2. विभिन्न धार्मिक संप्रदाय अब धार्मिक अनुष्ठान का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन पादरी केवल बाइबल और धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों के शब्दों और वाक्यांशों का प्रचार करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और पवित्र आत्मा के ज्ञान और रोशनी का पूरी तरह से अभाव होता है। विश्वासियों का जीवन पूरी तरह से प्रावधान-रहित है। उन्होंने कई वर्षों से प्रभु पर विश्वास किया है लेकिन वे सत्य से अनभिज्ञ हैं और प्रभु के वचनों को अभ्यास में लाने में असमर्थ हैं। प्रभु में उनकी आस्था एक धार्मिक मान्यता के अलावा कुछ नहीं है। मुझे समझ नहीं आता कि आज कलीसियाएँ धर्म में क्यों उतर आईं हैं।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण में मनुष्य से तद्नुरूपी अपेक्षाएँ भी होती हैं। जो लोग पवित्र आत्मा की धारा के भीतर हैं, वे सभी पवित्र आत्मा की उपस्थिति और अनुशासन के अधीन हैं, और जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में नहीं हैं, वे शैतान के नियंत्रण में और पवित्र आत्मा के किसी भी कार्य से रहित हैं। जो लोग पवित्र आत्मा की धारा में हैं, वे वो लोग हैं जो परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करते हैं और उसमें सहयोग करते हैं। यदि इस मुख्य धारा में मौजूद लोग सहयोग करने में अक्षम रहते हैं और इस दौरान परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें अनुशासित किया जाएगा, और सबसे खराब बात यह होगी कि उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा त्याग दिया जाएगा। जो पवित्र आत्मा के नए कार्य को स्वीकार करते हैं, वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में जीएँगे और पवित्र आत्मा की देखभाल और सुरक्षा प्राप्त करेंगे। जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं, उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है, और जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने के अनिच्छुक हैं, उन्हें पवित्र आत्मा द्वारा अनुशासित किया जाता है, यहाँ तक कि उन्हें दंड भी दिया जा सकता है। चाहे वे किसी भी प्रकार के व्यक्ति हों, यदि वे पवित्र आत्मा की मुख्य धारा के भीतर हैं, तो परमेश्वर उन सभी लोगों की ज़िम्मेदारी लेगा, जो उसके नाम की खातिर उसके नए कार्य को स्वीकार करते हैं। जो लोग उसके नाम को महिमामंडित करते हैं और उसके वचनों को अभ्यास में लाने के इच्छुक हैं, वे उसके आशीष प्राप्त करेंगे; जो लोग उसकी अवज्ञा करते हैं और उसके वचनों को अभ्यास में नहीं लाते, वे उसका दंड प्राप्त करेंगे। जो लोग पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं, वे वो लोग हैं जो नए कार्य को स्वीकार करते हैं, और चूँकि उन्होंने नए कार्य को स्वीकार कर लिया है, इसलिए उन्हें परमेश्वर के साथ उचित सहयोग करना चाहिए, और उन विद्रोहियों के समान कार्य नहीं करना चाहिए, जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते। यह मनुष्य से परमेश्वर की एकमात्र अपेक्षा है। यह उन लोगों के लिए नहीं है, जो नए कार्य को स्वीकार नहीं करते : वे पवित्र आत्मा की धारा से बाहर हैं, और पवित्र आत्मा का अनुशासन और फटकार उन पर लागू नहीं होते। पूरे दिन ये लोग देह में जीते हैं, अपने मस्तिष्क के भीतर जीते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह सब उनके अपने मस्तिष्क के विश्लेषण और