11. परमेश्वर को परखने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

जब लोग यह नहीं जानते कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है और वे उसे जानते या समझते भी नहीं हैं, और इसलिए वे अक्सर उसके सामने कई अनुचित माँगें रखते हैं, तब यह परमेश्वर को परखना है। जैसे, जब कोई बीमार होता है तो हो सकता है कि वह खुद को ठीक करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे। “मैं इलाज नहीं करवा रहा हूँ—देखते हैं कि परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं करेगा।” इसलिए कुछ समय तक प्रार्थना करने के बाद भी जब परमेश्वर की ओर से कुछ भी होता नहीं दिखता तो ऐसे लोग कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर ने कुछ भी नहीं किया, इसलिए मैं दवाइयाँ लूँगा और देखूँगा कि क्या वह मुझे रोकता है। अगर दवाई मेरे गले में अटक जाती है या मुझसे थोड़ा-सा पानी छलक जाए तो यह मुझे रोकने या दवाइयाँ लेने से दूर रखने का परमेश्वर का तरीका हो सकता है।” इसे ही परीक्षा लेना कहते हैं। या मान लो कि तुम्हें सुसमाचार प्रचार करने को कहा गया है। सामान्य परिस्थिति में हर कोई संगति और विचार विमर्श के जरिये तय कर लेता है कि तुम्हारे कर्तव्य तुमसे क्या माँग करते हैं और तुम्हें क्या करना चाहिए, फिर सही समय पर तुम कार्य करते हो। अगर कार्य करने के दौरान कुछ हो जाता है तो यह परमेश्वर की संप्रभुता है—अगर परमेश्वर तुम्हें रोकता है तो फिर वह ऐसा सक्रिय होकर करेगा। लेकिन, मान लो कि तुम प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं आज सुसमाचार प्रचार करने बाहर जा रहा हूँ। क्या यह तुम्हारे इरादे के अनुरूप है कि मैं बाहर निकलूँ? मैं नहीं जानता कि आज का संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इसे स्वीकार कर सकता है या नहीं, न ही यह जानता हूँ कि तुम इसे कैसे नियंत्रित करने जा रहे हो। मैं आपसे व्यवस्था, मार्गदर्शन और मुझे ये चीजें दिखाने की प्रार्थना करता हूँ।” प्रार्थना करने के बाद तुम वहाँ बिना हिले बैठे रहते हो और फिर कहते हो, “परमेश्वर इस बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? हो सकता है कि मैं उसके वचन पर्याप्त रूप से नहीं पढ़ता, इसलिए वह मुझे ये चीजें नहीं दिखा सकता। अगर ऐसा है तो मैं सीधे निकल जाता हूँ। अगर मैं औंधे मुँह गिरता हूँ तो हो सकता है कि परमेश्वर मुझे जाने से रोकना चाहता है, और अगर सब कुछ सामान्य रूप से होता है और परमेश्वर मुझे नहीं रोकता तो इसका मतलब यह हो सकता है कि परमेश्वर मुझे जाने की अनुमति दे रहा है।” यह एक परीक्षा है। हम इसे परीक्षा क्यों कह रहे हैं? परमेश्वर का कार्य व्यावहारिक है; लोगों के लिए इतना ही ठीक है कि वे अपने कर्तव्य निभा लें, अपने दैनिक जीवन को व्यवस्थित रख लें और सामान्य मानवता के अपने जीवन को इस तरह जी लें कि यह सिद्धांतों के अनुरूप हो। यह परखने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर कैसे कार्य करने जा रहा है या वह क्या मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अपना वास्ता सिर्फ उन्हीं कामों तक रखो जो तुम्हें करने चाहिए; हमेशा ऐसे अतिरिक्त विचार मत रखो जैसे, “क्या परमेश्वर मुझे ऐसा करने दे रहा है या नहीं? अगर मैं ऐसा करता हूँ, तो वह मुझे कैसे संभालेगा? क्या मेरे लिए यह सही है कि मैं इसे इस तरह करूँ?” अगर कोई बात जाहिर तौर पर सही है तो सिर्फ इसे करने से ही वास्ता रखो; इधर-उधर के बारे में मत सोचो। प्रार्थना करना ठीक है, बेशक परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए प्रार्थना करना, कि वह आज के दिन तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन करे, कि वह तुम्हारे आज के कर्तव्य निर्वहन में मार्गदर्शन करे। किसी व्यक्ति के पास आज्ञा मानने वाला दिल और रवैया होना ही काफी है। उदाहरण के लिए, तुम जानते हो कि अपने हाथ से बिजली को छूने से तुम्हें झटका लगेगा और तुम्हारी जान भी जा सकती है। फिर भी तुम यह सोचते हो : “घबराने की कोई बात नहीं है, परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है। मुझे तो बस इसे छूकर आजमाना है, यह देखना है कि क्या परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और परमेश्वर की सुरक्षा कैसी होती है।” फिर तुम इसे अपने हाथ से छूते हो और नतीजे में झटका खाते हो—यह एक परीक्षा है। कुछ चीजें साफ तौर पर गलत होती हैं और इन्हें नहीं करना चाहिए। तब भी अगर तुम परमेश्वर की प्रतिक्रिया देखने के लिए ये चीजें करते हो तो यह एक परीक्षा है। कुछ लोग कहते हैं, “लोगों का बहुत ज्यादा सजना-सँवरना और भारी मेकअप करना परमेश्वर को पसंद नहीं है। तो फिर मैं ऐसा करता हूँ और देखता हूँ कि परमेश्वर से उलाहना पाकर अंदर से कैसा लगता है।” लिहाजा, सारा मेकअप करने के बाद वे आईना देखकर कहते हैं : “हे परमेश्वर, मैं तो जीते-जागते भूत की तरह लग रहा हूँ, लेकिन मुझे यह सिर्फ थोड़ा-सा घिनौना लग रहा है और मैं आईने के सामने खड़ा नहीं हो पा रहा हूँ। इसके अलावा तो और कोई एहसास नहीं हो रहा है—न मुझे परमेश्वर की घृणा महसूस हुई, न मुझे एक बार भी ऐसा लगा कि उसके वचन मुझ पर प्रहार कर रहे हैं और मेरा न्याय कर रहे हैं।” यह कैसा व्यवहार है? (परीक्षा लेने वाला।) अगर तुम कभी-कभी अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतते हो और तुम साफ तौर पर जानते हो कि यह लापरवाही है तो तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि तुम बस पश्चात्ताप कर लो और खुद को बदल लो। लेकिन तुम हमेशा प्रार्थना करते रहते हो, “हे परमेश्वर, मैं लापरवाह हूँ—विनती है कि तुम मुझे अनुशासित कर दो!” तुम्हारा जमीर किस काम का है? अगर तुममें जमीर है तो तुम्हें अपने व्यवहार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम्हें इसे वश में रखना चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना मत करो—यह प्रार्थना एक परीक्षा बन जाएगी। किसी बहुत ही गंभीर चीज को लेकर उसे मजाक बना देना, परीक्षा बना देना, ऐसी बात है जिससे परमेश्वर बेइंतहा नफरत करता है। जब किसी समस्या का सामना होने पर लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसे खोजते हैं तब, और साथ ही परमेश्वर के साथ पेश आने के उनके कुछ रवैयों, माँगों और कार्यशैली में अक्सर कुछ परीक्षाएँ सामने आएँगी। इन परीक्षाओं में मुख्य रूप से क्या-क्या शामिल होता है? यही कि तुम यह देखना चाहोगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है या तुम यह देखना चाहोगे कि परमेश्वर कोई चीज कर सकता है या नहीं। तुम परमेश्वर की परीक्षा लेना चाहोगे; तुम इस मामले का उपयोग यह सत्यापित करने के लिए करना चाहोगे कि परमेश्वर कैसा है, यह सत्यापित करना चाहोगे कि परमेश्वर के कहे कौन-से वचन सही और सटीक हैं, कौन-से सच हो सकते हैं और कौन-से वह पूरे कर सकता है। ये सभी परीक्षाएँ हैं। क्या चीजों को करने के ये तरीके तुम लोग नियमित रूप से प्रकट करते हो? मान लो कि किसी चीज के बारे में तुम यह नहीं जानते कि क्या तुमने यह सही की या क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यहाँ दो तरीके यह पुष्टि कर सकते हैं कि इस मामले में तुमने जो किया वह परीक्षा है या फिर यह सकारात्मक बात है। एक तरीका है सत्य-खोजने वाले और विनम्र हृदय के साथ यह कहना, “मेरे साथ जो चीज हुई उसे मैंने इस तरह संभाला और देखा है, और मेरे इस तरह से संभालने के फलस्वरूप अब यह इस तरह है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि क्या मुझे इसे वास्तव में इसी तरह करना चाहिए था।” इस रवैये के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? यह सत्य खोजने का रवैया है—इसमें कोई परीक्षा नहीं है। मान लो कि तुम कहते हो, “संगति के बाद इस चीज के बारे में हर व्यक्ति मिलकर फैसला करता है।” कोई पूछता है, “इसका प्रभारी कौन है? मुख्य निर्णयकर्ता कौन है?” और तुम कहते हो : “हर व्यक्ति।” तो तुम्हारा इरादा यह होता है : “अगर वे कहते हैं कि यह चीज सिद्धांतों के अनुसार की गई थी तो मैं कहूँगा कि यह मैंने की। अगर वे कहते हैं कि यह चीज सिद्धांतों के अनुसार नहीं की गई तो मैं यह छिपाने से शुरुआत करूँगा कि यह चीज किसने की और फैसला किसका था। इस तरह, अगर वे जोर देते भी रहे और दोष तय करने भी लगे तो वे मुझे दोष नहीं दे पाएँगे, और अगर किसी को अपमानित होना भी पड़ा तो अकेला मैं नहीं होऊँगा।” अगर तुम इस प्रकार के इरादे से बात करते हो तो यह एक परीक्षा है। कोई यह कह सकता है, “परमेश्वर को मनुष्य के सांसारिक चीजों के अनुसरण से घृणा होती है। वह मानवजाति के स्मृति दिवसों और त्योहारों जैसी चीजों से घृणा करता है।” अब जबकि तुम यह जान चुके हो तो जहाँ तक परिस्थितियाँ इजाजत दें, तुम ऐसी चीजों से बचने की भरसक कोशिश कर सकते हो। लेकिन मान लो कि किसी त्योहार पर तुम जानबूझकर सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हो, और ऐसा करते हुए तुम अपने मन में यह इरादा पाल लेते हो : “मैं बस यह देख रहा हूँ कि क्या परमेश्वर इस काम के बदले मुझे अनुशासित करेगा, क्या वह मेरी ओर कोई ध्यान देगा। मैं तो बस यह देख रहा हूँ कि वास्तव में मेरे प्रति उसका रवैया क्या रहता है, वह मुझसे किस हद तक अत्यधिक घृणा करता है। वे कहते हैं कि परमेश्वर इससे बेइंतहा नफरत करता है, वे कहते हैं कि वह पवित्र है और बुराई से बेइंतहा नफरत करता है, इसलिए मैं देखना चाहता हूँ कि बुराई से उसकी बेइंतहा नफरत कैसी दिखती है और वह मुझे कैसे अनुशासित करेगा। जब मैं ये चीजें करता हूँ, तब अगर परमेश्वर मुझे उल्टी-दस्त करने को मजबूर कर दे, मुझे चक्कर आने लगें, मैं बिस्तर से न उठ पाऊँ, तभी ऐसा लगेगा कि परमेश्वर वास्तव में इन चीजों से बेइंतहा नफरत करता है। वह सिर्फ बातें नहीं बनाएगा—तथ्य खुद बोलेंगे।” अगर तुम हमेशा ऐसा नजारा देखने की उम्मीद करते हो तो तुम्हारा कैसा व्यवहार और कैसे इरादे हैं? ये परीक्षा लेने वाले व्यवहार और इरादे हैं। मनुष्य को कभी भी परमेश्वर को परखना नहीं चाहिए। जब तुम परमेश्वर को परखते हो तो वह तुमसे छिप जाता है और तुम्हारी नजरों से अपना चेहरा छिपा लेता है, और तुम्हारी प्रार्थनाएँ बेकार रहती हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “अगर मैं दिल से ईमानदार हूँ तो क्या तब भी नहीं चलेगा?” बिल्कुल, भले ही तुम दिल से सच्चे हो तब भी ऐसा नहीं चलेगा। परमेश्वर लोगों को अपनी परीक्षा नहीं लेने देता; वह बुराई से बेइंतहा नफरत करता है। जब तुम इन दुष्ट विचारों और दृष्टिकोणों को अपनाते हो तो परमेश्वर तुमसे खुद को छिपा लेगा। वह आइंदा तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा, बल्कि तुम्हें दरकिनार कर देगा, और तुम तब तक मूर्खतापूर्ण, गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने वाले काम करते रहोगे जब तक कि तुम्हें यह नहीं दिखा दिया जाता कि तुम्हारी असलियत क्या है। लोगों द्वारा परमेश्वर को परखने से यही दुष्परिणाम निकलता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक)

