“प्रेम के कारण” भजन के बारे में संगति
(भजन मंडली के साथ संगति)

कलीसिया के जीवन के बारे में तुम लोग जो भजन गाते हो, उनमें व्यावहारिक अनुभव वाले भजन अभी भी बहुत कम हैं। इनमें से अधिकांश भजनों के अनुभव बहुत ही सतही हैं; इन्हें गाने से लोगों को कुछ अधिक लाभ नहीं होता। कुछ भजनों में तो केवल खोखले सिद्धांत होते हैं, जिनमें थोड़ी-सी भी वास्तविकता नहीं होती। उदाहरण के लिए “प्रेम के कारण,” “परमेश्वर हमें पूरी गहराई से प्रेम करता है,” और “शाश्वत प्रेम” को ही ले लो, ये सभी भजन खोखले और सैद्धांतिक हैं और थोथे शब्दों से बने हैं; ये बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं हैं। इन तीन भजनों के बोलों के बारे में तुम लोगों का क्या ख्याल है? ये सभी बकवास हैं, ये सभी बोल लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित हैं; इनमें व्यावहारिक अनुभव की कोई बात नहीं मिलती है। यदि कोई व्यक्ति अनुभव के बारे में भी भजन न लिख सके, फिर भी परमेश्वर की प्रशंसा में भजन लिखना चाहे, तो क्या यह अपनी हद पार करना नहीं है? क्या परमेश्वर जो स्वयं है वह देख पाना और उसका सार देख पाना एक सामान्य व्यक्ति के लिए संभव है? कितने लोग ऐसा कर सकते हैं? यदि तुम परमेश्वर के बारे में कुछ भी नहीं जानते और इन सभी धारणाओं और कल्पनाओं को कागज पर उतारते हो, तो क्या यह परमेश्वर के सार के अनुरूप है? क्या यह परमेश्वर के कार्य के तथ्यों के अनुरूप है? क्या इन धारणाओं और कल्पनाओं का अनर्गल प्रलाप परमेश्वर की प्रशंसा करना है? यदि तुम्हें परमेश्वर के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं है, तो तुम उसकी प्रशंसा में जो भजन लिखते हो, वे व्यावहारिक नहीं होंगे। इसके बजाय तुम्हें अपने असली अनुभव, असली ज्ञान और व्यक्तिगत समझ के बारे में लिखना चाहिए और उन चीजों के बारे में विनम्रता से बात करनी चाहिए जो वास्तविक और ठोस हैं, बड़ी-बड़ी बातें और बढ़ा-चढ़ाकर बात करने से बचना चाहिए। तुम ऐसे विषयों के बारे में लिखते हो जैसे परमेश्वर की प्रबंधन योजना, उसका धार्मिक स्वभाव, उसका प्रेम, उसकी आदरणीयता, उसकी महानता, उसकी सर्वोच्चता और उसकी विलक्षणता—क्या तुम वास्तव में इन चीजों को समझते भी हो? क्या तुम्हें इनकी समझ है? यदि तुम इन्हें नहीं समझते, फिर भी इनके बारे में लिखने पर तुले रहते हो, तो फिर तुम केवल अँधेरे में तीर चला रहे होते हो और झूठा दिखावा कर इतराते फिरते हो। जब लोग साथ मिलकर इन्हें गाते हैं तो वे चकित होकर तुम्हारी तरह दिखावा कर रहे होते हैं क्योंकि वे ऐसे खोखले शब्द गा रहे होते हैं और जब गायन समाप्त हो जाता है तो इससे किसी को कोई लाभ नहीं होता। इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं? क्या यह लोगों के साथ खिलवाड़ करना और उनका समय बर्बाद करना नहीं है? क्या यह परमेश्वर को धोखा देना और मूर्ख बनाना नहीं है? क्या तुम्हें शर्म नहीं आती?

देखो, “प्रेम के कारण” भजन के बोल क्या हैं? “प्रेम के कारण, परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया और हमेशा उसकी देखभाल और निगरानी की।” क्या इस वाक्य में कोई सही बात है? क्या इसमें कोई भी शब्द सत्य से मेल खाता है? प्रेम के कारण ही परमेश्वर ने आदम और हव्वा को बनाया, क्या यह सही है? (ऐसा नहीं है।) तो फिर उसने इन्हें क्यों बनाया? (परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कारण बनाया।) यह परमेश्वर की इच्छा है कि वह अपने द्वारा बनाई गई मानवजाति के माध्यम से एक प्रबंधन योजना को क्रियान्वित करे—जो एक 6,000 वर्षीय प्रबंधन योजना है। इस 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना की दिशा चाहे जो भी हो, अंततः परमेश्वर को ऐसे लोगों का एक समूह मिल जाएगा जो उसके प्रति समर्पण कर उसकी गवाही दे सकते हैं, जो सच्चे सृजित प्राणी और सभी चीजों के सच्चे स्वामी बनने में सक्षम हैं। क्या इस तथ्य का प्रेम से कोई लेना-देना है कि परमेश्वर के पास पहले एक प्रबंधन योजना थी और फिर उसने संसार और मानवजाति को बनाना शुरू किया? यह परमेश्वर का एक विचार था, यह उसकी योजना का हिस्सा था। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे लोगों के इरादे और योजनाएं होती हैं; उदाहरण के लिए, किसी की योजना दस साल में प्रबंधक बनने और 100,000 युआन कमाने की हो सकती है या किसी की योजना अगले दस साल में कोई विशेष शैक्षणिक उपलब्धि हासिल करने या एक निश्चित पारिवारिक जीवन प्राप्त करने की हो सकती है—क्या इनका प्रेम से कोई संबंध है? इनका प्रेम से कोई संबंध नहीं है; दैनिक जीवन में लोगों के पास केवल चरणबद्ध, कदम-दर-कदम योजना होती है, एक खाका, एक लक्ष्य, एक आदर्श होता है। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, एक ओर वह ब्रह्मांड और इसमें मौजूद सभी चीजों पर एकछत्र शासन करता है, साथ ही उसके पास पृथ्वी के लिए एक योजना भी है और वह योजना परमेश्वर द्वारा तमाम चीजों और सजीव प्राणियों को बनाने के साथ आरम्भ हुई; फिर परमेश्वर ने दो मनुष्यों को बनाया। क्या वास्तव में ऐसा नहीं हुआ था? परमेश्वर द्वारा इस तरह की योजना बनाने से प्रेम का क्या संबंध है? कुछ भी नहीं। तो फिर तुम लोगों के विचार में क्या यह कथन सही है कि “प्रेम के कारण, परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया और हमेशा उसकी देखभाल और निगरानी की”? मानवजाति को बनाने से पहले परमेश्वर उससे प्रेम कैसे कर सकता था? क्या ऐसा प्रेम खोखला न होता? परमेश्वर द्वारा मानवजाति के सृजन को तुम परमेश्वर के प्रेम के कार्य के रूप में परिभाषित करते हो—क्या यह परमेश्वर पर लांछन लगाना नहीं है? क्या यह ईशनिंदा नहीं है? क्या यह बहुत ही व्यक्तिपरक सोच नहीं है? इस व्यक्तिपरकता की विशेषता क्या है? क्या यह विवेकहीनता नहीं है? (बिल्कुल।) परमेश्वर ने अपनी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के रहस्य और अपने तीन-चरणों वाले कार्य का रहस्य खोला है। तुम्हें लगता है कि तुम थोड़ा-सा समझ गए हो, कि तुम्हें परमेश्वर के बारे में कुछ सतही समझ है, लेकिन यह केवल एक शाब्दिक समझ है। फिर भी तुम चीजों को इस तरह परिभाषित करने की हिम्मत कर दावा करते हो कि परमेश्वर जब कोई कार्य करता है या कोई योजना बनाता है तो यह प्रेम के कारण होता है। क्या यह बहुत बड़ी बेवकूफी और अनुचित बात नहीं है? तो क्या इस कथन में कोई सच्चाई है कि “प्रेम के कारण, परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया”? (नहीं। यह सत्य के अनुरूप नहीं है।) चलो पहले तो हम यह बात एक तरफ रख देते हैं कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं; इसके बजाय, चलो देखते हैं कि क्या यह वास्तविक परिस्थितियों के अनुरूप है या नहीं। क्या तुम लोगों को लगता है कि यह कथन व्यावहारिक है? (यह व्यावहारिक नहीं है।) क्या यह केवल एक ख्याली सोच नहीं है? परमेश्वर द्वारा मानवजाति को बनाए जाने का प्रेम से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए यह कथन कि “प्रेम के कारण, परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया” निराधार है; यह पूरी तरह से मनुष्य की कल्पना की उपज और बकवास है। तुम आँख मूँदकर परमेश्वर को सीमित कर रहे हो, जो उसकी ईशनिंदा और अनादर है, तुम उसका मूल्यांकन मानवीय दृष्टिकोणों, कल्पनाओं और धारणाओं से कर रहे हो, जो एक गंभीर गलती है, अनुचित और शर्मनाक है। इसलिए यह वाक्यांश “प्रेम के कारण, परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया” केवल निरर्थक बात है।

भजन के अगले बोल हैं—“परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया और हमेशा उसकी देखभाल और निगरानी की।” इस भजन का लेखक यह संकेत दे रहा है कि इसके पीछे का कारण भी प्रेम ही है। तो अगर यह कहना गलत है कि परमेश्वर ने मानवजाति को प्रेम के कारण बनाया, तो क्या यह कहना सही होगा कि परमेश्वर ने प्रेम के कारण ही हमेशा मानवजाति की देखभाल और निगरानी की? (नहीं।) ऐसा कहना सही क्यों नहीं है? “हमेशा उसकी देखभाल और निगरानी की,” यह कैसा व्यवहार है? इस व्यवहार का सार क्या है? क्या यह जिम्मेदारी का व्यवहार है? (हाँ।) क्या परमेश्वर एक ऐसे नए सृजित मनुष्य से प्रेम कर सकता है जो कुछ भी नहीं समझता, जो बोल नहीं सकता, जिसमें विवेक नहीं होता और जो सर्प के बहकावे में आ सकता है? और इस बारे में क्या कहेंगे कि प्रेम कैसे किया जाता है, कैसे प्रकट, प्रदर्शित और व्यक्त किया जाता है—क्या इस बारे में कोई खास बारीकियाँ हैं? नहीं हैं। यह जिम्मेदारी है; यहाँ जो सच्ची भावना काम कर रही है वह है परमेश्वर की जिम्मेदारी। चूँकि परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया है, तो उसकी देखभाल, रक्षा, अगुवाई और निगरानी करना उसकी जिम्मेदारी है। यह परमेश्वर की जिम्मेदारी है; ऐसा वह प्रेम के कारण नहीं करता। यदि तुम कहते हो कि इसका कारण परमेश्वर का प्रेम है, तो तुम्हें परमेश्वर के बारे में बहुत बड़ी गलतफहमी है; उसे इस तरह से समझना गलत है। वे दो नवसृजित मनुष्य जानते ही क्या थे? परमेश्वर से मिली श्वास के अलावा उनके पास न कोई समझ थी, न कोई ज्ञान था; उन्हें खासकर परमेश्वर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है या उसका स्वभाव कैसा है और इस बात से अनजान थे कि परमेश्वर के वचनों को कैसे सुनना है और उसके प्रति समर्पण कैसे करना है—वे यह भी नहीं जानते थे कि परमेश्वर से दूर रहना और उससे छिपना गलत है। परमेश्वर ऐसी मानवजाति से कैसे प्रेम कर सकता है जो उसका इस तरह से नकार और प्रतिरोध करती हो? क्या वह उससे प्रेम कर सकता है? असल बात यह है कि परमेश्वर मानवजाति की देखभाल और निगरानी करता है और उसका कोई भी काम उसकी अनेक जिम्मेदारियों में से सिर्फ जिम्मेदारी को दिखाता है। चूँकि परमेश्वर के पास एक योजना है और उसके हृदय में एक इच्छा है, इसलिए उसे उस मानवजाति की निगरानी और सुरक्षा करनी ही चाहिए जिसे उसने बनाया है। अगर तुम हठ पकड़कर और बिना विचारे यह कहते हो कि प्रेम के कारण परमेश्वर मानवजाति की सुरक्षा और देखभाल करता है तो उस प्रेम में वास्तव में कितना सारतत्व होगा? क्या लोग वास्तव में इस योग्य हैं कि परमेश्वर उन्हें इस तरह प्रेम करे? कम-से-कम लोगों के दिलों में परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम होना चाहिए और उन्हें उस पर दिल से भरोसा होना चाहिए, तभी परमेश्वर उनसे प्रेम करेगा। यदि लोग परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, बल्कि उसका विरोध करते हैं, उसके साथ विश्वासघात करते हैं और यहाँ तक कि उसे सूली पर भी चढ़ा देते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के प्रेम के काबिल हैं? लोगों के लिए परमेश्वर के प्रेम का आधार क्या होता है? स्थिति चाहे जो भी हो, लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर उनसे प्रेम करता है; यह उनकी कल्पना है, यह ख्याली पुलाव है।

अगली पँक्ति यह है, “प्रेम के कारण, परमेश्वर ने पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन करने के लिए नियम और आज्ञाएँ जारी कीं। प्रेम के कारण, परमेश्वर ने देहधारण कर मानवजाति को छुटकारा देने के लिए अपना जीवन न्योछावर किया।” इससे सारी बातें काफी विस्तार से स्पष्ट हो जाती हैं। दुनिया के सृजन से लेकर व्यवस्था के युग और फिर अनुग्रह के युग तक, जिसमें परमेश्वर छुटकारे का कार्य करने के लिए देहधारी हुआ, ये दो वाक्य परमेश्वर के कार्य के दो भिन्न चरणों का सारांश पेश करते हैं। दुर्भाग्य से इस भजन को इन पहले तीन शब्दों “प्रेम के कारण” से समझना, इन शब्दों को इस भजन की विशेषता बताने के रूप में इस्तेमाल करना एक भूल है। मानवजाति के सृजन के बाद उसके मार्गदर्शन के लिए नियम जारी करना रहा हो या फिर उसे छुटकारा दिलाना रहा हो, परमेश्वर के सभी कार्य उसकी प्रबंधन योजना, उसकी इच्छाओं और वह जो प्राप्त करना चाहता है उसके कारण किए गए थे; यह सब महज प्रेम के कारण नहीं किया गया। कुछ लोग कहते हैं, “तो तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि परमेश्वर के द्वारा इन कामों को करने के पीछे प्रेम एक कारण नहीं है?” क्या यह बात सही है? (नहीं।) परमेश्वर के पास प्रेम का सार है, परन्तु यह कहना कि परमेश्वर के तीन-चरणों के कार्य के पीछे का सार केवल प्रेम है, तो यह बात सरासर गलत है; यह उसकी बदनामी और ईशनिंदा के बराबर है। तो परमेश्वर के तीन-चरण के कार्य को करने का मुख्य कारण क्या है? इसका कारण है परमेश्वर की प्रबंधन योजना, उसकी इच्छाएँ और परमेश्वर जो हासिल करना चाहता है वो; यही मूल कारण हैं, न कि केवल प्रेम। बेशक, उसके तीन-चरण के कार्य की पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर जो स्वभाव सार प्रकट करता है उसमें प्रेम निहित होता है। “प्रेम” की ठोस अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? ये हैं सहनशीलता और धैर्य, है ना? और दया? और लोगों पर अनुग्रह और आशीष की वर्षा? क्या ये प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं हैं? क्या ये न्याय और ताड़ना नहीं हैं? इनमें ये सब शामिल हैं। काट-छाँट, न्याय और ताड़ना, उजागर और विश्लेषण करना, परीक्षण और शोधन करना, इत्यादि, सभी प्रेम हैं—यह प्रेम निहायत व्यापक है। अगर लोग परमेश्वर के तीन-चरण के कार्य को प्रेम के कारण किए जाने तक सीमित करते हैं, केवल प्रेम पर जोर देते हैं, तो यह बहुत ही एकतरफा बात हो जाती है; यह परमेश्वर को सीमित करना है। जब लोग ये पँक्तियाँ सुनेंगे तो सोचेंगे, “परमेश्वर केवल प्रेम है, और कुछ नहीं।” उनके मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पैदा हो जाएँगी, है ना? (बिल्कुल।) इसलिए, यह भजन वास्तव में लोगों को परमेश्वर के सम्मुख तो लाता नहीं, उलटे उनके मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमी पैदा करता है। अगर लोग हमेशा “प्रेम के कारण, प्रेम के कारण” भजते रहें तो उनकी क्या दशा हो जाएगी? इससे किस तरह की भावनाएँ पैदा होंगी? क्या ये भावनाएँ अंततः परमेश्वर के स्वभाव की समझ पैदा करेंगी या नासमझी? अगर व्यक्ति इस बात को पूरी तरह नहीं समझता, फिर भी ऐसे ही बोलता-भजता रहता है तो यह उसकी ख्याली सोच होगी जो और भी बेतुकी है। जब लोग ख्याली सोच, तर्कहीनता और आत्म-अपमान की दशा में घिर जाते हैं, तो यह परेशानी की बात है। क्या ऐसे लोग सचमुच दिल से परमेश्वर की प्रशंसा कर सकते हैं? यह असंभव है। यह भजन वास्तव में परमेश्वर की प्रशंसा नहीं करता; यह केवल लोगों को भटका सकता है।

