मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों का सौदा तक कर देते हैं (भाग सात)
II. मसीह-विरोधियों के हित
घ. उनकी संभावनाएँ और नियति
पिछली बार, हमने मसीह-विरोधियों के हितों की चौथी मद, उनकी संभावनाएँ और नियति, पर संगति की थी, जिसे आगे पाँच अतिरिक्त मदों में बाँटा गया है। पहले, इन पाँच मदों की समीक्षा करो। (1. मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं; 2. मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं; 3. मसीह-विरोधी अपनी काट-छाँट को कैसे लेते हैं; 4. मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की भूमिका के साथ कैसे पेश आते हैं; 5. मसीह-विरोधी कलीसिया में अपने रुतबे को कैसे लेते हैं।) पिछली बार हमने इनमें से पहली मद, “मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं” पर संगति की थी। सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के व्यवहार में हमने उनके कुछ प्राथमिक रवैयों में से एक को उजागर करने के लिए “अध्ययन” शब्द का इस्तेमाल किया था। परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में मसीह-विरोधियों का प्राथमिक और मौलिक रवैया “अध्ययन करना” होता है। वे परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करने या समर्पण करने के रवैये से नहीं लेते, बल्कि वे उनकी पड़ताल करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते या उन्हें सत्य नहीं मानते या ऐसा मार्ग नहीं मानते जिस पर लोगों को दृढ़ता से चलना चाहिए, और वे परमेश्वर के वचनों को सत्य खोजने या सत्य स्वीकारने के रवैये से नहींलेते। इसके बजाय, हर चीज में उनकी अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ, उनकी अपनी संभावनाएँ और नियति ही उनका उद्देश्य होती हैं, और वे परमेश्वर के वचनों में वे मंजिलें, संभावनाएँ और नियति ढूँढते हैं जो वे परमेश्वर के वचनों से पाना चाहते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके व्यवहार में एक प्राथमिक रवैया यह है कि वे हर मामले में परमेश्वर के वचनों को अपनी संभावनाओं और नियति से जोड़ते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके व्यवहार के रवैये से देखें तो ऐसे लोगों का प्रकृति सार यह होता है कि वे परमेश्वर के वचनों पर वास्तव में विश्वास नहीं करते, उन्हें स्वीकार नहीं करते या उनके प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि उनकी पड़ताल और विश्लेषण करते हैं, उनमें आशीष और लाभ खोजते हैं ताकि बड़ा लाभ पा सकें। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके व्यवहार के रवैये से देखें तो वे परमेश्वर पर कितना विश्वास करते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था है? उनके सार को देखा जाए तो उन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है। तो फिर वे अभी भी परमेश्वर के वचनों पर दृढ़ होकर उन्हें कैसे पढ़ सकते हैं? उनके प्रकृति सार, इरादों और उनकी इच्छाओं को देखें तो वे परमेश्वर के वचनों से सत्य और अपने स्वभाव को बदलने का मार्ग नहीं पाना चाहते, जिससे उनका उद्धार हो सके। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों के अंदर वे सभी चीजें खोजना चाहते हैं जो वे उनमें देखना चाहते हैं। वे क्या खोजते हैं? वे रहस्य खोजते हैं, ऐसे गुप्त रहस्य खोजते हैं जो केवल स्वर्ग को पता है, और वे कुछ ऊँचे धर्म-सिद्धांत और गहरा ज्ञान भी खोजते हैं। इसलिए, परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसे व्यक्ति के व्यवहार और उसके प्रकृति सार को देखें तो वे सभी पूरी तरह से छद्म-विश्वासी हैं। वे एक अच्छी मंजिल, अच्छी संभावनाएँ और एक अच्छी नियति से अधिक और कुछ नहीं चाहते। वे परमेश्वर के वचनों को ईमानदारी से स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसके वचनों के अंदर विभिन्न अवसर और रास्ते खोजने की कोशिश करते हैं, जिनके जरिए वे अपनी मनचाही चीजें पा सकें और आशीष पाने की अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें। इसलिए, इस तरह का व्यक्ति कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य या उस मार्ग के रूप में नहीं मानेगा जिसका उसे पालन करना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के प्रति इस तरह का रवैया रखते हैं, तो परमेश्वर के वचनों में मानवजाति से सबसे बुनियादी अपेक्षाओं में से एक—सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाने—के प्रति उनका रवैया क्या है? आज हम दूसरी मद—मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं—पर संगति करेंगे और यह उजागर करेंगे कि अपना कर्तव्य करते हुए मसीह-विरोधी किस तरह की अभिव्यक्तियाँ और रवैया रखते हैं।
2. मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं
मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने और समर्पण करने के रवैये से नहीं लेते हैं, तो जाहिर है कि वे परमेश्वर के वचनों में निहित इस अपेक्षा को सत्य स्वीकारने के रवैये से नहीं ले सकते कि मानवजाति सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाए। इसलिए, एक ओर तो वे परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सौंपे गए कर्तव्य को लेकर प्रतिरोधी होते हैं और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, वहीं दूसरी ओर वे आशीष पाने का अवसर खोने से डरते हैं। इससे एक तरह का लेन-देन उत्पन्न हो जाता है। वह कौन-सा लेन-देन है? उन्हें परमेश्वर के वचनों से पता चलता है कि अगर लोग अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं तो उन्हें हटाया जा सकता है, अगर वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं तो उनके पास सत्य पाने का कोई अवसर नहीं होगा, और अगर वे सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभाते हैं तो भविष्य में स्वर्ग के राज्य में वे अपने आशीष गँवा सकते हैं। इसका क्या मतलब है? यही कि अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य नहीं निभाता है तो वह निस्संदेह आशीष पाने का अपना अवसर खो देगा। परमेश्वर के वचनों और कई संगतियों और धर्मोपदेशों से यह जानकारी पाने के बाद, मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा और रुचि जाग उठती है। क्या ऐसी इच्छा और रुचि उत्पन्न होने का मतलब यह है कि वे ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपा सकते हैं और ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखें तो इस मुकाम पर पहुँचना बहुत मुश्किल है। तो फिर वे अपना कर्तव्य क्यों निभाते हैं? हर व्यक्ति के दिल में इसका लेखा-जोखा होना चाहिए, और इस लेखे-जोखे के अंदर कुछ विशेष कहानियाँ होनी चाहिए। तो, एक मसीह-विरोधी के दिल में यह रिकॉर्ड कैसा दिखता है? वे बहुत बढ़िया, स्पष्ट, सटीक और लगन से हिसाब लगाते हैं, इसलिए यह कोई भ्रमित लेखा-जोखा नहीं है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने का फैसला करते हैं, तो पहले हिसाब लगाते हैं : “अगर मैं अभी अपना कर्तव्य निभाने जाऊँ, तो मुझे परिवार के साथ रहने के सुख को त्यागना होगा, और मुझे अपना करियर और अपनी सांसारिक संभावनाओं को छोड़ना होगा। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए इन चीजों को छोड़ दूँ तो मुझे क्या लाभ हो सकता है? परमेश्वर के वचन कहते हैं कि इस अंतिम युग में, जो लोग परमेश्वर से मिल सकते हैं, जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हैं, और जो अंत तक टिके रह सकते हैं, वे ही महान आशीष प्राप्त कर सकते हैं। अब जबकि परमेश्वर के वचन ऐसा कहते हैं तो मुझे लगता है कि परमेश्वर ऐसा कर सकता है और इन वचनों के अनुसार इसे पूरा कर सकता है। इसके अलावा, जो लोग परमेश्वर के लिए अपना कर्तव्य निभा सकते हैं और खुद को खपा सकते हैं, परमेश्वर इन लोगों से बहुत सारे वादे करता है!” मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करके, अपना कर्तव्य करने वाले लोगों से अंतिम युग में परमेश्वर द्वारा किए गए कई वादों की व्याख्या करते हैं, और उनकी व्यक्तिगत कल्पनाओं और इन वचनों के उनके अपने विश्लेषण और जाँच-पड़ताल से उपजी सभी धारणाओं के अतिरिक्त, उनकी यह व्याख्या उनमें अपना कर्तव्य करने के प्रति गहरी रुचि और आवेग पैदा करती है। फिर वे परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करने जाते हैं, जहाँ वे गंभीर प्रतिज्ञाएँ करते हैं और शपथ लेते हैं, परमेश्वर के लिए सब कुछ त्यागने और खुद को खपाने, इस जीवन को उसके लिए समर्पित करने और सभी दैहिक सुखों और संभावनाओं को त्यागने की अपनी इच्छा जाहिर करते हैं। भले ही वे इस तरह से प्रार्थना करते हैं और उनके सभी शब्द सही लगते हैं, मगर वे अपने अंतरतम में जो सोचते हैं वह केवल उन्हें और परमेश्वर को ही पता है। उनकी प्रार्थनाएँ और उनका संकल्प शुद्ध प्रतीत होता है, मानो वे केवल परमेश्वर के आदेश को पूरा करने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए ऐसा कर रहे हों, मगर अपने दिलों की गहराई में वे यही हिसाब लगाते हैं कि अपना कर्तव्य निभाकर आशीष और वाँछित चीजें कैसे पा सकते हैं, और वे ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे कि परमेश्वर को वह सब दिखाई दे जो उन्होंने चुकाया है, और साथ ही जो कुछ उन्होंने चुकाया है और जो भी किया है उससे परमेश्वर बेहद प्रभावित हो, ताकि वह उनके द्वारा किए गए कामों को याद रखे और आखिरकार उन्हें वे संभावनाएँ और आशीष दे जो वे चाहते हैं। अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं, और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा भरोसा होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : “अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता, तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।” वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है, और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है। इसलिए, बाहर से ऐसा लगता है कि निष्कासित किए जाने से पहले कई मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और उन्होंने एक औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक त्याग किया है और अधिक कष्ट झेला है। वे जो खुद को खपाते हैं और जो कीमत चुकाते हैं वह पौलुस के बराबर है, और वे पौलुस जितनी ही भागदौड़ भी करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई देख सकता है। उनके व्यवहार और कष्ट सहने और कीमत चुकाने की उनकी इच्छा के संदर्भ में, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए। लेकिन परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी व्यवहार के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सार, उसके स्वभाव, उसके खुलासे, और उसके द्वारा की जाने वाली हर एक चीज की प्रकृति और सार के आधार पर देखता है। जब लोग दूसरों का मूल्यांकन करते हैं और उनके साथ पेश आते हैं, तो वे कौन हैं इसका निर्धारण केवल उनके बाहरी व्यवहार के आधार पर, वे कितना कष्ट सहते हैं और वे क्या कीमत चुकाते हैं, इन बातों के आधार पर ही करते हैं, और यह बहुत बड़ी गलती है।
अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया शुरू से ऐसा ही रहा है। वे महत्वकांक्षाओं, इच्छाओं और लेन-देन करने की मानसिकता के साथ अपना कर्तव्य निभाने परमेश्वर के घर आते हैं। अपना कर्तव्य निभाने से पहले वे अपने दिलों की गहराई में यही हिसाब लगाते हैं और यही योजना बनाते हैं। उनकी योजना क्या है? उनके हिसाब-किताब का मूल और केंद्र बिंदु क्या है? वे आशीष पाना चाहते हैं, अच्छी मंजिल पाना चाहते हैं, और कुछ लोग तो आपदाओं से बचना भी चाहते हैं। यही उनका इरादा है। वे बार-बार परमेश्वर के वचनों की पड़ताल करते हैं, मगर इतनी कोशिशों के बाद भी यह नहीं देख सकते कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग है, और परमेश्वर के वचनों के जरिये लोग शुद्ध हो सकते हैं, स्वभाव में बदलाव ला सकते हैं, और उद्धार पा सकते हैं। वे चाहे कितनी भी कोशिश करें इन चीजों को नहीं देख सकते। चाहे वे परमेश्वर के वचनों को कैसे भी पढ़ें, वे जिस चीज की सबसे ज्यादा परवाह करते हैं और जिसे सबसे ज्यादा महत्व देते हैं, वह उन आशीषों और वादों के अलावा कुछ नहीं है जो परमेश्वर ऐसे लोगों को उपहार में देता है जो त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं, कठिनाई सहते हैं और उसके लिए कीमत चुकाते हैं। जब उन्हें परमेश्वर के वचनों में कुछ ऐसा मिलता है जो उनके अनुसार सबसे आवश्यक और सबसे महत्वपूर्ण है तो ऐसा लगता है जैसे उन्हें जीवन रेखा मिल गई हो। उन्हें लगता है कि उन्हें महान आशीष मिलेंगे, और वे सोचते हैं कि वे इस युग में सबसे धन्य और भाग्यशाली लोग हैं। इसलिए, वे अपने दिलों में अंतरतम से आनंदित होते हैं : “मैंने इस जीवन में अच्छा समय देखा है; युगों-युगों में उन प्रेरितों और पैगंबरों में से कोई भी अंत के दिनों के मसीह से नहीं मिला है। आज मैं अंत के दिनों के मसीह का अनुसरण कर रहा हूँ, इसलिए मैं महान आशीष पाने के इस अवसर को नहीं गँवा सकता। इनाम और मुकुट पाने का यही मौका है! अविश्वासियों को यह सौभाग्य नहीं मिलेगा, और चाहे वे इस जीवन का कितने भी अच्छे से आनंद लें या उनका रुतबा कितना भी ऊँचा हो, बड़ी आपदाएँ आने पर वे सभी नष्ट हो जाएँगे। इसलिए, मुझे संसार के दैहिक सुखों को त्यागना होगा, क्योंकि मैं इन चीजों का कितना भी आनंद लूँ, वे अस्थायी और क्षणभंगुर हैं। मैं भविष्य की ओर देखूँगा और अधिक महान आशीष और महान इनाम, और बड़ा मुकुट हासिल करूँगा!” और इसलिए, अपने दिलों में वे खुद को चेतावनी देते हैं : “अपना कर्तव्य निभाते हुए, चाहे मुझे कितना भी कष्ट उठाना पड़े या मुझे कितनी भी भाग-दौड़ करनी पड़े, चाहे मुझे जेल हो जाए या यातना दी जाए, और चाहे मुझे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, मुझे हर हाल में अधिक से अधिक दृढ़ रहना होगा! मैं हताश नहीं हो सकता, मुझे सभी तरह का अपमान सहना होगा और भारी बोझ उठाना होगा, और अंतिम पल तक दृढ़ रहना होगा। मेरा मानना है कि परमेश्वर ने जो कहा है, ‘वह जो अंत तक अनुसरण करता है, उसे निश्चित ही बचाया जाएगा,’ मेरे लिए सच होकर रहेगा।” क्या उनका कोई भी विचार और राय जिनके बारे में वे सोचते हैं और अपने दिल में मानते हैं, सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) उनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है, और उनमें से कोई भी परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है—वे सभी उनकी व्यक्तिगत संभावनाओं और नियति के लिए गणनाएँ और योजनाएँ हैं। अपने दिलों की गहराई में, उन्हें परमेश्वर के वचनों में मानवजाति के लिए बताई गई किसी भी अपेक्षा में कोई रुचि नहीं होती; वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते। अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर के वचनों में मानवता और उनसे की गई अपेक्षाओं के उजागर होने से घृणा करते हैं और इसके प्रति प्रतिरोधी हो जाते हैं, और यहाँ तक कि धारणाएँ भी विकसित कर लेते हैं, इसलिए जब वे इन वचनों को देखते हैं तो वे उनके प्रति प्रतिरोधी और असहज महसूस करते हैं, और फिर वे बिना पढ़े ही उन्हें छोड़ देते हैं। जब परमेश्वर के वचनों में मानवता के लिए उपदेशों, सांत्वना, चेतावनियों, दया और सहानुभूति की बात आती है, तो वे अधीरता दिखाते हैं और इन वचनों को झूठा मानकर इन्हें स्वीकारने या सुनने के लिए तैयार नहीं होते। अपने दिलों में, वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के वचनों और लोगों के बीच उसके परीक्षण के कार्य से पीछे हट जाते हैं और उनके प्रति प्रतिरोधी महसूस करते हैं, और उन्हें स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते हैं और उनसे बचते फिरते हैं। इसके बजाय, वे केवल मानवता के लिए परमेश्वर के वादों या आशीषों से जुड़े वचनों में बहुत रुचि लेते हैं, और आशीष पाने की अपने दिल की बेसब्र इच्छा को संतुष्ट करने के लिए अक्सर उन्हें पढ़ते हैं, वे तुरंत स्वर्ग के राज्य में आरोहित किए जाने और सभी कष्टों से मुक्त होने के लिए उत्सुक रहते हैं। जब वे अपना कर्तव्य करने में और ज्यादा दृढ़ नहीं रह पाते, और उन्हें इस बात पर संदेह होने लगता है कि वे आशीष पा सकते हैं, और उनकी “आस्था” डगमगा जाती है, या जब उनकी इच्छाशक्ति दृढ़ नहीं होती और वे पीछे हटना चाहते हैं, तो