते हो; तुम मसीह के बराबर होना चाहते हो, यहाँ तक कि अपने गुणों और ज्ञान को जीवन मानते हो, और गलत अनुसरणों को सही अनुसरण मानते हो। तुम जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हो वे लक्ष्य और तुम्हारे अनुसरण का तरीका पौलुस के लक्ष्यों और तरीके के ज्यादा से ज्यादा करीब आ रहे हैं और पौलुस के अनुसरणों से ज्यादा से ज्यादा पूरी तरह से मेल खाते हैं। यह तुम्हारे लिए मुसीबत का संकेत देता है; तुम्हारे लिए कोई आशा नहीं है, और तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। तुम्हें वैसा करना चाहिए जैसा पतरस ने किया था और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहिए, पूरी तरह से देह के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए, और उन चीजों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए जो शैतान की हैं, सिर्फ तभी तुम बचाए जाने की आशा कर सकते हो। क्या अब तुम लोगों के पास उद्धार प्राप्त करने का कोई मार्ग है? (लगातार खुद को उजागर करना और अहं त्यागना।) पहले, तुम्हें अपने व्यक्तिगत इरादे, लक्ष्य, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ छोड़नी होंगी। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि तुम सक्रिय रूप से अनुसरण करते हो या नकारात्मक और निष्क्रिय तरीके से, तुम्हें ये चीजें छोड़ देनी चाहिए और समर्पित होना सीखना चाहिए। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगर कुछ बुरा होने पर तुम एक निश्चित तरीके से कार्य करने का निर्णय लेते हो, तो तुम्हें पहले यह आकलन करना होगा कि तुम इस तरह से कार्य क्यों कर रहे हो। अगर यह गर्व और हैसियत के लिए हो, तो वहीं रुक जाओ और कार्य की दिशा में अपने कदम धीमे कर लो। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, मैं ऐसा करने का इच्छुक नहीं हूँ। मैं इसके विरुद्ध विद्रोह करना चाहता हूँ, लेकिन मुझमें ताकत नहीं है। कृपया मुझे ताकत प्रदान करो, मेरी रक्षा करो और मेरे बुरे कार्य वहीं के वहीं रोक दो।” फिर अनजाने ही तुममें ताकत आ जाएगी। कभी-कभी लोगों की पाप पर विजय पाने, देह के विरुद्ध विद्रोह करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करने की क्षमता उनकी इच्छा और संकल्प और सत्य से प्रेम करने की उनकी आकांक्षा से आती है। कभी-कभी, इसके लिए परमेश्वर के कार्य की जरूरत होती है, और परमेश्वर पर भरोसा करने की जरूरत होती है—लोग परमेश्वर को नहीं छोड़ सकते। कभी-कभी तुम सत्य समझते हो, तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए मार्ग होता है, और तुम्हें लगता है कि तुम स्वतंत्र रूप से रह सकते हो, लेकिन जब तुम्हारा सामना नई परिस्थितियों से होता है तो तुम नहीं जानते कि अभ्यास कैसे किया जाए—तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए। लोगों का जीवन उतार-चढ़ावों से भरा होता है। कहा जा सकता है कि लोग कभी परमेश्वर के बिना नहीं रह सकते। चाहे वे कितने भी सत्य समझ लें, वे उसे नहीं छोड़ सकते। चाहे उनके पास नकारात्मकता के कितने भी क्षण हों या निष्क्रियता के कितने भी क्षण हों, वे अंततः परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन नहीं छोड़ सकते। जितनी ज्यादा बार तुम परमेश्वर के समक्ष समर्पण करोगे, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी सत्य वास्तविकताएँ बढ़ेंगी। जैसे-जैसे तुम्हारी सत्य वास्तविकताएँ बढ़ती हैं, तो इसका तात्पर्य यह होता है कि तुम्हारा जीवन प्रवेश और ज्यादा गहरा होता जाता है। जैसे-जैसे तुम्हारा जीवन प्रवेश गहरा होता जाता है, तो इसका मतलब यह होता है कि तुम्हारा स्वभाव ज्यादा से ज्यादा बदल रहा है। जब तुम्हारा स्वभाव बहुत बदल जाता है, तो इसका मतलब होता है कि तुमने आध्यात्मिक कद प्राप्त कर लिया है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद तुम्हारे जीवन प्रवेश का द्योतक है। जब तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद होता है तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण और बंधन पर काबू पा सकोगे, पाप पर काबू पाने की तुम्हारी क्षमता मजबूत हो जाएगी, और तुम्हारे दिल में ताकत आ जाएगी। तुम्हारे पास सिर्फ भावात्मक इच्छा, आशा और आकांक्षा नहीं होगी; तुम इस स्तर पर टिके नहीं रहोगे। बल्कि, तुम आगे बढ़ोगे, और एक वयस्क के रूप में विकसित होगे, ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसके पास सत्य और मानवता है। यह सत्य के अनुसरण का मार्ग है, और यह सत्य के अनुसरण का नतीजा भी है। क्या तुम लोग दिशा देख सकते हो? क्या तुम आशा देख सकते हो? (हाँ।) यह अच्छी बात है।

