अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए

बहुत से लोगों को सिर्फ एक-दो साल या सिर्फ तीन से पाँच साल तक अपने कर्तव्यों को निभाने के बाद हटा दिया जाता है। इसका मुख्य कारण क्या है? यह कहा जा सकता है कि इसका मुख्य कारण यह है कि उन लोगों के पास जमीर या विवेक नहीं होता और उनमें मानवता की कमी होती है। वे लोग न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे विघ्न-बाधाएँ भी पैदा करते हैं, और वे बेपरवाही से अपने कर्तव्यों को निभाते हैं। वे कभी सत्य को नहीं सुनते, चाहे उनके साथ कैसी भी संगति की जाए, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे अनुपालन नहीं करते और विरोध करते हैं। अंत में उन्हें बाहर करने और हटाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। यह व्यवहार किस समस्या को दर्शाता है? अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए लोगों में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए; इनके बिना उनके लिए डटे रहना मुश्किल होगा। जिन लोगों के पास जमीर और विवेक नहीं होता, उनमें मानवता भी नहीं होती और वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, इसलिए परमेश्वर उन्हें बचा नहीं सकता और भले ही वे श्रम करें, वे पर्याप्त रूप से श्रम नहीं कर पाएँगे। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसके बारे में तुम्हें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए। जब तुम भविष्य में बिना जमीर और विवेक वाले लोगों का सामना करो—यानी ऐसे लोग जिन में मानवता नहीं है—तो तुम्हें जल्द से जल्द उन्हें हटा देना जाना चाहिए।

कुछ लोग अपने कर्तव्यों को निभाते समय बिल्कुल भी जिम्मेदारी से काम नहीं करते हैं, और हमेशा बेपरवाही करते हैं। हालाँकि वे जानते हैं कि समस्या क्या है, लेकिन फिर भी वे उसका समाधान तलाश नहीं करना चाहते, और वे लोगों को नाराज करने से डरते हैं, इसलिए वे अपने कामों में जल्दबाजी करते हैं, जिसका नतीजा यह निकलता है कि उन्हें वह काम दोबारा करना पड़ता है। चूँकि तुम इस कर्तव्य को निभा रहे हो, इसलिए तुम्हें ही इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम इस बात को गंभीरता से क्यों नहीं लेते हो? तुम इतने असावधान क्यों हो? और जब तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो तो क्या तुम अपनी जिम्मेदारियों में लापरवाही करते हो? चाहे प्राथमिक जिम्मेदारी कोई भी अपने सिर ले, लेकिन अपने आसपास बाकी चीजों पर नजर रखने के लिए सब जिम्मेदार हैं, हर किसी को यह बोझ उठाना चाहिए और हर किसी में जिम्मेदारी की यह भावना होनी चाहिए—लेकिन तुम लोगों में से कोई भी ध्यान नहीं देता, तुम सचमुच बेपरवाह हो, तुम में बिलकुल भी वफादारी नहीं है, तुम लोग अपने कर्तव्यों में लापरवाही करते हो! ऐसा नहीं है कि तुम लोग समस्या से अनजान हो बल्कि बात यह है कि तुम जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होते, और जब तुम कोई समस्या देखते हो, तो तुम इस मामले पर कोई ध्यान नहीं देना चाहते, तुम “काफी है” पर समझौता कर लेते हो। क्या इस तरह से बेपरवाही करना परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास नहीं है? यदि जब मैं तुम लोगों के साथ सत्य के बारे में काम करूँ और संगति करूँ, और मुझे लगे कि “काफी है” को स्वीकार किया जा सकता है, तो फिर तुम लोगों में से हर एक की काबिलियत और लक्ष्य के अनुरूप, तुम लोग आखिर उससे क्या हासिल कर सकते हो? यदि मेरा रवैया भी तुम लोगों जैसा होता, तो तुम लोग कुछ भी हासिल नहीं कर सकते थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? इसका एक पहलू यह है कि तुम लोग ईमानदारी से कुछ भी नहीं करते, और दूसरा पहलू यह है कि तुम लोगों में काबिलियत की बहुत कमी है, काफी सुन्न हो। इसका कारण यह है कि मेरी नजर में अपनी खराब काबिलियत के साथ तुम लोग बहुत सुन्न हो, और सत्य के प्रति प्रेम नहीं रखते, और सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, जिसके बारे में मुझे विस्तार से बताना चाहिए। मुझे हर बात स्पष्ट करके बतानी चाहिए, और अपने भाषण में उन्हें टुकड़े-टुकड़े करके बताना चाहिए, और हर पहलू से और हर तरह से इन चीजों के बारे में बात करनी चाहिए। केवल तभी तुम लोगों को कुछ समझ आएगा। यदि मैं तुम लोगों के साथ बेपरवाह होता, और अपनी मर्जी के मुताबिक किसी भी विषय पर बात करता, न उस पर विचार करता और न कष्ट उठाता, दिल से बात न करता, जब मेरा मन न होता तो न बोलता, तो तुम लोग क्या हासिल कर सकते थे? तुम लोगों की जितनी काबिलियत है, तुम लोग कभी भी सत्य को नहीं समझ पाते। तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाते, उद्धार पाना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, बल्कि मैं विस्तार से बताऊँगा। मुझे विस्तार में बात करनी होगी और हर तरह के व्यक्ति की स्थिति, सत्य के प्रति लोगों के रवैये और हर प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में उदाहरण देना होगा; तभी तुम लोग जान पाओगे कि मैं क्या कह रहा हूँ, और जो सुन रहे हो उसे समझ पाओगे। मैं चाहे सत्य के किसी भी पहलू पर संगति करूँ, मैं विभिन्न साधनों के माध्यम से बोलता हूँ, वयस्कों और बच्चों से उन्हीं की शैली में संगति करता हूँ, तर्क और कहानियों के रूप में बताता हूँ, सिद्धांत और अभ्यास का उपयोग करता हूँऔर अनुभवों की बात करता हूँ, ताकि लोग सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश करें। इस तरह, जिनमें क्षमता है और जिनके पास दिल है, उनके पास सत्य समझने, स्वीकारने और बचाए जाने का मौका होगा। लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति तुम लोगों का रवैया हमेशा अनमने बने रहने का और धीरे-धीरे काम करने का रहता है, और तुम्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि तुम्हारे कारण कितना विलंब हो रहा है। तुम समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज के लिये आत्म-चिंतन नहीं करते, तुम इस पर जरा भी विचार नहीं करते कि परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाना है। इसे अपने काम में लापरवाह होना कहते हैं। इस तरह तुम लोगों के जीवन का विकास बहुत धीमी गति से होता है लेकिन तुम्हें इस बात से परेशानी नहीं होती कि तुमने कितना समय बर्बाद कर दिया। वास्तव में, यदि तुम लोग अपना कर्तव्य ईमानदारी और जिम्मेदारी से निभाओ, तो तुम लोग पांच-छह साल में ही अपने अनुभवों की बात करने लगोगे और परमेश्वर की गवाही दोगे, और विभिन्न कार्य प्रभावशाली ढंग से किया जाएगा। लेकिन तुम लोग परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने को तैयार नहीं हो और न ही तुम सत्य पर चलने का प्रयास करते हो। कुछ चीजें हैं जिन्हें कैसे करना है यह तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम्हें सटीक निर्देश देता हूँ। तुम लोगों को सोचना नहीं है, तुम्हें बस सुनना है और काम शुरू कर देना है। बस तुम्हें इतनी-सी जिम्मेदारी उठानी है—पर तुम लोगों से यह भी नहीं होता है। तुम लोगों की वफादारी कहाँ है? यह कहीं दिखाई नहीं देती! तुम लोग सिर्फ कर्णप्रिय बातें करते हो। मन ही मन में तो तुम लोग जानते हो कि तुम्हें क्या करना चाहिए, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, इसके मूल में सत्य से प्रेम का अभाव है। दिल ही दिल में तुम लोग अच्छी तरह जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है—लेकिन तुम इसे अभ्यास में नहीं लाते। यह एक गंभीर समस्या है; तुम सत्य का अभ्यास करने के बजाय उसे घूरते रहते हो। तुम परमेश्वर के आगे समर्पण करने वाले इंसान बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें कम-से-कम सत्य खोजना चाहिए और उसका अभ्यास करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो फिर इसका अभ्यास कहाँ करोगे? और यदि तुम किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम छद्म-विश्वासी हो। यदि तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते—सत्य का अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते—और परमेश्वर के घर में बस निरुद्देश्य कार्य करते हो, तो असल में तुम्हारा मकसद क्या है? क्या तुम परमेश्वर के घर को अपना सेवानिवृत्ति का घर या खैरात घर बनाना चाहते हो? यदि ऐसा सोच रहे हो, तो यह तुम्हारी भूल है—परमेश्वर का घर मुफ्तखोरों और उड़ाने-खाने वाले लोगों के लिए नहीं है। जिन लोगों की मानवता अच्छी नहीं है, जो खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं, उन सबको साफ किया जाना चाहिए; जो छद्म-विश्वासी सत्य बिलकुल नहीं स्वीकारते, उन्हें हटा देना चाहिए। कुछ लोग सत्य समझते तो हैं लेकिन कर्तव्य निभाते हुए उसे अमल में नहीं ला पाते। समस्या देखकर भी वे उसका समाधान नहीं करते और भले ही वे जानते हों कि यह उनकी जिम्मेदारी है, तो वे उसे अपना सर्वस्व नहीं देते। जिन जिम्मेदारियों को तुम निभाने के काबिल होते हो, जब तुम उन्हें नहीं निभाते हो, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का क्या मूल्य या प्रभाव रह जाता है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना सार्थक है? अगर कोई व्यक्ति सत्य समझकर भी उस पर अमल नहीं करता, उन कठिनाइयों को सह नहीं पाता जो उसे सहनी चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभाने योग्य नहीं होता। कुछ लोग सिर्फ पेट भरने के लिए कर्तव्य निभाते हैं। वे भिखारी होते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे परमेश्वर के घर में कुछ काम करेंगे, तो उनके रहने और जीविका का ठिकाना हो जाएगा, बिना नौकरी के ही उनके लिए हर चीज की व्यवस्था हो जाएगी। क्या ऐसी सौदेबाजी जैसी कोई चीज होती है? परमेश्वर का घर आवारा लोगों की व्यवस्था नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सत्य का थोड़ा भी अभ्यास नहीं करता, और जो अपने कर्तव्य निर्वहन में लगातार लापरवाह रहता है और खुद को परमेश्वर का विश्वासी कहता है, तो क्या परमेश्वर उसे स्वीकारेगा? ऐसे तमाम लोग छद्म-विश्वासी होते हैं और जैसा कि परमेश्वर उन्हें समझता है, वे कुकर्मी होते हैं।

जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अपनी लाभ-हानि की गणना किए बिना स्वेच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण और विवेक पर निर्भर होना चाहिए और सच में प्रयास करना चाहिए। प्रयास करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने दिल में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करने वाला दिल है, तो तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यतः तुम अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में प्रयास करना कहते हैं। अब क्या तुम समझे? अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में बेमन से काम करते हो और परिणाम प्राप्त करने की बिलकुल भी प्रयास नहीं करते, तो तुम पाखंडी हो, भेड़ के वेश में एक भेड़िया हो। तुम लोगों को छल सकते हो, पर तुम परमेश्वर को बेवकूफ़ नहीं बना सकते। यदि कर्तव्य को करते समय, कोई सच्चा मूल्य न हो, तुम्हारी कोई निष्ठा न हो, तो यह मानक के अनुसार नहीं है। यदि तुम परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सचमुच प्रयास नहीं करते; यदि तुम हमेशा बिना मन लगाए काम करते हो और अपने कामों में लापरवाह रहते हो, उस अविश्वासी की तरह जो अपने मालिक के लिए काम करता है; यदि तुम केवल नाम-मात्र के लिए प्रयास करते हो, अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करते, किसी तरह हर दिन यूँ ही गुजार देते हो, उन समस्याओं को देखकर उनसे आँखें फेरते हो, परेशानी में फँसे लोगों के प्रति उदासीन रहते हो, और विवेक शून्य तरीके से हर उस बात को ख़ारिज करते हो जो तुम्हारे व्यक्तिगत लाभ की नहीं—तो क्या यह समस्या नहीं है? ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य कैसे हो सकता है? ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं; वे परमेश्वर के घर के नहीं हो सकते। परमेश्वर उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करता। तुम सच्चे हो या नहीं, तुमने प्रयास किया हो या नहीं, परमेश्वर इन बातों का हिसाब रखता है और इस बात को तुम भी अच्छी तरह जानते हो। तो क्या तुमने कभी सचमुच अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास किया है? क्या तुमने इसे गंभीरता से लिया है? क्या तुमने इसे अपना दायित्व, अपनी बाध्यता माना है? क्या तुमने इसकी जिम्मेदारी ली है? तुम्हें इन मामलों पर ठीक से विचार कर इन्हें जानना चाहिए, जिससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में जो समस्याएँ आ रही हैं, उन्हें दूर करना आसान हो जाएगा, यह तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद होगा। यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा गैर-जिम्मेदार बने रहोगे, और समस्याओं के पता लगने पर उनके बारे में अगुआओं और कर्मियों को नहीं बताओगे, न ही उन्हें अपने दम पर हल करने के लिए सत्य खोजोगे और यही सोचते रहोगे कि “परेशानी जितनी कम हो उतना अच्छा है,” हमेशा सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे जिओगे, अपने कर्तव्य को निभाते समय अनमने बने रहोगे, कोई निष्ठा नहीं रखोगे, काट-छाँट के समय सत्य नहीं स्वीकारोगे—यदि तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाओगे, तो तुम खतरे में हो; तुम श्रमिकों में से एक हो। श्रमिक परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं होते, बल्कि कर्मचारी, भाड़े के मजदूर होते हैं, जिन्हें काम समाप्त होते ही हटा दिया जाएगा और वे स्वाभाविक रूप से तबाही में जा गिरेंगे। परमेश्वर के घर के लोग अलग हैं; जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो यह धन के लिए या प्रयास करने या आशीषों के लिए नहीं होता। वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर के घर का सदस्य हूँ। जो मामले परमेश्वर के घर से सरोकार रखते हैं, वे मुझसे सरोकार रखते हैं। परमेश्वर के घर के मामले मेरे मामले हैं। मुझे अपना दिल परमेश्वर के घर में लगाना चाहिए।” इस वजह से वे हर उस मामले में अपना दिल लगाते हैं, जो परमेश्वर के घर से सरोकार रखता है, और उसकी जिम्मेदारी लेते हैं। वे हर उस चीज की जिम्मेदारी लेते हैं, जिसे वे सोच और देख सकते हैं। वे उन चीज़ों पर नज़र रखते हैं जिन्हें संभालने की ज़रूरत होती है, और वे मामले को दिल से लेते हैं। ये परमेश्वर के घर के लोग हैं। क्या तुम लोग भी ऐसे ही हो? (नहीं।) अगर तुम केवल दैहिक सुख-सुविधाओं के पीछे लालायित रहते हो, परमेश्वर के घर में ऐसी चीजें हैं जिन्हें संभालने की जरूरत है, तेल की बोतल गिरने पर उसे उठाते नहीं, और तुम्हारा दिल जानता है कि समस्या है लेकिन तुम उसेहल नहीं करना चाहते, तो तुम परमेश्वर के घर को अपना नहीं मानते। क्या तुम लोग ऐसे ही हो? अगर ऐसा है, तो तुम लोग इतने नीचे गिर गए हो कि तुममें और अविश्वासियों में कोई भेद नहीं है। अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम लोगों को परमेश्वर के घर के बाहर माना जाना चाहिए; तुम्हें किनारे करके हटा दिया जाना चाहिए। तथ्य यह है कि परमेश्वर अपने दिल में तुम लोगों को अपने परिवार के सदस्य मानना चाहता है, लेकिन तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते, और अपने कर्तव्य निभाने में हमेशा अनमने और गैर-जिम्मेदार रहते हो। तुम लोगपश्चात्ताप नहीं करते, चाहे सत्य के बारे में तुम्हारे साथ कैसे भी संगति की जाए। यह तुम लोग हो, जिन्होंने खुद को परमेश्वर के घर के बाहर रखा है। परमेश्वर तुम लोगों को बचाना और अपने परिवार के सदस्यों में बदलना चाहता है, लेकिन तुम लोग इसे स्वीकार नहीं करते। तो तुम लोग उसके घर के बाहर हो; तुम अविश्वासी हो। जो कोई सत्य का लेशमात्र भी नहीं स्वीकारता, उसे केवल वैसे ही सँभाला जा सकता है, जैसे किसी अविश्वासी को सँभाला जाता है। तुम ही हो, जिन्होंने अपना परिणाम और स्थिति स्थापित की है। तुमने उसे परमेश्वर के घर के बाहर स्थापित किया है। इसके लिए तुम्हारे अलावा और कौन दोषी है? मैंने देखा है कि बहुत से लोग बेजान जानवरों की तरह होते हैं : दिन-ब-दिन उन्हें केवल खाना और काम करना ही आता है, वे कभी भी परमेश्वर के वचन को नहीं खाते या पीते, और वे कभी भी सत्य पर संगति नहीं करते। वे इस जीवन में आध्यात्मिक मामलों के बारे में कुछ भी नहीं समझते, और हर समय अविश्वासियों की तरह जीते हैं; वे मनुष्य के भेस में छिपे हुए जानवर हैं। ऐसे लोग पूरी तरह से बेकार हैं, और उन्हें श्रम करने के लिए भी उपयोग नहीं किया जा सकता। वे रद्दी माल की तरह हैं, उन्हें हटा देना चाहिए और तुरंत कहीं दूर भेज देना चाहिए, और उनमें से किसी को भी रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जो लोग सच में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, और वे ऐसे लोग होते हैं जो इस बात की परवाह किए बिना समर्पण करते हैं कि उनके साथ सत्य पर संगति कैसे की गई है, या उनकी काट-छाँट कैसे की गई है; वे ऐसे लोग हैं जिनके पास यह विवेक है, और जो अपने कर्तव्य को निभाते समय बात सुनते हैं और समर्पण करते हैं। चाहे वे किसी भी कर्तव्य को निभा रहे हों, वे अपने ऊपर जिम्मेदारी लेने, कार्य को ठीक तरह से करने और इस काम को करने में सक्षम होते हैं। केवल इस प्रकार के लोग ही मानव कहलाने के योग्य हैं, और केवल यही लोग परमेश्वर के घर के सदस्य हैं। जो लोग श्रम करते हैं वे केवल मुफ्तखोर होते हैं, परमेश्वर उनका तिरस्कार करता है, वे भाई-बहन नहीं होते, और वे छद्म-विश्वासी होते हैं। यदि तुम उनके साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार करोगे तो तुम अंधे और मूर्ख हो। अब समय आ गया है कि हर किसी को अपनी तरह के समूह में रखा जाए। यह वह समय है जब परमेश्वर लोगों को बेनकाब करता है और उन्हें हटाता है। यदि तुम लोग परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो, तो तुम्हें सत्य का अच्छी तरह से अनुसरण करना चाहिए और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना चाहिए। यदि तुम इस बारे में अपनी अनुभवात्मक गवाही साझा कर सकते हो तो इस से साबित होता है कि तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, और यह कि तुम्हारे पास कुछ सत्य वास्तविकताएँ हैं। लेकिन यदि तुम अपनी कोई भी अनुभवात्मक गवाही साझा नहीं कर सकते, तो तुम एक श्रमिक हो और तुम्हारे हटाए जाने का खतरा है। यदि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो और जिम्मेदार और वफादार हो, तो तुम एक वफादार श्रमिक हो और तुम रह सकते हो। जो भी वफादार श्रमिक नहीं है, उसे हटा दिया जाएगा। इसलिए केवल अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने से ही तुम परमेश्वर के घर में अडिग रह सकते हो, और आपदा से बचाए जा सकते हो। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना बहुत महत्वपूर्ण है। कम से कम परमेश्वर के घर के लोग ईमानदार लोग हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के मामले में भरोसेमंद हैं, जो परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर सकते हैं, और वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। यदि लोगों में सच्ची आस्था, जमीर और विवेक नहीं है, और यदि उनमें परमेश्वर के प्रति डर मानने वाला दिल और समर्पण नहीं है, तो वे कर्तव्यों को निभाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, लेकिन ऐसा करते समय वे लापरवाही से काम लेते हैं। वे लोग श्रमिक हैं—ऐसे लोग जिन्होंने सच्चे दिल से पश्चात्ताप नहीं किया है। इस तरह के श्रमिकों को आज नहीं तो कल हटा दिया जाएगा। केवल वफादार श्रमिकों को ही बख्शा जाएगा। यद्यपि वफादार श्रमिकों के पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं होतीं, उनके पास जमीर और विवेक होता है, वे ईमानदारी से अपने कर्तव्यों को निभाने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर उन्हें बख्श देता है। जिनके पास सत्य वास्तविकताएँ होतीं हैं और जो परमेश्वर की शानदार गवाही दे सकते हैं, वे उसके लोग हैं, और उन्हें भी बख्श दिया जाएगा और उसके राज्य में लाया जाएगा।

फिलहाल अपने कर्तव्यों के प्रति तुम लोगों के दृष्टिकोण, काम करने में तुम्हारी दक्षता और तुम्हारे कर्तव्यों में तुम्हें मिलने वाले फल को देखें, तो तुम लोग अभी भी ठीक से अपने कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग बहुत बेपरवाह हो और तुम बहुत सारे काम लापरवाही से बिना किसी उत्साह के करते हो; तुम बहुत सारे मामलों में ध्यान नहीं देते, और विनियमों का पालन करने का बहुत दिखावा करते हो। इसका कारण क्या है? क्या इसका संबंध तुम्हारी काबिलियत और लक्ष्य से है? काबिलियत की कमी वाले लोग और अव्यवस्थित लोग इसी तरह से अपने कर्तव्य निभाते हैं, और जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे भी इसी तरह अपने कर्तव्य निभाते हैं। तो फिर तुम लोग वास्तव में किसका अनुसरण कर रहे हो? क्या तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हो? (नहीं।) यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हो। तुम सभी लोगों के वर्तमान आध्यात्मिक कद को देखते हुए तो यही लगता है कि चाहे सत्य के बारे में तुम्हारी समझ कितनी ही गहरी या सतही क्यों न हो, जितनी भी तुम्हें समझ है तुम्हें उसके मुताबिक अभ्यास करना चाहिए—क्या तुम्हारे लिए यह करना आसान है? तुम्हारे बाहरी वातावरण और व्यक्तिपरक कारकों के आधार पर तुम सब को यह करने में कुछ कठिनाइयाँ आ रही हैं। हालाँकि तुम लोग बुरे भी नहीं हो, तुम मसीह विरोधी नहीं हो, और तुम्हारी मानवता उतनी बुरी भी नहीं है। इसके अलावा बेशक तुम में से अधिकांश लोग औसत काबिलियत रखते हैं, लेकिन फिर भी तुम्हें सत्य समझ आ सकता है। इससे तय होता है कि सत्य का अनुसरण करना तुम लोगों के लिए ज्यादा कठिन नहीं होगा। कुछ गहरे सत्य तुम लोगों को समझ न भी आएँ, लेकिन यदि मैं उनके बारे में स्पष्ट रूप से और विस्तारपूर्वक बात करूँ तो तुम लोग उन्हें समझकर पकड़ पाओगे। चाहे तुम लोगों की समझ कितनी ही गहरी या सतही क्यों न हो, जब तक तुम सत्य को समझ रहे हो और जब तक तुम्हारे पास मार्ग है, तब तक तुम्हें पता होगा कि अभ्यास कैसे करना है। यह सत्य की खोज करने और इसका अभ्यास करने की एक बुनियादी शर्त है, और यह एक ऐसी शर्त है जिसे तुम सब लोग पूरा करते हो। इसके अनुसार तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। तो फिर तुम लोग अभी तक सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाए हो? क्या तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा है? कोई भी बाधा नहीं होना चाहिए, और तुम सभी लोगों को सत्य का अभ्यास करने और अपने कर्तव्यों के दायरे के अंतर्गत सिद्धांतों के अनुसार काम करने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हारे पास यह एक अद्भुत अवसर है लेकिन फिर भी तुम लोग इसे प्राप्त नहीं कर पा रहे? इस से क्या पता चलता है? सबसे पहले इससे पता चलता है कि तुम सत्य को पसंद नहीं करते और इसमें रुचि नहीं रखते। दूसरी बात, यह दर्शाता है कि तुम्हें इस चीज की सच्ची समझ नहीं है कि सत्य का अनुसरण और इसका अभ्यास कैसे करना है, और यह कि तुम में इस बात की भी ज्यादा समझ नहीं है कि सत्य का अभ्यास करने का अर्थ क्या है, सत्य का अभ्यास करने का महत्व और मूल्य क्या है, और सत्य का अभ्यास करना क्यों बहुमूल्य है। इन बातों को समझे बिना तुम सत्य में और सत्य का अभ्यास करने में दिलचस्पी के बगैर इन चीजों में बस भ्रमित रहते हो, और फिर भी तुम मन ही मन यही सोच रहे हो, “सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और सत्य का अभ्यास करने का क्या फायदा है?” तुम्हारे ऐसे विचारों से साबित होता है कि तुम सत्य की कीमत नहीं जानते, तुम ने अभी तक सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और सत्य का अभ्यास करने के फायदों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव नहीं किया है, और यह कि तुम्हें उनके महत्व का कोई एहसास नहीं है, इसलिए सत्य का अभ्यास करने में तुम्हारी रुचि नहीं है। बेशक तुम कुछ हद तक उपदेश सुनने में रुचि रखते हो और तुम्हारे अंदर थोड़ी जिज्ञासा भी है, लेकिन जब भी सत्य का अभ्यास करने की बात आती है, तो तुम ज्यादा रुचि नहीं दिखाते। कुछ लोग उपदेशों को सुनने और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए तो तैयार रहते हैं, और वे अपने कार्य करते समय सत्य का अभ्यास करने के लिए भी तैयार होते हैं, लेकिन जब सच में सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे पीछे रह जाते हैं। सांसारिक आचरण की उनकी प्राथमिकताएँ और फलसफे उभरकर सामने आ जाते हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो जाते हैं, जैसे आलस्य, आराम की हवस, धूर्तता और रुतबा पाने के लिए होड़। वे अपने कर्तव्यों के मामले में पूरी तरह से गैर जिम्मेदार होते हैं, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने मामले बिल्कुल नहीं सँभालते। वे केवल कड़ी मेहनत करते हैं और अपना काम करते हैं, और जब तक उन्हें कोई कष्ट नहीं होता वे संतुष्ट रहते हैं, और वे किसी भी मामले के बारे में विवेकशील नहीं होते। वे तब भी आत्म-चिंतन नहीं करते जब उन्हें पता होता है कि उन्होंने अपने कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभाया है, इसके बजाय वे बेपरवाह तरीके से अपने कर्तव्यों को निभाते रहते हैं। लंबी अवधि के दौरान वे सुस्त, मंद-बुद्धि बन जाते हैं और उदासीन हो जाते हैं। यह दशा एक श्रमिक की होती है।

