परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्य प्राप्त करने में बुनियादी सबक है
यदि तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के कारण परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हो, तो स्वयं को जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्वयं को जाने बिना, तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं त्याग पाओगे। जीवन प्रवेश की शुरुआत आत्म-ज्ञान से होती है। यदि तुम कुछ भ्रष्टाचार प्रकट करते हो या परमेश्वर के लिए घृणित या उसे आहत करने वाली चीजें करते हो, यदि तुम बेवकूफी करते हो, तो तुम्हें बाद में आत्मचिंतन करना होगा। भ्रष्टाचार दूर करने में आत्मचिंतन तुम्हारी मदद कैसे कर सकता है? सत्य का अभ्यास करने वाले लोग इस बात पर चिंतन करते हैं : “जो हुआ उसने वास्तव में मुझे बेनकाब कर दिया। मेरा स्वभाव भ्रष्ट है, और इस भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों की ताड़ना और न्याय को स्वीकारना होगा। यह बहुत अच्छी बात है कि परमेश्वर ने इस स्थिति के माध्यम से मेरा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है। चाहे दूसरे लोग मेरे बारे में कुछ भी सोचें या वे मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करें, मुझे सत्य की खोज करनी है, परमेश्वर के इरादे समझने हैं, और जानना है कि सत्य का अभ्यास करने के लिए क्या करना होगा।” यह सही रवैया है, और यह सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने का रवैया है। परमेश्वर में विश्वास के लिए सत्य स्वीकारना आवश्यक है—यही सही रवैया है। जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, वे समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी किसी और पर डालते हुए बहाने और कारण ढूँढ़ते फिरते हैं। वे हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि दूसरे लोग उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते, उनका खयाल नहीं रखते या उनकी देखभाल नहीं करते। वे सभी तरह के तर्क ढूँढते हैं। ये सब कारण खोजने का क्या मतलब है? क्या यह तुम्हारे सत्य के अभ्यास की जगह ले सकता है? क्या यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण की जगह ले सकता है? नहीं, यह नहीं ले सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि, चाहे तुम्हारे पास कैसा भी तर्क हो, भले ही तुम्हारे पास आसमान से भी बड़ी शिकायतें हों, यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते हो तो तुम्हारा काम तमाम है! परमेश्वर देखना चाहता है कि तुम्हारा रवैया क्या है, विशेषकर सत्य को अभ्यास में लाने को लेकर। क्या तुम्हारा शिकायत करना किसी काम का है? क्या तुम्हारी शिकायतें भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल कर सकती हैं? यदि तुम शिकायत करो और खुद को न्यायसंगत महसूस करो, तो इससे तुम्हारे बारे में क्या पता चलेगा? क्या तुमने सत्य पा लिया होगा? क्या परमेश्वर तुम्हें स्वीकारेगा? यदि परमेश्वर कहता है, “तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो, इसलिए रास्ते से हट जाओ। मैं तुमसे घृणा करता हूँ,” तो क्या तुम्हारा काम तमाम नहीं हो चुका है? परमेश्वर का यह कहना कि, “मैं तुमसे घृणा करता हूँ” तुम्हें बेनकाब कर देगा और निर्धारित कर देगा कि तुम कौन हो। परमेश्वर तुम्हारे बारे में निर्धारण क्यों करेगा? क्योंकि तुम सत्य नहीं स्वीकारते हो; तुम परमेश्वर के आयोजनों और उसकी संप्रभुता को नहीं स्वीकारते हो। तुम हमेशा बाहरी कारण तलाश करते रहते हो, हमेशा दूसरों पर चीजें थोपते रहते हो। परमेश्वर तुम्हें अतर्कसंगत, जिद्दी और काबू में न आ सकने वाले व्यक्ति के रूप में देखता है, जिसमें सत्य के प्रति समझ और प्रेम की कमी है। तुम्हें अलग-थलग कर तुम्हारी उपेक्षा करनी होगी ताकि तुम आत्म-चिंतन कर सको। तुम्हें धर्मोपदेश और सत्य पर संगति सुनाने का उद्देश्य यह है कि तुम सत्य समझ सको, अपनी समस्याएँ हल कर सको और अपना भ्रष्टाचार दूर कर सको। क्या सत्य तुम्हारे लिए बकबक करने की चीज है? क्या सत्य तुम्हारे लिए कुछ ऐसा है जिससे दिखावाटी प्रेम करोगे और काम हो जाएगा? क्या सत्य की समझ को तुम्हारी आत्मा के खोखलेपन की भरपाई करने के लिए एक आध्यात्मिक सहारे के रूप में कार्य करना चाहिए? नहीं, तुम्हें इसका उपयोग इस उद्देश्य के लिए नहीं करना है। सत्य इसलिए है ताकि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर सको। यह तुम्हें एक रास्ता बताने के लिए है ताकि जब तुम्हारे सामने समस्याएँ आएँ तो तुम इन सत्यों के अनुसार जी सको, और जीवन में उचित रास्ता अपना सको। एक बार जब तुम्हें सत्य समझ आ गया, तो तुम अपनी स्वाभाविकता, अपने भ्रष्टाचार या अपनी शैतानी शिक्षा की चीजों के आधार पर कार्य नहीं करोगे। अब तुम अपना जीवन शैतानी तर्क या सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार नहीं जिओगे। इसके बजाय, तुम सत्य के अनुसार जिओगे, सत्य के अनुसार कार्य करोगे। केवल यही परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं बहुत लंबे समय से विश्वासी नहीं रहा हूँ। मेरे पास ज्यादा अनुभव नहीं है। मैं सत्य नहीं समझता, और मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है। इसलिए, मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता।” ये वास्तव में केवल तथ्यात्मक बहाने हैं। भले ही तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा हो, फिर भी ऐसे सत्य हैं जो तुमसे परे नहीं हैं। तुम्हें उतना ही अभ्यास करना चाहिए जितना तुम समझते हो; तुम्हें उतना ही अभ्यास में लाना चाहिए जितने के तुम सक्षम हो। यदि तुम उन सत्यों का भी अभ्यास नहीं करते हो जिन्हें तुम समझते हो, तो यह एक समस्या है। एक विश्वासी के रूप में तुम्हारा समय चाहे कितना भी लंबा या छोटा रहा हो, यदि तुम कुछ वर्षों से धर्मोपदेश सुन रहे हो, तो तुम कुछ सत्य अवश्य समझोगे। यदि तुम बहुत सारे सत्य जानते हो लेकिन उनमें से किसी को भी अभ्यास में नहीं लाते हो, तो इसके कारण तुम्हारी निंदा होगी। यदि तुम जानते हो कि सत्य के प्रति समर्पण का रवैया कैसा होता है, सत्य के प्रति समर्पण क्या है, सत्य के प्रति समर्पण कैसे करें, परमेश्वर के आयोजनों के समक्ष समर्पण कैसे करें, और लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए, तो तुम्हें इन चीजों को अभ्यास में लाना चाहिए। चाहे कुछ भी हो, तुम्हें सीखना होगा कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है और सैद्धांतिक रूप से व्यवहार कैसे करना है। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य अर्थहीन है; यह धर्म-सिद्धांत के अलावा कुछ नहीं है, यह तुम्हारे लगाने के लिए मात्र एक नारा है। जब तक तुम सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम नहीं होओगे, तब तक तुम्हारे पास वास्तविकता नहीं होगी; इसके मिलने पर ही सत्य तुम्हारा जीवन बन सकता है। जब अप्रत्याशित चीजें घटित होती हैं और तुम अपनी पसंद से कार्य करते हो—यह सोचते हुए कि अमुक व्यक्ति गलत है, फलाना व्यक्ति गलत है, हमेशा खुद को सही मानते हो और दूसरों से असहमत होते हो, चाहे वे कुछ भी कहें—तो क्या यह संभव है कि तुम निर्दोष और भ्रष्टाचार रहित हो? इसे अहंकारी और आत्मतुष्ट होना कहा जाता है, और यह और भी गंभीर रूप से भ्रष्ट स्वभाव है।
भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कैसे किया जा सकता है? पहला कदम यह पता लगाना है कि क्या तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकते हो; क्या तुम उन विभिन्न परिस्थितियों के प्रति समर्पण कर सकते हो जो परमेश्वर तुम्हारे लिए निर्धारित करता है। शांत समय में, तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति कोई धारणाएँ नहीं होती हैं और तुम स्पष्ट रूप से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं करते हो। तो तुम्हें लगता है कि तुम इतने बुरे नहीं हो, और तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने में सक्षम है। लेकिन जब कुछ होता है, तो तुम्हारा हृदय उद्वेलित हो जाता है, और तुम्हारे पास अपनी सोच और राय होते हैं। विशेष रूप से जब तुम कष्ट सहने और अपने कर्तव्य के लिए कीमत चुकाने में सक्षम होते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर से प्रेम करता है, इसलिए जब अप्रत्याशित रूप से तुम्हारी काट-छाँट की जाती है और कोई कहता है कि तुम अपने कर्तव्य में जिद्दी और सिद्धांतहीन हो, तो क्या तुम उसे स्वीकार पाओगे? (इसे स्वीकारना आसान नहीं है।) अगर इसे स्वीकारना आसान नहीं है तो तुम क्या करोगे? तुम स्वीकृति और समर्पण कैसे प्राप्त कर सकते हो? अभ्यास के कुछेक सिद्धांत हैं। पहला सिद्धांत, तुम्हें आत्मचिंतन करना होगा, और सत्य खोजने के लिए अपने विचारों और तर्कों को त्यागना होगा। तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे अपने विचारों और तर्कों का सत्य से मेल खाना जरूरी नहीं है। यदि तुम्हारे पास विवेक है, तो तुम्हें पहले औरों की बात सुननी चाहिए और फिर उस पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। यदि उनकी कही बात सत्य से मेल खाती है, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए—एक विवेकशील व्यक्ति को यही करना चाहिए। यदि तुम हमेशा मानते हो कि तुम्हारी अपनी सोच ही सही है और तुम अपने ही दृष्टिकोण पर अड़े रहते हो, और दूसरे जो कहते हैं उसे नहीं स्वीकारते हो, भले ही वे कितने ही सही हों या उनकी बातें सत्य के कितने भी अनुरूप हों, तो तुम विद्रोही और विवेकहीन हो। सृजित प्राणी का विवेक सत्य के प्रति समर्पण करना है, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करना है, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना है, परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पण करना है और परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना है। अपना कर्तव्य निभाते समय, तुम्हें यह अवश्य खोजना चाहिए कि परमेश्वर की अपेक्षा क्या है और उसके घर ने क्या व्यवस्था की है। एक बार जब तुम उन चीजों को जान लेते हो, तो तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य कर सकते हो। ये अभ्यास के सिद्धांत हैं। सबसे पहले, तुम्हें समर्पण करना होगा। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए। अक्सर, जब लोग समर्पण करने में असमर्थ होते हैं, तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनके पास अपने स्वयं के तर्क, कारण और बहाने होते हैं। इस तरह के तर्क के साथ उनके समर्पण करने की संभावना बहुत कम होती है। उस स्थिति में क्या कर सकते हो? सबसे पहले, अपने तर्कों और बहानों को छोड़ो, और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करो। एक बार जब कुछ समय के लिए तुम इसका अभ्यास कर लोगे, तो तुम पाओगे कि जब तुम अपना कर्तव्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार निभाते हो, तो तुम अपना कर्तव्य निभाने में अधिक से अधिक प्रभावी होते चले जाते हो। तुम अपनी जीवात्मा में निश्चित हो जाते हो कि यह परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना है, और तुम्हारा समर्पण अधिक से अधिक शुद्ध होता चला जाता है। लेकिन, यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहते हो, यदि तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हो, यदि तुम हमेशा परमेश्वर के विरोधी हो और उसके विरुद्ध जाते हो, तो यह विद्रोह है। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। और भले ही तुम कोई स्पष्ट बुराई न करो, फिर भी तुमने तनिक भी समर्पण नहीं किया होगा, और तुममें सत्य वास्तविकता का पूर्ण रूप से अभाव होगा।
