22. मनमानी और तानाशाही का समाधान कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
“स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करने” के शाब्दिक अर्थ को देखें तो “स्वेच्छाचारी” का अर्थ है अकेले निर्णय लेना, अंतिम निर्णय लेना; और “तानाशाही” का अर्थ है कि खुद से कोई निर्णय लेना, फिर हर किसी को अलग-अलग राय या बयान देने या यहाँ तक कि सवाल पूछने के अधिकार के बिना उसे लागू कर देना। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का अर्थ है कि किसी स्थिति का सामना करने पर, क्या करना है इस पर निर्णय लेने से पहले वे खुद ही विचार करते और गौर करते हैं। वे बिना किसी और की राय के, चीजों को करने के बारे में पर्दे के पीछे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले लेते हैं; यहाँ तक कि उनके अपने सहकर्मी, सहयोगी या उच्च-स्तरीय अगुआ भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते—स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का यही अर्थ है। चाहे वे जिस स्थिति का सामना करें, जो लोग इस तरह से कार्य करते हैं, वे लगातार अपने ही दिमाग में चीजों पर सोचते रहते हैं और विचार करने में अपना दिमाग खपाते रहते हैं, कभी दूसरों से सलाह नहीं लेते। वे अपने दिमाग में कभी इधर तो कभी उधर की सोचते हैं, लेकिन वे वास्तव में क्या सोच रहे होते हैं, कोई नहीं जानता। कोई भी क्यों नहीं जानता? क्योंकि वे बोलते नहीं हैं। कुछ लोगों को लगेगा कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे बातूनी नहीं हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? यह व्यक्तित्व का मामला नहीं है; यह दूसरों को अंधेरे में रखने के लिए जानबूझकर किया गया चुनाव है। वे अपने हिसाब से काम करना चाहते हैं, उनका अपना गणित होता है। वे क्या हिसाब लगा रहे होते हैं? उनका गणित उनके अपने हितों, रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। वे सोचते हैं कि अपने पक्ष में कैसे काम करें, अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान से कैसे बचाएँ, दूसरों को अपनी असलियत जाने दिए बगैर कैसे काम करें और सबसे महत्वपूर्ण बात, ऊपर वाले से अपने कार्यों को कैसे छिपाएँ, ताकि अंततः किसी को कोई दोष पता न चले बिना और वे फायदा उठा पाएँ। वे सोचते हैं, “अगर मैं क्षणिक चूक कर देता हूँ और कुछ गलत कहता हूँ, तो हर कोई मेरी असलियत जान जाएगा। अगर कोई कुछ ऐसा कह दे जो उसे नहीं कहना चाहिए और ऊपर वाले से मेरी शिकायत कर दे, तो ऊपर वाला मुझे बदल सकता है और मैं अपना रुतबा खो दूँगा। इसके अलावा, अगर मैं हमेशा दूसरों के साथ संगति करता हूँ, तो क्या मेरी सीमित क्षमताएँ सभी को स्पष्ट नहीं हो जाएँगी? क्या दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे?” अब मुझे बताओ, अगर उनकी असलियत सच में पता चल जाए, तो यह अच्छा होगा या बुरा? वास्तव में, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, ईमानदार लोगों के लिए उनकी असलियत का पता चल जाना और कुछ इज्जत या प्रतिष्ठा कम हो जाना बहुत मायने नहीं रखता। वे इन चीजों को लेकर बहुत चिंतित नहीं दिखते; वे इनके बारे में कम ही सचेत दिखते हैं और इन्हें बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देते। लेकिन मसीह-विरोधी इसके बिल्कुल विपरीत होते हैं; वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और वे अपने रुतबे और अपने बारे में दूसरों की समझ और रवैये को जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह
कुछ लोग बिना किसी से बात किए या बिना किसी को बताए, चीजें अकेले करना पसंद करते हैं। वे बस चीजें उसी तरह करते हैं, जैसे करना चाहते हैं, चाहे दूसरे उन्हें कैसे भी देखें। वे सोचते हैं, “मैं अगुआ हूँ, और तुम लोग परमेश्वर के चुने हुए लोग हो, इसलिए तुम लोगों को मैं जो करता हूँ, उसका अनुसरण करने की आवश्यकता है। जैसा मैं कहता हूँ, ठीक वैसा ही करो—यह ऐसे ही होना चाहिए।” जब वे कार्य करते हैं, तो दूसरों को सूचित नहीं करते और उनके कार्यों में पारदर्शिता नहीं होती। वे हमेशा निजी तौर पर मेहनत करते रहते हैं और गुप्त रूप से कार्य करते हैं। बड़े लाल अजगर की तरह ही, जो सत्ता पर अपना एक-पक्षीय एकाधिकार बनाए रखता है, वे हमेशा दूसरों को धोखा देकर नियंत्रित करना चाहते हैं, जिन्हें वे महत्वहीन और बेकार समझते हैं। वे हमेशा दूसरों से चर्चा या संवाद किए बिना मामलों में अपनी ही चलाना चाहते हैं, और वे कभी दूसरे लोगों की राय नहीं माँगते। तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? क्या इसमें सामान्य मानवता है? (नहीं है।) क्या यह बड़े लाल अजगर की प्रकृति नहीं है? बड़ा लाल अजगर तानाशाह है और मनमाने ढंग से कार्य करना पसंद करता है। क्या इस तरह के भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग बड़े लाल अजगर की संतान नहीं हैं? लोगों को खुद को इसी तरह जानना चाहिए। क्या तुम लोग इस तरह कार्य करने में सक्षम हो? (हाँ।) जब तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, तो क्या तुम लोग इसके बारे में जानते हो? अगर जानते हो, तो तुम्हारे लिए अभी भी आशा है, लेकिन अगर तुम नहीं जानते, तो निश्चित ही तुम संकट में हो, और ऐसा है तो, क्या तुम अभिशप्त नहीं हो? जब तुम अपने कार्य करने के इस ढंग से अनजान रहते हो, तो क्या किया जाना चाहिए? (हमें आवश्यकता है कि हमारे भाई-बहन इस बारे में बताएं और हमारी काट-छाँट करें।) अगर तुम पहले दूसरों से कहते हो, “मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो स्वाभाविक रूप से दूसरों की अगुआई करना पसंद करता है, और मैं तुम लोगों को पहले ही बता दे रहा हूँ, इसलिए अगर कभी ऐसा हो, तो इसे लेकर शिकायत मत करना। तुम्हें मुझे झेलना होगा। मुझे पता है कि यह अच्छा नहीं है, और मैं धीरे-धीरे इसे बदलने की कोशिश कर रहा हूँ, इसलिए मुझे आशा है कि तुम लोग मेरे प्रति सहनशील होगे। जब ये चीजें हों तो मेरे साथ निभाओ, मेरे साथ सहयोग करो, और आओ मिलकर सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने का प्रयास करें।” क्या इस तरह से काम करना स्वीकार्य है? (नहीं। यह समझ से परे है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह समझ से परे है? ऐसा कहने वाला सत्य खोजने का इरादा नहीं रखता। वह अच्छी तरह जानता है कि इस तरह से काम करना गलत है, पर वह इसे करने में लगा रहता है और साथ ही दूसरों को विवश भी करता रहता है, उनके सहयोग और समर्थन की माँग भी करता रहता है। उसका सत्य का अभ्यास करने का कोई इरादा या इच्छा नहीं होती। वह जानबूझकर सच के खिलाफ जा रहा होता है। जानबूझकर किया गया उल्लंघन—परमेश्वर इसी से सबसे ज्यादा घृणा करता है। दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों के अलावा कोई ऐसा काम करने में सक्षम नहीं है, और ऐसा करना ठीक वैसा ही है जैसे मसीह-विरोधी करते हैं। जब व्यक्ति जानबूझकर सत्य के विरुद्ध जाता और परमेश्वर का विरोध करता है, तो वह खतरे में होता है। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में
मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते; वे हमेशा एकाकी शासन स्थापित करने की कामना करते हैं। इस अभिव्यक्ति का लक्षण है “एकल।” इसका वर्णन करने के लिए “एकल” शब्द का उपयोग क्यों करें? इस कारण से कि कार्रवाई करने से पहले वे परमेश्वर के समक्ष आ कर प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं, संगति करने के लिए किसी को ढूँढ़ कर उससे यह कहना तो दूर की बात है कि “क्या यह सही मार्ग है? कार्य व्यवस्थाओं में क्या निर्धारित किया गया है? इस प्रकार की चीज को कैसे सँभाला जाए?” वे अपने सहकर्मियों और साझेदारों के साथ कभी विचार-विमर्श नहीं करते, न ही उनके साथ सहमति बनाने का प्रयास करते हैं—वे चीजों पर खुद ही सोच-विचार कर केवल अपने ही दम पर उपाय करते हैं, अपनी ही योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं पर सिर्फ सरसरी नजर डाल कर वे सोचते हैं कि उन्होंने उन्हें समझ लिया है, और फिर वे आँखें मूँद कर काम की व्यवस्था करते हैं—और जब तक दूसरों को इसकी खबर लगती है, तब तक काम की व्यवस्था हो चुकी होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए उनके अपने मुँह से उनके विचारों या राय को पहले से सुन पाना असंभव होता है, क्योंकि वे कभी भी अपने मन में छिपे विचारों या नजरियों के बारे में किसी को नहीं बताते। कोई पूछ सकता है, “क्या सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साझेदार नहीं होते हैं?” नाममात्र के लिए वे किसी को साझेदार बना सकते हैं, लेकिन काम का समय आने पर उनका कोई साझेदार नहीं होता—वे अकेले काम करते हैं। हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक साझेदार होता है, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साथी बनने लायक नहीं हैं, वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी अधिकार अपने हाथों में रखते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे नाकाबिल और निकम्मे जैसे नजर आएँगे। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे कुछ पूछना और उनसे कुछ खोजने का प्रयास करना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्माभिमान बहुत स्पष्ट होता है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ सहयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ सहयोग करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि वे समझते हैं और जानते हैं कि इसे संभालने का उपयुक्त तरीका क्या है, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करेंगे, और सारे फैसले वे खुद लेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों की दखल बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दांव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को संभाल रहे होते हैं, तो यह किसी कर्तव्य का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि खुद को प्रदर्शित करने और दूसरों से अलग दिखने का मौका होता है, और शक्ति का प्रयोग करने का मौका होता है। इसलिए, हालाँकि वे कहते हैं कि वे दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करेंगे और जब कोई मामला आएगा तो वे दूसरों के साथ मिलकर उस पर चर्चा करेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि, अपने दिल की गहराई में, वे अपनी शक्ति या हैसियत छोड़ने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है कि अगर उन्हें सिद्धांतों की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ सहयोग करने की आवश्यकता नहीं है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही करना और पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। क्या यह नजरिया सही है? उन्हें पता नहीं होता कि अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे हैं, वे परमेश्वर के आदेश का कार्यान्वयन नहीं कर पा रहे हैं और वे मात्र मेहनत कर रहे हैं। अपना कर्तव्य करते समय सत्य सिद्धांतों की खोज करने के बजाय, वे अपने विचारों और इरादों के अनुसार सत्ता का उपयोग करते हैं, दिखावा और आडंबर करते हैं। उनका साथी कोई भी हो या वे कुछ भी कर रहे हों, वे कभी चीजों पर चर्चा नहीं करना चाहते, हमेशा मनमर्जी करना और अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। जाहिर है वे सत्ता से खेल रहे होते हैं और हर काम को करने के लिए सत्ता का उपयोग करते हैं। सभी मसीह-विरोधी सत्ता से प्यार करते हैं और जब उनके पास रुतबा होता है, तो वे और भी अधिक सत्ता चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास सत्ता होती है, तब उनकी अपनी हैसियत का उपयोग अपना दिखावा करने और आडंबर करने, ताकि दूसरों से अपना आदर करवा सकें और भीड़ से अलग दिखने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। इस तरह, मसीह-विरोधी सत्ता और हैसियत से चिपके रहते हैं, और अपनी सत्ता को कभी नहीं छोड़ेंगे।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक)
ऊपर से लग सकता है जैसे कुछ मसीह-विरोधियों के सहायक या साझेदार होते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ घटित होने पर दूसरे लोग चाहे जितने भी सही हों, मसीह-विरोधी उनकी बात कभी नहीं सुनते। उस बारे में चर्चा करना या उस पर संगति करना तो दूर, वे उस पर ध्यान भी नहीं देते हैं। वे बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं मानो दूसरे वहाँ हों ही नहीं। जब मसीह-विरोधी दूसरों की बातें सुनते हैं, तो वे महज खानापूर्ति कर रहे होते हैं, या दूसरों के दिखाने के लिए नाटक कर रहे होते हैं। लेकिन अंततः जब अंतिम निर्णय का समय आता है, तो फैसले मसीह-विरोधी ही लेते हैं; किसी दूसरे व्यक्ति के कथन व्यर्थ होते हैं, उनके बिल्कुल भी कोई मायने नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी काम के लिए जिम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कोई भी काम हो, वह और सिर्फ वह है जो उसकी शुरुआत करता है, जो सवाल पूछता है, जो चीजें सुलझाता है, और जो समाधान सुझाता है। और ज्यादातर समय वह अपने साथी को पूरी तरह से अँधेरे में रखता है। उसकी नजर में उसका साथी क्या होता है? उसका सहायक नहीं, बल्कि सिर्फ सजावट का सामान। मसीह-विरोधी की नजर में, उनका साझेदार होता ही नहीं। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी उस पर विचार करता है, और जब वह तय कर लेता कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी सभी को सूचित कर देता है कि उसे कैसे करना है, और किसी को उस पर सवाल नहीं उठाने दिया जाता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? मूल रूप से यह अपनी बात मनवाना, समस्याओं पर किसी और के साथ चर्चा न करना, काम की अकेले जिम्मेदारी लेना और अपने सहयोगियों को सजावटी सामान में बदलना है। वे हमेशा अकेले ही काम करते हैं और कभी किसी के साथ सहयोग नहीं करते। वे अपने काम के बारे में कभी किसी और के साथ चर्चा या संवाद नहीं करते, वे अक्सर अकेले निर्णय लेते हैं और अकेले ही मुद्दों से निपटते हैं, और कई चीजों में, दुसरे लोगों को काम पूरा होने के बाद ही पता चलता है कि चीजें कैसे पूरी हुईं या सँभाली गईं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, “सभी समस्याओं पर हमारे साथ चर्चा होनी चाहिए। तुमने उस व्यक्ति को कब संभाला था? तुमने उसे कैसे संभाला? हमें इसके बारे में कैसे पता नहीं चला?” वे न तो कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही