प्रकरण एक : सत्य क्या है

आओ हम एक भजन गाएँ : परमेश्वर की सारी सृष्टि उसके प्रभुत्व के अधीन होनी चाहिए।

1  परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, और इसलिए वह समूची सृष्टि को अपने प्रभुत्व के अधीन लाता और अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पित करवाता है; वह सभी चीज़ों पर अधिकार रखेगा, ताकि सभी चीज़ें उसके हाथों में हों। परमेश्वर की सारी सृष्टि, पशुओं, पेड़-पौधों, मानवजाति, पहाड़ तथा नदियों, और झीलों सहित—सभी को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। आकाश में और धरती पर सभी चीज़ों को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। उनके पास कोई विकल्प नहीं हो सकता है और सभी को उसके आयोजनों के समक्ष समर्पण करना ही होगा। इसकी आज्ञा परमेश्वर द्वारा दी गई थी, और यह परमेश्वर का अधिकार है।

2  परमेश्वर सभी चीजों पर नियंत्रण रखता है, और सभी चीजों को व्यवस्थित और श्रेणीबद्ध करता है, जिसमें प्रत्येक को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है और परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार उनका अपना स्थान प्रदान किया जाता है। चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कोई भी चीज़ परमेश्वर से बढ़कर नहीं हो सकती है, और सभी चीज़ें परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सेवा करती हैं, और कोई भी चीज परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने या परमेश्वर से कोई भी माँग करने की हिम्मत नहीं करती है। इसलिए मनुष्य को भी सृजित प्राणी होने के नाते मनुष्य का कर्तव्य अच्छे से निभाना ही चाहिए। वह सभी चीज़ों का चाहे प्रभु हो या देख-रेख करने वाला हो, सभी चीज़ों के बीच मनुष्य का दर्जा चाहे जितना भी ऊँचा हो, तो भी वह परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना मानव भर है, और एक महत्वहीन मानव, एक सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

“परमेश्वर की सारी सृष्टि उसके प्रभुत्व के अधीन होनी चाहिए,” इस भजन में सत्य क्या है? कौन-सी पंक्ति सत्य है? (सारी पंक्तियाँ ही सत्य हैं।) अंतिम पंक्ति क्या कहती है? (“सभी चीज़ों के बीच मनुष्य का दर्जा चाहे जितना भी ऊँचा हो, तो भी वह परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना मानव भर है, और एक महत्वहीन मानव, एक सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा।”) मानव कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकता, सृजित प्राणी कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकते; परमेश्वर के अलावा अन्य सभी सृजित प्राणी ही हैं। मानव कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकता; यही सत्य है। क्या यह सत्य बदल सकता है? क्या काल के अंत में यह बदल जाएगा? (नहीं।) यही सत्य है। कौन मुझे बता सकता है कि सत्य क्या है? (सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) “सत्य क्या है” इस विषय पर हमने दो बार संगति की है, इसलिए आओ, कसौटियाँ क्या हैं, इसकी बात करें। यहाँ कसौटी ही महत्वपूर्ण है। (कसौटियाँ मानक, सटीक सिद्धांत, विधि-विधान, और नियम हैं। कसौटियों का आधार परमेश्वर के वचन हैं।) और कौन इसे जारी रखना चाहता है? (कसौटियाँ सर्वाधिक मानक, सर्वाधिक सटीक सिद्धांत, विधि-विधान, और नियम हैं जो कि परमेश्वर के वचनों से लिए जाते हैं।) “सर्वाधिक” शब्द को यहाँ जोड़ा गया है, पर क्या यह “सर्वाधिक” आवश्यक है? “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने और न जोड़ने के बीच क्या अंतर है? “सर्वाधिक” के साथ, दूसरा सर्वाधिक, तीसरा सर्वाधिक, इत्यादि होते हैं। तुम लोग “सर्वाधिक” जोड़ने के बारे में क्या सोचते हो? (यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सत्य ही एक मात्र मानक है। एक बार जब “सर्वाधिक” जोड़ दिया जाता है तो यह एक प्रकार की सापेक्षता का सुझाव देता है, जिसमें अन्य चीज़ें दूसरे और तीसरे स्थान पर होती हैं।) क्या यह स्पष्टीकरण सही है? (हाँ।) इसका कुछ तो मतलब निकलता है। यदि तुम लोगों के पास “सत्य क्या है” इसकी परिभाषा को लेकर एक सटीक दृष्टिकोण और समझ है, और यदि तुम स्पष्ट रूप से यह समझते हो कि परमेश्वर ही सत्य है, तो तुम लोग यह समझ सकते हो कि “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना चाहिए या नहीं, क्या यह जोड़ना सही है, इसे जोड़ने से क्या फ़र्क पड़ता है, इसे नहीं जोड़ने का क्या अर्थ होता है, और यदि तुम इसे जोड़ते हो तो इसका क्या अर्थ है। अब, इसकी पुष्टि हो गई है कि “सर्वाधिक” शब्द नहीं जोड़ना सही है। उस व्यक्ति ने क्या भूल की है जिसने यह जोड़ा है? उसने सोचा कि परमेश्वर के चाहे किसी भी पहलू का वर्णन किया जा रहा हो, “सर्वाधिक” शब्द जोड़ा जाना चाहिए। यह तुलना करते समय उससे कहाँ भूल हुई है? परमेश्वर के कौन-से कथन का, किस सत्य का विरोध हुआ है? (सृजित प्राणी कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं हो सकते; “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना शायद यह सुझाव देता है कि सृजित प्राणी और परमेश्वर के बीच दूसरी और तीसरी श्रेणियाँ हैं।) क्या यह सही है? (हाँ।) इसका कुछ तो मतलब निकलता है; इसे इस तरह से समझाया जा सकता है। क्या कोई और कथन हैं जो सत्यापित कर सकें कि आगे “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना गलत है? (मुझे कुछ याद आ रहा है, जो यह है कि सत्य केवल परमेश्वर से ही आ सकता है, केवल परमेश्वर ही सत्य है, इसलिए दूसरा सर्वाधिक, तीसरा सर्वाधिक, इत्यादि की कोई भी सापेक्षिक अभिव्यक्तियाँ नहीं हो सकतीं।) यह भी सही है। (सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। चूँकि विधि-विधान, नियम, और कसौटियाँ केवल परमेश्वर से ही आ सकती हैं, लोगों के पास उनके क्रियाकलापों के लिए कसौटियाँ या विधि-विधान नहीं हैं, न ही वे उनके लिए नियम स्थापित कर सकते हैं, इसलिए “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।) यह स्पष्टीकरण कुछ अधिक व्यावहारिक है। क्या और कोई बात है? (परमेश्वर का अधिकार और परमेश्वर का सार अद्वितीय हैं। परमेश्वर का सार सत्य है, और इससे किसी की भी तुलना नहीं की जा सकती। “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने से ऐसा लगता है कि सत्य अब अद्वितीय नहीं रहा।) यह कथन कैसा है? (अच्छा है।) इसमें क्या अच्छा है? (यह इंगित करता है कि परमेश्वर अद्वितीय है।) “अद्वितीय”—तुम सभी लोग इस शब्द को भूल गए हो। परमेश्वर अद्वितीय है। क्या परमेश्वर के द्वारा बोले गए प्रत्येक वाक्य में दी गईं कसौटियाँ, साथ ही मानव से परमेश्वर की हर अपेक्षा, मानवजाति के बीच पाई जा सकती है? (नहीं।) क्या मानवता के ज्ञान, पारंपरिक संस्कृति, या विचारों में ये चीज़ें हो सकती हैं? (नहीं।) क्या इनसे सत्य उत्पन्न हो सकता है? नहीं, नहीं हो सकता। इसलिए “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना दूसरी और तीसरी श्रेणियों का सुझाव देता है, उच्च, निम्न और उससे भी निम्नतर में अंतर करता है, और चीज़ों को पहले स्तर, दूसरे स्तर, तीसरे स्तर... में बाँटता है। इसका अर्थ है कि सभी सही चीज़ें एक निश्चित क्रम के अनुसार एक कसौटी बन सकती हैं। क्या इसे इस तरह से समझा जा सकता है? (हाँ।) तो फिर, “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने से क्या समस्या है? यह परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के सत्य को किसी सापेक्षिक चीज में बदल देता है, जो कि उसके द्वारा सृजित मनुष्यों के ज्ञान, फ़लसफ़े, और अन्य सही चीज़ों से केवल अपेक्षाकृत उच्चतर होती है। यह सत्य को श्रेणियों में बाँट देता है। परिणामस्वरूप, भ्रष्ट लोगों के बीच सही चीज़ें भी सत्य बन जाती हैं। इसके अलावा, ऐसी चीज़ें मानव के क्रियाकलापों और आचरण के लिए कसौटियाँ भी बन जाती हैं—बस वे अपेक्षाकृत निचले स्तर पर होती हैं। उदाहरण के लिए, सभ्य होना, विनम्र होना, मानवीय दया, और कुछ अन्य अच्छी बातें जिनके साथ लोग पैदा होते हैं वे सभी कसौटियाँ बन जाती हैं—इसका क्या अर्थ है, वे क्या बन जाते हैं? (सत्य।) वे सत्य बन जाते हैं। देखो, “सर्वाधिक” शब्द जोड़ने से इस कसौटी की प्रकृति ही बदल जाती है। एक बार कसौटी की प्रकृति के बदलते ही, क्या परमेश्वर की परिभाषा भी बदल जाती है? (हाँ।) परमेश्वर की परिभाषा क्या बन जाती है? इस परिभाषा में परमेश्वर अद्वितीय नहीं है; परमेश्वर का अधिकार, सामर्थ्य, और सार अद्वितीय नहीं हैं। परमेश्वर मानवजाति के बीच सामर्थ्य और अधिकार के साथ बस उच्चतम भूमिका में है। मानव जाति के बीच योग्यता और प्रतिष्ठा वाले किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के समकक्ष माना जा सकता है और उसकी चर्चा परमेश्वर के साथ समान स्तर पर की जा सकती है, बस वह परमेश्वर जितना ऊँचा या महान नहीं हो सकता। मानवजाति के बीच ये अपेक्षाकृत सकारात्मक हस्तियाँ और अगुआ परमेश्वर के ठीक पीछे श्रेणीबद्ध किए जा सकते है, और वे कमान में दूसरे, तीसरे, चौथे... स्थान पर हो जाते हैं, परमेश्वर उनके मुखिया होते हैं। क्या एक ऐसी व्याख्या परमेश्वर की पहचान और उसके सार को पूरी तरह से बदल नहीं देती? बस एक ही शब्द “सर्वाधिक” से, परमेश्वर का सार पूरी तरह बदल जाता है। क्या यह कोई समस्या है? (हाँ।) इसलिए, “सर्वाधिक” शब्द जोड़े बिना, किस प्रकार से ये शब्द सही हैं? (वे एक तथ्य बताते हैं।) यह तथ्य क्या है? (तथ्य यह है कि परमेश्वर ही सत्य, सिद्धांत, मानक, और कसौटी है।) बात यह है कि परमेश्वर इन सभी कसौटियों का मूल है। भ्रष्ट मानवजाति के बीच, सृजित प्राणियों के बीच, ऐसी कोई कसौटियाँ नहीं हैं। परमेश्वर ही एक मात्र स्रोत है जो इन कसौटियों को व्यक्त करता है। केवल परमेश्वर के पास ही यह सार है। सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता और कसौटी केवल परमेश्वर से ही आ सकती हैं। यदि कोई व्यक्ति मानव के आचरण, क्रियाकलापों, और परमेश्वर की आराधना के कुछ सिद्धांत जानता है, कुछ कसौटियाँ जानता है, और कुछ सत्य समझता है, तो क्या वह परमेश्वर बन सकता है? (नहीं।) क्या वह सत्य का स्रोत होता है? सभी सच्चाइयों को अभिव्यक्त करने वाला बन जाता है? (नहीं।) तो क्या उसे परमेश्वर कहा जा सकता है? नहीं। यही सारभूत अंतर है। क्या तुम समझते हो? (हाँ।) हालाँकि मैं “सत्य क्या है” के विषय पर अब दो बार बात कर चुका हूँ, तुम लोगों के उत्तरों में अभी भी एक इतनी बड़ी भूल है, जो परमेश्वर को एक सृजित प्राणी बना देती है, सृजित प्राणियों को परमेश्वर के समान बना देती है, उनके बीच बराबरी का संबंध बना देती है। इससे मुद्दे की प्रकृति ही बदल जाती है जो कि परमेश्वर को नकारने के समान ही है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, मानव सृजित प्राणी हैं—ये दोनों एक ही श्रेणी की भूमिकाएँ नहीं हैं। पर जब तुम “सर्वाधिक” शब्द जोड़ देते हो, तब क्या होता है? तब वे सार और श्रेणी में समान हो जाते हैं, उनमें अंतर केवल उच्च और निम्न स्तर का ही रह जाता है। जब मैंने तुम लोगों से यह विस्तारपूर्वक पूछा था, तब तुम लोगों ने अपने मन में यह सोचा, “क्या यह हमें कम आंकना नहीं है? हम सभी शिक्षित लोग हैं, इन चंद शब्दों को हम कैसे भूल सकते हैं? हम बिना अपने नोट्स देखे ही इस बारे में सरलता से बात कर सकते हैं।” जैसे ही तुम लोगों ने अपना मुंह खोला, समस्या उजागर हो गई। मेरे बोलने के बाद, तुम लोगों ने इसे कई बार पढ़ा और फिर भी तुम इसे ठीक से दोहरा नहीं सके। इसका कारण क्या है? तुम लोग इस विषय में अभी भी सत्य को नहीं समझते हो। किसी ने “सर्वाधिक” शब्द जोड़ा और उसने सोचा, “तुम लोगों में से किसी ने भी ‘सर्वाधिक’ नहीं जोड़ा; तुम लोगों को परमेश्वर में अधिक आस्था नहीं है, है ना? मुझे देखो, मैंने ‘सर्वाधिक’ जोड़ा। यह बताता है कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ—मैंने महाविद्यालय में समय व्यर्थ नहीं गँवाया था!” जब उसने “सर्वाधिक” जोड़ा, तुम लोगों में से अधिकांश ने समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया। तुम लोगों में से कुछ ने महसूस किया कि कहीं कुछ गलत तो था, पर यह नहीं बता सके कि ऐसा क्यों था। जब अन्य लोगों ने इसे समझाया, तब तुम लोग इसे सिद्धांत के तौर पर समझ गए, और तुम जानते थे कि यह व्याख्या सही थी। पर क्या तुम लोग यह सत्य समझे? (नहीं।) मैंने इस बात पर संगति की थी कि “सर्वाधिक” शब्द जोड़ना क्यों गलत है, और तुम लोग इसे समझ गए, लेकिन क्या तुम लोगों ने समस्या के सार को सचमुच समझा था? (नहीं।) तुमने इसे स्पष्ट रूप से नहीं देखा था। ऐसा क्यों है? (हम सत्य को नहीं समझते।) और तुम सत्य को क्यों नहीं समझते? क्या तुम लोग वो नहीं समझे थे जो मैंने कहा था? यदि तुमने इसे समझा था तो तुम फिर भी सत्य को कैसे नहीं समझ पाते हो? “स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है” के विषय पर कितने अध्याय हैं? कितनी बार तुम लोगों ने उन्हें पढ़ा है? क्या तुम वाकई इन शब्दों को समझते हो? (नहीं।) तुम लोग नहीं समझते हो, इसलिए तुमने आज खुद को ही बेवकूफ बना डाला। इन शब्दों ने तुम्हें उजागर कर दिया है। क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) क्या तुमने इससे कुछ भी सीखा है? अगली बार जब तुम कुछ ऐसी ही परिस्थिति का सामना करो, तब भी क्या तुम अपनी स्वयं की मानी गई चतुराई से ही काम करोगे? तुम्हें इसकी हिम्मत नहीं होगी, है ना? यदि कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तब चाहे कितनी भी शिक्षा या जानकारी हो वह उपयोगी नहीं होगी। यदि तुम अशिक्षित होते और इस शब्द के उपयोग के तरीके नहीं जानते, तो शायद तुम “सर्वाधिक” शब्द नहीं जोड़ते और यह समस्या नहीं उठी होती। कम से कम, तुमने यह भूल नहीं की होती और खुद को ही बेवकूफ नहीं बनाया होता। पर चूँकि तुम पढ़े-लिखे हो और कुछ शब्दों के अर्थ और उपयोग को समझते हो, तुमने उन्हें परमेश्वर पर लागू किया। नतीजतन, तुमने एक समस्या खड़ी कर ली, चतुर बनने चले थे अनाड़ी बन गए। यदि तुम इसे किसी व्यक्ति पर लागू करते हो, तो यह केवल पूजा करना और चापलूसी करना है जो अधिक से अधिक बस घृणास्पद है। पर यदि तुम इसे परमेश्वर पर लागू करते हो तो समस्या गंभीर बन जाती है। यह एक ऐसा शब्द बन जाता है जो परमेश्वर को नकारता है, परमेश्वर का विरोध करता है और परमेश्वर की निंदा करता है। सत्य से रहित भ्रष्ट मनुष्य से ऐसी भूल होने की संभावना सबसे अधिक होती है। भविष्य में, क्रिया विशेषणों और विशेषणों को लापरवाही से नहीं जोड़ने को लेकर सावधान रहो। क्यों? क्योंकि जब बात परमेश्वर की पहचान, सार, वचनों और स्वभाव की होती है तो ये वो चीज़ें हैं जिनकी भ्रष्ट मनुष्यों में सबसे अधिक कमी है, और जिनकी उन्हें सबसे उथली और सबसे कम समझ होती है। इसलिए, जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं उन्हें लापरवाही से कुछ नहीं करने के बारे में सतर्क रहना चाहिए; विवेकी होना बेहतर होता है।

I. “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” के विचार का गहन-विश्लेषण

कुछ लोगों ने अभी-अभी सत्य की परिभाषा और अवधारणा को समझाया है। तुम लोग सत्य की परिभाषा और अवधारणा को तो समझते हो, पर क्या तुम लोग वाकई यह समझते हो कि सत्य क्या है? इस बारे में मुझे तुम लोगों की परीक्षा लेनी होगी। मैं तुम लोगों की परीक्षा कैसे लूँगा? तुम लोगों की परीक्षा लेने के लिए मैं तुम्हारी ताकतों का उपयोग करूँगा। और तुम लोगों की ताकतें क्या हैं? तुम लोग शिक्षण, शब्दों, और शब्दावली से परिचित हो; सांसारिक आचरण के उन विभिन्न फ़लसफ़ों और दृष्टिकोणों से परिचित हो जो हर भीड़ में लोगों के पास होते हैं; एवं मानवीय पारंपरिक संस्कृतियों से, साथ ही उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से भी परिचित हो। तुम लोग उन विभिन्न कानूनों और धारणाओं से भी परिचित हो जिनके अनुसार सभी नस्लों, जातीयताओं और राष्ट्रीयताओं के लोग जीते हैं। क्या ये तुम्हारी ताकतें नहीं हैं? इनमें से कुछ अपेक्षाकृत निश्चित मुहावरे हैं, कुछ कहावतें हैं, और कुछ लोकोक्तियाँ हैं; कुछ आमतौर पर सामान्य लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले आकर्षक बोलचाल के शब्द हैं। अपने आप से पूछो, ऐसी कौन-सी चीज़ें हैं जिन पर अक्सर लोगों के गहन विचार और दृष्टिकोण होते हैं जिन्हें वे एक मुहावरे में बदल देते हैं? चलो, हम पहले कुछ लोकोक्तियों, मुहावरों, और विधि-विधानों का, और साथ ही सांसारिक आचरणों और उनकी पारम्परिक धारणाओं के प्रति लोगों के दृष्टिकोण का गहन-विश्लेषण करें ताकि हम ठीक से समझ सकें कि सत्य क्या है। सत्य वास्तव में क्या है इसकी चर्चा हम एक नकारात्मक परिप्रेक्ष्य से करेंगे। क्या यह एक अच्छा तरीका है? (हाँ।) तो, हमें शुरू करने के लिए ऐसा एक परिप्रेक्ष्य दो। (न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।) क्या यह कथन सही है? (नहीं।) “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” आओ, हम पहले इसी पर संगति करना शुरू करें। आगे बढ़ो, और यह समझाओ कि इस कहावत का क्या अर्थ है। (इसका अर्थ यह है कि तुम जिन लोगों को नियोजित करते हो तुम्हें उनके प्रति चौकन्ने रहे बिना उन पर भरोसा करना चाहिए। यदि तुम्हें किसी पर विश्वास नहीं है तो उसे काम पर मत रखो।) यही इसकी शाब्दिक व्याख्या है। सबसे पहले, मुझे बताओ, क्या संसार के अधिकांश लोग इस कहावत से सहमत हैं या असहमत? (सहमत।) वे इससे सहमत हैं। यह कहना उचित है कि इस समाज में अधिकांश लोग दूसरों को नियुक्त करने के एक सिद्धांत के रूप में, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” कहावत को मानते हैं, और लोगों के साथ व्यवहार करने में वे इस सिद्धांत का पालन करते हैं। तो क्या इस कहावत का कोई पहलू सही है? (नहीं।) तो फिर, क्यों अधिकांश अविश्वासी इस कहावत को सही मानते हैं और बिना किसी हिचकिचाहट के इसे स्वीकार और लागू करते हैं? ऐसा करने के लिए उनकी प्रेरणा क्या होती है? वे ऐसा क्यों कहते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “यदि तुम किसी व्यक्ति को नियुक्त करने जा रहे हो तो तुम उस पर संदेह नहीं कर सकते हो; तुम्हें उस पर भरोसा करना चाहिए। तुम्हें यह विश्वास होना चाहिए कि उसके पास कार्य को पूरा करने के लिए प्रतिभा और चरित्र है, और वह तुम्हारे प्रति वफ़ादार रहेगा। यदि तुम उस पर संदेह करते हो तो उसे नियुक्त मत करो। जैसा कि कहा जाता है, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ यह कहावत सही है।” दरअसल, यह कहावत भ्रामक शैतानी बात के अलावा और कुछ नहीं है। यह कहावत कहाँ से आती है? इसका इरादा क्या है? इसकी योजना क्या है? (परमेश्वर, मुझे याद है कि पिछली संगति के दौरान, यह उल्लेख किया गया था कि यदि कुछ लोग अपने काम में अन्य लोगों का हस्तक्षेप नहीं चाहते तो वे कहेंगे, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” उनका मतलब यह होता है, “चूँकि तुमने मुझे यह कार्य सौंपा है और तुम मेरा उपयोग कर रहे हो तो तुम्हें मेरे कार्य में दखल नहीं देना चाहिए—मैं जो करता हूँ उसमें तुम्हें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”) जो लोग इस कहावत का उपयोग करते हैं उनका स्वभाव कैसा होता है? (एक मसीह-विरोधी, स्‍वेच्‍छाचारी, और स्वयं में ही एक व्यवस्था होने का स्वभाव।) वास्तव में यही उन का स्वभाव होता है। वे जो इसका उपयोग करते हैं, या जिन्होंने इसे शुरू किया था, क्या वे नियुक्त होने या करने वाले लोग हैं? इस कहावत से सर्वाधिक लाभ किसे होता है? (जो नियुक्त किए गए हैं उन्हें।) जो नियुक्त हुए हैं, उन्हें इस कहावत से कैसे लाभ होता है? यदि वे अपने नियोक्ता पर बार-बार इस कथन पर जोर देते हैं तो वे उनमें एक विशेष प्रकार का विचार डाल रहे होते हैं; यह विचार मन में बैठाने या धारणा बनाने जैसा होता है। यह नियोक्ता से यह कहने के बराबर है : एक बार जब तुम किसी को नियुक्त कर लेते हो तो तुम्हें यह भरोसा करना चाहिए कि वह तुम्हारे प्रति वफ़ादार रहेगा। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि वह अपना काम अच्छी तरह से करेगा, कि उसके पास इसकी योग्यता है। तुम्हें उस पर संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि संदेह करने से तुम्हारा ही नुकसान होगा। यदि तुम हमेशा दुविधा में हो, यदि तुम हमेशा उसकी जगह किसी और को रखने की सोचते हो तो इससे तुम्हारे प्रति उसकी वफ़ादारी प्रभावित हो सकती है। इसे सुनकर, क्या नियोक्ता आसानी से इस कहावत से प्रभावित या गुमराह होगा? (हाँ।) और एक बार जब वह नियोक्ता प्रभावित या गुमराह हो गया तो जो नियुक्त हुआ है उसे लाभ होगा। यदि नियोक्ता इस तरह की सोच को स्वीकार कर लेता है तो जिसे वह नियुक्त करता है उस पर उसे कोई संदेह या शक नहीं होगा; वह न तो इस बात की निगरानी करता है और न ही इसके बारे में पूछताछ करता है कि आखिर उसने क्या किया है, क्या वह अपने नियोक्ता के प्रति वफादार है, और क्या उसमें इन चीजों को करने की क्षमता है। इस तरह से नियुक्त किए जाने वाला व्यक्ति इस नियोक्ता के निरीक्षण और पर्यवेक्षण से बच सकता है और उसके बाद अपने नियोक्ता की इच्छाओं का पालन नहीं करते हुए मनमानी कर सकता है। मुझे बताओ, जब कोई कर्मचारी इस कहावत का उपयोग करता है तो क्या उसके पास सचमुच अपने नियोक्ता के प्रति पूरी तरह से वफ़ादार होने वाला चरित्र है? क्या उस पर निगरानी रखने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है? (नहीं, आवश्यकता है।) हम ऐसा क्यों कहते हैं? यह प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक का एक सार्वभौमिक स्वीकृत तथ्य है कि मानव बहुत ही भ्रष्ट होते हैं, उनके पास भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और वे विशेष रूप से धूर्त और धोखेबाज़ होते हैं; ईमानदार लोग हैं ही नहीं और यहाँ तक कि मूर्ख लोग भी झूठ बोलते हैं। जब अन्य लोगों को काम पर नियुक्त करने की बात आती है तो इसके कारण बहुत कठिनाइयाँ पैदा होती हैं, और किसी पूरी तरह से भरोसेमंद व्यक्ति को खोजने की बात तो दूर रही, किसी विश्वासपात्र व्यक्ति को खोज पाना भी लगभग असंभव हो जाता है। अधिक से अधिक, कुछ अपेक्षाकृत रोजगार-योग्य लोगों को खोज पाने की उम्मीद की जा सकती है। चूँकि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हैं जो भरोसेमंद हो, तो फिर, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” यह कैसे संभव है? यह संभव नहीं है, क्योंकि कोई भी भरोसेमंद नहीं है। तो, फिर, हमें उन लोगों का उपयोग कैसे करना चाहिए जो अपेक्षाकृत रोजगार-योग्य हैं? हम केवल निरीक्षण और मार्गदर्शन के माध्यम से ऐसा कर सकते हैं। अविश्वासी लोग अपने यहाँ नियुक्त व्यक्ति की निगरानी करने के लिए मुखबिर और जासूस भेजते हैं ताकि वे अपने को सापेक्षिक रूप से आश्वस्त महसूस करा सकें। इस प्रकार, प्राचीन काल में लोग स्वयं को धोखा दे रहे थे जब उन्होंने कहा, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” जिसने इस कहावत, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” को बनाया था, उसने इसे स्वयं पर लागू नहीं किया। यदि उसने सचमुच ऐसा किया होता तो वह एक विचारहीन व्यक्ति होता, एक प्रथम श्रेणी का मूर्ख होता जिसे केवल धोखा दिया जा सकता था और छला जा सकता था। क्या यह एक तथ्य नहीं है? आओ, हम यह बात करें कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” में सबसे महत्वपूर्ण भूल कहाँ है। “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” का आधार क्या है? इसका आधार अवश्य ही यह होना चाहिए कि नियुक्त किया गया व्यक्ति पूरी तरह से भरोसेमंद, वफ़ादार और जिम्मेदार है। मालिक “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” कहावत को लागू कर सके इसके लिए वह कर्मचारी कोई ऐसा ही व्यक्ति हो, यह 100% निश्चित होना चाहिए। आजकल ऐसे भरोसेमंद व्यक्ति नहीं मिलते हैं; उनका अस्तित्व नहीं के बराबर है, जिससे यह कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” निरर्थक हो जाती है। यदि तुम किसी अविश्वसनीय व्यक्ति को चुनते हो और फिर उस व्यक्ति के बारे में अपने संदेहों को नियंत्रित करने के लिए, इस कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” को लागू करते हो तो क्या तुम स्वयं को धोखा नहीं दे रहे हो? क्या नियुक्त किए जाने वाला व्यक्ति सिर्फ इसलिए भरोसेमंद होने और चीज़ों को वफ़ादारी और जिम्मेदारी से करने में समर्थ हो जाता है क्योंकि तुम उस पर शक नहीं कर रहे हो? हकीकत में, तुम्हारे संदेह के बावजूद, वह जिस किस्म का व्यक्ति है वैसा ही अपना आचरण करना जारी रखेगा। यदि वह एक धोखेबाज़ व्यक्ति है तो वह धोखेबाज़ी के काम करता रहेगा; यदि वह एक निष्कपट व्यक्ति है तो वह उन चीज़ों को करना जारी रखेगा जिनमें कपट न हो। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे मन में उसके प्रति कोई संदेह है या नहीं। उदाहरण के तौर पर, मान लो कि तुम किसी धोखेबाज़ व्यक्ति को नियुक्त करते हो। तुम अपने दिल में जानते हो कि यह व्यक्ति धोखेबाज़ है, फिर भी तुम उससे कहते हो, “मैं तुम पर संदेह नहीं करता हूँ, इसलिए आगे बढ़ो और अपना काम आत्मविश्वास के साथ करो”; तो क्या वह व्यक्ति तब एक ऐसा निष्कपट व्यक्ति बन जाएगा जो बिना छल के काम करे, सिर्फ इसलिए कि तुम उस पर संदेह नहीं करते हो? क्या यह संभव है? इसके विपरीत, अगर तुम किसी निष्कपट व्यक्ति को नियुक्त करते हो तो क्या वह एक धोखेबाज़ व्यक्ति में इसलिए बदल जाएगा कि तुम उस पर संदेह करते हो या उसे समझ नहीं पाते हो? नहीं, वह नहीं बदलेगा। इसलिए, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत विशुद्ध रूप से मन की शांति के लिए किसी मूर्ख का प्रयास है, यह स्वयं को छलने वाली बकवास है। मानवजाति की भ्रष्टता की सीमा क्या है? रुतबे और ताकत का अनुसरण, पिता-पुत्र के और भाई-भाई के एक दूसरे के विरुद्ध होने और एक-दूसरे को मारने का कारण बन चुका है; इसने माताओं और बेटियों को एक दूसरे से नफ़रत कराई है। कौन किस पर भरोसा कर सकता है? ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो पूरी तरह से भरोसेमंद हो, केवल अपेक्षाकृत रोजगार-योग्य व्यक्ति ही हैं। चाहे तुम किसी को भी नियुक्त करो, गलतियों को रोकने का एकमात्र तरीका उस पर नजर रखना या उसकी निगरानी करना है। इस प्रकार, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” एक आत्म-भ्रमित करने वाली कहावत है। यह एक बकवास है, एक भ्रम, है और इसमें कोई दम नहीं है। परमेश्वर, अंतिम दिनों में, मानवजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए क्यों सत्य को व्यक्त करता है और क्यों न्याय का कार्य करता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति गहराई तक भ्रष्ट की जा चुकी है। ऐसा कोई नहीं है जो सचमुच में परमेश्वर के प्रति समर्पण करता हो, और कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के उपयोग के योग्य नहीं है। इस प्रकार, परमेश्वर बार-बार यह माँग करता है कि लोग ईमानदार बनें। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानव बहुत अधिक धोखेबाज हैं, वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरे हुए हैं और उनमें शैतान की प्रकृति है। वे पाप करने और बुराई करने से खुद को रोक नहीं सकते हैं, और वे कहीं भी और कभी भी, परमेश्वर का विरोध करने और उन्हें धोखा देने में समर्थ हैं। भ्रष्ट मनुष्यों में ऐसा कोई नहीं है जिसका उपयोग किया जा सके या जिस पर भरोसा किया जा सके। मानवजाति में से किसी व्यक्ति को चुनना और उसका उपयोग करना वास्तव में कठिन होता है! सबसे पहले तो, लोगों के लिए किसी को समझना वास्तव में असंभव होता है; दूसरा, लोग अन्य व्यक्तियों की असलियत नहीं देख पाते; तीसरा, विशेष परिस्थितियों में, लोगों के लिए दूसरों पर लगाम लगाना या उनका प्रबंधन करना और भी अधिक असंभव होता है। इस पृष्ठभूमि में, किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढना जिसका उपयोग किया जा सके, सबसे मुश्किल काम होता है। इसलिए, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत अत्यधिक गलत है और तनिक भी व्यावहारिक नहीं है। इस कहावत के आधार पर किसी व्यक्ति को चुनना और उसका उपयोग करना सिर्फ धोखा खाना है। जो कोई भी इस कहावत को सही मानता है और इसे सत्य समझता है, वह लोगों में सबसे अधिक मूर्ख है। क्या यह कहावत दूसरों का उपयोग करने की कठिनाई को वास्तव में हल कर सकती है? बिल्कुल नहीं। यह केवल स्वयं को दिलासा देने का, आत्म-छल में उलझाने का, और खुद को ही भ्रमित करने का एक तरीका है।

हमारी संगति के इस बिंदु पर, क्या तुम्हारे पास इस बात की एक मौलिक समझ है कि क्या “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत सही है? क्या यह कहावत सत्य है? (नहीं।) तो यह क्या है? (शैतान का फलसफा।) विशेष तौर पर, यह कहावत किसी व्यक्ति के लिए अन्य व्यक्ति की निगरानी या देखरेख से मुक्त होने या बाहर निकलने का एक बहाना है; यह एक धुंए का पर्दा भी है जिसे सभी बुरे लोग अपने स्वयं के हितों की रक्षा करने और अपने स्वयं के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए फैलाते हैं। यह कहावत उन लोगों के लिए एक बहाना है जो मनमानी करने के लिए छिपे हुए इरादे रखते हैं। यह ऐसे लोगों द्वारा निगरानी, देखरेख, और नैतिकता और जमीर की निंदा से युक्ति-संगत ढंग से अलग हो जाने के लिए फैलाई गई एक भ्रांति भी है। बहरहाल, अब ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत व्यावहारिक और सही है। क्या ऐसे लोगों के पास विवेक है? क्या वे सत्य समझते हैं? क्या ऐसे लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों में समस्या है? कलीसिया के भीतर यदि कोई व्यक्ति इस कहावत का प्रचार करता है, तो वह ऐसा किसी मकसद से करता है, वह दूसरों को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है। वह “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत का उपयोग अपने बारे में दूसरों के भ्रम या संदेह को दूर करने का प्रयास करने के लिए कर रहा है। इसका निहितार्थ यह है कि वह चाहता है कि दूसरों को यह विश्वास हो जाए कि वह काम कर सकता है, यह भरोसा हो जाए कि वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसका उपयोग किया जा सकता है। क्या यही उसका इरादा और ध्येय नहीं होता है? यही होना चाहिए। वह मन ही मन सोचता है, “तुम लोग कभी भी मुझ पर विश्वास नहीं करते हो और हमेशा मुझ पर शक करते हो। किसी बिंदु पर, शायद तुम मुझमें कोई मामूली समस्या ढूँढ निकालोगे और मुझे पद से हटा दोगे। अगर यही चिंता हमेशा मेरे मन में रहेगी तो मैं कैसे काम कर सकता हूँ?” इस तरह, वे इस दृष्टिकोण का प्रचार करते हैं ताकि परमेश्वर का घर बिना किसी संदेह के उन पर विश्वास करे और उन्हें स्वच्छंद रूप से काम करने के लिए छोड़ दे, जिससे वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके। अगर कोई वाकई सत्य का अनुसरण कर रहा है, तो उसे अपने काम पर परमेश्वर के घर के निरीक्षण को, जब कभी भी वह दिखे, सही तरीके से लेना चाहिए, यह जानते हुए कि यह उसकी अपनी सुरक्षा के लिए है और, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि ऐसा करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए ज़िम्मेदार होना भी है। हालाँकि वह अपनी भ्रष्टता प्रकट कर सकता है, फिर भी वह परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता है कि परमेश्वर उसकी जाँच-पड़ताल करे और उसकी रक्षा करे, या वह परमेश्वर से यह शपथ ले सकता है कि यदि वह बुरा करता है तो वह परमेश्वर के दण्ड को स्वीकारेगा। क्या इससे उसका मन शांत नहीं होगा? लोगों को गुमराह करने और अपने ही मकसद को हासिल करने के लिए किसी भ्रांति का प्रचार क्यों करें? कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं में परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उनके निरीक्षण के प्रति या ऊपरी अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा उनके काम के बारे में जानने के प्रयासों के प्रति हमेशा एक विरोध का रवैया रहता है। वे क्या सोचते हैं? “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ तुम लोग हमेशा मेरी देखरेख क्यों करते रहते हो? यदि तुम लोग मुझ पर भरोसा नहीं करते हो तो तुम मेरा उपयोग क्यों करते हो?” यदि तुम उनसे उनके कार्य के बारे में पूछते हो या काम की प्रगति के बारे में पूछताछ करते हो और फिर उनकी व्यक्तिगत स्थिति के बारे में पूछते हो, तो वे और भी अधिक रक्षात्मक हो जाएँगे : “यह कार्य मुझे सौंपा गया है; यह मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है। तुम लोग मेरे काम में हस्तक्षेप क्यों कर रहे हो?” हालाँकि उनमें इसे स्पष्ट रूप से कहने की हिम्मत नहीं होती, वे चालाकी से इशारा करेंगे, “जैसा कि कहा जाता है, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ तुम इतने शक्की क्यों हो?” वे तुम लोगों की निंदा तक करेंगे और तुम पर ठप्पा भी लगा देंगे। और, यदि तुम सत्य नहीं समझते हो और तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं है, तो क्या होगा? उनके इशारे को सुनकर, तुम कहोगे, “क्या मैं शक्की हूँ? फिर तो मैं गलत हूँ। मैं धूर्त हूँ! तुम सही हो : न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” क्या तुम इस तरह गुमराह नहीं किए गए हो? क्या यह कहावत “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” सत्य से मेल खाती है? नहीं, यह तो बकवास है! ये दुष्ट लोग कपटी और धोखेबाज है; ये भ्रमित लोगों को गुमराह करने के लिए इस कहावत को सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक भ्रमित व्यक्ति इस कहावत को सुनकर, सचमुच गुमराह हो जाता है, वह और भ्रमित हो जाता है और सोचता है : “वह सही है, मैंने इसके साथ गलत किया है। उसने खुद ही तो कहा था : ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मैंने कैसे उस पर संदेह किया? इस तरह से तो काम नहीं हो सकता। मुझे उसके काम में ताक-झाँक किए बिना उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। चूँकि मैं उसका उपयोग कर रहा हूँ, मुझे उस पर भरोसा करना होगा और उसे बिना बाधित किए स्वतंत्र रूप से काम करने देना होगा। उसे काम करने के लिए कुछ स्वतंत्रता देनी होगी। उसमें काम करने की क्षमता है। और यदि उसमें क्षमता न हो, तो भी पवित्र आत्मा तो कार्य कर ही रहा है!” यह किस तरह का तर्क है? क्या इसमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) ये सभी शब्द सुनने में सही लगते हैं। “हम दूसरों को बाधित नहीं कर सकते।” “लोग कुछ नहीं कर सकते; यह पवित्र आत्मा है जो सब कुछ करता है। पवित्र आत्मा हर बात की जाँच-पड़ताल करता है। हमें शक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परमेश्वर पूर्ण रूप से प्रभारी है।” लेकिन ये किस तरह के शब्द हैं? क्या उन्हें बोलने वाले लोग भ्रमित नहीं हैं? वे तो इतनी-सी बात को भी ठीक से नहीं समझ सकते और बस एक ही वाक्य से गुमराह हो जाते हैं। यह कहना गलत न होगा कि अधिकांश लोग “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” मुहावरे को सच मानते हैं, और वे इससे गुमराह होकर बंध जाते हैं। लोगों को चुनते या उपयोग करते समय वे इससे परेशान और प्रभावित हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे इससे उनके कार्यों को भी निर्देशित होने देते हैं। परिणामस्वरूप, बहुत से अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया के काम की जाँच करते समय, लोगों को तरक्की देते और उपयोग करते समय हमेशा मुश्किलें आती हैं और आशंका होने लगती है। अंत में, वे बस इन शब्दों से खुद को तसल्ली दे पाते हैं, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” काम का निरीक्षण या पूछताछ करते समय, वे सोचते हैं, “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मुझे अपने भाई-बहनों पर भरोसा करना चाहिए, आखिरकार, पवित्र आत्मा लोगों की जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए मुझे हमेशा दूसरों पर संदेह और उनकी निगरानी नहीं करनी चाहिए।” वे इस मुहावरे से प्रभावित हो गए हैं, है न? इस मुहावरे के प्रभाव से क्या परिणाम सामने आते हैं? सबसे पहले, अगर कोई व्यक्ति इस विचार को मानता है कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” तो क्या वह दूसरों के काम का निरीक्षण और मार्गदर्शन करेगा? क्या वह लोगों के काम की निगरानी करेगा और उसकी खोज-खबर लेगा? अगर यह व्यक्ति हर उस व्यक्ति पर भरोसा करता है जिसका वह उपयोग करता है और कभी भी उसके काम का निरीक्षण या मार्गदर्शन नहीं करता है, और कभी भी उसकी निगरानी नहीं करता है, तो क्या वह अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा रहा है? क्या वह कलीसिया का कार्य सक्षम तरीके से कर सकता है और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकता है? क्या वह परमेश्वर के आदेश के प्रति निष्ठावान है? दूसरा, यह परमेश्वर के वचनों और कर्तव्यों का पालन करने में तुम्हारी विफलता मात्र नहीं है, बल्कि यह शैतान की साजिशों और सांसारिक आचरण के उसके फलसफों को सत्य मानना है, उनका अनुसरण और अभ्यास करना है। तुम शैतान की आज्ञा का पालन कर रहे हो और शैतानी फलसफे के अनुसार जी रहे हो, है न? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम परमेश्वर के वचनों का पालन करने वाले व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं हो। तुम पूरे बदमाश हो। परमेश्वर के वचनों को दर-किनार कर, शैतानी मुहावरे को अपनाना और सत्य के रूप में उसका अभ्यास करना, सत्य और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना है! तुम परमेश्वर के घर में काम करते हो, फिर भी शैतानी तर्क और सांसारिक आचरण के उसके फलसफे ही तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो? ऐसा व्यक्ति परमेश्वर से विश्वासघात करता है और उसे बुरी तरह लज्जित करता है। इस हरकत का सार क्या है? खुले तौर पर परमेश्वर की निंदा करना और सत्य को नकारना। क्या यही इसका सार नहीं है? (यही है।) तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के बजाय, शैतान की एक दानवी कहावत और सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों को कलीसिया में निरंकुशता करने दे रहे हो। ऐसा करके, तुम खुद शैतान के सहयोगी बन जाते हो और कलीसिया में शैतान की गतिविधियों को अंजाम देने में उसकी सहायता करते हो और कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ डालते हो। इस समस्या का सार गंभीर है, है ना?

