मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं
परिशिष्ट : डैमिंग और शाओमिंग की कहानी
आओ, इससे पहले कि हम अपनी संगति के मुख्य विषय पर आएँ, शुरुआत एक कहानी सुनाने से करते हैं। कहानियाँ सुनाने का क्या फायदा है? (वे याद रखने में आसान हैं।) अब तक, मैंने आसानी से याद होने वाली कितनी कहानियाँ सुनाई हैं? (दाबाओ और शाओबाओ की कहानी।) “दाबाओ और शाओबाओ की कहानी” वह थी जो मैंने पिछली बार सुनाई थी। (इसके अलावा “चूहों का शिकार” और महिला अगुआओं की कहानी भी थी।) पहले ही काफी कहानियाँ सुनाई जा चुकी हैं। मैं कहानियाँ क्यों सुनाता हूँ? दरअसल, इसका मकसद लोगों के समझने लायक कुछ सत्यों के बारे में संगति के लिए ज्यादा सहज, समझने में आसान तरीका अपनाना है। अगर तुम लोग मेरी बताई गई कहानियों से सत्य समझते हो, और ये सत्य तुम लोगों के दैनिक जीवन प्रवेश के विभिन्न पहलुओं में मदद करते हैं, तो कहानियाँ सुनाना व्यर्थ नहीं गया। यह दिखाता है कि तुम लोग कहानियों में शामिल सत्यों को वास्तव में समझते हो, कि तुम इन सत्यों का व्यावहारिक पक्ष समझते हो, न कि उन्हें सिर्फ कहानियों की तरह सुनते हो। पिछली बार मैंने दाबाओ और शाओबाओ की कहानी सुनाई थी। आज मैं डैमिंग और शाओमिंग की कहानी सुनाऊँगा। जब तुम लोग सुनो, तो सोचना कि यह कहानी वास्तव में तुम लोगों को क्या समझाने की कोशिश कर रही है और इसमें सत्य का कौन-सा पहलू शामिल है।
डैमिंग और शाओमिंग पिता-पुत्र हैं। कुछ समय पहले, डैमिंग और उसके बेटे शाओमिंग ने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार किया। क्या यह अच्छी बात है? (हाँ।) यह अच्छी बात है। शाओमिंग अभी छोटा है और थोड़ा-बहुत ही पढ़ सकता है, इसलिए डैमिंग हर दिन उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है और धैर्य के साथ उन वचनों को समझाता है जो शाओमिंग को समझ में नहीं आते। कुछ समय बाद, एक व्यक्ति के रूप में अपना आचरण कैसे करना है इस बारे में शाओमिंग कुछ धर्म-सिद्धांत समझने लगता है, साथ ही वह कुछ शब्दावली भी समझने लगता है जो उसने परमेश्वर में विश्वास करने से पहले कभी नहीं सुनी थी, जैसे समर्पण, आस्था, ईमानदारी, धोखेबाज़ी, इत्यादि। अपने बेटे की प्रगति देखकर डैमिंग बहुत खुश है। हालाँकि, हाल ही में डैमिंग ने देखा कि वह शाओमिंग को परमेश्वर के वचनों को चाहे कितना ही पढ़कर सुनाए, उसके व्यवहार या बोलने में कोई खास प्रगति नहीं हो रही है। डैमिंग चिंतित हो जाता है और मन में एक बोझ महसूस करता है, वह सोचता है : “मैं अपने बेटे को परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाकर कुछ सत्य कैसे समझा सकता हूँ, उसमें कुछ बदलाव कैसे ला सकता हूँ ताकि दूसरे उसे स्वीकार करें, उसे शाबाशी दें, और एक अच्छे बच्चे के रूप में उसकी तारीफ करें? और फिर, शाओमिंग के प्रदर्शन के कारण, वे मान सकें कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है, और मेरे बेटे के बदलावों के माध्यम से सुसमाचार दूसरों तक फैल सके—यह कितना अच्छा होगा!” मन में यह बोझ उठाए डैमिंग सोचता रहता है : “मैं शाओमिंग को स्वयं के आचरण के बारे में ज्यादा समझने के लिए कैसे ठीक से शिक्षित कर सकता हूँ, ताकि वह बेहतर प्रदर्शन करे और परमेश्वर के इरादों के साथ तालमेल बिठाए? अंत में, जब शाओमिंग एक अच्छा बच्चा बन जाता है और हर कोई उसकी तारीफ करता है, तो यह सारी महिमा परमेश्वर को दी जा सकती है—यह कितना अद्भुत होगा! उस समय, मेरे दिल का भारी बोझ उतर जाएगा।” जिस बोझ को डैमिंग महसूस करता है क्या वह उचित है? क्या इसे उसके लिए एक उचित कार्य करने के रूप में माना जा सकता है? (हाँ।) इस दृष्टिकोण से, उसकी शुरुआत सही है—यह उचित और तर्कसंगत कार्य माना जाता है। क्या शाओमिंग के लिए डैमिंग द्वारा चुना गया मार्ग सही है, या गलत? यह अच्छा है, या बुरा? आओ, आगे देखते हैं। डैमिंग अक्सर इस बारे में परमेश्वर से प्रार्थना और विनती करता है, और अंत में एक दिन, उसे एक “प्रेरणा” मिलती है। कौन सी “प्रेरणा”? उद्धरण चिह्नों में तथाकथित “प्रेरणा”। चूँकि यह “प्रेरणा” उद्धरण चिह्नों में है, तो डैमिंग किस तरह के मार्ग की बात कर रहा होगा? क्या तुम लोग कल्पना कर सकते हो कि कहानी में आगे क्या होगा? यह बहुत स्पष्ट नहीं है, है न? यह कुछ हद तक अज्ञात है।
एक दिन, अपने बेटे को परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने के बाद, डैमिंग ने बड़ी गंभीरता से शाओमिंग से पूछा कि क्या परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है। शाओमिंग ने दृढ़ता से उत्तर दिया, “परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे दूसरों को परेशान नहीं करते, उन्हें आपदा का सामना नहीं करना पड़ता, वे स्वर्ग जा सकते हैं, और उन्हें मृत्यु के बाद नरक में नहीं भेजा जाएगा।” क्या शाओमिंग सही है? उसकी छोटी उम्र को देखते हुए, शाओमिंग का यह कह पाना पहले से ही काफी अच्छा है। परमेश्वर में विश्वास के बारे में उसकी समझ बहुत साधारण है, यह अल्पविकसित और अत्यंत सतही है, लेकिन उसके लिए, यह अभी से ही गहरी है। यह सुनकर, डैमिंग खुश है और सुकून महसूस करता है, और कहता है, “शाबाश, शाओमिंग, तुमने प्रगति की है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का कुछ आधार है। तुम्हारे पिताजी बहुत खुश हैं और सुकून महसूस करते हैं। लेकिन क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में इतना साधारण है?” शाओमिंग एक पल के लिए सोचता है और कहता है, “क्या परमेश्वर के वचन यही सब कुछ नहीं कहते हैं? और क्या शेष है?” डैमिंग तुरंत जवाब देता है : “परमेश्वर की अपेक्षाएँ सिर्फ यही नहीं हैं। तुमने इतने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, और जब भाई-बहन अपने घर आते हैं, तो तुम्हें उनका अभिवादन करना भी नहीं आता। अब से, जब तुम बुजुर्गों से मिलो, तो उन्हें दादा-दादी कहो; जब तुम कम उम्र के वयस्कों से मिलो, तो उन्हें चाचा, चाची या भैया और दीदी कहो। इस तरह, तुम एक ऐसे बच्चे बन जाओगे जिसे हर कोई प्यार करता है—और परमेश्वर सिर्फ उन बच्चों से प्यार करता है जिन्हें हर कोई प्यार करता है। अब से, मेरी बात सुनो और जैसा मैं कहूँ वैसा करो; जब मैं तुम्हें जिस को जिस नाम से पुकारने के लिए कहूँ, तो तुम उसे उसी नाम से पुकारो।” शाओमिंग अपने पिताजी की बातों को दिल में बसा लेता है, उसे लगता है कि उसके पिताजी जो कहते हैं वह सही है। अपने युवा दिल में, वह मानता है कि उसके पिताजी बड़े हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों को अधिक पढ़ा है, और वे उससे अधिक जानते हैं। इसके अलावा, पिताजी के मन में उसके सर्वोत्तम हित हैं और वे निश्चित रूप से उसे गुमराह नहीं करेंगे, इसलिए पिताजी जो कुछ भी कहते हैं वह सही होना चाहिए। शाओमिंग यह नहीं समझता कि सत्य क्या है और धर्म-सिद्धांत क्या है, लेकिन कम से कम वह जानता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, क्या सही है और क्या गलत। अपने पिताजी के ऐसा बोलने के बाद, शाओमिंग भी इस मामले को लेकर मन में थोड़ा बोझ महसूस करता है। आगे चलकर, जब भी शाओमिंग अपने पिताजी के साथ बाहर जाता है और वे किसी से मिलते हैं, तब अगर उसके पिताजी उसे “आंटी” कहकर बुलाने के लिए कहते हैं, तो वह कहता है “हैलो, आंटी”; अगर उसे “अंकल” कहकर बुलाने के लिए कहा जाता है, तो वह कहता है “हैलो, अंकल।” सभी लोग शाओमिंग की एक ऐसे अच्छे बच्चे के रूप में तारीफ करते हैं जो विनम्र है, और उसे उचित परवरिश देने के लिए वे डैमिंग की भी तारीफ करते हैं। शाओमिंग काफी खुश है, मन में सोच रहा है, “पिताजी की शिक्षा अच्छी है; मैं जिससे भी मिलता हूँ, उसे पसंद आता हूँ।” शाओमिंग अंदर से प्रसन्नता और विशेष रूप से गर्व महसूस करता है, यह सोचकर कि जिस तरह से उसके पिताजी उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं, वह वास्तव में अच्छा और सही है।
एक दिन, जैसे ही शाओमिंग स्कूल से घर आता है, वह दौड़कर अपने पिताजी के पास जाता है और कहता है, “पिताजी, अंदाजा लगाओ कि क्या हुआ? पड़ोस के बूढ़े झांग ने इतनी बड़ी—” इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी कर पाता, डैमिंग बीच में टोकता है : “‘बूढ़े झांग’? शाओमिंग, तुम ऐसा कैसे बोल सकते हो? क्या तुम अभी भी विश्वासी हो या नहीं? तुम उसे ‘बूढ़ा झांग’ कहकर कैसे बुला सकते हो? तुम भूल गए हो कि मैंने तुमसे क्या कहा था, तुम्हारी वास्तव में परमेश्वर में आस्था नहीं है, तुम सच्चे विश्वासी नहीं हो। देखो, मुझे यह याद है; मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ और तुम्हें याद दिला सकता हूँ। तुम्हें उन्हें झांग दादाजी कह कर बुलाना चाहिए, समझे?” शाओमिंग इस पर विचार करता है : “उन्हें झांग दादाजी कहकर बुलाना भी ठीक रहेगा।” वह आगे कहता है, “तो, पड़ोस के झांग दादाजी ने एक मछली पकड़ी जो बहुत बड़ी थी! बूढ़ी औरत झांग बहुत रोमांचित थी!” “क्या तुम फिर से भूल गए?” डैंमिंग ने कहा। “तुम अभी भी नहीं समझ रहे हो, बेटा। मैंने अभी तुमसे कहा, तुम्हें उन्हें झांग दादाजी कहकर बुलाना चाहिए; इसका मतलब है कि उनकी पत्नी, जो उसी पीढ़ी की है, उन्हें क्या कहकर बुलाया जाना चाहिए? उन्हें झांग दादी कहकर बुलाना चाहिए। यह याद रखो; कभी भी बूढ़ा झांग या बूढ़ी झांग मत कहो, वरना लोग हम पर हंसेंगे। क्या यह विश्वासियों के रूप में हमारे लिए शर्मनाक नहीं होगा? वे कहेंगे कि हम विश्वासियों की तरह नहीं हैं बल्कि असभ्य और अशिष्ट हैं। इससे परमेश्वर की महिमा नहीं होती।” शाओमिंग शुरू में अपने पिताजी को बूढ़े झांग द्वारा पकड़ी गई बड़ी मछली के बारे में बताने के लिए उत्साहित था, लेकिन अपने पिताजी द्वारा सुधारे जाने के बाद, उसकी दिलचस्पी खत्म हो गई और वह इसके बारे में और बात नहीं करना चाहता था। वह पीछे मुड़ता है, अपना बैग रखता है, और चलते हुए बुदबुदाता है : “आपको लगता है कि आप सब कुछ जानते हो, इन झांग दादा, झांग दादी जैसी सारी बातें। इसका हमसे क्या लेना-देना है? जैसे कि आप अकेले ही हो जो आध्यात्मिक हो!” डैमिंग जवाब देता है : “ठीक है, मैं आध्यात्मिक हूँ, वास्तव में! ज्यादातर लोगों के बारे में, चाहे वे कितने भी बूढ़े क्यों न हों, मैं उनकी उम्र देखकर ही उनकी वरिष्ठता बता सकता हूँ, और जानता हूँ कि उन्हें कैसे संबोधित किया जाना चाहिए। मैं बड़े लोगों को चाचा और चाची कहकर बुलाता हूँ—तुम नाम भी सही से क्यों नहीं ले सकते? विश्वासी होकर, हम इस बारे में नहीं भूल सकते; हम पीढ़ियों के हिसाब से संबोधनों में इधर-उधर नहीं कर सकते।” इस फटकार के बाद, शाओमिंग अंदर से बहुत अच्छा महसूस नहीं करता, लेकिन गहराई में, वह अभी भी सोचता है कि उसके पिताजी सही हैं; उसके पिताजी जो कुछ भी करते हैं वह सही है, और वह न चाहते हुए भी मानता है कि वह गलत है। तब से, जब भी वह बूढ़े झांग या बूढ़ी झांग को देखता है, तो वह उन्हें झांग दादाजी और झांग दादी कहकर बुलाता है। उसके पिताजी जो कुछ भी सिखाते हैं, शाओमिंग उसे दिल से मानता है। क्या यह अच्छी बात है या बुरी बात? अब तक, यह एक अच्छी बात लगती है, है न?
एक दिन, शाओमिंग और उसके पिताजी टहलने जाते हैं और देखते हैं कि एक बूढ़ी सुअरनी घेंटों के झुंड को ले जा रही है। सुअरनी और उसके घेंटों के बीच का रिश्ता बहुत करीबी है। शाओमिंग सोचता है कि परमेश्वर द्वारा बनाई गई हर चीज अच्छी है; चाहे वह सुअर हो या कुत्ता, उन सभी में मातृ प्रवृत्ति होती है और उनका सम्मान किया जाना चाहिए। इस बार, शाओमिंग ने अशिष्टता से बात नहीं की या जल्दबाजी में उसे “बूढ़ी सुअरनी” नहीं कहा। गलती करने और अपने पिता को नाराज़ करने के डर से, वह शांति से पूछता है, “पिताजी, यह सुअरनी कितनी बूढ़ी है? इसने बहुत सारे घेंटों को जन्म दिया है, मुझे इसे क्या कहकर बुलाना चाहिए?” डैमिंग एक पल के लिए सोचता है : “हमें इसे क्या कहकर बुलाना चाहिए? यह कहना मुश्किल है।” अपने पिताजी को बिना किसी जवाब के, विचारों में खोया हुआ देखकर शाओमिंग शिकायत करता है : “क्या आपने परमेश्वर के बहुत सारे वचन नहीं पढ़े हैं? आप मुझसे भी बड़े हैं; आपको यह कैसे नहीं पता?” शाओमिंग द्वारा उकसाए जाने पर, डैमिंग थोड़ा चिंतित हो जाता है और कहता है : “इसे ‘नानी’ कहकर पुकारना कैसा रहेगा?” इससे पहले कि शाओमिंग सुअरनी को पुकारे, डैमिंग फिर से सोचता है और कहता है, “हम उसे नानी कहकर नहीं पुकार सकते; ऐसा करने से वह तुम्हारी नानी की पीढ़ी में आ जाएगी, है न? उसे सुअरनी दादी कहकर पुकारना और भी बुरा होगा, ऐसा करने से वह मेरी माँ की पीढ़ी में आ जाएगी। चूँकि उसने बहुत से घेंटों को जन्म दिया है, इसलिए हम उसकी पहचान या ओहदे की उपेक्षा नहीं कर सकते, और हम उसकी पीढ़ी को गलत नहीं बता सकते। हमें उसे ‘सुअरनी आंटी’ कहकर पुकारना चाहिए।” यह सुनकर, शाओमिंग सम्मान के साथ सुअरनी को प्रणाम करता है और पुकारता है, “नमस्कार, सुअरनी आंटी।” सुअरनी चौंक जाती है और, डर के मारे, वह और सभी घेंटें भाग जाते हैं। यह देखकर, शाओमिंग को हैरानी होती है कि क्या उसने उसे गलत नाम से पुकारा है। डैमिंग कहता है, “इस तरह से प्रतिक्रिया करने का मतलब है कि सुअरनी जरूर खुश और उत्साहित होगी। भविष्य में, जब हम ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं, तो चाहे दूसरे कुछ भी कहें या करें, हमें इस तरह से व्यवहार करना जारी रखना चाहिए। विनम्र रहें और सामाजिक मानदंडों का पालन करें; यह देखकर सुअर भी खुश होंगे।” इस मामले से, शाओमिंग कुछ नया सीखता है। वह क्या सीखता है? वह कहता है, “परमेश्वर ने सभी चीजें बनाई हैं; जब तक सभी प्राणी एक-दूसरे का सम्मान करते हैं, विनम्र होते हैं, वरिष्ठता को समझते हैं, और बुजुर्गों का सम्मान करते हैं और छोटों से प्यार करते हैं, तब तक सभी प्राणी सौहार्दपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकते हैं।” शाओमिंग अब इस धर्म-सिद्धांत को समझता है। यह सुनकर, उसके पिता शाओमिंग की तारीफ करते हैं कि वह एक बहुत ही सीखने वाला छोटा लड़का है। तब से, शाओमिंग और भी अधिक सभ्य और विनम्र हो जाता है। वह जहाँ भी जाता है, अच्छा व्यवहार करता है और भीड़ से अलग दिखता है। क्या वह एक “अच्छा लड़का” नहीं है? वह उद्धरण चिह्नों में एक “अच्छा लड़का” है। और इसके साथ ही इस कहानी का अंत होता है।
इस कहानी के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह काफी मजेदार नहीं है? यह कहानी कैसे बनी? यह वास्तविक जीवन में लोगों के भाषण, कार्य, व्यवहार, विचारों और दृष्टिकोणों से ली गई है—उन्हें इस छोटी सी कहानी में समेट दिया गया है। इस कहानी में किस मुद्दे पर बात हो रही है? तुम लोग इस कहानी में डैमिंग के साथ क्या समस्याएँ देखते हो? शाओमिंग के बारे में क्या विचार है? डैमिंग की समस्याओं का सार क्या है? सबसे पहले, इस बारे में सोचो : डैमिंग ने जो संक्षेप में बताया और अभ्यास किया, क्या उसका कोई हिस्सा सत्य के अनुरूप था? (नहीं।) तो फिर वह क्या अभ्यास कर रहा था? (धारणाएँ और कल्पनाएँ।) ये धारणाएँ और कल्पनाएँ कहाँ से आईं? (पारंपरिक संस्कृति से।) इसकी जड़ पारंपरिक संस्कृति है; उसकी धारणाएँ और कल्पनाएँ पारंपरिक संस्कृति के संक्रमण, अनुकूलन और शिक्षा की उपज थीं। उसने अपने हिसाब से पारंपरिक संस्कृति के सबसे अच्छे, सबसे सकारात्मक और सबसे उत्कृष्ट तत्वों को अपनाया, उन्हें नए सांचे में ढाला, और उन्हें अपने बेटे के अभ्यास के लिए उस चीज में बदल दिया, जिसे वह सत्य मानता था। क्या इस कहानी को स्पष्ट और समझने में आसान माना जा सकता है? (हाँ।) बताओ कि तुम लोगों ने इस कहानी को सुनकर क्या समझा और क्या मतलब निकाल पाए। (इसे सुनने के बाद, मुझे लगा कि डैमिंग की समस्या यह थी कि हालाँकि वह परमेश्वर में विश्वास करता था, उसने कभी भी परमेश्वर के वचनों को समझने की कोशिश नहीं की। वह लोगों की पारंपरिक धारणाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करता था, सोचता था कि अगर वह उन सतही मानदंडों का पालन करता है, तो परमेश्वर संतुष्ट हो जाएगा। उसने परमेश्वर के वचनों के अंदर से यह खोज या चिंतन नहीं किया कि परमेश्वर वास्तव में लोगों से क्या अपेक्षा करता है और किसी व्यक्ति को सामान्य मानवता से कैसे जीना चाहिए।) डैमिंग किसके अनुसार जी रहा था? (धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार।) धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीना एक खोखला वाक्यांश है; वास्तव में, वह पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जी रहा था, और उसने पारंपरिक संस्कृति को ही सत्य मान लिया था। वह पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जी रहा था—इसमें कौन-से विवरण शामिल हैं? वह क्यों चाहता था कि शाओमिंग लोगों को कुछ विशेष उपाधियों के साथ संबोधित करे? (ऊपरी तौर पर, उसने कहा कि उसे इन अच्छे कार्यों के जरिए परमेश्वर को महिमा दिलानी थी, लेकिन वास्तव में, वह अपने खुद के अहंकार को संतुष्ट करना चाहता था, वह अपने बच्चे को अच्छी तरह से शिक्षित करने की क्षमता रखने के लिए प्रशंसा पाना चाहता था।) हाँ, यही उसका इरादा था। उसकी शिक्षा का मकसद अपने बच्चे को परमेश्वर के वचन और सत्य समझाना नहीं था; इसका मकसद अपने बच्चे से ऐसे काम करवाना था जिससे उसकी महिमा होती, उसका मकसद अपना व्यक्तिगत अहंकार संतुष्ट करना था। यह भी एक समस्या है। क्या हमेशा अपने व्यवहार के माध्यम से खुद को सजाने और संवारने पर ध्यान केंद्रित करने में कोई समस्या है? (बिल्कुल है।) इससे पता चलता है कि जिस मार्ग पर वह चल रहा था उसमें कोई समस्या है, और यह सबसे गंभीर समस्या है। हमेशा अपने व्यवहार को संवारने पर ध्यान केंद्रित करने का मकसद क्या है? इसका मकसद लोगों से तारीफ पाना है, लोगों से खुद की चापलूसी और तारीफ करवाना है। इसकी प्रकृति क्या है? यह पाखंड है, यह फरीसियों का रवैया है। जो बाहरी तौर पर अच्छे व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो अपने व्यवहार को संवारने पर ध्यान देते हैं, जो अपने व्यवहार को लेकर बहुत संजीदा हैं—क्या वे सत्य को समझते हैं? (नहीं।) वे परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़ते हैं और काफी कोशिश करते हैं, फिर वे सत्य को क्यों नहीं समझते? वे नहीं समझते हैं कि परमेश्वर के प्रबंधन और मानवजाति के उद्धार का लक्ष्य लोगों को सत्य समझाना, लोगों को पूर्ण बनाना और उनके स्वभाव में परिवर्तन लाना है—वे इसे नहीं समझते हैं। वे सोचते हैं, “चाहे मैं परमेश्वर के वचनों को कैसे भी पढ़ूँ, मैं कुछ भाषण, कार्य और व्यवहारों का सारांश दूँगा जिससे लोग आसानी से सहमत हो जाएँ, जिसकी वे तारीफ करें और जिसे वे शाबाशी दें, और फिर मैं इन चीजों को जीऊँगा और वास्तविक जीवन में उनका मजबूती से पालन करूँगा। एक सच्चा विश्वासी यही करेगा।”
क्या तुम लोगों के पास भी डैमिंग जैसी ही समस्याएँ हैं? अभी चर्चा का हिस्सा बने स्पष्ट पहलुओं के अलावा, जैसे सामाजिक मानदंडों का पालन करना, वरिष्ठता पर ध्यान देना, बुजुर्गों का सम्मान करना और युवाओं का ख्याल रखना, और बड़ों और छोटों के बीच उचित पदानुक्रम बनाए रखना, क्या और भी ऐसे ही व्यवहार, विचार, दृष्टिकोण या समझ हैं? क्या तुम लोग खुद इन मुद्दों को गहराई से परखना और उनका गहन-विश्लेषण करना जानते हो? उदाहरण के लिए, कलीसिया में, अगर कोई बुजुर्ग है या कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है, तो तुम हमेशा उसे सम्मान देना चाहते हो। तुम उसे बोलने देते हो, भले ही वह बकवास कर रहा हो, उसे बीच में नहीं टोकते हो, और यहाँ तक कि जब वह कुछ गलत करता है और उसे काट-छाँट करने की जरूरत होती है, तब भी तुम उसका सम्मान बचाने की कोशिश करते हो और दूसरों के सामने उसकी आलोचना करने से बचते हो, यह सोचते हो कि चाहे उसके कार्य कितने भी अनुचित या भयानक क्यों न हों, सभी को उसे माफ करने और सहन करने की जरूरत है। तुम अक्सर दूसरों को सिखाते भी हो : “हमें बुजुर्गों को कुछ सम्मान देना चाहिए और उनकी गरिमा को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। हम उनके जूनियर हैं।” यह “जूनियर” शब्द कहाँ से आया है? (पारंपरिक संस्कृति से।) यह पारंपरिक सांस्कृतिक विचार से आया है। इसके अलावा, कलीसिया में एक खास माहौल बन गया है, जिसके तहत लोग बड़े भाई-बहनों से मिलने पर उन्हें गर्मजोशी से “भैया”, “दीदी”, “चाची” या “बड़े भाई” कहकर संबोधित करते हैं, जैसे कि हर कोई एक बड़े परिवार का हिस्सा हो; इन बड़े लोगों को अतिरिक्त सम्मान दिया जाता है, जो अनजाने में दूसरों के मन में छोटे लोगों के बारे में अच्छी छाप छोड़ देता है। पारंपरिक संस्कृति के यह तत्व चीनी लोगों के खून और विचारों में गहराई तक समाए हुए हैं, वे इस हद तक समाए हुए हैं कि वे कलीसियाई जीवन में लगातार फैलते रहते हैं और वहाँ के माहौल को आकार देते हैं। क्योंकि लोग अक्सर इन अवधारणाओं से प्रतिबंधित और नियंत्रित होते हैं, वे न केवल व्यक्तिगत रूप से उनका समर्थन करते हैं, इस दिशा में कार्य करने और अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, बल्कि दूसरों को भी ऐसा करने की मंजूरी देते हैं, उन्हें भी ऐसा करने का निर्देश देते हैं। पारंपरिक संस्कृति सत्य नहीं है; यह निश्चित है। लेकिन क्या लोगों के लिए यह जानना ही काफी है कि यह सत्य नहीं है? यह सत्य नहीं है, यह एक पहलू है; हमें इसका गहन-विश्लेषण क्यों करना चाहिए? इसकी जड़ क्या है? समस्या का सार कहाँ है? कोई इन चीजों को कैसे जाने दे सकता है? पारंपरिक संस्कृति का गहन-विश्लेषण करने का मकसद तुम्हारे दिल की गहराई में बसे इस पहलू के सिद्धांतों, विचारों और दृष्टिकोणों की तुम्हें एक नई समझ प्रदान करना है। यह नई समझ कैसे हासिल की जा सकती है? सबसे पहले, तुम्हें यह जानना होगा कि पारंपरिक संस्कृति शैतान से उत्पन्न होती है। और शैतान पारंपरिक संस्कृति के इन तत्वों को मनुष्यों में कैसे डालता है? शैतान, हर युग में इन विचारों, इन तथाकथित कहावतों और सिद्धांतों को फैलाने के लिए कुछ मशहूर हस्तियों और महान लोगों का इस्तेमाल करता है। फिर, धीरे-धीरे, ये विचार व्यवस्थित और ठोस हो जाते हैं, लोगों के जीवन के और करीब आते हैं, और अंततः वे लोगों के बीच व्यापक हो जाते हैं; धीरे-धीरे ये शैतानी विचार, कहावतें और सिद्धांत लोगों के मन में डाल दिए जाते हैं। शैतान से आने वाले इन विचारों और सिद्धांतों में शिक्षित होने के बाद, लोग इन्हें सबसे सकारात्मक चीजें मानते हैं जिनका उन्हें अभ्यास और पालन करना चाहिए। फिर शैतान इन चीजों का इस्तेमाल लोगों के मन को कैद करने और नियंत्रित करने के लिए करता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को ऐसी परिस्थितियों में शिक्षित, अनुकूलित और नियंत्रित किया जाता रहा है, जो आज तक जारी है। इन सभी पीढ़ियों ने माना है कि पारंपरिक संस्कृति सही और अच्छी है। कोई भी इन तथाकथित अच्छी और सही चीजों की उत्पत्ति या स्रोत का गहन-विश्लेषण नहीं करता है—यही वह चीज है जो समस्या को गंभीर बना देती है। यहाँ तक कि कुछ विश्वासी जो कई सालों से परमेश्वर के वचनों को पढ़ते आए हैं, वे अभी भी सोचते हैं कि ये सही और सकारात्मक चीजें हैं, इस हद तक कि वे मानते हैं कि ये सत्य की जगह ले सकती हैं, परमेश्वर के वचनों की जगह ले सकती हैं। इससे भी बढ़कर, कुछ लोग सोचते हैं, “चाहे लोगों के बीच रहते हुए हम परमेश्वर के कितने भी वचन क्यों न पढ़ लें, तथाकथित पारंपरिक विचार और संस्कृति के पारंपरिक तत्व—जैसे तीन आज्ञाकारिताएँ और चार गुण, साथ ही परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता जैसी अवधारणाएँ—छोड़े नहीं जा सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमारे पूर्वजों से आए हैं, जो संत थे। हम सिर्फ इसलिए अपने पूर्वजों की शिक्षाओं के खिलाफ नहीं जा सकते क्योंकि हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और हम अपने पूर्वजों की और उन प्राचीन संतों की शिक्षाओं को बदल या छोड़ नहीं सकते।” ऐसे विचार और जागरूकता सभी लोगों के हृदय में मौजूद हैं। अनजाने में, वे सब अभी भी पारंपरिक संस्कृति के इन तत्वों द्वारा नियंत्रित और बंधे हुए हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई बच्चा देखता है कि तुम्हारी उम्र बीस-तीस साल है और वह तुम्हें “चाचा” कहता है, तो तुम खुश और संतुष्ट महसूस करते हो। अगर वह तुम्हें सीधे तुम्हारे नाम से बुलाता है, तो तुम असहज महसूस करते हो, तुम सोचते हो कि बच्चा असभ्य है और उसे डांटना चाहिए, और तुम्हारा रवैया बदल जाता है। वास्तविकता में, चाहे वे तुम्हें चाचा कहे या तुम्हारे नाम से बुलाए, इसका तुम्हारी समग्रता पर कोई असर नहीं पड़ता। तो जब वह तुम्हें चाचा नहीं कहता तो तुम दुखी क्यों होते हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम पर पारंपरिक संस्कृति हावी और प्रभावी है; यह पहले से ही तुम्हारे मन में जड़ें जमा चुकी है और यह लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ व्यवहार करने और सभी चीजों का मूल्यांकन और निर्णय करने के लिए तुम्हारा सबसे बुनियादी मानक बन गई है। जब तुम्हारा मानक ही गलत है, तो क्या तुम्हारे कार्यों की प्रकृति सही हो सकती है? निश्चित रूप से नहीं हो सकती। अगर सत्य से मापा जाए, तो तुम मामले को कैसे संभालोगे? क्या तुम्हें इस बात की परवाह होगी कि दूसरे तुम्हें क्या कहते हैं? (नहीं।) अगर उन्होंने तुम्हारा अपमान या तिरस्कार किया है, तो उस स्थिति में, तुम निश्चित रूप से असहज महसूस करोगे; लेकिन जब तक ऐसा नहीं है, यह मानवता की एक सामान्य अभिव्यक्ति है। हालाँकि, अगर तुम्हारे माप का मानक परमेश्वर के वचन, सत्य या परमेश्वर से आने वाली संस्कृति हो, तो तुम्हें लोग चाहे तुम्हारे नाम से बुलाएँ या चाहे “चाचा” या “भाई” कहें, तुम्हारी बिल्कुल कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। इस मामले में, तुम स्थानीय रिवाजों का पालन कर सकते हो। उदाहरण के लिए, चीन में, जब कोई तुम्हें “चाचा” कहता है, तो तुम्हें लगता है कि वह तुम्हारे प्रति सम्मान दिखा रहा है। लेकिन अगर तुम किसी पश्चिमी देश में जाते हैं और कोई तुम्हें “अंकल” कहता है, तो तुम्हें अजीब लगेगा; तुम अपने नाम से बुलाया जाना पसंद करोगे, इसे सम्मान का एक रूप पाओगे। चीन में, अगर तुमसे उम्र में बहुत छोटा कोई व्यक्ति तुम्हें तुम्हारे नाम से बुलाता है, तो तुम बहुत दुखी हो जाओगे, तुम्हें लगेगा कि उसने वरिष्ठता की अवहेलना की है; तुम बहुत अपमानित महसूस करोगे, और तुम क्रोधित हो जाओगे और यहाँ तक कि उस व्यक्ति की निंदा भी करोगे। क्या इससे यह नहीं पता चलता कि इस तरह की सोच में कोई समस्या है? मैं इसी समस्या की बात करना चाहता हूँ।
हर देश और हर जातीय समूह की अपनी पारंपरिक संस्कृति होती है। क्या हम सभी पारंपरिक संस्कृतियों की आलोचना करते हैं? एक ऐसी संस्कृति है, जिसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए। क्या तुम लोग बता सकते हो कि वह कौन-सी संस्कृति है? मैं तुम लोगों को एक उदाहरण देता हूँ। परमेश्वर ने आदम को बनाया; आदम का नाम किसने रखा? (परमेश्वर ने।) तो, परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया, और उसके साथ बातचीत करते समय, वह लोगों को कैसे संबोधित करता है? (उन्हें उनके नाम से बुलाता है।) ठीक है, वह उन्हें उनके नाम से बुलाता है। परमेश्वर तुम्हें एक नाम देता है, और परमेश्वर की दृष्टि में इस नाम का अर्थ है; यह एक पदनाम, एक कोड के रूप में कार्य करता है। जब परमेश्वर तुम्हें एक पदनाम देता है, तो वह तुम्हें इस पदनाम से बुलाता है। क्या यह सम्मान का एक रूप नहीं है? (हाँ, है।) यह सम्मान का सबसे अच्छा रूप है, एक ऐसा सम्मान जो सत्य से सबसे अधिक मेल खाता है और सबसे सकारात्मक है। यह लोगों का सम्मान करने का एक मानक है, और यह परमेश्वर से आता है। क्या यह संस्कृति का एक रूप नहीं है? (यह है।) क्या हमें इस संस्कृति का समर्थन करना चाहिए? (हाँ।) यह परमेश्वर से आती है; परमेश्वर किसी व्यक्ति को सीधे उसके नाम से पुकारता है। परमेश्वर तुम्हें एक नाम देता है, तुम्हें एक पदनाम देता है, और फिर इस पदनाम का इस्तेमाल तुम्हारे लिए और तुम्हें पुकारने के लिए करता है। परमेश्वर लोगों के साथ इसी तरह से व्यवहार करता है। जब परमेश्वर ने दूसरा मनुष्य बनाया, तो उसने उसके साथ कैसा व्यवहार किया? परमेश्वर ने आदम को उसका नाम रखने दिया। आदम ने उसका नाम हव्वा रखा। क्या परमेश्वर ने उसे इस नाम से पुकारा? उसने पुकारा। तो, यह एक संस्कृति है जो परमेश्वर से आती है। परमेश्वर हर सृजित प्राणी को एक पदनाम देता है, और जब वह उस पदनाम को पुकारता है, तो मनुष्य और परमेश्वर दोनों जानते हैं कि किसका उल्लेख किया जा रहा है। इसे सम्मान कहा जाता है, इसे समानता कहा जाता है, यह मापने का एक मानक है कि क्या कोई व्यक्ति विनम्र है, क्या उनकी मानवता में शिष्टाचार की भावना है। क्या यह सटीक है? (हाँ।) यह वास्तव में सटीक है। बाइबल में, चाहे किसी निश्चित घटना को दर्ज किया गया हो या किसी परिवार की वंशावली हो, सभी पात्रों के नाम हैं, उनके पदनाम हैं। हालाँकि, एक बात है जिसके बारे में मैं निश्चित नहीं हूँ कि तुम लोगों ने गौर किया है या नहीं : बाइबल दादा, दादी, चाचा, चाची, ताऊ, ताई, जैसे संबोधनों का इस्तेमाल नहीं करती है; यह सिर्फ लोगों के नामों का इस्तेमाल करती है। तुम लोग इससे क्या सीख सकते हो? परमेश्वर ने लोगों के लिए जो कुछ भी तय किया है, चाहे वह विनियम हो या कानून, मनुष्य की नजर से, एक तरह की परंपरा है जो लोगों के बीच चली आ रही है। और यह परंपरा क्या है जो परमेश्वर से चली आ रही है? यह कुछ ऐसा है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए : पदानुक्रमिक पदवियों की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर की नजर में, दादा, दादी, ताऊ, चाचा, ताई, चाची, जैसी जटिल पारिवारिक पदवियाँ नहीं हैं। मनुष्य इन पदानुक्रमिक पदवियों और उपाधियों को लेकर चिंतित क्यों हैं? इसका क्या मतलब है? परमेश्वर इन चीजों से सबसे ज्यादा घृणा करता है। हमेशा शैतान जैसे लोग ही इनके बारे में परेशान रहते हैं। इस पारंपरिक संस्कृति के संदर्भ में, परमेश्वर के बारे में एक बहुत ही वास्तविक तथ्य है : परमेश्वर ने पूरी मानवजाति का सृजन किया है, और वह स्पष्ट रूप से जानता है कि एक व्यक्ति के कितने परिवार और वंशज हो सकते हैं; पर किसी पदानुक्रम की जरूरत नहीं है। परमेश्वर केवल इतना कहता है कि फूलो-फलो और बढ़ते रहो, अपने परिवार को समृद्ध बनाओ—तुम्हें बस इतना ही याद रखने की जरूरत है। हर पीढ़ी के कितने वंशज हैं, और उन वंशजों के कितने वंशज हैं—बस इतना ही है, पदानुक्रम की कोई जरूरत नहीं है। बाद की पीढ़ियों को यह जानने की जरूरत नहीं है कि उनके पूर्वज कौन थे, न ही उन्हें पैतृक भवन या मंदिर बनाने की जरूरत है, उनके लिए बलि चढ़ाने या उनकी पूजा करने की तो बात ही दूर है। वे सभी बाइबल में दर्ज हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, वे जो यहोवा में विश्वास करते हैं, वे सभी जो वेदी के सामने भेंट चढ़ाते हैं। परिवार का हर व्यक्ति परमेश्वर के सामने आता है और भेंट चढ़ाता है। यह चीनियों से अलग है, जहाँ हर परिवार में पर-परदादाओं, परदादाओं, परदादियों के लिए स्मारक पट्टिकाओं से भरा एक पैतृक भवन होता है। जिस जगह पर परमेश्वर ने सबसे पहले अपना कार्य शुरू किया, वहाँ ये चीजें मौजूद नहीं हैं, जबकि परमेश्वर के कार्य से दूर की जगहों पर शैतान और बुरी आत्माओं का नियंत्रण है। इन बौद्ध देशों में, ये शैतानी प्रथाएँ फलती-फूलती हैं। वहाँ, लोगों को अपने पूर्वजों की आराधना करनी पड़ती है, और हर बात परिवार को बतानी पड़ती है, हर बात परिवार के पूर्वजों को बतानी पड़ती है; भले ही अब पूर्वजों की राख तक न बची हो, फिर भी बाद की पीढ़ियों को धूपबत्ती चढ़ानी पड़ती है और सिर झुकाना पड़ता है। आधुनिक समय में, कुछ लोग जो ज्यादा पश्चिमी और नए विचारों के संपर्क में आ गए हैं और पारंपरिक पारिवारिक बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वे ऐसे परिवारों में रहने के लिए तैयार नहीं हैं। वे ऐसे परिवारों द्वारा कड़ाई और कठोरता से नियंत्रित महसूस करते हैं, जिसमें परिवार के बुजुर्ग लगभग हर मामले में हस्तक्षेप करते हैं, खासकर जब शादी की बात आती है। चीन में, ऐसी चीजें असामान्य नहीं हैं। शैतान लोगों को वरिष्ठता पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर करता है, और यह अवधारणा उन लोगों द्वारा आसानी से स्वीकार कर ली जाती है, जो विश्वास करते हैं : “प्रत्येक पीढ़ी का अपना पद होता है; जो सबसे ऊपर हैं वे हमारे पूर्वज हैं। एक बार ‘पूर्वज’ शब्द का उल्लेख होने पर, लोगों को घुटने टेककर उन्हें देवताओं की तरह पूजना चाहिए।” बचपन से ही, व्यक्ति अपने परिवार द्वारा इस तरह से प्रभावित, अनुकूलित और बड़ा किया जाता है; उसके छोटे से मन में एक बात भर दी जाती है : कि परिवार के बिना इस दुनिया में कोई नहीं रह सकता, और परिवार को छोड़ना या परिवार के बंधनों से मुक्त होना नैतिक रूप से निंदनीय अपराध है। नैतिक रूप से निंदनीय अपराध का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि अगर तुम अपने परिवार की बात नहीं सुनते हो, तो तुम एक अशिक्षितसंतानोचित बच्चे हो, और अशिक्षित होने का मतलब है कि तुम मनुष्य नहीं हो। इसलिए, ज्यादातर लोग इन पारिवारिक बेड़ियों को तोड़ने की हिम्मत नहीं करते हैं। चीनी लोग पदानुक्रम के साथ-साथ तीन आज्ञाकारिता और चार गुणों, और तीन मूलभूत बंधनों और पाँच निरंतर गुणों जैसी अवधारणाओं द्वारा गंभीर रूप से अनुकूलित, प्रभावित और नियंत्रित हैं। युवा लोग जो अपने बड़ों को चाचा, चाची, दादा या दादी के रूप में ठीक से संबोधित नहीं करते हैं, उन पर अक्सर असभ्य और अशिष्ट होने का आरोप लगाया जाता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम इस जातीय समूह में, इस समाज में घटिया समझे जाते हो, क्योंकि तुम सामाजिक मानदंडों का पालन नहीं करते हो, तुम शालीन नहीं हो, और तुम बेकार हो। दूसरे लोग अच्छे कपड़े पहनते हैं, दिखावा करने में कुशल होते हैं, और शिष्टता और शालीनता से बात करते हैं; वे मधुरभाषी होते हैं, जबकि तुम तो किसी को चाचा या चाची कहना भी नहीं जानते। लोग कहेंगे कि तुम असभ्य हो, और तुम जहाँ भी जाओगे, तुम्हें नीची नजर से देखेंगे। यह एक तरह की विचारधारा है जो चीनी लोगों में भरी पड़ी है। कुछ बच्चे जो लोगों को संबोधित करना नहीं जानते हैं, उन्हें उनके माता-पिता द्वारा बुरी तरह से डांटा जाता है या पीटा भी जाता है। उन्हें पीटते समय, कुछ माता-पिता कहते हैं, “तुम अशिष्ट, बेकार और असभ्य हो; मैं तुम्हें पीट-पीटकर मार डालूँगा! तुम मुझे शर्मिंदा करने के अलावा कुछ नहीं करते, जिससे लोगों के सामने मेरी बेइज्जती होती है!” सिर्फ इसलिए कि बच्चा दूसरों को संबोधित करना नहीं जानता, माता-पिता अपनी इज्जत के लिए इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, बच्चे को बुरी तरह पीटते हैं। यह कैसा व्यवहार है? यह सरासर बकवास है! अगर मैं इस तरह से संगति न करूँ, तो क्या तुम्हें ये बातें समझ आएँगी? क्या तुम वास्तविक जीवन में देखी गई घटनाओं के माध्यम से, या परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, या अपने स्वयं के अनुभवों के माध्यम से, धीरे-धीरे और थोड़ा-थोड़ा करके इन मामलों को समझ सकते हो, और फिर अपने जीवन की दिशा बदल सकते हो, जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो उसकी दिशा बदल सकते हो? अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो तुम लोगों की अंतर्दृष्टि में कमी है। सभी मामलों में, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं को मानक के रूप में इस्तेमाल करना सबसे सटीक रवैया है, इसमें एक भी त्रुटि नहीं है—यह संदेह से परे है। शैतान से आने वाली कोई भी चीज, चाहे वह मानवीय धारणाओं या रुचियों से कितनी भी मेल खाती हो, चाहे वह कितनी भी सभ्य क्यों न दिखाई दे, सत्य नहीं बल्कि नकली है।