परीक्षा लेने की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? कौन-से नजरिये या विचार परीक्षा लेने की अवस्था या सार को अभिव्यक्त करते हैं? (अगर मैंने कोई अपराध किया है या कुछ बुरा किया है, तो मैं हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना चाहता हूँ, स्पष्ट उत्तर चाहता हूँ और देखना चाहता हूँ कि मुझे अच्छा परिणाम या गंतव्य मिलेगा या नहीं।) इसका संबंध विचारों से है; इसलिए आम तौर पर जब कोई बोलता या कार्य करता है, या जब वह किसी चीज का सामना करता है, तो उसकी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ परीक्षा लेने वाली होती हैं? अगर किसी ने कोई अपराध किया है और उसे लगता है कि परमेश्वर उसका अपराध याद रख सकता है या उसकी निंदा कर सकता है, और वह खुद अनिश्चित है, नहीं जानता कि परमेश्वर वास्तव में उसकी निंदा करेगा या नहीं, तो वह यह देखने के लिए इसकी परीक्षा लेने का तरीका खोजता है कि परमेश्वर का रवैया वास्तव में क्या है। वह प्रार्थना करने से शुरू करता है, और अगर कोई रोशनी या प्रबुद्धता नहीं मिलती, तो वह अनुसरण के अपने पिछले तरीके पूरी तरह से छोड़ने के बारे में सोचता है। पहले वह चीजें अनमने ढंग से करता था, जहाँ 50% प्रयास कर सकता था वहाँ सिर्फ 30% प्रयास करता था, या जहाँ वह 30% प्रयास कर सकता था वहाँ 10% प्रयास करता था। अब अगर वह 50% प्रयास कर सकता है, तो वह करेगा। वह गंदा या थकाऊ काम करता है जिसे करने से दूसरे लोग बचते हैं, उसे हमेशा दूसरों के सामने करता है और सुनिश्चित करता है कि ज्यादातर भाई-बहन इसे देखें। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह देखना चाहता है कि परमेश्वर इस मामले को कैसे देखता है और क्या उसे उसके अपराध से छुटकारा मिल सकता है। जब कठिनाइयों या ऐसी चीजों से सामना होता है जिन पर ज्यादातर लोग काबू नहीं पा सकते, तो वह देखना चाहता है कि परमेश्वर क्या करेगा, क्या वह उसे प्रबुद्ध कर उसका मार्गदर्शन करेगा। अगर वह परमेश्वर की उपस्थिति और उसका विशेष अनुग्रह महसूस कर सके, तो वह मान लेता है कि परमेश्वर ने उसके अपराध को याद नहीं किया है या उसकी निंदा नहीं की है, जिससे यह साबित होता है कि उसे क्षमा किया जा सकता है। अगर वह इस तरह से खुद को खपाता है और ऐसी कीमत चुकाता है, अगर उसका रवैया काफी बदल जाता है लेकिन फिर भी वह परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं करता, और वह पहले से बिल्कुल कोई स्पष्ट अंतर महसूस नहीं करता, तो यह संभव है कि परमेश्वर ने उसके पिछले अपराध की निंदा की हो और अब वह उसे नहीं चाहता। चूँकि परमेश्वर उसे नहीं चाहता, इसलिए वह भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते समय उतना प्रयास नहीं करेगा। अगर परमेश्वर अभी भी उसे चाहता है, उसकी निंदा नहीं करता, और उसे अभी भी आशीष प्राप्त होने की उम्मीद है, तो वह अपना कर्तव्य निभाने में कुछ ईमानदारी दिखाएगा। क्या ये अभिव्यक्तियाँ और विचार परीक्षा लेने का एक रूप हैं? ...

कुछ लोगों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसके द्वारा मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल के बारे में लगातार कोई ज्ञान या अनुभव नहीं होता। उनमें परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल के बारे में वास्तविक संकल्पना का भी अभाव होता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे इस मामले को लेकर संदेह से भरे होते हैं। हालाँकि अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं में वे यह मानना चाहते हैं कि परमेश्वर मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल करता है, लेकिन उनके पास इसका निर्णायक प्रमाण नहीं होता। नतीजतन, वे अपने हृदय में कुछ चीजों की योजना बना लेते हैं और साथ ही उनका निष्पादन और कार्यान्वयन करना शुरू कर देते हैं। जब वे उन्हें लागू करते हैं, तो लगातार देखते हैं कि क्या परमेश्वर वास्तव में उनके बारे में जानता है, क्या उनके मामले उजागर होंगे, और अगर वे चुप रहते हैं तो क्या कोई उनका पता लगा सकता है या क्या परमेश्वर किसी परिवेश-विशेष के माध्यम से उन्हें प्रकट कर सकता है। बेशक, साधारण लोगों में परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और उसके द्वारा मानव-हृदय की गहराइयों की जाँच-पड़ताल के बारे में कमोबेश कुछ अनिश्चितताएँ हो सकती हैं, लेकिन मसीह-विरोधी सिर्फ अनिश्चित नहीं होते—वे संदेह से भरे होते हैं और साथ ही परमेश्वर से पूरी तरह सतर्क भी होते हैं। इसलिए वे परमेश्वर की परीक्षा लेने के लिए कई नजरिये विकसित करते हैं। चूँकि वे परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल पर संदेह करते हैं, और इससे भी बढ़कर, इस तथ्य से इनकार तक करते हैं कि परमेश्वर उसकी जाँच-पड़ताल करता है, इसलिए वे अक्सर कुछ मामलों के बारे में सोचते हैं। फिर थोड़े डर या किसी अवर्णनीय दहशत की भावना के साथ वे कुछ लोगों को गुमराह करके अकेले में गुप्त रूप से इन विचारों को फैलाते हैं। इस बीच वे लगातार अपने तर्क और विचार थोड़ा-थोड़ा करके उजागर करते रहते हैं। उन्हें उजागर करते हुए वे देखते हैं कि परमेश्वर उनके इस व्यवहार को बाधित करेगा या उजागर। अगर वह उसे उजागर या परिभाषित करता है, तो वे तुरंत पीछे हटकर दूसरा नजरिया अपना लेते हैं। अगर ऐसा लगता है कि किसी को इसके बारे में पता नहीं है और कोई उन्हें समझ नहीं सकता या उनकी असलियत नहीं जान सकता, तो वे अपने दिलों में और भी पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हैं कि उनकी अंतर्दृष्टि सही है और परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान उचित है। उनके विचार में परमेश्वर द्वारा मानव-हृदय की जाँच-पड़ताल मूल रूप से अस्तित्वहीन है। यह किस तरह का नजरिया है? यह परीक्षा लेने का नजरिया है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन)

