परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?
परमेश्वर में विश्वास करने में, तुम्हें कम से कम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध रखने के मुद्दे का समाधान करना आवश्यक है। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध नहीं है, तो परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का अर्थ खो जाता है। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना परमेश्वर की उपस्थिति में शांत रहने वाले हृदय के साथ पूर्णतया संभव है। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने का अर्थ है परमेश्वर के किसी भी कार्य पर संदेह न करने या उससे इनकार न करने और उसके कार्य के प्रति समर्पित रहने में सक्षम होना। इसका अर्थ है परमेश्वर की उपस्थिति में सही इरादे रखना, स्वयं के बारे में योजनाएँ न बनाना, और सभी चीजों में पहले परमेश्वर के परिवार के हितों का ध्यान रखना; इसका अर्थ है परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करना और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना। तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति में अपने हृदय को शांत करने में सक्षम होना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं भी समझते, तो भी तुम्हें अपनी सर्वोत्तम योग्यता के साथ अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। एक बार परमेश्वर की इच्छा तुम पर प्रकट हो जाती है, तो फिर इस पर अमल करो, यह बहुत विलंब नहीं होगा। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाता है, तब लोगों के साथ भी तुम्हारा संबंध सामान्य होगा। परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाने के लिए, सबकुछ परमेश्वर के वचनों की नींव पर बनाया जाना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुम्हें अपने विचार एकदम सरल रखने चाहिए और हर चीज में सत्य खोजना चाहिए। जब तुम सत्य समझ जाओ तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, और चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसके प्रति समर्पण करने वाले हृदय से खोजना करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करते हुए, तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बना पाओगे। साथ ही अपने कर्तव्य का उचित ढंग से पालन करते हुए, तुम्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम ऐसा कुछ भी न करो जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को लाभ न हो, और ऐसा कुछ भी न कहो जो भाई-बहनों की मदद न करे। तुम्हें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो तुम्हारे जमीर के विरुद्ध हो और वह तो बिलकुल नहीं करना चाहिए जो शर्मनाक हो। तुम्हें खासकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो परमेश्वर से विद्रोह करे या उसका विरोध करे, और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो कलीसिया के कार्य या जीवन को बाधित करे। अपने हर कार्य में न्यायसंगत और सम्माननीय रहो और सुनिश्चित करो कि तुम्हारा हर कार्य परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य हो। यद्यपि कभी-कभी देह कमज़ोर हो सकती है, फिर भी तुम्हें अपने व्यक्तिगत लाभ का लालच न करते हुए, कोई भी स्वार्थी या नीच कार्य न करते हुए, आत्म-चिंतन करते हुए परमेश्वर के परिवार के हित पहले रखने चाहिए। इस तरह तुम अक्सर परमेश्वर के सामने रह सकते हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध पूरी तरह सामान्य हो जाएगा।
अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनके खिलाफ विद्रोह करो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए। छोटी-छोटी बातें व्यक्ति के इरादे और आध्यात्मिक कद प्रकट कर सकती हैं, और इसलिए, परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को पहले अपने इरादे और परमेश्वर के साथ अपना संबंध सुधारना चाहिए। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य होता है, केवल तभी तुम परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किए जा सकते हो; केवल तभी तुममें परमेश्वर की काट-छाँट, अनुशासन और शोधन अपना वांछित प्रभाव हासिल कर पाएगा। कहने का अर्थ यह है कि यदि मनुष्य अपने हृदय में परमेश्वर को रखने में सक्षम हैं और वे व्यक्तिगत लाभ नहीं खोजते या अपनी संभावनाओं पर विचार नहीं करते (देह-सुख के अर्थ में), बल्कि जीवन प्रवेश का बोझ उठाने के बजाय सत्य का अनुसरण करने की पूरी कोशिश करते हैं और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होते हैं—अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो जिन लक्ष्यों का तुम अनुसरण करते हो, वे सही होंगे, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। परमेश्वर के साथ अपना संबंध सही करना व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा में प्रवेश करने का पहला कदम कहा जा सकता है। यद्यपि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है और वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और मनुष्य द्वारा उसे बदला नहीं जा सकता, फिर भी तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हो या नहीं अथवा तुम परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जा सकते हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है या नहीं। तुम्हारे कुछ हिस्से ऐसे हो सकते हैं, जो कमज़ोर या विद्रोही हों—परंतु जब तक तुम्हारे विचार और तुम्हारे इरादे सही हैं, और जब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सही और सामान्य है, तब तक तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के योग्य हो। यदि तुम्हारा परमेश्वर के साथ सही संबंध नहीं है, और तुम देह के लिए या अपने परिवार के लिए कार्य करते हो, तो चाहे तुम जितनी भी मेहनत करो, यह व्यर्थ ही होगा। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, तो बाकी सब चीजें भी ठीक हो जाएँगी। परमेश्वर कुछ और नहीं देखता, केवल यह देखता है कि क्या परमेश्वर में विश्वास करते हुए तुम्हारे विचार सही हैं : तुम किस पर विश्वास करते हो, किसके लिए विश्वास करते हो, और क्यों विश्वास करते हो। यदि तुम इन बातों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो, और अच्छी तरह से अपने विचारों के साथ अभ्यास करते हो, तो तुम अपने जीवन में उन्नति करोगे, और तुम्हें सही मार्ग पर प्रवेश की गारंटी भी दी जाएगी। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य नहीं है, और परमेश्वर में विश्वास के तुम्हारे विचार विकृत हैं, तो बाकी सब-कुछ बेकार है; तुम कितना भी दृढ़ विश्वास क्यों न करो, तुम कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य होने के बाद ही तुम परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करोगे, जब तुम देह-सुख के खिलाफ विद्रोह कर दोगे, प्रार्थना करोगे, दुःख उठाओगे, सहन करोगे, समर्पण करोगे, अपने भाई-बहनों की सहायता करोगे, परमेश्वर के लिए खुद को अधिक खपाओगे, इत्यादि। तुम्हारे कुछ करने की कोई कीमत या महत्त्व है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम्हारे इरादे ठीक और विचार सही हैं? आजकल बहुत-से लोग परमेश्वर पर विश्वास इस तरह करते हैं, जैसे घड़ी देखने के लिए सिर उठा रहे हों—उनके दृष्टिकोण विकृत होते हैं और उन्हें सफलतापूर्वक सुधारा जाना चाहिए। अगर यह समस्या हल हो गई, तो सब-कुछ सही हो जाएगा; और अगर नहीं हुई, तो सब-कुछ नष्ट हो जाएगा। कुछ लोग मेरी उपस्थिति में अच्छा व्यवहार करते हैं, परंतु मेरी पीठ पीछे वे केवल मेरा विरोध ही करते हैं। यह कुटिलता और धोखे का प्रदर्शन है, और इस तरह के व्यक्ति शैतान के सेवक हैं; वे परमेश्वर के परीक्षण के लिए आए शैतान के विशिष्ट रूप हैं। तुम केवल तभी एक सही व्यक्ति हो, जब तुम मेरे कार्य और मेरे वचनों के प्रति समर्पित रह सको। जब तक तुम परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकते हो; जब तक तुम जो करते हो वह परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य है और अपने समस्त कार्यों में तुम न्यायसंगत और सम्मानजनक व्यवहार करते हो; जब तुम निंदनीय अथवा दूसरों के जीवन को नुकसान पहुँचाने वाले कार्य नहीं करते; और जब तुम प्रकाश में रहते हो और शैतान को अपना शोषण नहीं करने देते, तब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध उचित होता है।
परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए तुम्हारे इरादों और विचारों का सही होना आवश्यक है; तुम्हें परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर जो समस्त वातावरण व्यवस्थित करता है, वह व्यक्ति जिसके लिए परमेश्वर गवाही देता है, और व्यावहारिक परमेश्वर की सही समझ और उनके प्रति व्यवहार का सही तरीका होना आवश्यक है। तुम्हें अपने विचारों के अनुसार अभ्यास नहीं करना चाहिए, और न ही अपनी क्षुद्र योजनाएँ बनानी चाहिए। तुम जो कुछ भी करो, तुम्हें सत्य को खोजने, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति में परमेश्वर के सब कार्यों के प्रति समर्पित रहने में सक्षम होना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किए जाने का अनुसरण करना और जीवन के सही मार्ग में प्रवेश करना चाहते हो, तो तुम्हारा हृदय सदैव परमेश्वर की उपस्थिति में रहना आवश्यक है। हठी मत बनो, शैतान का अनुसरण मत करो, शैतान को अपना काम करने का कोई अवसर मत दो, और शैतान को अपना इस्तेमाल मत करने दो। तुम्हें स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर को सौंप देना चाहिए और परमेश्वर को अपने ऊपर शासन करने देना चाहिए।
क्या तुम शैतान के सेवक बनना चाहते हो? क्या तुम शैतान द्वारा अपना शोषण करवाना चाहते हो? क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण इसलिए करते हो ताकि तुम उसके द्वारा पूर्ण किए जा सको, या इसलिए कि तुम उसके कार्य की विषमता बन सको? तुम एक अर्थपूर्ण जीवन जीना पसंद करोगे, जिसमें तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा सको, या एक निरर्थक और खाली जीवन? तुम परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया जाना पसंद करोगे, या शैतान द्वारा अपना शोषण करवाना? तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य से भरे जाना पसंद करोगे, या फिर पाप या शैतान से भरे जाना? इन बातों पर ध्यान से विचार करो। अपने दैनिक जीवन में तुम्हें यह समझना आवश्यक है कि तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले कौन-से शब्द और तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले कौन-से कार्य परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य नहीं रहने देंगे, और फिर सही तरीका अपनाने के लिए स्वयं को सुधारो। हर वक्त अपने शब्दों, अपने कार्यों, अपने हर कदम और अपने समस्त विचारों और भावों की जाँच करो। अपनी वास्तविक स्थिति की सही समझ हासिल करो और पवित्र आत्मा के कार्य के तरीके में प्रवेश करो। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने का यही एकमात्र तरीका है। इसका आकलन करके कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है या नहीं, तुम अपने इरादों को सुधार पाओगे, मनुष्य के प्रकृति सार को समझ पाओगे, और स्वयं को वास्तव में समझ पाओगे, और ऐसा करने पर तुम वास्तविक अनुभवों में प्रवेश कर पाओगे, स्वयं के खिलाफ सही रूप में विद्रोह कर पाओगे, और इरादे के साथ समर्पण कर पाओगे। जब तुम इस बात से संबंधित इन मामलों के तथ्य का अनुभव करते हो कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है या नहीं, तो तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के अवसर प्राप्त करोगे और पवित्र आत्मा के कार्य की कई स्थितियों को समझने में सक्षम होगे। तुम शैतान की कई चालों को भी देख पाओगे और उसके षड्यंत्रों को समझ पाओगे। केवल यही मार्ग परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने की ओर ले जाता है। परमेश्वर के साथ अपना संबंध सही करके तुम अपने आपको परमेश्वर के सभी प्रबंधनों के प्रति उनकी पूर्णता में समर्पित कर सकते