वे इन वचनों को पढ़ते हैं और उन्हें अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा बना लेते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के किसी भी अध्याय या अंश में कभी भी सत्य पर चिंतन-मनन करने की कोशिश नहीं करते, और न ही वे परमेश्वर के वचनों के न्याय का जरा भी अनुभव करना चाहते हैं, खुद को जानने और परमेश्वर के उन वचनों के जरिये मानवजाति की गहरी भ्रष्टता की वास्तविकता को स्पष्ट रूप से देखने की बात तो दूर है, जो मानवजाति के भ्रष्ट सार को उजागर करते हैं। वे मानवजाति के लिए परमेश्वर के इरादों, अपेक्षाओं और उपदेशों को भी अनसुना कर देते हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं देते और उनके प्रति अनादर और उदासीनता का रवैया रखते हैं। अपने दिलों की गहराई में, वे मानते हैं, “परमेश्वर जो कहता और करता है वह सिर्फ एक औपचारिकता है; इसे कौन स्वीकार सकता है? इसे कौन समझ सकता है? कौन वास्तव में परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकता है? परमेश्वर के ये सभी वचन निरर्थक हैं। लोगों के लिए सबसे यथार्थवादी है अपना कर्तव्य निभाने के बदले आशीष पाना—इससे ज्यादा यथार्थवादी कुछ भी नहीं है।” इसलिए, वे बार-बार परमेश्वर के वचनों में यह मार्ग ढूँढ़ते हैं, और जैसे ही उन्हें यह मार्ग मिल जाता है, तो वे अपना कर्तव्य निभाने को आशीष पाने का एकमात्र मार्ग मानते हैं। अपना कर्तव्य निभाते हुए मसीह-विरोधियों के इरादे, मकसद और उनके अंतरतम की गणनाएँ यही होती हैं। तो अपना कर्तव्य निभाने के दौरान वे ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ और प्रकटन दिखाते हैं जिससे लोग यह देख पाते हैं कि ऐसे लोगों का सार पूरी तरह से मसीह-विरोधी है? यह कोई संयोग नहीं है कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं—वे निश्चित रूप से अपने इरादों और मकसद के साथ और आशीष पाने की इच्छा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे जो भी कर्तव्य करते हैं, उनका मकसद और रवैया बेशक आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और अच्छी संभावनाएँ और नियति से जुड़ा होता है जिसके बारे में वे दिन-रात सोचते हैं और चिंतित रहते हैं। वे उन कारोबारियों की तरह हैं जो अपने काम के अलावा किसी और चीज के बारे में बात नहीं करते। मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं वह सब शोहरत, लाभ और रुतबे से जुड़ा होता है—यह सब आशीष पाने और संभावनाओं और नियति से जुड़ा होता है। उनके दिल अंदर तक ऐसी चीजों से भरे हुए हैं; यही मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। ठीक इसी तरह के प्रकृति सार के कारण दूसरे लोग स्पष्ट रूप से यह देख पाते हैं कि उनका अंतिम परिणाम हटा दिया जाना ही है।
परमेश्वर के वचनों में, सभी किस्म के लोगों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं, और सभी प्रकार के कर्तव्यों और कार्यों को लेकर अपेक्षाएँ और स्पष्ट कथन हैं। ये सभी वचन मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं, और ये वे अपेक्षाएँ हैं जिनका लोगों को पालन करना चाहिए, जिनका उन्हें अभ्यास करना चाहिए और जिन्हें उन्हें हासिल करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया होता है? क्या वे समर्पण का रवैया अपनाते हैं? क्या वे विनम्रता से स्वीकारने का रवैया अपनाते हैं? वे ऐसा बिल्कुल भी नहीं करते। उनके स्वभाव को देखा जाए तो जब मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य करने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं, तो क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार इसे अच्छी तरह से कर सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) वे बिल्कुल भी ऐसा नहीं कर सकते। जब मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य कर रहे होते हैं, तो उनका पहला विचार उन सिद्धांतों की तलाश करना नहीं होता जो कर्तव्य करने के लिए आवश्यक होते हैं, और उनका पहला विचार यह नहीं होता है कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, या परमेश्वर के घर के नियम क्या हैं। इसके बजाय, पहले वे यह पूछते हैं कि इस कर्तव्य को करने से उन्हें आशीष या इनाम मिलेगा या नहीं। अगर यह निश्चित नहीं है कि उन्हें आशीष या इनाम मिलेगा या नहीं, तो वे यह कर्तव्य नहीं करना चाहते; और अगर करते भी हैं तो वे अनमने ढंग से करेंगे। मसीह-विरोधी आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य अनिच्छा से करते हैं। वे यह भी पूछते हैं कि क्या वे कर्तव्य करके खुद को प्रदर्शित करने और सम्मान पाने में सक्षम होंगे, और अगर वे इस कर्तव्य को करते हैं, तो क्या ऊपरवाले या परमेश्वर को इसका पता चलेगा। कर्तव्य करते समय वे इन्हीं सब चीजों पर विचार करते हैं। पहली चीज जो वे निश्चित कर लेना चाहते हैं, यह होती है कि कर्तव्य करने से उन्हें क्या-क्या लाभ मिल सकते हैं और क्या उन्हें आशीष मिल सकते हैं। यह उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है। वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि कैसे परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखा जाए और कैसे परमेश्वर के प्रेम को चुकाया जाए, सुसमाचार का प्रचार कर परमेश्वर की गवाही कैसे दी जाए ताकि लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें और उन्हें खुशी मिले; वे कभी सत्य समझने या अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने का तरीका जानने और मानव के समान जीने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते। वे इन चीजों पर कभी विचार नहीं करते। वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि उन्हें आशीष और लाभ मिल सकते हैं या नहीं, अपने पैर कैसे जमाएँ, रुतबा कैसे हासिल करें, कैसे लोगों से सम्मान पाया जाए, और कलीसिया में और भीड़ में कैसे सबसे अलग दिखा जाए और सर्वश्रेष्ठ बना जाए। वे साधारण अनुयायी बनने के इच्छुक बिल्कुल भी नहीं होते। वे कलीसिया में हमेशा अग्रणी होना चाहते हैं, अपनी चलाना चाहते हैं, अगुआ बनना चाहते हैं, और चाहते हैं कि सभी उनकी बात सुनें। तभी वे संतुष्ट हो सकते हैं। तुम लोग देख सकते हो कि मसीह-विरोधियों के दिल इन्हीं बातों से भरे होते हैं। क्या वे वास्तव में परमेश्वर के लिए खपते हैं? क्या वे वास्तव में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य करते हैं? (नहीं।) तो फिर वे क्या करना चाहते हैं? (सत्ता पाना चाहते हैं।) सही कहा। वे कहते हैं, “जहाँ तक मेरी बात है, लौकिक दुनिया में मैं बाकी सभी से आगे निकलना चाहता हूँ। मुझे हर समूह में प्रथम होना है। मैं दूसरे स्थान पर रहने से इनकार करता हूँ, और मैं कभी भी पिछलग्गू नहीं बनूँगा। मैं अगुआ बनना चाहता हूँ और लोगों के जिस भी समूह में मैं रहूँ, उसमें अपनी चलाना चाहता हूँ। अगर आखिरी फैसला मेरा नहीं होगा, तो मैं तुम लोगों को मनाने का हर संभव तरीका आजमाऊँगा और पूरी कोशिश करूँगा कि तुम सब मेरा सम्मान करो और मुझे अगुआ चुनो। जब मेरे पास रुतबा होगा, तो मेरा निर्णय अंतिम होगा, सभी को मेरी बात सुननी होगी। तुम्हें मेरे तरीके से काम करना होगा और मेरे नियंत्रण में रहना होगा।” मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य करें, वे खुद को ऊँचे स्थान पर यानी प्रमुखता के स्थान पर रखने की कोशिश करेंगे। वे एक साधारण अनुयायी के रूप में अपने स्थान से कभी संतुष्ट नहीं हो सकते। और उन्हें सबसे अधिक जूनून किस चीज का होता है? लोगों के सामने खड़े होकर उन्हें आदेश देने, उन्हें डाँटने, और लोगों से अपनी बात मनवाने का जूनून। वे इस बारे में सोचते तक नहीं कि अपना कर्तव्य ठीक तरह कैसे करें—इसे करते हुए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे विशिष्ट दिखने के तरीके खोजने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं, ताकि अगुआ उनके बारे में अच्छा सोचें और उन्हें आगे बढ़ाएँ, ताकि वे खुद अगुआ या कार्यकर्ता बन सकें, और दूसरे लोगों की अगुआई कर सकें। वे सारा दिन यही सोचते और इसी की उम्मीद करते रहते हैं। मसीह-विरोधी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी अगुआई करें, न ही वे सामान्य अनुयायी बनना चाहते हैं, चुपचाप और बिना किसी तमाशे के अपने कर्तव्य करते रहना तो दूर की बात है। उनका कर्तव्य जो भी हो, यदि वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र नहीं हो सकते, यदि वे दूसरों से ऊपर नहीं हो सकते, और दूसरे लोगों की अगुआई नहीं कर सकते, तो उन्हें अपना कर्तव्य करना उबाऊ लगने लगता है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं और ढीले पड़ जाते हैं। दूसरों से प्रशंसा और आराधना पाए बिना उनके लिए अपना काम और भी कम दिलचस्प हो जाता है, और उनमें अपना कर्तव्य करने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपना कर्तव्य करते हुए वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र हो सकते हों और अपनी बात मनवा सकते हों, तो वे अपनी स्थिति को मजबूत महसूस करते हैं और कैसी भी कठिनाइयाँ झेल सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा उनके व्यक्तिगत इरादे होते हैं, और वे हमेशा दूसरों को पराजित करने और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने की अपनी जरूरत पूरी करने के एक साधन के रूप में खुद को दूसरों से अलग दिखाना चाहते हैं। अपने कर्तव्य करते हुए, अत्यधिक प्रतिस्पर्धी होने—हर मामले में होड़ करने, विशिष्ट दिखने, सबसे आगे रहने, दूसरों से ऊपर उठने—के साथ-साथ वे यह भी सोचते रहते हैं कि अपने मौजूदा रुतबे, नाम और प्रतिष्ठा को कैसे कायम रखें। अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जो उनके रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए खतरा है, तो वे उसे नीचे गिराने और उससे छुटकारा पाने के लिए कुछ भी करने से बिल्कुल नहीं कतराते, और इसमें कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। वे सत्य का अनुसरण कर सकने वाले और अपना कर्तव्य निष्ठा से और दायित्व की भावना से करने वाले लोगों को दबाने के लिए घृणित साधनों का इस्तेमाल करते हैं। वे उन भाई-बहनों के प्रति भी ईर्ष्या और घृणा से भरे होते हैं जो अपना कर्तव्य बहुत श्रेष्ठ ढंग से निभाते हैं। ऐसे लोगों से तो वे खासतौर से घृणा करते हैं जिनका दूसरे भाई-बहन अनुमोदन और समर्थन करते हैं; वे ऐसे लोगों को अपने प्रयासों, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए गंभीर खतरा मानते हैं, और वे दिल-ही-दिल में कसमें खाते हैं कि “या तो तुम रहोगे या मैं, मैं रहूँगा या तुम, हम दोनों के लिए यहाँ जगह नहीं है, अगर मैंने तुम्हें नीचे नहीं गिराया और तुम्हारा सफाया नहीं किया तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा!” ऐसे भाई-बहन जो अलग राय व्यक्त करते हैं, जो उन्हें उजागर कर देते हैं, या उनके रुतबे के लिए खतरा बन जाते हैं, उनके प्रति वे पूरी तरह निर्मम हो जाते हैं : वे उनकी आलोचना और निंदा करने, उन्हें कलंकित करने और नीचे गिराने के लिए जो भी संभव हो सके वह सब करने की सोचते रहते हैं, और जब तक वे ऐसा नहीं कर देते उन्हें चैन नहीं पड़ता। किसी भी व्यक्ति के साथ पेश आते समय उनका एक ही रवैया होता है : अगर वह व्यक्ति उनके रुतबे के लिए खतरा है, तो वे उसे नीचे गिरा देंगे और उससे छुटकारा पा लेंगे। उनके सभी पक्के अनुयायी ऐसे लोग हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, और ये लोग चाहे जो भी बुरे काम करें और वे कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना भी नुकसान पहुँचाएँ, वे उन्हें छिपा लेंगे और उनकी रक्षा करेंगे। अपना कर्तव्य निभाते हुए, मसीह-विरोधी हमेशा अपनी शोहरत, लाभ, और रुतबे का प्रबंधन करते रहते हैं, और अपने स्वतंत्र राज्य का प्रबंधन करते रहते हैं। मसीह-विरोधियों के लिए अपना कर्तव्य निभाने का सार अपने स्वतंत्र राज्य के लिए और अपनी संभावनाओं और नियति के लिए लड़ना है।
कुछ मसीह-विरोधी एक छोटी-सी टीम में तकरीबन दर्जन भर लोगों की अगुआई करते हैं, और कुछ तो पूरी कलीसिया के लोगों या उससे भी अधिक लोगों की अगुआई करते हैं। चाहे वे कितने भी लोगों की अगुआई करें, वे अपना कर्तव्य निभाते हुए पहले से ही उन्हें काबू में कर रहे होते हैं, और वे एक राजा की तरह उन पर शासन करते हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कैसे इन मामलों की निंदा और इनसे घृणा करता है, और वे केवल अपनी शक्ति को बनाए रखने और अपने से नीचे के उन लोगों पर सख्त नियंत्रण रखने की परवाह करते हैं, जिन्हें वे काबू में करने में सक्षम हैं। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों के इरादों और प्रेरणाओं को देखें, तो उनका सार क्रूर और दुष्ट होता है। इसलिए अपने कर्तव्य निभाते समय उनके व्यवहार को देखें, तो वे कैसा स्वभाव प्रकट करते हैं? उनका स्वभाव भी क्रूर है। इस क्रूर स्वभाव की क्या विशेषता है? जहाँ अपने कर्तव्य निभाते समय वे कठिनाइयाँ झेल सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं, वहीं उनका एक भी कर्तव्य परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं होता है। अपने कर्तव्य निभाने के दौरान, वे कार्य व्यवस्थाओं को बिल्कुल भी लागू नहीं करते, फिर हरेक काम के लिए परमेश्वर के घर द्वारा निर्धारित सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। वे केवल अपनी व्यक्तिगत पसंद और शक्ति पाने की इच्छा, और साथ ही हमेशा कुछ करते रहने की व्यक्तिगत इच्छा को संतुष्ट करते हैं। ये सभी वे स्थितियाँ हैं जिनके लिए मसीह-विरोधी सोचते हैं कि उन्हें एक मुकुट मिल सकता है। वे मन में सोचते हैं : “अगर मैं इसी तरह से काम करता रहूँ, कीमत चुकाता रहूँ, खुद की इच्छाओं को त्यागता रहूँ और खुद को खपाता रहूँ, तो परमेश्वर अंत में मुझे मुकुट और इनाम जरूर देगा!” वे कभी भी उन अपेक्षाओं और सिद्धांतों पर ध्यान नहीं देते या उन्हें गंभीरता से नहीं लेते जिन पर परमेश्वर के वचनों में जोर दिया गया है और जिन्हें बार-बार मानवजाति के सामने रखा गया है; वे उन्हें मात्र चंद कहावतें मानते हैं। उनकी मानसिकता यह है : “तुम्हारी जो भी अपेक्षाएँ हों, मैं अपनी शक्ति या अपने प्रयासों को कम नहीं कर सकता, और न ही मैं अपनी इच्छाओं या महत्वाकांक्षाओं को छोड़ सकता हूँ। अगर मेरे पास ये चीजें न हों, तो मेरे पास अपने कर्तव्य करने के लिए क्या प्रेरणा बचेगी?” ये कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं जो मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य निभाते समय प्रकट करते हैं। परमेश्वर के वचन चाहे जो भी कहें, और विभिन्न कार्यों के लिए ऊपरवाले के पास जो भी आवश्यक मानक और सिद्धांत हों, मसीह-विरोधी न तो उन्हें सुनते हैं और न ही उन पर ध्यान देते हैं। ऊपरवाले के शब्द चाहे कितने भी विशिष्ट हों, काम के इस पहलू को लेकर अपेक्षाएँ चाहे कितनी भी सख्त क्यों न हों, वे न सुनने या न समझने का बहाना करते हैं, और वे अभी भी लापरवाही से और मनमाने ढंग से काम कर रहे होते हैं और अपने इरादों के अनुसार काम करते हुए बेतहाशा नीचे की ओर भाग रहे होते हैं। उनका मानना है कि अगर वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार और ऊपरवाले द्वारा अपेक्षित तरीकों से काम करते हैं, तो वे अपना रुतबा खो देंगे, और उनके पास जो शक्ति है वह किसी और के पास चली जाएगी और वह खत्म हो जाएगी। वे मानते हैं कि चीजों को सत्य के अनुसार और परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार करना उनकी शक्ति पर एक अदृश्य हमला है और उन्हें उस शक्ति से वंचित करना है—यह उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर एक हमला है। वे सोचते हैं : “मैं उतना बेवकूफ नहीं हूँ। अगर मैं तुम लोगों की राय स्वीकार लूँ, तो क्या मैं नाकारा और अगुआई की प्रतिभा में कमतर नहीं दिखूँगा? अगर मैं तुम लोगों की राय स्वीकार लूँ, अगर मैं अपनी गलती मान लूँ, तो क्या इसके बाद मेरे भाई-बहन अभी भी मेरी बात सुनेंगे? क्या अभी भी मेरे पास प्रतिष्ठा होगी? अगर मैं ऊपरवाले की अपेक्षाओं के अनुसार काम करूँ, तो क्या मैं दिखावा करने का अवसर नहीं गँवा दूँगा? क्या तब भी मेरे भाई-बहन मेरी आराधना करेंगे? क्या वे तब भी मेरी बात सुनेंगे? अगर उनमें से कोई भी मेरी बात नहीं सुनता, तो फिर इस कर्तव्य को करने का क्या मतलब है? मैं तब