मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो)

परिशिष्ट : सामान्य मानवता के तीन पहलुओं की संक्षिप्त चर्चा

अपनी संगति में इस बार हम कहानियाँ नहीं सुनाएँगे। हम एक ऐसे विषय से शुरू करेंगे जिस पर अक्सर विचार-विमर्श होता रहता है : मानवता क्या है। पहले हमने इस विषय पर काफी कुछ कहा है, और हम अब भी बोलते हैं। यह एक ऐसा विषय है जिसका अक्सर उल्लेख होता है, एक ऐसा मसला जिससे व्यक्ति का अपने जीवन में प्रतिदिन सामना होता है, एक ऐसा विषय जिसका कोई व्यक्ति प्रतिदिन सामना और अनुभव कर सकता है। विषय है कि मानवता क्या है। मानवता में बहुत-सी महत्वपूर्ण चीजें शामिल होती हैं। व्यक्ति के दैनिक जीवन में मानवता की कौन-सी सामान्य अभिव्यक्तियाँ होती हैं? (सत्यनिष्ठा और गरिमा।) और क्या? अंतरात्मा और विवेक, ठीक है? (हाँ।) तुम अक्सर उन पर बात करते हो। दूसरी और कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके बारे में तुम अक्सर बात नहीं करते? यानी, मानवता के बारे में अपनी सामान्य चर्चा में तुम लोग मूल रूप से किन विषयों को नहीं छूते? अंतरात्मा और विवेक, सत्यनिष्ठा और गरिमा—ये पुराने विषय हैं, जिनका कोई नियमित रूप से सामना करता है। अंतरात्मा, विवेक, सत्यनिष्ठा और गरिमा, जिन पर तुम लोग अक्सर विचार-विमर्श करते हो, और तुम लोगों के असल जीवन के बीच कितना बड़ा संबंध है? इस सामग्री ने तुम्हारे अभ्यास और तुम लोगों के असल जीवन में प्रवेश को कैसे सुधारा है और उसमें कैसे मदद की है? यह कितना लाभकारी रहा है? तो ऐसे कौन-सी दूसरी मद हैं जो तुम लोगों के दैनिक सामान्य मानव जीवन से नजदीकी से जुड़ी हैं? मैं कुछ नाम लूँगा और हम देखेंगे कि क्या ये वे विषय हैं जिन्हें तुम लोग नियमित रूप से देखते हो। मानवता से जुड़ी हमारी सामग्री में से पहले हम वह सामग्री अलग रख देंगे जो सकारात्मक है या नकारात्मक, और वह सामान्य मानवता से संबंधित है या असामान्य मानवता से। हमने अभी जिन मदों का उल्लेख किया उनसे परे एक मद है अपने दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति व्यवहार में लोगों का रवैया। क्या यही नहीं है? क्या इसमें मानवता शामिल नहीं है? (जरूर है।) एक और भी है, लोगों द्वारा दैनिक जीवन में अपने व्यक्तिगत परिवेश का प्रबंधन, और एक और है, दैनिक जीवन में विपरीत लिंग के साथ संपर्क में लोगों का रवैया और व्यवहार। क्या ये तीनों मद मानवता से संबंधित हैं? (हाँ।) वे सभी संबंधित हैं। अब हम जिस विषय पर विचार-विमर्श करने वाले हैं, उसके लिए हम मनुष्य के सत्य के अनुसरण, परमेश्वर में विश्वास के साथ सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करें और विभिन्न सिद्धांतों को कैसे कायम रखें, इन विषयों को अलग रख देंगे, और केवल मानवता पर बात करेंगे। तो वे तीन मद—क्या मानवता से उनका संबंध ठोस है? (हाँ।) वे तीन मद कौन-से हैं? उनका फिर से उल्लेख करो। (पहला है, अपने दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति व्यवहार में लोगों का रवैया। दूसरा है, लोगों द्वारा दैनिक जीवन में अपने व्यक्तिगत परिवेश का प्रबंधन। तीसरा है, लोगों के दैनिक जीवन में विपरीत लिंग के साथ संपर्क में लोगों का रवैया और व्यवहार।) और उन तीन मदों में क्या शामिल है? (मानवता।) हम क्यों कहते हैं कि इन तीन मदों में मानवता शामिल है, कि वे उससे संबंधित हैं? हम इन तीनों को अलग क्यों रखेंगे? हम अंतरात्मा और विवेक वाले अंश की बात क्यों नहीं कर रहे हैं? हम उन पहलुओं को अलग क्यों रख रहे हैं जिनके बारे में हम इन तीन मदों पर चर्चा करते समय आम तौर पर विचार-विमर्श करते हैं? क्या ये तीनों मद मानवता से संबंधित अंतरात्मा, विवेक, सत्यनिष्ठा और गरिमा, जिन पर हमने पहले विचार-विमर्श किया, उनसे ज्यादा उन्नत हैं या ज्यादा प्राथमिक? (वे ज्यादा प्राथमिक हैं।) तो क्या इन चीजों पर विचार-विमर्श करना तुम लोगों को तुच्छ मानना है? (नहीं।) तो हम इन पर विचार-विमर्श क्यों करेंगे? (वे व्यावहारिक हैं।) वे ज्यादा व्यावहारिक हैं। इसी वजह से यह तुम लोगों के पास है? हम इसके बारे में चर्चा क्यों करने वाले हैं? क्योंकि मुझे समस्याएँ मिली हैं; स्थितियों को लेकर जैसी कि वे हैं और वे विभिन्न व्यवहारों को लेकर जो लोगों के दैनिक जीवन में दिखाई देते हैं, मुझे कुछ समस्याएँ मिली हैं, जो लोगों के वास्तविक जीवन से नजदीकी से जुड़ी हुई हैं, और उन्हें संगति के लिए बारी-बारी से प्रस्तुत करना जरूरी है। यदि लोग परमेश्वर में अपने विश्वास में, वास्तविक जीवन, सामान्य मानवता और दैनिक जीवन के विभिन्न व्यवहारों को अलग रख दें, और दृढ़ निश्चय के साथ सत्य का अनुसरण करें—ऐसे गूढ़ सत्य जैसे कि वह व्यक्ति होना जिससे परमेश्वर प्रेम करता है—मुझे बताओ, इससे कैसी समस्याएँ पैदा होंगी? वह कौन सी बुनियादी शर्त है जिसके तहत कोई व्यक्ति सत्य के अपने अनुसरण में सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो सकता है? (उसे यह वास्तविक जीवन में करना पड़ेगा।) इसके अलावा और क्या? (उसमें सामान्य मानवता होनी चाहिए।) सही है—उसे सामान्य मानवता से युक्त होना चाहिए, जिसमें अंतरात्मा, विवेक, सत्यनिष्ठा और गरिमा के अलावा तीन मद होती हैं जिनका हमने अभी उल्लेख किया। यदि कोई मानकों पर खरा न उतर सके या मानवता को छूने वाली इन तीन मदों में सामान्यता हासिल न कर पाए, तो उस व्यक्ति के लिए सत्य का अनुसरण करने और उसे खोजने की बात करना थोड़ा खोखलापन होगा। सत्य का अनुसरण, सत्य वास्तविकता में प्रवेश का अनुसरण, उद्धार का अनुसरण—इन्हें सभी लोग हासिल नहीं कर सकते, बस थोड़े-से लोग ही कर सकते हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और सामान्य मानवता से युक्त हैं। यदि कोई यह न जानता हो कि सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति को किससे युक्त होना चाहिए, या उसे क्या करना चाहिए, या कुछ खास लोगों, घटनाओं और चीजों को लेकर उसका रवैया और नजरिया कैसा होना चाहिए, तो क्या वह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम है? क्या सत्य के उसके अनुसरण के नतीजे निकल सकते हैं? दुख की बात है कि नहीं निकल सकते।

क. विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति व्यवहार में लोगों का रवैया

हम पहली मद पर संगति से शुरू करेंगे जिसमें मानवता शामिल है : अपने दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति व्यवहार में लोगों का रवैया। सभी समझते हैं कि “दैनिक जीवन” का अर्थ क्या है। इसको विस्तार से समझाने की जरूरत नहीं है। तो फिर मानवता से संबंधित मुख्य लोग, घटनाएँ और चीजें क्या होती हैं? यानी उसमें ऐसा क्या है जो सामान्य मानवता के स्तर तक पहुँचता है, जो इसके दायरे से संबंधित है, जो इसे छूता है? (लोगों और चीजों से जुड़ना।) यह इसका एक हिस्सा है। ज्ञान और पेशेवर कौशल भी हैं जो व्यक्ति को सीखने चाहिए, और फिर दैनिक जीवन के लिए सामान्य ज्ञान भी है। सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति को जो समझना और जिनसे युक्त होना चाहिए, ये सब उसके अंश हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोग बढ़ईगिरी या राजगिरी का काम सीखते हैं और कुछ दूसरे कार चलाना या मरम्मत करना सीखते हैं। ये कौशल और शिल्प हैं, और ऐसे शिल्प को जानना उस शिल्प के पेशेवर कारोबार में पारंगत होना है। तो किसी व्यक्ति को प्रवीण कहलाने के लिए किस सीमा और किस स्तर तक कोई कौशल सीखना चाहिए? उन्हें कम-से-कम स्वीकार्य स्तर तक कोई तैयार उत्पाद बनाने में सक्षम होना चाहिए। ऐसे कुछ लोग हैं जो बहुत घटिया काम करते हैं। वे जो काम करते हैं वह सही स्तर का नहीं होता, इतना घटिया होता है कि उसे देखना भी सहन नहीं होता। उसमें समस्या क्या है? यह अपने कारोबार के प्रति उनका रवैया दर्शाता है। कुछ लोगों का रवैया ईमानदार नहीं होता। वे सोचते हैं, “मैं जो बनाता हूँ अगर उससे काम चल जाए, तो काफी है। कुछ साल इनसे काम चला लो, फिर उसे दुरुस्त करेंगे।” क्या सामान्य मानवता वाले लोगों को ऐसा नजरिया अपनाना चाहिए? (नहीं।) कुछ लोगों के रवैये बेपरवाही वाले उदासीन होते हैं। उनके लिए “ठीक-ठाक” ही बढ़िया होता है। यह एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। चीजों को इतनी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी से सँभालना एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज है : इसे लोग नीचता कहते हैं। वे अपने सारे काम “लगभग ठीक” और “काफी ठीक” की हद तक ही करते हैं; यह “शायद,” “संभवतः,” और “पाँच में से चार” का रवैया है; वे चीजों को अनमनेपन से करते हैं, यथासंभव कम से कम और झाँसा देकर काम चलाने से संतुष्ट रहते हैं; उन्हें चीजों को गंभीरता से लेने या सजग होने में कोई मतलब नहीं दिखता, और सत्य-सिद्धांतों की तलाश करने का तो उनके लिए कोई मतलब ही नहीं। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज नहीं है? क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? नहीं। इसे अहंकार कहना सही है, और इसे जिद्दी कहना भी पूरी तरह से उपयुक्त है—लेकिन इसका अर्थ पूरी तरह से ग्रहण करना हो तो, एक ही शब्द उपयुक्त होगा और वह है “नीच।” अधिकांश लोगों के भीतर नीचता होती है, बस उसकी मात्रा ही भिन्न होती है। सभी मामलों में, वे बेमन और लापरवाह ढंग से चीजें करना चाहते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें छल झलकता है। वे जब भी संभव हो दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी संभव हो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं, जब भी संभव हो समय बचाते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, “अगर मैं उजागर होने से बच सकता हूँ, और कोई समस्या पैदा नहीं करता, और मुझसे जवाब तलब नहीं किया जाता, तो मैं इसे जैसे-तैसे निपटा सकता हूँ। मुझे बहुत बढ़िया काम करने की जरूरत नहीं है, इसमें बड़ी तकलीफ है!” ऐसे लोग महारत हासिल करने के लिए कुछ नहीं सीखते, और वे अपनी पढ़ाई में कड़ी मेहनत नहीं करते या कष्ट नहीं उठाते और कीमत नहीं चुकाते। वे किसी विषय की सिर्फ सतह को खुरचना चाहते हैं और फिर यह मानते हुए कि उन्होंने जानने योग्य सब-कुछ सीख लिया है, खुद को उसमें प्रवीण कह देते हैं, और फिर जैसे-तैसे काम निपटाने के लिए वे उस पर भरोसा करते हैं। क्या दूसरे लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति लोगों का यही रवैया नहीं होता? क्या यह ठीक रवैया है? नहीं। सीधे शब्दों में कहें तो, यह काम चलाना है। ऐसी नीचता तमाम भ्रष्ट मनुष्यों में मौजूद है। जिन लोगों की मानवता में नीचता होती है, वे अपने हर चीज में काम चलाने का दृष्टिकोण और रवैया अपनाते हैं। क्या ऐसे लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में सक्षम होते हैं? नहीं। तो क्या वे चीजों को सिद्धांत के साथ कर पाने में सक्षम होते हैं? इसकी संभावना और भी कम है।

कुछ लोग जो भी करते हैं, उसके प्रति कटिबद्ध नहीं होते, बल्कि लापरवाह, अनमने और गैर-जिम्मेदार होते हैं। उदाहरण के लिए कुछ ऐसे लोग होते हैं जो गाड़ी चलाना सीख लेते हैं, पर अनुभवी ड्राइवरों से कभी नहीं पूछते कि गाड़ी चलाते समय किस बात का ध्यान रखना चाहिए, या कितनी रफ्तार से इंजन को नुकसान पहुँचेगा। वे पूछते नहीं, बस चलाते रहते हैं—और नतीजतन उनकी कार में टूट-फूट हो जाती है। वे कार को लात मारते हैं और कहते हैं, “यह चीज बड़ी भंगुर है। मुझे मर्सिडीज या बीएमडब्ल्यू दो, इस खटारा से काम नहीं चलेगा—यह पुरानी खटारा है!” यह कैसा रवैया है? वे भौतिक चीजों से प्यार-भरी परवाह से पेश नहीं आते, और उन्हें अच्छी हालत में रखने के बारे में नहीं सोचते, बल्कि जान-बूझकर उन्हें तोड़-फोड़ कर खराब कर देते हैं। कुछ लोग लापरवाह और अशिष्ट जीवन जीते हैं। वे सारा दिन हर काम उतावलेपन और लापरवाही से करते हैं। ये किस प्रकार के लोग हैं? (असावधान लोग।) “असावधान लोग” कहने का बढ़िया तरीका है—तुम्हें उन लोगों को “लापरवाह लोग” कहना चाहिए; “नीच लोग” कहना भी सटीक है। क्या कुछ ज्यादा हो गया? व्यक्ति कुलीन और नीच लोगों के बीच अंतर कैसे बता सकता है? बस कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया और उनके क्रियाकलाप देखो, और देखो कि समस्याएँ आने पर वे चीजों को कैसे लेते और कैसे व्यवहार करते हैं। सत्यनिष्ठापूर्ण और गरिमापूर्ण लोग अपने क्रियाकलापों में सजग, कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती होते हैं और वे कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। सत्यनिष्ठाहीन और गरिमाहीन लोग अपने कार्यों में अनियमित और लापरवाह होते हैं, हमेशा कोई-न-कोई चाल चलते रहते हैं, हमेशा बस खानापूरी करना चाहते हैं। चाहे वे जिस भी तकनीक का अध्ययन करें, वे उसे कर्मठता से नहीं सीखते, वे उसे सीखने में असमर्थ रहते हैं, और चाहे वे उसका अध्ययन करने में जितना भी समय लगाएँ, वे पूरी तरह से अज्ञानी बने रहते हैं। ये निम्न चरित्र के लोग हैं। ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निर्वहन में अनमने होते हैं। उसमें कौन-सा स्वभाव कार्यरत होता है? (कमीनापन।) कमीने लोग अपने कर्तव्य से कैसे पेश आते हैं? निश्चित रूप से उसके प्रति उनका रवैया सही नहीं होता, और वे निश्चित रूप से उसे अनमने ढंग से करते हैं। इसका अर्थ है कि उनमें सामान्य मानवता नहीं होती। गंभीरता से कहें तो कमीने लोग जानवरों जैसे होते हैं। यह किसी कुत्ते को पालतू जानवर के रूप में रखने जैसा है : अगर तुम उस पर नजर न रखो, तो वह चीजों को चबा डालेगा, और तुम्हारे सभी फर्नीचर और उपकरणों को नष्ट कर देगा। इससे हानि होगी। कुत्ते जानवर हैं; वे चीजों से प्यार और परवाह से पेश आने के बारे में नहीं सोचते, और तुम उनसे बहस नहीं कर सकते—तुम्हें बस उन्हें सँभालना पड़ता है। यदि तुम नहीं सँभालते, बल्कि किसी जानवर को उत्पात मचाने देते हो और अपना जीवन बाधित करने देते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम्हारी मानवता में किसी चीज की कमी है। फिर तुम किसी जानवर से ज्यादा अलग नहीं रह जाते। तुम्हारा आईक्यू बहुत कम होता है—तुम किसी काम के नहीं होते। तो फिर तुम उन्हें अच्छे-से कैसे सँभालोगे? तुम्हें किसी ऐसे तरीके के बारे में सोचना चाहिए कि उन्हें कुछ विशेष मापदंडों के भीतर सीमित रखो, या उन्हें पिंजड़े में कैद रखो और प्रतिदिन दो या तीन बार नियत समय पर बाहर आने दो, ताकि वे पर्याप्त गतिविधियाँ कर सकें। इससे उनके बेतहाशा चबाने पर रोक लगेगी और उनके स्वस्थ रहने के लिए उन्हें व्यायाम भी मिल जाएगा। इस तरह कुत्ते को अच्छी तरह सँभाला जाता है, और तुम्हारा परिवेश भी सुरक्षित रहता है। यदि कोई व्यक्ति अपने सामने वाली चीजों को न सँभाल सके और उसका रवैया सही न हो, तो उसकी मानवता में किसी चीज की कमी है। यह सामान्य मानवता के मानक पर खरा नहीं उतर सकता। या खाना बनाने के संदर्भ में : साधारण लोग तलने के लिए थोड़ा-सा तेल इस्तेमाल करते हैं, लेकिन ऐसी कुछ महिलाएँ ढेर सारा तेल डाल देती हैं। अमीर होने पर भी तुम तेल बरबाद नहीं कर सकते—तुम्हें उचित मात्रा में ही उपयोग करना चाहिए। लेकिन ये महिलाएँ इसकी परवाह नहीं करतीं; यदि उनका काबू नहीं रहता और वे तलने में ढेर सारा तेल उँडेल दें, तो वे ज्यादा तेल चम्मच से निकाल कर जमीन पर फेंक देती हैं। यह बरबादी है, है कि नहीं? भौतिक चीजों के बारे में ऐसा रवैया रखने वाले को आम तौर पर क्या कहा जाता है? “फिजूलखर्च”—या फिर अपमानित करने के लिए “उड़ाऊ” कहा जाता है। भौतिक चीजें कहाँ से आती हैं? ये परमेश्वर द्वारा दी जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने अपनी चीजें खुद कमाई हैं—लेकिन अगर ये परमेश्वर द्वारा न दी जातीं, तो तुम कितना कमा पाते? उसने तुम्हें तुम्हारा जीवन दिया। अगर उसने तुम्हें तुम्हारा जीवन न दिया होता, तो तुम्हारे पास कुछ भी न होता और तुम भी कुछ न होते, तब भी क्या तुम्हारे पास तुम्हारी वे भौतिक चीजें होतीं? परमेश्वर ने तुम्हें औसत परिवार से कदाचित ज्यादा दिया हो, लेकिन जिस रवैये या दृष्टिकोण से तुम उसे बरबाद करते हो, क्या वह सही है? मानवता के संदर्भ में इसे कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? ऐसे व्यक्ति की मानवता खराब है। फिजूलखर्ची, चीजें बरबाद करना, चीजों से प्यार और परवाह से पेश आने के बारे में न जानना—ऐसे व्यक्ति के पास सामान्य मानवता नहीं होती। कुछ लोग परमेश्वर के घर की चीजों को सावधानी से सँभालने के बारे में सोचते भी नहीं। कोई चीज परमेश्वर के घर की है। वे इसे देखते हैं। फिर भी यदि बारिश होने वाली हो, और अगर वह भीगने से खराब हो जाने वाली हो, तो वे क्या सोचेंगे? “यह भीग भी जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है। यह मेरी अपनी चीज तो नहीं है। मैं इसे ऐसे ही छोड़ दूँगा।” फिर वे चले जाएँगे। इस रवैये को क्या कहा जाता है? स्वार्थपरता। क्या वे अपनी सोच में ईमानदार हैं? अगर नहीं, तो फिर वे क्या हैं? (कुटिल।) यदि कोई व्यक्ति ईमानदार नहीं है, तो क्या वह कुटिल नहीं है? जो लोग अपनी सोच में ईमानदार नहीं होते, क्या उनमें सामान्य मानवता होती है? बिल्कुल नहीं। अपनी पहली मद, विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति व्यवहार में लोगों के रवैये को लेकर हमने अब तक कितनी चीजों पर बात की है? एक है कमीनापन, नीचता। इसके अलावा? (अधम और कुटिल होना।) ऐसी बोलचाल वाली भाषा—क्या तुम लोग अपने दैनिक जीवन में आत्मचिंतन करते समय, खुद को जानते समय और अपना गहन विश्लेषण करते समय ऐसे शब्दों का उपयोग करते हो? (नहीं।) कोई नहीं करता। तो तुम लोग कौन-से शब्दों का उपयोग करते हो? तुम दिखावटी शब्दों में बोलते हो—कोई भी ऐसी रोजमर्रा की भाषा का प्रयोग नहीं करता।

बहुत-से लोग खुद को खूब महान समझते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। जो लोग किसी कौशल और पेशेवर ज्ञान, या खास तौर से उन्नत डिग्रियों वाले हैं, उन्हें लगता है कि वे साधारण लोगों से ऊँचे हैं। अपने आप से खुश होकर वे सोचते हैं, “मैंने दुनिया में अपना बढ़िया करियर भी छोड़ दिया, और मैं परमेश्वर के घर मुफ्त का खाने के लिए नहीं आया। मुझ जैसा कुशल व्यक्ति परमेश्वर के घर में योगदान दे सकता है। मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाता हूँ और कष्ट सहता हूँ। मैं सामुदायिक रिहाइश में इन आम लोगों के साथ कमरा और खाना भी साझा करता हूँ। मैं कितना गुणवान हूँ!” वे सोचते हैं कि उनमें विशेष गौरवयोग्य सत्यनिष्ठा है, कि वे बाकी सभी लोगों से अधिक श्रेष्ठ हैं। उन्हें इस बात से निरंतर खुशी मिलती है। तथ्य यह है कि उनकी मानवता से बहुत-सी चीजें गुम होती हैं, और न सिर्फ वे इस बारे में नहीं जानते, बल्कि वे सातवें आसमान पर होते हैं, यह सोचते रहते हैं कि वे महान हैं, कि उनका चरित्र साधारण लोगों से काफी शानदार है। दरअसल, उनमें एक भी चीज ऐसी नहीं होती जो उस “सामान्य” शब्द की परिभाषा पर खरी उतरती हो, जो “सामान्य मानवता” में “मानवता” शब्द से पहले आता है। उनमें कुछ भी उस स्तर का नहीं होता; हर चीज बहुत कम रह जाती है। उनकी अंतरात्मा? उनमें है ही नहीं। उनका चरित्र? यह अच्छा नहीं होता। उनकी सत्यनिष्ठा और गुण? इनमें से कुछ भी अच्छा नहीं होता। जब सब लोग एक साथ रहते हों और उनमें से कुछ लोगों के पास कोई अनमोल चीज हो, तो वे इसे खुला छोड़ने की हिम्मत नहीं करेंगे। ऐसा क्यों होता है? इसका एक अंश यह है कि वे दूसरों पर विश्वास नहीं करते, और दूसरा यह कि जहाँ अनेक लोग होते हैं, वहाँ अविश्वसनीय लोग होते हैं, और उनमें से कुछ का रुझान चोरी का हो सकता है—वे चोरी भी कर सकते हैं। इन लोगों का चरित्र खराब होता है। कुछ लोग खाना खाते समय सबसे बढ़िया निवाले उठाने को तैयार रहते हैं, और वे उन्हें भरपेट खाते हैं, उनके पीछे चाहे कितने भी लोगों ने खाना न खाया हो। क्या यह अत्यधिक स्वार्थपरता नहीं हैं? कुछ ऐसे होते हैं जो खाना खाते समय दूसरों का ध्यान रखते हैं। यह क्या दर्शाता है? यह दिखाता है कि ये समझदार लोग हैं जो दूसरों का ध्यान रखते हैं। वे थोड़ा कम खाएँगे, ताकि दूसरों के लिए थोड़ा बच जाए। गुणवान होने के यही मायने हैं। परमेश्वर के घर में, कुछ लोगों में मानवता होती है, जबकि कुछ लोगों में इसकी कमी होती है। वे सामान्य मानवता के मानकों पर भी खरे नहीं उतर सकते। जिन व्यवहारों का मैंने जिक्र किया उन पर नजर डालें, तो क्या तुम लोगों के बीच सामान्य मानवता वाले लोग बहुत-से हैं? या ज्यादा लोग नहीं हैं? जब तुम लोग आम तौर पर ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करते हो, तो क्या तुम लोग यह एहसास करने में सक्षम होते हो कि ये समस्याएँ हैं? जब तुम कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो क्या तुम्हें पता होता है? यदि तुम इसे जानते हो, महसूस कर सकते हो, और बदलाव करने को तैयार हो, तो तुममें थोड़ी-सी मानवता है—बस इसे अभी सामान्यता हासिल नहीं हुई है। यदि तुम्हें यह पता ही न हो, तो क्या तुम्हें मानवता वाले किसी व्यक्ति के रूप में गिना जा सकता है? नहीं गिना जा सकता। यह अच्छी या बुरी मानवता, सामान्य या असामान्य मानवता का प्रश्न नहीं है—तुममें मानवता है ही नहीं। उदाहरण के लिए, भोजन के समय ब्रेज्ड पोर्क की प्लेट बाहर आते देखते ही कुछ लोग उन पर झपट पड़ते हैं, फिर चाहे टुकड़े मांसल हों या पतले, और तब तक नहीं रुकते जब तक वे खत्म नहीं हो जाते। क्या तुम लोगों ने जानवरों को खाने के लिए लड़ते हुए देखा है? (हाँ।) यही दृश्य होता है, मगर जानवरों के साथ; इंसानों के बीच क्या यह लड़ाई सामान्य मानवता का अंश है? (यह सामान्य मानवता नहीं है।) सामान्य मानवता वाले लोग क्या करेंगे? (वे जो भी मिले उससे खुश रहेंगे, लालची नहीं होंगे।) इस बात को कहने का यह बहुत ही तथ्यात्मक तरीका है। तो फिर कोई लालची कैसे नहीं हो सकता? इस मसले के प्रति कैसे विचार और कैसा ध्यान सामान्य मानवता वाले लोगों की सोच में होना चाहिए, जिसके जरिए कोई सटीकता के साथ कार्य कर सके? सबसे पहले, तुम्हारी सोच सही होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कोई महिला सोचेगी, “आज ढेर सारा ब्रेज्ड पोर्क है। मैं ज्यादा खाना चाहती हूँ, मगर थोड़ी लज्जित हूँ कि मैं भाइयों से घिरी हुई हूँ। मुझे क्या करना चाहिए? सोचती हूँ उनके खा लेने तक खाने का इंतजार करूँ। मैं नहीं चाहती कि दूसरे यह सोचें कि मुझ जैसी महिला इतनी पेटू कैसे हो सकती है। यह कितना अपमानजनक होगा!” किसी महिला के लिए इस तरह से सोचना सामान्य होगा क्योंकि महिलाएँ आम तौर पर थोड़ी संवेदनशील होती हैं। ज्यादातर पुरुष सोचेंगे, “ब्रेज्ड पोर्क लाजवाब है। मैं बस जाकर भरपेट खा लेता हूँ।” वे अपनी चॉपस्टिक्स लेकर पहुँचने वाले लोगों में सबसे पहले होंगे, उन्हें परवाह नहीं होगी कि दूसरे क्या सोचेंगे। लेकिन कुछ पुरुष थोड़े ज्यादा तार्किक होते हैं। एक निवाला खाने के बाद वे इस बारे में थोड़ा सोचते हैं : “मेरे पीछे इतने सारे लोग हैं जिन्होंने अभी खाया नहीं है। मुझे रुक जाना चाहिए और दूसरों के लिए थोड़ा छोड़ देना चाहिए।” यह तथ्य कि वे इस तरह सोच सकते हैं और कार्य कर सकते हैं यह दर्शाता है कि वे विवेकपूर्ण व्यक्ति हैं और उनमें सहज रूप से सामान्य मानवता है। कुछ लोग बेतुके भटकाव में चले जाते हैं : “परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग ब्रेज्ड पोर्क खाएँ, इसलिए मैं एक निवाला भी नहीं खाऊँगा। इसका अर्थ है कि मुझमें और अधिक मानवता है, है कि नहीं?” यह बेतुकी सोच है। इस उदाहरण से मैं क्या प्रदर्शित कर रहा हूँ? यह कि लोगों को हर प्रकार के व्यक्ति, घटना और चीज के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए। व्यक्ति इस सही रवैए तक उस विचार के जरिए पहुँचता है जो मानवता की तार्किकता, अंतरात्मा, सत्यनिष्ठा और गरिमा के परिप्रेक्ष्य से किया जाता है। यदि तुम ऐसी मानसिकता से अभ्यास करते हो, तो तुम मूल रूप से सामान्य मानवता के अनुरूप रहोगे।

लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति किसी का रवैया इससे अलग कुछ नहीं होता कि उनके दैनिक जीवन में लोगों और चीजों से जुड़ाव किस रूप में अभिव्यक्त होता है। हो सकता है इन अभिव्यक्तियों का तुम्हारे किए जाने वाले कार्य से कोई ज्यादा लेना-देना न हो, या वे इससे काफी दूर हों, लेकिन परमेश्वर में विश्वास खोखला नहीं होता : परमेश्वर के विश्वासी शून्य में नहीं रहते, बल्कि वास्तविक जीवन में रहते हैं। उन्हें वास्तविक जीवन से अनासक्त नहीं होना चाहिए। चाहे यह पेशेवर कौशलों के प्रति हो या किसी चीज को लेकर सामान्य बुद्धि या ज्ञान के बारे में हो, लोगों को किस प्रकार का रवैया और सोच रखनी चाहिए? क्या हमेशा भ्रमित रहने की मानसिकता सही होती है? कुछ लोग इन चीजों को लेकर हमेशा भ्रमित रहते हैं—क्या इससे काम चलेगा? क्या उन्हें अपने दृष्टिकोण से कोई समस्या नहीं होती? उनके दृष्टिकोण की समस्या उसका एक अंश है; इससे परे, इसका लेना-देना उनके चरित्र से होता है। बड़े लाल अजगर ने चीन पर हजारों वर्षों से शासन किया है, हमेशा अभियानों और संघर्षों में संलग्न रहा है। इससे अर्थतंत्र का विकास नहीं होता, और यह आम लोगों के जीवन के बारे में नहीं सोचता। अंततः लोगों ने इसके साथ बहते जाने की एक प्रकार की नीचता को बढ़ावा दिया। अपने हर काम में वे अनमने होते हैं और एक अदूरदर्शी नजरिया पालते हैं। अपने किसी भी अध्ययन में वे उत्कृष्टता का लक्ष्य नहीं रखते, न ही वे यह हासिल कर सकते हैं। वे हमेशा एक अदूरदर्शी नजरिए से काम करते हैं : वे देखते हैं कि बाजार की जरूरतें क्या हैं, और फिर जल्दी से वे चीजें बनाने में लग जाते हैं, और धन-दौलत कमाने तक किसी चीज के बारे में नहीं सोचते। वे इस नींव से ऊपर नहीं बढ़ते, आगे वैज्ञानिक शोध नहीं करते या और अधिक पूर्ण श्रेष्ठता पाने का प्रयास नहीं करते, और अंतिम परिणाम यह होता है कि चीन के हल्के उद्योग, भारी उद्योग, और वैसे ही तमाम दूसरे क्षेत्र भी विश्व मंच पर कोई अत्याधुनिक उत्पाद पेश नहीं कर पाते। फिर भी चीनी लोग शेखी बघारते हैं : “यहाँ चीन में हमारे पास 5,000 साल की अव्वल दर्जे की पारंपरिक संस्कृति है। हम चीनी लोग दयालु और मेहनती होते हैं।” तो फिर चीन लोगों को ठगने के लिए नकली चीजें क्यों बनाता है? उनके पास ऐसी कोई चीज क्यों नहीं हैं जो विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सके? वहाँ क्या चल रहा है? क्या चीन के पास अत्याधुनिक उत्पाद हैं? चीनी लोगों के पास एक “अत्याधुनिक चीज” अवश्य है, और वह है नकल करने और खोटी चीजें बनाने का कौशल—धोखा देने का। इसी में उनकी नीचता मौजूद होती है। कुछ लोग कहेंगे, “तुम हमें इस तरह से क्यों दर्शाते हो? क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह हमें छोटा और नीचा दिखाता है।” ऐसी बात है? चीनियों द्वारा किए जाने वाले काम को देखें तो सचमुच कहा जा सकता है कि यह सच है। क्या बाजार में या आम लोगों में कुछ ऐसे चीनी लोग हैं, जो अपना उचित काम करते हैं? बहुत कम, और जो लोग अपना उचित कार्य करना भी चाहते हैं वे यह देखकर अपनी दृढ़ता खो देते हैं कि सामाजिक परिवेश कितना प्रतिकूल है और अपना उचित कार्य करने वालों के लिए कुछ अच्छा नहीं होता। वे कोशिश करना बंद कर देते हैं और छोड़ देते हैं।

वे चीजें जो मानवता को छूती हैं—वे दृष्टिकोण, विचार और मत, जो लोग अन्य लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति अपने व्यवहार में प्रकट करते हैं—बहुत अर्थपूर्ण हैं। वे चीजें क्या बताती हैं? वे बताती हैं कि कोई यह कैसे देख सकता है कि किसी व्यक्ति का चरित्र कैसा है, वह सभ्य और ईमानदार व्यक्ति है या नहीं। सभ्य और ईमानदार होना क्या होता है? क्या पारंपरिक होना सभ्य और ईमानदार होना है? क्या शिष्ट और तमीजदार होना सभ्य और ईमानदार होना है? (नहीं।) क्या नियमों का अक्षरशः पालन करना सभ्य और ईमानदार होना होता है? (नहीं।) इनमें से कुछ भी नहीं होता। तो सभ्य और ईमानदार होना क्या होता है? अगर कोई व्यक्ति वास्तव में सभ्य और ईमानदार है, तो चाहे वे कुछ भी करें, वे उसे एक विशेष मानसिकता के साथ करते हैं : “चाहे मुझे यह काम करना पसंद हो या नहीं, और चाहे यह मेरे हितों के दायरे में आता हो या नहीं, या चाहे यह ऐसी चीज हो जिसमें मेरी कोई दिलचस्पी न हो—यह मुझे करने के लिए दिया गया था, और मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा। मैं एकदम आरंभ से इसका अध्ययन करना शुरू करूँगा, और अपने पैर जमीन पर रखते हुए, मैं इसे एक बार में एक कदम उठाकर करूँगा। अंत में, चाहे मैं कार्य में कितनी भी प्रगति कर पाया हूँ, मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया होगा।” कम से कम तुममें ऐसा रवैया और मानसिकता है जो जमीन से जुड़ी है। अगर तुम जिस क्षण से कोई कार्य लेते हो, उसी क्षण से उसे अव्यवस्थित रूप से करते हो और उसकी जरा भी परवाह नहीं करते—अगर तुम उसे गंभीरता से नहीं लेते, और प्रासंगिक संसाधनों को नहीं देखते, विस्तृत तैयारी नहीं करते, या खोजते और दूसरों से परामर्श नहीं लेते; और इसके अतिरिक्त, अगर तुम इस चीज का अध्ययन करने में लगने वाला समय नहीं बढ़ाते, ताकि तुम उसमें लगातार सुधार करते हुए उस कौशल या पेशे में महारत हासिल कर सको, बल्कि उसके प्रति एक लापरवाही भरा और जैसे-तैसे निपटाने का रवैया अपनाए रखते हो, तो यह तुम्हारी मानवता की समस्या है। क्या यह सिर्फ अव्यवस्थित तरीके से काम करना नहीं है? कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारे द्वारा मुझे इस तरह का काम दिया जाना पसंद नहीं है।” अगर तुम्हें वह पसंद नहीं है, तो उसे स्वीकार मत करो—और अगर तुम उसे स्वीकार करते हो, तो तुम्हें उसे एक गंभीर, जिम्मेदारी भरे रवैये के साथ लेना चाहिए। तुम्हारा ऐसा ही रवैया होना चाहिए। क्या सामान्य मानवता वाले लोगों में यह नहीं होना चाहिए? सभ्य और ईमानदार होना यही है। सामान्य मानवता के इस पहलू में, तुममें कम-से-कम सामान्य मनुष्य की दत्तचित्तता, कर्तव्यनिष्ठा, और कीमत चुकाने की इच्छा के साथ-साथ उसका जमीन से जुड़े होने का रवैया, उसकी ईमानदारी और जिम्मेदारी की भावना होनी आवश्यक है। इन चीजों का होना काफी है।

कलीसिया में तमाम तरह के लोग होते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे बेहतर मानवता वाले होते हैं, और जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, तो उन्हें आसानी से सुधार दिया जाता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे बदतर मानवता वाले होते हैं। यदि कोई व्यक्ति ध्यान न दे और परमेश्वर के आदेश के प्रति गैर-जिम्मेदारी दिखाए, तो क्या वह श्रेय के अयोग्य नहीं है? ऐसी मानवता बेकार होती है और इसका कोई मूल्य नहीं होता। यह अधम होती है। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो। यदि तुम अपने आदेश के प्रति अनमने और गैर-जिम्मेदार रवैये से पेश आते हो, चाहे वह तुम्हारे लिए परमेश्वर का आदेश हो या कलीसिया का, तो क्या तुम्हारा रवैया वैसा है जो सामान्य मानवता वाले का होना चाहिए? शायद कुछ लोग कहें, “मैं भाई-बहनों द्वारा मुझे करने के लिए दिए गए कार्य को गंभीरता से नहीं लेता, लेकिन मैं गारंटी देता हूँ कि मैं उन चीजों में सफल रहूँगा जो परमेश्वर मुझे करने के लिए देगा। मैं उनसे अच्छी तरह पेश आऊँगा।” क्या यह सही भावना है? (नहीं।) यह किस तरह से सही नहीं है? जिस व्यक्ति की कोई साख नहीं है और जिसमें सदगुणों की कमी है, जिसकी मानवता में इन चीजों का अभाव है—वह किसके प्रति सच्चा हो सकता है? किसी के प्रति भी नहीं। अपने खुद के मामलों में भी वह धोखा देता है और खानापूर्ति करता है। क्या ऐसा व्यक्ति नीच और बेकार नहीं है? यदि कोई व्यक्ति दूसरे लोगों द्वारा दिए गए काम पर ध्यान दे, जिम्मेदारी ले और चीजों के साथ विश्वसनीय हो, तो क्या उसने परमेश्वर का जो आदेश स्वीकार किया है उसे वह बदतर ढंग से निभाएगा? यदि अंतरात्मा और विवेक वाला कोई व्यक्ति सत्य को समझता हो, तो उसे परमेश्वर से स्वीकृत आदेश और अपने कर्तव्य निर्वहन के साथ खराब कार्य नहीं करना चाहिए। वह निश्चित रूप से उस व्यक्ति से काफी बेहतर करेगा जिसमें अंतरात्मा और सदगुण नहीं हैं। यही उनके चरित्र का अंतर होता है। कुछ लोग कहते हैं, “यदि तुम मुझसे किसी कुत्ते या बिल्ली की देखभाल करने को कहोगे, तो मैं उसे गंभीरता से नहीं लूँगा, लेकिन यदि मुझे परमेश्वर के घर का कोई महत्वपूर्ण कार्य दिया गया, तो मैं निश्चित रूप से इसे बढ़िया ढंग से करूँगा।” क्या यह मान्य है? (नहीं।) क्यों नहीं? आदेश चाहे जो हो, यदि किसी के लिए छोटे-बड़े सभी मामलों में एक जैसा सही दृष्टिकोण हो, और वह दिल से सही और श्रेष्ठ हो, उसमें सत्यनिष्ठा और साख हो, उसके आचरण में नैतिकता हो, तो यह अनमोल होता है, यह भिन्न होता है। ऐसे लोग किसी भी मामले पर अपनी संपूर्ण नैतिकता और साख से ध्यान देते हैं। यदि कोई अनैतिक और श्रेय के लिए अयोग्य व्यक्ति कहे, “यदि परमेश्वर मुझे सीधे किसी काम का आदेश दे, तो मैं उसे जरूर अच्छे से करूँगा,” तो क्या यह सच्चा कथन होगा? यह कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर कही गई और कपटपूर्ण बात होगी। अंतरात्मा और विवेक के बिना तुम दूसरों के लिए विश्वसनीय कैसे हो सकते हो? तुम्हारे शब्द खोखले होंगे—वे एक चाल होंगे। एक बार परमेश्वर के घर में किसी स्थान की सुरक्षा के लिए दो छोटे कुत्ते थे। उनकी देखभाल करने के लिए किसी व्यक्ति की व्यवस्था की गई, और उसने उन्हें अपना ही समझकर उनकी देखरेख की और उन्हें सँभाला। वह व्यक्ति कुत्तों का खास प्रेमी नहीं था, मगर वह उनकी अच्छी तरह देखभाल करता था। जब कोई कुत्ता बीमार पड़ता तो वह उसका इलाज करता, उसे नहलाता और सही वक्त पर उसे खाना खिलाता। उसे कुत्ते पसंद नहीं थे, लेकिन उसने उन कुत्तों की देखभाल को अपने आदेश और जिम्मेदारी के रूप में लिया। क्या यहाँ ऐसा कुछ नहीं है जो मानवता में होना चाहिए? उसमें मानवता थी, इसलिए उसने वह काम अच्छे से किया। बाद में दोनों कुत्ते देखभाल के लिए किसी दूसरे को सौंप दिए गए, और उसी महीने वे दयनीय रूप से दुबले हो गए। क्या हुआ था? कुत्तों के बीमार पड़ने पर कोई उनकी देखभाल या उन पर ध्यान नहीं देता था, और उनकी खराब मनःस्थिति से उनकी भूख प्रभावित हुई। इसी वजह से वे इतने दुबले हो गए; उस व्यक्ति ने उनकी ऐसी देखभाल की। क्या लोगों के बीच कोई अंतर है? (हाँ।) कहाँ? (उनकी मानवता में।) जो व्यक्ति कुत्तों की अच्छी देखभाल करता था, क्या वह अनेक सत्य अच्छी तरह समझता था? जरूरी नहीं है। और जो उनकी खराब ढंग से देखभाल करता था, जरूरी नहीं कि उसने कम समय के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा हो। तो फिर इन दोनों के बीच इतना बड़ा अंतर क्यों है? इस वजह से कि उनके चरित्र अलग हैं। कुछ लोग साख वाले होते हैं। जब वे किसी को वचन देते हैं, तो वे अंत में अपना लेखा-जोखा देने में सक्षम होंगे, चाहे उन्हें वह काम पसंद हो या न हो। जब वे कोई काम हाथ में लेते हैं, तो निश्चित रूप से वे उसे जैसे-तैसे करवा ही लेते हैं। वे दूसरों से मिले श्रेय पर खरे उतरते हैं, और अपने दिल से भी खरे उतरते हैं। उनमें अंतरात्मा होती है, और वे उसी से सभी चीजें मापते हैं। कुछ लोगों में अंतरात्मा होती ही नहीं है। वे वचन देंगे, मगर बाद में उसे निभाने के लिए कुछ नहीं करेंगे। वे नहीं कहेंगे, “उन्होंने मुझमें विश्वास रखा। मुझे उनका विश्वास बनाए रखने के लिए काम अच्छे ढंग से करना होगा।” उनके दिल में यह बात नहीं होती, और वे इस तरह से नहीं सोचते। क्या यह मानवता का अंतर नहीं है? मुझे बताओ, जिस व्यक्ति ने अच्छा काम किया, क्या उसे ऐसा करना श्रमसाध्य लगा? उसे यह बहुत थकाऊ या श्रमसाध्य नहीं लगा। उसने अच्छा काम कैसे करें यह सोचने में अपना दिमाग नहीं खपाया, और उसने इस काम को लेकर अक्सर प्रार्थना भी नहीं की। उसे दिल से मालूम था कि क्या करना उचित है, इसलिए उसने वह बोझ हाथ में लिया। जो व्यक्ति बोझ उठाने को तैयार नहीं था, उसने भी कर्तव्य को स्वीकार किया और फिर इसके बाद यह उसे एक झंझट जैसा लगने लगा। कुत्तों के भौंकने पर वह चिड़चिड़ा जाता और उन्हें फटकारता : “भौंको, भौंकोगे? एक बार और भौंको और मैं लात मार कर तुम्हें मार डालूँगा!” क्या यहाँ मानवता में अंतर नहीं है? जरूर है, बहुत बड़ा अंतर है। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जब तुम उन्हें कोई काम सौंपते हो, तो उन्हें चिड़चिड़ाहट पैदा होती है, एक झंझट लगता है, कि तुम उन्हें बहुत कम आजादी दे रहे हो। “एक और काम? मेरे पास पहले ही ढेरों काम हैं—मैं यहाँ बस मटरगश्ती नहीं कर रहा हूँ!” और इसलिए वे वह काम किसी और को देने, अपनी जिम्मेदारी न निभाने, और खुद को माफी देने के लिए तमाम तरह के बहाने बनाते हैं। उनमें बिल्कुल भी अंतरात्मा और विवेक नहीं होता, न ही वे खुद की जाँच करते हैं, इसके बजाय वे अपनी खराब मानवता की माफी के लिए औचित्य ढूँढ़ते हैं और बहाने बनाते हैं। खराब मानवता वाले लोग इसी तरह व्यवहार करते हैं। तो फिर क्या ऐसा व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? वह सत्य से प्रेम नहीं करता, और वह सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता। क्या बात ऐसी नहीं है? वह न तो सामान्य मानवता से युक्त होता है, न ही सकारात्मक चीजों की वास्तविकता से। उसके भीतर वह सार नहीं होता। तो सत्य और सामान्य मानवता के बीच क्या संबंध है? सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और सत्य का अभ्यास करने के लिए किसी व्यक्ति की मानवता के भीतर क्या होना चाहिए? सबसे पहले उसके भीतर अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए। वह जो भी करे, उसका रवैया, सोच और दृष्टिकोण सही होना चाहिए। सिर्फ इन्हीं चीजों से किसी में सामान्य मानवता हो सकती है—और केवल सामान्य मानवता से युक्त होकर ही कोई सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है।