समर्पण के पाठ सबसे कठिन होते हैं, लेकिन वे सबसे आसान भी होते हैं। वे कठिन किस प्रकार होते हैं? (लोगों के अपने विचार होते हैं।) अपने विचार होना समस्या नहीं है—किस व्यक्ति के अपने विचार नहीं होते? सभी में दिल और दिमाग होता है, सभी के अपने विचार होते हैं। यहाँ समस्या यह नहीं है। तो फिर क्या है? समस्या मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है। यदि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट नहीं होता, तो उसके अंदर चाहे जितने विचार होते, वह समर्पण करने में सक्षम होता—वे कोई समस्या नहीं होते। यदि किसी में यह समझ है और वह कहता है, “मुझे सभी बातों में परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। मैं न तो कोई बहाना बनाऊँगा और न ही अपने विचारों पर जोर दूँगा, मैं इस मामले में अपना कोई निर्णय नहीं दूँगा,” क्या उसके लिए समर्पित होना आसान नहीं है? यदि कोई व्यक्ति अपने निर्णय पर नहीं पहुँचता है, तो यह इस बात का संकेत है कि वह आत्मतुष्ट नहीं है; यदि वह अपने विचारों पर जोर नहीं देता है, तो यह संकेत है कि उसमें समझ है। यदि वह समर्पण भी कर पाता है, तो इसका अर्थ है कि उसने सत्य का अभ्यास कर लिया है। खुद से फैसले न करना और अपने ही विचारों पर अड़े न रहना, समर्पण करने में सक्षम होने की पूर्वशर्तें हैं। यदि तुम्हारे पास ये दो गुण हैं, तो तुम्हारे लिए समर्पण करना और सत्य का अभ्यास करना आसान होगा। इसलिए, समर्पण करने से पहले, तुम्हें स्वयं को इन दो गुणों से लैस करना होगा, और यह पता लगाना होगा कि सत्य का अभ्यास करने वाला रवैया रखने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए। यह वास्तव में उतना कठिन नहीं है—लेकिन इतना आसान भी नहीं है। यह कठिन क्यों है? यह कठिन है क्योंकि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है। समर्पण का अभ्यास करते समय तुम्हारी मानसिकता या दशा कैसी भी हो, अगर यह तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने में बाधक है, तो ऐसी मानसिकता या दशा भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती है। यही तथ्य है। यदि तुम आत्मतुष्टता, अहंकार, विद्रोहीपन, बेतुकेपन, जिद और पूर्वाग्रह और हठधर्मिता के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर लेते हो, तो तुम्हारे लिए समर्पण करना आसान हो जाएगा। तो, इन भ्रष्टाचारों का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? जब तुम समर्पण करने को तैयार नहीं हो तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और पूछना चाहिए : “मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ क्यों हूँ? मैं हमेशा चीजों को अपने तरीके से करने पर जोर क्यों देता हूँ? मैं सत्य क्यों नहीं खोज पाता और उसे अभ्यास में क्यों नहीं ला पाता? इस समस्या की जड़ क्या है? मुझे अपनी मर्जी या इच्छाओं को लागू किए बिना परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का अभ्यास करना चाहिए, और सत्य का अभ्यास करना चाहिए। मुझे परमेश्वर के वचनों, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए। केवल यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।” ऐसे परिणाम प्राप्त करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने और सत्य की खोज करने की आवश्यकता है। जब तुम सत्य समझ लोगे तो तुम इसे और आसानी से अभ्यास में ला सकोगे; तब, तुम देह कि खिलाफ विद्रोह करने और उसकी चिंताओं से छुटकारा पाने में सक्षम हो पाओगे। यदि तुम अपने हृदय में सत्य समझ जाते हो, लेकिन देह, रुतबे, घमंड और इज्जत के फायदे नहीं छोड़ पाते हो, तो तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए संघर्ष करते रहोगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अपने हृदय में, तुम देह, घमंड और इज्जत के फायदों को बाकी सब चीजों से अधिक महत्व देते हो। इसका मतलब यह है कि तुम्हें सत्य से नहीं, बल्कि रुतबे और प्रतिष्ठा से प्रेम है। तो इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए, और रुतबे और प्रतिष्ठा जैसी चीजों के सार को पूरी तरह से समझना चाहिए। तुम्हें इन चीजों में कम व्यस्त रहना चाहिए, और सत्य के अभ्यास को महत्वपूर्ण समझना और इसे बाकी सब चीजों से अधिक महत्व देना जरूरी है। जब तुम यह सब करोगे, तो तुममें सत्य का अभ्यास करने की इच्छाशक्ति होगी। कभी-कभी लोग सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते। उन्हें काट-छाँट की जरूरत होती है, और उन्हें परमेश्वर का न्याय और ताड़ना प्राप्त करने की जरूरत है, ताकि समस्या का सार पूरी तरह से स्पष्ट हो जाए और सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाए। वास्तव में, सत्य का अभ्यास करने में सबसे बड़ी बाधा तब आती है जब किसी की इच्छाशक्ति बहुत बड़ी हो जाती है और वह हर चीज से पहले आती है—यानी, जब किसी का अपना स्वार्थ हर चीज से पहले आता है, जब किसी की अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा हर चीज से पहले आते हैं। यही कारण है कि जब भी कोई बात हो जाती है तो ऐसे लोग हमेशा दुराग्रही होते हैं और सत्य सिद्धांतों पर कोई विचार किए बिना हर वह चीज करते हैं जिससे उन्हें व्यक्तिगत रूप से लाभ हो। वे हमेशा अपनी राय पर अड़े रहते हैं। अपनी राय पर अड़े रहने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह निर्धारित करना है : “यदि तुम यह चाहते हो, तो मैं वह चाहता हूँ। यदि तुम अपनी बात मनवाना चाहते हो, तो मैं भी अपनी बात पर अड़ा रहूँगा।” क्या यह समर्पण का प्रदर्शन है? (नहीं।) यह बिल्कुल भी सत्य की खोज नहीं है, बल्कि अपने ही तरीकों पर अड़े रहना है। यह एक अहंकारी स्वभाव और एक विवेकहीन प्रदर्शन है। यदि, एक दिन, तुम यह जानने में सक्षम हो जाओ कि तुम्हारी प्राथमिकताएँ और तुम्हारा दृढ़-संकल्प सत्य के विरुद्ध हैं; यदि तुम अब अपने आप पर और विश्वास न करते हुए स्वयं को नकारने और अपनी असलियत जानने में सक्षम हो जाओ, और उसके बाद धीरे-धीरे चीजों को अपने तरीके से नहीं करने या आँखें बंद करके चीजों को परिभाषित नहीं करने की स्थिति में आ जाओ, बल्कि सत्य की तलाश करने, परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर निर्भर रहने में सक्षम हो जाओ, तो वही सही अभ्यास है। किस प्रकार का अभ्यास सत्य के अनुरूप है, इसकी पुष्टि करने से पहले तुम्हें तलाश करनी चाहिए। यह बिल्कुल सही काम है, यही किया जाना चाहिए। यदि तुम तलाश करने के लिए तब तक प्रतीक्षा करते हो जब तक तुम्हारी काट-छाँट नहीं हो जाती, तो यह थोड़ी निष्क्रियता है, और इससे चीजों में देरी होने की संभावना है। सत्य की तलाश करना सीखना बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य की तलाश करने के क्या लाभ हैं? पहला लाभ, कोई अपनी मनमर्जी से चलने और उतावलेपन से बच सकता है; दूसरा, भ्रष्टाचार के खुलासों और दुष्परिणामों से बच सकता है; तीसरा, प्रतीक्षा करना और धैर्य रखना सीख सकता है, और चीजों को स्पष्ट और सटीक रूप से समझकर गलतियाँ होने से रोक सकता है। सत्य की तलास करने से ये सभी चीजें हासिल की जा सकती हैं। जब तुम सभी चीजों में सत्य की तलाश करना सीख जाते हो, तो तुम पाओगे कि कुछ भी सरल नहीं है, कि यदि तुम असावधान हो और प्रयास नहीं करते हो तो तुम चीजों को खराब तरीके से करोगे। कुछ समय इस तरह प्रशिक्षण लेने के बाद, जब तुम्हारे सामने समस्याएँ आएँगी तो तुम अधिक परिपक्व और अनुभवी होगे। तुम्हारा रवैया नरम और अधिक संयमित होगा, और तुम आवेगशील, जोखिम लेने वाले और प्रतिस्पर्धी होने के बजाय, सत्य की तलाश करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। फिर, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों की समस्या हल हो जाएगी। इसलिए, समर्पण करना तुम्हारे लिए आसान होगा, यह वास्तव में उतना कठिन नहीं है। शुरुआत में यह थोड़ा कठिन हो सकता है, लेकिन तुम धैर्य रख सकते हो, प्रतीक्षा कर सकते हो और समस्या का समाधान होने तक सत्य की खोज करते रह सकते हो। कुछ परेशानी आने पर यदि तुम अपने फैसले खुद लेना चाहते हो, और तुम सदैव औचित्य प्रस्तुत करते रहते हो, और अपने विचारों पर अड़े रहते हो, तो यह चीज काफी परेशानी पैदा करेगी। क्योंकि जिन चीजों पर तुम जोर दे रहे हो, वे सकारात्मक नहीं हैं और ये सभी भ्रष्ट स्वभाव में मौजूद चीजें हैं। ये सभी चीजें भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे हैं, ऐसी परिस्थितियों में, भले ही तुम सत्य खोजना चाहो, तुम उसका अभ्यास नहीं कर पाओगे, भले ही तुम परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहो, लेकिन तुम बेमन से ही प्रार्थना करोगे। यदि कोई तुम्हारे साथ सत्य के बारे में सहभागिता करता है और तुम्हारे इरादे की मिलावट को उजागर करता है, तो तुम कैसे चुनाव करोगे? क्या तुम आसानी से सत्य को स्वीकार कर सकते हो? ऐसे समय में समर्पण करने के लिए तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी और तुम समर्पण नहीं कर पाओगे। तुम विद्रोह करोगे और औचित्य प्रस्तुत करने की कोशिश करोगे। तुम कहोगे, “मेरे निर्णय परमेश्वर के घर के लिए हैं। वे गलत नहीं हैं। फिर भी तुम क्यों चाहते हो कि मैं समर्पित हो जाऊँ?” देख रहे हो न कि कैसे तुम समर्पित नहीं हो पाओगे? इसके अलावा, तुम विरोध भी करोगे; यह जानबूझकर किया गया अपराध है! क्या यह बहुत बड़ी परेशानी वाली बात नहीं है? अगर कोई तुम्हारे साथ सत्य पर संगति करे और तुम सत्य स्वीकार न कर पाओ और जानबूझकर अपराध तक करो, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध करो, तो तुम्हारी समस्या बहुत गंभीर है। इसका जोखिम है कि तुम्हें परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर निकाल दिया जाए।
परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का पाठ वास्तव में बहुत गहरा है। जब तुम इसमें प्रवेश करना शुरू करते हो तो यह बहुत कठिन लगता है, लेकिन कुछ समय अनुभव करने के बाद यह उतना कठिन नहीं लगता है। समर्पण का अभ्यास करने के लिए सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है, और यदि तुम सिद्धांत नहीं खोजते और कई बार असफल होते हो, तो इसका मतलब है कि तुमने सबक नहीं सीखा है; और समर्पण सीखना अभी भी तुम्हारे लिए एक बहुत कठिन सबक है। यह कठिन क्यों है? क्योंकि भ्रष्ट इंसानों के अंदर कई कठिनाइयाँ होती हैं। लोगों में धारणाएँ, कल्पनाएँ होती हैं, साथ ही विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। इन सबके अलावा, यदि उनके पास कुछ ज्ञान और पूँजी भी है; यदि उनके पास कॉलेज की डिग्री है और वे अत्यधिक योग्य हैं; यदि उनके पास पैसा है और समाज में उनका रुतबा है और वे तमाम पहलुओं में श्रेष्ठता दिखाते हैं, तो यह एक समस्या है। ऐसे लोगों के सत्य स्वीकारने की संभावना नहीं है। बहुत अधिक ज्ञान होना परेशानी खड़ी करेगा, क्योंकि लोग ज्ञान को ही सत्य मानते हैं, जिससे सत्य समझना और स्वीकारना बहुत कठिन हो जाता है। यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, और तुम्हारे पास मानवता या विवेक नहीं है, तो तुम साही की तरह हो। साही डरावने जानवर होते हैं जिन्हें कोई भी परेशान नहीं कर सकता, कोई भी सता नहीं सकता। भ्रष्ट लोग ऐसे ही होते हैं—वे सत्य बिल्कुल भी नहीं स्वीकारेंगे और परमेश्वर के समक्ष समर्पण बिल्कुल भी नहीं करते हैं। उनके हृदय बुराई से भरे हुए हैं, और वे पूरी तरह से अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं। परिणामस्वरूप, लोगों के सामने आने वाला हर मुद्दा उनके लिए कई चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है, और वे धारणाओं और कल्पनाओं से भर जाते हैं, और अहंकारी और आत्म-तुष्ट हो जाते हैं। जब उनकी काट-छाँट की जाती है, या जब उनके किसी कार्य में कोई बाधा आती है, तो वे बहाने बनाते हैं, चीजों को गलत समझते हैं, निराश हो जाते हैं और शिकायत करते हैं। वे बेतुकी कहानियों और तर्कों से प्रभावित और गुमराह होते हैं। ये सब कठिनाइयाँ हैं। यदि लोग इन कठिनाइयों को हल कर सकते हैं, तो वे सत्य स्वीकारने और इसे अभ्यास में लाने में सक्षम होंगे, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। इसीलिए, परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को पहले सत्य स्वीकारना होगा और उसका अभ्यास करना होगा, और उसे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना होगा। वह पहली बाधा है। तो, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में क्या-क्या शामिल है? इनमें वे लोग, घटनाएँ और चीजें शामिल हैं जिन्हें परमेश्वर तुम्हारे चारों ओर उत्पन्न करता है। कभी-कभी ये लोग, घटनाएँ और चीजें तुम्हारी काट-छाँट करेंगी, कभी-कभी वे तुम्हें प्रलोभित करेंगी, या तुम्हारा परीक्षण लेंगी, या तुम्हें बाधित करेंगी, या तुम्हें नकारात्मक बना देंगी—लेकिन जब तक तुम समस्याएँ हल करने के लिए सत्य तलाश कर सकते हो, तुम कुछ सीखने, आध्यात्मिक कद हासिल करने और सामना करने की ताकत रखने में सक्षम होओगे। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का सबसे बुनियादी सबक है। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में वे लोग, घटनाएँ, चीजें, और विभिन्न परिस्थितियाँ शामिल हैं, जिन्हें परमेश्वर तुम्हारे चारों ओर उत्पन्न करता है। तो इन परिस्थितियों से सामना होने पर तुम्हें कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए? सबसे बुनियादी बात है परमेश्वर से स्वीकार करना। “परमेश्वर से स्वीकार करने” का क्या अर्थ है? शिकायत करना और विरोध करना—क्या यह परमेश्वर से स्वीकार करना है? कारणों की तलाश करना और बहाने बनाना—क्या यह परमेश्वर से स्वीकार करना है? नहीं। तो तुम्हें परमेश्वर से स्वीकार करने का अभ्यास कैसे करना चाहिए? जब तुम्हारे साथ कुछ अप्रत्याशित घटित हो तो सबसे पहले शांत हो जाओ, सत्य की खोज करो, और समर्पण का अभ्यास करो। बहाने या स्पष्टीकरण लेकर मत आओ। कौन सही है और कौन गलत, इसका विश्लेषण करने या अटकलें लगाने की कोशिश मत करो, और यह विश्लेषण मत करो कि किसकी गलती अधिक गंभीर है और किसकी कम गंभीर। क्या इन चीजों का हमेशा विश्लेषण करते रहना परमेश्वर से स्वीकार करने का रवैया है? क्या यह एक समर्पण का रवैया है? यह परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया नहीं है, और परमेश्वर से स्वीकार करने या परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता स्वीकारने का रवैया नहीं है। परमेश्वर से स्वीकार करना, परमेश्वर के प्रति समर्पण का अभ्यास करने के सिद्धांतों का एक हिस्सा है। यदि तुम निश्चित हो कि जो भी मुसीबत तुम पर आती है वह परमेश्वर की संप्रभुता के भीतर है और वे चीजें परमेश्वर की व्यवस्थाओं और सद्भावना के कारण होती हैं, तो तुम उन्हें परमेश्वर से स्वीकार कर सकते हो। इसकी शुरुआत, सही और गलत का विश्लेषण न करने, अपने लिए बहाने न बनाने, दूसरों में दोष न ढूँढने, बाल की खाल न निकालने, जो हुआ उसके वस्तुनिष्ठ कारणों पर अत्यधिक ध्यान से विचार न करने और चीजों का विश्लेषण और जाँच करने के लिए अपने मानव मस्तिष्क का उपयोग न करने से करो। परमेश्वर से स्वीकार करने के लिए तुम्हें जो कुछ करना चाहिए, ये उसका विस्तृत ब्यौरा है। और, इसका अभ्यास करने का तरीका समर्पण से शुरूआत करना है। भले ही तुम्हारे पास धारणाएँ हों या तुम्हारे लिए चीजें स्पष्ट न हों, तुम समर्पण करो। बहानों या विद्रोह से शुरुआत मत करो। और, समर्पण करने के बाद सत्य की तलाश करो, परमेश्वर से प्रार्थना करो और उससे माँगो। तुम्हें प्रार्थना कैसे करनी चाहिए? कहो, “हे परमेश्वर, तुमने अपनी सद्भावना से मेरे लिए इस स्थिति का आयोजन किया है।” जब तुम ऐसा कहते हो तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारे दिल में पहले से ही स्वीकार करने का रवैया है और तुमने मान लिया है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उस स्थिति का आयोजन किया है। कहो : “हे परमेश्वर, मुझे नहीं पता कि मैंने आज जिस स्थिति का सामना किया है, उसमें कैसे अभ्यास करूँ। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो, और मुझे तुम्हारे इरादे समझाओ, ताकि मैं उसके अनुसार कार्य कर सकूँ, और मैं न तो विद्रोही बनूँ और न ही प्रतिरोधी, और अपनी मर्जी पर भरोसा न करूँ। मैं सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का इच्छुक हूँ।” प्रार्थना करने के बाद, तुम्हें दिल में शांति महसूस होगी, और तुम स्वाभाविक रूप से अपने बहाने छोड़ दोगे। क्या यह तुम्हारी मानसिकता में बदलाव नहीं है? यह तुम्हारे लिए सत्य की तलाश करने और उसका अभ्यास करने का मार्ग प्रशस्त करता है, और अब जो एकमात्र समस्या बचती है वह यह कि जब तुमने सत्य समझ लिया है तो तुम्हें उसका अभ्यास कैसे करना चाहिए। यदि सत्य का अभ्यास करने का समय आने पर तुम फिर से विद्रोह प्रकट करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से फिर प्रार्थना करनी चाहिए। एक बार जब तुम्हारी विद्रोहशीलता का समाधान हो जाएगा, तो स्वाभाविक रूप से तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना आसान हो जाएगा। जब समस्याएँ आती हैं, तो तुम्हें परमेश्वर के सामने शांत रहना और सत्य की तलाश करना सीखना चाहिए। यदि तुम बाहरी चीजों से लगातार बाधित होते हो, यदि तुम्हारी दशा हमेशा अस्थिर रहती है, तो यह किस कारण से है? इसका कारण है कि तुम सत्य नहीं समझते हो, और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे भीतर हावी है—तुम स्वयं अपनी मदद नहीं कर सकते। ऐसे समय पर, तुम्हें आत्मचिंतन करना होगा और स्वयं के भीतर की समस्या का पता लगाना होगा। परमेश्वर के संबंधित वचनों की तलाश करो और देखो कि वे क्या उजागर करते हैं। फिर, धर्मोपदेश और संगति, या परमेश्वर के वचनों के भजन सुनो। इन वचनों के प्रकाश में स्वयं की दशा देखो। इस तरह तुम देख पाओगे कि तुम्हारे भीतर क्या समस्याएँ हैं, और इन समस्याओं के बारे में स्पष्टता प्राप्त करने से उनसे निपटना आसान हो जाएगा। दूसरे लोगों की जो भी समस्याएँ तुम्हें परेशान करती हैं, उन पर ध्यान मत दो। स्वयं के आत्मचिंतन पर ध्यान केंद्रित करो। परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण कर रहा है, ऐसा कहकर तिल का ताड़ मत बनाओ। इसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है। भ्रष्ट मनुष्यों में आत्म-ज्ञान का कतई अभाव होता है और वे स्वयं को सजाने-सँवारने में सबसे अधिक माहिर होते हैं। अति संवेदनशील मत बनो। यदि तुम यह निर्धारित करते हो कि यह परमेश्वर की ओर से एक परीक्षण है तो तुम्हें अपनी स्वयं की समस्याओं पर और भी अधिक विचार करने की आवश्यकता है; यदि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से दूर नहीं करते हो, तो यह तुम्हें मूर्ख बनाता रहेगा। तो फिर समाधान क्या है? तुम्हें प्रार्थना करनी होगी, “हे परमेश्वर, मैं दुराग्रही और अहंकारी हूँ! मैं हमेशा दैहिक आवश्यकताएँ पूरी करने के बारे में सोचता रहता हूँ। मैं बहुत विद्रोही हूँ! कृपया मुझे अनुशासित करो।” प्रार्थना के बाद तुम थोड़ा चिंतित महसूस करोगे। “अगर परमेश्वर ने सचमुच मुझे अनुशासित किया तो क्या होगा? नहीं, मुझे प्रार्थना करनी है और संकल्प करना है; परमेश्वर मुझे चाहे जैसे अनुशासित करे, वह मुझे चाहे बीमार करे या मरने दे, मैं तब भी उसके प्रति समर्पण करूँगा।” एक बार जब तुम इस प्रार्थना को पूरा कर लोगे, तो तुम अंदर से मजबूत बन जाओगे और तुम्हारी दशा बदल जाएगी। तुम कैसा महसूस करोगे? तुम सोचोगे : “एक विश्वासी के रूप में इतने वर्षों के बाद, मैं पहली बार परमेश्वर से परीक्षण का अनुभव कर रहा हूँ। अब उसका हाथ मेरे ऊपर है और वह मुझे मेरे बहुत करीब लगता है। परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मेरी अगुआई कर रहा है, मुझे प्रशिक्षित और शुद्ध करने के लिए व्यक्तिगत रूप से इस प्रकार के परीक्षण की व्यवस्था कर रहा है, मुझे सबक सीखने और उससे सत्य प्राप्त करने दे रहा है। परमेश्वर मुझसे कितना प्रेम करता है!” क्या यह परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी नहीं है? क्या इस समय तुम्हारा थोड़ा आध्यात्मिक कद नहीं होता है? (हाँ।) यह सचमुच एक जमीन से जुड़ी हुई समझ है। तुम मन ही मन में सोच रहे होगे : “चूँकि परमेश्वर मेरा परीक्षण कर रहा है, तो मेरा रवैया कैसा होना चाहिए? परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए मैं क्या करूँ?” जब तुम ऐसा सोचते हो, और जब तुम इस तरह से खोजते हो, तो तुम जल्द ही समर्पण हासिल कर लोगे। तुम अपनी बात के लिए बहस करना बंद कर दोगे, और मन ही मन में सोचोगे : “अगर मैं समर्पण नहीं करता हूँ, लेकिन हमेशा बहस करता रहता हूँ, अगर मैं हमेशा दूसरे लोगों में या वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों में कारण ढूँढ़ता रहता हूँ, बहाने ढूँढ़ता रहता हूँ और सही और गलत का विश्लेषण करता रहता हूँ, फिर तो मैं इंसान ही नहीं हूँ। मैं एक जानवर हूँ, सूअर से भी बदतर हूँ!” तब, तुम्हें अपराधबोध और बेचैनी महसूस होगी। तुम सोचोगे : “मुझे तुरंत परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना होगा। परमेश्वर मेरे साथ है और इसी तरह से वह मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। अक्सर कहा जाता है कि परमेश्वर की सद्भावना ऐसी ही होती है—मैंने आज इसका स्वाद चख लिया। परमेश्वर का इरादा है कि मैं सबक सीखूँ, कि मैं बदल जाऊँ, वह नहीं चाहता कि मैं सही और गलत के बीच फंसा रहूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम, उसकी न्याय और ताड़ना, उसका पोषण और मार्गदर्शन है। परमेश्वर मुझे बहुत प्रेम करता है, और उसका प्रेम सच्चा है!” तुम्हारा हृदय द्रवित हो जाएगा। तुम क्यों द्रवित हो जाओगे? क्योंकि अब तुम परमेश्वर का इरादा समझते हो; तुमने परमेश्वर के प्रेम का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है; तुम्हें इतने दिनों से लगातार सत्य खोजने से अनुभव मिला है। क्या यह अनुभव करते हुए भी लोग परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हैं? हाँ, अब भी विद्रोह हो सकता है। चूँकि लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं, और सभी प्रकार के भ्रष्ट, बेतुके विचार लगातार पनप रहे हैं, वे हमेशा सोचते रहते हैं : “परमेश्वर मेरा परीक्षण कर रहा है, तो क्या मैं मरने वाला हूँ? यदि परमेश्वर वास्तव में मुझे अनुशासित कर रहा है, तो क्या वह मुझे गंभीर रूप से बीमार करने वाला है? मुझे डर लग रहा है!” यह भय कहाँ से आता है? यह भय परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर विश्वास न करने, उसके आयोजनों को अनुमति न देने और चिंता करने से आता है : “मैं मर गया तो क्या होगा? मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ खड़ा हूँ!” लोग परमेश्वर में बहुत कम विश्वास रखते हैं। ऐसे समय पर लोग परमेश्वर में कितना विश्वास रखते हैं? शून्य! यदि कोई परमेश्वर के हाथों से इतना अधिक बचना चाहता है, तो परमेश्वर के प्रति उसका विश्वासघात असंदिग्ध है। जब चीजें इस हद तक पहुँच जाती हैं, तो लोग बच निकलना चाहते हैं; जो कुछ हो रहा है उसे वे बिना संघर्ष के स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। तो फिर क्या किया जा सकता है? तुम सिर्फ यह नहीं कह सकते : “मैं समर्पण कर सकता हूँ; मैं कुछ हद तक द्रवित हो गया हूँ। मैं परमेश्वर का अनुग्रह महसूस कर सकता हूँ और परमेश्वर ने मेरी परवाह की है। इतना बहुत है, और मैं संतुष्ट हूँ।” लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। तुम्हें आगे बढ़ते रहना है, तलाश जारी रखनी है। सोचो : “अय्यूब को अपनी आस्था कैसे प्राप्त हुई? वह समर्पण करने में कितना सक्षम था? मैं इतना भयभीत क्यों हूँ? मेरा भय कहाँ से आ रहा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि मुझे परमेश्वर में बहुत कम आस्था है। मुझे विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के हाथों में ही मैं सबसे ज्यादा खुश और सुरक्षित हूँ; कि परमेश्वर ही मेरा आश्रयदाता है। मैं यह सब नहीं मानता। मैं कितना धोखेबाज और दुष्ट व्यक्ति हूँ! मैंने पहचान लिया है कि परमेश्वर मेरा