अनुसंधान से उत्पन्न हुए सिद्धांत के अनुसार होता है। यह वह नहीं है, जो पवित्र आत्मा के नए कार्य द्वारा अपेक्षित है, और यह परमेश्वर के साथ सहयोग तो बिलकुल भी नहीं है। जो लोग परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं करते, वे परमेश्वर की उपस्थिति से वंचित रहते हैं, और, इससे भी बढ़कर, वे परमेश्वर के आशीषों और सुरक्षा से रहित होते हैं। उनके अधिकांश वचन और कार्य पवित्र आत्मा की पुरानी अपेक्षाओं को थामे रहते हैं; वे सिद्धांत हैं, सत्य नहीं। ऐसे सिद्धांत और विनियम यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि इन लोगों का एक-साथ इकट्ठा होना धर्म के अलावा कुछ नहीं है; वे चुने हुए लोग या परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य नहीं हैं। उनमें से सभी लोगों की सभा को मात्र धर्म का महासम्मेलन कहा जा सकता है, उन्हें कलीसिया नहीं कहा जा सकता। यह एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। उनके पास पवित्र आत्मा का नया कार्य नहीं है; जो कुछ वे करते हैं वह धर्म का द्योतक प्रतीत होता है, जैसा जीवन वे जीते हैं वह धर्म से भरा हुआ प्रतीत होता है; उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति और कार्य नहीं होता, और वे पवित्र आत्मा का अनुशासन या प्रबुद्धता प्राप्त करने के लायक तो बिलकुल भी नहीं हैं। ये समस्त लोग निर्जीव लाशें और कीड़े हैं, जो आध्यात्मिकता से रहित हैं। उन्हें मनुष्य की विद्रोहशीलता और विरोध का कोई ज्ञान नहीं है, मनुष्य के समस्त कुकर्मों का कोई ज्ञान नहीं है, और वे परमेश्वर के समस्त कार्य और परमेश्वर की वर्तमान इच्छा के बारे में तो बिलकुल भी नहीं जानते। वे सभी अज्ञानी, अधम लोग हैं, और वे कूडा-करकट हैं जो विश्वासी कहलाने के योग्य नहीं हैं! वे जो कुछ भी करते हैं, उसका परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य के साथ कोई संबंध नहीं है, और वह परमेश्वर के कार्य को बिगाड़ तो बिलकुल भी नहीं सकता। उनके वचन और कार्य अत्यंत घृणास्पद, अत्यंत दयनीय, और एकदम अनुल्लेखनीय हैं। जो लोग पवित्र आत्मा की धारा में नहीं हैं, उनके द्वारा किए गए किसी भी कार्य का पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ कोई लेना-देना नहीं है। इस वजह से, चाहे वे कुछ भी क्यों न करें, वे पवित्र आत्मा के अनुशासन से रहित होते हैं, और, इससे भी बढ़कर, वे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से रहित होते हैं। कारण, वे सभी ऐसे लोग हैं, जिन्हें सत्य से कोई प्रेम नहीं है, और जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत कर दिया गया है। उन्हें कुकर्मी कहा जाता हैं, क्योंकि वे देह के अनुसार चलते हैं, और परमेश्वर के नाम की तख्ती के नीचे जो उन्हें अच्छा लगता है, वही करते हैं। जब परमेश्वर कार्य करता है, तो वे जानबूझकर उसके प्रति शत्रुता रखते हैं और उसकी विपरीत दिशा में दौड़ते हैं। परमेश्वर के साथ सहयोग करने में मनुष्य की असफलता अपने आप में चरम रूप से विद्रोही है, इसलिए क्या वे लोग, जो जानबूझकर परमेश्वर के प्रतिकूल चलते हैं, विशेष रूप से अपना उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं करेंगे?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास
"पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, 'मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं,' तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है" (मत्ती 12:6-8)। यहाँ "मंदिर" किसे संदर्भित करता है? आसान शब्दों में कहें तो, यह एक भव्य, ऊँची इमारत को संदर्भित करता है, और व्यवस्था के युग में मंदिर याजकों के लिए परमेश्वर की आराधना करने का स्थान था। जब प्रभु यीशु ने कहा, "कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है," तो "वह" किसे संदर्भित करता है? स्पष्ट रूप से "वह" देह में मौजूद प्रभु यीशु है, क्योंकि केवल वही मंदिर से बड़ा था। इन वचनों ने लोगों को क्या बताया? उन्होंने लोगों को मंदिर से बाहर आने के लिए कहा—परमेश्वर पहले ही मंदिर को छोड़ चुका है और अब उसमें कार्य नहीं कर रहा, इसलिए लोगों को मंदिर के बाहर परमेश्वर के पदचिह्न ढूँढ़ने चाहिए और उसके नए कार्य में उसके कदमों का अनुसरण करना चाहिए। जब प्रभु यीशु ने यह कहा, तो उसके वचनों के पीछे एक आधार था और वह यह कि व्यवस्था के अधीन लोग मंदिर को स्वयं परमेश्वर से भी बड़ा समझने लगे थे। अर्थात्, लोग परमेश्वर की आराधना करने के बजाय मंदिर की आराधना करते थे, इसलिए प्रभु यीशु ने उन्हें चेतावनी दी कि वे मूर्तियों की आराधना न करें, बल्कि उनके बजाय परमेश्वर की आराधना करें, क्योंकि वह सर्वोच्च है। इसलिए उसने कहा : "मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं।" यह स्पष्ट है कि प्रभु यीशु की नज़रों में, व्यवस्था के अधीन अधिकतर लोग अब यहोवा की आराधना नहीं करते थे, बल्कि बेमन से केवल बलिदान करते थे, और प्रभु यीशु ने तय किया कि यह मूर्ति-पूजा है। इन मूर्ति-पूजकों ने मंदिर को परमेश्वर से बड़ी और ऊँची चीज़ समझ लिया था। उनके हृदय में केवल मंदिर था, परमेश्वर नहीं, और यदि उन्हें मंदिर छोड़ना पड़ता, तो उनका निवास-स्थान भी छूट जाता। मंदिर के अतिरिक्त उनके पास आराधना के लिए कोई जगह नहीं थी, और वे अपने बलिदान नहीं कर सकते थे। उनका तथाकथित "निवास-स्थान" वह था, जहाँ वे यहोवा परमेश्वर की आराधना करने का झूठा दिखावा करते थे, ताकि वे मंदिर में रह सकें और अपने खुद के क्रियाकलाप कर सकें। उनका तथाकथित "बलिदान" मंदिर में सेवा करने की आड़ में अपने खुद के व्यक्तिगत शर्मनाक व्यवहार कार्यान्वित करना भर था। यही कारण था कि उस समय लोग मंदिर को परमेश्वर से भी बड़ा समझते थे। प्रभु यीशु ने ये वचन लोगों को चेतावनी देने के लिए बोले थे, क्योंकि वे मंदिर का उपयोग एक आड़ के रूप में, और बलिदानों का उपयोग लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के एक आवरण के रूप में करते थे। यदि तुम इन वचनों को वर्तमान में लागू करो, तो ये अभी भी उतने ही वैध और प्रासंगिक हैं। यद्यपि आज लोगों ने व्यवस्था के युग के लोगों की तुलना में परमेश्वर के एक भिन्न कार्य का अनुभव किया है, किंतु उनकी प्रकृति का सार एक-समान है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
यदि, अपने विश्वास में, लोग सत्य को पालन किए जाने वाले विनियमों के एक समुच्चय के रूप में मानते हैं, तो क्या उनका विश्वास धार्मिक अनुष्ठानों में बदलने के लिए उत्तरदायी नहीं है? और इस तरह के धार्मिक अनुष्ठानों और ईसाई धर्म के बीच क्या अंतर है? वे चीज़ों को जिस तरह से कहते हैं उसमें अधिक गहरे और अधिक प्रगतिशील हो सकते हैं, लेकिन यदि उनका विश्वास सिर्फ विनियमों का एक समुच्चय और एक प्रकार का अनुष्ठान बन जाता है, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि यह ईसाई धर्म में बदल गया है? (हाँ, ऐसा होता