भी यह काम कैसे कर सकता हूँ? अगर समूह में मेरे पास कोई अधिकार नहीं है और मेरी प्रतिष्ठा कम हो जाती है, और अगर वे सभी परमेश्वर के वचन सुनकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हैं, तो क्या तब मेरी अगुआई खोखली नहीं होगी? क्या तब मैं एक कठपुतली बनकर नहीं रह जाऊँगा? फिर इन चीजों को करने के लिए मेरे पास क्या उत्साह होगा? अगर मेरी अगुआई खोखली है और मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ वह निरर्थक है, तो क्या तब भी मेरे पास भविष्य की कोई संभावना होगी?” मसीह-विरोधी चाहते हैं कि उन्हें किसी भी समूह में दूसरों से ऊपर रखा जाए, जिससे बदले में उन्हें भविष्य में मुकुट और इनाम मिले। उनका मानना है कि अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए एक उत्कृष्ट हस्ती और दूसरों के अगुआ बन जाते हैं, तो वे बदले में भविष्य का मुकुट पाने के हकदार होंगे, और भविष्य में महान आशीष पाएँगे। इसलिए, मसीह-विरोधी किसी भी समय अपनी शक्ति को कम नहीं होने देंगे और किसी भी स्थिति में अपनी सतर्कता को लेकर ढीले नहीं पड़ेंगे। उन्हें डर है कि अगर उन्होंने जरा भी असावधानी बरती, तो उनकी मौजूदा शक्ति छीन ली जाएगी या कमजोर हो जाएगी। अपने कर्तव्य करते समय, वे अपने पद पर रहकर उन्हें अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार नहीं करते, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं करते और परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार परमेश्वर की गवाही नहीं देते हैं। इसके बजाय, वे ऐसे अवसरों का फायदा उस मुकुट को मजबूती से पकड़ने के लिए उठाते हैं जो उन्हें लगता है कि वे पाने वाले हैं। भले ही कुछ मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं का पालन नियमों के एक सेट के रूप में करने में सक्षम हों, फिर भी इससे यह साबित नहीं होता कि वे सत्य स्वीकारने और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होने वाले लोग हैं। इसके पीछे क्या कारण है? कुछ मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों को करने के दौरान, हमेशा सत्ता हथियाना चाहते हैं और अपनी इस इच्छा को पूरा करना चाहते हैं, वे हमेशा रुतबा पाना चाहते हैं और रुतबे वाले पद से लोगों को भाषण और आदेश देना चाहते हैं। मगर कुछ मसीह-विरोधी भिन्न होते हैं और उन्हें इस तरह की चिंता सताती है : “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। यानी जो कोई भी जोखिम उठाकर आगे बढ़ता है और गलती करता है वह कष्ट झेलेगा। मैं ऐसी बेवकूफी नहीं करूँगा। भले ही मैं कितना भी काबिल हूँ, मैं सिर्फ तीस प्रतिशत मेहनत करूँगा, और बाकी सत्तर प्रतिशत अपने लिए रखूँगा, ताकि बाद में उसका इस्तेमाल कर सकूँ—मुझे थोड़ा संयम रखना होगा। परमेश्वर का घर मुझसे जो भी कहेगा या जो भी अपेक्षा करेगा, मैं सतही तौर पर उसे स्वीकार करूँगा, और ऐसा व्यक्ति नहीं बनूँगा जो विघ्न-बाधा डालता हो और गड़बड़ी करता हो। जो कोई भी अगुआई करेगा, मैं उसका अनुसरण करूँगा, और वह जो भी कहेगा, मैं उसे स्वीकार करूँगा। जब तक मैं ऊपरवाले के दिए गए नियमों का पालन करता हूँ और उनका उल्लंघन नहीं करता, तो मैं ठीक ही रहूँगा। जहाँ तक परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा समर्पित करने और ईमानदारी से उसके लिए खुद को खपाने की बात है, इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं अपना कर्तव्य करने में थोड़ी-बहुत मेहनत करूँगा, बस इतना ही करना काफी है, और मैं मूर्ख नहीं बनूँगा। चाहे मैं जो भी करूँ, मुझे थोड़ा संयम बरतना होगा, ताकि मैं कुछ भी न पाने और अंत में मेरे पास दिखाने के लिए कुछ भी न होने की स्थिति से बच सकूँ।” इस तरह का मसीह-विरोधी मानता है कि दूसरों का अपने कर्तव्यों को करने की जिम्मेदारी लेना और समस्याएँ हल करने के लिए हमेशा अपनी गर्दन को जोखिम में डालना बेवकूफी है, और उसे खुद ऐसी बेवकूफी नहीं करनी चाहिए। अपने दिल में, वह जानता है कि अगर कोई रुतबे के पीछे भागता है और अपनी खुद की शक्ति का जुगाड़ करता है, तो देर-सवेर उसे उजागर कर ही दिया जाएगा, मगर सत्य पर अमल करने के लिए उसे कीमत चुकानी होगी, मेहनत करनी होगी, अपनी ईमानदारी दिखानी होगी और वफादार होना होगा। उसे बहुत कष्ट सहना होगा, और वह ऐसा करने को तैयार नहीं है। वह समझौता करने का तरीका अपनाता है, न तो अपनी गर्दन आगे बढ़ाता है और न ही पीछे हटता है, बल्कि बीच का रास्ता अपनाता है। उसका मानना है : “मुझे जो भी कहा जाएगा, मैं करूँगा। मैं सिर्फ आधे-अधूरे मन से करूँगा और जैसे-तैसे अपना काम निपटा दूँगा, और अगर मुझे इसे बेहतर करने के लिए कहा जाएगा, तो मैं इसे नहीं करूँगा। इसे बेहतर करने के लिए, मुझे ज्यादा कीमत चुकानी होगी और ज्यादा जानकारियाँ पता करनी होंगी—यह बहुत थकाऊ होगा! अगर परमेश्वर मुझे यह काम करने के लिए अतिरिक्त इनाम देता है तो ठीक है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के वचन अतिरिक्त इनाम के बारे में कुछ नहीं कहते। अगर ऐसी बात है, तो मुझे कष्ट उठाने और खुद को थकाने की जरूरत नहीं है; आराम से काम करना ही बेहतर है।” क्या ऐसा व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? क्या वह सत्य प्राप्त कर सकता है? क्या जो लोग सत्य की ओर प्रयास नहीं करते, बल्कि अनमने या नकारात्मक होते हैं और अपने काम में ढिलाई बरतते हैं, वे परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं।
मसीह-विरोधियों की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति क्या है? पहली बात, वे सत्य स्वीकार नहीं करते, जिसे हर कोई देख सकता है। न केवल वे दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं करते, बल्कि सबसे जरूरी बात यह है कि वे काटे-छाँटे जाने को भी स्वीकार नहीं करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मसीह-विरोधी सत्य स्वीकार नहीं करते; अगर वे सत्य स्वीकार सकते तो वे मसीह-विरोधी नहीं होते। तो फिर मसीह-विरोधी अभी भी अपने कर्तव्य क्यों निभाते हैं? अपने कर्तव्यों को निभाने के पीछे उनका वास्तविक इरादा क्या है? उनका इरादा है, “इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाना।” वे अपने कर्तव्यों में पूरी तरह से इस कहावत का पालन कर रहे हैं। क्या यह एक लेन-देन नहीं है? यह बिल्कुल एक लेन-देन है। इस लेन-देन की प्रकृति को देखते हुए, क्या यह दुष्ट स्वभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) तो वे किस तरह से दुष्ट हैं? क्या कोई मुझे बता सकता है? (भले ही मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए बहुत से सत्य सुनते हैं, मगर वे कभी उनका अनुसरण नहीं करते। वे दृढ़ता से अपने पद पर बने रहते हैं और उसे छोड़ते नहीं हैं, केवल अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए और दूसरों पर अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं।) यह जवाब कुछ हद तक सही है, तुमने इसे लगभग समझ लिया है, मगर यह उतना विशिष्ट नहीं है। अगर वे अच्छी तरह से जानते हैं कि परमेश्वर के साथ लेन-देन करना गलत है, मगर फिर भी अंत तक दृढ़ रहते हैं और पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं, तो यह समस्या गंभीर है। आजकल, ज्यादातर लोग आशीष पाने के इरादे से अपने कर्तव्य निभाते हैं। वे सभी अपने कर्तव्यों के निर्वहन का इस्तेमाल इनाम और मुकुट पाने के लिए करना चाहते हैं, और वे अपने कर्तव्य निर्वहन का महत्व नहीं समझते। इस समस्या पर स्पष्ट रूप से संगति करने की जरूरत है। तो आओ, पहले बात करते हैं कि लोगों का कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आया। परमेश्वर मानवजाति का प्रबंधन करने और बचाने का कार्य करता है। बेशक परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाएँ हैं, और ये अपेक्षाएँ ही उनका कर्तव्य हैं। यह स्पष्ट है कि लोगों का कर्तव्य परमेश्वर के कार्य और मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं से उत्पन्न होता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है, और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीचइससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता, और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं, और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है, और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है। सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। और जहाँ तक प्रश्न यह है कि सृष्टिकर्ता उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है जो सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हैं, और वह उनसे क्या वादे करता है, यह सृष्टिकर्ता का मामला है; सृजित मानवजाति का इससे कोई सरोकार नहीं है। इसे थोड़ा और सरल तरीके से कहूँ तो, यह परमेश्वर पर निर्भर है, और लोगों को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। तुम्हें वही मिलेगा जो परमेश्वर तुम्हें देता है, और यदि वह तुम्हें कुछ भी नहीं देता है, तो तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। जब कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करता है, और अपना कर्तव्य निभाने और जो वह कर सकता है उसे करने में सृष्टिकर्ता के साथ सहयोग करता है, तो यह कोई लेन-देन या व्यापार नहीं होता है; लोगों को परमेश्वर से कोई वादा या आशीष पाने के लिए रवैयों की अभिव्यक्तियों या क्रियाकलापों और व्यवहारों का सौदा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जब सृष्टिकर्ता तुम लोगों को यह काम सौंपता है, तो यह सही और उचित है कि सृजित प्राणियों के रूप में, तुम इस कर्तव्य और आदेश को स्वीकार करो। क्या इसमें कोई लेन-देन शामिल है? (नहीं।) सृष्टिकर्ता की ओर से, वह तुम लोगों में से हर एक को वे कर्तव्य सौंपने के लिए तैयार है जो लोगों को निभाने चाहिए; और सृजित मानवजाति की ओर से, लोगों को यह कर्तव्य सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, इसे अपने जीवन का दायित्व मानना चाहिए, वह मूल्य मानना चाहिए जिसे उन्हें इस जीवन में जीना है। यहाँ कोई लेन-देन नहीं है, यह एक समकक्ष विनिमय नहीं है, इसमें कोई भी इनाम या अन्य कथन शामिल होने की संभावना तो और भी कम है जिनकी लोग कल्पना करते हैं। यह किसी भी तरह से एक व्यापार नहीं है; यह लोगों द्वारा अपने कर्तव्य निभाते हुए चुकाई गई कीमत या उनकी कड़ी मेहनत के बदले में कुछ और पाना भी नहीं है। परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा है, और न ही लोगों को इसे इस तरीके से समझना चाहिए। सृष्टिकर्ता मानवजाति को एक आदेश देता है, और सृष्टिकर्ता से परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश प्राप्त करने के बाद, सृजित प्राणी अपना कर्तव्य निभाने का बीड़ा उठाता है। इस मामले में, इस प्रक्रिया में, कोई लेन-देन नहीं है; यह एकदम सरल और उचित है। यह वैसा ही है जैसे माता-पिता के साथ होता है, जो अपने बच्चे को जन्म देने के बाद, बिना किसी शर्त या शिकायत के उसका पालन-पोषण करते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि क्या बच्चा बड़ा होकर संतानोचित कर्तव्य निभाता है या नहीं, उसके माता-पिता ने उसके जन्म से ही ऐसी कोई अपेक्षाएँ नहीं रखी थीं। ऐसा एक भी माता-पिता नहीं है जो बच्चे को जन्म देने के बाद कहे, “मैं उसे सिर्फ इसलिए पाल रहा हूँ ताकि वह भविष्य में मेरी सेवा करे और मेरा सम्मान करे। अगर वह मेरा सम्मान नहीं करेगा, तो मैं उसे अभी गला घोंटकर मार डालूँगा।” ऐसा एक भी माता-पिता नहीं है। तो, जिस तरह से माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, उससे यह पता चलता है कि यह एक दायित्व है, एक जिम्मेदारी है, है ना? (बिल्कुल है।) माता-पिता अपने बच्चे का पालन-पोषण करते रहेंगे, चाहे वे अपना संतानोचित कर्तव्य निभाएँ या नहीं, और चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न हों, वे उन्हें तब तक पालेंगे जब तक वे बालिग नहीं हो जाते, और वे उनके लिए सिर्फ अच्छा ही चाहते हैं। माता-पिता की अपने बच्चे के प्रति इस जिम्मेदारी और दायित्व में कोई शर्त या लेन-देन नहीं है। जिनके पास इससे संबंधित अनुभव है वे लोग इसे समझ सकते हैं। ज्यादातर माता-पिता के पास इस बात के कोई अपेक्षित मानक नहीं होते कि उनका बच्चा संतानोचित है या नहीं। अगर उनका बच्चा संतानोचित है, तो वे सामान्य से थोड़े ज्यादा हंसमुख रहेंगे, और अपने बुढ़ापे में वे थोड़े ज्यादा खुश रहेंगे। अगर उनका बच्चा संतानोचित नहीं है, तो वे कुछ नहीं करेंगे। ज्यादातर माता-पिता जो अपेक्षाकृत खुले विचारों वाले होते हैं, इसी तरह सोचते हैं। कुल मिलाकर, चाहे माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रहे हों या बच्चे अपने माता-पिता की मदद कर रहे हों, मामला जिम्मेदारी का है, दायित्व का है, और यह व्यक्ति की अपेक्षित भूमिका के दायरे में आता है। बेशक, ये सभी सृजित प्राणी द्वारा अपना कर्तव्य निभाने की तुलना में तुच्छ मामले हैं, मगर इंसानी दुनिया के मामलों में, ये ज्यादा सुंदर और न्यायपूर्ण मामलों में से हैं। जाहिर है कि यह सृजित प्राणी द्वारा अपना कर्तव्य निभाने पर और भी अधिक लागू होता है। एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर तुम्हें केवल एक चीज स्पष्ट रूप से देखने और थोड़ा-सा सत्य ही समझने नहीं देता, वह तुम्हें केवल एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले अनुग्रह और आशीषों का आनंद मात्र ही लेने नहीं देता है। इसके बजाय, वह तुम्हें शुद्ध होने और बचने, और अंततः, सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने का अवसर भी देता है। इस सृष्टिकर्ता के “मुखमंडल के प्रकाश” में बड़ी मात्रा में विस्तारित अर्थ और विषयवस्तु शामिल है—आज हम इस पर चर्चा नहीं करेंगे। निस्संदेह, परमेश्वर निश्चित रूप से ऐसे लोगों को वादे और आशीष देगा, और उनके बारे में अलग वक्तव्य देगा—यह आगे का मामला है। वर्तमान की बात करें तो, हर वह इंसान जो परमेश्वर के सामने आता और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता है, परमेश्वर से क्या पाता है? सत्य और जीवन, जो मानवजाति के बीच सबसे मूल्यवान और सुंदर चीजें हैं। मानवजाति का कोई भी सृजित प्राणी आसानी से सृष्टिकर्ता के हाथों से ऐसे आशीष प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों की किस्म के लोग एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देते हैं, जिसमें वे परमेश्वर के हाथों से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करते हैं। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और उचित चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इस हिसाब से देखें तो क्या मसीह-विरोधी दुष्ट नहीं हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं! यह उनकी दुष्टता की एक अभिव्यक्ति है।
