मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन)
परिशिष्ट : पूर्वी और पश्चिमी पारंपरिक संस्कृति का गहन विश्लेषण
मुझे बताओ, सत्य क्या है? क्या हमने इस विषय पर पहले संगति नहीं की है? (हाँ, हमने की है।) ठीक है फिर, तुम लोग अपने शब्दों में मुझे बताओ, सत्य क्या है। (सत्य वह सिद्धांत और कसौटी है जिससे सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को मापा जाता है।) अच्छा है। और कोई? क्या इसे कहने का कोई अलग तरीका है? यह मत सोचो कि अपने उत्तर के लिए तुम्हें धर्म-सिद्धांत के किन शब्दों का उपयोग करना है या परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पंक्ति चुननी है, बस सिर्फ अपने असली अनुभव और वास्तविक समझ में से शब्द ले कर उत्तर दे दो। वे अत्यंत गूढ़ न हों तो भी ठीक है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं।” हालाँकि यह सही है, फिर भी यदि तुम ये शब्द केवल बोल सकते हो लेकिन उनका वास्तविक अर्थ नहीं समझते हो तो फिर ये तुम्हारे लिए महज धर्म-सिद्धांत ही हैं। चलो, अब एक कदम आगे बढ़ें—सत्य क्या है? परमेश्वर के वचन क्या हैं? परमेश्वर के वचनों का सार क्या है? क्या सत्य वह कसौटी है जिसे लोग अपनी सोच और विचार से तैयार करते हैं? (नहीं, बिल्कुल नहीं है।) क्या सत्य, लोगों ने जो अनुभव किया है और जो ज्ञान हासिल किया है उसका निचोड़ है, या एक प्रकार की सामाजिक संस्कृति है, या किसी सामाजिक संदर्भ में निर्मित एक पारंपरिक संस्कृति है? (नहीं, बिल्कुल नहीं है।) तो फिर क्या सत्य वह सिद्धांत है जो लोग स्वयं अपने आचरण और क्रियाकलापों के लिए सारांशित करते हैं? (नहीं, बिल्कुल नहीं है।) तो वास्तव में यह है क्या? हम यहाँ बताए गए सिद्धांतों का किस तरह से विशेष वर्णन कर सकते हैं, ताकि उनका कोई निश्चित अर्थ हो, और लोग उसे सुनते ही जान जाएँ कि यह सत्य है? हम इसे उस ढंग से कैसे व्यक्त कर सकते हैं कि लोगों को लगे कि यह सारगर्भित और सटीक है? (मनुष्य से परमेश्वर की समस्त अपेक्षाएँ सत्य हैं।) मनुष्य से परमेश्वर की समस्त अपेक्षाएँ सत्य हैं, यह बात सही है, लेकिन इस बात को तुम और अधिक सटीक ढंग से कैसे कह सकते हो? (सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है।) यह बात पहले भी अक्सर कही गई थी। हमने अक्सर कहा कि परमेश्वर के वचन, मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ और सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता ही सत्य है—इसके अलावा और क्या है? (सत्य इस बात की कसौटी और मार्ग है कि लोग मामलों को कैसे सँभालें और खुद कैसे आचरण करें।) सत्य इस बात की कसौटी और मार्ग है कि लोग मामलों को कैसे सँभालें और खुद कैसे आचरण करें, यह भी सही है। अब इन सभी पहलुओं को एक साथ रख कर सत्य को एक सारगर्भित वाक्य में परिभाषित करो। (परमेश्वर ही सत्य है।) परमेश्वर ही सत्य है; यह बहुत ज्यादा व्यापक, बहुत ज्यादा सामान्य है। जरूरी है कि यह और अधिक विशिष्ट हो, ताकि जब लोग इसे सुनें तो उन्हें लगे कि यह सटीक परिभाषा है, खोखली नहीं, बल्कि बहुत ठोस और व्यावहारिक है, और वे सोचें कि यह उपयुक्त लगती है। इसे फिर से संक्षेप में कहने की कोशिश करो; तुम इसे और अधिक सटीक रूप से कैसे व्यक्त कर सकते हो? (ऊपरवाले ने पहले संगति की है कि सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) क्या यह सारगर्भित रूप से व्यक्त नहीं किया गया है? (हाँ, बिल्कुल किया गया है।) सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। इसे एक कसौटी के रूप में परिभाषित क्यों किया जाए? हम “कसौटी” शब्द को और अधिक शाब्दिक अर्थ में कैसे समझ सकते हैं? (एक सटीक सिद्धांत के रूप में।) एक सटीक सिद्धांत या नियम के रूप में; इसे एक विनियम भी कहा जा सकता है। तो “कसौटी” से क्या तात्पर्य है? (एक मानक।) इसका तात्पर्य एक मानक, सटीक नियम और सिद्धांत से है। इसे ही हम एक कसौटी कहते हैं। इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी—यदि हमारे द्वारा पहले बताई गई ये परिभाषाएँ सटीक हैं तो फिर इस कसौटी का संबंध किससे है? यहाँ इसका क्या तात्पर्य है? यह पहले दी गई परिभाषा जैसा ही है : इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी। यही सत्य है। अब जब कोई व्यक्ति उस वाक्य को पढ़ता है तो क्या वह सोच सकता है, “हमारी पारंपरिक संस्कृति भी सत्य है”? क्या इसे सत्य की श्रेणी में रखा जा सकता है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) इसे नहीं रखा जा सकता है। क्या वह कह सकता है, “हमारे पास शैक्षणिक शोध का निष्कर्ष है जो सत्य है,” या “हमारे लोगों के पास एक संस्कृति है, या एक अनुभव है, या एक अच्छा नैतिक स्तर है वह भी सत्य है”? क्या सत्य को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) सत्य को परिभाषित करने के लिए हम इन चीजों का उपयोग क्यों नहीं कर सकते? हम ऐसा क्यों कहते हैं कि इन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है? (उनका परमेश्वर की आराधना से कोई लेना-देना नहीं है।) यह सही है। लोगों के आचरण से उनका संबंध हो सकता है, लेकिन परमेश्वर की आराधना से उनका संबंध नहीं है। वे जिस आचरण की बात करते हैं उसका संदर्भ किससे है? उनके मानक और नियम क्या हैं? शैतान से आने वाला अच्छा आचरण। ये मानक परमेश्वर की आराधना के बारे में नहीं, बल्कि शैतान की आराधना करने और उसका बचाव करने को लेकर हैं। ये आचरण के बारे में कहावतों या संस्कृतियों का एक संग्रह हैं, जिन्हें इंसानी कल्पनाओं और धारणाओं और लोगों द्वारा मानी गई अच्छी नैतिकता या आचरण से सारांशित किया गया है। इनमें सत्य या परमेश्वर की आराधना करना शामिल नहीं है—इनका परमेश्वर की आराधना से कोई लेना-देना नहीं है।
चीनी लोगों ने एक पारंपरिक संस्कृति को सारांशित किया है जो केवल चीनी लोगों के लिए उपयुक्त है, और जिसे पश्चिमी लोग स्वीकार नहीं कर सकते हैं। पश्चिमी लोगों के अपने राष्ट्रीय नायक हैं, नैतिक सत्यनिष्ठा की राष्ट्रीय संवेदनाएँ हैं, और राष्ट्रीय संस्कृतियाँ हैं, लेकिन यदि उन्हें अपनी संस्कृतियों को पूर्व में लाना हो तो क्या वहाँ के लोग उन्हें स्वीकार करेंगे? (नहीं, वे स्वीकार नहीं करेंगे।) उसी तरह से वे भी स्वीकार नहीं किए जाएँगे। इसलिए, लोग चाहे इन संस्कृतियों को जितनी भी ऊँची दृष्टि से क्यों न देखें, या वे इन परंपराओं को चाहे जितना भी कुलीन क्यों न मानें, क्या सत्य और उनके बीच कोई रिश्ता है? (नहीं।) कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, पूर्व में एक प्रकार की पारंपरिक संस्कृति है जो कहती है कि उल्लू शुभ प्राणी नहीं हैं। लोग क्या कहते हैं? “तुम्हें रोने वाले उल्लू से नहीं, बल्कि हँसने वाले उल्लू से डरने की जरूरत है। उनकी पुकार सुनो, और बुरी चीजें अवश्य घटेंगी।” पूर्वी पारंपरिक संस्कृति में उल्लुओं को अशुभ और अमंगल माना जाता है। तो क्या पूर्वी लोग इस “अमंगल” प्राणी को पसंद करते हैं? (नहीं, वे नहीं करते।) यह नापसंदगी किस चीज पर आधारित है? यह पूर्वी पारंपरिक संस्कृति पर, और जो बातें उन तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचीं उन पर आधारित है जिनमें कहा गया है, “किसी उल्लू की पुकार सुनना परिवार में किसी की मृत्यु का पैगाम है।” हो सकता है कि यह एक व्यवस्था हो, जिसे लोगों ने सारांशित किया, या कोई इंसानी कल्पना हो, या एक संयोग हो, और इसके बाद से लोग अपने दिलों में मानते हैं कि उल्लू बुरे होते हैं। वे सोचते हैं कि किसी को उनकी आराधना नहीं करनी चाहिए, या उन्हें शुभ प्राणी नहीं मानना चाहिए, और किसी उल्लू को देखने पर उसे तुरंत दूर भगा देना चाहिए, और उसका स्वागत नहीं करना चाहिए। क्या यह एक प्रकार की संस्कृति नहीं है? (हाँ, जरूर है।) इस प्रकार की संस्कृति चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक, यह एक प्रकार की लोक विरासत है। अभी के लिए, हम इस बारे में बात न करें कि यह सही है या गलत, और सिर्फ यह कहें कि इस प्रकार की संस्कृति को पूर्व में, खास तौर पर चीन में, हर व्यक्ति से पूरा समर्थन मिलता है। वहाँ प्रत्येक व्यक्ति दिल से विश्वास करता है कि उल्लू बुरे होते हैं, शुभ प्राणी नहीं होते हैं, इसलिए यदि वे उसे देख लें तो फौरन उससे बचने की कोशिश करेंगे। लेकिन पश्चिम में, कुछ लोग मानते हैं कि उल्लू एक प्रकार के शुभ प्राणी हैं, और उल्लू की मूर्तियों और चित्रों का सजावटी चीजों के रूप में प्रयोग करते हैं। तरह-तरह की कढ़ाई की हुई चीजों और कबीलों के प्रतीकों में भी उल्लू के डिजाइन होते हैं, और उन्हें शुभ प्राणी माना जाता है। शुभ प्राणी होने का अर्थ क्या है? अर्थ यह है कि यह प्राणी तुम्हारे लिए सौभाग्य ला सकता है, और उसकी एक पुकार सुनने या उसे देखने से तुम्हारा अमंगल नहीं होगा। पश्चिम में यह एक प्रकार की लोकप्रिय पारंपरिक संस्कृति है। हम यह नहीं आँकेंगे कि पूर्वी संस्कृति या पश्चिमी संस्कृति सही है या गलत, न ही मौजूदा मामले को आँकेंगे। लेकिन इस मामले के जरिए हम देख सकते हैं कि परमेश्वर द्वारा सृजित वही प्राणी पूर्व और पश्चिम में—जोकि वैसे भी पूरी तरह से भिन्न हैं—विभिन्न सोच और धारणाओं के अधीन है। पूर्वी लोग इसे अच्छी चीज नहीं मानते, और उल्लू चाहे हँसे या रोये, उनके लिए यह अच्छा नहीं माना जाता, जबकि पश्चिमी लोग यह चाहे हँसे या रोये इसे शुभ मानते हैं, और मानते हैं कि इसे देखने भर से शायद सौभाग्य प्राप्त होगा, इसलिए वे उल्लुओं को शुभ प्राणी मानते हैं। उल्लुओं से पेश आने के ये दो दृष्टिकोण और तरीके पारंपरिक संस्कृति से आते हैं : एक संस्कृति जो मानती है कि उल्लू अमंगल का सूचक है, और दूसरी जो उन्हें शुभ मानती है। इस पर अब गौर करें तो इनमें से कौन सत्य के अनुरूप है, और कौन नहीं? (इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है।) इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है। तुम लोग अपना यह दावा किस पर आधारित कर रहे हो? (इनमें से कोई भी नजरिया परमेश्वर से नहीं आता है।) बिल्कुल सही। जब लोग कहते हैं कि उल्लू शुभ प्राणी नहीं हैं तो वे यह किस पर आधारित करते हैं? यह पूर्वी पारंपरिक संस्कृति है; वे जिसे शुभ या अशुभ मानते हैं, या विपत्ति, दुर्भाग्य या आनंद लाने वाला मानते हैं, उसे पारंपरिक संस्कृति के अनुसार मापा जाता है। यह कल्पनाओं और धारणाओं से उत्पन्न चीजों को देखने का एक तरीका है जिससे इस प्रकार की संस्कृति पैदा होती है। पश्चिमी लोग सोचते हैं कि इस प्रकार का प्राणी सौभाग्य ला सकता है और बेशक यह इसे अशुभ मानने और उस दृष्टि से देखने की अपेक्षा थोड़ा बेहतर और प्रगतिशील है। यह लोगों को महसूस करवाता है कि यह काफी अच्छा प्राणी है, और कम-से-कम ऐसे प्राणी को देख कर वे शांत और स्थिर महसूस करेंगे, जोकि अशुभ महसूस करने से अच्छा है। लेकिन इसे इस तरह से समझ कर तुम क्या हासिल कर सकते हो? क्या उल्लू वास्तव में तुम्हारे लिए सौभाग्य ला सकते हैं? (नहीं, वे नहीं ला सकते।) यदि तुम चीन में पैदा हुए होते तो क्या उल्लू वास्तव में तुम्हारा भाग्य तय कर सकते थे? यह भी सही नहीं है। तो, इससे तुम क्या समझ सकते हो? तुम चाहे यह मानते हो कि यह प्राणी दुर्भाग्य ला सकता है या चाहे यह मानते हो कि यह सौभाग्य ला सकता है, यह सिर्फ एक इंसानी विश्वास और धारणा है, तथ्य नहीं। इससे क्या सिद्ध होता है? (यह कि पारंपरिक संस्कृति सत्य नहीं है।) सही है; कोई भी संस्कृति सत्य नहीं है। तो तुम्हें उल्लुओं के साथ किस तरह से पेश आना चाहिए कि वह सत्य के अनुरूप हो? यह इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी को स्पर्श करता है। यहाँ कसौटी क्या है? तुम्हें इस प्राणी को किस परिप्रेक्ष्य से देखना चाहिए और जब यह तुम्हारे सामने आए तो चाहे वह रो रहा हो या हँस रहा हो, उससे कैसे पेश आएँ—ये चीजें कसौटी से जुड़ी हुई हैं। कसौटी क्या है? (सत्य।) सत्य ही कसौटी है। किसी उल्लू से कैसे पेश आएँ, इस बात के लिए तुम्हें किसे आधार बनाना चाहिए? (परमेश्वर के वचनों को।) और इस प्रकार के प्राणी के साथ व्यवहार को ले कर परमेश्वर का वचन क्या कहता है? उसके वचन विशेष रूप से नहीं कहते हैं कि, “तुम्हें उल्लुओं से सही ढंग से पेश आना चाहिए, और इस मामले में तुम पक्षपाती नहीं हो सकते। तुम नहीं कह सकते कि उल्लू अमंगल के सूचक हैं, न ही यह कि वे तुम्हारे लिए सौभाग्य लाएँगे। तुम्हें उल्लुओं से वस्तुपरक और निष्पक्ष ढंग से पेश आना चाहिए।” परमेश्वर ने यह नहीं कहा। तो फिर उल्लुओं पर अपने नजरियों को कसौटियों और सत्य के के अनुरूप बनाने के लिए तुम्हें किस आधार की आवश्यकता है? (इस तथ्य की कि परमेश्वर ने सभी चीजों का सृजन किया।) तुम्हारा आधार यह तथ्य होना चाहिए कि परमेश्वर ने सभी चीजों का सृजन किया, यही सत्य है। परमेश्वर के हाथों में सभी चीजों का अपना कार्य होता है, अपना उद्देश्य होता है और उनके अस्तित्व का मूल्य होता है। इसके अलावा और क्या? (परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से सभी चीजें अच्छी हैं।) सही है, परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजें अच्छी होती हैं, उनके अस्तित्व का मूल्य होता है, और उनका अस्तित्व जरूरी है। यदि कोई चीज परमेश्वर से आती है और वह उसने बनाई है तो वह कभी भी अनावश्यक नहीं होगी। इस “कभी भी अनावश्यक न होने” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि यह यादृच्छिक रूप से लोगों के लिए दुर्भाग्य नहीं लाएगी। क्या एक छोटा-सा उल्लू यादृच्छिक रूप से तुम्हारे लिए दुर्भाग्य ला सकता है? क्या यह उल्लू को अत्यधिक शक्तिशाली नहीं बना देगा? क्या इंसान उल्लुओं से ऊँचे हैं? इंसान सभी चीजों के प्रबंधक हैं, और यह कहना अधिक सटीक है कि वे उल्लुओं की नियतियों को नियंत्रित करते हैं, और देखते-देखते वे सभी उल्लुओं का सफाया कर सकते हैं। उल्लुओं के लिए इंसान की नियति को बदलना नामुमकिन है। तो इस प्राणी से पेश आने का कौन-सा तरीका सत्य के अनुरूप है? उससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आना। परमेश्वर ने सभी चीजों, सभी प्राणियों, और इंसानों का भी सृजन किया। उल्लू प्राणी हैं, इसलिए हमें उनसे उसी नजरिये से पेश आना चाहिए जिससे हम सभी सृजित प्राणियों से पेश आते हैं। अव्वल तो हम उनके जीवित रहने की व्यवस्थाओं को यों ही नष्ट नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, उल्लुओं की आदत और लक्षण दिन में सोना और रात में शिकार करना और सक्रिय रहना है। यदि किसी घायल उल्लू पर तुम्हारी नजर पड़े और तुम तरस खाकर उसे घर ले आओ तो तुम्हें उसका इलाज कैसे करना चाहिए? (उसकी आदतों के अनुसार।) सही है, तुम्हें उन व्यवस्थाओं का आदर करना चाहिए जिनके आधार पर वह जीता है। उसे रात को सुलाने और यदि वह न सोये तो उसे नींद की गोलियाँ खिलाने के बारे में मत सोचो। यह गलत है। अगर वह हमेशा रात में शोर मचाता है, और इससे तुम्हारा आराम बाधित होता है तो तुम उसे ऐसी जगह ले जा सकते हो जहाँ वह तुम्हें परेशान न करे, लेकिन तुम उसके जीने की व्यवस्थाओं को बाधित नहीं कर सकते हो, या उसके जीवित रहने के तरीके का उल्लंघन नहीं कर सकते हो। क्या यह उससे पेश आने का सही तरीका नहीं है? (हाँ, ऐसा है।) परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजों के बारे में तुम्हारा यही नजरिया होना चाहिए। सबसे पहले सही परिप्रेक्ष्य रखो। कोई भी काम करने से पहले तुम्हें यही कदम उठाना चाहिए। दूसरे, काम करते समय या मामले संभालते समय तुम्हें इस सही परिप्रेक्ष्य को प्रयोग में लाना चाहिए, ताकि तुम जो करो वह सत्य के अनुरूप हो। यही कसौटियाँ है। बेबाकी से कहें तो कसौटियाँ सटीक नियम और व्यवस्थाएँ हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई बिल्ली चूहे को देखती है तो वह उसे पकड़ना चाहती है। मान लो कि तुम्हारे ख्याल से चूहे भी परमेश्वर ने ही बनाए हैं, और तुम बिल्ली को नियंत्रित करना चाहते हो, और उसे चूहे को पकड़ने से रोकना चाहते हो—क्या यह गलत है? (हाँ, बिल्कुल गलत है।) इस दृष्टिकोण के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह व्यवस्थाओं का उल्लंघन करता है।) यह प्रकृति की व्यवस्थाओं के विरुद्ध है। जब कुछ लोग पानी में मछली देखते हैं तो वे सोचने लग जाते हैं, “सभी कहते हैं कि जल के बिना मछली जीवित नहीं रह सकती है। लेकिन मैं इसे जल से बाहर निकाल कर थल पर जीवित रखने की हर तरह से कोशिश करूँगा।” इसका नतीजा यह होता है कि थोड़ी ही देर बाद मछली मर जाती है। इसे क्या कहा जाता है? (बेतुका।) यह बेतुका है। उल्लुओं की चर्चा करके क्या तुम लोग कमोबेश समझ पाए हो कि कसौटियाँ क्या हैं, और वे किस पर आधारित होती हैं? (वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित होती हैं।) ठीक, वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित है। तो भविष्य में तुम लोगों को उल्लुओं से कैसे पेश आना चाहिए? यदि किसी शाम कोई उल्लू तुम्हारी खिड़की के पास रोता रहे तो तुम्हें उसे कैसे संभालना चाहिए? कम-से-कम हम जानते हैं कि उसे रोने का अधिकार है, और हमें उसका वह अधिकार देना चाहिए। यदि वह बहुत ज्यादा शोर मचा रहा हो तो तुम उसे दूर भगा सकते हो, लेकिन इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है कि क्या अगले दिन मेरे साथ कुछ अशुभ होगा। यह सोचना अनावश्यक है, चूँकि मनुष्य का भाग्य, जीवन और मृत्यु सब-कुछ परमेश्वर के हाथों और उसकी संप्रभुता के अधीन है। लोग सत्य को नहीं समझते हैं, इसलिए वे चीजों के प्रति आसानी से पूर्वाग्रह पाल लेते हैं और उनमें कल्पनाएँ और धारणाएँ भी हो सकती हैं, या वे कुछ हद तक अंधविश्वासी भी बन सकते हैं। इससे लोग अनेक चीजों पर गलत सोच रखने लगते हैं और वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने या हर चीज में इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी पर खरे उतरने में विफल हो जाते हैं। इसका कारण क्या है? (सत्य को न समझना।) ऐसा सत्य को न समझने से होता है।
जब कुछ पूर्वी लोग पश्चिमी लोगों के संपर्क में आते हैं तो वे उनके विशिष्ट नाक-नक्श देखते हैं—उनके ऊँची नाक, उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, उनके बालों के विविध रंग और देखने में उन सबका सुरुचिपूर्ण लगना—और अनजाने ही उनके प्रति ईर्ष्या और सराहना की भावना पैदा कर लेते हैं। फिर, निरंतर संपर्क के जरिए वे पाश्चात्य संस्कृति को लगातार स्वीकार लेते हैं। वे उसे स्वीकारने में क्यों सक्षम हो पाते हैं? अपने दिलों में ईर्ष्या और उनकी तरह बनने की इच्छा के कारण। वे सोचते हैं कि रंग-रूप परमेश्वर द्वारा निर्धारित होते हैं और उन्हें बदला नहीं जा सकता है, लेकिन यदि वे पाश्चात्य जीवन शैली, जैसे कि उनका खान-पान, उनका पहनावा, और चीजों के प्रयोग करने का ढंग, और साथ ही उनके बोलने का लहजा, सोचने का तरीका और संस्कृति, आदि की बराबरी कर सकें तो वे सम्मानित हो जाएँगे। इस किस्म के विचार के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या सभी लोगों में ऐसे विचार होते हैं? (हाँ, बिल्कुल होते हैं।) कुछ पूर्वी लोग पश्चिमी लोगों की नकल करते हैं, और वह पहली चीज जिसकी वे नकल करते हैं वह कॉफी पीना है। उन्हें लगता है कि पूर्वी लोगों का चाय पीना बहुत गँवारू है, इसलिए वे पश्चिमी लोगों से कॉफी पीना सीख लेते हैं। खास तौर से, कुछ पूर्वी लोग कई पश्चिमी लोगों को हर सुबह हाथ में कॉफी का कप पकड़े हुए, काम के लिए भागते हुए देखते हैं, और समय के साथ वे भी ऐसा करना सीख जाते हैं, कभी-कभी तब भी जब वे वास्तव में व्यस्त नहीं होते। इसे नकल कहा जाता है। पूर्वी लोगों को वास्तव में यह आदत नहीं होती, लेकिन वे सोचते हैं कि पश्चिमी लोगों के रीति-रिवाज अच्छे, ऊँचे और सुरुचिपूर्ण हैं। वे मानते हैं कि यदि उनमें यह आदत न हो तो उन्हें सीख कर उसकी नकल करनी चाहिए, और यदि वे उसे सीख लें, और इस आदत के अनुसार जिएँ तो वे यकीनन पश्चिमी लोगों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगे और वे स्वयं भी वैसे हो जाएँगे। यह एक प्रकार से पश्चिमी लोगों की आराधना है। यदि तुम वास्तव में किसी चीज को पसंद करते हो तो बेशक कुछ भी करके उसका अध्ययन करो, लेकिन अगर तुम ऐसा रिवाज दूसरों को दिखाने के लिए एक दिखावे के रूप में सीख रहे हो, तो यह नकल है। यदि कोई सत्य को न समझे तो वह जो भी काम करेगा उसमें कोई कसौटी नहीं होगी, और वह एक बिना सिर वाली मक्खी जैसा होगा, बिना किसी लक्ष्य और दिशा के। जब वे पश्चिमी लोगों को देखते हैं तो अध्ययन करते हैं कि पश्चिमी लोग कैसे कार्य करते हैं; जब वे देखते हैं कि दुनिया में क्या चलन में है तो वे उसका अध्ययन करते हैं। गैर-विश्वासी ऐसे होते हैं, और अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वाला कोई व्यक्ति ऐसा ही करे तो फिर वह कैसा व्यक्ति होगा? (एक छद्म-विश्वासी।) बिल्कुल सही। काम करते वक्त क्या उसके कोई मानक या सिद्धांत होते हैं? (नहीं, बिल्कुल नहीं होते।) उसके कोई सिद्धांत नहीं होते हैं। क्यों? क्योंकि वे सांसारिक प्रवृत्तियों और दुष्टताओं से प्यार करते हैं; वे परमेश्वर की सराहना नहीं करते हैं, वे दिल से सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, और वे सत्य को स्वीकारते और खोजते नहीं हैं। ऐसे तमाम लोग छद्म-विश्वासी हैं। चूँकि इस प्रकार के व्यक्ति में ये सार होते हैं, इसलिए भले ही वे कलीसिया में बैठ कर परमेश्वर के वचन पढ़ रहे हों और धर्मोपदेश सुन रहे हों, फिर भी वे कभी भी मनुष्य के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी पाने में सक्षम नहीं होंगे। इसका निहितार्थ यह है कि वे कभी भी सत्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। क्या यह सही नहीं है? (हाँ, बिल्कुल सही है।) दूसरों की कॉफी पीने की नकल करना किसी व्यक्ति की पसंद, उसके मार्ग और उसके क्रियाकलापों के सिद्धांतों का खुलासा कर सकता है। मुझे बताओ, क्या चाय पीना सत्य है, या क्या कॉफी पीना सत्य है? (दोनों सत्य से संबंधित नहीं हैं।) अच्छी बात है। तो फिर सत्य क्या है? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर से आने वाली सभी चीजें सत्य हैं। परमेश्वर के वचन जो कहते हैं कि तुम्हारे लिए मौसमी चीजें खाना अच्छा होता है, सत्य हैं।” यह सही है। सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। तो, आचरण की कसौटी में क्या शामिल है? यह आचरण से संबंधित सत्य के प्रत्येक पहलू को स्पर्श करती है। क्रियाकलापों की कसौटी के बारे में क्या विचार हैं? यह चीजों को संभालने के तुम्हारे ढंग और साधनों के बारे में है। कहने की जरूरत नहीं कि हम सभी परमेश्वर की आराधना की कसौटी को जानते हैं। इस कसौटी का दायरा इन चीजों का संदर्भ देता है और इन सभी में सत्य शामिल है। मान लो कि कोई कहे, “ऐसा कैसे है कि तुम चाय पसंद नहीं करते?” और तुम कहते हो, “क्या मेरा चाय को पसंद न करना सत्य से मेल नहीं खाता है?” एक और व्यक्ति कहता है : “तुम पश्चिम में हो, तो तुमने कॉफी पीना क्यों नहीं सीखा? कॉफी न पीना, बहुत बेस्वाद होना है!” और तुम कहो, “क्या तुम मेरी निंदा करने की कोशिश कर रहे हो? क्या कॉफी न पीना कोई पाप है? क्या ‘स्वाद’ ही सत्य है? स्वाद का मूल्य कितना है?” यह पूरी तरह से बेकार है, ठीक? सत्य को न समझना ही वास्तव में बेकार है! इस उदाहरण से लोगों को क्या समझना चाहिए? उन्हें समझना चाहिए कि इन लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उन्हें कैसे नजरिये रखने चाहिए, और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार उनसे कैसा व्यवहार करना चाहिए, ताकि उसके अपेक्षित मानकों पर खरा उतरा जा सके। इन सबसे लोगों को क्या समझना और खोजना चाहिए? उन कसौटियों को जिनका उन्हें तरह-तरह की चीजों से पेश आने के लिए पालन करना चाहिए।
क्या तुम लोगों को लगता है कि एक पारंपरिक संस्कृति या राष्ट्रीय भावना “कसौटी” शब्द के योग्य हो सकती है? (नहीं।) उदाहरण के लिए, “इंसान होने का अर्थ है कि तुम्हें अपने देश से प्रेम करना चाहिए”—क्या यह एक कसौटी है? (नहीं।) “इंसान होने का अर्थ यह है कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए”—क्या यह एक कसौटी है? (नहीं, बिल्कुल नहीं है।) कुछ लोग यह भी कहते हैं, “स्त्रियों को सद्गुणी होना चाहिए,” या “स्त्रियों को कन्फ्यूशियाई मूल्यों का पालन करना चाहिए,” लेकिन क्या ये कसौटियाँ हैं? (नहीं, बिल्कुल नहीं हैं।) “एक पुरुष की केवल एक पत्नी होनी चाहिए, और उसे वफादार होना चाहिए”—क्या यह एक कसौटी है? क्या यह सत्य के मानकों पर खरा है? (नहीं।) यह एक सही व्यवहार है, नैतिक है, और मानवता की सबसे मूलभूत और बुनियादी चीज है, लेकिन यह सत्य के अनुरूप नहीं है। यह सामान्य मानवता के नैतिक और व्यावहारिक मानकों के अनुरूप है, लेकिन क्या इसे कसौटी माना जा सकता है? कसौटी का संदर्भ किससे है? (सत्य से।) कसौटी का संदर्भ सत्य से है, और इसलिए जो भी चीज सत्य से कम है वह कसौटी नहीं है। समझ रहे हो? पारंपरिक संस्कृति में पुरुषों और स्त्रियों से जिन अपेक्षाओं का मैंने जिक्र किया, क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं? (नहीं।) खैर, परमेश्वर पुरुषों से क्या अपेक्षा रखता है? बाइबल में क्या कहा गया है? (वे अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के लिए श्रम करते हैं और पसीना बहाते हैं।) पुरुषों से परमेश्वर की यह अपेक्षा है, और यह सबसे बुनियादी चीज है जिसे एक पुरुष को करने में सक्षम होना चाहिए। स्त्रियों के लिए परमेश्वर का नियम क्या है? (उनकी इच्छा अपने पतियों के लिए होनी चाहिए।) चूँकि परमेश्वर के वचनों में यह बात कही गई है, यही सत्य है, और लोगों को इसी का पालन करना चाहिए। मनुष्य की पारंपरिक संस्कृति या नैतिक धर्मग्रन्थों में जो भी बात है, वह चाहे कितनी भी सही क्यों न हो, सत्य नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि परमेश्वर ने वह बात नहीं कही।) परमेश्वर जो नहीं कहता वह निश्चित रूप से सत्य नहीं है, न ही वह सत्य है जिसका परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। पूर्वी लोग स्त्रियों को किन मानकों से परिभाषित करते हैं? वे मानते हैं कि अच्छी स्त्रियों को विनम्र और सद्गुणी, संस्कारी और परिष्कृत, आकर्षक और सुंदर होना चाहिए, और शादी के बाद उन्हें बिना शिकायत किए परिवार के बड़े-छोटे, सभी लोगों की देखभाल करनी चाहिए। वे बस पांव की चटाई हैं। पूर्वी लोगों ने स्त्रियों की यह छवि तैयार की है; ये उनके स्त्रियों से अपेक्षित मानक हैं। आओ अब देखें कि पश्चिमी लोगों के स्त्रियों से अपेक्षित मानक क्या हैं, यानी वे अपने विचारों और दृष्टिकोणों से क्या शिक्षा देते हैं और किसकी पैरवी करते हैं। पश्चिमी लोग मानते हैं कि स्त्रियों को स्वतंत्र, मुक्त और समान होना चाहिए—ये मुख्य रूप से स्त्रियों के अधिकार ही हैं जिनकी पश्चिम पैरवी करता है। इन अधिकारों में स्त्रियों के लिए एक बुनियादी परिभाषा और अपेक्षा है, यानी वे किसी महिला की जीवनशैली और रंग-रूप के लिए एक बुनियादी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। यह अवधारणा क्या है? यह कि स्त्रियों को सारा दिन पांव की चटाई की तरह आज्ञाकारी, दयनीय और शिष्ट नहीं होना चाहिए। उनके ख्याल से ऐसा होना खराब है, और स्त्रियों को सशक्त और साहसी होना चाहिए। पश्चिमी लोगों के दिलों में ये स्त्रियों से अपेक्षित मानक हैं। वे मानते हैं कि स्त्रियों को कठपुतलियों की तरह रहने की जरूरत नहीं है जो प्रति दिन मुश्किलों के सामने झुक कर समर्पण करती रहें और दूसरों से डाँट या हुक्म सुनने का इंतजार करती रहें। उन्हें लगता है कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। पश्चिमी लोग पैरवी करते हैं कि स्त्रियों को अपने क्रियाकलापों में सक्रिय, स्वतंत्र और साहसी होना चाहिए। बेशक यह संभव है कि हम जो समझते हैं वह उनकी सोच से पूरी तरह मेल नहीं खाता हो, लेकिन मौलिक रूप से पूर्वी और पश्चिमी स्त्रियों के बीच यही मुख्य अंतर है। इन दो नजरियों में से कौन-सा सही है? (इनमें से कोई भी सही नहीं है।) वास्तव में, यह सही और गलत के बारे में नहीं है। पूर्वी सामाजिक पृष्ठभूमि के तहत, ऐसे समुदाय में, तुम्हें उसी तरह से जीना पड़ता है। क्या तुम चाहो तो विद्रोह कर सकते हो? परिवार के भीतर विद्रोह करने पर तुम्हें मृत्यु का जोखिम उठाना पड़ता है। पश्चिम में, तुम उस तरह से जी सकती हो जैसे कि एक पश्चिमी महिला जीती है, लेकिन तुम चाहे जैसे जियो, चाहे जिस भी सामाजिक पृष्ठभूमि में या जिस भी समुदाय में जियो, कौन-सा नजरिया सत्य के अनुरूप है? (इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है।) इनमें से कोई भी नजरिया सत्य के अनुरूप नहीं है, दोनों ही इसका उल्लंघन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? पूर्वी लोग चाहते हैं कि स्त्रियाँ हमेशा शिष्ट हों, कन्फ्यूशियाई मूल्यों का मूर्तरूप हों, सद्गुणी और विनम्र हों—किस प्रयोजन से? ताकि उन पर नियंत्रण करना आसान हो। यह एक घातक विचारधारा है जो पारंपरिक पूर्वी संस्कृति से विकसित हुई है, और यह वास्तव में लोगों के लिए हानिकारक है, और यह आखिरकार स्त्रियों को दिशाहीन और विचारहीन जीवन जीने की ओर आगे बढ़ाती है। ये स्त्रियाँ नहीं जानतीं कि उन्हें क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, या कौन-से क्रियाकलाप सही हैं या गलत। वे अपने परिवारों के लिए अपना जीवन भी दे देती हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं किया है। क्या यह स्त्रियों के लिए एक प्रकार की हानि है? (हाँ, बिल्कुल है।) वे तब भी प्रतिरोध नहीं करतीं जब उनके अपने अधिकार, जो उन्हें मिलने चाहिए, छीन लिए जाते हैं। वे प्रतिरोध क्यों नहीं करती हैं? वे कहती हैं : “प्रतिरोध करना गलत है, यह सद्गुण नहीं है। अमुक स्त्री को देखो, वह मुझसे बहुत बेहतर काम करती