है।) पुरानी और नई शिक्षाओं के बीच अंतर हैं, लेकिन यदि शिक्षाएँ एक तरह के सिद्धांत से ज्यादा कुछ नहीं हों और लोगों के लिए मात्र अनुष्ठान का, सिद्धान्त, का एक रूप बन गयी हों—और, इसी तरह से, यदि वे इससे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं या सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, तो क्या उनका विश्वास केवल ईसाई धर्म के समान नहीं है? सार रूप में, क्या यह ईसाई धर्म नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, तुम लोगों के व्यवहार में और अपने कर्तव्यों को करने में, किन चीज़ों में तुम्हारे दृष्टिकोण और स्थितियाँ ईसाई धर्म में विश्वासियों के समान या उसी तरह की हैं? (विनियमों का पालन करने में, और वचनों और सिद्धान्तों से सज्जित होने में।) (आध्यात्मिक होने के दिखावे और अच्छा व्यवहार दर्शाने वाला होने, और धर्मपरायण और विनम्र होने पर ध्यान केन्द्रित करने में।) तू बाहरी तौर पर अच्छे व्यवहार वाला होने की तलाश करता है, अपने आप को एक प्रकार के आध्यात्मिकता के आभास से भरने, आध्यात्मिक सिद्धान्त बोलने, ऐसी चीज़ों को कहने जो आध्यात्मिक रूप से सही हों, ऐसी चीज़ों को करने जो सापेक्ष रूप से मानव अवधारणाओं और कल्पनाओं में अनुमोदित हैं, और धार्मिक होने का ढोंग करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करता है। तू जो कुछ कहता और करता है उसमें तू ऊँचाई से वचनों और सिद्धांतों को बोलता है, लोगों को अच्छा करने, धार्मिक लोग बनने, और सत्य को समझने के लिए सिखाता है; तू आध्यात्मिक होने के बारे में हवा लगाता है, और तू एक सतही आध्यात्मिकता टपकाता है। हालाँकि अभ्यास में, तूने कभी भी सत्य की तलाश नहीं की है; जैसे ही तू किसी समस्या का सामना करता है, तो तू परमेश्वर को एक तरफ उछालते हुए, पूरी तरह से मानवीय इच्छा के अनुसार कार्य करता है। तूने कभी भी सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं किया, तू कभी भी यह नहीं समझ पाया है कि सत्य में किस बारे में बोला गया है, परमेश्वर की इच्छा क्या है, मनुष्य से उसे किन मानकों की अपेक्षा है—तूने इन मामलों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया है या अपने को उनके साथ चिंतित नहीं किया है। क्या लोगों के ऐसे बाहरी कृत्य और आंतरिक स्थितियाँ—अर्थात्, इस प्रकार का विश्वास—परमेश्वर के लिए भय मानने और बुराई से दूर रहने को शामिल करता है? यदि लोगों की आस्था और उनके सत्य के अनुसरण के बीच कोई संबंध नहीं है, तो क्या वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं या नहीं करते हैं? इस बात की परवाह किए बिना कि वे लोग जिनका सत्य का अनुसरण करने से कोई संबंध नहीं है कितने वर्षों तक विश्वास कर सकते हैं, क्या सच्ची, परमेश्वर का भय मानने वाली श्रद्धा प्राप्त कर सकते हैं अथवा नहीं और बुराई से दूर रह सकते हैं या नहीं? (वे ऐसा नहीं कर सकते हैं।) तो ऐसे लोगों का बाहरी व्यवहार क्या होता है? वे किस प्रकार के मार्ग पर चल सकते हैं? (फरीसियों का मार्ग।) वे अपने आप को किस चीज़ से सज्जित करने में अपने दिनों को बिताते हैं? क्या ये चीज़ें वचन और सिद्धांत नहीं हैं? क्या वे अपने आप को फरीसियों की तरह अधिक बनाने, अधिक आध्यात्मिक, और ऐसे लोगों की तरह अधिक बनाने के लिए जो कथित रूप से परमेश्वर की सेवा करते हैं, अपने आप को वचनों और सिद्धांतों से सज्जित, सुशोभित करते हुए, अपने दिनों को नही बिताते हैं? बस