9. बार-बार होने वाली नकारात्मकता की समस्या का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
“नकारात्मकता” शब्द के अर्थ को देखा जाए, तो नकारात्मक होने पर व्यक्ति की मनोदशा बहुत ही हताश स्थिति में पहुँच जाती है और उसकी मानसिक स्थिति बुरी हो जाती है। उसकी मनोदशा नकारात्मक तत्वों से भर जाती है, उसमें सक्रिय रूप से प्रगति करने और आगे बढ़ने का प्रयास करने का रवैया नहीं रहता है, और उसमें सकारात्मक, सक्रिय सहयोग और तलाश करने की भावना का अभाव होता है; इससे भी बढ़कर, वह खुशी से किए जाने वाले समर्पण का बिल्कुल भी प्रदर्शन नहीं करता है, बल्कि बहुत ही हताश मनोदशा दिखाता है। हताश मनोदशा क्या दर्शाती है? क्या यह मानवता के सकारात्मक पहलुओं को दर्शाती है? क्या यह जमीर और सूझ-बूझ का होना दर्शाती है? क्या यह गरिमा के साथ जीना, मानवता की गरिमा में जीना दर्शाती है? (नहीं।) अगर यह इन सकारात्मक चीजों को नहीं दर्शाती है, तो क्या दर्शाती है? क्या यह परमेश्वर में सच्ची आस्था के अभाव को, और साथ ही सत्य का अनुसरण करने और सक्रियता से प्रगति करने के लिए दृढ़ निश्चय और संकल्प के अभाव को दर्शा सकती है? क्या यह व्यक्ति की मौजूदा परिस्थिति और मुश्किलों के प्रति उसकी गहरी असंतुष्टि और समझने में परेशानी को और वर्तमान के तथ्यों को स्वीकारने की अनिच्छा को दर्शा सकती है? क्या यह कोई ऐसी परिस्थिति दर्शा सकती है जिसमें व्यक्ति का दिल अनाज्ञाकारिता, अवज्ञा करने की इच्छा और मौजूदा परिस्थिति से बचकर भाग जाने और उसे बदलने की इच्छा से भरा हो? (हाँ।) ये वे स्थितियाँ हैं जिन्हें लोग तब प्रदर्शित करते हैं जब वे वर्तमान परिस्थिति का सामना नकारात्मकता से करते हैं। संक्षेप में कहें, तो चाहे जो भी हो, जब लोग नकारात्मक होते हैं और अपनी वर्तमान स्थिति से और परमेश्वर द्वारा की गई व्यवस्था से उनकी असंतुष्टि ऐसी सामान्य सी बात के बराबर नहीं होती है कि उन्हें गलतफहमियाँ मात्र हैं, समझ नहीं रहे हैं, बूझ नहीं रहे या वे अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। बूझ नहीं पाना काबिलियत या समय की समस्या हो सकती है, जो कि मानवता की एक सामान्य अभिव्यक्ति है। अनुभव नहीं कर पाने के पीछे कुछ वस्तुनिष्ठ कारण भी हो सकते हैं, लेकिन इन्हें नकारात्मक, प्रतिकूल चीजें नहीं माना जाता है। कुछ लोग अनुभव नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब उनका सामना ऐसी चीजों से होता है जिन्हें वे नहीं समझते हैं या जिनकी असलियत नहीं पहचानते हैं, या वे ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वे बूझ या अनुभव नहीं कर पाते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसकी आकांक्षाओं की तलाश करते हैं, परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी की प्रतीक्षा करते हैं, और सक्रिय रूप से दूसरों से तलाश करते हैं और उनके साथ संगति करते हैं। लेकिन, कुछ लोग अलग किस्म के होते हैं; उनके पास ऐसे अभ्यास के मार्ग नहीं हैं, और ना ही उनके पास कोई ऐसा रवैया होता है। संगति करने के लिए किसी की प्रतीक्षा करने, तलाश करने या ढूँढ़ने के बजाय, वे अपने दिलों में गलतफहमियाँ उत्पन्न कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे जिन घटनाओं और परिस्थितियों का सामना करते हैं, वे उनकी इच्छाओं, प्राथमिकताओं या कल्पनाओं के अनुरूप नहीं हैं, जिससे अनाज्ञाकारिता, असंतोष, प्रतिरोध, शिकायतें, अवज्ञा, हंगामा करना और ऐसी ही दूसरी प्रतिकूल चीजें होती है। इन प्रतिकूल चीजों को उत्पन्न करने के बाद, वे उनके बारे में ज्यादा नहीं सोचते हैं, और ना ही वे प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आते हैं और ना ही अपनी खुद की स्थिति और भ्रष्टता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए चिंतन करते हैं। वे परमेश्वर की आकांक्षाओं की तलाश करने के लिए परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते हैं या समस्याओं को सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग नहीं करते हैं, फिर दूसरों से तलाश करना और उनके साथ संगति करना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे इस बात पर अड़े रहते हैं कि वे जो मानते हैं वह सही और सटीक है, वे अपने दिलों में अनाज्ञाकारिता और असंतोष की भावना रखते हैं, और नकारात्मक, प्रतिकूल भावनाओं में फँसे रहते हैं। इन भावनाओं में फँसे रहने के दौरान, वे एक-दो दिन उन्हें अपने भीतर दबाकर रख पाते हैं या उन्हें झेल पाते हैं, लेकिन एक लंबे समय बाद, उनके मन में कई चीजें उत्पन्न होने लगती हैं, जिनमें मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ, मानवीय नैतिकता और आचार, मानवीय संस्कृति, परंपराएँ और ज्ञान वगैरह शामिल हैं। वे इन चीजों का उपयोग उन समस्याओं को देखने, उनका हिसाब लगाने और उन्हें समझने के लिए करते हैं जिनका वे सामना करते हैं, और पूरी तरह से शैतान के जाल में फँसे रहते हैं, और इस प्रकार असंतोष और अनाज्ञाकारिता की विभिन्न स्थितियाँ जन्म लेती हैं। इन भ्रष्ट स्थितियों से, फिर तरह-तरह के गलत विचार और दृष्टिकोण उभरते हैं, और उनके दिलों में इन नकारात्मक चीजों को और नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। फिर वे इन चीजों को बाहर निकालने और अपनी भड़ास निकालने के अवसर तलाशते हैं। जब उनका दिल नकारात्मकता से भर जाता है, तो वे कहते हैं, “मेरे भीतर नकारात्मक चीजें भर गई हैं; मुझे दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बचने के लिए बिना विचारे नहीं बोलना चाहिए। अगर मेरा बोलने का मन करता है और मैं इसे रोक नहीं पाता हूँ, तो मैं दीवार से बात कर लूँगा, या किसी ऐसी चीज से बात करूँगा जिसे मानवीय बातें समझ नहीं आती हैं”? क्या वे इतने उदार हैं कि ऐसा करेंगे? (नहीं।) तो फिर वे क्या करते हैं? अपने नकारात्मक विचारों, टिप्पणियों और भावनाओं को सुनाने के लिए वे श्रोता हासिल करने के अवसरों की तलाश करते हैं, और इसका उपयोग अपने दिलों से असंतोष, अनाज्ञाकारिता और द्वेष जैसी अलग-अलग नकारात्मक मनोदशाओं को बाहर निकालने के लिए करते हैं। उनका मानना है कि कलीसियाई जीवन भड़ास निकालने का सबसे अच्छा समय है और अपनी नकारात्मकता, असंतोष और अनाज्ञाकारिता को बाहर निकालने का सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि वहाँ कई श्रोता होते हैं और उनके शब्द दूसरों को नकारात्मक बनने के लिए प्रभावित कर सकते हैं और कलीसिया के कार्य के लिए प्रतिकूल परिणाम हो सकते हैं। बेशक, जो लोग नकारात्मकता की भड़ास निकलते हैं, वे पर्दे के पीछे भी खुद को रोक नहीं पाते हैं; वे हमेशा अपनी नकारात्मक बातों को बाहर निकालते हैं। जब उनकी भड़ास सुनने वाले ज्यादा लोग नहीं होते, तो उन्हें यह उबाऊ लगता है, लेकिन जब सभी इकट्ठा होते हैं, तो उनमें जोश आ जाता है। नकारात्मकता की भड़ास निकालने वाले लोगों की भावनाओं, स्थितियों और अन्य पहलुओं से यह पता चलता है कि उनका उद्देश्य सत्य को समझने में, क्या सत्य है इसकी असलियत पहचानने में, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों या शंकाओं को दूर करने में, खुद को और अपने भ्रष्ट सार को जानने में या उनके विद्रोहीपन और भ्रष्टता के मुद्दों को सुलझाने में लोगों की मदद करना नहीं है, ताकि वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह ना करें या उसका विरोध ना करें, बल्कि उसके प्रति समर्पण करें। उनके उद्देश्य वास्तव में दोहरे होते हैं : एक लिहाज से, वे अपनी भावनाएँ बाहर निकालने के लिए नकारात्मकता की भड़ास निकालते हैं; दूसरे लिहाज से, उनका उद्देश्य ज्यादा लोगों को नकारात्मकता में और उनके साथ परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके खिलाफ हंगामा करने के जाल में खींच लाना है। इसलिए, नकारात्मकता की भड़ास निकालने के कार्य को कलीसियाई जीवन में पूरी तरह से रोक देना चाहिए।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17)