आइए हम इसके अगले अंतरे को देखते हैं। अंतरा इस लिहाज से और भी खराब है कि यह इस “प्रशंसा” को चरम सीमा पर ले जाता है। क्या यह पँक्ति “हे परमेश्वर! तेरे कार्य और तेरे वचनों में जो कुछ भी प्रकट होता है वह प्रेम है” सटीक है? (नहीं।) यह किस तरह से गलत है? (यह परमेश्वर के वचनों और कार्यों को निर्धारित करती है।) यह उन्हें किस तरह निर्धारित करती है? (यह केवल प्रेम के कारण किया जा रहा है।) परमेश्वर के कथन और वचन मिलकर उसके स्वभाव को प्रकट करते हैं, जो धार्मिकता और पवित्रता का स्वभाव है। प्रेम तो भावना के एक पहलू से अधिक कुछ भी नहीं है—एक प्रकार की अनुभूति है—यह परमेश्वर का सच्चा सार नहीं है। क्या प्रेम को परमेश्वर के सार के रूप में चित्रित करना सही है? वह परमेश्वर को किस रूप में दर्शाता है? यह उसे एक परोपकारी के रूप में दर्शाता है जिसका आसानी से लाभ उठाया जा सकता है और जिसे प्रभावित करना आसान है। तो आखिरकार परमेश्वर का सार क्या है? (धार्मिकता, पवित्रता, दया, करुणा, कोप—एक अधिक समग्र सारांश।) धार्मिकता, पवित्रता, दया, करुणा, साथ ही प्रताप और क्रोध—ये सब परमेश्वर स्वयं है और ये परमेश्वर के सार की निशानियाँ हैं। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के सार के एक विशेष पहलू का एकतरफा वर्णन करता है, तो यह अनुग्रह के युग के लोगों की एकतरफा समझ को दर्शाता है, क्योंकि परमेश्वर के कार्य के बारे में उनका अनुभव सीमित और एकतरफा है, ठीक वैसा ही उनका ज्ञान भी है। इसलिए परमेश्वर के सार को लेकर उनकी समझ अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य पर आधारित होती है, इससे उनके चरित्र चित्रण का आधार एकतरफा हो जाता है। परमेश्वर के कार्य के एक अंश के आधार पर परमेश्वर के सार का चित्रण बहुत ही एकपक्षीय बात है, यह तथ्यों के अनुरूप नहीं है और यह परमेश्वर के सार से बहुत अलग बात है।

चलो हम दूसरी पँक्ति को देखते हैं। “हे परमेश्वर! तुम्हारा प्रेम केवल प्रेममय दयालुता और दया नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय भी है।” यह भी केवल एक सिद्धांत है; यह कथन तो सही है, लेकिन यह एक सिद्धांत है, इसलिए इसमें हाँ से हाँ मिलाने से कोई मकसद हल नहीं होता। क्या कोई है जो नहीं जानता कि यह पँक्ति क्या बताती है? परमेश्वर ने बहुत से कार्य किए हैं और अधिकतर लोगों ने इसका अनुभव किया है और वे इस बारे में जानते हैं, इसलिए यह बकवास और खोखली बात है और इससे लोगों को कोई खास शिक्षा नहीं मिलती। अगला अंतरा है : “हे परमेश्वर! तेरा न्याय और तेरी ताड़ना सबसे सच्चा प्रेम और सबसे बड़ा उद्धार है।” “सबसे बड़े उद्धार” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि न्याय और ताड़ना साधारण उद्धार नहीं, बल्कि सबसे बड़े उद्धार हैं। यदि परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य नहीं करता, तो क्या मानवता को छुटकारा दिलाना उसका सबसे बड़ा उद्धार नहीं होता? क्या उसका नियमों को जारी करना सबसे बड़ा उद्धार नहीं होगा? तुमने परमेश्वर के तीन-चरणों के कार्य को श्रेणियों में बाँट दिया है, मानो नियम जारी करना पहले दरजे का उद्धार हो, सूली पर चढ़ाए जाना दूसरे दरजे का उद्धार हो, न्याय और ताड़ना सबसे बड़े उद्धार हों। क्या यह बकवास नहीं है? क्या ऐसा कुछ कहना उचित है? क्या यह सही है? यदि तुम किसी धर्मावलंबी को ये खोखले शब्द सुनाओ तो उसे इनमें कोई समस्या नहीं दिखेगी। वह समझते नहीं हैं; उसने तुम्हारी कही हुई ये बातें कहीं नहीं सुनी होंगी, उसे इनके बारे में पता नहीं होगा—उसे यह सब नया, मौलिक और काफी अच्छा लगेगा। लेकिन अगर तुम सत्य को समझने वाले किसी व्यक्ति को यही शब्द सुनाओगे तो वह तुरंत समझ जाएगा कि ये खोखले शब्द और सारांशित सिद्धांत हैं जिसमें कोई सारगर्भित या अनुभवजन्य समझ नहीं है। अगले बोल हैं : “हम तेरे पवित्र और धार्मिक प्रेम की गवाही देंगे।” यहाँ परमेश्वर के प्रेम को पवित्र और धार्मिक प्रेम बताया गया है। भजनलेखक यह नहीं बताता कि परमेश्वर का सार पवित्र और धार्मिक है, बल्कि परमेश्वर का प्रेम पवित्र और धार्मिक है, जो यह हिमायत करता है कि परमेश्वर को मनुष्य से प्रेम करना चाहिए। उसका आशय यह है : परमेश्वर को न्याय और ताड़ना व्यक्त नहीं करनी चाहिए और उसे अपना कोप और प्रताप नहीं दिखाना चाहिए; सिर्फ प्रेम प्रकट करना चाहिए और वह प्रेम पवित्र और धार्मिक है। इसके तुरंत बाद लिखा है, “तू हमारी अनन्त प्रशंसा के योग्य है।” भजनलेखक परमेश्वर की प्रशंसा क्यों करता है? वह परमेश्वर की प्रशंसा केवल इसलिए करता है कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है। क्या इन बोलों में कोई बहुत बड़ी समस्या है? (बिल्कुल है।) हम क्यों कहते हैं कि इनमें बहुत बड़ी समस्या है? (क्योंकि यहाँ चीजों को मनुष्य के विचारों और कल्पनाओं के आधार पर देखा जा रहा है, परमेश्वर की समझ का अभाव है और उसकी सीमाओं को निर्धारित करने का प्रयास किया जा रहा है।) यह परमेश्वर को सीमित करना है। सत्य की समझ की कमी और परमेश्वर के बारे में वास्तविक ज्ञान न होने के बावजूद परमेश्वर का निरूपण करने के कारण तुम्हारा निरूपण परमेश्वर के वचनों से मेल नहीं खाता और सत्य से कोसों दूर है और कुछ हद तक लोगों को गुमराह भी करता है। यह परमेश्वर पर न्याय पारित करने के बराबर है। लोग इस भजन का पहला पद गाकर क्या हासिल कर सकते हैं? (उनके मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पैदा होंगी।) कौन-सी धारणाएँ? (उन्हें लगेगा कि परमेश्वर प्रेम है और परमेश्वर केवल प्रेम प्रकट करता है और कुछ नहीं।) ऐसा लगने में क्या गलत है? परमेश्वर के प्रेम की छत्र-छाया में रहने में क्या गलत है, जिसमें परमेश्वर का प्रेम हमेशा लोगों पर बरसता रहे? परमेश्वर के प्रेम और देखभाल का भरपूर आनंद लेने में क्या गलत है? (इस तरह से परमेश्वर को समझना बहुत ही अपूर्ण सोच है, क्योंकि परमेश्वर के स्वभाव में प्रेम के अलावा भी बहुत कुछ है।) क्या यह सिर्फ अपूर्ण है? सटीक रूप से कहें तो मनुष्य के लिए केवल परमेश्वर के प्रेम को समझना अपर्याप्त है; यह एक खोखली, एकांगी, किताबी और जज्बाती किस्म की भावना है। जरा सोचो : अगर लोग यह मानें कि परमेश्वर पर विश्वास करना और उसे जानना ही काफी है तो क्या परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरने पर उनके लिए सच्चा समर्पण कर पाना आसान होगा? (नहीं।) लेकिन उनके पास तो परमेश्वर के प्रेम का आधार है—तो उनके लिए समर्पण करना आसान क्यों नहीं होगा? क्या इस तरह से परमेश्वर के प्रेम की गवाही देने से लोग न्याय और ताड़ना स्वीकार करने के प्रति प्रभावित होंगे? (नहीं।) तो तुम्हीं बताओ कि इसमें वास्तविक स्थिति और व्यावहारिक चुनौतियां क्या हैं? (लोग हमेशा यही सोचते हैं कि परमेश्वर केवल प्रेम है, इसलिए वे हर दिन परमेश्वर का अनुग्रह पाना चाहते हैं। जब लोग परमेश्वर से न्याय और ताड़ना मिलने के कारण शारीरिक कष्ट उठाते हैं, तो वे सोचते हैं कि परमेश्वर उनसे प्रेम नहीं करता, इससे उनके लिए परमेश्वर से न्याय और ताड़ना स्वीकारना और इनके प्रति समर्पण करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।) बताते रहो; क्या कोई और बात भी है? (लोग यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर केवल प्रेम है, इसलिए जब वे परमेश्वर से विद्रोह और विश्वासघात करते हैं, तब भी वे तय कर लेते हैं कि परमेश्वर उनसे प्रेम करेगा और उन्हें दया और क्षमा प्रदान करेगा। नतीजतन, वे पश्चात्ताप नहीं करेंगे।) यदि लोग हमेशा इस काल्पनिक सोच के साथ जीते रहेंगे कि परमेश्वर उनसे खास प्रेम करता है और उन पर उपकार करता है तो क्या वे यह तथ्य स्वीकार करेंगे कि उनका भ्रष्ट स्वभाव है? क्या वे मनुष्य की उन विभिन्न दशाओं और भ्रष्टताओं को स्वीकार कर पाएँगे जो परमेश्वर के वचनों में उजागर हुई हैं? (नहीं।) उनके लिए ऐसी दशा से निकलकर समर्पण की दशा में जाना, परमेश्वर से न्याय और ताड़ना स्वीकारना मुश्किल हो जाता है; वे स्वयं को अनुग्रह के युग तक ही सीमित रखते हैं, यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर हमेशा उनकी पापबलि बना रहेगा और यह पापबलि उसके अंतहीन और असीम प्रेम का ही रूप है। यदि वे परमेश्वर के प्रेम को इस रूप में समझते हैं तो इसका क्या परिणाम होगा? यह धर्मावलंबी लोगों जैसी बात होगी : वे पाप करते हुए परवाह नहीं करते; वे बस रात में प्रार्थना करते हैं और अपने पाप कबूल कर छुट्टी कर लेते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें हमेशा क्षमा करता रहेगा और दया, करुणा और अनुग्रह दिखाने में लगा रहेगा। इससे उनके लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव की सत्यता स्वीकारना, परमेश्वर से न्याय और ताड़ना स्वीकारना और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण कर उस मुकाम पर पहुँचना मुश्किल हो जाता है जहाँ वे उससे उद्धार पा सकते हैं। इस स्थिति में रहने से लोगों के लिए क्या दुष्परिणाम निकलेंगे? जब परमेश्वर नया कार्य करने के लिए फिर से आएगा तो क्या वे उसका प्रतिरोध कर उसे ठुकराएँगे? (बिल्कुल।) तो क्या वे परमेश्वर की वापसी का स्वागत कर पाएँगे? धार्मिक जगत परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य क्यों नहीं स्वीकार पाता? क्या इसका कारण परमेश्वर की भ्रामक समझ नहीं है? यह सबसे भयावह दुष्परिणाम है! यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानेंगे, तो उनके लिए उसके प्रति समर्पण करना बहुत मुश्किल होगा—इस बात से क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध कर उससे विद्रोह करना और परमेश्वर के अनुरूप न होना उनकी मूल प्रवृत्ति है। लोग हर मोड़ पर परमेश्वर के इरादों और सत्य के खिलाफ जाने में सक्षम हैं। सत्य को नापसंद करना लोगों की प्रकृति और मूल प्रवृत्ति है; परमेश्वर का प्रतिरोध कर उससे विद्रोह करना उनकी मूल प्रवृत्ति है। क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम कर सकता है? (नहीं, वह नहीं कर सकता।) चाहे परमेश्वर उससे प्रेम करे या चाहे वह परमेश्वर के प्रेम के काबिल हो, परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम नहीं दिखा सकता। क्या यह सच नहीं है?