अंत के दिनों में, परमेश्वर कार्य करने के लिए देहधारण करता है, कई सत्य व्यक्त करता है, मानवजाति के सामने परमेश्वर की प्रबंधन-योजना के सभी रहस्य खोलता है, और उन सभी सत्यों की आपूर्ति करता है जिन्हें लोगों को समझना और जिनमें प्रवेश करना चाहिए ताकि वे बचाए जा सकें। ये सत्य और परमेश्वर के ये वचन उन सभी के लिए खजाने हैं, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। भ्रष्ट मानवजाति को इन सत्यों की जरूरत है, और ये मानवजाति के लिए अमूल्य निधि भी हैं। परमेश्वर का प्रत्येक वचन, उसकी प्रत्येक अपेक्षा और प्रत्येक इरादा ऐसी चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना और बूझना चाहिए, वे ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को उद्धार प्राप्त करने के लिए पालन करना चाहिए, और वे वो सत्य हैं जिन्हें मनुष्यों को प्राप्त करना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी इन वचनों को सिद्धांत और नारे समझते हैं, वे इन पर ध्यान तक नहीं देते, इससे भी बढ़कर वे इनसे घृणा करते हैं और इन्हें नकार देते हैं। मसीह-विरोधी मनुष्यों के बीच की सबसे कीमती चीजों को कपटियों के झूठ मानते हैं। मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि दुनिया में कोई उद्धारकर्ता नहीं है, सत्य या सकारात्मक चीजों की तो बात ही छोड़ दो। उन्हें लगता है कि इंसानी हाथों को हर सुंदर चीज या लाभ प्राप्त होना चाहिए और इसे इंसानी संघर्ष द्वारा जबरन हासिल किया जाना चाहिए। मसीह-विरोधियों को लगता है कि बिना महत्वाकांक्षाओं और सपनों के लोग कभी सफल नहीं होंगे, और उनके हृदय परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्य के प्रति बेरुखी और नफरत से भरे हुए हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को सिद्धांत और नारे मानते हैं, और सत्ता, हितों, महत्वाकांक्षा और इच्छा को ऐसे उचित मकसद मानते हैं, जिनका प्रबंधन करना चाहिए और जिनके पीछे भागना चाहिए। स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट प्राप्त करने और अधिक बड़े आशीषों का आनंद लेने के प्रयास में वे अपने गुणों के माध्यम से की गई सेवा का उपयोग परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के साधन के रूप में भी करते हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? वे परमेश्वर के इरादों की व्याख्या कैसे करते हैं? वे कहते हैं, “मालिक कौन है, इसका फैसला परमेश्वर यह देखकर करता है कि कौन उसके लिए सबसे अधिक खपता और कष्ट उठाता है, और कौन सबसे अधिक कीमत चुकाता है। कौन राज्य में प्रवेश कर सकता है और कौन मुकुट प्राप्त करता है, इसका निर्धारण वह यह देखकर करता है कि कौन दौड़-धूप कर सकता है, कौन वाक्पटुता से बोल सकता है, और किसमें किसी डाकू की आत्मा है जिससे वह बलपूर्वक चीजें छीन सकता है। जैसा कि पौलुस ने कहा था, ‘मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है’ (2 तीमुथियुस 4:7-8)।” वे पौलुस के इन शब्दों का अनुसरण करते हैं और मानते हैं कि उसकी बातें सत्य हैं, लेकिन मानवजाति से परमेश्वर की सभी अपेक्षाओं और मानवजाति के लिए उसके सभी कथनों की यह सोचते हुए उपेक्षा करते हैं, “ये चीजें बेमानी हैं। बस इतना ही मायने रखता है कि अपनी कुश्ती लड़ लेने और अपनी दौड़ पूरी कर लेने के बाद, अंत में मुझे एक मुकुट मिल जाएगा। यह सच है। क्या परमेश्वर का यही मतलब नहीं है? परमेश्वर ने हजारों-हजारों वचन बोले हैं और अनगिनत उपदेश दिए हैं। अंततः लोगों से वह यही कहना चाहता है कि अगर तुम मुकुट और पुरस्कार चाहते हो, तो यह तुम पर है कि तुम लड़ो, संघर्ष करो, छीनो और ले लो।” क्या यह मसीह-विरोधियों का तर्क नहीं है? अपने दिलों की गहराई में मसीह-विरोधी परमेश्वर के कार्य को हमेशा इसी प्रकार देखते हैं, और परमेश्वर के वचन और प्रबंधन-योजना की वे इसी प्रकार व्याख्या करते हैं। उनका स्वभाव दुष्टतापूर्ण है, है न? वे परमेश्वर के इरादों, सत्य और सभी सकारात्मक चीजों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। वे मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन-योजना को एक नग्न लेन-देन के रूप में देखते हैं, और परमेश्वर मानवजाति से जिस कर्तव्य को पूरा करने की अपेक्षा करता है, उसे वे एक नग्न जब्ती, आक्रामकता, धोखा और लेन-देन समझते हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव नहीं है? मसीह-विरोधियों का मानना है कि आशीषों की प्राप्ति और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश, उन्हें लेन-देन के माध्यम से ही प्राप्त करना होगा, और यह उचित, तर्कसंगत और सबसे वैध है। क्या यह दुष्टतापूर्ण तर्क नहीं है? क्या यह शैतानी तर्क नहीं है? मसीह-विरोधी हमेशा अपने दिलों की गहराई में ऐसे ही विचार और रवैया रखते हैं, जो साबित करता है कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव बेहद दुष्टतापूर्ण है।
अभी इस विषय-वस्तु के जिन मदों पर संगति की गई, क्या उनसे तुम मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव को देख पाए हो? (बिल्कुल।) पहली मद थी कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं, है ना? तो मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं? (मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को एक लेन-देन की तरह लेते हैं जिनके बदले में वे अपनी मंजिल और अपने हितों का सौदा करते हैं। भले ही परमेश्वर ने लोगों पर कितना भी काम किया हो, उसने उनसे कितने भी वचन कहे हों, और उसने उनके लिए कितने भी सत्य व्यक्त किए हों, वे इन सबको भूलते हुए अभी भी परमेश्वर से लेन-देन करने के इरादे के साथ अपना कर्तव्य करते हैं।) मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को एक लेन-देन मानते हैं। वे लेन-देन करने और आशीष पाने के इरादे के साथ अपना कर्तव्य करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने की खातिर किया जाना चाहिए, और अपना कर्तव्य करने के जरिये आशीष पाना उचित है। वे अपना कर्तव्य निभाने जैसी सकारात्मक चीज को विकृत करते हैं और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के मूल्य और महत्व को कलंकित करते हैं; साथ ही, वे ऐसा करने की वैधता को भी कलंकित करते हैं; जो कर्तव्य सृजित प्राणियों को स्वाभाविक रूप से निभाना चाहिए, वे उसे एक लेन-देन में बदल देते हैं। यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता है; यह पहली मद है। दूसरी मद यह है कि मसीह-विरोधी सकारात्मक चीजों या सत्य के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, और न ही यह मानते और स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) इसमें दुष्टता क्या है? परमेश्वर के वचन सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, फिर भी मसीह-विरोधी इसे नहीं देख सकते हैं और इसे स्वीकार नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को नारे, एक प्रकार का सिद्धांत, मानते हैं, और वे इस तथ्य को विकृत करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। यहाँ सबसे बड़ी और मुख्य समस्या क्या है? परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए इन वचनों का उपयोग करना चाहता है, और मनुष्य को शुद्ध होने और उद्धार पाने से पहले परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना ही चाहिए—यह एक तथ्य है, और यही सत्य है। मसीह-विरोधी मानवजाति से किए गए परमेश्वर के इस वादे को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं, “बचाया जाना? शुद्ध किया जाना? इसका क्या फायदा है? यह बेकार है! अगर मैं शुद्ध हो गया, तो क्या मैं वास्तव में बचाया जा सकता हूँ और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ? मुझे तो नहीं लगता!” वे इस मामले पर कोई ध्यान नहीं देते और इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रखते। इसका अव्यक्त निहितार्थ क्या है? यही कि वे इस बात पर विश्वास ही नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; वे मानते हैं कि वे केवल कहावतें और धर्म-सिद्धांत हैं। वे विश्वास नहीं करते या यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन लोगों को शुद्ध कर सकते हैं या उन्हें बचा सकते हैं। इसकी तुलना उस समय से की जा सकती है जब परमेश्वर ने अय्यूब को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया था जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था, और वह एक पूर्ण व्यक्ति था। क्या परमेश्वर के ये वचन सत्य थे? (बिल्कुल।) तो परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहा? इसका आधार क्या है? परमेश्वर लोगों के व्यवहार को देखता है, उनके दिलों की जाँच-पड़ताल करता है, और उनके सार को देखता है, और इसी आधार पर उसने कहा कि अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था, बुराई से दूर रहता था और वह एक पूर्ण व्यक्ति था। परमेश्वर ने अय्यूब पर सिर्फ एक या दो दिन ही नहीं, बल्कि ज्यादा समय तक नजर रखी, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अय्यूब की अभिव्यक्तियाँ भी सिर्फ एक या दो दिन ही नहीं, बल्कि ज्यादा समय के लिए रहीं, और निश्चित रूप से ये केवल एक या दो बातों को लेकर नहीं थीं। तो शैतान ने इस तथ्य के प्रति क्या रवैया अपनाया था? (शक और संदेह करने का रवैया।) शैतान को सिर्फ शक ही नहीं था, उसने इसे नकार दिया। साफ-साफ कहूँ तो उसके शब्द ये थे, “तूने अय्यूब को गाय, भेड़ और अनगिनत संपत्ति सहित बहुत कुछ दिया। उसके पास तेरी आराधना करने के कारण हैं। तू कहता है कि अय्यूब एक पूर्ण व्यक्ति है, मगर तेरे शब्दों में दम नहीं है। तेरे शब्द सत्य नहीं हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, वे गलत हैं, और मैं तेरी बातों का खंडन करता हूँ।” क्या शैतान का यही मतलब नहीं था? (हाँ, बिल्कुल यही मतलब था।) परमेश्वर ने कहा, “अय्यूब परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, वह एक पूर्ण व्यक्ति है।” शैतान ने क्या कहा? (क्या वह बिना किसी कारण के परमेश्वर की आराधना करेगा?) शैतान ने कहा, “गलत, वह एक पूर्ण व्यक्ति नहीं है! उसने तुझसे लाभ और आशीष प्राप्त किए हैं, इसलिए वह तेरा भय मानता है। अगर तू इन लाभों और आशीषों को छीन ले, तो वह तेरा भय नहीं मानेगा—वह एक पूर्ण मनुष्य नहीं है।” परमेश्वर द्वारा बोले गए हरेक वाक्य के सामने शैतान एक प्रश्नचिह्न लगाएगा और उसका खंडन करेगा। शैतान परमेश्वर के वचनों को और किसी भी चीज के बारे में परमेश्वर की परिभाषाओं या कथनों को नकारता है। क्या हम यह कह सकते हैं कि शैतान सत्य को नकारता है? (बिल्कुल।) यह तथ्य है। तो, मानवजाति को उजागर करने, उसका न्याय करने, उसे ताड़ना देने वाले, और मानवजाति के सामने विभिन्न प्रकार की विशिष्ट अपेक्षाएँ रखने वाले परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया है? क्या वे उन्हें स्वीकार करके “आमीन” कहते हैं? क्या वे उनका पालन कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) तुम कह सकते हो कि मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर के सभी प्रकार के वचनों के प्रति उनकी तत्काल प्रतिक्रिया होती है, “गलत! क्या यह वास्तव में ऐसा है? तुम जो कहते हो वह सही कैसे है? यह सही नहीं है—मैं इस पर विश्वास नहीं करता। तुम जो कहते हो वह इतना अप्रिय क्यों है? परमेश्वर इस तरह से बात नहीं करेगा! अगर मैं इसे कहता, तो इसे इस तरह से कहता।” परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों के इन रवैयों को देखें तो क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानकर उनका पालन कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। यही उनकी दुष्टता है; यह दूसरी मद है। तीसरी मद यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की प्रबंधन योजना के उद्देश्य के बारे में क्या सोचते हैं, जो यह है कि परमेश्वर मानवजाति को बचाना चाहता है, और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव और उसकी अँधेरी शक्तियों से मुक्त होने और उद्धार पाने में मानवजाति की मदद करना चाहता है। उनके स्वभाव को दुष्ट क्यों कहते हैं? उनका मानना है कि यह एक लेन-देन है, और वे इसे एक खेल मानते हैं। किनके बीच का खेल? पौराणिक कथाओं के किसी परमेश्वर और अज्ञानी और मूर्ख लोगों के समूह के बीच एक खेल, जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं और दुख के संसार से मुक्त होना चाहते हैं। यह एक लेन-देन भी है जिसमें दोनों पक्ष अपनी इच्छा से भागीदार हैं, जहाँ एक पक्ष देने को तैयार है और दूसरा प्राप्त करने को तैयार है। यह इस तरह का खेल है। वे परमेश्वर की प्रबंधन योजना को इसी तरह देखते हैं—क्या यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का खुलासा नहीं है? क्योंकि मसीह-विरोधी महत्वाकांक्षाओं से भरे हुए हैं, और क्योंकि वे एक मंजिल और आशीष पाना चाहते हैं, इसलिए वे मानवजाति के सबसे सुंदर काम और मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को एक खेल, एक लेन-देन में बदल देते हैं—यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव है। इसके अलावा, मसीह-विरोधियों की एक और अभिव्यक्ति है, जो काफी हास्यास्पद और बेतुकी लगती है। यह बेतुकी क्यों है? मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा किए गए सभी कार्यों पर विश्वास नहीं करते, न ही वे यह मानते हैं कि परमेश्वर की कही हरेक बात सत्य है और मानवजाति को बचा सकती है, मगर वे कष्ट सहने, कीमत चुकाने, और इस लेन-देन को करने और उसे सुगम बनाने की अटूट इच्छा रखते हैं। क्या मजाक है? बेशक, यह मसीह-विरोधियों की दुष्टता नहीं, बल्कि उनकी बेवकूफी है। एक ओर, वे यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का अस्तित्व है, यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और यहाँ तक कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना को बिगाड़ देते हैं, वहीं दूसरी ओर, वे अभी भी परमेश्वर के वचनों और उसकी प्रबंधन योजना से व्यक्तिगत लाभ पाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, एक ओर तो वे इन सभी तथ्यों के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, उनकी प्रामाणिकता पर विश्वास करना तो दूर की बात है, वहीं दूसरी ओर, वे अभी भी लाभ पाने के लिए प्रयास करना चाहते हैं और हर तरह का लाभ उठाना चाहते हैं, अवसरवादी बनकर ऐसी चीजें हासिल करना चाहते हैं जो वे संसार में हासिल नहीं कर सकते, जबकि वे अभी भी सोचते हैं कि वे बेहद चतुर हैं। क्या यह बेतुका नहीं है? वे खुद को धोखा दे रहे हैं और हद से ज्यादा बेवकूफ हैं।
हमने अभी तीन अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल करके मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का गहन-विश्लेषण किया, और उनकी एक और अभिव्यक्ति पर चर्चा पूरी की : मसीह-विरोधी इतने बेवकूफ होते हैं कि कोई नहीं जानता कि उन पर हँसें या रोएँ। वे तीन अभिव्यक्तियाँ कौन-सी हैं? (पहली, मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य निभाने को एक लेन-देन मानते हैं; दूसरी, मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते, यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का वचन कोई सकारात्मक चीज है, और यह नहीं मानते कि परमेश्वर का वचन लोगों को बचा सकता है, इसके बजाय वे परमेश्वर के वचन को सिद्धांत और नारे मानते हैं; तीसरी, मसीह-विरोधी मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य को एक खुला लेनदेन और खेल मानते हैं।) और एक और अभिव्यक्ति? (मसीह-विरोधियों की हास्यास्पदता और निहायत मूर्खता।) क्या ये काफी विशिष्ट नहीं हैं? (हाँ।) क्या तुम लोग कहोगे कि इस तरह के स्वभाव वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति और विवेक कुछ हद तक असामान्य है? (हाँ।) वे किस तरह से असामान्य हैं? (मसीह-विरोधी परमेश्वर से लेनदेन करना चाहते हैं और परमेश्वर से संभावनाएँ और मंजिल पाना चाहते हैं, लेकिन वे अभी भी परमेश्वर की प्रबंधन योजना पर विश्वास नहीं करते या यह नहीं मानते कि परमेश्वर मानवजाति को बचा सकता है। उनकी सोच विरोधाभाषी है, जो चीजें वे चाहते हैं उन्हें ही वे नकारते हैं। बुनियादी तौर पर इसका कोई अर्थ नहीं है, इसलिए उनका विवेक असामान्य है और उनकी मानसिक स्थिति में कुछ गड़बड़ है।) इससे पता चलता है कि उनमें सामान्य मानवता का अभाव है। वे यह नहीं जानते कि सोचने और हिसाब लगाने के इन तरीकों से वे अपनी ही बात का खंडन कर रहे हैं। यह कैसे होता है? (वे हमेशा गलत मार्ग पर चलते हैं क्योंकि वे कभी सत्य नहीं स्वीकारते या सत्य का अभ्यास नहीं करते।) और क्या वे जानते हैं कि जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं वह गलत मार्ग है? निश्चित रूप से वे नहीं जानते। अगर वे यह जानते कि ऐसा करने से नुकसान उठाना पड़ेगा तो यकीनन वे ऐसा नहीं करते। वे सोचते हैं कि ऐसा करने से उन्हें फायदा मिलेगा : “देखो, मैं कितना होशियार हूँ। तुम लोगों में से कोई भी चीजों की असलियत नहीं देख सकता; तुम सब मूर्ख हो। तुम इतने निष्कपट कैसे हो सकते हो? कहाँ है परमेश्वर? मैं उसे देख या छू नहीं सकता, और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि परमेश्वर के वादे पूरे हो सकते हैं! देखो मैं कितना चालाक हूँ—जब मैं एक कदम आगे बढ़ाता हूँ तो दस कदम आगे की सोचता हूँ, लेकिन तुम लोग एक कदम आगे का भी कोई हिसाब नहीं करते।” उन्हें लगता है कि वे बहुत चालाक हैं। इसलिए, दो-तीन साल तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद, कुछ लोग सोचते हैं : “मैं कई सालों से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ मगर अभी भी कुछ हासिल नहीं किया, कोई चमत्कार नहीं देखा या कोई असामान्य घटना नहीं देखी है। पहले मैं दिन में तीन बार खाना खाता था, और अभी भी तीन बार खाना खाता हूँ। अगर मैं एक बार