परीक्षण कर रहा है, और परीक्षण का मतलब यह नहीं है कि मेरी जान ले ली जाएगी। वह मेरे साथ खिलवाड़ नहीं कर रहा है और न ही जानबूझकर मुझे बेनकाब कर रहा है। मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करने के लिए यह सिर्फ एक परीक्षण है। मैं अभी भी परमेश्वर में सच्ची आस्था रखने, उस पर पूरा भरोसा करने और खुद को उसके हाथों में सौंपने में सक्षम नहीं हूँ। मैं बहुत दुष्ट हूँ, और घोर विकराल चीजों का दोषी हूँ! मैं परमेश्वर के इस परवाह के योग्य नहीं हूँ। मैं परमेश्वर की देखभाल के योग्य नहीं हूँ।” उसके बाद तुम क्या कर सकते हो? तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी और सत्य खोजना होगा; अपनी विद्रोहशीलता और अपने इरादों की काट-छाँट करनी होगी। तुम इस हद तक सत्य समझते हो, फिर भी तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा नहीं है या तुममें स्वयं को उसके हाथों में सौंपने का साहस नहीं है। यह क्या है? यह विश्वासघात है। तुम्हारे छल, अहंकार, संदेह और तुम्हारी दुष्टता के कारण, तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा नहीं है। भय यहीं से आता है। भय का मतलब क्या है? भय का मतलब परमेश्वर में आस्था न होना। भय का मतलब हमेशा चिंतित रहना है : “अगर मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के प्रति समर्पण कर दूँ, तो क्या परमेश्वर मुझे शैतान को सौंप देगा और मुझे मरने देगा?” ये कैसी सोच है? क्या यह बकवास नहीं है? कोई परमेश्वर के बारे में ऐसा क्यों सोचेगा? सत्य के बिना, लोग कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं लेकिन हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हैं और उसके बारे में अटकलें लगाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए सत्य समझने की आवश्यकता है। सत्य समझकर ही लोग एक इंसान की तरह तर्क के साथ बात कर सकते हैं। यह तथ्य है कि तुमने परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा को महसूस किया है, यह तथ्य है कि तुमने परमेश्वर द्वारा दी गई शांति और आनंद की भावना का आनंद लिया है और यह भी तथ्य है कि तुम बहुत सुरक्षित महसूस करते हो, इन सबके बावजूद भी तुम अभी भी अपने आप को परमेश्वर के हाथों में सौंपने के अनिच्छुक हो। तुम अभी भी डरे हुए हो। क्या यह विद्रोह नहीं है? इस विद्रोह में क्या मिलावट है? यह किससे नियंत्रित होता है? छल और अहंकार से। क्या यह सचमुच दानवी प्रकृति नहीं है? अगर किसी की प्रकृति दानवी है तो उसका स्वभाव भी शैतानी है। इस समस्या को कैसे हल किया जा सकता है? ऐसा करने के लिए लोगों को सत्य की खोज करनी होगी। लोग कितना भी भ्रष्टाचार प्रकट करने के बाद भी यदि सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, यदि सत्य की खोज नहीं करते हैं तो उनके भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कभी नहीं हो सकता है। ऐसे व्यक्ति का उद्धार आसानी से नहीं होगा।
भ्रष्ट स्वभाव के समाधान के लिए सत्य की खोज करते समय, किस प्रकार के परिणाम प्राप्त करने करने पर यह माना जा सकता है कि समस्या हल हो गई है? कुछ लोग भली-भाँति जानते हैं कि कोई अमुक स्थिति परमेश्वर की ओर से उनकी परीक्षा है, लेकिन वे स्वयं को उसके हाथों में सौंपने को अनिच्छुक रहते हैं। उन्हें लगता है हम परमेश्वर पर भरोसा नहीं कर सकते, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। न केवल वे परमेश्वर पर निर्भर होने का साहस नहीं करते, बल्कि वे इन स्थितियों से डरते भी हैं। जब चीजें इस बिंदु तक पहुँच जाती हैं, तो उन्हें अपने आप को किन सत्यों से लैस करना चाहिए? उन्हें उन सत्यों का अनुसरण कैसे करना चाहिए? और उन्हें स्वच्छ होने, पूर्ण समर्पण प्राप्त करने, और परमेश्वर का भय मानने व बुराई से दूर रहने के रास्ते पर चलना शुरु करने के लिए कितना अनुसरण करना होता है? यह सब समर्पण के सत्य से संबंधित है। इस समय, तुम्हें वास्तव में परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं है, और ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे तुम सच्ची आस्था प्राप्त कर सको। सच्ची आस्था के बिना, तुम्हें दर्शनों के किन सत्यों से लैस होने की जरूरत है ताकि तुम शक, संदेह, परमेश्वर के प्रति गलतफहमी और प्रतिरोध से पूरी तरह मुक्त हो सको, और जो तुम्हें पूर्ण रूप से समर्पित होने दे? इन समस्याओं को हल करने और मिलावट, व्यक्तिगत अपेक्षाओं और चुनावों से पूरी तरह मुक्त होने के लिए तुम्हें किन सत्यों से लैस होना चाहिए? यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में तुम लोग अभी भी स्पष्ट नहीं हो। इस बारे में थोड़ा सोचो—परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण प्राप्त करने के लिए किस प्रकार के प्रयास की जरूरत है? तुम्हें कुछ सत्य प्राप्त करने होंगे। जब अपने जीवन के रूप में तुम सत्य प्राप्त कर चुके होगे, तो वही तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा। यही वह आधार और बुनियाद होगी जिससे तुम समर्पण प्राप्त कर सकते हो। तुम इन सत्यों से पूर्ण समर्पण प्राप्त कर सकते हो। तो, तुम्हें स्वयं को किन सत्यों से लैस करने की जरूरत है? (हमें परमेश्वर का ज्ञान पाने का प्रयास करना होगा।) यह इसका एक भाग है। इसके अलावा, लोगों को स्वयं भी कुछ सहयोग, कुछ अभ्यास करने की जरूरत है। क्या तुम्हें याद है कि पतरस ने क्या कहा था? (“भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों, तो भी मनुष्यों को क्या शिकायत होगी?”) यह समर्पण के बारे में है। यदि तुम चीजें इस तरह से अनुभव करते हो, तो धीरे-धीरे तुम सत्य जान जाओगे और तुम्हें स्वाभाविक रूप से इसके परिणाम प्राप्त होंगे। सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण भावना और सत्य की जरूरत है। इस बात की चिंता मत करो कि परमेश्वर तुम्हारी ओर किस दृष्टि से देख रहा है, तुम्हारे बारे में उसका रवैया और उसकी आवाज का लहजा कैसा है, क्या वह तुमसे विमुख है, और क्या वह तुम्हारा खुलासा करने वाला है। शुरुआत स्वयं की कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान करने से करो। क्या सामान्य लोग पतरस ने जो कहा उसे आसानी से पा सकते हैं? (आसानी से नहीं पा सकते।) उसके पास क्या अनुभव थे और उसके पास कौन-सी वास्तविकताएँ थीं जिनके कारण वह ऐसा कह पाया? (उसे पूर्ण विश्वास था कि परमेश्वर मनुष्य के साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, यह मनुष्य को बचाने के लिए है और यह सिर्फ प्रेम है और कुछ नहीं। इसीलिए वह समर्पण करने के लिए खुश था।) पतरस ने कहा “भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों,” और तुमने कहा, “चाहे परमेश्वर मनुष्य के साथ कैसा भी व्यवहार करे।” तुम स्वयं को एक सृजित प्राणी, परमेश्वर का अनुयायी और परमेश्वर के घर का सदस्य मान रहे हो। तो क्या इन दोनों में कोई अंतर है? हाँ, अंतर है। एक असमानता है! खिलौने और मनुष्य में क्या असमानता है? खिलौना कुछ भी नहीं है—वह बेकार है, एक दुखी मनहूस चीज है। इसे तुम खिलौना कहो, या जानवर कहो—यह उस तरह की चीज है। लेकिन मनुष्य के बारे में क्या कहोगे? मनुष्य के पास विचार और मस्तिष्क होता है; वह बोलने और काम करने में सक्षम है, और वह सामान्य मानवीय गतिविधियाँ कर सकता है। क्या खिलौने की तुलना में, मनुष्य की कीमत और हैसियत में कोई अंतर होता है? यदि तुम स्वयं को एक मनुष्य मानते हो, न कि खिलौना, तो जहाँ तक तुम्हारे साथ परमेश्वर के व्यवहार की बात है तो क्या तुम्हारी कोई मांगें नहीं हैं? परमेश्वर से तुम्हारी क्या माँगें हैं? (परमेश्वर मेरे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करे।) परमेश्वर को तुम्हारे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार कैसे करना चाहिए? यदि परमेश्वर मानवता से उसकी अपेक्षाएँ तुम्हारे साथ साझा करता है और तुमसे उन्हें पूरा करने की अपेक्षा करता है, तो क्या तुम ऐसा कर पाओगे? यदि परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और तुमसे इसका पालन करने की अपेक्षा करता है, तो क्या तुम ऐसा कर पाओगे? यदि परमेश्वर तुमसे उसके प्रति समर्पण करने और उससे प्रेम करने की अपेक्षा करता है, तो क्या तुम ऐसा कर सकते हो? और यदि तुम इनमें से कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो, तो परमेश्वर तुम्हारे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार कैसे कर सकता है? यदि तुम्हारे पास कोई अंतरात्मा या समझ नहीं है और तुम वह काम नहीं कर सकते जो एक मनुष्य को करना चाहिए, तो परमेश्वर तुम्हारे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार कैसे कर सकता है? यदि लोग यूँ ही लापरवाही से काम करें, सत्य स्वीकारने से मना करें और यहाँ तक कि परमेश्वर का मूल्यांकन और निंदा करें, स्वयं को उसका दुश्मन बनाएँ, तो क्या उन लोगों में मानवता है? क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करेगा? क्या परमेश्वर शैतानों और राक्षसों के साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार करेगा? तुम्हें मनुष्य मानना या एक खिलौना समझना रवैये और व्यवहार में भेद का मामला है। यदि तुम्हें एक मनुष्य माना जाए, तो तुम किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करोगे? कि तुम्हारा सम्मान किया जाए, तुमसे परामर्श लिया जाए, तुम्हारी भावनाओं का सम्मान किया जाए, तुम्हें पर्याप्त स्थान और स्वतंत्रता दी जाए, और तुम्हारी गरिमा और प्रतिष्ठा का सम्मान किया जाए। मनुष्य के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है। लेकिन खिलौनों का क्या? (वे कुछ भी नहीं हैं। उन्हें लातें मारी जा सकती हैं।) (तुम जब चाहो उनका उपयोग कर सकते हो, और जब उनका उपयोग नहीं करना चाहो तो उन्हें फेंक सकते हो।) यह उचित बात है। खिलौनों के साथ व्यवहार के बारे में तुम लोगों का यही कहना है, तो तुम मनुष्य के साथ खिलौने जैसे व्यवहार का वर्णन कैसे करोगे? (जब तुम्हें उनकी जरूरत होती है तुम उनका उपयोग करते हो, और जब तुम्हें उनकी जरूरत नहीं होती है तो उन्हें अनदेखा कर देते हो।) तुम उनके साथ असम्मानजनक व्यवहार करते हो, और उनके अधिकारों की रक्षा करने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। तुम उन्हें कोई अधिकार, स्वायत्तता या चुनने की स्वतंत्रता नहीं देते हो। उनसे परामर्श लेने, या उनका सम्मान करने, या ऐसी किसी और चीज की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। जब तुम्हें अच्छा लगे तो उनके साथ अच्छा व्यवहार कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हें अच्छा न लगे तो तुम उन्हें लात मार सकते हो। खिलौने के प्रति ऐसा ही रवैया अपनाया जाता है। यदि परमेश्वर लोगों के साथ खिलौनों जैसा व्यवहार करे, तो उन्हें कैसा लगेगा? क्या उन्हें अब भी लगेगा कि परमेश्वर प्यारा है? (नहीं लगेगा।) लेकिन पतरस परमेश्वर की स्तुति करने में सक्षम था। उसके पास ऐसी कौन-सी सत्य वास्तविकताएँ थीं जिन्होंने उसे मृत्यु तक समर्पण हासिल करने दिया? परमेश्वर ने वास्तव में मनुष्य के साथ खिलौने जैसा व्यवहार नहीं किया। लेकिन जब पतरस की समझ इस स्तर तक पहुँची, तो उसने सोचा : “यदि परमेश्वर मेरे साथ ऐसा व्यवहार करे, तब भी मुझे उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?” पतरस ने यह तत्परता, यह इच्छुकता हासिल की। “तैयार और इच्छुक” होने का यहाँ क्या तात्पर्य है? (स्वयं को परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना और पूरी तरह से उनके प्रति समर्पण करना।) यही समर्पण का सत्य है। क्या तुम्हें शैतान को सौंपना तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार करना नहीं होगा? जब तुम्हारी जरूरत नहीं होगी तो तुम्हें निकाल दिया जाएगा, शैतान को सौंप दिया जाएगा ताकि वह तुम्हें प्रलोभित कर मूर्ख बना सके। पतरस का रवैया क्या था? क्या उसे कोई शिकायत थी? क्या उसने परमेश्वर से शिकायत की? क्या उसने परमेश्वर को