जब से परमेश्वर ने न्याय का कार्य करना और मानवजाति की भ्रष्टता के सार को उजागर करना शुरू किया है, तब से अब तक वह सत्य व्यक्त करता आ रहा है; उसने मानवजाति को बचाने के लिए बहुत से वचन कहे हैं और न्याय के कई कठोर वचन भी सुनाए हैं। क्या तुम लोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे रवैये को समझ सकते हो? तो क्या अंततः परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है या नफरत? कुछ लोग कहते हैं, “यह देखते हुए कि परमेश्वर ने आदम और हव्वा को चमड़े से बने हुए कपड़े दिए थे, मैंने यह जाना और सीखा कि परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है और मानवजाति के प्रति उसका रवैया प्रेम का है और उसमें नफरत नहीं है।” क्या चीजों को समझने का यह तरीका सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) इसमें क्या गलत है? यह मानवजाति के प्रति परमेश्वर के विभिन्न कर्तव्यों, दायित्वों और उत्तरदायित्वों को इस रूप में लेता है मानो वे इसलिए निभाए गए हों कि परमेश्वर मनुष्य को प्रेम करता है, मनुष्य प्यारा हो, प्यार का हकदार हो और परमेश्वर के प्रेम के काबिल हो। क्या यह चीजों को समझने का एक भ्रामक रवैया नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका कारण दायित्व और उत्तरदायित्व की भावना होती है तो उसका सार भी होता है। सबसे पहले तो इसका कारण उसकी योजना है और फिर इसका कारण उसका उत्तरदायित्व है। निस्संदेह, इस उत्तरदायित्व को निभाते हुए परमेश्वर अपना स्वभाव भी प्रकट करता है तो अपना सार भी। तो, उसका स्वभाव सार क्या है? यह धार्मिकता, पवित्रता, प्रताप है और यह अपमान न किए जा सकने लायक है। ऐसे स्वभाव और सार को देखते हुए और शैतान के जरिए बुरी तरह भ्रष्ट हो चुकी मानवजाति को देखते हुए मानवजाति के प्रति परमेश्वर का सबसे सही रवैया और दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? क्या ये ऐसे गहरे प्रेम वाले होने चाहिए कि वह उनसे दूर न जा सके? (यह एक जिम्मेदारी की तरह ज्यादा होना चाहिए।) उसका कार्य उसकी जिम्मेदारी है। वह मानवजाति से इतना प्रेम नहीं करता कि वह उसे सिर चढ़ाकर उससे अलग होना सह ही न सके; वह न तो उसके प्रेम में हद से गुजरता है, न ही वह उसे आँख का तारा मानकर सँजोता है—ऐसी मानवजाति के प्रति परमेश्वर का असली रवैया अत्यंत नफरत से भरा है। तो मैं क्यों कहता हूँ कि यह भजन बेहद घृणास्पद है? क्योंकि यह लोगों की ख्याली सोच को व्यक्त करता है। परमेश्वर के पास प्रेम है, लिहाजा लोग समझते हैं कि वह यह सब इसलिए करता है कि मनुष्य प्यारा है और प्रेम के काबिल है। तुम गलत हो और बहुत ही असंयमित ढंग से भावुक हो! परमेश्वर अपनी योजना और जिम्मेदारी की भावना के कारण ये सभी कार्य करता है और यह सब करते हुए परमेश्वर जो स्वभाव सार प्रकट करता है वे सब धार्मिकता और पवित्रता हैं। परमेश्वर चाहे जो भी प्रकट करता है, उसके सार में निस्संदेह प्रेम है और परमेश्वर मानवजाति के साथ जो कुछ भी करता है उसका कारण सिर्फ यह है कि उसके सार में प्रेम है। लेकिन परमेश्वर अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के अनुसार लोगों से प्रेम नहीं करता है; वह भ्रष्ट मानवजाति से प्रेम नहीं करता, वह उससे नफरत करता है। परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य क्यों करता है? भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करने में परमेश्वर का यह रवैया क्यों है? यह परमेश्वर के सार और स्वभाव से निर्धारित होता है और साथ ही इससे एक व्यावहारिक समस्या भी दिख सकती है : मनुष्य शैतान के नियंत्रण में रहते हैं और वे सब शैतान के अनुगामी और आराधक हैं; वे सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी आराधना नहीं करते, वे उसके शत्रु हैं। क्या परमेश्वर अपने शत्रुओं से प्रेम कर सकता है? (नहीं।) परमेश्वर प्रेम प्रकट करता है और परमेश्वर में प्रेम का सार है, लेकिन वह केवल प्रेम के कारण यह सब नहीं करता है। यदि तुम्हें लगता है कि परमेश्वर यह सब प्रेम के कारण करता है, तो बता दूँ कि यह बिलकुल ही गलत और बेहूदा सोच है। यदि तुम ऐसा सोचते हो, तो यह परमेश्वर पर लांछन लगाना है। खुद पर ज्यादा मत इतराओ, ज्यादा भावुक मत बनो! कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने यह सब प्रेम के कारण नहीं किया है, तो क्या इस अर्थ में परमेश्वर के सार में प्रेम नहीं है?” क्या यह सही है? (नहीं।) यह बात कैसे गलत है? (परमेश्वर के स्वभाव में करुणा और दया है।) परमेश्वर के पास प्रेम है, पर वह बिना सोचे-समझे प्रेम नहीं करता। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, यह असंभव है कि वह शैतान के हाथों बुरी तरह भ्रष्ट हो चुकी मानवजाति से प्रेम करे—वास्तव में परमेश्वर इस मानवजाति से घिनाता और नफरत करता है। कुछ लोग पूछते हैं, “यदि परमेश्वर ऐसे लोगों से घिनाता और नफरत करता है, तो फिर भी वह उन पर यह सारा कार्य क्यों करता है?” परमेश्वर के पास एक प्रबंधन योजना है और वह इस जिम्मेदारी को उठाकर उसे पूरा करने के लिए तैयार है, इसलिए वह इस कार्य को करेगा—यह परमेश्वर का अधिकार है और मनुष्य इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। परमेश्वर के पास यह सामर्थ्य है और इस प्रबंधन योजना को पूरा करने का अधिकार भी है, अंततः इसकी लाभार्थी मानवजाति है, अर्थात तुम सब लोग हो। इतना ही बहुत है कि मनुष्य ऐसे लाभ उठाएगा और इतना बड़ा आशीष प्राप्त करेगा; अब परमेश्वर से यह मांग मत करो : “चूंकि तुम्हारे दिल में प्रेम है, इसलिए तुम्हें हमसे प्रेम करना ही होगा।” तुमसे प्रेम करना चाहिए मगर क्यों? क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है? यह तो कोई कारण नहीं हुआ, है ना? क्या तुम्हारी मनोहरता के कारण? तुममें इतनी भी क्या सुंदरता है? क्योंकि तुम परमेश्वर से विश्वासघात करते हो? क्योंकि तुम परमेश्वर से विद्रोह करते हो? क्योंकि तुम्हारे अंदर शैतान का भ्रष्ट स्वभाव कूट-कूट कर भरा है? क्योंकि तुम परमेश्वर का विरोध करते हो? क्योंकि तुम हर मोड़ पर परमेश्वर से टक्कर लेते हो? क्या इस सबके बावजूद परमेश्वर तुमसे प्रेम कर सकता है? क्या वह उन लोगों से प्रेम कर सकता है जो उसका प्रतिरोध करते हैं? क्या वह दुष्टात्माओं और शैतान से प्रेम कर सकता है? यदि तुम यह कहते हो कि परमेश्वर उन लोगों से प्रेम कर सकता है जो उसका प्रतिरोध करते हैं और वह दुष्टात्माओं और शैतान से भी प्रेम कर सकता है, तो क्या यह परमेश्वर की निंदा करना नहीं है? तुम लोगों के विचार में, क्या परमेश्वर दुष्टात्माओं और शैतान से प्रेम कर सकता है? क्या परमेश्वर अपने शत्रुओं से प्रेम कर सकता है? क्या परमेश्वर ऐसे अंधाधुंध ढंग से प्रेम कर सकता है जिस प्रकार भ्रष्ट मानवजाति करती है? नहीं, वह ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकता। परमेश्वर का प्रेम सिद्धांतों पर आधारित होता है। इसलिए, मनुष्य की कल्पना वाला यह प्रेम हकीकत नहीं है, यह शुद्ध रूप से ख्याली और अति-भावुक सोच है; यह मनुष्य की धारणाओं में से एक है और यह सत्य से मेल नहीं खाती है, इसलिए मुझे इसे यहीं स्पष्ट कर देना चाहिए। परमेश्वर तुमसे प्रेम क्यों नहीं करता? (क्योंकि मनुष्य का स्वभाव पूरी तरह भ्रष्ट है और वह परमेश्वर के प्रेम के योग्य नहीं है।) “परमेश्वर के प्रेम के योग्य नहीं है” एक घिसी-पिटी उक्ति बन चुकी है। क्या परमेश्वर को तुमसे केवल इसलिए प्रेम करना चाहिए क्योंकि उसने तुम्हें बनाया है? ऐसा तो हो ही नहीं सकता, है ना? परमेश्वर ने सभी चीजों और समूचे ब्रह्मांड को बनाया; तो क्या अब उसे हर एक-एक चीज से जरूर प्रेम करना चाहिए? परमेश्वर प्रेम करने के लिए तुम्हें चुन भी सकता है और नहीं भी चुन सकता; यह परमेश्वर का अधिकार है—यह एक तथ्य है। एक और तथ्य यह है कि यदि तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करे—यदि तुम परमेश्वर का प्रेम पाना चाहते हो—तो तुम्हें कुछ ऐसा करना होगा जो उसके प्रेम के लायक हो। क्या तुमने कुछ ऐसा किया है जो उसके प्रेम के लायक हो? क्या तुममें ऐसा व्यवहार, मानवता या स्वभाव है जो परमेश्वर को प्रसन्न करे? (नहीं।) शायद परमेश्वर में विश्वास करने के पहले कुछ वर्षों में तो नहीं, लेकिन बाद के वर्षों में कुछ लोगों में इनमें से कुछ व्यवहार दिखने लगते हैं : अपने कर्तव्य और कार्य कम-से-कम अनमनेपन के साथ करना, सिद्धांत खोज पाना, अनुपालन और समर्पण सीखना और मनमाने ढंग से कार्य न करना; किसी चीज का सामना होने पर अपनी कल्पनाओं और धारणाओं का सहारा न लेना, परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसे खोजने में सक्षम होना, अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करना और उनके साथ अक्सर संगति करना, अधिक विनम्र होना और दृढ़ मानसिकता रखना; परमेश्वर के प्रति तब भी थोड़ी-सी ईमानदारी और थोड़ी-सी सच्ची आस्था रखना, भले ही उन्हें परमेश्वर के घर और परमेश्वर के आदेश से सौंपे गए कार्य के प्रति निष्ठावान न माना जाए; सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित कर पाना और अपने स्वभाव में बदलावों के प्रति सजग होना, अपनी ही भ्रष्टता को जानने में पहल कर पाना, अपने ही अहंकार और कपट को जानना, परमेश्वर से बार-बार प्रार्थना करना, उससे परिवेश के आयोजन की विनती करना, परमेश्वर के अनुशासन को स्वीकार करना और अपने अंदर और अधिक अच्छी चीजें समाहित करना। परमेश्वर की नजरों में ये व्यवहार अनमोल हैं। लेकिन जब यह बात आए कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करे या न करे तो क्या उन्हें जिद करनी चाहिए? (उन्हें जिद नहीं करनी चाहिए।) यदि लोगों के व्यवहार में ये सकारात्मक अनुसरण, ये सुधार, ये परिवर्तन नजर आएं, तो फिर मानवीय दृष्टिकोण से उनमें थोड़ी-सी मनोहरता और समर्पण की थोड़ी-सी अभिव्यक्ति होती है। लेकिन ये व्यवहार होना महज तुम लोगों में दिखती आशा है। आशा यही है कि परमेश्वर के कार्यों और अगुआई से लोग सकारात्मक, सक्रिय और सहयोगी मन वाले बनेंगे और साथ ही उनके ये व्यवहार और खुलासे शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही देंगे। इस दृष्टिकोण से यानी जब मैं इसे मनुष्य के दृष्टिकोण से देखता हूँ, तो लोगों में बहुत कम मनोहरता होती है—लेकिन परमेश्वर के आत्मा के दृष्टिकोण से देखा जाए तो क्या परमेश्वर अंततः तुम लोगों से प्रेम करता है या नहीं? क्या तुम लोगों के पास कुछ प्यारे पहलू हैं या नहीं? अगर तुम मुझसे पूछो, तो तुम अभी भी बहुत पीछे हो। क्योंकि लोगों को अपनी काबिलियत, प्रतिभा और जीने की परिस्थितियों के आधार पर बेहतर करने में सक्षम होना चाहिए। असल में जो तुम लोगों ने अभी अनुभव किया है, हासिल किया है, पहचाना है और साथ ही जो बदलाव हासिल किए हैं, उन्हें तुम लोग अपना पूरा जोर लगाने पर पाँच साल में पा सकते हो लेकिन तुम लोगों को इन नतीजों को प्राप्त करने में पूरे दस साल लग गए हैं। क्या यह बहुत लंबा समय नहीं है? तुम लोगों के दिमाग थोड़े सुन्न पड़े हैं, तुम्हारी प्रतिक्रियाएँ मंद हैं, तुम्हारे कार्यकलाप सुस्त हैं; कई अवसरों पर तो जब फौरन तुम्हारी काट-छाँट की गई, तुम्हें अनुशासित किया गया और ऊपरवाले ने तुम्हारी निगरानी की, तभी तुम लोगों ने कुछ हासिल किया। ये उपलब्धियाँ कड़ी मेहनत से हासिल की गई हैं, लोगों ने इनके लिए एक निश्चित कीमत चुकाई है और जो कुछ भी हासिल हुआ उसके नतीजे देखकर लोगों के आचार-व्यवहार और अभिव्यक्तियों के कुछ पहलू कुछ सुकून दे सकते हैं। लेकिन ये अभी भी परमेश्वर के बताए मनोहरता के मापदंड से दूर हैं। क्या तुम सब लोगों को यह लगता है कि तुम अब पहले से कहीं ज्यादा प्यारे हो? (नहीं।) नहीं, अभी तक तो नहीं। थोड़े-से आत्मपरीक्षण से तुम अपने बारे में प्रकट होने वाली चीजों को जान लोगे और कहोगे : “अरे! मेरे भीतर तो अभी भी इतनी ज्यादा अशुद्धता है, जैसे ही मैं किसी बारे में सोचता हूँ तो मेरे दिमाग में कपटी योजनाएं आने लगती हैं और फिर मैं अनमने ढंग से अपने काम करता हूँ। ऐसे भ्रम में पड़ते ही मेरे सामने फिर से समस्याएं खड़ी हो जाती हैं और उन पर विचार करने के बाद मेरे दिमाग में फिर से वही कपटी योजनाएं आ जाती हैं और मैं फिर से अपना पल्ला झाड़कर दोबारा चापलूस बन जाता हूँ।” तुमने देखा कि दिन भर थोड़े-से हल्के-फुल्के आत्मपरीक्षण से तुमने काफी भ्रष्टता प्रकट की—तो फिर तुम्हारे अंदर ऐसा भी सुंदर क्या है? तुम परमेश्वर से कहते हो कि वह तुमसे प्रेम करे, फिर भी खुद को हेय समझते हो; तुम्हें लगता है कि तुम निपट बेकार हो और तुममें कुछ भी प्रशंसा या दूसरों के प्रेम के योग्य नहीं है। यदि लोग तुमसे प्रेम नहीं कर सकते, तो फिर यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि परमेश्वर तुमसे प्रेम करे? क्या यह संभव होगा? (नहीं।) अब जबकि हम इन तथ्यों को काफी स्पष्ट कर चुके हैं तो क्या इस भजन को मिटा नहीं देना चाहिए? इसे मिटा देना चाहिए। यह भजन धारणाओं, कल्पनाओं और धर्म से आए शब्दों से भरा है; तो क्या इस भजन को गाकर तुम दूसरों का कोई भला करते हो? क्या इसे गाने और सुनने से तुम्हें आनंद आता है? इस भजन को गाने से सत्य की कोई समझ तो मिलती नहीं, यह लोगों को गुमराह भी करता है; यह उन्हें धारणाओं से मुक्त करने में तो नाकाम रहता ही है, यह उन धारणाओं को और भी गहरा और मजबूत बना देता है। क्या इससे लोगों को नुकसान नहीं पहुँचता? यह भजन गाकर तुम लोगों के लिए सत्य को समझना ही और कठिन नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के विषय में अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जीना भी और आसान हो जाता है; ऐसा भजन कभी किसी का भला नहीं करता। इसलिए जब भी मैं तुम सब लोगों को यह भजन गाते सुनता हूँ तो मेरा दिल रोष से भर जाता है—तुम लोगों ने व्यर्थ ही इतने साल उपदेश सुने, व्यर्थ ही परमेश्वर के इतने वचन पढ़े; अब भी तुम लोगों के पास परमेश्वर के स्वभाव का सच्चा ज्ञान नहीं है, मैं सच में तुम लोगों को कुछ चाँटे मारना चाहता हूँ। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं से भरे भजन आखिर कौन लिखता है? और फिर भी तुम लोग इतनी दीवानगी के साथ इन्हें गाते हो। क्या तुम लोगों में थोड़ी-सी भी समझ नहीं है? तुम लोगों ने मुझे बहुत निराश किया है। तुम लोग अब तक किसी सत्य वास्तविकता को पाए बिना विश्वास करते आए हो; तुम तो अभी विभिन्न धारणाओं, कल्पनाओं या बेतुकी बातों में भी अंतर नहीं कर सकते और फिर भी तुम इन सबको एक सुर में गाते हो। तुम्हारी आस्था वास्तव में भ्रमित आस्था है! इससे ज्यादा और क्या कह सकता हूँ!

“प्रेम के कारण” भजन के दूसरे पद पर नजर डालें। “प्रेम के कारण, परमेश्वर अंत के दिनों में देह में लौटकर बड़े लाल अजगर के देश में आया।” परमेश्वर का प्रेम कितना महान होना चाहिए? क्या यह सोचना सही है कि प्रेम के कारण तुमने परमेश्वर को अपमान सहने और देहधारण कर बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में आने को मजबूर किया जहाँ लोगों से प्रेम करने और उन्हें बचाने के लिए उसने बेहद अपमान का सामना किया? क्या परमेश्वर यह सब केवल प्रेम के कारण करता है? तुम केवल अच्छी चीजों के बारे में सोच रहे हो—परमेश्वर यह अपनी प्रबंधन योजना की वजह से करता है। परमेश्वर के स्वभाव में एक सार है जिसे इस कथन में समेटा गया है, “परमेश्वर जो कहता है उसके मायने हैं, वह जो कहता है उसे पूरा करेगा, और जो वह करता है वह हमेशा के लिए बना रहेगा।” यह परमेश्वर के अधिकार का प्रकाशन है; इसके पीछे की वजह प्रेम कैसे हो सकती है? मुझे बताओ, क्या ये भ्रष्ट लोग इस लायक हैं कि परमेश्वर इनके लिए बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में आकर भारी अपमान का सामना करे? (नहीं।) वे इस लायक नहीं हैं, वे कीड़े-मकौड़ों से भी गये-गुजरे हैं, वे अयोग्य हैं। क्या तुम यही चाहते हो कि परमेश्वर देहधारण कर इस भ्रष्ट मानवजाति को अपना प्रेम प्रदान करना जारी रखते हुए अपमान और शैतान का उत्पीड़न सहता रहे? क्या तुम यही चाहते हो? यह हास्यास्पद विचार है। दरअसल यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना है। चाहे परमेश्वर देहधारण कर बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में आए या किसी दूसरे किस्म का कार्य करे, यह उसके कार्य का एक चरण है; अब जबकि यह चरण इस मुकाम पर पहुँच चुका है, परमेश्वर को इसी तरह कार्य करना होगा। तो परमेश्वर यह कार्य करता ही क्यों है? वह यह सब अपनी प्रबंधन योजना के लिए करता है और उसकी प्रबंधन योजना में उसका उद्धार इस भ्रष्ट मानवजाति को प्राप्त होता है। यह भ्रष्ट मानवजाति चाहे किसी भी देश या जाति से हो, वह हर दृष्टिकोण से परमेश्वर की प्रबंधन योजना में बस एक कार्य वस्तु है, एक विषमता है। क्या यह विषमता परमेश्वर का संपूर्ण प्रेम पाने के काबिल है? नहीं, यह नहीं है। यह कहना गलत है, इसका इस तरह से चित्रण नहीं करना चाहिए। चूँकि परमेश्वर के पास एक प्रबंधन योजना है और चूंकि वह अपने प्रबंधन कार्य में इसे पूरा करेगा, एक मनुष्य के रूप में तुममें इस तथ्य को समझने की पात्रता है, जो एक महान आशीष है। और फिर भी तुम बेशर्मी से कहते हो, “परमेश्वर यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसे हमसे प्रेम है।” यह एक बहुत बड़ी भूल है, यह गलत और कोरी बकवास है।

