मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों का सौदा तक कर देते हैं (भाग नौ)
II. मसीह-विरोधियों के हित
घ. उनकी संभावनाएँ और नियति
4. मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की भूमिका के साथ कैसे पेश आते हैं
आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में से मद नौ पर संगति करना जारी रखेंगे : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों का सौदा तक कर देते हैं। इस मद के साथ हमारी मुख्य संगति का विषय मसीह-विरोधियों के हितों का विश्लेषण है और आज हम मसीह-विरोधियों के हितों की चौथी मद के चौथे उपविषय पर संगति करेंगे—वे “सेवाकर्ता” की उपाधि को किस नजरिये से देखते हैं—और यह गहन विश्लेषण करेंगे कि मसीह-विरोधी इस उपाधि को किस प्रकार देखते हैं। जो लोग अब तक परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं, वे “सेवाकर्मी” शब्द से परिचित हैं, और उनमें से अधिकांश ने अपने दिलों में इस उपाधि को मूल रूप से स्वीकार कर लिया है। उनकी व्यक्तिपरक प्रवृत्तियों के लिहाज से इस उपाधि के प्रति कोई विरोध नहीं है। हालाँकि, जब किसी व्यक्ति को सेवाकर्ता कहने की बारीकियों की बात आती है तो वह व्यक्ति मुख्य रूप से अनिच्छा और असहमति व्यक्त करता है, अपने साथ अन्याय महसूस करता है, न तो वास्तव में ऐसा कहलाना चाहता है और न ही वास्तव में सेवाकर्ता बनना चाहता है। लोगों की अभिव्यक्तियों के आधार पर देखें तो वे इस बात से तो सहमत होते हैं कि “सेवाकर्ता” उपाधि उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों के अनुसार बुरी नहीं है, लेकिन एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से लोग अब भी “सेवाकर्ता” की उपाधि को कुछ हद तक भेदभाव, शत्रुता और यहाँ तक कि अनिच्छा के साथ देखते हैं—उनके मन में इस उपाधि के प्रति ये भावनाएँ होती हैं। लोग “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में चाहे कुछ भी सोचें, चाहे वे इसे ईमानदारी से स्वीकार कर सेवाकर्ता बन सकें या नहीं, या चाहे इस उपाधि के बारे में उनकी सोच में मनुष्य की कई अशुद्धियाँ और इच्छाएँ शामिल हों या नहीं, आज हम पहले इस पर संगति करेंगे कि वास्तव में सेवाकर्ता क्या होता है, परमेश्वर की नजरों में “सेवाकर्ता” की उपाधि कैसे परिभाषित और वर्गीकृत होती है, परमेश्वर इन सेवाकर्ताओं के जिस सार की बात करता है वह क्या है, और परमेश्वर “सेवाकर्ता” शब्द को किस दृष्टिकोण से देखता है और यह लोगों की दृष्टि से कैसे भिन्न है, ताकि तुम सबके मन में “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में सटीक समझ और धारणाअवधारणा विकसित हो सके।
i. “सेवाकर्ता” की भूमिका की परिभाषा और उत्पत्ति
“सेवाकर्ता” शब्द का शाब्दिक अर्थ है एक ऐसा व्यक्ति जो किसी किसी चीज के लिए कार्य और प्रयास करता है। अगर हम इस उपाधि को पद के संदर्भ में मापें तो इसका आशय किसी ऐसे व्यक्ति से है जिसका उपयोग अस्थायी अवधि के लिए किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर किसी को सेवाकर्ता माना जाता है और वह कोई नौकरी करने लगता है या किसी उद्योग में काम शुरू करता है, तो यह कोई दीर्घकालिक औद्योगिक करियर या नौकरी नहीं होती जिसे वह अपनाता है, बल्कि यह व्यवस्था अस्थायी होती है। उन्हें अस्थायी रूप से कुछ समय के लिए इस उद्योग या नौकरी में प्रयास और सेवा करने के लिए रखा जाता है। उनके पास कोई संभावनाएँ नहीं होतीं, न कोई भविष्य होता है और न ही उन्हें कोई भौतिक लाभ मिलता है। उन्हें किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी उठाने की जरूरत नहीं होती; उन्हें केवल अपने श्रम के लिए भुगतान किया जाता है। जब उन्हें सौंपा गया काम पूरा हो जाता है तो उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती और वे अपना मेहनताना लेकर चले जाते हैं। संक्षेप में कहें तो यह अस्थायी कार्य होता है और उनसे तभी काम कराया जाता है जब उनकी जरूरत होती है। यह एक सेवाकर्ता का शाब्दिक अर्थ है। अगर हम “सेवाकर्ता” शब्द की व्याख्या मानवजाति के विचारों के अनुसार करें तो सेवाकर्ताओं का आशय “अनुबंधित कर्मचारी” और “अस्थायी कर्मचारी” होता है जो किसी नौकरी या उद्योग के लिए अस्थायी रूप से काम या प्रयास करते हैं। उनका एकमात्र संबंध उस समय अवधि से होता है जब उनकी किसी नौकरी के लिए जरूरत होती है, और जैसे ही वह अवधि समाप्त हो जाती है, उनकी कोई कीमत नहीं रह जाती। इसका कारण यह है कि अब उनकी जरूरत नहीं रहती और उनका उपयोग मूल्य समाप्त हो चुका होता है—उनका मूल्य उस समय अवधि के दौरान समाप्त हो जाता है। यह “सेवाकर्ता” शब्द का शाब्दिक अर्थ है जिसे लोग समझ और देख सकते हैं। मानव भाषा द्वारा व्यक्त किए जा सकने वाले अर्थ के भीतर, अर्थात् परमेश्वर द्वारा “सेवाकर्ता” उपाधि के बताए गए अर्थ में, जिसे मनुष्य समझ सकता है, क्या अर्थ का ऐसा कोई स्तर है जो सत्य के अनुरूप हो? क्या ऐसा कोई स्तर है जो सामान्य मानवता और तार्किकता के अनुरूप हो? क्या ऐसा कोई स्तर है जिसे लोगों को एक सच्चे सृजित प्राणियों के रूप में समझना चाहिए? क्या अर्थ का ऐसा कोई स्तर है जो इस उपाधि के प्रति परमेश्वर के दृष्टिकोण से संबंधित है? (नहीं।) तुम लोगों को कैसे पता कि नहीं है? तुम लोग चकरा गए हो, तुम इसे समझा नहीं सकते। तुम लोगों में यूनिवर्सिटी के छात्र, ग्रेजुएट छात्र, डॉक्टोरल छात्र और प्रोफेसर हैं, फिर भी तुममें से कोई इसे स्पष्ट रूप से समझा नहीं सकता, है ना? (हाँ, सही कहा।) यही अंतर है ज्ञान और सत्य के बीच। तुम शिक्षित हो सकते हो, तुम “सेवा” और “कर्ता” जैसे शब्दों के व्यक्तिगत अर्थ जान सकते हो और जब ये शब्द मिलकर किसी किस्म के व्यक्ति या लोगों के समूह का चित्रण करने वाला एक नया शब्द बनाते हैं तो तुम उन लोगों के सार, उनकी अभिव्यक्तियों और समस्त मानवजाति में उनकी स्थिति को समझ सकते हो, लेकिन जब तुम इस शब्द को सत्य के दृष्टिकोण और एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से नहीं समझ पाते तो तुम्हारी समझ वास्तव में कहाँ से आती है? इस शब्द का सार वास्तव में क्या है जिसे तुम समझते हो? क्या यह “सेवाकर्ता” शब्द की वही समझ नहीं है जो इस भ्रष्ट मानवता, इस समाज और मानवजाति के ज्ञान से आई है? (हाँ, ऐसा ही है।) मानवजाति का ज्ञान सत्य के अनुरूप है या सत्य के विपरीत? (यह सत्य के विपरीत है।) तो जब तुम्हारे पास इस शब्द की यह समझ और ज्ञान है तो तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो या परमेश्वर की अनुरूपता में खड़े हो? जाहिर है, जब तुम इस शब्द को अपने ज्ञान और दिमाग से समझते और जानने की कोशिश करते हो, तो अनचाहे और अनजाने में ही तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो जाते हो। जब तुम इस शब्द को समझने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते हो तो जो बातें तुमने समझी हैं, वे अनिवार्य रूप से तुम्हें “सेवाकर्ता” शब्द के प्रति विरोध, घृणा, अरुचि और यहाँ तक कि नफरत महसूस करने की ओर ले जाती हैं। क्या यहाँ कोई समर्पण भाव है? क्या कोई सच्ची स्वीकृति है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “मैं अच्छे शब्दों को स्वीकार करता हूँ, लेकिन मुझे इस बुरे शब्द को क्यों स्वीकार करना चाहिए? इतना काफी है कि मैं इसके प्रति कोई विरोध महसूस नहीं करता। उदाहरण के लिए, मैं सकारात्मक शब्दों को स्वीकार करता हूँ जैसे ‘मुकुट प्राप्त करना’, ‘इनाम प्राप्त करना’, ‘आशीष प्राप्त करना’, ‘राज्य में प्रवेश करना’, ‘स्वर्ग में जाना’, ‘नरक न जाना’, ‘दंडित न होना’ और ‘पहलौठा पुत्र होना।’ यह स्वाभाविक है, यह मनुष्य की सामान्य प्रतिक्रिया है और ये ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। जहाँ तक नकारात्मक शब्दों का सवाल है, जैसे ‘दुष्ट लोग’, ‘मसीह-विरोधी’, ‘दंडित होना’ और ‘नरक में जाना’ तो इन्हें स्वीकार करना कोई पसंद नहीं करता। ‘सेवाकर्ता’ शब्द तटस्थ है, लेकिन अपनी समझ के अनुसार मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता और इतना ही काफी है कि मैं इसे तुच्छ नहीं समझता। अगर मुझे इसे स्वेच्छा से स्वीकार करना है, इसके प्रति समर्पण करना है और इसे परमेश्वर से स्वीकार करना है, तो यह संभव ही नहीं है।” क्या लोग ऐसे ही नहीं सोचते? (हाँ, ऐसा ही सोचते हैं।) सोचने का यह तरीका सही है या गलत? (यह गलत है।) तुम्हें यह कब पता चला कि यह गलत है? अभी-अभी, है ना? यह एक समस्या है। तुम्हें अभी-अभी पता चला है कि यह गलत है। यह एहसास होने से पहले लगता है तुमने सतही तौर पर “सेवाकर्ता” की उपाधि स्वीकार कर ली थी और तुमने इसे व्यक्तिगत रूप से भी स्वीकार कर लिया था—और यह स्वीकृति सच्ची थी या झूठी? (यह झूठी थी।) जाहिर है, यह सच्ची नहीं थीं और न ही तुम इसे स्वीकार करने के पूरी तरह तैयार थे। इसमें झूठ, दिखावा और अनिच्छा थी और साथ ही यह भावना भी थी कि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं है।
जिन चीजों पर हमने अभी संगति की, वे “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में लोगों की सच्ची प्रतिक्रियाएँ और अभिव्यक्तियाँ थीं, और वे पूरी तरह से इस उपाधि के प्रति लोगों की राय, दृष्टिकोण और उनकी समझ को प्रदर्शित करती हैं, इससे पूरी तरह से प्रकट होता है कि इस उपाधि के प्रति लोगों का रवैया अनिच्छा, भेदभाव, नफरत और उनके अंतरतम से विरोध का है। यह इसलिए है क्योंकि लोग सेवाकर्ता बनने से घृणा करते हैं, वे “सेवाकर्ता” शब्द से घृणा करते हैं, सेवाकर्ता बनने के लिए तैयार नहीं होते, और सेवाकर्ता बनने को सख्त नापसंद करते हैं। यह इस उपाधि के प्रति लोगों की समझ और रवैया है। अब, आओ यह देखें कि परमेश्वर सेवाकर्ताओं को वास्तव में किस दृष्टिकोण से देखता है, “सेवाकर्ता” शब्द कैसे आया, परमेश्वर की नजरों में इस उपाधि का सार क्या है और इसकी उत्पत्ति क्या है। मानवजाति की भाषा में कहें तो “सेवाकर्ता” का शाब्दिक अर्थ है एक अस्थायी कर्मचारी, जो किसी उद्योग या नौकरी में अस्थायी रूप से सेवा करता है और जिसकी आवश्यकता अस्थायी रूप से होती है। परमेश्वर की प्रबंधन योजना में, परमेश्वर के कार्य में और परमेश्वर के घर में सेवाकर्ता कहे जाने वाले लोगों का यह समूह अपरिहार्य है। जब ये लोग परमेश्वर के घर, परमेश्वर के कार्य के स्थान पर आए थे तो उन्हें परमेश्वर और परमेश्वर में आस्था के बारे में कुछ पता नहीं था, और परमेश्वर के कार्य या उसकी प्रबंधन योजना के बारे में तो वे और भी कम जानते थे। वे कुछ भी नहीं समझते थे; वे केवल बाहरी लोग थे, अविश्वासी थे। परमेश्वर की नजरों में अविश्वासी लोग जब परमेश्वर के घर में आते हैं तो वे उसके लिए क्या कर सकते हैं? यह कहा जा सकता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते। चूँकि लोग भ्रष्ट स्वभाव से भरे हुए होते हैं और परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते, और अपने प्रकृति सार के कारण भी वे केवल वही कर सकते हैं जो परमेश्वर उन्हें करने का निर्देश देता है। परमेश्वर का कार्य जिस सीमा तक पहुँचता है, वे उसका अनुसरण वहीं तक करते हैं, उनका ज्ञान वहीं तक पहुँचता है जहाँ तक परमेश्वर के वचन उन्हें ले जाते हैं; वे उसके वचनों को केवल जानते हैं, उन्हें उनकी समझ बिल्कुल भी नहीं होती। परमेश्वर इन लोगों से जो भी कार्य करने की अपेक्षा करता है, वे उसमें निष्क्रिय रूप से सहयोग करते हैं—वे सक्रिय नहीं होते, बल्कि पूरी तरह से निष्क्रिय होते हैं। यहाँ “निष्क्रिय” का अर्थ है कि वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर क्या करेगा, वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर उनसे क्या करने के लिए कह रहा है, वे उस कार्य का महत्व या मूल्य नहीं समझते जो परमेश्वर उनसे करने के लिए कह रहा है, और वे यह भी नहीं जानते कि उन्हें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। परमेश्वर के घर में आने पर वे मशीनों की तरह होते हैं, वे केवल उसी तरीके से कार्य करते हैं जैसा परमेश्वर उन्हें चलाता है। परमेश्वर को उनसे क्या चाहिए? क्या तुम लोगों को पता है? (लोग परमेश्वर के लिए न्याय के वास्ते सत्य व्यक्त करने का उद्देश्य हैं। लोग परमेश्वर के वचनों के उद्देश्य होते हैं।) एक हिस्सा यह है; मनुष्य परमेश्वर के वचनों के उद्देश्य होते हैं। और हिस्से क्या हैं? लोगों के गुण? (हाँ।) सामान्य मानवता की सोच? (हाँ।) परमेश्वर केवल तभी तुम्हारा उपयोग करता है जब तुम्हारे पास सामान्य मानवता की सोच होती है। अगर तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक नहीं है, तो तुम सेवाकर्ता बनने के भी योग्य भी नहीं हो। इसके अलावा और क्या है? (लोगों के कौशल और विशेष प्रतिभाएँ।) ये गुणों में शामिल होते हैं और उसका एक हिस्सा होते हैं—विभिन्न कौशल जो लोगों के पास होते हैं। और क्या? (परमेश्वर के साथ सहयोग करने का संकल्प।) यह भी इसका एक हिस्सा है, आज्ञा मानने और समर्पण करने की अभिलाषा, और निश्चित रूप से इसे लोगों की सकारात्मक चीजों से प्रेम करने और रोशनी से प्रेम करने की इच्छा भी कहा जा सकता है। आज्ञा मानने और समर्पण करने की अभिलाषा परमेश्वर के साथ सहयोग करने का संकल्प है, लेकिन इसे कहने का सबसे उपयुक्त तरीका कौन-सा है? (आज्ञा मानने और समर्पण करने की अभिलाषा।) यह सही बात है, “अभिलाषा” शब्द तुलनात्मक रूप से व्यापक है और इसका दायरा अधिक विस्तृत होता है। अगर हम “संकल्प” शब्द का उपयोग करते हैं, तो इसका दायरा कुछ हद तक सीमित हो जाता है। इसके अलावा, “अभिलाषा” की तीव्रता “संकल्प” की तुलना में हल्की होती है, जिसका अर्थ है कि अभिलाषा होने के बाद तुम धीरे-धीरे विभिन्न संकल्पों को उत्पन्न करते हो; संकल्प अधिक विशिष्ट होते हैं, जबकि अभिलाषाएँ कुछ मोटी बातें हैं। सृष्टिकर्ता के दृष्टिकोण से ये ऐसी कुछ चीजें हैं जो परमेश्वर को भ्रष्ट मानवता से चाहिए होती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब परमेश्वर के घर ऐसा कोई बाहरी व्यक्ति आता है जिसे परमेश्वर, परमेश्वर की प्रबंधन योजना, परमेश्वर के सार, परमेश्वर के कथन और परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कतई कुछ नहीं पता होता, तो वह एक मशीन की तरह होता है, और वह परमेश्वर के लिए जो कुछ कर सकता है उसका और परमेश्वर के कार्य में उनके सहयोग का मूल रूप से उस मानक—सत्य—से कोई वास्ता नहीं होता जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। ऐसे लोगों की जिन चीजों का परमेश्वर उपयोग कर सकता है, वे वही हैं जिनका अभी उल्लेख किया गया है : पहली यह कि ये लोग परमेश्वर के वचनों के उद्देश्य बन सकते हैं; दूसरी यह कि इन लोगों के पास जो गुण हैं; तीसरी यह कि इन लोगों के पास सामान्य मानवता की सोच है; चौथी यह कि इन लोगों के पास विभिन्न कौशल हैं; पाँचवीं—और यह सबसे महत्वपूर्ण है—इन लोगों में परमेश्वर का आज्ञापालन करने और उसके वचनों के प्रति समर्पण करने की अभिलाषा है। ये सभी चीजें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। जब किसी व्यक्ति के पास ये सभी चीजें आ जाती हैं, तब वह परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधन योजना की सेवा में काम करना शुरू कर देता है, और अधिकृत रूप से सही मार्ग पर आ जाता है, जिसका अर्थ है कि वह परमेश्वर के घर में अधिकृत रूप से एक सेवाकर्ता बन जाता है।