सभी लोगों के भीतर कुछ गलत अवस्थाएँ होती हैं, जैसे नकारात्मकता, कमजोरी, निराशा और भंगुरता; या उनकी कुछ नीचतापूर्ण मंशाएँ होती हैं; या वे लगातार अपने घमंड, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और निजी हितों से परेशान रहते हैं; या वे स्वयं को कम क्षमता वाला समझते हैं, और कुछ नकारात्मक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। यदि तुम हमेशा इन अवस्थाओं में रहते हो तो तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना कठिन हो जाता है, तो तुम्हारे भीतर सक्रिय तत्व कम होंगे और नकारात्मक तत्व बाहर आकर तुम्हें परेशान करेंगे। इन नकारात्मक और प्रतिकूल अवस्थाओं के दमन के लिए लोग हमेशा अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन वे इनका कैसे भी दमन क्यों न करें, इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग इन नकारात्मक और प्रतिकूल चीजों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते; वे अपने सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। इस कारण उनके लिए दैहिक इच्छाओं और शैतान के खिलाफ विद्रोह करना बहुत कठिन हो जाता है। साथ ही, लोग हमेशा इन नकारात्मक, विषादपूर्ण और पतनशील अवस्थाओं में फँस जाते हैं और वे परमेश्वर से प्रार्थना या उसकी सराहना नहीं करते, बल्कि इन्हीं सब से जूझते रहते हैं। परिणामस्वरूप, पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करता, और अंततः वे सत्य को समझने में अक्षम रहते हैं, वे जो भी करते हैं उसमें उन्हें रास्ता नहीं मिलता, और वे किसी भी मामले को स्पष्टता से नहीं देख पाते। तुम्हारे भीतर बहुत-सी नकारात्मक और प्रतिकूल चीजें हैं और वे तुम्हारे हृदय में समा गई हैं, इसलिए तुम अक्सर नकारात्मक, विषादपूर्ण चित्त वाले और परमेश्वर से दूर, और दूर और पहले से भी अधिक कमजोर होते जाते हो। यदि तुम पवित्र आत्मा के प्रबोधन और कार्य को प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम इन अवस्थाओं से बच नहीं पाओगे, और तुम्हारी नकारात्मक अवस्था नहीं बदलेगी, क्योंकि यदि तुम्हारे भीतर पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा है, तो तुम रास्ता नहीं खोज पाओगे। इन दो कारणों के चलते, तुम्हारे लिए अपनी नकारात्मक अवस्था को त्यागकर सामान्य अवस्था में प्रवेश करना बहुत कठिन है। हालाँकि, जब तुम लोग अपना कर्तव्य निभाते हो तो कठिनाई का सामना करते हो, कड़ी मेहनत करते हो, बहुत प्रयास करते हो, अपना परिवार और करिअर भी छोड़ देते हो और सब-कुछ त्याग देते हो, तब भी तुम्हारे भीतर की नकारात्मक अवस्थाएँ रूपांतरित नहीं हो पातीं। ऐसे बहुत-से बंधन हैं जो तुम लोगों को सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने से रोकते हैं, जैसे, तुम्हारी धारणाएँ, कल्पनाएँ, ज्ञान, सांसारिक आचरण के फलसफे, स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ और भ्रष्ट स्वभाव। ये प्रतिकूल चीजें तुम लोगों के हृदय में समा गई हैं। युवा होने के बावजूद तुम लोगों के विचार बहुत जटिल हैं। तुम लोग मेरे हर शब्द और अभिव्यक्ति का निरीक्षण और अध्ययन करते हो, फिर उन पर निरंतर विचार करते रहते हो। ऐसा क्यों है? तुम लोग कई वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, लेकिन मैंने अभी तक तुम लोगों में कोई प्रगति या परिवर्तन नहीं देखा है। लोगों के हृदय पूरी तरह से शैतानी चीजों से भरे हुए हैं। यह सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यदि तुम इन चीजों को अपने भीतर से नहीं निकाल फेंकते, यदि तुम इन नकारात्मक अवस्थाओं का त्याग नहीं करोगे, तो तुम स्वयं को रूपांतरित करके एक बच्चे के समान नहीं बन पाओगे और जीवंत, प्यारे, मासूम, सरल, सत्यपूर्ण और निश्छल रूप में परमेश्वर के सामने नहीं आ पाओगे। तब तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा का कार्य या सत्य प्राप्त करना कठिन हो जाएगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है
परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने से पहले लोग अपने मन में बहुत-सी धारणाएँ और अनेक गलत विचार और साथ ही कुछ नकारात्मक दशाएँ विकसित कर लेंगे। सबसे ज्यादा आम नकारात्मक स्थिति है, “मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया है और अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है; इन सभी चीजों में परमेश्वर को मेरी रक्षा कर मुझे आशीष देने चाहिए। मुझ पर विपत्तियाँ क्यों टूट पड़ी हैं?” यह सबसे सामान्य दशा है। एक और किस्म की दशा भी होती है : दूसरों को अच्छे हालत में जीते हुए, मजे लेते हुए देखकर, और खुद को मुश्किलों और गरीबी में जीता हुआ पाकर वे परमेश्वर के अधर्मी होने की शिकायत करते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि वे दूसरों को अपने कर्तव्य निर्वहन में बेहतर परिणाम पाते हुए देखें, और वे ईर्ष्यालु और निराश हो जाएँ। वे तब भी निराश हो जाते हैं जब दूसरों के परिवार सद्भाव के साथ मिल-जुल कर रहते हों, दूसरों की काबिलियत उनसे ऊँची हो, उनका अपना कर्तव्य निर्वहन थका देने वाला हो, या कोई चीज उनके मन मुताबिक न हो। संक्षेप में कहें, तो वे ऐसे हर हालात में निराश हो जाते हैं, जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होते। अगर इस व्यक्ति में कोई काबिलियत है, और वह सत्य स्वीकार सकता है, तो उसकी मदद की जानी चाहिए। अगर ऐसे लोग सत्य समझते हैं, तो उनकी निराशा का मसला आसानी से दूर किया जा सकता है। अगर वे सत्य नहीं खोजते और निराश बने रहते हैं, हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पाले रहते हैं, तो परमेश्वर उन्हें किनारे कर देगा और उन पर कोई ध्यान नहीं देगा, क्योंकि पवित्र आत्मा फालतू काम नहीं करता। ऐसे लोग अत्यंत दुराग्रही होते हैं, सत्य को स्वीकार नहीं करते, हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालते हैं, और हमेशा अपनी माँगें रखते हैं; इसमें समझ का अत्यधिक अभाव है और इसके कारण वे बात समझ नहीं पाते। वे सत्य समझ सकते हैं, मगर उसे स्वीकार नहीं करते। क्या यह कुछ हद तक जानबूझकर अपराध करने जैसा नहीं है? इसलिए परमेश्वर उन पर ध्यान नहीं देता है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं अक्सर निराश रहता हूँ, और परमेश्वर मेरी अनदेखी करता है। इसका मतलब है कि परमेश्वर मुझसे प्यार नहीं करता!” ऐसा कथन बेतुका है। क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर किससे प्यार करता है? क्या तुम्हें पता है कि परमेश्वर का प्रेम कैसे प्रदर्शित होता है? क्या तुम्हें मालूम है कि परमेश्वर किससे प्रेम नहीं करता और किसे अनुशासित करता है? परमेश्वर के प्रेम के सिद्धांत हैं; यह वैसा नहीं है जैसे लोग कल्पना करते हैं, निरंतर लोगों को झेलना और उन्हें कृपा और अनुग्रह दिखाना, वे चाहे जो भी हों उन सबको बचाना, चाहे जो भी पाप किए हों उन सबको क्षमा कर देना, और आखिरकार बिना किसी को छोड़े सभी को परमेश्वर के राज्य में ले आना। क्या ये सब महज लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ नहीं हैं? अगर ऐसा होता तो परमेश्वर को न्याय कार्य करने की जरूरत ही नहीं होगी। परमेश्वर अक्सर निराश रहने वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, उसके सिद्धांत हैं। जब लोग निरंतर निराश रहते हैं, तो इसमें एक समस्या है। परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है, बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं, और अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखता है, तो परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य समझने के बाद उसके भीतर की नकारात्मक चीजें निरंतर कम होती जाएँगी। अगर लोग हमेशा निराश रहते हैं, तो यह निश्चित है कि वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और इसलिए जैसे ही वे अपनी धारणाओं के विपरीत किसी चीज का सामना करेंगे, वे निराश हो जाएँगे। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य क्यों नहीं खोजते? वे सत्य को स्वीकार क्यों नहीं करते? निश्चित रूप से इसलिए क्योंकि उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं, और यही नहीं वे कभी भी सत्य नहीं खोजते। तो जब वे सत्य के साथ इस तरह से पेश आते हैं, तो क्या परमेश्वर अब भी उन पर ध्यान देगा? क्या ऐसे लोग तर्क के लिए अभेद्य नहीं होते हैं? जो लोग तर्क के लिए अभेद्य होते हैं उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? वह उन्हें त्याग देता है और उनकी अनदेखी करता है। तुम जिस भी तरह से चाहो विश्वास रखो; तुम विश्वास रखोगे या नहीं यह तुम पर है; अगर तुम सच में विश्वास रखते हो, और सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम सत्य प्राप्त करोगे; यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, तो तुम इसे प्राप्त नहीं करोगे। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति से उचित ढंग से पेश आता है। यदि तुम्हारे भीतर सत्य की स्वीकृति का रवैया नहीं है, यदि तुम आज्ञाकारिता का रवैया नहीं रखते, यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास नहीं करते हो, तो तुम जैसे चाहे विश्वास रख सकते हो; साथ ही यदि तुम छोड़ देना चाहो, तो फौरन ऐसा कर सकते हो। यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हो, तो परमेश्वर का घर तुम्हें मजबूर नहीं करेगा; तुम जहाँ भी चाहो जा सकते हो। परमेश्वर ऐसे लोगों से रुकने का आग्रह नहीं करता। यह उसका रवैया है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3)