अतीत में परमेश्वर के घर में एक विनियम था : उन लोगों के बारे में जिन्हें निकाल या हटा दिया गया हो, अगर उन्होंने बाद में सच्चा पश्चात्ताप अभिव्यक्त किया हो और वे परमेश्वर के वचन पढ़ने में लगे रहे हों, सुसमाचार फैलाते रहे हों और परमेश्वर के लिए गवाही देते रहे हों, सच में पश्चात्ताप किया हो तो उन्हें कलीसिया में फिर से प्रवेश दिया जा सकता है। कोई व्यक्ति था जिसने हटाए जाने के बाद ये मानदंड पूरे किए और कलीसिया ने उसे खोजने, उसके साथ संगति करने और उसे यह बताने के लिए किसी को भेजा कि उसे कलीसिया में वापस प्रवेश दे दिया गया है। यह सुनकर वह काफी प्रसन्न हुआ, लेकिन उसने सोचा, “यह स्वीकृति वास्तविक है या इसके पीछे कोई विचार है? क्या परमेश्वर ने वाकई मेरा पश्चात्ताप देखा है? क्या उसने वाकई मुझ पर दया दिखाकर मुझे क्षमा कर दिया है? क्या वाकई मेरे पिछले क्रियाकलाप नजरंदाज कर दिए गए हैं?” उसे इस पर विश्वास नहीं हुआ और उसने सोचा, “भले ही वे मुझे वापस लेना चाहते हों, लेकिन मुझे संयमित रहना चाहिए और तुरंत सहमत नहीं होना चाहिए, मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मानो मैंने निष्कासित होने के बाद इन वर्षों के दौरान बहुत कष्ट सहे हों और मैं बहुत दयनीय रहा हूँ। मुझे थोड़ा संयमित व्यवहार करना चाहिए और वापस प्रवेश मिलने के तुरंत बाद इस बारे में पूछताछ नहीं करनी चाहिए कि मैं कलीसियाई जीवन में कहाँ भाग ले सकता हूँ या मैं कौन-से कर्तव्य निभा सकता हूँ। मैं बहुत उत्साही नहीं दिख सकता। हालाँकि मैं अंदर से बहुत खुश महसूस कर रहा हूँ, फिर भी मुझे शांत रहने और यह देखने की जरूरत है कि परमेश्वर का घर वाकई मुझे वापस चाहता है या मुझे कुछ खास कार्यों में इस्तेमाल करने के लिए सिर्फ कपटी बन रहा है।” इसे मद्देनजर रखते हुए उसने कहा, “अपने निष्कासन के बाद मैंने चिंतन किया और जाना कि मैंने जो गलतियाँ कीं, वे बहुत बड़ी थीं। मैंने परमेश्वर के घर के हितों को जो नुकसान पहुँचाया वह बहुत बड़ा था और मैं कभी उसकी भरपाई नहीं कर सकता। मैं वास्तव में एक दानव और परमेश्वर द्वारा शापित शैतान हूँ। लेकिन मेरा आत्मचिंतन अभी भी अधूरा है। चूँकि परमेश्वर का घर मुझे वापस लेना चाहता है, इसलिए मुझे परमेश्वर के वचन और भी ज्यादा खाने-पीने और आत्मचिंतन कर खुद को जानने की जरूरत है। फिलहाल मैं परमेश्वर के घर लौटने के योग्य नहीं हूँ, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हूँ, अपने भाई-बहनों से मिलने के योग्य नहीं हूँ, और निश्चित रूप से इतना शर्मिंदा हूँ कि परमेश्वर का सामना नहीं कर सकता। मैं कलीसिया में तभी वापस आऊँगा, जब मुझे लगेगा कि मेरा आत्मज्ञान और आत्मचिंतन पर्याप्त है, ताकि हर कोई मुझे मान्यता दे सके।” यह कहते हुए, वह यह सोचकर घबरा भी गया, “मैं यह कहने का सिर्फ दिखावा कर रहा हूँ। अगर अगुआ मुझे कलीसिया में वापस न आने देने पर सहमत हो गए तो? क्या मैं खत्म नहीं हो जाऊँगा?” वास्तव में, वह काफी चिंतित था, लेकिन फिर भी उसे इस तरह से बोलना पड़ा और ऐसा दिखावा करना पड़ा जैसे कि वह कलीसिया में वापस लौटने के लिए बहुत उत्सुक नहीं था। ये चीजें कहने का उसका क्या मतलब था? (वह परीक्षा ले रहा था कि क्या कलीसिया वाकई उसे वापस स्वीकारेगी।) क्या यह जरूरी है? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिसे दानव और शैतान करेंगे? क्या कोई सामान्य व्यक्ति इस तरह से व्यवहार करेगा? (नहीं, वह नहीं करेगा।) सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं करेगा। इतने शानदार अवसर के बावजूद, उसका ऐसा कदम उठा सकना दुष्टता है। कलीसिया में फिर से प्रवेश देना परमेश्वर के प्रेम और दया की अभिव्यक्ति है, उसे अपनी भ्रष्टता और कमियों पर चिंतन कर उन्हें जानना चाहिए और पिछले ऋणों की भरपाई करने के तरीके खोजने चाहिए। अगर कोई अभी भी इस तरह से परमेश्वर की परीक्षा ले सकता है और परमेश्वर की दया को इस तरह से ले सकता है, तो वह वाकई उसकी दया को समझने में विफल है! लोग इस तरह के विचार और नजरिये अपने दुष्ट सार के कारण विकसित कर लेते हैं। अनिवार्य रूप से, जब लोग परमेश्वर की परीक्षा लेते हैं, तो वे सैद्धांतिक रूप से जो कुछ भी अभिव्यक्त और प्रकट करते हैं, वह अन्य चीजों के अलावा, हमेशा परमेश्वर के विचारों और साथ ही लोगों के बारे में उसके विचारों और परिभाषाओं की परीक्षा लेने से संबंधित होता है। अगर लोग सत्य खोजते हैं, तो वे सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य और व्यवहार करते हुए ऐसे अभ्यासों के खिलाफ विद्रोह कर उन्हें छोड़ देंगे। लेकिन मसीह-विरोधी के स्वभाव-सार वाले व्यक्ति न सिर्फ इस तरह के अभ्यास नहीं छोड़ सकते और उन्हें घृणित नहीं पाते, बल्कि ऐसे साधन और तरीके रखने के लिए अक्सर खुद को सराहते भी हैं। वे सोच सकते हैं, “देखो, मैं कितना चतुर हूँ। मैं तुम मूर्ख लोगों की तरह नहीं हूँ, जो सिर्फ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होना और उनका आज्ञापालन करना जानते हैं—मैं तुम लोगों जैसा बिल्कुल नहीं हूँ! मैं इन चीजों का पता लगाने के लिए साधनों और तरीकों का उपयोग करने की कोशिश करता हूँ। अगर मुझे समर्पित होना और आज्ञापालन करना भी पड़े, तो भी मैं चीजों की तह तक जाऊँगा। ऐसा मत सोचो कि तुम मुझसे कुछ भी छिपा सकते हो या मुझे धोखा देकर मूर्ख बना सकते हो।” यह होता है उनका विचार और दृष्टिकोण। मसीह-विरोधी कभी समर्पण, भय या ईमानदारी नहीं दिखाते, और देहधारी परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में वफादारी तो वे बिल्कुल भी नहीं दिखाते।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन)

