10. परमेश्वर से सावधान रहने और परमेश्वर को गलत समझने की समस्या का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और विद्रोही हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास चीजों को अनुभव करने का कोई तरीका नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका विशुद्ध प्रयोजन उससे प्रेम करने वाले लोगों को पूरी तरह पूर्ण बनाना और उन्हें अपने प्रभुत्व के प्रति आत्मसमर्पण कराना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, यह सब उन्हें उनके पुराने शैतानी स्वभाव से अलग करके किया जाता है; अर्थात्, वह उनसे जीवन की तलाश करवाकर उन्हें बचाता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो उनके पास परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं होगा। उद्धार स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और जीवन की तलाश करना ऐसी चीज है, जिसे उद्धार स्वीकार करने के लिए मनुष्य को करना ही चाहिए। मनुष्य की निगाह में, उद्धार परमेश्वर का प्रेम है, और परमेश्वर का प्रेम ताड़ना, न्याय और शाप नहीं हो सकता; उद्धार में दया, प्रेमपूर्ण दयालुता और, इनके अलावा, सांत्वना के वचनों के साथ-साथ परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए असीम आशीष समाविष्ट होने चाहिए। लोगों का मानना है कि जब परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, तो ऐसा वह उन्हें अपने आशीषों और अनुग्रह से प्रेरित करके करता है, ताकि वे अपने हृदय परमेश्वर को दे सकें। दूसरे शब्दों में, उसका मनुष्य को स्पर्श करना उसे बचाना है। इस तरह का उद्धार एक सौदा करके किया जाता है। केवल जब परमेश्वर मनुष्य को सौ गुना प्रदान करता है, तभी मनुष्य परमेश्वर के नाम के प्रति आत्मसमर्पण करता है और उसके लिए अच्छा करने और उसे महिमामंडित करने का प्रयत्न करता है। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की अभिलाषा नहीं है। परमेश्वर पृथ्वी पर भ्रष्ट मानवता को बचाने के लिए कार्य करने आया है—इसमें कोई झूठ नहीं है। यदि होता, तो वह अपना कार्य करने के लिए व्यक्तिगत रूप से निश्चित ही नहीं आता। अतीत में, उद्धार के उसके साधन में परम दया और प्रेमपूर्ण दयालुता दिखाना शामिल था, यहाँ तक कि उसने संपूर्ण मानवजाति के बदले में अपना सर्वस्व शैतान को दे दिया। वर्तमान अतीत जैसा नहीं है : आज तुम लोगों को दिया गया उद्धार अंतिम दिनों के समय में प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किए जाने के दौरान घटित होता है; तुम लोगों के उद्धार का साधन दया या प्रेमपूर्ण दयालुता नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय है, ताकि मनुष्य को अधिक पूरी तरह से बचाया जा सके। इस प्रकार, तुम लोगों को जो भी प्राप्त होता है, वह ताड़ना, न्याय और निर्दय मार है, लेकिन यह जान लो : इस निर्मम मार में थोड़ा-सा भी दंड नहीं है। मेरे वचन कितने भी कठोर हों, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे कुछ वचन ही हैं, जो तुम लोगों को अत्यंत निर्दय प्रतीत हो सकते हैं, और मैं कितना भी क्रोधित क्यों न हूँ, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे फिर भी कुछ तिरस्कारपूर्ण वचन ही हैं, और मेरा आशय तुम लोगों को नुकसान पहुँचाना या तुम लोगों को मार डालना नहीं है। क्या यह सब तथ्य नहीं है? जान लो कि आजकल हर चीज उद्धार के लिए है, चाहे वह धार्मिक न्याय हो या भावहीन शोधन और ताड़ना। भले ही आज प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किया जाए या सभी प्रकार के लोगों को बेनकाब किया जाए, परमेश्वर के समस्त वचनों और कार्य का प्रयोजन उन लोगों को बचाना है, जो परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं। धार्मिक न्याय मनुष्य को शुद्ध करने के उद्देश्य से लाया जाता है, और निर्मम शोधन उन्हें शुद्ध करने के लिए किया जाता है; कठोर वचन या ताड़ना, दोनों शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं और वे उद्धार के लिए हैं। इस प्रकार, उद्धार का आज का तरीका अतीत के तरीके जैसा नहीं है। आज तुम्हारे लिए उद्धार धार्मिक न्याय के जरिए लाया जाता है, और यह तुम लोगों में से प्रत्येक को उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत करने का एक अच्छा उपकरण है। इसके अतिरिक्त, निर्मम ताड़ना तुम लोगों के सर्वोच्च उद्धार का काम करती है—और ऐसी ताड़ना और न्याय का सामना होने पर तुम लोगों को क्या कहना है? क्या तुम लोगों ने शुरू से अंत तक हमेशा उद्धार का आनंद नहीं लिया है? तुम लोगों ने देहधारी परमेश्वर को देखा है और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि का एहसास किया है; इसके अलावा, तुमने बार-बार मार और अनुशासन का अनुभव किया है। लेकिन क्या तुम लोगों को सर्वोच्च अनुग्रह भी प्राप्त नहीं हुआ है? क्या तुम लोगों को प्राप्त हुए आशीष किसी भी अन्य की तुलना में अधिक नहीं हैं? तुम लोगों को प्राप्त हुए अनुग्रह सुलेमान को प्राप्त महिमा और संपत्ति से भी अधिक विपुल हैं! इसके बारे में सोचो : यदि आगमन के पीछे मेरा इरादा तुम लोगों को बचाने के बजाय तुम्हारी निंदा करना और सज़ा देना होता, तो क्या तुम लोगों का जीवन इतने लंबे समय तक चल सकता था? क्या तुम, मांस और रक्त के पापी प्राणी आज तक जीवित रहते? यदि मेरा उद्देश्य केवल तुम लोगों को दंड देना होता, तो मैं देह क्यों बनता और इतने महान उद्यम की शुरुआत क्यों करता? क्या तुम साधारण मनुष्यों को दंडित करने का काम एक वचन भर कहने से ही नहीं हो जाता? क्या तुम लोगों की जानबूझकर निंदा करने के बाद अभी भी मुझे तुम लोगों को नष्ट करने की आवश्यकता होगी? क्या तुम लोगों को अभी भी मेरे इन वचनों पर विश्वास नहीं है? क्या मैं केवल दया और प्रेमपूर्ण दयालुता के माध्यम से मनुष्य को बचा सकता हूँ? या क्या मैं मनुष्यों को बचाने के लिए केवल सूली पर चढ़ने के तरीके का ही उपयोग कर सकता हूँ? क्या मेरा धार्मिक स्वभाव मनुष्य को पूरी तरह से समर्पित बनाने में अधिक सहायक नहीं है? क्या यह मनुष्य को पूरी तरह से बचाने में अधिक सक्षम नहीं है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर के इरादे को समझना चाहिए
तुम सब पाप और व्यभिचार की धरती पर रहते हो; और तुम सब व्यभिचारी और पापी हो। आज तुम न केवल परमेश्वर को देख सकते हो, बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण रूप से, तुम लोगों ने ताड़ना और न्याय प्राप्त किया है, तुमने यह गहनतम उद्धार प्राप्त किया है, दूसरे शब्दों में, तुमने परमेश्वर का महानतम प्रेम प्राप्त किया है। वह जो कुछ करता है, उस सबमें वह तुम्हारे प्रति वास्तव में प्रेमपूर्ण है। वह कोई बुरी मंशा नहीं रखता। यह तुम लोगों के पापों के कारण है कि वह तुम लोगों का न्याय करता है, ताकि तुम आत्म-परीक्षण करो और यह ज़बरदस्त उद्धार प्राप्त करो। यह सब मनुष्य को पूर्ण करने के लिए किया जाता है। प्रारंभ से लेकर अंत तक, परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए पूरी कोशिश कर रहा है, और वह अपने ही हाथों से बनाए हुए मनुष्य को पूर्णतया नष्ट करने का इच्छुक नहीं है। आज वह कार्य करने के लिए तुम लोगों के मध्य आया है; क्या यह और भी उद्धार नहीं है? अगर वह तुम लोगों से नफ़रत करता, तो क्या फिर भी वह व्यक्तिगत रूप से तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए इतने बड़े परिमाण का कार्य करता? वह इस प्रकार कष्ट क्यों उठाए? परमेश्वर तुम लोगों से घृणा नहीं करता, न ही तुम्हारे प्रति कोई बुरी मंशा रखता है। तुम लोगों को जानना चाहिए कि परमेश्वर का प्रेम सबसे सच्चा प्रेम है। केवल लोगों के विद्रोही होने के कारण ही उसे न्याय के माध्यम से उन्हें बचाना पड़ता है; यदि वह ऐसा न करे, तो उन्हें बचाया जाना असंभव होगा। चूँकि तुम लोग नहीं जानते कि कैसे अपना रोजमर्रा का जीवन जिया जाए, यहाँ तक कि तुम इससे बिल्कुल भी अवगत नहीं हो, और चूँकि तुम इस व्यभिचारी और पापमय भूमि पर जीते हो और स्वयं व्यभिचारी और गंदे दानव हो, इसलिए वह सह नहीं सकता कि तुम्हें और अधिक पतित बनने दे, वह तुम्हें इस मलिन भूमि पर रहते हुए देखना नहीं सह सकता जैसे तुम अभी जी रहे हो और शैतान द्वारा उसकी इच्छानुसार कुचले जा रहे हो, और वह नहीं सह सकता कि तुम्हें रसातल में गिरने दे। वह केवल लोगों के इस समूह को प्राप्त करना और तुम लोगों को पूर्णतः बचाना चाहता है। तुम लोगों पर विजय का कार्य करने का यह मुख्य उद्देश्य है—यह केवल उद्धार के लिए है। यदि तुम नहीं देख सकते कि जो कुछ तुम पर किया जा रहा है, वह प्रेम और उद्धार है, यदि तुम सोचते हो कि यह मनुष्य को यातना देने की एक पद्धति, एक तरीका भर है और विश्वास के लायक नहीं है, तो तुम पीड़ा और कठिनाई सहने के लिए वापस अपने संसार में लौट सकते हो! यदि तुम इस धारा में रहने और इस न्याय और अमित उद्धार का आनंद लेने, और मनुष्य के संसार में कहीं न पाए जाने वाले इन सब आशीषों का और इस प्रेम का आनंद उठाने के इच्छुक हो, तो अच्छा है : विजय के कार्य को स्वीकार करने के लिए इस धारा में बने रहो, ताकि तुम्हें पूर्ण बनाया जा सके। परमेश्वर के न्याय के कारण आज तुम्हें कुछ कष्ट और शोधन सहना पड़ सकता है, लेकिन यह कष्ट मूल्यवान और अर्थपूर्ण है। यद्यपि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय के द्वारा लोग शुद्ध, और निर्ममतापूर्वक उजागर किए जाते हैं—जिसका उद्देश्य उन्हें उनके पापों का दंड देना, उनके देह को दंड देना है—फिर भी इस कार्य का कुछ भी उनके देह को नष्ट करने की सीमा तक नकारने के इरादे से नहीं है। वचन के समस्त गंभीर प्रकटीकरण तुम्हें सही मार्ग पर ले जाने के उद्देश्य से हैं। तुम लोगों ने इस कार्य का बहुत-कुछ व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है, और स्पष्टतः, यह तुम्हें बुरे मार्ग पर नहीं ले गया है! यह सब तुम्हें सामान्य मानवता को जीने योग्य बनाने के लिए है; और यह सब तुम्हारी सामान्य मानवता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक कदम तुम्हारी आवश्यकताओं पर आधारित है, तुम्हारी दुर्बलताओं के अनुसार है, और तुम्हारे वास्तविक आध्यामिक कद के अनुसार है, और तुम लोगों पर कोई असहनीय बोझ नहीं डाला गया है। यह आज तुम्हें स्पष्ट नहीं है, और तुम्हें लगता है कि मैं तुम पर कठोर हो रहा हूँ, और निस्संदेह तुम सदैव यह विश्वास करते हो कि मैं तुम्हें प्रतिदिन इसलिए ताड़ना देता हूँ, इसलिए तुम्हारा न्याय करता हूँ और इसलिए तुम्हारी भर्त्सना करता हूँ, क्योंकि मैं तुमसे घृणा करता हूँ। किंतु यद्यपि जो तुम सहते हो, वह ताड़ना और न्याय है, किंतु वास्तव में यह तुम्हारे लिए प्रेम है, और यह सबसे बड़ी सुरक्षा है। यदि तुम इस कार्य के गहन अर्थ को नहीं समझ सकते, तो तुम्हारे लिए अनुभव जारी रखना असंभव होगा। इस उद्धार से तुम्हें सुख प्राप्त होना चाहिए। होश में आने से इनकार मत करो। इतनी दूर आकर तुम्हें विजय के कार्य का अर्थ स्पष्ट दिखाई देना चाहिए, और तुम्हें अब और इसके बारे में ऐसी-वैसी राय नहीं रखनी चाहिए!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (4)