कुछ लोग, थोड़ी-सी भ्रष्टता दिखाने पर सोचते हैं, “मैंने फिर से परमेश्वर का विरोध किया। इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मैं नहीं बदला। जाहिर है कि परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता!” फिर वे निराश हो जाते हैं और सत्य का अनुसरण करने को तैयार नहीं होते। इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? उन्होंने खुद ही सत्य को त्याग दिया है, और मानते हैं कि परमेश्वर अब उन्हें नहीं चाहता। क्या यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी नहीं है? ऐसी नकारात्मकता से शैतान आसानी से फायदा उठा सकता है। शैतान ऐसे लोगों का उपहास करते हुए कहता है, “बेवकूफ कहीं का! परमेश्वर तुझे बचाना चाहता है, मगर तू अभी भी इस तरह पीड़ा झेल रहा है! तो हार मान ले न! यदि तू हार मान लेगा, तो परमेश्वर तुझे हटा देगा, जो उसका तुझे मेरे हवाले कर देने जैसा ही है। मैं तुझे तड़पा कर मार डालूँगा!” एक बार शैतान कामयाब हुआ, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे। नतीजतन, व्यक्ति को चाहे जितनी भी कठिनाइयों या नकारात्मकता का सामना करना पड़े, उसे हार नहीं माननी चाहिए। उसे समाधान के लिए सत्य खोजना चाहिए, और निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। जीवन के विकास की प्रक्रिया के दौरान और मानव उद्धार के दौर में, लोग कभी-कभी गलत मार्ग अपना सकते हैं, भटक सकते हैं, या कभी-कभी वे जीवन में अपरिपक्वता की स्थितियाँ और व्यवहार दिखा सकते हैं। कभी-कभी वे कमजोर और नकारात्मक हो सकते हैं, गलत बातें कह सकते हैं, लड़खड़ा सकते हैं या नाकामयाब हो सकते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ये सब सामान्य बातें हैं। वह इन्हें उनके खिलाफ नहीं रखता। कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी है, और वे कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे, इसलिए वे दुखी महसूस कर खुद से घृणा करते हैं। जिन लोगों के हृदय में पश्चात्ताप है, परमेश्वर उन्हें ही बचाता है। दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है, जो सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है, आम तौर पर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। मैं यहाँ तुम्हें क्या बता रहा हूँ? जो कोई भी समझता है, वह बोल दे। (हमें अपनी भ्रष्टता के प्रकाशनों को उचित रूप से संभालना होगा और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, और फिर हमें परमेश्वर का उद्धार प्राप्त होगा। अगर हम लगातार परमेश्वर को गलत समझते रहे, तो हम आसानी से निराशा से समझौता कर लेंगे।) तुम्हें आस्था रखनी चाहिए और कहना चाहिए, “भले ही मैं अभी कमजोर हूँ, मैंने ठोकर खाई है और नाकामयाब हुआ हूँ। मैं आगे बढ़ूंगा, और एक दिन सत्य को समझूँगा और परमेश्वर को संतुष्ट करके उद्धार प्राप्त करूँगा।” तुम्हारे पास यह संकल्प होना चाहिए। चाहे तुम्हें कैसी भी रुकावटों, कठिनाइयों, नाकामियों या लड़खड़ाहटों का सामना करना पड़े, तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को बचाता है। इसके अलावा, यदि तुम्हें लगता है कि तुम अभी तक परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के योग्य नहीं हो, या ऐसे अवसर हों जब तुम्हारी अवस्थाओं से परमेश्वर घृणा करे और नाखुश हो, या ऐसे मौके हों जब तुम बुरा व्यवहार करते हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तुम्हें ठुकरा देता है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तुम जान गए हो, और अभी भी देर नहीं हुई है। यदि तुम पश्चात्ताप करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें एक मौका जरूर देगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है
चाहे कोई भी समस्या हो, अगर तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो, तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती और तुम्हें जो करना चाहिए उसमें सहयोग नहीं करते, जिसमें सहयोग करना चाहिए उसमें सहयोग नहीं करते, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे दिल में परमेश्वर नहीं है, तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य से प्रेम करता है। पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को चाहे जैसे प्रेरित करे, कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके, इतने सारे सत्य सुनकर, थोड़ा जमीर रखकर और आत्म-संयम पर भरोसा करके ही, लोगों को कम से कम न्यूनतम मानकों को पूरा करने में सक्षम होना चाहिए और अपने जमीर से फटकार नहीं खानी चाहिए। लोगों को उतना सुस्त और कमजोर नहीं होना चाहिए जितना वे अब हैं, उनका ऐसी स्थिति में होना अकल्पनीय है। शायद तुम लोगों के पिछले कुछ वर्ष भ्रम की अवस्था में, सत्य का अनुसरण और कोई प्रगति न करते हुए गुजरे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो तुम अभी भी इतने सुन्न और नीरस कैसे हो सकते हो? तुम्हारा इस तरह होना, पूरी तरह से तुम्हारी मूर्खता और अज्ञानता के कारण है, इसके लिए तुम किसी और को दोष नहीं दे सकते। सत्य दूसरों के मुकाबले कुछ खास लोगों के प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं होता। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, तो तुम कैसे बदल सकते हो? कुछ लोगों को लगता है कि उनमें बहुत कम काबिलियत है और उनमें समझने की क्षमता नहीं है, इसलिए वे खुद को सीमित कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि वे चाहे कितना भी सत्य का अनुसरण कर लें, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते। वे सोचते हैं कि चाहे वे कितनी भी कोशिश कर लें, सब बेकार है, और इसमें बस इतना ही है, इसलिए वे हमेशा नकारात्मक होते हैं, परिणामस्वरूप, बरसों परमेश्वर में विश्वास रखकर भी, उन्हें सत्य प्राप्त नहीं होता। सत्य का अनुसरण करने के लिए कड़ी मेहनत किए बिना, तुम कहते हो कि तुम्हारी क्षमता बहुत खराब है, तुम हार मान लेते हो और हमेशा एक नकारात्मक स्थिति में रहते हो। नतीजतन उस सत्य को नहीं समझते जिसे तुम्हें समझना चाहिए या जिस सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो, उसका अभ्यास नहीं करते—क्या तुम अपने लिए बाधा नहीं बन रहे हो? यदि तुम हमेशा यही कहते रहो कि तुममें पर्याप्त क्षमता नहीं है, क्या यह अपनी जिम्मेदारी से बचना और जी चुराना नहीं है? यदि तुम कष्ट उठा सकते हो, कीमत चुका सकते हो और पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हो, तो तुम निश्चित ही कुछ सत्य समझकर कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे। यदि तुम परमेश्वर से उम्मीद न करो, उस पर निर्भर न रहो और बिना कोई प्रयास किए या कीमत चुकाए, बस हार मान लेते हो और समर्पण कर देते हो, तो तुम किसी काम के नहीं हो, तुममें अंतरात्मा और विवेक का एक कण भी नहीं है। चाहे तुम्हारी क्षमता खराब हो या अत्युत्तम हो, यदि तुम्हारे पास थोड़ा-सा भी जमीर और विवेक है, तो तुम्हें वह ठीक से पूरा करना चाहिए, जो तुम्हें करना है और जो तुम्हारा ध्येय है; पलायनवादी होना एक भयानक बात है और परमेश्वर के साथ विश्वासघात है। इसे सही नहीं किया जा सकता। सत्य का अनुसरण करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और जो लोग बहुत अधिक नकारात्मक या कमज़ोर होते हैं, वे कुछ भी संपन्न नहीं करेंगे। वे अंत तक परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएँगे, और, यदि वे सत्य को प्राप्त करना चाहते हैं और स्वभावगत बदलाव हासिल करना चाहते हैं, तो उनके लिए अभी भी उम्मीद कम है। केवल वे, जो दृढ़-संकल्प हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, ही उसे प्राप्त कर सकते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
