प्रश्न 12: हमारे अधिकतर भाई-बहन यह नहीं समझते हैं कि: प्रभु यीशु के आगमन से पहले, फरीसी अक्सर आराधनालयों में दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या करते थे; वे लोगों के सामने खड़े हो कर प्रार्थना करते थे और लोगों की निंदा करने के लिए बाइबल के नियमों का उपयोग करते थे; वे बाहर से बड़े श्रद्धालु दिखाई देते थे उन लोगों की तरह जो बाइबल से कभी विश्वासघात नहीं करेंगे, परंतु, फरीसियों को प्रभु यीशु द्वारा शाप क्यों दिया गया? उन्होंने परमेश्वर का किन तरीकों से विरोध किया? उन्होंने अपना पाखंड किस प्रकार प्रदर्शित किया? उन पर परमेश्वर का कोप क्यों पड़ा?

उत्तर: जो लोग प्रभु में विश्वास रखते हैं जानते हैं कि प्रभु यीशु वास्तव में फरीसियों से घृणा करते थे और उन्होंने उनको शाप दिया था और उन पर सात संताप घोषित किये थे। यह प्रभु के विश्वासियों को इस बात की अनुमति देने में बहुत सार्थक है कि वे पाखंडी फरीसियों को समझें, उनके चंगुल और नियंत्रण से दूर हो जाएँ और परमेश्वर द्वारा उद्धार प्राप्त करें। वैसे, यह शर्मनाक है। कई विश्वासी फरीसियों के पाखंड के सार को नहीं समझ सकते हैं। वे यह भी नहीं समझते हैं कि प्रभु यीशु ने फरीसियों से इतनी घृणा क्यों की और उन्हें शाप क्यों दिया। आज हम इन समस्याओं के बारे में थोड़ी चर्चा करेंगे। फरीसी अक्सर आराधनालयों में दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या करते थे। वे अक्सर दूसरों के सामने प्रार्थना करते थे और लोगों की निंदा करने के लिए बाइबल के नियमों का उपयोग करते थे। बाहरी प्रेक्षकों को, वे बाइबल के श्रद्धालु पालक जैसे लगते थे। यदि ऐसा था, तब प्रभु ने उनसे इतनी घृणा क्यों की और उन्हें इतना शाप क्यों दिया? वास्तव में, मुख्य कारण यह है कि मूलसार में, वे पाखंडी थे जो परमेश्वर का विरोध करते थे। फरीसियों ने केवल धार्मिक अनुष्ठानों और नियमों का पालन करने की ही परवाह की थी; उन्होंने केवल बाइबल के नियमों और सिद्धांतों की व्याख्या की थी और परमेश्वर की इच्छा के बारे में किसी को नहीं बताया था, ना ही उन्होंने परमेश्वर के वचनों पर अमल करने या परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने पर ध्यान केंद्रित किया। वास्तव में, उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं को नज़रअंदाज़ किया था। उन्होंने जो कुछ भी किया वह पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं के विपरीत था। यही फरीसियों के पाखंड का मूलसार है। यही वो प्रमुख कारण है कि क्यों प्रभु यीशु उनसे घृणा करते थे और उनको शाप दिया था। प्रभु यीशु ने उनकी कलई खोल ने के समय ऐसा ही कुछ कहा, "तुम भी अपनी परम्पराओं के कारण क्यों परमेश्‍वर की आज्ञा टालते हो? क्योंकि परमेश्‍वर ने कहा है, 'अपने पिता और अपनी माता का आदर करना', और 'जो कोई पिता या माता को बुरा कहे, वह मार डाला जाए।' पर तुम कहते हो कि यदि कोई अपने पिता या माता से कहे, 'जो कुछ तुझे मुझ से लाभ पहुँच सकता था, वह परमेश्‍वर को भेंट चढ़ाया जा चुका', तो वह अपने पिता का आदर न करे, इस प्रकार तुम ने अपनी परम्परा के कारण परमेश्‍वर का वचन टाल दिया। हे कपटियो, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यद्वाणी ठीक ही की है: 'ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं'" (मत्ती 15:3-9)। अब जबकि प्रभु यीशु ने फरीसियों की कलई खोल दी है, तो हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि हालांकि फरीसी अक्सर आराधनालयों में दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या करते थे, किंतु उन्होंने परमेश्वर का आदर या महिमामंडन कभी नहीं किया। उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं किया, और यहाँ तक कि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं को मनुष्यों की परंपरा से बदल डाला; वे परमेश्वर की आज्ञाओं के बारे में भूल गये। वे खुले आम परमेश्वर का विरोध करते थे। क्या यह इस बात का अखंडनीय प्रमाण नहीं है कि कैसे फरीसियों ने परमेश्वर की सेवा तो की मगर उनका विरोध भी किया? वे लोग परमेश्वर के श्रापों और घृणा से ग्रस्त होने से कैसे बच सकते थे? परमेश्वर की आज्ञाओं में स्पष्ट रूप से कहा गया है, "यह कि हत्या न करना।" "तू किसी के विरुद्ध झूठी साक्षी न देना।" परंतु फरीसियों ने परमेश्वर की आज्ञाओं को नज़रअंदाज किया। वे खुले आम झूठी गवाही देते थे और परमेश्वर द्वारा भेजे गए पैगम्बरों और धार्मिक लोगों की निंदा करते थे और उन्हें मार डालते थे; उन्होंने सीधे सीधे परमेश्वर का विरोध किया। इस लिए, प्रभु यीशु ने फरीसियों की निंदा की और उन्हें यह कहते हुए शाप दिया, "हे साँपो, हे करैतों के बच्‍चो, तुम नरक के दण्ड से कैसे बचोगे? इसलिये देखो, मैं तुम्हारे पास भविष्यद्वक्‍ताओं और बुद्धिमानों और शास्त्रियों को भेजता हूँ; और तुम उनमें से कुछ को मार डालोगे और क्रूस पर चढ़ाओगे, और कुछ को अपने आराधनालयों में कोड़े मारोगे और एक नगर से दूसरे नगर में खदेड़ते फिरोगे। जितने धर्मियों का लहू पृथ्वी पर बहाया गया है वह सब तुम्हारे सिर पर पड़ेगा" (मत्ती 23:33-35)। फरीसियों ने कट्टरता से परमेश्वर का विरोध किया और उनके द्वारा भेजे गए पैगम्बरों और धर्मी लोगों को मार डाला। उन्होंने परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने और उनकी इच्छा को पूरा होने से रोकने का प्रयास किया! उन्होंने गंभीर रूप से परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित किया। तो वे उनके द्वारा श्रापित होने से कैसे बाख सकते थे?! फरीसियों ने जो कुछ किया क्या वह तथ्य था, क्यों नहीं था क्या? क्या हम फरीसियों के पाखंडी मूलसार और व्यवहार को देखने में असमर्थ हैं?