जरा अगली पँक्ति पर नजर डालो। “प्रेम के कारण, परमेश्वर ठोकर और निंदा सहता है और बड़े उत्पीड़न और पीड़ा झेलता है।” क्या यह बात सही है? परमेश्वर ठोकर और निंदा सहता है और बड़े उत्पीड़न और पीड़ा झेलता है। चाहे परमेश्वर कुछ भी सहता हो, उसके दिल में अपनी प्रबंधन योजना को पूरा करने का ही विचार, इच्छा और लक्ष्य रहता है। परमेश्वर का लक्ष्य काफी बड़ा है, लेकिन वह यह सब मानवजाति के प्रति लगन या प्रेम के नजराने के तौर पर नहीं करता, न ही उस मानवजाति पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए करता है जो भ्रष्ट है, उससे बैर रखती है और उसे अपना शत्रु मानती है—इनमें से कोई भी कारण नहीं है। कुछ लोगों का कहना है, “चूँकि परमेश्वर यह सब कार्य मानवजाति के प्रति अपने प्रेम के कारण नहीं करता है, और वो जो भी अस्वीकृति, निंदा और पीड़ा सहता है अपनी प्रबंधन योजना की खातिर सहता है, तो फिर परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के लायक नहीं है।” क्या यह सही है? (नहीं।) यह कैसे गलत है? मुझे बताओ कि तुम लोग क्या सोचते हो। (परमेश्वर यह सब कार्य अपनी प्रबंधन योजना की खातिर करता है, लेकिन इस प्रक्रिया में लोग बहुत लाभ भी उठाते हैं, वे कुछ सत्य समझ लेते हैं और अपने में कुछ बदलाव ले आते हैं।) क्या बस यही बात है? मुझे बताओ, परमेश्वर अपनी प्रबंधन योजना की खातिर अस्वीकृति, निंदा, भारी उत्पीड़न और पीड़ा सहता है, क्या यह सकारात्मक बात है या नकारात्मक? (यह सकारात्मक बात है।) परमेश्वर अपनी प्रबंधन योजना की खातिर अस्वीकृति, निंदा और भारी अपमान सहता है; यह सकारात्मक बात है। क्या तुम लोग जानते हो कि यह सकारात्मक बात क्यों है? परमेश्वर की प्रबंधन योजना की विषय-वस्तु क्या है? (शैतान को हराना और लोगों को शैतान के चंगुल से बाहर निकालना।) शैतान को कैसे हराया जाना है? इससे जुड़ी खास विषय-वस्तु क्या है? खास कार्य परियोजना क्या है? यही कि मानवजाति को बचाना है। यह अस्पष्ट बात नहीं है, है ना? शैतान को हराना इसका एक पहलू है; परमेश्वर की प्रबंधन योजना की खास विषय-वस्तु यानी परमेश्वर के कार्य की खास परियोजना मानवजाति को बचाना है। मानवीय दृष्टिकोण से मानवजाति को बचाना एक उचित उद्देश्य है या अनुचित? (यह उचित उद्देश्य है।) यह एक उचित उद्देश्य है। क्या मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर का अस्वीकृति, निंदा और तमाम पीड़ा और अपमान सहना गलत है? (नहीं।) क्या यह सकारात्मक बात नहीं है? क्या इसमें स्वार्थ है? (इसमें स्वार्थ नहीं है।) तो फिर तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से क्यों नहीं समझा पाते? तुम लोग ऐसे स्पष्ट और साफ मामलों को भी नहीं समझा सकते; इसके बजाय तुम बिना सोचे-समझे उनकी व्याख्या करते हो और मनमाने ढंग से उन पर फैसले नहीं सुना सकते—क्या यह अज्ञानता और मूर्खता की पराकाष्ठा नहीं है? परमेश्वर की प्रबंधन योजना का कार्य एक भव्य परियोजना है और मानवजाति को बचाना इस खास परियोजना के ब्योरे में शामिल है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए, अपनी योजना पूरी करने के लिए मानवजाति को बचाता है; परमेश्वर यह सब अपने लिए करता है, न कि मानवजाति के लिए। क्या यह स्वार्थ नहीं है?” क्या यह स्वार्थ है? (नहीं।) यह स्वार्थ क्यों नहीं है? परमेश्वर ने जो बीड़ा उठाया है वह सकारात्मक और सार्थक है। यह पूरी मानवजाति के जीवित रहने, उसकी मंजिल, उसके परिणाम और अगले युग में अस्तित्व की स्थिति के लिए अत्यंत मूल्यवान और सार्थक है। इन बिंदुओं की रोशनी में क्या परमेश्वर का अपनी प्रबंधन योजना को पूरा करने के लिए सब कुछ सहना और न्योछावर करना स्वार्थ है? (नहीं।) परमेश्वर की प्रबंधन योजना का उद्देश्य मानवजाति को बचाना है, उसके इरादे नेक और सुंदर हैं और सच्चा प्रेम हैं; इसलिए परमेश्वर को अपने इरादे संतुष्ट करने के लिए स्वार्थी नहीं कहा जा सकता है। परमेश्वर ने यह जो कार्य किया और इसकी योजना बनाई, सिर्फ इससे भी परमेश्वर के सार को देखा जा सकता है, और यह भी कि उसका दिल सुंदर और नेक है। भले ही यह मानवजाति पथभ्रष्ट हो गई है, भले ही यह शैतान का अनुसरण कर शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरी हुई है, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध से भरी हुई है, ईशनिंदा और शत्रुता से भरी हुई है, फिर भी परमेश्वर मानवजाति को धैर्यपूर्वक और कभी भी हार माने बिना बचाने में सक्षम है। यह सब कहाँ से उत्पन्न होता है? यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना, उसकी इच्छा से उत्पन्न होता है। क्या यह स्वार्थ है? परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना की सबसे बड़ी और असली लाभार्थी मानवजाति है। तुम सभी लोग उन वादों, आशीषों और अच्छी मंजिलों के एकमात्र हकदार और उत्तराधिकारी हो जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति को प्रदान किए हैं। तो मुझे बताओ, क्या परमेश्वर स्वार्थी है? (नहीं।) परमेश्वर स्वार्थी नहीं है। लेकिन क्या परमेश्वर यह सब केवल प्रेम के लिए करता है? (नहीं।) यहाँ लोगों को जो अभिप्राय, मूल्य और सत्य समझने चाहिए वे बहुत गहरे हैं—यह सब सिर्फ थोड़े-से प्यार के लिए कैसे हो सकता है? प्रेम भावनात्मक अभिव्यक्ति का सिर्फ एक छोटा-सा हिस्सा है, हमारी भावनाओं और संवेदनाओं में प्रकट एक अंश, न कि पूरा हिस्सा। लेकिन अपनी प्रबंधन योजना को कार्यान्वित करने और मानवजाति के उद्धार की प्रक्रिया में वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव की संपूर्णता प्रकट हो जाती है। और उसका स्वभाव सिर्फ प्रेम नहीं है, यानी, यह सिर्फ करुणा और दया नहीं है; इसमें धार्मिकता और प्रताप, क्रोध और श्राप, और बहुत सारे दूसरे पहलू भी शामिल हैं। बेशक, ठोस रूप में कहा जाए तो परमेश्वर के तीन-चरणों के कार्य के दौरान ही उसका स्वभाव और सार धीरे-धीरे प्रकट होकर लोगों को दिखता है। लेकिन लोग इन्हें पहचान नहीं पाते और यह तक कह देते हैं, “परमेश्वर ने यह सब इसलिए किया कि वह हमसे प्रेम करता है।” लोगों के मन में “प्रेम” के प्रति यह धारणा इतनी अजीब और खराब क्यों है? परमेश्वर के इतने सार्थक कार्य को, एक ऐसे कार्य को जो मानवजाति की मंजिल और परिणाम पर इतना बड़ा असर डालता है, उसे महज एक छोटी-सी भावना—प्रेम—के रूप में परिभाषित कर देना क्या परमेश्वर के इरादों को बदनाम करना नहीं है, क्या यह मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के ईमानदार और विचारशील प्रयासों को बदनाम करना नहीं है?

अगली पँक्ति में लिखा है : “प्रेम के कारण, परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति के साथ नम्रतापूर्वक और छिपकर रहता है।” भजनलेखक इसका कारण भी प्रेम ही मानता है। परमेश्वर ऐसा इसलिए करता है क्योंकि यह उसके कार्य के लिए आवश्यक है; इसका कारण प्रेम कैसे हो सकता है? क्या इस बात में कोई तुक है कि परमेश्वर प्रेम के कारण मानवजाति के साथ रहेगा और प्रेम के कारण ही उसके साथ विनम्र और छिपकर रहेगा? तो मानवजाति कितनी आकर्षक और सुंदर होगी कि परमेश्वर उसके साथ रहने के लिए इतना अधीर और इच्छुक हो, और देहधारी रूप में आने, विनम्र और छिपा रहने के लिए भी तैयार हो? क्या ये सच्चाई है? (नहीं।) तो सच्चाई क्या है? (परमेश्वर अपनी प्रबंधन योजना के कारण सत्य व्यक्त करने और लोगों को बचाने के लिए देहधारण कर विनम्र और छिपे रूप में पृथ्वी पर आया।) सिद्धांत रूप में ऐसा परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कारण होता है। लोगों की नजर में, ऐसा लगता है कि भ्रष्ट मानवजाति के साथ विनम्र और छिपकर रहने से परमेश्वर को बहुत खुशी मिलती है, कि वह काफी आराम से रहता है, रोज उसे आनंद महसूस होता है और मनुष्य का हर कदम देखकर और उसके व्यवहार और खुलासे देखकर काफी संतुष्ट रहता है। क्या ऐसा ही है? (नहीं।) तो सही बात क्या है? (परमेश्वर यह सब अपने कार्य की जरूरत के कारण करता है।) क्योंकि उसके कार्य के लिए यह जरूरी है; यह सिद्धांत है। तो क्या मानवजाति के साथ रहने से परमेश्वर को आनंद मिलता है? खुशी मिलती है? सुख मिलता है? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को कैसा लगता होगा? उदाहरण के लिए, तुम सब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हो और खुद को काफी ईमानदार समझते हो, लेकिन अगर तुम लोगों को शातिर नौजवानों, गुंडे-मवालियों और अंडरवर्ल्ड ठगों के साथ रहने को कहा जाए, उन्हीं की बोली बोलने, उन्हीं जैसा खाना खाने और हर रोज उनके जैसे काम करने को कहा जाए तो तुम लोगों को कैसा लगेगा? (अरुचि और घृणा महसूस होगी।) अगर तुम लोगों को बलात्कारियों और हत्यारों के साथ रहना पड़े, तो तुम्हारी मनोदशा क्या होगी? (हमें घिन आएगी।) जब तुम लोग यह जानते हो कि घिन आना किसे कहते हैं तो फिर तुम्हीं बताओ कि क्या परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति के साथ खुश रह सकता है? क्या उसे आनंद आएगा? (नहीं।) न उसे खुशी होगी और न ही आनंद आएगा—तो प्रेम कहाँ से आएगा? अगर इसमें कोई भी खुशी, आनंद या सुख नहीं है, तो क्या यह उसके लिए विरोधाभासी नहीं होगा कि वह लोगों से उतना प्रेम करे जितना वह स्वयं से करता है, इस हद तक प्रेम करे कि वह उनसे अलग न हो सके? क्या इसमें ढोंगीपन नहीं है? तो वास्तव में सत्य क्या है? परमेश्वर को भ्रष्ट मानवजाति के बीच रहते हुए खुशी, आनंद और सुख न मिलने के अलावा सचमुच क्या महसूस होगा? (पीड़ा।) पीड़ा बहुत ही ठोस एहसास है। और कुछ? (अरुचि।) अरुचि, यह भी एक और भावना है। और कुछ? (मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से नफरत।) नफरत, घिन और अरुचि। भ्रष्ट मानवजाति के बीच रहते हुए, खास कर मिलने-जुलने, बातचीत करने, साथ में काम और सहयोग करते हुए एक और वास्तविक एहसास भी होता है, वह है भारी अपमान महसूस करना। ऐसे हालात में, एक ऐसी सतत स्थिति में क्या तुम्हें लगता है कि किसी सामान्य व्यक्ति के दिल में प्रेम होगा? (नहीं।) उसके दिल में प्रेम नहीं होगा। प्रेम न होने पर वह क्या करेगा? (पीछे हट जाएगा।) पीछे हटना एक इच्छा है, यह एक मानसिकता है; लेकिन सच का सामना करने के लिए क्या करना चाहिए? क्या इन लोगों को बदलने के प्रयास नहीं करने चाहिए? (बिल्कुल।) ऐसी मानवजाति के लिए यह जरूरी है कि पोषण करने, शिक्षित करने, फटकारने, उजागर करने, काट-छाँट करने, कभी-कभी अनुशासित करने, इत्यादि उपाय अमल में लाए जाएँ; ये जरूरी हैं और इन्हें टाला नहीं जा सकता है। लेकिन क्या ऐसे कदमों से तुरंत परिणाम मिल सकते हैं? (नहीं।) तो क्या किया जाना चाहिए? (लंबे समय तक मानवजाति की काट-छाँट करनी चाहिए, उसका न्याय करना चाहिए और उसे ताड़ना दी जानी चाहिए।) क्या लंबे समय तक लोगों की काट-छाँट, न्याय और ताड़ना का कार्य आसान है? ऐसा करने के लिए परमेश्वर को क्या सहना पड़ता है? (अपमान और दर्द।) परमेश्वर अत्यंत धैर्य के साथ काम करता है। इस धैर्य के कारण क्या होता है? इससे दर्द होता है। इसलिए जब परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति के साथ रहता है तो उसके दिल में न तो खुशी होती है, न ही उसे आनंद आता है। खुशी और आनंद के बिना क्या उसके दिल में लोगों के लिए प्यार हो सकता है? वह ऐसे लोगों से प्रेम नहीं दिखा सकता। तो फिर वह अपना कार्य कैसे कर सकता है? किस आधार पर कर सकता है? वह केवल अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। यही देहधारी परमेश्वर की सेवकाई है; यही उसकी प्रकृति है। अपनी जिम्मेदारी निभाने का मतलब है अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार वह सब कुछ पूरी तरह कार्यान्वित करना जो उसने देखा है, जाना है, जो उसे बोलना चाहिए और करना चाहिए। इसे ही अपनी जिम्मेदारी निभाना कहते हैं। इस जिम्मेदारी को निभाना क्यों संभव है? परमेश्वर की पहचान और सार के कारण इसे निभाना संभव है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर के पास यह आदेश और जिम्मेदारी है, निस्संदेह परमेश्वर मानवजाति के लिए यह बोझ उठाता है। तो वह चाहे जैसे भी लोगों और भ्रष्ट मनुष्यों के साथ रहता हो, सामान्य स्थिति यही होती है। क्या तुम जानते हो कि यह सामान्य स्थिति क्या है? यह वह स्थिति है जिसमें परमेश्वर को न तो खुशी होती है और न ही आनंद, और उसे अपमान भी सहना होता है; और साथ ही उसे अथक रूप से बार-बार तमाम तरह की मानवीय भ्रष्टता और विद्रोहशीलता भी सहनी है। यह सब सहते हुए उसे अथक रूप से अपने कार्य के बारे में बताना भी है और कार्य भी करना है, उसे लोगों को वह सब बातें स्पष्ट रूप से समझानी होंगी जिन्हें लोग नहीं समझते, और जो लोग जानबूझकर अपराध करते हैं उन्हें कुछ अनुशासन सिखाना है, कुछ न्याय और ताड़ना देनी है। यह सब जो परमेश्वर करता है वह उसकी प्रबंधन योजना और उसके कार्य के चरणों से संबंधित है। बेशक, इसका मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की खास कार्य परियोजना से और ज्यादा संबंध है। संक्षेप में कहें तो इसका संबंध परमेश्वर की खुद की जिम्मेदारियों से है। परमेश्वर यह सब अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए करता है; और अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए वह जो कुछ प्रकट करता है वह उसका सार और स्वभाव है। तो फिर देहधारी परमेश्वर का सार क्या है, यानी इस साधारण व्यक्तित्व का सार क्या है? विशेष रूप से अंत के दिनों में कार्य का यह चरण करने में, वह न तो संकेत और अजूबे दिखाता है, न ही चमत्कार दिखाता है, इसके बजाय वह केवल ऐसे सत्य बता सकता है जिन्हें लोगों को समझना और अपनाना चाहिए। वह ऐसे भ्रष्ट स्वभाव उजागर करता है जिन्हें लोग खुद नहीं पहचान पाते, ताकि वे इसे समझ और पहचान सकें और मानवजाति की भ्रष्टता के सार और वास्तविक तथ्यों को जान सकें, इसका उद्देश्य लोगों को सच्चा पश्चात्ताप कराना और उन्हें सही मार्ग पर ले जाना है। जब लोग सच्चा पश्चात्ताप करते हैं, जब वे सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने में सक्षम हो जाते हैं तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर उद्धार की उम्मीद पा लेते हैं, और देहधारी परमेश्वर का कार्य और दायित्व पूरा हो जाता है। एक बार जब लोग सही रास्ते पर आ जाते हैं तो उनके लिए सिर्फ परमेश्वर के परीक्षण और शुद्धिकरण प्राप्त करना शेष रहता है—देहधारी परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है; उसकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं, उसका कार्य पूरा हो जाता है। जब तुम लोगों को सही मार्ग पर लाने का देहधारी परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाता है, तो इसका मतलब है कि उसकी सेवकाई पूरी हो जाती है और अब तुम लोगों के प्रति उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता है। कोई उत्तरदायित्व न रहने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उसे अब और इन लोगों के साथ नहीं रहना पड़ेगा और उनकी भ्रष्टता, धारणाएँ, विद्रोह, प्रतिरोध, अस्वीकृति वगैरह जैसी चीजें नहीं सहनी होंगी।

