मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं
परिशिष्ट : सुसमाचार फैलाने के संबंध में अतिरिक्त सत्य
पिछली कुछ सभाओं में जिस विषय पर चर्चा की गई थी वह अपने कर्तव्यों को पर्याप्त रूप से करने के बारे में था और हमने उन कर्तव्यों को श्रेणीबद्ध किया था जिन्हें लोगों और कर्मचारियों दोनों को ही करना चाहिए। वे खास श्रेणियाँ क्या हैं? (पहली श्रेणी में वे कर्मचारी हैं जो सुसमाचार फैलाते हैं, दूसरी श्रेणी में कलीसिया में अलग-अलग स्तरों पर मौजूद अगुआ और कार्यकर्ता शामिल हैं, तीसरी श्रेणी में वे कर्मचारी आते हैं जो अलग-अलग विशेष कर्तव्य करते हैं, चौथी श्रेणी में वे मौजूद हैं जो साधारण कर्तव्य करते हैं, पाँचवी श्रेणी में वे लोग हैं जो अपने खाली समय में कर्तव्य करते हैं और छठी श्रेणी में वे सभी शामिल हैं जो कोई कर्तव्य नहीं करते हैं।) कुल मिलाकर यहाँ छह श्रेणियाँ हैं। पिछली बार हमने पहली श्रेणी पर चर्चा की थी, जो सुसमाचार फैलाने के कर्तव्य से संबंधित सिद्धांतों और सत्य के बारे में है। इसमें सुसमाचार फैलाने के सभी पहलुओं से संबंधित विषय वस्तु है जिसमें ध्यान देने योग्य बातें, प्रासंगिक सिद्धांत और सत्य, वे क्षेत्र जिनके बारे में लोगों को सावधान रहना चाहिए और साथ ही वे आम गलतियाँ और विकृतियाँ शामिल हैं जो इस कर्त्तव्य को करने की प्रक्रिया में होती हैं। किसी खास विषय पर धर्मोपदेश सुनने के बाद क्या तुम उसमें निहित मुख्य बातों को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हो? अगर तुम किसी विषय की मुख्य सामग्री को समझ पाते हो, संबंधित सत्य को दिल में उतार पाते हो और फिर धीरे-धीरे, अपना कर्तव्य करने के दौरान उन्हें अपनी वास्तविकता, अपने जीवन और अपने अभ्यास के रास्ते में बदल पाते हो, तो इसका मतलब है कि तुमने वाकई उस सामग्री को आत्मसात कर लिया है जिस पर मैं संगति करता रहा हूँ। अगर किसी धर्मोपदेश के बारे में संगति करने के बाद, तुम लोगों के मन में सिर्फ एक सामान्य धारणा ही बन पाती है या तुम्हें कुछ घटनाएँ और कहानियाँ ही याद रहती हैं, लेकिन तुम यह नहीं समझ पाते हो कि आधारभूत सत्य और सिद्धांत क्या हो सकते हैं और इन चीजों पर क्यों चर्चा की गई, तो क्या इसे समझ का होना माना जाता है? क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? (नहीं माना जाता।) इसे सत्य को समझना नहीं माना जाता; इसका मतलब है कि तुम्हें यह समझ नहीं आया कि कौन से सत्य बताए जा रहे थे, तुम उन्हें समझ नहीं पाए और तुमने उन्हें स्वीकार नहीं किया। तो क्या तुम लोग संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हो? क्या कोई मुझे हमारी पिछली संगति के मुख्य बिंदु बता सकता है? (हमने सात बिंदुओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया था: पहला, सुसमाचार फैलाने वाले कर्मचारियों को कैसे परिभाषित करना है; दूसरा, सुसमाचार फैलाने के कर्त्तव्य का सार क्या है; तीसरा, इस कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया और उनके आंतरिक नजरिये क्या हैं; चौथा, सुसमाचार फैलाने के लिए अभ्यास के खास सिद्धांत, जैसे कि सुसमाचार फैलाने के लिए सिद्धांतों का पालन कौन करता है और कौन नहीं; पाँचवाँ, सुसमाचार फैलाने के सिद्धांतों से मेल खाने वालों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए; छठा, जब सुसमाचार फैलाने वाले कर्मचारी अपना कर्त्तव्य करने की प्रक्रिया के दौरान पद छोड़कर भाग जाते हैं तो उसके क्या परिणाम होते हैं; सातवाँ, पूरे इतिहास में सुसमाचार फैलाने वाले संतों का बलिदान और हमें अपने कर्तव्य करने के लिए मौजूदा अवसरों को कैसे संजोना चाहिए और अपने आप को जल्दी से सत्य से कैसे लैस करना चाहिए।) तुम्हारे सारांश में मूलरूप से हमारी पिछली संगति के मुख्य पहलूओं को शामिल किया गया है—बहुत खूब। क्या कुछ छूट गया है? (इसमें एक और बिंदु है: लोगों के नजरिये बदलना ताकि वे यह समझ जाएँ कि सुसमाचार फैलाना सिर्फ सुसमाचार कर्मचारियों का ही कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और उसका अनुसरण करने वाले सभी लोग जी नहीं चुरा सकते हैं।) यह एक सत्य है जिसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जरूर समझना चाहिए।) सुसमाचार को फैलाना हर व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व है—यह भी इसका एक पहलू है। क्या तुम लोग इस सत्य के बारे में संगति करने का उद्देश्य जानते हो? इसका उद्देश्य लोगों की समझ में विचलनों को संबोधित करना है। क्या तुम्हें पता है कि किन पह्लुओं में विचलन होते हैं? (मुझे नहीं पता।) तुम्हारे नहीं जानने से यह साबित होता है कि तुम लोग सत्य के इस पहलू को नहीं समझते हो। तो, मुझे इस सत्य के बारे में संगति करने की जरूरत क्यों पड़ी? सकारात्मक पक्ष यह है कि यह सत्य का वह एक पहलू है जिसे लोगों को समझना चाहिए। नकारात्मक पक्ष यह है कि यह उन विचलनों को संबोधित करने के लिए है जो सुसमाचार फैलाने के बारे में लोगों की समझ में मौजूद हैं।
बहुत से लोगों में सुसमाचार फैलाने के इस मामले की समझ में विचलन होते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि “फिलहाल मैं एक विशेष कर्तव्य कर रहा हूँ, इसलिए सुसमाचार फैलाने से मेरा कोई सरोकार नहीं है। इससे मेरा कोई मतलब नहीं है। इसलिए, सुसमाचार फैलाने के लिए जिन सत्य, सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझना जरूरी है वे मेरे लिए असंगत हैं। मुझे इन चीजों को समझने की जरूरत नहीं है।” इसलिए, जब सुसमाचार फैलाने के बारे में सत्य के इस पहलू की संगति की जाती है, तो वे बेपरवाह रहते हैं, ध्यान से विचार नहीं करते हैं और बिल्कुल ध्यान नहीं देते हैं। अगर वे सुन भी लेते हैं, तो भी उन्हें पता नहीं होता कि किस विषय पर चर्चा की गई है। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं कि “परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मैं हमेशा अगुआ बना रहा हूँ। मुझमें काबिलियत और कार्य करने की क्षमता है। मैं अगुआ बनने के लिए ही पैदा हुआ था। ऐसा लगता है मानो परमेश्वर ने मुझे जो कर्तव्य दिया है और मेरे जीवन का जो ध्येय है वह अगुआ बनना है।” निहितार्थ से, उनके कहने का मतलब है कि सुसमाचार फैलाने से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, जब सुसमाचार फैलाने के बारे में सत्य पर संगति की जाती है, तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। पिछली सभा में जिस बारे में संगति की गई थी, उसे संक्षेप में प्रस्तुत करने को कहने पर कुछ लोग बहुत देर तक अपने विवरणों के पन्ने पलटते रहते हैं, पर फिर भी कोई जवाब नहीं दे पाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्या इसकी वजह उनकी कमजोर याददाश्त है? (नहीं।) क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके जीवन में बहुत कुछ चल रहा है और उनके मन तनावग्रस्त हैं? (नहीं।) ऐसा नहीं है। इससे पता चलता है कि सत्य के प्रति लोगों का रवैया उससे विमुख होने का है, सत्य से प्रेम करने का नहीं है। इसलिए, मैं सभी को चेतावनी देता हूँ और सभी को यह बताता हूँ कि सुसमाचार फैलाना एक खास तरह के व्यक्ति या लोगों के विशेष समूह की खास जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है जो परमेश्वर का अनुसरण करता है। लोगों को सुसमाचार फैलाने का सत्य क्यों समझना चाहिए? लोगों के लिए ये सत्य जानना क्यों जरूरी है? सृजित प्राणी होने के नाते, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों में से एक होने के नाते, चाहे व्यक्ति की उम्र, लिंग कोई भी हो या वह कितना भी जवान या बूढ़ा क्यों न हो, सुसमाचार फैलाना एक ऐसा ध्येय और जिम्मेदारी है जिसे हर किसी को स्वीकार करना चाहिए। अगर यह ध्येय तुम्हें दिया जाता है और तुमसे खुद को खपाने, कीमत चुकाने या अपने जीवन की आहुति देने की अपेक्षा की जाती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए कर्तव्यबद्ध महसूस करना चाहिए। यही सत्य है, तुम्हें यही बात समझनी चाहिए। यह कोई साधारण धर्म-सिद्धांत नहीं है—यही सत्य है। मैं क्यों कहता हूँ कि यही सत्य है? क्योंकि चाहे समय किसी भी तरह से बदलता रहे, दशक कैसे भी गुजरते रहें, या जगहें और खाली स्थान किसी भी तरह से बदलते रहें, सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना हमेशा सकारात्मक कार्य ही बना रहेगा। इसका मतलब और मूल्य कभी नहीं बदलेगा : समय या भौगोलिक स्थान में हुए बदलावों से इस पर बिल्कुल प्रभाव नहीं पड़ेगा। सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना शाश्वत है, और सृजित प्राणी होने के नाते तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और इसका अभ्यास करना चाहिए। यह शाश्वत सत्य है। कुछ लोग कहते हैं कि “मैं सुसमाचार फैलाने का कर्तव्य नहीं करता हूँ।” हालाँकि, लोगों को सुसमाचार फैलाने से संबंधित इस सत्य को समझना चाहिए, क्योंकि यह सत्य दर्शन से संबंधित सत्य है, और परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को इसे समझना चाहिए; यह परमेश्वर में आस्था का आधार है और जीवन-प्रवेश के लिए फायदेमंद है। इसके अतिरिक्त, कलीसिया में चाहे तुम कोई भी कर्तव्य करते हो, तुम्हें गैर-विश्वासियों के संपर्क में आने के अवसर मिलेंगे और इसलिए उन तक सुसमाचार फैलाने की जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। जैसे ही तुम सुसमाचार फैलाने के सत्य को समझ जाओगे, तुम अपने दिल में यह जान लोगे कि “परमेश्वर के नए कार्य की घोषणा करना, परमेश्वर के मानवता को बचाने के कार्य का सुसमाचार फैलाना मेरी जिम्मेदारी है। चाहे जगह या समय कोई भी हो, और चाहे मेरी स्थिति या भूमिका कुछ भी हो, अगर मैं एक कर्ता के रूप में सेवा कर रहा हूँ, तो मेरा सुसमाचार फैलाने का दायित्व बनता है; और अगर मैं फिलहाल एक कलीसियाई अगुआ हूँ, तो सुसमाचार फैलाने का दायित्व भी मेरा है। फिलहाल मैं चाहे कोई भी कर्तव्य कर रहा हूँ, राज्य के सुसमाचार की घोषणा करना मेरा दायित्व है। मुझे जब भी कोई अवसर मिले या मेरे पास खाली समय हो, मुझे जाकर सुसमाचार फैलाना चाहिए। यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे मैं जी नहीं चुरा सकता।” क्या फिलहाल ज्यादातर लोग इसी तरीके से सोचते हैं? (नहीं।) तो फिर ज्यादातर लोग क्या सोचते हैं? “अभी मेरे पास एक निश्चित कर्तव्य है। मैं एक खास पेशे, शिक्षा की एक शाखा की पढ़ाई और गहन अध्ययन कर रहा हूँ, इसलिए सुसमाचार फैलाने से मेरा कोई सरोकार नहीं है।” यह किस तरह का रवैया है? यह अपनी जिम्मेदारी और ध्येय से बचकर भागने का एक नकारात्मक रवैया है। ये परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखने वाले लोग नहीं हैं, ये परमेश्वर के प्रति विद्रोही रवैया रखते हैं। चाहे तुम कोई भी हो, अगर तुम सुसमाचार फैलाने की जिम्मेदारी नहीं लेते, तो क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि तुममें जमीर और विवेक की कमी है? अगर तुम लोग सक्रिय और रचनात्मक रूप से सहयोग नहीं कर रहे हो, चीजों की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं कर रहे हो और समर्पण नहीं कर रहे हो, तो तुम निष्क्रिय और नकारात्मक रूप से, खानापूर्ति कर रहे हो—और यह रवैया अस्वीकार्य है। चाहे तुम कोई भी कर्तव्य करते हो, चाहे इसमें कोई भी पेशा या शिक्षा की शाखा शामिल हो, तुम जो प्राथमिक परिणाम हासिल करते हो उनमें से एक परिणाम मानवता को बचाने में परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार की गवाही देने और घोषणा करने की तुम्हारी क्षमता होनी चाहिए। यह सृजित प्राणी से न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम इस न्यूनतम अपेक्षा को भी पूरा नहीं कर पाए, तो परमेश्वर में विश्वास रखने के इन वर्षों के दौरान अपना कर्तव्य करने से तुमने क्या हासिल किया है? तुमने क्या प्राप्त किया है? क्या तुम परमेश्वर के इरादों को समझते हो? भले ही तुम कई वर्षों से अपना कर्तव्य कर रहे हो और अपने पेशे में माहिर हो गए हो, अगर परमेश्वर की गवाही देने के लिए कहे जाने पर तुम कुछ भी नहीं कह पाए या सत्य के किसी भी पहलू पर संगति नहीं कर पाए, तो फिर यहाँ समस्या क्या है? यहाँ समस्या यह है कि तुम सत्य को समझते ही नहीं हो। यह कहना कुछ लोगों को अनुचित लग सकता है कि वे सत्य को नहीं समझते हैं। शायद उन्हें लगता हो कि उन्होंने प्रभावी रूप से अपना कर्तव्य किया है, लेकिन दरअसल वे परमेश्वर के कार्य के दर्शन और मानवता को बचाने के लिए उसके इरादों को नहीं समझते हैं। क्या यह सत्य को समझने के समान है? तुमने परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए कम-से-कम सच्चे तरीके से कोई आधार तक स्थापित नहीं किया है। तुम परमेश्वर के कार्य और मानवता के लिए उसके उद्धार के सुसमाचार की घोषणा करने की जिम्मेदारी नहीं लेते हो, और तुममें किसी भी तरह की अंतर्दृष्टि, समझ या बोध बिल्कुल नहीं है। तो फिर क्या तुम्हें वाकई परमेश्वर का अनुसरण करने वाला व्यक्ति माना जा सकता है? क्या तुमने परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित किया है? अगर तुमने इनमें से एक भी चीज हासिल नहीं की है, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है।
अब, चलो उस विषय पर लौटते हैं जिस पर हम इससे पहले चर्चा कर रहे थे। सुसमाचार फैलाना परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की जिम्मेदारी और दायित्व है। सत्य के इस पहलू पर चर्चा कर लेने के बाद, अब बताओ कि वह कौन सा मद है जिसे सभी को समझना चाहिए? चाहे कोई व्यक्ति कीमत चुकाता हो, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने हेतु अपने परिवार और कार्य का त्याग करता हो या अपना जीवन भी अर्पित कर देता हो, दरअसल ये सभी सतही चीजें हैं। आखिर में परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा करता है? होता यह है कि जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ता है और तुम्हारा जीवन परिपक्व होता है, समय गुजरने के साथ, तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के कार्य और मानवता को बचाने में उसके इरादे के बारे में अलग-अलग सत्यों को समझना शुरू कर देते हो। सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर की गवाही देने की तुम्हारी जिम्मेदारी तेजी से स्पष्ट होने लगती है और इस कर्तव्य को पूरा करने का तुम्हारा दृढ़ निश्चय और मजबूत हो जाता है। अगर कोई कलीसियाई अगुआ कई वर्षों से काम कर रहा है, लेकिन जैसे-जैसे कलीसिया की अगुवाई करने के उसके वर्ष बीतने लगते हैं, उसका जोश कम होने लगता है, वह पहले जैसा प्रेरित नहीं होता है और उस पर सुसमाचार फैलाने की जिम्मेदारी कम होने लगती है, तो वह अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह से करता है? (अच्छी तरह से नहीं करता है।) क्यों? इसमें क्या समस्या सामने आती है? अगर वह ऐसी स्थिति में विकसित होता है या जीता है, तो कम-से-कम एक बात तो तय है : इस व्यक्ति ने इन वर्षों के दौरान न तो सत्य का अनुसरण किया है और न ही कोई वास्तविक कार्य किया है। वह बड़े लाल अजगर के नौकरशाही वर्ग की तरह है। फलस्वरूप, उसके पास परमेश्वर के नाम की घोषणा करने और उसके कार्य की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी या अंतर्दृष्टि नहीं है। क्या यही परिणाम नहीं है? (हाँ।) यह अनिवार्य परिणाम है। चाहे यह व्यक्ति कितने भी वर्षों से काम कर रहा हो, भले ही वह सोचता हो कि उसका आध्यात्मिक कद बड़ा है, यह कि वह परमेश्वर की जिम्मेदारी का ध्यान रख सकता है और परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा कर सकता है, फिर भी जब सुसमाचार फैलाने की बात आती है, तो वह पीछे हट जाता है, उसे नहीं पता होता है कि इसे कैसे करना है। जब उसका सामना ऐसे लोगों से होता है जो परमेश्वर के प्रकटन के लिए इच्छुक हैं और सच्चे मार्ग को खोजने और उसकी जाँच-पड़ताल करने के लिए आते हैं, तो उसकी जुबान पर ताला पड़ जाता है। वह एक शब्द भी नहीं बोल पाता और नहीं जानता कि शुरुआत कहाँ से करनी है। यहाँ क्या समस्या है? यहाँ समस्या यह है कि वह सत्य को नहीं समझता है और उसने सत्य को प्राप्त नहीं किया है, इसलिए वह परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता है। केवल वही लोग जो सत्य को समझते हैं, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं। सुसमाचार फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना तुम्हारे कर्तव्यों के दायरे में आता है। अगर तुम सत्य को समझते हो, अगर तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है, तो सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने वाले लोगों से मिलने पर तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ क्यों नहीं होगा? क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या तुम अक्सर खुद को ऐसी स्थितियों में पाते हो? (हाँ।) यहाँ क्या समस्या है? तुम पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। क्या जिम्मेदारी न होना कोई समस्या है? क्या तुम बिना जिम्मेदारी के अपना कर्तव्य कर सकते हो? अगर तुम अपना कर्तव्य करते भी हो, तो क्या उसे वफादारी से कर सकते हो? क्या तुम इसे पर्याप्त रूप से कर सकते हो? जबकि जिम्मेदारी न होना कोई घातक समस्या नहीं हो सकती, फिर भी यह एक गंभीर समस्या है, क्योंकि इससे यह बात प्रभावित होती है कि तुम अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह से करते हो। क्या इस समस्या को हल करना जरूरी नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, तुम इसे कैसे हल करोगे? तुम्हें सुसमाचार फैलाने के बारे में अपने गलत नजरियों को उलटना होगा और इसके सत्य को समझना होगा। वे सभी कार्य जिनमें तुम फिलहाल शामिल हो, उनका सुसमाचार फैलाने से सीधा संबंध है और वे सुसमाचार फैलाने के दायरे में आते हैं। इनका लक्ष्य परमेश्वर की गवाही देना, सुसमाचार के कार्य को बढ़ाना, परमेश्वर के नाम के बारे में गवाही देना और मानवता को बचाने के परमेश्वर के कार्य के इस सुसमाचार की घोषणा करना है, ताकि ज्यादा लोग इसके बारे में जानें और ज्यादा लोग परमेश्वर के सामने आएँ, परमेश्वर की विजय को स्वीकार करें, परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें और आखिर में, अगर वे परमेश्वर की पूर्णता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त रूप से भाग्यशाली हों—तो यह और भी बेहतर है। परमेश्वर के सामने ज्यादा लोगों के आने का क्या मतलब है और इससे अंतिम परिणाम के रूप में क्या हासिल होना चाहिए? (ज्यादा लोगों को परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कराया जाए।) यह लक्ष्य क्यों हासिल किया जाना चाहिए? क्योंकि यह परमेश्वर का इरादा है। यही वजह है कि हम अथक रूप से इन सत्यों को समझाते हैं। अगर इसका परमेश्वर के इरादे से कोई सरोकार न होता, तो इन चीजों के बारे में बात करना व्यर्थ और खोखला होता। क्योंकि यह परमेश्वर का इरादा है, हम इसे स्पष्ट करते हैं और इसे समझने में सबकी मदद करते हैं, ताकि वे जान जाएँ कि यही सत्य है और सभी को सुसमाचार फैलाने के इस सत्य में प्रयास करना चाहिए, ताकि हर व्यक्ति के पास इस तरह की अंतर्दृष्टि हो और वह इस तरह की जिम्मेदारी को विकसित कर सके।
अगला सवाल यह है कि हमें ज्यादा लोगों को क्यों परमेश्वर का इरादा समझने देना चाहिए ताकि वे सुसमाचार फैला सकें और अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें? इसे क्यों करना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं कि “पहले, प्रायः ऐसा कहा जाता था कि परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले, इसलिए हमें ज्यादा लोगों को परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने देना चाहिए।” यह कथन सही है, लेकिन यह सवाल का मूलभूत जवाब नहीं है। तो, इस सवाल का मूलभूत जवाब क्या है? क्या तुम लोगों को मालूम है? (परमेश्वर उन लोगों का समूह प्राप्त करना चाहता है जो उसके साथ एक दिल और आत्मा के हैं।) परमेश्वर उन लोगों का समूह प्राप्त करना चाहता है जो उसके साथ एक दिल और आत्मा के हैं और इसे सुसमाचार को फैलाकर हासिल किया जाना चाहिए। अभी हम जो बात कर रहे हैं वह सुसमाचार को व्यापक रूप से फैलाने के बारे में है। क्या सुसमाचार को व्यापक रूप से फैलाने और लोगों का एक समूह प्राप्त करने के बीच कोई फर्क है? (हाँ।) तो फिर, सुसमाचार को व्यापक रूप से फैलाने का क्या उद्देश्य है? (जितने लोगों को बचा सकें उतने लोगों को बचाना।) जितने लोगों को बचा सकें उतने लोगों को बचाना परमेश्वर के उद्धार का सिद्धांत तो है, लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं है। इस कार्य की शुरुआत से मैंने बार-बार इस बारे में बात की है कि कैसे इस बार परमेश्वर का आगमन एक युग का उद्घाटन करने, एक नया युग लाने और पुराने युग को समाप्त करने हेतु कार्य करने के लिए हुआ है—राज्य का युग लाने और अनुग्रह का युग समाप्त करने के लिए हुआ है। अंतिम दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने वाले सभी लोगों ने इस तथ्य को देखा है। परमेश्वर नया कार्य कर रहा है, मानवता के साथ न्याय करने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है और मानवता को शुद्ध कर रहा है और उसे बचा रहा है। राज्य का सुसमाचार कई देशों में फैलना शुरू हो गया है। यह मानवता पहले से ही व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग से निकल चुकी है। अब वे बाइबल नहीं पढ़ते हैं, अब वे क्रूस के नीचे नहीं जीते हैं और अब वे उद्धारकर्ता यीशु का नाम नहीं पुकारते हैं। इसके बजाय, वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम पर प्रार्थना करते हैं और इसके साथ ही, परमेश्वर के मौजूदा वचनों को अपने जीवन में जीवित रहने के सिद्धांतों, तरीकों और लक्ष्यों के रूप में स्वीकार करते हैं। इस अभिप्राय से, क्या ये लोग पहले से ही एक नये युग में प्रवेश नहीं कर चुके हैं? (बिल्कुल।) वे एक नए युग में प्रवेश कर चुके हैं। तो, वह कौन-सा युग है जिसमें अंतिम दिनों में सुसमाचार और परमेश्वर के नए वचनों को स्वीकार नहीं करने वाले इससे भी ज्यादा लोग अब भी जी रहे हैं? वे अब भी अनुग्रह के युग में जी रहे हैं। अब, तुम लोगों की क्या जिम्मेदारी बनती है? यह कि तुम उन्हें अनुग्रह के युग से निकालकर नए युग में ले जाओ। क्या तुम लोग सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करके और उसका नाम पुकारकर परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो? क्या सिर्फ परमेश्वर के कुछ वचनों का प्रचार करना ही काफी है? यकीनन नहीं है। इसके लिए तुम सभी को सुसमाचार फैलाने के इस आदेश को स्वीकारने, परमेश्वर के वचनों को व्यापक रूप से प्रसारित करने, परमेश्वर के वचनों को अलग-अलग तरीकों से फैलाने और राज्य के सुसमाचार की घोषणा करने और उसे बढ़ाने की जिम्मेदारी उठाने की जरूरत है। फैलाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों को उन लोगों तक पहुँचाना जिन्होंने अंतिम दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, ज्यादा लोगों को यह बताना कि परमेश्वर नया कार्य कर रहा है और फिर उन्हें परमेश्वर के वचनों के बारे में गवाही देना, परमेश्वर के कार्य के बारे में गवाही देने के लिए अपने अनुभवों का उपयोग करना और उन्हें भी नए युग में ले जाना—इस तरह वे भी बस तुम लोगों की तरह नए युग में प्रवेश करेंगे। परमेश्वर का इरादा स्पष्ट है। नए युग में प्रवेश करना सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं है जिन्होंने उसके वचनों को सुना है, उन्हें स्वीकार किया है और उसका अनुसरण किया है, बल्कि वह पूरी मानवता को इस नए युग में जाने का मार्ग दिखाएगा। यह परमेश्वर का इरादा है और एक ऐसा सत्य है जिसे अब परमेश्वर का अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए। परमेश्वर लोगों के एक समूह, एक छोटे गुट या एक छोटे जातीय समूह को नए युग में जाने का मार्ग नहीं दिखा रहा है; बल्कि, उसका इरादा संपूर्ण मानवता को इस नए युग में ले जाने का है। इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जा सकता है? (सुसमाचार को व्यापक रूप से फैलाकर।) सचमुच, व्यापक रूप से सुसमाचार को फैलाकर, व्यापक रूप से सुसमाचार के बारे में बताने के लिए अलग-अलग तरीकों का उपयोग करके इसे प्राप्त किया जाना चाहिए। सुसमाचार को व्यापक रूप से फैलाने के बारे में बात करना आसान है, लेकिन इसे खास तौर से कैसे किया जाना चाहिए? (इसके लिए मानव सहयोग की जरूरत होती है।) हाँ बिल्कुल, इसके लिए मानव सहयोग की जरूरत होती है। अगर लोग हमेशा अपने दिलों में कुछ पुरानी चीजों से चिपके रहते हैं, हमेशा कुछ विकृत वस्तुओं को पालते हैं, पुराने विनियमों और अभ्यासों को पकड़कर रखते हैं, लेकिन सुसमाचार के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते और सुसमाचार के कार्य को अपने लिए व्यर्थ मानते हुए परमेश्वर के आदेश को स्वीकार नहीं करते हैं, तो क्या ऐसे लोगों को परमेश्वर आगे बढ़ाकर उनका उपयोग कर सकता है? क्या उनमें परमेश्वर के सामने जीने की योग्यताएँ हो सकती हैं? क्या उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिल सकती है? बिल्कुल नहीं। इसलिए, मुझे तुम लोगों के विचारों पर काम करना होगा, उन मूल वस्तुओं पर ध्यान देना होगा जिन्हें तुम नहीं समझते हो और जब तक तुम संगत सत्यों को नहीं समझ लेते, तब तक मुझे उन्हें अथक रूप से समझाते रहना होगा। चाहे तुम कितने भी संवेदनहीन और मंद-बुद्धि क्यों न हो, मुझे तुमसे बातें करते रहना होगा और तुम्हें समझाते रहना होगा कि यह परमेश्वर का इरादा है, इस कर्तव्य को तुम्हें जरूर पूरा करना पड़ेगा और इस जीवनकाल में यह तुम्हारा ध्येय और दायित्व है। अगर तुम मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते या उन्हें नहीं समझ पाते, तो मुझे बोलना जारी रखना होगा। चाहे तुम इससे तंग आ जाओ, फिर भी मुझे तब तक बोलना जारी रखना होगा जब तक तुम सत्य को नहीं समझ लेते। सत्य क्या है? परमेश्वर जो व्यक्त करता है वही सत्य है; यह परमेश्वर के इरादे, मानवता से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और वह सत्य वास्तविकता है जो नए युग के लोगों के पास जरूर होनी चाहिए। लोगों को परमेश्वर के इरादों के साथ कैसे पेश आना चाहिए? उन्हें बेझिझक और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों को स्वीकार करना चाहिए, फिर खुद को समर्पित करके सहयोग करना चाहिए, जिससे कि परमेश्वर के इरादे संतुष्ट हो जाएँ। यह व्यक्ति का दायित्व है। जब मैं इसे इस तरह से कहता हूँ, तो क्या तुम लोगों को समझ आता है? हो सकता है कुछ लोग कहें कि “ओह, परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग उसके आदेश को स्वीकार करें, लेकिन इससे हम जैसे तुच्छ व्यक्तियों का क्या लेना-देना है?” क्या तुम्हें लगता है कि इसका उनसे कोई लेना-देना है? (बिल्कुल है।) इसका उनसे क्या लेना-देना है? मैं तुम्हें समझाता हूँ। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और इंसान उसके सृजित प्राणी हैं। “सृजन करना” और “सृजित” के बीच क्या संबंध है? यह कार्य करने और जिस पर कार्य किया जा रहा है उसके बीच का, सृजन करने और जो सृजित हो रहा है उसके बीच का संबंध है। चूँकि सृष्टिकर्ता के इरादे तुम लोगों को बता दिए गए हैं, तो तुम्हें किस रवैये से प्रतिक्रिया देनी चाहिए? (मुझे उन्हें स्वीकार करना चाहिए और अपनी पूरी ताकत से सहयोग करना चाहिए।) बिल्कुल सही, तुम्हें अपनी पूरी ताकत से सहयोग करते हुए उनके आगे समर्पण कर उन्हें स्वीकार करना चाहिए, चाहे इसके लिए तुम्हें कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। क्या इस सहयोग में सत्य को खोजना शामिल है? क्या इसमें सत्य को समझना शामिल है? इसमें दोनों बातें शामिल हैं। चूँकि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और आदेश को समझते हो, ये तुम्हारे ध्येय से संबंधित हैं, ये तुम्हारे कर्तव्य हैं—चूँकि तुम इस बात को जानते हो, इसलिए तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। जिस व्यक्ति में जमीर और विवेक है, उसे यही करना चाहिए। अगर तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाएँ और आदेश मालूम हैं, फिर भी तुम उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहे हो, तो इसका मतलब है कि तुम्हारे पास जमीर और विवेक दोनों ही नहीं हैं और तुम इंसान कहलाने के लायक नहीं हो। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अब भी समझ नहीं आए और वे सोचें कि “परमेश्वर के इरादों से हमारा क्या लेना-देना है?” अगर परमेश्वर के इरादों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के अनुयायी या परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हो। मिसाल के तौर पर, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया है और कई वर्षों तक तुम्हारी परवरिश की है; तुमने उनका दिया खाना खाया है, तुम उनके घर में रहे हो और तुमने उनके पैसे खर्च किए हैं। लेकिन जब घर में कोई समस्या होती है और तुम कहते हो कि तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं है, तुम इसे नजरंदाज कर देते हो और बस भाग जाते हो, तो तुम किस तरह के कमीने इंसान हो? यह कहना कि तुम बाहर वाले हो सुनने में अच्छा लगता है; लेकिन सच तो यह है कि तुम एक विद्रोही कमीने, इंसान के भेष में दरिंदे और एक जानवर से भी निचले स्तर के हो। तुम लोगों को परमेश्वर का इरादा साफ-साफ बता दिया गया है, और परमेश्वर कहता है, “तुम लोगों ने कार्य के इस चरण को स्वीकार कर लिया है और मैं पहले से ही तुम लोगों को ये वचन दे चुका हूँ ताकि पहले तुम उन्हें सुन सको और तुमने उन्हें सुन लिया है, समझ लिया है और आत्मसात कर लिया है। अब, मैं तुम्हें अपना इरादा और तुमसे अपनी अपेक्षा भी बताऊँगा। तुम्हें मेरे कार्य, मेरे वचनों और उन चीजों की घोषणा करनी चाहिए जिन्हें मैं संपूर्ण मानवता को अपनी वाणी सुनाने के लिए पूरा करने जा रहा हूँ; तुम्हें मेरे राज्य के सुसमाचार को प्रसारित करना चाहिए ताकि संपूर्ण मानवता जल्दी से परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर सके और राज्य के युग में प्रवेश कर सके। यह परमेश्वर का इरादा और अपेक्षा है।” यह सुनकर तुम्हें किस तरह से विचार करना चाहिए? तुम्हारा रवैया किस तरह का होना चाहिए? तुम्हें किस तरीके से चुनाव करना चाहिए? तुम्हें वह कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए? कुछ लोगों को लग सकता है कि यह जिम्मेदारी भारी है, लेकिन सिर्फ महसूस करना ही अपने आप में काफी नहीं है; तुम्हें कर्म करने और सच्ची समझ की जरूरत है। तुम्हें परमेश्वर से ऐसे प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, तुमने मुझे सुसमाचार फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी है—यह तुम्हारी महिमा है। हालाँकि मैं सत्य को बहुत ही कम समझता हूँ, फिर भी उस आदेश को पूरा करने के लिए मैं अपना भरसक प्रयास करने के लिए तैयार हूँ। मैंने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं और कुछ सत्यों को समझा है—यह सब कुछ तुम्हारा आशीष है और अब मेरी यह जिम्मेदारी है कि मैं परमेश्वर के वचनों और कार्य की गवाही दूँ ताकि इस आदेश को पूरा कर सकूँ।” यह बात सही है; जब लोगों के पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होता है, तो परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता है। परमेश्वर ने पहले ही लोगों को साफ-साफ बता दिया है और कहा है कि परमेश्वर का सुसमाचार फैलाना एक दायित्व और जिम्मेदारी है जिससे कोई भी नहीं बच सकता है। यह जीवन भर का कर्तव्य है, हर सृजित प्राणी का कर्तव्य है। क्या इन वचनों में परमेश्वर का कोई आदेश निहित है? क्या इनमें उसका सत्योपदेश निहित है? (हाँ, इनमें है।) क्या इनमें परमेश्वर का इरादा निहित है? (हाँ।) क्या इनमें ऐसे सत्य हैं जिन्हें लोगों को समझना चाहिए? (हाँ।) क्या इनमें अभ्यास के ऐसे सिद्धांत और मार्ग हैं जिनका कोई पालन कर सकता है? (हाँ।) मैंने कुल कितनी बातों का जिक्र किया? (चार बातों का: पहली बात परमेश्वर की आज्ञा और सत्योपदेश है। दूसरी बात परमेश्वर का इरादा है। तीसरी बात वे सत्य हैं जिन्हें हमें समझना चाहिए। चौथी बात अभ्यास के वे सिद्धांत और मार्ग हैं जिनका व्यक्ति को पालन करना चाहिए। सही है; मैंने कुल मिलाकर यही चार बातें बताई हैं। इसके बाद चलो हर बात की खास सामग्री के बारे में संगति करें।
पहला मद परमेश्वर का आदेश है। परमेश्वर का आदेश क्या है? (राज्य के सुसमाचार की घोषणा करना।) यह राज्य के सुसमाचार को व्यापक रूप से फैलाने के लिए है। दूसरा मद परमेश्वर का इरादा है। परमेश्वर का इरादा क्या है? यह ज्यादा लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर का आगमन पहले ही हो चुका है, वह नया कार्य कर रहा है और यह कि परमेश्वर इस युग को बदलने, पुराने युग को समाप्त करने और मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाने का इरादा रखता है। यही परमेश्वर का इरादा है, है कि नहीं? क्या यह कह सकते हैं कि परमेश्वर का इरादा सुसमाचार को प्रसारित करना है? यह इतना सरल नहीं है। सुसमाचार को प्रसारित करने का एक अंतिम उद्देश्य और परिणाम होता है—वह क्या होना चाहिए? (ज्यादा लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर का आगमन पहले ही हो चुका है, वह नया कार्य कर रहा है और वह पुराने युग को समाप्त करने और संपूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाने का इरादा रखता है।) सही है, संपूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाना। मानवता पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? मानवता एक नए युग में प्रवेश करती है; यह युग परिवर्तित हो जाता है। तो, परमेश्वर का इरादा क्या है? कृपया इसे दोहराएँ। (परमेश्वर इस युग को बदलने, पुराने युग को समाप्त करने और संपूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाने का इरादा रखता है।) तुम इनमें से कुछ भी नहीं छोड़ सकते हो—क्या तुमने यह सबकुछ लिख लिया है? (हाँ।) तीसरा मद वह सत्य है जिसे लोगों को समझना चाहिए। यह सत्य क्या होना चाहिए? (सुसमाचार को फैलाना हर सृजित प्राणी का कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) यही सत्य है। इस सत्य के भीतर लोगों को सुसमाचार फैलाने के कर्तव्य को स्वीकार करना चाहिए और फिर इस कथन के भीतर अभ्यास के सिद्धांतों और मार्गों को खोजना चाहिए। यही कथन लोगों के लिए सत्य है। यह कथन क्या है? (सुसमाचार को फैलाना हर सृजित प्राणी का कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) यही कर्तव्य और ध्येय होना चाहिए। तुम कर्तव्य और ध्येय को कैसे समझ सकते हो? कर्तव्य वह जिम्मेदारी है जिसे व्यक्ति को निभाना चाहिए और जो जिम्मेदारी व्यक्ति को निभानी चाहिए वह उसका कर्तव्य भी है। लेकिन ध्येय अलग चीज है; ध्येय जिम्मेदारी से बड़ा, ज्यादा उपयुक्त, ज्यादा गहरे अर्थ वाला और ज्यादा वजनदार होता है। क्या तुम लोगों ने इसे लिख लिया है? (हाँ।) अब, मैंने एक चीज देखी है; हम जिन सभी सामग्रियों पर चर्चा कर रहे हैं उन्हें तुम्हें पहले लिखित में दर्ज करना होगा, उसके बाद ही तुम लोगों को उनके बारे में कोई अंदाजा हो सकेगा। अगर तुम उन्हें नहीं लिखोगे और बस ऐसे ही सुनते रहोगे, तो इससे तुम्हारे मन में इसकी हल्की-सी छाप तक नहीं पड़ेगी। इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि लोग सत्य को नहीं समझते हैं; वे धर्म-सिद्धांत के थोड़े से हिस्से को ही समझ पाते हैं और वे सत्य की परिभाषा, विचार और रूपरेखा को थोड़ा-सा जान पाते हैं। जब इन सत्यों के खास विवरणों की बात आती है, तो उनका अभ्यास करने और उन्हें लागू करने के तरीके के बारे में वे बिल्कुल अनजान होते हैं, है कि नहीं? तुममें से ज्यदातर लोगों के लिए दो या तीन घंटों तक धर्म-सिद्धांत के बारे में बात करना मुश्किल नहीं होता है, लेकिन जब तुम्हारे द्वारा अनुभव किए गए और समझे गए अभ्यास के सिद्धांतों और मार्गों का उपयोग करके स्थितियों को ठीक करने के लिए सत्य को लागू करने की बात आती है—तो वह कार्य मुश्किल होता है। तो यहाँ क्या समस्या है? सत्य को नहीं समझना, क्या यह बात सही नहीं है? चलो, अब चौथे मद की तरफ बढ़ें। चौथा मद क्या है? (अभ्यास के वे सिद्धांत और मार्ग जिनका व्यक्ति को पालन करना चाहिए।) ये सिद्धांत और मार्ग कैसे निर्धारित किए जाते हैं? ये दो चीजों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं : पहली चीज परमेश्वर का इरादा है और दूसरी चीज सत्य है। ये दो ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को जरूर समझना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हें सुसमाचार फैलाने के लिए कहा जाता है और तुम इसे करने के अनिच्छुक हो, लेकिन परमेश्वर कहता है कि सुसमाचार फैलाना उसका इरादा है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारे अभ्यास के सिद्धांत क्या होने चाहिए? तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? तुम्हें इनकार किए बिना, विश्लेषण या पड़ताल किए बिना, कोई कारण पूछे बिना इसके आगे समर्पण कर इसे पूरी तरह से स्वीकार कर लेना चाहिए। यह सच्चा समर्पण है। यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसका सत्य का अभ्यास करते समय जरूर पालन करना चाहिए। जब हम निर्दिष्ट करने के तरीके से परमेश्वर के इरादे के बारे में बात करते हैं, तो आम तौर पर यह किस बारे में होता है? परमेश्वर का इरादा दरअसल परमेश्वर की इच्छा, उद्देश्य, स्रोत और उसके क्रियाकलापों के लिए शुरुआती बिंदु है। आध्यात्मिक दृष्टि से, इसे परमेश्वर का “इरादा” या “दर्शन” कहा जाता है। जब परमेश्वर तुम्हारे सामने अपना इरादा प्रकट करता है, तो वह तुम्हें एक सामान्य दिशा देता है, जिससे तुम्हें मालूम हो जाता है कि वह क्या करने का इरादा रखता है। हालाँकि, अगर परमेश्वर ब्यौरे या सिद्धांत प्रदान न करे, तो क्या तुम्हें अभ्यास करने के सटीक मार्ग और दिशा का पता होगा? तुम्हें नहीं होगा। यही वजह है कि जब मैं लोगों से कुछ करने के लिए कहता हूँ, तो जिन लोगों में अच्छे फैसले करने की क्षमता है, जिनके पास दिल और आत्मा है, वे इसे स्वीकार करने के बाद तुरंत विवरण और इसे खास तौर पर कैसे करना है इसका तरीका खोजते हैं। जिन लोगों में अच्छे फैसले करने की क्षमता नहीं हैं, जिनके पास दिल और आत्मा नहीं है, वे सोच सकते हैं कि यह तो आसान कार्य है और ज्यादा विवरण का इंतजार किए बिना तुरंत क्रियाकलाप में लग सकते हैं। अच्छे फैसले करने की क्षमता न होना और किसी कार्य को आँख मूंदकर करने का यही मतलब है। जब तुम्हें परमेश्वर से कोई आदेश मिलता है और तुम अपना कर्तव्य निभाने और अपना ध्येय पूरा करने का लक्ष्य रखते हो, तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के इरादे को समझना चाहिए। तुम्हें यह जानने की जरूरत है कि यह आदेश परमेश्वर की तरफ से आता है और यह उसका इरादा है और तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, इस पर ध्यान देना चाहिए और इससे भी जरूरी यह है कि तुम्हें इसके आगे समर्पण कर देना चाहिए। दूसरे, तुम्हें यह पता लगाना चाहिए कि इस कर्तव्य को करने के लिए तुम्हें किन सत्यों को समझने की जरूरत है, तुम्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और तुम्हें ऐसे किस तरीके से अभ्यास करना चाहिए जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों और परमेश्वर के घर के कार्य को फायदा हो। ये अभ्यास के सिद्धांत हैं। परमेश्वर के इरादे को समझने के बाद, तुम्हें इस कर्तव्य को करने से संबंधित सत्य को तुरंत खोजना और समझना चाहिए और सत्य को समझने के बाद, इन सत्यों का अभ्यास करने के सिद्धांतों और मार्ग को सुनिश्चित करना चाहिए। “सिद्धांत” का क्या मतलब है? खास तौर से, सिद्धांत किसी ऐसी चीज के बारे में होता है जिस पर सत्य का अभ्यास करते समय लक्ष्य हासिल करने या परिणाम उत्पन्न करने की प्रक्रिया आधारित होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हें कोई मद खरीदने का कार्य दिया गया है, तो अभ्यास के खास सिद्धांत क्या हैं? सबसे पहले, तुम्हें खरीदे जाने वाले मद के विशेष विवरणों और मॉडल को, इसे किन गुणवत्ता मानकों को पूरा करना चाहिए इस बात को, और क्या बताई गई कीमत उपयुक्त है इसे समझने की जरूरत है। खोजने की प्रक्रिया में तुम्हें अभ्यास के खास सिद्धांतों के बारे में स्पष्टता हासिल होगी। ये सिद्धांत तुम्हें एक पैमाना और एक सीमा प्रदान करते हैं—जब तक तुम इस सीमा में बने रहोगे, तब तक तुम ठीक रहोगे। जब तुम मद के विशेष विवरणों, गुणवत्ता और कीमत के बारे में आधारभूत सिद्धांतों को समझ लेते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम इस कार्य के लिए अपेक्षित मानकों को समझ गए हो। इसका मतलब है कि तुमने वास्तव में अभ्यास करना सीख लिया है। सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांतों को समझना जरूरी है : सिद्धांत कुंजी हैं, सबसे आधारभूत तत्व हैं। जब तुम अपना कर्तव्य करने के मूल सिद्धांतों को समझ लेते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम उस कर्तव्य को करने के अपेक्षित मानकों को समझते हो। इन सिद्धांतों में माहिर होना यह जानने के समान है कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। तो, अभ्यास करने की यह क्षमता किस आधार पर स्थापित हुई है? यह परमेश्वर के इरादे और सत्य को समझने की नींव पर आधारित है। अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षा क्या है इसका सिर्फ एक वाक्य जानते हो, तो क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? नहीं, इसे नहीं माना जाता है। सत्य को समझना माने जाने के लिए किन मानकों पर खरा उतरना जरूरी है? तुम्हें अपना कर्तव्य करने के मायने और मूल्य को समझना चाहिए और जब ये दो पहलू तुम्हारे लिए स्पष्ट हो जाते हैं, तो इसका मतलब है कि तुम अपने कर्तव्य को करने के सत्य को समझ गए हो। इसके अलावा, सत्य को समझ लेने के बाद, तुम्हें अपने कर्तव्य को करने के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को भी समझना चाहिए। जब तुम अपना कर्तव्य करने के सिद्धांतों को समझकर उन्हें लागू कर पाते हो और कभी-कभी थोड़ी-सी समझदारी का भी उपयोग करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य करने की प्रभावशीलता को सुनिश्चित कर सकते हो। इन सिद्धांतों को समझकर और उनके अनुसार क्रियाकलाप करके तुम सत्य का अभ्यास करने के स्तर तक पहुँच सकते हो। अगर तुम अपना कर्तव्य किसी मानवीय इरादे को मिलाए बिना करते हो, अगर तुम इसे पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करके और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्था के अनुसार, परमेश्वर के वचनों से पूरी तरह से एकमत होते हुए करते हो, तो तुमने अपना कर्तव्य पूरी तरह से योग्य तरीके से पूरा कर लिया है, और चाहे परमेश्वर की अपेक्षाओं की तुलना में परिणामों में कुछ अंतर मौजूद हों, तो भी इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं को हासिल करना माना जाता है। अगर तुम पूर्ण रूप से सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करते हो और अगर तुम अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता तक निष्ठावान हो, तो फिर तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन परमेश्वर के इरादे के साथ पूर्ण रूप से मेल खाता है। तुमने सृजित प्राणी के रूप में अपने पूरे दिल, मन और ताकत से अपना कर्तव्य निभाया है, जो कि सत्य का अभ्यास करके हासिल किया गया परिणाम है। अब, सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को समझने के लिए, तुम्हें सबसे पहले क्या समझना चाहिए ताकि यह परिणाम हासिल हो जाए? (सबसे पहले, हमें परमेश्वर के इरादे को समझना होगा, और फिर, इनकार किए बिना और पूर्ण रूप से समर्पण करके उसे स्वीकार करना होगा।) लोगों के पास अभ्यास और रवैये के संबंध में यह चीज जरूर होनी चाहिए। इसके बाद हमें क्या समझना चाहिए? तुम्हें सत्य को समझना चाहिए, और सत्य के भीतर मौजूद विवरणों से ही सिद्धांत और मार्ग बने हुए हैं। तुम्हें जिन सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों का पालन करना चाहिए, उन्हें समझने के लिए तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के इरादे को समझना होगा और उसके बाद सत्य को समझना होगा। यही दो मुख्य बिन्दु हैं, और इनमें जो विस्तृत सामग्री निहित है उसी से बाकी सब बने हुए हैं।
पहली श्रेणी, जो सुसमाचार को फैलाने का अपना कर्तव्य करने वाले लोगों के विषय में है, उसका यहाँ थोड़े समय के लिए समापन किया जाएगा। आज, मैंने थोड़ा और परिशिष्ट के रूप में जोड़ दिया है, जो पिछली बार चर्चा की गई मुख्य विषय वस्तु के लिए अनुस्मारक का कार्य करेगा। इसके साथ ही, यह एक चेतावनी भी है ताकि हर व्यक्ति इस सत्य के महत्व को जान ले, जिससे हर वह कार्य और हर वह कर्तव्य जो तुम अभी कर रहे हो, वह इसी दिशा और लक्ष्य की तरफ उन्मुख हो और इसी नींव पर किया जाए—जो सभी सुसमाचार को फैलाने से संबंधित हैं। हालाँकि, तुम अग्रिम पंक्ति में रहकर सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ताओं के साथ बातचीत नहीं कर रहे हो, फिर भी ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले सभी कर्तव्य सुसमाचार के कार्य से संबंधित हैं। इस आधार पर, क्या हर व्यक्ति को सुसमाचार को फैलाने से संबंधित सत्य की ज्यादा स्पष्ट और रोशन समझ नहीं होनी चाहिए? (बिल्कुल।) आज के परिशिष्ट के जरिए, क्या तुम सभी ने सुसमाचार को फैलाने के कर्तव्य के वजन और महत्व की स्पष्ट समझ हासिल की है? (हाँ।) तो अब, भविष्य में इस सत्य की तरफ तुम्हारा सबसे उपयुक्त और सही रवैया क्या होना चाहिए? सुसमाचार को फैलाना परमेश्वर का इरादा है। परमेश्वर इस पुराने युग को समाप्त करना और अपने आगे ज्यादा लोगों का मार्गदर्शन कर उन्हें इस पुराने युग से नए युग में ले जाने का इरादा रखता है। यह परमेश्वर का इरादा है और इसे हर किसी को समझना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं समझ गया हूँ, लेकिन मुझमें सुसमाचार को फैलाने का जुनून नहीं है और न ही मेरा सहयोग करने का मन है।” यहाँ क्या समस्या है? (मानवता का अभाव।) हाँ, बिल्कुल। तुम अपने आप को सृजित प्राणी और परमेश्वर का अनुयायी मानते हो, लेकिन जब परमेश्वर के इरादे की बात आती है, जिस बारे में वह अक्सर सभी को चेतावनी देता रहता है और जब उसका बेहद जरूरी इरादा लोगों को स्पष्ट रूप से समझा दिया गया है, उसके बाद भी अगर तुम इस पर कोई ध्यान नहीं देते हो और इसकी परवाह नहीं करते हो, तो इससे तुम किस तरह के व्यक्ति बन जाते हो? यह मानवता के अभाव की अभिव्यक्ति है। तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करना चाहते हो और कहते हो कि वह तुम्हारा परमेश्वर और प्रभु है, लेकिन जब परमेश्वर के इरादे की बात आती है, तो तुम उसका बिल्कुल सम्मान नहीं करते हो, और उस पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते हो। यह मानवता का अभाव है और ऐसा व्यक्ति बेरहम होता है। यह विषय यहीं समाप्त होता है।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की परिभाषाएँ और उनकी नियुक्ति के कारण