बहुत से लोग कर्तव्य निभाना चाहते हैं और कुछ उन्हें निभाने के लिए तैयार भी होते हैं, लेकिन उन सभी को सत्य का अभ्यास करना इतना कठिन क्यों लगता है? वे उन सत्यों का भी अभ्यास क्यों नहीं कर पाते जिन्हें वे भली-भांति समझते हैं? आखिर यहाँ क्या चल रहा है? क्या तुम लोगों को लगता है कि सत्य का अभ्यास करना कठिन है? (नहीं।) तो फिर तुम लोग इसका अभ्यास क्यों नहीं कर पा रहे? (हमें सत्य पसंद नहीं है।) सत्य को पसंद न करने का संबंध किससे है? (मनुष्य की प्रकृति से।) इसका संबंध मनुष्य की मानवता और प्रकृति से है। जिन लोगों में मानवता नहीं होती, उनका कोई जमीर या विवेक भी नहीं होता, इसलिए वे सत्य से प्रेम नहीं कर सकते और उन्हें लगता है कि इसका कोई ज्यादा उपयोग नहीं है। उनका यह भी मानना होता है कि यदि वे सत्य का अभ्यास करेंगे तो उनका नुकसान होगा और केवल मूर्ख लोग ही ईमानदार बनते हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण करने की कोई जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग दूसरों से नाराज हो जाते हैं, तो वे सोचने लगते हैं, “मुझे इससे बदला लेने के लिए कुछ करना होगा और उसे दिखाना होगा कि मैं कितना क्रूर हूँ।” जब उनके दिल में ऐसा विचार आ जाता है, तो क्या उन्हें इस पर अमल करना जरूरी होता है? लोगों के दिलों में बुरे विचार इसलिए पैदा होते हैं क्योंकि उनकी प्रकृति उन पर हावी होती हैं, लेकिन क्या सभी लोग इन विचारों पर कार्य करते हैं और उन पर ध्यान देते हैं? (हर बार ऐसा नहीं होता।) कितनी अलग-अलग परिस्थितियां होती हैं? (कभी-कभी स्थिति इसकी अनुमति नहीं देती है, इसलिए लोग अपने बुरे विचारों पर अमल नहीं कर पाते। वैसे यह भी हो सकता है कि उनके पास जमीर और विवेक हो और वे जानते हों कि उनके विचार बहुत बुरे हैं, और इसलिए वे सचेत रूप से खुद को नियंत्रित करते हैं।) हाँ, कुछ लोग अपने बुरे विचारों पर ध्यान देते हैं और जैसे ही उन्हें उचित अवसर मिलता है, वे खुद को संतुष्ट करने के लिए उनके अनुसार कार्य करते हैं—ये लोग बुरे होते हैं। चाहे एक बुरे व्यक्ति के दिमाग में कैसा भी बुरा विचार हो, उन्हें हमेशा यही लगता है कि उनके विचार सही हैं, और वे हमेशा इसको वास्तविकता में बदलने के अवसर की तलाश करना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने बुरे विचारों पर कार्रवाई करते हैं, और अपने मन की बुराई को वास्तविकता में बदल देते हैं। वे अतार्किक हैं, वे संयम नहीं बरतते, और वे खुद को नियंत्रित करने के लिए अपने जमीर का उपयोग नहीं करते, और न ही वे अपने कार्यों की उपयुक्तता या परिणामों या उनके द्वारा खुद पर या दूसरों पर पड़ने वाले प्रभाव या होने वाले नुकसान का मूल्यांकन करने के लिए आत्म-चिंतन ही करते हैं। वे इन बातों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं देते। वे अपनी मर्जी से कुछ भी करते हैं और फिर यह भी मानते हैं कि : “वैसे ही वास्तविक मनुष्य को क्रूर होना चाहिए। लोगों को बुरा और क्रूर होना चाहिए क्योंकि यदि वे क्रूर नहीं होंगे तो हर कोई उन्हें तंग करेगा, लेकिन एक बुरे व्यक्ति से हर कोई डरता है।” जितना अधिक वे इस बारे में सोचते हैं, उतना ही उन्हें विश्वास होता जाता है कि ऐसी सोच रखना बिलकुल सही है, और फिर वे इसके अनुसार कार्य करते हैं। क्या ऐसे व्यक्ति का रवैया तर्क शक्ति और जमीर द्वारा नियंत्रित होता है? (बिलकुल नहीं।) इस पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं होता। एक अन्य प्रकार के व्यक्ति को भी इस तरह के विचार आते हैं लेकिन जब उन्हें ऐसे विचार आते हैं तो वे अपनी हताशा को बाहर निकालने के लिए चीजों को तोड़-फोड़ सकते हैं, पर जब कार्य करने का समय आता है, तो वे अपने विचारों को कार्रवाई में नहीं बदलते। वे कार्रवाई क्यों नहीं करते? (क्योंकि उनका जमीर और विवेक उन्हें बुरे कर्म करने से रोक सकता है।) उनके पास जमीर और विवेक होता है और साथ ही सही और गलत को समझने की क्षमता होती है और वे तय कर सकते हैं : “मैं इस तरह कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि इससे मुझे भी और दूसरों को भी नुकसान होगा। मुझे प्रतिशोध का भी सामना करना पड़ सकता है!” वे इस बात का फैसला करने में सक्षम होते हैं कि उनके विचार सही हैं या गलत, या अच्छे हैं या बुरे। गुस्सा शांत होने के बाद वे सोचेंगे : “जहाँ तक संभव हो, मुझे नरमी बरतनी चाहिए। कोई बात नहीं; मैं भविष्य में उस व्यक्ति के साथ बात ही नहीं करूँगा। मैं इस घटना से सबक सीखूँगा और भविष्य में फिर से धोखा न खाने की कोशिश करूँगा। मुझे बदला लेने की कोई जरूरत नहीं है।” इसके बाद वे खुद को संयमित रखेंगे। यह “संयम” किस चीज पर आधारित होता है? इसकी नींव उनके पास जमीर और तर्क शक्ति पर आधारित होती है, जो यह निर्धारित करने की क्षमता है कि क्या सही है और क्या गलत है, जो उनके आचरण और उनकी पसंद और झुकाव के लिए आधार रेखा है। उनका किस चीज में झुकाव होता है? उन्हें बुराई का बदला बुराई से लेने की तरफ कोई झुकाव नहीं होता, बल्कि वे बुरी चीजें और बुरे काम करने से बचते हैं, इसलिए वे अंततः खुद को नियंत्रित करने का फैसला करते हैं, और अपने विचारों के आधार पर कार्रवाई नहीं करते। वे गुस्सा भी होते हैं और अपने गुस्से में वे कुछ क्रूर चीजें भी करना चाहते हैं या कुछ क्रूर भी कहना चाहते हैं। लेकिन जब कार्रवाई का समय आता है, तो वे पीछे हट जाते हैं, खुद को रोक लेते हैं और कोई कार्रवाई नहीं करते। बुराई केवल उनके विचारों के दायरे तक ही सीमित रहती है, और कार्रवाई या तथ्य नहीं बन पाती। इन दोनों प्रकार के लोगों के दिल में बुरे विचार आते हैं, तो फिर प्रकृति के संदर्भ में इस व्यक्ति में और उसमें क्या अंतर है जिसका उल्लेख पहले किया गया था, यानी जो अपने बुरे विचारों के अनुसार कार्रवाई करता है? (इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति बहुत नेक होती है, इसलिए उन्हें बुरे विचार नियंत्रित नहीं कर सकते।) इन दोनों प्रकार के लोगों की प्रकृति में एक अंतर होता है। जब कुछ लोगों की आलोचना की जाती है, पर्दाफाश किया जाता है या जब दूसरे उनकी काट-छाँट करते हैं तो वे घृणा, अवज्ञा और असंतोष से भर जाते हैं, और वे प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाते हैं। हालाँकि दूसरी तरह के लोग इन परिस्थितियों का सही और तर्कसंगत ढंग से सामना कर सकते हैं, वे जो कहा गया था अगर वह सच है तो उसे स्वीकार कर सकते हैं, और फिर वे इससे सबक भी सीख सकते हैं, वे समर्पण और स्वीकृति का रवैया अपनाते हैं। इन दोनों में से किस प्रकार के लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (वे जिनके पास जमीर है और जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि ऐसे व्यक्ति में थोड़ा बहुत जमीर होता है? (क्योंकि उनके जमीर का उन पर भी प्रभाव पड़ता है, यह उनके बुरे विचारों को नियंत्रित करता है।) हाँ, यही हो रहा है। उन पर उनके जमीर का प्रभाव पड़ रहा है, यह उन्हें नियंत्रित कर रहा है, उनका मार्गदर्शन कर रहा है, और उनके विचारों को तर्कसंगत बना रहा है; इसका प्रभाव पड़ता है। क्या दूसरे प्रकार के व्यक्ति के जमीर का भी कोई प्रभाव पड़ता है? नहीं पड़ता; इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे लोग बस कभी-कभार इस पर कुछ विचार कर लेते हैं, लेकिन फिर बाद में वे सामान्य रूप से अपने कार्य में लग जाते हैं। उनका जमीर सजावट से ज्यादा कुछ नहीं होता, और प्रभावी रूप से इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इनमें से किस प्रकार के लोगों में अपेक्षाकृत मानवता होती है? (वह जिनके जमीर और विवेक का उन पर प्रभाव पड़ता है।) जिन लोगों पर उनके जमीर का प्रभाव पड़ता है, वे सही और गलत को समझने की क्षमता रखते हैं और अपने बुरे कर्मों को नियंत्रित कर सकते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है, और सत्य के अनुसरण को हासिल कर सकता है। जब तुम कुछ लोगों को अच्छे काम करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालने के लिए कहते हो, तो उनके जमीर का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे वह नहीं करते जो उन्हें सही लगता है, इसके बजाय वे बस वही करते हैं जो उनका दिल करता है। वे गपशप करने, दूसरों पर निर्णय देने, दूसरों की चापलूसी या उनके तलवे चाटने के लिए तैयार होते हैं, और वे यह सब कुछ बिना किसी हिचकिचाहट के करते हैं। तुम लोग किस प्रकार के व्यक्ति हो? (मुझे लगता है कि मैं चापलूस व्यक्ति हूँ।) क्या चापलूस व्यक्ति अपने जमीर और तर्क शक्ति के नियंत्रण में होते हैं? क्या वे सही और गलत के बीच अंतर बता सकते हैं? (मुझे लगता है कि चापलूस व्यक्ति बेशक यह तो बता सकते हैं कि कौन सही है और कौन गलत है, लेकिन उनमें न्याय की भावना की कमी होती है, वे कलीसिया के काम की रक्षा नहीं करते और इसकी तुलना में वे गंभीर स्तर के शैतानी फलसफों के असर में ज्यादा होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई मुझसे किसी चीज के बारे में पूछता है, और अगर मैं किसी ऐसे व्यक्ति का जिक्र करता हूँ जो वहाँ मौजूद नहीं है, तो मैं ईमानदारी से बात कर सकता हूँ, लेकिन अगर वे वहाँ मौजूद हैं तो मैं पीछे हट जाता हूँ, और उतना खुल कर बात नहीं करता।) वैसे तो बहुत से लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं या उसका अनुसरण नहीं करते, लेकिन फिर भी वास्तव में उन्हें अपनी विभिन्न अवस्थाओं की कुछ समझ जरूर होती है। फिलहाल इस बारे में भूल जाओ कि अभी इस समय तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं, या सत्य का अभ्यास कर सकते हो या नहीं; सबसे पहले, धीरे-धीरे अपनी उन भ्रष्ट अवस्थाओं को सुधारने और बदलने की कोशिश करो जिनकी तुम पहचान कर सकते हो। इस प्रकार तुम धीरे-धीरे सही रास्ते पर आ जाओगे। सबसे पहले उन चीजों को बदलने से शुरुआत करो जिनके बारे में तुम्हें पता है—इसका मतलब है, वे चीजें जिन्हें तुम्हारा जमीर और तर्क शक्ति समझ सकती है, या फिर गलत अवस्थाएँ, बयान, विचार और दृष्टिकोण जिन्हें तुम्हारा दिमाग समझ और पहचान सकता है—इन चीजों को बदलने से शुरू करो जिन्हें तुम समझ सकते हो। अगर तुम पहले इन चीजों को बदल पाते हो तो तुम्हें काफी कुछ प्राप्त होगा। कम से कम तुम एक ऐसे व्यक्ति तो बन जाओगे जिसके पास जमीर और विवेक है, तुम तर्कसंगत ढंग से कार्य करोगे, तुम अपनी गलत अवस्थाओं को समझने में सक्षम होगे, और तुम सत्य की ओर प्रयास कर सकोगे। इस प्रकार तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजें सँभालने और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में सक्षम होगे। फिर तुम मानक के अनुसार अपना कर्तव्य निभा रहे होगे। यदि तुम सत्य को समझकर अपने कर्तव्य को निभाने में आने वाली समस्याओं को हल कर पाए, तो तुम्हें कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, मान लो अतीत में तुम्हारे दिल में हमेशा कोई ऐसी बात होती थी, जो तुम्हें खुलकर बोलने से रोकती थी, इसलिए तुमने कभी भी दूसरों में नजर आने वाली समस्याओं की तरफ सीधे तौर पर इशारा नहीं किया। इसके बजाय तुम हमेशा इधर-उधर की चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे, क्योंकि तुम दूसरों को चोट पहुँचाने से डरते थे और तुम हमेशा गर्व, भावनाओं और आपसी संबंधों के बारे में सोचते रहते थे। लेकिन अब जब कोई समस्या हो तुम इधर-उधर की बातें नहीं करते; जब समस्या होती है तो तुम इसके बारे में सीधे और स्पष्ट रूप से बात करते हो, और तुम दूसरों की समस्याओं की तरफ इशारा करते हो, और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हो। अब तुम्हारे दिल में कोई चिंता या कठिनाई नहीं है, और अब जब भी तुम अपना मुँह खोलते हो तो सीधे दिल से बात करते हो, और तुम किसी भी अन्य कारक से प्रभावित या उसके कारण मजबूर नहीं होते। अब तुम जान गए हो कि तुम्हें अपने कार्यों में सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, तुम सांसारिक आचरण के फलसफों के सहारे नहीं रह सकते और तुम्हें अपना अहंकार त्यागकर सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए। ये बातें और अधिक स्पष्ट होती जाती हैं और तुम्हारे अहंकार का तुम पर अब उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ता, और तुम अपने अहंकार या भावनाओं से मजबूर हुए बिना बात कर सकते हो। तुम अब निष्पक्ष होकर बात कर सकते हो और अब अपने दिल में असहज महसूस नहीं करते। दूसरे शब्दों में कहें, तो अब ऐसी बहुत कम चीजें हैं जो तुम्हें परेशान कर सकती हैं; तुम उनसे बाहर आ जाते हो, तुम उन्हें जाने देते हो और तुम उनके नियंत्रण से मुक्त हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते और बात करते हो, तो तुम भ्रष्ट स्वभावों से मजबूर नहीं होगे, और तुम्हारे दिल को और अधिक कष्ट नहीं पहुँचेगा। बल्कि तुम्हें यह सब पूरी तरह से स्वाभाविक लगेगा, तुम्हारा जमीर शांति महसूस करेगा और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे सभी कार्य वैसे ही हैं जैसे उन्हें होना चाहिए। तुम्हारी अभिव्यक्ति और कार्य स्वाभाविक होंगे और तुम्हें केवल कुछ मामूली कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। क्या यह बदलाव नहीं है?

लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं? सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले ही सत्य के मार्ग पर चलते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा। इस समस्या का एहसास होने पर क्या तुम परेशान होते हो? (हाँ।) इस परेशानी से क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि तुम्हें अभी भी सत्य से प्रेम है, और तुम्हारे पास ऐसा दिल है जो सत्य से प्रेम करता है और तुम में सत्य से प्रेम करने की इच्छा है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी अंतरात्मा अभी भी जागरूक है, और तुम्हारी अंतरात्मा पूरी तरह से मरी नहीं है। चाहे तुम कितने भी गहराई से भ्रष्ट हो, या तुम्हारे कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, तुम्हारी मानवता में अभी भी एक ऐसा सार है जो सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है। जब तक तुम्हारे अंदर जागरूकता है और तुम्हें पता है कि तुम्हारी मानवता, स्वभाव, कर्तव्य का पालन करने और परमेश्वर के साथ व्यवहार करने में क्या समस्याएँ हैं, और तुम इस बात से भी जागरूक हो कि तुम्हारे शब्द और कार्य कब विचारों, रुख और रवैये को प्रभावित करते हैं, और तुम यह महसूस कर सकते हो कि तुम्हारे विचार गलत हैं, कि वे सत्य या परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं लेकिन उन्हें छोड़ना भी आसान नहीं है, और तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो लेकिन नहीं कर पाते, और तुम्हारा दिल पीड़ा से जूझ रहा है और उत्पीड़ित है और तुम खुद को कर्जदार महसूस करते हो—तो यह ऐसी मानवता को दर्शाता है जिसे सकारात्मक चीजों से प्यार है। यह अंतरात्मा की जागरूकता है। अगर तुम्हारी मानवता में अंतरात्मा की जागरूकता है और उसका एक हिस्सा सत्य और सकारात्मक चीजों को पसंद करता है, तो तुम्हारे अंदर ऐसी भावनाएँ होंगी। इन भावनाओं का होना यह साबित करता है कि तुम्हारे पास सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने की क्षमता है, और यह कि तुम इन चीजों के प्रति उपेक्षा या उदासीनता की भावना नहीं रखते; तुम सुस्त नहीं हो या तुम में जागरूकता की कमी नहीं है, बल्कि तुम्हारे अंदर जागरूकता है। और चूँकि तुम्हारे अंदर जागरूकता है, इसलिए तुम्हारे पास सही और गलत, और सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करने की क्षमता है। अगर तुम्हारे अंदर जागरूकता और यह क्षमता है, तो क्या तुम्हारे लिए इन नकारात्मक चीजों, इन गलत विचारों, और भ्रष्ट स्वभावों से घृणा करना आसान नहीं होगा? तुलनात्मक रूप से यह आसान होगा। अगर तुम सत्य को समझते हो, तो तुम निश्चित रूप से नकारात्मक चीजों और दैहिक वस्तुओं से घृणा कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारे पास सबसे न्यूनतम और मूलभूत चीज होगी : अंतरात्मा की जागरूकता। अंतरात्मा की जागरूकता होना उतना ही मूल्यवान है, जितना सच और झूठ के बीच भेद करने की क्षमता का होना मूल्यवान है और जब सकारात्मक चीजों से प्यार करने की बात आए तो न्याय की भावना होना मूल्यवान है। ये तीन चीजें सामान्य मानवता में सबसे अधिक वांछनीय और मूल्यवान हैं। अगर तुम्हारे पास ये तीन चीजें हैं, तो तुम निश्चित रूप से सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो पाओगे। यहाँ तक कि अगर तुम्हारे पास इनमें से केवल एक या दो चीजें ही हैं, फिर भी तुम कई सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे। चलो हम अंतरात्मा की जागरूकता पर नजर डालते हैं। उदाहरण के लिए अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसे बुरे व्यक्ति से होता है जो कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालता है, तो क्या तुम इसे पहचान पाओगे? क्या तुम प्रत्यक्ष बुरे कर्मों को चुन सकते हो? बिल्कुल चुन सकते हो। बुरे लोग खराब चीजें करते हैं, और अच्छे लोग अच्छी चीजें करते हैं; औसत व्यक्ति एक नजर में अंतर बता सकता है। अगर तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की जागरूकता है तो क्या तुम्हारे अंदर भावनाएँ और विचार नहीं होंगे? अगर तुम्हारे अंदर विचार और भावनाएँ हैं, तो तुम्हारे पास सत्य का अभ्यास करने के लिए सबसे बुनियादी बातों में से एक है। अगर तुम बता सकते हो और महसूस कर सकते हो कि यह व्यक्ति बुराई कर रहा है, और इसकी पहचान करने के बाद उस व्यक्ति को उजागर कर सकते हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इस मामले को समझने में मदद कर सकते हो, तो क्या यह समस्या हल नहीं हो जाएगी? क्या यही सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों पर चलना नहीं है? यहाँ सत्य का अभ्यास करने के लिए कौन से तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं? (बुराई को उजागर करना, इसकी रिपोर्ट करना और रोकना।) सही। इस तरह से काम करना सत्य का अभ्यास करना होता है, और ऐसा करके ही तुम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करोगे। अगर तुम इस तरह की स्थितियों का सामना करने पर अपनी समझ के अनुसार सत्य सिद्धांतों के अनुरूप काम करते हो, तो यह सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों के साथ काम करना है। लेकिन अगर तुम्हारे अंदर अंतरात्मा की जागरूकता न हो और तुम बुरे लोगों को बुराई करते देखो, तो क्या तुम्हें इसके प्रति जागरूकता होगी? (मुझे नहीं होगी।) और बिना जागरूकता वाले लोग इसके बारे में क्या सोचेंगे? “अगर वह व्यक्ति बुराई करता है तो मुझे इससे क्या? वह मेरा तो कोई नुकसान नहीं कर रहा, तो मैं उसे नाराज क्यों करूँ? क्या ऐसा करना सच में आवश्यक है? इससे मुझे क्या लाभ होगा?” क्या इस तरह के लोग बुरे लोगों की बुराई उजागर करते हैं, उनकी रिपोर्ट करते हैं और बुराई करने से उन्हें रोकते हैं? निश्चित रूप से नहीं। वे सत्य को समझते तो हैं लेकिन इसका अभ्यास नहीं कर सकते। क्या ऐसे लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है? उनके पास न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि वे सत्य को समझते तो हैं लेकिन इसका अभ्यास नहीं करते; इसका मतलब है कि उनके पास न तो अंतरात्मा है और न ही तर्क और वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं। वे केवल अपने हितों को नुकसान से बचाने पर ध्यान देते हैं; उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि कलीसिया के काम का नुकसान हो रहा है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों को क्षति पहुँच रही है। वे केवल खुद की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, और अगर उन्हें समस्याएँ दिखती हैं, तो वे उन्हें अनदेखा कर देते हैं। यहाँ तक कि जब वे किसी को बुराई करते हुए देखते भी हैं, तो वे उस पर ध्यान नहीं देते और सोचते हैं कि जब तक इस से उनके हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँच रहा, यह ठीक है। दूसरे चाहे जो भी करें, उन्हें उस से कोई लेना-देना नहीं होता; उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती और उनकी अंतरात्मा का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन अभिव्यक्तियों के आधार पर क्या इन लोगों में मानवता है? अंतरात्मा और तर्क से रहित व्यक्ति मानवता से रहित होता है। अंतरात्मा और तर्क से रहित सभी लोग बुरे होते हैं : वे मनुष्यों के भेष में जानवर हैं, जो हर प्रकार की बुरी चीजें करने में सक्षम होते हैं।

क्या वह व्यक्ति जिसके अंदर अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, अच्छे कर्मों और बुरी चीजों के बीच के फर्क को पहचानने में सक्षम होता है? क्या उसके पास अच्छे-बुरे और सही-गलत के बीच की कोई अवधारणा होती है? (नहीं।) तो वह अन्य लोगों से व्यवहार कैसे करता है? वह भ्रष्ट मानव जाति को कैसे देखता है? उसका मानना होता है कि संपूर्ण मानव जाति खराब है, और वह स्वयं मानव जाति में सबसे खराब नहीं है और अधिकांश लोग उससे भी ज्यादा खराब हैं। अगर तुम उससे कहोगे कि लोगों में अंतरात्मा और तर्क शक्ति होनी चाहिए, और लोगों को अच्छे कर्म करने चाहिए, तो वह कहेगा कि यह झूठ है और इस पर विश्वास नहीं करेगा। ऐसे लोग जिनके अंदर अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, वे इसीलिए सत्य के अभ्यास का अर्थ और मूल्य कभी नहीं जान पाएँगे। तो क्या इस प्रकार के व्यक्ति का सत्य से प्रेम करवा पाना संभव है? (नहीं।) उनके प्रकृति सार में ऐसा कुछ भी नहीं है कि वे सत्य से प्रेम कर पाएँ, इसलिए वे कभी भी सत्य से प्रेम करने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। इस तरह का व्यक्ति कभी भी नहीं समझ पाएगा कि सत्य क्या है, क्या अच्छा है या बुराई क्या है। अपने मन में उन्हें सकारात्मक चीजें नकारात्मक लगती हैं और नकारात्मक चीजें सकारात्मक लगती हैं; दोनों धारणाएँ आपस में उलझ जाती हैं। अपने कार्यों को वे किन सिद्धांतों के आधार पर करते हैं? वे सही और गलत या अच्छे और बुरे के बीच कोई फर्क नहीं करते, और वे प्रतिशोध या इनाम की परवाह नहीं करते; वे जो भी करते या कहते हैं, वह सिर्फ उनके फायदे के लिए होना चाहिए। जहाँ तक उनके दृष्टिकोण की बात है, वे अपने हितों को साधने के लिए परिवेश के हिसाब से बदलते रहते हैं। वे उन दृष्टिकोणों पर कायम रहते हैं, जो तब तक उनके हित साधने में मदद करेंगे, जब तक वे अपने लक्ष्य और इच्छाएँ प्राप्त न कर लें। क्या इस प्रकार की मानवता वाले, इस प्रकृति सार वाले व्यक्ति के लिए सत्य का अभ्यास करना संभव है? (नहीं।) सत्य का अभ्यास करने के लिए व्यक्ति में कौन से गुण होने चाहिए? (अंतरात्मा की जागरूकता, सही और गलत के बीच फर्क समझने की क्षमता, और न्याय और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने वाला दिल होना चाहिए।) तुम लोगों के पास इनमें से कौन से गुण हैं? इन तीनों में से सही और गलत के बीच के फर्क को समझने की क्षमता हासिल करना और न्याय और सकारात्मक चीजों से प्यार करना शुरू करना थोड़ा कठिन हो सकता है। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उनके लिए इन दो चीजों को प्राप्त करना बहुत मुश्किल है। लेकिन अंतरात्मा और विवेक रखने वाले लोगों को कम से कम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार कार्य करने चाहिए, दूसरों को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए और बुरे और अविवेकपूर्ण काम नहीं करने चाहिए-इस तरह उनकी अंतरात्माएँ शांति से रह सकती हैं। यदि वे परमेश्वर पर सच्चा विश्वास रखते हैं, तो उन्हें कम से कम ईमानदार होना चाहिए और वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुरूप होना चाहिए। अच्छा इंसान बनने के लिए ये मानक जरूरी हैं। अगर उनमें थोड़ी सी भी काबिलियत है और वे सत्य को समझ सकते हैं, तो यह और भी बेहतर है; तब वे अपने हर काम में सत्य की तलाश कर सकते हैं, और सिद्धांतों के उल्लंघन के लिए अपने कार्यों पर लगातार आत्म-चिंतन करते रह सकते हैं। अपने हृदय की गहराई में क्या तुम्हारे पास खुद के मूल्यांकन का कोई मानक है? यदि तुम कुछ गलत करते हो या सिद्धांतों का उल्लंघन करते हो, यदि तुम बेपरवाही दिखाते हो, या तुम अपने दैहिक संबंधों की रक्षा करते हो, तो क्या तुम्हें इस बारे में पता होता है? यदि ऐसा है, तो तुम में थोड़ी बहुत अंतरात्मा है। यदि तुम में अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, तो तुम मुश्किल में हो। यदि तुम उद्धार की आशा रखते हो तुम में अंतरात्मा की जागरूकता होनी चाहिए; यदि तुम्हारे पास यह भी नहीं है, तो तुम लोग खतरे में हो, क्योंकि परमेश्वर उन लोगों को नहीं बचाता जिनमें मानवता नहीं होती। अंतरात्मा की जागरूकता तुम्हें मानवता के भीतर कैसे प्रभावित करती है? इसका प्रभाव यह होगा कि तुम जो भी व्यक्तिगत अनुभव करते हो, जो अपनी आँखों से देखते हो, और जो अपने कानों से सुनते हो, जो तुम सोचते हो, जो करने का इरादा करते हो और जो कर चुके हो, उनके सही और गलत होने का आकलन करने के लिए तुम अपनी अंतरात्मा का उपयोग करोगे। तुम्हारे आचरण और कार्य सिद्धांतों में कम से कम एक आधार रेखा होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो बहुत उत्साह के साथ अनुसरण करता है, लेकिन बहुत भोला और निष्कपट भी है, और तुम लगातार उसे कमतर समझते हो, लगातार उसे परेशान करना चाहते हो