सबसे ज्यादा दुष्ट स्वभाव कौन-सा है, जिसे लोग परमेश्वर के सामने प्रकट करते हैं? वह है परमेश्वर की परीक्षा लेना। कुछ लोग चिंता करते हैं कि शायद उन्हें अच्छी मंजिल न मिले और शायद उनके परिणाम की गारंटी न हो, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद वे भटक गए थे, उन्होंने कुछ बुरे काम किए थे और कई अपराध किए थे। उन्हें चिंता होती है कि वे नरक में जाएँगे, अपने परिणाम और मंजिल को लेकर वे लगातार डरे रहते हैं। वे लगातार चिंतित रहते हैं और हमेशा सोचते रहते हैं, “मेरा भावी परिणाम और मंजिल अच्छी होगी या बुरी? मैं नीचे नरक में जाऊँगा या ऊपर स्वर्ग में? मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ या सेवाकर्ता? मैं नष्ट हो जाऊँगा या बचाया जाऊँगा? मुझे यह पता लगाना होगा कि परमेश्वर के कौन-से वचन इस बारे में बताते हैं।” वे देखते हैं कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं और वे सब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं और उन्हें वे उत्तर नहीं मिलते जिन्हें वे खोजते हैं, इसलिए वे लगातार सोचते रहते हैं कि और कहाँ पूछताछ की जाए। बाद में जब उन्हें पदोन्नत होने और महत्वपूर्ण भूमिका में रखे जाने का अवसर मिलता है, तो वे यह कहते हुए ऊपर वाले से पता लगाना चाहते हैं : “मेरे बारे में ऊपर वाले की क्या राय है? अगर उसकी राय अनुकूल है, तो इससे साबित होता है कि परमेश्वर ने मेरे द्वारा अतीत में किए गए बुरे काम और अपराध याद नहीं रखे हैं। इससे साबित होता है कि परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा और मुझे अभी भी उम्मीद है।” फिर अपने विचारों का अनुगमन करते हुए वे सीधे कहते हैं, “जहाँ हम हैं, वहाँ अधिकांश भाई-बहन अपने पेशे में बहुत कुशल नहीं हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए बहुत कम समय हुआ है। मैं सबसे अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ। मैं गिरा हूँ और असफल हुआ हूँ, मैंने कुछ अनुभव किए हैं और कुछ सबक भी सीखे हैं। अगर मौका मिले, तो मैं भारी दायित्व उठाने और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने के लिए तैयार हूँ।” वे ये शब्द यह देखने के लिए एक परीक्षा के रूप में इस्तेमाल करते हैं कि क्या ऊपर वाले का उन्हें पदोन्नत करने का कोई इरादा है या ऊपर वाले ने उन्हें त्याग दिया है। असलियत यह है कि वे वास्तव में यह जिम्मेदारी या दायित्व नहीं उठाना चाहते; ये शब्द कहने का उनका उद्देश्य सिर्फ संभावनाओं का पता लगाना और यह देखना होता है कि क्या उनके अभी भी बचाए जाने की उम्मीद है। यह परीक्षा है। परीक्षा के इस नजरिये के पीछे कौन-सा स्वभाव है? यह एक दुष्ट स्वभाव है। चाहे इस नजरिये को कितने भी समय के लिए प्रकट किया जाए, वे इसे कैसे भी करें या इसे कितना भी लागू किया जाए, हर हाल में वे जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह निश्चित रूप से दुष्ट होता है, क्योंकि इसे करने के दौरान उनके मन में कई विचार, आशंकाएँ और चिंताएँ होती हैं। जब वे इस दुष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं, तो वे ऐसा क्या करते हैं जो दिखाता है कि वे मानवता वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और जो यह पुष्टि करता है कि उनमें सिर्फ यह भ्रष्ट स्वभाव है, न कि दुष्ट सार? ऐसी चीजें करने और कहने के बाद जमीर, विवेक, निष्ठा और गरिमा वाले लोग अपने दिलों में बेचैनी और दर्द महसूस करते हैं। वे यह सोचकर संतप्त हो जाते हैं, “मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है; मैं परमेश्वर की परीक्षा कैसे ले सकता हूँ? मैं अभी भी अपनी मंजिल के बारे में कैसे चिंतित रह सकता हूँ और परमेश्वर से कुछ पाने और उसे ठोस जवाब देने को विवश करने के लिए इस तरह के तरीके का उपयोग कैसे कर सकता हूँ? यह बहुत ही घिनौना है!” वे अपने दिलों में बेचैनी महसूस करते हैं, लेकिन कर्म हो चुका होता है और शब्द कहे जा चुके होते हैं—उन्हें वापस नहीं लिया जा सकता। तब वे समझते हैं, “हालाँकि मुझमें थोड़ी सदिच्छा और न्याय की भावना रही हो सकती है, लेकिन मैं अभी भी ऐसी नीच हरकतें कर सकता हूँ; ये एक नीच व्यक्ति के व्यवहार हैं! क्या यह परमेश्वर की परीक्षा लेने का प्रयास नहीं है? क्या यह परमेश्वर से उगाही करना नहीं है? यह वास्तव में नीच और शर्मनाक है!” ऐसी स्थिति में उचित क्रियाविधि क्या है? प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आकर अपने पाप कबूलना या हठपूर्वक अपने ही नजरियों पर अड़े रहना? (प्रार्थना करना और पाप कबूलना।) तो पूरी प्रक्रिया में विचार की कल्पना करने से लेकर कार्रवाई के बिंदु तक और आगे उनके द्वारा प्रार्थना करने और पाप कबूलने तक, कौन-सा चरण भ्रष्ट स्वभाव का सामान्य प्रकाशन है, कौन-सा चरण जमीर का प्रभावी होना है और कौन-सा चरण सत्य को व्यवहार में लाना है? कल्पना से लेकर कार्रवाई तक का चरण दुष्ट स्वभाव द्वारा शासित होता है। तो क्या आत्मनिरीक्षण का चरण उनके जमीर के प्रभाव से शासित नहीं होता? वे यह महसूस करते हुए अपनी जाँच-पड़ताल करना शुरू करते हैं कि उन्होंने जो किया वह गलत था—यह उनके जमीर के प्रभाव से शासित होता है। इसके बाद प्रार्थना और पाप कबूलना होता है, वह भी उनकी निष्ठा, जमीर और चरित्र के प्रभाव से शासित होता है; वे अफसोस, पश्चात्ताप और परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाते हैं और अपनी मानवता और भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन कर उसे भी समझ पाते हैं और उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं जहाँ वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। क्या इसके तीन चरण नहीं हैं? भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से लेकर उनके जमीर के प्रभाव तक और फिर वे जो बुराई कर रहे हैं उसे छोड़ देने, पश्चात्ताप करने, अपनी दैहिक इच्छाओं और विचारों को छोड़ देने, अपने भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने की क्षमता तक—ये वे तीन चरण हैं जिन्हें मानवता और भ्रष्ट स्वभावों वाले सामान्य लोगों को हासिल करना चाहिए। अपने जमीर की जागरूकता और अपनी अपेक्षाकृत अच्छी मानवता के कारण ये लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का अर्थ है कि ऐसे लोगों को उद्धार की आशा है। दूसरे शब्दों में, अच्छी मानवता वाले लोगों के लिए उद्धार की संभावना अपेक्षाकृत ज्यादा होती है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो)

