जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं

सभी मनुष्य यीशु का सच्चा रूप देखना चाहते हैं, और सभी उसके साथ रहने की इच्छा करते हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भाई-बहन यह कहेगा कि वह यीशु को देखना या उसके साथ रहना नहीं चाहता। यीशु को देखने से पहले—देहधारी परमेश्वर को देखने से पहले—तुम लोगों द्वारा तमाम तरह के विचार रखने की संभावना है, उदाहरण के लिए, यीशु के रूप के बारे में, उसके बोलने के तरीके, उसकी जीवन-शैली इत्यादि के बारे में। लेकिन एक बार उसे वास्तव में देख लेने के बाद तुम लोगों के विचार तेजी से बदल जाएँगे। ऐसा क्यों होता है? क्या तुम लोग जानना चाहते हो? यह सच है कि मनुष्य की सोच नजरअंदाज नहीं की जा सकती—लेकिन इससे भी बढ़कर, मसीह का सार इंसान द्वारा किए जाने वाले किसी भी परिवर्तन को सहन नहीं करता। तुम लोग मसीह को अविनाशी या एक संत मानते हो, लेकिन कोई भी उसे दिव्य सार रखने वाला सामान्य मनुष्य नहीं मानता। इसलिए, दिन-रात परमेश्वर को देखने की लालसा रखने वालों में से अनेक लोग वास्तव में परमेश्वर के शत्रु हैं और परमेश्वर के साथ असंगत हैं। क्या यह मनुष्य की गलती नहीं है? तुम लोग अभी भी यह सोचते हो कि तुम लोगों का विश्वास और तुम्हारी निष्ठा तुम्हें मसीह का चेहरा देखने योग्य बनाने के लिए पर्याप्त है, लेकिन मैं तुम लोगों से आग्रह करता हूँ कि तुम अपने आपको और ज्यादा व्यवहारिक चीजों से युक्त कर लो! क्योंकि अतीत, वर्तमान और भविष्य में मसीह के संपर्क में आने वालों में से अनेक लोग असफल हो गए हैं या हो जाएँगे; वे सभी फरीसियों की भूमिका निभाते हैं। तुम लोगों की असफलता का क्या कारण है? इसका वास्तविक कारण यह है कि तुम्हारी धारणाओं में एक ऐसा परमेश्वर है, जो ऊँचा और प्रशंसनीय है। लेकिन सत्य वैसा नहीं है, जैसा मनुष्य चाहता है। न केवल मसीह ऊँचा नहीं है, बल्कि वह विशेष रूप से छोटा है; न केवल वह मनुष्य है, बल्कि वह एक साधारण मनुष्य है; न केवल वह स्वर्ग में आरोहित नहीं हो सकता, बल्कि वह पृथ्वी पर भी स्वतंत्रतापूर्वक नहीं घूम सकता। इसीलिए लोग उसके साथ सामान्य मनुष्य जैसा व्यवहार करते हैं; जब वे उसके साथ होते हैं, तो उससे बेतकल्लुफी भरा व्यवहार करते हैं, उससे लापरवाही से बात करते हैं, और इस पूरे समय “सच्चे मसीह” के आने का इंतजार भी करते रहते हैं। तुम लोग पहले ही आ चुके मसीह को एक साधारण मनुष्य समझते हो, और उसके वचनों को साधारण मनुष्य के शब्द मानते हो। इसीलिए तुम लोगों ने मसीह से कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, बल्कि अपनी कुरूपता ही प्रकाश में पूरी तरह से उजागर कर दी है।

मसीह के संपर्क में आने से पहले तुम लोग यह मान सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव पूरी तरह से बदल चुका है, कि तुम मसीह के निष्ठावान अनुयायी हो, कि तुमसे ज्यादा मसीह के आशीष पाने के योग्य कोई नहीं है—और यह कि कई मार्गों पर यात्रा कर लेने, बहुत सारा काम कर डालने, और बहुत परिणाम ले आने के कारण तुम निश्चित ही उनमें से एक होगे, जिन्हें अंततः मुकुट मिलेगा। लेकिन एक सत्य शायद तुम नहीं जानते : जब मनुष्य मसीह को देखता है, तो उसका भ्रष्ट स्वभाव और उसका विद्रोह और प्रतिरोध उजागर हो जाता है, और उस समय उजागर होने वाला विद्रोह और प्रतिरोध किसी अन्य समय की तुलना में ज्यादा पूर्ण रूप में और पूरी तरह से उजागर