कुछ लोगों में बहुत कम काबिलियत होती है और वे सत्य से प्रेम नहीं करते। सत्य के बारे में चाहे कैसे भी संगति की जाए वे उसके अनुरूप नहीं बन पाते। वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन अब भी किसी वास्तविक अनुभव या समझ के बारे में बात नहीं कर सकते। इसलिए वे तय कर लेते हैं कि वे परमेश्वर के पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हैं और वे परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जा सकते चाहे वे कितने भी वर्षों तक उसमें विश्वास करते रहें। वे अपने दिल में यह मानते हैं कि “सिर्फ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्दिष्ट और चुने हुए लोग ही बचाए जा सकते हैं, और जिनकी काबिलियत बहुत कम है और जो सत्य समझने में असमर्थ हैं वे परमेश्वर के पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हैं; अगर वे विश्वास करते भी हैं तो भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता।” उन्हें लगता है कि परमेश्वर लोगों का परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित नहीं करता। अगर तुम्हारी यही सोच है तो तुम परमेश्वर को बहुत गलत समझते हो। अगर परमेश्वर सचमुच ऐसा करता तो क्या वह निष्पक्ष होगा? परमेश्वर लोगों का परिणाम एक ही सिद्धांत के आधार पर निर्धारित करता है : अंत में लोगों का परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित किया जाएगा। अगर तुम परमेश्वर का न्याय परायण स्वभाव नहीं देख सकते और हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो और उसकी इच्छाओं को इतना विकृत कर देते हो कि हमेशा निराश और हताश रहते हो तो क्या यह सजा तुमने खुद ही अपने आप को नहीं दी? अगर तुम यह नहीं समझते कि परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण कैसे काम करता है तो तुम्हें परमेश्वर से उसके वचनों में सत्य माँगना चाहिए और आँख मूँदकर यह तय नहीं कर लेना चाहिए कि तुम उसके पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हो। यह परमेश्वर के बारे में एक गंभीर गलतफहमी है! तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में बिल्कुल नहीं जानते और उसके इरादे नहीं समझते, परमेश्वर के छह हजार वर्षों के प्रबंधन-कार्य के पीछे के कष्टसाध्य प्रयास को तो बिल्कुल भी नहीं समझते। तुम खुद से निराश हो जाते हो, परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाते हो और उस पर संदेह करते हो, डरते हो कि तुम एक सेवाकर्ता हो जिसे उसकी सेवा समाप्त होने के बाद हटा दिया जाएगा और हमेशा सोचते रहते हो कि “मुझे अपना कर्तव्य क्यों निभाना चाहिए? क्या मैं अपना कर्तव्य निभाकर सेवा प्रदान कर रहा हूँ? अगर मेरी सेवा समाप्त होने के बाद मुझे हटा दिया गया तो मैं किसी चाल में तो नहीं फँस जाऊँगा?” तुम इस सोच से क्या समझते हो? क्या तुम इसे पहचान सकते हो? तुम हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो, उसे दुनिया में शासन करने वाले शैतान राजाओं की श्रेणी में रखते हो, उससे अपना हृदय बचा कर रखते हो और हमेशा सोचते हो कि वह भी मनुष्यों की तरह ही स्वार्थी और घृणित है। तुम कभी विश्वास नहीं करते कि वह मानवजाति से प्रेम करता है और तुम मानवजाति को बचाने में निहित उसकी ईमानदारी में कभी विश्वास नहीं करते। अगर तुम हमेशा खुद को एक सेवाकर्ता के रूप में चित्रित करते हो और अपनी सेवा प्रदान करने के बाद हटाए जाने से डरते हो तो तुम्हारी मानसिकता छद्म-विश्वासियों वाली कपटी मानसिकता है। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं करते क्योंकि वे नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर है, न ही वे यह स्वीकारते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है। यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो फिर तुम्हारी उस में आस्था क्यों नहीं है? तुम यह क्यों नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर का वचन सत्य है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो, सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और नतीजतन, परमेश्वर में कई वर्षों से आस्था होने के बावजूद तुमने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है; और इन सबके बावजूद तुम अंत में यह कहते हुए परमेश्वर पर दोष मढ़ देते हो कि उसने तुम्हें पूर्वनिर्दिष्ट नहीं किया है, कि वह तुम्हारे प्रति ईमानदार नहीं रहा है। यह कौन-सी समस्या है? तुम परमेश्वर की इच्छाओं को गलत समझते हो, उसके वचनों पर विश्वास नहीं करते और न तो सत्य को अभ्यास में लाते हो और न ही अपना कर्तव्य निभाते समय वफादारी दिखाते हो। तुम परमेश्वर के इरादे कैसे पूरे कर सकते हो? तुम पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकते हो और सत्य कैसे समझ सकते हो? ऐसे लोग सेवाकर्ता बनने के योग्य भी नहीं होते तो वे परमेश्वर के साथ बातचीत करने के योग्य कैसे हो सकते हैं? अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है तो तुम उस में विश्वास क्यों करते हो? तुम हमेशा यह चाहते हो कि इससे पहले कि तुम परमेश्वर के घर के लिए परिश्रम करो, परमेश्वर तुमसे व्यक्तिगत रूप से कहे कि “तुम राज्य के लोगों में से हो; यह स्थिति कभी नहीं बदलेगी,” और अगर वह नहीं कहता तो तुम कभी उसे अपना दिल नहीं दोगे। ऐसे लोग कितने विद्रोही और अड़ियल होते हैं! मैं देखता हूँ कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जो कभी अपने स्वभाव बदलने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, सत्य का अभ्यास करने पर तो बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते। उनका ध्यान हमेशा यह पूछने पर ही रहता है कि क्या उन्हें एक अच्छी मंजिल मिल पाएगी, परमेश्वर उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा, क्या उसने उन्हें अपने लोगों के रूप में पूर्वनिर्दिष्ट किया है और ऐसी ही अन्य सुनी-सुनाई बातें। ऐसे लोग जो अपना उचित कार्य नहीं करते, सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वे परमेश्वर के घर में कैसे रह सकते हैं? अब, मैं तुम लोगों को गंभीरतापूर्वक बताता हूँ : हालाँकि कोई व्यक्ति पूर्वनिर्दिष्ट हो सकता है, लेकिन अगर वह सत्य नहीं स्वीकार सकता और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए उसे अभ्यास में नहीं ला सकता तो हटाया जाना ही उसका अंतिम परिणाम होगा। सिर्फ वे ही लोग जो ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खपते हैं और अपनी पूरी शक्ति से सत्य को अभ्यास में लाते हैं, जीवित रहने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। हालाँकि दूसरे लोग उन्हें ऐसे व्यक्ति समझ सकते हैं जिनका बने रहना पूर्वनिर्दिष्ट नहीं है, फिर भी परमेश्वर के न्याय परायण स्वभाव के कारण उनके पास उन कथित पूर्वनिर्दिष्ट लोगों से बेहतर मंजिल होगी जो कभी परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रहे। क्या तुम इन वचनों पर विश्वास करते हो? अगर तुम इन वचनों पर विश्वास नहीं कर सकते और अपना हठपूर्वक भटकना जारी रखते हो तो, मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम निश्चित रूप से जीवित नहीं रह पाओगे क्योंकि तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले या सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चूँकि ऐसा है इसलिए परमेश्वर की पूर्वनियति महत्वपूर्ण नहीं है। मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि अंत में परमेश्वर लोगों के परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित करेगा, जबकि परमेश्वर की पूर्वनियति एक छोटी-सी भूमिका निष्पक्ष रूप से निभाती है, प्रमुख भूमिका नहीं। क्या तुम इसे समझते हो?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
जब कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और देखते हैं कि वह अपने वचनों में लोगों की निंदा कर रहा है, तो वे धारणाएँ बना कर पसोपेश में पड़ जाते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर के वचन कहते हैं कि चूँकि तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता या स्वीकार नहीं करता, तुम दुराचारी हो, मसीह-विरोधी हो, वह बस तुम्हें देखने भर से नाराज हो जाता है, और वह तुम्हें नहीं चाहता। लोग ये वचन पढ़ कर सोचते हैं, “क्या ये वचन मुझे लागू होते हैं। परमेश्वर ने तय कर लिया है कि वह मुझे नहीं चाहता, और चूँकि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है, इसलिए मैं भी अब उसमें विश्वास नहीं रखूँगा।” कुछ ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के वचन पढ़ कर अक्सर धारणाएँ और गलतफहमियाँ बना लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर लोगों की भ्रष्ट दशाओं को उजागर करता है और उनकी निंदा करते हुए कुछ बातें कहता है। वे यह सोच कर निराश और कमजोर हो जाते हैं कि वे ही परमेश्वर के वचनों का निशाना थे, परमेश्वर उन्हें छोड़ रहा है, और वह उन्हें नहीं बचाएगा। वे इतने निराश हो जाते हैं कि उन्हें आँसू आ जाते हैं और अब परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। यह वास्तव में परमेश्वर को लेकर गलतफहमी है। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अर्थ नहीं समझते, तो तुम्हें परमेश्वर को रेखांकित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को त्यागता है, और वह लोगों को किन हालात में छोड़ता है, या वह लोगों को किन हालात में किनारे कर देता है; इन सभी के लिए सिद्धांत और संदर्भ हैं। अगर तुम्हें इन विस्तृत मामलों में पूरी अंतर्दृष्टि नहीं है, तो तुम्हारे अतिसंवेदनशील होने की बड़ी संभावना होगी और तुम परमेश्वर के केवल एक वचन के आधार पर खुद को परिसीमित कर लोगे। क्या यह समस्या नहीं है? लोगों का न्याय करते समय परमेश्वर उनके किस मुख्य पहलू की निंदा करता है? परमेश्वर जिसका न्याय कर जिसे उजागर करता है, वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार होते हैं, वह उनके शैतानी स्वभावों और शैतानी प्रकृति की निंदा करता है, वह परमेश्वर के प्रति उनके विद्रोह और विरोध की विभिन्न अभिव्यक्तियों और व्यवहारों की निंदा करता है, वह परमेश्वर को समर्पित न हो पाने, हमेशा परमेश्वर का विरोध करने, हमेशा अपनी अभिप्रेरणाएँ और लक्ष्य रखने के लिए उनकी निंदा करता है—लेकिन ऐसी निंदा का यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर ने शैतानी स्वभाव वाले लोगों को त्याग दिया है। अगर यह तुम्हें स्पष्ट नहीं है, तो तुममें समझने की क्षमता नहीं है, जो तुम्हें कुछ हद तक मानसिक रोग वाले लोगों जैसा बना देता है, हमेशा हर चीज के प्रति शक्की और परमेश्वर की गलत व्याख्या करने वाला। ऐसे लोगों में सच्ची आस्था नहीं है, फिर वे बिल्कुल अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? परमेश्वर से निंदा का सिर्फ एक वक्तव्य सुन कर तुम सोचते हो कि परमेश्वर द्वारा निंदित होने के कारण लोग उसके द्वारा त्याग दिए गए हैं और अब वे बचाए नहीं जाएँगे, और इस