हर कोई नकारात्मकता के पलों से गुजरता है; वे सिर्फ तीव्रता, अवधि और कारणों के लिहाज से अलग-अलग होते हैं। कुछ लोग आम तौर पर नकारात्मक नहीं होते हैं, लेकिन जब वे किसी चीज में असफल हो जाते हैं या लड़खड़ा जाते हैं, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं; अन्य लोग मामूली बातों पर नकारात्मक हो सकते हैं, भले ही वह किसी की कही कोई ऐसी बात हो जो उनके गौरव को ठेस पहुँचाती है। और कुछ लोग थोड़ी सी प्रतिकूल परिस्थितियों में नकारात्मक हो जाते हैं। क्या ऐसे लोग समझते हैं कि जीवन कैसे जीना चाहिए? क्या उनमें अंतर्दृष्टि है? क्या उनमें एक सामान्य व्यक्ति की व्यापक सोच और उदारता है? नहीं। परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों, जब तक व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभावों के दायरे में रहता है, तब तक वह बार-बार कुछ नकारात्मक स्थितियों में पड़ता रहेगा। बेशक, अगर व्यक्ति सत्य को समझता है और चीजों की असलियत पहचान पाता है, तो उसकी नकारात्मक स्थितियाँ ज्यादा से ज्यादा कम होती जाएँगी और उसका आध्यात्मिक कद बढ़ने के साथ-साथ उनकी नकारात्मकता धीरे-धीरे गायब होती जाएँगी, और अंत में पूरी तरह से खत्म हो जाएँगी। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, उनमें नकारात्मक भावनाएँ, नकारात्मक स्थितियाँ, और नकारात्मक विचार और रवैयों की संख्या लगातार बढ़ती जाएगी, जो जितने ज्यादा इकट्ठा होंगे, उतने ही गंभीर होते जाएँगे, और एक बार जब ये चीजें उन पर हावी हो जाएँगी, तो वे इनसे उबर नहीं पाएँगे, जो बहुत ही खतरनाक है। इसलिए, नकारात्मकता को फौरन सुलझाना बहुत जरूरी है। नकारात्मकता को सुलझाने के लिए, व्यक्ति को सक्रिय रूप से सत्य की तलाश करनी चाहिए; परमेश्वर की मौजूदगी में शांत मनोदशा बनाए रखते हुए परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उन पर चिंतन-मनन करने से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त होगी, जिससे व्यक्ति सत्य को समझ पाएगा और नकारात्मकता के सार को पहचान पाएगा, और इस तरह नकारात्मकता की समस्या सुलझ जाएगी। अगर तुम अब भी अपनी धारणाओं और कारणों से चिपके रहते हो, तो तुम बेहद बेवकूफ हो, और तुम अपनी बेवकूफी और अज्ञानता से मर जाओगे। इसके बावजूद, नकारात्मकता को सुलझाना अग्रसक्रिय होना चाहिए, निष्क्रिय नहीं। कुछ लोग सोचते हैं कि जब नकारात्मकता उत्पन्न होती है, तो उन्हें बस इसे अनदेखा कर देना चाहिए; जब वे फिर से खुशी महसूस करेंगे, तो उनकी नकारात्मकता स्वाभाविक रूप से खुशी में बदल जाएगी। यह एक कल्पना है; सत्य की तलाश किए या उसे स्वीकार किए बिना, नकारात्मकता अपने आप दूर नहीं होगी। भले ही तुम इसे भूल जाओ और अपने दिल में कुछ भी महसूस नहीं करो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी नकारात्मकता का मूल कारण सुलझ गया है। सही परिस्थितियाँ उत्पन्न होते ही यह फिर से भड़क उठेगा, जो कि एक सामान्य घटना है। अगर व्यक्ति होशियार है और उसके पास सूझ-बूझ है, तो उसे नकारात्मकता उत्पन्न होने पर फौरन सत्य की तलाश करनी चाहिए और इसे सुलझाने के लिए सत्य को स्वीकार करने के तरीके का उपयोग करना चाहिए, और इस तरह नकारात्मकता के मुद्दे को उसकी जड़ों से सुलझाना चाहिए। जो सभी लोग बार-बार नकारात्मक होते हैं, वे ऐसा इसलिए होते हैं क्योंकि वे सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो, तो नकारात्मकता एक शैतान की तरह तुमसे चिपकी रहेगी, और तुम हमेशा-हमेशा नकारात्मक बने रहोगे, जिससे तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारिता, असंतोष और शिकायत की भावनाएँ जन्म लेंगी, जब तक कि तुम खुद को परमेश्वर का प्रतिरोध करने, उससे लड़ने की स्थिति में नहीं पाओगे और परमेश्वर के खिलाफ हंगामा नहीं करोगे—यही वह समय है जब तुम अंत तक पहुँच चुके होगे, और तुम्हारा बदसूरत चेहरा उजागर हो जाएगा। लोग तुम्हें उजागर करना, तुम्हारा गहन-विश्लेषण करना, और तुम्हारा चित्रण करना शुरू कर देंगे, और गंभीर वास्तविकता का सामना करने पर, तब तुम्हारे आँसू बहने लगेंगे; यही वह समय है जब तुम हिम्मत हार जाओगे और गहरी निराशा के कारण अपनी छाती पीटना शुरू कर दोगे—अब तुम बस परमेश्वर की सजा स्वीकारने की प्रतीक्षा करो! नकारात्मकता लोगों को ना सिर्फ कमजोर बनाती है, बल्कि यह उन्हें परमेश्वर के बारे में शिकायत करने, परमेश्वर की आलोचना करने, परमेश्वर को नकारने और यहाँ तक कि सीधे परमेश्वर से लड़ने और उसके खिलाफ हंगामा करने के लिए भी उकसाती है। इसलिए, अगर किसी व्यक्ति की नकारात्मकता को सुलझाने में देरी होती है, तो एक बार जब वे ईशनिंदा वाले शब्द प्रकट करते हैं और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर देते हैं, तो परिणाम बहुत ही गंभीर होते हैं। अगर तुम किसी एक अकेली घटना, एक अकेले वाक्यांश, या एक अकेले विचार या दृष्टिकोण के कारण नकारात्मकता में पड़ जाते हो और शिकायतें रखते हो, तो यह दर्शाता है कि इस मामले के बारे में तुम्हारी समझ विकृत है, और तुम्हारे पास इसके बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं; इस मामले पर तुम्हारे दृष्टिकोण निश्चित रूप से सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इस मौके पर, तुम्हें सत्य की तलाश करने और इसका सही ढंग से सामना करने की जरूरत है, और तुम्हें जल्द से जल्द इन गलत धारणाओं और विचारों को तेजी से ठीक करने का प्रयास करना चाहिए, खुद को इन धारणाओं से इतना बँधा हुआ और गुमराह नहीं होने देना चाहिए कि तुम परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारिता, असंतोष और शिकायत की स्थिति में आ जाओ। नकारात्मकता को फौरन सुलझाना बेहद जरूरी है, और इसे पूरी तरह से सुलझाना भी बेहद जरूरी है। बेशक, नकारात्मकता को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है सत्य की तलाश करना, परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना और परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने के लिए उसके सामने आना। कभी-कभी, हो सकता है कि तुम अस्थायी रूप से अपने विचारों और दृष्टिकोणों को उलटने में असमर्थ हो जाओ, लेकिन कम-से-कम, तुम्हें यह तो पता होना ही चाहिए कि तुम गलत हो और कि तुम्हारे ये विचार विकृत हैं। इस तरह, कम से कम यह नतीजा निकलेगा कि ये गलत विचार और दृष्टिकोण कर्तव्य करने में तुम्हारी निष्ठा को प्रभावित नहीं करेंगे, परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करेंगे, और अपना दिल खोलकर रखने और प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने तुम्हारे आने को प्रभावित नहीं करेंगे—कम-से-कम, यह वह नतीजा है जिसे प्राप्त करना ही चाहिए। जब तुम नकारात्मकता में पूरी तरह से डूबे रहते हो और अनाज्ञाकारी और असंतुष्ट महसूस करते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति शिकायतें रखते हो, लेकिन इन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करना चाहते हो, यह सोचते हो कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता सामान्य है, जबकि दरअसल तुम्हारा दिल परमेश्वर से दूर है और तुम अब उसके वचनों को पढ़ना या उससे प्रार्थना करना नहीं चाहते हो, तो क्या यह समस्या गंभीर नहीं हो गई है? तुम कहते हो, “मैं चाहे कितना भी नकारात्मक क्यों ना रहूँ, मेरे कर्तव्य निर्वहन में कोई बाधा नहीं आई है और मैंने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं छोड़ा है। मैं निष्ठावान हूँ!” क्या ये शब्द जायज हैं? अगर तुम बार-बार नकारात्मक होते हो, तो यह भ्रष्ट स्वभाव होने का मामला नहीं है; यहाँ और भी गंभीर मुद्दे हैं : तुम्हारे पास परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हैं, तुम उसे गलत समझते हो, और तुमने अपने और परमेश्वर के बीच दीवारें खड़ी कर दी हैं। अगर तुम इसे सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हो, तो यह बहुत खतरनाक है। अगर कोई व्यक्ति अक्सर नकारात्मक होता है, तो वह यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि वह अंत तक अपने कर्तव्य को निष्ठा से और बिना किसी अनमनेपन के पूरा करेगा? अगर नकारात्मकता को नहीं सुलझाया जाता है, तो क्या वह अपने आप दूर या गायब हो सकती है? अगर कोई समय रहते समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं करता है, तो नकारात्मकता लगातार बढ़ती ही रहेगी और सिर्फ बदतर होती जाएगी। इसके कारण होने वाले परिणाम सिर्फ और ज्यादा नुकसानदायक होते जाएँगे। वे बिल्कुल भी सकारात्मक दिशा में नहीं बढ़ेंगे, वे सिर्फ प्रतिकूल दिशा में ही बढ़ेंगे। इसलिए, जब नकारात्मकता उत्पन्न होती है, तो तुम्हें इसे सुलझाने के लिए जल्दी से सत्य की तलाश करनी चाहिए; सिर्फ इसी से यह सुनिश्चित होता है कि तुम अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कर पाते हो। नकारात्मकता को सुलझाना बेहद जरूरी है, और इसमें देरी नहीं की जा सकती है!
