मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों का सौदा तक कर देते हैं (भाग छह)
II. मसीह-विरोधियों के हित
पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की नौवीं मद के बारे में संगति की थी : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों का सौदा तक कर देते हैं। फिर हमने मसीह-विरोधियों के हितों को अनेक मदों में बाँटा। पहली मद है उनकी अपनी सुरक्षा, दूसरी मद है उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा, और तीसरी मद है लाभ। इन लाभों में क्या शामिल है? (पहला है परमेश्वर के घर की संपत्तियों का गबन करना, दूसरा है अपनी सेवा में और अपने लिए काम करवाने में भाई-बहनों का इस्तेमाल करना, और तीसरा है परमेश्वर में विश्वास करने की आड़ में धोखाधड़ी से भोजन, पेय पदार्थ और अन्य जरूरी चीजें हासिल करने के लिए अपने पद का उपयोग करना।) इन “अन्य चीजों” में विशेष व्यवहार, अपने निजी मामलों को संभालना, और कई ऐसी चीजें शामिल हैं, है ना? (हाँ।) क्या इस तरह से संगति करने, मुख्य विषयों को उप-विषयों में बाँटने, और उप-विषयों को संगति के लिए विभिन्न पहलुओं में बाँटने में तुम लोगों को कोई परेशानी लगती है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) वास्तव में, संगति जितनी ज्यादा इस तरह से की जाएगी, चीजें उतनी ही ज्यादा स्पष्ट होंगी। हमने मसीह-विरोधियों के हितों की तीन मदों पर संगति की है, मगर एक और हित है, जो सबसे महत्वपूर्ण है, मसीह-विरोधियों के हितों की चौथी मद—उनकी संभावनाएँ और नियति। संभावनाएँ और नियति शायद वे मुख्य उद्देश्य हैं जिनके लिए मसीह-विरोधी परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे उनके सबसे बड़े सपने हैं जो वे अपने दिलों में बसाए रखते हैं, और वे सबसे प्रमुख चीजें हैं जिनका वे अपने अंतरतम में अनुसरण करते हैं। तुम संभावनाओं और नियति के विषय से काफी हद तक परिचित ही होगे। इसका संबंध इस बात से है कि लोगों की मंजिल क्या है, लोग कहाँ जाएँगे, या भविष्य में या अगले युग में लोग किस ओर जा रहे हैं—संक्षेप में, उनके भविष्य की मंजिल। क्या यह परमेश्वर के प्रत्येक विश्वासी के दिल में बसी सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं है? (बिल्कुल है।) संभावनाएँ और नियति उन सभी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। और इसलिए, जाहिर है कि मसीह-विरोधियों के लिए, उनके हितों का सबसे अहम हिस्सा उनकी संभावनाएँ और नियति, यानी उनकी मंजिल ही होना चाहिए।
घ. उनकी संभावनाएँ और नियति
आओ, अब हम विभिन्न कोणों और पहलुओं से मसीह-विरोधियों के हितों से जुड़ी संभावनाओं और नियति पर भी संगति करें ताकि चीजें अपेक्षाकृत स्पष्ट हो जाएँ। मसीह-विरोधियों के विभिन्न हितों पर हमने पहले जो संगति की है उनमें भौतिक और अभौतिक दोनों तरह के हित शामिल हैं। उदाहरण के लिए, व्यक्ति की अपनी सुरक्षा, प्रतिष्ठा और रुतबा, ये सभी अभौतिक हित हैं; वे उनके आध्यात्मिक संसार में बस कुछ अमूर्त चीजें हैं। जबकि भौतिक हितों में संपत्तियाँ, भोजन और पेय पदार्थ, और साथ ही विशेष व्यवहार, भौतिक सुख वगैरह शामिल हैं। तो, आज की संगति के विषय—उनकी संभावनाओं और नियति—में क्या-क्या शामिल है? अगर हम मानवीय धारणाओं के परिप्रेक्ष्य से देखें तो ये चीजें मूर्त हैं या अमूर्त? (वे अमूर्त चीजें हैं।) इसलिए, वे ऐसी चीजें होंगी जो लोगों के आध्यात्मिक संसार में, उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में और उनके मन में मौजूद हैं। लोगों के लिए, ये चीजें एक तरह की आशा और पोषण हैं, और वे वही चीजें हैं जिनके पीछे भागते हुए वे अपना सारा जीवन लगा देते हैं। भले ही ये चीजें लोगों के लिए अदृश्य और अमूर्त हों, मगर वे लोगों के दिलों में एक प्रमुख स्थान रखती हैं, लोगों के पूरे जीवन पर हावी होती हैं, और उनके विचारों और क्रियाकलापों, उनके इरादों और साथ ही उनके अनुसरण की दिशा को नियंत्रित करती हैं। इसलिए, संभावनाएँ और नियति सभी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं! हालाँकि संभावनाएँ और नियति महत्वपूर्ण हैं, मगर मसीह-विरोधी इस तरह से उनका अनुसरण करते हैं जो सामान्य, साधारण लोगों से पूरी तरह अलग है। वास्तव में यह कैसे अलग है? कौन-से पहलू यह अंतर दर्शाते हैं, और लोगों को साफ तौर पर यह देखने और समझने में सक्षम बनाते हैं कि यह मसीह-विरोधी के अनुसरण करने का तरीका और मसीह-विरोधी की विशेषता है? क्या यह चर्चा और संगति के योग्य नहीं है? बेशक, कई लोगों की अभिव्यक्तियाँ कई मायनों में पक्के मसीह-विरोधियों और मसीह-विरोधियों के सार वाले लोगों के समान हैं। मगर उनकी अभिव्यक्तियाँ और स्वभाव एक जैसे होने पर भी उनके सार अलग होते हैं। आओ, हम विभिन्न पहलुओं से मसीह-विरोधियों के हितों की चौथी मद—उनकी संभावनाएँ और नियति—पर संगति करें।
हम संभावनाओं और नियति का गहन-विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? हम किस तरीके से और किन उदाहरणों का उपयोग करके यह गहन-विश्लेषण कर सकते हैं कि मसीह-विरोधियों के हितों में शामिल संभावनाएँ और नियति सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और वे मसीह-विरोधियों के सार के खुलासे हैं? किन पहलुओं से उनका गहन-विश्लेषण किया जा सकता है? इसके लिए सावधानीपूर्वक छानबीन करने की आवश्यकता है। आओ, हम इसे कई व्यापक श्रेणियों में बाँट देते हैं ताकि लोग मसीह-विरोधियों के सार को अधिक सटीक और स्पष्ट तरीके से समझ सकें। पहली श्रेणी है मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं; दूसरी है मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को कैसे लेते हैं; तीसरी है मसीह-विरोधी अपनी काट-छाँट को कैसे लेते हैं; चौथी है मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की भूमिका के साथ कैसे पेश आते हैं; और पाँचवीं है मसीह-विरोधी कलीसिया में अपने रुतबे को कैसे लेते हैं। ये पाँच श्रेणियाँ क्यों हैं? इसे समझने की कोशिश करो। क्या तुम लोगों को इनमें से प्रत्येक के बारे में कुछ भी समझ आया? क्या तुम कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों या स्वभावों का पता लगा सकते हो जो मसीह-विरोधियों से संबंधित हैं? इन पाँच श्रेणियों के आधार पर वास्तव में क्या गहन-विश्लेषण किया जाना चाहिए? इन श्रेणियों के संबंध में, मसीह-विरोधियों की मुख्य विशेषताएँ और उनके द्वारा प्रदर्शित प्रमुख स्वभाव क्या हैं, और सत्य का अनुसरण करने वाले सामान्य लोगों और साधारण भ्रष्ट लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? मसीह-विरोधियों और सामान्य भ्रष्ट लोगों के बीच क्या अंतर हैं? ये अंतर कहाँ हैं? उनके द्वारा चुने गए मार्गों में क्या अंतर है? उनकी अभिव्यक्तियों में क्या अंतर है? क्या तुम लोगों को इन श्रेणियों की कुछ समझ है? (इन पाँच श्रेणियों में, मसीह-विरोधी मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों में मौजूद सत्य के आधार पर चीजों को नहीं देखते। वे हमेशा कुछ चीजों के सतही स्वरूप या अपनी स्थिति का उपयोग, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर के इरादों का अनुमान लगाने के लिए करते हैं ताकि यह देख सकें कि क्या उनके पास कोई संभावनाएँ और नियति है। उदाहरण के लिए, जब उनके कर्तव्य की बात आती है, अगर वे सुर्खियों में आकर अपनी इच्छाएँ, अपना घमंड और गौरव संतुष्ट कर सकते हैं तो उन्हें लगेगा कि वे परमेश्वर के घर में उपयोगी लोग हैं, और मानो उनके पास संभावनाएँ और नियति है। जैसे ही उनकी काट-छाँट की जाएगी, वे सोचेंगे कि परमेश्वर उनसे नाराज है, परमेश्वर उनसे असंतुष्ट है, और वे परमेश्वर में विश्वास को लेकर हताश और निराश हो जाएँगे, और उनके भीतर नकारात्मकता और विरोध पैदा होगा।) यह सारांश कुछ रोशनी देता है और इस मामले में सत्य के बारे में थोड़ी जानकारी देता है। तुम लोगों ने जो कुछ कहा है उसके सामान्य अर्थ को देखें तो तुम्हें शायद इन पाँच श्रेणियों की बुनियादी समझ है। आगे, हम उन सभी पर एक-एक करके संगति करेंगे।
1. मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं
पहली श्रेणी है मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं। मसीह-विरोधी भी उन लोगों में से हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं; उनके हाथों में भी परमेश्वर के वचन होते हैं, वे धर्मोपदेश सुनते हैं, सभाओं में हिस्सा लेते हैं, और सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीते हैं। मसीह-विरोधियों के लिए, परमेश्वर के वचन पढ़ना भी उनके जीवन का एक हिस्सा है और वे अक्सर ऐसा करते हैं। भले ही मसीह-विरोधी और सत्य का अनुसरण करने वाले, दोनों ही तरह के लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, मगर मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करने वालों से अलग होते हैं; परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया पूरी तरह से अलग होता है। तो, मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं? सबसे पहले, वे परमेश्वर के वचनों पर शोध और विश्लेषण करते हैं, एक अजीब परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से उनका अध्ययन करते हैं। मैं इसे “अध्ययन करना” क्यों कहता हूँ? इस वस्तुनिष्ठ स्थिति के आधार पर, मसीह-विरोधियों को यह मानना पड़ता है कि ये परमेश्वर के वचन हैं, और वे अपने दिलों में यह भी महसूस करते हैं कि परमेश्वर के वचन इतने ऊँचे हैं कि साधारण लोग उन्हें व्यक्त ही नहीं कर सकते और न ही ये वचन कहीं और मिल सकते हैं। इस आधार पर, उनके पास यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं होता कि ये परमेश्वर के वचन हैं, मगर क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकारते हैं? वे ऐसा नहीं करते। तो फिर मसीह-विरोधी अभी भी परमेश्वर के वचन क्यों पढ़ते हैं? क्योंकि, परमेश्वर के वचनों में ऐसी चीजें हैं जिनकी उन्हें जरूरत है, ऐसी चीजें जिन्हें वे जानना चाहते हैं, और ऐसी चीजें हैं जो उन्हें उनके आध्यात्मिक संसारों में टिकाए रखती हैं। ये चीजें क्या हैं? बेशक, वे मसीह-विरोधियों की संभावनाओं और नियति से निकटता से जुड़ी हुई हैं। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं, तो वे लगातार मंजिलों, परिणामों, भविष्य में लोग कहाँ होंगे वगैरह से संबंधित वचनों की तलाश में रहते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचन पढ़ना “अध्ययन करना” कहलाता है, वे परमेश्वर के वचन पढ़ते समय उन पर शोध, विश्लेषण और आलोचनाएँ कर रहे होते हैं। वे पढ़ते समय उसके वचनों पर शोध करते हैं : “परमेश्वर के लहजे से, ऐसा प्रतीत होता है कि उसे इस तरह के लोग पसंद नहीं हैं। मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं उनमें से एक हूँ? मुझे पता लगाना चाहिए कि परमेश्वर इन लोगों को क्या मंजिल देता है।” जब वे परमेश्वर को ऐसे लोगों को अथाह कुंड में धकेलने की बात करते हुए देखते हैं तो मन-ही-मन सोचते हैं, “यह अच्छा नहीं है। अथाह कुंड में फेंके जाने का मतलब तो यही है ना कि मैं गया काम से? इस तरह के लोगों के पास कोई संभावनाएँ और कोई अच्छी मंजिल नहीं होती, तो फिर मुझे क्या करना चाहिए?” वे अपने दिलों में थोड़ी पीड़ा, असहजता और बेचैनी महसूस करते हैं। “क्या परमेश्वर ऐसे लोगों के साथ इसी तरह पेश आता है? नहीं, मैं हार नहीं मान सकता।” इसके साथ, वे परमेश्वर के वचनों की खोज करना जारी रखते हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों को यह कहते हुए देखते हैं, “मेरे पुत्रों, मैं तुम्हारे लिए यह काम करूँगा, वह काम करूँगा, और तुम्हारे साथ ऐसा होगा और वैसा होगा,” तो उन्हें अब बुरा नहीं लगता। “परमेश्वर के वचन मेरे दिल में जोश भर देते हैं, वे अद्भुत हैं। मैं उन ‘पुत्रों’ में से एक हूँ जिनके बारे में परमेश्वर बात करता है।” फिर, वे परमेश्वर के वचन में “पहलौठे पुत्रों” और “राजाओं जैसे शासन” का उल्लेख देखते हैं, और सोचते हैं, “बहुत बढ़िया! परमेश्वर में विश्वास करने के कई लाभ हैं और इनमें एक उज्ज्वल भविष्य है। मैंने सही मार्ग चुना है। मैंने सही दांव लगाया है। मुझे अपने विश्वास में मेहनती होना चाहिए और परमेश्वर का चोगा थामे रहना चाहिए। मुझे आखिरी क्षण में भी हार नहीं माननी चाहिए!” जैसे-जैसे वे पढ़ते जाते हैं, वे देखते हैं कि परमेश्वर के वचनों में उल्लेख है, “वह जो अंत तक अनुसरण करता है, उसे निश्चित ही बचाया जाएगा।” मसीह-विरोधियों के लिए, इसे पढ़ना जीवन रेखा पर पकड़ बनाने जैसा है। “मैं इन वचनों के अनुसार अभ्यास करूँगा। कभी भी और कहीं भी, और चाहे कुछ भी हो जाए, भले ही समुद्र सूख जाएँ और चट्टानें धूल में बदल जाएँ, भले ही नीले समुद्र हरे-भरे मैदान में बदल जाएँ, ये वचन नहीं बदलेंगे। भले ही स्वर्ग और पृथ्वी मिट जाएँ, ये वचन नहीं बदलेंगे। जब तक मैं इन वचनों का पालन करता रहूँगा, क्या मुझे अच्छा परिणाम, अच्छी मंजिल नहीं मिलेगी? क्या मेरी संभावनाएँ और नियति तय नहीं हो जाएँगी? बहुत बढ़िया! मुझे अंत तक अनुसरण करना चाहिए!” बार-बार खोज करके, इस तरह से शोध और विश्लेषण करके, वे आखिरकार परमेश्वर के वचनों में एक जीवन रेखा पाते हैं और सबसे बड़ा “रहस्य” खोज लेते हैं। वे खुशी से फूले नहीं समाते हैं, “आखिरकार, मुझे हटाए जाने की चिंता नहीं करनी होगी, आग और गंधक की झील में जाने की चिंता नहीं करनी होगी, नरक जाने की चिंता नहीं करनी होगी। आखिर मुझे मेरी मंजिल मिल ही गई, और आखिर मुझे स्वर्ग का मार्ग, मानवजाति की सुंदर मंजिल मिल ही गई—कितनी बढ़िया बात है!” मगर यह लंबे समय तक नहीं टिकता, और जब वे परमेश्वर के वचनों का अध्याय “गंतव्य के बारे में” पढ़ते हैं तो वे सोचते हैं : “ये वचन गंतव्यों के बारे में क्या कहते हैं? ऐसा लगता है कि परमेश्वर विभिन्न प्रकार के लोगों के गंतव्यों के बारे में बहुत विशिष्ट रूप से बात नहीं करता। परमेश्वर आखिर कहना क्या चाहता है? मुझे क्या करना चाहिए? मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए, मुझे पढ़ते रहना चाहिए।” फिर, जब वे परमेश्वर को यह कहते देखते हैं “अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो,” तो वे इसके बारे में थोड़ा और सोचते हैं। “अगर मैं एक अच्छी मंजिल पाना चाहता हूँ तो मुझे पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करने की जरूरत है। अब जब परमेश्वर ने शर्तें तय कर दी हैं तो इससे चीजें आसान हो गई हैं। मुझे निरर्थक प्रयासों में लगे रहने और व्यर्थ में मेहनत करने की कोई जरूरत नहीं है—अब मैं जानता हूँ कि मुझे कहाँ प्रयास करना है।” संगति से मसीह-विरोधी यह सीखते हैं कि अच्छे कर्म क्या हैं, वे एक “मार्ग” ढूँढ़ते हैं और समाधान निकालते हैं। “अभी पता चला कि यह इतना सरल है। दान और भेंट देना अच्छे कर्म हैं। सुसमाचार फैलाना और अधिक लोगों को प्राप्त करना अच्छे कर्म हैं। भाई-बहनों का सहयोग करना एक अच्छा कर्म है। जो चीजें मुझे मूल्यवान लगती हैं उन्हें त्याग देना एक अच्छा कर्म है। अपनी मंजिल के लिए, मैं सब कुछ दांव पर लगा दूँगा; मैं ये सब चीजें त्याग दूँगा!” मगर फिर वे सोचते हैं, “नहीं। अगर मैं अपना सारा पैसा और भौतिक संपत्ति त्याग दूँगा तो भविष्य में कैसे जिऊँगा? मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए ताकि पहले यह पता चल सके कि उसका कार्य कब समाप्त होगा और कब लोगों को पृथ्वी पर अपने जीवन में इन चीजों की जरूरत नहीं होगी। मुझे जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। लेकिन अगर मैं ये चीजें अर्पित नहीं करता तो मैं अच्छे कर्म कैसे तैयार कर सकूँगा? कुछ भाई-बहनों की मेजबानी करना और लोगों को प्राप्त करने के लिए सुसमाचार फैलाना आसान काम है। मैं ये चीजें हासिल कर सकता हूँ।” अच्छे कर्म तैयार करते समय, वे अपने दिलों में लगातार हिसाब लगाते रहते हैं कि उन्होंने कितने अच्छे कर्म तैयार किए हैं और उनकी अच्छी मंजिल तक पहुँचने की कितनी संभावना है। “मैंने इतने सारे अच्छे कर्म तैयार किए हैं, मगर परमेश्वर मुझे कोई संकल्प पत्र क्यों नहीं देता? परमेश्वर का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है तो मुझे क्या करना चाहिए? नहीं, मुझे देखना होगा कि संभावनाओं और नियति के बारे में परमेश्वर के वचन और क्या कहते हैं, उनमें और क्या विशिष्ट व्याख्याएँ हैं।” वे बार-बार परमेश्वर के वचनों की खोज करते रहते हैं। अगर उन्हें कुछ ऐसा मिलता है जिससे उनकी संभावनाओं और नियति को लाभ होता है तो वे खुश होते हैं; अगर उन्हें कुछ ऐसा मिल जाता है जिसका उनकी संभावनाओं और नियति से टकराव होता है तो उन्हें दुख होता है। इस तरह, बरसों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने के दौरान, वे बार-बार परमेश्वर के वचनों के कारण नकारात्मक और कमजोर महसूस करते हैं, और साथ ही बार-बार उसके वचनों के कारण सकारात्मक, खुश और बेहद आनंदित भी महसूस करते हैं। हालाँकि, चाहे उनमें कैसी भी दशाएँ या भावनाएँ उत्पन्न हों, वे अपनी मंजिल, संभावनाओं और नियति के प्रति अपने जुनून से नहीं बच सकते, और वे विभिन्न प्रकार के लोगों के परिणामों के निर्धारण और उनसे संबंधित कथनों के लिए परमेश्वर के वचनों की खोज जारी रखते हैं। संक्षेप में, वे अपना हर संभव प्रयास परमेश्वर के वचनों में झोंक देते हैं। चाहे वे परमेश्वर के वचन कैसे भी पढ़ें, वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों में सत्य, मार्ग और जीवन है। वे केवल इतना जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों में, वे अपनी मंजिल, मानवजाति की मंजिल पास सकते हैं, और नरक में जाने और अपनी मंजिल खोने से बचने का रास्ता पा सकते हैं। तो, इस तरह से कई सालों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, उन्होंने क्या हासिल किया है? वे बहुत-से सही धर्म-सिद्धांतों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हैं, मगर वे परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर का विरोध करने, उसके खिलाफ विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास नहीं करने और सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करने के अपने सार से बिल्कुल भी नहीं जोड़ सकते।