इस कहानी को बताने का मकसद उलझनों से निपटने में तुम लोगों की मदद करना है, तुम लोगों को समझाना है कि सत्य क्या है, मनुष्य को परमेश्वर में विश्वास करने से क्या फायदा होता है, परमेश्वर द्वारा लोगों को उनके स्वभाव बदलवाने और सत्य प्राप्त करवाने का क्या मतलब है, और क्या परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्य और उसकी अपेक्षाओं का किसी व्यक्ति की कल्पना से, या किसी के राष्ट्रीय और सामाजिक परिवेश से प्राप्त शिक्षा और अनुकूलन से पैदा हुए विचारों, दृष्टिकोणों और विभिन्न समझ से कोई संबंध है। तुम सब लोगों को इन मामलों का खुद भी गहन-विश्लेषण करना चाहिए। आज हमारे उदाहरण में सिर्फ एक पहलू को को ही शामिल किया है। वास्तव में, हर व्यक्ति के दिल में, पारंपरिक संस्कृति से आई चीजों की कोई कमी नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि हमें पदानुक्रम को खारिज करना है, तो क्या इसका मतलब यह है कि मैं अपने माता-पिता को उनके नाम से बुला सकता हूँ?” क्या यह ठीक है? अगर तुम अपने माता-पिता को माँ और पिताजी कहते हो, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम अभी भी पदानुक्रम का पालन कर रहे हो और पारंपरिक संस्कृति में वापस आ गए हो? नहीं। माता-पिता को अभी भी वैसे ही पुकारा जाना चाहिए जैसा कि उन्हें पुकारा जाना चाहिए; परमेश्वर ने लोगों को उन्हें माँ और पिताजी कहकर ही पुकारने के लिए कहा है। उन्हें इसी तरह बुलाया जाना चाहिए; यह बिलकुल वैसा ही है जैसे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें “बच्चा”, “बेटा” या “बेटी” कहकर बुलाते हैं। तो तुम लोगों को मुख्य रूप से मेरी यह कहानी सुनकर क्या समझना चाहिए? यह मुख्य रूप से किस मुद्दे को संबोधित कर रही है? (चीजों को आंकने के हमारे मानक को बदलना होगा; हर चीज का आकलन परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार किया जाना चाहिए।) यह सही है। आँख मूंदकर खुद ही चीजें मत गढ़ो। लोग हमेशा अपना “सत्य” बनाना चाहते हैं। जब भी वे कुछ करना चाहते हैं, तो वे तर्कों और सिद्धांतों का एक सेट, और फिर तरीकों का एक सेट लेकर आते हैं, और यह परवाह किए बिना कि यह सही है या नहीं, इसे अंजाम दे देते हैं। वे वर्षों तक इसका अभ्यास करते हैं, इस पर अड़े रहते हैं, चाहे इसका कोई नतीजा निकले या नहीं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे परोपकारी, धार्मिक और दयालु हैं। उन्हें लगता है कि वे अच्छा जीवन जी रहे हैं, और इससे उन्हें तारीफ और शाबाशी मिलती है, और वे धीरे-धीरे यह सोचने लगते हैं कि वे महान हैं। लोग कभी भी इस बात पर विचार नहीं करते, इसे समझने की कोशिश नहीं करते, या खोज नहीं करते कि हर मामले के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं, हर कार्य करने के लिए कार्रवाई के सिद्धांत क्या हैं, और क्या उन्होंने अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में परमेश्वर के आदेश के प्रति वफादारी दिखाई है। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते; वे सिर्फ उन विकृत और दुष्ट मामलों पर विचार करते हैं—क्या यह दुष्टता में शामिल होना नहीं है? (हाँ, है।) जो कोई भी बाहरी रूप से विनम्र है, उचित व्यवहार करता है, शिक्षित है और सामाजिक मानदंडों का पालन करता है, परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के बारे में बात करता है, और जो परिष्कृत शिष्टता के साथ बोलता है और सुखद लगने वाली बातें कहता है—जाँच-परख करो कि ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास करता है या नहीं। अगर वह कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करता, तो वह पाखंडी के अलावा और कुछ नहीं है जो अच्छाई का दिखावा करता है; वह बिल्कुल डैमिंग की तरह है, और उससे जरा भी अलग नहीं है। वे किस तरह के लोग हैं जो सिर्फ अच्छे व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करते हैं और दूसरों को धोखा देकर अपनी तारीफ और शाबाशी पाने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं? (वे पाखंडी हैं।) क्या ये लोग आध्यात्मिक मामलों को समझते हैं? (नहीं।) क्या आध्यात्मिक मामलों को न समझने वाले लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) वे क्यों नहीं कर सकते? (वे नहीं समझते कि सत्य क्या है, इसलिए वे बस कुछ बाहरी अच्छे व्यवहार और ऐसी चीजों को लेते हैं जिन्हें लोग सत्य जैसा ही मानते हैं और उनका अभ्यास करते हैं।) यह मुख्य बात नहीं है। चाहे वे सत्य को कितना भी नहीं समझें, क्या वे अभी भी चीजों को करने के कुछ स्पष्ट सिद्धांतों को नहीं जानते हैं? जब तुम उन्हें बताते हो कि उन्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना है, तो क्या वे समझ नहीं सकते? ऐसे लोगों की एक खासियत होती है : सत्य का अभ्यास करने का उनका कोई इरादा नहीं होता। चाहे तुम कुछ भी कहो, वे तुम्हारी बात नहीं सुनेंगे; वे बस वही करेंगे और कहेंगे जो उन्हें अच्छा लगेगा। हम इन दिनों अक्सर मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में बात करते रहे हैं। अपने आसपास के लोगों पर नजर डालो : देखो कि किसने कुछ बदलाव दिखाया है, और किसके व्यवहार और कार्य करने के सिद्धांतों में जरा भी बदलाव नहीं आया है, कौन हैं जिनके साथ चाहे तुम कितनी भी संगति करो लेकिन उनके दिल अप्रभावित रहते हैं, और कौन हैं जो भले ही तुम्हारी संगति की सामग्री को खुद से जोड़ने में सक्षम हों लेकिन फिर भी नहीं बदलते हैं, या बदलने का इरादा नहीं रखते हैं, और अपनी मर्जी से काम करना जारी रखते हैं। क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों का सामना किया है? तुमने किया है, है न? कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उनकी भूमिकाओं से क्यों हटाया जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, वे वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे सभी प्रकार के धर्म-सिद्धांतों को समझते हैं, और वे अपने तरीके से चलते रहते हैं। चाहे तुम सत्य सिद्धांतों की कितनी भी संगति करो, उनके पास अभी भी अपने खुद के नियम होते हैं, वे अपने विचारों से चिपके रहते हैं और किसी की नहीं सुनते हैं। वे बस वही करते हैं जो वे चाहते हैं—तुम कुछ और कहते हो, और वे कुछ और करते हैं। इस तरह के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हटा दिया जाना चाहिए, है न? (बिल्कुल।) निश्चित रूप से उन्हें हटा देना चाहिए। ये लोग किस मार्ग पर हैं? (मसीह-विरोधी के मार्ग पर।) मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हुए, पर्याप्त समय होने पर, वे स्वयं मसीह-विरोधी बन जाएँगे। बात बस यह है कि इसमें कितना समय लगेगा। तुम उनके साथ चाहे कैसे भी सत्य की संगति करो, अगर, फिर भी वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं और बिल्कुल भी नहीं बदलते हैं, तो यह वास्तव में परेशानी की बात है, और वे पहले से ही मसीह-विरोधी बन चुके हैं।
आज बताई गई कहानी से तुम लोगों को सबसे बड़ी प्रेरणा क्या मिली है? सबसे बड़ी प्रेरणा यह होनी चाहिए कि लोगों के लिए भटकना आसान है। लोगों के लिए भटकना क्यों आसान है? पहला कारण, लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं; दूसरा, चाहे उनकी उम्र कुछ भी हो, लोग अपने विचारों और अपने हृदय की गहराई में कोरे कागज नहीं होते। तो यह कहानी तुम लोगों को क्या सुझाव देती है? लोगों के लिए भटक जाना आसान है—यह पहला है। दूसरा, लोग जिसे अच्छा और सही मानते हैं उसी पर अड़े रहते हैं जैसे कि वही सत्य हो, बाइबल के ज्ञान और आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों को अभ्यास करने के लिए परमेश्वर के वचनों के रूप में मानते हैं। इन दो मुद्दों को समझने के बाद, भविष्य में तुम लोगों को जिस पर चलना है उस मार्ग के लिए और भविष्य में तुम्हें जो करना है उस प्रत्येक कार्य के लिए तुम्हारे पास क्या नई समझ, विचार या योजनाएँ हैं? (भविष्य में काम करते समय, हमें केवल उसी पर कार्य नहीं करना चाहिए जिसे हम सही मानते हैं। सबसे पहले, हमें यह विचार करना चाहिए कि क्या हमारे विचार परमेश्वर की इच्छाओं के अनुरूप हैं, और क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं से मेल खाते हैं। हमें परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के लिए सिद्धांत खोजने चाहिए, और फिर आगे बढ़ना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि हम सत्य का अभ्यास कर रहे हैं और परमेश्वर में अपने विश्वास में हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं वह सही है।) तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों पर मेहनत करनी चाहिए। अपनी खुद की धारणाएँ बनाना बंद करो। तुम आध्यात्मिक मामलों को नहीं समझते हो; तुम्हारी काबिलियत कमजोर है; और तुम्हारे विचार चाहे कितने भी शानदार क्यों न हों, वे सत्य नहीं हैं। भले ही तुम आश्वस्त हो कि तुमने जो किया है वह दोषरहित और सही है, फिर भी तुम्हें इसे संगति और सत्यापन के लिए भाई-बहनों के सामने लाना चाहिए, या परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों से इसकी तुलना करनी चाहिए। क्या तुम इस तरह से सौ प्रतिशत दोषरहित हो सकते हो? जरूरी नहीं है; जब तक कि तुम सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर ने जो कहा है उसके स्रोत को पूरी तरह से समझ नहीं लेते, तुम अभी भी अपने अभ्यास में भटक सकते हो। यह एक पहलू है। दूसरा क्या है? अगर लोग परमेश्वर के वचनों से भटक जाते हैं, तो चाहे उनके कार्य कितने भी तर्कसंगत या स्वीकार्य क्यों न लगें, वे सत्य की जगह नहीं ले सकते। जो कुछ भी सत्य की जगह नहीं ले सकता, वह सत्य नहीं है, न ही वह सकारात्मक चीज है। अगर वह सकारात्मक चीज नहीं है, तो वह क्या है? यह निश्चित रूप से ऐसी चीज नहीं है जो परमेश्वर को प्रसन्न करती है, न ही यह सत्य के अनुरूप है; यह ऐसी चीज है जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। अगर तुम कुछ ऐसा करते हो जिसकी परमेश्वर निंदा करता है, तो इसके क्या परिणाम होंगे? तुम परमेश्वर को खुद से घृणा करने के लिए बाध्य कर दोगे। परमेश्वर से न आने वाली सभी चीजें नकारात्मक हैं, वे शैतान से आती हैं। हो सकता है कुछ लोग इसे नहीं समझ सकें; इसे अनुभव प्राप्त करते हुए धीरे-धीरे समझो।
आज हम एक बात की गंभीरता से आलोचना कर रहे हैं; हम किसकी आलोचना कर रहे हैं? एक बूढ़ी सुअरनी को सुअरनी आंटी कहने का मामला, है न? क्या सुअरनी को “सुअरनी आंटी” कहना शर्मनाक है? (हाँ।) यह एक शर्मनाक मामला है। लोग हमेशा एक सम्मानजनक उपाधि चाहते हैं। यह “सम्मान” कहाँ से आता है? “सम्मान” किससे संबंधित है? क्या यह वरिष्ठता के बारे में है? (हाँ।) हमेशा बड़े के रूप में माने जाने की चाहत रखना, हमेशा वरिष्ठता पर ध्यान केंद्रित करना—क्या यह अच्छा है? (नहीं।) वरिष्ठता पर ध्यान केंद्रित करना अच्छा क्यों नहीं है? तुम्हें विश्लेषण करना चाहिए कि वरिष्ठता पर ध्यान केंद्रित करने का क्या महत्व है। इसे बस इस तरह से कहना बहुत आसान है : “परमेश्वर लोगों को वरिष्ठता पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति नहीं देता है, तो तुम इस पर मूर्खतापूर्वक चर्चा क्यों कर रहे हो? तुम सभ्य होने का दिखावा करते हुए बकवास कर रहे हो। तुम कर्तव्य निभाते समय कभी भी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हो, हमेशा खुद के हित के लिए उनके साथ विश्वासघात करते हो। जब कोई चीज तुम्हारे अपने हितों से जुड़ी होती है, तो तुम परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने में संकोच नहीं करोगे। तुम एक अच्छे व्यक्ति का अभिनय करके किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हो? क्या तुम अच्छे माने जाने के लायक हो?” क्या ऐसा कहना स्वीकार्य होगा? (बिल्कुल होगा।) इसे और भी कठोर बनाने के लिए क्या कहा जाना चाहिए? “तुम किस बारे में बकवास कर रहे हो? तुम बस एक बेवकूफ सुअर हो, एक मूर्ख, जिसे सत्य की बिल्कुल भी समझ नहीं है। तुम क्या दिखावा कर रहे हो? तुम शिक्षित हो, तुम सुसंस्कृत हो, और तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुमने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े हैं और अभी भी तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर में काफी अच्छी तरह से विश्वास करते हो। लेकिन अंत में, तुम यह भी नहीं जानते कि सत्य का अभ्यास करने का क्या मतलब है। क्या तुम सिर्फ एक बेवकूफ सुअर नहीं हो, पूरी तरह से मूर्ख?” इस कहानी के लिए बस इतना ही। आओ अब संगति के मुख्य विषय पर लौटते हैं।
मसीह-विरोधियों के कुटिल, स्वेच्छाचारी और तानाशाही व्यवहार के साथ-साथ इस बात का गहन विश्लेषण कि वे लोगों को किस तरह अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं
I. मसीह-विरोधियों के कुटिल व्यवहार का गहन विश्लेषण
पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के पाँचवें मद के बारे में संगति की थी—वे लोगों को गुमराह करते, फुसलाते, धमकाते और नियंत्रित करते हैं। आज हम मद छह के बारे में संगति करेंगे—वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं। क्या इस मद और मद पाँच के बीच कोई अंतर है? स्वभाव के संदर्भ में कोई बड़ा अंतर नहीं है; दोनों की हरकतें सत्ता हथियाने और मनमाने और तानाशाही तरीके से काम करने की होती हैं। दोनों के स्वभाव दुष्ट, अभिमानी, अड़ियल और शातिर होते हैं; स्वभाव एक जैसे ही होते हैं। हालाँकि, मद छह मसीह-विरोधियों की एक और प्रमुख अभिव्यक्ति पर रोशनी डालता है, जो यह है कि उनके कार्य कुटिल होते हैं—यह मसीह विरोधियों के कार्यकलापों की प्रकृति से संबंधित है। अब, सबसे पहले “कुटिल” शब्द पर चर्चा करते हैं। सतही तौर पर, क्या “कुटिल” अपमानजनक शब्द है या प्रशंसनीय शब्द? अगर कोई कुटिल काम करता है, तो क्या वह चीज अच्छी होती है या बुरी? (बुरी।) अगर किसी के बारे में कहा जाए कि वह कुटिल ढंग से काम करता है, तो क्या वह व्यक्ति अच्छा है या बुरा? स्पष्ट रूप से, लोगों की छाप और भावनाएँ ऐसी होती हैं कि जो व्यक्ति कुटिल ढंग से काम करता है, वह निकम्मा मूर्ख है। अगर किसी को कुछ कुटिलता का सामना करना पड़ता है, तो क्या यह खुशी का कारण है या इससे उन्हें डर लगता है? (यह डरावना होता है।) यह बिल्कुल भी अच्छी बात नहीं है। संक्षेप में, ऊपर से “कुटिल” अपमानजनक शब्द है, चाहे वे किसी कार्य का वर्णन कर रहे हों या किसी व्यक्ति के कार्य करने के तरीके का, इसमें से कुछ भी सकारात्मक नहीं होता; यह निश्चित रूप से नकारात्मक होता है। अब, चलो सबसे पहले इसकी व्याख्या करते हैं कि कुटिलता की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं। इसे कुटिल क्यों कहा जाता है और धोखेबाजी क्यों नहीं? यहाँ “कुटिल” शब्द का विशेष निहितार्थ क्या है? कुटिलता धोखेबाजी से ज्यादा गहरी चीज है। क्या लोगों को कुटिल ढंग से काम करने वाले व्यक्ति को पहचानने में अधिक समय नहीं लगता और क्या यह उनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं है? (हाँ।) इतना तो स्पष्ट है। इसलिए, “कुटिल” शब्द को समझाने के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग करो जिन्हें तुम सभी लोग समझ पाओ। यहाँ, “कुटिल” का अर्थ है धूर्त और चालाक, और यह असामान्य व्यवहार को संदर्भित करता है। इस असामान्यता का संदर्भ किसी औसत व्यक्ति के लिए काफी छिपा हुआ और अभेद्य होना है, जो यह नहीं देख सकता कि ऐसे लोग क्या सोच रहे हैं या क्या कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार के व्यक्ति के कार्यकलापों के तरीके, उद्देश्य और शुरुआती बिंदु की थाह लेना विशेष रूप से मुश्किल होता है, और कभी-कभी उनका व्यवहार भी लुका-छिपा और गुप्त होता है। संक्षेप में, एक पारिभाषिक शब्द है जो किसी व्यक्ति के कुटिल होने की वास्तविक अभिव्यक्ति और स्थिति का वर्णन कर सकता है, वह है “पारदर्शिता की कमी,” जो उन्हें दूसरों के लिए अथाह और समझ से परे बना देता है। मसीह-विरोधियों के कार्यों की प्रकृति ऐसी होती है—यानी, जब तुम यह महसूस करते हो और समझते हो कि कुछ करने के उनके इरादे सीधे नहीं हैं, तो तुम्हें यह काफी भयानक लगता है, फिर भी अल्पावधि में या किसी कारण से तुम अभी भी उनके उद्देश्यों और इरादों को नहीं देख पाते, और तुम्हें अनजाने में ही लगता है कि उनके कार्यकलाप कुटिल हैं। वे तुम्हें इस तरह का एहसास क्यों कराते हैं? एक तरह से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कोई भी यह नहीं समझ सकता कि वे क्या कहते हैं या क्या करते हैं। दूसरी बात यह है कि वे अक्सर घुमा-फिराकर बात करते हैं, तुम्हें गुमराह करते हैं, अंततः तुम तय नहीं कर पाते कि उनके कौन-से कथन सच हैं और कौन-से झूठ, और उनके शब्दों का वास्तव में क्या अर्थ है। जब वे झूठ बोलते हैं, तो तुम्हें लगता है कि यह सत्य है; तुम्हें पता नहीं होता कि कौन-सा कथन सत्य है, कौन-सा असत्य, और अक्सर लगता है कि तुम्हें मूर्ख बनाया गया है और तुमसे धोखा किया गया है। यह भावना क्यों पैदा होती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग कभी भी पारदर्शी तरीके से काम नहीं करते; तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते कि वे क्या कर रहे हैं या किस काम में व्यस्त हैं, इससे अनिवार्य रूप से तुम्हें उनके प्रति संदेह होने लगता है। अंत में, तुम देखते हो कि उनका स्वभाव धोखेबाज, धूर्त और दुष्ट भी है। “कुटिल” शब्द गूढ़ है और लोगों को काफी असामान्य लगता है, लेकिन इसे “पारदर्शिता की कमी” जैसे सरल वाक्यांश से क्यों समझाया जाता है? इस वाक्यांश में एक अर्थ निहित है। यह निहित अर्थ क्या है? ऐसा होता है कि जब मसीह-विरोधी कुछ करना चाहते हैं, तो वे अक्सर तुम्हें एक झूठी छवि दिखाते हैं, जिससे तुम्हारे लिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई मसीह-विरोधी तुम्हारे बाएँ गाल पर थप्पड़ मारना चाहता है, तो वह तुम्हारे दाहिने गाल पर वार करेगा। जब तुम अपने दाहिने गाल को बचाने के लिए उसे चकमा दोगे, तो वह बाएँ गाल पर सफलतापूर्वक थप्पड़ मार देगा, इस प्रकार अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। यह कुटिलता है, और षड्यंत्रों से भरा हुआ होना है—हर कोई जो उसके साथ संवाद करता है और उससे व्यवहार करता है, वह उनकी गणना के दायरे में होता है। वे हमेशा गणना क्यों करते रहते हैं? लोगों को नियंत्रित करने और उनके दिलों में जगह बनाने के अलावा, वे सभी से लाभ भी उठाना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, तुम ऐसे लोगों में एक प्रकार का दुष्ट स्वभाव भी देख सकते हो : उन्हें दूसरों का शोषण करने या दूसरों की कमजोरियों का मजाक उड़ाने के लिए अपनी ताकत का फायदा उठाने में विशेष रूप से आनंद आता है, और उन्हें लोगों के साथ खिलवाड़ करने में मजा आता है। यह उनकी दुष्टता की अभिव्यक्ति है। सांसारिक दृष्टि से, ऐसे लोगों को सयाना माना जाता है। साधारण लोग सोचते हैं, “केवल वृद्ध लोग ही सयाने हो सकते हैं। युवा लोगों के पास कोई अनुभव या सांसारिक ज्ञान नहीं होता, इसलिए वे सयाने कैसे हो सकते हैं?” क्या यह कथन सही है? नहीं, यह सही नहीं है। मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव उम्र पर निर्भर नहीं करता; वे इस स्वभाव के साथ पैदा होते हैं। बात सिर्फ इतनी है कि जब वे छोटे और कम अनुभवी होते हैं, तो ऐसे दाँव-पेंचों में उनका शामिल होना अधिक प्राथमिक और कम परिष्कृत हो सकता है। जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, वे अकाट्य होते जाते हैं, उन पुराने शैतान राजाओं की तरह जिनके कार्य पूरी तरह से मुहरबंद होते हैं और अधिकांश लोगों के लिए पूरी तरह से गूढ़ होते हैं।
मैंने अभी-अभी “कुटिल” शब्द की एक मोटी व्याख्या की है, तो चलो अब कुटिलता की विशिष्ट अवस्थाओं और अभिव्यक्तियों पर संगति करते हैं। क्या यह संगति करने लायक नहीं है? अगर हम इस पर संगति नहीं करते, तो क्या तुम लोग उन्हें पहचान पाओगे? क्या तुम उन्हें देख पाओगे? (नहीं।) ऐसा नहीं है कि तुम उन्हें बिल्कुल नहीं पहचान सकते या उनकी असलियत नहीं जान सकते; कभी-कभी तुम्हें यह भी लगेगा कि कोई विशेष व्यक्ति वास्तव में चालाक है—इतना चालाक कि तुम उससे धोखा खाने के बाद भी उसी के कहे अनुसार काम करते रहते हो—और तुम्हें उससे सावधान रहना पड़ता है। तो, मसीह-विरोधी क्या-क्या करते हैं, और भाई-बहनों और अपने आसपास के लोगों के साथ अपने व्यवहार में वे कौन-सी बातें और कार्यकलाप प्रकट करते हैं जो यह दिखाते हैं कि वे कुटिल तरीके से और दुष्ट स्वभाव के साथ काम करते हैं? यह संगति करने लायक है। जब केवल “कुटिल” शब्द की व्याख्या की जाती है, तो लोग आम तौर पर इसे काफी सरल पाते हैं; इसका अर्थ समझने के लिए शायद शब्दकोश देखना ही पर्याप्त हो। लेकिन जब बात आती है कि लोगों के कौन-से कार्यकलाप, व्यवहार और स्वभाव इस शब्द से जुड़े हैं और इस शब्द की ठोस अभिव्यक्तियाँ और दशाएँ हैं, तो यह समझना ज्यादा कठिन और मुश्किल हो जाता है, है न? सबसे पहले, उन लोगों या विशिष्ट मसीह-विरोधियों के बारे में सोचो, जिनसे तुम लोग मिले हो और जिनका सामना किया है। उनके कौन-से कार्यों ने तुम्हें यह महसूस कराया था कि इस कार्य की प्रकृति कुटिलता से संबंधित थी, या उनके कौन-से रोजमर्रा के शब्द, कार्यकलाप और व्यवहार इससे संबंधित थे? (एक बार मेरा सामना एक मसीह-विरोधी से हुआ जो स्पष्ट रूप से रुतबे के लिए होड़ करना और अगुआ बनना चाहता था, लेकिन उसने भाई-बहनों से कहा, “हमें झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट करनी चाहिए। केवल ऐसा करके ही हम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम झूठे अगुआओं की रिपोर्ट नहीं करते और उन्हें उजागर नहीं करते, तो हम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं कर सकते। हमें संयुक्त रूप से कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए खड़ा होना चाहिए।” कलीसिया के कार्य की रक्षा के बैनर तले काम करते हुए उसने अगुआओं और कार्यकर्ताओं से फायदा उठाने के तरीके निकाले, छोटी-छोटी बातों पर खूब बवाल मचाया और भाई-बहनों को अगुआओं और कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट करने के लिए उकसाया। उसका लक्ष्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को नीचे लाना था ताकि उसे खुद अगुआ बनने का मौका मिले। कई भाई-बहनों ने इसे नहीं समझा और वे उसके द्वारा गुमराह हो गए। सिद्धांतों के आधार पर समस्या को समझने के बजाय, उन्होंने कुछ छोटी-छोटी बातों को पकड़ा और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की भ्रष्टता का खुलासा किया, उनकी निंदा की, उन्हें लेबल किया और तिल का ताड़ बना दिया, जिससे कलीसिया में अराजकता फैल गई।) मुझे बताओ, क्या यह कुटिलता है? (हाँ, है।) यह बिल्कुल वैसा ही है। यह कुटिल क्यों है? उसने अपने अघोषित लक्ष्य हासिल करने के लिए न्याय का झंडा लहराया, साथ ही दूसरों को कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया, जबकि वह खुद सामने नहीं आया और परिणाम देखने के लिए छिपा रहा। अगर चीजें ठीक होतीं तो अच्छा, और अगर नहीं होतीं, तो कोई भी उसकी असलियत नहीं जान पाता, क्योंकि वह पूरी तरह छिपा हुआ था। यह कुटिलता है—यह इसकी अभिव्यक्तियों का एक रूप है। वह तुम्हें अपने सच्चे विचारों को गहराई से नहीं जानने देता, और अगर तुम थोड़ा भी अनुमान लगाते, तो वह जल्दी से उन पर लीपापोती करने और हर कीमत पर खुद का बचाव करने के लिए विभिन्न बहाने और तर्क लेकर आ जाता, इस डर से कि लोग सत्य जान जाएँगे। उसने जानबूझकर मामलों को जटिल बनाया; यह कुटिलता है। और कुछ? (कुछ साल पहले, हमारे कलीसिया में मसीह-विरोधियों का एक गिरोह उभरा और उसने नियंत्रण कर लिया था, जिससे कलीसिया का काम अव्यवस्थित हो गया था। ऊपर वाले ने काम संभालने के लिए किसी को भेजा, लेकिन मसीह-विरोधियों का यह गिरोह छिपकर काम करता था, कहता था, “हमारे पास हमारे अगुआ हैं, और हम अन्य स्थानों से स्थानांतरित अगुआओं को स्वीकार नहीं करते; हम खुद काम संभाल सकते हैं।” नतीजतन, कई लोग गुमराह हो गए और उन्होंने मसीह-विरोधियों की बात मान ली, ऊपर वाले द्वारा नियुक्त अगुआ को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि इन मसीह-विरोधियों ने ऊपर वाले द्वारा भेजे गए अगुआ को एक स्थान तक सीमित कर दिया, उसे भाई-बहनों के साथ बातचीत करने से रोक दिया और उनके लिए कलीसिया के काम में हाथ बँटाना या किसी भी काम को लागू कराना असंभव बना दिया।) मसीह-विरोधियों ने यह बेहद कुटिलता का काम किया—उनका छिपा हुआ मकसद क्या था? वे कलीसिया को नियंत्रित करना चाहते थे और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे। यह कुटिल है; यह वही चीज है जो मसीह-विरोधी करते हैं।