चाहे परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए या देहधारी परमेश्वर द्वारा किए गए किसी खास कार्य के परिप्रेक्ष्य से, क्या इनमें से कोई भी कार्य केवल प्रेम के कारण किया जाता है? नहीं। परमेश्वर का आत्मा स्वर्ग से एक निश्चित ढंग से मानवजाति का अवलोकन करता है और पृथ्वी पर देहधारी परमेश्वर का भी लगभग वही परिप्रेक्ष्य होता है। इसमें “लगभग” क्यों कहा गया है? पृथ्वी पर देहधारी परमेश्वर एक तो अपनी मानवता के कारण मानवजाति की कमजोरी को अपेक्षाकृत अधिक विचारशील परिप्रेक्ष्य से देख सकता है, दूसरा, वह सृजित मानवजाति के साथ उसी स्थान पर सह-अस्तित्व में रहता है और तीसरा इसलिए कि भ्रष्ट मानवजाति के समान उसमें भी मनुष्य होने का बाहरी गुण है। नतीजतन, स्वर्ग के परमेश्वर की तुलना में देहधारी परमेश्वर लोगों के साथ कुछ अधिक समरस ढंग से रह सकता है। इस दृष्टि से अगर परमेश्वर देहधारण न करता तो क्या तुम सब लोग अभी यहीं बैठे होते? नहीं बैठे होते। यह सब परमेश्वर के कार्य की जरूरतों के कारण है—यही एकमात्र कारण है कि उसने इतनी बड़ी कीमत चुकाई और वह इसे पूरा करने के लिए यहाँ स्वयं आया। यदि परमेश्वर स्वर्ग से लोगों के साथ बात करता तो आकाशीय दूरी के कारण उसके वचन सुनने में असुविधा होती। इसके अलावा अंत के दिनों में परमेश्वर के व्यापक और विशालकाय वचनों को देखते हुए अगर उसे स्वर्ग से इस तरह से बोलना पड़ता तो यह अनुपयुक्त रहता, चाहे तुम उसे किसी भी नजरिए से क्यों न देख लो। इसलिए परमेश्वर का देहधारण करना ही एकमात्र और सबसे अच्छा विकल्प है और यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना, मानवजाति को बचाने के कार्य और मानवजाति के लिए सबसे अधिक लाभदायक भी है; परमेश्वर का देहधारण करना ही इस कार्य को करने का एकमात्र विकल्प और तरीका है। देहधारी परमेश्वर ही यह कार्य कर सकता है, वही इस कार्य को करने के काबिल है, वही इन परिणामों को हासिल कर सकता है। अगर तुम अंत के दिनों में परमेश्वर के बोले इन वचनों को देखो तो इनकी मात्रा बहुत अधिक है; देहधारण की विधि के बिना इतने सारे वचन कैसे व्यक्त किए जा सकते थे? यदि परमेश्वर स्वर्ग से गर्जना के रूप में बोलता तो हर बार न्याय और निंदा करते हुए कितने दुष्ट लोग बिजली की कड़क से मारे जाते? ज्यादा लोग जीवित नहीं रहते। यदि परमेश्वर को बवंडर या आग की लपटों के माध्यम से बोलना पड़ता तो उसके सभी वचन पूरे होने से पहले कितने बवंडर और अग्निकांड घटित होते? इस तरीके से तो पूरी मानवजाति परेशान हो जाती। और इतने वर्षों के संवाद के बाद भी क्या देहधारी परमेश्वर के वचनों ने मानवजाति के सामान्य जीवन को प्रभावित किया है? बिल्कुल भी नहीं, पूरी दुनिया न तो इसकी परवाह करती है और न ही इससे प्रभावित होती है। इससे देहधारी परमेश्वर के किए कार्य का उद्देश्य पूरी तरह से हल हो जाता है; देहधारी परमेश्वर के बिना यह कार्य वास्तव में असंभव होता। देहधारी परमेश्वर के किए गए कार्य में एक रहस्यमयता है। परमेश्वर नहीं चाहता कि पूरी दुनिया और सारी मानवजाति इसे जाने; वह नहीं चाहता कि वे अन्य-जाति राष्ट्र इसे जाने जिन्हें परमेश्वर ने नहीं चुना है। वह केवल छिपी हुई स्थिति में इन वचनों को व्यक्त कर सकता है, इसलिए देहधारण करना ही सबसे सार्थक तरीका है; यह सबसे बुद्धिमानी वाला तरीका भी है। केवल परमेश्वर के देहधारण करने से ही यह गुप्त रह सकता है। यह परमेश्वर की बुद्धिमानी और सर्वशक्तिमत्ता ही है कि उसका देहधारी रूप मानवजाति के साथ रहते हुए मानव भाषा में इस तरह से उन्हें सत्य प्रदान करता है, जिसे मानवजाति स्वीकार कर सके। यह केवल परमेश्वर ही कर सकता है; यह मानवजाति की क्षमता से परे है। यह सब परमेश्वर की महान प्रबंधन योजना से संबंधित है। अगर मनुष्य परमेश्वर की ऐसी महान प्रबंधन योजना को एकतरफा रूप से केवल प्रेम के लिए तैयार किए जाने के रूप में दर्शाता है तो यह अत्यधिक एकांगी, तथ्यों के विपरीत और बिल्कुल अनुचित बात हो जाएगी। संक्षेप में कहें तो किए जा रहे कार्य की विषयवस्तु चाहे जो हो, परमेश्वर के देहधारण ने इस बार काफी हलचल पैदा की है और दुनिया भर में और सारी मानवजाति पर महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा है, जो दर्शाता है कि यह कितनी असाधारण घटना है। परमेश्वर के देहधारण का तथ्य और रूप पूरी दुनिया और धर्मावलंबी समुदाय के भीतर विवाद के विषय हैं; मानवजाति इस घटना की शत्रु है, वह इसकी निंदा करती है इसे नकारती है, और यह ऐसी घटना है जिसकी थाह पाना या जिसके बारे में कल्पना करना मानवजाति कि लिए सबसे मुश्किल है। परमेश्वर का इस तरह से कार्य करना उसकी बुद्धि, सामर्थ्य, सर्वशक्तिमत्ता और उसके अधिकार को दर्शाता है; यह किसी मामूली प्यार के लिए या तिल के बीज जितनी किसी तुच्छ बात या कारण के लिए बिल्कुल नहीं किया जाता है। यानी पूरे धर्मावलंबी जगत, पूरी राजनीतिक दुनिया, पूरी मानवजाति ही नहीं, पूरे ब्रह्मांड को भी हिला सकने वाली इतनी बड़ी घटना केवल प्रेम के कारण घटित नहीं होती है, बल्कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना और मानवजाति को बचाने की इच्छा से उत्पन्न होती है। यह परमेश्वर के कार्य के तीसरे चरण का सबसे महान दर्शन है; यह ऐसा सबसे महान दर्शन है जिसे लोगों को समझना-बूझना और जानना चाहिए। यदि तुम इस दर्शन को केवल इस रूप में परिभाषित करते हो, “यह परमेश्वर के प्रेम के कारण है; परमेश्वर हमसे प्रेम करता है। देखो, परमेश्वर पहले भी एक बार देहधारण कर हमसे प्रेम करने के कारण सूली चढ़ाया गया था, और इस बार वह फिर देहधारण कर हमसे प्रेम करने आया है”—तो क्या यह बहुत बड़ी भूल नहीं है? परमेश्वर के कार्य के ऐसे महान दर्शन को प्रेम के वास्ते किए जाने के रूप में परिभाषित करना बहुत ही सतही बात है। यदि तुम परमेश्वर को नहीं जानते, तो ऐसा ही सही; लेकिन फौरन अपना मुँह बंद करो, बेतुकी बातें बंद करो और अपनी अनाप-शनाप राय मत दो। मैंने पहले भी तुम लोगों को बताया है, परमेश्वर के स्वभाव, सार और कार्य के दर्शन से संबंधित किसी भी चीज का लोगों को जल्दबाजी में आकलन नहीं करना चाहिए, इसका मनमाने ढंग से मतलब नहीं निकालना चाहिए या इसे लापरवाही से सीमाओं में नहीं बाँधना चाहिए। यदि तुम इसे नहीं समझते तो स्वीकार कर लो। यदि तुम थोड़ा-सा ही समझते हो तो कहो, “मैं केवल इतना ही समझता हूँ; मैं मनमाने ढंग से इसे सीमा में बाँधने की हिम्मत नहीं करता और मुझे नहीं पता कि यह सही है या नहीं।” तुम्हें इस प्रकार के स्पष्टीकरण और हवाले देने चाहिए और बिना सोचे-समझे नहीं बोलना चाहिए। यदि तुम बिना सोचे-समझे बोलते हो तो छोटे स्तर पर तुम दूसरों को गलत तरीके से प्रभावित कर सकते हो, उनके मन में गलत धारणाएँ भरकर उन्हें गुमराह कर सकते हो; बड़े स्तर पर तुम परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित कर सकते हो। तुम परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर के ऐसे महान कार्य को प्रेम के रूप में और प्रेम के लिए किया जाने वाला कार्य चित्रित करते हो—क्या यह बकवास नहीं है? क्या ऐसा कहने वाले लोगों को थप्पड़ मारना चाहिए? (हाँ।) उन्हें थप्पड़ क्यों मारना चाहिए? क्योंकि यह बिना सोचे-समझे बात करना है, चीजों को संदर्भ से हटकर देखना है। क्या इसके पीछे अहंकारी स्वभाव नहीं है? क्या तुम कुछ दिन पहले से ही परमेश्वर में विश्वास नहीं कर रहे हो? क्या तुमने उसे देखा है? क्या तुम उसके स्वभाव को समझते हो? तुम परमेश्वर की प्रबंधन योजना के दर्शन के सत्य को स्पष्ट रूप से या पूरी तरह नहीं समझा सकते, फिर भी तुम परमेश्वर के सार और स्वभाव को परिभाषित करने की जुर्रत करते हो। क्या यह बहुत बड़ा दुस्साहस नहीं है? तुम इस तरह के एक बड़े मामले को परिभाषित करने के लिए “प्रेम” शब्द का उपयोग करने की हिम्मत करते हो; यह परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करता है। क्या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करना भारी अपराध है? हाँ, बिल्कुल है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे नहीं पता; मुझे इनमें से कुछ भी समझ में नहीं आता।” यह सही है। यह बिलकुल इस कारण है कि तुम न तो समझते हो, न ही जानते हो, तुम अज्ञानी और मूर्ख हो, और तुम्हें बिना सोचे-समझे नहीं बोलना चाहिए। क्या तुम एक साधारण व्यक्ति के रूप में परमेश्वर के मामलों के बारे में मनमाने ढंग से आकलन कर सकते हो या यूँ ही निष्कर्ष निकाल सकते हो? चाहे सारी मानवजाति एकजुट हो जाए, फिर भी वह परमेश्वर के मामलों को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकती, फिर भी तुम अकेले ही केवल एक-दो शब्दों में परमेश्वर के स्वभाव, उसके कार्य और उसके सार को परिभाषित करना चाहते हो। क्या यह परमेश्वर के स्वभाव के प्रति अपमानजनक नहीं है? (बिल्कुल है।) फिर इस भजन में एक बहुत बड़ी समस्या है। इसमें न केवल उलझे हुए, खोखले और ईशनिंदापरक बोल भरे पड़े हैं, बल्कि इससे भी गंभीर बात यह है कि यह लोगों को बहकाने और गुमराह करने और उन्हें उनकी धारणाओं में फँसा सकता है। क्या इस भजन के गंभीर परिणामों को देखते हुए इसे अपनाए रखा जा सकता है? बिल्कुल भी नहीं; इसे मिटा देना चाहिए।

इसके बाद लिखा है : “प्रेम के कारण, परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और अनन्त जीवन का मार्ग दिखाता है।” जिस तरह ये शब्द चीजों को सीमाओं में बाँधते हैं क्या यह खराब नहीं है? (बिल्कुल है।) आगे लिखा है : “प्रेम के कारण, परमेश्वर अपने वचनों के जरिए मानवजाति की शैतानी प्रकृति का न्याय कर उसे उजागर करता है।” तुम्हीं बताओ, जब परमेश्वर मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने के लिए कठोर वचन व्यक्त करता है तो क्या वह मनुष्य से प्रेम के कारण ऐसा करता है या इसलिए कि परमेश्वर मनुष्य से तिरस्कार और घृणा करता है? (क्योंकि परमेश्वर मनुष्य से तिरस्कार और घृणा करता है।) यदि वह मनुष्य से तिरस्कार करता है तो यह परमेश्वर का कैसा स्वभाव है? (धार्मिकता, पवित्रता का स्वभाव।) सही कहा; इसका कारण प्रेम नहीं है। क्या लोगों के लिए चीजों को इस तरह से परिभाषित करना अनुचित और गलतफहमी भरा नहीं है? क्या इस कथन में सत्य का कोई व्यावहारिक ज्ञान है? यह एक विकृत और एकतरफा समझ है, गलत व्याख्या है, भ्रामक समझ है; इस पँक्ति में गलत चित्रण किया गया है। फिर इस पँक्ति को देखें, “प्रेम के कारण, परमेश्वर हमारी भ्रष्टता मिटाने के लिए हमारा परीक्षण, शोधन, और काट-छाँट करता है।” क्या इस पँक्ति में भी वही समस्या नहीं है जो पिछली पँक्ति में थी? (बिल्कुल।) वही समस्या है। और आगे लिखा है कि : “हे परमेश्वर! तेरे कार्य और तेरे वचनों में जो कुछ भी प्रकट होता है वह प्रेम है।” क्या यह भी परमेश्वर को फिर से सीमाओं में बाँधना नहीं है? परमेश्वर क्या प्रकट करता है? अपनी पवित्रता, सुंदरता और अपना धार्मिक स्वभाव। परमेश्वर के स्वभाव में क्रोध, प्रताप के साथ-साथ दया और करुणा भी है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि यह सब प्रेम के कारण है? यह सीमाबंदी बहुत घिनौनी और मनमानी है! क्या इसका कारण अहंकार नहीं है? भजनलेखक जो व्याख्या और सारांश पेश कर रहा है उसका परमेश्वर के वचनों और कथनों से प्रकट स्वभाव सार से कोई लेना-देना नहीं है। फिर इसमें कहा गया है कि सब कुछ प्रेम है, जो अप्रासंगिक ही नहीं, विकृत और गलत भी है—यह पूरी तरह गलत चरित्र चित्रण है। प्रेम एक भावना है और यह क्रिया या व्यवहार के रूप में प्रकट हो सकता है, लेकिन यह परमेश्वर का मूल सार नहीं है; परमेश्वर लोगों से अंधाधुंध प्रेम नहीं करता है। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर का प्रेम इतना भरपूर है कि इसके लिए पर्याप्त जगह ही न हो, इस हद तक कि वह शैतान, भ्रष्ट मानवजाति और अपने शत्रुओं से भी प्रेम करने लगे? क्या ऐसा है? परमेश्वर का प्रेम सिद्धांतहीन नहीं है। वह सकारात्मक चीजों से प्यार करता है और नकारात्मक और बुरी चीजों से नफरत करता है। तो तुम्हीं बताओ, क्या परमेश्वर उन लोगों से प्रेम करता है जो सच्चे दिल से उस पर विश्वास करते हैं? क्या वह उन लोगों से प्रेम करता है जो वफादारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं? क्या वह उन लोगों से प्रेम करता है जो उसके प्रति समर्पित रहते हैं? क्या परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम करता है, जो उसका न्याय और ताड़ना प्राप्त करके सच्चा पश्चात्ताप करते हैं, परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करते हैं और अपने दिलों में परमेश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं? यदि लोग सत्य को समझते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नफरत करते हैं, तो उनकी “नफरत” सकारात्मक बात है। और क्या परमेश्वर उनसे प्रेम करता है? (बिल्कुल।) जो लोग सत्य को स्वीकार लेते हैं वे सकारात्मक लोग हैं, और जो लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर लेते हैं वे और भी अधिक सकारात्मक हैं। सकारात्मक लोगों से परमेश्वर प्रेम करता है; वह दुष्टात्माओं और शैतान से घृणा करता है। जिन लोगों को वह शाप और दंड देता है वे सभी दुष्ट हैं, लेकिन जिन लोगों से परमेश्वर प्रेम करता है वे सभी ईमानदार लोग हैं, सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं। इसलिए परमेश्वर का प्रेम सिद्धांतनिष्ठ है। कुछ लोगों के लिए परमेश्वर केवल दयालु है, जिसका मतलब यह नहीं है कि वह उन लोगों से प्रेम करता है। इन बातों को स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए; कोई भी परमेश्वर के प्रेम को बिना सोचे-समझे परिभाषित नहीं कर सकता है। परमेश्वर के प्रेम के बारे में लापरवाही से बोलना और बिना सोचे-समझे इसे परिभाषित करना निस्संदेह परमेश्वर की आलोचना और निन्दा करना है।

यदि हम और आगे देखें तो : क्या यह कहना सही है कि “हे परमेश्वर! तुम्हारा प्रेम केवल प्रेममय दयालुता और दया नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय भी है”? (सिद्धांत के रूप में तो यह सही है लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है।) सिद्धांत के संदर्भ में तो कोई समस्या नहीं है लेकिन इसे परमेश्वर के प्रेम के साथ जोड़ना अतिशयोक्ति है। इन शब्दों को गलत नहीं माना जाना चाहिए लेकिन उन्हें सही भी नहीं कहना चाहिए; ये बकवास शब्द हैं जिनका उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चलिए और आगे बढ़ते हैं : “हे परमेश्वर! तेरा न्याय और तेरी ताड़ना सबसे सच्चा प्रेम और सबसे बड़ा उद्धार है।” तुम सबका इस बारे में क्या विचार है? (यह पँक्ति गलत है; यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को सबसे बड़े उद्धार के रूप में स्थापित करती है, जबकि वास्तव में परमेश्वर के उद्धार में केवल यही चीजें शामिल नहीं होती हैं।) क्या देहधारी परमेश्वर का सूली चढ़ना और समस्त मानवजाति के पापों के लिए उसका प्रायश्चित्त करना और इन पापों का बोझ उठाना प्रेम का सबसे सच्चा रूप नहीं है? क्या ये सबसे महान उद्धार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) फिर न्याय और ताड़ना से तुलना करने पर “सबसे महान” कौन सा है? बल्कि गंभीरता से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह कथन गलत, अनुपयुक्त और अत्यंत सीमांकित है; इसका उल्लेख वैसे नहीं किया जाना चाहिए जैसे किया गया है। यह नहीं कहना चाहिए कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह प्रेम होता है, बल्कि यह कहना सही है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसका लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, और यह कि यह सब लोगों के लिए केवल उद्धार और दया है क्योंकि यह सब मानवजाति के लिए किया जाता है। यदि तुम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बारे में कहते हो कि यह “परम” है और इसे सर्वोच्च स्तर पर बैठा देते हो तो यह सही नहीं है। जो चीज “परम” होती है, वह बिना किसी तुलना के एकमात्र होनी चाहिए; लेकिन परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को परमेश्वर के अन्य कार्यों के साथ तुलना करने पर “परम” नहीं कहा जा सकता है। किसी ने एक बार एक भजन लिखा था और एक बोल यह था “मैं परमेश्वर की करुणा और दया की तुलना में उसके धार्मिक स्वभाव से अधिक प्रेम करता हूँ।” ये शब्द सही हैं या गलत? (ये गलत हैं।) इनमें क्या गलत है? (ये परमेश्वर की धार्मिकता, पवित्रता, करुणा और दया को श्रेणियों में बाँटते हैं।) वास्तव में यह कथन सही है और यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने के बाद लोगों के वास्तविक अनुभव पर आधारित है। इस वास्तविक अनुभव की पृष्ठभूमि क्या है? इसके पीछे एक कहानी है, अर्थात : जब कोई व्यक्ति परमेश्वर की करुणा और दया का आनंद ले रहा होता है, तो उसे केवल अनुग्रह ही प्राप्त होता है; वह अपने भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं पहचान सकता और न ही उन्हें कभी दूर कर सकता है। ऐसे लोग केवल परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का अनुभव कर सकते हैं और कई परीक्षणों और शोधन के दर्द को सहन कर सकते हैं—केवल तभी वे खुद को इन भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा दिला सकते हैं। इसलिए इस आधार पर और इस संदर्भ में लोग इसी समझ पर पहुँचते हैं; यह सटीक है, तथ्यों के अनुरूप है और सैद्धांतिक तर्क नहीं है। यह भजन रचनात्मक है, लेकिन तुम लोगों में से कोई भी यह समझ नहीं पाता; तुम लोगों में वाकई विवेक की कमी है। विवेक की कमी से किस बात की पुष्टि होती है? इसका कमी का कारण क्या है? इसका कारण सत्य को न समझना है। “प्रेम के कारण” भजन बकवास से भरा है : यह व्यावहारिक नहीं है, मुझे यह बिल्कुल भी पसंद नहीं है और मैं इसका एक भी शब्द गाने के लिए तैयार नहीं हूँ। तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कितना छोटा होगा जो तुम लोग इसे इतने उत्साह से और देखादेखी में गाते हो! तुम लोग कुछ भी समझने में असमर्थ हो और तुम तो उन सत्यों को भी नहीं समझते जिनमें लोगों को प्रवेश करना चाहिए, फिर भी तुम परमेश्वर के सार और उसकी प्रबंधन योजना पर टिप्पणी करना चाहते हो। क्या यह समझ की कमी नहीं है? मूर्खतापूर्ण ढंग से बोलने की हिम्मत करने वाले विवेकहीन लोग अपने उचित कार्य नहीं कर रहे होते हैं; वे बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं होते हैं।