ख. लोगों द्वारा अपने व्यक्तिगत परिवेश का प्रबंधन

दूसरी मद : लोगों द्वारा दैनिक जीवन में अपने व्यक्तिगत परिवेश का प्रबंधन। सामान्य मानवता का कौन-सा क्षेत्र इस मद के साथ जुड़ा हुआ है? (किसी के जीने के परिवेश से।) और इसमें क्या शामिल है? इसमें मुख्य रूप से दो व्यापक क्षेत्र शामिल हैं : व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है वह उसके व्यक्तिगत जीवन और जिन सार्वजनिक परिवेशों के संपर्क में वह आता है, वहीं तक फैला होता है। और इन दो व्यापक क्षेत्रों में विशेष तौर पर क्या शामिल होता है? व्यक्ति की जीवनशैली, और साथ ही स्वच्छता और परिवेश का उसका प्रबंधन। इसे और बारीकी से देखें, तो किसी की जीवनशैली में क्या शामिल होता है? काम और आराम, आहार, रोजमर्रा में अपने स्वास्थ्य का संरक्षण और दैनिक जीवन के बारे में सामान्य ज्ञान जैसी चीजें। हम पहली चीज, काम और आराम, से शुरू करेंगे। उन्हें नियमित और नियत तरीके से किया जाना चाहिए। विशेष परिस्थितियों, जैसे जब किसी को काम के कारण देर तक जागना पड़ता हो या अधिक समय तक काम करना पड़ता हो, उसके बाहर काम और आराम ज्यादातर नियमित और नियत होना चाहिए। यही सही तरीका है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो रात में जागना पसंद करते हैं। वे रात को सोते नहीं हैं, बल्कि खुद को तमाम चीजों में व्यस्त रखते हैं। वे तब तक सोने नहीं जाते जब तक दूसरे सुबह जल्दी जाग कर अपना काम शुरू नहीं कर देते, और जब दूसरे रात में सोने जाते हैं, तब वे उठकर काम शुरू करते हैं। क्या ऐसे लोग नहीं होते? हमेशा दूसरों से तालमेल बिठाने में असमर्थ, हमेशा विशेष बने रहने वाले—ऐसे लोग ज्यादा समझदार नहीं होते। विशेष मामलों को छोड़ दें, तो सामान्य परिस्थितियों में सभी के लय-ताल मूल रूप से मिले हुए होने चाहिए। अगला क्या है? (आहार।) सामान्य मानवता की आहार संबंधी जरूरतों को हासिल करना आसान है, है कि नहीं? (हाँ।) यह आसान है। लेकिन क्या लोगों में आहार को लेकर कुछ भ्रांतिपूर्ण नजरिए नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, “हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और सब-कुछ उसके हाथ में है। ऐसा कुछ खाना संभव ही नहीं है कि किसी के पेट को हानि पहुँचे। हमें जो भी पसंद हो वह हम अपनी मर्जी से खुलकर खाएँगे। परमेश्वर हमारी रक्षा करता है, इसलिए यह कोई मुद्दा है ही नहीं।” क्या ऐसी समझ वाले लोग नहीं होते? इस बात में क्या कुछ थोड़ा विकृत नहीं है? इस प्रकार की समझ असामान्य होती है; ऐसी समझ वाले अपनी सोच में सामान्य नहीं होते। कुछ दूसरे लोग भी होते हैं, जो जीवन के सामान्य, व्यावहारिक ज्ञान को देह-सुख के लिए विचारशीलता दिखाने के साथ मिला देते हैं। वे मानते हैं कि जीने के लिए व्यावहारिक ज्ञान पर ध्यान देना देह-सुख पर ध्यान देना है। क्या ऐसा मानने वाले लोग नहीं होते? (बिल्कुल होते हैं।) उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को पेट की तकलीफें होती है और वे मसालेदार, उत्तेजक चीजें नहीं खाते। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो उनसे कहते हैं, “यह तुम्हारी आहार संबंधी पसंद है; तुम देह-सुख पर ध्यान दे रहे हो। तुम्हें उससे विद्रोह करना चाहिए। तुम जिन जगहों में जाओगे, वहाँ वही खाना मिलता है, और तुम्हें यही खाना पड़ेगा। कैसे नहीं खाओगे?” क्या ऐसी समझ वाले लोग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) कुछ लोग कोई खास चीज नहीं खा सकते, फिर भी वही खाने पर जोर देते हैं, तकलीफ झेलते हैं, ताकि वे देह से विद्रोह कर सकें। मैं कहता हूँ, “अगर तुम न खाना चाहो, तो तुम्हें यह न खाने की इजाजत है। तुम नहीं खाओगे तो कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा।” वे कहते हैं, “नहीं, मुझे खाना है!” उस स्थिति में वे तकलीफ के लायक हैं। यह परेशानी उन्होंने खुद मोल ली है। वे अपने लिए विनियम खुद तय करते हैं, इसलिए उन्हें ही इनको बनाए रखना होगा। तो क्या उस चीज को न खाना गलत होगा? (नहीं।) गलत नहीं होगा। स्वास्थ्य की कुछ खास स्थितियों के कारण दूसरे कुछ लोगों को खाने की कुछ चीजों से एलर्जी होती है। उन्हें इन चीजों से बचना चाहिए और उन्हें नहीं खाना चाहिए। कुछ लोगों को काली मिर्च से एलर्जी होती है, और इसलिए उन्हें यह नहीं खानी चाहिए, फिर भी वे इसे खाने पर जोर देते हैं। वे उसे इस यकीन के साथ खाते रहते हैं कि देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने का यही अर्थ है। क्या यह विकृत समझ नहीं है? बिल्कुल है। यदि वे किसी खास चीज को खाने योग्य स्वस्थ नहीं हैं, तो उन्हें नहीं खाना चाहिए। वे किस चीज के लिए अपनी देह से लड़ रहे हैं? क्या यह उनकी लापरवाही नहीं है? (हाँ, है।) उस विनियम पर कायम रहने की कोई जरूरत नहीं है, न ही अपनी देह के खिलाफ इस तरह से विद्रोह करने की जरूरत है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी शारीरिक अवस्था होती है : कुछ का पेट खराब होता है; कुछ के दिल कमजोर होते हैं; कुछ की आँखें कमजोर होती हैं; कुछ को पसीना ज्यादा आता है; कुछ लोगों को कभी पसीना नहीं आता। प्रत्येक व्यक्ति की अवस्था भिन्न होती है; तुम्हें अपनी अवस्था के हिसाब से समायोजन करना चाहिए। एक एकल वाक्य इन मामलों के बारे में बता सकता है : जीवन में थोड़ा व्यावहारिक ज्ञान सीखो। यहाँ “व्यावहारिक ज्ञान” का मतलब क्या है? इसका अर्थ है कि तुम्हें जानना चाहिए कि कौन-सी चीज तुम्हारे खाने के लिए नुकसानदेह है और कौन-सी चीज तुम्हारे खाने के लिए अच्छी है। यदि किसी चीज का स्वाद अच्छा नहीं है, मगर वह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छी है, तो तुम्हें अपने स्वास्थ्य की खातिर वह चीज खानी चाहिए; यदि कोई चीज स्वादिष्ट है, लेकिन इसे खाकर तुम बीमार पड़ जाते हो, तो उसे मत खाओ। यह व्यावहारिक ज्ञान है। इससे आगे देखें, तो लोगों को स्वस्थ रहने के कुछ व्यावहारिक ज्ञान वाले तरीके भी जानने चाहिए। वर्ष के चार मौसमों के दौरान समय, जलवायु और मौसम को फैसला करने दो कि तुम्हें क्या खाना चाहिए—यह एक प्रमुख सिद्धांत है। अपने शरीर से मत लड़ो—सामान्य मानवता वाले लोगों को यह विचार और समझ रखनी चाहिए। कुछ लोगों को आंत्रशोथ होता है, और उत्तेजक खाना खाने पर उन्हें दस्त होने लगते हैं। इसलिए वे चीजें मत खाओ। फिर भी कुछ लोग कहते हैं, “मैं नहीं डरता। परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है,” और नतीजतन खाने के बाद वे दस्त का शिकार हो जाते हैं। वे यहाँ तक कहते हैं कि परमेश्वर ही उनका परीक्षण कर उनका शोधन कर रहा है। क्या वे बेतुके लोग नहीं हैं? यदि वे बेतुके नहीं हैं, तो वे भयानक भुक्खड़ लोग हैं जो नतीजों की परवाह किए बिना खाते जाते हैं। ऐसे लोगों को अनेक समस्याएँ होती हैं। वे अपनी भूख पर नियंत्रण नहीं कर सकते, मगर कहते हैं, “मैं नहीं डरता। परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है!” इस समस्या की उनकी समझ कैसी है? यह विकृत है; वे सत्य को नहीं समझते, फिर भी आँख मूँद कर उसका प्रयोग करने की कोशिश करते हैं। उन्हें आंत्रशोथ होने पर भी वे बिना सोचे-समझे खाते जाते हैं, और नतीजतन जब उन्हें दस्त होते हैं, तो उनका यह कहना कि परमेश्वर उनका परीक्षण कर शोधन कर रहा है—क्या यह विनियमों को आँख मूँद कर लागू करना नहीं है? ऐसे बेतुके व्यक्ति का यों अनाप-शनाप बोलना—क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है। क्या ऐसे हास्यास्पद व्यक्ति के भीतर पवित्र आत्मा कार्य करेगा? (नहीं।) यदि तुम सत्य को नहीं समझते, तो तुम्हें चीजों पर आँखें मूँद कर विनियमों को लागू नहीं करना चाहिए। क्या परमेश्वर किसी व्यक्ति पर अंधाधुंध परीक्षण करेगा? निश्चित रूप से नहीं। तुम तो इसके लिए योग्य भी नहीं हो; तुम्हारा आध्यात्मिक कद वैसा नहीं है—और इसलिए परमेश्वर तुम्हें परीक्षणों से नहीं गुजारेगा। जो व्यक्ति नहीं जानता कि खाने की कौन-सी चीजें उसे बीमार बना सकती हैं, वह निर्बल बुद्धि वाला मूर्ख है। क्या वे लोग जिनकी तार्किकता और बुद्धि निर्बल है, वे परमेश्वर के इरादे समझ सकते हैं? क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? (नहीं।) तो फिर क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को परीक्षणों से गुजारेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। समझ का अभाव होना और अनाप-शनाप बातें बोलना इसी को कहते हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों पर परीक्षण करने के सिद्धांत होते हैं; ये उन लोगों की ओर निर्देशित होते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, ऐसे लोगों की ओर जिनका परमेश्वर उपयोग करेगा और जो उसके लिए गवाही दे सकें। वह सच्ची आस्था वाले लोगों का परीक्षण करता है, जो उसका अनुसरण कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं। कोई भी व्यक्ति जो केवल आराम और आनंद खोजता है और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, और निश्चित रूप से जो चीजों के प्रति विकृत आशंका पालता है, उसके भीतर पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होता। ऐसी स्थिति में क्या परमेश्वर उनका परीक्षण करेगा? यह बिल्कुल असंभव है।

कुछ लोगों को चीनी जड़ी-बूटियों वाली दवाएँ या स्वास्थ्यवर्धक खाद्यपदार्थ सुलभ होते हैं, जिनका वे बेहूदा ढंग से सेवन करते हैं। कुछ महिलाएँ अपने चेहरे पर अक्सर ऐसी चीजों का लेप लगाती हैं जो उनकी त्वचा की रक्षा करती हैं, जो उसे गोरापन और कसाव देती हैं। वे हर दिन मेक-अप करने में दो घंटे और उसे उतारने में तीन घंटे लगा देती हैं और अंत में अपनी त्वचा को इतना बरबाद कर देती हैं कि पहचान में भी नहीं आती हैं। वे यह भी कहती हैं, “उम्र के साथ सौंदर्य ढलने के कुदरती विधान पर कोई विजय नहीं पा सकता—जरा मेरी इस ढलती त्वचा को ही देखो!” तथ्य यह है कि अगर वे अपने चेहरों के साथ छेड़छाड़ न करतीं तो वे इतनी बूढ़ी नहीं दिखतीं—उन उत्पादों के लेपन ने ही उन्हें बूढ़ा बना दिया। तुम इससे क्या समझते हो? (उन्होंने अपने लिए खुद आफत बुलाई है।) उनके साथ सही हुआ! सामान्य मानवता में रहने का कुछ व्यावहारिक ज्ञान होता है और व्यक्ति को इसकी समझ होनी चाहिए, जैसे कि अपने स्वास्थ्य की रक्षा और बीमारियों से बचने का सामान्य ज्ञान : उदाहरण के लिए, पाँव ठंडे हों तो पीठ दर्द हो सकता है या शुरुआती दूरदृष्टि दोष का इलाज कैसे करना चाहिए या कंप्यूटर पर बहुत लंबे समय तक बैठने के क्या नुकसान हैं। व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य को लेकर ऐसी व्यावहारिक ज्ञान वाली देखभाल के बारे में थोड़ी समझ होनी चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तुम्हें केवल उसके वचन ही पढ़ने चाहिए। अपने स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़ा इतना सारा व्यावहारिक ज्ञान सीखने का क्या फायदा है? इंसान का जीवनकाल परमेश्वर द्वारा नियत किया जाता है; स्वास्थ्य देखभाल का जितना भी ज्ञान हो, इसका कोई फायदा नहीं होने वाला। जब तुम्हारी मृत्यु का समय आएगा, तो तुम्हें कोई भी नहीं बचा सकेगा।” यह बात देखने में तो सही लगती है, लेकिन असल में यह थोड़ी बेतुकी है। यह ऐसी बात है जो कोई आध्यात्मिक समझ न रखने वाला ही बोलेगा। ऐसे लोग घिसे-पिटे शब्द और धर्म-सिद्धांत धड़ल्ले से बोलना सीख लेते हैं और आध्यात्मिक लगते हैं, जबकि दरअसल, उन्हें कतई कोई शुद्ध समझ नहीं होती। अपने साथ कुछ घटने पर वे आँख मूँद कर विनियम लागू करने की कोशिश करते हैं, सत्य का अभ्यास किए बिना भरसक बढ़िया बोलते हैं। जैसे, हो सकता है कुछ लोग उन्हें बताएँ कि मक्के का दलिया पौष्टिक होता है और यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। यह बात उन्हें समझ नहीं आएगी। लेकिन जैसे ही वे किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि ब्रेज्ड पोर्क स्वास्थ्यवर्धक है, तो अगली बार उस पर नजर पड़ते ही वे उसे भरपेट खा लेंगे और उसे चबाते हुए बोलेंगे, “मैं क्या करूँ? मुझे यह खाना ही पड़ेगा; मेरी सेहत का सवाल है!” क्या ऐसा कहना धूर्तता नहीं है? (हाँ, है।) यह धूर्तता है। वह चीज होना जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होनी चाहिए, वह बात जानना जो लोगों को जाननी चाहिए, वह चीज जानना जो तुम्हारी उम्र के मुताबिक जीवन के चरण में जाननी चाहिए—यही सामान्य मानवता का होना है। अपनी उम्र के बीस के दशक में कुछ लोग बिना सोचे-समझे खाते हैं। कंपकंपाती सर्दी के दिन वे बर्फ के टुकड़े खाते हैं। यह देखकर उनके बड़े-बुजुर्ग डर जाते हैं और उन्हें यह कहकर रुकने का आग्रह करते हैं कि उन्हें पेट दर्द हो जाएगा। “पेट में दर्द? मुझे कुछ नहीं होने वाला,” वे कहते हैं, “मुझे देखो : मेरी शारीरिक अवस्था सर्वोत्तम है!” इस उम्र में वे ऐसी चीजों के बारे में नहीं जानते। उनके चालीस का होने की प्रतीक्षा कीजिए; तब उन्हें खाने के लिए बर्फ का टुकड़ा दीजिए। क्या वे उसे खाएँगे? (नहीं।) और जब वे साठ के हो जाएँ, तो बर्फ खाने के बारे में भूल ही जाएँ—वे उसके पास आने से भी डरेंगे। उसकी ठंडक इतनी ज्यादा होगी कि उनका शरीर इसे सहन नहीं कर पाएगा। इसे अनुभव कहा जाता है—जीवन के सबक सीखना। अगर कोई साठ साल का व्यक्ति भी यह न जाने कि उसका पेट ढेर सारे बर्फ के टुकड़ों से नहीं निपट सकता, उसका शरीर उन्हें ग्रहण नहीं कर सकता, इससे वे बीमार पड़ जाएँगे, तो इसे क्या कहा जाता है? क्या उनमें सामान्य मानवता की कमी है? उनमें जिए हुए अनुभव की कमी है। अगर कोई साठ साल का होकर भी यह नहीं जानता कि सर्दी उसकी पीठ के लिए ठीक नहीं है, सर्द पाँव पीठ दर्द पैदा कर सकते हैं, तो उसने लगभग साठ साल का यह जीवन कैसे जिया होगा? उसने बस खानापूर्ति की होगी। बहुत-से लोग अपनी उम्र के चालीस के दशक में आते ही जीवन के बारे में बहुत-सी व्यावहारिक बातें समझ जाते हैं : उदाहरण के लिए स्वास्थ्य का व्यावहारिक ज्ञान; और वे भौतिक वस्तुओं, धन, कार्य और अपने रिश्तेदारों और दुनिया के मामलों, जीवन आदि के बारे में कुछ सही नजरिए हासिल कर लेते हैं। उन्हें इन चीजों की शुद्ध समझ होती है और भले ही वे परमेश्वर में विश्वास न रखते हों, फिर भी इन चीजों को वे अपने से छोटों से बेहतर समझते हैं। ये वे लोग होते हैं जिन्हें सही और गलत का भान होता है, जिनकी सोच सामान्य होती है। अपनी उम्र के बीस के दशक के बाद उन्होंने दो दशकों के दौरान जो जीवन जिया है, उसमें उन्होंने बहुत-सी चीजें समझी हैं, जिनमें से कुछ सत्य के बहुत समीप हैं। इससे पता चलता है कि ये लोग समझने की क्षमता वाले हैं, बढ़िया काबिलियत वाले हैं। और अगर वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं तो सत्य वास्तविकता में उनका प्रवेश काफी तेजी से होगा, क्योंकि उन बीस वर्षों में वे बहुत कुछ अनुभव कर चुके होंगे और कुछ सकारात्मक चीजें हासिल कर चुके होंगे। उनके अनुभव उन सत्य वास्तविकताओं के अनुरूप होंगे जिनकी चर्चा परमेश्वर करता है। लेकिन यदि उस व्यक्ति की मानवता में काफी कमी हो और उनके पास सही नजरिए या सामान्य मानवता की सोच न हो और उन बीस वर्षों के दौरान जीवन के प्रति और अपने सामने आए लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके पास सामान्य मानवता वाली बुद्धि न हो, तो फिर उन्होंने जीवन के वे वर्ष व्यर्थ ही जिए होंगे। मैं जिन अनेक स्थानों पर रहा हूँ, वहाँ मैंने पाया कि कुछ बुजुर्ग बहनें खाना बनाना नहीं जानती हैं। वे एक संतुलित आहार बनाना भी नहीं जानती हैं। जो चीज तली जानी चाहिए उससे वे सूप बनाती हैं और जिससे सूप बनाना चाहिए उसे तल देती हैं। मौसम के साथ फसल बदलती है, फिर भी उनकी मेज पर हमेशा एक जैसी थोड़ी-सी चीजें होती हैं। वहाँ क्या हो रहा है? यह बुद्धि का वास्तविक अभाव है, है कि नहीं? उनमें सामान्य मानवता की काबिलियत का अभाव है। वे अपने दैनिक जीवन में देखे हुए खाद्यपदार्थ भी नहीं पका सकती हैं, जैसे कि पत्तागोभी और आलू। वे आसान-से-आसान काम के लायक भी नहीं हैं और इन्हें भी नहीं कर सकती हैं। पिछले पचास-साठ साल उन्होंने कैसे काम चलाया होगा? क्या वास्तव में ऐसा हुआ होगा कि उनके दिलों ने उनके जीवन से कोई माँग नहीं की होगी? अगर कोई अपने किसी भी काम से अनुभव नहीं ले सकता, तो भला ऐसा व्यक्ति कौन-सा कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकता है? तथ्य यह है कि लोग अगर अपना दिमाग लगाएँ और कुछ समय तक प्रशिक्षण ले लें, तो वे काम करना सीख सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति अनेक वर्षों के अध्ययन के बावजूद एक भी काम नहीं कर सकता तो उसकी बुद्धि और काबिलियत बहुत बेकार होगी!

चलो, अब स्वच्छता प्रबंधन के बारे में थोड़ी बात करते हैं। हाल में मैं दो स्थानों पर गया था जहाँ घरों के आसपास का माहौल बहुत खराब था। वहाँ पहले हर चीज काफी व्यवस्थित होती थी, तो फिर वे स्थान ऐसे “सूअर के बाड़े” कैसे बन गए? कारण यह है कि वहाँ के लोग चीजों को काबू में रखना नहीं जानते। उनमें स्वच्छता के प्रति सामान्य मानवता की चेतना और अपेक्षाएँ नहीं होती हैं। बात महज इतनी नहीं है कि वे आलसी हैं; इससे बढ़कर वे ऐसी स्थितियों में जीने के आदी हो गए हैं। वे किसी नियम या पाबंदी का पालन किए बिना जमीन पर कूड़ा-कचरा फेंक देते हैं और चीजें इधर-उधर बिखेर देते हैं। कोई जगह साफ करने के बाद वे उसे बस एक-दो दिन तक ही साफ रख पाते हैं; कुछ ही दिन बाद यह स्थान इतना अस्त-व्यस्त और गंदा हो जाता है कि इसे देखना भी मुश्किल होता है। मुझे बताओ, ऐसे परिवेश को क्या कहा जाता है? और वहाँ रहने वाले जो लोग ऐसे हालात में भरपेट खाना खाकर सो सकते हैं—वे कैसे लोग हैं? वे सूअरों जैसे हैं, है कि नहीं? उनमें कोई जागरूकता नहीं है और वे स्वच्छता के बारे में, अपने परिवेश, संरचना और प्रबंधन के बारे में कुछ भी नहीं समझते। वह जगह चाहे जितनी भी गंदी या अस्त-व्यस्त हो जाए, उनका इस पर ध्यान ही नहीं जाता। इससे उन्हें परेशानी नहीं होती; वे इस बारे में चिंतित और परेशान नहीं होते। वे पहले की ही तरह जीते रहते हैं, बिना ध्यान दिए और बिना किसी अपेक्षा के। कुछ स्थानों पर स्वच्छता और परिवेश की अच्छी देखभाल की जाती है और तुम्हें लगेगा कि वहाँ के लोग स्वच्छता की परवाह करते हैं और वे अपने परिवेश को संभालना जानते हैं—लेकिन आकस्मिक निरीक्षण होने तक कोई नहीं जान पाता कि वे निरीक्षण से पहले जगह की सफाई करने के लिए लोगों को भेजा करते थे। अगर तुम उन्हें पहले ही बता दो कि तुम निरीक्षण करने आ रहे हो, तो निश्चित रूप से वह जगह साफ मिलेगी; अगर तुम उन्हें बिना चेतावनी दिए चले जाओ, तो तुम्हें अलग परिवेश दिखाई देगा, ऐसा जो निश्चित रूप से गंदा और अस्त-व्यस्त होगा। कुछ लड़कियों के कमरों में कपड़े और जूते छितरे पड़े होते हैं, और बाहर कुदाली और गैंती जैसे औजार कपड़ों के ढेर में पड़े होते हैं। वहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि वे इतने ज्यादा व्यस्त रहे हैं कि उन्हें सफाई करने का वक्त नहीं मिला है। तो वे इतने ज्यादा व्यस्त थे? क्या उनके पास साँस लेने का भी समय नहीं था? अगर नहीं था तो इसे व्यस्त कहते हैं, ठीक है ना—लेकिन निश्चित रूप से वे इतने व्यस्त तो नहीं थे? अपनी जगह का प्रबंधन करने में इतनी कठिन बात क्या है? एक स्वच्छ और साफ-सुथरा परिवेश बनाए रखने में इतनी भी परेशानी क्या है? क्या इसका मानवता के साथ कोई लेना-देना है? लोग ऐसे “सूअर बाड़े” में रहना क्यों इतना पसंद करते हैं? वे ऐसे परिवेश में इतने आराम से क्यों रह लेते हैं? ऐसे परिवेश के प्रति वे पूरी तरह बेपरवाह कैसे हो सकते हैं? वहाँ क्या चल रहा है? किस कारण से परिवेशों का प्रबंधन खराब ढंग से होता है? अगर मैं कभी किसी अवसर पर किसी जगह जाता हूँ और उन्हें पहले से बता देता हूँ तो वे उसे चाक-चौबंद बना देंगे, लेकिन अगर मैं वहाँ अक्सर जाने लगूँ तो वे सफाई करना छोड़ देंगे। वे कहते हैं, “तुम यहाँ अक्सर आते हो, इसलिए हम औपचारिकताएँ छोड़ देंगे। हम लोग बस ऐसे ही हैं। हमेशा सफाई करते रहना बड़ा थकाऊ होता है! किसमें इतनी ताकत है? हम पूरा दिन काम में इतना व्यस्त रहते हैं, हमारे पास अपने बालों में कंघी करने तक का समय नहीं है!” वे ऐसे औचित्य पेश करते हैं। वे और क्या बताते हैं? “यह सब अस्थायी है। हमें इसे चाक-चौबंद रखने की जरूरत नहीं है। जैसा भी है ठीक है।” सचमुच सब-कुछ अस्थायी है—लेकिन अगर तुम किसी तंबू में भी रह रहे होगे, तो भी उसकी देखभाल करनी होगी, है कि नहीं? यह सामान्य मानवता होती है। यदि तुम्हारे पास इतनी-सी भी मानवता नहीं है तो तुम भला जानवरों से किस तरह से अलग हो?

परमेश्वर के घर में एक कलीसिया है जो अच्छी जगह पर स्थित है, पहाड़ों और जलाशयों के पास। वहाँ एक सड़क बनाई गई है, और पास के नदी तट पर वृक्षों की कतार है। उसमें एक खुला मंडप भी है जिसके पास सजावटी चट्टानें हैं। वाकई, यह बहुत सुंदर है। एक दिन मैंने दूर से उस साफ-सुथरी सड़क पर छोटी-सी पीली चीज देखी। पास आकर देखा कि यह संतरे का छिलका है। न जाने किसने लापरवाही से वहाँ कचरा फेंक दिया। और साफ-सुथरे रहने वाले खुले मंडप में भी किसी ने सूरजमुखी के बीज खाकर इसके छिलके फर्श पर फेंक रखे थे। मुझे बताओ, क्या वह ऐसा व्यक्ति था जो नियम जानता है? क्या सामान्य मानवता में व्यक्ति की स्वच्छता और परिवेश के लिए मानक अपेक्षित होते हैं या नहीं? कुछ लोग कह सकते हैं, “किस तरह से मेरे पास मानक नहीं हैं? मैं हर शाम अपने पैर धोता हूँ। कुछ लोग नहीं धोते। कुछ लोग तो सुबह उठकर अपना मुँह भी नहीं धोते।” ठीक है, तुम्हारे पैर साफ-सुथरे हो सकते हैं, लेकिन तुम्हारा कार्य परिवेश सूअर के बाड़े जैसा क्यों है? तुम्हारी उस स्वच्छता के क्या मायने हैं? ज्यादा-से-ज्यादा यह दर्शाता है कि तुम बेहद स्वार्थी हो। तुम सभी चीजों का प्रबंधन करना चाहते हो—अगर तुम एक अहाते का भी प्रबंधन नहीं कर सकते, तो तुम सभी चीजों के महारथी कैसे हो सकते हो? यह वाकई शर्मनाक है! वे जिसका प्रबंधन नहीं कर सकते वह सिर्फ उनका परिवेश ही नहीं है—वे अपनी स्वच्छता का भी प्रबंधन नहीं कर सकते और जमीन पर कचरा फेंकते हैं। उन्हें यह आदत क्यों लगी? वे फलों के छिलके जमीन पर फेंकने को यह कहकर उचित ठहरा सकते हैं कि यह कंपोस्ट खाद है। तो फिर उसे कंपोस्ट खाद के ढेर या कचरा पेटी में क्यों नहीं डालते? उसे सड़क पर या उस खुले मंडप में क्यों डालना? क्या खुला मंडप कंपोस्ट रखने की जगह है? क्या यह नियमों की अवहेलना नहीं है? (हाँ, है।) यह मानवता, विवेक और नैतिक मूल्यों का बेहद अभाव है—ये नीच लोग हैं! मुझे बताओ, क्या इस मसले के समाधान का कोई तरीका है? इसे कैसे रोका जा सकता है? क्या निगरानी कारगर होगी? चीजों पर ऐसी नजर कौन रख सकेगा? क्या किया जाना चाहिए? (उन पर जुर्माना लगाओ।) हाँ, यही आखिरी रास्ता है। एक सटीक प्रणाली तैयार की जानी चाहिए। अब दंड से छूट नहीं मिलनी चाहिए। ये लोग निहायत नीच हैं—वे सुधर नहीं सकते! कुछ स्थानों में सड़े-गले गत्ते के बक्से, सड़े हुए तख्ते और कागज के टुकड़े हर कहीं छितरे पड़े रहते हैं और वहाँ के लोग कहते हैं कि वे उन्हें बाद में इस्तेमाल के लिए रख रहे हैं। इन्हें उपयोगी चीजें मानें, तो क्यों नहीं उन्हें उनकी श्रेणी के अनुसार साफ-सुथरे टालों में बाँध कर रखें? क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं दिखेगा और कम जगह नहीं घेरेगा? ज्यादातर लोग प्रबंधन के बारे में नहीं जानते। चीजों का अपनी जगह इस तरह बेतरतीब ढेर लगा रहता है या वे छितराई पड़ी रहती हैं कि कोई खाली जगह नहीं बचती। ढेर बढ़ जाने पर ये अस्त-व्यस्त हो जाते हैं और इस अस्त-व्यस्तता के साथ गंदगी आती है और फिर वह जगह कचरे का ढेर बन जाती है, जो सबको देखने में घिनौनी लगती है। क्या ऐसे परिवेशों में रहने वाले लोगों में सामान्य मानवता होती है? अगर ये लोग अपने जीने के परिवेश का ध्यान नहीं रख सकते तो क्या उनमें काबिलियत होती है? ऐसे लोगों और जानवरों के बीच क्या अंतर रह जाता है? अपने रहने की जगह का प्रबंध करने का उपाय न जानने का आंशिक कारण यह है कि कोई भी स्वच्छता के बारे में जागरूक नहीं होता है, न ही कोई यह जानता है कि अपने परिवेश का प्रबंधन कैसे करे। उन्हें इन चीजों का भान नहीं होता और वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि लोगों के रहन-सहन का परिवेश कैसा होना चाहिए। वे जानवरों जैसे होते हैं, इस बात से अनजान कि उन्हें कैसे परिवेश में रहना चाहिए। दूसरा आंशिक कारण यह है कि प्रबंधकों को इन चीजों का प्रबंधन करना नहीं आता है। वे नहीं जानते कि इन चीजों का प्रबंधन कैसे किया जाए और जिन लोगों का प्रबंध किया जा रहा है वे इन चीजों के बारे में सक्रिय या जागरूक नहीं होते। अंत में, सभी के “सहयोग” से वह जगह “सूअर का बाड़ा” बन जाती है। जब कुछ समय तक ये लोग उस जगह के आसपास रहते हैं, तो मैं वहाँ से एक विशेष भावना लेकर आ जाता हूँ : “यह जगह कभी स्वच्छ क्यों नहीं रहती? यह कभी भी घर जैसी क्यों नहीं लगती?” मुझे बताओ, क्या ऐसी जगह को देखकर किसी व्यक्ति के मन में प्रफुल्लता आएगी? (नहीं।) क्या वहाँ जाने से तुम लोगों की मनःस्थिति अच्छी हो जाएगी? (हमारे मन में उस जगह को लेकर कुछ ज्यादा महसूस नहीं होगा।) यही तुम लोगों की सच्ची प्रतिक्रिया होगी—ज्यादा कुछ महसूस न होना। मैंने उनमें से कुछ जगहों के लिए योजनाएँ बनाईं और जब काम पूरा हो गया और चीजें फिर से व्यवस्थित हो गईं तो सभी को वह दृश्य अच्छा लगा। मगर कुछ दिनों बाद चीजें फिर से अस्त-व्यस्त हो गईं। अगर स्वच्छता बनाए रखनी थी तो मुझे उस काम के प्रबंध के लिए किसी उपयुक्त व्यक्ति को ढूँढ़ना था। ऐसा इसलिए कि ज्यादातर लोग बहुत अस्वच्छ होते हैं और वे जो भी काम करते हैं उसे अस्त-व्यस्त ही करते हैं। कुछ लोग सब्जियाँ चुनते हैं और उन्हें धोने की सही जगह नहीं जानते। वे यह काम करने के लिए साफ जगह खोजने पर जोर देते हैं और नतीजतन इससे वह जगह गंदी हो जाती है। उसे देखकर तुम्हें कैसा लगेगा? क्या ये लोग जानवरों का झुंड नहीं हैं? उनमें कोई मानवता नहीं है! ऐसे लोगों को देखना, जो स्वच्छता की परवाह नहीं करते, और अपने परिवेश का प्रबंधन करना नहीं जानते—इससे तुम्हारा क्रोध बढ़ जाएगा! इन लोगों को रहने के लिए एक बढ़िया परिवेश दिया जाता है, जहाँ हर चीज बढ़िया ढंग से सजी होती है। वसंत ऋतु में तरह-तरह के फूल और घास-फूस उग आते हैं; उनके पास पर्वत हैं, जलाशय हैं, एक खुला मंडप है; उनके पास काम करने की जगह है, रहने की जगह है और नाना प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं। कितना बढ़िया है! लेकिन यह जगह कैसी हो गई है? उन्होंने इसका सही मूल्य नहीं समझा; उन्होंने दयालुता की सराहना नहीं की। उन्होंने सोचा, “यह ज्यादातर दूसरी जगहों से बेहतर है, लेकिन यह कमोबेश गाँव जैसी जगह है। यह मैदान घास-फूस और कीचड़ के सिवाय कुछ नहीं है।” ऐसी मानसिकता के साथ उन्होंने बिना सोचे-समझे उस जगह को कूड़े का ढेर बना दिया। उन्होंने अपने परिवेश का प्रबंधन करने के बारे में नहीं सोचा। ऐसी मानवता में कितनी चीजें मौजूद नहीं हैं! उसमें वे चीजें नहीं हैं जो मानवता में होनी चाहिए; वे लोग अत्यंत बुनियादी तरीकों से भी अपने जीवन परिवेश के विभिन्न पहलुओं को काबू में नहीं रख पाते। मुझे बताओ, लोग जिस सुंदर परिवेश में रहते हैं उसे सँजोने के बारे में क्यों नहीं सोच पाते? वे उसकी देखभाल करने के बारे में क्यों नहीं सोच सकते? क्यों? क्या बात यह है कि वे अपने कर्तव्यों में इतने अधिक व्यस्त हैं कि उनके पास समय नहीं है? या फिर उनके साथ क्या चल रहा है? क्या ऐसा कोई है जो अपने कर्तव्य में व्यस्त नहीं है? कुछ लोग ऐसे हैं जो तुम लोगों से खराब परिवेशों में रहते हैं, फिर भी वे अपनी जगह की काफी अच्छी देखभाल करते हैं। इसे देखकर लोग उनकी वाहवाही करते हैं, उनके प्रति अपने मन में सराहना और सम्मान रखते हैं। और फिर यह तुम लोगों का रहने का परिवेश है—दूसरों को भीतर जाने की जरूरत भी नहीं; वे बस बाहर का दृश्य देखकर ही तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। क्या यह तुम्हारा अपना ही किया-धरा नहीं है? तुम्हारे क्रियाकलापों और व्यवहारों ने तुम्हारे रहने के परिवेश को बुरी तरह से मैला-कुचैला बना दिया है। जब लोग उस परिवेश को देखते हैं जिसमें तुम रहते हो तो उनके लिए यह तुम्हारे सार को देखने जैसा ही है। तो फिर क्या तिरस्कार करने के लिए तुम उन्हें दोष दे सकते हो? कोई व्यक्ति ऊँचा हो या नीचा, अभिजात हो या नीच, इसका फैसला दूसरों के आकलनों पर नहीं, बल्कि इस आधार पर होता है कि वे स्वयं कैसे जीते हैं। यदि तुममें सामान्य मानवता की चीजें हैं, तो तुम सच्चे मानव के समान जीवन जी सकोगे। तुम अपने अभिजात गुण का प्रदर्शन कर सकोगे और दूसरे सहज ही तुम्हारी कद्र करेंगे, तुम्हारा सम्मान करेंगे। यदि तुम्हारे पास ये चीजें नहीं हैं और तुम व्यावहारिक ज्ञान वाली स्वच्छता को नहीं समझते, और नहीं जानते कि अपने परिवेश की देखभाल कैसे करें, सारे दिन एक “सूअर बाड़े” में पड़े रहते हो, और इसमें काफी खुश रहते हो, तो इससे तुम्हारे पशु जैसे गुणों का खुलासा होता है। इसका मतलब है कि तुम नीच और निचले स्तर के हो। ऐसा कोई नीच और निचले स्तर का व्यक्ति, जिसमें ऐसी नीच और निचले स्तर की मानवता हो, जिसमें जरा-सी सोच, नजरिए, अपेक्षाएँ और अनुसरण न हों जो सामान्य मानवता में होने चाहिए—इनमें से कुछ भी न हो, तो क्या ऐसा व्यक्ति सत्य को समझ सकता है? क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों को भी लगता है कि वह नहीं कर सकता? क्यों नहीं? कुछ लोग कहते हैं, “हमने परमेश्वर में विश्वास रखने के अपने वर्षों में इन तमाम सांसारिक चीजों से बहुत पहले ही छुटकारा पा लिया है। हमें उन सबकी परवाह नहीं है! ‘गुणवत्ता वाला जीवन जीना’—यह एक सांसारिक चीज है!” क्या ऐसी बात कहने वाले लोग नहीं होते हैं? फिर क्या जिस वायु में तुम साँस लेते हो, वह एक सांसारिक चीज है? तुम जो कपड़े पहनते हो, जिन तमाम भौतिक चीजों का तुम उपयोग करते हो—क्या वे सांसारिक चीजें हैं? तुम लोग सभा करने के लिए कोई भी खुली जगह क्यों नहीं ढूँढ़ लेते? किसी कमरे में सभा क्यों करते हो? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो इसे बेतुका कहते हैं? मैं तुम्हें एक तथ्य बताता हूँ : अगर ऐसा व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है तो उसके लिए यह कठिन होगा। अगर कोई व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है तो उसके पास पहले सामान्य मानवता होनी चाहिए; इसके अलावा भी उसे जीवन में गुणवत्ता, शिष्टाचार और नैतिकता वाली किसी विशेष शैली और लक्ष्य का अनुसरण करने के लिए अपने जीवन की उन बुरी आदतों को त्यागना होगा। क्या यह इस बात को रखने का सटीक तरीका है? ठीक है फिर क्या इन समस्याओं को ठीक करना आसान है? किसी की जीवनशैली को बदलने और उसके जीवन की किसी बुरी आदत को छोड़ने में कितना वक्त लगता है? इसमें जल्द-से-जल्द प्रवेश करने के लिए कौन-से तरीके का उपयोग करना चाहिए? दंड के अलावा कौन-से तरीके हैं? (परस्पर निगरानी।) परस्पर निगरानी एक तरीका है; यह इस बात पर आकर टिकती है कि क्या लोग इसे स्वीकार करते हैं। मेरे ख्याल से जुर्माना लगाना एक शक्तिशाली तरीका है और सच में असरदार है। जैसे ही तुम नकद जुर्माने की बात करते हो, तुम लोगों के हितों को छू रहे होते हो। उनके पास पालन करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता, इस डर से कि उनके हितों को हानि होगी। जुर्माना लगाने से यही हासिल होता है। लेकिन उन लोगों के साथ सत्य पर संगति करने से कुछ भी हासिल क्यों नहीं होता? क्योंकि उनमें सामान्य मानवता नहीं होती या सत्य को स्वीकारने के लिए आवश्यक शर्तें नहीं होती हैं। इसीलिए उनके साथ सत्य पर संगति करना असरदार तरीका नहीं होता है। किसी भी कार्य परिवेश में पहले चीजों को उनके प्रकार के अनुसार छाँटना सीखो, दूसरे, सुव्यवस्था बनाए रखना, तीसरे, स्वच्छता और सफाई बनाए रखना और फिर सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि कचरा साफ करने की आदत डालना सीखो। सामान्य मानवता में यही होना चाहिए।