मसीह-विरोधियों के कुटिलता से काम करने की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? एक है पारदर्शिता की कमी, और दूसरी यह कि वे गुप्त रूप से ऐसी योजनाएँ बनाते रहते हैं जिनका जिक्र नहीं किया जा सकता। यदि वे अपनी योजनाओं और इरादों को सभी के सामने प्रकट कर दें, तो क्या वे उन्हें साकार कर पाएँगे? निश्चित रूप से नहीं। कुटिल तरीकों का उपयोग करने वाले लोग इस तरह से काम क्यों करते हैं? इन कार्यकलापों के पीछे उद्देश्य क्या होता है? अब तक, तुम लोगों ने जो सोचा है वह केवल कलीसिया पर नियंत्रण है, लेकिन कुछ मामलों में कलीसिया को नियंत्रित करना या प्रत्येक को नियंत्रित करना शामिल नहीं होता। किसी कलीसिया या किसी क्षेत्र के लोगों को गुमराह करना अपेक्षाकृत एक बड़ा मामला होता है, तो साधारण समय में मसीह-विरोधियों के छोटे-मोटे व्यवहार और कार्यकलापों के पीछे क्या उद्देश्य होता है? यह लोगों का शोषण करना और लोगों को अपने हित और अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए खपाने को मजबूर करना होता है। जबकि परमेश्वर लोगों को आयोजित करता है और उनके भाग्य पर शासन करता है, मसीह-विरोधी भी लोगों के भाग्य को निर्देशित करना और उन्हें बहकाकर काम निकलवाना चाहते हैं। लेकिन अगर वे सीधे कहते कि वे तुम्हें बहकाकर काम निकलवाना चाहते हैं, तो क्या तुम इससे सहमत होते? अगर वे कहते कि वे तुम्हें गुलाम की तरह आदेश देना चाहते हैं, तो क्या तुम सहमत होते? अगर वे कहते कि वे अगुआ हैं और तुम्हें उनकी बात माननी चाहिए, तो क्या तुम सहमत होते? तुम निश्चित रूप से सहमत नहीं होते। इसलिए, उन्हें कुछ अपरंपरागत तरीकों का सहारा लेना पड़ता है ताकि तुम अनजाने ही उनके शोषण का शिकार हो जाओ; इसे कुटिल होना कहते हैं। उदाहरण के लिए, बड़ा लाल अजगर लोगों को गुमराह करने के लिए उचित बहाने बनाते हुए कुटिल तरीके से काम करता है। उसने जमींदारों और पूँजीपतियों की संपत्ति कैसे जब्त की? क्या उसने लिखित रूप में यह नीति बनाई कि एक निश्चित राशि से अधिक की सारी संपत्ति राज्य को सौंप दी जानी चाहिए? अगर उसने खुले तौर पर यह घोषित कर दिया होता तो क्या यह कारगर होता? (नहीं होता।) चूँकि यह काम नहीं करता, तो उसने क्या किया? उसे ऐसा तरीका खोजना पड़ा जिसे हर कोई सही माने ताकि जमींदारों और पूँजीपतियों की संपत्ति को उचित रूप से कुर्क करके जब्त किया जा सके। इसने जमींदारों और पूँजीपतियों को शक्तिहीन कर दिया, राज्य को समृद्ध किया और उसके शासन को मजबूत किया। बड़े लाल अजगर ने ऐसा कैसे किया? (जमींदारों पर हमला करके और भूमि का पुनर्वितरण करके।) इसने “जमींदारों पर हमला और भूमि का पुनर्वितरण” और “सभी के लिए समानता” के बैनर लहराए और फिर सभी जमींदारों और पूँजीपतियों को फँसाने और उनकी निंदा करने के लिए “सफेद बालों वाली लड़की” जैसी कहानियाँ गढ़ीं। इसने लोगों को इन भ्रामक विचारों में यकीन दिलाने के लिए जनमत और प्रचार की शक्ति का इस्तेमाल किया, जिससे सभी अनभिज्ञ लोग यह सोचने लगे कि जमींदार और पूँजीपति बुरे हैं और वे मेहनतकश जनता के बराबर नहीं हैं, कि अब लोग अपने देश के मालिक हैं, कि राज्य लोगों का है, कि इन कुछ व्यक्तियों के पास इतनी संपत्ति नहीं होनी चाहिए, और इसे कुर्क करके सभी में पुनर्वितरित कर दिया जाना चाहिए। ऐसे तथाकथित अच्छे, सही और गरीब समर्थक विचारधाराओं और सिद्धांतों के उकसावे में आकर लोगों को गुमराह कर उन्हें विवेकशून्य कर दिया गया, और उन्होंने स्थानीय उद्योगपतियों से लड़ना शुरू कर दिया और जमींदारों और पूँजीपतियों पर हमला करना शुरू कर दिया। और अंतिम परिणाम क्या निकला? इनमें से कुछ जमींदारों और पूँजीपतियों को पीट-पीटकर मार डाला गया, कुछ को अपंग बना दिया गया और कुछ भाग गए। संक्षेप में, अंतिम परिणाम यह हुआ कि बड़े लाल अजगर का उद्देश्य पूरा हो गया। इन मूर्ख और अज्ञानी लोगों को धीरे-धीरे ऐसे घोटालों के तहत निर्देशित किया गया ताकि वे उन लक्ष्यों को पा सकें जो ये शैतान चाहते थे। इसी तरह, मसीह-विरोधी भी जब काम करते हैं तो ऐसे ही कुटिल तरीके अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, जब एक मसीह-विरोधी को अगुआ की भूमिका में किसी व्यक्ति का साथी बनाया जाता है, और वह देखता है कि इस व्यक्ति में न्याय की भावना है, वह सत्य समझता है, और उसे पहचान सकता है, तो वह अस्थिर महसूस करने लगता है : “क्या यह आदमी मेरी पीठ पीछे मुझे कमजोर कर सकता है? क्या वह पर्दे के पीछे कुछ करने की योजना बना रहा है? मैं उससे उसके मन की बात क्यों नहीं निकलवा पा रहा? वह मेरी तरफ है या नहीं? क्या वह ऊपर वाले से मेरी शिकायत कर सकता है?” इन विचारों को ध्यान में रखते हुए वह चिंता करने लगता है कि उसका रुतबा सुरक्षित नहीं है, है न? तो वह आगे क्या करता है? क्या वह उस व्यक्ति को सीधे दंडित करता है? कुछ मसीह-विरोधी वैसे व्यक्ति के खिलाफ खुलेआम कार्रवाई करते, लेकिन अधिक कुटिल लोग सीधे ऐसा नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे कुछ अपेक्षाकृत कमजोर, भ्रमित और नासमझ भाई-बहनों से बात करके, उनसे सवाल करके और उनकी गुप्त रूप से जाँच करने से शुरुआत करेंगे : “फलाँ व्यक्ति एक दशक से अधिक समय से विश्वासी है, इसलिए उसकी आस्था का कुछ आधार तो होगा, है न?” शायद कोई जवाब दे : “उसके पास काफी आधार है। परमेश्वर में विश्वास करने के इतने सालों में उसने अपने परिवार और अपने करियर को त्याग दिया है; उसकी आस्था हमसे बड़ी है। उसका साथी बनना तुम्हारे लिए काफी अच्छा रहेगा।” मसीह-विरोधी कहेगा : “हाँ, यह काफी अच्छा है, लेकिन वह कभी भी दूसरे भाई-बहनों के साथ नहीं घुलता-मिलता। वह बहुत मिलनसार नहीं लगता।” कोई दूसरा व्यक्ति यह भी जोड़ सकता है : “ऐसा नहीं है—वह हमसे ज्यादा सत्य का अनुसरण करता है। हम अक्सर बातें करते हैं, लेकिन वह ज्यादातर समय परमेश्वर के वचनों को पढ़ने, धर्मोपदेश सुनने और भजन सीखने में बिताता है, और जब वह हमारे साथ होता है तो परमेश्वर के वचनों पर संगति करता है।” इस व्यक्ति के बारे में ये अनुकूल और अनुमोदन भरी टिप्पणियाँ सुनकर मसीह-विरोधी को लगता है कि वह और अधिक नहीं कह सकता, इसलिए वह विषय को बदलते हुए कहता है : “उसका कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास है और उसे हमसे अधिक अनुभव है। हमें भविष्य में उसके साथ अधिक बातचीत करनी चाहिए और उसे अलग-थलग नहीं करना चाहिए।” यह सुनकर अन्य लोग अभी भी कुछ नहीं समझ पाते। यह देखते हुए कि अधिकांश लोग उस व्यक्ति के बारे में अच्छा बोलते हैं, अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असमर्थ होकर मसीह-विरोधी इस विषय पर और कुछ नहीं कहता। बाद में, मसीह-विरोधी लोगों के एक अन्य समूह को ढूँढ़ता है और पूछता है : “क्या तुम लोगों ने कभी फलाँ-फलाँ को परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए देखा है? मुझे लगता है कि वह हमेशा दूसरों के साथ संगति करता रहता है और ऊपर से व्यस्त दिखता है; वह कभी परमेश्वर के वचन क्यों नहीं पढ़ता?” यह समूह अधिक समझदार है, और वे अंतर्निहित अर्थ को समझ जाते हैं और सोचने लगते हैं, “ऐसा लगता है कि इन दोनों के बीच मतभेद है; यह इस कोशिश में है कि हम उस व्यक्ति को कमजोर कर उसे अलग-थलग कर दें।” तो वे जवाब देते हैं : “हाँ, वह हमेशा महत्वहीन कार्यों में व्यस्त रहता है, हमेशा लोगों और चीजों का ज्यादा ही अर्थ निकालता है। वह शायद ही कभी परमेश्वर के वचनों को पढ़ता है, और जिस अवसर पर वह पढ़ता है, उसे बस नींद आ जाती है; मैंने ऐसा कई बार देखा है।” पहले समूह के लोगों और दूसरे समूह के साथ उसकी बातचीत से, मसीह-विरोधी के शब्दों में किस तरह का स्वभाव मौजूद है? क्या यह दुष्टता नहीं है? (हाँ, है।) उनके कार्यों की प्रकृति और साधन कैसे हैं? वे कुटिल हैं। पहले समूह के लोगों को यह एहसास नहीं हुआ कि मसीह-विरोधी क्या करने की कोशिश कर रहा था, जबकि दूसरे समूह को इस बात की झलक मिल गई थी कि क्या चल रहा था, और फिर उसने जो कहा, वे उसके अनुसार बोले। यह देखते हुए कि दूसरे समूह ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई और उन्हें फुसलाया जा सकता है, मसीह-विरोधी अपने साथी से छुटकारा पाने के लिए इस समूह का उपयोग करना चाहता है। सोच का यह तरीका कुटिल होता है। सभी तरह से समझाने-बुझाने के बाद दूसरा समूह गुमराह हो जाता है और फुसला लिया जाता है, और कहता है : “चूँकि वह व्यक्ति कलीसिया के अगुआ होने के सिद्धांतों और शर्तों को पूरा नहीं करता, इसलिए लगता है कि हमें अगली बार अगुआ के रूप में उसे वोट नहीं देना चाहिए, है न?” यह समूह काफी विश्वासघाती है, और बोलने के बाद वे मसीह-विरोधी का रवैया देखते हैं। मसीह-विरोधी कहता है : “ऐसे नहीं चलेगा; यह अनुचित होगा। यह परमेश्वर का घर है, समाज नहीं!” यह सुनकर वे पूछते हैं : “यह वास्तव में नहीं चलेगा? तो हमें क्या करना चाहिए? तो हम अगली बार उसे वोट दे देंगे।” मसीह-विरोधी तुरंत कहता है, “उसके लिए वोट करने से भी काम नहीं चलेगा।” समझे? चाहे वे कुछ भी कहें, वह सही नहीं होता; यह एक समस्या है। वास्तव में, मसीह-विरोधी बस इन लोगों को अपने रास्ते पर ले जाना चाहता है, उनके लिए गड्ढा खोदना चाहता है जिसमें वे गिर जाएँ। अंत में, यह सब सुनने के बाद, ये लोग मसीह-विरोधी के इरादे समझ जाते हैं : “चलो बस एक निष्पक्ष चुनाव करवाते हैं। उसके पक्ष में ज्यादा कुछ नहीं है, इसलिए हो सकता है उसे वैसे भी न चुना जाए।” मसीह-विरोधी खुश है। जरा समझो : यहाँ एक भेड़िया और कुछ लोमड़ियाँ हैं, और वे मिलकर काम करने के लिए हाथ मिला रहे हैं। यह मसीह-विरोधी और कलीसिया में उसका अनुसरण करने वाली ताकतों द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों का सिद्धांत और प्रकृति है; यह उनकी अभिव्यक्ति है। मसीह-विरोधियों का अनुसरण करने वाले लोग कहते हैं, “तो चलो वोट करते हैं। इसके अलावा, वह इतना अच्छा भी नहीं है; अगर हम वोट करते हैं, तो शायद उसे न भी चुना जाए।” क्या यहाँ कुछ गड़बड़ है? क्या वे कुछ योजना बना रहे हैं? वे पहले से ही एक-दूसरे के शब्दों से सुराग लगा चुके हैं, लेकिन कोई भी सीधे तौर पर नहीं कहता कि क्या करना है; उनके बीच एक मौन समझ है, और हर कोई इसे समझता है। ऊपर से मसीह-विरोधी किसी को सीधे तौर पर अपने साथी को न चुनने का निर्देश नहीं देता, और उसके नीचे के लोग भी यह नहीं कहते, “हम उसे नहीं चुनेंगे; हम तुम्हें चुनेंगे।” वे इसे सीधे क्यों नहीं कहते? ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी दूसरे को कोई लाभ नहीं उठाने देना चाहता। क्या यह कुटिल नहीं है? यह सरासर दुष्टता है। वे एक-दूसरे की बातचीत का लहजा सुनते हैं, लेकिन कोई भी सीधे तौर पर नहीं बोलता, और अंत में एक आम सहमति बन जाती है। इसे शैतानी संवाद कहा जाता है। उनमें से एक “मूर्ख” है, जो सुनने के बाद भी नहीं समझता और दूसरों से पूछता है कि वे उस व्यक्ति को वोट देंगे या नहीं। मसीह-विरोधी कैसे जवाब देता है? अगर वह कहता है, “जैसा तुम्हें ठीक लगे वैसा करो,” तो यह बहुत स्पष्ट होगा। इस तरह के जवाब में धमकी और प्रलोभन की प्रकृति होती है; दुष्ट लोग इस तरह से बात नहीं करते। इसके बजाय वे कहते हैं : “क्या परमेश्वर के घर में कार्य व्यवस्थाएँ नहीं हैं? जिसे वोट देना चाहिए, उसे वोट दो; अगर किसी को नहीं चुना जाना चाहिए, तो उसे वोट न दो।” क्या यह अस्पष्ट रूप से बोलना नहीं है? वे उचित लगने वाले बहाने का उपयोग करते हैं, कहते हैं : “तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए; तुम मेरी बात नहीं सुन सकते। मैं जो कहता हूँ उसका कोई महत्व नहीं है। मैं सिद्धांत नहीं हूँ; परमेश्वर के वचन सिद्धांत हैं।” “मूर्ख” यह सुनता है और सोचता है, “अगर हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना है, तो मैं उसे वोट दूँगा।” यह देखकर कि यह व्यक्ति मूर्ख है और उसकी योजनाओं को गड़बड़ कर सकता है, समूह सामूहिक रूप से उसे बाहर निकाल देता है, और “मूर्ख” को अपने बीच नहीं रहने देता। अंत में, जब “मूर्ख” यह पूछता रहता है कि उसे उस व्यक्ति को वोट देना चाहिए या नहीं, तो कोई कहता है : “इस बारे में बाद में बात करते हैं। हम उसके प्रदर्शन के आधार पर इसे तय करेंगे।” क्या इन शब्दों में कोई निर्णायकता है? ईमानदारी का कोई अंश है? (नहीं।) तो वास्तव में इन शब्दों में क्या है? ये शब्द उनके दुष्ट स्वभाव के साथ-साथ उनकी अघोषित मंशाओं, इरादों और उद्देश्यों को भी व्यक्त करते हैं। इनमें उनके बीच—भेड़िए और लोमड़ियों में—आपसी गुप्त षड्यंत्र शामिल हैं, वे उस व्यक्ति से छुटकारा पाने में लगे हैं जो मसीह-विरोधी की आँखों में खटक रहा है। लोगों का यह समूह इस तरह से कार्य कैसे कर पाता है? अपने दुष्ट स्वभाव से शासित होने के अलावा वे ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि उनका उच्च अधिकारी, मसीह-विरोधी, उस व्यक्ति को पसंद नहीं करता। यदि वे उसको वोट देते हैं, और मसीह-विरोधी को पता चल जाता है, तो परिणाम अच्छा नहीं होगा। इसलिए, उनके लिए सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण काम, सबसे फायदे वाला काम उस व्यक्ति को वोट न देना होता है। वे सभी मसीह-विरोधी की बात सुनते हैं; मसीह-विरोधी जो भी कहता है, उसके शब्द जिस भी दिशा में जाते हैं, ये लोग उसका अनुसरण करते हैं, सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के वचनों को दरकिनार कर देते हैं। तुम देखो, जब तक कोई मसीह-विरोधी प्रकट होता रहेगा, तब तक निश्चित रूप से उसकी बात मानने वाले लोग होंगे। जब तक कोई मसीह-विरोधी कुछ काम करता रहेगा, तब तक कुछ लोग उसका साथ देंगे और उसका अनुसरण करेंगे—ऐसा कोई मसीह-विरोधी नहीं है जो पूरी तरह से अकेले और अलगाव में कार्य करता हो।
अभी जिस बात पर चर्चा की गई, वह मसीह-विरोधी किस तरह से कुटिलता से काम करते हैं, उसकी अभिव्यक्तियों में से एक है। यहाँ जिस कुटिलता का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, उसके पीछे उनके अपने उद्देश्य और प्रेरणाएँ होती हैं, लेकिन वे तुम्हें नहीं बताएँगे और न ही तुम्हें उन्हें देखने देंगे। जब तुम इसे खोज लोगे, तो वे इसे छिपाने के लिए बहुत कुछ करेंगे, तुम्हें गुमराह करने के लिए विभिन्न तरीके इस्तेमाल करेंगे, ताकि उनके बारे में तुम्हारी धारणा बदल जाए। यह मसीह-विरोधियों का कुटिल पहलू होता है। यदि उनके उद्देश्य आसानी से उजागर किए जा सकते, व्यापक रूप से प्रचारित किए जा सकते, और सभी के साथ साझा किए जा सकते, ताकि लोगों को पता चले, तो क्या यह कुटिल होता? यह कुटिल नहीं होता; यह क्या होता? (मूर्खता।) मूर्खता नहीं—यह समझ-बूझ को त्यागने की हद तक का अहंकार होता। मसीह-विरोधी अपने व्यवहार में कुटिल होते हैं। वे कैसे कुटिल होते हैं? उनका व्यवहार हमेशा छल-कपट पर निर्भर होता है, लेकिन उनकी बातों से कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता, इसलिए लोगों के लिए उनके इरादे और मकसद को समझना मुश्किल होता है। यह कुटिलता होती है। वे अपनी किसी भी कथनी या करनी में आसानी से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते; वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनके अधीनस्थ और उन्हें सुनने वाले उनके इरादे समझ सकें और वे लोग जो मसीह-विरोधी को समझ चुके हैं, उनके एजेंडे और प्रेरणाओं के अनुसार कार्य और उनके आदेशों का पालन करें। यदि कोई कार्य पूरा हो जाता है, तो मसीह-विरोधी खुश होता है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो कोई भी उनके विरुद्ध कोई बात खोज नहीं पाता और न ही वे जो करते हैं उसके पीछे की प्रेरणाओं, इरादों या लक्ष्यों की थाह पा सकता है। मसीह-विरोधी जो कुछ करते हैं उसकी कुटिलता छिपी हुई साजिश और गुप्त मंशाओं में निहित होती है, जिनका मकसद लोगों को धोखा देना, उनके साथ खिलवाड़ करना और उन्हें नियंत्रित करना होता है। यह कुटिल व्यवहार का सार है। कुटिलता बस झूठ बोलना या कुछ बुरा करना नहीं होता; इसके बजाय इसमें बड़े इरादे और लक्ष्य शामिल होते हैं, जो आम लोगों के लिए अथाह होते हैं। यदि तुमने कुछ ऐसा किया है, जिसके बारे में तुम नहीं चाहते कि किसी को पता चले, और झूठ बोलते हो, तो क्या यह कुटिलता मानी जाएगी? (नहीं।) यह सिर्फ छल है, इसे कुटिलता की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। कौन-सी चीज कुटिलता को छल से अधिक गहरा बनाती है? (लोग उसकी थाह नहीं ले पाते।) लोगों के लिए उसकी थाह लेना मुश्किल होता है। यह तो एक बात हो गई। और क्या? (लोगों के पास कुटिल व्यक्ति के खिलाफ कुछ नहीं होता।) यह बात सही है। बात यह है कि लोगों के लिए उनके खिलाफ कुछ भी खोजना मुश्किल होता है। अगर कुछ लोगों को पता भी चल जाए कि फलाँ व्यक्ति ने बुरे काम किए हैं, तो वे यह तय नहीं कर पाते कि वह व्यक्ति अच्छा है या बुरा, बुरा व्यक्ति है या मसीह-विरोधी। लोग उसकी असलियत नहीं जान पाते, उन्हें लगता है कि वह अच्छा इंसान है और वे उसके हाथों गुमराह हो सकते हैं। यह कुटिलता है। आम तौर पर झूठ बोलना और छोटी-मोटी साजिश रचना लोगों की प्रवृत्ति होती है। यह सिर्फ छल है। लेकिन मसीह-विरोधी आम छल करने वाले लोगों से अधिक धूर्त होते हैं। वे शैतान राजाओं की तरह होते हैं; कोई उनकी करतूतों की थाह नहीं पा सकता। वे न्याय के नाम पर बहुत-से कुकृत्य कर सकते हैं और लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं, लेकिन लोग तब भी उनका गुणगान करते हैं। इसे कुटिलता कहते हैं।
अतीत में एक घटना हुई थी जब एक अगुआ को ऊपर वाले से संपर्क और उसके साथ संगति के दौरान, परमेश्वर के घर की कुछ कार्य योजनाओं के बारे में बताया गया था। उस समय कार्य व्यवस्था अभी तक औपचारिक रूप से जारी नहीं की गई थी। लौटने के बाद उसने दिखावा करना शुरू कर दिया, लेकिन तुम यह नहीं बता सकते थे कि यह दिखावा था। वह एक सभा के दौरान बहुत गंभीरता से बोल रहा था, और अचानक अपनी संगति के बीच में उसने कुछ ऐसा कहा जो पहले किसी ने नहीं सुना था : “अब तक परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण पूरा हो चुका है, और लोग मूल रूप से स्थिर हो गए हैं। अगले महीने से हम सुसमाचार के प्रचार का विस्तार करेंगे, इसलिए हमें सुसमाचार टीमों की स्थापना करनी है। सुसमाचार टीमों की स्थापना कैसे की जानी चाहिए? इसके कुछ विवरण इसमें हैं...” जब दूसरों ने यह सुना, तो उन्होंने सोचा, “ये वचन कहाँ से आए? ऊपर वाले ने अभी तक कोई कार्य व्यवस्था जारी नहीं की है। उसे कैसे पता? जरूर वह दूरदर्शी होगा!” वे उसकी आराधना कर रहे थे, है न? उसके प्रति लोगों का रवैया तुरंत बदल गया। उसने केवल सुसमाचार टीमों की स्थापना का उल्लेख किया, लेकिन उसके बाद उसने कोई विशेष कार्य नहीं किया—उसने केवल खोखले नारे लगाए। बेशक, खोखले नारे लगाने के पीछे उसका अपना उद्देश्य था; वह खुद का दिखावा कर रहा था, वह चाहता था कि लोग उसके बारे में उच्च विचार रखें, उसकी आराधना करें। कुछ ही समय बाद ऊपर वाले की ओर से कार्य व्यवस्था जारी की गई। जब भाई-बहनों ने इसे देखा, तो वे आश्चर्यचकित हो गए और कहा, “अविश्वसनीय! क्या यह भविष्यवाणी करना नहीं है? तुम्हें इसके बारे में कैसे पता चला? तुम हमसे बेहतर सत्य समझते हो; तुम्हारा आध्यात्मिक कद काफी बड़ा है। हमारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। जब सुसमाचार का विस्तार करने का समय आया, तो तुमने हमें पहले ही बता दिया था, जबकि हम सुन्न और अनभिज्ञ थे। देखो, क्या तुमने जो संगति की थी वह ऊपर वाले की कार्य व्यवस्था से मेल नहीं खाती? यह एक संयोग है और अब इसकी पुष्टि हो गई है।” इस घटना के माध्यम से सभी ने उसकी और भी अधिक आराधना की, और यह साधारण ढंग से नहीं बल्कि पूर्ण समर्पण के साथ, लगभग घुटने टेकने और उसके सामने झुकने की हद तक किया। अधिकांश लोगों को इस मामले के बारे में पता नहीं था; यदि वह स्वयं इसके बारे में न बोलता, तो कोई नहीं जान पाता, केवल परमेश्वर को ही पता था। यह इतना स्पष्ट मामला था, और उसने इसे किसी को नहीं बताया, इसके बजाय उसने इतनी बेशर्मी से उन्हें धोखा देने का विकल्प चुना। क्या इस व्यवहार को कुटिल माना जाता है? (हाँ।) उसने दूसरों को इस तरह से धोखा क्यों दिया? वह इस तरह से व्यवहार और कार्य क्यों कर पाया? वह वास्तव में अपने दिल में क्या सोच रहा था? वह चाहता था कि लोग उसे अलग तरह से देखें, सोचें कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। क्या यह कुछ ऐसा है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए? (नहीं।) ऐसे व्यक्ति के कार्य घृणित और बेशर्म होते हैं। क्या तुम इसे कुटिल मानोगे? (हाँ।) कुटिल होने के अलावा यह कुछ हद तक घृणित भी होता है।
मसीह-विरोधियों में एक प्रकार का व्यक्ति होता है जिसे कभी कुछ गलत कहते नहीं सुना जाता या कुछ गलत करते नहीं देखा जाता; वह जो करता है और जिस तरह से कार्य करता है उसे आम तौर पर अच्छा माना जाता है और सभी उसका अनुमोदन करते हैं। वह अक्सर मुस्कराता रहता है, उसका हाव-भाव दयालु संत जैसा होता है, वह कभी किसी की निंदा नहीं करता। लोग चाहे कोई भी गलती करें, वह हमेशा उन्हें एक प्रेममयी माँ की तरह क्षमाशील हृदय से सहन करता है। वह कलीसिया में उन लोगों को कभी नहीं सँभालता जो प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हैं, विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, या बुरे कर्म करते हैं। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वह इन चीजों को देख या पहचान नहीं पाता? नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है; ऐसे लोग उन्हें देख और पहचान सकते हैं, लेकिन अपने दिल में वे मानते हैं कि अगर इन लोगों को दूर कर दिया गया, और कलीसिया शांतिपूर्ण हो गई, केवल ईमानदार लोगों से भर गई जो सत्य का अनुसरण करते हैं और ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं, तो वे खुद आसानी से पहचान लिए जाएँगे और वे शायद कलीसिया में पैर जमाए रखने में सक्षम नहीं रह पाएँगे। इसलिए, वे इन लोगों को अपने आसपास रखते हैं, कुकर्मियों को बुराई करते रहने देते हैं, झूठ बोलने वालों को झूठ बोलते रहने देते हैं, और बाधा डालने वालों को बाधा डालते रहने देते हैं, इन उपद्रवों के माध्यम से वे यह सुनिश्चित करते हैं कि कलीसिया में कभी शांति न रहे, और इस तरह उनका अपना रुतबा सुरक्षित रहे। इसलिए, जैसे ही किसी को निष्कासित करना होता है, उसका निपटान किया जाता है, अलग-थलग किया जाता है, या उसके पद से हटाया जाना होता है, वे क्या कहते हैं? “हमें लोगों को पश्चात्ताप करने का अवसर देना चाहिए। कमियाँ या भ्रष्टता किसमें नहीं होती? गलतियाँ किसने नहीं की हैं? हमें सहनशीलता सीखनी चाहिए।” भाई-बहन इस पर विचार करते हैं और कहते हैं, “हम उन लोगों के प्रति सहिष्णु हैं जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपराध करते हैं या जो मूर्ख और अज्ञानी हैं, लेकिन हम बुरे लोगों को बरदाश्त नहीं करते। वह एक बुरा व्यक्ति है।” मसीह-विरोधी जवाब देता है, “वह एक बुरा व्यक्ति कैसे है? वह कभी-कभार कठोर शब्द बोल देता है; यह बुराई नहीं है। जो लोग दुनिया में हत्या और आगजनी करते हैं, वे असल में बुरे लोग हैं।” लेकिन मसीह-विरोधी वास्तव में क्या सोचता है? “वह एक बुरा व्यक्ति है? क्या वह मेरे जितना बुरा है? तुमने नहीं देखा कि मैंने क्या किया है, तुम नहीं जानते कि मैं अंदर क्या सोच रहा हूँ। अगर तुमने देखा होता, तो क्या तुम लोग मुझे दूर नहीं कर देते? उसे दूर करने के बारे में सोच रहे हो? भूल जाओ! मैं तुम्हें उससे नहीं निपटने दूँगा। जो भी कोशिश करेगा, मेरा क्रोध झेलेगा, मैं उसके लिए चीजें बहुत मुश्किल बना दूँगा! जो भी उससे निपटने की कोशिश करेगा, मैं उसे निष्कासित कर दूँगा!” लेकिन क्या वे यह जोर से कहेंगे? नहीं, वे नहीं कहेंगे। फिर वे क्या करते हैं? वे पहले हालात को शांत करते हैं, मामले स्थिर करते हैं, कलीसिया की अगुआई करने में सक्षम दिखते हैं और विभिन्न शक्तियों को संतुलित करने में सक्षम हो जाते हैं, ताकि कलीसिया उनके बिना न चल सके। इस तरह से क्या उनका पद सुरक्षित नहीं हो जाता? एक बार पद सुरक्षित हो जाने पर क्या उनकी आजीविका सुरक्षित नहीं हो जाती? इसे ही कुटिल होना कहते हैं। इसीलिए अधिकांश लोग ऐसे व्यक्तियों की असलियत नहीं जान पाते। क्यों नहीं? वे कभी सच नहीं बोलते, न ही वे हल्के-फुल्के ढंग से काम करते हैं। ऊपर वाला उनसे जो भी करने को कहता है, वे यंत्रवत ढंग से उसे कर देते हैं; जो भी किताबें वितरित करनी होती हैं, वे उन्हें भेज देते हैं; वे सप्ताह में कुछ सभाएँ करते हैं, और सभाओं के दौरान संगति पर एकाधिकार नहीं रखते। ऊपर से, सब कुछ सही और दोषरहित लगता है, जिसमें आलोचना के लिए कोई जगह नहीं बचती। लेकिन एक बात है जिसे तुम लोग समझ सकते हो : वे कभी भी बुरे लोगों से नहीं निपटते। इसके विपरीत वे उन्हें बचाते हैं, लगातार उन्हें छिपाते और उनका बचाव करते हैं। क्या यह कुटिल होना नहीं है? यहाँ उनके व्यवहार का कुटिल पहलू क्या है, उनका ध्यान किस पर है? इसे स्पष्ट किया जाना चाहिए। वे कभी सच नहीं बोलते, हमेशा परमेश्वर के घर को धोखा देने के लिए झूठ बोलते रहते हैं। वे बुरे लोगों को बुरा करते देखते हैं लेकिन उनसे निपटते नहीं, हमेशा चीजों को छिपाते रहते हैं और धैर्य और सहनशीलता का अभ्यास करते हैं। इन चीजों को करने के पीछे उनका मकसद क्या होता है? क्या यह वास्तव में लोगों को एक-दूसरे की ताकतों का पूरक बनाने और एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होने में मदद करना होता है? (नहीं।) तो उनका उद्देश्य क्या होता है? वे अपने प्रभाव को मजबूत करना चाहते हैं, अपने रुतबे को स्थिर करना चाहते हैं। वे जानते हैं कि एक बार जब बुरे लोगों को दूर कर दिया जाता है, तो जाने का अगला नंबर उनका होगा; इसी से वे डरते हैं। इसलिए, वे बुरे लोगों को अपने आसपास रखते हैं; जब तक वे वहाँ होते हैं, मसीह-विरोधी का रुतबा सुरक्षित रहता है। अगर बुरे लोगों को दूर कर दिया गया, तो मसीह-विरोधी खत्म हो जाएगा। बुरे लोग उनकी सुरक्षा की छाया, उनकी ढाल होते हैं। इसलिए, चाहे कोई भी बुरे लोगों को उजागर करे या सुझाव दे कि उन्हें दूर कर दिया जाना चाहिए, वे इससे असहमत होते हैं, कहते हैं, “वे अभी भी अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं, वे अभी भी पैसे दे सकते हैं; कम से कम वे अभी भी श्रम कर सकते हैं!” वे बुरे लोगों का बचाव करने के लिए कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, और आम तौर पर विवेकहीन लोग उनके भीतर छिपे दुर्भावनापूर्ण इरादे को नहीं देख पाते, वे इसे पहचानने में असमर्थ होते हैं।
क्या ऐसे अन्य उदाहरण हैं जिसमें किसी मसीह-विरोधी की कुटिल हरकतों ने तुम लोगों पर गहरा प्रभाव डाला हो? कोई साझा करे। (एक बहन थी जो एक सुसमाचार टीम की अगुआ थी और हर महीने वह कुछ लोगों को प्राप्त करने में कामयाब हो जाती थी, जिनमें से कुछ अविश्वासी होते थे। मसीह-विरोधी ने संदर्भ से बाहर एक कार्य व्यवस्था की व्याख्या की, यह कहते हुए कि सुसमाचार के प्रचार में मुख्य रूप से संप्रदाय के लोगों को लक्षित करना चाहिए, अविश्वासियों को गौण रखना चाहिए और यदि मुख्य ध्यान अविश्वासियों पर हो, तो यह कार्य व्यवस्था का गंभीर उल्लंघन होगा। उसने इस व्यवहार का गहन विश्लेषण करने के लिए “जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी” से परमेश्वर के वचनों का भी इस्तेमाल किया। फिर उसने सभी से यह पूछते हुए वोट करने को कहा, “क्या ऐसा व्यक्ति अभी भी प्रभारी रह सकता है?” उस समय, कलीसिया में कई लोग नए विश्वासी थे और उन्हें विश्वास करते सिर्फ एक या दो साल हुए थे और वे समझ नहीं पाए, इसलिए उन्हें लगा कि कार्य व्यवस्था का उल्लंघन करना गंभीर है और वे बहन को बदलने के लिए सहमत हो गए। उस समय बहन बहुत निराश हो गई; इस मसीह-विरोधी द्वारा गहन विश्लेषण और निंदा किए जाने के बाद उसे लगा कि वह स्वयं एक मसीह-विरोधी है, निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हटा दी जाएगी, और वह इतनी निराश हो गई कि जीना नहीं चाहती थी। इसके अलावा, इस मसीह-विरोधी ने ऊपर वाले की ओर से कुछ उपदेश और संगति भी रोक दी, हमें सुनने नहीं दिया। उसने दावा किया कि ऊपर वाले की ओर से आई संगति बहुत कठोर थी और हम छोटे आध्यात्मिक कद वाले नए विश्वासी उसे सुनने के बाद धारणाएँ विकसित कर लेंगे। ऊपर से, ऐसा लग रहा था कि वह हमारा ख्याल रख रहा था, लेकिन वास्तव में उसे डर था कि अगर हमने ऊपर वाले की ओर से उपदेश सुने, तो हम उसे पहचान लेंगे, और फिर वह हमें नियंत्रित नहीं कर पाएगा। उसने लोगों के साथ हेराफेरी करने और उन्हें ठगने के लिए इन अच्छे से दिखने वाले तरीकों का इस्तेमाल किया, जिससे ऐसा लगे कि उसने जो किया वह तर्कसंगत था और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार था।) इस घटना को निश्चित रूप से कुटिल कहा जा सकता है। जिस किसी को भी मसीह-विरोधी माना जाता है, उसके लगातार अभ्यास हमेशा एक जैसे होते हैं, थोड़े-से भी भिन्न नहीं होते, एक ही इरादे वाले होते हैं और वे जो कुछ भी करते हैं उसमें एक ही लक्ष्य रखते हैं। क्या यह साबित नहीं करता कि मसीह-विरोधी वास्तव में दानव और बुरी आत्माएँ हैं? (हाँ।) बिल्कुल। मसीह-विरोधियों—इन दानवों और बुरी आत्माओं—के कार्यों को कुटिल बताना पूरी तरह से उपयुक्त है और इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
इन उदाहरणों के बाद तुम्हें कुछ अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जानी चाहिए; क्या तुमने मसीह-विरोधियों के कुटिल कार्यकलापों के बारे में कुछ विवेक विकसित करना शुरू कर दिया है? कोई भी चीज जिसमें छिपे हुए इरादों और उद्देश्यों के साथ कुटिल व्यवहार शामिल होता है, वह एक सामान्य व्यक्ति का कार्य नहीं होता, एक ईमानदार व्यक्ति का कार्य नहीं होता, और निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति का कार्य नहीं होता। क्या वे जो कुछ भी करते हैं वह सत्य का अभ्यास करना है? क्या वे परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखे हैं? (नहीं।) तो, वे क्या कर रहे हैं? वे कलीसिया के काम को बाधित और नष्ट कर रहे हैं, बुराई कर रहे हैं; वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, न ही वे परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखे हैं। वे जो भी करते हैं वह कलीसिया का काम नहीं है; वे केवल अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कलीसिया के काम करने की आड़ का उपयोग कर रहे हैं, अनिवार्य रूप से अपने व्यक्तिगत हितों और शैतान के हितों की रक्षा कर रहे हैं। क्या कोई अन्य उदाहरण हैं? (2015 में ऊपर वाले की ओर से एक कार्य व्यवस्था जारी की गई थी, जिसमें हमें झूठे अगुआओं को पहचानने और सच्ची और झूठी कलीसियाओं में अंतर करने के लिए “जागृत” के लेख का उपयोग करने का निर्देश दिया गया था। कलीसिया में एक अगुआ था, जिसे अभी-अभी बदला गया था, जिसने कहा कि हम परमेश्वर में विश्वास करने के मामले में नए हैं और छोटे आध्यात्मिक कद के हैं, और हमने ऊपर वाले की कार्य व्यवस्था को बहुत सतही रूप से समझा है—परमेश्वर के कार्य अथाह हैं, और ऊपर वाले ने इस व्यवस्था को एक गहरे अर्थ के साथ जारी किया है। उसने यह भी कहा, “झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने के सत्यों के संबंध में ऊपर वाले ने पहले बहुत-सी संगति प्रदान की है और इसे बहुत स्पष्ट रूप से समझाया है। यदि यह केवल झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में होता, तो क्या एक और कार्य व्यवस्था जारी करने की आवश्यकता होती?” इसके बाद उसने हमें “जागृत” को समझने की ओर अग्रसर करने के बजाय पिछली कार्य व्यवस्थाओं, उपदेशों और ऊपर वाले की संगतियों से संदर्भ से बाहर के अंश लिए, और भाई-बहनों को गुमराह करने के लिए हजारों वचनों की सामग्री संकलित कर ली। उस समय हम गुमराह थे और हमने झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। बाद में, इस व्यक्ति को मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब किया गया। उसे डर था कि अगर हर कोई झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने लगेगा, तो वे उसके बुरे कामों को सामने ले आएँगे और उसे पहचान लेंगे, इसलिए उसने जानबूझकर हमें “जागृत” को पहचानने के लिए गुमराह किया।) यह हाथ की सफाई थी, दिशाहीन करने की एक रणनीति, ध्यान भटकाने के लिए भटकाव पैदा करना ताकि कोई भी उस पर ध्यान न दे। क्या यह तरीका जाना-पहचाना नहीं लगता? जब बड़ा लाल अजगर संकट से जूझ रहा होता है, जैसे उसकी राजनीतिक प्रणाली के भीतर आंतरिक उथल-पुथल या जनता द्वारा हड़ताल या विद्रोह की योजना बनाना, तो वह इसी रणनीति का उपयोग करता है—ध्यान भटकाना। वह अक्सर इसी तरीके का उपयोग करता है। जब भी कोई संकट आता है, तो वह युद्ध के बारे में दहशत फैलाता है, देशभक्ति को बढ़ावा देता है, फिर लगातार प्रतिरोध और देशभक्ति को लेकर युद्धों वाली फिल्में चलाता है, या ध्यान भटकाने के लिए राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने के लिए फर्जी खबरें फैलाता है। बड़ा लाल अजगर इन कामों को गुप्त उद्देश्यों से करता है, अनकहे उद्देश्यों को पालता है—इसे कुटिल व्यवहार कहा जाता है। मसीह-विरोधियों का पूर्वज कौन है? यह बड़ा लाल अजगर, शैतान है। उनके कार्यों की प्रकृति बिल्कुल एक जैसी होती है, मानो उनकी एक-दूसरे के साथ मिलीभगत हो। मसीह-विरोधियों की योजनाएँ और तरीके कहाँ से आते हैं? उन्हें उनके पूर्वजों, राक्षसों और शैतान ने सिखाया था। शैतान उनके भीतर रहता है, इसलिए कुटिल तरीके से काम करना उनके लिए बिल्कुल सामान्य बात होती है; यह पूरी तरह से खुलासा करता है कि उनमें मसीह-विरोधी की प्रकृति है।
(परमेश्वर, मैं एक उदाहरण साझा करना चाहता हूँ। एक मसीह-विरोधी के प्रकट होने का यह मामला जीजिन चारागाह क्षेत्र का है। यह 2012 के वसंत के आसपास की बात है। एन नामक एक मसीह-विरोधी ने विभिन्न कलीसियाओं में कई भ्रांतियाँ फैला दी थीं और यहाँ तक कि “पृथ्वी छोड़ने से पहले परमेश्वर को सबसे अधिक किस बात की परवाह है” शीर्षक से एक पुस्तिका भी लिखी, जिसे उसने सभी कलीसियाओं में निजी तौर पर वितरित किया। उसने दावा किया कि जाने से पहले परमेश्वर को सबसे अधिक इस बात की परवाह है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके जाने के बाद पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए व्यक्ति की बात सुनेंगे या नहीं, इसलिए हमें परमेश्वर के इरादों को समझना चाहिए; और अब पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए व्यक्ति के उपदेशों, संगति और कार्य व्यवस्थाओं को पढ़ना ही पर्याप्त है, जो परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने की जगह ले सकते हैं। परिणामस्वरूप कई भाई-बहन गुमराह हो गए; उन्होंने परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना बंद कर दिया, यही वह लक्ष्य था जो मसीह-विरोधी हासिल करना चाहता था। मसीह-विरोधी की धूर्तता इसमें निहित थी कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए व्यक्ति की गवाही देने की आड़ में, उसने लोगों को परमेश्वर के वचनों से दूर कर दिया, परमेश्वर के वचनों का खाना-पीना छुड़वा दिया, साथ ही लोगों को यह महसूस कराया कि वह परमेश्वर के हृदय को गहराई से समझता है। उसने यह सोचा था कि जाने से पहले परमेश्वर किस बात की परवाह करता है, इसलिए लोग उसका बहुत सम्मान करते थे और उसकी आराधना करते थे।) उसने पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए व्यक्ति को उत्कर्षित क्यों किया? पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किया गया व्यक्ति मनुष्य है, और वह भी मनुष्य है। पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए व्यक्ति को उत्कर्षित करके वह वास्तव में लोगों से अपनी आराधना और उत्कर्ष करवा रहा था; यही उसका लक्ष्य था। हम केवल यह नहीं आँक सकते कि उसने जो कहा था वह सही था या गलत; हमें उसके शब्दों से प्राप्त नतीजों और उद्देश्यों को देखना चाहिए; यही महत्वपूर्ण है। इसलिए, पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए व्यक्ति को उत्कर्षित करने के पीछे उसका उद्देश्य वास्तव में खुद को उत्कर्षित करना था; यही उसका उद्देश्य था। वह जानता था कि पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए व्यक्ति को उत्कर्षित करने पर निश्चित रूप से किसी को आपत्ति नहीं होगी, और लोग उससे सहमत होंगे और उसका उत्कर्ष करेंगे। लेकिन अगर वह सीधे खुद को उत्कर्षित करता और अपनी गवाही देता, तो लोग उसे उजागर कर सकते थे, पहचान कर उसे ठुकरा सकते थे। इसलिए, मसीह-विरोधी ने आत्म-उत्कर्ष और आत्म-गवाही प्राप्त करने के लिए पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए व्यक्ति का उत्कर्ष करने की रणनीति अपनाई; यह मसीह-विरोधी की धूर्तता थी। मसीह-विरोधी एन के कार्य बहुत ही कुटिल थे, लोग आसानी से उसके द्वारा गुमराह हो गए—यह एक विशिष्ट मसीह-विरोधी घटना है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस मसीह-विरोधी मामले से पहचान करना सीखना चाहिए, मसीह-विरोधियों के कुटिल पहलुओं को समझना चाहिए, साथ ही लोगों को गुमराह करने के परिणाम प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले सामान्य उपायों और साधनों को समझना चाहिए। लोगों के लिए मसीह-विरोधियों को पहचानना बहुत फायदेमंद होता है। और किसी के पास साझा करने के लिए कोई उदाहरण है?