अब इसके बाद चलो हम दूसरी श्रेणी के बारे में बात करें: वे लोग जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्य करते हैं। वैसे इनकी संख्या कम है, लेकिन ऐसे लोग अपने कार्य की प्रकृति के लिहाज से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्यों में कई सत्य भी निहित होते हैं—इन सत्यों की संख्या सुसमाचार फैलाने से भी ज्यादा है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? इन कर्तव्यों का दायरा बहुत विस्तृत है। इन कर्तव्यों का एक पहलू बाहरी तौर पर सुसमाचार फैलाने का कार्य है और दूसरा पहलू आंतिरक तौर पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सींचना और आपूर्ति करना, कलीसियाई जीवन का अच्छी तरह से प्रबंधन करना और साथ ही, कलीसिया के मामले निपटाना और सभी तरह की समस्याओं को हल करना भी है। इसका मतलब यह है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा सत्य समझने चाहिए, और अभ्यास के कुछ सिद्धांतों के संबंध में उनसे ज्यादा कड़ी माँगें की जानी चाहिए और परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता ज्यादा घनिष्ठ होना चाहिए। अगुआ या कार्यकर्ता होने में सत्य के अलग-अलग पहलुओं का अभ्यास करना और उनमें प्रवेश करना, लोगों द्वारा चुने गए रास्ते और साथ ही, कई और पहलू भी शामिल हैं। सुसमाचार फैलाने का कर्तव्य करने की तुलना में अगुआ या कार्यकर्ता बनना जीवन प्रवेश से ज्यादा घनिष्ठता से संबंधित है और इसके लिए स्वभाव में बदलाव लाने की भी जरूरत पड़ती है। इसका मतलब है कि अगुआओं का कार्य अच्छी तरह से कैसे किया जाए इससे संबंधित अलग-अलग सत्यों की संख्या ज्यादा है और उनका दायरा ज्यादा व्यापक है। फिर भी, चाहे इनकी संख्या कितनी भी हो, ये अभी भी कई मुख्य विषयों के अंतर्गत ही आते हैं, इसलिए चलो, एक-एक मद, एक-एक बिंदु के बारे में जानें, और फिर धीरे-धीरे तुम उन्हें समझने लगोगे। आओ, हम चर्चा की शुरूआत अगुआओं और कार्यकर्ताओं की परिभाषा के बारे में बात से करें। उन्हें परिभाषित करना क्यों जरूरी है? किसी चीज की परिभाषा उस चीज की स्थिति निर्धारित करने के बराबर है, यानी, इससे लोगों को इन कर्तव्यों की जिम्मेदारियों की प्रकृति और दायरे के साथ-साथ उन लोगों की पदवियों के बारे में—यानी उन्हें क्या कहकर बुलाना है इस बारे में—पता चलता है। इन कर्तव्यों को सटीकता से परिभाषित करके लोग अपने मन में इस बारे में स्पष्टता हासिल कर सकते हैं कि इस श्रेणी के लोगों को लेकर परमेश्वर के मन में क्या स्थिति है, वह उनसे किस चीज की माँग करता है और उनके द्वारा इन कर्तव्यों को करने के लिए उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, उन्हें कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए और किन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए। चाहे वे जवान हों या बूढ़े, चाहे उच्च और कुलीन स्थिति के हों या निचले और बुनियादी स्थिति के और चाहे किसी भी पृष्ठभूमि से हों, परमेश्वर के पास ऐसे लोगों के लिए जरूरी मानक हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे कुछ सत्य हैं जिन्हें ऐसे कर्तव्य करने वाले लोगों को जरूर समझना चाहिए; ऐसे कुछ सत्य सिद्धांत हैं जिनकी समझ हासिल करके उन्हें उनका अभ्यास करना चाहिए और एक ऐसा ख़ास रास्ता है जिस पर उन्हें चलना चाहिए। तो, परमेश्वर के अनुयायियों में से अगुवाई करने और काम करने के लिए चुने गए लोगों को आम तौर पर किस तरह परिभाषित किया जाता है? अगुवाई करने और आम तौर पर परिभाषित कार्य करने के लिए परमेश्वर के अनुयायियों में से उन्हें कैसे चुना जाता है? सटीक परिभाषा क्या है? लोग इसकी परिभाषा क्या मानते हैं? और ऐसे लोगों की दूसरों के दिलों में सटीक स्थिति क्या है? क्या यह ऐसे लोगों की पहचान और रुतबे को परिभाषित करने से संबंधित नहीं है? इस समूह के लोग दूसरों के दिलों मे क्या स्थान रखते हैं? क्या वे प्रेरित हैं? नहीं। क्या वे शिष्य हैं? वे शिष्य भी नहीं हैं। क्या ऐसा कोई है जो उन्हें चरवाहे कहकर बुलाता है? (हाँ।) क्या “चरवाहे” उचित पदवी है? (नहीं है।) क्यों नहीं है? (यह गलत स्थिति है।) क्या लोगों में चरवाहों की भूमिका निभाने की क्षमता होती है? (नहीं।) वे प्रेरित या शिष्य नहीं हैं और उन्हें “चरवाहे” बुलाना भी उचित नहीं है, तो ऐसे कर्त्तव्य करने वाले लोगों के लिए सबसे उचित नाम क्या है? ज्यादा उचित शब्द क्या है? (पहरेदार।) क्या “पहरेदार” उचित है? मुझे इस पदवी और “चरवाहे” में कोई अंतर नजर नहीं आ रहा है। यह सुनने में शानदार लगता है, लेकिन ये लोग जो कार्य करते हैं वह बहुत ही मामूली है। इनमें से कोई भी पदवी उचित नहीं है। तो, ये लोग जो कर्तव्य करते हैं उनकी प्रकृति के आधार पर, इससे ज्यादा उपयुक्त नाम और परिभाषा क्या है? ऐसे लोगों को परिभाषित करने के लिए क्या सिद्धांत हैं? परिभाषा इनके कार्य की प्रकृति के साथ-साथ इनकी पहचान और रुतबे से मेल खानी चाहिए और यह बिल्कुल सही होनी चाहिए और अत्यधिक शानदार नहीं होनी चाहिए। अगर हम इन लोगों को “प्रेरितों” के तौर पर परिभाषित करें, तो क्या यह बहुत ही आडम्बरपूर्ण होगा? (हाँ।) और, “पहरेदार” के बारे में क्या ख्याल है? (यह तो उससे भी ज्यादा आडम्बरपूर्ण है।) क्या तुममें दूसरों पर निगरानी रखने की क्षमता है? अगर नहीं है, तो फिर तुम पहरेदार नहीं हो। “चरवाहों” के बारे में क्या कहते हो? “चरवाहे” किन्हें कहते हैं? (वे लोग जो झुंड की देखभाल करते हैं।) यह उन लोगों के बारे में है जो भेड़ों के झुंड की देखभाल करते हैं और उनपर निगरानी रखते हैं। दरअसल, यह नाम इस समूह के लिए सही बैठता है, ठीक उनके कार्य की प्रकृति पर आधारित है। लेकिन, आजकल लोग कितना बोझ उठा सकते है, क्या हासिल कर सकते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव को देखते हुए, क्या “चरवाहे” पदवी उचित है? (नहीं।) यह थोड़ा-सा आडम्बरपूर्ण है। उनमें इसकी क्षमता नहीं है, और ना ही यह उस कार्य की प्रकृति या दायरे से मेल खाता है जिसे आजकल लोग करते हैं। जाहिर है, यह पदवी उनके लिए उपयुक्त नहीं है। तो फिर, इस श्रेणी के लोगों को परिभाषित करने का सबसे उचित तरीका क्या है? (अगुआओं और कार्यकर्ताओं के तौर पर परिभाषित करना चाहिए।) यह वाक्यांश ज्यादा उचित है।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की श्रेणी के लोगों के उद्भव के पीछे क्या कारण है? उनका उद्भव कैसे हुआ? एक विराट स्तर पर, परमेश्वर के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, जबकि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर, कलीसिया के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उनकी आवश्यकता है। चाहे उनकी पहचान या रुतबा कुछ भी हो और चाहे वे कोई भी भूमिका निभा रहे हों, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साधारण सदस्यों के समान हैं; परमेश्वर के सामने उनकी पहचान और रुतबा एक जैसा है। हालाँकि कलीसिया में “अगुआ” और “कार्यकर्ता” जैसे शब्द मौजूद हैं, और हालाँकि ये व्यक्ति “अगुआ” और “कार्यकर्ता” हैं जो अपने भाइयों और बहनों के कर्तव्यों से अलग कर्तव्य करते हैं, लेकिन परमेश्वर के सामने उनके “सृजित प्राणी” की पदवी अभी भी वही है; यह पहचान नहीं बदलेगी। अगुआओं और कार्यकर्ताओं, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साधारण सदस्यों के बीच बस उनके द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों के एक विशिष्ट गुण का अंतर होता है। यह विशिष्ट गुण खास तौर पर उनकी अगुआई की भूमिका में दिखता है। उदाहरण के लिए, किसी कलीसिया में कितने भी लोग हों, अगुआ ही मुखिया होता है। तो यह अगुआ सदस्यों के बीच क्या भूमिका निभाता है? वह कलीसिया में परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की अगुवाई करता है। संपूर्ण कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव होता है? अगर यह अगुआ गलत रास्ते पर चलता है, तो कलीसिया में मौजूद सभी लोग उसके पीछे-पीछे गलत रास्ते पर चलने लगेंगे, जिसका कलीसिया में परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों पर बहुत बड़ा असर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर पौलुस को लो। उसने अपने द्वारा स्थापित कई कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने लोगों की अगुआई की थी। जब पौलुस भटक गया, तो उसकी अगुआई वाली कलीसियाएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी भटक गए। इसलिए, जब अगुआ अपने ही किसी अलग रास्ते पर चलने लगते हैं, तो सिर्फ वे खुद ही नहीं, बल्कि वे जिन कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई करते हैं, वे भी प्रभावित होते हैं। अगर अगुआ सही व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति जो सही मार्ग पर चल रहा है और सत्य का अनुसरण और अभ्यास करता है, तो उसकी अगुवाई में चल रहे लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन खाएँगे और पीएँगे और सामान्य रूप से सत्य का अनुसरण करेंगे, और, साथ ही साथ, अगुआ का जीवन अनुभव और प्रगति दूसरों को दिखाई देगी और उन पर असर डालेगी। तो, वह सही मार्ग क्या है जिस पर अगुआ को चलना चाहिए? यह है दूसरों को सत्य की समझ और सत्य में प्रवेश की ओर ले जाने, और दूसरों को परमेश्वर के समक्ष ले जाने में समर्थ होना। गलत मार्ग क्या है? यह है बार-बार प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि तथा लाभ के पीछे भागना, अपनी खूबियों का प्रदर्शन करना और अपनी गवाही देना, और कभी भी परमेश्वर की गवाही न देना। इसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? (यह उन्हें अपने सामने लाता है।) वे लोग भटककर परमेश्वर से दूर चले जाएँगे और इस अगुआ के नियंत्रण में आ जाएँगे। अगर तुम लोगों को अपने समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करते हो, तो तुम उन्हें भ्रष्ट मनुष्यजाति के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो, और तुम उन्हें परमेश्वर के समक्ष नहीं, शैतान के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो। लोगों को सत्य के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना है। अगुआ और कार्यकर्ता चाहे मार्ग सही पर चलें या गलत मार्ग पर, उनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने सत्य नहीं समझा होता है, तो उनमें से ज्यादातर आँखें मूँदे अनुसरण करते हैं। उनका अगुआ भला हुआ तो वे उसका अनुसरण करेंगे; उनका अगुआ बुरा हुआ तो भी वे उसका अनुसरण करेंगे—वे भेद नहीं करते। जैसी अगुआई होती है, वे उसी प्रकार अनुसरण करते हैं, चाहे अगुआ कोई भी हो। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि कलीसियाएँ अच्छे लोगों को अपना अगुआ चुनें। परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति किस मार्ग पर चलता है, इसका सीधा संबंध उस मार्ग से होता है जिस पर उनके अगुआ चलते हैं, और वे उन अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं द्वारा अलग-अलग मात्राओं में प्रभावित हो सकते हैं। आओ, हम इन दो पंक्तियों के साथ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्यों में शामिल विभिन्न सत्य पर संगति करते हुए शुरू करें—एक तरफ सही मार्ग, और दूसरी तरफ गलत मार्ग। इनमें से पहले हमें किसके बारे में संगति करनी चाहिए? (गलत मार्ग के बारे में।) तुमने इसे क्यों चुना? क्या सही मार्ग पर चर्चा करना बेहतर है या गलत मार्ग पर? (गलत मार्ग पर।) दरअसल दोनों ही सही हैं—लेकिन हम चर्चा के लिए किसे पहले चुनते हैं इससे एक अलग प्रभाव पड़ेगा। अगर हम गलत मार्ग पर चर्चा से शुरू करते हैं, तो लोग गलत मार्ग में से सही मार्ग के बारे में और पता लगा सकते हैं और कई निष्क्रिय और नकारात्मक चीजों या ज्ञान का भी पता लगा सकते हैं, जिसका उपयोग वे खुद को धिक्कारने के लिए कर सकते हैं। वे इससे कुछ सकारात्मक प्राप्त कर सकते हैं, और फिर अगर हम सही मार्ग पर चर्चा करते हैं, तो लोग गहरे स्तर पर और ज्यादा तेजी से यह समझने में सक्षम होंगे कि क्या सकारात्मक है। मूल रूप से, यह दृष्टिकोण व्यवहार्य है, और यह लोगों के लिए लाभकारी है। तो, गलत मार्ग पर चर्चा करने से शुरुआत करते हैं।
मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकें
जब एक बार कोई व्यक्ति अगुआ या कार्यकर्ता के तौर पर चुन लिया जाता है और वह अपने कर्तव्य करना शुरू कर देता है, तो क्या उसे एक खास आचारण अपनाना चाहिए? कुछ लोग पूछते हैं, “कैसा आचरण? क्या उन्हें बादलों पर चढ़ जाना चाहिए या हवा और बारिश को काबू करना चाहिए?” इनमें से कोई भी सही नहीं है। हालाँकि, उन्हें बादलों पर नहीं चढ़ना चाहिए और ना ही हवा और बारिश को काबू करना चाहिए और बेशक उन्हें छतों पर चढ़कर चीखना-चिल्लाना नहीं चाहिए, लेकिन भ्रष्ट स्वभाव और शैतान का सार वाले भ्रष्ट इंसान होने के नाते, ऐसे मौकों पर हर व्यक्ति अपने अंदर एक भयंकर शक्ति की मौजूदगी अनुभव जरूर करता है। इन सब में ऊँची महत्वाकांक्षाएँ हैं और वे अपने पेशे में सफल होने, अपने कौशल का दिखावा करने, सबका ध्यान आकर्षित करने और जी-जान से कोशिश करने की तीव्र इच्छा महसूस करते हैं। चलो, अभी के लिए हम इस पर चर्चा नहीं करते हैं कि क्या इस तरह की तीव्र इच्छा सही है या गलत। जब किसी व्यक्ति को अगुआ या कार्यकर्ता के तौर पर चुना जाता है, तो वह अपने दिल की गहराई में बहुत ही जटिल भावनाएँ रखने लगता है। जटिल से मेरा क्या मतलब है? कुछ लोग मानते हैं कि अगुआ के तौर पर चुना जाना बिल्कुल आसान नहीं है और हालाँकि उन्हें पूरा यकीन नहीं होता कि वे इस कार्य को बखूबी कर सकते हैं या नहीं और उन्हें मालूम नहीं होता कि उनके भविष्य की राह क्या होगी, लेकिन उनकी अंतर्निहित प्रकृति ऐसी है कि वे यह अवसर पाकर बहुत खुश होते हैं और इस सम्मानित जिम्मेदारी और भारी बोझ को खुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लेते हैं। साथ ही, वे अपने दिल की गहराई में थोड़े-से आत्मसंतुष्ट और भाग्यशाली महसूस करते हैं। वे किस बारे में भाग्यशाली महसूस करते हैं? वे मानते हैं कि “मुझे दूसरे दर्जनों लोगों में से चुना गया—मैं अवश्य ही बहुत शानदार और सक्षम इंसान हूँ। मैं अवश्य ही आम लोगों से बेहतर हूँ और ज्यादातर लोगों की तुलना में मेरी समझ बेहतर है और मुझे ज्यादा आध्यात्मिक समझ है। मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और मैंने खुद को बहुत खपाया है और कड़ी मेहनत की है। तथ्यों से साबित होता है कि मैं कलीसिया में अगुवाई करने, लोगों का परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने और सत्य समझने में मार्गदर्शन करने के लिए योग्य हूँ। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो मुझसे ज्यादा चतुर, ज्यादा पढ़े-लिखे और बेहतर स्पष्टवक्ता हैं, तो फिर उनके बजाय मुझे क्यों चुना गया? इससे पता चलता है कि मैं सक्षम हूँ और मेरे पास अच्छी मानवता है। यह परमेश्वर का अनुग्रह है।” उनके मन में यही एकालाप चलता रहता है। “परमेश्वर का अनुग्रह” वाले हिस्से को आखिर में जोड़ दिया गया है, लेकिन दरअसल उनके सच्चे विचार और सच्ची समझ, उन्हेंने जो कहा उसके पहले हिस्से में निहित है। वे सोचता हैं “भले ही मैंने इसके लिए कोई मुकाबला या लड़ाई नहीं की हो, फिर भी मुझे चुना गया। और अब मुझे क्या करना चाहिए? मैं सभी को निराश नहीं कर सकता, मुझे जी-जान से कोशिश करनी चाहिए!” और वे जी-जान से कैसे कोशिश करते हैं? अपने काम के पहले दिन वे सभा के लिए हर समूह के सुपरवाइजरों को बुलाते हैं और उनमें उनके प्रति एक खास तरह का आचरण और ऊर्जा होती है। किस तरह की ऊर्जा होती है? वे तेजी और निर्णायक ढंग से कार्य करते हैं और वे जो कहते हैं उसका असल में वही मतलब होता है और वे एक शानदार शुरुआत करने के लिए तत्पर रहते हैं। सबसे पहले, वे सबको यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे कितने सक्षम हैं, फिर वे कोशिश करते हैं कि लोग पिछले अगुआ को पहचानें और त्याग दें। वे कहते हैं: “चलो आज हम कुछ समय मेरे से पिछले अगुआ का गहन-विश्लेषण करने में लगाते हैं, मिसाल के तौर पर, वह किन तरीकों से लोगों को बाधित करता था, वह कार्य के किन पहलुओं में गलतियाँ करता था या किन पहलुओं के प्रति लापरवाह था, वगैरह-वगैरह—हम इन सभी चीज़ों के बारे में संगति कर सकते हैं। जब हम संगति समाप्त कर लेंगे और तुम लोगों को पिछले अगुआ की स्पष्ट पहचान हो जाएगी और तुम उसका त्याग कर सकोगे, उसके द्वारा बाधित नहीं रहोगे और उसके लिए तरसना बंद कर दोगे, तब जाकर तुम्हें समझ रखने वाला और वफादार और परमेश्वर का आज्ञाकारी माना जा सकेगा। आज की सभा की शुरुआत हम पिछले झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी की निंदा करके करेंगे। आओ हम उसे उजागर करें।” जवाब में सब कहते हैं कि वे इस बारे में पहले से ही संगति कर चुके हैं और पहचान चुके हैं कि पिछला अगुआ झूठा और मसीह-विरोधी था, इसलिए अब उनके पास और उजागर करने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन ये नए अगुआ इस दलील से सहमत नहीं होते हैं, और एक-एक करके लोगों को चुनकर उन्हें संगति करने के लिए राजी करना शुरू कर देते हैं। उन्हें कुछ लोगों की संगति पसंद नहीं आती है, तो वे पिछले अगुआ के किसी सबसे करीबी भाई या बहन को उसे उजागर करने और उसका गहन-विश्लेषण करने के लिए बुलाते हैं, लेकिन उसकी संगति सुनकर ये नए अगुआ सोचने लगते हैं कि “इस व्यक्ति को मेरे से पिछले अगुआ की न तो पहचान है और न ही इसने उसका त्याग किया है। ऐसा लगता है कि वह अभी भी इस व्यक्ति के दिल में जगह बनाए हुए हैं। इससे बिल्कुल काम नहीं बनेगा; आज मुझे मेरे से पिछले अगुआ को पूरी तरह से उजागर करने का कोई तरीका ढूँढ निकालना ही होगा।” उसके बाद वे किसी ऐसे व्यक्ति को बुलाते हैं जिसके पिछले अगुआ के साथ बहुत खराब संबंध थे और उसे खड़े होकर पिछले अगुआ को उजागर करने के लिए कहते हैं। जब वह व्यक्ति पिछले अगुआ को उजागर कर देता है, तो वे संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि यह व्यक्ति विकास के लायक है। और वे क्या विकास करना चाहते हैं? वे एक सहयोगी का, अपनी खुद की शक्तियों का विकास करना चाहते हैं। पहली सभा इसी तरीके से चलती है। और क्या वे इस सभा के बाद अपना लक्ष्य हासिल कर पाते हैं? इतनी अच्छी तरह से या इतनी जल्दी नहीं। वे अपने दिलों में क्या साजिश रच रहे हैं? “इंसान के दिल से ज्यादा रहस्यमय कुछ भी नहीं है, और ना ही कुछ इससे ज्यादा भयावह है। मुझे यह पता लगाना होगा कि ये लोग मेरे से पिछले अगुआ के बारे में क्या सोचते हैं, और मुझे इस बारे में स्पष्ट रहना होगा कि वे मेरे बारे में क्या सोचते हैं, क्या उन्हें मेरे अतीत की जानकारी है या नहीं, और क्या उन्हें मेरे अंदर और बाहर की सारी बातें पता हैं या नहीं, और अंत में मुझे इन सभी को दिखाना होगा कि मेरे साथ वे बिल्कुल खिलवाड़ नहीं कर सकते हैं। लेकिन मुझे बड़े ध्यान से अपने तरीकों और दाँव-पेचों को चुनना होगा। मैं अपने इरादों को उजागर नहीं कर सकता; मुझे उन्हें छिपाकर रखना होगा।” और इन विचारों, कार्य करने के तरीकों और मकसदों का स्रोत क्या है? उनकी शैतानी प्रकृति। क्या तुम लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं? जिस दिन तुम लोगों को अगुआओं या कार्यकर्ताओं के तौर पर चुना गया था, शायद उस दिन तुमने गलत रास्ता नहीं अपनाने और झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के रास्ते पर नहीं चलने के लिए खुद को चेतावनी देकर शुरुआत की थी। शायद तुमने खुद से कहा था कि तुम्हें अपने रुतबे को त्याग देना चाहिए और अपनी खुद की शोहरत, फायदे या रुतबे की खातिर काम नहीं करना चाहिए या कार्य करते समय इच्छा का अनुसरण नहीं करना चाहिए और इसके बजाय अपने कर्तव्य करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और परमेश्वर का वफादार बने रहना चाहिए। फिर भी, समय बीतने के साथ-साथ कुछ लोग खुद पर काबू नहीं रख पाते और जैसे ही वे कुछ बोलते या करते हैं उनका लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है—वे फौरन अपने खुद के रुतबे को मजबूत करने और लोगों के दिल जीतने की कोशिश करने लगते हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति असंतोष या अवज्ञा का थोड़ा-सा भी आभास देता है, वे चिढ़ जाते हैं और हालाँकि वे उस व्यक्ति को खुलेआम बाहर नहीं करते हैं या उस पर हमला नहीं करते हैं, अपने दिल की गहराई में उन्हें उससे बेहद नफरत हो जाती है। वे अपनी इस नफरत की भावना को कैसे अभिव्यक्त करते हैं? (वे उस व्यक्ति को नजरअंदाज कर देते हैं।) नजरअंदाज करना एक शांत अभिव्यक्ति है, तो इस नफरत में कौन से खास क्रियाकलाप शामिल हैं? मिसाल के तौर पर, वे सभाओं में अपने मनपसंद लोगों को अपने सामने बिठाते हैं और जिन लोगों को वे नापसंद करते हैं, वे उन्हें किनारे पर बिठाने का कोई ना कोई बहाना ढूँढ ही लेते हैं। क्या यह हमला है? (हाँ।) यह उनके हमले की शुरुआत है। वे कार्रवाई कर रहे हैं, है ना? (हाँ।) शब्दों या विचारों की तुलना में क्रियाकलाप ज्यादा संगीन और तेज होते हैं। वे ज्यादा तेज क्यों होते हैं? किसी चीज के बारे में सोचना लेकिन उस पर कार्य नहीं करना—इसकी उत्पत्ति व्यक्ति के मन और विचारों से होती है। लेकिन जैसे ही कोई क्रियाकलाप होता है, यह एक तथ्य बन जाता है। जब यह व्यवहार बन जाता है, तो यह सिर्फ शैतान का भ्रष्ट स्वभाव नहीं रहता, बल्कि एक बुरा कर्म बन जाता है। लोगों को अगुआ बनने के लिए चुने जाने के बाद, वे जो कार्य और कर्तव्य करते हैं, उनमें अपनी खुद की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और आदर्श लेकर आते हैं। लेकिन ऐसी कौन सी अभिव्यक्ति है जो शैतान के भ्रष्ट स्वभाव वाले सभी इंसानों के पास होती है? इन सब लोगों में एक जैसा क्या है? वे ताकत हथियाने और अपने खुद के रुतबे को मजबूत करने की कोशिश करते हैं। वे किन साधनों से ताकत हथियाने की कोशिश करते हैं? सबसे पहले, वे समूहों में देखते हैं कि कौन उन्हें खुश करके, उनकी चापलूसी करके उनके पास आने की कोशिश कर रहा है। फिर, वे फुर्ती से ऐसे लोगों के पास आते हैं और चाहे चापलूसी से हो या छोटी-छोटी मदद करके, वे उनके साथ गुप्त संपर्क बना लेते हैं और उन्हें खुश करते हैं, ताकि ये लोग—जिनके साथ उनकी पसंद, रुचियाँ, महत्वाकांक्षाएँ मेल खाती हैं या जिनकी एक जैसी प्रकृति है—वे उनके कट्टर अनुयायी बन जाएँ और उनके साथ अपनी ताकत मिला दें। और उन लोगों को उनकी ताकत अपने साथ मिलाने के लिए प्रेरित करने के पीछे उनका क्या लक्ष्य होता है? अपने रुतबे को मजबूत करना और अपनी ताकतों के दायरे को बढ़ाना। जब वे ताकत हासिल कर लेते हैं, तो उनके लिए मुद्दा सिर्फ इतना नहीं होता कि हर बात में उनका फैसला ही अंतिम हो और कुछ नहीं—बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि और लोग भी उनका अनुसरण करें, उनका समर्थन करें और उनकी तरफ से बोलें, ताकि अगर कभी वे कोई गलत बात कह दें, बुरी चीजें कर डालें या लोगों पर हमला करें और उन्हें रोकें, तो भी कुछ ऐसे लोग जरूर मौजूद हों जो उनके कहने के मुताबिक कार्य करें और उन्हें स्वीकृति दें। यही उनका लक्ष्य है। फिर, अगर ऊपरवाले को उनकी समस्याओं का पता लग जाए और एक दिन वह उनकी जगह किसी और को दे दे, तो उस समय भी कुछ ऐसे लोग मौजूद हों जो उनकी तरफ से बोलने के लिए जी-जान लगा दें, जो उनके बचाव में आगे आएँ और उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने की कोशिश करें। और इस तरह का परिणाम हासिल करने के लिए वे अपने क्रियाकलापों के लिए किस तरीके का उपयोग कर रहे हैं? वे लोगों का दिल जीत रहे हैं। वे अपने रुतबे को मजबूत करने और अपनी ताकतों के दायरे बढ़ाने के लिए लोगों के दिल जीतने के तरीके का उपयोग करते हैं। यह मसीह-विरोधियों का ताकत हथियाने का एक तरीका है।