ऐसी कुछ महिलाएँ होती हैं जो बाल बनाकर गिरे हुए बालों को बुहारे बिना चली जाती हैं। ऐसा वे हर दिन करती हैं। क्या ऐसी आदत को बदला जा सकता है? जब तुमने अपने बाल बना लिए हों, तब तुम्हें उसी वक्त उस जगह को साफ कर सुव्यवस्थित कर देना चाहिए। उसे दूसरों के साफ करने के लिए मत छोड़ो—अपने परिवेश का प्रबंधन खुद ठीक से करो। यदि तुम अपने परिवेश का ठीक से प्रबंधन करना चाहते हो, तो तुम्हें खुद से शुरू करना चाहिए। सबसे पहले अपनी जगह को साफ करो। इसके अलावा, व्यक्ति जिस सार्वजनिक परिवेश में रहता है उसके बारे में उसे नागरिक की सोच वाला होना चाहिए। उदाहरण के लिए जिस जगह लोग रहते और आराम करते हैं, उसके प्रबंधन की जिम्मेदारी हरेक व्यक्ति पर डाली जानी चाहिए। अगर तुम देखते हो कि जमीन पर संतरे के कुछ छिलके पड़े हैं, तो उन्हें उठाकर कूड़ेदान में डाल दो। कुछ कार्यस्थलों पर काम पूरा हो जाने पर लकड़ी के टुकड़े, लकड़ी की खुरचन, लोहे की छड़ें और कीलें हर जगह छितरी हुई होती हैं। वहाँ जाओ और अगर तुम सावधान न रहे, तो बड़ी आसानी से तुम कीलों पर पैर रख सकते हो। यह बहुत असुरक्षित होता है। वे लोग काम पूरा हो जाने के बाद सफाई करके चीजों को स्वच्छ क्यों नहीं बना देते? यह कैसी गंदी आदत है? ऐसा करके क्या वे अपनी सफाई पेश कर सकते हैं? ऐसी अस्त-व्यस्त और गंदी जगह को देख कर लोग क्या सोचेंगे? क्या ऐसे काम जानवर नहीं करते? मानवता वाले लोगों को काम पूरा कर लेने के बाद चीजों को अच्छी तरह से साफ कर देना चाहिए, और दूसरे एक ही नजर में जान जाएँ कि काम इंसानों द्वारा किया गया था। जानवर कोई काम पूरा करने के बाद सफाई नहीं करते, मानो सफाई का काम उनके जिम्मे नहीं है और इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यह किस प्रकार का तर्क है? मैंने काफी सारे लोगों को देखा है जो काम कर लेने के बाद सफाई नहीं करते। उन सभी में यह बुरी आदत होती है। मैंने उनसे कहा है कि हर दिन काम पूरा हो जाने के बाद उन्हें पूरा कचरा साफ करने के लिए किसी को लगाना चाहिए। हर दिन सफाई करो। इस तरह से जगह साफ रहेगी। उन्हें ऐसी आदत डालनी चाहिए। जीवन भर के लिए आदत डालने के लिए व्यक्ति को परिवेश के रखरखाव से शुरू करना चाहिए, और फिर उसका आदी होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। फिर किसी दिन जब वह परिवेश बदलेगा, तो वे खुद किसी चीज को गंदा देखकर बुरा महसूस करेंगे। यह वैसा ही है जैसे कुछ लोग जो तीन-पाँच साल विदेश में रह चुके होते हैं, उन्हें लगता है कि वहाँ हर चीज बेहतर है। अपने घर-गाँव लौटने का दिन आने पर उन्हें लगता है कि वे एकाएक चमक-दमक वाले हो गए हैं। वे उन लोगों को तिरस्कार से देखते हैं जिन्हें स्वच्छता की चिंता नहीं होती, जिनके घर अस्वच्छ होते हैं। वे कुछ दिन बिना नहाए भी नहीं रह पाते। क्या उनके परिवेश ने उन्हें ऐसा नहीं बनाया? ऐसा ही होता है। तो, तुम्हें अपनी निजी स्वच्छता और अपने परिवेश के प्रबंधन से शुरू करना चाहिए। अपने कर्तव्य निर्वहन में आरामदेह महसूस करने का यही तरीका है; सामान्य मानवता वाले लोगों में भी यह बात होनी चाहिए। मैं जिन कई जगहों पर गया हूँ, वहाँ मैंने लड़कियों के कमरों को अस्त-व्यस्त और तितर-बितर देखा है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम चाहते हो कि हम सुव्यवस्थित रहें; क्या सैन्य रंगरूटों की जगह जैसा होना चाहिए?” उसकी कोई जरूरत नहीं है। हर दिन अपना बिस्तर ठीक करो और कमरा साफ करो। सफाई बनाए रखो। इसकी आदत बना लो। अगर तुम हर दिन ये चीजें करते हो, और ये तुम्हारी खाने-पीने की तरह अपने आप होने वाली आदत, एक मानक बन जाएँ, तब तुमने इस प्रकार की दैनिक जीवन की आदत बना ली होगी, और अपने माहौल से तुम्हारी अपेक्षाएँ एक स्तर तक बढ़ चुकी होंगी। और जब वे उतनी बढ़ चुकी होंगी, तो तुम्हारा पूरा आचरण, तुम्हारा मानसिक नजरिया, तुम्हारी पसंद, तुम्हारी मानवता और तुम्हारी गरिमा सब बढ़ जाएँगे। लेकिन यदि तुम एक “सूअर बाड़े” में रहते हो, ऐसी जगह जो इंसानों के लिए नहीं है, बल्कि वह जानवरों की मांद जैसी ज्यादा है, तो तुम मानव के समान नहीं होगे। उदाहरण के लिए एक कमरे में प्रवेश करने पर कुछ लोग उस कमरे और उसके फर्श को साफ देखकर बाहर ही कुछ देर तक अपने जूतों की धूल हटाएँगे। वे तब भी थोड़ा अस्वच्छ महसूस करेंगे, इसलिए कमरे में प्रवेश करने से पहले अपने जूते उतार देंगे। जब कमरे का मालिक देखेगा कि वे कितने साफ-सुथरे और उसके प्रति आदरपूर्ण हैं, तो वह भी उनका आदर करेगा। दूसरे लोग कीचड़-सने जूते पहने हुए अंदर प्रवेश कर जाते हैं, और फर्श पर कीचड़ फैलाने के बारे में कुछ भी नहीं सोचते। वे इसके प्रति पूरी तरह संवेदनहीन होते हैं। कमरे का मालिक देखता है कि वे लोग नियमों के प्रति सहज रूप से बेपरवाह होते हैं। वह उन्हें बुरी तरह देखता है और इसलिए उनका तिरस्कार करता है, और भविष्य में कमरे में आने नहीं देगा। वह उनसे बाहर ही प्रतीक्षा करवाएगा, और इसका निहितार्थ यह होगा : “तुम अंदर आने लायक नहीं हो—तुम आए तो इस जगह को बरबाद कर दोगे, और मुझे इसे साफ करने में जाने कितना समय लगाना पड़ेगा!” वह उनका आदर नहीं करेगा। जब वह देखता है कि वे मानव समान नहीं हैं, तो वह उन्हें आदर भी नहीं देगा। अगर कोई अपने जीवन में इस मुकाम पर पहुँच जाए, तो क्या वह इंसान रह जाएगा? एक पालतू जानवर उनसे बेहतर होता है। इसलिए लोगों को इंसान कहलाने के लिए मानव समान जीवन जीना चाहिए, और मानव समान जीवन जीने के लिए उनमें सामान्य मानवता होनी चाहिए। कोई व्यक्ति कहीं भी रहे, वह कोई भी कर्तव्य करे, उसे नियमों का पालन करना चाहिए। उसे अपनी जगह और स्वच्छता की देखभाल करनी चाहिए, उसमें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और जीवन की अच्छी आदतें होनी चाहिए। उसे अपने सभी कामों में ध्यानपूर्ण और गंभीर होना चाहिए, और तब तक करते रहना चाहिए जब तक वह उसे अच्छे ढंग से और मानक स्तर तक न कर ले। इस प्रकार, तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और लोगों और चीजों से तुम्हारे व्यवहार से लोग जानेंगे कि तुम ईमानदार और सभ्य हो, एक नेक इंसान हो। उनके मन में तुम्हारे प्रति सराहना जागेगी, और वे स्वाभाविक रूप से तुम्हारा आदर करने लगेंगे। वे तुम्हारा सम्मान करेंगे, तुम्हारी कद्र भी करेंगे और वे तुम्हें बेवकूफ नहीं बनाएँगे या तुम्हें धौंस नहीं देंगे। वे तुम्हारा मखौल उड़ाए बिना या तुम्हारी अवमानना किए बिना तुमसे गंभीर ढंग से बातें करेंगे। मुझे नहीं मालूम कि लोग मेरी शक्ल-सूरत को किस रूप में लेते हैं, मगर मुझे ऐसा लगता है : जब मैं ज्यादातर लोगों से मिलता हूँ, तो वे मजाक नहीं करते या बेकार की बातें नहीं करते। मैं नहीं जानता कि ऐसा क्यों करते हैं। कदाचित लोगों को ऐसा महसूस होता है : “तुम बस इतने गंभीर इंसान हो, और तुम अपनी कथनी और करनी में भी गंभीर हो। तुम एक ईमानदार इंसान हो; तुमसे बातचीत के दौरान मैं तुमसे मजाक करने के हिम्मत नहीं करूँगा। पहली नजर में ही यह साफ है कि तुम उस किस्म के इंसान नहीं हो।” यदि जब तुम किसी जगह जाकर लोगों से बोलते हो, उनसे गपशप करते हो, लोगों से बातचीत करते हो, तो उन्हें लगता है कि तुम्हारी मानवता और नैतिकता में कुछ खास है—शायद वे साफ तौर पर बता न पाएँ कि वह क्या है, लेकिन तुम जानते होगे कि हर दिन तुम किस बारे में सोचते हो, और चीजों को देखने और लोगों से मिलने-जुलने के तरीकों के लिए तुम्हारे पास सिद्धांत और मानक हैं—यदि तुम इस तरह लोगों से जुड़ते और बातचीत करते हो, तो वे कहेंगे कि तुम अत्यंत विवेकपूर्ण हो, अपने हर काम में अत्यंत गंभीर और विवेकशील हो, जिसका अर्थ है कि तुम अत्यंत सिद्धांतवादी हो। इससे उन्हें अंततः किस भावना की प्रेरणा मिलेगी? इस बारे में धीरे-धीरे सोच-विचार करो। यदि अपने आचरण में तुम उन चीजों से सुसज्जित हो जो सामान्य मानवता वालों में होनी चाहिए, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी पीठ पीछे लोग तुम्हें किस तरह से आँकते हैं। यदि उन्हें अपने दिल की गहराई में लगता है कि तुम एक ईमानदार और विवेकपूर्ण व्यक्ति हो, ऐसा व्यक्ति जिसमें सभी चीजों के प्रति एक गंभीर और जिम्मेदार रवैया है, जो गुणों में कुलीन है, तो कुछ समय तक तुम्हारे साथ जुड़ने और बातचीत करने के बाद वे तुम्हें स्वीकृति देंगे और तुम्हारा सम्मान करेंगे। और फिर, एक व्यक्ति के रूप में तुम कुछ मूल्यवान बनोगे। यदि तुम्हारे साथ कुछ समय तक जुड़ने के बाद वे देखते हैं कि तुम कोई चीज ढंग से नहीं करते, तुम आलसी हो, ढेर सारे खाने के लालची हो, कोई भी चीज सीखने को तैयार नहीं हो, कि तुम्हारे मानक तुम्हारी क्षमताओं से बड़े हैं, और तुम अत्यंत लोभी और स्वार्थी हो—और तो और, कि तुम्हें स्वच्छता की कोई चिंता नहीं है, और तुम अपने परिवेश की देखभाल करने के बारे में नहीं सोचते; यदि वे देखें कि तुम अपने किसी भी काम की बारीकियाँ नहीं जानते, काबिलियत काफी कमजोर है, श्रेय प्राप्त करने लायक नहीं हो, तुम्हें सौंपा गया कोई भी काम करने में असमर्थ हो—तब तुम लोगों के किसी काम के नहीं रहोगे, और एक इंसान के रूप में तुम अमान्य हो जाओगे। कुल मिलाकर लोगों के किसी काम का न होना कोई बड़ी बात नहीं है—अहम बात यह है कि यदि तुम इसी तरह से परमेश्वर के हृदय में जानवर की तरह नीच, हृदय या आत्मा विहीन, निचले स्तर के और नालायक हो जाते हो, तो तुम मुसीबत में हो। तुम अभी भी बचाए जाने से बहुत दूर हो! कोई भी व्यक्ति, जिसका चरित्र मानक स्तर का नहीं है, जिसकी कथनी और करनी पूरी तरह से अनियंत्रित है, जो जानवर जैसा है, क्या उसके लिए बचाए जाने की उम्मीद है? मेरी दृष्टि में, वह खतरे में है। देर-सवेर, उसे हटा दिया जाएगा।

ग. विपरीत लिंग के साथ संपर्क में लोगों का रवैया और व्यवहार

हमारी तीसरी मद है अपने दैनिक जीवन में विपरीत लिंग के साथ संपर्क में लोगों का रवैया और व्यवहार। यह एक ऐसा मसला है जिसका सामना दूसरों के साथ रहने वाला हर व्यक्ति करेगा, चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो। इसमें मानवता का कौन-सा पहलू शामिल है? इसमें व्यक्ति की गरिमा, शर्मिंदगी की भावना और उसकी आचरण की शैली शामिल होती है। कुछ लोग विपरीत लिंग के साथ संपर्क को बहुत हल्के में लेते हैं। उन्हें लगता है कि जब तक कुछ नहीं होता, और दोनों में से कोई भी वासनापूर्ण विचारों में लिप्त नहीं होता या कोई अनुचित कामोन्माद प्रकट नहीं करता, तब तक यह कोई बड़ी बात नहीं है। क्या सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति को ऐसे विचार रखने चाहिए? क्या यह सामान्य मानवता का चिह्न है? जब तुम शादी करने की उम्र के हो जाते हो तथा विपरीत लिंग के संपर्क में आते हो, और एक रिश्ता बनाना चाहते हो, तो सामान्य रूप से बनाओ, कोई इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। लेकिन कुछ लोग रिश्ता नहीं चाहते—वे कुछ दिन, जो भी उन्हें देखने में अच्छा लगता है, उसके साथ छेड़-छाड़ करना चाहते हैं, और जैसे ही वे किसी ऐसे से मिलते हैं जो उन्हें अच्छा लगाने लगता है और उनकी पसंद के मुताबिक होता है, वे दिखावा करना शुरू कर देते हैं। और वे दिखावा कैसे करते हैं? भौंह उठाकर, आँख मारकर, या बात करते समय अपनी आवाज और लहजा बदल कर, या फिर वे एक खास तरीके से चलते हैं या अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए हास्यपूर्ण टिप्पणियाँ करना शुरू कर देते हैं; यह दिखावा करना है। जब कोई व्यक्ति, जो सामान्य रूप से इस तरह का न हो, ये व्यवहार प्रकट करता है, तो तुम सुनिश्चित हो सकते हो कि उसके आसपास विपरीत लिंग के कुछ सदस्य हैं, जो उसकी पसंद के मुताबिक हैं। ये लोग कौन हैं? तुम कह सकते हो कि वे खराब शैली में आचरण करते हैं, या वे पुरुषों और महिलाओं के बीच स्पष्ट सीमाएँ नहीं रखते, लेकिन उन्होंने किसी निंदनीय व्यवहार का प्रदर्शन नहीं किया होता। कुछ लोग कह सकते हैं कि वे तो बस छिछोरे हैं। दूसरे शब्दों में, वे अशोभनीय आचरण करते हैं; ओछे लोगों को आत्मसम्मान का अंदाजा नहीं होता। कुछ लोग रोजमर्रा की जिंदगी में ये लक्षण प्रकट करते हैं, लेकिन इससे उनके कर्तव्यों का निष्पादन प्रभावित नहीं होता, और न ही यह उनके काम के पूरा होने को प्रभावित करता है, तो क्या यह वास्तव में कोई समस्या है? कुछ लोग कहते हैं : “अगर यह सत्य उनके अनुसरण में बाधा नहीं बनता, तो क्या इसके बारे में बात करने की कोई आवश्यकता है?” यह किससे संबंधित है? व्यक्ति की मानवता की लज्जा और गरिमा से। व्यक्ति की मानवता लज्जा और गरिमा से रहित नहीं हो सकती, और इनके बिना उसकी मानवता सामान्य मानवता नहीं हो सकती। कुछ लोग विश्वसनीय होते हैं और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें वे ईमानदार और जिम्मेदार होते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं। उनके सामने कोई बड़ी समस्याएँ नहीं होतीं, लेकिन वे बस अपने जीवन के इस पहलू को गंभीरता से नहीं लेते। जब तुम विपरीत लिंग के किसी सदस्य के साथ छेड़खानी करते हो, तो वह रचनात्मक होता है या हानिकारक? क्या होगा अगर तुम जिससे छेड़खानी करते हो, वह तुमसे प्यार करने लगे? तुम कह सकते हो “मैं ऐसा तो नहीं चाहता था”; ठीक है, अगर तुम ऐसा नहीं चाहते लेकिन फिर भी किसी के साथ छेड़खानी करते हो, तो क्या तुम उसके साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? तुम उसे नुकसान पहुँचा रहे हो! नैतिक अर्थ में इसमें थोड़ी कमी है। ऐसा करने वाले लोग खराब चरित्र के होते हैं। इसके अलावा, अगर तुम इस संबंध को आगे बढ़ाने का इरादा नहीं रखते और इसके बारे में गंभीर नहीं हो, और फिर भी तुम विपरीत लिंग के व्यक्ति को देखकर अपनी भौंहें उठाते हो और उसे आँख मारते हो, और मस्ती और हास्य के साथ दिखावा करते हो, यह दिखाने के लिए कि तुम्हारा एक अलग अंदाज है और तुम आकर्षक या सुंदर हो—अगर तुम इस तरह दिखावा करते हो, तो तुम वास्तव में क्या कर रहे हो? (लोगों को फुसला रहे हो।) इसमें लुभाने का इरादा निहित है। तो अब इस तरह का लुभाने वाला व्यवहार अच्छा है या खराब? (यह खराब है।) इसमें कोई गरिमा नहीं बचती। इस दुनिया में किस प्रकार के लोग दूसरों को लुभाएँगे? वेश्याएँ, व्यभिचारिणी महिलाएँ, बदमाश—ये लोग शर्मिंदगी नहीं जानते। शर्मिंदगी न जानने का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ है कि वे अपमान के प्रति संवेदनहीन हैं। सत्यनिष्ठा, शर्मिंदगी, और सम्मान, और साथ ही गरिमा और प्रतिष्ठा—वे इनमें से किसी चीज की परवाह नहीं करते। इस तरह के लोग दिखावा करते हुए और इश्कबाजी करते हुए यहाँ-वहाँ घूमते रहते हैं। एक या दो लोगों के साथ इश्कबाजी करना उनके लिए काफी नहीं होता, और आठ-दस उनके लिए ज्यादा नहीं होते। उन्हें खुश करने के लिए हजारों लोग चाहिए। कुछ शादीशुदा महिलाओं के दो बच्चे हो चुके होते हैं, और घर से बाहर कोई भी इस बारे में नहीं जानता। वे लोगों को यह जानने क्यों नहीं देतीं? उन्हें डर होता है कि अगर वे यह बता देंगी कि वे शादीशुदा हैं, और उन पर बात चल पड़ी तो उन्हें अपनी इश्कबाजी में फिर कामयाबी नहीं मिलेगी, और वे अपनी सम्मोहकता और आकर्षण गँवा देंगी। इसीलिए वे इस बारे में खुल कर नहीं बतातीं। क्या ऐसे लोग अपमान के प्रति संवेदनहीन नहीं हैं? अगर किसी में ऐसी चीजें हों तो क्या उसकी मानवता सामान्य है? नहीं है। इसका निहितार्थ यह है कि यदि तुममें ऐसी मानवता और ऐसे व्यवहार हैं, तो तुममें सामान्य मानवता के लिहाज से कमी है; इसमें शर्मिंदगी और गरिमा का अभाव होता है। कुछ लोग विपरीत लिंग के आसपास आते ही अपने बाल सँवारने लगते हैं और कपड़े ठीक करने लगते हैं, या फिर वे लाली और पाउडर लगाने लगते हैं, खुद को सुंदर बनाने की भरसक कोशिश करते हैं। इसमें उनका लक्ष्य क्या होता है? उनका लक्ष्य लुभाना होता है। यह कुछ ऐसी चीज है जो सामान्य मानवता में नहीं होनी चाहिए। लोगों को इस तरह से लुभाने में सक्षम होना और कुछ भी महसूस न करना, यह सोचकर कि यह अत्यंत सामान्य और आम बात है, कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, यह शर्मिंदगी की भावना का न होना है और यह भी न जानना है कि किसी को क्या करना चाहिए और क्या नहीं। ऐसे कुछ लोग हैं जो दस हजार युआन दिए जाने पर सड़क पर पूरी तरह नंगे होकर चलने को तैयार हो जाएँगे। वे किस प्रकार के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जिनमें शर्मिंदगी की भावना नहीं है। वे पैसे के लिए बिना शर्मिंदगी के कुछ भी कर लेंगे। उनके लिए सत्यनिष्ठा, चरित्र, शर्मिंदगी की भावना, और गरिमा के कोई मायने नहीं होते, और उनके लिए बेकार हैं। उन्हें लगता है कि दिखावा करने और दूसरों को लुभाने की उनकी क्षमता उनकी एक प्रतिभा है, और उन्हें एकमात्र आनंद ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को अपने पक्ष में करने और ज्यादा-से ज्यादा लोगों द्वारा अपना अनुसरण कराने से मिलता है। ऐसी महिला के लिए यह सबसे ऊँचा सम्मान होता है; वे इसी को सँजोती हैं। वे गरिमा, शर्मिंदगी की भावना या चरित्र जैसी चीजों को नहीं सँजोती। क्या यह अच्छी मानवता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों ने ऐसे व्यवहार प्रदर्शित किए हैं? (हमने किए हैं।) तो फिर क्या तुम उन्हें नियंत्रण में रखने में सक्षम हो? क्या तुम उन्हें ज्यादातर समय नियंत्रण में रख पाते हो, या ऐसा बहुत कम बार ही कर पाते हो? क्या तुममें खुद को सीमित करने की क्षमता है? जो लोग खुद को सीमित कर सकते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिनके दिल शर्मिंदगी को जानते हैं। प्रत्येक व्यक्ति आवेगशीलता और विघटन के क्षणों से गुजरता है, लेकिन जब खुद को सीमित कर सकने वाले लोगों में ये क्षण आते हैं तो उन्हें लगता है कि वे जो कर रहे हैं वह सही नहीं है, इससे उनका स्तर गिरता है, कि उन्हें तुरंत पलट जाना चाहिए, और उन्हें अब और ऐसा नहीं करना चाहिए। बाद में, जब फिर से उनका ऐसी चीज से सामना होता है, तो वे खुद पर काबू रखने में सक्षम होते हैं। अगर तुम्हारी मानवता में आत्म-संयम की इतनी-सी भी क्षमता नहीं है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए कहे जाने पर तुम किस चीज के विरुद्ध विद्रोह कर सकोगे? कुछ लोगों को सुंदर होने का सौभाग्य प्राप्त होता है, और वे लगातार विपरीत लिंग द्वारा अपना पीछा किया जाता हुआ पाते हैं; जितना अधिक लोग उनका पीछा करते हैं, उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि वे दिखावा कर सकते हैं। क्या यह उनके लिए खतरनाक नहीं है? इस स्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? (इस फंदे को पहचानना और इससे बचना चाहिए।) यह वास्तव में एक फंदा है, जिससे तुम्हें बचना चाहिए—अगर तुम इससे नहीं बचते, तो तुम बखूबी पाओगे कि किसी व्यक्ति ने तुम्हें फँसा लिया है। इससे पहले कि तुम फँस जाओ, तुम्हारा इस फंदे से बचना जरूरी है; इसे आत्म-संयम कहा जाता है। आत्म-संयम रखने वाले लोगों में शर्मिंदगी की भावना होती है और उनमें गरिमा होती है। जिन लोगों में यह नहीं होती, वे लुभाने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा बहला-फुसलाकर ले जाए जा सकते हैं; और जब भी कोई उनका पीछा करे तो उसका प्रलोभन ले सकते हैं, जो उन्हें मुसीबत में डाल सकता है। इसके अलावा, वे जान-बूझकर दिखावा करेंगे, सजेंगे-सँवरेंगे और ठाठदार लिबास पहनेंगे, और वे विशेष रूप से वो कपड़े पहनते हैं जिनसे वे और अधिक सुंदर, अधिक आकर्षक और मनोहर लग सकें, और वे उन्हें हर दिन पहनेंगे; यह उनके लिए खतरनाक है और यह दिखाता है कि वे जान-बूझकर दूसरों को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। अगर तुम इन कपड़ों में बहुत आकर्षक, और मोहक लगते हो, तो तुम्हें अपने देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए और ऐसे कपड़े पहनना छोड़ देना चाहिए। अगर तुम इस बारे में कृत-संकल्प हो, तो तुम ऐसा कर सकते हो। किंतु अगर तुममें यह संकल्प नहीं है, और तुम एक साथी तलाशना चाहते हो, तो आगे बढ़ो और किसी को ढूँढ़ लो : दूसरे से छेड़छाड़ किए बिना एक-दूसरे के साथ सामान्य रूप से बातचीत करो। अगर तुम साथी की तलाश नहीं कर रहे हो, लेकिन फिर भी दूसरों से छेड़छाड़ करते हो, तो इसे केवल शर्मिंदगी की भावना का न होना ही कहा जा सकता है। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि तुम क्या चुन रहे हो। क्या तुम लोग सिद्धांतों का पालन कर सकते हो? (हममें यह संकल्प है।) अगर तुममें यह संकल्प है, तो तुम्हारे पास ऊर्जा है, अभिप्रेरणा है, और तुम्हारे लिए इनका पालन करना आसान होगा। कुछ लोग प्रकृति से अनिवार्यतः सभ्य होते हैं, और इसके अलावा, परमेश्वर में आस्था पाने के बाद, वे सत्य का अनुसरण करते हैं और सही मार्ग अपनाते हैं; इसलिए उनमें स्वयं के लुभाए जाने की इच्छा नहीं होती, और कोई उनसे छेड़छाड़ करने की कोशिश करे, तो वे उसका जवाब नहीं देते। कुछ लोगों में इसकी काफी संभावना होती है, जबकि अन्य लोग इस पर कोई ध्यान नहीं देते; कुछ लोगों में यह संकल्प दिखता है, लेकिन वे खुद नहीं बता सकते कि वे वास्तव में ऐसा करते हैं या नहीं। विपरीत लिंग के साथ बातचीत करने का मामला लें, तो यह ऐसी चीज है जिससे तुम्हें सही ढंग से निपटना चाहिए, जिसे दोबारा जाँचना चाहिए, और जिसे सामान्य मानवता की गरिमा और शर्मिंदगी के अंश के रूप में पहचानना चाहिए। शर्मिंदगी की भावना का अभाव मानवता के अभाव से कैसे संबंधित होता है? यह कहना उचित है कि यदि किसी में शर्मिंदगी की भावना न हो, तो उसमें मानवता नहीं है। ऐसा क्यों होता है कि हरेक व्यक्ति जिसमें मानवता नहीं होती, वह सत्य से प्रेम नहीं करता। और हम ऐसा क्यों कहते हैं कि यदि किसी के पास मानवता है तो वह सत्य का अनुसरण कर सकता है। मुझे बताओ, जिन लोगों में शर्मिंदगी की भावना नहीं है क्या वे जानते हैं कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है? (नहीं।) तो, जब वे बुरे काम करते हैं, जिनसे परमेश्वर का प्रतिरोध होता है और उससे विश्वासघात होता है, और सत्य का उल्लंघन होता है, तो क्या वे आत्म-भर्त्सना महसूस करते हैं? (नहीं।) यदि उनका जमीर उन्हें फटकार न लगाए तो क्या वे सही मार्ग पर कदम रख सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? निर्लज्ज और बेशर्म लोग संवेदनहीन होते हैं; वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच और परमेश्वर किससे प्रेम करता है और किससे घृणा, उनमें स्पष्ट भेद नहीं कर सकते। इसलिए, जब परमेश्वर कहता है कि लोग ईमानदार हों, तो वे कहते हैं, “झूठ बोलने में क्या समस्या है? झूठ बोलना अपमानजनक नहीं होता!” जिस व्यक्ति में कोई शर्मिंदगी नहीं है क्या वही ऐसा नहीं कहेगा? यदि शर्मिंदगी की भावना वाला व्यक्ति ईमानदार होने में विफल रहे और सभी लोगों को उसका पता लग जाए, तो क्या वह घबरा नहीं जाएगा? क्या वह भीतर से बेचैन नहीं होगा? (बिल्कुल होगा।) और किसी बेशर्म इंसान का क्या? “ईमानदार इंसान होने के नाते दूसरे लोग क्या सोचते हैं, उनके लिए मेरा क्या मूल्य है, या वे मुझे कितना महत्व देते हैं—इनमें से किसी भी चीज का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है!” वे परवाह नहीं करते। फिर भी क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि उनके झूठ बोलने के बाद तुम उनसे पूछो कि क्या वे दिल से परेशान हैं या क्या वे कोई आत्म-दोष महसूस करते हैं, तो वे कहेंगे, “सुकून से होने का क्या अर्थ है? आत्म-दोष क्या है? इसमें इतनी ज्यादा तकलीफ क्यों है?” उनमें ऐसी कोई जागरूकता नहीं होती। क्या ऐसी खराब समझ वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? क्या वह सत्य का अनुसरण कर सकता है? वह उसका अनुसरण नहीं करता। उसके लिए सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच, सत्य और उसका उल्लंघन करने वाली चीज के बीच कोई सीमाएँ नहीं होतीं—ये सभी एक-समान होते हैं। हर हाल में वे सोचते हैं कि यदि सभी लोग प्रयास करें, अपना कर्तव्य करें और कीमत चुकाएँ, तो ठीक होगा। वे इन चीजों में भेद नहीं कर सकते। जब उन्होंने ऐसा कोई काम किया हो जिससे परमेश्वर का प्रतिरोध होता है, जब उन्होंने कुछ ऐसा किया हो जिससे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, जब उन्होंने कुछ ऐसा किया हो जिससे किसी के हितों को नुकसान पहुँचता हो, या जब उन्होंने कोई ऐसा काम किया हो जिससे कलीसिया का कार्य बाधित होता हो, तो उसके बाद वे जरा भी आत्म-भर्त्सना महसूस नहीं करते। उन्हें जरा भी आत्म-भर्त्सना नहीं होती। इसमें क्या उनमें शर्मिंदगी की भावना का अभाव नहीं है? जिन लोगों में शर्मिंदगी की भावना नहीं होती, वे ऐसी चीजों के बारे में विवेकहीन होते हैं। उनके लिए यह उनकी मर्जी का काम करना है। कुछ भी चलता है; फैसले करने के लिए सत्य का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं होती। इसलिए, शर्मिंदगी की भावना से रहित लोगों के लिए सत्य को समझना या उसका अभ्यास करने का कोई तरीका नहीं होता। शर्मिंदगी की भावना न होने और मानवता से विहीन होने के बीच यही संबंध है। तो फिर तुम लोग यह बात क्यों नहीं कह पा रहे थे? तुम सभी लोग सोचते हो, “तुम जो उपदेश दे रहे हो, उसका सत्य से कोई ज्यादा सरोकार नहीं है; यह उससे बहुत दूर है। हम आम तौर पर इन चीजों को स्पष्ट देख पाने में सक्षम होते हैं, तो क्या अब भी उनके बारे में बोलने के लिए हमें तुम्हारी जरूरत है?” यदि तुम लोगों को लगता है कि इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, तो तुमने सत्य वास्तविकता में कितनी गहराई तक प्रवेश किया है? क्या तुम लोग सामान्य मानवता को जी रहे हो? क्या तुम लोग वास्तव में ऐसे लोग बन गए हो जिनमें सत्य और मानवता है? तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और इन चीजों का अंदाजा भी नहीं लगा सकते, तो तुममें क्या ही सत्य वास्तविकता हो सकती है?

परमेश्वर के घर के दस प्रशासनिक आदेशों में से एक कहता है : मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है और इसके अतिरिक्त, उसमें भावनाएँ हैं। इसलिए, परमेश्वर की सेवा के समय विपरीत लिंग के दो सदस्यों को अकेले एक साथ मिलकर काम करना पूरी तरह निषिद्ध है। जो भी ऐसा करते पाए जाते हैं, उन्हें बिना किसी अपवाद के निष्कासित कर दिया जाएगा। लोग इस प्रशासनिक आदेश को किस रूप में लेते हैं? यदि किसी व्यक्ति ने तीस से अधिक महिलाओं के साथ अनुचित संबंध बनाए, तो मुझे बताओ, जिन लोगों ने इस बारे में सुना होगा उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा? (वे विश्वास नहीं कर पाए होंगे।) यह सुनकर तुम हैरत में पड़ जाओगे; तुम्हें झटका लगेगा, “बाप रे, बहुत ज्यादा है! यह घिनौना है, है कि नहीं?” और जब उसने तुम्हें बताया होगा तो उस आदमी के मन में क्या भावना रही होगी? (उसका हाव-भाव कुछ ऐसा रहा होगा कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।) उसके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं रही होगी। उससे पूछो कि आज वह क्या खा रहा है : “चावल।” उससे पूछो वह कितनी औरतों के साथ रहा है : “तीस या ज्यादा।” ये दोनों बातें वह ठीक एक-जैसे लहजे और मानसिकता से कहेगा। क्या ऐसी मानवता वाले व्यक्ति का कोई उद्धार हो सकता है? नहीं हो सकता, भले ही वह परमेश्वर में विश्वास रखता हो। ऐसा कुछ बोलने के बाद उसे कैसे मालूम नहीं कि यह शर्मिंदगी की बात है? यह अपमानजनक बात है! तो फिर वह ऐसी बात यूँ ही कैसे बोल सका? मुझे बताओ, क्या उसमें शर्मिंदगी की कोई भावना बची है? नहीं, बिल्कुल नहीं बची। उसकी मानवता में जमीर का बोध पहले ही संवेदनहीन हो चुका है, और अब उसमें अनुभूति की कोई क्षमता नहीं है। यह महज ऐयाश होने का मामला नहीं है—शर्मिंदगी और गरिमा विहीन लोग मनुष्य नहीं रह जाते। बाहर से तो वे मनुष्य जैसे दिखाई देते हैं, लेकिन जैसे ही उन्हें कोई चीज सँभालनी होती है, उनकी मनुष्यता बिखर जाती है। वे बिना शर्मिंदगी के ज्ञान के कुछ भी करने में सक्षम होते हैं—और इसका अर्थ है कि वे अब मनुष्य नहीं होते। चलो इन मामलों पर अपनी बात को हम यहीं समाप्त करते हैं।

सामान्य मानवता के जिन तीन पहलुओं की आज हमने चर्चा की है, उन पर चिंतन-मनन करो—क्या वे महत्वपूर्ण हैं? क्या सामान्य मानवता में ये चीजें सत्य के अनुसरण से असंबद्ध हैं? (नहीं।) तो फिर उनका सत्य के अनुसरण से क्या लेना-देना है? यदि परमेश्वर के किसी विश्वासी की मानवता में बारीकी से देखने की सतर्कता, जिम्मेदारी की भावना और अपने कार्य-कलापों पर ध्यान देने की क्षमता नहीं है—यदि उसमें ऐसी मानवता नहीं है, तो परमेश्वर में अपने विश्वास और सत्य के अनुसरण में वह क्या हासिल कर सकता है? पिछले वर्षों के दौरान हमने अनेक सत्यों पर, प्रत्येक क्षेत्र के सत्यों पर संगति की है। यदि लोग एक ईमानदार मानसिकता के साथ इन सत्यों को अपने जीवन में उतार नहीं पाते या उनसे पेश नहीं आ पाते, हर चीज को लापरवाही से एक साथ जोड़कर कुछ भी ईमानदारी से नहीं करते, तो क्या वे इस तरह से सत्य की समझ हासिल कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “अगर मैं सत्य की समझ प्राप्त न कर पाऊँ, तो क्या मैं सिर्फ इन धर्म-सिद्धांतों और शब्दावलियों को याद नहीं रख सकता?” क्या अंततः तुम सत्य को इस तरह से प्राप्त कर पाओगे? यदि तुममें इस प्रकार की सामान्य मानवता नहीं है, और तुम्हारी मानवता के भीतर ये चीजें नहीं हैं, यानी चीजों के प्रति तुम्हारा ईमानदार, सतर्क, निष्ठावान और जिम्मेदार रवैया नहीं है, तो तुम्हारे लिए सत्य धर्म-सिद्धांतों और सूत्रवाक्यों में तब्दील हो जाता है—यह विनियमों में बदल जाता है। सत्य को समझने में अक्षम होने के कारण तुम सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसके परे, यदि तुम व्यक्तिगत जीवन के परिवेश, दिनचर्या और शैली का अच्छी तरह प्रबंधन नहीं कर पाते, तो क्या तुम सत्य से जुड़े विभिन्न सिद्धांतों और कहावतों में प्रवेश कर पाओगे? नहीं समझ पाओगे। यही नहीं, लोगों को जीवन में सकारात्मक चीजों से प्रेम करना चाहिए, और नकारात्मक और दुष्ट चीजों के प्रति उन्हें अपने दिल की गहराई में घोर घृणा और तिरस्कार का रवैया बनाए रखना चाहिए। कुछ सत्यों में प्रवेश करने का यही एकमात्र रास्ता है। इसका अर्थ है कि सत्य के अपने अनुसरण में तुम्हें सही रवैया और सही मनोदशा रखनी चाहिए; तुम्हें नैतिक रूप से प्रशंसनीय और गंभीर व्यक्ति होना चाहिए। केवल ऐसे ही लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि किसी ने यह सोचकर कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, कई दुष्ट कार्य किए हों, ऐसी कई चीजें की हों जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करती हैं और सत्य का उल्लंघन करती हैं, फिर भी उसमें शर्मिंदगी की भावना न हो, और वह दिल से संवेदनहीन और अनभिज्ञ रहे—तो फिर क्या सत्य उसके किसी काम का है? यह उसके लिए बिल्कुल किसी काम का नहीं है। सत्य उस पर कोई प्रभाव नहीं डालता, और उसे रोकने, फटकारने, मार्गदर्शन करने या उसे दिशा और रास्ता दिखाने में सक्षम नहीं होता, जिसका अर्थ है कि वह मुसीबत में है। बिना शर्मिंदगी की भावना के कोई व्यक्ति सत्य को कैसे समझ सकता है? किसी व्यक्ति को सत्य को समझने के लिए उसे पहले अपने दिल में सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। किसी नकारात्मक या दुष्ट चीज के जिक्र भर से या उसका सामना होने भर से उसे घृणा होती है, और यदि वह ऐसी चीज खुद करता है, तो वह शर्मिंदा और परेशान महसूस करता है। वह सत्य के प्रति प्रेम महसूस करता है और अपने दिल में सत्य को स्वीकार सकता है; वह खुद को सीमित करने के लिए इसका उपयोग कर सकता है और अपनी गलत दशाओं को पलट सकता है। क्या ये वे चीजें नहीं हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए? (हाँ, हैं।) इन चीजों के होने से क्या किसी व्यक्ति के लिए सत्य का अनुसरण करना आसान नहीं हो जाता? और यदि किसी के पास इनमें से कुछ भी न हो, तो फिर सत्य का अनुसरण करने की बात करना बस थोथा चना बाजे घना जैसा है—हृदय में सकारात्मक चीजों की मौजूदगी के बिना वह ऐसा कैसे कर सकता है? जब तक तुम्हारी सामान्य मानवता में ये चीजें नहीं होंगी, तब तक सत्य तुम्हारे भीतर जड़ें नहीं जमा पाएगा, खिल नहीं पाएगा, और फल-फूल नहीं पाएगा—और तब तक यह कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगा। जब तुम सत्य को समझ लोगे, तब तुम अपनी सोच को बदलने, और अपने व्यवहार को सीमित करने में सक्षम हो पाओगे, और फिर तुम्हारे भ्रष्ट विचार लगातार कम होते जाएँगे। यही सच्चा बदलाव है।

सामान्य मानवता की जिन अभिव्यक्तियों पर आज हमने चर्चा की है, उनमें से कितनी तुम लोगों के पास हैं? कितनों का तुममें अभाव है? तुम लोगों के पास क्या है? (शर्मिंदगी की भावना।) शर्मिंदगी की भावना—यह अच्छी चीज है। तुममें कम-से-कम शर्मिंदगी की भावना तो होनी ही चाहिए। इसके अलावा और क्या? क्या लोगों, घटनाओं और चीजों को लेकर तुम सभी लोग ईमानदार, सतर्क मानसिकता और रवैया रखते हो? मैं देखता हूँ कि तुम लोग अपने हर काम में ढीले-ढाले हो, बस आलस और सुस्ती दिखाते रहते हो, और जब मैं उन चीजों को देखता हूँ जो तुम लोग करते हो, तो मेरे दिल में व्याकुलता बढ़ जाती है। क्या तुम लोग अपने आप इन समस्याओं का पता लगा सकते हो? इनका पता लगा लेने पर क्या तुम चिंतित होते हो? (हाँ।) किस तरह से? इसके बारे में बताओ। (अब जबकि मैंने अभी-अभी परमेश्वर की संगति सुनी है, मुझे लगता है कि मेरे पास ज्यादा मानवता नहीं है, और अपने कर्तव्य और अपने जीवन की घटनाओं के प्रति मेरी मानसिकता चंचल रही है। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों से बहुत ज्यादा दूर हूँ। यह थोड़ा डरावना है।) तुम्हारी मानवता में काफी अभाव हैं, ऐसा ही है न? तुम्हें लगता है कि तुमने परमेश्वर में अनेक वर्षों तक विश्वास रखा है, और बहुत-से सत्य सुने हैं, फिर भी तुममें मानवता की बिल्कुल बुनियादी चीजें भी नहीं हैं—तुम व्याकुल क्यों नहीं होगे? कुछ लोगों में थोड़ा तकनीकी कौशल होता है, लेकिन वे जो कुछ भी करते हैं, वह घटिया होता है। यह सब निचले दर्जे का होता है, मानक के स्तर का नहीं होता, और वे उन्नत और मानक तरीकों पर गौर नहीं करते। क्या यह उनकी पिछड़ी हुई मानसिकता नहीं है? उदाहरण के लिए, ऐसे एक व्यक्ति से एक बार एक दरवाजा लगाने को कहा गया और उसने कहा : “मैं जिस जगह का हूँ, वहाँ हमारे ज्यादातर दरवाजे एकल पाट वाले होते हैं।” वह जिस छोटी जगह से आया है, उससे मानक तय नहीं होता। उसे चाहिए कि बड़े शहरों की व्यावसायिक और रिहायशी इमारतों के दरवाजों की शैली को देखे, और तब स्थिति की वास्तविकता के आधार पर अपना काम करे। फिर भी यहाँ उसने मुँह खोला और कहा : “हम अपने घरों में दो पाटों वाले दरवाजे नहीं बनाते, और यहाँ बहुत ज्यादा लोग भी नहीं हैं। वैसे ज्यादा लोग होते भी तो भी कोई बड़ी बात नहीं होती—वे बस किसी तरह घुस सकते हैं।” किसी और ने कहा : “अगर लोग लंबे समय तक इस तरह घुसते रहे, तो चौखट टूट जाएगी। चलो, इस बारे में बात करते हैं। इस बार अपवाद के तौर पर दोतरफा दरवाजा बना दो, ठीक है?” फिर उसने कहा : “नहीं! मैं एकल पाट के दरवाजे बनाता हूँ; मैं दो पाटों वाले दरवाजे नहीं बना सकता। इसे कैसे बनाना है यह मैं जानता हूँ या तुम? मैं जानता हूँ—तो इस बारे में तुम मेरी बात क्यों नहीं सुनते? तुम्हें मेरी बात सुननी पड़ेगी!” उससे स्थिति के अनुसार काम करने को कहा गया था, लेकिन उसने बात नहीं सुनी और एक छोटा दरवाजा बनाने पर अड़ा रहा। क्या यह एक झंझट नहीं है? जब उससे रोशनी अंदर आने देने और जगह को छोटा न लगने देने के लिए बाहरी और भीतरी हिस्से के बीच काँच का विभाजक लगाने को कहा गया, तो वह बोला, “कांच क्यों लगाएँ? यह सुरक्षा जोखिम होगा, है कि नहीं? मैं काँच नहीं लगा रहा हूँ; ये दोनों दरवाजे ही ठीक रहेंगे। मैं जहाँ का रहने वाला हूँ वहाँ हम एकमात्र इसी दरवाजे का उपयोग करते हैं।” ऐसे लोग दूसरों को दबाने के लिए हमेशा ऐसी बातें कहते हैं, जैसे “मैं जहाँ का रहने वाला हूँ,” “मेरे घर पर,” “मैंने तकनीकी चीजें पढ़ी हैं।” क्या वे चीजें सत्य हैं? (वे सत्य नहीं हैं।) बाहरी चीजों के प्रति ऐसा रवैया अपनाने के लिए उनकी मानवता में किस चीज की कमी होगी? तार्किकता। और उनकी तार्किकता में विशेष तौर पर कैसी चीज की कमी होगी? अंतर्दृष्टि की। उन्हें हमेशा लगता है कि वे जहाँ के रहने वाले हैं, वहाँ की हर चीज सही है, सबसे ऊँचे स्तर की है और पूर्ण सत्य है। क्या उनकी तार्किकता कमजोर नहीं है? सामान्य तार्किकता कैसी नजर आनी चाहिए? सामान्य तार्किकता होने पर वे कहेंगे, “मैं इतने वर्षों से इस व्यापार में हूँ, लेकिन मैंने ज्यादा कुछ नहीं देखा है। मैं जिस जगह का रहने वाला हूँ वहाँ हम इसी तरह से दरवाजे बनाते हैं, तो चलो देखते हैं यहाँ के दरवाजे कितने बड़े हैं। हम यहाँ के लोगों के हिसाब से चलेंगे। यह एक अलग जगह है, और इस काम में मुझे लचीला होना चाहिए।” क्या यह तार्किकता नहीं है? (हाँ, है।) तो फिर क्या इस व्यक्ति के पास ऐसी तार्किकता है? नहीं—उसमें कोई समझ नहीं है। और अंत में इससे कैसे निपटा गया? वह काम फिर से करना पड़ा। क्या कोई काम दोबारा करने से नुकसान नहीं होता? (होता है।) हाँ, इससे नुकसान होता है। क्या ऐसे मामलों के अनेक उदाहरण हैं? जरूर हैं। वह व्यक्ति पूरी तरह से अड़ियल है। वह कितना अड़ियल है? उसने किसी की बात नहीं सुनी; उसने मेरी बात भी नहीं सुनी, और उसने मेरा खंडन भी किया। मैंने कहा, “तुम्हें बदलना होगा। वरना यह काम तुम्हारे लिए नहीं है।” और उसने यह कहने की हिम्मत की, “तुम्हें मेरी जरूरत न भी हो, तो भी मैं इसी आकार का दरवाजा बनाऊँगा!” यह कैसा स्वभाव है? क्या यह सामान्य मानवता है? (नहीं।) यह सामान्य मानवता नहीं है—तो फिर यह कैसी मानवता है? मेरी दृष्टि में वह थोड़ा जानवर जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे जब कोई बैल प्यासा होता है : चाहे वह गाड़ी में जितना भी सामान या जितने भी लोगों को ले जा रहा हो, जैसे ही उसे कोई छोटा-सा तालाब या नदी दिखती है, वह गाड़ी को सीधे वहीं खींच ले जाता है। चाहे जितने भी ज्यादा लोग लग जाएँ उसे वहाँ से नहीं खींच सकते। हम जिसकी बात कर रहे हैं वह एक जानवर है। क्या लोगों का स्वभाव भी इसी प्रकार का होता है? जब उनका स्वभाव ऐसा होता है, तो यह सामान्य मानवता नहीं है, और यह खतरनाक है। वे तुम्हें नकारने और तुम्हारी बात न सुनने का बहाना ढूँढ़ ही लेंगे। वे इतने अधिक जिद्दी और बेवकूफ हैं। दैनिक जीवन में ऐसे मामलों में यदि तुम्हारा रवैया विनम्र स्वीकृति का नहीं है, दूसरों की राय को लेकर ग्रहणशील नहीं हो, यदि तुम अध्ययन करने का रवैया नहीं रखते, तो तुम सत्य को स्वीकार करने में सक्षम कैसे हो पाओगे? तुम इसका अभ्यास करने में सक्षम कैसे हो पाओगे? सभी लोग कहते हैं कि दो पाट का दरवाजा बनाना अधिक उपयुक्त है। तुम यह भी नहीं कर सकते, और यह सत्य का अभ्यास करने के बिल्कुल भी करीब नहीं है—तुम एक अच्छा सुझाव सुनोगे भी नहीं। क्या तुम ऐसी कोई बात सुन पाओगे जो सत्य को छूती हो। तुम हमेशा की तरह नहीं सुनोगे। वह ऐसे व्यक्ति तक नहीं पहुँचती जिसका स्वभाव ऐसा हो, और इसका अर्थ है उनके लिए बड़ी मुसीबत। यदि किसी की मानवता में ऐसी समझ भी नहीं है, तो वह किस सत्य का अभ्यास कर सकता है? वह हर दिन इतना व्यस्त रह कर किसके लिए काम करता है? वह ये काम पूरी तरह से अपनी पसंद प्राथमिकताओं, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं के अनुसार करता है। हर दिन वह अपने दैनिक जीवन में अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति ऐसा नजरिया रखता है : “मैं जो चाहता हूँ वही करूँगा, मैं जो सोचता हूँ वही करूँगा, मैं जैसा मानता हूँ वैसा ही करूँगा।” इसे क्या कहा जाता है? वह दिन भर जो सोचता है, वह पूरी तरह से बुरा ही होता है। और यदि वह दिल से इतना बुरा है, तो उसके क्रिया-कलापों के बारे में क्या ही कहा जाए? क्या ऐसा कोई व्यक्ति है जिसके सभी विचार बुरे हैं, मगर फिर भी उसके सभी क्रिया-कलाप सत्य से मेल खाते हों? यह सही नहीं है—यह एक विरोधाभास होगा। उसके सभी विचार बुरे हैं, और जहाँ से शुरू करता है वह पूरी तरह बुरा है, इसलिए वह जो काम करेगा उसे कम-से-कम याद नहीं किया जाएगा। और जिन चीजों को याद नहीं किया जाता, उनमें से कुछ गड़बड़ियाँ और बाधाएँ होती हैं, कुछ विनाशकारी होती हैं, जबकि दूसरी इतनी खराब नहीं होतीं। यदि इन चीजों को गंभीरता से लिया जाता, तो उसकी निंदा की जाती। इसी तरह चलता है।