(परमेश्वर, मेरे पास भी एक मसीह-विरोधी का मामला है। यह घटना हेनान चारागाह क्षेत्र में हुई थी। 2011 के आसपास एक झूठी अगुआ थी मसीह-विरोधी यू, जिसे बदला गया था। उसे कलीसिया द्वारा सफाई कार्य की देखरेख करने के लिए नियुक्त किया गया था क्योंकि उसके पास कुछ गुण और कार्य अनुभव था। उस समय झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पूरी तरह से उजागर करने और हटाने के लिए ऊपर वाले की ओर से एक कार्य व्यवस्था जारी की गई थी। यू, जो रुतबे की शौकीन थी, ने इसे वापसी के अवसर के रूप में देखा। कार्य व्यवस्था को लागू करने की आड़ में उसने पवित्र आत्मा के कार्य की धारा का पालन करने और झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भाई-बहनों के साथ लगातार संगति की। हालाँकि, उसने उन्हें पहचानने के सिद्धांतों की संगति नहीं की, बल्कि हमें अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया। हर सभा में वह भाई-बहनों से अगुआओं और कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन के बारे में बात करने के लिए कहती थी। हमारे बोलने के बाद वह कुछ विचलनों को पकड़ती और उनके काम में भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करती, इन मुद्दों की प्रकृति को बढ़ाती जाती, सीधे उन्हें झूठा अगुआ करार देती और उन्हें बदल देती। इसके बाद वह लगातार भाई-बहनों के सामने गवाही देती कि कैसे उसने इन झूठे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हटाया, जिससे उन्हें महसूस हो कि वह पहचानने में सक्षम और अपने काम में काबिल है। वास्तव में, उसने इन अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बरखास्तगी को अपनी वापसी और अगुआई जारी रखने के अवसर के रूप में इस्तेमाल करने का लक्ष्य रखा था। यू द्वारा गुमराह किए गए भाई-बहनों ने अगुआओं और कार्यकर्ताओं के काम में भ्रष्टाचार और विचलन देखकर सोचना शुरू कर दिया कि क्या वे वाकई झूठे अगुआ थे, और यहाँ तक कि सभी स्तरों पर कलीसिया के अगुआओं पर सवाल उठाने लगे, वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के काम के साथ सामान्य रूप से सहयोग करने में विफल हो गए। छोटे आध्यात्मिक कद के कई अगुआ और कार्यकर्ता भी काफी विवश थे, निष्क्रियता और सावधानी की स्थिति में रह रहे थे, जो अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से करने में असमर्थ थे, जिससे कलीसिया में अराजकता फैल गई। उस समय कई लोग इस मसीह-विरोधी की आराधना करते थे, और लगभग एक दर्जन कलीसिया इस मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह और नियंत्रित की गई थी। यहाँ तक कि इस मसीह-विरोधी के बेनकाब होने के बाद भी कुछ लोग उसे नहीं पहचान पाए, उनका मानना था कि वह कलीसिया के कार्य को कायम रखे थी, और कुछ तो उसके पक्ष में खड़े भी हुए।) बाद में उन भाई-बहनों का क्या हुआ जो गुमराह हो गए थे? (संगति और मदद के माध्यम से कुछ लोगों ने मसीह-विरोधी की समझ हासिल की और बचा लिए गए, जबकि कुछ लोग, चाहे अन्य लोगों ने उनके साथ कैसे भी संगति की हो, अड़े रहे और मसीह-विरोधी का अनुसरण करने के लिए दृढ़ संकल्पित रहे, और इन लोगों को अंततः हटा दिया गया।) क्या अब अधिकांश लोग इस मसीह-विरोधी को पहचानते हैं? (उनके पास अब कुछ समझ है।) जो लोग जिद्दी और अपरिवर्तनीय बने रहते हैं वे नष्ट होने के योग्य हैं; मसीह-विरोधी का अनुसरण करने का यही परिणाम होता है।
हमने अभी-अभी मसीह-विरोधियों के कुटिल कार्यों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की। अब, आओ इसका सारांश बनाते हैं : मसीह-विरोधियों के ऐसे व्यवहार द्वारा अभिव्यक्त सार और स्वभाव क्या होता है? (दुष्टता।) यह एक ऐसा स्वभाव है जिसमें मुख्य रूप से दुष्टता की विशेषता होती है। तो क्या हम कह सकते हैं कि दुष्ट स्वभाव वाले लोग आमतौर पर कुटिलता से काम लेते हैं, और जो लोग कुटिलता से काम लेते हैं उनका स्वभाव बहुत दुष्ट होता है? (हाँ।) क्या यह तार्किक तर्क है? हालाँकि यह ऊपर से कुछ हद तक तर्क की तरह लगता है, वास्तव में चीजें बिल्कुल ऐसी ही होती हैं—दुष्ट स्वभाव वाले लोग अक्सर कुटिल तरीकों से काम करते हैं। कुटिलता से काम करने वाले मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार शैतान से उत्पन्न होता है; यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे राक्षस और शैतान के समान हैं। मसीह-विरोधियों के काम करने के तरीके को देखकर तुम समझ सकते हो कि राक्षस और शैतान कैसे काम करते हैं। असली राक्षस और शैतान, बड़ा लाल अजगर, इससे भी अधिक गंभीर रूप से काम करते हैं। एक साधारण मसीह-विरोधी भी इतनी कुटिलता से, इतनी चतुराई से काम कर सकता है, बिना कोई खामी छोड़े बोल सकता है, जिससे किसी के लिए भी कोई कमी निकाल पाना या उसे पकड़ना असंभव हो जाता है। पुराने राक्षसों और शैतान के लिए तो यह और भी अधिक सच है! मसीह-विरोधियों के कुटिल व्यवहार के परिप्रेक्ष्य से विचार करें, तो बिना किसी रुतबे वाले साधारण लोग, जो शायद ही कभी दूसरों से संवाद करते हैं या खुलकर बात करते हैं, जो बिना पारदर्शिता के काम करते हैं और नहीं चाहते कि दूसरे जानें कि वे अपने भीतर क्या सोच रहे हैं या क्या करने का विचार कर रहे हैं और उनके काम करने के इरादे क्या हैं, जो खुद को बहुत छिपाए रखते हैं और कसकर लपेटे रहते हैं—क्या उनकी कथनी और करनी में भी कुटिलता का संकेत नहीं होगा? यदि ऐसे लोगों को मसीह-विरोधी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जाता है, तो वे निश्चित रूप से मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे होते हैं। यह निश्चित है। जो लोग मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं, यदि वे काट-छाँट को स्वीकार नहीं करते, न ही दूसरों के सुझावों पर ध्यान देते हैं, और इससे भी अधिक सत्य स्वीकार नहीं करते, एक बार जब वे रुतबा प्राप्त कर लेते हैं, तो वे अनिवार्य रूप से मसीह-विरोधी बन जाएँगे; यह केवल समय की बात है। अगर कुछ लोगों का स्वभाव इतना दुष्ट है और वे एक बार मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल चुके हैं, मसीह-विरोधी से कुछ समानताएँ दिखाते हैं, लेकिन काट-छाँट स्वीकार किए जाने के बाद वे पश्चात्ताप करते हैं, सत्य स्वीकार कर सकते हैं, अपना पिछला मार्ग त्याग सकते हैं, और पीछे मुड़कर सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, तो इसका परिणाम क्या होगा? ऐसा परिवर्तन उन्हें मसीह-विरोधी के मार्ग से और दूर कर देगा, जिससे उनके लिए परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग में प्रवेश करना आसान हो जाएगा, और फिर उनके पास बचाए जाने की आशा होगी। मसीह-विरोधी किस तरह से कुटिलता से काम करते हैं, इसकी अभिव्यक्तियों पर संगति के लिए बस इतना ही; जिस अभिव्यक्ति पर अगली संगति होगी वह इस बारे में है कि वे कैसे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं।
II. मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचारी और तानाशाही व्यवहार के साथ-साथ इस बात का गहन विश्लेषण कि वे किस तरह लोगों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं
मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करते हैं, कभी दूसरों के साथ संगति या परामर्श नहीं करते, मनमर्जी करते हैं और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी चाहे जो भी करें, चाहे जो व्यवस्था करें या जो निर्णय लें, वे दूसरों के साथ संगति नहीं करते, आम सहमति तक नहीं पहुँचते, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते और उन सिद्धांतों को नहीं खोजते जिन्हें अपने कर्तव्यों को पूरा करने में लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा, वे लोगों को यह नहीं समझने देते कि वे किसी खास तरीके से काम क्यों कर रहे हैं, जिससे लोग भ्रमित हो जाते हैं और उनकी बात सुनने के लिए बाध्य हो जाते हैं। अगर कोई नहीं समझ पाता और उनसे इस बारे में पूछता है, तो मसीह-विरोधी संगति या व्याख्या करने के लिए तैयार नहीं होता। इस मामले में मसीह-विरोधी क्या स्थिति बरकरार रखना चाहता है? किसी को भी विवरण जानने की अनुमति नहीं होती; किसी को भी सूचित किए जाने का अधिकार नहीं होता। वे जो चाहे करते हैं और जो उन्हें सही लगता है उसे पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। दूसरों को सवाल करने का कोई अधिकार नहीं होता, और वे उनके साथ समन्वय में काम करने के योग्य तो बिल्कुल भी नहीं होते; उनकी भूमिका केवल आज्ञा मानने और समर्पण करने की है। मसीह-विरोधी इसे किस तरह देखता है? “चूँकि तुमने मुझे एक अगुआ के रूप में चुना है, इसलिए तुम लोग मेरे प्रबंधन के अधीन हो और तुम्हें मेरी बात सुननी चाहिए। यदि तुम लोग मेरी बात नहीं सुनना चाहते, तो तुम्हें मुझे नहीं चुनना चाहिए था। यदि तुमने मुझे चुना है, तो तुम्हें मेरी बात सुननी होगी। हर चीज में मेरा निर्णय अंतिम होता है!” उसकी नजर में, उसके और भाई-बहनों के बीच क्या संबंध होता है? वह आदेश देने वाला है। भाई-बहन सही और गलत का विश्लेषण नहीं कर सकते, पूछताछ नहीं कर सकते, और उन्हें आरोप लगाने, समझने, सवाल करने या संदेह करने की अनुमति नहीं है; ये सब वर्जित हैं। मसीह-विरोधी योजनाएँ, बयान और तरीके भर प्रस्तावित कर दे, और सभी को बिना सवाल किए गुणगान करना चाहिए और सहमत होना चाहिए। क्या यह थोड़ा जबर्दस्ती नहीं है? यह किस तरह की रणनीति है? यह स्वेच्छाचार और तानाशाही है। यह किस तरह का स्वभाव है? (क्रूरता।) सतही तौर पर, “स्वेच्छाचार” का अर्थ है अकेले निर्णय लेना, अंतिम निर्णय लेना; और “तानाशाही” का अर्थ है कि खुद से कोई निर्णय लेना, फिर हर किसी को अलग-अलग राय या बयान देने या यहाँ तक कि सवाल पूछने के अधिकार के बिना उसे लागू कर देना। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का अर्थ है कि किसी स्थिति का सामना करने पर, क्या करना है इस पर निर्णय लेने से पहले वे खुद ही विचार करते और गौर करते हैं। वे बिना किसी और की राय के, चीजों को करने के बारे में पर्दे के पीछे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले लेते हैं; यहाँ तक कि उनके अपने सहकर्मी, सहयोगी या उच्च-स्तरीय अगुआ भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते—स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का यही अर्थ है। चाहे वे जिस स्थिति का सामना करें, जो लोग इस तरह से कार्य करते हैं, वे लगातार अपने ही दिमाग में चीजों पर सोचते रहते हैं और विचार करने में अपना दिमाग खपाते रहते हैं, कभी दूसरों से सलाह नहीं लेते। वे अपने दिमाग में कभी इधर तो कभी उधर की सोचते हैं, लेकिन वे वास्तव में क्या सोच रहे होते हैं, कोई नहीं जानता। कोई भी क्यों नहीं जानता? क्योंकि वे बोलते नहीं हैं। कुछ लोगों को लगेगा कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे बातूनी नहीं हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? यह व्यक्तित्व का मामला नहीं है; यह दूसरों को अंधेरे में रखने के लिए जानबूझकर किया गया चुनाव है। वे अपने हिसाब से काम करना चाहते हैं, उनका अपना गणित होता है। वे क्या हिसाब लगा रहे होते हैं? उनका गणित उनके अपने हितों, रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। वे सोचते हैं कि अपने पक्ष में कैसे काम करें, अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान से कैसे बचाएँ, दूसरों को अपनी असलियत जाने दिए बगैर कैसे काम करें और सबसे महत्वपूर्ण बात, ऊपर वाले से अपने कार्यों को कैसे छिपाएँ, ताकि अंततः किसी को कोई दोष पता न चले बिना और वे फायदा उठा पाएँ। वे सोचते हैं, “अगर मैं क्षणिक चूक कर देता हूँ और कुछ गलत कहता हूँ, तो हर कोई मेरी असलियत जान जाएगा। अगर कोई कुछ ऐसा कह दे जो उसे नहीं कहना चाहिए और ऊपर वाले से मेरी शिकायत कर दे, तो ऊपर वाला मुझे बदल सकता है और मैं अपना रुतबा खो दूँगा। इसके अलावा, अगर मैं हमेशा दूसरों के साथ संगति करता हूँ, तो क्या मेरी सीमित क्षमताएँ सभी को स्पष्ट नहीं हो जाएँगी? क्या दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे?” अब मुझे बताओ, अगर उनकी असलियत सच में पता चल जाए, तो यह अच्छा होगा या बुरा? वास्तव में, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, ईमानदार लोगों के लिए उनकी असलियत का पता चल जाना और कुछ इज्जत या प्रतिष्ठा कम हो जाना बहुत मायने नहीं रखता। वे इन चीजों को लेकर बहुत चिंतित नहीं दिखते; वे इनके बारे में कम ही सचेत दिखते हैं और इन्हें बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देते। लेकिन मसीह-विरोधी इसके बिल्कुल विपरीत होते हैं; वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वे अपने रुतबे और अपने बारे में दूसरों की समझ और रवैये को जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनसे उनकी मन की बात कहलवाना या सत्य बोलने के लिए कहना अत्यधिक कठिन होता है; यहाँ तक कि कई लाभ प्रदान करना भी शायद पर्याप्त न होगा। यदि उनसे अपने रहस्य या निजी मामलों को प्रकट करने के लिए कहा जाए, तो उनके लिए यह और भी कठिन होगा—उनका जीवन दांव पर लगा हो तब भी वे ऐसा नहीं कर सकते। यह किस तरह की प्रकृति है? क्या ऐसा व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है? क्या उसे बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं। आखिरकार, “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।”
मसीह-विरोधी अपने आत्म-मूल्य, रुतबे, इज्जत को और अपनी सत्ता बनाए रखने वाली किसी भी चीज को विशेष महत्व देते हैं। तुम उनके साथ संगति करते हुए कहते हो, “कलीसिया का काम करते समय, चाहे बाहरी मामले हों या आंतरिक प्रशासन, कर्मियों का समायोजन, या कुछ और, तुम्हें भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए। दूसरों के साथ सहयोग करना सीखने का पहला कदम संगति करना सीखना होता है। संगति बेकार की बातें करना या केवल अपनी खुद की नकारात्मकता या परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह व्यक्त करना नहीं होता। तुम्हें दूसरों को प्रभावित करने के लिए अपनी नकारात्मक या विद्रोही अवस्थाओं को नहीं निकालना चाहिए। मुख्य बात इस पर संगति करना है कि परमेश्वर के वचनों में सिद्धांतों को कैसे खोजें और सत्य कैसे समझें।” हालाँकि, चाहे आप जैसे भी सत्य की संगति करें, यह उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता या उन्हें अपने सिद्धांतों और दिशा को बदलने के लिए मजबूर नहीं कर सकता कि वे कैसे काम करते हैं और कैसे आचरण करते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? इसे हल्के ढंग से कहें तो यह अड़ियलपन है; गंभीरता से कहें तो यह क्रूरता है। वास्तव में, इसे क्रूरता कहना उचित है। सोचो कि एक भेड़िए के जबड़े में भेड़ है और वह अपने शिकार का आनंद ले रहा है; अगर तुम उससे यह कहते हुए मोल-भाव करो कि, “मैं तुम्हें खरगोश दूँगा और तुम भेड़ को जाने दो, ठीक है?” तो वह सहमत नहीं होगा। तुम कहते हो, “मैं तुम्हें गाय दूँगा, कैसा रहेगा?” वह बिल्कुल सहमत नहीं होगा। वह पहले भेड़ को खाएगा और फिर गाय को खाएगा। वह सिर्फ एक से संतुष्ट नहीं है; वह दोनों चाहता है। यह किस तरह का स्वभाव है? (तृप्त न होने वाला लालची और बेहद क्रूर।) यह सब बहुत क्रूरतापूर्ण है! इसी तरह, मसीह-विरोधियों के बेहद क्रूर स्वभाव के बारे में सत्य की संगति करने, उनकी काट-छाँट करने या सलाह देने से काम नहीं चलता। इनमें से कोई भी रुतबे को लेकर उनके गहरे अनुसरण या दूसरों को नियंत्रित करने की उनकी इच्छा को नहीं बदल सकता, जब तक कि तुम उन्हें ऊँचे रुतबे या अधिक लाभों से आकर्षित न करो। अन्यथा, जो शिकार उनके मुँह में पहले से है, वे उसे बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे। इस छोड़ने से पूरी तरह इनकार का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि एक बार जब उन्हें एक निश्चित रुतबा मिल जाता है, तो वे इस अवसर का उपयोग जोरदार प्रदर्शन करने और खुद का दिखावा करने के लिए करेंगे। किसका दिखावा करेंगे? अपनी विभिन्न प्रतिभाओं और गुणों, अपनी पृष्ठभूमि, शिक्षा, मूल्य और समाज में अपने रुतबे का प्रदर्शन करेंगे, यह दिखाएँगे कि वे कितने सक्षम और कुशल हैं, वे लोगों के साथ कैसे खिलवाड़ कर सकते हैं और कैसे उनका इस्तेमाल कर सकते हैं, वे लोगों को कैसे बहका सकते हैं। जो सत्य या विवेक से हीन होते हैं, यह सुनकर महसूस करते हैं कि ऐसे मसीह-विरोधी बहुत प्रभावी होते हैं; वे खुद को कमतर महसूस करने लगते हैं, और वे स्वेच्छा से मसीह-विरोधी के नियंत्रण में आ जाते हैं।
कुछ मसीह-विरोधी विशेष रूप से चालाक होते हैं और गहरी साजिशें रचते रहते हैं। वे एक सर्वोच्च शैतानी फलसफे का पालन करते हैं, जो यह है कि किसी भी स्थिति में शायद ही कभी बोलना और किसी भी स्थिति में अपने रुख को आसानी से व्यक्त न करना, केवल तभी बोलना जब ऐसा करने के लिए पूरी तरह से मजबूर होना पड़े। वे बस हर किसी के कार्यों को ध्यान से देखते रहते हैं, मानो उनका उद्देश्य बोलने या कुछ करने से पहले अपने आसपास के लोगों को अच्छी तरह से समझना और जानना है। वे पहले इसकी पहचान करते हैं कि कौन उनका शिकार हो सकता है और कौन उनका सहायक बन सकता है, और उन्हें “राजनीतिक दुश्मन” के रूप में किनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। कभी-कभी वे बोलते नहीं हैं या कोई रुख नहीं अपनाते हैं, शांत रहते हैं, फिर भी वे अंदर ही अंदर मंथन करते और हिसाब करते रहते हैं; ये व्यक्ति दिल से चालाक होते हैं और कभी-कभार ही बोलते हैं। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसा व्यक्ति काफी शातिर है? यदि वे अक्सर नहीं बोलते, तो तुम उन्हें कैसे पहचान सकते हो? क्या उन्हें पहचानना आसान होता है? बहुत मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के दिल पूरी तरह से शैतानी फलसफे से भरे हुए होते हैं। क्या यह कुटिलता नहीं है? मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर वे बहुत ज्यादा बात करेंगे, लगातार अपने विचार व्यक्त करेंगे और दूसरों के साथ संगति करेंगे, तो हर कोई उनकी असलियत जान जाएगा; उन्हें लगेगा कि मसीह-विरोधी में गहराई नहीं है, वह सिर्फ एक साधारण व्यक्ति है, और उनका सम्मान नहीं करेगा। मसीह-विरोधी के लिए सम्मान खोने का क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है दूसरों के दिलों में अपनी प्रतिष्ठित स्थिति खोना, औसत दर्जे का, अज्ञानी और साधारण दिखना। यही वह है जो मसीह-विरोधी देखने की उम्मीद नहीं करते। इसलिए, जब वे कलीसिया में दूसरों को हमेशा अपनी नकारात्मकता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह, पिछले दिन की गई गलतियों या आज ईमानदार न होने से होने वाले असहनीय दर्द को स्वीकार करते देखते हैं, तो मसीह-विरोधी इन लोगों को मूर्ख और भोला समझते हैं, क्योंकि वे कभी भी ऐसी बातें स्वीकार नहीं करते, अपने विचारों को छिपाए रखते हैं। कुछ लोग खराब काबिलियत या सरल-मन, जटिल विचारों की कमी के कारण कम बोलते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों का कभी-कभार बोलना इस कारण से नहीं होता; यह स्वभाव की समस्या होती है। वे दूसरों से मिलते समय शायद ही कभी बोलते हैं और आसानी से मामलों पर अपने विचार व्यक्त नहीं करते। वे अपने विचार क्यों व्यक्त नहीं करते? सबसे पहले, उनमें निश्चित रूप से सत्य की कमी होती है और वे चीजों की असलियत नहीं समझ पाते। यदि वे बोले, तो वे गलतियाँ कर सकते हैं और उनकी असलियत सामने आ सकती है; उन्हें नीचा दिखाए जाने का डर होता है, इसलिए वे चुप रहने का दिखावा करते हैं और गंभीरता का ढोंग करते हैं, जिससे दूसरों के लिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है, वे बुद्धिमान और प्रतिष्ठित दिखते हैं। इस दिखावे के साथ, लोग मसीह-विरोधी को कम आँकने की हिम्मत नहीं करते, और बाहर से उनके शांत और संयमित रूप को देखकर वे उन्हें और अधिक सम्मान देते हैं और उन्हें तुच्छ समझने की हिम्मत नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों का कुटिल और दुष्ट पहलू होता है। वे आसानी से अपने विचार व्यक्त नहीं करते क्योंकि उनके अधिकांश विचार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि केवल मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, जो सबके सामने लाने योग्य नहीं होतीं। इसलिए, वे चुप रहते हैं। अंदर से वे कुछ प्रकाश प्राप्त करने की आशा करते रहते हैं ताकि उसे वे प्रशंसा प्राप्त करने के लिए फैला सकें, लेकिन चूँकि उनके पास इसका अभाव होता है, वे सत्य की संगति के दौरान चुप और छिपे रहते हैं, मौका तलाश रहे भूत की तरह अंधेरे में दुबके रहते हैं। जब वे दूसरों को प्रकाश के बारे में बोलते हुए पाते हैं, तो वे इसे अपना बनाने के तरीके खोज लेते हैं, इसे दूसरे तरीके से व्यक्त करके दिखावा करते हैं। मसीह-विरोधी इतने ही चालाक होते हैं। वे चाहे जो भी करें, वे दूसरों से अलग दिखने और श्रेष्ठ बनने का प्रयास करते हैं, क्योंकि तभी वे प्रसन्न महसूस करते हैं। यदि उन्हें अवसर नहीं मिलता, तो वे पहले चुपचाप रहते हैं, और अपने विचार अपने तक सीमित रखते हैं। यह मसीह-विरोधी लोगों की चालाकी होती है। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर के घर से कोई उपदेश जारी किया जाता है, तो कुछ लोग कहते हैं कि यह परमेश्वर के वचनों जैसा लगता है, और अन्य लोग सोचते हैं कि यह ऊपर वाले की ओर से संगति जैसा लगता है। अपेक्षाकृत सरल हृदय वाले लोग वही बोलते हैं जो उनके मन में होता है, लेकिन मसीह-विरोधियों के पास भले ही इस बारे में कोई राय हो, वे इसे छिपाए रखते हैं। वे ध्यान से देखते रहते हैं और बहुमत के दृष्टिकोण का पालन करने को तैयार रहते हैं, लेकिन वास्तव में वे स्वयं इसे पूरी तरह से नहीं समझ पाते। क्या ऐसे चालाक और धूर्त लोग सत्य समझ सकते हैं या उनमें वास्तविक विवेक हो सकता है? जो सत्य नहीं समझता, वह किसकी असलियत जान सकता है? वह किसी भी चीज की असलियत नहीं जान सकता। कुछ लोग चीजों को समझ नहीं पाते फिर भी वे गंभीर होने का दिखावा करते हैं; वास्तव में, उनमें विवेक की कमी होती है और उन्हें डर बना रहता है कि दूसरे लोग उन्हें पहचान जाएँगे। ऐसी परिस्थितियों में सही रवैया यह होता है : “हम इस मामले की असलियत नहीं जान पा रहे हैं। चूँकि हम नहीं जानते, इसलिए हमें लापरवाही से नहीं बोलना चाहिए। गलत तरीके से बोलने से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। मैं इंतजार करूँगा और देखूँगा कि ऊपर वाला क्या कहता है।” क्या यह ईमानदारी से बोलना नहीं है? यह बहुत सरल भाषा है, और फिर भी मसीह-विरोधी ऐसे क्यों नहीं कहते? वे अपनी सीमाओं को जानते हैं और अपनी असलियत बाहर आने नहीं देना चाहते; लेकिन इसके पीछे एक घृणित इरादा भी होता है—प्रशंसा पाना। क्या यह सबसे घिनौनी बात नहीं है? जब सभी बोल लेते हैं, यह देखकर कि अधिकांश लोग कहते हैं कि ये परमेश्वर के वचन हैं और कुछ कहते हैं कि ये नहीं है, मसीह-विरोधी को भी लगता है कि उपदेश परमेश्वर के वचन नहीं हो सकते, लेकिन वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते। वे कहते हैं, “मैं इस मामले पर निर्णय लेने में जल्दबाजी नहीं कर सकता; मैं बहुमत के साथ चलूँगा।” वे अपनी अंतर्दृष्टि की कमी को स्वीकार नहीं करते, इसके बजाय वे इस दृष्टिकोण का उपयोग छल-कपट और छिपाने के लिए करते हैं, इस दौरान वे सोचते रहते हैं कि वे बहुत बुद्धिमान हैं, कि उनके तरीके शानदार हैं। फिर दो दिन बाद जब परमेश्वर का घर घोषणा करता है कि उपदेश परमेश्वर के ही वचन थे, तो मसीह-विरोधी तुरंत कहता है, “देखो, मैंने तुमसे क्या कहा था? मुझे हमेशा से पता था कि ये परमेश्वर के वचन थे, लेकिन मैं तुम लोगों में से उनकी कमजोरी को लेकर चिंतित था जो उन्हें पहचान नहीं पाए, इसलिए मैं यह कह नहीं पाया। अगर मैंने कहा होता कि ये परमेश्वर के वचन हैं, तो क्या मैं तुम लोगों की निंदा नहीं कर रहा होता? तुम लोग कितने दुखी होते! क्या मैं यह जानकर निश्चिंत हो पाता कि तुम लोग कितने कमजोर हो? फिर मैं किस तरह का अगुआ होता?” भेस बदलने का ऐसा उस्ताद! मसीह-विरोधी जो कुछ भी कहते हैं उसके पीछे उनके इरादे और उद्देश्य होते हैं; जब भी वे अपना मुँह खोलते हैं, तो यह अपने बारे में शेखी बघारने, अपनी उपलब्धियों, पिछले अच्छे कर्मों और पिछली महिमाओं पर इतराने के लिए होता है। जब भी वे बोलते हैं, तो यह इन्हीं चीजों के बारे में होता है। जो लोग उन्हें नहीं समझ पाते वे उन्हें पूजते हैं, जबकि जो लोग उन्हें जान पाते हैं वे उन्हें बेहद धूर्त और धोखेबाज पाते हैं—मसीह-विरोधी कभी भी अपनी कमियों को स्वीकार नहीं करते। मसीह-विरोधी गुप्त रूप से काम करते हैं और गोल-मोल बातें करते हैं; वे जो कुछ भी कहते हैं, उसमें से ज्यादातर बकवास होती है, और वे किसी भी चीज को समझने या किसी भी सत्य को समझने में असमर्थ होते हैं। इससे भी बदतर, वे किसी भी सत्य को न समझने के बाद भी उसे समझने का दिखावा करते हैं और हर चीज में शामिल होना चाहते हैं, फैसले लेना चाहते हैं और सभी मामलों में अंतिम निर्णय सुनाना चाहते हैं, अपने आसपास के लोगों को जानने का कोई अधिकार नहीं देते। इससे आखिरकार क्या स्थिति पैदा होती है? हर कोई जो उनके साथ सहयोग करता है या उनके साथ कर्तव्य करता है, उसे लगता है कि भले ही वे सतही तौर पर वफादार और कीमत चुकाने को तैयार दिखते हों, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि जो लोग वर्षों से मसीह-विरोधी के करीब रहे हैं, वे भी उन्हें नहीं समझ पाते या उनकी असलियत नहीं जान पाते कि वे वास्तव में क्या करने में सक्षम हैं—ज्यादातर लोग उन्हें नहीं जान पाते। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सब झूठ और खोखले शब्द, चालबाजी और भ्रामक बातें होती हैं। वे हर चीज में शामिल होना चाहते हैं और सभी निर्णय लेना चाहते हैं, लेकिन एक बार जब वे निर्णय ले लेते हैं, तो वे संभावित नतीजों की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, और वे इस व्यवहार को सही ठहराने के लिए बहाने ढूँढ़ लेते हैं। निर्णय लेने के बाद वे दूसरों को काम करने देते हैं, जबकि वे अन्य मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि मूल मामले की खोज-खबर ली जाती है या नहीं, उसे लागू किया जाता है या नहीं, उसके निष्पादन की प्रभावशीलता क्या है, क्या अधिकांश अन्य लोगों की दृष्टिकोण के बारे में कोई राय है, क्या इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है, या क्या भाई-बहनों को इसके बारे में समझ है, वे इसकी परवाह नहीं करते, ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे यह उनकी चिंता का विषय नहीं है, कि इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है—वे थोड़ी सी भी परवाह नहीं करते। उन्हें केवल किस चीज की परवाह होती है? वे केवल उन मामलों की परवाह करते हैं जिनमें वे दिखावा कर सकें और दूसरों से प्रशंसा प्राप्त कर सकें; वे ऐसा करने के अवसरों को कभी नहीं छोड़ते। अपने काम में, वे आदेश देने और विनियमों को लागू करने के अलावा कुछ नहीं करते। वे केवल सत्ता के खेल खेलने और लोगों के साथ हेराफेरी करने में सक्षम होते हैं, जबकि वे आत्म-संतुष्ट होते हैं और सोचते हैं कि वे अपने काम में निपुण हैं। वे अपने काम करने के तरीके के परिणामों से पूरी तरह अनजान होते हैं—वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचा रहे होते हैं, कलीसिया के काम में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा कर रहे होते हैं। वे परमेश्वर की इच्छा कार्यान्वित करने में बाधा डाल रहे होते हैं और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे होते हैं।