आजकल, अधिकांश अगुआओं और कार्यकर्ताओं के दिलों में शैतान का विष है और अब भी वे शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, और परमेश्वर के कुछ ही वचन हैं जो उनके दिलों पर हावी हैं। कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं के काम में समस्या है—वे काम की व्यवस्था करने के बाद कभी भी उसका निरीक्षण या पर्यवेक्षण नहीं करते, भले ही वे हकीकत में अपने दिल में जानते हों कि कुछ लोग वह काम नहीं कर सकते और समस्याएँ तो निश्चित रूप से पैदा होंगी। बहरहाल, इस मुद्दे को सुलझाने का तरीका नहीं जानने के कारण, वे बस “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” का दृष्टिकोण अपनाते हैं और बेपरवाही से काम करते हैं, यहाँ तक कि उनके मन भी शांत रहते हैं। नतीजतन, कुछ लोग वास्तविक कार्य नहीं कर पाते, और वे केवल सामान्य मुद्दों में खुद को व्यस्त रखते हैं, और बेमन से काम करते हैं। परिणाम यह होता है कि कलीसिया का काम गड़बड़ा जाता है, और कुछ स्थानों पर तो परमेश्वर की भेंटों की भी चोरी हो जाती है। परमेश्वर के चुने हुए लोग, जो इसे सहन नहीं कर पाते हैं, ऊपरवाले को इस मामले की रिपोर्ट करते हैं। झूठा अगुआ, इस बारे में जानकारी पाकर, स्तब्ध हो जाता है और उसे लगता है जैसे आपदा आ रही हो। ऊपरवाला फिर उससे पूछता है : “तुमने काम का निरीक्षण क्यों नहीं किया? तुमने गलत व्यक्ति को काम पर क्यों लगाया?” उस पर झूठा अगुआ जवाब देता है : “मुझे किसी के सार के विषय में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है, इसलिए मैं बस इस सिद्धांत का पालन करता हूँ कि ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ मैंने गलत व्यक्ति का उपयोग करने और ऐसी मुसीबत का कारण बनने की उम्मीद कभी नहीं की थी।” क्या तुम लोग मानते हो कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाला दृष्टिकोण सही है? क्या यह मुहावरा सत्य है? परमेश्वर के घर के काम करने में और अपना कर्तव्य करने में वह इस मुहावरे का उपयोग क्यों करेगा? यहाँ क्या समस्या है? “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” यह मुहावरा साफ तौर से अविश्वासियों के शब्द हैं, शैतान के मुँह से निकले हुए शब्द हैं—तो वह उनके साथ ऐसे क्यों पेश आता है जैसे कि वे सत्य हों? वह क्यों नहीं बता पाता कि ये शब्द सही हैं या गलत? ये स्पष्ट रूप से मनुष्य के शब्द हैं, भ्रष्ट इंसान के शब्द हैं, ये बिल्कुल सत्य नहीं हैं, ये परमेश्वर के वचनों के अनुरूप बिल्कुल नहीं हैं, इन्हें लोगों के कार्यों, आचरण और परमेश्वर की आराधना के लिए मानदंड नहीं मानना चाहिए। तो इस मुहावरे के साथ कैसे पेश आना चाहिए? यदि तुम वास्तव में पहचानने में सक्षम हो, तो अभ्यास के अपने सिद्धांत के रूप में तुम्हें इसकी जगह किस प्रकार के सत्य सिद्धांत का उपयोग करना चाहिए? सत्य सिद्धांत यह होना चाहिए कि “तुम अपना कर्तव्य पूरे दिल, आत्मा और मन से निभाओ।” अपने पूरे दिल, पूरी आत्मा और पूरे मन से कार्य करना किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जाना है; यह एक दिलो-दिमाग से होना चाहिए, न कि आधे-अधूरे मन से। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और कर्तव्य है और तुम्हें इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है। तुम्हारे सामने जो भी समस्याएँ आएँ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। उनसे तुम वैसे ही निपटो, जैसा जरूरी हो; यदि काट-छाँट की आवश्यकता है, तो वैसे ही करो और यदि बर्खास्तगी अनिवार्य है, तो वही सही। संक्षेप में कहूँ तो, परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कार्य करो। क्या यही सिद्धांत नहीं है? क्या यह इस वाक्यांश के ठीक विपरीत नहीं है “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो”? यह कहने का क्या अर्थ है कि न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो? इसका अर्थ यह है कि यदि तुमने किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा है तो तुम्हें उस पर शक नहीं करना चाहिए, तुम्हें बागडोर ढीली छोड़ देनी चाहिए, उसकी निगरानी नहीं करनी चाहिए और वह जैसा चाहे उसे वैसा करने देना चाहिए; यदि तुम उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हें उसे काम पर नहीं रखना चाहिए। क्या यही इसका मतलब नहीं है? यह तो एकदम गलत है। शैतान ने इंसान को बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। हर व्यक्ति में एक शैतानी स्वभाव होता है, वह परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर उसका विरोध कर सकता है। तुम कह सकते हो कि भरोसे लायक तो कोई भी नहीं होता। यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति दुनियाभर की कसम खा ले, तो भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित हैं और अपने आप को नियंत्रित नहीं कर सकते। अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से पहले और परमेश्वर का विरोध और उससे विश्वासघात करने की समस्या को पूरी तरह से दूर करने से पहले—लोगों के पापों की जड़ को समूल नष्ट करने से पहले—उन्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर के न्याय और शुद्धिकरण से नहीं गुजरे हैं और उद्धार प्राप्त नहीं कर पाए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। वे विश्वासपात्र नहीं हैं। इसलिए, जब तुम किसी को उपयोग करो, तो उसकी निगरानी और उसे निर्देशित करो। तुम उसकी काट-छाँट भी करो और अक्सर सत्य पर संगति करो, और तभी तुम समझ पाओगे कि उस व्यक्ति को उपयोग में लेते रहना चाहिए या नहीं। अगर कुछ लोग सत्य स्वीकार कर लेते हैं, काट-छाँट स्वीकार कर लेते हैं, निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते हैं और जीवन में निरंतर प्रगति कर रहे हैं, तभी सही मायनों में ये लोग उपयोग के लायक होते हैं। जो वास्तव में उपयोग के लायक हैं उनके पास पवित्र आत्मा के कार्य की पुष्टि होती है। जिन लोगों के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होता है वे भरोसेमंद नहीं हैं; वे मजदूर हैं और भाड़े के लोग हैं। जब अगुआओं और कार्यकर्ताओं के चयन की बात आती है, तो उनमें से ज्यादातर लोगों को, कम से कम आधे से भी अधिक को, हटा दिया जाता है, जबकि केवल कुछ ही लोगों को उपयोग के लायक या योग्य माना जाता है—यह एक तथ्य है। कलीसिया के कुछ अगुआ कभी भी दूसरों के काम का पर्यवेक्षण या उसकी जाँच नहीं करते हैं, और संगति समाप्त करने या काम की व्यवस्था करने के बाद काम पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। बल्कि, वे इस कहावत के अनुसार चलते हैं “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” यहाँ तक कि वे खुद से भी कहते हैं, “बाकी काम परमेश्वर को करने दो।” फिर वे सुख और आराम में लिप्त हो जाते हैं, मामले की जाँच नहीं करते हैं और इसकी अवहेलना करते हैं। इस तरह से कार्य करके, क्या वे लापरवाह नहीं हो रहे हैं? क्या उन्हें जिम्मेदारी का ज़रा भी एहसास है? क्या ऐसे लोग झूठे अगुआ नहीं हैं? परमेश्वर की माँग है कि लोग अपने कर्तव्यों को अपने पूरे दिल, अपनी पूरी आत्मा, अपने पूरे मन, और अपनी पूरी शक्ति से करें। परमेश्वर लोगों से जो माँगता है—वही सत्य है। कार्य या अपने कर्तव्यों को करते समय, यदि अगुआ और कार्यकर्ता परमेश्वर के वचनों के बजाय दुष्टों और शैतान के शब्दों का अनुपालन करते हैं, तो क्या यह परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने की अभिव्यक्ति नहीं है? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनते समय, परमेश्वर के घर को केवल उन्हीं लोगों को क्यों चुनना चाहिए जो सत्य स्वीकार करने में समर्थ हों, क्यों उन अच्छे लोगों को चुनना चाहिए जिनके पास अंतरात्मा और विवेक हो, और जो अच्छी क्षमता वाले हों और कार्य करने में समर्थ हों? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति गहराई तक भ्रष्ट है और लगभग कोई भी उपयोग के योग्य नहीं है। जब तक किसी के पास वर्षों का प्रशिक्षण और पोषण न हो, वह कार्यों को अत्यंत अक्षम रूप से करता है और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से पूरा करने में उसको काफी कठिनाई होती है, और इससे पहले कि वह उपयोग में लिए जाने के योग्य हो जाए, उसका न्याय किया जाना चाहिए, उसे ताड़ना दी जानी चाहिए, और उसकी कई बार काट-छाँट होनी चाहिए। अधिकांश लोगों को उनके प्रशिक्षण के दौरान बेनकाब किया जाता है और हटा दिया जाता है, और काफी बड़ी संख्या में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हटाया जाता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मानवजाति को शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया जा चुका है। अधिकांश लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, न ही वे अंतरात्मा और विवेक के मानक को पूरा करते हैं। इसलिए उनमें से अधिकांश लोग उपयोग में लेने के योग्य नहीं हैं। कुछ कर्तव्यों को करने में समर्थ होने के लिए उन्हें कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करना होगा और कुछ सत्य समझना होगा। भ्रष्ट मानवजाति की यही वास्तविकता है। इसलिए, इस आधार पर, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाली कहावत पूरी तरह से गलत है और इसका कोई व्यावहारिक मूल्य नहीं है, और जिस व्यक्ति ने इसे रचा था वह एक दानव मात्र था। हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” एक पाखंड और भ्रांति है; यह एक दुष्ट कहावत है, एक शैतानी फलसफा है, और ऐसा चरित्र-चित्रण करना नितांत सही है। परमेश्वर ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा है कि “भ्रष्ट मानवजाति का भरोसा किया जा सकता है।” उसने हमेशा यह माँग की है कि लोग ईमानदार बनें, जिससे यह साबित होता है कि सारी मानवजाति में ईमानदार लोग बहुत ही कम हैं, सभी झूठ बोलने और धोखा देने में सक्षम होते हैं, और सभी का एक धोखेबाज स्वभाव होता है। इसके अलावा, परमेश्वर ने कहा था कि इसकी सौ प्रतिशत संभावना है कि भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर को धोखा देगी। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति का उपयोग करता भी है, तो उस व्यक्ति को वर्षों की काट-छाँट से गुज़रना होगा, और उसके उपयोग के दौरान भी, उसे शुद्ध होने के लिए वर्षों तक न्याय और ताड़ना का अनुभव करना होगा। अब, तुम लोग मुझे बताओ, क्या सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति है जो भरोसेमंद हो? किसी में यह कहने की हिम्मत नहीं है। और किसी में हिम्मत नहीं है इस बात से क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है सभी लोग अविश्वसनीय हैं। तो चलो, फिर से “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाले वाक्यांश पर वापस जाते हैं। यह किस तरह से गलत है? इसमें असंगत क्या है? क्या यह स्वतः स्पष्ट नहीं है? यदि कोई अब भी मानता है कि यह कहावत किसी भी तरह से सही या लागू करने योग्य है, तो निश्चित रूप से उस व्यक्ति के पास सत्य नहीं है, और वह एक बेतुका व्यक्ति है। आज तुम लोग इस कहावत में समस्या को देख पाते हो, और इसे एक भ्रांति के रूप में निर्धारित कर सकते हो, और यह पूरी तरह से इसलिए है कि तुमने परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है और तुम अब अधिक स्पष्ट रूप से देखने में तथा भ्रष्ट मानवजाति के सार में अधिक स्पष्ट अंतर्दृष्टि हासिल करने में सक्षम हो। यह केवल इसी वजह से है कि तुम इस दुष्ट वाक्यांश की, इस पाखंड और भ्रांति की निंदा करने में सक्षम हो। यदि परमेश्वर का उद्धार का कार्य न होता, तो तुम लोग भी शैतान के इस दुष्ट कथन से गुमराह हो चुके होते और यहाँ तक कि इसका इस तरह से उपयोग करते मानो यह कोई मानक कथन या कोई आदर्श वाक्य हो। वह तो कितना दयनीय होगा—तुम्हारे पास कोई सत्य वास्तविकता ही नहीं होगी।

यह वाक्यांश, “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो,” अधिकांश लोगों ने पहले भी सुन रखा है। तुम लोग इसे सही समझते हो या गलत? (गलत।) चूँकि तुम इसे गलत मानते हो, तो फिर यह वास्तविक जीवन में तुम्हें प्रभावित क्यों कर पाता है? जब इस तरह के मामले तुम पर आ पड़ते हैं तो यह दृष्टिकोण सामने आएगा। यह कुछ हद तक तुम्हें परेशान करेगा, और जब यह तुम्हें परेशान करता है, तो तुम्हारे काम पर असर पड़ेगा। इसलिए, अगर तुम इसे गलत मानते हो और तुमने यह निश्चित कर लिया है कि यह गलत है तो फिर तुम क्यों अब भी इससे प्रभावित होते हो और क्यों तुम अब भी तसल्ली के लिए इसका उपयोग करते हो? (चूँकि लोग सत्य नहीं समझते हैं, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं कर पाते हैं, इसलिए वे सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे को अपना सिद्धांत या अभ्यास की कसौटी मान लेंगे।) यह एक कारण है। क्या दूसरे कारण भी हैं? (चूँकि यह वाक्यांश लोगों के दैहिक हितों के साथ अपेक्षाकृत रूप से सुसंगत है, और जब वे सत्य नहीं समझते हैं तो वे स्वाभाविक रूप से इस वाक्यांश के अनुसार आचरण करेंगे।) जब लोग सत्य नहीं समझते, केवल तभी वे ऐसे नहीं होते; जब वे सत्य समझते हैं तब भी शायद वे सत्य के अनुसार व्यवहार करने में सक्षम नहीं होंगे। यह सही है कि यह वाक्यांश “लोगों के दैहिक हितों के साथ अपेक्षाकृत रूप से सुसंगत है।” सत्य का अभ्यास करने के बजाय लोग अपने ही दैहिक हितों की रक्षा करने के लिए किसी कपटी चाल या सांसारिक आचरण के किसी शैतानी फलसफे का अनुसरण करना अधिक पसंद करेंगे। इसके अलावा, उनके पास ऐसा करने के लिए एक आधार भी है। यह आधार क्या है? वह यह है कि यह वाक्यांश जन-साधारण के द्वारा सही के रूप में व्यापक तौर पर स्वीकार किया जाता है। जब वे इस वाक्यांश के अनुसार काम करते हैं तो उनके कार्यकलाप अन्य सभी लोगों के सामने मान्य होंगे, और वे आलोचना से बच सकते हैं। चाहे इसे नैतिक या कानूनी दृष्टिकोण से देखें, या इसे पारंपरिक धारणाओं के दृष्टिकोण से ही देखें, यह एक नज़रिया और एक व्यवहार है जो न्यायोचित लगता है। इसलिए, जब तुम सत्य के अभ्यास के प्रति अनिच्छुक होते हो, या जब तुम इसे नहीं समझते हो तो शायद तुम इसकी जगह परमेश्वर का अपमान करना पसंद करोगे, सत्य का उल्लंघन करना पसंद करोगे, और एक ऐसी जगह पर पीछे हटना पसंद करोगे जो नैतिक सीमा रेखा को पार नहीं करती है। और वो जगह क्या है? यह वह सीमा रेखा है कि तुम “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” इस जगह पर पीछे हटने और इस वाक्यांश के अनुसार पेश आने से तुम्हारे मन को शांति मिलेगी। यह तुम्हारे मन को शांति क्यों देता है? यह इसलिए है क्योंकि बाकी सभी लोग भी इसी तरह सोचते हैं। साथ ही, तुम्हारा दिल भी इसी अवधारणा को प्रश्रय देता है कि “जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता,” और तुम सोचते हो, “हर कोई तो इसी तरह सोचता है। यदि मैं इस वाक्यांश के अनुसार आचरण करता हूँ तो, कोई बात नहीं यदि परमेश्वर मेरी निंदा करता है क्योंकि वैसे भी मैं न तो परमेश्वर को देख सकता हूँ, न ही पवित्र आत्मा को स्पर्श कर सकता हूँ। कम से कम दूसरों की दृष्टि में, मैं मानवीय गुणों वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाऊँगा, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसमें कुछ तो जमीर है।” तुम इन “मानवीय गुणों” की खातिर, सत्य को धोखा देना पसंद करोगे, ताकि लोग तुम्हें बिना द्वेष भावना के देखें। तब हर कोई तुम्हारे बारे में अच्छा सोचेगा, तुम्हारी आलोचना नहीं की जाएगी, और तुम्हारा जीवन आरामदायक होगा, तुम्हारे मन में शांति होगी—तुम्हें तो मन की शांति चाहिए। क्या यह मन की शांति सत्य के प्रति किसी व्यक्ति के प्रेम की अभिव्यक्ति है? (नहीं, यह नहीं है।) तो, यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या इसमें धोखेबाजी निहित है? हाँ, इसमें धोखेबाजी है। तुमने इसके बारे में कुछ सोचा है, और तुम जानते हो कि “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाक्यांश सही नहीं है, कि यह सत्य नहीं है। तो क्यों, जब तुम किसी असमंजस में पड़ जाते हो तब भी सत्य का चुनाव नहीं करते हो, बल्कि इसके बजाय, तुम पारंपरिक संस्कृति से लिए गए एक दार्शनिक वाक्यांश का पालन करते हो, जिसके प्रति लोग सबसे अधिक ग्रहणशील होते हैं? तुम क्यों इसे चुनते हो? यह लोगों के जटिल विचारों से संबंधित है, और एक बार जब जटिल विचार हों, तो इसमें किस तरह का स्वभाव निहित होता है? (दुष्टता का।) दुष्टता के अतिरिक्त, यहाँ एक और पहलू काम कर रहा है। तुम पूरी तरह से इस वाक्यांश को सही नहीं मानते हो, फिर भी तुम इसका पालन करते हो और तुम इसे अपने ऊपर हावी होने देते हो और अपने ऊपर नियंत्रण करने देते हो। यहाँ एक बात निश्चित है : तुम सत्य से विमुख हो, और तुम कोई ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से प्रेम करता हो। क्या यही स्वभाव नहीं है? (हाँ, यह है।) इतनी बात तो निश्चित है। जब लोग काम करते हैं तो वे कई दृष्टिकोणों से प्रभावित होते हैं, और हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि तुम अपने दिल में इन दृष्टिकोणों को सही मानते हो, तुम फिर भी इनका पालन कर सकते हो और इनसे चिपके रह सकते हो, जो कि एक निश्चित स्वभाव से प्रेरित होता है। यद्यपि तुम इन दृष्टिकोणों को गलत मानते हो, फिर भी ये तुम्हें प्रभावित कर सकते हैं, तुम पर हावी हो सकते हैं और तुममें हेर-फेर कर सकते हो। यह एक दुष्ट स्वभाव है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग ड्रग्स लेते हैं या जुआ खेलते हैं, पर साथ ही यह भी कहते हैं कि ड्रग्स लेना या जुआ खेलना बुरा है और यहाँ तक कि दूसरों को सलाह भी देते हैं कि वे ऐसे काम न करें, वर्ना मुमकिन है कि वे सब कुछ खो देंगे। वे इन वस्तुओं को गलत मानते हैं, वे उन्हें नकारात्मक मानते हैं, पर क्या वे उन्हें त्याग सकते हैं, छोड़ सकते हैं? (नहीं।) वे कभी भी अपने को रोक नहीं पाएँगे, और वे खुलकर यह भी कहते हैं “जुआ भी पैसे कमाने का एक तरीका है, और यह एक पेशा बन सकता है।” क्या वे इसे महज अलंकृत नहीं कर रहे हैं? वास्तव में, वे मन ही मन सोचते हैं, “यह कैसा पेशा है? मेरे पास जो कुछ भी कीमती था उसे मैंने गिरवी रख दिया है और इससे जो कुछ भी कमाया था उसे भी गँवा दिया है। अंततः, कोई भी जुआरी एक सामान्य जीवन नहीं जी सकता है।” तो वे इसे फिर भी इस तरह से अलंकृत क्यों करते हैं? क्योंकि वे इसे छोड़ नहीं सकते हैं। और वे इसे क्यों नहीं छोड़ सकते हैं? क्योंकि यह उनकी प्रकृति में है; इसने वहाँ पहले ही अपनी जड़ें जमा ली हैं। उन्हें इसकी ज़रुरत है, और वे इसके खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकते हैं, यह उनकी प्रकृति में है। हमने “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाक्यांश पर कमोबेश काफी संगति कर ली है। क्या कोई व्यक्ति इसलिए इससे प्रभावित होता है कि उसे इस तरह के दृष्टिकोण को अपनाने के लिए एक क्षणिक भावावेग था, या यह इसलिए है कि शैतान ने, लापरवाही के एक पल का फायदा उठाते हुए, इस व्यक्ति में इस तरह का एक दृष्टिकोण भर दिया, जिससे वह इसके अनुसार क्रियाकलाप करने लगा? (नहीं।) इसमें उस व्यक्ति की भ्रष्ट प्रकृति निहित है; वह ऐसा रास्ता इसलिए चुनता है क्योंकि यह चीज उसकी प्रकृति में है। “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” वाक्यांश का इस तरह से गहन-विश्लेषण कर लेने के बाद, अब तुम इसे मूलतः समझ लेते हो। यह वाक्यांश सांसारिक आचरण के शैतानी फलसुफे के रूप में परिभाषित किया जाता है—यह किसी भी तरह से सत्य नहीं है। क्या इसका सत्य से कोई संबंध है? (नहीं।) इसका सत्य से बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं है, और यह परमेश्वर के द्वारा निंदित है। यह सत्य नहीं है; यह शैतान से आता है, परमेश्वर से नहीं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस वाक्यांश का सत्य से, या परमेश्वर में विश्वास करने वालों को किस तरह से कार्य करना चाहिए, किस तरह से आचरण करना चाहिए, और परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए, इनकी कसौटी से कोई संबंध नहीं है। इस वाक्यांश की पूरी तरह से निंदा की गई है। इस वाक्यांश के भ्रामक गुण अपेक्षाकृत रूप से बिल्कुल स्पष्ट हैं, ताकि तुम आसानी से पहचान कर सको कि यह सही है या नहीं।

II. “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” के विचार का गहन-विश्लेषण

आओ, हम एक और कहावत के बारे में बात करें, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” कौन बता सकता है कि इसका अर्थ क्या है? (“अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” कहावत में सूखी लकड़ी का अर्थ जलाने की लकड़ी है और पित्त का मतलब एक पित्ताशय की थैली है। इसमें यह ज़िक्र है कि यू साम्राज्य का राजा गौज्यान कैसे जलाने की लकड़ी के ढेर पर सोया करता था और हर दिन एक पित्ताशय की थैली को चाटा करता था और कैसे वह बदला लेना चाहता था, अपनी पराजय से उबरकर अपने राज्य को फिर से पाना चाहता था।) तुमने इस कहावत की पृष्ठभूमि को समझाया है जिससे यह पता चलता है कि यह कहावत किस कहानी से निकली है। आमतौर पर किसी कहावत की व्याख्या करते समय उसकी पृष्ठभूमि बताने के अलावा तुम्हें उसका विस्तृत अर्थ भी समझाना पड़ता है—आधुनिक समय में उपयोग के लिए इस रूपक का लोगों के लिए क्या अर्थ है। इसे फिर से समझाओ। (यह एक ऐसे व्यक्ति के बारे में एक रूपक कथा है जो मुसीबत का सामना करता है और जो अपने लक्ष्यों और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए संघर्ष और कड़ी मेहनत करता है।) तो फिर इस सन्दर्भ में “सूखी लकड़ी” और “पित्ताशय” को कैसे समझना चाहिए? बात यह है कि तुमने अर्थ के इन दो पहलुओं की व्याख्या नहीं की। अगर शब्दों को देखें तो, “सूखी लकड़ी” का संबंध एक प्रकार की कँटीली जलाऊ लकड़ी से है; वह जलाने की कँटीली लकड़ी पर सोता था, फिर बार-बार स्वयं को अपनी परिस्थितियों और अपमान की याद दिलाता रहता था, और बार-बार स्वयं को उस मिशन की याद दिलाता था जो उसने अपने कंधे पर उठाया था। इसके अलावा, उसने छत से एक पित्ताशय की थैली लटका रखी थी और रोज इसे चाटता था। कोई पित्ताशय की थैली को चाटे तो कैसा स्वाद आता है? (कड़वा।) यह तो बहुत कड़वा होगा! उसने इस एहसास का उपयोग खुद को यह याद दिलाने के लिए किया कि वह अपनी नफरत भूल न जाए, अपना मिशन भूल न जाए और अपनी इच्छा न भूल जाए। उसकी इच्छा क्या थी? अपने राज्य को पुनर्स्थापित करने का महान कार्य। अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की उसकी इच्छा आमतौर पर किसका रूपक है? यह सामान्यतः एक ऐसे व्यक्ति का रूपक है जो दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति में है लेकिन जो अपने मिशन और इच्छाओं को नहीं भूलता, और जो अपनी इच्छाओं, आदर्शों और मिशन के लिए कीमत चुकाने में समर्थ है। इसका मतलब मोटे तौर पर यही है। संसारी लोगों की दृष्टि में “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” वाली कहावत सकारात्मक है या नकारात्मक? (यह एक सकारात्मक कहावत है।) इसे सकारात्मक कहावत क्यों माना जाता है? यह मुश्किलों से घिरे लोगों को अपनी नफरत को न भूलने, अपने अपमान को न भूलने और कठोर परिश्रम करने और मजबूत बनने का प्रयास करने के लिए प्रेरित कर सकती है। यह अपेक्षाकृत रूप में एक प्रेरणादायक कहावत है। संसारी लोगों की नज़रों में यह निस्संदेह एक सकारात्मक कहावत है। यदि लोग इस कहावत के अनुसार कार्य करते हैं तो निस्संदेह उनके द्वारा की जाने वाली चीजें, चीजें करने हेतु उनकी प्रेरणा, चीजें करने के उनके तरीके और जिन सिद्धांतों का वे पालन करते हैं, वे सब सही और सकारात्मक हैं। ऐसा कहने से इस कहावत में मौलिक रूप से कुछ भी गलत नहीं है, तो हम इस कहावत को अपने सामने लाकर किस बात का गहन विश्लेषण करना चाहते हैं? हम कहना क्या चाहते हैं? (हम उन तरीकों का गहन विश्लेषण करना चाहते हैं जिनमें यह कहावत सत्य के विपरीत जाती है।) सही कहा, हम यह भेद करना चाहते हैं कि यह सत्य है या नहीं। चूँकि यह कहावत इतनी “सही” है, इसलिए यह हमारे लिए गहन विश्लेषण और सत्यापन करने योग्य है कि यह किस तरह से “सही” है। तब हमारे पास इसकी एक सटीक परिभाषा होगी और हम देख पाएँगे कि यह वास्तव में सत्य है या नहीं। यही वह अंतिम नतीजा है जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं। “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” यह कहावत एक उत्तरजीविता का नियम है जिस पर लोग विशेष परिस्थितियों में कायम रहते हैं। आओ, हम पहले निश्चित हो लें—क्या यह कहावत सत्य है? (नहीं।) हमें यह कहकर शुरुआत नहीं करनी चाहिए कि यह सत्य है या नहीं। लोगों को समझ में आने वाले इसके शाब्दिक अर्थ में इस कहावत का कोई नकारात्मक अर्थ नहीं है। तो फिर, इसका सकारात्मक अर्थ क्या है? यह लोगों को प्रेरित कर सकती है, उन्हें दृढ़ संकल्प दे सकती है, उनके लड़ते रहने का कारण बन सकती है, पीछे हटने, हतोत्साहित होने और कायर बनने का नहीं। एक पहलू में इसका सकारात्मक उपयोग है। तो फिर किन परिस्थितियों में लोगों के लिए यह ज़रूरी है कि वे इस कहावत में निहित आचरण और काम करने के सिद्धान्तों का पालन करें? क्या जिन सिद्धांतों का यह कहावत समर्थन करती है उनके और परमेश्वर में विश्वास के बीच कोई संबंध है? क्या सत्य का अभ्यास करने के साथ इसका कोई संबंध है? क्या अपना कर्तव्य निभाने के साथ इसका कोई संबंध है? क्या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के साथ इसका कोई संबंध है? (नहीं।) तुम इतनी जल्दी निष्कर्ष पर पहुँच गए? तुम लोग कैसे जानते हो कि कोई संबंध नहीं है? (परमेश्वर के वचन ऐसा नहीं कहते हैं।) यह कहना तो अत्यधिक सरल और गैर-जिम्मेदाराना बात है। जब तुम समझ नहीं पाते हो और कहते हो, “वैसे भी, यह परमेश्वर के वचनों में नहीं है और मुझे नहीं पता कि इस कहावत का क्या अर्थ है, इसलिए मुझे यह नहीं सुननी है। चाहे यह जो भी कहे, मुझे इस पर विश्वास नहीं करना है,” ऐसा कहना एक गैर-जिम्मेदाराना बात है। तुम्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए। एक बार यदि तुम इसे गंभीरता से ले लेते हो, इसे अच्छी तरह से समझ लेते हो और इसका भेद अच्छी तरह जान लेते हो, तो तुम इस कहावत को कभी भी सत्य नहीं मानोगे। फिलहाल, मैं तुमसे इस कहावत के सही होने से इनकार नहीं करवा रहा हूँ; बल्कि, मैं तुम लोगों को समझा रहा हूँ कि यह कहावत सत्य नहीं है, और तुम्हें दिखा रहा हूँ कि वे कौन-से सत्य हैं जिन्हें तुम्हें समझना चाहिए और ऐसी ही परिस्थितियों में तुम्हें सत्य को कैसे कायम रखना चाहिए। क्या तुम समझते हो? तो, मुझे बताओ कि तुम लोगों की समझ क्या है। (अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना वाली कहावत का अर्थ यह है कि लोगों को दुर्भाग्य के दौर में किस तरह से अभ्यास करना चाहिए, परन्तु परमेश्वर के घर में “दुर्भाग्य” शब्द का अस्तित्व ही नहीं है। जब परमेश्वर लोगों को उजागर करता है या उन्हें परीक्षणों से गुजारता है, तो यह सब परमेश्वर द्वारा उन्हें पूर्ण बनाने की प्रक्रिया का एक भाग होता है—यह दुर्भाग्य नहीं होता। यह कहावत लोगों को बताती है कि उन्हें इस समय में सहन की गई कठिनाई को याद रखना चाहिए और अपनी खोई हुई कुछ स्थिति भविष्य में हासिल कर लेनी चाहिए। यह अभिव्यक्ति परमेश्वर के घर में लागू नहीं होती है। मैं एक उदाहरण दूँगा जो थोड़ा-सा अनुचित है : कुछ अगुआओं को जब प्रतिस्थापित कर दिया जाता हैं तो वे खुद को प्रेरित करने के लिए “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” वाले वाक्यांश का उपयोग करते हैं, और कहते हैं, “मैं यू राज्य के राजा गौज्यान से सीखूँगा और अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोऊँगा और पित्त चाटूँगा। एक समय आएगा जब मैं अपने पुराने पद को वापस प्राप्त कर लूँगा और फिर से एक अगुआ बन जाऊँगा। तुम लोग देखोगे! तुम सब मेरी आलोचना करते हुए कहते हो कि मैं इस मामले में खराब हूँ, उस मामले में खराब हूँ। जो मैंने खोया है उसे एक दिन पुनः प्राप्त करूँगा और तुम लोगों को दिखाऊँगा कि मैं वास्तव में किस मिट्टी का बना हुआ हूँ। निश्चित रूप से एक दिन आएगा जब मैंने जो अपमान झेला है, उसके दाग साफ हो जाएँगे!”) यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है। क्या इसने तुम लोगों को प्रबुद्ध किया है? क्या तुम लोगों का कभी ऐसा समय आया है जब तुमने अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना चाहा हो? क्या तुम कभी हारी हुई बाजी जीतने के बारे में सोचते हो? (हाँ। जब लोग मेरे विचारों को नकारते हैं तो मेरे मन में ये विचार आते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब मैं भाई-बहनों के साथ कुछ बातों पर चर्चा कर रहा होता हूँ और वे मेरे विचारों पर सवाल उठाते हैं तो मैं अपने दिल में विद्रोह महसूस करता हूँ और मैं सोचता हूँ, “एक दिन मुझे यह काम बहुत अच्छे से करके तुम लोगों को दिखाना होगा।” फिर, मैं जाता हूँ और कार्य के उस क्षेत्र को सीखने के लिए कठोर परिश्रम करता हूँ, लेकिन यह गलत मानसिकता है।) यह सत्य स्वीकारने, सत्य खोजने या सत्य का अभ्यास करने का रवैया नहीं है, बल्कि अवज्ञा और दूसरों के सामने कुछ साबित करना चाहने का रवैया है—यह हार न मानने का रवैया है। इस तरह के रवैये को मानवजाति के बीच सकारात्मक माना जाता है। कभी भी हार न मानना एक प्रकार का अच्छा मिजाज है, और इसका मतलब है कि व्यक्ति में दृढ़ता है, तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है? ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्यों को करते समय उनका रवैया और जो कुछ वे करते हैं उसके पीछे के सिद्धांत और प्रेरणाएँ सत्य पर आधारित नहीं होती हैं; बल्कि वे पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत पर आधारित होती हैं “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” यद्यपि कोई कह सकता है कि इस व्यक्ति की एक सुदृढ़ उपस्थिति है और जीतने की इच्छा रखने और हार न मानने की उसकी मानसिकता और उनका रवैया इस लौकिक संसार में लोगों से सम्मान हासिल करता है, सत्य के सामने इस तरह की मानसिकता और मिजाज क्या हैं? वे क्षुद्र और बहुत ही बुरे हैं; परमेश्वर द्वारा उनसे घृणा की जाती है। क्या किसी के पास साझा करने के लिए और कुछ है? (जब मैं कोई कर्तव्य निभाता हूँ तो, चूँकि मैं कार्य के उस क्षेत्र से परिचित नहीं होता हूँ, इसलिए मुझे लगता है कि लोग मुझे गंभीरता से नहीं लेते हैं। इसलिए मैं अपने दिल में चुपके से खुद को हिम्मत देता हूँ, “मुझे काम के इस क्षेत्र को अच्छी तरह से समझने और तुम लोगों को यह दिखा देने की जरूरत है कि मैं वास्तव में समर्थ हूँ।” कभी-कभी, जब लोग मेरे कर्तव्य में कमियाँ ढूँढ़ निकालते हैं तो मैं बदलने की कोशिश करता हूँ; मैं मुश्किलों का सामना करता हूँ और काम सीखने की कीमत अदा करता हूँ और चाहे मैं कितनी भी कठिनाई क्यों न झेलूँ, मैं उसे झेल लेता हूँ, लेकिन मैं यह नहीं खोज रहा होता हूँ कि अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से कैसे करूँ; बल्कि, मैं चाहता हूँ कि वह दिन आए जब लोग अपनी नज़रें उठाकर मुझे देखें और मुझे दूसरों से सम्मान मिले। मेरी स्थिति भी अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने जैसी होती है।) तुम सब लोगों ने जो साझा किया है, उसमें मैंने एक समस्या देखी है। तुम लोगों ने काफी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, अपने परिवारों और पेशों को त्याग दिया है और तुमने कोई कम कठिनाई नहीं झेली है, फिर भी तुमने बहुत कम हासिल किया है। तुम लोग मुश्किलों को झेलने और अपने कर्तव्यों में स्वयं को खपाने में भी सक्षम हो और कीमत चुकाने में भी समर्थ हो, लेकिन तुम कभी सत्य में प्रगति क्यों नहीं करते हो? ऐसा क्यों है कि जिन सत्यों को तुम समझते हो वे बहुत ही कम और बहुत उथले हैं? इसका कारण यह है कि तुम लोग सत्य पर जोर नहीं देते हो। तुम लोग हमेशा अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना चाहते हो, और तुम लोगों के दिल खुद को साबित करने की चाहत से लबालब भरे हुए हैं। अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना एक “बड़ा फोड़ा” है—क्या तुम्हें लगता है कि यह एक अच्छी बात है? अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने का अंतिम नतीजा क्या होता है? जब कोई व्यक्ति यह साबित करना चाहता है कि वह सक्षम और योग्य हैं, कि वह दूसरों से कमतर नहीं हैं, और किसी से हार नहीं सकता है तो वह अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोएगा और पित्त चाटेगा। दूसरे शब्दों में, वह “सबसे महान इंसान बनने के लिए व्यक्ति को सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी।” तो अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना स्वयं में किस तरह से अभिव्यक्त होता है? इसके अभिव्यक्त होने का पहला तरीका है हार न मानना। दूसरा है, अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना। हो सकता है कि तुम दूसरों के साथ बहस करने, उनकी बात का खंडन करने या अपना पक्ष रखने के लिए किसी भी शब्द का उपयोग न करो, लेकिन तुम गुप्त रूप से कोशिश करते हो। किस तरह की कोशिश? यह वह कीमत हो सकती है जिसका तुम लोग भुगतान करते हो : देर तक जागकर, सुबह जल्दी उठ कर या परमेश्वर के वचनों को पढ़ कर और जब अन्य लोग मज़े कर रहे हों तब अपने कार्य क्षेत्र के बारे में सीख कर, इस तरह अतिरिक्त प्रयास करते हो। क्या यह कठिनाई झेलना है? इसे अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना कहा जाता है। इसके अभिव्यक्त होने का तीसरा तरीका क्या है? यह बात उन लोगों में अभिव्यक्त होती है जिनके भीतर किसी तरह की बड़ी महत्वाकांक्षा होती है, और जो इस बड़ी महत्वाकांक्षा के कारण अपनी परेशानियों के बारे में शिकायत नहीं करते हैं। वे उन लक्ष्यों को कायम रखना चाहते हैं जो उन्होंने निर्धारित किए हैं और जिन्हें वे हासिल करना चाहते हैं और वे लड़ने के इस संकल्प को कायम रखना चाहते हैं। लड़ने का यह संकल्प क्या है? उदाहरण के लिए, यदि तुम एक अगुआ बनना चाहते हो या कोई काम पूरा करना चाहते हो तो तुम्हें अपने अन्दर हमेशा यह मनःस्थिति कायम रखनी चाहिए; तुम्हें अपना संकल्प, अपना मिशन, अपनी आकांक्षाएँ और अपने आदर्श कभी नहीं भूलने चाहिए। तुम एक ही वाक्य में इसका वर्णन कैसे करोगे? (कुछ करने की अपनी प्रारंभिक प्रेरणा को अपनी दृष्टि से ओझल मत होने दो।) कुछ करने की अपनी प्रारंभिक प्रेरणा को अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देना सही तो है लेकिन यह पर्याप्त रूप से सशक्त नहीं है। (अपने हृदय में एक बड़ी महत्वाकांक्षा रखो।) यह बेहतर है। इसमें थोड़ी-सी इस आशय की भावना है। इन शब्दों को तुम अधिक सटीक और संक्षिप्त तरीके से कैसे कह सकते हो? (लड़ने का संकल्प और आकांक्षाएँ।) इसे पूरे शब्दों में कैसे कहोगे? कई जंग और कई नुकसान, लेकिन जितनी लंबी जंग, उतना ही अधिक साहसी होते जाना। यह लड़ने के लिए “कभी हार न मानने” का संकल्प है। यह तो वैसा ही है जैसा कुछ लोग कहते हैं, “पद से प्रतिस्थापित किए जाने के बाद तुम हतोत्साहित हो गए? मुझे कई बार पद से हटाया गया है लेकिन मैं कभी निराश नहीं हुआ। जब भी मैं किसी काम में असफल होता हूँ, तो मैं तुरंत पुनः प्रयास करता हूँ। हममें लड़ने का संकल्प होने की आवश्यकता है!” उन लोगों के परिप्रेक्ष्य में लड़ने का यह संकल्प एक सकारात्मक बात है। वे नहीं मानते कि लोगों में आकांक्षाओं, आदर्शों और लड़ने का संकल्प होना कोई बुरी बात है। घमंड वाले भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को वे कैसा मानते हैं? वे इन्हें सकारात्मक मानते हैं। इसलिए वे सोचते हैं कि जिस लक्ष्य की दिशा में वे लड़ रहे हैं और जिस लक्ष्य को वे सही मानते हैं, उसे पूरा करने के लिए, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की कठिनाई को झेलने में सक्षम होना सही काम है, कि लोग इसे अच्छा मानते हैं, और यही सत्य होना चाहिए। अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की ये तीन अभिव्यक्तियाँ होती हैं। क्या ये तीन अभिव्यक्तियाँ अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने में निहित अर्थ की व्याख्या कर सकती हैं? (हाँ, ये कर सकती हैं।) तो फिर मैं इन तीन अभिव्यक्तियों पर विस्तार से संगति करूँगा।