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17)
लोग अक्सर ऐसी अवस्था में होते हैं। वे या तो केवल आशीष और मुकुट पाना चाहते हैं या फिर—असफलता की कुछ घटनाओं का अनुभव करने के बाद—सोचते हैं कि वे उस काम के लायक नहीं हैं, और कि परमेश्वर ने उनके बारे में निर्णय कर दिया है। यह गलत है। अगर तुम समय रहते बदल सकते हो, अपना दिल और दिमाग बदल सकते हो, अपने हाथों हुई बुराई को छोड़ सकते हो, परमेश्वर के सामने लौट सकते हो, अपने पाप स्वीकार सकते हो और परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप कर सकते हो, यह स्वीकार सकते हो कि तुम्हारे कार्य और वह मार्ग, जिस पर तुम चलते हो, गलत हैं, और अपनी विफलताएँ स्वीकार सकते हो, फिर परमेश्वर के बताए मार्ग के अनुसार अभ्यास कर सकते हो, और कितना ही दागी होने पर भी बिना हार मामने सत्य का अनुसरण कर सकते हो, तो तुम सही काम कर रहे हो। अपने स्वभाव में बदलावों का अनुभव करने और बचाए जाने के क्रम में लोगों को कठिनाइयों का सामना अवश्य करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्थितियों के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होना, अपने विभिन्न प्रकार के विचार, मत, कल्पनाएँ, भ्रष्ट स्वभाव, ज्ञान और खूबियाँ, या फिर उनकी अपनी विभिन्न समस्याएँ और दोष शामिल हैं। तुम्हें हर तरह की मुश्किलों से जूझना होगा। एक बार इन असंख्य कठिनाइयों और अवस्थाओं पर काबू पा लेने पर, जब तुम्हारे दिल का संघर्ष समाप्त हो जाएगा, तो तुम्हें सत्य वास्तविकताएं प्राप्त हो जाएगी, तुम इन चीजों के बंधन में नहीं रह जाओगे, और इस तरह तुम मुक्त किए जा चुके होगे। इस प्रक्रिया के दौरान लोगों को अक्सर एक समस्या का सामना करना पड़ता है, जो यह है कि अपने भीतर समस्याओं को खोज लेने से पहले, ठीक पौलुस की तरह सोचते हैं कि वे बाकी सबसे बेहतर हैं, और भले ही किसी और को न मिले, लेकिन उन्हें आशीष जरूर मिलेगा। जब वे अपनी कठिनाइयाँ जान लेते हैं, तो वे खुद को बेकार मानने लगते हैं और सोचते हैं कि उनके लिए सब खत्म हो चुका है। हमेशा दो चरम स्थितियाँ होती हैं। तुम्हें इन दोनों चरम स्थितियों से उबरना होगा, ताकि तुम किसी भी तरफ अचानक न झुको। जब तुम किसी कठिनाई का सामना करते हो, तो भले ही तुम्हें पहले से पता हो कि यह समस्या बेहद कठिन है, और इसे हल करना कठिन होगा, फिर भी तुम्हें इसका ठीक से सामना करना चाहिए, और परमेश्वर के सामने आकर उस समस्या के हल के लिए उसकी मदद माँगनी चाहिए, और सत्य की खोज करके इसे थोड़ा-थोड़ा कुतरना चाहिए जैसे चींटियाँ किसी हड्डी को कुतरती हैं, और इस स्थिति को उलट देना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करना चाहिए। पश्चात्ताप इस बात का प्रमाण होता है कि तुम्हारे पास सत्य को स्वीकार करने वाला हृदय और समर्पण करने वाला रवैया है, जिसका अर्थ है कि अभी भी आशा है कि तुम सत्य को हासिल कर सकोगे। और अगर इस बीच अन्य कोई कठिनाई आए, तो डरो मत। तुरंत परमेश्वर की प्रार्थना करो और उसके सहारे हो जाओ; परमेश्वर चुपके-चुपके तुम्हें देख रहा होता है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होता है, और जब तक तुम उसके प्रबंधन-कार्य की व्यवस्था, धारा और दायरे से दूर नहीं जाते, तब तक तुम्हारे लिए उम्मीद है—तुम्हें बिल्कुल हार नहीं माननी चाहिए। अगर तुम जो दिखाते हो वह सामान्य भ्रष्ट स्वभाव है, तो जब तक तुम इसे समझ सकते हो और सत्य को स्वीकारते हो, और सत्य का अभ्यास करते हो, तब तक भरोसा रखो कि एक दिन आएगा जब ये समस्याएँ हल हो जाएँगी। तुम्हारी इस पर आस्था होनी चाहिए। परमेश्वर सत्य है—तुम्हें यह डर क्यों लगना चाहिए कि तुम्हारी यह छोटी-सी समस्या हल नहीं हो सकती? यह सब हल हो सकता है, तो तुम्हें नकारात्मक क्यों होना? परमेश्वर ने तुम पर ध्यान देना बंद नहीं किया है, तो तुम क्यों हिम्मत हारते हो? तुम्हें हार नहीं माननी चाहिए और नकारात्मक भी नहीं होना चाहिए। तुम्हें उचित तरीके से समस्या का सामना करना चाहिए। तुम्हें जीवन-प्रवेश के सामान्य नियमों का ज्ञान होना चाहिए, और भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों और अभिव्यक्ति के साथ-साथ कभी-कभार की नकारात्मकता, कमजोरी और भ्रम को सामान्य चीजों की तरह देखने में सक्षम होना चाहिए। किसी के स्वभाव में बदलाव की प्रक्रिया लंबी और दोहराव भरी होती है। जब तुम्हें यह बात स्पष्ट हो जाएगी तो तुम समस्याओं का उचित तरीके से सामना करने योग्य हो जाओगे। कभी-कभी तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बहुत बुरी तरह दिखता है, जिससे हर देखने वाले को नफरत होती है और तुम्हें अपने आप से घृणा होती है। या, कभी-कभी तुम बहुत बेपरवाह होते हो और परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करता है। यह किसी डर की वजह नहीं है। जब तक परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा है, जब तक वह तुम्हारी देखभाल और सुरक्षा कर रहा है, तुम्हारे भीतर काम कर रहा है, और हमेशा तुम्हारे साथ है, तो इससे साबित होता है कि परमेश्वर ने तुम पर ध्यान देना बंद नहीं किया है। यहाँ तक कि ऐसे क्षणों में भी, जिनमें तुम्हें लगे कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है और तुम अँधेरे में घिर गए हो, तो तुम डरो मत : जब तक तुम जीवित हो और जब तक तुम नरक में नहीं हो, तो तुम्हारे लिए एक मौका है। हालाँकि, अगर तुम पौलुस की तरह हो, जो अड़ियल बनकर मसीह विरोधी रास्ते पर चला, और जिसने अंततः यह गवाही दी कि जीवित रहना उसके लिए मसीह होना है, तो तुम्हारे लिए सब-कुछ समाप्त हो गया है। अगर तुम समझ सको, तो तुम्हारे पास अभी भी एक मौका है। तुम्हारे पास क्या मौका है? यह कि तुम परमेश्वर के सामने आ सकते हो, और तुम अभी भी उससे प्रार्थना कर सकते हो और यह कहते हुए सत्य खोज सकते हो, “हे परमेश्वर! कृपया मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं सत्य के इस पहलू को, और अभ्यास के इस मार्ग को समझ सकूँ।” अगर तुम परमेश्वर के अनुयायियों में से एक हो, तो तुम्हारे पास उद्धार की आशा है, और तुम अंततः इसमें सफल हो सकते हो। क्या ये शब्द पर्याप्त स्पष्ट हैं? क्या अभी भी तुम लोगों में नकारात्मक होने की संभावना है? (नहीं।) जब लोग परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, तो उनका मार्ग व्यापक हो जाता है। अगर वे उसके इरादों को नहीं समझते, तो वह संकीर्ण हो जाता है, उनके हृदयों में अँधेरा छा जाता है, और उनके पास चलने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे ऐसे होते हैं : वे संकीर्ण मानसिकता के होते हैं, वे हमेशा मीन-मेख निकालते हैं, और वे हमेशा परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हैं और उसे गलत समझते हैं। नतीजतन, जितना वे आगे चलते हैं, उतना ही उनका मार्ग लुप्त होता जाता है। वस्तुतः लोग परमेश्वर को नहीं समझते। अगर परमेश्वर लोगों के साथ उनकी कल्पना के अनुसार व्यवहार करता, तो मानवजाति बहुत पहले ही नष्ट हो गई होती।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें
लोगों में शैतानी प्रकृति होती है; वे शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, जिससे नकारात्मक स्थितियों से बचना मुश्किल होता है। खासकर जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तो नकारात्मकता का होना आम बात है। हर किसी के जीवन में नकारात्मकता के पल आते हैं; कुछ अक्सर आते हैं, कुछ कम आते हैं, कुछ लंबे समय के लिए आते हैं, और कुछ थोड़ी देर के लिए आते हैं। लोगों के आध्यात्मिक कदों में फर्क होता है, और उनकी नकारात्मकता की स्थितियों में भी फर्क होता हैं। बड़े आध्यात्मिक कद वाले लोग सिर्फ परीक्षणों का सामना करने पर ही कुछ हद तक नकारात्मक हो जाते हैं, जबकि जब दूसरे लोग कुछ धारणाएँ फैलाते हैं या बेतुकी बातें करते हैं, तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले लोग, जो अब भी सत्य को नहीं समझते हैं, इसे पहचान नहीं पाते हैं; वे परेशान, प्रभावित और नकारात्मक हो सकते हैं। उत्पन्न होने वाली कोई भी समस्या उन्हें नकारात्मक बना सकती है, यहाँ तक कि वे मामूली बातें भी जो जिक्र करने लायक नहीं हैं। अक्सर होने वाली नकारात्मकता के इस मुद्दे को कैसे सुलझाना चाहिए? अगर किसी को यह नहीं पता है कि सत्य की तलाश कैसे करनी है, यह नहीं जानता कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना है या परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करनी है, तो