प्रश्न 5: अनुग्रह के युग में परमेश्वर ने पाप की भेंट बनने और मनुष्य के पापों का बोझ अपने ऊपर लेने के लिए देह धारण की थी। इन सारी बातों का कोई कारण है। प्रभु यीशु को पवित्र आत्मा ने राजी किया था और वे अपने पापरहित शरीर में मानवजाति के छुटकारे के लिए मनुष्य के पुत्र बने। सिर्फ़ ऐसा करने की वजह से ही शैतान को नीचा दिखाया गया। अंत के दिनों में, परमेश्वर ने न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य के पुत्र के रूप में फिर से देह धारण की है। हमने इसे हकीकत के तौर पर देखा है। मैं यही पूछना चाहता था। परमेश्वर के दो देह धारण थोड़े अलग-अलग हैं, पहला यहूदिया में था, और दूसरा चीन में है। अब, ऐसा क्यों है कि मानवजाति को बचाने का कार्य करने के लिए परमेश्वर को दो बार देह धारण करना चाहिए? परमेश्वर के दो देहधारणों का असली महत्व क्या है?

उत्तर: ऐसा क्यों है कि परमेश्वर को मानवजाति को बचाने का कार्य करने के लिए दो बार देह धारण करना चाहिये? हमें पहले यह बात स्पष्ट होनी चाहिए: मनुष्य के उद्धार के संबंध में, परमेश्वर के दो देहधारणों का गहरा और अगाध अर्थ है। क्योंकि, चाहे हम छुटकारे की बात करें या फिर अंत के दिनों के न्याय एवं शुद्धिकरण की, उद्धार का कार्य मनुष्य के द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए परमेश्वर का देह धारण करना और अपना कार्य स्वयं पूरा करना आवश्यक है। अनुग्रह के युग में, परमेश्वर ने प्रभु यीशु के रूप में देह धारण की थी, यानी परमेश्वर की आत्मा ने अपने आपको एक पवित्र और पापरहित शरीर में प्रस्तुत किया था, और पाप की भेंट के रूप में काम करने के लिए उन्हें सूली पर लटका दिया गया था, जिसने मनुष्य को उसके पापों से छुटकारा दिलाया। हम सब इस बात को समझते हैं। लेकिन जहाँ तक अंत के दिनों में प्रभु यीशु की वापसी की बात है, उन्होंने प्रकट होकर कार्य करने के लिए मनुष्य के पुत्र के रूप में देह धारण क्यों किया? बहुत से लोगों को यह बात समझने में मुश्किल होती है। अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने सत्य के इस पहलू को नहीं समझाया होता और इस रहस्य पर से पर्दा नहीं हटाया होता, तो कोई भी इस सत्य को नहीं समझ पाता। आइये देखते है कि असल में सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने क्या कहा था।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "प्रथम देहधारण मनुष्य को पाप से छुटकारा देने के लिए था, उसे यीशु की देह के माध्यम से छुटकारा देने के लिए था, अर्थात् यीशु ने मनुष्य को सलीब से बचाया, किंतु भ्रष्ट शैतानी स्वभाव फिर भी मनुष्य के भीतर रह गया। दूसरा देहधारण अब पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए नहीं है, अपितु उन लोगों को पूरी तरह से बचाने के लिए है, जिन्हें पाप से छुटकारा दिया गया था। इसे इसलिए किया जा रहा है, ताकि जिन्हें क्षमा किया गया था, उन्हें उनके पापों से मुक्त किया जा सके और पूरी तरह से शुद्ध बनाया जा सके, और वे एक परिवर्तित स्वभाव प्राप्त करके शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो जाएँ और परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौट आएँ। केवल इसी तरीके से मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र किया जा सकता है। व्यवस्था के युग का अंत होने के बाद और अनुग्रह के युग के आरंभ से परमेश्वर ने उद्धार का कार्य शुरू किया, जो अंत के दिनों तक जारी है, जब वह मनुष्य की विद्रोहशीलता के लिए उसके न्याय और ताड़ना का कार्य करते हुए मानवजाति को पूरी तरह से शुद्ध कर देगा। केवल तभी परमेश्वर उद्धार के अपने कार्य का समापन करेगा और विश्राम में प्रवेश करेगा। इसलिए, कार्य के तीन चरणों में परमेश्वर स्वयं मनुष्य के बीच अपना कार्य करने के लिए केवल दो बार देह बना। वह इसलिए, क्योंकि कार्य के तीन चरणों में से केवल एक चरण ही मनुष्यों के जीवन में उनकी अगुआई करने के लिए है, जबकि अन्य दो चरणों में उद्धार का कार्य शामिल है। केवल देह बनकर ही परमेश्वर मनुष्य के साथ रह सकता है, संसार के दुःख का अनुभव कर सकता है, और एक सामान्य देह में रह सकता है। केवल इसी तरह से वह मनुष्यों को उस व्यावहारिक मार्ग की आपूर्ति कर सकता है, जिसकी उन्हें एक सृजित प्राणी होने के नाते आवश्यकता है। परमेश्वर के देहधारण के माध्यम से ही मनुष्य परमेश्वर से पूर्ण उद्धार प्राप्त करता है, न कि अपनी प्रार्थनाओं के उत्तर में सीधे स्वर्ग से। मनुष्य के शरीर और रक्त का होने के कारण, उसके पास परमेश्वर के आत्मा को देखने का कोई उपाय नहीं है, और उस तक पहुँचने का उपाय तो बिलकुल भी नहीं है। मनुष्य केवल परमेश्वर के देहधारी स्वरूप के संपर्क में ही आ सकता है, और केवल इस माध्यम से ही सभी मार्गों और सभी सत्यों को समझने में सक्षम हो सकता है, और पूर्ण उद्धार प्राप्त कर सकता है।" "जिस समय यीशु अपना कार्य कर रहा था, उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अनिश्चित और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा उसे दाऊद का पुत्र माना, और उसके एक महान नबी और उदार प्रभु होने की घोषणा की, जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया। कुछ लोग अपने विश्वास के बल पर केवल उसके वस्त्र के किनारे को छूकर ही चंगे हो गए; अंधे देख सकते थे, यहाँ तक कि मृतक भी जिलाए जा सकते थे। कितु मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का पता लगाने में असमर्थ रहा, न ही वह यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। ... इसलिए, उस चरण का कार्य पूरा हो जाने के बाद भी न्याय और ताड़ना का कार्य बाकी रह गया था। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाने और उसके परिणामस्वरूप उसे अनुसरण हेतु एक मार्ग प्रदान करने के लिए है। यह चरण फलदायक या अर्थपूर्ण न होता, यदि यह दुष्टात्माओं को निकालने के साथ जारी रहता, क्योंकि यह मनुष्य की पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने में असफल रहता और मनुष्य केवल अपने पापों की क्षमा पर आकर रुक जाता। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए गए हैं, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। किंतु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर बना रहने के कारण वह अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, और परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और उससे सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करवाता है। यह चरण पिछले चरण से अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया होने में सक्षम बनाता है; कार्य का यह चरण कहीं अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का पूर्णतः समापन किया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4))

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हम यह समझते हैं कि अनुग्रह के युग में परमेश्वर ने सिर्फ़ छुटकारे का कार्य करने के लिए पहली बार देह धारण की थी, मनुष्य को उसके पापों से छुटकारा दिलाने के लिए पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ गये, उनका उद्देश्य अभिशापों और नियमों के दंडों से लोगों को राहत देना था। हमें सिर्फ़ अपने पापों को स्वीकार कर पश्चाताप करने की ज़रूरत थी और हमारे पापों को माफ़ कर दिया जाता। तब हम भरपूर अनुग्रह और सत्‍य का आनंद उठा सकते। यह छुटकारे का कार्य है जो प्रभु यीशु ने किया था, और यही प्रभु में विश्वास के द्वारा बचाये जाने का सही अर्थ है। हमें प्रभु में हमारे विश्वास के द्वारा बचाया जाता है और हमारे पापों को क्षमा किया जाता है, लेकिन क्या हम वास्तव में अपने पापों से मुक्ति पा रहे हैं? हालांकि प्रभु यीशु ने हमारे पापों को क्षमा कर दिया, परंतु हम अभी तक अपने आपको पाप के बंधन से मुक्त नहीं कर पाये हैं, क्योंकि हम अभी भी अपनी पापी प्रकृति और शैतानी स्वभाव में ग्रस्त हैं। हालांकि हमने प्रभु के समक्ष अपने पापों को स्वीकार कर लिया है और उनसे क्षमा पा चुके हैं, फिर भी हमें हमारे पापी स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है, और यहाँ तक कि हम हमारे भ्रष्ट स्वभाव के बारे में भी नहीं जानते, यह एक ऐसी स्थिति है जो पाप से कहीं ज़्यादा गंभीर है। हम सिर्फ़ अपने अंदर अराजकता के पाप को पहचान पाने में सक्षम हैं, और जिसके परिणाम स्वरूप हमारी अंतरात्मा पर दोष लगता है। लेकिन हम गहरे पापों, जैसे परमेश्वर के विरोध के पाप को पहचान पाने में विफल रहते हैं। उदाहरण के लिए, हमें परमेश्वर के प्रति हमारे प्रतिरोध की जड़ का कोई पता नहीं है या हम यह भी नहीं जानते कि हमारे शैतानी स्वभाव का स्वरूप क्या है, हमारा शैतानी स्वभाव कैसा होगा, शैतान के कौन से विष हमारे स्वभाव के अंदर समाहित हैं, मनुष्य का शैतानी दर्शन और शैतानी तर्क एवं नियम कहाँ से उत्पन्न होते हैं। तो ऐसा क्यों है कि मनुष्य को इन शैतानी चीज़ों का कोई ज्ञान नहीं है? यह देखते हुए कि मनुष्य के पापों को प्रभु यीशु ने क्षमा कर दिया है, तो वह अपने आपको पाप के बंधन से मुक्त क्यों नहीं कर सकता, और क्यों वह उन्हीं पापों को दोहराता रहता है? क्या अपने पापों को क्षमा कर दिए जाने के बाद मनुष्य सचमुच शुद्ध हो गया है? तो क्या वह सही अर्थों में पवित्र है? यह सचमुच एक व्यावहारिक विषय है जिसे अनुग्रह के युग में कोई भी समझ नहीं पाया। हालांकि प्रभु पर हमारे विश्वास में, हमारे पापों को क्षमा कर दिया गया है, फिर भी हम अनजाने में परमेश्वर का विरोध करते ‍हुए उनको धोखा देते हैं और पाप करते हैं। हम विश्वासियों को पहली बार इसका ज्ञान हुआ है। उदाहरण के लिए, प्रभु में विश्वास करने के बाद भी हम झूठ बोलते रहते हैं, अहंकारी हो जाते हैं, सत्य को तुच्छ मानते हैं और बुराई को कायम रखते हैं। हम अभी भी अभिमानी, विश्वासघाती, स्वार्थी और लालची हैं; हम असहाय होकर शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के चंगुल में फंस गये हैं। कई लोग प्रभु के लिए बिना थके काम करते हैं, लेकिन वे पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने की उम्मीद में ऐसा करते हैं। जब वे प्रभु की कृपा का आनंद उठाते हैं तो खुश होते हैं और प्रभु में अपने विश्वास को दृढ़ बनाये रखते हैं; लेकिन जैसे ही उनको आपदाओं का सामना करना पड़ता है या परिवार में कोई विपदा आती है, तो वे गलतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं, वे प्रभु पर आरोप लगाते हैं और यहाँ तक कि उनको अस्वीकार करते हैं और धोखा भी देते हैं। जैसे ही परमेश्वर का