फरीसी बाहर से बड़े श्रद्धालु दिखाई देते थे, किंतु उनका सार कपटी और धूर्त था,वे दूसरों के आगे ढोंग और छल करने में निपुण थे। यदि प्रभु यीशु ने उनके समस्त दुष्ट कर्मो का कच्चा चिठ्ठा न खोला होता, जिसमें विश्वासघात करना और परमेश्वर की आज्ञाओं का परित्याग करना शामिल था, तो हम फरीसियों के पाखंड के सार को देख पाने में सक्षम न होते। अब आइए हम प्रभु यीशु द्वारा फरीसियों के पर्दाफ़ाश और निंदा पर एक और नज़र डालें। मत्ती 23:23-24 "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम पोदीने, और सौंफ, और जीरे का दसवाँ अंश तो देते हो परन्तु तुम ने व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात् न्याय, और दया, और विश्‍वास को छोड़ दिया है; चाहिये था कि इन्हें भी करते रहते और उन्हें भी न छोड़ते। हे अंधे अगुवो, तुम मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो।" 27-28, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम चूना फिरी हुई कब्रों के समान हो जो ऊपर से तो सुन्दर दिखाई देती हैं, परन्तु भीतर मुर्दों की हड्डियों और सब प्रकार की मलिनता से भरी हैं। इसी रीति से तुम भी ऊपर से मनुष्यों को धर्मी दिखाई देते हो, परन्तु भीतर कपट और अधर्म से भरे हुए हो।" फरीसी दूसरों के सामने अत्यंत श्रद्धालु होने का ढोंग करते थे। वे जानबूझ कर आराधनालयों में और नुक्कड़ों में प्रार्थना करते थे। उपवास रखने पर वे जान बूझ कर अपने चेहरों पर दुःख के भाव लाते थे। वे अपने लबादों की लटकनों पर पवित्र वचन लिते थे। जब वे धर्मार्थ दान देते थे, तो वे ये सुनिश्चित करते थे की दूसरे लोग उन्हें ऐसा करते हुए देखें। वे सुनिश्चित किया करते थे कि वे पुदीने,जीरे और सौंफ़ के अपने दशमांश का भुगतान करना न भूलें। उन्होंने अनेक ऐतिहासिक नियमों तक का भी पालन किया जैसे कि, "तब तक खाना न खाएँ जब तक आप अपने हाथों को अच्छी तरह से ना धो लें" इत्यादि। फरीसियों ने कई छोटी-छोटी बारीकियों पर बहुत बारीकी से ध्यान दिया। परंतु, उन्होंने परमेश्वर की व्यवस्था की अपेक्षा अर्थात्, परमेश्वर से प्रेम करना, दूसरों से प्रेम करना, धार्मिक, दयालु और निष्ठावान बनना, जैसी जरूरतों का पालन नहीं किया। उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं का बिल्कुल भी पालन नहीं किया। वो केवल बाइबल के ज्ञान और धर्मशास्त्र संबंधी सिद्धांतों पर चर्चा करते थे। वे केवल धार्मिक अनुष्ठान करते थे और नियमों का पालन करते थे। यह उनके पाखंड और उस तरीके का चरम था जिससे वे लोगों को बेवकूफ बनाते थे। उनका व्यवहार हमें स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि फरीसियों ने जो कुछ भी किया वह दूसरों को धोखा देने और बाधित करने के प्रयासों का हिस्सा था। वे केवल स्वयं को स्थापित करने का प्रयास करते थे ताकि उनकी आराधना की जाए। वे केवल अपने पद और आजीविका को प्रबंधित करने और बनाए रखने को लेकर चिंतित थे। वे पाखंड और परमेश्वर का विरोध करने वाले झूठे मार्ग पर चल पड़े थे। यही वो कारण है कि परमेश्वर का उनका विरोध उनको शाप मिलने का कारण बना।