का खाना छोड़ देता हूँ, तो मुझे भूख लगती है। अगर मैं रात में एक या दो घंटे कम सोता हूँ, तो मुझे दिन में भी नींद आती है। मैंने कोई विशेष शक्तियाँ विकसित नहीं की हैं! हर कोई कहता है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम्हें बड़े आशीष मिल सकते हैं। मैं कई सालों से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ मगर कुछ भी अलग नहीं हुआ। क्या सब कुछ अभी भी वैसा ही नहीं है? मुझे अक्सर कमजोरी, नकारात्मकता और शिकायतें होती हैं। हर कोई कहता है कि सत्य लोगों को बदल सकता है और परमेश्वर का वचन लोगों को बदल सकता है, लेकिन मैं तो बिल्कुल नहीं बदला हूँ। मेरे दिल में मुझे अभी भी अक्सर मेरे माता-पिता, मेरे बच्चों की याद आती है और यहाँ तक कि मैं दुनिया में मेरे बीते दिनों को याद करता हूँ। तो फिर परमेश्वर लोगों पर क्या करता है? मुझे क्या हासिल हुआ है? हर कोई कहता है कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास करके सत्य प्राप्त करते हैं, तो उन्हें कुछ हासिल होता है, लेकिन अगर ऐसा होता, तो क्या वे बाकी लोगों से अलग नहीं होते? अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ, और मेरी सेहत पहले जैसी नहीं रही। मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ बहुत बढ़ गई हैं। क्या वे यह नहीं कहते कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग जितने लंबे समय तक जीते हैं, उतने ही जवान होते जाते हैं? मैं जवान होने के बजाय बूढ़ा क्यों हो गया? वैसे भी परमेश्वर के वचन सटीक नहीं हैं, मुझे अपने लिए योजनाएँ बनाने की जरूरत है। मैं समझ गया हूँ कि परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब बस इतना ही है कि हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में हिस्सा लेने, भजन गाने और अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहो। यह उबाऊ लगता है और मुझे पहले से कुछ भी अलग महसूस नहीं होता।” ऐसा सोचते ही वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, है ना? वे सोचते रहते हैं, “अब मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए वाकई कष्ट झेल रहा हूँ, परमेश्वर के वादे और आशीष बहुत दूर नजर आते हैं। इसके अलावा, परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोग आपदाओं में मर जाते हैं, तो क्या परमेश्वर द्वारा मनुष्य की सुरक्षा जैसी कोई चीज है भी? अगर नहीं है, तो कुछ लोगों ने जो गवाही के लेख लिखे हैं, जिनमें कहा गया है कि परमेश्वर ने सबसे खतरनाक पलों में उनका जीवन बचाने के लिए चमत्कार किए, वे सच हैं या झूठ?” वे इस पर सोच-विचार करते हैं और अपने दिलों में वे अनिश्चित होते हैं, और जब वे अपना कर्तव्य निभाना जारी रखते हैं तो वे उदासीन और उत्साहहीन महसूस करते हैं, और अब सक्रिय नहीं रह पाते। वे पीछे हटते रहते हैं और आधे-अधूरे मन से और अनमने ढंग से काम करने लगते हैं। वे अपने मन में क्या हिसाब लगाते रहते हैं? “अगर मुझे आशीष नहीं मिलता है, अगर हमेशा ऐसा ही चलता रहता है, तो मुझे दूसरी योजनाएँ बनाने की जरूरत है। मुझे फिर से योजना बनानी चाहिए कि मैं अपना कर्तव्य निभाना जारी रखूँ या नहीं, और मैं इसे भविष्य में कैसे करूँ। मुझे फिर से इतना मूर्ख नहीं बनना चाहिए। नहीं तो भविष्य में मुझे अपनी संभावनाएँ और सौभाग्य या मेरा मुकुट नहीं मिलेगा, और मैं सांसारिक सुख का आनंद भी नहीं भोग पाऊँगा। तो क्या यह सब प्रयास व्यर्थ और बेकार नहीं हो जाएगा? अगर मुझे अभी की तरह ही आगे भी कुछ नहीं मिलता रहा, तो मैं पहले ही बेहतर स्थिति में था जब नाममात्र को परमेश्वर में विश्वास रखकर काम करते हुए संसारिक चीजों के पीछे भाग रहा था। अगर परमेश्वर कभी नहीं कहता कि कार्य कब समाप्त होगा, कब वह लोगों को इनाम देगा, यह कर्तव्य कब पूरा होगा, और कब परमेश्वर मानवजाति के सामने खुले तौर पर प्रकट होगा; अगर परमेश्वर लोगों को कभी सटीक स्पष्टीकरण नहीं देता, तो यहाँ अपना समय बर्बाद करने का क्या मतलब है? मेरे लिए यही बेहतर होगा कि मैं वापस संसार में जाकर पैसा कमाऊँ और सांसारिक सुख का आनंद उठाऊँ। कम से कम मैंने अपना जीवन बर्बाद तो नहीं किया होगा। आने वाली दुनिया के बारे में कौन जानता है? यह सब अज्ञात है, अभी तो मैं बस इस जीवन को अच्छे से जिऊँगा।” क्या उनके मन में कोई बदलाव नहीं आया है? जब वे इस तरह से हिसाब करते हुए गलत रास्ता अपना रहे हैं, तो क्या वे अभी भी अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकते हैं? (नहीं, वे नहीं निभा सकते।) कुछ लोग कहते हैं : “मसीह विरोधियों को रुतबा पसंद है, है ना? अगर तुम उन्हें कोई पद देते हो तो क्या वे परमेश्वर के घर में नहीं रहेंगे?” क्या मसीह-विरोधियों को इस समय रुतबे की जरूरत है? शायद इस समय उनके लिए रुतबा सबसे महत्वपूर्ण चीज नहीं है। उन्हें किस चीज की जरूरत है? उन्हें बस इतना चाहिए कि परमेश्वर उन्हें एक सटीक स्पष्टीकरण दे। अगर वे आशीष प्राप्त नहीं कर सकते तो वे छोड़कर चले जाएँगे। एक ओर, अगर उन्हें अपने कर्तव्य के दौरान किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा जा सकता तो उन्हें लगता है कि उनकी संभावनाएँ अनिश्चित, धुंधली और आशाहीन हैं। दूसरी ओर, अगर अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, चीजें कभी वैसी नहीं होतीं जैसी वे आशा करते हैं—अगर वे व्यक्तिगत तौर पर परमेश्वर को अपना महान कार्य पूरा होने के दिन अपनी महिमा के साथ आसमान से उतरते हुए नहीं देखते हैं, या अगर परमेश्वर उन्हें स्पष्ट भाषा में नहीं बताता है कि वह किस वर्ष, किस महीने, किस दिन, किस घंटे और मिनट में मानवजाति के सामने खुले तौर पर प्रकट होगा, कब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा, और कब भीषण आपदाएँ आएँगी, अगर वह उन्हें ये बातें स्पष्ट भाषा में नहीं बताता है तो उनके दिल बेचैन हो जाएँगे। वे अपने उचित स्थान पर रहकर अपने कर्तव्य पूरे करने में सक्षम नहीं हैं, और वे इस स्थिति से संतुष्ट नहीं हो सकते। वे बस एक परिणाम चाहते हैं, वे चाहते हैं कि परमेश्वर उन्हें स्पष्ट भाषा में वक्तव्य देकर बताए और उन्हें सटीक रूप से यह जानने में सक्षम बनाए कि वे जो भी चीजें चाहते हैं वे सभी उन्हें प्राप्त हो सकती हैं या नहीं? अगर वे इस वक्तव्य के लिए बहुत लंबे समय से व्यर्थ ही प्रतीक्षा कर रहे हैं तो वे अपने मन में एक और हिसाब लगाएँगे। कौन-सा हिसाब? वे हिसाब लगाएँगे कि कौन उन्हें खुशी दे सकता है, कौन उन्हें वे चीजें दे सकता है जो वे चाहते हैं, और अगर वे आने वाली दुनिया में वो चीजें नहीं पा सकते हैं, तो उन्हें इस जीवन में ही वह सब कुछ मिलना चाहिए जो वे चाहते हैं। अगर यह दुनिया और मानवजाति उन्हें इस जीवन में आशीष, आराम, देह-सुख, प्रतिष्ठा और रुतबा दे सकती है, तो वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर को त्याग देंगे, और अपना अच्छा जीवन जिएँगे। ये मसीह-विरोधियों के हिसाब हैं। सांसारिक सुख और संभावनाओं के पीछे भागने के लिए वे परमेश्वर के घर में किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, अपने कर्तव्य त्याग सकते हैं और अपना मौजूदा काम छोड़ सकते हैं। कुछ लोग सांसारिक लाभ और संभावनाएँ प्राप्त करने के लिए भाई-बहनों से विश्वासघात भी कर सकते हैं, परमेश्वर के घर के हितों का सौदा कर सकते हैं और परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। इसलिए, चाहे मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य निर्वहन में कितने भी उत्कृष्ट क्यों न दिखें, चाहे वे कितने ही प्रतिस्पर्धी क्यों न हों, वे सभी अपने कर्तव्यों को छोड़ सकते हैं, किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और परमेश्वर के घर को छोड़ सकते हैं। वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, यहूदा बनकर परमेश्वर के घर का सौदा कर सकते हैं। अगर मसीह-विरोधी अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तो वे निश्चित रूप से इसे सौदेबाजी के साधन के तौर पर इस्तेमाल करेंगे। वे निश्चित रूप से थोड़े ही समय में आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा पूरी करने का प्रयास करेंगे—कम से कम पहले रुतबे के लाभों की अपनी इच्छा को पूरा करने और दूसरों की प्रशंसा प्राप्त करने की कोशिश करेंगे, और फिर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और अपना इनाम पाने का प्रयास करेंगे। अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए उनकी समय सीमा तीन साल हो सकती है, या यह पाँच साल और यहाँ तक कि दस या बीस साल भी हो सकती है। यही वह समय है जो वे परमेश्वर को देते हैं, और यह सबसे लंबा समय है जो वे अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए खुद को देते हैं। जब यह समय सीमा समाप्त हो जाती है, तो उनका धीरज भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। हालाँकि वे आशीष, एक सुंदर मंजिल, एक मुकुट और इनाम पाने की अपनी इच्छा के लिए थोड़ी रियायतें दे सकते हैं, कठिनाई झेल सकते हैं और परमेश्वर के घर में कीमत चुका सकते हैं, लेकिन समय बीतने के बावजूद वे कभी भी अपनी संभावनाओं और सौभाग्य, या अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को भूल या छोड़ नहीं पाएँगे, और समय बीतने के साथ ये चीजें न तो बदलेंगी या न ही कमजोर होंगी। इसलिए, मसीह-विरोधियों के इस सार को देखा जाए तो वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और अवसरवादी हैं, जो सकारात्मक चीजों को नापसंद करते हैं और केवल नकारात्मक चीजों से प्यार करते हैं; वे नीच लोगों का एक समूह हैं जो परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने के लिए रास्ता बनाना चाहते हैं, ये लोग बेशर्म हैं।
अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों के मुख्य इरादों और रवैयों में से एक है परमेश्वर के साथ लेन-देन करने और अपने इच्छित लाभ प्राप्त करने के अवसर के रूप में इसका इस्तेमाल करना। वे यह भी मानते हैं : “जब लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवारों और अपनी सांसारिक संभावनाओं को त्याग देते हैं, तो यह कहने की जरूरत नहीं है कि बदले में उन्हें कुछ हासिल होना चाहिए, कुछ प्राप्त करना चाहिए, केवल यही उचित और न्यायसंगत है। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के बदले में कुछ भी प्राप्त नहीं करते हो तो, भले ही तुम्हें कुछ सत्य प्राप्त हो जाएँ, कर्तव्य निभाने की कोई अहमियत नहीं है। स्वभाव में बदलाव भी ऐसा मूर्त लाभ नहीं है—भले ही तुम्हें उद्धार प्राप्त हो गया हो, कोई भी इसे नहीं देख पाएगा!” ये छद्म-विश्वासी मानवजाति के लिए परमेश्वर की किसी भी अपेक्षा को अनदेखा कर देते हैं। वे इसे नहीं स्वीकारते या इस पर विश्वास नहीं करते हैं, और वे नकार देने का रवैया अपनाते हैं। अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैयों और इरादों को देखा जाए तो वे साफ तौर पर सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि वे छद्म-विश्वासी और अवसरवादी हैं; वे शैतान के हैं। क्या तुम लोगों ने सुना है कि शैतान निष्ठापूर्वक कोई कर्तव्य निभा सकता है? (नहीं।) अगर शैतान परमेश्वर के सामने अपना “कर्तव्य” निभा सकता है, तो यह कर्तव्य उद्धरण चिह्नों में लिखा जाना चाहिए, क्योंकि शैतान इसे निष्क्रिय रूप से और मजबूरी में कर रहा है, शैतान परमेश्वर के हाथों में खेल रहा है, और परमेश्वर उसका लाभ उठा रहा है। इसलिए, अपने मसीह-विरोधी सार के कारण, और क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सत्य से विमुख हैं, और इससे भी अधिक, अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण मसीह-विरोधी सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को बिना शर्त या बिना प्रतिफल के नहीं निभा सकते, ना ही वे अपने कर्तव्यों को निभाते हुए सत्य का अनुसरण कर सकते हैं या सत्य प्राप्त कर सकते हैं या परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार काम कर सकते हैं। अपनी इस प्रकृति के कारण, मसीह-विरोधियों का अपने कर्तव्यों के प्रति रवैया और अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, अपने कर्तव्यों के प्रति उनका व्यवहार उपेक्षापूर्ण हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान वे कुकर्म कर सकते हैं और किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर के घर के कार्य में विघ्न-बाधा डालने और गड़बड़ी करने का काम कर सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान उनकी मुख्य और प्रमुख अभिव्यक्ति क्या है? यह स्वेच्छा से और मनमाने ढंग से काम करना, खुद ही कानून बन जाना है, और दूसरों से परामर्श किए बिना काम करना है। वे परिणामों पर विचार किए बिना अपनी मर्जी से काम करते हैं। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि वे कैसे आगे बढ़ सकते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हुए अधिक लोगों को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं। वे केवल परमेश्वर को यह दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने अपने कर्तव्यों को निभाने में कठिनाई झेली है और कीमत चुकाई है, उनके पास पूँजी है और वे परमेश्वर से इनाम और मुकुट माँगने के हकदार हैं, ताकि वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी कर सकें और आशीष पाने के अपने लक्ष्य को हासिल कर सकें।
अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान, मसीह-विरोधी लगातार अपनी संभावनाओं और भाग्य का हिसाब लगाते रहते हैं : वे कितने वर्षों से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, उन्होंने कितनी कठिनाइयाँ झेली हैं, परमेश्वर के लिए कितना त्याग किया है, कितनी कीमत चुकाई है, अपनी कितनी ऊर्जा खर्च की है, अपनी जवानी के कितने वर्ष त्याग दिए हैं, और क्या अब उनके पास इनाम और मुकुट पाने का अधिकार है; क्या उन्होंने अपने कर्तव्य निभाते हुए इन कुछ वर्षों में पर्याप्त पूँजी जमा की है, क्या वे परमेश्वर की नजरों में उसके पसंदीदा व्यक्ति हैं, और क्या वे ऐसे व्यक्ति हैं जो परमेश्वर की नजरों में इनाम और मुकुट पा सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान वे लगातार इस तरह से आकलन करते रहते हैं, हिसाब लगाते रहते हैं और योजना बनाते रहते हैं, साथ ही, दूसरों के शब्दों और अभिव्यक्तियों पर ध्यान देते हैं और उनके बारे में भाई-बहनों के आकलनों और वक्तव्यों पर ध्यान देते हैं। बेशक, वे सबसे अधिक इस बात से चिंतित हैं कि क्या ऊपरवाला जानता है कि उनका अस्तित्व है, और वे अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं। वे इस बात से और भी अधिक चिंतित हैं कि ऊपरवाला उन्हें कैसे देखता है, उनके बारे में कैसे बात करता है और कैसे उनका मूल्यांकन करता है, क्या ऊपरवाला उनके कष्ट झेलने और कीमत चुकाने के “अच्छे इरादों” को समझता है, क्या ऊपरवाला साफ तौर पर जानता है कि परमेश्वर का अनुसरण करने के वर्षों में उन्होंने कितनी पीड़ा सही है और कितने कष्ट झेले हैं, और स्वर्ग में परमेश्वर उनके हर एक काम का कैसे न्याय करता है। अपने कर्तव्य करने में व्यस्त रहने के साथ-साथ उनका दिमाग लगातार हिसाब भी लगा रहा होता है, और वे कई स्रोतों से जानकारी प्राप्त करने और यह परखने की कोशिश करते हैं कि क्या वे आपदाओं से बच सकते हैं, परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं और उस अज्ञात मुकुट और आशीषों को प्राप्त कर सकते हैं। ये वे चीजें हैं जिनका वे अक्सर अपने दिलों की गहराई में हिसाब लगाते रहते हैं, यही वे सबसे प्राथमिक और मुख्य चीजें हैं जिनका वे हर दिन हर पल हिसाब लगाते हैं। हालाँकि, वे कभी भी इस बात पर विचार या चिंतन करने की कोशिश नहीं करते कि क्या वे स्वयं सत्य का अभ्यास करने वाले लोग हैं; वे कितना सत्य समझते हैं; वे जो सत्य समझते हैं उसमें से कितना वे वास्तव में अभ्यास कर सकते हैं; क्या उनके स्वभाव में कोई वास्तविक बदलाव आया है; परमेश्वर के लिए वे जो कुछ भी करते हैं उनमें थोड़ी-सी भी ईमानदारी है, या उनमें कोई मिलावट, लेन-देन या अनुरोध शामिल है; अपने कर्तव्यों को निभाने में उन्होंने कितनी भ्रष्टता प्रकट की है; वे प्रतिदिन जो भी कर्तव्य और कार्य करते हैं, क्या वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है; और क्या उनके कर्तव्यों का निर्वहन मानक के अनुरूप है और क्या वह परमेश्वर के इरादों को पूरा करता है। वे इन बातों पर कभी विचार नहीं करते या चिंतन-मनन करने की कोशिश नहीं करते। वे केवल यह हिसाब लगाते हैं कि क्या वे भविष्य में आशीष प्राप्त कर सकते हैं और उनकी मंजिल क्या है। वे केवल अपने हितों और अपने नफे-नुकसानों का ही हिसाब लगाते हैं, लेकिन कभी भी सत्य पर, स्वभाव में बदलाव पर या परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के तरीके पर कोई ऊर्जा खर्च नहीं करते या कोई प्रयास नहीं करते। मसीह-विरोधी कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव या अपने चुने गए गलत रास्तों पर विचार करने, उनके बारे में जानने या उनका गहन-विश्लेषण करने का अभ्यास नहीं करते, और कभी भी यह विचार नहीं करते कि अपने गलत परिप्रेक्ष्य को कैसे बदला जाए। वे कभी भी इस बात से घृणा नहीं करेंगे कि उन्होंने सत्य का उल्लंघन किया है और परमेश्वर का विरोध करने के लिए कई बुरे काम किए है, वे कभी भी खुद से घृणा नहीं करेंगे क्योंकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं, और कभी भी अपने चुने गए गलत रास्तों के लिए या विघ्न-बाधा डालने और गड़बड़ी करने वाले कामों के लिए पछतावा महसूस नहीं करेंगे। अपने कर्तव्य करने के दौरान, हर कीमत पर अपनी कमियाँ, कमजोरियाँ, नकारात्मकता, निष्क्रियता और भ्रष्ट स्वभाव छिपाने के साथ-साथ, वे खुद को प्रदर्शित करने की भरसक कोशिश करते हैं ताकि वे आगे निकल सकें; वे परमेश्वर और उसके चुने हुए लोगों को अपनी प्रतिभा, खूबियाँ और योग्यताएँ दिखाने के हर संभव तरीके के बारे में सोचते हैं। वे इसका इस्तेमाल खुद को सांत्वना देने और यह सोचने के लिए करते हैं कि उनके पास मुकुट और इनाम पाने के लिए पूँजी और आश्वासन है, और उन्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने की जरूरत नहीं है। इसलिए, मसीह विरोधियों का तर्क गलत है। चाहे सत्य पर कैसी भी संगति की जाए और चाहे वह कितनी भी स्पष्ट रूप से की जाए, वे अभी भी परमेश्वर के इरादेनहीं समझते या यह नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब है, और वह सही मार्ग कौन-सा है जो लोगों को अपनाना चाहिए। अपने दुष्ट स्वभाव के कारण, अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण, और ऐसे लोगों के स्वभाव सार के कारण, वे गहराई से यह अंतर नहीं कर पाते हैं कि सत्य क्या है और सकारात्मक चीजें क्या हैं, सही क्या है और गलत क्या है। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं पर दृढ़ता से अड़े रहते हैं, उन्हें सत्य मानते हैं, जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं, और सबसे सही उपक्रम मानते हैं। वे यह सत्य नहीं जानते कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलता है तो वह हमेशा परमेश्वर का शत्रु बना रहेगा, और वे नहीं जानते कि परमेश्वर किसी व्यक्ति को क्या आशीष देता है और परमेश्वर किसी व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है यह उसकी काबिलियत, खूबियों, प्रतिभा या पूँजी पर आधारित नहीं है, बल्कि इस बात पर आधारित है कि वह कितने सत्यों का अभ्यास करता है और कितना सत्य प्राप्त करता है, और क्या वह परमेश्वर का भय मानने वाला और बुराई से दूर रहने वाला व्यक्ति है। ये ऐसे सत्य हैं जिन्हें मसीह-विरोधी कभी नहीं समझ पाएँगे। मसीह-विरोधी इसे कभी नहीं देख पाएँगे, और यहीं पर वे सबसे बड़े मूर्ख हैं। शुरू से अंत तक, अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया रहता है? वे मानते हैं कि अपना कर्तव्य निभाना एक लेन-देन है, जो कोई भी अपने कर्तव्य में खुद को सबसे अधिक खपाता है, परमेश्वर के घर में सबसे बड़ा योगदान देता है और परमेश्वर के घर में सबसे अधिक वर्षों तक कष्ट सहता है, उसके पास अंत में आशीष और मुकुट प्राप्त करने की अधिक संभावना होगी। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है। क्या यह तर्क सही है? (नहीं।) क्या इस तरह के परिप्रेक्ष्य को पलटना आसान है? इसे पलटना आसान नहीं है। यह मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से तय होता है। अपने दिलों में मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य की खोज बिल्कुल नहीं करते और गलत रास्ता अपना लेते हैं, इसलिए परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के उनके परिप्रेक्ष्य को पलटना आसान नहीं है। आखिरकार, मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, वे छद्म-विश्वासी हैं, वे यहाँ बस अटकलें लगाने और आशीष प्राप्त करने के लिए आए हैं। छद्म-विश्वासियों का परमेश्वर में विश्वास करना ही अपने आप में अस्वीकार्य है, एक हास्यास्पद चीज है; यह कहना कि वे परमेश्वर के साथ लेन-देन करना चाहते हैं, परमेश्वर के लिए कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर आशीष प्राप्त करना चाहते हैं, और भी अधिक हास्यास्पद है।
मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष और मुकुट पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उन्होंने यह रास्ता इसलिए नहीं चुना क्योंकि किसी ने उन्हें मजबूर किया, ना ही इसलिए कि परमेश्वर के वचनों ने उन्हें किसी तरह से गुमराह किया। परमेश्वर ने मानवजाति को वादे दिए, लेकिन वादे देने के साथ-साथ उसने उन्हें बहुत सारे सत्य भी दिए और उनसे बहुत सारी अपेक्षाएँ भी रखीं, जिन्हें सामान्य लोगों को देखने में सक्षम होना चाहिए। सामान्य मानवता की समझ रखने वाले लोग क्या सोचते हैं? “इन आशीषों को प्राप्त करना आसान नहीं है, इसलिए मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए और सही मार्ग पर चलना चाहिए; मुझे पौलुस के मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। अगर लोग पौलुस के मार्ग पर चलते हैं, तो उनका किस्सा ही खत्म हो गया। जब लोग परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करते हैं, उन्हें स्वीकारते हैं और उनके प्रति समर्पण करते हैं, केवल तभी परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वादों, आशीषों, संभावनाओं और भाग्य का उनसे कोई लेना-देना होगा। अगर वे परमेश्वर के इन वचनों पर विश्वास नहीं करते हैं, इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं, और इनके प्रति समर्पण नहीं करते हैं, तो परमेश्वर द्वारा बोले गए इन सभी वादों और आशीषों का उनसे कोई लेना-देना नहीं होगा।” सामान्य मानवता की समझ रखने वाले लोग ऐसा ही सोचेंगे। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा क्यों नहीं सोचते? मसीह-विरोधी शैतान हैं, वे राक्षस हैं, और उनके पास सामान्य मानवता की समझ नहीं है—यह पहला कारण है। दूसरा, मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे परमेश्वर के मुख से बोले गए प्रत्येक वचन पर विश्वास नहीं करते, और सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकार नहीं करता और सकारात्मक चीजों से विमुख है, सत्य के अनुसार और सकारात्मक चीजों के अनुसार अभ्यास कर सकता है? (नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता।) यह भेड़िये को भेड़ की तरह घास खिलाने जैसा है—वे बुनियादी तौर पर ऐसा नहीं कर सकते। जब मांस उपलब्ध नहीं होता है और वे भूख से मरने वाले होते हैं, तो उन्हें थोड़ी घास खाने के लिए मजबूर किया जा सकता है, लेकिन जब खाने के लिए मांस उपलब्ध होता है, तो उनकी पहली पसंद निश्चित रूप से मांस खाना ही है; यह भेड़िये की प्रकृति से तय होता है। मसीह-विरोधी लोगों की प्रकृति ऐसी ही होती है। उनके हित उन्हें कुछ अच्छे व्यवहार दिखाने, एक निश्चित कीमत चुकाने और कुछ अच्छी अभिव्यक्तियाँ दिखाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन वे इन लाभों का अनुसरण और उनकी इच्छा कभी नहीं छोड़ सकते। उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्य को करने के दौरान वे निजी हितों के पीछे भागते हैं, और सोचते हैं कि अपने कर्तव्य निर्वहन को कैसे पूँजी में बदला जाए ताकि इससे अपने लिए आशीष प्राप्त कर सकें। एक बार जब यह उम्मीद टूट जाती है, और जब यह रक्षा पंक्ति ध्वस्त हो जाती है, तो वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में अपना कर्तव्य छोड़ सकते हैं। जब वह समय आएगा, और तुम उनसे कहोगे कि अपना कर्तव्य निभाना कितना अच्छा, कितना कुदरती और उचित है, क्या वे तब भी सुनेंगे? (नहीं, वे नहीं सुनेंगे।) जब कोई मसीह-विरोधी हार मानकर चले जाने का फैसला करता है, तो लोग उसे मनाने की कोशिश करते हैं : “तुम्हें रुक जाना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाना बहुत अच्छा है और दुनिया में वापस जाना बहुत कठिन है। तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा, तुम पर धौंस जमाई जाएगी और तुम्हें थका दिया जाएगा, तुम्हें सत्य हासिल नहीं होगा और तुम्हारे पास बचाए जाने का कोई अवसर नहीं होगा।” लोग यह सोच सकते हैं कि उसे सलाह देना ठीक है, लेकिन वह न केवल नहीं रुकेगा, बल्कि शर्मिंदगी में रोएगा भी। वह क्यों रोएगा? (उसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है।) यह सच है। और उसके साथ अन्याय कैसे हुआ? (उसे लगता है कि उसके हिसाब से उसके साथ अन्याय हुआ है क्योंकि उसने बहुत कष्ट झेले हैं और बहुत बड़ी कीमत चुकाई है लेकिन उसे वह नहीं मिला जो वह पाना चाहता था।) उसे लगता है कि उसे कुछ भी नहीं मिला है और वह शिकायतों से भरा होता है। परमेश्वर इतना महान कार्य करता है लेकिन इससे वह कभी भी प्रेरित नहीं हुआ, ना ही उसने इसके लिए कभी आँसू बहाए, लेकिन जब दूसरे उसे मनाने की कोशिश करते हैं, वह रोने लगता है। अगर उसे लगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है, तो उसने ऐसा क्यों नहीं कहा? क्या इसे स्पष्ट रूप से कहने से चीजें ठीक नहीं हो जातीं? वह किस बात के लिए रो रहा है? सीधे-सीधे क्यों नहीं बोलता? क्योंकि उसके विचार इतने बेतुके हैं कि उसे भी उनके बारे में बात करने में शर्म आती है। शुरू में, उसने परमेश्वर से ऐसी शपथ ली थी जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को हिला दिया था, और अब क्या हुआ? “मुझे अपनी करनी पर पछतावा है; मैं इतना मूर्ख कैसे हो सकता हूँ? अगर मुझे पता होता कि बात यहाँ तक पहुँच जाएगी, तो मैंने अतीत में जैसा व्यवहार किया वैसा व्यवहार नहीं करता! तब मुझे कुछ भी समझ नहीं आया था। उन्होंने कहा कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है, इसलिए मैंने उस पर विश्वास किया। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने अपने परिवार और अपनी नौकरी तक को त्याग दिया। मैंने बहुत सहा, मुझ पर अत्याचार किया गया, और मुझे गिरफ्तार किया गया, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अपने कर्तव्य को निभाने से मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ।” उसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है और वह दुखी होता है, और उसने जो कुछ भी किया है उस पर उसे पछतावा होता है। उसे लगता है कि इसके कोई मायने नहीं हैं और वह सोचता है कि उसे धोखा दिया गया है और उसकी आँखों में धूल झोंकी गई है। तुम लोग क्या कहोगे कि इस तरह के व्यक्ति के बारे में क्या किया जाना चाहिए? (उसे जल्द से जल्द छोड़कर चले जाने देना चाहिए।) क्या तुम अभी भी उसे मनाने की कोशिश करोगे? (नहीं।) अगर तुम उसे मनाने की कोशिश करते रहोगे, तो वह झल्ला जाएगा और फर्श पर लोटने लगेगा। तुम्हें ऐसे लोगों को मनाने की कोशिश बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए।
परमेश्वर का घर कनान की उत्तम भूमि है। यह एक निर्मल भूमि है। लोग परमेश्वर के घर आते हैं और परमेश्वर से आने वाले वचनों के न्याय और काट-छाँट को ग्रहण करते हैं, और वे उसका पोषण, सहायता, मार्गदर्शन और आशीष प्राप्त करते हैं। परमेश्वर निजी तौर पर कार्य और चरवाही करता है, और भले ही लोगों को थोड़ी कीमत चुकानी पड़े और कुछ कष्ट सहना पड़े, लेकिन यह सार्थक है। इस बुरी दुनिया से खुद को मुक्त करने, अपने स्वभाव बदलने और बचाए जाने के लिए लोग जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक है। लेकिन मसीह-विरोधियों के लिए, अगर यह आशीष या इनाम प्राप्त करने के लिए नहीं है, अगर मुकुट और इनाम मौजूद नहीं हैं, तो ये सभी चीजें करने का कोई अर्थ नहीं है—ये सभी मूर्खतापूर्ण क्रियाकलाप हैं, और ये आँखों में धूल झोंकने की अभिव्यक्तियाँ हैं। चाहे उन्होंने पहले कितना भी बड़ा संकल्प या कितनी भी उदात्त शपथ ली हो, यह सब ऐसे ही छोड़ दिया जा सकता है और इसकी कोई गिनती नहीं होगी। अगर वे इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हुए कष्ट झेलते हैं और कीमत चुकाते हैं, और अंत में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता है, तो उनके लिए इस “मुसीबत भरी जगह” से जल्द से जल्द भाग जाना ही बेहतर होगा। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के लिए खुद को खपाने, कष्ट सहने और अपना कर्तव्य निभाते हुए कीमत चुकाने को ऐसी चीजें मानते हैं, जिन्हें करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है, और वे इन चीजों को पूँजी प्राप्त करने के लिए, मुकुट और इनाम के बदले में सौदेबाजी करने का साधन मानते हैं। यह शुरुआती बिंदु ही अपने आप में गलत है, तो अंतिम नतीजा क्या होगा? कुछ लोगों के लिए, उनका कर्तव्य निर्वहन धीरे-धीरे छूट जाता है और वे अंत तक मेहनत नहीं कर सकते। साथ ही, अपने प्रकृति सार के कारण, ऐसे लोग अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान लगातार सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, लापरवाह और मनमाने ढंग से काम करते हैं, और केवल विघ्न-बाधा डालने और गड़बड़ी पैदा करने वाले काम करते हैं। तो, उनके द्वारा किए गए कर्तव्य क्या बन जाते हैं? परमेश्वर की नजर में, वे अच्छे कर्म नहीं बल्कि बुरे कर्म हैं, और बुरे कर्मों का ढेर हैं। ऐसे नतीजों का एक मूल कारण होता है। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो सत्य या परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करता, उसके वचनों के अनुसार कार्य कर सकता है? वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं कर सकता। वह केवल खुद का दिखावा करने, सत्ता हथियाने, दूसरों को नियंत्रित करने, दूसरों के व्यवहार और विचारों को नियंत्रित करने और यहां तक कि लोगों से जुड़ी सभी चीजों को अपने उद्देश्यों के लिए नियंत्रित करने का हर अवसर खोजेगा। इसलिए, इनमें से कुछ लोगों को जो कई बुरे काम करते हैं निष्कासित कर दिया जाता है, और कुछ लोग जो अपेक्षाकृत विश्वासघाती होते हैं और खुद को छिपाने में माहिर होते हैं अभी भी परमेश्वर के घर में रहते हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है कि ये लोग परमेश्वर के घर में रहते हैं? इन लोगों ने साफ तौर पर कोई बुराई नहीं की है, और उनमें से कुछ तो अपनी जगह भी जानते हैं, वे अच्छे व्यवहार करने वाले और आज्ञाकारी हैं, उनसे जो भी कहा जाता है वे करते हैं, लेकिन जहाँ तक उनके सार का सवाल है, वे अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा नहीं पाते हैं। वे परमेश्वर के लिए खुद को नहीं खपाते, इसके बजाय आधे-अधूरे मन से काम करते हैं और समय बर्बाद करते हैं, यह मानते हुए कि अगर वे अंत तक कष्ट सहते रहे तो उनकी जीत होगी और वे कुछ हासिल करेंगे। वे किस तरह के लोग हैं? वे अवसरवादी लोग हैं, जो मूल रूप से सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। कुछ लोगों ने परमेश्वर के घर में कुछ बुरा किया है, लेकिन परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों के अनुसार, वे निकाले जाने या निष्कासित किये जाने के स्तर तक नहीं पहुँचे हैं, और वे अभी भी अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं। दरअसल, वे अपने अंतरमन में जानते हैं कि परमेश्वर के घर ने उन्हें नहीं निकाला है या निष्कासित नहीं किया है, इसका कारण यह नहीं है कि उसे उनके बारे में सही जानकारी नहीं है या वह उनकी वास्तविक स्थितियाँ नहीं जानता है, बल्कि इसके कई अन्य कारण हैं। इनमें से भी कई लोग जिन्हें निष्कासित नहीं किया गया है, मसीह-विरोधी हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? ऐसा इसलिए है क्योंकि इन लोगों के पास अब कोई अवसर नहीं है, फिर भी अपने प्रकृति सार के आधार पर, एक बार जब वे रुतबा और सत्ता हासिल कर लेते हैं तो वे फौरन बहुत सारी बुराइयाँ करने लगते