जीवन प्रवेश ऐसी प्रक्रिया है जो कभी खत्म नहीं होती। इससे लाभ पाने और बदलाव से गुजरने के लिए तुम्हें जीवन भर अनुभव करना होगा। भले ही तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, लेकिन अगर तुम अभी भी दैहिक सुखों और हैसियत के लाभों की लालसा रखते हो तो इसके बावजूद तुम लड़खड़ा जाओगे और असफल हो जाओगे। अब तुम्हारा मार्ग सही है और तुमने अपनी दिशा पा ली है। तुमने पहले ही वे चीजें स्पष्ट रूप से पहचान ली हैं जो गलत, निष्क्रिय, विपरीत और नकारात्मक हैं। तुम्हारे और इन चीजों के बीच एक दीवार है। जहाँ तक सकारात्मक चीजों की बात है, तुमने उन्हें काफी कुछ समझा और उनसे काफी कुछ हासिल भी किया है, और उनमें से काफी कुछ तुम पहले से ही समझ और स्वीकार सकते हो। इन गलत, दुष्ट और नकारात्मक चीजों और कार्यों की पहचान करने के बाद जो बचता है वह है इन चीजों को अपने दिल से पूरी तरह से निकाल देना, उन्हें पूरी तरह से छोड़कर उनके विरुद्ध विद्रोह करना, और फिर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना। इस तरह तुम्हारे पास जीवन प्रवेश होगा। जीवन प्रवेश वास्तव में कठिन नहीं है; यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो तो ये नकारात्मक चीजें तुम्हें पराजित नहीं कर पाएँगी। तुम कुछ समय के लिए निष्क्रिय और कमजोर हो सकते हो लेकिन फिर भी आगे बढ़ते रहने में सक्षम होगे। अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते या सत्य से उतनी दृढ़ता से प्रेम नहीं करते, सिर्फ बाहरी औपचारिकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हो, थोड़ा-सा खपते हो और अपना थोड़ा-सा देते हो, अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए जल्दी उठने और देर से सोने में सक्षम रहते हो; अगर तुम सिर्फ श्रम करने के चरण में ही रुके रहते हो, सत्य की समझ प्राप्त नहीं करना चाहते या वास्तविकता में प्रवेश नहीं करना चाहते, खुद को परमेश्वर के लिए खपाने और कोई बड़े अपराध न करने भर से संतुष्ट रहते हो, और तुम अवरुद्ध हो जाते हो और आगे नहीं बढ़ते, तो इन सबके क्या नतीजे होंगे? तुम्हें परमेश्वर का अनुमोदन बिल्कुल प्राप्त नहीं होगा। अगर तुम चाहते हो कि सत्य का तुम्हारा अनुसरण सफल हो, और वास्तव में जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो यह कोई आसान बात नहीं है। तुम्हें अपने हित छोड़ देने चाहिए और तमाम गलत अनुसरण त्याग देने चाहिए, जैसे कि कीर्ति, लाभ और हैसियत का अनुसरण, आशीषों का अनुसरण, या मुकुट या पुरस्कारों का अनुसरण। ये सब छोड़ देने चाहिए। अगर तुम वाकई सत्य से प्रेम करते हो और परमेश्वर के वचनों पर विचार करने में आनंद लेते हो तो जीवन प्रवेश तुम्हारे लिए कोई कठिन मामला नहीं होगा। अगर तुम सत्य समझते हो तो तुम्हारे पास स्वाभाविक रूप से एक मार्ग होगा और ज्यादा कठिनाई नहीं होगी।

21 जून 2018

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