“स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, दूसरों के साथ कभी संगति न करना और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करना”—मसीह विरोधियों का यह व्यवहार मुख्य रूप से क्या दर्शाता है? उनका स्वभाव दुष्ट और क्रूरतापूर्ण होता है, और उनके पास दूसरों को नियंत्रित करने की असाधारण रूप से प्रबल इच्छा होती है, जो सामान्य मानवीय तर्क-शक्ति की सीमाओं से परे होती है। इसके अतिरिक्त, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उनकी समझ या दृष्टिकोण और रवैया क्या होता है? यह उन लोगों से किस तरह अलग होता है जो सचमुच अपना कर्तव्य निभाते हैं? जो लोग सचमुच अपना कर्तव्य निभाते हैं, वे अपने काम के लिए सिद्धांतों की तलाश करते हैं, जो एक बुनियादी आवश्यकता है। लेकिन मसीह-विरोधी अपने द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य को कैसे समझते हैं? उनके कर्तव्य के निर्वहन के माध्यम से कौन से स्वभाव और सार प्रकट होते हैं? वे एक ऊँचे पद पर आकर अपने से नीचे लोगों को नीचा दिखाते हैं। एक बार जब उन्हें अगुआई करने के लिए चुना जाता है, तो वे खुद को रुतबे और पहचान वाले व्यक्ति के रूप में देखना शुरू कर देते हैं। वे अपने कर्तव्य को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते। एक निश्चित पद प्राप्त करने पर उन्हें लगता है कि उनका रुतबा महत्वपूर्ण है, उनकी सत्ता महान है, और उनकी पहचान अद्वितीय है, जिससे उन्हें अपने ऊँचे पद से दूसरों को नीचा दिखाने की अनुमति मिल जाती हैं। साथ ही, उन्हें लगता है कि वे आदेश जारी कर सकते हैं और अपने विचारों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, और उन्हें ऐसा करने को लेकर कोई संदेह भी नहीं होना चाहिए। उन्हें लगता है कि वे अधिकार को लेकर अपनी लालसा पूरी करने, दूसरों पर शासन करने और सत्ता के साथ अगुआई करने की अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने के लिए कर्तव्य निभाने के अवसर का उपयोग कर सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि उन्हें लगता है कि आखिरकार उनके पास निर्विरोध रूप से अपना अधिकार जमाने का मौका मौजूद है। कुछ लोग कहते हैं : “मसीह विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, और कभी भी दूसरों के साथ संगति नहीं करना होती हैं। हालाँकि हमारे अगुआ में भी मसीह-विरोधियों का स्वभाव और प्रकाशन होता है, फिर भी वे अक्सर हमारे साथ संगति करते हैं!” क्या इसका मतलब यह है कि वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? मसीह-विरोधी कभी-कभी दिखावा कर सकते हैं; प्रत्येक के साथ संगति करने और प्रत्येक के विचार समझने और जानने के बाद—यह पहचान करने के बाद कि कौन उनके पक्ष में है और कौन नहीं—वे उन्हें वर्गीकृत करते हैं। भविष्य के मामलों में वे केवल उन लोगों के साथ संवाद करते हैं जिनके उनके साथ अच्छे संबंध हैं और जो उनके साथ संगत हैं। जो लोग उनके साथ तालमेल नहीं रखते उन्हें अक्सर अधिकांश मामलों के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, और वे उनसे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें छीन भी सकते हैं। क्या तुम लोगों ने कभी इस तरह से काम किया है, स्वेच्छाचारी और तानाशाह होकर, दूसरों के साथ कभी संगति नहीं की है? स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना निश्चित रूप से होता है, लेकिन दूसरों के साथ कभी संगति न करना जरूरी नहीं है; कभी-कभी तुम संगति कर सकते हो। हालाँकि, संगति करने के बाद भी चीजें वैसे ही होती हैं जैसा तुमने कहा। कुछ लोग सोचते हैं : “हमारी संगति के बावजूद, मैंने वास्तव में बहुत पहले ही एक योजना तय कर ली है। मैं तुम्हारे साथ बस औपचारिकता के नाते संगति करता हूँ, बस तुम्हें यह बताने के लिए कि मैं जो करता हूँ उसमें मेरे अपने सिद्धांत हैं। क्या तुम्हें लगता है कि मुझे तुम्हारे बारे में अंदाजा नहीं है? अंत में, तुम्हें अभी भी मेरी बात सुननी होगी और मेरे रास्ते पर चलना होगा।” वास्तव में, उन्होंने बहुत पहले ही अपने दिल में फैसला कर लिया होता है। वे मानते हैं, “मैं अपनी बातों से लोगों से जो चाहे मनवा सकता हूँ और किसी भी तर्क को अपने पक्ष में मोड़ सकता हूँ; कोई भी मुझसे बहस में जीत नहीं सकता, इसलिए स्वाभाविक रूप से लोग मेरी अगुआई का अनुसरण करेंगे।” वे बहुत पहले ही अपनी गणना कर चुके होते हैं। क्या इस तरह की स्थिति मौजूद होती है? स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कोई ऐसा व्यवहार नहीं है जिसका खुलासा कभी-कभार अचानक होता हो; यह एक निश्चित स्वभाव से नियंत्रित होता है। हो सकता है कि उनके बोलने या कार्य करने के तरीके से यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह जैसा न लगे, लेकिन उनके स्वभाव और उनके कार्यकलापों की प्रकृति से, वे वास्तव में स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं। वे औपचारिकताओं से गुजरते हैं और दूसरों की राय “सुनते हैं”, दूसरों को बोलने देते हैं, उन्हें हालात के विवरणों से अवगत कराते हैं, चर्चा करते हैं कि परमेश्वर के वचन की आवश्यकता क्या है—लेकिन वे दूसरों को अपने साथ आम सहमति तक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए एक खास शब्दाडंबर या वाक्यांश का उपयोग करते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? सब कुछ उनकी योजना के अनुसार आगे बढ़ता जाता है। यह उनका धूर्त पहलू है; इसे दूसरों को उनकी बात मानने के लिए मजबूर करना भी कहते हैं, यह एक तरह की “सौम्य” बाध्यता होती है। वे सोचते हैं, “तुम सुन नहीं रहे हो, है न? तुम नहीं समझते, है न? मैं समझाता हूँ।” व्याख्या करते हुए वे अपने शब्दों को बुनते और घुमाते हैं, दूसरों को अपने तर्क में ले जाते हैं। उन्हें इधर-उधर घुमाने के बाद लोग सुनते हैं और सोचते हैं, “तुम जो कहते हो वह सही है; तुम जैसा कहोगे हम वैसा ही करेंगे, इतना गंभीर होने की कोई जरूरत नहीं है,” और मसीह-विरोधी प्रसन्न हो जाता है। अधिकांश लोग उनके शब्द नहीं समझ पाते। क्या तुम लोगों में विवेक है? ऐसी परिस्थितियों का सामना करने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? उदाहरण के लिए, जब किसी मामले का सामना करना पड़े, तो तुम्हें लगता है कि कोई समस्या है; तुम उस समय सटीक समस्या नहीं बता पाते, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम्हें आज्ञापालन के लिए मजबूर किया जा रहा है। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें प्रासंगिक सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए, ऊपर वाले से मार्गदर्शन लेना चाहिए, या संबंधित व्यक्ति के साथ संगति करनी चाहिए। इसके अलावा, जो लोग सत्य समझते हैं, वे इस मामले के बारे में एक साथ चर्चा और संगति कर सकते हैं। कभी-कभी, पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन तुम्हें मसीह-विरोधियों या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वालों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों या सिद्धांतों में समस्याओं और उनके गुप्त उद्देश्य को समझने का मौका देगा। एक-दूसरे के साथ संगति करने से तुम समझ पाओगे। लेकिन शायद तुम संगति न करो, इसके बजाय सोचो, “यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, उसे जो अच्छा लगे करने देते हैं। आखिरकार, मैं मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं हूँ, मुझे इन मामलों से परेशान होने की जरूरत नहीं है। अगर कुछ गलत हुआ तो मैं जवाबदेह नहीं रहूँगा; वही इसे सहेगा।” यह किस तरह का व्यवहार है? यह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठाहीनता है। क्या अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठाहीनता परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात नहीं है? यह यहूदा की तरह है! कई लोग जब दमनकारी शक्ति का सामना करते हैं, तो समझौता कर लेते हैं और इस शक्ति से धमकाने वालों के साथ हो लेते हैं, जो उनके कर्तव्य के प्रति निष्ठाहीनता की अभिव्यक्ति है। चाहे तुम्हारा सामना किसी मसीह-विरोधी से हो या किसी ऐसे व्यक्ति से जो लापरवाही से काम करता है और तुम्हें आज्ञापालन के लिए मजबूर करता है, तुम्हें कौन से सिद्धांतों को बरकरार रखना चाहिए? तुम्हें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए? अगर तुम्हें लगता है कि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के वचनों और कार्य व्यवस्थाओं के विरोध में नहीं है या उनसे भटकता नहीं, तो तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए। सत्य से जुड़े रहना सही है और परमेश्वर द्वारा अनुमोदित है, लेकिन शैतान, दुष्ट शक्तियों, बुरे लोगों के सामने झुकना और उनसे समझौता करना विश्वासघात का व्यवहार है, यह एक बुरा कर्म है, जिससे परमेश्वर घृणा करता है और शाप देता है। जब मसीह-विरोधी किसी ऐसे व्यक्ति का सामना करते हैं जो उनसे बहस करता है, वे अक्सर कहते हैं, “इस मामले में मेरा कहना अंतिम है, और इसे मेरे तरीके से ही किया जाना चाहिए। अगर कुछ भी गलत हुआ, तो मैं जिम्मेदारी लूँगा!” यह कथन किस स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है? कोई व्यक्ति जो इस तरह से बोलता और अभ्यास करता है, क्या उसमें सामान्य मानवता हो सकती है? वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए क्यों मजबूर करते हैं? जब समस्याएँ आती हैं तो वे उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश क्यों नहीं करते? वे सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांतों को निर्धारित क्यों नहीं कर पाते? यह साबित करता है कि उनमें सत्य की कमी है। क्या तुम लोग इस कथन में समस्या को समझ सकते हो? ऐसी बातें कहना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है; यह मसीह-विरोधी का व्यवहार है। हालाँकि एक अधिक चालाक मसीह-विरोधी, दूसरों द्वारा पहचाने जाने के डर से कुछ ऐसी बातें अवश्य कहेगा जिससे सभी सहमत हों और जो लोगों को गुमराह करने और पैर जमाने के अपने लक्ष्य पाने के लिए सही लगती हों। फिर, वे इस बात पर विचार करेंगे कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कैसे नियंत्रित किया जाए।
मसीह-विरोधियों की स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने की अभिव्यक्तियों के कई उदाहरण होने चाहिए, क्योंकि इस तरह का व्यवहार, स्वभाव और गुण मसीह-विरोधियों में ही नहीं हर भ्रष्ट व्यक्ति में देखे जा सकते हैं। क्या तुम लोग कुछ ऐसे उदाहरणों के बारे में सोच सकते हो, जब तुम स्वेच्छाचारी और तानाशाह थे? उदाहरण के लिए, अगर कोई कहता है कि तुम छोटे बालों में अच्छे लगते हो, और तुम जवाब देते हो, “छोटे बालों में ऐसा क्या अच्छा है? मुझे लंबे बाल पसंद हैं, और मुझे जैसा अच्छा लगेगा, वैसे रखूँगा,” तो क्या यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना है? (नहीं।) यह सिर्फ एक व्यक्तिगत वरीयता है, जो सामान्य मानवता का हिस्सा है। कुछ लोग चश्मा पहनना पसंद करते हैं, भले ही उनकी दृष्टि ठीक हो। अगर कुछ लोग उनकी आलोचना करते हैं, कहते हैं, “तुम सिर्फ अच्छा दिखने की कोशिश कर रहे हो, तुम्हें वास्तव में चश्मे की जरूरत नहीं है!” और वे जवाब देते हैं, “तो क्या हुआ अगर मैं ऐसा कर रहा हूँ? मैं तो उन्हें पहनूँगा!”—क्या यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना है? नहीं, यह एक व्यक्तिगत वरीयता है, ज्यादा से ज्यादा यह दुराग्रह है, और इसमें उनके स्वभाव की कोई समस्या शामिल नहीं है; अगर उन्हें लगता है तो वे कुछ दिन बाद चश्मा पहनना छोड़ सकते हैं। तो मुख्य रूप से स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना क्या होता है? इसमें मुख्य रूप से व्यक्ति द्वारा लिया गया मार्ग, उसका स्वभाव और उसके कार्यकलापों के पीछे के सिद्धांत और प्रेरणाएँ शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए, एक विवाह में जहाँ पति को कार पसंद है और परिवार के पास केवल 20,000 युआन हैं, और पति जहाँ से भी हो सके, पैसे उधार लेकर अनावश्यक रूप से 200,000 युआन की कार खरीद लेता है, जिससे परिवार भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ हो जाता है, और पत्नी को खरीद के बारे में पता भी नहीं होता, क्या यह पति स्वेच्छाचारी और तानाशाह है? यह वास्तव में स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना है। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का अर्थ है दूसरों की भावनाओं, विचारों, राय, रवैये या दृष्टिकोणों का खयाल न रखना, केवल अपने आप पर ध्यान केंद्रित करना। सीधे कहें तो, रोजमर्रा की जिंदगी में इसका मतलब है अपने दैहिक सुखों और इच्छाओं को संतुष्ट करना, अपने स्वार्थ को संतुष्ट करना, और जब इसमें कर्तव्य शामिल हो, तो इसका मतलब है अपनी महत्वाकांक्षा और रुतबे और सत्ता के अनुसरण की इच्छा को संतुष्ट करना। यहाँ एक उदाहरण है : कलीसिया के पास एक घर था, और उसके बगल में एक सड़क बनाई जानी थी। सड़क की उचित चौड़ाई घर और अहाते के आकार से निर्धारित होनी चाहिए, जिसका उद्देश्य सौंदर्य और व्यावहारिकता दोनों होना चाहिए। इस घर और अहाते के बड़े क्षेत्र को देखते हुए सड़क की चौड़ाई कम से कम दो मीटर होनी चाहिए। प्रभारी व्यक्ति ने कहा : “मैंने फैसला किया है, हम इसे एक मीटर चौड़ा बनाएँगे।” दूसरों ने कहा, “हर दिन कई लोग आते-जाते रहते हैं, और कभी-कभी हमें सामान ले जाना पड़ता है; एक मीटर से काम नहीं चलेगा, यह बहुत संकरी है।” लेकिन प्रभारी व्यक्ति ने अपने दृष्टिकोण पर जोर दिया, और चर्चा के लिए तैयार नहीं हुआ। पूरा होने के बाद हर किसी ने देखा कि सड़क बहुत संकरी थी; यह घर और अहाते के साथ असंगत थी और अव्यावहारिक थी—इसे फिर से बनाने की आवश्यकता थी, जिसके कारण फिर से काम करना पड़ा। तब प्रत्येक ने इस व्यक्ति के बारे में शिकायत की। वास्तव में, सड़क का निर्माण शुरू होने से पहले कुछ लोगों ने आपत्तियाँ जताई थीं, लेकिन यह व्यक्ति असहमत था और अपने ही दृष्टिकोण पर जोर देता रहा, दूसरों को अपनी इच्छा के अनुसार काम करने के लिए मजबूर करता रहा, जिसकी वजह से ऐसे परिणाम सामने आए। यह व्यक्ति दूसरों के सुझावों को क्यों स्वीकार नहीं कर सका? जब राय अलग-अलग थीं, तो वह सभी पहलुओं पर विचार क्यों नहीं कर पाया और सही दृष्टिकोण क्यों नहीं पा सका? अगर कोई सलाह-मशविरा करने वाला न हो, तो अपने फैसले खुद लेना ठीक होता है, लेकिन अब जब सलाह-मशविरा करने वाले लोग हैं और बेहतर सुझाव भी उपलब्ध हैं, तो वे उन्हें क्यों नहीं मान सकते? यह किस तरह का स्वभाव है? कम से कम दो संभावनाएँ होती हैं : एक तो यह कि व्यक्ति विचारहीन है, भ्रमित इंसान है; दूसरी यह कि उसका स्वभाव बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट है, हमेशा खुद को सही मानता है, दूसरों की बात स्वीकार नहीं कर पाता, चाहे वे कितने भी सही क्यों न हों—यह इतना अहंकारी होना है कि इससे विवेक खत्म हो जाता है। इतनी छोटी-सी बात से उनका स्वभाव बेनकाब हो गया। अत्यधिक अहंकार से तर्क-शक्ति खत्म हो जाती है। तर्क-शक्ति की कमी का क्या मतलब है? किस तरह की चीज में तर्क-शक्ति की कमी होती है? जानवरों में तर्क-शक्ति की कमी होती है। अगर किसी व्यक्ति में तर्क-शक्ति की कमी होती है, तो वह जानवर से अलग नहीं होता; उसके मन में आकलन की क्षमता नहीं होती, और उसमें तर्क-शक्ति नहीं होती। अगर कोई व्यक्ति इतना अहंकारी हो जाए कि वह विवेक खो दे, और उसमें तर्क-शक्ति की कमी हो, तो क्या वह जानवर जैसा नहीं है? (हाँ।) वे बस ऐसे ही हैं; मानवीय तर्क-शक्ति की कमी का मतलब है कि वे मानव नहीं हैं। क्या मसीह-विरोधियों में ऐसी तर्क-शक्ति होती है? (नहीं।) मसीह-विरोधियों में तो इसका और भी अभाव होता है; वे जानवरों से भी बदतर होते हैं, वे दानव हैं। जैसे जब परमेश्वर ने शैतान से पूछा, “तू कहाँ से आता है?” परमेश्वर का प्रश्न वास्तव में बहुत स्पष्ट था; परमेश्वर ने क्या संदेश दिया? (वह शैतान से पूछ रहा था कि वह कहाँ से आया।) यह वाक्य स्पष्ट रूप से एक प्रश्नचिह्न पर समाप्त होता है; यह एक प्रश्न है, जो “शैतान” को “तुम” उद्देश्य के साथ संदर्भित करता है : “तुम कहाँ से आए हो?” व्याकरण एकदम सही है, और परमेश्वर का प्रश्न आसानी से समझ में आता है। शैतान ने कैसे जवाब दिया? (“पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)।) यह शैतान का प्रसिद्ध उद्धरण है। क्या शैतान के उत्तर में कोई तार्किकता दिखाई देती है? (नहीं।) इसमें तार्किकता की कमी है। जब परमेश्वर ने उससे फिर से पूछा कि वह कहाँ से आया, तो उसने वही उत्तर दोहराया, मानो वह परमेश्वर के वचनों को समझ नहीं पा रहा हो। क्या लोग समझ सकते हैं कि शैतान ने क्या कहा? क्या उसकी वाणी में कोई तार्किकता है? (नहीं।) इसमें तार्किकता का अभाव है—तो क्या वह सत्य समझ सकता है? परमेश्वर के इतने सरल प्रश्न का भी उसने उस तरह उत्तर दिया; वह परमेश्वर द्वारा बोले गए सत्य को समझने में और भी कम सक्षम है। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों में भी तार्किकता का अभाव होता है; जो लोग कुटिलता से कार्य करते हैं, जो परमेश्वर के वचनों या सत्य को नहीं समझ सकते, वे सभी तर्कहीन होते हैं। चाहे तुम सत्य का अभ्यास करने, सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने, सिद्धांतों की खोज करने और अपने कर्तव्य को निभाते समय दूसरों के साथ संगति करने के बारे में कितनी भी बात कर लो—जिसके बारे में वे कहते हैं कि वे समझते हैं और जानते हैं—जब कार्रवाई करने की बात आती है, तो वे तुम्हारे शब्दों को दिल से नहीं लेते और मनमानी करते हैं। यह एक राक्षसी प्रकृति है! ऐसी राक्षसी प्रकृति वाले लोग सत्य नहीं समझते और उनमें तार्किकता का अभाव होता है। उनका सबसे अनुचित और बेशर्म पहलू क्या होता है? मनुष्य परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं, और परमेश्वर लोगों को चुनता है और उन्हें किस उद्देश्य से अपने सामने लाता है? उसका उद्देश्य लोगों को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान दिलाना और उन्हें समझना सिखाना होता है, ताकि वे जीवन में परमेश्वर के निर्देशानुसार सही मार्ग पर चलें और अंततः सही और गलत, सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में अंतर करने में सक्षम हो पाएँ। यही परमेश्वर का इरादा है; इस तरीके से, जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे उत्तरोत्तर बेहतर होते जाते हैं। और मसीह-विरोधी किस हद तक विवेकहीन होते हैं? वे सोचते हैं, “परमेश्वर, तुम लोगों को अपने सामने लाते हो, इसलिए मैं भी वैसा ही करूँगा; तुम लोगों को चुन सकते हो, और उनका आयोजन और उन पर शासन कर सकते हो, इसलिए मैं भी वैसा ही करूँगा; तुम लोगों से अपने आगे समर्पण करा सकते हो और अपनी बात सुना सकते हो, तुम सीधे आदेश देते हो और उनसे अपना कहा करा सकते हो, इसलिए मैं भी वैसा ही करूँगा।” क्या यह अतार्किकता नहीं है? (हाँ, है।) क्या तर्कहीन होने का मतलब यह नहीं है कि उनमें शर्म की कोई भावना नहीं है? (हाँ।) क्या लोग तुम्हारे हैं? क्या उन्हें तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए? उन्हें तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? तुम तो केवल नन्हे सृजित प्राणियों में से एक हो, तुम कैसे हर चीज से ऊपर होने की आकांक्षा रख सकते हो? क्या यह अतार्किकता नहीं है? (हाँ, है।)
कुछ लोग इतने भाग्यशाली होते हैं कि उन्हें कलीसिया में अगुआ के रूप में चुन लिया जाता है, लेकिन वास्तव में उनकी काबिलियत और आध्यात्मिक कद मानक के अनुरूप नहीं होते। अगुआ होना परमेश्वर की ओर से एक बड़ा सम्मान है, लेकिन वे इसे इस तरह से नहीं समझते। इसके बजाय वे सोचते हैं, “एक अगुआ के रूप में, मैं दूसरों की तुलना में बेहतर और अधिक ऊँचा हूँ; मैं अब कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूँ। तुम सभी लोगों को परमेश्वर के सामने आज्ञाकारिता से झुकना और उसकी आराधना करनी चाहिए, पर मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि मैं तुम लोगों से अलग हूँ; तुम लोग सृजित प्राणी हो, लेकिन मैं नहीं हूँ।” तो तुम क्या हो? क्या तुम भी देह और रक्त नहीं हो? तुम दूसरों से अलग कैसे हो? अंतर तुम्हारी बेशर्मी में छिपा है; तुम में सम्मान और तार्किकता की भावना का अभाव है, तुम्हारी एक कुत्ते से भी तुलना नहीं की जा सकती। तुम दूसरों की किसी भी सलाह को अनदेखा करते हुए स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करते हो—यही अंतर है। चाहे उनकी अपनी काबिलियत कितनी भी कम क्यों न हो या काम करने में उनकी दक्षता कितनी भी कम क्यों न हो, तब भी वे खुद को औसत व्यक्ति से ऊपर समझते हैं, उन्हें लगता है कि उनमें योग्यता और प्रतिभा है। इसलिए वे चाहे जो करें, आम सहमति तक पहुँचने के लिए दूसरों से सलाह-मशविरा नहीं करते, वे सोचते हैं कि वे योग्य हैं या उनके पास सब कुछ नियंत्रित करने की पूर्ण क्षमता है। क्या यह अहंकार समझ-बूझ की हानि की ओर नहीं ले जाता? क्या यह खुलेआम बेशर्मी नहीं है? (हाँ।) अगुआ बनने से पहले वे अपनी दुम को पैरों के बीच दबाकर पेश आते थे; उन्हें लगता था कि उनमें प्रतिभा और क्षमता है, और वे अपने कार्यकलापों में कुछ महत्वाकांक्षाएँ पाले थे, लेकिन उनके पास बस अवसर नहीं था। जैसे ही वे अगुआ बने, तो उन्होंने खुद को भाई-बहनों से अलग कर लिया, खुद को श्रेष्ठ मान लिया। वे श्रेष्ठता का व्यवहार करने लगे, अपना असली रूप दिखाने लगे; वे सोचने लगे कि वे बड़ी चीजें हासिल कर सकते हैं, यह मानने लगे कि, “परमेश्वर के घर ने सही व्यक्ति को चुना है; मैं वास्तव में प्रतिभाशाली हूँ—सच्चा सोना अंततः चमकता ही है। अब मेरी ओर देखो : परमेश्वर ने मुझे पहचान लिया है, है न?” क्या यह घृणित नहीं है? (हाँ, है।) तुम साधारण सृजित प्राणियों में से बस एक हो; चाहे तुम्हारी प्रतिभा या गुण कितने भी महान क्यों न हों, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बाकी सभी के समान ही है। यदि तुम सोचते हो कि तुम अद्वितीय रूप से असाधारण हो और खुद को श्रेष्ठ मानते हो, दूसरे सभी लोगों से ऊपर उठना चाहते हो, हर चीज से श्रेष्ठ होना चाहते हो, तो तुम गलत हो। इस गलतफहमी के कारण तुम दूसरों के साथ संगति या परामर्श किए बिना स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से कार्य करते हो, और तुम दूसरों के द्वारा अपनी आज्ञाकारिता और अनुपालन का भी आनंद लेना चाहते हो, जो गलत है। गलती कहाँ है? (गलत स्थिति अपनाने में।) मसीह-विरोधी हमेशा गलत स्थिति में क्यों होते हैं? एक बात तो तय है, जिसे शायद तुम लोगों ने महसूस न किया हो : दूसरों की तुलना में उनकी मानवता में कुछ अतिरिक्त होता है; उनके पास हमेशा एक तरह की गलतफहमी होती है। यह गलतफहमी आती कैसे है? यह परमेश्वर नहीं बल्कि शैतान द्वारा दी जाती है। वे जो कुछ भी करते हैं, जो कुछ भी वे प्रकट करते हैं और व्यक्त करते हैं, वह मानवता की सामान्य सीमाओं के भीतर सहज प्रवृत्ति नहीं होती, बल्कि एक बाहरी शक्ति से संचालित होती है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि उनके कार्य कुटिल हैं, और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बेकाबू हैं? लोगों को नियंत्रित करने की उनकी इच्छा सीमाओं को पार कर गई है। सीमाओं को पार करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है किसी भी साधन का सहारा लेना, तर्क-शक्ति और शर्म की भावना को पार कर जाना; यह अदम्य होती है, एक स्प्रिंग की तरह—जब तुम इसे दबाते हो तो यह अस्थायी रूप से नीचे रह सकती है, लेकिन एक बार जब इसे छोड़ देते हो, तो यह वापस ऊपर आ जाती है। क्या यह इच्छा से ग्रसित होना और जुनून की ओर प्रेरित होना नहीं है? यह बिल्कुल भी अतिश्योक्ति नहीं है।
जहाँ कहीं भी किसी कलीसिया में मसीह-विरोधी के हाथ में सत्ता होती है, उस कलीसिया को अब कलीसिया नहीं कहा जा सकता। जिन लोगों ने इसका अनुभव किया है, उन्हें इसका एहसास होगा। वह शांति, आनंद और सामूहिक उत्थान का माहौल नहीं होता, बल्कि एक अशांत असामंजस्य का माहौल होता है। हर कोई विशेष रूप से बेचैन और व्याकुल महसूस करता है, अपने दिल में शांति महसूस करने में असमर्थ होता है, मानो कोई बड़ी आपदा आने वाली है। मसीह-विरोधी के शब्द और कार्यकलाप ऐसा माहौल पैदा करते हैं जिसमें लोगों के दिल भ्रमित हो जाते हैं, जिससे उनकी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को पहचानने की क्षमता खो जाती है। इसके अलावा, लंबे समय तक मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जाने से लोगों के दिल परमेश्वर से दूर हो जाते हैं, जिससे परमेश्वर के साथ असामान्य संबंध बन जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे धर्म में लोग नाममात्र के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, पर उनके दिलों में उसके लिए कोई जगह नहीं होती। एक वास्तविक मुद्दा यह भी है कि जब मसीह-विरोधी सत्ता में होते हैं, तो वे कलीसिया के भीतर विभाजन और अराजकता का कारण बनते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उन्हें सभाओं में कोई आनंद या मुक्ति महसूस नहीं होती और इसलिए वे कलीसिया छोड़कर घर पर रहते हुए परमेश्वर पर विश्वास करना चाहते हैं। जब पवित्र आत्मा किसी कलीसिया में काम करता है, तो चाहे लोग सत्य को समझें या नहीं, हर कोई दिल से और प्रयास में एकजुट होता है, जिससे एक अधिक शांतिपूर्ण और स्थिर वातावरण बनता है, जिसमें व्याकुलता नहीं होती। हालाँकि, जब भी मसीह-विरोधी कार्य करते हैं, तो वे बेचैनी से भरा और भयानक माहौल बना देते हैं। उनके हस्तक्षेप से गुटबाजी पैदा होती है, लोग एक-दूसरे के प्रति रक्षात्मक हो जाते हैं, एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, और एक-दूसरे पर हमला करते हैं, पीठ पीछे एक-दूसरे को कमतर आंकते हैं। स्पष्ट रूप से मसीह-विरोधी क्या भूमिका निभाते हैं? वे शैतान के अनुचर होते हैं। मसीह-विरोधी के कार्यकलापों के परिणाम होते हैं : सबसे पहले, भाई-बहनों के बीच आपसी दोषारोपण, संदेह और सतर्कता; दूसरा, पुरुषों-महिलाओं के बीच की सीमाएँ खत्म होना, धीरे-धीरे अनुचित बातचीत की ओर ले जाना; और तीसरा, अपने दिलों में लोग दर्शन के बारे में अस्पष्ट हो जाते हैं, और वे सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना बंद कर देते हैं। वे अब नहीं जानते कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना है। धर्म-सिद्धांतों की जो थोड़ी-बहुत समझ उनमें थी, वह खो जाती है, उनके मन भ्रमित हो जाते हैं, और वे आँख मूंदकर मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं, केवल सतही काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कुछ लोगों को लग सकता है कि मसीह-विरोधियों का अनुसरण करने से कुछ हासिल नहीं होता; अगर केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग इकट्ठे होकर अपने कर्तव्यों को एक साथ निभा सकें, तो इससे कितनी खुशी मिलेगी! एक बार जब मसीह-विरोधियों के पास कलीसिया में सत्ता आ जाती है, तो पवित्र आत्मा काम करना बंद कर देता है, और भाई-बहनों पर अँधकार छा जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करना और कर्तव्य निभाना नीरस हो जाता है। अगर यह लंबे समय तक जारी रहता है, तो क्या अधिकांश भाई-बहन परमेश्वर द्वारा हटा नहीं दिए जाएँगे?