क. हार न मानना

आओ, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति—हार न मानना—से शुरुआत करते हैं। हार न मानना क्या होता है? आमतौर पर लोगों के पास कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होती हैं जो साबित करती हैं कि उनमें हार न मानने की मानसिकता है? हार न मानना किस प्रकार का स्वभाव होता है? (घमंड और हठीलापन।) इसमें घमंड और हठीलेपन के दो स्पष्ट स्वभाव शामिल हैं। और क्या? (जीतने की चाहत।) क्या यह एक स्वभाव है? यह एक अभिव्यक्ति है। हम अभी स्वभाव के बारे में बात कर रहे हैं। (सत्य से विमुख होना।) सत्य से विमुख होने का निश्चित अर्थ यह है कि वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई अगुआ या कार्यकर्ता यह कहता है कि तुम जो कर रहे हो वह सिद्धांतों का उल्लंघन है और इससे परमेश्वर के घर के कार्य में विलम्ब हो रहा है, और वह तुम्हें प्रति-स्थापित करना चाहता है, तो तुम सोचते हो, “हम्! मुझे नहीं लगता कि मैं जो कर रहा हूँ वह गलत है। यदि तुम मुझे प्रतिस्थापित करना चाहते हो तो करो। अगर तुम मुझे ऐसा करने नहीं दोगे तो मैं नहीं करूँगा। मैं समर्पण करूँगा!” इस समर्पण के भीतर हार मानने से इनकार करने का एक रवैया है। यह एक स्वभाव है। घमंड, हठीलापन, और सत्य से विमुख होने के अलावा, इस स्वभाव में और क्या निहित होता है? क्या परमेश्वर से स्पर्धा करने की इच्छा का कोई स्वभाव है? (हाँ।) तो यह कौन-सा स्वभाव है? यह क्रूरता है। तुम लोग एक ऐसे स्वभाव तक को नहीं पहचान सकते हो जो इतना क्रूर है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह क्रूर है? (क्योंकि यह परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करना चाहता है।) सत्य से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश को क्रूर कहा जाता है—यह तो बहुत ही क्रूर है! यदि वे क्रूर न होते, तो वे सत्य से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश नहीं करते, और परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने या उसके साथ होड़ लगाने की कोशिश नहीं करते। यह एक क्रूर स्वभाव है। हार न मानने के भीतर घमंड, हठीलापन, सत्य से विमुख होना, और क्रूरता शामिल हैं। ये वो स्पष्ट स्वभाव हैं जिनसे यह जुड़ा हुआ है। हार न मानना कैसे अभिव्यक्त होता है? इसमें कौन-सी मानसिकताएँ शामिल हैं? जो लोग हार नहीं मानते, वे क्या सोचते हैं? उनका रवैया क्या होता है? वे क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, और जब वे प्रतिस्थापित किए जाने जैसी चीजों का सामना करते हैं तो वे क्या प्रकट करते हैं? सबसे आम अभिव्यक्ति तब होती है जब वे कोई कर्तव्य करते हैं और ऊपरवाला देखता है कि वे इस कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और उन्हें कोई दूसरा कर्तव्य सौंप देता है, तब वे अपने दिल में बार-बार सोचते हैं, “मैं तुम्हारे बराबर नहीं हूँ। मैं तुमसे बहस नहीं करूँगा। मेरे पास प्रतिभा है। सच्चा सोना अंततः चमकता ही है, और मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ चाहे मैं कहीं भी जाऊँ! इस बात की परवाह किए बिना कि ऊपरवाला मेरे लिए क्या व्यवस्था करता है, मैं इसे सहन कर लूँगा और फिलहाल उनकी बात मान लूँगा।” वे परमेश्वर के सामने भी आते हैं और प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मैं चाहता हूँ तुम मुझे शिकायत करने से रोक लो। मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम मेरी ज़बान को थाम लो, और मुझे तुम्हारी आलोचना या ईशनिंदा करने से रोक लो, और मुझे समर्पण करने में सक्षम बना दो।” लेकिन वे फिर से मनन करते हैं, “मैं समर्पण नहीं कर सकता। यह सबसे कठिन काम है। मैं इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे क्या करना चाहिए? ये ऊपरवाले की व्यवस्थाएँ हैं; मैं कुछ भी नहीं कर सकता। मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ, लेकिन मैं कभी भी परमेश्वर के घर में अपनी प्रतिभा का उपयोग क्यों नहीं कर सकता? ऐसा लगता है कि अभी तक मैंने परमेश्वर के वचनों को पर्याप्त रूप से नहीं पढ़ा है। अब से मुझे परमेश्वर के वचनों को अधिक पढ़ना चाहिए!” वे हार नहीं मानते, और वे नहीं सोचते कि वे दूसरों से कम हैं, बात बस इतनी ही है कि उन्होंने थोड़े कम समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया है और इसकी भरपाई की जा सकती है। इसलिए, वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उपदेशों को सुनने में मेहनत लगाते हैं। वे एक नया भजन सीखते हैं और प्रतिदिन परमेश्वर के वचनों का एक अध्याय पढ़ते हैं, और उपदेश देने का अभ्यास करते हैं। धीरे-धीरे, वे परमेश्वर के वचनों से अधिकाधिक परिचित होते जाते हैं, वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांतों पर उपदेश दे सकते हैं, और सभाओं में संगति करने हेतु बोल सकते हैं। क्या यहाँ हार न मानने की कोई दृढ़ इच्छाशक्ति है? (हाँ।) यह किस तरह की दृढ़ इच्छाशक्ति है? (एक दुष्ट इच्छाशक्ति।) यह तो परेशानी वाली बात है! ऐसा क्यों है कि जैसे ही हम इसका गहन-विश्लेषण करते हैं, तो तुम लोग तुरंत इस पर एक दुष्ट इच्छाशक्ति का ठप्पा लगा देते हो? क्या ये अच्छी बातें नहीं हैं? उनका आध्यात्मिक जीवन सामान्य होता है; वे सांसारिक चीजों में भाग नहीं लेते हैं; वे गपशप नहीं करते; वे परमेश्वर के वचनों के कई अध्यायों को दोहराने में और अपनी याददाश्त से कई भजन गाने में समर्थ होते हैं। वे “कुलीन” हैं! फिर तुम क्यों कहते हो कि यह एक दुष्ट इच्छाशक्ति है? (उनका इरादा यह साबित करना है कि वे सक्षम हैं और दूसरों से कम नहीं हैं।) इसे ही हार न मानना कहते हैं। हार न मानकर, क्या वे वास्तव में खुद को समझ रहे हैं और अपनी समस्याओं को स्वीकार कर रहे हैं? (नहीं।) क्या वे अपनी भ्रष्टता और अपने घमंडी स्वभाव को पहचान रहे हैं? (नहीं।) फिर वे हार न मानकर क्या साबित कर रहे हैं? वे साबित करना चाहते हैं कि वे सक्षम और श्रेष्ठ हैं; वे साबित करना चाहते हैं कि वे दूसरों की अपेक्षा बेहतर हैं, और अंततः यह साबित करना चाहते हैं कि उन्हें प्रतिस्थापित करना एक भूल थी। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति इसी दिशा में लक्षित होती है। क्या हार न मानना यही है? (हाँ।) हार न मानने के इसी रवैये ने कठिनाई झेलने, कीमत चुकाने, अपमान सहनने और भारी दायित्व उठाने जैसे उनके इन क्रियाकलापों को उत्पन्न किया था। सतही तौर पर, ऐसा लगता है कि वे बहुत कोशिश करते हैं, कठिनाई का सामना कर सकते हैं और एक कीमत चुका सकते हैं, और अंततः अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता? वह उनकी निंदा क्यों करता है? क्योंकि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदयों की जाँच करता है और प्रत्येक व्यक्ति का सत्य के अनुसार मूल्यांकन करता है। परमेश्वर किस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार, इरादों, अभिव्यक्तियों, और स्वभावों का मूल्यांकन करता है? ये सभी बातों का सत्य के अनुसार मूल्यांकन किया जाता है। तो, परमेश्वर किस प्रकार इस मामले का मूल्यांकन करता है और इसे कैसे परिभाषित करता है? चाहे तुम लोगों ने कितनी भी कठिनाई झेली हो और तुमने कितनी ही बड़ी कीमत चुकाई हो, जब बात सत्य की आती है तो तुम सत्य की दिशा में प्रयास नहीं करते हो; तुम्हारा इरादा सत्य के प्रति समर्पण करने का या उसे स्वीकार करने का नहीं होता है; बल्कि, तुम कष्ट सहने और कीमत चुकाने के अपने तरीके का उपयोग यह साबित करने के लिए करते हो कि जिस तरह से परमेश्वर और परमेश्वर के घर ने तुम्हें वर्गीकृत किया और जिस तरह से वे तुम्हारे साथ पेश आये, वह गलत था। इसका क्या मतलब होता है? तुम यह साबित करना चाहते हो कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो कभी कुछ गलत नहीं किया और जिसके पास कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। तुम यह साबित करना चाहते हो कि जिस तरह से परमेश्वर के घर ने तुम्हें संभाला वह सत्य के अनुरूप नहीं था, और यह कि कभी-कभी सत्य और परमेश्वर के वचन गलत होते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम्हारी बात करें, तो वहाँ एक चूक हुई और कोई समस्या थी, और तुम्हारा मामला यह साबित करता है कि परमेश्वर के वचन सत्य नहीं हैं और तुम्हें समर्पण करने की आवश्यकता नहीं है। क्या परिणाम यही नहीं होता? (हाँ।) क्या परमेश्वर इस प्रकार के परिणाम की अनुमति देता है, या वह इसकी निंदा करता है? (वह इसकी निंदा करता है।) परमेश्वर इसकी निंदा करता है।

क्या हार नहीं मानने वाला लोगों का यह रवैया सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) अगर हम कहें कि यह रवैया सत्य के अनुरूप नहीं है, और यह तो सत्य से मीलों दूर है, तो क्या यह कहना सही होगा? नहीं, क्योंकि वह रवैया सत्य से बिल्कुल जुड़ा हुआ ही नहीं है। दुनिया भर में और समस्त मानवजाति के बीच, क्या हार न मानने के इस रवैये की प्रशंसा की जाती है, या निंदा? (इसकी प्रशंसा की जाती है।) किस परिवेश में इसकी प्रशंसा की जाती है? (कार्यस्थल में और स्कूलों में।) उदाहरण के लिए, यदि कोई छात्र किसी परीक्षा में साठ प्रतिशत अंक प्राप्त करता है, तो वह कहता है, “मैं हार नहीं मानूँगा। अगली बार मैं नब्बे प्रतिशत लेकर आऊँगा!” और जब वह नब्बे प्रतिशत प्राप्त कर लेता है, तो वह अगली बार सौ प्रतिशत प्राप्त करना चाहता है। आखिरकार वह इसे हासिल कर लेता है, और उसके माता-पिता सोचते हैं कि यह बच्चा महत्वाकांक्षी है और उसका भविष्य उज्ज्वल है। एक और परिवेश—और सबसे आम परिवेश—स्पर्धाओं का होता है। कुछ टीमें एक प्रतियोगिता हार जाती हैं और उनके चेहरे पर शर्म के भाव होते हैं, पर वे हार नहीं मानते। हार न मानने की इस मानसिकता और रवैये के कारण वे बहुत मेहनत करते हैं और कड़ा प्रशिक्षण लेते हैं, और अगली प्रतियोगिता में वे दूसरी टीम को हरा देते हैं और उन्हें नीचा दिखाते हैं। इस समाज में और मानवजाति के बीच, हार नहीं मानना एक प्रकार की मानसिकता है। मानसिकता क्या होती है? (यह सोचने का एक तरीका है जो मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों का समर्थन करता है।) यह सही है। यह एक आगे बढाने वाली शक्ति है जो लोगों को हमेशा हिम्मत से आगे बढ़ने में, पराजित न होने देने में, हतोत्साहित न होने देने में, पीछे न हटने देने में, और अपने आदर्शों और लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करती है। इसे ही हार न मानना कहते हैं। यह हार न मानने की एक तरह की मानसिकता है। लोग सोचते हैं कि यदि उनके पास यह मानसिकता, यह “जोश” नहीं है, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है। वे जीवन में किस पर निर्भर करते हैं? उनका जीवन एक तरह की मानसिकता पर निर्भर करता है। यह मानसिकता कहाँ से आती है? यह लोगों की अवधारणाओं और कल्पनाओं से, और साथ ही उनके भ्रष्ट स्वभावों से आती है। यह अव्यवहारिक है, और लोग इसे हासिल नहीं कर सकते। जब से परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया तब से लेकर अब तक, चाहे कितने ही साल बीत चुके हों, कितनी सारी सकारात्मक चीज़ें हैं, जैसे कि वह व्यवस्था जिसके अनुसार सजीव प्राणी जीते हैं, वह व्यवस्था जिसके अनुसार मानवजाति जीती है, और वह व्यवस्था जिसके अनुसार स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजें और ब्रह्मांड संचालित होते हैं, इत्यादि। उनके विचारों और शिक्षा के स्तर के अनुसार, लोगों को इन सब के भीतर एक व्यवस्था खोजने में सक्षम होना चाहिए जिसका वे पालन कर सकें, वे किस तरह कार्य करते और कैसे पेश आते हैं इसके लिए, या इसकी नींव के रूप में, इसे एक सिद्धांत और एक प्रेरणा शक्ति के रूप में ग्रहण कर सकें। बहरहाल, लोग सही दिशा में प्रयास नहीं करते हैं—वे अपनी शक्ति को किस दिशा में लगाते हैं? वे अपनी शक्ति को गलत दिशा में लगाते हैं, अर्थात्, वे उस व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं जिसके अनुसार चीजें विकसित होती हैं, और वे उस व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं जिसके अनुसार सभी चीजें क्रम से घूमती हैं—वे हमेशा उन कुदरती व्यवस्थाओं को नष्ट करना चाहते हैं जिन्हें परमेश्वर ने नियत किया है, और खुशी पैदा करने के लिए मानवीय तरीकों और साधनों का उपयोग करते हैं। वे नहीं जानते कि खुशी कैसे प्राप्त की जाती है, इसके भीतर क्या रहस्य है, या इसका स्रोत क्या है; वे इस स्रोत की तलाश नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे खुशी पैदा करने के लिए एक मानवीय दृष्टिकोण का उपयोग करने की कोशिश करते हैं, और हमेशा चमत्कार करना चाहते हैं। वे इन सभी चीजों के सामान्य क्रम को बदलने के लिए एक इंसानी दृष्टिकोण का उपयोग करने, और फिर इच्छित खुशी और लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करते हैं। यह सब असामान्य है। ऐसी चीजों के लिए लड़ने हेतु खुद पर भरोसा करने वाले लोगों का अंतिम परिणाम क्या होता है, चाहे वे कैसे भी लड़ते हों? जो संसार परमेश्वर ने मानवजाति को प्रबंधन के लिए दिया था, वह अब क्षतिग्रस्त हो चुका है। अब जबकि यह क्षतिग्रस्त हो गया है, सबसे अधिक पीड़ित कौन है? (इंसान।) मानवजाति सबसे अधिक पीड़ित है। लोगों ने दुनिया को इस हद तक बिगाड़ दिया है, फिर भी वे दावा करते हैं कि वे कभी हार नहीं मानेंगे। क्या उनके दिमाग में कुछ गड़बड़ी नहीं है? कभी हार न मानने का अंतिम परिणाम क्या होता है? एक भयंकर आपदा। यह सिर्फ एक या दो स्पर्धाओं में हार जाना या अपने चेहरे पर कालिख पुतवाना नहीं है। उन्होंने अपनी संभावनाओं को तबाह कर दिया है और बच निकलने के अपने रास्तों को बंद कर दिया है—उन्होंने स्वयं को नष्ट कर दिया है! यह वो है जो हार न मानने से आता है।

अब हम जिसका विश्लेषण कर रहे हैं वह शैतान के क्रूर स्वभाव और घमंडी स्वभाव की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति है, कभी हार न मानना। कभी हार न मानना एक मानसिकता होती है। हम तो इसकी आलोचना करते हैं, इसे उजागर करते हैं, और इसकी निंदा करते हैं, लेकिन यदि तुम मानवजाति के बीच इसकी निंदा करो, तो क्या लोग इसे स्वीकार करेंगे? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि सब लोग इस मुहावरे की प्रशंसा करते हैं।) वे इस मानसिकता को बढ़ावा देते हैं। यदि किसी व्यक्ति में हार न मानने और कभी हार न मानने की ज़रा भी मानसिकता नहीं है, तो दूसरे कहेंगे कि वह एक कमज़ोर व्यक्ति हैं। यदि हम इन चीज़ों को बढ़ावा नहीं देते हैं, तो क्या हम कमज़ोर हैं? (नहीं, हम नहीं हैं।) लोग कहते हैं, “तुम कमज़ोर कैसे नहीं हो? तुम दृढ़ता के साथ जीवन नहीं जीते हो। तुम्हारे जीने का क्या लाभ है?” क्या यह कथन सच है? आओ, हम पहले इसका विश्लेषण करें : “हार न मानना” किस तरह की मनोवृत्ति है? क्या सामान्य विवेक वाले लोगों की यह मनोवृत्ति होनी चाहिए? दरअसल, अगर लोगों के पास सामान्य विवेक है, तो उन्हें यह मानसिकता नहीं रखनी चाहिए। ऐसी मानसिकता रखना गलत होता है। किसी व्यक्ति को विवेकवान बनने के लिए वास्तविकता का सामना करना चाहिए। इस तरह, स्पष्ट रूप से, हार न मानने में विवेक का अभाव होता है; इसका मतलब है कि उसके दिमाग में कहीं कुछ सही नहीं है, और यह मनोवृत्ति स्पष्ट रूप से गलत है। सही बात कहूँ तो, परमेश्वर में विश्वास करने वालों के पास यह मानसिकता नहीं होनी चाहिए क्योंकि हार न मानने में एक घमंडी स्वभाव निहित होता है। क्या एक घमंडी स्वभाव के होने पर, लोगों के लिए सत्य स्वीकार करना आसान होता है? (नहीं।) यह एक समस्या है। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए घमंडी स्वभाव का एक नींव के रूप में उपयोग करते हो, तो तुम किसका अनुसरण कर रहे हो? जिसका तुम अनुसरण रहे हो वह निश्चित रूप से सत्य नहीं है, क्योंकि यह अनुसरण अपने आप में सकारात्मक नहीं है, और जो कुछ तुम प्राप्त करोगे वह निश्चित रूप से सत्य नहीं होगा; यह निश्चित रूप से लोगों द्वारा कल्पित किसी प्रकार की कोई “मानसिकता” होगी। अगर लोग इस तरह की मानसिकता को सच्चाई मानते हैं, तो वे मार्ग से भटक गए हैं। इसलिए, यदि हमें हार न मानने की मानसिकता को ठीक करना हो, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे कि लोगों को वास्तविक समस्याओं का सामना करना होगा और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार काम करना होगा, कि उनमें हार न मानने वाली मनोवृत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि वे हार नहीं मानते हैं, तो वे किससे हार नहीं मान रहे हैं? (परमेश्वर से।) वे सत्य से हार नहीं मान रहे हैं। अधिक विशेष रूप से, वे मुद्दे के वास्तविक तथ्यों से हार नहीं मान रहे हैं, वे यह नहीं मान रहे हैं कि उन्होंने कोई भूल की है और उन्हें उजागर किया गया है, और वे यह नहीं मान रहे हैं कि उनके पास घमंडी स्वभाव है। ये बातें सच हैं। अतः तुम लोग इन लोगों की बात का खंडन कैसे कर सकते हो? उनका मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका उस चीज़ का उपयोग करना है जो उन्हें सबसे शर्मनाक लगती है। आज दुनिया में कौन-सी चीज मानवजाति को सबसे शर्मनाक लगती है? विज्ञान। विज्ञान ने मानवजाति को क्या दिया है? (आपदा।) विज्ञान ने, जिसकी मानवजाति सबसे अधिक सराहना करती है और जिस पर उसे सबसे अधिक नाज़ है, उन पर अभूतपूर्व आपदा ले आई है। अब जब कि तुम्हारे पास यह सुराग है, तो तुम लोगों को, इन लोगों की बात का खंडन कैसे करना चाहिए ताकि तुम उन्हें शर्मिंदा कर सको? तुम लोग क्या कहते हो, क्या शैतान की तरह के लोगों को शर्मिंदा किया जाना चाहिए? (हाँ।) यदि तुम उन्हें शर्मिंदा नहीं करते हो, तो वे हमेशा सत्य को तुच्छ समझते रहेंगे, परमेश्वर में विश्वास करने वालों के साथ भेदभाव करेंगे, और वे सोचेंगे कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले केवल इसीलिए विश्वास करते हैं क्योंकि वे कमजोर होते हैं। तुम लोगों को उनकी बात का खंडन कैसे करना चाहिए? (यह कह कर : “तुम महज एक साधारण व्यक्ति हो। तुम्हारे पास ऐसा क्या है जिसके कारण तुम्हें हार मानने की आवश्यकता नहीं है? तुम्हारे लिए हार न मानना ठीक क्यों है? अगर कुछ लोग वैज्ञानिक भी हैं, तो क्या? वे जो वैज्ञानिक टेक्‍नोलॉजी विकसित करते हैं वह चाहे बहुत ही उन्नत हो, तो क्या? क्या वैज्ञानिक उन सभी आपदाओं को हल कर सकते हैं जो विज्ञान अब मानवजाति पर ले आया है?”) उनका खंडन करने का सही तरीका यही है। इसके बारे में सोचो, क्या उनकी बात का खंडन करने का यह एक अच्छा तरीका है? तुम कहो, “मानवजाति आज तक जीवित रही है, पर लोग तो यह भी नहीं जानते कि उनके पूर्वज कौन हैं, तो वे कैसे हार नहीं मान सकते? तुम यह भी नहीं जानते कि तुम कहाँ से आए हो, तो तुम्हारे पास अभिमानी होने के लिए ऐसा क्या है? तुम उस परमेश्वर को भी स्वीकार नहीं करते जिसने तुम्हें बनाया है, तो तुम हार कैसे नहीं मान सकते? परमेश्वर ने लोगों को बनाया, और यह इतने गौरव की बात है, किन्तु तुम इसे मानते या स्वीकार नहीं करते हो; बजाय इसके, तुम यह मान लेने और स्वीकार करने पर जोर देते हो कि लोग जानवरों से विकसित हुए हैं। तुम कितने ओछे हो? परमेश्वर बहुत शक्तिशाली और श्रेष्ठ है; वह कहता है कि वह तुम्हारा सृष्टिकर्ता है, लेकिन तुम यह स्वीकार नहीं करते हो कि तुम उसके सृजित प्राणी हो। तुम कितने घटिया हो?” वे क्या जवाब देंगे? “लोग बंदरों से विकसित हुए, पर हम अभी भी उच्च स्तर के पशु हैं।” “तो क्या तुम अभी भी जानवर और पशु नहीं हो? हम यह नहीं मानते हैं कि हम पशु हैं। हम मानव हैं, हम परमेश्वर द्वारा बनाए गए इंसान हैं। परमेश्वर ने लोगों को बनाया और वह स्वीकार करता है कि तुम एक व्यक्ति हो, लेकिन तुम एक व्यक्ति बनना नहीं चाहते हो। तुम इस तथ्य को नकारने पर जोर देते हो कि परमेश्वर ने लोगों को बनाया। तुम एक जानवर होने पर जोर देते हैं। तुम्हारे लिए जीवित रहने का क्या लाभ है? क्या तुम जीने के योग्य हो?” क्या इन शब्दों में दम है? (हाँ।) हम इन लोगों की बात का खंडन इस तरह करते हैं। चाहे वे इसे मानें या न मानें, या इसे स्वीकार करें या न करें, ये तथ्य हैं। मैं एक अन्य मुद्दे पर भी बात करूँगा। लोग कभी हार नहीं मानते, वे सोचते हैं कि वे इतने समर्थ हैं कि उनके पास उन्नत टेक्‍नोलॉजी और सभी प्रकार का ज्ञान है, लेकिन वे प्रकृति के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? वे लगातार इसके साथ लड़ते हैं और हमेशा इसे अपने अधीन कर लेना चाहते हैं। वे ज़रा भी नहीं समझते कि प्रकृति की व्यवस्था का पालन कैसे किया जाए। मानवजाति के प्रबंधन ने अंततः प्रकृति के साथ क्या किया? क्या इन सबका प्रबंधन उन लोगों के द्वारा नहीं किया जाता जो जानकार हैं और विज्ञान को समझने वाले हैं? क्या तुम हार मानने से इनकार नहीं करते? क्या तुम एक सक्षम व्यक्ति नहीं हो? क्या तुम्हें परमेश्वर की प्रभुता की कोई ज़रुरत नहीं है? हजारों वर्षों से मानवजाति और प्रकृति सह-अस्तित्व में हैं, फिर भी आश्चर्य की बात है कि मानवजाति अभी भी नहीं जानती कि प्रकृति का प्रबंधन कैसे किया जाए। मानवजाति प्रकृति का उस सीमा तक अति-विकास करती है, अति-भोग करती है, और उसे गंभीर रूप से प्रदूषित करती है कि अब प्राकृतिक संसाधनों की आपूर्ति तेजी से अपर्याप्त होती जा रही है। इसके अतिरिक्त, न तो वह पानी जिसे लोग पीते हैं, न ही वह अन्न जिसे वे खाते हैं, और न ही वह वायु जिसमें वे साँस लेते हैं, विष से मुक्त हैं। जब परमेश्वर ने पहली बार प्रकृति की, सभी जीवित प्राणियों की रचना की तो, अन्न, हवा और जल स्वच्छ थे और विष से मुक्त थे, परन्तु जब उसने प्रकृति का प्रबंधन मानवजाति को सौंप दिया, उसके बाद, इन सभी वस्तुओं को जहरीला बना दिया गया। लोगों को ही इन चीजों का “आनंद” लेना है। ऐसे में लोग हार कैसे नहीं मान सकते? परमेश्वर ने मानवजाति के लिए एक इतनी खूबसूरत दुनिया बनाई और उसे इसका प्रबंधन करने दिया, लेकिन उसने इसे कैसे प्रबंधित किया? क्या वह जानती है कि इसका प्रबंधन कैसे किया जाए? मानवजाति ने इसका इस सीमा तक दुरुपयोग किया कि यह सब पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया—महासागर, पहाड़, भूमि, वायु, और यहाँ तक कि आकाश की ओज़ोन परत, कुछ भी नहीं छोड़ा गया; वे सभी बर्बाद कर दिए गए। अंततः इन सब के खौफनाक नतीजों को कौन बर्दाश्त करेगा? (लोग।) खुद मानवजाति करेगी। लोग जितने बेवकूफ हो सकते थे उतने हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे महान हैं और वे हार नहीं मानते हैं! वे हार क्यों नहीं मानते? यदि मानवजाति को चीज़ों का प्रबंधन इसी तरह से करते रहने की अनुमति दी जाए, तो क्या प्रकृति अपने मूल स्वरूप में फिर से स्थापित हो जाएगी? यह कभी नहीं होगी। यदि मानवजाति हार न मानने की इस मानसिकता पर भरोसा करती रही, तो उसके प्रबंधन में विश्व और प्रकृति तेजी से उत्तरोत्तर बदतर, भयावह और दूषित होती जाएगी। अंतिम परिणाम क्या होंगे? मानवजाति का इसी परिवेश में दम घुट जाएगा जिसे खुद उसने बर्बाद किया। तो, आखिर यह सब कौन बदल सकता है? परमेश्वर बदल सकता है। यदि लोग ऐसा करने में सक्षम हों, तो उनमें से कोई एक आगे आ सकता है और दुनिया की इस हालत को बदलने की कोशिश कर सकता है, किन्तु क्या कोई है जो इस जिम्मेदारी को लेने का साहस रखता हो? (नहीं।) फिर लोग हार क्यों नहीं मानते? लोग उस पानी की भी रक्षा नहीं कर सकते जिसे वे पीते हैं। प्रकृति सिंहों या बाघों द्वारा बर्बाद नहीं हुई, पक्षियों, मछलियों या कीड़ों की बात तो दूर रही; बल्कि, यह स्वयं इंसान ही हैं जिसने इसे बर्बाद और नष्ट कर दिया। अंततः लोगों को वही काटना होगा जो वे बोते है। क्या अब चीजों को बदलने का कोई तरीका है? इन्हें बदला नहीं जा सकता। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यदि परमेश्वर इन सब कार्यों को करने के लिए नहीं आया, तो वह पर्यावरण जिसमें समस्त मानवजाति रहती है, उत्तरोत्तर केवल बदतर, और अधिक भयावह होता जाएगा; यह बेहतर नहीं होगा। केवल परमेश्वर ही यह सब बदल सकता है। अगर मानवजाति हार नहीं मानती है तो क्या यह ठीक है? क्या तुम इस पर्यावरण को बदल सकते हैं? तुम्हें एक अच्छा पर्यावरण दिया गया था, लेकिन तुम सिर्फ इसे बर्बाद कर सकते हो; तुम इसकी रक्षा नहीं करते हो। पूरे विश्व की खाद्य श्रृंखला क्या है? क्या मानवजाति इसे समझती है? नहीं, वो नहीं समझती। उदाहरण के लिए, भेड़िया एक शातिर जानवर होता है। यदि मानवजाति सभी भेड़ियों को मार डाले, तो वह सोचेगी कि उसने प्रकृति पर जीत हासिल कर ली है। एक ऐसे संकल्प, ऐसे मनोबल, और चुनौती का सामना करने की ऐसी मानसिकता के साथ, मानवजाति बड़े पैमाने पर भेड़ियों का शिकार करना शुरू कर देती है। जब लोग घासीय मैदानों के एक क्षेत्र में अधिकांश भेड़ियों को मार डालते हैं, तो मानवजाति सोचती है कि उसने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है और भेड़ियों की प्रजातियों पर जीत हासिल कर ली है। साथ ही, लोग अपने घरों में भेड़िये की खाल लटकाते हैं, भेड़िये की खाल से बने परिधान पहनते हैं, भेड़िये की खाल से बने टोपे पहनते हैं, और भेड़ियों के शावकों की खाल को अपने खंजर की नोक पर चढ़ाते हैं। वे तस्वीरें खींचते हैं, और पूरी दुनिया को बताते हैं, “हमने इस प्रजाति पर जीत हासिल की जो मानवजाति के लिए एक खतरा थी—भेड़ियों की प्रजाति!” क्या उनकी आत्म-संतुष्टि थोड़ी अपरिपक्व नहीं है? भेड़ियों के कम हो जाने से, बाहर से ऐसा लगता है कि इंसानों और कुछ अन्य जीवित प्राणियों के जीवन को खतरा नहीं रहा है, लेकिन इसके परिणाम क्या होंगे? मानवजाति को इसके लिए एक बड़ी कीमत चुकानी होगी। कौन-सी कीमत चुकानी होगी? जब बड़ी संख्या में भेड़िये मारे जाते हैं, तो भेड़ियों की संख्या घट जाती है। इसके तुरंत बाद, घास के मैदानों में सभी प्रकार के खरगोश, चूहे, सभी अन्य जानवर जिन्हें भेड़िये खाते हैं, बड़े पैमाने पर बढ़ने लगते हैं। जब इन जानवरों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, तो पहला परिणाम क्या होता है? (घास गायब हो जाती है।) घास उत्तरोत्तर कम होती जाती है। जब घास कम हो जाती है, तो भूमि पर वनस्पति का आवरण घटते जाता है। जब इन जानवरों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, तो उनके खाने के लिए बड़ी मात्रा में घास की ज़रुरत होती है, और जिस दर से घास उगती है वह शाकाहारी जानवरों की संख्या के अनुपात में नहीं होती। जब ये चीजें अनुपात में नहीं होती हैं, तो क्या होता है? (मरुस्थलीकरण।) हाँ, मरुस्थलीकरण। जब भूमि पर वनस्पति का आवरण नहीं होता है, तो यह रेत में बदलने लगती है और धीरे-धीरे यह जमीन एक रेतीला क्षेत्र बन जाती है। रेत में अधिकांश पौधे जड़ें नहीं डाल पाते या वृद्धि नहीं करते हैं, इसलिए रेतीली भूमि जल्दी से बढ़ने लगती है और उत्तरोत्तर फैलती जाती है, और अंततः घास के सारे मैदान रेगिस्तान बन जाते हैं। इसके बाद, जहाँ लोग रहते हैं उन क्षेत्रों पर रेगिस्तान अतिक्रमण करना शुरू कर देगा, और लोगों का सबसे पहला एहसास क्या होगा? संभव है कि जब लोग देखें कि रेगिस्तान का क्षेत्र बढ़ गया है तो उन्हें डर न लगे, परन्तु जब वह दिन आएगा कि एक रेतीला तूफान आए, तो मानवजाति को क्या नुकसान होगा? सबसे पहले, चारों ओर धूल उड़ेगी। फिर, जब तेज हवाओं का मौसम आएगा, तो इतनी रेत उड़ेगी कि लोग अपनी आँखें भी नहीं खोल सकेंगे। उनके शरीर रेत से ढक जाएँगे, और उनके मुंह रेत से भर जाएँगे। गंभीर मामलों में, रेगिस्तान के आस-पास के घर, पशुधन, या लोग रेत में समा सकते हैं। क्या लोग रेत को रोक सकते हैं? (नहीं।) वे इसे रोक नहीं सकते हैं, इसलिए उन्हें हट जाना होगा, अंदरूनी क्षेत्रों में दूर-दूर तक पीछे हटना होगा। अंततः, घास के मैदान उत्तरोत्तर छोटे होते जाएँगे, रेगिस्तान और भी बड़ा होता जाएगा, और वहाँ मानवजाति रह सके ऐसी जगह कम, और भी कम, होती जाएगी। तो, क्या वह परिवेश जिसमें लोग रहते हैं बेहतर होगा या बदतर? (बदतर।) यह परिणाम उन्हें क्यों भुगतना पड़ा? इसकी शुरुआत कैसे हुई? (भेड़ियों को मारने से।) यह तब शुरू हुआ जब उन्होंने भेड़ियों को मार दिया। यह एक इतनी छोटी-सी साधारण बात थी। यदि लोग यह नहीं समझते हैं कि इस व्यवस्था का पालन कैसे करें, और यह नहीं समझते कि इस व्यवस्था का बचाव कैसे करें, तो अंत में इसके परिणाम क्या होंगे? रेत से लोगों का सफाया हो जाएगा। क्या यह एक विनाशकारी आपदा नहीं है? भेड़ियों को मारना एक प्रकार का बर्ताव है, लेकिन इसके मूल में कैसा स्वभाव है? इस स्वभाव का सार क्या है? ऐसा करने के लिए उनकी अभिप्रेरणा क्या होती है? लोगों की सोच के कौन-से तरीके इस प्रकार के बर्ताव को जन्म देते हैं? (प्रकृति को वश में करने की चाहत।) यह सही है, वे इसे अपने वश में करना चाहते हैं। लोग सोचते हैं कि भेड़िये मानवजाति के कुदरती दुश्मन हैं। भेड़िये मानवजाति के लिए एक खतरा हैं और वे हमेशा लोगों को खा जाते हैं। भेड़िये अच्छे नहीं होते हैं। मानवजाति इस तरह से भेड़ियों की बुराई करती है, फिर उन्हें अपने अधीन करने और मिटा देने का प्रयास करती है ताकि एक भी भेड़िया न बचे। फिर, मानवजाति आराम से और चैन से रह सकती है और उसे बिल्कुल भी खतरा नहीं होगा। इसी अभिप्रेरणा के आधार पर लोग भेड़ियों को मारना शुरू करते हैं। यह किसके द्वारा तय हो रहा है? यह हार न मानने की मानसिकता से तय होता है। मानवजाति नहीं जानती कि भेड़ियों का ठीक से प्रबंधन या मानकीकरण कैसे किया जाए, और इसके बजाय वे हमेशा उन्हें मार डालना और उनका सफाया कर देना चाहते हैं। वे इस व्यवस्था को उलटकर एक दूसरी व्यवस्था बनाना चाहते हैं। परिणाम क्या है? लोग रेत से घिर जाते हैं। क्या यही परिणाम नहीं होता है? (बिल्कुल यही होता है।) परिणाम यही होता है। परमेश्वर द्वारा सृजित सम्पूर्ण मानवजाति और सम्पूर्ण विश्व में से, इस ग्रह के एक छोटे-से कोने में—जो शायद परमेश्वर की नज़रों में एक मूंगफली के दाने से भी बड़ा न हो—यह छोटी-सी एक घटना हुई, किन्तु लोग इसे स्पष्ट रूप से देख भी नहीं सकते हैं। वे अब भी प्रकृति से स्पर्धा करते हैं, परमेश्वर से होड़ लगाते हैं, और वे हार नहीं मानते! हार न मानने का क्या परिणाम होता है? (विनाश।) वे अपने विनाश को बुलावा दे रहे हैं! यह तथ्य ज्यों का त्यों है। इस परिणाम के सामने आने के आने के बाद, मानवजाति को इसे कैसे ठीक करना चाहिए? (वह इसे ठीक नहीं कर सकती।) वह इसे ठीक नहीं कर सकती। कुछ सामाजिक संगठन और भले लोग जो जनहित की गतिविधियाँ संचालित करते हैं, सामने आते हैं और एक संतुलित परितंत्र बनाए रखने के लिए लोगों से गुहार लगाते हैं। ऐसा करने के पीछे उनकी अभिप्रेरणा और कारण सही हैं, और वे जिसके लिए गुहार लगा रहे हैं वह भी सही है। लेकिन, क्या कोई जवाब देता है? (नहीं।) सरकार भी कार्रवाई नहीं करती—कोई भी इस मामले पर ध्यान नहीं देता है। लोग इस मुद्दे का कारण जानते हैं, लेकिन दर्शक बनकर इसे थोड़ा देख लेते हैं, बस। वे अब भी पहले की तरह भेड़ियों को मारते हैं। कोई कहता है, “यदि तुम उन्हें इस तरह मारते रहोगे, तो एक दिन तुम रेत में दफन हो जाओगे,” लेकिन वे जवाब देते हैं, “तो ठीक है, मैं दफन हो जाऊँगा, पर ऐसा नहीं है कि केवल मैं अकेला ही दफन होऊँगा। इसमें डरने की क्या बात है?” यह कैसा स्वभाव है? जड़ता वाला और सोच की कमी वाला; उनमें इंसानियत नहीं है। मरने से कौन नहीं डरता? तो वे ऐसी तुच्छ बात कैसे कह सकते हैं? वे नहीं मानते कि ऐसा कुछ होगा। वे सोचते हैं, “पृथ्वी बहुत बड़ी है। रेगिस्तान के अलावा पहाड़ और जंगल हैं। क्या वे सभी इतनी जल्दी नष्ट हो सकते हैं? अभी भी बहुत समय बाक़ी है! हमने अभी कुछ भेड़ियों को मार डाला और कुछ स्थान मरुस्थल बन गए, और तुम इतने भयभीत हो गए? अगर उन्हें मारना चाहिए, तो हमें उन्हें मारना ही होगा।” क्या यह जड़ता नहीं है? उन्होंने कुछ भेड़ियों को मार डाला, और केवल बीस या तीस वर्षों के बाद, हरे घास के मैदान का एक बड़ा भू-भाग पूरी तरह से बदल गया। यदि लोग इस जमीन पर घास के कुछ बीज बिखेर देते या ऐसे पौधे लगाते जो रेगिस्तान में पनप सकते हैं—यदि वे इस वातावरण को बदल देते, तो मानवजाति ने अपनी ग़लतियों की क्षतिपूर्ति कर ली होती और बहुत देर नहीं हुई होती, परन्तु क्या यह हकीकत में इतना आसान है? परमेश्वर ने जो व्यवस्था बनाई है वह सर्वोत्तम है और सबसे सही है। धरती के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए लोगों को इस व्यवस्था का पालन करना होगा, ताकि ये जानवर, पौधे और मानवजाति इस धरा पर रहना जारी रख सकें, जिससे हर प्राणी विशेष रूप से अच्छी तरह से रह सके, और इस तरह से सह-अस्तित्व की भावना से रह सके जो पारस्परिक रूप से संयमित और सहजीवी, दोनों हो। यदि इस व्यवस्था का एक हिस्सा नष्ट हो जाता है, तो मुमकिन है कि तुम दस साल में कोई परिणाम न देखो, लेकिन बीस साल बाद जब तुम वास्तव में परिणामों का अनुभव करोगे, तो कोई भी इसे पूर्ववत नहीं कर पाएगा। इसका क्या अर्थ है? यह कि यदि परमेश्वर बड़े पैमाने पर परिवर्तन नहीं करता है, तो उसके बाद जिस पर्यावरण में मानवजाति अभी रहती है, वह उत्तरोत्तर बदतर ही होता जाएगा; यह एक अच्छी दिशा में विकसित नहीं होगा। इसका परिणाम यही होगा। इस परिणाम का स्रोत क्या है? इसका स्रोत मानवजाति की हार न मानने की मानसिकता है जिसकी मानवजाति प्रशंसा करती है, जो कि अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति है। जिस तरह से लोग इसे देखते हैं, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना एक “महान” और “पवित्र” कहावत है, लेकिन इससे उत्पन्न विचार का मानवजाति पर पहला प्रभाव उस पर ऐसे बड़े नकारात्मक परिणाम का आना है। लोग सोचते हैं, “क्या प्राकृतिक दुनिया के लिए कोई व्यवस्था नहीं है? मुझे तो कुछ ख़ास नहीं लग रही है। क्या लोग यह नहीं कहते हैं कि यह पवित्र है और इसे नष्ट नहीं करना चाहिए? जो भी हो, मैं इसे नष्ट करने जा रहा हूँ, और हम देखेंगे कि क्या होता है!” मानवजाति आज जिस नकारात्मक परिणाम का “आनन्द” ले रही है, उसे लोग कभी देखना नहीं चाहते हैं। “जो होता है उसे देख लेंगे” का परिणाम यही होता है; यह मानवजाति के देखने के लिए सामने ही रखा है। हर किसी ने “अंतिम समय” के दृश्यों को देखा है। क्या उन्हें वही नहीं मिला जिसके वे योग्य थे? इसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं।

अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति हार नहीं मानना है। लोगों को इसके क्या परिणाम भुगतने होंगे? एक विनाशकारी आपदा; वे अपने कार्यों के नकारात्मक परिणामों की फसल काट रहे हैं—आम बोलचाल की भाषा में कहूँ तो, उन्हें वही मिल रहा है जो उन्होंने मांगा था, और वही मिल रहा है जिसके वे योग्य हैं! अब तुम जानते हो कि क्या यह वाक्यांश वास्तव में सही है, और क्या यह सत्य है, है ना? क्या यह वाक्यांश सत्य है? (नहीं।) यह सत्य नहीं है। मान लो, अविश्वासी फिर से कहते हैं, “हम इंसान हैं, इसलिए हमारे पास कुछ जोश होना चाहिए। हमारे पास दृढ़ता होनी चाहिए!” तुम इस पर विचार करते हो और कहते हो, “यह कितना सच है। विश्वासियों के रूप में हम हमेशा समर्पण की बात करते हैं। क्या उसमें स्वायत्तता का बहुत अभाव नहीं है? क्या यह बहुत कमजोर नहीं है? हमारे पास कोई दृढ़ता नहीं है।” क्या तुम ऐसा सोचते हो? जो बातें मैंने आज कही, यदि तुम लोग उन्हें स्वीकार करते हो तो तुम लोग कभी भी इस तरह से नहीं सोचोगे। इसके विपरीत तुम कहोगे, “मानवजाति की बेहतरी की कोई उम्मीद नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर इंसानों से घृणा करता है। मानवजाति पहले ही तर्क करने की सीमा को पार कर चुकी है।” तुम इस तरह के विचार को स्वीकार नहीं करोगे। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास एक उपयुक्त प्रत्युत्तर न हो, या इन लोगों के साथ बहस करना उचित न हो, तो भी तुम्हें यह पता है कि उनके विचार कतई सत्य नहीं हैं। चाहे लोग इस तरह के विचार को कितना ही सकारात्मक मानें, और चाहे इस दुनिया के इंसान इसकी कितनी ही पैरवी करें, और इस पर चर्चा करें, तुम इससे प्रभावित नहीं होगे। इसके विपरीत, तुम इसे त्याग दोगे और इसका तिरस्कार करोगे। मैंने अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की पहली अभिव्यक्ति पर संगति समाप्त कर ली है। मैंने सत्य पर संगति करना शुरू किया था, मैं विषय से कैसे भटक गया? मैं जो सोचता हूँ वह यह है : यदि मेरी संगति से तुम जो कुछ भी लेते हो वह एक परिभाषा या अवधारणा तक ही सीमित है, तो तुम लोग कभी नहीं समझोगे कि इस विचार के सही और गलत भाग कौन-से हैं। तुम बस इनमें उलझ जाओगे—कभी तो तुम सोचोगे कि इस तरह का विचार सही है; कभी सोचोगे कि इस तरह का विचार गलत है, लेकिन तुम इस मुद्दे पर स्पष्ट नहीं होगे कि इसमें क्या गलत है या क्या सही। साथ ही, तुम अक्सर इस “सिद्धांत” के अनुसार अभ्यास करोगे, और तुम हमेशा भ्रमित रहोगे। यदि तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हो, तो तुम इस तरह के विचार को त्याग नहीं पाओगे। यदि तुम इसे त्याग नहीं सकते, तो क्या तुम पूरी तरह से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के वचनों की सत्य के रूप में आराधना, और उनका अनुपालन, कर सकते हो? नहीं, बिल्कुल नहीं। तुम केवल अपेक्षाकृत रूप से या कभी-कभार ही यह सोच पाओगे कि परमेश्वर के वचन सही हैं या यह कि परमेश्वर के वचन सदैव सही हैं, और तुम सिद्धांत के संदर्भ में इसका समर्थन करोगे। परन्तु यदि तुम अभी भी इस तथाकथित ज्ञान से, और इन बातों से जो सच्चाई लगती तो हैं किन्तु वास्तव में मिथ्या हैं, प्रभावित और परेशान हो, तो परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिए हमेशा अपेक्षाकृत सही ही होंगे, वे परम सत्य नहीं होंगे।