है, और उसने मुझसे बहुत ज्यादा सहा है, फिर भी वह कभी शिकायत नहीं करती।” वे ऐसा क्यों सोचती हैं? (वे पारंपरिक सांस्कृतिक सोच से प्रभावित हैं।) इसी पारंपरिक संस्कृति ने उनके भीतर गहरी जड़ें जमा रखी हैं, और उन्हें असीम कष्ट दिए हैं। वे इस किस्म की यातना को सहन करने में कैसे सक्षम हैं? वे अच्छी तरह जानती हैं कि इस प्रकार की यातना बहुत पीड़ादायक है, यह उन्हें असहाय महसूस करवाती है, और उनके दिल दुखाती है, तो फिर भी वे इसे कैसे स्वीकार सकती हैं? इसका वस्तुपरक कारण क्या है? यह कि यह उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि है, इसलिए वे इससे मुक्त नहीं हो सकतीं, बल्कि सिर्फ इसे दब्बूपन के साथ स्वीकार सकती हैं। वे व्यक्तिपरक ढंग से ऐसा ही महसूस भी करती हैं। वे सत्य को नहीं समझती हैं, या यह नहीं समझती हैं कि स्त्रियों को गरिमा के साथ कैसे जीना चाहिए या स्त्रियों के लिए जीने का सही तरीका क्या है। किसी ने भी उन्हें ये बातें नहीं बताई हैं। उनके ज्ञान के मुताबिक पुरुष के आचरण और क्रियाकलापों की कसौटी क्या है? पारंपरिक संस्कृति। उन्हें लगता है कि जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन तक पहुँचा है, वह सही है, और यदि कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसकी अंतरात्मा की निंदा की जानी चाहिए। यही उनकी “कसौटी” है। लेकिन क्या यह कसौटी वास्तव में सही है? क्या इसे उद्धरण चिह्नों में रखना चाहिए? (हाँ, बिल्कुल रखना चाहिए।) यह कसौटी सत्य के अनुरूप नहीं है। इस प्रकार की सोच और दृष्टिकोण के अधीन किसी का व्यवहार चाहे जितना भी स्वीकृत या अनुकूल क्यों ना हो, क्या वास्तव में यह कसौटी है? बिल्कुल नहीं है, क्योंकि यह सत्य और मानवता के विरुद्ध है। लंबे समय से पूर्वी स्त्रियों को अपने पूरे परिवारों की देखभाल करनी पड़ती रही है, और वे तमाम छोटे-छोटे तुच्छ मामलों की जिम्मेदारी उठाती रही हैं। क्या यह उचित है? (नहीं, बिल्कुल नहीं है।) तो फिर वे उसे कैसे सहन कर सकती हैं? इस वजह से कि वे इस प्रकार की सोच और दृष्टिकोण से बंधी हुई हैं। इसे सहन करने की उनकी क्षमता दर्शाती है कि भीतर गहरे में वे अधिकतर मानती हैं कि ऐसा करना ही सही है, और यदि वे इसे बस सहन कर लें तो पारंपरिक संस्कृति के मानकों पर खरी उतरने में सक्षम होंगी। इसलिए वे उस दिशा में, उन मानकों की ओर भागती हैं। यदि भीतर गहरे में वे सोचतीं कि यह गलत है और उन्हें यह नहीं करना चाहिए, यह मानवता के अनुरूप नहीं है, और यह मानवता और सत्य के विरुद्ध है, तो भी क्या वे ऐसा करतीं? (नहीं, बिल्कुल नहीं करतीं।) उन्हें उन लोगों से दूर जाने और उनका दास न बनने का कोई तरीका सोचना होगा। लेकिन अधिकतर स्त्रियाँ ऐसा करने की हिम्मत नहीं करेंगी—वे क्या सोचती हैं? वे सोचती हैं कि वे अपने समुदाय के बिना जीवित रह सकती हैं, लेकिन अगर उन्होंने अपना समुदाय छोड़ दिया, तो उन्हें एक भयानक कलंक ढोना पड़ेगा और कुछ खास दुष्परिणाम झेलने होंगे। ये सब नाप-तोल कर वे सोचती हैं कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो उनके सहयोगी बातें करेंगे कि वे किस तरह से सद्गुणी नहीं हैं, समाज उनकी खास तरीकों से निंदा करेगा और उनके बारे में कुछ खास राय बनाएगा, और इन सबके गंभीर दुष्परिणाम होंगे। अंत में, वे इस पर सोच-विचार करती हैं और उन्हें लगता है, “इसे सहन करना ही बेहतर है। वरना निंदा का भार मुझे कुचल देगा!” अनेक पीढ़ियों से पूर्वी स्त्रियाँ ऐसी ही हैं। इन तमाम नेक कर्मों के बदले उन्हें क्या सहना पड़ता है? अपनी मानवीय गरिमा और मानवाधिकारों से वंचित किया जाना। क्या ये विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं, बिल्कुल नहीं हैं।) वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। उन्हें अपनी गरिमा और मानवाधिकारों से वंचित रखा गया है, उन्होंने अपना व्यक्तित्व, अपने रहने और सोचने के लिए स्वतंत्र स्थान, और अपने बोलने और अपनी इच्छाएँ व्यक्त करने का अधिकार खो दिया है—उनके किए हुए सारे काम घर के लोगों के लिए होते हैं। यह करने का उनका प्रयोजन क्या है? पारंपरिक संस्कृति द्वारा स्त्रियों से अपेक्षित मानकों पर खरा उतरना, और दूसरे लोगों से अच्छी पत्नियाँ और नेक लोग कहलवाकर अपनी प्रशंसा पाना। क्या यह एक प्रकार की यातना नहीं है? (हाँ।) क्या ऐसी सोच उचित है या विकृत? (बिल्कुल विकृत है।) क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) परमेश्वर ने मनुष्य के लिए मुक्त इच्छा रची, और इस मुक्त इच्छा से कौन-से विचार आते हैं? क्या वे मानवता के अनुरूप होते हैं? इन विचारों को कम-से-कम मानवता के अनुरूप तो होना ही चाहिए। इसके अलावा, उसका अभिप्राय यह भी था कि लोग अपनी जीवन प्रक्रिया में सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में सटीक सोच और समझ रखेंगे और फिर जीने और परमेश्वर की आराधना करने का सही मार्ग चुनेंगे। इस प्रकार जिया हुआ जीवन परमेश्वर का दिया हुआ है, और इसका आनंद लेना चाहिए। लेकिन लोग जीवन भर इन तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियों और नैतिक धर्मग्रन्थों से प्रतिबंधित, बंधे हुए और विकृत रहते हैं, और आखिरकार वे क्या बन जाते हैं? वे पारंपरिक संस्कृति की कठपुतलियाँ बन जाते हैं। क्या ऐसा लोगों के सत्य नहीं समझने के कारण नहीं हैं? (हाँ, बिल्कुल है।) क्या तुम लोग भविष्य में इस मार्ग पर चलना चुनोगे? (नहीं, मैं नहीं चुनूँगा।) तो तुम्हें क्या करना चाहिए? मान लो कि तुम कहते हो, “मैं उनसे लड़ूँगा,” या “मैं अब उनकी सेवा नहीं करूँगा। मेरे मानवाधिकार हैं, और मेरा अपना व्यक्तित्व है।” क्या यह ठीक है? (नहीं, ठीक नहीं है।) यह ठीक नहीं है। यह एक अति से दूसरी अति तक जाना है, और यह परमेश्वर की गवाही देना या उसकी महिमा करना नहीं है। तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (सिद्धांतों के अनुरूप।) बेशक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना सही है और तुम्हें सभी के साथ सिद्धांतों के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए, यदि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हों तो उनसे भाई-बहनों की तरह, और वे विश्वास नहीं रखते हैं तो उनसे गैर-विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए। तुम्हें अपने आप के साथ गलत करने, अपने व्यक्तित्व को विकृत करने और उनके लिए अपना जीवन न्योछावर कर अपनी गरिमा और अधिकार छोड़ने की जरूरत नहीं है। वे इस योग्य नहीं हैं। इस संसार में केवल एक ही है जो इस योग्य है कि उसके लिए तुम अपना जीवन व्यतीत कर सकते हो। वह कौन है? (परमेश्वर।) क्यों? क्योंकि परमेश्वर सत्य है, और उसके वचन मनुष्य के अस्तित्व, आचरण और क्रियाकलापों के कसौटी हैं। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर है, उसके वचन हैं, तो तुम भटकोगे नहीं, और अपने आचरण और कार्य में सटीक रहोगे। एक बार बचा लिए जाने के बाद किसी पर परमेश्वर के वचनों का यही अंतिम प्रभाव होता है।
“सत्य क्या है?” यह एक अत्यंत विशाल विषय है। हमने अभी थोड़े-से उदाहरण दिए हैं, जिनमें से एक था उल्लुओं से कैसे पेश आएँ। इसके अलावा दूसरे उदाहरण कौन-से थे? (पूर्वी लोगों का कॉफी पीने के मामले में पश्चिमी लोगों की नकल करना।) (पूर्वी और पश्चिमी लोगों के स्त्रियों से अपेक्षित मानक।) ये सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं। इसलिए विभिन्न चीजों पर पूर्वी और पश्चिमी लोगों के नजरियों के बीच, कसौटी कौन-सी है? (कोई भी नहीं।) किसी से भी सत्य जुड़ा हुआ नहीं है, ये दोनों ही मानवीय नजरिये और राय हैं। और अधिक सटीक ढंग से कहें तो दोनों ही त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण और भ्रांतियाँ हैं। ये कसौटी नहीं हैं, ये शैतान की रणनीतियाँ, सिद्धांत और फलसफे हैं जो लोगों को हानि पहुँचाते हैं। इस पर इस प्रकार संगति करने के बाद क्या तुम इस मामले को थोड़ा अधिक समझ सके हो? (हाँ, हम समझ सके हैं।) यदि मैंने इस पर चर्चा नहीं की होती तो कदाचित तुम लोग किसी दिन कॉफी पी कर और हैमबर्गर खा कर, पश्चिमी लोगों का अनुकरण करने, उनकी नकल करने की सोच रहे होते। क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? भले ही तुम प्रति दिन पश्चिमी खाना खाओ, लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण नही करते हो तो यह व्यर्थ जाएगा, और तुम्हारे पास अभी भी यह कसौटी नहीं होगी कि तुम्हें कैसे आचरण करना चाहिए। अहम बात यह है कि क्या तुम सत्य को खोज सकते हो, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हो—यह तुम्हारे लिए लाभ की बात है। मेरे इस प्रकार संगति करने के जरिए, क्या तुम लोगों को सत्य और कसौटियों की थोड़ी समझ मिली है? (हाँ, हमें मिली है।) क्या लोगों की पारंपरिक संस्कृति या नैतिक कसौटी में सत्य है? (नहीं।) क्या नैतिक धर्मग्रन्थों में सत्य है? (नहीं।) क्या अब तुम सुनिश्चित हो सकते हो कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं? (हाँ, हम हो सकते हैं।) इस बात की पुष्टि करने के बाद कि उसके वचन ही सत्य हैं, तुम्हें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए : परमेश्वर के वचन क्या हैं? उसके वचनों में अपेक्षित सिद्धांत कौन-से हैं? वे कौन-सी कसौटियाँ हैं जो उसने मनुष्य को बताई हैं? परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने के लिए वास्तव में लोगों को किस प्रकार कार्य करना चाहिए, और यह करने के सही सिद्धांत कौन-से हैं? तुम्हें यही खोजना चाहिए, लेकिन अभी के लिए इस विषय पर बस इतना ही।
परिशिष्ट :
शाओजिया के जीवन में एक दिन
चलो हम अगले विषय की तरफ बढ़ते हैं। यह क्या होना चाहिए? शायद मुझे एक कहानी सुनानी चाहिए। कहानियाँ सत्य और इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटियों का जिक्र करती हैं। ध्यान से सुनो कि इस कहानी का सत्य और मानव आचरण की कसौटियों से क्या संबंध है। यह शाओजिया के जीवन में एक दिन का वर्णन करती है। कहानी का नायक शाओजिया है और यह कहानी लगभग कितने समय की है? (एक दिन की।) एक दिन की। कुछ लोग शायद कहेंगे कि “क्या एक दिन की घटनाएँ सुनाने लायक भी होती हैं?” खैर, यह तो इस पर निर्भर करता है कि तुम क्या सुनाना चाहते हो। अगर यह सिर्फ गप्प है और सही-गलत के बारे में है तो यह सुनाने लायक नहीं है। लेकिन अगर यह सत्य का जिक्र करती है तो एक दिन तो क्या—एक मिनट की घटनाएँ भी सुनाने लायक होती हैं, सही कहा ना? (हाँ, बिल्कुल सही कहा।)
शाओजिया अपने लक्ष्यों को लेकर जुनूनी और कर्तव्य निभाने के मामले में उत्साही व्यक्ति है और यह कहानी एक दिन सुबह-सुबह उसकी आँख खुलने के साथ शुरू होती है। नींद से जागकर परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और अपनी भक्ति का अभ्यास करने के बाद, शाओजिया नाश्ता करने गया और वहाँ उसने एक कटोरी में दलिया और कुछ सब्जियाँ ली। फिर उसे वहाँ कुछ अंडे दिखाई दिए और उसने सोचा : “मुझे एक-दो अंडे ले लेने चाहिए। एक दिन में दो अंडे खाने से पर्याप्त पोषण मिल जाता है।” लेकिन अपना हाथ बढ़ाते हुए अचानक वह रुक गया और सोचने लगा, “एक लूँ या दो? अगर दूसरों ने मुझे दो अंडे लेते हुए देख लिया तो बुरा होगा। यह लालच है और दूसरे लोग सोचेंगे कि मैं पेटू हूँ। इसलिए एक अंडा लेना ही बेहतर है।” उसने दोबारा हाथ बढ़ाया लेकिन अंडा उठाने से पहले ही अपना हाथ वापस खींच लिया। तभी कोई और व्यक्ति अंडा लेने के लिए वहाँ आया और उसे देखते ही शाओजिया बुरी तरह घबरा गया। उसने सोचा : “दरअसल, अंडा ना खाना ही सबसे बढ़िया रहेगा। मेरे पास दलिया और सब्जियाँ हैं, और साथ ही कुछ भाप से पकाए हुए पाव हैं, नाश्ते के लिए ये काफी हैं। मुझे इतना लालची नहीं होना चाहिए। और फिर अंडा खाने की इच्छा ही क्यों करना? अगर दूसरों ने देख लिया होता, तो कितना गजब हो जाता। क्या ऐसा करना ऐशो-आराम में लिप्त होना नहीं होता? मैं बिल्कुल नहीं खाऊँगा।” यह सोचकर शाओजिया ने अंडा वापस रख दिया और कुछ देर बाद नाश्ता करके अपना कर्तव्य करना शुरू कर दिया। वह अपने कार्य करने में व्यस्त हो गया और एक-एक करके उन्हें खत्म करता गया। समय जल्दी बीत गया और पलक झपकते ही दोपहर के खाने का समय हो गया। बाकी सभी लोग खाना खाने चले गए, लेकिन शाओजिया ने जब अपनी घड़ी देखी तो उसमें 12:40 बजे थे। “जरा ठहरो। जब बाकी सभी खाना खाने जा रहे हों तो मुझे खाने के लिए जाने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। अगर मैं बाकी सभी की तरह चला गया तो क्या मैं भी उनके जैसा नहीं हो जाऊँगा और पेटू नहीं लगूँगा? मुझे थोड़ा-सा और इंतजार कर लेना चाहिए।” उसने अपना कार्य जारी रखा, लेकिन उसके पेट ने उसका साथ नहीं दिया और गुड़गुड़ाना शुरू कर दिया। शाओजिया ने अपन पेट पकड़ लिया और अनमने भाव से कंप्यूटर की तरफ देखकर सोचने लगा : “मुझे तेज भूख लगी है! आज खाने में क्या है? क्या मांस बना होगा? अगर मैं थोड़ा-सा मांस खा पाता तो बहुत मजा आ जाता!” जिस दौरान वह ये बातें सोच रहा था उसके पेट में लगातार गुड़गुड़ाहट हो रही थी और बड़ी मुश्किल से वह तब तक इंतजार कर पाया जब तक कि बाकी सभी लोग खाना खाकर वापस नहीं आ गए। किसी ने उससे पूछा : “तुमने अभी तक खाना क्यों नहीं खाया? जल्दी जाओ, खाना ठंडा हो रहा है।” शाओजिया ने कहा, “कोई बात नहीं। मैंने अभी तक अपना कार्य खत्म नहीं किया है। मैं उसे पूरा करने के बाद ही जाऊँगा।” “क्या खाना खाने के बाद अपना कार्य जारी रखना बेहतर नहीं होगा?” “कोई बात नहीं। मेरा कार्य जल्द खत्म हो जाएगा।” तो, शाओजिया अपनी भूख को सहते हुए अपना कार्य करता रहा। दरअसल, अब उसे तेज भूख लग रही थी और उसका कार्य जारी रखने का बिल्कुल मन नहीं था, लेकिन फिर भी वह अपनी भूख सहते हुए दिखावा करता रहा। थोड़ी देर बाद उसने फिर से अपनी घड़ी देखी, 1:30 बज रहे थे और उसने सोचा : “अब ठीक है। अब शायद मुझे खाना खाने के लिए चले जाना चाहिए।” जैसे ही वह उठकर खाना खाने के लिए जाने लगा, एक बहन उसके लिए खाने की थाली लेकर आ गई और बोली : “कितनी देर हो गई है! तुम अभी तक खाना खाने क्यों नहीं गए? तुम चाहे कितने भी व्यस्त हो, तुम्हें फिर भी खाना खाना पड़ेगा और अगर तुमने समय पर खाना नहीं खाया तो तुम्हारा पेट खराब हो जाएगा।” जवाब में उसने कहा : “कोई बात नहीं। मैं अपना कार्य खत्म करके खाना खा लूँगा।” “तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा खाना ले आई हूँ, इसलिए जल्दी से खा लो।” “इतनी क्या जल्दी है? अभी तो मुझे भूख भी नहीं लगी।” जैसे ही उसने कहा कि उसे भूख नहीं लगी, उसके पेट में बादलों जैसी जोरदार गड़गड़ाहट हुई। शाओजिया अपना पेट पकड़कर झेंपते हुए मुस्कुराया और बहन से बोला : “मेरे लिए फिर से खाना लाने की तकलीफ मत करना।” “लेकिन अगर मैं नहीं लाई तो खाना पड़े-पड़े ठंडा हो जाएगा और उसे फिर से गर्म करना पड़ेगा। इसे पहले ही एक बार दोबारा गर्म किया जा चुका है।” “फिर ठीक है, धन्यवाद!” शाओजिया के मुंह में पानी आ रहा था, उसने बहन से अपना खाना ले लिया। थाली पर नजर डालते ही वह बहुत खुश हो गया : दो भाप से पकाए हुए पाव, सब्जियाँ, मांस और शोरबा। भाप से पकाए हुए पाव को देखकर शाओजिया के मन में एक और ख्याल आया, और उसने बहन से कहा : “मैं दो पाव नहीं खा पाऊँगा। आजकल मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ, अच्छी नींद नहीं आती है और भूख भी ज्यादा नहीं लगती है। अगर तुम मुझे दो पाव दोगी तो क्या यह बर्बादी नहीं होगी? एक वापस ले लो।” “कुछ नहीं होता। अगर तुम सच में इसे नहीं खा पाए तो इसे बाद में वापस भेज सकते हो,” बहन ने जवाब दिया और वहाँ से जाने लगी। शाओजिया ने मन में सोचा : “जल्दी जाओ। मुझे तेज भूख लगी है।” उसने देखा कि आसपास कोई नहीं है, लेकिन वह फिर भी थोड़ा-सा असहज महसूस कर रहा था, उसने कटोरा उठाया और धीरे से एक घूँट पीया। फिर उसने मांस की तरफ देखा और कहा, “वाह! दम देकर पकाए हुए सुअर के मांस की खुशबू मुझे मीलों दूर से आ जाती है। लेकिन मैं इसे तुरंत नहीं खा सकता, क्योंकि मुझे पहले अपनी सब्जियाँ खानी होंगी। अगर मैंने सब्जियों से पेट भर लिया, तो फिर मैं कम मांस खाऊँगा, नहीं तो मैं मांस का आधा कटोरा खा जाऊँगा, और क्या वह शर्मनाक बात नहीं होगी?” उसने ऐसा करने से पहले एक पल सोचा। फिर उसने भाप से पकाए हुए पाव और सब्जियाँ चबा डालीं और सूप पी लिया। खाना खाने के दौरान उसे लगा कि वह थोड़ा-सा मांस खाना चाहता है, इसलिए उसने दम देकर पकाए हुए सुअर के मांस का एक टुकड़ा उठा लिया। टुकड़े को अपने मुंह में डालकर उसने अपनी आँखें बंद कर लीं और पूरे दिल से उसका स्वाद लेने लगा, “कितना स्वादिष्ट है यह! मांस तो वाकई अच्छा है, लेकिन मैं ज्यादा नहीं खा सकता। बस एक निवाला काफी होगा, फिर थोड़ी और सब्जियाँ खा लूँगा, थोड़ा और सूप पी लूँगा।” वह भाप से पकाए हुए पाव खाता रहा, लेकिन इस दौरान मांस को ताकता रहा और सोचने लगा, “क्या मुझे यह मांस खाना चाहिए? यह बहुत स्वादिष्ट है, इसे ना खाना वाकई शर्म की बात होगी।” उसके मुंह में फिर से पानी आना शुरू हो गया और उसने सोचा, “मुझे पता है क्या करना है! मैं पाव के टुकड़े करूँगा और उन्हें मांस के झोल में डुबो दूँगा। क्या यह मांस खाने जैसा ही नहीं है? इस तरह से दूसरे लोग देखेंगे कि मैं मांस नहीं खा रहा, लेकिन फिर भी मुझे मांस का सारा स्वाद मिल जाएगा। बहुत ही बढ़िया होगा!” यह सोचकर उसने भाप से पकाए हुए पाव को खाने से पहले उसका एक छोटा-सा टुकड़ा मांस के झोल में डाला और फिर उसे खाने लगा। उसे वह बहुत स्वादिष्ट लगा और उसका स्वाद बिल्कुल मांस जैसा था। फिर शाओजिया ने फौरन पूरे पाव के टुकड़े कर दिए और उसे मांस के झोल में डाल दिया...। दस मिनट पूरे होने से पहले ही वह सारा पाव खा चुका था और शोरबा भी पी चुका था। उसने भाप से पकाया हुआ सिर्फ एक ही पाव खाया था और दूसरा पाव खाने की इच्छा को सहन करते हुए खुद को रोक लिया था। जब शाओजिया ने योजना के अनुसार सारे व्यंजन खा लिए, तो उसका पेट काफी हद तक भर चुका था और उसे नहीं लग रहा था कि उसे और खाने की जरूरत है। फिर उसने सोचा : “ओह, इतनी जल्दी-जल्दी खाना वाकई सही नहीं है, इससे लगता है जैसे मैं बहुत भूखा हूँ। हाँ, मैं सच में बहुत भूखा था, लेकिन यह अच्छा नहीं है कि लोग मुझे ऐसी हालत में देखें। मुझे धीरे-धीरे खाना चाहिए। लेकिन अब मैं क्या करूँ, मैं तो पहले ही खाना खत्म कर चुका हूँ? खैर, मेरे पास एक तरकीब है। मैं इसे दस मिनट में वापस भेज दूँगा।” उसने अपनी घड़ी हाथ में ली और उसे घूरने लगा, “पांच मिनट ... दस ... पंद्रह ... ठीक है, दो बज गए। वाह, अब वापस भेज देना चाहिए!” खुशी-खुशी उसने बाकी बचे सुअर के मांस और पाव को वापस भेज दिया।
जब शाओजिया लौटा तो दोपहर के दो बज चुके थे। उसके भाई-बहन दोपहर केे भोजनावकाश पर जा चुके थे और उसके पास खुद के लिए करने को कुछ भी नहीं था, इसलिए उसे वाकई बहुत बोरियत हो रही थी। उसने सोचा : “क्या मुझे भी झपकी ले लेनी चाहिए? खाना खाने के बाद झपकी लेना हमेशा अच्छा होता है। लेकिन नहीं, अगर मैं भी बाकी सभी की तरह सो गया, तो मैं क्या बन जाऊँगा? मैं नहीं सो सकता। मुझे खुद पर काबू रखना होगा। लेकिन मैं खुद को कैसे जगाए रखूँ? अगर मैं खड़ा रहा तो सो नहीं पाऊँगा, लेकिन अगर मैं हमेशा खड़ा रहा और मान लो कोई अचानक अंदर आ गया, तो वह चौंक जाएगा। नहीं, मैं खड़ा नहीं रह सकता। खैर, फिर मैं बस अपने कंप्यूटर के सामने बैठ जाता हूँ। अगर किसी ने मुझे देख लिया तो वह बस यही सोचेगा कि मैं काम कर रहा हूँ, लेकिन मैं तो असल में आराम कर रहा होऊँगा। बहुत ही बढ़िया चाल है।” यह सोचकर वह स्वाभाविक रूप से अपने कंप्यूटर के सामने बैठ गया और उसे एकटक देखता रहा, लेकिन पांच मिनट के अंदर ही उसे नींद आ गई और वह कीबोर्ड पर सिर रखकर खर्राटे भरने लगा। चालीस मिनट बीतने के बाद अचानक शाओजिया अपनी गहरी नींद से जागा और झट से खड़ा हो गया, “मैं तो खड़ा था ना? फिर मुझे नींद कैसे आ गई?” उसने अपनी घड़ी पर नजर डाली और देखा कि देर हो रही थी। इसलिए वह अपना चेहरा धोने चला गया जबकि उसके आसपास कोई नहीं था। विश्रामकक्ष में अपनी शक्ल देखकर वह बोला, “ओह, नहीं! मेरा पूरा चेहरा कीबोर्ड के निशानों से भर गया है! मैं इस हालत में दूसरों के सामने कैसे जा सकता हूँ?” उसने जल्दी-जल्दी अपना चेहरा मलना शुरू किया, उसे रगड़ा और थपथपाया और इस तरह विश्रामकक्ष में उसे काफी समय लग गया। फिर उसने शीशे में अपनी शक्ल देखी, अब कीबोर्ड के निशान काफी हद तक मिट चुके थे, और दिल ही दिल में खुश होकर उसने सोचा : “जब तक कोई वाकई ध्यान से नहीं देखता, किसी को कभी पता नहीं चलेगा।” इसके बाद उसने अपने बालों में कंघी की और अपने कॉलर को सीधा किया। अचानक उसने देखा कि उसके हल्के रंग की कमीज का कॉलर थोड़ा गंदा हो गया है और पास से देखने पर उसने पाया कि उसके कफ भी थोड़े मैले हो गए हैं। उसने सोचा, “मैंने फिलहाल कुछ दिनों से अपने कपड़े ना तो धोए हैं और ना ही बदले हैं, लेकिन कपड़ों को ना धोने का कुछ तो फायदा है। थोड़ी-सी मैल से कुछ नुकसान नहीं होता और जरा-सी गंदगी से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी, थोड़ा मैला-कुचला रहने से इंसान दिखने में ज्यादा आध्यात्मिक भी तो लगता है, है ना?” बस, फिर उसने अपनी कमीज का कॉलर और आस्तीन बाहर निकाल लिए और जैकेट की आस्तीनों को ऊपर चढ़ा लिया जिससे सारी मैली जगहें साफ-साफ दिखाई देने लगीं। इससे उसे गहरी संतुष्टि मिली, वह खुश हो गया और चुपचाप विश्रामकक्ष से बाहर निकल आया। कुछ देर बाद सारे लोग अपनी-अपनी जगहों पर वापस आ गए और अपने काम में व्यस्त हो गए। जब शाओजिया ने देखा कि बाकी सभी लोग वहाँ मौजूद हैं, तो वह बोला : “तुम लोगों ने लंबी झपकी नहीं ली! इस कारण तुम लोगों को सचमुच परेशानी हो सकती है और इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है! मैंने तो झपकी भी नहीं ली, लेकिन बस अपने चेहरे पर पानी के छींटें मारने से पहले एक मिनट अपनी आँखों को आराम जरूर दिया। नहीं तो मुझमें बिल्कुल ताकत नहीं रहती।” किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। अब उसे बोरियत महसूस होने लगी, इसलिए वह अपना कार्य करने लगा। उसने दोपहर के खाने में बहुत सारा शोरबा पीया था, इसलिए उसे बार-बार पेशाब की हाजत हो रही थी, लेकिन उसने इसे दबाए रखा और सोचने लगा : “अगर मैं चला गया, तो क्या लोग मुझे आलसी नहीं समझेंगे? इससे बदनामी होगी, इसलिए मैं नहीं जा सकता।” इसलिए उसने खुद पर काबू रखा और तब तक तकलीफ सहता रहा जब तक आखिर में कोई और पेशाब करने नहीं गया और तब उसने देखा कि अब मौका है। वह जल्दी से कतार में लग गया और सोचने लगा, “भीड़ के पीछे-पीछे चलना बहुत अच्छा है, क्योंकि अब मेरे बारे में कोई कुछ नहीं कहेगा।”
उस दिन दोपहर में बहुत काम था। शाओजिया ने बहुत सारा कार्य किया, अमुक व्यक्ति के साथ संगति की, अमुक व्यक्ति से सवाल किए, संसाधनों की तलाश की और अपने कर्तव्यों से जुड़े सभी तरह के कार्य पूरे किए। इतनी सारी दौड़-धूप के बाद आखिर में शाम के खाने का समय हो गया। इस बार शाओजिया दूसरों से बस थोड़ी ही देर पीछे रहा, लेकिन फिर भी उसने लगभग समय पर खाना खत्म कर लिया। शाम के खाने के बाद का समय शाओजिया के दिन का सबसे खुशी का समय था, क्योंकि सिर्फ यही वह समय था जब वह आराम से, अपनी निंदा या दूसरों की आलोचना के बिना, शांत दिल से अपनी मनपसंद कॉफी पी सकता था। ऐसा क्यों? क्योंकि उसके पास इसके पर्याप्त कारण थे कि उसे कॉफी पीने की जरूरत क्यों पड़ी, और ये कारण बाकी सभी की नजरों में पूरी तरह से जायज थे। इसलिए यह उसका सबसे खुशी का समय था। कॉफी बनाते हुए वह मन ही मन बड़बड़ाया, “ओफ्फो, आज मुझे फिर से ज्यादा देर तक कार्य करना पड़ेगा। और मुझे यह भी नहीं पता कि कितनी देर तक करना पड़ेगा। चलो देखता हूँ कि यह कॉफी कितनी देर तक मुझे ताकत दे पाती है।” उसने ताजी-ताजी बनाई कॉफी के कप को धम्म से टेबल पर रखा, मानो सभी से कह रहा हो, “और बोलो? मैं तो अपनी कॉफी पी रहा हूँ, तुम लोग मेरा क्या बिगाड़ सकते हो?” उसने अपने आसपास के लोगों पर नजर दौड़ाई। कोई भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था, लेकिन फिर भी उसने बेपरवाही से अपना कप उठाया और कॉफी का एक घूँट लेकर सोचने लगा : “सभी कहते हैं कि यह कॉफी अच्छी है और यह वाकई अच्छी है। हर रोज इसका स्वाद अलग होता है जिससे अलग अनुभव मिलता है। यह शानदार है!” खुश होकर उसने गर्व से अपनी कॉफी पी और फिर बेपरवाही से अपने शाम के कार्य के बारे में सोचने लगा। उसके मन में कोई खास लक्ष्य नहीं था और सारे दिन की दौड़-धूप के बाद वह थक चुका था, लेकिन फिर भी वह जबर्दस्ती अपना कार्य करता रहा। ना वह झपकी ले सकता था और ना ही दूसरों को यह देखने दे सकता था कि वह थक गया है या अपना कार्य या कर्तव्य संभालने में उसका रवैया लापरवाह, गैर-जिम्मेदार या अपमानजनक है। उसने जबर्दस्ती अपनी चुस्ती बनाए रखी और अपने कंप्यूटर के सामने बैठ कर कार्य करता रहा और जाहिर है, लगातार कॉफी पीता रहा। वह जितनी ज्यादा कॉफी पी रहा था, उसमें उतनी ज्यादा चुस्ती आ रही थी और उसे उतनी ही कम नींद आ रही थी। शाओजिया कभी-कभार अपनी घड़ी पर नजर डाल लेता था, “रात का एक बज चुका है, लेकिन मैं नहीं सो सकता क्योंकि मैंने अपने लिए तीन बजे सोने का लक्ष्य तय किया हुआ है। मैं 2:50 बजे भी नहीं सो सकता, क्योंकि इससे मेरा वादा टूट जाएगा और मेरे पास परमेश्वर को देने के लिए कोई सफाई नहीं होगी। एक सृजित प्राणी को यह वादा अटूट रखना चाहिए, इसलिए मुझे इसका सम्मान करना होगा। मैंने कहा था कि मैं तीन बजे सोऊँगा, इसलिए मैं तीन बजे ही सोऊँगा, चाहे मुझे इसके लिए बहुत सारी कॉफी क्यों ना पीनी पड़े।” तो इस तरह वह लगातार कॉफी पीता रहा, अपनी थकान का प्रतिरोध करता रहा और मानसिक तौर से खुद को विवश और नियंत्रित करता रहा। तीन बजे शाओजिया को एक जरूरी कार्य पूरा करना था, इसलिए उसने अपना फोन लिया और उससे यह संदेश भेजा : अमुक बहन, मैं शाओजिया हूँ। मुझे तुम्हें एक जरूरी बात याद दिलानी है, मत भूल जाना कि कल सुबह 10 बजे एक सामूहिक सभा है। इसमें भाग लेना अनिवार्य है और तुम देर मत करना। हस्ताक्षरित : शाओजिया। संदेश भेजने के बाद शाओजिया ने राहत की सांस ली और साथ ही, यह भी सोचा : “इसे भेजना एक बात है, लेकिन अगर उसे यह नहीं मिला, तो फिर क्या होगा? क्या उसे पता है कि मैंने उसे एक संदेश भेजा है? मैं अभी नहीं सो सकता। मुझे इंतजार करके यह देखना होगा कि क्या वह जवाब देती है।” आधा घंटा इंतजार करने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं आया, तो उसने सोचा : “क्या वह सो गई है? वह इतनी जल्दी कैसे सो गई? कितनी निकम्मी है, तीन बजे ही सो गई।” वह तब तक इंतजार करता रहा जब तक कि 3:50 बजे उस बहन ने यह जवाब नहीं दिया : मैं कल सुबह 10 बजे की बात नहीं भूली हूँ। आशा है कि तुम भी नहीं भूलोगे और समय पर आ जाओगे। यह पढ़ने के बाद शाओजिया ने सोचा, “ओह, यह किस तरह की इंसान है? यह मुझसे भी देर से सोने कैसे जा सकती है?” लेकिन वह और बर्दाश्त नहीं कर पाया। “बस और कॉफी नहीं पीनी! अगर मैंने और पी, तो मैं आज रात बिल्कुल नहीं सोऊँगा। अब मुझे सोने चले जाना चाहिए, क्योंकि कल मुझे सुबह 5:30 बजे, नहीं तो ज्यादा से ज्यादा छ: बजे तो उठना ही पड़ेगा। मैं अपने दूसरे भाई-बहनों से देर से नहीं उठ सकता, क्योंकि उनके जागने के बाद मुझे उन सबको दिखाना ही होगा कि मैं प्रार्थना कर रहा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ रहा हूँ और धर्मोपदेश सुन रहा हूँ। इसलिए मैं देर से नहीं उठ सकता। बस इस संदेश के कारण ही मैं जल्दी सोने नहीं जा पाया। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, दूसरों को पता है कि मैं रात में देर तक जाग रहा था। वैसे मैंने अपना लक्ष्य तो हासिल कर लिया है और मैं कल चार बजे तक सो जाने की कोशिश करूँगा।” हालांकि शाओजिया सोचने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसे इतने चक्कर आ रहे थे कि अपने कमरे में वापस जाकर वह अपने कपड़े भी नहीं उतार पाया। पहले से ही आधी नींद में डूबा वह अपने बिस्तर पर पसर गया, लेकिन फिर भी उसने जबर्दस्ती खुद को याद दिलाया : सुबह अंडे नहीं खाना, दोपहर के खाने में सिर्फ भाप से पकाया हुआ एक पाव खाना, दम देकर पकाए हुए सुअर का मांस नहीं खाना, सुबह तीन बजे सोने चले जाना, अभी भी भेजने के लिए संदेश बचे हैं...। शाओजिया ऐसे ही लगातार सोचता रहा जब तक आख़िरकार वह निढाल होकर शांत नहीं लेट गया और फिर सुस्ती, थकान, सपनों और भ्रम के जाल में उलझकर उसे नींद आ गई। तो यह था शाओजिया के जीवन में एक दिन।