जब लोग परमेश्वर के वचनों, सत्य या परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते और वे परमेश्वर का जरा भी भय नहीं मानते, तो उनके लिए सेवाकर्ता के अलावा कोई और भूमिका नहीं हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम एक सेवाकर्ता हो चाहे तुम यह बनने के लिए तैयार हो या न हो—तुम इस उपाधि से बच नहीं सकते। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने जीवन भर परमेश्वर में विश्वास किया है। जब से मैंने यीशु पर विश्वास करना शुरू किया, तब से लेकर अब तक कई दशक बीत गए हैं—क्या मैं अब भी एक सेवाकर्ता ही हूँ?” तुम इस सवाल के बारे में क्या सोचते हो? वे यह किससे पूछ रहे हैं? उन्हें यह सवाल खुद से पूछकर आत्मचिंतन करना चाहिए : “क्या मैं अब परमेश्वर के इरादों को समझता हूँ? अब जब भी मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ, तो क्या मैं सिर्फ प्रयास कर रहा होता हूँ या मैं सत्य का अभ्यास करता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने और उसे समझने के मार्ग पर चल रहा हूँ? क्या मैंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया है? क्या मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? क्या मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति हूँ?” उन्हें इन बातों को ध्यान में रखते हुए आत्मचिंतन करना चाहिए। अगर वे इन मापदंडों को पूरा करते हैं, अगर वे परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करते समय दृढ़ रह सकते हैं, और अगर वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं, तो निश्चित रूप से वे अब एक सेवाकर्ता नहीं हैं। अगर वे इनमें से एक भी मापदंड पूरा नहीं करते तो निःसंदेह अब भी सेवाकर्ता ही हैं और यह एक ऐसी चीज है जिससे बचा नहीं जा सकता और जो अपरिहार्य है। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने 30 से अधिक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और इसमें मैंने यीशु पर विश्वास करने वाले वर्ष भी नहीं जोड़े हैं। जब-से परमेश्वर देहधारी हुआ, प्रकट हुआ, उसने अपना कार्य किया और अपने वचन बोलने शुरू किए, तब-से मैं परमेश्वर का अनुयायी हूँ। मैं उनमें से एक था जिन्होंने सबसे पहले परमेश्वर के कार्य का व्यक्तिगत अनुभव किया और उसके मुँह से निकले वचन सुने। तब से कई वर्ष बीत चुके हैं और मैं अब भी परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण कर रहा हूँ। मुझे कई बार गिरफ्तार किया गया और सताया गया और मैंने कई खतरों का सामना किया, परमेश्वर ने हमेशा मेरी रक्षा की और मुझे मार्गदर्शन दिया; परमेश्वर ने मुझे कभी नहीं छोड़ा। मैं अब भी अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, मेरी परिस्थितियाँ बेहतर होती जा रही हैं, मेरी आस्था लगातार बढ़ रही है, और मुझे परमेश्वर के बारे में कोई भी संदेह नहीं है—क्या मैं अब भी वास्तव में एक सेवाकर्ता हूँ?” तुम किससे पूछ रहे हो? क्या तुम गलत व्यक्ति से नहीं पूछ रहे हो? तुम्हें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए। चूँकि तुम इतने वर्षों से विश्वास करते चले आए हो, तो क्या तुम्हें यह पता नहीं है कि तुम एक सेवाकर्ता हो या नहीं? अगर तुम्हें यह नहीं पता तो तुम खुद से क्यों नहीं पूछते कि क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और क्या तुम बुराई से दूर रहने वाला आचरण करते हो? परमेश्वर ने इतने सारे वर्षों तक कार्य किया, इतने वचन बोले हैं तो तुमने इनमें से कितना समझा है और कितना इनमें प्रवेश किया है? तुमने कितना कुछ हासिल किया है? तुम्हारी कितनी बार काट-छाँट की गई और तुमने कितने परीक्षण और शोधन स्वीकार किए हैं? जब तुमने इन्हें स्वीकार किया तो क्या तुम अपनी गवाही में दृढ़ खड़े रहे? क्या तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम हो? जब तुम अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करते हो तो क्या तुम परमेश्वर को नकारने में सक्षम होते हो? वास्तव में परमेश्वर में तुम्हारी कितनी अधिक आस्था है? क्या तुम्हारी आस्था केवल एक विश्वास है या यह सच्ची आस्था है? खुद से ये सवाल पूछो। अगर तुम्हें इन सवालों के जवाब नहीं पता तो तुम एक भ्रमित व्यक्ति हो और मैं कह सकता हूँ कि तुम बस भेड़चाल के साथ चल रहे हो—तुम्हें तो एक सेवाकर्ता कहलाने का भी हक नहीं है। जो व्यक्ति “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति इस तरह का रवैया रखता है और जिसका दिल अब भी पूरी तरह उलझा हुआ है, वह बेहद दयनीय है। ऐसे लोगों को यह भी नहीं पता कि वे खुद क्या हैं, जबकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ अपने व्यवहार में पूरी तरह से स्पष्ट और सुलझा हुआ होता है।
अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि परमेश्वर के अनुसार “सेवाकर्ता” शब्द का मूल अर्थ वास्तव में क्या है। शुरुआत में जब लोग परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, जब वे सत्य को नहीं समझते हैं और उनमें केवल विभिन्न अभिलाषाएँ या कुछ सहयोग करने का संकल्प होता है तो उस अवधि के दौरान उनकी भूमिका सेवाकर्ता की ही हो सकती है। बेशक, “सेवा” शब्द सुनने में बहुत सुखद नहीं लगता। दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है परमेश्वर के प्रबंधन कार्य की सेवा करना और मानवता को बचाने के कार्य में योगदान देना; इसका अर्थ है प्रयास करना। ये लोग किसी भी सत्य को नहीं समझते हैं, न ही वे परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, और वे मानवता को बचाने और संभालने के लिए परमेश्वर जो विशिष्ट कार्य करता है उसमें कोई प्रयास नहीं कर सकते या किसी भी तरह से सहयोग नहीं कर सकते, न ही वे सत्य से संबंधित विभिन्न कार्यों में भागीदार हो सकते हैं। उनके पास केवल कुछ कौशल और गुण होते हैं, और वे केवल कुछ प्रयास कर सकते हैं और सामान्य कार्यों के लिए कुछ बातें कह सकते हैं और कुछ बाहरी सेवा कार्य कर सकते हैं। अगर अपना कर्तव्य निभा रहे लोगों के कार्य का यही सार है, अगर वे केवल सेवा की भूमिका निभा रहे हैं, तो उनके लिए “सेवाकर्ता” की उपाधि से पीछा छुड़ाना मुश्किल है। इससे पीछा छुड़ना क्यों मुश्किल है? क्या इसका इस उपाधि की परमेश्वर द्वारा दी गई परिभाषा से कोई संबंध है? हाँ, इसका निश्चित रूप से इससे संबंध है। लोगों के लिए अपनी सहज क्षमताओं, गुणों और बुद्धि के अनुसार थोड़ा प्रयास करना और काम करना बहुत आसान है, लेकिन सत्य के अनुसार जीना, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना बहुत कठिन है; इसके लिए समय, परमेश्वर के मार्गदर्शन, परमेश्वर से प्रबोधन और परमेश्वर के अनुशासन की आवश्यकता होती है और इससे भी अधिक, इसके लिए परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है। इसलिए जब लोग इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काम कर रहे होते हैं, तो अधिकतर लोग जो कर सकते हैं और प्रदान कर सकते हैं, वे वही चीजें हैं जिनका अभी जिक्र किया गया है : परमेश्वर के वचनों के उद्देश्य बनना, अपने पास कुछ गुण होना और परमेश्वर के घर में कुछ उपयोगी होना, सामान्य मानवता की सोच का होना और उन्हें सौंपे गए किसी भी काम को समझना और करना, कुछ कौशल होना और परमेश्वर के घर में किसी विशेष काम में अपनी विशेष प्रतिभाओं का उपयोग करना, और सबसे महत्वपूर्ण बात, आज्ञा मानने और समर्पण करने की अभिलाषा रखना। जब तुम परमेश्वर के घर में सेवा कर रहे होते हो, परमेश्वर के कार्य के लिए प्रयास कर रहे होते हो तो अगर तुम्हारे पास आज्ञा मानने और समर्पण करने की थोड़ी-सी भी अभिलाषा है, तो तुम नकारात्मक नहीं बनोगे और ढिलाई नहीं बरतोगे। बल्कि, तुम अपनी पूरी कोशिश करोगे कि आत्मसंयम का अभ्यास करो, बुरी चीजें कम से कम करो और अच्छी चीजें ज्यादा से ज्यादा करो। क्या अधिकतर लोग इसी दशा और स्थिति में नहीं हैं? बेशक, तुम लोगों में एक बहुत ही छोटा समूह ऐसा है जिसने पहले ही इस स्थिति और सीमा को पीछे छोड़ दिया है। और इस बहुत छोटे से समूह ने क्या प्राप्त किया है? इन लोगों ने सत्य को समझ लिया है और सत्य वास्तविकता को हासिल कर लिया है। समस्याएँ सामने आने पर वे प्रार्थना कर सकते हैं, परमेश्वर के इरादों को खोज सकते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं। उनकी आज्ञा मानने और समर्पण करने की अभिलाषा अब केवल संकल्प के स्तर पर ही नहीं रुकती, बल्कि वे परमेश्वर के वचनों का सक्रिय रूप से अभ्यास कर सकते हैं, परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हैं और समस्याओं का सामना करते समय उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है। वे बिना सोचे-समझे बात या कार्य नहीं करते, बल्कि सतर्क और सावधान रहते हैं। खासकर जब उनकी काट-छाँट उनके अपने विचारों के विपरीत होती है तो वे परमेश्वर की आलोचना नहीं करते, उससे तर्क-वितर्क नहीं करते और उनके दिलों में प्रतिरोध की कोई भावना नहीं होती। अपने दिल की गहराइयों से वे परमेश्वर की पहचान, हैसियत और सार को सच्चे मन से स्वीकार करते हैं। क्या इन लोगों और सेवाकर्ताओं के बीच कोई अंतर है? ये अंतर क्या हैं? पहला अंतर यह है कि वे सत्य को समझते हैं और दूसरा यह है कि वे कुछ सत्यों का अभ्यास कर सकते हैं। तीसरा अंतर यह है कि उनके पास परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान है और चौथा यह है कि उनकी आज्ञाकारिता और समर्पण अब केवल अभिलाषाएँ नहीं रह गई हैं, बल्कि ये उनके व्यक्तिगत रवैये में ढल गई हैं—वे वास्तव में समर्पित हो चुके हैं। पाँचवाँ अंतर—और यह इन बिंदुओं में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे मूल्यवान है—यह है कि उनके भीतर परमेश्वर का भय मानने वाला दिल पैदा हो गया है। कहा जा सकता है कि जिनके पास ये चीजें होती हैं, उन्होंने “सेवाकर्ता” की उपाधि से पहले ही अपना पीछा छुड़ा दिया है। यह इसलिए है क्योंकि उनके प्रवेश के विभिन्न पहलुओं, सत्य के प्रति उनके रवैये और साथ ही परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान के स्तर को देखते हुए, यह अब केवल परमेश्वर के घर में एक पेशेवर काम करने जितना सरल नहीं रह गया है और वे अब अस्थायी कर्मचारी नहीं हैं जिन्हें थोड़े समय के लिए काम करने के लिए बुलाया गया हो। कहने का तात्पर्य यह है कि ये लोग अस्थायी इनाम पाने के लिए यहाँ नहीं हैं; उन्हें अस्थायी उपयोग के लिए भर्ती नहीं किया गया है और उनके उपयोग की अवधि के दौरान यह देखने के लिए नहीं रखा गया कि क्या वे इस काम को लंबे समय तक कर सकते हैं। बल्कि वे सत्य का अभ्यास करने और अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाने में सक्षम होते हैं। इसलिए इन लोगों ने “सेवाकर्ता” की उपाधि, पदवी से पीछा छुड़ा लिया है। क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों को देखा है? कलीसिया में ऐसे लोग हैं। तुम लोग यह जानना चाहते हो कि ये लोग कौन हैं और इनकी संख्या कितनी है, लेकिन मैं अभी यह नहीं बता पा रहा हूँ; जब तुम लोग सत्य को समझ जाओगे, तब खुद ही इन्हें पहचान सकोगे। तुम लोगों को जो बात जाननी चाहिए वह यह है कि तुम किस तरह की परिस्थितियों में हो, तुम्हारे सामने कौन सा मार्ग है जिसे तुम लोग अपना रहे हो और कौन सा मार्ग है जिसे तुम्हें अपनाना चाहिए—यही बातें तुम लोगों को पता होनी चाहिए।
तो क्या “सेवाकर्ता” की उपाधि लोगों पर परमेश्वर की थोपी हुई है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग लोगों को नीचा दिखाने, उन्हें वर्गीकृत करने और श्रेणियों में बाँटने के लिए करता है? (नहीं।) तो परमेश्वर ने इस उपाधि को कैसे परिभाषित किया है? ऐसा नहीं है कि लोगों को उपाधि देकर परमेश्वर बिना सोचे-समझे ही उन्हें कोई उपनाम दे रहा है और वह इसे बाहरी स्वरूप के आधार पर परिभाषित नहीं करता है; यह उपाधि मात्र एक उपाधि नहीं है। किसी व्यक्ति का नाम सिर्फ एक पद, एक नामकरण होता है, जिसका कोई वास्तविक अर्थ नहीं होता है। उदाहरण के लिए कुछ चीनी माता-पिता आशा करते हैं कि उनकी बेटी समझदार और सुंदर होगी, इसलिए वे उसके नाम में “सुंदर” शब्द जोड़ देते हैं, लेकिन यह केवल एक आशा होती है और इसका उसके सार से कोई लेना-देना नहीं होता है। हो सकता है वह वास्तव में बहुत बेवकूफ हो और वह बड़ी होकर आकर्षक न दिखे, तो फिर उसे “सुंदर” कहने का क्या मतलब है? कुछ लड़कों के नाम में “चेंगलॉन्ग” या “चेंगहु” जोड़ दिया जाता है जिनका मतलब ड्रैगन या बाघ जैसा बनना होता है—क्या ऐसे नाम देने से वे वास्तव में बलवान बन जाते हैं? हो सकता है कि वे कायर या निकम्मे हों। ये केवल माता-पिता की अपने बच्चों के लिए उम्मीदें होती हैं; वे उन्हें ऐसे नाम देते हैं और इनका उनके सार से कोई संबंध नहीं होता है। इसलिए लोगों के नाम और उपाधियाँ उनकी कल्पनाओं और सदिच्छाओं को दर्शाती हैं, लेकिन ये केवल नामकरण और पदवियाँ होती हैं, और इन्हें उनके सार के आधार पर नहीं दिया जाता। लेकिन परमेश्वर की परिभाषित उपाधियाँ और नाम लोगों के बाहरी स्वरूप के आधार पर कतई नहीं दिए जाते और ये निश्चित रूप से परमेश्वर की अपनी इच्छाओं पर भी आधारित नहीं होते। क्या परमेश्वर चाहता है कि लोग सेवाकर्ता बनें? (नहीं।) क्या तुम लोगों ने कभी परमेश्वर के वचनों में परमेश्वर को यह कहते पढ़ा है, “मैं चाहता हूँ कि हर व्यक्ति सेवाकर्ता बने और मैं नहीं चाहता कि किसी को भी बचाया जाए”? (नहीं।) तो परमेश्वर क्या चाहता है? लोग पहले ऐसा कहा करते थे कि “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले।” यह एक इच्छा है। लेकिन “सेवाकर्ता” की उपाधि यूँ ही नहीं आई है। यह ठीक उसी तरह था जैसे परमेश्वर ने “वृक्ष” और “घास” के नाम तय किए। वृक्ष बड़े और ऊँचे होते हैं और जब कोई किसी वृक्ष का जिक्र करता है तो सब जानते हैं कि वृक्ष बड़े और ऊँचे होते हैं और जब कोई घास का जिक्र करता है तो सब जानते हैं कि घास छोटी और बौनी होती है, है ना? (हाँ।) तो “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में क्या कहेंगे? यह उपाधि मनुष्य के सार और अभिव्यक्तियों के अनुसार और परमेश्वर के कार्य के चरण के अनुसार आई है। अगर लोग परमेश्वर के कार्य के साथ धीरे-धीरे सत्य को समझने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण और भय प्राप्त करने में सक्षम होते हैं, तो इस समय यह उपाधि बदल जाती है। इसलिए भले ही तुम सेवाकर्ताओं में से एक हो, इससे तुम्हारे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने पर कोई असर नहीं पड़ता और यह तुम्हारे परमेश्वर के प्रति समर्पण और भय पर भी कोई असर नहीं डालता।
क्या ऐसे लोग हैं जो “सेवाकर्ता” की उपाधि से कभी पीछा नहीं छुड़ाएँगे? (हाँ।) वे किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो सत्य को समझ तो सकते हैं लेकिन उसका अभ्यास नहीं करते, और तो और वे सत्य से प्रेम भी नहीं करते और अक्सर अपने दिल में सत्य के प्रति घृणा महसूस कर इससे विमुख रहते हैं। अगर वे सत्य से विमुख रहते हैं तो फिर वे परमेश्वर के घर में क्यों रहते हैं? वे परमेश्वर के घर में कुछ लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, वे कुछ प्रयास करते हैं और कोरी सोच के साथ कुछ अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। वे जो कीमत चुकाते हैं, खुद को झोंकते और खपाते हैं, साथ ही अपना कुछ यौवन और समय खर्चते हैं उस सबका उपयोग मनचाहे लाभ हासिल करने के बदले करते हैं। ये लोग जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं, उसके कारण अंत में वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, उनके लिए परमेश्वर का भय मानना तो और भी दूर की बात है—उन्हें हमेशा के लिए सेवाकर्ता के रूप में परिभाषित किया जाएगा। परमेश्वर के घर में इस तरह के कुछ लोग अंत तक सेवा कर सकते हैं और कुछ नहीं कर सकते, और अंत तक सेवा कर सकने और न कर सकने वाले लोगों की मानवता में थोड़ा अंतर होता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते लेकिन अंत तक सेवा कर सकते हैं—यानी जो लोग परमेश्वर की प्रबंधन योजना का कार्य जारी रहने तक परमेश्वर के घर में परमेश्वर के कार्य के लिए कुछ प्रयास कर सकते हैं—उनकी मानवता अपेक्षाकृत अच्छी और लाभकारी होती है। वे बुराई नहीं करते, सेवा करते समय बाधाएँ खड़ी नहीं करते और उन्हें कलीसिया से निकाला नहीं जाता। ऐसे लोग अंत तक सेवा कर सकते हैं और ये वे लोग हैं जो हमेशा सेवाकर्ता बने रहेंगे। जहाँ तक दूसरों की बात है, वे अपनी बहुत बुरी मानवता, घटिया चरित्र और सत्यनिष्ठा होने के कारण सेवा करते समय परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों में अक्सर गड़बड़ी पैदा करते हैं और विघ्न डालते हैं, और परमेश्वर के घर के बहुत से कार्यों को नुकसान पहुँचाते हैं। जब उनकी बार-बार काट-छाँट की जाती है या उन्हें अलग-थलग किया जाता है तो वे पश्चात्ताप करना नहीं जानते और बस अपनी पुरानी बुरी आदतों पर लौट जाते हैं; वे किसी भी सत्य को बिल्कुल नहीं समझते, वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि मनमाने तरीके से कार्य करते हैं, और ऐसे लोग हटा दिए जाते हैं। उन्हें हटाया क्यों जाता है? ऐसे लोग तो सेवा भी नहीं कर सकते। वे परमेश्वर के घर में कुछ प्रयास करते समय ठीक से काम नहीं कर पाते और जब वे प्रयास कर रहे होते हैं, तब वे बुराई भी करते हैं और इसकी कीमत परमेश्वर का घर और भाई-बहन चुकाते हैं। ऐसे लोगों का उपयोग करना घाटे का सौदा होता है। उन्हें बार-बार आत्मचिंतन करने के मौके दिए जाते हैं, लेकिन आखिरकार उनकी प्रकृति नहीं बदलती और वे किसी की कोई बात नहीं सुनते। ऐसे लोग परमेश्वर के घर में सेवा करने के लायक भी नहीं होते, न ही वे इसमें सक्षम होते हैं, इसीलिए उन्हें दूर कर दिया जाता है।