हैं। इसके अलावा, भले ही इन लोगों को परमेश्वर के घर से निकाला नहीं गया हो, लेकिन जब उनके कर्तव्य निर्वहन की बात आती है तो आम तौर पर फायदे से अधिक नुकसान ही होते हैं। वे अक्सर कुछ बुरे काम करते हैं, ऐसे काम जिनसे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है। हालाँकि वे खुद यह जानते हैं, मगर कभी पछतावा महसूस नहीं करते, कभी नहीं सोचते कि उन्होंने गलत किया है, और कभी नहीं सोचते कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उन्हें कोई पछतावा नहीं है, और इसके बजाय उनके दिलों में किस तरह की स्थिति पैदा होती है? “जब तक परमेश्वर का घर मुझे निष्कासित नहीं करता, मैं यहाँ अपना समय पूरा होने तक बस यूँ ही समय काटता रहूँगा और आधे-अधूरे मन से काम करता रहूँगा। मैं सत्य का अनुसरण नहीं करूँगा, और अगर वे मुझसे कुछ करने के लिए कहते हैं तो मैं वही करूँगा जो कर सकता हूँ। अगर मैं खुश हूँ, तो थोड़ा ज्यादा करूँगा, और अगर मैं खुश नहीं हूँ, तो थोड़ा कम करूँगा। साथ ही, मुझे उन्हें रोकना होगा, कुछ नकारात्मकता और धारणाएँ फैलानी होंगी, कुछ आलोचनात्मक बातें फैलानी होंगी। जब समय आएगा, तो भले ही वे मुझे बाहर निकाल दें और मुझे कोई आशीष न मिले, मैं कुछ लोगों को बलि का बकरा बनाऊँगा और कुछ अन्य लोगों को अपने साथ नीचे लेकर जाऊँगा।” क्या ये बुरे लोग नहीं हैं? वे उन लोगों पर नजर रखते हैं जिनमें विवेक नहीं है, जो अक्सर कमजोर और नकारात्मक होते हैं, जिनमें बुरी मानवता होती है, जो सिद्धांतहीन होते हैं, जो अविश्वासी जैसे लगते हैं, और फिर वे इन लोगों को लुभाते हैं और परदे के पीछे से उनमें नकारात्मकता फैलाते हैं। क्या वे ऐसे क्रियाकलापों की प्रकृति जानते हैं? वे सब कुछ बहुत अच्छी तरह जानते हैं। फिर भी वे ऐसा काम कैसै कर सकते हैं? (उनकी प्रकृति को बदला नहीं जा सकता।) यह बात ऊपरी तौर पर स्पष्ट लगती है कि उनकी प्रकृति नहीं बदल सकती, लेकिन वास्तव में वे क्या सोचते हैं? (वे इसे सभी के लिए हार जाने वाली स्थिति बनाना चाहते हैं और परमेश्वर से बदला लेने के लिए दूसरों को भी अपने साथ नष्ट करना चाहते हैं।) उनके मन में ऐसी दुर्भावना रहती है। वे जानते हैं कि उनके दिन गिनती के हैं और देर-सवेर उन्हें निकाल ही दिया जाएगा। वे जानते हैं कि उन्होंने क्या किया है और उन्होंने जो भी किया है वे उसकी प्रकृति को जानते हैं, लेकिन न केवल वे पीछे नहीं हटते, पश्चात्ताप नहीं करते या अपनी बुराई नहीं त्यागते, इसके बजाय वे और अधिक बुरे लोगों को अपने साथ बुराई करने के लिए लुभाते हैं। वे नकारात्मकता भी फैलाते हैं और धारणाओं का प्रसार करते हैं, जिससे और अधिक लोग अपने कर्तव्य त्यागकर परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने लगते हैं। इसमें थोड़ा बदला लेने की प्रकृति है, और ऐसा करके वे कह रहे हैं : “मैं विश्वास रखना जारी नहीं रख सकता, और देर-सवेर मुझे परमेश्वर के घर से निकाल ही दिया जाएगा, इसलिए मैं तुम लोगों को चैन से रहने नहीं दूँगा, और परमेश्वर के घर को भी चैन से रहने नहीं दूँगा!” इससे पहले कि परमेश्वर का घर उनके बारे में कोई निर्णय ले, वे पहले हमला करते हैं। क्या ये बुरे लोगों के कर्म नहीं हैं? वे मानते हैं, “मुझे आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं है। तुम लोगों को वे चीजें मुझे बताने की जरूरत नहीं है जो मैंने पहले की हैं—मैं यह सब अच्छे से समझता हूँ। तुम लोगों को मुझे निष्कासित करने की जरूरत नहीं है; मैं खुद ही छोड़कर चला जाऊँगा।” वे यह भी मानते हैं कि ऐसा करना आत्म-जागरूकता और न्यायोचित है, यह एक बुद्धिमानी भरा कदम है। वे कहते हैं, “अगर तुम मुझे आशीष प्राप्त करने नहीं देते, और मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता है, तो न केवल मैं पश्चात्ताप नहीं करूँगा, बल्कि तुम्हें भी रोकूँगा, नकारात्मकता फैलाऊँगा, और तुम्हारी पीठ पीछे धारणाएँ और भ्रांतियाँ फैलाऊँगा। अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकता, तो यह मत सोचो कि दूसरे लोग आशीष प्राप्त करेंगे!” क्या ऐसे लोग दुर्भावनापूर्ण नहीं हैं? कुछ मसीह-विरोधी ऐसी बातें भी फैलाते हैं : “हमारे जैसे लोग परमेश्वर के घर में शोषण की वस्तु हैं; हम सभी बहुत मूर्ख हैं!” वे देखते हैं कि वे आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, इसलिए वे इन बातों को उन नकारात्मक, भ्रमित और विवेकहीन लोगों में फैलाने पर विशेष ध्यान देते हैं। क्या इसमें विघ्न-बाधा डालने की प्रकृति नहीं है? एक बार जब वे यह मान लेते हैं कि वे परमेश्वर के घर में दृढ़ नहीं रह सकते और उन्हें आशीष नहीं मिलेगा, और देर-सवेर उन्हें निकाल दिया जाएगा, तो वे यह रास्ता नहीं चुनते कि अपनी बुराई को त्याग दें और परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूल करके पश्चात्ताप करें, ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाएँ और अपनी पिछली गलतियों की भरपाई करें। इसके बजाय, वे परमेश्वर के घर में नकारात्मकता फैलाने, दूसरों के कर्तव्य निर्वहन में बाधा डालने, परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाने और उसे बाधित करने, और अधिक लोगों को उनकी तरह बुरा काम करने, नकारात्मक बनने और पीछे हटने, और अपना कर्तव्य निर्वहन त्यागने के लिए प्रेरित करने में दोगुना प्रयास करते हैं, जिससे उनका बदला लेने का लक्ष्य पूरा होता है। क्या बुरे लोग ऐसा ही नहीं करते हैं? क्या ऐसे लोगों के दिलों में अभी भी परमेश्वर है? (नहीं, उनके दिलों में परमेश्वर नहीं है।) उनके दिलों में स्वर्ग का एक अज्ञात परमेश्वर है, और वे उस परमेश्वर को, जिसे लोग पृथ्वी पर देख सकते हैं और जो लोगों के बीच काम करता है, एक इंसान मानते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसके विपरीत करते हैं। अपने दिलों में उन्होंने हमेशा से एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन अंत में, वे उन लोगों के अधीन हो जाते हैं जिन्हें वे परमेश्वर के रूप में पूजते हैं, इसलिए वे अपने हर काम में इन लोगों के प्रति समर्पण करते हैं। परमेश्वर पर इस तरह विश्वास करने का क्या मतलब है मानो वह इंसान हो? जब वे एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे मानते हैं कि यह अज्ञात परमेश्वर जिसे वे नहीं देख सकते, उन्हें आशीष दे सकता है और उसके पास उन्हें अगले युग में लेकर जाने और उन्हें इनाम और मुकुट देने की पर्याप्त क्षमता है। इससे पहले कि वे इसे समझें, वे पृथ्वी पर मौजूद व्यावहारिक परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं। चाहे वे इसे कैसे भी देखें, वह परमेश्वर जैसा नहीं लगता, इसलिए उन्हें इस परमेश्वर पर विश्वास करना मुश्किल लगता है। अपने दिलों में, वे केवल यही मानते हैं कि स्वर्ग का परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है, और क्योंकि व्यावहारिक परमेश्वर जिसे वे देख सकते हैं वह बहुत ही महत्वहीन, बेहद सामान्य और बहुत ही ज्यादा व्यावहारिक है, उनके हिसाब से इस परमेश्वर के पास वह नहीं है जो उन्हें इस पर विश्वास दिला सके, और वे इस परमेश्वर को एक मनुष्य मानते हैं। जब वे परमेश्वर को एक मनुष्य मानते हैं, तो उनकी कठिनाइयाँ शुरू हो जाती हैं : “लोगों को सत्य और कुछ वादे देने के अलावा, यह व्यक्ति और क्या कर सकता है? चाहे मैं उसे किसी भी तरह से देखूँ, वह परमेश्वर जैसा नहीं है और वह लोगों को कोई लाभ या फायदा नहीं पहुँचा सकता है। वह केवल एक मनुष्य है; यह व्यक्ति क्या कर सकता है? अगर लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उनके पास अभी भी थोड़ी-सी आशा, थोड़ा-सा आध्यात्मिक पोषण है। लेकिन अगर वे किसी मनुष्य पर विश्वास करते हैं, तो यह मनुष्य लोगों को क्या फायदे और लाभ दे सकता है? क्या लोगों की आशाएँ और पोषण उसमें साकार हो सकते हैं? क्या वे बेकार हो जाएँगे? अगर वह मनुष्य है, तो उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे जो कहना चाहिए वह उसकी आंखों के सामने कहूँगा और जो करना चाहिए वह उसकी आंखों के सामने करूँगा।” बुरे लोग परमेश्वर से इसी तरह पेश आते हैं। जब उन्होंने उसे नहीं देखा होता है, तो कल्पना करते हैं कि परमेश्वर बहुत ऊँचा, बहुत पवित्र है, जिसका अपमान नहीं किया जा सकता, लेकिन जब वे परमेश्वर को धरती पर देखते हैं, तो उनकी कल्पनाएँ और उनकी धारणाएँ टिक नहीं पाती हैं। ऐसा होने पर वे क्या करेंगे? वे परमेश्वर को एक इंसान की तरह मानते हैं। फिर उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जो थोड़ा-बहुत सम्मान था, वह भी खत्म हो जाता है, उससे डरने या उसका भय मानने की तो बात ही क्या करनी। इन चीजों के बिना, बुरे लोग अधिक दुस्साहसी हो जाते हैं और उनके दिलों से सुरक्षा पंक्ति और सतर्कता गायब हो जाती है, और फिर वे कुछ भी करने की हिम्मत करेंगे। भले ही ऐसे लोग अंत तक विश्वास करते रहें, फिर भी वे परमेश्वर का विरोध करने वाले लोग ही रहेंगे।
मसीह-विरोधियों को स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखना आसान लगता है, लेकिन पृथ्वी के परमेश्वर में विश्वास रखना उनके लिए वास्तव में कठिन होता है। पौलुस इसका जीता जागता उदाहरण था। मसीह में उसके विश्वास का अंतिम नतीजा क्या रहा? मसीह में अपने विश्वास में उसने जिस लक्ष्य का पीछा किया, वह अंत में क्या बन गया? वह मसीह बनना चाहता था और मसीह की जगह लेना चाहता था। उसने पृथ्वी के परमेश्वर को नकार दिया और स्वर्ग के परमेश्वर से मुकुट और आशीष प्राप्त करना चाहता था। ये मसीह-विरोधी बिल्कुल पौलुस जैसे ही हैं। वे पृथ्वी के परमेश्वर को एक मनुष्य के रूप में देखते हैं, और स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर को मानते हैं जिसे उनके दिलों में सबसे महान परमेश्वर के रूप में नहीं देखा जा सकता, जिसे धोखा दिया जा सकता है, जिसके साथ मनमर्जी से खिलवाड़ किया जा सकता है, जिसकी वे अपनी इच्छानुसार व्याख्या कर सकते हैं और जिसे अपनी मर्जी से धारणाओं का विषय बनाया जा सकता है और जिसका विरोध किया जा सकता है। छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी लोग स्वर्ग के परमेश्वर और पृथ्वी के परमेश्वर के साथ जैसा व्यवहार करते हैं, उसमें यही अंतर है। ऐसा ठीक इसलिए होता है क्योंकि वे पृथ्वी के परमेश्वर के साथ इस तरह से पेश आते हैं कि वे अपने कर्तव्यों के प्रति अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न करते हैं। इन अभिव्यक्तियों में पृथ्वी के परमेश्वर को देखने पर अपने कर्तव्यों को करने में रुचि और इच्छा का कम होते जाना शामिल है। इससे उनमें परमेश्वर में विश्वास करने की रुचि खत्म हो जाती है और उनके मन में कुछ नकारात्मक विचार और अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए, सभी मसीह-विरोधी अंत में दृढ़ नहीं रह पाते; भले ही कलीसिया उन्हें बाहर न निकाले, वे अपनी मर्जी से चले जाएँगे। क्या तुम ऐसे किसी उदाहरण के बारे में जानते हो? (हाँ, मैं पहले एक मसीह-विरोधी से मिल चुका हूँ। वह विशेष रूप से दुराग्रही था। उसने सत्य का अनुसरण या सत्य का अभ्यास नहीं किया, और उसने अपना कर्तव्य अनमने और असंवेदनशील ढंग से निभाया। साथ ही, उसने अपने पेशे का अध्ययन करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं की, वह विशेष रूप से आलसी था और दिखावा करता था। हर दिन उसे केवल भोजन और कपड़ों की ही चिंता रहती थी, और वह व्यभिचार में लिप्त रहता था। जब उसे निष्कासित किया गया तो उसके मन में पश्चात्ताप करने का रत्ती भर भी इरादा नहीं था, बल्कि उसे लगा कि यह एक तरह की राहत है।) इस तरह के लोग कर्तव्य निभाने के अवसर को संजोते नहीं हैं, और अपने कर्तव्य का सम्मान करना या उसको महत्व देना तो बिल्कुल भी नहीं जानते, वे अनमने होते हैं और अपना समय बर्बाद करते हैं। क्या किसी ने उससे संगति की कि यह कर्तव्य निभाने का कोई तरीका नहीं है? (हाँ। मैंने भी उसके साथ संगति की थी, लेकिन वह सुन नहीं रहा था, उसका रवैया काफी अनमना था।) कोई और एक उदाहरण दो। (एक निर्देशक था जो लगातार अपना कर्तव्य अनमने ढंग से करता था; उसके द्वारा फिल्माई गई अधिकांश सामग्री उपयुक्त नहीं थी, वह विघ्न-बाधा और गड़बड़ी भी पैदा करता था। समूह “बी” में भेजे जाने के बाद, उसने अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया। वह पूरे दिन काम पर जाने और पैसा कमाने में व्यस्त रहता था, अविश्वासियों के साथ घूमता रहता था, और अंत में उसे निकाल दिया गया। वास्तव में, अगर कलीसिया ने उसे न निकाला होता, तब भी अपनी मर्जी से वापस चला जाता। उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और आखिरकार दृढ़ रहने में असमर्थ रहा।) इन मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार एक जैसा है, वे सत्य से विमुख हैं और सकारात्मक चीजों से विमुख हैं, वे अधार्मिकता के शौकीन हैं, और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत तीव्र हैं। वे अपने कर्तव्य को एक खेल की तरह और अनमने ढंग से निभाते हैं, और उनके व्यवहार की शैली विशेष रूप से अनुचित और असंयमित है। उनकी प्रकृति दुष्ट और क्रूर है। वे केवल आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के घर में आते हैं और कर्तव्य निभाते हैं, और अगर यह आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं होता तो वे परमेश्वर में विश्वास ही नहीं करते! इन लोगों और अविश्वासियों के बीच मूल रूप से कोई अंतर नहीं है, वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और अविश्वासी हैं; यही उनका सार है। अगर तुम उन्हें अविश्वासियों की तरह रहने नहीं देते हो, और उन्हें परमेश्वर में विश्वासियों के आसपास अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर करते हो तो उन्हें यह जीवन बहुत पीड़ादायक लगेगा और हर दिन उन्हें यातना जैसा लगेगा। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में भाई-बहनों के साथ अच्छे व्यवहार के साथ अपना कर्तव्य निभाना, अपने उचित स्थान पर रहना दिलचस्प नहीं है, और यह जीवन उतना स्वतंत्र और स्वच्छंद नहीं है जितना कि दुनिया में अविश्वासियों के साथ घूमना-फिरना है—उन्हें लगता है कि जीवन जीने का यह तरीका दिलचस्प है। इसलिए, उनका परमेश्वर के घर आना और अपना कर्तव्य निभाना ऐसा है जैसे उनके पास और कोई चारा ही नहीं बचा हो, यह आशीष प्राप्त करने के इरादे से प्रेरित होता है, और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने के लिए किया जाता है। उनके प्रकृति सार को देखें तो वे मूल रूप से सत्य या सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते हैं, उन चीजों पर विश्वास करना तो दूर की बात है जिन्हें परमेश्वर पूरा कर सकता है। वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और अवसरवादी हैं। वे अपना कर्तव्य निभाने नहीं आए हैं, बल्कि वे बुराई करने, गड़बड़ी पैदा करने और लेन-देन करने आए हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों को कुल मिलाकर देखा जाए तो परमेश्वर के घर में होने पर क्या ये लोग उसके कार्य के लिए उपयोगी होते हैं या हानिकारक? (हानिकारक।) क्या तुमने कभी किसी ऐसा व्यक्ति देखा है जिसमें मसीह-विरोधी सार हो, जो कुछ हद तक गुणवान और सक्षम हो, और जो कठिनाई या विघ्न-बाधा पैदा किए बिना परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने उचित स्थान पर रह सकता हो? मान लो कि तुम किसी मसीह-विरोधी से कहते हो, “तुम्हारे जैसे व्यक्ति के लिए, जिसने अतीत में कुछ बुरा किया है, यह निश्चित नहीं है कि भविष्य में तुम्हारे पास किसी प्रकार की संभावनाएँ या सौभाग्य होगा या नहीं। चूँकि तुममें थोड़े गुण हैं, इसलिए परमेश्वर के घर में सेवा करने में कड़ी मेहनत करो!” क्या वे इस बात की परवाह किए बिना सेवा करने के लिए तैयार होंगे कि उन्हें आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य झेलना पड़ेगा? बिल्कुल नहीं। इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले लोग अपेक्षाकृत अच्छी मानवता वाले होते हैं, लेकिन क्या मसीह-विरोधियों में ऐसी मानवता होती है? (नहीं, उनमें नहीं होती।) उनका स्वभाव क्रूर है। वे सोचते हैं, “अगर तुम मुझे लाभ नहीं देते, कुछ वादे या प्रतिबद्धताएँ नहीं देते, तो मैं तुम्हारे लिए कड़ी मेहनत कैसे कर सकता हूँ? इस बारे में सोचो भी मत, कोई तरीका नहीं है!” यह एक क्रूर स्वभाव है। यह इस बात की व्यापक अभिव्यक्ति है कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य, परमेश्वर और परमेश्वर की अपेक्षाओं के साथ कैसे पेश आते हैं। क्या तुम लोग सोचते हो कि कोई मसीह-विरोधी है जो यह कहता है, “परमेश्वर ने मुझे ऊपर उठाया है और मुझे यह गुण दिया है, तो मैं खुद को परमेश्वर को समर्पित करूँगा”? (नहीं।) वे क्या कहेंगे? “तुम मेरा शोषण करना चाहते हो? तुम केवल मेरे गुणों और प्रतिभाओं का फायदा उठाते हो। अगर तुम मेरा फायदा उठाना चाहते हो तो तुम्हें मुझे भी कुछ फायदा देना होगा। अगर तुम मेरा शोषण करना चाहते हो तो ऐसा होने का कोई तरीका नहीं है!” वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर ही उन्हें ऊपर उठा रहा है, न ही वे यह मानते हैं कि यह परमेश्वर द्वारा दिया गया अवसर है जिसे उन्हें संजोना चाहिए, बल्कि वे मानते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है। मसीह-विरोधी यही मानते हैं। कुछ लोग शायद अस्थायी रूप से अज्ञानी होते हैं, वे विघ्न-बाधा और गड़बड़ी पैदा करते हैं, और कुछ बुरे काम करते हैं, फिर उन्हें आत्म-चिंतन करने के लिए अलग-थलग कर दिया जाता है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे कुछ समय के लिए चिंतन-मनन करते हैं और कहते हैं : “मुझे परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप करना चाहिए; मैं भविष्य में फिर से ऐसा नहीं कर सकता। मुझे समर्पण करना सीखना चाहिए, दूसरों के साथ सहयोग करना सीखना चाहिए, सत्य की खोज करना और परमेश्वर के वचन के अनुसार कार्य करना सीखना चाहिए, मुझे फिर से बुराई नहीं करनी चाहिए।” इसके बाद, कलीसिया उनके लिए कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करती है, और वे अश्रुपूरित नेत्रों से परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, अपने दिल की गहराई से इस अवसर को संजोते हैं जो परमेश्वर ने उन्हें दिया है। वे फिर से अपना कर्तव्य निभाने का अवसर पाकर सम्मानित महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें इसे संजोना चाहिए और इसे फिर से हाथ से नहीं जाने देना चाहिए, और वे पहले से बेहतर तरीके से अपना कर्तव्य निभाते हैं। उन्हें थोड़ा आत्म-ज्ञान है और उनमें कुछ बदलाव आए हैं। हालाँकि वे अभी भी कुछ अज्ञानतापूर्ण चीजें कर सकते हैं, अभी भी नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं, और कभी-कभी अपना काम छोड़ भी सकते हैं; उनकी समग्र मानसिकता और रवैये को देखा जाए तो वे पहले ही बदल चुके हैं। वे अपने पिछले क्रियाकलापों से घृणा करते हैं और इस मामले के बारे में थोड़ा ज्ञान रखते हैं। वे सत्य स्वीकार सकते हैं और कुछ हद तक विनम्र हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जब परमेश्वर का घर उन्हें वापस आकर अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति देता है तो वे मना नहीं करते, बहाने नहीं बनाते या प्रतिरोध नहीं करते, और वे निश्चित रूप से अप्रिय बातें नहीं कहते। इसके बजाय, वे सम्मानित महसूस करते हैं और मानते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें नहीं छोड़ा है, और वे सोचते हैं कि चूँकि उनके पास अभी भी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर है तो उन्हें इस अवसर को संजोना चाहिए। उनके रवैये में पहले ही बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। ऐसे ही लोगों को बचाया जा सकता है।
मसीह-विरोधियों और बचाए जा सकने वाले लोगों के बीच क्या फर्क है? जब मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे अंतिम फैसला खुद ही लेना चाहते हैं, वे सत्ता और लाभ के लिए प्रयास करेंगे और सिर्फ वही करेंगे जो उन्हें पसंद है। अगर उन्हें सत्ता या लाभ नहीं मिलता है तो वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। जब वे कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं और परमेश्वर के घर द्वारा बदले जाते हैं, अलग-थलग किए जाते हैं या हटा दिए जाते हैं, तो क्या वे वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? वे क्या कहते हैं? “तुम चाहते हो कि मैं पश्चात्ताप करूँ ताकि तुम मेरा शोषण कर सको? जब मैं उपयोगी होता हूँ तो तुम मुझे अपने साथ रखते हो और जब तुम्हें मेरी कोई आवश्यकता नहीं होती है तो मुझे लात मारकर भगा देते हो।” यह कौन-सा विकृत तर्क है? लात मारकर भगा देने का क्या अर्थ है? अगर उन्होंने बुरा कर्म नहीं किया होता तो क्या परमेश्वर का घर उनसे निपटता? अगर उन्होंने सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाया होता तो क्या परमेश्वर का घर उनसे मनमाने ढंग से निपटता? इन लोगों ने कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाया क्योंकि उन्होंने विघ्न-बाधा डाली, गड़बड़ी पैदा की और बुरे काम किए। परमेश्वर का घर उनसे निपटा, और वे न केवल इसे स्वीकारने या इस पर चिंतन-मनन करने और खुद को जानने की कोशिश करने से इनकार करते हैं, बल्कि वे गुस्से से भरे होते हैं। उन्हें लगता है कि वे अब लोकप्रिय नहीं हैं या सत्ता में नहीं हैं, उन्हें धमकाया जा रहा है और उनके साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है। जब उन्हें फिर से अपना कर्तव्य निभाने का अवसर दिया जाता है तो वे न केवल अपने दिलों में इसके लिए आभारी नहीं होते हैं और इस अवसर को संजोते नहीं हैं, बल्कि वे झूठे प्रत्यारोप भी लगाते हैं और कहते हैं कि परमेश्वर का घर उनका शोषण कर रहा है। परमेश्वर का घर उनके साथ जिस रवैये से पेश आया वे उस रवैये को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि लोग ही थे जो उन्हें धमका रहे थे, उन्हें लात मारकर भगा रहे थे, और उनके साथ बुरा बर्ताव कर रहे थे। उनके दिल शिकायतों से भरे होते हैं और वे फिर से अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। अपना कर्तव्य फिर से नहीं निभाने की इच्छा के पीछे उनका औचित्य यह है कि वे नहीं चाहते हैं कि उनका शोषण हो, और वे मानते हैं कि जो कोई भी अपना कर्तव्य निभाता है, परमेश्वर का घर उसका शोषण कर रहा है। यह कितना बेतुका और भ्रामक है! क्या इसमें एक भी ऐसा शब्द है जो सत्य, मानवता या तार्किकता के अनुरूप हो? (नहीं है।) इसलिए, मसीह-विरोधी सत्य स्वीकार नहीं करते, उनके दिल क्रोध से भरे हैं, क्रूरता से भरे हैं, शिकायतों से भरे हैं, लेन-देन से भरे हैं, और इससे भी बढ़कर, उनके दिल व्यक्तिगत इच्छाओं से भरे हैं। ये चीजें उनके दिलों में भर जाती हैं। वे परमेश्वर के घर द्वारा किसी भी तरह से निपटे जाने को याउनके लिए परमेश्वर द्वारा आयोजित किसी भी परिवेश को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं कर सकते। वे इन चीजों को केवल क्रोध से, दाँत के बदले दाँत और आँख के बदले आँख की भावना से ही स्वीकार सकते हैं। वे इन सभी चीजों को शैतान के तरीकों और शैतान के तर्क का उपयोग करके देखते हैं। इसलिए अंत में वे अभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं और केवल हटाए जा सकते हैं। बदले जाने और अपने कर्तव्यों में फेरबदल किए जाने या यहाँ तक कि अलग-थलग किए जाने या हटाए जाने पर, अलग-अलग लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ होती हैं। जो लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं वे अपने कर्मों से अत्यधिक घृणा करते हैं। जो मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते, वे न केवल अपने दिलों में इन चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते, बल्कि नफरत से भी भरे होते हैं। इसके क्या परिणाम होते हैं? यह उनमें शिकायतों, मिथ्यारोपण, आलोचना और निंदा को जन्म देता है। यह उन्हें परमेश्वर को नकारने और उसका तिरस्कार करने की ओर ले जाता है। यही उनके परिणाम का स्रोत है और यह उनके प्रकृति सार से तय होता है। मसीह-विरोधी सत्य समझने, चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं, इसलिए उनका परिणाम तय है। वे इस जीवन में परमेश्वर के घर से हटा दिए जाते हैं; आने वाले संसार में उनके साथ क्या होगा, इसका जिक्र करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्या तुम लोग इन मामलों की असलियत समझ सकते हो? अगर तुम लोग अपने आस-पास ऐसे लोगों को देखो तो क्या तुम मेरे इन वचनों की तुलना उनसे कर सकते हो? मसीह-विरोधियों की सबसे प्रमुख अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? सत्य पर विश्वास नहीं करना, सत्य स्वीकार नहीं करना, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करना, किसी भी चीज को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं कर पाना, और अपनी गलतियाँ नहीं स्वीकारना या चाहे वे कितने भी बुरे काम क्यों न करें, पश्चात्ताप नहीं करना। यह तय करता है कि ये लोग शैतान के हैं और वे विनाश के लक्ष्य हैं।
तुम लोगों को खुद की तुलना मसीह-विरोधियों के विभिन्न खुलासों, अभिव्यक्तियों और उन अभ्यासों से करनी चाहिए जिन्हें मैंने उजागर किया है; अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान, तुम लोग निस्संदेह इनमें से कुछ अभिव्यक्तियों, खुलासों और अभ्यासों को प्रदर्शित करोगे, लेकिन तुम लोग मसीह-विरोधियों से किस तरह अलग हो? क्या तुम लोग खुद पर आई मुसीबतों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) खुद पर आई मुसीबतों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर पाना सबसे दुर्लभ चीज है। अगर तुम लोग गलत रास्ते पर चलते हो, कुछ गलत करते हो, अज्ञानतापूर्ण काम करते हो या अपराध करते हो तो क्या तुम खुद को बदल सकते हो? क्या तुम पश्चात्ताप कर सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने में सक्षम होना सबसे कीमती और दुर्लभ चीज है। लेकिन मसीह-विरोधियों में बिल्कुल यही कमी होती है। जिन लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा उनके पास ही यह चीज होती है। तुम्हारे पास जो होनी चाहिए उनमें सबसे महत्वपूर्ण चीजें कौन-सी हैं? सबसे पहले यह विश्वास करना कि परमेश्वर सत्य है; यह सबसे बुनियादी चीज है। क्या तुम लोग ऐसा कर सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) मसीह-विरोधियों के पास यह सबसे बुनियादी चीज नहीं होती। दूसरी चीज यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर का वचन सत्य है; इसे भी सबसे बुनियादी चीज माना जा सकता है। तीसरी चीज परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना है। मसीह-विरोधियों के लिए यह चीज बिल्कुल अप्राप्य है, लेकिन यहीं से चीजें तुम लोगों के लिए मुश्किल होने लगती हैं। चौथी चीज है बिना विवाद किए, बिना खुद को सही ठहराए, बिना तर्क दिए या बिना शिकायत किए सभी चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार करना। मसीह-विरोधियों के लिए यह बिल्कुल नामुमकिन है। पाँचवीं चीज है विद्रोह करने या अपराध करने के बाद पश्चात्ताप करना। इसे हासिल करना तुम लोगों के लिए मुश्किल होगा। यह तब होता है जब अपराध करने के बाद लोग चिंतन-मनन और खोज, उदासी, नकारात्मकता और कमजोरी के दौर से गुजरकर धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करते हैं। बेशक इसमें समय लगता है। यह एक या दो साल या उससे अधिक भी हो सकता है। कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से समझने और दिल से समर्पण करने के बाद ही सच्चा पश्चात्ताप कर सकता है। भले ही यह आसान नहीं है, लेकिन आखिरकार पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ उन लोगों में देखी जा सकती हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों के पास यह नहीं होता है। जरा इस बारे में सोचो, अपने पिछले तीन या पाँच साल या यहाँ तक कि 10 या 20 साल का ऐसा क्या है जिसे मसीह-विरोधी कुछ बुरा करने के बाद नहीं कुरेदता? चाहे कितना भी समय बीत गया हो, जब तुम उनसे दोबारा मिलते हो तो वे अभी भी अपने उन तर्कों के बारे में बात करते हैं। वे अभी भी अपने बुरे कर्मों को नहीं पहचानते या उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं, और रत्ती भर भी पछतावा नहीं दिखाते हैं। यही मसीह-विरोधियों और साधारण भ्रष्ट लोगों के बीच का फर्क है। मसीह-विरोधी पछतावा क्यों नहीं दिखा सकते हैं? इसका मूल कारण क्या है? वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, जिसके कारण वे सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। यह निराशाजनक है और यह मसीह-विरोधियों के सार से तय होता है। तुम लोग मुझे मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण करते हुए सुनकर सोचते हो : “मेरा खेल खत्म हो गया। मुझमें भी मसीह-विरोधी का स्वभाव है—क्या मैं भी मसीह-विरोधी नहीं हूँ?” क्या यह विवेक की कमी नहीं है? यह सच है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन तुममें और मसीह-विरोधियों में यह फर्क है कि तुममें अभी भी सकारात्मक चीजें हैं। तुम सत्य स्वीकार सकते हो, अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप कर सकते हो और बदल सकते हो, और ये सकारात्मक चीजें तुम्हें मसीह-विरोधियों का स्वभाव त्यागने में सक्षम बना सकती हैं; तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ करने और तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बना सकती हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास उम्मीद है? तुम्हारे लिए अभी भी आशा है!
तुम लोगों को अनुभवजन्य गवाही के लेख लिखना बहुत मुश्किल लगता है और तुम उन्हें लिख नहीं सकते। कुछ लोग कई वर्षों के अनुभव के बाद गवाही का केवल एक लेख लिख पाते हैं। कुछ लोग 10 या 20 वर्ष विश्वास करने के बाद ही लेख लिखते हैं, और वे इन वर्षों के अनुभवों का सार संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। कुछ लोग 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, फिर भी उनके पास कोई सच्चा अनुभवजन्य ज्ञान नहीं है। मूल बात यह है कि वे सत्य नहीं समझते हैं। तो, तुम लोगों के सत्य नहीं समझने की इस वर्तमान स्थिति का सामना करने पर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे तुम लोगों से और अधिक बात करनी चाहिए, धैर्यपूर्वक और गंभीरता से बात करनी चाहिए, मुझे तुम लोगों से और अधिक बातचीत करनी चाहिए, और तुम लोगों को थोड़ा धीरज रखकर मेरी संगति को अधिक सुनना चाहिए। ध्यान देकर सुनो, विवेक प्राप्त करो, और सत्य के प्रत्येक पहलू का सार समझने का प्रयास करो। जैसा कि मैंने अभी कहा, अगर तुम समझ जाओ कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव रखने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, मसीह-विरोधियों का सार रखने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, और दोनों के बीच फर्क क्या है, तो तुम्हारे पास चलने के लिए एक रास्ता होगा, और साथ ही, तुम्हारे पास विवेक भी होगा। तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव और मसीह-विरोधियों के सार पहचानने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी मसीह-विरोधी से मिलो तो तुम तुरंत उसे पहचान पाओगे और उजागर कर पाओगे, उसके उतावलेपन और मनमाने ढ़ंग से किए जाने वाले क्रियाकलापों और अभ्यासों को तुरंत रोक पाओगे और सीमित कर पाओगे, और उसके बुरे कर्मों के कारण कलीसिया के कार्य को होने वाले नुकसान को रोक पाओगे या कम कर पाओगे। वरना, अगर तुम लोगों में समझने की क्षमता कम है और विवेक की कमी है या अगर तुम सत्य के मामले में सतर्कता नहीं बरतते हो और हमेशा बस धर्म-सिद्धांतों को समझते हो, और किसी व्यक्ति के सार को नहीं समझ पाते हो तो यह न केवल तुम्हें अपने आसपास मौजूद मसीह-विरोधियों को पहचानने में असमर्थ बना देगा, बल्कि तुम उन्हें अच्छे अगुआ मानकर उनका अनुसरण भी करने लगोगे। ध्यान से सोचो, ध्यान से विचार करो, क्या मसीह-विरोधी जो काम करते हैं उनसे परमेश्वर के घर को फायदा अधिक पहुँचता है या नुकसान अधिक होता है? ध्यान से विचार करने के बाद तुम देख सकते हो कि भले ही मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में काम करते हुए कुछ अच्छे कर्म करते हुए दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे फायदे की तुलना में नुकसान अधिक पहुँचाते हैं। नुकसान की कीमत पर इन फायदों का कोई अर्थ नहीं हैं। वास्तव में, उनके अच्छे कर्म और भी बड़े छिपे हुए खतरे लाते हैं, जिसने कलीसिया के काम को फायदे से अधिक नुकसान होता है। परमेश्वर के घर में इन लोगों की भूमिका शैतान के चाकरों की है।
25 अप्रैल 2020