यह बहुत ही मुश्किल हो जाता है; वह सिर्फ भाई-बहनों के साथ और उनकी मदद पर भरोसा कर सकता है। अगर कोई मदद नहीं कर पाता है, या अगर वह मदद स्वीकार नहीं करता है, तो वह इतना नकारात्मक हो सकता है कि वह इससे उबर ही नहीं पाता और यहाँ तक कि वह विश्वास रखना भी बंद कर सकता है। देखो, किसी का हमेशा धारणाएँ रखना और आसानी से नकारात्मक हो जाना बहुत खतरनाक है। ऐसे लोगों के साथ चाहे किसी भी तरीके से सत्य की संगति क्यों ना की जाए, वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं, हमेशा इस बात पर अड़े रहते हैं कि उनकी अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ सही हैं; वे बेहद तकलीफदेह लोग होते हैं। तुम चाहे कितने भी नकारात्मक क्यों ना हो, तुम्हें अपने दिल में यह समझना चाहिए कि धारणाएँ होने का यह अर्थ नहीं है कि वे सत्य के अनुरूप हैं; इसका यह अर्थ है कि तुम्हारी समझ में कोई समस्या है। अगर तुम्हारे पास कुछ विवेक है, तो तुम्हें इन धारणाओं को नहीं फैलाना चाहिए; लोगों को कम से कम इसे तो बनाए रखना ही चाहिए। अगर तुम्हारे पास थोड़ा सा भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और तुम यह स्वीकार सकते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, तो तुम्हें अपनी धारणाओं को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए, सत्य के प्रति समर्पण करना चाहिए, और विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने से बचना चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते हो और धारणाएँ फैलाने पर अड़े रहते हो, तो इसका अर्थ यह है कि तुम अपना विवेक खो चुके हो; तुम मानसिक रूप से असामान्य हो, राक्षसों के कब्जे में हो, और तुम्हारा खुद पर नियंत्रण नहीं है। राक्षस तुम पर हावी हो गए हैं, चाहे कुछ भी हो जाए तुम बोल-बोलकर इन धारणाओं को फैलाते हो—इसमें कुछ नहीं किया जा सकता है, यह बुरी आत्माओं का कार्य है। अगर तुम्हारे पास कुछ जमीर और सूझ-बूझ है, तो तुम्हें यह कर पाने में सक्षम होना चाहिए : धारणाएँ मत फैलाओ, और भाई-बहनों को परेशान मत करो। भले ही तुम नकारात्मक हो जाओ, तुम्हें भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाने वाली चीजें नहीं करनी चाहिए; तुम्हें सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए, वही करो जो तुम्हें उचित ढंग से करना चाहिए, और यह सुनिश्चित करो कि तुम आत्म-निंदा से परे हो—यह खुद के आचरण का न्यूनतम मानक है। भले ही तुम कभी-कभी नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुमने सीमाओं को लाँघने के लिए कुछ भी नहीं किया है, तो परमेश्वर तुम्हारी नकारात्मकता पर ज्यादा ध्यान नहीं देगा। जब तक तुम्हारे पास जमीर और सूझ-बूझ है, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करने और उस पर भरोसा करने में समर्थ हो, और सत्य की तलाश करते हो, तब तक अंत में तुम सत्य को समझ जाओगे और खुद को बदल डालोगे। अगर तुम महत्वपूर्ण घटनाओं का सामना करते हो, जैसे कि अगुआ के रूप में वास्तविक कार्य नहीं करने के कारण बर्खास्त किया जाना और हटाया जाना, और तुम्हें लगता है कि उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है, और तुम नकारात्मक हो जाते हो—इस हद तक नकारात्मक हो जाते हो कि तुम उबर नहीं पाते हो, तुम्हें लगता है जैसे तुम्हारी निंदा की गई है और तुम्हें धिक्कारा गया है, और तुम्हारे मन में परमेश्वर के खिलाफ गलतफहमियाँ और शिकायतें जन्म ले लेती हैं—तो तुम्हें क्या करना चाहिए? इससे निपटना बहुत ही आसान है : संगति करने और तलाश करने के लिए कुछ ऐसे लोगों को ढूँढो जो सत्य को समझते हैं, और इन लोगों को अपने दिल की सारी बातें बता दो। ज्यादा जरूरी यह है कि तुम परमेश्वर के सामने आओ ताकि एक-एक करके अपनी नकारात्मकता और कमजोरी के बारे में, और कुछ ऐसी चीजों के बारे में सच्चाई से प्रार्थना कर सको जिन्हें तुम नहीं समझते हो और जिन पर तुम काबू नहीं पा सकते हो—परमेश्वर के साथ संगति करो, कुछ भी मत छिपाओ। अगर ऐसी कुछ अकथनीय चीजें हैं जिन्हें तुम दूसरों के सामने व्यक्त नहीं कर सकते हो, तो यह और भी अनिवार्य हो जाता है कि तुम प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आओ। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या परमेश्वर से इस बारे में बात करने से निंदा नहीं होती है?” क्या तुम पहले से ही ऐसी बहुत सी चीजें नहीं कर चुके हो जो परमेश्वर का विरोध करती हैं और उसकी निंदा अर्जित करती हैं? तो इस एक और चीज के जुड़ने से क्यों फिक्र करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि अगर तुम इस बारे में नहीं बोलोगे, तो परमेश्वर को पता नहीं चलेगा? परमेश्वर वह हर चीज जानता है जो तुम सोचते हो। तुम्हें परमेश्वर के साथ खुलकर संगति करनी चाहिए, अपने दिल की सारी बातें कह देनी चाहिए, अपनी समस्याओं और स्थितियों को सच्चाई से उसके सामने प्रस्तुत कर देना चाहिए। तुम्हारी कमजोरी, विद्रोहीपन और यहाँ तक कि तुम्हारी शिकायतें भी परमेश्वर से कही जा सकती हैं; अगर तुम अपनी भड़ास ही निकालना चाहते हो, तो भी कोई बात नहीं—परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करेगा। परमेश्वर इसकी निंदा क्यों नहीं करता है? परमेश्वर को मनुष्य का आध्यात्मिक कद मालूम है; भले ही तुम उससे बात ना करो, तो भी उसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद पता है। परमेश्वर से बात करके, एक लिहाज से, यह तुम्हारे लिए खुद को बेनकाब करने और परमेश्वर के सामने खुलने का अवसर है। दूसरे लिहाज से, यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण के रवैये को भी दिखाता है; कम-से-कम, तुम परमेश्वर को यह देखने दे रहे हो कि तुम्हारे दिल का दरवाजा उसके लिए बंद नहीं है, तुम बस कमजोर पड़ गए हो, तुम्हारे पास इस मामले पर काबू पाने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद नहीं है, बस इतनी सी बात है। तुम्हारा इरादा अवज्ञा करने का नहीं है; तुम्हारा रवैया समर्पण करने का है, बस यही है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और तुम इस मामले को सहन नहीं कर सकते हो। जब तुम परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलकर रख देते हो और उसके साथ अपने गहनतम विचार साझा करते हो, तो भले ही तुम जो कहते हो उसमें हो सकता है कि कमजोरी और शिकायतें हों—और, खास तौर पर, कई नकारात्मक और प्रतिकूल चीजें हों—इसमें एक चीज तो सही है : तुम यह स्वीकारते हो कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है, तुम यह स्वीकारते हो कि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम परमेश्वर की सृष्टिकर्ता के रूप में पहचान को नकारते नहीं हो, और ना ही तुम इस बात को नकारते हो कि तुम्हारे और परमेश्वर के बीच जो रिश्ता है वह एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का है। तुम परमेश्वर को वे चीजें सौंपते हो जिन पर काबू पाना तुम्हें सबसे मुश्किल लगता है, जो चीजें तुम्हें सबसे कमजोर बनाती हैं, और तुम परमेश्वर को अपनी निहायत आंतरिक भावनाएँ बताते हो—यह तुम्हारा रवैया दर्शाता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने एक बार परमेश्वर से प्रार्थना की, और इससे मेरी नकारात्मकता नहीं सुलझी। मैं अब भी इस पर काबू नहीं पा सका हूँ।” इससे फर्क नहीं पड़ता; तुम्हें बस पूरी गंभीरता से सत्य की तलाश करने की जरूरत है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितना समझते हो, परमेश्वर धीरे-धीरे तुम्हें मजबूत कर ही देगा, और फिर तुम उतने कमजोर नहीं रहोगे जितने कि तुम शुरुआत में थे। चाहे तुम्हारे भीतर कितनी भी कमजोरी और नकारात्मकता क्यों ना हो, या तुम्हारे भीतर कितनी भी शिकायतें और प्रतिकूल भावनाएँ क्यों ना हों, परमेश्वर से बात करो; परमेश्वर को किसी बाहरी व्यक्ति जैसा मत समझो। तुम चाहे किसी से भी चीजें छिपा लो, लेकिन परमेश्वर से कुछ मत छिपाओ, क्योंकि परमेश्वर ही तुम्हारा इकलौता आसरा है और तुम्हारा इकलौता उद्धार भी। परमेश्वर के सामने आकर ही इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है; लोगों पर भरोसा करना बेकार है। इस तरह, नकारात्मकता और कमजोरी का सामना करते समय लोग परमेश्वर के सामने आते हैं और उस पर भरोसा करते हैं, वे सबसे होशियार होते हैं। सिर्फ बेवकूफ और जिद्दी लोग ही, जब महत्वपूर्ण और संकटमय घटनाओं का सामना करते हैं और उन्हें परमेश्वर के सामने अपने दिल की बात कहने की जरूरत होती है, तो