क्या तुम लोग अब “सेवाकर्ता” की इस उपाधि को आम तौर पर समझ गए हो? क्या “सेवाकर्ता” एक ऐसी भेदभावपूर्ण उपाधि है जो परमेश्वर ने मानवजाति को दी है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का इस्तेमाल जानबूझकर लोगों को नीचा दिखाने के लिए कर रहा है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग लोगों को बेनकाब करने और परखने के लिए कर रहा है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग यह दिखाने के लिए कर रहा है कि मनुष्य वास्तव में कैसे हैं? क्या परमेश्वर का इन चीजों का यही उद्देश्य है? असल में, परमेश्वर का इनमें से कोई भी उद्देश्य नहीं है। परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को बेनकाब करना, उन्हें नीचा दिखाना या उनका मजाक उड़ाना नहीं है, न ही उसका उद्देश्य “सेवाकर्ता” की इस उपाधि का उपयोग लोगों को परखना है। परमेश्वर के लिए “सेवाकर्ता” उपाधि का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह लोगों के प्रदर्शन और उनके सार, परमेश्वर के कार्य के दौरान उनकी भूमिका के निर्वहन के साथ ही वे जो कर सकते हैं और उनके सहयोग की क्षमता के अनुसार इस उपाधि को परिभाषित और तय करे। इस अर्थ में देखें तो परमेश्वर के घर में हर व्यक्ति परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए सेवा कर रहा है और किसी न किसी समय वह सेवाकर्ता की भूमिका में रहा है। क्या हम यह कह सकते हैं? (हाँ।) हम वास्तव में यह कह सकते हैं और अब तुम सब इसे समझ सकते हो। परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग लोगों को हतोत्साहित करने या उनकी आस्था परखने के लिए नहीं करना चाहता, उसका उद्देश्य उन्हें नीचा दिखाना या अधिक सभ्य और आज्ञाकारी बनाना या उन्हें उनकी पहचान और स्थिति का एहसास कराना और भी कम है, परमेश्वर का उद्देश्य “सेवाकर्ता” की इस उपाधि का उपयोग सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के उनके अधिकार को छीनने के लिए तो और भी नहीं है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय लोग जो तमाम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और इस दौरान उनकी जो असली दशाएँ होती हैं, यह उपाधि पूरी तरह इनके अनुसार तय होती है। इसलिए इस उपाधि का संबंध परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के अंत में लोगों की पहचान, रुतबा, स्थिति और मंजिल से बिल्कुल नहीं है। यह उपाधि पूरी तरह से परमेश्वर की प्रबंधन योजना और प्रबंधन कार्य की जरूरतों से उत्पन्न होती है और यह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में भ्रष्ट मानवता की एक वास्तविक स्थिति होती है। जहाँ तक लोगों के परमेश्वर के घर में सेवाकर्ताओं के रूप में सेवाएँ प्रदान करने और मशीनों की तरह इस्तेमाल किए जाने का सवाल है, तो यह स्थिति अंत तक बनी रहती है या परमेश्वर का अनुसरण करने के उनके सफर में सुधर सकती है, यह उनके अनुसरण पर निर्भर करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसका भय मान सकता है, तो वह पूरी तरह से “सेवाकर्ता” की उपाधि को छोड़ देगा। और जब लोग “सेवाकर्ता” की उपाधि को छोड़ देते हैं तो वे क्या बन जाते हैं? वे परमेश्वर के सच्चे अनुयायी, परमेश्वर के लोग और राज्य के लोग बन जाते हैं, यानी वे परमेश्वर के राज्य के लोग बन जाते हैं। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हुए केवल प्रयास करने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने तक ही सीमित रहते हो और तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या सत्य को अभ्यास में नहीं लाते, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता, तुम कभी भी परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते और अंततः तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते और उसका भय नहीं मान पाते, तो “सेवाकर्ता” की यह उपाधि, यह “मुकुट” तुम्हारे सिर के लिए न तो बहुत बड़ा होगा और न ही बहुत छोटा, बल्कि यह बिल्कुल ठीक बैठेगा और तुम कभी इसे हटा नहीं पाओगे। अगर तुम परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक अभी भी इसी अवस्था में हो और तुम्हारे स्वभावों में कोई बदलाव नहीं आया है तो “परमेश्वर के राज्य के लोग” की उपाधि का तुमसे कोई संबंध नहीं होगा और तुम हमेशा-हमेशा के लिए एक सेवाकर्ता ही रहोगे। तुम इन वचनों को कैसे समझ सकते हो? तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जैसे ही परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा, यानी जब परमेश्वर जिन सभी लोगों को बचाना चाहता है, वे सब बचाए जा चुके होंगे, जब परमेश्वर का कार्य अपना प्रभाव प्राप्त कर लेगा और उसके लक्ष्य पूरे हो जाएँगे, तब परमेश्वर और नहीं बोलेगा या लोगों का मार्गदर्शन नहीं करेगा, वह मनुष्य को बचाने का और कोई कार्य नहीं करेगा, उसका कार्य वहीं समाप्त हो जाएगा, साथ ही परमेश्वर में आस्था का वह मार्ग भी समाप्त हो जाएगा जिस पर लोग चलते हैं। बाइबल में यह आयत है : “जो अन्याय करता है, वह अन्याय ही करता रहे; और जो मलिन है, वह मलिन बना रहे; और जो धर्मी है, वह धर्मी बना रहे; और जो पवित्र है; वह पवित्र बना रहे” (प्रकाशितवाक्य 22:11)। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जैसे ही परमेश्वर कहता है कि उसका कार्य समाप्त हो गया है, तो यह दर्शाता है कि परमेश्वर मनुष्य को बचाने और मनुष्य को ताड़ना देने और न्याय करने के अपने कार्य को अब और नहीं करेगा, परमेश्वर मनुष्य का और प्रबोधन या मार्गदर्शन नहीं करेगा और वह अब मनुष्य से धैर्यपूर्वक और ईमानदारी से बातें कर उन्हें प्रोत्साहित या उनकी काट-छाँट नहीं करेगा—परमेश्वर आगे अब यह कार्य नहीं करेगा। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि तब सभी चीजों के परिणाम प्रकट हो जाएँगे, लोगों के परिणाम तय हो जाएँगे और कोई भी इसे बदल नहीं सकेगा और लोगों पास बचाए जाने के और कोई अवसर नहीं होंगे। इसका यही मतलब है।
जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के अंत में “सेवाकर्ता” की उपाधि से पीछा छुड़ा लेता है, जब वह इस नामकरण, इस स्थिति को छोड़ देता है, तो यह दर्शाता है कि यह व्यक्ति परमेश्वर की नजरों में अब बाहरी या अविश्वासी नहीं रहा, बल्कि परमेश्वर के घर और परमेश्वर के राज्य का व्यक्ति है। और “परमेश्वर के घर और परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति” की यह उपाधि कैसे मिली? लोग यह उपाधि कैसे हासिल करते हैं? सत्य का अनुसरण और सत्य को समझकर, कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर, एक निश्चित स्तर तक स्वभाव बदलकर और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर और उसका भय मानकर तुम परमेश्वर के घर के व्यक्ति बन जाते हो। अय्यूब और पतरस की तरह तुम अब और शैतान के हाथों हानि नहीं सहोगे और भ्रष्ट नहीं होओगे, तुम परमेश्वर के राज्य और परमेश्वर के घर में स्वतंत्र रूप से जी सकते हो, तुम्हें अब अपने भ्रष्ट स्वभाव से जूझने की जरूरत नहीं है और परमेश्वर की नजरों में तुम एक सच्चे सृजित प्राणी, एक सच्चे मानव हो। क्या यह खुशी मनाने योग्य बात नहीं है? इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि शैतान के हाथों भ्रष्ट किए गए व्यक्ति का कष्ट और कठिनाइयों से भरा जीवन पूरी तरह समाप्त हो गया है और वह सुख, शांति और खुशी का जीवन जीने लगता है। वह सृष्टिकर्ता के आभामंडल की रोशनी में रह सकता है, परमेश्वर के साथ मिलकर जी सकता है और यह खुशी मनाने योग्य बात है। लेकिन अंत तक “सेवाकर्ता” की उपाधि त्यागने में सफल न होने वाले दूसरे प्रकार के लोगों ने अगर परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर भी इस उपाधि, इस “मुकुट” को अपने सिर से नहीं उतारा है तो उनके लिए इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि वे बाहरी लोग बने रहते हैं और परमेश्वर की नजरों में वे अभी भी अविश्वासी हैं। इसका कारण यह है कि वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार या इसका अभ्यास नहीं करते, उन्होंने अपना स्वभाव नहीं बदला है, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम नहीं हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है। इन लोगों को परमेश्वर के घर से हटा दिया जाना चाहिए और उनके लिए परमेश्वर के राज्य में कोई स्थान नहीं है। अगर परमेश्वर के राज्य में उनके लिए कोई जगह नहीं है तो वे कहाँ हैं? वे परमेश्वर के राज्य के बाहर हैं और वे परमेश्वर के लोगों से अलग किया गया एक समूह हैं। ऐसे लोगों को अभी भी “सेवाकर्ता” ही कहा जाता है और यह दर्शाता है कि वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं बने हैं, वे कभी भी परमेश्वर के अनुयायी नहीं बनेंगे, परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता और वे कभी भी परमेश्वर से आशीष या अनुग्रह प्राप्त नहीं करेंगे। बेशक, इसका मतलब यह भी है कि उनके पास परमेश्वर के राज्य में उसके साथ अच्छे आशीष का आनंद लेने या शांति और खुशी प्राप्त करने का कोई मौका नहीं है—यह मौका हाथ से चला गया है। तो क्या यह उनके लिए खुशी मनाने लायक क्षण है या फिर यह एक दुखद घटना है? यह एक दुखद घटना है। और जब यह बात आती है कि परमेश्वर के घर और परमेश्वर के राज्य के बाहर “सेवाकर्ता” की उपाधि धारण करने के लिए उन्हें क्या इनाम मिलेगा, तो यह बाद की बात है। किसी भी स्थिति में सेवाकर्ताओं को दिए गए इनाम और परमेश्वर के राज्य के लोगों को दिए गए इनाम में बहुत बड़ा अंतर है; इसमें स्थिति, इनाम और अन्य पहलुओं में अंतर होते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है कि ऐसे लोगों ने सत्य हासिल नहीं किया और वे लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य करने के दौरान अपना स्वभाव नहीं बदल सके? यह बहुत ही दयनीय है! ये कुछ शब्द “सेवाकर्ता” की उपाधि के संबंध में हैं।
कुछ लोग कहते हैं, “सेवाकर्ताओं का जिक्र होने पर मेरे अंदर प्रतिरोध की भावना आ जाती है। मैं सेवाकर्ता नहीं होना चाहता और मुझे ऐसा होने में खुशी नहीं होती। अगर मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ तो उनमें सबसे तुच्छ होना भी मुझे कबूल है और जब तक मैं सेवाकर्ता नहीं हूँ, मुझे कोई समस्या नहीं है। मेरे पास इस जीवन में कोई अन्य अनुसरण या आदर्श नहीं है; मैं बस ‘सेवाकर्ता’ की उपाधि से पिंड छुड़ाना चाहता हूँ। मैं कुछ ज्यादा तो नहीं माँग रहा हूँ।” ऐसे लोगों के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह सत्य के अनुसरण में लगे किसी व्यक्ति का रवैया है? (नहीं।) तो फिर यह किस प्रकार का रवैया है? क्या यह एक नकारात्मक रवैया नहीं है? (हाँ, है।) जब “सेवाकर्ता” की उपाधि की बात आए तो तुम्हें इसे छोड़ने के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह उपाधि तुम्हें अपने जीवन में की गई प्रगति के स्तर के आधार पर दी जाती है और इसे तुम्हारी इच्छा से तय नहीं किया जा सकता। यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कौन से मार्ग का अनुसरण करते हो और क्या तुम्हारे स्वभावों में परिवर्तन हुआ है या नहीं हुआ। अगर तुम्हारा लक्ष्य केवल “सेवाकर्ता” की इस उपाधि से पीछा छुड़ाने का है, तो मैं तुम्हें सच्चाई बताता हूँ : तुम जीते जी इस उपाधि से कभी पीछा नहीं छुड़ा सकोगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करते हो और अपना स्वभाव बदल सकते हो तो यह उपाधि धीरे-धीरे बदल जाएगी। इन दोनों बिंदुओं के आधार पर देखकर क्या ऐसा लगता है कि “सेवाकर्ता” की उपाधि परमेश्वर ने लोगों पर थोपी है? बिल्कुल भी नहीं! यह लोगों पर परमेश्वर की थोपी हुई उपाधि नहीं है, न ही यह एक पदवी है—यह एक ऐसी उपाधि है जो लोगों के जीवन में की गई प्रगति के स्तर के आधार पर दी जाती है। तुम जीवन में जितनी प्रगति करते हो और जितना तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन होता है, तुम उतने ही कम सेवाकर्ता होते हो। जिस दिन तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण और भय प्राप्त कर लेते हो, तब भले ही तुम सेवाकर्ता बनने के इच्छुक हो, फिर भी तुम सेवाकर्ता नहीं रहोगे और यह तुम्हारे अनुसरण, सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये और तुम्हारे अनुसरण मार्ग से तय होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “मैं ‘सेवाकर्ता’ की इस उपाधि से पीछा छुड़ाना चाहता हूँ और मैं सेवाकर्ता नहीं रहना चाहता, लेकिन मैं सत्य को नहीं समझता और सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। तो मैं क्या कर सकता हूँ?” क्या कोई समाधान है? परमेश्वर सभी प्रकार के लोगों के परिणाम अपने वचनों और सत्य के आधार पर तय करता है—इसमें समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है। अगर तुम सत्य से प्रेम करते हो और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकते हो, तो यह खुश होने की बात है; लेकिन अगर तुम सत्य से विमुख हो और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने का चयन नहीं करते, तो यह दुख का कारण है। केवल यही दो मार्ग हैं—चुनने के लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है। परमेश्वर के वचन कभी समाप्त नहीं होंगे; भले ही सभी चीजें समाप्त हो जाएँ, लेकिन परमेश्वर का एक भी वचन समाप्त नहीं होगा। परमेश्वर के वचन सभी चीजों के बारे में फैसला सुनाने और उन्हें परिभाषित करने का मानदंड हैं; परमेश्वर के वचन सत्य हैं और कभी समाप्त नहीं हो सकते। जब यह संसार, मानवजाति और सभी चीजें बदल जाएँगी और समाप्त हो जाएँगी, तब भी परमेश्वर का एक भी वचन समाप्त नहीं होगा, बल्कि उसके सभी वचन पूरे होंगे। मानवजाति और सभी चीजों के परिणाम परमेश्वर के वचनों के कारण निर्धारित और प्रकट होते हैं—कोई भी इसे बदल नहीं सकता और इस मामले पर कोई बहस नहीं हो सकती। इसलिए जब बात आती है कि परमेश्वर लोगों के परिणामों पर संप्रभुता रखता है और उन्हें निर्धारित करता है, तो अगर लोग ख्याली पुलाव में डूबे रहेंगे तो वे निपट मूर्ख हैं। इस मामले में उनके लिए दूसरा रास्ता चुनने का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने लोगों को दूसरा रास्ता नहीं दिया है। यह परमेश्वर का स्वभाव है, यह परमेश्वर की धार्मिकता है और लोग चाहकर भी इस मामले में दखलंदाजी नहीं कर सकते। तुम्हें लगता है कि अविश्वासियों की दुनिया में तुम कुछ पैसा खर्च करके और अपने संपर्कों का उपयोग कर मामलों को सुलझा सकते हो, लेकिन यह तरीका परमेश्वर के साथ काम नहीं करता। याद रखो : परमेश्वर के मामले में इससे तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा!
ii. मसीह-विरोधियों द्वारा “सेवाकर्ता” की उपाधि के साथ पेश आने के तरीके
आज की संगति का विषय है “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये का गहन विश्लेषण। अब जब हमने “सेवाकर्ता” की उपाधि की परिभाषा पर संगति कर ली है तो क्या इस उपाधि के प्रति ज्यादातर लोगों की सकारात्मक समझ नहीं है? क्या तुम अब भी इस उपाधि के प्रति विरोध या अनिच्छा महसूस करते हो? (नहीं।) तो अब आओ देखें कि मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की उपाधि को कैसे देखते हैं और इसके प्रति उनका क्या रवैया होता है। मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा जिस चीज को महत्व देते हैं, वह है ऊँचा पद, ऊँची प्रतिष्ठा और पूर्ण सत्ता। जब कुछ बहुत सामान्य, जमीनी स्तर की और निम्न स्तर की उपाधियों के साथ ही ऐसी अन्य उपाधियों की बात आती है जो लोगों को काफी अपमानजनक लगती हैं, तो मसीह-विरोधियों के दिल में तीव्र प्रतिरोध और भेदभाव की भावनाएँ उठती हैं और वे ऐसा विशेष रूप से “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति महसूस करते हैं। चाहे परमेश्वर इस समूह के प्रति, जिसे “सेवाकर्ता” कहा जाता है, कितना भी सहनशील और धैर्यवान क्यों न हो, और चाहे परमेश्वर “सेवाकर्ता” की उपाधि की कितनी भी व्याख्या और स्पष्टीकरण क्यों न दे, मसीह-विरोधी फिर भी अपने दिल की गहराई में इस उपाधि को तुच्छ समझते हैं। उन्हें लगता है कि यह उपाधि बहुत हीन है और अगर वे खुद सेवाकर्ता होते तो उन्हें अपनी शक्ल दिखाने में शर्म आती। उन्हें लगता है कि जैसे ही उन्हें यह उपाधि दी जाती है, उनकी ईमानदारी, गर्व और प्रतिष्ठा को चुनौती देकर तुच्छ माना जा रहा है, उनकी अहमियत औंधे मुँह गिर गई है और अब उनके जीवन का कोई मतलब नहीं रहा। इसलिए, चाहे कुछ भी हो मसीह-विरोधी किसी भी हाल में “सेवाकर्ता” की इस उपाधि को स्वीकार नहीं करेंगे। अगर तुम उनसे परमेश्वर के घर जाकर परमेश्वर के कार्य के लिए सेवा करने को कहो तो वे कहते हैं : “‘सेवाकर्ता’ की उपाधि बहुत अपमानजनक है और मैं किसी भी हालत में यह भूमिका निभाने को तैयार नहीं हूँ। मुझे सेवाकर्ता बनने के लिए कहकर तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो। मैंने परमेश्वर में विश्वास इसलिए नहीं किया कि तुम मुझे अपमानित करो—मैं तो आशीष पाने के लिए आया हूँ। नहीं तो मैंने अपने परिवार को क्यों त्यागा, अपनी नौकरी क्यों छोड़ी और अपनी दुनियावी संभावनाओं को क्यों छोड़ा? मैं सेवाकर्ता बनने नहीं आया हूँ; मैं तुम्हारे लिए काम करने और तुम्हारी सेवा करने नहीं आया हूँ। अगर तुम मुझसे सेवाकर्ता बनने को कहते हो तो मैं विश्वास ही नहीं करूँगा!” क्या यह मसीह-विरोधियों का रवैया नहीं है? ऐसे भी मसीह-विरोधी हैं जो कहते हैं : “अगर तुम मुझसे परमेश्वर के घर में सेवाकर्ता बनने को कहते हो तो फिर परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? इसका क्या मतलब रह जाता है?” इसलिए जब वे परमेश्वर के घर में कोई काम अपने हाथ में लेते हैं या कोई आदेश या कार्य स्वीकार करते हैं तो वे पहले यह जानना चाहते हैं : “जब मैं यह काम अपने हाथ में लूँगा तो क्या मैं कलीसिया का अगुआ बनूँगा या टीम का अगुआ या फिर मैं सिर्फ एक अनुचर बनकर दूसरों के लिए सेवा और काम करूँगा?” यह पता लगाने से पहले वे कुछ समय के लिए काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस दौरान वे लोगों के शब्दों और हाव-भावों का अवलोकन करते हैं, अपने आँख-कान खुले रखते हैं और विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। वे यह जानना चाहते हैं कि क्या वे यहाँ अस्थायी रूप से सेवा कर रहे हैं या क्या वे यह काम लंबे समय तक कर सकते हैं, क्या वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें विकसित किया जा सकता है या उन्हें सिर्फ अस्थायी रूप से एक खाली पद भरने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। अगर उन्हें सिर्फ एक खाली पद भरने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और उनसे दूसरों की योग्यता और दूसरों की हैसियत और सत्ता के लिए सेवा करने के लिए कहा जा रहा है तो वे इसे बिल्कुल नहीं करेंगे। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि क्या परमेश्वर के घर को कर्तव्य निभाने के लिए उनकी जरूरत है या जो कर्तव्य वे निभाते हैं वह परमेश्वर के घर के कार्य के लिए कितना महत्वपूर्ण है—वे इन चीजों की परवाह नहीं करते। जैसे ही उन्हें एहसास होता है कि वे यहाँ सेवा तो कर रहे हैं लेकिन निर्णय लेने और आदेश देने की शक्ति उनके पास नहीं है तो वे अपने कार्यों में बेपरवाह हो जाते हैं, अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते हैं, लापरवाही से काम करते हैं, वे स्वेच्छाचारी भी बन जाते हैं और वे अपने कर्तव्य से मुँह मोड़कर किसी भी क्षण छोड़कर जा सकते हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य और अपने कर्तव्य को ऐसे देखते हैं जैसे यह बच्चों का खेल हो। उनके जीवन का एक सिद्धांत होता है जो इस तरह है : “जब दूसरे सुर्खियाँ बटोर रहे हों तो मैं पर्दे के पीछे रहकर मेहनत नहीं करूँगा।” वे सोचते हैं, “मैं तो अगुआ बनने के लिए पैदा हुआ हूँ। मैं आदेश देने और निर्णय लेने की शक्ति के साथ पैदा हुआ हूँ। अगर ये दोनों चीजें मुझसे छिन जाएँ तो फिर जीने का क्या मतलब रह जाएगा? परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब रह जाएगा? मैं परमेश्वर में क्यों विश्वास कर रहा हूँ? क्या मैंने बड़े आशीष प्राप्त करने के लिए छोटे-छोटे लाभों का त्याग नहीं किया था? अगर मेरी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती तो मैं निस्संदेह दुनिया की प्रवृत्तियों का अनुसरण करूँगा और नरक में जाऊँगा!” मसीह-विरोधियों के क्या सिद्धांत होते हैं? “मैं किसी को भी शीर्ष तक पहुँचने के लिए अपना शोषण नहीं करने दूँगा; मैं ही दूसरों का शोषण करता हूँ। अगर लोगों को उनके योगदान के आधार पर इनाम दिया जाता है तो मेरा नाम सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए। तभी मैं पूरे उत्साह के साथ काम करूँगा और अपनी पूरी ताकत लगा दूँगा, वरना तुम भूल जाओ कि मैं ऐसा कुछ भी करूँगा। अगर तुम मुझसे अपना पूरा दमखम और संकल्प लगाने, तुम्हें सलाह देने और दिल और जान लगाकर काम करने के लिए कहते हो, लेकिन अंत में जब लोगों को उनके योगदान के आधार पर इनाम देने का समय आता है और मुझे कुछ भी नहीं मिलता, तो तुम मुझसे यह उम्मीद करना भूल जाओ कि मैं तुम लोगों के लिए काम करूँगा, तुम लोगों के लिए खुद को खपाऊँगा और तुम लोगों की सेवा करूँगा!” क्या ये मसीह-विरोधियों के स्वभाव के सच्चे खुलासे और अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? भले ही वे जानबूझकर “सेवाकर्ता” की उपाधि से पीछा छुड़ाने की कोशिश नहीं करते हैं, लेकिन अपने स्वभाव सार के संदर्भ में वे लगातार इसे झटकने की कोशिश कर रहे हैं और लगातार इस उपाधि से पीछा छुड़ाने के लिए लड़ रहे हैं, मेहनत कर रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं। अगर जब कोई मसीह-विरोधी कुछ काम करता है तो उसे आगे आने और केंद्र में रहने का मौका मिलता है, या अगर उसके पास अंतिम निर्णय लेने की शक्ति होती है, वह एक अगुआ बन जाता है, उसके पास पद, प्रभाव और प्रतिष्ठा होती है और उसके अधीन कुछ लोग होते हैं, तो वह बहुत प्रसन्न महसूस करता है। अगर एक दिन कोई यह कहकर उनकी किसी समस्या को उजागर कर उनकी काट-छाँट करता है कि “ऐसी कई बातें हैं जिन्हें तुम सिद्धांतों के अनुसार नहीं संभालते, बल्कि अपनी इच्छानुसार संभालते हो। यह एक ऐसे व्यक्ति का आचरण है जो केवल सेवा कर रहा है; तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो,” तो क्या मसीह-विरोधी इसे स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं।) सबसे पहले, वे अपनी बेगुनाही का दावा करेंगे, अपनी सफाई देंगे और अपने पक्ष में तर्क देंगे और फिर वे तुरंत “सेवा करने” जैसे शब्दों के प्रति अरुचि और विरोध महसूस करेंगे और इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। वे कहेंगे, “मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई है और इतना कष्ट सहा है। मैं सुबह जल्दी काम शुरू करता हूँ और देर रात तक खत्म करता हूँ, मैं नींद खो देता हूँ और खाना तक भूल जाता हूँ और फिर भी तुम कहते हो कि मैं केवल सेवा कर रहा हूँ? क्या वास्तव में इस तरह सेवा करने वाले लोग होते हैं? मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई है और बदले में मुझे केवल ‘सेवाकर्ता’ की उपाधि मिलती है, यह परिभाषा मिलती है। फिर मेरे लिए आगे देखने के लिए क्या उम्मीद है? परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है? इसके पीछे क्या प्रेरणा है? इससे अच्छा तो है कि ऐसे परमेश्वर में विश्वास न किया जाए!” वे अपना उत्साह खो देते हैं। काट-छाँट किए जाने के बाद मसीह-विरोधी न केवल इसे स्वीकार करने से इनकार करते हैं, बल्कि वे विरोध भी महसूस करते हैं और इससे विमुख रहते हैं और इससे भी अधिक वे गलतफहमियाँ पैदा कर लेते हैं। इसके बाद जब वे काम करते हैं और अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उनका रवैया बदल जाता है और वे सोचते हैं, “अब चाहे मैं कुछ भी करूँ, मैं एक सेवाकर्ता ही हूँ, इसलिए जब भी मैं यह काम करूँ तो बेहतर है कि मैं खुद को थोड़ा-सा रोक लूँ, अपने लिए एक वैकल्पिक योजना बना लूँ और अपनी पूरी ताकत न लगाऊँ। हर कोई कहता है कि परमेश्वर धार्मिक है तो मुझे यह क्यों नहीं दिखता? परमेश्वर कैसे धार्मिक है? चूँकि चाहे मैं कुछ भी करूँ, मैं एक सेवाकर्ता ही हूँ, तो अब से मैं परमेश्वर में विश्वास करने का अपना तरीका बदल दूँगा; मैं सिर्फ सेवा ही करूँगा, देखते हैं कि कौन किससे डरता है। चूँकि मैं जो भी करूँगा, मुझे न तो प्रशंसा मिलेगी और न ही स्वीकृति, तो ठीक है, मैं अपने जीने के तरीके और अपने काम करने के तरीके को बदल दूँगा। तुम जो भी करने के लिए कहोगे, मैं करूँगा, और अगर मेरे मन में कोई विचार होगा तो मैं बताऊँगा नहीं—जिसे बोलना है वह बोले। अगर कोई मेरी काट-छाँट करता है, तो मैं ऊपरी तौर पर उससे सहमत दिखूँगा और अगर कोई अपने काम में गलती करता है, तो मैं देखकर भी कुछ नहीं कहूँगा। अगर कोई व्यक्ति सिद्धांतों को समझे बिना कार्य करता है, तो मैं उन्हें सिद्धांत नहीं बताऊँगा, भले ही मैं उन्हें समझता हूँ। मैं उन्हें मूर्ख की तरह कार्य करते देखूँगा, उन्हें गलती करने दूँगा ताकि उनकी भी मेरी तरह काट-छाँट की जाए, और देखें कि वे यह महसूस कर सकते हैं या नहीं कि एक सेवाकर्ता के रूप में वर्गीकृत होने का एहसास क्या होता है। चूँकि तुम लोगों ने मेरे साथ सख्ती दिखाई, तो मैं भी तुम्हें लोगों के लिए कठिनाइयाँ पैदा करूँगा और तुम्हें भी आसानी से नहीं होने दूँगा!” सिर्फ काट-छाँट और अनुशासित किए जाने से उनमें इतने तीव्र भावनाएँ और प्रतिरोध की भावना उत्पन्न हो जाती है—क्या यह सत्य को स्वीकार करने का रवैया है? (नहीं।) सेवा करने में क्या गलत है? क्या परमेश्वर के लिए सेवा करना बुरा है? क्या परमेश्वर के लिए सेवा करने से तुम्हारी गरिमा को ठेस पहुँचती है? क्या परमेश्वर इस योग्य नहीं है कि तुम उसकी सेवा करो? फिर तुम किस योग्य हो कि परमेश्वर तुम्हारे लिए कुछ करे? तुम इन शब्दों के प्रति इतने संवेदनशील और विरोधी क्यों हो? सृष्टिकर्ता ने खुद को दीन कर लिया ताकि वह एक ऐसा व्यक्ति बन सके जो मानवों के बीच रहता है और हर भ्रष्ट मनुष्य की सेवा करता है, ऐसे मनुष्यों की सेवा करता है जो उसका विरोध करते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं। तो फिर लोग परमेश्वर की प्रबंधन योजना की खातिर थोड़ी सेवा क्यों नहीं कर सकते? ऐसा करने में क्या गलत है? क्या इसमें कुछ ऐसा है जो अपमानजनक है? क्या इसमें कुछ ऐसा है जो कहने लायक नहीं है? परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता की तुलना में मनुष्य हमेशा घृणित और कुरूप ही रहेगा। क्या ऐसा नहीं है?
सत्य का अनुसरण करने वाले भ्रष्ट लोग “सेवाकर्ता” की उपाधि सुनकर हो सकता है अब केवल क्षणिक रूप से परेशान हों, लेकिन यह एक ऐसा प्रेरक कारक बन सकता है जो उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए सत्य का अनुसरण करने को प्रेरित कर सकता है; वे परमेश्वर से मिली इस उपाधि के प्रति इतने चिड़चिड़े नहीं होते। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। वे हमेशा उन उपाधियों के बारे में बहुत आलोचनात्मक रहते हैं जो परमेश्वर लोगों को देता है और वे उन्हें दिल पर ले लेते हैं। परमेश्वर के कहे एक वाक्यांश से ही उनके हितों का उल्लंघन और उन्हें चोट पहुँचना आसान है, और जब परमेश्वर की कोई बात उनके आशीष प्राप्त करने के इरादे और इच्छा के विपरीत होती है, तो यह उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाती है। जैसे ही उनके आत्म-सम्मान और गरिमा को ठेस पहुँचती है, वे परमेश्वर की आलोचना करने लगते हैं, उसे अस्वीकार करते हैं और उसके साथ विश्वासघात करते हैं; वे परमेश्वर को छोड़ना चाहते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाते रहना नहीं चाहते और साथ ही वे परमेश्वर पर अधार्मिक होने और लोगों के प्रति सहानुभूति न रखने का आरोप लगाते हुए उसे कोसते हैं। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि परमेश्वर को खुश करना बहुत कठिन है और जो कुछ भी वे करते हैं, वह सही नहीं होता। ये सभी शब्द, भावनाएँ और स्वभाव मसीह-विरोधियों से ही उत्पन्न होते हैं। उनमें परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया बिल्कुल भी न होने के अलावा वे परमेश्वर की कही विभिन्न बातों में भी बारीकी से कमी निकालते हैं, और परमेश्वर की विभिन्न अपेक्षाओं के प्रति लापरवाह और उदासीन रहते हैं। वे “सेवाकर्ता” की इस उपाधि का लगातार विरोध करते हैं और इसे स्वीकारने या समर्पण करने का कोई इरादा नहीं रखते और न ही परमेश्वर की इच्छा को समझने का कोई इरादा रखते हैं। वे केवल “सेवाकर्ता” की इस उपाधि और पहचान, इस हैसियत और पद से पीछा छुड़ाने की लगातार कोशिश करते हैं, और परमेश्वर के इरादे को संतुष्ट करने के लिए उसके साथ कैसे सहयोग करना है, या स्वभाव में परिवर्तन कैसे प्राप्त करना है, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कैसे करना है और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, इसके बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते। वे इन सकारात्मक चीजों का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते और जब उन्हें सेवाकर्ता के रूप में उजागर किया जाता है, तो उनके अंदर की नाराजगी और आवेग एक साथ फूट पड़ते हैं। यह कितनी गंभीर बात हो सकती है? कुछ मसीह-विरोधी सार्वजनिक स्थानों पर परमेश्वर को गुपचुप ढंग से कोसते हैं तो बंद दरवाजों के पीछे जोर से कोसते हुए कहते हैं, “परमेश्वर धार्मिक नहीं है। मेरे लिए इस तरह के परमेश्वर पर विश्वास न करना ही बेहतर है!” वे खुलेआम परमेश्वर को चुनौती देकर उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। सिर्फ यही शब्द “सेवाकर्ता” मसीह-विरोधियों के परमेश्वर-विरोधी और सत्य-विमुख सार को उजागर कर देता है। “सेवाकर्ता” शब्द के सामने उनके दुष्ट चेहरे पूरी तरह बेनकाब हो जाते हैं और वे पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। वास्तव में क्या चीज उजागर होती है? जो बात उजागर होती है, वह यह है कि वे परमेश्वर में इसलिए विश्वास नहीं करते कि वे उसका उद्धार स्वीकार करें या सत्य को अपनाएँ, न ही वे परमेश्वर में इसलिए विश्वास करते हैं कि परमेश्वर सत्य है या परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है। बल्कि वे परमेश्वर में इसलिए विश्वास करते हैं कि वे उससे कुछ पाना चाहते हैं। वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के लिए परमेश्वर के घर में आने को तैयार होते हैं। वे अपनी चतुराई, प्रयास, मेहनत और संघर्ष के माध्यम से भीड़ में अलग दिखने और आशीष प्राप्त करने की व्यर्थ में कोशिश करते हैं, या इससे भी बेहतर, शायद अपने अगले जीवन में और भी बड़ा इनाम प्राप्त करने की उम्मीद करते हैं। इसलिए उनकी नजर में “सेवाकर्ता” शब्द हमेशा के लिए एक अपमानजनक और अशोभनीय शब्द है जिसे वे कभी भी स्वीकार नहीं कर सकते। कुछ भाई-बहन सोचते हैं, “परमेश्वर के लिए सेवा करना हमारा आशीष है। यह एक अच्छी बात है, एक सम्मानजनक बात है।” लेकिन मसीह-विरोधी इस तथ्य को कभी भी स्वीकार न करते हुए कहते हैं, “क्या परमेश्वर के लिए सेवा करना हमारे लिए आशीष है? यह कैसी बात है? कितनी बकवास बात है! इसमें आशीष कहाँ है? इसमें आनंद कहाँ है? परमेश्वर के लिए सेवा करके क्या ही प्राप्त किया जा सकता है? क्या तुम सेवा करके पैसा, सोना या खजाना हासिल कर सकते हो? या क्या इससे घर और गाड़ी मिल सकती है? जो भी सेवा करता है उसे हटा दिया जाएगा; क्या कोई भी सेवाकर्ता अच्छा व्यक्ति होता है? सेवा करने वाला कोई भी व्यक्ति कभी कुछ प्राप्त नहीं करेगा।” वे भाई-बहनों द्वारा संगति किए गए इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते कि “परमेश्वर के लिए सेवा करना मानवजाति के लिए आशीष है” और वे इसके प्रति प्रतिरोध और अरुचि महसूस करते हैं; वे इसके बजाय कुछ और सुनना पसंद करेंगे।
मसीह-विरोधी दुनिया में किसी भी अधिकारी या पद-प्रतिष्ठायुक्त किसी भी व्यक्ति के लिए मेहनत और खिदमत कर सकते हैं और उसके लिए पेय परोस सकते हैं और वे ऐसे लोगों के लिए सेवा करने को भी स्वीकार कर लेंगे और खुशी-खुशी इसे करेंगे। लेकिन जब वे परमेश्वर के लिए सेवा करने आते हैं तो केवल तभी वे अनिच्छुक और असहज हो जाते हैं, शिकायतों, प्रतिरोध और भावनाओं से भर जाते हैं। ये लोग कैसे प्राणी हैं? क्या परमेश्वर के एक अनुयायी की यही अभिव्यक्तियाँ होनी चाहिए? ये तो स्पष्ट रूप से मसीह-विरोधियों के सार की अभिव्यक्तियाँ हैं। अगर किसी मसीह-विरोधी को दुनिया में किसी मेयर, प्रांतीय गवर्नर या किसी प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ की सेवा करने जाना पड़े तो वह सोचेगा इससे उसके पूर्वजों का यश और उसके परिवार का मान बढ़ेगा। वह फूला नहीं समाएगा; मानो वह सातवें आसमान पर पहुँच गया हो। अगर कोई पूछे कि उसका काम क्या है तो वह कहेगा, “मैं मेयर की सेवा करता हूँ। मैं मेयर का करीबी सहायक हूँ, उसका निजी अंगरक्षक हूँ!” या यह कहेगा, “मैं राष्ट्रपति की दैनिक जरूरतों का ख्याल रखता हूँ!” ऐसे लोग इतने गर्व से यह कहेंगे। वे सोचेंगे कि यह एक बेहतरीन काम है और इससे उनका पूरा परिवार गौरवान्वित होगा। वे रात में सपने देखेंगे और खुशी से जागेंगे और वे चाहे कहीं भी जाएँ, यह नहीं छिपाएँगे कि वे क्या करते हैं। ऐसा क्यों है? वे अपने काम को शर्मनाक नहीं समझते; वे इसे एक सम्मानजनक काम मानते हैं, एक ऐसा काम जो उन्हें दूसरों से ऊपर रखता है, एक ऐसा काम जो उन्हें एक आभा देता है। लेकिन जब ऐसा व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने आता है और उससे परमेश्वर की सेवा करने को कहा जाता है तो वह इसके लिए तैयार नहीं होता, उसके मन में प्रतिरोध की भावना आती है और यहाँ तक कि उसे परमेश्वर से शिकायत होती है, वह कोसता है और उसे धोखा देकर नकार भी सकता है। इन दोनों चीजों की तुलना करने पर हम देख सकते हैं कि मसीह-विरोधी वास्तव में मसीह-विरोधी हैं, कि वे शैतान के गिरोह का हिस्सा हैं। वे शैतान की चाहे कैसे भी सेवा करें, चाहे वह काम कितना भी गंदा, थकाने वाला या अपमानजनक क्यों न हो, वे इसे एक सम्मान मानते हैं। लेकिन जब वे परमेश्वर के लिए उसके घर में कार्य करते हैं, चाहे वह कितना भी अर्थपूर्ण, मूल्यवान, या श्रेष्ठ क्यों न हो या वे इसे करने से कितने भी गौरवान्वित क्यों न होते हों, वे हमेशा इन चीजों को उल्लेख करने लायक नहीं मानते। चाहे यह परमेश्वर के लिए सेवा करने और परमेश्वर के कार्य के लिए सेवा करने का कितना भी महान आशीष हो और मानवजाति के लिए यह कितना भी सम्मानजनक और अनमोल अवसर क्यों न हो, वे कभी भी इसके बारे में खुश नहीं हो पाते। ऐसा क्यों है? इसका सिर्फ एक ही कारण है : मसीह-विरोधी शैतान के गिरोह का हिस्सा हैं—वे शैतानी प्रवृत्ति के हैं और जीते-जागते शैतान हैं, वे स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के विरोधी हैं। अगर उनसे परमेश्वर की सेवा करने और परमेश्वर के लिए सेवा करने के लिए कहा जाता है, तो वे इसके बारे में खुश नहीं हो पाते। परमेश्वर का घर लोगों के साथ सत्य पर चाहे कितनी भी संगति कर ले या “सेवाकर्ता” की उपाधि के संदर्भ में परमेश्वर के इरादे को समझाने की कोशिश करे, मसीह-विरोधी इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं कर सकते और न ही इससे संबंधित किसी भी सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, इस तथ्य या सत्य को स्वीकार करना तो और भी दूर की बात है कि एक सृजित प्राणी के लिए सृष्टिकर्ता की सेवा करना एक सम्मानजनक, मूल्यवान और अर्थपूर्ण बात है—“सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है। इस उपाधि के सामने और परमेश्वर के लिए लोगों के सेवा करने के तथ्य के सामने मसीह-विरोधियों ने हमेशा इस उपाधि से पीछा छुड़ाने और इस तथ्य से बचने का प्रयास किया है, बजाय इसके कि वे इस तथ्य को स्वीकार करें, परमेश्वर से “सेवाकर्ता” की इस उपाधि को स्वीकार करें और फिर सत्य का अनुसरण करें, परमेश्वर के वचनों को सुनें और परमेश्वर के प्रति समर्पण करें और उसका भय मानें। “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति प्रदर्शित मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों को देखते हुए यह कहा जाना चाहिए कि मसीह-विरोधी शैतान के समान हैं, वे शैतान की शत्रुतापूर्ण शक्तियों का हिस्सा हैं, और वे परमेश्वर, सत्य और सभी सकारात्मक चीजों के विरोधी हैं।