ख. अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना

अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की दूसरी अभिव्यक्ति अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना है। अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना भी एक तरह की सोच है, एक मानसिकता है और उन चीजों के प्रति एक रवैया है जिनकी सांसारिक लोग हिमायत करते हैं। समाज और दुनिया में, यह सोचने का एक तरीका है जो अपेक्षाकृत सकारात्मक है, और जिसके बारे में मानवजाति सोचती है कि यह अपेक्षाकृत आशावादी, भविष्य की ओर प्रेरित और सकारात्मक है। तो वह क्या है जिसका हम गहन-विश्लेषण करना चाहते हैं? अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में क्या बुरा है? यह सत्य क्यों नहीं है? इसका मूल रूप से सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जब मैं कहता हूँ कि इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, तो मेरे कहने का क्या अर्थ है? मेरे कहने का यह अर्थ है कि अगर तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, तो तुम्हें इसे पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों और विवरणों के अनुसार करना चाहिए। तुम्हें इसमें चीजों को करने के प्रति रवैयों और राय को, और मनुष्य की तथाकथित विचारधाराओं, मानसिकताओं और सत्यनिष्ठा के तरीकों और साधनों को नहीं मिलाना चाहिए। परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, और उनका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। तो फिर अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना बुरा क्यों है? मैं क्यों कहता हूँ कि यह सत्य नहीं है? क्या यह गहन-विश्लेषण करने योग्य नहीं है? (हाँ, है।) चलो हम शुरूआत इस वाक्यांश का शाब्दिक अर्थ समझाने से करते हैं; फिर इसे समझना आसान हो जाएगा। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अर्थ है अपनी जिम्मेदारियों, दायित्वों, या तुम जिस ध्येय को हाथ में लेते हो और स्वीकार करते हो, उसकी खातिर सब शर्म, दर्द और तिरस्कार सहने में समर्थ होना। यही इस वाक्यांश का मूल अर्थ है। तो, आम तौर पर इस वाक्यांश का उपयोग किन परिवेशों और परिस्थितियों में किया जाता है? अगर कोई कहता है कि कोई व्यक्ति अपमान सह रहा है और भारी दायित्व उठा रहा है, तो क्या वह व्यक्ति फिलहाल किसी ऐसी परिस्थिति में है जहाँ उसका ध्येय पूरा हो गया है, और उसने वह लक्ष्य हासिल कर लिया है जिसे वह हासिल करना चाहता था? (नहीं।) इसलिए, आम तौर पर जब कोई अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की बात करता है, तो वह किसी ऐसे मामूली व्यक्ति की बात कर रहा होता है जो ऐसी परिस्थिति में है जहाँ उसके पास कोई रुतबा नहीं है, कोई प्रभामंडल नहीं है, कोई शक्ति होने की तो बात ही छोड़ दो। वह इस तरह की परिस्थिति में है, फिर भी उसे अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी हैं, वह ध्येय संभालना है जिसे उसे पूरा करना है, निराश नहीं होना है, समझौता नहीं करना है और हार नहीं माननी है। क्या यह भी एक तरह की मानसिकता नहीं है? इस मानसिकता का जोर किस पर है? यह “सहने” और “उठाने” पर है। “सहने” का अर्थ है धैर्य रखना और किसी चीज को बर्दाश्त करना। कुछ सहने के साथ-साथ, उसे एक भारी दायित्व और जिम्मेदारी लेकर उसे पूरा भी करना चाहिए, सभी की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहिए, और जिस व्यक्ति ने उसे यह कार्य सौंपा है उसे निराश नहीं करना चाहिए। यह किस तरह की मानसिकता है? (दृढ़ता की मानसिकता।) इसके अर्थ में यह तत्व मौजूद है, लेकिन यह अर्थ का सबसे मूलभूत और सतही स्तर है। यहाँ और क्या है? चलो इसका इस तरह से गहन-विश्लेषणकरें। “अपमान सहना” में “अपमान” का क्या अर्थ है? (तिरस्कार और शर्म।) यह तब होता है जब इस व्यक्ति के आसपास के सभी लोग उसे शर्मिंदा करते हैं और उसे यह महसूस करवाते हैं कि उसने तिरस्कार सहा है। खास तौर पर कौन-से व्यवहार लोगों को शर्मिंदा करते हैं और उन्हें यह महसूस करवाते हैं कि उन्होंने तिरस्कार सहा है? (उन्हें चिढ़ाना, उन्हें बदनाम करना और उनके बारे में कड़वी टिप्पणियाँ करना।) सही कहा, उन्हें चिढ़ाना और उन्हें बदनाम करना, साथ ही, उनका मजाक उड़ाना, उनसे खिलवाड़ करना और उनके बारे में कड़वी टिप्पणियाँ करना। तो, “भारी दायित्व उठाना” में “भारी दायित्व” का क्या अर्थ है? (जिम्मेदारी और आदेश।) जिम्मेदारी और आदेश में क्या शामिल है? इनमें एक किस्म का ध्येय और भारी बोझ शामिल है—यह भारी बोझ वह हो सकता है जिसे दूसरे लोगों ने किसी को सौंपा हो, या यह कोई ऐसा लक्ष्य हो सकता है जिसके लिए वह लड़ रहा हो, या कोई ध्येय हो सकता है जिसे वह खुद सोचता हो। लोग किस किस्म के ध्येय पूरे करने के बारे में सोचते हैं? (भीड़ से ऊपर उठना और अपने पूर्वजों का नाम करना।) (सर्वश्रेष्ठ बनना।) ये सभी उदाहरण हैं। ये मूल रूप से लोगों की अपनी आकांक्षाएँ हैं। इन लक्ष्यों को हासिल और साकार करने के लिए, वे अपनी मौजूदा परिस्थितियों में, अपने आसपास के लोगों से तिरस्कार, मजाक, बदनामी, कड़वी टिप्पणियाँ और यहाँ तक कि ताने भी सहने में समर्थ होते हैं। उन्हें यह सब सहने के लिए क्या प्रेरित करता है? मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति है जो वरिष्ठ सेनापति बनने की आकांक्षा रखता है। शक्ति हासिल करने से पहले की बात है, एक दिन डाकुओं का एक गिरोह उसे अपमानित करता है, और उससे कहता है, “तुम? और एक सेनापति? इस समय तो तुम्हारे पास एक घोड़ा तक नहीं है—तुम सेनापति कैसे बन सकते हो? अगर तुम सेनापति बनना चाहते हो, तो पहले मेरी टाँगों के बीच से रेंगकर जाओ!” उसके साथ खड़े सभी लोग ठहाका लगाकर हँसने लगते हैं। वह एक पल के लिए सोचता है, “सेनापति बनने की इच्छा रखने में कुछ भी गलत नहीं है। वे मुझे ताने क्यों देते हैं और मेरा मजाक क्यों उड़ाते हैं? लेकिन अभी मैं लापरवाह बनकर अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन नहीं कर सकता। आज चीजें जिस तरह से हो रही हैं, उन्हें देखते हुए, अगर मैंने इनके कहे अनुसार कार्य नहीं किया तो मुझे पीटा जाएगा और अगर मामला बिगड़ गया तो मैं अपनी जान भी गँवा सकता हूँ। फिर मैं सेनापति कैसे बन पाऊँगा? अपने आदर्शों की खातिर, एक डाकू की टाँगों के बीच से रेंगना कुछ भी नहीं है। मैं अब भी वही हूँ, है ना?” फिर, वह अपने घुटनों के बल बैठ जाता है, दोनों हाथों को जमीन पर रखता है, और एक कुत्ते की तरह चलते हुए उस डाकू की टाँगों के बीच से रेंगने लगता है। जब वह रेंगता है, तो उसके दिल के लिए इसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल हो जाता है, और उसके दिल को गहरी चोट पहुँचती है, मानो उसमें किसी ने चाकू घोंप दिया हो—उसका दिल नफरत से भर जाता है! वह सोचने लगता है, “एक दिन जब मैं सच में सेनापति बन जाऊँगा, तो मैं तुम्हें काटकर तुम्हारे लाखों टुकड़े कर दूँगा!” वह अपने दिल में यह बात सोचता है, लेकिन बाहर से उसे इसे सहना पड़ता है—वह दूसरों को यह नहीं दिखा सकता है कि वह क्या सोच रहा है। जब वह उस डाकू की टाँगों के बीच से रेंग लेता है, तो डाकुओं का गिरोह संतुष्ट हो जाता है और उसे बख्श देता है, और एक तेज लात मारकर उसे रास्ते से हटा देता है। वह उठ खड़ा होता है, खुद पर लगी मिट्टी को झाड़ता है, और यह भी कहता है, “अच्छी लात थी। अब से मैं तुम्हें ‘साहब’ कहकर बुलाऊँगा।” वह अपने भीतर जो सोचता है और बाहर जो दिखाता है, दोनों चीजें पूरी तरह से अलग हैं। वह ऐसा कैसे कर पाता है? उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य है : “मुझे जिंदा बचे रहना होगा। मैं यह सबकुछ इसलिए सह रहा हूँ ताकि वह दिन आए जब मैं सेनापति बन जाऊँ, और सर्वश्रेष्ठ बन जाऊँ। उसके लिए आज यह कष्ट और अपमान सहने योग्य हैं। कल मुझे और ज्यादा मेहनत करनी होगी और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रयास करने होंगे। चाहे मुझे कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करना पड़े, और चाहे मुझे कितना भी कष्ट और तिरस्कार क्यों ना सहना पड़े, मुझे सेनापति बनना ही होगा! सेनापति बनने के बाद, सबसे पहले चीज जो मुझे करनी है वह है इस बदमाश को मारना और अपनी टाँगों के बीच से रेंगवाकर उसने मुझे जो अपमानित किया था, उसका हिसाब बराबर करना!” भविष्य में चाहे वह सेनापति बने या ना बने, उस पल “सहनशक्ति” उसका सर्वोच्च सिद्धांत है। क्या इसमें कोई रणनीति या गुप्त योजना निहित है? (हाँ, है।) यहाँ गुप्त योजनाएँ हैं। वह इसलिए सहता है क्योंकि वह कुछ और नहीं कर सकता है; यह किसलिए है? यह इसलिए है ताकि एक दिन वह इस सारे तिरस्कार का हिसाब बराबर कर सके। उसकी सहनशक्ति ऐसी कहावतों पर आधारित है कि “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है” और “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या”—ये सब योजनाएँ हैं। इन्हीं योजनाओं ने उसे उस डाकू की टाँगों के बीच से रेंगने का अपमान सहने के लिए प्रेरित किया। उस पल से, उसके दिल में सेनापति बनने की इच्छा और बढ़ जाती है, और प्रबल हो जाती है; वह बिल्कुल भी हार नहीं मानेगा। तो, वह क्या था जिसके लिए उसने वह तिरस्कार और अपमान सहा? क्या यह किसी उचित उद्देश्य को बनाए रखने के लिए था या सच्ची गरिमा को बनाए रखने के लिए था? यह उसने अपनी महत्वाकांक्षा की खातिर किया। फिर यह सकारात्मक है या नकारात्मक? (नकारात्मक है।) अर्थ के इस स्तर को देखते हुए, यह “सहनशक्ति” पूरी तरह से व्यक्तिगत रुचि, इच्छा और महत्वाकांक्षा से प्रेरित थी। क्या इस सहनशक्ति के भीतर सत्य है? (नहीं है।) अगर यहाँ सत्य नहीं है, तो क्या यहाँ सामान्य मानवता है? (नहीं है।) यह उचित नहीं है, और ना ही यह सच्चा है, निष्कलंक होने की तो बात ही छोड़ दो; बल्कि, यह इच्छा, गुप्त योजनाओं और हिसाबों से लबालब भरा हुआ है—यह सकारात्मक नहीं है।

इस दुष्ट मानवजाति में अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जिस सोच और मानसिकता की हिमायत की जाती है, वह मूल रूप से ठीक उसी कहानी की तरह है जो मैंने अभी-अभी सुनाई, जहाँ अगर कोई व्यक्ति बड़ी चीजें हासिल करना चाहता है, तो उसे वह चीज सहन करने में जरूर समर्थ होना चाहिए जो औसत व्यक्ति सहन नहीं कर सकता है। यह सहनशक्ति मुख्य रूप से किस बारे में बात करती है? (शर्मिंदगी सहने के बारे में।) नहीं। यह सहनशक्ति लोगों को जिन चीजों को जीने के लिए मजबूर करती है, वे सच्ची हैं या झूठी हैं? (झूठी हैं।) यही महत्वपूर्ण बिंदु है। लोग अपनी महत्वाकांक्षाओं और आदर्शों की खातिर जिन चीजों को जीते हैं, जो शब्द बोलते हैं, और जो व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, वे सभी झूठी हैं, वे सभी अनैच्छिक हैं; ये चीजें इन सभी इच्छाओं, स्वार्थ और लोगों की तथाकथित आकांक्षाओं और लक्ष्यों की पूर्व-शर्त से प्रेरित हैं। ये चीजें जिन्हें लोग जीते हैं, वे सभी अस्थायी उपाय हैं; इनका एक भी अंश ईमानदार या सच्चा नहीं है; एक भी अंश उजागर किया हुआ, खुला या स्पष्ट नहीं है; ये सभी अस्थायी उपाय हैं। क्या ये सभी धूर्त साजिशें नहीं हैं? अस्थायी उपाय तब होते हैं जब लोग इस तरीके से अस्थायी रूप से किसी चीज को सहते हैं; अस्थायी रूप से सुखद लगने वाले शब्द कहते हैं, चापलूसी कर ते हैं, और धोखा देते हैं; और थोड़ी देर के लिए अपनी असली पहचान, मानसिकता, विचारों, राय और यहाँ तक कि नफरत को भी छिपाते हैं, और दूसरे व्यक्ति को इसे नहीं देखने देते हैं। बल्कि, वे चाहते हैं कि दूसरा व्यक्ति उनका वह पक्ष देखे जो कमजोर और अक्षम है, अशक्त और बुजदिल है। वे अपना असली चेहरा पूरी तरह से छिपा लेते हैं—वे ऐसा किसलिए करते है? वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि एक दिन वे कोई बड़ा उद्देश्य पूरा कर सकें, सर्वश्रेष्ठ बन सकें, दूसरों को नियंत्रित कर सकें और दूसरों पर अपना दबदबा बना सकें। जब लोग “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” वाक्यांश का अभ्यास और उसकी अभिव्यक्ति करते हैं तो क्या प्रदर्शित होता है? क्या ऐसा करने वाले लोगों में ईमानदार रवैया होता है? क्या उन्हें अपने बारे में सही समझ और अपने लिए पश्चात्ताप होता है? (नहीं।) मिसाल के तौर पर, दूसरे लोग कहते हैं, “तुम जैसा व्यक्ति सेनापति बनना चाहता है?” वे इस बारे में सोचते हैं, फिर कहते हैं, “मैं यह नहीं कर सकता। मैं सेनापति नहीं बनूँगा। मैं तो सिर्फ मजाक कर रहा था।” क्या उनके द्वारा कहे गए शब्द सच हैं या झूठ हैं? (झूठ हैं।) वे अपने दिल में क्या सोच रहे हैं? “सिर्फ मेरे जैसा ही कोई सेनापति बन सकता है!” वे अपने दिल में यही सोचते हैं, लेकिन क्या उनके लिए यह जोर से कहना ठीक है? (नहीं।) क्यों नहीं? पीटे जाने से बचने के लिए, और अपनी असली क्षमताओं को छिपाने के लिए, वे कहते हैं, “मैं तो सिर्फ मजाक कर रहा था। मैं इतना दबंग नहीं हूँ कि सच में सेनापति बनना चाहूँ। तुम तो वरिष्ठ सेनापति की तरह हो—तुम भविष्य के प्रधान सेनापति हो। वह सेनापति से भी ऊँचा ओहदा होता है!” क्या ये शब्द सच हैं? (नहीं।) उनके सच्चे शब्द कहाँ हैं? (उनके दिल में हैं।) सही कहा, वे अपने सच्चे शब्दों को अपने दिल में रखते हैं और उन्हें जोर से नहीं कहते हैं। वे उन्हें जोर से क्यों नहीं कहते हैं? वे डरते हैं कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो उन्हें पीटा जाएगा, इसलिए वे उन्हें नहीं कहते हैं, और उन्हें प्रकट नहीं करते हैं; वे किसी को पता लगने नहीं देते हैं, और अपनी वास्तविक क्षमताओं को हमेशा के लिए छिपा लेते हैं। अपनी वास्तविक क्षमताओं को छिपाने का क्या अर्थ है? यह तब होता है जब कोई व्यक्ति दूसरों को अपनी वास्तविक क्षमताएँ नहीं देखने देता है; वह इन क्षमताओं को ढक लेता है और गलती से भी उन्हें दूसरों के सामने प्रकट नहीं होने देता है, ताकि दूसरे लोग सतर्क ना हो जाएँ और उसके हितों के विपरीत कार्य ना करें। क्या यह भी अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने का सही अर्थ नहीं है? (हाँ, है।) अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना; अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना; अपने लक्ष्यों, इच्छाओं और नफरत को कभी नहीं भूलना; और लोगों को कभी भी अपना असली चेहरा और वास्तविक क्षमताएँ नहीं देखने देना। कुछ समर्थ लोग जब लोगों के समूह में होते हैं तो ज्यादा कुछ नहीं कहते हैं; वे शांत और मितभाषी होते हैं, और अगर वे कुछ कहते भी हैं, तो वे जो सोच रहे होते हैं, उसका आधा भाग ही प्रकट करते हैं। दूसरे लोग हमेशा यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि वे सच में क्या कहना चाहते हैं, और सोचते हैं, “वे इतने रहस्यमय तरीके से क्यों बात करते हैं? दिल से कुछ कहना इतना मुश्किल क्यों है? यहाँ क्या चल रहा है?” दरअसल, उनके दिल में ऐसे विचार हैं जिन्हें वे अभिव्यक्त नहीं कर रहे हैं, और इसमें एक भ्रष्ट स्वभाव निहित है। दूसरे लोग हैं जो इस तरह से बात नहीं करते हैं, लेकिन जब वे चीजें करते हैं, तो वे अपनी क्षमताओं की वास्तविक हद को हमेशा छिपा लेते हैं। अपनी क्षमताओं की वास्तविक हद को छिपा लेने में उनका क्या लक्ष्य है? वे डरते हैं कि अगर समर्थ लोग या शक्तिशाली शख्सों ने इसे देखा, तो उन्हें ईर्ष्या होगी, वे उनसे वैर-भाव रखेंगे और उन्हें नुकसान पहुँचाएँगे। समूहों में, जो लोग हमेशा दूसरों की तारीफ करते हैं, हमेशा दूसरों के बारे में अच्छा बोलते हैं, और हमेशा यह कहते हैं कि बाकी सभी उनसे बेहतर है, क्या सबसे बुरे किस्म के लोग नहीं होते हैं? (हाँ, होते हैं।) तुम यह कभी नहीं जान पाते हो कि वे भीतर से सच में कैसे हैं। बाहर से, तुम देखते हो कि वे इस बारे में बात नहीं करते हैं, इसलिए तुम्हेंलगता है कि उनकी महत्वाकांक्षाएँ नहीं हैं, लेकिन दरअसल तुम गलत हो। इस तरह के कुछ लोग वे लोग हैं जो अपमान सहते हैं और भारी दायित्व उठाते हैं। यह वैसा ही है जैसा फिल्मों में होता है, जहाँ अक्सर इस तरह के दृश्य होते हैं—कुछ लोग जब घर से बाहर होते हैं तो अक्सर अच्छी-अच्छी चीजें करते हैं, वे जो कपड़े पहनते हैं वे फटे-पुराने होते हैं, और जब वे समूह में होते हैं तो उन्हें हमेशा परेशान किया जाता है; वे दूसरों के सामने ऐसे ही रहते हैं। लेकिन, अपने घर पहुँचते ही वे एक गुप्त कमरे में चले जाते हैं। इस गुप्त कमरे की दीवार पर एक नक्शा होता है, और उन्होंने नक्शे पर मौजूद अस्सी प्रतिशत जगहों पर चीजों की निगरानी करने के लिए पहले से ही खबरी तैनात कर रखे होते हैं। फिर भी, जो लोग अक्सर उनसे बातचीत करते हैं, वे अब भी उन्हें परेशान करते हैं और उन्हें बिल्कुल पता नहीं होता है कि उनकी ये महत्वाकांक्षाएँ हैं। एक दिन जब नक्शे पर मौजूद सभी जगह उनके नियंत्रण में आ जाएँगी और उनका लक्ष्य पूरी तरह हासिल हो जाएगा, तो उन्हें परेशान करने वाले लोग पूरी तरह हैरत में पड़ जाएँगे, और कहेंगे “पता चला है कि यह व्यक्ति दुष्ट है—उसकी महत्वाकांक्षाएँ बहुत ही ज्यादा हैं! उसने इतने वर्षों से दिखावा किया। कोई भी उसकी वास्तविक प्रकृति को पहचान नहीं पाया।” वे कहते हैं, “मैंने जो किया वह अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना था। अगर मैंने उस तरीके से नहीं सहा होता जैसे मैंने सहा और तुम लोगों को गुमराह नहीं किया होता, अगर मैंने तुम लोगों को सब कुछ बता दिया होता, तो क्या मैं इतना बड़ा कार्य पूरा कर पाता?” वे कौन-सी विशेषताएँ हैं जो बुरे लोगों और बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षाओं वाले लोगों, दोनों ही में होती हैं? एक पहलू यह है कि आम लोगों की तुलना में उनमें आंतरिक बल और दृढ़ता बहुत ज्यादा होती है। साथ ही, आम लोगों की तुलना में उनकी गुप्त योजनाएँ बहुत ज्यादा होती हैं और अगर औसत व्यक्ति उनसे बातचीत करता है, तो वे उसकी आँखों में धूल झोंक सकते हैं। आँखों में धूल झोंकने का क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि कोई भी उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं देखता है। लोगों को सिर्फ वही चीजें दिखाई देती हैं जिन्हें वे ऊपर से कहते हैं और करते हैं। ऐसा मत सोचो कि उनकी कथनी और करनी से तुम इस बात का कोई सुराग ढूँढ पाओगे कि वे अपने दिल की गहराइयों में क्या सोच रहे हैं। क्या यह उनके द्वारा आँखों में धूल झोंका जाना नहीं है? आंतरिक बल और दृढ़ता अपने आप में सकारात्मक शब्द हैं, लेकिन उनकी गुप्त योजनाओं ने उनके आंतरिक बल और दृढ़ता को नकारात्मक बना दिया। साथ ही, उनमें ऐसी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं, जो आम लोगों की तुलना में बहुत ही ज्यादा हैं। औसत व्यक्ति में महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, लेकिन जब उन्हें लगता है कि वे किसी चीज को हासिल नहीं कर सकते हैं, तो वे हार मान लेते हैं और उस कष्ट से गुजरने के इच्छुक नहीं होते हैं। इसके अलावा, वे हमेशा इस बारे में बेबाक होते हैं कि वे किससे लड़ना चाहते हैं; उनके पास कोई गुप्त योजना नहीं होती है। लेकिन, इस किस्म के कुकर्मियों की महत्वाकांक्षाएँ बहुत ज्यादा होती हैं, और वे हमेशा गुप्त योजनाओं और धोखेबाज साजिशों को अंजाम देते हैं। वे किसी भी समय अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं का त्याग नहीं करेंगे; वे बिल्कुल अंत तक लड़ेंगे—मरते दम तक लड़ेंगे।

पाठ्यपुस्तकों में यह कहानी बताई गई है कि कैसे यू राज्य के राजा गौजियन अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोते थे और पित्त चाटते थे। माता-पिता भी अपने बच्चों को इस बारे में सिखाते हैं। कहानी सुनने वाले कुछ बच्चे सोचते हैं, “औसत व्यक्ति होना बहुत ही अच्छा है। लोगों के लिए इतनी ज्यादा महत्वाकांक्षाएँ होना नितांत जरूरी क्यों है? कौन अपमान के जख्म हरे रखने के लिए खुद को सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने का कष्ट दे सकता है? यह वह कष्ट नहीं है जिसे आम लोग बर्दाश्त कर सकें।” सिर्फ महत्वाकांक्षाओं वाले लोगों में ही इस तरह से कष्ट सहने का संकल्प होता है; इसमें एक गुप्त योजना अंतर्निहित है। लेकिन, मानवजाति इस किस्म की मानसिकता की हिमायत करती है। मिसाल के तौर पर, एक कहावत है कि “लोगों को चाहे कितना भी कष्ट और तिरस्कार क्यों ना सहना पड़े, उनकी परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी भयानक क्यों ना हों, उन्हें अपनी आकांक्षाओं को कभी नहीं भूलना चाहिए।” यह समाज लोगों को अपनी खुशी और लक्ष्यों के लिए लड़ने हेतु प्रोत्साहित और प्रेरित करने के लिए अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने, और अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने जैसे विचारों की हिमायत करता है, तो हम इसे गलत मानकर इसकी आलोचना क्यों करते हैं? सारी मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट हो गई है। क्या मानवजाति का ऐसा कोई सदस्य है जिसके उद्देश्यों का लक्ष्य सत्य की तरफ है, और सही दिशा में है? (नहीं।) इसलिए, मानवजाति अपमान के जख्म हरे रखने के लिए जितना ज्यादा सूखी लकड़ी पर सोएगी और पित्त चाटेगी, और जितना ज्यादा वह अपमान सहेगी और भारी दायित्व उठाएगी, शैतान की सेना उतनी ही हिंसक होती जाएगी, मानवजाति की लड़ाइयों और नरसंहारों की संख्या उतनी ही बढ़ती जाएगी, मानवजाति उतनी ही ज्यादा दुष्ट होती जाएगी, और समाज उतना ही ज्यादा अंधकारमय होता जाएगा। इसके विपरीत, अगर तुम स्वर्ग की व्यवस्थाओं का पालन करने में और खुद को हर चीज की प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप बनाने में समर्थ हो, अगर तुम चीजों को वैसे ही स्वीकार करने में समर्थ हो जैसे वे आती हैं, इस व्यवस्था का सम्मान करने और स्वर्ग की व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करने में समर्थ हो, तो तुम्हें अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें जागृत होने और अपने होश में आने की जरूरत है। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में समर्थ होना सही है। इसके अलावा, लोग जो कुछ भी करते हैं, उसे कम से कम अपने जमीर के अनुसार करने में लोगों को समर्थ होना चाहिए, और एक कदम और ऊँचा उठकर, उसे परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए निर्धारित नियमों के अनुसार करने में लोगों को समर्थ होना चाहिए। तो, क्या अब भी लोगों को मुखौटा पहनने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं हैं।) नहीं, उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। इस संगति के माध्यम से, क्या तुम लोगों को समझ आया है कि अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना वास्तव में किस किस्म का व्यवहार है? अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का लक्ष्य सकारात्मक है या नकारात्मक है? (नकारात्मक है।) अगर कोई यह कहे कि कोई व्यक्ति अगुआ बनने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है, या यह कहे कि कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए आदेश को पूरा करने और पुरस्कृत होने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है, या यह कहे कि कोई व्यक्ति पूर्ण बनाए जाने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है—तो क्या ये शब्द विश्वासयोग्य हैं? (नहीं, ये विश्वासयोग्य नहीं हैं।) अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना पूरी तरह से शैतानी फलसफे हैं; इसमें कोई सत्य नहीं है, और जैसे ही तुम इन शब्दों को सुनते हो, यह स्पष्ट हो जाता है कि ये विकृत हैं। अगर कोई यह कहे कि कोई व्यक्ति परमेश्वर की व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करने और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने के लिए अपमान सहता है और भारी दायित्व उठाता है, तो क्या यह कहना सही है? (नहीं।) यह कैसे सही नहीं है? ये दोनों एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं—परमेश्वर तुम से अपमान सहने की अपेक्षा नहीं रखता है और ना ही वह तुम से तिरस्कार सहने की अपेक्षा रखता है। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने, जैसा कि यहाँ चर्चा की गई है, और लोगों का परमेश्वर में विश्वास रखने और उसके प्रति समर्पण करने के बीच क्या मूलभूत अंतर है? (अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को त्याग देने का एक प्रयास है।) अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का यह अर्थ है कि लोगों की अपनी योजनाएँ, आकांक्षाएँ, इच्छाएँ और अपने लक्ष्यों होते हैं जिनका वे अनुसरण करते हैं। क्या ये उन मानकों के अनुरूप हैं जिनकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है, और क्या ये उन लक्ष्यों के अनुरूप हैं जो परमेश्वर लोगों को देता है? (नहीं।) नहीं, वे नहीं हैं। अपमान सहकर और भारी दायित्व उठाकर लोग अपने लिए क्या हासिल करने का लक्ष्य रखते हैं? वे जो हासिल करने का लक्ष्य रखते है वह स्वार्थ है, और इसका मनुष्य की उस नियति से कोई संबंध नहीं है जिसकी परमेश्वर योजना बनाता है और जिस पर परमेश्वर संप्रभु है।

जो कोई भी अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अभ्यास करता है, उसका एक इरादा और एक लक्ष्य होता है। मिसाल के तौर पर, जब कोई नया कॉलेज स्नातक पहली बार प्रशिक्षण के लिए किसी कंपनी में आता है, तो कंपनी के वरिष्ठ कर्मचारी कहते हैं, “यहाँ आने वाले कॉलेज स्नातकों को तीन साल तक कॉफी लानी पड़ती है।” वे भीतर से सोचते हैं, “भले ही मैं कॉलेज स्नातक हूँ, लेकिन मैं तुम लोगों के आगे नहीं झुकूँगा!” वे भीतर से ऐसा सोचते हैं, लेकिन इसे जोर से व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करते हैं। बाहर से, उन्हें अब भी एक नकली मुस्कान दिखानी पड़ती है; हर रोज उन्हें नियमों का पालन करना पड़ता है, दब्बू बने रहना पड़ता है, और बहुत ज्यादा और झूठी विनम्रता से व्यवहार करना पड़ता है और दूसरों द्वारा उनकी कमियाँ निकाले जाने पर उसे सहना पड़ता है। इसे सहने में उनका क्या लक्ष्य है? वह यह है कि एक दिन ऐसा आएगा जब वे विजयी ठहाका लगा सकेंगे, प्रबंधक या मालिक के सचिव बन सकेंगे और उन लोगों को मात दे सकेंगे जिन्होंने उन्हें परेशान किया। क्या वे ऐसा ही नहीं सोचते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “उन्हें इसी तरीके से सोचना चाहिए और यही कार्य करना चाहिए। नहीं तो, वे जीवन भर लोगों से बकवास सुनते रहेंगे। कौन इस तरह से कष्ट सहना चाहता है? साथ ही, अगर लोगों में आकांक्षाएँ नहीं होंगी तो उनका काम कैसे चलेगा? आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है—जीवन का यही नियम है। जो सैनिक सेनानायक नहीं बनना चाहता वह अच्छा सैनिक नहीं है।” ये शब्द उनका आदर्श वाक्य बन जाते हैं, लेकिन यह सब शैतानी तर्क है। उन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए इस तरीके से सहते रहना होगा—दिन-ब-दिन, साल-दर-साल, सभी के प्रति शिष्ट और आदरपूर्ण बने रहना होगा। एक दिन, उनका मालिक उनसे कहता है, “इन तीन वर्षों में तुम्हारा प्रदर्शन अच्छा रहा है। अगले हफ्ते से, तुम विक्रेता बन जाओगे।” जब वे यह बात सुनते हैं, तो उनका दिल दुखी हो जाता है : “तो मैंने सिर्फ विक्रेता बनने के लिए तीन वर्ष कड़ी मेहनत की! मैंने सोचा था कि मैं बिक्री विभाग का कार्यकारी निदेशक बन जाऊँगा!” लेकिन उन्हें इस तरक्की के लिए धन्यवाद कहना पड़ता है। वे अभी तक अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचे हैं, इसलिए उन्हें सहन करते रहना पड़ेगा। वे अपमान सहते रहते हैं और भारी दायित्व उठाते रहते हैं, अपने मालिक के साथ शराब पीते हुए और नकली मुस्कान दिखाते हुए आगे-पीछे घूमने में कड़ी मेहनत करते हैं, और जब वे दस वर्षों तक यह सब सह लेते हैं, तो अंत में वे अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। एक दिन, उनका मालिक उनसे कहता है, “तुमने अपना कार्य बहुत अच्छा किया है। मैं तुम्हें तरक्की देकर सहायक बना दूँगा।” जब वे यह सुनते हैं, तो भीतर से खास तौर पर खुश हो जाते हैं—अंत में, उन्होंने यह कर दिखाया! यह क्या परिणाम है? उनकी नजर में, अब वे बाकी सभी से बेहतर हैं। क्या उन्होंने यह सब अपनी खुशी से नहीं किया? (नहीं।) उन्होंने यह सब किसके लिए किया? (अपने लिए।) अपने लिए। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो सकारात्मक हो या जिसे अपनाया जाना चाहिए, तारीफ और बड़ाई के योग्य होने की तो बात ही छोड़ दो। लेकिन आज समाज में इसी किस्म की मानसिकता की हिमायत की जाती है—अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना, दुम दबाए यहाँ-वहाँ घूमना। इसलिए, यह किस किस्म का वाक्यांश है जिसकी लोग हिमायत करते हैं : “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना”? (यह बुरा वाक्यांश है।) यह कैसे बुरा है? लोग पूरी तरह से अपने खुद के इरादों और प्रेरणाओं के कारण, और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए अपमान सहते हैं और भारी दायित्व उठाते हैं। यह सही लक्ष्यों की खातिर नहीं है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इसमें से कुछ भी अपनाने योग्य नहीं है, और इसमें से कुछ भी तारीफ या सराहना करने के लायक नहीं है, और यकीनन याद करने योग्य तो है ही नहीं। चलो एक बार फिर देखें कि प्राचीन काल में महल में क्या हुआ था। एक सम्राट की मृत्यु हो गई। उसकी महारानी ने देखा कि उसका बेटा अभी भी छोटा है और अगर वह सिंहासन पर बैठता है, तो वह दरबार को नियंत्रित करने में पूरी तरह से असमर्थ रहेगा, इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका बेटा वास्तव में सम्राट के रूप में शासन करे, उसने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया और पिछले सम्राट के छोटे भाई से शादी कर ली, और उन दोनों ने मिलकर उसके बेटे की परवरिश की। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में उसका क्या लक्ष्य था? उसने यह सम्राट के रूप में अपने बेटे के पद के लिए किया। जब सम्राट के रूप में उसके बेटे का पद सुरक्षित हो जाता, तो उसका रुतबा राजमाता का हो जाता। इसे अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना कहते हैं। वह कौन-सा अपमान सह रही थी? वह पवित्र नहीं रही; जैसे ही सम्राट की मृत्यु हुई, उसने फौरन उसके छोटे भाई से शादी कर ली, जिससे उसकी बदनामी हुई। लोगों ने पीठ पीछे उसकी आलोचना की और उसके बारे में राय बनाई, और यहाँ तक कि इतिहास की किताबों में भी उसे खराब दर्जा दिया गया। क्या उसने इसकी परवाह की? दरअसल, अपने पूर्व देवर से शादी करने से पहले उसने इसके परिणामों के बारे में सोच-विचार किया था, फिर भी उसने ऐसा क्यों किया? यह सम्राट के रूप में अपने बेटे के पद को सुनिश्चित करने और राजमाता के रूप में अपने रुतबे की रक्षा करने के लिए था। यही एकमात्र कारण था कि उसने इतनी बदनामी बर्दाश्त की और खुशी से इस कष्ट को सहन किया। इसे अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना कहते हैं। इस सारे तिरस्कार को सहने से उसे क्या हासिल हुआ? उसे जो हासिल हुआ वह और भी बड़ा फायदा था। अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में उसका यही लक्ष्य था। जैसे ही उसने बड़ा फायदा हासिल कर लिया, उस सारी बदनामी की कोई अहमियत नहीं रही। इस बदनामी के बदले, उसने अपने और अपने बेटे के लिए शक्ति और रुतबा हासिल किया। तो क्या उसका अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सकारात्मक था या नकारात्मक था? (नकारात्मक था।) अगर कोई सिर्फ उसके व्यवहार को देखे, तो यह पता चलता है कि वह खुद का त्याग करने में समर्थ थी, और, कोई उसके बेटे के नजरिये से देखे, तो उसने जो तिरस्कार और कष्ट बर्दाश्त किया, उसका एक निस्वार्थ पक्ष था, इसलिए लोगों को उसकी तारीफ करनी चाहिए और कहना चाहिए कि “कितनी महान माँ थी!” लेकिन जब उसकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं और उसके सच्चे लक्ष्य को देखा जाता है, तो लोगों को उसकी आलोचना करनी चाहिए; उसके क्रियाकलाप राय बनाए जाने लायक हैं।

क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों को अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं है।) अगर लोग परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करते हैं और उसके न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षाओं और शोधन को स्वीकार करते हैं, और यहाँ तक कि लोगों के प्रति उसके शापों और निंदा को भी स्वीकार करते हैं, तो क्या उन्हें अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं है।) यकीनन ऐसा ही है। विश्वासियों के संदर्भ में “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” वाक्यांश का उपयोग करना बिल्कुल भी उचित नहीं है और इसकी निंदा की जाती है। इस संदर्भ में इस वाक्यांश का उपयोग करना क्यों गलत है? कोई यह कैसे साबित कर सकता है कि इस संदर्भ में यह व्यवहार सही नहीं है? सिर्फ मौखिक रूप से और सिद्धांत के लिहाज से यह स्वीकार करना कि यह वाक्यांश गलत है, स्वीकार्य नहीं है; तुम्हें पता होना चाहिए कि यह किन सत्यों का जिक्र करता है। इससे पहले, तुम सोचते थे कि परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने को स्वीकार करने के लिए, लोगों को अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना, यू राज्य के राजा गौजियन की मानसिकता अपनाना, और कभी हार न मानना सीखने की जरूरत होती है—तुम निहायत बेवकूफ थे और तुम्हारे पास सत्य समझने की क्षमता नहीं थी। अब, मेरी संगति के बाद, तुम सोचते हो, “यह वाक्यांश अच्छा नहीं है। इससे पहले, मैं हमेशा इस वाक्यांश का उपयोग किया करता था—मैं इतना बेवकूफ कैसे था?” तुम देख सकते हो कि तुम सत्य नहीं समझते हो और तुम्हारी समझने की क्षमता कमजोर है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि इस वाक्यांश में क्या गलत है। एक बार जब तुम सही मायने में यह समझने में समर्थ हो जाओगे कि इसमें क्या गलत है, तो तुम्हें वाक्यांश की पूरी समझ हो जाएगी। अगर तुम वाक्यांश का सिर्फ एक भाग स्पष्ट रूप से देखते हो, जहाँ तुम इसके नकारात्मक पक्ष को स्पष्ट रूप से देखते हो, लेकिन वह पक्ष नहीं देखते हो जिसे लोग सकारात्मक और अग्रसक्रिय मानते हैं, तो इसका यह अर्थ है कि तुम अभी भी सत्य नहीं समझते हो। मैंने अभी-अभी जो संगति की है, उसे सुनने के बाद, क्या तुम लोग मेरे इन तरीकों के अनुसार इन चीजों का गहन-विश्लेषण और छान-बीन कर पाओगे? परमेश्वर के घर में अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अभ्यास क्यों जरूरी नहीं है? मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि परमेश्वर का घर इस तरीके और मानसिकता की निंदा करता है और यह सत्य के अनुरूप नहीं है? (परमेश्वर, मेरी समझ यह है कि परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना, और यहाँ तक कि हटा दिया जाना या निंदा किया जाना भी अपमान सहना नहीं है। बल्कि, यह वह तरीका है जिससे परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कार्य करता है, और इसका उद्देश्य हमें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर लेकर जाना है। इसका अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने से बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है। अगर लोग सही तरह से समझ पाते हैं, तो वे जानेंगे कि यह परमेश्वर का प्रेम और उत्थान है, और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना लोगों के लिए परमेश्वर की महान देखभाल और सुरक्षा है, और परमेश्वर का उद्धार है।) क्या यह कथन सही है? (हाँ।) अगर तुम स्पष्ट रूप से न्याय और ताड़ना को नहीं देख पाते हो, तो तुम्हारे दिल में विरोध और शिकायतें उत्पन्न होंगी, और तुम शैतानी फलसफे वाले वाक्यांश “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” का अभ्यास करोगे, और मन में सोचोगे, “ओह नहीं, मुझे अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना चाहिए, और यू राज्य के राजा गौजियान की मानसिकता अपनानी चाहिए।” फिर, तुम खुद को आगे बढ़ने के लिए उकसाने और खुद को प्रेरित करने के लिए अपनी मेज के सबसे ऊपर “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” शब्दों को उकेरोगे, और तुम इसे अपना आदर्श वाक्य बना लोगे। क्या यह परेशानी का कारण नहीं है? माना कि आज की संगति के बाद तुम लोग यकीनन ऐसा नहीं करोगे, लेकिन क्या तुम लोग दूसरे वाक्यांशों को अपना उसूल बना लोगे, जैसे कि यह वाक्यांश जिसका मैंने गहन-विश्लेषण नहीं किया है, “अपना प्रकाश छिपाओ और अँधेरे में शक्ति जुटाओ”? क्या इसकी प्रकृति ठीक वैसी ही नहीं है? ये चीजें पारंपरिक चीनी संस्कृति का भाग हैं। क्या ये चीजें शैतान के जहर हैं? ये सभी शैतान के जहर हैं; ये सभी सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे हैं।