होता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मसीह मनुष्य का पुत्र है—मनुष्य का ऐसा पुत्र, जिसमें सामान्य मानवता है—इसलिए मनुष्य न तो उसका सम्मान करता है और न ही उसका आदर करता है। चूँकि परमेश्वर देह में रहता है, इसलिए मनुष्य का विद्रोह इतनी अच्छी तरह और इतने विशद विवरण के साथ प्रकाश में आ जाता है। अतः मैं कहता हूँ कि मसीह के आगमन ने मानवजाति का समस्त विद्रोह उजागर कर दिया है और मानवजाति का स्वभाव बहुत स्पष्ट कर दिया है। इसे कहते हैं “बाघ को फुसलाकर पहाड़ के नीचे लाना” और “भेड़िए को फुसलाकर उसकी गुफा से बाहर लाना।” क्या तुम यह कहने की कल्पना करने की हिम्मत कर सकते हो कि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो? क्या तुम यह कहने की कल्पना करने की हिम्मत कर सकते हो कि तुम परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण दिखाते हो? क्या तुम यह कहने की कल्पना करने की हिम्मत कर सकते हो कि तुम विद्रोही नहीं हो? कुछ लोग कहेंगे : “जब भी परमेश्वर मुझे एक नए परिवेश में रखता है, मैं बिना किसी बड़बड़ाहट के निरपवाद रूप से समर्पित हो जाता हूँ और इतना ही नहीं, मैं परमेश्वर के बारे में कोई धारणा नहीं बनाता।” कुछ लोग कहेंगे : “परमेश्वर मुझे जो भी काम देता है, मैं उसे अपनी पूरी योग्यता के साथ करता हूँ और कभी लापरवाह नहीं होता।” इस स्थिति में, मैं तुम लोगों से यह पूछता हूँ : क्या तुम लोग मसीह के साथ रहते हुए उसके साथ संगत हो सकते हो? और तुम कब तक उसके साथ संगत रहोगे? एक दिन? दो दिन? एक घंटा? दो घंटे? तुम लोगों की आस्था प्रशंसनीय हो सकती है, लेकिन तुम लोगों में दृढ़ता कुछ खास नहीं है। जब तुम सच में मसीह के साथ रहते हो, तो तुम्हारे शब्दों और कार्यों से तुम्हारा दंभ और अहंकार थोड़ा-थोड़ा करके प्रकट होने लगेगा, और इसी प्रकार तुम्हारी अत्यधिक इच्छाएँ, अवज्ञाकारी मानसिकता और असंतोष स्वाभाविक रूप से उजागर हो जाएँगे। अंततः तुम्हारा अहंकार और भी बड़ा हो जाएगा, जब तक कि तुम मसीह से उतने ही विपरीत नहीं हो जाते जितना पानी आग से होता है, और तब तुम्हारी प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो जाएगी। उस समय तुम्हारी धारणाएँ छिपी नहीं रह सकेंगी, तुम्हारी शिकायतें भी स्वाभाविक रूप से बाहर आ जाएँगी, और तुम्हारी नीच मानवता पूरी तरह से उजागर हो जाएगी। किंतु फिर भी, तुम अभी भी अपनी विद्रोहशीलता स्वीकारने से इनकार करते हो, और उसके बजाय यह मानते हो कि ऐसे मसीह को स्वीकार करना मनुष्य के लिए आसान नहीं है, वह मनुष्य के प्रति बहुत कठोर है, और अगर वह कोई अधिक दयालु मसीह होता तो तुम पूरी तरह से समर्पित हो जाते। तुम लोग यह मानते हो कि तुम्हारी विद्रोहशीलता जायज है, तुम उसके विरुद्ध विद्रोह तभी करते हो, जब वह तुम लोगों को हद से ज्यादा मजबूर कर देता है। तुम लोगों ने कभी यह विचार नहीं किया कि तुम मसीह को परमेश्वर नहीं मानते, कि तुम्हारा उसके प्रति समर्पित होने का इरादा नहीं है। बल्कि, तुम ढिठाई से यह आग्रह करते हो कि मसीह तुम्हारी इच्छाओं के अनुसार काम करे, और जब वह एक भी काम ऐसा करता है जो तुम्हारी सोच के विपरीत होता है, तो तुम मान लेते हो कि वह परमेश्वर नहीं, मनुष्य है। क्या तुम लोगों में से कई लोग ऐसे नहीं हैं, जिन्होंने उसके साथ इस तरह से विवाद किया है? आखिर वह कौन है, जिस पर तुम लोग विश्वास करते हो? और तुम लोग किस तरह से खोजते हो?