कार्य उनकी अवधारणाओं और भ्रांतियों के अनुरूप नहीं होता है, वे पाखंडी फरीसियों की तरह व्यवहार करने लगते हैं, परमेश्वर का विरोध और उनकी निंदा करते हैं। इससे यह पता चलता है कि भले ही हमने प्रभु यीशु के उद्धार को स्वीकार कर लिया और हमारे पापों को क्षमा कर दिया गया, इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने आपको पूरी तरह से पाप से मुक्त कर चुके हैं और अब पवित्र हो चुके हैं, इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम परमेश्वर के हो गये हैं और परमेश्वर ने हमें जीत लिया है। इसलिए, जब प्रभु यीशु अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए फिर से आते हैं, तो धार्मिक संसार के कई लोग परमेश्वर को परखने, उनकी निंदा और तिरस्कार करने के लिए आगे आते हैं, वे सार्वजनिक तौर पर उनको अपना विरोधी बताते हैं और एक बार फिर उनको सूली पर चढ़ा देते हैं। क्या जो सार्वजनिक तौर पर परमेश्वर की निंदा और विरोध करते हैं, उन लोगों को सिर्फ़ पापों को क्षमा कर दिये जाने के आधार पर स्वर्ग के राज्य में आरोहित किया जा सकेगा? क्या परमेश्वर इन शैतानी ताकतों को स्वर्ग के राज्य में आने की अनुमति दे सकते हैं, जो उनका विरोध करते हैं? क्या परमेश्वर इन मसीह विरोधियों, इन सत्य से घृणा करने वालों को स्वर्ग के राज्य में आरोहित करेंगे? नहीं! परमेश्वर पवित्र और धार्मिक हैं! जैसा कि आप लोग देख सकते हैं, भले ही प्रभु में हमारे विश्वास के माध्यम से हमारे पापों को क्षमा कर दिया गया है, फिर भी हम अपने आपको पूरी तरह से पाप से मुक्त नहीं कर पाये हैं, हम अपने आपको शैतानी प्रभाव से छुटकारा नहीं दिला पाये हैं, और ना तो परमेश्वर द्वारा हमें जीता गया है और ना ही हम परमेश्वर के हुए हैं। इसलिए, अगर हम मनुष्य अपने पापों से मुक्त होना चाहते हैं और शुद्धता प्राप्त करना चाहते हैं, परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से जीता जाना चाहते हैं, तो हमें परमेश्वर के दूसरे देह धारण के कार्य के द्वारा पूरी तरह से शुद्ध किया जाना और बचाया जाना आवश्यक है।

हम परमेश्वर के उद्धार कार्य को अत्‍याधिक सरलता से देखते हैं, मानो जैसे ही मनुष्य के पाप क्षमा होंगे, सभी समस्‍यायें समाप्‍त हो जायेंगी, और सिर्फ प्रभु के द्वारा स्वर्ग के राज्य में आरोहित किये जाने की प्रतीक्षा के अलावा और कुछ न रहेगा। भ्रष्ट मनुष्य कितना भोला और बचकाना है! भ्रष्ट मानवजाति की अवधारणाएं और भ्रांतियां कितनी हास्यास्पद हैं! क्या शैतान के द्वारा भ्रष्ट किये जाने के बाद, पाप मानवजाति के कष्टों का एकमात्र कारण था? मनुष्य के पाप की जड़ क्या है? पाप क्या है? क्यों परमेश्वर इससे घृणा करते हैं? आज तक, किसी को भी इसकी सही समझ नहीं है। मनुष्य को शैतान ने पूरी से भ्रष्ट कर दिया है, उसका भ्रष्टाचार किस स्तर तक है? किसी को भी स्पष्ट नहीं है। मनुष्य के संपूर्ण भ्रष्टाचार की वास्तविकता प्रभु यीशु के सूली पर चढ़ने के दौरान स्पष्ट हो गई थी। यह तथ्य कि मनुष्य इतने सत्‍य व्‍यक्‍त करने वाले दयालु प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ा सकता है, सही मायनों में दिखाता है कि मनुष्य शैतान का वंशज, शैतान का कुनबा बन गया था, और उसने अपनी मानवता को पूरी तरह से खो दिया था, उसके पास तर्क या विवेक का ज़रा सा भी अंश नहीं बचा था। मनुष्यों के बीच किसके पास अभी भी सामान्य मानवता है? क्या परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध और शत्रुता से यह पता नहीं चलता है कि मनुष्य उस जगह पर आ पहुंचा है जहां या तो परमेश्‍वर हों या मनुष्‍य। जहां वह परमेश्वर का कट्टर विरोधी बन गया है? क्या यह समस्या वास्तव में उसके पापों को क्षमा करने से हल हो सकती है? कौन इस बात का भरोसा दे सकता है कि उनके पापों को क्षमा कर दिये जाने के बाद, मनुष्य परमेश्वर का विरोध नहीं करेगा या उनको अपना शत्रु नहीं मानेगा? कोई इसका भरोसा नहीं दे सकता! मनुष्य के पापों को क्षमा किया जा सकता है, लेकिन क्या परमेश्वर मनुष्य के स्वभाव को क्षमा कर सकते हैं? ऐसा स्वभाव जो परमेश्वर का प्रतिरोधी है? क्या परमेश्वर मनुष्य के अंदर भरे शैतानी स्वभाव को क्षमा कर सकते हैं? तो फिर, परमेश्वर इन चीज़ों के शैतान से जुड़े होने का समाधान कैसे करते हैं? बेशक, परमेश्वर न्याय और ताड़ना का उपयोग करते हैं। यह कहना सही है कि परमेश्वर के धार्मिक न्याय और ताड़ना के बिना, भ्रष्ट मनुष्य को जीता नहीं जा सकेगा, यहाँ तक कि वे गहरे अपमान में जमीन पर गिर जायेंगे। यही मुख्य कारण है कि क्यों परमेश्वर को न्याय का कार्य करने के लिए देह धारण करना आवश्‍यक है। ऐसे कई लोग हैं जो अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए परमेश्वर के देहधारी होने के संबंध में सवाल करते हैं और धारणाएं रखते हैं। ऐसा क्यों है? इसका कारण यह है कि वे मनुष्य के संपूर्ण भ्रष्टाचार की वास्तविकता को देखने में असमर्थ हैं। इसलिए, इसके परिणाम स्वरूप, उनको अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य के अर्थ की ज़रा सी भी समझ नहीं है। वे अपनी धारणाओं पर डटे रहते हैं, और सही मार्ग की खोज और जाँच करने में नाकाम होते हैं। इस तरह, वे परमेश्वर के कार्य को कैसे स्वीकार कर सकते हैं और कैसे उनका आज्ञापालन कर सकते हैं?