इससे पहले, जब मैं चीन की मुख्यभूमि की कलीसियाओं में कार्य करता था, यह तब की बात है जब मैंने हाल ही में अपना कार्य शुरू किया था, परमेश्वर के घर ने कुछ भाई-बहनों की साक्षरता सुधारने की व्यवस्था की। उस समय हालत क्या थी? वहाँ कुछ लोग बुजुर्ग थे और कुछ लोग ऐसे थे जो बहुत दूर-दराज के इलाकों में रहते थे। उनकी शिक्षा का स्तर अपेक्षाकृत कम था और वे अच्छी तरह से पढ़ नहीं पाते थे। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के वचन “कम काबिलियत,” “परमेश्वर का स्वभाव,” “परमेश्वर का इरादा,” और दूसरे निश्चित शब्दों के बारे में बात करते हैं, लेकिन वे यह नहीं समझते या जानते थे कि इनका अर्थ क्या है। बाद में, परमेश्वर के घर ने भाई-बहनों से कहा कि वे खाली समय में अपनी साक्षरता सुधारने का प्रयास कर सकते हैं, और उन्हें कम से कम यह पता तो होना ही चाहिए कि कुछ निश्चित वाक्यांशों, शब्दावली और संज्ञाओं का अर्थ क्या है। नहीं तो, जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे तो उन्हें शब्दों और वाक्यांशों का अर्थ ही समझ नहीं आएगा, तो वे परमेश्वर के वचन कैसे समझ पाएँगे? और अगर वे परमेश्वर के वचन नहीं समझ पाए तो वे सत्य का अभ्यास कैसे कर पाएँगे? इसके बाद, भाई-बहनों ने ये चीजें सीखने के लिए मेहनत करनी शुरू कर दी। यह अच्छी बात है, लेकिन विकृत समझ वाले कुछ लोगों ने इस स्थिति का फायदा उठाया। कुछ अगुआओं ने सभाओं के दौरान साक्षरता में सुधार करने के महत्व के बारे में और इस बारे में खास तौर पर बात की कि भाई-बहनों को कैसे साक्षर बनना चाहिए, साक्षरता के क्या फायदे हैं और अगर वे साक्षर नहीं हुए तो क्या होगा। उन्होंने ऐसे ढेरों सिद्धांतों के बारे में बात की। ये चीजें सत्य नहीं हैं, और इनके बारे में बहुत ज्यादा बात करने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे ही कोई ये चीजें कहता है तो लोग उन्हें समझ जाते हैं; सभाओं में उन पर ऐसे संगति करने की कोई जरूरत नहीं होती है कि मानो वे सत्य हों। कुछ अगुआओं ने सभाओं के दौरान ना सिर्फ बहुत सारा समय इन चीजों पर ऐसे संगति करने में बर्बाद किया कि मानो वे सत्य हों, बल्कि उन्होंने एक नई तरकीब भी ढूँढ निकाली और भाई-बहनों की खास तौर पर उन शब्दों पर परीक्षा ली जिनका उपयोग शायद ही कभी किया जाता है। अगर भाई-बहन उत्तर नहीं दे पाए तो क्या इससे वे अगुआ उच्च शिक्षित के रूप में नहीं दिखे? उस दौरान वहाँ कुछ झूठे अगुआ मौजूद थे, जिन्होंने वास्तविक कार्य नहीं किया—उन्होंने जीवन के अनुभवों, सत्य या परमेश्वर के वचनों पर संगति नहीं की, बल्कि उन्होंने सिर्फ साक्षरता पर संगति की। इसे क्या कहते हैं? इसे अपना उचित कार्य नहीं करना कहते हैं। क्या यह कोई समस्या नहीं है? (हाँ, है।) मैं इस मुद्दे पर क्यों बात कर रहा हूँ? इससे तुम लोगों का क्या फायदा है? क्या तुम लोग इस किस्म की चीज करने में समर्थ हो? क्या कोई ऐसा है जो इस तरह से कार्य करने की योजना बनाता है? अगर तुम लोग इस तरह से कार्य करते हो तो तुम लोग सच में भ्रमित लोग हो! ऐसे कुछ लोग हैं जो मुझे इन मुहावरों के बारे में बात करते हुए देखते हैं, और वे कार्रवाई करने के लिए उद्यत होते हैं और तैयारी करना शुरू कर देते हैं, और कहते हैं, “पता चला है कि सत्य पर संगति करना बहुत ही आसान है। बस मुहावरों पर संगति करना ही काफी है। तुम मुहावरों पर संगति करो, और मैं वक्रोक्तियों, बोलचाल के शब्दों, कहावतों और सुक्तियों पर संगति करूँगा।” क्या यह अपना उचित कार्य नहीं करना नहीं है? (हाँ, है।) ये किस किस्म के लोग हैं? क्या उन्हें आध्यात्मिक समझ है? (नहीं है।) उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, और वे सत्य नहीं समझते है। वे क्या सोचते हैं? “जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होता है, तो तुम वहाँ बैठकर बकबक करते हो और हमें दो-चार मुहावरे सुनाकर उल्लू बनाते हो। अगर मैं तुम्हारे तरीके अपनाता तो मैं भी संगति कर सकता था!” जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती है, वे चीजों को सिर्फ ऊपरी तौर पर देखते हैं और आँख मूंदकर मेरी नकल करते हैं। इन अगुआओं को इस व्यवहार की नकल करने के लिए हटा देना चाहिए, और जो कोई भी उनकी तरह करता है उसे भी हटा देना चाहिए। मैं इस बारे में क्यों बात कर रहा हूँ? इससे पहले कि तुम लोग ऐसा व्यवहार करने लगो, मैं तुम लोगों का ध्यान इस तरफ खींच रहा हूँ, ताकि तुम गलत रास्ते पर न चल पड़ो। मैं इन चीजों के बारे में बात कर सकता हूँ, लेकिन अगर तुम इनके बारे में बात करते हो, तो क्या तुम इसे समझने लायक तरीके से कर सकते हो? तुम नहीं कर सकते हो। तो, मैं इन कहावतों और मुहावरों के बारे में क्यों बात करता हूँ? मैं किस शर्त पर इनके बारे में बात करता हूँ? जब लोग सत्य की अवधारणा और परिभाषा समझते हैं, और फिर अगर मैं उस आधार पर और गहराई में जाता हूँ और उन चीजों का गहन-विश्लेषण करता हूँ जिन्हें लोग सत्य मानते हैं, तो लोग इसे नहीं समझ पाते हैं; उन्हें यह नहीं पता होता है कि उन्हें इस पर कैसे चिंतन करना चाहिए, और उन्हें यह नहीं मालूम होता है कि उन्हें इसे किन दूसरी चीजों से जोड़ना चाहिए। चूँकि तुम लोग यह नहीं समझते हो इसीलिए मैंने तुम लोगों को मुहावरों के बारे में कुछ कहानियाँ सुनाई हैं। यह जरूरी था। कुछ लोग सोचते हैं कि जब सत्य की बात आती है, तो वे विश्वविद्यालय स्तर पर हैं, और हैरान होते हैं कि वे अब भी इन प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रमों को क्यों दोहरा रहे हैं। वे यह नहीं समझ पाते हैं कि यह प्राथमिक कक्षा नहीं है, यह तो पहले से ही विश्वविद्यालय की कक्षा है। तुम लोग अभी तक विश्वविद्यालय में नहीं पहुँचे हो; तुम हमेशा प्राथमिक विद्यालय में ही रहे हो, लेकिन तुम्हें लगता है कि तुम विश्वविद्यालय में पहुँच गए हो, और तुम अपने बारे में अच्छा महसूस करते हो। दुर्भाग्यवश, यह भावना गलत है; यह एक गलत भावना है—तुम लोग अभी भी विश्वविद्यालय पहुँचने से बहुत दूर हो। इसलिए, मैं तुम लोगों को फिर से याद दिलाता हूँ : मैंने अभी-अभी जिन चीजों के बारे में बात की, उन्हें मत करो। तुम जो चीजें समझते हो, उन पर ईमानदारी से संगति करो, और अगर तुम नहीं समझते हो, तो बकवास मत करो। सत्य पर संगति करना बकबक नहीं है; किसी के पास तुम्हारी बकबक सुनने के लिए फालतु समय नहीं है। आँख मूंदकर मेरी नकल मत करो, और यू राज्य के राजा गौजियन, या आधुनिक इतिहास या प्राचीन इतिहास के बारे में बात मत करो, क्योंकि मैंने अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने के बारे में बात की। उन चीजों के बारे में बात करने का क्या फायदा है? क्या लोग उन्हें सुनने के इच्छुक हैं? भले ही लोग सुनने के इच्छुक हों, लेकिन वे बातें सत्य नहीं हैं।

अभी-अभी, मैंने इस बारे में बात की कि कैसे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और उसका अनुसरण करने वाले लोगों को अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत नहीं है, अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का अभ्यास करने की तो बात ही छोड़ दो। ऐसे “अच्छे” वाक्यांश और “महान” मानसिकता का अभ्यास क्यों नहीं किया जा सकता है? समस्या कहाँ है? अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की मानसिकता क्यों नहीं रखी जा सकती? धर्म-सिद्धांत के लिहाज से कहें, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सत्य नहीं है; यह वाक्यांश परमेश्वर द्वारा नहीं बोला गया; यह मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षा नहीं है, ना ही यह क्रियाकलाप का कोई सिद्धांत है जो उसने उसका अनुसरण करने वाले लोगों को दिया। मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह वाक्यांश सत्य नहीं है और अभ्यास का सिद्धांत नहीं है? सबसे पहले, आओ अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में “अपमान” शब्द को देखें। “अपमान” का क्या अर्थ है? तिरस्कार और शर्मिंदा होना। तो जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर उनके भाग्य पर संप्रभु है, तो परेम्श्वर के प्रति समर्पण करके क्या वे अपमानित हो रहे हैं? क्या वे तिरस्कार सह रहे हैं? (नहीं।) क्या लोगों को सहने और यह कहने की जरूरत है, “परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, मुझे अपने दिल की आग को दबाना होगा, अपने दिल के गुस्से को दबाना होगा, अपने दिल की शिकायतों को दबाना होगा, और अपने दिल की असंतुष्ट भावना को दबाना होगा। मुझे इसे सहना चाहिए और उफ तक नहीं करना चाहिए। मेरे लिए, ये सभी चीजें अपमान हैं, इसलिए मैं उन्हें दबा दूँगा”? क्या ऐसा करके वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? (नहीं।) वे किसका अभ्यास कर रहे हैं? विद्रोहीपन, झूठ और दिखावे का। सत्य का अभ्यास प्राप्त करने के लिए, और सत्य के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, पहली चीज जो तुम्हें करनी होगी वह है किसी भी तरह का दर्द नहीं सहना, और तुम्हें किसी भी तरह का तिरस्कार सहने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर के पास जो संप्रभुता है और तुम्हारे लिए जो व्यवस्थाएँ हैं और उसकी तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, क्या वे अपमान हैं? (नहीं।) वह तुम्हें अपमानित नहीं कर रहा है। परमेश्वर तुम्हें उजागर करके, तुम्हारा न्याय करके, तुम्हे ताड़ना देकर, तुम्हारा परीक्षण करके और तुम्हारा शोधन करके तुम्हें अपमानित नहीं कर रहा है। बल्कि, जिस समय वह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के खुलासों को उजागर कर रहा है, उसी समय वह तुम्हें खुद को समझने के लिए भी कह रहा है, तुम्हें उन्हें छोड़ देने और उनके खिलाफ विद्रोह करने के लिए भी कह रहा है, और फिर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए भी कह रहा है। इससे क्या प्रभाव प्राप्त होगा? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे, सत्य समझ सकोगे, परमेश्वर को खुश करने वाले व्यक्ति बन सकोगे, और ऐसे व्यक्ति बन सकोगे जिसे परमेश्वर स्वीकार करता है। इसलिए, तुम इन चीजों को प्राप्त करने की प्रक्रिया और समयावधि के दौरान जिन चीजों से गुजरते हो, क्या उनमें से कोई भी चीज तिरस्कार है? क्या ऐसी कोई चीज है जिसमें परमेश्वर तुम्हें अपमानित कर रहा है? (नहीं।) जब परमेश्वर तुम्हें उजागर करता है, मिसाल के तौर पर, जब वह तुम्हारे घमंड, दुष्टता, धोखेबाजी, अड़ियलपन या क्रूरता को उजागर करता है, तो क्या इनमें से कुछ ऐसा है जो तथ्य नहीं है? (नहीं।) वे सभी तथ्य हैं। परमेश्वर तुम्हें जिन वचनों से उजागर करता है, तुमसे जो वचन कहता है, उनका ढंग चाहे कैसा भी हो, वे सभी तथ्य हैं। चाहे लोग इसे पहचानने में समर्थ हों या नहीं हों, और चाहे लोग इसे कितना भी समझने और स्वीकार करने में समर्थ हों, ये सभी चीजें तथ्य हैं। ये बेबुनियाद नहीं हैं, और ना ही ये अतिशयोक्ति हैं, और यकीनन ये तुम्हें फँसाने के लिए नहीं हैं। तो क्या ये चीजें तुम्हें अपमानित करने के लिए हैं? (नहीं।) ये ना सिर्फ तुम्हें अपमानित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि कुकर्मियों के मार्ग पर नहीं चलने, और शैतान का अनुसरण नहीं करने के एक संकेत और चेतावनी के रूप में भी हैं, ये तुम्हें जीवन में उचित मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने के लिए हैं। इन चीजों का तुम पर जो परिणाम और प्रभाव पड़ता है, वह सकारात्मक है। परमेश्वर के इन क्रियाकलापों की प्रकृति पूरी तरह से उचित है। वह ये चीजें तुम्हें बचाने के लिए कर रहा है, और ये पूरी तरह से सत्य के अनुरूप हैं। यही वह कष्ट है जिसे लोगों को सहना चाहिए, और यही वह कष्ट है जिसे उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ देने, परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने के लिए सहना चाहिए। लोगों का रवैया इस कष्ट को एक तिरस्कार के रूप में सहने के बजाय खुद आगे बढ़कर इसे स्वीकार करने का होना चाहिए। यह कष्ट अपमान नहीं है, यह उपहास नहीं है, और यह लोगों पर कटाक्ष नहीं है, परमेश्वर द्वारा लोगों को चिढ़ाने की तो बात ही छोड़ दो। यह कष्ट केवल इसलिए होता है क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं, और वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। लोगों में यह दर्द परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की लोगों से अपेक्षाओं के कारण उत्पन्न होता है, तो क्या इस दर्द का कोई भाग ऐसा है जो परमेश्वर जानबूझकर लोगों को देता है या उन्हें अतिरिक्त रूप से देता है, और जिसे उन्हें नहीं सहना चाहिए? ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके विपरीत, अगर लोग इस दर्द को बहुत कम सहते हैं, तो वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ नहीं सकते। चाहे लोगों के विद्रोही स्वभाव कितने भी गंभीर क्यों ना हों, और चाहे लोग परमेश्वर द्वारा उनके भ्रष्ट स्वभावों को उजागर किए जाने पर इसे मानने और स्वीकार करने में कितने भी समर्थ क्यों ना हों, अंत में, परमेश्वर लोगों को जो देता है वह अपमान नहीं है, और लोग जो सहते हैं वह तिरस्कार नहीं है। बल्कि, यह वहहै जिसे लोगों को सहना चाहिए; यह वह दर्द है जिसे शैतान द्वारा बहुत ज्यादा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति को सहना चाहिए; लोगों को यह दर्द सहना चाहिए। मैं क्यों कहता हूँ कि उन्हें इसे सहना चाहिए? क्योंकि लोग परमेश्वर के प्रति बहुत ज्यादा विद्रोही हैं और वे शैतान बन गए हैं। अगर लोग इन भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ना चाहते हैं और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना चाहते हैं, तो उन्हें यह कष्ट सहना चाहिए। यह पूरी तरह सही और उचित है; यह एक ऐसा मार्ग है जिससे लोगों को गुजरना चाहिए, और यह एक ऐसा कष्ट है जिसे उन्हें सहना चाहिए। यह कष्ट उन्हें परमेश्वर नहीं दे रहा है। यह बात वैसी ही है जैसे ठंडा पानी पीने के बाद तुम्हारा पेट खराब हो जाता है। इसके लिए कौन दोषी है? ठंडा पानी? (नहीं।) यह कष्ट तुम पर कौन लेकर आया? (हम लेकर आए।) तुम खुद ही यह कष्ट अपने ऊपर लेकर आए। यह परिणाम और यह प्रक्रिया जिसे लोग सहते हैं, उनकी अपनी करनी है; इसमें कोई कहने लायक अपमान या तिरस्कार नहीं है। कुछ लोग इसे इस तरह से नहीं समझते हैं; वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं। वे क्या सोचते हैं? “परमेश्वर के घर ने मुझे अगुआ बनने दिया; उसने इस पद के लिए मेरी सिफारिश की, और मैंने अगुआ के रूप में अपना कार्य खुशी-खुशी पूरा किया है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि परमेश्वर का घर मुझे मेरा कार्य ठीक से नहीं करने और गलतियाँ करने के लिए बर्खास्त कर देगा। मैं क्या बन गया हूँ? क्या अब भी मुझमें ईमानदारी और गरिमा है? क्या अब भी मेरे पास कोई मानवीय स्वतंत्रता है? क्या अब भी मेरे पास स्वायत्तता है?” वे सोचते हैं कि लोगों को इस मामले में बिना किसी विकल्प के परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करना चाहिए, और अगर लोग पूरी तरह से समर्पण करते हैं, तो वे बेवकूफ और गरिमाहीन लोग हैं, औरवे बहुत ज्यादा कमजोर और व्यथित ढंग से जीते हैं। इसलिए, इस प्रकार का व्यक्ति सोचता है कि जब लोग न्याय, ताड़ना और काट-छाँट करने को स्वीकार कर लेते हैं, तो उन्हें अपमान सहना ही चाहिए, जैसे कि कहावत है, “जब कोई व्यक्ति कम ऊँचे छज्जे के नीचे खड़ा होता है, तो उसके पास अपना सिर नीचा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है।” देखो, यह एक और शैतानी फलसफा है। यह प्रसिद्ध वाक्यांश उसे उसका सिर नीचा करने पर मजबूर कर देता है। वह क्या सोच रहा है? क्या वह खुशी से समर्पण कर रहा है, या अपमान सह रहा है और भारी दायित्व उठा रहा है? (दूसरी बात सही है।) उसे लगता है कि वह अपमान सह रहा है और भारी दायित्व उठा रहा है। वह खुशी से समर्पण नहीं कर रहा है। उसका समर्पण खुशी से नहीं किया गया है, और यह खरा नहीं है। बल्कि, उसके पास समर्पण करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। इसलिए वह इस विकल्प के अभाव को एक तरह के अपमान के रूप में देखता है। चूँकि इस किस्म का व्यक्ति इस तरीके से सोच सकता है, तो क्या वह परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने का अभ्यास करने को सत्य का अभ्यास करना मानता है? नहीं। वह समर्पण करने को सत्य नहीं मानता है। इसके बजाय, वह अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने को सत्य मानता है। क्या इन चीजों की प्रकृति अलग-अलग नहीं है? (हाँ, है।) वैसे तो जो लोग खुशी से समर्पण करते हैं और जो लोग अपमान सहते हैं और भारी दायित्व उठाते हैं, दोनों ही समर्पण करते हैं, और वैसे तो इनमें से कोई भी मुश्किल खड़ी नहीं करता है या प्रतिरोध नहीं करता है, और बाहर से वे दोनों ही आज्ञाकारी, शिष्ट और अच्छे प्रतीत होते हैं, फिर भी ये चीजें प्रकृति के लिहाज से अलग-अलग हैं। जो लोग सच्चाई से समर्पण करते हैं, वे समर्पण करने को अपनी जिम्मेदारी, कर्तव्य और दायित्व मानते हैं; वे इसे अपना परम कर्तव्य और सत्य मानते हैं। भले ही सच्चाई से समर्पण नहीं करने वाले लोग बाहरी रूप से विरोध नहीं करते हों, लेकिन उन्हें अपने दिल में लगता है कि वे अपमान सह रहे हैं और भारी दायित्व उठा रहे हैं, और उनकी नजर में, अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सर्वोच्च सत्य है। वे अपमान सहने को सत्य का अभ्यास करना मानते हैं, और वे समर्पण करने को क्या मानते हैं? वे इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं, बल्कि अपमान सहना मानते हैं। क्या यह उल्टे क्रम में नहीं है? इसे क्या कहते हैं? (उन्होंने इसे उल्टा कर दिया है।) उन्होंने इसे उल्टा कर दिया है। वे सत्य को सांसारिक आचरण के फलसफे मानते हैं; वे धर्म-सिद्धांत और मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफे को सत्य मानते हैं। क्या यह काले और सफेद का उलटफेर नहीं है? (हाँ, है।) यह काले और सफेद का उलटफेर है। तो इस समस्या को कैसे सुलझाना चाहिए? लोगों को यह समझना चाहिए कि वे जो कष्ट सहते हैं, वह अपमान नहीं है, ना ही इसके द्वारा कोई उन्हें अपमानित करने का प्रयास कर रहा है। तो लोगों को जो कष्ट सहना पड़ता है, उसका क्या कारण है? (लोगों का भ्रष्ट स्वभाव।) सही कहा। अगर तुम्हारे स्वभाव भ्रष्ट नहीं होते, और तुम सत्य समझते, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति पूरी तरह से समर्पण कर पाते, और परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह पाते, तो तुम्हें यह कष्ट नहीं सहना पड़ता। इसलिए, यह अपमान कहीं नहीं है। तुम समझ रहे हो, है ना?

कष्ट और अपमान में से, कौन-सा सकारात्मक है? क्या इन दोनों में कोई फर्क है? (हाँ, है।) कष्ट सकारात्मक है। अगर तुम खुशी से न्याय, ताड़ना, काट-छाँट करना स्वीकार करते हो और यह कष्ट खुशी से सहते हो, तो फिर तुम इस कष्ट की ऐसे व्याख्या करोगे, “मुझे यह कष्ट सहना चाहिए। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, भले ही मैं इसे ना समझूँ और मेरे दिल के लिए इसे स्वीकार करना मुश्किल हो, और भले ही मैं निराश और कमजोर पड़ जाऊँ, वह जो भी करता है वह सही है। मेरा स्वभाव भ्रष्ट है और मुझे परमेश्वर से बहस नहीं करनी चाहिए। मेरे दिल के लिए इसे सहना चाहे कितना भी मुश्किल क्यों ना हो, यह मेरे अपनी गलतियों के कारण ही हुआ है। परमेश्वर गलत नहीं है; परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है। मैं कष्ट सहने लायक हूँ। किसने मुझे अपना स्वभाव भ्रष्ट करने के लिए मजबूर किया? किसने मुझे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए मजबूर किया? किसने मुझे बुरा करने के लिए मजबूर किया? वे चीजें मुझे परमेश्वर द्वारा नहीं दी गई हैं; वे मेरी अपनी प्रकृति से प्रेरित हैं। मुझे यह कष्ट सहना चाहिए।” तो क्या यह कष्ट सहना लोगों के लिए कोई सकारात्मक चीज है? (हाँ।) अगर लोग इसे सकारात्मक तरीके से समझते हैं और इसे परमेश्वर से आया स्वीकारते हैं, तो यह कष्ट सकारात्मक है। लेकिन, मान लो कि वे कहते हैं, “मैं समर्पण कर सकता हूँ, लेकिन समर्पण करने के बाद भी मुझे अपनी दलील स्पष्ट रूप से समझानी होगी, और मैं भीतर से जो सोचता हूँ और जो करता हूँ, उसे स्पष्ट रूप से साझा करना होगा। मैं यूँ ही ऐसे बुजदिल और भ्रमित ढंग से समर्पण नहीं कर सकता। नहीं तो, मैं चीजों को अपने भीतर दबाए रखने के कारण मर जाऊँगा।” वे हमेशा चीजों को स्पष्ट रूप से और दिल खोलकर समझाना चाहते हैं, चीजों की बारीकियाँ स्पष्ट रूप से बताना चाहते हैं, अपनी दलील के बारे में बात करना चाहते हैं, अपनी सोच के बारे में बात करना चाहते हैं, इस बारे में बात करना चाहते हैं कि वे किस तरह कीमत चुकाते हैं, और इस बारे में बात करना चाहते हैं कि वे कितने सही हैं। वे ऐसा व्यक्ति बनने के इच्छुक नहीं हैं जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है—वे खुद को सही ठहराने से, अपना बचाव करने से या अपनी दलील के बारे में बात करने से बचने के इच्छुक नहीं हैं। वे उस तरीके से कार्य करने के इच्छुक नहीं हैं। ऐसे में, वे समर्पण को क्या मानते हैं? वे इसे तिरस्कार सहना मानते हैं। वे भीतर से क्या सोचते हैं? “मुझे यह सारा तिरस्कार सहना चाहिए ताकि परमेश्वर मुझे स्वीकार कर ले और कहे कि मैंने समर्पण कर दिया है।” क्या यह अपमान वास्तव में मौजूद है? अगर यह बिल्कुल भी मौजूद नहीं है, तो वे अब भी इस “अपमान” को दूर करने के लिए चीजों को स्पष्ट रूप से और सीधे-सीधे क्यों समझाते हैं? यह सच्चा समर्पण नहीं है। भले ही तुम जिस इरादे से काम करते हो वह सही हो, परमेश्वर इसी तरीके से चीजों का आयोजन करना चाहता है। तुम्हें अपना बचाव करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बहस करने की जरूरत नहीं है। क्या अय्यूब ने चीजों को तुम लोगों से बेहतर तरीके से किया था या नहीं? (उसने चीजों को बेहतर तरीके से किया था।) जब अय्यूब का परीक्षण हुआ, अगर उस समय उसने बहस करके अपना बचाव किया होता, तो क्या परमेश्वर ने उसकी बात सुनी होती? नहीं, उसने नहीं सुनी होती। यह एक सच्चाई है। क्या अय्यूब को पता था कि परमेश्वर लोगों के बचावों को नहीं सुनता है? अय्यूब को नहीं पता था, लेकिन अय्यूब ने अपना बचाव नहीं किया। उसका आध्यात्मिक कद ऐसा ही था; उसने सही मायने में समर्पण किया। अय्यूब ने ऐसी कौन-सी बुरी चीज की थी जो परमेश्वर ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया? उसने कुछ भी बुरा नहीं किया। परमेश्वर ने कहा कि अय्यूब उसका भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, और वह एक पूर्ण व्यक्ति है। “अपमान” के संदर्भ में बात करें, तो परमेश्वर को अय्यूब को उन तिरस्कारों को सहने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए था, और उसे शैतान के हाथों में नहीं सौंपना चाहिए था और शैतान को उसे लुभाने और उससे उसकी सारी संपत्ति छीनने नहीं देना चाहिए था। समर्पण नहीं करने वाले लोगों के तर्क के लिहाज से देखें, तो अय्यूब ने कष्ट सहा और उसने बहुत तिरस्कार सहा, और जब उसे वे परीक्षण मिले, तो वह अपमान सह रहा था और भारी दायित्व उठा रहा था ताकि इस घटना के बाद वह परमेश्वर से और ज्यादा आशीष प्राप्त कर सके। क्या यह वाकई सच था? (नहीं।) क्या अय्यूब ने इसी तरह से सोचा और अभ्यास किया? (नहीं।) उसने कैसे अभ्यास किया? उसने इन परीक्षणों को कैसे संभाला? उसे सहने की जरूरत नहीं थी, ना ही उसने सोचा कि वह तिरस्कार सह रहा है। उसने क्या सोचा? (परमेश्वर ने दिया था और उसने ले लिया।) सही कहा। लोग परमेश्वर से आते हैं। परमेश्वर ने तुम्हें जीवन दिया और तुम्हें साँसें दीं। तुम पूरी तरह से परमेश्वर से हो, तो तुम जो सभी चीजें हासिल करते हो, क्या वे वही नहीं हैं जो परमेश्वर ने तुम्हें दीं? तुम्हारे पास शेखी बघारने के लिए क्या है? सब कुछ परमेश्वर का दिया हुआ है, इसलिए अगर परमेश्वर इसे छीन लेना चाहता है, तो तुम्हारे पास बहस करने के लिए क्या है? जब वह तुम्हें कोई चीज देता है, तो तुम खुश हो जाते हो, और जब वह तुम्हें कोई चीज नहीं देता है, तो तुम दुखी हो जाते हो, परमेश्वर की शिकायत करते हो, परमेश्वर से वह चीज माँगते हो, और परमेश्वर से झगड़ते हो। परमेश्वर ने तुम्हें कोई चीज देनी है या नहीं देनी है, यह परमेश्वर की मर्जी पर है; लोगों के पास बहस करने के लिए कुछ भी नहीं है। क्या अय्यूब ने इसी तरह से व्यवहार किया था? (बिल्कुल।) अय्यूब ने इसी तरह से व्यवहार किया था। क्या उसके दिल में अन्याय की भावना थी? (नहीं।) नहीं, ऐसी भावना नहीं थी। ऊपरी तौर पर देखें, तो अय्यूब के पास अन्याय को उजागर करने, खुद को सही ठहराने, अपना बचाव करने, खुद को परमेश्वर के खिलाफ खड़ा करने और परमेश्वर को सब कुछ स्पष्ट रूप से और सीधे-सीधे समझाने के पर्याप्त कारण थे। सिर्फ वह ही एक था जो इन चीजों को करने के लिए सबसे योग्य था, लेकिन क्या उसने ऐसा किया? नहीं, उसने ऐसा नहीं किया। उसने एक शब्द तक नहीं कहा, बस कुछ चीजें कीं : उसने अपना लबादा फाड़ डाला, अपना सिर मुंडा लिया, और जमीन पर गिरकर आराधना की। इन सिलसिलेवार कार्यों के कारण लोगों ने उसे किस किस्म के व्यक्ति के रूप में देखा? उन्होंने उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, और एक पूर्ण इंसान है। पूर्ण व्यक्ति की परिभाषा क्या है? कोई ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के कार्यों की बिल्कुल आलोचना नहीं करता है, बल्कि उसकी तारीफ करता है और उसके प्रति समर्पण करता है, और चाहे उसे कितना भी बड़ा कष्ट क्यों ना सहना पड़े, वह यह नहीं कहता है कि “मैंने अन्याय सहा है। यह तिरस्कार है।” वह चाहे कितना भी बड़ा कष्ट क्यों ना सहे, वह कभी भी इस किस्म का एक भी शब्द प्रदर्शित नहीं करता है, या इस किस्म का एक भी शब्द नहीं बोलता है। इसे क्या कहते हैं? अविश्वासी लोग इसे “खुद का त्याग करना” कहते हैं। यहाँ तर्क कहाँ है? क्या यह जो है सो है? (नहीं।) “खुद का त्याग करना” एक दिमागी बीमारी है और बकवास है। अय्यूब ने चाहे कितनी भी बड़ी या कितनी भी दर्दनाक समस्या का सामना किया हो, उसने कभी भी परमेश्वर से बहस नहीं की या उससे झगड़ा नहीं किया; उसने बस समर्पण कर दिया। समर्पण करने का उसका पहला कारण क्या था? परमेश्वर का भय। समर्पण करने की उसकी क्षमता परमेश्वर के बारे में उसकी समझ से आई थी। वह मानता था कि सबकुछ परमेश्वर से आता है, और परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है।

कुछ समूहों के अगुआओं और पर्यवेक्षकों को जब हटा दिया जाता है, तो वे लगातार रोते रहते हैं, आग बबूला हो जाते हैं, और भावुक हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है, वे शिकायत करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, और सोचते हैं कि उन्हें उजागर और रिपोर्ट किए जाने के बारे में भाई-बहनों को बुरा महसूस करना चाहिए, और कहते हैं कि “तुम लोगों में जमीर नहीं है। मैंने तुम लोगों के साथ इतना अच्छा व्यवहार किया, और तुम लोगों ने इस तरह से मेरा बदला चुकाया! परमेश्वर धार्मिक नहीं है। मैंने इतना बड़ा अन्याय सहा है, फिर भी परमेश्वर ने मेरी रक्षा नहीं की; उन्होंने मुझे बड़े रूखेपन से बर्खास्त कर दिया। तुम सब लोग मुझे नीची नजर से देखते हो, और परमेश्वर भी मुझे नीची नजर से देखता है!” वे सोचते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे आग बबूला हो जाते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति समर्पण कर सकता है? जहाँ तक मैं समझता हूँ, यह आसान नहीं है। तो क्या उसके लिए यह बात समाप्त नहीं हो चुकी है? तुम किस बात पर आग बबूला हो रहे हो? अगर तुम इसे स्वीकार कर सकते हो, तो इसे स्वीकार कर लो। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं कर सकते हो, और सत्य के प्रति समर्पण नहीं कर सकते हो, तो परमेश्वर के घर से दफा हो जाओ! परमेश्वर में विश्वास मत रखो—कोई तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा है। तुम्हारे साथ क्या अन्याय हुआ है? तुम किस बात पर आग बबूला हो रहे हो? यह परमेश्वर का घर है। अगर तुममें दम है, तो जाकर समाज में आग बबूला हो, और आग बबूला होने के लिए शैतानों और शैतानी राजाओं की तलाश करो। परमेश्वर के घर में आग बबूला मत हो। अगर तुम्हें समूह के अगुआ के पद से बर्खास्त कर दिया गया है, तो इसमें क्या बड़ी बात है? अगर तुम समूह के अगुआ नहीं हो, तो भी तुम जीवित रह सकते हो, है ना? अगर तुम समूह के अगुआ नहीं हो, तो क्या तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखोगे? अय्यूब ने इतना बड़ा कष्ट सहा, लेकिन उसने क्या कहा? उसने शिकायत का एक भी शब्द नहीं कहा, और यहाँ तक कि परमेश्वर की तारीफ भी की और कहा, “यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। क्या उसने यहोवा के नाम की तारीफ इसलिए की क्योंकि उसने ढेरों पुरस्कार और फायदे प्राप्त किए थे? नहीं। यह तो बस उसके समझने और अभ्यास करने का तरीका था। क्या व्यक्ति के चरित्र से भी इसका संबंध नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोगों में कम ईमानदारी होती है और जब उनके साथ थोड़ा-सा भी अन्याय होता है, तो वे सोचते हैं कि उनके साथ बहुत ही ज्यादा अन्याय हुआ है और दुनिया के हर व्यक्ति को इसके लिए खुद को दोषी महसूस करना चाहिए और उनसे माफी माँगनी चाहिए। ये लोग बहुत ही तकलीफदेह होते हैं! तुम “तिरस्कार” शब्द की व्याख्या कैसे करोगे? तिरस्कार सहना अविश्वासियों के लिए एक आम घटना है, लेकिन परमेश्वर के घर में इसे कहने का एक अलग तरीका है : सत्य की प्राप्ति के लिए कष्ट और तिरस्कार सहना वह कष्ट है जिसे लोगों को सहना चाहिए। सत्य समझने वाले लोगों की चाहे काट-छाँट की जाए या उन्हें हटा दिया जाए, वे इसे तिरस्कार नहीं मानते हैं। वे सोचते हैं कि वे कष्ट सहने के लायक हैं, और लोग इसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं, लेकिन वह तिरस्कार नहीं है। सही मायने में तिरस्कार कौन सहता है? सिर्फ परमेश्वर ही है जो तिरस्कार सहता है। परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, लेकिन लोग यह बात नहीं समझते हैं। देखो, जब परमेश्वर इस्राएलियों को मिस्र से बाहर निकाल लाया, उसके बाद उन्होंने मूर्तियों की आराधना की। जब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था, तो उन्होंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की, और परमेश्वर को उनके लिए दिव्य भोजन मन्ना और दूसरा भोजन नीचे भेजना पड़ा। जब कुछ दिन अच्छे गुजर जाते थे, तो वे परमेश्वर पर ध्यान नहीं देते थे, लेकिन जब उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता था, तो वे फिर से उसे ढूँढने लगते थे। क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि उसने बहुत तिरस्कार सहा? क्या देहधारी परमेश्वर बहुत तिरस्कार नहीं सहता है जब वह युगों द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है? लोग कुछ भी नहीं हैं, और किसी भी चीज के काबिल नहीं हैं। वे परमेश्वर द्वारा दिए गए इतने सारे अनुग्रह का आनंद लेते हैं, और परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए इतने सारे सत्यों का आनंद लेते हैं, लेकिन जब वे थोड़ा-सा उचित कष्ट सहते हैं, तो उन्हें यह खास तौर पर अन्यायपूर्ण लगता है। लोग कौन-से अन्याय सहते हैं? कुछ लोग हैं जिनमें आम तौर पर काफी हिम्मत होती है, लेकिन जब वे थोड़ा-सा कष्ट सहते हैं—जब भाई-बहन उनकी काट-छाँट करते हैं, या कोई उनसे कुछ बुरा कह देता है, या कोई भी उनका साथ नहीं देता है या उनकी खुशामद नहीं करता है—तो वे दुखी हो जाते हैं, उन्हें महसूस होता है कि उन्होंने बहुत बड़ा कष्ट सहा है, और उनके साथ अन्याय हुआ है, और वे शिकायत करते हैं, “तुम सब लोग मुझे नीची नजर से देखते हो, और कोई भी मेरी तरफ ध्यान नहीं देता है। दुर्व्यवहार सहना ही मेरी नियति है!” तुम किस बात पर आग बबूला हो रहे हो? ऐसी चीजें कहने का क्या फायदा है? क्या उनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तो इसका क्या अर्थ निकलता है—क्या यह अपमान है? तुम उस कष्ट को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहे हो जिसके तुम लायक हो, और इसे स्वीकार नहीं करते हो। तुम इतने सारे धर्मोपदेश सुन चुके हो, लेकिन तुम यह नहीं समझते हो कि लोगों को सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए, और उन्हें कैसे समर्पण करना चाहिए। तुम्हें इसके बारे में कुछ नहीं पता है, और फिर भी तुम सोचते हो कि तुमने किसी किस्म का बहुत बड़ा तिरस्कार सहा है। क्या तुम अविवेकी नहीं हो रहे हो? परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने वाले लोगों के लिए क्या यह तिरस्कार मौजूद है? (नहीं।) भले ही कभी-कभी भाई-बहन यकीनन तुम्हारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हों, लेकिन तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? मिसाल के तौर पर, मान लो कि किसी जगह पचास डॉलर पड़े हैं, और तुम्हारे उसके पास से गुजरने के बाद, वे गायब हो जाते हैं, और हर कोई यही शक करता है कि वे पैसे तुमने लिए। तुम क्या करोगे? तुम अंदर से दुखी और निराश महसूस करोगे : “भले ही मैं गरीब हूँ, फिर भी मेरा चरित्र दृढ़ है। मुझे अब भी अपनी गरिमा की परवाह है। मैंने कभी कोई ऐसी चीज नहीं ली जो किसी और की हो। मैं पूरी तरह से निर्दोष हूँ। तुम लोग हमेशा मुझे नीची नजर से देखते हो, और जब भी ऐसा कुछ होता है, तो तुम सबसे पहले मुझ ही पर शक करते हो। परमेश्वर ने मेरी तरफ से चीजों का खुलासा नहीं किया है। ऐसा लगता है कि वह भी मुझे पसंद नहीं करता है!” तुम आग बबूला हो जाते हो। क्या इसे अपमान माना जाता है? (नहीं।) तो ऐसी परिस्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर तुमने वे पैसे लिए हैं, तो इसे कबूल करो, और वादा करो कि तुम फिर कभी कुछ नहीं लोगे। अगर तुमने वे नहीं लिए, तो कहो, “मैंने वे नहीं लिए। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है। जिसने भी वे पैसे लिए, वह यह बात जानता है, और परमेश्वर भी यह बात जानता है। मैं और एक शब्द नहीं कहूँगा।” तुम्हें यह कहने की जरूरत नहीं है, “तुम लोग मुझे नीची नजर से देखते हो। तुम सभी मुझे परेशान करना चाहते हो।” ऐसी चीजें कहने का क्या फायदा है? क्या इस किस्म की बहुत सारी चीजें कहना अच्छा है? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर तुम इस किस्म की बहुत सारी चीजें कहते हो, तो इससे एक सच्चाई साबित होती है : परमेश्वर तुम्हारे दिल में नहीं है; तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हो, और तुम्हारी परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं है। जब तुम मामले की सच्चाई बताते हो, तो परमेश्वर जानता है। वह लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है, और लोग जो कुछ भी कहते हैं और करते हैं उसकी जाँच-पड़ताल करता है। दूसरे लोग इसे कैसे देखना चाहते हैं, यह उनकी मर्जी है। तुम मानते हो कि परमेश्वर इन सभी चीजों को जानता है, और बहुत कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं है। क्या तुम्हें दुखी होने की जरूरत है? नहीं, तुम्हें दुखी होने की जरूरत नहीं है। इस मामले का क्या महत्व है? जब तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए बदनाम किया जाता है और तुम्हारी आलोचना की जाती है, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, लेकिन क्या तुम इस बारे में स्पष्ट रूप से बात कर सकते हो? एकचित्त होकर उनसे अपना बचाव करके तुम असली मुद्दे को लटका रहे हो। यह बेकार है, है ना? उनसे बहस करने का क्या फायदा है? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है।

परमेश्वर के उद्धार का अनुभव करने की प्रक्रिया के दौरान लोग बहुत कष्ट सहते हैं। क्या लोगों द्वारा सहा जाने वाला कष्ट तिरस्कार है? (नहीं।) यकीनन यह ऐसा नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? (क्योंकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, इसलिए लोगों को यह कष्ट सहना चाहिए।) लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं—यह इसी का एक भाग है। साथ ही, सत्य का जो भी पहलू तुम्हें समझ में नहीं आता है, और तुम्हारे भीतर का जो भी भाग अब भी नकारात्मक है, तुम उसे सामने ला सकते हो और उस पर संगति कर सकते हो। तुम्हें इसे अपने भीतर दबाए रखने की जरूरत नहीं है। संगति का लक्ष्य क्या है? (समस्याओं को सुलझाना।) सत्य की तलाश करना, सत्य को समझना और अपने भीतर मौजूद समस्याओं को सुलझाना। तुम्हें उन्हें अपने भीतर दबाए रखने की जरूरत नहीं है। तुम्हें तिरस्कार सहने की जरूरत नहीं है। तुम्हें सहने और यह कहने की जरूरत नहीं है कि “मुझे समझ नहीं आता है, फिर भी मुझे समर्पण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। समर्पण करने से पहले मुझे समझ आना चाहिए।” अगर तुम्हें समझ नहीं आता है, तो तुम संगति कर सकते हो। सत्य की तलाश करना ही सही मार्ग है। यह गलत नहीं है। जब कुछ चीजों पर संगति की जाती है और उन्हें स्पष्ट रूप से समझाया जाता है, तो लोग जान जाते हैं कि क्या करना है। तुम्हें सत्य की तलाश करने का रवैया रखना चाहिए, और सत्य की खोज करके समस्याओं को सुलझाना चाहिए। अगर तुम सत्य नहीं समझते हो और सिर्फ समर्पण करने का अभ्यास करते हो, तो अंत में, तुम अपनी समस्याएँ सुलझाने में असमर्थ रहोगे। इसलिए, भले ही तुमसे समर्पण करने की अपेक्षा की जाती हो, तुमसे भ्रमित या गैर-सैद्धांतिक तरीके से समर्पण करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। लेकिन, समर्पण में एक सबसे मूलभूत सिद्धांत निहित है, जो यह है कि जब तुम्हें समझ नहीं आता है तो तुम्हें सबसे पहले समर्पण करना चाहिए, और तुम्हारे पास एक आज्ञाकारी दिल और आज्ञाकारी रवैया होना चाहिए। लोगों में यही तार्किकता होनी चाहिए। इसे पूरा कर लेने के बाद, धीरे-धीरे तलाश करो। इस तरह से, तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने से बच सकते हो, और सुरक्षित रह सकते हो और इस मार्ग के अंत तक पहुँच सकते हो। क्या परमेश्वर द्वारा लोगों को उजागर करने, उनकी निंदा करने, और यहाँ तक कि उनका न्याय करने और उन्हें शाप देने के लिए उपयोग किए जाने वाले सभी वचनों का उद्देश्य लोगों को अपमानित करना है? (नहीं।) क्या लोगों को यह सब सहने के लिए बहुत ज्यादा धैर्य की जरूरत है? (नहीं।) नहीं, उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। इसके विपरीत, यह सब स्वीकार करने के लिए लोगों को बहुत ज्यादा आस्था की जरूरत है। सिर्फ इसे स्वीकार करके ही तुम सही मायने में समझ सकते हो कि शैतान की भ्रष्ट प्रकृति वास्तव में क्या है, लोगों का भ्रष्ट सार वास्तव में क्या है, परमेश्वर के प्रति लोगों के विरोध का स्रोत वास्तव में क्या है, और लोग परमेश्वर के अनुरूप क्यों नहीं हैं। इन समस्याओं को सुलझा पाने से पहले तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य की तलाश करनी चाहिए। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते हो, और परमेश्वर के वचन चाहे कितनी भी स्पष्टता से चीजों को क्यों ना बताएँ, तुम इसे स्वीकार नहीं करते हो तो फिर तुम उन समस्याओं को कभी सुलझा नहीं पाओगे। भले ही तुम यह समझ जाओ कि “परमेश्वर के वचन हमें अपमानित नहीं करते हैं; वे बस हमें उजागर करते हैं, और हमारे भले के लिए हैं,” तुम इसे सिर्फ धर्म-सिद्धांत के अर्थ में स्वीकार करते हो; तुम्हें यह कभी समझ नहीं आएगा कि परमेश्वर द्वारा कही गई हर बात का सच्चा अर्थ क्या है और यह क्या प्रभाव प्राप्त करने के लिए है। तुम यह भी कभी नहीं समझ पाओगे कि परमेश्वर जिस सत्य के बारे में बात करता है, वह वास्तव में क्या है। इस तरीके से संगति करने के बाद, क्या यह लोगों को काँट-छाँट किए जाना स्वीकार करने, हटाए जाने को स्वीकार करने, और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उस कार्य, व्यवस्थाओं और संप्रभुता को जो लोगों की धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, स्वीकार करने के प्रति एक अग्रसक्रिय और सकारात्मक रवैया रखने में कुछ हद तक समर्थ नहीं बनाता है? (बिल्कुल बनाता है।) कम-से-कम, लोग सोचेंगे कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, उन्हें इसे नकारात्मक तरीके से नहीं समझना चाहिए, और उनका रवैया सबसे पहले सक्रिय रूप से इसे स्वीकार करने का, इसके प्रति समर्पण करने का और फिर उसके साथ सहयोग करने का होना चाहिए। परमेश्वर लोगों के साथ जो कुछ भी करता है, उसके लिए उन्हें अपनी तरफ से मजबूत धैर्य रखने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसका यह अर्थ है कि तुम्हें यह सब सहने की जरूरत नहीं है। तुम्हें क्या करने की जरूरत है? तुम्हें स्वीकार करने, तलाश करने और समर्पण करने की जरूरत है। अविश्वासी लोग जिस “अपमान सहना” शब्द का उपयोग करते हैं, वह लोगों के प्रति स्पष्ट रूप से अपमानजनक है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें से किसी के लिए भी तुमसे अपमान सहने की अपेक्षा नहीं की जाती है। तुम धैर्य, प्रेम, विनम्रता के साथ-साथ समर्पण, स्वीकृति, ईमानदारी, खुलेपन और तलाश का अभ्यास कर सकते हो; ये चीजें अपेक्षाकृत सकारात्मक हैं। तो, अविश्वासी लोग जो कह रहे हैं, उसके पीछे क्या तर्क है? यह शैतानी फलसफा है, और शैतानी झूठ है। संक्षेप में, अपमान सहना कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसका पालन परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को करना चाहिए। यह सत्य नहीं है; यह एक शैतानी चीज है। परमेश्वर लोगों से अपमान सहने की अपेक्षा नहीं करता है, क्योंकि यहाँ कोई अपमान मौजूद ही नहीं है। लोगों के प्रति परमेश्वर के सभी क्रियाकलाप उनके लिए प्रेम, उद्धार, उनकी देखभाल और उनकी रक्षा करने वाले हैं। परमेश्वर जो चीजें कहता है, और लोगों में वह जो कार्य करता है, वे सभी सकारात्मक हैं और वे सभी सत्य हैं। उनका एक अंश भी शैतान के जैसा नहीं है, और इनमें शैतान का कोई भी तरीका और साधन मौजूद नहीं है। सिर्फ परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करके ही लोगों का शोधन किया जा सकता है और बचाया जा सकता है।