वजह से तुम निराश हो जाते हो, और खुद को मायूसी में डुबो लेते हो। यह परमेश्वर की गलत व्याख्या करना है। असल में परमेश्वर ने लोगों को नहीं त्यागा है। उन्होंने परमेश्वर की गलत व्याख्या कर खुद को त्याग दिया है। लोग खुद को त्याग दें इससे ज्यादा गंभीर कुछ नहीं होता, जैसा कि पुराने नियम के वचनों में साकार हुआ है : “मूढ़ लोग निर्बुद्धि होने के कारण मर जाते हैं” (नीतिवचन 10:21)। लोग खुद को मायूसी में डुबो लें उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तुम परमेश्वर के ऐसे वचन पढ़ते हो जो लोगों को रेखांकित करते हुए-से लगते हैं; असल में ये लोगों को रेखांकित नहीं करते, बल्कि ये परमेश्वर के इरादों और राय की अभिव्यक्ति हैं। ये सत्य और सिद्धांत के वचन हैं, वे किसी का रेखांकन नहीं कर रहे हैं। क्रोध या रोष के समय में बोले गए परमेश्वर के वचन उसका स्वभाव भी दर्शाते हैं, ये वचन सत्य हैं और इसके अलावा सिद्धांत से संबंधित हैं। लोगों को यह बात समझनी चाहिए। यह कहने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य लोगों को सत्य और सिद्धांतों को समझने देना है; यह किसी को भी परिसीमित करने के लिए बिल्कुल नहीं है। इसका लोगों की अंतिम मंजिल और पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है, यह लोगों का अंतिम दंड तो है ही नहीं। ये महज लोगों का न्याय करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए बोले गए वचन हैं, ये लोगों के परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने पर उसके क्रोध का परिणाम हैं, ये लोगों को जगाने, उन्हें प्रेरित करने के लिए बोले गए हैं, और ये वचन परमेश्वर के दिल से निकले हैं। फिर भी कुछ लोग परमेश्वर द्वारा न्याय के सिर्फ एक वक्तव्य से गिर पड़ते हैं और उसका त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि उनके लिए अच्छा क्या है, उन पर तर्क का प्रभाव नहीं होता, और वे सत्य को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते। ... ऐसा भी समय होता है जब तुम मानते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है—लेकिन दरअसल, परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ नहीं दिया है, वह तुम्हें एक तरफ रख देता है ताकि तुम आत्मचिंतन कर सको। परमेश्वर को शायद तुम घिनौने लगो, और वह तुम पर ध्यान न देना चाहे, लेकिन उसने तुम्हें सचमुच त्यागा नहीं है। ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन उनके सार और उनमें अभिव्यक्त अनेक चीजों के कारण, परमेश्वर देख लेता है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और इसलिए परमेश्वर उन्हें वास्तव में त्याग देता है; वे सच में चुने नहीं गए थे, उन्होंने बस कुछ समय तक सेवा की थी। इसी बीच ऐसे भी कुछ लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर अनुशासित करने, ताड़ना देने, न्याय करने और यहाँ तक कि निंदा कर शाप देने के भरसक प्रयास करता है, और इसके लिए वह उनसे पेश आने के ऐसे विभिन्न तरीके इस्तेमाल करता है जो मनुष्य की धारणाओं के प्रतिकूल होते हैं। कुछ लोग परमेश्वर का इरादा नहीं समझते, और सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें परेशान कर उनका दिल दुखा रहा है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर के समक्ष जीने में कोई गरिमा नहीं है, वे अब परमेश्वर को आहत नहीं करना चाहते और कलीसिया को छोड़ देना चाहते हैं। वे यह भी सोचते हैं कि यूँ करने के पीछे एक कारण है, और इस तरह वे परमेश्वर से मुँह मोड़ लेते हैं—लेकिन दरअसल परमेश्वर ने उनका त्याग नहीं किया था। ऐसे लोगों को परमेश्वर के इरादे का कोई अनुमान नहीं होता है। वे थोड़े ज्यादा ही संवेदनशील होते हैं, और परमेश्वर का उद्धार छोड़ने की हद तक चले जाते हैं। क्या इन लोगों के भीतर सच में जमीर है? ऐसा समय भी होता है जब परमेश्वर लोगों को दूर रखता है, ऐसा समय भी होता है जब वह उन्हें कुछ समय के लिए किनारे कर देता है ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें, लेकिन परमेश्वर उनका त्याग नहीं करता; वह उन्हें प्रायश्चित्त करने का अवसर देता है। परमेश्वर सिर्फ दुष्ट लोगों को त्याग देता है जो अनेक बुरे कर्म करते हैं, जो छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे लगता है कि मुझमें पवित्र आत्मा ने कार्य नहीं किया है, बहुत समय से मुझे पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता नहीं मिली है। क्या परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?” यह एक गलतफहमी है। इसमें स्वभाव की समस्या भी है : लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे हमेशा अपने तर्क के पीछे चलते हैं, हमेशा हठी और तर्कहीन होते हैं—क्या यह स्वभाव की समस्या नहीं है? तुम कहते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें त्याग दिया है, वह तुम्हें नहीं बचाएगा, तो क्या उसने तुम्हारा परिणाम तय कर दिया है? परमेश्वर ने तुमसे गुस्से में सिर्फ कुछ वचन बोले हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि उसने तुम्हें छोड़ दिया है, वह तुम्हें अब नहीं चाहता? ऐसे मौके आते हैं जब तुम पवित्र आत्मा का कार्य महसूस नहीं कर सकते, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें अपने वचन पढ़ने से वंचित नहीं किया है, न ही उसने तुम्हारा परिणाम नियत किया है या उद्धार का तुम्हारा रास्ता बंद किया है—तो फिर तुम किस बात को ले कर इतने नाराज हो? तुम एक बुरी दशा में हो, तुम्हारी मंशाओं के साथ समस्या है, तुम्हारे विचार और नजरिये के साथ समस्याएँ हैं, तुम्हारी मानसिक दशा विकृत है—फिर भी तुम सत्य खोज कर इन चीजों को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर परमेश्वर की गलत व्याख्या कर उसके बारे में शिकायत करते हो, परमेश्वर पर जिम्मेदारी डालते हो, और यह भी कहते हो, “परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, इसलिए मैं अब उसमें विश्वास नहीं रखता।” क्या तुम तर्कहीन नहीं हो? क्या तुम अनुचित नहीं हो? ऐसा व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है, बिल्कुल नासमझ होता है, हर तर्क के लिए अभेद्य होता है। वे सत्य को बहुत कम स्वीकार कर पाते हैं और उनके लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत मुश्किल होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)
जब चीजें तुम पर आ पड़ती हैं, तो तुम हमेशा कायरों की तरह कार्य करते हो, हमेशा लोगों को खुश करने वालों की तरह काम करते हो, हमेशा समझौता करते हो, हमेशा बीच का रास्ता अपनाते हो, कभी किसी का अपमान नहीं करते या चीजों में अपनी टाँग नहीं अड़ाते, कभी हद पार नहीं करते—यह ऐसा है मानो तुम अपनी ही जगह में खड़े रहते हो, अपने कर्तव्य से चिपके रहते हो, जो कुछ कहा जाता है वही करते हो, न तो आगे खड़े होते हो न पीछे, और प्रवाह के साथ बहते हो—मुझे बताओ, अगर तुम अंत तक इसी तरह से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहते हो, तो क्या तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे? क्या तुम लोग जानते हो कि इस तरह की अवस्था काफी खतरनाक है, कि न केवल तुम परमेश्वर से पूर्णता प्राप्त करने में असमर्थ होगे, बल्कि इस बात की संभावना होगी कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर दो? क्या इस प्रकार का उत्साहहीन व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है? क्या यह वैसा व्यक्ति है, जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है? इस तरह की अवस्था में रहने वाला व्यक्ति अक्सर लोगों को खुश करने वाले के विचार प्रकट करता है और उसके भीतर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। अगर व्यक्ति बिना किसी वाजिब कारण के आतंक और डर महसूस करता है, तो क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? (नहीं।) भले ही वह अपना पूरा अस्तित्व अपने कर्तव्य में झोंक दें, अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दे और अपना परिवार त्याग दे, अगर वह परमेश्वर को अपना हृदय नहीं देता और परमेश्वर से सावधान रहता है, तो क्या यह एक अच्छी अवस्था है? क्या यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की सामान्य अवस्था है? क्या इस अवस्था का भावी विकास भयावह नहीं है? अगर व्यक्ति इस अवस्था में बना रहे, तो क्या वह सत्य प्राप्त कर सकेगा? क्या वह जीवन प्राप्त कर सकेगा? क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकेगा? (नहीं।) क्या तुम लोग जानते हो कि तुम्हारी भी यही अवस्था है? यह जान लेने पर भी क्या तुम अपने मन में सोचते हो : “मैं हमेशा परमेश्वर से सावधान क्यों रहता हूँ? मैं हमेशा इसी तरह क्यों सोचता हूँ? इस तरह सोचना अत्यंत भयावह है! यह परमेश्वर का विरोध करना और सत्य को ठुकराना है। क्या परमेश्वर से सावधान रहना उसका विरोध करने के समान है”? परमेश्वर से सावधान रहने की अवस्था बिल्कुल एक चोर होने के समान है—तुम प्रकाश में जीने की हिम्मत नहीं करते, तुम अपने शैतानी चेहरे उजागर करने से डरते हो, और साथ ही, तुम इस बात से भयभीत हो : “परमेश्वर के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। वह कभी भी और कहीं भी लोगों का न्याय और ताड़ना कर सकता है। अगर तुम परमेश्वर को क्रोधित करते हो, तो हल्के मामलों में वह तुम्हारी काट-छाँट करेगा और गंभीर मामलों में वह तुम्हें दंड देगा, तुम्हें बीमार करेगा या तुम्हें पीड़ित करेगा। लोग ये चीजें सहन नहीं कर सकते हैं!” क्या लोगों के मन में ये गलतफहमियाँ नहीं हैं? क्या यह परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? (नहीं।) क्या इस प्रकार की अवस्था भयावह नहीं है? जब व्यक्ति इस अवस्था में होता है, जब वह परमेश्वर से सावधान रहता है और हमेशा ऐसे विचार रखता है, जब वह हमेशा परमेश्वर के प्रति इसी तरह का रवैया रखता है, तो क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मान रहा है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास है? जब व्यक्ति परमेश्वर में इस तरह से विश्वास रखता है, जब वह परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानता, तो क्या यह एक समस्या नहीं है? कम-से-कम, लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं स्वीकारते, न ही वे उसके कार्य का तथ्य स्वीकारते हैं। वे सोचते हैं : “यह सच है कि परमेश्वर कृपालु और प्रेममय है, लेकिन वह क्रोधी भी है। जब परमेश्वर का क्रोध किसी पर पड़ता है, तो वह विनाशकारी होता है। वह लोगों को किसी भी समय कष्ट के साथ मृत्यु दे सकता है, जिसे चाहे नष्ट कर सकता है। परमेश्वर का क्रोध मत भड़काओ। यह सच है कि उसका प्रताप और क्रोध किसी अपमान की अनुमति नहीं देता। उससे दूरी बनाए रखो!” अगर व्यक्ति का इस तरह का रवैया और ऐसे विचार हैं, तो क्या वह पूरी तरह से और ईमानदारी से परमेश्वर के सामने आ सकता है? नहीं आ सकता।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है
अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी कार्य-विशेष को कर सकते हो, लेकिन तुम गलती करने और निकाल दिए जाने से डरते भी हो, इसलिए तुम दब्बू और काहिल हो और प्रगति नहीं कर सकते, तो क्या यह आज्ञाकारी रवैया है? उदाहरण के लिए, यदि भाई-बहन तुम्हें अपना अगुआ चुन लेते हैं, तो तुम अपने चुने जाने के कारण उस काम को करने के लिए अनुगृहीत तो महसूस करते हो, लेकिन तुम उस काम को सक्रिय रवैये से स्वीकार नहीं करते। तुम सक्रिय क्यों नहीं होते? क्योंकि उसके बारे में तुम्हारे कुछ विचार होते हैं, तुम्हें लगता है, “अगुआ होना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। यह तलवार की धार पर चलने या बर्फ की पतली तह पर चलने जैसा है। अच्छा काम करने पर मुझे कोई इनाम तो मिलने से रहा, लेकिन खराब काम करने पर मुझसे निपटा जाएगा और मेरी काट-छाँट की जाएगी। निपटा जाना फिर भी इतना बुरा नहीं है। लेकिन अगर मुझे हटा ही दिया गया या निकाल दिया गया, तो क्या होगा? अगर ऐसा हुआ, तो क्या मेरा खेल खत्म नहीं हो जाएगा?” ऐसी स्थिति में तुम दुविधाग्रस्त हो जाते हो। यह कैसा रवैया है? यह सतर्कता और गलतफहमी है। अपने कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। यह एक हताशा से भरा और नकारात्मक रवैया है। तो सकारात्मक रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें खुले दिल वाला और स्पष्टवादी होना चाहिए, और दायित्व उठाने का साहस रखना चाहिए।) यह आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग वाला रवैया होना चाहिए। तुम लोग जो कहते हो वह थोड़ा-सा खोखला है। जब तुम इस तरह इतने डरे हुए हो, तो खुले दिल वाले और स्पष्टवादी कैसे हो सकते हो? और दायित्व उठाने का साहस रखने का क्या अर्थ है? कौन-सी मानसिकता तुम्हें दायित्व उठाने का साहस देगी? यदि तुम हमेशा डरते रहते हो कि कुछ गलत हो जाएगा और मैं इसे संभाल नहीं पाऊँगा, और तुम्हारे पास कई अंदरूनी बाधाएँ हैं, तो तुममें दायित्व उठाने के साहस की मौलिक रूप से कमी होगी। तुम जिस “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने,” “दायित्व उठाने का साहस रखने,” या “मौत के सामने भी कभी पीछे नहीं हटने” की बात करते हो, वह कुछ हद तक आक्रोश से भरे युवाओं की नारेबाजी जैसा लगता है। क्या ये नारे व्यावहारिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? अब जरूरत है सही रवैये की। सही रवैया रखने के लिए तुम्हें सत्य के इस पहलू को समझना होगा। तुम्हारी अंदरूनी कठिनाइयाँ हल करने का एकमात्र तरीका यही है, और यह तुम्हें इस आदेश, इस कर्तव्य को आसानी से स्वीकार करने देता है। यह अभ्यास का मार्ग है, और केवल यही सत्य है। यदि तुम अपना डर भगाने के लिए “खुले दिल वाले और स्पष्टवादी होने” और “दायित्व उठाने का साहस रखने” जैसे शब्दों का उपयोग करोगे, तो क्या यह प्रभावी होगा? (नहीं।) इससे जाहिर होता है कि ये बातें सत्य नहीं हैं, न ही ये अभ्यास का मार्ग हैं। तुम कह सकते हो, “मैं खुले दिल वाला, स्पष्टवादी और अदम्य आध्यात्मिक कद का व्यक्ति हूँ, मेरे मन में कोई अन्य विचार या दूषित तत्त्व नहीं हैं और मुझमें दायित्व उठाने का साहस है।” बाहरी तौर पर तो तुम अपने कर्तव्य स्वीकारते हो, लेकिन बाद में, कुछ देर विचार करने पर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम इस दायित्व को नहीं उठा सकते। तुम्हें अभी भी डर लग सकता है। इसके अलावा, तुम दूसरों से अपनी काट-छाँट होते देखकर और भी डर जाते हो, जैसे कोड़े खाया हुआ कुत्ता पट्टे से भी डरता है। तुम्हें लगातार लगता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह काम एक विशाल, अगाध खाई की तरह है, और अंततः तुम अभी भी इस दायित्व को नहीं उठा पाओगे। इसलिए नारेबाजी करने से व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तो तुम वास्तव में इस समस्या को कैसे हल कर सकते हो? तुम्हें सक्रियता से सत्य खोजना चाहिए और आज्ञाकारिता और सहयोग का रवैया अपनाना चाहिए। इससे समस्या पूरी तरह हल हो सकती है। दब्बूपन, डर और चिंता फिजूल हैं। तुम्हें उजागर कर निकाल दिया जाएगा या नहीं, क्या इसका तुम्हारे अगुआ होने से कोई संबंध है? अगर तुम एक अगुआ नहीं हो तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव लुप्त हो जाएगा? देर-सवेर, तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को हल करना होगा। साथ ही, अगर तुम एक अगुआ नहीं हो, तो तुम्हें अभ्यास के लिए ज्यादा अवसर नहीं मिलेंगे और तुम जीवन में धीमी प्रगति करोगे, और तुम्हारे पास पूर्ण बनाए जाने की संभावनाएं कम होंगी। हालाँकि एक अगुआ या कार्यकर्ता होने पर थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, पर इससे कई लाभ भी मिलते हैं, और अगर तुम सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चल सकते हो, तो तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो। यह कितना बड़ा आशीष है! इसलिए तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। इसी रवैये के साथ तुम्हें अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?
कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का दर्जा छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के मूल तक पहुँच सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। यदि किसी में इस सही रवैये का अभाव है, और उसमें पूरी तरह से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है, यदि वह चालाकी भरी योजनाओं और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों से भरा है, और जब समस्याएँ आती हैं, तो वह दिखावे, कुतर्क और खुद को सही ठहराने का सहारा लेता है, और हठपूर्वक अपने कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता। वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता और पूरी तरह से प्रकट हो चुका है। जो लोग सही नहीं हैं, और जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं कर सकते, वे मूलतः छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें केवल हटाया जा सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम करने वाले छद्म-विश्वासियों प्रकट और हटाया जाए? एक छद्म-विश्वासी, भले ही कोई भी कर्तव्य निभाए, सबसे जल्दी प्रकट हो जाता है, क्योंकि उसके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव बहुत अधिक और बहुत स्पष्ट होते हैं। इसके अलावा छद्म-विश्वासी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते और लापरवाही और मनमाने ढंग से कार्य करते हैं। अंत में, जब उन्हें हटा दिया जाता है और वे अपना कर्तव्य निभाने का अवसर खो देते हैं, तो वे चिंता करना शुरू कर देते हैं, सोचते हैं, “मेरा तो काम तमाम हो गया। यदि मुझे अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति नहीं दी गई, तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। मुझे क्या करना चाहिए?” वास्तव में स्वर्ग हमेशा मनुष्य के लिए एक रास्ता छोड़ेगा। एक अंतिम रास्ता होता है, जो सचमुच पश्चात्ताप करने का रास्ता है, और सुसमाचार फैलाने और लोगों को प्राप्त करने के लिए जल्दी करने और अच्छे कर्म करके अपने दोषों की भरपाई करने का रास्ता है। यदि वे यह रास्ता नहीं अपनाते, तो वास्तव में उनका काम तमाम हो चुका है। यदि उनके पास थोड़ा विवेक है और जानते हैं कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं है, तो उन्हें स्वयं को सत्य से सुसज्जित करना चाहिए और सुसमाचार फैलाने के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए—यह भी एक कर्तव्य निभाना है। यह पूरी तरह से संभव है। यदि कोई स्वीकार करता है कि उसे इसलिए हटा दिया गया था क्योंकि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया था, फिर भी वह सत्य को स्वीकार नहीं करता और उसके दिल में थोड़ा-सा भी पश्चात्ताप नहीं है, और इसके बजाय वह खुद को निराशा में डुबो लेता है, तो क्या यह मूर्खता और अज्ञानता नहीं है? अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब-कुछ ठीक चल रहा हो, तब तो उन्हें परमेश्वर को निश्चित रूप से गलत नहीं समझना चाहिए। उसे लगता है कि परमेश्वर नेक है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, “लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? ऐसा कैसे हुआ कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? वह क्या चीज है जिसने इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम यकीनी तौर पर कह सकते हो कि वह क्या है? वह कौन सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? कहो, ताकि सभी लोग समझ और जान सकें कि तुम अपनी बात साबित कर पाते हो या नहीं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी स्थिति का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो उसका रवैया कैसा होना चाहिए? (सत्य और समर्पण की खोज करने का।) उसे पहले समर्पित होकर विचार करना चाहिए : “मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं समर्पण करूँगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं।” क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर न तो असर डालेगी और न ही कोई परेशानी पैदा करेगी। तुम लोग क्या सोचते हो कि वफादारी के लिए कौन सक्षम है—जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के दौरान गलतफहमियाँ पालता है, या जो नहीं पालता? (जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन में गलतफहमियाँ नहीं पालता, वह वफादारी में सक्षम हो सकता है।) तो सबसे पहले तुम्हारा समर्पण का रवैया होना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें कम से कम यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है, कि परमेश्वर धार्मिक है और यह कि वह जो कुछ भी करता है सही होता है। यह वे पूर्वशर्तें हैं जो यह निर्धारित करती हैं कि तुम अपना कर्तव्य निभाने में वफादार हो सकते हो या नहीं। यदि तुम इन दोनों पूर्वशर्तों को पूरा करते हो, तो क्या तुम्हारे दिल में गलतफहमियाँ तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित कर सकती हैं? (नहीं।) वे नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि तुम इन गलतफहमियों को अपने कर्तव्यपालन में नहीं लाओगे। पहली बात, तुम्हें उन्हें शुरूआत में ही हल करना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे केवल अपनी भ्रूण अवस्था में ही रहें। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उनका जड़ से समाधान करो। उनका समाधान तुम्हें कैसे करना चाहिए? इस मामले के संबंध में परमेश्वर के वचनों के कई प्रासंगिक अंश सभी के साथ मिलकर पढ़ो। फिर इस बारे में संगति करो कि परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों करता है, परमेश्वर का इरादा क्या है, और परमेश्वर के इस तरह से कार्य करने से क्या परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। इन मामलों पर विस्तार से सहभागिता करो, तब तुममें परमेश्वर की समझ आएगी और तुम समर्पित होने में सक्षम होगे। यदि तुम परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियों को दूर नहीं करते और अपने कर्तव्य के निर्वाह में यह कहते हुए धारणा रखते हो, “इस मामले में परमेश्वर ने गलत तरीके से काम किया, और मैं समर्पण नहीं करूँगा। मैं इसका विरोध करूँगा, मैं परमेश्वर के घर के साथ बहस करूँगा। मैं नहीं मानता कि यह परमेश्वर का कार्य है”—यह कौन-सा स्वभाव है? यह एक विशिष्ट शैतानी स्वभाव है। ऐसे कथन मनुष्यों को नहीं बोलने चाहिए; यह वह रवैया नहीं है जो एक सृजित प्राणी का होना चाहिए। यदि तुम इस तरह से परमेश्वर का विरोध कर पाते हो, तो क्या तुम इस कर्तव्य को निभाने के योग्य हो? तुम नहीं हो। चूँकि तुम दानव हो, और तुममें मानवता की कमी है, तो तुम कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हो। यदि किसी व्यक्ति में थोड़ा विवेक है, और उसके मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं, तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगा, और वह परमेश्वर के वचनों में सत्य की तलाश भी करेगा, और देर-सवेर वह मामले को स्पष्ट रूप से देखे ही लेगा। लोगों को यही करना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