मसीह-विरोधियों द्वारा “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति रखा गया रवैया अस्वीकृति, विरोध, अरुचि और घृणा का होता है। चाहे यह उपाधि किसी भी स्रोत से आए, वे इसके प्रति हमेशा विरोध महसूस करते हैं और इसे स्वीकार नहीं करते, ये यह मानते हैं कि सेवाकर्ता होना एक नीच कार्य है और चाहे वे जिसकी भी सेवा कर रहे हों, यह हमेशा नीच कार्य ही होता है। उन्हें लगता है कि “सेवाकर्ता” एक ऐसी परिभाषा नहीं है जो परमेश्वर मनुष्य को उसके सार के आधार पर देता है, बल्कि यह मानव की पहचान और अहमियत के लिए चुनौती और तिरस्कार का प्रदर्शन है—“सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति मसीह-विरोधियों का यही मुख्य दृष्टिकोण होता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोण से हम देख सकते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों को मानदंड या सत्य नहीं मानते, बल्कि उन्हें जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने की चीजें मानते हैं। यानी वे परमेश्वर के वचनों को सत्य को समझने या परमेश्वर को सृष्टिकर्ता मानने के आधार पर स्वीकार नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके दृष्टिकोण का आधार जाँच पड़ताल करना, प्रतिरोध महसूस करना और विरोध में खड़े होना है। उनके लिए तो परमेश्वर का हर वचन और हर कथन जाँच-पड़ताल का विषय है और “सेवाकर्ता” की उपाधि भी अपवाद नहीं है। वे “सेवाकर्ता” शब्द की जाँच-पड़ताल करने और इस पर विचार करने के लिए मेहनत करते हैं और वे परमेश्वर के वचनों में देखते हैं कि परमेश्वर सेवाकर्ताओं को अच्छा नहीं मानता, बल्कि उन्हें तुच्छ, हीन, बेकार और ऐसे लोग मानता है जिनसे परमेश्वर प्रेम नहीं करता और जिनसे वह घृणा करता है। भले ही “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति परमेश्वर का यही रवैया है, लेकिन उसके ऐसे रवैये के पीछे एक संदर्भ और एक कारण है—यह मनुष्य के सार पर आधारित है। एक और तथ्य भी है जिसे उन्होंने नहीं देखा है : परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति का चाहे कितना भी तिरस्कार और उससे नफरत करता हो, उसने कभी भी मानवजाति को बचाने का कार्य नहीं छोड़ा है, न ही उसने मानवजाति को बचाने का अपनी प्रबंधन योजना का कार्य रोका है। मसीह-विरोधी इस तथ्य को नहीं मानते, न ही वे इसे स्वीकारते या देखते हैं। वे केवल इस पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों के परिणामों के बारे में क्या कहता है, और विशेष रूप से “सेवाकर्ता” की उपाधि के संदर्भ में उनका अत्यधिक संवेदनशील रवैया होता है। वे सेवाकर्ता नहीं बनना चाहते, वे नहीं चाहते कि परमेश्वर उन्हें सेवाकर्ता के रूप में परिभाषित करे और वे यह तो बिलकुल भी नहीं चाहते कि वे “सेवाकर्ता” की उपाधि के साथ परमेश्वर के लिए सेवा करें। इसीलिए जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में आते हैं तो वे विभिन्न समूहों में पूछताछ करते हैं, यह पूछते हैं कि क्या वे भी सेवाकर्ता हैं, और परमेश्वर के वचनों और उनके बारे में लोगों के कहने से वे ईमानदार बातें सुनना चाहते हैं और मामले की सच्चाई जानना चाहते हैं—क्या वे सेवाकर्ता हैं या नहीं? अगर वे सेवाकर्ता हैं तो वे तुरत-फुरत वहाँ से चले जाते हैं; वे परमेश्वर या परमेश्वर के घर के लिए सेवा नहीं करते। “सेवाकर्ता” की उपाधि के खिलाफ उनकी इतनी तीव्र प्रतिक्रिया होती है, और यह स्पष्ट हो जाता है कि मसीह-विरोधियों के लिए पहचान, पद, संभावनाएँ, भाग्य और गंतव्य सदा अनुसरण करने लायक चीजें और कभी न छोड़े जाने लायक हित हैं। मसीह-विरोधियों की मानें तो परमेश्वर की परिभाषा के अनुसार सेवाकर्ताओं का पद मानवजाति में सबसे निचले स्तर पर है। चाहे तुम कुछ भी कहो या चाहे कितने ही लोग इस तथ्य और इस उपाधि को स्वीकार करते हों, मसीह-विरोधी इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। जब वे कार्य करते हैं तो वे केवल यही चाहते हैं कि अन्य लोग उनकी सेवा करें, उनकी बात सुनें, उनकी आज्ञा मानें और उनके चारों ओर घूमें, और वे कभी भी खुद से यह अपेक्षा नहीं करते कि वे दूसरों के साथ सहयोग करें या चीजों पर चर्चा करें या दूसरों की राय लें, परमेश्वर के इरादों को जानें या सत्य सिद्धांत खोजें। वे सोचते हैं, “अगर मुझे कार्य करते हुए दूसरों के साथ सहयोग कर चीजों पर चर्चा करनी पड़े और सत्य सिद्धांत खोजने पड़ें तो क्या मैं खुद को नीचा दिखाकर अपनी स्वायत्तता खो रहा होऊँगा, और क्या यह सेवा करना नहीं होगा? दूसरे लोग सुर्खियाँ बटोर रहे होंगे तो क्या मैं पर्दे के पीछे मेहनत नहीं कर रहा होऊँगा? क्या मैं दूसरों की देखभाल और सेवा नहीं कर रहा होऊँगा?” यह एक ऐसी चीज है जिसे वे बिल्कुल भी नहीं करना चाहते। वे सिर्फ यह माँग करते हैं कि अन्य लोग उनकी देखभाल करें, उनके आगे समर्पण करें, उनकी सुनें, उनकी सराहना करें, उनकी प्रशंसा करें, हर चीज में उन्हें अच्छा दिखाएँ, उनके लिए जगह छोड़ें, उनकी सेवा करें, उनके लिए कार्य करें और वे तो परमेश्वर से भी यह माँग करते हैं कि वह उनके कामों के अनुसार उन्हें उचित इनाम और एक उपयुक्त मुकुट प्रदान करे। यहाँ तक कि जब कोई यह उल्लेख करता है कि परमेश्वर ने मानवजाति के उद्धार के लिए कितनी बड़ी कीमत चुकाई है और कितना कष्ट सहा है, उसने खुद को कितना विनम्र बनाया है और उसने मानवजाति के लिए कितना कुछ प्रदान किया है, तब ये शब्द सुनकर और ये तथ्य देखकर भी मसीह-विरोधी उदासीन बने रहते हैं और इन्हें स्वाभाविक मानते हैं। मसीह-विरोधी ऐसी चीजों की व्याख्या कैसे करते हैं? वे कहते हैं : “परमेश्वर से यह अपेक्षा की जाती है कि वह मनुष्य के लिए सब कुछ करे और मनुष्य को सबसे अच्छी चीजें दे, आशीष और अनुग्रह प्रदान करे और शांति और आनंद प्रदान करे। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह यह सब कुछ मनुष्य को समर्पित करे; यह उसका उत्तरदायित्व है। और जब लोग परमेश्वर के लिए चीजों का त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं और कीमत चुकाते हैं, जब वे परमेश्वर के लिए सब कुछ अर्पित करते हैं, तो यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें परमेश्वर से इनाम मिले और उससे भी कुछ बेहतर मिले। क्या यह एक उचित लेन-देन नहीं है? एक बराबरी का व्यापार नहीं है? इसमें बात करने लायक क्या है? परमेश्वर के पास क्या योग्यता है? मैंने परमेश्वर की कोई भी योग्यता क्यों नहीं देखी? परमेश्वर मनुष्य को चीजें प्रदान करता है तो क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि मनुष्य उन्हें प्राप्त करने का हकदार है? आखिर लोग कीमत चुकाते आ रहे हैं!” वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर मनुष्य के लिए ये जो सारी चीजें करता है, वह मनुष्य के लिए सबसे बड़ा अनुग्रह है; वे कृतज्ञ नहीं होते और बदले में परमेश्वर को कीमत चुकाने के बारे में नहीं सोचते। इसके बजाय वे जो कीमत चुकाते हैं उसके बदले वह खूबसूरत मंजिल पाना चाहते हैं जिसका वादा परमेश्वर ने मानवजाति से किया है और वे स्वाभाविक रूप से यह मानते हैं कि उनकी आशीष पाने की इच्छा करना और इन सभी इरादों को मन में रखना उचित है और इस तरह इस बात को चाहे कोई कैसे भी देखे, परमेश्वर को लोगों को अपने सेवाकर्ता नहीं बनाना चाहिए। वे मानते हैं कि लोगों की अपनी गरिमा और ईमानदारी होती है और अगर जिन लोगों का प्रेम इतना महान होता है और जो परोपकार को समर्पित हो सकते हैं, जो खुद को खपा सकते हैं और चीजों को त्याग सकते हैं, उन्हें परमेश्वर के लिए सेवा करने के लिए कहा जाता है तो फिर यह उनके साथ गंभीर रूप से अपमानजनक और बहुत अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। परमेश्वर द्वारा की गई ये सभी बातें मसीह-विरोधियों के लिए उल्लेख करने लायक नहीं होती हैं। बल्कि वे जो भी कार्य करते हैं, चाहे वह कोई बहुत छोटी चीज ही क्यों न हो, उसे वे अनंत रूप से बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और इसे आशीष प्राप्त करने की पूँजी मानते हैं।
कुछ लोग कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी कोई काम अच्छे से नहीं करते हैं। अगर भाई-बहन उनके किए कार्य, उनके कौशल और प्रतिभाएँ या उनके विचार और सुझाव स्वीकार नहीं करते, तो वे काम करते रहने से इनकार कर देंगे और इसे छोड़कर चले जाना चाहेंगे—वे परमेश्वर को छोड़ना चाहेंगे। अगर तुम उनसे किसी के साथ सहयोग करने को कहोगे, तो वे ऐसा नहीं करेंगे, और अगर तुम उनसे यह कहो कि वे अपने कर्तव्य निभाने में भरसक कोशिश करें तो वे ऐसा भी नहीं करेंगे। वे बस अनाप-शनाप ढंग से आदेश देकर दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए कहेंगे और लोगों को अपनी खिदमत में लगाकर इस बात के लिए मजबूर करेंगे कि वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के बजाय उनके सेवाकर्ता बन जाएँ और उनकी सेवा करें। और अगर उन्हें इस तरह का सत्कार नहीं मिलता या अगर वे इस तरह का सत्कार खो देते हैं जिसमें दूसरे उनकी सेवा करें, उनके लिए काम करें और उनके आदेशों का पालन करें, तो वे इसे छोड़कर चले जाना चाहते हैं; उन्हें लगता है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, उनके दिल परमेश्वर के प्रति शिकायतों और गुस्से से भर जाते हैं और उनके मन में भाई-बहनों के प्रति नफरत पैदा हो जाती है और कोई भी उनकी मदद नहीं कर पाता। वे किसी के साथ मिलजुलकर काम नहीं कर सकते और किसी के साथ समान स्तर पर जुड़ नहीं सकते। दूसरों के साथ जुड़ने के उनके नियम ये हैं कि बोलते और कार्य करते समय केवल वही दूसरों से ऊपर हों, वे यह देखते रहें कि दूसरे लोग उनके लिए सब कुछ कर रहे हैं और उनके हर आदेश और नारे का पालन कर रहे हैं; कोई भी उनके साथ सहयोग करने के योग्य नहीं है और कोई भी उनके साथ समान स्तर पर जुड़ने के योग्य नहीं है। अगर कोई उन्हें एक दोस्त या एक साधारण भाई या बहन की तरह मानता है और समान स्तर पर उनसे बात करता है, उनके साथ काम पर चर्चा करता है और समझ पर संगति करता है तो वे इसे अपने मान-सम्मान के लिए भयंकर अपमान और प्रचंड चुनौती मानते हैं। अपने दिल में वे ऐसे लोगों से नफरत कर वैर महसूस करते हैं और वे किसी भी ऐसे व्यक्ति से बदला लेने के मौके की ताक में रहते हैं जो उन्हें समान मानता है या जो उन्हें गंभीरता से नहीं लेता है। क्या मसीह-विरोधी यही सब नहीं करते हैं? जब दूसरे लोगों के साथ जुड़ने की बात आती है तो मसीह-विरोधी ओहदे में छोटे-बड़े का यही नजरिया प्रकट करते हैं। बेशक, इसका संबंध “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति उनकी वास्तविक राय और रवैये से है। वे तो उस उपाधि को भी स्वीकार नहीं कर सकते जो परमेश्वर मानवजाति को देता है, तो क्या वे यह स्वीकार कर सकते हैं कि दूसरे लोग उनकी निंदा करें, उन्हें उजागर करें और उनका मूल्याँकन करें? वे इन चीजों को तो और भी कम स्वीकार पाते हैं। एक तरफ देखो तो “सेवाकर्ता” की उपाधि और उसके सार के प्रति उनके मन में शत्रुता और प्रतिरोध की भावनाएँ होती हैं, लेकिन दूसरी तरफ वे अपने लिए सेवाएँ देने, अपनी सेवा कराने, अपनी देखभाल करने और अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिए अधिक से अधिक लोगों को अथक रूप से आकर्षित कर जुटाते हैं। क्या यह घृणित बात नहीं है? ऐसे लोगों का सार दुष्ट होता है और यह बिल्कुल सच है। वे दूसरों को नियंत्रित करना चाहते हैं। वे खुद बिल्कुल बेकार होते हैं और कुछ भी नहीं कर सकते; वे परमेश्वर के घर में सिर्फ कचरे की तरह होते हैं, उनके पास जरा-सी भी सामान्य मानवता नहीं होती है और वे दूसरों के साथ सामान्य रूप से जुड़ नहीं सकते, तो उनमें सामान्य समझ होने की बात तो दूर है। वे सत्य को बिल्कुल नहीं समझते, उन्हें सत्य के बारे में कोई प्रबुद्धता नहीं है, उनके पास केवल थोड़ी बहुत पेशेवर जानकारी और कुछ कौशल होता है और वे कोई भी कर्तव्य अच्छी तरह से निभा नहीं सकते। फिर भी, वे अच्छा व्यवहार नहीं करते और सत्ता हासिल करना चाहते हैं, और जब वे सत्ता हासिल नहीं कर पाते तो उन्हें लगता है कि वे बर्बाद हो गए हैं और सोचते हैं, “जब मैंने पहले वे चीजें की थीं तो मैं सेवा ही तो प्रदान कर रहा था। मैं सेवा करने के लिए तैयार नहीं हूँ। बेहतर है कि मैं जल्द से जल्द निकल जाऊँ, इससे पहले कि मैं बहुत अधिक मेहनत करूँ या बहुत कुछ खो दूँ।” यही उनके विचार होते हैं। वे हमेशा इसी प्रकार का निश्चय कर ऐसे निर्णय पर पहुँचते हैं; वे कभी भी विश्वास करना छोड़ सकते हैं और कभी भी अपने कर्तव्य को छोड़कर भाग सकते हैं, शैतान की गोद में लौटकर उसके कुकर्मों में साझेदार बन सकते हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ।) जब किसी पेशेवर कार्य के किसी पहलू की बात आती है, तो वे उसमें थोड़ी-बहुत समझ रखते हैं, लेकिन उस पेशेवर कार्य के लिए जिन सत्य सिद्धांतों को उन्हें समझना चाहिए, वे उससे पूरी तरह अनजान होते हैं; जब ज्ञान या गुणों के किसी पहलू की बात आती है, तो वे उनमें से कुछ के मालिक हो सकते हैं, लेकिन अपना कर्तव्य निभाने के लिए जो सत्य सिद्धांत उन्हें समझने चाहिए तो इस मामले में वे फिर से पूरी तरह अनजान होते हैं और उनकी समझ विकृत होती है। वे दूसरों के साथ तालमेल से सहयोग नहीं कर सकते और संगति करते समय उनकी भाषा भी दूसरों से मेल नहीं खाती। ऐसे लोग किस काम के होते हैं? अगर उनके पास वास्तव में अंतरात्मा और विवेक हो तो वे दूसरों के साथ सही व्यवहार कर पाएँगे, और जब लोग सही और सत्य के अनुरूप बातें कहते हैं हैं तो वे उन्हें स्वीकार कर पाएँगे, वे स्वेच्छा से समर्पित होंगे और अपनी देह के खिलाफ विद्रोह कर पाएँगे। उन्हें हमेशा भीड़ से ऊपर उठने, दूसरों का नेतृत्व करने और दूसरों को नियंत्रित करने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए; इसके बजाय, उन्हें अपनी महत्वाकांक्षा और दूसरों से श्रेष्ठ बनने की चाहत छोड़ देनी चाहिए और सबसे तुच्छ व्यक्ति बनने के लिए तैयार रहना चाहिए, भले ही इसका मतलब सेवा प्रदान करना हो—वे जो भी कर सकते हैं, उन्हें वह करना चाहिए। वे खुद साधारण लोग हैं, इसलिए उन्हें साधारण लोगों की स्थिति में लौट जाना चाहिए, अपने कर्तव्य निभाने में अपनी पूरी कोशिश करनी चाहिए और एक सरल, जमीन से जुड़ा इंसान बनना चाहिए। ऐसे लोग ही अंत में अडिग रह पाएँगे। अगर वे इस मार्ग को नहीं चुनते और इसके बजाय खुद को महान और श्रेष्ठ समझते हैं, अगर कोई भी उन्हें छू नहीं सकता या उन तक पहुँच नहीं सकता, और अगर वे स्थानीय गुंडा, अत्याचारी बनना चाहते हैं और मसीह-विरोधियों के मार्ग का अनुसरण करते हैं तो वे निश्चित रूप से बुरे व्यक्ति बनने के लिए अभिशप्त हैं। अगर वे सबसे तुच्छ व्यक्ति बनने, पूरी तरह से गुमनाम रहने या सुर्खियों से दूर रहने या अपनी पूरी क्षमता लगाने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वे निश्चित रूप से मसीह-विरोधी हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता—यह उनके लिए खतरनाक है। अगर ऐसा व्यक्ति आत्मचिंतन कर सके, आत्मज्ञान प्राप्त कर सके, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर सके, अपनी उचित स्थिति ले सके, एक साधारण व्यक्ति बन सके और अब कोई दिखावा न करे, तो उसके पास उद्धार प्राप्त करने का अवसर होगा। अगर तुम हमेशा अधिकार जताना चाहते हो, हठधर्मी बनना चाहते हो और खुद को एक प्रभावशाली हस्ती दिखाना चाहते हो तो यह सब व्यर्थ है। परमेश्वर का घर परमेश्वर के चुने हुए लोगों से भरा है और तुम चाहे कितने ही ताकतवर, उग्र या दुष्ट क्यों न हो, इसका कोई फायदा नहीं है। परमेश्वर का घर कोई लड़ाई का मैदान नहीं है, इसलिए अगर तुम लड़ना चाहते हो तो जाकर दुनिया के मैदान में लड़ो। परमेश्वर के घर में कोई भी तुमसे लड़ना नहीं चाहता; किसी की इसमें रुचि नहीं है और न ही किसी के पास इसके लिए अतिरिक्त समय है। परमेश्वर का घर वह जगह है जहाँ सत्य का प्रचार किया जाता है, जो लोगों को सत्य समझने और सत्य को अभ्यास में लाने में मदद करता है। अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते तो स्थिति मुश्किल है और इससे केवल यही दिखता है कि तुम यहाँ के नहीं हो। अगर तुम हमेशा लड़ना चाहते हो, हमेशा उग्र बनना चाहते हो, हमेशा निर्दयी बनना चाहते हो और हमेशा हठधर्मी और अधिकार जताने वाला बनना चाहते हो तो कलीसिया तुम्हारे लिए सही जगह नहीं है। परमेश्वर के घर में अधिकांश लोग सत्य से प्रेम करते हैं; वे परमेश्वर का अनुसरण करना और जीवन प्राप्त करना चाहते हैं, और उन्हें दानवों के साथ चालबाजी करने और लड़ाई करने में कोई रुचि नहीं है। केवल मसीह-विरोधी ही हर जगह लड़ाई करने और सत्ता और लाभ के लिए प्रतिस्पर्धा करने में आनंद लेते हैं, और यही कारण है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में अडिग नहीं रह सकते।