परीक्षा लेना दुष्ट स्वभाव-सार की अपेक्षाकृत स्पष्ट अभिव्यक्ति है। लोग इच्छित जानकारी प्राप्त करने, निश्चितता प्राप्त करने और फिर मन की शांति प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग करते हैं। परीक्षा लेने के कई तरीके हैं, जैसे कि परमेश्वर से बातें उगलवाने के लिए शब्दों का उपयोग करना, उसकी परीक्षा लेने के लिए चीजों का उपयोग करना, अपने मन में चीजों के बारे में सोचना और उन पर विचार करना। ... परमेश्वर के साथ पेश आने के लिए लोग चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करें, अगर उनके मन में इसके बारे में अपराध-बोध होता है और फिर वे इन क्रियाकलापों और स्वभावों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और तुरंत उन्हें बदल सकते हैं, तो फिर समस्या उतनी महत्वपूर्ण नहीं है—यह एक सामान्य भ्रष्ट स्वभाव है। लेकिन अगर कोई लगातार और हठपूर्वक ऐसा कर सकता है, भले ही उसे पता हो कि यह गलत है और परमेश्वर को इससे घृणा है, लेकिन वह इसमें लगा रहता है, कभी इसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता या इसे छोड़ता नहीं, तो यह मसीह-विरोधी का सार है। मसीह-विरोधी का स्वभाव-सार साधारण लोगों से अलग होता है, जिसमें वे कभी आत्मचिंतन नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, बल्कि लगातार और हठपूर्वक परमेश्वर, लोगों के प्रति उसके रवैये, किसी व्यक्ति के बारे में उसके निष्कर्ष और किसी व्यक्ति के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में उसके विचारों और भावों की परीक्षा लेने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं। वे कभी परमेश्वर के इरादे, सत्य और खास तौर से यह नहीं खोजते कि अपने स्वभाव में बदलाव लाने के लिए सत्य के प्रति कैसे समर्पित हों। उनके तमाम क्रियाकलापों के पीछे का उद्देश्य परमेश्वर के विचारों और भावों की जाँच-पड़ताल करना है—यह मसीह-विरोधी है। मसीह-विरोधियों का यह स्वभाव स्पष्ट रूप से दुष्ट होता है। जब वे इन क्रियाकलापों में संलग्न होते हैं और ये अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, तो उनमें अपराध-बोध या पश्चात्ताप का नामोनिशाँ तक नहीं होता। अगर वे खुद को इन चीजों से जोड़ते भी हैं, तो भी वे कोई पश्चात्ताप या रुकने का इरादा नहीं दिखाते, बल्कि तब भी अपने तौर-तरीकों पर कायम रहते हैं। परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार, रवैये और उनके नजरिये से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परमेश्वर को अपना विरोधी मानते हैं। उनके विचारों और दृष्टिकोणों में परमेश्वर को जानने, परमेश्वर से प्रेम करने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानने का कोई विचार या रवैया नहीं होता; वे सिर्फ परमेश्वर से इच्छित जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं और अपने प्रति परमेश्वर का सटीक रवैया और अपने बारे में उसकी परिभाषा सुनिश्चित करने के लिए अपने ही तरीके और साधन इस्तेमाल करते हैं। ज्यादा गंभीर बात यह है कि भले ही वे अपने दृष्टिकोण परमेश्वर के प्रकाशन के वचनों के अनुरूप रखते हों, अगर उन्हें इस बात की थोड़ी-सी भी जानकारी हो कि यह व्यवहार परमेश्वर को घृणास्पद लगता है और किसी व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए, तो भी वे इसे कभी नहीं छोड़ेंगे।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण छह : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग तीन)

यीशु ने उससे कहा, “यह भी लिखा है : ‘तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।’” क्या यीशु द्वारा कहे गए इन वचनों में सत्य है? इनमें निश्चित रूप से सत्य है। ऊपरी तौर पर ये वचन लोगों द्वारा अनुसरण किए जाने के लिए एक आज्ञा हैं, एक सरल वाक्यांश, परंतु फिर भी, मनुष्य और शैतान दोनों ने अक्सर इन शब्दों का उल्लंघन किया है। तो, प्रभु यीशु ने शैतान से कहा, “तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर,” क्योंकि शैतान ने प्रायः ऐसा किया था और इसके लिए पूरा प्रयास किया था। यह कहा जा सकता है कि शैतान ने बेशर्मी और ढिठाई से ऐसा किया था। परमेश्वर से न डरना और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय न रखना शैतान का प्रकृति सार है। यहाँ तक कि जब शैतान परमेश्वर के पास खड़ा था और उसे देख सकता था, तब भी वह परमेश्वर को प्रलोभन देने से बाज नहीं आया। इसलिए प्रभु यीशु ने शैतान से कहा, “तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।” ये वे वचन हैं, जो परमेश्वर ने शैतान से प्रायः कहे हैं। तो क्या इस वाक्यांश को वर्तमान समय में लागू किया जाना उपयुक्त है? (हाँ, क्योंकि हम भी अक्सर परमेश्वर को प्रलोभन देते हैं।) लोग अक्सर परमेश्वर को प्रलोभन क्यों देते हैं? क्या इसका कारण यह है कि लोग भ्रष्ट शैतानी स्वभावों से भरे हुए हैं? (हाँ।) तो क्या शैतान के उपर्युक्त शब्द ऐसे हैं, जिन्हें लोग प्रायः कहते हैं? और लोग इन शब्दों को किन स्थितियों में कहते हैं? कोई यह कह सकता है कि लोग समय और स्थान की परवाह किए बिना ऐसा कहते आ रहे हैं। यह सिद्ध करता है कि लोगों का स्वभाव शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से अलग नहीं है। प्रभु यीशु ने कुछ सरल वचन कहे; वचन, जो सत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं; वचन, जिनकी लोगों को आवश्यकता है। लेकिन इस स्थिति में क्या प्रभु यीशु इस तरह बोल रहा था, जैसे शैतान से बहस कर रहा हो? क्या जो कुछ उसने शैतान से कहा, उसमें टकराव की कोई बात थी? (नहीं।) प्रभु यीशु ने शैतान के प्रलोभन के संबंध में अपने दिल में कैसा महसूस किया? क्या उसने तिरस्कार और घृणा महसूस की? प्रभु यीशु ने तिरस्कार और घृणा महसूस की, फिर भी उसने शैतान से बहस नहीं की, किन्हीं महान सिद्धांतों के बारे में तो उसने बिल्कुल भी बात नहीं की। ऐसा क्यों है? (क्योंकि शैतान हमेशा से ऐसा ही है; वह कभी बदल नहीं सकता।) क्या यह कहा जा सकता है कि शैतान विवेकहीन है? (हाँ।) क्या शैतान मान सकता है कि परमेश्वर सत्य है? शैतान कभी नहीं मानेगा कि परमेश्वर सत्य है और कभी स्वीकार नहीं करेगा कि परमेश्वर सत्य है; यह उसकी प्रकृति है। शैतान के स्वभाव का एक और पहलू है, जो घृणास्पद है। वह क्या है? प्रभु यीशु को प्रलोभित करने के अपने प्रयासों में, शैतान ने सोचा कि भले ही वह असफल हो गया हो, फिर भी वह ऐसा करने का प्रयास करेगा। भले ही उसे दंडित किया जाएगा, फिर भी उसने किसी न किसी प्रकार से कोशिश करने का चयन किया। भले ही ऐसा करने से कुछ लाभ नहीं होगा, फिर भी वह कोशिश करेगा, और अपने प्रयासों में दृढ़ रहते हुए बिल्कुल अंत तक परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा रहेगा। यह किस तरह की प्रकृति है? क्या यह दुष्टता नहीं है?