इस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए उनके साथियों का कोई उपयोग नहीं है, और वे सिर्फ सजावट की वस्तुएँ हैं। जब कुछ घटित होता है, तो वे उस पर विचार करते हैं, अपना मन बनाते हैं, और जैसा भी चाहें वैसा ही करते हैं। उनके आसपास चाहे जितने भी लोग हों, ऐसा लगता है मानो वे लोग वहाँ हों ही नहीं। मसीह-विरोधी के लिए वे लोग हवा की तरह अदृश्य होते हैं। इसे देखते हुए, क्या दूसरों के साथ उसकी साझेदारी का कोई असली पहलू भी है? बिल्कुल नहीं, वह बस बेमन से काम करता है और एक भूमिका निभाता है। दूसरे उससे कहते हैं, “जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तो तुम बाकी सबके साथ सहभागिता क्यों नहीं करते?” वह उत्तर देता है, “वे क्या जानते हैं? मैं टीम-अगुआ हूँ, निर्णय मुझे लेना है।” दूसरे कहते हैं, “और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?” वह जवाब देता है, “मैंने उनसे कहा था, उनकी कोई राय नहीं थी।” वह दूसरे लोगों की कोई राय न होने या उनके खुद सोचने में सक्षम न होने का उपयोग इस तथ्य को ढकने के बहाने के रूप में करता है कि वह खुद को ऐसे दिखा रहा है मानो वह अपने आप में एक कानून हो। और इसके बाद थोड़ा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं किया जाता। ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य स्वीकारना असंभव होगा। मसीह-विरोधी की प्रकृति के साथ यह एक समस्या है।
“सहयोग” शब्द की व्याख्या और उसका अभ्यास कैसे किया जाए? (चीजें सामने आने पर उन पर विचार-विमर्श करके।) हाँ, इसका अभ्यास करने का यह एक तरीका है। इसके अलावा क्या? (अपनी कमजोरियों की दूसरों की खूबियों से पूर्ति करना, एक-दूसरे की निगरानी करना।) यह पूरी तरह से सटीक है; इस तरह से अभ्यास करना सामंजस्य में सहयोग करना है। क्या और भी कुछ है? चीजों के घटित होने पर दूसरे की राय माँगना—क्या यह सहयोग नहीं है? (बिल्कुल है।) यदि एक व्यक्ति अपनी, और दूसरा व्यक्ति अपनी संगति करता है, और फिर अंत में, वे बस पहले व्यक्ति की संगति को मान लेते हैं, तो फिर खानापूर्ति क्यों करनी? यह सहयोग नहीं है—यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और इससे सहयोग के नतीजे नहीं मिलते। यदि तुम मशीन गन की तरह धड़ाधड़ बोलते ही जाते हो, और जो दूसरे बोलना चाहते हैं उन्हें मौका नहीं देते, और अपने सभी विचार बता देने के बाद भी दूसरों की बातें नहीं सुनते हो, तो क्या यह विचार-विमर्श है? क्या यह संगति है? यह खानापूर्ति करना है—यह सहयोग नहीं है। तो फिर सहयोग क्या है? यह तब होता है जब अपने विचार और फैसले बता देने के बाद तुम दूसरों की राय और विचार पूछ सको, फिर अपने और उनके वक्तव्यों और दृष्टिकोणों की परस्पर तुलना कर सको, कुछ लोग मिलकर इन पर अपनी समझ व्यक्त कर सकें, और सिद्धांतों को खोज सकें, और इस तरह से एक सामान्य समझ पर पहुँचकर अभ्यास का सही मार्ग तय कर सकें। विचार-विमर्श करने और संगति करने का यही अर्थ होता है—“सहयोग” का यही अर्थ होता है। अगुआओं के तौर पर कुछ लोग कुछ मामलों को गहराई से नहीं समझ पाते, लेकिन अपने विकल्प खत्म हो जाने तक वे दूसरों से विचार-विमर्श नहीं करते। फिर वे समूह से कहते हैं, “मैं इस मामले को निरंकुशता से नहीं सँभाल सकता; मुझे सभी के साथ सामंजस्य में सहयोग करने की जरूरत है। मैं तुम सब लोगों को इस बारे में अपनी राय व्यक्त कर उस पर विचार-विमर्श करने दूँगा, ताकि यह तय कर सकें कि हमारे लिए क्या करना सही है।” सभी के बोल लेने और अपनी पूरी बात कहने के बाद वे अगुआ से पूछते हैं कि वह इस बारे में क्या सोचता है। वह कहता है, “सभी लोग जो चाहते हैं, वही मैं भी चाहता हूँ—मैं भी यही सोच रहा था। मैंने शुरू से ही यही करने की योजना बनाई थी, और इस विचार-विमर्श से सर्वसम्मति सुनिश्चित हो गई है।” क्या यह एक खरी टिप्पणी है? इसमें एक धब्बा है। वह मामले को बिल्कुल नहीं समझ पाता, और उसकी बातों में लोगों को गुमराह करने और उनसे छल करने का इरादा छिपा हुआ है—यह इस आशय से है कि लोग उसका सम्मान करें। उसका सबकी राय पूछना केवल औपचारिकता होती है, इस मतलब से होता है कि लोगों से कहलवाना है कि वह तानाशाह या निरंकुश नहीं है। उस लेबल से बचने के लिए वह चीजों को छिपाने के लिए यह तरीका इस्तेमाल करता है। तथ्य यह है कि जब हर कोई बात कर रहा होता है, तो वह बिल्कुल भी नहीं सुनता, और वह उनकी बातों को बिल्कुल आत्मसात नहीं करता है। वह ऐसी ईमानदारी भी नहीं दिखाता कि सभी लोगों को बोलने दे। ऊपर से तो लगता है कि वह सभी को संगति और विचार-विमर्श करने दे रहा है, लेकिन वास्तविकता में वह सिर्फ लोगों को बात करने दे रहा है, ताकि उसे वह तरीका मिल जाए जो उसके इरादों के अनुरूप हो। और एक बार जब वह किसी काम को करने के लिए उपयुक्त तरीका तय कर लेता है, तो वह लोगों को यह मानने को मजबूर कर देगा कि सही हो या गलत, वे उसके इरादे को स्वीकार करें, और सब यह सोचने लगें कि उसका तरीका सही है, और सभी यही इरादा रखते हैं। अंत में, वह इसे बलपूर्वक कार्यान्वित कर देता है। क्या इसे तुम सहयोग कहोगे? नहीं—तो फिर तुम इसे क्या कहोगे? वह तानाशाही कर रहा है। चाहे वह सही हो या गलत, वह खुद ही एकल और अंतिम फैसला लेना चाहता है। इसके अलावा, जब कुछ घटित होता है और वह उसे नहीं समझ पाता, तो वह पहले बाकी सबको बोलने देता है। उनके बोल लेने के बाद वह उनके दृष्टिकोणों को संक्षेप में दोहराता है, और उनके भीतर वह तरीका ढूँढ़ता है जो उसे पसंद हो और उसे उपयुक्त लगे, और फिर सभी से उसे स्वीकार करवाता है। वह सहयोग का दिखावा करता है, और परिणामस्वरूप वह अभी भी जैसा चाहे वैसा ही करता है—अभी भी वही वह व्यक्ति है जिसका निर्णय ही एकल और अंतिम होता है। वह सबकी बातों में त्रुटियाँ ढूँढ़ता है और उनकी कमियाँ निकालता है, टिप्पणी करता है, माहौल बनाता है, और फिर सारी चीजों को एक पूर्ण, सही वक्तव्य में संश्लेषित कर देता है जिसके साथ वह अपना फैसला लेता है, और सबको दिखाता है कि वह दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ है। बाहर से देखने पर, ऐसा लगता है कि उसने सभी लोगों के संदेश सुने हैं, और वह सभी को बोलने देता है। हालाँकि तथ्य यह है कि अंत में केवल वही अकेला फैसला लेता है। वह फैसला वास्तव में सभी की अंतर्दृष्टियों और दृष्टिकोणों का उसका निकाला हुआ निचोड़ होता है, जिसे उसने थोड़े ज्यादा पूर्ण और सही ढंग से प्रस्तुत किया है। कुछ लोग इस बात को समझ नहीं सकते, इसलिए सोचते हैं कि वही अधिक श्रेष्ठ है। उसकी ओर से ऐसे कार्यकलाप का चरित्र क्या होता है? क्या यह अत्यधिक सयानापन नहीं है? वह सभी के संदेशों का सारांश बना कर उन्हें अपना बता देता है, ताकि लोग उसकी आराधना करें और उसकी आज्ञा मानें; और अंत में, सब लोग उसी की इच्छा के मुताबिक कार्य करें। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? यह अहंकार और आत्मतुष्टता है, तानाशाही है—वह सबका श्रेय खुद ले लेता है। ऐसे लोग दूसरों के साथ सहयोग में बहुत अधिक धूर्त, बड़े अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, और अधिक समय मिलने पर लोग इसे समझ जाएँगे।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक)