मसीह-विरोधी परमेश्वर के रहस्योद्घाटनों के लिए अक्सर उसके वचनों पर शोध और खोज करते हैं। वे नए शब्दों, नई चीजों और नए कथनों के लिए भी उसके वचनों पर खोज करते हैं, यहाँ तक कि वे कुछ ऐसे रहस्यों की खोज भी करते हैं जो किसी भी व्यक्ति, चाहे वह आध्यात्मिक हो या नहीं, के लिए अज्ञात हैं, जैसे कि अंजीर का पेड़ क्या है, 144,000 नर बच्चों का क्या अर्थ है, और विजेता क्या है, साथ ही प्रकाशितवाक्य की पुस्तक के कुछ कथनों और शब्दों की खोज भी करते हैं जिनके बारे में लोगों ने इतने सालों तक बिना समझे शोध किया है। वे इन चीजों पर विशेष रूप से कड़ी मेहनत करते हैं, वे लगातार यह खोज और शोध करते रहते हैं कि क्या इन वचनों में लोगों की मंजिलों के बारे में कोई कथन हैं, और क्या लोगों की मंजिलों के बारे में कोई स्पष्ट व्याख्याएँ हैं। लेकिन चाहे वे कितनी भी मेहनत करते दिखें, उनके प्रयास हमेशा व्यर्थ होते हैं। इसलिए, जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और कलीसिया में बहती धारा के साथ चलते हैं, वे हमेशा अपने दिलों की गहराई में बेचैनी महसूस करते हैं। वे अक्सर खुद से पूछते हैं : “क्या मैं आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? मेरी संभावनाएँ और नियति क्या हैं? क्या परमेश्वर के राज्य में मेरे लिए कोई स्थान होगा? जब मेरी मंजिल आएगी तो क्या मैं नीले आकाश को टकटकी लगाए देख रहा होऊँगा या ऐसी अंधेरी दुनिया में रहूँगा जहाँ अपना हाथ भी नहीं देख पाऊँगा? आखिर मेरी मंजिल क्या है?” वे जिस तरह अपने दिलों में खुद से ऐसे सवाल करते जाते हैं, उसी तरह वे अपने दिलों की गहराई में परमेश्वर से भी चुपचाप सवाल करते रहते हैं : “क्या मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने योग्य हूँ? क्या मैं नरक जाने से बच सकता हूँ? क्या मैं इस तरह से अनुसरण करके स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ? क्या मुझे भविष्य में आशीष मिल सकते हैं? क्या मैं आने वाले संसार में प्रवेश करूँगा? परमेश्वर का रवैया क्या है? परमेश्वर मुझे इस मामले पर सटीक और विशिष्ट कथन क्यों नहीं देता ताकि मुझे मन की शांति मिल सके? आखिर मेरा परिणाम क्या है?” क्या यह वही नहीं है जो मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते समय, बहती धारा के साथ चलते समय और आगे बढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होने पर अपने दिलों की गहराई में सोचते हैं? यही वह रवैया है जो अपनी संभावनाओं और नियति के प्रति उनके दिलों की गहराई रहता है : उनका मन लगातार इन चीजों से घिरा रहता है, वे बेतहाशा उन पर अपनी पकड़ बनाते हैं और उन्हें छोड़ने से इनकार करते हैं।
जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं तो उसमें कुछ ऐसा है जो उन्हें अपनी मंजिल खोजने और रहस्यों पर शोध करने से कहीं ज्यादा दिलचस्प लगता है; जैसे कि, देहधारी परमेश्वर पृथ्वी को छोड़कर कब जाएगा, कब वह अपनी सेवकाई समाप्त करेगा, कब उसका महान उद्यम पूरा होगा, कब उसका कार्य समाप्त होगा, कब उसका अनुसरण करने वाले लोग महान आशीष का आनंद लेंगे और उसके असली व्यक्तित्व को देखेंगे। वे परमेश्वर को पृथ्वी छोड़ते हुए देख पाएँगे या नहीं, यह भी उनकी सबसे बड़ी चिंता है। परमेश्वर की प्रबंधन योजना किस दिन सफलतापूर्वक पूरी होगी, इसके अलावा, वे इस बारे में ज्यादा चिंतित हैं कि मसीह पृथ्वी छोड़कर कब जाएगा, जब मसीह पृथ्वी छोड़ेगा तो यह कैसा दृश्य होगा, वे अभी कितने साल के हैं, क्या वे 10 या 20 साल बाद मसीह को पृथ्वी छोड़ते हुए देखने के लिए जिंदा रहेंगे, अगर वे इसे देख पाते हैं तो क्या होगा और अगर वे इसे नहीं देख पाते हैं तो क्या होगा; वे अपने मन में ऐसे हिसाब लगाते रहते हैं। कुछ लोग मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं 60 साल का हो चुका हूँ। अगर मैं 10 साल बाद भी जिंदा रहा तो मैं मसीह को पृथ्वी छोड़ते हुए देख पाऊँगा, लेकिन 10 साल में जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा और अगर मैं तब तक मर चुका होऊँगा तो परमेश्वर में मेरे विश्वास का क्या मतलब है? भले ही परमेश्वर ने मेरा इस युग में जन्म लेना निर्धारित किया है, अगर मैं परमेश्वर का अनुयायी होने के नाते ऐसी महान और बड़ी घटना देखने का मौका गँवा देता हूँ तो मुझे धन्य व्यक्ति नहीं माना जा सकता, और मुझे कोई महान आशीष नहीं मिलेगा!” ऐसे विचार उनमें दुख और असंतोष पैदा करते हैं। वे किस हद तक असंतुष्ट हैं? “मैं पहले ही इतना बूढ़ा हो गया हूँ; परमेश्वर ने अभी तक पृथ्वी क्यों नहीं छोड़ी है? परमेश्वर का कार्य अभी तक क्यों समाप्त नहीं हुआ है? हमारा सुसमाचार फैलाने का काम कब समाप्त होगा? परमेश्वर का कार्य जल्दी से समाप्त हो, परमेश्वर का महान उद्यम जल्दी पूरा हो, आपदाएँ तेजी से आएँ, और परमेश्वर जल्दी से शैतान को नष्ट करे और बुरे लोगों को दंड दे!” वे क्या कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर से अपनी मनमर्जी से काम करवाने की उम्मीद में अपनी व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर उससे माँगें नहीं कर रहे हैं? क्या उनकी इस इच्छा में उनके व्यक्तिगत हित शामिल नहीं हैं? अपने हितों के कारण, वे बेसब्री से यह आशा करते हैं कि परमेश्वर अपना महान उद्यम पूरा करे, आपदाएँ तेजी से उतरें, परमेश्वर जल्दी से बुरे लोगों को दंड दे और अच्छे लोगों को इनाम दे, और परमेश्वर अपनी महिमा प्राप्त करे। उनके दिलों में क्या मंशाएँ छिपी हैं? क्या वे परमेश्वर के इरादों पर विचार कर रहे हैं? (नहीं।) वे क्या कर रहे हैं? (वे आशीष पाने की आशा कर रहे हैं।) वे अपने हितों और मंजिलों की खातिर परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य को अपनी मंजिलों के इर्द-गिर्द घुमाना चाहते हैं। क्या यह नीचता और बेशर्मी नहीं है? सभी मामलों में, मसीह-विरोधी क्या सार प्रदर्शित करते हैं? वे अपने हितों को हर चीज से ऊपर रखते हैं और अपने हितों को सर्वोपरि होने देते हैं। यानी, वे किसी भी चीज को अपने हितों के रास्ते में नहीं आने देते, यहाँ तक कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना को भी नहीं। परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा, कब उसका महान उद्यम पूरा होगा, कब उसे महिमा मिलेगी, और कब वह मानवजाति को नष्ट कर देगा, यह सब उनके हितों और उनकी मंजिलों के इर्द-गिर्द घूमना चाहिए, यह सब उनकी मंजिलों से जुड़ा होना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो वे परमेश्वर को नकार देंगे, उसमें अपना विश्वास त्याग देंगे, और यहाँ तक कि उसे कोसेंगे भी।
मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं, इसकी एक प्राथमिक अभिव्यक्ति अध्ययन करना है। एक पक्का छद्म-विश्वासी परमेश्वर के वचन के प्रति यही रवैया अपनाता है। वह क्या अध्ययन करता है? वह सत्य का अध्ययन नहीं करता है, या यह अध्ययन नहीं करता है कि परमेश्वर मानवजाति से क्या अपेक्षा करता है, या उसके कौन-से वचन मानवजाति को उजागर करते हैं, या कौन-से वचन मानवजाति का न्याय करते हैं, और वह परमेश्वर के इरादों का अध्ययन तो बिल्कुल भी नहीं करता है, वह केवल अपनी संभावनाओं और नियति का अध्ययन करता है। चाहे वह परमेश्वर के वचन का कोई भी भाग पढ़े, अगर उसमें उसकी संभावनाओं और नियति से संबंधित वचन हैं—जिनकी उसे सबसे अधिक चिंता है—तो वह ऐसे भागों का ध्यान से अध्ययन करेगा और उन्हें जरूरी मानेगा। उदाहरण के लिए, जब मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के ऐसे वचनों को देखते हैं जो उनके जैसे लोगों को उजागर करते हैं और उनका गहन-विश्लेषण करते हैं, या उनके जैसे लोगों का चरित्र-चित्रण या उनके बारे में कथन देखते हैं, तो वे ऐसे वचनों का बड़ी मेहनत से अध्ययन करेंगे और उन्हें बार-बार पढ़ेंगे। वे क्या खोज रहे होते हैं? क्या वे यह देखना चाहते हैं कि परमेश्वर के इरादों को कैसे समझें और अभ्यास के सिद्धांतों को कैसे ढूँढ़ें? क्या वे यह देखना चाहते हैं कि वे परमेश्वर के वचनों से खुद को कैसे समझ सकते हैं? नहीं। वे वचनों में छिपे अर्थ को समझने की कोशिश करते हैं ताकि वे इन वचनों के पीछे स्पष्ट रूप से देख सकें कि परमेश्वर उनके जैसे लोगों के प्रति क्या रवैया रखता है, क्या परमेश्वर उनसे घृणा और नफरत करता है या क्या वह उन्हें बचाएगा। वे परमेश्वर के इन वचनों की विषय-वस्तु की ही नहीं, बल्कि उसके वचनों के लहजे और रवैये और उसके पीछे के विचारों की भी जाँच-पड़ताल करते हैं। एक बार जब वे परमेश्वर के वचनों के उन सभी हिस्सों को एक साथ ले आते हैं जो उनके जैसे लोगों की मंजिलों से संबंधित हैं, और उन्हें पता चलता है कि उनके प्रति परमेश्वर का रवैया उद्धार का नहीं, बल्कि तिरस्कार का है, तो परमेश्वर में विश्वास के प्रति उनका रवैया तुरंत 80 से 90 प्रतिशत तक घट जाएगा। उनके दिलों में तुरंत अविश्वास पैदा हो जाएगा, और उनका रवैया भी पूरी तरह से बदल जाएगा। इस बदलाव की हद क्या है? वे अब उन कर्तव्यों को नहीं करना चाहेंगे जिन्हें करने की योजना बनाई थी, या जो चीजें उन्होंने त्यागने की सोची थी उन्हें अब नहीं त्यागेंगे। भले ही वे पहले अपने परिवारों में सुसमाचार फैलाना चाहते थे, मगर वे अब ऐसा नहीं करेंगे—क्योंकि वे अब विश्वास नहीं करते, और उनके परिवारों के लोगों के विश्वास करने का भी कोई सवाल नहीं है। संक्षेप में, वे अपनी सभी मूल योजनाओं को नष्ट कर देंगे और त्याग देंगे। क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन के प्रति ऐसा ही रवैया नहीं अपनाते हैं? परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने का उनका उद्देश्य उसके इरादों को समझने और उसके प्रति वफादार बनने के लिए सत्य का अनुसरण करना और सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत खोजना नहीं है; बल्कि उनका उद्देश्य इस बारे में एक सटीक कथन खोजना है कि परमेश्वर उनके जैसे लोगों के लिए परिणाम और मंजिल कैसे निर्धारित करता है। जब उन्हें आशा की किरण दिखेगी, तो वे उसे अपने प्राणों की आहुति देकर भी थामे रखेंगे; इस आशा की किरण के लिए, वे सब कुछ त्यागने में सक्षम होंगे, और उनका रवैया पूरी तरह बदल जाएगा। मगर जब आशीष पाने की उनकी सारी उम्मीदें टूट जाती हैं तो उनका रवैया एक बार फिर से पूरी तरह बदल जाएगा, इस हद तक कि वे अपना विश्वास खो देंगे और विश्वासघाती बन जाएँगे, और यहाँ तक कि अपने दिलों में परमेश्वर को कोसेंगे। ये मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ हैं।
बेशक, परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते समय मसीह-विरोधी अपने व्यक्तिगत लाभों के लिए भी उनका इस्तेमाल करेंगे। कैसे लाभ? परमेश्वर के वचन पढ़ते समय, वे यह सारांशित करते हैं कि परमेश्वर के बोलने के नियम क्या हैं, लोगों की काट-छाँट करते समय उसका लहजा क्या होता है, मानवजाति को उजागर करते समय उसके बोलने का अंदाज क्या होता है, वह लोगों को कैसे सांत्वना और प्रोत्साहन देता है, वह कौन-से तरीके इस्तेमाल करता है और उसके पास क्या बुद्धिमत्ता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के बोलने और कार्य करने के तरीके सीखने और उसकी नकल करने में माहिर होते हैं; साथ ही, वे दूसरों से बात और संगति करने के लिए परमेश्वर द्वारा आम तौर पर बोले जाने वाले वचनों का भी इस्तेमाल करते हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं तो वे लगातार उनमें मौजूद विभिन्न सत्यों के वचनों से भी खुद को लैस करते हैं, उन्हें अपनी चीजों में बदलकर, परमेश्वर के इन वचनों का इस्तेमाल काम करने और पूँजी जमा करने के लिए करते हैं। यह पूँजी किससे संबंधित है? उदाहरण के लिए, उनका मानना है कि[क] किसी सभा में, जो कोई भी सही शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने में ज्यादा सक्षम होता है, जो कोई भी परमेश्वर के ज्यादा वचनों को याद रखता है, परमेश्वर के ज्यादा वचनों को उद्धृत करता है, और परमेश्वर के ज्यादा वचनों की व्याख्या करता है, वह कलीसिया में उद्धार पाने के लिए सबसे ज्यादा सक्षम व्यक्ति हो सकता है। मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी करें, यह उनकी संभावनाओं और नियति से जुड़ा होता है। वे कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य मानकर उनका अभ्यास नहीं करेंगे, ना ही वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने की खातिर कष्ट उठाएँगे या कीमत चुकाएँगे। बल्कि, वे परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने, अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने और अपने उद्धार के लिए पर्याप्त स्थितियाँ तैयार करने के लिए करते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं, इसका सार यह है कि वे कभी भी परमेश्वर के वचन को सत्य या ऐसा मार्ग नहीं मानते जिस पर लोगों चलना चाहिए। भले ही मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को कायम रखते हैं और हर रोज उन्हें पढ़ते हैं, और भले ही वे उसके वचनों के पाठ भी सुनते हैं, एक बात तो निश्चित है : वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते। जब भी उसके वचनों का अभ्यास करने का समय आता है, तो उनकी ईमानदारी गायब हो जाती है—वे केवल अपनी संभावनाओं और नियति के लिए षड्यंत्र रचते हैं। बाहर से, वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम करने और उनके लिए तरसने का दिखावा करते हैं। मगर वास्तव में, रोज परमेश्वर के वचन पढ़ने और उन्हें इकठ्ठा करने में, उनका लक्ष्य अपने उद्धार के लिए स्थितियाँ पैदा करना होता है; वे बदले में परमेश्वर पर अच्छी छाप छोड़ने की आशा में ऐसा करते हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच-पड़ताल करता है—वे बस इतना जानते हैं कि लोग केवल बाहरी स्वरूप को देखते हैं, इसलिए परमेश्वर भी केवल बाहरी स्वरूप को ही देखता होगा, और इसलिए इन मामलों में वे स्वांग और धोखा करते हैं, छल-कपट का सहारा लेते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे बस इन सबका दिखावा करना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं अपने दिल में क्या सोचता हूँ—लोग इसे नहीं देख सकते, और ना ही परमेश्वर यह देख सकता है। वास्तव में, मैं परमेश्वर के वचन चाहे जैसे भी पढ़ूँ, मैं यह कोई सच्चा सृजित प्राणी बनने के लिए नहीं कर रहा हूँ। अगर मेरी संभावनाएँ और नियति इसमें शामिल नहीं होतीं, तो मैं यह कठिनाई नहीं झेलता, ना ही मैं यह शिकायत सहता!” उनके मन में, परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी अच्छे क्यों न लगें, वे संभवतः साकार नहीं हो सकते, और लोग भी संभवतः उन्हें जी नहीं सकते। अगर मुट्ठी भर लोग परमेश्वर के वचन को थोड़ा-बहुत जी लेते हैं, तो वे भी अपने निजी उद्देश्यों के लिए ऐसा कर रहे होंगे। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, “मुफ्त की दावत जैसी कोई चीज नहीं होती है।” वे मन-ही-मन सोचते हैं, “हम परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए इतनी कठिनाइयाँ झेलते हैं, हर दिन उसके वचन पढ़ते और सुनते हैं, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीते हैं—यह सब किसलिए है? क्या यह केवल उस एक उद्देश्य के लिए नहीं है? हर कोई अपने दिल में अच्छी तरह जानता है कि यह सब उसकी संभावनाओं और नियति की खातिर है; ऐसा नहीं होता तो हम संसार का अनुसरण करने के अद्भुत समय को सिर्फ यहाँ कष्ट सहने के लिए क्यों छोड़ेंगे?” इस मामले में, उन्होंने किस तथ्य को नकार दिया है? यही कि परमेश्वर का वचन सत्य है, और सत्य लोगों को बचा सकता है, उन्हें बदल सकता है, और उनके भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने में उनकी मदद कर सकता है। क्या परमेश्वर के वचन लोगों में यह परिणाम नहीं ला सकते हैं? (बिल्कुल ला सकते हैं।) क्या मसीह-विरोधी इस तथ्य को स्वीकारते हैं? वे इसे नकारते हैं और कहते हैं : “हर कोई दावा करता है कि परमेश्वर का वचन लोगों को बचा सकता है, मगर इसने अब तक किसे बचाया है? किसने ऐसा होते देखा है? मैं इस पर विश्वास क्यों नहीं करता?” ऐसा क्यों कहा जाता है कि परमेश्वर का वचन लोगों को बचा सकता है, उन्हें बदल सकता है, और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त होने में उनकी मदद कर सकता है? क्योंकि परमेश्वर का वचन सत्य है, और यह लोगों का जीवन बन सकता है। जब लोग परमेश्वर के वचन को अपना जीवन बना लेते हैं तो उन्हें बचाया जा सकता है; वे बचाए जाने वाले लोगों में से एक होते हैं। मसीह-विरोधी यह तथ्य नहीं स्वीकारते। उनका मानना है कि लोग यहाँ तक बस इसलिए पहुँचे हैं क्योंकि वे आशीष और एक अच्छी मंजिल पाना चाहते हैं, और केवल इसलिए लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे परमेश्वर के वचन के फलों को नकारते हैं, वे लोगों में सत्य द्वारा प्राप्त नतीजों को नकारते हैं, और वे यह भी नकारते हैं कि सत्य लोगों को जीत सकता है, उन्हें बदल सकता है, और उन्हें बचा सकता है। वे मानते हैं कि लोग केवल अपनी संभावनाओं और नियति की चिंता में और उनकी खोज के लिए परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर का वचन लोगों को बदल सकता है, उन्हें परमेश्वर के प्रति वफादार बना सकता है, और बिना शर्त परमेश्वर के सामने समर्पण करने या परमेश्वर के घर में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें प्रेरित कर सकता है—वे इनमें से किसी भी बात पर विश्वास नहीं करते। इसलिए, मसीह-विरोधी जो अपने हितों को सबसे आगे रखते हैं, खुद सत्य का अनुसरण नहीं करते; परमेश्वर के वचनों को एक तरह की वाक्पटुता, एक तरह का बयान मानते हैं; वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के ये वचन लोगों को बचा सकते हैं। वे मानते हैं कि जो लोग परमेश्वर के प्रति ईमानदार और वफादार हैं, वे सब नकली हैं और इसमें उनके अपने हित शामिल हैं। चाहे वे परमेश्वर के कितने भी वचन सुनें, चाहे वे परमेश्वर के कितने भी धर्मोपदेश सुनें, आखिर में उनके दिलों में बस यही दो शब्द रहते हैं—संभावनाएँ और नियति। यानी, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर की प्रबंधन योजना लोगों के लिए अच्छी संभावनाएँ और नियति, और उनके लिए एक अच्छी मंजिल ला सकती है। मसीह-विरोधियों के लिए यही सबसे वास्तविक है, यही परम सत्य है। अगर ऐसा नहीं होता तो, पहली बात, वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। दूसरी बात, वे परमेश्वर के घर में रहने के लिए ऐसी शिकायतें सहन नहीं करते। तीसरी बात, वे परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य नहीं निभाते। चौथी बात, वे परमेश्वर के घर में कोई कठिनाई नहीं सहते। और पाँचवी बात, वे धन और वैभव में लिप्त होने, संसार का अनुसरण करने, शोहरत, लाभ, धन और दुष्ट प्रवृत्तियों के पीछे दौड़ने के लिए बहुत पहले ही सांसारिक जीवन में लौट गए होते। वे अब अस्थायी रूप से परमेश्वर के घर में केवल इसलिए शरण लेते हैं क्योंकि उनकी अपनी संभावनाएँ और नियति इसमें शामिल हैं। अपनी संभावनाओं और नियति को सुरक्षित करने के प्रति उनका एक दृढ़ रवैया है, साथ ही इस उम्मीद में कि जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने वालों और महान आशीष प्राप्त करने वालों में से होंगे, वे जोखिम उठाने की मानसिकता भी रखते हैं। यह किस तरह की मानसिकता है? वे अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए परमेश्वर से लाभ तो पाना चाहते हैं, पर वे उसके प्रति समर्पण नहीं करना चाहते; इसके अलावा, वे परमेश्वर द्वारा कहे गए सभी वचनों पर विश्वास भी नहीं करते, ना ही वे यह मानते हैं कि सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता है। क्या यह थोड़ी दुष्टता नहीं है? जब परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने के उनके रवैये की बात आती है तो वे छद्म-विश्वासी हैं। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों पर शोध करने, उन्हें पढ़ने और उनके साथ पेश आने के लिए जैसा रवैया अपना सकते हैं उससे पता चलता है कि वे पूरी तरह से और पक्के छद्म-विश्वासी हैं। तो वे अभी भी परमेश्वर के घर में कुछ सतही कार्य कैसे कर पाते हैं और कैसे बिना पीछे हटे अनुसरण करना जारी रख सकते हैं? उनकी चाहे कैसे भी काट-छाँट की जाए, वे कलीसिया में रहकर कलीसियाई जीवन में भाग कैसे ले सकते हैं, और कैसेपरमेश्वर के वचन सुन और पढ़ सकते हैं? ऐसा क्यों है? (क्योंकि वे आशीष पाना चाहते हैं।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वे आशीष पाना चाहते हैं। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, “जो कोई भी मुझे खाना खिलाती है वह मेरी माँ है, और जो भी मुझे पैसे देता है वह मेरा पिता है।” यह किस तरह का तर्क है? क्या यह तर्क सांसारिक आचरण के शैतानीफलसफे से भरा नहीं है? इस शैतानी फलसफे के कारण ही वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं : “मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने किस तरह का असाधारण कार्य किया है—तुम्हारा स्वभाव या सार चाहे जो भी हो, अगर तुम मुझे आशीष, एक अच्छी मंजिल और एक अच्छा भविष्य दे सकते हो, और मुझे महान आशीष दे सकते हो, तो मैं तुम्हारा अनुसरण करूँगा और अभी के लिए तुम्हें परमेश्वर मानूँगा।” क्या यहाँ सच्ची आस्था की कोई झलक है? (नहीं।) इसलिए, जिस तरह ये लोग परमेश्वर के वचनों को लेते हैं, ऐसे लोगों को मसीह-विरोधी और छद्म-विश्वासी के रूप में चित्रित करना एकदम सटीक है!
परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया अध्ययन करने का होता है। वे परमेश्वर के वचन को कभी परमेश्वर का वचन नहीं मानते; तो वे इसे क्या मानते हैं? रहस्यों का संग्रह? एक काल्पनिक कहानी? अस्पष्ट और समझ में न आने वाले पाठ? जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उसके इरादों की खोज नहीं करते हैं, ना ही वे उसके इरादों या स्वभाव को समझने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर को जानना ही नहीं चाहते, उसके इरादों के प्रति विचारशील होना तो दूर की बात है। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, “वर्तमान में मेरी तात्कालिक आकांक्षा उन लोगों के एक समूह की तलाश करना है, जो मेरे इरादों के प्रति पूरी तरह विचारशील हो सकें,” तो क्या वे प्रेरित होते हैं? वे कहते हैं : “परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील लोगों की खोज करने का क्या मतलब है? तुम्हारे इरादों के प्रति विचारशील होने का क्या फायदा है? क्या ऐसा करने से मुझे खाना मिलेगा या मैं पैसे कमा पाऊँगा? क्या परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना किसी अच्छी मंजिल की ओर ले जाता है? क्या यह मुझे महान आशीष दिला सकता है? अगर यह ऐसा नहीं कर सकता तो इसे भूल जाओ; मुझे विचारशील होने की जरूरत नहीं है। मैं नरक में जाने से बचने और एक अच्छी मंजिल सुरक्षित करने के लिए कोई रास्ता खोज रहा हूँ। अगर तुम्हारे इरादों के प्रति विचारशील होना मुझे आशीष दे सकता है तो मैं विचारशील हो जाऊँगा। बस मुझे बताओ कि कैसे।” क्या तुम लोगों को लगता है कि वे परमेश्वर द्वारा निर्धारित अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं? (नहीं।) परमेश्वर केवल एक चीज का प्रस्ताव करता है : परमेश्वर की इच्छा का पालन करना, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। ऐसा करने से, तुम उसके इरादों के प्रति विचारशील होते हो और महान आशीष प्राप्त कर सकते हो। जब मसीह-विरोधी यह सुनते हैं तो वे सोचते हैं, “मैं खुद से आगे निकल गया, मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए था। मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहने में सक्षम नहीं हूँ, इसे भूल जाओ। यह तरीका काम नहीं करेगा; मैं दूसरा तरीका ढूँढ़ लूँगा।” फिर वे परमेश्वर के वचन के अन्य पहलुओं में प्रयास करना शुरू करते हैं। वे अन्य पहलुओं पर शोध और विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, लेकिन सभी विश्लेषणों के बाद उन्हें इससे केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही मिलते हैं। क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, और क्योंकि वे अपने हितों, संभावनाओं और नियति को ही अपने जीवन भर के अनुसरण का विषय मानते हैं; इसलिए, परमेश्वर के वचन उनके लिए महज जुमले बन गए हैं। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के कार्य का आनंद या पवित्र आत्मा से मार्गदर्शन नहीं लिया है। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो उन्हें कोई प्रकाश नहीं दिखता और उन्हें कोई प्रबोधन या पोषण नहीं मिलता। उन्हें बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत मिलते हैं, रहस्यों और मंजिलों के बारे में कुछ खुलासे और कहावतें मिलती हैं। जब वे इन कहावतों और धर्म-सिद्धांतों को पूँजी मान लेते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने अपनी मंजिलों पर नियंत्रण पा लिया है, उन्होंने अपनी मंजिलों को सुरक्षित कर लिया है। हालाँकि, परमेश्वर के वचनों के निरंतर प्रकाशन, न्याय और ताड़ना के बीच या विभिन्न चरणों में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के बीच उन्हें लगता है मानो उन्होंने अपनी मंजिलें खो दी हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता। इस अवधि के दौरान, वे हमेशा अंदर से असहज महसूस करते हैं; एक अच्छी मंजिल सुरक्षित करने की खातिर उनके अपने अंतरतम में लगातार मानसिक संघर्ष चलता रहता है। वे परमेश्वर के एक वाक्य के कारण संघर्ष करेंगे, तो परमेश्वर के दूसरे वाक्य के कारण नकारात्मक हो जाएँगे, फिर एक और वाक्य के कारण खुशी महसूस करेंगे। हालाँकि, चाहे वे खुश हों या जीवन-रक्षक तिनके को पकड़ रहे हों, ऐसे लोगों के लिए यह केवल क्षणभंगुर है। इसलिए, अंत में कुछ मसीह-विरोधी महसूस करते हैं मानो उनके जैसे लोगों को बचाया ही नहीं जा सकता; परमेश्वर के वचनों में वे देखते हैं कि वह उनके जैसे लोगों को पसंद नहीं करता है—वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं? उनकी संभावनाएँ और नियति क्या हैं? उन्हें लगता है कि ये अज्ञात हैं, वे इनके बारे में निश्चित नहीं हैं। इस मुकाम पर वे क्या करेंगे? क्या वे पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या वे नीनवे के लोगों की तरह अपनी बुराई त्याग सकते हैं, परमेश्वर के सामने पाप कबूलने और पश्चात्ताप करने के लिए वापस आ सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं, और परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव मानकर स्वीकार सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। इसलिए, कई वर्षों के अनुसरण, कई वर्षों की आशा और कई वर्षों तक परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने के बाद अगर वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके जैसे लोग आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, उनके पास कोई आशा नहीं है, वे बिल्कुल भी वे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा और वे वह सब नहीं प्राप्त कर सकते जो वे चाहते हैं तो वे क्या करेंगे? (वे परमेश्वर को छोड़ देंगे।)
एक आध्यात्मिक कहावत है, “मैं परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ : मैं अपना शरीर और हृदय उसे समर्पित करता हूँ।” यह कहावत बहुत “भव्य” है। जब मैंने पहली बार ये शब्द सुने तो मैंने अपने हृदय में मानवीय भाषा की “भव्यता” को गहराई से महसूस किया। लोग अपनी शपथों को बहुत कीमती, बहुत शुद्ध और दोषरहित मानते हैं; वे अपने प्रेम के समर्पण को बहुत शुद्ध और पवित्र मानते हैं। क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहरा सकते हैं और अपना शरीर और हृदय उसे समर्पित कर सकते हैं? (वे ऐसा नहीं कर सकते।) क्यों नहीं? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने के बाद, जब मैं देखता हूँ कि मेरे सोचने का तरीका काम नहीं कर रहा है या नतीजे प्राप्त नहीं कर रहा है तो मैं बस परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ, और उस शपथ को दोहराता हूँ जो मैंने मूल रूप से उसके सामने ली थी। क्या यह पीछे मुड़ना नहीं है? यह मुश्किल नहीं है।” क्या मसीह-विरोधी ऐसा कुछ कर सकते हैं? (वे ऐसा नहीं कर सकते।) क्यों नहीं कर सकते? क्या “मैं परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ” मनुष्य का सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण कथन नहीं है? क्या यह मनुष्य का सबसे महान और शुद्धतम प्रेम नहीं है? तो फिर मसीह-विरोधी ऐसा क्यों नहीं कर पाते? (मसीह-विरोधियों को परमेश्वर की कोई समझ नहीं होती है, सच्चे प्रेम की तो बात ही छोड़ो। उनका प्रेम पूरी तरह से झूठा और उनके हितों पर आधारित है। जब उन्हें कोई लाभ नहीं मिलने वाला होता है तो वे मुँह फेरकर चले जाते हैं।) जब मसीह-विरोधी इस मुकाम पर पहुँचते हैं तो उन्हें लगता है कि कुछ गलत हो गया है और उन्होंने गलत दांव लगाया है। अपने मनोबल को ऊपर उठाने के लिए, उन्हें किसी नारे या सिद्धांत का उपयोग करने की जरूरत पड़ती है जो उनके आध्यात्मिक संसारों का समर्थन करे—किस तरह का नारा? “मैं परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ : मैं अपना शरीर और हृदय उसे समर्पित करता हूँ।” इसका मतलब है कि वे फिर से शुरू करने जा रहे हैं। वरना वे जीवित नहीं रह पाएँगे और परमेश्वर में उनका विश्वास खत्म हो जाएगा। परमेश्वर अपने कार्य के दौरान हर दिन बोलता है, और हर बार जब वह बोलता है तो उसके वचन सत्य के बारे में होते हैं—वे सभी ऐसे वचन हैं जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं, जो यह माँग करते हैं कि लोगों को कैसे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना चाहिए और कैसे सत्य सिद्धांत समझने चाहिए—वे सभी ये वचन हैं। और इसलिए, मसीह-विरोधी सोचते हैं : “इनमें से कोई भी वचन मंजिलों के बारे में बात क्यों नहीं करता या आशीष प्राप्त करने से जुड़ी बातों का जिक्र क्यों नहीं करता? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के हाथों में हमारी संभावनाएँ और नियति खत्म हो गई हैं? क्या परमेश्वर का हमसे किया गया वादा अब नहीं रहा? अगर परमेश्वर इन बातों का कभी जिक्र नहीं करता है, तो शायद हमारी उम्मीदें धराशायी हो जाएँगी। अगर हमारी उम्मीदें धराशायी हो जाती हैं तो हमें क्या करना चाहिए? यह आसान है। अगर परमेश्वर के वचन इन बातों के बारे में कुछ नहीं कहते तो चलो हम एक मानवीय तरीका अपनाएँ : आओ हम परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराएँ!” जब लोगों ने पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था तो उनमें इतना उत्साह, इतना प्रेम और ऐसी आस्था कैसे थी? जब ये चीजें अपने चरम पर पहुँचीं तो लोगों ने परमेश्वर के सामने संकल्प और शपथ लेते हुए कहा : “इस जीवन में मैं जब भी और जहाँ भी रहूँ, मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाऊँगा और बिना किसी शिकायत या पछतावे के खुद को उसके प्रति समर्पित करूँगा। चाहे बारिश हो या धूप, चाहे कैसा भी उतार-चढ़ाव हो, चाहे मैं बीमार रहूँ, चाहे कितनी भी मुसीबतें क्यों न हों, मैं अंत तक उसका अनुसरण करूँगा, जब तक समुद्र सूख नहीं जाता और चट्टानें धूल में नहीं बदल जाती। अगर मैं इस शपथ का उल्लंघन करूँ तो मैं स्वर्ग के वज्रपात से मारा जाऊँ और मुझे कोई अच्छी मंजिल ना मिले।” अब उनकी सारी शपथ खत्म क्यों हो गई हैं? उन्हें लगता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि बहुत समय बीत चुका है, और इससे उनकी आस्था और प्रेम खत्म हो गया है। अपने दिलों में वे सोचते हैं : “नहीं, मुझे अपने मनोबल को ऊपर उठाना है। मुझे उतना ही तरोताजा और जीवंत होना है, और उतनी ही आस्था और उत्साह रखना है जितना पहले था। मुझे अपने आदर्शों को, अपनी मंजिल को फिर से प्राप्त करना है और आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा को फिर से जीवंत करना है। इस तरह, क्या परमेश्वर में मेरी आस्था और उसके प्रति मेरा प्रेम पहले जैसा महान नहीं हो जाएगा? क्या उसके प्रति मेरा सच्चा समर्पण पहले जैसा नहीं हो जाएगा?” लेकिन, सत्य का अनुसरण नहीं करने वाला कोई भी व्यक्ति अपने दिल की गहराई में चाहे कितना भी संघर्ष करे या वह परमेश्वर के प्रति अपनी मूल आस्था और उत्साह को कितना भी याद करे, यह उसकी वर्तमान स्थिति को नहीं बदल सकता। यह स्थिति क्या है? जब उसकी संभावनाएँ और नियति व्यर्थ हो जाती हैं, जब उसकी संभावनाएँ और नियति उससे दूर होती चली जाती हैं, जब आशीष प्राप्त करने की उसकी इच्छा लगभग बिखर जाती है, और जब उसके सभी आशावादी विचार और उसकी सभी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाती हैं तो उसके लिए दृढ़ रहना बहुत मुश्किल हो जाता है—उसके दिल की गहराइयों में इस तरह से दृढ़ रहना उसके लिए बहुत पीड़ादायक होता है। वह अक्सर ऐसी स्थिति और मनोदशा का अनुभव करता है जहाँ ऐसा लगता है कि वह अब और नहीं टिक सकता। वह अक्सर इस बात का इंतज़ार करता है कि कब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा, ताकि वह स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद ले सकें। कुछ लोग तो यह भी उम्मीद करते हैं, “परमेश्वर का कार्य जल्दी खत्म हो जाए, भीषण आपदाएँ जल्दी से उतर जाएँ—अगर आसमान गिर जाए तो हर कोई मर जाएगा, किसी को भी अच्छे नतीजों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। अगर मुझे आशीष नहीं मिल सकते तो किसी को भी नहीं मिलने चाहिए!” अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर के राज्य के आने की आशा नहीं करते हैं, वे परमेश्वर के महान उद्यम के पूरा होने की आशा नहीं करते हैं, और वे आखिर में परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना के महिमा पाने की आशा नहीं करते हैं; वे परमेश्वर द्वारा मानवजाति के बीच विजेताओं को प्राप्त करने और मानवजाति को एक सुंदर मंजिल तक ले जाने की आशा नहीं करते हैं—वे इन चीजों की आशा नहीं करते हैं। इसके उलट, जब आशीष पाने की उनकी सभी इच्छाएँ खत्म होने को होती हैं तो अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर के कार्य को कोसते हैं, वे परमेश्वर के कार्य से विमुख होते हैं और इससे भी ज्यादा, वे उसके वचनों से भी विमुख होते हैं।
इतने सालों से धर्मोपदेश सुनने के बाद, अब कुछ लोग जितने ज्यादा धर्मोपदेश सुनते हैं उतना ही ज्यादा समझते हैं, उनके दिल उतने ही स्पष्ट होते हैं और वे उतना ही अधिक उन्हें सुनना चाहते हैं। इसके उलट, दूसरे लोग जितने अधिक धर्मोपदेश सुनते हैं, उतना ही अधिक प्रतिरोध महसूस करते हैं। जैसे ही वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उनका राक्षसी पक्ष प्रकट हो जाता है। जैसे ही वे सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनते हैं और इसमें मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की बात होती है, उनकी विद्रोही मानसिकता सामने आ जाती है, और उनका संपूर्ण प्रतिरोध बाहर आ जाता है—वे इसे किस हद तक ले जाते हैं? कुछ लोग अपने दिलों में कोसते हैं : वे परमेश्वर को कोसते हैं, सत्य को कोसते हैं, कलीसिया के अगुओं और कार्यकर्ताओं को कोसते हैं, और उन लोगों को कोसते हैं जो सत्य का अधिक अनुसरण करते हैं। जब वे ऐसे लोगों को देखते हैं तो वे उन्हें नापसंद करते हैं और उन पर हमला करना चाहते हैं। जब वे ऐसे लोगों को परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते, परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करते और परमेश्वर के वचनों पर संगति करते देखते हैं तो वे अपने दिलों में तब तक कोसते हैं जब तक वे थक नहीं जाते और उन्हें नींद नहीं आ जाती। इसलिए, कुछ लोगों की आँखें परमेश्वर के वचनों पर संगति सुनते ही चमक उठती हैं, जबकि दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों पर संगति सुनते हैं या किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें परमेश्वर के वचनों से किसी तरह की रोशनी मिली है तो उनके मन भ्रमित हो जाते हैं, उनके विचार अस्पष्ट हो जाते हैं, और उनका मनोबल डूब जाता है। उनके दिल इस कदर घुटन से भरे होते हैं कि वे साँस तक नहीं ले पाते, और वे हमेशा ताजी हवा में साँस लेने के लिए बाहर जाने को तरसते हैं। लेकिन जब तुम संभावनाओं और नियति, परमेश्वर के आशीषों, परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के समय और रहस्य जैसी चीजों के बारे में संगति करते हो, तो चाहे कमरा कितना भी छोटा हो या हवा कितनी भी खराब हो, वे हवा लेने के लिए बाहर नहीं जाते या झपकी नहीं लेते, वे अपने कान खड़े करके सुनते रहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितनी देर तक बात करते हो, भले ही उन्हें नींद या भोजन के बिना रहना पड़े। जब कुछ नए विश्वासी मेरे संपर्क में आए तो मैंने लोगों की स्थितियों और सत्य का अनुसरण करने के तरीकों के बारे में उनके साथ संगति की, लेकिन वे समझ नहीं पाए और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं कुछ रहस्यों के बारे में बात कर सकता हूँ। मैंने कहा : “क्या तुम रहस्यों के बारे में सुनना चाहते हो? तो पहले मैं तुम्हें एक तथ्य बता दूँ। जो लोग लगातार रहस्यों के बारे में पूछताछ करते हैं और हमेशा परमेश्वर के वचनों में इन चीजों पर शोध करने पर ध्यान देते हैं, वे अच्छे लोग नहीं हैं। वे सभी छद्म-विश्वासी और फरीसी हैं।” नए विश्वासी मेरे जवाब से अचंभित रह गए और शर्म के मारे आगे पूछताछ करने की हिम्मत नहीं की, लेकिन बाद में उन्हें फिर से पूछने का अवसर मिल गया, और मैंने उन्हें उसी तरह से जवाब दिया। तुम लोग मेरे जवाब के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा था। इससे उन्हें आत्म-चिंतन करने में मदद मिल सकती है।) क्या वे आत्म-चिंतन करेंगे? वे नहीं करेंगे। फिर तुम उनकी मदद कैसे कर सकते हो? बस उन्हें बताओ : “रहस्य जीवन या सत्य नहीं हैं। चाहे तुम कितने भी रहस्य समझ लो, यह तुम्हारे सत्य समझने के बराबर नहीं होगा। यहाँ तक कि हर एक रहस्य समझ लेना भी तुम्हारे स्वर्ग में जाने या अच्छी मंजिल पाने के बराबर नहीं होगा।” इन वचनों से उनकी मदद करने के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह मामले को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं करता है? जब आध्यात्मिक समझ रखने वाले, सत्य से प्रेम करने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ये वचन सुनते हैं तो वे कहते हैं, “मैंने सोचा था कि रहस्य ही जीवन हैं, लेकिन अब जबकि मुझे पता चला है कि वे जीवन नहीं हैं तो मैं उन पर और शोध नहीं करूँगा। तो फिर जीवन क्या है?” इससे पता चलता है कि उन्होंने थोड़ा-बहुत समझ लिया है। तो क्या इन वचनों को सुनने के बाद मसीह विरोधियों को मदद मिलती है? क्या वे बदल जाते हैं? वे बदलने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें इन वचनों में कोई लाभ नहीं दिखता है, वे मानते हैं कि इन वचनों में कोई आशीष नहीं हैं, इनमें उनकी संभावनाएँ और नियति शामिल नहीं हैं, इनका उनकी संभावनाओं और नियति से कोई संबंध नहीं है और वे उनसे जुड़े नहीं हैं, और वे बेकार हैं; इसलिए, वे उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते। तो फिर, कौन-सी संगति उनकी संभावनाओं और नियति से जुड़ी हुई है? उदाहरण के लिए तुम कह सकते हो : “आजकल, दुनिया में कई अजीबोगरीब घटनाएँ घटती दिख रही हैं। कुछ जगहों पर चार चाँद देखे गए हैं, और कई बार पूर्ण चंद्रग्रहण में सुर्ख चाँद देखा गया है। अजीबोगरीब खगोलीय घटनाएँ अक्सर घट रही हैं। मानव संसार में कई तरह की विपत्तियाँ और आपदाएँ भी आई हैं, और कुछ जगहों पर लोग नरभक्षी हो रहे हैं। इस स्थिति को देखते हुए, हम पहले ही प्रकोप के उन कटोरों और विपत्तियों के समय में पहुँच चुके हैं जिनकी भविष्यवाणी प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में की गई थी।” जब मसीह-विरोधी ये शब्द सुनते हैं तो उनकी आँखें चमक उठती हैं और उनके कान खड़े हो जाते हैं। वे आनंदित होते हैं, “यह अच्छा है कि मैं इस युग में पैदा हुआ। मैं महान आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। मैं वाकई होशियार हूँ! मैंने सांसारिक चीजों के पीछे भागने का विकल्प नहीं चुना। मैंने परमेश्वर के कार्य के इस चरण का अनुसरण करने के लिए अपनी सांसारिक संभावनाओं और अपने परिवार को त्याग दिया—मुझे बहुत खुशी है कि मैं अब तक अनुसरण करने में सक्षम रहा। परमेश्वर का दिन निकट है। स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मैं मरने से पहले उस दिन तक पहुँचने में सक्षम हो जाऊँगा जब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा। उस दिन, मैं निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा बचाए गए लोगों में से एक होऊँगा। कितनी बढ़िया बात है!” अपने दिलों में, वे यह सोचकर आनंदित होते होते हैं कि उन्होंने सही रास्ता चुना है, उन्हें सही द्वार मिला है और उन्होंने कुछ कीमतें चुकाई हैं। वे इस बात से भी आनंदित होते हैं कि उन्होंने बिना हार माने इस मुकाम तक अनुसरण किया है, वे अभी भी परमेश्वर के घर में हैं, और उन्होंने कोई समस्या नहीं पैदा की है, उन्हें निकाला या निष्कासित नहीं किया गया है। तो क्या अब वे सत्य का अभ्यास करेंगे या उन्हीं उम्मीदों के साथ जारी रखेंगे? उनका अंतरतम रवैया नहीं बदलेगा। इसलिए, जब उन्हें परमेश्वर के वचनों का कोई ऐसा अंश मिलता है जिसके बारे में वे सोचते हैं कि वह पूरा हो गया है, तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन्हें कोई खजाना मिल गया हो। उन्हें तुरंत लगता है कि वे भाग्यशाली हैं, उन्होंने सही रास्ता चुना है, सही द्वार में प्रवेश किया है, सही परमेश्वर को चुना है, और वे बुद्धिमान लोग और बुद्धिमान कुंवारियाँ हैं। “शुक्र है कि मैंने तब अपनी नौकरी छोड़ दी। मैंने सही फैसला किया। मैं इतना होशियार कैसे हूँ? अगर मैं तब इतना सावधान नहीं होता तो शायद मैं अब आशीष पाने से चूक जाता। मुझे भविष्य में भी सावधान रहना होगा और अपनी संभावनाओं और नियति के लिए संघर्ष करने में अपने जीवन को समर्पित करना होगा।” इस मामले में तुम लोग मसीह-विरोधियों का कौन-सा सार देखते हो? क्या ये लोग अवसरवादी नहीं हैं? उन्हें परमेश्वर, उसके वचनों या उसके कार्य में कोई वास्तविक विश्वास नहीं है। वे अवसरवादी हैं, ऐसे लोग जो परमेश्वर के घर में घुस आए हैं। इसलिए, परमेश्वर के घर में, ये लोग हमेशा बस खाली जगह भरने वाले लोग होते हैं, जो दिन भर इधर-उधर भटकते रहते हैं। वे अपनी उंगलियों पर गिनते हैं कि उन्होंने कितने सालों से परमेश्वर का अनुसरण किया है, कितनी कीमतें चुकाई हैं, कितने महान कार्य किए हैं, परमेश्वर के कौन-से कार्य को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है, और परमेश्वर के कार्य के कौन-से चरणों की उन्हें थोड़ी समझ है। वे दिन भर बार-बार अपने दिलों में इन बातों का हिसाब लगाते रहते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण बातों को पीछे छोड़ देते हैं जो सत्य और जीवन से संबंधित हैं। वे केवल आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं—यह तो अवसरवाद है। परमेश्वर का कोई भी वचन या किसी का अनुभवजन्य ज्ञान, कभी भी उनके अवसरवादी रवैये को नहीं बदल सकता। मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। जब उनके हितों की बात आती है तो वे इस मामले में कभी कोई रियायत नहीं देंगे; वे कभी भी अपने दृष्टिकोण नहीं बदलेंगे, जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं उसकी दिशा और लक्ष्य नहीं बदलेंगे, या अपनी संभावनाओं और नियति की खातिर अपने आचरण के सिद्धांतों को नहीं बदलेंगे। वे अपनी संभावनाओं और नियति के लिए परमेश्वर के वचनों को अमल में नहीं लाएँगे, एक वचन को भी नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “वे कभी-कभी कुछ वचनों को अमल में लाते हैं, जैसे कि चीजों को त्यागना या खुद को खपाना।” चाहे वे किसी भी चीज पर अमल करें, वे ऐसा इस आधार पर करते हैं कि उनके पास संभावनाएँ और नियति हों और वे आशीष प्राप्त कर सकें। चाहे वे किसी भी सत्य पर अमल करें, यह मिलावटी है और ऐसा इरादे और लक्ष्य के साथ किया जाता है। यह उस अभ्यास से पूरी तरह अलग है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है।
जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे मुख्य रूप से अपनी मंजिल और रहस्यों की खोज करने के लिए उनके वचनों का उपयोग करते हैं; साथ ही, वे परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन योजना के समाप्त होने और आपदाओं के उतरने वगैरह से संबंधित सामग्री की भी खोजते हैं। अपनी मंजिल की खातिर, वे बहुत अधिक मेहनत कर सकते हैं और कई चीजें कर सकते हैं। इसलिए, जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा और बड़ी आपदाएँ उतरेंगी, तो उन्होंने जो चीजें की हैं, जो कीमत चुकाई है, और जिन चीजों का त्याग किया है, क्या उनके बदले उन्हें इच्छित आशीष मिल सकते हैं, और क्या वे आपदाओं की पीड़ा से बच सकते हैं—यही वे जानना चाहते हैं और केवल इन्हीं बातों की परवाह करते हैं। परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने की पूरी प्रक्रिया के दौरान, चाहे इसमें कितने भी साल लग जाएँ, वे केवल अपनी संभावनाओं और नियति की परवाह करते हैं। इसलिए, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय उनका ध्यान जिस बात पर रहता है और परमेश्वर के वचनों में वे जो सामग्री खोजते हैं, उन सभी में कुछ विशेष संकेत और विशेषताएँ होती हैं। आम तौर पर, नए विश्वासी अपने पहले छह महीनों या एक साल में, परमेश्वर के वचनों में ऐसे विषयों की खोज करते हैं। लेकिन छह महीने या एक साल बीत जाने के बाद, कुछ लोग देखते हैं कि उन्होंने इन सभी भागों को पहले ही पढ़ लिया है, और उन्हें लगता है कि इन पर और शोध करना निरर्थक है; वे लोगों को सत्य में प्रवेश करने में सक्षम नहीं बना सकते हैं, और वे उनके सत्य में प्रवेश करने में विघ्न-बाधा भी डाल सकते हैं, इसलिए वे अब इन भागों को और नहीं पढ़ते हैं। उनके लिए, इन्हें कभी-कभार देख लेना और समझ लेना ही काफी है। बाकी समय में वे सोचते हैं, “मैं सत्य में कैसे प्रवेश कर सकता हूँ? परमेश्वर के बहुत-से वचन हैं जो मानवजाति को उजागर करते हैं। वे लोगों की धोखेबाजी, उनके विद्रोहीपन और अहंकारी स्वभावों को उजागर करते हैं; वे परमेश्वर के प्रति लोगों की विभिन्न धार्मिक धारणाओं और रवैयों को उजागर करते हैं। यही नहीं, वे लोगों की असामान्य मानवता की विभिन्न अभिव्यक्तियों को भी उजागर करते हैं। तो, मैं कैसे जान सकता हूँ कि लोगों को परमेश्वर के वचनों में से किस चीज का अभ्यास करना चाहिए?” जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इन चीजों के लिए अपना प्रयास समर्पित करते हैं। वे अक्सर उन वास्तविक समस्याओं के बारे में पूछते हैं जिन्हें उन्हें समझने और अपने वास्तविक जीवन में जिनमें प्रवेश करने की आवश्यकता होती है, जैसे कि “हमें आगे क्या करना चाहिए, और हमें कैसे अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, हम निश्चित रूप से अविश्वासियों और धार्मिक विश्वास वाले लोगों से अलग होंगे, तो हमारे जीवन में कौन-से गुणात्मक बदलाव होने चाहिए? अपने आचरण और संसार के साथ पेश आने के मामले में, हमें कैसे बोलना और कार्य करना चाहिए, दूसरों के साथ कैसे बातचीत करनी चाहिए और सत्य को कैसे अमल में लाना चाहिए?” लेकिन, मसीह-विरोधी कभी भी ये सवाल नहीं पूछेंगे, भले ही वे 10, 20 या 30 साल तक विश्वास करें। वे परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं और परमेश्वर के वचनों में आशीष और अपनी मंजिल प्राप्त करने की उम्मीद खोजते हैं; और भले ही वे 20 या 30 साल तक खोज करें, वे ऐसा करने में नहीं ऊबेंगे। जैसे ही मुसीबत का थोड़ा-सा भी संकेत मिलता है, वे फौरन परमेश्वर के वचनों में अपनी मंजिल से संबंधित सामग्री खोजते हैं, फिर मूल्यांकन करते हैं कि उनके मौजूदा विश्वास के आधार पर उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या हो सकता है। वे घटनाचक्रों और अवधियों के संदर्भ में अपनी मंजिल का आकलन करते प्रतीत होते हैं। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके में बदलाव या मानवजाति के प्रति उसके तात्कालिक इरादे की अभिव्यक्ति के कारण वे कभी भी अपने विचार और रवैये नहीं बदलेंगे और सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे। वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। इसलिए, कुछ लोग जो 20 या 30 सालों से विश्वास कर रहे हैं, वे अभी भी उन रहस्यों और परमेश्वर द्वारा बताए गए उन विषयों पर अपने प्रयासों को समर्पित कर रहे हैं जिनमें मानवजाति की नियति और मंजिल शामिल हैं। कुछ लोग किस हद तक अपने प्रयासों को समर्पित कर रहे हैं? वे कहते हैं : “जब मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रत्येक भाग की तुलना की, तो मुझे सबसे बड़े रहस्य का पता चला। जब मसीह पृथ्वी को छोड़ेगा, तो यह वसंत ऋतु में होगा।” तुम लोगों को क्या लगता है कि यह सुनने के बाद मुझे कैसा महसूस होता होगा? क्या मुझे खुशी या दुख महसूस होता है? मुझे न तो खुशी होती है और न ही दुख। मुझे लगता है कि यह हास्यास्पद है। वास्तव में ऐसे लोग हैं जो इस हद तक अपने प्रयास समर्पित करते हैं कि वे विशिष्ट मौसम तक को जानते हैं। अगर वे आगे बढ़कर इस हद तक विशिष्ट समय की खोज कर सकें कि मिनट और सेकंड तक सटीक हों, तो वे वाकई “विलक्षण बुद्धि वाले” होंगे! ऐसे “विलक्षण बुद्धि वाले” लोग कुछ ऐसा खोज सकते हैं जो मैं स्वयं भी नहीं जानता, यह वास्तव में हास्यास्पद और परेशान करने वाला है। यह हास्यास्पद क्यों है? कोई भी व्यक्ति वह सटीक समय नहीं जानता जब परमेश्वर देहधारी हुआ, यहाँ तक कि शैतान भी इसे नहीं जानता। क्या परमेश्वर किसी व्यक्ति को कुछ ऐसा जानने देगा जो शैतान को भी नहीं पता? बेशक नहीं। इसी तरह, जब उस समय की बात आती है जब परमेश्वर अपना महान उद्यम पूरा कर लेगा, और जब उसका देह पृथ्वी पर अपना काम खत्म करके चला जाएगा—क्या यह ऐसी बात है जो परमेश्वर किसी को बताएगा? क्या हर किसी को यह जानने का कोई कारण है? (नहीं है।) क्या परमेश्वर बोलते समय कुछ ऐसा बोल देगा जो वह नहीं चाहता कि लोग जानें? बिल्कुल नहीं। फिर भी कुछ लोग वास्तव में कहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के वचनों में उस समय को पा लिया है जब वह पृथ्वी को छोड़ देगा। वे यहाँ तक कहते हैं कि यह वसंत ऋतु में होगा। क्या यह अजीब नहीं है? क्या यह हास्यास्पद नहीं है? ये लोग परमेश्वर के किन वचनों के आधार पर ऐसा कहते हैं? जब परमेश्वर ने वसंत ऋतु में कुछ करने के बारे में कहा था, तो शायद वह किसी और चीज का जिक्र कर रहा होगा। क्या वह इस बात का जिक्र कर रहा था? वे इस बारे में अनुमान कैसे लगा सकते हैं? परमेश्वर लोगों को साफ तौर पर और स्पष्ट रूप से बताएगा कि वह उन्हें क्या जानने देना चाहता है। लोग वह नहीं समझ पाएँगे जो वह नहीं चाहता कि वे जानें, चाहे वे कितना भी शोध कर लें; ऐसी बातें मनुष्य के लिए जानना नामुमकिन है। ये लोग कहते हैं कि उन्हें पता है, और उनके शोध से ये नतीजे मिले हैं। वे एक विशिष्ट समय भी देते हैं। क्या यह बकवास नहीं है? यह लोगों को गुमराह करना, उनके मन को भटकाना और उनकी दृष्टि को बाधित करना है। यह शैतान से आता है और यह परमेश्वर का प्रबोधन बिल्कुल नहीं है। वह लोगों को इस बारे में प्रबुद्ध नहीं करेगा। उनके लिए यह जानना बेकार है। परमेश्वर कभी भी गलती से ऐसी कोई बात नहीं बताएगा जो वह नहीं चाहता कि लोग जानें। इसलिए मैं कहता हूँ कि यह हास्यास्पद है। तो फिर यह परेशान करने वाला क्यों है? (परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है ताकि लोग इन वचनों के माध्यम से अपने भ्रष्ट स्वभावों को बदल सकें, और वे सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने में सक्षम बन सकें, लेकिन मसीह-विरोधी उसके वचनों का उपयोग मंजिलों और रहस्यों पर शोध करने के लिए करते हैं।) यह भी थोड़ा परेशान करने वाला है, लेकिन मेरे परेशान होने का असली कारण क्या है? उदाहरण के लिए, अगर कोई अमीर माता-पिता अपने बच्चों के लिए बहुत सारा पैसा कमाता है, और उनके बच्चे अभी भी छोटे हैं और उनका पालन-पोषण अपने माता-पिता पर निर्भर है, और उनकी आजीविका पूरी तरह से माता-पिता पर निर्भर करती है, तो क्या वे बच्चे अपने माता-पिता के जल्दी मर जाने की उम्मीद करेंगे? क्या वे कोई ज्योतिषी ढूँढ़ेंगे जो जल्दी से हिसाब लगाकर बताए कि उनके माता-पिता कब मरेंगे? क्या कोई ऐसा करता है? (नहीं।) अगर वे ऐसा करते हैं तो क्या यह परेशान करने वाली बात नहीं होगी? यह परेशान करने वाली बात ही होगी! ऐसे लोग घृणित हैं! अब जबकि परमेश्वर पृथ्वी पर आ गया है, भले ही उसका देह सौ साल से अधिक जीवित रह सके और सौ साल तक काम कर सके, लेकिन लोग जो सत्य समझ सकते हैं वे सीमित हैं। जरा सोचो, प्रभु यीशु के देहधारण से लेकर परमेश्वर के कार्य के वर्तमान चरण तक, इन दो हजार सालों में मानवजाति ने कितने सत्य प्राप्त किए हैं? मानवजाति मूल रूप से सत्य नहीं समझती है। इस चरण में, परमेश्वर 30 सालों से कार्य कर रहा है और वह करीब 30 सालों से बोल रहा है। जिन लोगों ने परमेश्वर के वचनों को सबसे अधिक पढ़ा है, वे उन्हें 30 सालों से पढ़ रहे हैं। लोगों को कितने सत्य समझ में आए हैं? उनकी समझ बहुत सीमित है। मनुष्य के सत्य में प्रवेश करने की गति धीमी है। अर्थात, लोगों तक सत्य को पहुँचाना और उसे उनके जीवन में बदलना बहुत कठिन और बहुत धीमा काम है। यह चाहे कितना भी धीमा हो, कुछ लोग अभी भी आशा करते हैं, “परमेश्वर पृथ्वी को कब छोड़ेगा? परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा?” क्या परमेश्वर के पृथ्वी को छोड़ने और उसका कार्य समाप्त होने से उन्हें लाभ मिलेगा? जिस दिन परमेश्वर पृथ्वी को छोड़ेगा, वे मर जाएँगे। उन्हें मृत्युदंड दिया जाएगा। उन्हें किस बात पर खुश होना चाहिए? यह किस प्रकार का व्यक्ति है? क्या ऐसे लोगों में नैतिकता की कमी नहीं है? उन्हें सांसारिक लोगों के बीच संतानोचित जिम्मेदारी नहीं निभाने वाले पुत्र कहा जाता है। हम उन्हें छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी कहते हैं, और वे बिल्कुल भी अच्छे लोग नहीं हैं।
जब “वचन देह में प्रकट होता है” की विषय-वस्तु व्यक्त की जा रही थी, तो बहुत-से लोगों का मानना था कि “देहधारी परमेश्वर बस कार्य कर रहा है। वह कार्य के कुछ चरण पूरे कर रहा है, उसके पास कार्य करने के कई तरीके हैं, और बोलने के कई तरीके हैं, और बस उसके बाद उसका कार्य पूरा हो जाएगा। उसका कार्य पूरा हो जाने के बाद, देह का कोई उपयोग नहीं रह जाएगा, और उसे अब बोलने की कोई जरूरत नहीं होगी। हमने कुछ प्राप्त कर लिया होगा और हमें बस उस दिन का इंतजार होगा जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा। जब हम परमेश्वर के इन वचनों के बारे में बात कर सकेंगे और उनका प्रचार कर सकेंगे, तो हमारे पास एक मंजिल होगी और हमें महान आशीष प्राप्त होंगे।” कुछ लोगों ने यह रवैया अपनाया। फिर, मैंने कई और वचनों पर संगति की, जैसे परमेश्वर को जानने के बारे में वचन, साथ ही वे वचन जिन पर मैं इस समयावधि के दौरान संगति कर रहा हूँ। यह देखकर कुछ लोगों ने सोचा, “क्या परमेश्वर के सभी वचन, ‘वचन देह में प्रकट होता है’ में समाहित नहीं हैं? उसने अब परमेश्वर को जानने के बारे में खंड क्यों व्यक्त किया है? परमेश्वर अधिक से अधिक वचन क्यों व्यक्त करता रहता है? अब से, उसे कुछ रहस्यों, स्वर्ग के कुछ मामलों और भविष्य में लोग स्वर्ग में परमेश्वर के साथ कैसे चलेंगे, इस बारे में बात करनी चाहिए। इन चीजों के बारे में बात करना वाकई हमें उत्साहित करता है!” किस तरह के लोगों के मन में ये विचार थे? (मसीह-विरोधियों के मन में।) उनके मन में ये विचार क्यों आए? क्योंकि उन्हें सत्य में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने सोचा, “हम कई सालों से परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। हम जानते हैं कि शुरुआत में परमेश्वर ने कैसे काम किया था। हमने परमेश्वर के कार्य के कई चरणों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है। हमने व्यक्तिगत रूप से यह भी अनुभव किया है कि परमेश्वर किस तरह से बोलता है और इसे अपनी आँखों से देखा है। हम परमेश्वर के गवाह हैं और आशीष प्राप्त करने के लिए सबसे योग्य पीढ़ी हैं।” उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण इसलिए नहीं किया क्योंकि उसने सत्य बोला और सत्य व्यक्त किया, बल्कि परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण ऐसा हुआ। परमेश्वर ने अपने कार्य के कई चरणों का अनुभव करने के लिए उनकी अगुआई की, और उन्होंने निष्क्रिय रूप से परमेश्वर का अनुसरण किया। बाद में, जब परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ता गया, तो उसने और लोगों को चुना जो उसके कार्य के वर्तमान चरण के साथ तालमेल बना सकते थे। परमेश्वर के कार्य के मुख्य प्राप्तकर्ता लगातार बढ़ते और बदलते रहे। कुछ लोग जो शुरुआत में परमेश्वर का अनुसरण करते थे, धीरे-धीरे हटा दिए गए, क्योंकि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि वे परमेश्वर के बारे में विभिन्न धारणाएँ और गलतफहमियाँ पालने लगे थे, और क्योंकि परमेश्वर के बारे में उनके अंदर विभिन्न प्रकार की अवज्ञा और असंतोष पैदा हो गया था। इन लोगों को हटाने के व्यक्तिपरक और वस्तुनिष्ठ, दोनों ही कारण थे। व्यक्तिपरक इसलिए, क्योंकि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, और फरीसियों की तरह, परमेश्वर के वचनों को धर्म-सिद्धांत मानकर दूर-दूर तक उनका प्रचार-प्रसार किया। हालांकि, कुछ लोग अभी भी नहीं समझते हैं कि सत्य वास्तविकताएँ क्या हैं—वे मृत लोगों जैसे हैं। वस्तुनिष्ठ इसलिए, क्योंकि हटाए गए लोग वे थे जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के नए कार्य की शुरुआत का अनुभव किया था, लेकिन उनके चरित्र, अनुसरण और काबिलियत के कारण, वे परमेश्वर के बाद में किए जाने वाले नए कार्य के लिए योग्य नहीं थे। इस तरह, इन लोगों को परमेश्वर के कार्य के चरणों द्वारा तुरंत हटा दिया गया और निकाल बाहर किया गया। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर को जानने के बारे में के वचन व्यक्त किए जाने से पहले कुछ समय के लिए, कई लोग अपने दिलों की गहराई में चोरी-छिपे खुशी मनाते हुए कहते थे : “जिस व्यक्ति का मैंने विरोध किया और जिसकी मैंने निंदा की, उसके पास आखिरकार कहने के लिए कुछ भी नहीं है। उसके कार्य के चरण अंततः पूरे हो गए हैं। अतीत में, मेरे मन में उसके बारे में धारणाएँ थीं। मैंने उसकी अवज्ञा की और उससे असंतुष्ट महसूस किया, और मैंने उसकी निंदा और विरोध भी किया। बेशक, मैं ही सही था। वह परमेश्वर नहीं है; वह मसीह नहीं है। चूँकि वह परमेश्वर नहीं है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं उसके साथ कैसा व्यवहार करता हूँ। वह केवल परमेश्वर की अभिव्यक्ति का माध्यम है, परमेश्वर का प्रवक्ता है।” यही नहीं, कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा : “यह देह हमसे अलग नहीं है। यह उसके भीतर का आत्मा है जो बोलता और कार्य करता है; इसका इस देह से कोई लेना-देना नहीं है।” कुछ लोगों ने चोरी-छिपे इस दुस्साहसी तरीके से मसीह की निंदा की और उसका तिरस्कार किया। जब वचन देह में प्रकट होता है खंड 2 : परमेश्वर को जानने के बारे में के सत्य व्यक्त किए गए, मसीह की निंदा और तिरस्कार करने वाले इन लोगों ने अपने दिलों में बेचैनी महसूस की। इस बेचैनी का कारण क्या था? एक तरह से, उनके दिलों में काफी समय से धारणाएँ थीं, उन्होंने खुद को उस व्यक्ति के खिलाफ खड़ा कर लिया था जिसने सत्य व्यक्त किया था। उन्होंने इस व्यक्ति की अवज्ञा की और उससे असंतुष्ट महसूस किया, और यहाँ तक कि उसकी निंदा और उसका तिरस्कार भी किया। दूसरी ओर, 2013 के बाद परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचनों ने ऐसे बहुत-से रहस्यों का खुलासा किया जो मानवजाति के लिए अब तक अज्ञात थे। इन रहस्यों का उन नए विश्वासियों की आस्था मजबूत करने में एक निश्चित प्रभाव पड़ा जिन्होंने अभी तक अपनी ठोस नींव नहीं रखी थी, और इनसे उनके शक्की दिलों में तत्काल एक निश्चितता आ गई। वहीं जो लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे थे, लेकिन जो पहले मसीह का विरोध करते थे, उसकी निंदा और तिरस्कार करते थे, उन्हें इन रहस्यों ने एक बड़ा झटका दिया, जिससे वे और ज्यादा असहज महसूस करने लगे। उन्होंने सोचा, “अब हम पूरी तरह से समाप्त हो चुके हैं। हमें परमेश्वर ने हटा दिया है। वह हमें नहीं चाहता। परमेश्वर ने पहले भी बहुत सारे वचन व्यक्त किए हैं, लेकिन हमने हमेशा उसे एक इंसान माना। हमने सोचा कि उसके कार्य के चरण पूरे होने के बाद, बाकी का उससे कोई लेना-देना नहीं होगा, यह व्यक्ति अपना काम पूरा कर चुका होगा, और उसके बाद, हम स्वर्ग के परमेश्वर से बातचीत करेंगे और स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखेंगे। धरती पर परमेश्वर के बारे में हमारी धारणाएँ थीं। हमने उसकी अवज्ञा की और उसका तिरस्कार किया।” 2013 की अवधि के दौरान व्यक्त किए गए वचनों के माध्यम से, इनमें से बहुत-से लोगों का दुस्साहस खत्म हो गया। इससे पहले, कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के कार्य के बारे में संदेह पैदा हो गए थे। उन्होंने परमेश्वर के देहधारी शरीर का विरोध किया और उसका तिरस्कार किया, और कुछ लोगों ने तो अपना विश्वास भी त्याग दिया। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि उनके मन में धारणाएँ विकसित हो गईं। उन्होंने ना केवल देहधारी परमेश्वर और उसके कार्य को नकारा, बल्कि परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकार दिया। परमेश्वर के प्रति इन लोगों के रवैये के आधार पर, उनका क्या परिणाम होना चाहिए? परमेश्वर के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण के आधार पर, उनका सार क्या है? (एक छद्म-विश्वासी का।) छद्म-विश्वासियों की पहली मुख्य विशेषता अवसरवादिता है। एक बार जब उन्हें परमेश्वर के वचन में अपना हित मिल जाता है, तो वे उस पर पकड़ बना लेते हैं, उसे छोड़ने से इनकार कर देते हैं, और उसके वचनों से लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। दूसरी मुख्य विशेषता है कि वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर का तिरस्कार करने में सक्षम हैं, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने में सक्षम हैं, और जब कोई छोटी-सी बात उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है तो वे परमेश्वर की आलोचना करने, उसकी निंदा करने और उसका विरोध करने में सक्षम होते हैं। वे परमेश्वर का भय बिल्कुल नहीं मानते। इन सभी लोगों में मसीह-विरोधियों का सार है; वे सभी मसीह-विरोधी हैं। उनकी अन्य विशेषताएँ क्या हैं? इन लोगों में सत्य के प्रति प्रेम बिल्कुल भी नहीं है। वे परमेश्वर के वचन प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति थे, वे परमेश्वर के वचन सुनने वाले पहले व्यक्ति थे, और वे परमेश्वर के कार्य के चरणों और तरीकों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने वाले लोग भी थे। ये लोग अब 30 वर्षों से विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश लोग परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य नहीं निभा सकते हैं, और उनके पास बात करने के लिए कोई अनुभव नहीं है। वे जहाँ भी जाते हैं, वे बस उन मृत शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं। उनकी सबसे स्पष्ट विशेषता क्या है? वे 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनके स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदले हैं, और उनमें परमेश्वर का कोई भय या उसकी कोई समझ नहीं है। वे चोरी-छिपे परमेश्वर के देहधारी शरीर की अनायास ही आलोचना करने में सक्षम हैं, और यहाँ तक कि बिना किसी भय या डर के परमेश्वर की निंदा करने और बखेड़ा खड़ा करने में भी सक्षम हैं। वे सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सत्य से विमुख हैं, और सत्य का विरोध करते हैं। जब देहधारी परमेश्वर की बात आती है तो वे कुछ भी कहने का दुस्साहस करते हैं; वे हर चीज का मूल्यांकन और हर चीज की आलोचना करने का दुस्साहस करते हैं, और जब भी वे धारणाएँ विकसित करते हैं तो उनका प्रचार-प्रसार करने का दुस्साहस करते हैं। क्या ये अत्यंत घृणित लोग नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या वे परमेश्वर के लोग हैं? वे 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनमें कोई वास्तविकता नहीं है, और उनके स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदले हैं—क्या ये मृत लोग नहीं हैं? जो वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनमें वाकई सामान्य मानवता है, क्या वे लोग केवल तीन वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद कुछ सत्य समझ नहीं सकते और उनमें प्रवेश नहीं कर सकते? (वे ऐसा कर सकते हैं।) लेकिन ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने 30 वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करके भी कोई अनुभव नहीं पाया है। अगर तुम उनसे उनके अनुभवों के बारे में बात करने के लिए कहो तो वे केवल धर्म-सिद्धांतों, नारों और उपदेश वाले शब्दों के बारे में बात करेंगे। तो, पिछले 30 वर्षों में उन्होंने परमेश्वर के वचनों में क्या प्रयास किया है? उन्हें क्या हासिल हुआ है? कहने की जरूरत नहीं है कि वे परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते। वे परमेश्वर के वे वचन स्वीकारते हैं जिनमें मानवजाति को आशीष और वादे देने के बारे में बात की गई है; वे परमेश्वर के अच्छे लगने वाले वचन, उसके सांत्वना देने और प्रोत्साहन देने वाले वचन और कानों को भाने वाले वचन स्वीकारते हैं, लेकिन वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए किसी भी सत्य या मानवजाति से उसकी किसी भी अपेक्षा को स्वीकार नहीं करते। वे एक भी सत्य स्वीकार नहीं करते। क्या इन लोगों को हटा नहीं दिया जाना चाहिए? (उन्हें हटा दिया जाना चाहिए।) क्या ऐसे लोगों को हटा देना अन्याय है? (नहीं।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य को स्पष्ट रूप से जानने के बाद भी जानबूझकर पाप करते हैं।
परमेश्वर ने अंत के दिनों में बहुत सारा काम किया है और बहुत सारे वचन बोले हैं, लोगों ने इसका अनुभव किया है, और परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण को अपनी आँखों से देखा है। चाहे इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखा जाए, यह निर्विवाद है कि परमेश्वर इतने सारे सत्य व्यक्त करता है और इतने सारे लोगों को बचाता है, और किसी को भी इस पर सवाल नहीं उठाना चाहिए। देहधारी परमेश्वर चाहे कितना भी साधारण और सामान्य क्यों न हो, वह चाहे मनुष्य को कितना भी कम ध्यान देने योग्य क्यों न लगे, लोगों को अभी भी उसके वचनों को सत्य के रूप में स्वीकारना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि देहधारी परमेश्वर इतना महत्वहीन और इतना साधारण है, और बिल्कुल भी महान नहीं है, तो हम उसकी प्रशंसा कैसे कर सकते हैं? क्या ऐसा साधारण शरीर कोई महान कार्य करने में सक्षम हो सकता है? क्या हम वास्तव में उससे महान आशीष प्राप्त कर सकते हैं? हमें नहीं पता; हम बस इतना कर सकते हैं कि उसके साथ एक साधारण व्यक्ति की तरह पेश आएँ।” दूसरे कहते हैं, “क्योंकि तुमने जो चीजें की हैं, उनमें से कुछ हमें आश्वस्त नहीं कर पाई हैं, और कुछ चीजों ने हमारे अंदर धारणाएँ पैदा की हैं और कुछ चीजें हमारी समझ से परे हैं, और क्योंकि तुम्हारे द्वारा कही गई कुछ बातें हमें स्वीकार नहीं हैं, तुम स्वर्ग के परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते—और इसलिए हमें तुमसे आखिर तक लड़ना चाहिए। अगर तुम हमें सुसमाचार फैलाने के लिए कहोगे, तो हम यह नहीं करेंगे; अगर तुम हमें हमारा कर्तव्य निभाने के लिए कहोगे तो हम यह नहीं करेंगे; और अगर तुम हमें सत्य स्वीकारने के लिए कहोगे तो हम यह नहीं करेंगे। हम उस व्यक्ति से जो तुम हो, आखिर तक लड़ेंगे—देखते हैं कि तुम हमारा क्या कर सकते हो।” इन लोगों के हृदय में, जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, परमेश्वर के कार्य को, उसके वचनों के सत्य को, और उसके देहधारी शरीर को नकारने के एक हजार—दस हजार—कारण हैं। लेकिन एक चीज है जो शायद उनके सामने इतनी स्पष्ट न हो : चाहे उनके पास कितने ही कारण क्यों न हों, अगर वे इन सत्यों को स्वीकार नहीं करते, तो उन्हें बचाया नहीं जाएगा। अगर तुम उस व्यक्ति को स्वीकार नहीं करते, जो मैं हूँ या परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं करते, तो कोई बात नहीं—मैं तुम्हें मजबूर नहीं करूँगा। लेकिन अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों को सत्य मानकर नहीं स्वीकारते और इन्हें सत्य मानकर अभ्यास में नहीं लाते हो, तो मैं तुम्हें पूरी ईमानदारी से बता दूँ : तुम कभी भी बचाए नहीं जाओगे, न ही तुम कभी स्वर्ग के राज्य का द्वार पार करोगे। अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों से, इन सत्यों से, और कार्य करने वाले और मानवजाति को बचाने वाले इस मसीह से किनारा करते हो, तो तुम चाहे कितना ही धर्म-सिद्धांत क्यों न समझते हो, या तुम कितनी ही बड़ी कठिनाइयाँ क्यों न सहते हो, तुम्हें सत्य प्राप्त नहीं होगा; तुम कचरे का एक टुकड़ा मात्र हो। तुम्हारा परमेश्वर में विश्वास रखने का कारण चाहे कुछ भी हो, और अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारा लक्ष्य चाहे कुछ भी हो, तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। और अगर तुम्हें बचाया नहीं जा सकता, तो तुम्हें क्या आशीष प्राप्त होंगे? कुछ लोग स्वर्ग के परमेश्वर से होड़ करते हैं, कुछ पृथ्वी के परमेश्वर से होड़ करते हैं, और परमेश्वर के वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने का इस हद तक दुःसाहस करते हैं कि वे अपने परिणाम और मंजिल की भी परवाह नहीं करते। क्या यह नीचता नहीं है? ये पतित लोग बहुत दुष्ट हैं! इनमें से हर कोई बुरा इंसान है। ये सब छद्म-विश्वासी, अवसरवादी, निर्लज्ज लोग हैं, और यही मसीह-विरोधियों का सार है।
मैंने अभी परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये पर संगति की। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को देखते हैं तो वे अपने अंतरतम से सत्य या अभ्यास के सिद्धांतों की खोज नहीं करते। वे परमेश्वर के वचनों से यह समझने की कोशिश नहीं करते कि परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग कैसे प्राप्त किया जाए, और वे निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों को समझने की कोशिश नहीं करते, ताकि वे उसके इरादों को पूरा करने वाले व्यक्ति बन सकें। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों में अपनी वांछित मंजिल और साथ ही विभिन्न इच्छित लाभ पाना चाहते हैं, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं और वे इस जीवन में अधिक अनुग्रह कैसे प्राप्त कर सकते हैं, और क्या वे आने वाले संसार में सौ गुना अधिक प्राप्त कर सकते हैं, वगैरह। वे परमेश्वर के वचनों में इन्हीं चीजों को खोजते हैं। इसलिए, चाहे तुम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखो, मसीह-विरोधी कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते, ना ही वे सोचते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और मानवजाति को उन्हें स्वीकार करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया यह है कि वे अपने वांछित आशीष और मंजिल प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहते हैं। वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग उन चीजों को प्राप्त करने के लिए एक स्प्रिंगबोर्ड के रूप में करना चाहते हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहते हैं। उनके अनुसरण, उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके रवैये के आधार पर, ये लोग छद्म-विश्वासियों का समूह, अवसरवादियों का समूह हैं। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में अपने वांछित लाभ और मंजिल नहीं पा सकते हैं, या जब परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने की प्रक्रिया में, संभावनाओं और नियति के बारे में परमेश्वर के वचन या मानवजाति से परमेश्वर के वादे उन्हें निराश करते हैं, और उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाती हैं, तो वे अपने हाथों में थामे हुए परमेश्वर के वचनों को बेपरवाही से और बिना किसी संकोच के किनारे कर देते हैं, वे परमेश्वर को छोड़ देते हैं और त्याग देते हैं, और अपनी इच्छित जिंदगी का अनुसरण करते हैं। वे परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने के लिए उसके सामने नहीं आते हैं। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे उन्हें सत्य नहीं मानते हैं, इसके बजाय वे अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने और अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना चाहते हैं। इस प्रकार, वे अपने परिणाम और मंजिल के लिए बिना थके परमेश्वर के वचनों की खोज करते हैं। वे खोजते हैं कि परमेश्वर आपदाओं के बारे में क्या कहता है, रहस्यों के बारे में उसके खुलासे क्या हैं, मानवजाति के विकास के बारे में उसके खुलासे क्या हैं, और उसके कार्य के बारे में थोड़ी परदे के पीछे की जानकारी पाना चाहते हैं। यही वह विषय-वस्तु है जिसकी उन्हें परवाह है। वे इस दायरे से बाहर किसी भी चीज में कोई रुचि नहीं रखते हैं। वे अक्सर भ्रष्ट मानवजाति से परमेश्वर की कुछ अपेक्षाओं से नफरत और उनका विरोध भी करते हैं। वे परमेश्वर द्वारा भ्रष्ट मानवजाति को उजागर किये जाने के प्रति भी विमुख महसूस करते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों में इस्तेमाल किए गए शब्दों और बोलने के लहजे में दोष ढूँढ़ते हैं, और कुछ ऐसा खोजने की कोशिश करते हैं जिसका वे परमेश्वर के खिलाफ इस्तेमाल कर सकें। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर मानवजाति को “पतिता” और “वेश्या” के रूप में उजागर करता है तो वे कहते हैं : “ये परमेश्वर के वचन कैसे हो सकते हैं? परमेश्वर इस तरह नहीं बोलेगा! परमेश्वर को एक परिष्कृत, सौम्य और विचारशील तरीके से बोलना चाहिए।” जब परमेश्वर के कुछ ऐसे वचनों की बात आती है जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं, जो मानवीय व्याकरण के अनुरूप नहीं होते हैं, और जो भ्रष्ट मनुष्यों के पारंपरिक तर्क के अनुरूप नहीं होते हैं तो वे सोचते हैं, “ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं, परमेश्वर इस तरह तो नहीं बोलेगा! परमेश्वर इतना सर्वोच्च, महान और अथाह है, तो उसके वचन इतने साधारण कैसे हो सकते हैं? वे पारंपरिक तर्क से इतने अलग कैसे हो सकते हैं? अगर परमेश्वर के वचन सत्य हैं तो उन्हें इस तरह से बोला जाना चाहिए कि हर कोई उन्हें ऊँचा सम्मान दे, उनकी आराधना करे और उनकी प्रशंसा करे। वे सभी वचन अथाह होने चाहिए—परमेश्वर के वचन ऐसे ही होने चाहिए!” जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है तो उनके मन में विभिन्न धारणाएँ, विभिन्न परिसीमाएँ और यहाँ तक कि विभिन्न अपेक्षाएँ भी होती हैं। उनकी अपेक्षाओं और परिसीमाओं के आधार पर, यह देखा जा सकता है कि मसीह विरोधियों का सार शैतान का सार है। परमेश्वर और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया शोध करने, विरोध करने, आलोचना करने, परमेश्वर के विरुद्ध उपयोग करने के लिए कुछ खोजने और दोष ढूँढ़ने का है। वे परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य के लिए कोई प्रयास नहीं करते हैं, ना ही वे इसके प्रति समर्पण करते हैं; वे ना इसे स्वीकारते हैं और ना ही इसका अभ्यास करते हैं। इसलिए, मसीह विरोधियों का सार शैतान का और बुरी आत्माओं का सार है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के साथ जिस तरह से पेश आते हैं उसी तरह से वे परमेश्वर के साथ भी पेश आते हैं। परमेश्वर के वचन स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्य उसके स्वभाव, उसके सार और इससे भी बढ़कर, उसकी पहचान और स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं। चाहे ये वचन परमेश्वर के देह द्वारा व्यक्त किए गए हों या परमेश्वर के आत्मा द्वारा, और चाहे वह किसी भी विषय-वस्तु को व्यक्त करता हो, ये वचन निस्संदेह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों पर शोध और विश्लेषण करना और उसके बारे में धारणाएँ विकसित करना परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने के बराबर है। वे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं। वे परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करते और परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं करते, जिसका मतलब है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते; वे निश्चित रूप से यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते। यही मसीह-विरोधियों का सार है।