श्राप दिया? क्या वह शैतान के पास चला गया? (नहीं।) समर्पण इसे कहा जाता है। उसे कोई शिकायत नहीं थी, उसमें निराशा या प्रतिरोध का कोई प्रदर्शन नहीं किया। क्या उसके भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ? यह परमेश्वर के साथ पूर्ण सामंजस्य की स्थिति थी। बात यह नहीं थी कि वह परमेश्वर को धोखा देगा या नहीं। बात यह थी : “चाहे परमेश्वर मुझे कहीं भी रखे, मेरे दिल में परमेश्वर होगा; चाहे परमेश्वर मुझे कहीं भी रखे, मैं उसका ही रहूँगा। चाहे वह मुझे भस्म कर दे, फिर भी मैं परमेश्वर का ही रहूँगा। मैं कभी भी शैतान के पास नहीं जाऊँगा।” वह समर्पण के इस स्तर तक पहुँचने में सक्षम था। ये कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल है। तुम्हें एक निश्चित समय तक सत्य से लैस रहना होगा जब तक तुम यह सब पूर्ण और स्पष्ट रूप से नहीं देख लेते, फिर सत्य अभ्यास में लाना बहुत आसान हो जाएगा। तुम्हें परमेश्वर का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक नहीं है, न ही परमेश्वर को विशेष रूप से तुम्हारे लिए कुछ प्रकट करने की आवश्यकता है। यदि तुम्हारे पास सही रवैया और ऐसा समर्पण है, तो यही पर्याप्त होगा। तुम्हारे साथ परमेश्वर के व्यवहार को लेकर तुम्हारी कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, न ही तुम्हें उससे अपेक्षा करनी चाहिए कि वह तुम्हें सटीक मानदंड बताए। भले ही कुछ सत्य के अनुरूप हो और कुछ ऐसा हो जो सृष्टिकर्ता के पास होना चाहिए, तुम्हें इसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तुम्हें कहना चाहिए : “हे परमेश्वर, तुम मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करो वह सही है। तुम मुझे मरवा सकते हो; तुम मुझे नरक में भेज सकते हो। तुम मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करो, वह ठीक है। भले ही तुम मुझे शैतान को सौंप दो, तब भी परमेश्वर ही मेरा परमेश्वर रहेगा, और मैं तब भी परमेश्वर का सृजित प्राणी ही रहूँगा। मैं तुम्हें कभी नहीं त्यागूँगा।” इस रवैये के साथ, तुम्हारे पास समर्पण की वास्तविकता होती है। “भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों, तो भी मनुष्यों को क्या शिकायत होगी?” यह कथन, जिसे पतरस कहने में सक्षम था, तुम सब लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है! यह पतरस का समर्पण था। यदि तुम इस कथन के बारे में लगातार सोचते हो और इसकी सच्ची समझ और अनुभव प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना बहुत आसान हो जाएगा। जिन पहलुओं में लोग परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हैं वे वो पहलू हैं जिनमें वे लोग सबसे अधिक अतार्किक हैं। जब लोगों ने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया होता है, जब उन्होंने कोई वास्तविक श्रम नहीं किया होता है, तो वे अधिक अच्छा व्यवहार करते हैं, और उन्हें लगता है कि उन्हें परमेश्वर के साथ तर्क करने या उसका विरोध करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जैसे ही उन्होंने थोड़ा काम किया या थोड़ा श्रम किया, उन्हें लगता है कि उनके पास कुछ पूँजी है। वे परमेश्वर के साथ तर्क करना चाहते हैं, और वे परमेश्वर की आशीष चाहते हैं। इससे परेशानी होती है। उनका तर्क असामान्य है—क्या वह घृणित नहीं है? सत्य वास्तविकता के बिना लोग कितने दयनीय होते हैं। यदि कोई सत्य से लैस नहीं है तो क्या वह ठीक हो सकता है? सत्य स्वीकारे बिना भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं किए जा सकते; सत्य से लैस न होने का मतलब है कि व्यक्ति की अंतरात्मा और विवेक असामान्य हैं। वे कुछ धर्म-सिद्धांत समझ सकते हैं, और ऐसी बातें कह सकते हैं : “मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। यही तर्क है जोकि मेरे पास होना चाहिए।” वे इसे शाब्दिक रूप में समझ सकते हैं, और नारे लगा सकते हैं, लेकिन जब वास्तव में कुछ हो जाता है, तो वे इसे स्वीकार नहीं सकते हैं या इसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं, चाहे वे भली-भाँति जानते हों कि यह परमेश्वर द्वारा आयोजित किया गया था। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य विद्रोही हैं, उनके भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ है, और वे परमेश्वर को धोखा देने में पूरी तरह सक्षम हैं। स्थिति की सच्चाई यही है। यदि लोग पर्याप्त सत्य से लैस नहीं हैं, तो उनका जीवन बहुत दयनीय होगा। जो लोग परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हैं, जो परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या उसके आयोजन और व्यवस्थाएँ स्वीकारने में असमर्थ होते हैं, क्या वे भी परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग नहीं हैं? वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते या सत्य में विश्वास नहीं करते। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ।) कुछ लोग किसी विशेष व्यक्ति के बारे में कहते हैं : “वह अहंकारी और आत्मतुष्ट है। जब कुछ होता है तो वह हमेशा प्रतिरोधी होता है। वह हमेशा बहाने बनाता है और बाल की खाल निकालता है। वह परमेश्वर के अस्तित्व में, या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में विश्वास नहीं करता है, इसलिए वह परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकता है।” लेकिन वहीं दूसरी ओर, वह मानता है कि ये परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ हैं; कि यह एक ऐसी स्थिति है जो परमेश्वर ने उसके लिए बनाई है; कि परमेश्वर उसे स्वच्छ करना चाहता है और इसके माध्यम से उसे सत्य प्राप्त कराना चाहता है। तो क्या तब वह समर्पण कर सकता है? तब क्या वह विद्रोही होना बंद कर सकता है, और परमेश्वर को धोखा देने से बच सकता है? क्या संभवतः वह परमेश्वर से इसे ग्रहण कर सकता है? नहीं, वह नहीं कर सकता। क्यों नहीं? क्योंकि मनुष्य के पास ये सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं। तुम लोगों का वर्तमान आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। तो फिलहाल, परमेश्वर तुम लोगों का परीक्षण नहीं कर रहा है। यही मूल कारण है। क्योंकि जैसे ही तुम लोगों का परीक्षण किया जाएगा, तुम सभी अपना असली रूप दिखा दोगे और निकाल दिए जाओगे, और शैतान हँसेगा। क्या यह वास्तविकता नहीं है? अभी तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। तुम लोग धर्म-सिद्धाँत के बारे में बात कर सकते हो और नारे लगा सकते हो, और तुम अन्य लोगों की समस्याएँ स्पष्ट देख सकते हो, लेकिन तुम अपनी स्थिति नहीं जानते हो; तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो। क्या परमेश्वर ऐसी स्थिति में और इस आध्यात्मिक कद के साथ तुम्हारा परीक्षण करेगा? अभी तुम लोगों पर पूर्णता का कार्य निष्पादित करने का समय नहीं आया है; तुम लोग इसके लिए अभी तैयार नहीं हो।
परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना ऐसा बुनियादी सबक है जो परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी के सामने आता है। यह सबसे गहरा सबक भी है। तुम जिस हद तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होते हो, तुम्हारा आध्यात्मिक कद उतना ही बड़ा होता है, और तुम्हारी आस्था भी उतनी ही अधिक होती है—ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। पूर्ण समर्पण तक पहुँचने के लिए तुम्हें किन सत्यों से लैस होने की जरूरत है? सबसे पहले, तुम परमेश्वर से कोई माँग नहीं कर सकते—यह एक सत्य है। तुम इस सत्य को कैसे कार्यान्वित कर सकते हो? जब तुम परमेश्वर से कोई माँग करते हो, तो विचार करने और आत्मचिंतन करने के लिए इस सत्य का उपयोग करो। “परमेश्वर से मेरी क्या माँगें हैं? क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? क्या वे उचित हैं? वे कहाँ से आई हैं? क्या वे मेरी अपनी कल्पनाओं की उपज हैं, या वे शैतान द्वारा मुझे दिए गए विचार हैं?” ये वास्तव में इनमें से कुछ भी नहीं हैं। ये विचार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होते हैं। तुम्हें इन अनुचित माँगों के पीछे निहित उद्देश्यों और इच्छाओं का विश्लेषण करना होगा, और देखना होगा कि वे सामान्य मानवता के तर्क से मेल खाती हैं या नहीं। तुम्हें किसका अनुसरण करना चाहिए? यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है, तो तुम्हें पतरस के जैसा अनुयायी बनने का प्रयास करना चाहिए। पतरस ने कहा, “अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?” पतरस ने जो कहा वह कुछ लोगों को समझ नहीं आता। वे पूछते हैं : “परमेश्वर ने कब लोगों के साथ खिलौनों जैसा व्यवहार किया और कब हमें शैतान को सौंपा? मैंने ऐसा नहीं देखा है। परमेश्वर मेरे लिए अद्भुत, बहुत दयालु रहा है। परमेश्वर वैसा परमेश्वर नहीं है। परमेश्वर संभवतः मनुष्यों से और अधिक प्रेम नहीं कर सकता, तो वह लोगों के साथ खिलौनों जैसा व्यवहार क्यों करेगा? यह सत्य से मेल नहीं खाता। यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी है और परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है।” लेकिन पतरस के शब्द कहाँ से आये? (वे परमेश्वर के बारे में उसके ज्ञान से आए थे, जो सभी प्रकार के परीक्षणों से गुजरने के बाद प्राप्त हुआ था।) पतरस कई परीक्षणों और शोधनों से गुजरा था। उसने अपनी सभी निजी माँगें, योजनाएँ और इच्छाएँ किनारे रख दी, और परमेश्वर से कुछ भी करने की माँग नहीं की। उसके पास अपने स्वयं के कोई विचार नहीं थे, और फिर, उसने स्वयं को पूरी तरह से परमेश्वर को सौंप दिया। उसने सोचा : “परमेश्वर जो भी करना चाहे वह कर सकता है। वह मेरा परीक्षण कर सकता है, वह मुझे ताड़ना दे सकता है, वह मेरा न्याय कर सकता है या मुझे दंडित कर सकता है। वह मेरी काट-छाँट करने के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है, वह मुझे गुस्सा दिला सकता है, वह मुझे शेर की गुफा या भेड़ियों की माँद में डाल सकता है। परमेश्वर जो भी करता है, वह सही है, और मैं किसी भी चीज के लिए समर्पण करने को तैयार हूँ। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है। मैं कोई शिकायत नहीं करूँगा या मेरे अपने कोई चुनाव नहीं होंगे।” क्या यह पूर्ण समर्पण नहीं है? कभी-कभी लोग सोचते हैं : “परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है, तो फिर मुझे परमेश्वर द्वारा किए गए इस काम में कोई सत्य क्यों नहीं मिला? ऐसा लगता है कि परमेश्वर भी कभी-कभी ऐसे काम करता है जो सत्य से मेल नहीं खाते। परमेश्वर भी कई बार गलत होता है। लेकिन चाहे कुछ भी हो, परमेश्वर तो परमेश्वर है, इसलिए मैं समर्पण करूँगा!” क्या इस प्रकार का समर्पण पूर्ण है? (नहीं।) यह चयनात्मक समर्पण है; यह सच्चा समर्पण नहीं है। यह वैसा नहीं है जैसा पतरस ने इसके बारे में सोचा था। तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार करने के लिए, तुम्हें कारण समझाने या तुम्हारे सामने निष्पक्ष और उचित दिखने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार किया जा सकता है; तुम्हारे साथ इस बारे में चर्चा करने या तुम्हें इसके तथ्य और कारण समझाने की कोई जरूरत नहीं है। यदि चीजें तुम्हारी मंजूरी के बिना आगे नहीं बढ़ सकतीं, तो क्या तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार किया जा रहा है? नहीं—यह तुम्हें पूर्ण मानवाधिकार और स्वतंत्रता और पूर्ण सम्मान देना हुआ। यह तुम्हारे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करना हुआ, न कि एक खिलौने जैसा। खिलौना क्या है? (यह कोई ऐसी चीज है जिसकी कोई स्वायत्तता नहीं है और जिसके पास कोई अधिकार नहीं है।) लेकिन क्या यह केवल ऐसी चीज है जिसके पास कोई अधिकार नहीं है? पतरस के शब्दों को कैसे कार्यान्वित किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम कुछ समय से किसी खास विषय पर खोज कर रहे हो, लेकिन अभी तक परमेश्वर का इरादा समझ नहीं पाए हो। या, यों कहें कि तुम 20 वर्षों से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास करते हो और अभी भी नहीं जानते कि यह सब क्या है। क्या इस स्थिति में तुम्हें समर्पण नहीं करना चाहिए? तुम्हें समर्पण करना होगा। और यह समर्पण किस पर आधारित है? यह उस पर आधारित है जो पतरस ने कहा : “अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?” यदि तुम हमेशा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर से पेश आते हो और उनसे परमेश्वर के सभी कार्य आँकते हो, परमेश्वर के वचन और कार्य मापते हो, तो क्या यह परमेश्वर को सीमित कर देना नहीं है, परमेश्वर का विरोध करना नहीं है? परमेश्वर जो कुछ करता है, क्या वह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप होता है? और अगर नहीं होता, तो क्या तुम उसे स्वीकार या उसका आज्ञापालन नहीं करते? ऐसे में तुम्हें सत्य कैसे खोजना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण कैसे करना चाहिए? यह सत्य से जुड़ा है; परमेश्वर के वचनों में उत्तर खोजना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए लोगों को सृजित प्राणी के स्थान पर टिके रहना चाहिए। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर तुमसे छिपा हो या तुम्हारे सामने प्रकट हुआ हो, तुम उसका प्रेम महसूस कर पाओ या न कर पाओ, तुम्हें अपने दायित्वों, बध्यताओं और कर्तव्यों का पता होना चाहिए—तुम्हें अभ्यास के बारे में इन सत्यों की समझ होनी चाहिए। यदि तुम अभी भी यह कहकर अपनी धारणाओं से चिपके रहोगे, “यदि मैं स्पष्ट रूप से देख सकूँ कि यह मामला सत्य और मेरे विचारों के अनुरूप है, तो मैं समर्पण करूँगा; यदि यह मेरे लिए स्पष्ट नहीं है और मैं पुष्टि न कर सकूँ कि ये परमेश्वर के कार्य हैं, तो मैं पहले थोड़ी प्रतीक्षा करूँगा और जब यकीन हो जाएगा कि यह परमेश्वर द्वारा किया गया है, तो मैं समर्पण करूँगा,” क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति है? नहीं। यह एक सशर्त समर्पण है; असीमित, पूर्ण समर्पण नहीं है। परमेश्वर का कार्य मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होता है; देहधारण और खासकर, न्याय और ताड़ना, मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होते हैं। अधिकांश लोग इसे स्वीकारने और इसके प्रति समर्पित होने के लिए वास्तव में संघर्ष करते हैं। यदि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, तो क्या तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हो? यह बिल्कुल संभव नहीं है। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य क्या है? (एक सृजित प्राणी की स्थिति में खड़े होना, परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना।) यह सही है, यही इसका मूल है। तो फिर क्या इस समस्या को हल करना आसान नहीं है? एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और अपने परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना—यही वह चीज है जिसे हर सृजित प्राणी को सबसे ज्यादा करनी चाहिए। ऐसे कई सत्य हैं जिन्हें तुम नहीं समझते हो या जिनके बारे में तुम नहीं जानते हो। चूँकि तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते, इसलिए तुम सत्य स्वीकार नहीं करोगे या उसके प्रति समर्पण नहीं करोगे—क्या यह सही है? उदाहरण के लिए, तुम कुछ भविष्यवाणियाँ नहीं समझते हो, इसलिए तुम नहीं स्वीकारते हो कि वे परमेश्वर के वचन हैं? तुम इससे इनकार नहीं कर सकते। वे वचन सदैव परमेश्वर के वचन रहेंगे, और उनमें सत्य समाहित है। भले ही तुम उन्हें नहीं समझते, फिर भी वे परमेश्वर के वचन हैं। यदि परमेश्वर के कुछ वचन पूरे नहीं हुए हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि वे परमेश्वर के वचन नहीं हैं, कि वे सत्य नहीं हैं? यदि तुम कहते हो : “यदि ये पूरे नहीं हुए हैं तो संभवतः ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं। शायद इनमें मिलावट की गई है,” यह कैसा रवैया है? ये विद्रोही रवैया है। तुम्हारे पास तर्क होना चाहिए। तर्क क्या है? तर्क का होना किस पर आधारित है? यह एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होने और तुम्हारे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होने पर आधारित है। यह सत्य है; एक शाश्वत अटल सत्य। क्या परमेश्वर के प्रति समर्पण इस पर आधारित होना चाहिए कि तुम परमेश्वर के इरादों को जानते-समझते हो या नहीं, या परमेश्वर ने तुम्हें अपने इरादे बताये हैं या नहीं? क्या इसे इन सब पर आधारित होने की जरूरत है? (नहीं।) तो फिर यह किस पर आधारित है? यह समर्पण के सत्य पर आधारित है। समर्पण का सत्य क्या है? (सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पित होना।) यही समर्पण का सत्य है। तो फिर, क्या तुम्हें सही और गलत का विश्लेषण करने की कोई जरूरत है? क्या तुम्हें पूर्ण समर्पण प्राप्त करने के लिए इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि परमेश्वर ने सही कार्य किया है या नहीं? क्या तुम्हारे समर्पण के लिए परमेश्वर को सत्य का यह पहलू स्पष्ट रूप से, पूरी तरह से समझाने की जरूरत है? (नहीं, उसे जरूरत नहीं है।) इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर क्या करता है, तुम्हें समर्पण के सत्य का अभ्यास करना चाहिए—यह पर्याप्त है। कुछ लोग अविश्वसनीय रूप से विवादप्रिय होते हैं और लगातार चीजों को भड़काते रहते हैं। वे हमेशा सोचते रहते हैं : “क्या परमेश्वर सत्य नहीं है? क्या परमेश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है? परमेश्वर ऐसी कुछ चीजें क्यों करता है जिनका मेरे लिए कोई मतलब नहीं है? परमेश्वर मुझे चीजें स्पष्ट रूप से क्यों नहीं समझाता? यदि उसने ये चीजें नहीं समझाईं, तो मैं इन्हें अभ्यास में कैसे ला सकता हूँ? क्या मेरे समर्पण न कर पाने का कारण यह नहीं है कि मैं इसका मतलब नहीं समझ पाता? अगर मैं इसका मतलब नहीं समझ पाऊँगा तो मेरे पास समर्पण करने की प्रेरणा नहीं होगी!” क्या यह विद्रोह नहीं है? क्या तुम्हें समर्पण करने के लिए इस प्रेरणा की जरूरत है? नहीं, तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है। तुम्हें बस एक सरल तार्किकता की जरूरत है, जो है : “मैं परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पण करूँगा। जब परमेश्वर के वचन पूरे हो जाएँगे, तो मैं समर्पण करूँगा और परमेश्वर की स्तुति करूँगा; जब परमेश्वर के वचन पूरे नहीं हुए होते हैं, तब भी वे उसके वचन ही होते हैं, और केवल इसलिए कि वे पूरे नहीं हुए हैं, वे मानवीय शब्द नहीं बन जाएँगे। मुझे बिना किसी आलोचना के, बस समर्पण करने की जरूरत है। परमेश्वर हमेशा मेरा परमेश्वर रहेगा।” इस तरह तुम एक सृजित प्राणी का स्थान लेते हो। कई बार जब तुम्हें लगता है कि लोग परमेश्वर की नजर में सिर्फ खिलौने या चींटियाँ हैं, तो क्या अब भी तुम इस तरह के तर्क और इन सत्य वास्तविकताओं के होते हुए भी, परेशान महसूस करोगे? क्या तुम स्वयं को हीन महसूस करोगे? (नहीं।) तुम अब हीन महसूस नहीं करोगे क्योंकि परमेश्वर तुम्हारे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार कर रहा है, और तुम्हारी उसके सामने अभी भी हैसियत है। परमेश्वर ने तुम्हारा उत्थान किया है। यही कारण है कि तुम हीन महसूस नहीं करते। यदि परमेश्वर ने तुम्हारा उत्थान नहीं किया होता, यदि वह हमेशा तुम्हारी काट-छाँट कर रहा होता और तुम्हें अनुशासित कर रहा होता, तो तुम इससे अप्रसन्न महसूस करते। इस तरह से अप्रसन्न महसूस करना एक समस्या है जिसे हल किया जाना चाहिए। अक्सर लोग ऐसा महसूस करते हैं क्योंकि उनके भीतर बहुत सारी कठिनाइयाँ होती हैं; उनकी हमेशा परमेश्वर से माँगें होती हैं, और वे हमेशा सोचते रहते हैं : “तुम्हें मेरे साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करना होगा। तुम्हें मेरा सम्मान करना होगा और मेरे बारे में ऊँचा सोचना होगा, मेरे बारे में विचार करना होगा और मेरी कमजोरियों को समझना होगा। तुम्हें सहनशील होना होगा। मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है, और मुझमें अंतर्दृष्टि की कमी है। मैंने पहले इस तरह का काम नहीं किया है।” उनके पास हमेशा बहानों की एक लम्बी सूची होती है और कोई समर्पण नहीं होता। समर्पण के सत्य पर आज की संगति के बाद, क्या ये बहाने वास्तविक कारण हैं? कोई भी बहाना वास्तविक कारण नहीं है। तुम्हारी जिम्मेदारी, तुम्हारा दायित्व, और तुम्हारा कर्तव्य समर्पण करना है।
जब लोग किसी मुसीबत में नहीं होते तब उनके लिए समर्पण करना आसान होता है। लेकिन जब मुसीबत आती है, वे समर्पण नहीं कर पाते। इस मामले में क्या किया जा सकता है? इस कठिनाई को हल करने के लिए प्रार्थना करना और सत्य खोजना आवश्यक है। किसी व्यक्ति का यह महसूस करना कि वह श्रेष्ठ है और परमेश्वर ने उसका उत्थान किया है, से यह महसूस करना कि वह ऐसा निकृष्ट खिलौना है जो परमेश्वर की नजर में अयोग्य, तुच्छ और बेकार है, और खुशी-खुशी परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाना और उससे कोई माँग न करना—अनुभव के इस स्तर तक पहुँचने के लिए कितना समय लगना आवश्यक है? (पतरस ने अपने अंतिम सात वर्षों में सैकड़ों परीक्षणों का अनुभव किया। अगर कोई सत्य का अनुसरण न करे तो वह चाहे कितने ही वर्षों तक विश्वास कर ले, इसे हासिल नहीं कर पाएगा।) बात यह नहीं है कि कोई कितने साल से विश्वास कर रहा है—बल्कि यह इस पर निर्भर करता है कि वह सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, और वह भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर पाता है या नहीं। यह सब तुम्हारे अनुसरण पर निर्भर करता है। कुछ लोग केवल प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, हमेशा भीड़ से अलग खड़े होकर खुद को दिखाना चाहते हैं। वे छोटा-सा झटका लगने या असफलता मिलने पर टूट जाते हैं, नकारात्मक और पंगु हो जाते हैं। कुछ लोग अनुचित लाभ लेना पसंद करते हैं, लेकिन सत्य से प्रेम नहीं करते; दूसरों का फायदा उठाकर वे खुश होते हैं, और अगर उन्हें सत्य नहीं मिलता तो इससे दुखी या परेशान नहीं होते। किसी व्यक्ति के पास अगर कोई रुतबा नहीं होता तो वह अपनी आस्था में उदासीन रहता है और रुतबा मिलते ही उसमें किसी दूसरे से अधिक उत्साह आ जाता है; फिर वह कभी भी निराश महसूस नहीं करता और खुशी से कमरतोड़ काम करता है। वह बस सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों के अनुसार चीजों को करने पर कोई ध्यान नहीं देता, और इसके परिणामस्वरूप कई वर्षों की आस्था के बाद भी उसके पास अनुभवात्मक गवाही नहीं होती है। वह यह देखकर जलने और पछताने लगता है कि दूसरे लोगों के पास चंद साल विश्वास करके ही अद्भुत अनुभवात्मक गवाही है, लेकिन यह एहसास खत्म होने के बाद भी वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है। अगर कोई सत्य के लिए प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करता तो उसकी आस्था को चाहे कितने ही साल हो चुके हों, यह किसी काम की नहीं है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्हें परमेश्वर कभी भी पूर्ण नहीं बना सकता। पतरस सैकड़ों परीक्षणों से गुजरकर पूर्ण बना था—क्या तुम लोगों को भी सैकड़ों परीक्षणों से नहीं गुजरना होगा? तुम लोग अब तक कितने परीक्षणों से गुजर चुके हो? अगर सैकड़ों नहीं, तो क्या लगभग एक सौ? (नहीं। अभी नहीं।) पतरस सैकड़ों परीक्षणों से गुजरकर पूर्ण बना, इसलिए अगर तुम लोग अभी तक एक भी परीक्षण से नहीं गुजरे या केवल सौ परीक्षणों से गुजरे हो, तो फिर तुम्हारा अनुभव उसके आसपास कहीं नहीं ठहरता है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद कम है। क्या तुम्हें सत्य के अनुसरण के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं है? और तुम्हें यह कैसे करना चाहिए? तुम्हें सत्य को समझने और इसका अभ्यास करने के लिए प्रयास करना होगा। किसी भी चीज पर गंभीर विचार न कर, चिंतामुक्त जीवन जीकर