जब उन तकनीकों की बात आती है जिनका मसीह-विरोधी लोग अपने रुतबे को मजबूत करने के लिए उपयोग करते हैं, तो उनमें से पहली तकनीक है लोगों के दिल जीतना और दूसरी है विरोधियों पर हमला करना और उन्हें बाहर रखना। लोगों के दिल जीतने का मतलब है कि वे लोगों को जीतने के तरीके का उपयोग उन पर करते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, उनसे घनिष्ठ संबंध बनाते हैं, उन पर भरोसा करते हैं और चाहे वे सही हों या गलत, हर हाल में उनका अनुसरण करते हैं। विरोधियों पर हमला करने और उन्हें बाहर रखने का मतलब है कि वे उन सभी को दुश्मन मानते हैं जो सत्य समझते हैं और जो फलस्वरूप उन्हें पहचान सकते हैं, उनका अनुसरण नहीं करते हैं और उनसे दूरी बनाए रखते हैं। वे ऐसे लोगों को आँखों के काँटे समझते हैं और इन लोगों पर हमला करने और उन्हें बाहर रखने की तकनीक का उपयोग करते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि एक मसीह-विरोधी देखता है कि जब भी वह संगति करता है तो लोगों में बहुत उत्साह होता है और उनमें से कुछ लोग उसकी कही बातों को लिख लेते हैं या उन्हें टेप रिकॉर्डर पर रिकॉर्ड कर लेते हैं। सिर्फ एक ही युवा बहन है जो ना कभी कुछ लिखती है और ना ही कुछ बोलती है। तो, वे अपने मन में सोचते हैं: “क्या उसे मुझसे कोई समस्या है? या उसे लगता है कि मैं अच्छी तरह संगति नहीं करता हूँ? इतना ही नहीं, मैं जब भी आता हूँ, तो लोग मेरा स्वागत करते हैं और मुझे देखकर गर्मजोशी से सिर हिलाते हैं, मेरे लिए पानी लेकर आते हैं और मुझे बैठने की जगह देते हैं, लेकिन इसने मेरे साथ कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया है। ऐसा लगता है कि यह मेरे सामने झुक नहीं रही है—मुझे इसे सबक सिखाने का एक तरीका और मौका ढूँढना ही पड़ेगा! मुझे किस तरह का मौका ढूँढना चाहिए? मैं उसे कोई ऐसा कार्य करने को दूँगा जिसके बारे में मुझे पूरा यकीन है कि वह अच्छी तरह से नहीं कर पाएगी—और फिर मुझे उसे फटकार लगाने की एक वजह मिल जाएगी। उसे मेरे आगे झुकने के लिए मजबूर करने का मेरे पास यही सबसे बढ़िया मौका है।” इसके बाद वह इस बहन को किसी खतरनाक जगह कार्य करने के लिए भेजने की व्यवस्था करता है। वह सोचता है: “मैं इसे किसी ऐसे बूढ़े धार्मिक पादरी के पास जाकर सुसमाचार फैलाने के लिए कहूँगा, जो थोड़ा-सा ऐयाश है और सत्य स्वीकार नहीं करता है। फिर देखते हैं कि बहन उसे बदल पाती है या नहीं। अगर वह उसे नहीं बदल पाई, तो फिर उसके पास अपने बचाव में मुझसे कहने के लिए क्या रह जाएगा? अगर वह मेरे आगे नहीं झुकी, तो मैं उसे यहाँ से विदा कर दूँगा!” फिर वह उसके पास जाकर यह कहता है: “देखो, इस समय ज्यादातर दूसरे भाई और बहन तुम्हे बहुत आदर की दृष्टि से देखते हैं। तुमने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और तुम कई सत्य समझती हो। एक धार्मिक पादरी है जिसने बाइबिल का अध्ययन बहुत अच्छी तरह से किया है और उसके पास जाकर सुसमाचार फैलाने के कार्य के लिए सिर्फ तुम ही सबसे उपयुक्त हो।” जब बहन उस पादरी से मिलती है तो वह पादरी देखता है कि बहन जवान और सुदंर है और वह उसे पसंद आ जाती है—यहाँ तक कि वह बहन के साथ थोड़ा-बहुत अभद्र व्यवहार भी करता है। वापस आने पर बहन कहती है कि वह वहाँ वापस नहीं जाना चाहती, जिस पर मसीह-विरोधी जवाब देता है : “कलीसिया ने तुम्हें उसके पास सुसमाचार फैलाने का कार्य सौंपा है। यह तुम्हारा कर्तव्य है, तुम्हें वहाँ जाना ही पड़ेगा!” यह सुनकर बहन उसकी आज्ञा मानने पर मजबूर हो जाती है और फलस्वरूप हर बार उससे मिलकर लौटने के बाद वह रोती रहती है। यह अगुआ दूसरों पर हमला करने और बदला लेने के लिए ऐसी नीच हरकतें भी कर सकता है। यह किस किस्म का व्यक्ति है? यह बुरा व्यक्ति है। अगर वह खुद कोई महिला होता तो क्या वह ऐसी परिस्थिति में खुद वहाँ जाता? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। वह इस कार्य को करने से सबसे ज्यादा बचता। ऐसे मसीह-विरोधी देखते हैं कि कौन उन्हें नाखुश करता है, किसे परेशान करना आसान है, कौन उनके आगे सिर नहीं झुकाता है और कौन उनकी चापलूसी नहीं करता है, और फिर वे ऐसे लोगों के खिलाफ साजिशें रचने और उनसे बदला लेने के मौके ढूँढते रहते हैं। मुझे बताओ, जब कोई गलत और बुरे इरादे रखता है, तो क्या वह सभी किस्मों की भयंकर चीजें करने की क्षमता नहीं रखता है? और इन गलत और बुरे इरादों की शुरुआत कैसे होती है? एक मुख्य वजह यह है कि उनका प्रकृति सार बहुत ही बुरा और द्वेषपूर्ण है और दूसरी वजह यह है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है। जब लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है, तो ऐसा कुछ नहीं है जिसे करने की हिम्मत उनमें नहीं हो; वे सिर्फ दूसरे लोगों को नुकसान ही नहीं पहुँचाते हैं, बल्कि वे परमेश्वर की आलोचना करने और उसे बेचने जैसी चीजें भी कर सकते हैं—लोगों को नुकसान पहुँचाना तो उनके लिए बच्चों का खेल है। वे दूसरे लोगों को चाहे कितना भी नुकसान क्यों ना पहुँचा दें, उनके विचार से यह कोई बड़ी बात नहीं है; उनके दिल में दूसरों के लिए कोई सहानुभूति नहीं होती है और मूलरूप से वे बेहद द्वेषपूर्ण होते हैं। और इस मसीह-विरोधी का क्या लक्ष्य था जब उसने इस जवान बहन को आग के दरिया की तरफ धकेल दिया? उसने यह हरकत सुसमाचार फैलाने और लोग हासिल करने के लिए नहीं की; उसका उद्देश्य सिर्फ इस बहन को सताना था। वे किस किस्म के लोगों को सताते हैं? अगर कोई व्यक्ति उनके कहे मुताबिक चलता हो और उनकी आज्ञा मानता हो, तो क्या वह उसे सताएँगे? नहीं, वे नहीं सताएँगे। तो फिर इस बहन के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया? (क्योंकि वह उसके आगे नहीं झुकी।) क्योंकि वह उसके आगे नहीं झुकी, उसकी खुशामद नहीं की, उसने जैसा कहा वैसा नहीं किया या उसे कोई बड़ी हस्ती नहीं माना, बल्कि उसकी उपेक्षा की, फलस्वरूप उसके साथ ऐसा व्यवहार किया गया और उसे नुकसान पहुँचाया गया। जब मसीह-विरोधी इस तरीके से लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले लोग जिन्हें सत्य की समझ नहीं होती है, वे आम तौर पर कैसे प्रतिक्रिया करेंगे? वे अपने मन में सोचेंगे: “राज्य के अधिकारियों की तुलना में स्थानीय अधिकारियों के पास ज्यादा नियंत्रण है। इस समय हम इस व्यक्ति के नियंत्रण में हैं, इसलिए वह जो कहता है, हमें वही करना चाहिए और जहाँ जाने के लिए कहता है, वहाँ चले जाना चाहिए। जिस तरीके से दूसरे लोग उसके साथ व्यवहार करते हैं, हमें भी ठीक उसी तरीके से उसके साथ व्यवहार करना चाहिए। हमें समूह के साथ जुड़कर रहना चाहिए। हमें ठीक उसी तरह उसकी खुशामद करनी चाहिए जैसे दूसरे लोग करते हैं, और हमें यह चीज दूसरों की तुलना में बेहतर तरीके से और ज्यादा ध्यान से करनी चाहिए। सिर्फ तभी हम इस अगुआ द्वारा सताए जाने से खुद को बचा सकते हैं। इस अगुआ की सेवा करना आसान नहीं है—हमें उसके साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए!” और क्या मसीह-विरोधी ठीक यही परिणाम नहीं देखना चाहता? (हाँ।) इस तरह से वह अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है। क्या यह ठीक वही तकनीक नहीं है जिसका उपयोग शैतान लोगों का गलत फायदा उठाने के लिए करता है? (हाँ, वैसी ही है।) इससे क्या पता चलता है? यही कि उनके क्रियाकलाप शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शैतान के लिए एक निकास द्वार और उसके प्रतिनिधि बन गए हैं; वे उसकी तरफ से कार्य करते हैं। क्या इस तरीके से कोई कर्तव्य करना कर्तव्य का सच्चा निष्पादन है? क्या यह परमेश्वर की सेवा करना है? (नहीं।) ऐसे लोग अगुआ कहे जाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं—वे कुकर्मी और शैतान हैं।
जैसे ही मसीह-विरोधी लोग अगुआ बनते हैं, वे सबसे पहली चीज जो करते हैं वह है लोगों के दिल जीतने का प्रयास करना, लोगों को उनका विश्वास करने, उन पर भरोसा करने और उनका समर्थन करने के लिए मजबूर करने का प्रयास करना। जब उनका रुतबा सुरक्षित हो जाता है, तो वे असामान्य होने लगते हैं। अपने रुतबे और शक्ति की रक्षा करने के लिए, वे विरोधियों पर आक्रमण करना और उन्हें निकाल देना शुरू कर देते हैं। वे विरोधियों को—खासकर सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को—दबाने और उन पर आक्रमण करने के लिए, उन्हें सताने के लिए स्थिर, सटीक और अथक तरीकों का उपयोग करते हुए उन पर कुछ भी आजमाएँगे। उन्हें चैन सिर्फ तभी मिलता है जब वे अपने रुतबे को खतरे में डालने वाले हर व्यक्ति को नीचे गिरा देते हैं और बदनाम कर देते हैं। हर मसीह-विरोधी ऐसा ही होता है। लोगों को जीतने और दबाने के लिए इन अनगिनत चालों का उपयोग करने के पीछे उनका क्या लक्ष्य है? उनका लक्ष्य शक्ति हासिल करना, अपने रुतबे को मजबूत करना, लोगों को गुमराह और नियंत्रित करना है। उनके इरादे और उद्देश्य क्या दर्शाते हैं? वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते हैं, वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होना चाहते हैं। ऐसा सार भ्रष्ट स्वभाव से भी ज़्यादा शोचनीय है : शैतान की महत्वाकांक्षाएँ और विश्वासघाती साजिशें पूरी तरह से उजागर हो चुकी हैं। यह सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने की समस्या नहीं है। मिसाल के तौर पर, जब लोग थोड़े घमंडी और खुदपसंद होते हैं, या कभी-कभी थोड़े धोखेबाज और झूठे होते हैं, तो ये सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे होते हैं। इस बीच, मसीह-विरोधी जो भी चीज करते हैं, वह लोगों के दिल जीतने, विरोधियों पर आक्रमण करने और उन्हें निकाल देने, अपने रुतबे को मजबूत करने, शक्ति छीनने और लोगों को नियंत्रित करने के लिए होता है। इन क्रियाकलापों की क्या प्रकृति है? क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने और परमेश्वर के सामने आने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई कर रहे हैं? (नहीं।) तो वे क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे होड़ कर रहे हैं, लोगों के दिलों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, और अपना खुद का, स्वतंत्र राज्य स्थापित करने प्रयास कर रहे हैं। लोगों के दिलों में किसे जगह मिलनी चाहिए? परमेश्वर को जगह मिलनी चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी जो भी करते हैं, वह ठीक इसका उल्टा होता है। वे परमेश्वर या सत्य को लोगों के दिलों में जगह लेने नहीं देते हैं; इसके बजाय, वे चाहते हैं कि मनुष्य को, अगुआ को जो कि वे खुद ही हैं, और शैतान को लोगों के दिलों में जगह मिले। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि किसी व्यक्ति के दिल में उनके लिए जगह नहीं है, कि यह व्यक्ति उन्हें अगुआ नहीं मानता है, तो वे बेहद नाराज हो जाते हैं, और शायद उसे दबाने और सताने का प्रयास करेंगे। मसीह-विरोधी जो भी करते और कहते हैं, वह उनके रुतबे और प्रतिष्ठा पर केंद्रित होता है, और इसका आशय लोगों के दिलों में अपके बारे में ऊँची राय बनवाना है, लोगों कोअपने से ईर्ष्या और अपनी आराधना करवाना है—यहाँ तक कि लोगों को अपने से डरने के लिए मजबूर करना भी होता है। वे चाहते हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोग यह सोचकर उन्हें परमेश्वर मानें कि “मैं चाहे किसी भी कलीसिया में क्यों ना रहूँ, लोगों को मेरी बात जरूर सुननी चाहिए, उन्हें मुझसे संकेत लेने चाहिए। चाहे कोई भी व्यक्ति ऊपरवाले को किसी भी समस्या के बारे में रिपोर्ट करे, यह रिपोर्ट मेरे जरिए ही जानी चाहिए, लोगों को सिर्फ मुझे रिपोर्ट करने की अनुमति है, सीधे ऊपरवाले को नहीं। अगर कोई मुझे ‘ना’ कहेगा, तो मैं उसे सजा दूँगा, ताकि मुझे देखने वाला हर व्यक्ति डर और घबराहट महसूस करे और अपने दिल में सिहरने लगे। इतना ही नहीं, अगर मैं कोई आदेश देता हूँ या जोर देकर कुछ कहता हूँ, तो किसी को भी असहमत होने की जुर्रत नहीं करनी चाहिए; मैं जो भी कहूँ, लोगों को उसी के मुताबिक चलना चाहिए। उन्हें मेरी बात अवश्य सुननी चाहिए, उन्हें सभी चीजों में मेरी आज्ञा माननी चाहिए, और मुझे ही वहाँ के सारे फैसले लेने वाला व्यक्ति होना चाहिए।” मसीह-विरोधी ठीक इसी लहजे में बोलते हैं, यह मसीह-विरोधियों की आवाज है, इसी तरह मसीह-विरोधी कलीसियाओं पर अपना रोब जमाने का प्रयास करते हैं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग उनके कहे मुताबिक कार्य करते हैं और उनकी आज्ञा मानते हैं, तो क्या ऐसी कलीसियाएँ मसीह-विरोधी के राज्य नहीं बन जाएँगी? वे कहते हैं, “ऊपरवाले द्वारा जारी की गई कार्य व्यवस्थाओं की जाँच मुझे ही करनी होगी, मुझे तुम लोगों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए, मैं ही सही और गलत का विश्लेषण करने वाला व्यक्ति होना चाहिए, परिणाम का फैसला मुझे ही लेना चाहिए। तुम्हारा आध्यात्मिक कद पर्याप्त नहीं है, और तुम पर्याप्त रूप से योग्य नहीं हो। इस कलीसिया का अगुआ मैं हूँ और सब कुछ मेरी मर्जी पर निर्भर करता है।” क्या ऐसी चीजें कहने वाले लोग बहुत ज्यादा आडंबर नहीं कर रहे हैं? वे वाकई इतने घमंडी हैं कि उनके पास कोई सूझ-बूझ नहीं है! क्या वे अपना खुद का, स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? किस तरह के लोग अपना खुद का राज्य बनाने का प्रयास करने के लिए जिम्मेदार हैं? क्या वे सच्चे मसीह-विरोधी नहीं हैं? क्या मसीह-विरोधी जो भी करते और कहते हैं वह सब कुछ उनके अपने खुद के रुतबे की रक्षा करने के लिए नहीं होता है? क्या वे लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? उन्हें मसीह-विरोधी क्यों कहा जाता है? “विरोधी” का क्या मतलब है? इसका मतलब है विरोध और नफरत। इसका मतलब मसीह के प्रति शत्रुता, सत्य के प्रति शत्रुता और परमेश्वर के प्रति शत्रुता है। “शत्रुता” का क्या मतलब है? इसका मतलब है विपरीत पक्ष में खड़ा होना, तुम्हारे साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करना, मानो व्यक्ति में बहुत ज्यादा और गहरी नफरत भरी हुई हो; इसका मतलब पूरी तरह से तुम्हारे विरोध में होना है। मसीह-विरोधी ऐसी ही सोच के साथ परमेश्वर के पास जाते हैं। परमेश्वर से नफरत करने वाले लोगों का सत्य के प्रति क्या रवैया होता है? क्या वे सत्य से प्रेम कर पाते हैं? क्या वे सत्य को स्वीकार कर पाते हैं? बिल्कुल नहीं। इसलिए, परमेश्वर के विरोध में जो लोग खड़े होते हैं, वे सत्य से नफरत करने वाले लोग होते हैं। उनमें सबसे मुख्य चीज जो प्रदर्शित होती है, वह है सत्य के प्रति विमुखता और सत्य से नफरत। जैसे ही वे सत्य या परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उनके दिलों में नफरत आ जाती है, और जब कोई उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है, तो उनके चेहरों पर गुस्से और रोष की ठीक वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देने लगती है, जैसी लोगों द्वारा सुसमाचार फैलाने के दौरान परमेश्वर के वचन किसी राक्षस को पढ़कर सुनाते समय दिखाई देती है। जो लोग अपने दिलों में सत्य से विमुख होते हैं और सत्य से नफरत करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बेहद विमुखता महसूस करते हैं, उनका रवैया प्रतिरोध का होता है, और वे इस हद तक पहुँच जाते हैं कि जो कोई भी उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है या उनके साथ सत्य की संगति करता है, वे उससे नफरत करने लगते हैं, यहाँ तक कि वे उस व्यक्ति को दुश्मन मानने लगते हैं। वे अलग-अलग सत्य और सकारात्मक चीजों से बेहद विमुखता महसूस करते हैं। सभी सत्य के प्रति, जैसे कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, निष्ठा से अपना कर्तव्य करना, ईमानदार व्यक्ति होना, सभी चीजों में सत्य की तलाश करना, आदि के प्रति—क्या उनमें थोड़ी-सी व्यक्तिपरक तड़प या प्रेम है? नहीं, नाममात्र भी नहीं। इसलिए, उनकी इस प्रकार के प्रकृति सार को देखते हुए, वे पहले से ही परमेश्वर और सत्य के सीधे विरोध में खड़े हैं। तो, निस्संदेह रूप से, ऐसे लोग सत्य या किसी सकारात्मक चीज से गहराई से प्रेम नहीं करते हैं; यहाँ तक कि वे अपने दिल की गहराई में सत्य से विमुखता महसूस करते है और उससे नफरत करते हैं। मिसाल के तौर पर, अगुवाई के पदों पर बैठे लोगों को अपने भाई-बहनों की अलग-अलग राय स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए, उन्हें भाई-बहनों के सामने अपने दिल खोलकर खुद को उजागर करने और उनकी निंदा को स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए, और उन्हें अपने रुतबे का हक नहीं जताना चाहिए। एक मसीह-विरोधी अभ्यास के इन सभी सही तरीकों के बारे में क्या कहेगा? वह कहेगा, “अगर मैं भाई-बहनों की राय सुन लेता, तो क्या मैं अब भी अगुआ बना रहता? क्या अब भी मेरे पास रुतबा और प्रतिष्ठा होती? अगर मेरे पास कोई प्रतिष्ठा नहीं है, तो मैं क्या काम कर सकता हूँ?” यह ठीक उसी प्रकार का स्वभाव है, जैसा मसीह-विरोधी लोगों में होता है; वे सत्य को सबसे सूक्ष्म तरीके से भी स्वीकार नहीं करते हैं, और अभ्यास का तरीका जितना ज्यादा सही होता है, उतना ही वे उसका विरोध करते हैं। वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि सिद्धांत के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना है। वे क्या सोचते हैं कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है? वे सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर के वचनों, सत्य और प्रेम पर भरोसा करने के बजाय सभी पर साजिशों, चालों और हिंसा का उपयोग करना चाहिए। उनका हर साधन और मार्ग दुष्ट होता है। यह सब मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को पूरी तरह से दर्शाता है। वे अक्सर जो उद्देश्य, राय, विचार और इरादे प्रकट करते हैं, वे सभी सत्य से विमुखता और सत्य से नफरत के स्वभाव हैं, जो मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। तो क्या, इसका मतलब सत्य और परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा होना है? इसका मतलब है सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करना। मिसाल के तौर पर, जब कोई कहता है, “एक सृजित प्राणी होने के नाते, व्यक्ति को सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। परमेश्वर चाहे जो भी कह दे, मनुष्यों को समर्पण करना चाहिए, क्योंकि हम सृजित प्राणी हैं,” लेकिन मसीह-विरोधी कैसे सोचता है? “समर्पण करूँ? यह असत्य नहीं है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, लेकिन जब समर्पण करने की बात आती है, तो यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इसमें मेरे लिए कुछ फायदा जरूर होना चाहिए, मेरा कोई नुकसान नहीं होना चाहिए, और मेरे हित सबसे पहले आने चाहिए। अगर यहाँ हासिल करने के लिए इनाम या महान आशीषें हैं, तो मैं समर्पण कर सकता हूँ, लेकिन इनामों के बगैर और किसी मंजिल के बिना, मुझे क्यों समर्पण करना चाहिए? मैं समर्पण नहीं कर सकता।” यह सत्य को नहीं स्वीकार करने का रवैया है। वे शर्तों पर परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं, और अगर उनकी शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो वे ना सिर्फ समर्पण नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर का विरोध और प्रतिरोध करने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों, लेकिन ये मसीह-विरोधी मानते हैं कि सिर्फ बेवकूफ लोग ही ईमानदार होने का प्रयास करते हैं, और कि बुद्धिमान लोग ईमानदार होने का प्रयास नहीं करते हैं। इस तरह के रवैये का सार क्या है? यह सत्य से नफरत है। मसीह-विरोधियों का सार ऐसा ही होता है, और उनका सार तय करता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं, और जिस मार्ग पर वे चलते हैं, वही उनके द्वारा की जाने वाली हर चीज को तय करता है। जब मसीह-विरोधियों में सत्य और परमेश्वर से नफरत का प्रकृति सार होता है, तो वे किस तरह की चीजें करने के लिए जिम्मेदार होते हैं? वे लोगों के दिल जीतने, विरोधियों पर आक्रमण करने और उन्हें निकाल देने और लोगों को सताने का प्रयास करने के लिए जिम्मेदार हैं। इन चीजों को करने में वे जो लक्ष्य हासिल करने का प्रयास रहे हैं, वह है शक्ति का उपयोग करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना और अपना खुद का, स्वतंत्र राज्य स्थापित करना। इस बारे में कोई शक नहीं है। कोई भी व्यक्ति, जो एक बार रुतबा मिलते ही परमेश्वर के प्रति पूरा समर्पण करने में असमर्थ हो जाता है, और परमेश्वर का अनुसरण करने या सत्य का अनुसरण करने में समर्थ नहीं रहता है, वह मसीह-विरोधी है।
अगुआओं का कर्तव्य करते समय मसीह-विरोधी लोग किस तरह की चीजें करते हैं? हमने अभी-अभी इस बारे में बात की कि वे किस तरह से लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं और विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं, लेकिन सभी मसीह-विरोधियों में एक और आम अभिव्यक्ति होती है—उन लोगों के प्रति उनका कैसा रवैया होता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं? (नफरत का।) और यह उन्हें क्या करने के लिए मजबूर करता है? क्या वे उन लोगों से सिर्फ नफरत करते हैं, और बस यही करते हैं? नहीं, वे उन्हें निकाल देने और दबाने के तरीके ढूँढते हैं। वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं। ये विरोधी ऐसे लोग हो सकते हैं जो थोड़े भ्रमित हैं, जो दूसरों को खुश करने या सांसारिक आचरण के फलसफों का उपयोग करने का तरीका नहीं जानते हैं। वे ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो दूसरों से ज्यादा उत्साही हैं और जो सत्य का थोड़ा-बहुत अनुसरण करते हैं। तो, मसीह विरोधियों की तीसरी तकनीक क्या है? सत्य का अनुसरण करने वालों को वे निकाल देते हैं और उन पर आक्रमण करते हैं। उनकी एक और तकनीक भी है: वे लोगों के दिलों में अपने लिए जगह बनाने का प्रयास करते हैं। इसे क्या कहते हैं? (लोगों के दिलों पर कब्जा करना।) वे यही हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। इसे करने के लिए वे किस साधन का उपयोग करते हैं? (वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं।) और अपनी बड़ाई करने और अपनी गवाही देने के पीछे मसीह-विरोधियों का क्या लक्ष्य है? उनका लक्ष्य लोगों के दिलों पर कब्जा करना और उन्हें नियंत्रित करना है। जब लोग अपनी बड़ाई करते हैं और अपनी गवाही देते हैं, तो आम तौर पर वे किस तरह की चीजों के बारे में बात करते हैं? एक चीज है अपनी योग्यताओं के बारे में बात करना। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग इस बारे में बात करते हैं कि उन्होंने किस तरह से ऊँचे स्तर के कुछ कलीसियाई अगुआओं की मेजबानी की है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “मैंने खुद परमेश्वर की मेजबानी की, और उसने मेरे साथ काफी अच्छा व्यवहार किया—मुझे निश्चित रूप से पूर्ण बनाया जाएगा।” इससे वे क्या कहना चाहते हैं? (वे लोगों के दिलों में अपने बारे में ऊँची राय बनाने का प्रयास कर रहे हैं।) ये चीजें कहने के पीछे उनका एक लक्ष्य है। दूसरे लोग कहते हैं, “मैं ऊपरवाले के संपर्क में आ चुका हूँ, मेरे बारे में वह बहुत ऊँची राय रखता है, और उसने मुझे मेरे लक्ष्य के लिए कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित किया।” दरअसल, किसी को भी बिल्कुल अंदाजा नहीं है कि ऊपरवाला उसके बारे में क्या सोचता है। कुछ लोग वाकई चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, और कभी-कभी तो कहानियाँ तक बना लेते हैं। अगर लोगों का एक समूह उनकी कहानियों को सत्यापित करने और जाँचने के लिए इकट्ठा आ जाए, तो उन्हें पता नहीं होगा कि क्या करना है। ऊपरवाला किसी से कह सकता है, “तुममें अच्छी काबिलियत है और तुम्हारे पास समझने की क्षमता है। तुम्हें अपनी अनुभवजन्य गवाही को लिखने का अभ्यास करना चाहिए। एक बार जब तुम्हारे पास जीवन अनुभव आ जाएगा, तो तुम अगुआ बन सकते हो।” यहाँ निहितार्थ क्या है? भले ही यह व्यक्ति प्रतिभाशाली है, फिर भी उसे कुछ समय तक प्रशिक्षण लेने और चीजों का अनुभव करने की जरूरत है। जब वह व्यक्ति प्रशिक्षण लेने या अनुभव हासिल करने से पहले अपनी शान दिखाता है और दिखावा करता है, तो इसकी क्या प्रकृति है? वह घमंडी और दंभी हो रहा है, और अपनी सूझ-बूझ खो चुका है, है ना? भले ही ऊपरवाला भाई कहे कि इस व्यक्ति में काबिलियत है और कि वह प्रतिभाशाली है, यह सिर्फ उनका उत्साह बढ़ाना या उसका मूल्यांकन करना है। इस तरह से घूम-घूमकर दिखावा करने के पीछे उस व्यक्ति का क्या लक्ष्य है? यह लोगों के दिलों में अपने बारे में ऊँची राय बनाना और उनसे अपनी आराधना करवाना है। उसके कहने का यह मतलब है, “देखो—ऊपरवाला भाई मेरे बारे में ऊँची राय रखता है, तो तुम क्यों नहीं रखते हो? अब जब मैंने तुम्हें यह बता दिया है, तो तुम्हें भी मेरे बारे में ऊँची राय रखनी चाहिए।” यही वह लक्ष्य है जिसे वह हासिल करना चाहता है। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, “मैं अगुआ हुआ करता था। मैं एक क्षेत्र, एक जिले, एक कलीसिया का अगुआ था—मैं सीढ़ी से लगातार नीचे गिरता रहा, और लगातार ऊपर चढ़ता रहा—मुझे कई बार पदोन्नत और पदावनत किया गया है। आखिर में, स्वर्ग मेरी सच्चाई से द्रवित हो उठा और आज, मैं एक बार फिर से ऊँचे स्तर का अगुआ हूँ। और मैं एक बार भी नकारात्मक नहीं रहा हूँ।” जब तुम उससे पूछते हो कि उसने कभी नकारात्मक महसूस क्यों नहीं किया, तो जवाब में वह कहता है, “मुझे आस्था है कि आखिर में चमक उठना सच्चे सोने की किस्मत है।” वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है। क्या यह सत्य वास्तविकता है? (नहीं।) तो अगर यह सत्य वास्तविकता नहीं है, तो फिर यह क्या है? यह एक अजीब सिद्धांत है; हम यह भी कह सकते हैं कि यह एक भ्रांति है। उसके इस तरह से बोलने का क्या परिणाम हो सकता है? कुछ लोग कह सकते हैं, “यह व्यक्ति वाकई सत्य का अनुसरण करता है। वह इतनी बार पदोन्नत और पदावनत होने के बाद भी नकारात्मक नहीं हुआ। और अब उसे फिर से अगुआ बना दिया गया है—असली सोना वाकई चमक उठता है। बहुत जल्द उसे पूर्ण बना दिया जाएगा।” क्या उस व्यक्ति का यही लक्ष्य नहीं था? दरअसल, उसका लक्ष्य ठीक यही था। मसीह-विरोधियों के बोलने का ढंग चाहे जो भी हो, यह हमेशा इसलिए होता है ताकि लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें और उनकी आराधना करें, वे उनके दिलों में एक निश्चित जगह बना लें, यहाँ तक कि वहाँ परमेश्वर की स्थिति भी ले लें—ये सभी वे लक्ष्य हैं, जो मसीह-विरोधी अपनी गवाही देते समय हासिल करना चाहते हैं। लोग जो भी कहते हैं, जिसका भी प्रचार करते हैं और जिसकी भी संगति करते हैं, जब भी इसके पीछे की प्रेरणा यह होती है कि लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें और उनकी आराधना करें, तो इस तरह का व्यवहार अपनी बड़ाई करना और अपनी गवाही देना होता है, इसे दूसरों के दिलों में एक जगह बनाने के लिए किया जाता है। हालाँकि इन लोगों के बोलने का तरीका पूरी तरह से एक-जैसा नहीं होता है, लेकिन कमोबेश इससे अपनी गवाही देने और दूसरों से अपनी आराधना करवाने का प्रभाव पड़ता है। कमोबेश, ऐसे व्यवहार लगभग सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं में मौजूद होते हैं। अगर वे ऐसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ वे खुद को रोक नहीं पाते हैं और उनके लिए खुद को सीमित करना मुश्किल हो जाता है, और यह इच्छा करते हुए उनमें एक खास तौर से मजबूत और साफ इरादा और लक्ष्य होता है कि वे लोगों से ऐसा व्यवहार करवाएँ मानो वे परमेश्वर या कोई आराध्य व्यक्ति हों और इस तरह से वे दूसरों को बाधित और नियंत्रित करने का और दूसरे लोगों से अपनी आज्ञा मनवाने और अपनी आराधना करवाने का लक्ष्य हासिल कर सकें, तो इस सबकी प्रकृति अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने की है, और इसमें मसीह-विरोधियों का एक गुण निहित है। लोग अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने के लिए आम तौर पर किन साधनों का उपयोग करते हैं? (वे पूंजी की बात करते हैं।) पूंजी की बात करने में क्या शामिल है? इस बारे में बात करना कि वे कब से परमेश्वर में विश्वास कर रहे है, उन्होंने कितना कष्ट सहा है, कितनी कीमत चुकाई है, कितना कार्य किया है, कितनी दूर तक यात्रा की है, और साथ ही सुसमाचार फैलाने के जरिए उन्होंने कितने लोग हासिल किए हैं और कितना अपमान सहा है। कुछ लोग अक्सर इस बारे में भी बात करते हैं कि उन्हें कितनी बार गिरफ्तार किया गया है और जेल में डाला गया है, लेकिन उन्होंने कभी भी कलीसिया या भाई-बहनों को धोखा नहीं दिया, और वे अपनी गवाही में अडिग रहे, वगैरह-वगैरह; ये सारी चीजें पूंजी के बारे में बात करने में आती हैं। कलीसिया का कार्य करने की आड़ में वे अपने खुद के उद्यम करते हैं, अपने रुतबे को मजबूत करते हैं और लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छाप छोड़ते हैं। साथ ही, वे लोगों के दिल जीतने के लिए हर तरह के तरीकों और चालों का उपयोग करते हैं, यहाँ तक कि अपने से अलग विचार रखने वालों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं, खास तौर पर, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और सिद्धांतों पर बने रहते हैं, वे उन्हें निकाल देने और दबाने के लिए अपने भरसक प्रयास करते हैं। जहाँ तक बेवकूफ और अज्ञानी, और अपनी आस्था में भ्रमित लोगों के साथ-साथ उन लोगों की बात है जिन्होंने थोड़े समय के लिए ही परमेश्वर में विश्वास किया है, और वे छोटे आध्यात्मिक कद के हैं, ऐसे लोगों पर वे किन तरीकों का उपयोग करते हैं? वे अपने रुतबे को मजबूत करने का अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए इन चालों का उपयोग करके उन्हें गुमराह करते हैं, फुसलाते हैं और यहाँ तक कि उन्हें धमकाते भी हैं। ये सभी मसीह-विरोधियों की चालें हैं।
कलीसियाओं में अक्सर इस तरह की चीज होती रहती है : कुछ भाई-बहन ऐसे उपदेश और संगति सुनते हैं जिनमें ऊपरवाला कहता है कि अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता ऐसा कुछ करता है जो परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन करते हैं, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास इसकी रिपोर्ट करने का अधिकार है। उनमें से कुछ लोग यह सुनने और पता लगने के बाद कि उनकी कलीसिया में एक अगुआ इस तरीके से कार्य कर रहा है जो कार्य-व्यवस्थाओं के अनुरूप नहीं है, तय करते हैं कि वे उस अगुआ की रिपोर्ट करना चाहते हैं। फिर, अगुआ को इस बारे में पता चल जाता है, और वह मन ही मन सोचता है, “तो ऐसा है कि यहाँ कुछ ऐसे लोग हैं जिनमें अब भी मेरी रिपोर्ट करने की हिम्मत है। उनकी इतनी हिम्मत! ये कौन लोग हैं?” इसके बाद वह कलीसिया के कई दर्जन सदस्यों में से हर एक की छानबीन करता है। वह इस छानबीन में किस हद तक जाता है? वह हर एक की उम्र का, उसने कितने समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, अतीत में उसने कौन-से कर्तव्य किए हैं, उसके मौजूदा कर्तव्य क्या हैं, वह किसके संपर्क में हैं, वह ऊपरवाले से संपर्क बना सकता है या नहीं, वगैरह-वगैरह का पता लगाता है। वह इन सारी चीजों का पता लगाता है और इसमें बहुत प्रयास करता है। उसकी अच्छी तरह से की गई छानबीन पूरी होने के बाद, उसे पता चलता है कि दो या तीन लोग संदिग्ध लगते हैं, इसलिए अगली सभा में यह अगुआ ऐसा उपदेश देता है जो खास तौर से इस मामले को लक्षित करता है। वह कहता है, “लोगों के पास विवेक होना चाहिए। परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में अब तक किसने तुम्हारी अगुवाई की है? अब तुम बहुत सारे सत्य समझते हो; अगर मैं तुम्हारे साथ सभाएँ और संगति नहीं करता, तो क्या तुम ये सत्य समझ पाते? हमारी कलीसिया बहुत सारे लोगों तक सुसमाचार फैलाकर उन्हें यहाँ लेकर आई है, और हमारे सुसमाचार कार्य ने विशाल प्रगति की है। अगर मैं यहाँ मौजूद रहकर इसे निर्देशित नहीं कर रहा होता, तो क्या तुम किसी को भी ला पाते? वैसे भी, इस सबके लिए तुम्हें किसे धन्यवाद देना चाहिए?” कुछ लोग इस पर विचार करते हैं और सोचते हैं, “मुझे सिर्फ परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए; मनुष्य ने क्या योगदान किए हैं?” लेकिन फिर अगुआ अपनी बात जारी रखते हुए कहता है, “अगर मैं तुम्हारे लिए परमेश्वर के वचनों की ये किताबें वापस नहीं लाया होता, तो क्या तुम इन्हें हासिल कर पाते? सभाओं का आयोजन करने के लिए अगर मैं नहीं होता, तो क्या तुम लोग इकट्ठा हो पाते? लोगों के पास विवेक होना चाहिए। तो, अगर तुम्हारे पास विवेक है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? जब तुम्हारा अगुआ कभी-कभार कोई मामूली गलती कर देता है, तो तुम्हें उसकी बहुत ज्यादा गहराई से छानबीन नहीं करनी चाहिए। उसकी कमियों को पकड़कर और उन्हें अनदेखा करने से मना करके, क्या तुम उसके विरुद्ध बगावत करने का प्रयास कर रहे हो? अगर कोई मामूली बात होती है, तो हमें उसे अंदर ही अंदर संभाल लेना चाहिए। रिपोर्ट दर्ज करवाने का क्या मतलब है? मामलों की रिपोर्ट करने वाले लोग अयोग्य और छोटे आध्यात्मिक कद के होते हैं। क्या ऊपरवाले को सबकुछ रिपोर्ट करना उचित है? ऊपरवाले के पास ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिए समय कैसे हो सकता है? अगर उन्हें सुलझाना ही है तो कलीसिया के अगुआ उन्हें सुलझाएँगे। क्या बंद दरवाजों के पीछे चीजों पर चर्चा नहीं की जा सकती है? क्या ऊपरवाले को सब कुछ रिपोर्ट करना तुम्हारे लिए जरूरी है? क्या यह ऊपरवाले को बस परेशान करना नहीं होगा? सुनो, अगर तुम मुझे किसी चीज की रिपोर्ट करते हो, तो मैं शांति और मित्रभाव से तुम्हारी काट-छाँट किए बिना कोई हल निकाल लूँगा। लेकिन अगर तुम ऊपरवाले को उसकी रिपोर्ट करते हो तो क्या तुम्हें पता है कि उसका रवैया क्या होगा? ऊपरवाले के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए—वह शेरों और चीलों की तरह है। क्या हमारे जैसे छोटे आध्यात्मिक कद के लोग उसके स्तर तक पहुँच सकते हैं? ऊपरवाले को किसी समस्या की रिपोर्ट करने से कोई अच्छा परिणाम नहीं निकलेगा; तुम निश्चित रूप से काटे-छाँटे जाओगे। मेरे साथ ऐसा कई बार हो चुका है; तुम्हारे जैसे छोटे आध्यात्मिक कद वाला व्यक्ति इसे कैसे संभाल पाएगा? तुम शायद विश्वास करना भी बंद कर दोगे, और फिर उसका परिणाम भुगतने वाला व्यक्ति कौन होगा? अगर तुम किसी चीज की रिपोर्ट करना चाहते हो, तो तुम्हें इसका परिणाम भुगतना होगा। जब समय आएगा और तुम काटे-छाँटे जाओगे और नकारात्मक और कमजोर हो जाओगे, तो आकर मुझे दोष मत देना। अगर तुम रिपोर्ट दर्ज करवाना चाहते हो, तो मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा। जाओ और करो; मैं देखता हूँ कि कौन रिपोर्ट करता है!” जब यह अगुआ इतना डराएगा-धमकाएगा तो क्या कोई रिपोर्ट दर्ज करवाने की हिम्मत करेगा? (नहीं।) कुछ लोग ऐसा करना चाहेंगे, लेकिन वे बहुत ज्यादा डरे हुए होंगे। क्या ये लोग निकम्मे नहीं हैं? उन्हें किस बात का डर है? वे इस अगुआ से इतना कैसे डर सकते हैं? भले ही वह अगुआ उन्हें सताकर उनकी जान लेना चाहता हो, लेकिन उनका जीवन उस अगुआ के हाथों में नहीं है; परमेश्वर की अनुमति के बिना वह अगुआ उन्हें सताने की हिम्मत कैसे कर सकता है? उस अगुआ के कुछ डरावने शब्दों के बाद, ऐसे लोग हैं जो रिपोर्ट दर्ज करवाने से वाकई बहुत डरेंगे; वे अपने मन में सोचेंगे, “परमेश्वर कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। अगर मैंने रिपोर्ट दर्ज करवाई, तो क्या ऊपरवाला इस अगुआ को संभाल लेगा? अगर उसने नहीं संभाला, तो क्या होगा—क्या यह अगुआ मुझसे बदला लेगा? क्या तब भी मैं अपना कर्तव्य सामान्य रूप से कर पाऊँगा? तो फिर मुझे कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करवानी चाहिए। इसके अलावा, इस मामले से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। किसी और ने तो इसकी रिपोर्ट नहीं की है, तो मैं क्यों करूँ?” वे पीछे हट जाएँगे, और रिपोर्ट दर्ज करवाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएँगे। क्या मसीह-विरोधी की ऐसे लोगों पर दया दिखाने की संभावना है? (नहीं।) वह उनके साथ क्या करेगा? एक बार जब वह पक्के तौर पर यह पता लगा लेगा कि कौन उसकी रिपोर्ट करने की योजना बना रहा है, कौन उसके साथ एकमत नहीं है, तो वह सोचना शुरू कर देगा : “तुम हमेशा कुछ ना कुछ करते रहते हो; तुम हमेशा बड़े-बड़े विचार अभिव्यक्त करना चाहते हो, तुम हमेशा परेशानी खड़ी करने की फिराक में रहते हो, हमेशा मेरे मुद्दों की रिपोर्ट करना चाहते हो—यह अपमानजनक है! तुम ऊपरवाले से संपर्क करने के एक मौके की तलाश में हो ताकि तुम उसे मेरी स्थिति की रिपोर्ट कर सको। अब तुम पीछे हट रहे हो, तुम इसे करने की हिम्मत नहीं कर रहे हो; लेकिन कौन जाने, अगर तुम्हें सही मौका मिल जाता है, तो तुम फिर भी मेरी रिपोर्ट कर सकते हो। ओह, मैं तुम्हें मजा चखाता हूँ!” इसलिए, मसीह-विरोधी उन लोगों को बदनाम करने के लिए बहाने और मौके ढूँढेगा, ताकि भाई-बहन उनके प्रति नफरत महसूस करने लगें। फिर वह उन्हें पकड़ने, उनके लिए परेशानी खड़ी करने और उनकी प्रतिष्ठा पर कलंक लगाने के लिए हर तरह के तरीकों के बारे में सोचेगा। और उसके बाद वे लोग अपने मन में क्या सोचते हैं? “यह बहुत ही बुरा हुआ! मैंने अगुआ की आज्ञा नहीं मानी, मैंने आँख मूंदकर उसकी रिपोर्ट करने का प्रयास किया, और अब मुझे कष्ट सहना पड़ रहा है। मुझे यह सबक याद रखना चाहिए : मुझे इस अगुआ को बिल्कुल नाराज नहीं करना चाहिए! इस समय, यही अगुआ सारे फैसले लेता है। अगर वह कहता है ‘पूर्व’, तो मैं ‘पश्चिम’ नहीं कह सकता; अगर वह कहता है ‘एक’, तो मैं ‘दो’ नहीं कह सकता। मुझे वही करना होगा जो यह अगुआ मुझसे करने को कहता है। मुझे समस्याओं की रिपोर्ट करने के लिए ऊपरवाले से बिल्कुल संपर्क नहीं करना चाहिए। यह वाकई गंभीर बात है! इस अगुआ ने मुझे कष्ट सहने पर मजबूर किया है, और ऊपरवाला इस बारे में नहीं जानता है—मेरे बचाव में कौन खड़ा होगा? जैसा कि वे कहते हैं, ‘राज्य के अधिकारियों की तुलना में स्थानीय अधिकारियों के पास ज्यादा नियंत्रण है!’” ये लोग नकारात्मक बन चुके हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है, और यह तो और भी कम मानते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है। क्या उनके दिलों में अभी भी परमेश्वर है? नहीं, उनके दिलों में परमेश्वर नहीं है। उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था का अभाव है, वे समस्या की रिपोर्ट करना चाहते हैं, लेकिन वे उस कुकर्मी से डरते हैं, उन्हें किसी भी दुष्ट शक्ति की कोई पहचान नहीं है, उस कुकर्मी ने उन्हें उस जगह कष्ट सहने पर मजबूर किया है जहाँ उसके पास शक्ति है, और वे निकम्मे बन गए हैं। शुरू में उनमें न्याय की थोड़ी-सी समझ थी, जो एक वांछनीय गुण है, लेकिन क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते हैं और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना नहीं जानते हैं, इसलिए उस कुकर्मी, झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी ने उन्हें उस हद तक कुचल डाला कि उन्होंने सारी आस्था खो दी; वे नहीं जानते हैं कि सत्य की तलाश करने के लिए परमेश्वर पर कैसे भरोसा किया जाए या बुद्धिमानी से कैसे कार्य किया जाए। अब जब भी वे किसी मसीह-विरोधी को देखते हैं तो डर जाते हैं और दब्बू बन जाते हैं। वे कितने डरे हुए हैं? वे सोचते हैं, “इस दुनिया में कुकर्मियों के पास शक्ति है। मैं जिस भी समूह में हूँ, उसमें मुझे अच्छी तरह व्यवहार करना चाहिए। मुझमें उस तरह की क्रूरता और हिम्मत नहीं है, इसलिए मैं जहाँ भी जाऊँगा, मुझे स्वेच्छा से बुरा व्यवहार सहना पड़ेगा और दूसरों की आज्ञा माननी पड़ेगी—मुझे उनके साथ अपने पूर्वजों जैसा व्यवहार करना पड़ेगा। अगर वे कहते हैं ‘पूर्व’, तो मैं ‘पश्चिम’ नहीं कह सकता। मैं उनसे अलग राय व्यक्त नहीं कर सकता, मैं दूसरे लोगों की समस्याओं के बारे में रिपोर्ट दर्ज नहीं करवा सकता, और मैं दूसरे लोगों के मामलों में दखल नहीं दे सकता। मैं सिर्फ परमेश्वर में विश्वास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूँ। मुझे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को नाराज नहीं करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों का पालन नहीं करना चाहिए, प्रकाश की लालसा नहीं रखनी चाहिए, या न्याय से प्रेम नहीं करना चाहिए—इस दुनिया में कोई प्रकाश या न्याय नहीं है। मैं सिर्फ आखिर तक सहने पर ध्यान दूँगा, और भविष्य में मैं जहाँ कहीं भी जाऊँगा, हमेशा शांति बनाए रखने को प्राथमिकता देने की बात याद रखूँगा!” वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। क्या वे उस मसीह-विरोधी से हार नहीं गए हैं? (हाँ।) इसकी पुष्टि किससे होती है? उस मसीह-विरोधी से दब जाने के बाद, वे बुरी तरह से डर गए हैं, वे इतना डर गए हैं कि उनके लिए कुछ कहना या करना नामुमकिन हो गया है। उन्होंने अपनी सच्ची आस्था खो दी है और अब वे अपने कर्तव्य निष्ठा से नहीं करते हैं; उनके दिलों में न्याय के प्रति उनके प्रेम की छोटी-सी लौ बुझ गई है; वे उस मसीह-विरोधी से पूरी तरह हार गए हैं और पिट चुके हैं। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? क्या वे डरपोक नहीं हैं? (हाँ।) तुम कैसे बता सकते हो? अगर तुम उनसे पूछते हो, “तुम्हारी कलीसिया में अमुक व्यक्ति का क्या हाल है?” तो वे जवाब देंगे, “बुरा नहीं है।” अगर तुम पूछते हो, “और उस नए कलीसियाई अगुआ की क्या खबर है जिसे तुम सभी ने चुना है; क्या तुम उसे जानते हो?” तो जवाब में वह कहेगा, “मैं उससे ज्यादा परिचित नहीं हूँ।” अगर तुम पूछते हो, “अब वहाँ कलीसियाई जीवन कैसा है? क्या कोई गड़बड़ी फैला रहा है?” वे कहेंगे, “अच्छा है, ठीक से चल रहा है।” तुम उनसे जो भी पूछोगे, उसका वे बस इन थोड़े-से शब्दों में जवाब देंगे। क्या यह इसलिए नहीं है क्योंकि वे डरे हुए हैं? वे इतना क्यों डरे हुए हैं? वह इसलिए क्योंकि वे परमेश्वर की धार्मिकता को नहीं जानते हैं; वे शैतान की दुष्टता, क्रूरता, बेरहमी और अँधेरे को ठीक से पहचान नहीं पाते हैं; उन्हें ना तो सत्य के शासन का मतलब पता है, और ना ही यह पता है कि इसका क्या महत्व है—और इसलिए वे डरते हैं। इसलिए, तुम जो भी पूछोगे, उनके पास उसका जवाब अस्पष्ट और धुंधला होगा; तुम्हें उनसे इस बारे में कोई जवाब नहीं मिलेगा कि कलीसिया में वाकई क्या हो रहा है, या यह पता नहीं चलेगा कि वे वाकई दिल में क्या सोच रहे हैं। वे खुद को इतना कसकर समेट लेंगे कि तुम्हें यह भी ठीक से पता नहीं होगा कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। वे कलीसिया में मौजूद समस्याओं के बारे में या इस बारे में कुछ नहीं कहेंगे कि अगुआ और कार्यकर्ता कैसे हैं और तुम उन मुश्किलों के बारे में कुछ भी नहीं जान पाओगे जिनका सामना परमेश्वर के चुने हुए लोग कर रहे हैं। तुम इनमें से किसी के भी बारे में कुछ पता नहीं लगा पाओगे—वे तुमसे सिर्फ़ इसी तरीके से बात करेंगे। और उनकी बातें सुनने के दौरान तुम्हें कैसा महसूस होगा? तुम्हें महसूस होगा कि तुम दोनों के दिलों के बीच फासला है। उनकी सोच ऐसी है: “मेरे बारे में कुछ भी जानने का प्रयास मत करो, मैं तुम्हारे सामने किसी जानकारी का या वाकई क्या चल रहा है इसका खुलासा नहीं करना चाहता हूँ। मुझसे दूर रहो; अगर तुम मुझसे यह पता लगाने का प्रयास करोगे कि कलीसिया में क्या चल रहा है, तो तुम मेरे लिए परेशानी खड़ी करने और मेरे मौजूदा रहन-सहन के परिवेश, दिनचर्या और स्थिति में गड़बड़ करने का प्रयास कर रहे हो। मेरे जीवन के किसी भी पहलू में शामिल मत हो; इन चीजों को मुझे खुद संभालने दो।” वे इस बात से डरते हैं कि मसीह-विरोधी उन्हें कष्ट देगा या उनसे बदला लेगा, और वे अपनी कलीसिया के बारे में किसी भी समस्या की रिपोर्ट करने से डरते हैं। क्या यह उस मसीह-विरोधी के सामने हथियार डाल देना नहीं है? क्या वे उस मसीह विरोधी द्वारा गुमराह और नियंत्रित नहीं किए गए हैं? (हाँ।) और यह देखकर वह मसीह-विरोधी खुश हो जाता है। उसने लोगों को इस हद तक पीड़ा पहुँचाई है कि अब वे अपने मुद्दों की रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं करते है, इसलिए कलीसिया पर उसका मजबूत नियंत्रण है। क्या कलीसिया में बहुत से लोग मसीह-विरोधी द्वारा इस तरीके से नियंत्रित हैं? क्या तुमने कभी किसी को किसी समस्या की रिपोर्ट करने से रोका है? हो सकता है कि तुमने ऐसा किया हो लेकिन तुम्हें इसकी जानकारी ना हो, या हो सकता है कि तुम भविष्य में ऐसा करो। तो, क्या मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को जीत लेना और नियंत्रित करना एक समस्या माना जा सकता है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं : “कलीसिया में कुछ लोग एक मसीह-विरोधी से डरते हैं, लेकिन वे उस मसीह-विरोधी में विश्वास नहीं करते हैं या उस मसीह-विरोधी का अनुसरण नहीं करते हैं, और वे उस मसीह-विरोधी की सेवा तो बिल्कुल नहीं करते हैं। बस इतना ही है कि उस मसीह-विरोधी ने उन्हें थोड़ा बाधित कर दिया है और परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग में उनके प्रवेश में देर करवा दी है। तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह एक समस्या है?” एक तरफ, मसीह-विरधियों द्वारा लोगों को जीतने और नियंत्रित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले तरीकों को देखकर, तुम्हें यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि उनका प्रकृति सार शैतान का सार है; यह सत्य के प्रति और परमेश्वर के प्रति वैर-भाव है। मसीह-विरोधी लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ करना चाहते हैं, उसके चुने हुए लोगों के लिए प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं। दूसरी तरफ, मसीह-विरोधी जिन व्यवस्थाओं द्वारा और जिन तरीकों से काम करते हैं, उनका उन लोगों पर वाकई प्रभाव पड़ सकता है जो बेवकूफ, अज्ञानी, भ्रमित हैं और सत्य को नहीं समझते हैं। वे वाकई उन लोगों को गुमराह कर सकते हैं, उन्हें मसीह-विरोधियों के नियंत्रण में अच्छी तरह से व्यवहार करवाते रह सकते हैं और उन्हें सभी चीजों में मसीह-विरोधियों से सलाह लेने और उनका पालन करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। मसीह-विरोधी ना सिर्फ इन लोगों के मुंह बंद रखते हैं; वे उनके क्रियाकलापों को भी नियंत्रित करते हैं, उनकी सोच और विचारों पर प्रभाव डालते हैं और वे जिस दिशा में चलते हैं उसे प्रभावित करते हैं। ये वे प्रभाव और परिणाम हैं जो मसीह-विरोधी के क्रियाकलाप से उन लोगों पर आते हैं जो बेवकूफ और अज्ञानी हैं।
अभी-अभी मैंने अगुआ या कार्यकर्ता के कर्तव्य करने से संबंधित अलग-अलग सत्यों के बारे में बात की है। मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कुछ समस्याओं को भी उजागर किया, और मुख्य तौर पर, मैंने सबसे गंभीर प्रकार के व्यक्ति की अभिव्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित किया—और वह किस तरह का व्यक्ति है? (मसीह-विरोधी।) वह एक आम अभिव्यक्ति कौन सी है जो सभी मसीह-विरोधियों में मौजूद होती है? वे अपने लिए शक्ति हथियाने और कलीसिया को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। शक्ति की उनकी इच्छा बाकी सभी चीजों की इच्छा से बढ़कर होती है; शक्ति उनका जीवन, उनकी जड़ है; वह जीवन में जो कुछ भी करते हैं वह इसी विषय, इसी दिशा और इसी लक्ष्य पर केंद्रित होता है। इसलिए, मसीह-विरोधियों के क्रियाकलाप और वे जो स्वभाव प्रकट करते हैं वे, शैतान द्वारा लोगों को गुमराह करने, उन्हें जीतने और नियंत्रित करने के लिए उपयोग की जाने वाली युक्तियों जैसे हैं। यह कहा जा सकता है कि इस तरह का व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह उसे शैतान का एक निकास द्वार, एक मूर्त रूप और एक अभिव्यक्ति से कम नहीं बनाता है; उसका हर क्रियाकलाप और उसके सभी व्यवहार का मुख्य लक्ष्य शक्ति पर कब्जा करना है। और वे किसे नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं? ये वही लोग हैं जिनकी वे अगुवाई करते हैं, जो परमेश्वर के अनुयायी हैं, ये वही लोग हैं जो उनकी शक्ति के दायरे में आते हैं, जिन्हें वे नियंत्रित कर पाते हैं। कुछ ही क्षण पहले, हमने उन तकनीकों के बारे में भी बात की जिनका उपयोग मसीह-विरोधी लोगों को नियंत्रित करने के लिए करते हैं। पहली तकनीक है लोगों के दिल जीतना; दूसरी है विरोधियों पर आक्रमण करना और उन्हें निकाल देना; तीसरी है सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को निकाल देना और उन पर आक्रमण करना; चौथी है लगातार खुद की बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना; और पाँचवीं है लोगों को गुमराह करना, उन्हें फुसलाना, धमकाना और नियंत्रित करना। ये सभी पाँच प्रधान अभिव्यक्तियाँ वे मूल तकनीकें और साधन हैं जिनका उपयोग मसीह-विरोधी शक्ति हासिल करने और लोगों पर कब्जा करने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए करते हैं। ये व्यापक श्रेणियाँ हैं। इसके बाद, हम इन व्यापक श्रेणियों का ज्यादा विस्तार से गहन-विश्लेषण करेंगे और उन पर संगति करेंगे।
मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों के दिल जीतने के प्रयास का गहन विश्लेषण
क. थोड़ी-बहुत मदद करके लोगों को फुसलाना
मसीह-विरोधी लोगों को नियंत्रित करने के लिए जिस पहली तकनीक का उपयोग करते हैं वह है उनके दिल जीतना। लोगों के दिल जीतने के कितने तरीके हैं? एक तरीका है उनकी थोड़ी-बहुत मदद करके उन्हें फुसलाना। कभी-कभी मसीह-विरोधी लोगों को कुछ अच्छी चीजें देते हैं, कभी-कभी वे उनकी तारीफ करते हैं और कभी-कभी वे उनसे छोटे-छोटे वादे करते हैं। और कभी-कभी, मसीह-विरोधी देखते हैं कि कुछ कर्तव्य लोगों को सुर्खियों में आने में मदद कर सकते हैं या दूसरों को लगता है कि ये कर्तव्य इन्हें करने वाले लोगों को फायदे और सभी से सम्मान दिला सकते हैं और फिर वे ये कर्तव्य उन लोगों को सौंप देते हैं जिन्हें वे जीतना चाहते हैं। इस “थोड़ी-बहुत मदद” में कई चीजें शामिल हैं : कभी-कभी ये भौतिक चीजें होती हैं; कभी-कभी ये अमूर्त चीजें होती हैं; कभी-कभी ये लुभावने शब्द होते हैं जिन्हें लोग सुनना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर, जब किसी व्यक्ति पर कोई मुसीबत आती है तो वह कमजोर हो जाता है और अपने कर्तव्य के लिए प्रेरणा खो देता है, और जब वह अपनी इस कमजोरी के लिए परमेश्वर के वचनों को दोषी ठहराता है, तो उसे अहसास होता है कि यह परमेश्वर के साथ निष्ठाहीनता है, अपना कर्तव्य करने की अनिच्छा है, सच्चे समर्पण का अभाव है, और वह बहुत तिरस्कृत महसूस करता है। यह देखकर कोई अगुआ कह सकता है, “तुम्हारा बस आध्यात्मिक कद छोटा है। परमेश्वर इस मामले को उस तरीके से नहीं देखेगा। तुम्हें उस पर विश्वास करते हुए अभी कुछ ही समय हुआ है। तुम खुद से इतनी उम्मीद नहीं कर सकते। इस प्रकार की चीजों में समय लगता है—तुम इसमें जल्दबाजी नहीं कर सकते। परमेश्वर लोगों से बड़ी-बड़ी माँगें नहीं करता है और तुम्हारे लिए, एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे उस पर विश्वास करते हुए अभी कुछ ही समय हुआ है, कभी-कभी थोड़ा कमजोर हो जाना सामान्य बात है और तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।” इसका मतलब है कि कमजोर होने को लेकर चिंता करने की कोई बात नहीं है और लगातार कमजोर बने रहने को लेकर तो और भी कम चिंता करनी चाहिए और यह सब कुछ सामान्य नकारात्मकता है और परमेश्वर इसे याद नहीं रखता है। कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं और अपना कर्तव्य करते समय वे हमेशा अपनी भावनाओं के आगे बेबस रहते हैं, और उनका अगुआ कहता है, “यह तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद की वजह से है, कोई बात नहीं।” कुछ लोग अपने कर्तव्य में आलसी और निष्ठाहीन होते हैं, लेकिन उनका अगुआ उन्हें नहीं डाँटता है, इसके बजाय वह उनसे ऐसी मीठी-मीठी बातें कहता है जिन्हें वे लोग हर मोड़ पर सुनना चाहते हैं, ताकि वह उन्हें खुश कर सके और वे उसे अच्छा कहें, और वह उन्हें दिखा सके कि वह कितना समझदार और प्रेम करने वाला है। वे लोग सोचते हैं, “हमारा अगुआ एक प्रेम करने वाली माँ जैसा है। उसके दिल में हमारे लिए वाकई प्रेम की भावना है—वह सच में परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। वह सच में परमेश्वर की तरफ से भेजा गया है!” इसका अनकहा आशय यह है कि उनका अगुआ परमेश्वर के प्रवक्ता के तौर पर कार्य कर सकता है और वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है। क्या इस अगुआ का यही लक्ष्य है? शायद यह उतना स्पष्ट नहीं है, लेकिन उसका एक लक्ष्य तो स्पष्ट है : वह लोगों से यह कहलवाना चाहता है कि वह एक शानदार अगुआ है, वह दूसरों का ध्यान रखता है, लोगों की कमजोरियों के प्रति हमदर्दी रखता है और उनके दिलों को अच्छी तरह समझता है। जब कोई कलीसियाई अगुआ भाई-बहनों को अनमने ढंग से अपने कर्तव्य करते हुए देखता है, तो हो सकता है कि वह उन्हें नहीं डाँटे, हालाँकि उसे डाँटना चाहिए। स्पष्ट रूप से यह देखने पर भी कि परमेश्वर के घर के हितों को ठेस पहुँच रही है, वह इस बारे में कोई चिंता नहीं करता है और ना ही कोई पूछताछ करता है और वह दूसरों को जरा भी नाराज नहीं करता है। दरअसल, वह लोगों की कमजोरियों के प्रति सचमुच विचारशील नहीं है; बल्कि, उसका इरादा और लक्ष्य लोगों के दिल जीतना है। उसे पूरी तरह से मालूम है कि : “जब तक मैं ऐसा करता रहूँगा और किसी को नाराज नहीं करूँगा, तब तक वे यही सोचेंगे कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ। वे मेरे बारे में अच्छी, ऊँची राय रखेंगे। वे मुझे स्वीकार करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।” वह इसकी परवाह नहीं करता है कि परमेश्वर के घर के हितों को कितनी ठेस पहुँच रही है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को कितने बड़े-बड़े नुकसान हो रहे हैं या उनके कलीसियाई जीवन को कितनी ज्यादा बाधा पहुँच रही है, वह बस अपने शैतानी फलसफे पर कायम रहता है और किसी को नाराज नहीं करता है। उसके दिल में कभी कोई आत्म-निंदा का भाव नहीं होता है। जब वह किसी को गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न करते देखता है, तो ज्यादा से ज्यादा वह उससे इस बारे में कुछ बात कर लेता है, मुद्दे को मामूली बनाकर पेश करता है, और फिर मामले को समाप्त कर देता है। वह सत्य पर संगति नहीं करेगा या उस व्यक्ति को समस्या का सार नहीं बताएगा, उसकी स्थिति का गहन-विश्लेषण तो और भी कम करेगा और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति तो कभी नहीं करेगा। एक झूठा अगुआ लोगों द्वारा बार-बार की जाने वाली गलतियों को या उनके द्वारा अक्सर प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उनका गहन-विश्लेषण कभी नहीं करता है। वह किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं करता है, बल्कि हमेशा लोगों के गलत अभ्यासों और भ्रष्टाचार के खुलासों में शामिल रहता है, और भले ही लोग कितने भी निराश या कमजोर क्यों ना हों, वह इस चीज को गंभीरता से नहीं लेता है। वह सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का ही प्रचार करता है और मेल-मिलाप बनाए रखने का प्रयास करते हुए बेपरवाह तरीके से स्थिति से निपटने के लिए प्रोत्साहन के कुछ शब्द बोल देता है। फलस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह मालूम नहीं होता है कि उन्हें कैसे आत्म-चिंतन करना है और आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त करना है, वे जो भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनका कोई समाधान नहीं निकलता है और वे जीवन प्रवेश के बिना ही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं के बीच जीवन जीते रहते हैं। वे अपने दिलों में भी यह मानते हैं, “हमारी कमजोरियों के बारे में हमारे अगुआ को परमेश्वर से भी ज्यादा समझ है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए हमारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। हमें बस अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की जरूरत है; अपने अगुआ के प्रति समर्पण करके हम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब ऊपरवाला हमारे अगुआ को बर्खास्त कर देता है तो हम अपनी आवाज उठाएँगे; अपने अगुआ को बनाए रखने और उसे बर्खास्त किए जाने से रोकने के लिए हम ऊपरवाले से बातचीत करेंगे और उसे हमारी माँगें मानने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह से हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।” जब लोगों के दिलों में ऐसे विचार होते हैं, जब वे अपने अगुआ के साथ ऐसा रिश्ता बना लेते हैं और उनके दिलों में अपने अगुआ के लिए इस तरह की निर्भरता, ईर्ष्या और आराधना की भावना जन्म ले लेती है, तो ऐसे अगुआ में उनकी आस्था और बढ़ जाती है, और वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में सत्य तलाशने के बजाय अगुआ के शब्दों को सुनना चाहते हैं। ऐसे अगुआ ने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह लगभग ले ली है। अगर कोई अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसा रिश्ता बनाए रखने के लिए राजी है, अगर इससे उसे अपने दिल में खुशी का अहसास होता है और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो इस अगुआ और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं है, वह पहले से ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर अपने कदम रख चुका है और परमेश्वर के चुने हुए लोग पहले से ही इस मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह हो चुके हैं और उनमें सूझ-बूझ का पूरा अभाव है। दरअसल, इस अगुआ के पास सत्य वास्तविकता नहीं है और वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के बारे में बिल्कुल भी बोझ नहीं उठाता है। वह सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांतों का ही उपदेश दे सकता है और दूसरों के साथ अपने रिश्ते बनाए रख सकता है। वह पाखंडी तरीकों का उपयोग करके दिखावा करने में अच्छा होता है, उसकी बोली और क्रियाकलाप लोगों की धारणाओं से तालमेल रखते हैं और इस तरह से वह लोगों को गुमराह करता है। उसे सत्य की संगति करने या आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का तरीका नहीं मालूम होता है और इसलिए वह दूसरों की अगुवाई करके उन्हें सत्य वास्तविकता में नहीं ले जा सकता है। वह सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम करता है और सिर्फ मीठे-मीठे शब्द बोलता है जो लोगों को फाँस लेते हैं। वह पहले से ही लोगों को उसकी आराधना करने और उसका आदर करने के लिए मनाने का लक्ष्य प्राप्त कर चुका है और इससे कलीसिया का कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है और उसमें देरी हुई है। क्या ऐसा व्यक्ति मसीह-विरोधी नहीं है? कुछ लोग बिल्कुल मसीह-विरोधियों की तरह कार्य करते हैं, लेकिन जब वे किसी मसीह-विरोधी का खुलासा होते देखते हैं, तो वे तुलना के लिए खुद को उस मसीह-विरोधी के सामने खड़ा कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वह भी मसीह-विरोधियों का मार्ग है, उन्हें सर्वनाश की कगार तक पहुँचने से खुद को रोकना चाहिए, फौरन परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप करना चाहिए और अपने व्यक्तिगत रुतबे और छवि पर ध्यान देना बंद कर देना चाहिए; उन्हें लगता है कि उन्हें सभी चीजों में परमेश्वर की बड़ाई करनी चाहिए, उसके लिए गवाही देनी चाहिए, लोगों को अपने दिलों में परमेश्वर के लिए जगह बनाने के लिए मनाना चाहिए और परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करना चाहिए—उन्हें लगता है कि सिर्फ तभी उनके दिल को सच्ची शांति मिल सकेगी। ऐसा करने वाला व्यक्ति ही सत्य से प्रेम करता है और उसे स्वीकार कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी की प्रकृति का है, तो मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले शब्द सुनकर भी वह अपने दिल में बेचैनी महसूस करेगा, लेकिन वह परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं कर पाएगा या अपना दिल खोलकर अपने भ्रष्ट स्वभाव को उजागर नहीं कर पाएगा। इससे स्पष्ट होता है कि वह सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता है और सच्चा पश्चात्ताप करना उसके लिए नामुमकिन है। वह अपने रुतबे का दावा करता रहेगा, रुतबे के फायदों का आनंद लेता रहेगा और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा अपनी आराधना और सम्मान किए जाने का आनंद लेता रहेगा। इसकी वजह से वे सभी लोग सच्चे मार्ग और परमेश्वर के वचनों से भटक जाते हैं जिन्हें यह व्यक्ति गुमराह कर चुका है; ये लोग परमेश्वर से दूर हो जाते हैं और इस व्यक्ति का अनुसरण करने लगते हैं। लेकिन फिर भी यह व्यक्ति बिल्कुल आत्म-चिंतन नहीं करता है। इस बात से अनजान कि वह पहले से ही खतरे में पड़ चुका है, वह अब भी अपने बारे में अच्छी राय रखता है और दूसरों को गुमराह करना और उनके दिल जीतना जारी रखता है। जब तक लोग उसकी बातों पर ध्यान देते हैं और उसकी आज्ञा मानते हैं, तब तक चाहे वे लोग अपने कर्तव्यों को करने में कितने भी बेपरवाह या गैर-जिम्मेदार क्यों ना हों, वह इसे देखकर भी अनदेखा कर देगा। इतना ही नहीं, वह इन जाहिल, बेवकूफ लोगों द्वारा अपनी आराधना और सम्मान किए जाने से प्रसन्न होगा और किसी को भी उन्हें उजागर करने या पहचानने की अनुमति नहीं देकर उनकी रक्षा करता रहेगा। क्या ऐसा करके मसीह-विरोधी अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना नहीं कर रहा है? मसीह-विरोधी वास्तविक कार्य नहीं करता है, वह समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं करता है, वह परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों का मार्गदर्शन नहीं करता है। वह सिर्फ रुतबे, शोहरत और फायदों के लिए कार्य करता है, उसे सिर्फ खुद को स्थापित करने, लोगों के दिलों में अपनी जगह सुरक्षित रखने और हर किसी से अपनी आराधना करवाने, अपना सम्मान करवाने और हर समय अपना अनुसरण करवाने की परवाह रहती है; वह इन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है। इसी तरह से मसीह-विरोधी लोगों के दिल जीतने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है—क्या कार्य करने का यह तरीका दुष्ट नहीं है? यह बहुत ही घिनौना है! वह कुछ समय तक इसी तरीके से कार्य करता रहता है जिससे लोग उसके प्रति अच्छा व्यवहार करने, उस पर विश्वास करने और उस पर निर्भर रहने लगते हैं—लेकिन इसके क्या परिणाम होते हैं? ये लोग ना सिर्फ सत्य को समझने से चूक जाते हैं और अपने जीवन प्रवेश में प्रगति करने में असफल हो जाते हैं—बल्कि वे परमेश्वर के स्थान पर, मसीह-विरोधी को अपने आध्यात्मिक माता-पिता के रूप में अपना लेते हैं और अपने दिलों में परमेश्वर के रुतबे की जगह मसीह-विरोधी को लेने देते हैं। जब किसी को कोई समस्या होती है तो अब वे परमेश्वर के सामने नहीं आते हैं और उन पर जो भी मुसीबत आती है, उसके लिए ना तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, ना उस पर भरोसा करते हैं और ना ही वे उसके वचनों में सत्य की तलाश करते हैं। इसके बजाय, वे इस अगुआ के पास जाकर उससे इस बारे में पूछते हैं। वे अगुआ से उन्हें मार्ग दिखाने के लिए कहते हैं और इस अगुआ के लिए उनके दिलों में सम्मान लगातार बढ़ता जाता है और वे उस पर और ज्यादा निर्भर रहने लगते हैं। वे परमेश्वर की तलाश करने के तरीके से अनजान होते हैं और उन्हें नहीं मालूम होता है कि उसका सम्मान कैसे करना है और उस पर कैसे भरोसा करना है, और सत्य और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के बारे में तो उन्हें और भी कम पता होता है। चाहे उन पर कोई भी मुसीबत क्यों ना आए, वे बेसब्री से अगुआ द्वारा इस बारे में कोई फैसला लिए जाने का इंतजार करते हैं। अगुआ उन्हें जिस भी कार्य के बारे में कहता है कि उन्हें करना चाहिए, वे उसे करते हैं और अगुआ के जो भी निर्देश होते हैं वे उन सभी का पालन करते हैं। लोगों को इस हालत में लाकर क्या मसीह-विरोधी उन्हें गुमराह और नियंत्रित नहीं कर रहा है? जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ कुछ होता है तो वे परमेश्वर से सत्य की तलाश क्यों नहीं करते हैं? परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने अगुआ की बातों को जाँचे बिना या सूझ-बूझ का उपयोग किए बिना आँख मूंदकर क्यों मानते चले जा रहे हैं? ऐसा क्यों है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने अगुआ के शब्दों को सुनते ही फौरन उनके प्रति समर्पण कर सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के वचनों के साथ ऐसा नहीं कर सकते हैं? वे परमेश्वर की इच्छाएँ तलाशने के बजाय अपने अगुआ की इच्छाएँ तलाश रहे हैं; वे परमेश्वर की इच्छाओं पर ध्यान देने और सत्य को तलाशने और उसके प्रति समर्पण करने के बजाय अपने अगुआ के शब्दों पर ध्यान दे रहे हैं। वे परमेश्वर पर भरोसा करने, उसका सम्मान करने और उसके प्रति समर्पण करने के बजाय कार्य करने, उन्हें सहारा देने और उन्हें मजबूत बनाने, उनकी तरफ से बोलने और उनके लिए फैसले लेने के लिए अपने अगुआ पर भरोसा करते हैं। क्या इन तथाकथित अगुआओं ने लोगों के दिलों में एक खास जगह नहीं बना ली है? यह एक मसीह-विरोधी द्वारा लोगों को गुमराह किए जाने और उन्हें फँसाने का परिणाम है।
जब कुछ लोगों के साथ कुछ होता है और तुम उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए कहते हो तो वे कहते हैं कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उन्हें नहीं पता कि कैसे तलाश करनी है। अगर तुम उन्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिए कहते हो तो वे कहते हैं कि उनमें बिल्कुल काबिलियत नहीं है और वे महान प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अगर तुम उन्हें धर्मोपदेश सुनने के लिए कहते हो तो वे कहते हैं कि धर्मोपदेश की विषय-वस्तु उनके लिए बहुत उदात्त और गहन है, और यह उनकी समझ से परे है। वे मानते हैं कि अगर किसी व्यक्ति में कम काबिलियत है, उसमें कमजोरियाँ हैं और वह हर पहलू से अपर्याप्त है तो उसे अगुआओं की तलाश करने की जरूरत है। मान लो तुम उनसे पूछते हो कि, “तुम्हें अगुआ की तलाश करने की क्या जरूरत है? तुम परमेश्वर की तलाश क्यों नहीं करते हो और उसके सामने क्यों नहीं आते हो?” तो वह कहता है, “लोगों के लिए परमेश्वर के सामने आना बहुत मुश्किल है : हमारी कुछ धारणाएँ हैं, हमारी काबिलियत कम है और हम मंदबुद्धि और जड़ व्यक्ति हैं। परमेश्वर के वचन हमेशा इतने स्पष्ट नहीं होते हैं और उसके वचनों में ऐसे कोई उदाहरण नहीं दिए गए हैं जिनसे उनके मतलब साफ हो जाएँ। हमारा अगुआ हमें साफ-साफ बता देता है कि हमें क्या करना है, एक तरह से यह वाकई स्पष्ट होता है, बिल्कुल वैसा जैसे एक जमा एक दो होते हैं। जब परमेश्वर के वचनों को पढ़ने की बात आती है तो यह बहुत अच्छी बात है अगर मैं उन्हें ऊँची आवाज में पढ़ पाता हूँ, लेकिन मुझे उनका मतलब नहीं मालूम है और ना ही यह पता है कि परमेश्वर की मनुष्य से क्या अपेक्षाएँ है या परमेश्वर के इरादों के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। मुझे जवाब कभी नहीं मिल सकते हैं। यह देखते हुए कि मैं एक कम काबिलियत वाला व्यक्ति हूँ, एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, जो जड़ और बेवकूफ है, जो किसी भी चीज की सच्चाई समझ नहीं पाता है, मुझे घटने वाली हर चीज के बारे में अपने अगुआ से पूछना पड़ता है और उसे मेरे लिए फैसले लेने देना पड़ता है। हमारा अगुआ मेरे लिए जवाब ढूँढ़ सकता है; मैं सिर्फ वही करता हूँ जो वह मुझे करने के लिए कहता है। मैं बस ऐसा ही व्यक्ति हूँ—सरल और आज्ञाकारी।” “सरल और आज्ञाकारी होने में कुछ गलत नहीं है, लेकिन क्या तुम्हारे अगुआ के पास वाकई सत्य वास्तविकता है? क्या वह वाकई ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है? अगर वह सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश दे सकता है और वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो तो क्या तुम्हारा उसके प्रति समर्पण करने का मतलब है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हो?” तो वह कहता है, “हमारे अगुआ में बहुत काबिलियत है और वह जो कुछ भी कहता है वह सही है। इससे यह साबित होता है कि वह सत्य को समझता है और वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।” उसकी बातों में कुछ तार्किक सूझ-बूझ तो है, है ना? यह सब कुछ उसकी निजी भावनाओं पर आधारित है। वह कम काबिलियत वाला व्यक्ति है और उसमें सूझ-बूझ की कमी है, इसलिए अगर उसके अगुआ में वाकई कुछ गलत होता तो भी वह इसे नहीं देख पाता। ज्यादातर लोग मूर्ख, अज्ञानी और कम काबिलियत वाले होते हैं, लेकिन चलो फिलहाल हम उस कारण को नजरअंदाज कर देते हैं। इस चीज को अगुआ के लिहाज से देखते हुए, अगर लोग इन अभिव्यक्तियों को दर्शाते हैं, वे अपने अगुआ पर इस तरह से निर्भर रहते हैं और उसके प्रति इस तरह का नजरिया और रवैया रखते हैं, तो क्या लोगों के दिल जीतने के लिए अगुआ की चालबाजियों और तरीकों से इसका कुछ संबंध नहीं है? (हाँ, है।) कितना बड़ा संबंध है? क्या इसका सीधा संबंध अगुआ के कार्य करने के तरीके से है? हम पूरे यकीन से यह कह सकते हैं कि यहाँ एक संपूर्ण, सीधा संबंध है और यह कि ये चीजें सौ फीसदी आपस में जुड़ी हुई हैं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसे बहुत से अगुआ हैं जो अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के लिहाज से लोगों को परमेश्वर के सामने लाना चाहते हैं, लेकिन चूँकि उन्हें सत्य की समझ नहीं है या उन्हें अलग-अलग वास्तविक समस्याओं को सुलझाना नहीं आता है, वे सिर्फ कुछ प्रशासनिक कार्यों और आम मामलों को ही संभाल सकते हैं और दिखावा करते हैं ताकि लोग उनका सम्मान करें, इसलिए वे अनजाने में मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल पड़ते हैं। वे लोगों के दिल जीतने और उनके दिलों, व्यवहार और विचारों को नियंत्रित करने का प्रयास करते रहने के लिए अपने खुद के तरीकों और साधनों का उपयोग करते हैं, ताकि लोग अपने कार्यों, सत्य के अपने अभ्यास और अपने कर्तव्य निर्वहन के हर पहलू में वही करें जो वे कहते हैं। अगर लोग मसीह-विरोधी के प्रति समर्पण कर देते हैं और परमेश्वर के प्रति ईमानदारी से समर्पण नहीं करते हैं—अगर वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की तुलना में मसीह-विरोधी के प्रति कहीं ज्यादा समर्पण करते हैं—और उनके कर्तव्य निर्वहन से कोई परिणाम नहीं निकलता है और वे मनुष्य के कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर रहे हैं, तो क्या ऐसे लोगों को बचाया जाएगा? लोगों के पास अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आज्ञा मानने और उनके प्रति वफादार होने के लिए अभ्यास के “सटीक” मार्ग हैं, लेकिन जब परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके प्रति वफादार होने की बात आती है, तो वे सटीक रूप से अभ्यास तक नहीं करते हैं—कोई भी ना तो इस पर संगति करता है और ना ही वास्तविक कार्य के इस पहलू को कोई करता है। सब लोगों को अपने खुद के रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए बोलना और कार्य करना अच्छा लगता है और वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों से अपनी आज्ञा मनवाने और अपनी आराधना करवाने के लिए अपना दिमाग खपाते हैं और इस दिशा में कार्य करने के दौरान खाना-पीना और सोना तक भूल जाते हैं। जाहिर है कि वे कलीसिया में एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में राज करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए यह सब करते हैं। इसका क्या कारण है? इसका कारण यह है कि सारी भ्रष्ट मानवता का स्वभाव एक जैसा होता है और उसकी प्राथमिकताएँ एक जैसी होती हैं। जब कोई तुम्हें कोई मार्ग दिखाता है और तुम उसका अभ्यास करने के लिए बेहद इच्छुक होते हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो—इसका मतलब है कि तुम उस व्यक्ति के कहे अनुसार कार्य कर रहे हो और उसकी आज्ञा मान रहे हो। तो, लोग परमेश्वर के सामने आने या उसे तलाशने के इच्छुक क्यों नहीं हैं? क्योंकि मनुष्य की मानवता में सत्य से मेल खाने वाली कोई चीज नहीं है। लोगों को क्या अच्छा लगता है, वे किस चीज के लिए तरसते हैं और वे अपने दिलों में क्या रखते हैं, यह सब कुछ सत्य के विरुद्ध है, सत्य के विपरीत है। इसलिए, अगर तुम किसी के साथ कुछ होने पर उसे सत्य की तलाश करने के लिए कहते हो तो यह कार्य उसे उड़कर चाँद पर जाने से भी मुश्किल लगेगा—लेकिन अगर तुम उससे किसी व्यक्ति की बातों पर ध्यान देने के लिए कहते हो तो उसे वह कार्य बहुत आसान लगेगा। यह जाहिर है कि लोगों को नियंत्रित करने के लिए जब मसीह-विरोधी लोगों के दिल जीतने की तकनीक का उपयोग करते हैं तो वे बहुत जल्द ही परिणाम हासिल कर लेते हैं। चलते-चलते बस एक टिप्पणी करके वे किसी व्यक्ति को अपने बारे में अनुकूल राय बनाने के लिए मजबूर कर सकते हैं; सिर्फ एक सामान्य टिप्पणी से, जिसमें कोई इरादा या नजरिया मौजूद हो, वे किसी को उन्हें एक नए नजरिये से, एक नई रोशनी में देखने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इससे प्रकट हो जाता है कि इन लोगों के अंदर क्या है। इसका मतलब है कि अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते हो और इसके बजाय रुतबा और शक्ति हासिल करने का मार्ग अपनाते हो तो तुम जो भी करोगे उसका प्रभाव और परिणाम भ्रष्ट मानवजाति के हर सदस्य पर पड़ेगा, वह उन्हें सत्य मार्ग से मुँह फेर लेने, सत्य से दूर हो जाने, परमेश्वर से दूर हो जाने और परमेश्वर को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करेगा। इसका सिर्फ यही निष्कर्ष है, सिर्फ यही परिणाम है। इसे साफ-साफ देखा जा सकता है।