तुम लोग हमेशा मसीह को देखने की कामना करते हो, लेकिन मैं तुम लोगों से आग्रह करता हूँ कि तुम अपने आपको इतना ऊँचा मत समझो; हर कोई मसीह को देख सकता है, लेकिन मैं कहता हूँ कि कोई भी मसीह को देखने लायक नहीं है। क्योंकि मनुष्य का स्वभाव बुराई, अहंकार और विद्रोह से भरा हुआ है, जिस क्षण तुम मसीह को देखोगे, तुम्हारी प्रकृति तुम्हें बरबाद कर देगी और मार डालेगी। किसी भाई (या बहन) के साथ तुम्हारा जुडाव शायद तुम्हारे बारे में बहुत-कुछ न दिखाए, लेकिन जब तुम मसीह से जुड़ते हो तो यह इतना आसान नहीं होता। किसी भी समय तुम्हारी धारणा जड़ पकड़ सकती है, तुम्हारा अहंकार पनपना शुरू हो सकता है, और तुम्हारा विद्रोह फल-फूल सकता है। ऐसी मानवता के साथ तुम लोग कैसे मसीह से जुड़ने के काबिल हो सकते हो? क्या तुम उसे हर दिन, हर पल परमेश्वर मान सकते हो? क्या तुममें सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता होगी? तुम लोग अपने हृदय में यहोवा जैसे ऊँचे परमेश्वर की आराधना करते हो, लेकिन दृष्टिगोचर मसीह को मनुष्य समझते हो। तुम लोगों की समझ बहुत हीन है और मानवता बहुत भ्रष्ट! तुम लोग मसीह को सदैव परमेश्वर मानने में असमर्थ हो; कभी-कभार ही, जब तुम्हारा मन होता है, तुम उसकी ओर लपकते हो और परमेश्वर के रूप में उसकी आराधना करते हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोग परमेश्वर के विश्वासी नहीं हो, बल्कि उन सह-अपराधियों की टोली हो, जो मसीह से लड़ते हैं। दूसरों के प्रति हमदर्दी दिखाने वाले लोगों तक को प्रतिफल दिया जाता है, लेकिन मसीह को, जिसने तुम्हारे बीच ऐसा कार्य किया है, न तो मनुष्य का प्रेम मिला है और न ही उसकी कोई प्रतिपूर्ति या समर्पण। क्या यह हृदय-विदारक बात नहीं है?

हो सकता है, परमेश्वर में अपने इतने वर्षों के विश्वास के दौरान तुमने कभी किसी को कोसा न हो या कोई बुरा कार्य न किया हो, फिर भी अगर मसीह के साथ अपने जुड़ाव में तुम सच नहीं बोल सकते, ईमानदारी से कार्य नहीं कर सकते, या मसीह के वचन को समर्पित नहीं हो सकते; तो मैं कहूँगा कि तुम संसार में सबसे अधिक कुटिल और दुष्ट व्यक्ति हो। तुम अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पत्नी (या पति), बेटे-बेटियों और माता-पिता के प्रति अत्यंत सौम्य और निष्ठावान हो सकते हो, और शायद कभी दूसरों का फायदा न उठाते हो, लेकिन अगर तुम मसीह के साथ संगत नहीं हो पाते, उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाते, तो भले ही तुम अपने पड़ोसियों की सहायता के लिए अपना सब-कुछ खपा दो या अपने माता-पिता और घरवालों की अच्छी देखभाल करो, तब भी मैं कहूँगा कि तुम दुष्ट व्यक्ति हो, और इतना ही नहीं, शातिर चालों से भरे हुए हो। खुद को सिर्फ इसलिए मसीह के साथ संगत मत समझो कि तुम दूसरों के साथ अच्छा तालमेल बिठा लेते हो या कुछ अच्छे कर्म कर लेते हो। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारा परोपकारी इरादा स्वर्ग के आशीष बटोर सकता है? क्या तुम्हें लगता है कि थोड़े-से अच्छे काम कर लेना तुम्हारे समर्पण का स्थान ले सकता है? तुम लोगों में से एक भी व्यक्ति काट-छाँट स्वीकार नहीं कर पाता, और तुम सभी को मसीह की सरल मानवता अपनाने में कठिनाई होती है, फिर भी तुम परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण का निरंतर ढोल पीटते रहते हो। तुम लोगों जैसी आस्था उचित प्रतिकार लाएगी। काल्पनिक भ्रमों में लिप्त होना और मसीह को देखने की इच्छा करना छोड़ दो, क्योंकि तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, यहाँ तक कि तुम उसे देखने के योग्य भी नहीं हो। जब तुम अपनी विद्रोहशीलता से पूरी तरह मुक्त हो जाओगे, और मसीह के साथ समरसता स्थापित कर पाओगे, उसी समय परमेश्वर स्वाभाविक रूप से तुम्हारे सामने प्रकट होगा। यदि