वे परमेश्वर से और भी दूर चले जाते हैं और उससे कतराते हैं, और अपने मन में साजिशें रचते हैं। और इन सारी साजिशों का क्या नतीजा होता है? उनकी नकारात्मकता और शिकायतें अवज्ञा में बदल जाती हैं, और फिर अवज्ञा परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके खिलाफ हंगामा करने में बदल जाता है; ये लोग परमेश्वर के साथ पूरी तरह से असंगत हो जाते हैं, और परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता पूरी तरह से टूट जाता है। लेकिन, जब तुम ऐसी नकारात्मकता और कमजोरी का सामना करते हो, तब भी अगर तुम सत्य की तलाश करने के लिए परमेश्वर के सामने आने का फैसला ले पाते हो, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का रास्ता चुनते हो, और तुम सही मायने में विनम्र रवैया अपनाते हो, तो यह देखकर कि तुम नकारात्मक और कमजोर होने के बावजूद ईमानदारी से परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहते हो, परमेश्वर को पता होगा कि तुम्हारा मार्गदर्शन कैसे करना है, तुम्हें तुम्हारी नकारात्मकता और कमजोरी से कैसे बाहर निकालना है। ये अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम्हारे भीतर परमेश्वर में सच्ची आस्था उत्पन्न होगी, और तुम यह महसूस करोगे कि तुम चाहे कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों ना करो, जब तक तुम परमेश्वर की तलाश करोगे और उसकी प्रतीक्षा करोगे, वह तुम्हारे पता चले बिना तुम्हारे लिए एक रास्ते की व्यवस्था कर देगा, जिसे वह तुम्हें देखने देगा, तुम्हें इसका एहसास भी नहीं होगा, परिस्थितियाँ बदल जाएंगी, जिससे तुम और कमजोर नहीं रहोगे बल्कि मजबूत बन जाओगे, और परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ जाएगी। जब तुम इन घटनाओं पर विचार करोगे, तो तुम्हें महसूस होगा कि उस समय तुम्हारी कमजोरी कितनी बचकानी थी। दरअसल, लोग बस इतने ही बचकाने होते हैं, और परमेश्वर के सहारे के बिना, वे कभी भी अपने बचपने और अज्ञानता को छोड़कर परिपक्व नहीं बनेंगे। इन चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करके और उसके प्रति समर्पण करके, सकारात्मक और सक्रिय रूप से इन तथ्यों का सामना करके, सिद्धांतों की तलाश करके, परमेश्वर के इरादों की तलाश करके, परमेश्वर से और नहीं कतरा के और खुद को उससे दूर नहीं करके, और ना ही परमेश्वर के खिलाफ विद्रोही बनकर, बल्कि ज्यादा से ज्यादा आज्ञाकारी बनकर, कम से कम विद्रोह करके, परमेश्वर के लगातार पास आकर, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में ज्यादा समर्थ होकर—सिर्फ इसी तरह से अनुभव करके ही व्यक्ति का जीवन धीरे-धीरे विकसित और परिपक्व होता है, और एक वयस्क के आध्यात्मिक कद में पूरी तरह से विकसित हो जाता है।
—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17)
परमेश्वर के निष्क्रिय अनुयायी मत बनो, और उसकी खोज मत करो जिससे तुम्हारे भीतर कौतूहल जागता है। ऐसे उदासीन रहकर तुम अपने-आपको बर्बाद कर लोगे और अपने जीवन-विकास में देरी करोगे। तुम्हें स्वयं को ऐसी शिथिलता और निष्क्रियता से मुक्त करके, सकारात्मक चीजों का अनुसरण करने एवं अपनी कमजोरियों पर विजय पाने में कुशल बनना चाहिए, ताकि तुम सत्य को प्राप्त करके उसे जी सको। तुम्हें अपनी कमजोरियों को लेकर डरने की जरूरत नहीं है, तुम्हारी कमियां तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या नहीं है। तुम्हारी सबसे बड़ी समस्या, और सबसे बड़ी कमी है तुम्हारा उदासीन होना, और तुममें सत्य खोजने की इच्छा की कमी होना। तुम लोगों की सबसे बड़ी समस्या है तुम्हारी डरपोक मानसिकता जिसके कारण तुम लोग यथास्थिति से खुश हो जाते हो, और निष्क्रिय होकर इंतजार करते हो। यही तुम्हारी सबसे बड़ी बाधा है, यही सत्य की खोज करने में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान
तुम्हें ऐसे स्थान पर पहुँचना होगा जहाँ तुम्हारा किसी भी स्थिति से सामना हो, वे तुम्हारा संकल्प नहीं बदल पाएँ। तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जो सचमुच सत्य से प्रेम और उसका अनुसरण करता है। अगर मुसीबत आने या किसी कठनाई का सामना होने पर, तुम पीछे हट जाते हो, निराश और नकारात्मक हो जाते हो, और अपना संकल्प छोड़ देते हो, तो यह नहीं चलेगा। तुममें ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि जान की कुर्बानी देने को तैयार रहो और यह कहो, “कुछ भी हो जाए—मैं मर भी जाऊँ तो भी सत्य का या सत्य के अनुसरण के अपने लक्ष्य का त्याग नहीं करूँगा।” फिर तुम्हें कोई भी चीज रोक नहीं पाएगी। अगर सचमुच तुम्हारा कठिनाइयों से सामना होता है और तुम असहाय हो जाते हो, तो परमेश्वर अपना कार्य करेगा। इसके अलावा, तुम्हें यह समझ होनी चाहिए : “मेरा सामना किसी भी चीज से हो, ये सब सबक हैं जो मुझे सत्य के अनुसरण में सीखने चाहिए—इन सबकी व्यवस्था परमेश्वर ने की है। मैं कमजोर हो सकता हूँ, मगर निराश नहीं हूँ, और ये सबक सीखने का मौका देने के लिए परमेश्वर का आभारी हूँ। मेरे लिए यह स्थिति तय करने के लिए मैं परमेश्वर का आभारी हूँ। मैं परमेश्वर का अनुसरण करने और सत्य प्राप्त करने का अपना संकल्प त्याग नहीं सकता। अगर मैं त्याग दूँ, तो यह शैतान से हार मानने जैसा होगा, खुद को बर्बाद करना और परमेश्वर को धोखा देना होगा।” तुम्हें ऐसा संकल्प रखना होगा। जिन भी छोटे-छोटे मामलों से तुम्हारा सामना होता है, ये सब तुम्हारे जीवन के विकास के क्रम में छोटे-छोटे किस्से हैं। इन्हें तुम्हारी तरक्की की दिशा अवरुद्ध करने का अवसर नहीं देना चाहिए। कठिनाइयाँ आने पर तुम तलाश और प्रतीक्षा कर सकते हो, मगर तुम्हारी तरक्की की दिशा नहीं बदलनी चाहिए, क्या यह सही नहीं है? (सही है।) दूसरे जो भी कहें, या तुमसे जैसे भी पेश आएँ, और परमेश्वर तुमसे जैसे भी पेश आए, तुम्हारा संकल्प नहीं बदलना चाहिए। अगर परमेश्वर कहे, “तुम सत्य बिल्कुल स्वीकार नहीं करते, मैं तुमसे घृणा करता हूँ,” और तुम कहो, “परमेश्वर मुझसे घृणा करता है, तो मेरे जीवन का क्या अर्थ रह गया है? मैं मर जाऊँ और इन सबसे छूट जाऊँ, यही ठीक रहेगा!” तो तुम परमेश्वर को गलत समझ रहे होगे। यह सही है कि परमेश्वर तुमसे घृणा करता है, मगर तुम्हें लड़ते रहना चाहिए, सत्य स्वीकारना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तब तुम एक बेकार इंसान नहीं रहोगे और परमेश्वर तुम्हें तिरस्कृत नहीं करेगा। फिलहाल, तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुमने परमेश्वर की परीक्षा का स्तर अभी नहीं पाया है। वह एकमात्र चीज क्या है जो तुम कर सकते हो? तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, मुझे रास्ता दिखाओ, प्रबुद्ध करो, ताकि मैं तुम्हारे इरादे समझ सकूँ और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की आस्था और दृढ़ता पा सकूँ, ताकि मैं परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहूँ। हालाँकि मैं कमजोर हूँ, मेरा आध्यात्मिक कद अपरिपक्व है, फिर भी मैं तुमसे मुझे शक्ति देने और मेरी रक्षा करने की प्रार्थना करता हूँ, ताकि मैं अंत तक तुम्हारा अनुसरण कर सकूँ।” तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। दूसरे लोग सांसारिक चीजों की लालसा रख सकते हैं, देह-सुख में लिप्त रह सकते हैं, और सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भाग सकते हैं, लेकिन तुम्हें उनके साथ नहीं रहना चाहिए—बस अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान देना चाहिए। जब दूसरे निराशा महसूस करें और अपना कर्तव्य न निभाएँ, तो तुम्हें बेबस नहीं होना चाहिए, और तुम्हें उनकी मदद के लिए सत्य खोजना चाहिए। जब दूसरे ऐशो-आराम में लिप्त हों, तो तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, तुम्हें सिर्फ परमेश्वर के सामने जीने की चिंता करनी चाहिए। जब दूसरे लोग कीर्ति, लाभ, और रुतबे के पीछे भागें, तो तुम्हें उनके लिए प्रार्थना कर उनकी मदद करनी चाहिए, परमेश्वर के सामने शांतचित्त रहना चाहिए और इन चीजों को अपने ऊपर प्रभाव डालने नहीं देना चाहिए। तुम्हारे इर्द-गिर्द जो भी घटे, तुम्हें परमेश्वर से हर चीज के बारे में प्रार्थना करनी चाहिए। तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए, खुद को संयम में रखना चाहिए, सुनिश्चित करना चाहिए कि तुम परमेश्वर की मौजूदगी में जी रहे हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। परमेश्वर लोगों की हमेशा पड़ताल करता रहता है, और पवित्र आत्मा ऐसे लोगों के भीतर काम करता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है