शैतान जिस “अपमान सहने” के कार्य की बात करता है, वह लोगों में किस तरह से अभिव्यक्त होता है? यह लोगों में नुकसान, दुर्व्यवहार, तोड़-फोड़ और रौंदने के रूप में अभिव्यक्त होता है। संक्षेप में, यह तुम पर भयंकर संकट लाता है। चाहे तुमने चाहे कष्ट सहा हो या तिरस्कार सहा हो, संक्षेप में, शैतान द्वारा लोगों को दी गई चीजों से अंत में जो हासिल होता है, यकीनन वह सत्य नहीं है। लोगों को क्या हासिल होता है? दर्द। शैतान अनगिनत रूपों में लोगों के अपमान और उपहास के साथ-साथ दुर्व्यवहार और भ्रष्टता का कारण बनता है। तो यह लोगों में क्या हासिल करता है और उन्हें क्या महसूस करवाता है? यह लोगों को शिकायतें सहने और अपनी रक्षा करने के लिए समझौते करने पर मजबूर करता है, और यहाँ तक कि उन्हें भीतर से विकृत भी बना देता है। लोग इन सबको संभालने और इनसे निपटने के लिए सभी तरह की युक्तियों और तरीकों का उपयोग करना सीख लेते हैं, और लोगों की खुशामद करना, दिखावा करना और झूठ बोलना सीख लेते हैं। जब लोग इन सभी चीजों को प्रकट और अभिव्यक्त करते हैं, तो क्या उनके दिल इच्छुक, खुश और शांत होते हैं, या नाराज और व्यथित होते हैं? (नाराज और व्यथित होते हैं।) लोग दुनिया में जितना ज्यादा अपमान सहते हैं, क्या उनके दिलों में गुस्सा उतना ही बढ़ता जाता है, या घटता जाता है? (बढ़ता जाता है।) तो फिर, क्या लोग मानवजाति को अधिकाधिक वैर-भाव से देखते हैं, या अधिकाधिक प्रेम से देखते हैं? (वैर-भाव से देखते हैं।) लोग मानवजाति को अधिकाधिक वैर-भाव से देखते हैं और जो भी दिखाई देता है उससे नफरत करते हैं। जब लोग युवा होते हैं और उन्होंने समाज में अभी-अभी प्रवेश किया होता है तो उन्हें हर चीज अद्भुत नजर आती है, और वे लोगों पर खास सहजता से भरोसा कर लेते हैं। जब उनकी आयु तीस वर्ष हो जाती है, तो फिर वे दूसरों पर उतना भरोसा नहीं करते हैं। जब उनकी आयु चालीस वर्ष हो जाती है, तो उनमें ज्यादातर लोगों के लिए भरोसा नहीं रहता है और पचास वर्ष की आयु होने पर उनके दिलों में नफरत भर जाती है और वे पलटकर दूसरों को नुकसान पहुँचाने लगते हैं। लोग नफरत से भरने से पहले क्या सहते हैं? यह सब तिरस्कार और दर्द है। जब तुम्हारे पास दूसरों जैसी क्षमता और शक्ति नहीं होती है, जब दूसरे यह कहें कि तुम कमाल हो, तो तुम्हें फौरन स्वीकृति में अपना सिर हिला देना चाहिए और जब वे तुम्हें कोसें, तो तुम्हें सुन लेना चाहिए। इस बारे में तुम कुछ नहीं कर सकते हो, लेकिन भीतर तुम क्या सोचते हो? “एक दिन जब मेरे पास शक्ति होगी, तो मैं अपने हाथों से तुम्हें मार डालूँगा और तुम्हारे वंश की तीन पीढ़ियों का नामोनिशान मिटा दूँगा!” तुम्हारे दिल में जो नफरत है, वह और भी मजबूत होती जाती है। यही वह परिणाम है जो अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने से भ्रष्ट मानवजाति पर आ पड़ता है। लोग सोचते हैं कि अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना, जिसकी समाज द्वारा तारीफ की जाती है और प्रचार किया जाता है, सकारात्मक चीज है, और यह एक तरह की मानसिकता और सोचने का तरीका है जो लोगों को कड़ी मेहनत करने में और ज्यादा मजबूत बनने का प्रयास करने में समर्थ बनाता है। तो, यह अंत में लोगों में नाराजगी और नफरत क्यों पैदा करता है? (क्योंकि यह सत्य नहीं है।) सही कहा। इससे यह नकारात्मक परिणाम इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि यह सत्य नहीं है। वह क्या है जो समाज और गिरोहों में पीढ़ियों से चली आ रहे रोष और बदले की भावना से की गई हत्याओं का कारण है? (तिरस्कार सहने के बाद, लोगों के दिलों में बसी नफरत बढ़ने लगती है और वे बदला लेने के लिए हत्याएँ करते हैं।) सही कहा, बदला लेने के लिए की गई हत्याओं का कारण यही है। पीढ़ी दर पीढ़ी, लोग निर्दयता से एक दूसरे को मारते हैं जब तक कि मानवजाति आपदा से नष्ट नहीं हो जाती। यही परिणाम होता है। मानवजाति शैतान के फलसफों और तर्क के अनुसार जीती रही है और धीरे-धीरे शैतान की शक्ति के अधीन वर्तमान समय तक विकसित हुई है। लोगों के आपसी संबंध लगातार विकृत होते जा रहे हैं, लगातार दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं, भरोसा तेजी से घट रहा है और रिश्ते ठंडे होते जा रहे हैं। अब यह किस बिंदु तक पहुँच गया है? यह उस बिंदु तक पहुँच गया है जहाँ दो लोग, जिनका एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है, उनके दिल परस्पर नफरत और परस्पर वैर से भरे हुए हैं। इससे पहले, पड़ोसी अक्सर एक दूसरे के संपर्क में रहते थे और अक्सर एक दूसरे से बातचीत करते थे, लेकिन अब, अगर कोई व्यक्ति पाँच-छह दिनों तक मरा भी पड़ा रहे, तो भी उसके पड़ोसी को पता नहीं चलेगा; कोई भी उसकी खैर-खबर लेने नहीं आएगा। चीजें इस बिंदु तक कैसे पहुँच गईं? इसी परस्पर नफरत के कारण चीजें इस बिंदु तक पहुँच गईं। तुम नहीं चाहते हो कि दूसरे लोग तुम्हारे प्रति वैर-भाव रखें, लेकिन साथ ही, तुम दूसरों के प्रति वैर-भाव रखते हो—यह एक दुष्चक्र है। यह शैतान के नियमों द्वारा मानवजाति पर लाया गया एक नकारात्मक परिणाम और आपदा है। लोगों के दिलों में दूसरों के बारे में जो विचार और धारणाएँ हैं, वे लगातार ज्यादा प्रतिकूल होती जा रही हैं, इसलिए वे अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने में बेहतर होते जा रहे हैं, और उनके दिलों में नाराजगी और नफरत बढ़ती जा रही है, जब तक कि वे अंत में यह नहीं कह देते कि “बेहतर होगा अगर वे सभी मर जाएँ और उनमें से एक भी जिंदा नहीं रहे!” क्या हर किसी का दिल इस तरह की नफरत से भरा हुआ नहीं है? वे चाहते हैं कि यह दुनिया जल्द से जल्द नष्ट हो जाए : “सभी लोग बेहद बुरे हैं। वे नष्ट किए जाने लायक हैं!” तुम कहते हो कि दूसरे लोग बेहद बुरे हैं, लेकिन तुम खुद कैसे हो? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम सही मायने में बदल गए हो? कि तुमने उद्धार प्राप्त कर लिया है? दूसरों के बेहद बुरे होने के कारण उनसे नफरत करने के साथ-साथ, तुम्हें उनसे बेहतर भी होना चाहिए। अगर तुम दुनिया के लोगों जितने ही बुरे हो, तो तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं है। जब कोई विवेक वाला व्यक्ति यह देखता है कि मानवजाति बेहद बुरी है, तो उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए मनुष्य जैसा जीवन जीना चाहिए—यही उचित है। इस तरह, जब परमेश्वर इस दुष्ट मानवजाति को नष्ट करेगा, तो उसे बख्श दिया जाएगा।

क्या तुम लोग इस दुष्ट मानवजाति से नफरत करते हो? (हाँ।) परमेश्वर में विश्वास रखने वाले ज्यादातर लोगों में कुछ मानवता और विवेक होता है; उनके दिल ज्यादा दयालु होते हैं, वे प्रकाश के लिए तरसते हैं, और वे यह लालसा रखते हैं कि शक्ति पर परमेश्वर और सत्य का कब्जा रहे। वे दुष्ट चीजें पसंद नहीं करते हैं, और उन्हें ऐसी चीजें पसंद नहीं हैं जो अनुचित हैं। उनमें मानवजाति के लिए आशा, प्रेम और सहिष्णुता होनी चाहिए, तो फिर वे मानवजाति से नफरत कैसे कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे याद है, जब मैं स्कूल में था, तो शिक्षक मुझे परेशान किया करता था, लेकिन मैं इसके बारे में बोलने की हिम्मत नहीं करता था; मुझे बस इसे सहन करना पड़ता था। इसलिए मैंने मन में ठान लिया था कि मैं कड़ी मेहनत से पढ़ाई करूँगा और भविष्य में विश्वविद्यालय में दाखिला लूँगा। मैं तुम लोगों को दिखा दूँगा कि मैं किस मिट्टी का बना हूँ, और फिर मैं तुम लोगों को परेशान करूँगा!” कुछ लोग कहते हैं, “मुझे याद है, जब मैं नौकरी करता था तो कंपनी के ताकतवर लोग मुझे हमेशा परेशान करते थे, और मैं सोचता था, ‘बस उस दिन का इंतजार करो जब मैं अपनी उपलब्धियों के बल पर तुम लोगों से आगे निकल जाऊँगा। फिर मैं तुम लोगों का जीवन दुःखी कर दूँगा!’” फिर दूसरे लोग हैं जो कहते हैं, “मुझे याद है, जब मैं व्यापार करता था, तो विक्रेता प्रबंधक मुझे हमेशा ठगता था, और मैं सोचता था, ‘जिस दिन मैं बहुत सारे पैसे कमा लूँगा, उस दिन मैं तुमसे बदला लूँगा!’” किसी का भी जीवन आसान नहीं होता है, और हर किसी के जीवन में ऐसे समय आते हैं जब उन्हें परेशान किया जाता है—उनके पास ऐसे लोग होते हैं जिनसे वे भीतर से नफरत करते हैं और उनसे हिसाब चुकता करना चाहते हैं। अब दुनिया इस हद तक पहुँच चुकी है; यह नफरत और दुश्मनी से भरी हुई है। लोगों की एक-दूसरे से दुश्मनी बहुत ही ज्यादा है, और वे मिलजुलकर नहीं रह सकते हैं और उनके बीच मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं हैं। यह दुनिया जल्द ही खत्म हो जाएगी; यह अपने अंतिम परिणाम तक पहुँच चुकी है। हर किसी के भीतर बीते समय की अति दुखद कहानियाँ हैं, जब किसी ने, किसी जगह उन्हें परेशान किया था, या जब किसी कंपनी, संगठन या लोगों के समूह के दूसरे लोगों ने उन्हें परेशान किया था, उन्हें नीची नजर से देखा था, धोखा दिया था या नुकसान पहुँचाया था। ये चीजें हर जगह होती हैं। इससे क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि अब मानवजाति में नूह जैसे लोग बिल्कुल नहीं हैं। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) हर किसी का दिल दुष्टता से भरा हुआ है, और सत्य के प्रति, सकारात्मक चीजों के प्रति, और न्याय के प्रति वैर-भाव से भरा हुआ है। लोग पहले से ही बचाए जाने से परे जा चुके हैं। यहाँ ऐसा कोई भी व्यक्ति, कोई भी शिक्षा और कोई भी सिद्धांत नहीं है, जो मानवता को बचा सके—यही सच्चाई है। कुछ लोग अब भी यह उम्मीद करते हैं : “विश्वयुद्ध कब होगा? युद्ध के बाद, वे सभी लोग जो मरने लायक हैं, मर जाएँगे, और जो लोग बच जाएँगे, वे एक नई शुरुआत कर पाएँगे। एक नया युग शुरू होगा, और एक नए देश की स्थापना की जाएगी।” क्या यह हो सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। कुछ लोगों को सभी तरह के अलग-अलग धर्मों से उम्मीद है, लेकिन अब हर धर्म का सूरज अस्त हो रहा है और वे अपनी अंतिम साँसें गिन रहे हैं। हर धर्म जड़ तक सड़ा चुका है और सबकी प्रतिष्ठा खराब है। इन वचनों से मेरा क्या अर्थ है? ये लोगों को एक तथ्य समझाने के लिए हैं : अगर परमेश्वर मानवता को बचाने के लिए वचनों और सत्य का उपयोग नहीं करता है, तो मनुष्यों के भीतर गहराई में निहित नफरत और शातिर स्वभाव सिर्फ लगातार बदतर ही होंगे तथा और ज्यादा अनियंत्रित होते जाएँगे। अंत में, मानवजाति के लिए एकमात्र संभावना यही रहेगी कि लोग एक-दूसरे को निर्दयता से मार डालें और खुद ही अपना विनाश करके खत्म हो जाएँ। वर्तमान समय में, बहुत से लोग इस दुष्ट मानवजाति से बचना चाहते हैं और पहाड़ों के बीच और घने जंगलों में या किसी ऐसी जगह जाकर अकेले रहना चाहते हैं जहाँ मानव जीवन का कोई निशान नहीं हो। इसका क्या परिणाम होगा? मानवजाति की संख्या में और वृद्धि नहीं होगी और कोई अगली पीढ़ी नहीं होगी। मानवजाति वर्तमान पीढ़ी के बाद विलुप्त हो जाएगी—कोई वंशज नहीं होंगे। परमेश्वर के प्रति मानवजाति का प्रतिरोध बहुत ही तीव्र है, जिसने शुरू में ही उसके रोष को भड़का दिया। वे बहुत जल्द खत्म हो जाएँगे। इतने सारे लोग क्यों हैं जो शादी नहीं करते हैं? क्योंकि वे धोखा दिए जाने से डरते हैं, उन्हें विश्वास नहीं होता है कि अब कोई अच्छा इंसान भी है और वे शादी के प्रति वैर-भाव से भरे हुए हैं। इसके लिए किसे दोषी ठहराया जाना चाहिए? इसके लिए लोगों के बहुत ज्यादा भ्रष्ट होने को दोषी ठहराओ, इसके लिए शैतान और दुष्ट लोगों को दोषी ठहराओ, और इसके लिए उन लोगों को दोषी ठहराओ जो स्वेच्छा से भ्रष्टता को स्वीकार कर लेते हैं। तुम दूसरों से नफरत करते हो, लेकिन क्या तुम वाकई उनसे बेहतर हो? तुम्हारे पास सत्य नहीं है, और दूसरों से नफरत करने का कोई फायदा नहीं है। अगर लोगों के पास सत्य नहीं है और वे सत्य नहीं समझते हैं, तो अंत में उनके आगे का रास्ते बंद हो जाएँगे और उन पर आपदा आ पड़ेगी और वे नष्ट हो जाएँगे। उनका यही अंत होगा। अगर परमेश्वर मानवजाति को नहीं बचाता है, तो भ्रष्ट मानवजाति में कोई भी ऐसा नहीं होगा जो सत्य समझ सके।

“अपमान” वास्तव में क्या है? क्या विश्वासियों को अपमान सहने की जरूरत है? क्या यह “अपमान” मौजूद है? (नहीं, यह मौजूद नहीं है।) यह मौजूद नहीं है, तो क्या यह मुद्दा हल नहीं हो गया है? अगली बार जब तुम किसी को यह कहते हुए सुनो कि “विश्वासी के रूप में जो पहली चीज तुम्हें सीखनी चाहिए, वह है सहना। चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें उसे सहना चाहिए और उसे अपने अंदर ही दबा देना चाहिए।” जब तुम उसे ये शब्द कहते हुए सुनो, तो क्या तुम्हें उससे कुछ कहना चाहिए? (हाँ।) तुम्हें क्या कहना चाहिए? तुम्हें कहना है : “तुम किस चीज के लिए सह रहे हो? अगर तुम सही मायने में अपमान सह रहे हो, तो तुम बहुत ही दयनीय हो, और यह दर्शाता है कि तुम सत्य नहीं समझते हो। अगर तुम सत्य समझते, तो यह तिरस्कार मौजूद नहीं होता, और तुम स्वेच्छा और खुशी से वे सभी परिस्थितियाँ स्वीकार कर लेते, जिनकी योजना परमेश्वर तुम्हारे लिए बनाता है। लोगों को तिरस्कार नहीं, बल्कि कष्ट सहना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा उत्थान करना है। यह सच्चाई कि हम इस कष्ट को सह सकते हैं यह साबित करता है कि परमेश्वर अब भी हमें एक मौका दे रहा है और बचाए जाने के लिए हमें समर्थ बना रहा है। अगर हमें कष्ट सहने का अवसर ही नहीं मिलता या हम इसके योग्य ही नहीं होते, तो हमारे पास बचाए जाने का कोई मौका ही नहीं होता। यह तिरस्कार नहीं है; तुम्हें इस बारे में स्पष्ट हो जाना चाहिए, और यह देखना चाहिए कि तुम जो कह रहे हो वह वास्तव में सही है भी या नहीं। यह तिरस्कार मौजूद नहीं है—हम भ्रष्ट लोग हैं और इस कष्ट को सहने लायक हैं। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो दवा लेने और सर्जरी करवाने में तुम्हें थोड़ा कष्ट होता है। क्या अपनी बीमारी को ठीक करने के लिए तुम जो कष्ट सहते हो, उसे तिरस्कार माना जाता है? यह तिरस्कार नहीं है; यह तुम्हें ठीक करने के लिए किया जाता है। परमेश्वर में हमारे विश्वास और न्याय और ताड़ना का अनुभव हमारे भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देने, और मानव के समान जिंदा रहने, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, उसकी आराधना करने, और बेहतर तरीके से जीने और ज्यादा गौरव के साथ जीने के लिए है। हम अपने भ्रष्ट स्वभावों के कारण यह कष्ट सहने लायक हैं। यह कष्ट हम सत्य और जीवन प्राप्त करने की खातिर सहते हैं। हम इसकी व्याख्या तिरस्कार के रूप में नहीं कर सकते हैं। हमें इसे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व के रूप में, और उस मार्ग के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो हमें अपनाना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा हमारा उत्थान है, और हमारा उत्थान करने के लिए हमें परमेश्वर की तारीफ करनी चाहिए, और उसने हमें जो मौका दिया है उसके लिए हमें उसकी तारीफ करनी चाहिए। हमने जो सब किया है और हमने जिस तरह से कार्य किया है, उसके आधार पर हम इस कष्ट को सहने योग्य नहीं हैं, और हमें दुनिया के लोगों की तरह नष्ट कर दिया जाना चाहिए। अगर हम हमें जो कष्ट सहना चाहिए उसे और परमेश्वर द्वारा हमें दिए गए सारे अनुग्रह को तिरस्कार मानते हैं, तो हम में बुरी तरह से विवेक का अभाव है और हम परमेश्वर के दिल को ठेस पहुँचा रहे हैं! हम परमेश्वर के उद्धार के योग्य नहीं हैं।” क्या यही बात नही है? (हाँ।) धर्म-सिद्धांत का यह भाग बहुत ही आसान है। क्या इसे बिना कहे ही समझना संभव नहीं है? इस तरह से प्रबुद्ध होकर और इन चीजों को समझकर, लोगों के दिल ज्यादा सहज हो जाएँगे, और जब उनके साथ कुछ घटेगा, तो वे अनुचित रूप से कार्य नहीं करेंगे। कुछ लोग अपने दिलों में स्पष्ट रूप से यह जानते हैं कि यही सत्य है और उन्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन जब वे बोलते हैं तो, वे अब भी यही कहते हैं कि यह वाकई नाइंसाफी है, और वे तब तक लगातार बोलते रहते हैं जब तक कि परमेश्वर के खिलाफ आलोचना के शब्द बाहर नहीं आ जाते। ऐसी चीजें मत करो। जब भी तुम्हारे साथ कुछ घटे, तो सत्य की तलाश करो। यही पहली महत्वपूर्ण चीज है; इसे कभी भी नजरअंदाज मत करना। अगर तुम यह स्वीकार करते हो कि परमेश्वर ही सत्य है, परमेश्वर ही मार्ग है और परमेश्वर ही जीवन है, तो तुम्हें ऐसी किसी भी परिस्थिति को मानव का कार्य नहीं मानना चाहिए जिसे परमेश्वर उत्पन्न करता है। बल्कि, तुम्हें परमेश्वर द्वारा उत्पन्न की गई हर परिस्थिति को अपना स्वभाव बदलने का एक मौका और सत्य स्वीकार करने का एक मौका मानना चाहिए।

मैंने “अपमान” के अर्थ पर संगति समाप्त कर ली है। इसके बाद, मैं अगले भाग पर संगति करूँगा, जो इस बारे मैं है कि “भारी दायित्व उठाने” का क्या अर्थ होता है। अभी-अभी हमने इस बारे में बात की कि लोग जो भारी दायित्व उठाते हैं वह कैसे उनके दिल की गहराई में बसी एक इच्छा और एक महत्वाकांक्षा है, एक लक्ष्य है जिसे वे हासिल करने की उम्मीद करते हैं। जब परमेश्वर में विश्वास रखने वालों के परमेश्वर द्वारा बचाए जाने और परमेश्वर की अगुवाई स्वीकार करने की बात आती है, तो क्या उन्हें अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? अभी-अभी, मैंने कहा कि परमेश्वर के घर में “अपमान सहने” वाला वाक्यांश मान्य नहीं है। तुम्हें अपमान सहने की जरूरत नहीं है; तुम्हें यह महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुम इतना कष्ट उठा रहे हो; तुम्हारे दिल को ऐसा महसूस करने की जरूरत नहीं है कि उसके साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है; और तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह सारा तिरस्कार सहने की जरूरत नहीं है, जैसे कि तुम बहुत ही कुलीन हो। तुम्हें ये चीजें करने की जरूरत नहीं है। तो भारी दायित्व उठाने का क्या अर्थ है? अगर कोई यह कहे कि परमेश्वर लोगों को यह सारे कष्ट सहने के लिए इसलिए मजबूर करता है ताकि वे और बड़ी जिम्मेदारियाँ और लक्ष्य स्वीकार कर सकें, और ज्यादा आशीष और बेहतर गंतव्य प्राप्त कर सकें, तो क्या यह कथन ठोस और उचित होगा? (नहीं, यह ठोस नहीं है।) यह ठोस नहीं है। तो फिर हमें इसे कैसे परिभाषित करना चाहिए? परमेश्वर लोगों को बचाए जाने और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अनुमति देता है, और उन्हें बेहतर जीवन जीने देता है। वास्तव में, क्या परमेश्वर यह लोगों की खातिर करता है, या अपनी खातिर करता है? (लोगों की खातिर करता है।) यकीनन यह लोगों की खातिर है। लोग सबसे बड़े लाभार्थी हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ कि इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि परमेश्वर इससे क्या प्राप्त करता है, इस बात को तो छोड़ ही दो कि यह कष्ट सहने से लोगों को कितनी मात्रा में आशीषें मिल सकती हैं। तुम्हें सहने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें इस तरह की “महान आकांक्षाएँ” रखने की जरूरत नहीं है, और ना ही तुम्हें चीजों को इस तरह से त्याग देने की जरूरत है। दरअसल, तुमने कुछ भी नहीं त्यागा है, और ना ही तुमने कुछ भी फेंका है। इसके विपरीत, लोगों को सबसे ज्यादा फायदा ही हुआ है। एक चीज है कि लोगों ने अपने व्यवहार करने की सभी अलग-अलग कसौटियों को समझ लिया है। साथ ही, लोग इस पूरी व्यवस्था का और परमेश्वर द्वारा स्थापित इन सभी नियमों का पालन कर सकते हैं, और सुव्यवस्थित तरीके से जी सकते हैं। जीने का यह तरीका लोगों के इस समय के जीने के तरीके की तुलना में कैसा है? (यह बेहतर है।) यह लोगों के इस समय के जीने के तरीके की तुलना में बेहतर है। फिर, जीने के इन दो तरीकों में से, कौन-सा तरीका ज्यादा धन्य है, सच्चे सृजित प्राणी से ज्यादा मिलता-जुलता है, और इससे भी ज्यादा, कौन-सा तरीका वह जीवन है जो मानवजाति के पास होना चाहिए? (पहला तरीका।) यकीनन पहला तरीका ऐसा है। यह कष्ट सहने के बाद, तुम परमेश्वर के इरादों को समझते हो, और साथ ही, कई सत्यों को समझते हो, और आधार के रूप में सत्य की समझ के साथ, तुम सीखते हो कि तुम्हें कैसे व्यवहार करना है, और ऐसा सत्य मौजूद है जो तुम्हारी मानवता में जीवन के रूप में कार्य करता है। क्या इससे तुम्हें महत्व मिलता है? लोगों के पास मूल रूप से बिल्कुल कोई सत्य नहीं होता है। वे तो सिर्फ नालायक अभागे होते हैं जो चींटियों से भी कमतर हैं और जिंदा रहने लायक नहीं हैं, लेकिन अब तुमने सत्य समझ लिया है, और सत्य के अनुसार बोलते हो और कार्य करते हो। परमेश्वर चाहे तुम लोगों से कुछ भी करवाए, तुम उसे सुनने और उसे पूरी तरह से अंजाम देने में समर्थ हो, और चाहे परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई भी व्यवस्थाएँ करे, तुम उनके प्रति समर्पण करने में समर्थ हो। तो, क्या तुम अब भी परमेश्वर की आलोचना करोगे? क्या तुम खुद आगे बढ़कर उसके खिलाफ विद्रोह करोगे? अगर कोई तुम्हें परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाता है, तो क्या तुम ऐसा करोगे? (नहीं।) अगर कोई तुम्हें गुमराह करने के लिए परमेश्वर के बारे में झूठी बातें बनाता है, तो क्या तुम उस पर विश्वास करोगे? (नहीं।) नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगे। इसलिए चाहे व्यक्तिपरक अर्थ में हो या वस्तुपरक अर्थ में, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करोगे। इस तरह के मनुष्य पूरी तरह से परमेश्वर के प्रभुत्व में रहते हैं। तो क्या इस तरह के मनुष्यों को अब भी लोगों का दर्द सहने की जरूरत है? क्या उनके दिलों में अब भी नफरत और दर्द है? क्या उनके दिलों में दुखद और दर्दनाक बातें हैं? (नहीं।) यह दर्द वहाँ नहीं है। इस तरह के लोग अपने सभी कार्यों में सिद्धांतवादी होते हैं और अविवेकी नहीं होते हैं। साथ ही, जब चीजें घटती हैं, तो परमेश्वर के पास संप्रभु अधिकार होता है, और शैतान तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचा सकता है; तुम एक सच्चे व्यक्ति की तरह जीते हो। क्या परमेश्वर इस तरह के मनुष्यों को नष्ट कर देगा? क्या इस तरह के मनुष्य खुद को नष्ट कर लेंगे? (नहीं।) नहीं, वे ऐसा नहीं करेंगे। वे आज के भ्रष्ट मनुष्यों की तुलना में पूरी तरह से अलग प्रकार के लोग हैं। आज लोगों के दिल नफरत और दर्द से भरे हुए हैं। वे कभी भी, कहीं भी आत्महत्या करने, कभी भी, कहीं भी लोगों से लड़ने और उन्हें मार डालने, और कभी भी, कहीं भी बुरे काम करने, और मानव दुनिया पर आपदा लाने में सक्षम हैं। जबकि, वे मनुष्य जो परमेश्वर द्वारा बचाए जाते हैं और जिन्होंने जीवन के रूप में सत्य प्राप्त कर लिया है, लड़ाई या नफरत किए बिना शांति से मिलजुलकर रह सकते हैं। वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने, और परमेश्वर के कहे हर वचन के प्रति एकजुट दिलों और प्रयास से समर्पण करने में समर्थ हैं। ये सभी लोग परमेश्वर के वचन में जीते हैं, और उसी दिशा में कड़ी मेहनत करते हैं। परमेश्वर की इच्छा पूरी करवाने की खातिर—जब तुम सत्य समझते हो, वह सत्य समझता है, वह सत्य समझती है और वे सत्य को समझते हैं—तो जब वे एक साथ होते हैं, तब भी क्या उनके विचार अलग-अलग हो सकते हैं? (नहीं।) इस तरह से, वे उस बिंदु तक पहुँच सकते हैं जहाँ हर कोई परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहा है, उसके वचन में जी रहा है, सत्य के अनुसार जी रहा है, और जहाँ लोगों के दिल एक दूसरे से मेल खाते हैं। इस तरह, क्या अब भी लोगों के बीच हत्याएँ और लड़ाइयाँ हो सकती है? (नहीं।) नहीं। क्या अब भी लोगों को दर्द सहने की जरूरत है? यहाँ कोई दर्द नहीं है। इस तरह के मनुष्य बिना किसी लड़ाई या हत्या के एक धन्य जीवन जीते हैं। तो फिर लोगों को उन सभी चीजों का प्रबंधन कैसे करना चाहिए जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपी हैं? (उन्हें शांति से मिलजुलकर रहना चाहिए।) इसका एक भाग यह है कि उन्हें शांति से मिलजुलकर रहना चाहिए। दूसरा भाग यह है कि उन्हें हर चीज का प्रबंधन परमेश्वर द्वारा स्थापित की गई व्यवस्था और नियमों के अनुसार करना चाहिए। जिसका अर्थ यह है कि यह पूरी व्यवस्था और ये सभी नियम और जीवित चीजें मानवजाति की हैं, मानवजाति द्वारा उपयोग की जाती हैं, और मानवजाति के लिए फायदे उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार की मानवजाति कितनी अद्भुत है! उस समय, मानवजाति के रहन-सहन के परिवेश का प्रबंधन मनुष्यों को दे दिया जाता है। परमेश्वर इस दुनिया के लिए व्यवस्था और नियम मनुष्यों की खातिर स्थापित करता है, और फिर परमेश्वर इसमें दखल नहीं देता है। अगर एक दिन तुम किसी भेड़िये को एक खरगोश खाते हुए देख लो, तो तुम क्या करोगे? तुम्हें भेड़िये को इसे खाने देना चाहिए। तुम किसी भेड़िये को खरगोश खाने से नहीं रोक सकते और उसे घास खाने पर मजबूर नहीं कर सकते। तुम क्या गलती कर रहे होगे? (चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ जा रहे होगे।) तुम चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ जा रहे होगे। खरगोश घास खाते हैं और भेड़िये माँस खाते हैं, इसलिए तुम्हें उनकी जन्मजात प्रकृति का सम्मान करना चाहिए और उन्हें स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना चाहिए। किसी बनावटी, अतिरिक्त तरीके से उनकी गतिविधियों और जीवनशैली में दखल देने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें इन चीजों का प्रबंधन करने की जरूरत नहीं है; परमेश्वर ने पहले से ही इन चीजों को उसी तरीके से तय कर दिया है जैसे उन्हें होना चाहिए। अगर कुछ जगहें ऐसी हैं जहाँ बहुत वर्षा होती है और जलवायु उपयुक्त नहीं है, तो जानवरों को प्रवास करना ही पड़ता है। तुम कहते हो, “हमें यह जगह ठीक करनी चाहिए। यहाँ हमेशा इतनी बारिश क्यों होती है? जानवरों के लिए हमेशा प्रवास करना कितना थकाऊ होता होगा!” क्या यह फिर से बेवकूफी नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बेवकूफी कैसे है? क्या यह जलवायु परमेश्वर ने नहीं बनाई? (हाँ, बनाई।) परमेश्वर ने यह जलवायु बनाई और इन जानवरों को इस इलाके में रहने दिया। क्या परमेश्वर ने उनका प्रवास नहीं बनाया? (हाँ, बनाया।) तो फिर तुम बीच में क्यों आना चाहते हो? तुम आँख मूँदकर अच्छे इरादों पर कार्य क्यों कर रहे हो? प्रवास करने में क्या अच्छा है? जब जानवरों का एक बड़ा समूह किसी इलाके में आधे वर्ष तक रहता है, तो वे सारी घास खा लेते हैं। अगर बारिश नहीं हुई और वे जाने के इच्छुक नहीं हुए, तो क्या होगा? हर समय बारिश होने रहना जरूरी हो जाएगा। जब जमीन गीली रहेगी, तो वे वहाँ नहीं रह पाएँगे और बारिश के पानी में घास डूब जाएगी, इसलिए उन्हें वहाँ से चले जाना पड़ेगा। यह प्रवास उनके शरीर को चुस्त बनाता है और घास को फिर से उगने का मौका देता है। जब वे दूसरी जगह की ज्यादातर घास खा लेंगे, तो वहाँ बर्फ पड़ने का समय आ जाएगा और एक तरह से कह सकते हैं कि उन्हें एक बार फिर बाहर निकाल दिया जाएगा और उन्हें जल्दी से प्रवास करना पड़ेगा। वे फिर से अपने मूल जगह की तरफ लौटने लगेंगे। अब यहाँ बारिश नहीं हो रही है, घास बड़ी हो गई है और वे इसे फिर से खा सकते हैं। इस तरह से, यह पारिस्थितिकी तंत्र प्राकृतिक तरीके से लगातार संतुलन बनाए रखता है। कुछ लोग कहते हैं, “शेर हमेशा अफ्रीकी बारहसिंघों को खा जाते हैं—बेचारे भोले जानवर! क्या हम अफ्रीकी बारहसिंघों को और होशियार नहीं बना सकते हैं?” तुम आँख मूँदकर अच्छे इरादों पर कार्य क्यों कर रहे हो? क्या तुम यह दिखाने का प्रयास कर रहे हो कि तुम दयालु हो? तुम्हारी अच्छाई बहुत ही ज्यादा दूर तक जा रही है। अगर अफ्रीकी बारहसिंघे चालाक होते, तो शेर भूखे रह जाते। क्या तुम शेरों को भूखा मरते हुए देखना बर्दाश्त कर पाओगे? दूसरे लोग हैं जो कहते हैं, “शेर बुरे होते हैं। वे हिरणों और धारीदार गधों को काट खाते हैं। यह बहुत ही वीभत्स और निर्दयी है!” अगर तुमने शेरों को नष्ट कर दिया, तो ढेर सारे धारीदार गधे और हिरण हो जाएँगे। अंतिम परिणाम क्या होगा? सारी घास चर ली जाएगी, और घास के मैदान रेगिस्तान में बदल जाएँगे। क्या तुम इसे बर्दाश्त कर पाओगे? क्या तुम तब भी इन अच्छे इरादों पर कार्य करोगे? तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? उन्हें स्वतंत्र रूप से बढ़ने दो। जानवरों के साथ ऐसा ही है। परमेश्वर ने यह पूरी व्यवस्था बहुत पहले ही स्थापित कर दी, और भले ही तुम चाहो या ना चाहो, तुम्हें इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा; हर चीज ठीक वैसे ही आगे बढ़नी चाहिए जैसे वह व्यवस्थित है। अगर तुम प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ जाओगे, तो जीवन कायम नहीं रह पाएगा। एक बार जब तुम ये सभी नियम समझ लोगे, तो तुम नियमों का आदर करोगे, और इन चीजों को नियमों के अनुसार देखोगे। तब तुम्हें हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता की बुद्धिमानी दिखाई देगी। साथ ही, ये सभी नियम जीवन में अंतर्निहित हैं। यह कैसे हुआ? (यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया।) यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया। परमेश्वर ने इसी तरह से इसकी व्यवस्था की। मनुष्य विज्ञान पर शोध करते हैं, जीवविज्ञान पर शोध करते हैं, अध्ययन के सभी प्रकार के क्षेत्रों पर शोध करते हैं। उन्होंने कई-कई वर्षों तक शोध किया है, लेकिन वे सिर्फ सरल सिद्धांत और व्यवस्था ही समझते हैं; किसी को भी इस सिद्धांत और परिघटना में परमेश्वर की संप्रभुता या बुद्धिमानी नहीं दिखाई देती है। यह पूरा पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य श्रृंखला इतनी जटिल और अद्भुत बनकर क्यों उभरी? मनुष्य इस दुनिया में लोगों के सामने सिर्फ एक परिघटना को स्पष्ट करते हैं या किसी तथ्य की घोषणा करते हैं, लेकिन कोई भी संक्षेप में यह प्रस्तुत नहीं कर सकता है या स्पष्ट रूप से यह नहीं देख सकता है कि यह सब परमेश्वर से आया है—यह अपने आप नहीं हुआ है। अगर हम यह कहते हुए आगे बढ़ते रहें कि यह अपने आप हुआ, तो इतने वर्षों में कभी किसी ने किसी वानर को मनुष्य में बदलते हुए क्यों नहीं देखा? ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए। क्या वानरों के मनुष्यों में बदलने से उनका कोई लेना-देना है? (नहीं।) ऐसी कोई चीज नहीं है। परमेश्वर ने ये सभी नियम और यह पूरी व्यवस्था स्थापित की। अगर लोगों की किस्मत इतनी अच्छी हुई कि वे यहाँ टिक पाएँ, तो उस समय वे ना सिर्फ इस पूरी व्यवस्था और इन सभी नियमों का आदर करेंगे, इन्हें बनाए रखेंगे और इनका प्रबंधन करेंगे, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे इस पूरी व्यवस्था और इन सभी नियमों के सबसे बड़े लाभार्थी भी होंगे। परमेश्वर ने यह सब मानवता के लिए तैयार किया, और इसे लोगों के लिए स्थापित किया—लोगों के आनंद के लिए सब कुछ पहले से ही तैयार है। सभी चीजों में, सृजित प्राणी यानी लोग सबसे ज्यादा धन्य हैं। लोगों के पास भाषा है, सोच है, वे परमेश्वर की आवाज सुन सकते हैं, परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं, उनके पास परमेश्वर से बातचीत करने के लिए भाषा है, और वे परमेश्वर के वचन समझने में सबसे माहिर हैं। वे सबसे ज्यादा धन्य हैं क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें वह सबसे बड़ी पूँजी दी है जिससे वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं और उसके सामने आ सकते हैं। अंत में, परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है उसके लिए, और इस पूरी व्यवस्था और परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए सभी नियमों के लिए यह जरूरी हो जाएगा कि लोग उनका प्रबंधन करें और उन्हें बनाए रखें। वे लोग जो इस पूरी व्यवस्था पर और इन सभी नियमों पर सिर्फ शोध करते हैं, इन्हें बर्बाद करते हैं, इनके लिए नुकसानदायक हैं और इन्हें तोड़ते-मरोड़ते हैं, उन्हें मिटा देना चाहिए। लोगों ने बहुत ज्यादा कष्ट सहा है। वह सुंदर गंतव्य जिस पर लोग अपने दिलों में विश्वास करते हैं, और जिसका वे अनुसरण करते हैं और जिसकी लालसा रखते हैं, क्या वह सच में मौजूद है? वह सच में मौजूद नहीं है। यह सिर्फ लोगों की इच्छा और महत्वाकांक्षा है, और यह उस चीज से अलग है जो परमेश्वर लोगों को देना चाहता है। ये दो अलग-अलग चीजें हैं और इनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने का “भारी दायित्व उठाना” वाला भाग लोगों में मौजूद नहीं है। यह मौजूद नहीं है से मेरा क्या अर्थ है? मेरा मतलब है है कि जिस सुंदर गंतव्य पर तुम विश्वास करते हो, और अपने दिल की गहराई में बसी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं में तुम जिन चीजों को हासिल करना चाहते हो, वे बिल्कुल मौजूद नहीं हैं। चाहे तुम कितने भी कष्ट क्यों ना उठा लो या कितना भी तिरस्कार क्यों ना सह लो, अंत में, तुम जिस गंतव्य की लालसा रखते हो, जो चीजें हासिल करना चाहते हो, जो व्यक्ति बनना चाहते हो, और जिस हद तक तुम धन्य होना चाहते हो, इन सबका कोई औचित्य नहीं है। ये वे चीजें नहीं हैं जो परमेश्वर तुम्हें देना चाहता है। यहाँ और कौन-सी समस्या है? अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना तब होता है जब लोग तिरस्कार सहकर अपनी वास्तविक क्षमताओं को छिपाते हैं, फिर अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तिरस्कार सहते हैं। ये लक्ष्य क्या हैं? ये लोगों के दिलों में बसे आदर्श और यहाँ तक कि गहरी इच्छाएँ भी हैं। तो फिर जब विश्वासी कष्ट सहते हैं, तो क्या यह किसी इच्छा को पूरा करने के लिए होता है? (नहीं।) तो फिर यह किसलिए है? जब विश्वासी कष्ट सहते है, तो क्या वे जिस लक्ष्य का अनुसरण करना और जिसे हासिल करना चाहते हैं, वह सकारात्मक होता है या नकारात्मक होता है? (सकारात्मक होता है।) क्या यह इच्छा से जुड़ा हुआ है? (नहीं।) तो फिर यह सकारात्मक लक्ष्य क्या है? (अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग देना, एक सच्चा व्यक्ति बनना, और बेहतर तरीके से जी पाना।) अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग देना, एक सच्चा व्यक्ति बनना, और बेहतर तरीके से जी पाना। और क्या? ऐसा व्यक्ति बनना जिसे बचाया जाता है, और फिर से परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करना। क्या तुम लोग अय्यूब और पीटर जैसे व्यक्ति बनना चाहते हो? (हाँ।) तो क्या यह कोई लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) क्या यह लक्ष्य इच्छा से जुड़ा हुआ है? (नहीं।) यह लक्ष्य एक उचित अनुसरण है, और यह वही लक्ष्य और मार्ग है जो परमेश्वर ने लोगों को दिया है। यह उचित है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि अनुसरण के इस उचित लक्ष्य के कारण तुम जो कष्ट सहते हो, वह अपमान सहना नहीं है। बल्कि, यह वही है जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, और यह वही मार्ग है जिसे लोगों को अपनाना चाहिए। वे लोग जो अपने दिलों की गहराई में यह सोचते हैं कि वे तिरस्कार सहने वाले व्यक्ति हैं, क्या इस मार्ग पर आ सकते हैं? वे नहीं आ सकते हैं और ना ही वे यह लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।