हम मनुष्य परमेश्वर के दो देहधारणों के महत्व की अगाध गहराई को नहीं समझ सकते। इसलिए, इस सवाल पर कि क्यों परमेश्वर ने दो बार देह धारण की और दो देहधारणों का क्या अर्थ है, सत्य के इस पहलू को जानने के लिए, आइये हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के दो अंशों को पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "देहधारण की महत्ता यह है कि एक साधारण, सामान्य मनुष्य स्वयं परमेश्वर का कार्य करता है; अर्थात्, परमेश्वर मानव देह में अपना दिव्य कार्य करके शैतान को परास्त करता है। देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है। ... उसका सामान्य मानवता से युक्त होना इस बात को सिद्ध करता है कि वह शरीर में देहधारी हुआ परमेश्वर है; उसका सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से गुज़रना दिखाता है कि वह एक सामान्य देह है; इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वह परमेश्वर का वचन है, परमेश्वर का आत्मा है जिसने देहधारण किया है। अपने कार्य की आवश्यकताओं की वजह से परमेश्वर देहधारी बनता है; दूसरे शब्दों में, कार्य का यह चरण देह में पूरा किया जाना चाहिए, सामान्य मानवता में पूरा किया जाना चाहिए। यही 'वचन के देह बनने' के लिए, 'वचन के देह में प्रकट होने' के लिए पहली शर्त है, और यही परमेश्वर के दो देहधारणों के पीछे की सच्ची कहानी है।" "मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि देहधारण का अर्थ यीशु के कार्य में पूर्ण नहीं हुआ था? क्योंकि वचन पूरी तरह से देह नहीं बना था। यीशु ने जो किया वह देह में परमेश्वर के कार्य का केवल एक अंश ही था; उसने केवल छुटकारे का कार्य किया और मनुष्य को पूरी तरह से प्राप्त करने का कार्य नहीं किया। इसी कारण से परमेश्वर एक बार पुनः अंत के दिनों में देह बना है। कार्य का यह चरण भी एक सामान्य देह में किया जाता है; यह एक सर्वथा सामान्य मानव द्वारा किया जाता है, जिसकी मानवता अंश मात्र भी सर्वोत्कृष्ट नहीं होती। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर पूरी तरह से इंसान बन गया है; और वह ऐसा व्यक्ति है जिसकी पहचान परमेश्वर की है, एक पूर्ण मानव, एक पूर्ण देह की, जो कार्य को कर रहा है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन ने देह धारण के महत्व और रहस्य को प्रकट कर दिया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन को पढ़कर हम यह जानते हैं कि देह धारण का मतलब परमेश्वर की आत्मा का शरीर रूप धारण करना और स्वयं परमेश्वर का कार्य करने के लिए एक साधारण एवं सामान्य मनुष्य में बदल जाना है। देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता होनी चाहिए, उन्हें सामान्य मानवता के भीतर कार्य करना और बोलना चाहिए। यहाँ तक कि जब वे चमत्कार करते हैं, ऐसा सामान्य मानवता के भीतर रहकर किया जाना चाहिए। बाहरी स्वरूप में, देहधारी परमेश्वर सामान्य दिखाई देते हैं। वे एक सामान्य, औसत मनुष्य की तरह कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं। अगर उनमें सामान्य मानवता नहीं होती और वे अपनी सामान्य मानवता में कार्य नहीं करते, वे देहधारी परमेश्वर नहीं होते। देह धारण का मतलब है परमेश्वर की आत्मा का शरीर रूप धारण करना। वे सामान्य मानवता में सत्य को व्यक्त करते हैं और स्वयं परमेश्वर का कार्य करते हैं, मानवजाति को छुटकारा दिलाते और बचाते हैं। यही देह धारण का महत्व है। अब परमेश्वर के दो देहधारणों का क्या महत्व है? मुख्य रूप से इसका मतलब यह है कि परमेश्वर के दो देहधारणों ने देह धारण के महत्व को पूरा कर दिया है, "वचन देह में प्रकट होता है" के कार्य को पूरा कर दिया है और मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की प्रबंधन योजना को पूरा कर दिया है। यही परमेश्वर के दो देहधारणों का महत्व है। हम सभी को यह स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर के पहले देह धारण का उद्देश्य छुटकारे का कार्य करना और अंत के दिनों में न्याय के कार्य का मार्ग प्रशस्त करना था। तो, परमेश्वर के पहले देह धारण ने देह धारण के महत्व को पूरा नहीं किया था। परमेश्वर के दूसरे देह धारण का उद्देश्य अंत के दिनों में न्याय का कार्य करना और मानवजाति को शैतान के चंगुल से पूरी तरह से मुक्त करना है, ताकि मानवजाति को उसके शैतानी स्वभाव से मुक्त किया जा सके, शैतान के प्रभाव से आज़ाद किया जा सके जिससे कि वह