तो बताओ, ये सब क्या था? क्या इस तरह से हमेशा दिखावा करना शाओजिया के लिए थकाऊ नहीं था? (हाँ, था।) सारा दिन एक ही चीज करते रहने से रोबोटों को थकान नहीं होती है, क्योंकि उनके पास मन या चेतना नहीं होती है, लेकिन लोगों के लिए यह थका देने वाली चीज है। इतना थक जाने के बाद भी शाओजिया इसी तरह क्यों जी रहा था? आखिर उसने ऐसा क्यों किया? क्या उसके पास कोई योजना थी? (हाँ, थी।) उसकी योजना किस पर केन्द्रित थी? (दूसरों के सामने दिखावा करने पर।) क्या दिखावा करने से उसे कोई फायदा होने वाला था? (इससे उसे लोगों से सराहना मिल सकती थी।) इससे उसे लोगों से सराहना मिल सकती थी। क्या शाओजिया का तरीका तुम लोगों को जाना-पहचाना लग रहा है? किस तरह के लोग ऐसा व्यवहार करते हैं? (फरीसी।) सही कहा। फरीसी अच्छे आचरण अपनाते हैं, और ऐसे आचरण और अभ्यास अपनाते हैं जो लोगों की धारणाओं के अनुरूप होता है और फिर वे दूसरों के आगे उनका प्रदर्शन करते हैं ताकि वे अच्छे दिखें और उनकी आराधना की जाए। वे लोगों को गुमराह करने का लक्ष्य हासिल करने के लिए इस तरीके का उपयोग करते हैं। उनके इस तरह से ढोंग करने और दूसरे लोगों के आगे दिखावा करने के लिए सभी प्रकार के अच्छे आचरणों का उपयोग करने के पीछे उनकी मूल प्रकृति क्या है? यह दिखावा, फरेब और गुमराह करने वाली प्रकृति है—और भी कुछ है? (झूठी आध्यात्मिकता है।) शाओजिया के दिन में ऐसी कितनी चीजें थीं जो स्वभाव से संबंधित थीं और जो उन सभी लोगों में भी मौजूद होती हैं जो ढोंग करने के काबिल हैं? अंडे खाना, भाप से पकाए हुए पाव और दम देकर पकाया हुआ सुअर का मांस खाना और कॉफी पीना। ये सभी बाहरी चीजें हैं, लेकिन इनमें तुम्हें क्या सार दिखाई दे रहा है? दिखावा और आत्म-नियंत्रण। किस चीज का दिखावा? (कष्ट सहने का दिखावा।) लोगों की नजर में कष्ट सहना अच्छी चीज है या बुरी? (अच्छी चीज है।) कष्ट सहना अच्छा आचरण है जिसकी सभी बेहद सराहना करते हैं। लोग इसे क्या मानते हैं? वे इसे सत्य का अभ्यास मानते हैं। तो, शाओजिया कष्ट सहने और कीमत चुकाने से नहीं हिचकिचाया। उसने क्या-क्या कष्ट सहे? उसने बढ़िया व्यंजन नहीं खाया, वह देर तक जगा रहा, सुबह जल्दी उठ गया और उसने अपने शरीर को अनुशासित किया। इस प्रकार के कष्टों की प्रकृति क्या है? ये सभी दिखावा हैं। उसने सत्य या धार्मिकता के लिए नहीं, बल्कि दूसरों से सम्मान और श्रद्धा प्राप्त करने और अपने लिए यश और गौरव अर्जित करने के लिए सारे कष्ट सहे। क्या उसने सत्य के लिए कष्ट सहे? (नहीं, सत्य के लिए नहीं।) उसके कौन-से कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप थे और क्या शाओजिया सत्य की खातिर अपने खिलाफ विद्रोह कर रहा था और अपने व्यक्तिगत हितों की उपेक्षा कर रहा था? क्या इनमें से कोई कार्य ऐसा था? (नहीं।) उसके कष्टों की प्रकृति क्या थी? क्या वह सत्य का अभ्यास करनाथा? क्या वह सत्य के लिए उसके प्रेम की अभिव्यक्ति थी? (नहीं, ऐसा नहीं था।) खैर, तो फिर यह क्या था? (यह पाखंड था।) यह पाखंड था, यह सत्य से विमुख होना था, यह फरेब, दिखावा, ढोंग और गुमराह करना था; यह ऐसे कार्य और फैसले थे जो पूरी तरह से उसकी अपनी कल्पना और धारणाओं पर आधारित थे, और जो उसके खुद के हितों के इर्द-गिर्द घूम रहे थे, और इनका सत्य से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। उसे सत्य की तलाश नहीं थी, और इसलिए उसके क्रियाकलाप भी सत्य नहीं थे; न केवल उनका सत्य से कोई संबंध था, बल्कि वे उसके दिल की गहराइयों में बसी सामान्य मानवीय जरूरतों के भी पूरी तरह विपरीत थे। क्या अंडे खाना पाप है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) लेकिन शाओजिया को अंडे खाना लालच लगा। अंडे एक किस्म का भोजन हैं जिसे परमेश्वर ने इंसान के लिए बनाया है। अगर तुम्हारे पास उन्हें खाने का साधन है तो फिर उन्हें खाना लालच नहीं है, लेकिन अगर तुम्हारे पास उन्हें खाने का साधन नहीं है और तुम दूसरों के हिस्से के अंडे चुराकर खा जाते हो तो फिर वह लालच है। शाओजिया ने इस मामले को कैसे परिभाषित किया? उसका मानना था कि अंडे खाना लालच है और अगर दूसरों ने उसे अंडे खाते हुए देख लिया तो यह और भी बड़ा लालच होगा। उसने सोचा कि अगर वह सबकी नजरों से छिपकर, उनकी पीठ पीछे अंडे खा सके तो वह लालच नहीं कहलाएगा। लालच को मापने के लिए उसका मापदंड क्या है? यह इस पर आधारित था कि क्या कोई देख रहा है या नहीं। क्या उसने इसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर किया? नहीं, यह उसका अपना नजरिया था। दरअसल, क्या अंडे खाने के मामले में दूसरों का कोई विचार या नजरिया है? (नहीं, उनका नहीं है।) यह पूरी तरह से शाओजिया का खुद का बनाया हुआ सिद्धांत था। उसका मानना था कि सुबह के नाश्ते में अंडे खाने का मतलब लालची होना, ऐशो-आराम में लिप्त होना और देह को महत्व देना है। उसके नजरिये के आधार पर फिर क्या अंडे खाने वाले सभी लोग ऐशो-आराम में लिप्त नहीं हो रहे हैं और देह को महत्व नहीं दे रहे हैं? उसका निहित मतलब यह था : “जब तुम लोग अंडे खाते हो तो तुम देह को महत्व देते हो। मैं देह को महत्व नहीं देता, मैं खुद को रोक सकता हूँ, इसलिए मैं अंडे नहीं खाता। तुम मेरे सामने अंडे रखकर देख लो, मैं उन्हें हाथ में उठा लेने के बाद भी वापस रख सकता हूँ। मुझमें ऐसा ही जबरदस्त संकल्प और दृढ़निश्चय है, और मैं सत्य से इतना प्रेम करता हूँ। क्या तुम लोगों में ऐसा करने का दम है? अगर नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम्हें सत्य से प्रेम नहीं है।” उसने अपने विचार को क्या माना? सही और गलत को मापने का मानक। क्या यह ढोंग नहीं था? (हाँ, था।) यह ढोंग था।
शाओजिया ने दूसरी जो अभिव्यक्ति दिखाई वह यह थी कि दोपहर के खाने का समय होने पर भी वह खाना खाने नहीं गया। इसके बजाय उसने क्या किया? (उसने टाल दिया।) उसने अपनी भूख दबा दी और खाने के लिए जाना टाल दिया। लेकिन क्यों? (दूसरों के आगे दिखावा करने के लिए।) वह नाटक कर रहा था और दूसरों को दिखाने के उद्देश्य से इसे कर रहा था। वह दूसरों को क्या दिखाना चाहता था और इससे उन्हें क्या समझाना चाहता था? वह दूसरों को दिखाना चाहता था कि वह बहुत ज्यादा कष्ट सह सकता है और अपने कार्य के प्रति बहुत ही मेहनती, वफादार, गंभीर और जिम्मेदार है! वह चाहता था कि लोग देखें कि वह वाकई अतिमानव है! फिर वह अपना लक्ष्य हासिल कर लेता; उसे इसी मूल्यांकन की चाह थी। उसके लिए उस मूल्यांकन के क्या मायने थे? वह उसका जीवन था, उसकी जान थी। क्या यह सत्य के लिए प्रेम है? (नहीं, यह नहीं है।) तो, उसके जैसे लोगों को क्या पसंद है? वे दिखावा करने से नहीं हिचकिचाते, साजिश रचते हैं और छलने की योजना बनाते हैं और मुखौटे लगाकर दूसरों को धोखा देते हैं और उन्हें दिखाते हैं कि वे खुद कितना ज्यादा कष्ट सहन कर सकते हैं जिससे उन्हें ऐसी टिप्पणियाँ मिलती हैं : “तुममें वाकई कष्ट सहने की क्षमता है। तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर से सच्चा प्रेम है और तुम अपना कर्तव्य वफादारी से करते हो।” वे असली तथ्यों को छिपाने के लिए झूठे दिखावों और चालाकियों का उपयोग करने, परमेश्वर को धोखा देने और दूसरे लोगों को छलने से नहीं हिचकिचाते, और वे ये सब कुछ दूसरों से तारीफ या अनुकूल मूल्यांकन प्राप्त करने के लिए करते हैं। यह किस तरह का स्वभाव है? (यह दुष्ट स्वभाव है।) यह दुष्ट है। वे दिखावा करने, नाटक करने और चकमा देने में कितने माहिर होते हैं! यह तो बस खाना था, खाने के लिए शांति से उठकर चले जाने में क्या समस्या थी? कौन जीवित व्यक्ति खाना नहीं खाता है? क्या समय पर खाना खाना पाप है? क्या भूख लगने पर खाने के लिए कुछ ढूँढना पाप है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह शारीरिक जरूरत है; यह उचित है। ऐसे लोग सारी उचित जरूरतों को अनुचित ठहराते हैं और उनकी निंदा करते हैं। वे किस चीज का प्रचार करते हैं? वे लगातार शारीरिक अनुशासन का प्रचार करते हैं और ऐसा करके सच्चे तथ्यों को छिपाते हैं और दूसरों के सामने एक झूठा मुखौटा पेश करते हैं ताकि दूसरे लोग देख सकें कि वे कैसे कष्ट सहते हैं, कैसे ऐशो-आराम में लिप्त होने से बचते हैं और कैसे अपने कार्य के लिए कोई भी कीमत चुकाते हैं और अपना समय, ताकत और सब कुछ समर्पित कर देते हैं। वे लोगों को यही दिखाना चाहते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसा करते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं करते हैं। वे झूठे दिखावे करके दूसरों को गुमराह करते हैं और यह दुष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति है। वे खाना खाने जैसी एक मामूली चीज के लिए भी इस हद तक जा सकते हैं—किस तरह के लोग हैं ये? क्या सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को ऐसा करना चाहिए? (नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए।) नहीं करना चाहिए। यह बहुत बड़ी धूर्तता है! एक मामूली चीज को लेकर किसी व्यक्ति के इतना ज्यादा दिखावा करने की बात सुनकर क्या ज्यादातर लोग अपनी स्वीकृति देंगे या उनका मन घृणा से भर जाएगा? (उनका मन घृणा से भर जाएगा।) क्या तुम कभी इस तरह से व्यवहार कर सकते हो? (कभी-कभी।) इतने गंभीर तरीके से? (नहीं।) भूख सहन करना मुश्किल होता है, लेकिन कुछ लोगों में इस कष्ट को सहने की क्षमता होती है। अगर तुम उन्हें परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने, उसके वचनों के लिए प्रयास करने, परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने, और ईमानदारी से बात करने के लिए कहोगे, तो उन्हें यह बेहद श्रमसाध्य और मुश्किल लगेगा। इन लोगों के लिए अपने हितों और गर्व का त्याग करना आकाश पर चढने से भी मुश्किल होगा, लेकिन वे परमेश्वर के वचनों की उपेक्षा करने, अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करने और अपने दैहिक हितों की रक्षा करने के इच्छुक हैं, चाहे इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। क्या यह सत्य से प्रेम नहीं करने की अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) यह एक पहलू है।
शाओजिया ने और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ दिखाईं? उसे बहुत तेज नींद आ रही थी, लेकिन फिर भी वह सोने नहीं गया। जरा बताओ, अगर किसी को नींद आ रही हो और वह थोड़ी देर के लिए सोने चला जाए या झपकी ले ले ताकि उसे अपने कार्य के लिए ज्यादा ताकत मिल जाए तो क्या यह उचित नहीं है? (हाँ, है।) यह उचित है। क्या सो जाने के लिए शाओजिया की कोई निंदा करेगा? (नहीं, कोई नहीं करेगा।) तो, अगर कोई उसकी निंदा नहीं करने वाला था तो फिर वह इतना डरा हुआ क्यों था? उसे किस बात का डर सता रहा था? (यही कि कहीं उससे कोई चूक न हो जाए।) सही कहा, उसे डर था कि कहीं उससे कोई चूक न हो जाए। अपनी कल्पनाओं में वह मानता था कि सभी लोग उसका बेहद सम्मान करते हैं और सभी सोचते हैं कि वह कष्ट सहने की खास क्षमता रखता है और अत्यंत धार्मिक है। उसे लगता था कि अगर उसका असली चेहरा लोगों के सामने उजागर हो गया और सभी को पता चल गया कि वह वैसा व्यक्ति नहीं है जैसा वे समझते हैं तो उसकी सारी अच्छी छवि खराब हो जाएगी। वह इस बात का ख्याल भी बर्दाश्त नहीं कर सकता था और इसलिए उसने खुद को झपकी लेने से भी रोककर रखा। उसने अपने साथ इतनी ज्यादा सख्ती बरती। वह किस तरह का व्यक्ति है? क्या वह मानसिक रूप से बीमार नहीं है? इस तरह के लोग धर्मोपदेश सुनते हैं, परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं और अक्सर संगति करने के लिए इकट्ठा होते हैं तो फिर वे सत्य पर ध्यान केन्द्रित क्यों नहीं कर पाते? सत्य सिद्धांतों पर सोच-विचार करना तुम्हारे लिए बढ़िया रहेगा। ध्यान से देखो कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं : क्या परमेश्वर के वचनों में झपकी लेने वाले लोगों के बारे में कोई घोषणा मौजूद है? (नहीं, कोई घोषणा नहीं है।) परमेश्वर ने इस मामले पर कोई घोषणा नहीं की है और न ही उसने इसका कोई जिक्र किया है। सामान्य मानवता की सोच रखने वाले हर व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि इसे कैसे संभालना है। नींद आने पर झपकी ले लेना उचित है। गर्मियों के दिनों में दोपहर को विश्राम करना उचित है। खास तौर पर, कुछ बुजुर्ग लोगों को जो अपने शरीर, ऊर्जा स्तर वगैरह को बरकरार नहीं रख पाते हैं, दोपहर के खाने के बाद सोने की जरूरत पड़ती है। यह उनकी जीवनशैली से जुड़ी आदतों पर नहीं, बल्कि उनकी शारीरिक जरूरतों पर आधारित है। परमेश्वर ने तुम्हें सामान्य मानवता की जागरूकता, चेतना और प्रतिक्रियाएँ दी हैं ताकि तुम अपने कार्य और परिवेश के अनुसार अपने दैनिक आहार, कड़ी मेहनत और विश्राम को संभाल पाओ; तुम्हें अपनी सेहत बर्बाद नहीं करनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम खाने में बहुत भव्य व्यंजन नहीं खाते हो और कहते हो, “परमेश्वर लोगों को अच्छा खाना खाने की अनुमति नहीं देता है; हमेशा अच्छा खाना खाने से लोग लालची बन जाते हैं।” परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा और वह लोगों से इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं रखता है। लेकिन शाओजिया ने ऐसा ही सोचा, और उसने अनुमान लगाया कि शायद परमेश्वर भी ऐसा ही सोचता है। उसने सोचा कि अगर कोई व्यक्ति जल्दी सो जाता है तो इसका मतलब है कि वह ऐशो-आराम में लिप्त हो रहा है और परमेश्वर को यह चीज पसंद नहीं है। क्या यह सत्य को नहीं समझना नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।) जब शाओजिया को सत्य समझ नहीं आया तो वह इसे समझने का प्रयास कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, उसने बस अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के अनुसार कार्य किया। वह इसे किस हद तक ले गया? उसने एक दिन में तीन-चार कप कॉफ़ी पी, बस इसलिए ताकि वह रात को देर तक जाग सके। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने पिछले कुछ वर्षों में अपना कर्तव्य करने के दौरान बहुत सारी कॉफ़ी पी है ताकि मैं परमेश्वर के घर का कार्य कर सकूँ।” अगर कोई दूसरा व्यक्ति उससे पूछता है, “किसने तुम्हें कॉफ़ी पीने के लिए मजबूर किया? क्या तुमने खुद उसे पीने का फैसला नहीं लिया था?” वे मन में सोचेंगे, “तुम्हें पता भी है कि मैं कॉफी क्यों पीता हूँ? मैं देर तक जागने के लिए नहीं पीता, मैं वजन घटाने के लिए पीता हूँ। अच्छा, तो तुम्हें नहीं पता था? लेकिन मैं यह बात तुम्हें नहीं बता सकता, क्योंकि फिर तुम्हें पता चल जाएगा। अगर तुम मुझसे पतले हो गए तो क्या मैं तुम्हारे सामने पतला दिखूँगा?” यह तो सोची-समझी चाल है, है ना? इसमें कौन-सा नजरिया और विचार शामिल हैं? क्या इसमें सामान्य मानवता की समझ या तार्किकता शामिल है? (नहीं, इसमें नहीं है।) नहीं, इसमें सिर्फ अक्ल की लड़ाई, चालें और साजिशें, दिखावा, ढोंग और गुमराह करना शामिल है। इसमें बस यही है, और कुछ नहीं। यह कुछ भी घटने पर सोची-समझी चालें चलना है। वे अपने ईमानदार विचार और ख्याल किसी भी दूसरे व्यक्ति को बिल्कुल नहीं बताएँगे, फिर सभी को जानने देना या परमेश्वर को देखने देना तो बहुत दूर की बात है। उनकी मानसिकता ऐसी नहीं है कि “मैं खुली किताब हूँ। मेरे कार्य मेरी सोच के अनुरूप हैं और मैं तो बस ऐसा ही हूँ”। उनकी मानसिकता निश्चित रूप से यह नहीं है, तो फिर क्या है? वे जितना हो सके उतना छिपाने और दिखावा करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि वे डरते हैं कि लोगों के मन में उनकी जो छवि है वह पर्याप्त रूप से महान, धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं है।
शाओजिया देर तक क्यों जागना चाहता था? ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिनके लिए रात को देर तक जागने की जरूरत नहीं पड़ती है और 10 बजे के बाद लोगों को अक्सर नींद आने लगती है। अगर फिर भी वे कार्य करते रहें तो वह असरदार नहीं होता, क्योंकि लोगों में सीमित ऊर्जा होती है। लेकिन शाओजिया ने हमेशा अपने साथ जबर्दस्ती की और कभी यह परवाह नहीं की कि क्या ऐसा करना असरदार है, जबकि उसे अच्छी तरह से मालूम था कि यह असरदार नहीं है। उसने सोने से पहले संदेश क्यों भेजा? (ताकि दूसरे लोग ध्यान दें।) दूसरों को इसका गवाह बनाने के लिए वह तीन बजे सोने गया। अगर तुम पूरी रात सोओगे ही नहीं तो क्या अंत में तुम्हीं को नींद नहीं आती रहेगी? और क्या इसके लिए तुम खुद जिम्मेदार नहीं होओगे? कुछ लोग रात को देर तक जागते हैं और सुबह 3 बजे संदेश भेजते हैं। जब संदेश पाने वाला व्यक्ति 4 बजे जवाब देता है तो वे जवाब देने के लिए 5 बजे तक इंतजार करते हैं ताकि यह दिखा सकें कि वे और भी देर से सोते हैं। वे दोनों खुद को कष्ट देते हैं और इस तरीके से एक दूसरे को नुकसान पहुँचाते हैं, और अंत में दोनों में से कोई भी सारी रात नहीं सो पाता है। क्या ये दोनों लापरवाह बेवकूफ नहीं हैं? यह किस तरह का व्यवहार है? यह मूर्खतापूर्ण व्यवहार है। इस तरह का व्यवहार कहाँ से आता है? यह सब भ्रष्ट स्वभाव से आता है। फिलहाल, हम इस पर विचार नहीं करेंगे कि इस व्यवहार की उत्पत्ति किस भ्रष्ट स्वभाव से होती है, हम बस यही कहेंगे कि यह बहुत ही बेहूदा है। ये लोग परमेश्वर के किसी भी वचन को अभ्यास में लाकर इस तरह के बेहूदा व्यवहार और अभ्यास को बदल सकते हैं। उसका कोई भी वचन उन्हें शांति से और सुरक्षित रूप से जीवन जीने में सक्षम बना सकता है, और उनके जीवन को और अधिक वास्तविक और व्यावहारिक बना सकता है। वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जीने का फैसला क्यों नहीं लेते हैं? वे अपने आप को इस तरह से क्यों सताते हैं? क्या वे अपनी करनी का फल नहीं भुगत रहे हैं? (हाँ, भुगत रहे हैं।) ऐसा व्यक्ति चाहे कितने भी कष्ट क्यों न उठा ले, वे हमेशा बेकार ही जाएँगे, और चाहे वह कितने भी कष्ट क्यों न सह ले, अकेले उसे ही इनके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। कुछ लोग कहते हैं : “मैं इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता आया हूँ, और मैं 20 सालों से अगुआ हूँ। मैं हमेशा देर तक जागता रहा और सोया नहीं, और अंत में, मुझे नसों की कमजोरी हो गई।” मैं कहता हूँ : “तुम आसानी से बच निकले जो तुम्हें नसों की कमजोरी ही हुई। अगर तुम इसी तरह मूर्खतापूर्ण तरीके से खुद को सताते रहोगे और ऐसे कार्य करते रहोगे तो वह दिन दूर नहीं जब तुम पूरे पागल हो जाओगे।” अगर कोई व्यक्ति रात को नहीं सोता है, हमेशा तनावग्रस्त रहता है और उसका शरीर असामान्य रूप से कार्य करता है तो क्या वह स्वस्थ रह सकता है? इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार है! मान लो कि तुम उससे कहते हो, “इस तरह कार्य करने से नहीं चलेगा। अपने कार्य को दिन में व्यवस्थित करने का पूरा प्रयास करो और अपनी उत्पादकता बढ़ाओ। जब सब लोग कार्य पर चर्चा कर रहे हों तो बकवास कम करो और फालतू चीजों के बारे में ज्यादा बातें मत करो। तुम्हें चर्चा के महत्वपूर्ण बिंदुओं, बुनियादी बातों और विषय की समझ हासिल करनी चाहिए और चर्चा खत्म हो जाने के बाद सभी को अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो जाना चाहिए। लगातार बक-बक मत करो और टालमटोल करना बंद कर दो।” वह तुम्हारी बात नहीं सुनेगा। वह खुद को अच्छी तरह व्यक्त नहीं कर पाता है, लेकिन अपने अनुभवों का सारांश नहीं करता है, वह रात के एक-दो बजे तक समय बर्बाद करने के लिए बेहूदा बातें करता है, और न खुद सोता है और न ही किसी और को सोने देता है। क्या यह दूसरों को सताना और नुकसान पहुँचाना नहीं है? आखिर में, वह सोचता है, “परमेश्वर, तुमने देखा, है ना? तीन बज चुके थे और मैं फिर भी नहीं सोया था!” परमेश्वर ने देखा। परमेश्वर ने न सिर्फ उसका बाहरी रूप देखा, बल्कि उसके दिल की गहराइयों में भी देखा और कहा : “तुम्हारा दिल गंदा है। तुम खुद को व्यर्थ में सताने के लिए रात भर जागते हो, लेकिन परमेश्वर इसे कभी याद नहीं रखेगा। सोने का समय हो जाने पर भी तुम सोने नहीं जाते हो, बल्कि खुद को जबर्दस्ती रोककर रखते हो। अपने कष्टों के लिए तुम खुद ही जिम्मेदार हो!” नींद आने पर लोगों की पलकें स्वाभाविक रूप से बंद हो जाती हैं। यह सहज प्रवृत्ति है, इसलिए अगर तुम हमेशा सहज प्रवृत्ति और प्रकृति के नियमों के खिलाफ जाते हो तो तुम कष्ट भुगतने के हकदार हो! परमेश्वर तुमसे निरर्थक कष्ट सहने या ऐसे कष्ट सहने के लिए नहीं कहेगा जो प्रकृति के नियमों के उल्लंघनों, या सिद्धांतों या सत्य के उल्लंघनों के कारण होते हैं। अगर तुम इस तरह के कष्ट सहने की जिद करते हो तो यही सही। कुछ लोग जब यह सुनते हैं कि कोई व्यक्ति सुबह के 3 बजे तक सोने नहीं जाता तो वे सोचते हैं, “क्या यह बिल्कुल मेरे जैसा नहीं है? खैर, आगे से मैं भी 3:30 बजे सोने जाऊँगा।” फिर वे सुनते हैं कि कोई व्यक्ति 3:30 बजे सोने जाता है तो फिर वे 4 बजे सोने जाना चाहते हैं। क्या यह मानसिक बीमारी नहीं है? ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनके लिए तुम मुकाबला कर सकते हो, लेकिन तुम इस पर मुकाबला करने का फैसला करते हो कि सबसे देर से कौन सोता है—इसका मतलब है कि तुम मानसिक रूप से असामान्य हो। क्या ऐसे लोगों में समझ की समस्या है? (हाँ, बिल्कुल है।) वे सत्य को नहीं समझ पाते हैं। जब तुम्हारे पास समय है तो बाहरी व्यवहार, दिखावा और ढोंग जैसी चीजों को लेकर मेहनत करना, अपना दिमाग खपाना और सोचना बंद करो। तो, फिर तुम्हें किस चीज में मेहनत करनी चाहिए? देखो कि परमेश्वर के वचन किस तरह से मानवजाति की भ्रष्ट प्रकृति और दुष्ट स्वभाव को उजागर करते हैं और परमेश्वर किस तरह से लोगों के अनमने होने को उजागर करता है। अपनी तुलना परमेश्वर के इन वचनों के साथ करने में मेहनत करो जो इंसान को उजागर करते हैं, इस पर विचार करो कि परमेश्वर द्वारा उजागर की जाने वाली अभिव्यक्तियों में से कितनी तुम्हारे पास हैं और इनमें से कितनी अभिव्यक्तियों को तुम अक्सर व्यवहार में लाते हो या उन्हें दिखाते हो। इन चीजों का सारांश करना बहुत अच्छी बात है! हमेशा कुछ अंडों या भाप से पके मीठे पाव के लिए या मांस के शोरबे में चीजें डुबोने के लिए मेहनत करना किसी व्यक्ति के लिए कितनी घिनौनी बात है! यह क्या है? यह सोची-समझी चालें हैं और अक्ल की कमी है। इस तरह का व्यक्ति क्या है? (बेवकूफ है।) सही कहा। जब ऐसे लोगों की बात आती है जो हमेशा इसका ध्यान रखते हैं कि कितने अंडे खाने हैं या जो रात को जगे रहने के लिए हमेशा कॉफ़ी पीने के बारे में सोचते रहते हैं तो भोजन के लिए जुनूनी इन लोगों को बेवकूफ कहना अतिशयोक्ति नहीं है। वे किन मामलों में बेवकूफ हैं? हम इन लोगों को बेवकूफ क्यों कहते हैं? (क्योंकि उनका कष्ट भुगतना पूरी तरह से बेकार है।) निश्चित रूप से यह बेकार है। आखिर तुम ऐसी बचकानी हरकतें क्यों करना चाहोगे? क्या तुम्हें लगता है कि जीवनभर अंडे नहीं खाने से तुम सत्य को समझने में समर्थ हो जाओगे? क्या इस तरह से कार्य करना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) ऐसी बेवकूफी भरी चीजें मत करो। किस तरह के लोग बेवकूफी भरी चीजें करते रहते हैं? (वे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं होती है।) क्या इन लोगों में सत्य को समझने की क्षमता होती है? (नहीं, उनमें नहीं होती है।) कुछ लोग कहते हैं : “उनमें अच्छी काबिलियत है, और वे अत्यंत कुशलता से उपदेश दे सकते हैं।” हो सकता है कि वे कुशलता से उपदेश दे सकते हों, लेकिन जब भी कार्य करने का समय आता है तो वे हमेशा बचकानी हरकतें क्यों करने लगते हैं? वे ऐसे बचकाने और हास्यास्पद तरीके से कार्य क्यों करते हैं? यहाँ क्या चल रहा है? उनकी कथनी और करनी में अंतर होता है। उनकी कथनी धर्म-सिद्धांतों की उनकी समझ पर आधारित होती है जबकि उनकी करनी में वे चीजें शामिल होती हैं जिन्हें वे वास्तव में समझते हैं और स्वीकार पाते हैं। अपने दिल की गहराइयों में क्या वे उन धर्म-सिद्धांतों का समर्थन करते हैं या उन्हें स्वीकारते हैं जिनका वे उपदेश देते हैं? (नहीं, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं।) वे स्वीकार नहीं करते हैं कि वे चीजें सत्य हैं या ऐसी कसौटियाँ हैं जिन्हें उन्हें अभ्यास में लाना चाहिए और जिनका पालन करना चाहिए। दरअसल, वे अपने दिलों में बसी साजिशों और धारणाओं को, झूठे विचारों और अभ्यासों को और दूसरों द्वारा अच्छे समझे जाने वाले व्यवहारों को ही वास्तव में अभ्यास की कसौटियाँ और मार्ग मानते हैं। अगर ऐसे लोगों ने कभी खुद को नहीं बदला, तो क्या उन्हें खारिज नहीं कर दिया जाएगा? क्या उन्हें उद्धार का कोई मौका मिलेगा? इसकी उम्मीद कम ही है।
जरा बताओ, क्या तेज धूप में सिर पर छाता रखना या टोपा पहनना उचित है? (हाँ, यह उचित है।) तेज धूप में काम करने वाले लोगों ने अगर टोपा नहीं पहना तो वे जल्दी ही झुलस जाएँगे, इसलिए ऐसा करना पूरी तरह से उचित है। कुछ लोग ऐसा नहीं सोचते और कहते हैं : “क्या मैं टोपा पहनूँ? क्या इससे मेरा अपमान नहीं होगा? मैं कैसे टोपा पहन सकता हूँ? मैं कष्ट सहने से नहीं डरता और ना ही सांवला हो जाने से। दरअसल, यह तो सेहत के लिए अच्छा है।” अगर वे सच में यही सोचते हैं तो यह कोई समस्या नहीं है, लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ लोग अपने दिल की गहराइयों में ऐसा नहीं सोचते। वे सोचते हैं, “जरा तुम लोग खुद को देखो, टोपा पहने हुए हो क्योंकि तुम लोगों को कड़ी धूप में सांवला हो जाने या चमड़ी झुलस जाने का डर है। मैं तो नहीं पहनूँगा! सांवला होने या चमड़ी झुलसने से क्या डरना? परमेश्वर को ऐसी चीजें पसंद हैं, इसलिए मुझे परवाह नहीं है कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं!” ऐसा कहने वाले लोगों के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या तुम्हें लगता है कि वे थोड़े-से धोखेबाज हैं, थोड़े-से झूठे हैं? दरअसल, टोपा पहनने से इनकार करने के पीछे उनका एक मकसद है, और वह यह है कि वे दूसरे लोगों को दिखाना चाहते हैं कि वे कष्ट सहने की क्षमता रखते हैं और यह कि वे वास्तव में आध्यात्मिक हैं। इस तरह का पाखंडी व्यवहार अत्यंत घिनौना है! क्या इतनी अच्छी तरह दिखावा करने वाले लोग अपने कर्तव्य अच्छी तरह करते हैं? क्या वे अपने कर्तव्यों के लिए कष्ट सह सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं? सांवला हो जाने या धूप में झुलस जाने के बाद क्या वे शिकायत नहीं करेंगे और परमेश्वर को दोषी नहीं ठहराएँगे? पाखंडी फरीसी कभी सत्य को अभ्यास में नहीं लाते हैं, बल्कि वे आध्यात्मिकता का नाटक करते हैं। क्या वे वाकई कष्ट सह सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं? पाखंडियों के सार के आधार पर, तुम देख सकते हो कि उनके मन में सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता है और यह कि उनमें सत्य के लिए कष्ट सहने या कीमत चुकाने की क्षमता और भी कम होती है। इतना ही नहीं, वे सत्य के चाहे कितने भी वचन क्यों न सुन लें, वे उन वचनों को कभी सत्य मानकर नहीं सुनते हैं और न ही समझते हैं, बल्कि वे उन्हें कोई आध्यात्मिक सिद्धांत मानते हैं और उसी तरह उनका उपदेश देते हैं। इस तरह के पाखंडी यह नहीं समझते हैं कि लोग परमेश्वर में क्यों विश्वास करते हैं, वह लोगों को सत्य क्यों प्रदान करना चाहता है, लोगों द्वारा परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने की प्रक्रिया कैसी होती है, इसका महत्व कहाँ निहित है और उद्धार से परमेश्वर का वास्तव में क्या मतलब है। उन्हें इनमें से कोई सत्य समझ नहीं आता है। अगर कलीसिया में ऐसा कोई पाखंडी है जो सत्य से प्रेम नहीं करता है, लेकिन झूठा बने रहना पसंद करता है तो फिर वह वाकई फरीसी है। वह व्यवहार, दिखावट और लोगों के दिलों में अपने मूल्यांकनों पर ध्यान देता है और चाहे वह कितने भी सत्य क्यों न सुन ले, उन्हें कभी अभ्यास में नहीं लाता है। वह जो भी कहता है वह सही है और वह हर तरह के धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात कर सकता है, लेकिन वह अपने दिए हुए उपदेशों का अभ्यास नहीं करता है। अगर कोई वाकई उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है तो क्या वह उसी किस्म का व्यक्ति है? (हाँ, वह वैसा ही है।) सामान्य सोच वाला व्यक्ति इस पाखंडी की अभिव्यक्तियों को किस नजर से देखेगा? वह सोचेगा, “उसके अभ्यास का तरीका गलत है, है ना? यह इतना अजीब क्यों है? खाना खाने का समय होने पर उसे बस जाकर खाना खा लेना चाहिए, तो वह इस चीज को लेकर इतना टालमटोल क्यों करता है?” वह कहेगा कि यह व्यक्ति अजीब है, वह दूसरों से अलग ढंग से, विकृत तरीके से चीजों को समझता है—और वह उससे प्रभावित नहीं होगा। लेकिन अगर कोई व्यक्ति ठीक इस पाखंडी जैसा ही है और बाहरी व्यवहार और लोगों की राय पर खास ध्यान देता है तो फिर वह उससे अपनी तुलना करेगा और उसके साथ मुकाबला करेगा। यह ठीक शाओजिया के सुबह 3 बजे संदेश भेजने और संदेश मिलने वाले व्यक्ति के 4 बजे यह सोचकर जवाब देने जैसा है कि : “तुमने मुझे 3 बजे संदेश भेजा, इसलिए मैं तुम्हें 4 बजे जवाब दूँगी।” और फिर, शाओजिया ने सोचा, “तुमने मुझे 4 बजे जवाब दिया तो मैं अपना जवाब 5 बजे भेजूँगा।” समय के साथ, इस तरह मुकाबला करते हुए सब लोग धीरे-धीरे पाखंडी बन जाते हैं। अगर कलीसिया का कोई अगुआ इस तरह का व्यक्ति है, और भाई-बहनों में सूझ-बूझ की कमी है तो वे खतरे में हैं, वे किसी भी समय गुमराह किए जा सकते हैं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जो व्यक्ति सत्य को नहीं समझता, वह दूसरों के बाहरी अच्छे व्यवहार से आसानी से गुमराह और प्रभावित हो सकता है। क्योंकि उसे नहीं पता कि क्या सही है, वह अपनी धारणाओं के अनुसार ऐसे व्यवहार को अच्छा मानता है। अगर कोई और व्यक्ति उन व्यवहारों को करने में सक्षम होता है, तो फिर वही उसकी आराधना का पात्र बन जाता है और वह सोचता है कि उस व्यक्ति को अगुआ होना चाहिए, पूर्ण बनाया जाना चाहिए और परमेश्वर का प्रेम प्राप्त होना चाहिए। वह इस तरह के व्यवहार को स्वीकृति देगा और अपने दिल की गहराइयों में उसका समर्थन करेगा। अगर उसने इसका समर्थन किया तो क्या होगा? वह उस व्यक्ति का अनुसरण करने लगेगा। अगर वे दोनों ही अगुआ हैं तो वे एक दूसरे की तुलना करेंगे और आपस में मुकाबला करेंगे। एक बार, अलग-अलग देशों की कलीसियाओं से अगुआ और कार्यकर्ता ऑनलाइन इकट्ठा हुए। मैंने ऑनलाइन जाकर जब कुछ देर उनकी बातें सुनी तो मुझे लगा कि यहाँ कुछ ठीक नहीं है। मैंने सोचा, “ये सब लोग यहाँ क्या कर रहे हैं? क्या वे उपदेश दे रहे हैं?” स्थिति को समझने के बाद मुझे समझ आया कि वे प्रार्थना कर रहे हैं। मैंने खुद से पूछा कि वे इस तरीके से क्यों प्रार्थना कर रहे हैं। वह सुनने में डरावना लग रहा था, और सब कुछ बहुत ही अपमानजनक और भद्दा था। यह अपने आप में कोई बड़ी बात नहीं थी, तो फिर मुख्य समस्या क्या थी? ऐसा लग रहा था जैसे वे अपनी आँखें खुली रखकर, परमेश्वर के आगे प्रार्थना नहीं कर रहे हैं और उनके दिल में जो है उसे सच्चाई से नहीं कह रहे हैं। बल्कि, वह यह देखने के लिए मुकाबला कर रहे हैं कि कौन सबसे अच्छा