कुछ लोगों में एक प्रकार का गलत दृष्टिकोण होता है, जो दूसरों को काफी घृणित लगता है। इन लोगों में कुछ गुण या खूबियाँ होती हैं, या कोई कला, कोई सक्षमता या किसी क्षेत्र में कोई विशेष योग्यता होती है, और परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद वे खुद को विशिष्ट लोग समझने लगते हैं। क्या यह रवैया सही है? तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह ऐसी चीज है जो सामान्य मानवता की सोच से जुड़ी है? नहीं। फिर यह किस प्रकार का विचार है? क्या इसमें समझ का अभाव नहीं है? (हाँ, है।) वे मानते हैं, “इस कला को जानने के कारण मैं साधारण लोगों से ऊँचा हूँ, और परमेश्वर के घर में मैं औसत व्यक्ति से बेहतर हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मेरे पास शिल्प कौशल और योग्यता है, और मैं एक अच्छा वक्ता और प्रतिभाशाली हूँ। परमेश्वर के घर में मैं एक बड़ी हस्ती हूँ। मैं अत्यंत आकर्षक हूँ। कोई भी मुझे आदेश नहीं दे सकता, कोई मेरी अगुआई नहीं कर सकता, और कोई भी मुझे कुछ करने की आज्ञा नहीं दे सकता। मुझमें यह कौशल है, इसलिए मैं जो चाहूँगा वही करूँगा। मुझे सिद्धांतों के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है—मैं जो भी करता हूँ वह सही होता है और सत्य के अनुरूप होता है।” इस दृष्टिकोण के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या इस प्रकार के लोग नहीं होते? ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, और वे परमेश्वर के घर में अपनी शान बघारने आते हैं। यदि वे अपनी क्षमताओं या कौशलों का उपयोग परमेश्वर के घर में किसी कर्तव्य को करने के लिए करते, तो अच्छा होता, लेकिन अगर वे शान बघारने निकलते हैं, तो यह एक अलग प्रकृति की समस्या है। इसे “अपनी शान बघारना” क्यों कहा जाता है? वे परमेश्वर के विश्वासियों को बेवकूफ और तुच्छ समझते हैं। क्या उनकी सोच में कुछ गड़बड़ नहीं है? क्या उनकी तार्किकता थोड़ी गलत नहीं हो गई है? क्या चीजें वास्तव में ऐसी ही हैं? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग सच में बेकार होते हैं? (नहीं।) तो फिर वे लोग उन्हें ऐसा क्यों समझते हैं? उनके मन में ऐसा विचार कैसे आया होगा? ऐसा विचार किससे उत्पन्न होता है? क्या वे इसे गैर-विश्वासियों से सीखते हैं? वे सोचते हैं कि परमेश्वर के विश्वासी तुच्छ हैं, कि वे सभी गृहिणियाँ और गृहपति हैं, कि वे सभी किसान हैं, और यह कि वे समाज के निचले तबके से हैं। उनका दृष्टिकोण बड़े लाल अजगर वाला है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग निकम्मे हैं, कि वे समाज में अपना रास्ता नहीं बना पाए, कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखना इसलिए शुरू किया क्योंकि उनके लिए कोई रास्ता नहीं था, किसी के पास जाने की कोई जगह नहीं थी। वे सोचते हैं कि चूँकि उनके पास थोड़ी योग्यता है, वे किसी पेशे के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं, या उन्हें थोड़ी तकनीकी जानकारी है, वह उन्हें परमेश्वर के घर में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति बनाता है। क्या यह विचार सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? वे मानते हैं कि परमेश्वर के घर में कोई सक्षम लोग नहीं हैं, और अपनी थोड़ी सी पेशेवर जानकारी से वे सत्ता चलाना चाहते हैं और चाहते हैं कि चीजों के बारे में उनका फैसला अंतिम हो। क्या ऐसे लोग होते हैं? क्या तुम लोगों के अलावा या तुम्हारी जान-पहचान के लोगों के बीच ऐसे लोग हैं? ऐसे बहुत-से लोग हैं जो किसी क्षेत्र में कुशल हैं, और जब तुम उनसे समूह अगुआ या पर्यवेक्षक के तौर पर कार्य करवाते हो, तो उन्हें लगता है कि उन्होंने एक आधिकारिक पद पा लिया है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में उनका फैसला अंतिम है, परमेश्वर के घर के हितों की देखरेख उन जैसी कोई नहीं करता या उसके हितों की रक्षा उनसे ज्यादा कोई नहीं करता, और कोई भी उन जैसा वफादार नहीं है। वे सभी चीजों का प्रबंधन कर उनमें भाग लेना चाहते हैं, लेकिन वे किसी भी चीज का प्रबंधन अच्छे से नहीं करते, न ही वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं। यहाँ तक कि वे मेरी बात भी नहीं सुनते हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ, होते हैं।) ऐसे लोग होते हैं। अपने भीतर मौजूद किसी खास कौशल के नाम पर वे सभी का प्रबंधन करना चाहते हैं, और पद पर बने रहना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ भाई-बहन ऐसा कोई काम करते हैं जो उन्हें पसंद न हो, तो वे कहेंगे : “हमें इन लोगों पर लगाम कसने की जरूरत है—वे उपद्रवी हैं!” जब परमेश्वर के विश्वासियों के सामने कोई समस्या आती है, तो उनसे सत्य पर संगति की जानी चाहिए। यह कोई सैन्य शिविर नहीं है, जहाँ सैन्य नियंत्रण का अभ्यास किया जाना चाहिए। कलीसिया के मामलों में, परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करके और लोगों को सत्य समझाकर ही समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और मनमाने और सनकी ढंग से कार्य करते हैं उनकी काट-छाँट की जानी चाहिए—जो लोग सत्य को स्वीकार न करने पर अड़े हुए हों, सिर्फ उन्हीं लोगों को अनुशासित किया जा सकता है। ऐसे कुछ लोग होते हैं जिन्होंने पर्यवेक्षकों या अगुआओं और कार्यकर्ताओं के तौर पर कार्य किया है, और जिनके पास साफ तौर पर सत्य वास्तविकता नहीं है, मगर फिर भी परमेश्वर के घर में हमेशा सत्ता चलाना चाहते हैं, और चाहते हैं कि उनका फैसला ही अंतिम हो। क्या इन लोगों में जमीर अंतरात्मा और विवेक होता है? वे सिर्फ कुछ तरकीबें जानते हैं और सत्य को जरा भी नहीं समझते। वे यह सोचकर खुद को उपयोगी और काबिल मानते हैं कि वे परमेश्वर के घर के औसत व्यक्ति से बेहतर हैं, और वे चाहते हैं कि कलीसिया में सत्ताधारी होकर अपनी मनमानी करें—एकल और अंतिम फैसला लें। वे सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार, अपनी पसंद के अनुसार कार्य करना चाहते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? क्या इस प्रकार के लोगों में सामान्य मानवता वाली समझ होती है? उनमें इसका लेशमात्र भी नहीं होता। सामान्य मानवता पर अपनी संगति को हम यहीं समाप्त करेंगे।

मसीह-विरोधियों का दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, बल्कि केवल अपने प्रति समर्पण कैसे करवाने का गहन-विश्लेषण

III. मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों को उनके लिए गए किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकने का गहन-विश्लेषण

अपनी पिछली संगति के विषय से आगे बढ़ें तो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीकों में आती है आठवीं मद : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। इस मद को हमने चार उपखंडों में बाँट दिया है। अपनी पछली सभा में हमने दो उपखंडों पर चर्चा की थी : पहला था कि वे किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते; और दूसरा था कि उनमें लोगों पर नियंत्रण करने और उन पर विजय पाने की लालसा और महत्वाकांक्षा होती है। तीसरा उपखंड क्या है? दूसरों को उनके लिए गए किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकना। उन्होंने जो भी कार्य हाथ में लिया हो, उसमें क्या शामिल हो सकता है? उसमें शामिल होती है कोई भी कार्य योजना, जिसके लिए कोई अगुआ या कार्यकर्ता जिम्मेदार हो सकता है, और साथ ही वह कार्य शामिल होता है जिसके लिए कोई समूह पर्यवेक्षक या कोई समूह अगुआ जिम्मेदार हो सकता है; यह किसी क्षेत्र का कोई पेशेवर कार्य या किसी एक व्यक्ति का कार्य भी हो सकता है। यह व्यक्ति जिसने कोई कार्य हाथ में लिया है वह कोई अगुआ या कार्यकर्ता हो सकता है, या कोई साधारण भाई या बहन। अगर वे दूसरों को दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं, तो वे कौन-सी अवस्था में हैं? इस रोक से संबंधित व्यवहार कौन-से हैं? यह एक और व्यवहार है, जो मसीह-विरोधियों की आठवीं अभिव्यक्ति में आता है, उनके सार का एक और प्रकाशन है। प्रत्येक प्रकार के कर्तव्य में कुछ कार्य ऐसा होता है जो पेशेवर होता है, और कुछ ऐसा होता है जिसमें सीधे जीवन प्रवेश का समावेश होता है। पेशेवर कार्य में तकनीक, ज्ञान, सीख और कर्मचारियों की नियुक्ति जैसी चीजों के सभी पहलू शामिल होते हैं। ये सभी इसमें शामिल होते हैं। कोई काम हाथ में लेने के बाद कुछ लोग इसे खुद करने लगते हैं। वे इसके बारे में दूसरों से विचार-विमर्श नहीं करते, और जब उन्हें कोई कठिनाई होती है, तो वे दूसरों के सुझाव नहीं लेना चाहते; वे चाहते हैं कि वे एकल मध्यस्थ हों और आखिरी फैसला लें। दूसरे लोग उनकी थोड़ी सहायता करने की उम्मीद से अपने विचार और सुझाव दे सकते हैं—मगर क्या वे उन्हें स्वीकारते हैं? (नहीं।) नहीं, वे स्वीकार नहीं कर सकते। यह कैसा स्वभाव है? कौन-सा स्वभाव उन्हें नियंत्रित कर रहा है कि वे अपने कर्तव्य या उसके निष्पादन के बारे में दूसरों को दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं। वे मानते हैं, “मैं इस काम के बारे में जानता हूँ, और मुझे सिद्धांत मालूम है। कलीसिया ने मुझे यह काम सौंपा है। इसलिए मैं इसे खुद ही करूँगा।” वे कार्य-संबंधी कोई जानकारी या कार्य प्रगति दूसरों को बताने से इनकार करने को उचित ठहराने के लिए अक्सर दावा करते हैं कि वे पेशे को समझते हैं, और वे एक अंदर वाले व्यक्ति हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि दूसरे लोग काम में हुई उनकी बड़ी भूलों, गलतियों या दुर्घटनाओं के बारे में जानें। जब दूसरा कोई ऐसी चीज के बारे में जान लेता है और पूछताछ करना चाहता है, जुड़ना चाहता है, या ज्यादा पता लगाना चाहता है, तो वे जवाब देने से मना करते हैं, मगर कहते हैं, “काम के दायरे में आने वाली चीजें मेरे अधिकार क्षेत्र में हैं। तुम्हें पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं है। कलीसिया ने यह काम तुम्हें नहीं सौंपा है—मुझे सौंपा है, और मुझे इसे गोपनीय रखना होगा।” क्या यह उचित औचित्य है? क्या उनका “उसे गोपनीय रखना” सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्या कार्य की स्थिति और उसमें हुई भूलों और समस्याओं और उसकी योजना और दिशा के बारे में दूसरों से संगति करना इसे गोपनीय रखने का उल्लंघन होगा? (नहीं होगा।) नहीं होगा, कुछ विशेष विवरणों को छोड़कर जो यदि बाहर आ जाएँ तो कलीसिया की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाएँगे और दूसरों को ये बताना उपयुक्त नहीं होगा। ऐसे मामलों में उनकी बात न करना ही ठीक है। लेकिन यदि वे अपने गोपनीय रखने को एक औचित्य के रूप में प्रयोग कर रहे हैं, और दूसरों को ऐसी कोई भी चीज नहीं जानने देते जो उनके काम के दायरे में आती है, और साधारण भाई-बहनों और अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पूछताछ, सवाल, या जानकारी के निवेदनों को मानने से इनकार करते हैं, तो फिर इसमें समस्या क्या है? उदाहरण के लिए, हो सकता है कि वे कोई चीज एक खास तरीके से करना चाहते हों। कोई और उनसे कहता है, “अगर तुम इस तरह से करोगे, तो इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचेगा, और तुम अपने रास्ते से भटक जाओगे। इसके बजाय हम क्यों न ऐसा कर लें?” वे मन-ही-मन सोचते हैं, “अगर मैं तुम्हारे कहे अनुसार करूँगा, तो इससे दूसरों को लगेगा कि मेरा तरीका गलत था, है कि नहीं? और फिर कार्य का श्रेय तुम्हें चला जाएगा, है कि नहीं? यह नहीं चलेगा; मैं तुम्हारे मुताबिक चलने के बजाय रास्ता भटकना पसंद करूँगा। मुझे अपने रास्ते पर बने रहना होगा। इससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता हो तो भी मुझे परवाह नहीं; मेरी प्रतिष्ठा और रुतबा ही मायने रखते हैं—मेरा गौरव ही मायने रखता है!” वे जो करते हैं वह चाहे गलत ही क्यों न हो, वे बस गलत बने रहेंगे और किसी को हस्तक्षेप नहीं करने देंगे। क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) दूसरों को हस्तक्षेप करने की अनुमति न देने का सार क्या है? यह अपने खुद के उद्यम में लगना है। उनके लिए परमेश्वर के घर के हित महत्वपूर्ण नहीं होते, और उसका कार्य उनके ध्यान के केंद्र में नहीं होता। वे उस सिद्धांत के अनुसार काम नहीं करते। इसके बजाय, वे निजी हितों और अपने रुतबे और गौरव पर ध्यान केंद्रित करके काम करते हैं। परमेश्वर के घर के कार्य और हितों को उनके अपने रुतबे और उनके अपने हितों के मुताबिक चलना होगा। यही वजह है कि वे दूसरों को अपने कार्य में हस्तक्षेप नहीं करने देते या पूछताछ नहीं करने देते। वे मानते हैं कि जैसे ही कोई उनके कार्य में हस्तक्षेप करता है, वैसे ही उनके रुतबे और हितों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा, और उनकी कमियों और खामियों और साथ ही उनके कार्य की समस्याओं और विचलन के उजागर होने की संभावना होगी। इसलिए वे दूसरों को अपने कार्य में हस्तक्षेप करने से रोकने पर अड़े रहते हैं और वे किसी और के सहयोग या निगरानी को स्वीकार नहीं करते।

मसीह-विरोधी चाहे किसी भी कार्य में लगा हो, वह उसके बारे में ऊपरवाले के ज्यादा जानने और पूछताछ करने से डरता है। अगर ऊपरवाला कार्य की स्थिति या कर्मचारियों की नियुक्ति के बारे में पूछताछ करे, तो वह बस थोड़ी-सी तुच्छ चीजों का सतही हिसाब दे देगा, ऐसी थोड़ी-सी चीजों का, जिनके बारे में वह मानता है कि ऊपरवाला जान भी ले तो कोई बात नहीं, और उन्हें जान लेने से भी कोई बुरे परिणाम नहीं होंगे। अगर ऊपरवाला बाकी चीजों के बारे में भी पूछताछ पर जोर दे, तो उसे लगेगा कि वह उसके कर्तव्य और “आतंरिक मामलों” में दखल दे रहा है। वह और ज्यादा कुछ नहीं बताएगा, बल्कि मूक, धोखेबाज और चीजों पर परदा डालने वाला बना रहेगा। क्या वह परमेश्वर के घर की निगरानी को मना नहीं कर रहा है? (वह मना कर रहा है।) और अगर कोई उसकी किसी समस्या का पता लगा ले और उसे उजागर कर ऊपरवाले से उसकी शिकायत करने वाला हो, तो वह क्या करेगा? वह उसे रोक देगा, बीच में पकड़ लेगा—यहाँ तक कि धमकियाँ भी देगा : “अगर तुम यह बताओगे और इस कारण से ऊपरवाले द्वारा हमारी काट-छाँट हुई, तो इसका दोष तुम पर होगा। अगर किसी की काट-छाँट होनी है, तो वह तुम होगे!” क्या वह एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश नहीं कर रहा है? (कर रहा है।) वह ऊपरवाले को भी पूछताछ नहीं करने देगा, किसी को भी उसके कार्य के दायरे में आने वाली चीजों के बारे में जानने का या उन चीजों के बारे में सवाल पूछने का अधिकार नहीं होता, सिफारिशें करना तो दूर की बात है। अगर कोई कार्य योजना उसके हाथ लग गई हो, तो उस कार्य के दायरे में आने वाले मामलों के बारे में सिर्फ उसका ही फैसला अंतिम होगा; सिर्फ वही मध्यस्थता कर सकेगा; सिर्फ वही अपनी मर्जी से कार्य कर सकेगा और बोल सकेगा, और वह जैसे भी कार्य करे उसके पास उसका औचित्य होता है। जब एक बार कोई पूछताछ करता है तो वे कार्रवाई का कौन-सा तरीका इस्तेमाल करते हैं? लापरवाही और परदा डालने का। इसके अलावा और क्या? (धोखा।) सही है : धोखा—वे तुम्हारे सामने एक झूठा मुखौटा भी पेश करेंगे। उदाहरण के लिए, किसी कलीसिया में किसी अगुआ या सुसमाचार उपयाजक ने, जिस कलीसिया के लिए वे जिम्मेदार हैं, वहाँ महीने भर में स्पष्ट रूप से शायद सिर्फ तीन लोगों को प्राप्त किया होगा, जो दूसरी कलीसियाओं के मुकाबले बहुत कम है। उसे लगता है कि ऊपरवाले को हिसाब देने का कोई तरीका नहीं है—तो फिर वह क्या करता है? जब वह अपने कार्य का विवरण देता है, तो उसमें तीन के बाद एक शून्य जोड़ देता है और कहता है कि उसने तीस लोग प्राप्त किए हैं। किसी और को इसका पता चल जाता है और वह उससे पूछता है : “क्या यह धोखा नहीं है?” “धोखा?” वह कहता है, “क्यों भला, अगले महीने जब हम इसकी भरपाई करने के लिए तीस लोग प्राप्त कर लेंगे तो यह ठीक हो जाएगा, है कि नहीं?” इसके लिए उसके पास एक औचित्य होता है। अगर कोई और इस मामले को गंभीरता से लेकर ऊपरवाले से इसकी शिकायत करने की इच्छा करे, तो वह मानता है कि वह व्यक्ति उसके लिए मुसीबत खड़ी कर रहा है, और वह उसके पीछे पड़ गया है। तो वह उसे दबाएगा और उससे निपटेगा—वह उसके लिए मुसीबत खड़ी करेगा। क्या ऐसा करके वह लोगों को दंड नहीं दे रहा है? क्या वह बुराई नहीं कर रहा है? वह अपने कार्य में कभी सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजता, तो फिर कार्य करने का उसका लक्ष्य क्या होता है? यह अपने रुतबे और आजीविका को सुरक्षित करने को लेकर होता है। वह जो भी बुरे काम करता है, उनके पीछे का इरादा और मंशा वह लोगों को नहीं बताता। वह इन्हें पूरी तरह से गोपनीय रखेगा; उसके लिए यह गुप्त जानकारी होती है। ऐसे लोगों के लिए सबसे अधिक संवेदनशील विषय क्या होता है? यह तब पता चलता है जब तुम उनसे पूछते हो, “हाल के दिनों में तुम क्या करते रहे हो? क्या तुम्हारे कर्तव्य निष्पादन के कोई नतीजे निकले हैं? क्या तुम्हारे कार्य के दायरे के क्षेत्र में कोई गड़बड़ियाँ या विघ्न-बाधाएँ आई हैं? तुम उनसे कैसे निपटे? क्या अपने कार्य में तुम वहीं हो जहाँ तुम्हें होना चाहिए? क्या तुम अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाते रहे हो? क्या तुमने जो कार्य संबंधी फैसले लिए हैं, उनसे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा है? क्या अयोग्य अगुआओं को बदला गया है? क्या अच्छी काबिलियत वाले लोग जो सत्य का अपेक्षाकृत अधिक अनुसरण करते हैं, उन्हें पदोन्नत कर पोषित किया गया है? क्या तुमने उन लोगों को दबाया है जो तुम्हारे प्रति अवज्ञापूर्ण रहे हैं? तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का कितना ज्ञान है? तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो?” ये विषय उनके लिए सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। ऐसे सवाल पूछे जाने से वे सबसे ज्यादा डरते हैं, इसलिए तुम्हारे उनके बारे में पूछने की प्रतीक्षा करने से पहले वे जल्दी से कोई दूसरा विषय ढूँढ़ने की कोशिश करेंगे ताकि वे उन पर परदा डाल सकें। वे हर तरह से तुम्हें गुमराह करने की कोशिश करेंगे, तुम्हें यह जानने नहीं देंगे कि मौजूदा वास्तविक स्थिति क्या है। वे तुम्हें हमेशा अँधेरे में रखते हैं, यह जानने देने से रोकते हैं कि वास्तव में वे अपने कार्य में कहाँ तक पहुँचे हैं। वहाँ जरा भी पारदर्शिता नहीं होती। क्या ऐसे लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं? क्या वे परमेश्वर का भय मानते हैं? नहीं। वे कभी भी सक्रिय होकर कार्य की रपट नहीं देते, न ही वे सक्रियता से अपने कार्य में हुई दुर्घटनाओं की सूचना देते हैं; वे अपने काम में आने वाली चुनौतियों और उलझनों के बारे में कभी भी नहीं पूछते, खोजते या खुलकर नहीं बताते, बल्कि उन चीजों को छिपाने, और दूसरों की आँखों में धूल झोंकने और उन्हें धोखा देने में लग जाते हैं। उनके कार्य में जरा भी पारदर्शिता नहीं होती, और सिर्फ जब ऊपरवाला उनसे तथ्यात्मक रपट और हिसाब-किताब देने के लिए दबाव डालता है, तभी वे अनिच्छा से थोड़ा-बहुत बताते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे से जुड़े मसलों पर बोलने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे—उस पर एक भी शब्द बोलने से पहले ही मर जाएँगे। इसके बजाय, वे नहीं समझ पाने का बहाना करेंगे। क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? यह किस प्रकार का व्यक्ति है? क्या इस प्रकार की समस्या का समाधान आसानी से हो जाता है? यदि ऊपरवाला उनके कार्य में उनका मार्गदर्शन करे, तो उसके प्रति उनका रवैया क्या होता है? बेपरवाही। वे सहमत होते प्रतीत होते हैं, यहाँ तक कि वे कोई नोटबुक या कंप्यूटर निकाल कर तेजी से जरूरी बातें लिख लेंगे—लेकिन एक बार ऐसा करने के बाद क्या वे मार्गदर्शन को समझ चुके होते हैं और कार्य में लग जाते हैं? (नहीं।) वे तुम्हारे देखने के लिए नाटक कर रहे हैं, तुम्हें गुमराह करने के लिए दिखावा कर रहे हैं। वे वास्तव में क्या सोच रहे हैं? “चूँकि यह काम मुझे सौंपा गया है, इसलिए मैं जो कहूँगा वही चलेगा। मैं जो करना चाहता हूँ उसमें कोई दखल नहीं दे सकता। ‘राज्य के अधिकारियों की तुलना में स्थानीय अधिकारियों के पास ज्यादा नियंत्रण रहता है,’ इसलिए मेरे पास यह अधिकार है। यदि ऐसा नहीं है, तो मुझे यह काम मत सँभालने दो। मुझे निकाल दो।” वे ऐसा ही सोचते हैं, और इसी तरह कार्य करते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? क्या यह किसी मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) इसका मतलब मुसीबत है। तुम्हें हस्तक्षेप करने या पूछताछ करने की अनुमति नहीं है, न ही जाँच करने और सवाल पूछने की अनुमति है। वे इसके प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। वे सोचते हैं, “क्या ऊपरवाला मेरी समस्याओं का पता लगाने और मेरे काम की जाँच करने की कोशिश कर रहा है? किसने राज उगला है?” घबराहट में वे यह पता लगाने का ठोस प्रयास करते हैं कि भला वह कौन है जिसने उन्हें जोखिम में डाला। अंत में, उनके संदेह के घेरे में दो लोग रह जाते हैं, और वे उन्हें तुरंत निकाल देते हैं। यह कैसी समस्या है? यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है।

किसी मसीह-विरोधी के स्वभाव का मुख्य प्रमाण-चिह्न क्या होता है। रुतबे पर पकड़ बनाए रखना और दूसरों को नियंत्रित करना। वे दूसरों को नियंत्रित करने के लिए रुतबा हासिल करते हैं। जब तक उनके पास रुतबा होगा, वे वैध रूप से लोगों को अपने नियंत्रण में लेते रहेंगे। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वे वैध रूप से ऐसा करेंगे? क्योंकि उनका कार्य उन्हें परमेश्वर के घर द्वारा सौंपा गया था; यह करने के लिए उन्हें भाई-बहनों ने चुना था। इस प्रकार क्या वे महसूस नहीं करेंगे कि ऐसा करने की वैधता उनके पास है? (हाँ।) इसलिए उनके लिए यह कुछ ऐसा है जिसका वे लाभ उठा सकते हैं, इसे ध्यान में रखते हुए : “तुम लोगों ने मुझे चुना, है कि नहीं? अगर तुमने मुझे चुना, तो तुम्हें मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा। गैर-विश्वासियों की एक कहावत है : ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’” यहाँ, वे एक शैतानी कहावत का भी प्रयोग करते हैं। क्या यह कहावत सत्य है? (नहीं।) यह शैतानी विधर्म और भ्रम है। अगर तुम उनके कार्य के बारे में पूछताछ करते हो, तो वे ऐसा सिद्धांत प्रस्तुत करेंगे : “‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ अगर तुम मेरा उपयोग करते हो, तो तुम मुझ पर संदेह नहीं कर सकते। अगर तुम्हें नहीं मालूम कि मैं किस प्रकार का व्यक्ति हूँ, अगर तुम मेरी असलियत नहीं जान सकते, तो मेरा उपयोग मत करो। लेकिन तुम मेरा उपयोग कर रहे हो, और यह देखते हुए कि बात ऐसी है, मुझे इस स्थान पर अडिग रहना होगा। मैं जो कहता हूँ वह लागू होना चाहिए।” वे जो कहते हैं, वह कार्य के सभी मामलों में लागू होना चाहिए; उन्हें ऐसा न करने देने से, या उनके लिए कोई साझीदार ढूँढ़ने से, या दूसरों द्वारा उनकी निगरानी और मार्गदर्शन करवाने से काम नहीं चलेगा। यदि कोई उनके कार्य की जाँच करने आता है, तो वे बस मना कर देते हैं—उन्हें लगता है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है, और उनकी जाँच करने की कोई जरूरत नहीं है। अधिकारों के अनुसार, वे अपने रुतबे और अधिकार का दूसरों पर, कार्यस्थल पर और कलीसिया के कार्य पर नियंत्रण करने के लिए फायदा उठाते हैं। क्या वे एक स्वतंत्र राज्य स्थापित नहीं कर रहे हैं? क्या यह एक मसीह-विरोधी नहीं है? परमेश्वर का घर उनसे यह काम करवा सकता है और इस कर्तव्य का निर्वहन करवा सकता है, लेकिन वह उन्हें एक तानाशाह की तरह सत्ता नहीं चलाने देगा। क्या ऐसे व्यक्ति ने परमेश्वर के इरादे और उसके घर की व्यवस्थाओं को गलत नहीं समझा है? वे अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने के बजाय हमेशा रुतबे और सत्ता का लालच क्यों कर रहे हैं? (वे एक मसीह-विरोधी के स्वभाव से संचालित हैं।) सही है—किसी मसीह-विरोधी का स्वभाव ऐसा ही होता है। जब कलीसिया उनके लिए कार्य की व्यवस्था करती है तो वे उसे गलत क्यों समझते हैं? क्योंकि वे सहज रूप से लोगों को नियंत्रित करना पसंद करते हैं। यह उनका प्रकृति सार है—वे यही हैं। उनके लिए कार्य की व्यवस्था करो, और उन्हें महसूस होगा कि अब उनके पास सत्ता और रुतबा है, और इस तरह कार्यक्षेत्र पर उनका नियंत्रण है। अगर तुम उनके कार्यक्षेत्र में जाते हो, तो तुम्हें उनके कहे अनुसार करना होगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के घर ने एक बार एक मसीह-विरोधी के कार्य की जाँच करने के लिए एक अगुआ की व्यवस्था की। वह अगुआ और मसीह-विरोधी दोनों ही कलीसिया अगुआ थे; वे एक ही पद पर थे। मसीह-विरोधी ने कहा, “तुम एक कलीसिया अगुआ हो, और मैं भी एक कलीसिया अगुआ हूँ। हम एक ही पद पर हैं। तुम मेरे काम में दखल मत दो और मैं तुम्हारे काम में दखल नहीं दूँगा। मेरे साथ संगति मत करो—तुम वैसी स्थिति में हो ही नहीं! और तुम पूछना चाहोगे कि हमारी कलीसिया में काम कैसा चल रहा है—क्या ऊपरवाले ने तुम्हें यह करने का निर्देश दिया? मुझे प्रमाण दिखाओ।” अगुआ ने कहा, “ऊपरवाले ने मुझसे बस एक संदेश देने को कहा। अगर तुम्हें यकीन न हो, तो जाकर पूछ लो।” मसीह-विरोधी ने कहा, “तो फिर तुम्हें मेरे साथ संगति करने और मेरे विरुद्ध आरोप लगाने का क्या अधिकार है? मेरे कार्य के अधीन आने वाली चीजों के बारे में पूछताछ करने का क्या अधिकार है? ऐसा करने के लिए तुम्हारे पास कोई अधिकार नहीं है!” क्या ये शब्द सत्य से मेल खाते हैं? (नहीं।) यह कार्य का कैसा ढंग है? ऐसा ढंग जो सिर्फ कोई मसीह-विरोधी ही अपनाएगा। गैर-विश्वासियों के बीच एक कहावत चलती है : “जिसकी लाठी उसकी भैंस।” वे यह देखने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं कि किसका पद ऊँचा है, किसकी ताकत ज्यादा है, कौन ज्यादा सक्षम है। वे यह देखने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं कि कौन अधिक लोगों का प्रभारी है। और परमेश्वर के घर में मसीह-विरोधी यही चीजें देखने के लिए दूसरों से प्रतिस्पर्धा करते हैं। क्या वे गलत जगह पर नहीं आ गए हैं? जो व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव वाला हो, मगर मसीह-विरोधी न हो, क्या वह अपने ही पद वाले किसी कलीसिया अगुआ से मिलने पर आम तौर पर इस तरह से सोचेगा? वह कुछ चीजें प्रकट करेगा मगर सामान्य रूप से वह उस कलीसिया अगुआ के साथ संगति करने में सक्षम होगा। वह यह बिल्कुल नहीं कहेगा, “क्या तुम मेरे कार्य के बारे में पूछताछ करने की स्थिति में हो?” वह ऐसा नहीं कहेगा, क्योंकि वह सामान्य समझ वाला व्यक्ति है, और उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। सामान्य समझ वाला कोई व्यक्ति किस तरह व्यवहार करेगा? वह सोचेगा, “हमसे कलीसिया की अगुआई करवाना—यह परमेश्वर का हमें ऊपर उठाना है; यह उसका आदेश है, और हमारा कर्तव्य है। यदि परमेश्वर ने हमें ऐसा करने का आदेश न दिया होता, तो हम कुछ भी न होते। यह किसी प्रकार की आधिकारिक नियुक्ति नहीं है। मैं तुम्हारे साथ कलीसिया के कार्य, भाई-बहनों के हालचाल और अपने कार्य अनुभव के बारे में संगति कर सकता हूँ।” क्या कोई मसीह-विरोधी इन चीजों के बारे में दूसरों से संगति करेगा? नहीं—वह बिल्कुल इनका खुलासा नहीं करेगा। इसी वजह से मसीह-विरोधियों का एक लक्षण रुतबे और सत्ता की इच्छा होती है जो साधारण लोगों से बढ़कर होती है और इसीलिए उससे परे वे साधारण लोगों से अधिक चालाक और कपटी होते हैं। उनकी चालाकी और कपट कहाँ अभिव्यक्त होते हैं? (वे तुम्हें कुछ नहीं बताते। वे तुमसे कोई भी चीज सीधे नहीं कहते।) बात यह है कि उन्हें लगता है कि हर मामला गुप्त होता है, ऐसा जिसके बारे में उन्हें दूसरों को नहीं बताना चाहिए। वे हर मामले में दूसरों से सावधान रहते हैं; वे सभी चीजों को परदे के पीछे, ढँककर और छिपाकर रखते हैं। तो फिर क्या वे दूसरों से अपने आचरण में सामान्य बातचीत और संवाद कर सकते हैं? क्या वे दिल से कुछ भी कह सकते हैं? नहीं। तुम्हें अंतर्निहित स्थिति का अंदाजा लगाने से रोकने के लिए वे बस थोड़ी-सी सतही बातें और खुशनुमा शब्द बोल देते हैं। उनके साथ कुछ समय तक संपर्क में रहने के बाद तुम्हें लगेगा, “देखने में यह व्यक्ति बुरा नहीं लगता, लेकिन मैं हमेशा यह क्यों महसूस करता हूँ कि उसका दिल दूसरे लोगों के मुकाबले बहुत अलग है? उसके साथ संपर्क में रहने में हमेशा इतना अजीब क्यों लगता है? मुझे हमेशा महसूस होता है कि वे अथाह हैं।” क्या तुम भी ऐसा महसूस करते हो? (हाँ।) यह मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है : ऐसे लोग सभी से सावधान रहते हैं। और वे सावधान क्यों रहते हैं? क्योंकि उनकी दृष्टि में कोई भी उनके रुतबे के लिए खतरा बन सकता है। यदि वे सावधान न रहें, अपनी सतर्कता छोड़ दें, वे दूसरों को यह जानने दे सकते हैं कि उनके साथ, उनके वास्तविक स्वरूप के साथ वास्तव में क्या चल रहा है—और फिर अपने रुतबे को बनाए रख पाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए जब वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं जो उनके कार्य और कर्तव्य की स्थिति या उनकी निजी स्थिति के बारे में पूछताछ करता है, तो वे जिसे छिपा सकते हैं, उसे छिपा लेते हैं और जो बात घुमा-फिर कर कह सकते हैं, वो घुमा-फिरा कर कहते हैं। जिस चीज को वे घुमा-फिरा नहीं सकते, वे उसे दूर रखने का कोई तरीका ढूँढ़ लेंगे या खुद को उस व्यक्ति से छिपा लेंगे। कुछ मसीह-विरोधियों का स्वभाव विचित्र होता है : हालाँकि वे दूसरों के बीच रहते हैं, मगर तुम उन्हें किसी के साथ सामान्य बातचीत करते हुए नहीं देखोगे, और उनका दूसरों के साथ कोई सामान्य संवाद नहीं होता। वे हर दिन अपने-आप में रहते हैं, खाने के समय दिखाई देते हैं और उसके बाद फिर से गायब हो जाते हैं। वे हमेशा गायब होने का करतब करते रहते हैं। वे दूसरों से बातचीत क्यों नहीं करते? वे अपने परिवार को हर चीज बताते हैं, तो भाई-बहनों को बताने के लिए उनके पास कुछ क्यों नहीं होता? गैर-विश्वासियों की एक कहावत होती है : “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” ऐसे लोग इस सिद्धांत के प्रति कटिबद्ध होते हैं; वे खुद को लापरवाही से बोलने की छूट नहीं देते, क्योंकि हो सकता है उनकी कही हुई कोई बात उनका राज खोल दे, उनकी कोई कमजोरी उजागर कर दे। कुछ नहीं कहा जा सकता कि उनका कौन-सा शब्द सुनकर दूसरे उन्हें नीची नजर से देखने लगें और जान जाएँ कि उनके साथ वास्तव में क्या चल रहा है, इसलिए वे दूसरों से बचने की भरसक कोशिश करते हैं। क्या उनकी यह टालमटोल अनजाने में होती है, या इसके भीतर कुछ होता है जो इसे संचालित करता है? उसमें कोई चीज होती है जो इसे संचालित करती है। क्या वह चीज न्यायसंगत और सम्मानजनक है या संदिग्ध? (यह संदिग्ध है।) बेशक यह संदिग्ध है। यही एकमात्र तरीका नहीं है जिससे मसीह-विरोधी व्यवहार करते हैं—अधिकतर समय वे दूसरों से सामान्य ढंग से संवाद या बातचीत नहीं करते; हालाँकि कभी-कभी वे अत्यंत सुस्पष्ट होते हैं और बोलने में सक्षम होते हैं—लेकिन वे किन चीजों के बारे में बात करते हैं? उनकी विषयवस्तु क्या होती है? वे शब्द और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देकर अपना दिखावा करते हैं। वे कहते हैं कि वे वास्तविक कार्य कर सकते हैं और वास्तविक समस्याओं को हल कर सकते हैं, जबकि दरअसल उनके पास कोई वास्तविक कौशल नहीं होता। उनसे पूछो कि उनमें कौन-सी कमियाँ हैं, क्या उनका स्वभाव अहंकारी है, तो वे कहेंगे, “भ्रष्ट मानव जाति में कौन ऐसा है जो अहंकारी नहीं है?” देखो तो—यहाँ तक कि उनके अहंकार का भी अपना आधार है। इसमें सभी शामिल कर लिए गए हैं, मानो उनका अहंकार बिल्कुल उचित हो। वे कभी भी सत्य को नहीं खोजेंगे, और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस बात का बोध है ही नहीं कि कार्य में कोई समस्या या कठिनाई है। तुम उनसे पूछकर वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पाओगे। जब उनके पास कुछ करने को न हो तो वे चुपचाप बैठे रहेंगे, और जब भी वे बोलेंगे अपनी योग्यताओं के बारे में बताते रहेंगे। वे कभी खुलकर नहीं बोलते; वे कभी नहीं बताते कि उनके भीतर किस प्रकार का विद्रोहीपन या कैसी अतिशय इच्छाएँ हैं या वे परमेश्वर से किस तरह से सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं, या उन्होंने किससे झूठ बोला है, या कार्य करने के पीछे उनकी महत्वाकांक्षाएँ क्या हैं। वे कभी ये मसले नहीं उठाते, और जब दूसरे उठाते हैं, तो वे दिलचस्पी नहीं लेते। यहाँ तक कि उनके कार्य के दायरे के भीतर की चीजों को छूने वाले सवालों पर भी वे सरसरी तौर पर थोड़ा बोल देते हैं। संक्षेप में कहें, तो कितने भी लंबे समय तक उनके संपर्क में रहने वाला कोई व्यक्ति यदि उनके कर्तव्य के दायरे के भीतर की कोई बात जानना चाहे, चाहे वह कर्मचारियों, पेशेवर अभ्यास या कार्य प्रगति से संबंधित हो, तो उसे बड़ी कठिनाई होगी। बात निकालने का तुम्हारा चाहे कोई भी तरीका हो—चाहे तुम अपना प्रश्न घुमा-फिरा कर पूछो या सीधे, या उनके किसी करीबी से पूछ डालो—तुम्हें आसानी से नतीजे नहीं मिलेंगे। यह बहुत श्रमसाध्य होता है। क्या यह कपटपूर्ण नहीं है? (हाँ।) उनसे चीजों के बारे में यथास्थिति की जानकारी पाना इतना श्रमसाध्य क्यों होता है? वे चीजों को इतनी सख्ती से छिपा कर क्यों रखते हैं? उनका लक्ष्य क्या होता है? वे अपने रुतबे और आजीविका में सुरक्षित बने रहना चाहते हैं। वे मानते हैं, “यह रुतबा पाना, आज मैं जहाँ हूँ वहाँ पहुँचना कोई आसान काम नहीं था—क्षणिक लापरवाही से गलती करके मैं खुद बेवकूफी कर लूँ तो क्या यह मेरे लिए मुसीबत का कारण नहीं होगा? इसके अलावा, अगर परमेश्वर के घर को मेरे किए हुए बुरे कामों का पता चल गया, तो कौन जानता है कि वे मुझसे नहीं निपटेंगे?” तुम खुलकर बोलने, एक ईमानदार इंसान होने, और निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य करने के बारे में जितना भी बोलो, क्या उन्हें समझ आएगा? नहीं, नहीं समझ आएगा। उनके लिए यही एकमात्र मूलमंत्र है : बेवजह की बातों से सावधान रहो। अगर तुम दूसरों को सब-कुछ बता देते हो, तो तुम अयोग्य हो—निकम्मे हो! यही उनका मूलमंत्र होता है। मसीह-विरोधियों का ऐसा स्वभाव होता है।