परमेश्वर के पास लौट सके और परमेश्वर द्वारा जीता जा सके। अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मानवजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए संपूर्ण सत्य व्यक्त किया है, देहधारी परमेश्वर के सभी कार्यों को पूरा किया है, और उन सभी चीज़ों को व्यक्त किया है जिन्हें परमेश्वर को अपने देहधारी स्वरूप में व्यक्त करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही उन्होंने 'वचन देह में प्रकट होता है' का कार्य पूरा किया है। आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के अन्य दो अंश पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "परमेश्वर ब्रह्मांड को जीतने के लिए वचनों का उपयोग करेगा। वह ऐसा अपने देहधारी शरीर के द्वारा नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड के सभी लोगों को जीतने के लिए देहधारी हुए परमेश्वर के मुँह से कथनों के उपयोग द्वारा करेगा; केवल यही है वचन का देह बनना, और केवल यही है वचन का देह में प्रकट होना। शायद लोगों को ऐसा प्रतीत होता है, मानो परमेश्वर ने अधिक कार्य नहीं किया है—किंतु परमेश्वर को बस अपने वचन कहने हैं, और लोग पूरी तरह से आश्वस्त और स्तब्ध हो जाएँगे। बिना तथ्यों के, लोग चीखते और चिल्लाते हैं; परमेश्वर के वचनों से वे शांत हो जाते हैं। परमेश्वर इस तथ्य को निश्चित रूप से पूरा करेगा, क्योंकि यह परमेश्वर की लंबे समय से स्थापित योजना है : पृथ्वी पर वचन के आगमन के तथ्य का पूर्ण होना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सहस्राब्दि राज्य आ चुका है)। "कार्य का यह चरण ठीक-ठीक 'वचन देह बनता है' के आंतरिक अर्थ को पूरा करता है, 'वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था', को और गहन अर्थ देता है और तुम्हें इन वचनों पर दृढ़ता से विश्वास कराता है कि 'आरंभ में वचन था'। कहने का अर्थ है कि सृष्टि के निर्माण के समय परमेश्वर वचनों से संपन्न था, उसके वचन उसके साथ थे और उससे अभिन्न थे, और अंतिम युग में वह अपने वचनों के सामर्थ्य और उसके अधिकार को और भी अधिक स्पष्ट करता है, और मनुष्य को परमेश्वर के सभी तरीके देखने—उसके सभी वचनों को सुनने का अवसर देता है। ऐसा है अंतिम युग का कार्य। तुम्हें इन चीजों को हर पहलू से जान लेना चाहिए। यह देह को जानने का प्रश्न नहीं है, बल्कि इस बात का है कि तुम देह और वचन को कैसे जानते हो। यही वह गवाही है, जो तुम्हें देनी चाहिए, जिसे हर किसी को जानना चाहिए। चूँकि यह दूसरे देहधारण का कार्य है—और यह आख़िरी बार है जब परमेश्वर देह बना है—यह देहधारण के अर्थ को सर्वथा पूरा कर देता है, देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को पूरी तरह से कार्यान्वित और प्रकट करता है, और परमेश्वर के देह में होने के युग का अंत करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (4))। परमेश्वर के दो अवतार देहधारी परमेश्वर के सभी कार्यों को पूरा करते हैं, यानी, मनुष्य का पूर्ण उद्धार करने का परमेश्वर का कार्य इसलिए, भविष्य में परमेश्वर फिर से देहधारण नहीं करेंगे। तीसरी या चौथी बार कोई देहधारण नहीं होगा। क्योंकि परमेश्वर का देहधारी रुप में कार्य पहले ही पूरी तरह से पूर्ण हो गया है। इस कथन का यही मतलब है कि परमेश्वर देहधारण के महत्व को पूरा करने के लिए दो बार देहधारण कर चुके हैं।

परमेश्वर देहधारण के महत्व को पूरा करने के लिए दो बार देहधारण कर चुके हैं। जिन लोगों ने अभी तक अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य को अनुभव नहीं किया है, उनके लिए यह समझना मुश्किल है। जिन लोगों ने अनुग्रह के युग में सिर्फ़ छुटकारे के कार्य को अनुभव किया है, वे यह जानते हैं कि प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर हैं। लेकिन कुछ लोग यह समझते हैं कि प्रभु यीशु का कार्य सिर्फ़ छुटकारे तक ही सीमित था और उन्होंने 'वचन देह में प्रकट होता है' का कार्य पूरा नहीं किया। जिसका मतलब है कि, प्रभु यीशु ने देहधारी परमेश्वर के मानवजाति का पूर्ण उद्धार करने के पूर्ण सत्य को व्यक्त नहीं किया था। इसलिए प्रभु यीशु ने कहा था: "मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)। अब प्रभु यीशु मनुष्य के पुत्र के रूप में शरीर में लौट चुके हैं। वे अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं। वे यहाँ परमेश्वर के आवास से शुरू होने वाला न्याय का कार्य कर रहे हैं, वे