और दिनभर केवल कार्यों में व्यस्त रहकर लापरवाह और भ्रमित मत रहो। इसका यह मतलब नहीं है कि व्यस्त रहना कोई समस्या है—अगर तुम्हारे पास करने के लिए बहुत सी चीजें हैं, तो तुम्हें व्यस्त रहना ही होगा; व्यस्त न रहना हमेशा एक विकल्प नहीं होता। लेकिन जब तुम सब कुछ संभालने में व्यस्त रहते हो, तब भी तुम्हें सत्य और सिद्धांतों के लिए प्रयास करते रहने चाहिए; तुम्हें अभी भी चीजों को समझने-बूझने की कोशिश करनी चाहिए और अपने में जो भी कमी लगे उसे दूर करने के लिए परमेश्वर से आग्रह करना चाहिए। तुम परमेश्वर से कोई चीज कैसे माँगते हो? तुम हर दिन दिल-ही-दिल में परमेश्वर से उस चीज के लिए प्रार्थना करते हो। यह दिखाता है कि तुम्हारे दिल में सत्य के लिए ललक और परमेश्वर से अपनी आकाक्षाएँ पूरी कराने की इच्छा है। अगर तुम्हारा दिल सच्चा है, तो परमेश्वर तुम्हारी प्रार्थनाएँ सुनेगा; वह तुम्हारे लिए उपयुक्त स्थितियों की व्यवस्था और तैयारी करेगा ताकि तुम सबक सीख सको। तुम कह सकते हो, “मेरा आध्यात्मिक कद वास्तव में कम है। क्या परमेश्वर मुझे किसी ऐसे बड़े परीक्षण से गुजारेगा जो मुझे चकनाचूर कर दे?” नहीं, ऐसा असंभव है। परमेश्वर ऐसा कुछ बिल्कुल नहीं करेगा। परमेश्वर बखूबी जानता है कि किसी की आस्था कितनी अच्छी है और उसका असली आध्यात्मिक कद क्या है। तुम्हें इस पर विश्वास करना होगा। परमेश्वर तीन साल के बच्चे पर किसी वयस्क का बोझ कभी नहीं डालेगा—कभी भी नहीं! तुम्हें दिल से यह यकीन करना होगा। लेकिन तुम्हें इसके लिए परमेश्वर से विनती करनी होगी। तुममें ऐसी इच्छा और ऐसा संकल्प होना चाहिए, और तभी परमेश्वर तुम्हारे अनुरोध पर कार्य करेगा। अगर तुम हमेशा डरे-छिपे रहते हो, परीक्षण किए जाने से डरते हो, हमेशा शांतिपूर्ण और चिंतामुक्त दिन बिताना चाहते हो तो परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करेगा। इसलिए तुम्हें सिर्फ मुक्त भाव से और साहसपूर्वक परमेश्वर से विनती करनी होगी, खुद को वास्तव में समर्पित कर सब कुछ परमेश्वर को सौंपना होगा, और तभी परमेश्वर तुम पर कार्य करेगा। परमेश्वर निश्चित रूप से लोगों को मनमाने ढंग से यातना देने के लिए नहीं, बल्कि परिणाम और लक्ष्य हासिल करने के लिए कार्य करता है। परमेश्वर व्यर्थ का काम नहीं करेगा या तुम पर ऐसा बोझ नहीं डालेगा जिसे तुम सह न सको—तुम्हें इस पर विश्वास करना होगा। पूर्णता खोजने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और एक स्वीकार्य सृजित प्राणी बनने के लिए व्यक्ति में संकल्प होना चाहिए। यह संकल्प क्या है? पूर्णता की खोज करने का संकल्प, ऐसा व्यक्ति बनने का संकल्प जिसके पास सत्य और मानवता हो, जो परमेश्वर से प्रेम करे और उसकी गवाही दे। इसी में परमेश्वर को सबसे अधिक आनंद आता है। अगर तुम्हारे पास ऐसा संकल्प नहीं है, बल्कि तुम केवल यह कहकर संतुष्ट हो : “मैं अपने कर्तव्य में व्यस्त हूँ। मैं बोझ उठा रहा हूँ, श्रम कर रहा हूँ और उपदेश सुन रहा हूँ। मैं किसी और से पीछे नहीं हूँ,” तो तुम्हारे पास कोई संभावना नहीं है। ज्यादा से ज्यादा तुम एक श्रमिक हो लेकिन तुम परमेश्वर के बंदे नहीं बनोगे। क्या तुम प्रगति की इच्छा किए बिना बस यूँ ही यथास्थिति से संतुष्ट होकर नहीं जी रहे हो? तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सभाओं में सत्य पर संगति नहीं करते और उपदेश सुनते ही ऊँघने लगते हो। लेकिन सांसारिक मामलों पर चर्चा करते ही तुम बोलते जाते हो और तुम्हारी आँखें चमक उठती हैं—ये एक श्रमिक के व्यवहार हैं। कुछ लोगों की आँखें सत्य का उल्लेख करते ही चमक उठती हैं; उन्हें लगता है कि उनमें बहुत कमी है, और कुछ अच्छा और व्यावहारिक सुनते ही वे तुरंत उसे नोट कर लेते हैं। उन्हें लगता है कि वे परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोसों दूर हैं और उनके दिल में पर्याप्त सकारात्मक चीजें नहीं हैं। उन्हें लगता है कि उनमें शैतान का जहर बहुत अधिक है और वे परमेश्वर के प्रति बहुत विद्रोही हैं। वे सोचते हैं : “कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर मुझसे संतुष्ट नहीं है। मैं उसकी अपेक्षाओं से बहुत दूर हूँ, मैं किसी भी तरह परमेश्वर के अनुरूप नहीं हूँ, और मैं उसे बहुत गलत समझता हूँ। मैं कब परमेश्वर के इरादे संतुष्ट कर सकूँगा?” वे अपने कर्तव्य में इन चीजों को पता लगाने के प्रयास में देर नहीं करते और अक्सर परमेश्वर के सामने आकर मन-ही-मन प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मेरा परीक्षण करो। मुझे बेनकाब करो, मुझे सत्य को समझने दो, सत्य वास्तविकता प्राप्त करने दो और तुम्हें जानने दो। मुझे अनुशासित करो, मेरा न्याय करो और मुझे ताड़ना दो।” जब वे इस भावना के साथ कोई बोझ उठाते हैं तो हमेशा इसे ध्यान में रखते हैं। वे हमेशा सत्य के लिए प्यासे रहते हैं और इस प्रकार परमेश्वर उन पर कार्य शुरू करता है। वह कुछ लोगों, घटनाओं, और चीजों, तमाम तरह की स्थितियों की व्यवस्था करता है ताकि वे हर दिन उनसे कुछ सीख सकें। तो फिर क्या वे उसके पसंदीदा नहीं होते हैं? पतरस सैकड़ों परीक्षण कैसे झेल पाया? क्योंकि उसने सत्य का अनुसरण किया, परमेश्वर के परीक्षणों से नहीं डरा और वह मानता था कि परमेश्वर के परीक्षण लोगों को शुद्ध करने के लिए होते हैं। वह मानता था कि यह मार्ग लोगों को पूर्ण बना सकता है, और यही एकमात्र सच्चा मार्ग है। उसने इसके लिए प्रार्थना की, खुद को खपाया और समर्पित किया; इसीलिए परमेश्वर ने उसमें कार्य किया। क्या इसका यह मतलब है कि परमेश्वर ने उसे चुना था, कि वह पतरस का परीक्षण करने और उसे पूर्ण बनाने की ठान चुका था? बिल्कुल सही। जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को चुनता है तो उसके मन में एक लक्ष्य के साथ ही सिद्धांत भी होते हैं—यह निश्चित है। अधिकतर लोग परमेश्वर से इस तरह का कार्य प्राप्त क्यों नहीं कर पाते हैं? क्योंकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें इस संकल्प की कमी होती है, और इसीलिए परमेश्वर उनमें कार्य नहीं करता है। परमेश्वर किसी को मजबूर नहीं करता है। जब परमेश्वर किसी को पूर्ण बनाना चाहता है, तो यह अद्भुत बात है, और इसके लिए कितनी भी पीड़ा झेली जा सकती है। लेकिन अधिकतर लोगों में यह संकल्प नहीं होता है, और वे परीक्षणों और कठिनाइयों का सामना होते ही भाग जाते हैं और छिप जाते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे किसी व्यक्ति को बाध्य करेगा? कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, और उनमें मसीह का आमना-सामना करने का साहस भी नहीं होता है। वे कहते हैं : “अगर मैंने मसीह को देख लिया, तो मुझे नहीं पता मैं क्या कहूँगा। मैं न कोई सत्य जानता हूँ, न संगति करना जानता हूँ। अगर मसीह ने यह देख लिया कि मेरे साथ क्या दिक्कत है तो क्या यह शर्मनाक नहीं होगा? अगर मुझे काट-छाँट का सामना करना पड़ा तो मैं इसे संभाल नहीं पाऊँगा। मुझे परमेश्वर से बचना चाहिए और उससे सम्मानजनक दूरी बनाए रखनी चाहिए। अगर मैं हमेशा परमेश्वर के संपर्क में रहता हूँ और उसके सामने जीवन जीता हूँ, तो वह मेरी असलियत जान लेगा और मुझसे घृणा करेगा। मुझे निकाल दिया जाएगा और मेरे पास फिर कोई अच्छी मंजिल नहीं रहेगी।” क्या ऐसा ही होता है? (नहीं।) कुछ लोग इस प्रकार के विचार पालते हैं। क्या परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति से कुछ माँगेगा? (नहीं, वह नहीं माँगेगा।) इसलिए तुम जो भी अनुसरण करोगे, तुम्हारा संकल्प जितनी दूर तक का होगा, परमेश्वर तुम्हें उस बिंदु तक पूर्ण बना देगा। यदि तुम सत्य का अनुसरण न करके हमेशा परमेश्वर से छिपते फिरते और दूर रहते हो, हमेशा अपने विचारों को परमेश्वर से छिपाते हो, तो परमेश्वर ने तुम जैसे लोगों के बारे में क्या कहा है? (“पवित्र वस्तु कुत्तों को न दो, और अपने मोती सूअरों के आगे मत डालो” (मत्ती 7:6)।) तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और परमेश्वर से छिपते हो, फिर भी सोचते हो कि वह तुम्हारा परीक्षण करने और पूर्ण बनाने पर जोर देगा? तुम गलत हो। यदि तुम सही प्रकार के व्यक्ति नहीं हो, तो चाहे कितनी भी विनती और प्रार्थना कर लो, कोई लाभ नहीं होगा। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा; परमेश्वर लोगों को मजबूर नहीं करता। यह उसके स्वभाव का एक पहलू है। लेकिन वह चाहता है कि सत्य का अनुसरण करने वाले लोग पतरस, अय्यूब या अब्राहम जैसे हो सकें; वे परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार जीवन में सही रास्ते पर कदम रख सकें; वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर कदम बढ़ा सकें, और अंततः सत्य प्राप्त कर पूर्ण बन सकें। परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को प्राप्त करने की आशा करता है, परंतु यदि तुम खुद यह प्रयास नहीं करते तो क्या परमेश्वर तुम्हें बाध्य करेगा? नहीं। परमेश्वर ने कभी किसी को बाध्य नहीं किया। ऐसा नहीं है कि पवित्र आत्मा तुम्हें लगातार प्रेरित करेगा, दामन पकड़कर तुम्हें छोड़ेगा नहीं, तुम्हें पूर्ण बनाने पर तुला रहेगा और ऐसा करने से पहले नहीं रुकेगा। सच बताएँ तो परमेश्वर ऐसा कुछ भी नहीं करेगा। यही उसका रवैया है। परमेश्वर बस यह आशा करता है कि अंत में जब उसका कार्य पूरा हो जाए, तो वह अय्यूब, पतरस और अब्राहम जैसे और अधिक लोगों को प्राप्त कर ले। लेकिन वास्तव में कितने लोग सत्य का अनुसरण कर अंत में परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाते हैं, इसके लिए वह मजबूर नहीं करेगा। वह चीजों को अपने आप घटित होने देगा—यह परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य का एक पक्ष है। परमेश्वर ने कोई विशेष संख्या तय नहीं की है—कि यह 10, 20, 1,000 या 2,000, या फिर 10,000 होनी चाहिए। उसने इस बारे में कोई शर्त नहीं रखी है। परमेश्वर बस इसी तरह आगे बढ़ रहा है, वास्तविक कार्य कर रहा है, और वास्तव में लोगों के बीच चल-फिर रहा है। वह इसी तरह कार्य करता और बोलता है, सत्य से संबंधित कार्य के हर पहलू को अंजाम देता है, ऐसा कार्य जो मानवजाति के लिए लाभदायक होता है। यही वह कार्य है जो वह सही प्रकार के लोगों के बीच करता रहता है, उन लोगों के बीच जिनमें सत्य के लिए ललक है। अंत में जिनके पास संकल्प होगा और जो सत्य का अनुसरण कर रहे होंगे, उन्हें पूर्ण बनाया जाएगा। वे सबसे अधिक धन्य हैं और वे ही अनन्त जीवन प्राप्त करेंगे। इतना यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि परमेश्वर सबके प्रति धार्मिक है और किसी से अन्यायपूर्ण ढंग से पेश नहीं आता। आज तुम सभी लोग परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हो, यह कोई संयोगवश नहीं है—यह परमेश्वर ने बहुत पहले नियत कर दिया था। परमेश्वर पहले ही ये सारी चीजें नियत कर देता है कि लोग कब-किस परिवार में पैदा होंगे, किस माहौल में बड़े होंगे, उनकी काबिलियत, प्रतिभाएँ, योग्यताएँ क्या होंगी और उनके आस-पास क्या कुछ होगा। अंत में लोग परमेश्वर की धार्मिकता को किस रूप में देखेंगे? आखिरकार जीवित रहने और एक सुंदर मंजिल पाने की क्षमता लोगों के अपने अनुसरणों और उस कीमत पर तय करती है जो उन्होंने चुकाई है। परमेश्वर का ये चीजें पूर्वनियत करना एक पहलू है, लेकिन लोगों का सहयोग भी अनिवार्य है। परमेश्वर इस आधार पर लोगों के परिणाम तय करता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं और उनके पास सत्य है या नहीं। यही उसकी धार्मिकता है।