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V

अंत में, मैं तुम लोगों को तीन सलाहें देना चाहूँगा : पहली, परमेश्वर की परीक्षा मत लो। चाहे तुम परमेश्वर के बारे में कितना भी क्यों न समझते हो, चाहे तुम उसके स्वभाव के बारे में कितना भी क्यों न जानते हो, उसकी परीक्षा बिल्कुल मत लो। दूसरी, हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ संघर्ष मत करो। चाहे परमेश्वर तुम्हें किसी भी प्रकार की हैसियत दे या वह तुम्हें किसी भी प्रकार का कार्य सौंपे, चाहे वह तुम्हें किसी भी प्रकार का कर्तव्य करने के लिए बड़ा करे, और चाहे तुमने परमेश्वर के लिए कितना भी व्यय और बलिदान किया हो, उसके साथ हैसियत के लिए प्रतिस्पर्धा बिल्कुल मत करो। तीसरी, परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा मत करो। परमेश्वर तुम्हारे साथ जो कुछ भी करता है, जो भी वह तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, और जो चीज़ें वह तुम पर लाता है, तुम उन्हें समझते या उनके प्रति समर्पित होते हो या नहीं, किंतु परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा बिल्कुल मत करो। यदि तुम इन सलाहों पर चल सकते हो, तो तुम काफी सुरक्षित रहोगे, और तुम परमेश्वर को क्रोधित करने की ओर प्रवृत्त नहीं होगे।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

यद्यपि परमेश्वर के सार का एक हिस्सा प्रेम है, और वह हर एक के प्रति दयावान है, फिर भी लोग उस बात की अनदेखी कर भूल जाते हैं कि उसका सार महिमा भी है। उसके प्रेममय होने का अर्थ यह नहीं है कि लोग खुलकर उसका अपमान कर सकते हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी भावनाएँ नहीं भड़केंगी या कोई प्रतिक्रियाएँ नहीं होंगी। उसमें करुणा होने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से व्यवहार करने का उसका कोई सिद्धांत नहीं है। परमेश्वर सजीव है; सचमुच उसका अस्तित्व है। वह न तो कोई कठपुतली है, न ही कोई वस्तु है। चूँकि उसका अस्तित्व है, इसलिए हमें हर समय सावधानीपूर्वक उसके हृदय की आवाज सुननी चाहिए, उसकी प्रवृत्ति पर ध्यान देना चाहिए, और उसकी भावनाओं को समझना चाहिए। परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए हमें अपनी कल्पनाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, न ही हमें अपने विचार और इच्छाएँ परमेश्वर पर थोपनी चाहिए, जिससे कि परमेश्वर इंसान के साथ इंसानी कल्पनाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार करे। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को क्रोधित कर रहे हो, तुम उसके कोप को बुलावा देते हो, उसकी महिमा को चुनौती देते हो! एक बार जब तुम लोग इस मसले की गंभीरता को समझ लोगे, मैं तुम लोगों से आग्रह करूँगा कि तुम अपने कार्यकलापों में सावधानी और विवेक का उपयोग करो। अपनी बातचीत में सावधान और विवेकशील रहो। साथ ही, तुम लोग परमेश्वर के प्रति व्यवहार में जितना अधिक सावधान और विवेकशील रहोगे, उतना ही बेहतर होगा! अगर तुम्हें परमेश्वर की प्रवृत्ति समझ में न आ रही हो, तो लापरवाही से बात मत करो, अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत बनो, और यूँ ही कोई लेबल न लगा दो। और सबसे महत्वपूर्ण बात, मनमाने ढंग से निष्कर्षों पर मत पहुँचो। बल्कि, तुम्हें प्रतीक्षा और खोज करनी चाहिए; ये कृत्य भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी बात, यदि तुम ऐसा कर सको, और ऐसी प्रवृत्ति अपना सको, तो परमेश्वर तुम्हारी मूर्खता, अज्ञानता, और चीज़ों के पीछे तर्कों की समझ की कमी के लिए तुम्हें दोष नहीं देगा। बल्कि, परमेश्वर को अपमानित करने के प्रति तुम्हारे भय मानने वाले रवैये, उसके इरादों के प्रति तुम्हारे सम्मान और उसके प्रति समर्पण करने की तुम्हारी तत्परता के कारण परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें प्रबुद्धता देगा, या तुम्हारी अपरिपक्वता और अज्ञानता को सहन करेगा। इसके विपरीत, यदि उसके प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति श्रद्धाविहीन होती है—तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना करते हो, मनमाने ढंग से परमेश्वर के विचारों का अनुमान लगाकर उन्हें परिभाषित करते हो—तो परमेश्वर तुम्हें अपराधी ठहराएगा, अनुशासित करेगा, बल्कि दण्ड भी देगा; या वह तुम पर टिप्पणी करेगा। हो सकता है कि इस टिप्पणी में ही तुम्हारा परिणाम शामिल हो। इसलिए, मैं एक बार फिर से इस बात पर जोर देना चाहता हूँ : परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति तुम्हें सावधान और विवेकशील रहना चाहिए। लापरवाही से मत बोलो, और अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत हो। कुछ भी कहने से पहले रुककर सोचो : क्या मेरा यह कृत्य परमेश्वर को क्रोधित करेगा? क्या ऐसा करके मेरे मन में परमेश्वर के प्रति भय है? यहाँ तक कि साधारण मामलों में भी, तुम्हें इन प्रश्नों को समझकर उन पर विचार करना चाहिए। यदि तुम हर