यहाँ पूर्ण सत्य को व्यक्त कर रहे हैं जो मानवजाति को शुद्ध करेगा और बचाएगा, यही सत्य "वचन देह में प्रकट होता है" में निहित है। देहधारी परमेश्वर पहली बार परमेश्वर की पहचान के साथ पूरे ब्रह्मांड से, अपने वचनों की घोषणा करते हुए बोल रहे हैं। वे मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के विवरण की घोषणा करते हैं, वे परमेश्वर की इच्छा को, पूरी मानवजाति के प्रति उनकी माँगों को और मनुष्य के गंतव्य को व्यक्त करते हैं। आइये देखें कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर इसे कैसे समझाते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "यह कहना उचित है कि दुनिया के सृजन के बाद यह पहली बार है कि परमेश्वर ने समस्त मानवजाति को संबोधित किया है। इससे पहले परमेश्वर ने कभी भी इतने विस्तार से और इतने व्यवस्थित तरीके से सृजित मानवजाति से बात नहीं की है। निस्संदेह, यह भी पहली बार ही है कि उसने इतनी अधिक और इतने लंबे समय तक समस्त मानवजाति से बात की है। यह अभूतपूर्व है। इसके अलावा, ये कथन मानवता के बीच परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया पहला पाठ हैं जिसमें वह लोगों को उजागर करता है, उनका मार्गदर्शन करता, उनका न्याय करता, उनसे खुलकर बात करता है और वे ऐसे पहले कथन भी हैं जिनमें परमेश्वर अपने पदचिह्नों को, उस स्थान को जिसमें वह रहता है, परमेश्वर के स्वभाव को, परमेश्वर के स्वरूप को, परमेश्वर के विचारों को और मानवता के लिए अपनी चिंता से लोगों को रूबरू कराता है। यह कहा जा सकता है कि ये ही पहले कथन हैं जो परमेश्वर ने सृजन के बाद तीसरे स्वर्ग से मानवजाति के लिए बोले हैं और पहली बार ऐसा हुआ है कि परमेश्वर ने मानवजाति हेतु वचनों के बीच अपने हृदय की वाणी प्रकट करने और व्यक्त करने के लिए अपनी अंतर्निहित पहचान का उपयोग किया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, परिचय)। "ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं संसार में मनुष्यों का अंत करता हूँ, और इस समय से, मैं मनुष्यों के सामने अपने सम्पूर्ण स्वभाव को प्रकट करता हूँ, ताकि वे सभी लोग जो मुझे जानते हैं, और जो नहीं जानते, अपनी आँखों को तृप्त कर सकें और देखें कि मैं वास्तव में मनुष्यों के संसार में आ गया हूँ, पृथ्वी पर आ गया हूँ, जहाँ सभी चीज़ें गुणात्मक रूप से बढ़ती रहती हैं। मनुष्यों के सृजन के समय से यह मेरी योजना है, तथा मेरी एकमात्र 'स्वीकारोक्ति' है। तुम लोग अपना अखण्ड ध्यान मेरी प्रत्येक गतिविधि पर दो, क्योंकि मेरी छड़ी एक बार फिर मनुष्यों के, मेरा विरोध करने वालों के पास आती है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)

देहधारण के महत्व को पूरा करने के लिए परमेश्वर के दो देहधारणों के संबंध में, ऐसे लोग भी हैं जो इसे बिलकुल नहीं समझते, क्योंकि उनके पास अनुभव की कमी है। जब वे इसके बारे में सुनते हैं, तो वे बिलकुल समझ ही नहीं पाते। देहधारण का सत्य वास्तव में अथाह है, लोगों को इसे समझने के लिए बहुत सारे संवादों की ज़रूरत होती है। अब हम परमेश्वर के दो देहधारणों के दौरान किए गए कार्य को विस्तार से जानते हैं। परमेश्वर के पहले देहधारण के दौरान, उन्होंने छुटकारे का कार्य किया, कई चमत्कार प्रस्तुत किये। उन्होंने सिर्फ़ रोटी के पाँच टुकड़ों और दो मछलियों से पाँच हज़ार लोगों को भोजन कराया। उन्होंने सिर्फ़ एक वचन से हवा और लहरों को शांत कर दिया। उन्होंने लाज़र को पुनर्जीवित किया। इसके अलावा, प्रभु यीशु ने उपवास किया और चालीस दिनों तक जंगल में परीक्षा दी। वे समुद्र पर चले, आदि। क्योंकि प्रभु यीशु के शरीर ने चमत्कार किए थे, और हम मनुष्यों की नज़रों में उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया गया था, हालांकि प्रभु यीशु ने देह धारण किया था, तब भी उनमें अलौकिक तत्व मौजूद थे। वे औसत मनुष्य की तुलना में अलग थे, वे जहाँ भी दिखते वहां चमत्कार होते थे। इसके अलावा, प्रभु यीशु ने कार्य का सिर्फ़ एक चरण, छुटकारे का कार्य पूरा किया। उन्होंने सिर्फ़ छुटकारे के कार्य के सत्य को व्यक्त किया, मुख्य रूप से परमेश्वर के करुणा और प्रेम भरे स्वभाव को प्रकट करते हुए किया। उन्होंने न्याय और उद्धार के कार्य से सभी सत्यों को व्यक्त नहीं किया, और उन्होंने परमेश्वर के धार्मिक, पवित्र और निर्दोष स्वभाव के बारे में मनुष्यों को नहीं बताया। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि पहले देहधारण ने देहधारण के अर्थ को पूरा किया था। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "कार्य का जो चरण यीशु ने संपन्न किया, उसने केवल 'वचन परमेश्वर के साथ था' का सार ही पूरा किया : परमेश्वर का सत्य परमेश्वर के साथ था, और परमेश्वर का आत्मा देह के साथ था और उस देह से अभिन्न था। अर्थात, देहधारी परमेश्वर का देह परमेश्वर के आत्मा के साथ था, जो इस बात अधिक बड़ा प्रमाण है कि देहधारी यीशु परमेश्वर का प्रथम देहधारण था" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (4))। अंत के दिनों में परमेश्वर का देहधारण उनके पहले देहधारण से अलग है। दूसरे देहधारण में, परमेश्वर ने चमत्कार नहीं किये, वे बिलकुल भी अलौकिक नहीं हैं। बाहरी स्वरूप में, वे लोगों के बीच व्यावहारिक तरीके से और वास्तविक रूप में अपना कार्य करते और अपने वचन बोलते हुए, एक सामान्य और साधारण मनुष्य की तरह दिखते हैं। उन्होंने मनुष्य के न्याय, शुद्धिकरण और उसे पूर्ण करने के सत्य को व्यक्त किया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने परमेश्वर की प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों को उजागर किया है, और परमेश्वर के धार्मिक एवं पवित्र स्वभाव, परमेश्वर के अस्तित्व, परमेश्वर की इच्छा, और मनुष्यों से उनकी अपेक्षाओं को प्रकट किया है। इसके अलावा, उन्होंने परमेश्वर का विरोध करने वाली मनुष्य की शैतानी प्रकृति तथा भ्रष्ट स्वभावों को परखा और उसे उजागर किया है, और ऐसा करने में, उन्होंने प्रत्येक मनुष्य को उसकी अपनी श्रेणी में जीता, पूर्ण किया, उजागर किया और हटाया है। वह सारा सत्य जो अंत के दिनों में परमेश्वर मनुष्य को प्रदान करते हैं, उनके शरीर की सामान्य मानवता के अंदर व्यक्त किया गया है, इसके बारे में कुछ भी अलौकिक नहीं है। हम सिर्फ़ यही देखते हैं कि एक सामान्य मनुष्य अपनी बात बोल रहा है और अपना कार्य कर रहा है, लेकिन मसीह जो वचन बोलते हैं, वे सब सत्य हैं। उनमें अधिकार और सामर्थ्य है, वे मनुष्य को शुद्ध कर सकते और उसे बचा सकते हैं। मसीह के वचनों से, जो मनुष्य के भ्रष्टाचार के सत्य और सार को परखते और उजागर करते हैं, हम देखते हैं कि कैसे परमेश्वर अपनी समझ में मनुष्‍य की बिलकुल गहराई में प्रवेश करते हैं, कैसे परमेश्वर को मनुष्य की पूरी समझ है। मनुष्य को परमेश्वर के धार्मिक, पवित्र और निर्दोष स्वभाव का भी पता चलता है। मसीह की फटकार और सत्योपदेश से, हम मनुष्य के प्रति परमेश्वर की करुणा और चिंता को समझते हैं। मसीह के बोलने और कार्य करने के कई तरीकों से, हम परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता की सराहना करते हैं, हम मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर के कार्य के ईमानदार इरादों और मनुष्य के प्रति परमेश्वर के सच्चे प्रेम एवं उद्धार की सराहना करते हैं। उस तरीके से जिससे मसीह सभी लोगों, मामलों, चीज़ों से व्यवहार करते हैं, हम यह समझ पाते हैं कि कैसे परमेश्वर का आनंद, क्रोध, दुःख और खुशी सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकताएं हैं, और कैसे ये सभी परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति और परमेश्वर के जीवन के सार का प्राकृतिक स्वरूप हैं। मसीह के वचन और कार्य से, हम यह देखते हैं कि कैसे परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ और महान हैं और कैसे वे विनम्र और गुप्त हैं, हमें परमेश्वर के वास्तविक स्वभाव और सही चेहरे की सही समझ और ज्ञान होता है, जिसकी वजह से हमारे दिलों में सत्य की प्यास जन्म लेती है और परमेश्वर के लिए सम्मान उत्पन्न होता है, जिससे हम सही अर्थों में परमेश्वर को प्रेम करते हैं और उनका आज्ञापालन करते हैं। यही हमारे ऊपर परमेश्वर के दूसरे देहधारण के वचन और कार्य का प्रभाव है। परमेश्वर के दूसरे देहधारण के वचन और कार्य न केवल मनुष्य को यह समझने में मदद करते हैं कि परमेश्वर देहधारी होते हैं बल्कि उनको परमेश्वर का "वचन देह में प्रकट होता है" का सत्य भी समझ में आता है। परमेश्वर के वचन सभी चीज़ों को पूर्ण करते हैं। यह सामान्य, औसत शरीर सत्य की आत्मा का साकार रूप है। देहधारी परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन हैं! वे एकमात्र सच्चे परमेश्वर का प्रकटन हैं! सिर्फ़ सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रकटन और कार्य के साथ देहधारण का महत्व पूरा हुआ है!