लोग परमेश्वर के परीक्षणों को लेकर प्रायः चिंतित और भयभीत रहते हैं, तो भी वे हर समय शैतान के फंदे में रह रहे होते हैं, और ख़तरों से भरे क्षेत्र में रह रहे होते हैं जिसमें उन पर शैतान द्वारा आक्रमण और दुर्व्यवहार किया जाता है—मगर वे नहीं जानते भय क्या है, और अविचलित रहते हैं। चल क्या रहा है? परमेश्वर में मनुष्य का विश्वास केवल उन चीज़ों तक ही सीमित है जिन्हें वह देख सकता है। उसमें मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम और सरोकार की, या मनुष्य के प्रति उसकी सहृदयता और सोच-विचार की रत्ती भर भी सराहना नहीं है। यदि परमेश्वर की परीक्षाओं, न्याय और ताड़ना, तथा प्रताप और कोप के प्रति थोड़ी-सी घबराहट और डर को छोड़ दें, तो मनुष्य को परमेश्वर के श्रमसाध्य अभिप्रायों की रत्ती भर भी समझ नहीं है। परीक्षाओं का उल्लेख होने पर, लोगों को लगता है मानो परमेश्वर के छिपे हुए इरादे हैं, और कुछ तो यह तक मानते हैं कि परमेश्वर बुरे षडयंत्रों को प्रश्रय देता है, इस बात से अनभिज्ञ कि परमेश्वर वास्तव में उनके साथ क्या करेगा; इस प्रकार, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के बारे में चीखने-चिल्लाने के साथ-साथ, वे मनुष्य के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता और मनुष्य के लिए उसकी व्यवस्थाओं को रोकने और उनका विरोध करने के लिए जो कुछ कर सकते हैं सब करते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि यदि वे सावधान नहीं रहे तो उन्हें परमेश्वर द्वारा गुमराह कर दिया जाएगा, कि यदि वे अपने भाग्य पर पकड़ नहीं बनाए रखते हैं तो जो कुछ उनके पास है वह सब परमेश्वर द्वारा ले लिया जा सकता है, और यहाँ तक कि उनका जीवन भी आसन्न संकट में हो सकता है। मनुष्य शैतान के खेमे में है, परंतु वह शैतान द्वारा दुर्व्यवहार किए जाने की कभी चिंता नहीं करता है, और उसके साथ शैतान द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है परंतु वह शैतान द्वारा बंधक बनाए जाने से भी कभी नहीं डरता है। वह कहता रहता है कि वह परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करता है, मगर उसने परमेश्वर में कभी भरोसा नहीं किया है या विश्वास नहीं किया है कि परमेश्वर सचमुच मनुष्य को शैतान के पंजों से बचाएगा। यदि, अय्यूब के समान, मनुष्य परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाता है, और अपना संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर के हाथों में सौंप सकता है, तो क्या मनुष्य का परिणाम अय्यूब के समान ही नहीं होगा—परमेश्वर के आशीषों की प्राप्ति? यदि मनुष्य परमेश्वर की संप्रभता स्वीकार और उसके प्रति समर्पण कर पाता है, तो इसमें खोने के लिए क्या है? इस प्रकार, मैं सुझाव देता हूँ कि तुम लोग अपने कार्यकलापों में सावधान रहो, और उस सब के प्रति चौकन्ने रहो जो तुम लोगों पर आने ही वाला है। तुम लोग उतावले या आवेगी न बनो, और परमेश्वर तथा लोगों, विषयों, और वस्तुओं के साथ, जिनकी उसने तुम लोगों के लिए व्यवस्था की है, अपने गर्म खून या अपनी स्वाभाविकता पर निर्भर करते हुए, या अपनी कल्पनाओं और अवधारणाओं के अनुसार व्यवहार मत करो; परमेश्वर के कोप को भड़काने से बचने के लिए, तुम लोगों को अपने कार्यकलापों में सचेत होना ही चाहिए, और अधिक प्रार्थना तथा खोज करनी चाहिए।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें प्रकट करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें हटा दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। इसका मतलब यह है कि जैसे किसी बच्चे ने अवज्ञा की है और उसने गलती की है; उसके माता-पिता उसे डांट और दंडित कर सकते हैं, लेकिन अगर वह अपने माता-पिता के इरादे न भाँप पाए या यह न समझ पाए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो वह उनके इरादे को गलत समझ लेगा। उदाहरण के लिए, माता-पिता बच्चे से कह सकते हैं, “घर से अकेले मत निकलना और अकेले बाहर मत जाना,” लेकिन वह इस बात पर ध्यान नहीं देता और अकेले ही बाहर निकल जाता है। जब माता-पिता को पता चलता है, तो वे बच्चे को डाँटते हैं और, सजा के तौर पर उसे अपने व्यवहार पर चिंतन करने के लिए एक कोने में खड़ा कर देते हैं। अपने माता-पिता के इरादों को न समझने पर, बच्चा संदेह करना शुरू कर देता है : “क्या मेरे माता-पिता अब मुझे नहीं चाहते? क्या मैं सच में उनकी संतान हूँ? अगर मैं सच में उनकी संतान नहीं हूँ तो क्या इसका मतलब है कि मुझे गोद लिया गया है?” वह इन सब बातों पर विचार करता है। माता-पिता के वास्तविक इरादे क्या हैं? माता-पिता ने कहा कि ऐसा करना बहुत खतरनाक है और उन्होंने अपने बच्चे से ऐसा नहीं करने को कहा। लेकिन बच्चे ने बात नहीं मानी और उनकी बात को अनसुना कर दिया। इसलिए माता-पिता को अपने बच्चे को सजा देनी पड़ी ताकि वे उसे सही शिक्षा दे सकें और वह अपनी गलतियों से सीख सके। ऐसा करके माता-पिता क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या सिर्फ इतना कि बच्चे को अपनी गलतियों से सीख मिले? इस तरह की शिक्षा ही वह मकसद नहीं है जिसे वे अंततः हासिल करना चाहते हैं। माता-पिता का उद्देश्य है कि बच्चा वैसा ही करे जैसा उससे करने को कहा जाए, उनकी सलाह के अनुसार व्यवहार करे, कहा न मानने वाला काम न करे जिससे उन्हें चिंता हो—यही इच्छित परिणाम होगा। यदि बच्चा अपने माता-पिता की बात सुनता है, तो इससे यह जाहिर होता है कि वह अपनी समझ में परिपक्व हो गया है, और फिर उसके माता-पिता की चिंता कम हो जाएगी। क्या तब वे उससे संतुष्ट नहीं होंगे? क्या उन्हें अब भी उसे इस तरह से दंडित करने की आवश्यकता होगी? नहीं, अब इसकी आवश्यकता नहीं रह जाएगी। परमेश्वर में विश्वास करना ऐसा ही होता है। लोगों को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना और उसके हृदय को समझना सीखना चाहिए। उन्हें परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए। दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने स्वार्थ से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनके पास कोई परिणाम नहीं होगा। वे हमेशा सोचते हैं, “अगर परमेश्वर मुझे प्रकट कर देता है, हटा देता है और नकार देता है, तो क्या होगा?” यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; यह सिर्फ तुम्हारी एक-तरफा अटकलबाजी है। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। जब वह लोगों को प्रकट करता है, तो यह उन्हें हटाने के लिए नहीं होता। लोगों को इसलिए प्रकट किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपने प्रकृति सारों का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ बन सकें; इस कारण, लोगों को प्रकट इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। शुद्ध समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा प्रकट किए जाने का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं है कि तुम्हें हटा ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर, चूँकि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और भ्रष्टता प्रकट करने पर वे सत्य में समाधान नहीं ढूँढ़ते, इसलिए परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए, कभी-कभी, वह लोगों को प्रकट कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, जिससे वे खुद जान जाते हैं, इससे उनके जीवन को विकसित होने में मदद मिलती है। लोगों को प्रकट करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : बुरे लोगों के लिए, प्रकट किए जाने का अर्थ है उन्हें हटाया जाना। जो लोग सत्य स्वीकार कर सकते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उनसे आत्मचिंतन कराया जाता है और उन्हें उनकी वास्तविक दशा दिखाई जाती है और उन्हें पथभ्रष्ट और लापरवाह होने से रोका जाता है, क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को प्रकट करना उन्हें चेताना है, अन्यथा वे अपने कर्तव्य निर्वहन में वे भ्रमित और लापरवाह हो जाते हैं, चीजों को गंभीरता से लेने में असफल हो जाते हैं, थोड़े-से परिणाम पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की माँगों के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, और फिर भी वे खुद से संतुष्ट रहते हैं और मानते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर याद दिलाता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता प्रकट करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उन्हें याद दिलाने के लिए है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, तुममें विद्रोह शामिल है, तुममें बहुत अधिक नकारात्मक तत्व हैं, जो कुछ भी तुम करते हो वह अनमना होता है, और यदि तुम अब भी पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो न्यायसंगत रूप से तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यदा-कदा, परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित करता है या प्रकट करता है, तो इसका मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं होता कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें हटा भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से चिंतन और पश्चात्ताप करना चाहिए। सार रूप में, तुम्हें प्रकट करने के पीछे जो भी अर्थ हो, तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। यदि तुम निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाते हो, और अपनी खामियों को सुधारने के बजाय और भी खराब होते जाते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से दंडित किया जाएगा। इसलिए प्रकट होने के मामलों से निपटते हुए व्यक्ति को समर्पण दिखाना चाहिए, व्यक्ति के दिल में भय रहना चाहिए, और व्यक्ति को पश्चात्ताप करने में सक्षम होना चाहिए : केवल तभी कोई परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होता है, और केवल इसी