और अपने शब्दों से उसे चिढ़ाते हो और उसका मजाक बनाते हो। तुम्हारे मन में यह ख्याल आते रहते हैं, और तुम कभी-कभार ऐसा व्यवहार प्रकट भी करते हो-तो क्या तुम्हारा दिल इसके प्रति जागरूक होगा? क्या तुम जान पाओगे कि ये विचार और कार्य गलत और भद्दे हैं? क्या तुम्हें अपने कार्यों की प्रकृति का एहसास होगा? (हाँ।) यदि ऐसा है तो इसका मतलब तुम में अंतरात्मा की जागरूकता है। यदि तुम में यह फर्क करने की क्षमता नहीं है कि लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार, या तुम्हारे दिल की गहराई में पनप रहे विचार भद्दे हैं या वे सुंदर और अच्छे हैं, यदि तुम्हारे दिल में मूल्यांकन का कोई मानक नहीं है, तो तुम में कोई मानवता नहीं है। जिन लोगों में अंतरात्मा नहीं होती उनमें मानवता भी नहीं होती। अगर तुम बुनियादी मानवता भी नहीं जानते, तो तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है और तुमको नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर ने यहूदा को ही क्यों चुना कि वह प्रभु को धोखा दे? उसने यहूदा की प्रकृति के अनुसार ऐसा किया। यहूदा का स्वभाव ही ऐसा था कि वह अपने लाभ के लिए अपने स्वामी को भी धोखा दे देता, और परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। यहूदा पैसे चुराने में सक्षम था, तो क्या उसकी कोई अंतरात्मा थी? (नहीं।) यह अंतरात्मा न होने का उदाहरण है। विशेष रूप से यह बात कि यहूदा ने जो धन चुराया था वह प्रभु से संबंधित था, कि वह ऐसी चीज थी जिसमें पूरी तरह अंतरात्मा और विवेक की कमी थी; वह राक्षस था, जिसे किसी भी तरह बुरी चीजें करने से नहीं रोका गया था। उसमें अंतरात्मा की जागरूकता नहीं थी और वह खुद को रोक नहीं सकता था, इसलिए वह चोरी-छिपे परमेश्वर को मिली भेंटें खर्च करने में सक्षम था। यदि कोई व्यक्ति चोरी-छिपे परमेश्वर की भेंटें खर्च कर सकता है, तो उसमें किस प्रकार की मानवता है? (बुरे व्यक्ति की मानवता है।) उसमें कोई मानवता नहीं है। मानवता न होने का पहला लक्षण अंतरात्मा की जागरूकता न होना और अपने किए किसी भी कार्य में अपनी अंतरात्मा के हिसाब से संचालित न होना है। यहूदा के पास यह सबसे बुनियादी चीज भी न थी, जिसका अर्थ यह कि उसमें कोई मानवता नहीं थी, इसलिए उसके लिए ऐसा कुछ करना आसान था। इसलिए परमेश्वर का यहूदा को चुनना कि वह प्रभु को धोखा दे और उससे यह सेवा प्रदान करवाना, सबसे उपयुक्त फैसला था; इसमें परमेश्वर का कोई भी सामान बर्बाद नहीं हुआ, परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही ही होता है। जब यहूदा ने पैसों की थैली से पैसे चुराए, और किसी को इसके बारे में पता नहीं चला, तो उसे विश्वास हो गया कि परमेश्वर ने उसे ऐसा करते हुए नहीं देखा है। उसमें अंतरात्मा की जागरूकता नहीं थी और उसे लगा किसी को भी पता नहीं चला और इसका परिणाम क्या हुआ? उसने प्रभु को धोखा देने, प्रभु के साथ विश्वासघात करने का गंभीर पाप किया और युगों-युगों तक एक पापी के रूप में जाना गया। फिर उसने खुद को फांसी लगा ली और पेट फटने से उसकी मौत हो गई। क्या ऐसे व्यक्ति पर दया करनी चाहिए? जिस जानवर में कोई मानवता नहीं है और जिसे इस तरह से दंडित किया गया हो उस पर बिल्कुल भी दया नहीं की जानी चाहिए।

जिन लोगों में मानवता होती है वह हर काम अपनी अंतरात्मा और विवेक के अनुसार करते हैं। कम से कम उनके आचरण की आधार रेखा उनकी अंतरात्मा द्वारा निर्धारित मानक से नीचे नहीं गिरेगी। यदि उन्हें पता चल जाता है कि कुछ करना गलत है, तो वे अपने व्यवहार पर नियंत्रण रख पाएँगे। अंतरात्मा लोगों को कार्य करने का उपयुक्त तरीका बता सकती है, इसलिए अंतरात्मा वाले लोग अपनी अंतरात्मा के आधार पर बोलने और कार्य करने में सक्षम होते हैं। विश्वासी बनने के बाद लोगों की अंतरात्मा पहले जैसे ही अपनी भूमिका निभाती रहती है। तो जब ऐसी कई चीजें होती हैं जिन्हें वो स्पष्ट रूप से देख नहीं सकते, तब भी वे कम से कम अपनी अंतरात्मा के आधार पर उन चीजों तक पहुँच सकते हैं और उन्हें सँभाल सकते हैं। यदि इस आधार पर वे सत्य को समझते हैं, तो वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजों को सँभालेंगे; उनकी अंतरात्मा को इस बात का एहसास होगा कि उनका कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, और इसका उन पर प्रभाव पड़ेगा। यदि लोग सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और अपने दैहिक हितों की रक्षा करते हैं तो यह उनके भ्रष्ट स्वभावों के प्रभुत्व के कारण होता है जो उन पर हावी होते हैं, और जिनके पास अंतरात्मा है उन्हें इस बारे में पता होना चाहिए। यदि कोई सत्य को समझता है लेकिन उसका अभ्यास नहीं करता, तो क्या उसकी अंतरात्मा उसे इसका दोष देती है? क्या उनका दिल सुकून पा सकता है? सभी लोग इसका अनुभव करने में सक्षम हैं। क्या तुम लोगों के रोजमर्रा के जीवन में चाहे तुम लोगों के साथ व्यवहार कर रहे हो या कोई काम कर रहे हो, क्या तुम्हारी अंतरात्मा की जागरूकता स्पष्ट रहती है? क्या तुम कभी-कभी ऋणी या निंदा महसूस करते हो? क्या तुम्हें कभी-कभी आंतरिक बेचैनी और आरोप या आंतरिक दर्द और संघर्ष महसूस होता है? क्या तुम लोगों के मन में ऐसी भावनाएँ आई हैं? यदि ऐसा है, तो यह इतनी बुरी बात नहीं है, लेकिन यदि ऐसा नहीं है, तो तुम लोग खतरे में हो। चाहे तुम कोई भी हो, यदि तुम्हारे भीतर अंतरात्मा की जागरूकता नहीं है, तो तुम परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं रखते। कुछ लोग पूछते हैं, “किसी के विश्वास की सच्चाई या झूठ को जानने से इसका क्या लेना-देना है?” तुम लोगों के हिसाब से इन दोनों के बीच क्या संबंध है? (जब कोई ऐसा व्यक्ति जिसमें अंतरात्मा की जागरूकता होती है, कुछ गलत करता है, तो उसे आत्म-निंदा, दुख, पश्चात्ताप और ऋणी होने की भावना महसूस होती है वे सब परमेश्वर की देन होती हैं। यह तथ्य कि वे परमेश्वर की निंदा को महसूस करने में सक्षम हैं, यह दर्शाता है कि वे अपने दिल में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करते हैं। कुछ लोगों में यह जागरूकता बिल्कुल भी नहीं होती, जो यह इंगित करता है कि वे अपने दिल में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखते कि परमेश्वर हर चीज की जाँच-पड़ताल कर रहा है। जब वे कुछ गलत करते हैं, तो उन्हें ऐसा नहीं लगता कि वे ऋणी हैं; उनमें इस प्रकार की जागरूकता नहीं होती।) यह आंशिक रूप से सही है। और कुछ? (अंतरात्मा वाले व्यक्ति स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर है, और जब वे कुछ गलत करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना, आत्म-चिंतन करना जानते हैं और समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज करते हैं। जब अंतरात्मा रहित कोई व्यक्ति किसी समस्या का सामना करता है, तो उस पर अंतरात्मा का प्रभाव नहीं पड़ता; उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं होती, और वह समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करता। वह मानता ही नहीं कि सत्य वह चीज है जिसकी उसे जरूरत है, इसलिए वह सत्य का अभ्यास करने की कोशिश ही नहीं करता। जो लोग परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं लेकिन सत्य के अभ्यास का प्रयास नहीं करते, वे छद्म-विश्वासी लोग हैं।) सच्ची आस्था वाले व्यक्ति को चाहे किसी भी परिस्थिति की सामना करना पड़े, वे परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं, और इस तरह उनकी अंतरात्मा को एहसास होता है कि क्या सही है और क्या गलत, या क्या अच्छा है और क्या बुरा। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें विश्वास होता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है और वे उसके वचनों पर विश्वास रखते हैं। वे परमेश्वर के जिन वचनों को सुनते हैं, उन्हें अपने दिल में रखते हैं, जो तब उनके स्वयं के आचरण और दुनिया के साथ उनके व्यवहार और उनके द्वारा किए जाने वाले उनके मूल्यांकन के मानक के रूप में कार्य करते हैं। यह मानक क्या है? चाहे वे सत्य को समझते हों या नहीं, वे अधिकांश समय परमेश्वर के वचन को अपने मानक के रूप में रखते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं, उनका मानना होता है कि उसका अस्तित्व है, और उन्हें विश्वास होता है कि उसके वचन सत्य हैं। चूँकि वह परमेश्वर के वचन को सत्य मानते हैं, तो जब उनका समस्याओं से सामना होता है, तो स्वाभाविक रूप से उनसे निपटने के लिए वे उसके वचनों का उपयोग करते हैं। कम से कम उन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि उनके अपने विचार और धारणाएँ सत्य नहीं हैं। इसलिए समस्याओं से सामना होते समय उनकी अंतरात्मा की जागरूकता उन्हें बताती है कि परमेश्वर के वचनों को आधार के रूप में लेना चाहिए, और यदि वे ऐसा नहीं कर पाते और उसे अभ्यास में नहीं ला पाते, तो उनकी अंतरात्मा को आराम नहीं पहुँचेगा और वे अशांत महसूस करेंगे। उदाहरण के लिए लोगों को यह कैसे पता चलता है कि दूसरों के साथ दैहिक संबंधों की रक्षा करना, आराम का आनंद लेना और चापलूस होना नकारात्मक चीजें होती हैं? (यह परमेश्वर के वचन में उजागर हुआ है।) हाँ, यदि तुम उन चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार मापते हो, तो वे सभी नकारात्मक चीजें हैं, भ्रष्ट स्वभावों का प्रकाशन हैं, और लोगों की प्रकृतियों के कारण उत्पन्न होती हैं। जब लोग इस तरह की चीजें प्रकट करते हैं, तो क्या वे अपने दिल में खुशी और आनंद महसूस करते हैं, या परेशान और पीड़ित महसूस करते हैं? वे आंतरिक संघर्ष और परेशानी महसूस करते हैं, जैसे कोई उन्हें भीतर से काट रहा हो। हर बार जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं, जब वे उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार सँभाल नहीं पाते, या अपनी भावनाओं की बाधाओं को तोड़ नहीं पाते तो उन्हें पीड़ा महसूस होती है। ये दर्द कैसे घटित होता है? यह उस स्थिति में घटित होता है जब लोगों में अंतरात्मा की जागरूकता होती है और वे परमेश्वर के वचन के सत्य को समझते हैं। जब यह सारा दर्द, निंदा और आरोप उनके दिल में उठता है, तो अपने दिल की गहराई में वे खुद से नफरत और घृणा महसूस करने लगते हैं, और यहाँ तक कि खुद को तिरस्कार की नजर से देखने लगते हैं, कहते हैं, “मैं एक अच्छी बात कह सकता हूँ, यह कहते हुए कि मैं परमेश्वर से प्रेम करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ, और मैं इन बातों का जोर-शोर से प्रचार करता हूँ, लेकिन जब चीजें मुझ पर आ पड़ती हैं, तो मैं हमेशा खुद के गौरव के बारे में सोचता हूँ। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ, मैं इस बाधा को नहीं तोड़ पाता। मुझे दूसरों को नाराज करना अच्छा नहीं लगता, लेकिन मैं लगातार परमेश्वर को नाराज कर रहा हूँ।” समय के साथ वे अपने दिल की गहराई में अपने बारे में एक राय विकसित कर लेते हैं—वह क्या है? वे नहीं सोचते कि वे अच्छे लोग हैं; वे जानते हैं कि वे कई बुरी चीजें करने में सक्षम हैं, और वे देखते हैं कि वे अच्छे होने का दिखावा कर सकते हैं, और वे पाखंडी हैं। इन परिस्थितियों में वे खुद को नकारना शुरू कर देते हैं, और खुद पर विश्वास नहीं करते हैं। ये परिणाम कैसे प्राप्त होते हैं? वे परिणाम परमेश्वर के वचन को समझने के आधार पर हासिल किए जाते हैं जब उनकी अंतरात्मा जागरूक होती हैं और वे अपना उद्देश्य पूरा करते हैं।

जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे ही परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं। उनके अंदर भावनाएँ होती हैं, जो उनके जमीर और विवेक से प्रेरित होती हैं; वे अपने दिल में मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; वे मानते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही होता है, और लोगों को बचाने और शुद्ध करने के उद्देश्य से करता है। भले ही वह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या न हो, यह उनके लिए फायदेमंद होता है। जो लोग परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं रखते उनके पास जमीर नहीं होता और उनके पास विवेक भी नहीं होता, और न ही वे जमीर या विवेक होने की परवाह करते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया हमेशा आधा विश्वास और आधा अविश्वास करने वाला होता है; उनके दिल यह महसूस नहीं कर सकते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। तो परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में उनकी सोच क्या होती है? वे अपने दिलों में यह सोचते हैं, “यदि परमेश्वर मौजूद है, तो वह कहाँ है? मुझे तो वह दिख नहीं रहा। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर वास्तव में मौजूद है या नहीं। यदि तुम मानते हो कि वह मौजूद है, तो वह है; यदि तुम नहीं मानते, तो वह मौजूद नहीं है।” यह उनकी सोच होती है। फिर भी वे इस बारे में गहराई से विचार करते हैं, सोचते हैं, “इतने सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसकी गवाही दी है। शायद वास्तव में परमेश्वर मौजूद है। मुझे उम्मीद है कि परमेश्वर मौजूद है, क्योंकि फिर मैं स्थिति का लाभ उठा सकता हूँ और आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। ऐसा हुआ तो मैं भाग्यशाली हो जाऊँगा।” उनकी मानसिकता भाग्य और जुए वाली है और बस अपने मनोरंजन के लिए इसमें भाग लेना चाहते हैं; उनकी सोच यह होती है कि भले ही उन्हें आशीष न मिले, इस से उनका कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि उन्होंने कुछ भी निवेश नहीं किया है। परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति उनकी सोच और रवैया यह होता है, “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। परमेश्वर कहाँ है? मुझे निश्चित रूप से पता नहीं है। क्या ये सभी लोग जिन्होंने गवाही दी है सच्चे हैं? या वे झूठ बोल रहे हैं? मुझे निश्चित रूप से नहीं पता।” उनका दिल इन सभी मुद्दों पर प्रश्नचिह्न लगाता है; वे इसका पता नहीं लगा सकते और इसलिए वे लगातार इस मामले में संदेह करते रहते हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास संदेह और गलत सोच के रवैये से दूषित होता है। जब परमेश्वर बात करता है और सत्य व्यक्त करता है, तो उसके वचनों के प्रति उनका रवैया क्या होता है? (संदेह और अविश्वास।) यह उनकी मुख्य सोच नहीं है; तुम लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख रहे हो। क्या वे परमेश्वर के वचन को सत्य मानते हैं? (नहीं।) वे क्या सोचते हैं? “इतने सारे लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ना पसंद करते हैं, तो फिर मुझे यह दिलचस्प क्यों नहीं लगता? परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य को समझने से क्या हासिल किया जा सकता है? इसमें फायदा क्या है? क्या तुम वास्तव में स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हो? लोग स्वर्ग का राज्य नहीं देख सकते। मुझे तो यह लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का कुछ तो वास्तविक फायदा होना चाहिए; कुछ वास्तविक लाभ तो होना ही चाहिए।” उन्हें इस बात की चिंता होती है कि अगर वे सत्य को नहीं समझेंगे तो उन्हें हटा दिया जाएगा, इसलिए वे कभी-कभी धर्मोपदेश सुन लेते हैं। लेकिन फिर वे चिंतन करते हुए सोचते हैं, “लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य होती है, तो फिर मैं इसे क्यों नहीं सुनता या महसूस नहीं करता? लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचन लोगों को बदल सकते हैं, तो फिर उसके वचनों ने मुझे क्यों नहीं बदला? मैं आज भी देह के आराम के पीछे उतना ही भागता हूँ जितना पहले भागता था; खाना और कपड़े मेरी पसंद हैं; मेरा मिजाज उतना ही खराब है जितना पहले था; जब बड़ा लाल अजगर मुझ पर अत्याचार करता है तो मुझे अभी भी डर लगता है। मेरे अंदर अभी भी आस्था क्यों नहीं है? परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहता है; वह उनसे सत्य और मानवता अपनाने के लिए कहता है। क्या ईमानदार लोग मूर्ख नहीं होते? परमेश्वर लोगों से चाहता है कि वे परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें, लेकिन कितने लोग वास्तव में ऐसा कर पाते हैं? मनुष्य स्वार्थी प्रकृति का होता है। यदि तुम अपनी मानवीय प्रकृति के पीछे चलोगे, तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम अपने लिए आशीष कैसे प्राप्त करोगे। तुम्हें खुद को लाभ पहुँचाने के लिए कोई उपाय करना होगा। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए। तुम्हें अपनी नियति अपने हाथों में लेनी चाहिए; तुम्हें अपनी खुशी खुद ढूँढ़नी चाहिए। यह सबसे वास्तविक चीज है। यदि लोग आपस में नहीं लड़ेंगे और अपने लिए चीजें नहीं छीनेंगे और यदि वे शोहरत, लाभ और फायदे के लिए नहीं जी रहे हैं, तो उन्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई भी तुम्हारी झोली में लाकर ये चीजें नहीं डालेगा। मन्ना वास्तव में कभी भी स्वर्ग से नहीं गिरता!” ये हैं उनके विचार और सोच, सांसारिक आचरण के उनके फलसफे और वे तर्क और नियम जिनके सहारे वे जीवित हैं। क्या ऐसे विचार और सोच रखने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं? यह ठीक वही रवैया है जो छद्म-विश्वासी लोग सत्य के प्रति रखते हैं। उनके दिमाग नहीं जानते कि सत्य क्या है, नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों का अधिकार और सामर्थ्य कहाँ जाहिर होती है और नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के परिणाम की व्यवस्था कैसे करता है। वे सिर्फ सामर्थ्य की पूजा करते हैं और उन लाभों की तलाश करते हैं जो उनके सामने हैं। वे सोचते हैं कि यदि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो उन्हें आशीष मिलना चाहिए; और यदि परमेश्वर लोगों को सौभाग्य प्रदान करता है, उनके जीवन को धन और बहुलता से भर देता है और उन्हें एक खुशहाल जीवन देता है, तो केवल तभी यह एक सच्चा मार्ग होगा। उन्हें यह विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें यह विश्वास नहीं है कि परमेश्वर को सभी चीजों पर संप्रभुता प्राप्त है, इस बात को तो छोड़ ही दें कि परमेश्वर के वचन किसी व्यक्ति के स्वभाव या किस्मत को बदल सकते हैं। इसलिए उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास करते हुए कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया है। सारांश यह है कि चूँकि वे परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन और अपने जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर में उनकी आस्था लगातार कमजोर होती जा रही है; उन्हें न तो परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में रुचि है और न ही धर्मोपदेश सुनने में; जब सत्य पर संगति हो रही होती है तो वे कई बार सो भी जाते हैं। इससे भी बढ़कर उन्हें यह भी लगता है कि अपना कर्तव्य निभाना एक अतिरिक्त बोझ है और वे बिना किसी फायदे के काम कर रहे हैं। उनके दिल उस जमाने के लिए तरसते हैं जब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा, जब परमेश्वर उन्हें अपना फैसला सुना देगा और वे जान जाएँगे कि क्या वे वास्तव में आशीष प्राप्त करेंगे या नहीं। यदि वे यह जान लें कि इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करने से वे कभी भी आशीष प्राप्त नहीं करेंगे, कि उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और यह कि वे अभी भी किसी आपदा के कारण मर जाएँगे, तो फिर वे अभी ही पीछे हट सकते हैं। यद्यपि वे कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन दिल में उन्हें उसके बारे में संदेह होता है। वे कहते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन उनके दिल सत्य में विश्वास नहीं करते। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ा है, और न ही उन्होंने कभी वास्तव में किसी धर्मोपदेश को सुना है। उन्होंने कभी भी सत्य पर संगति नहीं की है, और कभी भी अपने कर्तव्य को निभाते हुए सत्य की खोज नहीं की है; वे केवल अपने स्वयं के प्रयासों का उपयोग करते हैं। यह एक ठेठ छद्म-विश्वासी की पहचान है। वे अविश्वासी लोगों से अलग नहीं हैं।

हालाँकि छद्म-विश्वासी लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर मौजूद है, लेकिन वे सत्य में विश्वास नहीं करते और इसे स्वीकार नहीं करते। वे अपने दिलों में जानते हैं कि परमेश्वर छद्म-विश्वासियों को नहीं बचाता, तो फिर वे परमेश्वर के घर में अपने प्रवास को अधिक समय तक क्यों खींचते हैं? (आशीष पाने के लिए।) वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे आशीष प्राप्त कर सकें; यह मामला उनके हितों से जुड़ा है। छद्म-विश्वासियों के दिलों में आशीष प्राप्त करने की अपेक्षा होती है और वे यह मानते हैं कि अंत में यदि वे परमेश्वर में विश्वास करेंगे, उसे स्वीकार करेंगे और उस पर संदेह नहीं करेंगे या उसे नहीं छोड़ेंगे तो वे सौभाग्यशाली बन जाएँगे। नतीजतन, इस “आस्था” से लैस हो कर वे परमेश्वर के घर में अपने पैर जमा लेते हैं, और फिर कोई भी चीज उन्हें वहाँ से निकलने के लिए नहीं मना सकती। अपने मन में तो वे सब कुछ समझते हैं और वे जरा भी मूर्ख नहीं हैं; बात सिर्फ इतनी है कि वे सत्य को नहीं समझते। उनका मानना है कि जब तक वे कोई बुरे काम नहीं कर रहे या कलीसिया के कार्य में बाधा नहीं डाल रहे, तब तक उन्हें कलीसिया से बाहर नहीं निकाला जाएगा या निष्कासित नहीं किया जाएगा, और यह कि परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक अपना समय पूरा करके वे अंत में विजेता साबित होंगे और आशीष प्राप्त करेंगे। उन्होंने अपने हिसाब से सब सोच रखा है, लेकिन एक चीज ऐसी है जिसे वे बदल नहीं सकते : चूँकि वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि देहधारी परमेश्वर ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है, और वे हर चीज के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता पर संदेह करते हैं, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। अंत में उन लोगों के साथ क्या होता है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते? (उन्हें हटा दिया जाता है।) हाँ, उन सब को हटा दिया जाता है। ये छद्म-विश्वासी सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते बल्कि हमेशा आशीष पाने की आशा पालते रहते हैं। परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में उनकी समझ और परिभाषा उनकी अपनी कल्पनाओं और अपेक्षाओं से दूषित होती है और वे डूबते को तिनके के सहारे की तरह अपने प्यारे जीवन को बचाने के लिए “परमेश्वर धार्मिक है” जैसे वाक्यांश से चिपके रहते हैं। इसका क्या अर्थ है कि वे अपने प्यारे जीवन को बचाने के लिए इस वाक्यांश से चिपके हुए हैं? इसका अर्थ यह है कि वे हमेशा परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में पक्षपात करते हैं और गलत अनुमान लगाते हैं। वे सोचते हैं, “हे परमेश्वर, चूँकि तुम धार्मिक हो, इसलिए मैं जो कुछ भी करता हूँ, तुम्हें इस धार्मिकता के आधार पर ही उससे निपटना चाहिए। मैंने कोई बुराई नहीं की है, न ही मैंने विघ्न-बाधाएँ डाली हैं, इसलिए तुम्हें मुझ पर भरपूर दया करनी चाहिए और मुझे जीवित रहने देना चाहिए।” यह वह तिनका है जिससे वे अपने प्यारे जीवन के लिए चिपके हुए हैं। क्या उनका यह विचार निष्पक्ष और वास्तविक है? (यह अवास्तविक है।) यह अवास्तविक क्यों है? वे पूरी तरह से परमेश्वर की धार्मिकता में विश्वास नहीं करते, वे अपनी किस्मत आजमाने की मानसिकता के साथ उस पर दाँव लगाना चाहते हैं और यह आशा करते हैं कि परमेश्वर उनकी इच्छाओं को पूरा करेगा। क्या यह केवल खयाली पुलाव पकाना नहीं है? वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कैसा होता है, वे सत्य की खोज नहीं करते, और वे परमेश्वर को जानने की कोशिश नहीं करते और वे विशेष रूप से परमेश्वर के वचन की खोज भी नहीं करते। वे बस इस खयाली पुलाव की सोच के कारण विश्वास कर रहे होते हैं, और उनमें अपनी किस्मत आजमाने का गुण भी होता है। वे इस तरह से क्यों सोच पाते हैं? क्योंकि उन्हें इससे लाभ होता है : यह तिनका उनकी अंतिम जीवन रेखा होता है; यह वह आखिरी उम्मीद है जिस पर उन्होंने अपना सारा दाँव लगा दिया है। इस आशा के साथ अपने जीवन को दाँव पर लगाकर क्या वे हारने की उम्मीद करते हैं? (नहीं।) जब लोग दाँव लगाते हैं, तो वे आमतौर पर जीतने की उम्मीद करते हैं, तो इन लोगों को किस चीज से चिपटे रहने की जरूरत है ताकि उन्हें लगे कि वे जीत सकते हैं, और वे सुनिश्चित हो सकें कि वे जरूर जीतेंगे? वह यह वाक्यांश होता है : “परमेश्वर धार्मिक है।” क्या ये छद्म-विश्वासी जो कहते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है, वास्तव में विश्वास करते हैं कि वह धार्मिक है? क्या वे वास्तव में यह विश्वास करते हैं कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उनके कार्यों के अनुसार बदला देगा? क्या परमेश्वर की सच्ची धार्मिकता वैसी ही धार्मिकता है जैसी वे समझते हैं? (ऐसा नहीं है।) क्या वे जानते हैं कि यह ऐसी नहीं है? (वे जानते हैं।) तो वे अभी भी यह क्यों कहते रहते हैं कि “परमेश्वर धार्मिक है”? उनके इस वाक्यांश में क्या अर्थ छिपा होता है? इसके पीछे उनके क्या इरादे होते हैं? (वे परमेश्वर से अपनी मांगें पूरी करवाने और खुद को जीवित रहने देने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए इन वचनों का उपयोग करना चाहते हैं।) हाँ, इस वाक्यांश के पीछे एक उद्देश्य होता है : वे इसके माध्यम से परमेश्वर से जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहे हैं। इन वचनों को कहने से उनका तात्पर्य यह होता है : “क्या तुम धार्मिक नहीं हो? मैंने बहुत सारी कीमतें चुकाई हैं, इसलिए तुम्हें अपनी धार्मिकता के अनुसार कार्य करना चाहिए। मैंने बहुत जतन किए हैं और बहुत कष्ट सहे हैं, अब मुझे कैसे आशीष मिलना चाहिए?” यह जबरदस्ती, जबरन वसूली, और चीख-पुकार करना है। वे सोचते हैं कि वे किसी व्यक्ति के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं और खुशामद कर रहे हैं, और यह कि ऐसा करके वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं और जो चाहें वो प्राप्त कर सकते हैं। क्या परमेश्वर वास्तव में कभी इस तरह से कार्य करेगा? नहीं, वह ऐसा कभी नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर मौजूद है, और वे उसके स्वभाव में विश्वास नहीं करते और निश्चित रूप से वे यह विश्वास नहीं करते कि उसका वचन सत्य है और इसलिए है कि वे खुल्लम-खुल्ला परमेश्वर के खिलाफ चीख-पुकार करने की हिम्मत करते हैं और परमेश्वर से झगड़ते हैं और इस तरह से दाँव लगाने का साहस करते हैं। ये ठीक इस कारण है कि वे छद्म-विश्वासी हैं, इसीलिए वे ऐसी चीजें करते हैं। छद्म-विश्वासी लोग इसी तरह से व्यवहार करते हैं और समय-समय पर यह कहते हैं, “मैंने जो इतना कष्ट सहा है तो उसके बदले आखिर मुझे क्या मिला?” या “परमेश्वर धार्मिक है और मुझे परमेश्वर पर आस्था है, लोगों पर नहीं।” छद्म-विश्वासी अक्सर ऐसी बातें करते हैं, इस प्रकार का स्वभाव प्रकट करते हैं, और इन व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं; यह परमेश्वर के प्रति उनका रवैया होता है। वे परमेश्वर के अस्तित्व में तो विश्वास नहीं करते लेकिन फिर भी प्रयास करके और कीमत चुका कर उसका समर्थन प्राप्त करना चाहते हैं, और परमेश्वर से जबरदस्ती करने और उस पर आरोप लगाने के लिए परमेश्वर के वचनों, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और इन मतों का उपयोग करना चाहते हैं, ताकि वे आशीष प्राप्त करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। लेकिन क्या वे इस तरह की खयाली पुलाव वाली सोच रख कर गलती नहीं कर रहे हैं? क्या उनका यह दाँव अंत में रंग लाएगा? (नहीं लाएगा।) और क्या उन्हें पता है कि वे हार जाएँगे? क्या वे जानते हैं कि वे शर्त लगा रहे हैं और दाँव खेल रहे हैं? (वे जानते हैं।) तुम लोग गलत हो। वे बिल्कुल भी नहीं जानते और उन्हें लगता है कि उनकी आस्था सच्ची है। उन्हें क्यों लगता है कि उनकी आस्था सच्ची है? मुझे बताओ कि लोग इन दशाओं और स्वभावों को कैसे पहचान सकते हैं? यदि वे अविश्वासियों की दुनिया में रहते हैं और पारंपरिक संस्कृति के कुछ क्लासिक साहित्य का अध्ययन करते हैं जैसे “कन्फ्यूशियस का सूक्ति संग्रह” और “ताओ ते चिंग,” तो क्या वे इन व्यवहारों और सार को पहचान पाएँगे? (नहीं।) वे ऐसा कभी नहीं कर पाएँगे। अपनी प्रकृति सार में मौजूद इन समस्याओं को पहचानने में सक्षम होने के लिए लोगों को क्या करना होगा? (परमेश्वर के वचन को स्वीकार करना होगा।) सबसे पहले तो उन्हें परमेश्वर के वचन और सत्य को स्वीकार करना चाहिए। उनमें आस्था होनी चाहिए कि परमेश्वर के सभी वचन सही हैं, उन्हें परमेश्वर के वचन को स्वीकार करना चाहिए और इसे एक प्रकार का दर्पण मानना चाहिए जिसमें वे खुद की तुलना कर सकते हैं। केवल तभी वे उन दशाओं और दृष्टिकोणों को पहचान सकते हैं, जिन्हें उन्होंने अपने भीतर आश्रय दिया हुआ है, और उन भ्रष्ट स्वभावों की समस्या को पहचान सकते हैं जो उनकी प्रकृति में मौजूद है। यदि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर के वचन को सत्य नहीं मानते, तो क्या उन्हें यह दर्पण मिलेगा? (नहीं।) उन्हें यह कभी नहीं मिलेगा। जब वे इतना खुल्लम-खुल्ला अपने दिल की गहराई में परमेश्वर का विरोध करते हैं और उसके विरुद्ध चीख-पुकार करते हैं, तो क्या वे महसूस कर सकते हैं कि यह एक समस्या है? उन्हें कभी भी इसका एहसास नहीं होगा। वे समझते हैं कि उनके सोचने और कार्य करने का तरीका सही, उचित और निष्पक्ष है। वे उसी तरह कार्य करते हैं जैसे वे हमेशा से करते आए हैं, और वैसे ही विश्वास करते हैं जैसे वे हमेशा करते आए हैं, और उन्हें अपने किसी भी मौजूदा दृष्टिकोण का विश्लेषण करने या उसे छोड़ने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती, और उन्हें परमेश्वर के वचन की काट-छाँट, न्याय, ताड़ना या प्रकाशन को स्वीकार करने का कोई उपयोग नहीं दिखता। वे अपने लिए जीते हैं और अपनी अंदरूनी दुनिया में रहते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह परमेश्वर के वचन से संबंधित नहीं है। वे जिस तरह चाहें वैसे सोचते हैं और वे जिस चीज पर भी विश्वास करते हैं या जो भी सोचते हैं उसे सही मानते हैं, उसे सत्य मानते हैं। परमेश्वर के वचन के प्रति उनके इस रवैये के आधार पर वे अपने दिल की गहराई में मौजूद समस्याओं को कभी नहीं पहचानेंगे। जब वे कीमतें चुकाते हैं और हर दिन दौड़-भाग करते हैं, तो वे यह सारी दौड़-भाग किसके लिए और किस लिए करते हैं? उनके इस व्यवहार को कौन चलाता है? उनकी प्रेरणा क्या होती है? एक तरह से उनकी परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था नहीं होती, लेकिन वे किस्मत आजमाने की मानसिकता के चलते उस पर दाँव लगाना चाहते हैं। दूसरी तरफ आशीष प्राप्त करने की इच्छा उन पर हावी होती है। जब भी वे आशीष प्राप्त करने और परमेश्वर का आश्वासन प्राप्त करने के बारे में सोचते हैं, तो वे और अधिक उत्साह से दौड़-भाग करने लगते हैं। उनके दिल की गहराई में खुशी छा जाती है और कुछ लोग यह सोचकर उत्साहित हो जाते हैं और आँसू बहाने लगते हैं कि परमेश्वर उन्हें बहुत कुछ देता है और वह कितना प्यारा है। क्या ये गलत धारणाएँ नहीं हैं? ये दशाएँ और भावनाएँ वैसी ही प्रतीत होती हैं जैसी सत्य का अनुसरण करने वाले लोग परमेश्वर की मार, अनुशासन और फटकार का अनुभव करते समय अपने दिल की गहराई में महसूस करते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे आँसू भी बहाते हैं और परमेश्वर का धन्यवाद भी करते हैं, लेकिन ये दो प्रकार के लोग अपनी प्रकृति में किस तरह से भिन्न हैं? जब सत्य का अनुसरण करने वालों को दर्द और पीड़ा का सामना करना पड़ता है, तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे खुद को परमेश्वर के प्रति कर्जदार और परमेश्वर के वादों और आशीषों के अयोग्य महसूस करते हैं। वे बहुत खुश होते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें पहले ही बहुत कुछ दिया है, लेकिन अपने दिल की गहराई में वे परेशान होते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्होंने पर्याप्त नहीं किया है और वे परमेश्वर के प्रति ऋणी हैं। वे कई बार उत्साहित हो जाते हैं और आँसू बहाने लगते हैं, लेकिन होता यह है कि वे परमेश्वर के अनुग्रह, दया और सहनशीलता के लिए उसका धन्यवाद कर रहे होते हैं। जब वे देखते हैं कि कैसे परमेश्वर उनके अपराधों या उनकी विद्रोहशीलता और भ्रष्टता को नजरअंदाज करता है और फिर भी उनके प्रति दया और सहनशीलता दिखाता है, और उनका मार्गदर्शन करता है, उन्हें अनुग्रह देता है, तो वे वास्तव में अपने दिल की गहराई में खुद को कर्जदार और दुखी महसूस करते हैं। वे एक पछतावा और पश्चात्ताप करने वाली स्थिति में होते हैं और इस बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं करते कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की आशा रखनी भी चाहिए या नहीं, क्योंकि वे अयोग्य महसूस करते हैं। छद्म-विश्वासियों के आँसुओं की क्या प्रकृति होती है? मैं तुम लोगों को उनकी विशेषताएँ बता देता हूँ और तुम लोग देखना कि यह सटीक है या नहीं। जब उनके साथ कोई चीज घटित होती है और वे पवित्रात्मा के महान कार्य और परमेश्वर द्वारा दिए गए अनुग्रह को देखते हैं, जब वे पवित्रात्मा द्वारा प्रेरित होते हैं, और परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता और उन्हें प्रबुद्ध करता है, और जब उनका काम सफल होता है तो वे काफी खुशी महसूस करते हैं और अपने दिल की गहराई में वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, तुम्हारे आशीर्वाद और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद। सारी महिमा तुम्हारी ही है।” वे अपने दिल की गहराई में खुद से बहुत प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं : “परमेश्वर ने अभी भी मुझे नहीं छोड़ा है। मैं एक छद्म-विश्वासी की तरह सोचा करता था कि मैं सचमुच परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, लेकिन अब मैं देख रहा हूँ परमेश्वर ने अभी भी मुझ पर अपना आशीष बनाए रखा है, और उसने मुझे छोड़ा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि आशीष और एक सुंदर मंजिल प्राप्त करने की मेरी आशा और संभावनाएँ और अधिक बढ़ रही हैं। ऐसा लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का मेरा निर्णय सही था; मुझे परमेश्वर ने चुना है।” जब उन्हें ऐसे विचार आते हैं, तो क्या वे खुद को कर्जदार महसूस करते हैं? क्या वे खुद को समझते हैं? क्या वे वास्तव में अपनी शैतानी प्रकृति और घमंडी स्वभावों से नफरत करते हैं? (वे नहीं करते।) क्या वे परमेश्वर द्वारा उन पर किए गए कार्य के लिए सच्चे दिल से आभारी होते हैं? (वे नहीं होते।) जब वे दिखावे के लिए ही बनावटी आभार व्यक्त करते हैं, तब भी अपने दिल की गहराई में यही सोचते हैं कि, “परमेश्वर ने मुझे चुन कर सही किया। अगर उसने मुझे नहीं चुना होता तो फिर मैं उस पर विश्वास कैसे करता?” अंत में वे इसे अपने सहन किए सभी कष्टों और अपने द्वारा चुकाई गई कीमतों का उचित बदला बताते हैं और वे सोचते हैं कि उन्हें व्यावहारिक तौर पर आशीष प्राप्त करने का आश्वासन दिया गया है। वे खुद को परमेश्वर के प्रति कर्जदार महसूस नहीं करते, उनमें खुद की समझ नहीं होती, और उनके दिल में परमेश्वर के प्रति सच्चा आभार और भी कम होता है, जबकि दूसरी तरफ आशीष प्राप्त करने की उनकी इच्छा और भी अधिक तीव्र हो जाती है। जिन लोगों की आशीष प्राप्त करने की इच्छा और भी अधिक बढ़ जाती है और जो लोग जो खुद को आशीष प्राप्त करने, परमेश्वर का आश्वासन प्राप्त करने और परमेश्वर के निर्देशन और मार्गदर्शन के योग्य नहीं समझते, उनके बीच क्या अंतर होता है? एक पीछे हट रहा होता है, लड़ना नहीं चाहता और खुद को आशीष प्राप्त करने योग्य नहीं समझता, जबकि दूसरा हमेशा लड़ने के लिए तैयार रहता है, हमेशा यही योजना बनाता और हिसाब-किताब करता रहता है कि वह परमेश्वर के साथ हिसाब कैसे चुकता करे, वे सोचते हैं : “मैं इतने वर्षों से विश्वासी रहा हूँ और मैंने बहुत कष्ट सहा है, तो फिर अब मेरे आशीष प्राप्त करने की कितनी संभावना है? क्या परमेश्वर भविष्य में मुझे आशीष देगा?” इन दोनों के बीच फर्क साफ है : एक लड़ रहा है, जबकि दूसरा खुद को योग्य नहीं समझता। इन दोनों प्रकार के लोगों में से किसके पास जमीर और विवेक है? (वह जो खुद को आशीष के योग्य नहीं समझता।) वह जो खुद को आशीष के योग्य नहीं समझता, वह वास्तविक स्थिति को समझता है। उन्हें लगता है कि एक मामूली सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के सामने आशीष प्राप्त करने के योग्य नहीं है। वे खुद को कर्जदार और पश्चात्तापी महसूस करते हैं, जबकि उनमें सच्ची समझ भी होती है, और इससे भी बढ़कर