एक प्रकार के लोग पहचान, पद और रुतबे जैसी चीजों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं और विशेष रूप से “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति अत्यधिक विरोध और घृणा महसूस करते हैं और इसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकते—ऐसे लोग मसीह-विरोधी होते हैं। वे न केवल सत्य का अनुसरण नहीं करते और सत्य से विमुख रहते हैं, बल्कि “सेवाकर्ता” कहे जाने से भी विमुख होते हैं। जो लोग “सेवाकर्ता” की उपाधि से विमुख होते हैं, उन्हें वास्तव में सत्य का अनुसरण करना चाहिए—अगर वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते तो क्या वे “सेवाकर्ता” की उपाधि से मुक्त नहीं हो जाते? लेकिन यही तो वास्तव में समस्या है। क्योंकि वे सत्य से विमुख होते हैं, वे कभी भी उसका अनुसरण करने और उसे अभ्यास में लाने के मार्ग पर नहीं चलेंगे। इसीलिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में वे हमेशा सेवाकर्ता की भूमिका निभाते रहेंगे। निस्संदेह, परमेश्वर की प्रबंधन योजना में सेवाकर्ता की भूमिका निभाना भी मसीह-विरोधियों के लिए एक आशीष है; यह उनके लिए सृष्टिकर्ता के कार्यों को देखने, सृष्टिकर्ता को सत्य व्यक्त करते और मानवजाति के साथ अपने अंतरतम विचार साझा करते सुनने और सृष्टिकर्ता की बुद्धि और सर्वशक्तिमान कार्यों की सराहना करने का एक अवसर है। उनके लिए सृष्टिकर्ता के लिए सेवाकर्ता बनना कोई बुरी बात नहीं है, और चाहे वे समझ सकें या नहीं, परमेश्वर के सेवाकर्ता बनना और परमेश्वर के घर में सेवा करना उन मसीह-विरोधियों और शैतान के साथियों के लिए कुछ ऐसा होना चाहिए जिसे वे हमेशा याद रखें, भले ही बाद में परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए। भ्रष्ट मानवजाति द्वारा परमेश्वर का विरोध करने की पूरी प्रक्रिया के दौरान मसीह-विरोधी अनजाने में परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए सेवा करते हैं, और यही प्रत्येक मसीह-विरोधी के अस्तित्व का थोड़ा सा मूल्य है—यह एक सच्चाई है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नकारात्मक पक्ष से मसीह-विरोधियों को पहचानने और अच्छी तरह जानने की अनुमति देकर अपना योगदान देते हैं। चाहे वे इस सच्चाई को मानने के लिए तैयार हों या न हों, और चाहे वे सेवाकर्ता बनने के लिए तैयार, तुष्ट और प्रसन्न हों या न हों, बहरहाल परमेश्वर के कार्य के लिए सेवाकर्ता के रूप में सेवा करना और इस भूमिका को निभाना एक मूल्यवान बात है—यह परमेश्वर द्वारा उनका उन्नयन करना है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर मसीह-विरोधियों का भी उन्नयन करता है?” इसमें क्या गलत है? वे सृजित प्राणी हैं; क्या परमेश्वर उनका उन्नयन नहीं कर सकता? मेरी बात सच है। अब जब मसीह-विरोधी ये बातें सुनते हैं तो उन्हें कैसा लगता है? उन्हें कमियाँ निकालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और खुद को ढाढस बँधाना चाहिए। कम से कम उन्होंने परमेश्वर की प्रबंधन योजना के महान कार्य में कुछ हद तक योगदान तो दिया है। चाहे उन्होंने यह स्वेच्छा से किया हो, सक्रिय रूप से किया हो या निष्क्रिय रूप से, कोई भी स्थिति हो, यह परमेश्वर द्वारा उनका उन्नयन था और उन्हें इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर इसका विरोध नहीं करना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी अपने पूर्वजों के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं, शैतान के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं, सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण का अनुसरण कर सकते हैं, तो मुझे बताओ, क्या परमेश्वर प्रसन्न होगा? (हाँ, वह प्रसन्न होगा।) यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए भी एक सम्मान की बात है और उन्हें खुश भी होना चाहिए—यह एक अच्छी बात है। चाहे यह तथ्य मान्य हो या न हो, कोई भी स्थिति हो, अगर मसीह-विरोधी अपना मार्ग बदल सकते हैं और पश्चात्ताप के मार्ग पर चल सकते हैं तो निश्चित रूप से यह एक अच्छी बात है। तो, मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए एक सम्मान की बात है? अगर एक मसीह-विरोधी स्वेच्छा से सेवा प्रदान करे तो क्या परमेश्वर के घर में एक विपत्ति कम नहीं होगी? अगर तुम लोगों के बीच एक शैतान कम हो, एक विघ्नकारी और गड़बड़ी पैदा करने वाला कम हो तो क्या तुम्हारे दिन अधिक शांतिमय नहीं होंगे? इस दृष्टिकोण से देखने पर अगर मसीह-विरोधी वास्तव में सेवा प्रदान करने के लिए तैयार हों तो यह भी एक ऐसी अच्छी बात होगी जिसका जश्न मनाया जा सकता है। तुम लोगों को उन्हें प्रोत्साहित कर मदद करनी चाहिए और उन्हें पूरी तरह खारिज नहीं करना चाहिए। अगर तुम नेकनीयत होकर उन्हें टिके रहने देते हो, लेकिन उनका सेवा कार्य उपयोगी कम और मुसीबत ज्यादा बन जाए और आपदा की ओर ले जाए तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार संभालना चाहिए। क्या यह काम करने का एक अच्छा तरीका नहीं है? (हाँ, है।)
एक और प्रकार के व्यक्तियों का उल्लेख करना आवश्यक है। कुछ लोग अपने कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, और कभी-कभी वे आज्ञा मानकर समर्पण भी कर सकते हैं या सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभाल सकते हैं। उनकी अपनी इच्छा सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की होती है, वे हमेशा ऊपरवाले या कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रह सकते हैं और वे हमेशा समय पर कार्य पूरे कर सकते हैं। वे परमेश्वर के घर में कोई विघ्न और बाधा नहीं उत्पन्न करते, और वे जो कार्य करते हैं और कर्तव्य निभाते हैं, उनसे भाई-बहनों को कई लाभ और फायदे मिलते हैं। बाहर से देखने पर भले ही उन्होंने कोई बुराई नहीं की है, वे कोई विघ्न या बाधा नहीं डालते और वे बुरे लोग भी नहीं लगते, लेकिन वे एक ऐसा काम करते हैं जो साधारण लोग नहीं कर सकते और नहीं करते, और वह यह है कि उन्हें अपना प्रभाव बढ़ाने और अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में आनंद आता है। जब उन्हें किसी कार्य के लिए नियुक्त किया जाता है तो उस कार्य के लिए जिम्मेदार व्यक्ति बनते ही वे अपना खुद का स्वतंत्र राज्य स्थापित करना शुरू कर सकते हैं और अनजाने में ही अपने प्रभाव के दायरे में अपनी सत्ता और संपर्कों का निर्माण शुरू कर सकते हैं। इस दायरे में हर कोई पूरी तरह से उनके वश में हो जाता है, और जो कुछ भी वे करते हैं, जो कुछ भी वे कहते हैं और जो कीमत वे चुकाते हैं, उसकी लोग जोरदार प्रशंसा करते हैं और उनकी अत्यधिक सराहना करते हैं। वे अपने प्रबंधन के दायरे को परमेश्वर के परिवार के भीतर अपने छोटे से परिवार के रूप में मानते हैं। बाहर से, वे कीमत चुकाने, कष्ट सहने और जिम्मेदारी उठाने में सक्षम दिखाई देते हैं—कोई समस्या नजर नहीं आती। लेकिन महत्वपूर्ण क्षणों में वे परमेश्वर के घर के हितों से विश्वासघात करने में सक्षम होते हैं। अपनी प्रतिष्ठा को और पहाड़ की चोटी पर अपनी जगह को सुरक्षित रखने के लिए और कलीसिया में अपनी पूर्ण स्थिति, गरिमा और सत्ता की रक्षा करने के लिए वे किसी को भी नाराज या आहत नहीं करते। भले ही कोई परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है या धोखा देता है, और कोई परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालता है या उसे नष्ट करता है, तब भी वे उस मामले की जाँच नहीं करते, उस पर कोई ध्यान नहीं देते और उसे सहन कर लेते हैं। जब तक वह व्यक्ति उनकी स्थिति के लिए खतरा नहीं बनता और उनके प्रभाव के दायरे में रहकर उनकी सेवा में काम करता रहता है, तब तक उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती—यही उनका सबसे बड़ा मापदंड है। चाहे वह व्यक्ति कोई भी गड़बड़ी क्यों न करे, वे इसे नहीं देखते, इस पर कोई ध्यान नहीं देते और न ही उसकी काट-छाँट करते हैं या उसे फटकारते हैं, और तो और उससे निपटते भी नहीं हैं। ऐसे लोग खतरनाक तत्व होते हैं। एक साधारण व्यक्ति के लिए इनकी असलियत पहचानना मुश्किल होता है, और शायद जब उनके पास कोई पद नहीं होता, तब तुम लोग उनकी किसी भी गड़बड़ी पर ध्यान नहीं दे पाओगे। लेकिन जैसे ही उन्हें पद मिलता है, उनका प्रकृति सार पूरी तरह बेनकाब हो जाता है। और असल में बेनकाब क्या होता है? यह कि जो कीमत वे चुकाते हैं और जो कुछ भी वे करते हैं, उसके पीछे एक उद्देश्य होता है; वे ये सब चीजें परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए नहीं करते, वे वास्तव में अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होते हैं और वे यह सब परमेश्वर को दिखाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों को दिखाने के लिए करते हैं। वे दूसरों की एकटक दृष्टि, निगाह और ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं, और इससे भी बढ़कर वे लोगों के दिलों को गुमराह करना चाहते हैं ताकि लोग उनकी ओर सम्मान की दृष्टि से देखें, उनकी प्रशंसा करें और उनकी सराहना करें। यही कारण है कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर उन्हें कैसे देखता है या उनके साथ कैसा व्यवहार करता है; अगर परमेश्वर कहता है कि वे केवल सेवा प्रदान करने के लिए वहाँ हैं, तो वे उदासीन रहते हैं। जब तक लोग उनके पैरों में पड़कर झुक सकते हैं, तब तक उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। ऐसे लोग खतरनाक तत्व होते हैं और परमेश्वर के और परमेश्वर के घर के समान मन के नहीं होते, और उनके दिल परमेश्वर के चुने हुए उन लोगों के दिलों जैसे नहीं होते जो वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं। वे अपने लिए प्रभाव पैदा कर रहे हैं और साथ ही शैतान के लिए भी प्रभाव पैदा कर रहे हैं। उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों को देखते हुए वे जो भी कर्तव्य निभाते हैं और जो कुछ भी करते हैं, वह केवल खुद को प्रदर्शित करने और जितना संभव हो सके दूसरों की चापलूसी करने का एक तरीका है।
मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में कुछ सेवा प्रदान कर सकते हैं और एक समय पर वे अच्छे सेवाकर्ता भी हो सकते हैं। लेकिन वे जिस मार्ग पर चलते हैं और जो उद्देश्य और दिशा चुनते हैं, साथ ही अपने भीतर जो हैसियत और सत्ता की चाहत, और प्रसिद्धि व लाभ की लालसा रखते हैं, उसके कारण वे “सेवाकर्ता” की उपाधि से कभी मुक्त नहीं हो सकते, वे सत्य को समझ नहीं सकते, वे सत्य वास्तविकता को समझ नहीं सकते या उसमें प्रवेश नहीं कर सकते, वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम नहीं होते, वे सच्चे समर्पण को प्राप्त नहीं कर सकते और वे परमेश्वर का भय नहीं प्राप्त कर सकते। ऐसे लोग खतरनाक तत्व होते हैं। उनके पास सांसारिक आचरण के लिए गहरे फलसफे होते हैं, लोगों के साथ बातचीत करने के बहुत चालाक तरीके होते हैं, वे दूसरों से बात करते समय अपनी भाषा और शब्दों पर विशेष ध्यान देते हैं और लोगों के साथ मेलजोल के तरीकों पर भी गहरी नजर रखते हैं। भले ही वे सतह पर विश्वासघाती और बुरे नहीं दिखाई देते, लेकिन उनके दिल दुष्ट विचारों, सोच और दृष्टिकोणों से भरे होते हैं, यहाँ तक कि उनमें सत्य के प्रति धारणाएँ और गलतफहमियाँ और परमेश्वर को न समझ पाने की असफलता भी होती है। भले ही लोग यह नहीं देख सकते कि इन लोगों में क्या बुराई है या यह नहीं देख सकते कि वे बुरे लोग हैं, लेकिन चूँकि उनका सार इतना दुष्ट है और चूँकि वे कभी भी सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते या सत्य के अनुसरण के मार्ग पर नहीं चल सकते और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण नहीं कर सकते, इसलिए अंत में वे “सेवाकर्ता” की इस उपाधि से कभी मुक्त नहीं हो पाते। ये लोग स्पष्ट मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों की तुलना में और भी अधिक छलपूर्ण और दूसरों को गुमराह करने में अधिक सक्षम होते हैं। बाहर से देखने पर वे “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में कोई राय नहीं रखते और न ही इसके प्रति कोई रवैया अपनाते हैं, और तो और वे इसके प्रति कोई प्रतिरोध भी महसूस नहीं करते। लेकिन सच्चाई यह है कि उनके सार के आधार पर देखा जाए तो परमेश्वर के लिए सेवा करने के बावजूद वे अपने मन में इरादे और उद्देश्य पालते हैं; वे बिना शर्त सेवा नहीं करते और न ही सत्य प्राप्त करने के लिए सेवा करते हैं। चूँकि ये लोग भीतर से दुष्ट और चालाक होते हैं, इसलिए दूसरों के लिए उनका भेद पहचानना आसान नहीं होता। केवल अहम मामलों में और अहम मौकों पर ही उनका प्रकृति सार, विचार, दृष्टिकोण और जिस मार्ग पर वे चलते हैं, वह प्रकट होता है। अगर यह ऐसे ही चलता रहा और ये लोग इसी तरह के अनुसरण का मार्ग चुनते हैं और ऐसा ही रास्ता अपनाते हैं, तो यह कल्पना की जा सकती है कि ऐसे लोग उद्धार प्राप्त नहीं कर पाएँगे। वे परमेश्वर के घर द्वारा उन पर रखे गए विश्वास और परमेश्वर के कार्य के अवसर का उपयोग अपने फायदे की योजनाएँ बनाने, लोगों को नियंत्रित करने और उन्हें सताने और अपनी खुद की महत्त्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने के लिए करते हैं। आखिरकार, वे सत्य को प्राप्त नहीं करते हैं, बल्कि हर तरह के कुकर्म करने के कारण बेनकाब कर दिए जाते हैं। इन लोगों के बेनकाब होने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सत्य का अनुसरण नहीं करते और न ही सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। परमेश्वर के वचन सुनने और उसके हाथों विभिन्न प्रकार के लोगों के उजागर होने के बाद अगर ये लोग अपने कर्तव्य निभाने में सांसारिक आचरण के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों का उपयोग करते हैं, तो अंत में एक ही परिणाम होगा : उन्हें परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में सेवाकर्ता की भूमिका निभानी पड़ेगी और अंत में वे बेनकाब कर हटा दिए जाएँगे—यह एक सच्चाई है। क्या तुम लोगों के पास पहले से ऐसे लोगों के अनुभव हैं? जब उन्हें बेनकाब कर निष्कासित कर दिया जाता है, तो कुछ मसीह-विरोधी बिना सेना के सेनापति जैसे बन जाते हैं। उन्होंने जो बुराई की है वह बहुत अधिक और बहुत बड़ी है और भाई-बहनों को उनसे घृणा हो जाती है और वे उन्हें छोड़ देते हैं। एक और किस्म के लोग भी होते हैं जो जब बेनकाब किए जाते हैं और कलीसिया द्वारा निंदित और अस्वीकार कर दिए जाते हैं, तो उनके कई ऐसे साथी और सहायक होते हैं जो उनके समर्थन में बोलते हैं, उनके लिए लड़ते हैं और परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाते हैं। क्या ऐसे लोग दूसरों को गुमराह करने में और भी सक्षम नहीं होते? ऐसे लोग तो और भी खतरनाक हैं। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की उपाधि को कैसे देखते हैं, और वे कौन-सी छिपी हुई प्रथाएँ, विचार और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, इस बारे में हम अपनी संगति फिलहाल यहीं समाप्त करेंगे।
iii. मसीह-विरोधी सेवाकर्ता बनने के लिए अनिच्छुक क्यों होते हैं
मसीह-विरोधी सेवाकर्ता बनना नहीं चाहते और सेवाकर्ता बनने के लिए तैयार भी नहीं होते। उनका मानना है कि सेवाकर्ता बनकर उन्हें अपार अपमान और भेदभाव का सामना करना पड़ेगा। तो वे वास्तव में क्या बनना चाहते हैं? जब वे परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं और परमेश्वर के घर में आते हैं तो उनका उद्देश्य क्या होता है? क्या वे परमेश्वर के लोगों में से एक, परमेश्वर के अनुयायी बनने के लिए तैयार हैं? क्या वे एक ऐसा व्यक्ति बनने के लिए तैयार हैं जिसे पूर्ण किया गया हो? क्या वे पतरस और अय्यूब की तरह बनने के लिए खुश हैं और इसे अच्छा मानते हैं? (नहीं।) क्या कोई यह कहता है कि वह इसलिए खुश है कि वह परमेश्वर में अपनी आस्था में परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक है और यही उसके लिए काफी है? क्या कोई परमेश्वर के हाथों का खिलौना बनने के लिए तैयार है? नहीं, लोग ऐसा बनने के लिए कोई खास तैयार नहीं होते। जब भी कोई परमेश्वर के घर में आता है तो वह लाभ, आशीष, इनाम और मुकुट पाने की तलाश में आता है। जब लोग परमेश्वर के वचनों से उजागर होने और अपना न्याय किए जाने को स्वीकार करते हैं, तो वे यह जान जाते हैं कि अपनी आस्था में ऐसे इरादे रखने से वे सत्य को नहीं समझ पाएँगे और अंततः उद्धार प्राप्त नहीं कर पाएँगे। तो फिर कई लोग पहले अपनी आशीष की इच्छा और मुकुट और इनाम की चाह छोड़ने का निर्णय लेते हैं, इन सभी लाभों को छोड़कर पहले यह सुनते हैं कि परमेश्वर क्या कह रहा है, मनुष्य से उसकी क्या माँगें हैं और वह मनुष्य से क्या कहना चाहता है। परमेश्वर के वचन सुनने वाले बहुत से लोग अपने दिल में एक गुप्त खुशी महसूस कर कहते हैं : “परमेश्वर हमारी भ्रष्टता को उजागर करता है, वह हमारे बदसूरत असली रंग को प्रकट करता है, और हमारे परमेश्वर का विरोध करने और सत्य से विमुख होने के सार को उजागर करता है—ये सभी तथ्य हैं। सौभाग्य से मैंने परमेश्वर के सामने हाथ फैलाकर सौभाग्य, अनुग्रह और आशीष माँगने की जल्दबाजी नहीं की; सौभाग्य से मैंने पहले ही इन चीजों को छोड़ दिया था। अगर मैं इन्हें न छोड़ता तो क्या मैंने खुद को मूर्ख नहीं बना लिया होता? परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह मनुष्य की प्रकृति और सार को उजागर करता है तो मैं ये चीजें कैसे त्याग पाया? परमेश्वर ने कहा है कि लोगों को पहले अपने कर्तव्य को निभाना शुरू करना चाहिए और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में सहयोग करना चाहिए। इस प्रक्रिया के दौरान अगर लोग सत्य को समझने और स्वीकार करने के मार्ग पर चल सकते हैं तो उनके पास उद्धार प्राप्त करने की आशा होगी और वे भविष्य में कई लाभ प्राप्त कर सकते हैं।” इस मुकाम पर कई लोग उन चीजों के बारे में सोचना बंद कर देते हैं। उनकी शानदार इच्छाएँ, भविष्य के प्रति उनकी लालसा और उम्मीदें अब उतनी वास्तविक नहीं लगतीं। उन्हें लगने लगता है कि इस समय अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाया जाए, परमेश्वर के इरादों को कैसे पूरा किया जाए और सत्य को कैसे समझा जाए और अडिग रहा जाए, ये सभी उन इच्छाओं और आदर्शों से अधिक वास्तविक, महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं। इसलिए इस महत्वपूर्ण मोड़ पर अधिकांश लोग अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य प्राप्त करने, अपना समय और यौवन अर्पित करने और परमेश्वर के लिए तथा अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए अपने परिवार, नौकरी और सांसारिक संभावनाओं को छोड़ने का चयन करते हैं और कुछ लोग तो इसके लिए अपना वैवाहिक जीवन तक छोड़ देते हैं। लोगों की इस तरह की अभिव्यक्तियाँ, ऐसे व्यवहार और कार्यकलाप निस्संदेह उन सकारात्मक चीजों और उन सभी माँगों के प्रति