फरीसी सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के वचनों पर अमल करने या पमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने पर ध्यान नहीं दिया। वे केवल धार्मिक अनुष्ठान करने पर ध्यान देते थे और परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चलते थे। इसलिए, जब प्रभु यीशु कार्य करने और उपदेश देने आए, तो पाखंडऔर परमेश्वर के विरुद्ध शत्रुता की उनकी शैतानी प्रकृति का परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से पर्दाफ़ाश कर दिया गया। फरीसी बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और प्रभाव है। उन्होंने न केवल प्रभु यीशु के वचनों और कार्य के सार और स्रोत को खोजने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उन्होंने प्रभु यीशु पर द्वेषपूर्ण ढंग से प्रहार किया और उन्हें अपमानित किया; वे कहते थे कि प्रभु यीशु राक्षसों को राक्षसों के राजकुमार द्वारा भगा रहे हैं; उन्होंने प्रभु यीशु के कार्य को, जो कि परमेश्वर के अधिकार और प्रभाव से पूर्ण था, पागलपन कहा। उन्होंने पवित्र आत्मा के विरुद्ध ईशनिंदा का पाप किया, और परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित किया। फरीसियों ने न केवल स्वयं प्रभु यीशु की ईशनिंदा की और उन पर दोष लगाया, बल्कि उन्होंने प्रभु यीशु का विरोध और उनकी निंदा करने के लिए विश्वासियों को उकसाया और बहकाया। उन्होंने निष्ठावान लोगों को प्रभु द्वारा उद्धार से वंचित करवा दिया और उन्हें अपनी अंत्येष्टि -संबंधी वस्तुओं और पीड़ितों में तब्दील कर दिया। इसलिए, जब प्रभु यीशु ने उन्हें निंदित किया और शाप दिया, तो उन्होंने कहा, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो" (मत्ती 23:13)। "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक जन को अपने मत में लाने के लिये सारे जल और थल में फिरते हो, और जब वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो" (मत्ती 23:15)। इसलिए, हम देख सकते हैं कि फरीसी पाखंडी थे जिन्होंने परमेश्वर का विरोध और ईश निंदा की, वे मसीह विरोधी थे जो परमेश्वर के शत्रु बनकर खड़े थे। वो दुष्टों का एक दल था जो मनुष्यों की आत्माओं को निगल जाते और उन्हें नर्क में खींच लेते थे। इसलिए प्रभु यीशु ने फरीसियोंको उनके दुष्ट आचरण के कारण "सात संताप" देकर उनकी निंदा की। यह पूरी तरह से परमेश्वर की पवित्रता और धर्मी स्वभाव को दर्शाता है और जिसे अपमानित नहीं किया जा सकता।