कुछ लोग कहते हैं : “देहधारी परमेश्वर बहुत ही महत्वहीन और बहुत ही साधारण है। उसके वचनों और कार्यों से अक्सर मेरे मन में धारणाएँ पैदा होती हैं, और उसके वचन और कार्य मेरी कल्पनाओं के अनुरूप बिल्कुल नहीं होते। मैं देखता हूँ कि देहधारी परमेश्वर बस एक साधारण व्यक्ति है। वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं करता, तो चाहे वह अपने वचनों और कार्य में कितने ही सत्य व्यक्त करे, वह परमेश्वर जैसा नहीं है।” ये वचन कहाँ से आते हैं? वे किस चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या वे शैतान का प्रतिनिधित्व नहीं करते? शुरू से अंत तक, शैतान ने कभी भी परमेश्वर की पहचान और स्थिति को नहीं स्वीकारा है। उसने कभी यह नहीं माना कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और उसने निश्चित रूप से परमेश्वर के वचनों को कभी नहीं स्वीकारा है। इस प्रकार, जब शैतान परमेश्वर से बात करता है तो वह ऐसा बराबरी के स्तर पर आकर करना चाहता है। उसके बोलने का तरीका परमेश्वर का उपहास करने, उसका मजाक उड़ाने, और परमेश्वर को धोखा देने वाला है, और उसके हृदय में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है। मसीह-विरोधी जो चीजें करते हैं और जो शब्द मसीह-विरोधी कहते हैं वे सभी बिल्कुल शैतान के जैसे ही हैं। उनका सार एक जैसा है, सिवाय इसके कि शैतान मानवजाति के लिए अदृश्य है, जबकि मसीह-विरोधी प्रत्यक्ष और मूर्त हैं; वे मनुष्य की खाल में लिपटे शैतान हैं। अगर वे शैतान नहीं होते तो वे ऐसी चीजें करने और ऐसी बातें कहने में सक्षम नहीं होते। शैतान अक्सर झूठ बोलता है, और वह मानता है कि परमेश्वर के वचन भी झूठे हैं। शैतान अक्सर लोगों को धोखा देता है, वह धूर्त, कपटी और दुष्ट होता है, और उसका मानना है कि परमेश्वर भी उसी तरह बोलता है। परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, मसीह-विरोधी हमेशा परमेश्वर के वचनों में कुछ न कुछ जोड़ते रहेंगे, उनमें अपने स्वयं के अर्थ जोड़ते रहेंगे और उनकी मनमाने ढंग से व्याख्याएँ करते रहेंगे। यही नहीं, वे तो यह भी सोचते हैं कि परमेश्वर के कुछ वचन उनके वचनों जितने शानदार नहीं हैं, उनके स्तर के और उच्च मानकों वाले नहीं हैं, और भ्रष्ट मानवजाति को जीतने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसलिए, वे परमेश्वर के बोलने के तरीकों, बोलने के लहजे और उसके वचनों की विषय-वस्तु को कुछ लोगों के सामने लाना चाहते हैं ताकि उनका विश्लेषण कर उन्हें परखा जा सके, और इससे भी बढ़कर, उनकी आलोचना और निंदा की जा सके। ऐसा करने में उनका उद्देश्य क्या है? परमेश्वर का अनुसरण करते हुए, वे इस परमेश्वर से अपनी इच्छित संभावनाएँ और नियति प्राप्त करने की आशा करते हैं, और इस परमेश्वर से अपनी इच्छित मंजिल प्राप्त करने का इंतजार करते हैं। तो फिर वे अभी भी इस तरह से क्यों कार्य करते हैं? क्या यह खुद को थप्पड़ मारना नहीं है? इसका एक ही कारण है। वह यह है कि उनकी नजरों में, ऐसे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन बहुत ही सामान्य और साधारण हैं—उसके कार्य भी बहुत ही साधारण हैं। ऐसा परमेश्वर वह नहीं है जिसका वे सम्मान करना चाहते हैं या जो उनकी कल्पनाओं में है, और वह उनसे मेल नहीं खाता। अगर वे ऐसे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं तो उनकी मंजिल, उनकी संभावनाएँ और नियति, सब विफल हो सकती हैं। इसलिए, वे ऐसे परमेश्वर की घोर अवहेलना करते हैं। वे उसकी आलोचना करते हैं, उसे कमतर आंकते हैं, और उसके कार्य को नष्ट करने, उसमें बाधा डालने और उसे बर्बाद करने का प्रयास करते हैं, ताकि वह ऐसा ना कर सके। ऐसा होने पर उनका उद्देश्य पूरा हो जाएगा। कुछ लोग कहते हैं : “अगर वे अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेते हैं तो क्या उनकी मंजिल खत्म नहीं हो जाएगी?” इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर का अस्तित्व नहीं स्वीकारता, ना ही वह परमेश्वर के देहधारी शरीर को स्वीकारता है, इस तथ्य की तो बात ही छोड़ दो कि उसका प्रबंधन कार्य मानवजाति को बचाने के लिए है। वह केवल दांव लगा रहा है और जुआ खेल रहा है। अगर इस परमेश्वर को वाकई नीचे लाया जाता है तो वह जो चाहे वो कर सकता है और उसे परमेश्वर के घर में ऐसी कठिनाइयाँ अब और नहीं सहनी पड़ेंगी। फिर, वह संसार में, बुरी प्रवृत्तियों में, और जिसे वह सामान्य जीवन कहता है उसमें वापस लौटने में सहज महसूस कर सकता है। उसे किसी आपदा को सहने की जरूरत नहीं होगी, उसे किसी भी तरह के शुद्धिकरण से गुजरने की जरूरत नहीं होगी, और उसे निश्चित रूप से परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना नहीं झेलनी पड़ेगी। इन सबका कोई अस्तित्व नहीं रहेगा, और दुनिया हमेशा की तरह चलती रहेगी। ऐसे लोग अपने सपनों में इसी चीज की लालसा करते हैं। क्या ये लोग बुरे नहीं हैं? उनके इतने बुरे होने का मूल कारण क्या है? (उनका सार शैतान है, इसलिए वे परमेश्वर से घृणा करते हैं।) वास्तव में, वे मसीह-विरोधी राक्षस, अपने दिलों की गहराई में, अपनी आत्माओं में, इसे महसूस कर सकते हैं—वे जानते हैं कि परमेश्वर उनके जैसे लोगों को कैसे देखता है। परमेश्वर उनके जैसे लोगों से घृणा करता है। वे परमेश्वर के अनुरूप नहीं हैं। उनकी मानवता और प्रकृति सार से परमेश्वर को घृणा है। इसलिए, चाहे वे कितनी भी मेहनत करें और चाहे आशीष प्राप्त करने की कितनी भी इच्छा करें, उनका अंतिम नतीजा उनकी इच्छा पर निर्भर नहीं करेगा। वे किसी भी तथ्य को नहीं बदल सकते। वे परमेश्वर के अनुरूप नहीं हैं। वे परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं हैं। वे मसीह के अनुरूप नहीं हैं। तो आखिर में उनका क्या होगा? उन सभी का नाश होना निश्चित है। उनके दिलों में इस नतीजे की एक धुंधली-सी समझ है, तो फिर वे अभी भी परमेश्वर के घर में क्यों रहते हैं? वे आशीष प्राप्त करने का इतना अच्छा अवसर छोड़ने को तैयार नहीं हैं, इसलिए वे एक जुआ खेलना चाहते हैं, “अगर मैं इस तरह जुआ खेलता हूँ तो शायद मैं अभी भी आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। शायद मैं अभी भी जल्दी कर सकता हूँ और बच सकता हूँ। शायद अगर परमेश्वर सावधान नहीं है और वह ध्यान नहीं देता है तो मैं स्वर्ग के राज्य के द्वार से निकल सकता हूँ।” “शायद” की इस आशावादी सोच के साथ वे परमेश्वर के घर में बने रहते हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण और रवैया कभी नहीं बदलता है। वे परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं, सत्य से घृणा करते हैं, और सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं।
परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग ईमानदार बनें। कुछ लोग यह सुनकर सोचते हैं : “क्या यह मानक बहुत निम्न-स्तर का नहीं है? हम कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हैं, तो फिर अब वह हमें ‘ईमानदार बनने’ के लिए क्यों कह रहा है? अगर यह परमेश्वर का वचन है तो यह गहरा होना चाहिए, और भी ज्यादा ऊँचा, हमेशा अभेद्य, और हमेशा मनुष्य की पहुँच से दूर होना चाहिए। हमें अपेक्षाओं के ऊँचे मानकों की जरूरत है, न कि इन साधारण, महत्वहीन, निम्न-स्तरीय मानकों की।” ऐसे लोग नहीं समझ पाते हैं कि सत्य वास्तविकता क्या है। जब वे लोग जो सत्य नहीं समझते, इस धर्मोपदेश को सुनते हैं तो वे परेशान हो जाते हैं, मगर संगति, अनुभव और इस अनुभव से गुजरने के बाद, उन्हें एहसास होता है कि मनुष्य को परमेश्वर के इन्हीं वचनों की जरूरत है। मनुष्य को इनकी जरूरत क्यों है? मनुष्य शैतान द्वारा बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया जा चुका है, और इसलिए कोई भी व्यक्ति ईमानदार नहीं है; यह संसार झूठ से भरा है, और यह बात उन लोगों के लिए भी सच है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। हर दिन लोग एक के बाद एक झूठ बोलते हैं; उनकी बातें शैतान के झूठ और धोखे से भरी हुई है। इसलिए परमेश्वर ने मनुष्य से यह सबसे सरल और सीधी-सी अपेक्षा रखी है : ईमानदार बनो। समय और अनुभव के साथ, लोगों में परमेश्वर के वचनों की समझ, और उसकी अपेक्षाओं और उसके इरादों की समझ विकसित होती है; परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और निर्देश से, उन्हें धीरे-धीरे एहसास होता है कि उसके वचन कितने व्यावहारिक हैं, उसके हर एक वचन को कैसे समझा जाना चाहिए और कैसे उसमें प्रवेश किया जाना चाहिए, कैसे उसका कोई भी वचन खोखला नहीं है, कैसे मानवता को उसके सभी वचनों की जरूरत है, कैसे परमेश्वर लोगों को इतनी अच्छी तरह समझता है और उनकी असलियत देख सकता है, और वह उनकी भ्रष्टता को बहुत अच्छी तरह समझता है। यही वह मार्ग है जिससे एक साधारण व्यक्ति गुजरता है। फिर भी जब मसीह-विरोधी इस वाक्यांश को देखते हैं, जहाँ परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने की अपेक्षा करता है तो वे इसे अनादर, उपहास, व्यंग्य और यहाँ तक कि प्रतिरोध के रवैये से देखते हैं। इस वाक्यांश के बारे में अपनी राय बनाने के बाद वे इसे याद रखते हैं, परमेश्वर के प्रति उनकी अवमानना बढ़ती जाती है, और वे उसे और उसके वचन को अधिक से अधिक हिकारत से देखते हैं, यहाँ तक कि वे अब उसके वचन का अध्ययन भी नहीं करते। जब कुछ लोग अपने अनुभवों के बारे में बताते हैं कि उन्होंने कैसे अपने कपटी स्वभाव को प्रकट किया, और कैसे उन्होंने पश्चात्ताप किया और ईमानदार बनने की कोशिश की तो इन मसीह-विरोधियों के मन में प्रतिरोध, घृणा और तिरस्कार पैदा हो जाता है। न केवल वे उन लोगों की बातों को स्वीकारने से नकार देते हैं, बल्कि वे भाई-बहनों की संगति से मिले अनुभव और ज्ञान को लेकर प्रतिरोध और घृणा महसूस करते हैं, यहाँ तक कि वे उन लोगों के प्रति घृणा और तिरस्कार महसूस करते हैं जो अधिक संगति करते हैं और जिनके पास बेहतर ज्ञान होता है। वे सोचते हैं, “तुम लोग बेवकूफ हो। परमेश्वर तुम लोगों को ईमानदार बनने के लिए कहता है और तुम बस वही करते हो। तुम लोग इतने आज्ञाकारी कैसे हो सकते हो? तुम लोग मेरे कहे वचनों पर ध्यान क्यों नहीं देते। मुझे देखो—तुममें से कोई भी मेरी वास्तविक स्थिति नहीं जानता, कोई नहीं जानता कि मैं कितना कपटी और धूर्त हूँ। और मैं तुम लोगों को इन चीजों के बारे बताऊँगा भी नहीं; क्या तुम लोगों को लगता है कि तुम उन्हें सुनने के हकदार हो?” वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति यही रवैया रखते हैं; न केवल वे उन्हें स्वीकारने से नकार देते हैं, बल्कि वे उनका प्रतिरोध और निंदा भी करते हैं। क्या ये छद्म-विश्वासियों की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? ये मानक छद्म-विश्वासी हैं। ऊपरी तौर पर, उन्होंने खुलेआम परमेश्वर के वचन की निंदा नहीं की है, उन्होंने परमेश्वर के वचन की किताबों को भट्टी में जलाने के लिए नहीं फेंका है। बाहर से, वे रोज परमेश्वर का वचन पढ़ते हैं और धर्मोपदेश सुनते हैं, और सभाओं के दौरान संगति करते हैं, मगर वास्तव में, परमेश्वर के वचन के प्रति उनके दिलों की गहराई में अत्यधिक घृणा, प्रतिरोध और तिरस्कार की भावना उत्पन्न हो गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस पल उनके मन में परमेश्वर के वचन के बारे में धारणाएँ विकसित हुईं, उसी पल उन्होंने इसे नकार दिया था। कुछ लोग कहते हैं : “क्या उन मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर का वचन उसके ये बातें बोलने से पहले ही ठुकरा दिया था?” उस समय तक उन्होंने इसे नहीं ठुकराया था। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनके मन में परमेश्वर के बारे में कई धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं, और इनकी वजह से ही वे उसका सम्मान और उसकी प्रशंसा करते थे, और उसे एक महान व्यक्ति मानते थे। मगर जब परमेश्वर ने अपने वचन व्यक्त किए तो उसके बारे में उनका दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया, और उन्होंने कहा : “परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन वास्तव में बहुत ही साधारण हैं! वे बहुत सरल, बहुत सीधे, समझने में बहुत आसान हैं : ऐसे वचन तो मैं खुद ही बोल सकता हूँ! क्या हर कोई यह नहीं कहता कि परमेश्वर महान है? तो फिर वह हमें ईमानदार बनने के लिए क्यों कहेगा? अगर परमेश्वर बहुत महान है, अगर वह वाकई सर्वोच्च है, तो उसे लोगों से इतनी छोटी और मामूली अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए!” जब उन्होंने परमेश्वर का वचन पढ़ा और उसे उथला पाया, और उन्हें लगा कि यह लोगों की धारणाओं से मेल नहीं खाता या परमेश्वर की भव्य छवि और पहचान के अनुरूप नहीं है तो उनके मन में परमेश्वर के वचनों के बारे में धारणाएँ विकसित हो गईं। इन धारणाओं के विकसित होने की पृष्ठभूमि में, उनके भीतर परमेश्वर के वचनों के लिए अत्यधिक घृणा पैदा हो गई, और इसके बाद उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर के बारे में उनकी कल्पनाओं और धारणाओं को बांधे रखने वाला तटबंध पूरी तरह से ढह गया। इस ढहने का क्या नतीजा हुआ? अपने दिलों की गहराई से, उन्होंने परमेश्वर के वचन को नकार दिया और उसकी निंदा की। तो, जब लोग परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हैं तब मसीह-विरोधियों के मन में क्या चलता है? वे दर्शकों की तरह होते हैं, किनारे खड़े होकर बस देख रहे होते हैं। जब वे किसी को परमेश्वर के वचनों की प्रशंसा करते हुए या परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभव पर संगति करते हुए सुनते हैं तब भी ये मसीह-विरोधी दर्शक बनकर देखते रहते हैं और कभी दिल की गहराइयों से “आमीन” नहीं कहते। कई बार, वे यह कहते हुए लोगों का मजाक भी उड़ाते हैं, “ईमानदार बनकर तुमने क्या हासिल कर लिया? भले ही तुम ईमानदार बनने की कोशिश कर रहे हो, यह जरूरी नहीं कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा और यह भी जरूरी नहीं कि वह तुम्हें आशीष देगा। बहुत कम लोगों को ही आशीष मिलेगा। अगर मुझे कोई आशीष नहीं मिलता तो तुम लोगों में से भी किसी को कोई आशीष नहीं मिलेगा!” एक मसीह-विरोधी का प्रकृति सार परमेश्वर के वचन और परमेश्वर को लेकर प्रतिरोधी होता है, और इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन को स्वीकारने में असमर्थ हैं, उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। अगर वे परमेश्वर के वचन को स्वीकार नहीं करते और उसके प्रति समर्पण नहीं करते तो क्या वे उससे अनुभव प्राप्त कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते, तो फिर वे किस व्यक्तिगत ज्ञान की बात करते हैं? यह सब केवल कल्पनाएँ, अनुमान, धर्म-सिद्धांत या सिद्धांत हैं, या कभी-कभी वे दूसरे लोगों के कुछ अच्छे लगने वाले शब्द भी दोहराते हैं, और इस तरह, उनके अंदर परमेश्वर के वचनों का कोई अनुभव या ज्ञान उत्पन्न होना असंभव है। इसलिए, परमेश्वर और उसके वचन के प्रति मसीह-विरोधियों के विभिन्न रवैयों के कारण, और उनके प्रकृति सार के कारण, चाहे वे 10 साल, 20 साल या उससे भी ज्यादा समय से परमेश्वर पर विश्वास करते रहे हों, आज तक, तुम उनसे परमेश्वर का एक भी वचन नहीं सुनोगे या उनमें परमेश्वर के वचन का कोई अनुभव नहीं देखोगे, और परमेश्वर के बारे में थोड़ा-सा भी ज्ञान तुम कभी नहीं पाओगे। उनकी बातों में तुम यह नहीं सुनोगे कि उनके मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं, और परमेश्वर के प्रकाशन से वे प्रबुद्ध हो गए हैं, और आखिरकार उस मुकाम पर पहुँच गए हैं जहाँ से वे परमेश्वर को गलत नहीं समझते या उसके बारे में धारणाएँ नहीं रखते हैं। उनके पास यह अनुभव नहीं है, न ही उनके पास यह ज्ञान है। यही कारण है कि मसीह-विरोधी सत्य प्राप्त नहीं कर सकते या किसी व्यक्तिगत अनुभव या ज्ञान के बारे में बिल्कुल भी बात नहीं कर सकते, फिर चाहे वे परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने की कितनी भी कोशिश क्यों न करें। वे बस परमेश्वर के वचन के कुछ मशहूर अंशों को पढ़ने और याद करने में लगे रहते हैं, जिनका भाई-बहन अक्सर जिक्र करते हैं; वे बस आधे-अधूरे मन से काम करते हैं और बहती धारा के साथ चलते हैं, और फिर उसी तरह से सोचना जारी रखते हैं जैसे वे हमेशा से सोचते आए हैं। वे परमेश्वर के बारे में अपने मन में उठने वाली धारणाएँ या अपने और परमेश्वर के बीच उत्पन्न होने वाले मतभेद और समस्याएँ हल नहीं करते, चाहे वे कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न हों। ये धारणाएँ और समस्याएँ हमेशा उनका पीछा करती रहती हैं। उनके द्वारा ये समस्याएँ हल नहीं करने के क्या परिणाम होते हैं? उनके दिलों में आक्रोश गहरा होता जाता है और परमेश्वर के प्रति उनकी घृणा बढ़ती जाती है। इस रास्ते पर चलते रहने से, परमेश्वर में लंबे समय तक विश्वास करते रहने के क्या परिणाम होंगे? क्या ये संचित आक्रोश और धारणाएँ उन्हें अपनी संभावनाओं, नियति और आशीष पाने के इरादे को छोड़ने पर मजबूर कर सकती हैं? (नहीं।) अगर ये समस्याएँ हल नहीं होती हैं, तो अंतिम नतीजा क्या होगा? (बड़ा विस्फोट होगा।) “विस्फोट” शब्द बिल्कुल स्पष्ट है। वे कैसे विस्फोट करेंगे? कितने तरीके हैं? (मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आ रहे हैं जो मैंने पहले पढ़े थे, “यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे एक मुस्कुराते, ‘उदार-हृदय’ व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)।) वे हत्यारे क्यों बन जाते हैं? जब आशीष पाने की उनकी इच्छा नष्ट हो जाती है तो वे लड़ने की मुद्रा में आ जाते हैं, और कहते हैं, “हममें से किसी के लिए भी यह आसान नहीं होने वाला है, इसलिए मुझे इसे छिपाने या इस पर परदा डालने की जरूरत नहीं है—मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करता हूँ। अगर मुझे पता होता कि मुझे आशीष नहीं मिलने वाला है तो मैं बहुत पहले ही छोड़कर चला गया होता!” वे अपने दिल की सारी बात कह देते हैं और अपनी निंदा से नहीं डरते। वे निंदा से क्यों नहीं डरते? क्यों वे शिष्टता के सारे दिखावे छोड़कर भड़क उठते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अब और विश्वास नहीं करना चाहते और सब छोड़-छाड़कर चले जाना चाहते हैं। वे इतने सालों से अपने लक्ष्यों की खातिर अपमान और कठिनाई सहते आ रहे हैं, और वे इन रणनीतियों के अनुसार अभ्यास करते हैं और इन रणनीतियों का अपने आध्यात्मिक समर्थन के रूप में उपयोग करते हैं। आज जब वे देखते हैं कि उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं है तो उन्हें लगता है कि उन्हें शिष्टता के सारे दिखावे छोड़ देने चाहिए और खुलकर कहना चाहिए, “मैं मात्र एक छद्म-विश्वासी हूँ। मुझे सकारात्मक चीजें पसंद नहीं हैं। मुझे सांसारिक चीजों के पीछे भागना और दुष्ट प्रवृत्तियाँ पसंद हैं। वे कहते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और परमेश्वर के वचन लोगों को बदल सकते हैं और उन्हें बचा सकते हैं। मैंने ऐसा क्यों नहीं देखा? मैं इसका अनुभव या इसे महसूस क्यों नहीं कर सकता हूँ? परमेश्वर का वचन लोगों में क्या बदलाव लाया है? मुझे लगता है कि परमेश्वर के वचन कुछ भी नहीं हैं। केवल एक ही चीज है जिसका सबसे ज्यादा ठोस लाभ है, और वह यह है कि जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे धन्य होंगे और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे। ये वचन सत्य हैं। अगर आशीष पाने की बात नहीं होती तो मैं परमेश्वर पर विश्वास नहीं रखता! परमेश्वर कहाँ है? अगर परमेश्वर लोगों को बचा सकता था तो उसे सलीब पर क्यों चढ़ाया गया? वह तो खुद को भी नहीं बचा सका!” वे वही कहते हैं जो वे वास्तव में सोचते हैं—क्या इसमें उनका शैतानी पक्ष प्रकट नहीं होता? बरसों से जमा हुई धारणाओं और आक्रोश का विस्फोट हो जाता है। यही मसीह-विरोधियों का अंत में अपना असली रंग दिखाना है।