एक प्रकार का आज्ञाकारी और समर्पित रवैया है जिनका उल्लेख परमेश्वर करता है, और यही रवैया एक ऐसी आवश्यक शर्त है जो लोगों में सत्य को समझने, सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और अंततः उद्धार प्राप्त कर सकने के लिए होना चाहिए। यही वे विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और विचार हैं जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने आने से पहले हर सामान्य व्यक्ति के पास होते हैं। जबसे इन लोगों ने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, तब से लेकर अब तक उनके विचार और दृष्टिकोण लगातार बदल रहे हैं, और सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया भी लगातार परिवर्तित हो रहा है। जैसे-जैसे मनुष्य की ये विगत इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ निरंतर नष्ट होती जा रही हैं, वैसे-वैसे वे इन चीजों को धीरे-धीरे सक्रिय रूप से छोड़कर इनसे पीछा छुड़ा रहे हैं। यह वह अच्छा फल है जो अंततः लोगों की परमेश्वर के साथ सहयोग करने और उसके प्रति समर्पण करने की इच्छा से उत्पन्न होता है। यह एक सकारात्मक और अच्छी अभिव्यक्ति है और यह एक अच्छा नतीजा है। जब लोग निरंतर प्रगति कर रहे हैं तो जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्होंने आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा और इरादे को लगभग छोड़ दिया है, और इसीलिए अधिकांश लोग उन तमाम वादों के प्रति वास्तव में बहुत संवेदनशील या रुचि नहीं रखते जो पहले कभी परमेश्वर ने मनुष्य से किए थे। इसका कारण यह है कि एक सामान्य व्यक्ति की सूझ-बूझ के अनुसार, अगर कोई अपना कर्तव्य मानक के अनुसार नहीं निभा सकता और सत्य को नहीं समझ पाता तो वह परमेश्वर द्वारा वादा किए गए सभी आशीष पाने का अवसर चूक जाएगा और उसका इनसे कोई सरोकार नहीं रहेगा। हर किसी को इस सरलतम तर्क को समझना चाहिए। निस्संदेह, अब कई लोग इस तथ्य को पहले से समझते हैं और इस तथ्य को मानते और स्वीकारतेभी हैं; केवल मसीह-विरोधी ही इसे स्वीकार नहीं करते। वे इसे क्यों स्वीकार नहीं करते? इसका कारण यह है कि वे मसीह-विरोधी हैं। वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते तो वे करना क्या चाहते हैं? जब वे परमेश्वर के घर में आते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों की पड़ताल करते हैं और उनमें “परमेश्वर के व्यक्ति,” “पहलौठे पुत्र,” “परमेश्वर के पुत्र,” “परमेश्वर के लोग” और “सेवाकर्ता” जैसी विभिन्न उपाधियाँ और रुतबे देखते हैं और उनकी आँखें चमक उठती हैं। उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ तुरंत संतुष्ट हो जाती हैं और वे सोचते हैं, “परमेश्वर के पुत्रों में से एक होना तो बहुत साधारण है; अधिकांश लोग परमेश्वर के पुत्र हैं। परमेश्वर के लोगों में से एक होने का मतलब एक सामान्य व्यक्ति होना है, जनसामान्य का हिस्सा होना है, महज एक सामान्य इंसान होना जो बिना किसी शक्ति या प्रभाव के है। और मुझे सेवाकर्ता बनाने के बारे में तो सोचना भी मत। जीते-जी सेवाकर्ता बनने से मेरा कोई वास्ता नहीं रहेगा; इसका मुझसे कतई संबंध नहीं है।” इसीलिए वे “परमेश्वर के व्यक्ति” और “पहलौठा पुत्र” की दो उपाधियों पर अपनी नजरें टिका लेते हैं। अपनी धारणाओं में वे मानते हैं कि “परमेश्वर का व्यक्ति” स्वयं परमेश्वर है, कि “पहलौठे पुत्र” परमेश्वर के पहलौठे पुत्र हैं और यह भी मानते हैं कि ये दोनों शक्ति और प्रभाव लेकर आते हैं और मानवजाति के बीच राजा बनकर शासन कर सकते हैं, लोगों को नियंत्रित कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित कर सकते हैं, पूर्ण शक्ति प्राप्त कर सकते हैं, और उनके पास निर्णय लेने की शक्ति है, एक अगुआ बनने की शक्ति और लोगों को संगठित करने की शक्ति है और यह तय करने की शक्ति है कि लोग जीवित रहेंगे या मरेंगे—वे इन शक्तियों को इतना महान मानते हैं। यही कारण है कि उन्हें सेवाकर्ता बनाना असंभव है। अगर उन्हें अपने लिए खुद विकल्प चुनने की अनुमति दी जाए, तो वे पहलौठा पुत्र या परमेश्वर का व्यक्ति बनना चुनेंगे; अन्यथा वे परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देंगे। जब वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं या अगुआ और श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं तो वे इन्हीं दो लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करते हैं, कीमत चुकाते हैं, कष्ट सहते हैं और भाग-दौड़ करते हैं। इस दौरान वे लगातार यह गणना करते रहते हैं कि वे इस उतावली में कितनी दूर चले गए हैं, सुसमाचार फैलाते समय उन्होंने कितने लोगों को प्राप्त किया है, कितने लोग उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं और उन्हें मानते हैं, जब वे कलीसिया की अगुआई करते हैं तो भाई-बहन समस्याओं का सामना करते समय दूसरों के पास जाते हैं या उनके पास आते हैं और क्या वे दूसरों के विचारों और धारणाओं को नियंत्रित और प्रभावित कर सकते हैं। वे अपनी मनचाही चीज हासिल करने अर्थात परमेश्वर के घर में राजा के रूप में शासन करने के लिए लगातार इन चीजों की गणना करते हैं, इन्हें तौलते और गौर से देखते रहते हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर के घर में आने और कुछ सत्य समझने के बाद एक सृजित प्राणी के रूप में सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं—लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा नहीं कर सकते। उनका मानना होता है कि वे एक उच्च कुल से आते हैं, कि वे एक महान और विशेष समूह का हिस्सा हैं और उन्हें परमेश्वर के घर में महान कहा जाना चाहिए; वरना वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे। अगर उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना है तो उन्हें परमेश्वर के घर में महान मानकर सम्मान दिया जाना चाहिए और सर्वोच्च होना चाहिए। साथ ही, वे यह भी गणना करते हैं कि परमेश्वर की पुस्तक में उनके खाते में कितनी जमापूँजी है और क्या वे परमेश्वर के साथ राजा के रूप में शासन करने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य हैं। इसलिए कुछ मसीह-विरोधियों के परमेश्वर के घर में आकर अपना कर्तव्य निभाने का स्रोत, प्रारंभिक बिंदु और प्रेरणा यही है कि वे परमेश्वर के घर में राजा बनकर शासन करने आए हैं। वे अपना कर्तव्य सिर्फ साधारण और सबसे तुच्छ अनुयायी बनने के लिए कतई तैयार नहीं हैं और जैसे ही उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छा की लौ बुझ जाती है, वे अचानक शत्रुतापूर्ण रुख अपनाकर अपना कर्तव्य निभाने से इनकार कर देते हैं।
परमेश्वर के घर में अब कुछ ऐसे लोग हैं जो कई वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन हर काम खराब तरीके से करते हैं और जहाँ भी वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, वहाँ से हटा दिए जाते हैं। क्योंकि उनकी मानवता बहुत खराब है, उनमें ईमानदारी कम है, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और उनका शातिर और दुष्ट स्वभाव सत्य से विमुख होता है, इसलिए भाई-बहन अंततः उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। जैसे ही वे यह देखते हैं कि उनकी आशीष प्राप्त करने की इच्छा धुएँ में उड़ने वाली है और परमेश्वर के घर में राजा बनकर शासन करने और अलग दिखने का उनका सपना अब पूरा नहीं हो सकता तो वे अपनी निजी जिंदगी कैसे जीते हैं? वे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, भजन नहीं सुनते, सभाओं में भाग नहीं लेते और जब उनसे कोई कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाता है तो वे परमेश्वर के घर की उपेक्षा करते हैं। और जब सभाओं में भाग लेने का समय आता है तो भाई-बहनों को उनके पास मिलने जाकर उन्हें आमंत्रित करना और याद दिलाना तक पड़ता है। उनमें से कुछ अनिच्छा से सभाओं में आना जारी रखते हैं लेकिन सभाओं के दौरान वे एक शब्द भी नहीं बोलते, संगति नहीं करते और जो कुछ भी अन्य लोग कहते हैं उससे वे घृणा महसूस करते हैं और उसे सुनना भी नहीं चाहते। जब भाई-बहन प्रार्थना करते हैं तो वे भी अपनी आँखें बंद कर लेते हैं लेकिन वे कुछ नहीं कहते—उनके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ भी नहीं होता। और कुछ अन्य लोग सभाओं के दौरान, उपदेश सुनते समय या भाई-बहनों के साथ सत्य पर संगति के दौरान क्या करते हैं? कुछ लोग सो जाते हैं, कुछ अपने फोन पर समाचार पढ़ते हैं, कुछ दूसरों से बातचीत करते हैं और कुछ ऑनलाइन गेम्स खेलते हैं। परमेश्वर में विश्वास करते हुए वे सोचते हैं कि अगर वे परमेश्वर के घर में लोकप्रिय नहीं हो सकते, दूसरों के कृपापात्र नहीं बन सकते, अपने आसपास समर्थकों की भीड़ नहीं जुटाते और उन्हें महत्वपूर्ण कार्य सौंपे नहीं जाते तो वे भविष्य में परमेश्वर के साथ राजा बनकर शासन नहीं कर पाएँगे और इसलिए उनके लिए परमेश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। उनके लिए परमेश्वर का अस्तित्व इस बात से जुड़ा होता है कि वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। क्या मसीह-विरोधी इसी तरह व्यवहार नहीं करते? वे मानते हैं कि अगर कोई परमेश्वर उन्हें आशीष प्राप्त नहीं करने दे सकता तो वह परमेश्वर नहीं है और उसमें कोई सत्य नहीं है, और वे यह भी मानते हैं कि परमेश्वर केवल वही है जो उन्हें मनमानी करने दे सकता है, कलीसिया में सत्ता हासिल करने दे सकता है और भविष्य में राजा बनकर शासन करने दे सकता है। यह शैतान का तर्क है—यह सही-गलत को गड्ड-मड्ड करना और तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले होते हुए भी वे परमेश्वर के पदचिन्हों का अनुसरण नहीं कर पाते और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अनिच्छुक होते हैं क्योंकि वे सत्य विमुख होते हैं और अपने दिल में वे केवल शैतान के फलसफों, ज्ञान, प्रतिष्ठा, लाभ और पद का ही आदर करते हैं। वे इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर सत्य है, वे परमेश्वर के कार्य पर कोई ध्यान नहीं देते और यही कारण है कि सभाओं में वे अपने फोन देखते हैं, गेम्स खेलते हैं, स्नैक्स खाते हैं और गप्पें मारते हैं—वे जो चाहते हैं वह करते हैं और फिर भी खुद से प्रसन्न रहते हैं। जैसे ही उनके आशीष प्राप्त करने की उम्मीदें टूट जाती हैंतो उन्हें परमेश्वर में आस्था रखने का कोई मतलब नहीं दिखता और जब उन्हें परमेश्वर में आस्था का कोई अर्थ नहीं दिखता तो वे भाई-बहनों के सभास्थल—कलीसिया—को एक खेल का मैदान मानते हैं, वे सभा करने के समय को आराम का समय समझते हैं और सभाओं में भाग लेने और उपदेश सुनने को कष्टप्रद, नीरस और उबाऊ मानते हैं। भाई-बहन जो उपदेश सुनते हैं उन्हें और सत्य को मसीह-विरोधी क्या मानते हैं? वे उन्हें केवल नारेबाजी, निराधार बकवास मानते हैं और वे भाई-बहनों के साथ सभा में बिताए गए समय को समय की बर्बादी मानते हैं। क्या इन लोगों को बेनकाब नहीं किया गया है? वे परमेश्वर में अपनी आस्था में अपनी महत्वाकांक्षाएँ, अपनी इच्छाएँ और अपनी भ्रांतियाँ लेकर आते हैं, और यह एक ऐसा संकेत है जिससे यह तय होता है कि वे अंत तक मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाएँगे और यह भी तय होता है कि वे परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए सेवा प्रदान करने लायक भी नहीं हैं। वे उपदेश सुनने वाले लोगों और सत्य का अनुसरण करने वाले भाई-बहनों पर तिरस्कार के भाव से देखते हैं, और इससे भी अधिक तिरस्कार के भाव के साथ वे परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के अस्तित्व और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य की सच्चाई को नकारते हैं।
जब सत्य से विमुख लोग—मसीह-विरोधी—यह सोचने लगते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है तो उनका शैतानी चेहरा बेनकाब हो जाता है। कुछ महिला मसीह-विरोधी घर पर इतना मेकअप करती हैं कि वे भूत जैसी दिखने लगती हैं। वे वही कपड़े पहनती हैं जो फैशन में हों या जो विपरीत लिंग को आकर्षित करते हों और कुछ तो चोरी-छिपे महजोंग और जुआ खेलती हैं और धूम्रपान करती हैं—ये लोग बहुत ही भयानक और घृणास्पद हैं। वे परमेश्वर के घर में ढोंग रचकर आती हैं और अंत में क्या होता है? वे इसे कायम नहीं रख पाती हैं, क्या रख पाती हैं? सिर्फ सत्य ही लोगों को बेनकाब कर सकता है, और अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, सत्य से विमुख रहता है और उसका शातिर स्वभाव है तो वह निश्चित रूप से सत्य के विरोध में खड़ा होगा और टिक नहीं पाएगा। क्या कलीसिया को अब भी ऐसे लोगों को निकालने की जरूरत है? क्या परमेश्वर को अब भी उनकी निंदा करने की जरूरत है? क्या परमेश्वर को अब भी ऐसे व्यक्ति को अस्वीकार करने की जरूरत है? नहीं, परमेश्वर उन पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता। परमेश्वर के लिए ये लोग मात्र कीड़े-मकोड़े हैं, वे सेवाकर्ता बनने के योग्य भी नहीं हैं—वे इसके लायक ही नहीं हैं। जब उनमें सभाओं, कलीसियाई जीवन और अपने कर्तव्य के प्रति ऐसा तिरस्कारपूर्ण रवैया होता है तो इससे क्या सिद्ध होता है? परमेश्वर उनकी रखवाली या रक्षा नहीं करता है, न ही वह उनका मार्गदर्शन करता है। वह उन्हें प्रबुद्ध करने, मार्गदर्शन देने या अनुशासित करने का कोई कार्य नहीं करता और इस प्रकार वे ऐसी अवांछनीय और बदसूरत जिंदगी जीते हैं। हालाँकि वे मन-ही-मन में सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता; मैं स्वतंत्र हूँ। परमेश्वर में विश्वास रखते वाले तुम लोगों को कष्ट सहना पड़ता है और कीमत चुकानी पड़ती है, अपने परिवार और करियर त्यागने पड़ते है, जबकि मुझे कोई कष्ट नहीं सहना पड़ता। मैं चैन की बंसी जताता हूँ, दैहिक सुखों के मजे ले सकता हूँ और जीवन की खुशियों का आनंद ले सकता हूँ।” उन्हें लगता है कि उन्होंने खुशी और स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। क्या परमेश्वर उनकी कुछ परवाह करता है? (नहीं।) क्यों नहीं? परमेश्वर के लिए ये लोग इंसान नहीं कीड़े-मकोड़े हैं और ये इस लायक नहीं हैं परमेश्वर उन पर ध्यान दे। अगर परमेश्वर उनकी परवाह नहीं करता तो क्या वह अब भी उन्हें बचाएगा? नहीं, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। तो वे जो कुछ करते हैं उसका क्या परमेश्वर से कोई संबंध है? क्या इसका परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों से कोई संबंध है? नहीं, इसका इनसे कोई संबंध नहीं है। इसलिए ऊपरी तौर पर वे बहुत आराम से, स्वतंत्रता से और लंपट तरीके से जीते हुए हर दिन काफी खुश नजर आते हैं। क्या यह सोचते थे कि यह अच्छी बात है? वे जो जीवन जीते हैं और जिस मार्ग पर चलते हैं, उस पर एक नजर डालते ही तुम समझ जाओगे कि वे खत्म हो चुके हैं, कि परमेश्वर उन्हें अब और नहीं चाहता। ये कीड़े-मकोड़े वाकई एक बदबूदार टोली हैं! परमेश्वर ऐसे लोगों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता।