अब इसे देखते हुए, क्या वाक्यांश “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” सत्य है? (नहीं है।) यह सत्य नहीं है, और यह इस बात की कोई कसौटी नहीं है कि लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए, कैसे व्यवहार करना चाहिए, या परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए। क्या परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लिए लोगों को अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने की जरूरत है? (नहीं।) क्या यह कहना सही है या गलत है कि किसी व्यक्ति ने अपमान सहकर और भारी दायित्व उठाकर उद्धार प्राप्त किया? (गलत है।) यह कैसे गलत है? अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना सत्य का अभ्यास करना नहीं है, तो वे उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यह ऐसा कहने जैसा है कि एक व्यक्ति ने लोगों को मार डाला, चीजों को आग लगा दी और बहुत सारी बुरी चीजें की, और अंत में, “लोगों का प्यारा अगुआ” बन गया। क्या यह ऐसा कहने जैसा ही नहीं है? (हाँ, है।) इसका यही अर्थ है। वे जाहिर तौर पर दुष्टता के मार्ग पर हैं, लेकिन फिर भी सकारात्मक व्यक्ति बन गए। यह एक विरोधाभास है। अगर कोई यह कहे कि किसी व्यक्ति ने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया, और अंत में, उसने परमेश्वर के साथ अनुरूपता प्राप्त की, या किसी व्यक्ति ने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया, और अंत में, वह परीक्षणों के दौरान अटल रहा, या किसी व्यक्ति ने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया और अंत में, उसने परमेश्वर का आदेश पूरा किया—इनमें से कौन-सा कथन सही है? (इनमें से कोई भी नहीं।) इनमें से कोई भी सही नहीं है। क्या यह कहना सही है कि किसी ने पूरे गाँव में सुसमाचार फैलाते समय अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया? (नहीं।) मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोग दुविधा में हैं और सोच रहे हैं, “क्या यह सही है? मुझे लगता है कि यह कथन सही है, है ना? ऐसा कई बार होता है जब लोगों को सुसमाचार फैलाने और परमेश्वर की गवाही देने के दौरान अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना पड़ता है।” इस संदर्भ में इस वाक्यांश का उपयोग सही है, है ना? (नहीं, यह सही नहीं है।) क्यों नहीं है? मुझे बताओ। (क्योंकि अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने से जो परिणाम प्राप्त होता है वह सकारात्मक नहीं है।) क्या यह सही अनुप्रयोग है? विश्लेषण करो कि यह वाक्यांश गलत कैसे है। इसका गहन-विश्लेषण करो। “सुसमाचार साझा करते समय, अपमान सहकर और भारी दायित्व उठाकर, उन्होंने बहुत से लोगों का धर्म परिवर्तन किया, बहुत सफलता प्राप्त की, और परमेश्वर का नाम फैलाया।” क्या तुम्हें नहीं पता कि यह कथन सही है या नहीं? अगर हम इसे उस हर कथन के अनुरूप लागू करते हैं जिस पर आज हमने संगति की है, तो इस स्थिति में इस वाक्यांश का उपयोग करना गलत होगा, लेकिन अगर हम इस बारे में एक कदम आगे सोचें कि सुसमाचार फैलाते समय कैसे कुछ लोगों को संभावित प्राप्तकर्ता चोट पहुँचाते हैं या उन पर चिल्लाते हैं और उन्हें अपने दरवाजे से लौटा देते हैं, तो क्या इसे अपमान सहना माना जाएगा? (नहीं।) तो फिर यह क्या है? (वह कष्ट जिसे सुसमाचार फैलाते समय विश्वासियों को सहना चाहिए।) सही कहा। यह वह कष्ट है जिसे लोगों को सहना चाहिए। यह उनकी जिम्मेदारी है, उनका दायित्व है और परमेश्वर द्वारा लोगों को दिया गया आदेश है। यह वैसा ही है जैसे प्रसव दर्दनाक होता है—क्या यह वह कष्ट नहीं है जिसे सहन करना चाहिए? (हाँ, है।) अगर कोई महिला अपने बच्चे से यह कहे, “तुम्हें दुनिया में लाने के लिए मैंने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया,” तो क्या यह कहना सही होगा? (नहीं।) उसने कष्ट सहा, तो यह कहना गलत क्यों है? क्योंकि उसे यह कष्ट सहना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर कोई भेड़िया एक खरगोश पकड़ने से पहले कई घंटों तक शिकार के लिए भटकता रहे, और फिर कहे, “एक खरगोश खाने के लिए मैंने अपमान सहा और भारी दायित्व उठाया,” तो क्या यह सही होगा? (नहीं।) एक खरगोश खाने के लिए, भेड़िये को बदले में किसी चीज का बलिदान देना होगा। खरगोश सिर्फ वहाँ बैठकर यह इंतजार नहीं करने वाला कि भेड़िया आए और उसे खा जाए। कौन-सा कार्य इतना आसान होता है? कार्य चाहे कोई भी हो, व्यक्ति को कुछ बलिदान तो देना ही पड़ता है। यह अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना नहीं है। अभी, हमने “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” वाक्यांश को पूरी तरह से किस रूप में श्रेणीबद्ध किया है? (नकारात्मक रूप में।) हमने इसे एक नकारात्मक और अपमानजनक वाक्यांश के रूप में श्रेणीबद्ध किया है, और शैतान के तर्क और शैतान के सांसारिक आचरण के फलसफे के रूप में श्रेणीबद्ध किया है। इसका परमेश्वर या सकारात्मक चीजों में आस्था से कोई लेना-देना नहीं है। अगर कोई कहता है, “मैंने कई वर्षों से सुसमाचार फैलाया है। मैंने वाकई अपमान सहा है और भारी दायित्व उठाया है!” तो यह उचित नहीं है। सुसमाचार फैलाना तुम लोगों की जिम्मेदारी है, और यह वह कष्ट है जिसे तुम लोगों से सहने की अपेक्षा की जाती है। चाहे तुम सुसमाचार ना भी फैलाओ, तो भी क्या सिर्फ जीवित रहकर तुम कष्ट नहीं सहोगे? यह वह कष्ट है जिसे लोगों से सहने की अपेक्षा की जाती है; यह उचित है। वाक्यांश “अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना” को मूल रूप से परमेश्वर के घर से मिटा दिया गया है। अगर कोई फिर से इस वाक्यांश का जिक्र करता है, तो तुम इसकी व्याख्या कैसे करोगे? अगर कोई कहता है, “मैंने यहूदा नहीं बनने के लिए अपमान सहा और जेल में भारी दायित्व उठाया!” तो क्या यह कथन सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? “यहूदा नहीं बनने के लिए” एक बहुत ही उचित लक्ष्य है और कहने लायक उचित बात है, तो यह अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना कैसे नहीं हो सकता है? (एक विश्वासी को यहूदा नहीं बनना चाहिए।) यह सही बात है। एक विश्वासी के लिए यहूदा बनना कैसे उचित है? क्या यह कहना बेहूदा नहीं है कि यहूदा ना बनने का अर्थ अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना है? परमेश्वर की गवाही देना तुम्हारा ध्येय है। यही वह गवाही है जिसमें सृजित प्राणियों को अटल रहना चाहिए, और वह रवैया है जिस पर उन्हें अटल रहना चाहिए। शैतान मनुष्य की तारीफ के योग्य नहीं है। सिर्फ परमेश्वर ही वह है जिसकी लोगों को आराधना करनी चाहिए, और परमेश्वर की आराधना करना पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है। जब शैतान तुम्हें अपनी इच्छा के अनुसार झुकाने का प्रयास करता है, तो तुम्हें परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अटल रहना चाहिए, अपना जीवन त्याग देना चाहिए, और यहूदा नहीं बनना चाहिए। यह अपमान सहने और भारी दायित्व उठाने के समान नहीं है। मैंने यह वाक्यांश अब स्पष्ट रूप से समझा दिया है। अगर कोई फिर से कहता है कि उन्होंने कैसे अपमान सहा है और भारी दायित्व उठाया है, तो तुम्हें यह मामला कैसे संभालना चाहिए? वे तब समझेंगे जब तुम उन्हें वह धर्मोपदेश सुनने दोगे जिसका मैंने आज प्रचार किया है। यही सबसे आसान तरीका है।

ग. लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प

अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोने और पित्त चाटने की तीसरी अभिव्यक्ति है, लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प। कभी हार न मानने वाला स्वभाव कैसा होता है? यह अहंकारी स्वभाव होता है। यह कैसे हो सकता है कि लोग कभी असफल हों ही ना? यह कैसे हो सकता है कि लोग कभी कुछ गलत करें ही ना, कभी कुछ गलत कहें ही ना, या कभी कोई गलती ही ना करें? तुम्हें स्वीकार करना चाहिए कि “मैं एक आम व्यक्ति हूँ, और मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ। मुझमें दोष और कमियाँ हैं। ऐसे समय आते हैं जब मैं गलत काम करता हूँ और ऐसे समय आते हैं जब मैं गलत बात कहता हूँ। मैं गलत चीज करने और गलत मार्ग का अनुसरण करने के काबिल हूँ। मैं एक आम व्यक्ति हूँ।” तो कभी हार न मानने का क्या अर्थ है? यह तब होता है जब कोई व्यक्ति असफल होता है, बाधाओं का सामना करता है, या भटककर गलत मार्ग पर आ जाता है, लेकिन इसे स्वीकार नहीं करता है। वह बस जिद पकड़कर चलता रहता है। वह असफल तो होता है, लेकिन हिम्मत नहीं हारता है, वह असफल तो होता है, लेकिन अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करता है। चाहे कितने भी लोग उसे डाँटें या उसकी निंदा करें, वह वापस नहीं आता है। वह लड़ने, कार्य करने और अपनी दिशा में और अपने खुद के लक्ष्यों की तरफ बढ़ते रहने पर अड़ा रहता है, और कीमत के बारे में बिल्कुल नहीं सोचता है। यह वाक्यांश इसी किस्म की मानसिकता के बारे में बात करता है। क्या यह मानसिकता लोगों का मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत अच्छी नहीं है? आम तौर पर, किन स्थितियों में “कभी हार मत मानो” का उपयोग किया जाता है? हर किस्म की स्थिति में। जहाँ भी भ्रष्ट मनुष्य मौजूद हैं, वहीं पर यह वाक्यांश मौजूद है; यह मानसिकता मौजूद है। तो शैतान की किस्म के मनुष्यों ने इस कहावत का सुझाव क्यों दिया? ताकि लोग खुद को कभी नहीं समझें, अपनी गलतियाँ नहीं पहचानें, और अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करें। ताकि लोग सिर्फ अपने उस पक्ष को ही नहीं देखें जो भंगुर, कमजोर और अयोग्य है, बल्कि अपने उस पक्ष को भी देखें जो काबिल है, और जो ताकतवर और दिलेर है, वे खुद को कम नहीं समझें, बल्कि सोचें कि वे योग्य हैं। जब तक तुम यह मानते हो कि तुम समर्थ हो, तब तक तुम समर्थ हो; जब तक तुम मानते हो कि तुम सफल हो सकते हो, तुम असफल नहीं होगे, और जब तक तुम यह मानते हो कि तुम सर्वश्रेष्ठ बन सकते हो, तब तक बिल्कुल ऐसा ही होगा। जब तक तुममें वह दृढ़ निश्चय और संकल्प है, वह महत्वाकांक्षा और इच्छा है, तब तक तुम यह सब हासिल कर सकते हो। लोग मामूली नहीं हैं; वे ताकतवर हैं। अविश्वासियों में एक कहावत है : “तुम्हारी अवस्था उतनी ही ऊँची होगी, जितना बड़ा तुम्हारा दिल होगा।” कुछ लोगों को यह कहावत सुनते ही पसंद आ जाती है : “वाह, मुझे एक दस कैरेट का हीरा चाहिए, तो क्या इसका अर्थ है कि मुझे यह मिल जाएगा? मुझे एक मर्सिडीज बेंज चाहिए, तो क्या इसका अर्थ है कि मुझे यह मिल जाएगी?” क्या तुम्हें जो मिलेगा वह तुम्हारे दिल की इच्छा के विस्तार से मेल खाएगा? (नहीं।) यह कहावत एक भ्रांति है। सीधे शब्दों में कहें तो, “कभी हार मत मानो” वाक्यांश पर विश्वास करने वाले और उसे स्वीकार करने वाले लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती है। इन लोगों के सोचने का तरीका परमेश्वर के किन वचनों का सीधा खंडन करता है? परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा करता है कि वे खुद को समझें और व्यावहारिक तरीके से आचरण करें। लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं; उनमें कमियाँ होती हैं और उनमें परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले स्वभाव होते हैं। मनुष्यों के बीच एक भी पूर्ण व्यक्ति नहीं है; कोई भी पूर्ण नहीं है; वे बस आम लोग हैं। परमेश्वर ने लोगों को किस तरीके से आचरण करने के लिए प्रोत्साहित किया? (शिष्ट तरीके से।) शिष्ट तरीके से आचरण करना, और व्यावहारिक तरीके से सृजित प्राणियों के रूप में अपने स्थान पर दृढ़ता से बने रहना। क्या कभी परमेश्वर ने लोगों से कभी हार नहीं मानने की अपेक्षा की है? (नहीं।) नहीं। तो परमेश्वर लोगों के गलत मार्ग पर चलने, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के बारे में क्या कहता है? (वह इसे मान लेने और स्वीकार करने के लिए कहता है।) इसे मान लो और स्वीकार करो, फिर इसे समझो, खुद को बदलने में और सत्य का अभ्यास करने में समर्थ बनो। इसके विपरीत, कभी हार नहीं मानना तब होता है जब लोग अपनी समस्याएँ नहीं समझते हैं, अपनी गलतियाँ नहीं समझते हैं, अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते हैं, किसी भी मामले में खुद को नहीं बदलते हैं, और किसी भी मामले में पश्चात्ताप नहीं करते हैं, परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्थाएँ स्वीकार करने की तो बात ही छोड़ दो। वे ना सिर्फ इसकी तलाश ही नहीं करते हैं कि लोगों का भाग्य वास्तव में क्या है, या परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ क्या हैं—वे ना सिर्फ इन चीजों की तलाश ही नहीं करते हैं, बल्कि वे अपना भाग्य अपने हाथ में ले लेते हैं; वे चाहते हैं कि अंतिम फैसला उन्हीं का हो। इसके अलावा, परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है कि वे खुद को समझें, सटीकता से अपना मूल्यांकन करें और खुद को दर्जा दें, और व्यावहारिक और शिष्ट तरीके से वे जो कुछ भी कर सकते हैं, उसे करें, और उसे अपने पूरे दिल, दिमाग और आत्मा से करें, जबकि शैतान लोगों को उनके अहंकारी स्वभाव का पूरा उपयोग करने देता है, और उनके अहंकारी स्वभाव को खुली छूट देता है। यह लोगों को अतिमानवीय, महान बनाता है और यहाँ तक कि उन्हें महाशक्तियाँ भी प्रदान करता है—यह लोगों को ऐसी चीजें बना देता है जो वे नहीं हो सकते हैं। इसलिए, शैतान का फलसफा क्या है? यह ऐसा है कि भले ही तुम गलत हो, फिर भी तुम गलत नहीं हो, और जब तक तुममें हार न मानने की मानसिकता है, और जब तक तुममें कभी हार न मानने वाली मानसिकता है, तब तक देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सर्वश्रेष्ठ बन जाओगे, और देर-सवेर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हारी इच्छाएँ और लक्ष्य साकार हो जाएँगे। तो, क्या कभी हार न मानने का यह अर्थ मानने में कि तुम कोई चीज हासिल करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करोगे, कोई समझदारी है? अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, तुम्हें यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि तुम असफल हो सकते हो, तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि तुम एक आम व्यक्ति हो, और तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि तुम गलत मार्ग का अनुसरण करने के काबिल हो। इसके अलावा, तुम्हें अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ साकार करने के लिए बेईमानी से हर तरह के तरीके या गुप्त योजना का उपयोग करना चाहिए। क्या कभी हार नहीं मानने के बारे में ऐसा कुछ है जिसमें लोग अपने भाग्य को प्रतीक्षा और समर्पण के रवैये से देखते हैं? (नहीं।) नहीं। लोग अपना भाग्य पूरी तरह से अपने हाथ में लेने पर अड़े रहते हैं; वे अपने भाग्य पर खुद नियंत्रण करना चाहते हैं। चाहे यह इस बारे में हो कि वे किस तरफ जाएँगे, उन्हें आशीष मिलेगा या नहीं या उनकी जीवनशैली कैसी होगी, हर चीज में अंतिम फैसला उन्हीं का होना चाहिए। अविश्वासियों में एक कहावत है : “अवसर उन लोगों के पास आता है जो तैयार रहते हैं।” यह किस किस्म की कहावत है? ऐसे बहुत से लोग हैं जो तैयारी करने में वर्षों बिता देते हैं, जो अपना पूरा जीवन तैयारी करने में बिता देते हैं, लेकिन वे कभी कोई अवसर मिले बिना ही मर जाते हैं। अवसर कैसे आता है? (परमेश्वर से।) अगर परमेश्वर तुम्हारे लिए अवसर तैयार नहीं करता है, तो क्या तुम्हारी तरफ से किसी भी मात्रा में की गई तैयारी का कोई फायदा है? (नहीं।) अगर परमेश्वर तुम्हें अवसर देने की योजना नहीं बनाता है और यह भाग्य में नहीं है, तो तुम चाहे कितने भी वर्ष तैयारी करने में क्यों ना बिता दो, इसका क्या फायदा है? क्या परमेश्वर तुम पर तरस खाएगा और तुम्हें एक अवसर देगा क्योंकि तुमने इतने वर्ष तैयारी में बिताए? क्या परमेश्वर ऐसा करेगा? (नहीं।) अगर परमेश्वर ने तुम्हारे लिए कोई अवसर तैयार किया है, तो वह अवसर आएगा, और अगर परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उसे तैयार नहीं किया है, तो तुम्हें अवसर नहीं मिलेगा। क्या कभी हार न मानने का कोई फायदा है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “मैं कभी हार नहीं मानता। अपने भाग्य का नियंत्रण मैं अपने हाथ में रखता हूँ!” उनके शब्द प्रचण्ड होते हैं, लेकिन वे इसे हासिल कर पाएँगे या नहीं, यह उन पर निर्भर नहीं करता है। मिसाल के तौर पर, एक महिला को एक बेटा चाहिए। वह कई बच्चों को जन्म देती है, लेकिन वे सभी लडकियाँ निकलती हैं। दूसरे लोग उससे और बच्चे नहीं पैदा करने के लिए बोलते हैं, और कहते हैं कि उसके भाग्य में बेटा नहीं है, लेकिन वह दबाव में नहीं आती है, और कहती है, “मैं यह बात नहीं मानती। मैं कभी हार नहीं मानूँगी!” जब उसका दसवाँ बच्चा भी लड़की होता है, तो अंत में वह हार मान लेती है : “ऐसा लगता है कि मेरे भाग्य में बेटा नहीं है।” क्या अब भी वह कभी हार न मानने वालों में से है? क्या अब भी उसमें आत्मविश्वास है? क्या अब भी उसमें और बच्चों को जन्म देने की हिम्मत है? नहीं, उसमें हिम्मत नहीं है। एक दूसरा व्यक्ति जब कारोबार करता है, तो वह दो वर्ष में पाँच लाख डॉलर कमाने की योजना बनाता है। शुरू में, पहले छह महीनों में जब वह बिल्कुल कुछ नहीं कमाता है, तो वह कहता है, “कोई बात नहीं। शुरू के छह महीनों में पैसे नहीं कमाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं यकीनन बाकी के छह महीनों में पैसा कमा लूँगा।” एक वर्ष से ऊपर बीत जाने के बाद भी जब वह कुछ नहीं कमा पाता है, तो भी वह हार नहीं मानता है : “मैं कभी हार नहीं मानता। मैं मानता हूँ कि सबकुछ मनुष्य के हाथ में है—मेरे पास ढेरों अवसर हैं!” जब दो वर्ष बीत जाते हैं, तो उसने पचास हजार तक नहीं कमाए होते हैं, पाँच लाख कमाने की तो बात ही छोड़ दो। उसे लगता है कि उसके पास पर्याप्त समय नहीं था और उसके पास पर्याप्त अनुभव नहीं था, इसलिए वह और दो वर्ष पढ़ाई करता है। चार वर्ष बीत जाने के बाद, उसने ना सिर्फ पाँच लाख डॉलर नहीं कमाए होते हैं, बल्कि वह अपना लगभग सारा मूलधन भी गँवा चुका होता है, लेकिन फिर भी वह कभी हार न मानने में विश्वास रखता है : “मेरे भाग्य में पैसा कमाना लिखा है। तो फिर मैं पाँच लाख डॉलर क्यों नहीं कमा पा रहा हूँ?” जब लगभग दस वर्ष बीत जाते हैं, तो क्या तब भी उसका लक्ष्य पाँच लाख डॉलर कमाना होगा? अगर तुम लोग उससे फिर से पूछते हो कि इस वर्ष उसकी योजना कितने पैसे कमाने की है, तो वह कहता है, “ओह, अगर मैं इससे अपना गुजारा भर कर पाऊँ, तो यह काफी होगा।” क्या वह अब भी कभी हार न मानने में विश्वास रखता है? वह विफल हो गया है, है ना? वह कैसे विफल हुआ है? क्या वह इसलिए विफल हुआ है क्योंकि उसकी कमाई का लक्ष्य बहुत ज्यादा ऊँचा था? क्या ऐसी बात है? नहीं। चाहे यह लोगों की संपत्ति के बारे में हो या उनके बच्चों के बारे में हो, या उन कष्टों के बारे में हो जिन्हें वे अपने जीवन में सहते हैं, या यह इस बारे में हो कि वे कब और कहाँ जाते हैं, वे इनमें से कुछ भी तय नहीं कर सकते हैं। कुछ लोग लोक प्रशासन में जाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कभी यह अवसर नहीं मिलता है—क्या इसके लिए योग्यता की कमी को दोष दिया जा सकता है? वे काबिल हैं, सोच-समझकर चालें चलते हैं, और लोगों की खुशामद करने का तरीका जानते हैं, तो उनके लिए लोक अधिकारी बनना इतना मुश्किल क्यों है? ऐसे बहुत से लोग हैं जो उनके समान योग्य नहीं हैं, फिर भी वे अधिकारी बन गए हैं, और ऐसे बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें वे नीची नजर से देखते हैं, वे अधिकारी बन गए हैं। ये लोग बातचीत में अच्छे हैं, उनमें सच्ची प्रतिभा है, और उन्होंने ठोस शैक्षिक योग्यताएँ हासिल की हुई हैं, इसलिए अगर वे लोक अधिकारी बनना चाहते हैं, तो यह इतना मुश्किल क्यों है? उन्होंने अपनी युवावस्था में कभी हार नहीं मानी, लेकिन जब वे बूढ़े हो गए और तब भी सिर्फ औसत दर्जे के मुंशी थे, तो अंत में उन्होंने हार मान ही ली, और कहा, “मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है। अगर भाग्य में यह लिखा है, तो यह मिलेगा। अगर यह नहीं लिखा है, तो उसे भरसक प्रयास करके भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है।” उन्होंने अपने भाग्य को स्वीकार कर लिया है, है ना? उनकी कभी हार न मानने वाली मानसिकता का क्या हुआ? सच्चाइयों से सामना होने पर लोग अपमानित होते हैं।

कभी हार न मानने वाली मानसिकता से लोगों को क्या मिलता है? यह उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को प्रोत्साहित करती है। इससे लोगों को सकारात्मक प्रभाव या मार्गदर्शन नहीं मिलता है; बल्कि, यह उन पर एक तरह का नकारात्मक, प्रतिकूल प्रभाव डालती है। लोग खुद ब्रह्मांड में अपने स्थान के बारे में कुछ नहीं जानते हैं, स्वर्ग ने उनके लिए जो भाग्य तय किया है उसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता या व्यवस्थाओं के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ऊपर से, उन्होंने यह तथाकथित दिमागी बैसाखी हासिल कर ली है। जब लोग ऐसी स्थिति में होते हैं जहाँ वे सिर्फ गुमराह हो सकते हैं, तो अंत में क्या होता है? वे बिना किसी फायदे के बहुत सारा कार्य करते हैं, और बहुत सारा निरर्थक कार्य करते हैं। अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए एक बात यह है कि लोगों के शरीर और मन कोई कम नुकसान और आघात सहन नहीं करते हैं, और उन्होंने अपनी इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएँ और लक्ष्य हासिल करने के लिए यकीनन बहुत सारे बुरे कर्म किए हैं। ये बुरे कर्म लोगों को उनके अगले जीवन में क्या परिणाम दिलाएँगे? वे उन्हें सिर्फ दंड दिलाएँगे। भ्रष्ट स्वभाव से लोगों में महत्वाकांक्षा और इच्छा उत्पन्न होती है। लोगों की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ उनसे जो भी चीजें करवाती हैं, क्या उनमें से कोई भी चीज जायज है? क्या इनमें से कोई भी चीज सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) ये चीजें क्या हैं? ये सिर्फ बुरे कार्य हैं। इन बुरे कार्यों में क्या शामिल है? दूसरों के प्रति सोची-समझी चालें चलना, दूसरों को धोखा देना, दूसरों को नुकसान पहुँचाना और दूसरों को झाँसा देना। लोग दूसरों के बहुत ज्यादा कर्जदार हो जाते हैं, और अपने अगले जीवन में एक जानवर के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं। जिसके वे सबसे ज्यादा कर्जदार होते हैं, जिसे वे सबसे ज्यादा झाँसा देते हैं, और जिसे वे सबसे ज्यादा धोखा देते हैं, उसी के घर में वे एक जानवर के रूप में रहेंगे, बोलने में असमर्थ होंगे और लोग उन पर हुक्म चलाएँगे। भले ही उनका पुनर्जन्म एक व्यक्ति के रूप में हो, लेकिन वे अंतहीन कष्ट भरा जीवन जीएँगे; उन्हें अपने कर्मों की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसका यही नकारात्मक परिणाम होगा। अगर वे “कभी हार न मानने” वाली कहावत से संचालित नहीं होते, तो उनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पैदा नहीं होतीं, और अगर दो-तीन वषों में उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, तो लोग संभवतः उन्हें छोड़ देते, लेकिन जैसे ही शैतान आग को हवा देता है, उनकी इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाती हैं। इच्छाओं का बढ़ना अपने आप में समस्या नहीं है, लेकिन यह उन्हें दुष्ट मार्ग पर ले जाता है। जब कोई व्यक्ति दुष्ट मार्ग पर चल रहा होता है, तो क्या वह अच्छी चीजें कर सकता है? क्या वह मानवीय चीजें कर सकता है? नहीं, वह नहीं कर सकता है। वह अपने उद्देश्यों और लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करेगा, वह कसम खाएगा कि जब तक उसके लक्ष्य पूरे नहीं हो जाते हैं, तब तक वह आराम नहीं करेगा, और वह किसी भी किस्म की बुरी चीज करने में सक्षम होता है। जरा देखो, क्या ऐसे मामले हुए हैं जहाँ बच्चे अपने माता-पिता की जायदाद हासिल करने के लिए उनकी हत्या कर देते हैं? (हाँ, हुए हैं।) ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुई हैं जहाँ लोग अपने स्वार्थ की खातिर अपने दोस्तों और प्रियजनों को अपने हाथों से मार डालते हैं। जब दो लोगों को एक ही फायदेमंद अवसर मिलता है और उन्हें इसके लिए एक-दूसरे से लड़ना पड़ता है, तो वे इसे हासिल करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण क्षण में उनकी क्या मान्यताएँ होती हैं? “मैं कभी हार नहीं मानता। मैं इस बार बिल्कुल भी असफल नहीं हो सकता। अगर मैं यह अवसर चूक गया, तो हो सकता है कि मुझे अपने बाकी जीवन में फिर कभी ऐसा अच्छा अवसर ना मिले। इसलिए, इस बार मुझे जीतना ही होगा। मुझे यह अवसर जरूर मिलना चाहिए। चाहे कोई भी मेरा मार्ग रोके, मैं बिना किसी अपवाद के उन्हें मार डालूँगा!” अंत में क्या होता है? वे सामने वाले को मार डालते हैं। हो सकता है कि उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया हो और इच्छा पूरी कर ली हो, लेकिन उन्होंने बुरा कर्म भी किया है, और इससे मुसीबत खड़ी हो गई है। जीवनभर उनका दिल बेचैन रह सकता है, वह दोषी महसूस कर सकता है, या वह पूरी तरह से बेखबर रह सकता है। लेकिन, इस तथ्य का कि उन्हें इसका बिल्कुल भी एहसास नहीं है, यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने इस मामले को परिभाषित नहीं किया है। परमश्वर के पास इसे संभालने का एक तरीका है। हो सकता है कि इस व्यक्ति ने इस जीवन में अपना लक्ष्य हासिल कर लिया हो, हो सकता है कि उसने इसमें सफलता पा ली हो, लेकिन अगले जीवन में उसे इस जीवन में किए अपने उस कर्म की एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, जो शायद एक बुरा कर्म था। उसे इसकी कीमत एक जीवन में, या दो जीवन में, या तीन जीवन में, या यहाँ तक कि अनंतकाल तक चुकानी पड़ सकती है। यह कीमत बहुत ही ज्यादा भयानक है! तो यह परिणाम कैसे उत्पन्न हुआ? यह एक ही वाक्यांश, एक ही मान्यता से आया। यह व्यक्ति उस अवसर को हासिल करना चाहता है। वह हार नहीं मानता है, वह प्रयास करना नहीं छोड़ता है, और वह खुद को विफल नहीं होने देता है। वह इस अवसर को मजबूती से दबोचना चाहता है। परिणामस्वरूप, मुसीबत खड़ी हो जाती है। मुसीबत खड़ी हो जाने के बाद, परिणामों की कीमत चुकाने और उनकी भरपाई करने के लिए एक या दो वर्ष पर्याप्त नहीं होंगे। क्या यह कीमत बहुत बड़ी नहीं है? लोगों का जीवन अस्सी से नब्बे वर्ष लंबा होता है, और छोटे जीवन पचास से साठ वर्ष के होते हैं। चाहे तुम ने व्यक्तिगत फायदे, रुतबा, धन-दौलत या दूसरी भौतिक चीजें हासिल की हों या नहीं, तुम सचेतन अवस्था में बीस या तीस वर्षों तक इन चीजों का आनंद लोगे। लेकिन, इन बीस या तीस वर्षों के आनंद के लिए, तुम्हें अपने हर जीवन में, बाकी के अनंत काल तक एक कीमत चुकानी पड़ सकती है। क्या यह कीमत बहुत बड़ी नहीं है? (हाँ, है।) जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, वे सत्य नहीं समझते हैं, और ना ही वे जानते हैं कि परमेश्वर इन सभी चीजों पर संप्रभु है। इसलिए वे कुछ धारणाओं या शैतानी तर्क के प्रभाव में अपनी स्वार्थी इच्छा, अपने हित के लिए क्षणिक चकाचौंध भरी इच्छा की खातिर बेवकूफी भरे कार्य करने में समर्थ हैं, जो उन्हें अनंत पछतावा देकर जाते हैं। “अनंत” का अर्थ इस जीवन में बीस या तीस वर्ष नहीं हैं, बल्कि यह है कि उन्हें इस जीवन समेत अपने हर जीवन में कष्ट सहना पड़ेगा। जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं, वे ये चीजें नहीं समझेंगे, और अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग सत्य नहीं समझते हैं या परमेश्वर को नहीं जानते हैं, तो वे भी ये चीजें नहीं समझेंगे। कुछ लोग ऐसी चीजें नहीं करते हैं, जो स्पष्ट रूप से बुरी हैं। जब तुम उन्हें बाहर से देखते हो, तो वे ऐसे नहीं होते हैं जो लोगों की हत्या करते हों या आग लगाते हों, और दूसरों के लिए खुलेआम जाल बिछाते हों, लेकिन उनके पास कई गुप्त युक्तियाँ होती हैं। परमेश्वर की नजर में, इस बुराई का और स्पष्ट बुराई का चरित्र एक जैसा है। उनका चरित्र एक जैसा है से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब यह है कि परमेश्वर के नजरिये से, वह ऐसी चीजों की निंदा करने के लिए जिन सिद्धांतों का उपयोग करता है वे एक ही हैं। वह उनकी निंदा करने के लिए एक ही तरीके और सत्य की एक ही मद का उपयोग करता है। उन लोगों ने जो भी चीजें की हैं, उनकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती है, चाहे उन्हें करने के पीछे उनकी प्रेरणा कुछ भी रही हो, और चाहे उन्होंने उन्हें परमेश्वर के घर में किया हो या बाहर की दुनिया में किया हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, लेकिन फिर भी ये चीजें करते हो, तो क्या अंत में परमेश्वर तुम्हें जो परिणाम देगा, वह अविश्वासियों के परिणाम से कुछ अलग होगा? मुझे बताओ, इस सच्चाई के कारण कि तुमने कई वर्षों तक उसमें विश्वास रखा और कुछ वर्षों तक कलीसिया के लिए सेवा प्रदान की, क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ नरमी बरतेगा और अपना धार्मिक स्वभाव बदल लेगा? क्या तुम लोगों को लगता है कि यह संभव है? यह बिल्कुल संभव नहीं है। जब मैं यह कहता हूँ तो मेरा क्या अर्थ है? अगर तुम सत्य नहीं समझते हो तो तुम जो कुकर्म करते हो, वह बुराई है, और जब तुम सत्य समझते हो तो तुम जो कुकर्म करते हो, वह भी बुराई है। परमेश्वर के नजरिये से, यह सब बुराई है। बुराई के ये दोनों प्रकार एक दूसरे के समतुल्य हैं। दोनों में कोई फर्क नहीं है। जब तक कोई चीज सत्य के अनुरूप नहीं है, तब तक वह बुराई है। परमेश्वर के नजरिये से, दोनों के चरित्र में कोई फर्क नहीं है। चूँकि ये दोनों ही बुराई हैं, इसलिए लोगों को दोनों मामलों में किए गए बुरे कर्म का भुगतान करना पड़ेगा—उन्हें कीमत चुकानी पड़ेगी। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। चाहे तुम इस पर संदेह करो या विश्वास करो, परमेश्वर यही करता है, और वह इसी तरह से चीजों को परिभाषित करता है। मेरे ऐसा कहने का क्या अर्थ है? मैं तुम लोगों को एक सच्चाई बताना चाहता हूँ : तुम्हें यह धारणा नहीं बनानी चाहिए कि “परमेश्वर ने मुझे चुना, इसलिए मुझे उसकी नजरों में अनुग्रह मिला गया है। मैं कई सत्य समझता हूँ। अगर मैं थोड़ा-सा कुकर्म करता हूँ, तो परमेश्वर उसे परिभाषित नहीं करेगा या उसकी निंदा नहीं करेगा। मैं जैसा चाहूँ कर सकता हूँ। मैं सत्य का अभ्यास करने के लिए कष्ट सहने के बहाने अपने हाथ में मौजूद कुकर्म को पूरा कर सकता हूँ। तब परमेश्वर उसकी निंदा नहीं करेगा, है ना?” तुम गलत हो। बुराई की निंदा करने के लिए परमेश्वर के सिद्धांत एक जैसे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह किस परिस्थिति में घटती है, या यह किस समूह के लोगों में घटती है। परमेश्वर ना अलग-अलग जातियों के बीच, और ना ही उन लोगों के बीच फर्क करता है जिन्हें उसने चुना है और जिन्हें उसने नहीं चुना है। चाहे वह कोई अविश्वासी हो या विश्वासी हो, परमेश्वर उसे एक ही नजर से देखता है। तुम मेरी बात समझ रहे हो? (हाँ, हम समझ रहे हैं।)

“कभी हार न मानना” कुछ ऐसा है जो लोग तब कहते हैं जब वे शैतानी स्वभाव द्वारा संचालित होते हैं, और यह एक ऐसी मानसिकता है जिसकी शैतानी दुनिया हिमायत करती है। हम इस मानसिकता को किस तरह देखते हैं? (एक दिमागी बीमारी की तरह।) यह जीवन जीने और चीजें करने के लिए लोगों के सोचने का एक तरीका और सिद्धांत है, जिसकी दिमागी रूप से बीमार लोग हिमायत करते हैं। यह लोगों को अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ संतुष्ट करने के लिए किसी भी संभव साधन का उपयोग करने, चाहे कोई भी परिस्थिति हो, कभी भी हिम्मत नहीं हारने, “अपनी बात पर अड़े रहो और उसे कभी जाने मत दो” के सिद्धांत के अनुसार चीजों का अनुसरण करने, और यह विश्लेषण नहीं करने के लिए उकसाती और प्रेरित करती है कि उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ उचित हैं या नहीं; जब तक उनमें यह मानसिकता है, तब तक यह तारीफ करने के योग्य है। अगर किसी व्यक्ति ने मानवजाति के लिए किसी फायदेमंद चीज पर शोध किया, कभी हार नहीं मानी, वह असफलता से हिम्मत नहीं हारा, सकारात्मक दिशा में विकास करता रहा, और शोध करता रहा ताकि लोग भविष्य में बेहतर जीवन जी सकें, तो यह कुछ हद तक सराहनीय होगा। लेकिन, क्या यह वही लक्ष्य है जिसका मानवजाति इस दुनिया में अनुसरण करती है? मानवता की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से ऐसी चीजें कौन करता है? कोई नहीं। भले ही ऐसे कुछ लोग हों जो बाहरी तौर पर मानवता की भलाई करने के नाम पर चीजें करते हैं, लेकिन इसके पीछे वे इसे अपनी प्रतिष्ठा और पेशेवर उपलब्धि के लिए कर रहे होते हैं, ताकि उनका नाम इतिहास में लिखा जाए। ये उनके लक्ष्य हैं, और इनमें से कोई भी लक्ष्य उचित नहीं है। इन चीजों के अलावा, कभी हार न मानने वाली मानसिकता लोगों को क्या करने के निर्देश देती है? सबसे पहले, कभी हार न मानने वाली मानसिकता लोगों की सीमाओं और सहज प्रवृत्ति को चुनौती देती है। मिसाल के तौर पर, खेल के मैदान में, एक व्यक्ति लगातार तीन बार पलटी मारता है और उसका दिल इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता है, और वह व्यक्ति कहता है, “मैं कभी हार नहीं मानता। मुझे अपनी सीमाओं को चुनौती देनी चाहिए और गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड को चुनौती देनी चाहिए। मैं दस बार पलटी मारूँगा!” परिणामस्वरूप, जब वह आठवीं पलटी मारता है, तो वह मर जाता है। अगर उसके पास उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करने वाली यह मानसिकता नहीं होती, तो क्या होता? (वह इसे अपनी क्षमताओं के अनुसार करता।) सही कहा। परमेश्वर लोगों से क्या करने की अपेक्षा करता है? परमेश्वर लोगों से सामान्य मानवता में जीने की अपेक्षा करता है, और लोगों को अपने भीतर कमजोरियाँ रखने की अनुमति देता है। लोगों की शारीरिक सहज प्रवृत्ति और उनके अंगों की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। लोगों को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि वे कौन-सा स्तर हासिल कर सकते हैं। क्या वह व्यक्ति लगातार दस बार पलटी मारने के परिणामों के बारे में स्पष्ट था? वह इस बारे में स्पष्ट नहीं था, और उसने इसे आँख मूंदकर किया और अपनी सीमाओं को चुनौती दी, तो उसकी मृत्यु के लिए कौन दोषी था? (वह खुद दोषी था।) उस व्यक्ति के दस बार पलटी मारने का प्रयास करने का स्रोत यह था कि शैतान उसे हमेशा प्रेरित कर रहा था, और कह रहा था, “तुम्हें कभी हार नहीं माननी चाहिए। पाँच बार पलटी मारने के बाद हार मान लेना दयनीय है। तुम्हें आठ बार पलटी मारनी होगी!” उसने सोचा, “आठ बार भी काफी नहीं है। मैं दस बार पलटी मारूँगा!” परिणामस्वरूप, आठ बार पलटी मारने के बाद, उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया और उसकी साँसें रुक गईं। क्या शैतान ने उसके साथ खिलवाड़ नहीं किया? यकीनन, हम इसका उपयोग सिर्फ एक मिसाल के तौर पर कर रहे हैं; कोई ऐसा भी हो सकता है जो बिना किसी समस्या के बीस बार पलटी मार सके। जब लोगों में लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प होता है, तो वे लगातार वार और बचाव करते हुए लड़ते रहते हैं और अंत में अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। थोड़ा बेहतर परिदृश्य यह है कि वे अपना जीवन नष्ट कर देते हैं, लेकिन कोई कुकर्म नहीं करते हैं। तब उन्हें अपने अगले जीवन में एक व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेने का अवसर फिर भी मिल सकता है, और वे एक व्यक्ति होने का फिर से अनुभव कर सकते हैं। लेकिन, कुछ लोगों ने बहुत ज्यादा कुकर्म किया है और इससे मुसीबत खड़ी हो गई है, इसलिए उन्हें कई जन्मों तक इसकी एक भयानक कीमत चुकानी पड़ेगी; उन्हें इसकी भरपाई करती रहनी पड़ेगी, और हर जीवन में कष्ट सहना पड़ेगा। अगर वे इस जीवन में इसकी पूरी भरपाई नहीं करते हैं, तो अगला जीवन अब भी बाकी है, और यह पता नहीं है कि इसकी पूरी भरपाई करने में उन्हें कितने जीवन लगेंगे। यही परिणाम होता है।