हो, और वास्तविक अनुभवों में और भी गहराई से प्रवेश कर सकते हो और पवित्र आत्मा का कार्य और अधिक प्राप्त कर सकते हो। जब तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने का अभ्यास करते हो, तो अधिकांश मामलों में सफलता देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने और परमेश्वर के साथ वास्तविक सहयोग करने से मिलेगी। तुम्हें यह समझना चाहिए कि “सहयोगी हृदय के बिना परमेश्वर के कार्य को प्राप्त करना कठिन है; यदि देह पीड़ा का अनुभव नहीं करती, तो परमेश्वर से आशीषें प्राप्त नहीं होंगी; यदि आत्मा संघर्ष नहीं करती, तो शैतान को शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा।” यदि तुम इन सिद्धांतों का अभ्यास करो और इन्हें अच्छी तरह से समझ लो, तो परमेश्वर में विश्वास करने के तुम्हारे विचार सही हो जाएँगे। अपने वर्तमान अभ्यास में तुम लोगों को “भूख शांत करने के लिए रोटी खोजने” की मानसिकता को छोड़ना आवश्यक है; तुम्हें इस मानसिकता को छोड़ना भी आवश्यक है कि “सब-कुछ पवित्र आत्मा द्वारा किया जाता है और लोग उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते।” जो भी लोग ऐसा कहते हैं, वे सब यह सोचते हैं, “लोग वह सब कर सकते हैं जो वे करना चाहते हैं, और जब समय आएगा तो पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा। लोगों को देह का प्रतिरोध या सहयोग करने की आवश्यकता नहीं है; महत्त्वपूर्ण यह है कि पवित्र आत्मा द्वारा उन्हें प्रेरित किया जाए।” ये मत बेतुके हैं। इन परिस्थितियों में पवित्र आत्मा कार्य करने में असमर्थ है। इस प्रकार का दृष्टिकोण पवित्र आत्मा के कार्य के लिए एक बड़ी रुकावट बन जाता है। अकसर पवित्र आत्मा का कार्य लोगों के सहयोग से प्राप्त किया जाता है। जो लोग सहयोग नहीं करते और कृतसंकल्प नहीं होते हैं और फिर भी अपने स्वभाव में बदलाव और पवित्र आत्मा का कार्य तथा परमेश्वर से प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं, वे सचमुच उच्छृंखल विचार रखते हैं। इसे “अपने आपको लिप्त करना और शैतान को क्षमा करना” कहा जाता है। ऐसे लोगों का परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध नहीं होता। तुम्हें अपने भीतर शैतानी स्वभाव के कई खुलासे और अभिव्यक्तियाँ ढूँढ़नी चाहिए और अपने ऐसे अभ्यास तलाशने चाहिए, जो अब परमेश्वर की आवश्यकताओं के प्रतिकूल हैं। क्या तुम अब शैतान के खिलाफ विद्रोह कर सकोगे? तुम्हें परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना चाहिए, और नए जीवन के साथ एक नया व्यक्ति बनना चाहिए। अपने पिछले अपराधों पर ध्यान मत दो; अनुचित रूप से पश्चातापी न बनो; दृढ़ रहकर परमेश्वर के साथ सहयोग करो, और अपने कर्तव्य पूरे करो। इस प्रकार परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा।
यदि इसे पढ़ने के बाद तुम केवल शब्दों को स्वीकार करने का दावा करते हो, और अभी भी तुम्हारा हृदय द्रवित नहीं होता, और तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने का प्रयास नहीं करते, तो यह प्रमाणित हो जाता है कि तुम परमेश्वर के साथ अपने संबंध को महत्त्व नहीं देते, तुम्हारे विचार अभी तक सही नहीं हुए हैं, तुम्हारे इरादे परमेश्वर द्वारा तुम्हें प्राप्त किए जाने और उसके लिए महिमा लाने की ओर निर्दिष्ट नहीं किए गए हैं, बल्कि शैतान के षड्यंत्र जारी रहने और तुम्हारे व्यक्तिगत उद्देश्य पूरे करने के लिए निर्दिष्ट किए गए हैं। ऐसे व्यक्ति अनुचित इरादे और गलत विचार रखते हैं। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि परमेश्वर ने क्या कहा है और कैसे कहा है, ऐसे लोग बिलकुल उदासीन रहते हैं और उनमें जरा-सा भी परिवर्तन दिखाई नहीं देता। उनके हृदय में कोई भय अनुभव नहीं होता और वे बेशर्म रहते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति आत्माविहीन और भ्रमित होता है। परमेश्वर के हर कथन को पढ़ो और जैसे ही तुम उन्हें समझ जाओ, उन पर अमल करना शुरू कर दो। शायद कुछ अवसरों पर तुम्हारी देह कमज़ोर थी, या तुम विद्रोही थे, या तुमने प्रतिरोध किया; इस बात की परवाह न करो कि अतीत में तुमने किस तरह का व्यवहार किया था, यह कोई बड़ी बात नहीं है, और यह आज तुम्हारे जीवन को परिपक्व होने से नहीं रोक सकती। अगर आज तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रख सकते हो, तो आशा की किरण बाकी है। यदि हर बार परमेश्वर के वचन पढ़ने पर तुममें परिवर्तन होता है, और दूसरे लोग बता सकते हैं कि तुम्हारा जीवन बदलकर बेहतर हो गया है, तो यह दिखाता है कि अब तुम्हारा परमेश्वर के साथ संबंध सामान्य है और उसे सही रखा गया है। परमेश्वर लोगों से उनके अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। एक बार जब तुम समझ जाते हो और जागरूक हो जाते हो, जब तुम विद्रोही नहीं रहते और प्रतिरोध करना छोड़ देते हो, तो परमेश्वर फिर भी तुम पर दया करता है। जब तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूर्ण किए जाने की समझ और संकल्प होता है, तो परमेश्वर की उपस्थिति में तुम्हारी अवस्था सामान्य हो जाएगी। तुम चाहे कुछ भी कर रहे हो, उसे करते हुए बस इस बात पर ध्यान दो : यदि मैं यह कार्य करूँगा, तो परमेश्वर क्या सोचेगा? क्या इससे मेरे भाई-बहनों को लाभ पहुँचेगा? क्या यह परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी होगा? अपनी प्रार्थना, संगति, बोलचाल, कार्य और लोगों के साथ संपर्क में अपने इरादों की जाँच करो, और देखो कि क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है? यदि तुम अपने इरादों और विचारों को नहीं समझ सकते, तो इसका अर्थ है कि तुममें विवेक की कमी है, जिससे प्रमाणित होता है कि तुम सत्य को बहुत कम समझते हो। अगर तुम, जो कुछ भी परमेश्वर करता है, उसे स्पष्ट रूप से समझने और परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर चीजों को उसके वचनों के लेंस के माध्यम से देखने में समर्थ हुए, तो तुम्हारे दृष्टिकोण सही हो गए होंगे। अतः परमेश्वर के साथ अच्छे संबंध बनाना हर उस व्यक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है, जो परमेश्वर में विश्वास रखता है; सभी को इसे सर्वोपरि महत्त्व का कार्य और अपने जीवन की सबसे बड़ी घटना मानना चाहिए। जो कुछ भी तुम करते हो, उसे इस बात से मापा जाता है कि क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है? यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है और तुम्हारे इरादे सही हैं, तो कार्य करो। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखने के लिए तुम्हें अपने व्यक्तिगत हितों का नुकसान उठाने से डरने की आवश्यकता नहीं है; तुम शैतान को जीतने नहीं दे सकते, तुम शैतान को अपने ऊपर पकड़ बनाने नहीं दे सकते, और तुम शैतान को तुम्हें हँसी का पात्र बनाने नहीं दे सकते। ऐसे इरादे होना इस बात का संकेत है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है—यह देह के लिए नहीं है, बल्कि आत्मा की शांति के लिए है, पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने के लिए है और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए है। सही स्थिति में प्रवेश करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के साथ अच्छा संबंध बनाना और उस पर विश्वास करने के विचारों को सही रखना आवश्यक है। ऐसा इसलिए, ताकि परमेश्वर तुम्हें प्राप्त कर सके और ताकि वह अपने वचन के फल तुममें प्रकट कर सके, और तुम्हें और अधिक प्रबुद्ध और प्रकाशित कर सके। इस प्रकार से तुम सही तरीके में प्रवेश करोगे। परमेश्वर के आज के वचनों को लगातार खाते-पीते रहो, पवित्र आत्मा के कार्य के वर्तमान तरीके में प्रवेश करो, परमेश्वर की आज की माँगों के अनुसार कार्य करो, अभ्यास के पुराने तरीकों का पालन मत करो, कार्य करने के पुराने तरीकों से मत चिपके रहो, और जितना जल्दी हो सके, कार्य करने के आज के तरीके में प्रवेश करो। इस तरह परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध पूरी तरह से सामान्य हो जाएगा और तुम परमेश्वर में विश्वास रखने के सही मार्ग पर चल पड़ोगे।