लोगों के दिल जीतने का प्रयास करने वाले मसीह-विरोधियों की पहली अभिव्यक्ति है थोड़ी-बहुत मदद करके लोगों को फुसलाना। ऐसा जरूरी नहीं है कि थोड़ी-बहुत मदद भौतिक चीजों के रूप में ही की जाए; इसमें एक विशाल श्रेणी शामिल है। कभी-कभी यह मदद विचारशील शब्द के रूप में होती है; कभी-कभी यह किसी की इच्छा या प्राथमिकता की पूर्ति के रूप में होती है; और कभी-कभी यह किसी के विचारों को महसूस करके ऐसी मीठी-मीठी बातों के रूप में होती हैं जो वह व्यक्ति सुनना चाहता है ताकि वह सोचे कि उसका अगुआ बहुत अच्छा और बहुत ही समझदार है। दूसरे शब्दों में, मसीह-विरोधी लोगों को नियंत्रित करने की अपनी गुप्त महत्वाकांक्षा को छिपाने के लिए सहनशीलता, प्रेम, जोश और तथाकथित विचारशीलता का ढेर लगा देते हैं। मिसाल के तौर पर, अगर भाई-बहनों ने कुछ अच्छी चीजें दान में दी हैं, तो वे उनमें से कुछ चीजें उठाकर उन लोगों में बाँट सकते हैं जिनके साथ उनके अच्छे रिश्ते हैं। वे लोगों के दिल जीतने और उन्हें खरीदने के लिए ऐसी थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग करते हैं। अगर कलीसिया में कोई कम मेहनत वाला, हल्का-फुल्का कार्य हो, जिसमें प्रतिकुल मौसम जैसे कि कड़ी धूप या बारिश, वगैरह के संपर्क में आने की जरूरत नहीं हो और जो किसी को सुर्खियों में आने का अवसर दे सकता हो, तो वे किसी ऐसे व्यक्ति को यह कार्य करने के लिए भेज देते हैं जिसके साथ उनके अच्छे रिश्ते हैं। वे ऐसा क्यों कर पाते हैं? इसका आंशिक कारण यह है कि वे सहज रूप से सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और सिद्धांतों के बिना क्रियाकलाप करते हैं। दूसरा कारण यह है कि वे यह अच्छा कर्तव्य उन लोगों के लिए बचाकर रखते हैं जिनके साथ उनके अच्छे रिश्ते होते हैं और फिर वे उन्हें कुछ मीठी बातें कहते हैं ताकि वे लोग उनके प्रति एहसानमंद महसूस करें। ऐसा करके वे इन लोगों के दिल जीतने का अपना लक्ष्य हासिल करते हैं। यह चाल सिर्फ छोटी-छोटी चीजें देने और जब-तब कोई मीठी बात कहने के बारे में नहीं है—इसमें एक इरादा, एक लक्ष्य निहित है। और वह लक्ष्य क्या है? इसका उद्देश्य लोगों के दिलों में अपने लिए अनुकूल मूल्यांकन छोड़ना है। अगर दस लोगों का एक समूह है तो वे शुरुआत उनके मूल्यांकन से करेंगे : “इन दस में से दो लोग ऐसे हैं जो लोगों की खुशामद करने में अच्छे हैं। मुझे उन्हें लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है, वे वैसे ही मेरी खुशामद करेंगे। फिर, यहाँ दो भ्रमित लोग हैं; अगर मैं उन्हें कुछ लालच दूँ तो वे बिल्कुल वही करेंगे जो मैं उनसे करने के लिए कहूँगा। और दो लोग ऐसे हैं जिनमें कुछ काबिलियत है; जब तक मैं कुछ उदात्त धर्मोपदेश देता रहूँगा और उनसे कुछ प्रभावशाली शब्द कहता रहूँगा, वे मेरे आगे झुके रहेंगे। इसके बाद, तीन ऐसे लोग हैं जो सत्य की खोज करने वाले लगते हैं, इसलिए उन्हें संभालना थोड़ा मुश्किल होगा। मुझे उनकी असली स्थिति को साफ-साफ समझना होगा, देखना होगा कि उनकी जरूरतें क्या हैं और फिर उन्हें संतुष्ट करना होगा। अगर इनमें से कोई मुझ पर विश्वास नहीं करता है और मेरी आज्ञा नहीं मानता है, तो मैं आखिर में उससे निपट लूँगा और उसे यहाँ से बाहर कर दूँगा। भले ही आखिरी व्यक्ति मेरे खिलाफ हो जाए, वह मुझे सिर्फ एक हद तक ही परेशान कर सकता है और उससे निपटना आसान होगा।” एक सरसरी निगाह डालकर ही वे यह तय कर सकते हैं कि समूह में वे किसको संभाल सकते हैं और किसको नहीं। वे यह बात इतनी जल्दी कैसे जान सकते हैं? वे ऐसा इसलिए कर पाते हैं क्योंकि उनके दिलों में शैतानी राजनीति और फलसफे भरे हुए हैं। उनके आचरण के सिद्धांत और व्यवहार करने और दूसरों से बातचीत करने के तरीके लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते रखने या सामान्य पारस्परिक संबंध रखने के बारे में नहीं हैं, ये दूसरों की मदद करने या उनके लिए आपूर्ति करने या उन्हें शिक्षा देने या दूसरों के साथ बराबरी का व्यवहार करने या मामलों को संभालने और दूसरे लोगों से निपटने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग करने के बारे में नहीं हैं। उनमें ये सिद्धांत बिल्कुल नहीं होते हैं। तो उनके सिद्धांत क्या हैं? “हर व्यक्ति अपने दिल में मुझे कैसा मानता है? मुझे उन लोगों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है जो मेरे बारे में ऊँची राय रखते हैं, जिन्होंने मुझे अपने दिल में बसाकर रखा है और जो मुझसे डरते हैं, मेरा सम्मान करते हैं, और मुझे पूजते हैं। जो मुझे नहीं पूजते हैं, उनके साथ आगे मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए और जो मुझे पूजते हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक मेरे आगे समर्पण नहीं किया है, उनके साथ मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए। और, जहाँ तक उन लोगों की बात है, जो आम तौर पर दूसरों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं, उनके साथ मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए।” उनके पास लोगों को नियंत्रित करने के लिए एक चरण-दर-चरण प्रक्रिया होती है। वे इन चरणों और विचारों को क्यों उत्पन्न करते हैं? क्योंकि उनके दिलों में ताकत हासिल करने की अनियंत्रित इच्छा है। अगर उन्हें किसी समूह में दूसरे लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण ढंग से रहना पड़े तो वे काफी असंतुष्ट और अपमानित महसूस करेंगे। तो उनका लक्ष्य क्या है? हर किसी को अपने दिल में उनके लिए स्थान बनाने के लिए मजबूर करना—अगर सबसे पहला स्थान नहीं, तो फिर दूसरा स्थान ही सही और अगर दूसरा स्थान नहीं, तो फिर तीसरा ही सही। दूसरों के साथ समान स्तर पर बातचीत करना उन्हें मंजूर नहीं है। अगुआ होने के नाते, क्या ये लोग दूसरों के अलग विचारों पर ध्यान दे सकते हैं? नहीं दे सकते। वे जो भी करते हैं वह किस चीज पर केन्द्रित होता है? (ताकत।) वे जो भी करते हैं वह ताकत पर केन्द्रित होता है। वे ऐसी कौन-सी चीजें करते हैं जो ताकत पर केन्द्रित होती हैं? सबसे पहले, वे तुम्हारे दिल की छानबीन करते हैं और उस पर अपनी पकड़ बनाते हैं; मतलब, सबसे पहले, वे तुम्हें खरीद लेते हैं और तुम्हें उनके आगे अपना दिल खोलने पर मजबूर करते हैं, वे तुमसे तुम्हारी सच्ची भावनाएँ उगलवा लेते हैं और उनके बारे में तुम्हारी सच्ची राय का पता लगा लेते हैं। इसे समझ लेने के बाद वे हर स्थिति के अनुसार अपने तरीके अपनाते हैं और हर मामले पर अलग-अलग कार्य करते हैं। वे लोगों के दिलों को नियंत्रित करना चाहते हैं और जब उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जो उनसे सहमत नहीं होता है, कोई ऐसा जो उनका सम्मान नहीं करता है, कोई ऐसा जो उनके प्रति वफादार नहीं होता है, तब वे उस व्यक्ति पर वार करते हैं और उसे पीड़ा पहुँचाते हैं। इसलिए, लोगों के दिल जीतने में ताकत ही मसीह-विरोधियों की प्रेरणा है। और ताकत हासिल करने के लिए वे कौन-से तरीके और तकनीकें अपनाते हैं? वे लोगों के दिलों को अच्छी तरह समझ लेते हैं, उन पर अपनी पकड़ बनाते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं। लोगों के विचार किससे नियंत्रित होते हैं? उनके दिल और उनकी प्रकृति से। जब किसी व्यक्ति के दिल को कोई मसीह-विरोधी नियंत्रित कर लेता है तो उसके इरादे और विचार से कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बार जब मसीह-विरोधी किसी के दिल को अपने नियंत्रण में कर लेता है तो फिर वह उस व्यक्ति की पूरी शख्सियत को नियंत्रित करने लगता है।
ख. अपनी आराधना कराने के लिए लोगों को अपनी खूबियाँ दिखाना
हमने अभी-अभी जिस थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग करने के बारे में बात की, उसके अलावा, मसीह-विरोधी लोगों के दिल जीतने के लिए आम तौर पर या आदतन कौन-सी दूसरी तकनीकों का उपयोग करते हैं? मिसाल के तौर पर, मान लो कि सभी के मन में किसी अगुआ के बारे में एक बुरी छवि बनी हुई है। लोग सोचते हैं कि इस अगुआ में प्रतिभा का अभाव है, वह सिर्फ शब्द और सिद्धांत बोल सकता है और उसे सत्य की कोई वास्तविक समझ नहीं है। अब अगर उस अगुआ को पता चल जाता है कि लोगों के मन में उसके बारे में ऐसी छवि बनी हुई है, तो क्या वह इन दोषों और कमियों को छिपाने का भरसक प्रयास करेगा? (हाँ।) वह क्या करेगा? वह किस तरह की चीजें कहेगा? खुलकर बात करने का ढोंग करना इसका एक पहलू है। वह और क्या करेगा? (चीजों को समझाएगा।) चीजों को समझाना भी छिपाने के एक साधन के तौर पर काम करता है। इसके अलावा, अगुआ अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए अपनी खूबियों और उन चीजों का उपयोग कर सकता है जो दूसरों की नजरों में महान हैं। क्या यह एक आम तकनीक है? (हाँ।) मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति कहता है, “मुझे परमेश्वर में विश्वास करते हुए अभी सिर्फ कुछ ही समय हुआ है, तो फिर मुझे अगुआ के तौर पर क्यों चुना गया? वह इसलिए क्योंकि मैं लौकिक दुनिया में एक कंपनी चलाता हूँ, और हमारे कर्मचारियों की संख्या 10 लोगों से बढ़कर 200 हो गई है, जिससे पता चलता है कि मेरे पास अगुवाई करने की क्षमता है। हालाँकि परमेश्वर का घर ऐसे मामलों को अहमियत नहीं देता है, लेकिन यह क्षमता कुछ परिस्थितियों में काम आती है, है ना?” यह सुनकर दूसरे लोग असहमति जताते हैं, इसलिए यह व्यक्ति अपना प्रदर्शन जारी रखते हुए कहता है, “मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम अपने कर्मचारियों से कुछ कहते हो, लेकिन वे तुम्हारी बात नहीं सुनते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? वे तुम्हारी बात तब सुनेंगे जब तुम अच्छे परिणाम हासिल करोगे। मैं तो पहले से ही अपना सबूत पेश कर चुका हूँ : मेरी कंपनी सार्वजनिक हो गई है!” शुरू में, कुछ लोग यह कह सकते हैं कि यह एक गुण है, अविश्वासी लोग इसी तरह से चीजें करते हैं, लेकिन इस व्यक्ति के पास कार्य करने के वाकई तरीके हैं और इसके कार्य के परिणाम आते हैं, इसलिए कुछ लोग शुरुआत में उस पर शक करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे वह कार्य करता रहता है, वे थोड़ा-थोड़ा करके उस पर भरोसा करने लगते हैं और अनजाने में उसकी आराधना करने लगते हैं। इसके अलावा, यह व्यक्ति दूसरों को गुमराह करता है और अपनी खुद की खामियों को छिपाता है; लोगों को पता भी नहीं चलता है कि उसने उनके दिलों को खरीद लिया है, उन्हें गुमराह कर दिया है और वे उसके आगे अपना सिर झुका देते हैं। क्या यह तकनीक नहीं है? (हाँ, है।) यह कौन-सी तकनीक है? यह अपनी विशेषज्ञता और गुणों को दिखाने और अपनी क्षमताओं और कौशलों की बड़ाई करने का भरसक प्रयास करना है। इन क्रियाकलापों का क्या उद्देश्य है? यह उद्देश्य दूसरों के दिल जीतना भी है। दूसरों के दिल जीतने के लिए उन्हें कुछ अच्छी चीजें देने के अलावा, उसे दूसरों से अपना सम्मान भी करवाना पड़ता है। अगर वह कोई आम व्यक्ति होता या बिना ज्यादा स्कूली शिक्षा वाला अनपढ़ व्यक्ति होता, तो कौन उसका सम्मान करता? इसलिए, यह व्यक्ति जानबूझकर अपने डिप्लोमा का दिखावा करता है, लोगों को यह जानकारी देता है कि उसके पास उन्नत डिग्री और उन्नत शैक्षणिक प्रमाण-पत्र हैं और फलस्वरूप, वह कुछ लोगों को गुमराह करता है। वह अपना गुणों, अपनी विशेषज्ञता और क्षमताओं को दिखाने का भरसक प्रयास करता है, ताकि दूसरे लोगों के मन में उसके बारे में ऊँची राय और उसकी अच्छी छवि बन जाए और ताकि अपने कार्य करते समय अक्सर लोग उसकी सलाह लेने के बारे में सोचें या उनके मन में ऐसा करने की तेज इच्छा हो। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वह जो भी करता है, क्या वह भी लोगों के दिल जीतने की रणनीति नहीं है? ये मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों के दिल जीतने की दो अभिव्यक्तियाँ हैं। पहली है थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग करना। दूसरी है अपनी खुद की क्षमताओं और गुणों, यानी, उन चीजों को दिखाना जो उन्हें दूसरों से बेहतर बनाती हैं, और इस तरीके का उपयोग करके बाकी लोगों को हरा देना, ताकि वे भीड़ से अलग दिखें और ताकि सभी उनका सम्मान करें, उनकी सराहना करें, उनके आदेशों को मानने और उनकी अगुवाई को स्वीकार करने के लिए अपनी मर्जी से उनके सामने आएँ और अपनी मर्जी से उनकी सभी व्यवस्थाओं को स्वीकार करें और उनका पालन करें। क्या यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक हमला नहीं है? (हाँ, है।) दूसरों के दिल जीतना एक तरह का मनोवैज्ञानिक हमला ही है। “मनोवैज्ञानिक हमले” का क्या मतलब है? यह एक ऐसा साधन है जिसकी मदद से शैतान लोगों के दिलों पर कब्जा करके उन्हें नियंत्रित करता है। परमेश्वर मनुष्य के दिल की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है। वह लोगों के दिल जीतता है और उन्हें हासिल करता है। तो, फिर शैतान और मसीह-विरोधियों की बात करते समय “लोगों के दिल हासिल करना” वाक्यांश का उपयोग क्यों नहीं किया जाता है? वह इसलिए क्योंकि शैतान और मसीह-विरोधी लोगों के दिलों को जब्त करने, गुमराह करने, फुसलाने और नियंत्रित करने के लिए असामान्य और दुष्ट तकनीकों का उपयोग करते हैं, ताकि लोग उनके बारे में ऊँची राय बनाने और दिल की गहराई से उनका सम्मान और उनकी सराहना करने के लिए मजबूर हो जाएँ।
अभी-अभी हमने लोगों के दिल जीतने के लिए दो युक्तियों के बारे में संगति की। इनके अलावा और कौन-सी खास युक्तियाँ हैं? अगर तुम लोगों ने अभी तक उन युक्तियों और तरीकों का अनुभव नहीं किया है जिनका उपयोग मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह और बेबस करने के लिए करते हैं, तो तुम खुद को देखकर यह पता लगा सकते हो कि उनकी तुलना में तुम कैसे व्यक्ति हो। ध्यान से देखो कि क्या तुम लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ हैं। भ्रष्ट स्वभावों के बीच रहने वाले हर व्यक्ति में ये चीजें मौजूद होती हैं। थोड़ी-बहुत मदद करना, लोगों को गुमराह करना, लोगों को फुसलाना—क्या तुम अक्सर ये चीजें नहीं करते हो? और अपने गुणों और अपनी खूबियों को दिखाने का भरसक प्रयास करना—क्या यह भी तुम अक्सर नहीं करते हो? (हाँ, करते हैं।) खास तौर पर, जब तुम कोई ऐसी चीज करते हो जो सत्य के खिलाफ होती है, जब तुम्हारी कमजोरियाँ और गलतियाँ उजागर होती हैं और यहाँ तक कि जब तुम्हें काटा-छाँटा जाता है और तुम वाकई शर्मिंदा होते हो और तुम्हारी प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ जाती हैं, तो क्या तुम लोग परिस्थिति को सुधारने और लोगों के दिलों में अपनी स्थिति और प्रतिष्ठा को बहाल करने के लिए इन तरीकों और तकनीकों का उपयोग करने जैसी चीजें नहीं करते हो? (हम भी इस तरह की चीजें करते हैं।) जब तुम ये चीजें करते हो, तो क्या तुम्हारे अंदर कोई जागरूकता होती है जिससे तुम्हें महसूस होता हो कि यह गलत रास्ता है और तुम ऐसा नहीं कर सकते? क्या तुम्हें आत्म-निंदा महसूस होती है? क्या तुम अक्सर इसके प्रति असंवेदनशील रहते हो या फिर ऐसा है कि तुम्हें आत्म-निंदा महसूस तो होती है, लेकिन फिर भी तुम ये चीजें करने के लिए मजबूर हो जाते हो क्योंकि तुम्हारे लिए तुम्हारी प्रतिष्ठा और छवि बेहद महत्वपूर्ण हैं? इनमें से कौन-सी बात होती है? (हम इन्हें करने के लिए मजबूर हो जाते हैं।) तुम इन्हें करने के लिए मजबूर हो जाते हो—अच्छा, तो क्या उसके बाद तुम्हें आत्म-निंदा महसूस होती है? या तुम्हें यह बिल्कुल महसूस नहीं होती है, बल्कि इन चीजों को कर लेने के बाद तुम इन्हें मामूली बात बना देते हो और पहले की तरह ही खाना-पीना और सोना जारी रखते हो? (हम आत्म-निंदा महसूस करते हैं।) अगर तुम्हें अपने लिए थोड़ी-सी निंदा महसूस होती है, तो फिर यह इतना बुरा नहीं है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी जड़ता ज्यादा गहरी नहीं हुई है—तुम्हारे अंदर अभी भी जागरूकता है। जागरूकता वाले लोगों को बचाए जाने की उम्मीद है; जिन लोगों में इसका पूरा अभाव है, उनमें मानवता नहीं है, इसलिए वे खतरे में हैं।
ग. लोगों को गुमराह करने और अपने बारे में उनकी अच्छी राय बनवाने के लिए मुखौटों का उपयोग करना
मसीह-विरोधी लोगों के दिल जीतने के लिए आदतन किन दूसरी तकनीकों का उपयोग करते हैं? एक और परिस्थिति है, जो यह है कि मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे इसे परमेश्वर के सामने नहीं, बल्कि लोगों के सामने करते हैं। इसमें उनका क्या लक्ष्य है? (लोगों को फुसलाना।) यह लोगों के दिलों को फुसलाना है। ऊपर से वे दूसरों की तुलना में ज्यादा कष्ट सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं; वे दूसरों की तुलना में ज्यादा आध्यात्मिक, परमेश्वर के प्रति ज्यादा वफादार और अपने कर्तव्य के प्रति ज्यादा गंभीर प्रतीत होते हैं। लेकिन जब आसपास उन्हें देखने वाला कोई नहीं होता है, तो वे इस तरह से कार्य नहीं करते हैं। इस तरह से कार्य करना उनका सच्चा इरादा नहीं होता है; बल्कि, उनका कोई गुप्त उद्देश्य होता है। वे दूसरों के सामने इसलिए इस तरह से व्यवहार करते हैं ताकि वे लोग देखें कि वे कितने अच्छे तरीके से कार्य कर रहे हैं और वे अपने कर्तव्यों को कितनी निष्ठा से कर रहे हैं, जबकि सच यह है कि निष्ठा उनकी आंतरिक प्रेरणा बिल्कुल नहीं है। उनका लक्ष्य लोगों को यह दिखाना है कि वे निष्ठावान और जिम्मेदार व्यक्ति हैं। वे इस तरीके से कीमत चुकाकर दूसरों को पूरी तरह से आश्वस्त कर देते हैं। फलस्वरूप, दूसरे लोग उनकी अगुवाई स्वीकार करने और चाहे वे कैसी भी गलतियाँ करें, उन्हें माफ करने के लिए तैयार रहते हैं। यह किस तरह का आचरण है? यह लोगों को गुमराह करने के लिए मुखौटों का उपयोग करना है। यहाँ “मुखौटों” का क्या मतलब है? इसका मतलब उन अच्छे आचरणों और ऐसे क्रियाकलापों से है जो सत्य के अनुरूप प्रतीत होते हैं। लोगों को गुमराह करने और अपने बारे में उनकी अच्छी राय बनवाने के लिए सत्य के अनुरूप प्रतीत होने वाले मुखौटों का उपयोग करना—यह इस आचरण की विशेषताओं का सारांश है, है ना? उनका लक्ष्य आखिर में अपने बारे में लोगों की अच्छी राय बनवाना है। एक बार जब मसीह-विरोधियों के बारे में लोगों की अच्छी राय बन जाती है, तो वे उनके लिए कुछ सम्मान महसूस करने लगते हैं—इस तरीके का उपयोग करके मसीह-विरोधी उनके दिलों में अपने लिए एक निश्चित जगह हासिल कर चुके होते हैं। मिसाल के तौर पर, एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने कर्तव्य को करने में कीमत चुकाने के लिए तैयार है, ज्यादातर अपने क्रियाकलापों में अनुभव पर भरोसा करता है और बुनियादी तौर पर, किसी भी मुख्य सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है, लेकिन जब तुम सत्य सिद्धांतों को तलाशने के बारे में उसके साथ संगति करते हो, तो वह क्या कहता है? “मेरे साथ इस बारे में संगति करने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने ये सारी बातें अपने मन में संजोई हुई हैं!” जब वह वाकई किसी समस्या का सामना करता है, तो वह ना सिर्फ किसी से सलाह नहीं माँगता, बल्कि किसी और की सलाह सुनने से भी साफ मना कर देता है, उनकी राय सुनना तो दूर की बात है; वह बस वही करता है जो उसके विचार से अच्छा है। जब वह कोई कीमत चुकाता है, जब वह अपने क्रियाकलापों से तेज और निर्णायक और खास अधिकार वाला व्यक्ति प्रतीत होता है, तो दूसरे लोग अपने दिलों में उसे किस नजर से देखते हैं? क्या वे उसके बारे में अच्छी राय रखते हैं या नहीं? दूसरे लोगों के नजरिये से देखें, तो उसने किसी भी जाहिर तरीके से सत्य का उल्लंघन नहीं किया है, और वह जिन तरीके से चीजों को करता है, उनमें बेहद कुशल है। उसकी “निष्ठा” का स्तर और अपने कर्तव्यों को करने में उसका अनुभव दूसरों को आश्वस्त करने के लिए काफी है। लोग सोचते हैं, “उसे देखो : उसने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और उसे इस कर्तव्य को करने का अनुभव है। वह अनुभवी है। हम उसे नहीं कर पाते।” जब लोग उसके बारे में ऐसा सकारात्मक नजरिया रखते हैं, तो क्या वह उन लोगों के दिलों को बहुत प्रभावित करता है या कम प्रभावित करता है? (बहुत प्रभावित करता है।) बहुत प्रभावित करता है; वह उनके दिलों को प्रभावित करता है। कुछ लोग सत्य की तलाश कभी नहीं करते हैं, कुछ हद तक इसलिए क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है और बाकी इसलिए क्योंकि उनकी सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं होती है और वे सत्य से बिल्कुल प्रेम नहीं करते हैं और उन्हें सत्य सिद्धांतों की जरा भी समझ नहीं होती है। वे अपने कर्तव्यों को करने के लिए पूरी तरह से अपने पल भर के जोश, अपने खुद के अच्छे इरादों और अपने वर्षों के अनुभव पर भरोसा करते हैं। लेकिन वे नहीं चाहते हैं कि दूसरे लोग इन चीजों के बारे में जानें, इसलिए वे बहुत मेहनत करने और कीमत चुकाने का भरसक प्रयास करते हैं। अगर किसी को पता चल जाता है कि उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है या वे सत्य नहीं समझते हैं और सिद्धांतों के बिना चीजें करते हैं, तो वे लोगों को दिखाने के लिए जल्द ही कुछ उपलब्धियाँ हासिल कर लेते हैं। वे कहते हैं, “देखो और पता कर लो कि मुझे आध्यात्मिक समझ है या नहीं। ध्यान से देखो; पता कर लो कि मैं सच में सिद्धांतों के साथ कार्य करता हूँ या नहीं, मैं सच में सत्य समझता हूँ या नहीं।” जब वे इस तरह से कार्य करते हैं, तो एक बड़ी संख्या में लोग उनके द्वारा गुमराह किए जाते हैं। वे कहते हैं, “वे लोग अपने कर्तव्य करने में अनुभवी हैं और वे सिद्धांतों को समझते हैं; हम लोगों को ही इनकी समझ नहीं है।” “हम लोगों को ही इनकी समझ नहीं है”—इस कथन से क्या प्रकट होता है? इससे यह प्रकट होता है कि वे अपने दिल की गहराई में उन लोगों के बाहरी अच्छे आचरण को स्वीकार करते हैं। यह स्वीकृति किसके समान है? यह स्वीकृति यह सोचने के समान है कि वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं, जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो परमेश्वर की अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं। क्या दूसरे लोगों द्वारा उनका इस तरह से मूल्यांकन करना उनके द्वारा लोगों के दिलों में एक खास जगह पर कब्जा करने के समान नहीं है? अधिक विशिष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि उनके पास एक तरह की प्रतिष्ठा है। तो इस प्रतिष्ठा से उन्हें क्या मिलता है? इससे दूसरे लोग उनका आदर करते हैं, उन्हें मान्यता देते हैं और यहाँ तक कि उन पर निर्भर हो जाते हैं। दूसरे लोग उन पर कैसे निर्भर हो जाते हैं? जैसे ही उन्हें कोई समस्या होती है, वे तुरंत उन्हें ढूँढने लगते हैं। मान लो कि कोई कहता है, “यह एक बड़ी समस्या है और हम इसे नहीं समझ पा रहे हैं; हमें ऊपरवाले से पूछना चाहिए, है ना?” तब कुछ लोग कहेंगे, “इसकी कोई जरूरत नहीं है। हम बस अपने अगुआ से पूछ सकते हैं। हमारे अगुआ को यह सब समझ आता है।” हर किसी के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि ज्यादातर समय अगुआ और कार्यकर्ता अपने काम में व्यस्त रहते हैं और उन्होंने बुरा नहीं किया है, और फलस्वरूप वे सोचते हैं कि वे निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं जो सत्य समझते हैं और सिद्धांतों के साथ कार्य करते हैं। तुम इस मनोभाव का क्या मतलब निकालते हो? अगर किसी ने बाहरी तौर पर बुरा नहीं किया है, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह सत्य समझता है? ऐसा जरूरी नहीं है। हर व्यक्ति की सत्य समझने की एक सीमा होती है। यह मानकर कि अगुआ सब कुछ समझते हैं, अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते हो, उससे नहीं माँगते हो या उसके वचनों में तलाश नहीं करते हो, तुम्हारी समस्या चाहे कुछ भी हो, तुम उसके बारे में पूछने के लिए सीधे अगुआ के पास चले जाते हो, तो क्या इससे चीजों में देरी नहीं होगी? अगर तुम हमेशा वही कर रहे हो जो अगुआ कहते हैं, हमेशा उनका आदर कर रहे हो, तो कुछ चीजें गलत हो सकती हैं और तुम्हारे कारण कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँच सकता है। यही कारण है कि लोगों की आराधना करना और उनका आदर करना अपने मार्ग से भटकने और गलतियाँ करने का, तुम्हारे अपने जीवन को और परमेश्वर के घर और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाने का सबसे आसान तरीका है।
मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों के दिल जीतने की तीन मुख्य अभिव्यक्तियाँ हैं : पहली अभिव्यक्ति है लोगों को फुसलाने के लिए थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग करना; दूसरी है अपनी खूबियों, अपने गुणों और अपनी प्रतिभाओं को दिखाना; तीसरी है लोगों को गुमराह करने और अपने बारे में उनकी अच्छी राय बनवाने के लिए मुखौटों का उपयोग करना। ये अभिव्यक्तियाँ सभी में पाई जा सकती हैं। कुछ लोग अक्सर कुछ ऐसी गपशप का खुलासा करते हैं जिनके बारे में दूसरे लोगों को मालूम नहीं होता है, वे सभी तरह के विषयों पर बात करते हैं या कुछ अनोखी, विशेषज्ञ राय साझा करते हैं। इसे क्या कहते हैं? एक दो हिस्सों वाली कहावत है : “एक बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाने के लिए लिपस्टिक लगाती है।” ये लोग हमेशा अपने कौशल दर्शाना चाहते हैं और लोगों का सम्मान जीतना चाहते हैं। लेकिन कभी-कभी वे इस कार्य को अच्छी तरह करने से चूक जाते हैं और लोग उनकी खामियाँ देख लेते हैं, इसलिए वे परिस्थिति को सुधारने के लिए और बहसबाजी करके इससे बाहर निकलने के लिए सब कुछ करते हैं। चाहे उन्होंने ऐसी कोई भी चीज की हो जो उनके विवेक और सत्य के खिलाफ हो या जो उनके कर्तव्यों को करने से संबंधित नहीं हो, उन्हें अपनी गलती मान लेना या आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप करना कभी नहीं आता है, और ना ही उन्हें कभी इस बात का अहसास होता है कि यह समस्या कितनी गंभीर है। इसके विपरीत, वे अपनी खुद की तरफ से बहस करने और चीजों को आसान बनाने के तरीके ढूँढने के लिए बहुत सोचते हैं और अपने दिमाग खपाते हैं। वे अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बहुत बेसब्र हो जाते हैं और यह बेसब्री इस हद तक बढ़ जाती है कि उनके लिए खाना या सोना तक असंभव हो जाता है, उन्हें यह डर लगा रहता है कि दूसरों की नजरों में उनकी जो अच्छी स्थिति है उसमें कहीं अचानक और भयंकर गिरावट ना आ जाए। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग सोचते हैं कि वे अच्छा लिखते हैं, कि वे कुशल लेखक हैं; कुछ सोचते हैं कि वे अच्छे अगुआ हैं, कि वे कलीसिया को सहारा देने वाले स्तंभ हैं; दूसरे लोग सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। जैसे ही ये लोग किसी ना किसी कारणवश अपनी अच्छी आत्म-छवि खो देते हैं, तो वे बहुत सोचते हैं और इसकी खातिर एक कीमत चुकाते हैं और परिस्थिति को सुधारने का प्रयास करने में अपने दिमाग खपाते हैं। फिर भी उन्हें अपने द्वारा चुने गए गलत मार्गों या सत्य के खिलाफ की गई अलग-अलग चीजों के लिए कभी शर्मिंदगी या आत्म-निंदा महसूस नहीं होती है और ना ही वे कभी परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हैं। उनके मन में इस तरह की भावना कभी नहीं आती है। वे लोगों को गुमराह करने और उनके दिल जीतने के लिए सभी तरह की युक्तियों का उपयोग करते हैं। क्या यह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य करना है? बिल्कुल नहीं। क्या यह वह कार्य है जिसे कलीसियाई अगुआओं को करना चाहिए? बिल्कुल नहीं। वे शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रहे हैं, बुरा कर रहे हैं, कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रहे हैं और परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त कर रहे हैं। उनके क्रियाकलापों और व्यवहारों, उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों और लोगों को गुमराह करने और उन्हें नियंत्रित करने वाले उनके अलग-अलग व्यवहारों के आधार पर हम यह फैसला कर सकते हैं कि वे एक अगुआ का कर्तव्य नहीं कर रहे हैं, बल्कि मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य को बर्बाद कर रहे हैं और उसमें गड़बड़ कर रहे हैं, लोगों को परमेश्वर के सामने आने से रोक रहे हैं और लोगों को अपने हाथों में, अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास कर रहे हैं। क्या ये मसीह-विरोधी के क्रियाकलाप और व्यवहार नहीं हैं? इस बारे में कोई शक नहीं है। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि मसीह-विरोधी पूरी तरह से शैतान की भूमिका निभाते हैं। उनके द्वारा की जाने वाली इन चीजों की प्रकृति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे सिर्फ अपने उस कर्तव्य को अच्छी तरह से करने से ही नहीं चूक रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए—बल्कि, इसके विपरीत, वे शैतान की भूमिका निभा रहे हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे होड़ करना है। जो भेड़ें परमेश्वर की हैं, उन्हें परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए और वे उसके द्वारा हासिल की जानी चाहिए, फिर भी ये लोग दूसरों को परमेश्वर का अनुसरण करने से रोकते हैं; वे परमेश्वर की भेड़ों को अपने हाथों में ले लेते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं और लोगों को उनकी खुद की आराधना करने और अपना अनुसरण करने के लिए मजबूर करते हैं। यही उनके क्रियाकलापों की प्रकृति है। क्या ऐसे लोगों को “अगुआ” कहकर बुलाया जा सकता है? (नहीं।) तो फिर हमें उन्हें क्या कहकर बुलाना चाहिए? (बुरे सेवक।) “बुरे सेवक”—यह एक उपयुक्त नाम है। “मसीह-विरोधी,” “बुरे सेवक”—ये दोनों उपाधियाँ ही सही रहेंगी, है ना? ये लोग अगुआ का कर्तव्य करने का झंडा तो फहराते हैं, लेकिन वे वह कार्य नहीं करते हैं जो एक अगुआ को करना चाहिए। वे जो करते हैं वह अगुआ का कर्तव्य करना बिल्कुल नहीं है, यह एक मसीह-विरोधी की भूमिका निभाना है, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालने और उसे नष्ट करने के लिए शैतान की जगह खड़े होना है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य मार्ग से दूर रहने और परमेश्वर से दूर रहने के लिए गुमराह करना है। उनके सभी कार्य और व्यवहार शैतान के स्वभाव और उसकी प्रकृति को प्रकट करते हैं और लोगों को परमेश्वर से दूर रहने, सत्य और परमेश्वर को अस्वीकार करने और उनकी खुद की आराधना और अनुसरण करने के लिए मजबूर करने का परिणाम देते हैं। एक दिन, जब वे लोगों को पूरी तरह से गुमराह कर देंगे और उन्हें अपने नियंत्रण में ले लेंगे, तो लोग उनकी आराधना करने, उनका अनुसरण करने और उनकी आज्ञा मानना शुरू कर देंगे। तब वे लोगों के दिलों को फँसाने का अपना लक्ष्य हासिल कर लेंगे। वे कलीसिया के अगुआ हैं, लेकिन वे परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया कार्य नहीं करते हैं; वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कार्य नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर कार्य करते हैं, उन्हें गुमराह करते हैं, उन्हें फँसाते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं और उन भेड़ों को अपने नियंत्रण में ले लेते हैं जो स्पष्ट रूप से परमेश्वर की हैं। क्या वे चोर और लुटेरे नहीं हैं? परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उसके साथ होड़ करते हुए, क्या वे शैतान के चाकरों के रूप में कार्य नहीं कर रहे हैं? क्या ऐसे मसीह-विरोधी परमेश्वर के दुश्मन नहीं हैं? क्या वे उसके चुने हुए लोगों के दुश्मन नहीं हैं? (वे हैं।) वे सौ फीसदी हैं। वे परमेश्वर और उसके चुने हुए लोगों के दुश्मन हैं; इसमें रत्ती भर भी शक की गुँजाईश नहीं है।
इससे पहले जब मैं चीन की मुख्य भूमि में सभी कलीसियाओं में बोलता था और कार्य करता था, तो मेरे साथ एक ऐसा व्यक्ति था जिस पर ऑडियो रिकॉर्डिंग की और धर्मोपदेशों को लिखने की जिम्मेदारी थी। यह व्यक्ति थोड़ा-बहुत मेधावी था, तेज दिमाग वाला था और तेजी से प्रतिक्रियाएँ करता था। लेकिन उसमें एक खास बात थी : वह ऐसी मीठी बातें कहने में खूब माहिर था जिन्हें लोग सुनना चाहते थे। अगर तुम किसी चीज के बारे में कहते कि उसका स्वाद अच्छा है, तो वह कहता, “तुम सही कह रहे हो। मैंने उसे चखकर देखा है। वह बहुत ही अच्छा है।” अगर तुम कहते कि बाहर बहुत गर्मी है, तो वह कहता, “हाँ, बिल्कुल। मैं पसीने से लथपथ हो गया हूँ।” अगर तुम कहते कि बाहर बहुत ठंड है, तो वह कहता, “ठंड तो है, सही कहा। मैंने ऊन की अस्तर वाले जूते पहने हुए हैं।” उसे कोई सच्ची या ईमानदार बात कहने में मुश्किल होती थी। वह ऐसा व्यक्ति प्रतीत होता था जो वाकई हासिल करने का प्रयास करता था, लेकिन जब कोई ऐसी बात सामने आती थी जिसके लिए कीमत चुकाने की जरूरत पड़ती थी, तो वह कहीं छिप जाता था। वह चापलूस और धोखेबाज था। वह इसी किस्म का व्यक्ति था। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “अच्छा, तो फिर तुमने ऐसे व्यक्ति को क्यों चुना था?” मैंने उसे नहीं चुना था—यह फैसला उस समय की परिस्थितियों के कारण लेना पड़ा था। वह समय ऐसा था जब उसके जैसा व्यक्ति मिलना भी मुश्किल था, और कम से कम उसकी प्रतिक्रियाएँ तो तेज थीं—मेरे बोलना शुरू करते ही वह “रिकॉर्ड” बटन दबा देता था। मैं जहाँ भी जाता, वह मेरे पीछे-पीछे आता था और धर्मोपदेशों को रिकॉर्ड करता और लिखता था; उसने कुछ वास्तविक कार्य किए। लेकिन वह मेरी मौजूदगी में जिस तरह से आचरण करता था और वह कलीसिया में जो चीजें करता था, ये दोनों बातें पूरी तरह से दो अलग लोगों के क्रियाकलापों जैसी थीं। मेरी मौजूदगी में, वह आज्ञाकारी, अच्छा आचरण करने वाला, मेहनती, विवेकशील और जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में कार्य करता था—लेकिन क्या कलीसिया में अपना कर्तव्य करते समय भी वह ऐसा ही था? यह देखते हुए कि ऊपरवाले के संपर्क में रहते हुए वह इस तरह का व्यक्ति था, क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच रहते हुए भी वह ऐसा ही था? क्या तुम इस पर कोई निश्चित जवाब देने की हिम्मत करोगे? नहीं, तुम नहीं करोगे। तो फिर तुम यह कैसे जान पाते कि उसकी वास्तविक परिस्थिति क्या थी? इसे करने के लिए, तुम्हें उसके संपर्क में रहना पड़ता। कुछ देर उससे बातचीत करने के बाद, उसके प्रकृति सार में निहित सब कुछ तुम्हारे सामने उभरकर आ जाता। उसे रुतबे से खास तौर पर प्रेम था, और वह खास तौर पर घमंडी था; जब भी वह किसी के साथ होता तो उसे अपनी पूंजी के बारे में बात करना और उन चीजों को दिखाना बेहद अच्छा लगता था जिन्हें वह कर सकता था और जिन्हें वह कर चुका था और उसे यह दिखाना बहुत पसंद था कि उसने कितना कष्ट सहा है और वह कितना महान है। वह बार-बार ये चीजें करता था और इसी तरह से बात करता था, और ऐसे समय में वह मेरी मौजूदगी में जिस तरह का व्यक्ति बना रहता था उसकी तुलना में पूरी तरह से एक अलग व्यक्ति बन जाता था। इसके अलावा, जो कोई भी उसके आसपास होता, वह खुद को बेबस और डराया-धमकाया गया महसूस करता था, और इस बारे में कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं करता था। यहाँ सबसे बड़ी समस्या क्या थी? वह जो थोड़ा-सा कार्य कर रहा था, जो थोड़ा-सा कर्तव्य कर रहा था, उसे अपनी पूंजी मान बैठा था और जहाँ भी जाता था, उसे ही दिखाता फिरता था। उसने इसे किस हद तक दिखाया? यहाँ तक कि सभी उसका सम्मान करने लगे, उसकी आराधना करने लगे और उससे ईर्ष्या करने लगे। आखिर में, उन्होंने कहा, “इस व्यक्ति ने परमेश्वर की खातिर बहुत कष्ट सहा है। उसमें जो आस्था है और परमेश्वर के लिए उसका जो प्रेम है, जरा उसे देखो! हम उसके सिर के एक बाल से तुलना किए जाने के भी काबिल नहीं हैं। हम उससे कितने घटिया हैं!” लोगों की जुबान पर हमेशा उसका जिक्र रहता था, और जो लोग मुझसे नहीं मिल पाते थे, वे सोचते थे कि उससे मिलना मुझसे मिलने के समान है। लोगों के ज्ञान, विचारों और मन पर उसका जो प्रभाव था वह आखिर में इस स्तर तक पहुँच चुका था। इस जगह तक पहुँचने के लिए उसने जरूर बहुत सी चीजें कही और की होंगी, है ना? निश्चित रूप से, उसने जो कर्तव्य किए थे उनका जिक्र करने के लिए उसने सिर्फ कुछ शब्दों का उपयोग नहीं किया था, निश्चित रूप से, उसने इन चीजों के बारे में विस्तार से बात की थी; साथ ही, उसके अपने उद्देश्य और लक्ष्य थे, उसने कुछ ऐसी चीजें कही थीं जो लोगों को लुभा सकती थीं और गुमराह कर सकती थीं, जिससे लोगों ने उसकी आराधना करना शुरू कर दिया और आखिर में, उसने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया। इस किस्म के व्यक्ति के बारे में तुम क्या सोचते हो? उसे मेरे साथ रहकर अपना कर्तव्य करने का जो अवसर मिला वह उसके लिए एक अच्छी चीज थी, यह चाहे यह सीखने के संबंध में हो कि कैसे आचरण करना है या इस संबंध में हो कि सत्य कैसे हासिल करना है। यह उसके लिए जल्दी पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर था। दुःख की बात है कि उसने इस अवसर को संजोया नहीं। उसने यह नहीं देखा कि यह अवसर कितना कीमती और महत्वपूर्ण है और ना ही यह देखा कि यह सत्य हासिल करने और परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग, आधार और स्रोत है। इसके बजाय, उसने इस अवसर का उपयोग भीड़ से अलग दिखने में और लोगों के दिल जीतने के अपने लक्ष्य को हासिल करने में किया। यही मुसीबत का कारण बना; वह गलत मार्ग पर चल रहा था। मुझे बताओ, जब वह इतनी बेहूदगी से इस बात का प्रचार कर रहा था कि उसने कितना कष्ट सहा है, कैसे परमेश्वर ने उसका मार्गदर्शन किया है, कैसे परमेश्वर ने उसके साथ व्यवहार किया है और कैसे परमेश्वर ने उस पर भरोसा किया है, तो उस समय क्या वह यह पहचान पाया था कि इसमें कोई व्यक्तिगत इरादा है? (हाँ।) उसे यह पहचानने में सक्षम होना चाहिए था। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जिसे पहचानना असंभव हो। वह इसे पहचान सकता था—तो फिर वह अपने बुरे कर्मों पर रोक क्यों नहीं लगा पाया? क्योंकि वह सत्य से प्रेम नहीं करता था; उसे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबा पसंद था। जब सत्य से वाकई प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति भ्रष्टता का खुलासा करता है, जब वह इस बात की गवाही दे रहा होता है कि उसने कैसे कष्ट सहे हैं, तो उसके मन में अपने प्रति तिरस्कार और अभियोग लगाने की भावना उत्पन्न होती है। उसे लगता है कि उसका ऐसा करना घिनौना था, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी होना था और उसे दोबारा ऐसा नहीं करना चाहिए। भविष्य में जब उसके मन में फिर से वैसा करने की इच्छा होती है, तो उसके लिए खुद को रोकना और ऐसी चीजें करने का सिलसिला बंद करना संभव होता है। यह बिल्कुल सामान्य बात है। लेकिन ऐसे मौकों पर, चाहे उनका विवेक उन्हें फटकारे, तो भी मसीह-विरोधी अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं, और चाहे उनकी काट-छाँट कर दी जाए, तो भी वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी प्रकृति क्यों असाध्य रूप से फूल जाती है और प्रसारित हो जाती है? (क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं।) अपनी प्रकृति में, वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। फिर वे किससे प्रेम करते हैं? (वे रुतबे से प्रेम करते हैं।) रुतबे से उन्हें क्या हासिल होगा? इससे लोग उनकी आराधना करेंगे, उनका आदर करेंगे और उनसे ईर्ष्या करेंगे। आखिर में, उनका लक्ष्य परमेश्वर के समान रुतबे और व्यवहार का आनंद लेना है, साथ ही, उस सम्मान, खुशी और प्रसन्नता का भी आनंद लेना है जो इस रुतबे की बदौलत उन्हें मिलती है। मैंने अभी-अभी जो कुछ भी कहा है, वह सब सुनने के बाद, क्या तुम्हें घृणा महसूस नहीं हो रही है? (हाँ।) उस व्यक्ति ने कुछ और भी किया था जो इससे भी ज्यादा घिनौना था। बाद में, वह बीमार पड़ गया और अपने शहर लौट गया, और इससे उसे यह चीज और ज्यादा महसूस हुई कि वह रुतबे के फायदों का आनंद लेने का हकदार है। तुम्हें क्या लगता है कि इस विचार के नियंत्रण में रहते हुए वह कैसे कार्य करेगा? क्या वह यह माँग नहीं करेगा कि लोग उसका और भी ज्यादा, बेहतर इलाज करें? (हाँ।) उसने यह माँग क्यों की? क्या उसे यह माँग बहुत ज्यादा या अनुचित नहीं लगी? उसे लगा कि वह इसका हकदार है। उसने सोचा, “मैंने परमेश्वर की खातिर और अपने भाई-बहनों की खातिर बहुत कष्ट सहा है। यह मेरा हक है; मैं बीमार पड़ गया क्योंकि मैंने बहुत कुछ सहा है, इसलिए मेरे भाई-बहनों को मेरी सेवा करनी ही चाहिए।” जब वह बीमार पड़ा था, तो उसने एक उंगली तक नहीं उठाई; वह बस पूरे दिन बिस्तर पर लेटा रहा और दूसरों से अपनी देखभाल करवाता रहा और उनके हाथों से खाना खाता रहा। वहाँ बहुत देर तक लेटे रहने के बाद उसे बोरियत होने लगी, इसलिए उसने अपनी बोरियत दूर करने के लिए लोगों से खाने-पीने की चीजें मंगवाईं और उन्हें अपने साथ बाहर घूमने जाने के लिए राजी किया। यह बहुत ही घिनौना है, है ना? अगर वह सच में इतना ज्यादा बीमार होता, तो यह इतनी बड़ी बात नहीं होती; अगर वह इतना ज्यादा बीमार नहीं था, तो निश्चित रूप से, उसके आचरण में विवेक का बहुत अभाव था, है ना?
कुछ लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर बहुत उत्साही प्रतीत होते हैं। उन्हें कलीसिया के मामलों में शामिल होना और उनमें दिलचस्पी लेना अच्छा लगता है, और वे इसमें हमेशा जोर-शोर से सबसे आगे रहते हैं। और फिर भी, अगुआ बनने के बाद, अप्रत्याशित रूप से, वे सभी को निराश कर देते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, इसके बजाय वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कार्य करने के लिए भरसक प्रयास करने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे दूसरों से अपना सम्मान करवाने के लिए दिखावा करना पसंद करते हैं, और वे हमेशा इस बारे में बात करते रहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए खुद को कैसे खपाते हैं और कष्ट सहते हैं, लेकिन फिर भी वे सत्य की और अपने जीवन प्रवेश की खोज करने के प्रयास नहीं करते हैं। यह वह चीज नहीं है जिसकी उनसे उम्मीद की जाती है। हालाँकि वे खुद को अपने कार्य में व्यस्त रखते हैं, हर अवसर पर दिखावा करते हैं, कुछ शब्दों और सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, कुछ लोगों से सम्मान और आराधना हासिल करते हैं, लोगों के दिलों को गुमराह करते हैं और अपने रुतबे को मजबूत करते हैं, लेकिन आखिर में इसका क्या परिणाम होता है? चाहे ये लोग दूसरों को रिश्वत देने के लिए थोड़ी-बहुत मदद करते हों, या अपने गुण और अपनी योग्यताएँ दिखाते हों, या लोगों को गुमराह करने के लिए अलग-अलग तरीकों का उपयोग करते हों और इससे उनकी अपने प्रति अच्छी राय बनवाते हों, वे लोगों के दिल जीतने और उनमें जगह बनाने के लिए चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करते हों, उन्होंने क्या खो दिया है? उन्होंने एक अगुआ के कर्तव्य करते हुए सत्य हासिल करने का अवसर खो दिया है। साथ ही, अपनी अलग-अलग अभिव्यक्तियों के कारण, उन्होंने बुरे कर्म भी जमा कर लिए हैं जो उनके आखिरी परिणाम का कारण बनेंगे। चाहे वे लोगों को रिश्वत देने और फँसाने के लिए थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग कर रहे हों, या खुद को दिखा रहे हों, या लोगों को गुमराह करने के लिए मुखौटों का उपयोग कर रहे हों, और भले ही बाहरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता हो कि ऐसा करके वे कितने सारे फायदे और कितनी सारी संतुष्टि हासिल कर रहे हैं, अब इसे देखते हुए, यह बताओ कि क्या यह मार्ग सही है? क्या यह सत्य की खोज करने का मार्ग है? क्या यह ऐसा मार्ग है जो किसी को उद्धार दिला सकता है? स्पष्ट रूप से, यह नहीं है। ये तरीके और युक्तियाँ चाहे कितनी भी चतुराईपूर्ण क्यों ना हों, वे परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती हैं, और आखिर में, परमेश्वर इनकी निंदा और इनसे घृणा करता है, क्योंकि ऐसे व्यवहारों के पीछे मनुष्य की महत्वाकांक्षा और परमेश्वर के प्रति विरोध का रवैया और सार छिपा होता है। परमेश्वर अपने दिल में इन लोगों को कभी ऐसे लोगों के रूप में नहीं पहचानेगा जो अपने कर्तव्य कर रहे हैं, और इसके बजाय वह उन्हें कुकर्मियों के रूप में परिभाषित करेगा। कुकर्मियों से निपटते समय परमेश्वर क्या फैसला सुनाता है? “हे कुकर्म करनेवालों, मेरे पास से चले जाओ!” जब परमेश्वर कहता है, “मेरे पास से चले जाओ,” तो वह ऐसे लोगों को कहाँ भेजना चाहता है? वह उन्हें शैतान को सौंप रहा है, उन्हें ऐसी जगह भेज रहा है जहाँ शैतानों की भीड़ रहती है। उनके लिए आखिरी परिणाम क्या है? उन्हें दुष्ट आत्माएँ पीड़ा पहुँचाकर मौत के घाट उतार देती हैं, जिसका मतलब है कि शैतान उन्हें निगल जाता है। परमेश्वर इन लोगों को नहीं चाहता है, जिसका मतलब है कि वह उन्हें नहीं बचाएगा, वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं, उसके अनुयायी होना तो दूर की बात है, इसलिए वे उन लोगों में शामिल नहीं हैं जिन्हें वह बचाएगा। परमेश्वर इस तरह से इन लोगों को परिभाषित करता है। तो, फिर दूसरों के दिल जीतने का प्रयास करने की प्रकृति क्या है? यह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना है; यह एक मसीह-विरोधी का व्यवहार और सार है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे होड़ करने का सार और भी गंभीर बात है; ऐसा करने वाले लोग परमेश्वर के दुश्मन हैं। इस तरह से मसीह-विरोधियों को परिभाषित और श्रेणीबद्ध किया जाता है और यह पूरी तरह से सटीक है।
22 जनवरी, 2019