चीज में, हर समय, इन सिद्धांतों के अनुसार सही मायने में अभ्यास करो, विशेष रूप से इस तरह की प्रवृत्ति तब अपना सको, जब कोई चीज तुम्हारी समझ में न आए, तो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हें अनुसरण योग्य मार्ग देगा। लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन परमेश्वर सबकुछ स्पष्ट रूप में देख लेता है, और वह तुम्हारे दिखावे का सटीक और उपयुक्त मूल्यांकन प्रदान करेगा। जब तुम अंतिम परीक्षण का अनुभव कर लोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे समस्त व्यवहार को लेकर उससे तुम्हारा परिणाम निर्धारित करेगा। यह परिणाम निस्सन्देह हर एक को आश्वस्त करेगा। मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि तुम लोगों का हर कर्म, हर कार्यकलाप, हर विचार तुम्हारे भाग्य को निर्धारित करता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य समझना होगा, उन्हें परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ने होंगे, परमेश्वर के प्रकाशन के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति जाननी चाहिए और मनुष्य के सार की असलियत समझनी होगी। परमेश्वर के वचन का प्रकाशन मनुष्य की प्रकृति को प्रकट करता है, यह लोगों को सिखाता है कि उनका सार क्या है, और इससे उन्हें अपनी भ्रष्टता का सार समझ में आता है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। शैतान एक उलझी हुई चीज है, और वह जो दुष्‍टतापूर्ण बातें बोलता है, उनकी व्याख्या करना कठिन है। परमेश्वर ने उससे पूछा, “तू कहाँ से आता है?” जिस पर शैतान ने उत्तर दिया, “पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)। उसके उत्तर पर ध्यानपूर्वक विचार करो। वह आ रहा है या जा रहा है? उसका अर्थ समझना कठिन है, इसीलिए मैं कहता हूँ कि ये शब्द उलझे हुए हैं। इन शब्दों के आधार पर, यह देखा जा सकता है कि शैतान भ्रमित है। जब लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाते हैं, तो वे भी भ्रमित हो जाते हैं। उनके किसी भी काम में कोई संयम, कोई मानक और कोई सिद्धांत नहीं रहता। इसलिए कोई भी व्यक्ति आसानी से भटक सकता है। शैतान ने हव्वा को यह कहकर फुसलाया, “तुम उस पेड़ का फल क्यों नहीं खातीं?” इस पर हव्वा ने उत्तर दिया, “परमेश्वर ने कहा है कि उस पेड़ का फल खाने पर हम मर जाएँगे।” तब शैतान ने कहा, “यह कोई जरूरी नहीं कि तुम उस पेड़ का फल खाने पर मर जाओ।” ये शब्‍द हव्वा को ललचाने के इरादे से कहे गए थे। निश्चित रूप से यह कहने के बजाय कि यदि वह उस पेड़ का फल खा लेगी तो वह नहीं मरेगी, उसने बस इतना कहा कि जरूरी नहीं कि वह मर जाए, जिससे वह सोचने लगी, “यदि यह जरूरी नहीं कि मैं मर ही जाऊँ तो मैं इसे खा सकती हूँ!” वह लालच नहीं रोक पाई और फल चख बैठी। इस तरह शैतान ने हव्वा को पाप के लिए फुसलाने का मकसद पूरा कर लिया। उसने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली, क्योंकि उसने उसे फल खाने के लिए मजबूर नहीं किया था। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर शैतानी स्वभाव होता है; प्रत्येक व्‍यक्ति के हृदय में बेशुमार जहर होते हैं जिनसे शैतान परमेश्वर को आजमाता है और मनुष्य को फुसलाता है। कभी-कभी उसकी वाणी शैतान की आवाज और लहजे से युक्त होती है, और उसका इरादा लुभाना और फुसलाना होता है। मनुष्य के विचार और ख्याल शैतान के जहर से भरे हुए हैं और उसकी दुर्गंध फैलाते हैं। कभी-कभी, इंसानों के चेहरे-मोहरे या हरकतों से भी प्रलोभन और फुसलाने की यही दुर्गंध आती है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर मैं इसी तरह अनुसरण करता रहूँ, तो मुझे यह मिलना तय है। सत्य का अनुसरण न करके भी मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकता हूँ। मैं चीजें त्याग कर ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाता हूँ। मुझमें अंत तक डटे रहने की ताकत है। यदि मैंने थोड़ा-सा अपराध किया भी हो तो परमेश्वर मुझ पर दया करेगा, और मुझे नहीं त्यागेगा।” उन्हें यह भी नहीं पता कि वे क्या कह रहे हैं। लोगों के भीतर बहुत सारी भ्रष्ट चीजें हैं—यदि वे सत्य का अनुसरण न करें तो कैसे बदल सकते हैं? जितनी भ्रष्‍टता वे करते हैं, यदि परमेश्वर लोगों की सुरक्षा न करे तो वे किसी भी क्षण पतित होकर परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं। क्‍या तुम्‍हें इस पर विश्‍वास है? भले ही तुम स्वयं को मजबूर करो, फिर भी लक्ष्‍य तक नहीं पहुँच सकते क्योंकि परमेश्वर के कार्य का यह अंतिम चरण विजेताओं का एक समूह तैयार करने का है। क्या ऐसा करना सचमुच उतना आसान है जितना तुम सोचते हो? इस अंतिम परिवर्तन के लिए किसी व्यक्ति को 100 प्रतिशत, बल्कि 80 प्रतिशत भी बदलने की जरूरत नहीं होती, पर कम-से-कम 30 या 40 प्रतिशत तो बदलना पड़ता है। कम-से-कम, तुम्हें अपने भीतर की उन चीजों को खोज निकालकर स्वच्छ करना और बदलना होगा जो परमेश्वर का विरोध करती हैं, जिन्होंने तुम्हारे दिल में गहरी जड़ें जमा ली हैं। तभी तुम्हारा उद्धार हो सकेगा। जब तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार 30% से 40% तक या बेहतर हो कि 60% से 70% तक परिवर्तित हो जाते हो, तभी यह दिखेगा कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है, और तुम अनिवार्य रूप से परमेश्वर के अनुकूल हो। अगली बार जब तुम पर कोई विपत्ति आएगी तो तुम परमेश्वर का विरोध करने या उसके स्वभाव का अपमान करने के जिम्‍मेदार नहीं होंगे। केवल इसी तरीके से तुम्‍हें पूर्ण बनाया जा सकता है और तुम परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्‍त कर सकते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सही मार्ग चुनना परमेश्वर में विश्‍वास का सबसे महत्‍वपूर्ण भाग है

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