भजन के आगे के बोल देखें : “हम तेरे पवित्र और धार्मिक प्रेम की गवाही देंगे और तू हमारी अनन्त प्रशंसा के योग्य है।” निश्चित रूप से यह आवश्यक है कि परमेश्वर अनन्त प्रशंसा के योग्य है, लेकिन यदि लोग परमेश्वर को इसी प्रकार से जानें तो क्या इसे उसकी प्रशंसा माना जा सकता है? मान लो कि परमेश्वर किसी से प्रेम नहीं करता और उससे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। लेकिन यदि यह व्यक्ति फिर भी परमेश्वर से प्रेम और उसकी प्रशंसा करता है, तो उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद काफी ऊँचा हैं और उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान है। इस पँक्ति में “हम तेरे पवित्र और धार्मिक प्रेम की गवाही देंगे और तू हमारी अनन्त प्रशंसा के योग्य है” कौन-से विशेषण “परमेश्वर के प्रेम” की विशेषता बता रहे हैं? “पवित्र” और “धार्मिक।” देखो, भजनलेखक परमेश्वर के प्रेम को कितना महान मानता है, वह परमेश्वर के प्रेम को बताने के लिए परमेश्वर के सार का उपयोग कर कहता है कि परमेश्वर का प्रेम धार्मिक और पवित्र प्रेम है—क्या यह बात स्वयंसिद्ध नहीं है? लोग साधारण प्रेम का आनंद लेने के इच्छुक नहीं होते, न ही वे दयालु प्रेम या लोगों की कद्र करने वाले प्रेम का आनंद लेते हैं; वे केवल तभी परमेश्वर की प्रशंसा करते हैं जब वे उसके पवित्र और धार्मिक प्रेम का आनंद लेते हैं और यही कारण है कि वे कहते हैं कि परमेश्वर अनन्त प्रशंसा के योग्य है। क्या यह बात सही है? चाहे तथ्य के आधार पर देखें या तर्क-वितर्क के आधार पर, यह कथन बहुत ही गलत है, यह केवल बकवास है; यह मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति द्वारा लोगों को गुमराह करने के लिए बोला गया शब्दाडंबर का मिश्रण है। क्या तुम्हें लगता है कि यही लौकिक संसार है? इस संसार में तमाम दुष्ट और गंदी आत्माएँ, तमाम तरह के चरित्र और कमीने नीच लोग और जिनके पास थोड़ा-सा भी कौशल, वाक्पटुता या धृष्टता है वे किसी खास विषय पर पुरजोर ढंग से अपने विचार रखकर प्रदर्शन करने का दुस्साहस करते हैं; परन्तु परमेश्वर के घर में केवल सत्य का अधिकार चलता है। इस सभी दुष्टात्माओं को मंच से उतारकर कलीसिया से दूर कर देना चाहिए। उनकी सारी विधर्मी सोच और भ्रांतियों का गहन-विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि हर कोई उन्हें स्पष्ट रूप से पहचानकर उनका चरित्र चित्रण कर सके। अब इसे देखते हुए परमेश्वर का प्रेम क्या है? यदि तुम कहते हो कि यह धार्मिकता और पवित्रता है तो क्या यह सही है? (नहीं; परमेश्वर का प्रेम केवल ये चीजें नहीं है।) तो फिर परमेश्वर का प्रेम क्या है? (न्याय और ताड़ना, प्रताप और क्रोध भी परमेश्वर का प्रेम हैं।) परमेश्वर का प्रेम परमेश्वर का प्रेम है और परमेश्वर का सार परमेश्वर का सार है। परमेश्वर का प्रेम परमेश्वर के दिल और मन में, उसकी भावनाओं, उसके सार और उसके कर्मों में है। क्या तुम इसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हो? तुम परमेश्वर के प्रेम को धार्मिकता और पवित्रता से जोडते हो, तुम इसे इस तरह से परिभाषित करने की हिम्मत करते हो—तुम कितने बेशर्म हो! क्या परमेश्वर उसकी प्रशंसा करने के लिए तुम्हारी इस तरह की परिभाषाओं का उपयोग स्वीकार करता है? (वह नहीं स्वीकारता।) क्यों नहीं? (क्योंकि यह उसकी ईशनिंदा है।) परमेश्वर इससे खिन्न होता है और तुम सरासर बकवास कर रहे हो! तुम्हारा अंध प्रशंसा करना बेकार है और परमेश्वर इससे प्रसन्न नहीं होता है। परमेश्वर को मानवजाति से प्रशंसा की कुछ खास आवश्यकता नहीं है। उसे इसकी कोई इच्छा नहीं है; ऐसा नहीं है कि उसे आराम से जीने या आत्मविश्वास पाने के लिए मनुष्य से प्रशंसा की आवश्यकता है। क्या उसे इसकी आवश्यकता है? (नहीं है।) परमेश्वर जो भी कार्य करता है वह मानवजाति को बचाने के लिए, मानवजाति को एक अच्छी मंजिल प्रदान करने के लिए होता है और वह कुछ कार्य अगले युग में मानवजाति के अस्तित्व के लिए भी करता है; इसका उद्देश्य लोगों की प्रशंसा प्राप्त करना नहीं है। बात केवल इतनी है कि परमेश्वर के कार्यों का एक नतीजा यह है कि मानवजाति उसकी प्रशंसा करती है, लेकिन यदि लोगों के मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ होंगी और वे बिना सोचे-समझे उसकी प्रशंसा करेंगे तो परमेश्वर इसकी अनुमति नहीं देगा और वह इसे स्वीकार नहीं करेगा। यदि लोग इतने असंयत होकर सोचेंगे कि परमेश्वर के लिए मानवजाति से प्रशंसा पाना बहुत महत्वपूर्ण है तो क्या यह एक गलत अनुमान नहीं है? सिर्फ इसलिए कि मानवजाति ने परमेश्वर की इतनी-सी प्रशंसा कर दी और उसकी इतनी-सी गवाही दे दी, उन्हें लगता है कि परमेश्वर बहुत प्रभावित हुआ है, लेकिन वास्तव में, वह बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुआ है। क्या परमेश्वर इसका हकदार नहीं है? यह तो एक बहुत सामान्य-सी बात है।

यदि हम और आगे देखें तो लिखा है : “प्रेम के कारण, परमेश्वर लोगों, घटनाओं और चीजों को सेवा में लाता है, ताकि हम सत्य और जीवन प्राप्त कर सकें।” क्या यह पँक्ति सही है? (नहीं।) इसमें क्या गलत है? क्या “प्रेम के कारण” शब्द गलत हैं? सब कुछ पहले तीन शब्दों के कारण है, जो इतने भ्रामक और गुमराह करने वाले हैं कि वे लोगों के दिमाग को भ्रमित कर देते हैं, जिससे वे सही-गलत के बीच अंतर नहीं कर पाते। भविष्य में “प्रेम के कारण” शब्दों का दुरुपयोग मत करना। इन शब्दों के अगले शब्द “परमेश्वर लोगों, घटनाओं और चीजों को सेवा में लाता है, ताकि हम सत्य और जीवन प्राप्त कर सकें” सत्य हैं। परमेश्वर के कार्य में ऐसी चीजें मौजूद होती हैं परन्तु इसे परमेश्वर का प्रेम कहना गलत होगा। यह परमेश्वर की सामर्थ्य, परमेश्वर का अधिकार और परमेश्वर की बुद्धिमता है; यह प्रेम के कारण नहीं है। सटीक रूप से कहें तो यह केवल परमेश्वर के प्रेम के कारण नहीं है। परमेश्वर के पास यह सामर्थ्य है कि वह सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को उस मानवजाति की सेवा करने के लिए एकजुट करे जिसे वह बचाना चाहता है। वह सभी चीजों और मामलों को उस मानवजाति की सेवा करने के लिए जुटाता है जिसे वह बचाना चाहता है और अपने प्रबंधन कार्य को पूरा करने के लिए जुटाता है और अंत में इसका लाभ मानवजाति को ही मिलता है—लोग सत्य और जीवन प्राप्त करते हैं। यदि तुम कहते हो कि यह केवल प्रेम के कारण है तो क्या परमेश्वर की बुद्धिमता, अधिकार और सामर्थ्य का अब कोई अस्तित्व नहीं रहा? यह कहना कि यह केवल प्रेम के कारण है, सही नहीं है, इसलिए ऐसे बयानों की दिशा और स्थिति भी गलत है। इसका क्या मतलब है कि ये सभी गलत हैं? ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं; इन्हें विकृत ढंग से पेश किया जाता है; ये सत्य की वास्तविकता नहीं हैं और ये सत्य का वह व्यावहारिक पक्ष नहीं हैं जिसे लोग अनुभव करते हैं।

इसकी अगली पँक्ति है : “प्रेम के कारण, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से हम शैतान के प्रभाव से मुक्त होने और उद्धार पाने में सक्षम बनते हैं।” क्या इस पँक्ति में कोई दिक्कत है? बात अभी भी यही है कि ये तीन शब्द “प्रेम के कारण” अनुचित आधार हैं। इस वाक्यांश में कुछ भी गलत नहीं है कि “परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से हम शैतान के प्रभाव से मुक्त होने और उद्धार पाने में सक्षम बनते हैं” क्योंकि यह परमेश्वर के कार्य का नतीजा है—लेकिन क्या यह जरूरी है कि भजनलेखक हमेशा “प्रेम के कारण” शब्द पहले लाए? तुम लोगों ने इससे क्या सबक सीखा? यही कि जब परमेश्वर के स्वभाव सार पर टिप्पणी करने, उसकी परिभाषा तय करने या उसे सीमांकित करने की बात आती है तो विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए और विनम्रता और समझदारी वाला रवैया अपनाना चाहिए। यदि तुम केवल असयंत बकवास करने में सक्षम हो और यदि तुम जो कुछ भी कहते हो वह बकवास बातें और खोखले शब्द, लंबी-चौड़ी गप्पें और ईशनिंदा होती है, तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर दोगे और इस कारण वह तुमसे घृणा कर तुम्हारा तिरस्कार करने लगेगा। कुछ हद तक यूँ कहा जा सकता है कि परमेश्वर के सार की तुलना में परमेश्वर के बारे में मनुष्य का ज्ञान केवल समुद्र की एक बूँद या समुद्र तट पर बिखरे रेत का एक कण के समान है। इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है और यदि लोग अभी भी अपनी इच्छानुसार चीजों को सीमांकित करने और निष्कर्ष निकालने का साहस करते हैं, मनमाने ढंग से अपनी धारणाओं को सत्य मानकर शब्दों में ढालते हैं तो फिर बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। यह कैसी बड़ी समस्या है? (परमेश्वर की ईशनिंदा।) परमेश्वर की ईशनिंदा करना काफी दुःखदायी और गंभीर बात है। यदि तुम अपनी आत्मपरक इच्छा के अनुसार परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करना चाहते हो तो जो तुम्हें उन बातों का पालन करना चाहिए जो मैंने अभी तुम्हें बताई हैं, अर्थात् सावधान होकर अपनी जुबान संभालना। अपनी जुबान संभालने का क्या मतलब है? (परमेश्वर पर मनमानी टिप्पणी न करना और न ही उसकी सीमा निर्धारित करना।) बिल्कुल ठीक कहा। दर्शनों से जुड़े मामलों में “दर्शनों से संबंधित” केवल एक सामान्य अभिव्यक्ति है; विशेष रूप से यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना, कार्य और स्वभाव सार से जुड़े मामलों से संबंधित है। इसलिए दर्शनों से संबंधित इन मामलों में सावधानी के साथ बोलकर पेश आओ और मनमाने ढंग से सीमांकन न करो या अपनी राय न बनाओ। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने भी ठीक यही सोचा था” लेकिन क्या तुम्हारे लिए ठीक इसी तरह सोचना सही है? इतने अहंकारी और आत्मतुष्ट मत बनो। यदि तुम जो कुछ सोच रहे हो वह गलत है और फिर भी तुम बकवास करते रहते हो और मनमाने ढंग से चीजों को सीमांकित करते हो तो इसी को गलत राय कायम करना, निंदा करना और ईशनिंदा करना कहते हैं—और तुम्हें अपनी सोच से भी बुरे नतीजे मिल सकते हैं। कुछ लोग इसे समझ नहीं पाते और कहते हैं, “मेरे तो इस बारे में यही विचार हैं और यदि तुम मुझे बोलने नहीं देते तो तुम मुझे अपनी असलियत छिपाने के लिए कहते हो।” लेकिन यह अपनी असलियत छुपाने जैसा कैसे है? इसका मकसद तो केवल तुम्हें सावधान रहने और कुछ भी ऐसा न बोलने की सलाह देना है जिसके बारे में तुमने न तो अच्छी तरह से सोच-विचार किया है और न ही पुष्टि करने की कोशिश की है। यह तो तुम्हारे फायदे और तुम्हारी सुरक्षा के लिए है। यदि तुम जो कुछ सोच रहे हो वह गलत है, तो क्या तुम जानते हो कि यह बात कहने के क्या दुष्परिणाम होंगे? तुम्हें अपनी बातों की जिम्मेदारी लेनी होगी। जो कोई भी मसीह विरोधी है उसने कई बुरे कर्म किए हैं; और उसके लिए अंतिम दुष्परिणाम क्या रहे? ऐसे लोगों को अपने कर्मों की जिम्मेदारी उठानी पड़ी है और कलीसिया को उन्हें संभालना पड़ा है। इसलिए यदि तुम्हारे मन में कोई विचार आता है या कोई समझ उत्पन्न होती है तो इसे बताने से पहले इसे प्रमाणित करना सबसे अच्छा रहता है। तुम्हें इस बात को किसी लेख में लिखने, इसे पाठ का रूप देने या इसे भजन के रूप में लिखने से पहले पर्याप्त तथ्यात्मक और सैद्धांतिक आधार की जरूरत है। यदि तुम्हारे पास पर्याप्त तथ्य और सैद्धांतिक आधार नहीं है तो तुम जिन तथ्यों को स्थापित करना चाहते हो या जिन बातों को तुम “सत्य” मानते हो, वे बहुत अव्यावहारिक हैं; वे केवल खोखले सिद्धांत और भ्रामक शब्द हैं। यह भी कहा जा सकता है कि तुम अति लापरवाह हो और तुम ईशनिंदा वाली बातें कर रहे हो।

परमेश्वर ने अपने कार्य की शुरुआत से लेकर अब तक बहुत सारे सत्यों को व्यक्त किया है और ऐसे बहुत से वचन हैं जिनका संबंध लोगों की विभिन्न दशाओं और भ्रष्ट स्वभावों के साथ-साथ उनकी विभिन्न जरूरतों से है। इससे मेरा क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि लोगों के अनुभव, परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं के बारे में लोगों के ज्ञान से जुड़े विषयों के बारे में अनेक भजन लिखे जा सकते हैं। तुम्हें जिस भी पहलू का अनुभव है तुम उसके बारे में लिख सकते हो; यदि तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है तो यूँ ही तुक्के मत मारो। यदि तुम्हारे पास अनुभव है लेकिन तुम भजन लिखने में अच्छे नहीं हो, तो तुम लिखने से पहले किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़कर मार्गदर्शन ले सकते हो जो भजनों को समझता हो। जिन लोगों को भजनों की समझ नहीं है, उन्हें सिर्फ खानापूरी करने के लिए अनाप-शनाप लिखने से साफ बचना चाहिए। भजन लिखने वालों के पास अनुभव होना चाहिए और उन्हें इसके सिद्धांतों को भी समझना चाहिए; उन्हें दिल से बातें लिखनी चाहिए और व्यावहारिक शब्दों का उपयोग करना चाहिए ताकि वे जो भी भजन लिखें वह लोगों के काम आ सके। कुछ भजनों में बिल्कुल भी व्यावहारिक बातें नहीं होतीं बल्कि केवल ऐसे खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं जिनसे लोगों का कुछ भी भला नहीं होता; इस तरह के भजन न लिखना ही बेहतर है। कुछ लोग खुद भजन लिखते हैं और फिर दूसरों से इनमें सुधार कराते हैं लेकिन उनके भजन सुधारने वाले लोगों के पास नकली अनुभव और साहित्यिक प्रतिभा के अलावा और कोई अनुभव नहीं होता है। क्या यह धोखा देने वाली बात नहीं है? उनके पास अपना कोई अनुभव नहीं है, फिर भी वे दूसरों के लिखे किसी भजन को सुधारना चाहते हैं—उनमें आत्म-ज्ञान की कमी है। इसलिए जिनके पास कोई अनुभव या सच्चा ज्ञान नहीं है, उन्हें कभी भी कोई भजन नहीं लिखना चाहिए। एक तो वे किसी का कोई भला नहीं करेंगे, दूसरा वे खुद को बेवकूफ बना रहे होंगे।