हर किसी ने देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक पक्ष देखा है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ न्यायपूर्ण और तर्कसंगत तरीके से व्यवहार करता है। तुमने यह देखा है; दूसरों ने इसे देखा है; तुम सभी लोगों ने यह देखा है। देहधारी परमेश्वर एक साधारण व्यक्ति है। मसीह को देखकर कुछ लोगों के मन में धारणाएँ पैदा होती हैं और वे सोचते हैं, “वह इतना सामान्य, इतना मामूली दिखता है। क्या यह वास्तव में देहधारी हो सकता है? मैं उस पर विश्वास नहीं करता—मैं किसी भी सूरत में उस पर विश्वास नहीं कर सकता।” या वे बस अनिच्छा से उसका अनुसरण करते हैं, संदेह के साथ उस पर विश्वास करते हैं और अपनी धारणाओं को अपने साथ लिए फिरते हैं। मसीह को देखने वाले अन्य लोगों में कुछ तर्क होता है, और वे सोचते हैं : “देहधारी एक साधारण व्यक्ति है, लेकिन वह सत्य व्यक्त कर सकता है और लोगों को जीवन प्रदान कर सकता है, इसलिए मुझे उसे परमेश्वर मानना चाहिए। मैं उसके वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार कर उन पर अमल करता हूँ, उन्हें सृष्टिकर्ता के वचन मानता हूँ। मैं उसका अनुसरण करूँगा।” ये लोग अंततः पूर्ण बनाए जाते हैं और सत्य प्राप्त करते हैं। अंत में किस प्रकार के लोग सत्य प्राप्त करते हैं? वही जो सत्य का अनुसरण करते हैं। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों को रोज सींचता है, उनका पोषण करता है, उनकी चरवाही करता है, और उनमें कार्य करता है। मैं उपदेश और संगति साझा करता हूँ, पवित्र आत्मा परमेश्वर के चुने हुए लोगों में काम करता है, और हर कोई सिंचन और पोषण प्राप्त करता है। किसी के साथ भी विशेष व्यवहार नहीं किया जाता, कलीसियाई जीवन में भाग लेने वाला हर व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाता है और इस तरह रोजाना परमेश्वर के कार्य का आनंद उठाता है। मैं हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता हूँ। चाहे कोई भी प्रश्न पूछे, मैं उत्तर देता हूँ, मैं कोई अतिरिक्त देखभाल नहीं करता, विशेष स्थितियाँ खड़ी नहीं करता, न किसी को उत्साहित या प्रोत्साहित करने की कोशिश करता हूँ, न पवित्र आत्मा से अतिरिक्त प्रबोधन या रोशनी दिलाता हूँ, न ही कोई संकेत या चमत्कार दिखाता हूँ। परमेश्वर ऐसा कुछ भी नहीं करता। परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में अनेक संकेत और चमत्कार दिखाए थे, ताकि लोगों के पाप माफ कर उन्हें पश्चात्ताप के मार्ग पर लाया जा सके और वे परमेश्वर पर विश्वास करें, उस पर संदेह न करें। कार्य का वर्तमान चरण पूरी तरह से सत्य प्रदान करने से जुड़ा है, ताकि लोग सत्य को समझ सकें और सच्चा विश्वास विकसित कर सकें। तुमने चाहे कितना भी दुख सहा हो, यदि अंततः सत्य प्राप्त कर लिया है, तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो पूर्ण बनाया जा चुका है और जिसे सुरक्षित रखा जाएगा। यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं करते तो तुम चाहे जो भी कारण गिनाओ, सब व्यर्थ हैं। तुम कह सकते हो : “परमेश्वर ने कोई चमत्कार नहीं दिखाया, इसलिए मैं विश्वास नहीं कर सका,” “परमेश्वर हमेशा ऐसे सत्य व्यक्त करता रहा जो मेरी समझ से परे थे, इसलिए मैं विश्वास नहीं कर सका,” या “परमेश्वर इतना व्यावहारिक और सामान्य था कि मैं विश्वास नहीं कर सका।” ये सभी तुम्हारी समस्याएँ हैं। तुम्हें दूसरों की तरह ही सत्य प्रदान किया गया था—तो फिर वे पूर्ण क्यों बना दिए गए, जबकि तुम्हें निकाल दिया गया? तुमने सत्य क्यों नहीं प्राप्त किया? यह तुम्हारा न्याय है : ऐसा इसलिए है क्योंकि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया। इस अंतिम चरण में, परमेश्वर केवल वचनों का कार्य करता है। वह व्यावहारिक रूप से मानवता का न्याय करने और उसे निर्मल बनाने के लिए वचनों का उपयोग करता है; वह संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता। यदि तुम परमेश्वर के चमत्कार देखना चाहते हो तो 2,000 साल पुराने युग में जाकर प्रभु यीशु के चमत्कार देखो। इस युग के विश्वासी मत बनो। तुमने परमेश्वर के न्याय का कार्य स्वीकार कर लिया है, इसलिए चमत्कारों की तलाश मत करो। परमेश्वर ये सब नहीं कर रहा है। क्या यह उचित है? (बिल्कुल।) यह उचित और तर्कसंगत है। यदि तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो परमेश्वर तुमसे अन्यायपूर्ण ढंग से पेश नहीं आएगा। यदि तुम सत्य का अनुसरण न कर केवल श्रम करने का प्रयास करते हो, हमेशा अंत तक वफादारी से श्रम करते रहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें बने रहने देगा और तुम्हें अनुग्रह भी मिलेगा। लेकिन यदि तुम अंत तक श्रम करने में असमर्थ हो तो तुम्हें निकाल दिया जाएगा। निकाले जाने का क्या अर्थ है? इसका मतलब विनाश है! यह उचित और तर्कसंगत है, और इसमें लोगों के प्रति कोई अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं है। यह सब परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित है। इन सबके मद्देनजर क्या वह राह अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं हो जाती जिसे लोग अपनाते हैं? तुम किस राह का अनुसरण करते हो, किस प्रकार के व्यक्ति बनना चाहते हो, किस प्रकार के अनुसरण में संलग्न रहते हो, क्या आशा रखते हो, परमेश्वर से क्या माँगते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है और जब तुम उसके सामने होते हो तो उसके वचनों के प्रति क्या रवैया अपनाते हो : ये सभी चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं। तुम्हीं बताओ—क्या संकेत और चमत्कार दिखाने से लोग पूर्ण बनाए जा सकते हैं? उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे साथ कोई सड़क हादसा हो जाता है और परमेश्वर तुम्हें बचा लेता है, तो क्या इससे तुम पूर्ण बन सकते हो? यदि तुम एक बार मर गए और फिर से जी उठे तो क्या यह तुम्हें पूर्ण बना सकता है? या सपने में स्वर्ग के राज्य में जाकर परमेश्वर को देख लिया, तो क्या यह तुम्हें पूर्ण बना सकता है? (नहीं।) ये चीजें सत्य का स्थान नहीं ले सकतीं। इसलिए कार्य के इस अंतिम चरण में, जो परमेश्वर के प्रबंधन कार्य का समापन चरण है, वह लोगों को पूर्ण बनाने और बेनकाब करने के लिए वचनों का उपयोग करता है। यह परमेश्वर की धार्मिकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पूर्ण बनाए जाते हो तो कोई यह शिकायत नहीं कर सकता कि तुम्हें परमेश्वर ने बचा रखा है, और शैतान तुम्हें बचाए रखने का आरोप नहीं लगा सकता है। ऐसे ही व्यक्ति को परमेश्वर चाहता है। परमेश्वर ने इतने सारे वचन उपलब्ध कराए हैं, इसलिए यदि तुम अंत में कुछ भी हासिल नहीं करते तो यह किसकी गलती होगी? (हमारी अपनी।) गलत रास्ता चुनना तुम्हारी अपनी गलती है। लोग कौन सा रास्ता अपनाते हैं यह बहुत महत्वपूर्ण है। क्यों? क्योंकि इससे उनकी मंजिल तय होती है। इसलिए तुम्हें लगातार यह जानने में नहीं जुटे रहना चाहिए कि क्या भविष्यवाणियाँ पूरी हो गई हैं, क्या परमेश्वर ने कोई संकेत और चमत्कार दिखाए हैं, परमेश्वर वास्तव में पृथ्वी से कब जाएगा और क्या तुम उसे पृथ्वी छोड़ते समय देख सकोगे। यह खोजने से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा; इससे तुम्हारी मंजिल या तुम्हारे पूर्ण बनाए जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। तो फिर तुम्हारे लिए क्या मायने रखता है? (आस्था में चुना मेरा रास्ता।) तुम जो रास्ता अपनाते हो उससे इस बात पर फर्क पड़ता है कि क्या तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। पूर्ण बनाए जाने की कोशिश में तुम्हें सबसे अधिक किस सत्य में प्रवेश करना चाहिए? परमेश्वर के प्रति समर्पण के सत्य में। परमेश्वर के प्रति समर्पण करना सर्वोच्च, सबसे महत्वपूर्ण सत्य है, और सार रूप में सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण का अनुसरण करना एक समान है। तुम्हें जीवन भर परमेश्वर के प्रति समर्पण का अनुसरण करने की आवश्यकता है, और परमेश्वर के प्रति समर्पण का यह मार्ग सत्य का अनुसरण करने का मार्ग है। तुम्हें अपने जीवन भर परमेश्वर के प्रति समर्पण क्यों करना चाहिए? क्योंकि परमेश्वर के प्रति समर्पण की प्रक्रिया भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने की प्रक्रिया है। तुम्हें भ्रष्ट स्वभाव ठीक क्यों करना चाहिए? क्योंकि भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर के प्रतिकूल है। अगर तुम शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो तो तुम्हारा सार शैतान का है, दानवों का है, और परमेश्वर के प्रति समर्पण का अनुसरण करने के लिए तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर करनी होगी। यह महत्वपूर्ण है! जब तक तुममें भ्रष्ट स्वभाव है और इसमें एक लेशमात्र भी अनसुलझा रह जाता है, तब तक तुम परमेश्वर के प्रतिकूल रहोगे, परमेश्वर के शत्रु रहोगे और उसके प्रति समर्पण करने लायक नहीं रहोगे। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जिस हद तक हल हो जाता है, उसी हद तक तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो; तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का जितना फीसदी समाधान होता है, उतना फीसदी तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हो।
इस सभा में हमने परमेश्वर को जानने के बारे में बात नहीं की है। परमेश्वर को धीरे-धीरे जाना जाता है और इसकी प्रक्रिया यह है कि हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करते जाएँ और परमेश्वर के प्रति समर्पण तक पहुँचने के लिए पूर्ण बनने का प्रयास करते जाएँ। परमेश्वर को जानने की कोशिश अपने आप में एक बहुत गहन सबक होगा, यही कारण है कि हमने इसके बारे में बात नहीं की। अभी हमारी बातचीत के विषयों का निकट संबंध लोगों के तौर-तरीकों, जीवन, अनुसरण और उनके द्वारा अपनाए जा रहे रास्तों से है। अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने की प्रक्रिया में तुम धीरे-धीरे परमेश्वर को समझते हो और उसके इरादों को जानने लगते हो। जब तुम परमेश्वर के इरादों को समझने लगते हो तो क्या तुम्हें उसका और अधिक ज्ञान नहीं मिल जाता है? (बिल्कुल।) तब तुम्हारे पास परमेश्वर का कुछ वास्तविक ज्ञान होता है। जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो तो उसके प्रति समर्पण करने में सफल कैसे हो जाते हो? क्योंकि तुम उसके हृदय को जानते हो और उसके इरादों को समझते हो; तुम समझते हो कि परमेश्वर तुमसे किन मानकों और सिद्धांतों की अपेक्षा करता है, और उसके लक्ष्य क्या हैं। क्या इस समझ में परमेश्वर का कुछ ज्ञान शामिल नहीं है? (बिल्कुल है।) यह धीरे-धीरे हासिल किया जाता है, और यह सब आपस में जुड़ा हुआ है। यदि तुम केवल परमेश्वर को जानने के पीछे भागोगे तो तुम्हें संघर्ष करना पड़ेगा। तुम कह सकते हो : “मैं दिन-रात परमेश्वर को जानने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं करूँगा। मैं देखूँगा कि फूल कहाँ से आते हैं, मेमने अपने दूध के लिए घुटने क्यों टेकते हैं जबकि बछड़े ऐसा नहीं करते। मैं यह सब अध्ययन करूँगा और इस तरह परमेश्वर को जानूँगा।” क्या तुम यह सब शोध करके परमेश्वर का ज्ञान पा सकते हो? बिल्कुल भी नहीं। सत्य शोध करने से नहीं आता बल्कि यह केवल अनुभव से ही जाना जाता है। शोध का कोई फायदा नहीं है। तुम जानते ही हो कि सभी चीजें परमेश्वर ने बनाईं, और क्या खूब बनाई हैं, और इस प्रकार तुम्हें पहले से ही परमेश्वर का कुछ ज्ञान है। लेकिन तुम्हें किस चीज पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए? तुम्हें सत्य का अनुसरण करना है, अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना है और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। अनुसरण की इस प्रक्रिया में तुम धीरे-धीरे कई छोटे-मोटे प्रश्नों के उत्तर देने लगोगे, और तुम्हें अपने अभ्यास और अपने प्रवेश के लिए एक मार्ग मिल जाएगा। तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान जितनी अच्छी तरह से किया जाएगा, तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना उतना ही आसान होगा। एक बार जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव से बाधित नहीं रह जाते हैं, तो वे वास्तव में स्वतंत्र और मुक्त हो जाते हैं, और तब किसी भी सत्य को अभ्यास में लाना कठिन नहीं बल्कि बहुत आसान रहता है। सत्य का लोगों का जीवन बन जाना क्या यही नहीं है?
1 अक्तूबर 2017