आज एक पहलू में, हमने मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचारी और तानाशाह व्यवहार की अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण किया। दूसरे पहलू में, इन अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण करके सभी को इससे अवगत कराया जाता है कि भले ही तुम मसीह-विरोधी नहीं हो, लेकिन ऐसी अभिव्यक्तियों का होना तुम्हें मसीह-विरोधियों के गुणों से जोड़ता है। क्या स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति होती है? बिल्कुल नहीं; स्पष्ट रूप से, यह एक भ्रष्ट स्वभाव का प्रदर्शन है। चाहे तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा हो या तुम कितने भी कर्तव्य निभा सकते हो, अगर तुम दूसरों के साथ संगति करना सीख सकते हो, तो तुम सत्य के सिद्धांतों को कायम रख रहे हो, जो एक न्यूनतम आवश्यकता है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि दूसरों के साथ संगति करना सीखना सिद्धांतों को कायम रखने के बराबर होता है? अगर तुम संगति करना सीख सकते हो, तो यह साबित होता है कि तुम अपने रुतबे को कमाई की चीज नहीं मानते या इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेते। चाहे तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा क्यों न हो, तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम्हारे कार्यकलाप तुम्हारे कर्तव्य के पालन के लिए किए जाते हैं, रुतबे के लिए नहीं। साथ ही, समस्याओं का सामना करते समय यदि तुम संगति करना सीख पाते हो और, चाहे वह साधारण भाई-बहनों के साथ हो या जिनके साथ तुम सहयोग करते हो, तुम उनके साथ खोज करने और संगति करने में सक्षम होते हो, तो इससे क्या साबित होता है? यह दर्शाता है कि तुममें सत्य की खोज करने और उसके प्रति समर्पित होने का रवैया है, जो सबसे पहले परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये को प्रतिबिंबित करता है। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी होती है, और अपने काम में सत्य की तलाश करना वह मार्ग है जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। जहाँ तक दूसरों की तुम्हारे निर्णयों पर प्रतिक्रिया का सवाल है, वे समर्पित हो पाते हैं या नहीं या कैसे समर्पित होते हैं, यह उनका मामला है; लेकिन तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभा सकते हो या नहीं और मानकों को पूरा कर सकते हो या नहीं, यह तुम्हारा मामला है। तुम्हें कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों को समझना होगा; यह किसी व्यक्ति के प्रति समर्पित होने के बारे में नहीं है बल्कि सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पित होने की बात है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम सत्य सिद्धांतों को समझते हो और सभी के साथ संगति करने के माध्यम से एक आम सहमति पर पहुँच जाते हो जो सभी के लिए उपयुक्त होती है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो अड़ियल हैं और परेशानी खड़ी करना चाहते हैं, तो ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए? इस मामले में अल्पसंख्यकों को बहुमत का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि अधिकांश लोग आम सहमति पर पहुँच चुके होते हैं, तो वे परेशानी खड़ी करने क्यों सामने आते हैं? क्या वे जानबूझकर विनाश करने की कोशिश कर रहे हैं? वे अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं ताकि हर कोई उन्हें समझ सके, और अगर हर व्यक्ति कहता है कि उनकी राय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और टिकाऊ नहीं है, तो उन्हें अपने दृष्टिकोण को त्याग देना चाहिए और उन पर अड़े रहना छोड़ देना चाहिए। इस मामले से निपटने का सिद्धांत क्या है? व्यक्ति को सही का समर्थन करना चाहिए और दूसरों को गलत का पालन करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। समझे? वास्तव में, मसीह-विरोधियों द्वारा स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का व्यवहार और अभ्यास प्रदर्शित करने से पहले उनके मन में पहले से ही अपनी योजनाएँ होती हैं। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना निश्चित रूप से सही काम करने या सत्य का अभ्यास करने के बारे में नहीं बताता। यह निश्चित रूप से गलत काम करने और सत्य का उल्लंघन करने, गलत मार्ग पर चलने और गलत निर्णय लेने के साथ-साथ दूसरों से अपनी बात सुनने की अपेक्षा रखने के बारे में बताता है। इसे ही स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कहा जाता है। अगर कोई चीज सही है और सत्य के अनुरूप है, तो उसका पालन किया जाना चाहिए। यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना नहीं होता; यह सिद्धांतों का पालन करना होता है। इन दोनों में अंतर किया जाना चाहिए। मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों द्वारा स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का क्या मतलब होता है? (ऐसी चीजें करना जो सिद्धांतों या सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और फिर भी दूसरों से उनका पालन करवाना।) सही कहा, चाहे कोई भी स्थिति उत्पन्न हो या किसी भी समस्या से निपटा जा रहा हो, वे सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करते बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर निर्णय लेते हैं। वे अपने दिलों में जानते हैं कि ऐसा करना सिद्धांतों के खिलाफ है लेकिन फिर भी वे चाहते हैं कि दूसरे सुनें और समर्पण करें। यह मसीह-विरोधियों का एक-सा दृष्टिकोण होता है।
जब सुसमाचार के विस्तार का कार्य पहली बार शुरू हुआ, तो कुछ लोग सुसमाचार का प्रचार करने के लिए धार्मिक मंडलियों में वचन देह में प्रकट होता है लेकर गए। सभी धार्मिक लोगों ने परमेश्वर के रहस्य उजागर करने वाले वचनों को पढ़ने, दर्शनों की संगति करने और जीवन प्रवेश पर चर्चा करने के बाद कहा कि वे काफी अच्छे थे। हालाँकि, उन्हें न्याय और लोगों को उजागर करने वाले कुछ वचनों में शब्दों के चुनाव बहुत कठोर लगे। उन्हें लगा कि उन्हें डाँटा जा रहा है और वे इसे स्वीकार नहीं कर सके, उन्होंने कहा, “क्या परमेश्वर लोगों को डाँटने वाले ढंग से बोल सकता है? ये वचन ज्यादा से ज्यादा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा लिखे गए प्रतीत होते हैं।” सुसमाचार फैलाने के लिए जिम्मेदार व्यक्ति ने कहा कि उसके पास एक समाधान है। बाद में, उसने परमेश्वर के वचनों के उन सभी हिस्सों को बदल दिया जो लोगों की धारणाओं, कल्पनाओं और अभिरुचियों के साथ मेल नहीं खाते थे, साथ ही उन वचनों को भी बदल दिया जिनके बारे में उसे डर था कि उन्हें पढ़ने के बाद लोगों में धारणाएँ विकसित हो जाएँगी। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने मानव प्रकृति को उजागर करने के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था, जैसे “पतिता”, “वेश्या”, “बदमाश”, और “नरक में फेंका जाना” और “आग और गंधक की झील में फेंका जाना” जैसे वाक्यांश, सभी हटा दिए गए। संक्षेप में, कोई भी शब्द जो आसानी से धारणाओं या गलतफहमियों को जन्म दे सकता था, उसे पूरी तरह से हटा दिया गया। मुझे बताओ, परमेश्वर के वचनों से न्याय, निंदा और शाप के इन वचनों को हटाने के बाद क्या वे परमेश्वर के मूल वचन रहे? (नहीं।) क्या वे अभी भी परमेश्वर द्वारा अपने न्याय के कार्य में व्यक्त किए गए वचन हैं? इस “बूढ़े सज्जन” ने किसी से परामर्श नहीं किया और परमेश्वर के कई वचन हटा दिए जो विशेष रूप से शोधन और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने के बारे में कठोर थे, विशेष रूप से सेवाकर्मियों के परीक्षण के समय से संबंधित वचन। बाद में, जब धार्मिक लोगों ने संशोधित संस्करण पढ़ा, तो उन्होंने कहा, “बुरा नहीं है, हम ऐसे परमेश्वर में विश्वास कर सकते हैं,” और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। इस बूढ़े सज्जन ने सोचा, “देखो मैं कितना चतुर हूँ! परमेश्वर के वचनों के बहुत कठोर होने में बुद्धिमानी नहीं है। उन लोगों के लिए, सबसे जरूरी उनकी खुशामद करना है—तुम ऐसी बातें कैसे कह सकते हो जिन्हें डाँट समझ लिया जाए? यह बुद्धिमानी नहीं है! मैंने कुछ बदलाव किए, और देखो क्या हुआ : यहाँ तक कि धार्मिक पादरी भी विश्वास करने को तैयार हैं, और अधिक से अधिक लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं। कैसा रहा? क्या मैं बुद्धिमान नहीं हूँ? क्या मैं होशियार नहीं हूँ? क्या यह काफी प्रभावशाली नहीं है?” अपने बदलावों के नतीजों से उसे खुद पर बहुत गर्व होने लगा। हालाँकि, कलीसिया में प्रवेश करने वाले कुछ धार्मिक लोगों ने पाया कि उन्होंने परमेश्वर के जो वचन पढ़े थे वे कुछ और थे और कलीसिया में मूल ग्रंथों से अलग थे, और यह मुद्दा उठाया गया। बाद में पता चला कि इस बूढ़े सज्जन ने परमेश्वर के वचनों की सामग्री बदल दी थी। इस बूढ़े सज्जन ने जो किया उसके बारे में तुम लोगों का क्या खयाल है? चलो कुछ और उल्लेख नहीं करते और बस इतना कहते हैं : वे वचन तुम्हारे नहीं थे, तुम्हें उनको बदलने का कोई अधिकार नहीं था। भले ही यह किसी इंसान द्वारा लिखा गया लेख या किताब हो, अगर तुम बदलाव करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले मूल लेखक की सहमति लेनी होगी। यदि वह सहमत है, तो तुम परिवर्तन कर सकते हो। यदि वह सहमत नहीं है, तो तुम एक भी शब्द नहीं बदल सकते। इसे लेखक और पाठकों का सम्मान करना कहते हैं। यदि लेखक में संशोधन करने की ऊर्जा नहीं है और वह तुम्हें अधिकृत करता है, कहता है कि जब तक मूल अर्थ बचा रहता है और वह वांछित प्रभाव हासिल कर लेता है, तब तक तुम कुछ भी बदल सकते हो, तो क्या तुम परिवर्तन कर सकते हो? (हाँ।) यदि लेखक ने अपनी सहमति दी ही या अधिकृत कर दिया है, तो परिवर्तन किए जा सकते हैं। इस तरह के व्यवहार को क्या कहा जाता है? यह न्यायोचित, वैध और उचित होता है, है ना? लेकिन यदि लेखक सहमत नहीं है और तुम बिना उनके अधिकृत किए इसे बदल देते हो? इसे क्या कहा जाता है? (लापरवाह और दुराग्रही होना।) इसे लापरवाह और दुराग्रही, स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कहा जाता है। अब, इस बूढ़े सज्जन ने क्या बदला था? (परमेश्वर के वचन।) परमेश्वर के मूल वचन, जो मानवजाति के प्रति परमेश्वर की मनोदशा, स्वभाव और इरादों को शामिल किए हुए हैं। परमेश्वर के वचन जिस तरह से कहे जाते हैं, वे अर्थपूर्ण होते हैं। क्या तुम परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वचन के पीछे की मनोदशा, उद्देश्य और वांछित प्रभाव को जानते हो? यदि तुम इसकी थाह नहीं पा सकते, तो आँख मूंदकर परिवर्तन क्यों करते हो? परमेश्वर द्वारा बोला गया प्रत्येक वाक्य, शब्दों का चयन, लहजा, और वातावरण, मनोदशा और भावनाएँ जो वे लोगों को महसूस कराती हैं, सभी को सावधानीपूर्वक निरूपित किया गया है और उन पर विचार किया गया है। परमेश्वर के पास विचार-विमर्श और बुद्धि है। इस वृद्ध सज्जन ने क्या सोचा था? उसने परमेश्वर के बोलने के तरीके को अविवेकपूर्ण माना था। वह परमेश्वर के कार्य को इसी तरह देखता था। उसका मानना था, “धर्म में जो लोग केवल पेट भरकर खाना चाहते हैं, उन्हें मनाना चाहिए और उनसे प्यार और दया से पेश आना चाहिए। शब्द इतने कठोर नहीं हो सकते। अगर वे बहुत कठोर हैं, तो सुसमाचार कैसे फैलाया जा सकता है? क्या तब भी सुसमाचार फैलाया जा सकता है?” क्या परमेश्वर इस बारे में नहीं जानता? (हाँ।) परमेश्वर बहुत अच्छी तरह जानता है। फिर भी वह इस तरह से क्यों बोलता है? यह परमेश्वर का स्वभाव है। परमेश्वर का स्वभाव क्या होता है? यह है अपने तरीके से बोलना, चाहे तुम विश्वास करो या न करो। अगर तुम विश्वास करते हो, तो तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो; अगर तुम विश्वास नहीं करते, तो तुम भेड़िए हो। परमेश्वर के वचन तुम्हें उजागर करते हैं और तुम्हें थोड़ा डाँटते हैं, और फिर तुम यह मानने से इनकार कर देते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले हो? क्या, क्या तुम अब परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं रहे? क्या परमेश्वर परमेश्वर नहीं रह गया है? यदि तुम इस कारण से परमेश्वर को अस्वीकार कर सकते हो, तो तुम एक बुरे व्यक्ति हो, एक शैतान हो। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता, इसलिए कलीसिया को उन्हें जबरन या बहला-फुसलाकर स्वीकार नहीं करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “भले ही परमेश्वर मुझे डाँटे, मैं खुशी-खुशी तैयार हूँ। यदि वह परमेश्वर है, तो वह मुझे बचा सकता है। यदि वह मुझे मारता है, तो यह उचित है। यदि वह मुझे भ्रमित व्यक्ति कहता है, तो मैं भ्रमित व्यक्ति हूँ, और उससे से भी अधिक भ्रमित व्यक्ति हूँ; यदि वह मुझे पतिता कहता है, हालाँकि ऐसा नहीं लगता कि मैंने वह किया है जो एक पतिता करती है, चूँकि परमेश्वर ने ऐसा कहा है, मैं इसे मानती हूँ और स्वीकार करती हूँ।” उनके पास सबसे सरल विश्वास होता है, उनके पास स्वीकृति होती है और वे मानते हैं, और सबसे सरल परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को प्राप्त करना चाहता है। कुछ लोगों को परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और चुभने वाले लगते हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें आशीष नहीं मिलेगा, और इसलिए वे अब और विश्वास नहीं करना चाहते। वे सोचते हैं, “भले ही तुम परमेश्वर हो, मैं तुम पर विश्वास नहीं करूँगा। यदि तुम इस तरह बोलते हो, तो मैं तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगा।” तो भागो! यदि तुम परमेश्वर को स्वीकार ही नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें अपना सृजित किया हुआ प्राणी कैसे मान सकता है? यह असंभव है! परमेश्वर के वचन यहाँ रखे हैं; उन पर विश्वास करो या नहीं, यह तुम्हारा निर्णय है। यदि तुम विश्वास नहीं करते, तो जाओ, भागो। तुम चूक जाओगे। यदि तुम विश्वास करते हो, तो तुम्हारे पास उद्धार की आशा की किरण होगी। क्या यह उचित नहीं है? (हाँ।) लेकिन क्या इस बूढ़े सज्जन ने इस तरह सोचा था? क्या वह परमेश्वर के विचारों को समझ पाया था? (नहीं।) क्या वह मूर्ख नहीं था? जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, वे ऐसे मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। उसने परमेश्वर को बहुत तुच्छ और सरल समझा, यह सोचते हुए कि परमेश्वर के विचार मानवीय सोच से अधिक ऊँचे नहीं हैं। वह अक्सर परमेश्वर के विचारों को मनुष्य के विचारों से ऊँचा होने की बात करता था, साधारण समय में इन बड़े धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करता था, लेकिन जब वास्तव में स्थिति से सामना हुआ, तो उसने इन वचनों के बारे में सोचा तक नहीं था, उसे नहीं लगा कि परमेश्वर ने ये वचन कहे होंगे। अपने दिल में उसने परमेश्वर के इन वचनों को मंजूर नहीं किया, इसलिए वह उन्हें स्वीकार नहीं कर सका। जैसे ही सुसमाचार का प्रसार हुआ, उसे परमेश्वर के वचनों को बदलने का अवसर मिल गया, “सुसमाचार को प्रभावी ढंग से फैलाने और अधिक लोगों को प्राप्त करने” की आड़ में। मैंने आखिरकार उसके व्यवहार को कैसे नामित किया? परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ के रूप में। छेड़छाड़ का क्या मतलब है? इसका मतलब है स्वेच्छाचारी ढंग से मूल अर्थ को जोड़ना, घटाना या बदलना, लेखक के इच्छित अर्थ को बदल देना, बोलने में लेखक के शुरुआती इरादों और उद्देश्य की अनदेखी करना और फिर उन्हें बेतरतीब ढंग से बदल देना। इसे ही छेड़छाड़ कहा जाता है। क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल था? (नहीं।) ऐसी दुस्साहस! क्या ऐसा कुछ कोई इंसान करेगा? (नहीं।) यह किसी इंसान का नहीं, शैतान का काम है। तुम किसी आम इंसान के शब्दों में भी यूँ ही बदलाव नहीं कर सकते; तुम्हें लेखक की राय का सम्मान करना होगा। अगर तुम बदलाव करना चाहते हो, तो तुम्हें उसे पहले से सूचित करना होगा और उसकी सहमति लेनी होगी, और केवल उसकी अनुमति मिलने के बाद ही तुम मूल अर्थों के अनुसार संशोधन कर सकते हो। इसे सम्मान करना कहते हैं। जब बात परमेश्वर की आती है, तो सम्मान से कहीं ज्यादा की अपेक्षा होती है! अगर परमेश्वर के वचनों में एक भी वाक्य गलत छपा है, अगर उसमें एक भी व्याकरणिक भाग गायब है, तो तुम्हें पूछना होगा कि क्या यह स्वीकार्य है; अगर नहीं, तो तुम्हें उस पृष्ठ को फिर से छापना होगा। इसके लिए बहुत गंभीर और जिम्मेदाराना रवैया चाहिए; इसे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना कहते हैं। क्या इस बूढ़े सज्जन के पास ऐसा हृदय था? (नहीं।) उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था। वह परमेश्वर को अपने से नीचे समझता था; वह बहुत ही दुस्साहसी था। ऐसे व्यक्ति को निष्कासित कर देना चाहिए।
हाल ही में ऐसी ही एक घटना घटी। कुछ लोगों ने एक बार फिर सुसमाचार फैलाने और अधिक लोगों को प्राप्त करने के बहाने का इस्तेमाल लापरवाही से परमेश्वर के वचनों को बदलने के लिए किया। इस बार यह पिछली बार से थोड़ा बेहतर था; पिछली बार यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से किया गया था, दूसरों के साथ संगति किए बिना, परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने के लिए बेतरतीब और लापरवाही से काम किया गया था। इस बार उन्होंने पहले ऊपर वाले से पूछा, “एक निश्चित जातीय समूह के लोग परमेश्वर के वचनों में कुछ शब्द स्वीकार नहीं कर सकते। हमने उन शब्दों को परमेश्वर के वचनों में कथनों या अंशों के उन हिस्सों को जिन्हें वे स्वीकार नहीं कर सकते, हटाने या बदलने की रणनीति बनाई है, और फिर उन्हें परमेश्वर के वचनों के विशेष रूप से तैयार संस्करण के साथ उपदेश दिया जाए। क्या वे तब विश्वास नहीं करेंगे?” इसे देखो; वे वास्तव में दुस्साहसी हैं। यह किस तरह का व्यवहार है? यदि नरमी से व्यवहार करें, तो ऐसे लोगों को बस मूर्ख और अज्ञानी और बहुत छोटा माना जा सकता है; उन्हें बस इतना कहा जा सकता है कि वे ऐसा दोबारा न करें। लेकिन अगर हम उनके काम की प्रकृति का आकलन करें, तो वे शैतान को खुश करने के लिए परमेश्वर के वचनों में यूँ ही फेरबदल कर रहे थे। इसे क्या कहते हैं? यह यहूदा, गद्दारों और विद्रोहियों का व्यवहार है, जो महिमा के लिए प्रभु को धोखा दे देते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ की, लोगों को खुश करने और उन्हें सुसमाचार स्वीकार करवाने के लिए अधिक स्वादिष्ट और स्वीकार्य बना दिया—इसका क्या मतलब है? भले ही पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति विश्वास न करे, तो क्या परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन नहीं रह जाते? क्या परमेश्वर के वचनों की प्रकृति बदल जाती है? (नहीं।) क्या परमेश्वर के वचन केवल तभी सत्य होते हैं जब वे उन्हें स्वीकार करते हैं, और यदि वे नहीं करते, तो उसके वचन सत्य नहीं होते? क्या परमेश्वर के वचनों की प्रकृति इस वजह से बदल सकती है? बिल्कुल भी नहीं। सत्य सत्य है; यदि तुम इसे स्वीकार नहीं करते, तो तुम तबाह हो जाते हो! सुसमाचार फैलाने वाले कुछ लोग सोचते हैं, “स्वीकार न करने के कारण वे कितने दयनीय हैं! वे कितने महान और अभिजात्य लोग हैं। परमेश्वर उनसे इतना प्यार करता है और उन पर इतनी दया करता है, तो हम उन्हें थोड़ा प्यार कैसे न करें? चलो परमेश्वर के वचनों को बदल देते हैं ताकि वे उन्हें स्वीकार कर सकें। वे लोग कितने अद्भुत हैं, और परमेश्वर उनके प्रति कितना अच्छा और दयालु है। हमें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए!” क्या यह दिखावा नहीं है? (हाँ है।) एक और बहुरूपिया—जो लोग सत्य नहीं समझते वे केवल मूर्खतापूर्ण कार्य ही कर सकते हैं! यह पहले ही कहा जा चुका है कि जिसने परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ की थी, उससे निपटा गया और उसे निष्कासित किया गया, और ऐसे लोग हैं जो फिर से उनके साथ छेड़छाड़ करना चाहते हैं। वे क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या यह महिमा के लिए प्रभु को धोखा देना नहीं है? (हाँ है।) यह शैतान को प्रसन्न करते हुए महिमा के लिए प्रभु को धोखा देना है। क्या परमेश्वर के वचन व्यावहारिक नहीं हैं? क्या उन्हें खुले तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता? क्या तुम उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते? यदि तुम उन्हें स्वीकार नहीं करते, तो फिर तुम अभी तक विश्वास क्यों करते हो? यदि तुम लोग सत्य स्वीकार नहीं कर सकते, तो परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब ही क्या है? इस तरह से उद्धार प्राप्त करना असंभव है। चाहे परमेश्वर जैसे भी बोले, चाहे वह जो भी शब्द इस्तेमाल करे जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाते, वह फिर भी परमेश्वर है, और उसका सार नहीं बदलता। चाहे तुम कितनी भी अच्छी बातें बोलो, चाहे तुम कुछ भी करो, चाहे तुम खुद को कितना भी दयालु, परोपकारी या प्रेमपूर्ण समझो, तुम फिर भी एक इंसान हो, एक भ्रष्ट इंसान। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने से इनकार करते हो और शैतान को खुश करने के लिए परमेश्वर के वचनों को बदलने का प्रयास करते हो। यह किस तरह का व्यवहार है? यह घृणित है! मैंने सोचा था कि परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ की प्रकृति को लेकर हुई पिछली संगतियों के बाद अब सुसमाचार फैलाने के मामले में ऐसा मुद्दा फिर नहीं उठेगा। फिर भी, अविश्वसनीय रूप से अभी भी ऐसे लोग हैं जो छेड़छाड़ करने और ऐसे विचारों को मन में लाने का साहस कर रहे हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति इन लोगों का रवैया कैसा है? (अनादर का है।) वे पूरी तरह से लापरवाह हैं! उनके दिलों में, परमेश्वर के वचन पंखों की तरह हल्के हैं, उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। वे सोचते हैं, “परमेश्वर के वचनों को किसी भी तरह से रखा जा सकता है; मैं उसके वचनों को अपनी इच्छानुसार बदल सकता हूँ। उन्हें मानवीय धारणाओं और अभिरुचियों के अनुरूप बनाना बेहतर है। परमेश्वर के वचन ऐसे ही होने चाहिए!” जो लोग परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने जैसे काम करते हैं, उन्हें मसीह-विरोधी कहा जा सकता है। वे बेपरवाही से और बिना विचारे काम करते हैं, बेतरतीब ढंग से छेड़छाड़ करते हैं; वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, और उनमें अन्य मसीह-विरोधियों के समान ही स्वभाव और गुण होते हैं। और एक और बात है : जब वे खतरे का सामना करते हैं या जब उनके अपने हितों को नुकसान पहुँचता है, तो उनका पहला विचार और कार्य क्या होता है? वे क्या चुनते हैं? वे खुद को बचाने के लिए परमेश्वर के हितों और परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देने का चुनाव करते हैं। जो लोग परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, क्या वे वास्तव में सुसमाचार को प्रभावी ढंग से फैलाने के लिए ऐसा करते हैं? उनकी तथाकथित प्रभावशीलता के पीछे छिपा हुआ उद्देश्य क्या होता है? वे अपनी प्रतिभा और क्षमताओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं, ताकि लोग देख सकें, “देखो मैं कितना सक्षम हूँ! देखो मेरे बदलाव करने के बाद सुसमाचार कितने प्रभावी ढंग से फैलता है? तुम लोगों के पास वैसा कौशल नहीं है, तुम लोग ऐसा सोचने की हिम्मत भी नहीं करोगे। देखो, मेरे विचारों और कार्यों से मैंने जो नतीजे प्राप्त किए हैं, उन्हें देख रहे हो?” ये लोग परमेश्वर के वचनों की अवहेलना करते हैं और अपनी महत्वाकांक्षा और प्रसिद्धि और रुतबे की चाहत को पूरा करने के लिए उनके साथ छेड़छाड़ करते हैं। क्या उनका चरित्र मसीह-विरोधी का नहीं है? उन्हें मसीह-विरोधी के रूप में चिह्नित करना बिल्कुल भी अन्यायपूर्ण नहीं है।
मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचार और तानाशाही की एक और अभिव्यक्ति क्या होती है? वे कभी भी भाई-बहनों के साथ सत्य की संगति नहीं करते, न ही वे लोगों की असल समस्याओं का समाधान करते हैं। इसके बजाय, वे लोगों को उपदेश देने के लिए केवल शब्द और सिद्धांतों का भाषण देते हैं, और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर भी करते हैं। अब ऊपर वाले और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण के बारे में क्या? यह धोखे और कपट के अलावा और कुछ नहीं होता। कलीसिया के भीतर के मुद्दों के बावजूद वे कभी भी ऊपर वाले को कुछ भी नहीं बताते। वे जो भी करते हैं, उसके लिए कभी भी ऊपर वाले से नहीं पूछते। ऐसा लगता है कि उनके पास कोई भी मुद्दा नहीं है जिसके लिए ऊपर वाले से संगति या मार्गदर्शन की आवश्यकता हो—वे जो कुछ भी करते हैं वह चोरी-छिपे और गुप्त होता है, और पर्दे के पीछे होता है। इसे छलपूर्ण हेरफेर कहा जाता है, जहाँ वे अपनी चलाना चाहते हैं और निर्णय लेने वाले बनना चाहते हैं। हालाँकि, कभी-कभी वे स्वांग भी करते हैं, ऊपर वाले से पूछताछ करने के लिए तुच्छ मामले सामने लाते हैं, ऐसे दिखाते हैं मानो वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं, जिससे ऊपर वाले को यह गलतफहमी हो जाती है कि वे हर चीज में अत्यंत सावधानी से सत्य की तलाश करते हैं। वास्तव में, वे किसी भी महत्वपूर्ण मामले पर मार्गदर्शन नहीं माँगते, एकतरफा निर्णय लेते हैं और ऊपर वाले को अँधेरे में रखते हैं। यदि कोई समस्या आती है, तो वे मुश्किल से ही इसकी रिपोर्ट करते हैं, उन्हें डर होता है कि इससे उनकी सत्ता, रुतबा या प्रतिष्ठा प्रभावित हो सकते हैं। मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह तरीके से काम करते हैं; वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं। सीधे कहें तो इस व्यवहार की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ व्यक्तिगत प्रबंधन में संलग्न होना; अपना प्रभाव, व्यक्तिगत गुट और संबंध विकसित करना; अपने स्वयं के उपक्रमों में लगे रहना हैं; और फिर वे जो चाहे करते रहते हैं, वे अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और पारदर्शिता के बिना कार्य करते हैं। मसीह-विरोधियों की दूसरों से अपने आगे समर्पण कराने की इच्छा और चाहत विशेष रूप से प्रबल होती है; वे लोगों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी आज्ञा का पालन करें जैसे एक शिकारी अपने कुत्ते को अपनी आज्ञा मानने के लिए कहता है, सही-गलत का कोई विवेक नहीं होने देता, पूर्ण रूप से अनुपालन और अधीनता पर जोर देता है।
मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचार और तानाशाही की एक और अभिव्यक्ति निम्नलिखित परिदृश्य में देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी खास कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी है, और यदि उच्चस्तरीय अगुआ और कार्यकर्ता उस कलीसिया के काम के बारे में जानने और उसमें हस्तक्षेप करने का इरादा रखते हैं, तो क्या यह मसीह-विरोधी सहमत होगा? बिल्कुल नहीं। वह कलीसिया को किस हद तक नियंत्रित करता है? एक अभेद्य किले की तरह, जिसमें न तो सुई जा सकती है और न पानी अंदर रिस सकता है, वह किसी और को शामिल होने या पूछताछ करने की अनुमति नहीं देता। जब उसे पता चलता है कि अगुआ और कार्यकर्ता काम के बारे में जानने के लिए आ रहे हैं, तो वह भाई-बहनों से कहता है, “मुझे नहीं पता कि इन लोगों के आने का क्या उद्देश्य है। वे हमारे कलीसिया की वास्तविक स्थिति को नहीं समझते। यदि उन्होंने हस्तक्षेप किया, तो वे हमारे कलीसिया का काम बाधित कर सकते हैं।” इस तरह वह भाई-बहनों को गुमराह करता है। एक बार जब अगुआ और कार्यकर्ता आ जाते हैं, तो वह भाई-बहनों को उनसे संपर्क करने से रोकने के लिए विभिन्न कारण और बहाने ढूँढ़ता है, जबकि वह अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पाखंडपूर्ण तरीके से मनोरंजन करता है, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में उन्हें एक जगह अलग-थलग करके रखता है; लेकिन वास्तव में, यह उन्हें भाई-बहनों से मिलने और उनसे हालात के बारे में जानने से रोकने के लिए होता है। जब अगुआ और कार्यकर्ता कार्य की स्थिति के बारे में पूछते हैं, तो मसीह-विरोधी झूठी छवि पेश करके उन्हें धोखा देने में लग जाता है; वह अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देता है और अपने से नीचे के लोगों से सत्य छिपाता है, अपने बयानों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, और उन्हें धोखा देने के लिए कार्य की प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। जब अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के भाई-बहनों से मिलने का सुझाव देते हैं, तो वह जवाब देता है, “मैंने कोई व्यवस्था नहीं की है! आपने आने से पहले मुझे सूचित नहीं किया। अगर आपने किया होता, तो मैं कुछ भाई-बहनों को आपसे मिलवाने की व्यवस्था कर देता। लेकिन वर्तमान शत्रुतापूर्ण माहौल को देखते हुए सुरक्षा कारणों से यह बेहतर है कि आप लोग भाई-बहनों से न मिलें।” हालाँकि उसके शब्द उचित लगते हैं, लेकिन एक समझदार व्यक्ति इस मुद्दे को पहचान सकता है : “वह नहीं चाहता कि अगुआ और कार्यकर्ता भाई-बहनों से मिलें क्योंकि उसे उजागर होने का डर होता है, उसे डर होता है कि उसके काम में खामियाँ और विचलन बेनकाब हो जाएँगे।” मसीह-विरोधी कलीसिया के भाई-बहनों को कसकर नियंत्रित करता है। यदि अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार नहीं हैं, तो वे आसानी से मसीह-विरोधी द्वारा धोखा खा सकते हैं और मूर्ख बनाए जा सकते हैं। कलीसिया के भाई-बहनों की वास्तविक स्थिति, उनकी अनसुलझी रही कठिनाइयाँ, क्या ऊपर वाले की संगति और उपदेश और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें भाई-बहनों को समय पर दिए जाते हैं, कलीसिया की विभिन्न कार्य परियोजनाएँ कैसे आगे बढ़ रही हैं, क्या कोई विचलन या समस्याएँ हैं—ये सभी बातें अगुआ और कार्यकर्ता नहीं जान पाएँगे। भाई-बहन परमेश्वर के घर में किसी भी नई कार्य व्यवस्था से भी अनजान होते हैं; इस प्रकार, मसीह-विरोधी कलीसिया को पूरी तरह से नियंत्रित करता है, सत्ता पर एकाधिकार जमाए रखता है और मामलों में अंतिम निर्णय लेता रहता है। कलीसिया के भाई-बहनों को उच्चस्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क करने का कोई अवसर नहीं मिलता, और तथ्यात्मक सत्य को न जानने से वे मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह और नियंत्रित होते रहते हैं। मसीह-विरोधी चाहे जो भी बोले, इन निरीक्षक अगुआओं और कार्यकर्ताओं में विवेक की कमी होती है और वे अभी भी सोच रहे होते हैं कि मसीह-विरोधी अच्छा काम कर रहा है, वे उस पर पूरा भरोसा करते हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मसीह-विरोधी की देखभाल में सौंपने के समान है। यदि मसीह-विरोधी के धोखे के दौरान अगुआ और कार्यकर्ता समझने में असमर्थ होते हैं, गैर-जिम्मेदार होते हैं, और नहीं जानते कि इससे कैसे निपटें, तो क्या यह कलीसिया के काम में बाधा डालना नहीं है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना नहीं है? ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता क्या झूठे अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं? मसीह-विरोधी द्वारा नियंत्रित कलीसिया के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हस्तक्षेप करना चाहिए और पूछताछ करनी चाहिए, और उन्हें मसीह-विरोधी को तुरंत सँभालना और उससे छुटकारा पाना चाहिए—इसमें कोई दो राय नहीं है। अगर ऐसे झूठे अगुआ हैं जो वास्तविक कार्य नहीं करते और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी को अनदेखा करते हैं, तो चुने हुए लोगों को इन झूठे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उजागर करना चाहिए, उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, उन्हें उनके पदों से हटाना चाहिए और उनकी जगह अच्छे अगुआओं को लाना चाहिए। लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी के मुद्दे को पूरी तरह से हल करने का यही एकमात्र तरीका है। कुछ लोग कह सकते हैं, “हो सकता है कि ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता खराब काबिलियत वाले और विवेकहीन थे, यही वजह है कि वे मसीह-विरोधी के मुद्दे को सँभालने और हल करने में विफल रहे। वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं; क्या उन्हें एक और मौका नहीं दिया जाना चाहिए?” ऐसे भ्रमित अगुआओं को और कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए। अगर उन्हें और मौका दिया जाता है, तो वे केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान ही पहुँचाएँगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं; उनमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है, और वे अपने कार्यकलापों में सिद्धांतहीन हैं—वे घृणित लोग हैं जिन्हें हटा दिया जाना चाहिए! पिछले दो वर्षों में कुछ कलीसियाओं के कुछ भाई-बहन ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बरखास्त करने, बदलने और हटाने के लिए एकजुट हुए हैं जो वास्तविक कार्य नहीं करते। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ।) मुझे ऐसी अच्छी खबर सुनकर खुशी होती है; यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन में बढ़ने और परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर प्रवेश करने का सबसे अच्छा सबूत है। यह दर्शाता है कि लोगों ने कुछ विवेक और आध्यात्मिक कद प्राप्त कर लिया है, और अब वे झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधी राक्षसों द्वारा नियंत्रित नहीं होते। साधारण झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी अब परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह या नियंत्रित नहीं कर सकते, जो अब रुतबे या शक्ति से बेबस नहीं हैं। उनमें झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने और उजागर करने, उन्हें निर्वासित करने और बरखास्त करने का साहस है। वास्तव में, चाहे अगुआ और कार्यकर्ता हों या परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई साधारण व्यक्ति, सभी का दर्जा परमेश्वर के सामने समान है, केवल उनके कर्तव्यों में अंतर होता है। परमेश्वर के घर में रुतबे में कोई अंतर नहीं होता, केवल कर्तव्य और जिम्मेदारी में अंतर होता है। जब झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा कलीसिया के काम में बाधा डाली जाए, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों, दोनों को ही उन्हें उजागर करना चाहिए और उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, उनसे तुरंत निपटना चाहिए, मसीह-विरोधियों को कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। यह जिम्मेदारी सभी के लिए समान है और सभी के लिए साझा है।
मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और सभी मामलों में अंतिम निर्णय अपना ही रखेंगे—क्या ये सभी समस्याएँ स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देतीं? दूसरों के साथ संगति करना और सिद्धांतों की खोज करना केवल औपचारिकता या सतही प्रक्रिया नहीं होती; इसका उद्देश्य क्या होता है? (सिद्धांतों के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना, और उनका निर्वहन करने में एक मार्ग रखना।) सही है; यह अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सिद्धांतों और मार्ग को रखने में सक्षम होना है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर के घर के विनियम क्या हैं? केवल परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करके और सिद्धांतों को समझकर ही कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को प्रभावी ढंग से निभा सकता है। यदि तुम समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर संगति करते हो, तो क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए? किन लोगों को शामिल करना चाहिए? सही व्यक्तियों को चुना जाना चाहिए; तुम्हें मुख्य रूप से अच्छी काबिलियत वाले कुछ लोगों के साथ संगति करनी चाहिए जो सत्य को समझ सकते हैं, क्योंकि इससे प्रभावी परिणाम प्राप्त होंगे। यह आवश्यक है। यदि तुम ऐसे भ्रमित और खराब काबिलियत वाले लोगों को चुनते हो, जिनमें समझ की कमी है, जिनके लिए कोई भी चर्चा उन्हें सत्य को समझने या उस तक पहुँचने नहीं देती, तो भले ही प्रचुरता के साथ सत्य की संगति की जाए, इससे कोई परिणाम नहीं निकलेगा। कलीसिया में जो भी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उसके बावजूद, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हक है कि उन्हें सूचित किया जाए और उन्हें कलीसिया के कार्य की स्थिति और मौजूदा समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए। यदि अगुआ और कार्यकर्ता अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देते हैं और अपने से नीचे के लोगों से सत्य को छिपाते हैं, दूसरों को गलत साबित करने के तरीके अपनाते हैं, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उन्हें उजागर करने और उनकी रिपोर्ट करने, या मामले को उच्च अधिकारियों तक ले जाने का अधिकार है। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों का कर्तव्य और दायित्व भी है। कुछ झूठे अगुआ स्वेच्छाचारी और तानाशाही तरीके से काम करते हैं, कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करते हैं। यह परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध है, यह मसीह-विरोधियों का निरंतर अभ्यास होता है। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे उजागर नहीं करते और रिपोर्ट नहीं करते, और कलीसिया के काम में अड़चन पैदा होती है या वह थम जाता है, तो इसके लिए सिर्फ अगुआ और कार्यकर्ता ही जिम्मेदार नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोग भी जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि ये परमेश्वर के चुने हुए लोग ही होते हैं जो झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा कलीसिया में सत्ता का इस्तेमाल किए जाने पर पीड़ित होते हैं, जो संभावित रूप से उद्धार प्राप्त करने के उनके अवसर को खतरे में डाल देता है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की रिपोर्ट करने और उन्हें उजागर करने का अधिकार और जिम्मेदारी होती है, जो कलीसिया के काम और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कहते हैं : “तुम सभी लोग कहते हो कि मैं स्वेच्छाचारी और तानाशाह हूँ, है न? इस बार मैं ऐसा नहीं रहूँगा। मैं सभी को अपनी राय व्यक्त करने दूँगा। एक दिन, दो दिन—तुम्हें उसे साझा करने में जितना भी समय लगे, इंतजार करूँगा।” कभी-कभी कुछ विशेष मुद्दों से जूझते समय बिना समाधान के कई दिनों तक विवाद चलते रहते हैं, और वे बस इंतजार करते रहते हैं। वे काम को आगे बढ़ाने से पहले सभी के आम सहमति पर पहुँचने तक इंतजार करते हैं, जिससे काफी देरी हो सकती है। इससे काम में बहुत अड़चन पैदा होती है; यह स्पष्ट रूप से गैरजिम्मेदारी की अभिव्यक्ति है। अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता निर्णय नहीं ले सकता तो वह कलीसिया के काम का प्रभावी ढंग से प्रबंधन कैसे कर सकता है? कलीसिया के काम में अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास निर्णय लेने का अधिकार होता है, तो भाई-बहनों को सूचित किए जाने का अधिकार होता है। हालाँकि, अंततः यह अगुआ और कार्यकर्ता ही होते हैं जिन्हें निर्णय लेना चाहिए। यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता निर्णय लेने में असमर्थ होता है, तो उसकी काबिलियत बहुत खराब होती है, और वे अगुआई की भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं होते। भले ही वे अगुआ हों, वे वास्तविक काम नहीं कर सकते या अपने कर्तव्यों को पर्याप्त रूप से नहीं निभा सकते। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता एक ही मुद्दे पर लंबे समय तक बहस करते रहते हैं, निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं, और अंत में जो भी अधिक ताकतवर होता है, वे उसके साथ चले जाते हैं। क्या यह दृष्टिकोण सैद्धांतिक है? (नहीं।) यह किस तरह की अगुआई है? यह तो बस भ्रमित होना है। अगर तुम कहते हो, “मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, और मुझे उन जैसा हो जाने का डर है; मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर नहीं चलना चाहता। मैं सभी के अपनी राय व्यक्त करने का इंतजार करूँगा, और फिर निष्कर्ष निकालूँगा और निर्णय के लिए एक उदार दृष्टिकोण का सारांश दूँगा”—क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर परिणाम सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो भले ही तुम इस तरीके से आगे बढ़ो, क्या यह प्रभावी हो सकता है? क्या यह परमेश्वर को संतुष्ट करेगा? अगर यह प्रभावी नहीं है और परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करता, तो समस्या गंभीर है। सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करना, अपने कर्तव्य को निभाने में गैर-जिम्मेदार होना, लापरवाह होना और शैतान के फलसफे के अनुसार काम करना परमेश्वर से विश्वासघात है। यह परमेश्वर को धोखा देना है! मसीह-विरोधी के रूप में संदेह किए जाने या न्याय से बचने के लिए, तुम उन जिम्मेदारियों से बचते हो जो तुम्हें पूरी करनी चाहिए और शैतान के फलसफे के “समझौतावादी” दृष्टिकोण को अपना लेते हो। परिणामस्वरूप, तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते हो और कलीसिया के काम को प्रभावित करते हो। क्या यह सिद्धांतहीन नहीं है? क्या यह स्वार्थी और घृणित होना नहीं है? एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें सिद्धांतों के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए, अपने कर्तव्यों को परिणामों और दक्षता के साथ पूरा करना चाहिए। तुम्हें उन तरीकों से कार्य करना चाहिए जो हर तरह से परमेश्वर के घर के काम को लाभ पहुँचाते हैं और सत्य सिद्धांतों की ओर होते हैं। उदाहरण के लिए, कलीसिया के लिए वस्तुएँ व्यावहारिक परिणाम को ध्यान में रखते हुए खरीदी जानी चाहिए। वस्तुओं की कीमत उचित होनी चाहिए और वे काम में आने लायक होनी चाहिए। यदि तुम सिद्धांतों के बिना लापरवाही से पैसा खर्च करते हो, तो यह परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर की भेंटों को नुकसान पहुँचा सकता है। तुम लोग ऐसी स्थिति को कैसे सँभालोगे? (ऊपर वाले से मार्गदर्शन माँगेंगे।) ऊपर वाले से मार्गदर्शन माँगना एक तरीका है। इसके अलावा, आलसी मत बनो। अच्छी तरह से शोध करो, विस्तार से पूछताछ करो, अधिक से अधिक पूछो, विवरणों को समझो और पर्याप्त रूप से तैयारी करो; शायद तब अपेक्षाकृत उपयुक्त समाधान मिल सके। यदि तुम यह आधारभूत कार्य नहीं करते और विवरणों को समझे बिना लापरवाही से कार्य करते हो, जिसके परिणामस्वरूप बहुत सारा पैसा बरबाद होता है, तो इसे क्या कहा जाता है? इसे लापरवाह होना कहा जाता है। कुछ लोग इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हैं, जो वे करते हैं उसमें पारदर्शिता की कमी होती है। उन्हें जो रिपोर्ट करना चाहिए उसका केवल आधा ही रिपोर्ट करते हैं, बाकी छिपा लेते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि पूरी तरह से पारदर्शी होने से उन पर मुसीबत आएगी और उन्हें आगे अनुसंधान और सुधार करने की आवश्यकता होगी। इसलिए, वे बस दूसरों से वास्तविक स्थिति और विवरण छिपा लेते हैं, जल्दी से कार्य पूरा करते हैं और फिर परमेश्वर के घर से भुगतान माँगते हैं। लेकिन निरीक्षण करने पर कार्य मानक के अनुसार नहीं होता और उसे फिर से करने की आवश्यकता होती है, और इससे और अधिक पैसा बरबाद होता है। क्या इससे परमेश्वर के घर को नुकसान नहीं पहुँच रहा है? क्या यह यहूदा का व्यवहार नहीं है? (हाँ।) यहूदा के व्यवहार में विशेष रूप से परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देना शामिल होता है। परिस्थितियों से सामना होने पर ऐसा व्यक्ति कलीसिया के बाहर के लोगों का पक्ष लेता है, केवल अपने दैहिक हितों के बारे में सोचता है और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचता। क्या उसमें परमेश्वर के प्रति कोई वफादारी होती है? (नहीं।) जरा सी भी वफादारी नहीं होती। उन्हें परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाने में मजा आता है—यह यहूदा का व्यवहार है। एक और स्थिति भी होती है : कुछ कर्तव्यों में अन्य क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या विशेषज्ञता की जरूरत होती है जिससे हर कोई अपरिचित हो सकता है। ऐसे मामलों में तुम्हें परेशानी से बचना नहीं चाहिए। प्रचुर जानकारी के इस युग में तुम्हें आलसी नहीं होना चाहिए बल्कि सक्रिय रूप से प्रासंगिक आंकड़े और सूचना की खोज करनी चाहिए। सबसे बुनियादी जानकारी प्राप्त करने से शुरू करके तुम धीरे-धीरे पेशे या क्षेत्र की बुनियादी समझ हासिल कर लेते हो, और फिर धीरे-धीरे खुद को मूल रूप से उससे परिचित बनाते हुए उस क्षेत्र के दायरे में और अधिक पहलुओं के बारे में सीखते हो, चाहे वे आंकड़े हों या विभिन्न पेशेवर शब्द। इस स्तर पर पहुँचने के बाद क्या यह तुम्हारे कर्तव्यों को पर्याप्त रूप से और वफादारी से पूरा करने के लिए अधिक फायदेमंद नहीं है? (हाँ।) तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय इस सभी तैयारी के काम का उद्देश्य क्या है? शोध करना, विवरणों को समझना, और फिर संगति और चर्चा के माध्यम से व्यवहार्य समाधान खोजना, ये सभी तुम्हारे कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा करने की तैयारी का हिस्सा हैं। इन तैयारियों को अच्छी तरह से करना अपने कर्तव्य को निभाने में वफादारी को दर्शाता है; यह उन लोगों को भी उजागर करता है जो लापरवाह हैं। छद्म-विश्वासियों और उन लोगों के रवैये के बारे में क्या जो अपने कर्तव्यों को निभाते समय वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते? वे पूरी तरह से लापरवाह होते हैं; चाहे वे कलीसिया के लिए कुछ भी खरीदें, वे ऊपर वाले से मार्गदर्शन लिए बिना अपनी मर्जी से बेतहाशा पैसा खर्च करते हैं, यह सोचते हुए कि वे सब कुछ समझते हैं। नतीजतन, वे परमेश्वर के घर का पैसा बरबाद करते हैं। क्या वे बरबादी करने वाले, आपदा के अग्रदूत नहीं हैं? वे परमेश्वर की भेंटों को नुकसान पहुँचाते हैं और यह भी नहीं समझते कि वे बुराई कर रहे हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हैं; उनके दिलों में किसी भी तरह का पश्चात्ताप नहीं होता। केवल जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उन्हें उजागर करते हैं और पहचानते हैं, और उन्हें बाहर निकालने और निष्कासित करने के लिए वोट दिया जाता है, तब उन्हें कुछ जागरूकता मिलती है और वे पछताना शुरू करते हैं। उन्हें एहसास ही नहीं था कि उनके कार्यों के इतने गंभीर परिणाम होंगे—सच में, वे तब तक आँसू नहीं बहाएँगे जब तक वे अपनी खुद की कब्र नहीं देख लेते! ऐसे लोग ज्यादातर मूर्ख होते हैं जो उन्मादी होते हैं, फिर भी वे अगुआ और कार्यकर्ता बनने और परमेश्वर के घर के लिए कार्य करने की आकांक्षा रखते हैं। वे सूअरों की तरह हैं जिन्होंने लिपस्टिक लगा ली है—बिल्कुल बेशर्म। ये लोग छद्म-विश्वासी हैं; चाहे वे कितने भी वर्षों से विश्वास करते आ रहे हों, वे कोई सत्य नहीं समझते। फिर भी वे हमेशा परमेश्वर के घर में अगुआ और कार्यकर्ता बनना चाहते हैं, हमेशा शक्ति का इस्तेमाल करना चाहते हैं और अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं—क्या वे ढिठाई से बेशर्म नहीं हैं? ऐसे लोगों को छद्म-विश्वासी क्यों माना जाता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने और इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बावजूद वे कोई सत्य नहीं समझते और किसी भी सत्य को व्यवहार में नहीं ला पाते, जो उन्हें छद्म-विश्वासी बनाता है। क्या तुम लोगों में से कोई इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित करता है? जो लोग करते हैं, वे अपने हाथ उठाएँ। क्या तुम सभी? तो तुम सभी छद्म-विश्वासी हो, और यह एक गंभीर समस्या है। जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अगर वे लगातार धर्मोपदेश सुनते हैं, वे कुछ सत्य समझेंगे और कुछ प्रगति करेंगे, अपनी कथनी और करनी में अधिक भरोसेमंद बनेंगे। अगर कोई बिना किसी प्रगति के वर्षों तक धर्मोपदेश सुनता है, तो वह एक भ्रमित, जानवर, एक छद्म-विश्वासी होता है। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने के तीन से पाँच साल के भीतर काफी कुछ समझ जाते हैं और अपनी कथनी और करनी में सत्य की तलाश कर सकते हैं। यदि वे अपने कर्तव्य को निभाने में खामियाँ देखते हैं या परमेश्वर के घर को कुछ नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे व्यथित हो जाते हैं, आत्म-ग्लानि महसूस करते हैं, और खुद से घृणा करते हैं; उन्हें लगता है कि उनकी क्षणिक गलतियाँ, निष्ठा की कमी, आलस्य, या देह सुख में लिप्तता के कारण ऐसी महत्वपूर्ण खामियाँ हुईं और इतना बड़ा नुकसान हुआ, और वे इसके लिए खुद से घृणा करते हैं। पश्चात्तापी हृदय वाले ऐसे लोगों में कुछ मानवता होती है और वे उद्धार प्राप्त करने के बिंदु तक पहुँच सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद भी कोई सत्य नहीं समझता, अपने कर्तव्य को निभाने में गलतियाँ करता रहता है, हमेशा परमेश्वर के घर के लिए परेशानी खड़ी करता है और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाता है, और उसके पास पश्चात्तापी हृदय भी नहीं है, तो ऐसे व्यक्ति में कोई मानवता नहीं होती, वह सूअरों और कुत्तों से भी बदतर है। क्या वह अभी भी अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकता है? भले ही वह कर्तव्य निभा ले, यह लापरवाही ही होती है, और उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी।
कुछ लोग हमेशा बोलते समय परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहते हैं, बातचीत में लगातार “हमारे परिवार” का जिक्र करते रहते हैं। वे इसे कितनी मिठास से कहते हैं! यह “हमारा परिवार” क्या है, जिसके बारे में वे बात करते हैं? केवल परमेश्वर का घर होता है, परमेश्वर का परिवार होता है, कलीसिया होती है। क्या हमेशा “हमारा परिवार” कहना उचित है? यह मुझे ठीक नहीं लगता। “हमारा परिवार” शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन यह तभी उचित है जब जो कहा जा रहा है वह वास्तविकता से मेल खाता हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, अगर तुम अक्सर अपने कर्तव्यों का पालन लापरवाही से करते हो, कलीसिया के काम को बिल्कुल भी कायम नहीं रखते, कलीसिया के काम को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते, और फिर भी तुम लोग “हमारा परिवार” कहते हो, तो यह अनुचित है। इसमें झूठ और दिखावे का संकेत है, जो घृणा और विकर्षण पैदा करता है; हालाँकि, अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता है और जो कलीसिया के काम को कायम रखता है, तो परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहना स्वीकार्य है। दूसरों को यह सच्चा लगता है, उन्हें इसमें झूठ नहीं दिखता और वे तुम्हें भाई या बहन के रूप में देखेंगे, तुम्हें पसंद करेंगे और तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। यदि तुम अपने दिल में सत्य से प्रेम नहीं करते, न ही सत्य को स्वीकार करते हो, और अपने कर्तव्यों को निभाने में गैर-जिम्मेदार हो, तो परमेश्वर के घर के लिए “हमारा परिवार” मत कहो। तुम्हें ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा करना चाहिए, और कलीसिया के काम को बनाए रखने में सक्षम होना चाहिए ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग महसूस करें कि तुम परमेश्वर के घर का हिस्सा हो। फिर जब तुम “हमारा परिवार” कहते हो, तो यह दूसरों को विकर्षण की किसी भावना के बिना निकटता का एहसास कराता है, क्योंकि अपने दिल में तुम वास्तव में परमेश्वर के घर को अपना घर मानते हो, और अपने कर्तव्यों को निभाने के दौरान तुम वास्तव में जिम्मेदार होते हो और कलीसिया के काम को बनाए रखते हो। जब तुम “हमारा परिवार” कहते हो, तो यह पूरी तरह से उपयुक्त लगता है, जिसमें झूठ का कोई अंश नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति कलीसिया के कार्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं दिखाता, जो भी कर्तव्य उसके हैं, उन्हें अनमने ढंग से निभाता है, जमीन से चीजें उठाने, गंदे कमरे साफ करने, बर्फ हटाने या सर्दियों में आँगन को साफ करने की भी जहमत नहीं उठाता, वह परमेश्वर के घर के सदस्य की तरह नहीं बल्कि एक बाहरी व्यक्ति की तरह लगता है, तो क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहने के योग्य है? वे केवल सेवाकर्मी, अस्थायी कर्मचारी, जीवनहीन लोग हैं जो शैतान से संबंधित हैं, परमेश्वर के घर से बिल्कुल भी संबंधित नहीं हैं। और वे अभी भी अक्सर बेशर्मी से परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहते हैं, जब भी वे अपने मुँह खोलते हैं, इतनी आत्मीयता से कहते हैं, भाई-बहनों को बहुत गर्मजोशी से संबोधित करते हैं—लेकिन वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। जब वे कार्य करते हैं, तो गलतियाँ करते हैं, जिससे परमेश्वर के घर को नुकसान पहुँचता है। क्या वे बस पाखंडी नहीं हैं? ऐसे लोग पूरी तरह से अनैतिक होते हैं, उनमें किसी भी तरह की अंतरात्मा और विवेक नहीं होता। परमेश्वर में विश्वास करने वाले के रूप में सबसे बुनियादी गुण जो किसी में होने चाहिए वे हैं अंतरात्मा और विवेक, और उन्हें सत्य को स्वीकार करने में भी सक्षम होना चाहिए। यदि उनमें अंतरात्मा और विवेक भी नहीं है, और वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, तो क्या वे अभी भी परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहने के लायक हैं? वे केवल अस्थायी कर्मचारी और सेवाकर्मी हैं; वे शैतान से संबंधित हैं और परमेश्वर के घर से उनका कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करता; उसकी नजर में वे बुरे लोग हैं। बहुत से लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, परमेश्वर के घर के मामलों के प्रति उदासीनता दिखाते हैं। वे अपने सामने आने वाली समस्याओं को अनदेखा करते हैं, अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं, मुश्किल में फँसे भाई-बहनों से दूर रहते हैं, और उन लोगों के प्रति कोई नफरत नहीं दिखाते जो बुरे काम करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं या कलीसिया के काम को बरबाद करते हैं। उनमें बड़े सही और गलत मामलों में जागरूकता की कमी होती है; परमेश्वर के घर में जो कुछ भी होता है, उससे उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। क्या वे परमेश्वर के घर को अपना घर मानते हैं? स्पष्ट रूप से नहीं। ये लोग परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहने के लायक नहीं हैं; जो लोग ऐसा करते हैं वे केवल पाखंडी हैं। कौन-से लोग “हमारा परिवार” कहने के लायक हैं? हाल ही में, मैंने देखा है कि कुछ लोग वास्तव में बुरे नहीं हैं, हालाँकि निस्संदेह वे अल्पसंख्यक हैं। चाहे वे कितना भी सत्य समझते हों, या उनका आध्यात्मिक कद या आस्था कितनी भी बड़ी क्यों न हो, ये लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वास्तविक कार्य कर सकते हैं, और जो भी कर्तव्य निभाते हैं, उसमें वास्तव में जिम्मेदार होते हैं—उनमें मानवता की कुछ झलक होती है। केवल ऐसे लोगों को ही वास्तव में परमेश्वर के घर का हिस्सा माना जा सकता है। जब वे “हमारा परिवार” कहते हैं, तो यह स्नेहपूर्ण और सचमुच दिल से कहा गया महसूस होता है। उदाहरण के लिए, कलीसिया को एक मेज की आवश्यकता थी, जिसे खरीदने पर छह या सात सौ डॉलर खर्च होते। कुछ भाई-बहनों ने कहा, “यह बहुत महँगी है। हम लकड़ी खरीदकर और इसे स्वयं बनाकर बहुत सारा पैसा बचा सकते हैं। यह उतना ही अच्छा काम करेगी, कोई अंतर नहीं होगा।” यह सुनने के बाद मुझे दिल में कैसा महसूस हुआ? मैं कुछ हद तक द्रवित हो गया : “ये लोग बुरे नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के लिए पैसे बचाना जानते हैं।” ऐसे लोग उन लोगों की तुलना में बहुत बेहतर हैं जो भेंटें बरबाद करते हैं, कम से कम उनके पास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक, और थोड़ी मानवीय भावना तो है। कुछ लोग अनजाने ही परमेश्वर के घर को सैकड़ों या हजारों डॉलर का नुकसान पहुँचा देते हैं, यहाँ तक कि वे कहते हैं कि यह उनकी चिंता का विषय नहीं है, उनका दिल उन्हें थोड़ी भी उलाहना नहीं देता। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “आठ-दस डॉलर बचाना भी सार्थक है। हमें उन चीजों पर बेवजह पैसे खर्च नहीं करने चाहिए जिन्हें हम खुद ठीक कर सकते हैं। जहाँ बचा सकते हैं, हमें वहाँ बचाना चाहिए। ऐसे पैसे नहीं खर्च करने चाहिए जिन्हें खर्च करने की जरूरत नहीं है। हमारे लिए थोड़ी कठिनाई और मेहनत सहना सही है।” केवल वही लोग ऐसी बातें कह सकते हैं, जो अंतरात्मा और विवेक वाले लोग हैं, जिनमें सामान्य मानवता है, और जो वास्तव में परमेश्वर के घर की तरफ हैं। ये लोग परमेश्वर के घर को सही मायने में “हमारा परिवार” कह सकते हैं क्योंकि वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के घर के हितों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते। क्या ऐसा है कि वे ऐसे विचार कर पाने में असमर्थ हैं? जब बात उनके अपने जीवन की आती है, तो वे बेहद मितव्ययी होते हैं, एक-एक पैसे पर कंजूसी करते हैं, हमेशा सबसे सस्ती और सबसे व्यावहारिक चीजें खरीदना चाहते हैं, जहाँ भी संभव हो बचत करते हैं, यहाँ तक कि कीमतों पर मोल-तोल भी करते हैं, सावधानीपूर्वक हिसाब-किताब करते हैं, जाहिर तौर पर अपने जीवन का प्रबंधन करने में वे माहिर होते हैं। लेकिन जब परमेश्वर के घर के लिए काम करने की बात आती है, तो वे इस तरह से काम नहीं करते। परमेश्वर के घर के पैसे का उपयोग करते समय वे बेतहाशा खर्च करते हैं, अपनी मर्जी से जैसे चाहे खर्च करते हैं, मानो इसे खर्च न करना बरबादी होगी। क्या यह बेहद बुरे चरित्र का संकेत नहीं है? ऐसे लोग बेहद स्वार्थी होते हैं, परमेश्वर के घर के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते, केवल खुद को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं। वे स्वर्ग के राज्य का फायदा उठाने और कम से कम कीमत पर बड़े आशीष प्राप्त करने की उम्मीद करते हैं। ऐसे स्वार्थी और नीच लोग अभी भी ऐसी महान महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पालते हैं; यह उनके नैतिक चरित्र में गंभीर कमी को दर्शाता है!
क्या अब हमने अपनी संगति में मूल रूप से मसीह-विरोधियों की इस अभिव्यक्ति को पूरी तरह से समाविष्ट कर लिया है, कि वे कुटिलता से व्यवहार करते हैं और स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं? (हाँ।) तो चलो इसे सारांशित करते हैं। मसीह-विरोधियों का कुटिलता से काम करना, और उनका स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, दो अलग-अलग लेकिन समान रूप से महत्वपूर्ण और समवर्ती व्यवहार हैं जो उनके बीच आम होते हैं। यह अभिव्यक्ति मसीह-विरोधियों के दो प्राथमिक स्वभावों को उजागर करती है—दुष्टता और क्रूरता; वे दुष्ट और क्रूर दोनों होते हैं। कभी-कभी तुम उनका क्रूर पक्ष नहीं देख पाते, लेकिन तुम उनका दुष्ट पक्ष देख सकते हो। वे नरमी से काम कर सकते हैं, जिससे उनके किसी भी प्रतिरोधी या बर्बर व्यवहार को देखना मुश्किल हो जाता है। वे बाहर से उग्र नहीं दिखते, न ही वे तुम्हें कुछ करने के लिए मजबूर करते हैं, लेकिन वे तुम्हें अन्य दुष्ट तरीकों से फँसाते हैं, तुम्हें अपने नियंत्रण में रखते हैं, तुम्हें उनके उद्देश्य पूरे करने के लिए मजबूर करते हैं—और इस तरह तुम उनके द्वारा शोषित होते हो। अनजाने में तुम उनके जाल में फँस जाते हो, स्वेच्छा से उनकी हेराफेरी और खिलवाड़ के आगे झुक जाते हो। वे ऐसे परिणाम क्यों ला पाते हैं? मसीह-विरोधी अक्सर तुम्हें निर्देश देने और प्रभावित करने के लिए सही कथनों और कहावतों का उपयोग करते हैं, तुम्हें कुछ चीजें करने के लिए उकसाते हैं, तुम्हें यह महसूस कराते हैं कि वे जो कुछ भी कहते हैं वह सही है, कि तुम्हें इसे कार्यान्वित करना चाहिए और तुम्हें इसे इसी तरह से करना चाहिए, अन्यथा तुम्हें लगेगा कि तुम सत्य के विरुद्ध जा रहे हो, तुम्हें लगेगा कि उनकी अवज्ञा करना परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना है। ऐसा करने में तुम स्वेच्छा से उनकी आज्ञा का पालन करते हो। इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? भले ही लोग उनके शब्दों का पालन करें और जो वे कहते हैं उसका अभ्यास करें, क्या वे सत्य को समझते हैं? क्या परमेश्वर के साथ उनका संबंध लगातार करीबी हो रहा है या इसमें दूरी आती जा रही है? परिस्थितियों का सामना करने पर, लोग न केवल परमेश्वर के सामने आने और उससे प्रार्थना करने में विफल रहते हैं, बल्कि यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों की तलाश कैसे करें, न ही जानते हैं कि परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को कैसे समझें। इसके बजाय वे एक अविश्वसनीय बयान देते हैं : “मैंने इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, मुख्य रूप से समर्थन और पोषण के लिए अगुआओं पर निर्भर रहा हूँ। चाहे कुछ भी हो, जब तक अगुआ संगति देते हैं, तब तक आगे बढ़ने का रास्ता है। अगुआओं के बिना काम चल ही नहीं सकता।” वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं और उनका आध्यात्मिक कद बस इतना ही है, अब भी वे अगुआओं के बिना काम करने में असमर्थ हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? यहाँ निहितार्थ क्या है? निहितार्थ यह है कि वे नहीं जानते कि परमेश्वर के आगे प्रार्थना कैसे करें, परमेश्वर पर निर्भर कैसे रहें, परमेश्वर की ओर कैसे देखें, या परमेश्वर के वचनों को कैसे खाएँ और पिएँ। इन सभी बातों को समझने के लिए अगुआओं द्वारा उनका समर्थन किया जाना चाहिए; अगुआ उस परमेश्वर की जगह ले सकता है जिस पर वे विश्वास करते हैं। यह कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति का परमेश्वर में विश्वास वास्तव में उनके अगुआओं में विश्वास है। वे अगुआओं की हर बात सुनते हैं, और जो कुछ भी वे कहते हैं उस पर विश्वास करते हैं। वे सचमुच किस पर विश्वास कर रहे हैं, अनुसरण कर रहे हैं और किसकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं—परमेश्वर की या अगुआओं की? क्या यह धार्मिक लोगों की तरह नहीं है जो नाममात्र के लिए प्रभु में विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तव में अपने पादरियों पर विश्वास करते हैं, उनका अनुसरण करते हैं और उन पर भरोसा करते हैं? क्या उसे मनुष्यों द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा रहा है? तुम सभी मामलों में अगुआओं की आराधना करते हो, उनकी बात सुनते हो। यह मनुष्यों पर विश्वास करना और उनका अनुसरण करना है, लोगों द्वारा बेबस और नियंत्रित होना है। परमेश्वर ने इतना स्पष्ट रूप से कहा है और फिर भी तुम उसके वचन नहीं समझ पाते, न ही तुम जानते हो कि उनका अभ्यास कैसे करना है, लेकिन तुम राक्षसों और शैतानों के कुछ शब्द बोलते ही उन्हें समझ जाते हो? तुम वास्तव में क्या समझते हो? कभी-कभी तुम किसी विनियम या धर्म-सिद्धांत को समझ लेते हो—क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? (नहीं।) यह सत्य समझना नहीं है; यह गुमराह होना है। यह बिल्कुल ऐसा ही है।
मसीह-विरोधियों के कुटिलता से व्यवहार करने और स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने की अभिव्यक्ति में, उनके प्राथमिक स्वभाव दुष्टता और क्रूरता के होते हैं। उनकी दुष्टता कहाँ अभिव्यक्त होती है? यह उनके कुटिल व्यवहार में प्रकट होती है। और उनकी क्रूरता कहाँ प्रकट होती है? (स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने में।) यह मुख्य रूप से उनके स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने में, और दूसरों को अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिए मजबूर करने में प्रकट होती है; उनका मजबूर करना एक क्रूर स्वभाव को दर्शाता है। परमेश्वर चाहता है कि लोग उसके और सत्य के प्रति समर्पित हों। परमेश्वर के काम करने का तरीका क्या है? परमेश्वर अपने वचनों को व्यक्त करने के बाद लोगों से कहता है कि परमेश्वर में विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित हों। तुम इस सत्य को जानते हो, जानते हो कि यह वाक्यांश सही है, लेकिन इस बारे में कि क्या तुम समर्पित होते हो और तुम कैसे समर्पित होते हो, परमेश्वर का रवैया क्या होता है? तुम्हारे पास स्वतंत्र इच्छा है, चुनने का अधिकार है। यदि तुम समर्पित होना चाहते हो, तो तुम समर्पित हो जाओ; यदि तुम समर्पित नहीं होना चाहते, तो मत होओ। हालाँकि, समर्पित न होने के क्या परिणाम हो सकते हैं? परमेश्वर लोगों में क्या पड़ताल करता है, और उनके बारे में उसके निष्कर्ष क्या हैं? इन मामलों में परमेश्वर कुछ भी अतिरिक्त नहीं करता। वह तुम्हें चेतावनी नहीं देता, तुम्हें धमकाता नहीं, या तुम्हें मजबूर नहीं करता, तुम्हें कीमत चुकाने या सजा देने के लिए मजबूर नहीं करता। परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों को बचा रहा होता है, उस अवधि के दौरान जब वह मनुष्यों के पोषण के लिए वचन व्यक्त कर रहा होता है, परमेश्वर लोगों को गलतियाँ करने, गलत रास्ता अपनाने, और लोगों को अपने विरुद्ध विद्रोह करने और मूर्खतापूर्ण कार्य करने देता है। लेकिन अपने वचनों और अपनी कुछ कार्य विधियों के माध्यम से, परमेश्वर धीरे-धीरे लोगों को यह समझने देता है कि उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, सत्य क्या है, और क्या सही है और क्या गलत है—उदाहरण के लिए, काट-छाँट, ताड़ना और अनुशासन के जरिए और प्रोत्साहन के माध्यम से भी। कभी-कभी वह तुम्हें कुछ अनुग्रह देता है, तुम्हें आंतरिक रूप से प्रेरित करता है, या तुम्हें कुछ रोशनी और प्रबोधन देता है, जिससे तुम्हें पता चलता है कि क्या सही है और क्या गलत है, परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में क्या हैं, मनुष्य को कौन-सी स्थिति अपनानी चाहिए, और लोगों को क्या अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें समझाते हुए वह तुम्हें एक विकल्प भी देता है। यदि तुम कहते हो, “मैं विद्रोही हो जाऊँगा, मैं हठधर्मी हो जाऊँगा, मैं सही चीज का चुनाव नहीं करना चाहता, मैं वफादार नहीं होना चाहता, मैं बस इसी तरह कार्य करना चाहता हूँ!” तो अंततः तुम अपने गंतव्य और परिणाम के लिए स्वयं जिम्मेदार हो। तुम्हें अपने कार्यों की जिम्मेदारी लेनी होगी और कीमत चुकानी होगी; परमेश्वर इस संबंध में कुछ नहीं करता। परमेश्वर निष्पक्ष और धार्मिक रहता है। यदि तुम उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते हो और ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पित है, या इसके विपरीत यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते और ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पित है, तो दोनों ही मामलों में तुम्हारा गंतव्य जो होगा, परमेश्वर ने उसे बहुत पहले ही निर्धारित कर दिया है। परमेश्वर को कुछ अतिरिक्त करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि यदि तुम आज परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते, तो वह तुम्हें अनुशासित करेगा, ताड़ना देगा, या दंड देगा, तुम पर विपत्तियाँ लाएगा—परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह लोगों से समर्पण की अपेक्षा करता है ताकि वे समर्पण के बारे में सत्य समझ सकें; इसमें “मजबूरी” का कोई तत्व नहीं है। परमेश्वर लोगों को समर्पण करने या सत्य के इस पहलू का अभ्यास करने के लिए बाध्य नहीं करता। इसलिए परमेश्वर के तरीके में, चाहे वह लोगों को आयोजित करे, उनके भाग्य पर शासन करे, उनकी अगुआई करे, या उन्हें सत्य प्रदान करे, इन कार्यों का आधार मजबूरी पर आधारित नहीं है, न ही यह अनिवार्यता है। यदि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम धीरे-धीरे सत्य को अधिक से अधिक समझते जाओगे, और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी स्थिति में सुधार होता जाएगा—तुम एक अच्छी स्थिति बनाए रखोगे, और परमेश्वर तुम्हें दैनिक जीवन के उन पहलुओं में भी प्रबुद्ध करेगा जिन्हें तुम नहीं समझते। हालाँकि, यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होते, और सत्य का अनुसरण करने के अनिच्छुक हो, तो तुम जो प्राप्त करोगे वह बहुत सीमित होगा। इन दोनों के बीच यही स्पष्ट अंतर है। परमेश्वर पक्षपात नहीं करता; वह सभी के प्रति निष्पक्ष रहता है। कुछ लोग कहते हैं : “यदि बस परमेश्वर मुझे मजबूर कर दे तो क्या मैं अभ्यास नहीं करूँगा?” परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता; यह काम शैतान करता है। परमेश्वर इस तरह से काम नहीं करता। यदि तुम केवल मजबूर होने पर ही परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हो, तो इससे तुम क्या बन जाते हो? क्या तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो? यह उस प्रकार का समर्पण नहीं है जिसकी परमेश्वर इच्छा रखता है। परमेश्वर जिस समर्पण की बात करता है वह ऐसा है जहाँ सत्य को समझने के आधार पर एक व्यक्ति अंतरात्मा और विवेक से स्वेच्छा से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करता है। समर्पण का यही अंतर्निहित अर्थ है। इसमें किसी तरह की मजबूरी, प्रतिबंध, धमकी या किसी तरह का बंधन या नियंत्रण शामिल नहीं होता। इसलिए, जब तुम किसी मामले में विशेष रूप से बँधे हुए या बेबस महसूस करते हो, तो यह निश्चित रूप से परमेश्वर का काम नहीं है। एक तरफ यह मानवीय विचारों या विकृत समझ और खुद पर लगाए गए प्रतिबंधों से उत्पन्न हो सकता है। दूसरी तरफ, यह कोई और हो सकता है जो तुम्हें बेबस करने की कोशिश कर रहा हो, तुम्हें बेबस करने के लिए विनियमों या कुछ सही लगने वाले तर्क या सिद्धांत का उपयोग कर रहा हो, जिससे तुम्हारी सोच में कुछ विकृतियाँ विकसित हो रही हों। यह तुम्हारी समझ में समस्या की ओर इशारा करता है। यदि तुम स्वेच्छा से और खुशी से परमेश्वर के प्रति समर्पित महसूस करते हो, तो यह पवित्र आत्मा के कार्य से और सच्ची मानवता, अंतरात्मा और विवेक से भी आता है।
परमेश्वर के घर में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सत्य के प्रति समर्पित नहीं होते, परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं होते, और कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं होते। परमेश्वर का घर इसे कैसे सँभालता है? क्या इसे हल करने के लिए बलपूर्वक कार्यान्वयन के कोई तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं? उदाहरण के लिए, यदि कोई अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता, कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार काम नहीं करता, और सत्य का अभ्यास नहीं करता, या वास्तविक कार्य नहीं कर सकता, तो परमेश्वर का घर इसे कैसे सँभालता है? (परमेश्वर का घर उन्हें बदल देता है।) उन्हें सीधे बदल दिया जाता है, लेकिन क्या उन्हें निष्कासित किया जाता है? (नहीं।) जिन्होंने बुराई नहीं की है उन्हें निष्कासित नहीं किया जाता। साधारण भाई-बहनों के मामले में, यदि उन्हें एक निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए नियुक्त किया जाता है और वे मना कर देते हैं, तो क्या इसे समर्पण न करना माना जाता है? यदि वे नहीं जाते, तो किसी और को खोजा जा सकता है; क्या किसी को कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर किया जाएगा? (नहीं।) कोई जबरदस्ती नहीं होती है। यदि सत्य की संगति के माध्यम से वे स्वीकार करने और समर्पण करने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो ठीक है। इसे जबरदस्ती नहीं माना जाता; यह उनकी व्यक्तिगत सहमति और इच्छा की स्थिति में इस कर्तव्य को निभाने के लिए व्यवस्था करना है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को खाना बनाना पसंद है, लेकिन उन्हें सफाई करने के लिए नियुक्त किया जाता है, और वे कहते हैं, “अगर मुझे सफाई करने के लिए कहा जाता है, तो मैं सफाई करूँगा। मैं परमेश्वर के घर की व्यवस्था के लिए समर्पित हूँ।” क्या यहाँ कोई जबरदस्ती है? क्या इसमें किसी की इच्छा के विरुद्ध कोई जबरदस्ती है? (नहीं।) यह उनकी इच्छा और समर्पण के साथ व्यवस्थित किया जाता है, इसमें किसी को भी मुश्किल स्थिति में नहीं डाला जाता या किसी को कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता। ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहाँ किसी कर्तव्य के लिए अस्थायी रूप से कोई नहीं मिल पाता, और तुम्हें अस्थायी रूप से उस जगह को भरने के लिए व्यवस्थित किया जाता है; हो सकता है कि तुम व्यक्तिगत रूप से इच्छुक न हो, लेकिन यह कार्य के लिए अनिवार्य होता है, यह एक विशेष मामला है। तुम परमेश्वर के घर के सदस्य हो, तुम परमेश्वर के घर से भोजन प्राप्त करते हो और वहाँ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हो—चूँकि तुम खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार करते हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है और उसका अनुसरण करता है, तो क्या तुम इस छोटे से मामले में अपने देहसुख के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकते? इसे तो वास्तव में समर्पण या कठिनाई के रूप में भी नहीं गिना जाता; यह केवल अस्थायी होता है, तुमसे इस कर्तव्य को दीर्घकालिक रूप से निभाने के लिए नहीं कहा जाता। कुछ लोग शिकायत करते हैं कि उन्हें जो काम करने के लिए कहा जाता है वह गंदा और थकाऊ है, और वे इसे करने के लिए तैयार नहीं होते। यदि वे इस मामले को उठाते हैं, तो उन्हें तुरंत दूसरी जगह नियुक्त किया जाना चाहिए। हालाँकि, यदि वे केवल मौखिक रूप से ऐसा जता रहे हैं, लेकिन वास्तव में समर्पण करने और कष्ट सहने के लिए तैयार हैं, तो उन्हें अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहिए। क्या यह दृष्टिकोण उचित है? (हाँ।) क्या यह सिद्धांत सही है? (हाँ।) परमेश्वर का घर लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध बिल्कुल भी मजबूर नहीं करता। एक और स्थिति होती है जिसमें कुछ लोग, चाहे वे कोई भी कर्तव्य क्यों न निभाएँ, आलसी, गैर-जिम्मेदार होते हैं और उनमें निष्ठा की कमी होती है। कभी-कभी वे गुप्त रूप से बुरे काम भी करते हैं। जब वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, तो बहाने बनाते हैं, दावा करते हैं कि यह कर्तव्य उनके लिए उपयुक्त नहीं है, वह उनका मजबूत पक्ष नहीं है, या वे संबंधित क्षेत्र को नहीं समझते। लेकिन वास्तव में हर कोई स्पष्ट रूप से देख रहा होता है कि उनके बेहतर प्रदर्शन करने में नाकाम रहना इन कारणों से नहीं है। ऐसे लोगों को कैसे सँभाला जाना चाहिए? यदि वे कहीं और कोई और कर्तव्य निभाने का अनुरोध करते हैं, तो क्या इसे मान लेना चाहिए? (नहीं।) तो फिर क्या किया जाना चाहिए? ऐसे लोग कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं; वे अनिच्छा से और उचित रवैये के बिना ऐसा करते हैं, इसलिए उन्हें चलता कर देना चाहिए। एक और तरह का व्यक्ति होता है जो कर्तव्य निभाने के लिए कहे जाते ही जिद्दी और प्रतिरोधी हो जाता है। वह बेहद अनिच्छुक और निरुत्सुक होता है, मुश्किल से ही अपने असंतोष को दबा पाता है, यह सोचकर कि, “मैं यहाँ चुपचाप पड़ा रहूँगा और कुछ सालों तक किसी तरह गुजारा करूँगा, कौन जाने कि उसके बाद मैं कहाँ पहुँच जाऊँ!” ऐसे इरादों वाले लोगों को कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, और यदि वे अन्य कर्तव्य निभाना भी चाहें, तो भी इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए। ऐसे मामलों को बलपूर्वक सँभाला जाना चाहिए। ऐसा क्यों? क्योंकि उनका सार पता चल जाता है—जो लोग उन्हें समझते हैं वे कहते हैं कि वे छद्म-विश्वासी हैं; उनके आसपास के लोग भी कहते हैं कि वे कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं, और उन्हें दूर कर देना चाहिए। यदि नहीं, तो वे केवल गड़बड़ियाँ ही पैदा कर सकते हैं, गलत काम कर सकते हैं, और कलीसिया के अंदर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचा सकते हैं, जो पूरी तरह से अस्वीकार्य है। ऐसे मामलों को कलीसिया में कर्तव्यों का पालन करने वालों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों के अनुसार सँभाला जाना चाहिए; उनकी अनिच्छा कोई कारक नहीं होती। क्या यह जबरदस्ती है? यह जबरदस्ती नहीं है; यह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है, परमेश्वर के घर के हितों और कार्य को बनाए रखना है। यह छद्म-विश्वासियों और उन लोगों को दूर करने के बारे में है जो परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी के लिए मौजूद हैं। यदि तुम मुफ्तखोरी करना चाहते हो, तो कहीं और करो, यहाँ नहीं। परमेश्वर का घर एक सेवानिवृत्ति गृह नहीं है; यह आवारा लोगों को आसरा नहीं देता। समझे?
