229 आत्मचिंतन से आगे का रास्ता खुल जाता है
1 मैंने परमेश्वर का अनुसरण करने के मार्ग पर, कभी भी सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं दिया। कितनी ही बार मैं असफल हुई और मुझे अनुशासित किया गया मानो जैसे मैं सपने से जागी हूँ। मेरा न्याय किया गया और मैंने आत्मचिंतन किया, तब जाकर मुझे पता चला कि मेरे अंदर भयंकर भ्रष्टता है। अपने इस शैतानी स्वभाव के साथ जीते हुए, मैं अक्सर झूठ बोला करती और धोखा दिया करती थी; मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में उतावली और लापरवाह थी; मैं सारे काम अपनी मर्जी से करती थी; मैं सत्य के सिद्धांतों पर नहीं चलती थी; मैं केवल सिद्धांतों पर भाषण झाड़ती थी और नियमों पर चलती थी और सोचती थी कि मुझमें सत्य की वास्तविकता है। मैं पाखंडी, निर्मल और सरल थी। मैं परमेश्वर का जरा भी आज्ञापालन नहीं करती थी; मैं केवल हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए काम करती थी और जीवन में मेरा प्रवेश बहुत ही सतही था। मैंने जाँचा कि पतरस की आत्मा का होना क्या होता है, लेकिन मैं वैसी नहीं थी और मैं अपने आप पर बेहद शर्मिंदा थी।
2 परीक्षणों और क्लेशों ने मुझे दिखा दिया कि मैं परमेश्वर की प्रति निष्ठावान नहीं हूँ, और तो और, मैं परमेश्वर से भी प्रेम नहीं करती थी। मैं केवल अपने देह-सुख की परवाह करती थी, मुझे परमेश्वर के हृदय की जरा भी चिंता नहीं थी, अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान हमेशा डरी रहती थी कि मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा, मैं यातना सहन नहीं कर पाऊंगी और यहूदा बन जाऊंगी। मुझे जीवन की लालसा थी, मैं मौत से बहुत डरती थी और एक अधम जीवन जी रही थी, और इसीलिए मैं अपने कर्तव्यों का भी निर्वहन अच्छे ढंग से नहीं कर रही थी। और जब तथ्य स्पष्ट रूप से मेरे सामने आए तो मुझे पता चला कि मेरी स्थिति कितनी दयनीय है। सत्य की वास्तविकता के अभाव में, मेरा परमेश्वर को धोखा देना अवश्यंभावी था; अगर मेरे दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम ही नहीं था, तो मैं परमेश्वर के प्रति सचमुच आज्ञाकारी और निष्ठावान कैसे हो सकती थी? मुझे इस बात का पश्चाताप हुआ कि परमेश्वर में इतने वर्षों की आस्था में, मैंने आशीष पाने के लिए थोड़े-बहुत कर्तव्यों का निर्वहन किया था। अगर मैंने सत्य का अभ्यास ही नहीं किया, तो मैं शानदार गवाही कैसे देख सकती हूँ? मुझे इस बात का गहराई से एहसास हुआ कि मैं लंबे समय से खतरे के मुहाने पर जी रही हूँ।
3 परमेश्वर में इतने वर्षों की अपनी आस्था में, मैं सत्य की वास्तविकता को जरा-सा भी क्यों नहीं जी पाई? इसकी एकमात्र वजह यही है कि मुझे सत्य से प्रेम नहीं था, मैं केवल धन, प्रतिष्ठा और आशीषों के पीछे भाग रही थी। आज भी मुझमें परमेश्वर का कोई भय नहीं है, न ही मैं सच में उसका आज्ञापालन करती हूँ। आत्म-चिंतन करके मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी बदनसीब हूँ कि परमेश्वर में अपने बरसों की आस्था के बावजूद मैंने सत्य का पालन नहीं किया : अभी भी मेरा चेहरा शैतान का है, मैं आज भी आशीष पाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहती हूँ, मैं बहुत ही ज्यादा मूर्ख हूँ। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, वह अपने राज्य में भ्रष्ट लोगों का प्रवेश कैसे सहन कर सकता है? अगर मैंने सत्य का पालन जारी न रखा तो परमेश्वर निश्चित रूप से मुझे त्याग देगा। मैं परमेश्वर के अनुग्रह के लिए, उसके अथक प्रयासों के लिए उसकी ऋणी हूँ, मैं पतरस का अनुकरण करने, परमेश्वर के प्रेम की खोज करने और उसकी शानदार गवाही देने के लिए दृढ़संकल्प हूँ।