मसीह-विरोधी जो भी कार्य करता है वह दूसरों को दखल देने या पूछताछ करने से रोकता है और इससे भी अधिक वह परमेश्वर के घर को उसकी निगरानी करने से रोकता है। ऐसा करने के पीछे उसका लक्ष्य क्या होता है? वह मुख्य रूप से परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना चाहता है, अपने रुतबे और सत्ता को सुरक्षित रखना चाहता है, जिसका अर्थ है कि वह अपनी आजीविका को सुरक्षित कर रहा है। यही उसका मुख्य लक्ष्य होता है। अगर तुम लोग अगुआ या कार्यकर्ता हो, तो क्या तुम परमेश्वर के घर द्वारा अपने काम के बारे में पूछताछ किए जाने और उसका निरीक्षण किए जाने से डरते हो? क्या तुम डरते हो कि परमेश्वर का घर तुम लोगों के काम में खामियों और गलतियों का पता लगाएगा और तुम लोगों की काट-छाँट करेगा? क्या तुम डरते हो कि जब ऊपर वाले को तुम लोगों की वास्तविक क्षमता और आध्यात्मिक कद का पता चलेगा, तो वह तुम लोगों को अलग तरह से देखेगा और तुम्हें प्रोन्नति के लायक नहीं समझेगा? अगर तुममें यह डर है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ कलीसिया के काम के लिए नहीं हैं, तुम प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम कर रहे हो, जिससे साबित होता है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो तुम्हारे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने और मसीह-विरोधियों द्वारा गढ़ी गई तमाम बुराइयाँ करने की संभावना है। अगर, तुम्हारे दिल में, परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम की निगरानी करने का डर नहीं है, और तुम बिना कुछ छिपाए ऊपर वाले के सवालों और पूछताछ के वास्तविक उत्तर देने में सक्षम हो, और जितना तुम जानते हो उतना कह सकते हो, तो फिर चाहे तुम जो कहते हो वह सही हो या गलत, चाहे तुम जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करो—भले ही तुम एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करो—तुम्हें बिल्कुल भी एक मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित नहीं किया जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या तुम मसीह-विरोधी के अपने स्वभाव को जानने में सक्षम हो, और क्या तुम यह समस्या हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम हो। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य स्वीकारता है, तो मसीह-विरोधी वाला तुम्हारा स्वभाव ठीक किया जा सकता है। अगर तुम अच्छी तरह से जानते हो कि तुममें एक मसीह-विरोधी स्वभाव है और फिर भी उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, अगर तुम सामने आने वाली समस्याओं को छिपाने या उनके बारे में झूठ बोलने की कोशिश करते हो और जिम्मेदारी से जी चुराते हो, और अगर तुम काट-छाँट किए जाने पर सत्य नहीं स्वीकारते, तो यह एक गंभीर समस्या है, और तुम मसीह-विरोधी से अलग नहीं हो। यह जानते हुए भी कि तुम्हारा स्वभाव मसीह-विरोधी है, तुम उसका सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम उसे स्पष्ट देखकर क्यों नहीं कह पाते, “अगर ऊपर वाला मेरे काम के बारे में पूछताछ करता है, तो मैं वह सब बताऊँगा जो मैं जानता हूँ, और भले ही मेरे द्वारा किए गए बुरे काम प्रकाश में आ जाएँ, और पता चलने पर ऊपरवाला अब मेरा उपयोग न करे, और मेरा रुतबा खो जाए, मैं फिर भी स्पष्ट रूप से वही कहूँगा जो मुझे कहना है”? परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम का निरीक्षण और उसके बारे में पूछताछ किए जाने का तुम्हारा डर यह साबित करता है कि तुम सत्य से ज्यादा अपने रुतबे को संजोते हो। क्या यह मसीह-विरोधी वाला स्वभाव नहीं है? रुतबे को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है। तुम रुतबे को इतना क्यों सँजोते हो? रुतबे से तुम्हें क्या फायदे मिल सकते हैं? अगर रुतबा तुम्हारे लिए आपदा, कठिनाइयाँ, शर्मिंदगी और दर्द लेकर आए, तो क्या तुम उसे फिर भी सँजोकर रखोगे? (नहीं।) रुतबा होने से बहुत सारे फायदे मिलते हैं, जैसे दूसरों की ईर्ष्या, आदर, सम्मान और चापलूसी, और साथ ही उनकी प्रशंसा और श्रद्धा मिलना। श्रेष्ठता और विशेषाधिकार की भावना भी होती है, जो रुतबे से तुम्हें मिलती है, जो तुम्हें गरिमा और खुद के योग्य होने का एहसास कराती है। इसके अलावा, तुम उन चीजों का भी आनंद ले सकते हो, जिनका दूसरे लोग आनंद नहीं लेते, जैसे कि रुतबे के लाभ और विशेष व्यवहार। ये वे चीजें हैं, जिनके बारे में तुम सोचने की भी हिम्मत नहीं करते, लेकिन जिनकी तुमने अपने सपनों में लालसा की है। क्या तुम इन चीजों को बहुमूल्य समझते हो? अगर रुतबा केवल खोखला है, जिसका कोई वास्तविक महत्व नहीं है, और उसका बचाव करने से कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, तो क्या उसे बहुमूल्य समझना मूर्खता नहीं है? अगर तुम देह के हितों और भोगों जैसी चीजें छोड़ पाओ, तो प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा तुम्हारे पैरों की बेड़ियाँ नहीं बनेंगे। तो, रुतबे को बहुमूल्य समझने और उसके पीछे दौड़ने से संबंधित मुद्दे हल करने के लिए पहले क्या हल किया जाना चाहिए? पहले, बुराई और छल करने, छिपाने और ढंकने, और साथ ही रुतबे के फायदों का आनंद लेने के लिए परमेश्वर के घर द्वारा निरीक्षण, पूछताछ और जाँच-पड़ताल से मना करने की समस्या की प्रकृति समझो। क्या यह परमेश्वर का घोर प्रतिरोध और विरोध तो नहीं? अगर तुम रुतबे के फायदों के लालच की प्रकृति और नतीजे समझ पाओ, तो रुतबे के पीछे दौड़ने की समस्या हल हो जाएगी। और रुतबे के फायदों के लालच के सार की असलियत देख पाने की क्षमता के बिना यह समस्या कभी हल नहीं होगी।

क्या तुम लोग कार्य करने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए साझीदारी करते हो? क्या तुम निगरानी स्वीकारते हो? क्या तुमने दूसरों को हस्तक्षेप करने या पूछताछ करने से रोकने के लिए कुछ किया है? अगर कोई पूछताछ करे, तो फिर क्या तुम उसका प्रतिरोध करके कहते हो, “मेरे काम में हस्तक्षेप करने वाले तुम कौन हो? मैं रुतबे में तुमसे एक पद ऊपर हूँ, और मेरे कार्य में मेरा फैसला चलता है। ऊपरवाले ने पूछताछ नहीं की, तो तुम्हें यह अधिकार कहाँ से मिला?” ऐसा ही कुछ? मसीह-विरोधियों का मुख्य स्वभाव क्या होता है? रुतबा हथियाना और सत्ता के लिए ललचाना; ऐसा कुछ भी न करना जो परमेश्वर के घर को फायदा पहुँचाए, ऐसा कुछ भी न करना जो कुछ उसके हितों पर ध्यान देने से उपजे, बल्कि लापरवाह और धोखेबाज होना और अनमने ढंग से कार्य करना। बाहर से देखने पर वे पूरे जोश के साथ अपने काम में व्यस्त प्रतीत होते हैं, लेकिन उनके द्वारा किए जा रहे कामों को देखो, जिनमें पहले तो कोई प्रगति नहीं होती; दूसरे वे अकुशल होते हैं; और तीसरे इनका कोई खास प्रभाव नहीं होता—उन्हें बिल्कुल अव्यवस्थित बना दिया जाता है। सिर्फ एक चीज है जिसका वे त्याग नहीं करते, और वह है अपने काम से मिले अवसर का उपयोग करके सत्ता हथिया लेना और उसे जाने न देना। सत्ता हाथ में रहने तक वे ठीक रहते हैं। वे जो भी काम करते हैं, चाहे इसका सरोकार किसी पेशे से हो, बाहरी मामलों से हो, तकनीकी कौशल से हो, या दूसरे पहलुओं से, उसमें समान रूप से कोई पारदर्शिता नहीं होती। क्या पारदर्शिता का यह अभाव अनजाने में होता है? नहीं—जो अनजाने में होता है वह स्वभावगत नहीं होता, बल्कि इसका संबंध काबिलियत की कमी और कार्य करने के तरीके को न जानने से है। तो फिर मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह स्वभाव किसी मसीह-विरोधी का स्वभाव है? वे ऐसा जान-बूझकर करते हैं। उनके भीतर एक मंशा होती है : वे जान-बूझकर तुम्हें इन चीजों को जानने से दूर रखते हैं, जान-बूझकर तुमसे छिपाते हैं और तुमसे मिलने से बचते हैं। वे तुम्हारे साथ बोलचाल और संवाद कम कर देते हैं; वे तुमसे आदान-प्रदान कम कर देते हैं। वे इन चीजों को उजागर करना कम कर देते हैं, ताकि तुम हमेशा उन्हें दोष न देते रहो, और उनसे पूछताछ न करो, ताकि तुम ज्यादा न जान पाओ कि वास्तव में क्या चल रहा है, ताकि तुम्हें उनके असली चेहरे का बोध न हो पाए। क्या यह जान-बूझकर नहीं किया जाता? क्या इसके पीछे कोई मंशा नहीं है? उनकी मंशा और लक्ष्य क्या हैं? वे तुम्हें दाँव-पेंच में फँसाना चाहते हैं, अपना मतलब निकालना चाहते हैं, वे तुम्हारे सामने एक झूठी छवि पेश करते हैं, और तुम्हें जानने नहीं देते कि चीजें वास्तव में कैसी हैं। इस तरह वे अपने रुतबे को सुरक्षित कर चुके होते हैं, जिससे वे खुश होते हैं। क्या यही इसकी प्रकृति नहीं है? (हाँ, है।) यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है, जान-बूझकर धोखा देना, आँखों में धूल झोंकना और चीजों पर परदा डालना। यह सब जान-बूझकर किया जाता है। मुझे बताओ, ऐसी कौन-सी कार्य योजना है जो लोगों को इतना व्यस्त रखती है कि उनके पास दूसरों से मिलने का समय नहीं होता? कोई नहीं, है न? कोई भी कार्य योजना किसी को इतना ज्यादा व्यस्त नहीं करती कि उनके पास खाने-पीने और सोने का समय न हो, न ही दूसरों से मिलने का समय हो। अभी तक चीजों में इतनी अधिक व्यस्तता नहीं आई है। उन चीजों के लिए वक्त निकाला जा सकता है। तो फिर इन लोगों के पास समय क्यों नहीं है? वे तुमसे मिलना नहीं चाहते; वे नहीं चाहते कि तुम उनके कार्य के बारे में पूछताछ करो। क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) वे किस प्रकार के लोग हैं? क्या वे छदम-विश्वासी नहीं हैं? हाँ, हैं—प्रत्येक मसीह-विरोधी एक छदम-विश्वासी होता है। यदि नहीं होते तो वे परमेश्वर के घर के कार्य को हथिया नहीं लेते, या परमेश्वर का अनुसरण करने वालों को अपनी सत्ता के अधीन करके नियंत्रित नहीं करते। वे ऐसी चीजें नहीं करते। छद्म-विश्वासियों का पहला व्यवहार यह होता है कि उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता ही नहीं। वे परमेश्वर में विश्वास रखने के बहाने अपने हितों के लिए षड्यंत्र रचते हैं; वे दिलेर और लापरवाह होते हैं, बिल्कुल नहीं डरते। परमेश्वर में उनका विश्वास कोई सच्ची आस्था नहीं, बल्कि एक नारा होता है। उनके दिल में परमेश्वर का जरा भी भय नहीं होता।

कुछ लोग जैसे ही सुनते हैं कि कोई उनके कार्य में हस्तक्षेप करना और उसकी निगरानी करना चाहता है, वैसे ही वे कैसा रवैया अपनाते हैं? “निगरानी तो ठीक है। मैं निगरानी स्वीकारता हूँ। पूछताछ करना भी ठीक है—लेकिन अगर तुम वास्तव में मेरी निगरानी करोगे, तो अपने कार्य में आगे बढ़ने का रास्ता नहीं बचेगा। मेरे हाथ बँध जाएँगे। अगर हमेशा तुम ही अंतिम फैसले लोगे और मुझे प्रवर्तक बना दोगे, तो मैं काम नहीं कर पाऊँगा। ‘सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है।’” क्या यह एक सिद्धांत नहीं है? यह मसीह-विरोधियों का सिद्धांत है। ऐसा कहने वाले व्यक्ति का स्वभाव कैसा होता है? क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है? इसका अर्थ क्या है कि “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है”? यहाँ तक कि वे ऊपरवाले की पूछताछ भी सहन नहीं करेंगे। अगर ऊपरवाला तुमसे पूछताछ न करे, तो फिर क्या तुम्हारे क्रिया-कलाप सत्य का उल्लंघन नहीं करेंगे? क्या पूछताछ की वजह से तुम कुछ गलत करोगे? क्या ऊपरवाला तुम्हारे कार्य को पटरी से उतार देगा? मुझे बताओ, क्या ऊपरवाला यह देखने के लिए कार्य के बारे में मार्गदर्शन देता है, उसके बारे में पूछताछ करता है, और उसकी निगरानी करता है कि उस काम को बेहतर ढंग से किया जाए या बदतर ढंग से? (बेहतर ढंग से।) अच्छा, तो कुछ लोग उन सुधरे हुए नतीजों को स्वीकार क्यों नहीं करते? (वे एक मसीह-विरोधी के स्वभाव के अधीन होते हैं।) सही है। यह उनका मसीह-विरोधी वाला स्वभाव है—वे इससे बच नहीं सकते। जैसे ही कोई उस कार्य के बारे में पूछताछ करता है जो उनके जिम्मे है, वे परेशान हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके हित, और साथ ही उनका रुतबा और सत्ता भी दूसरों को दे दिए जाएँगे। तो वे बेचैन हो उठते हैं। उन्हें महसूस होता है कि उनकी योजनाओं और पद्धतियों को अव्यवस्थित कर दिया गया है। और क्या उनके लिए यह कारगर होगा? अगर ऊपरवाला किसी को पदोन्नत करे और उस व्यक्ति से उसके साथ सहयोग करवाए, तो वे सोचते हैं, “इस व्यक्ति का उपयोग करने की मेरी कोई योजना नहीं थी, लेकिन ऊपरवाला जोर देता है कि वह अच्छा है और उसने उसे पदोन्नत कर दिया है। मुझे यह बढ़िया नहीं लगता। मैं उसके साथ सहयोग में कैसे काम करूँगा? अगर ऊपरवाला उसका उपयोग करेगा, तो मैं तो बस काम छोड़ दूँगा!” वे ऐसा कहते तो हैं, लेकिन क्या वे सचमुच अपना रुतबा छोड़ पाएँगे? नहीं छोड़ पाएँगे—वे जो कर रहे हैं वह टकराव का तरीका है। क्या वे अपने रुतबे के लिए खतरा बनने वाले, उन्हें सुर्खियाँ न देने वाले, मौजूदा परिदृश्य को बिगाड़ने वाले किसी व्यक्ति को काम करने की सहमति देंगे? नहीं, वे नहीं देंगे? उदाहरण के लिए, जब ऊपरवाला किसी को पदोन्नत करता है या बदल देता है, तो वे क्या सोचते हैं? “क्या तमाचा मारा है मुँह पर! यह काम उन्होंने मेरे जरिए नहीं किया। बाकी सब दरकिनार कर भी दूँ, तो मैं अभी भी अगुआ हूँ—वे पहले से मुझे कुछ क्यों नहीं बताते? ऐसा क्यों, मानो मेरा कोई महत्त्व ही नहीं है!” वैसे, तुम हो कौन? क्या यह तुम्हारा काम है? अव्वल तो यह तुम्हारा क्षेत्र नहीं है, और दूसरे, ये लोग तुम्हारा अनुसरण नहीं करते, तो फिर तुम्हें उनके लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? क्या यह सत्य के अनुरूप है? कौन-सा सत्य? ऊपरवाले द्वारा किसी व्यक्ति को पदोन्नत करने या किसी व्यक्ति को बदलने के सिद्धांत होते हैं। ऊपरवाला किसी को क्यों पदोन्नति देता है? क्योंकि कार्य के लिए उनकी जरूरत है। ऊपरवाला किसी को क्यों बदलता है? क्योंकि कार्य के लिए अब उसकी जरूरत नहीं रही—वह काम नहीं कर सकता। अगर तुम उसे नहीं बदलते, और यहाँ तक कि ऊपरवाले को भी नहीं बदलने देते, तो क्या तुम अप्रभावित नहीं हो? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “ऊपरवाले का किसी को बरखास्त करना—यह मेरे लिए कितनी शर्मनाक बात है। अगर वह किसी को बदलना चाहता है, तो उसे मुझे अकेले में बताना चाहिए, और यह काम मैं करूँगा। यह मेरा काम है; यह मेरी जिम्मेदारी का हिस्सा है। अगर मैं उसे बदलूँ, तो यह सबको दिखाएगा कि मुझे लोगों का कितना अधिक बोध है, और यह कि मैं असली कार्य कर सकता हूँ। यह कितना बड़ा सम्मान होगा!” क्या तुम लोग ऐसा सोचते हो? कुछ लोग अच्छा नाम और गौरव चाहते हैं, और वे ऐसे औचित्य प्रस्तुत करते हैं। क्या यह चलेगा? क्या यह उचित लगता है? एक लिहाज से, परमेश्वर का घर अपना कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार करता है; दूसरे लिहाज से, वह मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार कार्य करता है। कमान की किसी श्रेणी को नजरअंदाज करने जैसी कोई चीज नहीं होती, खासतौर से जब ऊपरवाले द्वारा लोगों की पदोन्नतियों या बदलने या किसी कार्य परियोजना के लिए उसके मार्गदर्शन और निर्देशों की बात हो—ऐसे मामलों में, यह कमान की एक श्रेणी को नजरअंदाज करने का मामला भी नहीं है। तो फिर मसीह-विरोधी इन “त्रुटियों” की तलाश क्यों करता है? एक बात पक्की है : वह सत्य को नहीं समझता, इसलिए वह परमेश्वर के घर के कार्य को अपने इंसानी दिमाग और उन प्रक्रियाओं से आँकता है जो बाहरी दुनिया में मौजूद हैं। इसके परे, उसका मुख्य लक्ष्य होता है कि उसका आत्म-संरक्षण और उसका गौरव बना रहे। अपने हर काम में वह मधुर और चालाक होता है; वह अपने नीचे वालों को यह देखने नहीं देता कि उसमें कुछ खामियाँ या कमियाँ हैं। किस हद तक वह ऐसे दिखावे करता रहेगा? इतने अधिक कि दूसरे उसे त्रुटिहीन समझें, जिसमें कोई भ्रष्टता या कमियाँ नहीं हैं। दूसरे इसे उपयुक्त मानेंगे कि ऊपरवाला उसका उपयोग करे और भाई-बहन उसे चुनें—वह एक पूर्ण व्यक्ति है। क्या वे नहीं चाहेंगे कि चीजें ऐसी हों? क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) हाँ, यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है।

अभी हमने जो संगति की, वह मसीह-विरोधियों के एक प्रमुख व्यवहार के बारे में थी—वे दूसरों को उनके लिए गए काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं। परमेश्वर का घर उनके कार्य की जाँच करने, या उसके बारे में ज्यादा जानने या उसकी निगरानी करने की जो भी व्यवस्थाएँ करता है, वे उसे रोकने और नकारने के लिए हर संभव हथकंडा अपनाएँगे। उदाहरण के तौर पर, जब कुछ लोगों को ऊपरवाले द्वारा कोई परियोजना सौंपी जाती है, तो बिना किसी प्रगति के काफी वक्त गुजर जाता है। वे ऊपरवाले को नहीं बताते कि क्या वे उसमें लगे हुए हैं, या काम कैसा चल रहा है, या क्या इस दौरान कोई कठिनाई या समस्या सामने आई है। वे कोई जानकारी नहीं देते। कुछ कार्य महत्वपूर्ण होते हैं और उनमें देरी नहीं की जा सकती, फिर भी वे टालमटोल करते रहते हैं और लंबे समय तक काम पूरा किए बिना खींचते रहते हैं। तब ऊपरवाला पूछताछ करेगा ही। जब ऊपरवाला ऐसा करता है, तो उन लोगों को यह पूछताछ असहनीय रूप से शर्मनाक लगती है, और वे दिल से उनका प्रतिरोध करते हैं : “मुझे यह काम मिले हुए बस दस दिन ही हुए हैं। मैं अभी तक इसे समझ भी नहीं पाया हूँ, और ऊपरवाला पहले ही पूछताछ करने लगा है। लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा ऊँची हैं!” देखा, वे पूछताछ की खामियाँ ढूँढ़ने लगे हैं। इसमें समस्या क्या है? मुझे बताओ, क्या ऊपरवाले का पूछताछ करना बिल्कुल सामान्य नहीं है? इसका एक अंश तो यह जानने की इच्छा है कि कार्य में कितनी प्रगति हुई है, और कौन-सी कठिनाइयों का समाधान होना बाकी है; इसके अलावा, यह जानने की इच्छा है कि उसने यह काम जिस व्यक्ति को सौंपा है उसकी काबिलियत कैसी है, क्या वह वास्तव में समस्याओं को दूर करने में सक्षम हो पाएगा और काम अच्छे ढंग से कर पाएगा। ऊपरवाला तथ्यों को यथास्थिति में जानना चाहता है, और ज्यादातर वह ऐसी परिस्थितियों में पूछताछ करता है। क्या यह वह काम नहीं है जो उसे करना चाहिए? ऊपरवाला इस बात को लेकर चिंतित है कि कहीं तुम समस्याओं का समाधान करना न जानो और काम को न सँभाल पाओ। वह इसीलिए पूछताछ करता है। कुछ लोग ऐसी पूछताछ के प्रति अत्यंत प्रतिरोधी होते हैं और उससे उन्हें घृणा होती है। वे इस बात के लिए तैयार नहीं होते कि लोग पूछताछ करें और अगर लोग ऐसा करते हैं तो वे प्रतिरोधी हो जाते हैं, और हमेशा यह सोचते हुए आशंकाएँ पालते हैं, “वे हमेशा पूछताछ क्यों करते रहते हैं और ज्यादा जानने की कोशिश क्यों करते रहते हैं? ऐसा तो नहीं है कि वे मुझ पर भरोसा नहीं करते और मुझे नीची नजर से देखते हैं? अगर उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं है, तो उन्हें मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए!” वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को कभी नहीं समझते, बल्कि उसका प्रतिरोध करते हैं। क्या ऐसे लोगों में विवेक होता है? वे ऊपरवाले को उनसे पूछताछ करने और उनकी निगरानी करने की अनुमति क्यों नहीं देते? इसके अलावा, वे प्रतिरोधी और अवज्ञापूर्ण क्यों रहते हैं। इसमें समस्या क्या है? उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनका कर्तव्य निर्वहन प्रभावी है या नहीं, या इससे कार्य की प्रगति में रुकावट पैदा होगी या नहीं। अपना कर्तव्य करते समय वे सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते, बल्कि वैसे ही करते हैं जैसे वे चाहते हैं। वे कार्य के नतीजों या दक्षता पर कोई विचार नहीं करते, परमेश्वर के घर के हितों का जरा भी ध्यान नहीं रखते, परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं का ध्यान रखना तो दूर की बात है। उनकी सोच होती है, “अपना कर्तव्य करने के मेरे अपने तरीके और दस्तूर हैं। मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ मत रखो या चीजों की बहुत बारीकी से जानकारी मत माँगो। मैं अपना कर्तव्य कर सकता हूँ, यही काफी है। मैं इसके लिए बहुत थक नहीं सकता या बहुत अधिक कष्ट नहीं उठा सकता।” वे ऊपरवाले के पूछताछ करने और उनके कार्य के बारे में ज्यादा जानने की कोशिशों को नहीं समझते। उनकी इस समझ की कमी में कौन-सी चीजों का अभाव होता है? क्या इसमें समर्पण का अभाव नहीं है? क्या इसमें जिम्मेदारी की भावना का अभाव नहीं है? निष्ठा का? अगर वे अपना कर्तव्य करने में सचमुच जिम्मेदार और निष्ठावान होते, तो क्या वे अपने कार्य के बारे में ऊपरवाले की पूछताछ को अस्वीकार करते? (नहीं।) वे उसे समझने में सक्षम होते। अगर वे सच में नहीं समझ पाते, तो सिर्फ एक ही संभावना होती है : वे अपने कर्तव्य को अपने पेशे और अपनी आजीविका के रूप में देखते हैं और उसे भुनाते हैं, जो कर्तव्य वे करते हैं उसे एक शर्त और सौदेबाजी के रूप में लेते हैं, जिससे हर समय उन्हें पुरस्कार मिल सके। वे बस ऊपरवाले से बच निकलने के लिए बिना परमेश्वर के आदेश को अपना कर्तव्य और दायित्व समझे थोड़ा-सा इज्जत वाला कार्य करेंगे। इसलिए जब ऊपरवाला उनसे कार्य के बारे में पूछताछ करता है या उसकी निगरानी करता है तो वे इनकार और प्रतिरोध की मनोदशा में चले जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) यह समस्या कहाँ से उपजती है? इसका सार क्या है? बात यह है कि कार्य परियोजना के प्रति उनका रवैया गलत है। वे कार्य की प्रभावशीलता और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ दैहिक सहजता और आराम, और अपने रुतबे एवं गौरव के बारे में सोचते हैं। वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का जरा भी प्रयास नहीं करते। यदि उनमें वास्तव में थोड़ा भी अंतरात्मा और विवेक होता, तो वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को समझने में सक्षम होते। वे दिल से ऐसा कह पाने में सक्षम होते, “अच्छी बात है कि ऊपरवाला पूछताछ कर रहा है। वरना, मैं तो हमेशा अपनी मर्जी से काम करता रहता, जिससे कार्य की प्रभावशीलता कम हो जाती, या मैं उसे बिगाड़ भी देता। ऊपरवाला संगति करता है और चीजों की जाँच करता है, और उसने वास्तव में असल समस्याओं को हल किया है—यह कितनी बड़ी बात है!” यह उन्हें एक जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में दर्शाएगा। वे डरते हैं कि अगर वे कार्य की जिम्मेदारी खुद उठाएँ, और अगर कोई गलती या दुर्घटना हो जाए और इससे परमेश्वर के घर के कार्य को कोई ऐसा नुकसान हो जाए जिसे ठीक करने का कोई रास्ता न हो, तो यह एक ऐसी जिम्मेदारी होगी जिसे वे उठा नहीं पाएँगे। क्या यह जिम्मेदारी की भावना नहीं है? (हाँ, है।) यह जिम्मेदारी की भावना है, और यह एक संकेत है कि वे निष्ठावान हैं। जो लोग दूसरों को उनके काम के बारे में पूछताछ नहीं करने देते, उनके दिमाग में क्या चल रहा होता है? “यह काम मेरा अपना है, यही देखकर कि मुझे ही यह काम सौंपा गया था। अपने काम के बारे में फैसले मैं ही लेता हूँ; मुझे जरूरत नहीं है कि इसमें कोई और शामिल हो!” वे चीजों पर खुद विचार करते हैं, और अपने मन की करते हैं, जैसा कि उनके व्यक्तित्व द्वारा निर्देशित होता है। वे वही करते हैं जिससे उन्हें फायदा होता है, और किसी को चीजों के बारे में पूछने की अनुमति नहीं होती—किसी को मामलों की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने की अनुमति नहीं होती। अगर तुम उनसे पूछते हो, “काम कैसा चल रहा है?” तो वे कहेंगे, “प्रतीक्षा करो।” अगर फिर तुम उनसे पूछते हो, “कार्य की प्रगति कैसी है?” तो वे कहेंगे, “लगभग पूरा होने को है।” तुम उनसे जो भी पूछो, वे बस एक या दो शब्द ही बोलेंगे। एक बार में वे बस दो-चार शब्द ही बोलेंगे, उससे ज्यादा नहीं—वे एक भी सटीक और विशिष्ट वाक्य नहीं बोलेंगे। क्या ऐसे लोगों से बात करना तुम्हें घिनौना नहीं लगता? स्पष्ट है कि वे तुमसे कुछ अधिक कहना नहीं चाहते। अगर तुम और सवाल पूछते हो, तो वे बेसब्र हो जाते हैं : “तुम उस छोटी-सी चीज के बारे में पूछते रहते हो, मानो मैं काम ही नहीं करवा सकता—मानो मैं इस काम के लायक ही नहीं हूँ!” लोग सवाल पूछें इसके लिए वे बिल्कुल भी तैयार नहीं होते। और अगर तुम उनसे सवाल करते रहते हो, तो वे कहेंगे, “मैं तुम्हें क्या लगता हूँ, कोई गधा या घोड़ा जिस पर तुम हुक्म चलाओगे? अगर तुम मुझ पर भरोसा नहीं करते, तो मेरा उपयोग मत करो; अगर तुम मेरा उपयोग करते हो, तो तुम्हें मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा—और मुझ पर भरोसा करने का मतलब है कि तुम्हें हमेशा पूछताछ नहीं करनी चाहिए!” उनका रवैया ऐसा ही होता है। क्या वे कार्य योजना को एक ऐसे कर्तव्य के रूप में ले रहे हैं, जो उन्हें ही करना है? (नहीं।) मसीह-विरोधी कार्य को अपने कर्तव्य के रूप में नहीं, बल्कि एक सौदेबाजी के रूप में लेते हैं जिससे आशीष और पुरस्कार प्राप्त किए जा सकते हैं। वे सिर्फ श्रम करके संतुष्ट रहते हैं, जिसके बदले में वे आशीषें पाना चाहते हैं। इसीलिए वे एक अनमने रवैये से कार्य करते हैं। वे नहीं चाहते कि दूसरे उनके कार्य में आंशिक रूप से भी हस्तक्षेप करें, ताकि वे अपनी गरिमा और गौरव बचा सकें। वे मानते हैं कि वे जो कर्तव्य निभाते हैं और जो कार्य वे करते हैं वह निजी तौर पर उनका अपना है, वे उनके निजी मामले हैं। इसीलिए वे दूसरों को हस्तक्षेप नहीं करने देते। इसका दूसरा अंश यह है कि अगर वे काम को अच्छे ढंग से करवा सकें, तो वे उसके श्रेय का दावा कर सकते हैं और पुरस्कार माँग सकते हैं। यदि किसी ने हस्तक्षेप किया तो उसका श्रेय अकेले उन्हीं का नहीं रहेगा। वे डरते हैं कि दूसरे उनका श्रेय छीन न लें। इसीलिए वे अपने कार्य में दूसरों के हस्तक्षेप के लिए बिल्कुल भी सहमति नहीं देते। क्या मसीह-विरोधियों के तौर पर ऐसे लोग स्वार्थी और नीच नहीं होते? वे जो भी कार्य करते हैं, बस ऐसा होता है मानो वे अपने निजी मामले सँभाल रहे हों। वे दूसरों को हस्तक्षेप या भागीदारी नहीं करने देते, चाहे अपने आप करने पर काम जैसा भी हो। अगर वे काम अच्छे ढंग से करेंगे तो उसका श्रेय वे खुद ही लेंगे, ताकि किसी दूसरे को वे श्रेय और कार्य के नतीजों का हिस्सा न लेने दें। क्या यह तकलीफदेह नहीं है? यह कौन-सा स्वभाव है? यह शैतान का स्वभाव है। जब शैतान कार्य करता है, तो वह किसी और के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता, वह जो कुछ भी करता है उसमें अपनी ही चलाना चाहता है और हर चीज नियंत्रित करना चाहता है, और कोई भी उसकी निगरानी या पूछताछ नहीं कर सकता। किसी को हस्तक्षेप या दखलंदाजी करने की अनुमति तो बिल्कुल भी नहीं होती। मसीह-विरोधी इसी तरह कार्य करता है; चाहे वह कुछ भी करे, किसी को पूछताछ करने की अनुमति नहीं होती, और चाहे वह पर्दे के पीछे कैसे भी काम करे, किसी को हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है। यह मसीह-विरोधियों का व्यवहार है। वे ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि एक लिहाज से उनका स्वभाव अत्यंत अहंकारी होता है और दूसरे लिहाज से उनमें विवेक की अत्यंत कमी होती है। उनमें समर्पण का पूर्ण अभाव होता है, और वे किसी को अपनी निगरानी या अपने कार्य का निरीक्षण नहीं करने देते। ये वास्तव में दानव की हरकतें हैं, जो सामान्य व्यक्ति की हरकतों से बिल्कुल अलग होती हैं। जो कोई भी कार्य करता है, उसे दूसरों के सहयोग की आवश्यकता होती है, उसे अन्य लोगों की सहायता, सुझाव और सहयोग की आवश्यकता होती है, और अगर कोई निरीक्षण या निगरानी कर रहा हो, तो भी यह कोई बुरी बात नहीं, यह आवश्यक है। अगर कार्य के किसी अंश में गलतियाँ हो जाती हैं, और निगरानी करने वाले लोगों द्वारा उनका पता लगाकर उन्हें तुरंत ठीक कर दिया जाता है, और कार्य को नुकसान नहीं होने दिया जाता, तो क्या यह एक बड़ी मदद नहीं है? इसलिए, जब बुद्धिमान लोग काम करते हैं, तो वे इसे पसंद करते हैं कि अन्य लोग उनकी निगरानी और अवलोकन करें और पूछताछ करें। अगर संयोगवश कोई गलती हो ही जाए, और ये लोग बता सकें और गलती तुरंत ठीक की जा सके, तो क्या यह अत्यंत वांछित परिणाम नहीं है? इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जिसे दूसरों की मदद की जरूरत न हो। ऑटिज्म या डिप्रेशन से पीड़ित लोग ही अकेले रहना और किसी के साथ संपर्क में न रहना या दूसरे लोगों से संवाद न करना पसंद करते हैं। जब लोग ऑटिज्म या डिप्रेशन से ग्रस्त हो जाते हैं, तो वे सामान्य नहीं रह जाते। वे अब खुद को नियंत्रित नहीं कर पाते। अगर लोगों का मन और विवेक सामान्य है, लेकिन वे दूसरों के साथ संवाद नहीं करना चाहते, और वे नहीं चाहते कि अन्य लोग उनके द्वारा किए जाने वाले किसी भी काम के बारे में जानें, वे चीजों को गुप्त रूप से, अकेले में करना चाहते हैं, और परदे के पीछे परिचालन करते हैं और वे किसी और की कोई बात नहीं सुनते, तो ऐसे लोग मसीह-विरोधी होते हैं, है न? वे मसीह-विरोधी हैं।

एक बार जब मैंने एक कलीसिया के अगुआ को देखा, तो मैंने उससे पूछा कि भाई-बहनों का कर्तव्य निर्वहन कैसा चल रहा है। मैंने पूछा, “क्या वर्तमान में कलीसिया में ऐसा कोई है जो कलीसिया के जीवन को बाधित कर रहा है?” क्या तुम अंदाजा लगा सकते हो कि उसने क्या कहा? “सब-कुछ ठीक है; वे ठीक हैं।” मैंने पूछा, “अमुक-अमुक बहन अपना कर्तव्य कैसे निभा रही है?” उसने कहा, “बढ़िया।” फिर मैंने पूछा, “उसका परमेश्वर में कितने वर्ष से विश्वास है?” उसने कहा, “बढ़िया है।” मैंने कहा, “यह मेज यहाँ नहीं होनी चाहिए; इसे हटाना होगा।” उसने कहा, “मैं इस बारे में सोचूँगा।” मैंने कहा, “क्या इस खेत में सिंचाई की जरूरत नहीं है?” उसने कहा, “हम इस बारे में संगति करेंगे।” मैंने कहा, “इस खेत में इस वर्ष तुमने यह फसल लगाई है। क्या अगले साल भी तुम यही फसल लगाओगे?” उसने कहा, “निर्णय लेने वाले हमारे समूह के पास एक योजना है।” उसने इस प्रकार के जवाब दिए। इन्हें सुनकर तुम्हें कैसा महसूस होता है? क्या इनसे तुम कुछ भी समझ पाते हो? क्या तुम्हें कोई जानकारी मिलती है? (बिल्कुल भी नहीं।) तुम फौरन बता सकते हो कि वह तुम्हें धोखा दे रहा है, तुम्हें बेवकूफ और बाहर वाला समझ रहा है। उसे नहीं मालूम कि वास्तव में बाहर वाला कौन है; गैर-विश्वासी इसे कहते हैं, “मेहमान का मेजबान की तरह पेश आना।” वह खुद अपनी पहचान नहीं जानता। मैंने कहा, “तुम लोगों के यहाँ बहुत सारे लोग रह रहे हैं, और हवा ठीक से प्रवाहित नहीं हो रही है। तुम्हें एक पंखा लगा लेना चाहिए, वरना यहाँ बहुत गर्मी हो जाएगी और लोगों को लू लग जाएगी।” उसने कहा, “हम इस बारे में बात करेंगे।” मैंने उससे जो भी बात कही, उसने बस यही कहा कि उस बारे में बात करनी होगी, उस पर संगति करनी होगी, और विचार करेंगे। मैंने जो भी व्यवस्थाएँ कीं, मैंने जो भी कहा, उसके लिए उनके कोई मायने नहीं थे। उसके लिए ये व्यवस्थाएँ या आदेश नहीं थे, और उसने उन्हें लागू नहीं किया। तो फिर उसने मेरे वचनों को क्या माना? (उसके विचार के लिए सुझाव।) क्या मैं उसे उसके विचार के लिए सुझाव दे रहा था? नहीं—मैं उसे बता रहा था कि उसे क्या करना चाहिए, उसे क्या करना था। क्या ऐसा था कि उसने मेरी बात नहीं समझी? अगर उसने नहीं समझी, तो इसका अर्थ यह था कि वह बेवकूफ था जो नहीं जानता था कि उसकी पहचान क्या है या और वह कौन-सा कर्तव्य कर रहा है। वहाँ बहुत सारे लोग रह रहे थे, बिना भीतरी वातानुकूलन या वायु प्रवाह के। जब उसने पंखा भी नहीं लगाया था तो वह भला कितना बुद्धिमान था? उसे तुरंत घर चले जाना चाहिए—वह कूड़ा है, और परमेश्वर के घर को कूड़े की जरूरत नहीं है। लोग किसी चीज के बारे में सब-कुछ नहीं जानते, मगर वे सीख सकते हैं। कुछ चीजें हैं जो मैं नहीं समझता, तो मैं उनके बारे में दूसरों से चर्चा करता हूँ : “तुम लोगों के ख्याल से यह करने का अच्छा तरीका कौन-सा है? तुम खुलकर अपने सुझाव दे सकते हो।” अगर कुछ लोग सोचते हैं कि कोई तरीका सर्वोत्तम है, तो मैं कहता हूँ, “ठीक है, चलो, तुम जैसा कहो वैसा करते हैं। मैंने अभी नहीं सोचा है कि किसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए। हम तुम्हारा कहा मानेंगे।” क्या यह सामान्य मानवता की सोच नहीं है? दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहना यही होता है। दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहना हो, तो लोगों को इसमें भेद नहीं करना चाहिए कि कौन श्रेष्ठ है और कौन कमतर, या किसे सुर्खियाँ मिलती हैं और किसे नहीं, या चीजों के बारे में किसकी बात चलेगी। ऐसे भेद करने की कोई जरूरत नहीं है—जिस किसी का तरीका सही और सत्य सिद्धांतों के अनुसार हो, उसी की बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए। क्या तुम लोग यह करने के काबिल हो? (हाँ।) ऐसे कुछ लोग हैं जो नहीं हैं। मसीह-विरोधी नहीं हैं—वे जोर देते हैं कि उनकी ही बात मानी जानी चाहिए, और कुछ नहीं। यह कैसी चीज है? दूसरों की उठाई हुई बात उन्हें गँवारा नहीं, भले ही वह उचित हो; वे जानते हैं कि यह सही और उचित है, लेकिन वे किसी दूसरे के द्वारा प्रस्तावित किसी भी चीज को नहीं मानते—अगर उन्होंने खुद कोई कोई प्रस्ताव रखा हो तभी वे खुश रहते हैं। इस छोटे-से मामले में भी वे श्रेष्ठता के लिए लड़ते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? मसीह-विरोधी का स्वभाव। वे रुतबे, प्रसिद्धि और गौरव को बहुत ज्यादा महत्त्व देते हैं। कितना महत्त्व? वे चीजें उनके लिए उनके जीवन से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं—भले ही उन्हें अपने प्राण देने पड़ें, वे अपने रुतबे और अपनी प्रसिद्धि की सुरक्षा करेंगे।