इन सभी पद्धतियों की प्रकृति क्या है? क्या यह परमेश्वर की आराधना करना है? क्या यह उस में वास्तविक विश्वास है? (नहीं, यह विश्वास नहीं है।) तो वे क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर को धोखा दे रहे है; वे बस एक प्रक्रिया के चरण को पूरा कर रहे हैं, और धार्मिक अनुष्ठानों में संलग्न हो रहे हैं। वे विश्वास के ध्वज को लहरा रहे हैं और धार्मिक संस्कारों को निभा रहे हैं, आशीष पाने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं। वे परमेश्वर की आराधना बिल्कुल नहीं करते हैं। अंत में, क्या ऐसे लोगों के समूह का अंत ठीक कलीसिया के भीतर के उन लोगों की तरह नहीं होगा जो कथित रूप से परमेश्वर की सेवा करते हैं, और जो कथित रूप से परमेश्वर को मानते और उसका अनुसरण करते हैं?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है
यहोवा पर विश्वास करने वालों को परमेश्वर कौन-सा नाम देता है? यहूदी धर्म। वे एक प्रकार का धार्मिक समूह बन गए। और परमेश्वर उन लोगों को कैसे परिभाषित करता है जो यीशु पर विश्वास करते हैं? (ईसाई धर्म।) परमेश्वर की नज़रों में, यहूदी धर्म और ईसाई धर्म धार्मिक समूह हैं। परमेश्वर उन्हें इस प्रकार क्यों परिभाषित करता है? उन सभी के बीच जो परमेश्वर द्वारा परिभाषित इन धार्मिक निकायों के सदस्य हैं, क्या कोई ऐसा है जो परमेश्वर से डरता है और बुराई से दूर रहता है, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है, और परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है? (नहीं।) यह इस बात को स्पष्ट करता है। परमेश्वर की नज़रों में, क्या वे सभी लोग जो परमेश्वर का नाममात्र के लिए अनुसरण करते हैं, ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर विश्वासियों के रूप में होना स्वीकार करता है? क्या उन सभी का परमेश्वर के साथ कोई संबंध हो सकता है? क्या वे सभी परमेश्वर के उद्धार के लिए लक्ष्य हो सकते हैं? (नहीं।) तो क्या ऐसा दिन आएगा जब तुम लोग उसमें बदल जाओगे जिसे परमेश्वर धार्मिक समूह के रूप में देखता है? (यह संभव है।) एक धार्मिक समूह के रूप में देखा जाना, यह अचिंतनीय प्रतीत होता है। यदि लोग परमेश्वर की नज़र में एक धार्मिक समूह का हिस्सा बन जाते हैं, तो क्या वे उसके द्वारा बचाए जाएंगे? क्या वे परमेश्वर के घर के हैं? (नहीं वे नहीं।) तो सारांश करने का प्रयास करो: ये लोग, जो नाममात्र के लिए सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन जिन्हें परमेश्वर एक धार्मिक समूह का हिस्सा मानता है—वे किस रास्ते पर चलते हैं? क्या ऐसा कहा जा सकता है कि ये लोग कभी भी उसके परमेश्वर में विश्वास करने के मार्ग का अनुसरण या उसकी आराधना नहीं करते हुए और उसका त्याग करते हुए, विश्वास के झंडे को लहराने के मार्ग पर चलते हैं? अर्थात्, वे परमेश्वर पर विश्वास करने के मार्ग पर चलते हैं लेकिन परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते और उसे त्याग देते हैं; उनका मार्ग ऐसा है जिसमें वे विश्वास तो परमेश्वर पर करते हैं लेकिन शैतान की पूजा करते हैं, वे हैवान की आराधना करते हैं, वे अपने स्वयं के प्रबंधन को अंजाम देने, और अपना राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं। क्या यही इसका सार है? क्या इस तरह के लोगों का मनुष्य के उद्धार की परमेश्वर की प्रबंधन योजना से कोई संबंध है? (नहीं।) चाहे कितने भी लोग परमेश्वर में विश्वास क्यों न