कुछ मसीह-विरोधी अक्सर कहते हैं : “मैंने अपना परिवार और करियर त्याग दिया, बहुत मेहनत की, और परमेश्वर पर अपने विश्वास में बहुत कुछ सहा, और अंत में मुझे क्या मिला? क्या परमेश्वर वह नहीं है जो लोगों को आशीष देता है? क्या परमेश्वर वह नहीं है जो लोगों को अनुग्रह देता है? तो मुझे क्या मिला?” परमेश्वर ने मनुष्य को बहुत सारे सत्य प्रदान किए हैं, और उसने बदले में कुछ माँगे बिना बहुत कुछ दिया है; भले ही लोग परमेश्वर का बहुत ज्यादा विरोध और उसके खिलाफ बहुत ज्यादा विद्रोह करते हैं, वह इसे याद नहीं रखता, और अभी भी मनुष्य को बचाने आता है। मसीह-विरोधी यह नहीं देख सकते कि मनुष्य ने परमेश्वर से कितना कुछ पाया है। “मुझे क्या मिला” कहने से वास्तव में उनका क्या मतलब है? (आशीष।) मसीह-विरोधियों को सब कुछ चाहिए। वे परमेश्वर में विश्वास करने और परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्यागने में सक्षम हैं, और उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन्हें सफलता पाने का मौका मिलेगा, और यह उनके लिए सार्थक होगा। वे संसार और अपनी संभावनाएँ त्याग देते हैं, पर भविष्य में वे पूरे संसार के मालिक बनना चाहते हैं। बदले में उन्हें जो चाहिए वह उन चीजों से ज्यादा होना चाहिए जो उन्होंने त्यागी हैं। यह उन चीजों से ज्यादा कीमती होना चाहिए, और इससे उन्हें ज्यादा फायदे मिलने चाहिए, तभी वे लेन-देन करेंगे। क्या तुम लोगों को लगता है कि मसीह-विरोधी क्षणिक गुस्से में फटकर ऐसी बातें बोलते हैं? (नहीं।) वे फटने से पहले यकीनन इन बातों को अपने मन में लंबे समय से दबाए रखते हैं। इसके बाद, मसीह-विरोधी जो कुछ भी वर्षों से सोच रहे थे और जिन चीजों का अनुसरण कर रहे थे, वह सब उजागर हो जाता है, उनके सारे नकाब उतर जाते हैं। वे जो कहते हैं उनका मुख्य बिंदु क्या है? “मैंने इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया और उसका अनुसरण किया, और मुझे क्या मिला?” वे जो हासिल करना चाहते हैं वह सत्य नहीं है। वे सत्य नहीं चाहते हैं। वे जीवन नहीं चाहते, वे स्वभाव में बदलाव नहीं चाहते, और न ही वे परमेश्वर का उद्धार चाहते हैं। वे सोचते हैं कि वे पूर्ण व्यक्ति हैं और वे ये चीजें हासिल नहीं करना चाहते। वे कुछ अतिरिक्त, कुछ बड़े आशीष हासिल करना चाहते हैं जो इस संसार में प्राप्त नहीं किए जा सकते। यानी उन्होंने संसार की जिन चीजों को त्याग दिया है उनके बदले में उन आशीषों को पाना चाहते हैं जिनका परमेश्वर ने वादा किया है। वे परमेश्वर से सबसे बड़ा आशीष पाना चाहते हैं। जब वे देखते हैं कि वे अपनी इच्छाओं को साकार नहीं कर सकते, और सारी उम्मीदें खत्म हो गई हैं तो उन्हें हार मान लेनी पडती है। मगर जब ऐसा करने का समय आता है तो उनके स्वभाव के हिसाब से क्या वे वहाँ रुक पाएँगे? वे नहीं रुकेंगे। कुछ परिवार ऐसे हैं जहाँ हर कोई विश्वासी है, और उनके बीच से ही मसीह-विरोधी उभर आते हैं। जब ये मसीह-विरोधी देखते हैं कि उन्हें आशीष नहीं मिलेंगे तो वे अपने परिवार के लोगों को विश्वास रखने से रोकने के लिए उन्हें परेशान करना शुरू कर देते हैं। क्या ये अभी भी परिवार के लोग हैं? वे बाहरी शारीरिक या खून के रिश्ते के मामले में परिवार के करीबी लोग हैं। मगर जब हम प्रत्येक सदस्य के अनुसरण के मार्ग को देखते हैं, तो भले ही उन सभी ने 10 वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, कुछ मसीह-विरोधियों के रूप में बेनकाब होते हैं, कुछ सत्य का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा रहे होते हैं, वहीं कुछ लोग औसत स्तर पर सत्य का अनुसरण कर रहे होते हैं—इस तरह उनका प्रकृति सार प्रकट होता है। बेशक, उनमें से सबसे बुरे मसीह-विरोधी हैं, जिन्हें मनुष्य द्वारा ठुकरा दिया जाना चाहिए और परमेश्वर के घर द्वारा निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। तो, क्या ये परिवार के लोग हैं? क्या असली परिवार ऐसे ही होते हैं? ये तो एक जैसे लोग भी नहीं हैं! कुछ लोग इतने वर्षों से शैतानों के साथ रह रहे हैं और अभी भी उन्हें परिवार के सदस्य मानते हैं। वे उन्हें छोड़ नहीं सकते और बेवकूफों की तरह उन्हें अपने प्रियजन भी मानते हैं। ये किस तरह के प्रियजन हैं? मसीह-विरोधी खुद को प्रकट करने के बाद, सभी तरह की बुराई करने लगते हैं। वे अपने परिवारों में मौजूद सच्चे विश्वासियों को सता भी सकते हैं। इससे भी बदतर, वे अपने परिवार के सदस्यों को दुष्ट सरकारों के हवाले कर सकते हैं। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को धोखा देते हैं, और कुछ बच्चे अपने माँ-बाप को धोखा देते हैं। चाहे उनका रिश्ता कितना भी करीबी या घनिष्ठ क्यों न हो, ऐसा कुछ भी नहीं है जो मसीह-विरोधी नहीं करेंगे। चूँकि मसीह-विरोधी अपने परिवारों में सच्चे विश्वासियों को धोखा दे सकते हैं और उन्हें सता सकते हैं, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वे दुश्मन हैं? (बिल्कुल।) कलीसिया में एक या दो मसीह-विरोधियों का उभरने का मतलब भाई-बहनों के लिए खतरा है। जैसे ही मसीह-विरोधी देखते हैं कि उन्हें आशीष नहीं मिलेंगे, वे अपने कदम वापस खींच लेते हैं, सतर्कता बरतना छोड़ देते हैं, लड़ने की मुद्रा में आ जाते हैं, और अन्य भाई-बहनों को परेशान करने के बारे में सोचने लगते हैं। कुछ भाई-बहन कमजोर, छोटे आध्यात्मिक कद वाले होते हैं और सत्य नहीं समझते हैं। मसीह-विरोधी इन भाई-बहनों को इंटरनेट पर कुछ अफवाहें दिखाते हैं, और फिर उनमें अपने अलंकृत स्पष्टीकरण जोड़कर आग को हवा देने का काम करते हैं, जिससे वे भाई-बहन परेशान और गुमराह हो जाते हैं, और आखिरकार बर्बाद हो जाते हैं। बेशक, कुछ भाई-बहनों में विवेक होता है और वे तुरंत मसीह-विरोधियों को पहचान लेते हैं। अगर वे मसीह-विरोधियों से खुलेआम निपटते हैं तो उनके लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी, इसलिए यह पर्याप्त है कि वे उन्हें अलग-थलग करने का कोई बुद्धिमान तरीका खोजें ताकि वे दूसरों को परेशान न कर सकें या पीड़ा न पहुँचा सकें। शैतानों से निपटते समय, लोगों को बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए।
मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं और नियति की खातिर परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हैं। वे आशीष पाने की अपनी इच्छा को पकड़े रहते हैं और परमेश्वर के घर में प्रवेश करते समय, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय, उन्हें स्वीकारते समय, और उनका प्रचार करते समय अपनी महत्वाकांक्षाएँ साथ लेकर आते हैं। वे अपनी संभावनाओं और नियति की खातिर परमेश्वर के घर में रियायतें देते हैं, अपमान सहते हैं, और सभी प्रकार की कठिनाइयाँ झेलते हैं। और कई वर्षों तक इंतजार करने और देखने के बाद, जब उनकी आशाएँ चकनाचूर हो जाती हैं तो वे अपनी संभावनाओं और नियति के कारण कलीसिया और परमेश्वर के घर को छोड़ देते हैं, क्योंकि आशीष पाने की उनकी इच्छा और इरादा साकार नहीं हो पाता। ऐसे लोगों का क्या परिणाम होता है? उन्हें हटा दिया जाएगा। और उन्हें क्यों हटा दिया जाएगा? क्या परमेश्वर उन्हें नहीं बचाने का फैसला उसी पल ले लेता है जब वे उसके घर में प्रवेश करते हैं, या फिर उनकी अपनी कुछ समस्याएँ हैं? (उनकी अपनी समस्याएँ हैं।) जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं तो वे गेहूँ के बीच घास की तरह मिल जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मगर क्या परमेश्वर इसके बारे में नहीं जानता?” परमेश्वर इसके बारे में जानता है; परमेश्वर इन सबकी जाँच-पड़ताल करता है। इस तरह के लोग बदल नहीं सकते। भले ही उन्होंने परमेश्वर के सभी वचन पढ़े हों, भले ही उन्होंने रहस्यों, मनुष्य की मंजिल और मनुष्य के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों के बारे में पढ़ा हो जिनका खुलासा परमेश्वर ने किया है, और भले ही उन्होंने ऐसे अन्य वचनों को पढ़ा हो, इसका कोई फायदा नहीं है, क्योंकि वे सत्य स्वीकार नहीं करते। परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन पूरी मानवजाति के लिए हैं। वे किसी से छिपे नहीं हैं और सभी को समान रूप से प्रदान किए गए हैं। हर कोई परमेश्वर के वचन पढ़ और सुन सकता है, मगर अंत में, मसीह-विरोधी उन्हें कभी प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे मसीह-विरोधी, राक्षस और शैतान हैं। परमेश्वर के साथ इतने वर्षों तक रहने के बाद भी शैतान नहीं बदला, तो फिर मसीह-विरोधी कहाँ से बदलेंगे? भले ही तुम उन्हें हर दिन परमेश्वर का वचन पढ़ने के लिए कहो, वे इसे प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे मसीह-विरोधी हैं, और उनमें मसीह-विरोधी का सार है। मसीह-विरोधियों से उनके हितों या उनकी संभावनाओं और नियति को छुड़वाना मुमकिन नहीं है। यह सुअर को पेड़ पर चढ़ाने जैसा है। यह नामुमकिन कार्य है। मसीह-विरोधी तत्काल लाभ देखना चाहते हैं, और वे भविष्य में अनंत लाभ भी चाहते हैं। अगर वे इनमें से किसी भी चीज को प्राप्त या साकार नहीं कर पाते हैं तो वे तुरंत शत्रु बन हो जाते हैं, और कभी भी छोड़कर जा सकते हैं। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के मर्म को समझना चाहते हैं, उसके लहजे और अंदाज को सुनकर उसके वचनों के अर्थ और इरादे का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं, उनका असली अर्थ समझना चाहते हैं, ताकि उन विभिन्न लाभों को आँक सकें जिनकी उन्हें परवाह है और जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों के प्रति यह रवैया अपनाएँगे तो क्या उनके लिए सत्य समझना मुमकिन होगा? (नहीं।) इसलिए, हर मामले में, मसीह-विरोधी परमेश्वर और उसके वचन के विरोधी और पक्के दुश्मन होते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “फलाँ व्यक्ति वाकई बहुत अच्छा था। वह अब ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है? परमेश्वर के वचन की संगति सुनने के बाद, उसने कहा कि वह इसे समझता है और उसने अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए कड़ी मेहनत करने का वादा किया है तो वह क्यों नहीं बदल सकता?” मैं तुम्हें सच बताता हूँ। ऐसा नहीं है कि वह अभी नहीं बदल सकता—वह भविष्य में भी नहीं बदल सकेगा। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि उसका बदलने का कोई इरादा नहीं है। जरा सोचो : अगर किसी भेड़िये को खाने के लिए भेड़ नहीं मिलती है, तो भूखा होने पर वह कभी-कभी अपनी भूख मिटाने के लिए थोड़ी घास खा लेता है और थोड़ा पानी पी लेता है। मगर क्या इसका मतलब यह है कि उसकी प्रकृति बदल गई है? (इसका यह मतलब नहीं है।) इसलिए, जब मसीह-विरोधी कुछ भी बुरा नहीं करते और कुछ समय के लिए थोड़े अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे बदल गए हैं या उन्होंने सत्य स्वीकार लिया है। जैसे ही उनकी गंभीरता से इस तरह से काट-छाँट की जाती है जिससे उनकी ताकत और रुतबे पर असर पड़ता है, और वे देखते हैं कि अब उनके पास कोई उम्मीद नहीं है—उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा—तो वे तुरंत नकारात्मक हो जाएँगे, अपना काम छोड़ देंगे, और उनका वास्तविक, असली रंग सामने आ जाएगा। ऐसे लोगों को कौन बदल सकता है? परमेश्वर उन्हें बचाने की योजना नहीं बनाता, वह केवल उन्हें बेनकाब करने और हटाने के लिए तथ्यों का उपयोग करता है। इसलिए, शैतान के इन चाकरों को सभी को पहचानना चाहिए और ठुकरा देना चाहिए।
मसीह-विरोधियों को पहचानना बुरे लोगों और शैतान को पहचानने जैसा है, और मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण करना अदृश्य शैतान और राक्षसों का गहन-विश्लेषण करने जैसा है। आज हम जिन मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं, मनुष्य उन्हें देख सकता है। तुम उनके काम को देख सकते हो और उनकी बातें सुन सकते हो; तुम उनकी सभी अभिव्यक्तियों को देखकर उनके इरादों का पता लगा सकते हो। तुम आध्यात्मिक क्षेत्र के शैतान या राक्षसों को देख या छू नहीं सकते, तो वे तुम्हारे लिए बस एक परिकल्पना और उपाधि मात्र रहेंगे। मगर आज हम जिन मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं, वे अलग हैं। ये जीवित राक्षस और शैतान हैं। वे हाड़-मांस से बने मूर्त राक्षस और शैतान हैं। ये राक्षस और शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसे ठुकराते हैं, और वे परमेश्वर द्वारा बोले गए हर वचन से विमुख होते हैं। कलीसिया में आने के बाद भी वे ऐसी चीजें करना जारी रखते हैं। वे अभी भी पहले की तरह परमेश्वर के वचनों का विरोध करते हैं, उनसे विमुखता महसूस करते हैं और उन्हें ठुकरा देते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों से नफरत भी करते हैं। अगर कोई बात परमेश्वर के मुँह से निकली है, तो एक छोटी-सी बात भी उनके दिलों में कई सवाल खड़े करेगी। वे इस पर शोध करेंगे, इसका विश्लेषण करेंगे और अपने दिमाग का उपयोग करके इसे संसाधित करेंगे। इसलिए, मसीह-विरोधियों के लिए, परमेश्वर के वचन उनके विश्वास का विषय नहीं हैं। वे कभी भी परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करेंगे। परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी व्यावहारिक, सच्चे या विश्वसनीय क्यों न हों, वे उन पर विश्वास नहीं करेंगे। इन बिंदुओं से देखा जाए तो क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के दुश्मन नहीं हैं? क्या उनकी जन्मजात प्रकृति सत्य से शत्रुता रखने की नहीं है? इस प्रकार के लोग परमेश्वर के जन्मजात दुश्मन होते हैं, वे जन्म से ही सत्य से विमुख होते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानेंगे या सत्य मानकर उन्हें कायम नहीं रखेंगे। उनके सार, परमेश्वर के प्रति उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके विभिन्न रवैयों के कारण, अंत में परमेश्वर के वचनों में इस प्रकार के लोगों की निंदा की जाती है और उन्हें परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिया जाता है। तो, क्या वे वह सबसे बड़ा लाभ हासिल कर सकेंगे जिसका वे अनुसरण करते हैं—यानी उनकी संभावनाएँ और नियति? कभी नहीं। इसलिए, परमेश्वर जिन वादों और आशीषों की बात करता है कि वह मानवजाति को देगा और जो मंजिल उसने मानवजाति के लिए तैयार की है, वे किसके लिए हैं? क्या इन चीजों में मसीह-विरोधियों के लिए कोई हिस्सा है? (नहीं।) जिस शानदार मंजिल की परमेश्वर ने बात की है और जिसका उसने मानवजाति से वादा किया है वह परमेश्वर का उद्धार पाने वालों को दी जाती है; यह उन लोगों को दी जाती है जो परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करते हैं और परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकारते हैं। यह उन मसीह-विरोधियों के लिए नहीं है जो परमेश्वर के विरोधी हैं और जो परमेश्वर के वचन को एक मक्कार द्वारा बोले गए झूठ मानते हैं।
11 अप्रैल 2020
फुटनोट :
क. मूल पाठ में “उनका मानना है कि” यह वाक्यांश नहीं है।