तरह अभ्यास करने से कोई व्यक्ति स्वयं को बचा सकता है और परमेश्वर के दंड से बच सकता है। फिर विवेकी लोगों को अपनी खामियों को पहचानने और उन्हें सुधारने में सक्षम होना चाहिए, कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने में सक्षम होना चाहिए, जहाँ वे अपनी अंतरात्मा पर भरोसा करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करते हों। इसके अतिरिक्त उन्हें सत्य की ओर भी बढ़ना चाहिए, न केवल उस मुकाम तक पहुँचना चाहिए जहाँ उनका व्यवहार सिद्धांत के अनुरूप हो, बल्कि उस मुकाम तक भी पहुँचना चाहिए जहाँ वे अपना पूरा दिल, अपनी पूरी आत्मा, अपना पूरा मन, अपनी पूरी शक्ति दे सकें : इसे इस तरह से करना ही उनके कर्तव्य का पालन करने का स्वीकार्य तरीका है, केवल इसी तरह से यह उन्हें सच्चे तौर पर परमेश्वर के प्रति समर्पित लोग बनाता है। परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए व्यक्ति को किसे मानक मानना चाहिए? व्यक्ति को अपने कार्यों को सत्य सिद्धांतों पर आधारित करना चाहिए, जिसका मुख्य पहलू परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर के घर के काम पर ध्यान केंद्रित करना है, पूरी तस्वीर को ध्यान में रखना है, न कि किसी एक पहलू पर ध्यान केंद्रित करते हुए दूसरे से ध्यान हट जाने का जोखिम उठाना, और इसका गौण पहलू अपना काम ठीक से करना है, और जो कुछ भी अपेक्षित है उसे हासिल करना, उसे लापरवाही से बिना मन लगाए न करना और परमेश्वर को शर्मिंदा नहीं करना है। यदि लोग इन सिद्धांतों में महारत पा लेते हैं, तो क्या वे अपनी चिंताओं और गलत धारणाओं को नहीं छोड़ देंगे? एक बार जब तुम अपनी चिंताओं और गलत धारणाओं को अलग रख देते हो, और परमेश्वर के बारे में कोई भी अनुचित विचार नहीं रखते, तो नकारात्मक तत्व धीरे-धीरे तुम्हारे अंदर हावी नहीं रह जाएँगे, और तुम इस तरह के मामलों के प्रति सही रुख अपनाओगे। इसलिए सत्य की खोज करना और परमेश्वर के इरादों को समझने की कोशिश करना महत्वपूर्ण है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास और परमेश्वर को समर्पण करके ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है
परमेश्वर उन लोगों को बचाता है जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया और जिनका स्वभाव भ्रष्ट है, उन लोगों को नहीं जो पूर्ण हैं, जिनमें कोई कमियाँ नहीं है या जो शून्य में रहते हैं। कुछ लोग, थोड़ी-सी भ्रष्टता दिखाने पर सोचते हैं, “मैंने फिर से परमेश्वर का विरोध किया। इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मैं नहीं बदला। जाहिर है कि परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता!” फिर वे निराश हो जाते हैं और सत्य का अनुसरण करने को तैयार नहीं होते। इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? उन्होंने खुद ही सत्य को त्याग दिया है, और मानते हैं कि परमेश्वर अब उन्हें नहीं चाहता। क्या यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी नहीं है? ऐसी नकारात्मकता से शैतान आसानी से फायदा उठा सकता है। शैतान ऐसे लोगों का उपहास करते हुए कहता है, “बेवकूफ कहीं का! परमेश्वर तुझे बचाना चाहता है, मगर तू अभी भी इस तरह पीड़ा झेल रहा है! तो हार मान ले न! यदि तू हार मान लेगा, तो परमेश्वर तुझे हटा देगा, जो उसका तुझे मेरे हवाले कर देने जैसा ही है। मैं तुझे तड़पा कर मार डालूँगा!” एक बार शैतान कामयाब हुआ, तो परिणाम अकल्पनीय होंगे। नतीजतन, व्यक्ति को चाहे जितनी भी कठिनाइयों या नकारात्मकता का सामना करना पड़े, उसे हार नहीं माननी चाहिए। उसे समाधान के लिए सत्य खोजना चाहिए, और निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। जीवन के विकास की प्रक्रिया के दौरान और मानव उद्धार के दौर में, लोग कभी-कभी गलत मार्ग अपना सकते हैं, भटक सकते हैं, या कभी-कभी वे जीवन में अपरिपक्वता की स्थितियाँ और व्यवहार दिखा सकते हैं। कभी-कभी वे कमजोर और नकारात्मक हो सकते हैं, गलत बातें कह सकते हैं, लड़खड़ा सकते हैं या नाकामयाब हो सकते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ये सब सामान्य बातें हैं। वह इन्हें उनके खिलाफ नहीं रखता। कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी भ्रष्टता बहुत गहरी है, और वे कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे, इसलिए वे दुखी महसूस कर खुद से घृणा करते हैं। जिन लोगों के हृदय में पश्चात्ताप है, परमेश्वर उन्हें ही बचाता है। दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है, जो सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं और उनके साथ कुछ भी गलत नहीं है, आम तौर पर परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता है। मैं यहाँ तुम्हें क्या बता रहा हूँ? जो कोई भी समझता है, वह बोल दे। (हमें अपनी भ्रष्टता के प्रकाशनों को उचित रूप से संभालना होगा और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, और फिर हमें परमेश्वर का उद्धार प्राप्त होगा। अगर हम लगातार परमेश्वर को गलत समझते रहे, तो हम आसानी से निराशा से समझौता कर लेंगे।) तुम्हें आस्था रखनी चाहिए और कहना चाहिए, “भले ही मैं अभी कमजोर हूँ, मैंने ठोकर खाई है और नाकामयाब हुआ हूँ। मैं आगे बढ़ूंगा, और एक दिन सत्य को समझूँगा और परमेश्वर को संतुष्ट करके उद्धार प्राप्त करूँगा।” तुम्हारे पास यह संकल्प होना चाहिए। चाहे तुम्हें कैसी भी रुकावटों, कठिनाइयों, नाकामियों या लड़खड़ाहटों का सामना करना पड़े, तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए। तुम्हें यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को बचाता है। इसके अलावा, यदि तुम्हें लगता है कि तुम अभी तक परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के योग्य नहीं हो, या ऐसे अवसर हों जब तुम्हारी अवस्थाओं से परमेश्वर घृणा करे और नाखुश हो, या ऐसे मौके हों जब तुम बुरा व्यवहार करते हो, और परमेश्वर तुम्हें नहीं स्वीकारता, तुम्हें ठुकरा देता है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तुम जान गए हो, और अभी भी देर नहीं हुई है। यदि तुम पश्चात्ताप करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें एक मौका जरूर देगा।
... परमेश्वर सभी के लिए धार्मिक और निष्पक्ष है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम पहले कैसे थे या अभी तुम्हारा आध्यात्मिक कद कैसा है, वह देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण करते हो या नहीं और तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो या नहीं। तुम्हें कभी भी परमेश्वर को गलत समझ कर यह नहीं कहना चाहिए, “जिन लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है वे अब भी झूठ क्यों बोलते और भ्रष्टता क्यों प्रकट करते हैं? परमेश्वर को उन्हें बचाना चाहिए जो झूठ नहीं बोलते।” क्या यह भ्रांति नहीं है? क्या भ्रष्ट मानवजाति में कोई ऐसा है जो झूठ नहीं बोलता? क्या जो लोग झूठ नहीं बोलते उन्हें अब भी परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता है? शैतान ने जिस मानवजाति को भ्रष्ट कर दिया है, परमेश्वर उसे ही बचाता है। यदि तुम इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते, तो तुम अज्ञानी और मूर्ख हो। जैसा कि परमेश्वर ने कहा, “इस पृथ्वी पर कोई भी धर्मी नहीं है, जो धर्मी हैं वे इस संसार में नहीं हैं।” ठीक इस कारण से कि मानवजाति को शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, परमेश्वर देहधारी हो कर पृथ्वी पर आया, ताकि हम भ्रष्ट मनुष्यों को बचा सके। परमेश्वर स्वर्गदूतों को बचाने के बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? इसलिए कि स्वर्गदूत स्वर्ग में हैं, और शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए गए हैं। परमेश्वर ने शुरू से हमेशा यही कहा है, “जिस मानवजाति को मैं बचाता हूँ वह शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, वह मानवजाति जो शैतान के हाथों से वापस ली जा चुकी है, वह मानवजाति जिसमें शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, वह मानवजाति जो मेरा विरोध करती है, मेरा प्रतिरोध करती है और मेरे खिलाफ विद्रोह करती है।” तो फिर लोग इस तथ्य का सामना क्यों नहीं करते? क्या वे परमेश्वर को गलत नहीं समझते? परमेश्वर को गलत समझना उसके खिलाफ प्रतिरोध का सबसे आसान रास्ता है और इसे तुरंत हल किया जाना चाहिए। इस समस्या को हल नहीं कर पाना बहुत खतरनाक है, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप परमेश्वर तुम्हें आसानी से किनारे कर सकता है। लोगों की गलतफहमियाँ उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में जड़ें जमाई हुई हैं। यदि वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहे, तो उनके सत्य को न स्वीकारने की संभावना सबसे अधिक होगी। परमेश्वर को गलत समझने पर यदि तुम समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते हो, तो तुम लोग जानते हो इसके परिणाम क्या होंगे। परमेश्वर तुम्हें ठोकर खाने, असफल होने और गलतियाँ करने देता है। परमेश्वर तुम्हें सत्य को समझने, सत्य का अभ्यास करने, धीरे-धीरे उसके इरादों को समझने, उसके इरादों के अनुसार सब कुछ करने, सच्चे दिल से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, और परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सत्य वास्तविकता को प्राप्त करने के लिए अवसर और समय देगा। लेकिन, परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति से सबसे अधिक घृणा करता है? ऐसे व्यक्ति से जो अपने दिल में सत्य को जानते हुए भी, उसे अभ्यास में लाना तो दूर, उसे स्वीकारने से भी इनकार करता है। बल्कि, वे अभी भी शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, फिर भी खुद को परमेश्वर के प्रति बहुत अच्छा और आज्ञाकारी मानते हैं और साथ ही दूसरों को गुमराह कर परमेश्वर के घर में जगह पाने की कोशिश करते हैं। परमेश्वर इस प्रकार के लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है, वे मसीह-विरोधी हैं। हालाँकि हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है, पर ये कर्म अलग प्रकृति के हैं। यह कोई सामान्य भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और न ही भ्रष्टता का कोई सामान्य खुलासा है; बल्कि, इसमें तुम सोच-समझ कर और अड़ियल बनकर अंत तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो। तुम जानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी जान-बूझ कर उसका प्रतिरोध करना चुनते हो। यह परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने और गलतफहमी होने की समस्या नहीं है; बल्कि तुम जान-बूझ कर अंत तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो। क्या परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति को बचा सकता है? परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का दुश्मन है, इसलिए तुम एक दानव और शैतान हो। क्या परमेश्वर अब भी दानवों और शैताओं को बचा सकता है?