सुवक्ता है, कौन सबसे ज्यादा धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोल सकता है और किसने सबसे ज्यादा विस्तार और गंभीरता से बात की। यह किसी अखाड़े के मुकाबले जैसा सुनाई पड़ रहा था और निश्चित रूप से परमेश्वर से प्रार्थना करने जैसा तो बिल्कुल नहीं लग रहा था। क्या ये लोग खत्म नहीं हो चुके हैं? क्या उन्हें खारिज नहीं कर दिया गया है? जब ऐसे लोग अगुआ के तौर पर सेवा कर रहे हों तो जरा सोचो कि उनके नीचे जो लोग हैं उन्हें कितना कष्ट सहन करना पड़ता होगा? क्या उनके नीचे के लोगों को नुकसान नहीं पहुँच रहा है? हर व्यक्ति ने पूरे जोश से कम से कम 20 मिनट तक प्रार्थना की और ऊपरवाले के इन नियमों के बावजूद कि सभाओं में एक व्यक्ति का बोलबाला नहीं होना चाहिए और लोग सिर्फ 5 से 10 मिनट की संगति कर सकते हैं, उन्होंने फिर भी प्रार्थना करने में ही बेशर्मी से इतना ज्यादा समय लगा दिया। बाद में, मुझे अंततः समझ आ गया कि इतनी सारी सभाएँ सुबह से लेकर रात तक क्यों चलती हैं : ये तथाकथित अगुआ एक के बाद एक सिर्फ प्रार्थना करने में ही बहुत समय लगा देते हैं, जबकि उनके नीचे के लोग कष्ट सहते रहते हैं। ये झूठे अगुआ वहाँ पर बहसबाजी और बकवास करने के लिए मौजूद थे और उनमें से कुछ तो इतने बेतुके थे कि उन्हें यह भी याद नहीं रह रहा था कि वे कुछ बातों को पहले ही कह चुके हैं या नहीं। जब तक वे दूसरों से ज्यादा देर तक बोलते रहे तब तक उनके हिसाब से यह सब ठीक था। मैं हैरान था : प्रार्थना करते समय व्यक्ति को अपनी आँखें बंद करके परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए तो फिर इन लोगों की आँखें क्यों खुली हुई थीं? क्या अपनी आँखें खुली रखकर यह देखने से कि दूसरे लोग कैसे प्रार्थना कर रहे हैं, उनका मन वाकई अशांत नहीं हो रहा था? खास तौर पर, यह सोचने की जरूरत पड़ना कि दूसरे लोग कैसे प्रार्थना कर रहे हैं और वे किन शब्दों का उपयोग कर रहे हैं, और उनसे बेहतर बनने की इच्छा रखना—जब दिल ऐसी चीजों से भरा हुआ हो तो क्या परमेश्वर से प्रार्थना करना और सच्चे दिल से बोलना संभव होगा? क्या यह असामान्य विवेक नहीं है? क्या ये सब झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं की झूठी आध्यात्मिकता की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? एक जगह इकट्ठा होकर परमेश्वर के वचनों को पढ़ना और सत्य की संगति करना सभी के लिए अच्छा है, लेकिन कुछ लोगों ने बताया है : “ओह, तुम्हें कुछ नहीं पता। जब वे अगुआ इकट्ठा होकर प्रार्थना करते हैं तो ऐसा लगता है मानो वे धर्मग्रन्थों का पाठ कर रहे हों; वे सिर्फ एक ही चीज के बारे में बात करते रहते हैं, और हर बार हमारे इकट्ठा होने पर वही बात दोहराई जाती है। मैं तो यह सुन-सुनकर थक चुका हूँ।” इस तरह की सभाएँ लोगों को कैसे शिक्षित कर सकती हैं? झूठे अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा यही करते हैं; क्या वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हैं? वे सत्य को समझने में लोगों की मदद करने के लिए सत्य की संगति पर ध्यान नहीं देते हैं और न ही सत्य पर संगति करके समस्याओं को हल करने पर ध्यान देते हैं; इसके बजाय, वे धर्म की झूठी आध्यात्मिकता में व्यस्त रहते हैं। क्या यह लोगों को गुमराह नहीं कर रहा है? यहाँ क्या समस्या है? उन्हें न तो परमेश्वर के इरादों की कोई समझ है और न ही वे यह समझते हैं कि लोगों से उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं। वे तो बस धार्मिक संस्कारों और दिखावे में व्यस्त रहते हैं! इससे भी बुरी बात यह है कि वे प्रार्थना का उपयोग दूसरों को उजागर करने, दूसरों पर हमला करने और दूसरों की निंदा करने के लिए करते हैं, जबकि कुछ लोग खुद को सही ठहराने के लिए प्रार्थना का उपयोग करते हैं। उन्हें देखकर लगता है जैसे उनकी प्रार्थनाएँ परमेश्वर को सुनाने के लिए हैं, लेकिन दरअसल वे इंसान को सुनाने के लिए होती हैं। इसलिए, इन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रत्ती भर भी नहीं है, ये सभी छद्म-विश्वासी लोग हैं जो परमेश्वर के घर के कार्य में विघ्न डाल रहे हैं। ये झूठे अगुआ अपनी प्रार्थनाओं में बहुत भद्दापन प्रकट करते हैं। कुछ लोग ऐसा कहते हुए प्रार्थना करते हैं : “परमेश्वर, कुछ लोगों ने मुझे गलत समझ लिया है। मेरा वैसा मतलब नहीं था। मैं तुमसे प्रार्थना कर रहा हूँ, मैं निराश महसूस नहीं कर रहा हूँ, और दूसरे लोग जो चाहे वह सोच सकते हैं।” कुछ लोग धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं, और कुछ लोग इस पर मुकाबला करते हैं कि कौन ज्यादा धर्मोपदेश सुनता है, किसे सबसे ज्यादा भजन के बोल या परमेश्वर के वचन याद रहते हैं, कौन प्रार्थना करने में सबसे ज्यादा समय लगाता है, कौन सबसे अच्छा सुवक्ता है या किसके पास प्रार्थना करने के सबसे विविध तरीके हैं और कौन अलग-अलग तरह की बहुत-सी प्रार्थनाओं में व्यस्त रहता है। क्या यह प्रार्थना है? (नहीं, यह नहीं है।) यह क्या है? यह बेईमानी से बुराई करना है!!! यह सत्य के साथ खिलवाड़ करना और उसे रौंदना है, यह परमेश्वर का अपमान करना और उसकी निंदा करना है। ये दुष्ट और छद्म-विश्वासी लोग प्रार्थना के माध्यम से कुछ भी कहने की हिम्मत करते हैं—जरा बताओ, क्या ये लोग सच्चे विश्वासी हैं? क्या उनमें जरा भी धर्मनिष्ठा है? (नहीं, उनमें नहीं है।) जब इस तरह के लोगों से अगुआ का दर्जा छीन लिया जाता है तो वे आत्मचिंतन बिल्कुल नहीं करते हैं, बल्कि हर जगह ऐसे शिकायत करते रहते हैं : “मैंने परमेश्वर के कार्य के दौरान कितने सारे कष्ट सहे, फिर भी उन्होंने कहा कि मैंने कोई सच्चा कार्य नहीं किया और यह कि मैं एक झूठा अगुआ था और फिर उन्होंने मेरी जगह किसी और को दे दी। और फिर, ऐसे कितने लोग हैं जो धर्म-सिद्धांतों के बारे में उतने विस्तार से बोल सकते हैं जितना मैं बोल सकता हूँ? कितने लोगों के दिलों में मेरी तरह करूणा है? मैंने अपने परिवार और करियर को त्याग दिया, अपने भाई-बहनों के साथ हर रोज कलीसियाई सभाओं में बिताया और लगातार तीन या पाँच दिनों तक बोलता रहा। वे बस ऐसे ही मेरी जगह किसी और को कैसे दे सकते हैं?” वे आज्ञा नहीं मानते हैं और मन में शिकायतें छिपाकर रखते हैं। फिर ऐसे लोग भी हैं जो यह बात फैलाते हैं : “परमेश्वर के घर में अगुआ मत बनो। अगर तुम्हें अगुआ के तौर पर चुन लिया गया तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे और एक बार अगर तुम्हें उस जगह से हटा दिया गया तो तुम्हारे पास आम विश्वासी बनने का मौका तक नहीं रहेगा।” ये कैसे शब्द हैं? ये शब्द सबसे बेतुके और हास्यास्पद हैं और यह भी कहा जा सकता है कि ये अवज्ञा, असंतुष्टि और परमेश्वर की निंदा करने वाले शब्द हैं। क्या उन शब्दों का यही मतलब नहीं है? (हाँ, यही है।) उन शब्दों की गहराई में क्या निहित है? हमला—वे शब्द कोई आम आलोचना नहीं हैं! ये लोग यह नहीं बताते हैं कि उन्हें पागलों की तरह बुरे कार्य करने और कोई भी वास्तविक कार्य नहीं करने के कारण बदल दिया गया, बल्कि यह शिकायत करते हैं कि परमेश्वर ने उनके साथ न्याय नहीं किया, कि उसने अपने कार्य में उनके गौरव का ध्यान नहीं रखा और यह भी शिकायत करते हैं कि वह यह नहीं समझ सका कि उन्होंने कैसा महसूस किया और उनकी भावनात्मक प्रतिबद्धता कितनी थी। उनकी मानसिकता गैर-विश्वासी व्यक्ति जैसी है, उनमें सत्य वास्तविकताएँ बिल्कुल नहीं हैं।
आम तौर पर, तुम लोग सभाओं में कितनी देर तक प्रार्थना करते हो? क्या इसमें सभी का बहुत ज्यादा समय लगता है? क्या कभी तुम्हारी प्रार्थनाओं से लोग परेशान हो जाते हैं? कुछ लोग प्रार्थना करने में बहुत सारा समय लगाते हैं और उन्हें सुनते-सुनते सभी लोग उकता जाते हैं, फिर भी ये लोग सोचते हैं कि वे सबसे ज्यादा आध्यात्मिक हैं और मानते हैं कि यह उनके वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के कारण हुई प्राप्ति और उपलब्धि है। वे कई घंटों तक प्रार्थना करने के बाद भी नहीं थकते हैं, जिस दौरान वे बस वही पुरानी, घिसी-पिटी, बेतुकी चीजों को दोहराते रहते हैं, उन्हीं शब्दों और धर्म-सिद्धांतो और नारों के बारे में बातें करते रहते हैं जो उन्हें मालूम हैं या जो चीजें उन्होंने दूसरों से सुनी हैं या जो चीजें उनकी मनगढ़ंत हैं। वे ऐसा ही करते हैं, भले ही सभी तंग आ चुके हों और उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि लोगों को यह पसंद है भी या नहीं। क्या तुम लोग इस तरह प्रार्थना करते हो? जरा बताओ, क्या थोड़ी देर के लिए प्रार्थना करना सही है या देर तक? (इसमें कोई सही या गलत नहीं है।) हाँ, बिल्कुल। तुम इस बारे में कोई फैसला नहीं सुना सकते कि इनमें से कौन-सा सही है और कौन-सा गलत, तुम्हें बस अपने दिल की जरूरतों के अनुसार परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। कभी-कभी प्रार्थना के लिए किसी अनुष्ठान की जरूरत नहीं पड़ती है, और कभी-कभी पड़ती है; यह परिवेश पर और क्या हुआ इस पर निर्भर करता है। अगर तुम सोचते हो कि प्रार्थना में समय लग सकता है, तो फिर परमेश्वर से अपने निजी मामलों के बारे में अकेले में प्रार्थना करो। सभाओं में उन सब चीजों के बारे में प्रार्थना करके सभी का समय बर्बाद मत करो। इसे सूझ-बूझ कहते हैं। कुछ लोग अपने गर्व और प्रतिष्ठा की खातिर इस चीज पर ध्यान नहीं देते हैं। यह अज्ञानता और विवेकहीनता है। क्या जिन लोगों में विवेक की कमी होती है, उनमें शर्म होती है? वे तो इस बात से भी बेखबर होते हैं कि उन्हें प्रार्थना करते हुए देखना सभी को कितना नापसंद है। जिन लोगों में थोड़ी-सी भी समझ या जागरूकता नहीं है, क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? वे नहीं समझ सकते हैं। परमेश्वर इंसान से जिन सत्य सिद्धांतों को अभ्यास में लाने की उम्मीद करता है वे सब उसके वचनों में निहित हैं और सत्य के अभ्यास के बारे में परमेश्वर जिन सभी वचनों की संगति करता है उनमें सिद्धांत निहित हैं और वे सिद्धांत हैं, लोगों को बस बड़े ध्यान से उन पर सोच-विचार करने की जरूरत है। सत्य को अभ्यास में लाने के बारे में परमेश्वर के वचनों में बहुत सारे सिद्धांत निहित हैं; इनमें हर तरह के मामलों, हालातों और प्रसंगों में अभ्यास करने के तरीकों के लिए सिद्धांत और मार्ग शामिल हैं, यहाँ सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि क्या तुम्हारे पास आध्यात्मिक समझ और समझने की क्षमता है या नहीं है। अगर किसी के पास यह समझने की क्षमता है तो फिर वह सत्य को समझ सकता है। लेकिन अगर उसके पास नहीं है तो उसे सिर्फ विनियम समझ आएँगे, भले ही परमेश्वर के वचन कितने भी सुविस्तृत क्यों न हों, और इसे सत्य को समझना नहीं कहते हैं। इसलिए, परमेश्वर तुम्हें एक सिद्धांत देता है ताकि तुम उसे अलग-अलग हालातों के अनुरूप ढाल सको। उसके वचनों को सुनकर और उसे जानकर, अलग-अलग अनुभवों और संगति के माध्यम से और साथ ही पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के माध्यम से तुम्हें उन सिद्धांतों का एक पहलू समझ आ जाएगा जिनके द्वारा वह बात करता है और तुम एक मामले में उसके अपेक्षित मानकों को भी समझ जाओगे। और तब तुम सत्य के उस पहलू को समझ चुके होगे। अगर परमेश्वर को सब कुछ विस्तार से बताना पड़ता और लोगों को यह बताना पड़ता कि अमुक मामले में ऐसे कार्य करो और अमुक में ऐसे, तो फिर वह जिन सिद्धांतों के बारे में बात करता है, वे सभी बेकार हो जाते। अगर परमेश्वर ने इस तरीके का उपयोग किया होता और मानवजाति को एक के बाद एक चीज के लिए नियम बताए होते, तो अंत में लोगों को क्या हासिल होता? बस कुछ अभ्यास और व्यवहार ही हासिल होते। वे परमेश्वर के इरादों या उसके वचनों को कभी समझ नहीं पाते। अगर लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ पाए, तो वे सत्य को कभी समझ नहीं पाएँगे। क्या ऐसा ही नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।) क्या तुम लोग सत्य को समझ पाते हो? ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते हैं और सिर्फ कुछ ही लोग जिन्हें आध्यात्मिक समझ है और जो सत्य से प्रेम करते हैं, वास्तव में इस लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं। तो, इस लक्ष्य को हासिल करने वालों के लिए पूर्वशर्तें क्या हैं? वे इसे तभी हासिल कर सकते हैं अगर उनके पास आध्यात्मिक समझ है, समझने की क्षमता है और वे ईमानदारी से सत्य और सकारात्मक चीजों की तलाश करते हैं और उनसे प्रेम करते हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात आती है जो इसे हासिल नहीं कर सकते हैं, तो एक तरफ इसका कारण यह है कि उनमें काबिलियत या समझ की समस्या है और दूसरी तरफ, इसका कारण समय की समस्या है। यह 20-30 वर्ष की आयु के लोगों में जैसा होता है वैसा है—अगर तुम उनसे वही सब कुछ हासिल करने के लिए कहो जो 50-60 वर्ष की आयु के लोग हासिल कर सकते हैं और उस आयु के लोगों को हासिल करना चाहिए, तो क्या यह उन्हें ऐसा कुछ करने के लिए जबर्दस्ती करना नहीं है जो उनकी क्षमताओं के बाहर है। (हाँ, ऐसा ही है।) अब जरा सोचो, किसी व्यक्ति की सत्य को समझने की क्षमता का संबंध किस चीज से है? (उसकी काबिलियत से।) यह उसकी काबिलियत से संबंधित है। और किस चीज से है? (इससे कि क्या वह सत्य की तलाश करता है या नहीं।) इसका सत्य की तलाश से एक निश्चित संबंध है। दरअसल, कुछ लोग अपनी समझ, दिमाग की गति और आईक्यू के मामले में पर्याप्त होते हैं और वे सत्य को समझ सकते हैं, लेकिन वे न तो सत्य से प्रेम करते हैं और न ही उसकी तलाश करते हैं। वे अपने दिलों में सत्य के लिए कुछ महसूस नहीं करते हैं और न ही इस मामले में कोई प्रयास करते हैं। इस तरह के लोगों के लिए सत्य हमेशा धुंधली और न पहचानी जा सकने वाली चीज ही बनी रहेगी और भले ही वे कई-कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास क्यों न कर लें, इसका कोई फायदा नहीं होगा।
खैर, मैं अपनी कहानियाँ सुना चुका हूँ। क्या इन कहानियों का कथानक और सामग्री कुछ सत्य को समझने में तुम लोगों की मदद कर सकते हैं? (हाँ।) मैं ये कहानियाँ क्यों सुनाता हूँ? अगर ये कहानियाँ लोगों के जीवन-स्तर, उनके द्वारा प्रकट किए गए स्वभाव और असली जीवन में उनके विचारों से हटकर होतीं तो क्या इन्हें सुनाना जरूरी होता? (नहीं।) यह जरूरी नहीं होता। हमने जिन चीजों पर चर्चा की वे सभी आम घटनाएँ और स्थितियाँ हैं जिन्हें अक्सर लोग अपने जीवन में प्रकट करते हैं और ये चीजें मानव स्वभाव, नजरिये और विचारों से जुड़ी हैं। अगर इन कहानियों को सुनने के बाद तुम सोचते हो कि ये तो बस कहानियाँ हैं, ये थोड़ी-सी मजाकिया और दिलचस्प हैं, बस और कुछ नहीं, और तुम उनमें निहित सत्य को नहीं समझ पाते हो तो फिर ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएँगी। तुम लोगों को इन कहानियों से कुछ सत्य जरूर समझना होगा—इससे कम से कम तुम लोगों के व्यवहार पर, खासकर कुछ चीजों के बारे में तुम्हारे नजरिये पर सुधारात्मक प्रभाव पड़ेगा, और तुम लोग अपनी समझ के विकृत तरीकों से वापस लौटने और इस तरह की चीजों की शुद्ध समझ प्राप्त करने में समर्थ हो जाओगे। यह सिर्फ तुम्हारे व्यवहार को बदलने के लिए नहीं है, बल्कि भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली इन स्थितियों को जड़ से सुधारने के लिए है। क्या तुम मेरी बात समझ रहे हो? तो आओ, अब मुख्य विषय पर संगति करें।
मसीह-विरोधी दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण कैसे करवाते हैं, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, इसका गहन विश्लेषण
IV. थोड़ा-सा अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मसीह-विरोधियों द्वारा खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाए जाने का गहन विश्लेषण
पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों की आठवीं मद पर संगति की थी—वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। मद आठ को कुल मिला कर चार उप-विषयों में विभाजित किया गया है। हमने पहले तीन उप-विषयों पर संगति समाप्त कर ली है, तो चौथा उप-विषय क्या है? (थोड़ा-सा अनुभव, ज्ञान और सबक प्राप्त कर लेने पर मसीह-विरोधी खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाते हैं।) यह मद आठ का चौथा उप-विषय है। बेशक, इसमें मद आठ के विषय की अभिव्यक्तियों का एक पहलू भी शामिल है—ये संबंधित हैं। यह विषय क्या है? वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। आओ, इस उप-विषय को विभाजित कर दें और इस पर थोड़ा-थोड़ा करके चर्चा करें। अनुभव, ज्ञान और सबक क्रमशः क्या हैं? ये किस प्रकार के लोगों के पास होते हैं? किस प्रकार के लोग इनसे लैस होना पसंद करते हैं? किस प्रकार के लोग स्वयं को सत्य के बजाय इन चीजों से लैस करने पर जोर देते हैं? किस प्रकार के लोग इन चीजों को सत्य के रूप में लेते हैं? पहले, एक चीज सुनिश्चित है : इन लोगों की काबिलियत चाहे जो हो, और उनका बोध चाहे जैसा हो, उन्हें ज्ञान से अत्यधिक प्रेम होता है और ज्ञान के प्रति उनका प्रेम सत्य वास्तविकता के प्रति उनके प्रेम से बढ़कर होता है। परमेश्वर में अपने विश्वास में वे जिस लक्ष्य और दिशा का अनुसरण करते हैं, वह कुछ तथाकथित अनुभव और ज्ञान प्राप्त करने के लिए होता है। वे इस ज्ञान और अनुभव का उपयोग खुद को सशस्त्र और संपुष्ट करने के लिए करते हैं, ताकि वे और अधिक सुरुचिपूर्ण, और अधिक सजीले, और अधिक परिष्कृत तथा सम्म्मानित और आराध्य बनने कि लिए और अधिक सक्षम बन सकें। उन्हें लगता है कि इस ज्ञान और अनुभव के साथ उनका जीवन और अधिक मूल्यवान, और अधिक संतोषप्रद तथा और अधिक आत्मविश्वास से पूर्ण है। अपनी दृष्टि में, वे खुद को इस ज्ञान और धर्मशास्त्र तथा व्यावहारिक बुद्धि, ज्ञान और सबक से जुड़ी कहावतों से लैस करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे मानते हैं कि खुद को इन चीजों से लैस करके वे परमेश्वर के घर और लोगों के इस समूह में जगह पा सकते हैं। इसलिए, वे हर दिन अपने दिल में जिस बारे में सोचते हैं, जिसकी आराधना करते हैं, और जिसका पालन करते हैं, वह सब ज्ञान, अनुभव, आदि से जुड़ा हुआ है।
आओ पहले गौर करें कि ज्ञान, अनुभव और सबक के कौन-से प्रकार उपलब्ध हैं, और साथ ही इनमें से किन प्रकारों के लिए कहा जा सकता है कि ये सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं। पहले, यह निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि इन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं और सत्य के प्रतिकूल हैं। ये चीजें ऐसी हो सकती हैं जो लोगों की धारणाओं के अनुसार सही हैं, ऐसी चीजें हैं जो उनकी धारणाओं के अनुसार सकारात्मक, सुंदर और अच्छी हैं। लेकिन दरअसल, परमेश्वर की दृष्टि में, ये चीजें सत्य से संबंधित नहीं हैं और ये चीजें मूल रूप से लोगों द्वारा सत्य की निंदा का स्रोत भी हैं, लोगों द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध और उसके प्रति उनकी धारणाओं की जड़ और स्रोत हैं। अनुभव, ज्ञान और सबक—क्या ये चीजें प्राप्त करने वालों के बीच उम्र और लिंग का अंतर होता है? (नहीं, कोई अंतर नहीं है।) बहुत संभव है कि नहीं है। कुछ लोगों में गुण होते हैं। गुण क्या हैं? उदाहरण के लिए, किसी सिद्धांत या कहावत को सुनने और ऐसे सिद्धांत की केंद्रीय या मूल अवधारणा को समझ लेने के बाद कुछ लोगों का दिमाग तुरंत प्रतिक्रिया करता है। वे फौरन जान लेते हैं कि ऐसे सिद्धांत या कहावत को कैसे समझाएँ और उसे अपनी उस भाषा में कैसे बदलें जिसका वे दूसरों से बात करते समय प्रयोग करते हैं। इन चीजों को सुनने के बाद, वे उन्हें तुरंत याद कर लेते हैं; यह उनके अत्यधिक बोधगम्य होने के कारण नहीं है, बस उनकी स्मरणशक्ति ही उत्कृष्ट है, जोकि एक प्रकार का विशेष गुण है। क्या ऐसा कोई है जिसमें ऐसा गुण है? (बिल्कुल है।) ऐसे लोग हैं जो तुम्हारे कोई बात कहने के बाद, तुरंत उसका उपयोग करके किसी और चीज के बारे में निष्कर्ष निकाल सकते हैं। किसी विषय के एक पहलू के बारे में जानकारी प्रस्तुत करने पर वे दूसरे क्षेत्रों में उसे प्रयुक्त कर सकते हैं। वे विचार-विमर्श के विषय का उपयोग कर अपने स्वयं के विचार प्रस्तुत करने में बहुत अच्छे होते हैं। बाहरी मामलों और सिद्धांतों जैसी तार्किक और भाषाई चीजों के मामले में वे बहुत अच्छे होते हैं। यानी वे शब्द से खेलने में और दूसरों को फुसला कर विश्वास दिलाने में माहिर होते हैं। कुछ लोग होते हैं जिनमें इस प्रकार के गुण होते हैं। वे अत्यधिक वाक्पटु और काफी फुर्तीली सोच और प्रतिक्रियाओं वाले होते हैं। सत्य के किसी पहलू को सुन कर अपनी तुच्छ चालाकी और गुणों से वे सत्य के इस पहलू को ज्ञान और सबक का एक प्रकार समझ लेते हैं और फिर ऐसी सीख का उपयोग वे दूसरों से संगति करने और तथाकथित सिंचन और चरवाही का कार्य करने के लिए उपयोग करते हैं। इसका लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या इसके कुछ अच्छे नतीजे निकलते हैं? (नहीं, अच्छे नतीजे नहीं होते।) ऐसा क्यों है? (यह व्यावहारिक नहीं है, और इसको सुन कर लोगों के सामने अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होता है।) इन लोगों की बातें सुनने के बाद दूसरे लोग सोचते हैं कि उनकी कही हुई सारी बातें सही हैं, उनका एक भी शब्द गलत नहीं है, और एक भी शब्द सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं है—ये सब के सब सही हैं। लेकिन इन्हें अभ्यास में लाने पर उन्हें लगता है कि ये शब्द खोखले हैं, और अभ्यास करते समय कोई लक्ष्य या दिशा नहीं है, और इन शब्दों का अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। तो ये शब्द क्या हैं? (धर्म-सिद्धांत।) ये एक प्रकार के धर्म-सिद्धांत हैं, एक प्रकार का ज्ञान हैं। मसीह-विरोधियों की ऐसी अभिव्यक्तियाँ अत्यंत स्पष्ट और विशिष्ठ होती हैं। वे सत्य को ज्ञान के रूप में, शैक्षणिक चीज के रूप में, सिद्धांत के रूप में लेते हैं। चीजों को सिर्फ आधा-अधूरा समझ कर वे हमेशा माँग करते हैं कि दूसरे लोग अमुक-अमुक काम करें। जब दूसरे लोग नहीं समझते या उनसे विस्तार से समझाने को कहते हैं, तो मसीह-विरोधी लोग स्पष्ट रूप से समझा नहीं पाते बल्कि खंडन करते हुए उत्तर देते हैं : “तुम सत्य से प्रेम नहीं करते हो। यदि तुम सत्य से प्रेम करते तो तुम मेरी बात समझ जाते और तुम्हारे सामने अभ्यास का मार्ग होता।” यह सुनने के बाद, ऐसे लोग जो भ्रमित हैं और पहचान नहीं पाते, वे सोचते हैं, “सही है। यदि मैं वास्तव में सत्य से प्रेम करता तो उनकी बातों को समझ जाता।” जिन लोगों में पहचानने की क्षमता नहीं होती, उन्हें लगता है कि यह व्यक्ति जो कह रहा है वह सही है—वे सत्य नहीं समझते हैं। वे जिम्मेदारी खुद पर डाल लेते हैं, और इस तरह मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह हो कर वे अपना संतुलन खो बैठते हैं।
आओ, अब अनुभव के बारे में चर्चा करें। अनुभव एक लंबे दौर तक चीजों से गुजरकर निचोड़ा गया तरीका है। जिन लोगों ने दो दिन काम किया है, क्या उन्हें कोई अनुभव होता है? (नहीं होता है।) तो जिन्होंने दस-बीस वर्ष काम किया है, उन्हें अवश्य अनुभव होता है। कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें कई वर्ष कार्य करने का अनुभव है, और कुछ मामलों से सामना होने पर उन्हें क्या करना चाहिए, कुछ खास तरह के लोगों से उन्हें कैसे निपटना चाहिए, और किस प्रकार के लोगों से उन्हें किस प्रकार के धर्म-सिद्धांतों की बात करनी चाहिए, वे ये सब जानते हैं। परिणामस्वरूप जब एक दिन कुछ नया होता है जिसे वे नहीं जानते, तो वे पिछले 20 वर्षों के काम के लेखे-जोखे पर नजर दौड़ाते हैं, उस पर विचार करते हैं, और इन पुरानी कहावतों और अभ्यासों को अंधाधुंध तरीके से लागू कर देते हैं। जब वे इस प्रकार कार्य करते हैं, तो जो लोग सत्य नहीं समझते हैं वे अभी भी सोचते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह सत्य के अनुरूप है, जबकि सत्य समझने वाले लोग देखकर कहते हैं, “यह व्यक्ति आँखें मूँद कर कार्य कर रहा है। इसके कार्य में कोई सिद्धांत नहीं है; वह पूरी तरह से अनुभव के भरोसे है और वह परमेश्वर का इरादा नहीं समझता है, न ही वह समझता है कि कार्य किस तरह से करे कि परमेश्वर के घर के हितों की सुरक्षा हो और लोगों से पेश आने के परमेश्वर के घर के सिद्धांतों का पालन हो। वह विनियमों को आँखें मूँद कर लागू कर रहा है।” यहाँ एक समस्या है। यदि औसत व्यक्ति ने केवल थोड़े समय काम किया हो, तो शायद उसके पास यह कहने के लिए पूँजी न हो कि, “मेरे पास अनुभव है; मैं डरता नहीं हूँ। मैंने अनेक वर्षों तक कार्य किया है। ऐसा किस प्रकार का व्यक्ति है जिसे मैंने नहीं देखा है, और ऐसे कौन-से मामले हैं, जिनसे मैं नहीं निपटा हूँ?” लेकिन ये लोग यह कहने की हिम्मत करते हैं। भले ही तुम बहुत सारी चीजों और विभिन्न प्रकार के कुछेक लोगों से निपट चुके हो, फिर भी क्या तुम यह पक्का कर सकते हो कि तुम हर मामले से निपटने में और हर व्यक्ति के बारे में अपने नजरिये में सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर रहे हो? वास्तविकता में, यह चीज ऐसी नहीं है जिसकी गारंटी देने की तुम हिम्मत कर सको। लेकिन जो लोग अनुभव और रोजमर्रा को सत्य मानते हैं, वे किसी के आपत्ति उठाने पर कहते हैं, “मैं अनेक वर्षों से काम करता आ रहा हूँ। तुम जितने मार्गों पर चले हो, उनसे ज्यादा मैंने पुल पार किए हैं, फिर भी तुम मुझसे असहमत होने की हिम्मत करते हो? घर जा कर प्रार्थना करो, क्यों नहीं करते!” उनके सामने कोई भी हिम्मत नहीं करता कि “नहीं” कहे, भिन्न मत व्यक्त करे, या असहमति का एक शब्द कहे। यह कैसा व्यवहार है? यह सत्य को अनुभव मानना और खुद को सत्य का प्रतिरूप मानना है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं स्वयं को सत्य का प्रतिरूप नहीं मानताऐसी पदवी कौन धारण करना चाहेगा? केवल परमेश्वर ही सत्य है। मैंने कभी भी उस तरह से कार्य नहीं किया, न ही मैंने कभी ऐसा सोचा है।” व्यक्तिपरक ढंग से तुम उस तरह से नहीं सोचते हो, न ही वैसा करने का इरादा रखते हो। लेकिन वस्तुपरक ढंग से, तुम्हारे काम करने के तरीके, तुम्हारा व्यवहार, और तुम्हारे क्रियाकलापों का सार अंततः तुम्हारा उस व्यक्ति के रूप में चरित्र-चित्रण करते हैं जो स्वयं को सत्य का प्रतिरूप मानता है। तुम लोगों से अपने सुझावों का अक्षरशः पालन क्यों करवाते हो? यदि तुम स्वयं को परमेश्वर नहीं मानते, और तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो तो क्या तुम इस योग्य हो कि दूसरों से अपनी आज्ञा मनवाओ? (नहीं, मैं नहीं हूँ।) एक परिस्थिति में लोग तुम्हारी आज्ञा मान सकते हैं, और वह यह है कि तुम सत्य समझते हो—यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य समझता है। लेकिन फिर, भले ही तुम सत्य समझने वाले व्यक्ति हो, फिर भी तुम बस एक साधारण व्यक्ति ही हो, और क्या एक साधारण व्यक्ति सत्य का प्रतिरूप हो सकता है? (नहीं, वह नहीं हो सकता।) यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के बोले हुए सभी वचनों को और उन सभी सत्यों को समझ ले जिनको समझने की परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है तो क्या वह व्यक्ति सत्य का प्रतिरूप बन सकता है? (नहीं, नहीं बन सकता।) कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा शायद इस वजह से है क्योंकि वे पूर्ण नहीं बनाए गए हैं। पतरस एक पूर्ण बनाया गया व्यक्ति था। क्या पतरस को सत्य का प्रतिरूप कहा जा सकता है?” पूर्ण बनाए जाने से कोई सत्य का प्रतिरूप नहीं बन जाता, और जानते हो क्यों? (सार में अंतर होता है।) सार में अंतर होता है; यह इसका एक पहलू है। क्या मनुष्य सत्य का प्रतिरूप बन सकता है—यह एक ऐसा मामला है जिस पर हमें अवश्य विचार-विमर्श करना चाहिए। ऐसा क्यों कहा जाता है कि मनुष्य संभवतः सत्य का प्रतिरूप नहीं हो सकता? क्या सत्य का प्रतिरूप महज सार का प्रश्न है? कुछ लोग कहते हैं : “मनुष्य एक सृजित प्राणी के रूप में जन्म लेता है, और वह जो स्वर्ग में है वह सहज ही सृष्टिकर्ता है। हमें इस मामले के बारे में बहस करने की जरूरत नहीं है—परमेश्वर सदा ही सत्य का प्रतिरूप रहेगा। तो फिर क्या यह इस वजह से है कि मसीह सत्य समझता है और उसके पास यह सत्य है कि वह सत्य का प्रतिरूप है? यदि हमने परमेश्वर से सारे सत्य प्राप्त कर लिए हैं तो क्या हमें भी सत्य का प्रतिरूप कहा जा सकता है?” दूसरे लोग कहते हैं : “तुम्हें नहीं कहा जा सकता। मैं सोचता था कि जब लोग और अधिक सत्यों को समझ लेंगे तो वे मसीह बन सकेंगे, परमेश्वर बन सकेंगे। अब मैं जानता हूँ कि इस सार का स्थान कोई नहीं ले सकता, इसे बदला नहीं जा सकता।” उनकी समझ इस बिंदु पर पहुँच गई है। तो क्या तुम इस मामले को और अधिक समझने में सक्षम हो? जैसे ही तुम लोगों के साथ मेरी संगति पूरी हो चुकी होगी, वैसे ही तुम्हें यह मामला समझ में आ जाना चाहिए। जब हम सत्य के प्रतिरूप की बात करते हैं, तो आखिर यह “प्रतिरूप” क्या है? यह शब्द थोड़ा अस्पष्ट है, इसलिए आओ हम इसे सरलतम शब्दों में व्यक्त करें। परमेश्वर स्वयं सत्य है, उसके पास समस्त सत्य हैं। परमेश्वर सत्य का स्रोत है। प्रत्येक सकारात्मक वस्तु और प्रत्येक सत्य परमेश्वर से आता है। वह समस्त चीज़ों और घटनाओं के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में न्याय कर सकता है; वह उन चीज़ों का न्याय कर सकता है जो घट चुकी हैं, वे चीज़ें जो अब घटित हो रही हैं और भावी चीज़ें जो कि मनुष्य के लिए अभी अज्ञात हैं। परमेश्वर सभी चीज़ों के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में न्याय करने वाला एकमात्र न्यायाधीश है, और इसका तात्पर्य यह है कि सभी चीज़ों के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में केवल परमेश्वर द्वारा ही निर्णय किया जा सकता है। वह सभी चीज़ों की कसौटी जानता है। वह किसी भी समय