करें, जैसे ही उनके विश्वासों को परमेश्वर द्वारा धर्म या समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है, तब परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि उन्हें बचाया नहीं जा सकता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? किसी गिरोह या लोगों की भीड़ में जो परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन से रहित हैं और जो उसकी आराधना बिल्कुल भी नहीं करते हैं, वे किसकी आराधना करते हैं? वे किसका अनुसरण करते हैं? रूप और नाम में, वे एक इंसान का अनुसरण करते हैं, लेकिन वास्तव में वे किसका अनुसरण करते हैं? अपने हृदय में वे परमेश्वर को स्वीकार करते हैं, लेकिन वास्तव में, वे मानवीय हेरफेर, व्यवस्थाओं और नियंत्रण के अधीन हैं। वे शैतान, हैवान का अनुसरण करते हैं; वे उन ताक़तों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, जो परमेश्वर की दुश्मन हैं। क्या परमेश्वर इस तरह के लोगों के झुण्ड को बचाएगा? (नहीं।) क्यों? क्या वे पश्चाताप करने में सक्षम हैं? (नहीं।) वे मानव उद्यमों को चलाते हुए, अपने स्वयं के प्रबंधन का संचालन करते हुए विश्वास का झंडा लहराते हैं, और मनुष्यजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के विपरीत चलते हैं। उनका अंतिम परिणाम परमेश्वर द्वारा नफ़रत और अस्वीकृत किया जाना है; परमेश्वर इन लोगों को संभवतः नहीं बचा सकता है, वे संभवतः पश्चाताप नहीं कर सकते है, वे पहले से ही शैतान के द्वारा पकड़ लिए गए हैं—वे पूरी तरह से शैतान के हाथों में हैं। तुमने कितने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है, क्या तुम्हारी आस्था में इसका असर इस बात पर पड़ता है कि परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करता है या नहीं? क्या तुम्हारे रस्मों और विनियमों के पालन करने का कुछ महत्व है? क्या परमेश्वर लोगों के अभ्यास के तौर-तरीकों को देखता है? क्या वह देखता है कि वहाँ कितने लोग हैं? उसने मानवजाति के एक हिस्से को चुना है; वह कैसे मापता है कि उन्हें बचाया जा सकता है और बचाया जाना चाहिए? उसका यह निर्णय उन मार्गों पर आधारित होता है जिन पर ये लोग चलते हैं। ... चाहे तूने कितने भी धर्मोपदेश सुने हों, और तू कितने सत्यों को समझ चुका हो, यदि अंततः तू अभी भी लोगों का अनुसरण करता है और शैतान का अनुसरण करता है, और अंततः, तू अभी भी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में अक्षम हैं और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असमर्थ है, तो इस तरह के लोगों से परमेश्वर द्वारा नफ़रत की जाएगी और उन्हें अस्वीकार कर दिया जाएगा। हर पहलू से, ये लोग जो परमेश्वर द्वारा नफ़रत और अस्वीकृत किए जाते हैं वे पत्रों और सिद्धांतों के बारे में ज्यादा बात कर सकते हैं, और बहुत से सत्य समझते हैं और फिर भी वे परमेश्वर की आराधना करने में असमर्थ होते हैं; वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असमर्थ हैं, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारी होने में असमर्थ हैं। परमेश्वर की नज़रों में, परमेश्वर उन्हें धर्म के रूप में, मनुष्य मात्र के एक समूह के रूप में, एक इंसानों का गिरोह और शैतान के लिए एक निवास स्थान के रूप में परिभाषित करता है। उन्हें सामूहिक रूप से शैतान का गिरोह कहा जाता है, और परमेश्वर उनसे पूरी तरह से घृणा करता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है