कुछ हद तक भजन गाने का उद्देश्य परमेश्वर की स्तुति करना और कुछ हद तक आध्यात्मिक भक्ति और आत्म-चिंतन में लीन होना होता है, जिससे खुद को इसका लाभ मिल सके। किसी भजन का कोई महत्व है या नहीं, यह इस बात से तय होता है कि क्या उसके बोल फायदेमंद हैं और लोगों का भला करते हैं। यदि कोई भजन एक अच्छा अनुभवजन्य भजन है तो इसमें कई ऐसे शब्द होंगे जो लोगों का भला करते हैं और जो उनके लिए उपयोगी हैं। उपयोगी शब्दों का मतलब क्या है? उपयोगी शब्दों का मतलब ऐसे बोल हैं जिनके बारे में तुम हर बार अपने अनुभवों में किसी चीज का सामना करने पर सोच सकते हो। ये बोल तुम्हें एक दिशा दिखा सकते हैं और तुम्हें चलने के लिए एक मार्ग प्रदान कर सकते हैं; वे तुम्हें कुछ सहायता, प्रेरणा और मार्गदर्शन दे सकते हैं या वे तुम्हें कुछ रोशनी दे सकते हैं ताकि व्यावहारिक अनुभवों से प्राप्त होने वाले इन शब्दों से तुम्हें वह रुख, वह रवैया और वह दृष्टिकोण मिल सके जिसे तुम्हें अपनाना चाहिए, वह आस्था मिले जो तुम्हारे पास होनी चाहिए और वह मार्ग मिले जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। या इन शब्दों से तुम अपनी विकृतियों और भ्रष्ट दशा के कुछ पहलुओं को पहचान सकते हो और अपनी भ्रष्टता के खुलासों या अपने विचारों और नजरियों को पहचान सकते हो। ये सभी बातें लोगों के लिए मददगार हैं। ये लोगों के लिए सहायक क्यों हैं? क्योंकि ये सत्य के अनुरूप हैं और ये लोगों के अनुभव और एहसास होते हैं। यदि इन बोलों में वास्तव में ऐसी व्यावहारिक बातें हैं जो तुम्हारे जीवन के अनुभव के लिए या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के समाधान के संबंध में तुम्हारी सहायता करने, तुम्हारा मार्गदर्शन करने, तुम्हें प्रबुद्ध करने या चेताने में लाभकारी हो सकती हैं तो ये मूल्यवान और व्यावहारिक बोल हैं। कुछ बोल भले ही साधारण हैं, लेकिन वे व्यावहारिक हैं; हो सकता है कि कुछ बोल इतने सुंदर ढंग से न लिखे गए हों, वे किसी कविता या गद्य से मिलते-जुलते न हों और वे सभी आम बोली में और दिल को छूने वाले हों, लेकिन यदि ये शब्द सत्य की समझ को व्यक्त करते हैं और यदि वे सत्य का सच्चा अनुभव व्यक्त करते हैं तो फिर ये तुम्हें सीख देने वाले हैं और इसलिए व्यावहारिक और मूल्यवान हैं। अभी तुम लोगों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि तुम्हें पहचान करनी नहीं आती; तुम लोग यह भी नहीं समझ सकते कि क्या कोई बोल केवल खोखले शब्द हैं या शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं। चाहे जो भी शब्द गाए जाएँ, तुम्हें ठीक ही लगते हैं; तुम इस बात पर बिल्कुल भी विचार नहीं करते कि क्या भजन के बोल व्यावहारिक हैं, क्या इनमें सत्य की रोशनी है, क्या ये लोगों के लिए किसी काम के हैं या क्या ये तुम लोगों लिए कुछ फायदेमंद हैं—इनमें से कोई भी बात तुम्हारे दिमाग में नहीं आती है। और भजन गाने के बाद तुम्हें अभी भी ऐसा लगता है कि वे काफी अच्छे और सुंदर हैं, लेकिन तुम यह नहीं जानते कि उनका तुम पर किस तरह का प्रभाव पड़ा है। क्या यह एक ऐसे व्यक्ति की निशानी नहीं है जिसमें समझ-बूझ की कमी है?

एक भजन है “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई,” और उस भजन की एक-एक पँक्ति व्यावहारिक अनुभव से उपजा एक एहसास है, यह लोगों के लिए बहुत मददगार है—क्या तुम लोगों में से किसी ने कभी यह भजन सुना है? गीत के बोल जितने बेहतर होंगे, लोगों के जीवन के लिए जितने शिक्षाप्रद होंगे, उन्हें स्वीकार करने के लिए तुम लोग उतने ही अधिक अनिच्छुक होगे। तुम लोग इन पर विचार करने से इनकार कर देते हो या ध्यान नहीं देते हो, तुम लोग इन अच्छी चीजों को संजोकर नहीं रखते हो, तुम लोग नहीं जानते कि किसी बेशकीमती चीज को कैसे संजोकर रखते हैं—जब यह तुम्हारे पास होती है, तो यह तुम्हारी पकड़ से फिसल जाती है। तुम सब लोग वास्तव में कितने दरिद्र और दयनीय हो! सभाओं में कई बार मैंने इस भजन की अनुशंसा की है। नियमित रूप से इस तरह के भजन गाने से तुम्हारे प्रवेश पर, परमेश्वर में तुम्हारी आस्था की वृद्धि पर और परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण की प्राप्ति पर सहज प्रभाव पड़ता है। ये प्रभाव असीम हैं। यह एक बेशकीमती भजन है, इसलिए मैं इसकी अनुशंसा करता हूँ, फिर भी तुम लोगों में से कोई भी इसे नहीं गाता। तुम लोग अभी भी नहीं जानते कि कौन-सी चीज वास्तविकता है और कौन-सी चीजें केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं, इसलिए तुम लोगों को ये भजन बार-बार गाने और वास्तव में उन्हें महसूस करने की जरूरत है। आइए, हम इसका विश्लेषण करें।

भजन की पहली पँक्ति है, “परमेश्वर से प्रेम करने का फैसला करने के बाद, वह मुझसे चाहे जो कुछ भी छीनना चाहे, मैं उसे छीनने दूँगा।” वह क्या छीन लेगा? किसी का रुतबा, किसी का परिवार, किसी की छवि और यहाँ तक कि किसी की गरिमा भी। अय्यूब पर शुद्धिकरण के कौन-से तत्व आन पड़े थे? परमेश्वर ने क्या किया? (उसने अय्यूब की संपत्ति और उसके बच्चों को छीन लिया।) परमेश्वर ने उससे सब कुछ ले लिया, एक पल में उसके पास कुछ भी नहीं था और उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया था। इसे अभाव कहते हैं। वस्तुतः यह अभाव है और इस कृत्य के बारे में आम विचार यह था कि परमेश्वर अय्यूब की परीक्षा लेना चाहता था; यह एक परीक्षण था और अभाव, परीक्षण हेतु नियत कार्यों में से एक था। गीत के अगले बोल हैं : “थोड़ा उदास होने के बावजूद, मैं शिकायत का एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालता।” क्या यह मानवीय दृष्टिकोण नहीं है? (बिल्कुल है।) “थोड़ा उदास होना।” तुम्हारे विचार से क्या लोगों को कठिनाई होती है जब परमेश्वर उनसे कुछ छीन लेता है? (हाँ।) उन्हें कठिनाई होती है, वे दुःखी, उदास, असहाय और निराश महसूस करते हैं; वे रोना, गुस्सा दिखाना और विद्रोह करना चाहते हैं। इस दुःख के कई विवरण हैं तो क्या यह कथन यथार्थवादी है? (हाँ।) “मैं शिकायत का एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालता।” क्या मनुष्य को एक भी शिकायत नहीं है? यह असंभव है, लेकिन लोगों को इसी प्रकार ऊपर उठने के प्रयास करने की जरूरत है; उन्हें इसका अनुभव करने और इस प्रकार का रवैया अपनाने की जरूरत है। क्या इन शब्दों में लोगों के लिए कोई सकारात्मक मार्गदर्शन है? (बिल्कुल है।) “मैं शिकायत का एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालता।” लोगों को ऐसा ही होना चाहिए कि उन्हें कोई शिकायत न हो; किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए। यदि लोगों को शिकायतें हैं तो उन्हें स्वयं को जानना चाहिए और परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए, उन्हें समर्पण करना चाहिए—यह परमेश्वर के प्रति मनुष्य के समर्पण का रवैया है। लोगों को शिकायत नहीं करनी चाहिए; शिकायत करना परमेश्वर के कार्य और परीक्षणों के विरुद्ध एक प्रकार का विद्रोह है और यह सच्चा समर्पण नहीं है। अगली पँक्ति है : “भ्रष्ट स्वभाव के साथ, न्याय और ताड़ना के लायक है इंसान।” क्या यह तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह एक तथ्य है कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं लेकिन अगर वे यह तथ्य नहीं पहचानते हैं तो क्या वे यह कथन बोल सकते हैं? यदि लोग इसे नहीं पहचानते तो वे इसे स्वीकार भी नहीं करेंगे; यदि वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं तो वे इस तरह के कथन नहीं कहेंगे, इसलिए यह पँक्ति लोगों के सच्चे अनुभव से ली गई है। वाक्यांश “न्याय और ताड़ना के लायक है इंसान” काफी सरल दिखता है लेकिन इसका निहित अर्थ क्या है? इसका निहित अर्थ है कि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हैं और उसका विरोध करते हैं, और वे न्याय और ताड़ना के पात्र हैं। चाहे इसमें कितना भी कष्ट सहना पड़े यह सार्थक है—परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। क्या ये शब्द यथार्थवादी हैं? (बिल्कुल हैं।) यह भ्रष्ट स्वभाव होने की एक पूरी तरह से व्यक्तिनिष्ठ स्वीकृति है, साथ ही न्याय और ताड़ना को आसानी से स्वीकारते हुए यह मानना है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना का कार्य लोगों के लिए उद्धार है और परमेश्वर को इसी तरह से कार्य करना चाहिए। यह न्याय और ताड़ना में परमेश्वर की कार्य पद्धति के प्रति समर्पण का रवैया है। क्या लोगों में इस प्रकार का रवैया होना चाहिए? (बिल्कुल।) वास्तव में उनमें ऐसा रवैया होना चाहिए। तो क्या यह भजन गाने के बाद लोगों को फायदा होता है? (बिल्कुल।) इससे क्या लाभ होता है? यदि तुम ये शब्द नहीं गाते हो तो तुम यह तथ्य नहीं जान पाओगे, तुम नहीं जान पाओगे कि तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण रखना चाहिए, तुम्हें कैसे समर्पण करना चाहिए या परमेश्वर के न्याय व ताड़ना के प्रति समर्पित होने और इसे स्वीकारने के लिए तुम्हें किस प्रकार का रवैया अपनाना चाहिए। लेकिन यदि तुम यह भजन गाते हो और इसके बोलों पर विचार करते हो तो तुम महसूस करोगे कि ये शब्द कितने अच्छे हैं—कि ये सही हैं, तुम इनके लिए “आमीन” कह सकते हो और यह स्वीकार कर सकते हो कि ये अनुभव से उपजे हैं। क्या ये शब्द उदात्त प्रतीत होते हैं? (नहीं।) लेकिन ये तुम्हें सकारात्मक मार्गदर्शन देते हैं, एक सक्रिय और सकारात्मक मार्ग प्रदान करते हैं। जब तुम पाते हो कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और परमेश्वर तुम्हें न्याय व ताड़ना देता है तो ये शब्द तुम्हें एक सही दृष्टिकोण और अभ्यास का मार्ग देंगे। सबसे पहले तुम्हें यह पहचानना होगा कि जब लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हों तो उन्हें परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए। कहने को कुछ नहीं है; परमेश्वर से बहस मत करो। चाहे तुम उसके इरादों को समझ पाओ या नहीं, पहले तुम्हें समर्पण करना होगा। तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव का कारण कौन है? तुमसे परमेश्वर का विरोध किसने कराया? तुम न्याय और ताड़ना के पात्र हो। यह समर्पण कहाँ से आता है? क्या यह व्यावहारिक मार्ग नहीं है? यह अभ्यास का मार्ग है। ये बोल गाने के बाद कैसा महसूस होगा? क्या ये बोल बहुत व्यावहारिक नहीं हैं? वे अत्यंत आश्चर्यजनक या इतने उदात्त नहीं हैं, वे बिल्कुल सामान्य हैं लेकिन वे एक तथ्यात्मकता व्यक्त करते हैं और साथ ही वे भजन गाने वाले सभी लोगों को अभ्यास करने का एक मार्ग प्रदान करते हैं। हो सकता है कि ये उतनी खूबसूरती से तैयार न किए गए हों लेकिन ये व्यावहारिक हैं।

अगली पँक्ति को देखते हैं : “परमेश्वर का वचन सत्य है; मुझे उसके इरादों का गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए।” क्या यह कथन सही है? (बिल्कुल।) इसमें क्या सही है? कुछ लोग कहते हैं कि “‘परमेश्वर का वचन सत्य है,’ क्या यह स्पष्ट नहीं है जो इसे भी समझाया जाए? क्या यह धर्म-सिद्धांत नहीं है?” यह पँक्ति अगली पँक्ति के लिए एक नींव का कार्य करती है : “मुझे उसके इरादों का गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए।” यह वाक्यांश कैसे आया? किस मनोदशा और किस अवस्था ने इसे जन्म दिया? (यदि लोग वास्तव में विश्वास करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है तो वे परमेश्वर को गलत नहीं समझेंगे।) चूँकि तुम मानते हो कि परमेश्वर का वचन सत्य है, तुम्हें परमेश्वर के इरादों का गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए। अगर कोई गलतफहमी पैदा हो जाए तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तत्काल अपने इरादों को दरकिनार कर सत्य की खोज करो। धर्म-सिद्धांत के लिहाज से, यदि तुम जानते हो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं फिर भी तुम परमेश्वर के इरादों का गलत अर्थ निकालते हो तो यहाँ गलती कहाँ हो रही है? (गलती सत्य को स्वीकार न करने में है।) सही कहा। इसलिए लोगों को विनम्र होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों का गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए। चूँकि तुम मानते हो कि परमेश्वर का वचन सत्य है—यह एक सिद्धांत है जिसे तुम समझते हो—तो जब वास्तविक घटनाएँ तुम्हारे साथ घटती हैं तो तुम परमेश्वर के हृदय को गलत क्यों समझते हो? इससे साबित होता है कि तुमने वास्तव में इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया है कि परमेश्वर का वचन सत्य है। तो क्या यह पँक्ति इशारे का काम नहीं करती? यह पँक्ति तुम्हें क्या सुझाव देती है? (हमें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर का वचन सत्य है, हमें इस तथ्य को दृढ़ता से पहचान लेना चाहिए।) तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर का वचन सही है, यह सत्य है। चूँकि तुम यह मानते हो कि परमेश्वर का वचन सत्य है, इसलिए जब तुम्हारे साथ कुछ घटित हो तो अपने इरादों को सत्य या उद्देश्य मत मानो; बल्कि तुम्हें यह देखना चाहिए कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं। इसके अलावा, क्या यह सत्य है कि परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है? (हाँ, सत्य है।) यदि तुम यह मानते हो कि यह सत्य है तो क्या तुम परमेश्वर के इरादों का गलत अर्थ निकाल सकते हो? मान लो कि तुम मन-ही-मन ऐसे वाक्यांशों पर मनन करते हो कि “क्या परमेश्वर मेरी निंदा करेगा? यदि मेरी निंदा की गई तो क्या मुझे दंड दिया जाएगा? क्या ऐसा है कि परमेश्वर को मैं अप्रिय लगता हूँ और क्या वह मुझे नष्ट कर देगा?” तो क्या ये सब गलतफहमियाँ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) ये सब गलतफहमियाँ हैं। तो इस पँक्ति से कि “परमेश्वर का वचन सत्य है; मुझे उसके इरादों का गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए” क्या तुम लोगों को कुछ एहसास नहीं होता? क्या ऐसा नहीं है कि तुम्हें अपनी गलतफहमियों से बाहर निकलना चाहिए और परमेश्वर के परीक्षणों, न्याय और ताड़ना को स्वीकारना चाहिए? (बिल्कुल स्वीकारना चाहिए।) स्वीकृति का आधार क्या है? यह तुम्हारी दृढ़ स्वीकृति है कि परमेश्वर के वचन सही हैं, कि वे सत्य हैं। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं और वे ही गलत हैं। लोग परमेश्वर के इरादों के बारे में अटकलें लगाने के लिए अपने इरादों का उपयोग नहीं कर सकते; परमेश्वर गलत नहीं है। यह स्थापित होने के बाद कि परमेश्वर गलत नहीं है, वह जो कुछ भी करता है लोगों को स्वीकारना चाहिए।

अगली पँक्ति है : “आत्म-चिंतन करता हूँ तो अक्सर बहुत ज़्यादा मलिनता पाता हूँ।” आत्म-चिंतन से इस मलिनता की पहचान कैसे होती है? (जब लोग अपनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं।) इसकी पहचान तब होती है जब लोग अपनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं; यह इसका एक पहलू है। जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, जब वह लोगों के लिए जो परिस्थितियाँ व्यवस्थित करता है वे उनकी पसंद के अनुसार नहीं होती हैं तो लोग अक्सर आश्चर्य करते हैं, “क्या परमेश्वर अब मुझसे प्रेम नहीं करता? क्या परमेश्वर धार्मिक नहीं है? ऐसा करते समय वह धार्मिक नहीं है—उसके कार्य सत्य के अनुरूप नहीं हैं और वह लोगों की कठिनाइयों के प्रति विचारशील नहीं है।” लोग हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध षड्यंत्र रचते रहते हैं जिससे उसके संबंध में हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव, विचार, विचारधाराएँ, दृष्टिकोण और संदेह पनपते रहते हैं। क्या ये मलिनताएँ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) निःसंदेह, यह भी लोगों की भ्रष्टता का एक संकेत है। अगली पँक्ति में कहा गया है कि “यदि मैं अपनी पूरी ताकत से प्रयास नहीं करता हूँ तो पूर्ण बनना मुश्किल हो सकता है,” ये बोल गीतकार के अपने विचार हैं जिन्हें उसने चिंतन के जरिए पहचाना है। तुम अपनी स्वयं की मलिनता पर आत्म-चिंतन नहीं करते हो, हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो और केवल मौखिक रूप से स्वीकारते हो कि वह सत्य है, फिर भी जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटती हैं तो तुम अपने विचारों पर अड़े रहने पर जोर देते हो, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हो, उसकी शिकायत करते हो, उसे गलत समझते हो और उसकी न्याय व ताड़ना को स्वीकार नहीं करते हो। यदि तुम ये सब नहीं छोड़ते हो तो तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बहुत कठिन होगा; अर्थात तुम्हें पूर्ण बनाया जाना असंभव होगा और कोई आशा नहीं होगी क्योंकि तुम सत्य स्वीकारने में असमर्थ हो। तुम्हारे विचार से क्या इन गीतों का कोई व्यावहारिक पहलू नहीं है? (बिल्कुल है।) इस भजन की प्रत्येक पँक्ति में उन वास्तविक दशाओं की भाषा और वर्णन शामिल हैं जो तब उभरती हैं जब लोग वास्तव में इन स्थितियों का अनुभव करते हैं।