जो लोग परिवेश और परिस्थिति की परवाह न कर भावी संसार में राजा बनकर शासन करने और परमेश्वर के समान स्तर पर रहने के लिए भरसक प्रयास करते हैं, वे मसीह-विरोधियों में सबसे हठी और न सुधारे जा सकने वाले तत्व हैं। ऐसे लोग बिल्कुल पौलुस की तरह हैं; वे हमेशा रुष्ट रहते हैं, परमेश्वर के प्रति संदेह रखते हैं, परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसे धमकाते हैं और काम करते हुए, खुद को खपाते हुए, कठिनाइयाँ सहते हुए और कीमत चुकाते हुए वे बहुत ही अनिच्छा प्रकट करते हैं। वे ये सब केवल एक मुकुट पाने के लिए और भावी संसार में राजा बनकर शासन करने के लिए करते हैं। क्या इस पूरी प्रक्रिया के कारण मसीह-विरोधी बहुत दयनीय नहीं लगते? वास्तव में वे दयनीय नहीं हैं। वे दयनीय तो नहीं हैं, बल्कि वे वास्तव में कुछ हद तक हास्यास्पद हैं। परमेश्वर द्वारा इतना कुछ कहने के बाद भी अगर वे सत्य को नहीं समझते तो बस छोड़ ही दो; आखिर वे इतनी सीधी भाषा भी कैसे नहीं समझ सकते? वे इतने सरल सिद्धांत को कैसे नहीं समझ सकते? अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते तो तुम स्वभाव नहीं बदल पाओगे या उद्धार हासिल नहीं कर सकोगे; और भले ही परमेश्वर ने तुम लोगों से कोईवादा किया हो, फिर भी तुम लोग उसे प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर जो भी वादा मनुष्य से करता है, वह शर्तों पर आधारित होता है; वह बिना किसी कारण या शर्त के लोगों से वादे नहीं करता। परमेश्वर की मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ हैं और ये अपेक्षाएँ कभी भी बदलती नहीं हैं। परमेश्वर सत्य का उल्लंघन नहीं करेगा, न ही वह अपने इरादे बदलेगा। अगर तुम लोग इस बात को समझते हो तो क्या तुम लोग अब भी अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से हठपूर्वक चिपके रहोगे? केवल मूर्ख और तर्कहीन लोग इन चीजों से हठपूर्वक चिपके रहते हैं। जिनके पास कुछ सामान्य तार्किकता और सामान्य मानवता है, उन्हें इन चीजों को छोड़कर उन चीजों का अनुसरण करना चाहिए जो अनुसरण करने, हासिल करने और प्रवेश करने योग्य हैं—उन्हें पहले परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए। दूसरा, जिनके पास सामान्य तार्किकताहै, उन्हें और क्या समझना चाहिए? बाइबल में ऐसी भविष्यवाणियाँ हैं जो कहती हैं कि हम परमेश्वर के साथ अनंतकाल तक राजा बनकर शासन करेंगे, और परमेश्वर अपने वर्तमान कार्य में परमेश्वर के व्यक्ति, पहलौठे पुत्र, परमेश्वर के पुत्र, परमेश्वर के लोग, आदि का भी उल्लेख कर लोगों के लिए विभिन्न स्तर और उपाधियाँ तय करता है। चूँकि परमेश्वर ने मनुष्य से इन चीजों का वादा किया है तो लोग इनका अनुसरण क्यों नहीं कर सकते? तो फिर सही समझ और सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? अगर कोई राजा बनने और परमेश्वर के किए वादों को अनुसरण करने के लक्ष्य मानता है तो क्या यह सही मार्ग है? निश्चित रूप से नहीं; यह सकारात्मक मार्ग नहीं है, इसमें मानवीय इच्छा की बहुत अधिक मिलावट है, और यह मार्ग सत्य के विपरीत है। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि तुमने यह वादा किया है तो तुम हमें इसे क्यों नहीं हासिल करने दोगे? चूँकि तुमने ये सारी बातें कही हैं और इन्हें सरेआम सारी मानवजाति के सामने कहा है, तो तुम हमें इसका अनुसरण करने की अनुमति क्यों नहीं देते?” इसका संबंध सत्य से है; कभी किसी ने इसे बिल्कुल शुरुआत से अब तक नहीं समझा है। यह सत्य के किस पहलू से संबंधित है? तुम्हें इसे इस दृष्टिकोण से देखना चाहिए : परमेश्वर ने मनुष्य से एक वादा किया, और परमेश्वर से मनुष्य ने राजा बनकर शासन करने की अवधारणा के साथ-साथ “परमेश्वर के व्यक्ति,” “पहलौठा पुत्र,” “परमेश्वर के पुत्र,” और अन्य विभिन्न उपाधियों के बारे में जाना। फिर भी ये केवल उपाधियाँ हैं। कौन-सी उपाधि किस व्यक्ति से संबंधित है, यह व्यक्ति विशेष के अनुसरण और प्रदर्शन पर निर्भर करता है। सृष्टिकर्ता जो भी उपाधि तुम लोगों को देता है, वही तुम्हारी पहचान होती है। अगर वह तुम्हें कोई उपाधि नहीं देता तो तुम कुछ भी नहीं हो; यह केवल परमेश्वर का एक वादा है, न कि कोई ऐसी चीज जिस पर लोगों का हक हो या जिसके वे योग्य हों। निस्संदेह, यह वादा एक ऐसा लक्ष्य है जिसे लोग कामना करते हैं, लेकिन यह लक्ष्य वह मार्ग नहीं है जिसे मनुष्यजाति को अपनाना चाहिए, न ही इसका लोगों के चुने मार्ग से कोई संबंध है। इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार किसके पास है? (परमेश्वर के पास।) सही कहा, लोगों को यह बात समझनी चाहिए। अगर परमेश्वर कहता है कि वह तुम लोगों को अमुक चीज दे रहा है तो वह चीज तुम्हारे पास होती है; अगर वह कहता है कि वह तुमसे इसे छीन रहा है तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं होता, तुम कुछ भी नहीं हो। अगर तुम कहते हो, “भले ही परमेश्वर मुझे यह चीज दे, तब भी मैं इसका अनुसरण करूँगा और अगर परमेश्वर मुझे यह देता है तो मैं इसे स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लूँगा,” तो यह गलत है। यह गलत क्यों है? क्योंकि यह एक बड़ी वर्जना का उल्लंघन है। तुम इस तथ्य को नहीं मानते कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर ही रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य ही रहेगा—यही कारण है कि यह गलत है। कुछ लोग कहते हैं, “यह बाइबल में भविष्यवाणी की गई है। बाइबल में कई जगह कहा गया है कि हम परमेश्वर के साथ सारे अनंतकाल तक राजा बनकर शासन करेंगे। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर यह कह सकता है लेकिन हम इसका अनुसरण नहीं कर सकते?” क्या एक सृजित प्राणी के पास यही विवेक होना चाहिए? लोगों के राजा बनकर शासन करने के परमेश्वर के वादे को अच्छा मानकर तुम उसका अनुसरण करते हो, लेकिन परमेश्वर ने सेवाकर्ताओं के बारे में भी कहा है—क्या तुम लोग परमेश्वर के लिए अच्छी तरह सेवा प्रदान करने का अनुसरण करोगे? क्या तुम लोग एक योग्य सेवाकर्ता बनने की कोशिश करोगे? परमेश्वर लोगों से अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा भी करता है; क्या तुम खुद से यह अपेक्षा करोगे कि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओ? परमेश्वर यह भी चाहता है कि लोग एक सृजित प्राणी की तरह व्यवहार करें, और तुम क्या करते हो? क्या तुम एक योग्य सृजित प्राणी बनने को अपना लक्ष्य मानते हो और इसका अनुसरण करते हो? परमेश्वर का यह कहना कि लोग राजा बनकर शासन करेंगे, यह एक वादा है जो उसने मनुष्य से किया है, और इस वादे के लिए एक आधार और एक संदर्भ है : तुम्हें एक अच्छा सृजित प्राणी बनना होगा, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह निभाना होगा, सेवाकर्ता की भूमिका छोड़नी होगी, परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करना होगा और सृष्टिकर्ता का भय मानना होगा। परमेश्वर ने कहा है कि जब तुम लोग यह सब प्राप्त कर लेते हो, तब तुम लोग हमेशा के लिए राजा बनकर परमेश्वर के साथ शासन कर पाओगे—यही वह संदर्भ है जिसमें ये वचन कहे गए थे। लोगों में सूझ-बूझ की कमी होती है। ये वचन सुनते ही वे सोचते हैं, “यह तो बहुत अच्छी बात है कि हम परमेश्वर के साथ राजा बनकर शासन कर सकते हैं! यह कब होगा? हम राजा के रूप में कैसे शासन करेंगे? हम परमेश्वर के बराबर किस तरह होंगे? हम किसके राजा होंगे? हम किस पर शासन करेंगे? हम कैसे शासन करेंगे? हम राजा कैसे बनेंगे?” क्या लोगों में सूझ-बूझ की कमी नहीं होती? भले ही यह मनुष्य से परमेश्वर का एक वादा है, एक ऐसी बात है जो मनुष्य को सुनाने के लिए कही गई थी, जिससे लोगों को पता चले कि यह एक अद्भुत चीज है, फिर भी तुम्हें खुद को मापना चाहिए—तुम कौन हो? परमेश्वर के पास यह विचार है और वह अपने साथ मनुष्य को इस तरह से जीने देने के लिए तैयार है, लेकिन क्या तुम लोग इसे प्राप्त करने योग्य हो? तुम परमेश्वर से यह क्यों नहीं पूछते, “इस वादे को प्राप्त करने से पहले, तुम हमसे क्या अपेक्षाएँ रखते हो? क्या तुम हमसे कुछ करवाना चाहते हो? इस वादे को प्राप्त करने से पहले हमें सबसे पहले क्या करना चाहिए?” तुम लोग ये सब बातें नहीं पूछते, तुम तो बस इसे माँगते हो। क्या यह सूझ-बूझ की कमी नहीं है? मनुष्य में इसी तरह की सूझ-बूझ की कमी होती है। जब लोग कोई लाभदायक चीज देखते हैं, तो वे तुरंत हाथ बढ़ाकर उसे लपक लेते हैं। लोग लुटेरों की तरह होते हैं; अगर उन्हें मनचाही चीज नहीं मिलती तो वे गुस्सा हो जाते हैं, शत्रु बन जाते हैं और गाली-गलौज करने लगते हैं। क्या लोग ऐसे ही नहीं होते? यही मानवजाति की नीचता है।
मनुष्य में सूझ-बूझ की कमी का एक कारण यह है कि लोग अभी भी सत्य को नहीं समझते हैं; इसका उनके भ्रष्ट स्वभावों से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन जब उन्हें वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं तो वे गुस्सा हो जाते हैं, गाली-गलौज करते हैं, नफरत करते हैं और बदला लेते हैं—यह क्या है? यह शैतान का दानवी चेहरा उभर कर सामने आता है; यह उनके शैतानी भ्रष्ट स्वभाव हैं। इसलिए परमेश्वर ने जो वादा मानवजाति से किया है, उसके संदर्भ में हर एक व्यक्ति परमेश्वर के सामने जो कुछ प्रकट करता है, वह परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करता। लोग तुरंत अपने हाथ आगे बढ़ा देते हैं, बिना अपनी सीमा को समझे तुरंत माँग करने लगते हैं, और अगर उन्हें वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं, तो वे सोचते हैं कि वे इसे प्राप्त करने के बदले में किन चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं। वे अपने परिवार और करियर त्याग देते हैं, वे कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं, इधर-उधर भागते हैं और खुद को खपाते हैं, सुसमाचार फैलाते हैं और अधिक लोगों को प्राप्त करते हैं, वे अधिक काम करते हैं, और वे इन चीजों का उपयोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बदले करते हैं। अगर वे अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बदले इन चीजों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते हैं तो वे क्रोधित हो जाते हैं, उनके दिल में नफरत भर जाती है और वे परमेश्वर में आस्था से संबंधित हर चीज से विमुख हो जाते हैं। अगर उन्हें लगता है कि वे इन चीजों के बदले में अपनी मनचाही चीज प्राप्त कर सकते हैं तो वे हर दिन परमेश्वर के कार्य के जल्द समाप्त होने, परमेश्वर द्वारा शैतान के शीघ्र नाश करने, मानवजाति के शीघ्र अंत करने और आपदाओं को जल्द लाने के लिए लालायित रहते हैं, वरना उन्हें लगता है कि वे टिक नहीं पाएँगे। सत्य के समक्ष हर एक व्यक्ति क्या प्रकट करता है? वह सत्य से विमुख होने और शातिरपन जैसे स्वभाव प्रकट करता है। अब इसे देखते हुए लोगों का घमंड, धोखेबाजी और उनकी कभी-कभार की हठधर्मिता को मानवजाति के तमाम भ्रष्ट स्वभावों में उतना गंभीर नहीं और हल्का माना जा सकता है। मानवजाति में जो भ्रष्ट स्वभाव अधिक हैं, जो अधिक गंभीर और गहरे हैं, वे हैं दुष्टता, सत्य से विमुख होना और शातिरपन—मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में यही घातक तत्व हैं। निस्संदेह, जब मसीह-विरोधियों की बात आती है तो उनमें ये स्वभाव और भी गंभीर होते हैं और जब वे इन्हें प्रकट करते हैं तो वे इन्हें गंभीरता से नहीं लेते, वे उनकी जाँच नहीं करते, वे परमेश्वर के प्रति कोई कृतज्ञता महसूस नहीं करते और उन्हें यह भी महसूस नहीं होता कि उनके भीतर कहीं कोई समस्या है; वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, खुद को नहीं जानते और पश्चात्ताप करना तो उनके लिए और भी संभव नहीं है। इसलिए चाहे परिस्थितियाँ, परिवेश या संदर्भ कुछ भी हो, वेपरमेश्वर के कहे सबसे महान और सर्वोत्तम वादेहै—राजा बनकर शासन करने—को अपने अनुसरण का लक्ष्य मानते हैं। तुम लोग उनके साथ सत्य पर चाहे कैसे भी संगति कर लो, वे इस अनुसरण को छोड़ते नहीं हैं, बल्कि अपने मार्ग पर चलते रहने की जिद करते हैं और यही बात उन्हें बचाए जाने से परे कर देती है। ये लोग वाकई बहुत ही भयानक हैं! ये लोग जो प्रकट करते हैं, उससे तुम देख सकते हो कि शैतान का स्वभाव और असली रूप क्या है। इतने सारे सत्य पर संगति की जा चुकी है और जिनके पास सूझ-बूझ है, जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और जिनमें परमेश्वर की आज्ञा मानने और उसके प्रति समर्पण करने की अभिलाषा है, वे दरअसल समझते हैं कि परमेश्वर का इरादा वास्तव में क्या है। वे अब हठपूर्वक किसी पद, संभावनाओं और नियति का अनुसरण नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के इन वचनों के खुलासे के तहत पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हो जाते हैं, आशीष की अपनी इच्छा को छोड़ने के लिए तैयार होकर सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसे संतुष्ट करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं। अब अधिकांश लोगों की आंतरिक इच्छाओं को देखते हुए उनके अनुसरण के लक्ष्यों में एक मौलिक बदलाव आया है; वे अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाने के लिए तैयार हैं, वे सच्चे सृजित प्राणी बनने के लिए तैयार हैं और वे उद्धार प्राप्त करने के लिए भी तैयार हैं। वे अपना कर्तव्य आशीष पाने के लिए नहीं निभाते और वे आशीष पाने की खातिर कोई परमेश्वर के घर मेंकामचलाऊ काम नहीं करते। हमेशा राजा बनकर शासन करने की चाह रखने वाले मसीह-विरोधियों को छोड़ दें तो अधिकांश लोग सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हैं। केवल मसीह-विरोधी ही संभावनाओं, आशीषों और राजा बनकर शासन करने के अनुसरण को अपना लक्ष्य मानते हैं और इन्हें ऐसा फल मानते हैं जो अंततः परमेश्वर में अपनी आस्था में मिलना चाहिए। चाहे तुम कुछ भी कह लो, वे इन चीजों को छोड़ते नहीं हैं और न ही अपना मार्ग बदलते हैं—क्या वे बड़ी मुसीबत में नहीं हैं? वे भली-भाँति जानते हैं कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्हें बदलने का कोई तरीका नहीं है; वे केवल हटाए और दंडित किए जा सकते हैं। यही मसीह-विरोधियों की परमेश्वर में आस्था का अंतिम नतीजा है।
क्या मैंने लोगों के राजा बनने की चाह की इस बात पर अब स्पष्ट रूप से संगति कर ली है? क्या तुम लोगों को एक नई समझ प्राप्त हुई है? क्या राजा बनकर शासन करने के अनुसरण का यह मार्ग सही है? (नहीं।) तो फिर लोगों को इस मामले को कैसे देखना चाहिए? इस मामले में मनुष्य के सार को जानने के लिए कौन सा सत्य समझा जाना चाहिए? किसी व्यक्ति का सार और व्यवहार वास्तव में क्या है, इसका न्याय करना परमेश्वर के पर तय करता है। परमेश्वर अपनी इन सभी बातों का न्याय किस आधार पर करता है? वह इसे सत्य के आधार पर करता है। इसलिए, व्यक्ति का परिणाम या गंतव्य उसकी अपनी इच्छा से तय नहीं होता, न ही वह उसकी अपनी पसंद या कल्पनाओं से निर्धारित होता है। इसमें सृष्टिकर्ता, परमेश्वर, का निर्णय अंतिम होता है। ऐसे मामलों में लोगों को कैसे सहयोग करना चाहिए? लोगों के पास केवल एक मार्ग है, जिसे वे चुन सकते हैं : अगर वे सत्य खोजते हैं, सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाते हैं और उद्धार प्राप्त करते हैं, केवल तभी अंततः उनके पास अच्छा अंत और अच्छा भाग्य होगा। अगर लोग इसके विपरीत करते हैं, तो उनकी संभावनाओं और नियति की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। और इसलिए, इस मामले में इस बात पर ध्यान केंद्रित न करो कि परमेश्वर ने मनुष्य से क्या वादा किया है, मानवजाति के परिणाम के बारे में परमेश्वर क्या कहता है, या परमेश्वर ने मानवजाति के लिए क्या कुछ तैयार किया है। इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, ये परमेश्वर के काम हैं, इन्हें तुम छीन या माँग नहीं सकते और न ही किसी चीज के बदले इन्हें ले सकते हो। एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, तुमसे जो कार्य अपेक्षित है उसे अपने पूरे दिलो-दिमाग और ताकत के साथ करना चाहिए। बाकी चीजें—संभावनाएँ और नियति और मानवजाति के भावी गंतव्य से संबंधित चीजें—ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम तय कर सको, वे परमेश्वर के हाथ में हैं; यह सब सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन आता है, इसकी व्यवस्था वही करता है और इसका किसी भी सृजित प्राणी से कुछ लेना-देना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है, तो हमें यह क्यों बताते हो?” भले ही इसका तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन इसका परमेश्वर से लेना-देना है। केवल परमेश्वर ही इन चीजों को जानता है, केवल परमेश्वर ही इनके बारे में बात कर सकता है और केवल परमेश्वर ही मानवजाति से इन चीजों का वादा करने का हकदार है। और अगर परमेश्वर इन्हें जानता है, तो क्या परमेश्वर को इनके बारे में बात नहीं करनी चाहिए? जब तुम यह जानते ही नहीं हो कि तुम्हारी संभावनाएँ और नियति क्या हैं तो तब भी इनका अनुसरण करते रहना एक गलती है। परमेश्वर ने तुम्हें इनका अनुसरण करने को नहीं कहा, वह तुम्हें सिर्फ बता रहा था; अगर तुम गलती से यह मान बैठो कि परमेश्वर तुम्हें इसे अपने अनुसरण का लक्ष्य बनाने को कह रहा था, तो तुममें विवेक का नितांत अभाव है और तुम्हारे पास सामान्य मानव का दिमाग नहीं है। परमेश्वर जिन चीजों का वादा करता है, उन सबसे अवगत होना ही पर्याप्त है। तुम्हें एक तथ्य स्वीकार करना चाहिए : चाहे वह किसी भी तरह का वादा हो, चाहे वह अच्छा हो या साधारण, चाहे वह सुखद हो या अरुचिकर, सब कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और निर्धारणों के दायरे में आता है। केवल सृष्टिकर्ता द्वारा इंगित सही दिशा और मार्ग पर चलना और इन्हीं के अनुसार अनुसरण में लगे रहना ही सृजित प्राणी का कर्तव्य और दायित्व है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि अंततः तुम्हें क्या प्राप्त होता है, और परमेश्वर के किन वादों में से तुम्हें हिस्सा मिलता है, यह सब तुम्हारे अनुसरण पर, तुम्हारे अपनाए मार्ग पर और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता पर आधारित है। क्या ये बातें अब तुम्हारे लिए स्पष्ट हैं? (हाँ।) और क्या ये बातें तुम लोगों की महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने में मदद करेंगी, या ये तुम लोगों को जीवन के सही मार्ग पर सत्य की तलाश में चलने में सहायता करेंगी? (वे सत्य का अनुसरण करने और जीवन में सही मार्ग पर चलने में हमारी मदद करेंगी।) जो लोग सामान्य मानवता और सूझ-बूझ रखते हैं, जो सकारात्मक चीजों और सत्य से प्रेम करते हैं, वे न केवल इन शब्दों को सुनकर निराश नहीं होते, बल्कि वे सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर से उद्धार को स्वीकार करने में अडिग और विश्वासयोग्य रहते हैं; लेकिन जिनके पास सामान्य तर्क-शक्ति नहीं है, वे असामान्य लोग जो लगातार आशीष, दैहिक हितों और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति का अनुसरण करते हैं, वे इन शब्दों को सुनने पर अपनी उत्सुकता खो सकते हैं और परमेश्वर में आस्था रखने में दिलचस्पी खो सकते हैं। निश्चित रूप से, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन शब्दों को सुनकर यह नहीं समझते कि विश्वास कैसे करना है। क्या लोगों के लिए सत्य को समझना बेहद जरूरी नहीं है? क्या सत्य लोगों का सही मार्ग पर मार्गदर्शन करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में अधिक सक्षम नहीं है? (हाँ।) सिर्फ सत्य ही लोगों को उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बना सकता है; अगर तुम लोग सत्य को नहीं समझते, तो उद्धार के मार्ग पर तुम अक्सर भटक जाओगे, गलतियाँ करोगे और नुकसान उठाओगे, और जब तुम अपनी आस्था के मार्ग के अंत में पहुँचोगे, तब तुम्हारे पास कोई भी सत्य वास्तविकता नहीं होगी और तुम पूरी तरह से एक सेवाकर्ता बन जाओगे। अगर तुम लोग परमेश्वर में आस्था के अपने अनेक वर्षों के दौरान हमेशा एक सेवाकर्ता की भूमिका निभाते हो और अंततः एक योग्य सृजित प्राणी नहीं बन पाते, तो यह एक त्रासदी है।
9 मई 2020