आइये हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के अन्य दो अंश पढ़ते हैं, ताकि इस सत्य और रहस्य के प्रति हमारी समझ और भी स्पष्ट हो सके। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "कार्य का यह चरण ठीक-ठीक 'वचन देह बनता है' के आंतरिक अर्थ को पूरा करता है, 'वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था', को और गहन अर्थ देता है और तुम्हें इन वचनों पर दृढ़ता से विश्वास कराता है कि 'आरंभ में वचन था'..." (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (4))। "राज्य के युग के दौरान देहधारी परमेश्वर उन सभी लोगों को जीतने के लिए वचन बोलता है, जो उस पर विश्वास करते हैं। यह 'वचन का देह में प्रकट होना' है; परमेश्वर अंत के दिनों में इस कार्य को करने के लिए आया है, अर्थात् वह वचन के देह में प्रकट होने के वास्तविक अर्थ को संपन्न करने के लिए आया है। वह केवल वचन बोलता है, और तथ्यों का आगमन शायद ही कभी होता है। वचन के देह में प्रकट होने का यही मूल सार है, और जब देहधारी परमेश्वर अपने वचन बोलता है, तो यही वचन का देह में प्रकट होना और वचन का देह में आना है। 'आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था, और वचन देह बन गया।' यह (वचन के देह में प्रकट होने का कार्य) वह कार्य है, जिसे परमेश्वर अंत के दिनों में संपन्न करेगा, और यह उसकी संपूर्ण प्रबंधन योजना का अंतिम अध्याय है, और इसलिए परमेश्वर को पृथ्वी पर आना है और अपने वचनों को देह में प्रकट करना है। वह जो आज किया जाता है, वह जिसे भविष्य में किया जाएगा, वह जिसे परमेश्वर द्वारा संपन्न किया जाएगा, मनुष्य का अंतिम गंतव्य, वे जिन्हें बचाया जाएगा, वे जिन्हें नष्ट किया जाएगा, आदि-आदि—यह समस्त कार्य, जिसे अंत में हासिल किया जाना चाहिए, सब स्पष्ट रूप से कहा गया है, और यह सब वचन के देह में प्रकट होने के वास्तविक अर्थ को संपन्न करने के लिए है। प्रशासनिक आदेश और संविधान, जिन्हें पहले जारी किया गया था, वे जिन्हें नष्ट किया जाएगा, वे जो विश्राम में प्रवेश करेंगे—ये सभी वचन पूरे होने चाहिए। यही वह कार्य है, जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में मुख्य रूप से संपन्न किया जाता है। वह लोगों को समझवाता है कि परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत लोग कहाँ के हैं और जो परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत नहीं हैं वे कहाँ के हैं, उसके लोगों और पुत्रों का वर्गीकरण कैसे किया जाएगा, इस्राएल का क्या होगा, मिस्र का क्या होगा—भविष्य में, इन वचनों में से प्रत्येक वचन संपन्न होगा। परमेश्वर के कार्य की गति तेज हो रही है। परमेश्वर मनुष्यों पर यह प्रकट करने के लिए वचनों को साधन के रूप में उपयोग करता है कि हर युग में क्या किया जाना है, अंत के दिनों में देहधारी परमेश्वर द्वारा क्या किया जाना है, और उसकी सेवकाई, जो की जानी है, और ये सब वचन, वचन के देह में प्रकट होने के वास्तविक अर्थ को संपन्न करने के उद्देश्य से हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के इन अंशों को पढने के बाद, मुझे विश्वास है कि सभी को इस बात की थोड़ी और समझ हो गयी होगी कि कैसे परमेश्वर के दो देहधारण, असल में देहधारण के महत्व को पूरा करते हैं। अब हम सब इस सत्य से परिचित हैं कि मानवजाति के छुटकारे का परमेश्वर का कार्य देहधारण के कार्य के माध्यम से पूरा हुआ है। कार्य का जो चरण प्रभु यीशु ने पूरा किया, वह छुटकारे का कार्य था। उन्होंने जो सत्य व्यक्त किए, वे बहुत ही सीमित थे, इसलिए, प्रभु यीशु के कार्य का अनुभव करते हुए, परमेश्वर के बारे में हमारी जानकारी अब भी सीमित थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए आये हैं, और उन्होंने मनुष्य के भ्रष्टाचार के लिए परमेश्वर के धार्मिक न्याय के पूर्ण सत्य को व्यक्त किया है। यह मनुष्य को परमेश्वर के निहित स्वभाव को समझने और उनके धार्मिक एवं पवित्र सार को जानने में मदद करता है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारी परमेश्वर ने शरीर रूप में परमेश्वर के कार्य को पूरी तरह से संपन्न किया है। उन्होंने उस संपूर्ण सत्य को व्यक्त किया है जिसे परमेश्वर शरीर रूप में व्यक्त करना चाहते थे, जो "वचन देह में प्रकट होता है" के तथ्य को पूरा करता है। इसी तरह से परमेश्वर के दो देहधारण असल में देहधारण के अर्थ को पूरा करते हैं। परमेश्वर के दो देहधारण अपरिहार्य हैं, और एक-दूसरे के पूरक एवं समर्थक बनते हैं। इसलिए कोई भी यह नहीं कह सकता कि परमेश्वर सिर्फ एक बार देहधारण कर सकते हैं, या फिर यह कि वे तीन या चार बार देहधारण करेंगे। क्योंकि परमेश्वर के दो देहधारणों ने पहले ही मनुष्य को छुटकारा दिलाने के परमेश्वर के कार्य को पूरा कर दिया है, और मानवजाति को बचाने वाले संपूर्ण सत्य को व्यक्त किया है जिसे व्यक्त करना परमेश्वर के दो देहधारणों का उद्देश्य है। यानी, परमेश्वर के दो देहधारणों ने देहधारण के अर्थ को पूरा कर दिया है।

"भक्ति का भेद—भाग 2" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

पिछला: प्रश्न 4: आप लोग यह गवाही देते हैं कि देहधारी परमेश्वर, बाहरी स्वरूप में एक साधारण व्यक्ति की तरह दिखते हैं, स्वयं प्रभु यीशु की तरह, उनमें न सिर्फ़ सामान्य मानवता है, बल्कि उनमें दिव्यता भी है। इतना तो पक्का है। परमेश्वर के देहधारण की सामान्य मानवता और भ्रष्ट मनुष्य की सामान्य मानवता के बीच क्या अंतर है?

अगला: प्रश्न 6: बाइबल कहती है कि प्रभु यीशु का बपतिस्मा होने के बाद, स्वर्ग के द्वार खुल गए थे, और पवित्र आत्मा एक कबूतर की तरह प्रभु यीशु पर उतर आया था, एक आवाज ने कहा था: "यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ" (मत्ती 3:17)। और हम सभी विश्वासी मानते हैं कि प्रभु यीशु ही मसीह यानी परमेश्वर के पुत्र हैं। फिर भी आप लोगों ने यह गवाही दी है कि देहधारी मसीह परमेश्वर का प्रकटन यानी स्वयं परमेश्वर हैं, यह कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं और सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी स्वयं परमेश्वर हैं। यह बात हमारे लिए काफ़ी रहस्यमयी है और हमारी पिछली समझ से अलग है। तो क्या देहधारी मसीह स्वयं परमेश्वर हैं या परमेश्वर के पुत्र हैं? दोनों ही स्थितियां हमें उचित लगती हैं, और दोनों ही बाइबल के अनुरूप हैं। तो कौन सी समझ सही है?

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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