जब कुछ लोग सुसमाचार फैलाने में असफल हो जाते हैं, तो वे इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं, और कहते हैं, “मैं कभी हार नहीं मानता। मैंने इस बार किसी को भी परिवर्तित नहीं किया—मैं असफल हो गया। अगली बार मैं असफल नहीं हो सकता। मुझे परमेश्वर के लिए गवाह बनना ही होगा, और ऐसा बालक बनना होगा जो मुश्किलों पर जीत हासिल करता है!” यह अच्छा है कि लोगों में यह संकल्प है, लेकिन इस तथ्य का क्या किया जाए कि वे “कभी हार न मानने” वाले शब्द कहने में सक्षम हैं? यह क्या स्वभाव है? क्या यह महादूत का स्वभाव नहीं है? क्या परमेश्वर ने उन्हें इस तरह से गवाही देने के लिए बनाया था? क्या वे सत्य समझते हैं? क्या वे जो कर रहे हैं वह परमेश्वर के लिए गवाही देना है? वे जो कर रहे हैं वह परमेश्वर को अपमानित करना है। तुम लोग उन्हें किस किस्म के लोग कहोगे? (बेवकूफ लोग।) वे बेवकूफ लोग हैं। वे सत्य नहीं समझते हैं, फिर भी वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए गवाही देते हैं—यह काफी अच्छा होगा अगर वे परमेश्वर को अपमानित ना करें। “कभी हार न मानना” किस तरह के शब्द हैं? इन शब्दों का क्या अर्थ है? इनका अर्थ है कि कभी भी असफलता स्वीकार मत करो। दरअसल, ये लोग असफल हो चुके हैं, लेकिन वे मानते हैं कि असफलता को स्वीकार नहीं करके उन्होंने दिमागी जीत हासिल कर ली है। सभी अविश्वासी इस तरह की मानसिकता का बहुत सम्मान करते हैं जहाँ लोग कई असफलताओं के बाद भी लड़ना जारी रखते हैं, और वे जितनी ज्यादा असफलताओं का सामना करते हैं, उतने ही ज्यादा बहादुर होते जाते हैं। अगर तुममें इस तरह की मानसिकता थी, और तुम लोग किसी लक्ष्य को हासिल करने हेतु लड़ने के लिए इस किस्म की मानसिकता पर भरोसा करते थे, तो क्या यह शर्मनाक बात नहीं है? “कभी हार न मानने” वाले शब्द लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के किन पहलुओं को मुख्य रूप से प्रदर्शित करते हैं? ये शब्द लोगों के सार के किन पहलुओं को दर्शा सकते हैं? क्या इस तरह के लोग—जो आत्मसमर्पण करने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे और जो हार मानने से पहले मर जाएँगे—घमंडी और विवेकहीन नहीं हैं? यह सच्चाई कि लोग इस हद तक अहंकारी हो सकते हैं, और हार मानने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे, सिर्फ विवेकहीनता की समस्या नहीं है; हताश लोगों की तरह, इनमें कुछ हद तक होशियारी की भी कमी है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे युवा और दुस्साहसी हैं?” इसका एक संबंध है। समाज में एक लोकप्रिय कहावत है : “जीतने के लिए तुम्हें अपना सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ेगा।” यह युवाओं की उस मानसिकता को दर्शाता है जो एक गुस्सैल युवा की तरह अपना सब कुछ दाँव पर लगा देने की बात करता है। “अगर तुम अपना जीवन जोखिम में डालने को तैयार हो, तो तुम कुछ भी हासिल कर सकते हो”—यह कभी हार न मानने वाली मानसिकता है। क्या बुज़ुर्ग लोगों में इस तरह की भावना होती है? उनमें भी होती है। देखो, राजनीति की दुनिया में लगभग सभी लोग वयस्क और वरिष्ठ होते हैं—इनमें भयंकर प्रतिद्वंद्विता होती है! लोगों के स्वभाव भ्रष्ट होते हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। सभी में कम या ज्यादा मात्रा में इस किस्म की मानसिकता होती है। इसका इस बात से बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं है कि वे बूढ़े हैं या युवा हैं, लेकिन यह सीधे उनके स्वभाव से संबंधित है। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और सत्य समझते हो, तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से देखोगे, और जानोगे कि इस किस्म की मानसिकता सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते हो, तो तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाओगे और सोचोगे, कि “लड़ने की इच्छा रखना अच्छी बात है; यह उचित है। अगर लोगों में लड़ने की थोड़ी सी भी इच्छा न हो, तो वे कैसे जी सकते हैं? अगर उनमें लड़ने की थोड़ी भी इच्छा न हो, तो उनमें जीवन जीते रहने की भावना बिल्कुल बाकी नहीं रहेगी। तो फिर जीने का क्या मतलब है? वे हर प्रतिकूल परिस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं—यह कितना कमजोर और कायरतापूर्ण है!” सभी लोग सोचते हैं कि जब तक वे जिंदा हैं, उन्हें सम्मान के लिए लड़ना चाहिए। वे सम्मान के लिए कैसे लड़ते हैं? “लड़ाई” शब्द पर जोर देकर। उन्हें चाहे किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, वे लड़कर अपना लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करते हैं। कभी हार नहीं मानने की मानसिकता की उत्पत्ति “लड़ाई” शब्द से हुई है। नास्तिक लोग लड़ने की भावना का सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं। वे स्वर्ग से लड़ते हैं; वे धरती से लड़ते हैं; वे दूसरे लोगों से लड़ते हैं—यही चीज उन्हें सबसे ज्यादा खुशी देती है। वे मानते हैं कि व्यक्ति जितना ज्यादा लड़ने के काबिल होता है, वह उतना ही ज्यादा शूरवीर होता है—नायक में लड़ने की इच्छा कूट-कूटकर भरी होती है। यहीं से कभी हार न मानने की मानसिकता उत्पन्न हुई; यही लड़ाई का मूल है। सभी प्रकार के शैतानी राक्षसों ने कभी सत्य स्वीकार नहीं किया है, तो वे किसके अनुसार जीवन जीते हैं? वे लड़ाई के शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जीते हैं। वे रोज लड़ते हुए जीते हैं। चाहे वे कुछ भी करें, वे हमेशा लड़कर जीत हासिल करने का प्रयास करते हैं और अपनी जीत की शान बघारते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सम्मान के लिए लड़ने का प्रयास करते हैं—क्या वे इसे हासिल कर सकते हैं? असल में वे किस चीज के लिए प्रतिस्पर्धा और लड़ाई कर रहे हैं? उनकी सारी लड़ाई प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए है; उनकी सारी लड़ाई उनके स्वार्थ के लिए है। वे क्यों लड़ रहे हैं? वे नायक की भूमिका निभाने और संभ्रांत कहे जाने के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन, उनकी लड़ाई का अंत मृत्यु के साथ होना चाहिए, और उन्हें दंड मिलना ही चाहिए। इस बारे में कोई प्रश्न ही नहीं है। जहाँ कहीं भी शैतान और दानव हैं, वहाँ लड़ाई है; अंत में जब वे नष्ट कर दिए जाएँगे, तो यह लड़ाई भी समाप्त हो जाएगी। शैतान और दानवों का यही परिणाम होगा।

क्या लड़ने के लिए कभी न हार मानने के संकल्प की मानसिकता को पोषित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए? (नहीं।) फिर लोगों को इसे कैसे देखना चाहिए? (लोगों को इसे त्याग देना चाहिए।) लोगों को इसका भेद पहचानना चाहिए, इसकी निंदा करनी चाहिए, और इसे त्याग देना चाहिए। यह वाक्यांश सत्य नहीं है, और यह कोई ऐसी कसौटी नहीं है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए, यह मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षा तो बिल्कुल भी नहीं है। इसका परमेश्वर के वचनों से और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर की लोगों से क्या अपेक्षा होती है? परमेश्वर की यह आवश्यकता नहीं है कि तुम्हारे पास लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प हो। परमेश्वर की आवश्यकता यह है कि लोग अपने स्वयं के भ्रष्ट सार को समझें, यह जानें कि वे कैसे व्यक्ति हैं, वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, उनमें क्या कमी है, उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम, उनकी समझने की क्षमता क्या है, क्या वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, और क्या वे कोई ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं। परमेश्वर चाहता है कि तुम इन तरीकों से अपने आप को सटीक रूप से समझ लो, फिर तुम जो कुछ कर सकते हो उसे अपने आध्यात्मिक कद के अनुसार और तुम्हारे पास जो भी काबिलियत हो उसके अनुसार करो, जितना भी अच्छा तुम कर सको। क्या इसमें “लड़ने” का अर्थ सम्मिलित है? (नहीं।) तुम्हें लड़ने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से नहीं लड़ सकता हूँ?” क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लड़ने से जीता जा सकता है? क्या यह लड़ने से बदला जा सकता है? (नहीं।) नहीं, यह बदला नहीं जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं शैतान की बुरी ताकतों से लड़ सकता हूँ? क्या मैं मसीह-विरोधियों से लड़ सकता हूँ? क्या मैं बुरे लोगों से, दुष्ट स्वभाव वाले लोगों से, और गड़बड़ियाँ और विघ्न पैदा करने वाले लोगों से लड़ सकता हूँ?” यह निश्चित रूप से सही नहीं है। यह क्यों सही नहीं है? लड़ना अपने आप में सत्य का अभ्यास करना नहीं है। परमेश्वर के वचनों ने कब कहा था : “मसीह-विरोधियों से लड़ो,” “फरीसियों से लड़ो,” “पाखंडियों से लड़ो,” या “अपने भ्रष्ट स्वभाव से लड़ो”? क्या परमेश्वर ने ये बातें कही थीं? (नहीं।) इसके विपरीत, समाज में, शैतानी दुनिया में जमींदारों के विरुद्ध झगड़े होते हैं, सत्ताधारियों के खिलाफ लड़ाई होती है, बुद्धिजीवियों के विरुद्ध लड़ाई होती है, साथ ही सामान्य जनता के बीच लड़ाइयाँ होती हैं, मुर्गों की लड़ाई, कुत्तों की लड़ाई, सांडों की लड़ाई, आदि। कुछ भी हो, इनमें से कोई भी बात अच्छी नहीं है। लड़ाई एक चाल है जिसके माध्यम से शैतान लोगों को हानि पहुँचाता है और जीवित प्राणियों पर विपत्ति लाता है। वह मानवजाति को शांति से सह-अस्तित्व के साथ जीने नहीं देता। बल्कि, वह लोगों के बीच भेद-भाव और नफरत पैदा करता है, फिर वह लोगों को आपस में लड़ाता है और एक-दूसरे का क़त्ल करवाता है, जबकि वह दूर से इस मनोरंजन और शोर-गुल को देखता है। चूँकि यह शैतानी व्यवहार है, यदि कलीसिया में, और परमेश्वर के घर में, कोई ऐसा व्यवहार, कोई ऐसी घटनाएँ या बातें होती हैं जिनका संबंध झगडे से हो, तो तुम लोग इसे किस तरह देखोगे? क्या तुम समर्थन और सहमति में अपने हाथ उठाओगे, या इसे रोकोगे? (इसे रोकेंगे।) तुम्हें इसे रोकना चाहिए, उन्हें स्पष्ट रूप से बताना चाहिए, उन्हें समझाना चाहिए, और उनसे कहना चाहिए कि उन्हें सत्य के अनुसार काम करना चाहिए, सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के साथ पूर्ण तालमेल से काम करना चाहिए। तुम उनकी काट-छाँट भी कर सकते हो, लेकिन काट-छाँट करना, डाँटना और यहाँ तक कि उन्हें अनुशासित करना भी लड़ाई नहीं है। तो लड़ाई का क्या अर्थ होता है? किसी मामले के बारे में दूसरे लोगों के साथ उतावलेपन में क्या सच है और क्या सच नहीं है, इस पर विवाद करना, लोगों के साथ बहस करना और अतार्किक होना, गुस्सा दिखाना, यहाँ तक कि गुप्त योजनाओं और कपटपूर्ण साज़िशों का उपयोग करना, या किसी को हराने के लिए मानवीय चालों, तरीकों और साधनों का उपयोग करना ताकि व्यक्ति से समर्पण कराया जा सके, उसे हराया जा सके, और बार-बार उसे तब तक यातना देते रहना जब तक कि वह घुटने न टेक दे, यह लड़ाई करना है। लड़ाई करना इसे कहा जाता है। लड़ाई करना विशुद्ध रूप से एक प्रकार का उतावलेपन वाला व्यवहार और कार्यकलाप है, और यह विशुद्ध रूप से एक शैतानी व्यवहार, तरीका और चीजों को करने का साधन भी है। इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “यह कैसे गलत है जब परमेश्वर के चुने हुए लोग उठ खड़े होते हैं और झूठे अगुआओं, मसीह-विरोधियों, फरीसियों और बुरे लोगों से लड़ते हैं? क्या यह एक अच्छी बात नहीं है कि उनसे तब तक लड़ा जाए जब तक वे झुक न जाएँ, या उन्हें हटा न दिया जाए? तब क्या परमेश्वर के घर में शांति न होगी? तब क्या भाई-बहन अपने कलीसियाई जीवन को चैन से न जी सकेंगे? हमें इन लोगों से लड़ने क्यों नहीं दिया जाता है?” क्या इन लोगों से लड़ना सही है? सबसे पहले, एक बात तो निश्चित है, और वह यह है कि लड़ना गलत है। यह गलत क्यों है? परमेश्वर बुरे लोगों को दंडित करता है और उनकी निंदा करता है, तो क्या फर्क पड़ता है यदि लोग उनके साथ लड़ें? जब लोग उन्हें नीचा दिखाते हैं, उन्हें कड़ी सजा देते हैं और जब उनके पास करने के लिए कुछ भी बेहतर न हो तो उन्हें पीड़ा पहूँचाते हैं, वे उन पर चिल्लाते हैं, उन्हें जमीन पर गिरा देते हैं और उनकी आलोचना करते हैं, तब यह क्यों गलत है? परमेश्वर प्रशासनिक आदेश निर्धारित करता है, और उन आदेशों में ऐसी कोई बातें नहीं हैं जो लड़ाई से संबंधित हों। परमेश्वर केवल प्रशासनिक आदेश निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत हर प्रकार के व्यक्ति से निपटने के तरीके और सिद्धांत होते हैं। ये आदेश लोगों को बताते हैं कि किस प्रकार के लोगों को निष्कासित करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों को बाहर निकाल देना चाहिए, किस प्रकार के लोगों को बदलना चाहिए, किस प्रकार के लोगों का पोषण करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों का उपयोग करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों का उपयोग नहीं करना चाहिए, किस प्रकार के लोगों को बचाया जा सकता है, और किस प्रकार के लोगों को नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों को केवल सिद्धांत बताता है। इसलिए, लोगों के रूप में, तुम लोगों को परमेश्वर के इन वचनों की व्याख्या कैसे करनी चाहिए? परमेश्वर के ये सभी वचन सत्य हैं। सत्य क्या है? सत्य यह है कि जब परमेश्वर कुछ भी करता है या किसी भी प्रकार के व्यक्ति से निपटता है, चाहे वह कोई बुरा व्यक्ति हो जिसने बुरे काम किए हों, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य और हितों को अत्यधिक नुकसान हुआ हो, तब भी परमेश्वर उससे निपटने के लिए अपने ही तरीकों का उपयोग करेगा; वह उससे निपटने के लिए किसी भी शैतानी या उतावलेपन वाले तरीकों का उपयोग कभी नहीं करेगा। इसे क्या कहा जाता है? इसे लोगों के साथ उचित व्यवहार करना कहते हैं। क्या इस उचित व्यवहार में लड़ाई शामिल है? नहीं। क्या यह सत्य है? (बिल्कुल।) यह व्यक्ति चाहे कितना भी जल्दबाज़, कितना ही शैतान, और कितना भी दुष्ट क्यों न हो, हम परमेश्वर के वचनों को सर्वोच्च निर्देश के रूप में, और उससे निपटने हेतु उपयोग करने के लिए सटीक सिद्धांतों के रूप में लेते हैं। हम उनकी भर्त्सना नहीं करते हैं, या जल्दबाज़ी में उन पर मिलकर टूट नहीं पड़ते हैं; हम उस तरह का काम बिल्कुल नहीं करते हैं। इसे ही लोगों के साथ उचित व्यवहार करना कहा जाता है, और परमेश्वर ने लोगों को जो सिद्धांत दिए थे वे यही हैं।

पूर्वी दुनिया में, एक निश्चित वाक्यांश है “लड़ने के लिए कभी हार न मानने का संकल्प।” पश्चिमी दुनिया में, इसी अर्थ वाला कोई वाक्यांश हो सकता है। जब तक कोई व्यक्ति शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया हो और शैतान की ताकत के अधीन हो, तब तक उसके पास एक शैतानी स्वभाव होता है, वह विशेष रूप से घमंडी और आत्मतुष्ट होता है, और किसी के भी सामने झुकता नहीं है। जब वह इस प्रकार के स्वभाव से प्रेरित होता है, तो लोगों में कभी हार न मानने वाली मानसिकता और सोचने का एक तरीका निश्चित रूप से पैदा होगा। सभी लोग मानवता द्वारा प्रचारित इस प्रकार की सोच और मानसिकता को उचित, सकारात्मक, और एक ऐसी चीज के रूप में देखते हैं जो लोगों को निरन्तर अपने मार्ग पर चलते रहने और जीवन जीते रहने में सहारा देने के लिए पर्याप्त है। चाहे वे इस तथाकथित मानसिकता और सोच को कितना ही उचित मानते हों, और वे इसे कितना भी उचित कहें, हम सभी में इसके प्रति विवेक होना चाहिए। संपूर्ण मानवजाति में, एक भी जाति ऐसी नहीं है जिसमें सत्य की सत्ता हो। किसी जाति ने चाहे कितने भी ऊँचे, प्राचीन, रहस्यमय विचार या पारंपरिक संस्कृति को जन्म दिया हो, उसने कैसी भी शिक्षा प्राप्त की हो या उसके पास कैसा भी ज्ञान हो, एक बात तो निश्चित है : इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है या सत्य से उसका कोई नाता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “पारंपरिक धारणाओं में निहित कुछ नैतिकताएँ या सही-गलत, उचित-अनुचित, काले-सफेद को मापने की अवधारणाएँ सत्य के काफी करीब लगती हैं।” सुनने में ये सत्य के करीब लगती हैं, इस तथ्य का यह मतलब नहीं होता कि वे अर्थ में इसके करीब हैं। भ्रष्ट मानवजाति की बातें शैतान से उत्पन्न होती हैं, वे कभी भी सत्य नहीं होती, जबकि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य होते हैं। इस प्रकार, भले ही मानवजाति की कुछ बातें परमेश्वर के वचनों के कितने भी करीब क्यों न लगें, वे सत्य नहीं होती हैं और सत्य नहीं बन सकती हैं; यह बात संदेह से परे है। वे केवल शब्दों और अभिव्यक्ति में करीब हैं, लेकिन वास्तव में, ये पारंपरिक धारणाएं परमेश्वर के वचनों के सत्य से मेल नहीं खातीं। हालाँकि इन शब्दों के शाब्दिक अर्थ में कुछ निकटता हो सकती है, लेकिन उनका स्रोत एक नहीं है। परमेश्वर के वचन सृष्टिकर्ता से आते हैं, जबकि पारंपरिक संस्कृति के शब्द, विचार और दृष्टिकोण शैतान और राक्षसों से आते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “पारंपरिक संस्कृति के विचारों, दृष्टिकोण और प्रसिद्ध कहावतों को सार्वभौमिक रूप से सकारात्मक माना जाता है; भले ही वे झूठ और भ्रांतियाँ हैं, लेकिन अगर लोग उन्हें सैकड़ों-हजारों साल तक कायम रखें तो क्या वे सच बन जाएँगी?” बिल्कुल नहीं। ऐसा दृष्टिकोण उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह कहना कि इंसान बंदर से विकसित हुआ है। पारंपरिक संस्कृति कभी सच नहीं बनेगी। संस्कृति संस्कृति ही रहती है, चाहे वह कितनी भी नेक क्यों न हो, फिर भी वह भ्रष्ट मानवजाति द्वारा निर्मित अपेक्षाकृत सकारात्मक चीज ही है। सकारात्मक होना सत्य होने के समतुल्य नहीं होता, सकारात्मक होना कोई मानदंड नहीं है; यह केवल अपेक्षाकृत सकारात्मक होने से अधिक कुछ नहीं है। तो क्या अब यह हमें स्पष्ट है कि इस “सकारात्मकता” के पीछे, मानवजाति पर पारंपरिक संस्कृति का प्रभाव अच्छा है या बुरा? निस्संदेह, मानवजाति पर इसका बुरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

आज हमने इस कहावत का विश्लेषण किया “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।” यह एक प्रकार का सांसारिक आचरण का फलसफा है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले एक प्रसिद्ध मुहावरे का भी हमने विश्लेषण किया : “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” क्या ये दो वाक्यांश अकेले ही तुम लोगों को मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति और सांसारिक आचरण के फ़लसफों के बारे में एक नई समझ देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? सांसारिक आचरण के फ़लसफों और पारंपरिक संस्कृति का सार वास्तव में क्या है? सबसे पहले तो तुम निश्चित हो सकते हो कि ये चीजें बिल्कुल भी सकारात्मक नहीं हैं। वे लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से पैदा होती हैं—उनका स्रोत शैतान है। वे मानवजाति के लिए क्या लेकर आती हैं? वे मानवजाति को गुमराह करती हैं, भ्रष्ट करती हैं, और बांधती हैं तथा विवश करती हैं। यह निश्चित है और इसमें कोई संदेह नहीं है। वे मानवजाति के लिए जो कुछ भी लेकर आती हैं वह एक नकारात्मक असर और नकारात्मक प्रभाव है, तो क्या वे सत्य हैं? (नहीं।) वे सत्य नहीं हैं, फिर भी मानवजाति उन्हें सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करती है। यहाँ क्या हो रहा है? लोगों को गुमराह किया गया है। चूँकि लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया नहीं गया है, वे सत्य को नहीं समझते हैं, और उन्होंने इस तरह के वाक्यांशों और मुद्दों के बारे में परमेश्वर जो सटीक बातें कहना चाहता है उन्हें नहीं सुना है, वे अंततः उन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार कर लेते हैं जो उनकी अवधारणाओं के अनुसार उन्हें अपेक्षाकृत सही, अच्छे और उनकी इच्छा से मेल खाते हुए लगते हैं। ये बातें पहले उनके हृदय में प्रवेश कर गईं और अब वहाँ हावी हो गई हैं, इसलिए लोग सैकड़ों और हजारों वर्षों तक उनसे चिपके रहते हैं। शैतानी फलसफों की ये पारंपरिक संस्कृतियाँ बहुत पहले ही लोगों के दिलों में अपनी जड़ें जमा चुकी हैं, ये पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को गुमराह और प्रभावित करती रही हैं। यदि तुम लोग सत्य स्वीकार नहीं करते हो तो तुम इन फलसफों से गुमराह और प्रभावित होते रहोगे। आज मैंने “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” और “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” का गहन-विश्लेषण किया और उन पर संगति की। उन दो वाक्यांशों में एक कहावत है, दूसरा एक मुहावरा है। इन दो वाक्यांशों में हम देख पाते हैं कि वास्तव में समस्त विश्व में शैतानी संस्कृति क्या है : यह उन पाखंडों और भ्रांतियों से बनी है जो लोगों को गुमराह करती हैं, भ्रष्ट करती हैं, लोगों के लिए हानिकारक हैं, और लोगों को नुकसान पहुँचाती हैं। यदि मानवजाति शैतान के इन फलसफों का पालन करती है, तो जैसे-जैसे लोग जीवन में आगे बढ़ेंगे, वे उत्तरोत्तर अधिक भ्रष्ट और अधिक दुष्ट ही होंगे; वे एक दूसरे का क़त्ल करेंगे, आपस में लड़ेंगे, और इसका कोई अंत नहीं होगा। लोगों के बीच कोई विश्वास नहीं होगा, कोई सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व नहीं होगा, और न ही कोई आपसी प्रेम होगा। संक्षेप में, मानव जाति के लिए यह संस्कृति केवल बुरे परिणाम लेकर आती है। इन तथाकथित विचारों और मानसिकता के मार्गदर्शन के अधीन, मानवजाति निरन्तर दुष्टता करती है, निरन्तर परमेश्वर का विरोध करती है, लगातार लोगों की नैतिक मर्यादाओं को चुनौती देती है, और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किसी भी साधन का उपयोग करती है। अंततः, वे लोग विनाश के मार्ग का अनुसरण करेंगे और दंडित किए जाएँगे। मानव संस्कृति का सार यही है। कहावतों की बात करें तो, उनके बारे में तुम लोगों का क्या दृष्टिकोण है? कुछ लोग कह सकते हैं, “वे ठोस विचार नहीं हैं जिनकी मानवजाति द्वारा हिमायत की जाती है। ऊँचे समाज में जिन लोगों के पास अपेक्षाकृत उच्च स्तर की अंतर्दृष्टि होती है, वे उनका पालन नहीं करते हैं।” अभी-अभी, हमने एक मुहावरे का गहन-विश्लेषण किया जिससे उच्च समाज के लोग सहमत होते हैं, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना।” क्या यह मुहावरा उच्च स्तर का है? (नहीं।) यह उच्च स्तर का नहीं है, लेकिन इस मुहावरे की, इन विचारों और इन मानसिकताओं की निश्चित रूप से हर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में और मानव समाज के हर उच्च-स्तरीय क्षेत्र में हर किसी के द्वारा सराहना और हिमायत की जाती है। यही मानव संस्कृति है। मानव जाति पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं से अनुकूलित, सुन्न और भ्रष्ट हो गई है। और अंतिम परिणाम क्या होता है? मानवजाति पारम्परिक संस्कृति से गुमराह, नियंत्रित, और बाधित होती है, और इससे एक प्रकार की मानसिकता और सिद्धांत स्वाभाविक रूप से पैदा होते हैं मानवजाति जिनकी हिमायत करती और जिन्हें फैलाती है, व्यापक रूप से प्रसारित करती है और लोगों से स्वीकार करवाती है। अंततः, ये हर किसी के दिल पर कब्जा कर लेते हैं, हर किसी से इस प्रकार की मानसिकता और विचार का समर्थन करवाते हैं, और हर कोई इस विचार से भ्रष्ट हो जाता है। जब लोग एक सीमा तक भ्रष्ट हो जाते हैं, तो सही या ग़लत के बारे में उनकी अब कोई अवधारणाएँ नहीं होतीं; वे अब यह भेद करना नहीं चाहते कि न्याय क्या है और दुष्टता क्या है, न ही वे अब और यह परखना चाहते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या। यहाँ तक कि एक दिन ऐसा भी आता है जब वे स्पष्ट नहीं होते हैं कि वे वास्तव में इंसान हैं भी कि नहीं, और कई बीमार लोग ऐसे भी हैं जो नहीं जानते कि वे पुरुष हैं या महिला। इस तरह की मानवजाति, विनाश से कितनी दूर है? आज की मानवजाति नूह के ज़माने के लोगों की तुलना में कैसी है? क्या लोग अधिक दुष्ट नहीं हैं? ये पहले से ही दुष्टता के शिखर पर पहुँच चुके हैं, और इतने दुष्ट हैं कि कुछ बातें हैं जिन्हें तुम सुनने में ही असमर्थ हो—इसे सुनने के बाद तुम्हें घृणा होने लगेगी। एक हद तक, सभी लोग बीमार हैं। बाहर से तो, लोगों के शरीर मानवीय दिखाई पड़ते हैं, परन्तु जो बातें वे अपने दिल में सोचते हैं वे वास्तव में वो नहीं होतीं जो लोगों को सोचनी चाहिए; वे सभी बीमार हैं और खुद को सही करने में असमर्थ हैं। वे खुद को सही करने में असमर्थ हैं, इससे मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा मतलब है कि शायद सौ या दो सौ साल पहले, अधिक लोग परमेश्वर की बातें और कथन सुनने के इच्छुक होते। उनका विश्वास था कि इस दुनिया में न्याय मौजूद था, साथ ही धार्मिकता और निष्पक्षता भी थी। लोग इस प्रकार के तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते थे, और वे लालायित रहते थे कि यह साकार हो जाए। इससे भी बढ़कर, उन्हें आशा थी कि ऐसा भी एक दिन होगा जब उद्धारकर्ता आएगा, जो मानवजाति को अंधकार और दुष्टता के प्रभाव से बचा सकेगा। हालांकि, एक या दो सौ साल बाद, अब इस तरह के लोग कम, और भी कम होते जा रहे हैं। कितने लोग ऐसे हैं जो परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हैं? कितने लोग ऐसे हैं जो सत्य स्वीकार कर सकते हैं? भले ही बहुत लोगों ने परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त किया हो, तो क्या? जो सचमुच उसका अनुसरण करते हैं उन लोगों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। कहने का अर्थ यह है कि मानवजाति में ऐसे लोग उत्तरोत्तर कम होते हो जा रहे हैं जो परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, प्रोत्साहित होते हैं, सकारात्मक चीजों से प्रेम करने में समर्थ होते हैं, प्रकाश के लिए लालायित रहते हैं, न्याय के लिए लालायित रहते हैं, और परमेश्वर के राज्य के आगमन के लिए, निष्पक्षता और धार्मिकता के लिए लालायित रहते हैं। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि शैतान के फलसफों, नियमों, विचारों और तथाकथित मानसिकताओं से समस्त मानवजाति गुमराह और भ्रष्ट हो गई है। लोग किस हद तक गुमराह और भ्रष्ट हो गए हैं? सभी लोगों ने शैतान की भ्रांतियों और दुष्ट बातों को सत्य मान लिया है; वे सभी शैतान की आराधना करते हैं और शैतान का अनुसरण करते हैं। वे सृष्टिकर्ता परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते। सृष्टिकर्ता चाहे जो भी कहे, जितना भी कहे, और उसके वचन कितने ही स्पष्ट एवं व्यावहारिक क्यों न हों, कोई भी नहीं समझता है; कोई भी नहीं बूझता है। वे सभी सुन्न और मंदबुद्धि हैं, और उनकी सोच और उनके दिमाग उलझे हुए हैं। उन्हें कैसे उलझाया गया था? यह शैतान है जिसने उन्हें उलझाया है। शैतान ने लोगों को पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया। आज के समाज में, सभी तरह के अलग-अलग विचार, सैद्धांतिक विचारधाराएँ और कथन होते हैं। लोग जिसे चुनते हैं उसी पर विश्वास करते हैं, और जिसे चुनते हैं उसी का अनुसरण करते हैं। कोई भी उन्हें नहीं बता सकता है कि क्या करना है, न ही कोई उन्हें यह बताने में समर्थ है कि उन्हें क्या करना है। बात इस हद तक की है। तो यह तथ्य कि तुम लोग परमेश्वर में विश्वास करना चुन सकते हो, एक आशीष है। आज, तुम लोग यह समझने में सक्षम हो कि परमेश्वर क्या कह रहा है, तुम्हारे पास अन्तरात्मा की थोड़ी-सी अनुभूति है, परमेश्वर जो कहता है उस पर तुम विश्वास करते हो, तुम्हें यह लालसा है कि परमेश्वर का राज्य आए, और तुम प्रकाश, न्याय, निष्पक्षता और धार्मिकता के राज्य में रहने के लिए लालायित हो। क्या तुम्हारे लिए इस नेकी का होना दुर्लभ है? तुम्हें यह कैसे मिली? यह परमेश्वर की सुरक्षा के कारण, और तुम्हें स्पष्टता देने हेतु पवित्र आत्मा द्वारा तुममें कार्य करने के माध्यम से ही है कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने में और उसका अनुसरण करने में समर्थ हो। यदि परमेश्वर ने तुममें कार्य नहीं किया होता, तो क्या तुम लोग अभी यहाँ एक विश्वासी के रूप में होते? क्या तुम लोग जिस तरह से अब बदले हो, वैसे बदल सकते थे? जरा देखो, क्या वे अविश्वासी अब भी मानव के समान है? हो सकता है कि तुम अभी कई सच्चाइयों को न समझो, और कई मुद्दों पर तुम्हारे विचार अभी भी बिल्कुल अविश्वासियों जैसे ही हैं—वे जैसा सोचते हैं, तुम भी वैसा ही सोचते हो। हालाँकि कभी-कभी तुम लोग उनके कुछ दृष्टिकोणों को स्वीकार नहीं करते हो, फिर भी तुम्हारे पास कोई विवेक नहीं होता, और अनुसरण के लिए कोई अन्य मार्ग नहीं होता है। जब वह दिन आएगा जब तुम सत्य को समझोगे, तो तुम यह भेद कर पाओगे कि उनके विचार गलत और दुष्ट हैं, और तुम्हारा दिल उन्हें नकारने में सक्षम होगा। तब तुम उनके शैतानी चेहरे स्पष्ट रूप से देखोगे। तुम देखोगे कि वे जीते-जागते शैतान हैं, इंसान नहीं। वे इंसानों का चोला तो पहने हुए हैं, लेकिन इंसानों जैसे काम नहीं करते हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि मामला यही है? वे जिन बातों का प्रचार करते हैं वे सभी बातें विशेष रूप से कर्णप्रिय होती हैं और लोगों को गुमराह करने में सक्षम होती हैं, लेकिन वे जो काम करते हैं और जिसे अंजाम देते हैं वह अत्यंत दुष्ट और भद्दा होता है, और यह केवल निर्लज्ज और बेतुका होता है। वे जिन तथाकथित विचारों और तथाकथित मानसिकताओं से चिपके रहते हैं, वे अत्यधिक दुष्ट और प्रतिक्रियावादी होती हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बिल्कुल उल्टी चलती हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से ठीक विपरीत होती हैं, फिर भी ये लोग इन झूठे तर्कों और पाखंडों को सच्चाई मान लेते हैं और उनका गहन प्रचार करते हैं, मानवजाति को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए उनको ज़ोर-शोर से और खुलकर बढ़ावा देते हैं, ताकि वे अपने विभिन्न नीच और बेशर्म अपराधों तथा कुरूप चेहरों पर पर्दा डाल सकें। इससे तुम यह साफ़ देख सकते हो कि वे सभी दानव हैं, साथ ही जानवर हैं और अशुद्ध आत्माएँ हैं जिन्हें समझाया नहीं जा सकता। तुम उनसे मतलब की बात कर ही नहीं सकते, और उनसे अच्छे, सच्चे शब्द नहीं बोल सकते। जब वह दिन आएगा जब तुम इस हद तक स्पष्ट देख सकोगे, तब तुम जान लोगे कि मानवजाति अत्यंत गहराई से भ्रष्ट हो चुकी है; कि तुम भी उतने ही भ्रष्ट हो गए हो जितने दूसरे लोग हैं; कि यह केवल इस वर्तमान समय में ही है जब तुम परमेश्वर में विश्वास करने लगे हो और कुछ सच्चाइयों को समझते हो ताकि तुम कुछ इंसानी समानता जी पाओ, दुष्टों और शैतान के प्रभाव से दूर हट सको, और उनका भेद कर सको, उनसे घृणा कर सको, और उन्हें त्याग सको; कि परमेश्वर के उद्धार के बिना तुम ठीक उनके जैसे ही होगे—कोई अंतर न होगा—और तुम किसी भी तरह की बुरी या दुष्ट चीज करने में सक्षम होगे। अब तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो, सत्य के लिए बहुत-सा कार्य और प्रयास कर रहे हो, अभ्यास को महत्व दे रहे हो, और सत्य को अपनी वास्तविकता में बदल रहे हो। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, सत्य का अभ्यास कर सकते हो, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता जी सकते हो, और तुम्हारे पास वास्तविक अनुभवजन्य गवाही होती है, तब तुम्हारा दिल खुश और शांत होगा, तुम्हारी सोच और अवस्था उत्तरोत्तर सामान्य होगी, परमेश्वर से तुम्हारा संबंध अधिकाधिक घनिष्ठ और उत्तरोत्तर सामान्य होता जाएगा, और तुम्हारे दिन निरंतर बेहतर होते जाएँगे। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, हमेशा शैतानी फ़लसफ़े के मुताबिक जीते हो, और हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो और उस पर संदेह करते हो, तो तुम्हारा दिल परमेश्वर से उत्तरोत्तर दूर होता जाएगा, परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास व्यर्थ होगा, और तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। भले ही तुमने परमेश्वर में कई वर्षों से विश्वास किया हो, भले ही तुम कई बातों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हो, और अविश्वासियों के विभिन्न भ्रांतिपूर्ण विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार नहीं करते हो, यह किसी काम का नहीं है। यह इसलिए है कि तुम सत्य को नहीं समझते हो और केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की ही बात कर सकते हो, और तुम अब भी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते हो। क्योंकि जो बातें सर्वप्रथम तुम्हारे दिल में प्रविष्ट और प्रभावी हुई थीं, वे अब भी तुम पर हावी हैं, तुम केवल उन बातों के अनुसार ही जीने में सक्षम हो। चाहे तुम कुछ भी करना चाहो, चाहे तुम पर कोई भी परिस्थिति आ पड़े, तुम इन शैतानी फलसफों से नियंत्रित हुए बिना रह नहीं पाओगे। तो, यदि ये शैतानी फलसफे तुम्हारे दिल पर हावी हैं, तो तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होगे। कुछ लोग कहते हैं, “मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता, न ही मैं शैतान का अनुसरण करता हूँ।” क्या यह संभव है? कोई बीच का रास्ता नहीं है। जब तुम सत्य को स्वीकार कर लो, सत्य को समझ लो, और फिर उन शैतानी चीजों को साफ कर लो जो सर्वप्रथम तुम्हारे दिल में प्रविष्ट हुईं और वहाँ हावी हुई थीं, केवल तभी तुम सत्य के अनुसार काम कर पाना हासिल कर सकते हो। जब तुम्हारे दिल पर सत्य का प्रभुत्व होगा, जब तुम्हारे दिल पर परमेश्वर के वचन का प्रभुत्व होगा, तब तुम अपनी कथनी और करनी में स्वाभाविक रूप से सत्य का अभ्यास कर सकोगे।

लोग शैतान के तर्क और विचारों के साथ, और उन मानसिक बैसाखियों के साथ जो लोगों के जीवन को नियंत्रित करती हैं, कैसा व्यवहार करते हैं? मनोवैज्ञानिक पोषण की तरह? आत्मा के लिए चिकन सूप की तरह? दरअसल, ये वो चीजें हैं जो लोगों को भ्रष्ट करती हैं, और यदि कोई उन्हें “खा ले” तो उसका काम खत्म है। अगर लोग लगातार इन बातों को स्वीकार करते हैं और शैतानी चीजों को अपने अंदर जमा होने देते हैं, तो इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब है उन्होंने अभी तक अपना मूल भ्रष्ट स्वभाव नहीं त्यागा है, और इसके ऊपर, शैतान से नई भ्रष्टता स्वीकार करने के लिए आगे बढ़ चुके हैं। इसका मतलब है उनका काम तमाम हो गया है। उन्हें बचाया नहीं जा सकता, यह अपरिहार्य है। तुम्हें लगातार इन चीजों को पहचान कर नकारना चाहिए, साथ ही लगातार इन्हें त्यागना चाहिए, इनके अनुसार नहीं जीना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों को स्वीकारना चाहिए। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, “मैं इन चीजों को स्वीकार नहीं करूँगा। परमेश्वर के वचन अपने आप ही मुझमें प्रवेश कर जाएँगे।” यह संभव नहीं है। तुम्हें सक्रिय रूप से सत्य की तलाश करनी होगी और सत्य को स्वीकार करना होगा, और सत्य को समझने की प्रक्रिया के माध्यम से, तुम स्वाभाविक रूप से झूठे तर्कों और पाखंड़ों पर विवेक हासिल करोगे, और धीरे-धीरे उन्हें जाने दोगे। इस तरह से, परमेश्वर के वचन कार्यों को करने के लिए क्रमशः तुम्हारे सिद्धांत बन जाएँगे, और जब तुम कार्य करोगे तो तुम्हें यह मालूम होगा कि उन्हें करने का कौन-सा तरीका परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तुम सत्य का अभ्यास बहुत स्वाभाविक रूप से करोगे, और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का यह पहलू बदल चुका होगा। क्या तुम लोगों को लगता है कि यह करना कठिन है, या नहीं है? यह वास्तव में कठिन नहीं है। इसके बारे में केवल एक ही कठिन बात यह है कि लोग इसे अभ्यास में नहीं डालते हैं। कुछ लोग सोचते हैं, “यह तो सचमुच ही कठिन है—स्वर्ग पर चढ़ने से भी अधिक कठिन! क्या यह एक बतख को पेड़ पर बैठाना नहीं है? क्या यह मुझे कठिन परिस्थिति में नहीं डाल रहा है?” क्या मामला यही है? नहीं, बात यह नहीं है। तुम लोगों को इन मामलों को सही तरीके से देखना चाहिए और इन मुद्दों पर सही विवेक रखना चाहिए। आज केवल कुछ ही शैतानी भ्रांतियों पर संगति और विश्लेषण करते हुए मैंने इतना लंबा समय खर्च किया है, लेकिन क्या बस ये कुछ चीजें ही हैं जो लोगों के अंदर जमा पड़ी हैं? (नहीं।) वे तो इनसे कहीं अधिक हैं! बाद में, मैं एक के बाद एक इन विषयों पर संगति करूँगा। इससे पहले, मैंने इस पहलू पर कभी संगति नहीं की थी, तो क्या तुम लोगों ने खुद कभी इन मुद्दों पर चिंतन किया था? तुमने नहीं किया। यदि तुम उन पर चिंतन करते हो, तो क्या तुम्हें कुछ परिणाम हाथ आएँगे? यदि तुम लोगों ने सत्य समझने का कुछ प्रयास किया होता, तो तुम्हें शैतानी भ्रांतियों के बारे में कुछ विवेक होता, तुम अब की तरह पूरी तरह से अनजान नहीं होते। क्या आज इन विषयों पर मेरी संगति अनायास-सी प्रतीत होती है? क्या कोई है जो कहता है, “क्या हम मसीह-विरोधियों की पहचान जानने के बारे में संगति नहीं कर रहे हैं? हम अचानक ही इन मुद्दों पर संगति क्यों कर रहे हैं?” इन तमाम मुद्दों का संबंध शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से है। इन सभी मामलों का संबंध लोगों द्वारा शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने से भी है, और सत्य को सही ढंग से समझ पाने के बारे में लोगों की क्षमता के लिए ये लाभदायक हैं। कम से कम, संगति करने के बाद, लोग यह जान लेंगे, “यह पता चला है कि यह ‘महान’ वाक्यांश सत्य नहीं है।” इस बिंदु से आगे, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” और “न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो” जैसी भ्रांतियां तुम्हारे दिल से बाहर निकल सकती हैं। तुम लोगों में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो इस समय उन्हें बाहर नहीं निकाल सकते, लेकिन कम से कम तुम यह जानते हो कि ये वाक्यांश सत्य नहीं हैं, और अगली बार जब तुम किसी को इन वाक्यांशों को कहते हुए सुनोगे, तो तुम्हें मालूम होगा कि ये वाक्यांश भ्रामक हैं, और तुम उन्हें स्वीकार नहीं करोगे। यद्यपि तुम्हारे दिल को लगता है कि ये वाक्यांश कुछ हद तक सही हैं, और वे अभी भी करने के लिए अच्छी चीजें हैं, तुम यह भी सोचते हो, “परमेश्वर ने कहा है कि ये वाक्यांश सत्य नहीं हैं। मैं उनके अनुसार कार्य नहीं कर सकता।” क्या यह तुम लोगों के लिए लाभदायक नहीं है? (बिल्कुल है।) इन बातों को कहने का मेरा लक्ष्य क्या है? मैं इन वाक्यांशों का इस तरह से गहन-विश्लेषण क्यों कर रहा हूँ? विश्वासी लोग हमेशा कहते हैं, “हमें सत्य का अभ्यास करना ही चाहिए। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। परमेश्वर के सभी वचन सकारात्मक बातें हैं, और ये वो हैं जिनका हमें अभ्यास करना चाहिए।” एक दिन तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, और ये वाक्यांश तुम्हारे दिल में उभर आते हैं, “अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना” और “जब स्वर्ग किसी व्यक्ति को बड़ी जिम्मेदारी देने वाला होता है, तो सबसे पहले उसके हृदय को पीड़ा का अनुभव होना चाहिए।” क्या ये सच्चाई हैं? क्या यह मज़ाक नहीं है? यदि तुमसे परमेश्वर की गवाही देने के लिए कहा जाए, तो तुम यह कैसे करोगे? तुम कहोगे, “विश्वासियों को अपमान सहना और भारी दायित्व उठाना चाहिए, अपमान के जख्म हरे रखने के लिए सूखी लकड़ी पर सोना और पित्त चाटना चाहिए, और उनके पास लड़ने के लिए कभी न हार मानने का संकल्प और मानसिकता होनी चाहिए।” क्या यह परमेश्वर की गवाही देना है? (नहीं।) शैतानी तर्क को परमेश्वर के वचन और सत्य मानकर और उसकी गवाही देकर, न केवल तुमने परमेश्वर की उचित रूप से गवाही नहीं दी, बल्कि तुम शैतान के लिए हंसी का पात्र बन गए हो और तुमने परमेश्वर का अपमान किया है। तुम यह क्या कर रहे हैं? यदि परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा करे, तो तुम इसे अन्याय समझोगे और कहोगे, “मैं अज्ञानी हूँ। मैं समझता नहीं हूँ। परमेश्वर ने इस बारे में मेरे साथ कभी संगति नहीं की।” यदि वह तुम्हारी निंदा नहीं करता है, किन्तु तुम्हारे क्रियाकलापों की प्रकृति बहुत ही गंभीर हो, तो परमेश्वर को इसके बारे में क्या करना चाहिए? तुम्हें एक तरफ कर देना चाहिए? (नहीं।) कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक मेरी बात है, मैं बस तुम लोगों को—तुम लोगों के समझ के स्तर के अनुसार और जो मैं तुम लोगों को बताने में सक्षम हूँ उसके अनुसार—जितना हो सके उतना समझाऊँगा, और जितना हो सके उतना बताऊँगा कि सत्य वास्तव में क्या है, वे वाक्यांश जिन्हें तुम लोग अच्छे और सही मान रहे हो, क्या सत्य से जुड़े हैं, और क्या वे सत्य हैं। मुझे तुम लोगों को ये बातें समझानी होगी। यदि, इन बातों को जानने के बाद भी, तुम उसी तरह से सोचते हो और अभी भी उतने ही आग्रही हो, तो परमेश्वर तुम्हें एक तरफ नहीं रखेगा, न ही वह तुम्हारी उपेक्षा करेगा। तुम निंदा के पात्र होगे, और परमेश्वर कार्यवाही करेगा। परमेश्वर ऐसा क्यों करेगा? यदि तुम इन बातों को न समझते हुए इस तरह से काम करते हो, तो परमेश्वर इसे तुम्हारे मूर्ख और अज्ञानी होने के रूप में लेगा, परन्तु यदि तुम इन बातों को जानते हो और फिर भी इस तरह से काम करते हो, तो तुम जानबूझकर गलत कर रहे हो, और परमेश्वर को इससे सिद्धांतों के अनुसार निपटना होगा।

19 दिसंबर 2019

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