कुछ लोग वर्तमान में नकारात्मकता में उलझे हुए हैं, लेकिन वे फिर भी “अपने परिणाम की परवाह किए बिना परमेश्वर के प्रति अंत तक वफादार बने रहने” के रवैये के साथ अपना कर्तव्य कर सकते हैं। मैं कहता हूं कि यह एक बदलाव है, लेकिन तुम लोग इसे स्वयं नहीं पहचानते। वास्तव में, यदि तुम अपनी सावधानीपूर्वक जांच करो, तो तुम्हें यह देखने में सक्षम होना चाहिए कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का एक हिस्सा पहले ही बदल चुका है। परंतु तुम हमेशा अपने आप को उच्चतम अपेक्षित मानक पर मापते हो, और परिणामस्वरूप, न केवल तुम उच्चतम मानक तक पहुँचने में असमर्थ रहते हो, बल्कि तुम उन परिवर्तनों को भी नकार देते हो, जिनसे तुम पहले ही गुजर चुके होते हो। यह लोगों में होने वाला विचलन है। यदि तुम वास्तव में ऐसे व्यक्ति हो जो सही और गलत के बीच अंतर कर सकता है, तो तुम यह भी जाँच सकते हो कि तुम्हारे कौन-से पहलू बदल गए हैं। तुम न केवल अपने भीतर परिवर्तन देखोगे, बल्कि भविष्य के लिए अभ्यास का मार्ग भी पाओगे। उस समय तुम देखोगे कि अगर तुम प्रयास करते हो, तो अभी भी आशा है; तुम उनमें से नहीं हो जिन्हें छुटकारा नहीं मिल सकता। मैं अब तुम्हें यह बता रहा हूँ : जो लोग अपनी समस्याओं से सही तरह से निपट सकते हैं, जो मुद्दे हल करने के लिए सत्य की तलाश कर सकते हैं, उन्हें बचाए जाने की उम्मीद है और वे खुद को नकारात्मकता से मुक्त कर सकते हैं। तुम सत्य को छोड़ देते हो, क्योंकि तुम मानते हो कि तुम्हारा छुटकारा नहीं हो सकता। तो किस तरह के व्यक्ति को छुटकारा मिल सकता है और किस तरह के व्यक्ति को छुटकारा नहीं मिल सकता? यह ऐसा सत्य है, कम से कम जिसकी समझ तुम्हें होनी चाहिए। अगर लोग सत्य को नहीं त्यागते, तो परमेश्वर उन्हें अधिकतम सीमा तक बचाता है। क्या तुम वास्तव में इसे नहीं समझते? ऐसे मूलभूत सत्य के बारे में भ्रमित होना—क्या तुम बहुत मूर्ख और अज्ञानी नहीं हो? पहले कहा गया था : “चाहे जब भी हो, स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करना हमेशा सही होता है।” क्या तुम इन वचनों को भूल गए हो? तुम्हें केवल यह याद है कि परमेश्वर ने एक बार कहा था कि जो लोग बचाए जा सकते हैं, वे “संख्या में बहुत कम हैं,” इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है। क्या तुम कुछ दृढ़ संकल्प नहीं जुटा सकते? शायद ऐसा नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, बल्कि ऐसा है कि तुमने सत्य का अभ्यास करने का अवसर त्याग दिया है। अगर तुम सत्य को छोड़ देते हो, तो क्या तब भी बदल सकते हो? अगर तुम सत्य को छोड़ देते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था का क्या महत्व है? जब तुम सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हो, तो नकारात्मक चीजें स्वाभाविक रूप से तुम्हारे हृदय पर नियंत्रण कर लेती हैं—तुम इस तरह नकारात्मक क्यों नहीं होगे? अगर तुम सत्य को मजबूती से थामे रहोगे, तो तुममें स्वाभाविक रूप से दृढ़ संकल्प होगा। इसलिए मैं अभी भी तुमसे कहता हूँ : तुम्हें खुद को सही तरीके से पेश आना चाहिए और सत्य को नहीं छोड़ना चाहिए।
—परमेश्वर की संगति
स्वभावगत बदलाव कोई ऐसी चीज नहीं है जो रातोरात हो जाए या जिसे कई बरसों के अनुभव से हासिल किया जा सके। जब कुछ लोग अपनी बुरी आदतें बदलने लगते हैं तो अक्सर नाकाम होने या ठोकर खाने पर सोचते हैं : “बस हो गया। अब मेरा कुछ नहीं हो सकता। स्वभावगत बदलाव मेरे लिए नहीं है, मेरे लिए बदलना असंभव है। अगर मेरे लिए इन छोटी-सी कमियों या बुरी आदतों को भी छोड़ना इतना मुश्किल है, फिर तो अपना स्वभाव बदलना निश्चित रूप से और भी मुश्किल होगा?” वे नकारात्मक हो जाते हैं, निराशा से घिर जाते हैं, और लंबे समय तक परमेश्वर के वचन खाने-पीने को तैयार नहीं रहते हैं। जब भी कोई उनकी काट-छाँट करता है तो वे बुरा मानकर निराश हो जाते हैं, अपना कर्तव्य निभाने को तैयार नहीं रहते, और सत्य में पूरी तरह दिलचस्पी खो देते हैं। यह कौन-सी मनोदशा है? यह गंभीर समस्या है। क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा अनुभव किया है? क्या तुम लोग इस बात से घबराते हो कि अपने जीवन अनुभव की प्रक्रिया में तुम हमेशा नकारात्मक, कमजोर, असफल होगे और लड़खड़ाते रहोगे? तुम चाहे घबराओ या नहीं, तथ्य यह है कि स्वभावगत बदलाव रातोरात नहीं हो जाता। इसकी वजह यह है कि स्वभावगत बदलाव ठीक मानवजाति की भ्रष्ट प्रकृति की जड़ से शुरू होता है, और यह मौलिक और संपूर्ण बदलाव होता है। यह वैसा ही है जब कैंसर होने पर व्यक्ति में ट्यूमर निकल आता है : ट्यूमर हटाने के लिए उसकी सर्जरी जरूरी होती है, इसमें उसे बहुत पीड़ा भोगनी होगी, और यह बहुत ही जटिल प्रक्रिया होती है। स्वभावगत बदलाव की प्रक्रिया में, तुम्हें थोड़ा-सा सत्य समझने से पहले या स्वभावगत बदलाव के किसी पहलू को हासिल करने से पहले कई चीजों से गुजरना पड़ सकता है, या अंततः थोड़ा-सा बदलाव हासिल करने से पहले तुम्हें कई लोगों, घटनाओं, चीजों और विभिन्न परिवेशों का अनुभव करना और कई गलत मोड़ों पर मुड़ना पड़ सकता है। यह बदलाव चाहे कितना ही बड़ा हो, यह बेशकीमती है, और चूँकि तुमने इसके लिए बहुत ज्यादा पीड़ा भोगी और बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, इसलिए परमेश्वर की नजरों में इसे संजोया जाता है और वह इसे याद रखता है। परमेश्वर लोगों के दिल की गहराई की जाँच-पड़ताल करता है, उनके विचार और इच्छाएँ और उनकी कमजोरियाँ जानता है, लेकिन परमेश्वर सबसे ज्यादा तो यह जानता है कि उन्हें किस चीज की जरूरत है। व्यावहारिक परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए हममें यह संकल्प होना चाहिए : चाहे कितने ही बड़े परिवेश या किसी भी तरह की मुश्किल का सामना कर रहे हों, और चाहे हम कितने ही कमजोर या नकारात्मक हो जाएँ, हम अपने स्वभावगत बदलाव पर या परमेश्वर के कहे वचनों पर भरोसा नहीं छोड़ेंगे। परमेश्वर ने मानवजाति से एक वादा किया है, और इसके लिए यह जरूरी है कि लोगों में संकल्प, आस्था, और इसे धारण करने की दृढ़ता हो। परमेश्वर को कायर लोग पसंद नहीं हैं; वह दृढ़ निश्चयी लोगों को पसंद करता है। भले ही तुमने बहुत-सारी भ्रष्टता दिखाई है, भले ही तुमने कई बार गलत मार्ग पकड़ा है या कई अपराध किए हैं, परमेश्वर के बारे में शिकायतें की हैं या धर्म के अंदर से परमेश्वर का विरोध किया या अपने दिल में उसके खिलाफ तिरस्कार की भावना पाली है, वगैरह—परमेश्वर इन सब पर कतई गौर नहीं करता है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि क्या व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं और क्या वह किसी दिन बदल सकता है या नहीं। बाइबल में एक बिगड़ैल बेटे की वापसी की कहानी है—प्रभु यीशु ने इस दृष्टांत का इस्तेमाल क्यों किया? इसका उद्देश्य लोगों को यह समझना था कि मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर का इरादा सच्चा है, और यह भी कि वह लोगों को पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने का मौका देता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर मनुष्य को समझता है, उसकी कमजोरियों और भ्रष्टता के स्तर को अच्छे से जानता है। वह जानता है कि लोग लड़खड़ाएँगे और नाकाम होंगे। ठीक किसी ऐसे बच्चे की तरह जो चलना सीख रहा है, वह तन से चाहे कितना ही मजबूत हो, उनके लड़खड़ाने और गिरने के, चीजों से टकराने और रपटने के मौके हमेशा आएँगे। परमेश्वर हर व्यक्ति को उसी तरह जानता है, जैसे कोई माँ अपने बच्चे को जानती है। वह हर व्यक्ति की परेशानियों, कमजोरियों और जरूरतों को समझता है। उससे भी बढ़कर, परमेश्वर यह भी समझता है कि लोग स्वभावगत बदलाव में प्रवेश करने की प्रक्रिया में किन कठिनाइयों, कमजोरियों और नाकामियों का सामना करेंगे। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर बखूबी समझता है। इसका अर्थ है कि परमेश्वर लोगों के दिल की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है। तुम चाहे कितने ही कमजोर हो, जब तक तुम परमेश्वर का नाम लेना नहीं छोड़ते, या उसे या उसका मार्ग नहीं छोड़ते, तब तक तुम्हारे पास स्वभाव बदलने का मौका हमेशा रहेगा। अगर तुम्हारे पास यह मौका है, तो फिर तुम्हारे जीवित रहने, और इसलिए परमेश्वर के हाथों बचा लिए जाने की उम्मीद है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग
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