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है
शुरुआत से ही, मैंने अक्सर तुम लोगों को समझाया है कि तुम में से प्रत्येक को सत्य का अनुसरण करना चाहिए। जब तक ऐसा करने का मौका मिले, छोड़ो मत; सत्य का अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति का उत्तरदायित्व, जिम्मेदारी और कर्तव्य है और यह वह मार्ग है जिस पर प्रत्येक व्यक्ति को चलना चाहिए, साथ ही साथ यह वह मार्ग है जिस पर उन सबको चलना चाहिए जिन्हें बचाया जाएगा। फिर भी कोई इस पर ध्यान नहीं देता है—कोई भी इसे अर्थपूर्ण मामला नहीं मानता है, इसे एक कुभाषा के रूप में माना जाता है, प्रत्येक व्यक्ति अपने ही ढंग से सोचता है। शुरू से लेकर आज तक भले ही ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की किताबें थामकर इन्हें पढ़ते रहते हैं, उपदेश सुनते हैं, जिनके बारे में ऐसा लगता है कि उन सबने अपने कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के न्याय और ताड़ना और उसके मार्गदर्शन को स्वीकार कर लिया है, फिर भी इंसान और परमेश्वर के बीच कोई संबंध वास्तव में स्थापित नहीं हुआ है, और सभी लोग इस कदर अपनी ही कल्पनाओं, धारणाओं, गलतफहमियों और अटकलों के अनुसार जीते हैं, और यहाँ तक कि संदेह और नकारात्मकता में जीते हैं, और वे इन चीजों के आधार पर परमेश्वर के वचनों, कार्य और मार्गदर्शन तक पहुँचते हैं। यदि तुम ऐसी मनोदशाओं में रहते हो तो नकारात्मकता कैसे दूर कर सकते हो? तुम विद्रोहीपन को कैसे दूर कर सकते हो? तुम छल-कपट और दुष्टता की मानसिकता और रवैये को कैसे त्याग सकते हो या उस अटकलबाजी और गलतफहमी को कैसे दूर कर सकते हो जिसके जरिये तुम परमेश्वर के सौंपे आदेश और कर्तव्य के प्रति पेश आते हो? निश्चित रूप से, इन्हें दूर नहीं किया जा सकता। इसलिए यदि तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग पर चलना चाहते हो तो तुम्हें फौरन परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए और उसके इरादे खोजने चाहिए—उसकी इच्छाओं का पता लगाना ही सबसे ज्यादा मायने रखता है। हमेशा धारणाओं और कल्पनाओं में जीते रहना बहुत ही अव्यावहारिक होता है; तुम्हें सभी मामलों में आत्म-चिंतन करना और यह पहचानना सीखना चाहिए कि तुम्हें अभी भी किन भ्रष्ट स्वभावों को स्वच्छ करने की जरूरत है, कौन-सी चीजें तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोक रही हैं, तुम्हारे भीतर परमेश्वर को लेकर कौन-सी गलतफहमियाँ और धारणाएँ हैं, और वह कौन-सी ऐसी चीजें करता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं होतीं, बल्कि तुम्हारे लिए संदेह और गलतफहमी का कारण बनती हैं। यदि तुम इस ढंग से आत्म-चिंतन करते हो तो तुम पता लगा सकते हो कि तुम्हारे अंदर अभी भी ऐसी कौन-सी समस्याएँ हैं जिन्हें सत्य खोजकर दूर करने की जरूरत है और यदि तुम इस तरह अभ्यास करते हो तो तुम्हारा जीवन तेजी से विकसित होगा। यदि तुम आत्म-चिंतन नहीं करते, बल्कि अपने हृदय में हमेशा परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाले रहते हो, हमेशा अपने ही विचारों पर अड़े रहते हो, हमेशा सोचते हो कि परमेश्वर तुम्हें नीचा दिखाता है या तुम्हारे प्रति निष्पक्ष नहीं है, और तुम हमेशा अपने तर्कों पर जमे रहते हो तो परमेश्वर को लेकर तुम्हारी गलतफहमी बढ़ती ही जाएगी और उसके साथ तुम्हारा रिश्ता और अधिक दूर होता जाएगा, और इस दौरान तुम्हारे हृदय में उसके लिए विद्रोहीपन और विरोध बढ़ता चला जाएगा। यदि तुम्हारी दशा इतनी बिगड़ जाती है तो यह खतरनाक है क्योंकि इससे इस बात पर पहले ही बहुत गंभीर असर पड़ने लगेगा कि तुम अपना कर्तव्य कितने कारगर ढंग से निभाते हो। तुम अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ केवल ढुलमुल, अनमने असम्मानजनक, विद्रोही और प्रतिरोधी रवैये से ही निभा सकते हो और इसका हश्र क्या होता है? यह तुम्हें अपने कर्तव्य निभाने के प्रति मनमना और परमेश्वर के प्रति धोखेबाज और प्रतिरोधी बनाएगा। तुम न तो सत्य प्राप्त कर पाओगे, न ही सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश कर पाओगे। इस नतीजे का मूल कारण क्या है? इसका कारण यह है कि लोग अभी भी अपने हृदय में परमेश्वर के लिए धारणाएँ और गलतफहमियाँ रखते हैं और ये व्यावहारिक समस्याएँ हल नहीं की गई हैं। इसलिए परमेश्वर और लोगों के बीच हमेशा खाई बनी रहेगी। इसलिए यदि लोग परमेश्वर के समक्ष आना चाहते हैं तो उन्हें पहले यह आत्म-चिंतन करना चाहिए कि उनके मन में परमेश्वर को लेकर क्या गलतफहमियाँ, धारणाएँ, कल्पनाएँ, संदेह या अटकलें हैं। इन सभी चीजों की जाँच होनी चाहिए। सच में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ या गलतफहमियाँ होना कोई साधारण मामला नहीं है क्योंकि इसका संबंध परमेश्वर को लेकर लोगों के रवैये के साथ ही उनके प्रकृति सार से है। यदि लोग अपनी इन धारणाओं और गलतफहमियों के समाधान के लिए सत्य नहीं खोजते तो यह मत सोचना कि ये चीजें बस अपने आप हवा में गायब हो जाएँगी। भले ही ये तुम्हारे कर्तव्य के निर्वहन या सत्य के अनुसरण पर असर न डालें, लेकिन कुछ घटित होने पर या किन्हीं खास परिस्थितियों में ऐसा लगेगा कि ये तुम्हारे मन को परेशान कर रही हैं और कर्तव्य निर्वहन में बाधा डाल रही हैं। इसलिए यदि तुम्हारे मन में धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं तो तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर आत्म-चिंतन करना चाहिए, सत्य खोजना चाहिए और लोगों के मन में उपजने वाली इन धारणाओं और गलतफहमियों के मूल कारण और सार को स्पष्ट रूप से समझना चाहिए। केवल तभी वे गायब हो पाएँगी, परमेश्वर से तुम्हारा संबंध सामान्य हो पाएगा और धीरे-धीरे तुम्हारा जीवन विकसित हो पाएगा। लोगों में परमेश्वर को लेकर बहुत-सी धारणाएँ और गलतफहमियाँ होती हैं, यह इस बात का प्रमाण है कि मानवजाति परमेश्वर का विरोध करती है और उसके अनुरूप नहीं है। इन धारणाओं और गलतफहमियों का लगातार समाधान करते जाने से ही लोगों और परमेश्वर के बीच की खाई को धीरे-धीरे पाटा जा सकता है। वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाएँगे और उसमें अधिकाधिक आस्था रखेंगे; अधिकाधिक आस्था के कारण सत्य के उनके अभ्यास में बहुत ही कम मिलावट होगी और सत्य के उनके अनुसरण में बहुत ही कम मिलावटें और बाधाएँ होंगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है
यदि तुम्हारा रवैया ईमानदारी भरा, सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण करने वाला है, और चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हारे हृदय में कितनी भी पीड़ा हो, या तुम कितने भी अपमानित क्यों न हो, तुम हमेशा सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर लेते हो, और तुम यह कहते हुए अभी भी परमेश्वर से प्रार्थना करने में सक्षम होते हो कि “परमेश्वर जो भी करता है, वह सही होता है, और मैं उसे स्वीकार करूँगा,” तो यह एक समर्पित रवैया है। हालाँकि स्वीकार की प्रक्रिया में तुम्हें लगातार आत्म-चिंतन करते रहना चाहिए, इस पर विचार करना चाहिए कि तुम्हारे कार्यों और व्यवहार में खामियाँ कहाँ हैं, और तुमने सत्य के किन पहलुओं का उल्लंघन किया है। तुम्हें अपने इरादों का भी गहन-विश्लेषण करना चाहिए, ताकि तुम अपनी वास्तविक स्थिति और आध्यात्मिक कद को साफ-साफ देख सको। यदि तुम सत्य को खोजते हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि सत्य का अभ्यास सिद्धांतों के अनुसार कैसे किया जाए। यदि तुम इस तरह से अभ्यास करते और अनुभव करते हो, तो तुम्हें पता चलने से पहले ही तुम प्रगति कर चुके होगे। सत्य तुम्हारे भीतर जड़ें जमा लेगा; वह फूल-फलकर तुम्हारा जीवन बन जाएगा। तुम्हारी भ्रष्टता प्रकट होने की सभी समस्याएँ धीरे-धीरे हल हो जाएँगी। जब चीजें घटित होंगी तो तुम्हारा रवैया, विचार और स्थितियाँ ये सब अधिकाधिक सकारात्मकता की ओर झुकेंगे। क्या तुम तब भी परमेश्वर से दूर रहोगे? शायद तुम तब भी उससे दूर होगे, पर पहले से कम होगे, और परमेश्वर के लिए तुम जो संदेह, अटकलें, गलतफहमियाँ, शिकायतें, विद्रोह और प्रतिरोध पालते हो, वो भी घट जाएँगे। उनके घट होने पर जब चीजें घटित होंगी तो तुम्हारे लिए स्वयं को परमेश्वर के समक्ष शांत करना, उससे प्रार्थना करना, सत्य खोजना और अभ्यास का मार्ग खोजना आसान हो जाएगा। यदि चीजें तुम पर आ पड़ने के बाद भी तुम उन्हें नहीं समझ पाते, इसके बजाय यदि तुम पूरी तरह भ्रमित होते हो, और तब भी सत्य नहीं खोजते, तो फिर समस्या होगी। तुम मानवीय तरीकों से मामले सँभालने को लेकर निश्चिंत रहोगे और सांसारिक आचरण के तुम्हारे फलसफे, धूर्त तौर-तरीके और चालाकी भरी चालबाजियाँ सब सामने आ जाएँगी। इसी तरह लोग चीजों को लेकर अपने हृदय में सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हैं। चीजें होने पर कुछ लोग कभी भी खुद को सत्य के लिए झोंकने की मेहनत नहीं करते, और इसके बजाय हमेशा उन चीजों को इंसानी तरीकों से सँभालने की सोचते रहते हैं। नतीजतन, वे लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहते हैं, वे स्वयं को तब तक पीड़ा देते रहते हैं जब तक कि उनके चेहरे थकान से क्लांत नहीं हो जाते, मगर वे फिर भी सत्य को अभ्यास में नहीं लाते। देख लो, सत्य का अनुसरण न करने वाले कितने दयनीय होते हैं। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य स्वेच्छा से निभाते हो, चीजों को त्याग सकते हो और अपनी इच्छा से स्वयं को खपा सकते हो, यदि तुम में अभी भी परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ, अटकलें, संदेह या शिकायतें हैं, यहाँ तक कि अभी भी उसके प्रति विद्रोह और प्रतिरोध है, या तुम उसका विरोध करते हो और अपने ऊपर उसकी संप्रभुता को ठुकराते हो—यदि तुम इन चीजों का समाधान नहीं करते—तो सत्य के लिए तुम्हारे व्यक्तित्व का स्वामी होना तकरीबन असंभव हो जाएगा, और तुम्हारा जीवन थकाऊ हो जाएगा। लोग अक्सर इन नकारात्मक स्थितियों में संघर्ष करते और पीड़ा पाते रहते हैं, मानो वे किसी दलदल में फँसे हों, और वे हमेशा सही-गलत के विचार से जूझते रहते हैं। वे सत्य का पता लगाकर उसे कैसे समझ सकते हैं? सत्य को खोजने के लिए पहले उनको समर्पण करना होगा। तब अनुभव की एक अवधि के बाद वे कुछ प्रबोधन प्राप्त कर पाएँगे, जिस बिंदु पर आकर सत्य को समझना आसान होता है। यदि कोई हमेशा सही-गलत क्या है, इसे ही सुलझाने का प्रयास कर रहा होता है, और सच-झूठ में फँस जाता है, तो उनके पास सत्य का पता लगाने या उसे समझने का कोई रास्ता नहीं होता। और जब कोई कभी भी सत्य को नहीं समझ पाएगा तो इसका क्या नतीजा होगा? सत्य को न समझ पाने से परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा होती हैं; जब किसी के मन में परमेश्वर को लेकर गलतफहमियाँ होती हैं, तो संभव है कि वे उसके बारे में शिकायतें करें। जब ये शिकायतें फूटती हैं तो विरोध बन जाती हैं; परमेश्वर का विरोध उसका प्रतिरोध करना है, और यह एक गंभीर अपराध है। यदि किसी ने कई अपराध किए हैं, तो उन्होंने कई गुना बुराइयाँ की हैं, और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह उस प्रकार की चीज है जो सत्य को कभी भी न समझ पाने की वजह से आती है। तो सत्य का अनुसरण केवल अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने के लिए, आज्ञाकारी होने, नियमानुसार व्यवहार करने, धर्मनिष्ठ होने या संतों की तरह शिष्टाचार निभाने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य सिर्फ ये चीजें हासिल करना नहीं है; सैद्धांतिक तौर पर यह परमेश्वर