मसीह-विरोधी दूसरों को अपने किए किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या निगरानी करने से रोकते हैं, और यह रोक कई तरीकों से प्रकट होती है। एक है सीधा और स्पष्ट इनकार। “जब मैं काम करूँ, तो हस्तक्षेप करना, पूछताछ करना और निगरानी करना बंद करो। मैं जो भी काम करता हूँ, वह मेरी जिम्मेदारी है, मैं जानता हूँ कि उसे कैसे करना है और किसी और को मेरा प्रबंधन करने की जरूरत नहीं है!” यह सीधा इनकार है। एक और अभिव्यक्ति यह कहते हुए ग्रहणशील दिखने की होती है, “ठीक है, चलो संगति करें और देखें कि काम कैसे किया जाना चाहिए,” लेकिन जब दूसरे वास्तव में पूछताछ करना शुरू करते हैं और उनके काम के बारे में और जानने की कोशिश करते हैं, या जब वे कुछ समस्याएँ बताते हुए कुछ सुझाव देते हैं, तो उनका क्या रवैया रहता है? (वे ग्रहणशील नहीं रहते।) यह सही है—वे स्वीकार करने से मना कर देते हैं, दूसरों के सुझाव खारिज करने के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, गलत को सही और सही को गलत में बदल देते हैं, लेकिन असल में, अपने दिल में वे जानते हैं कि वे तर्क को तोड़-मरोड़ रहे हैं, कि वे ऊँची लगने वाली बातें कर रहे हैं, कि वे जो कह रहे हैं वह महज सैद्धांतिक है, कि उनके शब्दों में वह वास्तविकता नहीं है जो दूसरे लोगों की बातों में है। और फिर भी अपनी हैसियत की रक्षा करने के लिए—और यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि वे गलत हैं और दूसरे लोग सही हैं—वे दूसरे लोगों की सही बात गलत में और अपनी गलत बात सही में बदल देते हैं, और जहाँ वे होते हैं, वहाँ सही और सत्य के अनुरूप चीजों को लागू करने या कार्यान्वित न होने देकर अपनी गलत बात को कार्यान्वित करते रहते हैं। क्या वे कलीसिया के कार्य को एक खेल, एक लतीफे के रूप में नहीं ले रहे हैं? क्या वे पूछताछ और निगरानी को स्वीकारने से इनकार नहीं कर रहे हैं? वे तुम्हें यह बताकर अपनी इस “मनाही” को खुल्लमखुल्ला व्यक्त नहीं करते, “तुम्हें मेरे कार्य में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं है।” वे जो करते हैं वह यों तो दिखाई नहीं देता, लेकिन यही उनकी मानसिकता होती है। वे कुछ तिकड़में इस्तेमाल करेंगे और बाहर से बड़े धर्मनिष्ठ दिखाई देंगे। वे कहेंगे, “ऐसा होता है कि हमें मदद की जरूरत पड़ती है, तो अब चूँकि तुम यहाँ हो, हमारे साथ थोड़ी संगति करो!” उनके उच्च-स्तरीय अगुआ को यकीन हो जाएगा कि वे सच्चे हैं, और इसलिए वे उनके साथ संगति करेंगे, उन्हें मौजूदा परिस्थितियों के बारे में बताएँगे। अगुआ को सुन लेने के बाद, वे सोच में पड़ जाएँगे : “तुम चीजों को इस तरह देखते हो—अच्छा, मुझे तुम्हारे दृष्टिकोण का खंडन करने और उसे गलत साबित करने के लिए इस बारे में तुमसे वाद-विवाद करना होगा। मैं तुम्हें शर्मसार करूँगा।” क्या यह स्वीकृति का रवैया है? (नहीं।) तो फिर यह कौन-सा रवैया है? यह उनके किए गए कार्य में दूसरों के दखल देने, पूछताछ करने और निगरानी करने देने का पालन करने से इनकार करना है। मान लें कि मसीह-विरोधी ऐसा करेंगे, तो फिर वे लोगों के सामने झूठा मुखौटा क्यों लगाए रखते हैं और स्वीकृति का रवैया क्यों दिखाते हैं? वे लोगों को इस तरह से धोखा देंगे, इससे यह पता चलता है कि वे बहुत धूर्त हैं। उन्हें डर होता है कि लोग उनकी असलियत जान लेंगे। वर्तमान में, खास तौर से कुछ ऐसे लोग हैं जिनमें थोड़ी-बहुत समझदारी है, इसलिए यदि कोई मसीह-विरोधी दूसरों की निगरानी और मदद को सीधे मना करता है, तो लोग बताने और उसकी असलियत समझने में सक्षम होंगे। फिर वे अपना गौरव और रुतबा गँवा देंगे, और उनके लिए भविष्य में अगुआ या कार्यकर्ता चुना जाना आसान नहीं होगा। इसलिए, जब कोई उच्च-स्तरीय अगुआ उनके कार्य की जाँच करता है, तो वे उसे स्वीकारने का दिखावा करते हैं, मीठी और चाटुकारिता भरी बातें कहते हैं, जिससे सभी लोग सोचने लगते हैं, “देखो, हमारा अगुआ कितना धर्मनिष्ठ, कितना सत्य-खोजी है! हमारा अगुआ हमारे जीवन और कलीसिया के कार्य की देखभाल करता है। वह अपना कर्तव्य करने की जिम्मेदारी लेता है। अगले चुनाव में हम फिर से उसे ही चुनेंगे।” जिस बात को कोई नहीं देखता वह यह है कि उच्च-स्तरीय अगुआ के जाने के बाद मसीह-विरोधी कुछ ऐसे कहेगा : “कार्य की जाँच करने वाले उस व्यक्ति ने जो कहा वह सही तो था, लेकिन जरूरी नहीं कि वह हमारी कलीसिया के हालात के लिए सही हो। प्रत्येक कलीसिया में चीजें अलग होती हैं। उसने जो कहा हम उसके साथ पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते—हमें उस पर अपनी वास्तविक स्थिति के आधार पर विचार करना होगा। हम विनियमों को रटे-रटाए ढंग से लागू नहीं कर सकते!” और सभी लोग यह सोचकर निकल जाते हैं कि यह सही है। क्या उन्हें गुमराह नहीं किया गया है? मसीह-विरोधी जो करता है उसका एक अंश मीठी बातें कहना और दूसरों की निगरानी को स्वीकारते हुए दिखाना है; इसके तुरंत बाद वे आतंरिक तौर पर गुमराह करने और मत-परिवर्तन का काम शुरू कर देते हैं। वे इस तरीके के दोनों अंशों को एक साथ लागू करते हैं। क्या उनके पास तिकड़में होती हैं? वाकई, ढेर सारी! बाहर से वे बढ़िया बातें बोलते हैं और स्वीकृति का ढोंग करते हैं, जिससे सभी लोग मान लेते हैं कि वे अपने कार्य के प्रति बहुत जिम्मेदार हैं, कि वे अपने पद और रुतबे का त्याग कर सकते हैं, कि वे निरंकुश नहीं हैं, बल्कि ऊपरवाले या दूसरे लोगों की निगरानी को स्वीकार सकते हैं—और ऐसा करते हुए वे भाई-बहनों को चीजों की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ “स्पष्ट रूप से बता” देते हैं, और विभिन्न स्थितियों के बारे में “स्पष्ट कर” देते हैं। उनका उद्देश्य क्या होता है? यह दूसरे लोगों का दखल, पूछताछ या निगरानी को स्वीकार न करने, और भाई-बहनों को यह सोचने पर बाध्य करने के लिए होता है कि उनका वैसा करना, जैसा वे कर रहे हैं, न्यायसंगत है, सही है, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और कार्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, और एक अगुआ के रूप में वे सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। वास्तव में, कलीसिया में कुछ ही लोग सत्य समझते हैं; निस्संदेह ज्यादातर लोग सत्य समझने में असमर्थ हैं, वे इस मसीह-विरोधी की असलियत नहीं देख पाते, और स्वाभाविक रूप से उसके द्वारा गुमराह हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, किसी विशेष कारण से कुछ लोगों की रात की नींद उड़ जाती है। वे सारी रात बिना सोए गुजार देते हैं। दो प्रकार के लोग होते हैं जिनमें अनिद्रा दो तरीकों से अभिव्यक्त होती है। पहले प्रकार के व्यक्ति दिन में जितनी जल्दी हो सके थोड़ा सो लेने का मौका ढूँढ़ लेते हैं। वे दूसरों को नहीं जानने देते कि वे नहीं सोए। यह एक स्थिति है, एक तरीका, जिसमें चीजें होती हैं। इसके पीछे कोई मंशा नहीं होती। दूसरे प्रकार का व्यक्ति खाना खाते हुए झपकी लेता है और सबसे कहता है, “मैं कल रात नहीं सोया!” कोई उससे पूछता है, “क्यों नहीं?” तो वह कहता है, “एक ऑनलाइन सभा थी, और मुझे कार्य में कुछ समस्याओं का पता चला। मैं सारी रात जागकर उन्हें हल करता रहा।” वह लगातार उद्घोषणा करता रहता है कि वह सारी रात नहीं सोया। क्या वह सारी रात जागे रहने को अनिच्छुक था? वह इसका स्पष्टीकरण समूह को क्यों दे रहा है? और क्या इस स्पष्टीकरण में कुछ निहित है? उसका लक्ष्य क्या है? इस आशंका से कि दूसरों को शायद इस बात का पता न चला हो, वह पूरी दुनिया को सूचित कर देना चाहता है कि उसने क्या किया। वह चाहता है कि सभी लोग जान लें कि उसने कष्ट सहा है, वह सारी रात जागा रहा, परमेश्वर में अपने विश्वास में वह कीमत चुकाने को तैयार है, कि उसे आराम की लालसा नहीं है। इससे वह भाई-बहनों की स्वीकृति पाना चाहता है। यह सतही प्रदर्शन करके वह लोगों के दिल जीत लेता है, और ऐसा करके वह दूसरों से अपना सम्मान करवाता है, और लोगों के दिलों में इज्जत हासिल करता है। रुतबा हासिल कर लेने के बाद वह निश्चित रूप से अधिकार के साथ बोलेगा। और एक बार अधिकार के साथ बोलने के बाद क्या वह उस विशेष व्यवहार का आनंद नहीं लेगा जो रुतबे के साथ मिलता है? (हाँ, लेगा।) क्या तुम्हें लगता है कि उसने इस अवसर का अच्छा लाभ उठाया है? तुम लोग जब सो नहीं पाते हो या देर रात तक जागे रहते हो, तो क्या दूसरों को बताते हो? (हाँ, बताते हैं।) जब तुमने बताया, तो क्या अनजाने में ऐसा किया या फिर इसके पीछे कोई मंशा थी? क्या तुमने किसी को बस यों ही बता दिया या तुम दिखावा करते हुए कोई बड़ी घोषणा कर रहे थे? (यों ही बताया था।) यों ही बताने के पीछे कोई मंशा नहीं होती; इसमें कोई स्वभावगत समस्या नहीं दिखाई देती। जान-बूझकर बताने और अनजाने में बताने के पीछे की प्रकृति बिल्कुल अलग होती है। जब कोई मसीह-विरोधी कार्य करता है, तो वह जो करता है उसके पीछे कौन-सी मंशा होती है, क्या वह ऊपर से दूसरों के हस्तक्षेप और पूछताछ को स्वीकारता-सा प्रतीत होता है या वह उन्हें एकबारगी मना कर देता है—जैसा भी हुआ हो? वह रुतबे और सत्ता का लालच करता है, और उसे त्यागता नहीं है। क्या यह उसकी मंशा नहीं है? (हाँ, है।) सही है—वह अपनी मुश्किल से जीती हुई सत्ता और मुश्किल से हासिल किए हुए रुतबे और इज्जत को इतनी आसानी से एक पल में असावधानी से छूटने नहीं दे सकता; वह किसी को भी अपने कार्य में हस्तक्षेप कर और उसके बारे में पूछताछ कर अपनी शक्ति और प्रभाव को कमजोर नहीं होने दे सकता। वह इस पर यकीन करता है : कोई कर्तव्य करना, कोई कार्य योजना हाथ में लेना वास्तव में कोई कर्तव्य नहीं है, और उन्हें इसे एक दायित्व के रूप में करने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय, यह एक विशेष सत्ता से सुसज्जित होना है, कुछ लोगों को अपनी कमान के अधीन रखने के लिए है। वे मानते हैं कि सत्ता से सुसज्जित होने पर उन्हें अब किसी से सलाह-मशविरा करने की जरूरत नहीं है, बल्कि अब उनके पास प्रभारी होने का मौका और शक्ति है। कर्तव्य के प्रति उनका रवैया इस तरह का होता है।

ऐसे कुछ दूसरे लोग होते हैं जो ऊपरवाले द्वारा उनके काम के बारे में पूछताछ करने पर बस खानापूर्ति कर देते हैं। वे सतही प्रदर्शन करते हैं और कुछ तुच्छ बातों के बारे में पूछते हैं, मानो वे ऐसे व्यक्ति हों जो सत्य को खोज रहा हो। उदाहरण के लिए, अगर कोई घटना हुई हो जिससे स्पष्ट रूप से गड़बड़ हुई हो और विघ्न-बाधा पड़ी हो, तो वे ऊपरवाले से पूछेंगे कि क्या जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, उससे निपटा जाना चाहिए। क्या इस तरह की चीज उनके काम का हिस्सा नहीं है? (हाँ, है।) ऊपरवाले से इस बारे में पूछने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है? वे तुम्हें अपना मुखौटा दिखाना चाहते हैं, यह जताने के लिए कि अगर वे ऐसे मामलों के बारे में भी पूछते हैं तो यह इसका सबूत है कि वे निठल्ले नहीं हैं, वे काम कर रहे हैं। वे बस तुम्हें गुमराह करने के लिए मुखौटा तैयार कर रहे हैं। तथ्य यह है कि उनके दिलों में कुछ वास्तविक समस्याएँ हैं और वे नहीं जानते कि उन्हें सुलझाने के लिए सत्य पर संगति कैसे करें, न ही वे यह जानते हैं कि किन सिद्धांतों का अभ्यास करें। लोगों से निपटने और मामलों से निपटने दोनों ही के मामले में ऐसी कुछ चीजें हैं जो उनके मन में अस्पष्ट होती हैं, लेकिन वे उनके बारे में कभी नहीं पूछते या खोजते। यह देखते हुए कि वे अपने दिलों में इन मामलों को लेकर अनिश्चित होते हैं, क्या उन्हें इनके बारे में ऊपरवाले से नहीं पूछना चाहिए? (हाँ, पूछना चाहिए।) वे उनके बारे में सुनिश्चित नहीं हैं, उनकी असलियत नहीं जान सकते, लेकिन आँखें मूँद कर कार्य करते रहते हैं—इसके परिणाम क्या होंगे? क्या वे पूर्वानुमान लगा सकते हैं कि क्या होगा? क्या वे परिणामों की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम होंगे? नहीं, वे नहीं होंगे। तो वे इन चीजों के बारे में क्यों नहीं पूछते? उनके न पूछने के पीछे कुछ सोच-विचार होते हैं। एक तो यह डर है कि ऊपरवाला उनके बारे में पता लगा लेगा : “अगर मैं इस तुच्छ मामले से भी नहीं निपट सकता, और मुझे इस बारे में पूछना पड़े, तो ऊपरवाला सोचेगा कि मेरी काबिलियत ज्यादा अच्छी नहीं है। क्या इससे ऊपरवाला मेरी असलियत पूरी तरह से नहीं जान जाएगा?” यह भी एक विचार होता है कि अगर वे पूछें और ऊपरवाले का फैसला उनके अपने दृष्टिकोण के विपरीत और भिन्न हुआ तो उन्हें उसे चुनने में बहुत मुश्किल होगी। अगर वे ऊपरवाला का बताया हुआ न करें, तो ऊपरवाला कहेगा कि वे कार्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं; अगर वे वैसा करते हैं, तो इससे उनके अपने हितों को नुकसान पहुँचेगा। इसलिए वे नहीं पूछते। क्या यह सोचा-समझा नहीं होता? (हाँ।) हाँ, होता है। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, जो इन चीजों पर ध्यान देते हैं? (मसीह-विरोधी।) वे वाकई मसीह-विरोधी हैं। किसी भी चीज के साथ, वे उसके बारे में पूछें या न पूछें, इसके बारे में बोलें या बस सोचते रहें, वे सत्य को नहीं खोजते या उस चीज को सिद्धांतों के अनुसार नहीं लेते; सभी चीजों में वे अपने हितों को आगे रखते हैं। उनके दिल में उन चीजों की सूची होती है जिनके बारे में वे ऊपरवाले को पूछने और जानने दे सकते हैं, और उन चीजों की भी जिनके बारे में वे नहीं चाहते कि ऊपरवाले को पता चले। उन्होंने उन क्षेत्रों को परिसीमित कर दो श्रेणियों में बाँट दिया है। वे ऊपर वाले से सरसरी तौर पर उन मामूली चीजों के बारे में बात करेंगे जो उनके रुतबे के लिए खतरा नहीं बन सकतीं, ताकि ऊपरवाले के साथ किसी तरह काम चल जाए; लेकिन जो चीजें उनके रुतबे के लिए खतरा बन सकती हैं, उनके बारे में वे एक भी शब्द नहीं बोलेंगे। और अगर ऊपरवाला उन चीजों के बारे में पूछ ले, तो भला वे क्या करेंगे? वे उन्हें टालने के लिए कुछ शब्दों का उपयोग करेंगे; वे कहेंगे, “ठीक है, हम इस पर चर्चा करेंगे ... हम ढूँढ़ते रहेंगे ...”—तुम्हारे लिए भरपूर हामी, बिना किसी ऐसी बात के जिसे प्रतिरोध माना जा सके। देखने में वे बहुत आज्ञाकारी होते हैं—लेकिन तथ्य यह है कि उनका अपना हिसाब-किताब होता है। ऊपरवाले को अपनी चलाने देने की उनकी कोई योजना नहीं होती; ऊपरवाले से सुझाव माँगने या उसे फैसले करने देने, या उससे किसी मार्ग को खोजने की उनकी कोई योजना नहीं होती। उनकी ऐसी कोई योजना नहीं होती है। वे नहीं चाहते कि ऊपरवाला हस्तक्षेप करे या यह जाने कि वास्तव में क्या चल रहा है। एक बार ऊपरवाला जान लेगा, तो फिर इससे उनके लिए कैसा खतरा पैदा होगा? (वे अपने रुतबे को लेकर असुरक्षित हो जाएँगे।) सिर्फ इतना ही नहीं है कि वे अपने रुतबे को लेकर असुरक्षित हो जाएँगे—ऐसा होगा कि उनकी योजनाएँ और लक्ष्य अब साध्य नहीं रह पाएँगे, और इस तरह से अपने बुरे कर्मों में वे वैध नहीं होंगे; वे अब वैध रूप से, खुल्लमखुल्ला और बेशर्मी से अपनी योजनाओं को चलाने में सक्षम नहीं होंगे। यह वह समस्या है जिससे उनका सामना होगा। तो क्या वे इस बात का पता लगाने में सक्षम हैं कि किस तरह से कार्य करें कि उन्हें फायदा हो? निश्चित रूप से इस बारे में उनके अपने विचार और हिसाब-किताब होते हैं। क्या तुम लोग भी खुद को ऐसी चीजों का सामना करते हुए पाते हो? तो फिर तुम लोग इनके बारे में क्या सोचते हो? तुम उनसे कैसे पेश आते हो? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। एक बार एक व्यक्ति था जो अगुआ बन गया और इसके फेर में काफी बहक गया; वह दूसरों से सम्मान पाने के लिए हमेशा उनके सामने दिखावा करना पसंद करता था। उसकी मुलाकात उसकी जान-पहचान के एक गैर-विश्वासी से हो गई जो पैसे उधार लेना चाहता था। गैर-विश्वासी ने इतना ज्यादा दीन-हीन होकर अपने मामले की पैरवी की कि अगुआ आवेग में आकर उस पल के जोश में राजी हो गया, इसके बाद वह शांत मन से और बिना किसी पछतावे के सोचने लगा, “मैं कलीसिया का अगुआ हूँ—कलीसिया के पैसे पर मेरा फैसला ही अंतिम होना चाहिए। जब उन चीजों की बात आती है जो परमेश्वर के घर की हैं, कलीसिया की हैं और भेंटें हैं—तो मैं एक पद पर हूँ, इसलिए मेरी ही बात चलती है। वित्त प्रबंधन मेरे जिम्मे है और कर्मचारियों की नियुक्ति का प्रबंधन भी मुझे ही करना है—इन सभी चीजों में मेरा ही फैसला अंतिम होता है!” और इसलिए परमेश्वर के घर का पैसा उसने एक गैर-विश्वासी को दे दिया। दे देने के बाद उसे थोड़ी बेचैनी हुई, और उसने विचार किया कि क्या उसे ऊपरवाले को इस बारे में बताना चाहिए। अगर उसने बता दिया तो हो सकता है ऊपरवाला इस मामले पर सहमति न दे—इसलिए उसने झूठ तैयार करना और बहाने ढूँढ़ना शुरू कर दिया जिनसे वह ऊपरवाले को धोखा दे सके। ऊपरवाले ने उससे सत्य सिद्धांतों पर संगति की, मगर उसने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस तरह उसने निजी तौर पर भेंटों के गबन का कुकर्म किया। ऐसा व्यक्ति भेंटों पर नजर डालने की हिम्मत क्यों करेगा? तुम एक कलीसिया के अगुआ भर हो—क्या तुम्हारे पास भेंटों के प्रबंधन का अधिकार है? क्या भेंटों और वित्त के मामलों पर तुम्हारा फैसला अंतिम होता है? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें सामान्य मानवता और समझ है, जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम्हें परमेश्वर की भेंटों को किस तरह से लेना चाहिए? क्या भेंटों से जुड़े मामलों के बारे में ऊपरवाले को नहीं बताना चाहिए, यह देखने के लिए कि परमेश्वर का घर क्या फैसला करता है? क्या ऐसे बड़े मसले के बारे में ऊपरवाले को जानने का अधिकार नहीं है? हाँ। यह ऐसी चीज है जिसके बारे में तुम्हारे दिल में स्पष्टता होनी चाहिए; यह वह विवेक है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। छोटे-बड़े दोनों प्रकार के वित्तीय मामलों की बात आने पर ऊपरवाले को जानने का अधिकार होता है। ऊपरवाला न पूछे तो और बात है—लेकिन अगर वह पूछे तो तुम्हें सच्चाई से जवाब देना चाहिए, और ऊपरवाला जो भी निर्णय करे तुम्हें उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। क्या यह इस प्रकार की समझ नहीं है जो तुममें होनी चाहिए? (हाँ, है।) फिर भी क्या मसीह-विरोधी इस काबिल हैं? (नहीं।) मसीह-विरोधियों और सामान्य लोगों के बीच यही अंतर होता है। अगर वे सोचते हैं कि ऊपरवाला सौ फीसदी इस बात के लिए सहमत नहीं होगा और उनके गौरव को नुकसान पहुँचेगा, तो वे उन तमाम तरीकों के बारे में सोचेंगे जिनसे वे उसे छिपाकर रख सकें, और ऊपरवाले को उस बारे में जानने से दूर रखें। वे अपने मातहत लोगों को भी दबाकर कहेंगे : “अगर कोई इसका खुलासा करेगा, तो वह मेरे विरुद्ध जाएगा। वह मुझसे सुनेगा। चाहे जो हो, मैं उसे देख लूँगा!” और उनके ये डरावने शब्द सुनकर कोई ऊपरवाले से इस मामले की शिकायत करने की हिम्मत नहीं करता। वे ऐसा क्यों करेंगे? वे मानते हैं, “यह मेरे अधिकार के दायरे में आता है। अपने अधिकार क्षेत्र के लोगों, धन और सामग्री को परिनियोजित और आवंटित करने का अधिकार मेरा है!” परिनियोजन और आवंटन के उनके सिद्धांत क्या होते हैं? वे अपनी मर्जी से व्यवस्थाएँ करते हैं, वे किसी सिद्धांत का पालन किए बिना मनमाने ढंग से धन और सामग्री का उपयोग करते और उसे देते हैं, वे इन चीजों को अंधाधुंध तरीके से बरबाद और व्यर्थ करते हैं, और किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता—इस पर पूरी तरह से उनका फैसला ही अंतिम होगा। क्या वे इसी तरह से नहीं सोचते हैं? बेशक, वे यह बात जोर से और ऐसे स्पष्ट शब्दों में नहीं कहेंगे—लेकिन अपने दिलों में, वे बिल्कुल यही सोचते हैं : “पद पर रहने के क्या मायने हैं? क्या यह सब पैसे, भरपेट खाना खाने और कपड़े पहनने के लिए नहीं होता? अब मैं पद पर हूँ; मेरे पास रुतबा है। अगर मैं अपनी मर्जी से अपनी सत्ता का फायदा न उठाऊँ, तो क्या यह मेरी बेवकूफी नहीं होगी?” क्या वे ऐसा नहीं मानते? (ऐसा ही मानते हैं।) क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा होता है, और वे इस पर यकीन करते हैं, इसीलिए वे लेशमात्र भी ईमानदारी के बिना, किसी भी परिणाम पर ध्यान दिए बिना, अपनी अवधारणा के किसी भी तरीके और साधन से ऐसी बात को छिपाने की हिम्मत रखते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) वे यह नहीं आँकते कि यह चीज अच्छी है या बुरी, या क्या करना उचित होगा, या सिद्धांत क्या हैं। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते; उनका बस एक ही विचार होता है कि उनके हितों पर कौन ध्यान देगा। मसीह-विरोधी एक कपटी, स्वार्थी और नीच चीज होता है! वह कितना नीच होता है? इसे एक शब्द में बाँधा जा सकता है : वह बेशर्म होता है! वे लोग तुम्हारे नहीं हैं, न ही वे चीजें तुम्हारी हैं, और वह पैसा तो तुम्हारा है ही नहीं—फिर भी तुम इसे अपना मानकर लेना चाहते हो, अपनी मर्जी से उपयोग करना चाहते हो। दूसरों के पास इसको जानने का अधिकार भी नहीं होता; भले ही तुम उसे बरबाद करो या व्यर्थ करो, दूसरों को पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं होता। तुम कितना आगे जा चुके हो? तुम बेशर्मी में चले गए हो! क्या यह बेशर्मी नहीं है? (हाँ, है।) वह मसीह-विरोधी है। पैसे की बात आने पर किसी औसत व्यक्ति के पास कौन-सी रेखा होती है जिसे वह नहीं लाँघता? वह सोचता है कि वे परमेश्वर की भेंटें हैं और वे भेंटे परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उन्हें दी जाती हैं, इसलिए वे परमेश्वर की हैं—वे उसकी “निजी चीजें” हैं, जैसा कि कुछ लोग कह सकते हैं। जो परमेश्वर का है वह आम लोगों का नहीं है, न ही वह किसी व्यक्ति का होता है। परमेश्वर के घर का मालिक कौन है? (परमेश्वर।) हाँ, परमेश्वर है। और परमेश्वर के घर में क्या शामिल हैं? इसमें प्रत्येक कलीसिया के उसके चुने हुए लोग शामिल हैं, और प्रत्येक कलीसिया की सभी आपूर्तियाँ और संपत्ति शामिल हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर की हैं। ये किसी एक व्यक्ति की बिल्कुल नहीं हैं, और किसी को उन्हें हथियाने का अधिकार नहीं है। क्या कोई मसीह-विरोधी यह बात सोचेगा? (नहीं।) वे सोचते हैं कि भेंटें उसकी होती हैं जो उनका प्रबंध करता है, जिसके पास उनमें से निकालने का मौका होता है, और यदि कोई एक अगुआ है तो उसको उनका आनंद लेने का अधिकार है। इसीलिए वे अपनी पूरी शक्ति से निरंतर रुतबे के पीछे भागते हैं। एक बार रुतबा पा लेने के बाद अंततः उनकी सारी आशाएँ फलीभूत हो जाती हैं। वे रुतबे के पीछे क्यों भागते हैं? अगर तुमने उनसे ईमानदारी के साथ परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करवाई होती, जिसमें उनके कार्यों के पीछे सिद्धांत होते, फिर भी उन्हें कलीसिया की संपत्ति या परमेश्वर की भेंटों को छूने की अनुमति न दी होती, तो भी क्या वे अपनी ऊपर की ओर बढ़ने की भागम-भाग में इतने ज्यादा सक्रिय रहते? बिल्कुल नहीं। वे निष्क्रियता से प्रतीक्षा करते, और चीजों को अपने ढंग से होने देते। वे सोचते, “अगर मैं चुन लिया गया, तो मैं अपना काम और कर्तव्य अच्छे ढंग से करूँगा; अगर नहीं चुना गया, तो किसी की चापलूसी नहीं करूँगा। मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कहूँगा या करूँगा।” ऐसा ठीक इसलिए है कि एक मसीह-विरोधी सोचता है कि एक अगुआ के तौर पर व्यक्ति के पास हुक्म चलाने और कलीसिया की तमाम संपत्ति का आनंद लेने का अधिकार होता है, वह बेशर्मी की हद तक ऊपर जाने के अपने प्रयासों में अपना दिमाग चलाता है, ताकि वह रुतबा पा ले और उन सब चीजों का आनंद ले जो रुतबा लेकर आता है। बेशर्म होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपमानजनक काम करना—बेशर्म होने का यही मतलब होता है। अगर कोई उनसे कहे, “तुम जो करते हो, वह बहुत अपमानजनक है!” तो उन्हें परवाह नहीं होगी, बल्कि वे सोचेंगे, “इसमें अपमानजनक क्या है? रुतबा किसे पसंद नहीं होता? क्या तुम जानते हो कि रुतबा होने से कैसा महसूस होता है? और पैसे पर नियंत्रण कर पाने से? क्या तुम्हें वह खुशी पता है? क्या तुम विशेषाधिकार की उस भावना को जानते हो? क्या तुमने उसे चखा है?” मसीह-विरोधी अपने दिलों की गहराई में रुतबे को इसी तरह से देखते हैं। एक बार जब कोई मसीह-विरोधी रुतबा हासिल कर लेता है, तो वे चाहता है कि सभी चीजों पर उसी का नियंत्रण हो। परमेश्वर की भेंटों को भी वह अपने नियंत्रण में ले लेगा। वह चाहता है कि कलीसिया के कार्य के किसी भी अंश के बारे में, जिसमें पैसा खर्च होता हो, ऊपरवाले से कभी भी सलाह-मशविरा किए बिना बस उसी का फैसला चले। वह परमेश्वर के घर के पैसे का मालिक बन बैठता है, और परमेश्वर का घर उसी का हो जाता है। पैसे को लेकर अंतिम फैसले लेने, उसका क्या होगा इस बात का हुक्म देने, अपनी पसंद के अमुक-अमुक व्यक्ति को देने, यह हुक्म चलाने कि एक-एक पैसा कैसे खर्च किया जाएगा, इन सबका अधिकार उसी को होता है। परमेश्वर की भेंटों को लेकर वे कभी भी सिद्धांतों के अनुसार सावधानी या सतर्कता से कार्य नहीं करते; बल्कि वे फिजूलखर्च करने वाले होते हैं और जो वे कहते हैं, वही होता है। इस प्रकार का व्यक्ति पक्का मसीह-विरोधी होता है।

एक बार कभी ऐसा कोई था, जिसने चोरी-छिपे परमेश्वर की भेंटों का गबन कर लिया, जो कि एक गंभीर समस्या है। यह कोई साधारण अपराध नहीं है; यह उसके प्रकृति सार की समस्या है। कुछ मामले सँभालते समय जब उसने गैर-विश्वासियों से बातचीत की, तो वह दिखावा करता रहा ताकि लोग यह सोचें कि उसके पास पैसा और सत्ता है। परिणामस्वरूप लोगों ने उससे पैसा उधार माँगा। न सिर्फ इस व्यक्ति ने उन्हें मना नहीं किया, बल्कि वास्तव में उन्हें पैसे देने का वचन दे दिया, और फिर ऐसा उसने परमेश्वर के घर के खिलाफ भ्रामक चालें चल कर किया। इस व्यक्ति के साथ एक गंभीर समस्या थी। ऐसे बड़े मामले में तुम्हें ऊपरवाले को रपट भेजनी चाहिए, और तथ्य समझाने चाहिए; तुम खुद के श्रेय और गौरव की खातिर परमेश्वर की भेंटों का उपयोग कर लोगों से लेन-देन नहीं कर सकते। कोई तार्किक व्यक्ति जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, वह ऐसे मामलों से सामना होने पर उनसे इसी तरह निपटेगा। लेकिन क्या मसीह-विरोधी ऐसा करते हैं? उन्हें मसीह-विरोधी क्यों कहा जाता है? क्योंकि उनके पास लेश मात्र भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता; वे मनमानी करते हैं, परमेश्वर, सत्य और परमेश्वर के वचनों को अपने मन में पीछे धकेल देते हैं। उनके मन में परमेश्वर के प्रति जरा भी सच्चा समर्पण नहीं होता, बल्कि वे अपने हितों, अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे को सबसे अहम स्थान देते हैं। वे कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को गुमराह करने के लिए भ्रामक उपाय आजमाते हैं, और इस तरह गैर-विश्वासियों को पैसे उधार देते हैं। क्या यह उनका अपना पैसा है? कुछ थोड़ी-सी बातों पर वे ऋण दे देते हैं—क्या यह परमेश्वर की भेंटों में से उपहार देना नहीं है? यह ऐसी चीज है जो मसीह-विरोधी करते हैं, और कुछ लोगों ने वास्तव में ऐसी चीजें की हैं। ऐसी चीज करने में सक्षम होने के लिए उनका स्वभाव ढीठ, बेहद अहंकारी और अत्यंत कपटी भी होना चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि वे बेवकूफ हैं, इतने बेवकूफ, जितने हो सकते हैं—वे अपने ही खोदे हुए गड्ढों में जा गिरते हैं। मुझे बताओ, ऐसे लोगों से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए।) बस इतना? निष्कासन? नुकसान की भरपाई कौन करेगा? उनसे क्षतिपूर्ति करवाने के बाद ही उन्हें निष्कासित करना चाहिए। ऐसी चीज करने में सक्षम होने के लिए क्या मसीह-विरोधी बेशर्म नहीं हैं? वे प्रधान दूत से अलग कैसे हैं? प्रधान दूत बेशर्मी से कहेगा, “मैं ही हूँ जिसने स्वर्ग और पृथ्वी और तमाम चीजों को बनाया—मानवजाति मेरे नियंत्रण में है!” वह अपनी मर्जी से मानवजाति को कुचलता और भ्रष्ट करता है। एक बार जब मसीह-विरोधी सत्ता हथिया लेता है, तो वह कहता है, “तुम सब लोगों को मुझमें विश्वास रखकर मेरा अनुसरण करना चाहिए। यहाँ मैं शासन करता हूँ, और यहाँ मेरा ही फैसला चलता है। सभी मामलों में मेरे पास आओ, और कलीसिया का पैसा मुझे दे दो!” कुछ लोग कहते हैं, “कलीसिया का पैसा हम तुम्हें क्यों दें?” और मसीह-विरोधी कहता है, “मैं ही अगुआ हूँ। इसके प्रबंध का अधिकार मेरा है। मुझे सभी चीजों का प्रबंधन करना है, भेंटों का भी!” और फिर वह सभी चीजों का प्रभार ले लेता है। मसीह-विरोधियों को इसकी परवाह नहीं होती कि भाई-बहनों को अपने जीवन-प्रवेश में कौन-सी समस्याएँ या कठिनाइयाँ हो रही हैं, या उनके पास धर्मोपदेशों और परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पुस्तकों की कमी है। उन्हें इस बात की अवश्य परवाह होती है कि किसके पास कलीसिया के पैसे की सुरक्षा की कुंजी है, कितना पैसा जमा हो चुका है और इसका किस तरह से इस्तेमाल किया जाता है। अगर ऊपरवाला कलीसिया की वित्तीय स्थिति के बारे में पूछताछ करे, तो न सिर्फ वे कलीसिया का पैसा नहीं सौंपेंगे—वे ऊपरवाले को तथ्य तक नहीं जानने देंगे। वे ऐसा क्यों करेंगे? क्योंकि वे गबन करके कलीसिया का पैसा खुद हड़प लेना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों को भौतिक चीजों, पैसे और रुतबे में अत्यधिक रुचि होती है। वे निश्चित रूप से बिल्कुल ऐसे नहीं होते जैसा वे ऊपर से बोलते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। मैं सांसारिक चीजों के पीछे नहीं भागता और पैसे का लालच नहीं करता।” वे ऐसे बिल्कुल भी नहीं होते जैसा वे कहते हैं। वे अपनी पूरी शक्ति से रुतबे के पीछे भागकर उसे क्यों बनाए रखते हैं? क्योंकि वे अपने अधिकार क्षेत्र की सभी चीजों को हासिल करना या उन्हें नियंत्रित करना और हथिया लेना चाहते हैं—खास तौर पर पैसा और भौतिक चीजें। वे इस पैसे और इन भौतिक चीजों का यों मजा लेते हैं मानो ये उनके रुतबे के फायदे हों। वे नाम और सच्चाई में शैतान के प्रकृति सार वाले प्रधान दूत के वास्तविक वंशज हैं। वे सभी लोग जो रुतबे के पीछे भागते हैं और पैसे को अहमियत देते हैं, उनके स्वभाव सार के साथ यकीनन एक समस्या होती है। यह उनके मसीह-विरोधी का स्वभाव वाले होने जितनी सरल बात नहीं है : वे अत्यंत महत्वाकांक्षी होते हैं। वे परमेश्वर के घर के पैसे पर नियंत्रण करना चाहते हैं। अगर उन्हें किसी काम की जिम्मेदारी दी जाए, तो सबसे पहले वे दूसरों को हस्तक्षेप नहीं करने देंगे, न ही वे ऊपरवाले से पूछताछ या निगरानी को स्वीकार करेंगे; इससे परे, जब वे किसी कार्य की मद के पर्यवेक्षक हों, तो अपना दिखावा करने, खुद को सुरक्षित रखने और ऊँचा उठाने के तरीके ढूँढ़ लेंगे। वे हमेशा चाहते हैं कि सबसे ऊपर पहुँच जाएँ, ऐसे लोग बन जाएँ जो दूसरों पर शासन कर उन्हें नियंत्रित करते हों। वे यह भी चाहते हैं कि ऊँचे रुतबे के लिए, और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर के प्रत्येक हिस्से पर नियंत्रण करने के लिए हावी होकर होड़ लगाएँ—खास तौर से उसके पैसे के लिए। मसीह-विरोधियों को पैसे से विशेष प्रेम होता है। उसे देखकर उनकी आँखों में चमक आ जाती है; अपने मन में, वे हमेशा पैसे के बारे में सोचते रहते हैं और उसके लिए प्रयास करते रहते हैं। ये सब मसीह-विरोधियों के संकेत और लक्षण हैं। अगर तुम उनसे सत्य पर संगति करो, या भाई-बहनों की दशा के बारे में जानने की कोशिश करो और ऐसे सवाल पूछो कि उनमें से कितने कमजोर और निराश हैं, उनमें से प्रत्येक अपने कर्तव्य में कैसे नतीजे हासिल कर रहा है, और उनमें से कौन अपने कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं है, तो मसीह-विरोधियों को रुचि नहीं होगी। लेकिन जब परमेश्वर की भेंटों की बात आती है—पैसे की मात्रा, इसकी सुरक्षा कौन कर रहा है, यह कहाँ रखा गया है, उसके पासकोड क्या हैं आदि-आदि—तो ये ही वे चीजें हैं जिनकी वे सबसे ज्यादा परवाह करते हैं। किसी मसीह-विरोधी की इन चीजों पर सबसे ज्यादा पकड़ होती है। वे इन चीजों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। यह भी मसीह-विरोधी का एक लक्षण होता है। मसीह-विरोधी मीठी बातें बोलने में माहिर होते हैं, लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते। इसके बजाय, वे हमेशा परमेश्वर की भेंटों के मजे लेने के विचारों में खोए रहते हैं। मुझे बताओ, क्या मसीह-विरोधी अनैतिक नहीं होते? उनमें जरा भी मानवता नहीं होती—वे पूरी तरह से दानव होते हैं। अपने काम में वे हमेशा दूसरों के दखल, पूछताछ और निगरानी को रोकते हैं। यह वह तीसरा व्यवहार है जिसमें मसीह-विरोधियों की आठवीं अभिव्यक्ति प्रदर्शित होती है।

कुछ समय पहले, किसी देश में एक कलीसिया ने एक इमारत खरीदी, और उसका पुनर्निमाण करना था, और बस संयोग से उस देश में कलीसिया की अगुआ एक मसीह-विरोधी महिला थी, जिसने अभी अपना असली रूप नहीं दिखाया था। उस मसीह-विरोधी ने एक ऐसे व्यक्ति को काम दे दिया जिसे पुनर्निमाण के कामों में कोई ज्यादा नहीं जानता था, और किसी को मालूम नहीं था कि उसका उस महिला के साथ क्या रिश्ता है। परिणामस्वरूप उस बुरे व्यक्ति ने स्थिति का फायदा उठाया और पुनर्निर्माण के दौरान ढेर सारा पैसा जो खर्च नहीं होना चाहिए था, वह व्यर्थ ही खर्च कर दिया गया। घर में कुछ काम में आने लायक सामान था, मगर वह सब निकाल कर उसकी जगह नया सामान लगा दिया गया। जो पुराना सामान हटाया गया था, उसे फिर उस बुरे व्यक्ति ने पैसे के लिए बेच दिया। वे वास्तव में टूटे-फूटे सामान नहीं थे—वे अब भी काम में आ सकते थे—लेकिन उस बुरे व्यक्ति ने अतिरिक्त पैसा खर्च कर नई चीजें खरीदीं, ताकि वह स्थिति का फायदा उठाकर पैसे बना सके। क्या मसीह-विरोधी को इन चीजों की जानकारी थी? उसे पता था। तो फिर उसने उस व्यक्ति को इस तरह काम करने पर माफ क्यों कर दिया? क्योंकि उनके बीच कोई असामान्य रिश्ता रहा होगा। कुछ लोगों ने समस्या को समझकर निर्माण कार्य की प्रगति के बारे में जानने और उसकी जाँच करने की सोची, ताकि देख सकें कि काम कैसा चल रहा है। जैसे ही उन्होंने कहा कि वे निर्माण कार्य को देखने जाने वाले हैं, वैसे ही मसीह-विरोधी चिंतित और व्याकुल हो गई और बोली, “नहीं! अभी अंतिम तिथि नहीं आई है—किसी को देखने की अनुमति नहीं है!” उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत तीव्र थी, अत्यंत संवेदनशील थी—क्या इसके अंदर कुछ चल रहा था? (हाँ।) उन लोगों ने अब थोड़े चौकन्ने होकर मामले पर चर्चा की : “ऐसे नहीं चलेगा। वह हमें निर्माण कार्य को देखने नहीं देगी। जरूर कोई मसला है; हमें उस स्थल पर जाकर देखना होगा।” लेकिन मसीह-विरोधी तब भी काम पूरा हो जाने तक उसे देखने नहीं दे रही थी। मुझे बताओ, क्या ये लोग भ्रमित नहीं थे? यह तथ्य कि मसीह-विरोधी निर्माण कार्य को देखने नहीं दे रही थी, साबित कर रहा था कि कुछ तो गड़बड़ है। उन्हें ऊपरवाले से तुरंत इसकी शिकायत करनी चाहिए थी, या संयुक्त रूप से उसे बरखास्त कर देना चाहिए था, या जबरन जाकर निर्माण कार्य को देखकर उसकी जाँच करनी चाहिए थी। यह उनकी जिम्मेदारी थी। अगर वे यह जिम्मेदारी नहीं उठा पाए थे, तो इसका अर्थ था कि वे निकम्मे, नालायक, डरपोक थे। वे नालायक डरपोक लोग डटे नहीं रहे। यह उनके अपने घरों का मसला नहीं था, इसलिए उन्होंने बस इसकी अनदेखी की। वे इतने अधिक स्वार्थी और गैर-जिम्मेदार लोग थे। और जब काम पूरा करके उसे सौंप दिया गया तो मैंने एक वीडियो में देखा कि उसमें एक समस्या थी। मैंने कौन-सी समस्या देखी? एक सभाकक्ष के बीचों-बीच एक मेज थी और उसके चारों ओर चमड़े की कुर्सियाँ रखी थीं जैसे कि चमक-दमक वाले कार्यालयों में होती हैं। मैं जिन कुर्सियों पर बैठता हूँ वे आम कुर्सियाँ होती हैं, तो क्या उन आम लोगों को ऐसी चमक-दमक वाली चीजें इस्तेमाल करनी चाहिए? (नहीं।) उन दोनों ने इस किस्म का फर्नीचर लगाया था और वहाँ के लोग उन कुर्सियों पर बैठकर बहुत खुश थे। एक बार उस समस्या का पता चलने पर मैंने उस दुष्ट को बुलाकर मामले की जाँच-पड़ताल शुरू कर दी। हर जगह, हर कमरे में जाँच से पता चला कि वहाँ बहुत-से मसले हैं और बहुत ज्यादा वित्तीय नुकसान हुआ है। घर का कुछ मूल सामान काम का था, फिर भी उस बुरे व्यक्ति ने उन्हें बाहर करके बेच दिया था ताकि उनसे पैसा बना सके; यही नहीं, उन ऊँची कीमत वाली चीजों, नए सामानों की खरीद पर उसने पैसे बनाए थे; और इसके अलावा उसने कुछ ऐसे उपकरण लगा दिए थे जो किसी कलीसिया में होने ही नहीं चाहिए। उस बुरे व्यक्ति ने यह सब किसी के साथ सलाह-मशविरा किए बिना किया। जब वह यह कर रहा था, तो क्या मसीह-विरोधी को इसकी जानकारी थी? कदाचित उसे थी। वह हर दिन कार्यस्थल पर जाती थी, और यह सब देखकर भी उसने कोई रिपोर्ट नहीं बनाई, बल्कि उसके बरबादी के कामों को अनदेखा कर दिया। इतनी हिम्मत! क्या वह परमेश्वर की विश्वासी है? परमेश्वर में 20 वर्ष तक विश्वास रखने के बाद भी वह इतनी घिनौनी थी, और उसने ऐसा काम किया—वह किस प्रकार की महिला है? वह इंसान नहीं है! गैर-विश्वासियों के बीच के अच्छे लोग भी ऐसा नहीं करते; कैसी अनैतिकता! हर बार जब ऊपरवाले ने उससे निर्माण कार्य के बारे में पूछा, तो वह मौन साधे रही ताकि ऊपरवाले की आँखों में धूल झोंक सके, चीजों को दबा कर उन्हें छिपा सके, और अंत में बहुत-सी समस्याएँ खड़ी हो गईं। तो फिर क्या उसे निष्कासित कर, नुकसान की भरपाई करने के लिए पैसे कमाने के वास्ते नौकरी करने देना ज्यादती होगी? (नहीं।) मुझे बताओ, वह मसीह-विरोधी पैसे वापस भी कर सके, तो भी क्या उसे इस जीवन में सुकून मिलेगा? क्या वह चैन से रह पाएगी? मुझे डर है कि उसे अपना पूरा जीवन यातना में बिताना पड़ेगा। यदि उसे पता था कि उसके क्रिया-कलापों का अंजाम यह होगा तो भला उसने उस वक्त इस तरह कार्य क्यों किया? उसने आखिर ऐसा किया ही क्यों? ऐसा नहीं है कि उसने एक या दो वर्ष से ही परमेश्वर में विश्वास रखा था और उसे मालूम नहीं था कि उसके घर के नियम क्या हैं या परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना क्या होता है, या वफादारी क्या होती है—इतने वर्षों तक उसमें विश्वास रखने के बाद भी उसमें बिल्कुल भी बदलाव नहीं आया था, और हालाँकि वह थोड़ी सेवा करने में सक्षम थी, फिर भी वह ऐसे बुरे कर्म करती थी! इतनी अधिक घिनौनी होने की वजह से उसे हटा दिया जाना चाहिए और कोसना चाहिए!