उनके दिल की गहराई में परमेश्वर के प्रति वास्तविक आभार होता है। उन्हें अपना असली मुकाम मिल गया है। दूसरे प्रकार के लोग लड़ रहे हैं : वे एक मंजिल के लिए, हैसियत के लिए और आशीष के लिए लड़ रहे हैं। इन सभी कष्टों को सहने और इन सभी कीमतों को चुकाने के पीछे उनका लक्ष्य क्या है? वे ये चीजें आशीष और मंजिल के बदले करते हैं। वे अपनी मेहनत के बदले में परमेश्वर से इनाम पाने की उम्मीद रखते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की नजरों में एक सच्चा सृजित प्राणी है? क्या यह वह सृजित प्राणी है जिसे परमेश्वर चाहता है? (नहीं।) क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है कि आशीष या इनाम प्राप्त करने का एकमात्र तरीका उनके लिए लड़ना होता है? (नहीं।) तो परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा करता है? (यह कि हम ईमानदारी और सच्चाई से आचरण करके सृजित प्राणी की तरह अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाएँ।) (यह कि हम लोग ईमानदार बनें।) ये कुछ ठोस मांगें हैं, और मांगें क्या हैं? (यह कि हम अपने कार्यों में परमेश्वर के वचन और मांगों का पालन करें।) (यह कि हम जितना भी सत्य जानते हैं उसका अभ्यास करें।) ये असल उद्देश्य नहीं हैं। तुम लोग मामले की जड़ को ही छोड़ रहे हो। तुम लोग अभी भी नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों से असल में क्या अपेक्षा रखता है। वास्तव में उसकी अपेक्षाएँ काफी आसान हैं : उसके वचन को सुनो और उसके प्रति समर्पण करो। ये अपेक्षाएँ हैं। परमेश्वर के वचन सुनने का अर्थ लोगों के लिए अपेक्षाओं को अभ्यास में लाना होता है। जिन अपेक्षाओं का तुम लोगों ने अभी उल्लेख किया है, वास्तव में उनके अलावा और भी बहुत सी अपेक्षाएँ होती हैं। परमेश्वर के प्रति समर्पण को लेकर क्या? तुम हमेशा परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते, लेकिन क्या तुम उसके प्रति समर्पण करने में समर्थ हो? इसका संबंध सृष्टिकर्ता के प्रति सृजित प्राणी के रवैये से होता है। कभी-कभी हो सकता है कि परमेश्वर के वचन को पढ़ने के बाद शायद तुम उसे न समझो, क्योंकि वह तुम्हें केवल एक आदेश देता है—क्या तुम इसे सुनते हो? तुम्हें यह पूछे बिना इसे सुनना चाहिए कि यह सही है या गलत, या इसके पीछे कारण क्या है। जो कुछ भी परमेश्वर तुमसे कहता या बताता है, या तुम्हें करने के लिए कहता है, तुम्हें उसे अवश्य सुनना चाहिए; यही समर्पण है। जब तुम ऐसा समर्पण प्राप्त कर लोगे तो ही तुम परमेश्वर की नजर में सृजित प्राणी माने जाओगे। परमेश्वर के वचन को सुनना और उसके प्रति समर्पण करना : ये लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं। एक और वाक्यांश है : परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना। इस “अनुसरण करने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास करना, उसके वचन के अनुसार जीना और एक ऐसा व्यक्ति बनना जो उसक मार्ग का अनुसरण करता है। उसका मार्ग क्या है? उसका वचन ही उसका मार्ग है। वास्तव में, “परमेश्वर के वचन को सुनना और उसके प्रति समर्पण करना” और “परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना” दोनों का एक ही अर्थ है, और परमेश्वर इसी प्रकार का व्यक्ति चाहता है। क्या परमेश्वर ने कभी लोगों को यह कहा है, “तुम्हें मेरे वचन सुनने की आवश्यकता नहीं है। तुम केवल आशीष प्राप्त करने के पीछे भाग सकते हो। कभी मत भूलो कि तुम्हें आशीष मिल सकता है। यह उद्देश्य पाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्याग देना चाहिए, अधिक कठिनाइयाँ सहनी चाहिए, अधिक कीमतें चुकानी चाहिए और अधिक दौड़-भाग करनी चाहिए”? क्या परमेश्वर की ये अपेक्षाएँ हैं? क्या उसने अपने वचन में कहीं इनका उल्लेख किया है? (नहीं।) क्या वो वचन सत्य हैं? (नहीं।) क्या छद्म-विश्वासी लोगों के लिए इन वचनों को सत्य मानना विद्रोह नहीं है? जब वे इन वचनों को सत्य मान रहे होते हैं तो क्या चल रहा होता है? वे इन वचनों से लाभ उठा सकते हैं क्योंकि वे असल में अपने लक्ष्य और अपनी महत्वाकांक्षा ही तो होते हैं। क्या वे अपने दिलों में इस बात पर ध्यान देते हैं कि परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा रखता है? क्या वे इन अपेक्षाओं का पालन कर सकते हैं या उन्हें पूरा कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि जैसे ही वे ये अपेक्षाएँ पूरी करते हैं—परमेश्वर के वचन सुनना और उसके प्रति समर्पण करना—तो इसका अर्थ यह होगा कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा और यह विचार त्यागना होगा कि उन्हें आशीषों और इनामों के पीछे भागने का अधिकार है। आशीष और इनाम पाना उनके जीवन का आधार है, तो क्या वे उन्हें छोड़ने के लिए सहमत होंगे? (नहीं।) ये चीजें ही उनका जीवन हैं, इसलिए यदि वे इन्हें छोड़ देते हैं, तो वे अपनी आत्मा खो देंगे और उनके जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। वे आशीष प्राप्त करने के लिए जीते हैं, इसलिए यदि तुम उन्हें आशीष प्राप्त करना छोड़ने के लिए कहोगे, तो तुम उन्हें अपने आचरण के सिद्धांतों और नीति के खिलाफ जाने और खुद के खिलाफ विद्रोह के लिए कह रहे होगे, इसलिए वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते। इसका अर्थ यह है कि उनसे सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के वचन को सुनने और उसके समर्पण के लिए कहना, यह उनके लिए एक बूढ़ी गाय को पेड़ पर चढ़ाने से भी ज्यादा कठिन कार्य है। उनकी प्रकृति ही बताती है कि वे ये चीजें नहीं कर सकते।

क्या तुम लोग आशीष प्राप्त करने की इच्छा और इरादे के साथ जीना चाहते हो या तुम व्यावहारिक और वास्तविक दृष्टिकोण के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहते हो, एक सक्षम सृजित प्राणी और ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हो जो परमेश्वर के वचन को सुनता है और उसके प्रति समर्पण करता है? तुम लोग किस तरह के व्यक्ति बनना चाहते हो? (मैं व्यावहारिक और वास्तविक दृष्टिकोण वाला सृजित प्राणी बनना चाहता हूँ।) कुछ लोग ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होते। वे कहते हैं : “यह तो बहुत दमनकारी जीवन है। मैं इससे बेहतर मरना पसंद करूँगा या विश्वास करना बंद कर दूँगा। थोड़ी सी आशीष की इच्छा और महत्वाकांक्षा के बिना लोगों के पास कोई प्रेरणा नहीं रहती। मैं तो इस तरह से कभी नहीं रह सकता; यह बहुत दमनकारी जीवन है।” क्या तुम लोगों में से कोई ऐसा है? (हे परमेश्वर, मैं कभी-कभी ऐसा सोचता हूँ। समय-समय पर मेरी भी यही दशा होती है।) क्या ये दशाएँ सामान्य हैं? क्या ये अक्सर रहती हैं या कभी-कभार? क्या ज्यादा प्रबल होती हैं : आशीष प्राप्त करने की तुम लोगों की इच्छा या एक सृजित प्राणी बनने की तुम्हारी इच्छा? क्या आशीष प्राप्त करने की किसी भी इच्छा को छोड़ने और व्यावहारिक और वास्तविक दृष्टिकोण के साथ अपने कर्तव्य निभाने के इस विचार की वजह से तुम में से कोई खुद को पिचके हुए गुब्बारे जैसा महसूस करता है, मानो तुम्हारे जीवन का कोई अर्थ नहीं है और तुम्हें किसी भी चीज में कोई दिलचस्पी नहीं है और तुम अपनी ऊर्जा वापस नहीं ला सकते? (सुनकर लगता है जैसे यह मेरे बारे में है।) तो क्या यह दशा गंभीर है? क्या तुम आशीष प्राप्त करने की कभी-कभार मामूली इच्छा महसूस करते हो, या यह तुम्हारा रोज का काम है? इनमें से क्या है? क्या तुम लोगों को अभी पता है कि तुम एक सच्चे विश्वासी हो या छद्म-विश्वासी? यदि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी सभी दशाएँ और व्यवहार एक सच्चे विश्वासी वाले हैं, न कि एक छद्म-विश्वासी वाले, और यह कि तुम वास्तव में परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो और उसके वचन को स्वीकार करने के लिए तैयार हो, लेकिन तुम्हारी बस कुछ महत्वाकांक्षाएँ हैं और तुम्हें थोड़ा बहुत घमंड है, और तुम आशीष प्राप्त करने की आशा करते हो, तो यह कोई समस्या नहीं है; तुम अभी भी बचाए जा सकते हो और अभी भी बदल सकते हो। यदि तुम एक छद्म-विश्वासी हो और तुम्हारे दिल में आशीष प्राप्त करने की बहुत प्रबल इच्छा है, तो फिर तुम परेशानी में हो। इस तरह के लोग किस मार्ग की तरफ बढ़ रहे हैं? (एक मसीह विरोधी के मार्ग पर।) यदि वे मसीह विरोधी के मार्ग की ओर बढ़ने में सक्षम हैं, तो अंततः परमेश्वर के साथ उनका संबंध किस हालत में समाप्त होगा? (परमेश्वर के विरोध की हालत में।) क्या तुम लोग वहाँ तक जाने में सक्षम हो, परमेश्वर के विरोध की हद तक? (मैं उसका विरोध नहीं करना चाहता।) उसका विरोध न करना केवल तुम्हारी इच्छा है। क्या ये चीजें तुम्हारे प्रकृति सार का हिस्सा हैं? क्या तुम्हारे लिए इस रास्ते पर चलना संभव होगा? (यदि मैं सत्य के संबंध में प्रयास न करूँ, तो मैं आसानी से उस मार्ग पर जा सकता हूँ, लेकिन यदि मैं इसके प्रति सचेत रहूँ और खुद को बदलना चाहूँ, अपने मार्ग को बदलना चाहूँ और इस मार्ग पर न चलना चाहूँ, तो मैं कुछ बेहतर कर सकता हूँ।) इसके प्रति सचेत होना इस बात का संकेत है कि तुम्हारे दिल में अभी भी थोड़ी जागरूकता है, यह कि तुम्हारे अंदर अभी भी कुछ तमन्ना है और तुम अभी भी सत्य की ओर प्रयास करना चाहते हो, लेकिन भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे दिल की गहराई में जड़ें जमाए हुए हैं, इसलिए वहाँ हमेशा संघर्ष चलता रहता है। सत्य की ओर उठाए जाने वाले हर कदम के साथ और हर बार जब तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तो तुम लोगों के दिल में संघर्ष चल रहा होता है, और तुम लोग लगातार संघर्ष के काल में जी रहे होते हो। नए विश्वासियों के साथ ऐसा ही होता है। संघर्ष होना काफी सामान्य बात है और जो लोग सत्य का अनुसरण करना चाहते हैं उनके लिए यह अनिवार्य है। जब वे लोग सत्य को प्राप्त कर लेते हैं, जब शैतान पराजित हो जाता है, जब उनके शैतानी स्वभाव, फलसफे और तर्क नष्ट हो जाते हैं, और जब सत्य जीत रहा होता है और उनके दिलों पर कब्जा कर लेता है तो यह संघर्ष अपने निष्कर्ष पर पहुँचता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, जिन्हें लगता है कि उनके दिल में सब ठीक है और वहाँ कोई संघर्ष नहीं है। वे भावनाहीन और मंदबुद्धि हैं, वे मृतकों में से एक हैं; जो लोग भी सत्य को स्वीकार नहीं करते वे मर चुके हैं। अपने दिल में संघर्ष होने का क्या लाभ होता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे आधे विचार नकारात्मक और आधे सकारात्मक हैं, तो यह सकारात्मक विचार तुम्हें संघर्ष समाप्त होने के बाद सत्य का अनुसरण करने वाले मार्ग पर चलने का चयन करने का मौका देंगे, जिसका अर्थ है कि तुम्हारे पास बचाए जाने की 50/50 उम्मीद होगी। नकारात्मक विचार तुम्हें द्वंद्व के दौरान अपने देह के खयाल और विचारों का पालन करने या अपने खुद के इरादों, प्रेरणाओं और दृष्टिकोणों का पालन करने को मजबूर कर सकते हैं। इस कारण तुम मसीह विरोधी के मार्ग पर जा सकते हो, और परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर चल सकते हो। हालाँकि यदि सत्य के लिए तुम्हारे दिल में ज्यादा प्रेम है और तुम सत्य को स्वीकार करने और शैतान के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, तो तुम्हारे लिए उद्धार पाने के मौके भी बहुत अधिक हैं। यह इस बात से तय होता है कि क्या तुम सत्य को स्वीकार कर सकते हो और अपने भ्रष्ट स्वभावों को स्वच्छ करने के लिए इसका उपयोग कर सकते हो या नहीं। यह पूरी तरह से तुम पर निर्भर करता है, इस बारे में कोई और तुम्हारी मदद नहीं कर सकता; यह तुम्हारा अपना मामला है। तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं, यह तुम्हारा अपना मामला है और जब तुम्हारे दिल की गहराई में कोई संघर्ष चलता है, तो कोई भी यह तय करने में तुम्हारी मदद नहीं कर सकता कि अंत में क्या तुम सत्य को चुनोगे या अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करोगे, यह तुम्हारा अपना आंतरिक मामला है। दूसरे केवल संगति और परामर्श के माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकते हैं; हालाँकि अंत में तुम जो रास्ता चुनते हो वह किसी और का मामला नहीं बल्कि तुम्हारा मामला है। हर किसी को यह बात समझ लेनी चाहिए।

22 अगस्त 2019

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