“स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, दूसरों के साथ कभी संगति न करना और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करना”—मसीह विरोधियों का यह व्यवहार मुख्य रूप से क्या दर्शाता है? उनका स्वभाव दुष्ट और क्रूरतापूर्ण होता है, और उनके पास दूसरों को नियंत्रित करने की असाधारण रूप से प्रबल इच्छा होती है, जो सामान्य मानवीय तर्क-शक्ति की सीमाओं से परे होती है। इसके अतिरिक्त, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उनकी समझ या दृष्टिकोण और रवैया क्या होता है? यह उन लोगों से किस तरह अलग होता है जो सचमुच अपना कर्तव्य निभाते हैं? जो लोग सचमुच अपना कर्तव्य निभाते हैं, वे अपने काम के लिए सिद्धांतों की तलाश करते हैं, जो एक बुनियादी आवश्यकता है। लेकिन मसीह-विरोधी अपने द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य को कैसे समझते हैं? उनके कर्तव्य के निर्वहन के माध्यम से कौन से स्वभाव और सार प्रकट होते हैं? वे एक ऊँचे पद पर आकर अपने से नीचे लोगों को नीचा दिखाते हैं। एक बार जब उन्हें अगुआई करने के लिए चुना जाता है, तो वे खुद को रुतबे और पहचान वाले व्यक्ति के रूप में देखना शुरू कर देते हैं। वे अपने कर्तव्य को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते। एक निश्चित पद प्राप्त करने पर उन्हें लगता है कि उनका रुतबा महत्वपूर्ण है, उनकी सत्ता महान है, और उनकी पहचान अद्वितीय है, जिससे उन्हें अपने ऊँचे पद से दूसरों को नीचा दिखाने की अनुमति मिल जाती हैं। साथ ही, उन्हें लगता है कि वे आदेश जारी कर सकते हैं और अपने विचारों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, और उन्हें ऐसा करने को लेकर कोई संदेह भी नहीं होना चाहिए। उन्हें लगता है कि वे अधिकार को लेकर अपनी लालसा पूरी करने, दूसरों पर शासन करने और सत्ता के साथ अगुआई करने की अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने के लिए कर्तव्य निभाने के अवसर का उपयोग कर सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि उन्हें लगता है कि आखिरकार उनके पास निर्विरोध रूप से अपना अधिकार जमाने का मौका मौजूद है। कुछ लोग कहते हैं : “मसीह विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना, और कभी भी दूसरों के साथ संगति नहीं करना होती हैं। हालाँकि हमारे अगुआ में भी मसीह-विरोधियों का स्वभाव और प्रकाशन होता है, फिर भी वे अक्सर हमारे साथ संगति करते हैं!” क्या इसका मतलब यह है कि वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? मसीह-विरोधी कभी-कभी दिखावा कर सकते हैं; प्रत्येक के साथ संगति करने और प्रत्येक के विचार समझने और जानने के बाद—यह पहचान करने के बाद कि कौन उनके पक्ष में है और कौन नहीं—वे उन्हें वर्गीकृत करते हैं। भविष्य के मामलों में वे केवल उन लोगों के साथ संवाद करते हैं जिनके उनके साथ अच्छे संबंध हैं और जो उनके साथ संगत हैं। जो लोग उनके साथ तालमेल नहीं रखते उन्हें अक्सर अधिकांश मामलों के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, और वे उनसे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें छीन भी सकते हैं। क्या तुम लोगों ने कभी इस तरह से काम किया है, स्वेच्छाचारी और तानाशाह होकर, दूसरों के साथ कभी संगति नहीं की है? स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना निश्चित रूप से होता है, लेकिन दूसरों के साथ कभी संगति न करना जरूरी नहीं है; कभी-कभी तुम संगति कर सकते हो। हालाँकि, संगति करने के बाद भी चीजें वैसे ही होती हैं जैसा तुमने कहा। कुछ लोग सोचते हैं : “हमारी संगति के बावजूद, मैंने वास्तव में बहुत पहले ही एक योजना तय कर ली है। मैं तुम्हारे साथ बस औपचारिकता के नाते संगति करता हूँ, बस तुम्हें यह बताने के लिए कि मैं जो करता हूँ उसमें मेरे अपने सिद्धांत हैं। क्या तुम्हें लगता है कि मुझे तुम्हारे बारे में अंदाजा नहीं है? अंत में, तुम्हें अभी भी मेरी बात सुननी होगी और मेरे रास्ते पर चलना होगा।” वास्तव में, उन्होंने बहुत पहले ही अपने दिल में फैसला कर लिया होता है। वे मानते हैं, “मैं अपनी बातों से लोगों से जो चाहे मनवा सकता हूँ और किसी भी तर्क को अपने पक्ष में मोड़ सकता हूँ; कोई भी मुझसे बहस में जीत नहीं सकता, इसलिए स्वाभाविक रूप से लोग मेरी अगुआई का अनुसरण करेंगे।” वे बहुत पहले ही अपनी गणना कर चुके होते हैं। क्या इस तरह की स्थिति मौजूद होती है? स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कोई ऐसा व्यवहार नहीं है जिसका खुलासा कभी-कभार अचानक होता हो; यह एक निश्चित स्वभाव से नियंत्रित होता है। हो सकता है कि उनके बोलने या कार्य करने के तरीके से यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह जैसा न लगे, लेकिन उनके स्वभाव और उनके कार्यकलापों की प्रकृति से, वे वास्तव में स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं। वे औपचारिकताओं से गुजरते हैं और दूसरों की राय “सुनते हैं,” दूसरों को बोलने देते हैं, उन्हें हालात के विवरणों से अवगत कराते हैं, चर्चा करते हैं कि परमेश्वर के वचन की आवश्यकता क्या है—लेकिन वे दूसरों को अपने साथ आम सहमति तक पहुँचने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए एक खास शब्दाडंबर या वाक्यांश का उपयोग करते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? सब कुछ उनकी योजना के अनुसार आगे बढ़ता जाता है। यह उनका धूर्त पहलू है; इसे दूसरों को उनकी बात मानने के लिए मजबूर करना भी कहते हैं, यह एक तरह की “सौम्य” बाध्यता होती है।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह
मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचार और तानाशाही की एक और अभिव्यक्ति क्या होती है? वे कभी भी भाई-बहनों के साथ सत्य की संगति नहीं करते, न ही वे लोगों की असल समस्याओं का समाधान करते हैं। इसके बजाय, वे लोगों को उपदेश देने के लिए केवल शब्द और सिद्धांतों का भाषण देते हैं, और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर भी करते हैं। अब ऊपरवाले और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण के बारे में क्या? यह धोखे और कपट के अलावा और कुछ नहीं होता। कलीसिया के भीतर के मुद्दों के बावजूद वे कभी भी ऊपरवाले को कुछ भी नहीं बताते। वे जो भी करते हैं, उसके लिए कभी भी ऊपरवाले से नहीं पूछते। ऐसा लगता है कि उनके पास कोई भी मुद्दा नहीं है जिसके लिए ऊपरवाले से संगति या मार्गदर्शन की आवश्यकता हो—वे जो कुछ भी करते हैं वह चोरी-छिपे और गुप्त होता है, और पर्दे के पीछे होता है। इसे छलपूर्ण हेरफेर कहा जाता है, जहाँ वे अपनी चलाना चाहते हैं और निर्णय लेने वाले बनना चाहते हैं। हालाँकि, कभी-कभी वे स्वांग भी करते हैं, ऊपरवाले से पूछताछ करने के लिए तुच्छ मामले सामने लाते हैं, ऐसे दिखाते हैं मानो वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं, जिससे ऊपरवाले को यह गलतफहमी हो जाती है कि वे हर चीज में अत्यंत सावधानी से सत्य की तलाश करते हैं। वास्तव में, वे किसी भी महत्वपूर्ण मामले पर मार्गदर्शन नहीं माँगते, एकतरफा निर्णय लेते हैं और ऊपरवाले को अँधेरे में रखते हैं। यदि कोई समस्या आती है, तो वे मुश्किल से ही इसकी रिपोर्ट करते हैं, उन्हें डर होता है कि इससे उनकी सत्ता, रुतबा या प्रतिष्ठा प्रभावित हो सकते हैं। मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह तरीके से काम करते हैं; वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं। सीधे कहें तो इस व्यवहार की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ व्यक्तिगत प्रबंधन में संलग्न होना; अपना प्रभाव, व्यक्तिगत गुट और संबंध विकसित करना; अपने स्वयं के उपक्रमों में लगे रहना हैं; और फिर वे जो चाहे करते रहते हैं, वे अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और पारदर्शिता के बिना कार्य करते हैं। मसीह-विरोधियों की दूसरों से अपने आगे समर्पण कराने की इच्छा और चाहत विशेष रूप से प्रबल होती है; वे लोगों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी आज्ञा का पालन करें जैसे एक शिकारी अपने कुत्ते को अपनी आज्ञा मानने के लिए कहता है, सही-गलत का कोई विवेक नहीं होने देता, पूर्ण रूप से अनुपालन और अधीनता पर जोर देता है।
मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचार और तानाशाही की एक और अभिव्यक्ति निम्नलिखित परिदृश्य में देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी खास कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी है, और यदि उच्चस्तरीय अगुआ और कार्यकर्ता उस कलीसिया के काम के बारे में जानने और उसमें हस्तक्षेप करने का इरादा रखते हैं, तो क्या यह मसीह-विरोधी सहमत होगा? बिल्कुल नहीं। वह कलीसिया को किस हद तक नियंत्रित करता है? एक अभेद्य किले की तरह, जिसमें न तो सुई जा सकती है और न पानी अंदर रिस सकता है, वह किसी और को शामिल होने या पूछताछ करने की अनुमति नहीं देता। जब उसे पता चलता है कि अगुआ और कार्यकर्ता काम के बारे में जानने के लिए आ रहे हैं, तो वह भाई-बहनों से कहता है, “मुझे नहीं पता कि इन लोगों के आने का क्या उद्देश्य है। वे हमारे कलीसिया की वास्तविक स्थिति को नहीं समझते। यदि उन्होंने हस्तक्षेप किया, तो वे हमारे कलीसिया का काम बाधित कर सकते हैं।” इस तरह वह भाई-बहनों को गुमराह करता है। एक बार जब अगुआ और कार्यकर्ता आ जाते हैं, तो वह भाई-बहनों को उनसे संपर्क करने से रोकने के लिए विभिन्न कारण और बहाने ढूँढ़ता है, जबकि वह अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पाखंडपूर्ण तरीके से मनोरंजन करता है, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में उन्हें एक जगह अलग-थलग करके रखता है; लेकिन वास्तव में, यह उन्हें भाई-बहनों से मिलने और उनसे हालात के बारे में जानने से रोकने के लिए होता है। जब अगुआ और कार्यकर्ता कार्य की स्थिति के बारे में पूछते हैं, तो मसीह-विरोधी झूठी छवि पेश करके उन्हें धोखा देने में लग जाता है; वह अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देता है और अपने से नीचे के लोगों से सत्य छिपाता है, अपने बयानों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, और उन्हें धोखा देने के लिए कार्य की प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। जब अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के भाई-बहनों से मिलने का सुझाव देते हैं, तो वह जवाब देता है, “मैंने कोई व्यवस्था नहीं की है! आपने आने से पहले मुझे सूचित नहीं किया। अगर आपने किया होता, तो मैं कुछ भाई-बहनों को आपसे मिलवाने की व्यवस्था कर देता। लेकिन वर्तमान शत्रुतापूर्ण माहौल को देखते हुए सुरक्षा कारणों से यह बेहतर है कि आप लोग भाई-बहनों से न मिलें।” हालाँकि उसके शब्द उचित लगते हैं, लेकिन एक समझदार व्यक्ति इस मुद्दे को पहचान सकता है : “वह नहीं चाहता कि अगुआ और कार्यकर्ता भाई-बहनों से मिलें क्योंकि उसे उजागर होने का डर होता है, उसे डर होता है कि उसके काम में खामियाँ और विचलन बेनकाब हो जाएँगे।” मसीह-विरोधी कलीसिया के भाई-बहनों को कसकर नियंत्रित करता है। यदि अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार नहीं हैं, तो वे आसानी से मसीह-विरोधी द्वारा धोखा खा सकते हैं और मूर्ख बनाए जा सकते हैं। कलीसिया के भाई-बहनों की वास्तविक स्थिति, उनकी अनसुलझी रही कठिनाइयाँ, क्या ऊपर वाले की संगति और उपदेश और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें भाई-बहनों को समय पर दिए जाते हैं, कलीसिया की विभिन्न कार्य परियोजनाएँ कैसे आगे बढ़ रही हैं, क्या कोई विचलन या समस्याएँ हैं—ये सभी बातें अगुआ और कार्यकर्ता नहीं जान पाएँगे। भाई-बहन परमेश्वर के घर में किसी भी नई कार्य व्यवस्था से भी अनजान होते हैं; इस प्रकार, मसीह-विरोधी कलीसिया को पूरी तरह से नियंत्रित करता है, सत्ता पर एकाधिकार जमाए रखता है और मामलों में अंतिम निर्णय लेता रहता है। कलीसिया के भाई-बहनों को उच्चस्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क करने का कोई अवसर नहीं मिलता, और तथ्यात्मक सत्य को न जानने से वे मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह और नियंत्रित होते रहते हैं। मसीह-विरोधी चाहे जो भी बोले, इन निरीक्षक अगुआओं और कार्यकर्ताओं में विवेक की कमी होती है और वे अभी भी सोच रहे होते हैं कि मसीह-विरोधी अच्छा काम कर रहा है, वे उस पर पूरा भरोसा करते हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मसीह-विरोधी की देखभाल में सौंपने के समान है। यदि मसीह-विरोधी के धोखे के दौरान अगुआ और कार्यकर्ता समझने में असमर्थ होते हैं, गैर-जिम्मेदार होते हैं, और नहीं जानते कि इससे कैसे निपटें, तो क्या यह कलीसिया के काम में बाधा डालना नहीं है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना नहीं है? ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता क्या झूठे अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं? मसीह-विरोधी द्वारा नियंत्रित कलीसिया के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हस्तक्षेप करना चाहिए और पूछताछ करनी चाहिए, और उन्हें मसीह-विरोधी को तुरंत सँभालना और उससे छुटकारा पाना चाहिए—इसमें कोई दो राय नहीं है। अगर ऐसे झूठे अगुआ हैं जो वास्तविक कार्य नहीं करते और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी को अनदेखा करते हैं, तो चुने हुए लोगों को इन झूठे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उजागर करना चाहिए, उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, उन्हें उनके पदों से हटाना चाहिए और उनकी जगह अच्छे अगुआओं को लाना चाहिए। लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी के मुद्दे को पूरी तरह से हल करने का यही एकमात्र तरीका है। कुछ लोग कह सकते हैं, “हो सकता है कि ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता खराब काबिलियत वाले और विवेकहीन थे, यही वजह है कि वे मसीह-विरोधी के मुद्दे को सँभालने और हल करने में विफल रहे। वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं; क्या उन्हें एक और मौका नहीं दिया जाना चाहिए?” ऐसे भ्रमित अगुआओं को और कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए। अगर उन्हें और मौका दिया जाता है, तो वे केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान ही पहुँचाएँगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं; उनमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है, और वे अपने कार्यकलापों में सिद्धांतहीन हैं—वे घृणित लोग हैं जिन्हें हटा दिया जाना चाहिए!