आइए, अगली पँक्ति देखते हैं : “भले ही आज बहुत सारे कष्ट हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रेम का आनंद लेना सम्मान की बात है।” यहाँ कष्ट परमेश्वर के प्रेम और सम्मान से जुड़े हैं। क्या यह वास्तविक अनुभव से उपजी हुई चीज नहीं है? क्या यह किसी के वास्तविक कार्यों और अनुभवों से विकसित एक प्रकार की सच्ची आस्था और रवैया नहीं है? ये शब्द कोरी कल्पनाएँ नहीं हैं, ये किसी मनोदशा, किसी माहौल, किसी घटना की पृष्ठभूमि में उपजे हैं। तुम इस रवैये के बारे में क्या सोचते हो? लोग बहुत कष्ट सहन करते हैं और ये कष्ट सत्यनिष्ठा व गरिमा खोने का कारण बनते हैं, अन्य कठिनाइयों के साथ-साथ लोगों को उनके रुतबे और हितों से वंचित करते हैं जिससे उन्हें बहुत अधिक पीड़ा होती है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने के बाद उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था व परमेश्वर का सच्चा ज्ञान विकसित हो जाता है; उन्हें लगता है कि यह सब परमेश्वर के प्रेम का आनंद है, यह परमेश्वर का विशेष उपकार है और ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें सता रहा है। वे सोचते हैं कि यह एक सम्मान है और परमेश्वर उनसे प्रेम करता है, और इसलिए परमेश्वर इस तरह से काम करता है, उन्हें वंचित करता है और उनकी परीक्षा लेता है, और उन्हे न्याय व ताड़ना देता है। यह एक वास्तविक जीवन संदर्भ से विकसित हुई वास्तविक और सकारात्मक मनःस्थिति है जो लोगों में होनी चाहिए। किस प्रकार का व्यक्ति कहेगा कि “भले ही आज बहुत सारे कष्ट हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रेम का आनंद लेना सम्मान की बात है”? यह उस तरह का व्यक्ति नहीं कहेगा जिसने “प्रेम के कारण” भजन लिखा था। ऐसे लोग केवल भ्रमित, खोखले शब्द, कानफोड़ू वाक्यांश ही कह सकते हैं या बस नारे ही लगा सकते हैं। क्या वे यह कह पाएँगे, “भले ही आज बहुत सारे कष्ट हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रेम का आनंद लेना सम्मान की बात है”? क्या वे इन शब्दों को अपने हृदय की गहराइयों से कह पाएँगे? नहीं। उन्होंने जो कुछ कहा वे खोखले, अतिरंजित शब्द थे और ऐसे शब्द थे जिन्हें लोग सुनने को तैयार हैं, और अंत में उन्होंने जोड़-तोड़कर एक भजन बना लिया और खुद को काफी सक्षम और चतुर समझने लगे। मेरे विचार से उन गीतों का कोई भी शब्द एक धेले का भी नहीं है। वे सब निरर्थक हैं, इन्हें नष्ट कर देना चाहिए और भविष्य में किसी को भी ऐसे भजन गाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। यदि तुम गाना चाहते हो तो तुम्हें “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई” जैसे भजन गाने चाहिए, जिसमें सच्चे, दिल को छू लेने वाले शब्द हैं—ये शब्द लोगों के लिए शिक्षाप्रद हैं।

पहले पद की अंतिम पँक्ति में लिखा है : “कष्ट के जरिए मैं समर्पण सीखता हूँ” जिसका अर्थ है कि ये कष्ट ही लोगों को समर्पण करना सिखाते हैं। फिर इसमें लिखा है, “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई।” यह पँक्ति वास्तव में विषय के अनुकूल है। यह इन सब चीजों से गुजरने के बाद प्राप्त की गई अंतिम समझ और अनुभव है, यानी परमेश्वर का इरादा लोगों को बचाना है। लोगों को यह समझना चाहिए कि लोगों के लिए परमेश्वर का हृदय इससे बेहतर नहीं हो सकता और वह जो कुछ भी करता है वह उनके लिए लाभदायक है; वह जो करता है वह लोगों को परेशान या तंग करने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें शुद्ध करने के लिए करता है। यही कारण है कि गीतकार अपने दिल की गहराई से कह सकता है : परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई। यह मानवता की भाषा है। एक निश्चित मात्रा में अनुभव और समझ के बिना, परमेश्वर के काम और लोगों को बचाने के उसके तरीके के बारे में एक निश्चित मात्रा में अनुभव और समझ के बिना, और इन विशिष्ट विवरणों के बिना क्या कोई ऐसे शब्द बोल सकता है जैसे कि “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई”? बिल्कुल नहीं बोल सकता। इस वाक्यांश को फिर से देखो, “कष्ट के जरिए मैं समर्पण सीखता हूँ।” क्या इस पँक्ति का कोई व्यावहारिक पहलू है? क्या यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के बाद प्राप्त करते हैं या बटोरते हैं? (बिल्कुल है।) तो फिर कष्ट क्या होता है? क्या इसका मतलब खाने के लिए पर्याप्त भोजन न होना, पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े न होना या कारावास की कठिनाइयों का अनुभव करना है? यह इन तरीकों से शारीरिक पीड़ा की बात नहीं करता है; बल्कि यह एक लड़ाई है जिसे लोग सत्य, परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के उद्धार और परमेश्वर की श्रमसाध्य देखभाल के संबंध में अपने दिलों में अनुभव करते हैं। यह अनुभव करने के बाद लोगों को लगता है कि उन्होंने अपनी आशा के संदर्भ में अपने दिलों में बहुत कष्ट सहा है; वे अंततः परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए, सीखते हैं कि परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है और परमेश्वर क्या करता है इसका गहरा अनुभव प्राप्त करते हैं, और केवल तभी वे कह सकते हैं कि “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई।” अधिकतर लोग ऐसा वाक्य बोल नहीं पाते। मुझे यह भजन पसंद है; मुझे इस तरह का भजन पसंद है। यदि तुम अक्सर इस भजन को गाते हो तो यह निश्चित रूप से तुम्हारी मदद करेगा। इसकी प्रत्येक पँक्ति तुम लोगों के दैनिक जीवन में प्रकट भ्रष्ट स्वभाव पर एक संयमकारी प्रभाव डालती है, यह तुम लोगों के व्यावहारिक अनुभव और सत्य वास्तविकता में तुम्हारे प्रवेश के लिए एक मार्गदर्शक भी है और एक सहायक भी। खाली समय में इन गीतों को बार-बार पढ़ना तुम्हारे लिए कितना अच्छा रहेगा! क्या इस भजन में कोई ऐसी पँक्ति है जो किसी निश्चित दशा या सन्दर्भ में नहीं कही गयी हो? क्या कोई ऐसी पँक्ति है जिसका संबंध सत्य के किसी पहलू में प्रवेश करने से न हो? ऐसी कोई पँक्ति नहीं है—किसी में भी खोखले शब्द नहीं हैं। अंतिम कुछ पँक्तियाँ देखें : “हालाँकि मैं परमेश्वर को प्रेम करना चुनता हूँ, मगर मेरे प्रेम में मिलावट है मेरे ही विचारों की।” परमेश्वर को प्रेम करना चुनना एक व्यापक, सामान्य, सैद्धांतिक कथन है। वास्तव में इसका अर्थ है परमेश्वर का आदेश स्वीकारना, अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के लिए अपना जीवन खपाना, जिसे यहाँ “परमेश्वर को प्रेम करना” वाक्यांश में समाहित किया गया है। लोगों को लगता है कि उनमें अभी भी अपने विचारों की मिलावट है; स्वयं को जाने बिना और सत्य का कोई अनुभव किए बिना कौन ऐसा वाक्यांश बोल सकता है? तुम लोग निश्चित रूप से यह नहीं बोल सकते क्योंकि तुम्हारे पास उस अनुभव की कमी है। आगे के बोल हैं : “मुझे पतरस जैसा जोश पाने का प्रयास करना चाहिए”—गीतकार का लक्ष्य पतरस जैसा बनना है। तुम लोगों ने भी एक मानदंड और एक लक्ष्य निर्धारित किया है, तुम लोग भी पतरस की तरह बनना चाहते हो—तो तुम लोगों का रास्ता क्या है? तुम्हें भी प्रयास करना होगा, लेकिन क्या तुम यह वाक्यांश कह सकते हो “मेरे प्रेम में मिलावट है मेरे ही विचारों की”? यदि तुम यह भी नहीं जानते कि तुम्हारे प्रेम में तुम्हारे अपने ही विचारों की मिलावट का क्या मतलब है तो तुम पतरस जैसा जोश कैसे प्राप्त करोगे? इस वाक्यांश का एक व्यावहारिक पहलू भी है। आगे यह गीत और भी बेहतर हो जाता है : “परमेश्वर को मेरा प्रेम चाहे जैसा भी मिले, मेरी एकमात्र इच्छा उसे संतुष्ट करना है।” कष्टों और परीक्षणों का अनुभव करने के बाद लोगों की स्वयं से यही अपेक्षा होती है; यह परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने वाला रवैया है, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और सत्य का अनुसरण करने वाला रवैया है; यानी, परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम होने का अर्थ है अपने लक्ष्य को प्राप्त करना, इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई इसे किस हद तक प्राप्त कर सकता है। इन शब्दों का एक व्यावहारिक पक्ष भी है। क्या तुम इन्हें पढ़कर प्रोत्साहित और प्रेरित महसूस करते हो? (बिल्कुल।) इन्हें पढ़कर लोगों को एक लक्ष्य, एक प्रेरणा, एक दिशा मिलती है। कभी-कभी लोगों को लगता है कि चाहे वे कैसा भी कार्य करें, वे इसे अच्छी तरह से नहीं कर सकते और वे निराशा में डूब जाते हैं। लेकिन वे जब इन शब्दों को पढ़कर देख लेते हैं कि परमेश्वर लोगों से अधिक कुछ नहीं माँगता तो वे सोचते हैं, “मुझे बस परमेश्वर को संतुष्ट करना है। मैं और कुछ नहीं माँगता; मैं केवल अपनी शारीरिक इच्छाओं और प्राथमिकताओं को त्यागना चाहता हूँ और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ—यही पर्याप्त है।” अंत में यह इन शब्दों पर आकर खत्म होता है, “भले ही आज बहुत सारे कष्ट हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रेम का आनंद लेना सम्मान की बात है। कष्ट के जरिए मैं समर्पण सीखता हूँ। परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई।” ये शब्द काफी व्यावहारिक हैं।

कुल मिलाकर यह भजन “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई” सच्चे अनुभव की बात करता है। परमेश्वर के कार्य, उसकी ताड़ना, न्याय व परीक्षणों का अनुभव करने के बाद लोग समर्पण करना सीखते हैं, परमेश्वर के इरादों को समझते हैं और जानते हैं कि कोई भी हृदय उसके हृदय से बेहतर नहीं है। यह परमेश्वर का प्यारा पहलू है और लोग इसी का अनुभव करते हैं; और इसी का ज्ञान लोगों को होना चाहिए। यदि तुम लोग व्यावहारिक अनुभव और ज्ञान भरे इन गीतों की धुन बनाते हो और उन्हें अक्सर गाते हो तो इससे तुम लोगों का बहुत भला होगा। एक अर्थ में, परमेश्वर के वचनों के भजन गाने से लोगों को सत्य को बेहतर ढंग से समझने और सत्य वास्तविकता में शीघ्रता से प्रवेश करने में मदद मिल सकती है; दूसरे अर्थ में, जिन लोगों के पास वास्तविकता है उनके द्वारा लिखे गए इन अनुभवजन्य भजनों को गाने से तुम लोगों के अनुभवों और समझ में प्रगति होगी। ये लोगों के कुछ अनुभव प्राप्त करने के बाद लिखी गई अंतर्दृष्टियाँ व समझ हैं और इनमें प्रवेश का वह मार्ग और दिशा भी शामिल है जो लोगों के पास होने चाहिए। ये तुम लोगों के लिए बने-बनाए उपलब्ध हैं और तुम्हारी जबरदस्त मदद करेंगे। तुम लोग ऐसे अनुभवजन्य गीतों पर संगीत रचना क्यों नहीं करते? तुम हमेशा खोखले, अव्यावहारिक और घिसे-पिटे गीतों के लिए संगीत क्यों रचते हो? तुम लोग बड़े नासमझ हो, तुम नहीं जानते कि एक अच्छा भजन किससे बनता है—तुम बहुत निराश करते हो! ये अनुभवजन्य भजन लोगों का बहुत भला करते हैं; इन व्यावहारिक शब्दों को नियमित रूप से गाने से ये लोगों के दिल में छप जाते हैं जिससे उनके जीवन प्रवेश और स्वभाव परिवर्तन में बहुत सहायता मिलती है। यदि तुम लोग हमेशा परमेश्वर का अनुग्रह, उसका प्रेम, उसका आशीष और उसकी दया और दयालुता की प्रशंसा करते हुए अनुग्रह के युग वाले चरण में ही अटके रहोगे तो क्या तुम लोग कभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे? तुम लोगों का आध्यात्मिक कद और स्थिति अत्यंत दयनीय रूप के छोटे रहते हैं, हमेशा सतही स्तर पर अटके रहते हैं; तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए कुछ अच्छे भजनों के बिना तुम लोगों के लिए अपने दम पर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत कठिन होगा। “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई” वाले भजन को देखो, अपने खाली समय में इस भजन को पढ़ो, प्रार्थना करो। इसमें एक रास्ता शामिल है जो तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में तुम्हारी मदद करेगा; यह तुम्हें सही दिशा दिखा सकता है ताकि तुम्हारे पास सही दृष्टिकोण हो। कुछ सही दृष्टिकोण कौन-से हैं? “भ्रष्ट स्वभाव के साथ, न्याय और ताड़ना के लायक है इंसान।” क्या यह वैसा ही सही और शुद्ध दृष्टिकोण नहीं है जैसा कि लोगों के पास होना चाहिए? इसके साथ ये शब्द कि “परमेश्वर का वचन सत्य है; मुझे उसके इरादों का गलत अर्थ नहीं निकालना चाहिए” क्या सही हैं? (हाँ, वे सही हैं।) वास्तव में तुम्हें उन्हें स्वीकारना होगा, तुम्हें उनसे जुड़ना होगा और उनका अनुभव करना होगा, और जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटित होंगी तो तुम्हारे पास आगे बढ़ने के लिए एक रास्ता होगा; ये शब्द तुम्हारे कार्यों और आचरण के लिए एक दिशा बन जाएँगे। और फिर आगे लिखा है, “यदि मैं अपनी पूरी ताकत से प्रयास नहीं करता हूँ तो पूर्ण बनना मुश्किल हो सकता है।” यह एक सही परिप्रेक्ष्य का भी प्रतिनिधित्व करता है। इस पँक्ति कि “कष्ट के जरिए मैं समर्पण सीखता हूँ। परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई” के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? क्या यह वह परिप्रेक्ष्य है जो व्यक्ति के पास होना चाहिए? (बिल्कुल।) ध्यान से देखो : यहाँ एक भी वाक्य में केवल खोखली बातें या महज शब्द और धर्म-सिद्धांत नहीं हैं; ये सभी वास्तविक अनुभव से उपजी समझ और अंतर्दृष्टि की बात करते हैं। पिछले भजन “प्रेम के कारण” से तुलना करें तो तुम लोगों को कौन-सा व्यावहारिक लगता है? जो व्यावहारिक है उसे रखना चाहिए जबकि जो खोखला है उसे हटा देना चाहिए और त्याग देना चाहिए; उसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे वे भजन गाने की आदत पड़ चुकी है; वे मेरे हृदय में प्रवेश कर चुके हैं और मैं उनके बिना नहीं रह सकता।” यदि तुम उनके बिना नहीं रह सकते तो आगे बढ़ो और उन्हें गाते रहो। मैं देखूँगा कि बीस वर्षों तक उन्हें गाने के बाद तुमने क्या हासिल किया है, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो कि नहीं। यदि तुम भजन “परमेश्वर के दिल से बेहतर नहीं है दिल कोई” गाते हो तो इसे एक-दो बार गाने के बाद ही यह तुम्हारे दिल पर कब्जा कर लेगा। एक-दो महीने तक इसे गाने के बाद तुम्हारी स्थिति कुछ हद तक बदल जाएगी और यदि तुम वास्तव में इसके शब्दों को अपने दिल की गहराई से स्वीकारते हो तो तुम्हारी आंतरिक स्थिति अलग हो जाएगी, और तुमने इसे पूरी तरह से बदल दिया होगा। तुम जीवन भर खोखले सिद्धांतों और बकवास से भरे भजन गा सकते हो लेकिन इससे कोई फायदा नहीं होगा। ठीक अनुग्रह के युग के लोगों की तरह जिन्होंने उन खोखले और सतही भजनों को गाया और उन भजनों को जीवन-भर गाया लेकिन सत्य प्राप्त नहीं किया—यह सिर्फ समय की बर्बादी है।

12 जनवरी 2022

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