को लेकर तुम्हारे कई गलत दृष्टिकोणों के समाधान के लिए है। सत्य को समझने का उद्देश्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को हल करना है; जब वे भ्रष्ट स्वभाव हल हो जाएँगे, तो लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर गलतफहमियाँ नहीं होंगी। ये दोनों चीजें आपस में जुड़ी हैं। इसी के साथ जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करते हैं, उनके और परमेश्वर के बीच धीरे-धीरे संबंध सुधरकर सामान्य होते जाएँगे। एक बार अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान होने पर लोगों की परमेश्वर के बारे में शंकाएँ, संदेह, परीक्षाएँ, गलतफहमियाँ, प्रश्न और शिकायतें और यहाँ तक कि उनका प्रतिरोध भी धीरे-धीरे करके हल हो जाएगा। जब किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है तो कौन सी तात्कालिक अभिव्यक्ति पैदा होती है? परमेश्वर के लिए उनका रवैया बदल जाता है। वे परमेश्वर के लिए समर्पणकारी हृदय के साथ किसी भी चीज का सामना कर सकते हैं, और तब उसके साथ उनका रिश्ता सुधर जाएगा। यदि वे सत्य को समझते हैं तो उसे अभ्यास में लाने में सक्षम होंगे। उनका हृदय परमेश्वर के लिए समर्पित है, इसलिए वे अपने कर्तव्य निर्वहन में अनमने नहीं होंगे, परमेश्वर को धोखा देने की तो बात ही छोड़ दें। इस तरह उनके मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ कम से कम होंगी, उसके साथ उनका संबंध अधिक से अधिक सामान्य होता जाएगा, और वे अपने कर्तव्य निभाते हुए पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाएँगे। यदि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों की समस्या का समाधान नहीं करते, वे कभी भी परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध हासिल नहीं कर पाएँगे, और कभी भी उनका हृदय उसके प्रति समर्पित नहीं होगा। अविश्वासियों की तरह वे बहुत विद्रोही होंगे, हमेशा अपने हृदय में परमेश्वर को नकार रहे होंगे और उसका प्रतिरोध कर रहे होंगे, और उनके लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना असंभव होगा। इसीलिए सत्य का अनुसरण और अभ्यास इतना अहम है! तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते लेकिन तब भी परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं, गलतफहमियों और शिकायतों का समाधान चाहते हो—क्या तुम यह हासिल कर पाओगे? निश्चित रूप से नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ, मेरे अंदर धारणाएँ, गलतफहमियाँ या शिकायतों जैसी कोई चीज नहीं है। मैं इन चीजों के बारे में नहीं सोचता।” यदि तुम इस बारे में नहीं सोचते तो क्या तुम गारंटी देते हो कि तुम्हारे अंदर कोई धारणा नहीं है? क्या तुम इस बारे में न सोचकर अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने से बच सकते हो? चाहे कोई कैसी भी भ्रष्टता प्रकट करे, यह हमेशा प्रकृति से तय होता है। सभी लोग अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं; उनके शैतानी स्वभाव उनके भीतर गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं, और उनका प्रकृति सार बन गए हैं। लोगों के पास अपने शैतानी स्वभाव मिटाने के कोई तरीके नहीं हैं, केवल सत्य और परमेश्वर के वचनों का प्रयोग करके ही वे धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभावों के सभी मुद्दों का समाधान कर सकते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है
मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है! कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि जो लोग मुझे खुश करते हैं, वे बिल्कुल ऐसे लोग हैं जो चापलूसी और खुशामद करते हैं, और जिनमें ऐसे हुनर नहीं होंगे, वे परमेश्वर के घर में अवांछनीय होंगे और वे वहाँ अपना स्थान खो देंगे। क्या तुम लोगों ने इतने बरसों में बस यही ज्ञान हासिल किया है? क्या तुम लोगों ने यही प्राप्त किया है? और मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान इन गलतफहमियों पर ही नहीं रुकता; परमेश्वर के आत्मा के खिलाफ तुम्हारी निंदा और स्वर्ग की बदनामी इससे भी बुरी बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि ऐसा विश्वास तुम लोगों को केवल मुझसे दूर भटकाएगा और मेरे खिलाफ बड़े विरोध में खड़ा कर देगा। कार्य के कई वर्षों के दौरान तुम लोगों ने कई सत्य देखे हैं, किंतु क्या तुम लोग जानते हो कि मेरे कानों ने क्या सुना है? तुम में से कितने लोग सत्य को स्वीकारने के लिए तैयार हैं? तुम सब लोग विश्वास करते हो कि तुम सत्य के लिए कीमत चुकाने को तैयार हो, किंतु तुम लोगों में से कितनों ने वास्तव में सत्य के लिए दुःख झेला है? तुम लोगों के हृदय में अधार्मिकता के सिवाय कुछ नहीं है, जिससे तुम लोगों को लगता है कि हर कोई, चाहे वह कोई भी हो, धोखेबाज और कुटिल है—यहाँ तक कि तुम यह भी विश्वास करते हो कि देहधारी परमेश्वर, किसी सामान्य मनुष्य की तरह, दयालु हृदय या कृपालु प्रेम से रहित हो सकता है। इससे भी अधिक, तुम लोग विश्वास करते हो कि कुलीन चरित्र और दयालु, कृपालु प्रकृति केवल स्वर्ग के परमेश्वर में ही होती है। तुम लोग विश्वास करते हो कि ऐसा कोई संत नहीं होता, कि केवल अंधकार एवं दुष्टता ही पृथ्वी पर राज करते हैं, जबकि परमेश्वर एक ऐसी चीज़ है, जिसे लोग अच्छाई और सुंदरता के लिए अपने मनोरथ सौंपते हैं, वह उनके द्वारा गढ़ी गई एक किंवदंती है। तुम लोगों के विचार से, स्वर्ग का परमेश्वर बहुत ही ईमानदार, धार्मिक और महान है, आराधना और श्रद्धा के योग्य है, जबकि पृथ्वी का यह परमेश्वर स्वर्ग के परमेश्वर का एक स्थानापन्न और साधन है। तुम विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर स्वर्ग के परमेश्वर के समकक्ष नहीं हो सकता, उनका एक-साथ उल्लेख तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता। जब परमेश्वर की महानता और सम्मान की बात आती है, तो वे स्वर्ग के परमेश्वर की महिमा से संबंधित होते हैं, किंतु जब मनुष्य की प्रकृति और भ्रष्टता की बात आती है, तो ये ऐसे लक्षण हैं जिनमें पृथ्वी के परमेश्वर का एक अंश है। स्वर्ग का परमेश्वर हमेशा उत्कृष्ट है, जबकि पृथ्वी का परमेश्वर हमेशा ही नगण्य, कमज़ोर और अक्षम है। स्वर्ग के परमेश्वर में दैहिक अनुभूतियाँ नहीं, केवल धार्मिकता है, जबकि धरती के परमेश्वर के केवल स्वार्थपूर्ण उद्देश्य हैं और वह निष्पक्षता और विवेक से रहित है। स्वर्ग के परमेश्वर में थोड़ी-सी भी कुटिलता नहीं है और वह हमेशा विश्वसनीय है, जबकि पृथ्वी के परमेश्वर में हमेशा बेईमानी का एक पक्ष होता है। स्वर्ग का परमेश्वर मनुष्यों से बहुत प्रेम करता है, जबकि पृथ्वी का परमेश्वर मनुष्य की पर्याप्त परवाह नहीं करता, यहाँ तक कि उसकी पूरी तरह से उपेक्षा करता है। यह भ्रामक ज्ञान तुम लोगों के हृदय में काफी समय से रखा गया है और भविष्य में भी बनाए रखा जा सकता है। तुम लोग मसीह के सभी कर्मों पर अधार्मिकता के दृष्टिकोण से विचार करते हो और उसके सभी कार्यों और साथ ही उसकी पहचान और सार का मूल्यांकन दुष्ट के परिप्रेक्ष्य से करते हो। तुम लोगों ने बहुत गंभीर गलती की है और ऐसा काम किया है, जो तुमसे पहले के लोगों ने कभी नहीं किया। अर्थात्, तुम लोग केवल अपने सिर पर मुकुट धारण करने वाले स्वर्ग के उत्कृष्ट परमेश्वर की सेवा करते हो और उस परमेश्वर की सेवा कभी नहीं करते, जिसे तुम इतना महत्वहीन समझते हो, मानो वह तुम लोगों को दिखाई तक न देता हो। क्या यह तुम लोगों का पाप नहीं है? क्या यह परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध तुम लोगों के अपराध का विशिष्ट उदाहरण नहीं है? तुम लोग स्वर्ग के परमेश्वर की आराधना करते हो। तुम बुलंद छवियों से प्रेम करते हो और उन लोगों का सम्मान करते हो, जो अपनी वाक्पटुता के लिए प्रतिष्ठित हैं। तुम सहर्ष उस परमेश्वर द्वारा नियंत्रित हो जाते हो, जो तुम लोगों के हाथ धन-दौलत से भर देता है, और उस परमेश्वर के लिए बहुत अधिक लालायित रहते हो जो तुम्हारी हर इच्छा पूरी कर सकता है। तुम केवल इस परमेश्वर की आराधना नहीं करते, जो अभिमानी नहीं है; तुम केवल इस परमेश्वर के साथ जुड़ने से घृणा करते हो, जिसे कोई मनुष्य ऊँची नज़र से नहीं देखता। तुम केवल इस परमेश्वर की सेवा करने के अनिच्छुक हो, जिसने तुम्हें कभी एक पैसा नहीं दिया है, और जो तुम्हें अपने लिए लालायित करवाने में असमर्थ है, वह केवल यह अनाकर्षक परमेश्वर ही है। यह परमेश्वर तुम्हें अपना समझ का दायरा बढ़ाने में, तुम्हें खज़ाना मिल जाने का एहसास कराने में सक्षम नहीं बना सकता, तुम्हारी इच्छा पूरी तो बिल्कुल नहीं कर सकता। तो फिर तुम उसका अनुसरण क्यों करते हो? क्या तुमने कभी इस तरह के प्रश्न पर विचार किया है? तुम जो करते हो, वह केवल इस मसीह का ही अपमान नहीं करता, बल्कि, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, वह स्वर्ग के परमेश्वर का अपमान करता है। मेरे विचार से परमेश्वर पर तुम लोगों के विश्वास का यह उद्देश्य नहीं है!
... मैं चाहता हूँ कि तुम लोग शीघ्र ही किसी दिन इस सत्य को समझो : परमेश्वर को जानने के लिए तुम्हें न केवल स्वर्ग के परमेश्वर को जानना चाहिए, बल्कि, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, पृथ्वी के परमेश्वर को भी जानना चाहिए। अपनी प्राथमिकताओं को गड्डमड्ड मत करो या गौण को मुख्य की जगह मत लेने दो। केवल इसी तरह से तुम परमेश्वर के साथ वास्तव में एक अच्छा संबंध बना सकते हो, परमेश्वर के नज़दीक हो सकते हो, और अपने हृदय को उसके और अधिक निकट ले जा सकते हो। यदि तुम काफी वर्षों से विश्वासी रहे हो और लंबे समय से मुझसे जुड़े हुए हो, किंतु फिर भी मुझसे दूर हो, तो मैं कहता हूँ कि अवश्य ही तुम प्रायः परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, और तुम्हारे अंत का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल होगा। यदि मेरे साथ कई वर्षों का संबंध न केवल तुम्हें ऐसा मनुष्य बनाने में असफल रहा है जिसमें मानवता और सत्य हो, बल्कि, इससे भी अधिक, उसने तुम्हारे दुष्ट तौर-तरीकों को तुम्हारी प्रकृति में बद्धमूल कर दिया है, और न केवल तुम्हारा अहंकार पहले से दोगुना हो गया है, बल्कि मेरे बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ भी कई गुना बढ़ गई हैं, यहाँ तक कि तुम मुझे अपना छोटा सह-अपराधी मान लेते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हारा रोग अब त्वचा में ही नहीं रहा, बल्कि तुम्हारी हड्डियों तक में घुस गया है। तुम्हारे लिए बस यही शेष बचा है कि तुम अपने अंतिम संस्कार की व्यवस्था किए जाने की प्रतीक्षा करो। तब तुम्हें मुझसे प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है कि मैं तुम्हारा परमेश्वर बनूँ, क्योंकि तुमने मृत्यु के योग्य पाप किया है, एक अक्षम्य पाप किया है। मैं तुम पर दया कर भी दूँ, तो भी स्वर्ग का परमेश्वर तुम्हारा जीवन लेने पर जोर देगा, क्योंकि परमेश्वर के स्वभाव के प्रति तुम्हारा अपराध कोई साधारण समस्या नहीं है, बल्कि बहुत ही गंभीर प्रकृति का है। जब समय आएगा, तो मुझे दोष मत देना कि मैंने तुम्हें पहले नहीं बताया था। मैं फिर से कहता हूँ : जब तुम मसीह—पृथ्वी के परमेश्वर—से एक साधारण मनुष्य के रूप में जुड़ते हो, अर्थात् जब तुम यह मानते हो कि यह परमेश्वर एक व्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम नष्ट हो जाओगे। तुम सबके लिए मेरी यही एकमात्र चेतावनी है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें
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