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह
आज एक पहलू में, हमने मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचारी और तानाशाह व्यवहार की अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण किया। दूसरे पहलू में, इन अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण करके सभी को इससे अवगत कराया जाता है कि भले ही तुम मसीह-विरोधी नहीं हो, लेकिन ऐसी अभिव्यक्तियों का होना तुम्हें मसीह-विरोधियों के गुणों से जोड़ता है। क्या स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति होती है? बिल्कुल नहीं; स्पष्ट रूप से, यह एक भ्रष्ट स्वभाव का प्रदर्शन है। चाहे तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा हो या तुम कितने भी कर्तव्य निभा सकते हो, अगर तुम दूसरों के साथ संगति करना सीख सकते हो, तो तुम सत्य के सिद्धांतों को कायम रख रहे हो, जो एक न्यूनतम आवश्यकता है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि दूसरों के साथ संगति करना सीखना सिद्धांतों को कायम रखने के बराबर होता है? अगर तुम संगति करना सीख सकते हो, तो यह साबित होता है कि तुम अपने रुतबे को कमाई की चीज नहीं मानते या इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेते। चाहे तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा क्यों न हो, तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम्हारे कार्यकलाप तुम्हारे कर्तव्य के पालन के लिए किए जाते हैं, रुतबे के लिए नहीं। साथ ही, समस्याओं का सामना करते समय यदि तुम संगति करना सीख पाते हो और, चाहे वह साधारण भाई-बहनों के साथ हो या जिनके साथ तुम सहयोग करते हो, तुम उनके साथ खोज करने और संगति करने में सक्षम होते हो, तो इससे क्या साबित होता है? यह दर्शाता है कि तुममें सत्य की खोज करने और उसके प्रति समर्पित होने का रवैया है, जो सबसे पहले परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये को प्रतिबिंबित करता है। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी होती है, और अपने काम में सत्य की तलाश करना वह मार्ग है जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। जहाँ तक दूसरों की तुम्हारे निर्णयों पर प्रतिक्रिया का सवाल है, वे समर्पित हो पाते हैं या नहीं या कैसे समर्पित होते हैं, यह उनका मामला है; लेकिन तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभा सकते हो या नहीं और मानकों को पूरा कर सकते हो या नहीं, यह तुम्हारा मामला है। तुम्हें कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों को समझना होगा; यह किसी व्यक्ति के प्रति समर्पित होने के बारे में नहीं है बल्कि सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पित होने की बात है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम सत्य सिद्धांतों को समझते हो और सभी के साथ संगति करने के माध्यम से एक आम सहमति पर पहुँच जाते हो जो सभी के लिए उपयुक्त होती है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो अड़ियल हैं और परेशानी खड़ी करना चाहते हैं, तो ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए? इस मामले में अल्पसंख्यकों को बहुमत का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि अधिकांश लोग आम सहमति पर पहुँच चुके होते हैं, तो वे परेशानी खड़ी करने क्यों सामने आते हैं? क्या वे जानबूझकर विनाश करने की कोशिश कर रहे हैं? वे अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं ताकि हर कोई उन्हें समझ सके, और अगर हर व्यक्ति कहता है कि उनकी राय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और टिकाऊ नहीं है, तो उन्हें अपने दृष्टिकोण को त्याग देना चाहिए और उन पर अड़े रहना छोड़ देना चाहिए। इस मामले से निपटने का सिद्धांत क्या है? व्यक्ति को सही का समर्थन करना चाहिए और दूसरों को गलत का पालन करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। समझे?
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह
किसी व्यक्ति ने अपने कर्तव्य का समुचित निर्वहन किया है कि नहीं, यह निर्धारित करने का मानक क्या है? यदि कर्तव्य निर्वहन का मार्ग सही है, दिशा सही है और इरादा सही है; यदि शुरुआत सही है और सिद्धांत सही हैं—यदि ये सभी पहलू सही हैं तो किसी ने जो कर्तव्य निभाया है वह समुचित है। बहुत से लोग इसे सैद्धांतिक रूप से तो समझते हैं, लेकिन जब उनके साथ वास्तव में कुछ घटित होता है तो वे भ्रमित हो जाते हैं। इसको संक्षेप में समझाने के लिए मैं तुम लोगों को एक सिद्धांत बताता हूँ : परिस्थितियों का सामना करते समय मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य मत करो। तुम मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य क्यों नहीं कर सकते? पहली बात, इस तरह से कार्य करना कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। दूसरी बात, कर्तव्य तुम्हारा निजी मामला नहीं है; तुम इसका निर्वहन अपने लिए नहीं कर रहे हो, तुम अपना खुद का उद्यम नहीं चला रहे हो, और यह तुम्हारा निजी व्यवसाय नहीं है। परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, तुम अपने खुद के उपक्रम में भाग नहीं ले रहे हो; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, “यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।” यह पहली बात है जो लोगों को समझ लेनी चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी मामला मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यान्वित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और अपने निजी मामलों में स्पष्ट अंतर कर लेते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए।) बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहनों को खोजना चाहिए जो सत्य को समझते हों; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। कर्तव्य तुम्हारा अपना व्यक्तिगत मामला नहीं होता है; मामला चाहे बड़ा हो या छोटा, परमेश्वर के घर के मामले किसी के निजी मामले नहीं होते। अगर मामला कर्तव्य से जुड़ा है, तो यह तुम्हारा निजी मामला नहीं है, यह तुम्हारा अपना मामला नहीं है—इसका संबंध सत्य से है, इसका संबंध सिद्धांत से है। तो पहला काम तुम लोगों को क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और सिद्धांत खोजना चाहिए। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो पहले सिद्धांत खोजो; यदि तुम्हें सत्य की समझ पहले से है, तो सिद्धांतों की पहचान करना आसान होगा। यदि तुम सिद्धांतों को नहीं समझते हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक तरीका है : तुम उन लोगों के साथ संगति कर सकते हो जो सिद्धांतों को समझते हैं। हमेशा यह मानकर मत चलो कि तुम सब कुछ समझते हो और हमेशा सही हो; यह गलतियाँ करने का एक आसान तरीका है। यह किस प्रकार का स्वभाव है जब तुम्हीं हमेशा निर्णायक बात सुनाना चाहते हो? यह अहंकार और आत्मतुष्टि का स्वभाव है, यह मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य करना है। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं कॉलेज तक पढ़ा हूँ, मैं तुम लोगों से अधिक सुसंस्कृत हूँ, मेरे पास समझने की क्षमता है, तुम सभी लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है और तुम लोग सत्य को नहीं समझते हो, इसलिए मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे तुम्हें गौर से सुनना चाहिए। अकेला मैं ही निर्णय ले सकता हूँ!” यह कैसा दृष्टिकोण है? यदि तुम्हारा इस प्रकार का दृष्टिकोण है, तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे; तुम कभी भी अपना कर्तव्य निर्वहन अच्छे से नहीं करोगे। जब तुम सौहार्दपूर्ण सहयोग के बिना हमेशा निर्णायक बात सुनाने वाला व्यक्ति बनना चाहते हो तो तुम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हो? इस तरह से अपने कर्तव्य निभाने से तुम निश्चित रूप से मानक पर खरे नहीं उतरोगे। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? तुम हमेशा दूसरों को विवश कर अपनी बात सुनाना चाहते हो; लेकिन किसी और की बात तुम नहीं मानते हो। यह पूर्वाग्रह और जिद है, यह अहंकार और आत्मतुष्टि भी है। इस तरीके से तुम न केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाओगे, बल्कि तुम दूसरों को भी कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने से रोकोगे। यह अहंकारी स्वभाव का दुष्परिणाम है। ... कुछ लोगों का स्वभाव अहंकारी और आत्मतुष्टि वाला होता है; वे सत्य पर संगति करने के इच्छुक नहीं होते हैं और हमेशा निर्णायक बात सुनाना चाहते हैं। क्या कोई इतना अहंकारी और आत्मतुष्ट व्यक्ति दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण सहयोग कर सकता है? परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में सौहार्दपूर्ण सहयोग करें, ताकि उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण सीखने में मदद मिल सके, और उनके भ्रष्ट स्वभाव दूर किए जा सकें, जिससे कर्तव्य का समुचित निर्वहन प्राप्त हो सके। दूसरों के साथ सहयोग करने से इंकार करना और मनमाने और एकतरफा ढंग से कार्य करना, हर किसी को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करना—क्या अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा ऐसा रवैया होना चाहिए? अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति तुम्हारे रवैये का संबंध तुम्हारे जीवन प्रवेश से है। परमेश्वर इस बात से वास्ता नहीं रखता कि तुम्हारे साथ हर दिन क्या होता है, तुम कितना काम करते हो, कितनी मेहनत करते हो—वह सिर्फ यह देखता है कि इन चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है। और तुम इन चीजों को जिस रवैये और तरीके से करते हो, उसका संबंध किससे है? इसका संबंध तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने या न करने के साथ ही तुम्हारे जीवन-प्रवेश से भी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन-प्रवेश को देखता है, तुम जिस मार्ग पर चलते हो, उसे देखता है। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हो, तुम जीवन-प्रवेश कर चुके हो, तो तुम कर्तव्य निभाते समय दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग कर सकोगे और अपना कर्तव्य समुचित रूप से पूरा कर लोगे। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते हुए अगर तुम यह अकड़ दिखाते हो कि तुम्हारे पास पूँजी है, तुम अपने काम को समझते हो और अनुभवी हो, तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होकर किसी और से ज्यादा सत्य का अनुसरण करते हो, और फिर यह सोचते हो कि इन कारणों से तुममें अंतिम निर्णय लेने की योग्यता है और तुम किसी दूसरे के साथ कुछ भी चर्चा नहीं करते, हमेशा कानून अपने हाथ में लिए फिरते हो, और अपना खुद का उद्यम चलाते हो, और हमेशा यह चाहते हो कि “बहार में अकेले फूल तुम ही खिलो,” तो क्या तुम जीवन-प्रवेश के मार्ग पर चल रहे हो? नहीं—यह रुतबे के पीछे भागना है, यह पौलुस की राह पर चलना है, यह जीवन-प्रवेश का मार्ग नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?
अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें आने वाली कठिनाइयों से कैसे निपटना चाहिए? किसी समस्या को हल करने और आम सहमति पर पहुँचने का सबसे अच्छा तरीका है कि सभी साथ मिलकर सत्य खोजें। अगर तुम्हें सिद्धांतों की समझ होगी, तो यह भी पता होगा कि आगे क्या करना है। यह समस्याएँ हल करने का बेहतरीन तरीका है। अगर तुम किसी समस्या को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, बल्कि केवल अपनी व्यक्तिगत धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर कार्य करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। इसमें और अविश्वासियों के समाज या शैतान की दुनिया में काम करने में क्या अंतर है? परमेश्वर के घर में सत्य और परमेश्वर का शासन होता है। चाहे कोई भी समस्या सामने आए, उसे हल करने के लिए सत्य खोजना ही चाहिए। चाहे कितनी भी अलग-अलग राय हों या उनमें आपस में कितने ही मतभेद क्यों न हों, उन सभी को सामने लाकर संगति की जानी चाहिए। फिर आम सहमति होने के बाद ही सिद्धांतों के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए। इस तरह तुम न केवल समस्या का समाधान कर सकते हो, बल्कि तुम सत्य का अभ्यास करके अपना कर्तव्य भी ठीक से पूरा कर सकते हो। तुम समस्या हल करने की प्रक्रिया के दौरान सामंजस्यपूर्ण सहयोग भी प्राप्त कर सकते हो। अगर अपना कर्तव्य निभाने वाले सभी लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो उनके लिए सत्य को स्वीकारना और उसके आगे समर्पण करना आसान होता है; लेकिन अगर वे अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होता, भले ही लोग उस पर संगति करें। ऐसे लोग भी हैं जो सत्य को नहीं समझते, फिर भी हमेशा यही चाहते हैं कि दूसरे उनकी बात सुनें। ऐसे लोग केवल अपना कर्तव्य निभाने वाले दूसरे लोगों को परेशान ही करते हैं। यही समस्या की जड़ है, और अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए इसे सुलझाया जाना जरूरी है। अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा अहंकार दिखाता है या मनमर्जी करता है, हमेशा खुद ही फैसले लेता है, हर काम लापरवाही से और अपनी मर्जी से करता है, दूसरों के साथ सहयोग या चीजों पर चर्चा नहीं करता, और सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजता—तो यह अपने कर्तव्य के प्रति कैसा रवैया है? क्या इस तरह अपना कर्तव्य ठीक से पूरा किया जा सकता है? अगर ऐसा व्यक्ति कभी काट-छाँट को नहीं स्वीकारता, सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता, और अभी भी बिना किसी पश्चात्ताप या बदलाव के, बेतरतीब ढंग से और मनमर्जी से, बस अपने तरीके से काम करता रहता है—तो यह केवल रवैये की समस्या नहीं है, बल्कि उसकी मानवता और चरित्र की समस्या है। यह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता नहीं है। क्या बिना मानवता वाला कोई अपना कर्तव्य ठीक से पूरा कर सकता है? जाहिर है कि नहीं। अगर अपना कर्तव्य निभाते हुए कोई व्यक्ति सभी प्रकार के घृणित काम करता है और कलीसिया के कार्य में बाधा डालता है, तो वह एक बुरा व्यक्ति है। ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं होते। उनके कर्तव्य निर्वहन से केवल गड़बड़ी और नुकसान ही होता है, वे काम सँभालते कम और बिगाड़ते ज्यादा हैं, इसलिए उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन से अयोग्य बताकर कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए। इसीलिए अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने की क्षमता केवल व्यक्ति की काबिलियत पर निर्भर नहीं करती, बल्कि मुख्य रूप से अपने कर्तव्य के प्रति उसके रवैये, उसके चरित्र, उसकी मानवता अच्छी है या बुरी, और क्या वे सत्य स्वीकारने में सक्षम हैं, इस पर निर्भर करती है। ये मूल मुद्दे हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग
यह जानना आवश्यक है कि जब लोगों को अपने कर्तव्य के दौरान दूसरों के साथ सहयोग करने में समस्याएँ आएँ, तो वे इसे कैसे सँभालें। उन्हें सँभालने का सिद्धांत क्या है? क्या प्रभाव हासिल किया जाना चाहिए? सभी के साथ सद्भाव से काम करना सीखें, लोगों के साथ सत्य, परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के अनुसार बातचीत करें, न कि भावनाओं या उतावलेपन से। इस तरह, क्या कलीसिया में सत्य का बोलबाला न होगा? अगर सत्य का बोलबाला होगा, तो क्या सभी चीजें उचित और न्यायपूर्ण तरीके से नहीं संभाली जाएँगी? क्या तुम्हें नहीं लगता कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग सभी के लिए फायदेमंद होता है? (हाँ, बिल्कुल।) इस तरह से काम करना तुम लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है। सबसे पहली बात, कर्तव्यों का पालन करते समय, यह तुम लोगों के लिए सकारात्मक रूप से शिक्षाप्रद और मूल्यवान होता है। इसके अलावा, यह तुम्हें गलतियाँ करने, व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने और मसीह-विरोधी रास्ते पर चलने से बचाता है। क्या तुम लोग मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से डरते हो? (हाँ।) क्या डर अपने आप में उपयोगी है? नहीं—अकेले डर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने से डरना एक सामान्य बात है। यह दिखाता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, सत्य के लिए प्रयास करने और उसका अनुसरण करने को तैयार है। यदि तुम्हारे मन में भय है, तो तुम्हें सत्य की खोज कर उसके अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ना चाहिए। तुम्हें इसकी शुरुआत लोगों के साथ सद्भावपूर्वक सहयोग करना सीखने से करनी चाहिए। यदि कोई समस्या आए, तो उसे संगति और चर्चा से हल करो, ताकि सभी को सिद्धांतों की जानकारी हो, साथ ही उसके समाधान के बारे में विशिष्ट तर्क और कार्यक्रम का पता चल सके। क्या यह तुम्हें अकेले ही फैसले लेने से नहीं रोकता है? साथ ही, अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल है, तो तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल पाने में सक्षम होगे, पर तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी को स्वीकार करना भी सीखना होगा, जिसके लिए तुममें सहिष्णुता और स्वीकृति होनी जरूरी है। अगर तुम किसी को तुम्हारे काम की निगरानी करते, निरीक्षण करते, या बिना तुम्हारी जानकारी के जाँच करते देखते हो, और अगर तुम गुस्से में तमतमा जाते हो, उस व्यक्ति से दुश्मन की तरह पेश आते हो, उससे घृणा करते हो, और उस पर वार भी कर बैठते हो, उसे विश्वासघाती की तरह देखते हो, उसके वहाँ न रहने की कामना करते हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह अत्यंत दुष्टतापूर्ण नहीं है? इसमें और एक राक्षस राजा में क्या फर्क है? क्या यह लोगों से उचित ढंग से पेश आना है? अगर तुम सही रास्ते पर चलते हो और सही काम करते हो, तो तुम्हें लोगों की जाँच से डरने की क्या जरूरत है? अगर तुम डरे हुए हो, तो यह दिखाता है कि तुम्हारे दिल में कोई चोर है। अगर तुम अपने दिल में जानते हो कि कुछ समस्या है, तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। इसी में समझदारी है। अगर तुम जानते हो कि तुम्हारे साथ कुछ समस्या है, पर तुम किसी को तुम्हारी निगरानी, तुम्हारे काम के निरीक्षण या तुम्हारी समस्या की छानबीन करने देना नहीं चाहते, तब तुम बहुत ज्यादा अनुचित हो रहे हो, तुम परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर रहे हो, और इस मामले में, तुम्हारी समस्या और भी गंभीर है। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने भाँप लिया कि तुम एक कुकर्मी या छद्म-विश्वासी हो, तो नतीजे और भी बड़ी मुसीबत वाले होंगे। इसलिए जो लोग दूसरों की निगरानी, जाँच और निरीक्षण को स्वीकार कर सकते हैं, वे सबसे समझदार लोग होते हैं, उनमें सहिष्णुता और सामान्य मानवता होती है। जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और खुद को निरंतर जाँच के अधीन रखना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चल पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम कोई काम खुद ही करने या खुद ही फैसला लेने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या तुम्हारे जाने बगैर ही तुम्हें सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है? हाँ, यह सही है—यही तुम्हारी सुरक्षा है। इसलिए तुम्हें हमेशा अपने भाई-बहनों या अपने आस-पास के लोगों से बचकर नहीं रहना चाहिए। दूसरों को तुम्हें समझने न देकर या तुम कौन हो यह न जानने देकर हमेशा खुद को छिपाने और ढँकने की कोशिश मत करो। अगर तुम्हारा दिल हमेशा दूसरों से अपनी रक्षा करता रहेगा, तो इसका असर तुम्हारी सत्य की खोज पर पड़ेगा, और तुम पवित्र आत्मा के कार्य के साथ ही पूर्ण किए जाने के कई अवसरों को आसानी से गँवा दोगे।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग
अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ताकत से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ताकत का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर अपनी सारी ताकत लगाना, अपनी संपूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। अगर तुम्हारे पास समझने-बूझने की योग्यता है और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों को बताना चाहिए। मिल-जुलकर सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम हमेशा सब-कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, यदि तुम हमेशा बड़े कार्य अकेले करना चाहते हो, यदि तुम हमेशा यह चाहते हो कि ध्यान तुम पर केंद्रित हो, दूसरों पर नहीं, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उसे सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो। यदि तुम्हारे पास कोई खयाल या विचार है, तो उसे दूसरों को बताओ; इसे स्वयं तक न रखो या रोके मत रहो—यदि तुम्हारे पास सुझाव हैं, तो उन्हें पेश करो; जिसका भी विचार सत्य के अनुरूप हो, उसे स्वीकार किया जाना और उसका पालन किया जाना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम सद्भाव में सहयोग प्राप्त कर लोगे। अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने का यही अर्थ है। अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, न ही अत्यधिक कार्य करने की जरूरत है, या “खिलने वाला एकमात्र फूल” या सबसे अलग सोचने वाला बनने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय तुम्हें सीखना है कि दूसरों के साथ मिल-जुलकर कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करनी हैं और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी सामर्थ्य और रोशनी है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। कभी-कभी तुम एक ही वाक्य से किसी समस्या का समाधान कर सकते हो और सभी को लाभान्वित कर सकते हो; कभी-कभी सत्य के एक ही कथन पर तुम्हारी संगति के बाद हर किसी के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, और वह एक-साथ मिलकर काम करने में सक्षम होता है, और सभी एक समान लक्ष्य के लिए प्रयास करते हैं, और समान विचार और राय रखते हैं, और इसलिए काम विशेष रूप से प्रभावी होता है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि किसी को याद ही न रहे कि यह भूमिका तुमने निभाई है, और शायद तुम्हें भी ऐसा महसूस न हो मानो तुमने कोई बहुत अधिक प्रयास किए हों, लेकिन परमेश्वर देखेगा कि तुम वह इंसान हो जो सत्य का अभ्यास करता है, जो सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। तुम्हारे ऐसा करने पर परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। इसे कहते हैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ, वास्तव में उन सभी को आसानी से हल किया जा सकता है। जब तक तुम एक ईमानदार व्यक्ति बने रहते हो जिसका दिल परमेश्वर की ओर झुका हुआ है, और सत्य खोज करने में सक्षम हो, तब तक ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे हल नहीं किया जा सकता। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। अगर कोई ऐसा है जो सत्य समझता है या सत्य के अनुरूप बोलता है, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसकी बात माननी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें ऐसी चीजें नहीं करनी चाहिए जो बाधा डालती या कमजोर करती हों, और न ही मनमर्जी से काम करना या फैसले लेना चाहिए। इस तरह से तुम कोई बुराई नहीं करोगे। तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे उद्यम तुम करो या सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है। यही तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हारे मन में यह समझ होनी चाहिए। और इसलिए, चाहे कितने भी लोग अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभा रहे हों या वे कैसी भी समस्याओं का सामना कर रहे हों, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे इस तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग
संबंधित वीडियो
हास्य-नाटिका “काट-छाँट किया जाना स्वीकार करने का परिवर्तन”
संबंधित अनुभवात्मक गवाहियाँ
अपने तानाशाही तरीकों का त्याग
मनमानी से मुझे नुकसान पहुँचा