तुम काट-छाँट या न्याय से गुजरे बिना परमेश्वर को देखने जाते हो, तो तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के विरोधी बन जाओगे और विनाश तुम्हारी नियति बन जाएगा। मनुष्य की प्रकृति जन्मजात परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है, क्योंकि सभी मनुष्य शैतान की गहरी भ्रष्टता के अधीन रहे हैं। यदि मनुष्य अपनी भ्रष्टता के बीच से परमेश्वर से जुड़ने का प्रयास करता है, तो यह निश्चित है कि इसका कोई अच्छा परिणाम नहीं हो सकता; उसके कार्य और शब्द निश्चित रूप से हर मोड़ पर उसकी भ्रष्टता उजागर करेंगे; और परमेश्वर के साथ जुड़ने में उसकी विद्रोहशीलता अपने हर पहलू में प्रकट होगी। मनुष्य अनजाने ही मसीह का विरोध कर देता है, मसीह को धोखा दे देता है, और मसीह को त्याग देता है; जब ऐसा होता है तो मनुष्य और ज़्यादा संकट की स्थिति में होगा, और यदि यह जारी रहा, तो वह दंड का भागी बन जाएगा।

कुछ लोग यह मान सकते हैं कि यदि परमेश्वर के साथ जुड़ाव इतना खतरनाक है, तो बुद्धिमानी यही होगी कि परमेश्वर से दूर रहा जाए। ऐसे लोगों को भला क्या हासिल हो सकता है? क्या वे परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो सकते हैं? निश्चित ही, परमेश्वर के साथ जुड़ाव बहुत कठिन है—लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य भ्रष्ट है, न कि इसलिए कि परमेश्वर मनुष्य के साथ जुड़ नहीं सकता। तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम लोग स्वयं को जानने के सत्य पर ज्यादा मेहनत करो। तुम लोगों को परमेश्वर का अनुग्रह क्यों नहीं मिला? तुम्हारा स्वभाव उसके लिए घिनौना क्यों है? तुम्हारा बोलना उसके अंदर जुगुप्सा क्यों उत्पन्न करता है? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखा देते हो, तुम अपनी तारीफ के गीत गाने लगते हो और अपने छोटे-से योगदान के लिए पुरस्कार माँगने लगते हो; जब तुम थोड़ी-सी आज्ञाकारिता दिखा देते हो, तो दूसरों को नीची निगाह से देखने लगते हो; और कुछ छोटे-मोटे काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर की अवहेलना करने लगते हो। परमेश्वर का स्वागत करने के बदले में तुम लोग धन, उपहार और प्रशंसा माँगते हो। एक-दो सिक्के देते हुए भी तुम्हारा दिल दुखता है; जब तुम दस सिक्के देते हो तो तुम आशीष दिए जाने और दूसरों से विशिष्ट माने जाने की अभिलाषा करते हो। तुम लोगों जैसी मानवता के बारे में तो बात करना या सुनना भी अपमानजनक है। क्या तुम्हारे शब्दों और कार्यों में कुछ भी प्रशंसा-योग्य है? जो अपना कर्तव्य निभाते हैं और जो नहीं निभाते; जो अगुआई करते हैं और जो अनुसरण करते हैं; जो परमेश्वर का स्वागत करते और जो नहीं करते; जो दान देते हैं और जो नहीं देते; जो उपदेश देते हैं और जो वचन ग्रहण करते हैं, इत्यादि : ऐसे सभी लोग अपनी तारीफ करते हैं। क्या तुम लोगों को यह हास्यास्पद नहीं लगता? यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर के साथ संगत नहीं हो सकते हो। यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि तुम लोग बिलकुल अयोग्य हो, तुम डींगें मारते रहते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि तुम्हारी समझ इस हद तक खराब हो गई है कि अब तुममें आत्म-नियंत्रण नहीं रहा? इस तरह की समझ के साथ तुम परमेश्वर से जुड़ने के योग्य कैसे हो? क्या तुम लोगों को इस मुकाम पर अपने बारे में डर नहीं लगता? तुम्हारा स्वभाव पहले ही इस हद तक खराब हो चुका है कि तुम परमेश्वर के साथ संगत होने में असमर्थ हो। इस बात को देखते हुए, क्या तुम लोगों की आस्था हास्यास्पद नहीं है? क्या तुम्हारी आस्था बेतुकी नहीं है? तुम अपने भविष्य से कैसे निपटोगे? तुम कैसे चुनोगे कि कौन-सा मार्ग लेना है?

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