फरीसियों के इस पाखंडी स्वभाव के बारे में अब हम थोडा समझ पाए हैं। चलिये अब आधुनिक युग के पादरियों और एल्डर्स पर नज़र डालते हैं। वे केवल बाइबल के ज्ञान का और धार्मिक विश्वास के सिद्धांतों की व्याख्या करते हैं। वे सिर्फ़ धार्मिक अनुष्ठान करते हैं और नियमों पर चलते हैं। वे न तो परमेश्वर के वचनों का पालन करते हैं, और न ही उनकी आज्ञाएं मानते हैं। वो फरीसियों के जैसे ही हैं, वे ऐसे रास्ते पर चलते हैं जहां वे सेवा तो करते हैं लेकिन परमेश्वर का विरोध भी करते हैं। उसने उससे कहा, "तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख" (मत्ती 22:37-39)। जिन्हें परमेश्वर से प्यार है, उन्हें उनके वचनों का पालन भी करना चाहिये और उनकी इच्छा का ध्यान भी रखना चाहिए। अपने भाई-बहनों के जीवन के प्रति जिम्मेदार रहेना चाहिए। अब पादरियों और एल्डर्स को सूनी पड़ी कलीसियों और विश्वासियों के कम होते विश्वास और प्रेम का सामना भी करना पड़ता है। उन्हें विश्वासियों के लिए जीवन का जीवंत जल नहीं मिलता। जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर सत्य व्यक्त्त करने और लोगों को जीवन देने आते हैं, तो वे उसे अस्वीकार कर देते हैं, वे न तो उस पर विचार करते हैं और न स्वीकारते हैं। वे विश्वासियों को सच्ची राह खोजने से रोकते हुए उनका विरोध और निंदा करते रहते हैं। वे विश्वासियों को न तो सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के लोगों से सम्पर्क साधने देते हैं,और न ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ने देते हैं। और सबसे बुरी बात तो ये है कि, वे हमारे उन भाई- बहनों को शाप देते हैं या फिर उन पर हमला करते हैं जो उनके राज्य का सुसमाचार फैलाते हैं। वो पुलिस बुलाकर उन्हें गिरफ़्तार तक करवा देते हैं। क्या वे अपने हर काम से बुरा नहीं कर रहे और परमेश्वर का विरोध नहीं कर रहे हैं? वे लोग जो भी कर रहे हैं, क्या वह फरीसियों के प्रभु यीशु के विरोध और निंदा के तरीके से अलग है? अपने पदों को और आजीविका के साधनों को बचाने के लिए, पादरी और एल्डर्स विश्वासियों को परमेश्वर के अंत के दिनों के उद्धार कार्य को, स्वीकार करने से रोकते हैं। क्या वे लोगों को नर्क में नहीं घसीट रहे हैं? क्या ये वही दुष्ट सेवक नहीं हैं जिनके बारे में प्रभु यीशु ने बताया था? क्या ये आधुनिक युग के फरीसी नहीं हैं?

"शहर परास्त किया जाएगा" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 11: पादरी युआन पर भी पहले सीसीपी ने उनके विश्वास के लिए अत्याचार किया था। मैंने कभी सोचा भी न था कि वे सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर का विरोध करने के लिए शैतान सीसीपी के साथ हाथ मिलायेंगे। क्या ये नीचता से परमेश्‍वर का विरोध करना नहीं हैं? ये पादरीगण और नेतागण इतने कपटी और दुर्भावनापूर्ण कैसे हो सकते हैं?

अगला: प्रश्न 13:बाइबल को पढ़ कर, हम सब जानते हैं कि यहूदी फरीसियों ने, प्रभु यीशु की निंदा की और उनका विरोध किया। लेकिन अधिकांश भाई-बहन अभी भी नहीं समझते हैं, कि जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य किया, तब फरीसियों को मालूम था कि उनके वचनों में अधिकार और प्रभाव है। फिर भी, उन्होंने कट्टरपन से प्रभु यीशु का विरोध और निंदा की। उन्होंने उनको सूली पर चढ़ा दिया। उन लोगों का स्वभाव और सार-तत्व कैसा था?

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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