और स्थान पर सत्य को व्यक्त कर सकता है। परमेश्वर सत्य का प्रतिरूप है, जिसका आशय यह है कि वह स्वयं सत्य के सार से युक्त है। भले ही मनुष्य अनेक सत्यों को समझता हो और परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया गया हो, फिर भी क्या उसका सत्य के प्रतिरूप से कुछ लेना-देना होता? नहीं। यह सुनिश्चित है। जब मनुष्य को पूर्ण बनाया जाता है, परमेश्वर के वर्तमान कार्य और परमेश्वर द्वारा मनुष्य से अपेक्षित बहुत-से मानकों के बारे में, तो वे अभ्यास की सही परख और अभ्यास के तरीकों के बारे में जान सकेंगे, और वे परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह से समझ सकेंगे। वे यह अंतर कर सकते हैं कि कौन-सी चीज परमेश्वर से और कौन-सी चीज मनुष्य से आती है, कि क्या सही है और क्या गलत है। पर फिर भी कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो मनुष्य की पहुँच से दूर और असपष्ट रहती हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा बताए जाने के बाद ही वह जान सकता है। क्या मनुष्य ऐसी चीजों को जान सकता है या उनके बारे में भविष्यवाणी कर सकता है जो परमेश्वर ने उसे अभी नहीं बताई हैं? बिलकुल नहीं। इसके अतिरिक्त, यदि मनुष्य परमेश्वर से सत्य को प्राप्त कर भी ले, और उसके पास सत्य वास्तविकता हो और उसे बहुत से सत्यों के सार का ज्ञान हो, और उसके पास ग़लत सही को पहचानने की क्षमता हो, तब क्या उसमें सभी चीज़ों पर नियंत्रण व शासन करने की क्षमता आ जाएगी? उनमें यह क्षमता नहीं होगी। परमेश्वर और मनुष्य में यही अंतर है। सृजित प्राणी केवल सत्य के स्रोत से ही सत्य को प्राप्त सकते हैं। क्या वे मनुष्य से सत्य प्राप्त कर सकते है? क्या मनुष्य सत्य है? क्या मनुष्य सत्य प्रदान कर सकता है? वह ऐसा नहीं कर सकता और बस यहीं पर अंतर है। तुम केवल सत्य ग्रहण कर सकते हो, इसे प्रदान नहीं कर सकते। क्या तुम्हें सत्यधारी व्यक्ति कहा जा सकता है? क्या तुम्हें सत्य का प्रतिरूप कहा जा सकता है? बिलकुल नहीं। सत्य का प्रतिरूप होने का वास्तव में क्या सार है? यह सत्य प्रदान करने वाला स्रोत है, सभी चीज़ों पर शासन और प्रभुता का स्रोत, और इसके अलावा यह वह एकमात्र कसौटी और मानक है जिसके अनुसार सभी चीज़ों और घटनाओं का आकलन किया जाता है। यही सत्य का प्रतिरूप है। मसीह-विरोधी अक्सर इस बात को स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। वे मानते हैं कि ज्ञान शक्ति है, अनुभव लोगों के शक्तिशाली बनने के लिए एक अस्त्र है, और जब लोगों के पास अनुभव, ज्ञान और ये सबक होते हैं, तो वे सभी चीजों को नियंत्रित कर सकते हैं। वे लोगों के भाग्य को नियंत्रित कर सकते हैं, उनके विचारों को नियंत्रित और प्रभावित कर सकते हैं, और लोगों के व्यवहार को भी प्रभावित कर सकते हैं। या कुछ लोग सोचेंगे कि ये चीजें लोगों को निर्देश दे सकती हैं, लोगों के मन बदल सकती हैं और लोगों के स्वभाव बदल सकती हैं। ये किस प्रकार के विचार हैं? (मसीह-विरोधियों के विचार।) ये मसीह-विरोधियों के विचार हैं। मानवजाति की नियति पर परमेश्वर संप्रभुता क्यों रख सकता है? परमेश्वर सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, और उसके वचन सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं। परमेश्वर का सार क्या है? उसका सार सत्य है, और इसी वजह से वह मानवजाति की नियति पर संप्रभुता रखने में सक्षम है। मसीह-विरोधी इस बात को स्वीकारना तो दूर रहा, उसे समझते या पहचानते भी नहीं हैं। वे लोगों की, ज्ञान की और समाज की चीजों को ही सत्य मानते हैं और उन चीजों को सत्य मानते हैं जिनका मानवजाति सम्मान करती है, और वे लोगों को गुमराह करने, नियंत्रित करने और कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच जगह पाने के लिए इन चीजों का उपयोग करने की कोशिश करते हैं। लोगों को गुमराह करने का उनका प्रयोजन क्या है? इन चीजों का अध्ययन कर उनसे स्वयं को लैस करने का उनका प्रयोजन क्या है? यह लोगों को ऐसा बनाना है कि वे उनकी आज्ञा मानें और उनकी बात सुनें। लोगों से अपनी बात मनवाने का उनका प्रयोजन क्या है? (उन्हें नियंत्रित करना।) सही है, उनका प्रयोजन उन्हें नियंत्रित करना है। इसका अर्थ है कि जब वे कुछ बातें कहेंगे तो लोग उनका पालन करेंगे और फिर वे उनके साथ हेरफेर कर सकेंगे, और वे लोग उनके साधन और दास बन जाएँगे। चूँकि लोग उनके दृष्टिकोणों और उनके तथाकथित अनुभवों, ज्ञान और सबक को स्वीकारते हैं, इसलिए फिर ये लोग उनकी आराधना करते हैं। क्या उनकी आराधना करने का अर्थ उनकी बात सुनना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) क्या उनकी बात सुनने का यह अर्थ नहीं है कि इन लोगों के साथ आसानी से हेरफेर की जा सकती है? क्या मसीह-विरोधी सफल नहीं हो गए हैं? (हाँ, बिल्कुल हो गए हैं।) जब एक बार कोई उनकी बात सुन लेता है, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि वे परमेश्वर से दूर कर दिए गए हैं? (हाँ, बिल्कुल यही अर्थ है।) इससे मसीह-विरोधी खुश हो जाते हैं; यही उनका प्रयोजन है। वास्तव में, अपने दिल की गहराई में, वे अनिवार्यतः स्पष्ट रूप से नहीं मानते कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं और वे ही सत्य हैं, लेकिन वे अवश्य ऐसा ही सोचते हैं और ऐसा ही करते हैं। वे क्यों इस तरह से सोचते और कार्य करते हैं? वे मानते हैं कि ज्ञान, अनुभव और जो कुछ भी उनके गुणों से आया है वह सही है, और वे इन चीजों का उपयोग लोगों को नियंत्रित करने और लोगों पर मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए करते हैं। उनका कुछ ज्ञान, अनुभव और सबक जाहिर तौर पर शैतानी शब्द हैं जो लोगों को बरगलाने के लिए होते हैं। कुछ के अपने कुचक्र होते हैं, धूर्त साजिशें होती हैं, और मन में छिपे हुए षड्यंत्र होते हैं, भले ही वे स्पष्ट न हों, और जो लोग इनकी असलियत नहीं समझ पाते वे गुमराह किए जाते हैं। गुमराह किए जाने के क्या नतीजे होते हैं? लोग परमेश्वर से बहुत दूर हो जाते हैं, और सत्य समझना बंद कर देते हैं, मानवीय ज्ञान, अनुभव और सबक को सत्य मान लेते हैं, और परमेश्वर के वचनों को दरकिनार कर देते हैं। लोग परमेश्वर के वचनों के बारे में बहुत अस्पष्ट हो जाते हैं, पर वे इस ज्ञान और अनुभव की बड़ी परवाह करते हैं और उसे सम्मान देते हैं, यहाँ तक कि उसका अभ्यास करने और उसे लागू करने के लिए मेहनत करते हैं। यही मसीह-विरोधियों के क्रियाकलापों का प्रयोजन है। यदि उनमें लोगों को हेरफेर करने, लोगों को नियंत्रित करने और उन्हें आज्ञाकारी बनाने की ऐसी महत्वाकांक्षा न होती, तो क्या वे स्वयं को इन चीजों से लैस करते? वे इस दिशा में कोई प्रयास नहीं करते। उनका एक लक्ष्य है; उनके प्रयोजन की भावना अत्यंत स्पष्ट है। यह स्पष्ट प्रयोजन क्या है? (लोगों को नियंत्रित करना।) यह लोगों को नियंत्रित करने के लिए है। चाहे वे लोगों के एक पूरे समूह को नियंत्रित करें या उनके एक हिस्से को, क्या सैद्धांतिक आधार के बिना वे किसी को भी नियंत्रित करने में सक्षम होंगे? उन्हें पहले विचारों और सिद्धांतों का एक ऐसा संग्रह पाना होगा जो लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, लोगों की पसंद के अनुरूप हो, और फिर उसे लोगों के बीच फैलाने के लिए उन्हें हर संभव साधनों का उपयोग करना होगा। इसका अर्थ है लोगों की बुद्धि भ्रष्ट करना, उन पर मनोवैज्ञानिक कार्य करना, उनके मन में निरंतर अपने विचार बैठाना, और निरंतर लोगों को इन विचारों और दृष्टिकोणों को सुनने, इनसे परिचित होने, और इन्हें स्वीकारने को तैयार करना। दरअसल, लोगों को निष्क्रिय रूप से एक विचारधारा में शिक्षित किया जा रहा है और निष्क्रिय रूप से उनकी बुद्धि भ्रष्ट की जा रही है, और वे अनजाने ही इन नजरियों को स्वीकार लेते हैं। चूँकि लोगों में सही और गलत में भेद करने की भीतरी क्षमता नहीं होती, सत्य समझने से पहले उनमें इन चीजों का प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं होती—उनके भीतर इसके लिए कोई रोग-प्रतिरोधक पिंड नहीं होते हैं। जब लोग इन भ्रांतिपूर्ण नजरियों को स्वीकार लेते हैं, तो वे तुरंत इनकी गिरफ्त में आ जाते हैं। “गिरफ्त में आ जाने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि इन नजरियों को स्वीकारने के बाद लोग ज्यादा-से-ज्यादा इस बात को मानने पर दृढ़ हो जाते हैं कि ये चीजें सही हैं और वे स्वयं को और दूसरों को विश्वास दिलाने के लिए इन नजरियों का निरंतर उपयोग करते हैं। उन्हें गुमराह और नियंत्रित किया गया है, और शैतान जब लोगों को गुमराह करता है तो इसी तरह अपना लक्ष्य प्राप्त करता है।
कुछ लोग जिन्होंने दुनिया में कुछ विशेष पेशेवर कौशल सीखे हैं, या जिन लोगों का समाज में एक विशेष सामाजिक रुतबा है, परमेश्वर के घर में आने के बाद उनके पास एक सामान्य विचार होता है, जो उन्हें एक आम अभिव्यक्ति देता है। यह विचार क्या है? वे स्वयं को समाज का अभिजात वर्ग मानते हैं। अभिजात वर्ग क्या होता है? यह उन लोगों का वर्ग है जो भीड़ से अलग दिखते हैं। उन्होंने कुछ विशेष उच्च शिक्षा प्राप्त की होती है, और उनकी प्रतिभाएँ, काबिलियत और गुण बाकी लोगों से बेहतर होते हैं। बाकी लोगों से बेहतर होने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि लोगों के एक समूह में, उनकी सोच, विवेक और वाक्पटुता असाधारण होती है, और उनमें कुछ विशेष चीजों और कौशल को समझने की विशिष्ट क्षमता होती है। इसे बाकी लोगों से बेहतर होना कहते हैं, और इन लोगों को समाज का अभिजात वर्ग कहा जाता है। प्रत्येक देश इस प्रकार के लोगों को आगे बढ़ाता है। उनको आगे बढ़ाने का प्रयोजन क्या है? देश का तेजी से विकास करना। जब ऐसे लोग विभिन्न पदों पर समर्पित हो कर कार्य करते हैं, तो जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास को गति मिलती है। समाज में ऐसे लोगों का रुतबा ऊँचा होता है या नीचा? (ऊँचा।) निश्चित रूप से उनका साधारण रुतबा नहीं होता। उनमें कुछ विशिष्ट प्रतिभाएँ होती हैं, उन्होंने कुछ विशेष ज्ञान सीखा होता है, और उन्होंने कुछ विशेष शिक्षा प्राप्त की होती है। उनकी काबिलियत, प्रतिभाएँ, और सीखा हुआ ज्ञान साधारण लोगों की अपेक्षा ऊँचा होता है। यदि ये लोग कलीसिया में आएँ, तो उनकी मानसिकता क्या होती है? उनका पहला विचार क्या होता है? पहले, वे सोचते हैं : “एक कमजोर भालू भी हिरण से शक्तिशाली होता है। हालाँकि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मैं सांसारिक चीजों के पीछे नहीं भागता या प्रसिद्धि का आनंद नहीं लेता, लेकिन मैंने जो विशेष शिक्षा प्राप्त की है, ज्ञान सीखा है, और प्रतिभाएँ प्राप्त की हैं, उन्हें देखते हुए मुझे तुम लोगों के बीच अगुआ बनना चाहिए। परमेश्वर के घर में, मुझे ही मुख्याधार और स्तंभ होना चाहिए। मुझे ही वह व्यक्ति होना चाहिए जो अगुआई और मार्गदर्शन करे।” क्या वे ऐसा नहीं सोचते? यह सोच किस बात पर आधारित है? यदि वे एक दीन-हीन किसान होते, तो क्या वे इस तरह सोचने की हिम्मत करते? (वे नहीं करते।) क्यों नहीं? (उनके पास पूँजी नहीं होती।) ऐसा सोचने के लिए उनके पास पूँजी नहीं होती। तो किस प्रकार के लोग ऐसा सोच सकते हैं? वे सभी ऐसे लोग हैं जिनके पास विशेष ज्ञान, प्रतिभाएँ, गुण और तथाकथित काबिलियत हैं। जब वे परमेश्वर के घर आते हैं, तो सोचते हैं : “मैं अब सांसारिक चीजों के पीछे नहीं भागता हूँ। दुनिया बहुत बुरी है, इसलिए मैं इसके बजाय परमेश्वर के घर आ कर वहाँ अनुसरण करूँगा। परमेश्वर के घर में, कम-से-कम मैं एक अगुआ या कार्यकर्ता का पद प्राप्त कर सकूँगा।” क्या वे अच्छे इरादे पालते हैं? (नहीं पालते।) वे अच्छे इरादे क्यों नहीं पालते? जो चीजें उन्होंने सीखी हैं और उनका सामाजिक रुतबा, उन्हें भयंकर हानि पहुँचाते हैं। यदि वे सत्य का अनुसरण न करें, तो वे जीवन भर ऐसे पद से कभी नीचे नहीं आएँगे। उन्हें हमेशा लगेगा कि वे बादलों के बीच हैं, लेकिन दरअसल, परमेश्वर की दृष्टि में वे किसी भी साधारण सृजित प्राणी से बिल्कुल अलग नहीं हैं। वे खुद को हमेशा बादलों के बीच रखेंगे। क्या यह खतरनाक नहीं है? यदि वे गिर गए, तो वे बड़ी जोर से गिरेंगे, और उनका जीवन खतरे में पड़ सकता है! ऐसे लोगों को क्यों लगता है कि उनका रुतबा ऊँचा होना चाहिए, उनकी आराधना की जानी चाहिए, उनके आसपास अनेक लोगों को घूमते रहना चाहिए, सभी चीजों में उनकी सलाह ली जानी चाहिए, उनकी राय सुनी जानी चाहिए, और हर चीज में सबसे पहले उनके बारे में सोच कर उन्हें सबसे पहले रखना चाहिए? वे इतने सारे “चाहिए” के बारे में क्यों सोचते हैं? क्योंकि वे अपने सामाजिक रुतबे, ज्ञान, और अपनी सीखी हुई विशेष चीजों को बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। वे सोचते हैं, “चाहे जितना अधिक या जितना भी ऊँचा सत्य क्यों न बोला जाए, मेरी ये चीजें अभी भी मूल्यवान हैं; ये सत्य से अधिक मूल्यवान हैं और सत्य इनका स्थान नहीं ले सकता। समाज में, मैं एक कंपनी का मालिक हूँ। मैं हजारों लोगों का प्रबंध करता हूँ। मेरे हाथ हिलाते ही सबको मेरी बात सुननी पड़ती है। मेरे पास ऐसी विशाल शक्ति है—तो जरा सोच लो मैं किस प्रकार का पद और रुतबा संभालता हूँ! परमेश्वर के घर के इन छोटे लोगों के बीच, मुझसे ऊँचे कितने लोग हैं? जब मैं आसपास देखता हूँ तो मुझे ज्यादा विशेष लोग नजर नहीं आते। यदि मुझे उनका प्रबंध करना हो तो यह कोई समस्या नहीं होगी; यह कोई बड़ी बात नहीं होगी!” मान लो कि तुम उन्हें बताते हो : “ठीक है। अच्छी बात है कि तुम यह महत्वाकांक्षा रखते हो। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा, मैं तुम्हें कलीसिया का एक अगुआ बनाए जाने के लिए सिफारिश करूँगा। तुम इन लोगों को परमेश्वर के समक्ष लाओ, ताकि वे जान लें कि परमेश्वर के वचनों को कैसे पढ़ें और सत्य को कैसे अभ्यास में लाएँ, और तुम कमजोर, निराश और अपना कर्तव्य न करने वालों को प्रोत्साहित करो।” वे कहेंगे : “बड़ा आसान है। जब मैं कारोबार में था, तब मैंने वह पूरा मनोवैज्ञानिक कार्य किया था। यह ऐसा काम है जिसमें मैं निपुण हूँ।” जब कलीसिया के तीस से ज्यादा लोग उनके हाथों में सौंप दिए जाते हैं, तब क्या होता है? दो महीने से भी कम समय में, जो कमजोर थे वे और अधिक कमजोर हो जाते हैं, जो निराश थे वे और अधिक निराश हो जाते हैं, और सुसमाचार फैलाने वाले लोग लोगों को हासिल नहीं कर पाते। जो लोग परमेश्वर के वचन पढ़ने का तरीका नहीं जानते, वे सभा का वक्त होते ही उनींदे हो जाते हैं, और वे ऊपरवाले के धर्मोपदेश सुनना भी नहीं चाहते हैं। जब पूछा जाता है : “क्या तुम काफी काबिल नहीं हो?” तो वे कहते हैं : “हाँ, मैं मालिक था। मेरी काबिलियत जाहिर है!” दुनिया में तुम जिस प्रकार के भी मालिक हो, यह व्यर्थ है। यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, तो तुम कलीसिया का कार्य करने में आमजन हो। यदि इन लोगों को सुसमाचार कार्य का प्रभार लेने दिया गया, तो वे केवल व्यर्थ और सतही औपचारिकताओं में ही शामिल होंगे, उन्हें कोई नतीजे नहीं मिलेंगे, और दर्जनों लोगों वाली कलीसिया का सिंचन अच्छे ढंग से नहीं होगा। यहाँ क्या हो रहा है? ऐसे ज्ञानी लोग पहले कंपनियों के मालिक और समाज में अधिकारी हुआ करते थे, तो परमेश्वर के घर में आने पर वे अपने कौशल क्यों नहीं दिखा सकते? (पवित्र आत्मा उनका संरक्षण नहीं करता है।) पवित्र आत्मा उनका संरक्षण नहीं करता, यह एक पहलू है, लेकिन मुख्य कारण क्या है? वे सत्य नहीं समझते हैं, इसलिए जब लोगों की अवस्थाओं, उनके भ्रष्ट स्वभावों, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों, और परमेश्वर के बोलने के तरीके की बात आती है, तो उनमें आध्यात्मिक समझ का अभाव होता है, और इन चीजों के साथ जो घट रहा है उसकी असलियत नहीं समझ पाते और वे बस आँखें मूँद कर सतही ढंग से कार्य करते हैं। वे सोचते हैं कि कलीसिया का कार्य दुनिया में कोई कारोबार चलाने जैसा है, और जब तक वे लोगों को प्रेरित करते रहते हैं और उनका जोश बढ़ाते रहते हैं, तब तक लोग बढ़िया काम करते रहेंगे। वे सोचते हैं कि उन्हें एक लिहाज से मनोवैज्ञानिक कार्य करना चाहिए और एक दूसरे लिहाज से दुनिया की चीजों से निपटने के स्थापित तरीकों का बढ़िया उपयोग करना चाहिए, अपने से ऊपर के लोगों को रिश्वत देने और अपने से नीचे के लोगों को खरीदने की कोशिश करनी चाहिए। वे मानते हैं कि अगर तुम यह सुनिश्चित कर दो कि लोगों को पैसा मिले, तो वे तुम्हारी बात सुनेंगे और तुम्हारे पीछे चलेंगे—वे सोचते हैं कि यह बस इतना सरल है। बाहरी चीजों में सत्य शामिल नहीं होता। परमेश्वर में विश्वास रखने में, हर काम में सत्य और स्वभाव परिवर्तन शामिल होते हैं। क्या उनके द्वारा बाहरी दुनिया में उपयोग किए गए तरीकों का यहाँ उपयोग करना कारगर होगा? (नहीं।) इससे काम नहीं चलेगा। जब लोगों की अवस्थाओं और कमजोरियों से निपटने, उन्हें अच्छी तरह सहारा देने, परमेश्वर को ले कर लोगों की धारणाओं से निपटने, भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने पर लोगों को स्वयं को जानने देने, और लोगों को ईमानदार बनाने के तरीकों की बात आती है, तो उन्हें कुछ पता नहीं होता और वे बकवास भी करते हैं और आँखें मूँद कर विनियम थोप देते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति अनाड़ियों जैसी और बिना आध्यात्मिक समझ के बात कहता है, तो वे कहेंगे कि यह व्यक्ति कमजोर काबिलियत वाला है और सत्य का अनुसरण नहीं करता। वे बस आँखें मूँद कर विनियम लागू करते हैं, और वे हर तरह से तब तक ऐसा करते हैं जब तक दूसरों के सामने आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं रहता, वे उन्हें बाधित और हतोत्साहित करते हैं। जो लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, उनमें अब इसके लिए ऊर्जा नहीं होती, जबकि जो लोग निराश होते हैं, वे और अधिक निराश हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यदि ऐसा व्यक्ति कलीसिया की अगुआई करता हो, तो उनके लिए परमेश्वर के वचन घर पर पढ़ना बेहतर होगा। ऐसा किस कारण से हुआ? जब वे कलीसिया की अगुआई करते हैं, तो वे लोगों को हतोत्साहित करते हैं, जिससे लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखना चाहते हैं। लोग विश्वास क्यों नहीं रखना चाहते हैं? इस वजह से कि मूल रूप से लोगों की दृष्टि स्पष्ट थी, लेकिन इस व्यक्ति के क्रियाकलाप उन्हें बाधित और भ्रमित करते हैं। शुरुआत में इन लोगों के दिलों में कोई सत्य नहीं थे—उन्हें केवल धर्म-सिद्धांतों की समझ थी। इस व्यक्ति द्वारा बाधित होने के बाद, वे और अधिक भ्रमित हो जाते हैं, और अब पवित्र आत्मा के कार्य को समझ नहीं पाते। स्वयं परमेश्वर का अस्तित्व भी थोड़ा अस्पष्ट हो जाता है। तो लोगों को इस मुकाम तक लाने के लिए वे किस तरह के तरीकों का उपयोग करते हैं? उदाहरण के लिए, क्या यह कथन “मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया” सत्य है? (बिल्कुल।) तुम्हें इस कथन को सिद्ध करने के लिए अपनी असली अंतर्दृष्टि, समझ और अनुभव का उपयोग करना चाहिए ताकि भाई-बहन और अधिक दृढ़ता से मान सकें कि यह कथन सत्य और सही है और उन्हें विश्वास हो जाए कि मानवजाति परमेश्वर से आई, और इस तरह से परमेश्वर में उनकी आस्था बढ़े। एक बार जब व्यक्ति को परमेश्वर में आस्था होती है, तो जब वे अनुशासन स्वीकारते हैं या कोई कठिनाई या उत्पीड़न सहते हैं तो उनके दिलों में शक्ति होगी। यह एक तथ्य है। लेकिन ये लोग क्या कहते हैं? “एक टीवी कार्यक्रम है जिसके अनुसार यह खोजा गया है कि 10 करोड़ वर्ष पहले इंसान जनजातियों में रहते थे।” जब वे अपने ज्ञान का दिखावा कर इतिहास के बारे में ऐसी बातें करते हैं, तो जो भी उनकी बात सुनता है वह भ्रमित हो जाता है : “क्या यह नहीं कहा गया है कि मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया? जब तुम इसे इस तरह से व्यक्त करते हो तो यह ऐसा नहीं लगता। क्या मनुष्य बंदरों से आया?” देखो, वे लोगों को कहाँ ले गए हैं? क्या यह लोगों को हानि पहुँचाना नहीं है? (बिल्कुल है।) जब भी मौका मिलता है, वे अपने ज्ञान का दिखावा करते हैं, और इतिहास, फलसफे के बारे में बताते हैं, यह बताते हैं कि वे दुनिया में सरकारी अधिकारियों से कैसे निपटते हैं, सांठ-गाँठ कैसे करते हैं, और इन चीजों का दिखावा करते हैं। जब वे इस तरह दिखावा करते हैं, और कुछ भाई-बहन जो आध्यात्मिक कद में छोटे हैं, कमजोर हैं, और जिनकी आस्था कम है, जब वे ये बातें सुनते हैं तो उनके दिल किस ओर रुख करते हैं? (संसार की ओर भागते हैं।) सही है। यह किस चीज के बराबर है? ये लोग जो उन्हें सौंपे गए थे, उन्हें उनके द्वारा जब्त कर लिया गया है। वे स्पष्ट रूप से आमजन हैं। न सिर्फ वे जीवन-प्रवेश के मामले नहीं समझते हैं, बल्कि वे यह भी नहीं समझते कि उनका काम क्या है, जीवन के आध्यात्मिक मामलों या स्वभाव परिवर्तन को समझना तो दूर की बात है। वे इनमें से किसी को भी नहीं समझते, फिर भी वे सत्य समझने का दिखावा करते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करने के लिए चरवाहा बनना चाहते हैं। क्या यह बेतुका नहीं है? यदि तुम जीवन के आध्यात्मिक मामलों को नहीं समझते हो, तो अगुआ के तौर पर चुने जाने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम कहते हो : “मैं एक जन सामान्य हूँ, और मैंने कभी कलीसिया की अगुआई नहीं की है। मुझे खोजना होगा और समझना होगा कि इस बारे में कार्य व्यवस्थाओं में क्या निर्धारित किया गया है, और इसे लागू करने के बारे में संगति करने के लिए ऐसे लोगों को ढूँढ़ना होगा जो इसे समझते हों, या उन भाई-बहनों को ढूँढ़ना होगा जो सत्य समझते हों, और उनके साथ समन्वय करना होगा।” क्या यह सही रवैया है? (बिल्कुल।) लेकिन कुछ लोग यह नहीं करते हैं। वे घमंड दिखाते हुए कहते हैं, “तुम चाहते हो कि मैं दूसरों के साथ समन्वय करूँ—मुझसे ज्यादा वरिष्ठ योग्यताएँ किसके पास हैं? मुझसे ऊँचा सामाजिक रुतबा किसका है? मैं समाज में काफी प्रसिद्ध हूँ। जो भी मुझसे मिले उसे मुझे थोड़ा आदर देना चाहिए।” वे बस डींग हाँकते हैं और अपनी काबिलियतों का दिखावा करते हैं। जब वे ऐसी किसी कलीसिया की अगुआई करते हैं, तो क्या तब भी भाई-बहनों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश की उम्मीद होती है? (उन्हें नहीं होती।) उन्हें उम्मीद नहीं होती। और भले ही स्थिति ऐसी हो, ये लोग अभी भी दूसरों से हर चीज के बारे में सूचना लेते हैं। ये दानव थोड़े वक्त के लिए यूनिवर्सिटी गए थे, और उन्हें थोड़ा ज्ञान है, और नतीजतन वे लौकिक समाज में अकड़ दिखाने, ठगने, और हर तरह की बुरी चीजें करने की हिम्मत करते हैं। उनके पास जीवित रहने के कुछ साधन हैं, इसलिए कुछ हासिल करने के लिए वे परमेश्वर के घर आना चाहते हैं। अपने पूर्वजों के लिए गौरव लाने और रुतबा प्राप्त करने के लिए वे सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा भी करना चाहते हैं ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनकी बात सुनें और उनके पीछे चलें। उनके लिए “सत्य का प्रतिरूप” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है, “तुम लोगों को मेरे सभी विचारों, दृष्टिकोणों और राय को सत्य मान कर सम्मान देना चाहिए। मैंने तुम्हारे लिए एक नियम तय किया है : तमाम बिल, भले ही वे पाँच डॉलर से नीचे के हों, उनकी सूचना मुझे देनी होगी।” दूसरे लोग कहते हैं : “पाँच डॉलर की सूचना देना जरूरी नहीं होनी चाहिए। हमारे पास भी अधिकार का एक दायरा है। क्या हम सिर्फ सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं कर सकते हैं?” वे क्या सोचते हैं? “ऐसा कैसे ठीक हो सकता है? यह एक बहुत बड़ी बात है। मैं अगुआ हूँ। सिर्फ मेरा ही निर्णय अंतिम निर्णय होता है!” हालाँकि वे यह नहीं कहते, मगर वे अपने दिलों में ऐसा ही सोचते हैं। वे लोगों को इसी तरह नियंत्रित करते हैं। वे कुछ भी ऐसा कर सकते हैं जो बुरा है या जो दूसरों को धोखा देता है। जब वे दूसरों को धोखा देते हैं और उन्हें हानि पहुँचाते हैं, तो वे पलक भी नहीं झपकते, उनके दिल की धड़कन नहीं रुकती, और वे भीतर से बिल्कुल बेचैनी महसूस नहीं करते हैं। परमेश्वर के घर में पद मिलने पर वे उसे लेने की हिम्मत करते हैं। एक बार वह पद ले लेने के बाद, वे छोड़ना नहीं चाहते और वे दूसरों से अपनी आज्ञा का पालन करवाने के लिए खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाते हैं। क्या ऐसे लोग अस्तित्व में हैं? (बिल्कुल हैं।)
कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं पर उसके लिए स्वेच्छा और खुशी से परिश्रम नहीं करते हैं, बल्कि अनिच्छा से अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे आशीष प्राप्त करने के लिए ही श्रम करने के बारे में सोचते हैं, मगर सत्य की दिशा में प्रयास करने को तैयार नहीं होते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के समय, वे अक्सर लापरवाही से कार्य करते हैं, और सावधान नहीं रहते, और सिर्फ थोड़े-से नतीजे हासिल करके संतुष्ट हो जाते हैं, ताकि वे निकाले न जाएँ। लेकिन चाहे लोग परमेश्वर में सच्चे मन से विश्वास रखें या नहीं, और उसके लिए खुद को खपाएँ या नहीं, वह लोगों को प्रायश्चित्त करने का अवसर देता है। परमेश्वर इस कारण से तुम्हारी निंदा नहीं करेगा कि तुम सत्य नहीं समझते हो या अपना कर्तव्य निभाते समय लापरवाही से काम करते हो। परमेश्वर यह देखने के लिए निरंतर तुम्हारी जाँच-पड़ताल करेगा कि क्या तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, क्या तुम वास्तव में प्रायश्चित्त कर सकते हो और क्या तुम सही जीवन मार्ग पर कदम रख सकते हो। यह तुम्हारे चुनने के तरीके पर निर्भर करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य निर्वहन शुरू करते समय कोई भी सत्य नहीं समझते थे, लेकिन चूँकि वे अक्सर धर्मोपदेश सुनते हैं, और अक्सर सभा करके संगति करते हैं, इसलिए वे धीरे-धीरे सत्य समझने लगते हैं। उनके दिल और अधिक उजले हो जाते हैं और वे समझ जाते हैं कि उनमें काफी कमी है, उनके पास जरा भी सत्य नहीं है, और उनके कर्तव्य निर्वहन में उनके पास कोई सिद्धांत नहीं है, वे बस अपनी मर्जी से कुछ कार्य करते हैं। उन्हें लगता है कि उनका इस तरह कर्तव्य निभाना परमेश्वर के इरादों के अनुसार नहीं है, और उनके दिल पछतावे से भर जाते हैं। वे सत्य के लिए प्रयास करने लगते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय अधिक बेहतर नतीजे हासिल करते हैं। बस इसी तरह, एक लिहाज से, वे जीवन प्रवेश प्राप्त करते हैं, और दूसरे लिहाज से, वे धीरे-धीरे अपने कर्तव्य निर्वहन में योग्य हो जाते हैं। ये वे लोग हैं, जो अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य स्वीकार सकते हैं। जैसे-जैसे सत्य की उनकी समझ धीरे-धीरे अधिक स्पष्ट होती जाती है, वे अपनी खुद की भ्रष्टता के खुलासों को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। वे अपने दिलों में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, और परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं, अपनी भ्रष्टता त्यागने को तैयार हो सकते हैं, सत्य अभ्यास में ला सकते हैं, और सत्य के अभ्यास के मार्ग पर कदम रख सकते हैं। कर्तव्य निर्वहन के दौरान जीवन का क्रमिक विकास यही है। जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान सत्य समझ लेते हैं, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हैं। यदि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो क्या ऐसा बदलाव हो सकता है? बिल्कुल नहीं। कुछ लोग खास तौर पर अहंकारी और दंभी होते हैं। जब वे परमेश्वर के घर आते हैं, खास तौर से अपना कर्तव्य निभाने के बाद, तो इसकी सीमा स्पष्ट हो जाती है। दोनों हाथ सीने पर बाँधकर, या हाथों को कमर पर रखकर वे अवज्ञा और असंतोष का प्रदर्शन करते हैं। वे इतने अधिक अहंकारी क्यों हैं? वे अपने दिलों में कहते हैं : “परमेश्वर में विश्वास रखकर अपना कर्तव्य निभाने के लिए, मैंने दुनिया, अपना परिवार, और अपना काम त्याग दिया है। क्या यह कीमत ज्यादा नहीं है? मैंने परमेश्वर के लिए बहुत अधिक त्यागा है। क्या परमेश्वर को मुझे कुछ मुआवजा नहीं देना चाहिए? इसके अलावा, समाज में मेरा रुतबा और आमदनी देख कर क्या परमेश्वर के घर को मुझसे कम-से-कम उसी तरह पेश नहीं आना चाहिए? अब चूँकि मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, क्या परमेश्वर मुझ पर कोई विशेष कृपा नहीं कर सकता? मैं साधारण लोगों से काफी बेहतर एक विशेष प्रतिभावान व्यक्ति हूँ। परमेश्वर के घर में मेरा रुतबा होना चाहिए। यदि दूसरे लोग अगुआई कर सकते हैं, तो मैं भी अगुआई कर सकता हूँ। मेरा रुतबा दूसरे लोगों से कम नहीं होना चाहिए, और मुझे साधारण लोगों से बेहतर व्यवहार मिलना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या परमेश्वर मुझे आश्वस्त कर सकता है कि मुझे भविष्य में आशीष मिलेंगे और अच्छी मंजिल मिलेगी?” उनके दिलों के विचारों से हम समझ सकते हैं कि वे ईमानदारी से परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने नहीं बल्कि उससे एक सौदा करने आए हैं। वे उसी तरह से सोचते हैं जैसे पौलुस ने सोचा था, परमेश्वर के आशीषों के बदले में अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा करना। लेकिन उनका विवेक पौलुस के विवेक के मुकाबले बहुत बदतर है—यह पौलुस के विवेक से अत्यंत घटिया है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इस कारण से कि पौलुस ने सुसमाचार फैलाने के अनेक वर्षों के दौरान सचमुच बहुत कष्ट सहे, और सुसमाचार फैलाने के उसके फल साधारण लोगों की अपेक्षा काफी बेहतर थे। कम-से-कम उसने अधिकाँश यूरोप में अपने कदमों की छाप छोड़ी; उसने पूरे यूरोप में कई कलीसियाएँ स्थापित कीं। इस लिहाज से, साधारण मसीह-विरोधी अपनी तुलना पौलुस के विवेक या उसके श्रम की मात्रा से नहीं कर सकते। लेकिन