मसीह-विरोधियों के कार्य के तरीके में कुछ समानताएँ होती हैं : वे चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, दूसरों को दखल देने या पूछताछ करने से रोकते हैं। वे हमेशा चीजों को छिपाना और दबाना चाहते हैं। वे कुछ-न-कुछ करने की कोशिश में होंगे; वे लोगों को अपने कार्य की समस्याओं के बारे में पता नहीं लगाने देते। यदि वे ईमानदार और खरे ढंग से स्पष्ट अंतरात्मा के साथ काम करते, वैसे जो सत्य और सिद्धांतों से मेल खाता हो, तो फिर उन्हें किस बात की चिंता करनी पड़ती? उसमें ऐसा क्या होता जिसका उल्लेख नहीं हो सकता था? वे दूसरों को पूछताछ करने और हस्तक्षेप करने से क्यों मना करते हैं? वे किस बात को लेकर चिंतित रहते हैं? उन्हें किस बात का डर है? स्पष्ट रूप से वे कुछ करने की कोशिश में हैं—यह बिल्कुल स्पष्ट है! मसीह-विरोधी बिना किसी पारदर्शिता के काम करते हैं। जब उन्होंने कुछ खराब किया होता है, तो वे उसे छिपाने और दबाने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, झूठे दिखावे गढ़ते हैं, यहाँ तक कि जबरदस्त छल-कपट में जुट जाते हैं। इसका नतीजा क्या होता है? परमेश्वर सभी की पड़ताल करता है और भले ही दूसरे लोग कुछ समय तक कुछ न जानें और कदाचित कुछ समय तक गुमराह हो जाएँ, फिर भी वह दिन आएगा जब परमेश्वर इसका खुलासा करेगा। परमेश्वर की दृष्टि में सब-कुछ प्रत्यक्ष है, सब बेनकाब हो चुका है। तुम्हारे लिए परमेश्वर से कुछ छिपाना बेकार है। वह सर्वशक्तिमान है, और जब वह तुम्हारा खुलासा करने का फैसला करेगा, तो दिन की साफ रोशनी में सब-कुछ साफ दिख जाएगा। केवल मसीह-विरोधी, वे बौड़म जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, और जिनकी प्रकृति प्रधान दूत की है, वे मानेंगे, “जब तक मैं चीजों को पिटारी में बंद रखता हूँ, और तुम्हें हस्तक्षेप या पूछताछ नहीं करने देता, और तुम्हें निगरानी नहीं करने देता, तब तक तुम कुछ भी नहीं जानोगे—और इस कलीसिया का पूरा नियंत्रण मेरे हाथ में होगा!” वे मानते हैं कि यदि वे राजाओं की तरह शासन करते हैं तो वे स्थिति पर नियंत्रण करने में सक्षम होंगे। क्या चीजें असल में सचमुच ऐसी ही होती हैं? वे नहीं जानते कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है; उनकी चालाकी स्व-घोषित होती है। परमेश्वर इसकी पड़ताल करता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि आज तुमने बुरा कर्म किया। परमेश्वर इसकी पड़ताल करता है, मगर तुम्हारा खुलासा नहीं करता—वह तुम्हें प्रायश्चित्त करने का एक मौका देता है। तुम कल फिर से बुरा कर्म करते हो, फिर भी उसका हिसाब नहीं देते या प्रायश्चित्त नहीं करते; परमेश्वर तब भी तुम्हें एक मौका देता है और तुम्हारे प्रायश्चित्त करने की प्रतीक्षा करता है। फिर भी यदि तुम प्रायश्चित्त नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें वह मौका नहीं देना चाहेगा। वह तुमसे घृणा करेगा, और तुमसे नफरत करेगा, और अपने दिल की गहराई से वह तुम्हें बचाना नहीं चाहेगा, और वह पूरी तरह से तुम्हारा परित्याग कर देगा। उस स्थिति में, कुछ ही मिनटों में वह तुम्हारा खुलासा कर देगा और तुम इस बात को कैसे भी दबाना चाहो या छिपाना चाहो, उसका कोई फायदा नहीं होगा। चाहे तुम्हारा हाथ जितना भी बड़ा हो, क्या तुम आकाश को उससे ढँक सकते हो? तुम चाहे जितने भी सक्षम क्यों न हो, क्या तुम परमेश्वर की आँखों को ढँक सकते हो? (नहीं।) वे इंसान के मूर्खतापूर्ण विचार हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर वास्तव में कैसा होता है, तो लोग पहले ही उसके वचनों में उसकी बानगी महसूस करने में सक्षम हैं। इसके अलावा, इस भ्रष्ट मानवजाति के सभी सदस्य जिन्होंने बड़े बुरे कर्म किए हैं और परमेश्वर का सीधे विरोध किया है, वे तरह-तरह के दंड पा चुके हैं, और इसे देखने वाले सभी लोग पूरी तरह से आश्वस्त हैं और स्वीकारते हैं कि यह प्रतिकार है। यहाँ तक कि गैर-विश्वासी भी समझ सकते हैं कि परमेश्वर की धार्मिकता कोई अपमान नहीं सहती, इसलिए उसमें विश्वास रखने वाले लोगों को यह और अधिक देखने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता अगाध है। इंसान के पास इसे स्पष्ट रूप से समझने का कोई तरीका नहीं है। एक वह गाना है—यह कैसा है? (“मापा नहीं जा सकता परमेश्वर के कर्मों को।”) यह परमेश्वर का सार है, उसकी पहचान और सार का सच्चा प्रकाशन। तुम्हारे अनुमानों या अटकलों की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें बस इन वचनों पर विश्वास करना चाहिए—तब तुम ऐसे मूर्खतापूर्ण कार्य नहीं करोगे। सारे लोग खुद को चालाक समझते हैं; वे अपनी आँखों को एक पत्ते से ढँककर कहते हैं, “क्या तुम मुझे देख सकते हो?” परमेश्वर कहता है, “न सिर्फ मैं तुम्हें पूरे का पूरा देख सकता हूँ, मैं तुम्हारा दिल भी देख सकता हूँ, और यह भी कि तुम कितनी बार इस इंसानी दुनिया में आए हो,” और लोग भौचक्के रह जाते हैं। खुद को चालाक मत समझो; यह मत सोचो कि “परमेश्वर अमुक-अमुक के बारे में नहीं जानता। भाई-बहनों में से किसी ने भी नहीं देखा। कोई नहीं जानता। मेरी अपनी छोटी-सी योजना है। देखो, मैं कितना चालक हूँ!” इस दुनिया के लोगों में से कोई भी जो सत्य को नहीं समझता या यह नहीं मानता कि परमेश्वर सभी पर संप्रभु है, चतुर नहीं है। चाहे वे कुछ भी कहें या करें, अंत में वह सब गलत होता है, सब सत्य का उल्लंघन होता है, सब परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध होता है। केवल एक प्रकार का व्यक्ति ही चतुर होता है। वह कौन-सा प्रकार है? वह प्रकार जो मानता है कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है, कि वह सबको देख सकता है, और यह कि वह सब पर संप्रभु है। ऐसे लोग अत्यंत चतुर होते हैं, क्योंकि वे अपने सभी कार्यों में परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं; उनका किया हुआ हर काम सत्य के अनुरूप होता है, परमेश्वर द्वारा स्वीकृत होता है, और उसे परमेश्वर का आशीष मिलता है। कोई व्यक्ति चतुर है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है; यह इस बात के भरोसे होता है कि वह जो भी कहता या करता है वह सत्य के अनुरूप है या नहीं। यदि तुम्हारे मन में यह विचार है : “इस मामले के बारे में मैं यह सोचता हूँ, और मैं यह करना चाहता हूँ, क्योंकि इससे मुझे फायदा होगा—लेकिन मैं यह बात किसी पर भरोसा करके उसे बताना नहीं चाहता, न ही मैं चाहता हूँ कि वे इस बारे में जानें”—क्या यह सोचने का सही तरीका है? (नहीं।) जब तुम्हें एहसास हो जाए कि यह सही तरीका नहीं है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें खुद को सबक सिखाने के लिए अपने मुँह पर कस कर एक तमाचा जड़ना चाहिए। तुम्हें लगता है कि अगर तुम नहीं बताओगे तो परमेश्वर नहीं जान पाएगा? तथ्य यह है कि जब तुम्हारे मन में यह विचार आ रहा होता है, परमेश्वर तुम्हारे दिल की बात जान लेता है। वह कैसे जान लेता है? परमेश्वर मनुष्य के प्रकृति सार की असलियत को समझ चुका है। तो फिर वह इस मामले में तुम्हें उजागर क्यों नहीं करता? उसके उजागर किए बिना भी तुम धीरे-धीरे अपने आप समझ जाओगे, क्योंकि तुमने उसके बहुत-से वचनों को खाया और पिया है। तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, एक मन और सामान्य सोच है; तुम्हें अपने ही बूते पर यह अंदाजा लगाने में सक्षम होना चाहिए कि सही क्या है और गलत क्या है। परमेश्वर तुम्हें चीजों के बारे में धीरे-धीरे सोच-विचार करने और समझने का समय और मौका दे रहा है, यह देखने के लिए कि तुम मूर्ख हो या नहीं। इस मामले पर कुछ दिनों तक विचार करने के बाद तुम नतीजे देख पाओगे : तब तुम जानोगे कि तुम मूर्ख और बेवकूफ हो, और तुम्हें परमेश्वर से यह बात छिपाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। सभी मामलों में, तुम्हें हर चीज परमेश्वर के सामने खोल कर रख देनी चाहिए और तुम्हें खुलकर पेश होना चाहिए—यही एकमात्र स्थिति और दशा है जो परमेश्वर के सामने बनाए रखी जानी चाहिए। जब तुम खुलकर पेश नहीं होते हो, तब भी तुम परमेश्वर के सामने खुले होते हो। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, तथ्यों के बारे में तुम खुल कर बताओ या न बताओ, वह उन्हें जानता है। अगर तुम इसे नहीं समझ सकते तो क्या तुम निहायत बेवकूफ नहीं हो? तो फिर तुम एक चतुर व्यक्ति कैसे हो सकते हो? परमेश्वर के सामने खुद को खोलकर। तुम जानते हो कि परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है और जानता है, तो तुम खुद को चालाक मत समझो, और यह मत सोचो कि शायद वह न जानता हो; चूँकि यह सुनिश्चित है कि परमेश्वर चोरी-छिपे लोगों के दिलों की जाँच-परख करता है, इसलिए चतुर लोगों को थोड़ा और खुला, थोड़ा और शुद्ध और ईमानदार होना चाहिए—यही बुद्धिमानी है। हमेशा यह महसूस करना कि तुम चालाक हो; हमेशा अपने छोटे-छोटे राज छिपाए रखने की इच्छा करना; हमेशा थोड़ी गोपनीयता बनाए रखने की कोशिश करना—क्या यह सोचने का सही तरीका है? दूसरे लोगों के साथ ऐसा इस तरह होना ठीक है, क्योंकि कुछ लोग सकारात्मक नहीं होते और सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे लोगों से तुम कुछ बातें छिपा सकते हो। उनके सामने अपना दिल मत खोलो। उदाहरण के लिए, मान लो ऐसा कोई है जिससे तुम नफरत करते हो, और तुमने उसकी पीठ पीछे उसकी बुराई की है। क्या तुम्हें उसे इस बारे में बताना चाहिए? मत बताओ—इतना काफी है कि वैसा काम फिर से मत करो। अगर तुम इस बारे में बताओगे, तो इससे तुम दोनों के बीच आपसी रिश्ते बिगड़ जाएँगे। तुम दिल से जानते हो कि तुम अच्छे नहीं हो, तुम अंदर से गंदे और दुष्ट हो, कि तुम दूसरों से ईर्ष्या करते हो, शोहरत और फायदे की होड़ में तुमने किसी दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए उसकी पीठ पीछे उसकी बुराई की थी—कितन कमीनापन है! तुम स्वीकारते हो कि तुम भ्रष्ट हो; तुम जानते हो कि तुमने जो किया वह गलत था, और तुम्हारी प्रकृति दुष्ट है। फिर तुम परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना करते हो : “हे परमेश्वर, मैंने जो चोरी-छिपे किया वह एक दुष्ट कमीना काम था—मैं तुमसे माफी माँगता हूँ, अपनी अगुआई करने की विनती करता हूँ, और तुमसे मुझे झिड़कने की विनती करता हूँ। मैं ऐसा काम दोबारा करने का प्रयास नहीं करूँगा।” ऐसा करना अच्छी बात है। तुम लोगों के साथ अपनी बातचीत में कुछ तकनीकों का प्रयोग कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर के सामने खुद को शुद्धता से खोलना सर्वश्रेष्ठ है, और अगर तुम मन में मंसूबे पालकर तकनीकों का प्रयोग करोगे तो मुसीबत में फँस जाओगे। अपने दिमाग में तुम हमेशा सोचते हो, “मैं ऐसा क्या कहूँ कि परमेश्वर मेरे बारे में अच्छा सोचे, और उसे यह पता न चले कि मैं अंदर क्या सोच रहा हूँ? कौन-सी बात कहनी ठीक रहेगी? मुझे ज्यादा बातें अपने मन में ही रखनी चाहिए, मुझे थोड़ा होशियारी से काम लेना चाहिए, मुझे कोई तरीका सोचना चाहिए; तो फिर शायद परमेश्वर मेरे बारे में अच्छा सोचे।” क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर को पता नहीं चलेगा कि तुम हमेशा इस तरह की बातें सोचते रहते हो? तुम जो कुछ भी सोचते हो परमेश्वर को उसका पता होता है। इस तरह से सोचना कितना थका देने वाला काम है। इससे कहीं ज्यादा आसान है ईमानदारी और सच्चाई से बात करना, और इससे तुम्हारी जिंदगी भी कहीं ज्यादा आसान हो जाती है। परमेश्वर कहेगा कि तुम ईमानदार और निर्मल हो, और तुम खुले दिल के हो—यह असीमित रूप से एक अनमोल चीज है। अगर तुम्हारा दिल साफ हो, और तुम ईमानदार रवैया रखते हो, तो कई बार हद पार कर देने पर भी और मूर्खताएँ करने पर भी परमेश्वर इसे उल्लंघन नहीं मानेगा; यह तुम्हारे बेहद हिसाब-किताब रखने वाला होने से कहीं बेहतर है, और तुम्हारी निरंतर उधेड़बुन और संसाधन प्रक्रिया से भी। क्या मसीह-विरोधी ये सब करने में सक्षम हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।)

वे सभी लोग जो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं वे मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग होते हैं, और मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग जिस रास्ते पर चलते हैं वह मसीह-विरोधियों का रास्ता होता है—फिर भी मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों और मसीह-विरोधियों के बीच थोड़ा-सा अंतर होता है। अगर किसी में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो, और वह मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चले, तो वह अनिवार्य रूप से यह नहीं दिखाता कि वह मसीह-विरोधी है। लेकिन अगर वह प्रायश्चित्त न करे और सत्य को स्वीकार न कर सके, तो वह मसीह-विरोधी बन सकता है। अभी भी मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले लोगों के लिए उम्मीद और प्रायश्चित्त करने का एक मौका बाकी होता है, क्योंकि वे अभी मसीह-विरोधी नहीं बने हैं। अगर वे तमाम किस्म की बुरी चीजें करते हैं, उन्हें मसीह-विरोधी के रूप में वर्गीकृत किया जाता है और इस तरह उन्हें निकालकर सीधे निष्कासित कर दिया जाता है, तो इसके बाद उनके पास प्रायश्चित्त करने का मौका नहीं बचेगा। अगर मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले किसी व्यक्ति ने अभी बहुत-सी बुरी चीजें न की हों, तो कम-से-कम यह दिखाता है कि वे अभी बुरे व्यक्ति नहीं बने हैं। अगर वे सत्य को स्वीकार कर सकें, तो उनके लिए आशा की एक किरण बची है। चाहे कुछ भी हो जाए, अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके लिए बचाया जाना बहुत कठिन होगा, भले ही उन्होंने तमाम तरह के बुरे कर्म न किए हों। किसी मसीह-विरोधी को क्यों नहीं बचाया जा सकता? क्योंकि वे सत्य को जरा भी नहीं स्वीकारते। परमेश्वर का घर ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में चाहे जैसी भी संगति करे—इस बारे में कि व्यक्ति को किस तरह से खुला और खुले दिल का होना चाहिए, कैसे उसे खुलकर वह बात कहनी चाहिए जो उसे कहनी है, और धोखाधड़ी में नहीं लगना चाहिए—वे उसे स्वीकार ही नहीं सकते। उन्हें निरंतर लगता है कि ईमानदार होने से लोग अपने अवसर खो देते हैं और सत्य बोलना बेवकूफी है। वे ईमानदार इंसान न होने पर अड़े रहते हैं। यही मसीह-विरोधियों की प्रकृति है, जो सत्य से विमुख होती है और उससे नफरत करती है। अगर कोई सत्य को जरा भी न स्वीकारे तो उसे कैसे बचाया जा सकता है? अगर मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सके, तो उसके और एक मसीह-विरोधी के बीच एक स्पष्ट अंतर हो जाता है। सभी मसीह-विरोधी वे लोग होते हैं जो सत्य को लेशमात्र भी नहीं स्वीकारते। उन्होंने चाहे जितने भी गलत या बुरे काम किए हों, उन्होंने कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाया हो, वे कभी भी आत्म-चिंतन कर खुद को नहीं जानेंगे। अपनी काट-छाँट होने पर भी वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते; इसीलिए कलीसिया उन्हें बुरे लोगों, मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत करती है। मसीह-विरोधी अधिक-से-अधिक इतना ही स्वीकार करेगा कि उसके क्रिया-कलाप सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और सत्य से मेल नहीं खाते, फिर भी वे कभी यह बिल्कुल भी नहीं मानते कि वे जान-बूझकर बुरे कर्म करते हैं, या जान-बूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। वे बस गलतियाँ मान लेंगे, मगर सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे; और बाद में वे पहले की ही तरह बुरे काम करते जाएँगे, किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे। इस तथ्य से कि मसीह-विरोधी कभी सत्य को नहीं स्वीकारता, यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख होने और उससे नफरत करने का होता है। उन्होंने चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखा हो, वे हमेशा की तरह परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले लोग बने रहते हैं। दूसरी ओर, समस्त साधारण, भ्रष्ट मानवजाति में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो सकता है, लेकिन उनके और मसीह-विरोधियों के बीच एक अंतर होता है। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के न्याय और उजागर करने वाले वचन सुनने के बाद उन्हें आत्मसात कर सकते हैं, और उन पर बारम्बार विचार कर सकते हैं, और उन पर आत्म-चिंतन कर सकते हैं। फिर उन्हें एहसास हो सकता है, “तो फिर यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है; मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने का यही मतलब है। कैसा गंभीर मसला है! मुझमें वे दशाएँ हैं, मेरे व्यवहार ऐसे हैं; मुझमें उस प्रकार का सार है—मैं उस किस्म का इंसान हूँ!” फिर वे विचार करते हैं कि वे मसीह-विरोधी के उस स्वभाव का त्याग कैसे करें और कैसे सचमुच प्रायश्चित्त करें, और उसके साथ ही वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर न चलने की अपनी इच्छा निर्धारित कर सकते हैं। अपने कार्य और जीवन में, लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर के आदेश के प्रति अपने रवैये में वे अपने क्रिया-कलापों और व्यवहार पर आत्म-चिंतन कर सकते हैं, और इस पर कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते, क्यों वे हमेशा शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे देह-सुख और शैतान के विरुद्ध विद्रोह क्यों नहीं कर सकते। और इसलिए वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकारेंगे, और परमेश्वर से विनती करेंगे कि वह उन्हें उनके भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के प्रभाव से बचाए। उनके मन में यह करने का संकल्प होना इस बात को साबित करता है कि वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। इसी तरह से वे एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, और अपने मन की ही करते हैं; अंतर यह है कि मसीह-विरोधियों के मन में एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं होतीं—चाहे कुछ भी हो जाए वे सत्य को स्वीकार भी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधियों की दुखती रग है। दूसरी ओर, अगर मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सके, परमेश्वर से प्रार्थना कर सके और उसके भरोसे रह सके, और अगर वह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना चाहे, और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहे, तो वह प्रार्थना और वह संकल्प उनके जीवन-प्रवेश में किस तरह से लाभकारी होगा? कम-से-कम इसके कारण वे अपना कर्तव्य करते समय आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाएँगे, और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य का इस तरह से उपयोग कर पाएँगे कि वे अपना कर्तव्य संतोषजनक रूप से कर सकें। यह एक तरीका है जिससे उन्हें लाभ होगा। इससे परे, अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले प्रशिक्षण से वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे। वे चाहे जिन भी कठिनाइयों का सामना करें, वे सत्य को खोजने में सक्षम होंगे, सत्य को स्वीकारने और उसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे; वे धीरे-धीरे अपना शैतानी स्वभाव त्यागने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी आराधना करने में सक्षम होंगे। इस प्रकार का अभ्यास करके वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोग कभी-कभी भ्रष्टता दिखा सकते हैं, और इच्छा न होने पर भी अपनी शोहरत, फायदे और रुतबे के हित में बोल सकते हैं और कार्य कर सकते हैं, और वे अभी भी अपने मन की कर सकते हैं—लेकिन जैसे ही उन्हें यह एहसास होता है कि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं, उन्हें पछतावा होगा और वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे। इससे साबित होता है कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं; इससे साबित होता है कि वे जीवन-प्रवेश का अनुसरण कर रहे हैं। किसी व्यक्ति को चाहे जितने भी वर्षों का अनुभव हो, या वह जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करता हो, वह अंततः सत्य को स्वीकारने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगा। वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करता है। और जब वह यह सब करता है, तो उससे प्रदर्शित होता है कि उसने सच्चे मार्ग पर पहले ही अपनी नींव रख दी है। लेकिन कुछ लोग जो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते। उनके लिए उद्धार प्राप्त करना उतना ही कठिन होगा जितना कि मसीह-विरोधियों के लिए। ऐसे लोग जब मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, बल्कि वे उदासीन और अप्रभावित रहते हैं। जब संगति मसीह-विरोधियों के स्वभाव के विषय की ओर आती है, तो वे मान लेंगे कि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है और वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रहे हैं। वे उस बारे में बहुत अच्छी तरह से बोलेंगे। लेकिन जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तब भी वे ऐसा करने से मना कर देंगे; तब भी वे अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करेंगे, अपने मसीह-विरोधी वाले स्वभाव के भरोसे रहेंगे। अगर तुम उनसे पूछते हो, “जब तुम मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करते हो, तो क्या तुम्हारे दिल में संघर्ष होता है? जब तुम अपने रुतबे की सुरक्षा करने के लिए बोलते हो, तो क्या तुम्हें आत्म-भर्त्सना महसूस होती है? मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करने पर क्या तुम आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाते हो? अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जान लेने पर क्या तुम्हें दिल से पछतावा होता है? क्या बाद में तुम जरा भी प्रायश्चित्त करते हो और बदलते हो?” निश्चित रूप से उनके पास कोई जवाब नहीं होगा, क्योंकि उन्हें इस प्रकार का कोई अनुभव या आमना-सामना नहीं हुआ है। वे कुछ भी कहने में असमर्थ होंगे। क्या ऐसे लोग सच्चा प्रायश्चित्त करने में सक्षम होते हैं? यकीनन यह आसान नहीं होगा। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें खुद मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करने पर पीड़ा होगी, और वे व्याकुल हो जाएँगे; वे यह सोचने लग जाएँगे : “आखिर मैं इस शैतानी स्वभाव को त्याग क्यों नहीं सकता? मैं हमेशा भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करता रहता हूँ? मेरा यह भ्रष्ट स्वभाव इतना अधिक जिद्दी और विकट क्यों है? सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना इतना कठिन क्यों है?” यह दिखाता है कि उनका जीवन अनुभव उथला है, और उनका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी ज्यादा ठीक नहीं हो पाया है। इसीलिए उन पर कोई चीज आ पड़ने पर उनके दिल में इतना भयंकर युद्ध चलने लगता है और इसीलिए वे उस यातना का दंश भी झेलते हैं। हालाँकि उनमें अपने शैतानी स्वभाव को त्यागने का संकल्प होता है, फिर भी वे अपने दिल में इसके विरुद्ध युद्ध किए बिना दृढ़ता से नहीं रह सकते—और वह युद्धरत दशा दिन-ब-दिन तीव्र होती जाती है। और जैसे-जैसे उनका आत्मज्ञान गहराता जाता है और वे यह समझ लेते हैं कि वे कितनी गहराई तक भ्रष्ट हैं, वैसे-वैसे वे सत्य को प्राप्त करने के लिए उतना ही ज्यादा तरसने लगते हैं, और उसे और अधिक सँजोते हैं, और खुद को और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने की प्रक्रिया के दौरान वे सत्य को स्वीकार कर उसका अनवरत अभ्यास करने में सक्षम होंगे। धीरे-धीरे उनका आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, और उनका जीवन स्वभाव वास्तव में बदलने लगेगा। अगर वे इसी प्रकार अनुभव करने की कोशिश करते रहेंगे, तो उनकी स्थिति साल-दर-साल और ज्यादा बेहतर होती जाएगी, और अंत में, वे देह-सुख पर विजयी होने और अपनी भ्रष्टता को त्यागने, बहुधा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होंगे। जीवन प्रवेश आसान नहीं है! यह उस व्यक्ति को पुनर्जीवित करने जैसा होता है जो बस मृत्यु के कगार पर होता है : व्यक्ति जो जिम्मेदारी पूरी कर सकता है, वह है सत्य पर संगति करना, उन्हें सहारा देना, उन्हें पोषण देना या उनकी काट-छाँट करना। अगर वे उसे स्वीकार कर समर्पण कर सकें, तो उनके लिए उम्मीद बची है; हो सकता है कि वे इतने सौभाग्यशाली हों कि वे बच निकलें, और चीजें मृत्यु से पहले ही रुक जाएँ। लेकिन अगर वे सत्य को स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और अपने बारे में बिल्कुल भी नहीं जानते, तो वे खतरे में हैं। कुछ मसीह-विरोधी हटा दिए जाने के एक-दो साल तक खुद को जाने बिना गुजार देते हैं, और अपनी गलतियाँ नहीं मानते। ऐसी स्थिति में, उनके अंदर जीवन की कोई निशानी नहीं होती, और यह इस बात का सबूत है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। जब तुम लोगों की काट-छाँट होती है तो क्या तुम सत्य को स्वीकार पाते हो? (हाँ।) फिर तो उम्मीद बची है—यह अच्छी बात है! अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, तो तुम्हारे लिए बचाए जाने की उम्मीद है।

अगर तुम चाहते हो कि तुम्हें बचाया जाए, तो तुम्हें अनेक बाधाएँ पार करनी होंगी। वे कौन-सी बाधाएँ हैं? अपने भ्रष्ट स्वभाव से अविराम युद्ध, और शैतान और मसीह-विरोधियों के स्वभाव से युद्ध : यह तुम पर नियंत्रण करना चाहता है, और तुम उसे झटक कर मुक्त होना चाहते हो; यह तुम्हें गुमराह करना चाहता है, और तुम उसे फेंक देना चाहते हो। अगर तुम पाते हो कि इसके बारे में जानने के बाद भी तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को झटक कर मुक्त नहीं हो सकते, तो तुम व्यथित और पीड़ित हो जाओगे, और तुम प्रार्थना करोगे। कभी-कभी जब तुम यह देखते हो कि थोड़ा समय बीत जाने पर भी तुम शैतान के स्वभाव का नियंत्रण झटक पाने में असमर्थ हो, तो तुम्हें लगेगा ऐसा करना बेकार है, लेकिन तुम हार नहीं मानोगे और महसूस करोगे कि तुम इतने निराश और मायूस नहीं रह सकते—कि तुम्हें लड़ते रहना है। कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में लोगों में अलग-अलग सीमा की अलग-अलग आतंरिक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। संक्षेप में कहें, तो जिन लोगों में जीवन होता है वे वो लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, और भीतर से निरंतर बदलते रहते हैं। उनके मन की गहराई में पैठी सोच और विचार, उनके व्यवहार और अभ्यास, और यहाँ तक कि उनके इरादों, ख्यालों और विचारों में निरंतर उलट-पुलट होती रहती है। इसके अलावा वे बढ़ती हुई स्पष्टता के साथ भेद कर पाएँगे कि क्या सही है और क्या गलत, उन्होंने कौन-से गलत काम किए हैं, और सोचने का कोई तरीका सही है या गलत, कोई दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप है या नहीं, किसी तरीके से कार्य करने के पीछे के सिद्धांत परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं या नहीं, और क्या वे ऐसे इंसान हैं जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, जो सत्य से प्रेम करता है। ये चीजें उनके दिल में धीरे-धीरे ज्यादा-से-ज्यादा स्पष्ट होती जाएँगी। तो फिर इन नतीजों की प्राप्ति किस नींव पर बनी होती है? उन सत्यों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने की नींव पर, जैसा वे उन्हें समझते हैं। ऐसा क्यों है कि आखिर मसीह-विरोधी बदलाव हासिल नहीं कर पाते? क्या वे सत्य को समझने में अक्षम हैं? (नहीं, वे सक्षम हैं।) वे उसे समझ सकते हैं, लेकिन वे उसका अभ्यास नहीं करते, और इसे सुनने पर भी वे इसका अभ्यास नहीं करते। हो सकता है कि वे इसे धर्म-सिद्धांत के रूप में समझकर स्वीकार कर रहे हों, लेकिन क्या वे उन कुछ धर्म-सिद्धांतों और विनियमों को अभ्यास में ला सकते हैं जिन्हें वे समझते हैं? नहीं, जरा भी नहीं; भले ही तुम उन्हें मजबूर करो, भले ही वे कोशिश करते हुए थक गए हों, फिर भी वे उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकेंगे। इसीलिए उनके लिए सत्य में प्रवेश करना एक अनंत खालीपन होता है। कोई मसीह-विरोधी एक ईमानदार इंसान होने के बारे में चाहे जितना भी बोले, उसके प्रयास कितने भी बड़े हों, फिर भी वह एक भी ईमानदार बयान नहीं दे सकता; और वह परमेश्वर के इरादों को लेकर विचारशील होने के बारे में कितना भी बोले, वह अभी भी अपनी स्वार्थी, नीच प्रेरणाओं का त्याग नहीं करेगा। वह स्वार्थपरक दृष्टिकोण से कार्य करता है। जब वह कोई अच्छी चीज देखता है, कुछ ऐसी जिससे उसे फायदा हो, तो वह कहता है, “यहाँ दे दो—यह मेरी है!” वह हर वह बात कहता है जो उसके रुतबे के लिए फायदेमंद हो, और वह हर वह काम करता है जिससे उसे फायदा हो। यह मसीह-विरोधियों का सार होता है। हो सकता है कि जूनून के क्षणिक चरम पर वे महसूस करें कि उन्होंने थोड़े-से सत्य को समझ लिया है। उन पर जोश सवार हो जाता है और वे चिल्लाकर कुछ सूत्रवाक्य बोलने लगते हैं : “मुझे अभ्यास करना होगा, बदलना होगा, और परमेश्वर को संतुष्ट करना होगा!” फिर भी सत्य के अभ्यास का समय आने पर क्या वे ऐसा करते हैं? वे नहीं करते। परमेश्वर चाहे जो कहे, चाहे उनमें जितने भी सत्य या तथ्य हों, उन सबके बारे में अनगिनत वास्तविक उदाहरणों के साथ उपदेश दे, फिर भी इनसे मसीह-विरोधी प्रभावित नहीं होते, न ही ये उनकी महत्वाकांक्षा को डिगा सकते हैं। यह मसीह-विरोधी का एक लक्षण है, उनकी एक निशानी है। वे किसी भी सत्य का जरा भी अभ्यास नहीं करते; जब वे अच्छे से बोलते हैं, तो यह दूसरों के सुनने के लिए होता है, और चाहे वे जितने भी बढ़िया ढंग से बोलें, ये बस आडंबरपूर्ण और खोखले बोल का रूप होते हैं—उनके लिए यही मत होता है। ऐसे लोग सत्य को अपने दिल में वास्तव में किस तरह बैठाते हैं? मैंने तुम्हें पहले जो बताया है, उसमें से मसीह-विरोधी का प्रकृति सार क्या होता है? (सत्य से नफरत।) सही है। वे सत्य से नफरत करते हैं। वे मानते हैं कि उनकी दुष्टता, स्वार्थपरता, नीचता, उनका अहंकार, उनकी क्रूरता, उनका रुतबा और धन-दौलत हथियाना, और दूसरों पर नियंत्रण सबसे ऊँचे सत्य हैं, सबसे बड़े फलसफे हैं, और कोई भी दूसरी चीज इन चीजों जितनी ऊँची नहीं है। जब एक बार वे रुतबा पा लेते हैं और लोगों पर नियंत्रण कर पाते हैं, तो वे वह सब कर सकते हैं जो वे चाहते हैं, और फिर सभी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ उन्हें हासिल हो सकती हैं। किसी मसीह-विरोधी का अंतिम लक्ष्य यही होता है।

मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, और उससे नफरत करते हैं। क्या तुम्हारे लिए यह संभव है कि सत्य से विमुख किसी व्यक्ति को ऐसा बनाओ कि वह सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करे? (नहीं।) ऐसा करना किसी गाय को पेड़ पर चढ़ाने या भेड़िये को घास खिलाने के बराबर है—क्या यह उनसे असंभव की माँग करना होगा? कभी-कभी तुम किसी भेड़िये को भेड़ों के झुंड में घुसते हुए देखोगे ताकि वह भेड़ों के संग रह सके। यह छल करना है, भेड़ को खाने के लिए मौके का इंतजार करना। उसकी प्रकृति कभी नहीं बदलेगी। इसी तरह किसी मसीह-विरोधी से सत्य का अभ्यास करवाना किसी भेड़िये को घास खिलाने और उसकी भेड़ खाने की प्रवृत्ति का परित्याग करवाने के बराबर है : यह नामुमकिन है। भेड़िये मांसाहारी होते हैं। वे भेड़ों को खाते हैं—वे हर प्रकार के प्राणियों को खाते हैं। यह उनकी प्रकृति है, और इसे नहीं बदला जा सकता। अगर कोई कहे, “मुझे नहीं पता कि मैं मसीह-विरोधी हूँ या नहीं, लेकिन जब भी मैं सत्य पर संगति होते सुनता हूँ, तो मेरा दिल गुस्से से उबल जाता है, और मैं उससे नफरत करता हूँ—और जो भी मेरी काट-छाँट करे, मैं उससे और भी ज्यादा नफरत करता हूँ,” तो क्या यह व्यक्ति मसीह-विरोधी है? (हाँ।) कोई कहता है, “जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो तुम्हें समर्पण कर सत्य को खोजना चाहिए,” और वह पहला व्यक्ति बोलता है, “समर्पण मेरी जूती! चुप करो!” यह कैसी बात है? क्या यह तुनकमिजाजी है? (नहीं।) यह कौन-सा स्वभाव है? (सत्य से नफरत का।) वे इस बारे में सुनना भी पसंद नहीं करते, और जैसे ही तुम सत्य पर संगति करते हो, उनकी प्रकृति फूट पड़ती है, और वे अपना असली रूप दिखा देते हैं। वे सत्य को खोजने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बारे में कोई बात सुनना पसंद नहीं करते। उनकी नापसंदगी कितनी ज्यादा है? ऐसी बात सुनने पर वे फूट पड़ते हैं। उनकी शिष्टता ढह जाती है; वे रहस्योद्घाटन करने से नहीं डरते। उनकी नफरत इस हद तक होती है। तो फिर क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) सत्य बुरे लोगों के लिए नहीं है; यह उन लोगों के लिए है जिनमें अंतरात्मा और विवेक है, जिन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम है। यह उन लोगों से अपेक्षा करता है कि वे उसे स्वीकार कर उसका अभ्यास करें। और जहाँ तक मसीह-विरोधी स्वभाव वाले उन दुष्ट लोगों का सवाल है, जो सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति अत्यधिक शत्रुतापूर्ण हैं, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। चाहे वे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रख लें, वे चाहे जितने धर्मोपदेश सुन लें, वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे या उसका अभ्यास नहीं करेंगे। यह मत मानो कि वे सत्य का अभ्यास इसलिए नहीं करते क्योंकि वे उसे नहीं समझते, और इसके बारे में ज्यादा सुनने के बाद वे उसे समझ लेंगे। यह असंभव है, क्योंकि वे सभी लोग जो सत्य से विमुख हैं और उससे नफरत करते हैं, वे शैतान के सगे हैं। वे कभी नहीं बदलेंगे, और उन्हें कोई भी दूसरा नहीं बदल सकेगा। यह परमेश्वर से विश्वासघात करने के बाद के प्रधान दूत जैसा ही है : क्या तुम लोगों ने कभी परमेश्वर को यह कहते हुए सुना है कि वह प्रधान दूत को बचाएगा? परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा। तो परमेश्वर ने शैतान के साथ क्या किया? उसने उसे बीच हवा में उछाल दिया और उससे धरती पर अपनी सेवा करने को कहा, वही जो उसे करनी चाहिए। और जब उसने सेवा का काम पूरा कर लिया, और जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना पूरी होगी तो वह उसे नष्ट कर देगा और बस काम तमाम। क्या परमेश्वर उससे एक भी अतिरिक्त बात कहता है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि एक शब्द में कहें तो यह व्यर्थ होगा। उससे एक भी बात कहना निरर्थक होगा। परमेश्वर ने उसकी असलियत समझ ली है : मसीह-विरोधी का प्रकृति सार कभी नहीं बदल सकता। यह इसी तरह चलता है।

जब तुम लोग किसी मसीह-विरोधी से मिलते हो, तो तुम्हें उससे कैसा बर्ताव करना चाहिए? कुछ अगुआ ऐसे हुए हैं जिनका चरित्र झूठे अगुआ या मसीह-विरोधी का निकला और उन्हें बदल दिया गया। कुछ समय बाद भाई-बहनों ने सूचना दी कि उनमें से एक अभी भी कुछ हद तक काम करने में सक्षम था, कि उसने इस दौरान प्रायश्चित्त किया था और वह अच्छे ढंग से काम कर रहा था। यह विशेष रूप से स्पष्ट नहीं है कि वह व्यवहारगत ढंग से अच्छा कार्य कर रहा था या वह मीठी-मीठी बातें कर रहा था, या वह अपनी भूमिका में अधिक अनुशासित हो गया था। चूँकि भाई-बहनों ने कहा कि वह अच्छे ढंग से कार्य कर रहा था, और यह देखते हुए कि कुछ कार्यों के लिए कर्मचारियों की कमी थी, इसलिए ऐसी व्यवस्था की गई कि उसे थोड़ा कार्य करना चाहिए। और नतीजा यह हुआ कि दो महीने से भी पहले भाई-बहनों ने रिपोर्ट दर्ज की : “उसे फौरन बदल दो—वह बरदाश्त से ज्यादा हमारा दमन कर रहा है। अगर उसे नहीं बदला गया, तो हम अपने कर्तव्य नहीं कर पाएँगे।” कुछ भी हो जाए वे उसे काम पर रखने की सहमति नहीं देंगे; वे जिसे भी अगुआ के रूप में चुनें, वह व्यक्ति यह नहीं होगा। वह वही पुराना पाजी था—वह बड़ी-बड़ी बातें करता था, लेकिन दरअसल वह लेशमात्र भी नहीं बदला था। क्या चल रहा था? उसकी प्रकृति बुरी तरह से उजागर हो चुकी थी। तुम्हारे ख्याल से इस मामले से कैसे निपटना चाहिए? भाई-बहनों की ऐसी तीखी प्रतिक्रिया थी, इससे साबित होता है कि उनमें सच में थोड़ी समझ-बूझ है। उसने कुछ लोगों को गुमराह किया था, और ऊपरवाले द्वारा उससे निपटने के बाद कुछ लोग उसके बचाव में आ गए, और बाद में कुछ लोगों ने कहा कि उसने प्रायश्चित्त किया था। इसलिए उसे एक बार और पदोन्नत किया गया और कुछ समय बाद उसका पूरी तरह से खुलासा हो गया। भाई-बहनों ने अब उसकी पूरी असलियत समझ ली थी और वे उसे निकाल देने के लिए एकजुट हो गए थे। ऊपरवाले ने देखा कि ये लोग अब समझ-बूझ वाले हो गए हैं। उनका जो सिंचन हुआ था वह व्यर्थ नहीं गया। इसलिए यह देखते हुए कि कि उन सबने उसे काम पर रखने की सहमति नहीं दी थी, ऊपरवाले ने उसे बदल दिया। उन्हें यह समझ-बूझ कहाँ से मिली? (सत्य की समझ से।) हाँ—उन्होंने सत्य को समझ लिया था। समझ-बूझ सत्य की समझ से आती है। क्या वहाँ अभी भी सत्य और परमेश्वर का राज्य नहीं था? (हाँ, था।) उन्हें समय से समझ-बूझ मिली : उसके बरखास्त होने के बाद भाई-बहनों ने उसका नियंत्रण नहीं सहा। उसके दमन के अधीन लोगों ने बहुत कष्ट सहे थे। उसमें जरा भी मानवता नहीं थी। वह अपना उचित कार्य तो नहीं करता था, बल्कि भाई-बहनों के कर्तव्य निर्वहन में बाधा पैदा करता था—वह उन पर अत्याचार करता था, अपनी शक्ति से उनके साथ बुरा व्यवहार करता था। इसके लिए कौन सहमत होता? एक कठपुतली—बस वही! जब ऐसे लोगों को बदल दिया जाता है, तो क्या बाद में उनके मन में इस बारे में कोई भावना रहती है? पिछली बार ऊपरवाले ने उस व्यक्ति को बरखास्त किया था; इस बार, भाई-बहनों ने उसे अपदस्थ किया था, मंच से उतार दिया था—यह जाने का कोई आकर्षक तरीका नहीं था! उसने मूल रूप से चाहा था कि उसे कोई पद मिले। लेकिन हुआ ऐसा कि उसे वह पद तो नहीं मिला, बल्कि वह एकाएक लुढ़क गया और उसे ठोक-पीट कर वापस उसका मूल रूप दे दिया गया। क्या उसे आत्म-चिंतन नहीं करना चाहिए था? (हाँ।) यदि वह एक सामान्य व्यक्ति होता, सिर्फ गंभीर रूप से भ्रष्ट स्वभाव वाला, तो क्या उसे भी आत्म-चिंतन नहीं करना पड़ता? (हाँ, करना पड़ता।) ऐसा एक प्रकार का व्यक्ति होता है जो आत्म-चिंतन नहीं करता। वह सोचता है कि वही सही है, वह जो भी करता है सही करता है; वह तथ्यों को स्वीकार नहीं करता, सकारात्मक चीजों को स्वीकार नहीं करता, वह अपने बारे में दूसरों का आकलन स्वीकार नहीं करता। ये ऐसे लोग हैं जिनका स्वभाव सार एक मसीह-विरोधी का होता है। अकेले मसीह-विरोधी ही आत्म-चिंतन करना नहीं जानते। इसके बजाय वे किस बात पर सोचते-विचारते हैं? “हूँ! वह दिन आएगा जब मेरा सितारा फिर एक बार बुलंद होगा। प्रतीक्षा करो जब तक कि तुम लोग मेरी मुट्ठी में नहीं आ जाते—फिर देखना मैं तुम लोगों को कैसी यातना दूँगा!” क्या उनके पास ऐसा करने का मौका होगा? (नहीं।) उनके पास कोई मौका नहीं होगा। जैसे-जैसे भाई-बहन अधिक-से-अधिक सत्य जानेंगे, और विभिन्न लोगों की सभी विभिन्न दशाओं को समझ सकेंगे, खास तौर से मसीह-विरोधियों को पहचान लेंगे, तो मसीह-विरोधी को बुरा करने के लिए बहुत कम गुंजाइश रह जाएगी, और उनके पास ऐसा करने के कम-से-कम अवसर बचेंगे। उनके लिए वापसी की कोशिश करना बिल्कुल आसान नहीं होगा। वे आशा करते हैं कि ऊपरवाला समझ-बूझ के बारे में थोड़ा कम उपदेश देगा और आगे उनकी असलियत नहीं पहचान पाएगा। जब वे ऐसे सत्यों की संगति सुनते हैं तो वे जान जाते हैं कि उनका समय समाप्त हो गया है, और वे सोचते हैं कि अब उनके लिए वापसी की कोई उम्मीद नहीं बची है। उनके सोच-विचार बंद नहीं होते : “वे जो उजागर कर रहे हैं और पहचान रहे हैं वह सही है—यह पूरी तरह से मेरी दशा को दर्शाता है। मुझे कैसे बदलना चाहिए? अगर मैं इसी तरह अपना आचरण करता रहा, तो क्या यह मेरा अंत नहीं होगा? मैं खारिज कर दिया जाऊँगा। प्रधान दूत के रास्ते पर चलने और परमेश्वर का विरोध करने से क्या लाभ होगा?” क्या उनके मन में ऐसे विचार आएँगे? (नहीं।) वे विचार नहीं करेंगे और निश्चित रूप से आत्म-चिंतन कर खुद को जानने की कोशिश नहीं करेंगे; इसके बजाय, वे प्रायश्चित्त करने से पहले मर जाएँगे। यही उनकी प्रकृति है। भले ही तुम सत्य पर कैसे भी संगति करो, इससे वे जागेंगे नहीं और प्रायश्चित्त नहीं करेंगे। क्या प्रायश्चित्त के बिना बच निकलने का कोई द्वार है? (नहीं।) वे प्रायश्चित्त नहीं करते। वे अंत समय तक, खुद की खोदी हुई कब्र तक अपने रास्ते चलते जाते हैं, जो कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है।