कुछ मसीह-विरोधी ऐसे भी होते हैं जो खुद को बहुत अच्छी तरह से छिपा लेते हैं, जब वे कुछ देखते हैं तो बिना कुछ बोले बस मुस्कुराते रहते हैं, कई मामलों पर चुप्पी बनाए रखते हैं, गहराई होने का दिखावा करते हैं और कोई रुख नहीं जताते। जब तुम पहली बार उनके संपर्क में आते हो, तो उनकी असलियत जान पाना आसान नहीं होता; तुम्हें यह भी लग सकता है कि वे बहुत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं। तुम ऐसे मसीह-विरोधी लोगों को कैसे पहचानते हो? तुम्हें ध्यान से देखना चाहिए और जाँच-परख करनी चाहिए कि उन्हें वास्तव में क्या पसंद है, वे किस पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उन्हें किसमें दिलचस्पी है और वे किसके साथ बातचीत करते हैं। इन पहलुओं की जाँच-परख करके तुम उनके बारे में समझ हासिल कर सकते हो। इसके अतिरिक्त, एक बात और है जिसके बारे में तुम सभी लोगों को पता होना चाहिए : किसी अगुआ या कार्यकर्ता का कोई भी स्तर हो, अगर तुम लोग सत्य की समझ और कुछ गुणों के लिए उनकी आराधना करते हो और मानते हो कि उनके पास सत्य वास्तविकता है और वे तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अगर तुम सभी चीजों में उनकी ओर देखते हो और उन पर निर्भर रहते हो, और इसके माध्यम से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करते हो, तो तुम मूर्ख और अज्ञानी हो। अंत में इन सबका कोई फल नहीं निकलेगा, क्योंकि तुम्हारा प्रस्थान-बिंदु ही अंतर्निहित रूप से गलत है। कोई कितने भी सत्य समझता हो, वह मसीह का स्थान नहीं ले सकता, और चाहे कोई कितना भी प्रतिभाशाली हो, इसका मतलब यह नहीं है कि उसके पास सत्य है—तो जो भी उनकी आराधना करता है, उनकी ओर देखता है और उनका अनुसरण करता है, वह अंततः हटा दिया जाएगा, और उसकी निंदा की जाएगी। परमेश्वर में विश्वास करने वाले केवल परमेश्वर की ओर ही देख सकते हैं और उसका ही अनुसरण कर सकते हैं। अगुआ और कार्यकर्ता, चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों, फिर भी आम लोग ही होते हैं। अगर तुम उन्हें अपना निकटतम वरिष्ठ समझते हो, अगर तुम्हें लगता है कि वे तुमसे श्रेष्ठ हैं, तुमसे ज़्यादा सक्षम हैं, उन्हें तुम्हारी अगुआई करनी चाहिए, वे हर तरह से बाकी सबसे बेहतर हैं, तो तुम गलत हो—यह एक भ्रम है। और इस भ्रम के तुम पर क्या परिणाम होंगे? यह तुम्हें अनजाने ही अपने अगुआओं को उन अपेक्षाओं के बरक्स मापने के लिए प्रेरित करेगा जो वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं; और तुम्हें उनकी समस्याओं और कमियों से सही तरह से पेश आने में असमर्थ बना देगा, साथ ही, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उनके हुनर, खूबियों और क्षमताओं की ओर गहराई से आकर्षित भी होने लगोगे, इस हद तक कि तुम्हें पता भी न चलेगा और तुम उनकी आराधना कर रहे होगे, और वे तुम्हारे परमेश्वर बन जाएँगे। वह मार्ग, जबसे वे तुम्हारे आदर्श और तुम्हारी आराधना के पात्र बनना शुरू होते हैं, तबसे उस समय तक जब तुम उनके अनुयायियों में से एक बन जाते हो, तुम्हें अनजाने ही परमेश्वर से दूर ले जाने वाला मार्ग होगा। धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर जाते हुए भी, तुम यह विश्वास करोगे कि तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, तुम परमेश्वर के घर में हो, तुम परमेश्वर की उपस्थिति में हो, जबकि वास्तव में, तुम्हें शैतान के नौकरों, मसीह-विरोधियों ने उससे दूर कर दिया होगा। तुम्हें इसका पता भी नहीं चलेगा। यह एक बहुत खतरनाक स्थिति है। यह समस्या हल करने के लिए आंशिक रूप से मसीह-विरोधियों की प्रकृति सार समझने की क्षमता चाहिए, और मसीह-विरोधियों के सत्य से घृणा करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले कुरूप चेहरे की असलियत देखने में क्षमता होना आवश्यक है; और साथ ही मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को गुमराह करने और फँसाने के लिए आम तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकों को जानना, और साथ ही उनके काम करने के तरीके से परिचित होना आवश्यक है। दूसरा भाग यह है कि तुम लोगों को परमेश्वर के स्वभाव और सार के ज्ञान का अनुसरण करना चाहिए। तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि केवल मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है, कि किसी व्यक्ति की आराधना करने से तुम पर विपत्ति और दुर्भाग्य ही आएगा। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि केवल मसीह ही लोगों को बचा सकता है, और तुम्हें पूरी आस्था के साथ मसीह का अनुसरण और उसके आगे समर्पण करना चाहिए। केवल यही मानव जीवन का सही मार्ग है। कोई कह सकता है : “हाँ, मेरे अपने दिल में अगुआओं की आराधना करने के अपने कारण हैं, मैं हर प्रतिभावान व्यक्ति की स्वाभाविक रूप से आराधना करता हूँ। मैं हर उस अगुआ की आराधना करता हूँ जो मेरी धारणाओं के अनुरूप है।” तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हुए भी मनुष्य की आराधना करने पर क्यों तुले हुए हो? ये सब कुछ हो जाने के बाद, तुम्हें कौन बचाएगा? कौन है जो सचमुच तुम से प्रेम करता है और तुम्हारी रक्षा करता है—क्या तुम सचमुच नहीं देख पाते? अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तो तुम्हें उसके वचन पर ध्यान देना चाहिए, और अगर कोई सही तरीके से बोलता है और कार्य करता है, और यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, तो बस सत्य के प्रति समर्पित हो जाओ—क्या यह इतना सरल नहीं है? तुम इतने नीच क्यों हो? अनुसरण के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करने की जिद पर क्यों अड़े रहते हो जिसकी तुम आराधना करते हो? तुम शैतान के गुलाम क्यों बनना चाहते हो? इसके बजाय, तुम सत्य के सेवक क्यों नहीं बनते? इसमें यह देखा जाता है कि किसी व्यक्ति में समझ-बूझ और गरिमा है या नहीं। तुम्हें खुद से शुरू करना चाहिए : खुद को सभी प्रकार के सत्यों से सुसज्जित करो, विभिन्न मामलों और लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के अलग-अलग तरीकों की पहचान करने में सक्षम बनो, जानो कि विभिन्न लोगों के व्यवहार की प्रकृति क्या है और वे किस प्रकार के स्वभाव दिखाते हैं, विभिन्न प्रकार के लोगों के सार को पहचानना सीखो, इस बारे में स्पष्ट रहो कि तुम्हारे आसपास किस तरह के लोग हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो, और तुम्हारा अगुआ किस तरह का व्यक्ति है। एक बार जब तुम यह सब स्पष्ट रूप से देख लोगे, तो तुम लोगों से सत्य सिद्धांतों के अनुसार सही तरीके से व्यवहार करने में सक्षम हो जाओगे : अगर वे भाई-बहन हैं तो तुम उनसे प्यार से पेश आओगे, और अगर वे भाई-बहन नहीं हैं बल्कि बुरे लोग हैं, मसीह-विरोधी हैं या छद्म-विश्वासी हैं, तो तुम उनसे दूरी बनाकर रखोगे और उन्हें त्याग दोगे। और अगर वे ऐसे लोग हैं जिनमें सत्य वास्तविकता है, तो भले ही तुम उनकी प्रशंसा करो, तुम उनकी आराधना नहीं करोगे। मसीह का स्थान कोई नहीं ले सकता; केवल मसीह ही व्यावहारिक परमेश्वर है। केवल मसीह ही लोगों को बचा सकता है, और केवल मसीह का अनुसरण करके ही तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर सकते हो। अगर तुम ये चीजें स्पष्ट रूप से देख सकते हो, तो तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है, और तुम्हारे मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जाने की आशंका नहीं है, और न ही तुम्हें इस बात से डरने की आवश्यकता है कि तुम मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जाओगे।
कुछ लोग जब कुछ मसीह-विरोधियों को बेनकाब होते और हटाए जाते देखते हैं तो चिंतित हो जाते हैं, और कहते हैं : “हालाँकि मसीह-विरोधी ऊपर से बुरे लोगों की तरह नहीं दिखते, लेकिन ऐसा क्यों होता है कि उनके किए गए कामों को समझने पर वे इतने बुरे निकलते हैं? ऐसा लगता है कि मसीह-विरोधी वास्तव में बहुत कुटिल होते हैं। लेकिन मेरी काबिलियत खराब है, और अगर मेरा सामना फिर से ऐसे मसीह-विरोधियों से हुआ, तो मुझे डर है कि मैं उन्हें पहचान नहीं पाऊँगा। मुझे मसीह-विरोधियों से बचाव कैसे करना चाहिए?” भले ही तुम्हारी काबिलियत खराब हो, तुम्हें हमेशा गुमराह होने की चिंता करने या हमेशा उनसे सावधान रहने के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है। तुम्हें बस सत्य को समझने पर ध्यान केंद्रित करने, परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ने और जब तुम्हारे पास समय हो, तो खुद से यह पूछते हुए मसीह-विरोधियों द्वारा किए गए बुरे कर्मों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि, “उनकी बुराई किसमें है? उन्हें ऐसा बुरा करने के लिए किसने प्रेरित किया? क्या साधारण लोग ऐसा बुरा कर सकते हैं? जो लोग सत्य समझते हैं वे उन्हें कैसे पहचानते हैं? मैं उन्हें कैसे पहचानूँ?” एक बार जब तुम परमेश्वर के वचनों के माध्यम से लोगों के सार को स्पष्ट रूप से देख लोगे, तो तुम्हें सब कुछ समझ आ जाएगा। जब तुम लगातार इन चीजों के बारे में सोचोगे, तो तुम अनजाने में ही पहचानना सीख जाओगे, और स्वाभाविक रूप से जब तुम फिर से लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे मसीह-विरोधियों का सामना करोगे, तो तुम उन्हें पहचान लोगे। इसके लिए कई अनुभवों से गुजरना पड़ता है; यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम सिर्फ और ज्यादा धर्मोपदेश सुनकर सीख सको। यह समाज में बहुत अधिक फायदा उठाए जाने या बहुत अधिक नुकसान उठाने के बाद अनुभव हासिल करने जैसा है—“मुसीबत में पड़ने के बाद ही अक्ल आती है।” यह विचार भी समान ही है। परमेश्वर में हमारे विश्वास में मुख्य बात सत्य को समझना है। जितना ज्यादा तुम सत्य समझोगे, उतनी ही ज्यादा चीजों की असलियत समझ पाओगे। अगर तुम कोई सत्य नहीं समझते, तो ज्ञान का होना भी बेकार ही होता है। सिर्फ ज्ञान से ही तुम किसी भी चीज की असलियत नहीं जान सकते; तुम्हारे विचार धर्मनिरपेक्ष लोगों के विचारों जैसे ही होंगे, और तुम जिस पर भी टिप्पणी करोगे, वह बकवास और भ्रांतियाँ होंगी। अगर तुम अभी कुछ लोगों को नहीं समझ पा रहे हो, तो चिंता न करो। एक बार जब तुम सत्य समझ लोगे, तो तुम स्वाभाविक रूप से विवेक हासिल कर लोगे। अभी के लिए, बस अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान दो, परमेश्वर के वचनों को अधिक से अधिक खाओ-पियो, और सत्य पर अधिक से अधिक विचार करो। जब वह दिन आएगा कि तुम सत्य समझ जाओगे, तो तुम लोगों को पहचानने में सक्षम हो जाओगे। किसी के व्यवहार को देखकर ही तुम अपने दिल में जान जाओगे कि उनका मामला क्या है; किसी मुद्दे पर किसी की रिपोर्ट सुनते ही तुम मुद्दे के सार को समझ जाओगे; और किसी के विचारों और दृष्टिकोणों को सुनते ही तुम उसके आध्यात्मिक कद को जान जाओगे। बिना अधिक प्रयास के तुम किसी भी मामले या व्यक्ति के बारे में सब कुछ समझ लोगे—यह सत्य समझने का परिणाम होता है। हालाँकि, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि अपनी कल्पना पर भरोसा करते हुए लोगों का आकलन करते, उनकी आराधना करते, उन पर निर्भर रहते और आँख मूँदकर उनकी चापलूसी करते हो, और अगर तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर नहीं चलते, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? कोई भी तुम्हें गुमराह कर सकता है; तुम किसी की भी असलियत नहीं समझ पाओगे, यहाँ तक कि सबसे स्पष्ट मसीह-विरोधी की भी नहीं। वे तुम्हें मूर्ख बनाएँगे, और तुम फिर भी उनकी योग्यता की प्रशंसा करोगे, हर दिन उनके चक्कर काटोगे। तब तुम वास्तव में भ्रमित होते हो, और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि तुम एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करते हो, व्यावहारिक परमेश्वर में नहीं, और तुम निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करता है।
कुछ लोग मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में कई धर्मोपदेश सुनने के बाद भी उन्हें पहचान नहीं पाते। वे केवल पहचानने के कुछ तरीकों को ही समझते हैं, लेकिन उनमें व्यावहारिक अनुभव की कमी होती है। जब उनका सामना वास्तव में मसीह-विरोधियों के बुरे कर्मों से होता है, तो वे उन्हें फिर से पहचानने में विफल हो जाते हैं। हालाँकि वे धर्मोपदेशों को सुनने के बाद मसीह-विरोधियों को नहीं पहचान पाते, लेकिन जो कुछ उन्होंने सुना है, उससे वे खुद की तुलना करते हैं और धीरे-धीरे महसूस करने लगते हैं कि वे मसीह-विरोधी जैसे हैं। अंततः वे यह मानने लगते हैं कि वे स्वयं मसीह-विरोधी हैं। इस तरह की समझ में कुछ भी गलत नहीं है। वे मसीह-विरोधियों को पहचानने के विवरण से पूरी तरह अवगत हैं, लेकिन उनमें बस न्याय के सिद्धांतों की कमी होती है। यह कोई बड़ी समस्या नहीं है; यह दर्शाता है कि उनका धर्मोपदेशों को सुनना प्रभावी रहा है। हालाँकि उन्होंने असली मसीह-विरोधियों को नहीं पहचाना, लेकिन उन्होंने खुद को पहचान लिया है, जो एक अच्छी बात भी है। पहले वे खुद को बचाते हैं, और मसीह-विरोधी बनने से बचते हैं, जो मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले इन धर्मोपदेशों को सुनने का एक फलदायी परिणाम होता है। खुद को मसीह-विरोधी के रूप में पहचान पाना आसान नहीं है; ऐसी पहचान के लिए विस्तृत अवलोकन की जरूरत होती है, और मुझे लगता है कि यह पहले से ही विवेक होने के रूप में माना जाता है। खुद को अभी भी पहचान लेना अच्छी बात है; इसके लिए बहुत देर नहीं हुई है। यदि तुमने कोई बुराई की होती या बड़ी तबाही मचाई होती और फिर तुम्हें मसीह-विरोधी के रूप में पहचाना गया होता, तो बहुत देर हो चुकी होती। यदि तुम अभी पहचान सकते हो, तो अधिक से अधिक इसका मतलब है कि तुम मसीह-विरोधी के समान लक्षण प्रदर्शित करते हो, कि तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हो, और तुमने गलत मार्ग चुना है। यह तुम्हारे वर्तमान निर्णय की सीमा है। अभी भी रास्ता बदलने का समय है, लेकिन यदि तुम ऐसा करने का चुनाव नहीं करते तो यह खतरनाक है। मसीह-विरोधी को पहचानने के विषय पर कई बार संगति की जा चुकी है, और अब कुछ लोग वास्तव में पहचान सकते हैं। वे स्वयं द्वारा प्रकट किए गए मसीह-विरोधी स्वभावों को पहचान सकते हैं, जो एक परिणाम है और इससे साबित होता है कि उन्होंने विवेक प्राप्त कर लिया है। अगर वे इसके अतिरिक्त मसीह-विरोधी प्रकृति सार वाले लोगों और सिर्फ मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोगों के बीच अंतर भी कर पाएँ, तो वे पूरी तरह से विवेक में महारत हासिल कर चुके होंगे। यह कुछ ऐसा है जिसे जल्दी ही हासिल किया जा सकता है, इसलिए जल्दबाजी करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर लोग अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को पहचान सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं कि वे मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहे हैं या नहीं, और समझ सकते हैं कि मसीह-विरोधी का प्रकृति सार क्या है, तो वे पहले ही मसीह-विरोधी को पहचानना सीख चुके हैं। मसीह-विरोधी को पहचान पाना इस बात पर निर्भर नहीं है कि किसी व्यक्ति ने कितने सालों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, बल्कि इस पर निर्भर है कि कोई व्यक्ति सत्य के लिए प्रयास कर सकता है या नहीं और उसे समझ सकता है या नहीं। कुछ लोगों का कई साल से परमेश्वर पर विश्वास है और उन्होंने मसीह-विरोधी को उजागर करने के बारे में कई धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन उनके मसीह-विरोधी स्वभाव और अभिव्यक्तियाँ बिल्कुल भी नहीं बदली हैं। चाहे मैं सत्य पर कितनी भी संगति करूँ, वे अनभिज्ञ ही बने रहते हैं। वे उस समय संगति की विषयवस्तु से खुद को जोड़ सकते हैं, लेकिन जब कार्रवाई करने या अपने कर्तव्य करने की बात आती है, तो वे अपने पुराने तरीकों पर लौट जाते हैं। क्या यह ऐसे लोगों के लिए परेशानी भरा और खतरनाक नहीं है? यह बहुत खतरनाक है! चाहे मैं कैसे भी संगति करूँ, चाहे वे मेरी बात सुनते समय खुद को कितना भी दोषी या परेशान महसूस करें, वे बाद में बिल्कुल भी नहीं बदलते। वे इस बात पर आत्म-चिंतन नहीं करते कि वे हमेशा चापलूस और खुशामदी लोगों को क्यों बढ़ावा देते हैं और उन्हें विकसित करते हैं, न ही वे इस बात पर आत्म-चिंतन करते हैं कि वे दूसरों के साथ सिद्धांतों के आधार पर पेश न आकर उनसे अपनी मर्जी के अनुसार व्यवहार क्यों करते हैं। वे उन लोगों से घृणा नहीं करते जिन्हें वे पसंद करते हैं, भले ही वे बुरे या खराब हों, और उन्हें बढ़ावा देना और उनका इस्तेमाल करना जारी रखते हैं। इससे भी अधिक वे इस बात पर आत्म-चिंतन नहीं करते कि वे बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण क्यों नहीं करते और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर क्यों चल पड़े हैं। बिना किसी वास्तविक आत्म-चिंतन या बदलाव के इतनी सारी बुराई करना खतरनाक है। हाल की सभाओं में, मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार को उजागर करने के बारे में संगति की जाती रही है। मसीह-विरोधियों का स्वभाव आम तौर पर दिखने वाले भ्रष्ट स्वभावों की तुलना में अधिक छिपा हुआ और दुष्ट होता है। मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य से घृणा करते हैं, और सत्य या परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकते। तो फिर मसीह-विरोधियों का क्या परिणाम, क्या अंत होता है? उन्हें हटाया जाना तय है। परमेश्वर मसीह-विरोधियों का चित्रण किस तरह करता है? यह वे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं—वे परमेश्वर के शत्रु हैं! सत्य का विरोध करना, परमेश्वर से घृणा करना, और सभी सकारात्मक चीजों से घृणा करना—यह सामान्य लोगों में पाई जाने वाली क्षणिक कमजोरी या मूर्खता नहीं है, न ही यह गलत विचारों और दृष्टिकोणों का प्रकाशन है जो क्षण भर की विकृत समझ से उत्पन्न हो जाते हैं; यह समस्या नहीं है। समस्या यह है कि वे मसीह-विरोधी हैं, परमेश्वर के दुश्मन हैं, सभी सकारात्मक चीजों और सभी सत्य से घृणा करते हैं; वे ऐसे चरित्र हैं जो परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसका विरोध करते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को कैसे देखता है? परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता! ये लोग सत्य से घृणा और नफरत करते हैं, उनमें मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार होता है। क्या तुम लोग इसे समझते हो? यहाँ जो उजागर किया जा रहा है वह दुष्टता, क्रूरता और सत्य से नफरत है। यह भ्रष्ट स्वभावों में सबसे गंभीर शैतानी स्वभाव होते हैं, जो शैतान की सबसे विशिष्ट और ठोस विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, न कि सामान्य भ्रष्ट मानव जाति द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों का। मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण ताकत हैं। वे कलीसिया में बाधा डालकर उसे नियंत्रित कर सकते हैं, और उनके पास परमेश्वर के प्रबंधन कार्य का विघटन करने और उसमें गड़बड़ करने की क्षमता होती है। यह ऐसा कुछ नहीं है जो भ्रष्ट स्वभाव वाले सामान्य लोग कर पाएँ; केवल मसीह-विरोधी ही ऐसे कार्य करने में सक्षम हैं। इस मामले को कम मत समझो।
सभी बुरे लोगों में दुष्ट स्वभाव होते हैं। कुछ दुष्टता क्रूर स्वभावों के माध्यम से व्यक्त होती है, जैसे कि अक्सर भोले-भाले लोगों पर धौंस जमाना, उनके साथ व्यंग्यात्मक या ताने-भरे तरीके से व्यवहार करना, उन्हें हमेशा मजाक का पात्र बनाना और उनका फायदा उठाना। जब बुरे लोग किसी दूसरे बुरे व्यक्ति को देखते हैं तो बेहद सम्मान दिखाते हैं, लेकिन जब वे किसी कमजोर व्यक्ति को देखते हैं, तो वे उसे दबाते हैं और अपना रौब दिखाते हैं। ये बेहद क्रूर और दुष्ट लोग होते हैं। जो कोई भी ईसाइयों पर धौंस जमाता या उन पर अत्याचार करता है, वह इंसान के भेस में छिपा हुआ शैतान है; वह एक आत्मा विहीन जानवर है, और शैतान का पुनर्जन्म है। अगर दुष्ट लोगों के जमावड़े में ऐसे लोग हैं जो भोले-भाले लोगों पर धौंस नहीं जमाते, ईसाइयों के साथ क्रूरता नहीं करते, जो केवल उन लोगों पर अपना क्रोध निकालते हैं जो उनके स्वार्थ को नुकसान पहुँचाते हैं, तो ये लोग अविश्वासियों के बीच अच्छे लोग माने जाते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों की दुष्टता किस तरह भिन्न होती है? मसीह-विरोधियों की दुष्टता मुख्य रूप से प्रतिस्पर्धा के लिए उनके विशेष झुकाव में अभिव्यक्त होती है। वे स्वर्ग से होड़ करने, धरती से होड़ करने और दूसरे लोगों से होड़ करने की हिम्मत करते हैं। न केवल वे दूसरों को खुद पर धौंस नहीं जमाने देते, बल्कि वे दूसरों पर धौंस जमाते और उन्हें दंडित भी करते हैं। हर दिन वे सोच-विचार करते रहते हैं कि लोगों को कैसे दंडित किया जाए। अगर वे किसी से ईर्ष्या करते हैं या किसी से नफरत करते हैं, तो वे इसे कभी नहीं छोड़ेंगे। मसीह-विरोधी इस तरह से दुष्ट होते हैं। यह दुष्टता और कहाँ अभिव्यक्त होती है? यह उनके काम करने के कुटिल तरीके में देखी जा सकती है, जिसे थोड़े दिमाग वाले, थोड़े ज्ञान और थोड़े सामाजिक अनुभव वाले लोगों को पहचानने में कठिनता होती है। वे असाधारण रूप से कुटिल तरीके से काम करते हैं, और यह दुष्टता तक पहुँच जाता है; यह साधारण धोखेबाजी नहीं है। वे छिपकर खेल कर सकते हैं और चालें चल सकते हैं, और ज्यादातर लोगों की तुलना में वे ऐसा ऊँचे स्तर पर करते हैं। ज्यादातर लोग उनसे मुकाबला नहीं कर सकते और उनसे निपट नहीं सकते। यही मसीह-विरोधी है। मैं क्यों कहता हूँ कि आम लोग उनसे नहीं निपट सकते? क्योंकि उनकी दुष्टता इतनी चरम पर है कि उनके पास लोगों को गुमराह करने की बहुत बड़ी शक्ति है। वे लोगों से अपनी आराधना करवाने और अपना अनुसरण करवाने के लिए हर तरह के तरीके सोच सकते हैं। वे कलीसिया के काम में व्यवधान डालने और उसे नुकसान पहुँचाने के लिए सभी प्रकार के लोगों का शोषण भी कर सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर का घर बार-बार मसीह विरोधियों की हर तरह की अभिव्यक्ति, स्वभाव और सार पर संगति करता रहता है, ताकि लोग उन्हें पहचान सकें। यह आवश्यक है। कुछ लोग समझ नहीं पाते, और कहते हैं, “हमेशा मसीह-विरोधियों को पहचानने के तरीके पर संगति क्यों की जाती है?” क्योंकि मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करने में बहुत अधिक सक्षम हैं। वे कई लोगों को गुमराह कर सकते हैं, किसी प्राणघातक महामारी की तरह, जो अपने संक्रमण के माध्यम से एक ही प्रकोप में कई लोगों को नुकसान पहुँचा सकती है और मार सकती है; अत्यधिक संक्रामक और व्यापक होती है, और उसकी संक्रामकता और मृत्यु दर काफी अधिक होती है। क्या ये गंभीर परिणाम नहीं हैं? अगर मैं तुम लोगों के साथ इस तरह संगति न करूँ, तो क्या तुम लोग मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और बेबस किए जाने से बच सकते हो? क्या तुम लोग सचमुच परमेश्वर की ओर मुड़ सकते हो और उसके प्रति समर्पित हो सकते हो? यह बहुत मुश्किल है। जब साधारण लोग अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हैं, तो अधिक से अधिक यह दूसरों को उनके अहंकार की बदसूरत स्थिति को दिखाता है। कभी-कभी वे शेखी बघारते हैं, कभी-कभी वे इतराते हैं, दिखावा करते हैं और कभी-कभी वे अपने रुतबे की धौंस जमाकर दूसरों को उपदेश देना पसंद करते हैं। लेकिन क्या मसीह-विरोधियों के साथ भी ऐसा ही होता है? ऊपर से, वे अपने रुतबे का दिखावा करते या उसे पसंद करते न दिखें, वे कभी भी रुतबे में दिलचस्पी लेते न दिखें, लेकिन अंदर ही अंदर उनमें इसकी प्रबल इच्छा होती है। यह कुछ सम्राटों या अविश्वासियों के डाकू सरदारों की तरह होता है : अपनी भूमि के लिए लड़ते समय वे मिलकर अपने साथियों के साथ कष्ट सहते हैं, विनम्र और महत्वाकांक्षाहीन दिखाई देते हैं। लेकिन क्या तुमने उनके दिलों की गहराई में छिपी इच्छाओं को देखा है? वे ऐसे कष्ट क्यों सह पाते हैं? ये उनकी इच्छाएँ हैं जो उन्हें मजबूत बनाती हैं। वे अंदर ही अंदर एक बड़ी महत्वाकांक्षा रखते हैं, कोई भी पीड़ा सहने या किसी भी बदनामी, मानहानि, अपराध और अपमान को सहने के लिए तैयार रहते हैं ताकि वे एक दिन सिंहासन पर बैठ सकें। क्या यह कुटिलता नहीं है? क्या वे किसी को अपनी इस महत्वाकांक्षा के बारे में बता सकते हैं? (नहीं।) वे इसे छिपाते हैं और इसे गुप्त रखते हैं। ऊपर-ऊपर जो दिखाई देता है वह एक ऐसा व्यक्ति होता है जो उसे झेल सकता है जो दूसरे नहीं झेल सकते, जो असहनीय कष्टों को सहन कर सकता है, जो दृढ़ निश्चयी, महत्वाकांक्षाहीन, विनम्र और अपने आसपास के लोगों के लिए अच्छा दिखाई देता है। लेकिन जिस दिन वह सिंहासन पर चढ़ता है और वास्तविक शक्ति प्राप्त करता है, अपने अधिकार को मजबूत करने और उसे हड़पे जाने से रोकने के लिए वह उन सभी को मार देता है जिन्होंने उसके साथ कष्ट सहे थे और लड़ाई लड़ी थी। जब सत्य सामने आता है, तभी लोगों को एहसास होता है कि वे कितने चालाक हैं। जब तुम पीछे मुड़कर देखते हो और पाते हो कि उन्होंने जो कुछ भी किया वह महत्वाकांक्षा से प्रेरित था, तो तुम्हें पता चलता है कि उनका स्वभाव दुष्टता का था। यह कौन सी चाल थी? यह कुटिलता थी। यह मसीह-विरोधियों के काम करने का स्वभाव होता है। मसीह-विरोधी और आधिकारिक शक्ति का उपयोग करने वाले शैतान राजा एक ही तरह के होते हैं; अगर उन्हें शक्ति और रुतबा न मिले तो वे कलीसिया में बिना किसी कारण कष्ट नहीं झेलेंगे और कष्ट सहन नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, ये लोग साधारण अनुयायी होने, परमेश्वर के घर में परमेश्वर के सामान्य उपासकों के रूप में रहने या चुपचाप और गुमनाम ढंग से कुछ कर्तव्य करने से बिल्कुल संतुष्ट नहीं होते; वे निश्चित रूप से ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होंगे। यदि किसी रुतबे वाले व्यक्ति को इसलिए बदल दिया जाता है क्योंकि वह मसीह-विरोधी के मार्ग पर चला था, और वह सोचता है, “अब रुतबे के बिना मैं सीधे-सीधे एक साधारण व्यक्ति की तरह काम करूँगा, जो भी कर्तव्य कर सकता हूँ, करूँगा; मैं रुतबे के बिना भी परमेश्वर पर विश्वास कर सकता हूँ,” तो क्या वह मसीह-विरोधी है? नहीं, यह व्यक्ति एक बार मसीह-विरोधी के मार्ग पर चला था, एक बार क्षणिक मूर्खता के कारण गलत मार्ग पर चला था, लेकिन वह मसीह-विरोधी नहीं है। एक सच्चा मसीह-विरोधी क्या करेगा? यदि वह अपना रुतबा खो देता है, तो वह अब और विश्वास नहीं करेगा। इतना ही नहीं, वह दूसरों को गुमराह करने, दूसरों से अपनी आराधना करवाने और अपना अनुसरण करवाने, अपनी महत्वाकांक्षा और सत्ता पाने की इच्छा पूरी करने के लिए विभिन्न तरीकों के बारे में भी सोचेगा। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वालों और वास्तविक मसीह-विरोधियों के बीच यही अंतर होता है। हम मसीह-विरोधी के इन स्वभाव सार और अभिव्यक्तियों का विश्लेषण और गहन विश्लेषण करते हैं क्योंकि इस मुद्दे की प्रकृति बहुत गंभीर है। अधिकांश लोग मसीह-विरोधी को नहीं पहचान सकते। साधारण भाई-बहनों की बात तो दूर, यहाँ तक कि कुछ अगुआ और कार्यकर्ता भी जो यह सोचते हैं कि वे कुछ सत्य समझते हैं, वे भी मसीह-विरोधियों को पहचानने में पूरी तरह से निपुण नहीं हैं। यह कहना मुश्किल है कि उन्होंने कितनी निपुणता हासिल की है, जो दर्शाता है कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। केवल वे ही लोग सच्चे आध्यात्मिक कद वाले लोग होते हैं जो मसीह-विरोधियों को सही-सही पहचान सकते हैं।
तुम सभी लोग अभी किस मुख्य मुद्दे का सामना कर रहे हो? ज्यादातर लोग झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को समझ नहीं पाते और उनके द्वारा आसानी से गुमराह हो जाते हैं, अगर इसे हल न किया जाए तो बहुत खतरनाक होता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम लोग अलग-अलग तरह के लोगों में अंतर करना सीखो। लोगों के अलग-अलग व्यवहार और कथनों से किस स्वभाव का प्रतिनिधित्व होता है, यह समझो और इनके आधार पर व्यक्ति के सार को समझो। इसके अलावा, तुम लोगों को यह भी पता होना चाहिए कि सत्य वास्तविकता क्या है और सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत क्या होते हैं। अगर तुम लोग इन्हें नहीं समझ सकते, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे। बिना विवेक के वास्तविकता में प्रवेश करने का मार्ग तुम्हें कैसे मिल सकता है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, सोचते हैं कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझने का मतलब है कि उनके पास वास्तविकता है। इसलिए, शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते समय वे संतुष्ट और न्यायसंगत महसूस करते हैं, और ज्यादा से ज्यादा उत्साही होते जाते हैं। लेकिन जब उन पर प्रलोभन आते हैं, तो वे लड़खड़ा जाते हैं और यह भी नहीं जानते कि वे कैसे लड़खड़ाए, फिर भी वे कहते हैं, “परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की?” क्या यह शर्मनाक विफलता नहीं है? तो, कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं—क्या तुम लोग इसे पहचान सकते हो? (नहीं।) कभी-कभी मैं कुछ भाई-बहनों से सुनता हूँ कि कुछ अगुआ केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं और अगुआ बनने के लिए अनुपयुक्त हैं, और वे उन्हें बदलने के लिए कहते हैं। हालाँकि, जब उनसे एक नया अगुआ चुनने के लिए कहा जाता है, तो अधिकांश लोगों में विवेक की कमी होती है, और चुने हुए अगुआ और कार्यकर्ता भी ऐसे होते हैं जो बिना किसी अधिक वास्तविकता के केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की ही बात करते हैं। यह एक बहुत गंभीर मुद्दा है, बहुत कठिन मुद्दा है। जब तुम लोग इन मामलों पर मेरी संगति के वचनों को सुनते हो, तो क्या तुम सामान्य अगुआओं द्वारा कही गई बातों से कोई अंतर पहचान पाते हो? यदि तुम अंतर पहचान पाते हो, तो तुम जानते हो कि सत्य वास्तविकता क्या है। यदि तुम इसे नहीं पहचान पाते और सोचते हो कि यह सब एक ही है, यह सोचते हो कि, “हमने भी परमेश्वर के वचन बोलना सीख लिया है, और हम जो कहते हैं वह वही है जो परमेश्वर कहता है,” तो फिर यह समस्या है। इससे साबित होता है कि तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते, वास्तव में तुम बिना सत्य समझे केवल परमेश्वर के वचनों की नकल करना जान गए हो और उनमें से थोड़े-बहुत बोल लेते हो। अधिकांश मसीह-विरोधियों में कुछ विशेष गुण और वाक्पटुता होती है, जो उन्हें लोगों को गुमराह करने की पूँजी देती है। अपने दुष्ट स्वभाव और कथनी और करनी में चालाकी भरे तरीकों के साथ वे वास्तव में लोगों को गुमराह करने में सक्षम होते हैं। यदि तुम लोग केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने में ही सक्षम हो और सत्य वास्तविकता को नहीं समझ पाते, तो तुम केवल मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह ही किए जा सकते हो। यह तुम्हारे नियंत्रण से परे की बात है! जो लोग सत्य नहीं समझते, वे चाहे कुछ भी चाहें उनके लिए मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह न होना असंभव है। शैतान के प्रभाव से आजाद होना कोई आसान बात नहीं है, है न?
11 जून 2019