जिस व्यक्ति का मैंने अभी जिक्र किया वह बस अपना कर्तव्य निभाते ही बेहद अहंकारी हो जाता है। क्या यह विवेक का अत्यधिक अभाव नहीं दर्शाता है? वे बेहद अविवेकपूर्ण होते हैं, और एक डाकू की तरह आशीष प्राप्त करने का अवसर झपट लेने के बाद उसे त्याग नहीं सकते हैं। ऐसे लोग हमेशा जान-बूझकर परमेश्वर के घर में प्रसिद्धि पाने के अवसर ढूँढ़ते रहते हैं, भले ही वह किसी टीम का अगुआ बनाना हो या कोई पर्यवेक्षक। संक्षेप में कहें तो जब वे परमेश्वर के घर में आते हैं तो वे एक साधारण अनुयायी बनने को तैयार नहीं होते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन यह स्वीकार कर सकता है कि वे साधारण सृजित प्राणी हैं, दूसरे सभी सृजित प्राणियों की तरह वे भी बस एक साधारण सृजित प्राणी हैं, फिर भी वे कभी भी इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करेंगे—वे कभी भी खुद के साथ इस तरह गलत नहीं होने देंगे। वे मानते हैं कि उनके साथ विशेष व्यवहार होना चाहिए, और परमेश्वर को उन्हें विशेष अनुग्रह और आशीष देने चाहिए। वे परमेश्वर के घर में रुतबे के विशेष लाभ भी पाना चाहते हैं। वे परमेश्वर के घर को उनकी प्रतिभाओं पर संदेह नहीं करने देते, और वे लोगों को उनके काम के बारे में पूछने तो बिल्कुल भी नहीं देते—सबके मन में उनके प्रति पूर्ण आस्था होनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग दिया है, और वे उसके प्रति पूरी तरह निष्ठावान हैं। क्या यह एक अनुचित अनुरोध नहीं है? क्या इस व्यक्ति में कोई विवेक है? ऐसे लोग कितने हैं? कलीसिया के कितने प्रतिशत लोग ऐसे हो सकते हैं? ऐसे लोग हमेशा सोचते हैं कि कि उनमें कुछ क्षमताएँ और प्रतिभाएँ हैं, इसलिए वे शेखी बघारते हैं कि वे बड़े मेधावी हैं। तो, इस तथाकथित प्रतिभा का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि वे बड़बोले हो सकते हैं, बहुत सारी अनर्गल बातें कह सकते हैं, जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं उसके आधार पर वे अपने बोलने का तरीका बदल सकते हैं, और साधारण लोगों की अपेक्षा छल-कपट में ज्यादा माहिर हो सकते हैं। वे मानते हैं कि यह प्रतिभा और क्षमता है, और वे इस क्षमता का उपयोग अकड़ दिखाने और झाँसा देने के लिए कर सकते हैं। सच्ची प्रतिभा का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है विशेष कौशल से युक्त होना। जब परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया, तो उसने विभिन्न प्रकार के लोगों को विभिन्न विशेषताएँ दीं। कुछ लोग साहित्य में अच्छे होते हैं, कुछ चिकित्सा में अच्छे, कुछ लोग कौशल सीखने में अच्छे होते हैं, कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान में, आदि-आदि। लोगों की विशेषताएँ उन्हें परमेश्वर द्वारा दी जाती हैं, और इसमें शेखी बघारने की कोई बात नहीं है। किसी के पास चाहे जैसी भी विशेषताएँ हों, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सत्य समझता है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है। लोगों में कुछ खास विशेषताएँ होती हैं, और यदि वे परेश्वर में विश्वास रखते हैं तो उन्हें इन विशेषताओं का उपयोग अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए करना चाहिए। यह परमेश्वर को स्वीकार्य होता है। किसी विशेषता के बारे में शेखी बघारना या परमेश्वर से सौदे करने के लिए इसका उपयोग करने की चाह रखना—यह विवेक का अत्यधिक अभाव दर्शाता है। परमेश्वर ऐसे लोगों पर कृपा नहीं करता है। कुछ लोग कोई विशेष कौशल जानते हैं, और इसलिए जब वे परमेश्वर के घर आते हैं तो उन्हें लगता है कि वे दूसरे लोगों से बेहतर हैं, वे विशेष व्यवहार का आनंद लेना चाहते हैं, और उन्हें लगता है कि उनके पास जीवन भर के लिए सुरक्षित नौकरी है। वे इस कौशल को एक प्रकार की पूँजी के रूप में लेते हैं—कैसा अहंकार है! तो तुम्हें इन गुणों और विशेषताओं को किस दृष्टि से देखना चाहिए? यदि ये चीजें परमेश्वर के घर में उपयोगी हों तो ये तुम्हारे लिए सिर्फ अपना कर्तव्य निभाने के औजार हैं। इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे पास चाहे जितने भी गुण और विशेषताएँ हों, ये सिर्फ इंसानी विशेषताएँ हैं, और इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे गुणों और विशेषताओं का यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य समझते हो, और निश्चित रूप से उनका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य वास्तविकता से युक्त हो। यदि तुम अपने गुणों और विशेषताओं का उपयोग अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए करते हो तो उनका सही जगह उपयोग हुआ है और उनका उपयोग परमेश्वर द्वारा स्वीकृत है। लेकिन यदि तुम अपने गुणों और विशेषताओं का उपयोग दिखावा करने, अपनी गवाही देने, और एक स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए करते हो तो तुम्हारे पाप बहुत बड़े होंगे, और तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले एक गंभीर अपराधी बन जाओगे। गुण परमेश्वर द्वारा दिए जाते हैं। यदि तुम उनका उपयोग अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए नहीं कर सकते हो तो तुम अत्यधिक अविवेकपूर्ण होगे, तुममें समझ की कमी होगी, और तुम परमेश्वर के अत्यधिक ऋणी रहोगे—यह घोर विद्रोहीपन है! लेकिन तुम अपने गुणों और विशेषताओं का चाहे जितने अच्छे ढंग से उपयोग करो, इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांत के अनुसार कार्य करने का अर्थ है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। गुण और प्रतिभाएँ हमेशा गुण और प्रतिभाएँ ही रहती हैं। उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। तुम्हारे पास चाहे जितने भी गुण और प्रतिभाएँ हों, और तुम्हारी प्रतिष्ठा या तुम्हारा रुतबा चाहे जितना भी ऊँचा क्यों न हो, इसका यह अर्थ कभी नहीं होगा कि तुम्हारे पास सत्य वास्तवकिता है। गुण और प्रतिभाएँ कभी भी सत्य नहीं बनेंगी। उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मसीह-विरोधी इस तरह से नहीं सोचते हैं, और वे ठीक इन्हीं चीजों की बड़ी कद्र करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में अभिनय की प्रतिभा होती है। परमेश्वर के घर में फिल्माई गई किसी फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने के बाद, वे रौब दिखाने लगते हैं। उनके सजने-सँवरने में मदद करने वाले तीन लोग भी उनकी जरूरत पूरी करने के लिए काफी नहीं होते। वे साधारण व्यक्ति हुआ करते थे, लेकिन अब चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, इसलिए एक अभिनेता के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के बाद वे रौब झाड़ने लगते हैं। क्या वे मृत्यु को बुलावा नहीं दे रहे हैं? मेरे ख्याल से वे बस यही कर रहे हैं! वे शक्ल-सूरत में खास नहीं हैं, और उनके अभिनय कौशल औसत दर्जे के हैं। वे बस कुछ खास हिस्से के अभिनय के लिए ठीक हैं, इसलिए उन्हें एक और भूमिका दे दी जाती है—क्या यह उन्हें ऊपर उठाना नहीं है? अपना कर्तव्य निभाने का मौका दिए जाने पर वे रौब झाड़ते हैं। अभिनय करते वक्त वे लोगों को आदेश देते हैं कि वे चाय-पानी पिलाकर उनकी सेवा करें, जिससे देखने वाले सभी भाई-बहनों को गुस्सा आता है। मैंने कहा, “उन्हें कलीसिया से दूर कर दो!” और इसलिए कलीसिया ने उन्हें निकाल दिया। क्या इन लोगों को नहीं निकालना चाहिए था? उन्हें लगा कि उनके बिना कलीसिया फिल्में नहीं बना पाएगी, इसलिए उन्होंने रौब दिखाने की हिम्मत की। उन्हें इस परिणाम की उम्मीद नहीं थी। यह उनकी प्रकृति से प्रेरित था। ऐसे लोग ज्ञान, प्रतिभा, सीख और अनुभव को संजोते हैं। वे इन चीजों को बहुत महत्त्व देते हैं, लेकिन वे सबसे अनमोल चीज—सत्य—की अनदेखी करते हैं। उन्हें एहसास नहीं होता कि परमेश्वर के घर में सत्य का राज्य होता है। यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, तो उनका ज्ञान चाहे जितना ऊँचा, या उनकी वाक्पटुता चाहे कितनी भी बढ़िया क्यों न हो, वे टिक नहीं पाएँगे। देर-सवेर, उनका खुलासा हो जाएगा, और वे हटा दिए जाएँगे। क्या लोगों के लिए इस छोटे-से धर्म-सिद्धांत को समझना आसान है? जो लोग अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने पर भी इसकी असलियत नहीं समझ सकते, वे भ्रमित लोग हैं जिनका कोई भी मूल्य नहीं है। यदि वे थोड़े समझदार होते तो इतने अहंकारी नहीं होते। ऐसे लोग दानव और शैतान होते हैं, जो स्वयं से विश्वासघात करते हैं। अब, मैंने सीधे इस मामले की ओर इशारा किया ताकि तुम लोग भी इसे स्पष्ट रूप से समझ सको; ताकि तुम लोग इस मामले का भेद जान कर इसकी असलियत जान सको। यदि मैं स्पष्ट रूप से इसकी ओर इशारा न करता तो क्या तुम लोग इसे इस तरह से अलग देख पाते? क्या तुम लोग उन्हें निकाल देने में सक्षम हो पाते? लोग समस्या को नहीं देख सकते, इसलिए मुझे खरा होने की जरूरत है। यदि मैं खरा नहीं होता, तो समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। सिर्फ उन कुछ धर्म-सिद्धांतों पर भरोसा करके जिन्हें तुम लोग समझते हो, कोई भी समस्या हल नहीं की जा सकती।
मसीह-विरोधी हमेशा खुद को विशेष प्रतिभाओं से युक्त मानते हैं। वे सोचते हैं कि वे कॉलेज के स्नातक हैं, वे बहुत पढ़े-लिखे हैं, और उनके पास ज्ञान का भंडार है। वे अपने ज्ञान और सीखे हुए आध्यात्मिक सिद्धांतों को बहुत संजोते हैं, उनकी कद्र करते हैं, और इन चीजों को सत्य मानते हैं। इससे भी बढ़कर, वे इस ज्ञान और अनुभव को जिसे वे सही मानते हैं, अक्सर अपने आसपास के लोगों को निर्देश देने, गुमराह करने या शिक्षा देने के लिए प्रयोग करते हैं। खास तौर पर, वे अक्सर अपने “गौरवशाली” अतीत के बारे में बात करते हैं, जिसका उपयोग वे दूसरे लोगों को मनाने और विश्वास दिलाने और उनसे अपना सम्मान और आराधना करवाने के लिए करते हैं। और उनके ये “गौरवशाली” अतीत क्या हैं? उनमें से कुछ लोग कहेंगे : “पहले एक समय मैं एक यूनिवर्सिटी में व्याख्याता था। मेरे सभी छात्र स्नातकोत्तर या पीएच. डी. के छात्र थे। हर बार जब मैं व्याख्यान देता तो एक भी सीट खाली नहीं होती थी; प्रत्येक छात्र पूरी तरह शांत होकर बैठता था, अपनी आँखों में आदर और सराहना लिए मुझे देखता था। मैं घबराता भी नहीं था। वह सब कितना शानदार और प्रभावी था! मैं ऐसी प्रतिभा और ऐसे साहस के साथ पैदा हुआ था।” दूसरे लोग कहेंगे : “मैंने 14 वर्ष की उम्र में ही गाड़ी चलाना सीख लिया था। मैं अब 40 साल से भी ज्यादा समय से गाड़ी चला रहा हूँ और मेरा गाड़ी चलाने का कौशल बड़े ऊँचे दर्जे का है।” यह बता कर वे क्या जता रहे हैं? उनका अर्थ है : “तुम लोग कुछ ही दिनों से गाड़ी चला रहे हो। तुम क्या जानते हो? मुझ जैसा अनुभवी ड्राइवर पूरा जीवन गाड़ी चलाता रहा है। मुझे हर प्रकार का अनुभव है। भविष्य में, अगर तुम कोई चीज न समझ सको, तो तुम्हें मुझसे पूछना चाहिए। तुम्हें मेरी बात सुननी चाहिए।” किसी प्रकार के कौशल से युक्त होने पर मसीह-विरोधी अपने आपको विलक्षण मानते हैं, खुद को रहस्यमय दिखाते हैं, अपना दिखावा करते हैं और अपनी ही गवाही देते हैं, जिससे दूसरे लोग उनका सम्मान कर उनकी आराधना करते हैं। जब इस प्रकार के लोगों में थोड़ी-सी कोई खूबी या कोई गुण होता है, तो वे सोचने लगते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं और उनकी अगुआई करने की आकांक्षा पालते हैं। जब दूसरे लोग उनके पास जवाब के लिए आते हैं, तो मसीह-विरोधी उन्हें एक ऊँचे स्तर से व्याख्यान देते हैं, और इसके बाद भी यदि वे लोग न समझ पाएँ तो वे सिर्फ उनकी कमजोर काबिलियत को इसका कारण बताते हैं, हालाँकि वास्तविकता में, मसीह-विरोधी ही उन्हें स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं दे पाते हैं। उदाहरण के लिए, यह देखकर कि कोई किसी खराब मशीन की मरम्मत करने में असमर्थ है, एक मसीह-विरोधी कहेगा : “तुम यह अभी भी कैसे नहीं जान सकते कि इसे कैसे किया जाए? क्या मैंने पहले ही तुम्हें नहीं बताया है कि यह कैसे करना है? मैंने इतनी स्पष्टता से समझाया है, फिर भी तुम समझ नहीं पा रहे हो। तुम सचमुच कमजोर काबिलियत वाले हो। हर बार इसे करने के बारे में मेरे सिखाने पर भी तुम नाकामयाब रहते हो।” फिर भी जब वह व्यक्ति उनसे मशीन की मरम्मत करने को कहता है, तो इसे बड़े लंबे समय तक देखने के बाद भी वे नहीं जान पाते कि इसे कैसे ठीक करना है, और वे उस व्यक्ति से यह तथ्य भी छिपाएँगे कि उन्हें इसकी मरम्मत करना नहीं आता है। उस व्यक्ति को दूर भेज देने के बाद, मसीह-विरोधी चोरी-छिपे शोध करेंगे और यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि मशीन की मरम्मत कैसे की जाए, लेकिन वे अभी भी इसे ठीक नहीं कर पाएँगे। वे मशीन के पुर्जे अलग कर देंगे, बिल्कुल अस्त-व्यस्त कर देंगे, और उसे फिर से जोड़ नहीं सकेंगे। फिर, इस डर से कि कहीं दूसरे इसे देख न लें, वे पुर्जों को छिपा देंगे। क्या कुछ काम करना न आना कोई शर्मिंदगी की बात है? क्या कोई भी ऐसा है जो सारे काम कर सकता है? कुछ चीजें करना नहीं आना कोई शर्म की बात नहीं है। यह मत भूलो कि तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। कोई भी तुम्हें सम्मान नहीं देता या तुम्हारी आराधना नहीं करता। एक साधारण व्यक्ति बस एक साधारण व्यक्ति ही होता है। यदि तुम कोई काम करना नहीं जानते, तो बस कह दो कि तुम नहीं जानते कि इसे कैसे करते हैं। तुम अपना भेस बदलने की कोशिश क्यों करते हो? यदि तुम हमेशा भेस बदलोगे, तो लोग तुमसे चिढ़ जाएँगे। देर-सवेर, तुम्हारा खुलासा हो जाएगा, और उस वक्त, तुम अपना सम्मान और अपनी सत्यनिष्ठा खो दोगे। यह मसीह-विरोधी लोगों का स्वभाव है—वे खुद के बारे में हमेशा सोचते हैं कि वे हरफनमौला हैं, एक ऐसा व्यक्ति जो सारे काम कर सकता है, जो सभी चीजों में सक्षम और प्रवीण है। क्या यह उन्हें मुसीबत में नहीं डाल देगा? यदि उनका ईमानदार रवैया हो तो वे क्या करेंगे? वे कहेंगे : “मैं इस तकनीकी कौशल में प्रवीण नहीं हूँ; मुझे बस थोड़ा—सा अनुभव है। जो भी जानता हूँ, मैंने लगा दिया है, लेकिन ये जो नई समस्याएँ हमारे सामने आ रही हैं, मैं इन्हें नहीं समझ पा रहा हूँ। इसलिए, अगर हम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करना चाहते हैं तो हमें कुछ पेशेवर ज्ञान सीखना होगा। पेशेवर ज्ञान पर महारत हासिल करने से हम अपना कर्तव्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। परमेश्वर ने हमें यह कर्तव्य सौंपा है, इसलिए इसे अच्छे ढंग से करने की जिम्मेदारी हम पर है। हमें अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने के रवैए के आधार पर इस पेशेवर ज्ञान को सीखना होगा।” यह सत्य का अभ्यास करना है। मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति यह नहीं करेगा। यदि किसी व्यक्ति में थोड़ा विवेक है तो वह कहेगा : “मैं सिर्फ इतना ही जानता हूँ। तुम्हें मुझे सम्मान देने की जरूरत नहीं है, और मुझे रौब दिखाने की जरूरत नहीं है—क्या इससे चीजें आसान नहीं हो जाएँगी? हमेशा अपना भेस बदलते रहना दुखदाई होता है। अगर ऐसी कोई चीज है जो हम नहीं जानते तो हम साथ मिल कर इसे सीख सकते हैं और फिर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने के लिए सामंजस्यपूर्ण तरीके से कार्य कर सकते हैं। हमें जिम्मेदार रवैया अपनाना चाहिए।” यह देख कर लोग सोचेंगे, “यह व्यक्ति हम लोगों से बेहतर है; किसी समस्या से सामना होने पर वह आँखें मूँद कर जबरन अपनी हद पार नहीं करता, न ही वह इसे दूसरों को सौंप देता है, और न ही जिम्मेदारी से जी चुराता है। इसके बजाय वह इसकी जिम्मेदारी लेकर इसे एक गंभीर और जिम्मेदार रवैए के नजरिये से देखता है। वह एक नेक इंसान है जो अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति गंभीर और जिम्मेदार है। वह भरोसेमंद है। परमेश्वर के घर ने इस व्यक्ति को यह महत्वपूर्ण काम सौंप कर सही किया। परमेश्वर सच में लोगों के दिलों की गहराई से जाँच-पड़ताल करता है!” अपना कर्तव्य इस तरह से निभा कर वे अपने कौशल सुधारेंगे और सभी की स्वीकृति प्राप्त करेंगे। यह स्वीकृति कैसे मिलती है? पहले तो, वे अपने कर्तव्य को गंभीर और जिम्मेदार रवैए से देखते हैं; दूसरे, वे एक ईमानदार इंसान बनने में सक्षम होते हैं, और वे एक व्यावहारिक और परिश्रमी रवैया रखते हैं; तीसरे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और प्रबुद्धता प्राप्त है। ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर का आशीष मिलता है; यह वह चीज है जो जमीर और विवेक वाला कोई व्यक्ति हासिल कर सकता है। हालाँकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव होता है, कमियाँ और खामियाँ होती हैं, और वे बहुत-से काम करने के तरीके नहीं जानते, फिर भी वे अभ्यास के सही मार्ग पर हैं। वे अपना भेस नहीं बदलते या धोखा नहीं देते; अपने कर्तव्य के प्रति उनका एक गंभीर और जिम्मेदार रवैया होता है, और सत्य के प्रति उनमें एक लालसा होती है, एक पवित्र रवैया होता है। मसीह-विरोधी कभी भी ये काम नहीं कर सकेंगे क्योंकि उनके सोचने का ढंग उन लोगों से हमेशा भिन्न होगा जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। वे अलग ढंग से क्यों सोचते हैं? इस वजह से कि उनके भीतर शैतान की प्रकृति होती है; वे शैतान के स्वभाव के साथ जीते हैं ताकि वे सत्ता प्राप्त करने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। वे षड्यंत्रों और चालों में संलग्न होने के लिए हमेशा विभिन्न साधनों का उपयोग करने का प्रयास करते हैं, और येन केन प्रकारेण लोगों से अपनी आराधना और अपना अनुसरण करवाने के लिए उन्हें गुमराह करते हैं। इसलिए लोगों की आँखों में धूल झोंकने हेतु वे अपना भेस बदलने, चाल चलने, झूठ बोलने और धोखा देने के तमाम तरीके ढूँढ़ते हैं, जिससे दूसरे यकीन कर लें कि सभी चीजों के बारे में वे सही हैं, वे हर चीज में सक्षम हैं, और वे कोई भी काम कर सकते हैं; वे दूसरों से अधिक चतुर हैं, दूसरों से ज्यादा अक्लमंद हैं, दूसरों से ज्यादा समझते हैं, वे सभी चीजों में दूसरों से बेहतर हैं, और हर लिहाज से दूसरों से ऊपर हैं—यहाँ तक कि वे किसी भी समूह में सर्वोत्तम से भी सर्वोत्तम हैं। उनकी जरूरत ऐसी है; यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है। इस तरह वे कुछ ऐसा दिखना सीख लेते हैं जो वे नहीं हैं, और इन विभिन्न अभ्यासों और अभिव्यक्तियों में से हरेक को उत्पन्न करते हैं।
इस बारे में सोचो : जो लोग कुछ ऐसा दिखना चाहते हैं जो वे नहीं हैं, वे कैसे स्वभाव से युक्त होते हैं? वे कैसा दिखने का बहाना करते हैं? वे कोई दानव या कोई नकारात्मक हस्ती नहीं दिखना चाहते; वे कोई ऊँचा, नेक, सुंदर और दयालु व्यक्ति दिखना चाहते हैं, ऐसा बनना चाहते हैं जिसका लोग सम्मान और सराहना करें—वे कोई ऐसी चीज दिखना चाहते हैं जिसकी लोग प्रशंसा करें या जिसे लोग स्वीकृति दें। वे हर चीज जानने और समझने का दिखावा करते हैं; वे सत्य से युक्त होने, एक सकारात्मक हस्ती होने, और सत्य वास्तविकता होने का दिखावा करते हैं। क्या यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं है? क्या उनके पास वह वास्तविकता है? क्या उनके पास वह सार है? नहीं है। ठीक इस वजह से क्योंकि उनके पास नहीं है, यह कहा जाता है कि वे दिखावा करते हैं। तो क्या कोई कहेगा कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं, क्योंकि उनमें सत्य वास्तविकता है? क्या इस कथन में कोई दम है? (नहीं, दम नहीं है।) भले ही तुममें सत्य वास्तविकता हो, फिर भी किसी भी तरह से तुम सत्य का प्रतिरूप नहीं हो। इसलिए, खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने वाला कोई भी व्यक्ति अहंकारी और बेतुके किस्म का इंसान है! कोई व्यक्ति जिसमें सिर्फ थोड़ी-सी सत्य वास्तविकता है, फिर भी वह खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने की हिम्मत करता है, तो वह महज पानी की एक बूँद के विशाल सागर होने का दावा करने जैसा है। क्या यह अहंकार की पराकाष्ठा नहीं है? क्या यह खुल्लमखुल्ला बेशर्मी नहीं है? किसी व्यक्ति के खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने के लिए उसके पास पूँजी जरूर होनी चाहिए। और मसीह-विरोधी खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने के लिए किसका उपयोग करते हैं? ये वही चीजें हैं जिनका मैंने अभी जिक्र किया—ज्ञान, अनुभव और सबक। इसमें सीखने के जरिए लोगों द्वारा हासिल किए गए विशेष कौशल और प्रतिभाएँ और साथ ही उनके जन्मजात गुण शामिल हैं। कुछ लोगों के पास अनेक भाषाओं में बोलने के गुण होते हैं, जबकि दूसरों में प्रचार करने की वाक्पटुता होती है। कुछ और दूसरों ने कुछ विशेष पेशेवर कौशलों को सीखा या उन में महारत हासिल की है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग नृत्य, संगीत, ललित कलाओं, भाषाओं या साहित्य में विशेष रूप से विलक्षण होते हैं; जबकि कुछ और दूसरे राजनीति में मँजे हुए होते हैं, जिसका अर्थ है कि वे लोगों के साथ हेरफेर करने में खासे अच्छे हैं, वे कूटनीति में उत्कृष्ट हैं, आदि-आदि। संक्षेप में कहें तो, इसमें जीवन के सभी क्षेत्रों के विशेष प्रतिभा वाले लोग शामिल हैं। जरूरी नहीं कि विशेष प्रतिभाओं या गुणों वाले इन लोगों का समाज में कोई विशेष रुतबा हो, या कोई स्थापित करियर हो। कुछ लोग छोटी जगहों में रहते हैं, फिर भी वे अतीत से ले कर वर्तमान तक के तरह-तरह के मामलों के बारे में स्पष्ट और तार्किक ढंग से, और खास तौर पर वाक्पटुता से बोलते हैं। यदि इन विशेष प्रतिभाओं वाले लोगों में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो तो वे परमेश्वर के घर में आने पर चीजें जैसी हैं, वैसी ही रहने से संतुष्ट नहीं होंगे; वे कुछ विशेष महत्वाकांक्षाएँ पालेंगे और फिर धीरे-धीरे उनका खुलासा हो जाएगा।
थोड़ा-सा अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर लेने पर और कुछ सबक सीख लेने पर मसीह-विरोधियों द्वारा खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने की मद को लेकर हमने अभी ऐसे ज्ञान, अनुभव और सबक के दायरे पर विचार-विमर्श किया। और यह विचार-विमर्श किस पर केंद्रित था? (दिखाना।) सही है। इसका निचोड़ है मसीह-विरोधियों का खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाना। ज्ञान, अनुभव, सबक—इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है; इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये चीजें सत्य के विरुद्ध भी हैं और परमेश्वर इनकी निंदा करता है। उदाहरण के लिए ज्ञान को लो, क्या इतिहास की गिनती ज्ञान के रूप में होती है? (बिल्कुल।) मानव इतिहास, कुछ विशेष देशों या जातीय समूहों के आधुनिक इतिहास, प्राचीन इतिहास, या यहाँ तक कि कुछ अनौपचारिक इतिहासों के बारे में ज्ञान और पुस्तकें कैसे तैयार हुईं? (ये लोगों द्वारा लिखी गई थीं।) तो क्या लोगों द्वारा लिखी गई चीजें सच्चे इतिहास के अनुसार होती हैं? क्या लोगों के विचार और नजरिये परमेश्वर के क्रियाकलापों के सिद्धांतों, तरीकों और साधनों के विपरीत नहीं होते? क्या मनुष्य द्वारा बोले गए ये वचन सच्चे इतिहास से संबंधित हैं? (नहीं।) कोई संबंध नहीं है। इसलिए, इतिहास की पुस्तकों में निहित अभिलेख चाहे जितने भी सही क्यों न हों, वे सिर्फ ज्ञान हैं। ये इतिहासकार चाहे जितने भी वाक्पटु क्यों न हों, और कितनी भी तार्किकता या स्पष्टता से इन इतिहासों का वर्णन करते हों, उन्हें सुनने के बाद तुम किस निष्कर्ष पर पहुँचोगे? (हम उन घटनाओं के बारे में जानेंगे।) हाँ, तुम उन घटनाओं के बारे में जानोगे। लेकिन क्या वे इन इतिहासों का वर्णन सिर्फ तुम्हें उन घटनाओं के बारे में सूचित करने के लिए कर रहे हैं? उनके पास एक विशेष विचार है जो वे तुम्हारे मन में बैठाना चाहते हैं। और उनका इस विचार को तुम्हारे मन में बैठाना किस बात पर केंद्रित है? हमें इसी चीज का विश्लेषण और गहन-विश्लेषण करने की जरूरत है? आओ मैं तुम्हें एक उदाहरण दूँ, ताकि तुम लोग शायद समझ सको कि वे लोगों के मन में कौन-सा विचार बैठाना चाहते हैं? प्राचीन काल से वर्तमान तक इतिहास की समीक्षा करने के बाद, लोग अंततः एक कहावत पर पहुँचे हैं; उन्होंने मानव इतिहास से एक तथ्य का निरीक्षण किया है, जो यह है : “विजेताओं को मिले ताज, और हारनेवालों को कुछ भी नहीं।” क्या यह ज्ञान है? (बिल्कुल।) यह ज्ञान ऐतिहासिक तथ्यों से आता है। क्या इस कहावत का उन तरीकों और साधनों से कोई लेना-देना है, जिनसे परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है? (नहीं।) दरअसल, यह इसका उल्टा है; यह उसके विपरीत और उसके विरुद्ध है। तो तुम्हारे मन में यह कहावत बैठा दी गई है, और यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, या तुम एक गैर-विश्वासी हो तो इसे सुनने के बाद तुम क्या सोच सकते हो? तुम इस कहावत को किस तरह से बूझोगे? सबसे पहले, ये इतिहासकार या इतिहास की पुस्तकें कहावत को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण और ऐतिहासिक घटनाओं का प्रयोग कर इस किस्म की सभी घटनाओं को सूचीबद्ध करते हैं। सबसे पहले, तुमने इस कहावत के बारे में सिर्फ किसी पुस्तक से जाना होगा और सिर्फ कहावत को ही जान पाए होगे। जब तक तुम इन घटनाओं से अवगत नहीं हो जाते, तब तक तुम इसे केवल एक स्तर पर या एक निश्चित सीमा तक ही समझ पाओगे। लेकिन एक बार इन ऐतिहासिक तथ्यों को सुनने के बाद इस कहावत की तुम्हारी पहचान और स्वीकृति गहराएगी। तुम यह बिल्कुल नहीं कहोगे, “कुछ चीजें ऐसी नहीं हैं।” बल्कि तुम यह कहोगे, “यह ऐसा ही है; प्राचीन काल से वर्तमान तक इतिहास को देखने पर, मानवजाति इस तरह से विकसित हुई—विजेताओं को मिले ताज, और हारनेवालों को कुछ भी नहीं!” जब तुम्हें मामले का इस तरह बोध होता है, तो अपने आचरण, अपने करियर, अपने दैनिक जीवन, और साथ ही अपने आसपास के लोगों, घटनाओं, और चीजों के प्रति तुम कैसे विचार और रवैए रखोगे? क्या ऐसे बोध से तुम्हारा रवैया बदल जाएगा? (बिल्कुल।) सभी चीजों से बढ़कर, तुम्हारा रवैया जरूर बदल जाएगा। तो, इससे तुम्हारा रवैया कैसे बदलेगा? क्या यह तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन कर उसकी दिशा और सांसारिक आचरण के तुम्हारे तरीके बदल देगा? शायद पहले तुम मानते थे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है” और “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” अब तुम सोचोगे, “चूँकि ‘विजेताओं को मिले ताज, और हारनेवालों को कुछ भी नहीं,’ इसलिए अगर मैं एक अधिकारी बनाना चाहूँ तो मुझे अमुक-अमुक पर सावधानीपूर्वक विचार करना होगा। वे मेरे पक्ष में नहीं हैं, इसलिए मैं उन्हें पदोन्नत नहीं कर सकता—भले ही वे पदोन्नति के योग्य हों।” इन चीजों के बारे में इस तरह सोचते समय तुम्हारा रवैया बदलेगा—और यह तेजी से बदलेगा। यह बदलाव कैसे होता है? यह इसलिए होगा क्योंकि तुमने इस विचार और नजरिये को स्वीकार किया कि “विजेताओं को मिले ताज, और हारनेवालों को कुछ भी नहीं।” अनेक तथ्यों को सुनने से तुम्हारे असली मानव जीवन में इस नजरिये के सही होने की और अधिक पुष्टि होगी। तुम गहराई से मानोगे कि तुम्हें अपने भविष्य के जीवन और संभावनाओं का अनुसरण करने के लिए इस दृष्टिकोण को अपने क्रियाकलापों और आचरण में लागू करना चाहिए। फिर क्या इस विचार और नजरिये ने तुम्हें बदल नहीं दिया होगा? (बिल्कुल।) और तुम्हें बदलते समय यह तुम्हें भ्रष्ट भी करेगा। यह ऐसा ही है। ऐसा ज्ञान तुम्हें बदलता और भ्रष्ट करता है। तो इस मामले की जड़ को देखते समय, ये इतिहास चाहे जितने भी सही ढंग से लिखे गए हों, अंततः ये इस कहावत में सारांशित कर दिए जाते हैं, और तुम्हारे मन में यह विचार बैठा दिया जाता है। क्या यह ज्ञान सत्य का प्रतिरूप है या शैतान का तर्क? (शैतान का तर्क।) सही है। क्या मैंने इसे काफी विस्तार से समझा दिया है? (बिल्कुल।) अब यह स्पष्ट है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हो तो तुम दो जीवन जी लेने के बाद भी इसे नहीं समझोगे—तुम जितना जियोगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि तुम मूर्ख हो, और सोचोगे कि तुम उतने निष्ठुर नहीं हो, और तुम्हें अधिक निष्ठुर, अधिक धूर्त, अधिक कुटिल, और एक बदतर और अधिक बुरा इंसान होना चाहिए। तुम मन-ही-मन सोचोगे : “अगर वह प्राण ले सकता है तो मुझे आग लगा देनी चाहिए। अगर वह एक व्यक्ति के प्राण लेता है, तो मुझे 10 लोगों को मार देना चाहिए। अगर वह बिना कोई सुराग छोड़े मारता है, तो मैं लोगों को बिना उनकी जानकारी के नुकसान पहुँचाऊँगा—यहाँ तक कि मैं उनके वंशजों को तीन पीढ़ियों तक मेरा आभार मानने पर मजबूर कर दूँगा!” शैतान के फलसफे, ज्ञान, अनुभव और सबक ने मानवजाति पर यह प्रभाव डाला है। वास्तविकता में, यह सिर्फ दुर्व्यवहार और भ्रष्टता है। इसलिए, इस दुनिया में चाहे जिस प्रकार के ज्ञान का प्रचार या प्रसार किया जा रहा हो, यह तुम्हारे मन में एक विचार या एक नजरिया बैठा देगा। यदि तुम इसे पहचान नहीं सकते तो तुममें जहर भर दिया जाएगा। कुल मिलाकर अब एक बात तय है : इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह ज्ञान आम लोगों से आता है या आधिकारिक स्रोतों से, इसमें अल्पसंख्यक श्रद्धा रखते हैं या बहुसंख्यक—इनमें से कुछ भी सत्य से प्रासंगिक नहीं है। सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। इसका सही होना इसे स्वीकार करने वालों की संख्या से निर्धारित नहीं होता। सकारात्मक चीजों की वास्तविकता स्वयं ही सत्य है। कोई भी इसे नहीं बदल सकता, न ही कोई इसे नकार सकता है। सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा।