हम पूरा समय मसीह-विरोधियों को समझने-बूझने के विषय में चर्चा करते रहे हैं। तुम लोगों के ख्याल से इसे सुनते समय मसीह-विरोधी क्या महसूस करते हैं? जब सभा करने का समय आता है तो वे असहनीय कष्ट महसूस करते हैं, और वे अपने दिल से प्रतिरोधी होते हैं। क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? (हाँ, हैं।) जब भ्रष्ट स्वभाव वाला कोई सामान्य व्यक्ति जान लेता है कि उसमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो वह और अधिक सुनने और समझने को आतुर हो जाता है, क्योंकि एक बार समझ लेने के बाद ही वह बदलाव का अनुसरण करने में सक्षम हो पाएगा। वे सोचते हैं कि अगर वे नहीं समझे तो भटक जाएँगे, और फिर शायद ऐसा दिन आए जब वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर कदम रख दें, जहाँ वे भयानक बुरे कर्म करें, मुसीबतों को निमंत्रण दे डालें, और इस तरह से उद्धार का अपना मौका गँवा दें, और तबाह हो जाएँ। वे इससे डरते हैं। मसीह-विरोधी की मानसिकता भिन्न होती है। वे सभी को समझ-बूझ को लेकर ऐसे धर्मोपदेश के बारे में बताने और उन्हें सुनने से दूर रखने की कोई कसर न छोड़ने को बेताब होते हैं; वे आतुरता से चाहते हैं कि हर कोई भ्रमित और नासमझ हो, और वे उसे गुमराह कर सकें। ऐसा करके ही उन्हें खुशी मिलेगी। किसी मसीह-विरोधी की सबसे बड़ी कामना क्या होती है? सत्ता अपने हाथ में लेने की। क्या तुम लोग सत्ता अपने हाथ में लेना चाहोगे? (नहीं।) भले ही दिल से न चाहो, लेकिन कभी-कभी तुम्हारे मन में लगता होगा कि सत्ता लेनी चाहिए, और दरअसल यह ऐसी चीज है जो तुम करना चाहोगे। तुम्हारे अंतर्मन में एक व्यक्तिपरक कामना, तुम्हारे दिल की गहराई में एक तड़प हो सकती है कि ऐसा व्यक्ति न बनो, ऐसा मार्ग न अपनाओ, लेकिन जब तुम्हें कुछ होता है, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें डिगा देता है और आगे बढ़ा देता है। तुम यह सोचकर अपने दिमाग पर जोर डालते हो कि तुम अपने रुतबे और प्रभाव की रक्षा कैसे करोगे, तुम कितने लोगों पर नियंत्रण कर सकोगे, दूसरों का सम्मान पाने के लिए अधिकारपूर्ण ढंग से कैसे बात करो। जब तुम हमेशा इन चीजों के बारे में सोचते रहते हो, तो तुम्हारा दिल अब तुम्हारे काबू में नहीं रह जाता। इसे कौन नियंत्रित कर रहा होता है? (एक भ्रष्ट स्वभाव।) हाँ—यह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में होता है। इंसान अपने दैहिक हितों की चिंताओं के बारे में सारा दिन सोचता रहता है; वह हमेशा दूसरों के साथ संघर्ष करता रहता है, और इन संघर्षों की प्रक्रिया में उसे कुछ भी हासिल नहीं होता, और यह उसके लिए अत्यंत पीड़ादायी होता है—वह केवल देह-सुख और शैतान के लिए ही जीता है। इसलिए इंसान अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने और परमेश्वर के लिए जीने का संकल्प तो करता है, मगर चीजें आ पड़ने पर वह रुतबे और अपने हितों के लिए संघर्ष करने लगता है : एक कदम आगे एक कदम पीछे का संघर्ष, जो उन्हें भीतर तक थका देता है, जिससे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। मुझे बताओ, क्या यह जीने का थका देने वाला तरीका नहीं है? (हाँ, है।) वे दिन-ब-दिन इसी तरह जीते हैं, और वे जान पाएँ इससे पहले ही दशकों गुजर जाते हैं। कुछ लोगों ने दस-बीस साल तक परमेश्वर में विश्वास रखा है—उन्होंने कितना सत्य हासिल किया है? उनका भ्रष्ट स्वभाव कितना बदला है? वे हर दिन किसके लिए जीते हैं? वे किस चीज के लिए खुद को व्यस्त रखते हैं? वे किस चीज के लिए अपना दिमाग खपाते हैं? यह सब देह-सुख के लिए होता है। परमेश्वर ने कहा कि “मनुष्य के हृदय के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है वह निरन्तर बुरा ही होता है।” क्या इन वचनों में कोई गलती है? उन्हें चखो; उनका आनंद लो। जब तुम इन वचनों के बारे में सोचते हो, जब उनका अनुभव करते हो, तो क्या तुम्हें डर नहीं लगता? तुम कह सकते हो, “मुझे थोड़ा डर तो लगता है। बाहरी तौर पर, मैं दिन भर कीमत चुकाता हूँ; मैं त्याग करता हूँ, खुद को खपाता हूँ और कष्ट सहता हूँ। मेरा दैहिक शरीर यही करता है—लेकिन मेरे दिल के सभी विचार बुरे होते हैं। वे सारे-के-सारे सत्य के विरुद्ध होते हैं। मेरे किए कई कामों में, मेरा उद्देश्य, मेरी मंशा और मेरे लक्ष्य विशुद्ध रूप से अपनी ही कल्पनाओं के बुरे कर्म करने को लेकर होते हैं।” इस तरह से कार्य करने का नतीजा क्या होता है? बुरे कर्म। तो फिर क्या परमेश्वर उन्हें याद रखेगा? कुछ लोग कह सकते हैं, “मैंने बीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है। मैंने सारी चीजें छोड़ दी हैं—फिर भी परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता।” वे दुखी हो जाते हैं, उन्हें पीड़ा होती है। उन्हें किस बात से पीड़ा होती है? यदि परमेश्वर इंसान से सचमुच सख्ती से पेश आए, तो इंसान के पास शेखी बघारने के लिए कुछ भी नहीं होगा। यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है, उसकी कृपा है—परमेश्वर मनुष्य के साथ अत्यंत सहनशील होता है। इस बारे में सोचो : परमेश्वर अत्यंत पवित्र है, अत्यंत धार्मिक है, अत्यंत सर्वशक्तिमान है, और जब उसका अनुसरण करने वाले लोग पूरी तरह से दिन भर बुरे विचार लिए होते हैं, ऐसे विचार जो सत्य के विरुद्ध होते हैं, और ऐसे विचार जो उनके अपने रुतबे, शोहरत और लाभ के हितों के मामलों के बारे में होते हैं, तो वह बस उन्हें देखता है। क्या परमेश्वर इस प्रकार से उसका विरोध करके उसके साथ विश्वासघात करने वाले अनुयायियों को बरदाश्त करेगा? बिल्कुल नहीं। इन ख्यालों, विचारों, इरादों और मंशाओं के हावी होने से लोग खुल्लमखुल्ला ऐसी चीजें करते हैं जो परमेश्वर के विद्रोह और विरोध में होती हैं, पूरे समय यह डींग मारते हैं कि वे अपना कर्तव्य कर रहे हैं और परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग कर रहे हैं। परमेश्वर यह सब देखता है, और फिर भी वह इसे सहन करेगा। वह इसे कैसे सहन करता है? वह सत्य मुहैया कराता है; वह सिंचन कर उजागर करता है; वह प्रबुद्ध और रोशन भी करता है, और मार्गदर्शन देता है और ताड़ना देकर अनुशासित करता है—और जब अनुशासन गंभीर होता है, तो वह पुनराश्वासन भी देगा। यह सब करने के लिए परमेश्वर कितना धैर्यवान होता होगा! वह इन लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों पर नजरें गड़ाए होता है, इस तथ्य पर कि उनके विभिन्न प्रकाशन, व्यवहार और विचार बुरे हैं—और फिर भी वह उन्हें सहन कर सकता है। मुझे बताओ, क्या इंसान ऐसा कर पाता? (नहीं।) अपने बच्चों के प्रति माता-पिता जो धैर्य दिखाते हैं, वह वास्तविक होता है, लेकिन जब चीजें सहनशक्ति से बाहर हो जाएँ तो हो सकता है वे उनका परित्याग कर दें या उनसे नाता तोड़ लें। तो फिर किसी व्यक्ति पर परमेश्वर जो धैर्य दिखाता है, उसका क्या? तुम्हारे जीने का प्रत्येक दिन वह दिन होता है जब परमेश्वर तुम्हें अपना धैर्य दिखाता है। वह इतना अधिक धैर्यवान है। इस धैर्य के भीतर क्या होता है? (प्रेम।) सिर्फ प्रेम नहीं—उसे तुमसे एक अपेक्षा है। वह अपेक्षा कौन-सी है? यह कि शायद अपने कार्य के जरिए वह कोई परिणाम और एक पुरस्कार देख ले, और मनुष्य को उसके प्रेम का आस्वादन करने योग्य बना दे। क्या इंसान में ऐसा प्रेम होता है? उसमें नहीं होता। सिर्फ थोड़ी-सी सीख और शिक्षा से किसी एक गुण या प्रतिभा के साथ, इंसान खुद को दूसरों से श्रेष्ठ साख का महसूस करता है, और यह कि साधारण लोग उसके आसपास भी नहीं आ सकते। यह मनुष्य का घिनौनापन है। क्या परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है? ठीक इसका उल्टा होता है : परमेश्वर जिस मानवजाति को बचाता है वह अकल्पनीय रूप से बेहद गंदी और गहराई से भ्रष्ट होती है; यही नहीं, परमेश्वर उन्हीं लोगों के साथ रहता है, उनसे बात करता है और उनके सामने आकर उन्हें सहारा देता है। मनुष्य यह नहीं कर सकता।

इसके बाद एक अतिरिक्त समस्या पर आगे की संगति होगी। गवाही देते समय कुछ लोग कहते हैं, “जब कभी चीजें मुझ पर आ पड़ती हैं, तो मैं परमेश्वर के प्रेम और उसके अनुग्रह के बारे में सोचता हूँ, और द्रवित हो जाता हूँ। जब भी मैं इन चीजों के बारे में सोचता हूँ, अपने भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करना बंद कर देता हूँ।” ज्यादातर लोग सोचते हैं कि यह कथन अच्छा है, यह वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों की समस्या को दूर कर सकता है। क्या इन शब्दों में कोई दम है? नहीं, दम नहीं है। परमेश्वर का प्रेम, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, इंसान के लिए उसकी सहनशीलता, और मनुष्य के भीतर किया हुआ समस्त कार्य किसी व्यक्ति को द्रवित ही कर सकता है—उनके उस अंश को जो उनकी मानवता है, उस अंश को जो उनकी अंतरात्मा और तार्किकता है; लेकिन यह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को दूर नहीं कर सकता, न ही यह मनुष्य के अनुसरण के लक्ष्य और दिशा को बदल सकता है। इसीलिए परमेश्वर अंत के दिनों का न्याय कार्य करता है : वह सत्य को व्यक्त कर मनुष्य को प्रदान करता है ताकि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर की जा सके। वह कौन-सी सबसे अहम चीज है जो परमेश्वर करता है? वह सत्य को व्यक्त कर मनुष्य को प्रदान करता है, और मनुष्य का न्याय करता और उसे ताड़ना देता है। वह तुम्हारे अनुसरण की दिशा और लक्ष्य बदलने के लिए अपने क्रिया-कलापों या कार्यों से तुम्हें प्रेरित नहीं करना चाहता। वह इस तरह से कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर मनुष्य के साथ अपने धैर्य की सीमा या कितनी भी बड़ी कीमत पर मनुष्य को बचाने के अपने तरीके के बारे में चाहे जो भी कहे—इस बात को वह कैसे भी पेश करे, परमेश्वर केवल इतना चाहता है कि मनुष्य लोगों को बचाने के उसके इरादे को समझे। वह वे बातें लोगों के दिलों को नर्म बनाने और उन्हें अपना कायापलट करने में सक्षम बनाने के लिए इसलिए नहीं कहता कि वे उसे सुनने के लिए कितने भावुक हैं। ऐसा नहीं किया जा सकता। क्यों नहीं? मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसका प्रकृति सार होता है, और प्रकृति सार वह नींव है जिस पर लोग जीवित रहने के लिए भरोसा करते हैं। यह कोई बुरी प्रथा या आदत नहीं है जो थोड़ा उकसाने से बदल जाएगी; यह प्रकृति सार इंसान के खुश होते ही या कुछ ज्ञान हासिल करने या बहुत-सी किताबें पढ़ने से नहीं बदलेगा। ऐसा असंभव होगा। कोई भी मनुष्य की प्रकृति को नहीं बदल सकता। व्यक्ति केवल सत्य को स्वीकार करके और उसे हासिल करके ही बदल सकता है—एकमात्र सत्य ही लोगों को बदल सकता है। यदि तुम अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी सत्यों की स्पष्ट समझ हासिल करने से शुरू करना चाहिए। कुछ लोग मानते हैं कि अगर किसी ने धर्म-सिद्धांत को समझ लिया है, तो उसने सत्य को समझ लिया है। इससे ज्यादा गलत बात नहीं हो सकती। बात ऐसी नहीं है कि अगर तुम परमेश्वर में विश्वास के धर्म-सिद्धांत को समझ लेते हो और कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हो, तो तुमने सत्य को समझ लिया है। अब इस पर विचार करो : सत्य वास्तव में किसे संदर्भित करता है? मैं हमेशा यह क्यों कहता हूँ कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सत्य को नहीं समझते? वे मान लेते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझ सका, तो इसका मतलब है कि मैंने सत्य को समझ लिया है,” और यह कि “परमेश्वर के सभी वचन सही हैं; ये सब हमारे दिल में उतरने के लिए बोले जाते हैं, और इसलिए वे हमारी साझा भाषा हैं।” मुझे बताओ, क्या यह कथन सही है, या सही नहीं है? सत्य को समझने का वास्तविक अर्थ क्या होता है? हम ऐसा क्यों कहते हैं कि वे सत्य को नहीं समझते? पहले हम इस बारे में थोड़ी बात करेंगे कि सत्य क्या है? सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। तो उन सकारात्मक चीजों की वास्तविकता मनुष्य से किस तरह से संबंधित है? (परमेश्वर, मेरी समझ से किसी व्यक्ति के सत्य को समझ लेने पर यह जिस तरह से अभिव्यक्त होता है, वह यह है कि लोग जिन भी लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हैं तो उनके पास सिद्धांत होते हैं और वे जानते हैं कि उनसे कैसे पेश आएँ, और उनके पास अभ्यास का मार्ग होता है; सत्य उनकी कठिनाइयों को दूर कर उनके जीवन की वास्तविकता बनने में सक्षम होता है। परमेश्वर बस इतना कह रहा था कि किसी व्यक्ति की धर्म-सिद्धांत की समझ सत्य की समझ नहीं होती—उन्हें लगता है मानो उन्होंने सत्य को समझ लिया है, लेकिन वे अपने वास्तविक जीवन में आई किसी भी समस्या और कठिनाई को दूर नहीं कर पाते। उनके पास उसके लिए कोई मार्ग नहीं होता; वे चीजों को सत्य से नहीं जोड़ पाते।) सत्य को न समझ पाना बस यही होता है। अभी जो बात कही गई उसके एक अंश ने तीर निशाने पर मारा है : सत्य क्या है? (सत्य लोगों को सक्षम बना सकता है कि उनके पास अभ्यास का मार्ग हो, और वे सिद्धांतों के साथ कार्य करें; यह लोगों की कठिनाइयों को दूर कर सकता है।) सही है। खुद की सत्य सिद्धांतों के साथ तुलना करना और उनके अनुसार अभ्यास करना—यही मार्ग है। यह सिद्ध करता है कि यह सत्य की समझ है। अगर तुम महज धर्म-सिद्धांत को समझते हो, और जब तुम्हें कुछ हो जाए, तो तुम इसे लागू न कर पाओ और सिद्धांतों का पता न लगा पाओ, तो यह सत्य की समझ नहीं है। सत्य क्या है? सत्य सभी चीजों को करने के सिद्धांत और मानदंड होते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) जब मैं कहता हूँ कि तुम लोग सत्य को नहीं समझते, तो मैं यह कहता हूँ कि तुम लोग धर्मोपदेश से सिर्फ धर्म-सिद्धांत के बारे में जानकर चले आए हो। तुम लोग नहीं जानते कि इसके भीतर सत्य के कौन-से सिद्धांत और मानदंड हैं, या तुम्हारे साथ घटने वाली कौन-सी चीजें सत्य के उस पहलू से संबंधित हैं, या कौन-सी दशाओं में ये शामिल हैं, न ही तुम यह जानते हो कि सत्य के उस पहलू को कैसे लागू करें। तुम इनमें से कुछ भी नहीं जानते। उदाहरण के लिए मान लो कि तुम लोगों ने कोई सवाल पूछा है। तुम्हारे सवाल पूछने का मतलब है कि तुम लोग संबंधित सत्य को नहीं समझते। क्या इसके बारे में संगति करने के बाद तुम इसे समझ जाओगे? (हाँ।) संगति के बाद शायद तुम इसे थोड़ा समझ सको, लेकिन ऐसी ही कोई चीज तुम्हारे साथ घटने पर अगर तुम इसे समझने में नाकाम रहते हो, तो यह सत्य की सच्ची समझ नहीं है। तुम उस सत्य के सिद्धांतों और मानदंडों के बारे में नहीं जानते; उन पर तुम्हारी पकड़ नहीं है। ऐसा कोई सत्य हो सकता है जो तुम्हारे ख्याल से तुमने समझ लिया है—लेकिन अगर तुमने उस सत्य को समझ लिया है कि वे वास्तविकताएँ कौन-सी हैं जिन्हें यह संबोधित करता है, और मनुष्य की कौन-सी दशाएँ हैं जिन्हें यह लक्ष्य करता है, तो क्या तुम उसके साथ अपनी दशा की तुलना कर सकते हो? अगर तुम नहीं कर सकते, और तुम कभी नहीं जानते कि तुम्हारी सच्ची दशा क्या है, तो क्या तुम्हारी समझ सत्य की समझ है? (नहीं।) यह सत्य की समझ नहीं है। सत्य और सिद्धांतों के एक पहलू की बात आने पर अगर तुम जानते हो कि कौन-से मामले और कौन-सी दशाएँ उस सत्य से संबंधित हैं, और किस प्रकार के लोग या तुम्हारी अपनी कौन-सी दशाएँ उस सत्य से संबंधित हैं, और तुम उनके समाधान के लिए उस सत्य का प्रयोग करने में भी सक्षम हो, तो उसका अर्थ है कि तुम सत्य को समझते हो। अगर किसी धर्मोपदेश को सुनते समय तुम्हें लगता है कि तुम उसे समझते हो, फिर भी जब तुमसे उस बारे में संगति करने को कहा जाए, तो तुम बस सुने हुए वचन दोहराते जाते हो, उस बारे में बोल नहीं पाते और दशाओं और वास्तविक स्थितियों के संदर्भ में समझा नहीं सकते, तो क्या तुम्हारी समझ सत्य की समझ है? नहीं, यह वह चीज नहीं है। तो क्या तुम लोग ज्यादातर समय सत्य को समझते हो या नहीं समझते? (हम नहीं समझते।) क्यों नहीं? क्योंकि अधिकतर सत्यों के मामले में तुम लोग उन्हें सुन कर बस धर्म-सिद्धांत को ही समझकर चले आते हो। तुम बस इसका एक विनियम के रूप में ही पालन कर सकते हो; तुम उसे परिस्थिति के अनुकूल लागू करना नहीं जानते। जब तुम पर कोई चीज आ पड़ती है, तो तुम भौचक्के रह जाते हो; जब तुम पर कोई चीज आ पड़ती है, तो तुम धर्म-सिद्धांत के उस अंश को नहीं लगा पाते जो तुमने उस परिदृश्य में समझा है—यह बेकार है। क्या यह सत्य की समझ है, या यह नहीं है? (यह नहीं है।) सत्य को न समझ पाना यही है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो फिर क्या? तुम्हें ऊपर बढ़ने का प्रयास करना होगा, और इसे जानने का कष्ट उठाना होगा। ऐसी कुछ चीजें हैं जो तुम्हारी मानवता में होनी चाहिए : तुम जो भी सीखते हो और करते हो, उसमें तुम्हें शुद्ध अंतःकरण वाला और सावधान होना होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे भीतर सामान्य लोगों की अंतरात्मा और विवेक नहीं है, तो तुम सत्य को समझने में कभी भी सक्षम नहीं हो सकोगे, और तुम्हारी आस्था भ्रमित होगी। यह तुम्हारी काबिलियत पर निर्भर नहीं करता; यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुममें इस प्रकार की मानवता है। यदि है, तो भले ही तुम्हारी काबिलियत औसत दर्जे की हो, फिर भी तुम बुनियादी सत्यों को समझ सकोगे। यह कम-से-कम सत्य के करीब है। और अगर तुम बहुत अच्छी काबिलियत वाले हो, तो तुम जो समझते हो वे सत्य के गहरे स्तरों की चीजें होंगी, जिस स्थिति में तुम उसमें और अधिक गहराई तक प्रवेश करने में सक्षम हो सकोगे। यह तुम्हारी काबिलियत से जुड़ा है। लेकिन अगर तुम्हारी मानवता में शुद्ध अंतःकरण और सावधानी नहीं है, और तुम हमेशा अस्पष्ट और अनिश्चित, भ्रमित, हमेशा अस्पष्टता की दशा में रहते हो—सभी मामलों में अस्पष्ट, धुंधले, और लापरवाह रहते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य हमेशा विनियम और धर्म-सिद्धांत ही रहेंगे। तुम इसे हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाओगे। मुझसे यह बात सुनकर क्या तुम लोगों को अब लगता है कि सत्य का अनुसरण करना कठिन है? इसमें एक सीमा तक की कठिनाई है, लेकिन यह सीमा बड़ी भी हो सकती है या छोटी भी। अगर तुम इस पर ध्यान दो और प्रयास करो, तो कठिनाई की सीमा सिकुड़ जाएगी, और तुम थोड़े सत्य हासिल कर लोगे; अगर तुम सत्य को लेकर जरा भी प्रयास नहीं करते, बल्कि सिर्फ धर्म-सिद्धांत और बाहरी प्रथाओं को लेकर ही प्रयास करते हो, तो तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाओगे।

इन सत्यों पर मेरी व्यवस्थित संगति के जरिए क्या तुम लोग किसी चीज का सारांश गहराई से समझ पाए हो? क्या तुम्हें कोई एहसास हुए हैं? क्या किसी भी कॉलेज पाठ्यक्रम के समस्त ज्ञान से अधिक विवरण सत्य के किसी एक सूत्र की चीजों में नहीं होता? (हाँ, होता है।) बहुत अधिक विवरण होता है। लोगों को कुछ ही वर्षों के प्रयास से, निरंतर अभ्यास और व्यावहारिक अनुभव से, सीखने की चीजों का बोध हो सकता है, अगर वे उसे याद कर समझ पाएँ। किसी शैक्षणिक विषय को सीखने में, कोई व्यक्ति सिर्फ समय और ऊर्जा लगाकर और उस पर थोड़ा ध्यान लगाकर महारत हासिल कर सकता है। लेकिन सत्य को समझने के लिए सिर्फ तुम्हारे दिमाग लगाने से काम नहीं चलेगा—तुम्हें अपना दिल लगाना पड़ेगा। अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर दिल से चिंतन नहीं करते, या अपने दिल से उनका अनुभव नहीं करते, तो तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे। सिर्फ वही लोग जिन्हें आध्यात्मिक समझ है, जिनका अंतःकरण शुद्ध है, और जिनमें समझने की क्षमता है, वे ही सत्य तक पहुँच सकते हैं; जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है, जो कमजोर काबिलियत वाले हैं, और जिनमें समझने की क्षमता नहीं है, वे कभी भी उस तक पहुँचने में सक्षम नहीं होंगे। क्या तुम लोग बेपरवाह हो, या तुम सावधान रहते हो? (हम बेपरवाह लोग हैं।) क्या यह खतरनाक नहीं है? क्या तुम लोग सावधान रह सकते हो? (हाँ, रह सकते हैं।) यह अच्छी बात है; मुझे यह सुनना पसंद है। हमेशा यह मत कहो कि तुम नहीं कर सकते—कोशिश ही नहीं करोगे तो कैसे जानोगे? तुम्हें इसके लिए सक्षम होना होगा। अपने अनुसरण में तुम लोगों के मौजूदा संकल्प और रवैए के साथ उम्मीद है कि तुम बुनियादी सत्यों को समझ जाओ। यह हासिल की जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति अपना दिल लगाने और कीमत चुकाने को तैयार है, और वह सत्य के प्रति दिल से कड़ी मेहनत करता है, तो पवित्र आत्मा कार्य पर लगकर उसे पूर्ण कर देगा। अगर वह सत्य के प्रति दिल से कड़ी मेहनत नहीं करता, तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा। याद रखो : कोई व्यक्ति सत्य को समझ पाए, इसके लिए उसे सक्रिय रूप से प्रयास करके कीमत चुकानी चाहिए, लेकिन इससे वांछित परिणामों में से आधे ही हासिल हो पाएँगे, इससे उतना ही हासिल हो पाएगा जिसके साथ लोगों को सहयोग करना चाहिए। दूसरा अंश सत्य को समझने का अहम अंश है जो लोग हासिल नहीं कर पाते, और उसे हासिल करने के लिए उन्हें पवित्र आत्मा के कार्य और उसके पूर्ण करने के भरोसे रहना होगा। तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि हालाँकि विज्ञान के बारे में सीखने और ज्ञान प्राप्त करने की बात पर सिर्फ प्रयास करने के भरोसे रहना काफी होता है, लेकिन सत्य को समझना इस तरह से नहीं होता। इसके लिए सिर्फ दिमाग के भरोसे रहना बेकार है—इंसान को अपना दिल लगाना चाहिए, और उसे इसकी कीमत चुकानी चाहिए। कीमत चुकाने से क्या हासिल होता है? पवित्र आत्मा का कार्य। लेकिन पवित्र आत्मा के कार्य की नींव क्या है? इंसान का दिमाग पर्याप्त रूप से शोधित होना चाहिए; परमेश्वर के कार्य करने से पहले उसका हृदय पर्याप्त रूप से शांत और स्थिर होना चाहिए, पर्याप्त रूप से खुलेपन वाला होना चाहिए। पवित्र आत्मा का कार्य रहस्यपूर्ण होता है, और जिन्होंने इसका स्वाद लिया है, वे जानते हैं। जो लोग सत्य के प्रति बारम्बार प्रयास करते हैं, वे अक्सर पवित्र आत्मा के प्रबोधन को महसूस कर सकते हैं, इसलिए अपने कर्तव्य निर्वहन में उनके अभ्यास का मार्ग सुगम होता है, और उनके दिलों में हमेशा से ज्यादा स्पष्टता होती है। अनुभवहीन लोग पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस नहीं कर पाते, और कभी भी सही मार्ग को नहीं देख सकते। उनके लिए सभी मामले अस्पष्ट और धुँधले होते हैं; वे नहीं जानते कि सही मार्ग क्या है। वास्तव में सत्य की समझ प्राप्त करना और अभ्यास के मार्ग को स्पष्ट रूप से देखना कठिन नहीं है : अगर किसी में वे मनोदशाएँ हों, तो पवित्र आत्मा कार्य करेगा। लेकिन अगर तुम्हारा दिल उन दशाओं से बाहर आ जाए, तो तुम पवित्र आत्मा के कार्य का पता नहीं लगा पाओगे। यह अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है। तुम्हारे उन दशाओं में होने और तुम्हारे दिल के उन स्थितियों में होने पर अगर तुम खोजो, प्रयास करो, चिंतन करो, और प्रार्थना करो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य करेगा। लेकिन अगर तुम भुलक्कड़ हो, हमेशा रुतबे के पीछे भागना और शोहरत और फायदे के लिए संघर्ष करना चाहते हो, हमेशा हंगामा करना चाहते हो और दिखाने के लिए प्रयास करते हो—अगर तुम हमेशा चकमा देते हो, परमेश्वर से छिपते हो, बचते हो, और उसे अस्वीकार करते हो, खरे नहीं होते, ऐसे दिल से पेश आते हो जो उसके प्रति खुला हुआ नहीं है—तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा, वह तुम पर जरा भी ध्यान नहीं देगा, और वह तुम्हें फटकारेगा भी नहीं। कोई व्यक्ति जिसने पवित्र आत्मा की फटकार का अनुभव भी न किया हो, वह सत्य को कितना समझ सकेगा? कभी-कभी पवित्र आत्मा तुम्हें कोई काम करने के सही रास्ते और गलत रास्ते को जानने देने के लिए फटकारता है। जब वह तुम्हें ऐसी भावना देता है, तो तुम इससे आखिरकार क्या हासिल करते हो? तुमने सही और गलत में भेद करने की योग्यता हासिल कर ली होगी, और एक ही नजर में तुम उस चीज को स्पष्ट रूप से समझ लोगे : “वह तरीका गलत है—वह सिद्धांतों से मेल नहीं खाता, मैं वैसे नहीं कर सकता।” उस चीज को लेकर तुम स्पष्ट रूप से जान जाओगे कि सिद्धांत क्या हैं, परमेश्वर का इरादा क्या है, और सत्य वास्तव में क्या है, और इसलिए तुम जान जाओगे कि तुम्हें क्या करना चाहिए। लेकिन अगर पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता, अगर वह तुम्हें ऐसा अनुशासन नहीं देता, तो ऐसी चीजों को लेकर बिना स्पष्टता के तुम सदा के लिए भ्रमित अवस्था में रहोगे। जब वे तुम पर आ पड़ेंगी तो तुम अचंभित रह जाओगे; जब वे तुम पर आ पड़ेंगी, तो तुम नहीं जानोगे कि क्या चल रहा है, और अपने दिल में बहुत भ्रमित रहोगे—तुम्हारे मन में यह स्पष्ट नहीं होगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए। हो सकता है कि तुम चिंता से फट पड़ने की अवस्था में हो—लेकिन पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करेगा? कदाचित तुम्हारे भीतर की कुछ दशाएँ सही नहीं हैं, और तुम प्रतिरोध कर रहे हो। तुम किससे प्रतिरोध कर रहे हो? अगर तुम किसी गलत दृष्टिकोण या धारणा से चिपके हुए हो, तो परमेश्वर कार्य नहीं करेगा, बल्कि तब तक प्रतीक्षा करेगा जब तक तुम्हें इस बात का एहसास न हो जाए कि वह धारणा या दृष्टिकोण गलत है। पवित्र आत्मा केवल उसी नींव पर कार्य करेगा। जब पवित्र आत्मा कार्य करता है, तो वह तुम्हें सचेत अवस्था में यह जानने देने के बाद रुक नहीं जाता, कि सही क्या है और गलत क्या है। इसके बजाय वह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह देखने देता है कि मार्ग क्या है, दिशा क्या है, उद्देश्य क्या है, और सत्य से तुम्हारी समझ कितनी दूर है। वह तुम्हें यह स्पष्ट रूप से जानने देता है। क्या तुम लोगों के ऐसे समागम हुए हैं? अगर किसी व्यक्ति ने ऐसे विशिष्ट समागमों या अनुभवों के बिना परमेश्वर में दस-बीस वर्ष तक विश्वास रखा हो, तो वह कैसा व्यक्ति है? एक बेपरवाह इंसान। वह सिर्फ कुछ मौखिक रूप से दोहराए गए धर्म-सिद्धांत और सूत्रवाक्य दे सकता है, और अपनी उन कुछ रणनीतियों और सरल तकनीकों से समस्याएँ सुलझा सकता है। इसमें उनका बहुत थोड़ी-सी प्रगति करना नियत है—वे सत्य को कभी नहीं समझेंगे और पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा। ऐसे बेपरवाह लोग, सत्य जिनकी पहुँच से पूरी तरह दूर है, वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किए जाने के बावजूद इसे नहीं समझ सकते। इसलिए पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा। क्यों नहीं? क्या परमेश्वर पक्षपात कर रहा है? नहीं। तो फिर कारण क्या है? क्योंकि उनकी काबिलियत बेहद कमजोर है, और यह उनकी पहुँच से बाहर है। पवित्र आत्मा के कार्य करने पर भी वे सत्य को नहीं समझते; अगर उन्हें बताया जाता कि कोई चीज एक सिद्धांत है, तो क्या उनमें उसे समझने की योग्यता होगी? नहीं। इसलिए परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। क्या तुम लोगों का इसके साथ समागम हुआ है? सत्य निष्पक्ष होता है। जैसे ही तुम इसका अनुसरण करते हो, इसमें तल्लीन होते हो, पवित्र आत्मा कार्य करने लगेगा और तुम इसे हासिल कर लोगे। लेकिन अगर तुम आलसी हो, सुख के लालची हो, और सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार नहीं हो, तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा और तुम चाहे जो भी हो सत्य को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाओगे। अब तुम समझे? क्या तुम लोग वर्तमान में सत्य का अनुसरण कर रहे हो? जो भी इसका अनुसरण करेगा, वह इसे हासिल करेगा, और जो लोग अंततः सत्य को प्राप्त करेंगे वे इसकी निधि बन जाएँगे। जो लोग इसे हासिल नहीं कर सकेंगे वे व्यर्थ ही उनसे ईर्ष्या करते रहेंगे : अगर उन्होंने यह मौका गँवा दिया, तो फिर नहीं मिलेगा।

सत्य का अनुसरण करने की सर्वोत्तम अवधि कौन-सी होती है? वह अवधि जब परमेश्वर देहधारण कर कार्य कर रहा होता है, तुमसे रूबरू होकर बोल रहा होता है और संगति कर रहा होता है, तुम्हें परामर्श दे रहा होता है और तुम्हारी मदद कर रहा होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह सर्वोत्तम अवधि है? क्योंकि देहधारी परमेश्वर का कार्य और वचन तुम्हें पूरी तरह से पवित्र आत्मा के इरादों को समझने में सक्षम बना सकते हैं और तुम्हें यह जानने दे सकते हैं कि पवित्र आत्मा कैसे कार्य करता है। देहधारी परमेश्वर पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धांतों, स्वरूपों, तरीकों और साधनों को उनकी पूर्णता में समझने में सक्षम होता है, और तुम्हें इस बारे में बताता है, ताकि तुम्हें खुद इसके लिए इधर-उधर तलाशना न पड़े। इस छोटे रास्ते से जाओ, तुम इस तक सीधे पहुँचने में सक्षम हो जाओगे। जब देहधारी परमेश्वर बोलना बंद कर दे और अपना कार्य पूरा कर ले, तो फिर तुम्हें उसे खुद इधर-उधर तलाशना पड़ेगा। ऐसा कोई भी नहीं है जो इस देहधारी का स्थान ले सके, जो तुम्हें स्पष्ट रूप से बता सके कि क्या करना है, किधर जाना है, और कैसा रास्ता अपनाना है। ऐसा कोई भी नहीं है जो तुम्हें वो चीजें बता सके; कोई व्यक्ति चाहे जितना भी आध्यात्मिक क्यों न हो, वह ऐसा नहीं कर सकता। इसके उदाहरण हैं। ठीक यीशु के विश्वासियों की तरह जो दो हजार वर्षों से विश्वास रखते आ रहे हैं : उनमें से कुछ अब पुराने नियम को पढ़ने और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक कदम पीछे लेने लगे हैं; कुछ लोग क्रूस ढोते हैं, फिर भी अपने कमरों में दस आज्ञाएँ लटकाए रखते हैं, और विनियमों और आज्ञाओं को कायम रखते हैं। अंत में उन्होंने क्या हासिल किया है? पवित्र आत्मा ने कार्य किया है, लेकिन स्पष्ट वचनों के बिना उन्हें इधर-उधर तलाशने के लिए छोड़ दिया गया है। स्पष्ट वचनों की अनुपस्थिति का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि लोग जिस चीज को यहाँ-वहाँ तलाश करके प्राप्त करते हैं वह अनिर्णीत होती है। ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हें निश्चितता दे सके, और यह कह सके कि तुम्हारे लिए यह करना सही है और यह करना गलत। ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हें यह बता सके। भले ही पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करे, और तुम मान लो कि यह सही है, तो फिर क्या परमेश्वर स्वीकृति दे देता है? तुम भी निश्चित नहीं हो, है कि नहीं? (नहीं।) प्रभु यीशु के वे वचन जो उसने दो हजार वर्ष पूर्व अपने पीछे छोड़ दिए थे और जो बाइबल में दर्ज किए गए थे—अब, दो हजार साल बाद प्रभु के विश्वासियों ने उसकी वापसी को लेकर तरह-तरह के स्पष्टीकरण दिए हैं, और कोई नहीं जानता कि इसका सटीक स्पष्टीकरण क्या है। इसलिए उनके लिए कार्य के इस चरण को स्वीकारना अत्यधिक तनाव की बात होती है। यह क्या दर्शाता है? यह कि इन गोल-मोल वचनों से जो स्पष्ट रूप से नहीं कहे गए हैं, दस लोगों के पास दस स्पष्टीकरण हैं, और सौ लोगों के पास सौ स्पष्टीकरण। हर किसी के पास अपने खुद के औचित्य और दलीलें हैं। कौन-सा स्पष्टीकरण सटीक है? जब तक परमेश्वर नहीं बोलता या निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करता, मनुष्य की कोई भी बात मायने नहीं रखती। तुम्हारा संप्रदाय चाहे कितना भी बड़ा हो, इसके चाहे जितने भी सदस्य हों, क्या परमेश्वर के लिए इसके कोई मायने हैं? (नहीं।) परमेश्वर तुम्हारी ताकत नहीं देखता। भले ही संसार में एक भी व्यक्ति परमेश्वर के कार्य को स्वीकार न करे, पर वही सही है, वही सत्य है। यह एक शाश्वत अपरिवर्तनीय तथ्य है! सभी धर्म और संप्रदाय तरह-तरह से इसे स्पष्ट करते हैं, और अंत में क्या होता है? क्या तुम्हारा स्पष्टीकरण किसी काम का है? (नहीं।) परमेश्वर सिर्फ एक वाक्य से इसका खंडन करता है। तुम इसे कैसे भी समझाते रहो, क्या परमेश्वर तुम पर ध्यान देगा? (नहीं।) परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देगा? परमेश्वर ने नया कार्य शुरू कर दिया है, जो लगभग तीस वर्ष से चल रहा है। वे लोग चाहे कितने भी अहंकार से हल्ला मचाएँ, क्या वह उन लोगों पर ध्यान देगा? (नहीं।) वह बिल्कुल ध्यान नहीं देगा। धर्म में लगे लोग कहेंगे : “तुम उन पर ध्यान न दो, तो क्या वे लोग बचाए नहीं जा सकेंगे?” तथ्य यह है कि परमेश्वर के वचनों ने बहुत पहले ही हर चीज को स्पष्ट कर दिया है, और उसका कहा ही चलता है। धार्मिक जगत की ताकत चाहे जितनी भी हो, उसका कोई फायदा नहीं; उनकी संख्या चाहे जितनी भी हो, इससे यह साबित नहीं होता कि उनके पास सत्य है। परमेश्वर वैसा ही करता है जैसा उसे करना चाहिए; वह वहीं से शुरू करता है जहाँ से उसे शुरू करना चाहिए; वह उसी को चुनता है जिसे उसे चुनना चाहिए। क्या वह धार्मिक जगत से प्रभावित और बाधित होता है? (नहीं।) जरा भी नहीं। यह परमेश्वर का कार्य है। फिर भी भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर से तर्क करना चाहती है, और सारा दिन उसे स्पष्टीकरण देती रहती है—क्या यह किसी काम का है? वे बाइबल के वचन लेकर जैसे चाहें वैसे उसकी व्याख्या करते रहते हैं—वे स्पष्ट रूप से उन्हें प्रसंग से अलग ले जाते हैं, जीवन भर उनसे चिपके रहना चाहते हैं, और प्रतीक्षा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें पूरा करेगा। वे सपना देख रहे हैं! अगर कोई परमेश्वर के वचनों में सत्य को न खोजे, और हमेशा परमेश्वर से कभी यह तो कभी वह करने को कहता रहे, तो क्या उस व्यक्ति के पास अभी भी विवेक है? वह क्या करने की कोशिश कर रहा है? क्या वह बगावत करना चाहता है? क्या वह परमेश्वर से लड़ना चाहता है? जब महाविपत्ति आएगी तो सब हक्के-बक्के रह जाएँगे; वे व्यर्थ ही चीखेंगे-चिल्लाएँगे। क्या यह इस तरह से नहीं होगा? हाँ, ऐसे ही होगा।

अभी सर्वोत्तम काल है—यह वह काल है जब परमेश्वर लोगों को बचाकर उन्हें पूर्ण कर रहा है। उस दिन की प्रतीक्षा मत करो जब तुम इस काल से चूक जाओगे और फिर चिंतन करोगे : “परमेश्वर ने वह जो बात कही थी उसका अर्थ क्या है? उस वक्त पूछना बेहतर रहा होता, अब तो मैं पूछ ही नहीं सकता। फिर मैं बस प्रार्थना करूँगा; पवित्र आत्मा कार्य करेगा, यह वही बात है।” क्या यह वही बात होगी? (नहीं।) अगर वही होती, तो इन दो हजार वर्षों में जिन लोगों ने प्रभु में विश्वास रखा है, वे वैसे नहीं होते जैसे कि हैं। दूसरी सहस्राब्दी के पूर्वार्ध के दौरान तथाकथित संतों द्वारा लिखे गए वचनों पर जरा गौर करो—वे कितने उथले हैं, कितने दयनीय हैं! अब भजनों की एक मोटी किताब है जिसके भजन सभी धर्मों और संप्रदायों के लोग गाते हैं, और वे भजन सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष प्राप्ति के बारे में बताते हैं—सिर्फ वही दो चीजें। क्या यह परमेश्वर का ज्ञान है? नहीं, यह नहीं है। क्या इसमें जरा भी सत्य है? (नहीं।) वे इतना ही जानते हैं कि परमेश्वर संसार के लोगों से प्रेम करता है। एक कहावत है जो संसार में सदा प्रचलित रहती है, कभी नहीं बदलती : “परमेश्वर प्रेम है।” वे बस यही वाक्य जानते हैं। वैसे परमेश्वर लोगों से कैसे प्रेम करता है? परमेश्वर अब उनका परित्याग कर उन्हें हटा देता है—क्या वह अभी भी प्रेम है? उनकी दृष्टि में, नहीं, अब नहीं है। वे इस तरह से उसकी निंदा करते हैं। यह कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता और यह नहीं समझता कि यह सर्वाधिक दयनीय चीज है। वर्तमान में ऐसा महान अवसर उपलब्ध है। परमेश्वर ने सत्य को व्यक्त करने और व्यक्तिगत रूप से लोगों को बचाने के लिए देहधारण किया है। अगर तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया और उसे हासिल नहीं किया, तो यह बड़ी तरस खाने की बात होगी। अगर तुमने इसका अनुसरण किया होता, और पूरे जोश के साथ ऐसा किया होता, फिर भी अंत में उसे समझने में नाकाम हो गए होते, तो तुम्हारा जमीर साफ होता—कम-से-कम तुमने खुद को निराश नहीं किया होता। क्या तुम लोगों ने अब अनुसरण शुरू किया है? क्या किसी कर्तव्य के निर्वहन को सत्य के अनुसरण में गिना जा सकता है? यह एक प्रकार का सहयोग ही है, लेकिन सत्य का अनुसरण प्राप्त करने और सत्य का अनुसरण गिने जाने के संबंध में यह अभी वहाँ नहीं है। यह महज व्यवहार का एक रूप है, एक प्रकार का क्रिया-कलाप—यह सत्य के अनुसरण का रवैया होना है। तो फिर कोई चीज सत्य का अनुसरण कैसे मानी जा सकती है? तुम्हें सत्य को समझने से शुरू करना होगा। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लेते, अपने कर्तव्य को अनमने ढंग से करते हो, और मनमर्जी करते हो, कभी भी सत्य को नहीं खोजते या सत्य सिद्धांतों पर ध्यान नहीं देते, तो फिर क्या तुम सत्य को समझ सकोगे? अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो उसका अनुसरण कैसे कर सकते हो? क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) वे किस प्रकार के लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? वे बेवकूफ होते हैं। तो फिर तुम सत्य का अनुसरण कैसे करते हो? तुम्हें उसे समझने से शुरू करना चाहिए। क्या सत्य को समझना थका देने वाला होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। तुम उन परिवेशों से शुरू करो जिनके संपर्क में तुम आते हो, उन कर्तव्यों से शुरू करो जिनका तुम निर्वहन करते हो, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करो और प्रशिक्षण लो। ऐसा करना यह दर्शाता है कि तुमने सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। पहले, इन सिद्धांतों से खोजो, चिंतन करो, प्रार्थना करो और धीरे-धीरे प्रबोधन प्राप्त करो—जो प्रबोधन तुम प्राप्त करते हो, वही वह सत्य है जो तुम्हें समझना चाहिए। पहले अपने कर्तव्य निर्वहन से सत्य को खोजो, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का प्रयास करो। ये सभी चीजें वास्तविक जीवन से अलग नहीं की जा सकतीं : जीवन में जिन लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम मिलते हो, और वे मामले जो तुम्हारे कर्तव्य के दायरे में आते हैं। उन मामलों से शुरू करो, और सत्य सिद्धांतों की समझ हासिल करो—तब तुम जीवन-प्रवेश प्राप्त करोगे।

23 अक्तूबर 2019

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