आओ, इस तथ्य के बारे में बात करें कि सभी चीजों पर परमेश्वर संप्रभु है। जब से परमेश्वर ने मानवजाति की अगुआई शुरू की, उसने एक इतिहास और एक खाता भी रखा है। परमेश्वर मानव इतिहास को किस दृष्टि से देखता है? परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य को देखें, और चीजों के बारे में लोगों के आकलन और निष्कर्ष सत्य नहीं है। लेकिन इंसान परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर इतिहास को क्यों नहीं देखते हैं? क्योंकि इंसान सत्य से विमुख हैं, सत्य से नफरत करते हैं, और सत्य को लेश मात्र भी नहीं स्वीकारते हैं। इसीलिए वे दिखावटी, हास्यास्पद और बेतुके सिद्धांत प्रस्तुत करने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, प्रभु यीशु को पवित्र आत्मा ने संकल्पित किया था। यह एक सकारात्मक चीज है। फिर भी शैतान इस बारे में क्या कहता है? शैतान पवित्र आत्मा द्वारा संकल्पित किए जाने के तथ्य को नहीं स्वीकारता, और ईशनिंदा भी करता है कि प्रभु यीशु एक अवैध संतान है, और उसने मनुष्य से जन्म लिया। शैतान मानवजाति की सबसे गंदी बात को लेता है, उस अभिव्यक्ति को जिसका लोग उपहास करते हैं, और जिससे घृणा करते हैं, और उसे प्रभु यीशु के जन्म पर लागू करता है। क्या यह तथ्यों की विकृति नहीं है? (बिल्कुल।) पवित्र आत्मा की संकल्पना परमेश्वर का कार्य है। और परमेश्वर का कार्य चाहे कोई भी आकार ले, उसके बारे में एक चीज सुनिश्चित है : यह सत्य है, अटल सत्य है। तो शैतान ऐसे स्पष्ट तथ्य को स्वीकार क्यों नहीं करता, एक ऐसा तथ्य जिसे परमेश्वर ने पूर्व-निर्धारित किया था, जिसकी गवाही दी थी? शैतान इसकी अनदेखी क्यों करता है, और यहाँ तक कि प्रभु यीशु का वर्णन मनुष्य की एक अवैध संतान के रूप में क्यों करता है? (वह सत्य से नफरत करता है, सकारात्मक चीजों से नफरत करता है।) वह जान-बूझकर परमेश्वर को कलंकित करता है! शैतान इस तथ्य से पूरी तरह अवगत है; वह आध्यात्मिक क्षेत्र में इसे बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखता है। तो वह ऐसा क्यों करता है? उसकी मंशा क्या है, उसका इरादा क्या है? वह ऐसे कथन का प्रचार क्यों करता है? वह जान-बूझकर परमेश्वर को बदनाम कर उसे कलंकित कर रहा है। उसके परमेश्वर को कलंकित करने का प्रयोजन क्या है? लोगों से यह मनवाने के लिए कि यीशु एक अवैध संतान है, कि यह अपमानजनक है, और इस तरह वे उसमें विश्वास न रखें। शैतान सोचता है, “यदि लोग तुममें आस्था न रखें, तो तुम अपना कार्य पूरा नहीं कर पाओगे, है कि नहीं?” वास्तविकता में, सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा। भले ही पूरी मानवजाति ने उस वक्त इसे अस्वीकार कर दिया था, फिर भी दो हजार साल बाद, अंततः प्रभु यीशु के अपने अनुयायी हैं, और ऐसे लोग हैं जो पूरी दुनिया में उसकी प्रशंसा करते हैं, क्रूस का हर जगह प्रमुखता से प्रदर्शन किया जाता है, और शैतान विफल हो गया है। क्या शैतान का कथन कारगर हुआ? (नहीं, कारगर नहीं हुआ।) इसलिए, यह सत्य नहीं है; यह टिकता नहीं है, और परमेश्वर को कलंकित करना बेकार है। चाहे परमेश्वर द्वारा किया गया यह कार्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या नहीं हो, या चाहे यह पारंपरिक संस्कृति, कहावतों, या मानवजाति की नैतिक आचारनीति के विपरीत हो या नहीं हो, परमेश्वर परवाह नहीं करता। परमेश्वर क्यों परवाह नहीं करता? यह किसे प्रभावित करता है? चूँकि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है, इसलिए क्या शैतान के ये दानवी कथन परमेश्वर के कार्य को नष्ट कर सकते हैं? तुम इसकी असलियत नहीं समझ सकते, है ना? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या शैतान का दानवी कथन, वे थोड़े-से शब्द, परमेश्वर की प्रबंधन योजना को नष्ट कर सकते हैं? क्या यह संभव है? (नहीं, संभव नहीं है।) शैतान सफल होना चाहता है, लेकिन क्या वह हो सकता है? सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा। यह सत्य की शक्ति है। सत्य की शक्ति ऐसी चीज है, जिसे कोई भी—शैतान भी—नहीं बदल सकता। अभी भी शैतान उस कथन का प्रचार करता रहता है। क्या यह कारगर होता है? नहीं, नहीं होता। अनुग्रह के युग का कार्य समाप्त हो गया है; प्रभु यीशु का सुसमाचार पृथ्वी के हर छोर तक फैलाया जा चुका है, और अंत के दिनों का न्याय का नया कार्य अनेक वर्षों से चल रहा है। शैतान बहुत पहले ही विफल होकर अपमानित हो चुका है। तो, क्या अब शैतान के क्रोधित और हताश होने का कोई लाभ है? नहीं, कोई लाभ नहीं है। इसलिए, दृष्टिकोण चाहे जो भी हो, ज्ञान का स्तर चाहे जितना ऊँचा हो, या जिन लोगों के बीच उस दृष्टिकोण को लागू कर प्रचारित किया गया हो, उनकी संख्या चाहे जितनी अधिक हो, उन सबका कोई लाभ नहीं है; यह कायम नहीं रहेगा। परमेश्वर का कार्य रोका नहीं जा सकता; शैतान इसे नहीं रोक सकता। क्या थोड़े-से तुच्छ लोग वास्तव में सोचते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को रोक सकते हैं? यह भ्रम है! तुममें से अनेक लोग इन अफवाहों के साथ, शैतान के गुमराह करने वाले नजरियों को स्वीकार करते हुए बड़े हुए हैं; तुम्हारे दिमाग शैतान के तर्कों, फलसफों, ज्ञान और विज्ञान जैसी चीजों से भरे हुए थे। और फिर क्या हुआ? जब परमेश्वर के वचन तुम तक पहुँचे, तो तुम लोगों ने परमेश्वर की वाणी सुनी, और परमेश्वर के समक्ष लौट आए। शैतान की अफवाहें और दानवी बातें बेकार हो गईं। उन्होंने परमेश्वर के कार्य को आगे बढ़ने से जरा भी नहीं रोका। सभी देशों में परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने लगे हैं। प्रति दिन वे परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, धर्मोपदेश सुनते हैं और संगति करते हैं। वे परमेश्वर के लिए अपने कर्तव्य निभाते हैं और उसकी गवाही देते हैं। शैतान यह कह कर इस पर चिंतन करता है, “मेरी बहुत-सी गुमराह करने वाली बातें कारगर क्यों नहीं हो रही हैं? मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को दबाने, गिरफ्तार करने और उनसे दुर्व्यवहार करने के लिए बहुत-सी चीजें की हैं, फिर भी इनका ज्यादा असर क्यों नहीं हुआ है? इसके बजाय परमेश्वर में विश्वासियों की संख्या क्यों बढ़ रही है?” फिर वह अपने दिल में जानता है कि परमेश्वर सच में सर्वशक्तिमान है, जिसके बाद वह पूरी तरह से अपमानित हो जाता है—इसलिए यह कहावत है : “शैतान परमेश्वर के हाथों हमेशा पराजित होगा।” क्या यह एक तथ्य है? (बिल्कुल।) सचमुच परमेश्वर के वचन ही सब-कुछ पूरा कर सकते हैं! शैतान और सभी दानव राजा, परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं। परमेश्वर के हाथों में वे सेवा करने वाले और विषमताएँ हैं। क्या इन सेवा करने वालों और विषमताओं का हमसे कोई लेना-देना है? (नहीं।) नहीं, कोई लेना-देना नहीं है। हमें बस परमेश्वर में विश्वास रखने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, हमें उनसे कोई लेना-देना नहीं है। चाहे वे राजा हों या डाकू, वे शैतान के हैं, और उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा। हमें पूरे दिल से सिर्फ परमेश्वर का अनुसरण करना होगा, हमेशा के लिए शैतान से विश्वासघात करना होगा, और केवल परमेश्वर के साथ चलना होगा। ऐसा ही करना सही है।
मैंने ज्ञान और अनुभव का एक उदाहरण दिया है, इसलिए तुम्हें अब इन चीजों को थोड़े और अधिक सटीक ढंग से समझना चाहिए। इन चीजों के बारे में संगति करने का प्रयोजन क्या है? एक लिहाज से, यह तुम्हें इस योग्य बनाने के लिए है कि तुम मसीह-विरोधियों को पहचानने के लिए इन तथ्यों और उदाहरणों का उपयोग कर सको, और साथ ही अपने भीतर मसीह-विरोधियों के स्वभाव के इस पहलू को पहचान सको। एक और लिहाज से, क्या इस प्रकार का विचार-विमर्श कुछ लोगों को लापरवाही से कार्य करने से रोक नहीं सकता? (बिल्कुल।) अतीत में, कुछ लोग अपने कर्तव्य निर्वहन में अनुभव और पुराने ढर्रे के तौर-तरीकों पर भरोसा करते थे, और वे काम करने के अपने ही तौर-तरीकों से चिपके रहते थे, इसलिए वे परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करते थे, और नतीजतन उनका निपटान किया जाता था। वे हर चीज से बढ़ कर अपनी पुरानी पड़ गई प्रथाओं और अनुभव को मूल्य देते थे, और सबसे महत्वपूर्ण चीजों पर कभी विचार नहीं करते थे : परमेश्वर ने लोगों के बारे में क्या कहा था या उनसे क्या अपेक्षा की थी, या सत्य सिद्धांतों का पालन कैसे किया जाए। वे अड़ियल होकर अपनी पुरानी प्रथाओं से चिपके भी रहते थे, और यही नहीं, वे इसके आधार के रूप में एक बेतुके तर्क का भी उपयोग करते थे : “हमने इसे हमेशा इसी तरह किया है,” “हम जहाँ से हैं, वहाँ हमेशा इसे ऐसे ही किया जाता है। हमारे पूर्वज ऐसा ही करते थे।” वे चीजों पर इस तरह से जोर क्यों देते थे? इससे सिद्ध होता है कि वे नई चीजों को स्वीकार नहीं करते थे; वे सत्य को स्वीकार नहीं करते थे। वे इन पुराने पड़ गए तौर-तरीकों के बेढंगेपन, पिछड़ेपन, और हास्यास्पदता की असलियत नहीं समझ सकते थे। वे इस बात से अवगत नहीं थे कि चीजें करने के नए तरीके हैं, ऐसे तरीके जो अधिक उन्नत, सटीक, और उपयुक्त हैं। वे हमेशा अपने पुराने तौर-तरीकों से चिपके रहते थे, अपने पुराने अनुभव पर भरोसा करते थे, यह सोच कर कि वे काफी उन्नत हैं, कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। क्या ये बेतुके प्रकार के लोग नहीं हैं? “हम जहाँ से हैं, वहाँ हमेशा ऐसा ही किया जाता है,” “जिस तरीके से मैं पहले करता था,” “हमने हमेशा ऐसे ही किया है”—क्या ये पुराने तरीके, ये पुरातन प्रयोग सत्य सिद्धांतों का स्थान ले सकते हैं? क्या चीजों को पुराने तरीके से करने का अर्थ यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है? वे लोग एक भी चीज नहीं समझते थे, न ही वे किसी चीज की असलियत समझ सकते थे। क्या वे पुराने तौर-तरीकों से चिपके हुए पुराने जमाने के जिद्दी लोग नहीं हैं? ऐसे लोगों के लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन है! मुझे बताओ, चाहे कोई चीज नई हो या पुरानी, तुम उसे किस नजरिये से देखते हो? तुम उससे कैसे निपटते हो? उससे निपटने का तुम्हारा आधार क्या है? यदि सभी के पास किसी चीज का सिर्फ सीमित ज्ञान है, तो तुम इससे किस तरह से पेश आओगे जो कि सही और सिद्धांतों के अनुरूप हो? तुम्हें पहले किसी ऐसे व्यक्ति से पूछना चाहिए जो इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखता हो। अगर तुम्हें कोई जानकार व्यक्ति मिल जाता है तो तुम्हारे सामने एक मार्ग होगा। यदि तुम्हें कोई जानकार व्यक्ति नहीं मिलता है तो तुम ऑनलाइन जाकर परामर्श या जानकारी प्राप्त करके समस्या का पूर्ण समाधान कर सकते हो। और यह खोजते समय भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसे आदर से देखने की जरूरत होगी; परमेश्वर को तुम्हारे लिए आगे का रास्ता खोलने दो। हम इसे क्या कहते हैं? हम इसे अभ्यास के सिद्धांत कहते हैं। तुममें से कुछ लोग मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं इस क्षेत्र में एक पेशेवर हूँ, मेरे पास अनुभव का खजाना है। मुझे यह करने के लिए पुरस्कार भी मिल चुके हैं, इसलिए मेरे पास यह पूँजी है। चूँकि यह काम मुझे सौंपा गया है, इसलिए मैं इसका प्रभारी हूँ। मेरे पास निर्णय लेने का अधिकार है, और सारी चीजें मेरे भरोसे हैं। सबको मेरे आदेशों और आज्ञा का पालन करना चाहिए। किसी और की किसी भी बात का कोई मूल्य नहीं है, और मुझसे असहमत होने वाले किसी भी व्यक्ति को बस मुँह बंद कर लेना चाहिए!” क्या सोचने का यह तरीका सही है? यकीनन यह सही नहीं है। तुम्हारे रवैए में और जो स्वभाव तुम प्रकट कर रहे हो उसमें समस्या है। अपने दिल में तुम सोचते हो कि इस आदेश को स्वीकारना तुम्हें सत्ता के प्रयोग का हकदार बनाता है। तुम फैसले लेना चाहते हो, और किसी और को कुछ कहने नहीं दिया जाता। यह ऐसा है मानो तुम्हें अपने कार्य में कोई सहयोगी नहीं चाहिए, या तुम नहीं चाहते कि सब अपनी राय दें; सब-कुछ तुम्हारे कहे अनुसार हो, सबका दारोमदार तुम पर हो। यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या यह अत्यधिक अहंकारी और विवेकहीन नहीं है? यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है। हो सकता है कि तुम दूसरों से थोड़ी बेहतर काबिलियत वाले हो, तुम्हें इस मामले का थोड़ा बोध और थोड़ा अनुभव हो। लेकिन एक बात है जिसके बारे में तुम्हें स्पष्ट होने की जरूरत है : तुम्हारे पास जो चीजें हैं, उनमें से कोई भी सत्य नहीं है। यदि तुम खुद को थोड़ी बेहतर काबिलियत वाला, थोड़े बोध वाला, थोड़ी प्रतिभा वाला, और थोड़े ज्ञान वाला मानते हो, और तुम इन चीजों को सत्य के रूप में लेते हो, और स्वयं को सत्य मानते हो, और सोचते हो कि सभी को तुम्हारे आदेशों का पालन करना चाहिए और तुम्हारी व्यवस्थाओं को मानना चाहिए, तो क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? यदि तुम सच में चीजें इस ढंग से करते हो, तो तुम एक मसीह-विरोधी से जरा भी कम नहीं हो। तुम्हारे अपने गुणों को सत्य मानने में क्या गलत है? काबिलियत, बोध, प्रतिभा और ज्ञान जिनसे तुम युक्त हो, वे गलत नहीं हैं। तो हम यहाँ किस चीज का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं? हम यहाँ जिस चीज का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं, वह तुम्हारा स्वभाव है—एक भ्रष्ट स्वभाव जो तुम इन चीजों के पीछे ढो रहे हो; एक अहंकारी स्वभाव, एक आत्मतुष्ट स्वभाव। जब तुम अपने गुणों को सत्य मान लेते हो तो तुम मानते हो कि इन गुणों से युक्त होने के कारण तुम्हारे पास सत्य है। तुम सत्य का स्थान ऐसे गुणों को दे देते हो तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? सभी मसीह-विरोधी अपने ही विचारों, सीख, गुणों और प्रतिभाओं को सत्य मान लेते हैं। वे सोचते हैं कि इन गुणों से युक्त होने से वे सत्य से युक्त हो गए हैं। इसलिए वे माँग करते हैं कि दूसरे उनकी आज्ञा और उनके आदेशों का पालन करें, उनकी सत्ता को मानें। मसीह-विरोधी यहीं गलत हो जाते हैं। क्या तुम सचमुच सत्य से युक्त हो? तुम्हें परमेश्वर की सच्ची समझ नहीं है, न ही तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला होना तो दूर की बात है और तुम लेशमात्र भी सत्य से युक्त नहीं हो, फिर भी तुम अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट हो, यह सोच कर कि तुम सत्य से युक्त हो, और दूसरों को तुम्हारी आज्ञा माननी चाहिए, और तुम्हारे आदेशों का पालन करना चाहिए। तुम एक प्रामाणिक मसीह-विरोधी हो।
सुसमाचार प्रसार कार्य में वे विभिन्न परियोजनाएँ शामिल होती हैं जिनमें लोगों को विभिन्न कौशलों और पेशों का अध्ययन करने और सीखने की आवश्यकता होती है; लेकिन, कुछ लोग परमेश्वर के इरादे नहीं समझते और आसानी से भटक जाते हैं। वे लेश मात्र भी सत्य स्वीकार किए बिना केवल पेशेवर ज्ञान और कौशलों का अध्यन करते हैं। यह व्यक्ति किस प्रकार का है? (मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति जो गुणों पर ध्यान केंद्रित करता है।) सही है। इसी प्रकार के व्यक्ति को हम उजागर कर रहे हैं; इस प्रकार के व्यक्ति में मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है, और गंभीर मामलों में, वह मसीह-विरोधी होता है। ऐसे व्यक्ति इस अवसर का उपयोग ये चीजें सीखने के लिए करते हैं और फिर इस पेशे या कौशल को जानने वाले सर्वोत्तम लोगों में सर्वोत्तम हो जाते हैं, इस क्षेत्र में सबसे अधिक विद्वान और प्रवीण बन जाते हैं ताकि दूसरे लोग हर चीज के लिए उन पर भरोसा करें और सत्य का अभ्यास करने के बजाय उनकी बात सुनें, और वे इस समूह में अग्रणी भूमिका हथिया लेते हैं। समस्या इसी में है। किस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं? वे जो सिर्फ अध्ययन करने और खुद को हर तरह के ज्ञान, सीख और अनुभव से युक्त करने का प्रयास करते हैं; जो सभी काम करने के लिए अपनी काबिलियत, प्रतिभाओं और गुणों पर भरोसा करते हैं। देर-सवेर, वे सब ऐसे ही मार्ग पर चलेंगे। यह अपरिहार्य है। यह पौलुस का मार्ग है। चाहे तुम्हारा क्षेत्र जो भी हो, दूसरों के मुकाबले थोड़ा अधिक ज्ञान, अनुभव या सबक होना यह दर्शाने के लिए काफी नहीं है कि तुम सत्य समझते हो, या तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। तो इसे कौन-सी चीज पर्याप्त रूप से दर्शाती है? इस प्रकार के कर्तव्य को निभाने के लिए सिद्धांतों की बेहतर समझ हासिल करना, और साथ ही इन पेशेवर कौशलों का अध्ययन करने के दौरान इस कर्तव्य को निभाने के लिए परमेश्वर के घर के अपेक्षित मानकों को हासिल करना। कुछ लोग हैं जिन्हें पेशेवर ज्ञान सीखने देने की तुम जितनी अधिक कोशिश करते हो, वे उतने ही अधिक प्रतिरोधी हो जाते हैं, और सोचते हैं कि उनका कर्तव्य निभाना असंभव है, और यह भी कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब गैर-विश्वासियों की दुनिया से अलग हो जाना होना चाहिए, तो फिर हमें गैर-विश्वासियों का कौशल और ज्ञान क्यों सीखना चाहिए?” वे नहीं सीखना चाहते हैं। यह आलस्य है। वे अपने कार्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया नहीं रखते हैं, उनमें निष्ठा नहीं होती है, और वे ऐसे मामले में कोई भी प्रयास करने को तैयार नहीं होते हैं। पेशेवर ज्ञान और कौशलों को सीखने का प्रयोजन अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना है। अभी भी बहुत-सा ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान बाकी हैं, जो तुम्हें सीखने हैं। यह परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षा है, मनुष्य के लिए आदेश है। इसलिए, इन चीजों को सीखना व्यर्थ नहीं होगा; यह सब तुम्हारे अच्छे ढंग से कर्तव्य निभाने की खातिर है। कुछ लोग सोचते हैं कि ऐसे कौशल सीखने के बाद, वे परमेश्वर के घर में पाँव जमा सकेंगे। क्या सोचने के इस तरीके का अर्थ मुसीबत नहीं है? यह दृष्टिकोण गलत है। क्या ऐसा कोई है जो इस मार्ग पर चलने में सक्षम है? इस तरह के व्यक्ति को जितनी अधिक शक्ति, जितना बड़ा काम का दायरा और जितनी ज्यादा जिम्मेदारी दी जाती है, उतना ही अधिक खतरा उसके सामने होता है। यह खतरा कैसे उत्पन्न होता है? यह बेशक इसलिए है क्योंकि उसके स्वभाव भ्रष्ट हैं और उसका स्वभाव मसीह-विरोधी का है। चीजें करते समय वह सिर्फ इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि काम कैसे करना है और अनमने ढंग से काम करता है। वह सिद्धांतों को नहीं खोजता। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर के इरादे नहीं समझता, न ही वह सत्य सिद्धांतों को और अधिक समझ या पकड़ पाता है। वह सिद्धांतों को नहीं खोजता, न ही वह अपने द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता की, अपने भीतर उत्पन्न गलत नजरियों की या अपना कर्तव्य निभाते समय जिन गलत दशाओं में गिरता है उनकी जाँच या समीक्षा करता है। वह केवल बाहरी प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करता है, अपने कर्तव्य के लिए अपेक्षित तरह-तरह के ज्ञान में महारत हासिल करके खुद को उससे लैस करने पर ध्यान केंद्रित करता है। वह मानता है कि व्यक्ति के काम का चाहे जो भी क्षेत्र हो, ज्ञान सबकी अगुआई करता है; ज्ञान से युक्त होने पर वह सशक्त बन जाएगा और खुद को किसी समूह में स्थापित कर लेगा; और ऊँचे स्तर के ज्ञान और उन्नत शैक्षणिक उपाधियों वाले लोग चाहे जिस भी समूह में हों, उनका रुतबा ऊँचा ही होता है। उदाहरण के लिए, एक अस्पताल में, अस्पताल निदेशक आम तौर पर पेशे के सभी पहलुओं में सर्वोतम होता है, और वह सबसे मजबूत तकनीकी कौशल से युक्त होता है, और ऐसे लोग सोचते हैं कि परेश्वर के घर में भी यही स्थिति है। क्या चीजों को समझने का यह तरीका सही है? नहीं, यह सही नहीं है। यह इस कहावत के विरुद्ध है : “परमेश्वर के घर में सत्य का राज्य है।” ऐसे लोग मानते हैं कि परमेश्वर के घर में ज्ञान का राज्य है, जिसके पास भी ज्ञान और अनुभव है, जिसके पास पर्याप्त वरिष्ठता और पर्याप्त पूँजी है, वह परमेश्वर के घर में स्थापित हो जाएगा, और सबको उसकी बात सुननी पड़ेगी। क्या यह दृष्टिकोण गलत नहीं है? कुछ लोग शायद अनजाने में ही इस तरीके से सोच सकते हैं और कार्य कर सकते हैं; वे इसका अनुसरण कर सकते हैं, और संभव है किसी दिन वे ऐसे बिंदु पर पहुँच जाएँ जहाँ से आगे बढ़ना उनके लिए संभव न हो। वे ऐसे बिंदु पर क्यों पहुँच सकते हैं? क्या कोई व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता या उसका अनुसरण नहीं करता, जो पूरी तरह से सत्य की अनदेखी करता है, खुद को समझ सकता है? (नहीं।) और खुद को नहीं समझते हुए भी उसने खुद को अत्यधिक ज्ञान से युक्त किया है, परमेश्वर के घर के लिए थोड़ी कीमत चुकाई है, और कुछ योगदान दिए हैं—उसने इन चीजों को किसमें बदल दिया है? उसने इसे पूँजी में बदल दिया है। और उसके लिए यह पूँजी क्या है? यह सत्य के उसके अभ्यास का लेखा-जोखा है, सत्य वास्तविकता में उसके प्रवेश और उसके सत्य समझने का प्रमाण है। इन चीजों को उसने इसी में बदल डाला है। प्रत्येक व्यक्ति सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को अपने दिल में एक अच्छी और सकरात्मक चीज मानता है। बेशक, इस प्रकार के व्यक्ति की दृष्टि में भी यह सच है। हालाँकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसने ज्ञान को सत्य मानने की गलती की है। फिर भी वह इस गलती को ले कर अच्छा महसूस करता है। यह खतरे की निशानी है। किस प्रकार का व्यक्ति इस तरह से कार्य करेगा? जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं है वे सब इस तरह से कार्य करेंगे, और अनजाने में ही गलत मार्ग पर कदम रख देंगे। और उनके एक बार उस मार्ग पर चल पड़ने के बाद, तुम उन्हें वापस नहीं ला सकोगे। यदि तुम उनके साथ सत्य के बारे में संगति करोगे, उनकी स्थितियों के बारे में बताओगे, और उन्हें उजागर करोगे, तो वे नहीं समझेंगे, वे इसे खुद से जोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। यह आध्यात्मिक समझ की गंभीर कमी है। ऐसा व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अपने ज्ञान, अनुभव और सबक को सत्य मान लेता है। और एक बार जब वह इन चीजों को सत्य मान लेता है, तो अंततः एक विशेष स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। यह अपरिहार्य है। मान लो कि परमेश्वर कुछ कहता है और इस प्रकार का व्यक्ति कुछ और कहता है—तो उनके परिप्रेक्ष्य निश्चित रूप से भिन्न होंगे। तो इस प्रकार का व्यक्ति किसके परिप्रेक्ष्य को सही मानेगा? वह अपने ही परिप्रेक्ष्य को सही मानेगा। तो फिर क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगा? (नहीं।) वह क्या करेगा? वह अपने ही परिप्रेक्ष्य से चिपका रहेगा और परमेश्वर ने जो कहा है उसे नकारेगा। ऐसा करके क्या वह खुद को सत्य का प्रतिरूप नहीं मानता? (बिल्कुल मानता है।) वह सोचता है कि ठीक एक बौद्ध की तरह उसने अंततः अपने आत्म-विकास में सफलता हासिल कर ली है; जब वह परमेश्वर को नकारता है, तो वह दूसरों से अपने साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करवाता है, और सोचता है कि वह सत्य का प्रतिरूप बन गया है। यह कितनी बेतुकी बात है! उदाहरण के लिए मान लो कि कोई ज्ञान के किसी क्षेत्र या कार्य के किसी क्षेत्र में विशेष रूप से प्रवीण है। इस क्षेत्र में एक आम आदमी की हैसियत से, मैं उससे इस क्षेत्र से संबंधित कुछ प्रश्न पूछता हूँ, लेकिन जब मैं ऐसा करता हूँ तो वह दिखावा शुरू कर देता है। यह किस प्रकार का व्यक्ति है? मुझे बताओ, क्या मैं उससे प्रश्न पूछ कर गलती कर रहा हूँ? (नहीं।) तो, मैं उससे प्रश्न क्यों पूछता हूँ? क्योंकि कुछ मामले कार्य और पेशों से संबंधित हैं, और चूँकि मैं उन्हें नहीं समझता हूँ, इसलिए मुझे किसी और से पूछना चाहिए। इसके अलावा, मुझे पता है कि उसे अनुभव है और वह इन मामलों को समझता है। मेरे लिए उससे ये प्रश्न पूछना बिल्कुल उचित है। क्या मेरा इरादा और नजरिया सही है? (बिल्कुल।) इसमें कुछ भी गलत नहीं होना चाहिए, है कि नहीं? तो वह सही तरीका क्या है जिससे उस व्यक्ति को इस मामले के साथ पेश आना चाहिए? उसे मुझे वह सब बताना चाहिए जो वह समझता है। और फिर उसे इस बारे में कैसे सोचना चाहिए? इस बारे में सोचने का सही तरीका क्या है? गलत तरीका क्या है? कोई सामान्य, तार्किक व्यक्ति इस बारे में किस तरह सोचेगा? मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला कोई व्यक्ति इस बारे में क्या सोचेगा? कुछ लोग यह सुनकर कि मैं नहीं समझता, कहते हैं, “अरे, तुम नहीं समझते! तुम नहीं जानते हमारे लिए ऐसा करना कितना कठिन था! तुम यह नहीं जानते और इसे नहीं समझते!” बातें करते हुए वे दिखावा करने लगते हैं। और यह दिखावा क्या इंगित करता है? यही कि कुछ तो समस्या है। आम तौर पर ये लोग अत्यंत परिष्कृत और पवित्र होते हैं, लेकिन वे एकाएक दिखावा क्यों करने लगते हैं? (वे खुद को सत्य मानते हैं, क्योंकि वे थोड़ा ज्ञान समझते हैं और उन्हें थोड़ा अनुभव है।) सही है। पहले, जब दूसरे उनसे कोई प्रश्न पूछते थे, तो उन्हें नहीं लगता था कि यह कोई बड़ी बात है। लेकिन जब मैं उनसे कोई प्रश्न पूछता हूँ, तो वे सोचते हैं, “क्या तुम सत्य नहीं हो? क्या तुम्हें सब-कुछ नहीं समझना चाहिए? तुम ऐसे मामले को कैसे नहीं समझ सकते हो? यदि तुम इसे नहीं समझते हो, तो मैं तुमसे ऊँचा हूँ।” वे थोड़ा दिखावा करना चाहते हैं। क्या यह वही बात नहीं है जो वे सोच रहे हैं? (बिल्कुल, वही बात है।) वे सम्मानित महसूस नहीं करते, बल्कि उनसे एक शैतानी स्वभाव प्रस्फुटित होता है। एकाएक उन्हें लगता है कि आखिर पृथ्वी और स्वर्ग के बीच वे बहुत शक्तिशाली हैं! क्या यह एक गलत धारणा नहीं हैं? क्या ये लोग बेवकूफ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) मैं भी यही सोचता हूँ। सिर्फ एक बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है। क्या वे इस क्षेत्र के बारे में थोड़ा-सा भी नहीं समझते? ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो लोग नहीं जानते; उनमें थोड़ी आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। कुछ लोग कपड़ों के बारे में थोड़ा जानते हैं, और सिर्फ उसे छूकर उसकी किस्म के बारे में बता सकते हैं। यदि तुम यह कह कर उनकी तारीफ करते हो, “लगता है तुम कपड़ों के बारे में जानते हो,” तो वे जवाब देंगे : “सही है। तुम इसे नहीं जानोगे क्योंकि तुम लोगों ने इसके बारे में नहीं सीखा है, इस बारे में मैं तुम्हारे मुकाबले अधिक विशेषज्ञ हूँ। मैं तुम्हें नीची नजर से नहीं देख रहा हूँ, तुम्हें बस ज्यादा अध्ययन करने की जरूरत है।” क्या यह बहुत घिनौना नहीं है? फिर ऐसे भी लोग हैं जो थोड़ा-बहुत खाना पका लेते हैं, और दिखावा करने लगते हैं कि वे कितने व्यंजन बना सकते हैं और वे कितने लोगों का भोजन बना सकते हैं। कुछ लोग थोड़े समय के लिए गाँवों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता के रूप में कार्य करते हैं। जब कोई भाई-बहन छोटी-मोटी बीमारी होने पर उनके पास आता है, और उनसे मालिश या एक्यूपंक्चर या हिजमा करने का निवेदन करता है, और पूछता है कि क्या इससे वह ठीक हो जाएगा, तो वे जवाब देते हैं : “क्या तुम सोचते हो कि इसका इलाज इतनी आसानी से हो सकता है? तुम लोग नहीं समझते हो। चिकित्सा पेशे से जुड़े हम सब लोग जानते हैं कि मानव शरीर जटिल है। परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्य से रहस्य जुड़े हुए हैं। इसलिए एक्यूपंक्चर या हिजमा का प्रयोग किया जा सकेगा या नहीं, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है।” वास्तविकता में, वे भी बहुत कम जानते हैं। वे किसी चिकित्सकीय दशा को स्पष्ट रूप से समझने या कई बीमारियों का इलाज करने में असमर्थ हैं। लेकिन अपनी नाक कटने से बचाने के लिए वे अब भी रौब दिखाते हैं, दिखावा करते हैं, और एक विशेषज्ञ की तरह कार्य करते हैं। इस प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ दर्शाती हैं कि भ्रष्ट इंसानों में शैतान का स्वभाव होता है, एक मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। इतना ही नहीं ऐसे और भी गंभीर मामले हैं जिनमें लोग अपने भेस बदलते हैं और अंत तक दिखावा करते हैं। दूसरे लोग चाहे उनकी प्रशंसा करें या न करें, वे अपने भीतर गहराई में एक अंधकारपूर्ण विचार पालते हैं। यह सोच क्या है? “मैं कभी भी किसी को अपनी असली पहचान और अपनी क्षमताएँ जानने नहीं दूँगा।” उदाहरण के लिए, अगर वे सिर्फ एक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता हैं, तो वे हमेशा लोगों को यह सोचने देते हैं कि वे मशहूर चिकित्सक हैं, और कभी नहीं चाहते कि कोई जाने कि वे एक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता हैं या वे वास्तव में बीमारियों का इलाज कर सकते हैं या नहीं। वे डरते हैं कि कहीं दूसरे लोग उनकी स्थिति की असली प्रकृति न जान लें। और वे खुद को किस हद तक ढ़क लेते हैं? इस हद तक कि जो भी उसके संपर्क में आते हैं, वे सोचते हैं कि वे कभी गलतियाँ नहीं करते हैं, और उनमें कोई कमियाँ नहीं हैं; वे उन सभी चीजों में प्रवीण हैं जो उन्होंने सीखी हैं, और वे दूसरों की जरूरत का कोई भी काम कर सकते हैं। अगर लोग उनसे पूछते हैं कि वे खाना पका सकते हैं या नहीं, तो वे कहेंगे कि वे पका सकते हैं। उनसे यह पूछने पर कि क्या वे मांचू-हान भोज तैयार कर सकते हैं, तो वे मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं यह नहीं कर सकता,” और आगे पूछने पर वे जवाब देंगे, “हाँ!” फिर भी जब यह करने के लिए कहा जाता है, तो वे मना करने के लिए कोई बहाना बना देंगे। क्या यह धोखा नहीं है? वे कुछ जानने, कुछ भी करने में सक्षम होने, सर्व-सक्षम होने का दिखावा करते हैं—क्या वे बेवकूफ नहीं हैं? लेकिन चाहे वे बेवकूफ हों या उनमें थोड़ी काबिलियत, कुछ क्षमताएँ, या गुण हों, वह कौन-सी एक चीज है जो सभी मसीह-विरोधियों में होती है? यह सब-कुछ समझने का दिखावा करने की, सत्य होना का दिखावा करने की उनकी इच्छा है। हालाँकि वे सत्य होने का सीधे दावा नहीं करते, वे दिखाना चाहते हैं कि वे सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, कि वे सभी चीजें कर सकते हैं। तो क्या इसका निहितार्थ यह नहीं है कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं? वे मानते हैं कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं, कि वे जो कुछ भी कहते हैं वह सही है, कि यही सत्य है।
कुछ लोगों को ऊपरवाला कोई विशेष कार्य सौंपता है। इसके बारे में जानकर वे मन-ही-मन सोचते हैं : “मुझे यह कार्य ऊपरवाले ने सौंपा था, इसलिए मेरी सामर्थ्य पहले से अधिक हो गई है। अब मुझे अपनी प्रतिभाओं और सामर्थ्य को प्रदर्शित करने का अवसर मिलेगा। मैं नीचे वालों को दिखाऊँगा कि मैं कितना विकट हूँ।” भाई-बहनों से बातचीत करते समय वे यह कह कर उन्हें आदेश देते हैं : “जाओ, यह काम करो!” यह पूछने पर कि यह कैसे करना है, तो वे कहते हैं : “तुम यह करोगे या नहीं? नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें सीधा कर दूँगा! यह ऊपरवाले का आदेश है। क्या तुम इसे रोक कर उन्हें नाराज करने का साहस कर सकते हो? जब ऊपरवाला जवाब मांगेगा, तो इसकी जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत कौन कर सकेगा?” भाई-बहन जवाब देते हैं : “हम सिर्फ इसे समझना चाहते हैं और इसे बेतरतीबी से और जो भी हमें ठीक लगे उसी तरीके से करने के बजाय इसे करने के सिद्धांत खोजना चाहते हैं। हर चीज को सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। मामला चाहे जो हो, या वह कितना भी जरूरी या महत्वपूर्ण क्यों न हो, इसे चाहे कोई भी सौंपे, सिद्धांतों का पालन करना एक अटल सत्य है। यह हमारा कर्तव्य है और हमें जिम्मेदार होना चाहिए। परमेश्वर हमसे यही अपेक्षा करता है कि हम सिद्धांत खोजें। हम एक जिम्मेदार रवैए के साथ स्पष्टीकरण खोज रहे हैं, और उसके बारे में पूछ रहे हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। आपको हमारे लिए यह स्पष्ट करना होगा।” फिर भी वे जवाब देते हैं : “इस मामले में कहने को क्या है? क्या ऊपरवाले की कही हुई बात गलत हो सकती है? जल्दी से इसे पूरा करो!” जवाब में भाई-बहन कहते हैं : “ऊपरवाले ने ऐसा कहा है, इसलिए हम इसे बड़ी जल्दी करेंगे। लेकिन क्या आप हमें स्पष्ट रूप से बता सकते हैं कि इसे कैसे करना चाहिए? क्या कोई विशिष्ट नियम या निर्देश हैं?” वे कहते हैं : “तुम लोगों को जैसा ठीक लगे, वैसा करो। ऊपरवाले से मिले निर्देश उतने अधिक विस्तृत नहीं थे। खुद ही समझ लो!” यह किस प्रकार का व्यक्ति है? चलो, पल भर के लिए भूल जाते हैं कि इसे करने के पीछे उसकी मंशा या मूल कारण क्या है; इसके बजाय, आओ पहले उसके स्वभाव की जाँच करें। क्या उसका यह दृष्टिकोण ठीक है? (नहीं।) वह ऐसा दृष्टिकोण कैसे पेश कर सकता है? क्या यह सामान्य दृष्टिकोण है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) यह सामान्य नहीं है। क्या यह समस्या उसकी मानसिक स्थिति की है या उसके स्वभाव की? (उसके स्वभाव की समस्या है।) सही है, यह उसके स्वभाव की समस्या है। एक अभिव्यक्ति है “सही समय की प्रतीक्षा करना”। इसका अर्थ है कि अतीत में, अपनी सामर्थ्य का निर्माण करने का सही अवसर उन्हें कभी नहीं मिला; लेकिन, चूँकि अब ऐसा अवसर उनके सामने आया है, तो वे उसे झपट कर कार्य करने के बहाने के रूप में प्रयोग करेंगे। यह किस प्रकार का स्वभाव है? ऊपरवाले से तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य करने को मिले, तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत नहीं बदल सकते। जब ऊपरवाला तुम्हें कोई काम सौंपता है, तो यह महज तुम्हें दिया हुआ आदेश होता है। इसे करना तुम्हारा कर्तव्य भी है। लेकिन, ऊपरवाले से आदेश प्राप्त करने और काम हाथ में लेने के बाद क्या तब तुम पूर्णाधिकारयुक्त राजदूत और सत्य का विशेषज्ञ होने का दावा कर सकते हो? क्या तुम्हारे पास अभी दूसरों को आदेश देने और जैसा चाहो वैसा करने का अधिकार है? क्या तुम्हें इजाजत है कि बस अपने रुझानों का अनुसरण करो, अपनी पसंद के अनुसार और जैसे चाहो वैसे मन मर्जी से कार्य करो? क्या ऊपरवाले द्वारा सीधे तुम्हें कोई काम सौंपने और तुम आम तौर पर जो अपना कर्तव्य करते हो उसे करने में कोई अंतर है? कोई अंतर नहीं है; ये दोनों ही तुम्हारे कर्तव्य हैं। चूँकि दोनों तुम्हारे कर्तव्य हैं, तो क्या काम करने के सिद्धांत बदल गए हैं? नहीं, वे नहीं बदले हैं। इसलिए, तुम्हें चाहे जहाँ से भी कर्तव्य मिले, तुम्हारे कर्तव्य का सार और प्रकृति वही है। ऐसा कहने का मेरा तात्पर्य क्या है? तात्पर्य यह है कि तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि सिर्फ इसलिए कि ऊपरवाले ने तुम्हें कोई काम सीधे सौंपा है, तुम उसे अपनी मर्जी से कर सकते हो, और तुम जो भी करोगे वह सही और उचित होगा। भले ही तुममें कुछ क्षमताएँ हों, फिर भी क्या तुम सत्य सिद्धांत खोजने के मार्ग से भटक सकते हो? तुम अभी भी एक भ्रष्ट इंसान हो। तुम परमेश्वर नहीं बन गए हो; तुम एक विशेष समूह में नहीं हो। तुम अभी भी तुम ही हो, और तुम हमेशा इंसान रहोगे। बाइबल में, ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने स्वयं बुलाया था : मूसा, नूह, अब्राहम, अय्यूब, और दूसरे अनेक। बहुत-से लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने परमेश्वर से बात की है; लेकिन इनमें से एक ने भी अपने आपको कोई विशेष हस्ती या किसी विशेष समूह का सदस्य नहीं माना। इनमें सेकुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर को आग की लपटों में प्रकट होते देखा, कुछ लोगों ने अपने ही कानों से परमेश्वर के कथन सुने, कुछ ने दूतों को परमेश्वर के वचन सुनाते हुए सुना, और कुछ अन्य लोगों को व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के परीक्षण प्राप्त हुए। क्या उन लोगों में ऐसा कोई था जिसे परमेश्वर ने साधारण इंसान से भिन्न रूप में देखा? (नहीं।) नहीं। परमेश्वर इस तरह से नहीं देखता। लेकिन यदि तुम उस तरह से समझते हो और खुद को हमेशा एक विशेष हस्ती के रूप में देखते हो, तो तुम्हारा स्वभाव किस प्रकार का है? (एक मसीह-विरोधी का स्वभाव।) यह सचमुच एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है, जोकि भयावह है! भले ही परमेश्वर ने तुम्हारे सिर पर अपना हाथ रखा हो, और तुम्हें दिव्य शक्ति के समर्थन से चमत्कार करने या कुछ काम पूर्ण करने की शक्ति प्रदान की हो, तो भी तुम हमेशा इंसान ही रहोगे; तुम सत्य का प्रतिरूप नहीं बन सकते हो। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि तुम सत्य के विरुद्ध होने और अपनी मनमर्जी से कार्य करने के लिए परमेश्वर के नाम का उपयोग करने के हकदार कभी नहीं होगे, ऐसा करना प्रधान दूत का व्यवहार है। कभी-कभी कुछ खास लोगों को विशेष चीजें करने, विशेष कार्य करने, या विशेष घटनाओं या कार्यों के बारे में बताने का काम सौंपने के लिए परमेश्वर खास तरीकों या विशेष साधनों का उपयोग करता है। यह इस वजह से है कि परमेश्वर मानता है कि ये लोग ऐसे कार्य करने के काबिल हैं, वे परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया काम पूरा कर सकते हैं, और वे परमेश्वर के विश्वास के योग्य हैं—और इससे अधिक कुछ नहीं। भले ही स्वयं परमेश्वर ने व्यक्तिगत तौर पर उन्हें काम सौंपा हो, उन्होंने परमेश्वर के मुख से कथन सुने हों, या परमेश्वर से बात की हो, वे किसी साधारण व्यक्ति से भिन्न नहीं हो जाएँगे; न ही एक सामान्य सृजित प्राणी से किसी अनूठे या उच्च सृजित प्राणी के रूप में उनका उत्थान हो जाएगा। ऐसा कभी नहीं होगा। इसलिए, परमेश्वर के घर में, मानवजाति के बीच किसी की प्रतिभा, पहचान, रुतबा, अनुभव या सबक चाहे जितने विशेष हों, वे सत्य के प्रतिरूप में परिवर्तित नहीं हो सकते। यदि कोई इतनी बेहूदगी से ऐसा होने का दिखावा करता है, तो वह व्यक्ति निस्संदेह एक मसीह-विरोधी है। हालाँकि कुछ लोग कभी-कभार ऐसा स्वभाव प्रकट करते हैं, तब भी वे सत्य को स्वीकार कर प्रायश्चित्त कर सकते हैं। ऐसे लोगों का स्वभाव मसीह-विरोधी का होता है, और वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं; फिर भी उनके बचाए जाने की उम्मीद शेष है। लेकिन यदि कोई निरंतर खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाता है, यह मानना जारी रखता है कि वह सही है, और प्रायश्चित्त करने से इनकार करता है, तो वह एक पक्का मसीह-विरोधी है। कोई भी व्यक्ति जो मसीह-विरोधी होता है, वह लेश मात्र भी सत्य स्वीकार नहीं करेगा। भले ही उसका खुलासा कर उसे हटा दिया जाए, फिर भी वह खुद को जान नहीं सकता; न ही उसे सच्चा पछतावा होगा। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं में केवल मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। वे जिन सिद्धांतों पर कार्य करते हैं, और जो मार्ग चुनते हैं, वे मसीह-विरोधी के समान ही होते हैं। वे भी तर्कहीन होते हैं, और सत्य नहीं समझते, वे अपने क्रियाकलापों की प्रकृति और परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं, और लापरवाही से कार्य करते हैं। लेकिन वे सबसे अलग इसलिए होते हैं क्योंकि उनमें से कुछ लोग अभी भी मेरी कुछ बातों को स्वीकार सकते हैं। मेरे वचन उन्हें अभी भी जोश दिला सकते हैं, और उनके लिए चेतावनी का काम कर सकते हैं। हालाँकि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है, फिर भी वे कुछ सत्य स्वीकार सकते हैं; वे थोड़ी काट-छाँट स्वीकार सकते हैं, उन्हें सचमुच पछतावा हो सकता है, और वे कुछ हद तक प्रायश्चित्त कर सकते हैं। यह उन्हें मसीह-विरोधियों से अलग करता है। ये ऐसे लोग हैं जिनमें केवल मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। मसीह-विरोधी का प्रकृति सार होने और मसीह-विरोधी का स्वभाव होने में एक समानता है। वे मूल रूप से एक समान हैं, एक मसीह-विरोधी होने और मसीह-विरोधी का स्वभाव वाला होने में एक समान लक्षण यह है कि दोनों में मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। लेकिन, इनमें से कुछ लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, और सच्चा पछतावा दिखा सकते हैं। ऐसा व्यक्ति मसीह-विरोधी नहीं है, बल्कि वह मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति है। एक मसीह-विरोधी और मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले व्यक्ति के बीच यही अंतर है। कोई भी व्यक्ति जो लेश मात्र भी सत्य स्वीकार नहीं सकता और जिसे सच्चा पछतावा नहीं होता, वह एक पक्का मसीह-विरोधी है। कोई भी व्यक्ति जो सत्य स्वीकार सकता है और जिसे सच्चा पछतावा है, वह मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति है और उसे बचाया जा सकता है। तुम्हें इन दो प्रकार के लोगों में भेद करना और उन्हें पहचानना आना चाहिए और आँखें मूँद कर आलोचना नहीं करनी चाहिए। तुम लोग किस प्रकार के हो? कुछ लोग कह सकते हैं, “मुझे ऐसा क्यों लगता है मानो मैं मसीह-विरोधी के ही समान हूँ। कोई अंतर दिखाई नहीं देता।” यह भावना सटीक है, कोई भी स्पष्ट अंतर नहीं है। यदि तुम सत्य स्वीकार सकते हो, और सच्चा पछतावा दिखा सकते हो, तो वही एकमात्र अंतर है; मानवता के लिहाज से भी यह एक अंतर है। यानी, मसीह-विरोधी एक बुरा व्यक्ति है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति बुरा व्यक्ति नहीं है; उसमें सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव है। यही एकमात्र अंतर है। उनके भ्रष्ट स्वभावों में कोई अंतर नहीं है, इस मामले में वे सभी एक समान हैं, यह एक समानता है जिसे वे सभी साझा करते हैं। परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर की गई भ्रष्ट मानवता की विभिन्न दशाएँ पूरी तरह से सही हैं और वास्तविकता से जरा भी भटकी हुई नहीं हैं। जब परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे सभी एक जैसा महसूस करते हैं; वे सभी वही समझ साझा करते हैं, सिर्फ उनके अनुभवों की गहराई में अंतर होता है। वे सभी अपने अहंकार और विवेकहीनता को पहचानते हैं। वे सभी इसका एहसास करने में सक्षम होते हैं कि उनमें बहुत-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, शैतान द्वारा मानवजाति को बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया हुआ है, और परमेश्वर के लिए मानवजाति को बचाना आसान नहीं है। हालाँकि बहुत कुछ कहा जा चुका है, फिर भी काफी कुछ कहना बाकी है। वे सभी पहचानते हैं कि मानवजाति कमजोर और दयनीय है, अंधी और अज्ञानी है। वे सभी जानते हैं कि शैतान ने ही मानवजाति को बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया है, मानवजाति की भ्रष्टता और दुष्टता का मूल कारण शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किया जाना और उसका नियंत्रण करना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद, मानवजाति शैतान के जहर से कलंकित हो गई, और इस तरह से उसने खुद में शैतान का स्वभाव पैदा कर लिया और सामान्य इंसानों की तार्किकता, जमीर और विवेक को खो दिया। लोगों में उचित और अनुचित के बीच भेद करने की क्षमता नहीं रही। यदि परमेश्वर ने मानवजाति के लिए व्यवस्थाओं की स्थापना न की होती, तो लोग यह नहीं जान पाते कि किसी को पीटना या किसी की जान ले लेना, या चोरी करना या लंपट होना उचित है या अनुचित। वे अपने क्रियाकलापों को उचित मानते और सोचते कि उन्हें इसी ढंग से कार्य करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर द्वारा व्यवस्थाओं और आदेशों की घोषणा के बाद, लोग अवगत हुए कि ये चीजें करना एक पाप है; उनकी तार्किकता थोड़ी अधिक सामान्य हो गई। बेशक, यह तार्किकता का सतही स्तर मात्र ही है, जो उनके सत्य समझ लेने के बाद स्वाभाविक रूप से अधिक अगाध हो जाएगा। अब, यदि लोग विभिन्न सत्यों को ज्यादा समझने, खुद को जानने, और अपना उचित स्थान ढूँढ़ने में सक्षम हों, और अपनी काबिलियत, बोध और सत्य समझने की क्षमता की सीमा को सटीक ढंग से माने में सक्षम हों, और यदि वे सत्य को एक मानक के रूप में उपयोग करने और यह समझने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करने में भी सक्षम हों कि परमेश्वर के प्रति भ्रष्ट इंसानों द्वारा अपनाए गए विभिन्न रवैयों में से कौन-से सकारात्मक हैं और कौन-से नहीं, और कौन-से रवैये धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और कौन-से सत्य के अनुसार हैं, तो उनकी तार्किकता और अधिक सामान्य हो जाएगी। इसलिए केवल सत्य ही लोगों को एक नया जीवन दे सकता है। लेकिन यदि तुम खुद को ज्ञान से युक्त करते हो, कुछ विशेष अभ्यासों पर जोर देते हो, और हमेशा दिखावा करते हो, हमेशा अपना प्रदर्शन करते हो, और हमेशा उस थोड़े-से पुराने, तुच्छ ज्ञान या सीख को दिखाते हो और सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या तुम यह नया जीवन प्राप्त करने में सक्षम होगे? नहीं, यह भ्रम होगा। न सिर्फ तुम इसे प्राप्त नहीं करोगे, तुम उद्धार का अवसर भी खो दोगे, और यह बहुत खतरनाक है!
तुममें से प्रत्येक ने सत्य पर अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, और अब कमोबेश तुम्हें विभिन्न प्रकार के लोगों की थोड़ी पहचान है। हालाँकि तुम बुरे लोगों और खराब लोगों को पहचान सकते हो, फिर भी तुम झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को नहीं पहचान सकते हो। अब परमेश्वर का घर धीरे-धीरे कलीसिया में से उन सब लोगों को दूर कर रहा है जो लेश मात्र भी सत्य नहीं स्वीकारते, जो अभी भी लापरवाही से कार्य करते हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हैं। यह दर्शाता है कि परमेश्वर का कार्य इस चरण तक पहुँच गया है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग जागरूक होने लगे हैं। पहले जब मैं कुछ खास लोगों के संपर्क में आया था, मुझे हमेशा भान हुआ कि उनसे एक प्रकार की “गंध” निकल रही है। किस प्रकार की गंध? यह बस वन्य पशुओं और खूंखार जानवरों जैसी गंध थी, जो किसी के उनके करीब जाने से पहले ही अपने रोएँ खड़े कर लेंगे और चिल्लाएँगे। इंसान भी जानवरों जैसे कुछ व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ये व्यवहार कैसे उत्पन्न होते हैं? ये उन भ्रष्ट शैतानी स्वभावों से उत्पन्न होते हैं जो लोगों में होते हैं। “गंध” से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि उनकी आँखों में देखने पर तुम्हें ईमानदारी नजर नहीं आती; इसके बजाय, तुम्हारा सामना एक खाली और भटकती हुई नजर से होता है। उन्हें लगता है कि वे तुम्हें आँकने में असमर्थ हैं, और इसलिए तुम्हें देखते समय उनकी आँखें भटकती हैं। जब वे बोलते हैं तो उनकी बातों में कोई खरापन भी नहीं दिखता, क्योंकि उनके भीतर गहराई में कोई खरापन नहीं है। मेरे यह कहने का क्या तात्पर्य है कि उनमें खरापन नहीं है। मेरा तात्पर्य यह है कि वे चाहे जिससे भी बातचीत करें, उनके भीतर एक रक्षात्मक अवरोध होता है। उनकी नजरों, उनकी आवाज के लहजे और उनके बोलने के ढंग में तुम्हें इस रक्षात्मक अवरोध का बोध हो सकता है। ऐसी ही गंध उनमें है; इससे व्यक्ति को लगता है कि हालाँकि उन्होंने अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी वे सत्य नहीं समझते हैं, न ही उन्होंने उद्धार के मार्ग पर कदम रखे हैं। तुम उनसे सत्य पर चाहे जैसे संगति करो, या मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करो; तुम उनसे जितनी भी ईमानदारी से पेश आओ, उन्हें पोषण दो, उनकी चरवाही करो, या मदद करो, तुम उनसे ईमानदार रवैया नहीं पा सकोगे। तो उनके भीतर क्या होता है? सतर्कता, संदेह—ये सबसे सामान्य हैं; यही नहीं, उनमें एक प्रकार की आत्मरक्षा भी है, और यह इच्छा भी कि उनके बारे में हमेशा ऊँचा सोचा जाए। इसलिए, उनके कथन, उनकी आँखों का भाव, उनके चेहरे के हाव-भाव, ये सब किसी बहुत अस्वाभाविक चीज का खुलासा करते हैं। यानी, उनकी नजरों और हाव-भाव से तुम्हें जो बोध होता है, वह उससे भिन्न होता है जो वे भीतर गहरे सोच रहे होते हैं। संक्षेप में कहूँ तो, चाहे कोई व्यक्ति दब्बू हो या सावधान हो या उसमें कोई कठिनाई हो, यदि तुम उसका खरापन नहीं देख सकते तो क्या इससे समस्या नहीं होगी? (बिल्कुल।) सचमुच यह एक समस्या है। तो हम यह कैसे बता सकते हैं? हम उनके व्यवहार या बोलने के ढंग से बता सकते हैं। वे अपने मन की बात नहीं कहते; बल्कि वे उन शब्दों को चुनते हैं जिन्हें वे उपयुक्त समझते हैं और उन चीजों के बारे में संगति करते हैं जिनके बारे में उन्होंने पहले ही सोच रखा है। यह गैर-विश्वासियों की आत्मरक्षा की रणनीति है। जब भी कोई चीज उन पर आ पड़ती है, तो वे पहले साही की तरह अपनी रक्षा करने के लिए काँटे खड़े कर लेते हैं। उनका सत्य, उनकी क्षमताएँ और प्रतिभाएँ, उनकी की हुई गलतियाँ, उनकी हैरानी—यहाँ तक कि उनका धोखा और पाखंड भी—ये सब उनके मेरुदंड में लिपट जाते हैं, बाहरी दुनिया की दृष्टि से और मेरी दृष्टि से भी दूर कर दिए जाते हैं। वे खुद को छिपाने और बढ़िया दिखाने और अपनी रक्षा करने के लिए भी जबरदस्त प्रयास करते हैं। ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? मानवजाति ने शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद ये चीजें हासिल कीं। शुरुआत में, परमेश्वर द्वारा आदम और हव्वा के सृजन के बाद, उसने उन्हें ईडन के बाग में रहने का रास्ता दिखाया; उसने उन्हें बताया कि वे किस वृक्ष के कौन-से फल खा सकते हैं, और कौन-से नहीं खा सकते। परमेश्वर के समक्ष वे नग्न थे और उन्हें कोई शर्म नहीं थी। और उन्होंने इस बारे में क्या सोचा? उन्होंने सोचा कि परमेश्वर ने इसी तरह उनका सृजन किया था, उनके पास वह सब था जो परमेश्वर ने दिया था, और उन्हें परमेश्वर से छिपने की जरूरत नहीं थी—उन्होंने कभी ऐसा करने की नहीं सोची। इसलिए, परमेश्वर के सामने वे चाहे जैसे भी दिखें, वे हमेशा खुले दिल वाले थे। तुम उनकी आँखों में ईमानदारी देख सकते थे; उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर के विरुद्ध कोई बचाव या रक्षात्मक दीवारें नहीं थीं। उन्हें परमेश्वर के समक्ष खुद की रक्षा करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि वे अपने दिल की गहराई में जानते थे कि परमेश्वर से उन्हें कोई खतरा नहीं है; वे बिल्कुल सुरक्षित हैं। परमेश्वर सिर्फ उनकी रक्षा करेगा, उनसे प्रेम करेगा और उन्हें संजोएगा। परमेश्वर उन्हें कभी हानि नहीं पहुँचाएगा। भीतर गहराई में यह उनका सबसे बुनियादी और ठोस विचार था। लेकिन इसमें बदलाव कब शुरू हुआ? (जब उन्होंने अच्छाई और बुराई के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया।) दरअसल, अच्छाई और बुराई के ज्ञान के वृक्ष से फल खाना प्रतीकात्मक है। इसका अर्थ था कि जिस क्षण शैतान ने हव्वा को सबसे पहले लुभाया, तब से वे शैतान द्वारा थोड़ा-थोड़ा लुभाए जाते रहे, वे पाप करते रहे, गलत काम करते रहे और गलत मार्ग पर चलते रहे; फिर शैतान के जहर ने उनके भीतर प्रवेश किया। इसके तुरंत बाद, परमेश्वर के आगमन से पहले, वे परमेश्वर से अक्सर छिपते रहे, इस चाह से कि परमेश्वर उन्हें ढूँढ़ न पाए। उन्होंने ऐसा क्यों किया? वे परमेश्वर से दूरी महसूस करते रहे। मगर यह दूरी कैसे पैदा हुई? इस वजह से कि उनके भीतर कुछ भिन्न था। शैतान ने उन्हें कुछ विचार और नजरिये दिए; उसने उन्हें एक प्रकार का जीवन दिया, जिसके कारण वे परमेश्वर पर शक करने लगे और उससे सतर्क रहने लगे। फिर उन्होंने फौरन सोचना शुरू कर दिया कि कहीं उन्हें नग्न देखकर परमेश्वर उनकी हँसी न उड़ाए। यह विचार कहाँ से आया? (शैतान से।) शैतान द्वारा लुभाए जाने से पहले उन्होंने इस तरह क्यों नहीं सोचा? उस वक्त, उनमें परमेश्वर का दिया हुआ सबसे आदिम जीवन था; वे परमेश्वर के हँसी उड़ाने से नहीं डरते थे, न ही उनमें ऐसे विचार थे। फिर भी शैतान द्वारा लुभाए जाने के बाद, सभी चीजें बदलने लगीं। पहले उन्होंने सोचा, “हमने कुछ नहीं पहना है। क्या परमेश्वर हम पर नहीं हँसेगा? क्या इसका यह मतलब है कि हमें कोई शर्म नहीं है?” उनके मन में सवालों की झड़ी लग गई। और इन विचारों के उत्पन्न होने के बाद, वे परमेश्वर से छिपने के सिवाय कुछ नहीं कर सके। उन्होंने जरूर मन-ही-मन सोचा, “परमेश्वर कब आ रहा है? यदि परमेश्वर आया, तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे तुरंत छुप जाना चाहिए!” उन्हें हमेशा छिपे रहने की जरूरत महसूस हुई। क्या यह भ्रष्ट स्वभाव है? (बिल्कुल।) इस भ्रष्ट स्वभाव की जड़ शैतान का प्रलोभन है। परमेश्वर से सतर्क रहकर और उससे छिपकर भी क्या वे अपने दिलों में परमश्वर में विश्वास रखेंगे? क्या वे अभी भी उस पर भरोसा करेंगे? (नहीं।) तो फिर बचा क्या? (सतर्कता।) जो चीजें बच गईं वे सिर्फ सतर्कता और संदेह थे, और साथ ही दूरी, भय और शक—ये सब चीजें आ गईं। उन्होंने यह भी सोचा, “क्या परमेश्वर हमें हानि पहुँचाएगा? हम नग्न हैं और हमारे पास ऐसी कोई चीज नहीं है जिससे खुद को बचा सकें। क्या परमेश्वर हम पर वार कर सकेगा? क्या वह हमें मार सकेगा?” यह उन्हें कभी नहीं सूझा कि उन्हें यह जीवन परमेश्वर ने दिया था, और निश्चित रूप से वह उन्हें अकारण नहीं मार डालेगा। उनके दिमाग में धुंधलका था, वे भ्रमित हो गए थे। शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता आज तक जारी है; परमेश्वर के प्रति मानवजाति के रवैए को लोगों की आँखों में देखा जा सकता है, और यह कभी नहीं बदला है। ईमानदारी जा चुकी है; सच्ची आस्था, विश्वास और परमेश्वर पर भरोसा जा चुके हैं। इन सबकी जड़ कहाँ है? (शैतान की भ्रष्टता में।) सही है, यह शैतान की भ्रष्टता में है। शैतान ने मानवजाति को भयानक रूप से हानि पहूँचाई है! हालाँकि लोग सोच सकते हैं कि शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने से पहले का समय काफी अच्छा था, लेकिन वास्तविकता में, बचाए जाने और सत्य समझने और परमेश्वर को जानने के बाद के समय की तुलना करने पर, तब की चीजें उतनी अच्छी नहीं थीं जितनी बचाए जाने के बाद हैं। यदि तुम चुन सको, तो इन दोनों परिदृश्यों में से किसे चुनोगे? (बचाए जाने के बाद का समय।) वास्तव में, लोगों के लिए किसी को भी चुनना उचित नहीं है; इंसान नहीं चुन सकते। यह परमेश्वर द्वारा नियत है, यह मानवजाति की नियति है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले, भले ही लोगों को परमेश्वर में विश्वास था और वे उस पर भरोसा करते थे, फिर भी पहले-पहल मानवजाति सत्य नहीं समझती थी और नहीं जानती थी कि परमेश्वर कौन है। आजकल, लोगों के मन में कम से कम इसकी एक अवधारणा तो है; वे जानते हैं कि मानवजाति परमेश्वर से आती है, कि वे सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। वे जानते हैं कि परमेश्वर के हाथ में सभी चीजों का नियंत्रण है। लेकिन उस वक्त लोग ये चीजें नहीं समझते थे। वे बहुत सरल थे, यानी वे परमेश्वर के उन्हें देखने या उन पर हँसने से नहीं डरते थे, और वे सभी चीजों के लिए परमेश्वर का रुख करते थे। उनके विश्वास इतने सरल थे। फिर भी, क्या वे जानते थे कि परमेश्वर कौन है? नहीं। इसलिए, परमेश्वर के किए हुए समस्त कार्य का मानवजाति के लिए अथाह मूल्य और महत्त्व है। यह सब अच्छा है। जब हम परमेश्वर के विरुद्ध मानवजाति के विद्रोह के इतिहास की बात करते हैं, तो क्या तुम लोग बहुत दुखी हो जाते हो? मानवजाति और परमेश्वर के बीच पहले जो घनिष्ठ संबंध था वह अब बहुत दूरी का हो गया है। परमेश्वर ईमानदारी से मानवजाति की रक्षा करता है, उससे प्रेम करता है, फिर भी इंसान परमेश्वर पर संदेह करते हैं; वे परमेश्वर से छिपते और उससे दूर हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे परमेश्वर को एक दुश्मन के रूप में देखते हैं। ऐसा कहने में सचमुच बहुत दुख होता है। लेकिन हम अपनी नफरत को सिर्फ शैतान की ओर मोड़ सकते हैं; शैतान ने ही मानवजाति को इतने भयावह तरीके से भ्रष्ट किया है। हालाँकि शैतान ने मानवजाति को इस हद तक भ्रष्ट किया है, फिर भी परमेश्वर के पास मानवजाति को बचाने का एक तरीका है। शैतान चाहे जैसे भी गड़बड़ी पैदा करे, इससे परमेश्वर के मानवजाति को बचाने का कार्य प्रभावित नहीं होगा। यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता है, परमेश्वर का अधिकार है।
थोड़ा-सा अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर लेने और कुछ सबक सीख लेने पर मसीह-विरोधी खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाते हैं। हमने इस विषय पर कमोबेश काफी संगति कर ली है। तुम लोगों ने इससे क्या जानकारी हासिल की है? तुम कौन-से सत्य समझते हो? (हमें ज्ञान को महत्व नहीं देना चाहिए।) यह एक पहलू है। क्या दूसरे पहलू भी हैं? (मानवजाति कभी भी सत्य नहीं है और उसे खुद को कभी परमेश्वर नहीं दिखाना चाहिए।) खुद को सत्य के रूप में दिखाना अपने आप में कोई सकारात्मक चीज नहीं है। सत्य ऐसी चीज नहीं है जो होना कोई दिखा सकता है; यह परमेश्वर का सार है। परमेश्वर तुम्हें कुछ सत्य प्रदान करता है—और थोड़ा सत्य हासिल करना पहले ही काफी है। फिर भी कुछ लोग सत्य का प्रतिरूप बनना चाहते हैं। यह असंभव है। ऐसे दावे पूरी तरह से आधारहीन हैं। इसके अलावा, यदि लोग परमेश्वर में विश्वास रखने के जरिए बचाया जाना चाहते हैं, तो उन्हें जमीनी तौर पर आचरण करना सीखना चाहिए और पूर्णता के पीछे नहीं भागना चाहिए। हालाँकि “पूर्णता” शब्द मौजूद हो सकता है, लेकिन इंसानों के पूर्ण बन जाने के विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता है। पूर्णता केवल परमेश्वर में पाई जा सकती है। भ्रष्टता से भरे हुए इंसानों में से कौन पूर्ण है? परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजें त्रुटिहीन हैं। हम इसी को “पूर्णता” कहते हैं। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों, पृथ्वी पर विचरने वाले मुर्गों और पशुओं पर विचार करो—वे सभी पूर्ण हैं। क्या तुम ऐसा कोई ढूँढ़ सकते हो जो अच्छा नहीं है? फिर सभी सजीव चीजों द्वारा बनाई गई एक जैविक श्रृंखला है—यह कितनी पूर्ण है! भ्रष्ट इंसान सिर्फ विनाश का कारण बन सकते हैं, चीजों को अधूरा, दोषपूर्ण और अपूर्ण बना सकते हैं। यह कितना स्वार्थपूर्ण और घिनौना है! परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजें अच्छी हैं। वृक्षों के पत्ते हर आकार के होते हैं; बड़े और छोटे जानवर हर कद-काठी के होते हैं, सबके अपने कार्य होते हैं। परमेश्वर मानवजाति के प्रति अत्यंत विचारशील है; लेकिन, शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवजाति सभी चीजों की देखभाल करने में विफल रही है। इसके बजाय, मानवजाति ने चीजों को तबाह किया है और परमेश्वर के कष्टसाध्य इरादे को व्यर्थ कर दिया है। इंसानों ने इन सबको संजोया नहीं है; बल्कि उन्होंने बड़ी प्रबलता से इसे तबाह किया है, सभी संसाधनों को चरम सीमा तक बर्बाद और नष्ट किया है। और इसका नतीजा क्या है? अंतिम परिणाम क्या है? जैसी करनी वैसी भरनी! पर्यावरण नष्ट हो गया है, खाद्य श्रृंखला बाधित हो गई है, वायु प्रदूषित हो गई है, और जल दूषित हो गया है। अब कोई कुदरती भोजन नहीं बचा है; पीने के लिए साफ पानी भी नहीं है। इसलिए, शैतान द्वारा भ्रष्ट इंसानों के बीच “पूर्णता” की अवधारणा मौजूद नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो सत्य का अनुसरण करने के ध्वज के नीचे पूर्ण होने का दावा करता है या पूर्णता को खोजने का दावा करता है, वह ऐसा दावा करता है जिसमें कोई दम नहीं है—यह एक कपटी, गुमराह करने वाला झूठ है। फिर भी ऐसे भ्रष्ट इंसान खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने की इच्छा रखते हैं! उन्होंने बहुत-सी खराब चीजें की हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखा सकते हैं! क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी शैतानी प्रकृति बदलती नहीं है? (बिल्कुल।) जरा भी सत्य से युक्त न होने पर भी खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने की इच्छा रखते हैं, ऐसे शैतानी लोग कितने बेशर्म हैं!
20 नवंबर 2019